कितनी कैलोरी है जरूरी

आप एक दिन में जितनी कैलोरी का सेवन करते हैं उस का असर आप के वजन पर पड़ता है. स्वस्थ रहने एवं वजन नियंत्रण के लिए आप को ज्यादा कैलोरी की आवश्यकता नहीं होती है. इस के लिए अपनी डाइट में कम कैलोरीयुक्त खानपान की चीजें शामिल करना आवश्यक है, साथ ही वेट लौस ऐक्सरसाइज को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना आवश्यक है.

यदि आप वजन कम करना चाहते हैं तो आप सीआईसीओ यानी ‘कैलोरी इन कैलोरी आउट’ डाइट को अपना सकते हैं.

वजन नियंत्रित करने के लिए कितनी कैलोरी आवश्यक है? इस के लिए सब से पहले अपने बेसल मेटाबौलिक रेट (बीएमआर) की गणना करें, जो आप के शरीर की क्रियाओं जैसे सांस लेने, दिल की धड़कन, पाचन और मांसपेशियों आदि के लिए चाहिए.

अगर आप अपना वजन घटाना चाहते हैं तो अपनी डाइट में कम कैलोरी और वजन बढ़ाने के लिए अधिक कैलोरी को शामिल करें.

सीआईसीओ डाइट क्या है

  •  यह आप के प्रतिदिन कैलोरी इंटेक से जुड़ी डाइट है.
  •  यह वजन घटाने और वजन बढ़ाने दोनों के लिए ही उपयुक्त है क्योंकि यह आप की कैलोरी की खपत को पूरी तरह से नियंत्रित रख सकती है.
  •  जब आप का कैलोरी इन्टेक कम होता है और खपत ज्यादा होती है तो कैलोरी डैफिसिट माना जाता है जिस की वजह से आप का वजन तेजी से कम होता है.
  •  इस डाइट को करने के लिए आप को आप का बीएमआर कैलकुलेट करना पड़ता है. इस के बाद कैलोरी को डैफिसिट करते हैं ताकि आप का वजन कम हो सके. जैसे आप का कैलोरी  इन्टेक 2,000 प्रतिदिन कैलोरी है और आप ने दिनभर में बर्न की 2,500 कैलोरी तो यहां 500 कैलोरी का डैफिसिट है. इस का अर्थ हुआ कि अब आवश्यक 500 कैलोरी आप के शरीर में स्टोर्ड फैट और मसल्स से बर्न होगी और आप का वजन तेजी से कम होने लगेगा.

सीआईसीओ के फायदे

  •  कैलोरी की खपत को नियंत्रित करती है.
  •  इस डाइट को फौलो करने से आप वजन बढ़ाने से बच सकते हैं.
  •  यह डाइट हृदय रोग, अवसाद, कैंसर और सांस की समस्याओं तक कई बीमारियों से सुरक्षित रखने में मदद कर सकती है.
  •  शरीर की अतिरिक्त चरबी को प्राकृतिक रूप से कम करने के लिए भी इस डाइट को फौलो किया जा सकता है.
  • इस के अलावा आप औक्सीडेटिव तनाव कम करने और हारमोनल संतुलन बनाए रखने के लिए भी इस डाइट को अपना सकते हैं.

सीआईसीओ के नुकसान

  •  कैलोरी पर बहुत अधिक ध्यान देने से शरीर में महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों की कमी होने का खतरा बढ़ जाता है.
  •  इस डाइट से बालों का ?ाड़ना, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं, हृदय रोग, मस्तिष्क रोग, सूजन और कमजोर रोगप्रतिरोधक क्षमता जैसी समस्याएं हो सकती हैं.
  •  इस के अतिरिक्त कैलोरी की कमी से ऐक्सरसाइज करने में कठिनाई भी हो सकती है.

वजन कम करने के लिए आवश्यक नहीं कि आप अपनी कैलोरी को काउंट करें. आप इस के लिए एक बेहतर डाइट प्लान बना सकते हैं ताकि शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी न हो और कमजोरी महसूस न हो और आप का शरीर स्वस्थ बना रहे.

अपनाएं ये टिप्स

अपने आहार में चुनें ऐसी चीजें जिन की कैलोरी कम हो. चयन करें पोषक तत्त्वों से भरपूर खाना न कि कैलोरी के हिसाब से जैसे लो कैलोरी वाली चीजें चावल, केक, एग व्हाइट आदि की जगह न्यूट्रिशएस फूड को अपने आहार में शामिल करें जैसे फल, सब्जियां, फिश, एग्स, बींस और नट्स.

रहें ऐक्टिव

अपनी कैलोरी को बर्न करने के लिए अपनी हौबी के अनुसार ऐक्टिविटी का चुनाव करें ताकि कैलोरी का डैफिसिट हो सके. अपनी नींद और स्ट्रैस को मैनेज करें. अच्छी नींद और कम तनाव दोनों वजन कम करने में सहायक होते हैं. अत: 7-8 घंटे की साउंड नींद लें और तनाव से दूर रहें.

सिगरेट से ज्यादा खतरनाक है फ्लेवर्ड हुक्का

भारत में आज कल हर छोट बड़े शहरों और मौल्‍स में हुक्‍का बार या शीशा लाउंज पौपुलर हो रहे हैं. खासकर युवा वर्ग अकसर बार में हुक्के के कश लगाते दिख जाते हैं. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि हुक्का पीना सिगरेट पीने से ज्यादा नुकसानदेह नहीं होता. उनका मानना है कि हुक्के से खींचा जाने वाला तंबाकू पानी से होते हुए आता है इसलिए वह ज्यादा नुकसानदेह नहीं होता. लेकिन हाल ही सामने आई एक रिसर्च से पता चला है कि हुक्का भी सिगरेट के बराबर हार्ट को नुकसान पहुंचाता है. इससे दिल की बीमारी होने खतरा बढ़ जाता है.

वहीं ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक हुक्का में जिस तंबाकू का इस्तेमाल होता है, उसमें कई तरह के अलग-अलग फ्लेवर का भी इस्तेमाल होता है. यही वजह है कि आज कल युवा इसे ज्यादा पसंद कर रहे हैं. हुक्के का स्वाद बदलने के लिए उसमें फ्रूट सिरप मिलाया जाता है, जिससे किसी भी तरह का विटामिन नहीं मिलता. लोगों को लगता है कि हुक्के में मिलाया जाने वाला यह फ्लेवर स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. इसके अलावा हुक्के में सिगरेट की ही तरह कार्सिनोजन लगा होता है जिससे कैंसर होने की संभावना प्रबल होती है. हुक्के का धुआं ठंडा होने के बाद भी नुकसान पहुंचाता है. यह हार्ट अटैक, स्ट्रोक और कार्डियोवैस्कुलर जैसी जानलेवा बीमारियों का कारण बनता है.

यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया की रिसर्च के मुताबिक हुक्के में इस्तेमाल किए जाने वाले हशिश (एक प्रकार का ड्रग) सेहत के लिए हानिकारक होता है. रिपोर्ट में बताया गया है कि जो लोग हुक्का पीते हैं उनकी धमनियां सख्त होने लगती हैं और हार्ट से संबंधित बारी होने का खतरा बढ़ जाता है. शोधकर्ताओं के मुताबिक हुक्के में भी सिगरेट की तरह हानिकारक तत्व व निकोटीन पाए जाते हैं, जो सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं. इसलिए लोगों को यह मानना बंद कर देना चाहिए कि इसकी लत नहीं लग सकती. हुक्के में मौजूद तंबाकू में 4000 तरह के खतरनाक रसायन होते हैं. हुक्के के बारे में सच यही है कि इसका धुआं सिगरेट के धुएं से भी ज्यादा खतरनाक होता है.

