बस अब और नहीं: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

family story in hindi

जहां पर सवेरा हो-भाग 1 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

रमनड्राइंग रूम में बैठा लेनिन की पुस्तक ‘राज्य और क्रांति’ पढ़ रहा था. तभी दरवाजे पर आहट हुई. उस ने सोचा कि शायद कानों को धोखा हुआ हो. सुबह के टाइम कौन हो सकता है. कोई और्डर भी नहीं दिया था. सभी फ्लैट्स आपस में हलकी सी दीवार से जुड़े हुए थे. वह पढ़ने में ही मग्न रहा.

दोबारा आहट हुई. बिजली इन दिनों बहुत आंखमिचौली खेल रही थी, इसलिए डोर बेल नहीं बज रही थी.

‘‘रमन, देखो कौन है. मैं बाथ लेने जा रही हूं. बड़ी चिपचिप हो रही है. इस लाइट ने भी बहुत परेशान कर दिया है,’’ बालकनी से कपड़े ले कर बाथरूम की ओर जाती हुई जयश्री बोली.

रमन पहले दरवाजा खोल कर जाली के अंदर से ही पूछता है, ‘‘कौन?’’

गले में गमछामफलर लपेटे 2 लड़के जाली के दरवाजे में मुंह घुसाए खड़े थे. मुंह में पान या  गुटका होने का अंदेशा. बोलने के साथ ही महक आ रही थी और कभीकभी छींटे भी. रमन को इन चीजों से बड़ी नफरत थी. हर साल 31 मई को कालेज की ओर से तंबाकू के खिलाफ अभियान छेड़ा जाता था, जिस का प्रतिनिधित्व रमन और उस के दोस्त ही करते.

‘‘आप लोग?’’

‘‘ले साले, बता भी दे अब अपने जीजा को कि हम कौन हैं,’’ पहला दूसरे से बोला.

‘‘अबे पहले अपना नाम बता दे. पता चला कि बिना बात के कोई दूसरा पिट गया,’’ दूसरा थोड़ी बेशर्मी से बोला.

रमन जाली का दरवाजा खोल कर बाहर चला गया. आसपास रहने वाले लोगों को सचेत करने के इरादे से थोड़ा जोर से बोला. हालांकि सभी फ्लैट्स के दरवाजे अंदर से बंद थे. शहर की संस्कृति यही थी. सब को अपनी प्राइवेसी प्यारी. दूसरों के मसले में दखल देना अच्छा भी नहीं माना जाता.

‘‘भाई आप लोग कौन हैं? यहां क्यों

आए हैं?’’

‘‘कहां छिपा कर रखा है उसे?’’

तभी जयश्री भी नहा कर बाहर आ गई.

‘‘रमन कहां हो? कौन आया है?’’ कहते हुए वह दरवाजे तक पहुंची.

‘‘जयश्री, तुम अंदर ही रुको. मैं अभी

आता हूं.’’

बाहर आए दोनों लोग जयश्री को देख भी लेते हैं और नाम से भी पहचान लेते हैं.

‘‘बस यार, अब कुछ नहीं पूछना. कन्फर्म है,’’ उन में से एक ने कहा.

फिर रमन की ओर देखते हुए बोले, ‘‘ठीक है फिर मिलते हैं.’’

रमन ने उन से आने का मकसद पूछना

चाहा पर वे कुछ नहीं बोले. रमन अंदर आ गया. वह थोड़ा परेशान सा लगा. सम झ नहीं पा रहा था कि ये कौन लोग थे और इस तरह धमकी देने

का क्या मकसद था. उसे जयश्री की चिंता भी सताने लगी.

‘‘रमन कौन थे ये लोग? कुछ तो बताओ?’’

‘‘अरे, मैं कुछ नहीं जानता. उन्होंने अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया, न मेरे बारे में कुछ पूछा. हां, तुम्हें देख कर पूरी तरह कन्फर्म हो गया जरूर कहा और दोबारा आने की बात कही है.’’

शाम को मार्केट जाते समय उस ने सोसाइटी के एकमात्र गार्ड से इस बात को लेकर एतराज़ भी जताया कि बिना फोन किए किसी को भी ऊपर आने की अनुमति न दी जाए. लेकिन यह एक खुली सोसाइटी थी. लोगों ने मिलजुल कर एक गार्ड रखा था. वह काफी समय से पैसे बढ़ाने की मांग पर अड़ा हुआ था. मांग पूरी ना होने पर अकसर गायब रहता.

उस दिन सबकुछ सामान्य रहा. अगले दिन शाम को 3-4 नवयुवकों ने सोसाइटी में प्रवेश किया. उन्हें गेट के पास गार्ड मिला पर उसे अपनी बातों की चाशनी में लपेट लिया. बातों से जब वह काबू में नहीं आया तो उसे शराब औफर की. गार्ड को भला और क्या चाहिए था. उस ने उन्हें ऐंट्री दे दी और खुद गायब हो गया.

फ्लैट नंबर 2027 पर डोर बेल बजी. जयश्री दरवाजे पर पहुंची. पीप होल से बाहर

देख कर थोड़ा घबरा गई.

‘‘रमन, दरवाजे पर दस्तक हो रही है. देखो तो कुछ लोग खड़े हैं.’’

‘‘फिर से?’’ शायद रमन भी थोड़ा घबरा गया.

दरवाजे पर जा कर पूरी ताकत से चिल्लाया, ‘‘कौन हैं आप लोग? क्यों परेशान कर रहे हैं हमें?’’

‘‘दरवाजा खोलो.’’

रमन दरवाजा खोल घर बाहर चला गया.

‘‘क्या नाम है तेरा और यह जो लड़की साथ में रहती है कौन है?’’

‘‘रमन कुमार नाम है मेरा और यह मेरी मित्र है.’’

तभी रमन ने एक जोर का मुक्का अपनी छाती पर महसूस किया.

‘‘मित्र है… मित्रता का मतलब पता है तु झे? बड़ा आया लड़की को मित्र बताने वाला. अपनी जातऔकात पता है तु झे?’’

बाहर बहस बढ़ती जा रही थी और अंदर जयश्री बड़ी दुविधा और घबराहट महसूस कर रही थी. उस के एक हाथ में फोन था. वह कभी पुलिस का हैल्पलाइन नंबर सलैक्ट करती? फिर बैक कर देती. कैरियर बनाने के दिन हैं. अगर किसी कानूनी पचड़े में फंस गए तो म झधार में रहने वाली बात हो जाएगी. वह बाहर जाना चाहती थी, लेकिन रमन ने उसे इशारे से अंदर ही रहने को कहा.

रमन को 2-4 घूंसे और जड़ कर वे लोग धमकी देते हुए चले गए. जातेजाते उसे जातिसूचक शब्दों से भी संबोधित करते गए. रमन खुद को संभालता हुआ अंदर आ गया.

जयश्री ने उसे सहारा दे कर बैठाया.

‘‘कौन हो सकते हैं रमन ये लोग? तुम कहो तो मैं पुलिस में शिकायत करूं?’’

फिर सहसा उसे रमन की चोट का ध्यान आ गया, ‘‘तुम्हें ज्यादा चोट तो नहीं लगी? डाक्टर के पास चलें?’’

‘‘नहीं मैं ठीक हूं.’’

जयश्री ने घबरा कर दरवाजा अच्छी तरह बंद कर दिया. यहां तक कि पीप होल में भी एक टेप चिपका देती है. फिर रमन से बैडरूम में चलने का आग्रह किया. बाहर के कमरे में अब उसे डर सताने लगा था. फिर बैडरूम की बालकनी में जा कर देखा तो 3-4 लोग गेट के पास खड़े दिखाई दिए और गेटकीपर से हंसहंस कर बातें कर रहे थे. उस ने सारे परदे अच्छी तरह लगा दिए. अब उस का खाना बनाने का बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था.

‘‘रमन क्या खाओगे? बाहर से और्डर कर रही हूं.’’

‘‘कुछ भी मंगा लो. कोई खास चौइस नहीं.’’

‘‘तो घर में ही रखा कुछ रैडीमेड खा लेते हैं? और्डर वाले को बुलाने में भी डर लग रहा है.’’

छाती पर लातघूंसे पड़ने से चोट तो रमन को जरूर लगी थी पर वह जयश्री का मन रखने के लिए खुद को ठीक बताने की कोशिश कर रहा था. अपमान की जो मार पड़ी थी उस ने तन से ज्यादा मन को आहत किया था.

जयश्री भी रातभर सोचती रही कि ये आतंक फैलाने वाले लोग कौन होंगे और इन्हें इन से क्या शिकायत होगी? बिलकुल अप्रत्याशित घटना थी यह. कालेज के दौरान भी किसी से उन का कोई  झगड़ा नहीं था.

जहां पर सवेरा हो-भाग 3 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

दोनों ही यंत्रणा और दुख  झेल रहे थे. कभी विद्रोही तो कभी हताश हो उठते. जीवन

के कुरूप यथार्थ का सामना कर रहे थे दोनों. कुछ दिन पहले वाली घटना से भी वे बहुत डर गए थे.

‘‘यहां रहना खतरे से खाली नहीं. कहीं और बसते हैं.’’

‘‘दूसरा ठिकाना ढूंढ़ लेंगे, लेकिन अभी कुछ दिन तो यहीं रहना होगा. महीनेभर का किराया दिया है. फिर फ्लैट खाली करने से पहले 1 महीने का नोटिस भी जरूरी है.’’

‘‘जयश्री ऐसे में किराए की फिक्र नहीं की जाती. हमें तुरंत नया ठिकाना ढूंढ़ना होगा.’’

मानवतावादी दृष्टिकोण के अभाव में मुख्यधारा से अलग किया तबका कितना दुख  झेलता है. यह फ्लैट उन के लिए कई मामलों में एक सुरक्षित स्थान था. हजारों, लाखों फ्लैट के मालिक खुद वहां नहीं रहते और जातिधर्म के नाम पर किराएदारों की तहकीकात भी नहीं करते. उन्हें तो बस पैसा चाहिए और अपना घर सलामत. लेकिन रातदिन गुंडों के साए में जीना मुश्किल था. क्या पता फिर कभी आ धमकें… इसलिए औनलाइन घर की तलाश शुरू हो गई.

कुछ ही दिनों में दोनों ने फिर घर बदल लिया. इस बार सोसाइटी में न जा कर आबादी वाले एरिया में किसी घर में खाली सिंगल रूम सैट को अपना ठिकाना बनाया. वैरिफिकेशन, एडवांस पेमैंट और सिक्यूरिटी की सारी औपचारिकताएं और शर्तें एजेंट के माध्यम से पूरी हो गईं.

रमन सोचता कि एक ओर उस के पास रखी पुस्तकों में मार्क्स, लेनिन, गांधी, सुकरात जैसे नाम हैं, उन की समानतावादी नीति है, दूसरी तरफ अमानवतावादी दृष्टिकोण. वह नफरत करे तो किस से… क्या ये किताबें  झूठी हैं या समाज ने इन्हें पढ़ा नहीं और अगर पढ़ा तो गुना क्यों नहीं? यह सोचतेसोचते देर रात उस की आंख लग गई.

अगली सुबह उसे एक नई कंपनी में जौइन करना था. जयश्री की आवाज से उस की नींद टूटी, ‘‘रमन उठो, औफिस जाना है. पहले दिन एक सैकंड भी लेट नहीं चलेगा.’’

