मन की खुशी: मणिकांत के साथ आखिर ऐसा क्या हो रहा था

Serial Story: मन की खुशी (भाग-1)

उस दिन मणिकांत का मन अशांत था. आजकल अकसर रहने लगा है, इसीलिए दफ्तर में देर तक बैठते हैं. हालांकि बहुत ज्यादा काम नहीं होता है, परंतु काम के बहाने ही सही, वे कुछ अधिक देर तक औफिस में बैठ कर अपने मन को सुकून देने का प्रयास करते रहते हैं. दफ्तर के शांत वातावरण में उन्हें अत्यधिक मानसिक शांति का अनुभव होता है. घर उन्हें काटने को दौड़ता है, जबकि घर में सुंदर पत्नी है, जवान हो रहे 2 बेटे हैं. वे स्वयं उच्च पद पर कार्यरत हैं. दुखी और अशांत होने का कोई कारण उन के पास नहीं है, परंतु घर वालों के आचरण और व्यवहार से वे बहुत दुखी रहते हैं.

जिस प्रकार का घरपरिवार वे चाहते थे वैसा उन्हें नहीं मिला. पत्नी उन की सलाह पर काम नहीं करती, बल्कि मनमानी करती रहती है और कई बार तो वे उस की नाजायज फरमाइशों पर बस सिर धुन कर रह जाते हैं, परंतु अंत में जीत पत्नी की ही होती है और वह अपनी सहीगलत मांगें मनवा कर रहती है. उस के अत्यधिक लाड़प्यार और बच्चों को अतिरिक्त सुविधाएं मुहैया कराने से बच्चे भी बिगड़ते जा रहे थे.

उन का ध्यान पढ़ाई में कम, तफरीह में ज्यादा रहता था. देर रात जब वे घर पहुंचे तो स्वाति उन का इंतजार कर रही थी. नाराज सी लग रही थी. यह कोई नई बात नहीं. किसी न किसी बात को ले कर वह अकसर उन से नाराज ही रहती थी.

वे चुपचाप अपने कमरे में कपड़े बदलने लगे, फिर बाथरूम में जा कर इत्मीनान से फ्रैश हो कर बाहर निकले. पत्नी, बेटों के साथ बैठी टीवी देख रही थी.

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वे कुछ नहीं बोले तो पत्नी ने ही पूछा, ‘‘आज इतनी देर कहां कर दी?’’

‘‘बस, यों ही, औफिस में थोड़ा काम था, रुक गया,’’ उन्होंने बिना किसी लागलपेट के कहा.

पत्नी ने कहा, ‘‘मैं कब से आप का इंतजार कर रही हूं.’’

‘‘अच्छा, कोई काम है क्या?’’ उन्होंने कुछ चिढ़ने के भाव से कहा. अब उन की समझ में आया कि पत्नी उन के देर से आने के लिए चिंतित नहीं थी. उसे अपने काम की चिंता थी, इसलिए उन का इंतजार कर रही थी.

‘‘हां, नवल को नई बाइक लेनी है. उस ने देखी है, कोई स्पोर्ट्स बाइक है, लगभग 1 लाख रुपए की.’’

नवल उन का बड़ा लड़का था. एक नंबर का लफंगा. पढ़ाई में कम, घूमनेफिरने और लड़कियों के चक्कर में उस का ध्यान ज्यादा रहता था.

‘‘उस के पास पहले से ही एक बाइक है, दूसरी ले कर क्या करेगा?’’ उन्हें मन ही मन क्रोध आने लगा था.

स्वाति ने बहुत ही लापरवाही से कहा, ‘‘क्या करेगा? आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे बच्चों की कोई जरूरत ही नहीं होती. जवान लड़का है, दोस्तों के साथ घूमनाफिरना पड़ता है. स्टेटस नहीं मेनटेन करेगा तो उस की इज्जत कैसे बनेगी? उस के कितने सारे दोस्त हैं, जिन के पास कारें हैं. वह तो केवल बाइक ही मांग रहा है. पुरानी वाली बेच देगा.’’

‘‘स्टेटस मोटरबाइक या कारों से नहीं बनता, बल्कि पढ़ाई में अव्वल आने और अच्छी नौकरी करने से बनता है. तभी इज्जत मिलती है. मैं हमेशा कहता रहा हूं, बहुत ज्यादा लाड़प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं, परंतु तुम ध्यान ही नहीं देतीं. अपने बेटों की हम हर  जरूरत पूरी करते हैं, परंतु क्या वे हमारी इच्छा और आकांक्षा के अनुसार पढ़ाई कर रहे हैं? नहीं. बड़ा वाला न जाने कब बीसीए पूरा कर पाएगा. हर साल फेल हो जाता है और छोटा वाला अभी तो कोचिंग ही कर रहा है. प्रेम के क्षेत्र में सभी उत्तीर्ण होते चले जा रहे हैं, परंतु पढ़ाई की परीक्षा में लगातार फेल हो रहे हैं,’’ उन का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

‘‘बेकार की भाषणबाजी से क्या फायदा? बच्चों की जरूरतों को पूरा करना हमारा कर्तव्य है. हमारे कमाने का क्या फायदा, अगर वह बच्चों के काम न आए,’’ फिर उस ने चेतावनी देने वाले अंदाज में कहा, ‘‘कल उस को बाइक के लिए चैक दे देना, बाकी मैं कुछ नहीं जानती,’’ पत्नी इतना कह कर चली गई.

वे धम से बिस्तर पर बैठ गए. यह उन की पत्नी है, जिस के साथ वे लगभग 25 वर्ष से गुजारा कर रहे हैं. वे दफ्तर से आए हैं और उस ने न उन का हालचाल पूछा, न चायपानी के लिए और न ही खाने के लिए. यह कोई नई बात नहीं थी. रोज ही वह अपने बेटों की कोई नई फरमाइश लिए तैयार बैठी रहती है और जैसे ही वे दफ्तर से आते हैं, फरमान जारी कर देती है. उस का फरमान ऐसा होता है कि वे नाफरमानी नहीं कर सकते थे. वे ना करने की स्थिति में कभी नहीं होते. पत्नी के असाधारण और अनुचित तर्क उन के उचित र्कों को भी काटने में सक्षम होते थे.

इस का कारण था, वे बहुत भावुक और संवेदनशील थे. उन का मानना था कि जड़ और मूर्ख व्यक्ति के साथ मुंहजोरी करने से स्वयं को ही दुख पहुंचता है.

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दूसरी तरफ बेटे उन की नाक में दम किए रहते हैं. जब भी घर पहुंचो, या तो वे टीवी देखते रहते हैं या फिर मोबाइल में किसी से बात कर रहे होते हैं या फिर होमथिएटर में आंखें और कान फोड़ते रहते हैं. इस से छुटकारा मिला तो इंटरनैट में अनजान लड़केलड़कियों से दोस्ती कायम कर रहे होते हैं. इंटरनैट ने भी यह एक अजीब बीमारी फैला दी है कि जिस व्यक्ति को हम जानतेपहचानते नहीं, उस से इंटरनैट की अंधी दुनिया में दोस्ती कायम करते हैं और जो सामने होते हैं, उन को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते.

उन के लड़के दुनियाभर के कार्य करते हैं, परंतु पढ़ाई करते हुए कभी नहीं दिखते. उन के समझाने पर वे भड़क जाते हैं, क्योंकि मां की शह उन के साथ होती है.

वे बिस्तर पर लेट कर विचारों में खो गए. मणिकांत 50 की उम्र पार कर रहे थे. अब तक दांपत्य जीवन और पत्नीप्रेम के अटूट बंधन पर उन्हें अति विश्वास था, परंतु अब उन का विश्वास डगमगाने लगा था. उन्हें लगने लगा था कि प्रेम एक ऐसी चीज है जो जीवनभर एकजैसी नहीं रहती है. प्रेम परिस्थितियों के अनुसार घटताबढ़ता रहता है. स्वाति उन्हें कितना प्रेम करती है, वे अब तक नहीं समझ पाए थे, परंतु अब उस के कर्कश और क्रूर व्यवहार के कारण स्वयं को उस से दूर करते जा रहे थे, तन और मन दोनों से. पत्थरों से सिर टकराना बहुत घातक होता है. अब उन्हें यह एहसास हो गया था कि वे व्यर्थ में ही एक ऐसी स्त्री के साथ दांपत्य सूत्र में बंध कर अपने जीवन को निसार बनाते रहे हैं, जो उन के मन को बिलकुल भी समझने के लिए तैयार नहीं थी.

