Raksha Bandhan 2024 – क्या खोया क्या पाया : क्या वापस पा सकी संध्या

इस बार जब मैं मायके गई तब अजीब सा सुखद एहसास हुआ मुझे. मेरे बीमार पिता के पास मेरी इकलौती मौसी बैठी थीं. वह मुझे देख कर खुश हुईं और मैं उन्हें देख कर हैरान.

यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले 18 साल से हमारा उन से अबोला चल रहा था. किन्हीं कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे परिवार वालों ने और चुप होतेहोते बस चुप ही हो गए थे.

जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, हम ने अकेले रह कर भोगे थे. उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे. मौसा की मौत का समाचार मिला तो मैं आई थी. पराए लोगों की तरह बैठी रही थी, सांत्वना के दो शब्द मेरे मुंह से भी नहीं निकले थे और मौसी ने भी मेरे साथ कोई बात नहीं की थी.

मौसी से मुझे बहुत प्यार था. अपनी मां से ज्यादा प्रिय थीं मौसी मुझे. पता नहीं स्नेह के तार क्यों और कैसे टूट गए थे जिन्हें जोड़ने का प्रयास यदि एक ने किया तब दूसरे ने स्वीकार नहीं किया था और यदि दूसरे ने किया तो पहले की प्रतिक्रिया ठंडी रही थी.

‘‘कैसी हो, संध्या? बच्चे साथ नहीं आए?’’ मौसी के स्वर में मिठास थी और बालों में सफेदी. 18 सालों में कितनी बदल गई थीं मौसी. सफेद साड़ी और उन का सूना माथा मेरे मन को चुभा था.

‘‘दिनेशजी साथ नहीं आए, अकेली आई हो?’’ मेरे पति के बारे में पूछा था मौसी ने. लगातार एक के बाद एक सवाल करती जा रही थीं मौसी. मेरी आवाज नहीं निकल रही थी. हलक  में 18 साल के वियोग का गोला जो अटक गया था. एकाएक मौसी से लिपट कर मैं चीखचीख कर रो पड़ी थी.

‘‘पगली, रोते नहीं. देख, चुप हो जा संध्या,’’ इस तरह बड़े स्नेह से मौसी दुलारती रही थीं मुझे.

कितने ही अधिकार, जो कभी मुझे मौसी और मौसी के परिवार पर थे, अपना सिर उठाने लगे थे, मानो पूछना चाह रहे हों कि क्यों उचित समय पर हमारा सम्मान नहीं किया गया पर यह भी तो एक कड़वा सच है न कि प्यार तथा अधिकार कोई वस्तु नहीं हैं जिन्हें हाथ बढ़ा कर किसी के हाथ से छीन लिया जाए. यह तो एक सहज भावना है जिसे बस महसूस किया जा सकता है.

‘‘बच्चे साथ नहीं आए, किस के पास छोड़ आई है उन्हें?’’ मौसी के इस प्रश्न पर मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

‘‘वे अब मेरी उंगली पकड़ कर नहीं चलते, मौसी. होस्टल में रह कर पढ़ते हैं.’’

‘‘अच्छा, इतने बड़े हो गए.’’

‘‘आप  भी तो बूढ़ी हो गईं, और मेरे भी बाल देखो, अब सफेद हो रहे हैं.’’

‘‘हां,’’ कह कर मेरा गाल थपक दिया मौसी ने.

‘‘जीवन ही बीत गया अब तो…चल, आ, बैठ…मैं तेरे लिए चायनाश्ता लाती हूं. दीदी दवा लेने बाजार गई हैं.’’

‘‘छोटी भाभी कहां हैं?’’ मैं ने आगेपीछे नजरें दौड़ाई थीं.

‘‘आज उस के मायके में कोई फंक्शन था, इसलिए वह वहां गई है. घर में अकेले थे सो मैं भी चली आई. चल, हाथमुंह धो ले…मैं देखती हूं, क्या है फ्रिज में,’’ यह कह कर मौसी चली गईं.

5-7 मिनट में ही मौसी मेरे लिए चाय और नाश्ता ले कर आईर्ं.

‘‘ले, डबलरोटी के पकौड़े तुझे बहुत पसंद हैं न, मुझे याद है…साथ है यह मीठी डबलरोटी…यह भी तेरी पसंद की ही है.’’

मौसी का उत्साह वही वर्षों पुराने वाला ही था, यह देख कर आंखें भर आई थीं मेरी. मुसकरा पड़ी थी मैं.

‘‘बहुएं कैसी हैं, मौसी?’’ खातेखाते मैं ने पूछा था, ‘‘अब तो आप दादी भी बन गई हैं. कैसा लगता है दादी बनना?’’

‘‘अरे, आज की दादी बनी हूं मैं… 10 साल की पोती है मेरी. अब तो वह 5वीं में पढ़ती है. पोता भी 8 साल का है. नरेश की बेटी भी इस साल स्कूल जाएगी.’’

‘‘नरेश की भी बेटी है?’’ मैं आश्चर्य से बोली, ‘‘वह जरा सा था जब देखा था उसे.’’

‘‘हां, कल आना घर पर, देख लेना सब को. तुझे बहुत याद करते हैं लड़के. राखी पर सब का मन दुखी हो जाता है. तेरे बाद कभी किसी से उन लोगों ने राखी नहीं बंधवाई.’’

खातेखाते कौर मेरे गले में ही अटक गया. मुझे याद है, 18 साल पहले जब मैं मौसी के घर उन के बेटों को राखी बांधने गई थी तब मौसा ने कितना अनाप- शनाप कहा था.

आपसी संबंधोें की कटुता उस के मुंह पर इस तरह दे मारी थी मानो भविष्य में कभी उस की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कैसी विडंबना है न हमारे जीवन की. जब हम जवान होते हैं, हाथों में ताकत होती है तब कभी नहीं सोचते कि धीरेधीरे यह शक्ति घटनी है. हमें भी किसी पर एक दिन आश्रित होना पड़ सकता है. अपने स्वाभिमान को हम इतनी ऊंचाई पर ले जाते हैं कि वह अभिमान बन कर सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने लगता है. अपनी सीमा समाप्त हो कर कब दूसरे की सीमा शुरू हो गई पता ही नहीं चलता.

राखी बांधना छोड़ दिया था तब मैं ने. उस के बाद मौसी की दहलीज ही नहीं लांघी थी. आज मौसी उसी के बारे में बात कर रही थीं. पूछना चाहा था मैं ने कि अगर मैं राखी बांधने नहीं आई तो तीनों लड़कों में से कोई भी राखी बंधवाने क्यों नहीं आया था? क्यों नहीं किसी ने उस से मिलना चाहा? मैं तो सदा दोनों बहनों में पुल का ही काम करती रही थी. पर एक दिन जब मैं पुल की ही भांति दोनों तरफ से प्रताडि़त होने लगी तब मैं ने बीच में से हट जाना ही ठीक समझा था.

‘‘मौसी, आप भी चाय लें न,’’ मैं ने उन की बात को उड़ा देना ही ठीक समझा था.

‘‘अभी तेरे आने से पहले मैं ने और जीजाजी ने चाय पी थी.’’

मौसी मेरे पिता की पीठ सहला रही थीं. 2 बूढ़ों में एक की सेवा दूसरा कर रहा था. देखने में अच्छा भी लग रहा था और विचित्र भी.

‘‘आप का जूस ले आऊं न अब…6 बज गए हैं,’’ मौसी ने पूछा और साथ ही जा कर जूस ले भी आईं.

पिताजी जूस पी ही रहे थे कि अम्मां भी आ गईं. वह मुझे देख कर खुश थीं और मैं दोनों बहनों को साथसाथ देख कर.

शाम गहरी हुई तो मौसी अपने घर चली गईं. दूसरी शाम आईं तो मेरे लिए पूरा दिन अपने साथ बिताने का न्योता था उन के होंठों पर.

‘‘भाभियों से नहीं मिलेगी क्या? सब तुझे देखना चाहती हैं…कल सुबह नरेश तुझे लेने आ जाएगा.’’

मौन स्वीकृति थी मेरे होंठों पर.

सुबह नरेश लेने चला आया. सुंदर, सजीला निकला था नरेश. इस से पहले जब देखा था तब बीमार रहने वाला, कमजोर सा लड़का था वह.

‘‘चरण स्पर्श, दीदी, पहचाना कि नहीं. मैं हूं तुम्हारा सींकिया पहलवान… नरेश…याद आया कि नहीं.’’

याद आया, अकसर सब उसे सींकिया पहलवान कह कर चिढ़ाते थे. वह सब को मारने दौड़ता था, सिवा मेरे.

आज भी उसे मेरा संबोधन याद था. आत्मग्लानि होने लगी मुझे. मैं सोचने लगी कि कैसी बहन हूं, यही सुंदर सा प्यारा सा युवक आज यदि मुझे कहीं बाजार में मिल जाता तो शायद मैं पहचान भी न पाती.

‘‘जीते रहो,’’ सस्नेह मैं ने उस का सिर थपथपाया था.

‘‘चलो, दीदी, वहां बड़ी बेसब्री से आप का इंतजार हो रहा है.’’

‘‘अच्छा, अम्मां, मैं चलती हूं,’’ मां से विदा ली थी मैं ने.

मौसी के घर मेरा भरपूर स्वागत हुआ था. तीनों बहुएं मेरे आगेपीछे सिमट आई थीं. बारीबारी से सभी चरण स्पर्श करने लगीं. बच्चों को मेरे पास बैठाया और कहा, ‘‘यह बूआ हैं, बेटे. इन्हें नमस्ते करो.’’

कितने चेहरे थे जो मेरे अपने थे, मगर मुझ से अनजान थे. जिन से आज तक मैं भी अनजान थी. बीते 18 सालों में कितना कुछ बीत गया, कितना कुछ ऐसा बीत गया जिसे साथसाथ रह कर भी भोगा जा  सकता था, साथसाथ रह कर भी जिया जा सकता था.

पूरा दिन एक उत्सव सा बीत गया. बीते 18 साल मानो किसी कोने में सिमट गए हों, मानो वह बनवास, वह एकदूसरे से अलग रहने की पीड़ा कभी सही ही नहीं थी.

कड़वे पल न उन्होंने याद दिलाए न मैं ने, मगर आपस की बातों से मैं यह सहज ही जान गई थी कि मुझे वह भूले कभी भी नहीं थे. बारबार मेरे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था, जब दोनों तरफ प्यार बराबर था तो क्यों झूठे अहं खड़े किए थे दोनों परिवारों ने? क्यों अपनेअपने अहंकार संबंधों के बीच ले आए थे? समझ में नहीं आ रहा था, आखिर क्या पाया था हम दोनों परिवार वालों ने इतना सुख, इतना प्यार खो कर?

शाम के समय नरेश मुझे वापस घर छोड़ गया. रात में अम्मां और पिताजी मुझ से पूरा हालचाल सुनते रहे. 18 वर्षों के बाद मौसी के घर जो गई थी मैं.

‘‘कैसे लगे सब लोग…बहुएं… बच्चे?’’

‘‘बहुत अच्छे लगे. मेरे आगेपीछे ही पूरा परिवार डोलता रहा. बच्चे बूआबूआ करते रहे और भाभियां दीदीदीदी. लगा ही नहीं, कभी हम अजनबी भी रह चुके हैं,’’ एक पल रुकने के बाद मैं फिर बोली, ‘‘अम्मां, एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि अचानक यह सब पुन: जुड़ कैसे गया?’’

‘‘ऐसा ही तो होता है…और यही जीवन है,’’ हंस कर बोले थे पिताजी, ‘‘जब इनसान जवान होता है तब भविष्य की बंद मुट्ठी उसे क्याक्या सपने दिखाती रहती है, तुम खुद भी महसूस करती होगी. भविष्य क्या है उस से अनजान हम तनमन से जुटे रहते हैं, बच्चों की लिखाईपढ़ाई है, बेटी की जिम्मेदारी है, सभी कर्तव्य पूरे करने होते हैं हमें और हम सांस भी लिए बिना कभीकभी निरंतर चलते रहते हैं. हमारी आंखों के सामने बच्चों के साथसाथ अपना भी एक उज्ज्वल भविष्य होता है कि जब बूढ़े हो जाएंगे तो चैन से बैठ कर अपनी मेहनत का फल भोगेंगे, बुढ़ापे में संतान सेवा करेगी, पूरा जीवन इसी आस पर ही तो बिताया होता है न हम ने. उस पल कभीकभी अपने सगे भाईबहनों से भी हम विमुख हो जाते हैं क्योंकि तब हमें अपनी संतान ही नजर आती है…बाकी सब पराए.

‘‘कई बार तो हम अपने मांबाप के साथ भी स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने लग जाते हैं, क्योंकि उन के लिए कुछ भी करना हमें अपने बच्चों के अधिकार में कटौती करना लगता है. तब हम यह भूल जाते हैं कि हमारे मातापिता ने भी हमें इसी तरह पाला था. उन का भी चैन से बैठ कर दो रोटी खाने का समय अभी आया है. उन को छोड़ हम अपनी गृहस्थी में डूब जाते हैं और जब हम खुद बूढ़े हो जाते हैं तब पता चलता है कि हम भी अकेले रह गए हैं.

‘‘लगता है, हम तो ठगे गए हैं. मेरामेरा कर जिस बच्चे को पालते रहे वह तो मेरा था ही नहीं. वह तो अपने परिवार का है और हम उस की गृहस्थी के अवांछित सदस्य हैं, बस.’’

बोलतेबोलते थक गए थे पिताजी. कुछ रुक कर हंस पड़े वह. फिर बोले, ‘‘बेटा, ऐसा सभी के साथ होता है. जीवन की संध्या में हर इनसान अकेला ही रह जाता है. पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही होता आया है. तब थकाहारा मनुष्य अपने जीवन का लेखाजोखा करता है कि उस ने जीवन में क्या खोया और क्या पाया. भविष्य से तो तब कोई उम्मीद रहती नहीं जिस की तरफ आंख उठा कर देखे, सो अतीत की ओर ही मुड़ जाता है.

‘‘तुम्हारी मौसी भी इसीलिए अतीत को पलटी हैं. शायद भाईबहन ही अपने हों…और मजे की बात बुढ़ापे में पुराने दोस्त और पुराने संबंधी याद भी बहुत आते हैं. सब की पीड़ा एक सी होती है न इसीलिए एकदूसरे को आसानी से समझ भी जाते हैं, जबकि जवानों के पास बूढ़ों को समझने का समय ही नहीं होता.’’

‘‘आप का मतलब है संतान से हुआ  मोहभंग उन्हें भाईबहनों की ओर मोड़ देता है?’’

‘‘हां, क्योंकि तब उसे जीने को कुछ तो चाहिए न…भविष्य नहीं, वर्तमान नहीं तो अतीत ही सही.

‘‘तुम्हारी मौसी का भरापूरा परिवार है. वह सुखी हैं. फिर भी अकेलेपन का एहसास तो है न. मौसा रहे नहीं, बच्चों के पास उन के लिए समय नहीं सो एक भावनात्मक संबल तो चाहिए न उन्हें… और हमें भी.’’

पिताजी ने खुद की तरफ भी इशारा किया.

‘‘हम भी अकेले से रह गए हैं. तुम दूर हो, तुम्हारे भाई अपनेअपने जीवन में व्यस्त हैं…एक दिन सहसा तुम्हारी मौसी सामने चली आईं… तब हम हक्केबक्के रह गए, स्नेह का धागा कहीं न कहीं अभी भी हमें बांधे हुए है यह जान हमें बहुत संतोष हुआ. और बुढ़ापे में सोच भी तो परिपक्व हो जाती है न. पुरानी कड़वी बातें न वह छेड़ती हैं न हम. बस, मिलबैठ कर अच्छा समय काट लेते हैं हम सब.

‘‘अब चलाचली के समय चैन चाहिए हमें भी और तुम्हारी मौसी को भी, क्योंकि जीवन का लेखाजोखा तो हो चुका न, अब कैसा मनमुटाव?’’