कुछ दिनों तक जिंदगी ठीकठाक चली. रमन का औफिस भी बढि़या चल रहा था. जयश्री हायर स्टडी के लिए ऐग्जाम की तैयारी कर रही थी. इसी बीच मालकिन को सम झ में आ गया कि ये लोग लिव इन में रहते हैं और युवक दलित वर्ग से है. फिर क्या था. उस ने भी फिकरे कसने शुरू कर दिए.

रमन तो किसी तरह खुद को संभाल लेता पर जयश्री बहुत विचलित हो जाती. उदासी में दिन काट रहे थे. रमन अकसर कहता कि उस के वर्तमान के लिए इतिहास जिम्मेदार है.

तभी अचानक दिन मेहरबान हुए. रमन को माइक्रोसौफ्ट

कंपनी से ही जौब का औफर आ गया. उसे वाशिंगटन जाना था. दोनों के वीरान चेहरों पर मुसकराहट खिल उठी.

देश और क्रांति में से जब एक को चुनने की नौबत आई तो उन्होंने पलायन और क्रांति को चुना. अपनी संस्कृति और मातृभूमि को अपनाने पर अपने प्रेम की बलि देनी होती जो उन्हें कदापि मंजूर नहीं था और संस्कृति की रक्षा तो विदेश में रह कर भी की जा सकती है. फिर जो सभ्यता जिंदगी की गारंटी ना दे पाए, उस के संरक्षण की भला युवा कैसे सोच सकते हैं? कुछ ही समय पहले डेढ़ लाख डालर का औफर ठुकराने वाला युवा अब खुशीखुशी विदेश जाना चाहता था.

उसे लेनिन का कथन याद आया, ‘‘कल बहुत जल्दी होता और कल बहुत देर हो चुकी होगी, समय है आज.’’

जयश्री को साथ ले जाने के लिए शादी करना जरूरी था. आननफानन ने दोनों ने दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली. कुछ समय बाद रमन यूएसए के लिए रवाना हो गया पर जयश्री को जाने के लिए कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी थीं. कुछ समय बाद उस ने भी अप्लाई कर दिया. लगभग 6 महीने बाद उसे भी प्लेसमैंट मिल गया.

जयश्री ने रमन को खुशखबरी सुनाने के लिए वीडियोकौल पर उस ने नहीं उठाया. जयश्री को बहुत चिंता होने लगी. तभी कुछ देर बाद रमन ने उसे कौल किया.

‘‘सौरी डियर, नींद आ गई थी. बायोलौजिकल क्लौक सैट होने में अभी समय लगेगा.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘तुम्हें व्हाट्सएप मैसेज किया है. देखो.’’

‘‘वाह जयश्री, मुबारक. अब जल्दी से मेरे पास आ जाओ.’’

जयश्री मुसकरा दी. आज उस की निर्भीक मुसकान देख कर रमन को विदेश बसने के फैसले पर गर्व हो रहा था. एक और प्रतिभा देश छोड़ कर जाने वाली थी. वीजा तैयार था. वह दूसरी औपचारिकताएं पूरी करने की तैयारी में लगी थी. भारत की प्रतिभा अमेरिका में अपना जलवा दिखाने जा रही थी. हमें तो ब्रेनड्रेन की आदत है. रूढि़यां बची रहें,  ढकोसले बचे रहें. एकता और समानता की बात कर रहे संविधान के शब्द भी अपनी सार्थकता खोते दिखाई दे रहे थे.

जयश्री दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रही थी. पुराने दिनों की यादें उस के स्मृतिपटल पर लगातार हथौड़े सरीखे वार कर रही थीं. उसे याद आ रहा था कि आईआईटी दिल्ली में चयन होने पर जब एक पत्रकार ने भविष्य को ले कर सवाल किया था तो इंटरव्यू में उस ने कहा था कि अपने देश के लिए काम करूंगी. तकनीकी के क्षेत्र में अपने देश को अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से आगे ले जाने का सपना है मेरा. फ्लाइट तैयार थी. जयश्री खिड़की से बाहर देखा और फिर अनमने से भाव ले कर उड़ गई अपने सपनों का आसमान पाने के लिए.

जहां पर सवेरा हो- भाग 2 : उसे क्यों छोड़ना पड़ा अपना ही देश

पढ़ाई के अलावा उन दोनों को कुछ और सू झता ही कहां था. हां, उन के प्रेम प्रसंग पर कालेज के कुछ लड़केलड़कियां चुटकियां जरूर लेते. कभी वह सोचती कि ये कालेज में उन के सीनियर तो नहीं थे. पर रमन ने सीनियर्स के होने की संभावना से इनकार कर दिया.

तभी जयश्री को ध्यान आया कि उस के घर और गांव में भी इस अंतरजातीय  प्यार का बहुत विरोध हुआ था.कही उस के गांव के लोग तो नहीं? मगर उन के पास दिल्ली का पता कहां से आएगा? वह सोचविचार में मग्न थी. तभी उसे याद आया कि एक बार पासपोर्ट के लिए अप्लाई करने पर उस के कुछ जरूरी कागजात वैरिफिकेशन के लिए गांव गए थे. इस के लिए उस ने अपना दिल्ली का पता दिया था.

जयश्री का शक यकीन में बदलने लगाऔर शक की सूई दिल्ली में रहने वाले अपने पड़ोसी गांव के सुनील की ओर घूम गई. इस से पहले भी जब वह गांव गई थी तो कितना अपमान सहना पड़ा था उसे. न जाने कैसे गांव के लोगों को खबर लग गई कि वह अपने सहपाठी के प्रेम में पड़ गई है. प्रेमी के बारे में पूछताछ हुई. लड़का दलित जाति का है, यह पता लगने पर तो मां बाप और भाइयों ने उसे बहुत ताने सुनाए. दरअसल, पास के गांव का ही एक लड़का दिल्ली में रह कर नौकरी कर रहा था और एक बार जयश्री के मातापिता ने उस के लिए गांव से कुछ सामान भेजा, वहीं से उसे इस बात की खबर लग गई थी. गांव में तो इस तरह की बातें आग की तरह फैलती हैं. मांबाप तो पढ़ाईलिखाई छुड़ाने को ही आमादा थे. वह तो उस ने किसी तरह गिड़गिड़ा कर उन से विनती करी तो चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया.

उत्तराखंड का सुदूर पर्वतीय अंचल. सामाजिक बंधन बहुत कड़े थे. मान्यताओं, परिपाटियों को वर्षों से बिना किसी बदलाव के और तार्किक विचार के निभाया जाना हमेशा से ग्रामीण अंचल की विशेषता रही है. इस गांव में सिर्फ ब्राह्मण परिवार ही रहते थे. पंडितजी की बेटी जयश्री बहुत मेधावी थी. 8वीं कक्षा में एकीकृत परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर शहर के स्कूल में एडमिशन मिल गया. कुछ दिन दुविधा के  झूले में  झूलने के बाद पिता और अन्य परिवार वाले उस भेजने पर सहमत हो गए.

गांव में सुखसुविधाओं का अभाव था, लेकिन शहर पहुंच कर जयश्री को खुला आकाश मिल गया. मेधावी तो वह थी ही, उस की योग्यता को पहचान कर फिजिक्स के शिक्षक ने उसे आगे चल कर जेईई परीक्षा की तैयारी करने की प्रेरणा दी, साथ में परीक्षा के बारे में जानकारी भी दी. उन दिनों हौस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए स्कूल के बाद ऐक्स्ट्रा क्लासेज भी होती थीं, जिस में उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ाया जाता था.

आईआईटी परीक्षा पास करना जयश्री ने अपना लक्ष्य बना लिया था. खूब मेहनत की थी उस ने और देखते ही देखते परिणाम वाला दिन भी आ गया. मैंस और एडवांस दोनों ही परीक्षाओं में उस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. आखिरकार उस ने जेईई एडवांस के माध्यम से आईआईटी में होने वाले दाखिले को ही चुना.

जयश्री की खुशी का तब कोई ठिकाना न रहा जब उसे आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रौनिक्स ऐंड कम्युनिकेशन ब्रांच मिली. गांव की वह पहली बेटी थी जो आईआईटी में पढ़ने जा रही थी. इस से कई वर्षों पहले पड़ोस के गांव के मात्र एक लड़के ने आईआईटी की परीक्षा पास की थी. गांव में खुशी का माहौल था. अधिकतर ग्रामीण आईआईटी संस्थान के बारे में कुछ नहीं जानते थे. बस इतना पता था कि पंडितजी की बेटी किसी बड़ी परीक्षा में पास हो गई है और 4 साल बाद बड़ी इंजीनियर बनेगी. स्कूल से अपनी मार्कशीट और ट्रांसफर सर्टिफिकेट ले कर वह जरूरी सामान लेने अपने गांव गई और कुछ समय बाद बड़े भाई के साथ काउंसलिंग के लिए रवाना हो गई.

 

जयश्री को गर्ल्स हौस्टल में कमरा भी मिल गया. दीपक बड़े भाई होने का फर्ज निभाते हुए उसे कुछ जरूरी निर्देश देने के बाद गांव लौट गया.कुछ दिनों में कालेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई. जयश्री का परिवार इस बात को लेकर निश्चिंत था कि लड़की का भविष्य सुरक्षित हो गया. फिर भी परिवार वाले डरते और उस से सिर्फ पढ़ाई और पढ़ाई में ही ध्यान देने की सलाह बारबार देते.

 

कालेज में पढ़ने वाली एक जवान लड़की जहां साथ में बहुत सारे लड़के भी हों, ऐसा कैसे संभव हो सकता कि वह सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान देती? इंट्रोडक्शन वाले दिन उस की जानपहचान कंप्यूटर साइंस के छात्र रमन से हुई. आईआईटी दिल्ली में कंप्यूटर साइंस मिलना गौरव की बात थी. बातों ही बातों में जयश्री को पता चला कि रमन को तो आईआईटी मद्रास में कंप्यूटर साइंस मिल रही थी परंतु उस के मातापिता के लिए उतनी दूर भेजना संभव नहीं था. गाजियाबाद के पास ही किसी गांव में उस का घर था, इसलिए उसे दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए राजी करा लिया गया.

गाजियाबाद के पास एक गांव जहां पर अधिकतर दलित परिवार रहते थे, पक्के मकान बहुत कम थे. छपरों में गुजारा होता था. लोगों की धर्म में भी बहुत अधिक आस्था नहीं थी क्योंकि जिस धर्म में जीने की आज़ादी मिल जाए उसी का अनुसरण कर लेते थे. अंधाधुंध फ्लैट्स के निर्माण की वजह से खेती तो अब बची नहीं थी. यहां के मर्द कोई भी छोटामोटा काम पकड़ लेते और महिलाएं सोसाइटी में जा कर लोगों के घरों में काम करतीं क्योंकि वहां पर रहने वाले युवावर्ग को इन की बहुत जरूरत थी और जातिपाती पर भी उन का कोई विश्वास नहीं था.

