Mother’s Day Special- अधूरी मां- भाग 3: क्या खुश थी संविधा

तुम्हारे भैया तो दिन में न जाने कितनी बार औफिस से फोन कर के उस की आवाज सुनाने को कहते हैं. शाम 4 बजे तक सारा कामकाज मैनेजर को सौंप कर घर आ जाते हैं. रात को खाना खा कर सभी दिव्य को ले कर टहलने निकल जाते हैं. दिव्य के आने से मेरे घर में रौनक आ गई है. इस के लिए संविधा तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. संविधा, अरेअरे दिव्य… संविधा मैं तुम्हें फिर फोन करती हूं. यह तेरा बेटा जो भी हाथ लगता है, सीधे मुंह में डाल लेता है. छोड़…छोड़…’’

इस के बाद दिव्य के रोने की आवाज आई और फोन कट गया.

‘‘यह भाभी भी न, दिव्य अब मेरा बेटा कहां रहा. जब उन्हें दे दिया तो वह उन का बेटा हुआ न. लेकिन जब भी कोई बात होती है, भाभी उसे मेरा ही बेटा कहती हैं. पागल…’’ बड़बड़ाते हुए संविधा ने फोन मेज पर रख दिया.

इस के बाद मोबाइल में संदेश आने की घंटी बजी. ऋता ने व्हाट्सऐप पर दिव्य का फोटो भेजा था. दिव्य को ऋता की मम्मी खेला रही थीं. संविधा आनंद के साथ फोटो देखती रही. ऋता का फोन नहीं आया तो संविधा ने सोचा, वह रात को फोन कर के बात करेगी.

इसी बीच संविधा को कारोबार के संबंध में विदेश जाना पड़ा. विदेश से वह दिव्य के लिए ढेर सारे खिलौने और कपड़े ले आई. सारा सामान ले कर वह ऋता के घर पहुंची.

ऋता ने उसे गले लगाते हुए पूछा, ‘‘तुम कब आई संविधा?’’

‘‘आज सुबह ही आई हूं. घर में सामान रखा, फ्रैश हुई और सीधे यहां आ गई.’’

पानी का गिलास थमाते हुए ऋता ने पूछा, ‘‘कैसी रही तुम्हारी कारोबारी यात्रा?’’

‘‘बहुत अच्छी, इतना और्डर मिल गया है कि 2 साल तक फुरसत नहीं मिलेगी,’’ बैड पर सामान रख कर इधरउधर देखते हुए संविधा ने पूछा, ‘‘दिव्य कहां है, उस के लिए खिलौने और कपड़े लाई हूं?’’

‘‘दिव्य मम्मी के साथ खेल रहा है. तभी दिव्य को ले कर सुधा आ गईं शायद उन्हें संविधा के आने का पता चल गया था. संविधा ने चुटकी बजा कर दिव्य को बुलाया, ‘‘देख दिव्य, तेरे लिए मैं क्या लाई हूं.’’

इस के बाद संविधा ने एक खिलौना निकाल कर दिव्य की ओर बढ़ाया. खिलौना ले

कर दिव्य ने मुंह फेर लिया. इस के बाद संविधा ने दिव्य को गोद में लेना चाहा तो वह रोने लगा.

इस पर ऋता ने कहा, अरे, यह तो रोने लगा.

वह क्या है न संविधा, यह किसी भी अजनबी के पास बिलकुल नहीं जाता.

संविधा ने हाथ खींच लिए तो दिव्य चुप हो गया. संविधा उदास हो गई. उस का मुंह लटक गया. वह कैसे अजनबी हो गई, जबकि असली मां तो वही है. संविधा जो कपड़े लाई थी, अपने हाथों से दिव्य को पहनाना चाहती थी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. कुछ देर बातें कर के वह सारा सामान भाभी को दे कर वहां से निकली तो सीधे मां के घर चली गई. वहां मां के गले लग कर रो पड़ी कि वह अपने ही बेटे के लिए अजनबी हो गई.

रमा देवी ने संविधा के सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया कि वह जी न छोटा करे, दिव्य थोड़ा बड़ा होगा तो खुद ही उस के पास आने लगेगा. उस से अपनी खुशी भाईभाभी को दी है, इसलिए अब उसे अपना बेटा मान कर मन को दुखी न करे. इस के बाद संविधा को पानी पिला कर उस के कारोबार और विदेश की यात्रा के बारे में बातें करने लगीं तो संविधा उत्साह में आ गई.

