Serial Story: परख (भाग-1)

मुग्धा कैंटीन में कोल्डड्रिंक और सैंडविच लेने के लिए लाइन में खड़ी थी कि अचानक कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर यह चौंक कर पलटी तो पीछे प्रसाद खड़ा मुसकरा रहा था. ‘‘तुम?’’ मुग्धा के मुख से अनायास ही निकला.

‘‘हां मैं, तुम्हारा प्रसाद. पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ प्रसाद ने मुसकराते हुए प्रश्न किया. ‘‘जोर से भूख लगी थी, सोचा एक सैंडविच ले कर कैब में बैठ कर खाऊंगी,’’ मुग्धा हिचकिचाते हुए बोली.

‘‘चलो, मेरे साथ, कहीं बैठ कर चैन से कुछ खाएंगे,’’ प्रसाद ने बड़े अपनेपन से उस का हाथ पकड़ कर खींचा. ‘‘नहीं, मेरी कैब चली जाएगी. फिर कभी,’’ मुग्धा ने पीछा छुड़ाना चाहा.

‘‘कैब चली भी गई तो क्या? मैं छोड़ दूंगा तुम्हें,’’ प्रसाद हंसा. ‘‘नहीं, आज नहीं. मैं जरा जल्दी में हूं. मां के साथ जरूरी काम से जाना है,’’ मुग्धा अपनी बारी आने पर सैंडविच और कोल्डड्रिंक लेते हुए बोली. उसे अचानक ही कुछ याद आ गया था.

‘‘क्या समझूं मैं? अभी तक नाराज हो?’’ प्रसाद ने उलाहना दिया. ‘‘नाराज? इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हें देख कर कैसा लग रहा है, कह नहीं सकती मैं. वैसे हमारी भावनाएं भी सदा एकजैसी कहां रहती हैं. वे भी तो परिवर्तित होती रहती हैं. ठीक है, फिर मिलेंगे. पर इतने समय बाद तुम से मिल कर अच्छा लगा,’’ मुग्धा पार्किंग में खड़ी कैब की तरफ भागी.\

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कैब में वह आंखें मूंदे स्तब्ध बैठी रही. समझ में नहीं आया कि यह सच था या सपना. 3 वर्ष बाद प्रसाद कहां से अचानक प्रकट हो गया और ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही नहीं. हर एक घटना उस की आंखों के सामने जीवंत हो उठी थी. कितना जीजान से उस ने प्रसाद को चाहा था. उस का पूरा जीवन प्रसादमय हो गया था. उस के जीवन पर मानो प्रसाद का ही अधिकार हो गया था. कोई भी काम करने से पहले उस की अनुमति जरूरी थी. घरबाहर सभी मानते थे कि वे दोनों एकदूजे के लिए ही बने थे. उस ने भी प्रसाद के साथ अपने भावी जीवन की मोहक छवि बना रखी थी. पर एक दिन अचानक उस के सपनों का महल भरभरा कर गिर गया था. उस के कालेज के दिनों का मित्र शुभम उसे एक पार्टी में मिल गया था. दोनों पुरानी बातों को याद कर के आनंदविभोर हुए जा रहे थे. तभी प्रसाद वहां आ पहुंचा था. उस की भावभंगिमा से उस की अप्रसन्नता साफ झलक रही थी. उस की नाराजगी देख कर शुभम भी परेशान हो गया था.

‘‘प्रसाद, यह शुभम है, कालेज में हम दोनों साथ पढ़ते थे,’’ हड़बड़ाहट में उस के मुंह से निकला था. ‘‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था. बड़ी पुरानी घनिष्ठता लगती है,’’ प्रसाद व्यंग्य से बोला था.

बात बढ़ते देख कर शुभम ने विदा ली थी पर प्रसाद का क्रोध शांत नहीं हुआ था. ‘‘तुम्हें शुभम से इस तरह पेश नहीं आना चाहिए था. वह न जाने क्या सोचता होगा,’’ मुग्धा ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की थी.

‘‘ओह, उस की बड़ी चिंता है तुम्हें. पर तुम्हारा मंगेतर क्या सोचेगा, इस की चिंता न के बराबर है तुम्हें?’’ ‘‘माफ करना अभी मंगनी हुई नहीं है हमारी. और यह भी मत भूलो कि भविष्य में होने वाली हमारी मंगनी टूट भी सकती है.’’

‘‘मंगनी तोड़ने की धमकी देती हो? तुम क्या तोड़ोगी मंगनी, मैं ही तोड़ देता हूं,’’ प्रसाद ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया था. क्रोध और अपमान से मुग्धा की आंखें छलछला आई थीं. ‘‘मैं भी ईंट का जवाब पत्थर से दे सकती हूं, पर मैं व्यर्थ ही कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती.’’ मुग्धा पार्टी छोड़ कर चली गई थी.

कु छ दिनों तक दोनों में तनातनी चली थी.दोनों एकदूसरे को देखते ही मुंह फेर लेते. मुग्धा प्रतीक्षा करती रही कि कभी तो प्रसाद उस से क्षमा मांग कर उसे मना लेगा

पर वह दिन कभी नहीं आया. फिर अचानक ही प्रसाद गायब हो गया. मुग्धा ने उसे ढूंढ़ने में दिनरात एक कर दिए पर कुछ पता नहीं चला. दोनों के सांझा मित्र उसे दिलासा देते कि स्वयं ही लौट आएगा. पर मुग्धा को भला कहां चैन था.

धीरेधीरे मुग्धा सब समझ गई थी. प्रसाद केवल प्यार का दिखावा करता था. सच तो यह था कि प्रसाद के लिए अपने अहं के आगे किसी की भावना का कोई महत्त्व था ही नहीं. पर धीरेधीरे परतें खुलने लगी थीं. वह अपनी नौकरी छोड़ गया था. सुना है अपने किसी मित्र के साथ मिल कर उस ने कंपनी बना ली थी. लंबे समय तक वह विक्षिप्त सी रही थी. उसे न खानेपीने का होश था न ही पहननेओढ़ने का. यंत्रवत वह औफिस जाती और लौट कर अपनी ही दुनिया में खो जाती. उस के परिवार ने संभाल लिया था उसे. ‘कब तक उस का नाम ले कर रोती रहेगी बेटे? जीवन के संघर्ष के लिए स्वयं को तैयार कर. यहां कोई किसी का नहीं होता. सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं,’ उस की मां चंदा गहरी सांस ले कर बोली थीं.

‘मैं तो कहता हूं कि अच्छा ही हुआ जो वह स्वयं ही भाग गया वरना तेरा जीवन दुखमय बना देता,’ पापा अपने चिरपरिचित अंदाज में बोले थे. ‘जी पापा.’ वह केवल स्वीकृति में सिर हिलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं बोल पाई थी.

‘तो ठीक है. तुम ने अपने मन की कर के देख ली. एक बार हमारी बात मान कर तो देख लो. तुम्हारे सपनों का राजकुमार ला कर सामने खड़ा कर देंगे.’ ‘उस की आवश्यकता नहीं है, पापा. मुझे शादी की कोई जल्दी भी नहीं है. कोई अपनी पसंद का मिल गया तो ठीक है वरना मैं जैसी हूं, ठीक हूं.’

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‘सुना तुम ने? यह है इस का इरादा. अरे, समझाओ इसे. हम सदा नहीं बैठे रहेंगे,’ उस की मां चंदा बदहवास सी बोलीं. ‘मां, इतना परेशान होने की आवश्यकता नहीं है. मेरे घर आते ही आप दोनों एक ही राग ले कर बैठ जाते हो. मैं तो सोचती हूं, कहीं और जा कर रहने लगूं.’

‘बस, यही कमी रह गई है. रिश्तेदारी में सब मजाक उड़ाते हैं पर तुम इस की चिंता क्यों करने लगीं,’ मां रो पड़ी थीं. ‘मां, क्यों बात का बतंगड़ बनाती हो. जीवन में समस्याएं आती रहती हैं. समय आने पर उन का हल भी निकल आता है,’ मुग्धा ने धीरज बंधाया.

पता नहीं हमारी समस्या का हल कब निकलेगा. मुझे तो लगता है तुम्हें उच्चशिक्षा दिला कर ही हम ने गलती की है. तुम्हारी बड़ी बहनों रिंकी और विभा के विवाह इतनी सरलता से हो गए पर तुम्हारे लिए हमें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. विभा कल ही आई थी, तुम औफिस में थीं, इसलिए मुझ से ही बात कर के चली गई. उस का देवर परख इंगलैंड से लौट आया है. अर्थशास्त्र में पीएचडी कर के किसी बैंक में बड़ा अफसर बन गया है. तुम्हारे बारे में पूछताछ कर रहा था. तुम कहो तो बात चलाएं.’\

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Serial Story: परख (भाग-2)

‘परख?’ मुग्धा चौंक गई थी, ‘क्या कह रही हो मां? विभा दीदी ने ही तो इस बात का सब से अधिक विरोध किया था. कहती थीं कि एक ही घर में 2 बहनों का विवाह ठीक नहीं लगता. बाद में समस्या हो सकती है. अब तो इस बात को 4 वर्ष होने को आए. अब अचानक उन के विचार कैसे बदल गए,’ अचानक मुग्धा को पुरानी एकएक बात याद आ गई थी. ‘अब बात दूसरी है. विभा की सास की रुचि है इस विवाह में. कहती हैं दोनों बहनों के एक घर में आने से भाइयों में प्यार बना रहेगा.’

‘अजीब बात है. मेरे विवाह के लिए सब के अपनेअपने कारण हैं. मुझे तो समझ में नहीं आता कि क्या कहूं,’ मुग्धा ने व्यंग्य किया. ‘होता है. ऐसा ही होता है. सब अपने फायदे की सोचते हैं, पर मैं तो केवल तेरे लाभ की बात सोच रही हूं. जानापहचाना परिवार है और परख के स्वभाव से तो हम सब परिचित हैं. वह जहां पहुंच जाता है, बहार आ जाती है. तुझे खूब खुश रखेगा,’ मां किसी प्रकार अपनी बेटी को राजी करने में जुटी थीं.

