महेंद्र का आपरेशन डा. खांडेपारकर के हाथों सफलता से संपन्न हुआ. महेंद्र के हृदय के दाएं हिस्से का शुद्ध रक्त बाहर ले जाने वाली नलिका में रुकावट पैदा हो गई थी जिसे दूर करने के लिए पहली बार और कमजोर पड़ गए वाल्व को ठीक करने के लिए दूसरी बार सर्जरी की गई. आपरेशन के कुछ दिन बाद जब उसे डिस्चार्ज किया गया तब हम उसे टैक्सी से घर तक ले गए. उस दिन सारे महल्ले वालों ने रश्मि का इतना शानदार स्वागत किया कि जिस का वर्णन शब्दों में करने के लिए शब्दकोष के सारे अच्छे शब्द भी शायद कम पड़ें. उस दिन का नजारा मेरे लिए एक कभी न भूलने वाला अनुभव बन गया. मुझे लगा मैं ने अपने समय का सब से बेहतरीन उपयोग उस दिन किया.
लेकिन रश्मि की यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. घर आने के 10 दिन बाद ही महेंद्र को अचानक पैरों की तकलीफ शुरू हो गई. वह दिनरात पीड़ा से कराहता रहता. उस का बदन बुखार से तपता रहता और दर्द असहनीय होने पर वह तड़प उठता. रश्मि तब बिना समय गंवाए महेंद्र को के.ई.एम. ले गई जहां उसे फिर भरती किया गया और शुरू हुआ एक नया सिलसिला…ब्लड कल्चर, हड्डियों का एक्सरे, एम.आर.आई., सोनोग्राफी और न जाने क्याक्या.
एक्सरे और एम.आर.आई. की रिपोर्ट से पता चला कि महेंद्र को बोन टी.बी. है. उसे ठीक करने के लिए ढेरों रुपए और एक लंबे समय की जरूरत है. पिछले 8 महीने से यही भागदौड़ चली आ रही है. इस दौरान रश्मि के हिस्से में बेहिसाब तकलीफें आईं तो मैं ने उसे समझाया कि देखो रश्मि, तुम महेंद्र के लिए जितना कर सकती थीं, किया, अब तुम इस मामले से बाहर निकल जाओ, प्लीज…
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‘‘दीदी, प्लीज,’’ वह लगभग चीख उठी, ‘‘जब परिवार का एक सदस्य गंभीर रूप से बीमार होता है तब उस के साथसाथ घर के दूसरे सदस्यों का जीवन किस हद तक बिखर जाता है इस का एहसास आप को है? महेंद्र की बड़ी बहन आरती पढ़ना चाहती है लेकिन उस ने पढ़ाई छोड़ कर अपनी किशोरावस्था को गृहस्थी की आग में झोंक दिया. सब से छोटी बहन नीलम की आंखें आप ने नहीं देखीं न? लेकिन मैं ने उस की आंखों में बसे सतरंगी सपनों को राख में बदलते देखा है. तीनों बहनें हर पल अपनी जिंदगी के साथ समझौता करती हुई जीए जा रही हैं. उन का क्या भविष्य? ‘‘नहीं, दीदी, मैं अगर अपने हाथ खींच लूं तो उन की मदद कौन करेगा? कहां से लाएंगे वे इलाज के लिए इतना सारा पैसा?’’
उस दिन वह बेहद व्यथित थी. वह जैसे जिंदगी की जंग हार गई थी. अपनी मजबूरी में फंसी वह, अब क्या होगा, सोच कर चिंतित हो उठी थी. ‘‘दिव्येशजी, कैसे हैं आप?’’ ज्यों ही उन्होंने दरवाजा खोला मैं ने मुसकराते हुए पूछा.
‘‘मैं ठीक हूं. आप बैठिए, मैं रश्मि को जगाता हूं. वह अभीअभी सोई है.’’ ‘‘नहीं, आप उसे सोने दीजिए. कैसी है अब उस की तबीयत?’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए चिंतित लहजे में पूछा.
‘‘आज ठीक है. 2 दिन से वह बुखार से तड़प रही थी. न जाने अचानक उसे क्या हो गया? वह डाक्टर के पास इलाज भी नहीं करवाना चाहती. उस की वजह से मैं भी 2 दिन से घर पर हूं.’’ मैं उन्हें देखती रह गई कि क्या वाकई में कोई पति अपनी पत्नी से इस कदर मोहब्बत करता होगा?
दिव्येशजी ने गरम कौफी का प्याला मुझे देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, मेरी रश्मि कुछ अलग ही मिट्टी की बनी है. उस के भोलेपन एवं निर्दोषिता ने ही मुझे उस की ओर आकर्षित किया था. हम ने प्रेम विवाह किया था. शुरुआत का हमारा जीवन काफी संघर्षमय रहा. उस का आर्थिक एवं भावनात्मक सहारा पा कर ही मैं अपना पारिवारिक जीवन स्थिर कर पाया हूं?
‘‘नौकरी और घर की जिम्मेदारियां, बच्चों की पढ़ाई तीनों मोर्चों पर वह बिना थकेहारे लड़ती रही. अब जा कर हमारा जीवन स्थिर हो पाया है. हमारे दोनों बच्चे अपना उज्ज्वल कैरियर बनाने के लायक बने, सब रश्मि की बदौलत…’’ मैं स्तब्ध हो कर उन की बातें सुनती रही.