घुटनों से जुड़ी बीमारी का इलाज बताएं?

सवाल

मैं 48 साल की गृहिणी और जोड़ों के दर्द से पीडि़त हूं. मेरे घुटनों में करीब 13 सालों से दर्द है. डाक्टरों के पास जाने पर पता चला कि मेरे घुटनों की हालत बहुत बिगड़ चुकी है और इन्हें बदलने की जरूरत है. औपरेशन से पहले मैं अपने घुटनों को आराम देने के लिए क्या कर सकती हूं?

जवाब-

घुटनों को बदलवाने की सर्जरी से पहले आप को अपने बढ़े वजन को कम करना चाहिए और घुटनों के इर्दगिर्द की उन मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए व्यायाम करना चाहिए, जो चलनेफिरने में आप के घुटनों को मदद करती हैं. सर्जरी के बाद फिजियोथेरैपिस्ट की देखरेख में की जाने वाली फिजिकल थेरैपी दर्द को कम करने में काफी प्रभावशाली हो सकती है. फिजियोथेरैपी में मांसपेशियों को मजबूत करना, दोनों घुटनों की चलनेफिरने के बाद घर पर नियमित व्यायाम करना जरूरी है.

सवाल-

मेरे घुटनों में बहुत ज्यादा दर्द होता है. सर्दियों में यह और बढ़ जाता है. क्या सर्जरी ही दर्द से मुक्ति का एकमात्र इलाज है?

जवाब

सर्दियों में जोड़ों में दर्द होने की बहुत ज्यादा संभावना होती है. बैरोमीट्रिक दबाव में बदलाव से घुटनों में सूजन और बहुत तेज दर्द हो सकता है. चूंकि घुटने ही शरीर का पूरा भार वाहन करते हैं, इसलिए अपने वजन पर निगरानी रखनी बहुत जरूरी है. अगर आप में घुटनों के आर्थ्राइटिस की पहचान हुई है तो इस का मतलब यह नहीं है कि आप को अभी घुटने बदलवाने की आवश्यकता है.

अगर आप को बारबार घुटनों में दर्द होता है तो डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए. आप की स्थिति की गंभीरता के आधार पर डाक्टर आप के इलाज के तरीके पर फैसला कर सकता है. आमतौर पर शुरुआत में मरीज को अपने लाइफस्टाइल में बदलाव लाने, उचित आहार लेने, वजन कम करने और नियमित व्यायाम की सलाह दी जाती है. सर्जरी की सलाह मरीज को तभी दी जाती है, जब दर्द कम करने की किसी भी तकनीक से मरीज को कोई आराम न मिले.

सवाल

जब से मेरा वजन बढ़ा है तब से घुटनों में दर्द बहुत बढ़ गया है. क्या वजन बढ़ने के कारण घुटनों में शरीर का वजन सहन करने की क्षमता प्रभावित होती है?

जवाब

शरीर का वजन बढ़ना ही जोड़ों, खासकर घुटनों पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. शरीर का बढ़ा 1 किलोग्राम वजन भी घुटनों पर 4 गुना ज्यादा दबाव डाल सकता है. इसलिए वजन को नियंत्रित करना बेहद जरूरी है, क्योंकि इस से आप के घुटनों पर पड़ने वाला ज्यादा दबाव कम हो सकता है. शरीर का वजन कम रखने से आर्थ्राइटिस से जुड़ा दर्द कम हो सकता है और यह शुरुआती चरण से बाद की स्टेज में जाने से रुक सकता है.

सवाल-

मैं 21 साल का बैडमिंटन खिलाड़ी हूं. पिछले साल मुझे बैडमिंटन कोर्ट में चोट लग गई थी. उसी के बाद से मेरे बाएं घुटने में पहले जैसी ताकत नहीं रह गई है. सर्दियों में यह बहुत ज्यादा दर्द करता है. क्या टीकेआर मेरे लिए विश्वसनीय समाधान होगा?

जवाब-

घुटनों के दर्द ने नौजवानों, युवाओं और बुजुर्गों सभी को समान रूप से जकड़ रखा है. आप के  मामले में घुटनों को बदलने की सर्जरी का फैसला लेने से पहले डाक्टर से मिल कर सही जांच कराना ठीक होगा. अगर आप का डाक्टर आप को टीकेआर की सलाह देता है, तो घबराने की कोई जरूरत नहीं है. यह बहुत ही सुरक्षित प्रक्रिया है.

अब इस क्षेत्र में उपलब्ध नई तकनीकों से एक इंप्लांट की मदद से क्षतिग्रस्त घुटनों को बदला जा सकता है, जिस से कुछ ही हफ्तों में आप के घुटनों में पहले जैसी ताकत वापस आ जाएगी. इस के अतिरिक्त इस से अपना लाइफस्टाइल भी सुधारने में मदद मिलेगी. इंप्लांट कराने से तापमान का पारा गिरने या सर्दियों में आप के घुटनों को बेहतर तरीके से कामकाज करने में मदद मिलेगी.

सवाल-

क्या आप बदलते मौसम में घुटनों को नुकसान से बचाने के लिए जीवनशैली में कुछ बदलाव का सुझाव दे सकते हैं? मैं एक 45 वर्षीय मरीज हूं. जो लंबे समय से घुटनों के पुराने दर्द से पीडि़त हूं?

जवाब-

तलेभुने पदार्थ न खाएं. धूम्रपान छोड़ दें. विटामिन डी सप्लिमैंट्स लें. घुटनों के इर्दगिर्द की मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए टहलने, सैर करने के साथसाथ हलकेफुलके व्यायाम भी करने की जरूरत होगी. हलकेफुलके शारीरिक व्यायाम से घुटनों पर कम दबाव पड़ेगा. अगर चलने से आप के घुटनों में तकलीफ होती है तो आप पानी में रह कर किए जाने वाले व्यायाम जैसे वाटर ऐरोबिक्स, डीप वाटर रनिंग (गहरे पानी में जौगिंग) करने पर विचार कर सकते हैं. आप ऐक्सरसाइज करने वाली साइकिल का भी प्रयोग कर सकते हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

फैस्टिव फिटनैस टिप्स

उत्सवी माहौल होता ही ऐसा है कि लोग दिनरात मौजमस्ती के रंग में रंगे रहते हैं. ऐसे में वक्तबेवक्त सोना और खानापीना तो आम बात है. हां, इन वजहों से आप की सेहत खराब न हो, इस के लिए यहां बताई गई बातों पर गौर जरूर करें.

खानपान

फैस्टिव सीजन में मिठाई और पार्टी से पूरी तरह परहेज करना मुमकिन नहीं होता. फिर भी अपने डेली रूटीन में कुछ बातों का ध्यान रखने से आप काफी हद तक त्योहारों के साइड इफैक्ट्स से खुद को महफूज रख सकती हैं.

– हमारे शरीर में पानी का बहुत ज्यादा महत्त्व है. अत: सुबह उठ कर 2 गिलास कुनकुना पानी पीने से शरीर के अच्छे बैक्टीरिया शरीर में रहते हैं और पानी शरीर को नई ऊर्जा देता है. इस के कुछ देर बाद अजवाइन को उबाल कर उस के पानी को पीने से आप काफी हद तक फैट को कंट्रोल कर सकती हैं. दिन में कम से कम 8-10 गिलास पानी पीना न भूलें.