अपनी पत्नी से अब उन्हें एक विरक्ति सी होने लगी थी और जवान हो चुके बच्चों को वे एक बोझ समझने लगे थे. वे जीवनभर न केवल अपना प्यार पत्नी और बच्चों पर लुटाते रहे, बल्कि उन की सुखसुविधा की चिंता में रातदिन खटते रहे. परिवार के किसी व्यक्ति को कभी एक पैसे का कष्ट न हो, इस के लिए वे नौकरी के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी आय के साधन ढूंढ़ते रहे परंतु उन के स्वयं के हितों की तरफ परिवार के किसी सदस्य ने कभी ध्यान नहीं दिया. पत्नी ने भी नहीं. वह तो बच्चों के पैदा होते ही उन के प्रेमस्नेह और देखभाल में ऐसी मगन हो गई कि घर में पति नाम का एक अन्य जीव भी है, वह भूल सी गई. बच्चों की परवरिश, उन की पढ़ाईलिखाई और उन को जीवन में आगे बढ़ाने की उठापटक में ही उस ने जीवन के बेहतरीन साल गुजार दिए. मणिकांत पत्नी के लिए एक उपेक्षित व्यक्ति की तरह घर में रह रहे थे. वे बस पैसा कमाने और परिवार के लिए सुखचैन जुटाने की मशीन बन कर रह गए.

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दांपत्य जीवन के प्रारंभ से ही पत्नी का व्यवहार उन के प्रति रूखा था और कई बार तो उस का व्यवहार अपमानजनक स्थिति  तक पहुंच जाता था. पति की आवश्यकताओं के प्रति वह हमेशा लापरवाह, परंतु बच्चों के प्रति उस का मोह आवश्यकता से अधिक था. बच्चों को वे प्यार करते थे, परंतु उस हद तक कि वे सही तरीके से अपने मार्ग पर चलते रहें. गलती करें तो उन्हें समझा कर सही मार्ग पर लाया जाए, परंतु पत्नी बच्चों की गलत बातों पर भी उन्हीं का पक्ष लेती. इस से वे हठी, उद्दंड होते गए.

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Serial Story: मन की खुशी (भाग-2)

उन्होंने कभी अगर बच्चों को सुधारने के उद्देश्य के कुछ नसीहत देनी चाही तो पत्नी बीच में आ जाती. कहती, ‘आप क्यों बेकार में बच्चों के पीछे अपना दिमाग खराब कर रहे हैं. मैं हूं न उन्हें संभालने के लिए. अभी छोटे हैं, धीरेधीरे समझ जाएंगे. आप अपने काम पर ध्यान दीजिए, बस.’

अपना काम, यानी पैसे कमाना और परिवार के ऊपर खर्च करना. वह भी अपनी मरजी से नहीं, पत्नी की मरजी से. इस का मतलब हुआ पति का परिवार को चलाने में केवल पैसे का योगदान होता है. उसे किस प्रकार चलाना है, बच्चों को किस प्रकार पालनापोसना है और उन्हें कैसी शिक्षा देनी है, यह केवल पत्नी का काम है. और अगर पत्नी मूर्ख हो तो…तब बच्चों का भविष्य किस के भरोसे? वे मन मसोस कर रह जाते.

पत्नी का कहना था कि बच्चे धीरेधीरे समझ जाएंगे, परंतु बच्चे कभी नहीं समझे. वे बड़े हो गए थे परंतु मां के अत्यधिक लाड़प्यार और फुजूलखर्ची से उन में बचपन से ही बुरी लतें पड़ती गईं. उन के सामने ही उन के मना करने के बावजूद पत्नी बच्चों को बिना जरूरत के ढेर सारे पैसे देती रहती थी. जब किसी नासमझ लड़के के पास फालतू के पैसे आएंगे तो वह कहां खर्च करेगा. शिक्षा प्राप्त कर रहे लड़कों की ऐसी कोई आवश्यकताएं नहीं होतीं जहां वे पैसे का इस्तेमाल सही तरीके से कर सकें. लिहाजा, उन के बच्चों के मन में बेवजह बड़प्पन का भाव घर करता गया और वे दिखावे की आदत के शिकार हो गए. घर से मिलने वाला पैसा वे लड़कियों के ऊपर होटलों व रेस्तराओं में खर्च करते और दूसरे दिन फिर हाथ फैलाए मां के पास खड़े हो जाते.

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बचपन से ही बच्चों के कपड़ों, स्कूल की किताबों और फीस, उन के खानपान और दैनिक खर्च की चिंता में पत्नी दिनरात घुलती रहती, परंतु कभी यह न सोचती कि पति को भी दिनभर औफिस में काम करने के बाद घर पर एक पल के लिए आराम और सुकून की आवश्यकता है. उन के जीवन में आर्थिक संकट जैसी कोई स्थिति नहीं थी. परंतु अगर कभी कुछ पल या एकाध दिन के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न होती थी, तो उन्होंने बहुत शिद्दत से इस बात को महसूस किया था कि पत्नी का मुंह तब टेढ़ा हो जाता था. वह उन की परेशानी की चिंता तो छोड़, इस बात का ताना मारती रहती थी कि उन के साथ शादी कर के उस का जीवन बरबाद हो गया, कभी सुख नहीं देखा, बस, परिवार को संभालने में ही उस का जीवन गारत हो गया.

तब पतिपत्नी के बीच बेवजह खटपट हो जाती थी. हालांकि वे तब भी चुप रहते थे, क्योंकि पत्नी को उन के वाजिब तर्क भी बुरे लगते थे. इसलिए बेवजह बहस कर के वे स्वयं को दुखी नहीं करते थे. परंतु उन के चुप रहने पर भी पत्नी का चीखनाचिल्लाना जारी रहता. वह उन के ऊपर लांछन लगाती, ‘हां, हां, क्यों बोलोगे, मेरी बातें आप को बुरी लगती हैं न. जवाब देने में आप की जबान कट जाती है. दिनभर औफिस की लड़कियों के साथ मटरगस्ती करते रहते हो न. इसलिए मेरा बोलना आप को अच्छा नहीं लगता.’

पत्नी की इसी तरह की जलीकटी बातों से वे कई दिनों तक व्यथित रहते. खैर, परिवार के लिए धनसंपत्ति जुटाना उन के लिए कोई बड़ी मुसीबत कभी नहीं रही. वे उच्च सरकारी सेवा में थे और धन को बहुत ही व्यवस्थित ढंग से उन्होंने निवेश कर रखा था और अवधि पूरी होने पर अब उन के निवेशों से उन्हें वेतन के अलावा अतिरिक्त आय भी होने लगी थी. जैसेजैसे बच्चे बड़े होते गए, उन की जरूरतें बढ़ती गईं, उसी हिसाब से उन का वेतन और अन्य आय के स्रोत भी बढ़ते गए. संपन्नता उन के चारों ओर बिखरी हुई थी, परंतु प्यार कहीं नहीं था. वे प्रेम की बूंद के लिए तरस रहे उस प्राणी की तरह थे, जो नदी के पाट पर खड़ा था, परंतु कैसी विडंबना थी कि वह पानी को छू तक नहीं सकता था. पत्नी के कर्कश स्वभाव और बच्चों के प्रति उस की अति व्यस्तताओं ने मणिकांत को पत्नी के प्रति उदासीन कर दिया था.

उधर, छोटा बेटा भी अपने भाई से पीछे नहीं था. बड़े भाई की देखादेखी उस ने भी बाइक की मांग पेश कर दी थी. दूसरे दिन उसे भी बाइक खरीद कर देनी पड़ी. ये कोई दुखी करने वाली बातें नहीं थीं, परंतु उन्होंने पत्नी से कहा, ‘लड़कों को बोलो, थोड़ा पढ़ाई की तरफ भी ध्यान दिया करें. कितना पिछड़ते जा रहे हैं. सालदरसाल फेल होते हैं. यह उन के भविष्य के लिए अच्छी निशानी नहीं है.’

पत्नी ने रूखा सा जवाब दिया, ‘आप उन की पढ़ाई को ले कर क्यों परेशान होते रहते हैं? उन्हें पढ़ना है, पढ़ लेंगे, नहीं तो कोई कामधंधा कर लेंगे. कमी किस बात की है?’