इसी गांव से निकला था गुदड़ी का लाल रमन. चिथड़ो में पलाबढ़ा पर ठान लिया था कि जिस आईटी इंजीनियर के घर उस की मां  झाड़ूपोंछा, बरतन करने जाती है, उसी के बराबर बनूंगा और जब लगन लग जाए तो मंजिल पाने से कौन रोक सकता है… सरल स्वभाव का यह मेधावी छात्र जयश्री के मन को भा गया. समय के साथसाथ ये जानपहचान अच्छी दोस्ती में बदल गई और पता भी न चला कि कब प्यार में. तभी जयश्री को पता चला कि रमन दलित परिवार से है और उस का परिवार आर्थिक मामले में भी काफी पिछड़ा हुआ. लेकिन प्यार ये सब कहां देखता है? आखिर प्यार है कोई व्यापार नहीं. हां, कभीकभी घरपरिवार का डर उसे सताना कि कभी तो बताना ही पड़ेगा. कैसे बता पाएगी… जैसे कई सवाल उस के मन को परेशान करने लगे.

एक कट्टरवादी ब्राह्मण परिवार दलित लड़के को अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर पाएगा यह कहना मुश्किल था. लेकिन उसे यह भी डर था कि अगर इन सब बातों में उल झी रहेगी तो वह अपने लक्ष्य से भटक जाएगी. लक्ष्य यही था कि अच्छे सीजीपीए से बैचलर डिगरी मिले और आगे की राह आसान हो जाए.

थर्ड ईयर के आखिरी सेमैस्टर में रमन को माइक्रोसौफ्ट कंपनी से इंटर्नशिप का औफर मिला और वह यूएसए चला गया. जय श्री समर वैकेशन में बैंगलुरु जा कर इंटर्नशिप करने लगी. दोनों का ही आगे पढ़ने का विचार था. इस दौरान कुछ समय नौकरी कर पैसा बचा लेना चाहते थे क्योंकि घर वालों से और उम्मीद करना उचित नहीं था. 4 साल तो होस्टल में कट गए थे. आगे रहने का इंतजाम खुद ही करना था. दोनों यह फ्लैट ले कर रहने लगे और जयश्री के गांव के गुंडे यहां भी पहुंच गए.

लिवइन में रहने का फैसला यों ही नहीं ले लिया. आर्थिक पहलू तो था ही. अपना बचाव भी जरूरी था क्योंकि कालेज में भी कई तथाकथित रसूखदार छात्रछात्राएं उन के प्रेम का मखौल बनाते. विदेशी कंपनियों से रमन के लिए औफर आना उन्हें फूटी आंखें नहीं सुहाता.

इसी बीच रमन को डेढ़ लाख डालर का औफर विदेशी कंपनी से मिला पर उसे धुन थी अपने परिवार के साथ रहने की, अपने देश के लिए कुछ करने की. वह नहीं गया. इस पर भी कुछ साथी छात्र उसे आरक्षण की बैसाखी का तंज कसते, कभी प्रोफैसरों की कृपा का पात्र होने का. जबकि सचाई यह थी कि उस ने आरक्षण लेने के बावजूद बहुत मेहनत की थी और अपने संबंधित प्रोफैसरों के साथ भी वह कुछ न कुछ नया सीखने के लिए ही जीजान से लगा रहता. प्रोजैक्ट के नाम पर प्रोफैसरों के पास विदेशी कंपनियों से काफी  आर्थिक सहायता आती, जिस का वितरण प्रोजैक्ट में काम करने वाले छात्रों खासकर रिसर्च स्टूडैंट्स के बीच में होता. इन के साथ रमन को भी छोटीछोटी आर्थिक सहायता हो जाती तो उस का खर्च चलाना आसान हो जाता.

उनके अपने: क्या थी रेखा की कहानी

बनारस के पक्का महल इलाके के इस घर में टिया और रिया के रोने की आवाजें सुनसुन कर आसपास के लोगों को भी चैन नहीं आ रहा था. यह समय भी तो ऐसा ही था. महामारी ने लोगों को मजबूर कर दिया था. वे चाह कर भी इन 8 साल की जुड़वां बहनों को गले लगा कर चुप नहीं करवा पा रहे थे. कोरोना देखते ही देखते इन बच्चियों का सबकुछ छीन ले गया था. दादादादी रामशरण और सुमन और टिया व रिया के मम्मीपापा सब एकएक कर के कोरोना के शिकार होते गए थे. अब ये बच्चियां हर तरफ से अकेली थीं. कोई नहीं था जो इन के सिर पर हाथ रखता. पड़ोसी सावधानी बरतते हुए किसी तरह खाने के लिए कुछ दे जाते. शाम होतेहोते बच्चियां डर कर ऐसे रोतीं कि सुनने वालों के दिल दहलते.

इन घरों की बनावट किसी बंद किले से कम न थी. घर का मुख्य दरवाजा बंद होते ही बाहर की दुनिया जैसे कट जाती. बस, घर में काम करने वाली दया कोरोना के माहौल की परवा न करते हुए इन बच्चियों के पास ही रुक गई थी. सो, दोनों को घर में एक इंसान तो दिख रहा था. इस गली में सभी घर बाहर से एकदम बंद से दिखते.

यह भी बहुत पुराना बना मकान था. सब से नीचे ग्राउंडफ्लोर पर दया के लिए एक छोटा सा कमरा और वाशरूम था. दया यहां सालों से थीं. पुराने सामान से भरा एक स्टोर था. घर का बड़ा सा दरवाजा बंद ही रहता. उसे खोलने के लिए एक बड़ी सी चेन कुछ इस तरह से बंधी रहती कि उसे खींच कर ऊपर से भी दरवाजा खोला जा सके. पहले ऊपर से देख लिया जाता कि कौन है, फिर दरवाजा खोला जाता. सुरक्षा की दृष्टि से तो घर पूरी तरह सेफ था पर अकेला घर अब अजीब से सन्नाटे में घिरा रहता. बच्चियों को तो क्या कहा जाए, खुद दया का दिल इस सन्नाटे पर हौलता सा रहता.

पहली मंजिल पर रामशरण और सुमन का बड़ा सा बैडरूम था जिस में सब सुविधाएं थीं. दूसरी मंजिल पर एक बैडरूम संजय और मधु का था और एक कमरा बच्चियों का था. किचन पहली मंजिल पर ही था. जहां टिया और रिया सारे दिन ऊपरनीचे दौड़ा करतीं थीं वहां अब पूरा दिन, बस, दया के आगेपीछे रोतींसिसकतींघूमतीं और फिर थक कर अपने कमरे में जा कर चुपचाप लेटी रहतीं.

अपने अंतिम दिनों में जब मधु को एहसास हुआ कि वे भी नहीं बचेंगीं तो उन्होंने लखनऊ में रहने वाले अपने भाई अनिल को फोन कर के कहा था, ‘अनिल, बड़ी मुश्किल से तुम से बात कर रही हूं. सुनो, हमारे बाद टिया और रिया का ध्यान रखोगे न? उन के बारे में सोचसोच कर किसी पल चैन नहीं आ रहा है, मेरी बच्चियां…’ यह कहतेकहते मधु फूटफूट कर रो पड़ी थीं. अनिल ने कहा था, ‘दीदी, आप बस ठीक हो जाओ, सब ठीक होगा, चिंता न करो, मैं हूं न. सब संभाल लूंगा.’

टिया व रिया का परिवार एक बार जो हौस्पिटल गया, लौटा ही नहीं था. कुछ पड़ोसियों ने अनिल को फोन किया. सब परेशान थे कि इन बच्चियों का होगा क्या. सभी उन की दूरदूर से देखभाल कर रहे थे, पर कितने दिन. अनिल कुछ दिन बाद ही बनारस आया. बच्चियों की हालत देख कर हैरान रह गया. एकदम फूल सी खिली रहने वाली बच्चियां मुरझा सी गई थीं. उस से लिपटलिपट कर दोनों खूब रोईं, “मामा, अब मत जाना कहीं, हमारे साथ ही रहना.”

दया ही खाना बना कर दोनों को खिलाती, जो हो सकता, उन के लिए करती. पर उस की भी एक सीमा थी न. अनिल के सामने हाथ जोड़ कर कहने लगी, “भैया जी, बच्चियों का क्या होगा? आप इन्हें अपने साथ ले जाएंगे? मैं भी कब तक यहां रहूंगी?”

“क्यों, क्यों नहीं रह सकती? देखता हूं कि दीदी की अलमारी में कुछ पैसे रखे हों तो कुछ ले लो, और रहो बच्चियों के साथ, तुम्हारा कौन सा घरपरिवार है.”

अनिल ने टिया को पुचकारा, “बेटा, मम्मी की अलमारी की चाबी है न?”

“मामा, दया मौसी के ही पास है.”

अनिल ने दया की तरफ घूर कर देखा तो उस ने कहा, “जिस दिन संजय भैया नहीं रहे, उसी दिन मधु दीदी को शायद अपने जाने की आशंका भी हो गई थी. उन्होंने मुझे चाबी रेखा दीदी के यहां जा कर देने के लिए कहा था पर मैं बच्चियों को छोड़ कर निकल ही नहीं पाई. फिर वे आती भी हैं तो मैं ही भूल जाती हूं चाबी उन्हें देना.”

“कौन रेखा?”

“संजय भैया के साथ उन के औफिस में काम करती हैं. इसी गली में आगे जा कर रहती हैं. इस समय बच्चियों के पास, बस, वही आतीजाती हैं.”

“लाओ, चाबी मुझे दो.”

दया उसे चाबी देना तो नहीं चाह रही थी पर मजबूर थी, दे दी. अनिल ने मधु की अलमारी खोली, उस में रखे रुपयों में से कुछ दया को देते हुए कहा, “ये रख लो, बच्चों की देखभाल तुम्हें करनी है.”

“पर मैं कब तक करूंगी? आप इन्हें अपने साथ ले जाते, तो अच्छा होता.”

“नहीं, मैं नहीं ले जा पाऊंगा.”

टिया और रिया यह सुन कर रोने लगीं. अनिल ने मधु की अलमारी से काफीकुछ निकाल कर अपने बैग में रखते हुए कहा, “मैं जल्दी ही वापस आऊंगा, अभी मुझे जाना होगा.”

बच्चियां रोती रह गईं. उन के मामा को उन से कोई स्नेह न था. झूठे दिलासे दे कर वह चला गया. रेखा एक उदार महिला थीं, संजय के औफिस में ही काम करती थीं. संजय और मधु उन्हें घर का सदस्य ही मानते थे. मधु से उन की अच्छी दोस्ती थी. अगले दिन रेखा टिया और रिया से मिलने आईं, तो उन के लिए काफी चीजें बना कर लाईं थीं. दोनों को उन्होंने अपने सीने से लगा लिया और रोने लगीं. बड़ा नरम दिल था उन का. दोनों के बारे में सोचसोच कर उन्हें चैन न आता, क्या होगा इन का? दया स्थायी रूप से तो इन के साथ नहीं रह पाएगी, यह वे जानती थीं. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. दया ने अनिल के बारे में बताया तो रेखा हैरान रह गईं. अलमारी खोल कर देखा तो नाम की धनराशि छोड़ अनिल सब ले गया था. उन का मन वितृष्णा से भर गया. इस स्थिति में भी जो इंसान बेईमानी से काम ले, लूटपाट कर जाए, वह इंसान है भी क्या? रात को वे टिया और रिया के सोने के बाद ही घर गईं.

दया को इस बार रेखा बहुतकुछ समझा कर गईं. यह समय किसी पर भी विश्वास करने का नहीं था. बच्चियों के भविष्य की चिंता करते हुए उन्होंने उसी महल्ले में रहने वाले वकील जयदेव को अगले दिन ही फोन किया और बहुत देर तक उन से इस बारे में बातें करती रहीं.

