बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 3: क्या थी संजना की गलती

लेकिन अखिल ने उस रिश्ते के लिए मना कर दिया, यह कह कर कि वह मुझ से प्यार करता है और शादी भी मुझ से ही करेगा. अखिल की बातें सुन कर पहले तो उस के मातापिता उखड़ गए, लेकिन फिर समझाते हुए बोले कि एक शानदार जीवन जीने के लिए प्यार से ज्यादा पैसों की जरूरत होती है और उस का जो सपना है कि खुद अपना एक पैट्रोल पंप हो, वह इस शादी से पूरा हो सकता है.

पैसों की चकाचौंध और उस के पूरे होते सपने उसे मुझ से बेमुख करने लगे. अब वह मुझ से कन्नी काटने लगा. जब भी मैं उसे फोन करती, वह मेरा फोन नहीं उठाता और अगर उठाता भी, तो एकदो बातें कर के तुरंत ही रख देता. मुझे तो तब भी यही लग रहा था कि अखिल मुझ से बहुत प्यार करता है.

अखिल के संग शादी को ले कर मेरे सपने बलवती होते जा रहे थे और उस ने ही कहा था कि वह अपने मांपापा को हमारी शादी के लिए मना ही लेगा, किसी न किसी तरह से, इसलिए मैं चिंता न करूं. वह सब तो ठीक है पर मैं अखिल को अपने आने वाले बच्चे के बारे में बताना चाह रही थी. खुशखबरी देना चाहती थी उसे. लेकिन वह तो मेरा फोन ही नहीं उठा रहा था. सो, मैं एक दिन खुद ही उस से मिलने चली गई. जब मैं ने उसे अपने होने वाले बच्चे के बारे में हंसते हुए बताया और कहा कि अब वह जल्द से जल्द अपने मातापिता से हमारी शादी की बात कर ले. तो वह बोला कि वह मुझ से शादी नहीं कर सकता क्योंकि उस की शादी कहीं और तय हो चुकी है.

पहले तो उस की बातें मुझे मजाक ही लगीं, लेकिन जब फिर उस ने वही बात दोहराई और कहा कि वह मजबूर है, क्योंकि वह अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकता, तो मैं दंग रह गई. ‘यह क्या बोल रहे हो, अखिल? पागल हो गए हो क्या? कुछ भी बक रहे हो,’ मैं ने घबराते हुए कहा.

‘बक नहीं रहा हूं, शिखा. सही कह रहा हूं. मैं अपने मांपापा के खिलाफ नहीं जा सकता. इसलिए हमारा अब एकदूसरे को भूल जाना ही सही होगा.’

उस की उलूलजलूल बातें अब मेरा दिमाग खराब करने लगी थीं. मैं बोली, ‘जब तुम अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकते थे, तो क्यों मुझे झांसे में रखा आज तक? क्यों करते रहे मुझ से शादी के वादे? और क्यों भोगते रहे मेरे शरीर को अब तक? अब तुम बताओ क्या करूं मैं इस बच्चे का? क्या जवाब दूं दुनिया वालों को? और मेरे मातापिता, उन्हें मैं क्या समझाऊं?’

लेकिन अखिल मेरी बात समझने के बजाय अपने नग्न रूप में प्रकट हो गया और अत्यंत कठोर स्वर में कहने लगा, ‘देखो शिखा, जो सच है मैं ने तुम्हें बता दिया और यह तुम क्या बोल रही हो कि मैं ने तुम्हारे शरीर को भोगा, क्या उस में तुम्हारी मरजी शामिल नहीं थी? अगर नहीं, तो तुम ने मुझे रोका क्यों नहीं, क्यों खुद को बारबार मेरे करीब आने दिया. बोलो न? और इस में कौन सी बड़ी बात है, अस्पताल जा कर बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ. जितने पैसे चाहिए, मैं तुम्हें दे दूंगा.’

‘बच्चा गिरा दूं,’ अपने पेट पर हाथ रख कर बुदबुदाई मैं.

‘हां, गिरा दो. यही सही होगा, शिखा. पैसे की चिंता मत करो. एक क्लीनिक का पता मैं तुम्हें देता हूं. चली जाओ वहां, किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा.’

उस की बातें सुन कर आश्चर्य से मेरी आंखें फैल गईं? लगा एक बाप अपने ही बच्चे के लिए ऐसे शब्द कैसे इस्तेमाल कर सकता है? कैसे अपने ही बच्चे को मरने की बात कह सकता है?

‘मार दूं इस नन्ही सी जान को जो अभी इस दुनिया में आई भी नहीं है? लेकिन इस का कुसूर क्या है, अखिल?’ अप्रत्याशित नजरों से अखिल की तरफ देखते हुए मैं बोली, पर वह कोई जवाब न दे कर वहां से चला गया और मैं धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गई.

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से मैं अपने घर तक पहुंची और बिस्तर पर पड़ गई. मेरी आंखों से झरझर आंसू बहे जा रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं? कैसे बताऊं अपने परिवार वालों को कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया? किसी तरह हिम्मत कर मैं ने दीदी को यह बात बताई कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया. ‘लेकिन अब इस बच्चे का क्या करूं मैं, दीदी? अगर मांपापा जान गए कि मैं अखिल के बच्चे की मां बनने वाली हूं, तब क्या होगा, दीदी?’ बिलखते हुए मैं ने कहा. लेकिन मुझे नहीं पता था कि बाहर खड़ी मां हमारी सारी बातें सुन रही हैं.

अपना सिर पीटपीट कर रोते हुए वे कहने लगीं कि ऐसी बेटी पैदा होने से पहले मर क्यों नहीं गई? अब क्या जवाब देंगी वे दुनिया वालों को जब कोई पूछेगा कि मेरे पेट में पल रहे पाप का बाप कौन है? सुन कर पापा भी घोर चिंता में डूब गए. चिंता की लकीरें उन के माथे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं मुझे. किसी ने रात में खाना भी नहीं खाया. सब चुप थे. मनहूसियत सी छा गई थी घर में और उस की जिम्मेदार थी सिर्फ मैं.

अब मेरा मर जाना ही सही रहेगा. क्या होगा? लोग चार बातें करेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. मगर मांपापा को इस दुख से छुटकारा तो मिल जाएगा न. यह सोच कर मैं घर से निकल पड़ी. अभी मैं उस पुल से छलांग लगाने ही वाली थी कि किसी ने मुझे पीछे खींच लिया. देखा तो प्रणय था. ‘क्यों बचाया आप ने मुझे? छोडि़ए, मेरा मर जाना ही सही है क्योंकि इस के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा मेरे पास,’ कह कर मैं झटके से भागने ही वाली थी कि उस ने एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर दे मारा और कहने लगा कि क्या मेरे मर जाने से सारी समस्या खत्म हो जाएगी? नहीं, लोग तब भी मांपापा का जीना हराम कर देंगे. ‘तो क्या करूं मैं?’ बोल कर बिलख पड़ी मैं. उस

ने कस कर मुझे अपने सीने से यह कह कर लगा लिया कि सब ठीक हो जाएगा.

प्रणय, मेरी दीदी का देवर, जो मन ही मन मुझे चाहता था, पर कभी बता नहीं पाया, सबकुछ जानतेबूझते हुए भी उस ने न सिर्फ मुझे अपनाया, बल्कि मेरे बेटे रुद्र को भी. रुद्र उस का अपना खून नहीं है, फिर भी प्रणय के प्यार और अपनेपन ने मुझे अखिल के धोखेफरेब को भूलने पर मजबूर कर दिया.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 4: क्या थी संजना की गलती

फोन की घंटी ने मुझे वर्तमान में ला कर खड़ा कर दिया. देखा तो प्रणय का फोन था. उस ने कहा कि परसों तक वह घर आ जाएगा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और एक लंबी सांस ली.

दूसरे दिन फिर अखिल का फोन आया और इस बार वह मिन्नतें करने लगा कि, बस, एक बार वह मुझ से मिलना चाहता है. इस बार मैं झूठ नहीं बोल पाई और कहीं बाहर ही मिलने को बुला लिया. क्योंकि मुझे भी उसे दिखाना था कि देखो, छोड़ दिया था न तुम ने मुझे मझधार में? लेकिन किसी ने आ कर बचा लिया मुझे डूबने से. लेकिन मैं तो खुद ही उसे देख कर अवाक रह गई क्योंकि पहले वाला अखिल तो वह कहीं से दिख ही नहीं रहा था. अपनी उम्र से कितना अधिक दिखने लगा था वह. बाल आधे से ज्यादा सफेद हो चुके थे. आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ चुका था और शरीर इतना जर्जर कि जैसे कुपोषण का शिकार हो गया हो. मुझे भी वह कुछ देर तक निहारता रहा. फिर पूछा, ‘‘कैसी हो, शिखा?’’

पर उस की बातों का कोई जवाब देना मैं ने जरूरी नहीं समझा. सो बोली, ‘‘बोलो, किस कारण मिलना चाहते थे मुझ से?’’

‘‘पूछोगी नहीं कि मैं कैसा हूं?’’ वह बोला.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ बड़े ही रूखे शब्दों में मैं ने जवाब दिया. अच्छा लग रहा था मुझे उस से इस तरह बेरुखी से बातें करना.

फिर कुछ न बोल कर, इशारों से उस ने मुझे बैठने को कहा. फिर कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं शिखा, तुम मेरा चेहरा भी नहीं देखना चाहती होगी. लेकिन फिर भी मेरे बुलाने पर तुम यहां आईं, इस के लिए तहेदिल से शुक्रिया,’’ इतना कह कर उस ने मेरी तरफ देखा. लेकिन मैं अब भी दूसरी तरफ ही देख रही थी, पर सुन रही थी उस की सारी बातें.

