भंवरजाल: जब टूटी रिश्तों की मर्यादा

‘‘कैसे भागभाग कर काम कर रहा है रिंटू.’’ ‘‘हां, तो क्यों नहीं करेगा, आखिर उस की बहन सोना की सगाई जो है,’’ दूसरे शहर से आए रिश्तेदार आपस में बतिया रहे थे और घर वाले काम निबटाने में व्यस्त थे. लेकिन क्यों बारबार भाई है, बहन है कह कर जताया जा रहा था? थे तो रिंटू ओर सोनालिका बुआममेरे भाईबहन, किंतु क्या कारण था कि रिश्तेदार उन के रिश्ते को यों रेखांकित कर रहे थे?

‘‘पता नहीं मामीजी को क्या हो गया है, अंधी हो गईं हैं बेटे के मोह में. और, क्या बूआजी भी नहीं देख पा रहीं कि सोना क्या गुल खिलाती फिर रही है?’’ बड़ी भाभी सुबह नाश्ता बनाते समय रसोई में बुदबुदा रही थीं. रसोई में काम के साथ चुगलियों का छौंक काम की सारी थकान मिटा देती है. साथ में सब्जी काटती छोटी मामी भी बोलीं ‘‘हां, कल रात देखा मैं ने, कैसे एक ही रजाई में रिंटू और सोना…सब के सामने. कोई उन्हें टोकता क्यों नहीं?’’

‘‘अरे मामी, जब उन दोनों को कोई आपत्ति नहीं, उन की माताओं को कुछ दिखता नहीं तो कौन अपना सिर ओखली में दे कर मूसली से कुटवाएगा?’’ बड़ी भाभी की बात में दम था. रिश्तेदार पीठ पीछे बात करते नहीं थकते परंतु सामने बोल कर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? जो हो रहा है, होने दो. मजा लो, बातें बनाओ और तमाशा देखो. जब से सोनालिका किशोरावस्था की पगडंडी पर उतरी, तभी से उस के ममेरे भाई उस से 12 वर्ष बड़े रिंटू ने उस का हाथ थाम लिया. हर पारिवारिक समारोह में उसे अपने साथ लिए फिरता. अपनी गर्लफ्रैंड्स की रोचक कहानियां सुना उसे गुदगुदाता. सोनालिका भी रिंटू भैया के आते ही और किसी की ओर नहीं देखती. उसे तो बस रिंटू भैया की रसीली बातें भातीं. बातें करते हुए रिंटू कभी सोनालिका का हाथ पकड़े रहता, कभी कमर में बांह डाल देता तो कभी उस की नर्म बांहें सहलाता, देखते ही देखते, 1-2 सालों में रिंटू और सोनालिका एकदूसरे से बहुत हिलमिल गए. सोनालिका उसे अलगअलग लड़कियों के नाम ले छेड़ती तो रिंटू उस के पीछे भागता, और इसी पकड़मपकड़ाई में रिंटू उस के बदन के भिन्न हिस्सों को अपनी बाहों में भींच लेता. कच्ची उम्र का तकाजा कहें या भावनाओं का ज्वार, रिंटू की उपस्थिति सोनालिका के कपोल लाल कर देती, उस के नयन कभी शरारत में डूबे रिंटू के साथ अठखेलियां करते तो कभी मारे हया के जमीन में गड़ जाते. हर समारोह में रिंटू उसे ले एक ही रजाई में घुस जाता. ऊपर से तो कुछ ज्यादा दिखाई नहीं देता किंतु सभी अनुभव करते कि रिंटू और सोनालिका के हाथ आपस में उलझे रहते, रजाई के नीचे कुछ शारीरिक छेड़खानी भी चलती रहती.

उस रात रिंटू अपनी नवीनतम गर्लफ्रैंड का किस्सा सुना रहा था और सोनालिका पूरे चाव से रस ले रही थी, ‘रिंटू भैया, आप ने उस का हाथ पकड़ा तो उस ने मना नहीं किया?’

‘अरे, सिर्फ हाथ नहीं पकड़ा, और भी कुछ किया…’ रिंटू ने कुछ इस तरह आंख मटकाई कि उस का किस्सा सुनने हेतु सोनालिका उस के और करीब सरक आई. ‘मैं ने उस का चेहरा अपने हाथों में यों लिया और…’ कहते हुए रिंटू ने सोनालिका का मुख अपने हाथों में ले लिया और फिर डैमो सा देते हुए अपनी जबान से झट उस के होंठ चूम लिए. अकस्मात हुई इस घटना से सोनालिका अचंभित तो हुई किंतु उस के अंदर की षोडशी ने नेत्र मूंद कर उस क्षण का आनंद कुछ इस तरह लिया कि रिंटू की हिम्मत चौगुनी हो गई. उस ने उसी पल एक चुंबन अंकित कर दिया सोनालिका के अधरों पर. उस रात जब अंताक्षरी का खेल खेला गया तो सारे रिश्तेदारों के जमावड़े के बीच सोनालिका ने गाया, ‘शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा, अब हमें आप के कदमों ही में रहना होगा…’ उस की आंखें उस के अधरों के साथ कुछ ऐसी सांठगांठ कर बैठीं कि रिंटू की तरफ उठती उस की नजर देख सभी को शक हो गया. जो लज्जा उस का मुख ढक रही थी, उसी ने सारी पोलपट्टी खोल दी.

‘अरे सोना, यह 1968 की फिल्म ‘पड़ोसन’ का गाना तुझे कैसे याद आ गया? आजकल के बच्चे तो नएनए गाने गाते हैं,’ ताईजी ने तो कह भी दिया. जब रिंटू और सोनालिका की माताएं गपशप में व्यस्त हो जातीं, अन्य औरतें उन दोनों की रंगरेलियां देख चटकारे लेतीं. रिंटू की उम्र सोनालिका से काफी अधिक थी. सो, उस की शादी पहले हुई. रिंटू की शादी में सोनालिका ने खूब धूम मचाए रखी. किंतु जहां अन्य सभी भाईबहन ‘भाभीभाभी’ कह नईनवेली दुलहन रत्ना को घेरे रहते, वहीं सोनालिका केवल रिंटू के आसपास नजर आती. सब रिश्तेदार भी हैरान थे कि यह कैसा रिश्ता था दोनों के समक्ष – क्या अपनी शारीरिक इच्छा व इश्कबाज स्वभाव के चलते दोनों अपना रिश्ता भी भुला बैठे थे? सामाजिक मर्यादा को ताक पर रख, दोनों बिना किसी झिझक वो करते जो चाहते, वहां करते, जहां चाहते. उन्हें किसी की दृष्टि नहीं चुभती थी, उन्हें किसी का भय नहीं था.

रिंटू की शादी के बाद भी हर पारिवारिक गोष्ठी में सोनालिका ही उस के निकट बनी रहती. एक बार रिंटू की पत्नी, रत्ना ने सोनालिका और रिंटू को हाथों में हाथ लिए बैठे देखा. उसे शंका इस कारण हुई कि उसे कक्ष में प्रवेश करते देख रिंटू ने अपना हाथ वापस खींच लिया. बाद में पूछने पर रिंटू ने जोर दे कर उत्तर दिया, ‘कम औन यार, मेरी बहन है यह.’ उस बात को करीब 4 वर्ष के अंतराल के बाद आज रत्ना लगभग भुला चुकी थी. अगले दिन सोनालिका की सगाई थी. लड़का मातापिता ने ढूंढ़ा था. शादी से जुड़े उस के सुनहरे स्वप्न सिर्फ प्यारमुहब्बत तक सिमटे थे. इस का अधिकतम श्रेय रिंटू को जाता था. सालों से सोनालिका को एक प्रेमावेशपूर्ण छवि दिखा, प्रेमालाप के किस्से सुना कर उस ने सोना के मानसपटल पर बेहद रूमानी कल्पनाओं के जो चित्र उकेरे थे, उन के परे देखना उस के लिए काफी कठिन था. सगाई हुई, और शादी भी हो गई. मगर अपने ससुराल पहुंच कर सोनालिका ने अपने पति का स्वभाव काफी शुष्क पाया. ऐसा नहीं कि उस ने अपने पति के साथ समायोजन की चेष्टा नहीं की. सालभर में बिटिया भी गोद में आ गई किंतु उन के रूखे व्यवहार के आगे सोनालिका भी मुरझाने लगी. डेढ़ साल बाद जब छोटी बहन की शादी में वो मायके आई तो रिंटू से मिल कर एक बार फिर खिल उठी थी. शादी में आई सारी औरतें सोनालिका और रिंटू को एक बार फिर समीप देख अचंभित थीं.

‘‘अब तो शादी भी हो गई, बच्ची भी हो गई, तब भी? हद है भाई सोना की,’’ बड़ी भाभी बुदबुदा रही थीं कि रत्ना रसोई में आ गई.

‘‘क्या हुआ भाभी?’’ रत्ना के पूछने पर बड़ी भाभी ने मौके का फायदा उठा सरलता और बेबाकी से कह डाला, ‘‘कहना तो काफी दिनों से चाहती थी, रत्ना, पर आज बात उठी है तो बताए देती हूं – जरा ध्यान रखना रिंटू का. यह सोना है न, शुरू से ही रिंटू के पीछे लगी रहती है. अब कहने को तो भाईबहन हैं पर क्या चलता है दोनों के बीच, यह किसी से छिपा नहीं है. तुम रिंटू की पत्नी हो, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है अपनी गृहस्थी की रक्षा करना, सो बता रही हूं.’’ बड़ी भाभी की बात सुन रत्ना का चिंतित होना स्वाभाविक था. माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को पोंछती वह बाहर आई तो सोनालिका और रिंटू के स्वर सुन वो किवाड़ की ओट में हो ली.

‘‘कैसी चुप सी हो गई है सोना. क्या बात है? मेरी सोना तो हमेशा हंसतीखेलती रहती थी,’’ रिंटू कह रहा था और साथ ही सोनालिका के केशों में अपनी उंगलियां फिराता जा रहा था.

‘‘रिंटू, आप जैसा कोई मिल जाता तो बात ही क्या थी. क्या यार, हम भाईबहन क्यों हैं? क्या कुछ भी नहीं हो सकता?’’ कहते हुए सोनालिका रिंटू की छाती से लगी खड़ी थी कि रत्ना कमरे में प्रविष्ट हो गई. दोनों हतप्रभ हो गए और जल्दी स्वयं को व्यवस्थित करने लगे.

‘‘भाभी, आओ न. मैं रिंटू भैया से कह रही थी कि इतना सुहावना मौसम हो रहा है और ये हैं कि कमरे में घुसे हुए हैं. चलो न छत पर चल कर कुछ अच्छी सैल्फी लेते हैं,’’ कहते हुए सोनालिका, रिंटू का हाथ पकड़ खींचने लगी.

‘‘नहीं, अभी नहीं, मुझे कुछ काम है इन से,’’ रत्ना के रुखाई से बोलने के साथ ही बाहर से बूआजी का स्वर सुनाई पड़ा. ‘‘सोना, जल्दी आ, देख जमाई राजा आए हैं.’’ सोनालिका चुपचाप बाहर चली गई. उस शाम रत्ना और रिंटू का बहुत झगड़ा हुआ. बड़ी भाभी ने भले ही सारा ठीकरा सोनालिका के सिर फोड़ा था पर रत्ना की दृष्टि में उस का अपना पति भी उतना ही जिम्मेदार था. शायद कुछ अधिक क्योंकि वह सोनालिका से कई वर्ष बड़ा था. आज रिंटू का कोई भी बहाना रत्ना के गले नहीं उतर रहा था. पर अगली दोपहर फिर रत्ना ने पाया कि सोनालिका सैल्फी ले रही थी और इसी बहाने उस का व रिंटू का चेहरा एकदम चिपका हुआ था. ये कार्यकलाप भी सभी के बीच हो रहा था. सभी की आंखों में एक मखौल था लेकिन होंठों पर चुप्पी. रत्ना के अंदर कुछ चटक गया. रिंटू की ओर उस की वेदनाभरी दृष्टि भी जब बेकार हो गई तब वह अपने कमरे में आ कर निढाल हो बिस्तर पर लेट गई. पसीने से उस का पूरा बदन भीग चुका था. आंख मूंद कर कुछ क्षण यों ही पड़ी रही.

फिर अचानक ही उठ कर रिंटू की अलमारी में कुछ टटोलने लगी. और ऐसे अचानक ही उस के हाथ एक गुलाबी लिफाफा लग गया. जैसे इसे ही ढूंढ़ रही थी वह – फौरन खोल कर पढ़ने लगी : ‘रिंटू जी, (कम से कम यहां तो आप को ‘भैया’ कहने से मुक्ति मिली.)