सारे जीवन का सार पिताजी ने छान कर सामने परोस दिया. जवानी के जोश में भाईबहनों से विमुखता क्या जायज है? जबकि यह एक शाश्वत सत्य है कि आज के युग में संयुक्त परिवारों का चलन न रहने पर हर इनसान का बुढ़ापा एक एकाकी श्राप बनता जा रहा है, क्या यह उचित नहीं कि हम अपनी सोच को थोड़ा सा और बढ़ा कर स्नेह के धागे को बांधे रखें ताकि बुढ़ापे में एकदूसरे के सामने आने पर शरम न आए और अपनी संतान का भी उचित मार्गदर्शन कर सकें… बुढ़ापा तो उन पर भी आएगा न. बुढ़ापे में भाईबहनों में घिर उन्हें भी अच्छा लगेगा क्योंकि तब उन की संतानें भी उन्हें अकेला छोड़ अपनेअपने रास्ते निकल चुकी होंगी.

पीढि़यों का यह चलन पहली बार संध्या को बड़ी गहराई से कचोट गया. क्या वास्तव में उस के साथ भी ऐसा ही होगा? जेठजी के साथ परिवार वालों की खटपट चल रही है, जिस वजह से उन से कोई भी मिलना नहीं चाहता. उस के पति भी नहीं, बात क्या हुई कोई नहीं जानता. बस, जराजरा से अहं उठा लिए और बोलचाल बंद. कोई भी पहल करना नहीं चाहता जबकि सचाई यह है कि घर में हर पल उन्हीं की बात की जाती है.

‘‘आप को भाई साहब से मिलना चाहिए, हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं, हम भला उन के सामने कैसा उदाहरण पेश कर रहे हैं. खून के रिश्तों में अहं नहीं लाना चाहिए, वह हमारे बड़े हैं, हमारे अपने हैं. पहल हम ही कर लेते हैं, कोई छोटे नहीं हो जाएंगे हम…चलिए चलें.’’

संध्या ने घर वापस पहुंच कर सब से पहले अपने घर के टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास किया. पति एकटक उस का चेहरा ताकने लगे.

‘‘जहां तक हो सके हमें निभाना सीखना चाहिए, तोड़ने की जगह जोड़ना सिखाना चाहिए अपने बच्चों को…’’

बात को बीच में काटते हुए संध्या के पति बोले, ‘‘और सामने वाला चाहे मनमानी करता रहे.’’

‘‘फिर क्या हो गया… वह आप के बड़े भाई हैं…मैं ने कहा न, व्यर्थ अहं रख कर खून के  रिश्ते की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए.’’

संध्या ने मौसी की पूरी कहानी पति को सुना दी. चुपचाप सुनते रहे वह, जरा सा तुनके, फिर सहज होने लगे.

‘‘तुम ही पैर छूना, मैं नहीं…’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं ही छू लूंगी, वह मेरे ससुर समान जेठ हैं. आप साथ तो चलिए.’’

संध्या मनाती रही, समझाती रही. उम्मीद जाग उठी थी मन में कि पति भी मान जाएंगे. एक सीमा में रह कर रिश्तों को निभाना इतना मुश्किल नहीं, ऐसा उसे विश्वास था. मन में जरा सा संतोष जाग उठा कि हो सकता है कि जब उस का बुढ़ापा आए तो वह अकेली न हो, उस के भाई, उस के रिश्तेदार आसपास हों, एकदूसरे से जुड़े हुए. तब वह यह न सोचे कि उस ने जीवन में अपनों को अपने से काट कर क्या खोया क्या पाया.

Raksha Bandhan 2024 – भाई का  बदला: क्या हुआ था रीता के साथ

रोशनलाल का बंगला रंगबिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था. उन के घर में उन के जुड़वे बच्चों का जन्मोत्सव था. बंगले की बाउंड्री वाल के अंदर शामियाना लगा था जिस के मध्य में उन की पत्नी जानकी देवी सजीधजी दोनों बेटों को गोद में लिए बैठी थीं. उन की चारों तरफ गेस्ट्स कुरसियों पर बैठे थे. कुछ औरतें गीत गा रही थीं. गेट के बाहर हिजड़ों का झुंड था, मानो पटना शहर के सारे हिजड़े वहीँ जुट गए थे. उन में कुछ ढोल बजा रहे थे और कुछ तालियां. सभी मिल कर सोहर गा रहे थे- “ यशोदा के घर आज कन्हैया आ गए…”

रोशनलाल के किसी गेस्ट ने उन से कहा, “अरे यार, इन हिजड़ों को कुछ दे कर भगाओ.”

“भगाना क्यों? आज ख़ुशी का माहौल है, मैं देखता हूं.” रोशनलाल लाल ने कहा, फिर बाहर आ कर उन्होंने कहा, “अरे भाई लोग, कुछ फ़िल्मी धुन वाले सोहर गाओ.”

हिजड़ों ने गाना शुरू किया- “सज रही गली मेरी मां सुनहर गोटे में… अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात, चंदा जैसा मुखड़ा किरण जैसे हाथ…“

किसी गेस्ट ने कहा, “जुड़वां बेटे हैं, एक और हो जाए.“

हिजड़ों ने दूसरा गीत गाया- “गोरेगोरे हाथों में मेहंदी रचा के, नैनों में कजरा डाल के,

चली जच्चा रानी जलवा पूजन को, छोटा सा घूंघट निकाल के…“

रोशनलाल ख़ुशी से झूम उठे और 500 रुपए के 2 नोट उन के लीडर को दिया. उस ने नोट लेने से इनकार किया और कहा, “लालाजी, जुड़वां लल्ला हुए हैं, इतने से नहीं चलेगा.“

रोशनलाल ने 2,000 रुपए का एक नोट उसे देते हुए कहा, “अच्छा भाई, लो आपस में बांट लेना. अब तो खुश.“

उस ने ख़ुशीख़ुशी नोट लिया और वे सभी दुआएं दे कर चले गए.

रोशनलाल को पैसे की कमी न थी. अच्छाख़ासा बिजनैस था. पतिपत्नी दोनों अपने जुड़वां बेटों अमन और रमन का पालनपोषण अच्छे से कर रहे थे. खानपान, पहनावा या पढ़ाईलिखाई किसी चीज में कंजूसी का सवाल ही न था. अमन मात्र 15 मिनट पहले दुनिया में आया, इसीलिए रोशनलाल उसे बड़ा बेटा कहते थे.

अमन और रमन दोनों के चेहरे हूबहू एकदूसरे से मिलते थे, इतना कि कभी मातापिता भी दुविधा में पड़ जाते. अमन की गरदन के पीछे एक बड़ा सा तिल था, असमंजस की स्थिति में उसी से पहचान होती थी. दोनों समय के साथ बड़े होते गए. अमन सिर्फ 15 मिनट ही बड़ा था, फिर भी दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. अमन शांत और मैच्योर दिखता और उस का ज्यादा ध्यान पढ़ाईलिखाई पर होता था. इस के विपरीत, रमन चंचल था और पढ़ाईलिखाई में औसत से भी बहुत पीछे था.

फिलहाल दोनों प्लस टू पूरा कर कालेज में पढ़ रहे थे. अमन के मार्क्स काफी अच्छे थे और उसे पटना साइंस कालेज में एडमिशन मिल गया. रमन किसी तरह पास हुआ था. उसे एक प्राइवेट इवनिंग कालेज में आर्ट्स में एडमिशन मिला.

रमन फोन और टेबलेट या लैपटौप पर ज्यादा समय देता और फेसबुक पर नएनए लड़केलड़कियों से दोस्ती करता. अकसर नएनए पोज, अंदाज और ड्रैस में अपने फोटो पोस्ट करता. रमन को इवनिंग कालेज जाना होता था. दिन में अमन कालेज और पिता अपने बिजनैस पर जाते, इसलिए रमन दिनभर घर में अकेले रहता था. वह अपने फेसबुक दोस्तों से चैट करता और फोटो आदि शेयर करता. पढ़ाई में उस की दिलचस्पी न थी. देखतेदेखते दोनों भाई फाइनल ईयर में पहुंच गए.

इधर कुछ महीनों से रमन को फेसबुक पर एक नई दोस्त मिली थी. उस ने अपना नाम रीता बताया था. वे दोनों काफी घुलमिल गए थे और फ्री और फ्रैंक चैटिंग होती थी. एक दिन वह बोली, “मैं बायोलौजी पढ़ रही हूं. मुझे पुरुष के सभी अंगों को देखना और समझना है. इस से मुझे पढ़ाई और प्रैक्टिकल में मदद मिलेगी. तुम मेरी मदद करोगे?“

“हां क्यों नहीं. मुझे क्या करना होगा?“

“तुम अपने न्यूड फोटो पोस्ट करते रहना.“

कुछ शर्माते हुए रमन बोला, “नहीं, क्या यह ठीक रहेगा?“
“मेरी पढ़ाई का मामला है, जरूरी है और मेरे नजदीकी दोस्त हो, इसीलिए तुम से कहा था. खैर, छोड़ो, मैं कोई प्रैशर नहीं दे रही हूं. तुम से नहीं होगा तो मैं किसी और से कहती हूं,“ कुछ बिगड़ने के अंदाज़ में रीता ने कहा.

“ठीक है, मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो.“

कुछ दिन और बीत गए. इसी बीच अमन और रमन के ग्रेजुएशन का रिजल्ट आया. अमन फर्स्ट क्लास से पास हुआ पर रमन फेल कर गया. रोशनलाल ने अपने दोनों बेटों को बुला कर कहा, “मैं सोच रहा था कि तुम दोनों अब मेरा बिजनैस संभालो. इस के लिए मुझे तुम्हारी डिग्री की जरूरत नहीं है. अगर तुम दोनों चाहो तो मैं अभी से बंटवारा भी कर सकता हूं.“

अमन बोला, “नो पापा, अभी बंटवारे का कोई सवाल नहीं है. मैं मैनेजमैंट पढ़ूंगा, उस के बाद आप जो कहेंगे वही करूंगा. रमन चाहे तो बिजनैस में आप के साथ रह कर कुछ काम सीख ले.“
रमन ने कहा, “अभी मैं ग्रेजुएशन के लिए कम से कम एक और प्रयास करूंगा.“

अमन मैनेजमैंट की पढ़ाई करने गया. रमन का फेसबुक पर वही सिलसिला चल रहा था. उस की फेसबुक फ्रेंड रीता ने कहा, “अब तुम ने क्या फैसला किया है? जैसा कहा था, मेरी मदद करोगे या मैं दूसरे से कहूं? मेरे एग्जाम निकट हैं.“

“नहीं, मैं तुम्हारे कहने के अनुसार करूंगा. पर तुम ने तो अपने प्रोफ़ाइल में अपना कोई फोटो नहीं डाला है.“
“तुम लड़के हो न और मैं लड़की. मैं ने अपना फोटो जानबूझ कर नहीं डाला है. लड़कियों को लोग जल्द बदनाम कर देते हैं. तुम बिहार की राजधानी से हो और मैं ओडिशा के एक छोटे कसबे से हूं.“
रमन ने अपने कुछ न्यूड फोटो रीता को पोस्ट किए. रीता ने फिर उस से कुछ और फोटो भेजने को कहा तब रमन ने भी उस से कहा, “तुम भी तो अपना कोई फोटो भेजो. मैं न्यूड फोटो नहीं मांग रहा हूं.“
रीता ने कहा, “फोटो तो मैं नहीं पोस्ट कर सकती पर जल्द ही मेरे पटना आने की उम्मीद है. पापा सैंट्रल गवर्नमैंट में हैं, उन का प्रमोशन के साथ ओडिशा के बाहर दूसरे राज्य में तबादला हो रहा है और पापा ने पटना का चौइस दिया है. वैसे भी, अकसर हर 3 साल पर पापा का ट्रांसफर होता रहता है. इस बार प्रमोशन के साथ दूसरे स्टेट में ट्रांसफर की शर्त है, अब तुम्हारे शहर में मैं जल्द ही आ रही हूं.“

“मतलब, हम लोग जल्द ही मिलने वाले हैं?“

“हां, कुछ दिन और धीरज रखो.“

इधर अमन और उस के पिता समझ चुके थे कि रमन का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.  वह दिनभर फोन और कंप्यूटर पर लगा रहता है  हालांकि रीता के बारे में उन्हें कुछ पता न था.  सेठ ने  दोनों बेटों को बुला कर कहा, “मैं सोच रहा हूं, तुम दोनों की शादी पक्की कर दूं.  सेठ जमुनालाल ने अपनी इकलौती बेटी दिया के लिए रमन में दिलचस्पी दिखाई है. हालांकि, दिया  ट्वेल्फ्थ ड्रौपआउट  है पर उस में अन्य सराहनीय गुण हैं. मैं देख रहा हूं कि   रमन का जी पढ़ाई में नहीं लग रहा है.   अमन के लिए भी एक लड़की है मेरी नजर में, कल ही उस के पिता से बात करता हूं. उसे तुम भी जानते हो, शालू, जो कुछ साल तुम्हारे ही स्कूल में पढ़ी थी.  वह बहुत अच्छी लड़की है, मुझे तो पसंद है.“

अमन बोला, “हां, मैं शालू को जानता हूं पर  पापा मेरी पढ़ाई अगले साल पूरी हो रही है, इसलिए तब तक  मैं शादी नहीं करूंगा.“

“मैं ने शालू के पिता को भरोसा दिया है कि अमन मेरी बात नहीं टालेगा. उन्हें इनकार कर मुझे बहुत दुख होगा.“

“पापा, आप का भरोसा मैं नहीं टूटने दूंगा, न ही आप उन्हें इनकार करेंगे. बस, आप उन से कहिए कि चाहें तो सगाई अभी कर सकते हैं और शादी मेरे फाइनल एग्जाम के बाद होगी.”

“बहुत  अच्छी बात कही है तुम ने बेटा, सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली बात हुई. ठीक है, मैं उन्हें बता दूंगा.“

“ठीक है, शादी अगले साल ही होगी.  इसी साल किसी अच्छे मुहूर्त देख कर तुम दोनों भाइयों की सगाई कर देता हूं.“

“ओके पापा.“

एक महीने के अंदर दोनों भाइयों  की सगाई होने वाली थी.  रमन ने यह सूचना अपनी फेसबुक फ्रैंड रीता को बता दी.  रीता ने उसे बधाई  दी.  अगले दिन से रीता के अकाउंट्स से रमन को धमकियां  मिलने लगीं- “तुम ने एक नाबालिग लड़की से फेसबुक पर अश्लील हरकतें की हैं.  मैं तुम्हारे सारे फोटो तुम्हारी मंगेतर, तुम्हारे पापामम्मी और सारे फ्रैंड्स व रिश्तेदारों  को फौरवर्ड कर दूंगी  और साथ ही, सोशल मीडिया पर भी.“

“तुम कैसी फ्रैंड हो…  मैं ने तुम्हारी मदद की और अब तुम मुझे बेइज्जत करने की सोच रही हो?“ रमन ने कहा.

