घर का सादा खाना: क्या सही थी प्रिया की तरकीब

अनिल और बच्चे शुभम व शुभी औफिस चले गए तो प्रिया कुछ देर बैठ कर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. अचानक नजर नई रैसिपी पर पड़ी. पढ़ते ही मुंह में पानी आ गया. सामग्री देखी. सारी घर में थी. प्रिया को नईनई चीजें ट्राई करने का शौक था.

खानेपीने का शौक था तो ऐक्सरसाइज कर के अपने वेट पर भी पूरी नजर रखती थी. एकदम बढि़या फिगर थी. कोई शारीरिक परेशानी भी नहीं थी. वह अपनी लाइफ से पूरी तरह संतुष्ट थी. बस आजकल अनिल और बच्चों पर घर का सादा खाना खाने का भूत सवार था.

प्रिया अचानक अपने परिवार के बारे में सोचने लगी. अनिल हमेशा से बिग फूडी रहे हैं पर अब अचानक अपनी उम्र की, अपनी सेहत की कुछ ज्यादा ही सनक रहने लगी है. हैल्दी रहने का शौक तो पूरे परिवार को है पर यह कोई बात थोड़े ही है कि इंसान एकदम उबली सब्जियों पर ही जिंदा रहे और वह भी तब जब कोई तकलीफ भी न हो. उस पर मजेदार बात यह हो कि औफिस में सब चटरपटर खा लें पर घर पर कुछ टेस्टी बन जाए तो सब की नजर तेल, मसाले, कैलोरीज पर रहे.

अब टेस्टी चीजें कैलोरीज वाली होती हैं तो प्रिया की क्या गलती है. उस के पीछे पड़ जाते हैं सब कि कितना हैवी खाना बना दिया है. आप को पता नहीं कि हैल्दी खाना चाहिए. भई, मुझे तो यह भी पता है कि कभीकभी खा भी लेना चाहिए. इस बात पर आजकल प्रिया का मूड खराब हो जाता है. भई, तुम लोग इतने हैल्थ कौंशस हो तो औफिस में भी उबला खाओ.

शाम को कभी किसी से पूछ लो कि आज औफिस में क्या खाया तो ऐसीऐसी चीजें बताई जाती हैं कि प्रिया की नजरों के सामने घूम जाती हैं और उस के मुंह में पानी आ जाता है.

मन में दुख होता है कि मैं जब मूंग की दाल और लौकी की सब्जी खा रही थी, तो ये लोग पिज्जा और बिरयानी खा रहे थे और अनिल का यह ड्रामा रहता है कि टिफिन घर से ही ले कर जाना है, उन्हें घर का सादा खाना ही खाना है.

वह सुबह उठ कर 3-3 हैल्दी टिफिन तेयार करती है और शाम को पता चलता है कि लजीज व्यंजन उड़ाए गए हैं. खून जल जाता है प्रिया का. यह उस की गलती है न कि वह एक हाउसवाइफ है, घर में रहती है, रोज बाहर जा कर कभी कुछ डिफरैंट नहीं खा पाती. उसे तो वही खाना है न जो टिफिन के लिए बना हो. वह कहां जा कर अपना टेस्ट बदले.

किट्टी पार्टी एक दिन होती है, अच्छा लगता है. आजकल तो कभी जब वीकैंड में बाहर खाना खाने जाते हैं, तो प्रिया मेनू कार्ड देखते हुए मन ही मन एक से एक बढि़या नई डिशेज देख ही रही होती है कि अनिल फरमाते हैं कि सूप और सलाद खाते हैं. प्रिया को तेज झटका लगता है. सूप तो पसंद है उसे पर सलाद? यह क्या है, क्यों हो रहा है उस के साथ ऐसा?

पास्ता, वैज कबाब, कौर्न टिक्की और दही कबाब, जो उस की जान हैं, इन में आजकल अनिल को ऐक्स्ट्रा तेल नजर आ रहा है. भई, जब वह अब तक अपने परिवार की हैल्थ का ध्यान रखती आई है तो फिर कभीकभी तो ये सब खाया जा सकता है न? सलाद खाने तो वह नहीं आई है न 20 दिन बाद बाहर?

बच्चों ने भी जब अनिल की हां में हां मिलाई तो प्रिया सुलग गई और सूप व सलाद खाती रही. मन में तो यही चल रहा था कि ढोंगी लोग हैं ये. यह शुभम अभी 2 दिन पहले अपने फ्रैंड्स के साथ बारबेक्यू नेशन में माल उड़ा कर आया है और यह शुभी की बच्ची औफिस में तरहतरह की चीजें खा कर आती है.

शाम को घर आ कर कहती है कि मौम, डिनर हलका दिया करो, स्नैक्स हैवी हो जाते हैं. अरे भई, मेरी भी तो सोचो तुम लोग, घर का

सादा खाना खाने का गाना मुझे क्यों सुनाते हो… मेरी जीभ रो रही है… अब क्या टेस्टी, मजेदार खाना खाने के लिए तुम लोगों को सचमुच रोकर दिखाऊं… अगर अच्छीअच्छी चीजें खाने के लिए सचमुच किसी दिन रोना आ गया न मुझे तो पता है मुझे, सारी उम्र मेरा मजाक उड़ाया जाएगा.

अभी अनिल की 5 दिन की मीटिंग थी. रोज शानदार लंच था. सुबह ही बता जाते कि शाम को कुछ खिचड़ी टाइप चीज बना कर रखना. कुछ दिन लंच बहुत हैवी रहेगा. मेरी आंखों में आंसू आतेआते रुके. शुभम और शुभी वीकैंड में अपने दोस्तों के साथ बाहर ही लाइफ ऐंजौय कर लेते हैं. बचा कौन? मैं ही न?

अब खाने के लिए रोना उसे भी अच्छा नहीं लग रहा है पर क्या करे, मन तो होता है न कभीकभी कुछ बाहर टेस्टी खाने का… कभीकभी अनहैल्दी भी चलता है न… यहां तक कि इन तीनों ने चाट खाना भी बंद कर दिया है, क्योंकि तीनों का औफिस में कुछ न कुछ बाहर का खाना हो ही जाता है.

अब बताइए, 6 महीनों में कभी छोलों के साथ भठूरे नहीं बन सकते? पर नहीं, रात में जैसे ही छोले भिगोती हूं, तीनों में से कोई भी शुरू हो जाता है कि भठूरे मत बनाना, बस रोटी या राइस… मन होता है छोलों का पतीला बोलने वाले के सिर पर पलट दूं… यह जरूरी क्यों हो कि घर में बस सादा ही खाना बने?

घर में भी तो कभी टेस्ट चेंज किया जा सकता है न?

पता नहीं तीनों कौन से प्लैनेट के निवासी बनते जा रहे हैं. यही फलसफा बना लिया है कि घर में खाएंगे तो सादा ही (बाकी माल तो बाहर उड़ा ही लेंगे).

पिछली किट्टी पार्टी में अगर अंजलि के घर खाने में पूरियां न होतीं, तो पूरियां खाए उसे साल हो जाता. बताओ जरा, उत्तर भारतीय महिला को अगर पूरियां खाए साल हो रहा हो तो यह कहां का न्याय है? अब कभी रसेदार आलू की सब्जी या पेठे की सब्जी, रायते के साथ पूरी नहीं खा सकते क्या? अहा, मन तृप्त हो जाता था खा कर. अब ये ढोंगी लोग कहते हैं कि हमारे लिए तो रोटी ही बना देना. अब अपने लिए 2-3 पूरियों के लिए कड़ाही चढ़ाती अच्छी लगूंगी क्या?

बस अब प्रिया के हाथ में था गृहशोभा का सितंबर, द्वितीय अंक और रैसिपी थी सामने गोभी पकौड़ा और अचारी मिर्च पकौड़ा. 2-3 बार दोनों रैसिपीज पढ़ीं. मुंह पानी से भर गया. पढ़ कर ही इतना खुश हुआ दिल… खा कर कितना मजा आएगा… बहुत हो गया घर का सादा खाना और सब से अच्छी बात यह है कि गोभी, समोसे बेक करने का भी औप्शन था तो वह बेक कर लेगी. तीनों कम रोएंगे, थोड़ा पुलाव भी बना लेगी, परफैक्ट, बस डन.

तीनों लगभग 8 बजे आए. आज प्रिया का चेहरा डिनर के बारे में सोच कर ही चमक रहा था. वैसे तो बनातेबनाते भी 2-3 समोसे खा चुकी थी… मजा आ गया था. पेट और जीभ बेचारे थैंक्स ही बोलते रहे थे जैसे तरसे हुए थे दोनों मुद्दतों से…

चारों इकट्ठा हुए तो प्रिया ने ‘आज फिर जीने की तमन्ना है…’ गाना गाते हुए खाना लगाया तो तीनों ने टेबल पर नजर दौड़ाई. अनिल के माथे पर त्योरियां पड़ गईं, ‘‘फ्राइड समोसे डिनर में? प्रिया, क्यों तुम सब की हैल्थ के लिए केयरलैस हो रही हो?’’

‘‘अरे, समोसे बेक्ड हैं, डौंट वरी.’’

‘‘पर मैदे के तो हैं न?’’

प्रिया का मन हुआ बोले कि कल जो पिज्जा उड़ाया था वह किस चीज का बना था? पर लड़ाईझगड़ा उस की फितरत में नहीं था. इसलिए चुप रही.

शुभम ने कहा, ‘‘मां, पकौड़े तो फ्राइड हैं न? मैं सिर्फ पुलाव खाऊंगा.’’

प्रिया ने शुभी को देखा, तो वह बोली, ‘‘मौम, आज औफिस में रिया ने बहुत भुजिया खिला दी… अब भी खाऊंगी तो बहुत फ्राइड हो जाएगा… मैं पुलाव ही खाऊंगी.’’

डिनर टाइम था. सब सुबह के गए अब एकसाथ थे. शांत रहने की भरसक कोशिश करते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम लोग सिर्फ पुलाव खा लो,’’

अनिल ने एक समोसा उस का मूड देखते हुए चख लिया, बच्चों ने पुलाव लिया. प्रिया ने जब खाना शुरू किया, सारा तनाव भूल उस का मन खिल उठा. जीभ स्वाद ले कर जैसे लहलहा उठी. आंसू भर आए, इतना स्वादिष्ठ घर का खाना. वाह, कितने दिन हो गए, वह खुद रोज कौन सा तलाभुना खाना चाहती है, पर घर में भी कभी कुछ स्वादिष्ठ बन सकता है न… महीने में एक बार ही सही, पर यहां तो हद ही हो गई थी. वह जितनी देर खाती रही, स्वाद में डूबी रही. उस ने ध्यान ही नहीं दिया कौन क्या खा रहा है. उस का तनमन संतुष्ट हो गया था.