एक अफसर के बेटे दुकानदारी करेंगे, यह उन की पत्नी की सोच थी. और पत्नी की सोच ने एक दिन यह रंग भी दिखा दिया जब लड़के ने घोषणा कर दी कि वह पढ़ाई नहीं करेगा और कोई कामधंधा करेगा. मां की ममता का फायदा उठा कर उस ने एक मोबाइल की दुकान खुलवा ली. इस के लिए उन को 5 लाख रुपए देने पड़े.

परंतु बड़े बेटे की निरंकुशता यहीं नहीं रुकी. उन्हें मालूम नहीं था, परंतु स्वाति को पता रहा होगा, वह किसी लड़की से प्यार करता था. पढ़ाई छोड़ दी तो उस के साथ शादी की जल्दी पड़ गई. शायद उसे पता था कि मणिकांत आसानी से नहीं मानेंगे, तो उस ने चुपचाप लड़की से कोर्ट में शादी कर ली. अप्रत्यक्ष रूप से इस में स्वाति का हाथ रहा होगा.

जिस दिन बेटा बिना किसी बैंडबाजे के लड़की को घर ले कर आया, तो उन की पत्नी ने अकेले उन की अगवानी की और रीतिरिवाज से घर में प्रवेश करवाया. पत्नी बहुत खुश थी. छोटा बेटा भी मां का खुशीखुशी सहयोग कर रहा था. वे एक अजनबी की तरह अपने ही घर में ये सब होते देख रहे थे. किसी ने उन से न कुछ कहा न पूछा.

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पत्नी ने यह भी नहीं कहा कि वे बहू को आशीर्वाद दे दें. उन को दुख हुआ, परंतु किसी से व्यक्त नहीं कर सकते थे. बात यहां तक रहती तब भी वे संतोष कर लेते, परंतु दूसरे दिन पत्नी और बेटे की जिद के चलते परिचितों व रिश्तेदारों को शादी का रिसैप्शन देना पड़ा. इस में उन के लाखों रुपए खर्च हो गए. परिवार के किसी व्यक्ति की खुशी में वे भागीदार नहीं थे, परंतु उन की खुशी के लिए पैसा खर्च करना उन का कर्तव्य था. इसी मध्य, उन्हें छींक आई और वे भूत के विचारों की धुंध से वर्तमान में लौट आए.

मणिकांत ने जीवन के लगभग 25 वर्ष तक पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पत्नी को प्रेम किया था. पत्नी, परिवार और बच्चों की हर जरूरत पूरी की थी परंतु अब उन्हें लगने लगा था कि उन्होंने मात्र एक जिम्मेदारी निभाई थी. बदले में जो प्यार उन्हें मिलना चाहिए था वह नहीं मिला.

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Serial Story: मन की खुशी (भाग-3)

औफिस में अधिक देर तक बैठने से उन के मन को सुकून मिलता था. उस दिन उन के एक सहकर्मी मित्र उन के कमरे में आए और सामने बैठते हुए बोले, ‘‘क्यों यार, क्या बात है, आजकल देख रहा हूं, औफिस में देर तक बैठने लगे हो. काम अधिक है या और कोई बात है?’’

मणिकांत ने हलके से मुसकरा कर कहा, ‘‘नहीं, काम तो कोई खास नहीं, बस यों ही.’’

‘‘अच्छा, तो अब भाभीजी अच्छी नहीं लगतीं और बच्चे बड़े हो गए हैं. जिम्मेदारियां कम हो गई हैं?’’ मित्र ने स्वाभाविक तौर पर कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ मणिकांत ने चौंक कर पूछा.

‘‘मतलब साफ है, यार. आदमी घर से तब दूर भागता है जब पत्नी बूढ़ी होने लगे और उस का आकर्षण कम हो जाए. बच्चे भी इतने बड़े हो जाते हैं कि उन की अपनी प्राथमिकताएं हो जाती हैं. तब घर में कोई हमारी तरफ ध्यान नहीं देता. ऐसी स्थिति में हम या तो औफिस में काम के बहाने बैठे रहते हैं या किसी और काम में व्यस्त हो जाते हैं.’’

मणिकांत गुमसुम से बैठे रह गए. उन्हें लगा कि सहकर्मी की बात में दम है. वह जीवन की वास्तविकताओं से भलीभांति वाकिफ है और वे अपनी समस्या को उस मित्र के साथ साझा कर मन के बोझ को किसी हद तक हलका कर सकते हैं. मन ही मन निश्चय कर उन्होंने धीरेधीरे अपनी पत्नी से ले कर बच्चों तक की समस्या खोल कर मित्र के सामने रख दी, कुछ भी नहीं छिपाया. अंत में उन्होंने कहा, ‘‘अमित, यही सब कारण हैं जिन से आजकल मेरा मन भटकने लगा है. पत्नी से विरक्ति सी हो गई है. उस का ध्यान बच्चों की तरफ अधिक रहता है, धनसंपत्ति इकट्ठा करने में उस की रुचि है, बच्चों के भविष्य बिगाड़ती जा रही है. बच्चों के बारे में कुछ तय करने में मेरा कोई सहयोग नहीं लेती. इस के अतिरिक्त एक पति की दैनिक जरूरतें क्या हैं, उन की तरफ वह बिलकुल ध्यान नहीं देती.’’

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‘‘बच्चों के प्रति मां की चिंता वाजिब है, परंतु मां की बच्चों के प्रति अति चिंता बच्चों को बनाती कम, बिगाड़ती ज्यादा है,’’ अमित ने स्वाभाविक भाव से कहा.

‘‘सच कहते हो. पत्नी और बच्चों के साथ रहते हुए जिस प्रकार का जीवन मैं व्यतीत कर रहा हूं, उस से मुझे लगता है कि पारिवारिक रिश्ते केवल पैसे के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं. उन में प्रेम नाम का तत्त्व नहीं होता है या अगर ऐसा कोई तत्त्व दिखाई देता है तो केवल स्वार्थवश. जब तक स्वार्थ की पूर्ति होती रहती है तब तक प्रेम दिखाई देता है. जैसे ही परिवार में अभाव की टोली अपने लंबे पैर पसार कर बैठ जाती है वैसे ही परिवार के बीच लड़ाईझगड़ा आरंभ हो जाता है. तब प्रेम नाम का जीव पता नहीं कहां विलीन हो जाता है.’’

‘‘परिवार में इस तरह की छोटीछोटी बातें होती रहती हैं परंतु मन में गांठ बांध कर इन को बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं होता,’’ अमित ने समझाने के भाव से कहा.

‘‘मैं ने अपने मन में कोई गांठ नहीं बनाई. अब तक हर संभव कोशिश की कि पत्नी के साथ सामंजस्य बिठा सकूं, बच्चों को उचित मार्गदर्शन दे सकूं, परंतु पत्नी की हठधर्मी के आगे मेरी कोई नहीं चलती. मैं जैसे अपने ही घर में कोई पराया व्यक्ति हूं. मेरी अहमियत केवल यहीं तक है कि मैं उन के लिए पैसा कमाने की मशीन हूं. इस से मेरे मन को ठेस पहुंचती है. बच्चे तो कईकई दिन तक मुझ से बात नहीं करते. मैं उन से आत्मीयता से बात करने की कोशिश करता हूं, तब भी मुझ से दूर रहते हैं. हर जरूरत के लिए वे मां के पास जाते हैं. बड़ा तो जैसेतैसे अब अपने सहीगलत मार्ग पर चल रहा है. अपनी मरजी से शादी की, खुश रहे, परंतु छोटा तो अभी किसी कोर्स के लिए क्वालीफाई तक नहीं कर पाया है. हर बार एंट्रेंस एग्जाम में फेल हो जाता है. दिनभर घूमता रहता है, पता नहीं, क्या करने का इरादा है? उस की हरकतों से मुझे असीम कष्ट पहुंचता है.’’

‘‘कभी तुम ने भाभीजी के स्वभाव का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया या जानने की कोशिश की कि वे क्यों ऐसी हैं?’’ अमित ने पूछा.

‘‘बहुत बार किया. कई बार तो उस से ही पूछा, ‘तुम क्यों इतनी चिड़चिड़ी हो? जब देखो तब गुस्से में रहती हो. तुम्हें क्यों हर वक्त सब से परेशानी रहती है?’ तब वह भड़क कर बोली, ‘कौन कहता है कि मैं चिड़चिड़ी हूं और सदा गुस्से में रहती हूं. मेरे स्वभाव में क्या कमी है? आप को ही मेरा स्वभाव अच्छा नहीं लगता तो मैं क्या करूं.’ बाद में मैं ने उस के मायके में पता किया तो पता चला कि वह जन्म से ऐसी ही चिड़चिड़ी, गुस्सैल और जिद्दी थी. तोड़नाफोड़ना उस का स्वभाव था. मनमानी कर के अपनी सहीगलत बातें मांबाप से मनवा लेती थी. उसी चरित्र को आज भी वह जी रही है. अब उस में क्या परिवर्तन आएगा?’’