“मैं कुछ नहीं जानती, एक नाबालिग लड़की से ऐसी गंदी हरकतें करने के पहले तुम्हें सोचना चाहिए था.  अगर तुम अपने परिवार को बेइज्जती और बदनामी से बचाना चाहते हो तो  तुम को मुझे 10 लाख रुपए देने होंगे.  सेठ रोशनलाल के बेटे  हो और सेठ जमुनालाल के इकलौते दामाद बनने जा रहे हो. इतनी रकम जुटाना कोई बड़ी बात नहीं है.“

“इतनी बड़ी रकम मैं नहीं दे सकता.“

“अगर तुम नहीं मानते,  तब मुझे भी मजबूर हो कर सख्त कदम उठाना होगा. सभी को तुम्हारी गंदी और अश्लील हरकतों की जानकारी देनी होगी. दोनों परिवारों की बदनामी तो होगी ही और तुम दोनों भाइयों की शादी का क्या होगा, वह तुम समझ सकते हो.“

कुछ दिनों तक दोनों के बीच ऐसा ही चलता रहा.  रमन बहुत परेशान और दुखी रहने लगा.  घरवालों के पूछने पर कुछ बताता भी नहीं था.  अब  सगाई में मात्र 10 दिन रह गए थे.  रीता ने रमन से कहा, “ब मैं और इंतजार नहीं कर सकती.  तुम्हें, बस, 3  दिन का समय दे रही हूं.  तुम रुपए ले कर जहां कहूं वहां आ जाना. कब और कहां, मैं थोड़ी देर में  बता दूंगी.  वरना, अंजाम तुम समझ सकते हो.“

एक रात अमन  छोटे भाई रमन  के कमरे के सामने से गुजर रहा था. रमन का कमरा अधखुला था.  उस ने रमन को  कमरे में तकिए में मुंह छिपा कर सिसकते देखा. वह  रमन के पास गया  और उस से रोने का कारण पूछा. रमन अपने भाई के गले लग कर रोने लगा. अमन ने उसे चुप कराया और  कहा, “अपने भाई से अपने दुख का कारण शेयर करो. अगर  मैं तुम्हारा दुख कम नहीं कर सका, तब भी शेयर करने से  कम से कम मन का बोझ कम हो सकता है.  चुप हो जाओ और अब  शेयर करो अपनी बात.“

रमन ने रोते हुए अपने  और रीता के बीच हुई सारी बातें बताईं. रमन की बातें सुन कर अमन बोला, “बस, इतनी सी बात है. तुम अब इस की चिंता छोड़ दो. हम दोनों मिल कर उस रीता की बच्ची को छठी के  दूध की याद दिला देंगे. इतना ही नहीं, हम दोनों की भावी पत्नियां भी रीता को सबक सिखाने में हमारी मदद करेंगी.“

“पर क्या शालू भाभी और दिया को यह बताना सही होगा?“

“अगर सही नहीं है तो इस में कुछ गलत भी नहीं है. तुम्हारी गलती इतनी है कि तुम अपनी  नादानी और बेवकूफी के कारण  रीता के ब्लैकमेल के जाल  में फंस चुके हो. तुम्हें शायद पता नहीं है कि शालू को आईटी की अच्छी जानकारी है. दिया तुम्हारी भावी पत्नी है, उसे तुम सचाई बता सकते हो. इतना ही नहीं, दिया ताइक्वांडो में ब्लैक बेल्ट ले चुकी है. इन दोनों को अपने जैसा कमजोर न समझो. हम चारों मिल कर इस स्थिति से निबटने का कोई  उपाय निकाल लेंगे.  तुम दिया को कौन्फिडैंस में लो और रीता से बात करते रहो कि पैसों  का इंतजाम कर रहा हूं, कुछ समय दो.“

“क्या हमें पुलिस की मदद लेनी होगी?“  रमन ने पूछा.

“नहीं, अगर लेनी भी पड़ी तो  रीता को पकड़ने के बाद. आखिर तुम्हारी तसवीरें तो उस के मोबाइल या अन्य सिस्टम में स्टोर हैं और वह तुम्हें गलत साबित कर सकती है.”

दोनों भाई और उन की भावी पत्नियों ने मिल कर रीता से निबटने का प्लान बनाया. रमन ने रीता को फोन कर कहा, “देखो 10 लाख रुपए का इंतजाम तो मैं नहीं कर सकता, 5 लाख रुपए तो तैयार ही समझो. इतने से  तुम्हारा काम हो जाना चाहिए.“

फोन की बातें अमन, दिया और शालू भी सुन रहे थे. रीता ने कहा, “नहीं, 5 लाख से काम नहीं चलेगा.“

रमन बोला, “तब ठीक है, कल के पेपर में मेरे सुसाइड करने की खबर पढ़ कर तुम्हारा काम हो  जाना चाहिए.“

“अरे नहीं यार, मैं उतनी जालिम नहीं हूं. तुम्हारे मरने से मुझे क्या हासिल होगा. ऐसा करो, 2 लाख और दे देना. बस, फुल एंड फाइनल,“ रीता बोली.

रमन अपने भाई की ओर  सवालिया निगाहों से देखने लगा. अमन ने उसे इशारों से रीता को हां कहने को कहा.

“ठीक है, तब परसों संडे को  शाम ठीक 5 बजे  मेरे कहे समय और पते पर 7 लाख कैश ले कर मिलो.  इस के बाद भी हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे, यह मेरा वादा है.  मुझे  अच्छे कालेज में एडमिशन के लिए पैसों की सख्त जरूरत है.“

“ओके, मैं पैसे ले कर आ जाऊंगा.“

“याद रखना, यह बात सिर्फ तुम्हारे और मेरे बीच रहनी चाहिए  वरना मैं तुम्हारे फोटो की कौपी किसी दूसरे दोस्त को फौरवर्ड कर दूंगी.  कुछ ऐसावैसा किया तो वह तुम्हें एक्सपोज कर देगा. हां, एक जरूरी बात, अगर मैं घर से बाहर नहीं निकल सकी तो मेरा बड़ा भाई जा सकता है.   उस के पास सौ रुपए का यह नोट होगा, इस का नंबर नोट कर लो.“

“नहीं, मैं किसी को नहीं बताऊंगा और तुम्हारे दिए समय व पते पर आ जाऊंगा. पर कोई दूसरा आए तो उस के पास तुम्हारा ही फोन होना चाहिए जिस में मेरी तसवीरें हैं,“  रमन ने कहा.

“डोंट वरी, मुझे आम खाने से मतलब है, गुठली गिनने से नहीं. मुझे मेरी रकम चाहिए और कुछ नहीं.“

अगले दिन रीता ने फोन कर रुपयों के साथ आने के समय और स्थान का पता बता दिया. रमन को शहर के पूर्वी छोर पर एक जगह बुलाया. वह जगह अभी डैवलप्ड नहीं थी. कुछ घर बन चुके थे जिन में इक्केदुक्के   लोग रह रहे थे और काफी घर बन रहे थे. वहां अभी सड़कें भी पक्की नहीं बन सकी थीं. रीता ने रमन को एक निर्माणाधीन घर का पता दे कर वहां आने को कहा. अमन ने अपनी कंपनी के एक स्टाफ  को वहां जा कर उस जगह को देखने को कहा. उस ने स्टाफ को सिर्फ इतना बताया कि वहां उसे कुछ प्लौट खरीदना है. अमन के स्टाफ ने आ कर बताया कि उस मकान के 3 ओर अभी गन्ने के खेत थे.  यह जानने के बाद अमन बहुत खुश हुआ और उस ने रमन, शालू और दिया को भी इस की जानकारी दे दी.

अमन ने बाकी  तीनों लोगों के साथ मिल कर एक प्लान बनाया और सख्त हिदायत दी कि और किसी को इस प्लान की भनक न लगे.  उस ने कहा, “रीता अपने ही बने जाल में फंसने जा रही है. उस ने जगह ऐसी चुनी है कि हम लोग मिल कर उस की घेराबंदी कर लेंगे.

एक ब्रीफकेस में कुछ असली रुपए रख कर उन के नीचे सिर्फ सफ़ेद पेपर के टुकड़े डाल दिए गए.  फैसला हुआ कि  अमन, शालू और दिया तीनों रीता के बताए गंतव्य स्थान पर पूर्व नियोजित समय से काफी पहले से ही  निकट के खेत में छिप जाएंगे. उस दिन कंस्ट्रक्शन वर्कर की छुट्टी थी. इलाका लगभग वीरान था.  रमन का फोन अमन के पास रहेगा और रीता का मैसेज मिलते ही रमन ब्रीफकेस ले कर रीता के पास जाएगा. रमन के पास अमन का फोन होगा और जब रीता का फोन आएगा, अमन कौल रिसीव करेगा और रमन, बस, होंठ चलाते हुए बात करने का उपक्रम करते हुए रीता की और बढ़ेगा. अगर  दिशानिर्देश आदि कोई विशेष जानकारी देनी होगी, तो अमन या शालू उसे रमन को मैसेज कर देंगी.

रीता ने अपनी समझ में  पूरी होशियारी बरती. उस ने खुद न जा कर किसी दूसरे लड़के को भेजा जिसे रीता ने अपना भाई कहा था. रमन ने उस से 100 रुपए के नोट का नंबर मिलाया. फिर कुछ देर तक उसे  इधरउधर की बातों में उलझाए  रखा. उस ने रमन से जल्द ही ब्रीफकेस देने को कहा. रमन ने भी उस से रीता का फोन देने को कहा ताकि वह फोटो डिलीट कर दे. उस ने रीता का फोन रमन को दिया, तभी अचानक अमन और दिया को अपनी तरफ आते देखा. वह घबरा कर भागने लगा पर दिया के ट्वाइकांडों  के एक झटके से वह जमीन पर औंधेमुंह गिर पड़ा.

दिया, अमन और शालू ने मिल कर उस पर काबू पा लिया. अमन बोला, “तुम रीता के भैया हो न, अपनी बहन को कौल कर यहां बुलाओ. जैसा मैं कहूं, वैसा ही उसे बोलना होगा.“

“काहे का भैया? मैं तो उस का प्रेमी हूं. भैया  नहीं, होने वाला सैंया  हूं. रीता भी यहां से ज्यादा दूर नहीं है.“

“तुम उस के जो  भी हो, उसे जल्द यहां आने को कहो.“

रीता के प्रेमी ने फोन कर  उस से कहा, “रीता, यह कौन सी जगह तुमने चुनी है? रुपए तो पूरे मिल गए पर मुझे सांप ने काट लिया है. मैं अब और चल नहीं सकता हूं. पता नहीं  सांप जहरीला था या नहीं पर बहुत दर्द और जलन हो रही है . जल्दी से मुझे ले चलो यहां से.“

तभी रीता एक पुरानी कार चलाते हुए वहां आई. वहां रमन के अलावा अन्य लोगों को देख वह डर गई. उसे देख कर प्रेमी बोला, “घबराओ नहीं, ये लोग हमारी मदद कर रहे हैं.“

रीता के आते ही दिया के दूसरे पैतरे ने उसे भी चारो खाने चित कर दिया. रीता के पास से दूसरा फोन भी ले लिया गया. रीता और उस के प्रेमी ने कहा, “हम दोनों भाग कर शादी करने जा रहे थे. अपनी नई जिंदगी की शुरुआत के लिए रुपयों की जरूरत थी, इसीलिए हम ने  ऐसा किया है. अमन ने ऐसा एक  कुबूलनामा लिखवा कर दोनों के साइन ले लिए.“

अमन बोला, “तुम ने रमन के फोटो कहांकहां भेजे हैं?“

“अभी तक कहीं नहीं भेजे हैं. रमन रुपए न देता, तो फिर मजबूर हो कर भेज देती.“

शालू बोली, “आप लोग उस की चिंता न करें.  मैं ISP से सब पता कर लूंगी. वैसे भी, इस ने अपना जुर्म कुबूल कर लिया है और कुबूलनामा पर साइन भी किए हैं. कुछ गड़बड़ होने पर दोनों जेल की हवा खाएंगे.“

फिर रमन और उस के साथ आए लोगों ने निर्माणाधीन मकान से रस्सियां ला कर दोनों के हाथ, पैर और मुंह बांध कर कार में बैठा दिया. ब्रीफकेस से असली रुपए निकाल कर अपने पास रख लिए. अमन कार ड्राइव कर रहा था, उस ने  रीता के  घर के सामने कार रोकी और रीता के फोन से ही उस के पापा को फोन किया, “आप की बेटी का कार ऐक्सीडैंट हो गया था. हम उसे ले कर आए हैं. हम नीचे कार में हैं. चोट ज्यादा नहीं लगी है, फिर भी उसे हौस्पिटल ले जाना जरूरी है.”

तब तक शालू और दिया भी दूसरी कार में आ गए थे. अमन और रमन  ने रीता और उस के   प्रेमी को  वहीँ छोड़ दिया. उन्होंने दोनों के फोन अपने पास रख लिए. चारों अपनी  कार में सवार हो कर चल दिए. उन लोगों ने बड़ी चालाकी से बिना एक धेला खर्च किए और बिना पुलिस की मदद से ब्लैकमेलर जोड़ी को उन की औकात बता दी.

फर्क: रवीना की एक गलती ने तबाह कर दी उसकी जिंदगी

18 साल की रवीना के हाथों में जैसे ही वोटर आईडी कार्ड आया, उसे लगा जैसे सारी दुनिया उस की मुट्ठी में समा गई हो. यह सिर्फ एक दस्तावेज मात्र नहीं था बल्कि उस की आजादी का सर्टिफिकेट था।

‘अब मैं कानूनी रूप से बालिग हूं और अपनी मरजी की मालिक, अपनी जिंदगी की सर्वेसर्वा. निर्णय लेने को स्वतंत्र. जो चाहे करूं, जहां चाहे जाऊं. जिस के साथ मरजी रहूं. कोई बंधन, कोई रोकटोक नहीं. बस, खुला आसमान और ऊंची उड़ान…’ मन ही मन खुश होती हुई रवीना पल्लव के साथ अपनी आजादी का जश्न मनाने का नायाब तरीका सोचने लगी.

ग्रैजुऐशन के आखिरी साल की स्टूडैंट रवीना मातापिता की इकलौती बेटी थी. फैशन और हाई प्रोफाइल लाइफ की दीवानी रवीना नाजों पली होने के कारण जिद्दी और मनमौजी थी. पढ़ाईलिखाई में तो वह एक औसत छात्रा ही थी इसलिए पास होने के लिए हर साल उसे ट्यूशन और कोचिंग का सहारा लेना पड़ता था.

पल्लव भी पिछले दिनों ही इस कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने लगा है. पहली नजर में ही रवीना उस की तरफ झुकने लगी थी. लंबा और ऊंचा कद, गहरीगंभीर आंखें और लापरवाही से पहने कस्बाई फैशन के हिसाब से आधुनिक लिबास. बाकी लड़कियों की निगाहों में पल्लव कुछ भी खास नहीं था मगर उस का बेपरवाह अंदाज अतिआधुनिक शहरी रवीना के दिलोदिमाग में खलबली मचाए हुए था.

पल्लव कहने को तो कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाता था लेकिन असल में तो वह खुद भी एक स्टूडैंट ही था. उस ने इसी साल अपना ग्रैजुऐशन पूरा किया था और अब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए शहर में रुका था. कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने के पीछे उस का यह मकसद भी था कि इस तरीके से वह किताबों के संपर्क में रहेगा, साथ ही जेबखर्च के लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाएगी.

पल्लव के पिता उस के इस फैसले से सहमत नहीं थे. वे चाहते थे कि पल्लव पूरी तरह से समर्पित हो कर अपना ध्यान केवल अपने भविष्य की तैयारी पर लगाए लेकिन पल्लव से पूरा दिन एक ही जगह बंद कमरे में बैठ कर पढ़ाई नहीं होती थी, इसलिए उस ने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ पढ़ने के साथसाथ पढ़ाने का विकल्प चुना और इस तरह से रवीना के संपर्क में आया.

‘2 विपरीत ध्रुव एकदूसरे को आकर्षित करते हैं’, इस सर्वमान्य नियम से भला पल्लव कैसे अछूता रह सकता था. धीरेधीरे वह भी खुद के प्रति रवीना के आकर्षण को महसूस करने लगा था। मगर एक तो उस का संकोची स्वभाव, दूसरे सामाजिक स्तर पर कमतरी का एहसास उसे दोस्ती के लिए आमंत्रित करती रवीना की मुसकान के निमंत्रण को स्वीकार नहीं करने दे रहा था.

आखिर विज्ञान की जीत हुई और शुरुआती औपचारिकता के बाद अब दोनों के बीच अच्छीखासी ट्यूनिंग बनने लगी थी. फोन पर बातों का सिलसिला भी शुरू हो चुका था.

“लीजिए जनाब, सरकार ने हमें कानूनन बालिग घोषित कर दिया है,” पल्लव के चेहरे के सामने अपना वोटर कार्ड हवा में लहराते हुए रवीना खिलखिलाई.

“तो जश्न मनाएं…” पल्लव ने भी उसी गरमजोशी से जवाब दिया.

“चलो, आज तुम्हें पिज्जा खिलाने ले चलती हूं.”

“न… न… तुम अपने खुबसूरत हाथों से 1 कप चाय बना कर पिला दो. मैं तो इसी में खुश हो जाउंगा,” पल्लव ने रवीना के चेहरे पर शरारत करते बालों की लट को उस के कानों के पीछे ले जाते हुए कहा. रवीना उस का प्रस्ताव सुन कर हैरान थी.

“चाय? मगर कैसे? कहां?” रवीना ने पूछा.

