‘कड़वी हवा’, ‘मसान’, ‘आंखों देखी’ और ‘न्यूटन’ जैसी सफलतम फिल्मों के निर्माता मनीष मुंद्रा ने पहली बार लेखक व निर्देशक के तौर पर ‘गैंगरेप’ जैसे कुकृत्य पर फिल्म ‘‘सिया’’ लेकर आए हैं, जिसे देखकर पिछले कुछ वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश के उन्नाव व हाथरस में घटी रेप की घटनाएं याद आ जाती हैं. मगर फिल्म अपना असर डालने में पूरी तरह से असफल है.
कहानीः
फिल्म की कहानी केंद्र में सत्रह वर्षीय सीता सिंह उर्फ सिया है. एक गरीब परिवार की बेटी सिया (पूजा पांडे) ही पूरे परिवार की जिम्मेदारियां उठाती है. उसके पिता खाट पर बैठकर दिनभर बीड़ी फूंकते रहते हैं. सिया के चाचा चाची अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहते हैं. सिया जंगल से लकड़ी काटकर लाने से लेकर छोटे भाई को पढ़ाने, कहानी सुनाने से लेकर भाई को स्कूल छोड़ने व गेहूं पिसाने सहित सारे काम करती है. सिया एक आदर्श बेटी है. वह अब नौकरी करना चाहती है. इसलिए वह अपने चाचा के दोस्त व दिल्ली में नोटरी का काम करने वाले वकालत पास तथा जाति से मल्लाह धर्मेंद्र (विनीत कुमार सिंह) से मदद मांगती है. इस बीच नौकरी दिलाने का झांसा देकर स्थानीय विधायक एक दिन गांव की ही एक बुजुर्ग महिला की मदद से रात में अपने बंगले पर बुलाकर सिया संग गलत काम करते हैं. उसके बाद गांव के विधायक के चमचे उसके पीछे पड़ जाते हैं. एक दिन जब सिया अपने घर से निकलकर चुपचाप दिल्ली की तरफ रवाना होती है, तो बस अड्डे पहुॅचने से पहले ही विधायक के पाले हुए चार लड़के उसे जबरन अगवा कर लेते हैं. यह चारों लड़के गांव के बाहरी हिस्से के खंडहरनुमा मकान में सिया को बंदी बनाकर रखते हैं और सभी चारांे लड़के हर दिन उसके साथ गैंगरेप करते हैं. उसे यातना देते हैं. सिया की तलाश में सिया के माता पिता की मदद धर्मेंद्र करता है. पुलिस एफआई आर लिखने से इंकार कर देती है. अचानक एक पत्रकार को इस कांड की भनक लग जाती है, वह धर्मेंद्र से मिलकर सारी जानकारी लेकर एक अखबार में छाप देता है. तब विधायक जी अपना खेल कर पुलिस को इशारा करते हैं कि चारों युवकों को गिरफ्तार किया जाए. लेकिन पुलिस सिया का मेडीकल दूसरे दिन नहला धुलाकर कराती है. मजिस्ट्ेट के सामने बयान के लिए सिया को ले जाने से पहले उसे समझाती है कि वह विधायक के खिलाफ कुछ नहीं कहेगी. फिर सिया के माता पिता उसे दिल्ली में उसके चाचा चाची के पास छोड़ आते हैं. इधर सभी आरोपियों को जमानत मिल जाती है. विधायक फोन करके सिया के चाचा को समझाते हंै कि अब सब मामला रफा दफा हो जाने दो. मगर धर्मेंद्र से बात करके सिया न्याय की लड़ाई जारी रखने का निर्णय लेती है. उसके बाद कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अब सिया को न्याय मिला या नही, यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.
लेखन व निर्देशनः
फिल्म निर्माण में पैसा लगाने वाला शख्स हमेशा यही सोचता है कि उसकी बात को ही अहमियत दी जाए. और जब वह निर्माता होने के साथ ही स्वयं लेखक व निर्देशक हो तो फिर उसके सामने किसकी चलने वाली. मूलतः व्यवसायी मनीष मंुद्रा के कई धंधे हैं. उनका व्यवसाय भारत व भारत के बाहर भी फैला हुआ है. ऐसे में उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह संवेदनशील व नारी की अस्मिता से जुड़े मुद्दे पर गंभीरता के साथ फिल्म बनाएंगे. मगर ऐसा कुछ नही हुआ. अस्सी व नब्बे के दशक में ‘कला’ या ‘समानांतर सिनेमा’ के नाम पर जिस तरह से देश की गरीबी, गांव के हालात , गांवों की पृष्ठभूमि में पुलिस, प्रशासन व राजनीति का कलुषित चेहरा ही पेश किया जाता था, उसी तरह से मनीष मंुद्रा ने भी अपनी इस फिल्म में गांव की पृष्ठभूमि में गैंगरेप व पुलिस प्रशासन से सीबीआई तक में फैले भ्रष्टाचार व शोषण के दमनचर्क की तरफ इंगित किया है. अफसोस फिल्म देखते हुए पीड़िता के प्रति न सहानुभूति पैदा होती है और न ही अपराधियों के प्रति मन में गुस्सा आता है. निर्देशक के निर्देशन में केाई खूबी नजर नही आती. इस फिल्म में पुलिस और राजनेताओं का जिस तरह का रवैया चित्रित किया गया है, वह तो कई फिल्मों व वेब सीरीज में इससे भी बेहतर ढंग से दिखाया जा चुका है. फिल्म देखकर यही समझ में नहीं आता कि मनीष मंुद्रा जी आखिर हैं किसके साथ?
जब विधायक नौकरी दिलाने का आश्वासन देकर रात के अंधेरे में अपने बंगले के अंदर सिया की इज्जत लूटते हैं, तब सिया को गुस्सा नही आता. नौकरी पाने के लालच में सिया, विधायक के इस कुकृत्य अपराध के बारे में अपने माता पिता से भी नही बताती है? जब सीबीआई के सवालों में सिया खुद फंसने लगती है, तब वह विधायक के बारे मे बयान देती है. इस तरह फिल्मकार ने ‘बलात्कार’ को बहुत ही सतही बना दिया. उन्नाव व हाथरस में हुए गंैगरेप की चर्चाएं पूरे भारत में काफी हुई. इन दो गैंगरेप कांड को जिस तरह टीवी समाचार चैनलों ने दिखाया था, लगभग वैसा ही इस फिल्म में भी है. फिल्मकार इतना डरे हुए नजर आते हैं कि उन्होने छोटी जाति की लड़की की बजाय गरीब ठाकुर लड़की का ही बलात्कार ठाकुर नेता व उनके चमचों से करवाया है. फिल्म कुछ भी नई बात नही करती और कहानी कहने का अंदाज भी बहुत पुराना है. बतौर निर्देशक मनीष मंुद्रा का काम काफी सतही है. स्पष्ट शब्दों में कहें तो फिल्मकार ने ‘गैंगरेप’ जैसे अतिसंवदेनशील मुद्दे को ठीक से रख नही पाए.
फिल्म इस बात को अवश्य रेखांकित करती है कि पुलिस और राजनेताओं का आपसी गंठजोड़ किस तरह सच्चाई को दबाने और उत्पीड़ितों पर अत्याचार करने के लिए अपनी शक्ति का दुरूपयोग करता है. सबूतों के साथ छेड़छाड़ किए जाने, गवाहों को धमकाने, पीड़िता के परिवार का उत्पीड़न करने सहित सारे हथकंडे इस फिल्म का हिस्सा हैं, जिन्हें देखकर हाथरस व उन्नावं कांड जेहन में आता ही है.
फिल्मकार ने समस्याएं जरुर बता दीं, पर हल नही बताया. इतना ही नहीं पुलिस व नेताओं का उत्पीड़न इस कदर दिखा दिया है कि लोग डर कर सच का साथ देने से दूर भागेगें, यह फिल्मकार की सबसे बड़ी विफलता है.
फिल्म का पाश्र्वसंगीत काफी लाउड है.
अभिनयः
सरल, कर्तव्यपरायण व बहादुर लड़की सिया के किरदार में पूजा पांडे का अभिनय ठीक ठाक ही कहा जाएगा. यदि कोई समर्थ निर्देशक होता, तो शायद वह पूजा पांडे से ज्यादा बेहतर अभिनय करवा लेता. विनम्र वकील व नोटरी का काम करने वाले धर्मेंद्र के किरदार में विनीत कुमार सिंह का अभिनय शानदार है. अन्य कलाकारों का अभिनय भी ठीकठाक है.
तेरा सुरूर….. सिंगर हिमेश रेशमिया के ये गाना हर कोई सुनना पसंद करते है, क्योंकि इस गाने में हिमेश ने प्यार की भावना को बहुत ही सुंदर तरीके से गाने की कोशिश की है. हिमेश एक इमोशनल सिंगर है, इसलिए उनके गीतों में मेलोडी अधिक होती है. हिमेश रेशमिया का जन्म 23 जुलाई 1973 को गुजरात में हुआ था. उनके पिता का नाम विपिन रेशमियां है और उनकी माँ का नाम मधु रेशमियां है. हिमेश के पिता की इच्छा थी कि उनका बड़ा बेटा संगीत की दुनिया में कुछ करें, लेकिन अचानक एक एक्सीडेंट में उनकी मौत हो गयी और तब हिमेशकेवल 11 वर्ष के थे.उन्होंने अपने पिता की इच्छा को पूरा करने की वजह से संगीत में अपना कैरियर बनाया.केवल 16 साल की उम्र में हिमेश ने दूरदर्शन अहमदाबाद से अपने कैरियर की शुरुआत की थी.
सलमान खान की फिल्म ‘प्यार किया तो डरना क्या’से उन्होंनेहिंदी फिल्मों के लिए संगीतकार का काम किया, फिल्म काफी हिट साबित हुई और इस फिल्म के बाद रेशमियां ने सलमान की कई फिल्मों में अपना संगीत दिया, जो हमेश सुपरहिट रहा. हिमेश को बतौर संगीत निर्देशक सफलता फिल्म तेरे नाम से वर्ष 2003 में मिली थी. सफल निर्देशन के बाद उन्होंने अपनी किस्मत गायकी में फिल्म ‘आशिक बनाया आपने’ से किया. इस फिल्म के गाने उस दौर में काफी हिट साबित हुए थे. साथ ही उन्हें इस फिल्म के बेहतरीन गानों के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ गायक के पुरुस्कार से भी नवाजा गया था. हिमेश हिंदी सिनेमा के पहले ऐसे गायक और संगीत निर्देशक हैं जिन्हें उनके पहले डेब्यू गाने के फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ नवोदित गायक के अवार्ड से नवाजा गया.