‘नहीं मां, मैं ने तो हथियार डाल दिए हैं. सच पूछो तो मेरी विवाह में रुचि रही ही नहीं है,’ मुग्धा आहत स्वर में बोली. सच तो यह था कि प्रेम के नाम पर उसे धोखा मिला था. ‘तेरी रुचि नहीं है, तो न सही. मेरे लिए हां कर दे. तू नहीं जानती तेरी सुखी गृहस्थी देखने की मेरी कितनी तमन्ना है. वैसे भी मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती. तेरा विवाह किए बिना इस दुनिया से जाना नहीं चाहती,’ मां दयनीय स्वर में बोलीं तो मुग्धा हंस पड़ी.

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‘क्या कह रही हो, मां. मैं अपने किसी कार्य से तुम्हें दुखी नहीं करना चाहती. पर कुछ भी निर्णय लेने से पहले मैं परख से अवश्य मिलना चाहूंगी,’ मुग्धा अनमने भाव से बोली. मां के गठिया से अकड़े हाथपैर में नई जान आ गई थी. वे सीधे विभा के ससुराल जा पहुंचीं. विभा की सास की आंखों में उन्हें देखते ही चमक आ गई थी.

‘मैं ने तो विभा के हाथों संदेशा भेजा था. बहुत दिनों बाद परख ने अपने मन की बात बताई. मैं तो सुन कर हैरान रह गई. विभा से पूछा तो उस ने ही बताया कि परख तो सदा से मुग्धा का दीवाना था. पर विभा को लगा कि एक ही परिवार में दोनों बहनों का विवाह ठीक नहीं लगता. मैं ने ही उसे समझाया, इस से अच्छा, भला क्या होगा. दोनों भाइयों के बीच प्यार बना रहेगा. आशा है आप ने मुग्धा के मन की थाह ले ली होगी.’ ‘मेरा वश चले तो मैं आज ही हां कह दूं पर हमारे चाहने से क्या होता है. वह तो परख से मिले बिना कोई निर्णय लेना ही नहीं चाहती. आप तो आजकल के बच्चों को जानती ही हैं. आप का हमारा जमाना तो रहा नहीं जब मातापिता के सामने बच्चे ऊंची आवाज में बात नहीं करते थे.’

‘जमाना सदा एक सा नहीं रहता. सच तो यह है कि हम लोग तो घुटघुट कर जी लिए, कभी अपने मन की की ही नहीं. अगली पीढ़ी को देख कर इतना संतोष तो होता है कि वे अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जी रहे हैं.’

अगले सप्ताह ही परख आ रहा है. तभी दोनों मिल कर कोई निर्णय ले लें तो दोनों की मंगनी कर देंगे और शीघ्र ही शादी. हम लोग भी जितनी जल्दी मुक्त हो जाएं अच्छा है. परख और मुग्धा मिले तो काफी देर तक दोनों के बीच मौन पसरा रहा. हैप्पी कौफी हाउस की जिस मेज के दोनों ओर वे एकदूसरे के आमनेसामने बैठे थे, 4 वर्ष पहले भी दोनों ठीक वहीं बैठा करते थे. इतने अंतराल के बाद भी उन के मनपसंद रैस्टोरैंट में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था. परख ने अपने लिए कोल्ड कौफी और उस के लिए ब्लैकी कौफी विद क्रीम का और्डर दिया तो मुग्धा मुसकरा दी.

‘तुम्हें अभी तक याद है.’ ‘कुछ चीजों को भूल पाना कितना कठिन होता है. सच पूछो तो तुम्हें कभी भुला ही नहीं पाया. ऐसा नहीं है कि मैं ने प्रयत्न नहीं किया पर तुम तो मेरे मनमस्तिष्क पर छाई हुई थीं. तुम्हें भुलाने के सभी प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए.’

‘कहते रहो, सुन कर अच्छा लग रहा है चाहे सबकुछ झूठ ही क्यों न हो,’ मुग्धा उदासी के बीच भी मुसकरा दी. ‘तुम्हें लगता है मैं झूठ बोल रहा हूं?’

‘यदि यह सच नहीं है तो इतने वर्षों में न कोई फोन, न कोई सूचना. परख, आजकल के स्मार्ट फोन के जमाने में कौन विश्वास करेगा तुम्हारी बातों पर. ऐसी क्या विवशता थी कि तुम सबकुछ छोड़ कर भाग खड़े हुए थे.’ ‘मैं कहीं भागा नहीं था. मैं तो स्वयं को तुम्हारे योग्य बनाना चाहता था. इसलिए उच्चशिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था, पर मेरे भी अपने सूत्र थे और तुम्हारे संबंध में सूचनाएं मुझे लगातार मिलती रहती थीं.’

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‘ओह, तो तुम जासूसी का काम भी कुशलता से कर रहे थे. पता नहीं तुम्हें मेरे संबंध में किस ने कब और कितना बताया है. पर मैं सबकुछ बता देना चाहती हूं. अब जब फिर से हमारे विवाह की बात उठी है तो मैं नहीं चाहती कि कोई भी भ्रम की स्थिति रहे,’ मुग्धा सीधे सपाट स्वर में बोली. मुग्धा ने जब बात प्रारंभ की तो रुकी नहीं. समीर से अपनी मित्रता और प्रसाद से अपने अंतरंग संबंधों व अलगाव का उस ने विस्तार से वर्णन किया. ‘अब तुम अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र हो. मेरे में कोई दुविधा शेष नहीं है.’

कुछ देर दोनों के बीच मौन पसरा रहा. फिर अचानक परख दिल खोल कर हंसा. ‘तो यही बताना था तुम्हें. यह सब तो मैं पहले से जानता था. सच कहूं तो मेरे पास ऐसी अनेक कहानियां हैं. अपने लगाव और अलगाव की पर उन्हें कभी फुरसत में सुनाऊंगा तुम्हें. इस समय तो बस जीवनभर के लिए तुम्हारा हाथ मांगता हूं. आशा है, तुम निराश नहीं करोगी.’

दोनों ने आननफानन विवाहबंधन में बंधने का निर्णय ले लिया. सबकुछ इतनी शीघ्रता से हो जाएगा, इस की कल्पना तो चंदा ने स्वप्न में भी नहीं की थी. दोनों की धूमधाम से सगाई हुई और 2 महीने बाद ही विवाह की तिथि निश्चित कर दी गई. सारा परिवार जोश के साथ विवाह की तैयारी में जुटा था कि अचानक प्रसाद ने एकाएक प्रकट हो कर मुग्धा को बुरी तरह झकझोर दिया था. उस ने प्रसाद को पूरी तरह अनदेखा करने का निर्णय लिया पर वह जब भी औफिस से निकलती, प्रसाद उसे वहीं प्रतीक्षारत मिलता. वह प्रतिदिन आग्रह करता कि कहीं बैठ कर उस से बात करना चाहता है, पर मुग्धा कैब चली जाने का बहाना बना कर टाल देती.

पर एक दिन वह अड़ गया कि कैब का बहाना अब नहीं चलने वाला. ‘‘कहा न, मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. फिर क्यों भाव खा रही हो. इतने लंबे अंतराल के बाद तुम्हारा प्रेमी लौटा है, मुझे तो लगा तुम फूलमालाओं से मेरा स्वागत करोगी पर तुम्हारे पास तो मेरे लिए समय ही नहीं है.’’ ‘‘किस प्रेमी की बात कर रहे हो तुम? प्रेम का अर्थ भी समझते हो. मुझे कोई रुचि नहीं है तुम में. मेरी मंगनी हो चुकी है और अगले माह मेरी शादी है. मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी परछाई भी मुझ पर पड़े.’’

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भागने के रास्ते: मुनमुन को अपनी चाहत की पहचान तो हुई, लेकिन कब

Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-3)

दोनों कंधों को पकड़ कर बड़े ध्यान से वह मुझे देखने लगा, पर मैं इंतजार करती रही.

‘‘ठीक है, चलते हैं जुल्फी को ढूंढ़ने,’’ हार कर वह बोला.

आठ

तारा पिंजरे में घुसने का रास्ता ढूंढ़ रही थी, पर हम लोगों ने उसे खोला नहीं. उस की तड़प अब नहीं देखी जाती.

नौ

‘‘याद है, दिसंबर की वह रात, मुनमुन? हम दोनों कौल पर थे, रैसपिरेटरी वार्ड में. क्या इस बात को 23 साल हो गए हैं? यकीन नहीं होता,’’ गाड़ी चलातेचलाते उस ने मुझ पर एक उड़ती सी नजर डाली, ‘‘और वह रात? वह रात तो अविस्मरणीय है. शांत कर रहा था मैं तुम्हें, हमेशा की तरह. क्या बुलाते थे सब मुझे? ‘योर्स फौरऐवर’? नहीं, कोई दूसरा नाम था, ‘फौरऐवर लवर’ था शायद. क्यों?’’

मैं ने सिर हिला कर उस से कह दिया कि मुझे फुजूल की वे सब बातें याद नहीं हैं और वह दबी हंसी हंस कर रह गया. फिर बोलता चला गया. ‘‘लो, याद आ गया, ‘साइलैंट सफरर’.’’

कार की खिड़कियां बंद थीं. हवा का झोंका अंदर घुस कर कभी आह भर रहा था, कभी बड़बड़ा रहा था. किंतु अनुपम अपने शब्द सपाट आवाज में बोलता चला जा रहा था.

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‘‘उस वक्त क्या मालूम था कि बाहर गैस का सफेद बादल शहर के अंधेरे रास्तों पर उतर कर कंबलों के नीचे ठंड से थरथराते इंसानों के कानों में कुछ ऐसा फुसफुसा कर चला जा रहा  था कि वे खुदबखुद मौत से समझौता करते हुए लुढ़कते जा रहे थे? जब फटाक से दरवाजा खुला और बुलावा आया और हम वार्ड में बेतहाशा भागेभागे गए, तब जा कर दिखे सैकड़ों कसमसाते, कराहते लोग, अपने बदन पर से काबू खोते हुए, गलियारे में उकड़ूं बैठे हुए, वेटिंगरूम में रोतेतड़पते हुए, प्रवेशद्वार पर बैठे बिलबिलाते हुए, बाहर की सीढि़यों पर लोटतेबिलखते हुए. ऐसी कोई जगह बची थी क्या, जहां नजर पड़ती और लोग न दिखते?