‘मैं कैसे समझाऊं अपने मन को? यह है कि बारबार आप की ओर लपकता है. क्या करूं, भावनाएं हैं कि मेरी सुनती नहीं, और रिश्ता ऐसा है कि इन भावनाओं को अनैतिकता की श्रेणी में रख दिया है. यह कहां फंस गई मैं? जब से आप से लौ लगी है, अन्य कहीं रोशनी दिखती ही नहीं. आप ने तो पहले ही शादी कर ली, और अब मेरी होने जा रही है. कैसे स्वीकार पाऊंगी मैं किसी और को? कहीं अंतरंग पलों में आप का नाम मुख से निकल गया तो? सोच कर ही कांप उठती हूं. कुछ तो उपाय करो.

‘हर पल आप के प्रेम में सराबोर.

‘बस आप की, सोना.’

रत्ना के हाथ कांप गए, प्रेमपत्र हाथों से छूट गया. उस का सिर घूमने लगा – भाईबहन में ऐसा रिश्ता? सोचसोच कर रत्ना थक चुकी थी. लग रहा था उस का दिमाग फट जाएगा. हालांकि कमरे में सन्नाटा बिखरा था पर रत्ना के भीतर आंसुओं ने शोर मचाया हुआ था. इस मनमस्तिष्क की ऊहापोह में उस ने एक निर्णय ले लिया. वह उसी समय अपना सामान बांध मायके लौट गई. सारे घर में हलचल मच गई. सभी रिश्तेदार गुपचुप सोनालिका को इस का दोषी ठहरा रहे थे. लेकिन सोनालिका प्रसन्न थी. उस की राह का एक रोड़ा स्वयं ही हट गया था. इसी बीच शादी में शामिल होने पहुंचे सोनालिका के पति के कानों में भी सारी बातें पड़ गईं. ऐसी बातें कहां छिपती हैं भला? जब उन्होंने अपनी पत्नी सोनालिका से बात साफ करनी चाही तो उस ने उलटा उन्हें ही चार बातें सुना दीं, ‘‘आप की मुझे कुछ भी बोलने की हैसियत नहीं है. पहले रिंटू भैया जैसा बन कर दिखाइए, फिर उन पर उंगली उठाइएगा.’’ भन्नाती हुई सोनालिका कमरे से बाहर निकल गई. हैरानपरेशान से उस के पति भी बरामदे में जा रहे थे कि रत्ना के हाथों से उड़ा सोनालिका रिंटू का प्रेमपत्र उन के कदमों में आ गया. मानो सोनालिका की सारी परतें उन के समक्ष खुल कर रह गईं. उन्हें गहरी ठेस लगी. गृहस्थी की वह गाड़ी  आगे कैसे चले, जिस में पहले से ही पंचर हो. दिल कसमसा उठा, मन उचाट हो गया. किसी को पता भी नहीं चला कि वे कब घर छोड़ कर लौट चुके थे.

एक अवैध रिश्ते के कारण आज 2 घर उजड़ चुके थे. रिश्तेदारों द्वारा बात उठाने पर रिंटू ऐसी किसी भी बात से साफ मुकर गया, ‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप लोग? शर्म नहीं आती, सोना मेरी बहन है. लेकिन प्रेमपत्र हाथ लगने से सारी रिश्तेदारी में सोनालिका का नाम बदनाम हो चुका था. इस का भी उत्तर था रिंटू के पास, ‘‘सोना छोटी थी, उस का मन बहक गया होगा. उसे समझाइए. अब वह एक बच्ची की मां है, यह सब उसे शोभा नहीं देता.’’ पुरुषप्रधान समाज में एक आदमी ने जो कह दिया, रिश्तेनातेदार उसी को मान लेते हैं. गलती केवल औरत की निकाली जाती है. प्यार किया तो क्यों किया? उस की हिम्मत कैसे हुई कोई कदम उठाने की? और फिर यहां तो रिश्ता भी ऐसा है कि हर तरफ थूथू होने लगी.

सोनालिका एक कमरे में बंद, अपना चेहरा हाथों से ढांपे, सिर घुटनों में टिकाए जाने कब तक बैठी रही. रात कैसे बीती, पता नहीं. सुबह जब महरी साफसफाई करने गई तो देखा सोनालिका का कोई सामान घर में नहीं था. वह रात को 2 अटैचियों में सारा सामान, जेवर, पैसे ले कर चली गई थी, महीनों तक पता नहीं चला कि रिंटू और सोनालिका कहां हैं. दोनों घरों ने कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं कराई क्योंकि दोनों घर जानते थे कि सचाई क्या है. फिर उड़तीउड़ती खबर आई कि मनाली के रिजौर्ट में दोनों ने नौकरी कर ली है और साथसाथ रह रहे हैं, पतिपत्नी की तरह या वैसे ही, कौन जानता है.

विकल्प- भाग 3 : क्या दूसरी शादी वैष्णवी के लिए विकल्प थी?

प्रकृति ने फूलों के साथ कांटे उगा कर हम स्त्रियों को पूरी तरह से आगाह करने का प्रयास किया है. अब हम ही नासमझ बने रहें तो फिर दोष किसी और को क्यों? हमें अपने कांटों का इस्तेमाल अपने बचाव में अवश्य ही करना चाहिए. वैष्णवी का अवचेतन मष्तिष्क इन दिनों बहुत गहराई से सोचनेविचारने लगा था. उस ने भी अपने कांटों का इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया अपने प्रोफैसर के खिलाफ.

‘सर, मेरी थीसिस कंपलीट हो गई, मेरा वायवा करवा दीजिए ताकि मुझे डिग्री मिल जाए,’ एक दिन वैष्णवी ने अपने गाइड से आग्रह किया.

‘डिग्री के लिए केवल थीसिस और वायवा ही काफी नहीं होता, कुछ दूसरी फौर्मेलिटीज भी होती हैं,’ प्रोफैसर कुटिलता से मुसकराया.

वैष्णवी उस का मतलब बखूबी समझ रही थी. ‘हो जाएगा सर. मैं तो नई स्कौलर हूं, आप तो बरसों से पीएचडी करवा रहे हैं. आप इस लाइन के नियम मुझ से बेहतर जानते हैं. आप जैसा कहेंगे, वैसा हो जाएगा.’ वैष्णवी ने उन्हें आश्वासन दिया तो प्रोफैसर की बांछें खिल गईं. वैष्णवी को लगा मानो उन के मुंह से लार टपकने ही वाली थी जिसे उन्होंने बहुत सतर्कता से रूमाल में लपेट लिया था.

वैष्णवी के फाइनल वायवा का दिन और समय निश्चित हो गया. कुल 3 लोग पैनल में शामिल हो रहे थे. 2 बाहर से तथा 1 स्वयं उस के गाइड प्रोफैसर थे. अलिखित नियमों के अनुसार, सभी के रहनेखाने और आनेजाने की व्यवस्था वैष्णवी को ही करनी थी. जाते समय 2 लिफाफे भी परीक्षकों को थमाने थे. वैष्णवी के गाइड ने अपना मेहनताना बाद के लिए रिजर्व रख लिया.

सबकुछ बहुत अच्छे से निबट गया. वैष्णवी का वायवा भी बहुत अच्छा हुआ था. दोनों परीक्षक उस की मेहमाननवाजी से भी संतुष्ट थे. वैष्णवी ने यह पड़ाव कुशलता से पार कर लिया था. अब उसे केवल अपने गाइड से निबटना शेष था.

कहा जाता है कि खाना खाने के बाद हाथ धोना ही शेष बचता है. वैष्णवी ने भी अपने गाइड के सामने फिंगर बाउल रख दिया. वायवा होने और थीसिस जमा होने की औपचारिकता पूरी होने के बाद अब गाइड के हाथ में कुछ भी शेष नहीं था. प्रोफैसर को वैष्णवी से ऐसा कुछ भी हासिल नहीं हो सका जिस की वह उस कमसिन देह से उम्मीद कर रहा था. एकदो बार प्रोफैसर ने उसे बहाने से अकेले में बुलाया भी लेकिन हर बार वैष्णवी अपनी किसी न किसी सहेली के साथ ही उस से मिली. वैष्णवी अपनी इस सफलता पर बहुत खुश थी. शायद वह पुरुषों की इस दुनिया में अपने तरीके से जीना सीखने लगी थी.

पीएचडी करने के बाद वैष्णवी को एक विश्वविद्यालय में नौकरी मिल गई. ब्यूटी विद ब्रेन… और दोनों ही मामलों में इक्कीस… ऐसा संगम कम ही देखने को मिलता है. वैष्णवी के लिए रिश्तों का सैलाब उमड़ने लगा. इतने रिश्ते तो तब भी नहीं आए थे जब वह कुंआरी थी.

थर्ड ग्रेड से ले कर राजपत्रित अधिकारी तक वैष्णवी से विवाह करने के लिए कतार में लगे थे. वैष्णवी को हैरानी तो तब हुई जब एक रिश्तेदार ने चतुर्थ श्रेणी तकनीकी सहायक का रिश्ता उस के लिए सुझाया. प्रस्ताव सुनते ही वैष्णवी उखड़ गई.

‘आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हो… एक प्रोफैसर के लिए यह रिश्ता? कुछ तो मेरे स्तर का खयाल किया होता,’ वैष्णवी ने गुस्से से कहा.

‘दूसरी शादी है तुम्हारी. ऐसे ब्याहों में विकल्प नहीं होते. तीस पार को वर मिल रहा है, यही क्या कम है,’ रिश्तेदार ने मुंह मरोड़ते हुए कहा तो वैष्णवी तिलमिला गई. क्षोभ और क्रोध से आंखें भर आईं. मन में विद्रोह का संचार हुआ.

‘जब लोग मुझे विकल्प के रूप में देख रहे हैं तो मैं भी ऐसा ही क्यों न करूं? मेरे सामने तो ढेरों विकल्प हैं. क्यों मैं अपने विधवापन को बेचारगी से देखूं? नियति ने जो किया सो किया लेकिन उस की भरपाई भी तो करने की कोशिश की है. व्योम के रहते शायद मुझे यह सब न मिलता जो उस के नहीं होने से मिला है. जो चला गया उस के लिए मैं क्यों शोक मनाऊं? क्यों न जो मिला है उस का स्वागत करूं?’ ऐसे विचार मन में आते ही कवि हरिवंश राय बच्चन जी की कविता ‘जो बीत गई सो बात गई…’ वैष्णवी के जेहन में कौंध गई. वह एक नए उत्साह से भर उठी. उस ने मां से उन सभी लड़कों के प्रोफाइल मांग लिए जो उस से विवाह करने के लिए लालायित थे.

अब वह किसी के लिए विकल्प नहीं थी बल्कि स्वयं अपने लिए बेहतर विकल्प की तलाश करने के लिए कृतसंकल्प थी.

सच के फूल- भाग 4: क्या हुआ था सुधा के साथ

रमाकांत न्यूज देख रहे थे. वह जा कर चुपचाप वहां खड़ी हो गई. उन्होंने एक बार उसे देखा और न्यूज देखने लगे. वह फिर भी खड़ी रही. जब देर तक पापा ने कुछ नहीं कहा तब वह उन के पास चली गई और धीरे से बोली, ‘‘पापा.’’

रमाकांत ने सिर उठा कर देखा तो वह बोली, ‘‘पापा मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’

‘‘अब कहने को क्या रह गया है?’’

व नाराज हो उठने ही वाले थे कि सुधा ने दौड़ कर पापा के पैर पकड़ लिए, ‘‘पापा मुझे माफ कर दीजिए. मुझ से बहुत भारी भूल हो गई पापा.’’

सुधा के रोने की आवाज सुन कर मां और दीपू दोनों पास आ कर खडे़ हो गए. सुधा जोरजोर से रो रही थी और बोल रही थी, ‘‘पापा एक बार मुझे माफ कर दीजिए. अब मैं वही करूंगी जो आप लोग कहेंगे. मुझे पता है मैं ने आप सभी लोगों का दिल दुखाया है. इस भूल के लिए मैं दिल से माफी मांगती हूं. विश्वास कीजिए अब मैं एक अच्छी बेटी…’’

रोतेरोते सुधा बेहोश हो गई. मां और पापा दोनों ने उसे पकड़ कर सोफे पर बैठाया. दीपू दौड़ कर पानी ले आया.

‘‘सुधा पानी पी लो,’’ सुधा को होश आया तो देखा पापा का हाथ सुधा के सिर के नीचे था. उस के आंख खोलने के बाद हटा लिया और उठ कर जाने लगे.

सुधा ने उन का हाथ पकड़ लिया और कातर स्वर में बोली, ‘‘पापा.’’

‘‘जाओ आराम करो… तबीयत खराब हो जाएगी,’’ बोल कर रमाकांत कमरे में चले गए.