सब आम बातें करते रहे, फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. उस दिन जब प्रिया सोने के लिए लेटी, वह मन ही मन बहुत कुछ सोच चुकी थी कि नहीं करेगी वह सब के लिए इतनी चीजों में मेहनत, उसे कभीकभी अकेले ही खाना है न, ठीक है, उस का भी जब मन होगा, खा लेगी. बस एक फोन करने की ही देर है. अपने लिए और्डर कर लिया करेगी… यह बैस्ट रहेगा. उसे कौन सा कैलोरीज वाला खाना रोज चाहिए… कभीकभी ही तो मन करता है न… बस प्रौब्लम खत्म.

उस के बाद प्रिया यही करने लगी. कभी महीने में एक बार अपने लिए पास्ता और्डर कर लिया, कभी सिर्फ स्टार्टर्स और घर में सब खुश थे कि घर में अब सादा खाना बन रहा है. प्रिया तो बहुत ही खुश थी. उस का जब जो मन होता, खा लेती थी. अपने प्यारे, ढोंगी से लगते अपनों के बारे में सोच कर उसे कभी हंसी आती थी, तो कभी प्यार, क्योंकि उन के निर्देश तो अब भी यही होते थे कि बाहर हैवी हो जाता है, घर में सादा ही बनाना.

भाभी: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

family story in hindi

विकल्प- भाग 1 : क्या दूसरी शादी वैष्णवी के लिए विकल्प थी?

“मौसम की तरह लोग भी बदलते हैं.” दुनिया के लिए चाहे यह सिर्फ किताबों में पढ़े हुए एक जुमले तक ही सीमित होगा लेकिन वैष्णवी असल जिंदगी में ऐसे बहुत से कटु अनुभवों से गुजरी है. अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर वह दावा कर सकती है कि कहावतें, मुहावरे, धारणाएं या मान्यताएं अकस्मात नहीं बना करतीं. उन के पीछे अवश्य ही कोई पुख्ता कारण रहते होंगे.

अट्ठाइस की उम्र में इतने खट्टे अनुभवों से गुजरना कितना त्रासद होता होगा, यह भी हर कोई नहीं समझ सकता. “जाके पांव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई” इस कहावत के पीछे भी तो कोई गहरा और कड़वा अनुभव ही रहा होगा.

पिछले 3 वर्षों से वैष्णवी इसी तरह रंग बदलती दुनिया को देख रही है. हर रोज नकाब उतरता चेहरा अपने किसी न किसी घनिष्ठ का ही होता है.

‘काश कि मेरी आंखों पर मोह की यह पट्टी बंधी ही रहती तो सोने के सोना होने का वहम तो बना रहता. पट्टी खुलने से तो सुनहरे मुलम्मे के पीछे छिपा पीतल मुंह चिढ़ाने लगा है.’ वैष्णवी यह सोचती और मित्र व परिजनों के दोगले मुंह देखसुन कर अपना जी जलाती रहती.

वैष्णवी आज भी नहीं भूली उस मनहूस रात को जब पति व्योम का हाथ उस के हाथ से छूट गया था. वह व्योम के साथ जयपुर के मशहूर राजमंदिर सिनेमाहौल में फ़िल्म देखने गई थी. मैटिनी शो के बाद उन दोनों का चोखी ढाणी जाने का प्रोग्राम था. पूरी शाम वहीं बिताने के बाद वे डिनर कर के ही वापस आने वाले थे.

अभी सालभर पहले ही तो शादी हुई थी उन की, इसलिए अभी वे दोनों हनीमून पीरियड में ही चल रहे थे. उस शाम वैष्णवी बहुत खुश थी. चोखी ढाणी में चल रहे कठपुतलियों के नाच ने तो उसे इतना उत्साहित कर दिया था कि वह अपनेआप को उन के साथ थिरकने से नहीं रोक सकी. और वहां बैठी लोकगायिका द्वारा छेड़े गए उस मधुर लोकगीत ‘केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारै देस…’ की स्वरलहरी ने तो उसे इस कदर भावविह्वल कर दिया कि वह पूरी शाम उसी लोकगीत को गुनगुनाती, चुंबक की तरह व्योम के हाथ से ही लिपटी रही.

हम जिस पल में जी रहे होते हैं, दरअसल, जिंदगी सिर्फ उसी पल में सिमटी होती है. जो पल बीत गया उसे वापस नहीं लाया जा सकता और जो बीतने वाला है उस के बारे में कोई नहीं जानता कि कैसे बीतने वाला है. ऐसा ही एक अजनबी पल वैष्णवी की जिंदगी में भी आने को तैयार बैठा था. प्रेम में आकंठ डूबी, अधमुंदी आंखों से वे बाइक पर सवार हवा से होड़ लगा रहे थे कि एक अंधे मोड़ पर तेज गति से घूमते ट्रक पर उन की निगाह ही नहीं गई.

चर्रर्रर्र… की तेज आवाज के साथ ब्रेक भी लगे लेकिन यह सब इतना अकस्मात हुआ कि व्योम अपनी बाइक को संभाल नहीं पाया और बाइक स्लिप हो गई. हवा में उछलता हुआ व्योम करीब 10 फुट दूर जा कर गिरा. दूसरी तरफ सड़क किनारे पड़े नुकीले पत्थर से वैष्णवी का सिर टकराया और वह अचेत हो गई. उस के बाद जब वैष्णवी को होश आया तो वह खाली हाथ हो चुकी थी.

वैष्णवी ग़ज़ब की खूबसूरत लड़की थी. व्योम तो देखते ही उस पर रीझ गया था. व्योम भी पहली ही निगाह में वैष्णवी के दिल में उतर गया था.

लंबा कद, गोरा रंग, कर्ली बाल और प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में आकर्षक सालाना पैकेज… किसी लड़की को भला और क्या चाहिए सहेलियों के बीच ईर्ष्या का पात्र बनने के लिए. अपने समय पर इतराती वैष्णवी आसमान में उड़ी जा रही थी. लेकिन समय कोई किताब तो नहीं जिसे पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ कर उस का सार निकाल लिया जाए. या किसी दूसरे का पढ़ कर अपने वाले की समीक्षा कर ली जाए. यह तो बंद लिफाफा सा होता है जिस के भीतर की चिट्ठी पहले कोई नहीं पढ़ सकता. वैष्णवी को भी कहां अंदेशा था कि उस के समय चिट्ठी इतनी कोरी और सफेद निकलेगी. पति को खो चुकी वैष्णवी के लिए एक ही रात में लोगों का नजरिया बदल गया.

‘बेटीबेटी’ कह कर न अघाने वाले सासससुर के लिए वह अब अपशगुनी हो चुकी थी. सास ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘काश, व्योम की जगह यही चली जाती. इस की मां के तो एक बेटी और भी है, लेकिन मेरा बेटा तो इकलौता था.’

बातें हवा की तरह होती हैं. चाहे कितने भी दबे स्वरों में की जाएं, एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच ही जाती हैं. ये भी पहुंच गईं. वैष्णवी ने सुना तो टूटे हुए कलेजे के कुछ और टुकड़े हो गए. तेरहवीं के क्रियाकर्म के बाद उसे मांपापा अपने साथ ले आए. सास ने तो जाती हुई के सिर पर स्नेह का हाथ तक न रखा. ससुर जरूर दरवाजे तक विदा करने आए थे.

‘आती रहना, तुम्हारा ही घर है’, ससुर ने देहरी लांघते समय कहा था. सब जानते थे कि इस तरह के औपचारिक वाक्य महज दुनियादारी निभाने के लिए ही कहे-बोले जाते हैं. वैष्णवी ने भी हामी में गरदन हिलाते हुए भारी मन से विदा ली, कभी वापस न आने के लिए. पांव एक बार तो देहरी पर ठिठके भी थे. यही वह दहलीज थी जिस पर उस ने मेहंदी लगे पांवों से चावलों से भरे कलश को ठोकर मार कर भीतर प्रवेश किया था.

यादें गाड़ी के शीशे पर जमी गर्द की तरह होती हैं. आगे बढ़ने के लिए रास्ते का साफ़ दिखना जरूरी होता है और रास्ता साफ़ दिखे, इस के लिए शीशे पर जमी गर्द पोंछनी ही पड़ती है. वैष्णवी ने भी अपने भविष्य के बारे में सोच कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया.

सच के फूल- भाग 3: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुबह जब नींद खुली तो उसे बहुत अच्छा लगा. वह अपनेआप को तरोताजा पा रही थी. होंठों पर मुसकान थी कि तभी यादों का एक रेला सारी ताजगी उड़ा ले गया. वह फिर सहम गई और चुपचाप वाशरूम में घुस गई. उसे आज घर कुछ ज्यादा शांत लगा. वैसे सुधा का घर शांत ही रहता है. उस के पापा बहुत नियम और कायदे के पक्के हैं. आज की खामोशी थोड़ी बो िझल लग रही थी. उसे सुबह ही चाय पीने की आदत थी, इसलिए वह चाय बनाने रसोई में पहुंची.

‘‘चाय पीओगी मां?’’ उस ने पैन उठाते हुए प्यार से मां से पूछा.

‘‘नहीं,’’ मां की कड़क आवाज से डर गई.

‘‘हमें पापा के साथ पी चुके हैं तुम पी लो.‘‘

वह चुपचाप चाय बनाने लगी. उस ने निश्चय कर लिया पापा के औफिस जाते वह मां से बात करेगी. दीपक भी स्कूल जा चुका था. चाय ले कर वह अपने कमरे में आ कर पढ़ने की टेबल को ठीक करने लगी. पता नहीं आगे पढ़ पाएगी या नहीं. सभी लोग उस पर इतनी जल्दी विश्वास नहीं कर सकते हैं. कहीं कालेज से नाम ही न कटवा दें. वह जिद्द भी नहीं कर सकती. लीला देवी कमरे में आई और टेबल के पास खडी़ हो बोली, ‘‘क्या कर रही हो सुधा?’’

‘‘कुछ नहीं मां… आओ न,’’ सुधा ने मां को अपने बैड पर बैठाया और फिर खुद जमीन पर बैठ अपना सिर मां की गोद में रख दिया.

‘‘मां हमें तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां बोल.’’

मां के पैर पकड़ बोली, ‘‘मु झे माफ कर दो मां मु झ से बहुत बड़ी भूल हो गई. मैं बहुत पछतावे में हूं… मां मैं बहकावे आ गई थी,’’ और वह फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘सुधा इधर देखो अपना सिर उठाओ और बताओ क्या हुआ. देखो सब सचसच बताना… घर की इज्जत तो रही नहीं अपना इज्जत भी गंवा आई,’’ लीला देवी कठोरता से बोली.