– सुबह खाली पेट 1 चम्मच अलसी के बीज भी कोेलैस्ट्रौल कम करने में सहायता कर सकते हैं. नमकरहित खाना या खाने में कम नमक का प्रयोग करने से भी आप अपने वजन को कंट्रोल कर सकती हैं, साथ ही बैली फैट भी नहीं बढ़ता. ब्लडप्रैशर भी ठीक रहता है. त्योहारों के दौरान रात के खाने से ले कर सुबह के नाश्ते तक हफ्ते में 2 दिन नमक का प्रयोग करें.

– खाना खाने से आधा घंटे पहले और 1 घंटा बाद पानी न पीएं. पूरे दिन में न ज्यादा ठंडा न ज्यादा गरम पानी पीएं. ऐसा करने से पाचनशक्ति बढ़ाने में मदद मिलेगी.

– घर में बनने वाली मिठाई में चीनी की जगह गुड़ का प्रयोग करें. दुकान से भी बेसन से बनी मिठाई ही खरीदें. काफी शोधों से पता चला है कि चीनी, गेहूं और दूध शरीर में जलन पैदा करते हैं, जिस से शरीर में ऊर्जा की कमी होने लगती है.

– नीबू पानी या विटामिन सी सप्लिमैंट लेने से जलन से बचा जा सकता है.

अच्छी नींद

फैस्टिव सीजन की भागदौड़ के चलते महिलाएं भरपूर नींद नहीं ले पातीं. जो बहुत नुकसानदायक सिद्ध होता है. इसलिए कम से कम 6-7 घंटे की नींद जरूर लें, क्योंकि सोने के दौरान शरीर से निकलने वाला कैमिकल मैलाटोनिन शरीर को ऊर्जावान बनाता है.

वार्मअप ऐक्सरसाइज

चाहे आप गृहिणी हों या कामकाजी सभी को त्योहारों के कामकाज से निबटने के लिए ऐनर्जी की जरूरत होती है. अत: इस के लिए सुबह की हुई वार्मअप ऐक्सरसाइज पूरे दिन के लिए ऊर्जा से भर देती है. ये ऐक्सरसाइजेज बहुत ही सरल और इफैक्टिव हैं.

– घुटनों को बारीबारी से 10-10 बार छाती की तरफ ले जाना.

– एक ही जगह 2 मिनट खड़े हो कर जौगिंग करना.

– 4-4 बार फौरवर्ड बेंडिंग ऐंड साइड बेंडिंग करना.

– 5-5 बार धीरेधीरे दोनों ओर गरदन घुमाना.

शारीरिक और मानसिक तनाव को दूर करने के लिए कानों को कंधों से छुआना, कंधों को घुमाना. नैक स्ट्रैचिंग को भी आजमाया जा सकता है.

पोस्चर

– खड़े हो घुटनों को हलका सा मोड़ कर रखें.

– सोते समय 1 तकिया गरदन के नीचे और 1 तकिया पैरों के बीच में करवट सोते हुए और सीधे सोते हुए तकिया घुटनों के नीचे लगाएं.

– गाड़ी में घूमते समय अगर गाड़ी की सीट नीची है तो एक कुशन कूल्हों के नीचे लगा कर बैठें.

– सीधा कमर को न मोड़ कर घुटनों को मोड़ कर नीचे झुक कर कोई चीज उठाएं.

– एक पैर को आगे और एक को पीछे रख कर ऊपर से कुछ उतारें.

– खाना पकाते समय कंधों को पीछे रखें और गरदन को हर 2-3 मिनट में सीधा करती रहें.

– डा. एकता अग्निहोत्री

प्रेग्नेंसी में तनाव से होता है मिसकैरिज का खतरा, जानिए क्या करना चाहिए

प्रेग्नेंसी के वक्त आपको बेहद सीवधानी बरतनी होती है. इसमें आपका खानपान, दिनचर्या और मानसिक अशांति शामिल है. हालिया अध्ययन में ये बात सामने आई कि प्रेग्नेंसी के दौरान ज्यादा तनाव में रहने वाली महिलाओं में मिसकैरिज (Miscarriage) का खतरा बढ़ जाता है.

शोधकर्ताओं का दावा है कि प्रेग्नेंसी के दौरान तनाव में रहने वाली महिलाओं में गर्भपात का खतरा 42 फीसदी अधिक हो जाता है. इससे पहले हुए अध्ययन की रिपोर्ट में यह पाया गया था कि 24 सप्ताह की प्रेग्नेंसी में होने वाले गर्भपात में 20 फीसदी मामले तनाव के कारण होते हैं. हालांकि बाद में हुए अध्ययन के बाद यह पाया गया कि आंकड़ें इससे कहीं ज्यादा हैं. क्योंकि गर्भपात के कई मामले दर्ज ही नहीं होते.

इसके अलावा रिपोर्ट में ये बात भी सामने आई कि युवावस्था से ही तनाव और अवसाद का सामना करने वाले लोगों को आगे जीवन में कई तरह की बीमारियों का खतरा तेज हो जाता है.

जानिए कैसे करें प्रेग्नेंसी में तनाव पर काबू

  • अगर आप कोई काम नहीं करना चाहती तो मना करना सीखें. टेंशन ले कर किसी काम को करना आपके और आपके बच्चे के लिए खतरनाक हो सकता है.
  • घर का ज्यादा काम ना करें. कोशिश करें कि अपने लिए कुछ खास वक्त निकालें. खाली वक्त में आप किताबें पढ़ सकती हैं या आराम कर सकती हैं.
  • अगर आप कामगर महिला हैं तो औफिस से छुट्टी लें और घर पर आराम कर अपना वक्त बिताएं.
  • स्वीमिंग या वौक नियमित तौर पर करें.
  • हेल्दी खाएं, संतुलित आहार आपके शरीर और मानसिक सेहत दोनों को ठीक रखेगा.
  • रात में जल्दी सोने की आदत डाल लें. आपके बच्चे के लिए ये बेहद जरूरी है.
  • दूसरों की बातों का बुरा ना माने. इस दौरान अगर लोग आपको कुछ कहते भी हैं तो उन्हें अनसुना कर दिया करें.
  • लाख कोशिशों के बाद भी आप तनाव से दूर नहीं हो पा रही हैं तो बेहतर है कि आप किसी डाक्टर या थेरेपिस्ट से संपर्क करें.

तो सूनी गोद में भी गूंजेगी किलकारी

मां बाप बनना किसी भी दंपती के लिए सब से बड़ा और सुखद अवसर होता है. शादी के कुछ समय बाद हर युगल अपना परिवार आगे बढ़ाने की चाह रखता है. 2-3 हो कर घरआंगन में बच्चों की किलकारियां सुनने को बेताब दंपती, पहले 1-2 साल कुदरती रूप से गर्भधान की कोशिश करते हैं. अगर कुदरती रूप से गर्भ नहीं ठहरता तब चिकित्सकों के चक्कर चालू हो जाते हैं.

आजकल फर्टिलिटी फैल्योर रेट दिनबदिन बढ़ता जा रहा है. बां?ापन को एक बीमारी के रूप में देखते हैं. 12 महीने या उस से अधिक नियमित असुरक्षित यौन संबंध के बाद भी गर्भधारण करने में सक्सैस न होने पर जोड़े को बांझ माना जाता है.  डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि भारत में बांझपन की दर 3.9 % और 16.8त्% के बीच है.