सुधा ने मां से पूछा, ‘‘मां पापा बहुत नाराज हैं न.’’

‘‘देखो सुधा नाराजगी कोई केतली में गरम होता पानी तो नहीं न कि ढक्कन हटाए और भाप की तरह गुस्सा खत्म. पापा को तुम जानती हो उन के मन को ठेस लगी है समय लगेगा… पापा को थोड़ा समय देना होगा. जाओ सो जाओ वरना तबीयत खराब हो जाएगी.’’

सुधा बो िझल कदमों से अपने कमरे में चली गई. नींद नहीं आ रही थी पर अब वह  हताशा से थोड़ा उबर रही थी. पापा नाराज हैं पर अभी भी उतना ही प्यार करते हैं. वह कितनी बेवकूफ थी जो सबकुछ भूल कर उस धोखेबाज के साथ चल दी. कहीं गलती से शादी हो जाती तब? अब तो उस के बारे में सोचना भी गुनाह है. बस एक बार पापा माफ कर दें. कुदरत मेरे मांपापा को हमेशा खुश रखना, वह मन से प्रार्थना करने लगी.

सभी सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे. सुधा को वापस आए अब कुछ समय हो गया था. एक दिन रात के खाने के समय रमाकांत ने सुधा से पूछा, ‘‘कितने दिनों तक कालेज नहीं जाना है.’’

‘‘अगर आप कहेंगे तभी जाऊंगी,’’ खुश हो कर सुधा ने धीरे से कहा, ‘‘कल आधार दे देना. नया नंबर लेना है,’’ सुधा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.वह कालेज जाने की बात से खुश थी.

सुबह तैयार हो कर पापा के साथ जाने को थी कि भारती आ गईं बोली, ‘‘कितने दिन मैं कालेज नहीं गई… मु झे अपने नोट्स दे देना.’’

सुधा क्या बोले. तब तक मां ने कह दिया, ‘‘यह भी नहीं जा पाई. पहले मेरी तबीयत खराब हो गई, फिर इस की. देखो न चेहरा कैसे सूख गया है.’’

मां देवी है कैसे बात संभाल लेती है. उसे अपनी मां पर गर्व हो रहा था. सुधा की मां के मन से चैन गायब हो गया था. मां को अभी मोबाइल देना नहीं जंच रहा था. थोड़ी निगरानी रखनी पडेगी. विश्वास रखना अच्छी बात है, लेकिन एकदम से खुला छोड़ देने में खतरा है. कहीं वह लड़का रास्ते में आया तब.

सुधा एक अच्छी लडकी थी. साफ मन की थी बस थोड़ी नादान बेवकूफ थी. इस उम्र में लड़कियां सपनों की दुनिया में रहती हैं. उन्हें वरदी वाला लड़का बहुत भाता है, फिर नौर्थ बिहार में तो आईएएस और आईपीएस का बड़ा बोलबाला होता है. हर मां सोचती है कि काश उस का दामाद आईएस या आईपीएस हो. उसी तरह हर लड़की का भी यही सपना रहता है.

सुधा उम्र के जिस दौर से गुजर रही थी उस में सपनों में जीने में मजा आता है. वह हकीकत की दुनिया से परे दुनिया है. कुछ लोग इस उम्र को बडे़ सलीके से लेते हैं. कुछ सपनों की दुनिया बना कर खुद को बरबाद कर डालते हैं. अब लीला देवी को सुधा के विवाह की चिंता सताने लगी. वह स्वयं कम शिक्षित थी. पहले मां की इच्छा थी कि वह सुधा को उच्य से उच्य शिक्षा दिलाए पर अब परिस्थितियां बदल गई थीं. मन में शंकाओं ने डेरा जमा लिया था कि कहीं वह लफंगा सुधा को हानि न पहुंचाने की कोशिश करे. सुधा की मां ने अपना फैसला सुना दिया.

सुधा का जीवन अब सामान्य हो चला था. वह अपने व्यवहार से सभी को संतुष्ट करने के प्रयास में सफल हो रही थी. वह सब से अधिक कालेज जाने से खुश थी. सुधा एक अच्छी छात्रा थी. अच्छे नंबरों से पास होती थी. वह अर्थशात्र में बी.ए. कर रही थी. उस का सपना प्रोफैसर बनने का था. परीक्षा भी नजदीक है. मात्र 2 महीने ही बचे हैं. बस एक बात उसे खटक रही थी कि मांपापा जल्दी उस की शादी कराना चाहते हैं. इतना सम झ में तो आ गया कि यह शीघ्रता किस कारण से हो रही है. मां तो उस के उच्य शिक्षा के पक्ष में थी. उस का मन कचोट उठा कि अभी तो उस का मन मांपापा के साथ रहने को कर रहा था.

वक्त बीतते देर नहीं लगती. सुधा की परीक्षा खत्म हो गई थी. खाली समय काटते नहीं कटता. पहले स्कैचिंग पेंटिंग का शौक था, लेकिन उस छिछोरे के कारण सबकुछ छूट गया था. उस ने स्कैचिंग फिर शुरू की. उस के पापा ने उसे स्कैच करते देखा तो लीला देवी की नाराजगी की परवाह न करते हुए उस का नाम पेंटिंग स्कूल में लिखा दिया.

विवाह के लिए लड़के की खोज जारी थी किसी परिचित ने एक अच्छा रिश्ता बताया. लड़का जमशेदपुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर के बैंगलुरु में कार्यरत था. उस की एक बड़ी बहन है जिस की शादी हो चुकी है. वह कोलकाता में रहती है. मातापिता पटना में हैं. रमाकांत ने पत्नी लीला से चर्चा की. लीला देवी को बैंगलुरु का नाम सुन कर थोड़ा दुख लगा कि बेटी दूर चली जाएगी. पर एक बात की खुशी थी कि ससुराल पटना में है तब बेटी से मिलना हो पाएगा. बातचीत शुरू हुई. सारी बात तय हो गई. कुंडली भी अच्छी मिली. बस अब इंतजार लड़के का था. लीला देवी ने लडके की तसवीर सुधा को दिखाना चाही.

सुधा देखने के लिए तैयार नहीं थी, ‘‘मां मुझे नहीं देखनी है तुम लोगों ने देखी मेरे लिए यही काफी है… तुम लोगों से ज्यादा मेरा भला कौन सोच सकता है.’’

1 महीने बाद खबर आई कि लड़का 1 सप्ताह के लिए आने वाला है लड़की को दिखा दिया जाए. बहुत डांटफटकार के बाद सुधा पार्लर गई. शाम को सुधा तैयार हो रही थी. वह बहुत घबराई हुई थी. जब किसी लडकी की शादी की बात चलती है तब उस के दिल में कितनी तमन्नाएं, कितने अरमान, हसरतें अंगड़ाइयां लेने लगती हैं. पर सुधा के साथ ऐसा कुछ नहीं था. रोमांच का तो नामोनिशान नहीं था. अतीत की घटना, आने वाले पल की आशंका सब मिल कर उसे खुश नहीं होने दे रहे थे. मां तैयार हो कर सुधा को देखने आई सुधा को तैयार देख कर बोली, ‘‘काजल नहीं लगाया,. लगा ले आंखें सुना लग रही हैं.’’

निर्मल आनंद: क्यों परेशान थी नीलम

‘‘मां, मुझे क्यों मजबूर कर रही हो? मैं यह विवाह नहीं करूंगी,’’ नीलम ने करुण आवाज में रोतेरोते कहा. ‘‘नहीं, बेटी, यह मजबूरी नहीं है. हम तो तेरी भलाई के लिए ही सबकुछ कर रहे हैं. ऐसे रिश्ते बारबार नहीं आते. आनंद कितना सुंदर, सुशील और होनहार लड़का है. अच्छी नौकरी, अच्छा खानदान और अच्छा घरबार. ऐसे अवसर को ठुकराना क्या कोई अक्लमंदी है,’’ नीलम की मां ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, मां, नहीं. यह कभी नहीं हो सकता. मां, तुम तो जानती ही हो कि मैं गठिया रोग से पीडि़त हूं. हर तरह का इलाज कराने पर भी मैं ठीक नहीं हो पाई हूं. उन्होंने तो बस मेरा चेहरा और कपड़ों से ढके शरीर को देख कर ही मुझे पसंद किया है. क्या यह उन के साथ विश्वासघात नहीं होगा?’’ नीलम ने रोंआसा मुंह बनाते हुए कहा.

मां पर नीलम की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वह तनिक भी विचलित नहीं हुईं. वह तो किसी भी तरह नीलम के हाथ पीले कर देना चाहती थीं.

जब नीलम सीधी तरह मानने को तैयार नहीं हुई तो उन्होंने डांट कर उसे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुझे मालूम है कि तेरे पिता नहीं हैं. भाई भी अमेरिका में रंगरेलियां मना रहा है. उसे तो तेरी और मेरी कोई चिंता ही नहीं है. जो पैसा था वह मैं ने उस की पढ़ाई में लगा दिया. मेरे भाइयों ने तो सुध भी नहीं ली कि हम जिंदा हैं या मर गए. राखी का भी उत्तर नहीं देते कि कहीं मैं कुछ उन से मांग न लूं.

‘‘बेटी, जिद नहीं करते. थोड़े से छिपाव से सारा जीवन सुखी हो जाएगा. डाक्टरों का कहना है कि विवाह के बाद यह रोग भी दूर हो जाएगा. फिर आनंद के परिवार वाले कितने अच्छे हैं. उन्होंने दहेज के लिए साफ मना कर दिया है.’’

नीलम मां की बातें और अधिक देर तक नहीं सुन सकी. वह वहां से उठी और अपने कमरे में जा कर पलंग पर औंधी लेट गई. उस के मन में भयंकर तूफान उठ रहा था. अपने विचारों में उलझी हुई वह अपने अतीत में खो गई.

वह जब 7 साल की थी तो उस के सिर से पिता का साया उठ गया था. वह एक संपन्न परिवार की सब से छोटी संतान थी. उस के अलावा एक भाई और 2 बहनें थीं. नीलम मां की लाड़ली थी. पिता भी उसे बहुत प्यार करते थे और अकसर उसे अपने कंधे पर बिठा कर घुमाया करते थे. नीलम की बड़ी बहन इला दिल्ली रेडियो स्टेशन पर उद्घोषिका थी. वह भी नीलम से अत्यधिक स्नेह करती थी.

इला, नीलम को अपने साथ दिल्ली ले आई और उस की पढ़ाई का सारा जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. इला ने नीलम को अपनी बच्ची की तरह प्यार किया. उस की हर इच्छा पूरी करने का भरसक प्रयास किया. जब इला ने अपने एक सहयोगी करुणशंकर से प्रेम विवाह किया तो उस ने नीलम को भी अपने साथ रखने की शर्त रखी थी.

करुणशंकर स्वभाव से विनम्र, शांत  स्वभाव के और पत्नीभक्त थे. घर में इला का रोब चलता था और वह उस के इशारे पर नाचते रहते थे. उन के एक छोटे भाई भी दिल्ली में ही सरकारी नौकरी में थे, परंतु उन्हें अपनी पत्नी की छोटी बहन नीलम की देखरेख की ही ज्यादा चिंता थी.

एम.ए. पास करने के बाद नीलम एक प्राइवेट कंपनी में प्रचार अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गई. अपने कार्यक्षेत्र में उसे अनेक पुरुषों के साथ उठनाबैठना पड़ता था, परंतु कोई उस के चरित्र की ओर उंगली तक नहीं उठा सकता था. वह हंसमुख और चंचल अवश्य थी परंतु एक हद तक तहजीब और खातिरदारी उस के चरित्र के विशेष गुण थे. उस के अधिकारी उस के व्यवहार और सुंदरता दोनों से ही प्रभावित थे. कंपनी के प्रबंध निदेशक तो उसे अपनी कंपनी की गुडि़या कहा करते थे.

मां उस से विवाह के लिए अनेक बार अनुरोध कर चुकी थी, परंतु वह हर बार टाल देती थी. वह हर समय सोचती कि विवाह से भला वह कैसे किसी की जिंदगी में विष घोल सकती है. मां भी जानती थीं कि उसे गठिया की बीमारी है. नीलम इस बीमारी के कारण रात में सो नहीं पाती थी. एलोपैथी, आयुर्वेद और होमियोपैथी के इलाज का भी उस की इस बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ा.

कई बार तो उस के पैर और हाथ इतने सूज जाते थे कि वह परेशान हो उठती थी. उस की देखभाल उस के जीजा ही करते थे, क्योंकि उस की बहन का तबादला दूसरी जगह हो गया था.

नीलम ने बिस्तर पर लेटेलेटे ही अपने मन को समझाने की कोशिश की. वह निश्चय कर चुकी थी कि वह यह विवाह कदापि नहीं करेगी पर मां थीं कि उस की बात मान ही नहीं रही थीं.