‘‘नहीं मां मैं घर से भागी जरूर थी पर मुझे अपने मान का पूरा खयाल था मां. मुझे अपनी इज्जत का खतरा लगा तभी तो वापस आ गई.’’

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘मां मुझ से गलती हो गई मां. मैं उस के बातों में आ गई थी.’’

‘‘कहां गई थी?’’

‘‘हम दिल्ली गए… दूसरे दिन ही गरीब रथ से भाग आई. मैं बच गई मां… तुम लोगों के आशीर्वाद से मैं बच गई मां.’’

‘‘तुम लोग एक रात…’’

‘‘नहीं मां,’’ सुधा बीच में बात काट कर बोली, ‘‘जिस दिन गए उस दिन रात ट्रेन में थे. तुम मेरा विश्वास करो मां मैं सच बोल रही हूं. वह बोला कि दिल्ली में उस के मामा रहते हैं जो शादी करवा देंगे. लेकिन जब वह मामा के घर न ले जा कर एक गंदे होटल में ले गया उसी समय मैं सम झ गई कि वह  झूठा है. में ने उस पर विश्वास कर भूल कर दी है. फिर मैं चालाकी से भाग निकली. मां तुम मुझे डांटो, मारो… मैं ने काम ही ऐसा किया है पर एक नादान सम झ कर माफ कर दो मां… प्लीज मां बस एक बार,’’ सुधा रोती जा रही थी.

‘‘तुम उस से शादी करना चाहती हो?’’

‘‘नहीं मां नहीं यही तो मेरी सब से बड़ी भूल थी.’’

‘‘फिर गई क्यों?’’

‘‘मेरी बेवकूफी थी मां. वह मुझ से बोला था कि वह आईएएस के मैन्स में आ गया है और उस के पापा उस की शादी अपने दोस्त की बेटी से जबरदस्ती करवाना चाहते हैं.’’

‘‘तुम उस के साथ शादी करना चाहती थी तभी न…’’

‘‘हां पहले मैं उसे खोना नहीं चाहती थी पर मैं जान गई वह एक नंबर का  झूठा इंसान है. वह आईएएस भी नहीं होगा… मुझ से भूल हो गई मां… मुझे माफ कर दो.’’

‘‘ये सब कब से चल रहा है… कब से मिलनाजुलना है?’’

सुधा चुप रही.

‘‘बताओ?’’

‘‘3 महीने से.’’

‘‘बस 3 महीने में तुझे इतना विश्वास हो गया कि घर से पैर निकाल दिए और

23 बरस तक जिन मांबाप के साथ रही उन से एक बार भी पूछना जरूरी नहीं सम झा…. जो मां 9 महीने पेट में रखी उस पर भी विश्वास नहीं रहा… तुमने तो मेरे आंचल में दाग लगा दिया. जिस दिन तुम गई तुम्हारे पापा उस दिन इतने दुखी और हताश थे. बोले लीला कहां चूक हो गई… हम ने तो कभी भी अपने अम्मांबाबूजी का दिल नहीं दुखाया. जैसा वे बोलते गए हम वैसे करते गए. कहीं तुम ने नहीं अपने मांबाप का दिल दुखाया था.’’

सुधा को 1-1 बात हथौडे़ की तरह दिल पर लग रही थी.

‘‘मां… मुझे नादान सम झ कर माफ कर दो… तुम जो भी सजा देना चाहती हो दे दो पर बस माफ कर दो,’’ और वह मां से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मैं क्या सजा दू तुझे… तुझे जो भी सजा देंगे उस का दर्द भी तो हमीं को होगा. तुम मेरी देह का अंश हो काट कर नहीं फेंक सकते,’’ लीला देवी का गला रुंध गया.

यह देख कर सुधा बौखला गई, ‘‘मां तुम रो मत मेरी जैसे नालायक बेटी के लिए रो मत… अपने हिस्से का रोना मुझे दे दो.’’

तब मां ने उस के गाल पर एक चपत लगाई, ‘‘पगली ऐसे नहीं बोलते हैं.’’

‘‘मां तुम मुझे माफ कर दो न.’’

‘‘सुधा हम नाराज नहीं हैं… मन में तकलीफ बहुत है जो जिंदगी भर रहेगी. हम लोगों की परवरिश पर अब सवाल तो लग ही गया न,’’ मां ने गंभीरता से कहा.

सुधा के पास इस का कोई जवाब नहीं था. वह चुप रही. मां का रोना उस के मन को आहत कर गया. सच में उस ने बहुत भारी भूल कर दी… परिवार की इज्जत और उन के सम्मान को ठेस पहुंचाई. थोड़ी देर तक दोनों ही अपने हिस्से का दर्द लिए चुप बैठी रही.

शाम को रमाकांत घर आए पर ग्लानि से भरी सुधा कमरे से बाहर नहीं निकली. मां ने चाय पकड़ाई और अपने कमरे में चली गई. रमाकांत कभी भी अपने कमरे में चाय नहीं पीते हैं. शायद मां सारी स्थिति बताने गई है. अब पापा का रिएक्शन क्या होगा जो भी होगा… वह इन सब बातों के लिए तैयार है. इतने अच्छे मातापिता के लिए उसे कुदरत को शुक्रिया कहना चाहिए.

सुधा के लिए समय जैसे बीत नहीं रहा था. कपड़ों की अलमारी ठीक करने की नीयत से  वह अलमारी के पास खड़ी हो गई. उसे पता लग गया कि अलमारी को अच्छे से खंगाला गया है.

कमरे में बैठा दीपू ध्यान से उस की गतिविधियों को देख रहा था. आखिर उस ने पूछ ही लिया, ‘‘दीदी एक बात पूछूं.’’

‘‘हां पूछो न क्या पूछना है.’’

‘‘तुम अपने कालेज ग्रुप के साथ पिकनिक पर नहीं गई थीं न… हम लोगों से नाराज हो कर कहीं चली गई थी.’’

सुधा को जैसे  झटका सा लगा वह कपड़े जमीन में फेंक दीपू को ओर दौड़ी और उससे लिपट कर रोने लगी, ‘‘नहीं दीपू किसी से नाराज हो कर नहीं गई थी. मुझ से भूल हो गई थी मुझे माफ कर दो दीपू.’’

दीपू 10वीं कक्षा में था. उसे घर के माहौल से कुछकुछ अंदाजा हो रहा था कि दीदी के साथ कुछ तो गड़बड़ है. लड़कियों जरा जल्दी सम झदार हो जाती हैं. लड़के संसारिक मामलों से थोड़ा अनजान रहते हैं.

‘‘तुम तो परची में पता दे गई थी पर सब लोग बहुत घबराए हुए थे.’’

सुधा दीपू को कैसे बताए कि वह पता नहीं बस एक नोट लिख कर गई थी, ‘‘मैं घर छोड़ कर जा रही हूं, 4 दिन बाद आऊंगी.’’

थोड़ी देर रोनेधोने का दौर चला. अब सुधा ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि किसी तरह पापा को मनाना होगा. पापा नियम के बहुत पक्के हैं. सोने से पहले 10 बजे के न्यूज की हैडलाइन जरूर देखते हैं. वह रात के 10 बजने का इंतजार करने लगी.

सच के फूल- भाग 6: क्या हुआ था सुधा के साथ

अचानक उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा. कहीं ऐसा तो नहीं

गौतम को अंकल ने सब बता दिया हो. वे दोनों सुधा को परखना चाहते हो कि यह लड़की कितनी सच्ची है. चलो अब दिमाग नहीं लगाना है मांपापा से बात कर के कोई निर्णय लेंगे.

खाना खाने के समय पापा ने कहा, ‘‘मुझे ड्राइवर औफिस छोड़ कर आ जाएगा… तुम ड्राइवर के साथ चली जाना.’’

सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया. वह तो

दूसरी  दुनिया में उल झी थी. खाने के बाद सुधा पापा के कमरे में जाने का इंतजार करने लगी. वह दबे पांव कमरे में पहुंची. लगता है मां सब बता चुकी थी क्योंकि पापा का चेहरा थोडा़ सा चिंतित लग रहा था.

सुध पलंग के पास जा कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘ पापा कुछ कहना है.’’

रमाकांत शायद अंदेशा लगा चुके थे कि सुधा जरुर असमंजस में होगी. उन्होंने उस की ओर देखा सुधा ने खुद को संयत किया और कहा, ‘‘पापा कल मैं क्या करूं? मेरा मतलब है पापा कल मुझे गौतमजी को सब बता देना चाहिए?’’

‘‘सुधा तुम्हारे मन में क्या चल रहा है पहले यह बताओ?’’ रमाकांत ने पूछा.

‘‘पापा अगर उन्हें पता नहीं होगा और बाद में पता चला तब और दूसरी बात यह है हो सकता है पता हो… मु झे चैक करना चाह रहें हों… पापा मैं डर कर सारा जीवन नहीं बिता पाऊंगी बता देगें तब हो सकता है वह मना कर दें यही न लेकिन बाद में कहीं से पता चला तब तो पूरा जीवन बरबाद हो जाएगा.’’

रमाकांत को लगा समय के  झं झावात ने

सुधा को मजबूत और सम झदार बना दिया है. थोड़ा सोचने के बाद बोले, ‘‘सुधा जो तुम्हारा

मन गवाही देता है वही करो अगर तुम को लगता है कि गौतम को बता देना चाहिए तुम उस को सब सच बता दो वैसे हमें भी यह सही लग रहा है… यह तुम्हारी जिंदगी का फैसला है तुम्हें ही निर्णय लेना होगा हम को लगता है तुम जो भी फैसला लोगी सही होगा. हम लोग हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’’

लीला देवी को यह बात बिलकुल ही नहीं जंच

रही थी. सुधा अब आत्मविश्वास से भर गई. जब से सुधा के साथ वह अप्रिय घटना हुई है. वह सम झदार हो गई है… जिंदगी के तथ्यों को गहराई से आंकने लगी है. फिर आज पापा ने उस के मनोबल को बढ़ा दिया है. सोने की चेष्टा की… नींद कोसों दूर थी. जिंदगी की विकट परीक्षा थी… पास हो गई तो खुशियां ही खुशियां और अगर फेल तो पूरे परिवार को दुखदर्द मिलने वाला था.

उस ने अपने कैनवास पर जो मैलाकुचैला रंग थोपा था उसे ही तो मिटाना होगा. अंकल ने सही कहा था सत्य नंगा होता है. इस के लिए हिम्मत चाहिए. यह हिम्मत अब उसे अपने

जिंदगी के कैनवास को साफ करने के लिए लगानी होगी.