‘‘जानती हो शिखा, मैं ने तुम्हारे साथ जो किया, वही सब पलट कर मुझे मिला और मेरे साथसाथ मेरे परिवार को भी.’’

बताने लगा अखिल कि जब उस के लिए एक पैसे वाले बाप की एकलौती बेटी संजना का रिश्ता आया तो पहले तो उस ने शादी करने से साफ इनकार कर दिया. लेकिन उस के मांपापा ने उसे समझाया कि एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए प्यार से ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ती है और संजना से शादी कर के उस के सारे सपने पूरे हो सकते हैं. यह भी कहा उन्होंने कि संजना के पिता के बाद तो सारी संपत्ति का मालिक वही होगा. उसे भी लगा कि उस के पापा सही कह रहे हैं, पैसों की चकाचौंध में वह यह भी भूल गया कि उस ने शिखा से शादी करने व जीवनभर मेरा साथ निभाने का वादा किया था. उसे तो बस, अब अपना सपना पूरा होते दिखने लगा था, जो हुआ भी. संजना से उस की शादी हो गईर् और शिखा ?उस का बीता हुआ कल बन गई. उसे तो तब, बस, संजना ही संजना नजर आती थी.

क्षणभर चुप रहने के बाद, फिर बताने लगा वह, ‘‘शादी के बाद कुछ महीने तक तो सब ठीक रहा. लेकिन फिर संजना अपना असली रूप दिखाने लगी. बिना किसी को कुछ बताए घर से निकल जाती और जब मरजी होती आती. कुछ पूछने पर पलट कर जवाब देती और कहती कि वह वही करेगी जो उस का मन होगा. सासससुर, ननद, पति सब को वह अपने पैरों की जूती समझती थी. ऐसे और्डर देती जैसे वे उस के खरीदे हुए गुलाम हों.

‘‘एक रोज किसी बात पर मां ने उसे कुछ कह दिया, तो वह उन्हें भी भलाबुरा बोल कर उन की बेइज्जती करने लगी जो रीनल को सहन नहीं हुआ. अब कोई भी बेटी अपनी मां की बेइज्जती कितना सहन कर सकती थी? सो, वह भी तूतड़ाक पर उतर आई. फिर क्या था, उस ने एक जोर का थप्पड़ रीनल के गाल पर जड़ दिया और बोली कि वे सब उस के पैसों पर पलते हैं, इसलिए उन की कोई औकात नहीं है उस के सामने अपना मुंह खोलने की.

‘‘दौलत तो बहुत आई घर में, पर सुखशांति चली गई घर की.

‘‘लेकिन बात तब हद के बाहर जाने लगी जब एक रोज मां ने उसे बताया कि संजना नए लड़कों को घर ले कर आती है और रीनल से उन की आवभगत करने को कहती है. फिर आगे की बात वे बोल नहीं पाईं. उस वक्त मैं ने उस बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया. सोचा, संजना के दोस्त होंगे, तो इस में क्या है? वैसे, मेरे एक दोस्त ने भी बताया था मुझे कि उस ने संजना को किसी के साथ प्राइड होटल के अंदर जाते देखा था और पहले भी उस ने उसे एक और के साथ सिनेमाहौल में देखा था.

‘‘तब भी मैं ने बात को गंभीरता से नहीं लिया था. लगा था पैसे वाले घराने में शादी हुई है उस की, तो सब उस से जलते हैं, लेकिन जब मैं ने खुद अपनी ही आंखों से उस रोज अपने ही बैडरूम में संजना के साथ एक शख्स को अजीब अवस्था में देखा, तो सन्न रह गया. गुस्से के मारे मेरा रक्त गरम हो गया.

‘‘‘यानी कि सब सही कहते थे. और तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम इस आवारा को हमारे बैडरूम तक ले आईं?’ कह कर मैं ने उस लड़के को एक तमाचा जड़ दिया. फिर धक्कामुक्की कर उसे अपने घर से बाहर निकाल कर जैसे ही संजना की तरफ मुड़ा, वह जोर से चीखी और बोली, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे दोस्त पर हाथ उठाने और उसे घर से बाहर निकालने की?’

‘‘‘दोस्त इसे दोस्त कहती हो तुम? छि, शर्म आती है मुझे तुम पर और तुम्हारे उस दोस्त पर,’ संजना की तरफ घृणाभरी दृष्टि डाल मैं बोला था.

‘‘‘अच्छा, शर्म आती है तुम्हें? लेकिन मेरे पापा से पैसे लेते वक्त, पैट्रोल पंप खुलवाते वक्त शर्म नहीं आई तुम्हें? पैसे के लिए ही तो तुम ने मुझ से शादी की थी? तो फिर मौज करो न. अरे, वह तो पापा की जिद थी इसलिए मैं ने तुम से शादी कर ली. वरना तो मेरे दीवानों की कमी नहीं थी इस शहर में,’’ ’ दुश्चरित्र संजना बोली थी.

बेटा मेरा है तुम्हारा नही- भाग 5: क्या थी संजना की गलती

उस की बातों पर अखिल की बोलती बंद हो गई क्योंकि सच यही था कि पैसे के लालच में ही उस ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी थी. अब तो संजना और भी ढीठ हो गई. अब तो वह रात में भी दोस्तों के साथ बाहर जा कर गुलछर्रे उड़ाती और जब घर आती तो नशे में धुत्त होती. लेकिन अब अखिल और उस के परिवार के पास चारा भी क्या था यह सब सहने के सिवा.

लेकिन एक रोज जब अखिल और उस के परिवार को यह बात पता चली कि शादी के पहले भी संजना के कई लड़कों के साथ अंतरंग संबंध थे और वह 2 बार अपना गर्भपात भी करवा चुकी है, तो उन के पैरोंतले जमीन सरक गई. उन्हें लगा, कितनी बड़ी गलती हो गई उन से. दरअसल, संजना के मांपापा अपनी बिगडै़ल बेटी से परेशान हो चुके थे. उन्हें लगा था कि अगर उन की बेटी की शादी हो जाए तो शायद वह सही रास्ते पर आ जाएगी और इसी कारण उन्होंने अपनी बिगड़ैल बेटी की शादी एक मध्यवर्गीय परिवार में, जिन्हें पैसे की बहुत जरूरत थी, कर दी.

अखिल बोले जा रहा था, ‘‘‘तो हमें धोखे में रख कर एक बदचलन लड़की को मेरे पल्ले बांध दिया गया?’ यह कह कर मैं ने सामने की मेज पर जोर से अपना हाथ पटका, तो संजना व्यंग्य से हंसते हुए बोली, ‘तो, तुम्हें क्या लगा, तुम भा गए थे मुझे? बड़े आए, तुम्हारे जैसे को तो मैं अपना नौकर भी न रखूं कभी, पर पापा को अपनी इज्जत की पड़ी थी, इसलिए वे तुम्हें खरीद लाए, समझे?’ कह कर वह जोर से हंसी, जो मुझे सहन नहीं हुआ.

‘‘गुस्से से बेकाबू मैं ने संजना पर हाथ उठा दिया, जो उस की बरदाश्त के बाहर हो गया. खुद को लहूलुहान कर संजना सीधे पुलिस स्टेशन पहुंच गई और रोरो कर पुलिस को बताया कि उस के पति व ससुराल वाले आएदिन उस पर जुल्म करते हैं. दहेज के लिए उसे अकसर मारापीटा जाता है और आज भी पति ने उसे इतनी बेहरमी से इसलिए मारा क्योंकि उस ने अपने पापा से और पैसे मांगने से इनकार कर दिया. फिर क्या था, बिना गुनाह के ही, दहेज और मारपीट के जुर्म में मुझे व मेरे पूरे परिवार को जेल हो गई.

‘‘जिस बहन के अभी हाथ पीले होने थे, वह सलाखों के पीछे खड़ी थी और जिस सास को अपनी बहू से सेवा और प्यार की आस थी वह पुलिस के डंडे खा रही थी. लेडीज पुलिस यह कहकह कर मेरी मां पर डंडे बरसा रही थी कि बोल, बोल, तूने ऐसा क्यों किया? क्यों एक अबला नारी को इतनी बेरहमी से पीटा? बेचारी क्या बोलतीं, वे तो बस खून के आंसू रोए जा रही थीं. मैं और पिताजी भी पुलिस के हाथों टौर्चर हो रहे थे. यह कह कर पुलिस हम पर भी डंडे बरसा रही थी कि शर्म नहीं आई दहेज मांगते हुए?

‘‘किसी तरह अपनी बेटी को समझाबुझा कर संजना के पापा ने उस से केस वापस लिवा लिया, क्योंकि वे जानते थे कि मैं और मेरा परिवार निर्दोष है और गलत उन की बेटी है.

‘‘कैद से तो आजाद हो गए हम लोग, पर नाम, इज्जत पैसा सबकुछ स्वाहा हो गया. जिस घर में रीनल की शादी तय हुई थी, उस घरवालों ने शादी करने से इनकार कर दिया. यह बात वह सहन न कर सकी और एक रोज पंखे से झूल गई. बेटी के गम में मां भी चल बसीं. सबकुछ तितरबितर हो गया. मेरा पूरा परिवार बरबाद हो गया.

‘‘क्या सोचा था और क्या हो गया. नौकरी भी छूट चुकी थी मेरी, तो अब बचा ही क्या था उस शहर में. सो, अपने पिता को ले कर मैं दिल्ली आ गया और एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगा. किसी तरह टैक्सी की कमाई से मेरा व पिताजी का गुजरबसर हो रहा है,’’ यह सब बता कर अखिल चुप हो गया.