विवाह की तारीख नजदीक आ रही थी. नीलम को ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे वह बहुत बड़ा विश्वासघात करने जा रही है. वह अपनी मां, बहन और जीजाजी सभी से विनती कर चुकी थी, परंतु कोई भी उस की मदद करने को तैयार नहीं था.

आखिर नीलम से नहीं रहा गया. उस ने हिम्मत बटोरी और स्वयं ही इस समस्या का समाधान करने का निश्चय कर लिया.

विवाह की तारीख से 3 दिन पहले शाम को उस ने सब से बढि़या साड़ी पहनी. पूरा शृंगार किया और बिना किसी को बताए अपने होने वाले पति आनंद के घर की ओर चल दी.

संयोग से आनंद घर पर ही था. नीलम को इस प्रकार आते देख कर वह कुछ हैरान हुआ. उस ने अपनेआप को संभाला और मुसकराते हुए नीलम का स्वागत किया.

नीलम बहुत पसोपेश में थी. वह बात को कैसे चलाए. आखिर आनंद ने ही बात का सिलसिला छेड़ते हुए कहा, ‘‘नीलम, 3 दिन पहले ही विवाह की शुभकामनाएं अर्पित करता हूं.’’

आनंद के ये शब्द सुनते ही नीलम सिसकसिसक कर रोने लगी. उस ने आनंद के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘आनंद, मैं तुम से प्रार्थना करती हूं कि इस विवाह को तोड़ दो. मेरे ऊपर कोई दोष लगा दो. तुम्हें शायद मालूम नहीं है कि मैं गठिया रोग से पीडि़त हूं. मैं किसी भी तरह तुम्हारी पत्नी बनने के काबिल नहीं हूं. मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहती.’’

आनंद हैरानी से उस की ओर देख रहा था. उस ने बड़े प्यार से उसे समझाते हुए कहा, ‘‘नीलू, तुम चिंता न करो. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा. मुझे कुछ समय की मुहलत दे दो. मैं आज ही तुम्हारे यहां आ कर अपना फैसला बता दूंगा.’’

गुमसुम सी नीलम आनंद को नमस्कार कर हलके मन से अपने घर की ओर चल दी.

आनंद ने नीलम के जाने के तुरंत बाद अपने एक परिचित डाक्टर प्रशांत से संपर्क स्थापित किया और सारी बात बताई. आनंद की बात सुन कर प्रशांत हंसने लगा. उस ने कहा, ‘‘आनंद यह बीमारी इतनी संगीन नहीं है. मैं ने तो देखा है कि विवाह के बाद यह अकसर समाप्त हो जाती है. नीलम बेकार इसे ज्यादा गंभीरता से ले कर भावनाओं में बह रही है. तुम नीलम को स्वीकार कर सकते हो. इस में कोई डर नहीं.’’

आनंद डाक्टर प्रशांत के यहां से आश्वस्त हो कर सीधा नीलम के यहां गया. नीलम दरवाजे पर खड़ी उस का ही इंतजार कर रही थी. आनंद को घर में घुसते देख कर नीलम की मां का कलेजा धकधक करने लगा. वह किसी खराब समाचार की कल्पना करने लगीं.

नीलम ने आनंद का रास्ता रोकते हुए उत्सुकता से पूछा, ‘‘बोलो, क्या निर्णय लिया?’’

आनंद ने अपने चेहरे पर बनावटी गंभीरता ला कर कहा, ‘‘मैं मांजी से बात करूंगा.’’

आनंद ने अपने सामने मां को खड़े देखा तो उस ने झुक कर चरणस्पर्श किए. फिर आनंद ने कहा, ‘‘मांजी, नीलम की बातों पर ध्यान न दें. आप विवाह की तैयारी शुरू कर दें.’’

नीलम थोड़ी दूर खड़ी विस्मित सी आनंद को देखे जा रही थी. उस की आंखों में बहते आंसू उसे निर्मल आनंद का आभास दे रहे थे.

आक्रोश: पिंकी का गुस्सा क्या दूर हुआ

‘‘मा या, मैं मिसेज माथुर के घर किटी पार्टी में जा रही हूं. तुम पिंकी का खयाल रखना. सुनो, 5 बजे उसे दूध जरूर दे देना और फिर कुछ देर बाग में ले जाना ताकि वह अपने दोस्तों के साथ खेल कर फ्रेश हो सके. मैं 7 बजे तक आ जाऊंगी, और हां, कोई जरूरी काम हो तो मेरे मोबाइल पर फोन कर देना,’’ रंजू ने आया को हिदायतें देते हुए कहा.

पास में खड़ी 8 साल की पिंकी ने आग्रह के स्वर में कहा, ‘‘मम्मा, मुझे भी अपने साथ ले चलो न.’’

‘‘नो बेबी, वहां बच्चों का काम नहीं. तुम बाग में अपने दोस्तों के साथ खेलो. ओके…’’ इतना कहती हुई रंजू गाड़ी की ओर चली तो दोनों विदेशी कुत्ते जिनी तथा टोनी दौड़ते हुए उस के इर्दगिर्द घूमने लगे.

रंजू ने बड़े प्यार से उन दोनों को उठा कर बांहों के घेरे में लिया और कार में बैठने से पहले पीछे मुड़ कर बेटी से ‘बाय’ कहा तो पिंकी की आंखें भर आईं.

दोनों कुत्तों को गोद में बैठा कर रंजू ने ड्राइवर से कहा, ‘‘मिसेज माथुर के घर चलो.’’

कार के आंखों से ओझल होने के बाद एकाएक पिंकी जोर से चीख पड़ी, ‘‘मम्मा गंदी है, मुझे घर छोड़ जाती है और जिनीटोनी को साथ ले जाती है.’’

मिसेज माथुर के घर पहुंच कर रंजू ने बड़ी अदा से दोनों कुत्तों को गोद में उठाया और भीतर प्रवेश किया.

‘‘हाय, रंजू, इतने प्यारे पप्पी कहां से ले आई?’’ एक ने अपनी बात कही ही थी कि दूसरी पूछ बैठी, ‘‘क्या नस्ल है, भई, मान गए, बहुत यूनिक च्वाइस है तुम्हारी.’’

रंजू आत्मप्रशंसा सुन कर गदगद हो उठी, ‘‘ये दोनों आस्ट्रेलिया से मंगाए हैं. हमारे साहब के एक दोस्त लाए हैं. 50 हजार एक की कीमत है.’’

‘‘इतने महंगे इन विदेशी नस्ल के कुत्तों को संभालने में भी दिक्कतें आती होंगी?’’ एक महिला ने पूछा तो रंजू चहकी, ‘‘हां, वो तो है ही. मेरा तो सारा दिन इन्हीं के खानेपीने, देखरेख में निकल जाता है. अपना यह जिनी तो बेहद चूजी है पर टोनी फिर भी सिंपल है. दूधरोटी, बिसकुट सब खा लेता है ज्यादा नखरे नहीं करता है…’’ इस कुत्ता पुराण से ऊब रही 2-3 महिलाएं बात को बीच में काटते हुए एक स्वर में बोलीं, ‘‘समय हो रहा है, चलो, अब तंबोला शुरू करें.’’

रंजू ने ड्राइवर को आवाज लगा कर जिनी और टोनी को उस के साथ यह कहते हुए भेज दिया कि इन दोनों को पिछली सीट पर बैठा दो और दरवाजे बंद रखना.

पहले तंबोला हुआ, फिर खेल और अंत में अश्लील लतीफों का दौर. ऐसा लग रहा था मानो सभी संभ्रांत महिलाओं में अपनी कुंठा निकालने की होड़ लगी हो. बीचबीच में टीवी धारावाहिकों की चर्चा भी चल रही थी.

‘‘तुम ने वह सीरियल देखा? कल की कड़ी कितनी पावरफुल थी. नायिका अपने सासससुर, ननद को साथ रखने से साफ इनकार कर देती है. पति को भी पत्नी की बात माननी पड़ती है.’’

‘‘भई, सच है. अब 20वीं शताब्दी तो है नहीं जब घर में 8-10 बच्चे होते थे और बहू बेचारी सिर ढक कर सब की सेवा में लगी रहती थी. अब 21वीं सदी है, आज की नारी अपने अधिकार, प्रतिभा और योग्यता को जानती है. अपना जीवन वह अपने ढंग से जीना चाहती है तो इस में गलत क्या है? अब तो जमाना मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे का है,’’ जूही चहकी.

‘‘तुम ठीक कह रही हो. देखो न, पिछले महीने मेरे सासससुर महीना भर मेरे साथ रह कर गए हैं. घर का सारा बजट गड़बड़ा गया है. बच्चे अलग डिस्टर्ब होते रहे. कभी उन के पहनावे पर वे लोग टोकते थे तो कभी उन के अंगरेजी गानों के थिरकने पर,’’ निम्मी बोली.

रंजू की बारी आई तो वह बोली, ‘‘भई, मैं तो अपने ढंग से, अपनी पसंद से जीवन जी रही हूं. वैसे मैं लकी हूं, मेरे पति शादी से पहले ही मांबाप से अलग दूसरे शहर में व्यवसाय करते थे. शादी के बाद मुझ पर कोई बंधन नहीं लगा. यू नो, शुरू में समय काटने के लिए मैं ने खरगोश, तोते और पप्पी पाले थे. सभी के साथ बड़ा अच्छा समय पास हो जाता था पर पिंकी के आने के बाद सिर्फ पप्पी रखे हैं, बाकी अपने दोस्तों में बांट दिए.’’

‘‘रंजू, तुम्हारी पिंकी भी अब 8 साल की हो गई है, उस का साथी कब ला रही हो? भई 2 बच्चे तो होने ही चाहिए,’’ जूही ने कहा तो रंजू के तेवर तन गए, ‘‘नानसेंस, मैं उन में से नहीं हूं जो बच्चे पैदा कर के अपने शरीर का सत्यानाश कर लेती हैं. पिंकी के बाद अपने बिगड़े फिगर को ठीक करने में ही मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी थी. अब दोबारा वह बेवकूफी क्यों करूंगी.’’

अगले माह अंजू के घर किटी पार्टी में मिलने का वादा कर सब ने एकदूसरे से विदा ली.

घर पहुंच कर रंजू को पता चला कि पिंकी को पढ़ाने वाले अध्यापक नहीं आए हैं तो उस का पारा यह सोच कर एकदम से चढ़ गया कि अगर होमवर्क नहीं हो पाया तो कल पिंकी को बेवजह सजा मिलेगी.

उस ने अध्यापक के घर फोन लगाया तो उन्होंने बताया कि तबीयत खराब होने के कारण वह 2-3 दिन और नहीं आ सकेंगे.

सुनते ही रंजू तैश में बोली, ‘‘आप नहीं आएंगे तो पिंकी को होमवर्क कौन कराएगा? आप को कुछ इंतजाम करना चाहिए था.’’

‘‘2-3 दिन तो आप भी बेटी का होमवर्क करवा सकती हैं,’’ अध्यापक भी गुस्से में बोले, ‘‘तीसरी कक्षा कोई बड़ी क्लास तो नहीं.’’

‘‘अब आप मुझे सिखाएंगे कि मुझे क्या करना है? ऐसा कीजिए, आराम से घर बैठिए, अब यहां आने की जरूरत नहीं है. आप जैसे बहुत ट्यूटर मिलते हैं,’’ रंजू ने क्रोध में फोन काट दिया.

गुस्सा उतरने पर रंजू को चिंता होने लगी. पिंकी को पिछले 5 सालों में उस ने कभी नहीं पढ़ाया था. शुरू से ही उस के लिए ट्यूटर रखा गया. उसे तो किटी पार्टियों, जलसे, ब्यूटी पार्लर, टेलीविजन तथा अपने दोनों कुत्तों की देखभाल से ही फुरसत नहीं मिलती थी.

अब रंजू को पिंकी का होमवर्क कराने खुद बैठना पड़ा. एक विषय का आधाअधूरा होमवर्क करा कर ही रंजू ऊब गई. उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘बाप रे, कितनी सिरदर्दी है बच्चों को पढ़ाना और उन का होमवर्क कराना. मेरे बस की बात नहीं.’’ वह उठी और कुत्तों को खाना खिलाने चल दी. उन्हें खिला कर वह बेटी की ओर मुड़ी, ‘‘चलो पिंकी, तुम भी खाना खा लो. मैं ने तो किटी पार्टी में कुछ ज्यादा खा लिया, अब रात का खाना नहीं खाऊंगी.’’

पिंकी ने कातर नजरों से मां की ओर देखा कि न तो मम्मी ने पूरा होमवर्क कराया न मेरी पसंद का खाना बनाया.