“मेरे रूम पर और कहां?” पल्लव ने उसे आश्चर्य से बाहर निकाला. रवीना राजी हो गई.

रवीना ने मुसकरा कर स्कूटर स्टार्ट करते हुए पल्लव को पीछे बैठने के लिए आमंत्रित किया. यह पहला मौका था जब पल्लव उस से इतना सट कर बैठा था. कुछ ही मिनटों के बाद दोनों पल्लव के कमरे पर थे. जैसाकि आम पढ़ने वाले युवाओं का होता है, पल्लव के कमरे में भी सामान के नाम पर एक पलंग, टेबलकुरसी और रसोई का सामान था. रवीना अपने बैठने के लिए जगह तलाश कर ही रही थी कि पल्लव ने उसे पलंग पर बैठने का इशारा किया. रवीना सकुचाते हुए बैठ गई. पल्लव भी वहीं उस के पास आ बैठा.

एकांत में 2 युवा दिल एकदूसरे की धड़कनें महसूस करने लगे और कुछ ही पलों में दोनों के रिश्ते ने एक लंबा फासला तय कर लिया. दोनों के बीच बहुत सी औपचारिकताओं के किले ढह गए. एक बार ढहे तो फिर बारबार ये वर्जनाएं टूटने लगीं.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. दोनों की नजदीकियों की भनक जब रवीना के घर वालों को लगी तो उसे लाइन हाजिर किया गया.

“मैं पल्लव से प्यार करती हूं,” रवीना ने बेझिझक स्वीकार किया. बेटी की मुंहजोरी पर पिता आगबबूला हो गए.
यह उम्र कैरियर बनाने की है, रिश्ते नहीं. समझीं तुम…” पापा ने उसे लताड़ दिया.

“मैं बालिग हूं. अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है मुझे,” रवीना बगावत पर उतर आई थी. इसी दौरान बीचबचाव करने के लिए मां उन के बीच आ खड़ी हुईं.

“कल से इस का कालेज और इंस्टिट्यूट दोनों जगह जाना बंद,” पिता ने उस की मां की तरफ मुखातिब होते हुए कहा तो रवीना पांव पटकते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी. थोड़ी ही देर में कपड़ों से भरा सूटकेस हाथ में लिए वह खड़ी थी.

“मैं पल्लव के साथ रहने जा रही हूं,” रवीना के इस ऐलान ने घर में सब के होश उड़ा दिए.

“तुम बिना शादी किए एक पराए मर्द के साथ रहोगी? क्यों समाज में हमारी नाक कटवाने पर तुली हो?” इस बार मां उस के खिलाफ हो गई.

“हम दोनों बालिग हैं. अब तो कोर्ट ने भी इस बात की इजाजत दे दी है कि 2 बालिग लिव इन में रह सकते हैं, उम्र चाहे जो भी हो,” रवीना ने मां के विरोध को चुनौती दी.

“कोर्ट अपने फैसले नियमकानून और सुबूतों के आधार पर देता है. सामाजिक व्यवस्थाएं इन सब से बिलकुल अलग होती हैं. कानून और समाज के नियम सर्वथा भिन्न होते हैं,” पापा ने उसे समझाने की कोशिश की मगर रवीना के कान तो पल्लव के नाम के अलावा कुछ और सुनने को तैयार ही नहीं थे.

उसे अब अपने और पल्लव के बीच कोई बाधा स्वीकार नहीं थी. वह बिना पीछे मुड़ कर देखे अपने घर की दहलीज लांघ गई. यों अचानक रवीना को सामान सहित अपने सामने देख कर पल्लव अचकचा गया. रवीना ने एक ही सांस में उसे पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा दे दिया.

“कोई बात नहीं, अब तुम मेरे पास आ गई हो न. पुराना सब बातें भूल जाओ और मिलन का जश्न मनाओ,” कमरा बंद कर के पल्लव ने उसे अपने पास खींच लिया और कुछ ही देर में हमेशा की तरह उन के बीच रहीसही सारी दूरियां भी मिट गईं. रवीना ने एक बार फिर अपना सबकुछ पल्लव को समर्पित कर दिया.

2-4 दिन में ही पल्लव के मकानमालिक को भी सारी हकीकत पता चल गई कि पल्लव अपने साथ किसी लड़की को रखे हुए है. उस ने पल्लव को धमकाते हुए कमरा खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया. समाज की तरफ से उन पर यह पहला प्रहार था मगर उन्होंने हार नहीं मानी. कमरा खाली कर के दोनों एक सस्ते होटल में आ गए.

कुछ दिन तो सोने से दिन और चांदी सी रातें गुजरीं मगर साल बीततेबीतते ही उन के इश्क का इंद्रधनुष फीका पड़ने लगा. ‘प्यार से पेट नहीं भरता’ इस कहावत का मतलब पल्लव अच्छी तरह समझने लगा था.
समाज में बदनामी होने के कारण पल्लव की कोचिंग छूट गई और अब आमदनी का कोई दूसरा जरीया भी उन के पास नहीं था. पल्लव के पास प्रतियोगी परीक्षाओं का शुल्क भरने तक के पैसे नहीं बच पा रहे थे. उस ने वह होटल भी छोड़ दिया और अब रवीना को ले कर बहुत ही निम्न स्तर के मोहल्ले में रहने आ गया.

एक तरफ जहां पल्लव को रवीना के साथ अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा था, तो वहीं दूसरी तरफ रवीना तो अब पल्लव में ही अपना भविष्य तलाशने लगी थी. वह इस लिव इन को स्थाई संबंध में परिवर्तित करना चाहती थी और पल्लव से शादी करना चाहती थी. रवीना को भरोसा था कि जल्दी ही अंधेरी गलियां खत्म हो जाएंगी और उन्हें अपनी मंजिल के रास्ते मिल जाएंगे. बस, किसी तरह पल्लव कहीं सैट हो जाए.

एक बार फिर विज्ञान का यह आकर्षण का नियम पल्लव पर लागू हो रहा था,’2 विपरीत ध्रुव जब एक निश्चित सीमा तक नजदीक आ जाते हैं तो उन में विकर्षण पैदा होने लगता है।’ पल्लव भी इसी विकर्षण का शिकार होने लगा था. हालातों के सामने घुटने टेकता वह अपने पिता के सामने रो पड़ा तो उन्होंने रवीना से अलग होने की शर्त पर उस की मदद करना स्वीकार कर लिया. मरता क्या नहीं करता, पिता की शर्त के अनुसार उस ने फिर से कोचिंग जाना शुरू कर दिया और वहीं होस्टल में रहने लगा, मगर इस बार कोचिंग में पढ़ाने नहीं बल्कि स्वयं पढ़ने के लिए. रवीना के लिए यह किसी बड़े झटके से कम नहीं था. वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगी. मगर दोष दे भी तो किसे? यह तो उस का अपना फैसला था.

पल्लव के जाने के बाद वह अकेली ही उस मोहल्ले में रहने लगी. इतना सब होने के बाद भी उसे पल्लव का इंतजार था. वह भी उस के बैंक परीक्षा के रिजल्ट का इंतजार कर रही थी,’एक बार पल्लव का सिलैक्शन हो जाए तो फिर सब ठीक हो जाएगा. हमारा दम तोड़ता रिश्ता फिर से जी उठेगा,’ इसी उम्मीद पर वह हर चोट सहती जा रही थी.

आखिर रिजल्ट भी आ गया. पल्लव की मेहनत रंग लाई और उस का बैंक परीक्षा में में चयन हो गया. रवीना यह खुशी उत्सव की तरह मनाना चाहती थी. वह दिनभर तैयार हो कर उस का इंतजार करती रही मगर वह नहीं आया. रवीना पल्लव को फोन पर फोन लगाती रही मगर उस ने फोन भी नहीं उठाया.

आखिर रवीना उस के होस्टल जा पहुंची. वहां जा कर पता चला कि पल्लव तो सुबह रिजल्ट आते ही अपने घर चला गया. रवीना बिलकुल निराश हो गई. क्या करे? कहां जाए? वर्तमान तो खराब हुआ ही, भविष्य भी अंधकारमय हो गया. आसमान तो हासिल नहीं हुआ, पांवों के नीचे की जमीन भी अपनी नहीं रही. पल्लव का प्रेम तो मिला नहीं, मातापिता का स्नेह भी वह छोड़ आई. काश, उस ने अपनेआप को कुछ समय सोचने के लिए दिया होता. मगर अब क्या हो सकता है? पीछे लौटने के सारे रास्ते तो वह खुद ही बंद कर आई थी. रवीना बुरी तरह से हताश हो गई. वह कुछ भी सोच नहीं पा रही थी. कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी.

आखिर उस ने एक खतरनाक निर्णय ले ही लिया,”तुम्हें तुम्हारा रास्ता मुबारक हो. मैं अपने रास्ते जा रही हूं. खुश रहो,” रवीना ने एक मैसेज पल्लव को भेजा और अपना मोबाइल स्विच औफ कर लिया. संदेश पढ़ते ही पल्लव के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई.

‘अगर इस लड़की ने कुछ उलटासीधा कर लिया तो मेरा कैरियर चौपट हो जाएगा,’ यह सोचते हुए उस ने 1-2 बार रवीना को फोन लगाने की कोशिश की मगर नाकाम होने पर तुरंत दोस्त के साथ बाइक ले कर उस के पास पहुंच गया. जैसाकि उसे अंदेशा था, रवीना नींद की गोलियां खा कर बेसुध पड़ी थी. पल्लव दोस्त की मदद से उसे हौस्पिटल ले कर आया और उस के घर पर भी खबर कर दी. डाक्टरों के इलाज शुरू करते ही दवा लेने के बहाने पल्लव वहां से खिसक गया.

बेशक रवीना अपने घर वालों से सारे रिश्ते खत्म कर आई थी मगर खून के रिश्ते भी कहीं टूटे हैं भला? खबर पाते ही मातापिता बदहवास से बेटी के पास पहुंच गए. समय पर चिकित्सा सहायता मिलने से रवीना अब खतरे से बाहर थी. मांपापा को सामने देख वह फफक पड़ी,”मां, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. सिर्फ आज के लिए ही नहीं बल्कि उस दिन के अपने फैसले के लिए भी, जब मैं आप सब को छोड़ आई थी,” रवीना ने कहा तो मां ने कस कर उस का हाथ थाम लिया.

“यदि मैं ने उस दिन घर न छोड़ा होता तो आज कहीं बेहतर जिंदगी जी रही होती. मेरा वर्तमान और भविष्य, दोनों ही सुनहरे होते. मैं ने स्वतंत्र होने में बहुत जल्दबाजी की. मैं तो आप लोगों से माफी मांगने के लायक भी नहीं हूं…” रवीना फफक पङी.

“तुम घर लौट चलो. अपनेआप को वक्त दो और फिर से अपने फैसले का मूल्यांकन करो. जिंदगी किसी एक मोड़ पर रुकने का नाम नहीं बल्कि यह तो एक सतत प्रवाह है. इस के साथ बहने वाले ही अपनी मंजिल को पाते हैं,” पापा ने उसे समझाया.

“हां, किसी एक जगह अटके रहने का नाम जिंदगी नहीं है. यह तो अनवरत बहती रहने वाली नदी है. तुम भी इस के बाहव में खुद को छोड़ दो और एक बार फिर से मुकाम बनाने की कोशिश करो. हम सब तुम्हारे साथ हैं,” मां ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

मन ही मन अपने फैसले से सबक लेने का दृढ संकल्प करते हुए रवीना मुसकरा दी. अब उसे स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क साफसाफ नजर आ रहा था.

माधवी: उसकी छोटी सी दुनिया में क्यों आग लग गयी थी?

दिन भर स्कूल की झांयझांय से थक कर माधवी उसी भवन की ऊपरी मंजिल पर बने अपने कमरे में पहुंची. काम वाली को चाय बनाने को कह कर सोफे पर पसर गई. चाय पी कर वह थकान मिटाना चाहती थी. चूंकि इस समय उस का मन किसी से बात करने का बिलकुल नहीं था इसीलिए ऊपर आते समय मेन गेट में वह ताला लगा आई थी.

अभी मुश्किल से 2-3 मिनट ही हुए होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी को सुन कर उसे यह तो लग गया कि ट्रंककाल है फिर भी रिसीवर उठाने का मन न हुआ. उस ने सोचा कि काम वाली से कह कर फोन पर मना करवा दे कि घर पर कोई नही, तभी घंटी बंद हो गई. एक बार रुक कर फिर बजी. वह खीज कर उठी और टेलीफोन का चोंगा उठा कर कान से लगाया. फोन जबलपुर से उस की ननद का था. माधवी ने जैसे ही ‘हैलो’ कहा उस की ननद बोली, ‘‘भाभी, तुम जल्दी आ जाओ. मां बहुत याद कर रही हैं.’’

‘‘मांजी को क्या हुआ?’’ माधवी ने हड़बड़ा कर पूछा.

‘‘लगता है अंतिम समय है,’’ ननद जल्दी में बोली, ‘‘तुम्हें देखना चाहती हैं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर माधवी ने फोन रख दिया.

घड़ी में देखा, 4 बज रहे थे. जबलपुर के लिए ट्रेन रात को 10 बजे थी. माधवी ने टे्रवल एजेंट को फोन कर 2 बर्थ बुक करने को कहा.

वह पहले माधवी के साथ ही रहा करती थीं. माधवी के पति राघव 3 भाइयों में दूसरे नंबर के थे. बड़े बेटे की नौकरी तबादले वाली थी. तीसरा बेटा बंटी अभी बहुत छोटा था. राघव की भोपाल में बी.एच.ई.एल. में स्थायी नौकरी थी. मां अपने छोटे बेटे को ले कर राघव के साथ भोपाल में ही सैटल हो गई थीं लेकिन यह साथ ज्यादा दिन न चला. 3 साल बाद ही एक सड़क दुर्घटना ने राघव का जीवन छीन लिया.

माधवी को बी.एच.ई.एल. से कुछ पैसा जरूर मिला पर अनुकंपा नियुक्ति नहीं मिली. सास ने परिस्थिति को भांपा और बंटी को ले कर बड़े बेटे के पास चली गईं. माधवी ने पति के मिले पैसे से एक मकान खरीदा. कुछ लोन ले कर दूसरी मंजिल बनवाई. खुद ऊपर रहने लगीं और नीचे एक स्कूल शुरू कर दिया. पति की मौत के बाद माधवी की सारी दुनिया अपनी बेटी और स्कूल में सिमट गई.

पहले तो सास से माधवी की थोड़ीबहुत बात हो जाया करती थी पर धीरेधीरे काम की व्यस्तता से यह अंतर बढ़ने लगा. माधवी की ससुराल मानो छूट गई थी. जेठ और देवर ने फोन पर हालचाल पूछने के अलावा और कोई सुध नहीं ली. मकान, जमीनजायदाद या दूसरी पारिवारिक संपत्तियों में हिस्सेदारी तो दूर, किसी ने यह तक नहीं पूछा कि कैसे गुजारा कर रही है या स्कूल कैसा चल रहा है.

इस उपेक्षा के बाद भी माधवी को कहीं न कहीं अपनों से एक स्नेहिल स्पर्श की उम्मीद होती. सहानुभूति और विश्वास से भरे दो शब्दों की चाहत होती. अपने काम और उपलब्धियों पर शाबाशी की अपेक्षा तो हर व्यक्ति करता है किंतु माधवी की ज्ंिदगी में यह सबकुछ नहीं था. उसे खुद रोना था और खुद चुप हो जाना था.

माधवी ने अपनी छोटी सी दुनिया बहुत मेहनत से बनाई थी. एक दिन भी इस से बाहर रहना उस के लिए मुश्किल था. उस ने कई बार बाहर जा कर घूमने का मन बनाया पर न जा सकी. आज जाना जरूरी था क्योंकि सास की हालत च्ंिताजनक थी और उन्होंने उसे मिलने के लिए बुलाया भी था.

टे्रन ने सुबह 6 बजे जबलपुर उतारा. वह बेटी को ले कर प्लेटफार्म पर बने लेडीज वेटिंग रूम में गई. वहीं तैयार हुई. बेटी को भी तैयार किया और जेठजी के घर फोन मिलाया. फोन जेठानी ने उठाया. बातचीत में ही जेठानी ने अस्पताल का नामपता बताते हुए कहा, ‘‘हम सब भी घर से रवाना हो रहे हैं.’’