2 दिनों बाद ही जौनपुर में रहने वाली, टिया रिया की बूआ, नीना आ कर रोनेकलपने लगीं, “हाय, अभागिन बच्चियां, सब चला गएन, हमार अम्मा, बाबूजी, भैया, भौजी सब चला गएन, इंकर का होये…” सीने पर दोहत्थड़ मारमार कर रोने का ऐसा नाटक किया कि बच्चियां डर कर ही रोने लगीं. दया ने कहा, “दीदी, अपने को संभालो, बच्चियां परेशान हो रही हैं.”

नहाधो कर खूब डट कर खाने के बाद नीना आराम से गहरी नींद सो गई, तो दया ने रेखा को उन के आने के बारे में बता दिया. रेखा ने जो सोचा था, उस की तैयारी करने लगीं. नीना सो कर उठी, तो पहली मंजिल पर स्थित रामशरण और सुमन के कमरे में जाने लगी जो उन की मृत्यु के बाद अकसर बंद ही रहता था. दया उस के पीछेपीछे जाने लगी तो नीना ने रुखाई से कहा, “तू आपन काम करा, हमरे पीछे काहे आवत आहा? अपने अम्माबाबूजी के कमरा मा का हम दुई मिनट बैठियू नाही सकित?”

दया बाहर चली गई पर उस ने खिड़की की झिर्री से देखा, नीना जल्दीजल्दी दिवंगत मातापिता की अलमारी खंगाल रही है. दया ने जल्दी से रेखा को फोन किया. रेखा ने जयदेव को फोन कर के बात की और थोड़ी ही देर में बच्चियों के पास पहुंच गईं. नीना अभी तक अपने मातापिता की एकएक चीज खंगालने में लगी हुई थी. दया ने जा कर उन्हें बताया, “दीदी, रेखा दीदी आईं हैं.”

नीना पहले भी आनेजाने पर रेखा से मिल चुकी थी. आतेजाते उन से जितनी भी बातें हुई थीं, रेखा से मन ही मन थोड़ा दूरी सी ही रखी थी. रेखा को देख कर जोरजोर से रोने लगी, “हाय, हम अनाथ हो गए, सब चला गएन.” रेखा ने मन ही मन इस नाटक की सराहना की और कहा, “जो हो गया, लौटाया नहीं जा सकता. अब तो बच्चियों के भविष्य की चिंता करनी है.”

जयदेव भी आ गए थे. रेखा ने जयदेव की सलाह पर अपने 2 अच्छे पड़ोसियों को पूरी बात बता कर आने के लिए कह दिया था. वे भी समय से पहुंच गए थे. दया सब के लिए चाय बनाने चली गई. रेखा ने कहा, “दीदी, आप बच्चियों को अपने साथ ले जाएंगी? आजकल तो औनलाइन क्लासेस चल रही हैं, कैसे कर पाएंगी टिया और रिया अपनी पढ़ाई. अभी भी सब छूट रहा है दोनों का. मैं ने इन की टीचर से बात तो की है पर इन्हें एक परिवार चाहिए. दया सबकुछ तो नहीं कर पाएगी न.”

“न, न, बड़ी मुश्किल अहै हमरे साथे, हम बहुत बीमार रहित हा, हम इनकर देखभाल न कय पाउब.”

रेखा ने एक नजर उन के हृष्टपुष्ट शरीर पर डाली और पूछ लिया, “दीदी, क्या हुआ आप को? संजय और मधु ने तो मुझे कभी बताया नहीं कि आप की तबीयत खराब रहती है.‘’

कुछ हुआ हो तो नीना बताती, बात बदल दी, “अउर सोचा कुछ, बच्चियन कहां रहिएं, यहां भी दया के साथ ही रह लें तो बुराई का अहै? धीरेधीरे सब सीख ही लैइहें, थोड़ी बड़ी होतीं तो हम अपने साथ ले जाती पर अभी तो इन्हें बहुत देखभाल की जरूरत है जो हम तो न कर पाउब, मधु के मायके वालों से पूछ लो.”

रेखा ने अनिल को फोन मिला लिया और वीडियोकौल पर उस से इस बारे में बात की. उस ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया जो जयदेव ने रिकौर्ड भी कर लिया. अब नीना थोड़ी उलझी, पूछा, “ई कौन है?”

“जयदेव जी हैं, वकील हैं, संजय के पडोसी भी हैं और इस मामले मैं बच्चियों के लिए क्या बेहतर होगा, यही बात करने हम अभी आए हैं.”

जयदेव ने गंभीर स्वर में कहना शुरू किया, “हमें पहले सारे सामान की सूची बनानी है जिस से बच्चियों का हक कोई मार न ले जाए. जो भी सामान घर में है, बच्चियों का हक है उस पर, आप लोगों में से कोई भी बच्चियों की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है तो मैं इस समय टिया और रिया से ही पूछ लेता हूं कि वे किस के साथ रहना चाहती हैं,” कह कर उन्होंने दया से कहा, “बच्चियों को बुला दो, दया बहन.”

बच्चियां सीधे आते ही आदतन रेखा से सट कर बैठ गईं. जयदेव ने पूछा, “बेटा, आप ही बताओ कि आप किस के साथ रहना चाहती हो? अकेले तो नहीं रह पाओगी न, बेटा.”

टिया और रिया ने एकदूसरे का मुंह देखा, झुक कर एकदूसरे के कान में कुछ कहा और रेखा से चिपट गईं, एक साथ बोलीं, “रेखा आंटी के साथ रहना है.”

रेखा ने भावविभोर हो कर दोनों को सीने से चिपटा लिया, आंसू बह निकले, “मेरी बच्चियां, हां, मेरे साथ रहेंगीं.”

नीना के चेहरे पर बला टलने वाले भाव आए और झेंपती हुई वह मुसकरा दी. पड़ोसी रोहित और सुधा ने भी उठ कर बच्चियों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ”हां, रेखा आंटी के साथ रहना और हम भी हैं ही, तुम हमारा ही परिवार हो अब, बेटे.”

बच्चियां बहुत दिन बाद मुसकराई थीं. दया ने अपनी आंखें पोंछीं. जयदेव ने कहा, ”कानूनी प्रक्रिया तो मैं संभाल ही लूंगा, अब कोई चिंता नहीं. पहले जरा आज ही हम सारे सामान की एक एक लिस्ट बना लें,’’ फिर नीना की तरफ देखते हुए पूछ लिया, ”अभी आप ने किसी की अलमारी से कुछ लिया तो नहीं है न?”

”न, न, मैं तो अपने मांपिताजी की एकएक चीज उन की याद में देख रही थी. काफी सामान संभाल कर रखा है अम्मा ने. पता नहीं कितना सोनाचांदी रखा है अम्मा ने. कबहूं बताउबै नाही किहिन,’’ लालच से भरा स्वर सब को दुखी कर गया. यह समय ऐसा था कि सिर्फ बच्चियों के बारे में सोचा जाना चाहिए था पर बच्चियों के मामा और बूआ को घर में रखे रुपए पैसे और कीमती सामान में ज्यादा रुचि है. यह बात सब का दिल दुखा गई थी. वहीं, रेखा की निस्वार्थ दोस्ती और स्नेह से भरे दिल पर सब को गर्व हो आया.

जयदेव ने वहीँ बैठेबैठे अपना काम शुरू किया और रोहित व सुधा रेखा और दया के साथ मिल कर अब एकएक सामान एक फाइल में नोट करते जा रहे थे. बच्चियां दया से पूछ रही थीं, ”मौसी, यहां अब आप अकेली रहोगी?”

”नहीं, मैं भी गांव जाऊंगी, वहां मेरा घर है. जब भी तुम कहोगी, वापस आ जाऊंगी और बीचबीच में तुम से मिलने आती भी रहूंगी.”

”मौसी, अब रात को अकेला भी नहीं सोना पड़ेगा न हमें?”

”हां, मेरी बच्चियो, अब कोई डर की बात नहीं. हिम्मत रखना,” कह कर दया ने उन के सिर पर प्यारभरा हाथ रखा और दुखी, मासूम से चेहरे चूम लिए. टिया और रिया रेखा के पीछेपीछे घूम रही थीं. जीवनभर नन्हे हाथों के स्पर्श को तरसा मन जैसे नजरों ही नजरों में उन पर स्नेह लुटा रहा था. रेखा निसंतान थीं. पति की मृत्यु कुछ साल पहले हो गई थी. आज बच्चियों को अपने साथसाथ चलते देख, उन के मुसकराते चेहरे देख दिल को ऐसी ठंडक सी मिली थी जिसे वे किसी को भी समझा नहीं सकती थीं.

जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 2

अंकल की तेरहवीं के दिन सभी मेहमानों के जाने के बाद आंटी अचानक गुस्से में उबल पड़ीं. मुझे पहले तो कुछ समझ ही न आया और जो समझ में आया वह मेरे होश उड़ाने के लिए काफी था. अनु प्रैग्नैंट है, यह जानकारी मेरे लिए किसी सदमे से कम न थी. अगर इस बात पर मैं इतनी चौंक पड़ी थी, तो अपनी बेटी को अपना सब से बड़ा गर्व मानने वाले अंकल पर यह जान कर क्या बीती होगी, मैं महसूस कर सकती थी. आंटी भी अंकल की बेवक्त हुई इस मौत के लिए उसे ही दोषी मान रही थीं.

मैं ने अनु से उस शख्स के बारे में जानने की बहुत कोशिश की, पर उस का मुंह न खुलवा सकी. मुझे उस पर बहुत क्रोध आ रहा था. गुस्से में मैं ने उसे बहुत बुराभला भी कहा. लेकिन सिर झुकाए वह मेरे सभी आरोपों को स्वीकारती रही. तब हार कर मैं ने उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

इधर मेरी ससुराल वाले चाहते थे कि हमारी शादी नाना के घर लखनऊ से ही संपन्न हो. शादी के बाद मैं विदा हो कर सीधी अपनी ससुराल चली गई. वहां से जब पहली बार घर आई तो अनु को देखने, उस से मिलने की बहुत उत्सुकता हुई. पर मां ने मुझे डपट दिया कि खबरदार जो उस चरित्रहीन से मिलने की कोशिश भी की. अच्छा हुआ जो सही वक्त पर तेरी शादी कर दी वरना उस की संगत में तू भी न जाने क्या गुल खिलाती. मुझे मां पर बहुत गुस्सा आया, पर साथ ही उन की बातों में सचाई भी नजर आई. मैं भी अनु से नाराज तो थी. अत: मैं ने भी उस से मिलने की कोशिश नहीं की.

2 साल बीत चुके थे. मेरी गोद में अब स्नेहा आ चुकी थी. मेरे भैया की शादी भी बनारस से तय हो चुकी थी. शादी के काफी पहले ही मैं मायके आ गई. यहां आ कर मां से पता चला कि अनु ने भैया की शादी तय होने पर बहुत बवाल मचाया था. मगर क्यों? भैया से उस का क्या वास्ता?