अभिनय करना पड़ा भारी
फिल्मों में कैरियर शुरू होने से पहले हिमेश संगीत के कई शो किया करते थे,जिन्हें लोग काफी पसंद करते थे. हिमेश का संगीत निर्देशन और गायकी का कैरियर हिंदी सिनेमा में सुपरहिट रहा, लेकिन उनका अभिनय कैरियर अच्छा नहीं था. उन्होंने बतौर अभिनेता कई फिल्मों में काम किया, लेकिन उनकी एक भी फिल्म सिनेमाघरों में दर्शकों का दिल नहीं जीत सकी. हिमेश की पहली शादी 21 वर्ष की उम्र में कोमल से हुई, उनसे उनका एक बेटा स्वयं रेशमिया है. कुछ सालों साथ रहने के बाद हिमेश ने कोमल को तलाक देकर दूसरी शादी सोनिया कपूर से की, जो उनकी लॉन्ग टर्म गर्लफ्रेंड रही है.
हिमेश बड़े पर्दे के अलावा छोटे पर्दे पर भी कई रियलिटी शोज के जज बने और हर काबिल प्रतियोगी को गाने का अवसर भी देते रहे. इतना ही नहीं उन्होंने बंगाल की राणाघाट रेलवे स्टेशन पर गाना गाकर भीख मांगती हुई रानू मंडल को भी गाने का अवसर दिया, जिसकी वजह से आज वह स्टेज शो कर अच्छा कमाती है. हिमेश इन दिनों सोनी टीवी पर रियलिटी शो इंडियन आइडल 13 में एक बार फिर जज बनें है और अपने अनुभवों को उन्होंने वर्चुअल इंटरव्यू के जरिये बयान किया कि वे अभी भी इस रियलिटी शो से बहुत कुछ सीखते आ रहे है, जो उन्हें जीवन की हकीकतों से रूबरू करवाता है.
जीता हूँ बचपन
हिमेश कहते है कि इस शो के ज़रिये मैं अपने बचपन की उन पलों को जीता हूँ, जिसे अब मैं भूल चुका हूँ, ये बहुत बड़ा भावनात्मक पल मेरे लिए होता है, लेकिन अच्छा भी लगता है. इसका प्रेशर केवल ऑडिशन, शूटिंग और जज करने तक ही होता है, जिसे इन छोटे-छोटे बच्चों को देखने पर ख़त्म हो जाता है. पहले किसी भी प्रतिभा को आगे आने का कम अवसर मिलता था, लेकिन अब इस मंच के द्वारा ये बच्चे आगे बढ़कर संगीत को एक अच्छा प्रोफेशन बना सकते है. इसबार का सीजन बहुत अच्छा, और प्रतिभायुक्त है. कोविड के बाद इस बार काफी संख्या में बच्चों ने भाग लिया है, जिसमे सही प्रतिभा को चुनना बहुत मुश्किल हुआ.
फिटनेस पर ध्यान
हिमेश हमेशा अपने लुक्स को लेकर बहुत सजग रहते है और इसकी जिम्मेदारी वे अपनी पत्नी को देते है, जो हमेशा डाइटिशियन के हिसाब से होता है, खाना वे सब खाते है, लेकिन समय से उन्हें खाना पड़ता है. वे कहते है कि समय से खाना जरुरी है, लेकिन इस तरह के डाइट में टेस्ट कही रह जाता है. ऐसा मुझे कुछ विडियो सॉंग और प्रोजेक्ट के लिए करना पड़ता है, जिसे मेरी पत्नी लगन से करती है, पर ऐसा करना कठिन होता है.
जरुरी मेहनत करने का जज्बा
हिमेश हमेशा नए टैलेंट को मौका देते है और ये वे ऑडिशन के समय ही प्रतियोगी से कह देते है, जिससे उन्हें अच्छा गाने का प्रोत्साहन मिलता है. इसकी वजह के बारें में पूछे जाने पर उनका कहना है कि अगर ये बच्चे पुराने गाने इतने सुंदर गाते है तो ये नए गानों को भी सही तरीके से गा सकते है, और उन सभी ने मेरी आने वाली फिल्मों और वेब सीरीज में अच्छा प्रदर्शन दिया है. मेहनत करने का जज्बा बच्चों में होने की जरुरत होता है, क्योंकि आज भी जब कोई गाना किसी शुक्रवार को किसी फिल्म के रिलीज के बाद आती है, तो मेरी मेहनत वैसी ही रहती है, जितना पहले हुआ करती थी.
जरुरी पर्सनल एपिअरेंस
हिमेश आगे कहते है कि मैं विश्वास करता हूँ कि हर इंसान में कुछ न कुछ प्रतिभा होती है, जिसे बाहर निकालना पड़ता है. एक जमाना था जब सिर्फ प्लेबैक हुआ करता था, वहां एक आर्टिस्ट, गायक कलाकार की आवाज कोसुनते थे, किसी प्रकार की पर्सनल कनेक्शन गायक के साथ एक्टर्स का नहीं था.आवाज से जज किया जाता था, अगर एक्टर ने उस गाने को सही से निभा दिया है तो आप उससे कनेक्ट हो पाते थे, पर आज का जमाना एपीयरेंस का है, सोशल मीडिया एक्टिव हुआ है, उसमे सभी के आँखों का रिएक्शन,गाने का ढंग, ओवर आल प्रस्तुति सब सामने आती है. आवाज के अलावा उनके आसपास के लोगों का प्रभाव पड़ता है. जो कुछ के लिए आसान और कुछ को कठिन लगता है.
करता हूँ मिस
गायक हिमेश का कहना है कि मैंने अपने पिता के साथ बहुत छोटी उम्र से संगीत सीखना शुरू कर दिया था. पहले मैंने अधिक लाइव शूट नहीं किया है. बड़े स्टूडियों में सभी का एक साथ होने वालाइंटरेक्शन बहुत अच्छा था, वह अब कम होता है, अभी ट्रैक दिया जाता है और तकनीक का प्रयोग बहुत होता है. मेरे पिता ने 100 से अधिक म्यूजिशियन के साथ बड़े स्टूडियों में गाया है. 8 घंटे की रिहर्सल के बाद एक टेक में गाने को रिकॉर्ड करवाना,अब एक एपिक बन चुका है. वह प्रोसेस अब नहीं है और दर्शक भी उसे पसंद नहीं करेंगे, लेकिन उस प्रोसेस में जो वाइब्सथी उसे मैं बहुत मिस करता हूँ. उन पुराने गानों को अभी भी सब सुनते है और उनसे प्रेरित होकर नया गाना बनाते है.
अयान मुखर्जी निर्देशित और रणबीर कपूर, आलिया भट्ट व अमिताभ बच्चन के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘बम्हास्त्रः भाग एक -शिवा’’ नौ सितंबर को प्रदर्शित हुई और फिल्म को ज्यादातर आलोचकांे की तरफ से नगेटिब प्रतिक्रियाएं मिली. तथा बाक्स आफिस पर भी अच्छे हालात नही रहे. जिसके चलते पीवीआर और आईनॉक्स के निवेशकों को 800 करोड़ से अधिक का नुकसान हो गया. ज्ञातब्य है कि भारत में पीवीआर और आयनॉक्स मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर की सबसे बड़ी चेन है. और मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस चेन को शुक्रवार, नौ जून को बाजार पूंजीकरण में कुल मिलाकर 800 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है.
अयान मुखर्जी ने भारतीय पौराणिक कथाओं में वर्णित अजेय विनाशरूपी अस्त्र के रूप में वर्णित ब्रह्मास्त्र के नाम पर 410 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘‘ब्रम्हास्त्रः भाग एक’’ का विनाश यह अस्त्र रोक न पाया. यह हालत तब हुई है, जब निर्माता और पीआर टीम दावे कर रही थी कि फिल्म को 23 करोड़ की अग्रिम बुकिंग मिल चुुकी है. सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह रही कि हर फिल्म को चार तक की रेटिंग देने वाले फिल्म समीक्षक और विश्लेषक तरण आदर्श ने भी इस फिल्म को दो स्टार की रेटिंग देते हुए इसे सर्वाधिक निराशा वाली फिल्म बता दी.
इतना ही नही दर्शकों की प्रतिक्रियाएं भी फिल्म के बाक्स आफिस को निरायाा की ही तरफ ले जाती हैं. एक दर्शक ने फिल्म देखने के बाद कहा-‘‘यह फिल्म तो अति घटिया तरीके से लिखी गयी सीरियल ‘क्राइम पेट्रोल’ के संवाद और एकता कपूर की साजिशों का मिश्रध है. ’’
‘‘ब्र्रह्मास्त्रः भाग एक शिवा’’ का बाक्स आफिस पर उस वक्त सफाया हुआ है, जब बौलीवुड अपने अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है. पिछले कुछ माह से बौलीवुड फिल्में लगातार असफल हो रही हैं और अब ‘ब्रह्मास्त्र’ सबसे बड़ी असफल फिल्म साबित होने जा रही है. अफसोस की बात यह है कि हर किसी को उम्मीद थी कि इस फिल्म से हिंदी फिल्म उद्योग का पुनरुत्थान होगा, पर इस उम्मीद पर पानी फिरता नजर आ रहा है.
410 करोड़ के बजट में बनी फिल्म ‘‘ब्रह्मास्त्र’’ के साथ रणबीर कपूर, आलिया भट्ट, अमिताभ बच्चन, टॉलीवुड स्टार नागार्जुन, डिंपल कापड़िया, मौनी रौय व शाहरुख खान का नाम जुड़ा हुआ है. तो वहीं इसका निर्माण दिग्गज निर्माता करण जौहर ने किया है. हर किसी को उम्मीद थी कि यह फिल्म हिंदी फिल्म उद्योग का पुनरूत्थान करेगी, मगर यह तो विनायाक बनकर सामने आयी. जी हॉ!अयान मुखर्जी का दिग्भ्रमित करने वाली कहानी, पटकथा व निर्देशन ने फिल्म को डुबाते हुए पूरे फिल्म उद्योग को संकट के मुहाने पर पहुंचा दिया. फिल्म में कई स्तर पर काफी कमियां हैं, मगर इस फिल्म को डुबाने में पीआर टीम ने कम खेल नही खेला.
आज की तारीख में जरुरत इस बात की है कि हर फिल्मकार व कलाकार अपने अंदर स्वयं झांककर देखे कि वह कहां गलती कर रहे हैं. जिस मार्केटिंग टीम, रचनात्मक टीम व पीआर टीम पर भरोसा कर वह निर्णय ले रहे हैं, उनकी वह टीम कितनी सक्षम व सही है. पीआरओ का काम होता है कि वह अपने ग्राहक (फिल्म व कलाकार)के पक्ष में सकारात्मक माहौल पैदा करते हुए फिल्म व कलाकार का एक ब्रांड बनाए. क्या पीआर टीम यह सब कर पा रही हैं?