पिंकी का नन्हा मन आक्रोश से भर उठा, ‘‘मुझे नहीं खानी यह गंदी खिचड़ी.’’

रंजू बौखला गई, ‘‘नहीं खानी है तो मत खा. तुझ से तो अच्छे जिनीटोनी हैं, जो भी बना कर दो चुपचाप खा लेते हैं.’’

रंजू की घुड़की सुन कर माया पिंकी का हाथ पकड़ कर उस के कमरे में ले गई. उस रात पिंकी ने ठीक से खाना नहीं खाया था. उस का होमवर्क भी पूरा नहीं हुआ था, उस पर मम्मी की डांट ने उस के मन में तनाव और डर पैदा कर दिया.  सुबह होतेहोते उसे बुखार चढ़ आया.

अचानक रंजू को तरकीब सूझी, क्यों न 2-3 दिन की छुट्टी का मेडिकल बनवा लिया जाए. रोजरोज होमवर्क की सिरदर्दी भी खत्म. उस ने फौरन अपने परिवारिक डाक्टर को फोन लगाया.

डाक्टर घर आ कर पिंकी की जांच कर दवा दे गया और 3 दिन के  आराम का सर्टिफिकेट भी.

रात को पिंकी ने मां से अनुरोध किया, ‘‘मम्मा, आज मैं आप के पास सो जाऊं. मुझे नींद नहीं आ रही है.’’

‘‘नो बेबी, आज मैं बहुत थक गई हूं. माया आंटी तुम्हारे साथ सो जाएंगी,’’ इतना कह कर रंजू अपने कमरे की ओर मुड़ गई.

डबडबाई आंखों से पिंकी ने माया को देखा, ‘‘मम्मा मुझ को प्यार नहीं करतीं.’’

माया नन्ही बच्ची के अंतर में उठते संवेगों को महसूस कर रही थी. उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा, चलो मैं तुम्हें सुला देती हूं.’’

रात को पिंकी को प्यास लगी. माया सोई हुई थी. वह उठ कर रंजू के कमरे में चली गई, ‘‘मम्मा, प्यास लगी है, पानी चाहिए.’’

रंजू ने बत्ती जलाई. पिंकी की नजर मम्मी के पलंग के करीब सोए जिनी और टोनी पर पड़ी. पानी पी कर वह वापस अपने कमरे में आ गई. उस का दिमाग क्रोध और आवेश से कांप रहा था कि मम्मी ने मुझे अपने पास नहीं सुलाया और कुत्तों को अपने कमरे में सुलाया. मुझ से ज्यादा प्यार तो मम्मी कुत्तों को करती हैं.

बगीचे की साफसफाई, कटाई- छंटाई करने के लिए माली आया तो पिंकी भी उस के साथसाथ घूमने लगी. बीचबीच में वह प्रश्न भी कर लेती थी. माली ने कीटनाशक पाउडर को पानी में घोला फिर सभी पौधों पर पंप से छिड़काव करने लगा. पिंकी ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘बाबा, यह क्या कर रहे हो?’’

‘‘बिटिया, पौधों को कीड़े लग जाते हैं न, उन्हें मारने के लिए दवा का छिड़काव कर रहे हैं,’’ माली ने समझाया.

‘‘क्या इस से सारे कीड़े मर जाते हैं?’’

‘‘हां, कीड़े क्या इस से तो जानवर और आदमी भी मर सकते हैं. बहुत तेज जहर होता है, इसे हाथ नहीं लगाना,’’ माली ने समझाते हुए कहा.

अपना काम पूरा करने के बाद कीटनाशक का डब्बा उस ने बरामदे की अलमारी में रखा और हाथमुंह धो कर चला गया.

अगले दिन दोपहर में रंजू ब्यूटी पार्लर चली गई. वहीं से उसे क्लब भी जाना था अत: प्रभाव दिखाने के लिए जिनी और टोनी को भी साथ ले गई.

स्कूल से घर लौट कर पिंकी ने खाना खाया और माया के साथ खेलने लगी.

शाम को माया ने कहा, ‘‘पिंकी, मैं जिनी और टोनी का दूध तैयार करती हूं, तब तक तुम जूते पहनो, फिर हम बाग में घूमने चलेंगे.’’

पिंकी का खून खौल उठा कि मम्मी जिनी और टोनी को घुमाने ले गई हैं पर मेरे लिए उन के पास समय ही नहीं है.

वह क्रोध से बोली, ‘‘आंटी, मुझे कहीं नहीं जाना. मैं घर में ही अच्छी हूं.’’

उसे मनाने के लिए माया ने कहा, ‘‘ठीक है, यहीं घर में ही खेलो. तब तक मैं खाना बनाती हूं. आज तुम्हारी पसंद की डिश बनाऊंगी. बोलो, तुम्हें क्या खाना है?’’

पिंकी के चेहरे पर मुसकान आ गई, ‘‘मुझे गाजर का हलवा खाना है.’’

‘‘ठीक है, मैं अभी बनाती हूं, तब तक तुम यहीं बगीचे में खेलो.’’

माया रसोई में चली गई. फिर जिनी व टोनी के कटोरों में दूधबिसकुट डाल कर बरामदे में रख गई ताकि आते ही वे पी सकें, क्योंकि रंजू जरा भी देर बरदाश्त नहीं करती थी.

खेलतेखेलते अचानक पिंकी को कुछ सूझा तो वह बरामदे में आई. अलमारी से कीटनाशक का डब्बा बाहर निकाला और दोनों कटोरों में पाउडर डाल डब्बा बंद कर के वहीं रख दिया जहां से उठाया था. कुछ ही देर में उस के ट्यूटर आ गए और वह पढ़ने बैठ गई.

शाम ढलने के बाद रंजू घर लौटी. जिनी व टोनी ने लपक कर दूध पिया और बरामदे में बैठ गए. रंजू आज बेहद खुश थी कि क्लब में उस ने अपने विदेशी कुत्तों का खूब रौब गांठा था.

‘‘अरे वाह, आज गाजर का हलवा बना है,’’ पिंकी की प्लेट में हलवा देख रंजू ने कहा. फिर थोड़ा सा चख कर बोलीं, ‘‘बड़ा टेस्टी बना है, जिनी और टोनी को भी बहुत पसंद है. माया, उन्हें ले आओ.’’

माया चीखती हुई वापस लौटी, ‘‘मेम साब, जिनी और टोनी तो…’’

‘‘क्या हुआ उन्हें…’’ रंजू खाने की मेज से उठ कर बरामदे की ओर दौड़ी. देखा तो दोेनों अचेत पड़े हैं. वह उन्हें हिलाते हुए बोली, ‘‘जिनी, टोनी कम आन…’’

रंजू ने फौरन डाक्टर को फोन किया. डाक्टर ने जांच के बाद कहा, ‘‘इन के दूध में जहर था, उसी से इन की मौत हुई है. रंजू का दिमाग सुन्न हो गया कि इन के दूध में जहर किस ने और क्यों मिलाया होगा? इन से किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है?’’

गाजर का हलवा खाते हुए पिंकी बड़ी संतुष्ट थी. अब मम्मी पूरा समय मेरे साथ रहेंगी, बाहर घुमाने भी ले जाएंगी, अपने पास भी सुलाएंगी, बातबात पर डांटेगी भी नहीं और जिनीटोनी को मुझ से अच्छा भी नहीं कहेंगी क्योंकि अब तो वे दोनों नहीं हैं.

विकल्प- भाग 2 : क्या दूसरी शादी वैष्णवी के लिए विकल्प थी?

जिंदगी अभी उसे बहुत से स्याह-सफेद रंग दिखाने वाली थी. मां चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके, बेटी की दूसरी शादी कर दी जाए.

‘अभी उम्र ही कितनी है. कुछ भी तो नहीं देखा इस ने. इस की उम्र में तो लड़कियों की शादी तक नहीं होती. और ये…’ जाहिर तौर पर तो बेटी के दर्द को जीती मां खुद को संतुष्ट करने के लिए ही कहती थी मगर असल में तो वह बेटी को अपराधबोध से बचाने का जतन कर रही थी.

नहीं-नहीं, वह व्योम की मृत्यु के लिए बेटी को अपराधी नहीं मान रही थी. वह तो वैष्णवी को उस अपराधबोध से नजात दिलाना चाह रही थी जो उस पर जबरदस्ती लाद दिया गया था.

‘शुभ काम में वैष्णवी की परछाई भी न पड़े’ जैसी फिक्र करती अधेड़ और वृद्ध महिलाओं से ले कर अपने युवा और अधेड़ पतियों को वैष्णवी की छाया से दूर रखने का प्रयास करती, चिंता में घुलती महिलाओं की रातों की नींद उड़ती देख रही मां का फिक्रमंद होना लाजिमी था. वह बेटी को इन तमाम विपरीत परिस्थितियों से दूर ले जाना चाहती थी और इस का एक मात्र रास्ता था कि उस की शादी हो जाए ताकि वैधव्य का दाग उस के माथे से हट सके.

दूसरी तरफ पापा उस के लिए कुछ और ही सोच रहे थे. वे जानते थे कि जो हो गया उसे तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो होने जा रहा है, उसे अवश्य बदला जा सकता है बशर्ते कि प्रयास सही तरीके और योजना के साथ किया जाए.

‘व्योम तो वैष्णवी को विधवा का चोला दे कर चला गया लेकिन वैष्णवी चाहे तो इस चोले की सफेदी में रंग भर सकती है. हम दूसरे पति के रूप में उस का सहारा क्यों तलाश करें. क्यों न उस सहारे को तलाश करें जो पहला पति उस के लिए छोड़ गया है,’ पापा ने मां को समझाते हुए कहा तो वह बिफर गई.

‘आप की गोलगोल बातें मेरी मोटी बुद्धि में नहीं आतीं. ऐसा कौन सा कुबेर का खजाना छोड़ कर गया है व्योम जिस के सहारे वैष्णवी की जिंदगी कट जाएगी? लंबी उम्र है, साथी बिना कैसे कटेगी? जितनी जल्दी हो सके, लड़का तलाश कर लो, उम्र बढ़ने के साथसाथ चौइस भी सीमित हो जाती हैं,’ मां ने अपनी समझ के अनुसार कहा.

‘कारू का खजाना तो देरसवेर खर्च हो सकता है लेकिन जो खजाना व्योम इसे दे कर गया है उस की कोई बराबरी नहीं. अब देखो, व्योम चला गया इस बात का दुख हम सब को है, लेकिन पति की मृत्यु के बाद उस की विधवा पत्नी को सरकारी कोटे में आरक्षण का लाभ मिलता है. मैं वैष्णवी को कोई व्यावसायिक कोर्स करवा कर या किसी अच्छी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल कर के उस के भविष्य को स्वर्णिम बनाने पर विचार कर रहा हूं. यही वह खजाना है जो आखिरी सांस तक वैष्णवी के पास रहेगा और इसे कोई छीन भी नहीं सकता,’ पापा ने विस्तार से समझाया तो मां के माथे की सिलवटें धीरेधीरे हलकी होने लगीं. हालांकि, कुछ हलकी लकीरें अभी भी विद्यमान थीं.

‘इस तरह तो बरसों बीत जाएंगे. तब तक क्या लड़की यों ही समाज और बिरादरी के ताने सुनती रहेगी?’ मां ने चिंता जाहिर की.

‘समाज का क्या है, वह तो चढ़ते को भी बोली मारता है और उतरते को भी. अच्छी नौकरी लग जाएगी तो रिश्ते भी अच्छे ही मिलेंगे. यदि अभी शादी कर दी तो वैष्णवी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा,’ पापा के समझाने पर बात मां को समझ में आ गई.

उधर खुद वैष्णवी अभी पति के जाने के गम से उबरी नहीं थी. वह भी कुछ ऐसा करना चाहती थी जिस में वह व्यस्त रहे वरना व्योम की यादों के जंगल में ही भटकती रहेगी.

वैष्णवी विज्ञान विषय बौटनी में पोस्टग्रेजुएट थी. उस ने जूनियर रिसर्च फैलोशिप की परीक्षा दी और चयन होने के बाद पीएचडी की पढ़ाई शुरू कर दी. 3 वर्षों बाद वैष्णवी अब डा. वैष्णवी बनने वाली थी. इस दौरान बहुत से कड़वेखट्टे अनुभवों का स्वाद उस ने चखा था. मीठे अनुभवों की संख्या बेहद सीमित थी. या कौन जाने, उस की स्वादेन्द्रियां ही नष्ट हो चुकी थीं क्या… उसे हर मीठे में नमकीन की मिलावट ही नजर आती थी.

व्योम के जाने के बाद वैष्णवी के लिए सब से पहला प्रस्ताव उस के ममेरे देवर विभोर का आया था. पापा ने शादी करने का कारण पूछा तो उस ने वैष्णवी से लगाव होना बताया.