अगर संयुक्त परिवार में रहने वाला युगल शादी के 1-2 साल बाद भी कोई खुशखबरी नहीं देता तब घर वालों और रिश्तेदारों के सवालों का शिकार होते परेशान हो उठता है. घर के बड़ेबुजुर्गों को दादादादी बनने की जल्दी होती है. बहू के पीरियड्स आने पर कुछ सासों की भवें तन जाती हैं. एक तो गर्भ न ठहरने की चिंता ऊपर से घर वालों का व्यवहार और व्यंग्यबाणों से छलनी होती जिंदगी के प्रति पतिपत्नी उदास हो जाते हैं.

हर कुछ दिनों बाद इस मामले में पूछताछ करने वाले परिवार जन उन को दुश्मन लगने लगते हैं.तकरार की शुरुआतमगर जो दंपती अकेले रहते हैं उन को क्या बांझपन को ले कर कम परेशानी उठानी पड़ती है? हरगिज नहीं, ऐसे दंपती को लगता है जैसे पासपड़ोस वालों को छोड़ो अजनबी लोगों की नजरें भी जैसे यही सवाल करती हैं कि कब खुशखबरी दे रहे हो? दूर बैठे परिवार वाले और रिश्तेदार फोन कर के बातोंबातों में इस विषय पर जरूर पूछते हैं कि कब तक हमें दादादादी बनने का सुख प्राप्त होगा? तब पतिपत्नी आहत होते अपनों के फोन उठाने से भी कतराने लगते हैं.

बांझपन के शिकार युगलों को शारीरिक कमी की चिंता मानसिक रूप से डांवांडोल करते पूरे शरीर की व्यवस्था बिगाड़ देती है. न कह सकते हैं, न सह सकते हैं. बांझपन की वजह से तकरार की शुरुआत एकदूसरे पर शक और दोषारोपण से होती है. दोनों को खुद स्वस्थ और सामने वाले में कमी नजर आती है.कुछ मामलों में कभीकभी पति गलतफहमी का शिकार होते सोचता है कि शादी से पहले मुझे हस्तमैथुन की आदत थी कहीं उस की वजह से मुझ में कोई कमी तो नहीं आ गई? कहीं मेरा वीर्य तो पतला नहीं हो गया? कहीं शुक्राणुओं की संख्या तो कम नहीं हो गई? उस काल्पनिक डर की वजह से काम में तो ध्यान नहीं दे पाता साथ में सैक्स लाइफ पर भी उस का बुरा प्रभाव पड़ता है.

चाह कर भी न खुद चरम तक पहुंच पाता है, न ही पत्नी को सुख दे पाता है. इस की वजह से दोनों एकदूसरे से खिंचेखिंचे रहते हैं.हीनभावना से ग्रस्तऐसे ही किसी मामले में पत्नी भी खुद को दोषी सम?ाते सोचती है कि पीसीओडी की वजह से मेरे पीरियड्स अनियमित हैं. उस की वजह से तो कहीं गर्भाधान नहीं हो पा रहा या तो कभी किसी लड़की ने कुंआरेपन में किसी गलती की वजह से अबौर्शन कराया होता है तो वह बात न पति को बता सकती है न डाक्टर को, ऐसे में वह गिल्ट उसे अंदर ही अंदर खाए जाती है, जिस की वजह से अंतरंग पलों में पति को सहयोग नहीं दे पाती.

तब प्यासा पति या तो पत्नी पर शक करने लगता है या फिर पत्नी से विमुख हो किसी और के साथ विवाहेत्तर संबंध से जुड़ जाता है.कई बार संयुक्त परिवार से अलग रहने वाले युगल उन्मुक्त लाइफस्टाइल जीते हैं, जिस में आएदिन पार्टियों में आनाजाना लगा रहता है और आजकल युवाओं की पार्टियां शराब, सिगरेट और जंक फूड के बिना तो अधूरी ही होती है.

अत: अल्कोहल, तंबाकू और जंक फूड का सेवन भी गर्भाधान में बाधा डालने का कारण बन सकता है.कई बार यह भी देखा जाता है कि लाख प्रयत्न के बाद भी जब गर्भाधान में कामयाबी नहीं मिलती तब कुछ युगल नीमहकीमों या बाबाओं के चक्कर में पड़ कर समय और पैसे बरबाद करते हैं और ऐसे गलत उपचारों से निराश हो कर उम्मीद ही खो बैठते हैं.

ऐसी परिस्थिति में कुछ लोग हार कर कभीकभी प्रयत्न करना ही छोड़ देते हैं.मगर ऐसे हालात में अगर पतिपत्नी दोनों समझदार होंगे तो बांझपन के बारे में एकदूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय खुल कर विचारविमर्श कर के डाक्टर के पास जा कर सारे टैस्ट करवा कर उचित रास्ता अपनाते हैं.

बांझपन के कारणबां?ापन के कई कारण हो सकते हैं. एक तो आज के दौर में कैरियर औरिएंटेड लड़के, लड़कियां शादी को टालमटोल करते 30-32 के हो जाते हैं. ऊपर से शादी के बाद कुछ समय घूमनेफिरने और ऐश करने में गंवा देते हैं, जबकि हर काम उम्र रहते हो जाना चाहिए यह नहीं सोचते.ऊपर से मौजूदा जीवनशैली, गलत खानपान, पर्यावरणीय फैक्टर और देरी से बच्चे पैदा करने सहित विभिन्न कारणों की वजह से बांझपन आम हो गया है.

माना जाता है कि गर्भनिरोधक गोलियों के उपयोग ने भी बां?ापन के बढ़ते मामलों में योगदान दिया है.बांझपन मैडिकल कंडीशन यानी एक बीमारी है जहां कई दंपती कई वर्ष तक प्रयास करने के बाद भी गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं. यह समस्या दुनियाभर में एक चिंता का विषय है. इस बीमारी से लगभग 10 से 15त्न जोड़े प्रभावित होते हैं साथ में ओव्यूलेशन की समस्या महिलाओं में बांझपन का सब से आम कारण है. एक महिला की उम्र, हारमोनल असंतुलन, वजन, रसायनों या विकिरण के संपर्क में आना और शराब, सिगरेट पीना सभी प्रजनन क्षमता पर प्रभाव डालते हैं.क्या कहते हैं ऐक्सपर्टडाक्टर के अनुसार प्रैगनैंट होने के लिए सही उम्र 18 से 28 मानते हैं.

इसलिए इन वर्षों के बीच बच्चे के लिए किए गए प्रयास अधिक सफल होते हैं.सब से पहले तो शादी सही उम्र में कर लेनी चाहिए और यदि शादी लेट हुई है तो बच्चे की प्लानिंग में देरी नहीं करनी चाहिए वरना प्रैगनैंसी में दिक्कत हो सकती है.पतिपत्नी की सैक्स लाइफ हैल्दी होनी चाहिए. जब तक आप बारबार मैदानएजंग में नहीं उतरेंगे तब तक आप समस्या से लड़ेंगे कैसे जीतेंगे कैसे? इसलिए प्रैगनैंसी के लिए सब से जरूरी है कि पीरियड्स के बाद जिन दिनों गर्भाधान की संभावना ज्यादा होती है उन दिनों में अपने पार्टनर के साथ नियमित सैक्स करना चाहिए.