‘‘मैं कुछ हद तक तुम्हारी समस्या समझ सकता हूं. तुम्हारे परिवार की यह स्थिति पत्नी के स्वार्थी और कर्कश स्वभाव के कारण है. ऐसी पत्नी दूसरों को उपेक्षित कर के स्वयं ऊंचा रख कर देखती है. उस के लिए उस का स्वर और बच्चे ही अहम होते हैं. ऐसी स्त्रियों का अनुपात हमारे समाज में कम है, फिर भी उन की संख्या कम नहीं है. इस तरह की पत्नियां अपने पतियों का जीवन ही नहीं, पूरे ससुराल वालों का जीना दुश्वार किए रहती हैं. मुझे लगता है भाभीजी ऐसे ही चरित्र वाली महिला हैं. इस तरह की स्त्रियां चोट खा कर भी नहीं संभलतीं.’’

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‘‘तब फिर परिवार में सामंजस्य बनाए रखने और खुशियों को जिंदा रखने का क्या उपाय है?’’ मणिकांत ने पूछा.

‘‘बहुत आसान है मेरे भाई. जब घरपरिवार में पत्नी और बच्चों से खुशियां न मिलें तो आदमी अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी खुशी तलाश कर सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’ उन्होंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की.

‘‘तुम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए परिवार को भी खुश रख सकते हो, और स्वयं के लिए मन की खुशी भी तलाश कर सकते हो,’’ अमित ने रहस्यमयी तरीके से कहा.

‘‘मन की खुशी कैसी होती है?’’ मणिकांत की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. अमित के सामने वे एक बच्चा बन गए थे.

अमित ने एक शिक्षक की तरह उन्हें समझाया, ‘‘खुशियां केवल भौतिक चीजों से ही नहीं मिलतीं, ये मनुष्य के मन में भी होती हैं. बस, हम उन्हें पहचान नहीं पाते.’’

‘‘मन की खुशियां कैसे तलाश की जा सकती हैं? ’’ वे जानने के लिए उतावले हो रहे थे.

‘‘ऐसी खुशियां हम अपनी रुचि और शौक के मुताबिक कार्य कर के प्राप्त कर सकते हैं. प्रत्येक मनुष्य स्वभाव से कलाकार होता है, उस के चरित्र में रचनात्मकता होती है, परंतु जीवन की आपाधापी और परिवार के चक्कर में घनचक्कर बन कर, वह अपने आंतरिक गुणों को भुला बैठता है. अगर हम अपने आंतरिक गुणों की पहचान कर लें तो हर व्यक्ति, लेखक, चित्रकार, कलाकार, अभिनेता आदि बन सकता है. तुम बताओ, तुम्हारी रुचियां कौन सी हैं?’’

मणिकांत सोचने लगे. फिर कहा, ‘‘अब तो जैसे मैं भूल ही गया हूं कि मेरी रुचियां और शौक क्या हैं, परंतु विद्यार्थी जीवन में कविताएं लिखी थीं और कुछ चित्रकारी का भी शौक था.’’

अमित ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘बस, यही तो हैं तुम्हारे आंतरिक गुण. तुम को बहुत अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है. बस, तुम फिर से लिखना शुरू कर दो और पैंसिल ले कर कागज पर आकार बनाना आरंभ करो. फिर देखना, कैसे तुम्हारी कला और लेखन में निखार आता है. तुम अपने परिवार के सभी कष्ट और दुख भूल कर स्वयं में इतना मगन हो जाओगे कि चारों तरफ तुम को खुशियां ही खुशियां बिखरी नजर आएंगी.’’

मणिकांत अमित की बात से सहमत थे. मुसकराते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद अमित, तुम ने मुझे सही रास्ता दिखाया. अब मैं परिवार के बीच भी खुशियां ढूंढ़ लूंगा.’’

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‘‘मैं ने तुम्हें कोई रास्ता नहीं दिखाया. प्रत्येक  व्यक्ति को खुशियों की मंजिल का पता होता है. बस, परिस्थितियों के भंवर में फंस कर वह अपना सही मार्ग भूल जाता है. मैं ने तो केवल तुम्हारी सोती हुई बुद्धि को जगाने का कार्य किया है.’’

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आखिर कब तक: मनु ने शुभेंदु की ऐसी कौन सी करतूत जान ली

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-1)

न जाने मैं कितनी बार मानसी का लिखा मेल पढ़ चुकी थी. हर बार नजर 2 लाइनों पर आ कर ठहर जाती, जिन में उस ने शुभेंदु से तलाक लेने की बात की थी.

20 साल तक विवाह की मजबूत डोर में बंधी जिंदगी जीतेजीते पतिपत्नी एकदूसरे की आदत बन जाते हैं. एकदूसरे के अनुसार ढल जाते हैं. फिर अलग होने का प्रश्न ही कहां उठता है. पर सचाई उन 2 लाइनों के रूप में मेरे सामने था. कैसे भरोसा करूं, समझ नहीं पा रही थी. सब कुछ झूठ सा लग रहा था.

कुछ भी हो मनु मेरी सब से प्रिय सखी थी. पहली बार हम दोनों एक संगीत समारोह में मिले थे. उसे संगीत से बेहद पे्रम था और मेरी तो दुनिया ही संगीत है. मानसी नाम बड़ा लगता था, इसलिए मैं उसे घर के नाम से पुकारने लगी थी. पहले मानसीजी, फिर मानसी और बाद में वह मनु हो गई. हमारे बीच कोई दुरावछिपाव नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में शुभेंदु के आने और उन से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह मुझ से शेयर कर लिया करती थी.

एक दिन उस ने शुभेंदु से मेरा परिचय भी करवाया था, ‘‘बसु, ये मेरे बौस…सीनियर आर्किटैक्ट शुभेंदु और मेरे….’’

उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने नमस्कार किया.

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‘‘आप वसुधाजी… मनु से आप के बारे में इतना सुन चुका हूं कि आप की पूरी जन्मपत्री मेरे पास है.’’

उन का यों परिहास करना अच्छा लगा था. लंबे, आकर्षक शुभेंदु से मिल कर पलभर को सखी के प्रति जलन का भाव जागा था. पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मनु जैसी युवती के लिए शुभेंदु के अलावा और कोई अयोग्य वर हो ही नहीं सकता था. कुदरत ने उसे रूप भी तो खूब बख्शा था. छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी, जो सहज ही किसी को अपनी ओर खींच लेती थी.

‘‘मैं अकसर उसे चिढ़ाती, मनु तू इतनी दुबलीपतली कमसिन सी है कि फूंक मारूं तो मक्खी की तरह उड़ जाए. क्या रोब पड़ता होगा तेरा औफिस में?’’

‘‘चल, हट. एक दिन औफिस आ कर देख ले. गस खा कर गिर जाएगी मेरा रुतबा देख कर.’’

‘‘अच्छा यह बता तेरे बौस तुझे लाइननहीं मारते?’’

‘‘नहीं, वे बहुत ही सज्जन इंसान हैं. उन का व्यवहार बहुत अच्छा है. काम को भी बहुत अच्छी तरह समझाते हैं. तारीफ करने में माहिर.’’

‘‘मैं नहीं मानती. एक सुंदर लड़की बगल में बैठी हो और वह लाइन न मारे.’’

सवाल ही नहीं उठता. मैं लड़का होती तो, कब का उड़ा ले जाती तुझे.

ब्याह के बाद मनु अकसर मुझे अपने घर ले जाती थी. इस में मेरा कोई श्रेय नहीं था. उन लोगों का मीठामीठा सा आमंत्रण भी रहता था. शुभेंदु का आग्रह मनु से भी अधिक रहता था. शुभेंदु की वाकपटुता का कोई सानी नहीं था. वे बात को ऐसे कहते, जैसे एक विषय को उन्होंने अपने भीतर से निकाला हो. मैं और मनु दोनों मूक श्रोता की तरह वे जो कहते उसे सुनते रहते.

एक दिन हम तीनों टीवी देखते हुए खाना खा रहे थे. खाना खत्म हुआ तो शुभेंदु हम तीनों की प्लेट किचन में रख आए.  मैं ने मजाक में कहा, ‘‘शुभेंदु, आप दूसरों का बहुत ध्यान रखते हैं.’’