माधवी को जेठानी के मन की बात समझते देर न लगी. इसीलिए वह स्टेशन के बाहर से आटो पकड़ कर सीधे अस्पताल पहुंची. उस समय डाक्टर राउंड पर थे अत: कुछ देर उसे बाहर ही रुकना पड़ा. डाक्टर के जाने के बाद माधवी भीतर पहुंची.

सास को ड्रिप लगी थी. आक्सीजन की नली से श्वांस चल रही थी. गले के कैंसर ने भोजनपानी की नली को रोक कर रख दिया था. उन की जबान भी उलट गई थी. वह केवल देख सकती थीं और इशारे से ही बातें कर रही थीं. पिछले 4 दिन से यही हालत थी. लगता था अब गईं, तब गईं.

माधवी ने पास जा कर उन का हाथ छुआ. पसीने और चिपचिपाहट से उसे अजीब सा लगा. उस की नजर बालों पर गई तो लगा महीनों से कंघी ही नहीं हुई है. होती भी कैसे. वह पिछले 6 माह से बिस्तर पर जो थीं.

माधवी ने आवाज दी. उन्होंने आंखें खोलीं तो देख कर लगा कि पहचानने की कोशिश कर रही हैं.

‘‘मैं हूं, मांजी माधवी, आप की पोती को ले कर आई हूं.’’

सुन कर उन्हें संतोष हुआ फिर हाथ उठाया और इशारे से कुछ कहा तो माधवी को लगा कि शायद पानी मांग रही हैं.

माधवी ने पूछा, ‘‘पानी चाहिए?’’

उन्होंने  हां में सिर हिलाया. माधवी ने पानी का गिलास उठाया ही था कि वहां मौजूद परिजनों ने उसे रोक दिया. कहा, ‘‘डाक्टर ने ऊपर से कुछ भी देने के लिए मना किया है.’’

माधवी का हाथ रुक गया. उस ने विवशता से सास की ओर देखा.

सास ने माधवी की बेबसी समझ ली थी और समझतीं भी क्यों नहीं, पिछले 4 दिन से यही तो वह समझ रही थीं. हर आगंतुक से वह पानी मांगतीं. आगंतुक पानी देने की कोशिश भी करता किंतु वहां मौजूद डाक्टर और नर्स रोक देते थे और मांजी को निराश हो कर अपनी आंखें मूंद लेनी पड़तीं. सास की इस बेबसी पर माधवी का मन भर आया.

तभी ननद ने कहा, ‘‘छोटी भाभी, आप घर जा कर कुछ आराम कर लें, रात भर का सफर कर के आई हैं, थकी होंगी.’’

पहले माधवी ने भी यही सोचा था किंतु सास की हालत देख कर उस का मन जाने का न हुआ. वह बोली, ‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

माधवी वहीं रुक गई. वह स्टूल खींच कर मांजी के पैरों के पास बैठ गई. मन हुआ कि उन के पैर दबाए. माधवी ने जैसे ही कंबल हटाए दुर्गंध उस की नाक को छू गई. उस ने थोड़ा और कंबल सरका कर देखा तो बिस्तर में काफी गंदगी थी. मांजी के प्रति यह उस का दूसरा अनुभव था. इस से पहले माधवी हाथ में चिपचिपाहट और बालों में बेतरतीब लटें देख चुकी थी.

माधवी को अब समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि सास का बचना मुश्किल है. तमाम रिश्तेदार भी इस हकीकत को जान गए थे. इसीलिए सारे लोग खबर लगते ही पहुंच चुके थे.

गले के कैंसर में आपरेशन जोखिम से भरा होता है, उस में भी यदि श्वांसनली को जकड़ लेने वाला ट्यूमर हो तो जोखिम सौ फीसदी तक हो जाता है.

माधवी का मन मांजी के प्रति करुणा से भर गया. उसे ग्लानि इस बात की थी कि यदि मांजी को मरना है तो क्यों उन की इच्छाओं को मार कर और उन्हें गंदगी में पटक कर मौत की प्रतीक्षा की जा रही है. क्या हम उन्हें एक स्वस्थ और अच्छा माहौल नहीं दे सकते? वह जानती थी कि एक उम्र के बाद बड़ेबूढ़ों की बीमारी में केवल बेटेबेटी या बहुएं ही कुछ कर सकती हैं. उन के अलावा कोई और कुछ नहीं कर सकता. नौकरों के काम तो केवल औपचारिक होते हैं.

यहां स्वजनों के पास समय नहीं था. यदि था भी तो इच्छाशक्ति का अभाव और अहंकार आड़े आता था. लोग आते, हालचाल पूछते, डाक्टरों और नर्सों से बात करते, बैठ कर अपनी दिनचर्या की व्यस्तता गिनाते और चले जाते.

माधवी का मन हुआ कि फौरन डिटौल के पानी से मांजी को नहला दे. पर कमरे में जेठ, ननदोई और दूसरे पुरुषों की मौजूदगी देख कर वह चुप रह गई.

दोपहर को देखभाल करने वाले तमाम पुरुष चले गए. जेठानी भी मेहमानों के खाने का इंतजाम करने के लिए घर जा चुकी थीं. कमरे में माधवी, ननद और देवर बंटी के अलावा कोई न बचा.

माधवी ने मन ही मन कुछ निर्णय किया और वार्ड बौय को आवाज दे कर गुनगुना पानी, डिटौल और स्पंज लाने को कहा. वह खुद नर्स के पास जा कर एक कैंची मांग लाई और सब से पहले माधवी ने कैंची से मांजी के सारे बाल काट कर छोटेछोटे कर दिए. साबुन के स्पंज से सिर साफ किया और कपूर का तेल लगाया. फिर शरीर पर स्पंज किया. सूखे, साफ तौलिया से बदन पोंछा और हलके हाथ से हाथपांव में तेल की मालिश कर दी. साफ और धुले कपड़े पहना दिए. बिस्तर की चादर और रबड़ बदली. पाउडर छिड़का. कमरे का फर्श धुलवाया. अब मांजी में ताजगी झलक उठी थी. माधवी शाम तक वहीं रही.

यद्यपि मांजी के बाल काटना किसी को पसंद नहीं आया पर माधवी ने जिस लगन के साथ साफसफाई की थी यह बात सारे रिश्तेदारों को पसंद आई. वे माधवी की सराहना किए बिना न रह सके. हां, बाल काटने पर जेठ के तीखे शब्द जरूर सुनने पड़े. माधवी ने उन की बातों का कोई जवाब नहीं दिया और ननद के साथ घर आ गई.

अगले दिन सुबह 9 बजे माधवी अस्पताल पहुंची और थोड़ी देर बाद ही फिर सफाई में जुट गई. दोपहर को मांजी ने पानी मांगा. माधवी ने डाक्टर की हिदायत का हवाला दे कर कहा, ‘‘आप ठीक हो जाइए, फिर खूब पानी पी लीजिएगा.’’ पर इस बार मांजी नहीं मानीं. उन्होंने इशारे से ही हाथ जोड़े और ऐसा संकेत किया मानो पांव पड़ रही हैं.

माधवी से रहा न गया. उस के आंसू बह निकले. उस ने बिना किसी की परवा किए कप भर कर पानी मांजी को दे दिया. ननद और जेठानी दोनों को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि सारा पानी गले से नीचे उतर गया, जबकि कैंसर से गला पूरी तरह अवरुद्ध था. पानी भीतर जाते ही मांजी को मानो नई जान आई. उन में कुछ चेतना सी दिखी और चेहरे पर हंसी भी. जेठानी और ननद दोनों ने कुछकुछ बातें भी कीं.

‘‘अब आप जल्दी ही अच्छी होने वाली हो. देखिए, गला खुल गया.’’

तभी मांजी ने इशारा कर के फिर कुछ मांगा. माधवी ने पानी और दूसरी चीजों के नाम बताए तो उन्होंने सभी वस्तुओं को इनकार कर किया. माधवी ने पूछा, ‘‘दूध,’’ उन्होंने हां में सिर हिलाया. माधवी ने तुरंत दूध मंगाया.

इस बार जेठानी ने सख्ती से मना किया और कहा, ‘‘पानी तो ठीक है, पर दूध बिना डाक्टर से पूछे न दो.’’ पर माधवी को जाने कौन सा जनून सवार था कि उस ने बिना किसी की परवा किए मांजी को उसी कप में दूध भी दे दिया. दूध भी गले से नीचे चला गया. मांजी के चेहरे पर एक अजीब संतोष उभरा. उन्होेंने इशारे से बेटेबेटियों को बुलाया. बाकी तो वहां थे, जेठ और बंटी नहीं थे. उन्हें भी टेलीफोन कर के घर से बुला लिया गया.

मांजी ने पहले जेठ का हाथ ननद के सिर पर रखवाया फिर माधवी को बुलाया और फिर बंटी को. उन्होंने माधवी का हाथ पकड़ा और बंटी का हाथ माधवी के हाथ में दे कर उस की ओर कातर निगाहों से देखने लगीं. मानो कह रही हों, ‘‘अब मेरे बेटे का तुम ही ध्यान रखना.’’

माधवी का मन भर आया. आंखों में नमी छलक आई…उस ने कहा, ‘‘आप च्ंिता न करें, बंटी मेरे बेटे की तरह है.’’ फिर उस ने निगाह बंटी की ओर फेरी, तो उसे अपनी ओर देखता पाया. भीतर से माधवी का मातृत्व उमड़ पड़ा. तभी मांजी के हाथ से माधवी का हाथ छूट गया. माधवी चौंकी. उस ने मांजी की गरदन को एक ओर ढुलकते हुए देखा. कमरे में सभी चीख पड़े, ‘‘मांजी.’’

जेठ माधवी की ओर देख कर दहाड़े, ‘‘तू ने मार डाला मां को.

आखिर क्यों पिलाया पानी और क्यों दिया दूध?’’

माधवी को कुछ न सूझा. वह सहमी सी बुत की तरह खड़ी रही. रहरह कर उसे मांजी के संकेत याद आते रहे. उस ने सोचा कि उस ने कोई गलत काम नहीं किया. यदि मांजी की मौत करीब थी तो उन्हें क्यों भूखाप्यासा मरने दिया जाए. लोग तो घर से बाहर किसी को भूखाप्यासा नहीं जाने देते, तब ज्ंिदगी के इस महाप्रयाण पर वह कैसे मांजी को भूखाप्यासा जाने देती?

वहां मौजूद महिलाएं रोने लगीं. जेठजी का बड़बड़ाना जारी था. माधवी से सुना न गया. वह बाहर की ओर चल दी. अभी वह दरवाजे के करीब ही आई थी कि उस के दोनों हाथों को किसी ने छुआ. उस ने देखा कि उस के दाएं हाथ की उंगली देवर बंटी ने और बाएं हाथ की उंगली बेटी नीलम ने पकड़ रखी थी.

रिश्तों की रस्में: अनिता के बारे में क्या कहना चाहती थी सुमिता

नंदा आंगन में स्टूल डाल कर बैठ गई, ‘‘लाओ परजाई, साग के पत्ते दे दो, काट देती हूं. शाम के लिए आप की मदद हो जाएगी.’’‘‘अभी ससुराल से आई और मायके में भी लग पड़ी काम करने.

रहने दे, मैं कर लूंगी,’’ सुमीता ने कहा. पर वाक्य समाप्त होने से पहले ही एक पुट और लग गया संग में, ‘‘क्यों, आप अकेले क्यों करोगे काम? मुझे किस दिन मौका मिलेगा आप की सेवा करने का?’’ यह स्वर अनिका का था. हंसती हुई अनिका, सुमीता की बांह थामे उसे बिठाती हुई आगे कहने लगी, ‘‘आप बैठ कर साग के पत्ते साफ करो मम्मा, बाकी सब भागदौड़ का काम मु झ पर छोड़ दो.’’आज अनिका की पहली लोहड़ी थी. कुछ महीनों पहले ब्याह कर आई अनिका घर में ऐसे घुलमिल गई थी कि  जब कोई सुमीता से पूछता कि कितना समय हुआ है बहू को घर में आए, तो वह सोच में पड़ जाती. लगता था, जैसे हमेशा से ही अनिका इस घर में समाई हुई थी.‘‘तुम्हें यहां मोहाली का क्या पता बेटे, आज सुबह ही तो पहुंची हो दिल्ली से, कल शाम तक तो औफिस में बिजी थे तुम दोनों. उसे देखो, अमन कैसे सोया पड़ा है अब तक,’’ अपने बेटे की ओर इशारा करते हुए सुमीता हंस पड़ी.‘‘मायके में तो सभी को नींद आती है,

’’ नंदा ने भतीजे की टांगखिंचाई की.अमन का जौब काफी डिमांडिंग था. शादी के बाद वह सिर्फ त्योहारों पर ही घर आ पाया था. मगर अनिका कई बार अकेले ही वीकैंड पर बस पकड़ कर आ जाती. सुमीता मन ही मन गद्गद हो उठती. डेढ़दो दिनों के लिए बहू के आ जाने से ही उस का घरआंगन महक उठता. लगता, मानो अनिका के दिल्ली लौट जाने के बाद भी उस की गंध आंगन में मंडराती रहती. लेकिन साथ ही सुमीता के दिल को आशंका के बादल घेर लेते कि कहीं अमन के मन में शादी के तुरंत बाद अकेले वीकैंड बिताने पर यह विचार न आ जाए कि घरवाले कैसे सैल्फिश हैं, अपना सुख देखते हुए बेटेबहू को एकसाथ रहने नहीं देते. उस के सम झाने पर अनिका, उलटा, उसे ही सम झाने लगती, ‘‘मम्मा, मैं, हम दोनों की खुशी और इच्छा से यहां आती हूं. इस घर में आ कर मु झे बहुत अच्छा लगता है. आप नाहक ही परेशान हो जाती हैं.’’सासबहू के नेहबंधन के जितने श्रेय की हकदार अनिका है, उस से अधिक सुमीता. हर मां अपने बेटे के लिए लड़की ढूंढ़ते समय अपने मन में अनेकानेक सपने बुनती है. नई बहू से हर परिवार की कितनी ही अपेक्षाएं होती हैं. उसे नए रिश्तों में ढलना होता है. परिवार की परंपरा को केवल जानना ही नहीं,

अपनाना भी होता है. हर रिश्ता उसे अपनी कसौटी पर कसने को तत्पर बैठा होता है. ऐसे में नए परिवार में आई एक लड़की को यह अनुभूति देना कि यह घर उस का अपना है, उस के आसपास सहजता से लबरेज भावना का घेरा खींचना कोई सरल कार्य नहीं. सुमीता ने कभी अनिका को अपने  परिवेश के अनुकूल ढलने को  बाध्य नहीं किया. वह तो अनिका स्वयं ही ससुराल में हर वह कार्य करती, हर वह रस्म निभाती जिस की आशा एक बहू से की जा सकती है. जब भी आती, अपनी सास के लिए कुछ न कुछ उपहार लाती. सुमीता भी उस को लाड़ करने का कोई मौका न चूकती. सुमीता के पति अशोक चुहल करते, ‘‘बहू की जगह बेटी घर ले आई हो, और वह भी ब्राइब देने में माहिर.’’आज पहली लोहड़ी के मौके पर कई रिश्तेदार आमंत्रित थे. आसपड़ोस के सभी जानकार भी शाम को दावत में आने वाले थे. आंगन के चारों ओर लालहरा टैंट लग रहा था. जनवरी की ठंड में उधड़ी छत को ढकने हेतु लाइटों की  झालर बनाई गई थी. आंगन के बीचोंबीच सूखी लकडि़यां रखवा दी गई थीं.