‘कब से है तुम्हें प्यार?’ पापा ने पूछा था. विभोर कोई जवाब नहीं दे पाया. बाद में पता चला कि व्योम ने 50 लाख रुपए की टर्म बीमा पौलिसी ले रखी थी जिस की नौमिनी वैष्णवी थी. सास की इच्छा थी कि घर का पैसा घर में रहे, इसलिए उस ने अपने बड़े भाई को विश्वास में ले कर यह प्रस्ताव वैष्णवी के पास पहुंचाया था. वैष्णवी चूंकि पढ़ीलिखी और खूबसूरत भी थी इसलिए विभोर को भी अधिक एतराज न हुआ. हां, उस का वर्जिन नहीं होना जरूर उसे खटक रहा था लेकिन वह खुद भी कहां वर्जिन था. इसलिए उस ने इस बात को अधिक तूल न दिया.

वैष्णवी को अभी विवाह करने में कोई दिलचस्पी न थी, इसलिए वह आगे बढ़ गई. बीमा पौलिसी से मिला पैसा उस ने फिक्स डिपौजिट में डाल दिया. यह उस के लिए बहुत बड़ा संबल था.

पीएचडी करने के दौरान भी कई पुरुष वैष्णवी की जिंदगी में आए. उस ने सहानुभूति दिखाने वाले हरेक रिश्ते को नकार दिया. अधिकतर निगाहों में उसे लोलुपता ही दिखाई दे रही थी. कोई उस के रूप का प्यासा था तो किसी की नजर उस के मोटे बैंकबैलेंस पर थी. कोई उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझ रहा था तो कोई लगातार दूध देने वाली गाय. हर जगह स्वार्थ दिखा, प्यार कहीं नहीं था.

वैष्णवी बच्ची नहीं थी. सब समझती थी. वैसे भी बुरा वक्त इंसान के दिमाग को अधिक चौकन्ना कर देता है. वैष्णवी भी चाहत और लोलुपता के बीच के अ

सच के फूल- भाग 5: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुधा काजल लगा रही थी. निहार रही थी कि कितनी सुंदर लग रही है मेरी बेटी… काश, सब ठीक हो जाए. वैसे सुधा देखने में सुंदर थी. समय पर सब लोग निकल गए. रैस्टोरैंट में तीन तरफ से बड़ा सोफा और सामने सिंगलसिंगल सोफा थे. बीच में बड़ी टेबल थी. बड़े सोफे पर मां और पापा के बीच सुधा बैठी.

सुधा को अब घबराहट होने लगी. बोली, ‘‘मां डर लग रहा है.’’

‘‘डरने का क्या बात है. यह समय तो हर लड़की की जिंदगी में आता है… सब ठीक हो जाएगा. घबराओ मत आराम से बैठो.’’

तभी हलचल हुई… सुधा को एक बैगनी रंग की साड़ी दिखाई दी. मां ने सुधा की

कुहनी पर स्पर्श कर खडे़ हो कर प्रणाम करने को कहा. सुधा खड़ी हुई. उस ने दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और एक बार नजर उठा कर देखा तो उस का मन धक से रह गया. सामने बैठे व्यक्ति को देख उस के होश उड़ चुके थे. ये वही सज्जन थे जो उस दिन ट्रेन में मिले थे और अच्छी सीख दी थी. वह स्तब्ध जड़वत सी रह गई. मां ने उसे पकड़ कर बैठाया. वह महिला सुधा के पास आ कर बैठ गई थी. सुधा का हाथ थाम लिया लगातार सुधा को निहार रही थी. फिर बोली, ‘‘आप की बेटी बड़ी प्यारी है.’’

लीला देवी के होठों पर मुसकान फैल गई. सुधा अभी तक कांप रही थी. लीला देवी को लगा वह नर्वस है इस कारण कांप रही है.

तभी महिला ने पूछा, ‘‘तुम पेंटिंग सीख रही हो?’’

सुधा कुछ बोल नहीं सकी बस सिर हिला कर स्वीकृति दी.

‘‘गौतमजी कहां रह गए.’’ रमाकांत ने पूछा?

‘‘गाड़ी पार्क कर आ रहा है.’’

सुधा को लग रहा था अभी अंकल उठेंगे और कहेंगे हमें अपने बेटे की शादी आप की लड़की से नहीं करनी है हम जा रहे हैं. सुधा ने नजर उठा कर देखा.

रमाकांत अंकल से बात करने में व्यस्त थे और मां उस महिला से बातें कर रही थी.

तभी वह महिला बोली, ‘‘गौतम तुम अगर बात करना चाहते हो तो कर लो.’’

‘‘हांहां जाओ तुम लोग भी आपस में बातें कर लो. वहां टेबल ठीक किया है सुधा जाओ.’’

सुधा चुपचाप उस गौतम के पीछे चल दी.

‘‘आप पेंटिंग सीख रही है?’’

सुधा ने सिर हिला कर स्वीकार किया.

‘‘आगे पढ़ने के बारे में क्या सोचती हो?’’

‘‘इच्छा तो है.’’

‘‘चलो कुछ बोली तो,’’ कह कर वह हंसने लगा.

सुधा ने अब उसे ठीक से देखा. एक नजर में ही वह अच्छा लगा. पर कौन जाने क्या हो? वेटर नाश्ता लिए ले आया था.

‘‘और क्या हौबी हैं आप की?’’ उस ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘पुराने गाने सुनना और खाली वक्त में स्कैचिंग करना.’’

उस के लंबे बालों को देख कर वह बोला, ‘‘आप के बाल बहुत सुंदर है.’’

सुधा शरमा गई. तभी उधर से बुलाया जाने लगा. दोनों जाने लगे. तभी गौरव ने सुधा से मोबाइल नंबर मांगा तो सुधा  िझ झकने लगी. तब वह बोला, ‘‘ठीक है रहने दीजिए.’’

रमाकांत ने बताया वे लोग रात में खबर करेंगे. गाड़ी में सभी बहुत खुश लग रहे थे मां ने कहा, ‘‘परिवार तो अच्छा है… स्वभाव भी ठीक लगा. लड़के की मां खूब बातें करती है.’’

सुधा ने भी यह नोट किया कि वह लगातार बात कर रही थी. सभी लोग खुश थे पर सुधा का मन आशंकाओं से घिरा था. एक हलचल मची थी कि सत्य नंगा होता है… सही… सत्य बड़ा कठोर भी होता है… उसे अब सारी बातें मांपापा को बतानी पडे़गी. उन के मन में आशा के लड्डू फूट रहे हैं. कहीं वे टूट गए तब परिणाम बहुत दुखद होगा. रात लीला देवी खाना बनाने गई तो सुधा वहां जा पहुंची और बोली, ‘‘मां सुनो बहुत जरूरी बात बतानी है.’’

‘‘हां बोलो.’’

मां खुश थी सुधा ने ट्रेन की सारी बातें बता दीं. लीला देवी सोच में पड़ गई कि अब क्या होगा… राह दिखाना और बहू बनाना दोनों में बहुत फर्क है. जमाना कितना भी आगे चला जाये पर कोई भी सभ्य परिवार जानबू झ कर एक भागी हुई लड़की से अपने बेटे की शादी नहीं करेगा. अब तो तय है कि उधर से न ही होगा यह बात सुधा के पापा को जल्दी बतानी होगी. यह सोच वह अपने कमरे में चली गई. रमाकांत कमरे में फाइल देख रहे थे.

लीला देवी बोली, ‘‘सुनिए, कुछ कहना है.’’

‘‘हां बोलो,’’ उन्होंने बिना देखे कहा.

लीला देवी ने जैसे कहने के लिए अपना मुंह खोलना चाहा वैसे ही रमाकांत का मोबाइल बज उठा, ‘‘एक मिनट.’’

उन्होंने फोन उठाया फोन जगेश्वर नाथ का था. लीला देवी का दिल जोर से धड़कने लगा. अभी वह उन के बारे में सोच ही रही थी कि उन का फोन आ गया. कहीं वह गश खा कर गिर न पड़े, इसलिए अपने बैड पर बैठ गई और पति का मुंह देखने लगी. पति की मुख मुद्रा तो हर्ष की लग रही थी. चेहरे पर मुसकान भी झलक रही थी. वह उत्तेजना में जा कर पास खड़ी हो गई.

‘‘जी अरे नहीं इतना तो समय लेना ही चाहिए… हांहां आप को भी बहुतबहुत बधाई. हां हम सुधा की मां को बता देंगे. ठीक है जी प्रणाम.’’

रमाकांत का चेहरा बता रहा था सब कुशलमंगल है. वह अपनी पत्नी की ओर लपके. उन्होंने लीला देवी के दोनों कंधे पकड़ कर खुश हो कहा, ‘‘लीला हमारी बेटी का ब्याह पक्का हो गया.’’

सुधा की मां जगेश्वर नाथ का मन ही मन धन्यवाद करने लगी. सच में बहुत सज्जन पुरुष हैं. आजकल कहां ऐसे आदमी मिलते हैं…

जोगेश्वरजी सुधा से ट्रेन में मिल चुके सुधा के पापा को यह बताना अभी ठीक नहीं हैं कितना खुश हैं सब सुन कर… चिंता में पड़ जाएंगे. जब सोने जाएंगे तब आराम से बात कर के बताएंगे.

तभी याद आया सुधा किचन में होगी बेचारी बेकार में परेशान होगी उस को यह खबर भी दे देते हैं. उस के मन का बो झ हट जाएगा.

सुधा का हृदय जोगेश्वर अंकल के लिए श्रद्धा से भर गया. सुधा अच्छा महसूस करने लगी. उसे याद आया कि गौतम ने उस का मोबाइल नंबर मांगा था. उस ने मां को बताया तो वह बोली, ‘‘दे देती दिक्कत की कोई बात नहीं थी. ठहरो हम भिजवा देते हैं.’’

लीला देवी ने अपनी होने वाली समधिन को बधाई देने के लिए उन्होंने फोन किया. तब सुधा की सास ने स्वयं सुधा का मोबाइल नंबर मांग लिया. नंबर देने के दूसरे दिन गौतम का फोन आ गया. वह 2 दिनों के लिए जमशेदपुर जा रहा है. जाने के पहले शाम को सुधा से कैफेटेरिया में मिलना चाहता है. सुधा सोचने लगी थोड़ी देर पहले उसे लगा उस ने जंग जीत ली पर अब उसे गौतम से मिलना है क्या करे. सारी कहानी जानते हुए जोगेश्वर अंकल ने शादी पक्की कर दी… क्या सच में उन्होंने अपने लड़के को नहीं बताया होगा ऐसा हो सकता है क्या? कहीं ऐसा तो नहीं कि गौतम को सब पता हो. वह सुधा के मुंह से सुनना चाहता है?

शायद नहीं अंकल खुद मना नहीं कर पाए. चाहते हैं गौतम मना करे. छी: उन समान आदमी पर वह कैसे शक कर सकती है. यह भी तो हो सकता है कि इन सब बातों को कोई महत्त्व नहीं दिया हो. सुधा सोच में पड गई अपने अतीत को… वह तो उस के जीवन का नासूर बन चुका है. सुधा चाहे न चाहे उस से भाग नहीं सकती है. क्या करे जिंदगी सामने खड़ी पुकार रही है. बस जा कर थाम लेना है पर वह जहां भी जाएगी ये सारी चीजें उस के साथसाथ चलेंगी. चुप रह कर और आगे बढ़ कर जिंदगी को गले लगा ले अथवा जो भी हुआ उसे गौतम को बता दे. वैसे खतरा दोनों में है गौतम मना भी कर सकता है. हो सकता है अपमानित भी करे.

बस अब और नहीं- भाग 1: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

उस दिन जब अविनाश अपने दफ्तर से लौटा तो बहुत खुश दिख रहा था. उसे इतना खुश देख कर अनिता को कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दफ्तर से लौटे अविनाश को थकाहारा, परेशान और दुखी देखने की आदी हो चुकी थी. अविनाश का इस कदर परेशान होना बिना वजह भी नहीं था. सब से बड़ी वजह तो यही थी कि पिछले 10 सालों से वह इस कंपनी में काम कर रहा था, पर उसे आज तक एक भी प्रमोशन न मिला था. वह कंपनी के मैनेजर को अपने काम से खुश करने की पूरी कोशिश करता, पर उसे आज तक असफलता ही मिली थी.

प्रमोशन न होने के कारण उसे वेतन इतना कम मिलता था कि मुश्किल से घर का खर्च चल पाता था. उस की कंपनी बहुत मशहूर थी और वह अपना काम अच्छी तरह से समझ गया था, इसलिए वह कंपनी छोड़ना भी नहीं चाहता था.