कारोबार में व्यस्त हो जाने की वजह से संविधा को किसी से मिलने का समय नहीं मिल रहा था. सात्विक अब अकसर बाहर ही रहता था. फोन पर ही ऋता संविधा को दिव्य के बारे में बताती रहती थी कि आज उस ने यह खाया, ऐसा किया, यह सामान तोड़ा. मम्मी तो उस से बातें भी करने लगी हैं. अगर वह राजन के पास होता है तो वह उसे किसी दूसरे के पास नहीं जाने देते. जिस दिन दिव्य बैड पकड़ कर खड़ा हुआ और 4-5 कदम चला, ऋता ने उस का वीडियो बना कर संविधा को भेजा.

अब तक दिव्य 10 महीने का हो गया था. 2 महीने बाद उस का जन्मदिन आने वाला था. सभी उत्साह में थे कि खूब धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाएगा. जन्मदिन मनाने में मदद के लिए संविधा को भी एक दिन पहले आने को कह दिया गया था. जब भी ऋता और संविधा की बात होती थी, ऋता यह बात याद दिलाना नहीं भूलती थी. संविधा भी खूब खुश थी.

उस दिन मीटिंग खत्म होने के बाद संविधा ने मोबाइल देखा तो ऋता की 10 मिस्डकाल्स थीं. इतनी ज्यादा मिस्डकाल्स कहीं मम्मी…? उस के मन में किसी अनहोनी की आशंका हुई. संविधा ने तुरंत ऋता को फोन किया.

दूसरी ओर से ऋता के रोने की आवाज आई. रोते हुए उस ने कहा, ‘‘कहां थीं तुम…कितने फोन किए… तुम ने फोन क्यों नही उठाया?’’

‘‘मीटिंग में थी, ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो इतने फोन कर दिए?’’

‘‘दिव्य को अस्पताल में भरती कराया है,’’ ऋता ने कहा.ॉ

संविधा ने तुरंत फोन काटा और सीधे अस्पताल जा पहुंची. दिव्य तमाम नलियों से घिरा स्पैशल रूम में बैड पर लेटा था. नर्स उस की देखभाल में लगी थी. डाक्टर भी खड़े थे.

वह अंदर जाने लगी तो ऋता ने रोका, ‘‘डाक्टर ने अंदर जाने से मना किया है.’’

‘‘क्या हुआ है दिव्य को?’’ संविधा ने पूछा.

‘‘कई दिनों से बुखार था. फैमिली डाक्टर से दवा ले रही थी. लेकिन बुखार उतर ही नहीं रहा था. आज यहां ले आई तो भरती कर लिया. अब ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है.’’

संविधा सोचने लगी, इतने दिनों से बुखार था, राजन ने ध्यान नहीं दिया. यह इन का अपना बेटा तो है नहीं. इसीलिए ध्यान नहीं दिया. खुद पैदा किया होता तो ममता होती. मेरा बच्चा है न, इसलिए इतनी लापरवाह रही. आज कुछ हो जाता, तो… संविधा ने सारे काम मैनेजर को समझा दिए और खुद अस्पताल में रुक गई बेटे की देखभाल के लिए. ऋता ने उस से बहुत कहा कि वह घर जाए, दिव्य की देखभाल वह कर लेगी, पर संविधा नहीं गई. उस की जिद के आगे ऋता को झुकना पड़ा.

अगले दिन किसी जरूरी काम से संविधा को औफिस जाना पड़ा. वह औफिस से लौटी तो देखा ऋता दिव्य के कमरे से निकल रही थी.

संविधा ने इस बारे में डाक्टर से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘मां को तो अंदर जाना ही पड़ेगा. बिना मां के बच्चा कहां रह सकता है.’’

संविधा का मुंह उतर गया. मां वह थी.  अब उस का स्थान किसी दूसरे ने ले लिया था. वह दिव्य को देख तो पाती थी, लेकिन बीमार बेटे को गोद नहीं ले पाती थी. इसी तरह 2 दिन बीत गए. रोजाना शाम को सात्विक भी अस्पताल आता था. ऋता बारबार संविधा से निश्ंिचत रहने को कहती थी, लेकिन वह निश्ंिचत नहीं थी. अब वह दिव्य को पलभर के लिए भी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं. 5वें दिन डाक्टर ने दिव्य को घर ले जाने के लिए कह दिया.