वैसे ‘बौयकॉट’ मुहीम के चलते फिल्म विश्लेषकों और बाजार के विश्लेषको ने पहले ही मान लिया था कि यह फिल्म अपनी लागत वसूल नही पाएगी. एलारा कैपिटल ने दो सप्ताह पहले एक मीडिया नोट में कहा था – ‘‘फिल्म का लिए लाइफटाइम बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 130 से 200 करोड़ के बीच रहने का अनुमान है. ’’मगर किसी ने नहीं सोचा था कि फिल्म की इस कदर दुर्गति होगी.
‘‘ब्रह्मास्त्र’’ की असफलता से आम निवेशक अपने नुकसान को देखकर गुस्से में हैं. पीवीआर के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वह अपने निवेशकों की नाराजगी को कैसे दूर करें.
फिल्म राइटर से निर्देशक बनेकमल पाण्डे उत्तरप्रदेश के चित्रकूट के एक छोटे से गांव से है, उन्हें बचपन से ही फिल्म इंडस्ट्री में कुछ करने की इच्छा थी. उन्होंने बहुत संघर्ष कर अपनी मुकाम हासिल की है. उनके इस संघर्ष में उनकी पत्नी रिया पांडे का हमेशा साथ रहा है. उनके दो बच्चे आरव पांडे और विहान पांडे है. पत्नी एक इंटीरियर डिज़ाइनर है. निर्देशक कमल को गृहशोभा की कहानियां, ब्यूटी, फैशन और सोच से जुड़े लेख बहुत पसंद है. इस ग्रुप की मनोहर कहानियां को भी खूब पढ़ते है.
कमल पांडे ने फिल्म साहेब बीबी और गैंग्स्टर रिटर्न्स, शादी में जरुर आना और हिट टीवी शो न आना इस देश लाडो आदि कई फिल्में और सीरियल को लिखा है. करीब 20 साल से उनकी डायरेक्टर बनने की इच्छा को अंत में एक कहानी फिल्म ‘जहाँ चार यार’ को डायरेक्ट करने का मौका मिला. एक निर्देशक के रूप में कमल की ये एक डेब्यू फिल्म है, जिसे उन्होंने बहुत मेहनत से लिखा और बनाया है. 60 प्रतिशत फिल्म लखनऊ में और बाकी गोवा में शूट किया गया हैं, क्योंकि टीम के कई लोगों को कोविड पोजीटीव हो गया था, जिससे बीच में शूट को रोकना पड़ा था.
गलत नहीं होती विचारधारा
कमल की इस फिल्म को पर्दे पर आने के लिए कुछ लोगों ने विरोध किया है, क्योंकि इसमें अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने काम किया है और स्वरा हमेशा सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने की वजह से कंट्रोवर्सी की शिकार हुई है. कमल कहते है कि अभिनेत्री स्वरा से काफी कंट्रोवर्सी जुडी हुई है, लेकिन उन्हें लेकर फिल्म फिल्म बनाने में कोई मुश्किल नहीं आई और जब मैं उन्हें कास्ट कर रहा था, तो कई लोगों ने उन्हें फिल्म में लेने से मना तक किया था, पर मेरे हिसाब से हर व्यक्ति की एक विचारधारा होती है. स्वरा की एक सोच समाज और राजनीति को लेकर है और वह अच्छा अभिनय भी करती है. मैने विचारधारा को साथ में लेकर चलने वाले को गलत नहीं समझता. फिल्म की कहानी को सभी दर्शक पसंद करेंगे और स्वरा की इमेज इसमें सामने नहीं आएगी.
नहीं मिलती तवज्जों घरेलू काम को
कमल कहते है कि बचपन से ही मैने अपने घरो या कहीं जाने पर महिलाओं की ऐसी दशा देखा है, महिलाएं पूरे घर को देखती है, लेकिन उन्हें देखने वाला कोई नहीं होता. सुबह 4 बजे उठकर घर के पूरे काम काज निपटाना और देर रात तक सब खत्म कर सोने जाना, ये सब देखते हुए मुझे लगता था कि महिलाओं का काम को थैंकलेस लाइफ कहा जा सकता है. इस विषय पर फिल्में नहीं बनी है, इसलिए मैंने इस विषय पर लिखना शुरू कर दिया. इसमें मैंने उन महिलाओं पर अधिक फोकस किया, जिनके बच्चे बड़े हो चुके है, पति अपनी कमाई में व्यस्त है और महिलाये घर पर अकेली लाइफ बिता रही है. ये कहानी बहुत पहले से मेरे दिमाग में थी, पर मैंने लॉकडाउन में इसे लिखकर पूरा किया और सौन्दर्य प्रोडक्शन हाउस में ले गया. उनको कहानी सुनाने के बाद उन्हें पसंद आई और उन्होंने मुझे इस फिल्म को बनाने की स्वीकृति दी, क्योंकि मैने उनके लिए फिल्म ‘शादी में जरुर आना’ लिख चुका था, उन्हें मेरी चॉइस पता था. इसलिए उन्हें आगे आकर इस फिल्म को बनाने में किसी प्रकार की झिझक नहीं थी.
निर्देशक बनने में लगा समय
कमल हंसते हुए कहते है कि शुरू से ही मैं राइटर और डायरेक्टर बनना चाहता था. मैं चित्रकूट के गांव मौऊ शिबो में जन्मा और बड़ा हुआ. इसके बाद इलाहाबाद और दिल्ली से पढाई की और मुंबई आ गया, मैं शुरू से ही लेखक और निर्देशक बनना था. निर्देशक की जर्नी तय करने में समय लगा पर मैंने लिखना पहले से ही शुरू कर दिया था.
मिला सहयोग
निर्देशक कमल का कहना है कि मुंबई में आने की वजह निर्माता नीरजा गुलेरी थी, जिन्होंने चन्द्रकान्ता बनाया था. उनके कई शोज चल रहे थे और उनके लेखक कमलेश्वर से मेरी बातचीत होती थी और मैं कमलेश्वर की वजह से ही नीरजा गुलेरी की शो के लिए कुछ लिखने के लिए मुंबई आया. पहला शो मेरा ‘युग’ था, जो डीडीमेट्रो पर आता था और बहुत सफल शो बनी थी. वहां से मेरा काम शुरू हुआ, जिसमे पहली फिल्म ‘शक्ति’ थी. उसके बाद रण, शो ‘ना आना इस देश लाडो’ आदि कई शोज भी लिखे है.
मिली प्रेरणा
निर्देशक आगे कहते है कि क्रिएटिव फील्ड में मेरे दादा अवधि में कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद कवितायें लिखते है. वह मेरे मन में आ गयी थी और मैंने करीब 12 साल से ही कवितायें और गीत लिखना शुरू कर दिया था. मेरे कई गीत छपे है. पहले मैं सीरियस गीत लिखता था. इसके बाद कहानियां लिखना शुरू किया. गीत मैं अभी भी लिखता हूं, लेकिन पढने का काम साइड में रह गया है. साहित्य का पाठक हूं.
मिला सहयोग
परिवार की प्रतिक्रिया कैसी रही पूछने पर वे बताते हैकि मेरे पिता देवनारायण पांडे मेरी बहुत कम उम्र में गुजर चुके थे, माँ कमला पांडे और बड़े भाई ने मेरी शिक्षा पूरी करवाई है. मैं दिल्ली आईएएस बनने आया था, लेकिन उसी बीच में मैंने लिखना भी जारी रखा, क्योंकि मुझे फिल्में लिखना और बनाना है. असल में मैंने बहुत पहले एक फिल्म ‘पथेर पांचाली’ दूरदर्शन पर देखा था. उसे देखने के बाद लगा कि मैं भी ऐसी कहानियां कह सकता हूं, जीवन से जुडी कहानी. मैं इसलिए मुंबई आया. दिल्ली से जब मैंने भाई को अपनी इच्छा को बताई, तो उन्होंने मुझे सोच-समझकर फैसला करने की सलाह दिया.
काम मिलना कठिन
मैं मुंबई साल1998 में आया और अपनी पढाई पूरी करने के लिए वापस दिल्ली गया, लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया वापस आ गया. साल 2000 से मैं मुंबई में हूं. बड़ा ब्रेक मुझे ‘युग’ में मिला था. आउटसाइडर होने की वजह से बड़े प्रोडक्शन हाउस में एंट्री मिलना मुश्किल होता है, लेकिन मेरे मन में विश्वास था कि मैं अच्छा लिखता हूं और मेरी कहानी को लोग सुनना पसंद करते है. आउटसाइडर होने की वजह मुझे यहाँ तक पहुँचने में इतना समय लग गया. मैंने बिना किसी गॉडफादर, सोर्स या सपोर्ट के मैने अपनी जगह बनाई है. नए डायरेक्टर को मनपसंद कलाकारों को लेकर फिल्म बनाना बहुत कठिन होता है. मुझे शुरू में कठिनाइयाँ आई, लेकिन मेरी स्क्रिप्ट सुनने के बाद स्वरा ने तुरंत हाँ कह दी. इसके बाद सभी राजी हो गए. फिल्म ‘शादी में जरुर आना’ काफी पसंद की गयी थी, इससे कलाकार को निर्देशक पर विश्वासहो जाता है.
रिलीज का है डर
फिल्म रिलीज का डर बना हुआ है, क्योंकि कौन सी गैंग या लोग फिल्म की बहिष्कार के लिए पर्दे के पीछे से काम कर रही है, पता नहीं होता. उसी के बीच से अच्छी फिल्म अपनी जगह बनाएगी और लोगों तक पहुंचेगी. उम्मीद है फिल्म समय पर ही रिलीज होगी.
फिल्मो से गायब मनोरंजन
ओटीटी फिल्मों से मनोरंजन गायब है, हर फिल्म को रियल कहकर मारधाड़, हिंसा, सेक्स आदि जमकर डाल दिया जाता है, इस बारें में कमल कहते है कि मेरी राय में हिंदी सिनेमा बहुत अधिक हॉलीवुड से प्रेरित हो चुकी है. लोगों ने एक-एक पॉकेट्स में कहानियां बनानी शुरू कर दी है, जिसमे थ्रिलर, क्राइम थ्रिलर, साइकोलोजिकल थ्रिलर जैसी नाम दे दिया है. पहले जो हिंदी मनोरंजक फिल्मे बनती थी, उसका बीच में अभाव हो गया था. मैं मानता हूं कि रियलिटी कैसी भी हो,वह मैजिकल होनी चाहिए. जादुई यथार्थ को सिनेमा में क्रिएट करनी होगी, ताकि चीजे रियल होने के साथ-साथ ऑथेंटिक और आँखों को अच्छी भी लगे. मैं ऐसी फिल्मे बनाना चाहता हूं, जो मनोरंजन के साथ दिल को छुए भी. इसके अलावा मैं अभिनेता कार्तिक आर्यन और रणवीरसिंह के साथ काम करना चाहता हूं.