आज के दिन एक ओर सुमीता, अनिका के लिए सोने का हार खरीद कर लाई थी जो उसे शाम को तैयार होते समय उपहारस्वरूप देने वाली थी, तो दूसरी ओर अनिका अपनी सास के साथसाथ सभी रिश्तेदारों के लिए तोहफे लाई थी.शाम की तैयारी में अनिका अपनी कलाइयों में सजे चूड़ों से मेल खाती  गहरे लाल रंग की नई सलवारकमीज व अमृतसरी फुलकारी काम की रंगबिरंगी चुन्नी पहन कर आई तो सुमीता ने स्नेहभरा दृष्टिपात करते हुए उस के गले में सोने का हार पहना दिया. प्यार से अनिका, सुमीता के गले लग गई. फिर उस से पूछते हुए अनिका रिश्तेदारों के आने के साथ, पैरीपौना करते हुए उन्हें उपहार थमाने लगी. सभी बेहद खुश थे. हर तरफ सुमीता को इतनी अच्छी बहू मिलने की चर्चा हो रही थी.शाम का कार्यक्रम आरंभ हुआ, आंगन के बीच आग जलाई गई, सभी लोगों  ने उस में रेवड़ी, मूंगफली, गेहूं की बालियां आदि डाल कर लोहड़ी मनाना  शुरू किया. नियत समय पर ढोली भी  आ गया.‘‘आजकल की तरह प्लास्टिक वाला ढोल तो नहीं लाया न? चमड़े का ढोल है न तेरा?’’ अशोक ने ढोली से पूछा, ‘‘भई, जो बात चमड़े की लय और थाप में आती है, वह प्लास्टिक में कहां.’’ फिर तो ढोली ने सब से चहेती धुन ‘चाल’ बजानी शुरू की और सभी थिरकने लगे.

शायद ही किसी के पैर रुक पाए थे. नाच, गाना, भंगड़ा, टप्पे होते रहे. कुछ देर पश्चात एक ओर लगा कोल्डडिं्रक्स का काउंटर भी खुल गया. घर और पड़ोस के मर्द वहां जा कर अपने लिए कोल्डडिं्रक ले कर आने लगे. घर की स्त्रियां सब को खाना परोसने में व्यस्त हो गईं. अनिका आगे बढ़चढ़ कर सब को हाथ से घुटा गरमागरम सरसों का साग और मिस्सी रोटियां परोसने लगी. किसी थाली में घी का चमचा उड़ेलती, तो कहीं गुड़ की डली रखती. अनिका देररात तक परोसतीबटोरती  झूठी थालियां उठाती रही. मध्यरात्रि के बाद अधिकतर मेहमान अपनेअपने घर लौट चुके थे. दूसरे शहरों से आए कुछ मेहमान घर पर रुक गए थे.घर की छत पर अमन ने गद्दों और सफेद चादरों का इंतजाम करवा दिया था. चांदनी की शीतलता में नहाए सारे बिस्तरे ठंडक का एहसास दे रहे थे. मेहमानों के साथ आए बच्चे बिस्तरों पर लोटपोट कर खेलने लगे. ठंडेठंडे गद्दों पर लुढ़कने का आनंद लेते बच्चों को सरकाते हुए, बड़े भी लेटने की तैयारी करने लगे. ‘‘परजाई, मैं आप के पास सोऊंगी,’’

नंदा, सुमीता के पास आ लेटी.‘‘हां, आ जा. पर बाकी बातें कल करेंगे. अब सोऊंगी मैं, बहुत थक गई आज. तू तो कुछ दिन रुक कर जाएगी न?’’ सुमीता थकान के कारण ऊंघने लगी थी, ‘‘कल अमन और अनिका भी चले जाएंगे,’’ कहतेकहते सुमीता सो गई.अगले दिन, बाकी बचे मेहमान भी विदा हो गए. दिन की बस से अमन और अनिका भी चले गए, ‘‘मम्मा, कल से औफिस है न, शाम तक घर पहुंच जाएंगे तो कल की तैयारी करना आसान रहेगा.’’ शाम को हाथ में 3 कप लिए नंदा छत पर आई तो अशोक हंसने लगे, ‘‘तु झे अब भी शाम की चाय का टाइम याद है.’’‘‘लड़कियां भले ही मायके से विदा होती हैं वीर जी, पर मायका कभी उन के दिल से विदा नहीं होता,’’

नंदा की इस भावनात्मक टिप्पणी पर सुमीता ने उठ कर उसे गले लगा लिया. चाय पी कर अशोक वौक पर चले गए. नंदा को कुछ चुप सा देख सुमीता ने पूछा, ‘‘कोई बात सता रही है, तो बोल क्यों नहीं देती? कल से देख रही हूं, कुछ अनमनी सी है.’’‘‘आप का दिल टूट जाएगा, परजाई, पर बिना कहे जा भी तो नहीं पाऊंगी. आप को तो पता है कि विम्मी की नौकरी लग गई है. इसी कारण वह इस फंक्शन में भी नहीं आ सकी और जवान बेटी को घर पर अकेला कैसे छोड़ें, इस वजह से उस के डैडी भी नहीं आ पाए,’’ नंदा ने अपनी बेटी विम्मी के न आने का कारण बताया तो सुमीता बोलीं, ‘‘मैं सम झती हूं, नंदा, मैं ने बिलकुल बुरा नहीं माना. कितनी बार अमन नहीं आ पाता है.

वह तो शुक्र है कि अनिका हमारा इतना खयाल रखती है कि अकसर हमारे पास आ जाया करती है.’’‘‘मेरी पूरी बात सुन लो,’’ नंदा ने सुमीता की बात बीच में ही काट दी, ‘‘विम्मी को नौकरी लगने पर ट्रेनिंग के लिए दिल्ली भेजा गया था. कंपनी के गैस्टहाउस में रहना था, औफिस की बस लाती व ले जाती. औफिस के पास ही के एक आईटी पार्क में था. वहां और भी कई दफ्तर थे, जिन में अनिका का भी दफ्तर है. पहली शाम गैस्टहाउस लौटते समय विम्मी ने देखा कि आप की बहू अपने अन्य सहकर्मियों के साथ सिगरेट का धुआं उड़ा रही है. उसे तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. परंतु अगली हर शाम उस ने यही दृश्य देखा. यहां तक कि उस की पोशाकें भी अजीबोगरीब होतीं,

कभी शौर्ट्स, कभी स्लिट स्कर्ट, तो कभी फैशनेबल टौप्स पहनती.‘‘अब बताओ परजाई, जो लड़की यहां हम सब के बीच घर के सारे तौरतरीके मानती है, जैसे कपड़े हमें पसंद है, वैसे पहनती है, हर रीतिरिवाज निभाने में कोई संकोच नहीं करती है, बड़ों का पूरा सम्मान करती है, वह असली जिंदगी में इस से बिलकुल उलट है. माफ करना परजाई, आप की बहू को रस्म निभाना तो आता है पर रिश्ते निभाना नहीं. आप की बहू आप को बेवकूफ बना रही है.’’ अब तक धुंधलका होने लगा था. शाम के गहराने के साथ मच्छर भी सिर पर मंडराने लगे थे. सुमीता ने तीनों कप उठाए और घर के भीतर चल दी. नंदा भी चुपचाप उस के पीछे हो ली. संवाद के धागे का कोना अब भी उन के बीच लटका हुआ  झूल रहा था. लेकिन उस का आखिरी छोर सुमीता को जनवरी की ठंड में भी ऐसे आहत कर रहा था मानो वह जेठ की भरी दोपहरी में नंगेपैर पत्थर से बने आंगन में दौड़ रही हो. नंदा की इन बातों से दोनों के बीच धुआं फैल गया. लेकिन इस धुएं को छांटना भी आवश्यक था. रात का खाना बनाते समय सुमीता ने फिर बात आरंभ की.‘‘याद है नंदा, पिछले वर्ष तुम्हारे वीरजी और मैं हौलिडे मनाने यूरोप गए थे.

वह मेरे लिए एक यादगार भ्रमण रहा. इसलिए नहीं कि मैं ने यूरोप घूमा, बल्कि इसलिए कि इस ट्रिप ने मु झे जीवन जीने का नया नजरिया सिखाया. हमारे साथ कुछ परिपक्व तो कुछ नवविवाहिता जोड़े भी थे जो अपने हनीमून पर आए थे. पूरा गु्रप एकसाथ, एक ही मर्सिडीज बस में घूमता. हम सब साथ खातेपीते, फोटो खींचते, वहां बस में दूसरे जोड़ों के आगेपीछे बैठे हुए मैं ने एक नई बात नोट की कि आजकल के दंपती हमारे जमाने से काफी विलग हैं. आजकल पतिपत्नी के बीच हमारे जमाने जैसा सम्मान का रिश्ता नहीं, बल्कि बराबरी का नाता है. हमारे जमाने में पति परमेश्वर थे जबकि आजकल के पति पार्टनर हैं. आज की पत्नी पूरे हक से पति की पीठ पर धौल भी जमा सकती है और लाड़ में आ कर उस के गाल पर चपत भी लगा सकती है. इस के लिए उसे एकांत की खोज नहीं होती. वह सारे समाज के सामने भी अपने रिश्ते में उतनी ही उन्मुक्त है जितनी अकेले में.‘‘ झूठ नहीं कहूंगी, नंदा, पहलेपहल तो मु झे काफी अजीब लगा यह व्यवहार. अपनी मानसिकता पर इतना गहरा प्रहार मु झे डगमगा गया. पर फिर जब उन लड़कियों से बातचीत होने लगी तो मु झे एहसास हुआ कि आजकल के बच्चों का खुलापन अच्छा ही है. जो अंदर है, वही भावना बाहर भी है. कहते तो हम भी हैं कि पतिपत्नी गृहस्थी के पहिए हैं, बराबरी के स्तर पर खड़े, पर फिर भी मन के भीतर पति को अपने से श्रेष्ठ मान ही बैठते हैं.

परंतु आजकल की लड़कियां कार्यदक्षता में लड़कों से बीस ही हैं, उन्नीस नहीं. तो फिर उन्हें उन का जीवन उन के हिसाब से जीने पर पाबंदी क्यों? जब हम अपने बेटों को नहीं रोकते तो बेटीबहुओं पर लगाम क्यों कसें.‘‘यूरोप जा कर मैं ने जाना कि सब को अपना जीवन अपनी खुशी से जीने का अधिकार मिलना चाहिए. किसी को भी दूसरे पर अंकुश लगाने का अधिकार ठीक नहीं. पारिवारिक सान्निध्य से ऊपर क्या है भला. यदि परिवार की खुशी के लिए अनिका हमारे हिसाब से ढल कर रहती है तो हमें उस का आभारी होना चाहिए. फिर अपनी निजी जिंदगी में वह जो करती है, वह उस के और अमन के बीच की बात है. हमारे परिवार की रस्में निभाने के पीछे उस का अभिप्राय रिश्ते निभाने का ही है, वरना क्यों वह वे सब काम करती है जिन में शायद उसे विश्वास भी नहीं. ‘‘जो बातें तुम ने मु झे आज बताईं, वे मैं पहले से ही जानती हूं. अनिका ने मु झे अपने फेसबुक पर फ्रैंडलिस्ट में रखा हुआ है. और आजकल की पीढ़ी चोरीछिपे कुछ नहीं करती. जो करती है, डंके की चोट पर करती है. मैं ने उस की कई फोटो देखीं जिन में उस के हाथ में सिगरेट थी तो कभी बीयर. अमन भी साथ था. मैं यह नहीं कहती कि ये आदतें अच्छी हैं, पर यदि अमन को छूट है तो अनिका को भी. हां, परिवारवृद्धि के बारे में विचार करने से पहले वे दोनों इन आदतों से तौबा कर लेंगे, इस विषय में मेरी उन से बात हो चुकी है. और दोनों ने सहर्ष सहमति भी दे दी है. ये उन के व्यसन नहीं, शायद पीयर प्रैशर में आ कर या सोशल सर्कल में जुड़ने के कारण शुरू की गई आदतें हैं.’’सुमीता अपने बच्चों की स्थिति सुगमतापूर्वक कहे जा रही थी और नंदा सोच रही थी कि केवल आज की पीढ़ी ही नहीं, बदल तो पुरानी पीढ़ी भी रही है वह भी सहजता से.

यादगार: कन्हैयालाल की क्या थी आखिरी इच्छा

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

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डायन का कलंक : क्या दीपक बसंती की मदद कर पाया?

लेखक- सचिंद्र शुक्ल

आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी.

दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था.

दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.

जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था.

ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.

उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी.

दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है.

दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.

दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’

उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’

चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे.

दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’

बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.

जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी था.

दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’

अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’

वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’

तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे.

उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’

वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’

दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.

‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी.

‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.

‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.

‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’

‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’

‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का कियाधरा है.

‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है.

‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारापीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.

‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’.

उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’

दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.

‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?

‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’

वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया.

जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या?है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है.

‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’

यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’

दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.

911 : लव मैरिज क्यों बनीं जी का जंजाल

लेखक – श्री प्रकाश

रात के 2 बजे थे. हलकीहलकी ठंड पड़ रही थी. दशहरा और दिवाली की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. धनबाद स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 पर बहुत भीड़ थी. इस में ज्यादातर विद्यार्थियों की भीड़ थी, जो त्योहार में दिल्ली से धनबाद आए थे. धनबाद, बोकारो और आसपास के बच्चे प्लस टू के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली पढ़ने जाते हैं. इस एरिया में अच्छे कालेज न होने से बच्चे अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए स्कूल के बाद दिल्ली जाना चाहते हैं. दिल्ली में कोचिंग की भी अच्छी सुविधा है. वहां वे इंजीनियरिंग, मैडिकल आदि की कोचिंग भी लेते हैं. कुछ तो टेंथ बोर्ड के बाद ही दिल्ली चले जाते हैं. वे वापस दिल्ली लौट रहे थे.

वे सभी कालका मेल के आने का इंतजार कर रहे थे. अनेकों के पास रिजर्वेशन नहीं था. वे वेटिंग टिकट ले कर किसी भी थ्री टियर में चढ़ने वाले थे. जिस के पास रिजर्वेशन होता, उसी की बर्थ पर 4 या 5 जने किसी तरह एडजस्ट कर दिल्ली पहुंचते. इस तरह के सफर की उन्हें आदत थी. अकसर सभी छुट्टियों के बाद यही नजारा होता. कुछ अमीरजादे तत्काल या एजेंट से ब्लैक में टिकट लेते, तो कुछ एसी कोच में जाते. पर ज्यादातर बच्चे थ्री टियर कोच में जाते थे और सब के लिए रिजर्वेशन मुमकिन नहीं था.

रात के 11 बज रहे थे. अभी भी ट्रेन आने में एक घंटा रह गया था. ट्रेन कुछ लेट थी. रोहित कंधों पर बैकपैक लिए चहलकदमी कर रहा था. उस की निगाहें किसी जानपहचान वाले को तलाश रही थीं, जिस के पास रिजर्व टिकट हो. उस की नजर मनोज पर पड़ी, तो उस ने पूछा, “तुम्हारी बर्थ है क्या?“

“नहीं यार, पर अपने महल्ले वाली सुनीता को जानता है न? S-7 कोच में उस का रिजर्वेशन है. वो देख… आ रही है अपने पापा के साथ.”

प्लेटफार्म पर वे बेटी के साथ खड़े थे. मनोज ने उन से कहा, “अंकल नमस्ते. आप वापस जा सकते हैं. हम लोग हैं न. सुनीता को कोई दिक्कत नहीं होने देंगे.”

तभी अनाउंस हुआ, “कालका मेल अपने निश्चित समय से 45 मिनट की देरी से चल रही है. यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है.”

सुनीता ने कहा, “हां पापा, आप जाइए. अभी हमारे पड़ोस की मनीषा भी आ रही होगी. उस की बर्थ भी हमारे ही कोच में है. और भी जानपहचान के फ्रैंड्स हैं. आप परेशान न हों. घर लौट जाइए. हम लोग मैनेज कर लेंगे.”

सुनीता के पापा लौट गए. थोड़ी देर में मनीषा भी आ गई. रोहित, मनोज, सुनीता और मनीषा चारों एक ही कालोनी में रहते थे, पर अलगअलग सैक्टर में. दोनों लड़के इंजीनियरिंग सेकंड ईयर में थे और लड़कियां ग्रेजुएशन कर रही थीं. इन में सुनीता ही सब से ज्यादा धनी परिवार से थी. रोहित और मनोज दोनों के पिता कोल इंडिया में क्लर्क थे. मनीषा के पिता कोल इंडिया में ही लेबर अफसर और सुनीता के पिता ठेकेदार थे. देश के अनेक भागों में कोयला भेजते थे.