‘‘लोगों की जलती आंखों को ब्राइन से धो कर, उन के फेफड़ों से ऐक्सैस फ्लूईड निकाल कर काटी थी हम अस्पताल वालों ने वह रात. कई घंटों तक तो यही मालूम नहीं था कि हम सामना किस दुश्मन का कर रहे हैं. किसी को अंदाजा भी नहीं था कि आखिर वह जानलेवा गैस थी क्या? बस जो दिख रहा था, वही मालूम था. लोगों की छातियों में आग लगी हुई थी, मुंह से झाग निकल रहा था, टिशू जल रहे थे, फिर कारबाइड वालों के यहां से खबर आई कि साइनाइड प्वाइजनिंग का इलाज करें.

‘‘पागलों की तरह और्डर दे रहे थे हम एकदूसरे को, रोबोट की तरह इलाज कर रहे थे मरीजों का, अभी एक मरीज गया नहीं कि दूसरा मुंह से झाग उगलते हुए आ गया, जैसे कि हम किसी कार बनाने वाली फैक्टरी की असैंबली लाइन पर खड़े मजदूर हों. फिर रात के कहीं 3 बजे जा कर हमें थोड़ी राहत मिली. और भी कई डाक्टर और स्टाफ आ गए. लेकिन हजारों की तादाद में मरीज भी तो आ रहे थे.’’

अब जा कर कहीं अनुपम ने लंबी सांस ली. मैं ने मौका लपका और बोली, ‘‘क्यों बिना वजह ये पुरानी बातें उठा रहे हो?’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, क्यों मैं गड़े मुरदे खोद रहा हूं? क्योंकि आज मुझे लगता है कि कुछ मुरदों को जगाना होगा,’’ वह फिर शुरू हो गया.

‘‘रात के 3 बजे तक हम दोनों ही थक गए थे. एकाएक तुम धड़ाम से गिर पड़ीं. मैं तुम्हारी मदद करने आया तो देखा, तुम कुछ और ही रट लगा रही थीं, ‘जुल्फी वहां है… उसे बचाना है.’ अब अस्पताल में हमारे बिना काम चल सकता  था. हम ने दवाएं उठाईं, अपने मास्क पहने और स्कूटर पर रवाना हो गए. वह पता जो तुम मेरे कानों में चिल्लाए जा रही थीं, मुझे अच्छी तरह मालूम था. फिर भी मैं तुम को चिल्लाने से रोक नहीं पा रहा था क्योंकि जो नजारा इतनी रात को हमारे चारों तरफ था, उस के लिए मैं तैयार न था.

‘‘अपनी आंखों को मींचे हुए, हजारों की तादाद में आदमी, औरत, बच्चे या कहें कि इंसानों के जंगल के जंगल अस्पताल की तरफ चले जा रहे थे. पीछेपीछे चल रहे थे उन के गाय, बैल, कुत्ते, बकरी आदि. चारों तरफ थी वह मनहूस धुंध जो अपनी क्रूर, स्पर्शहीन उंगलियों से हमें टटोल रही थी, जांच रही  थी, हौले से सहला रही थी और मौका मिलते ही बदन में छेद कर रही थी. जो लुढ़क जाते, वे कुचले जाते, इंतजार करते रह जाते मौत का. आखिरकार वे कायामात्र ही तो थे-लहू, चमड़ी, हड्डी और मल-उस रात मल ज्यादा था. ये सब क्या तुम सच में भूल गईं, मुनमुन?

‘‘हां, तुम्हें तो उस वक्त एक ही ऐड्रैस की फिक्र थी, खोली नंबर 152, जेपी नगर. फिर हम उस के दरवाजे तक भी पहुंच गए. द्वार अंदर से बंद था. 2 धक्कों में खुल गया. अंदर धुंध में 2 लोग सोते दिखे. औरत तो खत्म हो चुकी थी. उस की बगल में एक बच्ची भी थी, वह भी नहीं बची. तुम सीधे उस आदमी के पास पहुंची थीं, उस की सांसें बरकरार थीं. तुम उसे हिला रही थीं, तमाचे मार रही थीं और रोतेरोते उस से जगने को कह रही थीं. तुम ने उसे चारपाई से उठा कर बिठा दिया. जब वह जागा, तुम्हें हैरानी से देखने लगा. तुम ने चिल्लाना शुरू कर दिया. ‘उठो जुल्फी, मैं हूं, मुनमुन, देखो, मैं आ गई,’ तुम बारबार यही बोले जा रही थीं.

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‘‘मुझे लगा कि वह हलका सा मुसकराया भी. मैं तेजी से सोडियम थियोसल्फेट की शीशी ले कर पास पहुंच गया. वह आसपास देखने लगा और तुम ने उसे गैस लीक के बारे में बताना शुरू कर दिया. उस की नजर अपनी पत्नी और बच्ची की तरफ पड़ी. वह उन की तरफ बढ़ा, कुछ बड़बड़ाया. वह फटी आंखों से बस उन्हें देखे जा रहा था. जैसेतैसे खड़ा भी हो गया, सीरिंज अभी उस के हाथ की नाड़ी में लगी हुई थी, तुम्हारे कंधों का सहारा ले कर जब वह जोर से चिल्लाया, तब जा कर तुम ने उसे बताया कि वे दोनों अब नहीं रहीं.

‘‘वह सीधे दोनों की ओर भागने को हुआ, खुद देखने. मैं हवा में शीशी उठाए यह सब देख रहा था. तुम्हारे शब्द कान में पड़े, ‘मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगी. आई विल फोर्स यू टु लिव.’ तब उस ने मेरे हाथों से शीशी छीन ली और उसे जमीन पर फोड़ दिया. उस का संतुलन गड़बड़ा गया और वह फिर तुम पर गिर पड़ा. तुम उसे सहारा दे रही थीं और सिसकियां भरभर कर कह रही थीं कि अब तुम आ गई हो न, उसे छोड़ कर नहीं जाओगी. तुम ने उस से यह भी कहा कि तुम उस से हमेशा प्यार करती थीं और करती रहोगी.

‘‘उस वक्त जैसे मेरी रगों में बहता खून जम गया था, अब वह तुम्हें देख कर अजीब तरह से मुसकरा रहा था, जैसे कि उसे तुम पर हंसी आ रही हो. फिर एक झटके में वह सिकुड़ गया, जैसे पेट में बल पड़ गया हो. तुम्हारे हाथ उस की कमर में बंधे थे. फिर जब उस ने सिर उठाया, लड़खड़ा रहा था, उसी समय उस ने सब उलट दिया. तुम्हें उस के लड़खड़ाते, गिरते बदन को छोड़ना पड़ा, क्योंकि तुम्हारी आंखें उसे जो उल्टी हुई थी, उस में जल रही थीं. उस ने तुम्हारी बांहों में ही तो दम तोड़ा था, क्या तुम्हें यह भी याद नहीं?’’

दस

अनुपम ने गाड़ी रोक दी.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं चारों तरफ देखने लगी. लगा जैसे किसी ने सपने से जगा दिया हो.

उस ने जवाब नहीं दिया. कुछ देर के लिए सड़ी गरमी में रुकी हुई कार से बाहर की सटरपटर देखती रही. हम जिस इलाके में थे उसे एक अपमानजनक बवाल ने निगला हुआ था. वही खोली, जुल्फी की खोली. उस की खोली के सामने कचरे का अच्छाखासा ढेर लगा हुआ था. उस के ऊपर एक निरीह दुबला कुत्ता गहरे चिंतन में डूबा बैठा था. पास में ही कई सारी बच्चियां उछलकूद कर रही थीं और एक छोटा सा लड़का अपने बूढ़े दादा के साथ खाट पर बैठा था. लड़का जांघिया पहनना भूल गया था और उस के दादा हाथ में उस का जांघिया पकड़े हुए थे. वे भी किसी चिंतन में ही डूबे हुए से थे.

लेकिन मुझे तो बेचैनी हो रही थी  अनुपम के घटना वर्णन से. अपने सालों की प्रैक्टिस में मैं ने कई कहानियां सुनी हैं, एक से एक विचित्र केसहिस्टरी. मुझे लग रहा था, मैं वह सब छोड़छाड़ कर आ गई हूं. अपने अच्छे दोस्त की ओर एक उदास सरसराती हुई सी नजर फेंकते हुए मैं कार से निकल कर उस बूढ़े आदमी से मिलने चली गई. कुछ सवालजवाब के बाद वापस आ गई और पैसेंजर सीट पर बैठ कर हंस पड़ी.

‘‘कैसी बेवकूफ हूं मैं, अनुपम. यह कैसे सोच लिया कि 25 साल के बाद भी लोग इधर ही मिलेंगे. चलो, घर चल कर डाइरैक्टरी में देखते हैं.’’

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ग्यारह

तारा पिंजरे का मोह छोड़ कर घर से बाहर चली गई थी. हम सब ने चैन की सांस ली थी.

बारह

मैं पिछली फ्लाइट से दिल्ली होते हुए वापस आ गई, रामअवतार के पास.

Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-2)

उस ने मुझे अब भी नहीं बताया कि वह किस के साथ भागने की सोच रही थी. मैं उसे हैरानी से देख रही थी. सोच रही थी कि क्या यह संभव है कि मैं उसे जानती हूं. मैं ने उस वक्त महसूस किया कि मैं किसी मुसलमान इंसान को नहीं जानती, सिर्फ…

अचानक मन में चौंका देने वाला विचार उठा. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती, वह बोली, ‘‘हम दोनों बहनें जैसी हैं, मुनमुन. जानती हो, मुझे तुम पर हमेशा से कितना गर्व है. गर्व है अपनी दोस्ती पर भी. और तुम्हारा वह प्रशंसनीय आत्मविश्वास, उसे मैं कभी टूटते हुए नहीं देख सकती. स्कूल में कितनी बार सोचा कि तुम्हें बताऊं…’’

मुझ से और रहा नहीं गया. मैं ने उसे टोक कर पूछा, ‘‘क्या वह जुल्फिकार है?’’