गौतम से मिलने के लिए सुधा अलमारी के पास जा खड़ी हुई. क्या पहना जाए यह भी एक चिंता का विषय था. तभी उसे अपनी क्लासमेट रानी की याद आई. वह हाथ की रेखा देखती थीं सारी लडकियां हाथ दिखाती भी थीं और उस का मजाक भी बनाती थीं. उस ने सुधा को बताया था जब भी वह मुश्किल हालात में हो तब सफेद कपड़े को पहने अगर पहन नहीं पाए तब एक सफेद कपड़ा ही पास में रख ले.

सुधा को ये सब बकवास लगता था. पर आज मन हो रहा था उस के कहे को एकबार आजमाया जाए. उस ने अलमारी से अपनी पसंद का एक सफेद कुरता व सफेद चूड़ीदार और

चुन्नी निकाल लिया. कानों के लिए छोटे औक्साइड हैंगिंग निकाले. तैयार हो कर जब मां को दिखाने गई.

लीला देवी अपनी बेटी को बडे़ प्यार से निहारा फिर बोली, ‘‘क्या तुम ने सफेद कपड़े पहन लिए… रंगीन कपड़े पहनने चाहिए थे.’’

सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया. मां ने कुदरत को प्रणाम कर जाने को कहा. सुधा जब तक आंखों से ओ झल नहीं हुई तब तक उस की मां देखती रही. सब कुशलमंगल हो की कामना करने लगी.

सुधा जब कैफेटेरिया पहुंची तब देखा कि गोतम सीढि़यों के पास खडा था. वह गोतम के साथ चल दी गौतम ने कोने में एक सीट रिजर्व कर रखी थी. उस ने जब बैठने का इशारा किया तो वह बैठ गई. आज उस ने गौतम को गौर से देखा अच्छा स्मार्ट लग रहा था. आज उस ने भी जींस और लैमन कलर की टीशर्ट पहन रखी थी जो उस पर काफी जंच रही थी. उस ने वेटर को इशारे से बुलाया. सुधा का मन हुआ कि वह मुड़ कर देखे कि पीछे क्या गड़बड़ हो रही है पर हिम्मत नहीं हुई.

गौतम लिली के फूलों का गुलदस्ता ले कर आया था. सुधा के हाथों में देते हुए बोला, ‘‘फ्लौवर फौर लवली लेडी.’’

सुधा ने मुसकराते हुए थैक्स कहा और फिर दोनों बैठ गए.

‘‘मां से पूछ कर आई हैं न?’’

गौतम का परिहास वह तुरत सम झ गई. उस ने फोन नंबर नहीं दिया था इसी बात की वह खिंचाई कर रहा था.

‘‘दूसरे दिन दे दिया…’’ जब हम मांगें तो.

‘‘उस समय शादी तय नहीं हुई थी,’’ सुधा ने बीच से ही बात काटते हुए कहा.

‘‘स्मार्ट आंसर,’’ गौतम ने खुश हो कर कहा, ‘‘क्या खाना है?’’

‘‘आप जो भी मंगा लें.’’

गौतम ने वेटर को बुला कर और्डर दिया. सुधा को अपनी बात बताने की जल्दी मची थी.

‘‘आज आप बहुत सुंदर लग रही है,’’ गौतम ने कहा, ‘‘अब आप नाराज न हो जाना… मैं फ्लर्ट करने की कोशिश नहीं कर रही हूं… दरअसल, आप पर सफेद रंग बहुत सूट कर रहा है.’’

‘‘नहीं मुझे तो खुशी हो रही,’’ सुधा ने चंचलता से जवाब दिया.

‘‘अगेन स्मार्ट आंसर.’’

गौतम का चुलबुलापन उसे अच्छा लग रहा था. काश यह वक्त यहीं रुक जाता.

तभी गौतम ने कहा, ‘‘मु झे 2 दिन के लिए जमशेदपुर जाना है. सोच रहा था उधर से दिल्ली वापस चला जाऊंगा, इसलिए मिलना चाहता था पर पापा कह रहे हैं परसों के बाद का दिन अच्छा है सगाई कर के जाओ.’’

‘‘सगाई?’’ सुधा का दिल जोर से धड़का.

‘‘मैं ने कहा अक्तूबर में आ कर कर लेंगे. तब नाराज हो गए. इस कारण मु झे अब दोबारा वापस आना होगा?’’

सुधा बोलने को तड़प रही थी. उस ने अपना मन कड़ा किया और गौतम से बोली, ‘‘मुझे आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘बोलिए न तभी से मैं ही बोले जा रहा हूं.’’

सुधा धीरेधीरे सारी बातें बताने लगी… बीचबीच में वह गौतम को देखती भी जा रही थी. उस का चेहरा सख्त्त होता जा रहा था. विकी से मुलाकात रोज क्लास बंक कालेज के पास में मिलना… घर से पैसे चोरी कर भागना और फिर उस के धोखे का पता लगने पर वापस घर सकुशल लौट आना… उस ने जोगेश्वर अंकल से मिलने की बात नहीं बताई.

गौतम के चेहरे के भाव प्रति पल बदल रहे थे. उस ने वेटर से बिल लाने को

कहा सुधा सम झ गई सब खत्म हो गया. ऐसा जीवनसाथी उसे कहां मिलेगा.

वेटर ने बिल ला कर दिया. गौतम ने बिना कुछ बोले उस में पैसे रखे. सुधा ग्लानि, क्षोभ से भरी तिलमिला कर खडी हो गई, जिस के कारण वह लड़खड़ा गई. गौतम ने  झट से उसे सहारा दे कर थाम लिया. सुधा रो रही थी. गौतम के स्पर्श से वह और विचलित हो गई. उस की हिचकियां बंध गईं.

गौतम ने उसे दोनों हाथों में थामकर कहा, ‘‘सुधा इधर देखो?’’

सुधा रोती जा रही थी. उस ने देखा

गौतम ने उस के आंसुओं को अपनी हथेली

पर समेट लिया और बोला, ‘‘सुधा इधर देखो

मेरी तरफ.‘‘

सुधा ने भीगी आंखों से गौतम को देखा.

उस ने कहा, ‘‘यह क्या है?’’

सुधा ने देखा हथेली पर आंसू फैलने की तैयारी कर रहे थे.

‘‘ऐसा स्पष्ट मन और सच्चा साथी मु झे कहां मिलेगा?’’ वह बोला.

यह सुन कर सुधा गौतम के सीने से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. उस का सफेद कैनवास इंद्रधनुषी रंगों से रंगीन हो गया था.सच के फूल खिलखिला उठे…

अंतिम प्रहार- भाग 4: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

‘‘अब जब तुम दीप्ति के भाई के रिश्ते के लिए राजी हो तो तुम्हें किराए का कमरा क्यों चाहिए. एकाध महीना अपने घर में गुजार लो,’’ निकिता ने कहा.

‘‘चलो, मेरे मन से पश्चात्ताप की आग ठंडी हो गई. शिवानी ने मेरी बात मान कर मेरे मन का बोझ हलका कर दिया वरना कल की बात को ले कर मैं परेशान होती रहती,’’ दीप्ति ने खुश मन से कहा.

‘‘पिछली बातों को याद करने का कोई लाभ नहीं है. अब आगे की सोचो, यह सब कैसे होगा?’’ संजना ने कहा.

सब ने निकिता की तरफ देखा. वही समझदारीभरा जवाब दे सकती थी. कुछ पल विचारने के बाद उस ने कहा, ‘‘शिवानी के घर की परिस्थितियां देखते हुए उस का बाजेगाजे और बरातियों के साथ शादी करना संभव नहीं है. कोर्ट मैरिज करना ही बेहतर तरीका होगा.’’

‘‘क्यों न आर्य समाज मंदिर में शादी कर लें,’’ संजना ने सुझव दिया.

‘‘फिर भी शादी रजिस्टर्ड करवानी पड़ेगी तो एक बार में ही क्यों नहीं…?’’

सभी कोर्ट मैरिज पर सहमत थे. दीप्ति ने सलाह दी, ‘‘आज ही उस के मामा के घर चल कर सबकुछ तय कर लिया जाए. सभी तैयार हैं तो ऐसे कार्य में देरी क्यों?’’

दीप्ति के कजिन का नाम मुकेश था. वह 35 वर्ष का ही था. लंबा और छरहरा कद. हसमुंख चेहरा. शिवानी तो पहली नजर में ही उस पर फिदा हो गई. मुकेश के घर में उस के मातापिता और बेटी थी. अच्छा खातापीता घर था.

जब सभी मुकेश और उस के मातापिता से बात कर रहे थे, शिवानी ने मुकेश की बेटी को पुचकार कर अपने पास बुला दिया. गोद में बैठा कर उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, आप का नाम क्या है?’’

‘‘श्रुति, लेकिन सब मुझे तनुतनु कहते हैं.’’

‘‘अरे, आप के तो दोनों नाम ही बहुत प्यारे हैं,’’ उस ने तनु को अपनी गोद में समेटते हुए कहा, ‘‘आप स्कूल जाते हो?’’

‘‘हां, मैं क्लास वन में हूं और मैं ड्राइंग बना लेती हूं, दिखाऊं?’’ और वह झटपट उस की गोद से उतर गई और बैग से ड्राइंग की किताब ला कर उसे दिखाने लगी.

‘‘वाह, बहुत अच्छे. आप तो बहुत अच्छी ड्राइंग कर लेती हो.’’

‘‘आंटी, आप को ड्राइंग आती है? मेरी दादीमां को नहीं आती.’’

‘‘हां, मुझे बहुत अच्छी ड्राइंग बनानी आती है.’’

‘‘आप मुझे बनाना सिखाओगे?’’ उस ने मासूमियत से कहा.

‘‘हां, लेकिन मैं बहुत दूर रहती हूं. आप मुझे अपने घर में रख लो, तो मैं आप को रोज ड्राइंग सिखा दिया करूंगी.’’

तनु कुछ सोचने लगी. फिर बोली, ‘‘पापा से पूछती हूं,’’ और वह दौड़ कर मुकेश के पास गई. अपने नन्हेनन्हे हाथों से उस का ध्यान आकर्षित कर बोली, ‘‘पापा, इन आंटी को ड्राइंग आती है. आप इन्हें घर में रख लो, तो मुझे अच्छी ड्राइंग बनाना सिखा देंगी.’’

तनु की भोली बात पर सभी हंसने लगे. तनु की समझ में नहीं आया कि सभी क्यों हंस रहे थे?’’ मुकेश ने पूछा, ‘‘यह आंटी, आप को अच्छी लगती हैं.’’

‘‘हां, पापा. आप इन्हें अपने घर में ले आओ.’’