मेरे सवाल करने पर मां भड़क उठीं कि अरे वह बंगालन है न, मेरे भैया पर काला जादू कर के उस से शादी करना चाहती थी. किसी और के पाप को तुम्हारे भैया के मत्थे मढ़ने की कोशिश कर रही थी. पर मैं ने भी वह खरीखोटी सुनाई है कि दोबारा पलट कर इधर देखने की हिम्मत भी नहीं करेंगी मांबेटी. पर अगर वह सही हुई तो क्या… मैं कहना चाहती थी, पर मेरी आवाज गले में ही घुट कर रह गई. लेकिन अब मैं अनु से किसी भी हालत में एक बार मिलना चाहती थी.

दोपहर का खाना खा कर स्नेहा को मैं ने मां के पास सुलाया और उस के डायपर लेने के लिए मैडिकल स्टोर जाने के बहाने मैं अनु के घर की तरफ चल दी. मुझे सामने देख अनु को अपनी आंखों पर जैसे भरोसा ही नहीं हुआ. कुछ देर अपलक मुझे निहारने के बाद वह कस कर मेरे गले लग गई. उस की चुप्पी अचानक ही सिसकियों में तबदील हो गई. मेरे समझने को अब कुछ भी बाकी न था. उस ने रोतेरोते अपने नैतिक पतन की पूरी कहानी शुरू से अंत तक मुझे सुनाई, जिस में साफतौर पर सिर्फ और सिर्फ मेरे भैया का ही दोष नजर आ रहा था.

कैसे भैया ने उस भोलीभाली लड़की को मीठीमीठी बातें कर के पहले अपने मोहपाश में बांधा और फिर कालेज के वार्षिकोत्सव वाले दिन रात को हम सभी के सोने के बाद शकुंतला के रूप में ही उस से प्रेम संबंध स्थापित किया. यही नहीं उस प्रेम का अंकुर जब अनु की कोख में आया तो भैया ने मेरी शादी अच्छी तरह हो जाने का वास्ता दे कर उसे मौन धारण करने को कहा.

वह पगली इस डर से कि उन के प्रेम संबंध के कारण कहीं मेरी शादी में कोई विघ्न न आ जाए. चुप्पी साध बैठी. इसीलिए मेरे इतना पूछने पर भी उस ने मुंह न खोला और इस का खमियाजा अकेले ही भुगतती रही. लोगों के व्यंग्य और अपमान सहती रही. और तो और इस कारण उसे अपने जीवन की बहुमूल्य धरोहर अपने पिता को भी खोना पड़ा.

आज अनु के भीतर का दर्द जान कर चिल्लाचिल्ला कर रोने को जी चाह रहा था. शायद वह इस से भी अधिक तकलीफ में होगी. यह सोच कर कि सहेली होने के नाते न सही पर इंसानियत की खातिर मुझे उस का साथ देना ही चाहिए, उसे इंसाफ दिलाने की खातिर मैं उस का हाथ थाम कर उठ खड़ी हुई. पर वह उसी तरह ठंडी बर्फ की मानिंद बैठी रही.

आखिर क्यों? मेरी आंखों में मौन प्रश्न पढ़ कर उस ने मुझे खींच कर अपने पास बैठा लिया. फिर बोली, ‘‘सीमा, इंसान शादी क्यों करना चाहता है, प्यार पाने के लिए ही न? लेकिन अगर तुम्हारे भैया को मुझ से वास्तविक प्यार होता, तो यह नौबत ही न आती. अब अगर तुम मेरी शादी उन से करवा कर मुझे इंसाफ दिला भी दोगी, तो भी मैं उन का सच्चा प्यार तो नहीं पा सकती हूं और फिर जिस रिश्ते में प्यार नहीं उस के भविष्य में टिकने की कोई संभावना नहीं होती.’’

‘‘लेकिन यह हो तो गलत ही रहा है न? तुझे मेरे भैया ने धोखा दिया है और इस की सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘लेकिन उन्हें सजा दिलाने के चक्कर में मुझे जिंदगी भर इस रिश्ते की कड़वाहट झेलनी पड़ेगी, जो अब मुझे मंजूर नहीं है. प्लीज तू मेरे बारे में उन से कोई बात न करना. मैं बेचारगी का यह दंश अब और नहीं सहना चाहती.’’

उस की आवाज हलकी तलख थी. मुझ से अब कुछ भी कहते न बना. मन पर भाई की गलती का भारी बोझ लिए मैं वहां से चली आई.

घर पहुंची तो भैया आ चुके थे. मेरी आंखों में अपने लिए नाराजगी के भाव शायद उन्हें समझ आ गए थे, क्योंकि उन के मन में छिपा चोर अपनी सफाई मुझे देने को आतुर दिखा. रात के खाने के बाद टहलने के बहाने उन्होंने मुझे छत पर बुलाया.

‘‘क्यों भैया क्यों, तुम ने मेरी सहेली की जिंदगी बरबाद कर दी… वह बेचारी मेरी शादी के बाद अभी तक इस आशा में जीती रही कि तुम उस के अलावा किसी और से शादी नहीं करोगे… तुम्हारे कहने पर उस ने अबौर्शन भी करवा लिया. फिर भी तुम ने यह क्या कर दिया… एक मासूम को ऐसे क्यों छला?’’ मेरे शब्दों में आक्रोश था.

नैटवर्क ही नहीं मिलता: क्या हुआ था नंदिनी के साथ

फोन की घंटी बज रही थी. नंदिनी ने नहीं उठाया. यह सोच कर कि बाऊजी का फोन तो होगा नहीं. दूसरी, तीसरी, चौथी बार भी घंटी बजी तो विराज हाथ में किताब लिए हड़बड़ाए से आए.

‘‘नंदू, फोन बज रहा है भई?’’

विराज ने उसे देखते हुए फोन उठाया पर समझ न पाए कि नंदिनी ने कुछ सुना या नहीं? फोन किस का है, पूछे बिना नंदिनी गैलरी में आ गई. वह जानती है कि बाऊजी का फोन तो नहीं होगा.

मायके से लौटे महीनाभर हो चला है. वह फ्लैट से बाहर नहीं निकली है. शाम को धुंधलका होते ही गैलरी में आ खड़ी होती है. अंधेरा गहराते ही बत्तियां जगमगा उठती हैं मानो महानगर में होड़ शुरू हो जाती है भागदौड़ की. वह हंसतेबतियाते लोगों को ताकते हुए और भी उदास हो जाती है.

विराज उस की मनोस्थिति समझ कर भी बेबस थे. वे जानते हैं बाऊजी के एकाएक चले जाने से नंदिनी के जीवन में आए खालीपन को. बाऊजी नंदिनी के पिता तो बाद में थे, पिता से ज्यादा वे नंदिनी के भरोसेमंद मित्र एवं मां भी थे. मां से ही मन की बातें करती हैं बेटियां. नंदिनी की मां भी बाऊजी ही थे और पिता भी. मां को तो उस ने देखा ही नहीं. हमेशा बाऊजी से सुना कि ‘मां मिट्टी से नहीं, बल्कि फूलों से बनी थीं, बेहद नाजुक. गरम हवा के एक थपेड़े से ही पंखुरीपंखुरी हो बिखर गईं.’

अस्पताल के झूले में गुलाबी गोरी बिटिया को देखते ही बाऊजी ने सीने पर पत्थर रख लिया और अपनी बिटिया के लिए खुद फौलाद बन गए. उन्हें जीना होगा बिटिया के लिए.

विराज ने विवाह के बाद नंदिनी के रिश्तेदारों से पितापुत्री के प्रगाढ़ संबंध, बाऊजी की करुण संघर्ष गाथा को इतनी बार सुना है कि उन्हें रट गई हैं सब बातें. उन्हें भी बाऊजी की कमी खलती है. नंदिनी ने तो बाऊजी की गोद में आंखें खोली थीं. वे समझ रहे हैं उस की मनोस्थिति. नंदिनी को समय देना ही होगा.

नंदिनी कंधे पर स्पर्श पा कर चौंक गई, कैसी जानीपहचानी ममता से भरी कोमल छुअन है. गरदन घुमा कर देखा, विराज हैं.

‘‘क्या सोच रही हो नंदू?’’

‘‘आकाश देख रही हूं, तारे कम नहीं नजर आ रहे?’’

‘‘दिन के ज्यादा उजाले में चौंधिया रहा है पूरा शहर, जमीन से आसमान तक. ऐसे में तारे कम ही नजर आते हैं. चांदतारों का असल सौंदर्य व प्रकाश तो अंधेरे में दिखता है,’’ यह तर्क देतेदेते रुक गए विराज.

नंदू ने बात सिरे से नकार दी, ‘‘नहीं तो, बल्कि मुझे तो एक तारा ज्यादा नजर आ रहा है. वह देखो, वह वाला, एकदम अपनी गैलरी के ऊपर चमकदार.’’

‘‘तुम्हें देख रहा है प्यार से मुसकराते हुए बाऊजी की तरह.’’

यह सुनते ही नंदिनी को करंट सा लगा. विराज का हाथ झटक कर गुमसुम अंदर चली गई. विराज बातबात पर प्रयत्न करते हैं कि किसी तरह नंदिनी का दुखदर्द बाहर निकले किंतु आंसू तो दूर, उस की आंखें नम तक नहीं हो रहीं, मानो सारे आंसू ही सूख चुके हों. न सिर्फ बाऊजी की बातें और यादें, मानो पूरे के पूरे बाऊजी सिर्फ उसी के थे. यादोंबातों तक में किसी की हिस्सेदारी उसे मंजूर नहीं.

नंदिनी सीधे बैडरूम में आ गई. बैडरूम में अकसर पिता की तसवीरें नहीं होतीं पर नंदिनी की तो बात ही अलहदा है. उस के बैडरूम की दाईं दीवार पर सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें हैं. बाऊजी के साथ वह या उस के संग बाऊजी. विदाई वेला की तसवीरें. वह तसवीरों पर उंगलियां फेर रही थी कि ड्राइंगरूम में रखा फोन फिर बज उठा. उस का जी धक से रह गया.

घड़ी देखी, 8 बज रहे हैं. उसी ने तो बाऊजी को समय बताए थे – सुबह

10 बजे के बाद और शाम को 7 के बाद.

वरना वे तो उठते ही फोन लगा देते थे. ‘बेटा, तू ठीक तो है? नींद अच्छी आई? नाश्ता जरूर करना? खाना क्याक्या बनाएगी? बढि़या कपड़े पहनना. तमाम सवाल.’

और शाम होते ही ‘विराज औफिस से आ गए? नवेली ने तुझे तंग तो नहीं किया? शाम को घूमने जाते हो न?’ आदि.

सवाल अकसर वही होने के बावजूद उन में इतनी परवा, फिक्र होती कि नंदिनी का मन गुलाबगुलाब हो जाता. कई बार वह सुबह बिस्तर या बाथरूम में होती या शाम को विराज औफिस से ही नहीं लौटते होते, तब पितापुत्री के मध्य समय तय हुआ था. हड़बड़ी में वह बाऊजी से मन की बातें ही नहीं कर पाती थी.

अकसर बेटियां मन की बातें मां से करती हैं, इसी हिसाब से बाऊजी उस के मातापिता दोनों ही थे. उस का तो मायका ही खत्म हो गया. कहने को तमाम नातेरिश्ते हैं, पर सब कहनेभर के. महीने दो महीने में औपचारिक बातें ही होती हैं.