उस ने जवाब नहीं दिया. उलटे 2 मोटीमोटी आंसू की रेखाएं उस के गालों पर लुढ़कने लगीं…तो वह जुल्फिकार ही था.

मैं अपना स्वाभिमान पी कर बोली, ‘‘पागल हो गई हो क्या?’’

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वह चुप रही तो मैं ने थोड़ा और बोल दिया, ‘‘भागने की सोच रही हो? वह भी ऐसे आवारा, निकम्मे लड़के के साथ जिस का कोई भविष्य ही नहीं है. वैसे महाशय कर क्या रहे हैं आजकल? न, ऐसा हर्गिज मत करना. पछताओगी.’’

वह चुपचाप जमीन पर आंखें गड़ाए सुनती जा रही थी और मैं भी बोलती चली जा रही थी, जैसा कि हमेशा होता था. ‘‘मेरी बात सुनो रत्ना, उस का तो कोई फ्यूचर है नहीं. खुद गिरेगा, तुम्हें भी साथ ले जाएगा. अभी तुम 18 साल की ही तो हो. चलो, कालेज खत्म कर लो पहले फिर यह भागनेवागने के बारे में सोचना.’’

‘‘मगर…’’

मेरे इतना समझाने पर भी वह अगरमगर कर रही थी. मुझे उसे टोकना पड़ा. दरअसल, मेरे टर्मिनल इम्तिहान आने वाले थे. काम बहुत था. वैसे भी मैं कोई महात्मा तो थी नहीं कि ऐसी बातों को घंटों सुनती रहती, ‘‘भागने की बात भूल जाओ, मेरी भोलीभाली गाय.’’

ऐसा कह मैं वहां से चल पड़ी.

पांच

फाइनल ईयर में उस का पत्र आया, ‘‘पिछली बार जब मिले थे, कैसे सख्तजान थे हम दोनों. लेकिन मुनमुन, सच्चे दोस्त एकदूसरे को चाहना बंद कर ही नहीं सकते. चल, एक अच्छी खबर सुनाती हूं, मेरी जान. अब हमारी एक बेटी है. नन्ही सी, प्यारी सी. जुल्फी और मैं उसे मुन्नी के नाम से बुलाते हैं. वैसे मुनमुन नाम रखा है. कहो, कैसा लगा?’’

कैसा लग सकता था मुझे? मेरा दिल डूब रहा था.

खत में और भी बहुतकुछ लिखा था. भोपाल में रहते थे दोनों. वहीं किसी गैराज में जुल्फी को काम मिल गया था. देरदेर तक काम करता था. मुश्किल जिंदगी थी, अभावों से भरी, पैसे की कमी, खाने की कमी, कई दुर्घटनाएं भी हो चुकी थीं, एक थोड़ा सीरियस हादसा भी हो गया था, ऐसा लिखा था उस ने. खत में आगे यह भी लिखा था, ‘‘वे सब दिन अब बीत चुके. जो बीत गई सो बात गई. अब बच्ची के आने से शायद सब कुछ संभल जाए. कम से कम हम दोनों एकसाथ तो हैं.’’

‘कैसे? कैसे संभालेगी जिंदगी, रत्ना?’ मैं ने फौरन उस का पत्र मरोड़ कर, गेंद बना कर फेंक दिया.

ऐसी अनिश्चित जिंदगी को चुनने के लिए क्या वह मुझ से यह उम्मीद कर रही थी कि तालियां पीटूं, उसे वाहवाही दूं? ऊपर से यह बात कि किसी तरह के अमिट प्रेम ने जुल्फी को मेरी बेचारी रत्ना के साथ जोड़ रखा था, इस से ज्यादा उलटीपुलटी बात की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. असल बात क्या थी, मुझे साफ दिखाई दे रही थी. मुझ से संपर्क में रहने के चक्कर में वह कालेज में रत्ना से चिपका रहा. फिर रिश्तों में ऐसा फंसा कि अब देखो, कैसे दयनीय हाल में पहुंच गया. साथ में बेचारी रत्ना की जिंदगी भी बरबाद कर के रख दी. ऐसी बातें अकसर होती हैं. मैं मनोचिकित्सक हूं, आएदिन देखती हूं. मुझे नहीं मालूम होगा तो और किसे होगा?

छह

ये लोग मुझे यह मनवाना चाहते हैं कि जुल्फी अब नहीं रहा. उसे मरे तो सालों बीत गए. और तो और, वह मेरी ही बांहों में मरा था. ये सब बातें मैं भूल भी कैसे गई, उन्हें यकीन नहीं होता.

सब से कठोर तो मेरी मां थीं जो गुस्से में बड़बड़ा रही थीं, ‘‘कैसी औरत है? अच्छेखासे पति को छोड़ आई, उस बेचारे रामअवतार को.’’

‘‘और यह तुझे किस ने बताया कि कालेज गए बच्चों को मां की जरूरत नहीं होती?’’

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मां के साथ 2 दिन रहना दुश्वार हो गया था.

‘‘हम ने क्या तुझे अच्छी शिक्षा इसलिए दी थी कि एक दिन ऐसा आए जब हम शर्म से कहीं मुंह दिखाने लायक ही न रहें? अपनी उम्र देखी है? 50 की होने जा रही है, पंख तितलियों वाले ही लगे हैं अब तक. उफ्फ, ऐसी बेटी पैदा होते ही क्यों नहीं मर गई?’’

अतिशयोक्ति मेरी मां की अपनी एक खास प्रवृत्ति है. लेकिन मैं मां, पत्नी या बेटी के रूप में बस एक रोल भर नहीं, इंसान भी हूं. मेरे सीने में धड़कता दिल है  और तन में ताकत है. मन यदि कुछ करने की चाह रख रहा है तो क्या न करें. सालों से एक आदमी की परछाईं मुझ पर मंडरा रही थी. उस परछाईं पर ध्यान मेरा अब जा के ही तो गया न? मां ये सब समझने को तैयार ही नहीं थीं. रोज वही रोना होता था. मैं ने फिर बक्सा उठाया और चली गई अनुपम के यहां.

सात

मैडिकल कालेज में मेरा एक अच्छा दोस्त हुआ करता था. नैफ्रोलौजिस्ट था. भोपाल में रहता था. वहीं पैदा हुआ, बड़ा हुआ. दिल्ली में 5 साल मैडिकल कालेज में पढ़ कर वापस भोपाल में ही सैटल हो गया था.

‘‘वैलकम बैक सरवाइवर,’’ मुसकराते हुए उस ने मेरा स्वागत किया.

हां, हम दोनों सरवाइवर थे. 1984 में भोपाल के एक ही अस्पताल में रेजिडेंट डाक्टर थे. हमारी दोस्ती में एक नया पहलू जुड़ गया था जब गैस लीक के उस हादसे में खुद को बचाया था हम ने और साथ में सैकड़ों लोगों को भी. बड़ा अजीब, उन्मादी समय था वह, मेरे मानसिक डर से अब अच्छी तरह ब्लौक्ड. इसी में भला था.

दिल्लीवासी होने के बावजूद, मैं भोपाल क्यों गई रेजिडेंट डाक्टर बन कर? यह एक असाधारण कदम था. सच तो यह है कि उन दिनों मेरी सोच कुछ नौर्मल नहीं थी. होशोहवास उड़े हुए थे. मेरे पैर मुझे दिल्ली से वहां ले गए जहां जुल्फी एक बीवी और बच्ची, जो मेरी ही हमनाम थी, के साथ बहुत गर्दिश के दिन गुजार रहा था. वहां जा कर मैं क्या करूंगी, खुद को मालूम नहीं था.

तो काफी सालों के बाद मैं अनुपम से मिल रही थी. बहुत बदल गया  था. बाल कुछ कम और सफेद हो गए थे. चश्मा मोटे लैंस वाला था. चेहरे की जानीपहचानी लकीरों से अब कई नई शिकनें चटक के निकल आई थीं.

‘‘जवानी तुम से डर कर भाग गई,’’ मैं ने उस से कहा.

वह हंस कर बोला, ‘‘मगर तुम वैसी की वैसी हो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘किसी की तलाश में आई हूं, अनुपम. जुल्फी को ढूंढ़ने में तुम्हें मेरी मदद करनी पड़ेगी.’’

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर तो हवाइयां ही उड़ने लगीं. कहा कुछ नहीं, बस देखता रहा भौचक्की निगाहों से. पता नहीं क्यों, मेरे मन में एक चिंताजनक खयाल उठा कि कहीं रोने न लगे वह. फौरन कड़ी आवाज में मैं बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि तलाश तुरंत शुरू कर दूं.’’

वह हिला तक नहीं. सीधा खड़ा रहा. फिर एकाएक उस के चेहरे पर खिन्न सी मुसकान उभर आई.

‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है,’’ काफी गहरी शांति के बाद वह बोला.

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मैं तेजी से उठी और दरवाजे की तरफ चल पड़ी. उस की पत्नी ने फौरन हट कर मेरे लिए रास्ता भी खाली कर दिया. एक बात मुझे कभी समझ में नहीं आ पाई. अनुपम और मेरी सालों पुरानी सच्ची दोस्ती के बावजूद, उस की बीवी ने कभी मुझ में कोई उत्साह नहीं दिखाया.

‘‘रुको, मुनमुन. क्या यह मुमकिन है कि तुम सबकुछ भूल गई हो…कि जुल्फी अब कहां है?’’

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Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-1)

एक

उन दिनों हम ऊटी में रहते थे. एक शाम मेरे पति राम, मेरी 10 वर्षीय बेटी प्रियंवदा के साथ कहीं से वापस आए.

‘‘यह देखो तो…हमारे साथ कौन आया है!’’

प्रियंवदा ने एक गत्ते का डब्बा पकड़ रखा था, उसे मेज पर रख दिया. ढक्कन को हलके से खोला तो अंदर बिना दुम वाला एक छोटा सा चूहेनुमा जानवर था. ‘‘मम्मी, देखिए, यह तारा है.’’