‘‘ठीक है बेटा, आप जैसा कहोगे.’’

उस दिन शिवानी को जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं. खुशियों के उड़नखटोले में उड़ती हुई जब वह घर पहुंची तो सुषमा रौद्र रूप लिए उस का इंतजार कर रही थी. स्वर में कोई प्यार, ममता और दुलार नहीं, बल्कि सौतेली मां जैसा व्यवहार, ‘‘कहां से मुंह काला कर के आ रही हो?’’

शिवानी के मन में आनंद का सागर लहरा रहा था. उस ने शांत भाव से कहा, ‘‘मां, मैं तुम्हारी सगी बेटी हूं, कभी प्यार से भी पूछ लिया करो.’’

‘‘इतनी देर कहां कर दी?’’ उन के स्वर की तल्खी कम नहीं हुई थी. शिवानी ने सोचा, बता ही दूं. एक दिन बताना ही है, बोली, ‘‘मां होते हुए भी जो जिम्मेदारी आप को निभानी चाहिए थी वह मेरी सहेलियां निभा रही हैं, इसीलिए देर हो गई.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मां ने भौंहें ऊंची कर के पूछा. उन की समझ में सचमुच कुछ नहीं आया था.

‘‘अपने लिए वर ढूंढ़ने गई थी,’’ शिवानी ने साफसाफ बता दिया. सुन कर मां के तोते उड़ गए. कानों पर विश्वास नहीं हुआ. फटी आंखों से उसे देखती रही. फिर बोली, ‘‘तुम्हारी शादी के लिए पैसा कहां से आएगा?’’

‘‘क्यों, पापा की मृत्यु के बाद जो पैसा मिला था वह कहां गया? उस में मेरा भी तो आधा हिस्सा है.’’

‘‘उस के बारे में सोचना भी मत,’’ सुषमा ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘तुम भले ही घर से भाग कर शादी कर लो परंतु उस पैसे के बारे में सोचना भी मत. गौरव नया प्लौट खरीद रहा है. उस के लिए पैसे बचा कर रखे हैं.’’

शिवानी के मुंह में ढेर सारी कड़वाहट घुल गई. मुंह पर ‘थू’ का भाव लाते हुए बोली, ‘‘यही तो आप चाहती थीं कि मैं कहीं भाग जाऊं. परंतु बचपन में ऐसे संस्कार ही नहीं दिए. बेटी को अनिच्छा से पालना और बड़ा करना फिर उसे परदों में बंद कर के रखना ताकि कहीं मुंह काला कर के परिवार की झठी मर्यादा को मटियामेट न कर दे. यही आप जैसी मांओं ने सीखा है.

आप की इसी गंदी सोच ने देश की बेटियों का भविष्य गर्त कर रखा है. मां, आप चिंता न करो. आप के पति और बेटे की कमाई का मुझे एक ढेला भी नहीं चाहिए. जीवन में खुशियों से बढ़ कर कुछ नहीं होता. आप का पैसा मेरे किस काम का, जब मेरे जीवन में पति, परिवार और बच्चे का सुख नहीं है. सोच कर देखिए, अगर आप के मांबाप आप जैसी सोच के होते और आप की शादी न करते तो आप भाई के घर में कैसा महसूस करतीं और कैसा जीवन व्यतीत करतीं.’’

शिवानी आज बहुत कुछ बोल गई थी. सुषमा को जैसे लकवा मार गया था. शिवानी ने जैसे अंतिम प्रहार करते हुए कहा, ‘‘आप गौरव को राजमहल बनवा कर दीजिए. वह आप का और परिवार का नाम रोशन करेगा. बेटियां केवल दुख देती हैं, तो मां, बस एकाध महीना तुम्हें और दुख दूंगी. इस के बाद मैं चली जाऊंगी. झेंपड़ी के अंधेरे में रह लूंगी परंतु तुम्हारे महल की जगमगाहट देखने कभी नहीं आऊंगी,’’ कहतेकहते शिवानी का गला भर आया. आंखों में आंसू ?िलमिलाने लगे. वह मुंह घुमा कर कमरे के भीतर चली गई.

सुषमा जैसे पत्थर की हो गई थी. परंतु उस के अंदर भी कुछ घुमड़  रहा था जो बाहर निकलने के लिए बेताब था. शिवानी ने उन के अंतर्मन को हिला कर रख दिया था और वह सोचने के लिए मजबूर हो गई थी. कहीं न कहीं उन से बहुत बड़ी गलती हुई थी. पुत्रमोह में कोई इतना अंधा नहीं होता कि बेटी को बिलकुल उपेक्षित कर दे, उस का भविष्य बरबाद कर के उसे नाटकीय जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर कर दे.

अंदर से घुमड़ कर जब उन की आंखों से आंसू बह निकले तो उन की चेतना लौटी. वह लगभग भाग कर कमरे में गई और शिवानी को अपने अंक में भर कर बोली, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दे. मैं तेरी गुनाहगार हूं. यह क्या कर दिया मैं ने तेरे साथ. परंतु अब तू चिंता मत कर, मैं तुझे इस घर से बाजेगाजे के साथ बिदा करूंगी तेरी पसंद के वर के साथ,’’ फिर वह रोने लगी.

शिवानी भी अपनी मां के सीने से लग कर फफक पड़ी. दोनों को ही पता नहीं था कि वे दुख से रो रही थीं कि खुशियों के अतिरेक से. उन्हें बस इतना पता था कि उन के चारों तरफ धवल ज्योत्सना बिखरी पड़ी थी जिस ने सब के मन के कलुष को धो दिया था.

अंतिम प्रहार- भाग 3: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

शिवानी ने मां के सामने बगावत के तेवर अवश्य दिखाए थे परंतु आने वाले दिनों में उस का कुछ असर दिखाई नहीं दे रहा था. सबकुछ पहले की ही तरह चलता रहा. हां, 2 महीने के बाद गौरव की शादी हो गई और शिवानी की छोटी भाभी घर में आ गई.

सहेलियां उसे बीचबीच में उकसाती रहती थीं. वह किसी लड़के से प्यार कर ले. परंतु अब कोई लड़का उस की तरफ आकर्षित ही न होता. उस के मुखमंडल पर गंभीरता के कारण बड़ी उम्र की परिपक्वता झलकने लगी थी. उस के पास भी इतना साहस न था कि स्वयं किसी लड़के या पुरुष को अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास कर सके. वह इतनी संकोची थी कि किसी भी व्यक्ति से बात करते समय उस की जबान जैसे तालू से चिपक जाती थी.

कुछ साल और बीत गए. शिवानी अब 30 की हो चुकी थी. अब वह लड़की कम महिला ज्यादा लगती थी. वह मन ही मन दुखी रहने लगी थी. मम्मी ने तो जैसे ठान लिया था कि उस की शादी तो दूर, शादी की बात भी न करेंगी. इस बीच सहेलियों के उकसाने के बावजूद वह किसी के प्यार में गिरफ्तार न हो सकी. स्कूल में भी कई कुंआरे अध्यापक थे परंतु किसी के साथ उस का टांका न भिड़ सका.

और आज दीप्ति ने ऐसी बात कह दी थी कि वह दुख के अथाह सागर में डूब गई थी. काफी देर तक जब वह कमरे से नहीं निकली, तो मम्मी ने आ कर उसे उठाया, ‘‘अभी तक लेटी हो. रात हो गई. चलो, खाने का प्रबंध करो.’’

शिवानी ने लेटेलेटे ही जवाब दिया, ‘‘मेरा खाने का मन नहीं है. खुद बना लो. बहू से कहो, वह क्या जीवनभर महावर लगा कर बैठी रहेगी?’’ शिवानी के स्वर में तीखा व्यंग्य था. बहू लाखों का दहेज ले कर आई थी, इसलिए मम्मी कभी उसे घर के किसी काम के लिए न कहती थी. शिवानी के रूप में बिना तनख्वाह वाली सीधीसादी गऊ जैसी नौकरानी जो मिली थी. परंतु अब उसे सिधाई का चोला उतार कर चंडी बन कर जीना होगा, कब तक कुढ़ती रहेगी? क्यों नहीं अपने लिए नया रास्ता ढूंढ़ लेती. अभी भी देर नहीं हुई थी.

मां कुड़कुड़ाती हुई चली गई. उस रात शिवानी ने न तो घर का कोई काम किया, न खाना खाया. मां ने भी उस से खाने के लिए नहीं पूछा. डायन मां भी अपने बच्चों से इस तरह की बेरुखी और बेदर्दी नहीं दिखाती, परंतु सुषमा किसी और मिट्टी की बनी थी. कोई मां अपनी बेटी की दुश्मन नहीं होती परंतु कुछ मांएं बेटों के प्यार में अंधी हो कर बेटियों का जीवन बरबाद कर देती हैं. सुषमा बेटे के लिए सारा पैसा बचा कर मरना चाहती थी.

दूसरे दिन सुबह शिवानी बहुत शांत थी. उस ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था. अब कोई दुविधा उस के मन में नहीं थी.

निकिता और संजना ने कहा, ‘‘शिवी, कल तेरे साथ बहुत बुरा हुआ. दीप्ति को तुझ से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी. तू अभी भी शादी कर सकती है.’’

दीप्ति ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा, ‘‘शिवी, मुझे माफ कर दो. मैं ने जो कहा था, मजाक के तौर पर कहा था. परंतु बात इतनी गंभीर हो जाएगी, मैं ने सोचा ही न था. प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भाव नहीं है.’’

‘‘मैं जानती हूं दीप्ति,’’ शिवानी ने मुसकरा कर कहा और उस का हाथ पकड़ कर सहला दिया, ‘‘मैं तो उस बात को भूल चुकी. अब मैं ने कुछ और निर्णय ले लिया है.’’

क्या? के भाव से तीनों ने उस के चेहरे को देखा.

उस ने जवाब दिया, ‘‘अब मैं मां के संरक्षण से बाहर निकल कर अपना स्वतंत्र जीवन जीना चाहती हूं. तुम लोग मेरे लिए एक किराए का कमरा ढूंढ़ दो.’’

‘‘मां, और भाई को बता दिया?’’ संजना ने पूछा.

‘‘नहीं,  मकान मिलने पर बता दूंगी.’’

‘‘घर ढूंढ़ने के बजाय अगर तुम अपने लिए वर ढूंढ़ लो, तो ज्यादा बेहतर होगा,’’ निकिता ने सलाह दी.

‘‘वह भी ढूंढ़ लूंगी तुम मेरी मदद करोगी तो.’’

दीप्ति इतनी देर से कुछ सोच रही थी. अचानक बोली, ‘‘शिवी, मैं एक बात कहूं, परंतु यह न समझना कि मैं फिर से तुम्हारा मजाक उड़ा रही हूं.’’