वे एक विजयी मुसकान चेहरे पर लिए बोले, ‘‘वसुधाजी, जो इंसान दूसरों का आदर नहीं करता वह अपनी इज्जत क्या करेगा? उसे तो इज्जत की परिभाषा भी मालूम नहीं होगी. जिसे स्त्रियों की इज्जत करना नहीं आता उन से मुझे घृणा होती है.’’

शुभेंदु भाषण की टोन में बोल रहे थे. उन का बोलना भाषण नहीं लग रहा था. सचाई, ईमानदारी, और इंसानियत का तकाजा लग रहा था.

मैं ने देखा मनु कुछ नहीं बोली, हाथ धोने अंदर चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे चली गई. बोली, ‘‘मनु, जूठी प्लेटें उठाना बहुत बड़ी बात है. तूने शुभेंदु को थैंक्स भी नहीं कहा?’’

‘‘वसु, जिंदगी औपचारिकताओं से नहीं जी जाती. जीने के लिए एक साफसुथरी स्फटिक सी शिला पैरों के नीचे होनी चाहिए. वरना आदमी फिसलन से औंधे मुंह गिरता है.’’

‘‘वाह रे, इतनी बड़ीबड़ी बातें कहां से सीखीं?’’

उस ने मुसकरा कर विषय बदल दिया, ‘‘वसु, शादी को कब तक टालती रहेगी?’’

‘‘क्या करूं कोई मेरी पसंद का मिलता ही नहीं है?’’

‘‘तेरी पसंद क्या है. जरा मैं भी तो सुनूं?’’

न जाने किस अनजानेपन में मैं झट से बोल पड़ी, शुभेंदु जैसा.

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मनु के चेहरे पर सन्नाटे की लकीरें सी खिंच गईं. वह कुछ बोली नहीं. मैं ने ही उस के गले में बांहें डाल कर उस का डर दूर किया, ‘‘मनु, डर गई क्या?’’ मैं शुभेंदु को तुझ से नहीं छीनूंगी. तेरी गृहस्थी में आग नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘एक बात याद रखना परदे पर उभरने वाला दृश्य जितना सुलक्षण और सौंदर्यशाली होता है, उन के पीछे उतने ही घिनौने रास्ते होते हैं.’’

‘‘क्या बात है मनु… तेरी यह भाषा कहीं गहरे चोट करती है.’’

‘‘मुझे मनु पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि ये औरतें हमेशा अपने पतियों की बुराई ही क्यों करती हैं? मनु भी मुझे उन बेअकल औरतों की कतार में बैठी दिखी. हैरानी तो मुझे उस दिन हुई कि मैं अपनी आंखों पर कैसे सम्मोहन का परदा डाले हुए थी. एक दिन यह सम्मोहन परदे को चीरता हुआ बिखर गया. शुभेंदु मेरे ही सामने मनु पर बिफर रहे थे, जबकि वे बड़े गुमान से कहते थे कि आदमी की शालीनता उस की भाषा में होती है.’’

‘‘बराबरी तो हर समय करती हैं तुम औरतें, लेकिन अकल जरा भी नहीं है…’’

वे भुनभुना रहे थे. भूल गए थे कि मैं वहां बैठी हूं. उन का यह रूप मैं ने पहली बार देखा था. मैं हैरान सी कभी शुभेंदु को देखती तो कभी मनु को.

शुभेंदु, इतना गुस्सा, इतनी सी बात पर? आज चाटर्ड बस नहीं आई थी, इसलिए तुम्हारी गाड़ी ले गई, मनु ने धीरे से कहा. सुन कर शुभेंदु का पारा 1 डिग्री और चढ़ गया, ‘‘तुम इसे छोटी सी बात कह रही हो? समझदारी भी कोई चीज होती है. पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं और इन्हें ऐयाशी सूझ रही है.’’

‘‘शुभेंदु, आज मेरी कंपनी हैड के साथ मीटिंग थी. समय पर पहुंचना जरूरी था.’’

‘‘तो 7 बजे तक बिस्तर पर पड़े रहने की क्या जरूरत थी? जल्दी उठती.’’

लेकिन इस बार मनु ने कोई जवाबदेही नहीं की. मनु ने चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा और फिर हम घर से बाहर निकल आईं.

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Serial Story: आखिर कब तक (भाग-2)

‘‘मनु, तू अपनी गाड़ी क्यों नहीं खरीद लेती? बेकार की चिकचिक से बच जाएगी. आजकल सभी कंपनियां ईएमआई की सुविधा देती हैं.’’

‘‘कितनी गाडि़यों की ईएमआई भरूंगी मैं वसु. फिलहाल, घर खर्च से ले कर मकान का किराया सब मेरी पगार से चल रहा है.’’

‘‘क्यों शुभेंदु की पगार भी तो अच्छीखासी होगी. इतने बड़े पद पर हैं?’’

‘‘उन्होंने अपनी कंपनी से रिजाइन कर दिया है. अच्छा अब बहुत हो गई बातें, चल कोल्ड कौफी विद आईसक्रीम ले कर आते हैं. शुभेंदु को बहुत पसंद है. मैं ने अमानत मौल में एक सुंदर सी शर्ट भी देखी है वह भी खरीदनी है मुझे. चल जल्दी कर,’’ वह सहज हो रही थी.

‘‘किस के लिए शर्ट?’’

‘‘शुभेंदु के लिए. खुश हो जाएंगे.’’

‘‘खुश हो जाएंगे मतलब. उन की खुशी का तुझे इतना खयाल है?’’

‘‘और क्या? आखिर वे मेरे पति हैं. मैं उन से प्यार करती हूं,’’ वह खिलखिला रही थी.

‘‘और वह शुभेंदु का गुस्सा,’’ मैं ने उसे याद दिलाया.

‘‘छोड़ यार, रात गई बात गई. शादीशुदा जिंदगी में ये सब चलता ही रहता है.’’

‘‘मगर शुभेंदु ऐसे होंगे, मैं सोच भी नहीं सकती. उन की वे बड़ीबड़ी बातें…’’

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‘‘आजकल शुभेंदु की चिड़चिड़ाहट कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. एक तरफ जौब की परेशानी तो दूसरी तरफ मेरी पै्रगनैंसी. 5 महीने बाद मेरी डिलिवरी है. कहीं न कहीं तो अपना फ्रस्ट्रेशन उतारना ही है न?’’ वह अब भी शुभेंदु का पक्ष ले रही थी.

देखते ही देखते 5 महीने बीत गए. इस बीच मेरा रिश्ता पलाश से तय हो गया. मनु मेरी सगाई पर नहीं आ पाई थी. न ही शुभेंदु आए.

उस दिन उस ने अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था.

नामकरण वाले दिन मैं उस से मिलने गई तो वह फूटफूट कर कर रो पड़ी, ‘‘आज फुरसत मिली तुझे. एक बार आ कर देख तो लेती. तेरी मनु अस्पताल में अकेली किस तरह प्रसवपीड़ा से छटपटा रही थी… और कुछ नहीं तो… कम से कम… मौरल सपोर्ट तो दे ही सकती थी.’’

मैं उस के आंसू पोंछती रही, दिलासा देती रही. थोड़ी शांत हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘शुभेंदु कहां थे उस दिन?’’

पति की बात चलते ही उस के चेहरे से भावुकता के भाव एकदम लोप हो गए. पहले से धीमी आवाज को और दबा कर तटस्थ भाव से बोली, ‘‘एक इंटरव्यू के सिलसिले में वरसोवा गए थे. वसु आजकल मार्केट का बुरा हाल है. कामना कर उन्हें नौकरी मिल जाए. अभी तक हम 2 थे. अब साइना और विराम भी आ गए हैं. दिन ब दिन खर्चे बढ़ेंगे. पहले स्कूल, फिर कालेज… फिर शादी.’’

‘‘अरे, इतनी दूर कहां पहुंच गई तू बसु? शुभेंदु उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी भी. उन्हें जौब मिल जाएगी.’’

हम बातें कर ही रहे थे कि शुभेंदु हाथ में गरमगरम समोसे की प्लेटें और कलाकंद का डब्बा हाथ में ले कर हाजिर हुए. उन्होंने फरमाइश की, ‘‘वसुधाजी, आप को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बहुत सुना है. आप यहां भी कुछ सुनाइए. खुशी का मौका है?’’