फिर फोन बजा. विचारशृंखला में बाधा पड़ते ही नंदिनी पैर पटकती ड्राइंगरूम में पहुंची ही कि देखा, विराज फोन को डिस्कनैक्ट कर रहे थे. एक हाथ में फोन का प्लग और दूसरे में नवेली को थामे वे ठगे से खड़े रह गए.

नवेली, नाना की प्यारी नातिन, बाऊजी का नन्हा सा खिलौना. इसे तो समझ भी नहीं होगी कि नाना अब कभी नहीं नजर आएंगे. नंदिनी एकटक अपनी बिटिया को देखने लगी.

और विराज…नंदिनी को. वे द्रवित हो उठे उस के दुख से. क्या बीती होगी नंदू के हृदय पर पिता की निश्चल देह देख कर, क्या गुजरी होगी पिता की अस्थियों से भरा कलश देख कर, इतना हाहाकार, ऐसा झंझावात कि अश्रु तक उड़ा ले गए.

उन्होंने बढ़ कर नवेली को नंदिनी की गोद में दे कर अपने पास बैठा लिया. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कैसे सांत्वना दें कि नंदिनी इस सदमे से उबर आए. धीमे से प्रस्ताव रखा.

‘‘नंदू, कितने दिन हो गए तुम्हें घूमने निकले, आज चलें?’’

‘‘नहीं, मन नहीं होता.’’

गांठें: सरला ने मां को क्या सीख दी

सरला ने चहकते हुए घर में प्रवेश किया. सब से पहले वह अपनी नई आई भाभी दिव्या से मिली.

‘‘हैलो भाभी, कैसी हो.’’

‘‘अच्छी हूं, दीदी,’’ एक फीकी सी मुसकान फेंक कर दिव्या ने कहा और सरला के हाथ की अटैची अपने हाथ में लेते हुए धीरे से बोली, ‘‘आप सफर में थक गई होंगी. पहले चल कर थोड़ा आराम कर लें. तब तक मैं आप के लिए चायनाश्ता ले कर आती हूं.’’

सरला को बड़ा अटपटा सा लगा. 2 ही महीने तो शादी को हुए हैं. दिव्या का चमकता चेहरा बुझ सा गया है.

सरला अपनी मां से मिली तो मां उसे गले से लिपटाते हुए बोलीं, ‘‘अरी, इतनी बड़ी अटैची लाने की क्या जरूरत थी. मैं ने तुझ से कहा था कि अब यहां साडि़यों की कोई कमी नहीं है.’’

‘‘लेकिन मां, साडि़यां तो मिल जाएंगी, ब्लाउज कहां से लाऊंगी? कहां पतलीदुबली भाभी और कहां बुलडोजर जैसी मैं,’’ सरला ने कहा.

‘‘केवल काला और सफेद ब्लाउज ले आती तो काम चल जाता.’’

‘‘अरे, ऐसे भी कहीं काम चल पाता है,’’ बाथरूम में साबुन- तौलिया रखते हुए दिव्या ने  कटाक्ष किया था.

सरला के मन में कुछ गढ़ा जरूर, लेकिन उस समय वह हंस कर टाल गई.

हाथमुंह धो कर थोड़ा आराम मिला. दिव्या ने नाश्ता लगा दिया. सरला बारबार अनुभव कर रही थी कि दिव्या जो कुछ भी कर रही है महज औपचारिकता ही है. उस में कहीं भी अपनापन नहीं है. तभी सरला को कुछ याद आया. बोली, ‘‘देखो तो भाभी, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

सरला ने एक खूबसूरत सा बैग दिव्या को थमा दिया. दिव्या ने उचटती नजर से उसे देखा और मां की ओर बढ़ा दिया.

‘‘क्यों भाभी, तुम्हें पसंद नहीं आया?’’

‘‘पसंद तो बहुत है, दीदी, पर…’’

‘‘पर क्या, भाभी? तुम्हारे लिए लाई हूं. अपने पास रखो.’’

दिव्या असमंजस की स्थिति में उसे लिए खड़ी रही. मांजी चुपचाप दोनों को देख रही थीं.

‘‘क्या बात है, मां? भाभी इतना संकोच क्यों कर रही हैं?’’

‘‘अरी, अब नखरे ही करती रहेगी या उठा कर रखेगी भी. पता नहीं कैसी पढ़ीलिखी है. दूसरे का मन रखना जरा भी नहीं जानती. नखरे तो हर वक्त नाक पर रखे रहते हैं,’’ मां ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘मां, भाभी से ऐसे क्यों कह रही हो? नईनई हैं, आप की आज्ञा के बिना कुछ लेते संकोच होता होगा.’’

सरला का अपनापन पा कर दिव्या के अंदर कुछ पिघलने लगा. उस की नम हो आई आंखें सरला से छिपी न रह सकीं.

सरला सभी के लिए कोई न कोई उपहार लाई थी. छोटी बहन उर्मिला के लिए सलवार सूट, उमेश के लिए नेकटाई और दिवाकर के लिए शर्ट पीस. उस ने सारे उपहार निकाल कर सामने रख दिए. सब अपनेअपने उपहार ले कर बड़े प्रसन्न थे.

दिव्या चुप बैठी सब देख रही थी.

‘‘भाभी, आप कश्मीर घूमने गई थीं. हमारे लिए क्या लाईं?’’ सरला ने टोका.

दिव्या एक फीकी सी मुसकान के साथ जमीन देखने लगी. भला क्या उत्तर दे? तभी दिवाकर ने कहा, ‘‘दीदी, भाभी जो उपहार लाई थीं वे तो मां के पास हैैं. अब मां ही आप को दिखाएंगी.’’

‘‘दिवाकर, तू बहुत बोलने लगा है,’’ मां ने झिड़का.

‘‘इस में डांटने की क्या बात है, मां? दिवाकर ठीक ही तो कह रहा है,’’ उमेश ने समर्थन किया.

‘‘अब तू भी बहू का पक्ष लेने लगा,’’ मां की जुबान में कड़वाहट घुल गई.

‘‘सरला, तुम्हीं बताओ कि इस में पक्ष लेने की बात कहां से आ गई. एक छोटी सी बात सीधे शब्दों में कही है. पता नहीं मां को क्या हो गया है. जब से शादी हुई है, जरा भी बोलता हूं तो कहती हैं कि मैं दिव्या का पक्ष लेता हूं.’’

स्थिति विस्फोटक हो इस से पहले ही दिव्या उठ कर अपने कमरे में चली गई. आंसू बहें इस से पहले ही उस ने आंचल से आंखें पोंछ डालीं. मन ही मन दिव्या सोचने लगी कि अभी तो गृहस्थ जीवन शुरू हुआ है. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?

जिस तरह सरला अपने भाईबहनों के लिए उपहार लाई है उसी तरह दिव्या भी सब के लिए उपहार लाई थी. अपने इकलौते भाई मनीष के लिए टीशर्र्ट और अपनी मम्मी के लिए शाल कितने मन से खरीदी थी. पापा का सिगरेट केस कितना खूबसूरत था. चलते समय पापा ने 2 हजार रुपए चुपचाप पर्स में डाल दिए थे, उन की लाड़ली घूमने जो जा रही थी. मम्मीपापा और मनीष उपहार देख कर कितने खुश होंगे, इस की कल्पना से वह बेहद खुश थी.

सरला, उर्मिला, मांजी तथा दिवाकर के लिए भी दिव्या कितने अच्छे उपहार लाई थी. उमेश ने स्वयं उस के लिए सच्चे मोतियों की माला खरीदी थी और वह कश्मीरी कुरता जिसे पहन कर उस ने फोटो खिंचवाई थी.

कश्मीर से कितने खुशखुश लौटे थे वे और एकएक सामान निकाल कर दिखा रहे थे. मांजी के लिए कश्मीरी सिल्क की साड़ी, पापाजी के लिए गरम गाउन, उर्मिला के लिए कश्मीरी कुरता, दिवाकर के लिए घड़ी और सरला के लिए गरम शाल. मांजी एकएक सामान देखती गईं और फिर सारा सामान उठा कर अलमारी में रखवा दिया. तभी मांजी  की नजर दिव्या के गले में पड़ी मोतियों की माला पर पड़ी.

उर्मिला ने कहा, ‘भाभी, क्या यह माला भी वहीं से ली थी? बड़ी प्यारी है.’

और दिव्या ने वह माला गले में से उतार कर उर्मिला को दे दी थी. उर्मिला ने पहन कर देखी. मांजी एकदम बोल उठीं, ‘तुझ पर बड़ी जम रही है. चल, उतार कर रख दे. कहीं आनेजाने में पहनना. रोज पहनने से चमक खराब हो जाएगी.’

उमेश और दिव्या हतप्रभ से रह गए. उमेश द्वारा दिव्या को दिया गया प्रथम प्रेमोपहार उर्मिला और मांजी ने इस तरह झटक लिया, इस का दुख दिव्या से अधिक उमेश को था. उमेश कुछ कहना चाहता था कि दिव्या ने आंख के इशारे से मना कर दिया.

2 दिन बाद दिव्या का इकलौता भाई मनीष उसे लेने आ पहुंचा. आते ही उस ने भी सवाल दागा, ‘दीदी, यात्रा कैसी रही? मेरे लिए क्या लाईं?’

‘अभी दिखाती हूं,’ कह कर दिव्या मांजी के पास जा कर बोली, ‘मांजी, मनीष और मम्मीपापा के लिए जो उपहार लाई थी जरा वे दे दीजिए.’

‘तुम भी कैसी बातें करती हो, बहू? क्या तुम्हारे लाए उपहार तुम्हारे मम्मीपापा स्वीकार करेंगे? उन से कहने की जरूरत क्या है. फिर कल उर्मिला का विवाह करना है. उस के लिए भी तो जरूरत पड़ेगी. घर देख कर चलना अभी से सीखो.’

सुन कर दिव्या का मन धुआंधुआं हो उठा. अब भला मनीष को वह क्या उत्तर दे. जब मन टूटता है तो बुद्धि भी साथ नहीं देती. किसी प्रकार स्वयं को संभाल कर मुसकराती हुई लौट कर वह  मनीष से बोली, ‘तुम्हारे जीजाजी आ जाएं तभी दिखाऊंगी. अलमारी की चाबी उन्हीं के साथ चली गई है.’

उस समय तो बात बन गई लेकिन उमेश के लौटने पर दिव्या ने उसे एकांत में सारी बात बता दी. मां से मिन्नत कर के किसी प्रकार उमेश केवल मनीष की टीशर्ट ही निकलवा पाया, लेकिन इस के लिए उसे क्या कुछ सुनना नहीं पड़ा.

मायके से मिले सारे उपहार मांजी ने पहले ही उठा कर अपनी अलमारी में रख दिए थे. दिव्या को अब पूरा यकीन हो गया था कि वह दोबारा उन उपहारों की झलक भी नहीं देख पाएगी.

शादी के बाद दिव्या के रिश्तेदारों से जो साडि़यां मिलीं वे सब मांजी ने उठा कर रख लीं  और अब स्वयं कहीं पड़ोस में भी जातीं तो दिव्या की ही साड़ी पहन कर जातीं. उर्मिला ने अपनी पुरानी घड़ी छोड़ कर दिव्या की नई घड़ी बांधनी शुरू कर दी थी. दिव्या का मन बड़ा दुखता, लेकिन वह मौन रह जाती. कितने मन से उस ने सारा सामान खरीदा था. समझता उमेश भी था, पर मां और बहन से कैसे कुछ कह सकता था.