हम उसे देख रहे थे, तारा हमें देख रही थी. वह एक टशनदार हैम्स्टर थी. चौकस, उत्सुक और हद दरजे की फौर्वड. शर्मीलापन का ‘श’ भी नहीं समझ रही थी. घबरा तो बिलकुल नहीं रही थी.

कुछ साल पहले भीमसेन ने एक जरबिल पाली थी. बड़ी प्यारी सी. ऐलिस नाम था उस का. उस बेचारी का तो देहांत हो चुका था. उसी का तीनमंजिला पिंजरा अब भी पड़ा था घर में. सो पिंजरा साफ कर के तारा के लिए तैयार कर लिया गया. पिंजरे में घुसते ही तारा की छानबीन भी शुरू हो गई. कुछ ही देर में उस ने पिंजरे का कोनाकोना समझ लिया. अंदर रखी हर चीज को वह सूंघ चुकी थी, खाने की डिब्बी को छान चुकी थी. प्रियंवदा ने उसे व्यस्त रखने के लिए लकड़ी के जो टुकड़े रखे थे उन्हें वह दांत से दबा कर देख चुकी थी. पानी की बोतल चूस चुकी थी. सब जांचपड़ताल पूरी होने के बाद वह पहियादौड़ लगा रही थी. सिर्फ वह ‘सीरियल बार’ अनछुआ छोड़ दिया जो उस के लिए पैट शौप से ये दोनों लोग खरीद के लाए थे.

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मुझे लगता है, उस रात बिस्तर में नींद का इंतजार करते हुए हम सभी के चेहरों पर मुसकान चिपकी हुई थी, एक प्यारी सी बढ़ोतरी जो हो गई थी हमारे परिवार में.

हमारे यहां सुबह सब से पहले राम ही उठते हैं. अगली सुबह कौफी का पानी रख हीटर को औन कर के वे टौयलेट चले गए. आंखों में नींद अब भी भरी थी. टौयलेट सीट पर बैठेबैठे वे नींद के कुछ आखिरी पल चुरा रहे थे, जब उन्हें अपने दिन का पहला ‘गुड मौर्निंग’ मिला. देखा कि तारा उन के पांव का अंगूठा कुतर रही थी.

‘‘आप इतनी सुबह उठ कर क्या कर रही हैं, मैडम? और वह भी अपने पिंजरे के बाहर?’’ राम ने उसे संभाल कर उठा लिया. टौयलेट सीट के पीछे देखा तो वहां उस का नया बसेरा पाया. जिस सीरियल बार में वह बिलकुल रुचि नहीं दिखा रही थी उसे वह रातभर में कई टुकड़ों में तोड़तोड़ कर एकएक कर वहां ले आई थी. बार ने अब एक ढेर का रूप धारण कर लिया था.

‘‘अरे मेरी बुद्धू चुहिया, तुम यहां कैसे रह सकती हो?’’ यह कह कर राम ने उसे वापस पिंजरे में पहुंचा दिया.

सब नाश्ता कर रहे थे और तारा पिंजरे में रखे इगलू, यानी अलास्का में बर्फ के बने गोलघर, जिन के अंदर लोग बंद हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से उन का कोई वास्ता नहीं रहता, के अंदर मुंह फुलाए बैठी थी. बाहर निकल कर तभी आई जब बच्चे स्कूल चले गए थे. बड़ी बगावती मूड में थी. पिंजरे की कडि़यां पासपास ही थीं, मगर कोनों से बाहर निकलने की थोड़ी गुंजाइश थी. वहीं से, थोड़ा ऐंठ कर, थोड़ा खुद को सिकोड़ कर, अपने को पतला कर के जैसेतैसे वह फिर बाहर निकल आई और घर के दूसरे कोने में स्थित टौयलेट की तरफ भागने लगी. राम फिर उसे वापस ले आए.

‘अब इस आफत की पुडि़या के लिए नया पिंजरा लाना पड़ेगा,’ ऐसा सोचतेसोचते मैं कोनों की कडि़यों को कस के तार से बांधने लग गई. तारा ने फिर कडि़यों के बीच चौड़ा गैप ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

नखरे उस के तब शुरू हुए जब उस ने अपने भागने के सारे रास्ते बंद पाए. पागल हो गई वह और बेतहाशा पिंजरे की सलाखों पर चढ़ने लगी. तीसरी मंजिल पर चढ़ कर, कभी मेरी, कभी राम की आंखों में आंखें डाल कर उस ने पिंजरे की दीवार पर सिर मारना शुरू कर दिया. गुस्से में पास रखे लकड़ी के टुकड़े को लात मारी. दोनों हाथों से सलाखें पकड़ कर जोरजोर से हिलाईं. इतनी छोटी सी चुहिया का इतना बड़ा संग्राम. हम दोनों को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे डर था, उस का यह आवेग कहीं उसे बीमार न कर दे, सो पास पड़ी भीमसेन की कमीज से उस के पिंजरे को ढक दिया. तब जा कर वह कुछ शांत हो पाई.

ऐसा ही कुछ तो मेरे साथ हुआ.

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दो

कुछ साल बाद, जब मैं ने अपने 46 साल पूरे किए और मेरे दोनों बच्चे कालेज के लिए घर छोड़ कर चले गए थे, मुझे वैसी ही व्याकुलता महसूस होने लगी जैसी उस दिन तारा ने जाहिर की थी. राम को छोड़ कर और अपनी सालों की सफल साइकाइटरी की प्रैक्टिस को डंप कर के, अपनी जवानी के खोए हुए प्यार, जुल्फी, को ढूंढ़ने के लिए मैं भोपाल निकल पड़ी.

तीन

तारा पिंजरे से एक बार और निकल गई थी, पर कुछ घंटों में ही उस के सामने आ कर बैठ गई थी. पिंजरा ही उस का घर जो था.

चार

पता नहीं कहां से स्कूल के आखिरी सालों में जुल्फिकार आ कर भरती हो गया. आर्ट्स स्टूडैंट था. कुछ ही हफ्तों में ऐसा लोकप्रिय हो गया कि बच्चे तो बच्चे, शिक्षक भी उस के जादू में आ गए थे और यह जानते हुए भी कि स्कूल कैप्टन के ओहदे के लिए मैं सालों से कामना, तैयारी और इंतजार कर रही थी, उन्होंने यह पद उस बंदर को दे दिया.

‘‘तुम को तो इस साल अपने ऐंट्रैंस एग्जाम्स के बारे में सोचना है, बेटा,’’ मैथ्स के टीचर ने ये ढाढ़स भरे सादेसूखे शब्द कह कर मुझे किनारे खिसका दिया.

क्या मालूम, वह जुल्फिकार का बच्चा लंगड़ा था या डरपोक, मैं ने उसे कभी अकेले चलते हुए नहीं देखा. हमेशा उस के साथ लड़कों का एक झुंड चलता था. सब चमचे थे उस के. उसे देखते ही मुझे जबरदस्त चिढ़ मचती थी, मेरा खून खौलने लगता था. मैं रास्ता बदल देती थी. उस की तरफ देखती भी नहीं थी.

इस का मतलब यह नहीं कि मुझे यह जान कर हैरानी हुई हो कि जनाब को इश्क हो गया था मुझ से. मेरा मतलब है, ऐसे कम ही हैं जो मुझ पर फिदा नहीं हुए हैं.

रोजाना लंच में और जब भी थोड़ा अवकाश मिलता, मैं और मेरी सब से प्यारी सहेली रत्ना हाथों में हाथ डाल, जाड़ों की गुलाबी धूप में स्कूल के ग्राउंड में घूमा करते थे, गप मारते थे, अपने पसंदीदा गीत गुनगुनाते थे. बहुत गहरी थी हमारी दोस्ती. अकसर यों टहलतेटहलते मेरी नजर क्लास की तरफ जाती और मैं हंस देती. ‘‘वह देखो, वहां कौन खड़ा है! बेवकूफ, तुम सब का हीरो!’’ खोयाखोया सा अपने साथियों से टिक कर खड़ा खिड़की से मुझे घूरघूर कर देखता था वह पागल जुल्फी. ‘लूजर’, सीधीसादी रत्ना कभी किसी का बुरा न सोचने, न चाहने वाली लड़की थी. वह चुप ही रहती.

रत्ना से मैं फिर तब मिली जब मैं मैडिकल कालेज के सेकंड ईयर में थी. स्कूल छोड़ने के बाद हमारे संपर्क टूट गए थे. अजीब बात थी, क्योंकि स्कूल में हम दोनों को अलग करना असंभव ही था.

उस के पहले वाक्य ने ही मुझे हिला कर रख दिया.

‘‘हम भागने की सोच रहे हैं. तुम्हारी राय चाहिए, मुनमुन.’’

कुछ देर तक मैं ‘क्याक्या’ ही करती रही. ये भागनेवागने की बातों की तो मैं बस स्पोर्ट्स में ही कल्पना कर सकती थी.

‘‘भागने की सोच रही हो, किस के साथ?’’ मैं बड़ी मुश्किल से पूछ पाई.

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अंतर्मुखी स्वभाव की थी मेरी रत्ना. उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि हमेशा उस के कान मेरी बातों के लिए तैयार रहते थे. आज पहली बार गीयर उलटा लगा था.

वह रोने लगी, ‘‘मैं उस से प्यार करती हूं, मुनमुन. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते हैं.’’

सिसकियों के बीच वह बोलती गई, ‘‘लेकिन वह…वह मुसलमान है, और मेरे मम्मीपापा को तो तुम जानती ही हो. कभी नहीं मानेंगे…उफ, कितनी दुखी हूं मैं! अब तुम ही मुझे बताओ, मैं क्या करूं?’’

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले

Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-1)

मैं रश्मि को पिछले 7 सालों से जानती हूं. मेरा बेटा मिहिर जब उस की कक्षा में पढ़ता था तब वह स्कूल में नईनई थी. उस का परिवार मुंबई से उसी वर्ष बोरीवली आया था.