अखिल की दुखभरी कहानी सुन कर मेरी आंखें भर आईं. लेकिन फिर एकदम से गुस्सा आ गया मुझे. अखिल की पुरानी कही एकएक बात मेरे कानों में गूंजने लगी कि, ‘तो इस में क्या है, बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ.’

‘‘तो मुझे क्यों सुना रहे हो यह सब? और तुम ने क्या किया था मेरे साथ, भूल गए? मरने लायक छोड़ दिया था तुम ने मुझे. एक बार भी यह नहीं सोचा तुम ने कि तुम्हारा अंश पल रहा है मेरे पेट में, उसे ले कर कहां जाऊंगी मैं, क्या कहूंगी दुनिया वालों से और कौन शादी करेगा मुझ से? मैं तो अपनी जान खत्म करने चली गई थी, पर ऐनवक्त पर प्रणय ने आ कर मुझे बचा लिया. और सिर्फ जान ही नहीं बचाई उस ने मेरी, बल्कि हमारी इज्जत भी बचाई उस ने. नहीं तो क्या पता हमारा परिवार ही खत्म हो जाता,’’ मैं ने कहा.

‘‘जानता हूं, शिखा, मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिए और अब मैं माफी के काबिल भी नहीं रहा, लेकिन यह भी सच है कि मैं तुम्हें भुला भी नहीं पाया कभी. भले ही तुम मुझ से दूर थीं पर हर वक्त तुम मुझे याद आती रहीं और यह भी जानता हूं कि बिट्टू हमारा ही बेटा है. बस, एक बार मुझे मेरे बेटे से मिला दो, दिखा दो मुझे उस का चेहरा. मत छीनो एक बाप से उस का हक,’’ आंसू बहाते हुए भर्राए गले से अपने दोनों हाथ जोड़ कर अखिल बोला. लेकिन आज अखिल के आंसू भी मुझे पिघला नहीं पाए.

‘‘हक? कैसा हक? और किस बेटे की बात कर रहे हो तुम? उस बेटे की जिसे तुम ने पेट में ही मारने का फरमान सुना दिया था यह कह कर कि अस्पताल जा कर बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ. कहा था कि नहीं? जब संजना ने लात मार दी तब मैं याद आने लगी तुम्हें? तुम बिन पेंदी के लोटा हो. कब किधर लुढ़क जाओगे, कहा नहीं जा सकता.’’

मिर्ची से भी तीखी मेरी बातें सुन कर अखिल ने अपनी नजरें नीचे कर लीं. लेकिन मेरा गुस्सा अभी भी ठंडा नहीं हुआ था, बोल पड़ी, ‘‘दुनिया में जितनी भी नफरतें हैं न, अखिल, उन से कहीं ज्यादा मैं तुम से नफरत करती हूं और एक बात गांठ बांध लो तुम, बिट्टू, मेरा और प्रणय का बेटा है, इसलिए आज के बाद, न तो तुम हम से मिलने की कोशिश करना और न ही कभी फोन करने की सोचना भी,’’ यह कह मैं वहां से चलती बनी और वह देखता रह गया.

अंतिम प्रहार: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

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अमीरी का डर- भाग 2: खाई अंतर्मन की

मौडर्न, डिजाइनर लहंगाचुन्नी में वह किसी राजकुमारी जैसी लग रही थी, सब रस्में हुई थीं, गोयल दंपती ने इतने उपहार दिए थे कि वैशाली समेटतीसमेटती थक गर्ई थी, वैशाली को एक डायमंड नेकलेस दिया था, उसे अजीब लग रहा था, वह तो इतने दिन से कोर्ई खुशी महसूस नहीं कर पा रही थी, बहू की अमीरी का डर उस के दिल में बुरी तरह बैठ गया था, जो लड़की अपने घर में किचन में पैर नहीं रखती, जिस के एक बार कहने पर मातापिता ने यह रिश्ता कर लाखों रुपए आज सगाई में खर्च कर दिए, इतने लाड़प्यार में पली लड़की कैसे 4 कमरे के इस फ्लैट में उस के साथ एडजस्ट करेगी, वो तो किचन के सारे काम अपनेआप करती है, एक फुलटाइम मेड है, पर अगर मेड नहीं आती तो झाड़ूपोंछा, खाना भी खुद कर लेती है, अब अमीर बहू आएगी तो क्या होगा. वो बैठी रहेगी और वह सारे काम करती रहेगी, यह भी तो सहन नहीं होगा, फिर क्या होगा, उसे गुस्सा आएगा, घर में कलह होगा, महेश और विपिन तो औफिस चले जाएंगे, अंजलि भी तो इंजीनियर है, अभी तो कहती है, सोचा नहीं हैै क्या करेगी, मन करेगा तो अपने डैड का बिजनैस देखेगी, आज तो वह सगाई में अपने समधियों का वैभव देखती रह गई. उस के सारे परिचितों को अंजलि बहुत पसंद आई थी. अब तक विपिन भी आ चुका था, कितने ही खयालों में डूबतेउतरते उस की आंख लग गई थी.

अगले दिन से रोज के काम शुरू हो गए, साथसाथ शादी की तैयारियां भी, अंजलि अकसर वैशाली से मिलने आ जाती, वैशाली को अच्छा लगता, अपनी शौपिंग के बारे में बताती रहती. मि. गोयल ने एक फाइवस्टार होटल शादी के लिए बुक कर दिया था.

एक दिन अंजलि संडे को वैशाली से मिलने आई हुर्ई थी, कहने लगी, ‘‘आप को पता है मम्मा, मम्मी मुझे बारबार किचन में कुछ काम सीखने के लिए कह रही हैं, मैं किचन में जाती हूं, और फिर तुरंत निकल आती हूं, क्या करूं?’’ वहीं बैठे महेश और विपिन हंस पड़े, विपिन कहने लगा, ‘‘मां, आप का क्या होगा, इस के बस का तो कोई काम नहीं है.’’

वैशाली मन मार मुसकुरा दी, मन में गुस्सा तो तीनों पर आया, इसे कुछ नहीं आता तो हंसने की क्या बात है इस में.

विवाह का दिन आ गया, बहुत ही भव्य तरीके से विवाह संपन्न हुआ और अंजलि दुलहन बन कर घर आ गई, महेश और वैशाली के सारे रिश्तेदारों, पड़ोसियों, किट्टी मेंबरों को गोयल दंपती ने इतने भारी लिफाफे पकड़ाए कि महिलाएं तो कह उठी, ‘‘यह कहां की राजकुमारी आ रही है तुम्हारे घर, भई, नखरे उठाने के लिए तैयार हो जाओ.’’

सब मेहमान एकएक कर चले गए. अंजलि अपनी चीजें वैशाली को दिखा रही थी, हर चीज एक से एक महंगे ब्रांड की, अचानक अंजलि ने वैशाली के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘मम्मा, आप ने मुझे जो भी चीजें दी हैं, मुझे वे सब से अच्छी लगी, थैंक्यू मम्मा.’’ वैशाली हंस पड़ी उस के भोले से चेहरे पर छाई चमक को देख कर.

अब महेश ने औफिस ज्वाइन कर लिया था, विपिन अभी छुट्टी पर था. विपिन आर अंजलि काफी देर में सो कर उठते. एक दिन महेश कहने लगे, ‘‘वैशाली, बच्चों को मत उठाना, उन के जीवन का यह अनमोल समय है, फिर तो जिम्मेदारियां आ जाती हैं, हम उन्हें डिस्टर्ब नहीं करेंगे,’’ फिर पूछा, ‘‘बच्चों का हनीमून पर जाने का क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘मिसेज गोयल शायद उन्हें स्विट्जरलैंड भेजने की बात कर रही थी, पैसा है जहां चाहे भेजें बेटी को, आज दिन में पता करती हूं कि क्या प्रोग्राम है.’’

10 बजे के आसपास अंजलि और विपिन उठे. अंजलि ने ‘गुडमार्निंग मम्मा’ कहते हुए वैशाली के पैर छुए, तो वैशाली को बहुत अच्छा लगा, फिर अंजलि ने बाथरूम की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं नहा कर आती हूं, नाश्ते में क्या है, बड़ी भूख लगी है.’’

पीछे से विपिन की आवाज आई, ‘‘मम्मामम्मा छोड़ो, नहा कर मां के साथ किचन में देखो कि नाश्ते में क्या है,’’ लेकिन अपनी नईनई बहू का मम्मामम्मा करना वैशाली के मन को तृप्त कर रहा था, लग रहा था एक बेटी है घर में, जिस पर उस का दिल अपार स्नेह लुटाने के लिए तैयार है. बेटी पाने की कसक मन में ही रह गई थी, जो अब बहू के मुंह से मम्मामम्मा सुनने पर पूरी होती हुई लग रही थी.

वैशाली ने बहूबेटे को प्यार से नाश्ता करवाते हुए पूछा, ‘‘बेटा, कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम है क्या?’’

जवाब अंजलि ने दिया, ‘‘मम्मा, अभी आप के साथ टाइम बिताएंगे, कुछ दिन बाद शायद कहीं जाएंगे.’’

इतने में मेड लतिका भी आ गई. वैशाली घर की साफसफाई करवाने लगी. अंजलि ने न्यूजपेपर उठा लिया. विपिन ने अंजलि को मां का हाथ बंटाने का इशारा किया, जिसे वैशाली ने देख लिया. वह कहने लगी, ‘‘रहने दो बेटा, मैं कर लूंगी.’’

अंजलि चहक उठी, बोली, ‘‘आई लव यू, मम्मा.’’