गुटबाजी का खतरा
फिल्म इंडस्ट्री में गुटबाजी का सिनेमा पर प्रभाव के बारें में पूछने पर कमल कहते है कि इसका प्रभाव फिल्म इंडस्ट्री पर बहुत पड़ा है. करन जौहर के ग्रुप में कोई घुस नहीं सकता. यशराज तक पहुंचना हर व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल है. बड़े हाउसेस आउटसाइडर की पहुँच से बाहर है. प्रतिभा की वजह से अगर मौका मिला भी है, तो उन्हें बाहर किसी के साथ काम करने नहीं देते. ये बहुत ही गलत नजरिया है, जिसे इंडस्ट्री भुगत रही है.
भाई-भतीजावाद को लेकर हमेशा कुछ न कुछ चलता है, लेकिन अगर आपमें प्रतिभा एक्टिंग की है, तो अवश्य सफल होंगे, क्योंकि इससे एक मौका मिल सकता है, लेकिन प्रतिभा न होने पर आप कही भी नहीं दिखते, क्योंकि इंडस्ट्री फिल्मों के ज़रिये व्यवसाय करती है और हानि कोई व्यापारी झेलना नहीं चाहता, हंसती हुई कहती है शिखा तलसानिया, जो मशहूर कॉमेडियन टिकू तलसानिया की बेटी है और फिल्म ‘जहां चार यार’ में एक मैरिड महिला की भूमिका निभा रही है.
शिखा की मां दीप्ती तल्सानिया है, जो एक क्लासिकल डांसर और थियेटर आर्टिस्ट है. शिखा का एक भाईरोहन तल्सानिया है. शिखा ने अपनीपढ़ाई पुणे और मुंबई में रहकर पूरी की है. शिखा ने अपने कैरियर की शुरुआत पर्दे के पीछे रहकर फ्लोर प्रोड्यूसर, लाइन प्रोड्यूसर की किया.इसके अलावा वह एक बेहतरीन थियेटर आर्टिस्ट भी है.
नेपोटिज्म से रहती हूं दूर
एक्ट्रेस शिखा तलसानिया ने भी फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज्म को लेकर कई बार अपनी प्रतिक्रिया दी है, एक्ट्रेस का मानना है कि फिल्म उद्योग में सभी का अलग-अलग एक्सीपीरियंस होता है. जब उन्होंने इंडस्ट्री जॉइन की थी तब उनके बारे में लोगों को ये भी नहीं पता था कि वह एक्टर टीकू तलसानिया की बेटी हैं. उनके पिता ने भी हिंदी फिल्मों में रोल पाने के लिए उनकी तरफ से कभी कोई फोन नहीं किया. वह इंडस्ट्री में अपनी जर्नी खुद करना चाहती थी, यही वजह है कि उन्होंने अपने पिता से मदद नहीं मांगने का फैसला किया. फिल्मों में रोल पाने के लिए वह आउटसाइडर्स की ही तरह ऑडिशन और स्क्रीन टेस्ट देती थी.
बचपन से ही अभिनय के माहौल को देखती हुई शिखा हमेशा से एक्टिंग करना पसंद करती थी. वह कहती है कि अगर मेरे पेरेंट्स एक्ट्रेस न भी होते, तब भी मैं एक्ट्रेस ही बनती,क्योंकि मुझे परफॉर्म करना बहुत पसंद है. मुझे सब डायरेक्टर के साथ काम करना पसंद है, लेकिन मेरी ड्रीम है कि मुझे एक ऐसी कहानी कहने को मिले,जिसे करने के लिए किसी प्रकार की खास रंग,रूप या शारीरिक बनावट जरुरी न हो. मैं जैसी हूं, वैसी ही कहानी में मैं सही बैठूं और मैं उसका ही इंतजार करती हूं.
अभिनेत्री शिखा आगे कहती है कि फिल्म ‘जहाँ चार यार’ की कहानी मुझे बहुत पसंद आई, ये लखनऊ शहर की कहानी है,जिनकी शादियाँ तो हो चुकी है, पर उनकी जिंदगी बहुत ही ठहरी हुई है, लेकिन उससे वे निकल नहीं पाती. ये कहानी सिर्फ दोस्ती के बारें में नहीं है, इसमें एक ट्विस्ट है, जो कहानी को पूरी तरह से बदल देती है, जिसमे एक औरत शादी के बाद कैसे घर से निकल कर अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीती है. ये अलग कहानी है, मैंने अर्बन लड़की की भूमिका की है. पहले ऐसी भूमिका कभी नहीं की, इसलिए बहुत उत्साहित हूं. मेरी भूमिका में मैं अपने पेरेंट्स, पति, बच्चे और सास-ससुर सबसे खुद को आइसोलेट कर रखती है. सबकुछ अपने अंदर समेटकर रखती है. दोस्ती जो चार यारो में दिखाया गया है, उससे मैं बहुत अधिक रिलेट कर सकती हूं, क्योंकि रियल में भी जब महिला खुद अपनी समस्या की वजह नहीं समझ सकती, तब एक दोस्त ही उसे उसकी गलती का एहसास करा सकता है.
नहीं भूली सहेलियों को
शिखा का कहना है किशादी के बाद लड़कियां अधिकतर अपनी सहेलियों को भूल जाती है, इस बात से मैं सहमत रखती हूं, जबकि सबसे जरुरी दोस्त है,इस फिल्म में उन महिलाओं को एक आइना दिखने की कोशिश की गई है, जो अपने दोस्तों को भूल जाती है. फ्रेंड्स ऐसे होने चाहिए, जो आपकी नजर से समस्याओं को देख सकें, जज न करें और उसका हल बताएं. आप छोटे या बड़े किसी भी शहर में कहीं भी रहे, आपका रिश्ता सभी से जुड़ता है,मसलन आप किसी की बेटी, पत्नी, माँ, दादी या नानी होते है. महिला को सबसे एडजस्ट कर जीवन बितानी पड़ती है. उन्हें हमेशा सभी को समझ कर काम करना पड़ता है. उनके जीवन में एक सही दोस्त ही ऐसी होती है, जो उन्हें शादी से पहले और बाद में देखा हो. यही दोस्त उनकी परेशानियों का हल समझकर उन्हें प्यार की एक झप्पी दें.मेरी दो-तीन बहुत ही अच्छी सहेलियां है, जिनसे मैं अपनी उतार-चढ़ाव और उनकी अप्स एंड डाउन्स को एक दूसरे से शेयर करती हूं. इंडस्ट्री में सोहा अली खान मेरी सबसे अच्छी दोस्त है, जिनसे मैं सबकुछ शेयर कर सकती हूं.
नहीं होता प्रेशर
शिखा तलसानिया प्रसिद्ध कामेडियन टिकू तलसानिया की बेटी होने की वजह से उन्हें किसी प्रकार का प्रेशर महसूस नहीं होता. शिखा कहती है कि मुझे प्रेशर नहीं होता,लेकिन अच्छे इंसान बनने का प्रेशर अवश्य होता है. मैं एक ऐसे माहौल में पैदा हुईहूं, जहाँ माता-पिता दोनों ही एक्टर्स है. मेरे दोस्त मुझे कहते है कि मैं अपने पिता की तरह ही दिखती हूं. ये बातें मुझे अच्छा अनुभव कराती है. लाइफ में दुःख,सुख, हंसी मजाक, सीरियस बातें आदि सब होता है. मैंने अपने पिता से मेहनत से काम करना, अच्छे वर्ताव, साहसी होना आदि को जीवन में उतारने की कोशिश की है.
संघर्ष है जीवन
शिखा कहती है कि संघर्ष हमेशा होता है, लेकिन स्टार किड्स को थोड़ा कम होता है, क्योंकि उन्हें इंडस्ट्री कैसे काम करती है,उसकी जानकारी होती है, जो आउटसाइडर को नहीं होता. इसके अलावा मौका जल्दी मिल सकता है, लेकिन प्रतिभा होने पर ही व्यक्ति सफल होता है. मेरे माता – पिता और मैंने अपना रास्ता खुद बनाया है. देखा जाय, सभी को किसी न किसी रूप में संघर्ष करता है, ये सब्जेक्टिव काम है, जिसे कोई कलाकार कभीख़राब करना नहीं चाहता.
बॉलीवुड की पौपुलर रोमांटिक फिल्म ‘आशिकी’ (Aashiqui) के बाद Aashiqui 2 ने फैंस के दिलों पर राज किया है. वहीं जल्द ही तीसरा पार्ट यानी आशिकी 3 (Aashiqui 3) भी फैंस को खुश करने आने वाली है, जिसका हाल ही में ऐलान किया गया था. वहीं इसी बीच फिल्म की स्टारकास्ट की भी चर्चा जोरों पर हैं, जिसके लिए लीड रोल के लिए एक्टर कार्तिक आर्यन (Kartik Aaryan) का चुनाव हो गया है तो वहीं एक्ट्रेस को लेकर कई खबरें सोशलमीडिया पर छाई हुई हैं, जिनमें टीवी हसीनाओं के नाम भी शामिल हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…
एक्टर कार्तिक आर्यन ने हाल ही में बताया कि वह वर्ष 1990 की फिल्म ‘आशिकी’ के तीसरे पार्ट में वह नजर आने वाले हैं, जिसका निर्देशन अनुराग बसु करेंगे. वहीं ‘आशिकी 3’ का निर्माण भूषण कुमार की टी-सीरीज और विशेष फिल्म्स के निर्माता मुकेश भट्ट कर रहे हैं. दरअसल, एक्टर ने सोशल मीडिया पर फिल्म के हिट गाने ‘अब तेरे बिन जी लेंगे हम..’ का एक वीडियो शेयर किया.
लीड एक्टर फाइनल होने के बाद अब एक्ट्रेस की तलाश जारी है. वहीं खबरों की मानें तो इस फिल्म के लिए टीवी एक्ट्रेस जेनिफर विंगेट का नाम सामने आया है. हालांकि अभी ऑफिशियल स्टेटमेंट सामने नहीं आया है. लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक, मेकर्स ने कहा है कि, ‘आशिकी 3 में कार्तिक की एक्ट्रेसेस वाली खबरों में कोई सच्चाई नहीं है. एक्ट्रेस के लिए अभी भी खोज जारी है. अभी हम शुरुआती दौर में हैं और फिल्म के लिए कई आइडियाज आदि ढूंढ रहे हैं. दर्शकों की तरह ही हम भी फिल्म के लिए एक्ट्रेस की तलाश में हैं और ऐसा होते ही जल्द से जल्दी फैन्स संग न्यूज शेयर की जाएगी.