सभी रमा देवी के घर इकट्ठा थे. संविधा ने दिव्य को गोद में ले कर कहा, ‘‘मैं ने इसे जन्म दिया है, इसलिए यह मेरा बेटा है. यह मेरे साथ रहेगा.’’

‘‘तुम्हारा बेटा कैसे है? मैं ने इसे गोद लिया है,’’ ऋता ने तलखी से कहा, ‘‘तुम इसे कैसे ले जा सकती हो?’’

‘‘कुछ भी हो, अब मैं दिव्य को तुम्हें नहीं दे सकती. तुम उस की ठीक से देखभाल नहीं कर सकी.’’

‘‘बिना देखभाल के ही यह इतना बड़ा हो गया? एक बार जरा…’’

‘‘एक बार जो हो गया, अब वह दोबारा नहीं हो सकता, ऐसा तो नहीं है.’’

‘‘अब तुम्हारा कारोबार कौन देखेगा… इसे दिन में संभालोगी औफिस कौन देखेगा?’’

‘‘तुम्हें इस सब की चिंता करने की जरूरत नहीं है. कारोबार मैनेजर संभाल लेगा तो औफिस सात्विक. मेरे कारोबार और औफिस के लिए तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. कुछ भी हो, अब मेरा बेटा मेरे पास ही रहेगा.’’

ऋता और संविधा को लड़ते देख सब हैरान थे. ननदभौजाई का प्यार पलभर में

खत्म हो गया था. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कोई किसी को क्या कह कर समझाए. ऋता ने धमकी दी कि उस के पास दिव्य को गोद लेने के कागज हैं तो संविधा ने कहा कि उन्हीं को ले कर देखती रहना.

ऋता ने दिव्य को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो राजन ने उस के हाथ थाम लिए. उसे पकड़ कर बाहर लाया और कार में बैठा दिया. ऋता रो पड़ी. राजन ने कार बढ़ा दी. राजन ने ऋता को चुप कराने की कोशिश नहीं की.

रास्ते में ऋता के मोबाइल फोन की घंटी बजी. ऋता ने आंसू पोंछ फोन रिसीव किया, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद भाई साहब, मेरी योजना किसी को नहीं बताई इस के लिए आभार, क्योंकि उस समय संविधा को गर्भपात न कराने का दबाव डालने के बजाय यह उपाय ज्यादा अच्छा था, जो सफल भी रहा.’’

राजन ने ऋता की ओर देखा, उस आंखों में आंसू तो थे, लेकिन चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था.

तेरे जाने के बाद- भाग 1 क्या माया की आंखों से उठा प्यार का परदा

मैं अकेली हूं पर मोहित की यादें अकसर ही मुझ से बातें करने आ जाया करती हैं. लगता जैसे मोहित आते ही मुझे चिढ़ाने लगते हैं. वास्तव में तुम्हारी हिम्मत न होती थी हकीकत की जमीन पर मुझे चिढ़ाने की, लेकिन खयालों में तुम कोई मौका न छोड़ते. मैं खयालों में ही रह जाती हूं, जवाब नहीं दे पाती तुम्हें. पता नहीं पिछले कुछ दिनों से जाने क्यों मुझे रहरह कर कमल की भी याद आ रही है. मै जानती हूं वह कभी नहीं आएगा. अगर आया तो भी उस के लिए मेरी जिंदगी में कोई जगह नहीं है. आखिर मैं ने ही तो छोड़ा था उसे, फिर क्यों याद कर रही हूं मैं उस को. मैं खुश हूं अपनी जिंदगी में. क्या फर्क पड़ता है किसी के जाने से? कौन सी मैं ने मोहब्बत ही की थी उस से.

छल… हां, छल ही तो किया था उस ने मुझ से और खुद से. फिर क्यों याद बन कर सता रहा है मुझे. शायद असीम और अभिलाषा के एकदूसरे के प्रति लगन के कारण कमल का स्मरण हो आया है. मुझे अच्छी तरह से याद है. मैं ही उस के प्रति आकर्षित हुई थी पहले. कमल गोरा, लंबा आकर्षक पुरुष था. वह शादीशुदा नहीं था. मेरे पति मोहित पहले दिन ही कमल से मिलवाते हुए बता चुके थे. मुझे काफी दिलकश इंसान लगा था. खूबी होगी कुछ उस में. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं खोलने चली गई.