वैशाली को हंसी आ गई, कितनी सरस और सहज भी है यह लड़की, जो मन में आता है बोल देती है. इतने में अंजलि ने अपनी मम्मी को फोन मिला दिया था और वैशाली की तारीफों के पुल बांध दिए थे.

मई का महीना था. इस महीने में मुंबई में अधिकतर मेड छुट्टी पर गांव चली जाती हैं, उन की जगह थोड़े दिन काम करने के लिए दूसरी मेड तैयार नहीं होती, लतिका ने भी बताया कि वह जा रही है, वैशाली परेशान हो गई. महेश भी बोले, ‘दूसरी ढूंढ़ लेते हैं,’ वैशाली ने कहा, ‘‘मिलती कहां है आजकल, एक तो शादी के घर में मैं अभी सामान समेट नहीं पार्ई हूं, कैसे करूं सब.’’

महेश हंसे, ‘‘अब तो तुम्हारी बहू भी है हाथ बंटाने के लिए.’’

‘‘देख नहीं रहे हो उसे एक हफ्ते से, मम्मामम्मा सारा दिन करती है, लेकिन काम के समय या तो सो जाती है या मोबाइल पर चिपकी रहती है या फिर अपनी मम्मी से मिलने चली जाती है. और उसे तो कोई काम मुझ से कहा भी नहीं जाता, अपने घर में उसे कोई काम नहीं करना पड़ा. अब कैसे उसे इतनी जल्दी किचन में ले जाऊं.’’

लतिका चली गई, इस के दो दिन बाद ही वैशाली बाथरूम से जैसे ही नहा कर बाहर आई, फर्श भी शायद गीला था और पैर भी, बुरी तरह फिसली और चीख निकल गई. महेश औफिस जा चुके थे, विपिन अपनी कार से उसी समय मां को डाक्टर के यहां ले गया. अंजलि घर पर ही रुकी. वैशाली को दर्द में देख उस की आंखों से आंसू बह निकले, एक्सरे हुआ, स्लिपडिस्क की वजह से डाक्टर ने वैशाली को बेडरेस्ट बता दिया, तो पहले से दर्द में परेशान वैशाली और परेशान हो गई, लतिका भी छुट्टी पर थी, क्या होगा अब, वैशाली घर पहुंची तो अंजलि वैशाली के गले में बांहें डाल कर उसे पुचकारती हुई बोली, ‘‘डोंट वरी, मम्मा, मैं हूं न.’’

यह सुन कर विपिन हंसते हुए बोला, ‘‘तुम तो रहने दो.’’

अंजलि ने उसे घूरते हुए कहा, ‘‘मम्मा, आप बस आराम करो, मैं सब देख लूंगी.’’

वैशाली को इस दर्द में भी मन ही मन हंसी आ गई. सोचा, इसे कुछ और आता हो या न आता हो, अच्छी बातें करना आता है. अंजलि ने वैशाली को बेड पर लिटाया और कहा, ‘‘आप लेटो, मैं नाश्ता बना कर लाती हूं, फिर आप दवाई लेना.’’

विपिन ने कहा, ‘‘लेट जाओ मां, इस के बनाए नाश्ते के लिए अपनेआप को तैयार कर लो.’’

‘‘चुप रहो,’’ विपिन को कहती हुई अंजलि किचन में चली गई. थोड़ी देर में बड़ी अच्छी तरह से ट्रे सजा कर लाई, ‘‘मम्मा, नाश्ता.’’

अमीरी का डर- भाग 1: खाई अंतर्मन की

महेश बहुत देर से पता नहीं क्या सोचती हुई अपनी उदास सी पत्नी वैशाली का चेहरा देख रहे थे, वैशाली अपने ज्वैलरी बौक्स में अपनी चीजें रख रही थी, जब महेश से रहा नहीं गया, तो पत्नी को छेड़ते हुए बोले, ‘‘कहां खोई हो? अरे, नईनई डायमंड ज्वैलरी को देख कर भी कोई स्त्री इतनी उदास होती है क्या? आज तो तुम्हारा चेहरा खुशी से चमकना चाहिए, इकलौते बेटे की सगाई की है आज तुम ने. इतनी उदासी क्यों?’’

वैशाली कुछ बोली नहीं, चुपचाप अलमारी को ताला लगाया और सोने के लिए कपड़े बदलने चली गई, बेटा विपिन दोस्तों के साथ था उसे आने में देर थी. वैशाली सोने आई, महेश ने फिर पूछा, ‘‘क्या हुआ? थक गई क्या?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

‘‘वैशाली, बहुत अच्छा प्रोग्राम रहा न आज? मन बहुत खुश है मेरा, कितनी अच्छी जोड़ी है विपिन और अंजलि की.’’

वैशाली ने बस ‘हूं’ कहा और आंखों पर हाथ रख लिया.
“चलो, अब सो जाओ, तुम शायद थक गई हो,” कह कर महेश ने लाइट बंद कर दी और सोने लेट गए.

वैशाली ने ठंडी सांस भर कर अंधेरे में आंखों से हाथ हटाया और पिछले दिनों के घटनाक्रम पर गौर करने लगी. विपिन की ही पसंद अंजलि से उस की सगाई आज एक शानदार होटल में हुई थी, विवाह दो महीने बाद मई में था, विपिन के साथ ही पहले इंजीनियरिंग फिर एमबीए किया था. अंजलि ने, सफल, धनी, बिजनैसमैन अनिल और राधागोयल की इकलौती बेटी अंजलि को वैशाली ने देखते ही बहू के रूप में स्वीकार कर लिया था. गौर वर्ण, नाजुक सी, सुशिक्षित, सुंदर, स्मार्ट अंजलि को विपिन ने मातापिता से एक कौफी शौप में मिलवाया था, वैशाली की नजर में इस सवालों की जातिउम्र का कोई महत्व नहीं था, वैशाली का परिवार ब्राह्मïण था, अंजलि वैश्य परिवार से, जो था सब ठीक था. जब गोयल दंपती पहली बार इस रिश्ते के बारे में बात करने आए थे, वैशाली तो उन के सभ्य व्यवहार और शालीनता पर मुग्ध हो गई थी, इतने बड़े बिजनैसमैन, इतने विनम्र, हाथ जोड़ कर ही बात करते रहे थे, वैशाली को तो संकोच हो आया था, उसी समय बात पक्की हो गई थी और आज का दिन सगाई का तय हो गया था, उसी दिन बात पक्की होते ही अनिल ने महेश, वैशाली और विपिन के हाथ में एकएक भारी लिफाफा पकड़ाया तो महेश और वैशाली तो मना करते ही रह गए थे, लेकिन राधा ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘मना मत कीजिए, भाई साहब, हमारी एक ही बेटी है, सब उसी का तो है. और यह तो बस आज खुशी में एक छोटा सा तोहफा है, हमारे भी तो अरमान है.’’

वेबहुत मना करने पर भी नहीं माने थे और कहा था, ‘‘अगले संडे आप हमारा घर भी देख लीजिए. लंच साथ ही करेंगे.’’

उन के जाने के बाद जब लिफाफे खोले गए तो वैशाली तो हैरान बैठी रह गई, आज तो बात ही पक्की हुई है और इतना कैश. विपिन ने कहा था, ‘‘अरे मां, बहुत ज्यादा पैसा है उन के पास और अंजलि उन की इकलौती बेटी है, आप ने मांगा थोड़े ही है, जब वे अपनी मरजी से आप को जबरदस्ती दे कर गए हैं, तो आप क्या कर सकती हैं.’’

वैशाली ने कहा, ‘‘नहीं, यह तो कुछ ज्यादा ही है, अभी सगाई, शादी सब मौके हैं. और हमें उन से कुछ नहीं चाहिए, सबकुछ है हमारे पास.’’

‘‘मां, आप नहीं जानती, वे लोग बहुत रिच हैं, उन का घर चल कर देखना, अंदाजा हो जाएगा.’’

महेश हंसे, ‘‘वाह बेटा. लगता है, तुम ने कई चक्कर लगा रखे हैं घर के.’’

विपिन भी हंस पड़ा, ‘‘हां पापा, हम सब दोस्त एकदूसरे के यहां आतेजाते तो रहते हैं.’’

अगले संडे महेश, वैशाली और विपिन, गोयल विला पहुंच गए, बहुत बड़ा और खूबसूरत घर था, घर में हर काम के लिए नौकर थे, माली, कुक, मेड, ड्राइवर सब लाइन से खड़े थे, मुंबई में इस तरह का घर होना आम बात नहीं थी.

वैशाली के परिवार की माली हालत भी बहुत अच्छी थी, महेश एक मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर थे, विपिन इंजीनियर था, लेकिन वैशाली ने महसूस किया कि गोयल परिवार का माली स्तर उन से बहुत ऊंचा है, बस यही होने वाली बहू की अमीरी का डर उस के दिल में ऐसा बैठा, जिस के बाद वह अब तक किसी क्षण का आनंद नहीं ले पाई थी.

राधा की देखरेख में बना कुक का बनाया बहुत स्वादिष्ठ लंच कर के जब उन के चलने का समय आया, तो गोयल दंपती ने फिर उन्हें अनगिनत महंगे उपहारों से लाद दिया था, जिसे उन के नौकर ने उन की कार में रख दिया था.

अनिल ने हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘रिश्ता पक्का होने के बाद आज आप पहली बार हमारे यहां आए हैं, खाली हाथ कैसे जाने देंगे आपको.’’ महेश और वैशाली का मना करना कोई काम नहीं आया था.

अब अंजलि वैशाली से मिलने आती रहती थी, हंसमुख, मिलनसार, अंजलि. ऐसी ही बहू की इच्छा थी वैशाली की, लेकिन इतनी अमीरी में पली लड़की शादी के बाद एडजस्ट कर पाएगी या नहीं, यह चिंता वैशाली को हर पल घेरे रहती.