जितना अधिक सैक्स होगा प्रैगनैंसी की संभावना भी उतनी ही अधिक बढ़ जाएगी.जब कुदरती रूप से गर्भाधान में कामयाबी नहीं मिलती तब डाक्टर दंपती के सामने कुछ औप्शन रखते हैं जैसेकि:आईवीएफ पद्धति से प्रैगनैंसीयह एक सामान्य फर्टिलिटी ट्रीटमैंट है. इस प्रक्रिया में 2 स्टैप ट्रीटमैंट किया जाता है. यदि महिला के अंडाशय में एग का सही तरह से निर्माण नहीं हो रहा है और वह फौलिकल से अलग नहीं हो पा रहा है, पुरुष साथी में शुक्राणु कम बन रहे हैं या वे कम ऐक्टिव हैं तो ऐसे में महिला को कुछ इंजैक्शन दिए जाते हैं, जिस से ऐग फौलिकल से सही तरह से अलग हो पाता है.

इस के बाद पुरुष साथी से शुक्राणु प्राप्त कर उन्हें साफ किया जाता है और उन में से क्वालिटी शुक्राणुओं को एक सिरिंज द्वारा महिला के गर्भाशय में छोड़ा जाता है. इस के बाद की सारी प्रक्रिया कुदरती रूप से होती है. इस की सफलता की दर 10 से 15त्न होती है.

कुछ मामलों में आईयूआई से सफलता मिल जाती है, लेकिन यदि समस्या किसी और तरह की है तो आईवीएफ ही सही उपचार होता है.समस्या का निवारणइन्फर्टिलिटी की समस्या से पीडि़त दंपतियों को इनविट्रोफर्टिलाइजेशन की तकनीक की सलाह दी जाती है. यह पद्धति तब उपयोग में ली जाती है जब फैलोपियन ट्यूब में किसी भी कारण से कोई रुकावट हो जाए या खराब हो जाए.

महिला के ओव्यूलेशन में समस्या होने पर आईवीएफ की मदद से गर्भधारण किया जा सकता है. टैस्ट ट्यूब बेबी तकनीक अब नई नहीं रही. अनुभवी डाक्टर से करवाया गया उपचार परिणाम जरूर देता है.कृत्रिम रूप से गर्भवती होने में थोड़ा जोखिम तो है और इन प्रक्रियाओं में कुछ जटिलताओं का भी सामना करना पड़ सकता है.

लेकिन इस का मतलब यह हरगिज नहीं कि जो महिलाएं इनविट्रो फर्टिलाइजेशन या कृत्रिम गर्भाधान से गुजरती हैं उन्हें निश्चित रूप से स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है. आजकल उन्नत चिकित्सा विधियों की बदौलत कृत्रिम गर्भाधान की सफलता दर में काफी सुधार आया है. इसलिए इन्फर्टिलिटी के शिकार युगलों को हारे बिना, गबराए बिना सही निर्णय ले कर सही उपचार द्वारा समस्या का निवारण करना चाहिए.

स्तन कैंसर की दवाओं में नए आविष्कारों से महिलाओं के इलाज में मिली मदद

45 वर्षीय अश्विनी (काल्पनिक नाम) बैंगलुरु की रहने वाली हैं और पेशे से डेटा एनालिस्ट हैं. उनके जीवन में तब एक अप्रत्याशित मोड़ आया जब वे अपनी त्वचा की पुरानी समस्या के लिए डॉक्टर के पास गई थीं. कुछ समय से वे अपनी समस्या से कुछ ज्यादा परेशान थीं. उन्हें जरा भी एहसास नहीं था कि डॉक्टर से उनकी यह मुलाकात उन्हें एकदम अप्रत्याशित और मुश्किल रास्ते पर लेकर जाएगी.

डॉक्टर जब उनकी जांच कर रहे थे, अश्विनी ने प्रसंगवश बताया कि उन्हें अपनी ब्रेस्ट में थोड़ी बेचैनी महसूस होती थी. डॉक्टर ने तुरंत उनकी ब्रेस्ट की जांच की और उन्हें किसी ऑन्कोलॉजिस्ट (कैंसर रोग विशेषज्ञ) से दिखाने को कहा. ऑन्कोलॉजिस्ट ने मैमोग्राम कराने को कहा और इसमें उनकी ब्रेस्ट में संदेहास्पद गांठ का पता चला. आगे की गई और जांचों में उन्हें ब्रेस्ट कैंसर होने की पुष्टि हो गई. भारत में कैंसर सार्वजनिक स्वास्थ्य की गंभीर चिंता का विषय है, जबकि ब्रेस्ट कैंसर मृत्यु का प्रमुख कारण बना हुआ है. वर्ष 2020 में सभी प्रकार के कैंसर में ब्रेस्ट कैंसर का अनुपात 13.5त्न और सभी मौतों में 10.6त्न था.

इसके अलावा ब्रेस्ट कैंसर होने के बाद पहले 5 वर्षों तक केवल 66त्न रोगी ही जीवित रह पाते हैं, जबकि विकसित देशों में यह दर 90त्न है. बीएमसीएचआरसी हॉस्पिटल, जयपुर के डायरेक्टर और एचओडी मेडिकल ऑन्कोलॉजी, डॉ. अजय बापना के अनुसार, मुख्यत: जागरूकता और प्रेरणा, इन दो कारणों से महिलायें ब्रेस्ट कैंसर की जांच नहीं करातीं. डॉ. बापना ने कहा, ‘‘अगर महिलाओं को ब्रेस्ट में निप्पल पर या आस-पास की त्वचा में बदलाव जैसी कोई असमान्यता दिखती है, तो उन्हें सतर्क हो जाना चाहिए. अगर महिला की उम्र 40 से ज्यादा है, तो उसे इस प्रकार के बदलावों के प्रति ज्यादा सावधान रहना चाहिए और तुरंत अपनी जांच करानी चाहिए.’’अदृश्य लड़ाई में दृढ़ता: अश्विनी की बायोप्सी का नतीजा एचईआर2-पॉजिटिव ब्रेस्ट कैंसर के लिए पॉजिटिव पाया गया.

ऑन्कोलॉजिस्ट ने तेज उपचार की योजना बनाई जिसमें ट्रैस्टुजुमाब (हर्सेप्टिन) और पर्टुजुमाब (पर्जेटा) मोनोक्लोकल ऐंटीबॉडीज के साथ कीमोथेरेपी और उसके बाद रेडिएशन शामिल था. चूंकि इन दवाओं को खून की नली (आईवी) में दिया जाता है, इसलिए इसमें अस्पताल और रोगी, दोनों पर भारी दबाव पड़ता है. उपचार की प्रक्रिया आम तौर पर अनेक सत्रों में पूरी होती है जिसमें6 महीनों से लेकर एक वर्ष तक का समय लगता है. चूंकि प्रत्येक स्तर में कई-कई घंटे लग जाते हैं, इससे रोगी का दैनिक जीवन बाधित होता है और काम तथा पारिवारिक दायित्वों पर बोझ पड़ता है. अश्विनी ने बताया, ‘‘प्रतीक्षा अवधि विशेषकर लम्बी थी. मेरा मतलब है कि मुझे बिस्तर पर रहना होता और बिस्तर पर ही दवायें दी जायेंगी.

लेकिन मेरे पिता, जो मेरे साथ जाया करते थे, शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित हो गए थे. वे वृद्ध हैं और उन्हें मेरा उपचार पूरा होने तक दिन भर रुकना पड़ता था. कुछ विजिट्स के लिए मेरी बेटी भी मेरे साथ आती थी और वह भी थक जाती थी. हम रात में लौटते और मैं इतनी थकी रहती कि घर का काम नहीं कर सकती थी. मेरे परिवार को हर चीज की देखभाल करनी पड़ती थी.

अश्विनी ने आगे बताया, ‘‘कैंसर का नाम सुनते ही लोग काफी डर जाते हैं. मैं उन्हें सम?ा सकती हूं, क्योंकि यह केवल बीमारी का डर नहीं होता, बल्कि यह उपचार और होने वाली जांचों के असर का डर भी होता है. यह रोगी और परिवार, दोनों के लिए सदमे वाला अनुभव होता है. बंग्लादेश की एक महिला से मेरी दोस्ती थी. उसे चौथे चरण का ब्रेस्ट कैंसर था. हम कैंसर के अपने अनुभवों और परिवार की बातें साझा किया करते. दुर्भाग्य से, मेरे बाद के अपॉइंटमेंट में मुझे उसके गुजर जाने की जानकारी मिली. इस खबर से मुझे बहुत सदमा पहुंचा था.’’ब्रेस्ट कैंसर के रोगियों के लिए भर्ती-वार्ड दुधारी तलवार होती है.

एक ओर तो यह जीवन की भंगुरता के प्रति अरक्षित करता है तो दूसरी ओर लड़ने की शक्ति की परीक्षा भी लेता है. भर्ती वार्ड में शुरुआती ब्रेस्ट कैंसर के रोगी, जिनके जीने की संभावना बेहतर होती है, उन्हें भी इस सदमे से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उनकी आंखों के सामने कैंसर के ज्यादा गंभीर चरण वाले लोग भी होते हैं. पीड़ा का अत्यंत दुखदायी दृश्य, परिवारों की वेदना और खो चुके जीवन रोगी को भयाक्रांत और हतोत्साहित कर देते हैं.

ठीक अश्विनी की तरह ही अनेक महिला रोगी शारीरिक और भावनात्मक बोझ का सामना करती हैं जिसके कारण उनकी यात्रा ज्यादा कठिन हो जाती है. इसके अलावा, जिन रोगियों को लम्बे समय तक कीमोथेरेपी कराने की जरूरत होती है, उन्हें एक कीमो पोर्ट के माध्यम से दवा दी जाती है, जो सीधे खून के प्रवाह में जाती है. कुछ रोगी इस पोर्ट का इस्तेमाल करने से इनकार करते हैं या इससे झिझकते हैं.डॉ. बापना ने कहा, ‘‘यह प्रतिरोध चीरे या सूई चुभाने की प्रक्रिया, संक्रमण होने और कुल खर्च के डर से पैदा होता है. साथ ही, बहुत कम रोगियों को कैंसर के उपचार में हुई प्रगति की अच्छी जानकारी होती है.

दूर-दराज के इलाकों में, चुनौतियों में स्वास्थ्य देखभाल की विशेषज्ञ सुविधाओं की सीमित सुलभता और भारी वित्तीय बोझ शामिल हैं.’’उपचार में नई खोज: विगत वर्षों में कैंसर के अनुसंधान और उपचार में काफी महत्त्वपूर्ण खोज और प्रगति हुई हैं. इनसे कीमोथेरेपी की मुश्किलों और साइड इफैक्ट को कम करने में मदद मिली है. उदाहरण के लिए, फेस्गो (क्क॥श्वस्त्रहृ) एक नई नियत खुराक वाला उपचार है जिसमें ट्रैस्टूटुमाब और पर्टुटुमाब का मिश्रण है. इसे जांघ में अध:त्वचीय सूई (सबक्यूटेनियस इंजेक्शन) के रूप में दिया जा सकता है और परम्परागत आईवी में लगने वाले 6-7 घंटे की तुलना में महज 5-8 मिनट समय की जरूरत होती है.

इसे अध:त्वचीय (जांघ की त्वचा के नीचे) सूई से देने से रोगी और डॉक्टर, दोनों का समय बचता है. चूंकि, इसे प्रशिक्षित नर्स द्वारा दिया जा सकता है, इसलिए इस विधि के कारण हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स पर दबाव घट जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कीमो पोर्ट की जरूरत नहीं होती, जिससे रोगी इसे पसंद करती हैं.जैसाकि अश्विनी ने कहा, ‘‘मेरा उपचार जब फेस्गो विधि से होने लगा, तब मैं एक घंटे में अस्पताल से वापस आने में समर्थ हो गई और थकान महसूस किये बगैर घर के काम समाप्त करने में सुविधा होने लगी. समय की बचत के कारण मेरे लिए अपनी बेटी के साथ समय बिताना, उसका मनपसंद खाना पकाना और उसके होमवर्क में मदद करना आसान हो गया.

साथ ही, मुझे अपने ऑफिस से छुट्टी लेने की जरूरत नहीं रही. मैं अस्पताल जाने के दिन को छोड़कर हर दिन काम करती थी, यहां तक कि सप्ताहांत के दिन भी. फेस्गो ने मुझे पीड़ादायक उपचार की प्रक्रिया से बचाया और कैंसर से लड़ने में अपनी इच्छाशक्ति बनाए रखने में मदद की.’’सबक्यूटेनियस इंजेक्शन से मिली सुविधा के कारण रोगियों और उनकी देखभाल करने वालों के जीवन की गुणवत्ता सुधरी है. इसका एक प्रमुख लाभ यह है कि रोगी कीमो वार्ड के बाहर उपचार प्राप्त कर सकती हैं.

यह अस्पताल में लगने वाला समय कम करता है और कीमो वार्ड के परेशानी भरे माहौल से बचने में मदद करता है. नतीजतन, रोगी में सामान्य अवस्था, आत्मनिर्भरता और निजता का एहसास ज्यादा अच्छी तरह बना रह सकता है.इस विषय में डॉ. बापना ने कहा, ‘‘मेरी सभी रोगी सबक्यूटेनियस थेरेपी से काफी खुश हैं. वे 30 मिनट में घर जाने और सामान्य दैनिक कार्य करने में सक्षम हैं.’’फेस्गो प्रक्रिया में कम से कम समय लगता है, इस प्रकार इससे हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स का समय बचता है और वे ज्यादा रोगियों के उपचार में समय देने में समर्थ हो पाते हैं.

लेकिन किसी भी मेडिकल ट्रीटमेंट की तरह लोगों को अपने लिए उपचार की सबसे बढि़या रणनीति तय करने के लिए हेल्थकेयर टीम के साथ अपनी अवस्था पर खुल कर बात करनी चाहिए. इस प्रकार कैंसर के डरावने रोग से लड़ने के लिए शीघ्र जांच के महत्त्व के बारे में जागरूकता से लेकर रोगी का समय और ऊर्जा बचाने वाले गुणवत्तापूर्ण उपचार तक एक बहुआयामी दृष्टिकोण समय की मांग है.

घुटनों के आर्थ्राइटिस को दूर रखने में लाइफस्टाइल में क्या बदलाव होने चाहिए?

सवाल-

मैं 38 वर्षीय आईटी प्रोफैशनल हूं. जब मैं औफिस में बैठा रहता हूं तब भी मेरे घुटनों में बहुत तेज दर्द और जकड़न होती है. मुझे जिम जाने और वर्कआउट करने का समय कभीकभी ही मिल पाता है. मैं ने घुटनों के दर्द के लक्षणों की खोज की तो पाया कि घुटनों का आर्थ्राइटिस 30 वर्ष की प्रारंभिक अवस्था और 40 वर्ष की उम्र में आम समस्या है. क्या आप घुटनों के आर्थ्राइटिस को दूर रखने में जीवनशैली में बदलाव की जरूरत पर और ज्यादा विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं? वे बेसिक चीजें कौन सी हैं, जिन से मैं अपने घुटनों को दुरुस्त रख सकता हूं और दर्द की समस्या से छुटकारा पा सकता हूं?

जवाब-

मैं आप को डाक्टर से सलाह लेने और घुटनों का उचित इलाज कराने की सलाह दूंगा. इंटरनैट पर देख कर खुद अपना इलाज करने से आप को गलत जानकारी मिल सकती है और आप की हालत बिगड़ सकती है. अपने घुटनों को स्वस्थ रखने के लिए आप को जिम में जाने और बहुत ज्यादा देर तक नहीं बैठना है और समयसमय पर ब्रेक ले कर हलकाफुलका व्यायाम करना है.

किसी भी तरह का हलका व्यायाम जैसे 30 मिनट तक चलने और एस्केलेटर की जगह सीढि़यों से आनेजाने से आप को घुटनों के दर्द से काफी आराम मिल सकता है. सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अगर आप का वजन ज्यादा है तो यह आप के घुटनों का मजबूत रखने में सब से बड़ी रुकावट है.

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रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस एक जटिल बीमारी है, जिस में जोड़ों में सूजन और जलन की समस्या हो जाती है. यह सूजन और जलन इतनी ज्यादा हो सकती है कि इस से हाथों और शरीर के अन्य अंगों के काम और बाह्य आकृति भी प्रभावित हो सकती है. रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस पैरों को भी प्रभावित कर सकती है और यह पंजों के जोड़ों को विकृत कर सकती है.

इस बीमारी के लक्षण का पता लगाना थोड़ा मुश्किल होता है. रह्यूमेटाइड आर्थ्राइटिस में सूजन, जोड़ों में तेज दर्द जैसे लक्षण होते हैं. पुरुषों की तुलना में यह बीमारी महिलाओं को अधिक देखने को मिलती है. वैसे तो यह समस्या बढ़ती उम्र के साथसाथ होती है, लेकिन अनियमित दिनचर्या और गलत खानपान के कारण कम उम्र की महिलाओं में भी यह बीमारी देखने को मिल रही है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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कार्निवोर डाइट के फायदे

आजकल मसल्स बनाने का शौक हर किसी को है इसलिए कार्निवोर डाइट का चलन बढ़ रहा है. चूंकि हाई प्रोटीन डाइट हैल्थ के लिए फायदेमंद मानी जाती है इसलिए लोग हाई प्रोटीन के लिए इन दिनों कार्निवोर डाइट फौलो कर रहे हैं ताकि शरीर में मसल्स को बिल्डअप करने में प्रोटीन अधिक सक्रिय भूमिका निभा पाएं. वजन कम करने और मसल्स बनाने में हाई प्रोटीन और लो कार्ब्स डाइट अहम भूमिका निभाती है.

कार्निवोर डाइट क्या होती है

कार्निवोर डाइट बेहद स्ट्रिक्ट और मुश्किल डाइट होती है जिसे स्ट्रिकली फौलो करना पड़ता है. जो लोग कीटो डाइट नहीं अपना पाते वे भी इस डाइट का चुनाव कर सकते हैं. इस डाइट में केवल ऐसे खाद्यपदार्थों को शामिल किया जाता है जो मांस से संबंधित होते हैं जैसे चिकन, मछली और अंडे. इस डाइट का वजन कम करने और औटोइम्यून स्थिति को सुधारने के लिए प्रयोग किया जाता है. यह हाई प्रोटीन डाइट होने की वजह से मसल्स को तेजी से टोन करती है जिस से व्यक्ति स्लिम और फिट नजर आता है.

  •  कार्निवोर डाइट एक प्रकार की जीरो कार्ब्स डाइट है जिस में प्रोटीन और फैट शामिल किया जाता है.
  •  कार्निवोर डाइट पूरी तरह से मांसाहारी डाइट है. इस से कई हैल्थ प्रौब्लम्स से छुटकारा मिल जाता है.
  •  इस डाइट में लैक्टोज वाले डेयरी पदार्थों के सेवन को खत्म या सीमित करने की सलाह दी जाती है जैसेकि दूध और डेयरी उत्पादों में पाई जाने वाला शुगर इत्यादि.
  • इस डाइट में फल और सब्जियों का पूरी तरह से परहेज किया जाता है.
  • यह डाइट डायबिटिक लोगों की ब्लड शुगर को कंट्रोल करती है क्योंकि हाई प्रोटीन दे कर शरीर को बारबार होने वाली क्रेविंग से बचाया जाता है

कार्निवोर डाइट में इन चीजों से परहेज करने की सलाह दी जाती है जैसे सब्जियां, फल, सीड्स, नट्स, अनाज, पास्ता, अल्कोहल. इस डाइट में मुख्य रूप से मांस से संबंधित फूड आइटम्स को शामिल किया जा सकता है. अंडे, मांस, चिकन, बोन मैरो बोन मैरो सूप, घी, बटर, मछली, क्रेब, प्रान आदि.

कार्निवोर डाइट के फायदे

कार्निवोर डाइट वजन घटाने से ले कर टेस्टोस्टेरौन के हाई लैवल को कंट्रोल करने में भी फायदेमंद हो सकती है. यह एक ऐंटीइनफ्लैमेटरी डाइट होती है जो ऐंग्जौइटी, चिंता, आर्थ्राइटिस, डायबिटीज और मोटापे से छुटकारा दिला सकती है.

कार्निवोर डाइट के नुकसान

  •  इस में फैट, कोलैस्ट्रौल और सोडियम की मात्रा उच्च होती है.
  • कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों और लाभकारी चीजों की कमी हो सकती है.
  • शरीर को सही मात्रा में फाइबर नहीं मिल पाता है.

जैसी बौडी चाहिए वैसी पाइए, करने होंगे बस ये काम

हर महिला की चाहत होती है कमनीय काया. एक समय था जब यह चाहत कल्पना ही रह जाती थी और अकसर थुलथुल, गदराए बदन वाली स्त्रियां बस एक आह भर कर ही रह जाती थीं. पर अब वक्त बदल चुका है, वक्त की मांग भी बदल चुकी है. अब तो आप जैसी चाहिए वैसी काया पाइए. एक अच्छे कौस्मैटिक सर्जन से एक मुलाकात निश्चित तौर पर आप के सपनों में रंग भर देगी. शारीरिक संरचना में कहीं न कहीं कोई कमी तो रहती ही है. कहीं कमर मोटी, कहीं लटके स्तन तो कहीं अत्यंत छोटे स्तन. पर समस्या कोई भी हो क्यों झेला जाए उसे जब सब का निदान हो सकता है. यह कैसे हो सकता है इस के बारे में बताया कौस्मैटिक सर्जन डा. अजय कश्यप और डा. जे.बी. रती ने.

उन से कौस्मैटिक सर्जरी के बारे में जो बात हुई पेश हैं यहां उस के खास अंश:

कलात्मक अभिरुचियों के कारण डा. अजय कश्यप का रुझान कौस्मैटिक सर्जरी की ओर गया और फिर शुरू हुआ शारीरिक कमियों को ठीक करने का दौर. डा. अजय कश्यप बताते हैं कि जब भी कोई शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाने के लिए केस आता है, तो उसे सौंदर्य में ढालने के लिए ही हम सर्जरी करते हैं.

आमतौर पर स्तनों से संबंधित कौन से केस आते हैं, जिन्हें आप औपरेट करते हैं? 

स्तनों से संबंधित हर प्रकार के केस आते हैं. जैसे छोटे स्तनों को बड़ा करना, लटके व बड़े स्तनों को छोटा करना, निप्पल को उठाना या उस का ब्राउनिश हिस्सा जो फैला होता है उसे कम करना. निप्पल बड़े हों तो छोटे हो सकते हैं. निप्पल के ब्राउन भाग को कम करने यानी एरियोला रिडक्शन के केस भी आते रहते हैं. दरअसल, हर महिला की चाहत होती है कि उस के अंग सुंदर लगें. हम अंगों को सुंदर बनाते हैं.

आमतौर पर किस आयु की स्त्रियां ज्यादा आती हैं?

यों तो 20 से 40 के बीच की महिलाएं ज्यादा आती हैं. पर कुछ 50 के आसपास भी आती हैं. इन के बच्चे बड़े हो जाते हैं और इस आयु में वे अपने विषय में सोचती हैं.

अगर कौस्मैटिक सर्जरी की निगाह से देखें तो शारीरिक सौंदर्य कैसे बदलते रहे हैं?

1980 के दौर में ऐथलैटिक शरीर का ज्यादा चलन था. पर अब समय बदल चुका है, लड़कियां जीरो फिगर के चक्कर में रहने लगी हैं. शादी से पहले भी वे जीरो फिगर के लिए औपरेशन कराती हैं. और वे फिगर तो थिन चाहती हैं पर स्तन थोड़े भारी ही चाहती हैं.

जब बदन जीरो फिगर की हो तो स्तनों का क्या अनुपात रहता है? बहुत पतली कमर पर भारी स्तन कैसे लगेंगे?

ब्रैस्ट के भी रेशियो होते हैं. कमर के हिसाब से ब्रैस्ट का साइज होता है. जैसे कमर 24 इंच हो तो ब्रैस्ट 36 इंच होनी चाहिए. ब्रैस्ट कप सी साइज का होना चाहिए.

छोटे स्तनों को आप बड़ा तो सिलिकौन इंप्लांट से करते हैं पर कई बार औपरेशन के बाद ब्रैस्ट सख्त सी हो जाती है. क्या कहेंगे आप?

जी हां, कई बार इंप्लांट से हार्डनैस हो जाती है. इसलिए हम कभीकभी कस्टमर के फैट से ही ब्रैस्ट बना देते हैं, जिसे औटोलोगस फैट ब्रैस्ट औगमैंटेशन कहते हैं. शरीर में जिस जगह भी फैट हो जैसे, जांघ, पेट, कूल्हे या कमर में, वहीं से निकाल कर उस से स्तन बना देते हैं. इस प्रकार अपने ही फैट से ब्रैस्ट बिना इंप्लांट के बनती है.

क्या आप के पास अविवाहिताएं भी आती हैं?

जी हां, अविवाहिताएं भी आती हैं. बेशक कम आती हैं पर आती हैं.

बड़े स्तनों को छोटा कराना कैसा रहता है?

बड़े और लटके स्तनों की तो कई समस्याएं हैं. इस में स्तनों के नीचे खुजली व फंगल इन्फैक्शन हो जाता है, कंधों में दर्द रहता है और देखने में फिगर अजीब लगता है. कई बार एक ब्रैस्ट बड़ी व एक छोटी होती है. वह तब भी बुरी लगती है. समस्या कोई भी हो, औपरेशन से सब ठीक हो जाता है.

आप के अनुसार सर्वोत्तम फिगर कौन सी होती है? आजकल किस प्रकार के स्तनों का चलन है और कौन सा वर्ग आप के पास ज्यादा आता है?

हमारे पास ग्लैमर वर्ल्ड के ही लोग ज्यादा आते हैं. देखिए, अच्छी फिगर तो वही होती है जिस में पतली कमर हो. यानी साइज 36-24-36 हो. यही महिलाएं चाहती भी हैं और हम औपरेशन कर के ऐसा शारीरिक सौंदर्य देते भी हैं. रहा सवाल ब्रैस्ट के लेटैस्ट फैशन का, तो हर महिला यह चाहती है कि पतली कमर हो और ब्रैस्ट सुदढ़ और उठी हुई हो. उन के इन्हीं सपनों में तो हम रंग भरते हैं.

इन औपरेशंस में खर्च कितना आता है?

यह औपरेशन पर निर्भर करता है. आमतौर पर 1 लाख से 2 लाख के बीच खर्च आता है.

डा. जे.बी. रती ने बताया कि हमारा काम बहुत चुनौती भरा होता है. यहां बीमार लोग नहीं आते. यहां तो सुंदर लगने के लिए औपरेशन करवाने लोग आते हैं और उन के पैमाने पर हमें खरा उतरना पड़ता है. फिर सौंदर्य के सब के अपने मापदंड होते हैं. कई महिलाएं चाहती हैं कि कमर बेहद पतली हो और ब्रैस्ट बेहद भारी हों, तो कुछ महिलाएं कुछ और चाहती हैं.

किस वर्ग के लोग आप के पास ज्यादा आते हैं?

आमतौर पर मौडल्स, फिल्म और टीवी के लोग ज्यादा आते हैं, क्योंकि वे अच्छी बौडी शेप चाहते हैं. वैसे आम लोग भी आते हैं.

शरीर के किसकिस भाग का औपरेशन करते हैं?

लगभग हर भाग का पर सब से ज्यादा स्तनों से संबंधित औपरेशन होते हैं. उन के अलावा पेट को कम करना, कमर पतली करना, नाक को सुंदर बनाना, होंठ ज्यादा पतले हों तो उन्हें मोटा करना (आजकल थोड़े मोटे होंठ फैशन में हैं) वगैरह के औपरेशन करते हैं.

स्तनों के औपरेशंस के विषय में बताइए?

बड़े व लटके स्तनों को तो हम छोटा कर ही देते हैं, छोटे स्तनों को इंप्लांट द्वारा बड़ा कर देते हैं. इस के अलावा निप्पलों को भी औपरेट कर देते हैं. पर निप्पल छोटे किए जाते हैं. हम छोटों को बड़ा नहीं कर सकते. यह औपरेशन महिलाओं का तो हम करते ही हैं पर स्तनों की समस्या कई पुरुषों में भी पाई जाती है. कई पुरुषों का एक या दोनों ही स्तन महिलाओं जैसे हो जाते हैं. उन्हें हम औपरेट कर के नौर्मल बनाते हैं. ऐसा हारमोनल असंतुलन के कारण होता है.

आजकल किस प्रकार के स्तन चलन में हैं जिन्हें महिलाएं पसंद करती हैं?

पतली कमर हो और ब्रैस्ट भारी और एकदम उठी हुई होनी चाहिए. इसीलिए लटकी ब्रैस्ट को महिलाएं औपरेशन से ठीक कराती हैं. कहने का मतलब यह है कि वे अच्छी फिगर की लगना चाहती हैं. हम औपरेशन से यही सब कर देते हैं. लटकी ब्रैस्ट को उठा देते हैं, सर्जरी से उसे टाइट कर देते हैं. आमतौर पर मौडल्स न तो छोटी ब्रैस्ट चाहती हैं, न ही बहुत बड़ी, बीच का साइज उन्हें ठीक लगता है, पर नोटिसेबल साइज हो. कई महिलाओं की बहुत छोटी ब्रैस्ट होती हैं तब हम सिलिकौन ब्रैस्ट इंप्लांट से उन्हें बड़ा बना देते हैं.

इस का खर्चा कितना आता है?

देखिए, इंप्लांट बाहर से आते हैं जो 35,000 से 45,000 तक के होते हैं. लेकिन सारा खर्च क्व1 लाख से ऊपर ही आता है.

इस में समय कितना लगता है?

ब्रैस्ट इंप्लांट में 2 से 3 घंटे लगते हैं पर ब्रैस्ट कम करने या ब्रैस्ट उठाने में 5 घंटे से कुछ ज्यादा ही समय लग जाता है.

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