सामने असीम खड़ा था. ‘‘अरे असीम, आ जाओ. तुम्हें ही याद कर रही थी.’’ ‘‘मुझे, पर क्यों भाभी?’’ असीम भाभी ही कहता हैं मुझे. वैसे तो हम रिश्तेदार बनने वाले हैं. उस की शादी मेरी छोटी बहन अभिलाषा से होने वाली है. लेकिन देवरभाभी का रिश्ता कमल का दिया हुआ था. असीम कमल को बड़ा भाई मानता था. ‘‘जस्ट जोकिंग डियर. अच्छा, तैयारी कैसी चल रही है शादी की?’’ ‘‘हा हा हा, तैयारी करने के लिए जब आपलोग हैं ही, फिर मुझे क्या चिंता?’’ ‘‘हींहींहीं मत कर. घोड़ी चढ़ कर भी क्या हम लोग ही आ जाएंगे.’’ ‘‘हा हा हा, लड़की आप की है, फिर आप घोड़ी चढ़ें या गदही चढ़ें, मेरी तरफ से सब मुबारका.’’

‘‘मस्ती सूझ रही दूल्हे मियां को.’’ ‘‘सोचता हूं कि कर ही लूं, फिर मौका मिले या न मिले’’, दांत निपोरते हुए असीम फिर बोला, ‘‘क्या बात है भाभी, मैं तब से आप को हंसाने की कोशिश कर रहा हूं पर आप का ध्यान कहीं और ही है?’’ ‘‘नहींनहीं, कुछ खास नही. बस, आज तुम्हारे मित्र कमल का ध्यान हो आया.’’ थोड़ी देर रुक कर मैं फिर बोली, ‘‘तुम्हारी तो बातचीत होती होगी. कहां है आजकल? क्या कर रहा है?’’ गंभीर भाव मुख पर लाते हुए असीम बोला, ‘‘जी, कभीकभी बातचीत पहले हो जाया करती थी. इधर काफी दिनों से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है. लेकिन आज अचानक कमल क्यों?’’ अचानक असीम के सवाल से मैं सहम सी गई.

‘‘क्योंक्या?’’ मैं झेंपते हुए बोली, बस, यों ही’’. असीम का मोबाइल बजने लगा और वह बीच में ही ‘अच्छा भाभी, मैं चलता हूं’, कहते हुए बाहर चला गया. मैं फिर से यादों से बातें करने लगी. मेरे जीवन में कमल और मोहित की यादें ही तो रह गई है सिर्फ, अन्यथा बचा ही क्या है. मैं मोहित का फोटो ले कर बैठ जाती हूं. मेरे जीवन के 2 पलड़े हैं और दोनों ही मुझ से टूट कर अलग हो गए. रह गई मेरे हाथों में केवल डंडी. आज मैं मोहित से बातें करना चाहती हूं. वे बातें जो उस के साथ रहते हुए भी कभी नहीं कर पाई थी. आज करूंगी वे बातें, वे सभी बातें तो कभी भी मैं मोहित को बताना नहीं चाहती थी. वे बातें जो मैं ने पूरी दुनिया से छिपा रखी हैं. वे बातें जो मैं ने खुद से भी छिपा रखी हैं. पता नहीं मैं किस दुनिया में पहुंच रही हूं. मैं फोटो से बात कर रही हूं या खुद से, समझ नहीं पा रही.

‘मोहित, तुम्हें क्या लगा कि मैं गलत थी. अरे एक बार पूछ कर तो देख लेते. पर तुम पूछते कैसे? मर्द जो ठहरे तुम. मैं नहीं जानती तुम ने ऐसा क्यों किया पर मैं अब समझ सकती हूं कि तुम्हें कैसा लगता होगा जब मैं कमल से हंसहंस कर बातें करती थी. मुझे परवा न थी दुनिया की. मैं तो सिर्फ अपनेआप में मस्त रहती थी. कभी तुम्हारे बारे में सोचा ही नहीं मैं ने. तुम मेरे पति थे और आज भी हो, लेकिन हम साथसाथ नहीं हैं. हम दोनों एकदूसरे के लिए परित्यक्त हैं. तलाकशुदा नहीं हैं हम. तुम चाहो तो मैं तुम्हारे पास वापस आने को तैयार हूं. पर तुम ऐसा क्यों चाहोगे? मैं ने कौन से पत्नीधर्म निभाए हैं.’ फिर से खयालों में खोती चली जाती हूं. ‘मैं भूल गई थी कि तुम मेरे पति हो. पर तुम कभी नहीं भूले. मोहित, तुम ने हमेशा मेरा साथ निभाया. खुदगर्जी मेरी ही थी. मैं जान ही नहीं पाईर् थी तुम्हारे समर्पण को. मेरे लिए तुम सिर्फ और सिर्फ मेरे पति थे. पर तुम्हारे लिए मैं जिम्मेदार थी. मेरी जिंदगी में भले ही तुम्हारे लिए जगह न थी लेकिन तुम्हारे लिए मैं हमेशा ही तुम्हारे सपनों की रानी रही.’