‘‘अभी यहां? न हारमोनियम, न तानपुरा…’’ मैं ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ… तभी तो तुम्हारी आवाज अपने असली रूप में आएगी.’’

असली शब्द मेरे मस्तिष्क दिमाग में लगातार वर्षा की बूंदों की तरह टपटप कर उठा था. मनु ने एक बार कहा था कि असलियत क्या है वसु. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

मनु ने भी आग्रह किया तो मैं मना नहीं कर सकी. आंखें बंद कर के एक ठुमरी शुरू कर दी. कमरे में सिर्फ मेरी आवाज थी. उन दोनों की सांसों की भी कोई आवाज वातावरण में नहीं थी. गाना खत्म होने पर शुभेंदु वाहवाह कर उठे थे. अचानक उठ कर उन्होंने मुझे आलिंगन में ले लिया और गालों पर हलका सा एक चुंबन भी अंकित कर दिया. मैं हैरान रह गई. पर उसी समय मनु ने भी शुभेंदु की नकल कर दी. उन की दृष्टि में बात सामान्य हो गई. पर उसी समय मेरे अंतस में एक फांस सी चुभ गई शुभेंदु के प्रति, उन के व्यवहार के प्रति, चरित्र के प्रति.

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कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि मनु जरूरत की चीजें खरीदने के लिए भी अपने हाथ रोक लेती, यहां तक कि बच्चों के खिलौने और कपड़ों की शौपिंग तक भी टाल जाती.

उन दिनों ‘बेबी केयर’ में सेल लगी थी. मैं ने उसे अपने साथ चलने के लिए कहा. सोचा, इसी बहाने से विराम और साइना के लिए कुछ खरीद लूंगी. मनु भी शौपिंग कर लेगी. बच्चों को मैं ने कुछ भी नहीं दिया था.

शुभेंदु नहीं मानेंगे, वह साफ टाल गई.

‘‘पर तू खुद भी तो कमाती है मनु? एटीएम से पैसे निकाल और अपनी मरजी का कुछ भी खरीद ले.’’

‘‘मेरे सारे कार्ड उन के पास हैं. उन से पूछे बिना मैं एक रूमाल तक नहीं खरीदती.’’

‘‘क्यों, मना करते हैं क्या?’’

‘‘नहीं, मुझे लगता है, इस से उन के अहं को संतुष्टि मिलती है.’’

जैसेजैसे शादी की तारीख निकट

आती जा रही थी मेरी मसरूफियत भी बढ़ती जा रही थी. शादी के बाद मैं पलाश के साथ कैलिफोर्निया शिफ्ट होने वाली थी. मां और भाभी मेहमानों की आवभगत की तैयारी में जुटी थीं. कार्डों को छपवाने और बंटवाने का जिम्मा मुझ पर और भैया पर था.

समय कम था, इसलिए अपने निकटस्थ मित्रों, परिजनों को छोड़ कर औरों को औनलाइन कार्ड भेज दिए. मनु से मिले हुए काफी दिन हो गए थे. प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुझे 2 दिन के लिए मुंबई भी जाना था. सोचा उन सब से मिलती हुई, कार्ड देती मैं एअरपोर्ट निकल जाऊंगी.

जब घर पहुंची तो मनु अपने कमरे में लेटी थी. उसे तेज बुखार था. बच्चे सो रहे थे. शुभेंदु, ड्राइंगरूम में टीवी देख रहे थे.

मेरा लैपटौप बैग देख कर बोले, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’

‘‘मुंबई जाना है, उस के बाद 20 दिन का अवकाश,’’ मैं अपने ही खयालों में खोई हुई थी.

‘‘मैं कौफी लाता हूं.’’

‘‘आप बैठिए. मैं बढि़या कौफी बनाती हूं. कह में किचन में चली गई.’’

मैं किचन में जा कर कौफी घोट रही थी कि शुभेंदु ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में घेर लिया. कप और चम्मच हाथ में लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर बोले, ‘‘ऐसे नहीं, ऐसे घोटी जाती है कौफी.’’

उन के मजाक को पूर्णतया हंसी में उड़ा कर उन की बांहों के नीचे से मैं बाहर निकल आई. लेकिन यह शुभेंदु का मजाक नहीं था. उन की आंखों में पहली बार मैं ने कुछ देखा था, जो एक मित्र की आंखों में नहीं, एक पुरुष का स्त्री को देख कर उपजता है.

‘‘शुभेंदु बिहेव योर सैल्फ,’’ मैं उन का बड़प्पन भूल गई. उन के लिए मेरे मन में जो आदरसम्मान की भावना थी वह धुएं की तरह उड़ गई. उस की जगह घृणा पनप उठी. मैं चीख पड़ी, ‘‘मैं सब मनु को बताऊंगी.’’

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लेकिन शुभेंदु ढीठता से हंस रहे थे. मैं अपने मन की उथलपुथल से पिस रही थी. क्या करूं? मनु को सब बता दूं? सुन कर वह सहन भी कर सकेगी. पता नहीं उस की प्रतिक्रिया कैसी होगी. एक अच्छी मित्रता के टूटने का अवसाद दिल पर भारी पड़ने लगा था.

आगे पढें- मनु सब जानती थी. वह…

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-3)

मगर मनु सब जानती थी. वह यह भी जानती थी कि शुभेंदु वरसोवा में किसी कंसलटैंट से नहीं, रूपा नाम की एक टीचर से मिलने जाते हैं.

‘‘मैं उन की पत्नी हूं. उन को बाहर और भीतर से जानती हूं. मैं ने तुझ से कहा तो था. वास्तविकता क्या है. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

‘‘पर मनु, तू ऐसी दोहरी जिंदगी कैसे जी लेती है, मैं समझ नहीं पा रही हूं,’’ सबकुछ जानते हुए उस जहर को अपने गले से कैसे उतार रही है.’’

‘‘वसु ये मजबूरियां… औरत के लिए 2 ही रास्ते हैं, या तो चुप रह कर घर की शांति हर कीमत पर खरीदती रहे या फिर काट ले खुद को इन सब से. पर वह अकेले जी भी कहां पाती है?’’

‘‘मैं तो नहीं मानती… तू पढ़ीलिखी है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी है. छोड़ दे शुभेंदु को.’’

‘‘और अपने बच्चों को उसी वंचित बचपन की तृष्णा भुगतने दूं, जो मैं ने भुगती थी? वसु चिडि़या भी अपने बच्चों की देखभाल तब तक करती है जब तक ये उड़ना नहीं सीख जाते. मेरे मातापिता ने तो आज तक मेरी सुध ही नहीं ली. जिस उम्र में लड़कियां गुड्डेगुडि़यों के ब्याह रचाती हैं, मैं ने उस उम्र में दरदर की ठोकरें खाई हैं. कई बार मन विचलित हुआ था. यदि मुझे पाल नहीं सकते थे तो जन्म ही क्यों दिया था? नहींनहीं… मैं शुभेंदु से कभी तलाक नहीं लूंगी… मैं ने अपनी नियति से समझौता कर लिया है.’’

कैलिफोर्निया में बराबर उस के मेल मिलते रहते थे मुझे. कई बार फोन पर भी बात हुई, लेकिन शुभेंदु से तलाक लेने की बात उस ने कभी नहीं की. फिर ऐसा क्या घटा जो वज्र जैसी छाती को चीर गया. बच्चों की खातिर कराहते वैवाहिक बंधन का निर्वहन करने का दम भरने वाली मनु स्वयं कैसा कठोर निर्णय ले बैठी? क्या पतिपत्नी का जुड़ाव नासूर बन कर ऐसी लहूलुहान पीड़ा दे गया कि अब दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह गया था.

अचानक टैक्सी रुकने की आवाज ने मुझे ऊहापोह की यात्रा से लौट आने के लिए विवश कर दिया. मेल पर भेजे पते को खोजती हुई मैं सही स्थान पर पहुंच गई थी.

दिल्ली के एक पौश इलाके में स्थित बहुमंजिला इमारत में उस का सुंदर सा फ्लैट था. घर की सजावट देख कर लगा उस के पास जीविका के सभी साधन हैं. किसी की दया की मुहताज नहीं है वह. टेबल पर लगे फाइलों के ढेर, बारबार बजती फोन की घंटी उस की मसरूफियत के साफ परिचायक थे.