‘‘क्या हो रहा है, भाभी?’’ सरला की आवाज सुन दिव्या वर्तमान में लौट आई.

‘‘कुछ नहीं. आओ बैठो, दीदी.’’

‘‘भाभी, तुम्हारा कमरा तुम्हारी ही तरह उखड़ाउखड़ा लग रहा है. रौनक नहीं लगती. देखो यहां साइड लैंप रखो, इस जगह टू इन वन और यहां पर मोर वाली पेंटिंग टांगना. अच्छा बताओ, तुम्हारा सामान कहां है? कमरा मैं ठीक कर दूं. उमेश को तो कुछ होश रहता नहीं और उर्मिला को तमीज नहीं,’’ सरला ने कमरे का जायजा लेते हुए कहा.

‘‘आप ने बता दिया. मैं सब बाद में ठीक कर लूंगी, दीदी. अभी तो शाम के खाने की व्यवस्था कर लूं,’’ दिव्या ने उठते हुए कहा.

‘‘शाम का खाना हम सब बाहर खाएंगे. मैं ने मां से कह दिया है. मां अपना और बाबूजी का खाना बना लेंगी.’’

‘‘नहीं, नहीं, यह तो गलत होगा कि मांजी अपने लिए खाना बनाएंगी. मैं बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, भाभी, कुछ भी गलत नहीं होगा. तुम नहीं जानतीं कि कितनी मुश्किल से एक दिन के लिए आई हूं, मैं तुम से बातें करना चाहती हूं. और तुम भाग जाना चाहती हो. सही बताओ, क्या बात है? मुंह क्यों उतरा रहता है? मैं जब से आई हूं कुछ गड़बड़ अनुभव कर रही हूं. उमेश भी उखड़ाउखड़ा लग रहा है. आखिर बात क्या है, समझ नहीं पा रही.’’

‘‘कुछ भी तो नहीं, दीदी. आप को वहम हुआ है. सभी कुछ तो ठीक है.’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोलो, भाभी. तुम्हारा चेहरा बहुत कुछ कह रहा है. अच्छा दिखाओ भैया ने तुम्हें कश्मीर से क्या दिलाया?’’

दिव्या एक बार फिर संकोच से गढ़ गई. सरला को क्या जवाब दे? यदि कुछ कहा तो समझेगी कि मैं उन की मां की बुराई कर रही हूं. दिव्या ने फिर एक बार झूठ बोलने की कोशिश की, ‘‘दिलाते क्या? बस घूम आए.’’

‘‘मैं नहीं मानती. ऐसा कैसे हो सकता है? अच्छा चलो, अपनी एलबम दिखाओ.’’

और दिव्या ने एलबम सरला को थमा दी. चित्र देखतेदेखते सरला एकदम चिहुंक उठी, ‘‘देखो भाभी, तुम्हारी चोरी पकड़ी गई. यही माला दिलाई थी न भैया ने?’’

अब तो दिव्या के लिए झूठ बोलना मुश्किल हो गया. उस ने धीरेधीरे मन की गांठें सरला के सामने खोल दीं. सरला गंभीरता से सब सुनती रही. फिर दिव्या की पीठ थपथपाती हुई बोली, ‘‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तुम बाहर चलने के लिए तैयार हो जाओ. उमेश भी आता ही होगा.’’

दिव्या मन ही मन डर रही थी कि हाय, क्या होगा. वह सोचने लगी कि सरला से सब कह कर उस ने ठीक किया या गलत.

बाहर वह सब के साथ गई जरूर, लेकिन उस का मन जरा भी नहीं लगा. सभी चहक रहे थे पर दिव्या सब के बीच हो कर भी अकेली बनी रही. लौटने के बाद सारी रात अजीब कशमकश में बीती. उमेश भी दिव्या को परेशान देख रहा था. बारबार पूछने पर दिव्या ने सिरदर्द का बहाना बना दिया.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद सरला ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘भैया, आज आप के दफ्तर की छुट्टी. मैटिनी शो देखने चलेंगे. उर्वशी में अच्छी फिल्म लगी है.’’

सब जल्दीजल्दी काम से निबटे. दिव्या भी पिक्चर जाने के  लिए तैयार होने लगी. तभी उर्मिला ने आ कर कहा, ‘‘भाभी, मां ने कहा है, आप यह माला पहन कर जाएंगी.’’

और माला के साथ ही उर्मिला ने घड़ी भी ड्रेसिंग टेबिल पर रख दी. दिव्या को बड़ा आश्चर्य हुआ. उमेश भी कुछ नहीं समझ पा रहा था. आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ?

सब पिक्चर देखने गए, लेकिन उर्मिला और मांजी घर पर रह गए. दिव्या और उमेश पिक्चर देख कर लौटे तो जैसे उन्हें अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. यह कमरा तो उन का अपना नहीं था. सभी कुछ एकदम बदलाबदला सा था. दिव्या ने देखा, सरला पीछे खड़ी मुसकरा रही है. दिव्या को समझते देर न लगी कि यह सारा चमत्कार सरला दीदी की वजह से हुआ है.

उमेश कुछ समझा, कुछ नहीं. शाम की ट्रेन से सरला को जाना था. सब तैयारियां हो चुकी थीं. दिव्या सरला के लिए चाय ले कर मांजी के कमरे में जा रही थी, तभी उस ने  सुना, सरला दीदी कह रही थीं, ‘‘मां, दिव्या के साथ जो सलूक तुम करोगी वही सुलूक वह तुम्हारे साथ करेगी तो तुम्हें बुरा लगेगा. वह अभी नई है. उसे अपना बनाने के लिए उस का कुछ छीनो मत, बल्कि उसे दो. और उर्मिला तू भी भाभी की कोई चीज अपनी अलमारी में नहीं रखेगी. बातबात पर ताना दे कर तुम भैया को भी खोना चाहती हो. जितनी गांठें तुम ने लगाई हैं एकएक कर खोल दो. याद रहे फिर कोई गांठ न लगे.’’

और दिव्या चाय की ट्रे हाथ में लिए दरवाजे पर खड़ी आंसू बहा रही थी.

‘‘दीदी, आप जैसी ननद सब को मिले,’’ चाय की ट्रे मेज पर रख कर दिव्या ने सरला के पांव छूने को हाथ बढ़ाए तो सरला ने उसे गले से लगा लिया.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 1: क्या थी संजना की गलती

मोबाइल चलाते रहने से किताबें पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है मुझे. प्रणय आउट औफ स्टेशन थे और किताबें पढ़पढ़ कर मैं ऊब चुकी थी. तो यों ही मोबाइल पर फेसबुक खोल कर बैठ गई. कुछ लेखिकाओं की कविताएं और गजलें पढ़ कर मन खिल उठा. लेकिन जैसे ही आगे बढ़ी, मन खिन्न हो गया कि कैसेकैसे लोग हैं दुनिया में.

मूर्ति टाइप फोटो डाल कर लिखते हैं कि तुरंत लाइक करो. जय श्रीराम लिखो, तो तुम्हारे बिगड़े काम बन जाएंगे या फिर कोई अच्छी खबर सुनने को जरूर मिलेगी. कोरा झूठ. ऐसा भी कभी होता है क्या? फोन बंद करने ही लगी थी कि सोचा, चलो जरा अपना फेसबुक अकाउंट खोल कर देखती हूं. बहुत समय हो गया देखे. सच में पुराने कुछ फोटोज देख कर मन चिहुंक उठा और मुंह से निकल गया, ‘‘अरे, मेरे बिट्टू के बचपन की तसवीरें.’’ कुछ ही पलों में मैं पुरानी यादों में खो गई.

जब मेरा बिट्टू ढाई साल का था तब मैं ने उस के कई फोटोज यों ही निकाल लिए थे. कहा भी था प्रणय ने कि क्यों इतने गंदेसंदे चेहरे का फोटो ले रही हो? जरा तैयार तो कर दो पहले. तो मैं ने कहा था, ‘यही तो खुशनुमा यादें बनेंगी.’ अब सच में, इन्हें देख कर और भी कई यादें ताजा हो गईं. इस फोटो को देखो, कितना पाउडर पोत लिया था उस ने अपने चेहरे पर तभी. एकदम जोकर लग रहा था और मैं ने झट से उस की फोटो क्लिक कर ली थी. और यह उस का नीबू खाते हुए, कैसा बंदर सा मुंह बना लिया था और हम हंसहंस कर लोटपोट हो गए थे. मजाल थी जो ड्रैसिंग टेबल पर मेरा कोई भी मेकअप का सामान सहीसलामत रहे. इसलिए सबकुछ छिपा कर रखना पड़ता था मुझे उस के डर से.

आज भी याद है मुझे उस का वह प्याराप्यारा मुखड़ा. पतलेपतले लाललाल अधर, तीव्र चितवन, कालेकाले भ्रमर के समान बाल और उस पर उस की प्यारीप्यारी तोतली बातें, खूब पटरपटर बोलता था और अब देखो, कितना शर्मीला हो गया है. उस के फोटो पर कितने सारे कमैंट्स और लाइक्स आए तभी. दिखाऊंगी प्रणय को, फिर देखना कैसे उन का भी चेहरा खिल उठेगा. मन हुआ क्यों न ये सारे फोटोज फिर से फेसबुक पर अपलोड कर दूं.

कुछ ही देर में बिट्टू दनदनाता हुआ मेरे पास आ कर कहने लगा कि क्यों मैं ने उस की ऐसी बकवास फोटोज फेसबुक पर अपलोड कर दीं. उस के सारे दोस्त ‘अले ले बिट्टू बाबू, शोना, बच्चा,’ कहकह कर उस का मजाक बना कर हंसे जा रहे हैं. उस की बातें सुन कर मुझे भी हंसी आ गई.

मैं बोली, ‘‘हां, तो क्या हो गया. हंसने दे न. वैसे तू लग ही रहा नन्हा सा, छोटा सा बाबू तो.’’ मेरी बात पर वह और बिदक उठा और ‘‘आप भी न मां’’ कह कर वहां से चला गया. वैसे तो उस का नाम रुद्र है पर अभी भी वह मेरे लिए मेरा छोटा सा बिट्टू ही है. 12 साल का हो गया है, पर अभी भी उस का बचपन गया नहीं.

जब भी स्कूल से आता है, मेरे गले से झूल जाता है और कहता है, ‘‘मां, मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा.’’

‘‘अच्छा, सच कह रहा है तू या मम्मी को मस्का लगा रहा है? पैसे चाहिए न?’’ हंसते हुए मैं कहती तो वह ठुनक उठता और कहता, ‘‘जाओ, मैं आप से बात नहीं करता.’’ कभीकभी यह सोच कर उदास हो जाती हूं कि जब वह बाहर पढ़ने चला जाएगा तब कैसे रहूंगी मैं? कभी लगता है बच्चा बड़ा ही क्यों होता है? बच्चा ही रहता तो कितना अच्छा होता न. लेकिन ऐसा संभव नहीं.

यह लो, शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर. आ गया स्कूल से. अब अपना बैग एक तरफ फेंकेगा, ड्रैस दूसरी तरफ और बेचारा मोजा कहां जा कर अटकेगा, पता नहीं, और फिर शुरू हो जाएगा अपने दोस्तों की कहानी ले कर. उस की आंखों में देख कर उस की बातें सुननी पड़ती हैं मुझे, नहीं तो कहेगा, ‘‘नहीं सुन रही हो न आप मेरी बात? कहीं और ध्यान है न आप का? जाओ नहीं बोलना मुझे कुछ भी.’’