सगाई की तैयारियां करनी थीं, फंक्शन बड़ा था और यह फंक्शन लड़के वालों की तरफ से होना था, वैशाली तैयारियों में व्यस्त हो गई थी, सगाई में पहनने वाली अंजलि की ड्रेस वैशाली को ही देनी थी, उस के होश उड़े हुए थे, मन ही मन सकुचाते हुए उस ने एक दिन अंजलि को फोन किया, ‘‘बेटा, आओ, मेरे साथ चल कर अपनी सगाई की ड्रेस खरीद लो.’’

अंजलि ने कहा था, ‘‘मम्मा, मैं दिल्ली जा रही हूं, वहीं बूआजी के साथ जा कर डिजाइनर ड्रेस खरीद लूंगी.’’

वैशाली ने अपना सिर पकड़ लिया था, मन में सोचा, अपनी बूआ के साथ जाएगी. वह बूआ जो दिल्ली में रहती है, करोड़पति है, ओह, उस का तो बजट सगाई में ही बिगाड़ देती ये लोग लेकिन प्रत्यक्षत: वह इतना ही कह पाई थी, ‘‘ठीक है बेटा, ले लेना.’’

तीन दिन बाद अंजलि ने दिल्ली से फोन किया था, ‘‘मम्मा, मैं बुटीक के बाहर खड़ी हूं, मैं आप का बजट पूछना तो भूल ही गर्ई थी.’’

वैशाली को कुछ अजीब सा लगा, बोली, ‘‘जो पसंद हो ले लो, बजट की क्या बात है.’’

अंधेरे में करवटें बदलती हुई वैशाली को आज याद आ रहा था कि कैसे वह परेशान घूमती रहती थी उस दिन जब तक अंजलि का फोन आ नहीं गया था, ‘‘मम्मा, ड्रेस ढाई लाख की है, आप कहें तो ले लूं.’’

यह सुन कर वैशाली को पसीने आ गए थे, ढाई लाख की ड्रेस मम्मा, व्हाट्सएप खो लो और देख लो. लेकिन मना भी कैसे करती, इस समय होने वाली बहू अपने अमीर रिश्तेदारों के साथ बुटीक में खड़ी है. कैसे नीचा देखे, अपने स्वर को सामान्य करती हुई बोली थी, ‘‘ मैं देख कर क्या करूंगी, जो पसंद हो ले लो.’’

“थैंक्यू मम्मा,” कहते हुए अंजलि ने फोन रखा था, वैशाली का मूड खराब हो गया था. शाम को जब महेश आए थे तो उस का चेहरा ही सब बता रहा था, पता चलने पर उन्होंने वैशाली को ही समझाया था, ‘‘दिल छोटा न करो, शादी का मौका है, बजट तो बनतेबिगड़ते रहते हैं, क्या हम अपनी बहू को उस की पसंद की ड्रेस नहीं दिलवा सकते, हमें भी तो कमी नहीं है किसी चीज की.’’

‘‘लेकिन, यह फिजूलखर्ची नहीं है? और भी तो खर्चे हैं.’’

‘‘तो क्या कर सकते हैं, तुम चिंता मत करो, सब खुशीखुशी हो जाने दो.’’

और आज सगाई के दिन जब अंजलि उस ड्रेस में तैयार हो कर आई तो सब देखते रह गए थे.

तालमेल: आखिर अभिनव में क्या थी कमी

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अम्मा बनते बाबूजी: मीनू और चिंटू के साथ क्या हुआ

छोटा सा ही सही, साम्राज्य है यह घर अम्मा का, हुकूमत चलती है यहां अम्मा की. मजाल है उन की इच्छा के बगैर कोई उन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता. हमें भी सख्त हिदायत रहती जो चीज जहां से लो, वहीं रखनी है ताकि अंधेरे में भी खोजो तो पल में मिल जाए. बाबूजी…वे कभी रसोई में घुसने का प्रयास भी करते तो झट अम्मा कह देतीं, ‘आप तो बस रहने ही दीजिए, मेरी रसोई मुझे ही संभालने दीजिए. आप तो बस अपना दफ्तर संभालिए.’

फिर जब कभी अम्मा किसी काम में व्यस्त होतीं और बाबूजी से कहतीं, ‘सुनिए जी, जरा गैस बंद कर देंगे?’ बाबूजी झट हंसते हुए कहते, ‘न भई, तुम्हारी राज्यसीमा में भला मैं कैसे प्रवेश कर सकता हूं.’

यह बात नहीं कि अम्मा को बाबूजी के रसोई में जाने से कोई परहेज हो, यह तो बहाना था बाबूजी को घर की झंझटों से दूर रखने का, चाहे बाजार से किराना लाना हो, दूध वाले या प्रैस वाले का हिसाब ही क्यों न हो. समझदार हैं अम्मा, वे जानती हैं कि दफ्तर में सौ झंझटें होती हैं, कम से कम घर में तो इंसान सुख से रहे. बाबूजी के नहाने के पानी से ले कर बाथरूम में उन के कपड़े रखने तक की जिम्मेदारी बड़े कौशल से निभातीं अम्मा. दफ्तर से आ कर बाबूजी का काम होता अखबार पढ़ना और टीवी देखना. बाबूजी के सदा बेफिक्र चेहरे के पीछे अम्मा ही नजर आतीं.

अम्मा का प्रबंधकौशल भी अनोखा था. सब की जरूरतों का ध्यान रखना, सुबह से ले कर शाम तक किसी नटनी की भांति एक लय से नाचतीं. न कभी थकतीं अम्मा और न ही उन के चेहरे पर कभी कोई झुंझलाहट ही होती. सदा होंठों पर मुसकान लिए हमारा उत्साह बढ़ातीं. मेरे और चिंटू के स्कूल से आने से पहले वे घर के सारे काम निबटा लेतीं, फिर हमारी तीमारदारी में लग जातीं. उसी तरह शाम को बाबूजी के दफ्तर से लौटने से पहले वे रसोई में सब्जी काट कर, आटा लगा कर गैस पर कुकर तैयार रखतीं ताकि बाबूजी के आने के  बाद उन के स्वागत के लिए वे तनावमुक्त रहें. रात के खाने का हमसब मिल कर आनंद लेते. पूरे घर को अपनी ममता और प्यार की नाजुक डोर से बांध कर रखा था अम्मा ने. उन के बगैर किसी का कोई अस्तित्व नहीं था.

हालांकि ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं वे, फिर भी रात को जब हम पढ़ने बैठते तो वे हमारे पास बैठतीं. उन की उपस्थिति ही हमारे लिए काफी होती. वे पास बैठेबैठे कभी उधड़े कपड़ों की सीवन करतीं तो कभी स्वेटर बुनतीं. काम में उन की लगन देख कर लगता मानो रिश्तों की उधड़न को सी रही हों.

ममता का प्रभाव था कि मैं और चिंटू सदैव स्कूल में अव्वल रहते. हमारे स्कूल यूनिफौर्म से ले कर स्कूलबैग और टिफिन में अम्मा का मातृत्व झलकता था. मेरे लंबे बालों को अम्मा बड़े जतन से तेल लगा कर, दो चोटी बना, ऊपर बांध देतीं ताकि किसी की नजर न लगे मेरे बालों को. बहुत पसंद हैं बाबूजी को लंबे बाल. उन की छोटीछोटी पसंद का खयाल रखतीं अम्मा.

पिं्रसिपल मैडम ने एक बार अम्मा को बुला कर कहा भी, ‘रियली आई एप्रीशिएट यू मिसेज सुलेखाजी. आप ने बच्चों को बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं. आप गृहिणी हैं, आप की शिक्षा काम आई, इसीलिए तो कहते हैं कि परिवार में मां का पढ़ालिखा होना बहुत जरूरी है.’

अम्मा ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया. ‘मैडम, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं हूं, न ही मैं पढ़ा पाती हूं. मीनू और चिंटू के बस पढ़ते वक्त मैं हरदम उन के साथ रहती हूं.’ सुन कर पिं्रसिपल मैडम और भी प्रभावित हो गईं अम्मा की साफगोई से.

हरी दूब पर चलते से गुजर रहे थे दिन, सारे घर में मशीन की तरह फिरती अम्मा. एक दिन अचानक उस मशीन में खराबी आ गई. सारे घर का व्यापार ही थम गया. डाक्टर ने अम्मा को आराम करने की नसीहत दी. फिर भी अम्मा से जितना बन पड़ता, उठ कर समयसमय से कुछ कर लेतीं ताकि बाबूजी को और हमें कम परेशानी हो. बाबूजी के लिए तो यह परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि कुकर में दाल कितनी सीटी में पक जाती है, आटे में कितना नमक पड़ता है, भिंडी काटने से पहले धोई जाती है या बाद में.

न चाहते हुए भी अम्मा का साम्राज्य अस्तव्यस्त होता जा रहा था. कमजोरी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. अब तो डाक्टर ने उन्हें बिस्तर से न उठने की भी सख्त हिदायत दे दी. बाबूजी अम्मा का पूरा ध्यान रखते. मगर बहुत बदल गए थे वे. पहले हमारी छोटी सी गलतियों पर डांटने वाले बाबूजी अब बड़ी गलतियों पर भी चुप रहते. वे जान गए थे कि उन की डांट से बचाने वाला आंचल अब तारतार हो रहा है. दफ्तर के बाद उन का सारा समय अम्मा की तीमारदारी में बीत जाता.