‘‘तुम बताओ तो सही,’’ निकिता ने उस का उत्साह बढ़ाया.

‘‘मेरी नजर में एक रिश्ता है, परंतु तुम्हें शायद वह अच्छा न लगे.’’

‘‘अच्छा क्यों न लगेगा?’’ संजना ने पूछा.

‘‘क्योंकि वह कुंआरा नहीं है, विधुर है और उस की 5 साल की एक बच्ची भी है.’’

‘‘विधुर और एक बच्ची का बाप,’’ निकिता के मुंह से निकला. उस ने शिवानी को देखा, ‘‘वह शांत थी. संजना भी हैरान थी कि दीप्ति फिर से शिवानी का मजाक बना रही थी. बोली, ‘‘यार, कल भी तुम ने उस का दिल दुखाया था और आज भी…’’

‘‘हां, दीप्ति, शिवी अभी इतनी बूढ़ी नहीं हुई है कि उस के लिए कुंआरा वर न मिले. आज लड़के 30 साल की उम्र के बाद ही शादी करना पसंद करते हैं. प्रयत्न करेंगे तो उस के लिए अच्छा वर मिल जाएगा,’’ निकिता ने कहा.

‘‘वैसे, वह है कौन जिस की तू बात कर रही है?’’ संजना ने जिज्ञासा से पूछा.

दीप्ति का उत्साह मर गया था, फिर भी उस ने बताया, ‘‘मेरा ममेरा भाई है. उस की पत्नी कुछ वर्ष पहले मर गई थी. घर में मातापिता और एक बेटी है. सरकारी नौकरी में है. उम्र ज्यादा नहीं है, 34 या 35 साल. बस, कमी इतनी ही है कि वह विधुर है और एक बच्ची का बाप है.’’

कुछ पलों के लिए सन्नाटा पसरा रहा. फिर निकिता ने कहा, ‘‘रिश्ता तो अच्छा है परंतु क्या शिवानी तैयार होगी? पराई मां की बच्ची को अपना कर उसे मां का प्यार दे सकेगी?’’

‘‘परंतु क्या शिवानी की मां ऐसे रिश्ते के लिए तैयार होगी?’’ संजना ने सवाल खड़ा किया.

‘‘इस की मां जब कुंआरे लड़के के साथ शादी नहीं करा रही है तो वह विधुर के साथ शादी के लिए कैसे मान जाएगी,’’ निकिता ने कहा.

‘‘फिर कैसे होगा?’’ संजना ने भौंहें नचा कर पूछा.

शिवानी सब की बातें गौर से सुन रही थी और मन ही मन कुछ बुन रही थी. उस के दिमाग में विचार बहुत तेजी से दौड़ रहे थे. उसे जल्द ही निर्णय लेना होगा वरना एक दिन वह महिला से बूढ़ी स्त्री में बदल जाएगी, तब उस के हाथ में जीवन के सुखमय पल नहीं, बस, सूखी रेत के रसहीन कण होंगे जो उस की आंखों में सदा किरचों की तरह कसकते रहेंगे.

अब उस की आंखें शिवानी के ऊपर टिकी थीं. शिवानी ने ज्यादा देर उन्हें पसोपेश में नहीं रखा. धीमे से बोली, ‘‘मुझे दीप्ति के कजिन का रिश्ता मंजूर है.’’

सभी हैरान रह गए. शिवानी से ऐसे उत्तर की अपेक्षा किसी ने नहीं की थी. सभी समझ रहे थे वह मना कर देगी. सब से ज्यादा आश्चर्य निकिता और संजना को हुआ, तो सब से ज्यादा खुशी दीप्ति को हुई. परंतु वे तीनों नहीं जानती थीं कि भविष्य में पति और मां की दोगुनी खुशियां जो शिवानी को प्राप्त होने वाली थीं उन के बारे में सोच कर वह अभी से रोमांचित और अभिभूत हो रही थी.

‘‘क्या तुम एक लड़की को मां का प्यार दे सकोगी?’’ निकिता ने पूछा.

‘‘हां,’’ शिवानी ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘अपने जीवन में मुझे मेरी मां से जो उपेक्षित व्यवहार मिला है उस से मैं समझ सकती हूं कि ममता से वंचित लड़की के हृदय पर क्या गुजरती है. मैं अपनी होने वाली बेटी को ऐसा प्यार दूंगी कि लोग मुझे असली मां समझेंगे.’’

‘‘मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ सकती हूं परंतु तुम एक बार फिर से रात में सोच लो. कल बताना,’’ संजना ने सलाह दी. उसे सलाह देने की आदत सी थी.

‘‘नहीं, अब सोचने का वक्त नहीं है. जितनी जल्दी हो सके, मैं मां के नरक से बाहर निकलना चाहती हूं.’’

अंतिम प्रहार- भाग 2: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

‘‘बहन, सच्ची बात कहूं,’’ सुषमा ने नाराजगी के भाव से कहा, ‘‘दूसरों की मैं नहीं जानती परंतु मेरी बेटी बहुत सीधी है. मैं ने उसे ऐसे संस्कार दिए हैं कि मरती मर जाएगी, परंतु गलत काम नहीं करेगी. मजाल है कि राह चलते किसी लड़के की तरफ निगाह उठा कर देख ले.’’

शुभचिंतिका ने मन ही मन सोचा, लगता है सुषमा ने जमाना नहीं देखा है. कितना बदल गया है. लड़कालड़की किस तरह खुलेआम इश्क फरमाते घूम रहे हैं. लगता है समाज में नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएं टूट चुकी हैं. शिवानी कब तक जमाने की बदबूदार हवा से अपनी नाक बंद कर के रखेगी. जवानी की आग जब देह को जलाने लगती है तो बड़ेबड़े संतों की दृढ़ प्रतिज्ञा तिल के समान जल जाती है.

शुभचिंतिका ने सुषमा को आगे समझना उचित नहीं समझ. शिवानी के पास कोई चारा नहीं था. भागदौड़ कर उस ने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली. तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी परंतु घर में बैठने से तो यह बेहतर था कि वह काम कर रही थी. अनुभव प्राप्त कर रही थी. इधर उस ने बीएड का फौर्म भर रखा था. चयन होने पर एक साल की ट्रेनिंग पर चली गई. ट्रेनिंग पूरी होते ही उसे उसी स्कूल में अच्छी तनख्वाह पर अध्यापिका की नौकरी मिल गई.

शिवानी के जीवन में खुशियां थीं परंतु प्यार नहीं. उस का कोई प्रेमी नहीं था. इस की कोई चाहत भी उस के मन में नहीं थी. वह चाहती थी जल्दी से जल्दी विवाह बंधन में बंध जाए. पति के घर चली जाए. फिर उस के जीवन में प्यार और खुशी के अनमोल मोती बरसेंगे.

परंतु मां को जैसे उस के विवाह की कोई चिंता ही नहीं थी. उस के रिश्ते आते, तो अनमने ढंग से बात सुनती और मना कर देती. परंतु बेटे की शादी की चर्चा वह बहुत लगन से करती. कोई रिश्ता आता, तो खोदखोद कर जानकारी लेती. परिवार कैसा है? लड़की सुंदर है? पढ़ीलिखी है और सब से मुख्य बात पूछना न भूलती, दहेज कितना मिलेगा?

जब भी घर में कोई अड़ोसीपड़ोसी या रिश्तेदार आता, केवल गौरव की शादी की बात होती. वह तो जैसे घर की बेटी ही न थी. वह बस एक पैसा कमाने की मशीन और घर का काम करने वाली नौकरानी थी. घर के सारे खर्च भी उसी की तनख्वाह से चलते. बेटा अपने वेतन की एक पाई भी मां के हाथ पर न धरता, न कोई हिसाब देता. बस, अपने शौक पर खर्चा करता या बैंक में जमा करता. मां भी अपनी पैंशन का पैसा कभीकभार ही बैंक से निकालती. शिवानी मां और भाई के होते हुए भी अपने ही घर में एक उपेक्षित सा जीवन व्यतीत कर रही थी.

दहेज के लालच में मां ने गौरव की शादी एक धनी परिवार की लड़की के साथ तय कर दी. पता नहीं सुषमा के मन में क्या था? बड़ी बेटी कुंआरी बैठी थी और उस से 2 साल छोटे भाई की शादी तय कर दी थी क्योंकि अच्छाखासा दहेज ला रही थी. किसी खास ने सवाल किया तो सुषमा का दिल जला देने वाला जवाब था, ‘बेटा दहेज ला रहा है परंतु बेटी दहेज ले कर जाएगी. फिर क्यों न पहले बेटे की शादी करूं?’

शिवानी के दिल को बहुत चोट पहुंची. पहले वह घर की बातें किसी से नहीं कहती थी परंतु ये सारी बातें उस ने अपनी सहेलियों से कहीं, तो निकिता ने कहा, ‘यार, समझ में नहीं आता तुम्हारी मां सगी है कि सौतेली. अरे, सौतेली मां भी बहुत अच्छी होती है. समझना बहुत मुश्किल है कि वह तुम्हारी शादी के खिलाफ क्यों है?’

‘मुझे तो लगता है, या तो इस का भाई बहुत होशियार है या इस की मां बहुत लोभी और लालची जो बेटे के विवाह में लेना तो जानती है और बेटी के विवाह में कुछ भी खर्च नहीं करना चाहती,’ संजना ने कहा. ‘तुम्हारा भाई अपना बैंक बैलैंस बढ़ा रहा है. मां अपना पैसा खर्च नहीं कर रही है. शिवानी, तुम बहुत बड़ी बेवकूफ हो. कल तुम्हारी भाभी घर में आएगी, तो पूरे घर में उस का राज होगा. तुम्हारी हैसियत एक नौकरानी से भी बदतर हो जाएगी. मेरी सलाह मानो, तुरंत बैंक में अपना खाता खोल लो और बुरे दिनों के लिए कुछ बचा कर रखो.’ निकिता ने उसे उचित सलाह दी.

तभी दीप्ति ने कहा, ‘और मेरी मानो, तो यह सतीसावित्री का चोला उतार कर फेंक दो. आज के जमाने में नैतिकता, मर्यादा और पारिवारिक संस्कारों का आडंबर ओढ़ कर जीने से जीवन बहुत कठिन हो जाता है, खासकर, जब सगी मां और भाई तुम्हारे जीवन को बरबाद करने में जुटे हों. ऐसी स्थिति में तुम्हें स्वयं अपना रास्ता तलाश करना होगा. किसी लड़के को पसंद कर के उस के साथ घर बसा लो, वरना उम्र निकलने के बाद पछताने के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा.’