‘‘अरे, मैं सुन रही हूं बाबा, बोल न,’’ अपना सारा काम छोड़छाड़ कर लग जाती हूं उस की बातें सुनने में. चाहे कितनी भी बोरिंग बातें क्यों न हों, सुननी पड़ती हैं, नहीं तो फिर घंटों लग जाते हैं उसे मनाने में. इस से अच्छा है उस की बात सुन ली ही जाए. परसों की ही बात है, कहने लगा, ‘मां, आप को पता है, मोहित से मेरी लड़ाई हो गई. अब मैं उस से बात नहीं करता.’’

‘‘अरे, नहीं बेटा, दोस्ती में तो यह सब चलता रहता है. इस का यह मतलब नहीं कि एकदूसरे से बात करना ही बंद कर दें. गलत बात, चल, आगे बढ़ कर तू ही सौरी बोल देना और हैंडशेक भी कर लेना. दोस्तों से ज्यादा देर गुस्सा नहीं होते.’’

मेरी बात पर पहले तो वह झुंझला गया, फिर ‘‘ओके मां’’ कह कर मेरी बात मान भी गया. छोटी से छोटी बातें वह मुझ से शेयर करता है. जैसे कि मैं उस की दोस्त हूं. वैसे, मुझे भी अच्छा लगता है उस की हर बात सुनना, क्योंकि मां व बेटे के अलावा हम अच्छे दोस्त भी तो हैं.

अगले दिन मेरे फोन पर किसी अनजान नंबर से फोन आया. न चाहते हुए भी मैं ने फोन उठा लिया ‘‘हैलो, कौन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम शिखा बोल रही हो न?’’ उधर से उस अनजान शख्स ने मुझ से पूछा.

‘‘हां, मैं शिखा बोल रही हूं, लेकिन आप कौन?’’ मैं ने पूछा तो वह चुप हो गया. पता नहीं क्यों. मुझे उस की आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी पर कुछ याद नहीं आ रहा था और यह भी लगा कि उसे मेरा नाम कैसे मालूम? लेकिन फिर जब मैं ने ‘हैलो’ कहा तो वह कुछ नहीं बोला. मैं फोन रखने ही लगी कि वह, ‘‘शिखा, मैं अखिल’’ कह कर चुप हो गया. अखिल, उस का नाम सुनते ही मैं सन्न रह गई. एकदम से मेरी आंखों के सामने वह सारा दृश्य नाच गया जो सालों पहले मुझ पर बीता था. खून खौल उठा मेरा. दांत भींच लिए मैं ने गुस्से से.

‘‘तुम? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? जरा भी शर्म है तो फिर फोन मत करना,’’ कह कर मैं फोन काटने ही लगी कि वह कहने लगा, ‘‘प्लीज, प्लीज, शिखा, फोन मत काटना. बस, एक बार, एक  बार मेरी बात सुन लो. वो बिट्टू, मेरा मतलब है तुम्हारे बेटे की फोटो फेसबुक पर देखी, तो रहा नहीं गया. इसलिए फोन कर दिया. बहुत ही प्यारा बच्चा है. अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा न?’’

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 2: क्या थी संजना की गलती

‘‘हां, हो गया, तो तुम्हें क्या? तुम क्यों इतनी जानकारी ले रहे हो?’’ मैं ने गुस्से से भर कर कहा तो वह क्षणभर के लिए चुप हो गया, फिर कहने लगा कि वह किसी गलत इरादे से नहीं पूछ रहा है. फिर खुद ही बताने लगा कि अब वह दिल्ली में रहता है अपने पिता के साथ. मुझ से पूछा कि मैं कहां हूं अभी? तो मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘यहीं दिल्ली में ही.’’ कहने लगा वह मुझ से मिलना चाहता है. जब मैं ने मिलने से मना कर दिया तो कहने लगा कि वह मुझे अपने बारे में कुछ बताना चाहता है.

‘‘पर मुझे तुम्हारे बारे में कुछ सुननाजानना नहीं है और वैसे भी, मैं अभी कहीं बाहर हूं,’’ कह कर मैं ने उस का जवाब सुने बिना ही फोन काट दिया. और वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई. पिछली बातें चलचित्र की तरह मेरी आंखों के सामने चलने लगीं.

उस साल मैं ने भी उसी कालेज में नयानया ऐडिमिशन लिया था जिस में अखिल था. लेकिन मुझे नहीं पता था कि वह मेरी ही सोसायटी में रहता है, क्योंकि पहले कभी मैं ने उसे देखा नहीं था. एक दिन औटो के इंतजार में मैं कालेज के बाहर खड़ी थी कि सामने से आ कर वह कहने लगा कि अगर मैं चाहूं तो वह मुझे मेरे घर तक छोड़ सकता है. जब मैं ने उसे घूरा, तो कहने लगा. ‘डरो मत, मैं तुम्हारी ही सोसायटी में रहता हूं. तुम वर्मा अंकल की बेटी हो न?’ फिर वह अपने बारे में बताने लगा कि वह उदयपुर में अपने चाचा के घर में रह कर पढ़ाई करता था. लेकिन अब वह यहां आ गया.

इस तरह एकदो बार मैं उस के साथ आईगई. लेकिन मैं ने कभी उस के बारे में ज्यादा जानना नहीं चाहा. वही अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ न कुछ बताता रहता था. उस ने ही बताया था कि उस के चाचाचाची का कोई बच्चा नहीं है, इसलिए वह उन के साथ रहता था. लेकिन उस की चाची बड़ी खड़ूस औरत है, इसलिए अब वह हमेशा के लिए अपने मांपापा के पास आ गया. खैर, अब हम अच्छे दोस्त बन गए थे. एक बार मैं उस के घर भी गई थी नोट्स के लिए तब उस के परिवार से भी मिली थी. अखिल के अलावा उस के घर में उस के मांपापा और एक छोटी बहन थी जिस का नाम रीनल था.

एक ही कालेज में पढ़ने के कारण अकसर हम पढ़ाई को ले कर मिलने लगे. इसी मिलनेमिलाने में कब हम दोनों के बीच प्यार का अंकुर फूट पड़ा, हमें पता ही नहीं चला. अब हम रोज किसी न किसी बहाने मिलने लगे. और इस तरह से हमारा प्यार 3 वर्षों तक निर्बाध रूप से चलता रहा. लेकिन कहते हैं न, इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते कभी.

एक दिन मेरी अंचला दीदी को हमारे प्यार की खबर लग ही गई और मजबूरन मुझे उन्हें सबकुछ बताना पड़ा. पहले तो उन्होंने मुझे कस कर डांट लगाई, कहा कि मैं कालेज में पढ़ने जाती हूं या इश्क फरमाने? फिर वे पूछने लगीं कि क्या हम शादी करना चाहते हैं या यों ही टाइम पास? ‘नहीं दीदी, हम प्यार करते हैं और शादी भी करना चाहते हैं’ मैं ने कहा, दीदी बोलीं, ‘पर क्या उस के मातापिता इस रिश्ते को मानेंगे?’

‘भले ही उस के मातापिता न मानें, पर हम तो एकदूसरे से प्यार करते हैं न, दीदी’, दीदी का हाथ अपने हाथों में ले कर बड़े विश्वास के साथ मैं ने कहा था, ‘दीदी, अखिल मुझ से बहुत प्यार करता है, कहता है, अगर मैं उसे न मिली तो वह मर जाएगा. इसलिए हम ने चुपकेचुपके सगाई भी कर ली, दीदी.’ सगाई की बात सुन कर दीदी चुप हो गईं. लेकिन फिर इतना ही कहा कि बता तो देती हमें. लेकिन यह बात मैं उन्हें बता नहीं पाई कि हमारे बीच शारीरिक संबंध भी बन चुके हैं. जब भी अखिल मेरे समीप आता, मैं खुद को उसे समर्पित करने से रोक नहीं पाती थी. क्योंकि मैं जानती थी हम एकनएक दिन एक होंगे ही और अखिल भी तो यही कहता था. अब जब भी मुझे अखिल से मिलने जाना होता, दीदी साथ देतीं. पूछने पर बता देतीं मांपापा को कि उन के घर पर ही हूं. इस तरह हमारा मिलना और भी आसान हो गया.

इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. कुछ खातीपीती तो उलटी जैसा मन करता. कमजोरी भी बहुत महसूस हो रही थी. शंका हुई कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है? मेरी शंका जायज थी. रिपोर्ट पौजिटिव आई और मैं नैगेटिविटी से घिर गई. मन में अजीबअजीब तरह के विचार आने लगे. कभी लगता दीदी को बता दूं, कभी लगता नहीं और फिर दीदी तो मां को बता ही देंगी. इतनी बड़ी बात छिपाएंगी नहीं. और मां तो मुझे मार ही डालेंगी. लेकिन अब चारा भी क्या था.

सुनते ही दीदी तिलमिला उठीं, गरजते हुए बोलीं, ‘शादी के पहले यह सब? और अब बता रही है तू मुझे?’

‘पर दीदी, मैं आप को बताने ही वाली थी, लेकिन प्लीज दीदी, प्लीज, आप को मांपापा से हमारी शादी की बात करनी होगी और राजी भी करना होगा उन्हें, नहीं तो…’ कह कर मैं सिसक पड़ी.

‘नहीं तो क्या, जान दे देगी अपनी? ठीक है, मैं देखती हूं’, कह कर वे वहां से चली गईं और मैं फिक्र में पड़ गई कि पता नहीं अब मांपापा कैसे रिऐक्ट करेंगे?

मैं और अखिल एकदूसरे से प्यार करते हैं और हम शादी भी करना चाहते हैं, यह सुन कर मांपापा का हृदय अकस्मात क्रोध से भर उठा. पर जब दीदी ने समझाया उन्हें कि लड़का देखाभाला है और ये एकदूसरे से प्यार करते हैं, तो क्या हर्ज है शादी करवाने में? और सब से बड़ी बात कि शादी के बाद उन की बेटी उन की आंखों के सामने ही रहेगी, तो और क्या चाहिए उन्हें? पहले तो मांपापा ने मौन धारण कर लिया, लेकिन फिर उन्होंने हमारी शादी के लिए अपनी पूर्ण सहमति दे दी. लेकिन दीदी ने उन्हें यह नहीं बताया कि मैं मां बनने वाली हूं. वैसे मैं ने ही मना किया था दीदी को बताने के लिए. नहीं तो मांपापा का मुझ पर से विश्वास उठ जाता और मैं ऐसा नहीं चाहती थी.

लेकिन उधर अखिल के मांपापा अपने बेटे के लिए मुझ जैसी कोई साधारण परिवार की लड़की नहीं, बल्कि कोई पैसे वाले परिवार की बेटी की खोज में थे, जो उन का घर धनदौलत से भर दे. और एक  दिन उन्हें ऐसा परिवार मिल भी गया. उसी शहर के एक बड़े बिजनैसमैन

जब अपनी एकलौती बेटी का रिश्ता ले कर उन के घर आए, तो बिना कुछ सोचेविचारे ही अखिल के मातापिता ने उस रिश्ते के लिए हां कर दी.

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