रोहित बोला, “मेरे और मनोज के पास रिजर्व टिकट नहीं हैं. तुम लोग मदद करना. तुम दोनों एक बर्थ पर हो लेना और दूसरी बर्थ पर हम दोनों रहेंगे. अगर कोस्ट शेयर करना हुआ तो वो भी शेयर कर लेंगे.”

सुनीता ने कहा, “क्या बेवकूफों जैसी बात कर रहे हो? ऐसा क्या पहली बार हुआ है? इस के पहले भी तुम लोग हमारी बर्थ पर गए हो. क्या हम ने पैसा लिया है कभी? फिर ऐसी बात न करना. मगर, इस बार हम दोनों को लेडीज कोटे से बर्थ मिली है.“

मनीषा बोली, “हां, S-7 में बर्थ नंबर 1 से 8 तक लेडीज कोटा है. हम तो शेयर कर लेंगे, पर बाकी औरतों ने कहीं शोर मचाया तब क्या करोगे? “

मनोज बोला, “हम लोग पहले भी ये सिचुएशन झेल चुके हैं. इस को हम पर छोड़ दो, हैंडल कर लेंगे.”

ट्रेन आने पर सभी कोच में जा बैठे. लेडीज कोटे में एक बुजुर्ग महिला भी थी. उस ने कहा, “तुम दोनों लड़के यहां नहीं बैठ सकते हो.”

सुनीता ने कहा, “आंटी, आप तो इधर की ही लगती हैं. आप को पता होगा इस पीरियड में यहां से दिल्ली स्टूडेंट्स जाते हैं और इतनी भीड़ में हमें एडजस्ट करना पड़ता है.”

“अच्छा ठीक है, चुपचाप बैठो. तुम लोग न खुद सोते हो और न औरों को सोने देते हो.”

थोड़ी देर में टीटी आया. टिकट चेक करने के बाद उस ने लड़कों से कुछ कड़ी आवाज में कहा, “तुम लोग यहां नहीं बैठ सकते हो. एक तो वेटिंग की टिकट और ऊपर से लेडीज कोटा में आ बैठो हो. अगले स्टेशन गोमो में तुम लोग उतर जाना.”

मनोज बोला, “शायद आप हमें नहीं जानते. आप का बेटा भी अगले साल दिल्ली जाएगा पढ़ने. उस की ऐसी रैगिंग करूंगा कि वह रोते हुए वापस इसी ट्रेन से धनबाद आएगा. बाकी आप की मरजी.”

टीटी ने कहा, “तुम लोग तो गजब ही हो. जो चाहे करो, पर मैं तो मुगलसराय में उतर जाऊंगा. उस के बाद तुम जानो.”

“आगे भी हम देख लेंगे. पर, आप अपने रिलीवर को भी हमें तंग न करने को कह देते तो अच्छा होता.”

सुबह के 7 बजे ट्रेन मुगलसराय पहुंची. वहां ट्रेन कुछ देर रुकती है. रोहित और मनोज दोनों प्लेटफार्म पर उतर कर टी स्टाल पर सिगरेट पी रहे थे. उन्हें देख सुनीता और मनीषा भी उतर गईं. सुनीता ने मनीषा से कहा, “चल, 1-2 फूंक हम भी मार लेते हैं.”

दोनों उन के निकटआईं. सुनीता बोली, “क्या अकेलेअकेले पी रहे हो?“

“आओ, तुम भी पीओ,” मनोज ने कहा और चाय वाले से 2 कप चाय ले कर उन की ओर बढ़ा दिया.

सुनीता बोली, “और सिगरेट? “

मनोज ने अपना सिगरेट बढ़ाते हुए कहा, “लो, दो कश तुम भी ले लो. अगर मनीषा को भी चाहिए तो…?“

“नहीं, मुझे नहीं चाहिए” मनीषा बोली.

सुनीता ने कहा, “मैं शेयर नहीं करूंगी. मुझे अलग से नया सिगरेट दो.”

मनोज ने उसे सिगरेट जला कर दिया. दोतीन कश लेने के बाद सुनीता ने सिगरेट फेंक कर उसे सैंडल से बुझा दिया.

यह देख कर मनोज बोला, “तुम्हें पीते देख कर यह नहीं लगा कि तुम पहली बार पी रही हो. फिर तुम ने नाहक ही मेरा सिगरेट बरबाद कर दिया.”

“पैसे चाहिए सिगरेट के?“

“तुम से बहस करना बेकार है.”

खैर, सभी वापस ट्रेन में जा बैठे. रात के करीब 9 बजे ट्रेन दिल्ली पहुंची. चारों एक टैक्सी में बैठे. मनीषा और सुनीता को उन के होस्टल में छोड़ मनोज और रोहित अपने होस्टल पहुंचे. चारों एक ही शहर और कालोनी के रहने वाले थे, इसलिए छुट्टियों में ट्रेन में आनाजाना अकसर साथ होता था.

मनोज और रोहित के ब्रांच अलग थे. मनीषा और सुनीता के कॉम्बिनेशन एक ही थे, इसलिए उन में कुछ दोस्ती थी. सुनीता नेचर से ज्यादा फ्रैंक और डोमिनेटिंग थी. किसी से अनचाहा एनकाउंटर होने से या कोई मनीषा को तंग करता तो वह मनीषा को प्रोटेक्ट किया करती थी. मनीषा अंतर्मुखी थी.

इसी तरह ये चारों कभी ट्रेन में मिलते, तो कभी किसी मौल या मल्टीप्लेक्स में तो देर तक आपस में बातें करते.

मनोज और मनीषा के स्वभाव में अंतर था, फिर भी दोनों एकदूसरे के करीब आए.

रोहित और मनोज दोनों ने बीटैक पूरा किया और मनीषा और सुनीता ने पीजी. मनोज ने नोएडा में नौकरी ज्वाइन किया.

मनोज और मनीषा ने मातापिता की मरजी के विरुद्ध कोर्ट मैरेज किया. रोहित और सुनीता उन की शादी में आए थे.

एक साल बाद दोनों अमेरिका चले गए. मनोज अपने जौब वीजा H 1 B पर गया था और मनीषा उस की आश्रित H 4 वीजा पर. कुछ दिनों बाद मनीषा को भी EAD मिला, जिस से वह भी नौकरी कर सकती थी. उस ने भी नौकरी ज्वाइन की. उन्हें 2 बेटियां थीं. मनीषा का काम वर्क फ्राम होम होता था. यह उस के लिए एक वरदान था, वह अपनी बेटियों का भी ध्यान रख सकती थी. उन दिनों रोहित और मनोज और सुनीता और मनीषा के बीच रेगुलर संपर्क बना रहा, विशेषकर मनीषा और सुनीता के बीच.

इधर रोहित और सुनीता दोनों ने पुणे में नौकरी ज्वाइन किया. कुछ महीने बाद दोनों की शादी हुई. इस शादी में उन के मातापिता की सहमति थी. कुछ दिनों के बाद रोहित और सुनीता कनाडा चले गए. यहां भी मनीषा और सुनीता के बीच अच्छा संपर्क बना रहा.

इधर कुछ समय से मनीषा और मनोज के रिश्ते में कुछ खटास आने लगी थी. मनोज रोज रात को शराब पीता और मनीषा को भी पीने को कहता. पर मनीषा ने उस के लाख कहने के बावजूद शराब को होठों से नहीं लगाया. इस के चलते मनोज उस से बहुत नाराज रहता. कभीकभी वह गालीगलौज पर भी उतर आता. धीरेधीरे उन के बीच कड़वाहट बढ़ती गई, पर मनीषा ने अपना दुख सुनीता के सामने जाहिर नहीं किया.

एक बार तो मनोज ने मनीषा पर हाथ तक उठा दिया था. इसी तरह लड़तेझगड़ते करीब 10 साल गुजर गए.

एक बार जब मनीषा और सुनीता वीडियो चैट कर रही थीं, उसी बीच मनोज ने कालबेल बजाया. मनीषा को दरवाजा खोलने में कुछ वक्त लगा. उस ने फोन हाथ में लिए दरवाजा खोला. दरवाजा खुलते ही मनोज उस पर गरज पड़ा, “बिच, तुम को डोर खोलने में इतना टाइम क्यों लगा?“

मनीषा ने झट से फोन काट दिया. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सुनीता को मामला समझने में देर नहीं लगी.

सुनीता के मन में अपनी सहेली के लिए चिंता हुई. कुछ दिनों बाद वह खुद मनीषा से मिलने अमेरिका आई. वह दो दिनों तक रही. इस बीच मनीषा और मनोज में बातचीत हां, नहीं या यस, नो तक सिमट कर रह गई थी.

जब मनोज औफिस गया था और बच्चे स्कूल, तब सुनीता ने मनीषा से पूछा, “मनोज आजकल कुछ नाराज दिख रहा है. कुछ खास बात है तो मुझे बताओ.“

“नहीं, कुछ ख़ास नहीं. कल से ही हम दोनों एकदूसरे से नाराज हैं और बातचीत करीब बंद है. फिर अपने ही एकदो दिन में ठीक हो जाएगा.“

“आर यू श्योर ? तुम कहो तो मैं मनोज से कुछ बात करूं? “

“नहींनहीं, इस की जरूरत नहीं है. कहीं ऐसा न हो बात और बिगड़ जाए. मैं मैनेज कर लूंगी.“

“ओके. फिर भी देखना, जरूरत पड़ने पर मैं या रोहित अगर तुम्हारे कुछ काम आ सके तो बहुत खुशी होगी हमें.“

सुनीता कनाडा लौट आई. उस ने रोहित को मनोज और मनीषा के बारे में बताया. सुनीता बोली, “मैं मनीषा को बहुत पहले से और अच्छी तरह जानती हूं. वह अंतर्मुखी है, अपने मन की बात जल्द किसी को नहीं बताती है. रोहित क्या हमें उस की मदद नहीं करनी चाहिए.“

“जरूर करनी चाहिए बशर्ते वह मदद मांगे. मियांबीवी के बीच में यों ही दखल देना ठीक नहीं है. फिलहाल लेट अस वेट एंड वाच.“

कुछ दिनों बाद सुनीता ने मनीषा को फोन किया. फोन उस की बेटी ने उठाया. सुनीता को बेटी की आवाज सुनाई पड़ी, “मम्मा, सुनीता आंटी का फोन है. क्या बोलूं ?”

‘बोल दे, मम्मा अभी सो रही है.“

सुनीता ने फोन काट दिया. उसे दाल में कुछ काला लगा. एक तो यह उस के सोने का टाइम नहीं था और दूसरे मनीषा की आवाज रोआंसी थी. उस ने समझ लिया कि जरूर आज फिर मनीषा के साथ कुछ बुरा घटा होगा.

रोहित कभी मनोज को फोन करता, तो रोहित महसूस करता कि उसे बातचीत करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. थोड़ी देर इधरउधर की बात कर मनोज कहता, ‘और सब ठीक है, बाद में बात करते हैं,’ पर मनोज कभी काल नहीं करता था, बल्कि रोहित ही 10 – 15 दिनों में एक बार हालचाल पूछ लेता.

कुछ दिनों बाद एक बार सुनीता ने मनीषा को फोन कर पूछा, “कैसी हो मनीषा? तुम तो खुद कभी फोन करती नहीं हो.“

“क्या कहूं…? बस जीना एक मजबूरी हो गई है, इसलिए जिए जा रही हूं.“

“ऐसा क्यों बोल रही हो? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? अभी आगे बहुत लंबी जिंदगी पड़ी है. सुखदुख तो आतेजाते रहते हैं.“

“दुख हो तो झेल लूं, पर मेरा जीवन नासूर बन गया है सुनीता,“ मनीषा ने कहा.

“ऐसी कोई बात नहीं. आजकल हर ज़ख्म का इलाज है. तू बोल तो सही.“

मनीषा को कुछ देर खामोश देख कर सुनीता बोली, “तुम चुप क्यों हो गई हो? जब तक बोलोगी नहीं, मुझे तेरी तकलीफ का कैसे पता चलेगा. वैसे, मुझे कुछ अहसास है कि मनोज तुम्हें जरूरत से ज्यादा तंग करता है.“

मनीषा ने सिसकते हुए कहा, “2-2 बेटियां हैं, उन के लिए जीना मेरी मजबूरी है. पहले बात सिर्फ गालीगलौज तक रहती थी, अब तो अकसर बेटियों के सामने हाथ भी उठा देता है. वह भी बिना वजह.“

“आखिर वह चाहता क्या है? “

“तू तो जानती है, मेरा जौब वर्क फ्रॉम होम होता है. मुझे घर से बाहर ज्यादा जाने की जरूरत नहीं पड़ती है. मुझे ज्यादा तामझाम पसंद नहीं है.“

“तो इस से क्या हुआ?“

“मनोज को चाहिए कि मैं भी जींसशॉर्ट्स पहनूं, स्विमिंग सूट पहन कर स्विम करूं, उस के और उस के दोस्तों के साथ शराब पीऊं और डांस करूं. मुझ से यह सब नहीं होगा. उस के साथ कहीं पार्टी में जाती हूं, तो मैं अपने इंडियन ड्रेस में होती हूं.“

“इस में गलत क्या है, इस के लिए कोई तुम्हें फोर्स नहीं कर सकता है.“

“यह सब किताबों की बात है, प्रैक्टिकल लाइफ में नहीं. अब मनोज को साथ काम करने वाली शादीशुदा क्रिश्चियन औरत अमांडा मिल गई है, जो उस की मनपसंद है. कभी वह घर आती है तो उस के सामने भी मेरा अपमान करता है.“

“तो तुम बरदाश्त क्यों करती हो?“

“नहीं करूं तो रोज मार खाऊं? “

“तुम अमेरिका में रह कर ऐसी बात करती हो? एक काल 911 को कर, उस की सारी हेकड़ी निकल जाएगी.“

“नहीं, मुझ से नहीं होगा.“

“तो तू मर घुटघुट के,“ बोल कर सुनीता ने गुस्से में फोन काट दिया.

इस के कुछ ही दिनों के बाद सुनीता और रोहित अमेरिका गए. वे दोनों दूसरे शहर में होटल में रुके थे. सुनीता ने मनीषा को फोन किया. मनीषा का फोन बेडरूम में था. उस की बड़ी बेटी वहीं थी. उस ने कहा, “वन मिनट, मैं मम्मा को देती हूं.“

फोन वीडियो काल था. बेटी फोन लिए लिविंग रूम में आई, जहां मनोज और अमांडा शराब पी कर म्यूजिक पर डांस कर रहे थे. मनीषा मनोज को अमांडा को घर से बाहर निकालने के लिए बोल रही थी. इस पर मनोज मनीषा को गालियां दे रहा था और बोल रहा था, “यह नहीं जाएगी. तुझे जाना होगा,“ बोल कर वह मनीषा को घसीटने लगा. अमांडा भी उस का साथ दे रही थी. मनीषा को दरवाजे के बाहर निकाल कर मनोज ने दरवाजा बंद कर दिया. उधर सुनीता यह सब देख रही थी और रिकौर्ड कर रही थी.

सुनीता को यह सब सहन नहीं हुआ. उस ने फोन काट दिया और तुरंत 911 पर काल कर पूरी बात बता दी. कुछ ही मिनटों के अंदर मनीषा के घर पुलिस पहुंच गई, “यहां मनीषा कौन है?“

“मैं ही हूं. क्या बात है?“

“हमें सुनीता ने फोन कर आप की मदद करने के लिए कहा है. वैसे, सुनीता ने वीडियो क्लिप भी भेजी है. आप अपना स्टेटमेंट रिकौर्ड करवा दें. मनोज कौन है?“

“वे मेरे पति हैं और अंदर हैं.“

पुलिस के बेल दबाने पर मनोज ने दरवाजा खोला, तो उसे देख कर हक्काबक्का रह गया. पुलिस ने कहा, “आप को मेरे साथ थाने चलना होगा.“

मनोज को पुलिस ले गई. सुनीता ने फोन पर मैसेज भेजा था, “तुम दोनों बेटियों के साथ कनाडा आ जाओ. वहां से अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करना.“

राहुल बड़ा हो गया है: क्या मां समझ पाई

अमित से मैं अकसर इस बात पर उलझ पड़ती हूं कि राहुल अभी छोटा है. वह कभी हंस देते हैं, कभी झुंझला उठते हैं कि इतना छोटा भी नहीं है जितना तुम समझती हो.