बाबूजी से अपनी तीमारदारी कराते उन्हें खुशी नहीं होती थी. वे किसी मासूम बच्चे की तरह उदास हो कहतीं, ‘सुनिए जी, मैं ठीक तो हो जाऊंगी न. कितना परेशान कर दिया है मेरी बीमारी ने तुम्हें. और मेरे मासूम बच्चे, देखो, कितना उदास रहने लगे हैं.’

बाबूजी अम्मा का हाथ अपने हाथ में ले कर उन्हें हिम्मत बंधाते. मगर खुद भीतर ही भीतर कितना टूट रहे थे, वे ही जानते थे. उन्हें पता था कि अब अम्मा कभी अच्छी नहीं होने वाली. उन्हें ब्लडकैंसर हो गया था. न अम्मा इस बात को जानती थीं, न मैं, न ही चिंटू. इतना बड़ा पहाड़ बाबूजी अपने सीने पर अकेले ही झेलते रहे. अम्मा के सामने खुद को मजबूत करते. मगर अकेले में कई बार आंसू बहाते देखा था मैं ने उन्हें. अब रसोई बाबूजी के हाथों में आ गई थी. कच्चापक्का जैसे भी बनता, पकाते. कभी दालचावल तो कभी खाली खिचड़ी से हम पेट भर लेते. सब्जीरोटी कम ही बनती. अब चिंटू भी खाने को ले कर कुरकुरी भिंडी की मांग नहीं करता, न ही दूध के लिए अम्मा को सारे घर में दौड़ाता. अम्मा के हाथ से खाने की जिद भी नहीं करता, जानता था, अम्मा बहुत कमजोर हो गई हैं. जो बनता, हमसब चुपचाप खा लेते. घर में हमेशा गहरी उदासी छाई रहती. यह सब देख अम्मा कहतीं कुछ नहीं, बस, उन की आंखों की कोर से आंसू ढुलक जाते. शायद वे समझ गई थीं कि वे कभी ठीक नहीं हो पाएंगी.

बाबूजी अम्मा का पूरा खयाल रखते. उन के  नहाने, खाने, बाल बनाने तक, समयसमय पर जूस ला कर अम्मा के हाथ में देते. अपने और हमारे नहाने की बालटी से ले कर तौलिया और कपड़े तक बाबूजी ही रखते बाथरूम में. सुबह दूध, टिफिन दे कर हमें स्कूल की बस तक पहुंचाना… हां, अब मेरे लंबे बाल कटवा दिए गए क्योंकि बाबूजी के काम जो बहुत बढ़ गए थे. बहुत रोई थीं अम्मा उस रोज. उन की हालत दिनबदिन  खराब होती जा रही थी. अब तो उन्हें आंखों से भी कम दिखाई देने लगा था. बाबूजी ने उन्हें खुश रखने की हर संभव कोशिश की. मगर एक दिन अम्मा हमेशाहमेशा के लिए हम सब को छोड़ कर चली गईं. आधे रह गए थे बाबूजी अपनी अर्द्धांगिनी के चले जाने पर. एकांत में बैठे, छत निहारते रहते, मानो अम्मा से शिकायत कर रहे हों मझधार में छोड़ कर क्यों चली गईं?

कितना बदल जाता है वक्त और अपने साथ बदल देता है इंसान को. जो बाबूजी बैडटी के बगैर बिस्तर से नीचे कदम नहीं रखते थे, अब उठते ही हमारी देखभाल में व्यस्त हो जाते. हमें स्कूल भेज कर ही खुद चाय बनाते और पीते.

वक्त अपने तरीके से कट रहा था. इस महीने हमारे स्कूल का परीक्षा परिणाम आ गया. कल पेरैंट्स मीटिंग थी. बाबूजी नहीं जानते क्या होता है पेरैंट्स मीटिंग में. कई बार अम्मा ने कहा संग चलने को, मगर बाबूजी ने यह कह कर टाल दिया कि बच्चों की ट्यूटर तुम हो, जवाब तो तुम्हें ही देना है. फिर शरारत करते हुए कहते, ‘भई, मैं ने तो अपने हिस्से का स्कूल कर लिया, तुम रह गईं, सो तुम्हीं जाओ. मुझे बख्शो.’ वही हुआ जिस की संभावना थी, हमेशा अव्वल आने वाले हम पिछड़ गए थे. इस बार मैं 2 विषयों और चिंटू 4 विषयों में फेल हो गया. यह बात नहीं कि हम ने पढ़ने की कोशिश नहीं की, पुस्तकें खोल कर बैठते, पास में गुमसुम बाबूजी भी होते मगर पास अम्मा जो नहीं होतीं.

जैसे ही बाबूजी हमें ले कर क्लास में दाखिल हुए, दूसरे पेरैंट्स की कानाफूसी न चाहते हुए भी कानों में पड़ गई. अब तक मां थी, अब मां नहीं है न. कितना फर्क पड़ता है मां से. ये शब्द बाबूजी के भीतर किसी तेजाब सरीखे उतरते चले गए. अम्मा की कमी का एहसास उन से ज्यादा और किसे होगा. मगर लोगों के शब्द मानो उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हों कि वे अम्मा की जगह नहीं ले सकते या फिर वे हमारी परवरिश में सफल नहीं हो पाए.

आज उन्हीं पिं्रसिपल ने बाबूजी को बुला कर कहा, ‘‘मिस्टर विकास, मैं आप की स्थिति समझ सकती हूं. मैं यह भी जानती हूं आप को इस परिस्थिति से उबरने में अभी वक्त लगेगा. किंतु बच्चों की भलाई के लिए यह कहने को विवश हूं कि अब आप को उन की ओर ज्यादा गंभीरता से ध्यान देना होगा. इस बार का परिणाम तो हम समझ सकते हैं लेकिन मैं समझती हूं आप भी नहीं चाहेंगे कि सुलेखाजी ने जिस मेहनत से बच्चों को तैयार किया है, वह जाया हो.

‘‘इस में कोई शक नहीं मीनू और चिंटू बहुत इंटैलिजैंट हैं. किंतु पिछले दिनों दोनों के सलवट भरी यूनिफौर्म और बिखरे बालों को ले कर बच्चे क्लास में उन का मजाक बना रहे थे. कल तो चिंटू की पैंट भी नीचे से उधड़ी हुई थी. मिस्टर विकास, आप समझ रहे हैं न. इस से बच्चे हतोत्साहित हो जाएंगे. एक बार उन का आत्मविश्वास कमजोर हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी उन्हें संभालने में. सो, प्लीज, आप उन का खयाल रखिए.’’ बाबूजी चुपचाप सुनते रहे. कुछ नहीं बोले. वैसे भी, आजकल वे बोलते कम ही हैं. छोटीछोटी बातों में शरारत कर अम्मा से मजे लेने की आदत तो उन की अम्मा के साथ ही चली गई. उन्हें रेशारेशा टूटते, खुद को बदलते मैं ने देखा है

मानो उन्होंने अम्मा बनने की मुहिम चला रखी हो. भीतर ही भीतर ठान लिया हो कि वे अम्मा की मेहनत को जाया नहीं होने देंगे. उस दिन रविवार था. उन्होंने शाम को मुझे और चिंटू को तैयार किया. दूध और ब्रैड हाथ में थमाते हुए बोले, ‘‘मीनू बेटा, चिंटू को सामने पार्क में घुमा ला. तब तक मैं रसोई का काम निबटा लूं. फिर हम पढ़ाई करेंगे.’’

मैं कुछ ही देर में पार्क से लौट आई, मन नहीं लग रहा था. लौटी तो देखा रसोई में गैस पर रखे कुकर में सीटी आ रही थी, पास ही भिंडी तल कर रखी हुई थी. थाली में आटा लगा हुआ था, ठीक जैसे अम्मा रखती थीं. मगर बाबूजी, बाबूजी तो रसोई में नहीं हैं? कमरे में जा कर देखा तो सुईधागा लिए बाबूजी चिंटू की उधड़ी पैंट सिलने की कोशिश कर रहे थे. पैंट नहीं…उधड़े रिश्ते सी रहे थे… जैसे अम्मा सीया करती थीं. आज ऐसा लग रहा था अम्मा पूरी की पूरी बाबूजी में उतर आई हों.

पापा कूल-कूल: सुगंधा को पिता ने कैसे समझाया

‘‘मु झे ‘सू’ कह कर पुकारो, पापा. कालिज में सभी मुझे इसी नाम से पुकारते  हैं.’’ ‘‘अरे, अच्छाभला नाम रखा है हम ने…सुगंधा…अब इस नाम मेें भला क्या कमी है, बता तो,’’ नरेंद्र ने हैरान हो कर कहा.

‘‘बड़ा ओल्ड फैशन है…ऐसा लगता है जैसे रामायण या महाभारत का कोई करेक्टर है,’’ सुगंधा इतराती हुई बोली.

‘‘बातें सुनो इस की…कुल जमा 19 की है और बातें ऐसी करती है जैसे बहुत बड़ी हो,’’ नरेंद्र बड़बड़ाए, ‘‘अपनी मर्जी के कपड़े पहनती है…कालिज जाने के लिए सजना शुरू करती है तो पूरा घंटा लगाती है.’’

‘‘हमारी एक ही बेटी है,’’ नरेंद्र का बड़बड़ाना सुन कर रेवती चिल्लाई, ‘‘उसे भी ढंग से जीने नहीं देते…’’

‘‘अरे…मैं कौन होता हूं जो उस के काम में टांग अड़ाऊं ,’’ नरेंद्र तल्खी से बोले.

‘‘अड़ाना भी मत…अभी तो दिन हैं उस के फैशन के…कहीं तुम्हारी तरह इसे भी ऐसा ही पति मिल गया तो सारे अरमान चूल्हे में झोंकने पड़ेंगे.’’