बता दें, जहां टीवी एक्ट्रेस जेनिफर विंगेट के फिल्म में होने की खबरों से फैंस काफी खुश दिख रहे हैं तो वहीं आशिकी 2 का हिस्सा रह चुकीं बौलीवुड एक्ट्रेस श्रद्धा कपूर का नाम भी इस फिल्म के लिए सामने आया है. हालांकि देखना होगा कि मेकर्स इस फिल्म के लिए किसका चुनाव करते हैं.
पूजा चोपड़ा उन हजारों लड़कियों में से एक है, जिनके जन्म से पिता खुश नहीं थे, क्योंकि वे एक बेटे के इंतजार में थे. यही वजह थी कि पूजा की मां नीरा चोपड़ा अपने दोनों बेटियों के साथ पति का घर छोड़ दिया और जॉब करने लगीं. इस दौरान परिवार के किसी ने उनका साथ नहीं दिया, पर उनकी मां ने हिम्मत नहीं हारी और एक स्ट्रोंग महिला बन दोनों बेटियों की परवरिश की. आज बेटी और अभिनेत्री पूजा अपनी कामयाबी को मां के लिए समर्पित करना चाहती हैं और जीवन में उनकी तरह ही स्ट्रोंग महिला बनने की कोशिश कर रही हैं.
असल में पूजा चोपड़ा एक भारतीय मॉडल-फिल्म अभिनेत्री हैं. वह वर्ष 2009 की मिस फेमिना मिस इंडिया का ताज अपने नाम कर चुकी हैं. पूजा चोपड़ा का जन्म 3 मई वर्ष 1986 पश्चिम बंगाल के कोलकात्ता में हुआ था. पूजा चोपड़ा ने अपनी शुरुआती पढाई कोलकाता और पुणे से पूरी की है. कई ब्यूटी पेजेंट जीतने के बाद उन्होंने मॉडलिंग शुरू की और धीरे-धीरे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी साख जमाई. मृदु भाषी और हंसमुख पूजा ने अपने जीवन के संघर्ष और फिल्म ‘जहां चार यार’के बारें में गृहशोभा के साथ शेयर करते हुए कहा कि ये मैगजीन मेरे घर में आती है,पुणे में रहने वाली मेरी नानी और मां इसे पढ़ती है, मैंने भी कई बार पढ़ी है, इसके सभी लेख आज के ज़माने की होती है, जो महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत है.
मानसिकता कम करना है जरुरी
अभिनेत्री पूजा आगे कहती है कि इस फिल्म की कहानी आज की है, केवल लखनऊ की नहीं, बल्कि मुंबई, पुणे, दिल्ली आदि में भी रहने वाली कुछ महिलाओं की हालत ऐसी ही होती है. आज भी पत्नी ऑफिस से आने पर घर के लोग, उसके ही हाथ से बने खाने का इंतजार करते है, ये एक मानसिकता है, जो हमारे देश में कायम है, इसे मनोरंजक तरीके से इस फिल्म में बताने की कोशिश की गई है. स्क्रिप्ट बहुत अच्छी है और मैंने इसमें एक मुस्लिम लड़की की भूमिका निभाई है, जो आत्मनिर्भर होना चाहती है.देखा जाय तो रियल लाइफ में मुस्लिम लड़कियों को बहुत दबाया जाता है, ऐसे में मेरे लिए एक मुस्लिम लड़की की भूमिका निभाना बड़ी बात है, क्योंकि मैं भी स्ट्रोंग और आत्मनिर्भर हूं. इससे अगर थोड़ी सी भी मेसेज प्रताड़ित महिलाओं को जाएँ, जो खुद को बेचारी समझती है और सहती रहती है,तो मुझे ख़ुशी होगी.
पूजा हंसती हुई कहती है कि इससे चरित्र से मेरा कोई मेल नहीं है, ये लड़की सकीना शादी-शुदा है और अंदर से खाली है. शादी के बाद उसके मायके वालों से उसका कोई रिश्ता नहीं है. उनकी एक गूंगी सास और पति है, वह घर पर खुद को स्ट्रोंग दिखाती है, पर अंदर से कमजोर है. उस पर काफी जुल्म होता है, पर वह घर से निकल नहीं सकती. इसका सबसे अधिक और बड़ा उदहारण मेरी मां नीरा चोपड़ा है, जिसने दो बेटियों को लेकर बाहर निकल आई. एक पल के लिए उन्होंने कुछ सोचा नहीं, उन्होंने कई बड़ी-बड़ी होटलों में काम किया है. आज भी वह काम करती है. इस फिल्म में सकीना अंदर से कमजोर है, उसका कोई इस दुनिया में नहीं है, पति और सास उसपर अत्याचार के रहे है अब उसके पास 3 आप्शन है, या तो वह इसे सहती जाय, कुछ बोली तो घर से निकाल दिया जाएगा और घर से निकालने पर वह जायेगी कहा. अकेली कमजोर होते हुए खुद को मजबूत जाहिर करना बहुत चुनौतीपूर्ण था.
बदलाव को करें सेलिब्रेट
पूजा कुछ बदलाव आज देखती है और कहती है कि पारंपरिक परिवारों में आज भी महिलाओं पर अत्याचार होते रहते है, लेकिन इसके लिए किसी पर ऊँगली उठाना ठीक नहीं. दूसरों को कहने से पहले खुद को सम्हालना जरुरी है. अभी बहुत कुछ बदला है. आज महिलाओं को काफी घरों में सहयोग मिलता है. इसे सेलिब्रेट करने की जरुरत है. पूरी बदलावहोने में समय लगेगा. विश्व प्लेटफार्म पर आजकल शादी-शुदा महिला को भी ब्यूटी कांटेस्ट में भाग लेने का मौका मिलता है, ये बहुत बड़ी बदलाव है.
मिली प्रेरणा
पूजा ने कॉलेज में एक्टिंग या मॉडलिंग के बारें में दूर-दूर तक सोचा नहीं था, क्योंकि स्कूल कॉलेज में वह टॉम बॉय की तरह थी. लेकिन उसकी हाइट अधिक होने की वजह से उन्होंने कई फैशन शो और ब्यूटी कांटेस्ट में भाग लिया और जीत भी गई.पुणे में उन्होंने काफी प्रतियोगिताए जीती इससे उनके अंदर एक कॉन्फिडेंस आया. आसपास के दोस्त और रिश्तेदारों ने भीबड़ी-बड़ी होर्डिंग मर पूजा की तस्वीरें देखकर तारीफ़ करने लगे फिर उन्होंने एक्टिंग की तरफ आने के बारे में सोचा.
अभिनेत्री पूजा कहती है कि मैंने मिस इंडिया के लिए काफी मेहनत की थी, क्योंकि मुझे जीतना था और मिस वर्ल्ड में देश की प्रतिनिधित्व करना था. मैं पहली भारतीय थी, जिन्होंने ब्यूटी विथ पॉर्पोज अवार्ड जीती थी. मिस इंडिया के बाद फिल्मों के ऑफर आने लगे थे और मैंने किया. मिस इंडिया जीतने से लोगों के बीच एक सम्मान और ओहदा मिला, जो एक नार्मल पूना से आई हुई लड़की को नहीं मिलता. किसी से मिलना चाहती हूं तो वो इंसान टाइम देता था. इससे जर्नी थोड़ी आसान हो गयी थी, लेकिन बाद में टैलेंट ही आपको आगे ले जाती है.
काम में पूरी शिद्दत
पूजा का कहना है कि मैं आउटसाइडर हूं, इसलिए मुझे सोच-सोचकर कदम बढ़ाना है ये मैं जानती थी. इसके अलावा मैंने अपनी मां से शिद्दत और मेहनत से काम करना सीखा है. मुझे सोशलाईज होना पसंद नहीं, मेहनत और लगन से ही काम करना आता है. मैं जिस किसी काम को आज तक किया, उसमे मैंने सौप्रतिशत कमिटमेंट देना सीखा है.
करती हूं सोशल वर्क
सोशल वर्क करने के बारें में अभिनेत्री पूजा बताती है कि सोशल वर्क मैं करती हूं, क्योंकि ऐसी कई लडकियां होंगी, जो मेरी तरह ऐसी माहौल से गुजरी होंगी, मेरी मां की तरह उन्होंने भी कष्ट झेले होंगे, या कही अनाथ होंगी. ऐसे में मैं उनकी कुछ मदद कर सकूँ, तो वह मेरे लिए अच्छी बात होगी. मैं अपने स्तर पर जो संभव हो करती जाती हूं.
पूजा के जीवन में उसकी मां और दीदी का बहुत सपोर्ट रहा, जिसकी वजह से वह यहाँ तक पहुँच पाई है. वह कहती है कि मेरा सपना हैं कि मेरी मां का 12 घंटे काम कर थक जाना अच्छा नहीं लगता, मैं उन्हें एक ऐसी जिंदगी दे दूँ,जिसमे वह खुश होकर अपनी जिंदगी बिता सकें और कहे कि अब मैं बहुत खुश हूं,मैंने देखा है कि मेरी मां खुश होने पर ग्लो करती है. मेरी दीदी जॉब करती है. उन्होंने भी मुझे यहाँ तक आने में बहुत सहयोग दिया है, जब मैं 7 वीं कक्षा में थी तो मेरी दीदी उस समय कॉलेज जाती थी. उन्होंने सुबह 4 बजे उठकर शेयर रिक्शा में पुणे में 6 से 7 किलोमीटर कैंट एरिया में जाकर अखबार वितरित करती थी. उससे आए एक्स्ट्रा पैसे से मैंने ट्यूशन लिया, क्योंकि मैं हिंदी और मराठी में बहुत कमजोर थी. मेरी दीदी मुझसे 4 साल बढ़ी है और उन्होंने मुझे नहलाना, धुलाना, खाना खिलाना आदि करती थी, क्योंकि मां जॉब करती थी और सुबह निकलकर रात को आती थी. इस तरह से मेरी दो माएं है.
खुद के सपने को खुद करें पूरा
पूजा महिलाओं को मेसेज देना चाहती है कि खुद को पुरुषों से कभी कम न समझे, जो भी सपना उन्होंने देखा है, उसे उठकर खुद पूरा करें, खुद में आत्मविश्वास रखें. अभी महिलाएं,वार फील्ड से लेकर हर क्षेत्र में काम कर रही है. पुरुषों को चाहिए कि वे महिलाओं को आगे आने में सपोर्ट करें, लड़कियों को लड़कों से कभी कम न आंके.
बौलीवुड काफी बुरे वक्त से गुजर रहा है. हिंदी फिल्में बाक्स आफिस पर लगातार असफल होती जा रही है. फिल्म के प्रदर्शन वाले दिन ही फिल्म के शो रद्द हो रहे हैं. आमिर खान व करना कपूर खान अभिनीति फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ की इतनी बुरी हालत हुई कि इस फिल्म की कमायी से तीन दिन का सिनेमाघरों का किराया तक चुकाना मुश्किल हो गया. यही हालत दक्षिण के सफल अभिनेता विजय देवराकोंडा की पैन इंडिया सिनेमा वाली फिल्म ‘‘लाइगर’’ की भी हुई.