हमारी पहचान भी बड़े नाटकीय एवं दिलचस्प अंदाज में हुई थी. मिहिर का पहली यूनिट परीक्षा का परिणाम कुछ संतोषजनक नहीं था. ‘ओपन हाउस’ के दिन की बात है.

जब सभी विद्यार्थियों के अभिभावक जा चुके और मैं भी जाने लगी तो उस ने इशारे से मुझे रुकने के लिए कहा था. उस के अंदाज में अदृश्य सा आदेश पा कर मेरे बढ़ते कदम रुक गए थे.

‘‘आप, मिहिर की मदर हैं?’’ बेहद नाराजगी के स्वर में उस ने मुझ से पूछा था.

‘‘जी हां.’’

‘‘मैं आप को क्या कह कर पुकारूं?’’ उस ने फिर पूछा, ‘‘नाम ले कर या फिर मिहिर की दुश्मन कह कर… वैसे मैं आप का नाम जानती भी तो नहीं…’’

‘‘जी…वर्षा,’’ मैं ने अपना नाम बताया.

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‘‘तो वर्षाजी, आप ही बताइए, क्या आप अपने बच्चे पर हमेशा इसी तरह, गुस्से से बरसती हैं या फिर कभी स्नेह की बारिश भी उस पर करती हैं?’’

‘‘म…मैं समझी नहीं…’’ मैं स्तब्ध सी उस के सुंदर चेहरे को देखती रह गई, ‘‘दरअसल, बात यह है कि…’’ मेरा वाक्य अधूरा रह गया.

‘‘इतना गुस्सा भी किस काम का कि नन्हे बच्चे को यों बेलन से मारना पड़े?’’ रश्मि ने नसीहत देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, इनसान को हमेशा, हर हाल में अपने पर काबू पाना सीखना चाहिए. गुस्से में तो खासकर. मेरी बात मानिए, जब कभी भी आप को गुस्सा आए तब आप अपनी सूरत आईने में देख लें. इस सूरत में यदि आप अपने गुस्से पर काबू पाने में सफल न हुईं तो फिर बताइएगा.’’

‘‘मैडम, आप ही बताइए, मैं क्या करूं? मिहिर पढ़ाई में ज्यादा ध्यान नहीं देता. हर वक्त उस के सिर पर सिर्फ क्रिकेट का ही जनून सवार रहता है. अभी से यह हाल है तो आगे जा कर उस का भविष्य क्या होगा? आज परिणाम आप के सामने ही है.’’

‘‘तो उसे समझाने का आप कोई और तरीका अपनातीं. क्या आप के हाथों बेलन की मार से वह रातोंरात बदल जाएगा? माफ कीजिए, आप तो बेलन का सही उपयोग और मां शब्द का सही अर्थ दोनों बदलने पर तुली हुई हैं.’’

मैं चुपचाप उस की नसीहत सुनती रही.

‘‘वर्षाजी, बच्चों के मन और शरीर दोनों गूंधे हुए आटे की तरह नम होते हैं, उसे जैसा आकार देना चाहें हम दे सकते हैं, पर मैं ने अकसर देखा है, हर मातापिता अपने बच्चों को अपनी अपेक्षाओं के अनुसार ढालना चाहते हैं. वे एक बात भूल जाते हैं कि बच्चों की भी अपनी पसंदनापसंद हो सकती है. खैर, आप ‘मां’ के आगे एक अक्षर ‘क्ष’ और जोड़ दीजिए.’’

‘‘क्ष…मा…’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा.

‘‘यही ‘मां’ शब्द का सही अर्थ है, समझीं?

‘‘क्रोध से अकसर बनती बात बिगड़ जाती है. अगर आप अपने मातृत्व को जीवित रखना चाहती हैं तो अपने गुस्से को मारना सीखिए, क्षमा करना सीखिए. इसे टीचर का भाषण नहीं, मित्र की नसीहत समझ कर याद रखिएगा.’’

मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थी. सच ही तो कह रही थी वह, मुझे गुस्से में बेकाबू हो कर अपने बच्चे को यों बेलन से नहीं मारना चाहिए था. मिहिर की पिंडली बेलन की मार से इस कदर सूज गई थी कि वह सही ढंग से चल भी नहीं पा रहा था.

‘मुझे क्षमा करना मेरे बच्चे. आज के बाद फिर कभी नहीं,’ मन ही मन निर्णय कर मैं सचमुच रो पड़ी.

और आज उसी की बदौलत मेरा बेटा न सिर्फ पढ़ाई में ही आगे है बल्कि क्रिकेट में भी खूब आगे निकल गया है. पहले अंकुर 12 फिर 14 और अब अंडर 19 के बैच में खेलता है. कई बार अखबार में उस की टीम के अच्छे प्रदर्शन के समाचार भी छपे हैं. मुझे अपने बेटे पर नाज है.

उस पल से ही हमारे बीच सच्ची मित्रता का सेतु बंध गया था. मैं हैरान थी उसे देख कर. सुंदरता, बुद्धिमत्ता और सहृदयता का संगम किसी एक ही शख्स में मिल पाना वह भी आज के दौर में किसी चमत्कार से कम नहीं लगा.

यह अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं, प्राय: उन सभी का है जो रश्मि को करीब से जानते हैं. पिछले 7 साल में उस ने न जाने कितने बच्चों पर ज्ञान का ‘कलश’ छलकाया होगा. वे सभी बच्चे और उन के मातापिता…सब के मुंह से, उस की सिर्फ प्रशंसा ही सुनी है, वह सब की प्रिय टीचर है.

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वह है भी तो तारीफ के काबिल. वह अपनी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन हर बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने का प्रयास करती है. जैसे ही उसे पता चलता है कि किसी के परिवार में कोई समस्या है, वह झट से उस का हल ढूंढ़ने को तत्पर हो जाती है, उन की मदद करने के लिए कुछ भी कर गुजरती है.

सभी बच्चों की अकसर एक ही तकलीफ होती, पैसों का अभाव. हर साल वह न जाने कितने विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनिफार्म आदि का इंतजाम करती है, जिस का कोई हिसाब नहीं. नतीजतन, वह खुद हमेशा पैसों के अभाव में रहती है.

एक दिन उस की आंखों में झांकते हुए मैं ने पूछा, ‘‘रश्मि, सच बताना, तुम्हारा बैंक बैलेंस कितना है?’’

‘‘सिर्फ 876 रुपए,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘वर्षा दीदी, मेरा बैंक बैलेंस कम है तो क्या हुआ? इतने सारे लोगों के आशीर्वाद का बैलेंस मेरे जीवनखाते में इतना तगड़ा है, ये क्या कम है? मरते वक्त मैं अपना बैंक बैलेंस साथ ले कर जाऊंगी क्या? मैं तो इसी में खुश हूं. आप मेरी चिंता मत कीजिए.’’

‘‘नहीं रश्मि, तुम गलत सोचती हो. इस बात से मुझे इनकार नहीं कि मृत्यु के बाद इनसान सभी सांसारिक वस्तुओं को यहीं छोड़ जाता है, लेकिन यह बात भी इतनी ही सच है कि जब तक जिंदा होता है, मनुष्य को संसार के सारे व्यवहारों को भी निभाना पड़ता है और उन्हें निभाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है…यह बात तुम क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘मैं बखूबी समझती हूं पैसों का महत्त्व लेकिन दीदी, मैं ने हमेशा अनुभव किया है कि जब कभी भी मुझे पैसों की जरूरत होती है, कहीं न कहीं से मेरा काम बन ही जाता है. यकीन कीजिए, पैसों के अभाव में आज तक मेरा कोई भी काम, कभी भी अधूरा नहीं रहा.’’

मैं समझ गई कि इस नादान को समझाना और पत्थर से सिर टकराना एक ही बात थी. मेरे लाख समझाने के बावजूद वह मेरी सलाह को अनसुना कर पुन: अपने उसी स्वभाव में लौट आती है.

वह भोलीभाली नहीं जानती कि कभीकभी कुछ लोग उस की इस उदारता को मूर्खता में शामिल कर उसे धोखा भी देते हैं.

ऐसा ही एक किस्सा 6 साल पहले हुआ था. यश नाम का एक लड़का पहली कक्षा में पढ़ता था. उस की मां को किसी ने बताया होगा कि रश्मि टीचर सब की मदद करती हैं.

स्कूल छूटने का वक्त था. मैं रश्मि के इंतजार में खड़ी थी. मुझे देख कर जब वह मुझ से मिलने आई तब यश की मम्मी शांति भी अपने मुख पर बनावटी चिंता ओढ़ कर हमारे पास आ कर खड़ी हो गईं.

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‘‘टीचर, यश के पापा का पिछले साल वड़ोदरा में अपैंडिक्स का आपरेशन हुआ था. वह किसी काम से वहां गए थे. अचानक दर्द बढ़ जाने पर आपरेशन करना जरूरी था, वरना उन की जान को खतरा था. आपरेशन का कुल खर्च सवा लाख रुपए हुआ था. मेरे मायके वालों ने कहीं से कर्ज ले कर किसी तरह वह बिल भर दिया था, पर उस में से 17 हजार रुपए भरने बाकी रह गए थे जोकि आजकल में ही मुझे भेजने हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?’’ वे रो पड़ीं.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-4)

महेंद्र का आपरेशन डा. खांडेपारकर के हाथों सफलता से संपन्न हुआ. महेंद्र के हृदय के दाएं हिस्से का शुद्ध रक्त बाहर ले जाने वाली नलिका में रुकावट पैदा हो गई थी जिसे दूर करने के लिए पहली बार और कमजोर पड़ गए वाल्व को ठीक करने के लिए दूसरी बार सर्जरी की गई. आपरेशन के कुछ दिन बाद जब उसे डिस्चार्ज किया गया तब हम उसे टैक्सी से घर तक ले गए. उस दिन सारे महल्ले वालों ने रश्मि का इतना शानदार स्वागत किया कि जिस का वर्णन शब्दों में करने के लिए शब्दकोष के सारे अच्छे शब्द भी शायद कम पड़ें. उस दिन का नजारा मेरे लिए एक कभी न भूलने वाला अनुभव बन गया. मुझे लगा मैं ने अपने समय का सब से बेहतरीन उपयोग उस दिन किया.