‘‘अच्छा, तो आप हमारे साथ रह कर अपने अरमान चूल्हे में झोंक रही हैं…’’

‘‘एक कमी हो तो कहूं…’’

‘‘बात सुगंधा की हो रही है और तुम अपनी…’’

‘‘हूं, पापा…फिर वही सुगंधा…सू कहिए न.’’

‘‘अच्छा सू बेटी…तुम्हें कितने कपड़े चाहिए…अभी 15 दिन पहले ही तुम अपनी मम्मी के साथ शापिंग करने गई थीं… मैचिंग टाप, मैचिंग इयर रिंग्स, हेयर बैंड, ब्रेसलेट…न जाने क्याक्या खरीद कर लाईं.’’

‘‘पापा…मैचिंग हैंडबैग और शूज

भी चाहिए थे…वह तो पैसे ही खत्म हो गए थे.’’

‘‘क्या…’’ नरेंद्र चिल्लाए, ‘‘हमारे जमाने में तुम्हारी बूआ केवल 2 जोड़ी चप्पलों में पूरा साल निकाल देती थीं.’’

‘‘वह आप का जमाना था…यहां तो यह सब न होने पर हम लोग आउटडेटेड फील करते हैं…’’

‘‘और पढ़ाई के लिए कब वक्त निकलता है…जरा बताओ तो.’’

‘‘पढ़ाई…हमारे इंगलिश टीचर

पैपी यानी प्रभात हैं न…उन्होंने हमें अपने नोट्स फोटोस्टेट करने के लिए दे दिए हैं.’’

‘‘तुम्हारे इस पैपी की शिकायत मैं प्रिंसिपल से करूंगा.’’

‘‘पिं्रसी क्या कर लेगा…वह तो खुद पैपी के आगे चूहा बन जाता है…आखिर, पैपी यूनियन का प्रेसी है.’’

‘‘प्रेसी…तुम्हारा मतलब प्रेसीडेंट…’’ नरेंद्र ने उस की बात समझ कर कहा, ‘‘बेटा, बात को समझो…हम मध्यवर्गीय परिवार के  सदस्य हैं…इस तरह फुजूलखर्ची हमें सूट नहीं करती.’’

‘‘बस…शुरू हो गया आप का टेपरिकार्डर,’’ रेवती चिढ़कर बोली, ‘‘हर वक्त मध्यवर्गीय…मध्यवर्गीय. अरे, कभी तो हमें उच्चवर्गीय होने दिया करो.’’

‘‘रेवती…तुम इसे बिगाड़ कर ही मानोगी…देख लेना पछताओगी,’’ नरेंद्र आपे से बाहर हो गए.

‘‘क्यों, क्या किया मैं ने? केवल उसे फैशनेबल कपड़े दिलवाने की तरफदारी मैं ने की…आप तो बिगड़ ही उठे,’’ सुगंधा की मां ने थोड़ी शांति से कहा.

‘‘मैं भी उसे कपड़े खरीदने से कब मना करता हूं…लेकिन जो भी करो सीमा में रह कर करो…जरा इसे कुछ रहनेसहने का सही सलीका समझाओ.’’

‘‘लो, अब कपड़े की बात छोड़ी तो सलीके पर आ गए…अब उस में क्या दिक्कत है, पापा,’’ सुगंधा ठुनकी.

‘‘तुम जब कालिज चली जाती हो तो तुम्हारी मां को घंटा भर लग कर तुम्हारा कमरा ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि वह मेरे पीछे मेरा कमरा ठीक करें…मेरा कमरा जितना बेतरतीब रहे वही मुझे अच्छा लगता है…यही आजकल का फैशन है.’’

‘‘और साफसफाई रखना…सलीके से रहना?’’

‘‘ओल्ड फैशन…हर वक्त नीट- क्लीन और टाइडी जमाने के लोग रहते हैं…नए जमाने के यंगस्टर तो बस, कूल दिखना चाहते हैं…अच्छा, मैं चलती हूं…नहीं तो कालिज के लिए देर हो जाएगी.’’

अपने मोबाइल को छल्ले की तरह नचाती हुई वह चलती बनी. रेवती ने भी चिढ़ कर नाश्ते के बरतन उठाए और किचन में चली गई.

‘कहां गलती कर दी मैं ने इस बच्ची को संस्कार देने में,’ नरेंद्र अपनेआप से बोले, ‘नई पीढ़ी हमेशा फैशन के हिसाब से चलना पसंद करती है…इसे तो कुछ समझ ही नहीं है…एक बार मन में ठान ली उसे कर के ही मानती है. ऊपर से रेवती के लाड़प्यार ने इसे कामचोर और आरामतलब अलग बना दिया है. मैं रेवती को समझाता हूं कि पढ़ाई के साथ घर के कामकाज व उठनेबैठने, पहनने का सलीका तो इसे सिखाओ वरना इस की शादी में बड़ी मुश्किल होगी, तब वह तमक कर कहती है कि मेरी इतनी रूपवती बेटी को तो कोई भी पसंद कर लेगा…’

‘‘क्या बड़बड़ा रहे हैं अकेले में आप?’’ रेवती नरेंद्र से बोली.

‘‘तुम्हारी लाड़ली के बारे में सोच रहा हूं,’’ नरेंद्र ने चिढ़ कर कहा.

‘‘ओहो, अब आप शांत हो जाओ… कितना खून जलाते हो अपना…’’

‘‘सब तुम्हारे ही कारण जल रहा है…तुम उसे दिशाहीन कर रही हो.’’

‘‘आप ऐसा क्यों समझते हो जी, कि मैं उसे दिशाहीन कर रही हूं,’’ रेवती रहस्यमय ढंग से कहने लगी, ‘‘मुझे तो लगता है कि आप ने अपनी सुविधा के लिए उस से बहुत सी आशाएं लगा रखी हैं.’’

‘‘अब इकलौती संतान है तो उस से आशा करना क्या गलत है…बोलो, गलत है.’’

‘‘देखो,’’ रेवती समझाने के ढंग से बोली, ‘‘पुरानी पीढ़ी अकसर परंपरागत मान्यताओं, रूढि़यों और अपने तंग नजरिए को युवा पीढ़ी पर थोपना चाहती है जिसे युवा मन सहसा स्वीकार करने में संकोच करता है.’’

‘‘ठीक है, मेरा तंग नजरिया है… तुम लोगों का आधुनिक, तो आधुनिक ही सही,’’ नरेंद्र के बोलने में उन का निश्चय झलकने लगा था, ‘‘जब सारे समाज में ही परिवर्तन हो रहा है तो मेरा इस तरह से पिछड़ापन दिखाना तुम दोनों को गलत ही महसूस होगा.’’

‘‘ये हुई न समझदारी वाली बात,’’ रेवती ने खुश होते हुए कहा, ‘‘आप की और सू की लड़ाइयों से आजकल घर भी महाभारत बना हुआ है…आप उसे और उस की पीढ़ी को दोष देते हो…वह आप को और आप की पुरानी पीढ़ी को दोष देती है…’’

‘‘तुम ही बताओ, रेवती,’’ नरेंद्र ने अब हथियार डाल दिए, ‘‘क्या सुगंधा और उस की पीढ़ी के बच्चे दिशाहीन नहीं हैं?’’

रेवती चिढ़ कर बोली, ‘‘आप को  तो एक ही रट लग गई है…अरे भई, दिशाहीनता के लिए युवा वर्ग दोषी नहीं है…दोषी समाज, शिक्षा, समय और राजनीति है.’’

नरेंद्र फिर चुप हो गए. लेकिन गहन चिंता में खो गए. ‘जैसे भी हो आज इस समस्या का हल ढूंढ़ना ही होगा,’ वह बड़बड़ाए, ‘सच ही है, हमारा भी समय था. मुझे भी पिताजी बहुत टोकते थे, ढंग के कपड़े पहनो…करीने से बाल बनाओ…समय पर खाना खाओ…रेडियो ज्यादा मत सुनो…बड़ों से अदब से बोलो…पैसा इतना खर्च मत करो. सही भाषा बोलो…ओह, कितनी वर्जनाएं होती थीं उन की, किंतु मैं और छुटकी उन की बातें मान जाते थे…यहां तो सुगंधा हमारी एक भी बात सुनने को तैयार नहीं.

‘उस से यही सुनने को मिलता है कि ओहो पापा, आप कुछ नहीं जानते. लेकिन मैं भी उसे क्यों दोष दे रहा हूं… जरूर मेरे समझाने का ढंग कुछ अलग है तभी उसे समझ नहीं आ रहा…उस की फुजूलखर्ची और फैशनपरस्ती से ध्यान हटाने के लिए मुझे कुछ न कुछ करना ही होगा.’

नरेंद्र अब उठ कर कमरे में चहलकदमी करने लगे. रेवती ने उन्हें कमरे में टहलते देखा तो चुपचाप दूसरे कमरे में चली गईं. अचानक नरेंद्र की आवाज आई, ‘‘रेवती, दरवाजा बंद कर लो. मैं अभी आता हूं.’’

रेवती दौड़ कर बाहर आई. दरवाजे से झांक कर देखा तो नरेंद्र कालोनी के छोर पर लंबेलंबे डग भरते नजर आए… उस ने गहरी सांस भर कर दरवाजा बंद किया.

अब उन्हें दुख तो होना ही है जब सुगंधा ने उन के द्वारा रखे अच्छेखासे नाम को बदल कर सू रख दिया.