आमिर खान और विजय देवराकोंडा के साथ ही फिल्म इंडस्ट्री का एक तबका मानकर चल रहा है कि उनकी फिल्म को ‘‘बौयकाट बौलीवुड’’ की वजह से नुकसान उठाना पड़ा. जबकि यह सच नही है. इन फिल्मों को डुबाने में कहानी, पटकथा, लेखक व निर्देशक के साथ ही इनकी पीआर टीम व मार्केटिंग टीम का भी बहुत बड़ा हाथ रहा. जी हॉ! यदि आमिर खान व विजय देवराकोंडा ठंडे दिमाग से अपनी फिल्म ‘लाल सिह चड्ढा’’ की प्रमोशनल गतिविधियों पर नजर दौड़ाएंगे, तो उन्हे इसका अहसास अपने आप हो जाएगा.
बहरहाल, कुछ वर्ष पहले जब सलमान खान की फिल्में असफल हुई थीं और उन पर बहुत बड़ा दबाव बना था, तब सलमान खान ने अपने मेहनताना में से कुछ धनराशि अपनी फिल्म के निर्माताओं को वापस किया था. अब इसी ढर्रे पर चलते हुए आमिर खान व विजय देवराकोंडा ने भी उसी तरह का कदम उठाया है. मगर सलमान खान व इन कलाकारों के कदम में एक बहुत बड़ा फर्क है. सलमान खान की असफल फिल्मों के निर्माता स्वयं सलमान खान नही थे.
बौलीवुड में चर्चाएं गर्म हैं कि आमिर खान फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ के निर्माता के लिए फरिश्ता बनकर सामने आए हैं. सूत्रों का दावा है कि आमिर खान ने फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ की असफलता की सारी जिम्मेदारी अपने उपर लेते हुए अपनी अभिनय की फीस को छोड़ने का फैसला किया है. पर हर कोई जानता है कि फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ का निर्माण खुद आमिर खान व किरण राव ने ‘‘वायकौम 18’’ के साथ मिलकर किया था. इस फिल्म का निर्माण ‘आमिर खान फिल्मस’’ के तहत ही हुआ था. तो आमिर खान किसे पैसा लौटा रहे हैं??
उधर फिल्म ‘‘लाइगर’’ की असफलता के लिए पूर्णरूपेण विजय देवराकोंडा ही जिम्मेदार हैं. विजय देवराकोंडा ने अपनी फिल्म की पीआर टीम के कहने पर पूरे देश का भ्रमण करते हुए कई तरह के अजीबोगरीब बयान दिए. यहां तक कि उन्होनेे अपने बयानों से मंुबई के ‘मराठा मंदिर’ और गेटी ग्लैक्सी सहित सात मल्टी प्लैक्स के मालिक व मशहूर फिल्म वितरक मनोज देसाई को भी नाराज कर दिया. उन्होने यह सारी हरकतें तब की, जबकि उनकी फिल्म ‘‘लाइगर’’ में कोई दम नहीं था. अगर उन्होने बेवजह की बयान बाजी न की होती, तो शायद कुछ दर्शक इस फिल्म को देखने पहुंच जाते. मगर उन्होने अपने बयानों से दर्शकों को नाराज कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. फिल्म ‘लाइगर’ के प्रदर्शन के पहले दिन बाक्स आफिस पर फिल्म की दुर्गति देखकर विजय देवराकोंडा उसी दिन शाम को मनोज देसाई से मिलकर उनसे माफी मांगते हुए कहा था कि उनके कहने का अर्थ कुछ और था. मगर इससे भी फर्क नहीं पड़ा. फिल्म की कहानी, पटकथा व निर्देशन के साथ ही विजय देवराकोंडा के अभिनय में कोई दम नहीं था. उपर से उनके बयानो ने भी दर्शकों को इस फिल्म से दूर रखा. खैर, अब विजय देवराकोंडा को अपनी गलती का अहसास हो गया है. उन्होने भी फिल्म की असफलता का सारा दोष अपने उपर लेते हुए फिल्म के निर्माता को अपनी पारिश्रमिक राशि में से छह करोड़ रूपए वापस करने का ऐलान कर दिया है. पर यहां सवाल है कि इससे क्या होगा? क्या निर्माता केे नुकसान की भरपायी हो जाएगी? जी नही. . . यह महज शोशे बाजी है.
हिंदी फिल्में बाक्स आफिस पर लगातार दम तोड़ती जा रही है. फिल्मकार इसका सारा ठीकरा दक्षिण की सफल होती फिल्मों के सिर मढ़कर चैन की नींद सोने पर उतारू हैं. हिंदी भाषी फिल्मकार निरंतर दर्शकों से दूरी बनाता जा रहा है. वह जमीन से जुड़े लेखकों व जमीनी रोचक व मनोरंजक कहानियों की भी अनदेखी करते हुए दक्षिण की फिल्मों का रीमेक, बायोपिक फिल्में अथवा विदेशी फिल्मों का हिंदी रूपांतरण करने में ही यकीन रख रहा है. इस तरह की फिल्में बनाते वक्त वह मौलिक फिल्म की कहानी का बंटाधार करने में भी पीछे नहीं रहता है. ऐसा महज नवोदित फिल्मकार कर रहे हों, ऐसा भी नही है. पिछले बीस वर्षों के अंतराल ‘देव डी’, ‘गुलाल’, ‘‘गैंग्स आफ वासेपुर’, ‘मुक्काबाज’ व ‘मनमर्जियां’ सहित 22 फिल्में निर्देशित कर चुके निर्देशक अनुराग कश्यप भी पीछे नहीं है. इस बार वह स्पेनिश फिल्म ‘मिराज’ का भारतीय करण कर ‘‘दोः बारा’’ नाम से लेकर आए हैं. जो कि 19 अगस्त से ‘नेटफिलक्स’ पर स्ट्रीम हो रही है. फिल्म कथानक के स्तर बहुत गड़बड़ है. कलाकारों का अभिनय औसत दर्जे से भी कमतर है. मजेदार बात यह है कि एक खास विचार धारा के पोषक अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म ‘‘दोः बारा’’ के माध्यम से दर्शकों को चुनौती दी है कि अगर आप वास्तव में पढ़े लिखे हैं, आपके पास फिल्म को समझने वाला दिमाग है, तो उनकी फिल्म को समझकर दिखाएं. अफसोस की बात यह है कि ‘नेटफ्लिक्स’ जैसे ओटीटी प्लेटफार्म के कर्ताधर्ता अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों की घटिया व बोरिंग फिल्मों को स्ट्रीम कर धीरे धीरे भारत में अपना दर्शकों का आधार निरंतर खोते जा रहे हैं, मगर किसी के भी कान में जूं नहीं रेंग रही है.
कहानीः
फिल्म ‘दोः बारा ’’ की कहानी काफी जटिल है. कहानी का आधार टाइम ट्रेवेल है. फिल्म की कहानी और किरदार 1990 और 2021 के बीच झूलते हैं. नब्बे के दशक में, एक भयावह तूफानी रात में दो बजकर बारह मिनट पर 12 वर्षीय लड़के अनय की फायर ब्रिगेड की गाड़ी के नीचे आ जाने से मौत हो जाती है. अपनी मौत सेे पहले अनय अपने पड़ोसी राजा (शाश्वस्त चटर्जी) को अपनी पत्नी की हत्या और फिर उस हत्या का सुराग मिटाते देख चुका होता है. पच्चीस साल बाद एक बार फिर उसी तरह की तूफानी रात में एक अस्पताल की नर्स अंतरा (तापसी पन्नू) अपने पति विकास ( राहुल भट्ट ) और बेटी अवंती के साथ उसी घर में रहने आती है, जिसमें कभी अनय अपनी मां के साथ रहा करता था. नए घर में अंतरा खुद को एक टीवी सेट के सामने पाती है. जैसे ही अंतरा टीवी को चालू करती है, उसे टीवी के अंदर वही बच्चा अनय दिखायी देता है. डरावनी बात यह है कि दूसरी तरफ अनय को भी अंतरा अपने टीवी में नजर आती है. अनय से बातचीत से अंतरा जान जाती है कि अनय कत्ल को देखने के बाद सड़क हादसे में मरने वाला है. अब वह टीवी के माध्यम से अनय की जान बचाने का प्रयास करती है. अतीत में अनय को उस सड़क हादसे से बचा लेती है, मगर उसके चक्कर में वर्तमान में अंतरा अपनी जिंदगी को इकट्ठा नही कर पा रही है.
लेखन व निर्देशनः
फिल्म लेखक व निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म बनाने की अपनी शैली रही है. अब तक वह रीमेक या किसी विदेशी फिल्म का भारतीय करण करने से बचते रहे हैं. मगर बकौल अनुराग कश्यप उन्हे यह फिल्म तापसी पन्नू की वजह से निर्देशित करनी पड़ी. तापसी पन्नू को स्पेनिश फिल्म ‘‘मिराज’ की कहानी पसंद थी और उन्होने ही इसका भारतीयकरण करवाते हुए पटकथा लिखी थी, पर उन्हे कोई सही निर्देशक नही मिला, तो उन्होंने इसे निर्देशित करने के लिए अनुराग कश्यप से कहा. हम सभी जानते हैं कि अनुराग कश्यप और तापसी पन्नू एक ही विचारधारा के पोषक होने के अलावा एक साथ ‘मनमर्जियां’ फिल्म कर चुके हैं. मगर ‘दोः बारा’ में टाइम ट्रेवेल के साथ रहस्य व रोमांच को मनोरंजक तरीके से पेश करने में अनुराग कश्यप बुरी तरह से विफल रहे हैं. कहानी इस कदर उलझी हुई है कि सब कुछ दर्शक के सिर के उपर से जाता है. पर अनुराग कश्यप हमेशा इस बात से खुश होते है कि वह ऐसी फिल्म बनाते हैं, जिसे दर्शक समझ नही पाता.
टाइम ट्रेवेल को विज्ञान मानता है. मगर तूफानी मौसम बदलने पर जिस तरह के घटनाक्रम अनुराग कश्यप ने फिल्म ‘‘दोः बारा ’’में दिखाए हैं, उसे तो विज्ञान नही मानता. यही ंपर अनुराग कश्यप अपनी बाजी हार जाते हैं. दर्शक तो टाइम ट्रेवेल व फिल्म के उस तथ्य को भी नही मानता कि तूफानी मौसम में कोई औरत या कोई बच्चा आकर कातिल को सजा दिलाने में सफल होता है. मगर फिल्म ‘दो ः बारा’ देखकर इस बात का अहसास ही नही होता कि यह अनुराग कश्यप स्टाइल की फिल्म है.
मजेदार बात यह है कि अनुराग कश्यप व तापसी पन्नू अपनी फिल्म ‘दो ः बारा’’ के प्रचार के लिए लगातार झूठ बोलते रहे. ट्ेलर लांच पर दावा किया कि उनकी फिल्म ‘दोः बारा’’, स्पैनिश फिल्म ‘मिराज’ का रीमेक नही है. कुछ दिन बाद कबूल किया कि यह फिल्म उनके पास तापसी पन्नू लेकर आयी थीं. इसके अलावा तापसी पन्नू और अनुराग कश्यप रोते रहे कि कोई उनकी फिल्म के ‘बौयकौट’ करने की मुहीम नही चलाता.
इतना ही नही अनुराग कश्यप के विचारों से सहमति रखने वाले फिल्म निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की पत्नी और फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा कुछ वर्षों से ‘‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’’ चलाती हैं, जिसमें एक खास सोच वाले फिल्म समीक्षकों को सदस्य बनाया गया है. और हर वर्ष पुरस्कार भी बांटे जाते हैं. ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्यों को अगस्त के पहले सप्ताह में ही फिल्म दिखायी गयी थी . और उनके द्वारा फिल्म को दिए गए ‘स्टार’ को खूब सोशल मीडिया पर प्रचारित किया गया. इतना ही नही फिल्म का प्रेस शो मंगलवार, 16 अगस्त को आयोजित किया गया. तब पीआरओ ने सभी पत्रकारों से कहा कि फिल्म की समीक्षा 19 तारीख से पहले न छपे. लेकिन सभी पत्रकारो से लिखकर मांगा गया कि वह कितने स्टार देंगे. जिस पत्रकार ने तीन से अधिक स्टार दिए, उसके नाम के साथ एकता कपूर, तापसी पन्नू सभी ने ट्वीट कर फिल्म को प्रचारित किया. पर अहम सवाल है कि क्या इससे घटिया फिल्म को दर्शक मिल जाएंगे??
फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी. फिल्म का गीत संगीत भी अति कमजोर है.
अभिनयः
अंतरा के किरदार में तापसी पन्नू ने काफी निराश किया है. मानाकि ‘‘दोः बारा’’ एक टाइम ट्रेवल वाली फिल्म है, पर तापसी पन्नू को इस तरह की फिल्मों में अभिनय करने का कुछ ज्यादा ही शौक है. वह इससे पहले टाइम ट्रेवेल वाली ‘‘ गेम ओवर’’ और ‘‘लूप लपेटा’’ में वह अभिनय कर चुकी हैं. मगर नर्स व डाक्टर अंतरा के किरदार में तापसी पन्नू का अभिनय निराशा जनक है. पत्नी को धोखा देने वाले विकास के किरदार में राहुल भट्ट भी आकर्षित नहीं करते. फिल्म ‘थप्पड़’ में तापसी पन्नू के साथ अभिनय कर अपने बेहतरीन अभिनय प्रतिभा की झलक दिखाने वाले अभिनेता पावेल गुलाटी इस फिल्म में पुलिस अधिकारी बने आनंद उर्फ अनय के किरदार में हैं. मगर उनके अभिनय में कोई जान नही है. अपनी पत्नी के कातिल राजा के किरदार में शाश्वत चटर्जी जरुर लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं. अन्य कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.
निर्माताःजी स्टूडियो, कलर येलो प्रोडक्शन और अलका हीरानंदानी
निर्देशकः आनंद एल राय
लेखकः कनिका ढिल्लों और हिमांशु शर्मा
कलाकारः अक्षय कुमार, भूमि पेडणेकर, सहजमीन कौर, साहिल मेहता, दीपिका खन्ना, सदिया खतीब, स्मृति श्रीकांत, सीमा पाहवा, नीरज सूद व अन्य.
अवधिः एक घंटा पचास मिनट
बौलीवुड में आनंद एल राय की गिनती सुलझे हुए, बेहतरीन व समझदार निर्देशक के रूप में होती है. ‘तनु वेड्स मनु’, ‘रांझणा’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’जैसी सफलतम फिल्मों के निर्देशन के बाद वह फिल्म निर्माण में व्यस्त हो गए. आनंद एल राय ने ‘निल बटे सन्नाटा’, ‘हैप्पी भाग जएगी’’, ‘शुभ मंगल सावधान’ व तुम्बाड़’जैसी बेहतारीन व सफल फिल्मों का निर्माण किया. इसके बाद उनके अंदर अजीबोगरीग परिवर्तन नजर आने लगा. और पूरे तीन वर्ष बाद जब बतौर निर्माता व निर्देशक ‘जीरो’ लेकर आए, तो यह फिल्म बाक्स आफिस पर भी ‘जीरो’ ही साबित हुई. इसके बाद फिल्मकार के तौर पर उनका पतन ही नजर आता रहा है. बतौर निर्देशक उनकी पिछली फिल्म ‘अतरंगी रे’’ भी नही चली थी. अब बतौर निर्माता व निर्देशक उनकी उनकी नई फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ 11 अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंची है. इस फिल्म से भी अच्छी उम्मीद करना बेकार ही है. सच यही है कि ‘तनु वेड्स मनु’ या ‘रांझणा’ का फिल्मकार कहीं गायब हो चुका है. मजेदार बात यह है कि फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के ट्ेलर को दिल्ली में आधिारिक रूप से रिलीज करने से एक दिन पहले मुंबई में ट्ेलर दिखाकर अनौपचारिक रूप से जब अनंद एल राय ने हमसे बातें की थी, तो उस दिन उन्होने काफी समझदारी वाली बातें की थी. हमें लगा था कि उनके अंदर सुधार आ गया है. मगर दिल्ली में ट्रेलर रिलीज कर वापस आते ही वह एकदम बदल चुके थे. फिर उन्होने अपनी फिल्म को लंदन व दुबई में जाकर प्रमोट किया. दिल्ली, इंदौर, लखनउ, चंडीगढ़, जयपुर, कलकत्ता, पुणे, अहमदाबाद, वडोदरा सहित भारत के कई शहरों में ‘रक्षाबंधन’’ के प्रमोशन के लिए सभी कलाकारांे के साथ घूमते रहे. कलाकारों के लिए बंधानी साड़ी से जेवर तक खरीदते रहे. हर इंवेंअ पर लाखों लोगों का जुड़ा देख खुश होेते रहे. पर अब उन्हे ख्ुाद सोचना होगा कि हर शहर में जितनी भीड़ उन्हे देखने आ रही थी, उसमें से कितने प्रतिशत लोगों ने उनकी फिल्म देखने की जहमत उठायी. लोग सिनेमाघर मे अपनी गाढ़ी व मेहनत की कमाई से टिकट खरीदने के बेहतरीन कहानी देखते हुए मनोरंजन के लिए जाता है. जिसे ‘रक्षाबध्ंान’ पूरा नहीं करती. फिल्म का नाम ‘रक्षाबंध्न’ है, मगर इसमें न तो भाई बहन का प्यार उभर कर आया और न ही दहेज जैसी कुप्रथा पर कुठाराघाट ही हुआ.
कहानीः
कहानी का केंद्र दिल्ली के चंादनी चैक में गोल गप्पे@ पानी पूरी यानी कि चाट बेचने वाले लाला केदारनाथ(अक्षय कुमार) और उनकी चार अति शरारती बहनों के इर्द गिर्द घूमती है. जिन्होने मृत्यू शैय्या पर पहुंची अपनी मां को वचन दिया था कि वह अपनी चारों छोटी बहनों की उचित शादी करवाने के बाद ही अपनी प्रेमिका सपना( भूमि पेडणेकर) संग विवाह रचाएंगे. यह चारों बहने भी अपने आप में विलक्षण हैं. एक बहन दुर्गा (दीपिका खन्ना), जरुरत से ज्यादा मोटी हैं. एक बहन सांवली ( स्मृति श्रीकांत ) , जबकि एक बचकाने लुक (सहजमीन कौर ) हैं. चैथी बहन गायत्री(सादिया खतीब) खूबसूरत व सुशील है. लाला केदारनाथ जिस चाट की दुकान पर बैठते हैं, वह उनके पिता ने शुरू किया था, जिस पर लिखा है ‘गर्भवती औरतें बेटे की मां बनने के लिए उनकी दुकान के गोल गप्पे खाएं. अब अपने पारिवारिक मूल्यों को कायम रखते हुए अपनी बहनों की शादी कराने के लाला केदारनाथ के सारे प्रयास विफल साबित हो रहे हैं. उधर सपना के पिता हरिशंकर(नीरज सूद) सरकारी नौकर हैं और उनके रिटायरमेंट में महज आठ माह बचे हैं. वह रिटायरमेंट से पहले ही अपनी बेटी सपना की शादी करवाने के लिए लाला केदारनाथ पर बीच बीच में दबाव डालते रहते हैं.
लाला केदारनाथ अपनी बहनों की शादी नही करवा पा रहे हैं. क्योंकि वह उस कर्ज की हर माह लंबी किश्त चुका रहे हैं, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय उनके पिता ने लिया था. इसके अलावा हर बहन की शादी में दहेज देने के लिए बीस बीस लाख रूपए नही हैं. किसी तरह जुगाड़कर 18 लाख रूपए दहेज में देकर वह मैरिज ब्यूरो चलाने वाली शानू (सीमा पाहवा ) की मदद से एक बहन गायत्री की शादी करवा देते हैं. उसके बाद अचानक हरीशंकर रहस्य खोलते हैं कि उन चारों बहनों के लाला केदारनाथ सगे भाई नही है. लाला केदारनाथ के पिता ने एक बंगले के सामने से उठाकर अपने रूार में नौक के रूप में काम करने के लिए लेकर आए थे, पर केदारनाथ मालिक ही बन बैठे. यहीं पर इंटरवल हो जाता है.
इंटरवल के बाद कहानी आगे बढ़ती है. अन्य बहनों की शादी के लिए लाला केदारनाथ अपनी एक किडनी बेचकर घर उसी दिन पहुंचते हैं, जिस दिन रक्षाबंधन है. तभी खबर आती है कि गायत्री ने आत्महत्या कर ली. और सब कुछ अचानक बदल जाता है. उसके बाद लाला केदारनाथ दूसरी बहनों की शादी करा पाते हैं या नही. . आखिर सपना व केदारनाथ की शादी होती है या नही. . इसके लिए तो फिल्म देखनी पड़ेगी. ?