दीप्ति की बात बहुत सही थी. सब ने उस की बात से सहमति जताई.

सब से पहला काम उस ने यह किया कि बैंक में खाता खोल लिया. अगले महीने जब उस ने मां के हाथ पर पैसे नहीं रखे तो मां ने कड़े स्वर में पूछा, ‘शिवानी, तनख्वाह नहीं मिली क्या?’

‘मिली है, परंतु बैंक में है,’ शिवानी ने भी जोर से जवाब दिया. अब दब कर रहने से क्या हासिल होने वाला था.

‘बैंक में, क्या?’

‘क्योंकि अब तनख्वाह सीधे बैंक खाते में आने लगी है,’ उस ने बिना घबराए जवाब दिया.

‘तो कल निकाल कर ले आना, राशन भरवाना है.’

‘मम्मी, घर में भाई भी है, वह मुझ से ज्यादा तनख्वाह पाता है. आप की पैंशन भी कम नहीं है. फिर घर चलाने की जिम्मेदारी मेरी ही क्यों? आप दोनों अपना पैसा क्या ऊपर वाले के घर ले कर जाएंगी,’ शिवानी ने गुस्से में कहा.

शिवानी की बात सुन कर मां सन्न रह गईं. उन की गाय जैसी बेटी मरखनी कैसे हो गई थी. यह उस की सहेलियों के समझने का असर था. परंतु मां की समझ में नहीं आया. उन्होंने कांपती आवाज में पूछा, ‘यह कैसी बातें कर रही है तू? क्या तू इस घर की सदस्य नहीं है? मेरी बेटी नहीं है?’

‘आप ने मुझे अपनी बेटी माना ही कहां है? जब से होश संभाला है, गौरव को तरजीह दी जा रही है. मुझ से 2 साल छोटा है, परंतु शादी आप उस की पहले कर रही हैं. ध्यान रखना, कहीं आप के संस्कार धूल में न मिल जाएं?’

‘क्या मतलब है तेरा?’

‘मतलब आप अच्छी तरह समझती हैं. कोई भी लड़की जीवनभर अनुचित अनुशासन और बंधन को स्वीकार नहीं कर सकती. एक न एक दिन वह बंधन तोड़ कर बरसात के पानी की तरह बह जाएगी, तब आप पारिवारिक मर्यादा का ढोल पीटती रहना.’

मां की बोलती बंद हो गई.

शिवानी बेचारी आज कितनी हिम्मत से इतना सब बोल पाई थी वरना तो उस के मुंह में जैसे जबान ही न थी. उस की सहेलियों ने उसे खूब सिखायापढ़ाया था. मां से खुल कर बात करने के लिए कहा था. तभी आज वह इतना कुछ बोल पाई थी. परंतु अब डर रही थी कि मां का पता नहीं कौन सा रूप देखने को मिले. परंतु मां ने भी उस से कोई बात नहीं की और कई दिनों तक सामान्य व्यवहार किया. शायद उन के मन में भी डर बैठ गया था कि शिवानी कोई गलत कदम न उठा ले और परिवार की मर्यादा तोड़ कर किसी लड़के के साथ भाग न जाए.

अमीरी का डर- भाग 3: खाई अंतर्मन की

वैशाली बड़ी मुश्किल से उठ कर बैठी, ट्रे पर नजर डाली, वहीं अपने पास बैठे बेटे से नजर मिली तो वह दिल खोल कर हंसा, ‘‘लो मां, अपनी बहू का पहली बार बनाया नाश्ता करो.’’

एक कप चाय और एक प्लेट में मैगी देख कर वैशाली मुसकराते हुए बोली, “मैगी, तुम्हें आती है बनानी?’’

अंजलि ने गर्व से बताया, ‘‘वो मम्मा, हम सब फ्रैंड्स कभी एकसाथ स्लीपओवर के लिए किसी के घर रुकते थे, तो रात में मैगी बना कर खाते थे.’’

विपिन ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मां, किसी बहू ने अपनी सास को पहली बार मैगी खिलाई होगी?’’

वैशाली ने प्यार से बेटे को डांटा, “तुम चुप रहो. और अंजलि, यह तुम्हारे लिए आज पहली बार कुछ बनाने का शगुन,” कह कर अपने पर्स से 2,000 के 2 नोट निकाल कर अंजलि के हाथ पर रखे, तो अंजलि ने झट से वैशाली को उस पर ढेर सा प्यार आया और फिर वह मैगी खाने लगी.

विपिन ने महेश को फोन पर आज की घटना के बारे में बता दिया था. वैशाली को दवाई खिलाते हुए विपिन ने कहा, ‘‘आप अब लेट जाओ, मां.’’

‘‘बेटा, नीता से उस की मेड के बारे में पूछ आओ, किसी को तो काम के लिए बुलाना ही होगा, मैं ठीक थी तो किसी तरह कर ही लेती लतिका के बिना, अभी तो हिलने में भी दर्द है.’’

‘‘नहीं मम्मा, मैं कर लूंगी,’’ वैशाली की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘क्या है यह लड़की, कभी कुछ नहीं किया, कुछ आता नहीं, क्या करेगी, क्या सोचेंगे इस के मांबाप, कैसा ससुराल है उन की राजकुमारी जैसी बेटी का…’

विपिन ने कहा, ‘‘मैं टिफिन सर्विस वाले को फोन कर देता हूं, सुबहशाम टिफिन आ जाएंगे, प्रौब्लम नहीं होगी.’’

‘‘तुम तो कह रहे थे कि मम्मा को बाहर के खाने से एसिडिटी हो जाती है, नहीं, कोई जरूरत नहीं है, मैं कर लूंगी.’’

अपने बेटे की पसंद को वैशाली निहारती रह गई, अंजलि बोली, ‘‘मम्मा, बस आप लेटेलेटे मुझे बता देना कि कैसे क्या करना है.’’

शायद दवार्ई से वैशाली की गहरी आंख लगी, दोपहर को अंजलि ने उठाया, ‘‘मम्मा, खाना.’’

वैशाली ने चौंक कर आंखें खोली, “अरे, मैं तो बहुत गहरी नींद सो गई आज.”

‘‘मम्मा, दर्द कुछ कम हुआ?’’

‘‘अभी तो है,’’ अंजलि ने सहारा दे कर वैशाली को बैठाया, विपिन भी वहीं प्लेट ले कर आ गया और तीनों का खाना लगा दिया, टेढ़ेमेढ़े, मोटेमोटे परांठे और अचार, मन भर आया वैशाली का, उस की आंखें भर आईं, बेचारी नाजुक सी लड़की कैसे हर स्थिति को संभालने की कोशिश में लगी है सुबह से, विपिन ने मां की भोगी आंखें देखी तो मां के मनोभाव समझ गया.

तीनों ने खाना खाया, वैशाली ने अंजलि को उस की मेहनत के लिए बहुत शाबाशी दी. शाम को महेश भी जल्दी आ गए. वैशाली ने उन्हें दिनभर के हाल बताए तो वे मुसकरा दिए. अंजलि उन के लिए चाय और सैंडविच लाई, तो खुश होते हुए उन्होंने भी अंजलि को 2,000 का नोट देते हुए कहा, ‘‘लो बेटा, पहली बार अपनी बहू के हाथ का बना खा रहा हूं, सुखी रहो.’’

अंजलि को आज अपने ऊपर बहुत गर्व हो रहा था, चहकते हुए वह बोली, ‘‘थैंक्यू पापा, मैं ने तो डिनर भी सोच लिया है.’’

महेश बोले, ‘‘क्या बनाओगी बेटा?’’

‘‘चावल का अंदाजा मम्मा लेटेलेटे बता देंगी, विपिन ने बताया था कि दाल उन्हें आती है बनानी और रोटी मैं ट्राई कर लूंगी. जैसे परांठे बनाए थे मैं ने, सलाद विपिन काट लेंगे, आटा फूड प्रोसैसर में सुबह ही मैं ने ज्यादा गूंध लिया था.’’

सभी उस की प्लानिंग पर जोर से हंस पड़े. महेश हंसने लगे, ‘‘वाह बेटा, बहू ने तो हमारे घर में रौनक कर दी है, सब को काम पर लगा दिया है.’’

तीनों ने मिल कर खाना बनाया. वैशाली के बेड पर ही सब अपनीअपनी प्लेट ले कर आ गए, सब ने खाना साथ बैठ कर मन से खाया, महेश और वैशाली की नजरें मिली, दोनों को लगा कि उन टेढ़ीमेढ़ी रोटियों का स्वाद कभी भूलने वाला नहीं था, दोनों के दिल में अपनी बहू के लिए अपार स्नेह उमड़ता रहा. अंजलि ने कहा, ‘‘विपिन, आप कल से औफिस ज्वाइन कर लो, आप और पापा कल से लंच कैंटीन में कर लेना, क्योंकि मेरी बनाई रोटी तो टिफिन में चलेंगी नहीं,’’ कह कर वह खुद ही हंस पड़ी, फिर बोली, ‘‘मैं और मम्मा कुछ भी खा लेंगे, फिर डिनर सब साथ में करेंगे. आप और पापा शाम को जल्दी घर आ जाना मेरी हेल्प के लिए.’’

सब बहुत जोर से हंसे उस की स्पष्टवादिता पर, वैशाली को उस का साफसाफ बात करने का सरल ढंग बहुत ही भाया, न कोई दिखावा और न लागलपेट, एकदम साफ और अच्छी बात.

अगले दिन सुबह 6 बजे ही अंजलि उठ गई. नहाधो कर वह किचन में गई. महेश और विपिन को सैंडविच दिए नाश्ते में, दोनों के जाने के बाद अंजलि ने कपड़े बदल लिए, टीशर्ट और कैपरी पहनी, झाड़ू लगाई और वैशाली के मना करने पर भी डंडे वाला पोंछा उठा कर घर में पोंछा लगाने लगी. इतने में डोरबेल हुई, अंजलि ने दरवाजा खोला. सामने उस के मम्मीपापा खड़े थे.

अंजलि ने उन्हें रात में ही वैशाली की स्लिपडिस्क के बारे में बताया था. गोयल दंपती एकटक अपनी बेटी को देख रहे थे, टीशर्ट, कैपरी, कंधे पर डस्टिंग वाला तौलिया और हाथ में पोंछे वाला डंडा, माथे पर पसीना, वैशाली को शर्म आई, क्या सोचेंगे ये लोग, अंजलि के मुख पर छाया उत्साह और भोली सी चमक निहारती राधा ने बेटी को खूब प्यार किया. वैशाली ने संकोच के साथ मेड के जाने के बारे में बताया, तो अनिल ने कहा, ‘‘आप कहें तो हम अपने एक कुक को कुछ दिनों के लिए यहां भेज दें.’’