‘मैं जब अकेले में खुद से बातें करते हुए थकने लगती हूं तब तुम आ जाते हो मेरे खयालों में, बातें करने मुझ से. मुझे अच्छा लगने लगता है. मैं तुम से बातें करने लगती हूं. तुम कहने लगते हो, ‘जब तुम मुझ से खुश न थी तो फिर संग क्यों थीं? तुम्हें चले जाना चाहिए था कमल के साथ. मैं कभी नहीं रोकता तुम्हें.’ तुम मेरे अंदर से बोल पड़ते हो. ‘मैं तुम्हें जवाब देने लगती हूं.’ ‘तुम्हारे साथ मैं केवल तुम्हारे पैसों के लिए थी. अन्यथा तुम तो मुझे कभी पसंद ही नहीं थे. तुम्हारा काला रंग, निकली हुई तोंद, भारीभरकम देह, मुझ से न झेला जाता था. मैं कमल के साथ जाना चाहती थी मगर उस की लापरवाही मुझे खलती थी. कमल खुद में स्थिर नहीं था. अन्य औरतों की भांति मैं भी एक औरत के रूप मेें ठहरावपूर्ण जिंदगी चाहती थी जो कि तुम्हारे पास थी.’

‘तो फिर कमल ही क्यों? किसी अन्य पुरुष को भी तुम अपना सकती थी,’ मेरे मन का मोहित बोला. ‘हां, अपना सकती थी. लेकिन कमल सब से सुरक्षित औप्शन था. किसी को शक नहीं होता उस पर. और फिर संपर्क में भी तो कमल के अलावा मेरे पास अन्य पुरुष का विकल्प न था. और जो 2 पुरुष तुम्हारे अलावा मेरे संपर्क में थे उन में कमल मुझे कहीं अधिक आकर्षित करता था.’ ‘और असीम?’

‘असीम के प्रति मेरे मन में कभी वह भाव नहीं आया. कभी आया भी होगा तो मैं यह सोच कर रुक जाती कि वह मेरी छोटी बहन का आशिक है और उम्र में भी तो बहुत छोटा था. 10 साल, हां, 10 साल छोटा है असीम.’ ‘मेरी एक चिंता दूर करोगी क्या?’ ‘हां, बोलो, कोशिश करूंगी.’ ‘कमल मेें ऐसा क्या था जो मुझ में नहीं था?’ ‘यह तुम्हारा प्रश्न ही गलत है.’ ‘क्या मतलब?’ ‘तुम में वह सबकुछ था जो कमल में भी नहीं था. कमी तो मुझ में थी. मैं ही खयालों की दुनिया से बाहर नहीं आना चाहती थी. मुझे वाहवाही की लत जो लगी हुईर् थी. तुम कूल डूड थे और कमल एकदम हौट. तुम्हें मर्यादा में रहना पसंद था और मुझे बंधनमुक्त जीना पसंद था. तुम्हें समाज के साथ चलना पसंद था और मुझे पूरी दुनिया को अपने ठुमकों पर नचाना था.’