वह भी घर में शांति चाहती है इसलिए विभिन्न तर्क दे दे कर दोनों को

चुप कराती रहती है…यह सही है

कि बेटी के लिए उस के मन में बहुत ज्यादा ममता है…वह नरेंद्र की

कही बात पर कांप उठती है, ‘रेवती, तुम्हारी अंधी ममता सुगंधा को कहीं बिगाड़ न दे.’

‘कहीं सचमुच सुगंधा दिशाहीन हो गई तो वह क्या करेगी…’ रेवती स्वयं से सवाल कर उठी, ‘सुगंधा जिस उम्र में पहुंची है वहां तो हमारा प्यार और धैर्य ही उसे काबू में रख सकता है. सुगंधा को उस की गलती का एहसास बुद्धिमानी से करवाना होगा…जिस से वह सोचने पर मजबूर हो कि वह गलत है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ सुगंधा का बिखरा कमरा समेटते हुए रेवती सोचती जा रही थी.

शाम घिर आई थी…सुबह 11 बजे के निकले नरेंद्र अभी तक नहीं लौटे थे… अचानक बजी कालबेल ने उस का ध्यान खींचा. दरवाजा खोला तो नरेंद्र थे…हाथों में 4 बडे़बडे़ पैकेट लिए.

‘‘सुगंधा आ गई क्या?’’ नरेंद्र ने बेसब्री से पूछा.

‘‘नहीं…’’

‘‘आप कहां रह गए थे?’’

उस के प्रश्न को अनसुना कर के नरेंद्र बोले, ‘‘रेवती, जरा पानी ले आओ… बड़ी प्यास लगी है.’’

गिलास में पानी भरते समय उस के मन में कई प्रश्न घुमड़ रहे थे.

‘‘क्या है इन पैकेटों में?’’ गिलास पकड़ाते हुए उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘तुम खुद देख लो,’’ नरेंद्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘और सुनो, मेरा सामान दे दो…मैं जरा उन्हें ट्राई कर लूं… फिर तुम भी अपना सामान ट्राई कर लेना.’’

रेवती की हंसी कमरे में गूंज गई, ‘‘ये क्या, अपने लिए आसमानी रंग की पीले फूलों वाली शर्ट लाए हो क्या?’’ वह हंसती हुई बोली.

नरेंद्र ने उस के हाथ से शर्र्ट खींच कर कहा, ‘‘हां भई, हमारी लाड़ली फैशनपरस्त है. अब तो उस के पापा भी फैशनपरस्त बनेंगे तभी काम चलेगा.’’

‘‘और यह मजेंटा कलर का बरमूडा…यह भी आप का है?’’ रेवती के पेट में हंसतेहंसते बल पड़ रहे थे.

‘‘यह हंसी तुम संभाल कर रखो… अभी कहीं और न हंसना पडे़…ये देखो… तुम अपनी डे्रस देखो.’’

‘‘ये…ये क्या?’’ रेवती चौंक कर बोली, ‘‘आप का दिमाग खराब तो नहीं हो गया…खुद तो चटकीले ऊलजलूल कपडे़ ले आए, अब मुझे ये मिडी पहनाओगे….’’

‘‘क्यों भई, फैशनपरस्त बेटी की फैशनपरस्ती को तो खूब सराहती हो. अब मैं भी तो तुम्हें सराह लूं. चलो, जरा ये मिडी पहन कर दिखाओ.’’

‘‘आप का दिमाग तो सही है…इस उम्र में मैं मिडी पहनूंगी…मुझे नहीं पहननी,’’ रेवती भुनभुनाई.

‘‘चलो, जैसी तुम्हारी मर्जी. तुम्हें नहीं पहननी, न पहनो. मैं तो पहन रहा हूं,’’ कहते हुए नरेंद्र कपड़ों को हाथ में लिए बाथरूम में घुस गए.

‘‘अब समझ आया,’’ रेवती बोली, ‘‘देखें, आज पितापुत्री का युद्ध कहां तक खिंचता है…’’ वह मुसकराई किंतु साथ ही उस के दिमाग में विचार आया…उस ने फटाफट सामान समेटा और किचन में घुस गई.

‘‘ममा…ममा…’’ सुगंधा के चीखने की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘आ गई मेरी लाडली…’’ वह मुसकराती हुई कमरे में आई. सुगंधा की पीठ उस की ओर थी, ‘‘ममा, मेरा पिंक टाप नहीं दिखाई दे रहा. आप ने देखा… और आज आप ने मेरा रूम भी ठीक नहीं किया,’’ कहतेकहते सुगंधा मुड़ी तो हैरानी से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘ममा, आप मिडी में…वह भी स्लीवलेस मिडी में.’’

क्यों, ‘‘क्या हुआ…क्या तुम ही फैशन कर सकती हो…हम नहीं,’’ नरेंद्र ने पीछे से आ कर कहा.

‘‘ऐं…पापा, आप बरमूडा में…क्या चक्कर है. पापा, आप तो ये ड्रेस चेंज कीजिए. कैसे अजीब लग रहे हैं…और मम्मी आप भी…कोई देखेगा तो क्या कहेगा.’’

‘‘क्यों, क्या कहेगा…यही कि हम 21वीं सदी के पेरेंट्स हैं…तुम्हें इन ड्रेसेस में क्या खराबी नजर आ रही है?’’

‘‘इन ड्रेसेस में कोई खराबी नहीं है,’’ सुगंधा ने सिर झटका, ‘‘कैसे दिख रहे हैं इन ड्रेसेस को पहन कर आप लोग.’’

‘‘मुझे पापा मत कहो, डैड कहो,’’ नरेंद्र बोले.

‘‘ऐं, डैड…’’ सुगंधा चौंकी, ‘‘क्या हो गया है आप को…ममा, पानी ले कर आओ…पापा की तबीयत वाकई खराब है.’’

तब तक रेवती कोल्डड्रिंक की बोतल ले कर पहुंच गई…सुगंधा ने कोल्डडिं्रक देख कर कहा, ‘‘हां, ममा, ये मुझे दो…आप पापा के लिए पानी ले कर आओ.’’

‘‘अरी हट….ये कोल्डडिं्रक तेरे पापा के लिए ही है…कह रहे हैं पानीवानी सब बंद, ओल्ड फैशन है…पीऊंगा तो केवल कोल्डडिं्रक या हार्डडिं्रक…’’

‘‘ऐं… ममा,’’ सुगंधा रोंआसी हो गई, ‘‘यह पापा को क्या हो गया है…’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र ने फिर बीच में टोका.

‘‘अरे, छोड़ अपने पापा को,’’  रेवती बोली, ‘‘बोल, आज डिनर में क्या बनाऊं? पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, मैगी…या…’’

‘‘ममा, सचमुच आज आप यह सब बनाओगी…’’ सुगंधा खुश हो कर बोली.

‘‘आज ही नहीं, हमेशा ही बनाऊंगी,’’ रेवती ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब ?’’ सुगंधा फिर चौंकी.

‘‘मतलब यह कि आज से मैं ने  और तेरे पापा ने निर्णय लिया है कि जो तुझे पसंद है वही इस घर में होगा…तुझे अपने पापा से शिकायत रहती है न कि वे तुझे टोकते रहते हैं.’’

‘‘ममा, आज क्या हो गया है आप लोगों को.’’

‘‘हमें कुछ नहीं हुआ है, बेटा,’’ नरेंद्र ने प्यार से कहा, ‘‘हम तो अपनी बेटी के रंग में रंगना चाहते हैं ताकि घर में शांति बनी रहे.’’

‘‘हां, हां…ये बरमूडा और मिडी पहन कर आप लोग घर में शांति जरूर करवा दोगे लेकिन बाहर अशांति छा जाएगी…लोग क्या कहेंगे कि…’’

‘‘यही तो मैं कहता हूं…आज तुम्हें भी समझ आ गई, सू…’’

‘‘हां, आप लोगों को देख कर मुझे यह बात समझ आ रही है कि फैशन उतना ही अच्छा लगता है जो दूसरों की निगाह में न खटके.’’

‘‘मेरी समझदार बच्ची,’’ रेवती भावविह्वल हो कर बोली.

‘‘बेटा…क्या हमारे पास एकमात्र यही रास्ता रह गया है कि बदलते हुए परिवेश से समझौता कर लें या पुराणपंथी दकियानूसी लकीर के फकीर कहलाएं…’’

सुगंधा अवाक् अपने पिता को देख रही थी.

नरेंद्र कह रहे थे, ‘‘तुम लोगों के पास जोश तो है बेटा लेकिन होश नहीं…तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारी पीढ़ी भी कल पुरानी हो जाएगी…तुम्हें भी नई पीढ़ी से ऐसा ही व्यवहार मिलेगा तब तुम्हारी बात कोई सुनने को तैयार नहीं होगा…’’

‘‘ठीक कहते हैं आप…युवा वर्ग और बुजुर्ग आपस में एकदूसरे के पूरक हैं…केवल दृष्टिकोण और कार्यों में दोनों  एकदूसरे से बिलकुल विपरीत हैं,’’  सुगंधा ने कहते हुए सिर हिलाया.

‘‘और इन दोनों में जब आपसी समझदारी हो तो दोनों वर्गों के कार्यों और परिणामों में सफलता मिलनी ही निश्चित  है.’’

‘‘आज से मेरा उलटीसीधी बातों पर जिद करना बंद. मुझे पता होता

कि आप मुझे इतना प्यार करते हैं तो मैं आप को कभी दुखी नहीं करती, पापा.’’

‘‘पापा नहीं, डैड…’’ नरेंद्र की इस बात पर तीनों खुल कर हंस पडे़ और हंसतेहंसते रेवती की आंखें बरस पड़ी यह सोच कर कि उस के समझदार पति ने उसे और उस की बेटी को दिशाहीन होने से बचा लिया.

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