लेखन व निर्देशनः
फिल्म ‘रक्षाबंधन’’ देखकर यह अहसास नही होता कि यह फिल्म ‘तनु वेड्स मनु ’ और ‘रांझणा’ जैसे फिल्मसर्जक की है. फिल्म की पटकथा अति कमजोर, भटकी हुई और गफलत पैदा करने वाली है. जब हरीशंकर को पता है कि लाला केदारनाथ तो भिखारी था, जिसे नौकर बनाकर लाया गया था, तो ऐसे इंसान के साथ हरीश्ंाकर अपनी बेटी सपना का विवाह क्यों करना चाहते हैं? फिल्म में इस सच को ‘जोक्स’ की तरह कह दिया जाता है. इसके बाद इस पर फिल्म में कुछ खास बात ही नही होती. इंटरवल तक फिल्म लाला केदारनाथ यानी कि अक्षय कुमार की झिझोरेपन वाली उझलकूद, मस्ती व स्तरहीन जोक्स के साथ स्टैंडअप कॉमेडी के अलावा कुछ नही है. इंटरवल से पहले एक दृश्य है. चांदनी चैक की व्यस्त गली में एक बेटे का पिता खुले आम कहता है, ‘‘हमने अपनी बेटी की शादी के दौरान दहेज दिया था, इसलिए हम अपने बेटे की शादी के लिए दहेज की मांग कर सकते हैं. ‘‘ कुछ दश्यों के बाद जब एक सामाजिक कार्यकर्ता जनता से दहेज को हतोत्साहित करने का आग्रह करती है, तो लाला केदारनाथ ( अक्षय कुमार ) गर्व से उस महिला से कहते हैं कि दहेज की निंदा करना आसान है. जब आपकी दो लड़कियां हैंं, लेकिन अगर दो बेटे होंते, तो आप निंदा न करती. चांदनी चैक के हर इंसान का समर्थन लाला केदारनाथ को मिलता है.
लेकिन जब गायत्री दहेज के चलते मारी जाती है, तब शराब के नशे में केदारनाथ दहेज का विरोध करते हुए अपनी बहनों की शादी में दहेज न देने का ऐलान करते हैं. अब इसे क्या कहा जाए?? कुल मिलाकर यह फिल्म ‘‘दहेज ’’की कुप्रथा पर भी कुठाराघाटनही कर पाती. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश मंे शराब के नशे में इंसान जो कुछ कहता है, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता. आनंद एल राय ने शायद 21 वीं सदी में भी साठ के दशक की फिल्म बनायी है, जहां जमींदार व साहूकारों का अस्तित्व है, तभी तो द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त अपने पिता द्वारा लिए गए कर्ज को केदारनाथ चुका रहे हैं. कुल मिलाकर कमजोर व भटकी हुई पटकथा तथा औसत दर्जे के निर्देशन के चलते ‘दहेज विरोधी’ संदेश प्रभावी बनकर नहीं उभरता. इसके अलावा इस विषय पर अब तक सुनील दत्त की फिल्म ‘यह आग कब बुझेगी’ व ‘वी. शांताराम’ की ‘दहेज’ सहित सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं. पर दहेज प्रथा का उन्मूलन 21 वीं सदी में भी नही हुआ है.
गायत्री की मौत पर पुलिस बल की मौजूदगी में गायत्री की ससुराल के पड़ोसी चिल्ला चिल्लाकर आरोप लगाते हैं कि महज एक फ्रिज की वजह से गायत्री की हत्या की गयी है. मगर पुलिस मूक दर्शक ही बनी रहती है. बहनांे के लिए कुछ भी करने का दावा करने वाला भाई लाला केदारनाथ सिर्फ शराब पीकर आगे दहेज न देने का ऐलान करने के अलावा कुछ नही करता. फिल्म न तो न्याय की लड़ाई लड़ती है और न ही दहेज विरोधी कोई सशक्त संदेश ही देती है. यह लेखकद्वय और निर्देशक की ही कमजोरी है.
फिल्म के निर्देशक आनंद एल राय कभी टीवी से जुड़े रहे हैं. उनके बड़े भाई रवि राय ‘सैलाब’ सहित कई उम्दा व अति बेहतरीन सीरियल बना चुके हैं, उनके साथ आनंद एल राय बतौर सहायक काम कर चुके हैं. उन्ह दिनों जीटीवी पर एक सीरियल ‘अमानत’आया करता था. जिसमें लाला लाहौरी राम अपनी सात बेटियों की शादी के लिए चिंता में रहते हैं, मगर सभी की शादी हो जाती है. इसमें फिल्म ‘लगान’ फेम ग्रेसी सिंह, पूजा मदान, स्मिता बंसल, सुधीर पांडे, श्रेयश तलपड़े और रवि गोसांई जैसे कलाकार थे. काश आनंद एल राय और लेखकद्वय ने इस सीरियल की एक पिता औसात लड़कियों के किरदारों से कुछ सीखकर अपनी फिल्म ‘‘रक्षाबंधन’’ के किरदारों को गढ़ा होता?इतना ही नही लेखक व निर्देशक ने बॉडी शेमिंग के अलावा हकलाने वाले पुरुष जैसे घिसे पिटे तत्व भी इस फिल्म में पिरो दिए हैं. कहानी में कुछ तो नया लेकर आते.
लेखकद्वय के दिमागी दिवालिएपन का नमूना यह भी है कि हरीशंकर, लाला केदारनाथ को बहुत कुछ सुनाकर उन्हे अपनी बेटी सपना से दूर रहने के लिए कहकर सपना की न सिर्फ शादी तय करते हैं, बल्कि बारात आ गयी है. शादी की रश्मंे शुरू हो चुकी हैं. अचानक हरीशंकर का हृदय परिवर्तन हो जाता है और पांचवे फेरे के बाद हरीशंकर अपनी बेटी से शादी को तोड़ने की बात कहते हैं और बारात की नाराजगी को अकेले ही झेले लेने की बात करते हैं. सपना फेरे लेने के की बजाय दूल्हे का साथ छोड़कर लाला केदारनाथ के पास पहुंच जाती है. इस तरह तो विवाह संस्था का मजाक उड़ाने के साथ ही उसे कमजोर करने का प्रयास लेखकद्वय ले किया है. लेकिन हिंदू धर्मावलंबियो को खुश करने का कोई अवसर नही छोडा गया. जितने मंदिर दिखा सकते थे, वह सब दिखा दिया.
जी हॉ! गर्भवती औरतों को गोल गप्पा खिलाकर उन्हें बेटे की मां बनाने का दावा करना भी तांत्रिको या बंगाली बाबाओं की तरह 21वीं सदी में अंधविश्वास फैलाना ही है.
फिल्म के संवाद भी अजीबो गरीब हैं. एक जगह जब गायत्री को देखने लड़के वाले आते हैं, तो दुकान वाला कुछ सामान देने के बाद लाला केदारनाथ से कहता है कि दूध भी लेते जाएं. इस पर अक्षय कुमार कहते हैं-‘‘आज नागपंचमी नही है. ’
लेखकद्वय ने कहानी को फैला दिया, चार बहन के किरदार भी गढ़ दिए, पर क्लायमेक्स में उन्हे समझ में नही आया कि किस तरह खत्म करे, तो आनन फानन में कुछ दिखा दिया, जो दर्शक के गले नही उतरता.
वहीं गायत्री की मौत के बाद तीनो बने कुछ बनने का फैसला लेते हुए कहती हैं-‘‘अब हम कुत्ते की तरह प़ढ़ाई करेंगे. ’’. . . अब लेखकद्वय से कौन पूछेगा कि कुत्ते की तरह पढ़ाई कैसी होती है?
पिछले कुछ दिनों से कनिका ढिल्लों पर ‘अति-राष्ट्रवादी’ होने का आराप लगाकर हमला करने वाले भी निराश होंगे, क्योंकि इस फिल्म में लेखिका कनिका ढिल्लों ने चांदनी चैक में कुछ मुस्लिम व सिख चेहरे भी खड़े कर दिए हैं.
फिल्म का गीत संगीत घटिया ही कहा जाएगा. एक गीत चर्चा में आया था-‘‘तेरे साथ हूं मैं. . ’’ यह गाना तो फिल्म का हिस्सा ही नही है.
अभिनयः
लाला केदारनाथ के किरदार में अक्षय कुमार का अभिनय भी इस फिल्म की कमजोर कड़ी है. बौलीवुड में इतने लंबे वर्षों से कार्य करते आ रहे अक्षय कुमार आज भी इमोशनल सीन्स ठीक से नही कर पाते हैं. वह हर किरदार में सीधा तानकर चलते नजर आते हैं. इसके अलावा उन्होने अपने अभिनय की एक शैली बना ली है, जिसमें छिछोरापन, उछलकूद, निचले स्तर के जोक्स व मस्ती करते हैं. कुछ लोग तो उन्हे स्टैंडअप कमेडियन ही मानते हैं. एक दो फिल्मों में उनके ेइस अंदाज को पसंद किया गया, तो अब वह हर जगह इसी तह नजर आते हैं. पर यह लंबी सफलता देने से रहा. कई दृश्यों मंे वह बहुत ज्यादा लाउड नजर आते हैं. चांदनी चैक के दुकानदार, खासकर चाट बेचने वाला डिजायनर कपड़े पहनने लगा है, यह एक सुखद अहसास है. अक्षय कुमार का बचपन चांदनी चैक की गलियों में ही बीता, इसका फायदा जरुर उन्हें मिला. अक्षय कुमार का बहनों का किरदार निभा रही अभिनेत्रियो संग केमिस्ट्री नही जमी. सपना के किरदार मे भूमि पेडणेकर के हिस्से करने को कुछ खास रहा नही. सच कहें तो भूमि पेडणेकर के कैरियर की जो शुरूआत थी, उससे उनका कैरियर नीचे की ओर जा रहा है. इसकी मूल वजह फिल्मों के चयन को लेकर उनका सतर्क न होना ही है. 2020 में प्रदर्शित विधू विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘‘शिकारा’’से अभिनय में कदम रखने वाली अभिनेत्री सादिया खिताब जरुर गायत्री के छोटे किरदार में अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं. हरीशंकर के किरदार में नीरज सूद का अभिनय ठीक ठाक ही है. दीपिका खन्ना, सहजमीन कौर और स्मृति श्रीकांत को अभी काफी मेहनत करने की जरुरत है. लाला केदारनाथ के सहायक के किरदार में साहिल मेहता जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं. उनके अंदर बेहतरीन कलाकार के रूप में खुद को स्थापित करने की संभावनाएं हैं, अब वह उनका किस तरह उपयोग करते हैं, यह तो उन पर निर्भर करता है.
यदि बौलीवुड इसी तरह से फिल्में बनाता रहा, तो बौलीवुड को डूबने से कोई नहीं बचा सकता. दक्षिण के सिनेमा के नाम आंसू बहाना भी काम नहीं आ सकता.