कुछ ही देर में मनु मेरे सामने थी. उसे आलिंगन में ले कर उस के माथे को चूम लिया मैं ने… उस की आंखों से आंसू बहने लगे. आंसू दांपत्य की टूटन और उस से उत्पन्न हताशा के सूचक थे या किसी अपने करीबी से मिलने की खुशी में तनमन भिगो गए थे, नहीं जान पाई थी. 20 साल के इस अंतराल में बहुत कुछ दरक गया था. सबकुछ पूछने ही तो आई थी उस के पास.

काफी समय इधरउधर की बातों में ही निकल गया. कभी वह पलाश के बारे में पूछती कभी मेरे बेटे सुहास के विषय में. मैं कनखियों से उस के दिव्यरूप को निहार रही थी. वही गौर वर्ण, मृगनयनी सी आंखें… कुल मिला कर अभी भी किसी पुरुष को आकर्षित कर सकती थी. वही मृदुभाषिता, वही सौम्य व्यवहार कुछ भी तो नहीं बदला था. उस की मांग का सिंदूर, कलाइयों में खनकती लाल चूडि़यां और माथे पर लाल बिंदिया देख कर मन शंकित हो उठा था. ये निशानियां तो पति के वजूद की सूचक हैं. फिर मेल.

मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने में ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. उस का शांत चेहरा सहसा कठोर हो गया. होंठों पर जबरन बनावटी मुसकान बिखेरती मनु धीमे स्वर में बोली, ‘‘वसु, बचपन में एक पोंगा पंडित की कहानी पढ़ी थी, जिस ने वरदान के महत्त्व को न समझ कर उसे व्यर्थ ही खो दिया था. कहानी का अंत कुछ इस प्रकार से था कि दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए. वरना देने वाले और पाने वाले दोनों का ही कल्याण नहीं होता.’’

‘‘लेकिन, यहां इस कहानी का क्या मतलब है?’’

‘‘शुभेंदु वह पात्र नहीं था, जो मेरे प्रेम, समर्पण, त्याग और निष्ठा को समझ पाता.’’

‘‘लेकिन, तूने तो उसे मन से अपनाया था.’’

‘‘लोग तो पत्थर को पूजते हैं. लेकिन मैं ने जीतेजागते इंसान को पूजा था. समझ में नहीं आता, ऐसी क्या कमी रह गई मेरी पूजा में, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकला,’’ वह आंखों से शून्य में ताकती रही.

‘‘जाने दे मनु, जो तेरे योग्य ही नहीं था उसे खोने का दुख क्यों?’’

मैं ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. मगर वह अपने में ही खोई बोलती रही. ‘‘शुभेंदु ने कभी पैसा नहीं कमाया. मैं चुप रही. मेरे शरीर को जागीर समझ कर पीड़ा दी. मैं अपने होंठ सिले रही. मेरी कमाई को अपनी रखैल पर लुटाते रहे. मैं ने उफ तक नहीं की कि लोगों को अगर भनक भी लग गई कि लड़की का पिता बदचलन है, तो साइना की शादी में अड़चन पड़ेगी.

‘‘विराम और साइना पिता के संबंध में कई प्रश्न पूछते. उन के अनर्गल वाक्यों के मर्म को समझने की चेष्टा करते. मैं बड़ी ही सतर्कता से उत्तर देती उन के प्रश्नों के. उन के मन में मैं ने पिता का ऐसा रूप साकार किया कि आदरणीय हो उठे थे उन के मन में. शायद कोई भी महिला अपने पति का अनादर अपने बेटी या बेटे से नहीं करवाना चाहती.

‘‘कई संभ्रांत परिवारों से मुझे आमंत्रण मिलते. आखिर मेरा भी कोई वजूद है और फिर प्रतिष्ठा, मान, यश, धन सबकुछ तो था मेरे पास. लेकिन जी नहीं करता था कहीं जाने का. लोग पति से संबंधित प्रश्न पूछते, तो क्या उत्तर देती उन्हें? मेरा पति, मुफ्त की रोटियां तोड़ने वाला एक आलसी पुरुष है या एक शक्की, क्रोधी, चरित्रहीन व्यक्ति के रूप में परिचय देती.

‘‘एक कुशल योद्धा की तरह मैं ने हर कर्त्तव्य का पालन किया और फिर मैं ने तो एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित व्यक्ति से ब्याह किया था और उस ने असभ्यता की हर सीमा का उल्लंघन किया. मेरी अनमोल धरोहर मेरे बच्चों तक को छल से मुझ से दूर कर दिया.

‘‘शुभेंदु के मन में मेरे लिए घृणा थी, प्यार नहीं, नीचा दिखाने की चाहत थी. एकतरफा संबंध था हमारा. संबंध भी नहीं समझौता कहो इसे?’’

‘‘आजकल शुभेंदु कहां है?’’

‘‘कुछ दिन पहले तक तो रूपा के घर पर ही था. बच्चे सिंगापुर चले गए तो उस की रहीसही शर्म और मर्यादा भी समाप्त हो गई. रूपा की मौत के बाद वह आया था मेरे पास. मेरे पैर पकड़ कर बोला कि तुम मेरे अंधेरे जीवन की चांदनी हो. एक ऐसी चांदनी, जो सीखचों में कैद रही. अब तुम मेरे जीवन को अपनी चांदनी से नहला कर मेरे गुनाह माफ कर दो.’’

‘‘मैं चुप रही तो, शुभेंदु ने फिर से हाथ जोड़ कर विनती की कि इस बुढ़ापे के प्रभात में तुम्हें छोड़ कर मेरा अब कोईर् सहारा नहीं. आंखों की रोशनी कम हो गई है. अंधा हो जाऊंगा.

‘‘तब मैं ने कहा कि शुभेंदु, संध्या के धूमिल पहर में कोई सवेरे का वरदान मांगे, तो यह उस की भूल है. तुम्हें बहुत देर से होश आया है. मुझे इन रंगीन और झूठी बातों से बहुत दूर रहना है समझे. मुझे बहकाना बंद करो. मेरी आंखों की पट्टी खुल चुकी है.’’

मनु की तरह ऐसी कई औरतें हैं, जो समय रहते गलत बात का विरोध नहीं कर पातीं. पता नहीं क्यों? शायद मन में छिपा डर कोई कदम उठाते समय फैल कर उन की शक्ति को कम कर देता है या फिर संस्कारगत दब्बूपना जागृत हो कर उस की समग्र सोचनेसमझने की ताकत कम कर देता है. काश, मनु ने भी इस सच को समझा होता तो आने वाली कई समस्याओं से छुटकारा पा लेती.

मनु के स्वर में छिपी पीड़ा मुझे गहरे तक कचोट गई. तेज डग भरती, मन ही मन कामना करती मैं उठ खड़ी हुई कि सुखद हो इस आत्मविश्वासी नारी की एकाकी यात्रा.

परख: प्यार व जुनून के बीच क्यों डोल रही थी मुग्धा की जिंदगी

Serial Story: परख (भाग-3)

‘‘समझ गया, इसीलिए तुम मुझे देख कर प्रसन्न नहीं हुईं. नई दुनिया जो बसा ली है तुम ने. तुम तो सात जन्मों तक मेरी प्रतीक्षा करने वाली थीं, पर तुम तो 7 वर्षों तक भी मेरी प्रतीक्षा नहीं कर सकीं. सुनो मुग्धा, कहीं चल कर बैठते हैं. मुझे तुम से ढेर सारी बातें करनी हैं. अपने बारे में, तुम्हारे बारे में, अपने भविष्य के बारे में.’’ ‘‘पता नहीं प्रसाद, तुम क्या कहना चाह रहे हो. मुझे नहीं याद कि मैं ने तुम्हारी प्रतीक्षा करने का आश्वासन दिया था. आज मुझे मां के साथ शौपिंग करनी है. वैसे भी मैं इतनी व्यस्त हूं कि कब दिन होता है, कब रात, पता ही नहीं चलता,’’ मुग्धा ने अपनी जान छुड़ानी चाही. जब तक प्रसाद कुछ सोच पाता, मुग्धा कैब में बैठ कर उड़नछू हो गई थी.

‘‘क्या हुआ?’’ बदहवास सी मुग्धा को कैब में प्रवेश करते देख सहयात्रियों ने प्रश्न किया. ‘‘पूछो मत किस दुविधा में फंस गई हूं मैं. मेरा पुराना मित्र प्रसाद लौट आया है. रोज यहां खड़े हो कर कहीं चल कर बैठने की जिद करता है. मैं बहुत डर गई हूं. तुम ही बताओ कोई 3 वर्षों के लिए गायब हो जाए और अचानक लौट आए तो उस पर कैसे भरोसा किया जा सकता है.’’