‘‘वर्षाजी, सच कहूं तो आदित्य की विदेश शिक्षा को ले कर हम ने बैंक से 15 लाख का कर्ज न लिया होता तो महेंद्र के आपरेशन को ले कर रश्मि को इधरउधर भटकना न पड़ता…काश, 2 साल पहले वह हमें मिला होता,’’ फिर थोड़ा रुक कर वे बोले, ‘‘रश्मि को तो आटेदाल का भाव तक नहीं मालूम. सच तो यह है कि मैं ने उसे बाजार के धक्के न खाने की हिदायत दे रखी है. मैं नहीं चाहता कि धूप में बाजार के चक्कर काट कर वह अपनी सेहत खराब करे.’’
सच ही तो कहते हैं दिव्येशजी. दोपहर की कड़ी धूप में उस की गौर त्वचा ताम्रवर्ण हो जाती है. तब मैं उसे ‘लाली लाली’ कह कर चिढ़ाती हूं और वह खिलखिला कर हंस पड़ती है. तब उसे देख कर भी मेरे मन में खयाल आ जाता है, ‘काश, मिहिर की एक बहन भी होती, रश्मि जैसी…’ ‘‘कहां खो गईं आप? क्या नीरज भाई की याद सताने लगी?’’ वह मेरे कान के पास आ कर फुसफुसाई तब मुझे होश आया.
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‘‘मेरे दोनों दुश्मन साथ बैठ कर, मेरे खिलाफ किस जंग की तैयारी कर रहे हैं?’’ उस के होंठों पर शरारत भरी मुसकान उभर आई. ‘‘हां, हम दोनों रश्मिपुराण पढ़ रहे थे,’’ मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा.
‘‘जहे नसीब, हम इतने, महान कब से बन गए कि हमारे नाम का पुराण बन गया और हमें पता तक न चला?’’ वह नाटकीय अंदाज में बोली. ‘‘रश्मि, बस, अब बहुत हो चुका. इस से ज्यादा कुरबानी मैं तुझे नहीं देने दूंगी क्योंकि अब उन की मदद करने की न तो तुझ में सामर्थ्य ही रही है और न ही तुझे समझाने की शक्ति मुझ में रही.’’
‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते. जब तक दिल में हौसला है और हाथों में दम, मैं उस की मदद करती रहूंगी और आप ने शायद यह सुना भी हो कि प्रार्थना में उठने वाले हाथ से ज्यादा मदद में उठने वाले हाथ महत्त्वपूर्ण होते हैं.’’ एक दिन रश्मि आई तो मुझे उस सुनार के बारे में याद दिलाने लगी जिस की दुकान से मैं ने स्नेह के बेटे के लिए एक बे्रसलेट और स्नेह के लिए एक जोड़ी बाली बनवाई थीं.
रश्मि अपने कुछ जेवर ले कर आई थी और चाहती थी कि उन गहनों को बेच कर मैं उसे कुछ पैसे ला दूं. ‘‘दीदी, प्लीज, आप मना करेंगी तो मैं कहां जाऊंगी? मैं किसी को जानती भी तो नहीं.’’
‘‘तो क्या हुआ? मैं क्यों करूं तुम्हारा यह काम? क्या दिव्येशजी यह जानते हैं?’’ उस ने अपनी पलकें झुका दीं. ‘‘नहीं, और आप उन से कहेंगी भी नहीं, आप को मेरी कसम,’’ और उस ने मेरा दायां हाथ उठा कर अचानक अपने सिर पर रख दिया.
‘‘रश्मि, यह सब गलत हो रहा है और गलत काम में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकती.’’ ‘‘दीदी, प्लीज, आखिरी बार.’’
आखिर उस की जिद के सामने मैं ने घुटने टेक दिए. अपने ज्वैलर्स के पास से 15 हजार रुपए ले कर जब मैं ने उस के हाथ में थमाए तो वह फूल सी खिल उठी, पर मेरा हृदय मुरझा गया. उन पैसों से वह महेंद्र के इलाज, दवाइयां, इंजेक्शन, हेल्थड्रिंक आदि तथा अस्पताल में रहते हुए उस के मम्मीपापा के लिए खाना लाने के लिए खर्च करती रही. आखिरकार, महेंद्र ठीक हो कर घर आ गया. पहले से वह बेहतर था. उस की जान पर मंडराता हुआ खतरा टल गया था. अपने सहकार की ज्योति जला कर रश्मि ने महेंद्र की बुझती हुई जीवन ज्योति को पुन: प्रज्वलित करने का एक अद्भुत प्रयास किया जिसे डा. पांडे तथा डा. दलवी जैसी कई सिद्ध हस्तियों ने सराहा. उस ने मेरे मन में दबी नेकी की उदात्त भावना को भी तो बखूबी उजागर किया. उस की ज्येति में मैं ने अपनी ज्योति को भी शामिल कर लिया. ज्योति से ज्योति जलाने का सिलसिला आगे भी चलता रहे, यही मेरी कामना है.
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