लेकिन रश्मि की यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. घर आने के 10 दिन बाद ही महेंद्र को अचानक पैरों की तकलीफ शुरू हो गई. वह दिनरात पीड़ा से कराहता रहता. उस का बदन बुखार से तपता रहता और दर्द असहनीय होने पर वह तड़प उठता. रश्मि तब बिना समय गंवाए महेंद्र को के.ई.एम. ले गई जहां उसे फिर भरती किया गया और शुरू हुआ एक नया सिलसिला…ब्लड कल्चर, हड्डियों का एक्सरे, एम.आर.आई., सोनोग्राफी और न जाने क्याक्या.

एक्सरे और एम.आर.आई. की रिपोर्ट से पता चला कि महेंद्र को बोन टी.बी. है. उसे ठीक करने के लिए ढेरों रुपए और एक लंबे समय की जरूरत है. पिछले 8 महीने से यही भागदौड़ चली आ रही है. इस दौरान रश्मि के हिस्से में बेहिसाब तकलीफें आईं तो मैं ने उसे समझाया कि देखो रश्मि, तुम महेंद्र के लिए जितना कर सकती थीं, किया, अब तुम इस मामले से बाहर निकल जाओ, प्लीज…

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‘‘दीदी, प्लीज,’’ वह लगभग चीख उठी, ‘‘जब परिवार का एक सदस्य गंभीर रूप से बीमार होता है तब उस के साथसाथ घर के दूसरे सदस्यों का जीवन किस हद तक बिखर जाता है इस का एहसास आप को है? महेंद्र की बड़ी बहन आरती पढ़ना चाहती है लेकिन उस ने पढ़ाई छोड़ कर अपनी किशोरावस्था को गृहस्थी की आग में झोंक दिया. सब से छोटी बहन नीलम की आंखें आप ने नहीं देखीं न? लेकिन मैं ने उस की आंखों में बसे सतरंगी सपनों को राख में बदलते देखा है. तीनों बहनें हर पल अपनी जिंदगी के साथ समझौता करती हुई जीए जा रही हैं. उन का क्या भविष्य? ‘‘नहीं, दीदी, मैं अगर अपने हाथ खींच लूं तो उन की मदद कौन करेगा? कहां से लाएंगे वे इलाज के लिए इतना सारा पैसा?’’

उस दिन वह बेहद व्यथित थी. वह जैसे जिंदगी की जंग हार गई थी. अपनी मजबूरी में फंसी वह, अब क्या होगा, सोच कर चिंतित हो उठी थी. ‘‘दिव्येशजी, कैसे हैं आप?’’ ज्यों ही उन्होंने दरवाजा खोला मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं. आप बैठिए, मैं रश्मि को जगाता हूं. वह अभीअभी सोई है.’’ ‘‘नहीं, आप उसे सोने दीजिए. कैसी है अब उस की तबीयत?’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘आज ठीक है. 2 दिन से वह बुखार से तड़प रही थी. न जाने अचानक उसे क्या हो गया? वह डाक्टर के पास इलाज भी नहीं करवाना चाहती. उस की वजह से मैं भी 2 दिन से घर पर हूं.’’ मैं उन्हें देखती रह गई कि क्या वाकई में कोई पति अपनी पत्नी से इस कदर मोहब्बत करता होगा?

दिव्येशजी ने गरम कौफी का प्याला मुझे देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, मेरी रश्मि कुछ अलग ही मिट्टी की बनी है. उस के भोलेपन एवं निर्दोषिता ने ही मुझे उस की ओर आकर्षित किया था. हम ने प्रेम विवाह किया था. शुरुआत का हमारा जीवन काफी संघर्षमय रहा. उस का आर्थिक एवं भावनात्मक सहारा पा कर ही मैं अपना पारिवारिक जीवन स्थिर कर पाया हूं?

‘‘नौकरी और घर की जिम्मेदारियां, बच्चों की पढ़ाई तीनों मोर्चों पर वह बिना थकेहारे लड़ती रही. अब जा कर हमारा जीवन स्थिर हो पाया है. हमारे दोनों बच्चे अपना उज्ज्वल कैरियर बनाने के लायक बने, सब रश्मि की बदौलत…’’ मैं स्तब्ध हो कर उन की बातें सुनती रही.

‘‘वर्षाजी, सच कहूं तो आदित्य की विदेश शिक्षा को ले कर हम ने बैंक से 15 लाख का कर्ज न लिया होता तो महेंद्र के आपरेशन को ले कर रश्मि को इधरउधर भटकना न पड़ता…काश, 2 साल पहले वह हमें मिला होता,’’ फिर थोड़ा रुक कर वे बोले, ‘‘रश्मि को तो आटेदाल का भाव तक नहीं मालूम. सच तो यह है कि मैं ने उसे बाजार के धक्के न खाने की हिदायत दे रखी है. मैं नहीं चाहता कि धूप में बाजार के चक्कर काट कर वह अपनी सेहत खराब करे.’’

सच ही तो कहते हैं दिव्येशजी. दोपहर की कड़ी धूप में उस की गौर त्वचा ताम्रवर्ण हो जाती है. तब मैं उसे ‘लाली लाली’ कह कर चिढ़ाती हूं और वह खिलखिला कर हंस पड़ती है. तब उसे देख कर भी मेरे मन में खयाल आ जाता है, ‘काश, मिहिर की एक बहन भी होती, रश्मि जैसी…’ ‘‘कहां खो गईं आप? क्या नीरज भाई की याद सताने लगी?’’ वह मेरे कान के पास आ कर फुसफुसाई तब मुझे होश आया.

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‘‘मेरे दोनों दुश्मन साथ बैठ कर, मेरे खिलाफ किस जंग की तैयारी कर रहे हैं?’’ उस के होंठों पर शरारत भरी मुसकान उभर आई. ‘‘हां, हम दोनों रश्मिपुराण पढ़ रहे थे,’’ मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा.

‘‘जहे नसीब, हम इतने, महान कब से बन गए कि हमारे नाम का पुराण बन गया और हमें पता तक न चला?’’ वह नाटकीय अंदाज में बोली. ‘‘रश्मि, बस, अब बहुत हो चुका. इस से ज्यादा कुरबानी मैं तुझे नहीं देने दूंगी क्योंकि अब उन की मदद करने की न तो तुझ में सामर्थ्य ही रही है और न ही तुझे समझाने की शक्ति मुझ में रही.’’

‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते. जब तक दिल में हौसला है और हाथों में दम, मैं उस की मदद करती रहूंगी और आप ने शायद यह सुना भी हो कि प्रार्थना में उठने वाले हाथ से ज्यादा मदद में उठने वाले हाथ महत्त्वपूर्ण होते हैं.’’ एक दिन रश्मि आई तो मुझे उस सुनार के बारे में याद दिलाने लगी जिस की दुकान से मैं ने स्नेह के बेटे के लिए एक बे्रसलेट और स्नेह के लिए एक जोड़ी बाली बनवाई थीं.

रश्मि अपने कुछ जेवर ले कर आई थी और चाहती थी कि उन गहनों को बेच कर मैं उसे कुछ पैसे ला दूं. ‘‘दीदी, प्लीज, आप मना करेंगी तो मैं कहां जाऊंगी? मैं किसी को जानती भी तो नहीं.’’

‘‘तो क्या हुआ? मैं क्यों करूं तुम्हारा यह काम? क्या दिव्येशजी यह जानते हैं?’’ उस ने अपनी पलकें झुका दीं. ‘‘नहीं, और आप उन से कहेंगी भी नहीं, आप को मेरी कसम,’’ और उस ने मेरा दायां हाथ उठा कर अचानक अपने सिर पर रख दिया.

‘‘रश्मि, यह सब गलत हो रहा है और गलत काम में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकती.’’ ‘‘दीदी, प्लीज, आखिरी बार.’’

आखिर उस की जिद के सामने मैं ने घुटने टेक दिए. अपने ज्वैलर्स के पास से 15 हजार रुपए ले कर जब मैं ने उस के हाथ में थमाए तो वह फूल सी खिल उठी, पर मेरा हृदय मुरझा गया. उन पैसों से वह महेंद्र के इलाज, दवाइयां, इंजेक्शन, हेल्थड्रिंक आदि तथा अस्पताल में रहते हुए उस के मम्मीपापा के लिए खाना लाने के लिए खर्च करती रही. आखिरकार, महेंद्र ठीक हो कर घर आ गया. पहले से वह बेहतर था. उस की जान पर मंडराता हुआ खतरा टल गया था. अपने सहकार की ज्योति जला कर रश्मि ने महेंद्र की बुझती हुई जीवन ज्योति को पुन: प्रज्वलित करने का एक अद्भुत प्रयास किया जिसे डा. पांडे तथा डा. दलवी जैसी कई सिद्ध हस्तियों ने सराहा. उस ने मेरे मन में दबी नेकी की उदात्त भावना को भी तो बखूबी उजागर किया. उस की ज्येति में मैं ने अपनी ज्योति को भी शामिल कर लिया. ज्योति से ज्योति जलाने का सिलसिला आगे भी चलता रहे, यही मेरी कामना है.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-3)

पूर्व कथा

रश्मि की सोच है कि किसी भी बच्चे का भविष्य खराब न हो. जैसे ही उसे पता चलता कि किसी बच्चे के परिवार में समस्या है, वह उस की मदद करने को तैयार हो जाती. न जाने कितने ही विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनीफार्म आदि का वह इंतजाम करती, जिस का हिसाब नहीं. नतीजतन, वह स्वयं पैसों के अभाव में रहती.
एक दिन रश्मि ने मिहिर की मां वर्षा को नसीहत दी तो उस ने बेटे को पीटना बंद कर दिया और वह आदर्श मां बन गई. रश्मि से प्रभावित हो कर वर्षा उस के काफी करीब हो गई. वर्षा ने रश्मि को दूसरे बच्चों, परिवारों के लिए पैसा खर्च करने से बारबार रोका लेकिन रश्मि अपनी धुन में बढ़ती ही रही.

अब आगे…

रुद्र से ही जाना था कि रश्मि ने अपनी जिंदगी में कभी भी अपने दोनों बच्चों पर हाथ नहीं उठाया. हाथ उठाने की बात तो दूर, कभी ऊंची आवाज में डांटा तक नहीं. शायद यही वजह थी कि उस के दोनों बेटे रुद्र और आदित्य शांत प्रकृति के साथ ही साथ पढ़ने में होनहार और तेजस्वी विद्यार्थी हैं. रुद्र वाणिज्य में स्नातक बनने के बाद एम.बी.ए. कर रहा है. आदित्य गत 2 साल से आस्टे्रलिया में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है.

शायद ये सब उस की नेकनियती की ही बदौलत है कि वह आर्थिक, सामाजिक एवं पारिवारिक दृष्टिकोण से एकदम सुखी है. उस के घर में उसे किसी बात की कमी नहीं. शायद उस ने अपने हिस्से का सारा अभाव भरा जीवन पहले ही जी लिया था और यही वजह है कि वह दूसरों की मदद करने को सदा तत्पर रहती है. मेरी सास के अचानक गुजर जाने के कारण कुछ दिन तक मेरा रश्मि से मिलना नहीं हो सका. वैसे वह उन दिनों मुझे सांत्वना देने के लिए कम से कम 4 बार मेरे घर आई लेकिन उस माहौल में उस से ज्यादा बातचीत नहीं हो पाई थी.

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धीरेधीरे मेरा जीवन सामान्य हुआ तो मैं उस से मिलने स्कूल पहुंची. तब वह कुसुम के साथ किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रही थी. मुझे देख कर रश्मि हौले से मुसकराई, लेकिन उस के चेहरे के भाव मैं बखूबी पढ़ सकती हूं. मुझे लगा जरूर वह किसी विषय को ले कर बेहद चिंतित है. मैं ने कुसुमजी से ही पूछना ठीक समझा, जो उसी स्कूल की अध्यापिका व रश्मि की सहेली थीं.

कुसुमजी ने बताया, ‘‘मोहिनी की क्लास में एक बच्चा महेंद्र पढ़ता है. वह बहुत गंभीर रूप से बीमार है. डेढ़ साल पहले उस के हृदय की सर्जरी की गई थी पर उस की तबीयत फिर बिगड़ जाने पर डाक्टर ने हिदायत दी है कि जल्द से जल्द फिर हार्ट सर्जरी नहीं की गई तो उस के साथ कुछ भी हो सकता है. महेंद्र की मम्मी रेखाजी रश्मि से मिल कर अभीअभी गई हैं. उन से बातचीत करने के बाद से ही वह कुछ परेशान नजर आ रही है.’’ यह जान कर मेरी छठी इंद्रिय ने मुझे चेतावनी दी कि रश्मि फिर किसी मुसीबत में फंसने वाली है. मैं ने उसे कड़क लहजे में कहा, ‘‘देखो रश्मि, मैं जान गई हूं कि तुम महेंद्र का केस सुन कर उस की मदद जरूर करना चाहोगी लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, दीदी? रेखाजी कितनी उम्मीदें ले कर मेरे पास आई थीं. उन्हें मैं नाउम्मीद कैसे करती? आप कहां जानती हैं कि महेंद्र उन का इकलौता बेटा है? 3 बेटियों के बाद न जाने कितनी मन्नतों के बाद रेखाजी ने उसे पाया है. वे क्या उसे यों ही गंवा दें? ‘‘इस सब से परे, एक हकीकत और भी है कि उस के पापा जन्म से ही अपाहिज हैं. महेंद्र उन के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा है. मैं उन की मदद जरूर करूंगी और प्लीज…आप मुझे रोकिएगा भी मत.’’

उस दिन के बाद हमारा मिलना कुछ अनिश्चित सा होता चला गया. कुसुमजी से ही मुझे पता चला था कि रश्मि महेंद्र के आपरेशन को ले कर पैसा जमा करने में लगी हुई है. मैं उस के घर हर रोज फोन करती. रुद्र या दिव्येशजी से मुझे एक ही जवाब मिलता कि वह महेंद्र के आपरेशन के सिलसिले में किसी से मिलने गई है.

एक शाम रश्मि घर पर मिल गई. वह बहुत खुश थी. चहकती आवाज में ही मुझे बताया, ‘‘दीदी, महेंद्र के आपरेशन के लिए विविध सामाजिक संस्थाओं से हमें मदद मिल गई है. उन में से एक संस्था मेस्को, एक मुसलिम ट्रस्ट है, जो जाति- पांति के भेदभाव से परे सभी की सहायता करता है. उस संस्था की कार्यकर्ता से मैं बेहद प्रभावित हूं. दीदी, जहांआरा नाम है उन का और उन से मिल कर ही मैं ने जाना कि हम दोनों धर्मों के लोग नाहक ही नदी के दो किनारों की तरह आमनेसामने रहते हैं. हकीकत यह है कि आम हिंदू और आम मुसलमान दुश्मनी नहीं दोस्ती चाहते हैं.

‘‘खैर, आगे समाचार यह है कि अब महेंद्र का आपरेशन हो जाएगा और वह फिर पहले की तरह स्वस्थ बन जाएगा. आप हमारे साथ के.ई.एम. अस्पताल चलेंगी?’’ ‘‘ना बाबा ना…सामाजिक कार्य का ठेका तुम ने ले रखा है, मैं ने नहीं. मेरे पास इतना समय और पैसा नहीं है जिसे मैं दूसरों के पीछे बरबाद करती रहूं. मैं भली, मेरा परिवार भला.’’

‘‘आप को तो कुछ भी कहना बेकार है. जाइए, मैं आप से बात नहीं करती,’’ इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. उस दिन आते ही रश्मि बोली, ‘‘दीदी, आज मैं आप को अपने साथ ले जाना चाहती हूं. देखिए, आप मना नहीं करेंगी,’’ उस ने विनती भरे स्वर में मुझ से कहा तो मैं तुरंत उस के साथ हो ली.

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महेंद्र का परिवार एक कमरे के छोटे से घर में रहता है, छोटेछोटे घरों से बनी एक विशाल बस्ती, आंबावाड़ी है, हम वहीं जा रहे थे. महेंद्र के मम्मीपापा एवं तीनों बहनों ने बड़ी ही गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. जब रश्मि ने चंदे की नकद राशि एवं धनादेश महेंद्र के पापा के हाथों में थमाए तो विजयभाई का समग्र अस्तित्व गद्गद हो उठा. उन के चेहरे पर रश्मि के प्रति कृतज्ञता के जो भाव थे, उन्हें पढ़ कर एवं महेंद्र की स्थिति देख कर मुझे पहली बार लगा कि रश्मि ने इस बार सच में ही सही काम किया है. सभी के चेहरे पारदर्शिता और खुद्दारी के मिलेजुले भावों से चमक रहे थे.

महेंद्र अपनी मम्मी के कान में कुछ कह रहा था. रश्मि उसे देख कर बोली, ‘‘बेटे, मम्मी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं. देखो, मैं आप की चीज ले कर ही आई हूं. मैं ने अपना वादा निभाया, अब आप भी अच्छे, बहादुर बच्चे की तरह सर्जरी के लिए तैयार रहना.’’ रश्मि ने अपने बैग से वीडियो गेम निकाल कर उस के हाथ में थमा दिया तब उस नन्हे बालक की आंखें दुनिया भर की रोशनी से जगमगा उठीं.

‘‘टीचर, हमारी आंखों से बहने वाले आंसू, हम गरीबों की ओर से आप के चरणों में सच्ची श्रद्धा बन कर अर्पित हैं क्योंकि हमारे पास कोई भी तोहफा देने की सामर्थ्य नहीं, इसे स्वीकार करें,’’ रेखाजी अपने आंसुओं को पोंछती हुई बोलीं. मेरी जैसी पत्थर दिल स्त्री भी तब रोए बिना न रह सकी. रश्मि की तो बात ही क्या कहूं? जब हम वहां से वापस हो रहे थे तब मैं एक अजीब सा आत्मसंतोष महसूस कर रही थी.

रश्मि ने अपनी ओर से जो दान का सिलसिला शुरू किया था, वही पलट कर उसे मिलता रहा, उस की जानपहचान से ले कर कई गरीब अभिभावकों तक, सब ने कुछ न कुछ उसे दिया. इस बात का मुझे बेहद दुख था कि उस के इस नेक काम में उस के अपने स्टाफ के लोगों ने कोई मदद नहीं की थी.

‘‘रश्मि, कल रात को कहां रह गई थी? मैं ने तुम्हारे घर फोन किया तब रुद्र ने बताया कि तुम रेखाजी के साथ किसी डाक्टर से मिलने गई हो.’’ ‘‘दीदी, महेंद्र की मम्मी आपरेशन से पहले दूसरे डाक्टरों से भी राय लेना चाहती थीं. डा. कौशल पांडे मुंबई के मशहूर हार्ट सर्जन हैं. उन से मिल कर लगा कि संसार में आज भी इनसानियत जिंदा है. जब डा. पांडे को पता चला कि मैं अध्यापिका की हैसियत से महेंद्र की मदद कर रही हूं तब उन्होंने हमें वचन दिया कि यदि हम आपरेशन के.ई.एम. में न करवा कर उन के अस्पताल में करवाना चाहें तो वह अपनी पूरी टीम के साथ, निशुल्क उस का आपरेशन करेंगे. उन्होंने हम से अपनी सलाह की फीस भी लेने से मना कर दिया.’’

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यह सोच कर रश्मि बेहद खुश थी कि उसी की तरह, दुनिया में और भी लोग हैं, जो गरीब और लाचार लोगों का दुखदर्द समझते और बांटते हैं. मैं इस कल्पना मात्र से ही खुश थी कि डा. कौशल पांडे जैसे मशहूर हार्ट सर्जन से उतना सम्मान पाना रश्मि के लिए निसंदेह एक अद्भुत अनुभव रहा होगा.

आगे पढ़ें- महेंद्र का आपरेशन डा. खांडेपारकर के…

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