अनिता अविनाश के दुखी और परेशान रहने की वजह जानती थी, पर वह कर ही क्या सकती थी.

उस दिन अविनाश को खुश देख कर उस से रहा नहीं गया. वह चाय का कप अविनाश को पकड़ा कर अपना कप ले कर बगल में बैठ गई और उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश लग रहे हो ’’

‘‘बात ही खुश होने की है. तुम सुनोगी तो तुम भी खुश होगी.’’

‘‘अरे, ऐसी क्या बात हो गई है  जल्दी बताओ.’’

‘‘कंपनी का मैनेजर बदल गया. आज नए मैनेजर ने कंपनी का काम संभाल लिया. बड़ा भला आदमी है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. मेरी ही उम्र का है. पर इतनी छोटी उम्र में मैनेजर बन जाने के बाद भी घमंड उसे छू तक नहीं गया है. आज उस ने सभी कर्मचारियों की एक मीटिंग ली. उस में सभी विभागों के हैड भी थे. उस ने कहा कि यह कंपनी हम सभी लोगों की है. इसे आगे बढ़ाने में हम सभी का योगदान है. हम सब एक परिवार के सदस्यों की तरह हैं. हमें एकदूसरे की मदद करनी चाहिए. कंपनी के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी हो तो वह मेरे पास आए. मैं वादा करता हूं सभी की बातें सुनी जाएंगी और जो सही होगा वह किया जाएगा.

‘‘आखिर में उस ने कहा कि इस इतवार को मेरे घर पर कंपनी के सभी कर्मचारियों की पार्टी है. आप सभी अपनी पत्नियों के साथ आएं ताकि हम सब लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जान और समझ सकें. लगता है अब मेरे दिन भी बदलेंगे. तुम चलोगी न ’’

‘‘तुम ले चलोगे तो क्यों नहीं चलूंगी ’’ कह कर मुसकराते हुए अनिता वापस रसोई में चली गई.

कंपनी के कर्मचारियों की संख्या 100 से अधिक थी, जिन के रात के खाने का प्रबंध था. मैनेजर ने अपने घर के सामने एक बड़ा सा शामियाना लगवाया था. मैनेजर अपनी पत्नी के साथ शामियाने के दरवाजे पर ही उपस्थित था और आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहा था. मेहमान एकएक कर के आ रहे थे और मैनेजर से अपना परिचय नाम और काम के जिक्र के साथ दे रहे थे.

अविनाश ने भी मैनेजर से हाथ मिलाया और अनिता ने उन की पत्नी को नमस्कार किया. अचानक मैनेजर की निगाह अनिता पर पड़ी तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे, अनिता तुम  तुम यहां कैसे ’’

अनिता भी चौंक उठी. उस के मुंह से बोल तक न फूटे.

‘‘पहचाना नहीं  मैं अनिरुद्ध…’’

‘‘पहचान गई, तुम काफी बदल गए हो.’’

‘‘हर आदमी बदल जाता है, पर तुम नहीं बदलीं. आज भी वैसी ही दिख रही हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अपनी पत्नी की तरफ संकेत किया, ‘‘अनिता, यह है अंजलि मेरी पत्नी और तुम्हारे पति कहां हैं ’’

अनिता ने अविनाश को आगे कर के इशारा किया और अंजलि को अभिवादन कर उस से बातें करने लगी.

अब तक सिमटा हुआ अविनाश सामने आ कर बोला, ‘‘सर, मैं हूं अविनाश. आप की कंपनी के ऐड विभाग में सहायक.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अंजलि से कहा, ‘‘अंजलि, यह है अनिता. बचपन में हम दोनों एक ही सरकारी कालोनी में रहते थे और एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. इन के पिताजी पापा के बौस थे.’’

‘‘पर आज उलटा है. आप अविनाश के बौस के भी बौस हैं,’’ कह कर अनिता हंस पड़ी.

‘‘नहीं, हम लोग आज से बौस और मातहत के बजाय एक दोस्त के रूप में काम करेंगे. क्यों अविनाश, ठीक है न  खैर, और बातें किसी और दिन करेंगे, आज तो बड़ी भीड़भाड़ है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध अन्य मेहमानों की तरफ मुखातिब हुआ, क्योंकि अब तक कई मेहमान आ कर खड़े हो चुके थे.

पार्टी समाप्त होने पर अन्य लोगों की तरह अविनाश और अनिता भी वापस अपने घर लौट आए. अविनाश बहुत खुश था. उस से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. सोते समय अविनाश ने अनिता से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि मैनेजर साहब तुम्हारी कालोनी में रहते थे और तुम्हारी क्लास में पढ़ते थे ’’

‘‘इस में झूठ की क्या बात है  जब पिताजी की नियुक्ति जौनपुर में थी तो हमारी कोठी की बगल में ही अनिरुद्ध का क्वार्टर था और अनिरुद्ध मेरी ही क्लास में पढ़ता था. अनिरुद्ध पढ़ने में तेज था, इसलिए वह आज तुम्हारी कंपनी में मैनेजर बन गया और मैं पढ़ने में कमजोर थी, इसलिए तुम्हारी बीवी बन कर रह गई,’’ कह कर अनिता मुसकरा तो पड़ी पर यह मुसकराहट जीवन की दौड़ में पिछड़ जाने की कसक को भुलाने के लिए थी.

अविनाश तो किसी और दुनिया में मशगूल था. उसे इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैनेजर साहब उस की पत्नी के पुराने परिचितों में से हैं.

‘‘मैनेजर साहब इतना तो सोचेंगे ही कि मेरा प्रमोशन हो जाए.’’

‘‘पता नहीं, लोग बड़े आदमी बन कर अपना अतीत भूल जाते हैं.’’

‘‘नहीं अनिता, मैनेजर साहब ऐसे आदमी नहीं लगते. देखा नहीं, कितनी आत्मीयता से हम लोगों से वे मिले और यह बताने में भी नहीं चूके कि तुम्हारे पिता उन के पिता के बौस थे.’’

‘‘मुझे नींद आ रही है. वैसे भी कल सुबह उठ कर प्रमोद को तैयार कर के स्कूल भेजना है,’’ कह कर अनिता ने नींद का बहाना बना कर करवट बदल ली. थोड़ी ही देर में अविनाश भी खर्राटे भरने लगा.

नींद अनिता की आंखों से कोसों दूर थी. उस ने कुशल स्त्री की भांति अविनाश को सिर्फ इतना ही बताया था कि वह अनिरुद्ध से परिचित है. वह बड़ी कुशलता से यह छिपा गई कि दोनों एकसाथ पढ़तेपढ़ते एकदूसरे को चाहने लगे थे. 12वीं कक्षा में तो दोनों ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. पर दोनों जानते थे कि उन दोनों की आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर है और दोनों की जाति भी अलग है, इसलिए घर वाले दोनों को विवाह करने की अनुमति कभी नहीं देंगे. दोनों ने यह तय किया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे दोनों नौकरी तलाशेंगे और उस के बाद अपनी मरजी से विवाह कर लेंगे.

बस अब और नहीं- भाग 2: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

पर आदमी का सोचा हुआ सब कुछ होता कहां है. 12वीं कक्षा का परीक्षाफल भी नहीं निकला था कि अनिता के पिता का स्थानांतरण वाराणसी हो गया और अनिता और अनिरुद्ध द्वारा बनाया गया सपनों का महल ढह कर चूर हो गया. तब न तो टैलीफोन की इतनी सुविधा थी और न ही आनेजाने के इतने साधन. इसलिए समय बीतने के साथसाथ दोनों को एकदूसरे को भुला भी देना पड़ा.

कहते हैं कि स्त्री अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाती. आज इतने दिन बाद अनिरुद्ध को अपने सामने पा कर अनिता के प्यार की आग फिर से भड़क गई. अविनाश जितनी बार अनिरुद्ध को सर कहता अनिता शर्म से मानो गड़ जाती. आज वह अनिरुद्ध के सामने खुद को छोटा महसूस कर रही थी. उस के मन के किसी कोने में यह भी खयाल आया कि अगर उस का पहला प्यार सफल हो गया होता, तो आज वही कंपनी के मैनेजर की पत्नी होती. सभी उस का सम्मान करते और उसे छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना न पड़ता. यही सब सोचतेसोचते अनिता की आंख लग गई.

अविनाश का सारा काम विज्ञापन विभाग तक ही सीमित था. विज्ञापन विभाग का प्रमुख उस के सारे काम देखता था. अविनाश को यह उम्मीद थी कि अनिरुद्ध अगले ही दिन उसे बुलाएगा और मौका देख कर वह उस के प्रमोशन की बात कहेगा. अनिता से अपने पुराने परिचय का इतना खयाल तो वह करेगा ही. पर धीरेधीरे 1 सप्ताह बीत गया और अनिरुद्ध का बुलावा नहीं आया तो अविनाश निराश हो गया.

लेकिन एक दिन जब अविनाश को अनिरुद्ध का बुलावा मिला तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तत्काल इजाजत ले कर अनिरुद्ध के कमरे में पहुंच गया. अनिरुद्ध ने उसे बैठने के लिए इशारा किया और बोला, ‘‘उस दिन काफी भीड़ थी, इसलिए कायदे से बात न हो पाई. ऐसा करो, कल छुट्टी है अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, आराम से बातें करेंगे. एक बात और दफ्तर में किसी को भी पता न चले कि हम लोग परिचित हैं. यह जान कर लोग तुम से अपने कामों की सिफारिश के लिए कहेंगे और मुझे दफ्तर चलाने में दिक्कत आएगी. समझ रहे हो न ’’

‘‘जी सर,’’ अविनाश अभी इतना ही कह पाया था कि चपरासी कुछ फाइलें ले कर अनिरुद्ध के कमरे में आ गया. अविनाश वापस अपनी सीट पर लौट आया पर आज वह बहुत खुश था.

घर लौट कर अविनाश अनिता से बोला, ‘‘आज मैनेजर साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था. कह रहे थे कि भीड़ के कारण कायदे से बातें नहीं हो पाईं, कल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, इतमीनान से बातें करेंगे.’’

अनिरुद्ध से मुलाकात होने के बारे में सोच अनिता खुश तो बहुत हुई पर अपनी खुशी छिपा कर उस ने पूछा, ‘‘अरे, अपनी प्रमोशन की बात की कि नहीं ’’

‘‘कहां की. एक तो फुरसत नहीं मिली फिर कोई आ गया. खुद की प्रमोशन की बात मैं कैसे कह दूं, यह मेरी समझ में नहीं आता. ऐसा है, कल चलेंगे न तो मौका देख कर तुम्हीं कहना. तुम्हारी बात शायद मना न कर पाएं. मैं मौका देख कर थोड़ी देर के लिए कहीं इधरउधर चला जाऊंगा.’’

‘‘मुझ से नहीं हो पाएगा,’’ अनिता ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, तुम मेरी पत्नी हो. मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकतीं. सोचो, प्रमोशन मिलते ही वेतन बढ़ जाएगा और अन्य सुविधाएं भी मिलेंगी. हमारी जिंदगी आरामदेह हो जाएगी. अभी तुम जिन छोटीछोटी चीजों के लिए तरस जाती हो, वे सब एक झटके में आ जाएंगी. मौके का फायदा उठाना चाहिए. ऐसे मौके बारबार नहीं आते. तुम एक बार कह कर तो देखो, मेरी खातिर.’’

‘‘ठीक है, मौका देख कर जरूर कहूंगी,’’ अनिता समझ गई कि अविनाश प्रमोशन के लिए कुछ भी कर सकता है. यह कायदे से मुझ से बात नहीं करता, लेकिन प्रमोशन के लिए मुझ से इतनी गुजारिश कर रहा है.

 

अगले दिन अविनाश, अनिता अपने 16 वर्षीय बेटे प्रमोद के साथ अनिरुद्ध के घर पहुंचे. अनिरुद्ध का कोठीनुमा घर देख कर अनिता की आंखें चुंधिया गईं. हर कमरे की साजसज्जा देख कर वह आह भर कर रह जाती कि काश मेरा घर भी ऐसा होता… अंजलि ने घर पर सहेलियों की किट्टी पार्टी आयोजित कर रखी थी, इसलिए अनिरुद्ध अपने कमरे में अलगथलग बैठा हुआ था. अंजलि ने अविनाश और अनिता का स्वागत तो किया पर यह कह कर किट्टी पार्टी चल रही है, उन्हें अनिरुद्ध के कमरे में ले जा कर बैठा दिया. हां, जातेजाते उस ने यह जरूर कहा कि जाइएगा नहीं, पार्टी खत्म होते ही मैं आऊंगी.