‘‘नहीं पापा, आई विल मैनेज, डोंट वरी, मजा आ रहा है मुझे,’’ जब अंजलि ने चहकते हुए कहा, तो गोयल दंपती भी मुसकरा दिए. वैशाली की कुशलक्षेम और थोड़ी बातचीत के साथ अंजलि की बनाई हुई चाय पी कर बेटी को आशीर्वाद देते हुए चले गए. अपने मातापिता के लाए हुए फल और ड्राईफ्रूट्स निकाल कर अंजलि जबरदस्ती वैशाली को खिलाने लगी और फिर काम में लग गई.

अब रोज का यही क्रम था. अंजलि अनभ्यस्त हाथों से घर का हर काम हंसीखुशी संभालती रही. वैशाली को कुछ आराम हुआ, तो वह भी चलतीफिरती हलकेफुलके काम निबटाती रही. 10 दिन बीत चुके थे, एक सुबह वैशाली की आंख बहुत जल्दी खुल गई. वह फ्रेश होकर किचन में गई, तो किचन की खटपट सुन अंजलि आंख मलती हुई आई, उन का हाथ पकड़ कर सोफे पर बैठा कर बोली, ‘‘नहीं मम्मा, अभी आप कुछ नहीं करेंगी. मैं फ्रेश हो कर आप के लिए चाय लाती हूं…

“ओह, मैं तो भूल ही गई, ‘गुड मार्निंग मम्मा’,” कहते हुए वैशाली के पैर हुए, तो वैशाली ने उसे गले से लगा लिया. उस के अंतःकरण से बहू के भावी जीवन के लिए आशीर्वादों के फूल बरस रहे थे. इतने दिनों से मन में बसा बहू की अमीरी का डर जो गायब हो चुका था.

अंतिम प्रहार- भाग 1: क्या शिवानी के जीवन में आया प्यार

उस की सहकर्मी दीप्ति के शब्द उस के कानों में अभी तक गूंज रहे थे, ‘अब क्या करेगी यह शादी? सिर के बाल चांदी होने लगे. 30 को पार कर गई. यह शादी की उम्र थोड़ी है.’

लंच का समय था. स्कूल की सभी अध्यापिकाएं साथ में बैठ कर खाना खा रही थीं. सब एकदोचार के गु्रप में बंटी हुई थीं. शिवानी अपनी 3 सहेलियों के साथ एक गु्रप में थी. औरतों की जैसी आदत होती है, खाते समय भी चुप नहीं रह सकतीं. सभी बातें कर रही थीं. अपनी क्लास के बच्चों से ले कर पिं्रसिपल व सहकर्मी अध्यापिकाओं तक की, घर से ले कर पति, बच्चों और सास तक की बातें कर रही थीं. अंत में हमेशा की तरह बात घूम कर शिवानी के ऊपर आ कर टिक गई.

निकिता ने कहा, ‘‘शिवानी, तू कुछ नहीं बोल रही है?’’‘‘क्या बोले बेचारी? शादी तो की नहीं. न बच्चा, न पति, न सासननद. किस की बुराई करे बेचारी. पता नहीं कब करेगी शादी? उम्र तो निकली जा रही है,’’ संजना ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा.

तभी दीप्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था, ‘अब क्या करेगी यह शादी…’ उस के ये वाक्य शिवानी के कानों में गरम लोहे की तरह घुसते चले गए थे. पहले ही कम बोलती थी. दीप्ति के वाक्यों ने तो उस के हृदय पर पत्थर रख कर मुंह पर ताला जड़ दिया था. उस के मुख पर हजार रेगिस्तानों की सी वीरानी और गरम धूल की परतें जम गई थीं. आंखें जड़ हो कर बस खाने की प्लेट पर जड़ हो गई थीं. दीप्ति की बात पर निकिता और संजना भी हैरान रह गई थीं. उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी. शिवानी की अभी तक शादी नहीं हुई थी, तो उस में उस का क्या दोष था. सब की अपनीअपनी मजबूरियां होती हैं, शिवानी की भी थी. तभी तो अब तक उस की शादी नहीं हो पाई थी.

वे चारों हमउम्र थीं, सहकर्मी थीं. परंतु उन में अकेली शिवानी ही अविवाहिता थी. बाकी तीनों न केवल शादीशुदा थीं बल्कि तीनों के बच्चे भी थे. उन के बीच घरपरिवार और शादी को ले कर बातें होती ही रहती थीं. सभी शिवानी को शादी करने की सलाह देती रहती थीं परंतु इतनी तल्ख बात आज से पहले कभी किसी ने नहीं कही थी.

शिवानी अंतर्मुखी स्वभाव की थी. कम बोलती थी. अपना दुखदर्द भी किसी से नहीं बांटती थी. उस दिन भी दीप्ति की तल्ख बात का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. परंतु उस का दिमाग सनसना गया था. क्या अब उस की शादी नहीं होगी? क्या वह बूढ़ी हो गई थी? बाल पकना क्या बुढ़ापे की निशानी है?

आज तक उस ने किसी लड़के से दोस्ती नहीं की, प्रेम करना तो बहुत दूर की बात थी. पारिवारिक संस्कारों और अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह लड़कों से खुल कर बात नहीं कर पाई. वह सुंदर थी. कई लड़के उस के जीवन में आए, उस से प्रेम निवेदन भी किया, उस ने उन का प्यार स्वीकार भी किया, परंतु जब लड़के एक सीमा से आगे बढ़ कर उसे बिस्तर पर लिटाना चाहते, वह भाग खड़ी होती. ‘यह सब शादी के बाद,’ वह कहती, तो लड़के उसे घमंडी, दकियानूसी और बेवकूफ लड़की समझ कर छोड़ देते.

लिहाजा, 30 वर्ष की उम्र तक उस का कोई स्थायी बौयफ्रैंड न बन सका, जिस के साथ वह घर बसाने की बात सोच सकती. अब तो कमउम्र के लड़के उस से दूर भागने लगे थे और उस की उम्र के दायरे वाले आदमी शादीशुदा थे. मां भी उस की शादी के बारे में नहीं सोचती थी. इस में मां का दोष नहीं था. वह डरती थी कि शादी के बाद शिवानी जब अपने घर चली जाएगी तो वह किस के सहारे जीवन व्यतीत करेगी. उन की जीविका का कोई साधन नहीं था. जबकि उन का लड़का था और उस की पत्नी थी. दोनों मां के साथ पुश्तैनी घर में रहते थे. उस के भाई को पिता की जगह पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी भी मिली हुई थी. पिता के घर में मां के साथ रहता था परंतु अपनी तनख्वाह का एक पैसा भी मां को नहीं देता था. मां का गुजारा उन की पैंशन और शिवानी की कमाई से चलता था. एक ही घर में 2 परिवार रहते थे. मांबेटी और बेटाबहू. कैसी विडंबना थी?

मां किस तरह बेटी के साथ भेद करती है और बेटे को महत्त्व देती है, यह पहली बार शिवानी को तब पता चला जब उस के पिता की मृत्यु हुई. वह सरकारी सेवा में गु्रप बी औफिसर थे और सेवानिवृत्ति के पहले ही उन की मृत्यु हो गई थी. ग्रैच्युटी,  इंश्योरैंस, जीपीएफ आदि का कुल 20 लाख के लगभग मिला था. सारा पैसा मां ने एमआईएस (मंथली इंकम स्कीम) में डाल दिया था. 20 हजार के लगभग मां की पैंशन बंधी थी. कम नहीं थे.

बाप की जगह पर जब अनुकंपा के आधार पर नौकरी की बात आई, तो सब ने यही सलाह दी कि बेटी शिवानी यह नौकरी कर लेगी. वह 22 साल की थी और ग्रेजुएट थी. आसानी से उसे गु्रप ‘सी’ की नौकरी मिल जाती और उस का भविष्य संवर जाता. भाई छोटा था और उस का ग्रेजुएशन भी पूरा होने में एक साल बाकी था. ग्रेजुएशन के बाद भविष्य में वह कोई अच्छी नौकरी पा सकता था.

सब की बातें सुनने के बाद मां ने अपना निर्णय सुनाया, ‘‘बेटी बाप की जगह नौकरी करेगी तो हमें क्या मिलेगा? एक दिन वह शादी कर के ससुराल चली जाएगी. उस की तनख्वाह ससुराल वालों को जाएगी. बेटे को पढ़लिख कर भी नौकरी नहीं मिली तो उस का क्या होगा? सो, नौकरी बेटा ही करेगा, चाहे जो हो जाए.’’

लोगों ने बहुत समझया परंतु मां अपने निर्णय से नहीं डिगी. विभाग में आवेदन किया तो उन्होंने बेटे की कम उम्र और शिक्षा को ले कर प्रश्न खड़े कर दिए. मां ने बड़े अधिकारी से मिल कर बात की, तो उन्होंने रास्ता सुझया कि वे बेटे के ग्रेजुएशन तक इंतजार कर सकते थे. लिहाजा, मामला एक साल तक अधर में लटका रहा. जब गौरव का ग्रेजुएशन हो गया और वह 21 साल का हो गया, तो उसे पिता के स्थान पर नौकरी मिल गई.

सबकुछ व्यस्थित हो गया तो एक पारिवारिक महिला शुभचिंतका ने शिवानी की मम्मी सुषमा को सलाह दी, ‘‘सुषमा बहन, बेटे को नौकरी मिल गई है. आप को पैंशन मिल रही है. बेटी ग्रेजुएशन कर के घर में बैठी है. अब उस की शादी कर दो.’’

सुषमा को शुभचिंतका की बात नागवार गुजरी, गहरी उसांस ले कर कहा, ‘‘अभी कहां से कर दें. बेटे की अभीअभी नौकरी लगी है. कुछ जमापूंजी हो तो करें.’’शुभचिंतिका ने हैरानी से कहा, ‘‘क्या बात करती हो बहन. पति का पैसा कहां चला गया?’’

‘‘उस को बेटी की शादी में खर्च कर देंगे तो बुढ़ापे में मुझे कौन पूछेगा. बेटा और बेटी दोनों की शादी करनी है परंतु बेटा कुछ कमा कर जोड़ ले तो सोचूंगी. तब तक बेटी भी कोई न कोई नौकरी कर लेगी. आज के जमाने में एक आदमी की कमाई से घर कहां चलता है.’’

‘‘बात तो ठीक है परंतु जवान बेटी समय पर घर से विदा हो जाए तो मां की सारी चिंताएं खत्म हो जाती हैं. वरना हर समय लांछन का दाग लगने का भय सताता रहता है.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें