अनचाही Pregnancy से कैसे बचें

अनचाहा गर्भधारण न केवल एक नवविवाहित स्त्री के स्वास्थ्य पर असर डालता है अपितु उस का संपूर्ण विवाहित जीवन भी प्रभावित होता है. अनचाहा गर्भ ठहरने पर गर्भपात (एबार्शन) कराना इस का उचित समाधान नहीं है. शिशु को जन्म दें या नहीं, इस का निर्णय एक दंपती के जीवनकाल का अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है. गर्भपात कराने से बेहतर है कि अनचाहा गर्भ ठहरने ही न पाए. इस से स्त्रीपुरुष को आर्थिक, सामाजिक व मानसिक रूप से सुकून मिलता है. अनचाहे गर्भ से कैसे बचें? कौन सा गर्भनिरोधक कितना प्रभावी है और क्यों? इस तरह के कई सवाल महिलाओं के जेहन में उठते हैं और इस का सही जवाब उन्हें समय से ज्ञात नहीं हो पाता. सामान्यत: निम्न सवालों का जवाब अधिकांश महिलाएं अवश्य जानना चाहेंगी :

स्त्री कंडोम क्या है?

स्त्री कंडोम एक पतले रबर का बना होता है. इस का बंद सिरा गर्भाशय ग्रीवा को ढक देता है और दूसरा खुला सिरा बाहर रहता है. इसे संबंध बनाने से ले कर 8 घंटे तक धारण किया जा सकता है परंतु सेक्स के बाद लगाने पर इस का कोई उपयोग नहीं रहता है. यह 79.95% सुरक्षा प्रदान करता है.

क्या स्त्री व पुरुष दोनों को कंडोम इस्तेमाल करना चाहिए?

नहीं, इस की आवश्यकता नहीं है, न ही करना चाहिए.

क्या स्त्री कंडोम के साथ जैली लगानी चाहिए?

स्त्री कंडोम में जैली लगी रहती है. इसलिए किसी प्रकार की लुब्रिकेटिंग जैली की जरूरत नहीं होती है, परंतु आवश्यकतानुसार के-वाई जैली या ल्यूबिक जैली इस्तेमाल की जा सकती है. सही तरीके से विधिवत इस्तेमाल करने पर यह 95% सुरक्षित है.

क्या इस के कोई दुष्प्रभाव हैं?

स्त्री कंडोम के कोई दुष्प्रभाव नहीं हैं. गर्भनिरोधक के साथसाथ यह एचआईवी, एड्स व गुप्त रोगों से भी सुरक्षा प्रदान करता है. स्त्री को शुरूशुरू में इसे इस्तेमाल करने में थोड़ी परेशानी व उलझन हो सकती है.

यह कहां उपलब्ध है?

दवा की दुकानों या सुपर बाजार में उपलब्ध है.

गर्भाशय के अंदर लगाए जाने वाली डिवाइस (कौपर टी, मल्टीलोड व मरीना) क्या है?

इन्हें डाक्टरी जांच के बाद डाक्टर द्वारा लगाया जाता है. यह 3, 5 व 10 साल तक प्रभावी होता है. यह अपनी जगह पर ठीक है या नहीं, गर्भाशय ग्रीवा के बाहर लटकते पतले धागे से ज्ञात किया जा सकता है.

इंट्रायूटराइन डिवाइस के क्या लाभ हैं?

यह बिना किसी बेहोशी या आपरेशन के गर्भाशय में डाक्टर द्वारा लगाया जा सकता है.

यह संभोग क्रिया में किसी प्रकार की बाधा नहीं डालता है. डाक्टर इसे स्त्री के इच्छानुसार बिना किसी सूई अथवा बेहोशी के सरलतापूर्वक निकाल सकता है.

निकालने के तुरंत बाद शीघ्र ही गर्भ ठहरने की संभावना रहती है, क्योंकि यह मासिकधर्म चक्र पर कोई परिवर्तन नहीं होने देता है.

इसे गर्भाशय में लगाने में केवल 10 मिनट लगते हैं और तुरंत ही यह प्रभावकारी हो जाता है. यह लगभग 99% सुरक्षा प्रदान करता है.

आई.यू.एस. मरीना माहवारी में अधिक रक्तस्राव को कम करता है. यह गर्भाशय की छोटी रसौली (फायब्रायड) को भी बढ़ने से रोकता है, जिस से भविष्य में गर्भाशय निकालने जैसे बड़े आपरेशन की नौबत नहीं आती है.

इंट्रायूटराइन डिवाइस से क्या फायदे नहीं हैं?

गुप्तरोग, एचआईवी व एड्स जैसे रोगों से सुरक्षा प्रदान नहीं होती है. माहवारी अनियमित हो सकती है. कभीकभी यह खिसक कर अपनी जगह से नीचे आ जाता है, जिस से गर्भ ठहरने का खतरा हो सकता है, विशेषत: यदि माहवारी में टैंपून का इस्तेमाल किया जाए. कभीकभी गर्भाशय में सूजन, सफेद पानी का स्राव, पीठ में दर्द जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

गर्भनिरोधक गोली क्या है और यह किस प्रकार गर्भाधारण को रोकती है?

गर्भनिरोधक खाने की गोली सब से अधिक प्रचलित है. सही तरीके से लिए जाने पर यह अत्यधिक प्रभावी है और साधारणत: इस का कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता है. इन गोलियों में वही हारमोंस होते हैं, जो अंडाशय बनाते हैं. इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टरोन या केवल प्रोजस्टरोन, जिन्हें मिनी पिल कहा जाता है. यह गोली प्रत्येक माह अंडाशय से अंडा बनने की प्रक्रिया को रोकती है, जिस से अंडा नहीं बनता है और इस प्रकार माहवारी तो प्रतिमाह अपने समय पर आती है परंतु गर्भ नहीं ठहरने पाता है. मिनी पिल गर्भ ग्रीवा से स्रावित द्रव को गाढ़ा करती है, जिस से शुक्राणु गर्भ के अंदर नहीं पहुंच पाते और इस प्रकार गर्भाधारण नहीं होता है.

बाजार में कितने प्रकार की गोलियां उपलब्ध हैं?

स्त्री रोग विशेषज्ञ की सलाह ही सर्वोत्तम है कि कौन सी गोली का सेवन किया जाए. भारत में विभिन्न प्रकार की गर्भनिरोधक गोलियां उपलब्ध हैं- माला डी, ट्राईक्यूलार, ओवेराल-एल, लोएट्, नोवेलोन, फेमिलोन, डायन्, यासमीन इत्यादि.

क्या गर्भनिरोधक गोली के दुष्प्रभाव भी हैं?

अधिकांश महिलाओं पर इस का कोई कुप्रभाव नहीं होता है. कुछ महिलाओं को थोड़ीबहुत परेशानी होती है, जो 3-4 माह गोली का सेवन करने पर स्वत: दूर हो जाती है. अधिकांश महिलाओं को छाती में दर्द व भारीपन, उलटी व मिचली होती है. कभीकभी गोली से चेहरे पर झाइंयां पड़ जाती हैं. कभीकभी महिला को 2 माहवारियों के बीच में भी रक्तस्राव हो जाता है. यदि रक्तस्राव ज्यादा हो तो स्त्रीरोग विशेषज्ञ की सलाह लेना आवश्यक है. गर्भनिरोधक गोली का महिला के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव इस के फायदों की तुलना में लेशमात्र है. अनचाहा गर्भ व एबार्शन का स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है.

गर्भनिरोधक गोली का सेवन क्यों करें, इस के क्या फायदे हैं?

नवदंपती के लिए गर्भाधारण को स्थगित करने का सुरक्षित एवं सरल उपाय है- गर्भनिरोधक गोली. इस के अलावा भी इन गोलियों के अनेक फायदे हैं. यह गोली 20 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में मासिक अनियमितताओं एवं कम रक्तस्राव को नियमित करती हैं. इस से चेहरे पर मुंहासों में कमी, चेहरे की कांति का बढ़ना एवं चेहरे पर अनचाहे बालों के उगने पर भी रोकथाम होती है. गर्भनिरोधक गोली भारी माहवारी एवं असहनीय दर्द को भी कम करती है, यदि दर्द का कोई विशेष कारण न हो. यह अंडाशय एवं स्तनों में पानी की रसौली (सिस्ट) को बनने से रोकती है. यह माहवारी पूर्व के दुष्प्रभाव जैसे-पेट में दर्द, स्तनों में भारीपन व दर्द, शरीर का फूलना, मितली जैसी परेशानी का भी निवारण करती है.

यह विभिन्न प्रकार के कैंसर होने से भी रोकती है जैसे :

अंडाशय कैंसर में 40% की कमी.

गर्भाशय कैंसर में 50% की कमी.

बड़ी आंत के कैंसर में भी कमी.

निरोधक गोली सेवन समाप्त करने पर भी इस का प्रभाव 15 वर्षों तक बना रहता है और कैंसर बनने पर रोकथाम करती हैं.

गर्भनिरोधक गोली सेवन के पूर्व क्या सावधानी बरतनी चाहिए?

यह गोली शरीर में रक्त के जमने की प्रक्रिया पर प्रभाव डालती है और पैरों में खून के जमने की संभावना बढ़ जाती है. इसलिए जिन महिलाओं में हृदय रोग, मोटापा, हार्ट अटैक या अधिक रक्तचाप जैसी बीमारी हो या इन की संभावना हो तो उन्हें गर्भनिरोधक गोली का सेवन नहीं करना चाहिए. आमलोगों में एवं हमारे समाज में गर्भनिरोधक गोली के विषय में कुछ गलत धारणाएं हैं, जिन का निवारण अत्यंत आवश्यक है. मसलन :

वजन का बढ़ना.

बांझपन और अपंग बच्चों का जन्म होना या एबार्शन हो जाना.

गोलियों का सेवन करने पर, बाद में गर्भाधान का कभी न हो पाना.

संभोग क्रिया में रुझान व इच्छा का कम होना.

मिनी पिल नवजात शिशु को दुग्धपान कराने वाली महिलाओं को गर्भाधारण से बचाती है. इस के सेवन से नवजात शिशु के स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, साथ ही महिला के स्तनों में बनने वाली दूध की मात्रा में भी कोई कमी नहीं होती है.

इन सभी बातों पर ध्यान दे कर जीवन में खुशहाली के साथसाथ कई बीमारियों से बचाव भी किया जा सकता है.   

– डा. मीता वर्मा

बंद कमरे में रहने लगे हैं तो कहीं आप भी तो नहीं है मानसिक बीमारी का शिकार

मानसिक बीमारी की चपेट में कमोवेश कभी न कभी हरकोई आ जाता है. अवसाद, अनिद्रा, तनाव, चिंता, भय, ये कुछ ऐसी मानसिक स्थितियां हैं, जिन्हें बीमारी कहना किसी को नागवार भी गुजर सकता है. हालांकि मनोचिकित्सकों का मानना है कि एक हद तक तो ये स्थितियां ठीक हैं, लेकिन जब ये सीमा के बाहर चली जाएं तो किसी को मानसिक तौर पर बीमार घोषित करने के लिए पर्याप्त होती हैं.

रोजमर्रा के जीवन में हम सब तनाव, भय, नाराजगी, नफरत जैसी मानसिक स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हैं. किसी परिजन की मौत के दुख से भी हम सब कभी न कभी गुजरते ही हैं, लेकिन ये मानसिक स्थितियां बहुत ज्यादा देर या दिनों तक नहीं टिकतीं. एक समय के बाद हम स्वाभाविक जीवन में लौट आते हैं, लेकिन अगर कोई ऐसी मानसिक स्थिति से लंबे समय से गुजर रहा हो तो यह खतरे की घंटी है.

कुछ समय पहले तक समाज में किसी भी तरह की मानसिक समस्या का हल ओ झा, बाबा, तांत्रिक और  झाड़फूंक में ढूंढ़ा जाता था. अंधविश्वास और कुसंस्कार के चलते किसी भी तरह की मानसिक समस्या के लिए किसी ‘दूषित’ हवा भूतप्रेत के साए को जिम्मेदार मान कर लोग बाबाओं और तांत्रिकों की शरण में चले जाया करते थे.

गनीमत है कि कोविड-19 के कहर के दौरान किसी ने ज्यादा बात इन लोगों ने नहीं की. भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं, मंत्रियों और समर्थक मंत्रियों ने आयुर्वेद और गौमूत्र आदि की बात की पर इस बीमारी का भय इतना भयंकर था कि वे बातें जल्द ही घुल गईं. तालियों और थालियों से बात नहीं बनी तो लोगों को वैंटिलेटरों के पीछे ही भागना पड़ा.

क्या कहते हैं ऐक्सपर्ट

कोलकाता की मनोचिकित्सक का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हमारी आबादी में मोटेतौर पर महज 1% लोग जटिल और गंभीर मानसिक बीमारी के शिकार होते हैं और इस का इलाज करने में वक्त लग सकता है. बाकी 10% कुछ सामान्य मानसिक बीमारी से ग्रस्त होते हैं, जो गंभीर नहीं होती है. काउंसलिंग से ठीक हो सकते हैं. वहीं 30% लोग ऐसे हैं जो कभी भी ऐसी किसी बीमारी के चपेट में आ सकते हैं, अगर समय रहते सचेत नहीं हो जाते. इस के अलावा जो लोग किसी शारीरिक तकलीफ को ले कर चिकित्सा के लिए अस्पताल जाते हैं, उन में से 50% लोग दरअसल छिटपुट मानसिक समस्या के शिकार होते हैं.

ऐसे मामले में होता यह है कि ये लोग वाकई मानसिक तौर पर बीमार होते हैं या मानसिक बीमारी के कारण इन में तरहतरह के शारीरिक लक्षण उभर आते हैं, यह कोई ठीकठाक सम झ भी नहीं पाता है और सम झने की कोशिश भी नहीं करता है. इन में भी लगभग 4-5% लोग  झाड़फूंक और तंत्रमंत्र जैसे अवैज्ञानिक तरीके अपनाते हैं.

शरीर के आंखकान, हाथपैर, किडनियां, दिल, लिवर, आदि में अगर कोई बीमारी हो तो इस के लक्षण सामने आते हैं. उसी प्रकार एहसास, आवेग, चिंता, दुख, क्रोध आदि मन के भाव हैं और अगर मन में कोई बीमारी घर कर रही हो तो इस के भी लक्षण सामने आएंगे. मानसिक बीमारी के शारीरिक लक्षण भी दिखाई देते हैं. हफ्तों तक कमरों में बंद रहने और उन्हीं लोगों को 24 घंटों  झेलने के कारण भी अवसाद हो सकता है.

वजह मानसिक है

मानसिक बीमारी के 2 हिस्से हैं- न्यूरोसिस और साइकोसिस. न्यूरोसिस संबंधित मानसिक बीमारी में मन की भावना व आवेग एक स्वाभाविक सीमा से परे चले जाते हैं. जब किसी व्यक्ति के आवेग के कारण उस का अपना जीवन दुरूह बन जाता है बल्कि परिवार, शिक्षा, पेशेवर जीवन यहां तक कि समाज को भी जब प्रभावित करने लगता है, तभी यह मानसिक बीमारी का रूप ले लेता है.

इस के उलट कभीकभी मानसिक तनाव के लक्षण शारीरिक तौर पर नजर आते हैं. ऐसे मामलों में लक्षण शारीरिक होने के बावजूद इस के पीछे वजह मानसिक है, इस का प्रमाण शारीरिक जांच (लैबोरेटरी टैस्ट) में नहीं मिल पाता है.

न्यूरोसिस बीमारी के मामले में पीडि़त आमतौर पर वास्तविकता से अपना संबंधविच्छेद नहीं करता है. यहां तक कि पीडि़त के व्यक्तित्व में ऊपरी तौर पर भी कोई बदलाव नजर नहीं आता है. न्यूरोसिस संबंधित मानसिक बीमारी डिप्रैसिव डिसऔर्डर, ऐंग्जाइटी डिसऔर्डर, फोबिक डिसऔर्डर, अवसैसिव कंप्लसिव डिसऔर्डर हैं.

अब अगर केवल ऐंग्जाइटी डिसऔर्डर की ही बात करें तो यह 3 तरह का होता है.

जनरलाइज्ड ऐंग्जाइटी

इस से व्यक्ति हमेशा किसी न किसी बात को ले कर बेचैन व चिंतित रहता है.

फोबिक ऐंग्जाइटी:

इस ऐंग्जाइटी से पीडि़त व्यक्ति किसी स्थान या माहौल में जाने पर आशंकित हो जाता है या असुरक्षा महसूस करता है. ऐसा व्यक्ति नए माहौल और व्यक्तियों का सामना करने से कतराता है. ऐसी स्थिति ऐंगोराफोबिया कहलाती है, अनजान लोगों के बीच बलात्कार का भय होता है. यह स्थिति एग्राफोबिया कहलाती है.

पैनिक डिसऔर्डर

किसी विशेष व्यक्ति, माहौल या परिस्थिति के सामने न पड़ने के बावजूद कल्पना के वशीभूत हो कर पीडि़त उत्कंठा, बेचैनी या व्याकुल हो उठता है. मसलन, आज रात दिल का दौरा पड़ सकता है, इसी डर से रात आंखों ही आंखों में कट जाती है.

साइकोसिस से पीडि़त हरेक को अपना दुश्मन मान लेता है. उस के दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि हरकोई उसे नुकसान पहुंचाने वाला है. हर तरफ उसे अपने खिलाफ षड्यंत्र की आशंका सताती रहती है. कुल मिला कर शक के वशीभूत हो जाता है. पीडि़त अजीबअजीब सी आवाजें सुनाई पड़ने या भूतप्रेत दिखने का दावा करता है.

ऐसे लोगों में आने वाले बदलाव से मानसिक डिसऔर्डर का पता चल जाता है. कई बार देखने में आता है कि पीडि़त अपनेआप से बातें करता है. एक ही बात को बारबार कहता है या घुमाफिरा कर वही सारी बातें करता है. हावभाव में अजीब सी बेचैनी होती है. कुल मिला कर व्यक्तित्व व हावभाव में कोई तारताम्य नजर नहीं आता है.

कुछ केस हिस्टरी

हम यहां ऐसे ही कुछ मामलों का हवाला दे रहे हैं:

एमबीए करने के बाद पल्लवी को एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में अच्छे पद पर काम करने का मौका मिला. 10वीं मंजिल तक लिफ्ट से चढ़नेउतरने में उसे डर लगता. यह डर एक तरह से आतंक का रूप लेने लगा. जाहिर है, काम पर जाना ही उस के लिए मुश्किल हो गया. दफ्तर न जाने के बहाने ढूंढ़ने में काफी समय लगाने लगी. खोईखोई सी रहती. मन ही मन बड़बड़ती रहती. हर वक्त सिरदर्द की शिकायत रहती. जाहिर है, इस सब से उस के काम और कैरियर पर असर पड़ने लगा. सिरदर्द की शिकायत ले कर वह डाक्टर के पास गई. डाक्टर ने दवा दे कर मन में किसी तरह के डर की बात कह कर काउंसलिंग के लिए कहा.

डाक्टर के यहां से निकल कर पल्लवी सोचने लगी कि वह किसी भी तरह से डरपोक लड़की तो नहीं है. फिर डाक्टर ने डर की बात क्यों कहीं. लेकिन इस बात को उस ने ज्यादा तूल नहीं दिया और दी गई दवा लेने लगी.

बेरुखी का सामना

कुछ दिन बाद सिरदर्द की शिकायत में कमी आई, लेकिन फिर जस का तस. इस बीच दफ्तर में सबकुछ गड़गड़ नजर आने लगा. अकसर बौस की  िझड़कियां, सहयोगियों की बेरुखी का सामना होने लगा.

तब पल्लवी ने काउंसलिंग को अजमाने का फैसला किया. काउंसलिंग के दौरान जो तथ्य निकल कर आया वह कुछ इस प्रकार था- पल्लवी बचपन में बहुत ही चंचल स्वभाव की थी. अकसर ‘एडवैंचरस’ किस्म की बदमाशियां किया करती थीं. तब मां उसे भूत का डर दिखा कर शांत किया करती थी.

यही भूत का डर बचपन से उस के भीतर घर कर गया था और यह डर लिफ्ट से उतरतेचढ़ते समय पैदा हो गया. एलीवेटर से चढ़नेउतरने के दौरान अगर कभी भूल से पल्लवी की नजर नीचे की ओर जाती तो उसे यही एहसास होता है कि वह अब गिरी कि तब या फिर लिफ्ट अब टूट कर गिरी. काउंसलिंग के दौरान साफ हुआ कि पल्लवी एक्रोफोबिया की शिकार है. दरअसल, यह एक्रोफोबिया ऊंचाई का भय है. इस का इलाज कुछ मैडिसिन के साथ काउंसलिंग है.

एक अन्य मामले को लें. विवाहित और 3 बच्चों की मां लावणी की उम्र 35 साल है. पति का अपना कारोबार है. घर पर किसी चीज की कोई कमी नहीं है. न तो पति के परिवार का कोई करीबी है और न ही उस के मां के परिवार का. दोनों अपनेअपने परिवार में इकलौते हैं.

जाहिर है घर पर किसी तरह का कोई पारिवारिक मामला भी नहीं है. बावजूद इस के जब से कोविड-19 के कारण मौतों के समाचार देखनेसुनने को मिलने लगे तो रात को वह सो नहीं पाती है. अगर आंख लगी भी तो महज घंटे या 2 घंटे के लिए. इस के बाद नींद एकदम से जाने कहां हवा हो जाती है और फिर सारी रात बिस्तर पर करवट बदलते बीत जाती है.

छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा

नतीजा सुबह से चिड़चिड़ापन उसे घेर लेता है. छोटीमोटी बातों पर गुस्सा और फिर सुबह से ही घर का माहौल बिगड़ जाता. किसी भी काम में मन नहीं लगता. भूख भी नहीं लगती. हर वक्त मन में एक अजीब सी छटपटाहट रहती है. काउंसलिंग से पता चला कि लावणी फोबिया ऐंग्जाइटी डिसऔर्डर से पीडि़त है. उस के मन में अचानक यह डर बैठ गया कि हो सकता है किसी दिन उसे दिल का दौरा पड़ जाए, तब उस के बच्चों का क्या होगा.

हमारी आजकल की जीवनशैली कोविड-19 के बाद भी एक हद तक मानसिक बीमारी के लिए जिम्मेदार है. समाज के लिए यह बड़ी चुनौती बन गई है. लोग सिमट गए हैं, समाज सिमट गया है. लोग अपनीअपनी कोठरियों में बंद हैं. एक पड़ोसी को दूसरे की खबर नहीं होती. टीवी की संस्कृति ने लोगों को अपने में जीने की आदत डाल दी है.

यही सब स्थितियां मानसिक बीमारी का कारण बन रही हैं. व्हाट्सऐप पर जम कर बकवास बंट रही है और लोगों ने किताबें, पत्रिकाएं और समाचारपत्र पढ़ने बंद कर दिए हैं जिन से प्रामाणिक जानकारी मिलती थी. अभी भी हर समय खौफ सा छाया रहता है कि न जाने कब कोरोना का नया वैरिएंट निकल आए.

कहीं आप भी तो नहीं हो गए हैं डिप्रेशन का शिकार, इन 6 टिप्स से लगाएं पता

तनाव या कहें तो स्ट्रेस आज लोगों के बीच आम हो चुका है. अगर समय रहते इस समस्या को काबू नहीं किया गया तो इसके नतीजे बुरे हो सकते हैं. स्ट्रेस के कारण ना सिर्फ मानसिक अशांति होती है, बल्कि भूख, और नींद पर भी इसका असर होता है. इस खबर में हम आपको उन संकेतों के बारे में बताएंगे जिनसे आप स्ट्रेस के बारे में समझ पाएंगे.

आइए जाने उन संकेतों के बारे में…

1. नींद ना आना

जब आप तनाव में होते हैं, नींद नहीं आती. कई बार आप सोना चाहते हैं पर आपको नींद नहीं आती. रातभर जागना, मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल की वजह से लोग पूरी नींद नहीं ले पाते है और इसका असर शरीर पर दिखता है.

2. वजन का बढ़ना

जब आप ज्यादा तनाव में होते हैं, आपके हार्मोंस पर असर पड़ता है. इसका ये नतीजा ये होता है कि वजन बढ़ने लगता है.

3. पेट में दर्द और जलन

अगर आप ज्यादा बाथरूम जाते हैं. चिंता और तनाव की वजह से होता है कि आपको बार बार बाथरुम का चक्‍कर लगाना पड़ता है। पेट में दर्द होना और हार्ट बर्न होना भी इसकी समस्‍या है.

4. चिड़चिड़ाहट

तनाव में चिड़चिड़ाहट बेहद आम है. मरीज को छोटी छोटी बातों से काफी उलझन होती है. किसी से सही तरीके से बात नहीं करते है और हर छोटी सी बात पर परेशान हो जाते हैं. अगर लंबे समय तक आपको ऐसी परेशानी हो रही है तो सतर्क हो जाइए.

 

5. गैरजरूरी बातों को सोचते रहना

अगर आप लगातार गैर जरूरी बातों को सोचते रहते हैं, तो समझ जाइए कि आप तनाव में हैं. ऐसा इस लिए होता है क्योंकि इस दौरान आप बहुत ज्यादा सोचने लगते हैं, आप चीजों पर फोकस नहीं कर पातें, जिसके बाद आपके दिमाग में गैरजरूरी बातें आने लगती हैं, आपका कौंफिडेंस भी कम होने लगता है.

6. सख्त होने लगते हैं मसल्स और ज्वाइंट्स

अक्सर ज्यादा स्ट्रेस लेने से कंधों में, जोड़ो में परेशानी होने लगती है. कभी कभी सर से ले कर पांव में एंठन होती है. ये सब ज्यादा तनाव के कारण होता है.

गैजेट्स के इस्तेमाल से हेल्थ को नुकसान पहुंच रहा है, मैं क्या करुं?

सवाल-

मैं और मेरे पति दोनों सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. गैजेट्स हमारे जीवन के अभिन्न हिस्सा बन गए हैं. जानना चाहता हूं कि क्या गैजेट्स के अधिक इस्तेमाल से स्पाइन से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं?

जवाब-

गैजेट्स का बढ़ता इस्तेमाल आजकल स्पाइन से संबंधित समस्याओं का सब से प्रमुख कारण बन कर उभर रहा है. इन के इस्तेमाल के दौरान सही पोस्चर न रखना इस खतरे को और बढ़ा देता है क्योंकि इस से मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है. गैजेट्स के अत्यधिक इस्तेमाल से बचें. इन पर काम करते समय अपना पोस्चर ठीक रखें. हर 2 घंटे के बाद एक ब्रेक लें. कुछ मिनट औफिस या घर में इधरउधर चहलकदमी कर लें, थोड़ी सी स्ट्रैचिंग कर लें. इस से आप की मांसपेशियों और जोड़ों को आराम मिलेगा. सप्ताह में 1 बार डिजिटल डिटौक्स जरूर करें. इस दौरान गैजेट्स का इस्तेमाल बिलकुल न करें.

सवाल-

मुझे स्लिप डिस्क है. डाक्टर ने सर्जरी कराने की सलाह दी है. मैं जानना चाहती हूं कि क्या नौनसर्जिकल उपायों से इसे ठीक नहीं किया जा सकता है?

जवाब-

वैसे तो स्लिप डिस्क के 90% मामलों में सर्जरी की जरूरत नहीं होती है, केवल 10% मामले जो गंभीर होते हैं उन्हीं में सर्जरी कराना जरूरी होता है. अगर डाक्टर ने आप को सर्जरी की सलाह दी है तो इस का मतलब है कि आप की समस्या गंभीर है. आप सर्जरी कराने को ले कर असमंजस की स्थिति में हैं तो एक और डाक्टर की राय भी ले लें. स्लिप डिस्क का उपचार इस पर निर्भर होता है कि समस्या किस स्तर पर है और डिस्क में कितनी खराबी आ गई है. सर्जरी से पहले दवाइयों और फिजियोथेरैपी से इसे ठीक करने का प्रयास किया जाता है.

सवाल-

मुझे स्पांडिलाइटिस है, लेकिन समस्या ज्यादा गंभीर नहीं है. मैं जानना चाहती हूं कि क्या कुछ घरेलु उपाय हैं जिन से आराम मिल सकता है?

जवाब-

अगर स्पौंडिलाइटिस की समस्या मामूली है तो घरेलू उपायों से आराम मिल सकता है. इस के लिए हीट और कोल्ड थेरैपी बहुत कारगर है. इस से जोड़ों और मांसपेशियों का दर्द और कड़ापन दूर होता है. जहां भी आप को दर्द हो रहा हो हीटिंग पैड्स लगाएं. आप हौट शावर भी ले सकती हैं. सूजन को कम करने के लिए सूजे हुए स्थान पर बर्फ लगाएं. इस से सूजन भी कम होगी और दर्द से भी आराम मिलेगा. इस के अलावा सूजन, दर्द और कड़ापन कम करने के लिए नौनस्टेरौयड ऐंटीइनफ्लैमेटरी ड्रग्स भी ली जा सकती हैं. फिजिकल थेरैपी भी इस के उपचार का एक महत्त्वपूर्ण भाग है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

महिलाओं में थायराइड, इलाज है न

कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जो महिलाओं पर अधिक हावी होती हैं. ‘हाइपरथायरायडिज्म और हाइपोथायरायडिज्म’ थायराइड से जुड़ी 2 बीमारियां हैं.

महिलाओं के जीवन में उन का सामना कई मानसिक, शारीरिक और हारमोनल बदलावों से होता है. हालांकि महिला जीवन के विभिन्न चरणों में हारमोनल बदलाव होना लाजिम है. लेकिन यदि ये बदलाव असामान्य हैं तो कई तरह की बीमारियों का कारण बन सकते हैं. यही कारण है कि महिलाएं थायराइड रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं.

प्रिस्टीन केयर की डाक्टर शालू वर्मा ने महिलाओं में बढ़ती थायराइड की समस्याएं और उन से बचाव के तरीकों के बारे में जानकारी दी है-

थायराइड क्या है

थायराइड गरदन के निचले हिस्से में पाई जाने वाली एक तितलीनुमा ग्रंथि है. यह ग्रंथि ट्राईआयोडोथायरोनिन (टी3) और थायरोक्सिन (टी4) नामक 2 मुख्य हारमोन का स्राव करती है. दोनों ही हार्मोन शरीर की कई गतिविधियों को नियंत्रित करने में अपना विशेष योगदान निभाते हैं.

परंतु जब दो में से किसी भी हार्मोन के उत्पादन की मात्रा में कोई बदलाव आता है तो इस से शरीर में विभिन्न समस्याओं की शुरुआत होती है. हाइपोथायरायडिज्म और हाइपोथायरायडिज्म में अंतर जब थायराइड हार्मोन का उत्पादन जरूरत से अधिक होता है तो उस स्थिति को हाइपरथायरायडिज्म कहते हैं, जबकि थायराइड हार्मोन के कम उत्पादन की स्थिति को हाइपोथायरायडिज्म के नाम से जाना जाता है. दोनों ही परिस्थितियां असामान्य हैं और रोगी को उपचार की आवश्यकता होती है.

पुरुषों की तुलना में महिलाएं प्रभावित

पुरुषों की तुलना में महिलाओं में हाइपरथायरायडिज्म और हाइपोथायरायडिज्म की परिस्थिति 10 गुना अधिक आम है. आकड़ों के अनुसार लगभग हर 8 महिलाओं में से 1 महिला थायराइड से परेशान होती है.

इस का एक कारण यह है कि थायराइड विकार अकसर औटोइम्यून प्रतिक्रियाओं से शुरू होता है. यह तब होता है जब शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली अपनी ही कोशिकाओं पर हमला करना शुरू कर देती है. पुरुषों की तुलना में महिलाओं में आटोइम्यून की स्थिति अधिक आम है.

मासिकधर्म चक्र के दौरान हारमोन में होने वाले उतारचढ़ाव और थायराइड हारमोन के बीच परस्पर क्रिया होने के कारण भी महिलाओं में थायराइड विकारों को देखा जा सकता है. थायराइड की समस्या किसी भी समय हो सकती है, लेकिन मेनोपौज के बाद हारमोन के स्तर में एकाएक बदलाव के कारण थायराइड डिसऔर्डर होना बहुत आम है.

इस के अतिरिक्त थायराइडाइटिस (थायराइड ग्रंथि का सूज जाना), आयोडीन की कमी और अधिकता भी हाइपोथायरायडिज्म और हाइपरथायरायडिज्म होने का कारण बन सकती है.

ऐसे प्रभावित करते हैं थायराइड विकार

महिला के प्रजनन तंत्र और थायराइड ग्लैंड के कार्य के बीच अच्छा तालमेल होना बहुत जरूरी है. यदि थायराइड कम या अधिक सक्रिय है तो इस से कई तरह के हारमोनल विकार होंगे और इस का असर महिला के प्रजनन स्वास्थ्य पर नकारात्मक रूप से होगा.

मासिकधर्म

थायराइड विकारों के कारण मासिकधर्म असामान्य रूप से जल्दी या देरी से हो सकता है. इस के अलावा थायराइड हारमोन का कम या अधिक उत्पादन मासिकधर्म से जुड़ी कई समस्याओं जैसे अनियमित मासिकधर्म, मासिकधर्म का न होना और बहुत भारी मात्रा में रक्तस्राव होना आदि का कारण बन सकता है.

प्रजनन

हाइपोथायरायडिज्म और हाइपरथायरायडिज्म ओव्यूलेशन को भी प्रभावित कर सकता है. ओव्यूलेशन में महिला के अंडाशय से एक अंडा रिलीज होता है जो पुरुष के स्पर्म के साथ मिल कर भ्रूण निर्माण करता है. थायराइड विकार ओव्यूलेशन को रोक सकता है. वहीं यदि महिला को हाइपोथायरायडिज्म है तो ओवेरियन सिस्ट के विकार का खतरा बढ़ जाता है.

गर्भावस्था में

यदि महिला गर्भवती है और उसे थायराइड विकार है तो इस से कई जटिल परिस्थितियां जन्म ले सकती हैं. हाइपरथायरायडिज्म मौर्निंग सिकनैस होने की संभावना को बढ़ा सकता है, जबकि हाइपोथायरायडिज्म के कारण समय से पहले लेबर डिलिवरी, गर्भपात और अन्य गंभीर जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है.

मेनोपौज

थायराइड विकारों के कारण मेनोपौज समय से पहले हो सकता है. हालांकि सही समय पर उपचार की मदद से प्रीमेनोपौज को रोका जा सकता है.

ऐसे करें बचाव

थायराइड विकार से ग्रस्त होने के बाद उसे रोक पाना मुश्किल है. अत: महिला को लक्षण नजर आने पर तुरंत डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए.

एक स्वस्थ महिला इस बीमारी से बचाव करने के लिए निम्नलिखित उपायों को आजमा सकती है:

प्रोसैस्ड फूड से बचें:

प्रोसैस्ड फूड में बहुत से कैमिकल होते हैं जो थायराइड हारमोन के उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं. इसलिए थायराइड विकार से बचाव के लिए महिला को प्रोसैस्ड फूड का कम से कम सेवन करना चाहिए. यदि महिला थायराइड विकार से पीडि़त है तब तो उसे इस फूड का कतई सेवन नहीं करना चाहिए.

सोया से बचें:

हालांकि यह एक बहुत ही हैल्दी खा-पदार्थ है लेकिन थायराइड के संबंध में नहीं. सोया का जरूरत से अधिक सेवन करना थायराइड हारमोन के उत्पादन को प्रभावित कर सकता है.

धूम्रपान बंद करें:

धूम्रपान के दौरान निकलने वाले विषाक्त पदार्थ थायराइड ग्रंथि को अधिक संवेदनशील बना सकते हैं, जिस से थायराइड विकार हो सकते हैं. स्मोकिंग न केवल थायराइड ग्रंथि के लिए बल्कि अन्य स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं की जड़ भी बन सकता है.

तनाव को कम करें

थायराइड रोग सहित कई अन्य स्वास्थ्य विकारों में तनाव का बहुत बड़ा रोल होता है. तनाव को कम करने के लिए महिला मैडिटेशन, म्यूजिक आदि का सहारा ले सकती है.

नियमित रूप से डाक्टर से मिलें

अपने डाक्टर के पास नियमित रूप से जाएं. नियमित जांच न केवल आप के संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए बल्कि आप के थायराइड स्वास्थ्य के लिए भी अच्छी होती है. यदि थायराइड के प्रारंभिक लक्षण नजर आते हैं तो डाक्टर बीमारी को कुछ दवाइयों की मदद से काबू में कर सकते हैं.

थायराइड ग्रंथि से स्रावित होने वाले हारमोन शरीर की बहुत सी क्रियाओं जैसे कैलोरी की खपत दर को नियंत्रित करना, हृदय गति को नियंत्रित करना आदि में मददगार होते हैं. लेकिन यदि इन के स्राव की मात्रा जरूरत से अधिक अथवा कम हो जाती है तो इस से शरीर को कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. यह महिला के प्रजनन स्वास्थ्य को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है.

इस के लक्षण नजर आने पर एक महिला को देरी न करते हुए तुरंत ऐंडोक्राइनोलौजिस्ट के पास निदान के लिए जाना चाहिए. सही समय पर इलाज से इसे कुछ दवाइयों या थेरैपी की मदद से कंट्रोल कर सकते हैं. कुछ गंभीर मामलों में थायराइडेक्टामी की भी जरूरत पड़ सकती है. यह एक प्रकार की सर्जरी है. हालांकि इस की जरूरत तब पड़ती है जब थायराइड डिसऔर्डर को दवाइयों से ठीक न किया जा सके.

बेहतर है आप संतुलित आहार लें और कम से कम रोज आधा घंटा व्यायाम अवश्य करें. इस से न केवल थायराइड रोग बल्कि आप के सामान्य जीवन में भी सुधार होगा.                       –

थायराइड विकारों के लक्षण

महिलाओं में थायराइड विकारों के लक्षणों को इस तरह जान सकते हैं:

– टीएसएच का लैवल बढ़ना और टी4 का घटना.

– चेहरे में सूजन आना.

– स्किन टाइट होना.

– थकावट महसूस करना.

– नब्ज का धीमा होना.

– खाना समय पर हजम नहीं होना.

– गैस और कब्ज की समस्या होना.

– पेट खराब होना.

– ठंड लगना.

– अचानक मोटापा आ जाना.

– शरीर में खिंचाव और ऐंठन महसूस करना.

– मन विचलित होना.

 

महिला गर्भनिरोधक : क्या सही, क्या गलत

बचाव इलाज से ज्यादा अच्छा होता है, महिला गर्भनिरोधक उपायों पर यह बात बिलकुल सही बैठती है. बाजार में काफी पहले से महिला गर्भनिरोधक मौजूद हैं, लेकिन आज भी भारत में लाखों महिलाएं ऐसी हैं, जो नहीं जानतीं कि उनके लिए कौन सा गर्भनिरोधक उपाय सही है. इस वक्त तो महिलाओं के लिए अनचाहे गर्भ से बचने और बच्चों में अंतर रखने के लिए कई तरह के उपाय बाजार में मौजूद हैं. इन में ओरल पिल्स से ले कर इंप्लांट्स तक कई विकल्प हैं. लेकिन आमतौर पर इन में से सही विकल्प का चुनाव महिलाएं नहीं कर पातीं. ज्यादातर महिलाएं विज्ञापनों, सहेलियों या रिश्तेदारों के कहने पर गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करने लगती हैं, लेकिन जानकारी की कमी और गलत विकल्प का चुनाव महिलाओं के लिए बड़ी परेशानी का कारण बन जाता है.

मूलचंद अस्पताल की सीनियर गायनाकौलोजिस्ट डा. मीता वर्मा के मुताबिक, ‘‘महिलाएं गर्भनिरोधकों के बारे में जानती हैं, लेकिन भारतीय समाज में ऐसी कई भ्रांतियां हैं, जो महिलाओं के लिए मुश्किल पैदा कर देती हैं. भारत में अभी भी बच्चों को कुदरत की देन मान कर परिवार नियोजन की सोच को ही खत्म कर दिया जाता है. कई महिलाओं में यह सोच भी विकसित हो जाती है कि गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करने से उन की प्रजनन क्षमता और होने वाले बच्चे के विकास पर गलत प्रभाव पड़ेगा. इसी तरह के और भी न जाने कितने मिथक महिलाओं के मन में घर किए रहते हैं, लेकिन आज के समय में जरूरी है कि डाक्टर की सलाह से सही गर्भनिरोधक का इस्तेमाल किया जाए.’’

डा. मीता बताती हैं कि ज्यादातर जोड़े ऐंजौयमैंट को ज्यादा तरजीह देते हैं, जिस के चलते वे कंडोम या किसी भी तरह के दूसरे कौन्ट्रासैप्टिव का इस्तेमाल नहीं करते और जब गर्भ ठहर जाता है, तो गर्भपात कराने से भी नहीं हिचकते. लेकिन यहां वे यह भूल जाते हैं कि गर्भपात इस का हल नहीं है, क्योंकि बारबार गर्भपात से बच्चेदानी पर बुरा असर पड़ता है, जो महिलाओं के लिए बड़ी मुसीबत बन जाती है. इसलिए युवा और नवविवाहित जोड़े अगर गर्भपात को आसान रास्ता मान रहे हैं तो यह उन की भूल है.

इस वक्त महिला गर्भनिरोधक के बाजार में 2 तरह के कौन्ट्रासैप्टिव मौजूद हैं-

हारमोन बेस्ड कौन्ट्रासैप्टिव्स.

नौनहारमोनल कौन्ट्रासैप्टिव्स.

हारमोन बेस्ड कौन्ट्रासैप्टिव्स : इस तरह के कौन्ट्रासैप्टिव सब से ज्यादा चलन में हैं. ये ऐसे कौन्ट्रासैप्टिव्स हैं, जिन के इस्तेमाल से शरीर के अंदर हारमोनल बदलाव के जरिए अनचाहे गर्भ को रोका जाता है. 35 से कम उम्र की कोई भी स्वस्थ महिला जो कुछ समय तक बच्चा नहीं चाहती, डाक्टर की सलाह से इन का प्रयोग कर सकती है. लेकिन अगर कोई महिला हार्ट या लिवर की बीमारी से पीडि़त है या उसे अस्थमा और ब्लडप्रैशर की शिकायत रहती है, तो हारमोन बेस्ड कौन्ट्रासैप्टिव्स उस के लिए ठीक नहीं हैं. इस से अलग जो महिलाएं धूम्रपान या शराब का सेवन करती हैं या जिन का वजन ज्यादा है उन्हें भी इस तरह के कौन्ट्रासैप्टिव्स से बचना चाहिए.

इस वक्त बाजार में इस कैटेगरी के सब से ज्यादा कौन्ट्रासैप्टिव्स उपलब्ध हैं.

 

ओरल पिल्स

यह सब से ज्यादा इस्तेमाल में लाया जाने वाला उपाय है. इसे महीने में 21 दिन खाना होता है. यह इसलिए भी ज्यादा चलन मेें है, क्योंकि इस का इस्तेमाल काफी आसान है और यह उपाय सस्ता भी है. लेकिन ओरल पिल्स को बिना डाक्टर की सलाह के न लें, क्योंकि ये सभी को सूट नहीं करतीं. इन्हें सही तरह से इस्तेमाल करने पर ही ये बचाव कर सकती हैं. लेकिन ज्यादातर महिलाएं सही पिल्स का चुनाव नहीं कर पातीं, जिस का नतीजा होता है अनचाहा गर्भ. ओरल पिल्स कई महिलाओं में वजन बढ़ाने और उल्टियों की समस्या का भी कारण बनती हैं. ओरल पिल्स के अलावा बाजार में मिनी पिल्स भी उपलब्ध हैं, जो ज्यादा कारगर और सेफ हैं. मिनी पिल्स भी प्रोजैस्ट्रौन और दूसरे हारमोंस के कौंबिनेशन से बनी होती हैं, जिन्हें दूध पिलाने वाली मां भी इस्तेमाल कर सकती है.

इमरजेंसी पिल्स

इस तरह की गर्भनिरोधक गोलियां ओरल पिल्स की पूरक हैं. अगर कोई महिला ओरल पिल्स लेना भूल जाती है और असुरक्षित सैक्स संबंध बनाती है, तो अनचाहे गर्भ से बचने के लिए 72 घंटे के अंदर वह इस का इस्तेमाल कर सकती है. इसीलिए इसे मौर्निंग आफ्टर पिल भी कहा जाता है. लेकिन यह उपाय भी सुरक्षा की पूरी गारंटी नहीं देता. इसलिए इसे केवल मजबूरी में ही इस्तेमाल करें, इसे आदत न बनाएं. लगातार इस्तेमाल से यह महिलाओं के लिए मुसीबत भी बन सकती है.

हारमोन इंजैक्शन

यह एक बेहद प्रभावशाली उपाय है. जो महिलाएं रोजाना गोलियां नहीं खाना चाहतीं, वे इस का इस्तेमाल कर सकती हैं. इस में महिला को प्रोजैस्ट्रौन का इंजैक्शन दिया जाता है. यह इंजैक्शन यूटरस की दीवार पर मौजूद म्यूकस को गाढ़ा कर देता है ताकि स्पर्म अंदर न जाएं और औव्यूलेशन को रोका जा सके. इस इंजैक्शन को लेने के 24 घंटों के अंदर ही इस का असर शुरू हो जाता है. यह 10 से 13 हफ्तों तक सुरक्षा देता है, जिस के बाद फिर इंजैक्शन लेना होता है. कुछ महिलाओं का इस से वजन बढ़ सकता है और उन के पीरियड्स अनियमित भी हो सकते हैं. इस के इस्तेमाल के बाद कंसीव करने में भी कुछ महीनों का वक्त लग सकता है.

इंप्लांट

इस प्रक्रिया में एक बेहद पतली प्लास्टिक रौड हाथ के ठीक निचले हिस्से में फिट कर दी जाती है. यह रौड शरीर में प्रोजैस्ट्रौन रिलीज करती है, जिस से औव्यूलेशन नहीं हो पाता. यह यूटरस में मौजूद म्यूकस का नेचर बदल देता है, जिस से प्रैग्नैंसी को रोका जा सकता है. इसे सब से सेफ औप्शन माना जाता है. यह इंप्लांट 3 से 5 साल तक के लिए प्रैग्नैंसी से बचाव करता है. लेकिन भारत में अभी यह उपलब्ध नहीं है. 

नौनहारमोनल कौन्ट्रासैप्टिव्स: ये ऐसे कौन्ट्रासैप्टिव्स हैं जिन से किसी तरह के हारमोन शरीर के अंदर नहीं जाते. ये उन महिलाओं के लिए कारगर हैं, जिन्हें हार्ट, लिवर, अस्थमा या ब्लडप्रैशर की शिकायत रहती है. लेकिन नौनहारमोनल कौन्ट्रासैप्टिव्स के इस्तेमाल से पहले डाक्टरी सलाह बेहद जरूरी है.

फीमेल कौन्ट्रासैप्टिव्स की इस कैटेगरी में भी कई विकल्प मौजूद हैं.

 

फीमेल कंडोम

गर्भनिरोधकों की श्रेणी में महिलाओं के लिए कंडोम एक नई चीज है. यह कंडोम लुब्रिकेटेड पौलीथिन शीट का बना होता है. भारत में महिलाओं के लिए बने ये कंडोम हाल में ही बाजार में उतारे गए हैं. इसे भी पुरुष कंडोम की ही तरह एक ही बार इस्तेमाल में लाया जा सकता है. ये प्रैग्नैंसी रोकने में पूरी तरह से कारगर हैं, बशर्ते सैक्स के दौरान इस की पोजीशन ठीक रहे. यह प्रैग्नैंसी रोकने के अलावा एचआईवी जैसे रोगों से भी सुरक्षा देता है. लेकिन यह एक महंगा विकल्प है. महिला कंडोम की कीमत बाजार में 80 रुपए तक है, इसलिए डाक्टर पुरुष कंडोम की सलाह देते हैं, क्योंकि वह ज्यादा सस्ता विकल्प है.

इंट्रायुटेराइन कौन्ट्रासैप्टिव डिवाइस

इस डिवाइस को कौपर टी या मल्टीलोड डिवाइस के नाम से ज्यादा जाना जाता है. यह एक तरह की लचीली प्लास्टिक की डिवाइस होती है जिसे कौपर के तार के साथ यूटरस में लगा दिया जाता है. इसे डाक्टर की सहायता से फिट किया जाता है. कौपर वायर यूटरस में ऐसा असर पैदा करता है जिस से शुक्राणु और अंडाणु आपस में मिल नहीं पाते और गर्भ नहीं ठहरता. यह 98% तक सुरक्षा देता है. इसे 3 या 5 साल के लिए लगवाया जा सकता है. सरकारी हैल्थ सैंटरों में यह मुफ्त उपलब्ध है, जबकि बाजार में इस की कीमत 375 रुपए से 500 रुपए के बीच है. इस से पीरियड ज्यादा होना और पैरों में दर्द रहना आम बात है. जिन्हें कौपर से ऐलर्जी है उन के लिए इस का इस्तेमाल नुकसानदेह हो सकता है.

स्पर्मिसाइड जैली

इस तरह के कौन्ट्रासैप्टिव्स भी काफी अच्छे विकल्पों में गिने जाते हैं. अगर महिलाएं कंडोम या किसी तरह के डिवाइस को इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं, तो इस तरह की जैली या फोम बेस्ड कौन्ट्रासैप्टिव इस्तेमाल कर सकती हैं. इसे सैक्स से ठीक पहले वजाइना में लगाना होता है. इस में मौजूद ‘नोनोक्सिनोल 9 कैमिकल’ स्पर्म को संपर्क में आते ही खत्म कर देता है. कुछ मेल कंडोम में भी स्पर्मिसाइड होते हैं. यह उपाय काफी कारगर है, लेकिन कुछ महिलाओं को इस से ऐलर्जी भी होती है, इस का ध्यान रखना जरूरी है.

जानें Allergy के प्रकार और इलाज

ऐलर्जी इनसान के इम्यून सिस्टम की एक असामान्य प्रतिक्रिया है. परागकण, धूलकण, फफूंद, जानवरों के रोएं, कीटों के डंक, कुछ खाद्यपदार्थ, कैमिकल, दवाइयों आदि से ऐलर्जी हो सकती है.

1. ऐलर्जिक राहिनाइटिस (रनिंग नोज)

कारण:

ऐलर्जी राहिनाइटिस जिसे आमतौर पर हे फीवर भी कहते हैं, यह तब होता है जब हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली हवा में मौजूद तत्त्वों के प्रति ओवररिऐक्ट करती है. हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली को इस से छींकने और बहती नाक जैसे लक्षणों का सामना करना पड़ता है. इन तत्त्वों को ऐलर्जन यानी ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्त्व कहा जाता है, जिस का अर्थ यह है कि ये ऐलर्जिक रिऐक्शन का कारण बनते हैं. कई तरह के ऐलर्जन जैसे परागकण, मिट्टी, धूलकण, पशुओं के रेशे और कौकरोच आदि ऐलर्जिक राहिनाइटिस का कारण बनते हैं. हालांकि प्रदूषित वायु ऐलर्जन नहीं होती, पर यह नाक और फेफड़ों को इरिटेट (उत्तेजित) कर सकती है. जब आप ऐलर्जन में सांस लेते हैं तब इरिटेट नाक या फेफड़ों द्वारा ऐलर्जिक रिऐक्शन का खतरा ज्यादा हो सकता है.

रोकथाम:

विशेषज्ञ ऐलर्जिक राहिनाइटिस की रोकथाम कैसे की जाए इस के बारे में अभी पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति कई तरह के ऐलर्जन के संपर्क में आता है. धुआं और वायु प्रदूषण भी व्यक्ति को ऐलर्जी की चपेट में लाने में सहायक होते हैं.

उपचार:

इस का मुख्य उपचार ऐलर्जन से दूर रहना, लक्षणों को नियंत्रित करना और दवा के साथसाथ घरेलू उपचार और कुछ मामलों में इम्यूनोथेरैपी है. आप को कितनी बार ट्रीटमैंट करवाना है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप में कितनी बार इस के लक्षण नजर आए.

सावधानियां:

ऐलर्जन से दूरी बनाई जाए. ऐसा करने से आप ऐलर्जी के लक्षणों को कम कर सकते हैं और बहुत कम दवा के साथ इसे नियंत्रित कर सकते हैं. प्रतिदिन घर की साफसफाई जरूरी है ताकि धूल, पालतू पशुओं के रोएं आदि घर में न हों. इस के अलावा तब ज्यादातर घर में ही रहने का प्रयास करें जब हवा में परागकणों की मात्रा ज्यादा होती है.

ऐसे कम करें लक्षण:

इस से संबंधित दवा खाने और होम ट्रीटमैंट लेने से इस के लक्षणों को कम करने में सहायता मिलती है. नासिका मार्ग की सफाई कर के भी लक्षणों को कम कर सकते हैं.

2. इम्यूनोथेरैपी

अगर दवा आप के लक्षणों को कम नहीं करती या उस का साइड इफैक्ट होता है तब डाक्टर आप को इम्यूनोथेरैपी की सलाह दे सकते हैं. इस ट्रीटमैंट के तहत आप को गोलियां दी जाती हैं, जिन में थोड़ी मात्रा में कुछ ऐलर्जन होते हैं. आप का शरीर उन ऐलर्जन का इस्तेमाल करता है. इसलिए समय के साथ आप का शरीर इन के प्रति कम प्रतिक्रिया करता है. इस तरह का ट्रीटमैंट कुछ तरह की ऐलर्जी से बचाव करता है.

3. वाटरी आईज

आंखों का पानी आंखों के लुब्रिकैंट्स (चिकनाई) को बनाए रखता है और बाहरी चीजों यानी धूल आदि को आंखों में जाने से रोकता है. जब व्यक्ति की आंखों से अत्यधिक आंसू निकलते हैं तब ये आंसुओं की नलिकाओं को हिला देते हैं, जिस से वाटरी आईज यानी आंखों से पानी बहना शुरू हो जाता है.

कारण:

आंखों के आवश्यक तत्त्व पानी, नमक और तेल का जब आंखें सही संतुलन नहीं रख पातीं तब ये अत्यधिक सूखी हो जाती हैं. इस के परिणामस्वरूप जलन शुरू होती है, जिस से आंखों में अत्यधिक पानी बनने लगता है और वह आंखों के रास्ते बाहर आता है. इस के अलावा बंद नलिकाएं, धूल, हवा, ऐलर्जी, इन्फैक्शन और चोट आदि भी वाटरी आईज का कारण बनते हैं. ज्यादा सर्दी या धूप भी वाटरी आईज के लिए जिम्मेदार होती है. सर्दीजुकाम, साइनस की समस्या और ऐलर्जी भी इस का कारण बनती है. ड्राई आईज के कारणों का पता लगाना ही वाटरी आईज के लिए बेहतर उपचार है. हालांकि वाटरी आईज से कोई हानि नहीं होती है पर परेशानी जरूर होती है. अगर आप को इस तरह के लक्षण नजर आते हैं तो तुरंत आंखों के डाक्टर से मिलें:

  1. आंखों से कम दिखना.
  2. आंखों में कोई चोट आदि लगना.
  3. कोई कैमिकल आंखों में चला जाए.
  4. आंखों से खून आने लगा हो या फिर कोई बाहरी चीज आंख में चिपक गई हो.
  5. सिर में अत्यधिक दर्द हो रहा हो.

उपचार:

आमतौर पर ज्यादातर मामलों में वाटरी आईज बिना उपचार के भी ठीक हो जाती हैं. लेकिन कई बार स्थिति गंभीर भी बन जाती है. इस के लिए डाक्टर से परामर्श लेना आवश्यक होता है.

  1. डाक्टर इस के लिए आई ड्रौप्स लिखते हैं.
  2. टरी आईज के लिए जिम्मेदार ऐलर्जी का उपचार कर के इस समस्या को रोका जाता है.
  3. अगर आई इन्फैक्शन है तो इस के लिए ऐंटीबायोटिक्स दी जाती हैं.
  4. गरम तौलिया आंखों पर कई बार रखा जाता है जो बंद नलिकाओं को खोलने में सहायता करता है.
  5. बंद नलिकाओं को साफ करने के लिए सर्जरी का भी सहारा लिया जाता है.

4. पेनफुल थ्रोट (दर्द भरा गला)

गले में दर्द एक आम समस्या है, जिस का सामना हर व्यक्ति कभी न कभी करता है. इस का लक्षण गले में दर्द से ले कर दांतों में दर्द तक कोई भी हो सकता है. आमतौर पर गले के दर्द को इन्फैक्शन या ऐलर्जी के संकेत के रूप में देखा जाता है. अगर गले में दर्द ज्यादा है या फिर खानेपीने या सांस लेने में दिक्कत आ रही हो, तो डाक्टर से परामर्श लें. 

कारण:

गले के दर्द के लिए कई कारण जिम्मेदार होते हैं. जब गले में दर्द होता है तब आप को इस तरह के लक्षण नजर आ सकते हैं:

  1. गले की सूजी ग्रंथियां.
  2. गले में चोट.
  3. इसोफेजियल में घाव के निशान.
  4. कान में इन्फैक्शन.

गले में दर्द के सामान्य कारणों में हैं, कोल्ड, फ्लू, क्रोनिक कफ, ऐसिड रिफ्लक्स डिजीज, गले में इन्फैक्शन, टौंसिल्स, गले को नुकसान पहुंचाने वाले खाद्यपदार्थ आदि.

उपचार:

इस का उपचार दर्द के कारण पर निर्भर करता है. आमतौर पर डाक्टर गले के इन्फैक्शन, टौंसिल्स, मुंह में इन्फैक्शन आदि के लिए ऐंटीबायोटिक की सलाह देते हैं. कई बार डाक्टर ऐंटीऐलर्जिक ऐंटीबायोटिक देने से पहले गले को सुन्न करने के लिए नंबिंग माउथवाश देते हैं. थ्रोट स्प्रे से भी इस का उपचार किया जाता है. अगर किसी को टौंसिल्स की वजह से बारबार गले की समस्या होती या टौंसिल्स पर दवा का असर नहीं होता है तब डाक्टर उन्हें सर्जरी द्वारा रिमूव करने की सलाह देते हैं.

5. स्किन ऐलर्जी

स्किन ऐलर्जी यानी त्वचा ऐलर्जी आमतौर पर महिलाओं में ज्यादा देखी जाती है. आमतौर पर जिन की त्वचा अत्यधिक सैंसिटिव होती है, उन्हें स्किन ऐलर्जी का ज्यादा खतरा रहता है. जब त्वचा को कोई खास चीज सूट नहीं करती तब उस पर ऐलर्जी उत्पन्न हो जाती है. ऐसे में उन चीजों से दूर रहने की जरूरत होती है. त्वचा पर खुजलाहट, जलन, दाने निकलना, त्वचा का लाल होना आदि समस्याएं दिखाई दें तो समझना चाहिए कि यह स्किन ऐलर्जी या कौंटैक्ट डर्मैटाइटिस की समस्या है.

लक्षण:

कौंटैक्ट डर्मैटाइटिस की शिकायत होने पर जैसे ही ऐलर्जिक तत्त्व के संपर्क में शरीर आता है, तो जल्द ही या फिर कुछ घंटों के भीतर त्वचा का लाल होना, खुजली, जलन, गरम हो जाना, फुंसियां होना, छाले पड़ना, सूजन, दर्द आदि लक्षण दिखाई देने लगते हैं. प्लास्टिक, धातु, चमड़े आदि की ऐलर्जी की वजह से घाव हो सकते हैं. कान या नाक कृत्रिम आभूषण पहनने से पक सकती है. जूतेचप्पल के काटने से उस जगह घाव हो जाता है और फिर उस से पानी निकलना शुरू हो जाता है. ऐलर्जिक तत्त्व से संपर्क हटने के बाद कुछ दिनों में त्वचा सामान्य हो जाती है. किसीकिसी की त्वचा पर यह ऐलर्जी काफी गंभीर हो जाती है. लगातार ऐलर्जी होने पर वह गंभीर त्वचा रोग में बदल जाता है.

कारण:

कैमिकल युक्त चीजें जैसे बिंदी, खराब क्वालिटी के सौंदर्य प्रसाधन जैसे लिपस्टिक, नेलपौलिश, हेयरडाई, सिंदूर, फेसक्रीम, शेविंग क्रीम, साबुन, परफ्यूम, दवा, पेंट, पौलिश, टूथपेस्ट आदि स्किन ऐलर्जी के कारण हैं. कृत्रिम आभूषण, चश्मों के फे्रम, घड़ी का पट्टा, जूतेचप्पल, वाशिंग पाउडर, कलर, प्लास्टिक, स्याही, गाड़ी का स्टेयरिंग, पैट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, मोबिल औयल, नए या पुराने नोट, सिक्के आदि भी स्किन ऐलर्जी के कारक हो सकते हैं.

उपचार:

कौंटैक्ट डर्मैटाइटिस से बचने का सब से सही और आसान उपाय है, जिस चीज से त्वचा पर ऐलर्जी होती है, उस चीज को नोट कर के रखें और फिर उस का इस्तेमाल करना बंद कर दें. जब वह चीज त्वचा के संपर्क में नहीं आएगी तो कौंटैक्ट डर्मैटाइटिस की परेशानी उत्पन्न नहीं होगी. खानपान में परहेज करें, अधिक मात्रा में खट्टी चीजें, अधिक मिर्चमसाला, तैलीय चीजें, बासी खाना आदि का इस्तेमाल न करें. त्वचा की साफसफाई पर विशेष ध्यान दें. त्वचा अधिक संवेदनशील होने पर इनर वस्त्र सुबहशाम दोनों समय बदलें, शर्टपैंट रोजाना बदलें. दूसरों के बिस्तर, तौलिए, कपड़ों आदि का इस्तेमाल न करें. नईनई चीजों से शरीर में ऐलर्जी होने पर डाक्टर को अवश्य दिखाएं. कोई भी नया कौस्मैटिक इस्तेमाल करने से पहले उसे थोड़ा सा कलाई पर लगा कर सो जाएं. यदि सुबह तक उस जगह जलन या लालपन न हो तभी उस का इस्तेमाल करें.                  

 

 

Summer Special: डिहाइड्रेशन से हैं परेशान तो अपनाएं ये नेचुरल उपाय

पानी हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी होता है. शरीर में पानी की कमी को ही डिहाइड्रेशन कहते हैं. सामान्यत: जब गर्मियों के दिनों में आपके शरीर में पानी की मात्रा में कमी आ जाती है, तो आपको डीहाइड्रेशन से गुजरना पड़ता है. शरीर में पानी की कमी होने पर शरीर को ताकत देने वाले खनिज पदार्थ जैसे नमक, शक्कर आदि कम होने लगते हैं. आमतौर पर गर्मियों के दिनों में ऐसा होता है.

डिहाड्रेशन किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकता है. बच्चों से लेकर बूढे तक इसका शिकार हो जाते हैं. अभी तक इसका कोई ठोस कारण भी मालूम नहीं हो सका है. यह बहुत ही खतरनाक होता है, सही समय पर इसका इलाज न हो तो आपको बहुत ही घातक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है.

डीहाइड्रेशन के कारण:

डीहाइड्रेशन होने का सबसे बड़ा कारण तो पानी की कमी ही है, जिसके बारे में हम यहां बात कर चुके हैं. इसके अलावा इसके और भी कई कारण हैं, जैसे बुखार आना, उल्टी होना, दस्त की समस्या, धूप का प्रभाव, जरूरत से ज्यादा एक्सरसाइज, खाने पीने का सही समय न होना आदि डीहाइड्रेशन के कारण होते हैं.

डीहाइड्रेशन के घरेलू उपचार:

पानी अधिक मात्रा में पीना

हमारे शरीर को 70 फीसदी पानी की आवश्यकता होती है, इसलिए सबसे पहले पानी की मात्रा को बढ़ाना चाहिए. दिन में 10 गिलास पानी का पीना चाहिए.

दही का सेवन

डीहाइड्रेशन में दही का सेवन बहुत ही लाभकारी होता है. यह आसानी से पच भी जाता है और इसका सेवन आप नमक और भुने हुए जीरे के साथ भी कर सकते हैं

रसीले फल और सब्जियां

अगर आपको लगता है कि आपके शरीर में डीहाइड्रेशन की शुरुआत हो चुकी है, तो आप रसीले फल जैसे अंगूर, संतरा, पपीता, तरबूज, खरबूज, मूली, टमाटर आदि का सेवन करें. ये वाकई लाभकारी सिद्ध होता है.

केला

डीहाइड्रेशन की शिकायत से शरीर में पोटेशियम की कमी आ जाती है, इसके लिए केला बहुत ही फायदेमंद साबित होता है. केले में पोटेशियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है.

नारियल पानी

जब भी शरीर में डीहाइड्रेशन की शिकायत आ जाती है, तो इससे तुरंत छुटकारा पाने के लिए एक गिलास नारियल का पानी पी लेना चाहिए.

छाछ

जब आप धूप में बहुत ज्यादा काम करते हैं तो आपके शरीर से कॉफी मात्रा में पसीना निकल जाता है. लेकिन यह तो आम बात है पर इसके कारण आप को डीहाइड्रेशन की शिकायत हो जाती है. यदि आप इससे निजात पाना चाहते हैं तो आपको एक दिन में दो गिलास छाछ पी लेनी चाहिए.

सूप का सेवन

डीहाइड्रेशन से बचने के लिए आपको दिन में कम से कम एक बार सूप जरूर पीना चाहिए.

नींबू पानी

नींबू पानी शरीर को हाइड्रेट रखने का सबसे अच्छा स्रोत है. नींबू पानी पीने से शरीर में ताजगी का भी एहसास होता है. नींबू पानी में अगर आप चीनी की जगह शहद का इस्तेमाल करेंगे तो और अधिक फायदा मिलेगा.

डीहाइड्रेशन के लक्षण:

डीहाइड्रेशन वाले व्यक्ति को बहुत ज्यादा घबराहट होती है. कब्ज की समस्या भी होने लगती है. बार-बार चक्कर आना और मुंह का बार-बार सुख जाना भी डिहाइड्रेशन के ही लक्षण है. इसके अलावा त्वचा सुखी होना, सिरदर्द होना, शरीर में सुस्ती और कमजोरी होना. बहुत ज्यादा थकान महसूस होना.

बच्चों को डायबिटीज से कैसे बचाएं

डायबिटीज एक क्रोनिक रोग है जो हर उम्र के लोगों को प्रभावित करता है. टाइप 1 डायबिटीज बच्चों और किशोरों में ज्यादा पाई जाती है, जबकि टाइप 2 डायबिटीज ज्यादातर युवा और वयस्कों को होती है. डायबिटीज से पीडि़त बच्चों की देखभाल करना मुश्किल हो सकता है खासतौर पर तब जब आप को पता हो कि आप के बच्चे को जीवनभर इसी के साथ जीना पड़ सकता है.

मातापिता की तरह डायबिटीज का असर बच्चों के मन पर भी पड़ता है. वे हमेशा अपनेआप को दूसरे बच्चों से अलग महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें कई चीजों के लिए रोका जाता है. ऐसे में इन बच्चों का आत्मविश्वास भी कम हो सकता है.

पेश हैं, इस संदर्भ में डा. मुदित सबरवाल (कंसलटैंट डायबेटोलौजिस्ट एवं हैड औफ मैडिकल अफेयर्स, बीटो) के कुछ सु झाव:

डायबिटीज से ग्रस्त बच्चे का जीवन

टाइप 1 डायबिटीज एक क्रोनिक रोग है. इस स्थिति में पैंक्रियाज में इंसुलिन नहीं बनता है या कम मात्रा में बनता है. इसलिए शरीर को बाहर से इंसुलिन देना पड़ता है.

टाइप 1 डायबिटीज से पीडि़त बच्चा तनाव और थकान महसूस करता है. वह अपने भविष्य को ले कर चिंतित हो सकता है. ‘डायबिटीज बर्नआउट’ एक ऐसी स्थिति है जिस में व्यक्ति अपनी डायबिटीज को नियंत्रित करतेकरते थक जाता है. ऐसी स्थिति में बच्चे अपने ब्लड ग्लूकोस लैवल को मौनिटर करना, इसे रिकौर्ड करना या इंसुलिन लेना नहीं चाहते.

ऐसे में मातापिता होने के नाते आप को अपने बच्चे के डायबिटीज मैनेजमैंट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है. बच्चे को खुद अपनी स्थिति पर नियंत्रण रखने दें. इस बीच उसे पूरा सहयोग दें और मार्गदर्शन करें.

डायबिटीज से पीडि़त बच्चों की देखभाल

डायबिटीज मैनेजमैंट में सब से जरूरी चीज है ब्लड शुगर लैवल को सही रेंज में रखना. इस के लिए आप के बच्चे को इंसुलिन लेना पड़ सकता है, हर बार के खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा सीमित करनी पड़ती है और साथ ही ऐक्टिव भी रहना होता है.

रोजाना डाक्टर की सलाह के अनुसार निर्धारित समय पर ब्लड शुगर नापें. इस के लिए आप बीटो का स्मार्टफोन कनैक्टेड ग्लूकोमीटर इस्तेमाल कर सकते हैं. इस के साथ ब्लड शुगर को मौनिटर करना बेहद आसान हो जाता है. आप जब चाहें, जहां चाहें ब्लड ग्लूकोस नाप सकते हैं.

मातापिता के लिए सुझाव

जरूरत से ज्यादा रोकटोक न करें:

आप को अपने बच्चे को अनचाही जटिलताओं से सुरक्षित रखना है. लेकिन ध्यान रखें कि उसे स्पेस दें. आप की मदद से बच्चा खुद अपनी जिम्मेदारी सम झेगा और डायबिटीज मैनेजमैंट कर सकेगा. इस से बच्चे में आत्मविश्वास भी पैदा होगा.

उस की सामान्य जीवन जीने में मदद करें:

हमेशा बच्चे का उत्साह बढ़ाएं. जिस चीज में उस की रुचि है उसे वह करने का मौका दें. आप उसे सिंगिंग, पेंटिंग, स्विमिंग क्लासेज में भेज सकते हैं. देखें कि उसे किस चीज का शौक है.

उसे सिखाएं कि अगर कोई उसे चिढ़ाता है तो उसे क्या करना है:

अकसर डायबिटीज से पीडि़त बच्चे को क्लास के दूसरे बच्चे चिढ़ाते हैं. ऐसे में बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर असर हो सकता है. ध्यान रखें कि इन चीजों का बच्चे पर बुरा असर न पड़े. इस की वजह से वह स्कूल में ब्लड ग्लूकोस मौनिटर करना बंद न कर दे. अगर आप के बच्चे के साथ ऐसा होता है, तो उसे सिखाएं कि उसे ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, साथ ही दूसरे बच्चों को भी सम झाएं कि वे ऐसा न करें. इस के लिए आप उन के मातापिता, अभिभावकों या अन्य साथियों की मदद ले सकते हैं.

उसे सिखाएं कि उसे सही पोषक आहार ही खाना चाहिए:

बच्चों को चौकलेट, फास्ट फूड बहुत पसंद होता है. हालांकि डायबिटीज से पीडि़त बच्चों को थोड़ा सतर्क रहना होता है. बच्चे को डांटने के बजाय आराम से सम झाएं कि पोषक और सेहतमंद आहार से ही उसे फायदा होगा. उसे साबूत अनाज, ताजा फल और सब्जियां, लीन प्रोटीन और सेहतमंद फैट्स का सेवन करने के लिए कहें.

किसी डायबिटीज ग्रुप के साथ जुड़े:

डायबिटीज से पीडि़त बच्चे की देखभाल करना मुश्किल हो सकता है. इस के लिए आप किसी डायबिटीज गु्रप में शामिल हो सकते हैं जहां आप अपनी समस्याओं पर चर्चा कर सकते हैं. जरूरत पड़ने पर नोट्स बनाएं, एकदूसरे के सु झाव लें. इस के अलावा अपने पार्टनर की मदद लें. ऐसे बच्चे के लिए परिवार का सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण होता है.

ध्यान रखें:

अगर बच्चे में डिप्रैशन के लक्षण दिखते हैं जैसे उदासी, चिड़चिड़ापन, थकान, भूख में बदलाव, सोने की आदत में बदलाव तो डाक्टर से संपर्क करें. नियमित रिमाइंडर्स और नोटिफिकेशंस के द्वारा आप डायबिटीज को बेहतर तरीके से नियंत्रित कर सकते हैं. बीटो ऐप डायबिटीज मैनेजमैंट के लिए हर जरूरी समाधान उपलब्ध कराता है.

यह थेरैपी बीमारी करे जड़ से खत्म

इनाया का जन्म आम बच्चे की तरह हुआ था. लेकिन जन्म के पहले सप्ताह में उस के मातापिता ने पाया कि उस की कलाइयां मुड़ी सी लग रही हैं. उस के पांव भी मुड़े पाए. 3 महीने होतेहोते उस की आंखों और गरदन का हिलना झटके से होने लगा. यह देख कर माता पिता हैरान हो गए और फिर डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने कई दवाएं दीं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

6 महीने की आयु में उसे मिरगी के दौरे भी पड़ने लगे. जब भी दौरा पड़ता उस के हाथपांव पूरी तरह मुड़ जाते. जब दौरे ज्यादा पड़ने लगे तब किसी दोस्त के कहने पर मातापिता बच्ची को ले कर ‘स्टेम आर ऐक्स हौस्पिटल’ गए. वहां के स्टेम सैल ट्रांसप्लांट सर्जन डा. प्रदीप महाजन से मिले और बेटी का इलाज करवाया.

डा. का इस बारे में कहना है कि कम उम्र में इस थेरैपी के प्रयोग से पहले काफी जांचें करनी पड़ती हैं. मेसेनकिमल स्टेम सैल्स प्रक्रिया में इतनी क्षमता होती है कि वह कठिन रोगों को ठीक कर सकती है. इस बच्ची को 21 दिनों के लिए सैल्युलर थेरैपी 3 सत्रों में दी गई. इस से उसे काफी लाभ पहुंचा. वह बहुत हद तक नौर्मल हो चुकी है.

एक सैल यानी कोशिका से जीवन बनता है. क्या आप ने कभी सोचा कि इसी सैल से ही असाध्य रोगों का इलाज संभव है? मुंबई के सैवन हिल्स हौस्पिटल में जहां अब तक करीब 2 हजार मरीज अपना इलाज करवा चुके हैं, की चीफ औपरेटिंग औफिसर डा. रुचा पोंक्शे बताती हैं कि स्टेम सैल का प्रयोग सालों से होता आ रहा है. जिस रोगी को और्गन कैंसर होता था वहां उस के शरीर से स्टेम सैल निकाल कर कीमोथेरैपी के साथ दिए जाते थे ताकि कीमोथेरैपी अच्छी तरह से रोगी सह सके और उस का परिणाम अच्छा हो. कभी बीमारी ठीक हुई तो कभी नहीं, क्योंकि इसे कस्टमाइज्ड नहीं किया गया.

इलाज संभव है

पिछले 10 सालों से बच्चों के जन्म के बाद उस की नाल को रखने की विधि चलन में आई है. उस में अधिक से अधिक स्टेम सैल पाए जाते हैं, जिन का प्रयोग किसी कठिन रोग के इलाज के लिए किया जाता है. स्टेम सैल का इलाज मुंबई में पिछले 4 साल से हो रहा है.

बड़े होने पर भी हमारे अंदर ‘मदरसैल’ रहते हैं, जो जीवन के अंत तक रहते हैं. उन का प्रयोग इंटरनली रिपेयर, वियर ऐंड टियर में होता रहता है, जिस में नहाना, पेट के अंदर के सैल का बदलना, इन सब में स्टेम सैल का हाथ रहता है. इस पेशी का एक लाइफटाइम पहले से होता है, जो आप की आयु को बताती है. जैसे ही उम्र का बढ़ना चालू होता है वैसे ही स्टेम सैल की शक्ति कम होती जाती है. हम यहां उन व्यक्तियों के लिए काम करते हैं जिन्हें हाइपरटैंशन, मधुमेह आदि बीमारियां हो गई हों. ऐसे में उस शरीर के सैल्स को ले कर उस जगह पर डाल कर इलाज कर सकते हैं. परेशानी होने पर जल्दी डाक्टर के पास जाने से अच्छा रिजल्ट मिलता है. इस के अधिक उपयोगी होने की वजह यह है कि इसे रोगी के शरीर से निकाल कर उसे अच्छी तरह प्रोसैस कर फिर रोगी के अंदर डाला जाता है. इस के प्रोसैस निम्न हैं:

– पहले रोगी की काउंसलिंग कर उसे समझाया जाता है. अगर वह राजी हुआ तो इलाज शुरू किया जाता है.

– ‘बोनमैरो’ में हमेशा सैल्स तैयार होते रहते हैं. यह मशीनरी है, जो सैल्स तैयार करती है.

– स्टेम सैल्स हर व्यक्ति किसी भी उम्र में दे कर अपना इलाज करवा सकता है.

– स्टेम सैल्स को बोनमैरो या बौडी के ऊपर जो फैट रहता है उस में से ऐनेस्थीसिया कर निकाला जाता है, जिस तरह की बीमारी है उस तरह का कौंबिनेशन बनाया जाता है. सैल्स का भी वैसा ही कौंबिनेशन बनाना जरूरी होता है ताकि अच्छी तरह के स्टेम सैल्स निकलें. इस प्रक्रिया में 2-3 घंटे का समय लगता है.

– कई लोगों में आईवी के जरीए नौर्मल डोज दी जाती है. किसी में अगर हड्डियों की बीमारी है तो ब्रेन या स्पाइनल कौर्ड में इंजैक्शन देना आवश्यक होता है.

– ‘मस्कुलर डिस्ट्रोफी’ होने पर उन में जो कमजोर मांसपेशी है उसे पहचान कर वहां पर इंजैक्शन दिया जाता है.

– अगर किसी को ‘गैगरीन’ जैसी बीमारी है जिस में पांव काटना पड़ रहा है तो उस घाव के आसपास के एरिया में इंजैक्शन देते हैं.

– डोज का भी बंटवारा रोग के आधार पर पहले से ही तय करना पड़ता है.

डा. प्रदीप महाजन आगे कहते हैं कि यह थेरैपी अभी तक लोगों में अधिक प्रचलित नहीं है. यह साधारण चिकित्सा नहीं है. यह कस्टमाइज्ड विधि है. एक बीमारी के साथ कई बीमारियां होती हैं, इसलिए सब का पता कर फिर इलाज किया जाता है. यह ट्रीटमैंट दिन में 1 या 2 ही किया जा सकता है. नी रिप्लेसमैंट, हिप रिप्लेसमैंट, कैंसर, मधुमेह, किडनी का खराब हो जाना, स्पाइनल कौर्ड इंजरी, गठिया के दर्द आदि सभी का इलाज संभव है. आगे जा कर कई जैनेटिक डिसऔर्डर को भी यह थेरैपी ठीक कर सकेगी. जन्म से पहले अगर बच्चे की कमी को जान कर मां को पहले ही उस कम हुई सैल्स का इंजैक्शन दे दिया जाए तो बच्चे की स्वस्थ डिलिवरी भी हो सकेगी. थोड़े दिनों में स्टेम सैल ड्रग डिलिवरी का काम करेगी.

किसी को इस तरह के इलाज की आवश्यकता है और उस के पास पैसे कम हैं तो डा. महाजन फ्री में भी इलाज करते हैं. इलाज का खर्च बीमारी के आधार पर होता है.

इलाज के बाद सावधानी के बारे में पूछे जाने पर डा. महाजन का कहना है कि इस में सब से पहले लाइफस्टाइल को ठीक करना पड़ता है, जिस में खासकर डाइट पर ध्यान देना पड़ता है. इस के अलावा व्यक्ति का मिलनसार होना जरूरी है, जिस में घरपरिवार दोस्तों का होना जरूरी है ताकि वह अपने भाव को शेयर कर सके.

टाइप वन डायबिटीज बच्चों में हो या बड़ों में, उस में 100% उस व्यक्ति को लाभ होता है. उस की इंसुलिन लगाने की प्रक्रिया पूरी तरह खत्म हो जाती है.

गलत तरीके से इलाज करने पर इस का परिणाम गलत होता है, इसलिए जानकार डाक्टर के पास जाना ही सही रहता है. महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता के अलावा दुबई, मसकट, कनाडा, अमेरिका, नाईजीरिया आदि से भी लोग इलाज के लिए यहां आते हैं.

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