अविनाश के साथ ही प्रमोद ने भी अनिरुद्ध को नमस्कार किया और अविनाश ने बताया कि यह मेरा बेटा प्रमोद है. बस, यही एक लड़का है.

अनिरुद्ध ने वहीं बैठेबैठे आवाज लगाई, ‘‘पिंकी… पिंकी.’’

थोड़ी ही देर में प्रमोद की समवयस्क एक किशोरी प्रकट हुई और अनिरुद्ध ने उस का परिचय कराते हुए बताया कि यह उन की बेटी है.

फिर कहा, ‘‘पिंकी बेटे, प्रमोद को ले जा कर अपना कमरा दिखाओ, खेलो और कुछ खिलाओपिलाओ,’’ अनिरुद्ध का इतना कहना था कि पिंकी प्रमोद का हाथ पकड़ उसे अपने साथ ले गई. उस का कमरा सब से पीछे था एकदम अलगथलग.

इधर अनिरुद्ध के कमरे में थोड़ी ही देर में नौकर चायनाश्ता ले आया. इधरउधर की औपचारिक बातों के बीच चायनाश्ता शुरू हुआ. अनिता अधिकतर चुप ही रही. वह अविनाश को यह भनक नहीं लगने देना चाहती थी कि उस की कभी अनिरुद्ध के साथ घनिष्ठता थी. वह चुपचाप अनिरुद्ध को देख रही थी कि कितना बदल गया है वह.

इसी बीच अविनाश के मोबाइल की घंटी बजी. वह तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था. उस ने अनिरुद्ध से कहा, ‘‘सर, बुरा मत मानिएगा. मैं अभी थोड़ी देर में आ रहा हूं, एक जरूरी काम है.’’

अनिरुद्ध के ‘ठीक है’ कहते ही अविनाश तेजी से बाहर निकल गया. एक पल के लिए अनिता का मन यह सोच कर कसैला हो गया कि आदमी अपने स्वार्थ के आगे इतना अंधा हो जाता है कि अपनी बीवी को दूसरे के पास अकेले में छोड़ जाता है. पर अगले ही पल वह अपने पुराने प्यार में खो गई.

अब कमरे में केवल अनिरुद्ध और अनिता रह गए. थोड़ी देर के लिए तो वहां एकदम शांति व्याप्त हो गई. दोनों में से किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या कहे. वक्त जैसे थम गया था.

बात अनिरुद्ध ने ही शुरू की, ‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम फिर मिलेंगे.’’

‘‘मैं ने भी.’’

अनिरुद्ध खड़ा हो गया था, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि मैं ने तुम्हारी याद में कितनी रातें रोरो कर बिताईं. पर क्या करता मजबूर था. पढ़ाई पूरी करने और नौकरी करने के बाद मैं तुम्हारी खोज में एक बार वाराणसी भी गया था. वहां पता लगा तुम्हारी शादी हो गई है. इस के बाद ही मैं ने अपनी शादी के लिए हां की,’’ अनिरुद्ध भावुक हो गया था.

अनिता की आंखों से आंसू झरने लगे थे. उस ने बिना एक शब्द कहे अपने आंसुओं के सहारे कह दिया था कि वह भी उस के लिए कम नहीं रोई है.

अनिरुद्ध ने देखा कि अनिता रो रही है, तो उस ने अपने हाथों से उस के आंसू पोंछ कर उसे सांत्वना दी, ‘‘जो कुछ हुआ उस में तुम्हारा क्या कुसूर है  मैं जानता हूं कि तुम मुझे आज भी इस दुनिया में सब से ज्यादा प्यार करती हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अनिता को गले लगा कर उस के अधरों का एक चुंबन ले लिया.

बस अब और नहीं- भाग 3: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव की क्या थी वजह

अनिता चुंबन से रोमांचित हो गई. उस ने प्रतिरोध करने के बजाय बस इतना ही कहा, ‘‘कोई आ गया तो…’’

अनिरुद्ध समझ गया कि अनिता को भी पुराने प्रेम प्रसंग को चलाए रखने में कोई आपत्ति नहीं है. बस, सब कुछ छिपा कर सावधानीपूर्वक करना पड़ेगा.

‘‘सौरी यार, इतने दिनों बाद तुम्हें अकेले पा कर मैं अपनेआप को रोक नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘धीरज रखो, सब हो जाएगा,’’ कह कर अनिता ने अपनी मादक मुसकान बिखेरते हुए हामी भर दी. बदले में अनिरुद्ध भी मुसकरा पड़ा.

अनिता को लग रहा था कि आज उस का पुराना प्रेम उसे वापस मिल गया. पर इस प्रेम प्रसंग को चलाए रखने के लिए यह जरूरी था कि अविनाश की प्रमोशन हो जाए. इसी प्रमोशन के लिए तो अविनाश उसे आज अनिरुद्ध के यहां लाया और उन्हें एकांत में छोड़ कर चला गया. अनिता ने बिना किसी भूमिका के अनिरुद्ध को सब कुछ बता दिया.

‘‘यह प्रमोशन क्या चीज है, तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने एक बार फिर से अनिता का दीर्घ चुंबन ले डाला.

अनिता ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली, ‘‘मैं ने कहा न सब कुछ हो जाएगा. मैं तो शुरू से ही तुम्हारी हूं, थोड़ा धीरज रखो,’’ और अपने पर्स से रूमाल निकाल कर अनिरुद्ध के मुंह पर लगी लिपस्टिक पोंछने लगी. फिर यह कहते हुए अंजलि के कमरे की तरफ मुड़ गई, ‘‘यहां बैठना ठीक नहीं. पता नहीं तुम क्या कर बैठो.’’

अविनाश काफी देर बाद लौटा. आते ही वह फिर आने का वादा कर के अनिता और बेटे के साथ वहां से चल पड़ा. उस से रहा नहीं जा रहा था. वह रास्ते में ही अनिता से पूछ बैठा, ‘‘क्या हुआ, प्रमोशन के लिए कहा कि नहीं ’’

‘‘कहा तो है. कह रहा था कि देखूंगा,’’ अनिता ने पर्याप्त सतर्कता बरतते हुए बताया.

‘‘प्रमोशन हो जाए तो मजा आ जाए,’’ अविनाश अपने सपने में खोया हुआ बोला.

2-3 दिन बाद ही अविनाश को प्रमोशन का और्डर मिल गया, उस की खुशी की कोई सीमा न रही. दफ्तर से लौटते ही उस ने मारे खुशी के अनिता को गोद में उठा लिया और लगा चूमने.

‘‘अरे, क्या हो गया  आज तो बहुत खुश लग रहे हो ’’

‘‘खुशी की बात ही है. जानती हो, आज मेरी प्रमोशन हो गई. पिछले कई सालों से इंतजार कर रहा था मैं. सचमुच, नए मैनेजर साहब बड़े अच्छे आदमी हैं. तुम सोच रही थीं कि पता नहीं सुनेंगे भी कि नहीं, लेकिन उन्होंने मेरी प्रमोशन कर दी. सुनो, छुट्टी के दिन उन के घर चलेंगे, उन्हें धन्यवाद देने,’’ अविनाश खुशी में कहे जा रहा था.

अविनाश को खुश देख कर अनिता की आंखों में भी आंसू छलक आए.

छुट्टी के दिन वे अनिरुद्ध के यहां गए. इस के बाद तो आनेजाने का सिलसिला चल निकला. अनिरुद्ध अविनाश को आर्थिक फायदा दिलाने की गरज से कंपनी के काम से बाहर भी भेजने लगा. अब तो अविनाश हर शाम दफ्तर से आते वक्त अनिरुद्ध के घर हो कर ही आता था. अंजलि को भी मानो मुफ्त का एक नौकर मिल गया था. वह कभी अविनाश को सब्जी लेने भेज देती तो कभी दूध लेने. अविनाश बिजली, पानी, मोबाइल के बिल, पिंकी की फीस आदि भरने का काम भी खुशी से करता.

अनिरुद्ध अगर कंपनी के काम से कहीं बाहर जाता तो वह अविनाश को कह जाता कि मेरे घर का कोई काम हो तो देख लेना. प्रमोद भी पिंकी से घुलमिल गया था, इसलिए वह भी अकसर पिंकी के घर चला जाता और दोनों पिंकी के कमरे में घंटों बातें करते, खेलते.

उधर अनिरुद्ध और अनिता के दिल में प्रेम की पुरानी आग भड़क गई थी. वे अपनी सारी हसरतें पूरी कर लेना चाहते थे, इसलिए वे दोनों अपने में मगन थे. जब भी मौका मिलता अनिता अनिरुद्ध को फोन कर के घर आने के लिए कह देती और दोनों एकदूसरे में खो जाते. कहीं कुछ और भी हो रहा है, यह जानने और समझने की उन्हें मानो फुरसत ही न थी.

उस दिन अनिरुद्ध काम से थक कर रात में लगभग 8 बजे अपने कमरे से बाहर थोड़ी देर के लिए निकला, तो उस ने देखा कि पिंकी के कमरे की लाइट जल रही थी. पिछले कई दिनों की व्यस्तता की वजह से वह अपनी बेटी पिंकी से कायदे से बात तक नहीं कर पाया था. उस के दिल में आया कि पिंकी के कमरे में ही चल कर बातें करते हैं. अभी पिंकी के कमरे से वह कुछ दूरी पर ही था कि उसे कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं. उस ने सोचा कि शायद पिंकी की कोई सहेली आई है और वह उस से बातें कर रही है. यों जाना ठीक नहीं , खिड़की से झांक लेता हूं कि कौन है.

उस ने खिड़की से झांक कर देखा तो मानो उसे चक्कर सा आ गया. उस ने देखा कि पिंकी और प्रमोद अर्धनग्न अवस्था में एकदूसरे से लिपटे हुए हैं. प्रमोद पिंकी से कह रहा था, ‘‘तुम्हारे पापा मेरी मम्मी से रोमांस करते हैं. एक दिन मैं ने देखा कि दोनों बैडरूम में एकदूसरे से लिपटे पड़े हैं.’’

‘‘तेरे पापा का भी मेरी मम्मी से ऐसा ही रिश्ता है. एक दिन मैं ने भी उन्हें सामने वाले कमरे में एकदूसरे से लिपटे देखा,’’ पिंकी बोली.

‘‘क्या मजेदार बात है. तेरे पापा मेरी मम्मी से और मेरी मम्मी तेरे पापा से रोमांस कर रही हैं और हम दोनों एकदूसरे से,’’ कह कर प्रमोद हंस पड़ा.

‘‘लेकिन यार, वे लोग तो शादीशुदा हैं. कुछ गड़बड़ हो गई तो भी किसी को पता नहीं चलेगा. पर हम लोगों के बीच कुछ हो गया तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगी.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं कंडोम लाया हूं न.’’

‘‘तुम हो बड़े समझदार,’’ कह पिंकी ने खिलखिलाते हुए प्रमोद को भींच लिया.

आगे कुछ सुन पाना अनिरुद्ध के बस में न था. वह किसी तरह हिम्मत बटोर कर अपने कमरे तक आया और बिस्तर पर निढाल पड़ गया. आज वह खुद की निगाहों में ही गिर गया था. वह किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता था. बेटी तक से नहीं. अगर कुछ कहा और पिंकी ने भी पलट कर जवाब दे दिया तो  वह खुद को ही दोषी मान रहा था कि अपने क्षणिक सुख के लिए उस ने जो कुछ किया, अब उसी राह पर बच्चे भी चल पड़े हैं. उस की हरकतों के कारण बच्चों का भविष्य दांव पर लग गया. कितना अंधा हो गया था वह. अंजलि को भी क्या कहे वह. इस सब के लिए वह खुद जिम्मेदार है. शुरुआत तो उस ने ही की.

रात को अनिरुद्ध ने खाना भी नहीं खाया. रात भर वह दुख और पश्चात्ताप की आग में जलता रहा और रो कर खुद को हलका करता रहा. सुबह होने से पहले ही उस ने सोचा कि जो हो गया, रोने से कोई फायदा नहीं. फिर अब क्या किया जाए, इस पर वह सोचताविचारता रहा.

थोड़ी देर में ही वह निर्णय पर पहुंच गया और सुबह होते ही उस ने कंपनी के जीएम से फोन पर अपना स्थानांतरण करने का निवेदन किया. जीएम उस के काम से सदैव खुश रहते थे, इसलिए उन्होंने उस के निवेदन को स्वीकार करने में तनिक भी देर न लगाई. उस का स्थानांतरण उसी पल कोलकाता कर दिया.

4 दिन बाद अनिरुद्ध परिवार सहित कोलकाता की ट्रेन पर सवार हो गया. किसी को भी न पता चला कि क्या हुआ. अनिरुद्ध ने सारा राज अपने सीने में दफन कर लिया.

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