अमित कहते हैं, ‘‘14 साल पूरे करने वाला है और तुम उसे छोटा ही कहती हो. मैं तो समझता हूं कि कल को उस के बच्चे भी हो जाएंगे तब भी राहुल तुम्हें छोटा ही लगेगा.’’

मैं इस तरह की बातें अनसुनी करती रहती हूं. बेटी मिनी, जो 16 की हुई है, वह भी अपने पापा के सुर में सुर मिलाए रखती है. वह भी यही कहती है, ‘‘छोटा है, हुंह, स्कूल में इस की मस्ती देखो तो आप को पता चलेगा कि यह कितना छोटा है.’’

मैं कहती हूं, ‘‘तो क्या हुआ, छोटा है तो मस्ती तो करेगा ही,’’ मतलब मेरे पास इन दोनों की हर बात का यही जवाब होता है कि राहुल अभी छोटा है. यह तो शुक्र है कि राहुल ने बहुत तेज दिमाग पाया है. कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करता है. खेलकूद में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जिस में भाग लेता है उसी में प्रथम स्थान प्राप्त करता है. यहीं पर अमित उस से बहुत खुश हो जाते हैं नहीं तो उसे मेरा छोटा कहना दोनों बापबेटी के लिए अच्छाखासा मनोरंजन का विषय रहता है. अब मैं क्या करूं, अगर वह मुझे छोटा लगता है. वैसे भी सुना है कि मां के लिए बच्चे हमेशा छोटे ही रहते हैं.

ठीक है, उस का कद मुझे पार कर गया है. मैं जो अच्छीखासी लंबी हूं, राहुल के कंधे पर आने लगी हूं. उस की हर समय खेलकूद की बातें, उस के चेहरे पर रहने वाली भोली सी मुसकराहट, बस, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, न घर में सब को पार करता उस का कद, न उस के होंठों के ऊपर हलकी सी उभरती मूंछों की कालिमा.

अभी एक हफ्ते पहले मैं ने राहुल का एक दूसरा ही रूप देखा जिसे देख कर मैं ने भी महसूस किया कि राहुल बड़ा हो गया है.

मेरी तबीयत अकसर ठीक नहीं रहती है. कभी कुछ, कभी कुछ, लगा ही रहता है. पिछले हफ्ते की बात है. एक दिन घर का सामान लेने बाजार जाना था. मेरी तबीयत सुबह से ही कुछ सुस्त थी. अमित टूर पर थे, मिनी की परीक्षाएं चल रही थीं. सामान जरूरी था, अत: राहुल और मैं शाम को 4 बजे के आसपास बाजार चले गए. यहां मुंबई में किसी भी दिन किसी भी समय कहीं भी चले जाइए भीड़ ही भीड़, लोग ही लोग. कोई कोना खाली नहीं दिखता.

मुंबई आए 7 साल होने को हैं लेकिन आज भी बाहर निकलती हूं तो हर तरफ भीड़ देख कर जी घबरा जाता है. साधारण हाउसवाइफ हूं, बाहर अकेले कम ही निकलती हूं.

खैर, उस दिन बाजार में सामान लेतेलेते एक जगह सिर बहुत भारी लगने लगा. अचानक ही मुझे तेज चक्कर आया और मैं पसीनेपसीने हो उठी. साथ ही पेट के अंदर कमर के पास तेज दर्द शुरू हो गया. राहुल मेरी हालत देख कर घबरा उठा. मैं ने उसे अपना पर्स व सामान थमाया और इतना ही कहा, ‘‘राहुल, तुरंत डाक्टर के पास चलो.’’

राहुल ने तुरंत आटो बुलाया और मुझे उस में बैठा कर मेरे फैमिली डाक्टर के नर्सिंग होम पहुंचा. रास्ते में मैं ने उसे मिनी को फोन कर के बताने को कहा. डाक्टर ने पहुंचते ही मेरा चेकअप किया और बताया, ‘‘ब्लडप्रेशर बहुत हाई है. मुझे कुछ टेस्ट करने हैं. दर्द के लिए इंजेक्शन दे रहा हूं, आज आप को यहां भरती होना पड़ेगा.’’

मैं यह सोच कर परेशान हो गई कि अमित शहर में नहीं हैं और परीक्षा की तैयारी में व्यस्त मिनी घर पर अकेली है.

मैं अपनी परेशान हालत में कुछ और सोचती इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘अंकल, मम्मी आज यहीं रुक जाएंगी. मैं सब देख लूंगा,’’ आगे मुझ से बोला, ‘‘आप बिलकुल किसी बात की चिंता मत करो, मम्मी. मैं यहीं हूं, मैं हर बात का ध्यान रखूंगा.’’

दर्द से तड़पती मैं उस हाल में भी गर्वित हो उठी यह सोच कर कि मेरा छोटा सा बेटा कैसे मेरी देखभाल के लिए तैयार है. दर्द से मेरी जान निकल रही थी. शायद इंजेक्शन से थोड़ी देर में मुझे नींद भी आ गई. इस बीच राहुल ने मिनी को फोन कर के कुछ पैसे और मेरे लिए खाने को कुछ लाने के लिए कहा.

रात 8 बजे मेरी आंख खुली, तो देखा, दोनों बच्चे मेरे सामने चुपचाप उदास बैठे थे. मन हुआ उठ कर दोनों को अपने सीने से लगा लूं. दर्द खत्म हो चुका था, कमजोरी बहुत महसूस हो रही थी.

मैं बच्चों से बोली, ‘‘अब मैं ठीक हूं. तुम लोग अब घर चले जाओ, रात हो गई है.’’

मैं ने अपनी 2-3 सहेलियों के नाम ले कर कहा, ‘‘उन लोगों को बता दो, उन में से कोई एक यहां रुक जाएगा रात को.’’

मैं आगे कुछ और कहती, इस से पहले ही राहुल बोल उठा, ‘‘नहीं, मम्मी, जब मैं यहां हूं और किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. आप देखना, मैं आप का अच्छी तरह ध्यान रखूंगा. मिनी दीदी, आप जाओ, आप के पेपर हैं. मम्मी और मैं सुबह आ जाएंगे.’’

राहुल आगे बोला, ‘‘हां, एक बात और मम्मी, हम पापा को नहीं बताएंगे. वह टूर पर हैं, परेशान हो जाएंगे. वैसे भी 2 दिन बाद तो वह आ ही जाएंगे.’’

मैं अपने छोटे से बेटे का यह रूप देख कर हैरान थी. मिनी को हम ने समझा कर घर भेज दिया. वैसे भी वह एक समझदार लड़की है. राहुल ने अपने हाथों से मुझे थोड़ा खाना खिलाया और कुछ खुद भी खाया. मेरे राहुल ने कितनी देर से कुछ भी नहीं खाया था, सोच कर मैं लेटेलेटे दुखी सी हो गई.

कुछ दवाइयों का असर था शायद मैं फिर सो गई लेकिन रात को मैं ने जितनी बार आंखें खोलीं, राहुल को बराबर के बेड पर जागते ही पाया. सुबह मुझे पता चला कि किडनी में पथरी का दर्द था. खैर, उस का इलाज तो बाद में होना था. ब्लडप्रेशर सामान्य था.

अब मैं डाक्टर की हिदायतों के बाद घर जाने को तैयार थी. डाक्टर से दवाई समझता, सब बिल चुकाता, एक हाथ से मेरा हाथ, दूसरे में मेरा पर्स और बैग थामता राहुल आज मुझे सच में बड़ा लग रहा था.

हैलोवीन: गौरव ने कद्दू का कौनसा राज बताया

लेखक- अनीता सक्सेना

गौरव जब सुबह सो कर उठा तो देखा, बड़े पापा गांव जाने को तैयार हो चुके थे. वे गौरव को देखते ही बोले, ‘‘क्यों बरखुरदार, चलोगे गांव और खेत देखने? दीवाली इस बार वहीं मनाएंगे.’’

दादी बोलीं, ‘‘अरे, उस बेचारे को सुबहसुबह क्यों परेशान कर रहा है. थक जाएगा वहां तक आनेजाने में.’’

गौरव हंस कर बोला, ‘‘नहीं दादी, मैं जाऊंगा गांव. मैं तो यहां आया ही इसलिए हूं. मुझे अच्छा लगता है, वहां की हरियाली देखने में और आम के बगीचे घूमने में.’’

‘‘आम तो बेटा इस मौसम में नहीं होंगे, हां, खेतों में गेहूं की फसल लगी मिलेगी. दीवाली पर नई फसल आती है न.’’

‘‘तब फिर चाय पी कर और नाश्ता कर के जाना,’’ दादी बोलीं.

‘‘अच्छा गौरव, तुम्हारे यहां दीवाली कैसे मनाई जाती है?’’ बड़े पापा ने पूछा. ताईजी तब तक सब के लिए चाय ले आई थीं, वे भी वहीं बैठ गईं.

‘‘दीवाली तो हम सब क्लब में मनाते हैं, लेकिन बड़े पापा अमेरिका में एक त्योहार सब मिल कर मनाते हैं, वह है हैलोवीन डे.’’

‘‘अच्छा, हमें भी तो बताओ क्या है हैलोवीन?’’ सौरभ भी निकल कर बाहर आ गया. ताईजी ने उसे भी चाय दी.

गौरव बोला, ‘‘जिस तरह हमारे देश में दीवाली का त्योहार मनाया जाता है उसी तरह अमेरिका में 31 अक्तूबर की रात को हैलोवीन का त्योहार मनाया जाता है. इस को मनाने की तैयारी भी दीवाली की तरह कई दिन पहले से शुरू कर दी जाती है.’’

‘‘अच्छा, यह क्या अमेरिका में ही मनाया जाता है?’’ दादी ने पूछा.

‘‘नहीं दादी, हैलोवीन डे आयरलैंड गणराज्य, ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया सहित समस्त पश्चिमी देशों में मनाया जाता है. कहा जाता है कि बुरी आत्माओं को घरों से दूर रखने के लिए इसे मनाया जाता है इसलिए लोग कई दिन पहले से ही घर के बाहर एक बड़ा सा कद्दू ला कर रख देते हैं साथ ही घर के बाहर चुड़ैल, भूत, झाड़ू, मकड़ी और मकड़ी के जाले आदि खिलौने रख देते हैं.’’

‘‘कद्दू? कद्दू तो सब्जी के काम आता है?’’ सौरभ ने कहा.

‘‘नहीं सौरभ, ये कद्दू खाने वाले कद्दू नहीं होते बल्कि बीज बनने को छोड़े हुए बड़ेबड़े कद्दू होते हैं जो पके व सूख चुके होते हैं. कद्दू के अंदर का सारा गूदा निकाल कर उसे खोल बना देते हैं फिर ऊपर से खूबसूरत तरीके से चाकू से काट कर उस की आंखें, मुंह इत्यादि बनाते हैं और इस के अंदर एक दीपक जला कर रख देते हैं. दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो किसी का चेहरा हो, जिस में से आंखें चमक रही हैं. बाजार में इन कद्दुओं के अंदर छेद करने और आंख इत्यादि बनाने के लिए कई औजार भी मिलते हैं. बच्चों के लिए इन हैलोवीन कद्दुओं की प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं.’’

‘‘पर जब भूतप्रेत होते ही नहीं, तो उन के लिए ये कद्दू क्यों?’’ दादी बोलीं.

‘‘नहीं दादी, दरअसल, हजारों साल पहले केल्ट जाति के लोग यहां आए थे. जो फसलों की खुशहाली के लिए प्रकृति की शक्तियों को पूजा करते थे. मूलत: यह त्योहार अंधेरे की पराजय और रोशनी की जीत का उत्सव है. नवंबर की पहली तारीख को केल्ट जाति का नया साल शुरू होता था. नए साल में कटी हुई फसल की खुशी मनाई जाती थी. उस के एक दिन पहले यानी 31 अक्तूबर को ये लोग ‘साओ इन’ नामक त्योहार मनाते थे. इन का मानना था कि इस दिन मरे हुए लोगों की आत्माएं धरती पर विचरने आती थीं और उन्हें खुश करने के लिए उन की पूजा होती थी. इस के लिए वे ‘द्रूइद्स’ नामक पहाड़ी पर जा कर आग जलाते थे. फिर इस आग का एकएक अंगारा लोग अपनेअपने घर ले जाते थे और नए साल की नई आग जलाते थे.’’

‘‘नए साल की आग का क्या मतलब हुआ?’’ बड़े पापा ने पूछा.

‘‘बड़े पापा, उस जमाने में माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था. घर में जली आग को लगातार बचा कर रखना पड़ता था. इस रोज पहाड़ी पर अलाव जलाया जाता था और उस में कटी फसल का भाग जलाया जाता था. इस अलाव की आग का अंगारा घर तक ले जाने के लिए तथा हवा बारिश में बुझने से बचाने के लिए उसे किसी फल में छेद कर के उस में सहेज कर ले जाया जाता था. आग को हाथ में देख कर बुरी आत्माएं वार नहीं करेंगी ऐसी मान्यता थी. इस के लिए कद्दू के खोल में जलता दीया रख कर ले जाया जाता था. रात के अंधेरे में कद्दू में आंखें और मुंह काट कर दीया रखने से एकदम राक्षस के सिर जैसा लगता था. कहीं पर इसे पेड़ पर टांग दिया जाता था और कहीं खिड़की पर रख दिया जाता था. आजकल घर के बाहर रख देते हैं.

‘‘जिस तरह से हमारे देश में बहुरूपिए बनते हैं ठीक उसी तरह से यहां लोग हैलोवीन पर बहुरूपिया बनते हैं. 31 अक्तूबर की रात को बच्चेबड़े सभी तरहतरह की ड्रैसेज पहनते हैं और चेहरे पर मुखौटे लगाते हैं. ये ड्रैसेज और मुखौटे काल्पनिक या भूतप्रेतों के होते हैं जो काफी डरावने दिखते हैं. ये ड्रैसेज व मुखौटे बाजारों में कई दिन पहले से बिकने शुरू हो जाते हैं, कई लोग मुखौटा पहनने की जगह चेहरे पर ही पेंट करा लेते हैं.

‘‘हैलोवीन के दिन बच्चे घरघर जाते हैं. हर बच्चा अपने साथ एक बैग या पीले रंग का कद्दू के आकार का डब्बा लिए रहता है. ये बच्चे घरों के अंदर नहीं जाते बल्कि लोग घरों के बाहर बहुत सारी चौकलेट्स एक बड़े से डब्बे में रख कर इन के आने का इंतजार करते हैं. हर बच्चा बाहर बैठे व्यक्ति के पास आता है और कहता है, ‘ट्रिक और ट्रीट’ उसे जवाब मिलता है ‘ट्रीट’ (ट्रिक यानी जादू और ट्रीट यानी पार्टी), बच्चे जोकि हैलोवीन बन कर आते हैं वे घर वालों को डरा कर पूछते हैं कि आप मुझे पार्टी दे रहे हो या नहीं? नहीं तो मैं आप के ऊपर जादू कर दूंगा.

‘‘घर वाले हंस कर ‘ट्रीट’ कहते हुए उन के आगे चौकलेट का डब्बा बढ़ा देते हैं. बच्चे खुश हो कर बाउल में से एकएक चौकलेट उठाते हैं और थैंक्स कह कर आगे बढ़ जाते हैं. देर रात तक बच्चों के बैग में बहुत सी चौकलेट्स इकट्ठी हो जाती हैं.’’

‘‘वाह गौरव, तुम ने तो आज बड़ी रोचक कहानी सुनाई और एक नए त्योहार के बारे में भी बताया, मजा आ गया,’’ दादी बोलीं तो सब ने उन की हां में हां मिलाई.

गौरव हंस पड़ा, सब चाय भी पी चुके थे. ताईजी लंबी सांस लेती हुई बोलीं, ‘‘बस, अब जल्दी से नाश्ता बनाती हूं, खा कर गांव जाना और सुनो, वहां से कद्दू मत ले आना,’’ उन्होंने कहा तो सब जोरजोर से हंसने लगे.

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