‘‘समझा, ये वही महाशय हैं न जिन्होंने पार्टी में सब के सामने तुम्हें थप्पड़ मारा था,’’ उस के सहकर्मी अनूप ने जानना चाहा था. ‘‘हां. और गुम होने से पहले हमारी बोलचाल तक नहीं थी. पर अब वह ऐसा व्यवहार कर रहा है मानो कुछ हुआ ही नहीं था,’’ मुग्धा की आंखें डबडबा आई थीं, गला भर्रा गया था.

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‘‘तुम से वह चाहता क्या है?’’ अनूप ने फिर प्रश्न किया, कैब में बैठे सभी सहकर्मियों के कान ही कान उग गए. ‘‘पता नहीं, पर अब मुझे डर सा लगने लगा है. पता नहीं कब क्या कर बैठे. पता नहीं, ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है?’’

मुग्धा की बात सुन कर सभी सहकर्मियों में सरसरी सी फैल गई. थोड़ी देर विचारविमर्श चलता रहा. ‘‘मुग्धा तुम्हारा डर अकारण नहीं है. ऐसे पागल प्रेमियों से बच कर रहना चाहिए. पता नहीं, कब क्या कर बैठें?’’ सब ने समवेत स्वर में अपना डर प्रकट किया.

‘‘मेरे विचार से तो मुग्धा को इन महाशय से मिल लेना चाहिए,’’ अनूप जो अब तक सोचविचार की मुद्रा में बैठा था, गंभीर स्वर में बोला. ‘‘अनूप, तुम ऐसा कैसे कर सकते हो. बेचारी को शेर की मांद में जाने को बोल रहे हो,’’ मुग्धा की सहेली मीना बोली.

‘‘यह मत भूलो कि 3 वर्षों तक मुग्धा स्वेच्छा से प्रसाद से प्रेम की पींगें बढ़ाती रही है. मैं तो केवल यह कह रहा हूं विवाह से पहले ही इस पचड़े को सुलझाने के लिए प्रसाद से मिलना आवश्यक है. कब तक डर कर दूर भागती रहेगी. फिर यह पता लगाना भी तो आवश्यक है कि प्रसाद बाबू इतने वर्षों तक थे कहां. उसे साफ शब्दों में बता दो कि तुम्हारी शादी होने वाली है और वह तुम्हारे रास्ते से हट जाए.’’ ‘‘मैं ने उसे पहले दिन ही बता दिया था ताकि वह यह न समझे कि मैं उस की राह में पलकें बिछाए बैठी हूं,’’ मुग्धा सिसक उठी थी.

‘‘मैं तो कहती हूं सारी बातें परख को बता दे. जो करना है दोनों मिल कर करेंगे तो उस का असर अलग ही होगा,’’ मीना बोली तो सभी ने स्वीकृति में सिर हिला कर उस का समर्थन किया. मुग्धा को भी उस की बात जंच गई थी. उस ने घर पहुंचते ही परख को फोन किया.

‘‘क्या बात है? आज अचानक ही हमारी याद कैसे आ गई,’’ परख हंसा. ‘‘याद तो उस की आती है जिसे कभी भुलाया हो. तुम्हारी याद तो साए की तरह सदा मेरे साथ रहती है. पर आज मैं ने बड़ी गंभीर बात बताने के लिए फोन किया है,’’ मुग्धा चिंतित स्वर में बोली.

‘‘अच्छा, तो कह डालो न. किस ने मना किया है.’’ ‘‘प्रसाद लौट आया है,’’ मुग्धा ने मानो किसी बड़े रहस्य पर से परदा हटाया.

‘‘कौन प्रसाद? तुम्हारा पूर्व प्रेमी?’’ ‘‘हां, वही.’’

‘‘तो क्या अपना पत्ता कट गया?’’ परख हंसा. ‘‘कैसी बातें करते हो? यह क्या गुड्डेगुडि़यों का खेल है? हमारी मंगनी हो चुकी है. वैसे भी मुझे उस में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘यों ही मजाक कर रहा था, आगे बोलो.’’‘‘मैं जब औफिस से निकलती हूं तो राह रोक कर खड़ा हो जाता है, कहता है कि कहीं बैठ कर बातें करते हैं. मैं कैब चली जाने की बात कह कर टालती रही हूं पर अब उस से डर सा लगने लगा है.’’

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‘‘पर इस में डरने की क्या बात है? प्रसाद से मिल कर बता दो कि तुम्हारी मंगनी हो चुकी है. 2 महीने बाद विवाह होने वाला है. वह स्वयं समझ जाएगा.’’ ‘‘वही तो समस्या है. वह बातबात पर हिंसक हो उठता है. कह रहा था मुझे उस की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी. तुम 2 दिन की छुट्टी ले कर आ जाओ. हम दोनों साथ ही मिल लेंगे प्रसाद से,’’ मुग्धा ने अनुनय की.

‘‘यह कौन सी बड़ी बात है. तुम ने बुलाया, हम चले आए. मैं तुम से मिलने आ रहा हूं. मैं प्रसाद जैसे लोगों की परवा नहीं करता. पर तुम डरी हुई हो तो हम दोनों साथ में उस से मिल लेंगे और सारी स्थिति साफ कर देंगे,’’ परख अपने चिरपरिचित अंदाज में बोला.

मुग्धा परख से बात कर के आश्वस्त हो गई. वैसे भी उस ने परख को अपने बारे में सबकुछ बता दिया था जिस से विवाह के बाद उसे किसी अशोभनीय स्थिति का सामना न करना पड़े.मुग्धा और परख पहले से निश्चित समय पर रविवार को प्रसाद से मिलने पहुंचे. कौफी हाउस में दोनों पक्ष एकदूसरे के सामने बैठे दूसरे पक्ष के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. ‘‘आप मुग्धा से विचारविमर्श करना चाहते थे,’’ आखिरकार परख ने ही मौन तोड़ा.

‘‘आप को मुग्धा ने बताया ही होगा कि हम दोनों की मंगनी हो चुकी है और शीघ्र ही हम विवाह के बंधन में बंधने वाले हैं,’’ परख ने समझाया. ‘‘मंगनी होने का मतलब यह तो नहीं है कि मुग्धा आप की गुलाम हो गई और अपनी इच्छा से वह अपने पुराने मित्रों से भी नहीं मिल सकती.’’

‘‘यह निर्णय परख का नहीं, मेरा है, मैं ने ही परख से अपने साथ आने को कहा था,’’ उत्तर मुग्धा ने दिया. ‘‘समझा, अब तुम्हें मुझ से अकेले मिलने में डर लगने लगा है. मुझे तो आश्चर्य होता है कि तुम जैसी तेजतर्रार लड़की इस बुद्धू के झांसे में आ कैसे गई. सुनिए महोदय, जो भी नाम है आप का, मैं लौट आया हूं. मुग्धा को आप ने जो भी सब्जबाग दिखाए हों पर मैं उसे अच्छी तरह जानता हूं. वह तुम्हारे साथ कभी खुश नहीं रह सकती. वैसे भी अभी मंगनी ही तो हुई है. कौन सा विवाह हो गया है. भूल जाओ उसे. कभी अपनी शक्ल देखी है आईने में? चले हैं मुग्धा से विवाह करने, ’’ प्रसाद का अहंकारी स्वर देर तक हवा में तैरता रहा.

‘‘एक शब्द भी और बोला प्रसाद, तो मैं न जाने क्या कर बैठूं, तुम परख का ही नहीं, मेरा भी अपमान कर रहे हो,’’ मुग्धा भड़क पड़ी. ‘‘मेरी बात भी ध्यान से सुनिए प्रसाद बाबू, पता नहीं आप स्वयं को कामदेव का अवतार समझते हैं या कुछ और, पर भविष्य में मुग्धा की राह में रोड़े अटकाए तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. चलो मुग्धा, यह इस योग्य ही नहीं है कि इस से कोई वार्त्तालाप किया जा सके,’’ परख उठ खड़ा हुआ.

पलक झपकते ही दोनों प्रसाद की आंखों से ओझल हो गए. देर से ही सही, प्रसाद की समझ में आने लगा था कि अपना सब से बड़ा शत्रु वह स्वयं ही था. बाहर निकलते ही मुग्धा ने परख का हाथ कस कर थाम लिया. उसे पूरा विश्वास हो गया था कि उस ने परख को परखने में कोई भूल नहीं की थी.

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