‘तुम एक बार बोल कर तो देखतीं. मैं तुम्हारी कला के बीच कभी नहीं आता.’ ‘आज जानती हूं तुम कभी न आते. लेकिन उस समय कहां समझ पाई थी मैं. समझ गई होती तो आज मैं…’ ‘मैं क्या?’ ‘तुम नहीं समझोगे.’ ‘मैं तब भी नहीं समझ सकता था और आज भी नहीं समझ सकता तुम्हारी नजरों को. समझदारी जो न मिली विरासत में.’ ‘तुम गलत व्यू में ले रहे हो.’ ‘तो सही तुम्हीं बात देतीं.’ मेरी तंद्रा फिर से टूट गई जब अभिलाषा आ कर मेरे गले से लिपट गई. मैं ने अभिलाषा को भले जन्म न दिया हो लेकिन वह मेरी बेटी से बढ़ कर है. मेरी सहेली, मेरी हमराज. कुछ भी तो नहीं छिपा है अभिलाषा से. मेरी और मोहित की शादी के समय अभिलाषा 6 साल की थी. दहेज में साथ ले कर मोहित के घर आ गई थी मैं. अब मेरी दुनिया अभिलाषा ही है.

 

 

प्रतिदान: भाग 1 – कौन बना जगदीश बाबू के बुढ़ापे का सहारा

बाबू साहब, यानी बाबू जगदीश नारायण श्रीवास्तव…रिटायर्ड जिला जज, अब गांव की सब से बड़ी हवेली के एक बड़े कमरे में चारपाई पर असहाय पड़े हुए थे. उन की आंखों के कोरों में आंसू के कतरे झलक रहे थे. वे वहीं अटके रहते हैं. हर रोज ऐसा होता है, जब रामचंद्र उन्हें नहलाधुला कर, साफ कपड़े पहना कर अपने हाथों से उन्हें खाना खिला कर अपने घर के काम निबटाने चला जाता है.

आज बाबू साहब के आंसू पोंछने वाला उन का अपना कोई आसपास नहीं है, लेकिन जब वे सेवा मेें थे, तो उन के पास सबकुछ था. संपन्नता, वैभव, सफल दांपत्यजीवन, सुखी और व्यवस्थित बच्चे. उन के 2 लड़के हैं. बड़ा लड़का उन की तरह ही प्रादेशिक न्यायिक सेवा में भरती हो कर मजिस्ट्रेट हो गया और आजकल मिर्जापुर में तैनात है. छोटे लड़के ने सिविल सेवा की तैयारी की और भारतीय राजस्व विभाग सेवा में नियुक्त हो कर आजकल मुंबई में सीमा शुल्क विभाग में बतौर डिप्टी कलेक्टर लगा हुआ है. दोनों के बीवीबच्चे उन के साथ ही रहते हैं.

बलिया से जब बाबू जगदीश नारायण रिटायर हुए तो दोनों बच्चों ने कहा जरूर था कि वे बारीबारी से उन के साथ रहें, पर उन का दिल न माना. दोनों लड़कों के बीच में बंट कर कैसे रहते? इसलिए इधरउधर दौड़ने के बजाय उन्होंने गांव में एकांत जीवन जीना पसंद किया और अपने पुश्तैनी गांव चले आए, जो अब कसबे का रूप धारण कर चुका था. चारों तरफ पक्की सड़कें बन चुकी थीं. घरों में बिजली लग चुकी थी. गांव का पुराना स्वरूप कहीं देखने को नहीं मिलता था.

बाबू जगदीश नारायण ने नौकरी में रहते हुए ही अपने पुराने कच्चे मकान को ध्वस्त कर हवेलीनुमा मकान बनवा लिया था. तब पत्नी जीवित थीं. वे खुद सशक्त और अपने पैरों पर चलनेफिरने लायक थे. सुबहशाम खेतों की तरफ जा कर काम देखते थे. पिता के जमाने से घर में काम कर रहे रामचंद्र को अपने पास रख लिया था. बाहर का ज्यादातर काम वही देखता था. मजदूर अलग से थे, जो खेतों में काम करते थे. घर में घीदूध की कमी न रहे इसलिए 2 भैंसें भी पाल ली थीं.

पतिपत्नी गांव में सुख से रहते थे. जीवन में गम क्या होता है, तब बाबू साहब को शायद पता भी नहीं था. छुट्टियों में दोनों लड़के आ जाते थे. घर में उल्लास छा जाता. दोनों बेटों के भी 2-2 बच्चे हो गए थे. वे सब आते, तो लगता उन से ज्यादा सुखी और संपन्न व्यक्ति दुनिया में और कोई नहीं है.

5 साल पहले पत्नी का देहांत हो गया. बेटे आए. तेरहवीं तक रहे. जब चलने लगे तो बेमन से कहा कि गांव में अकेले कैसे रहेंगे? बारीबारी से उन के पास रहें. गांव की जमीनजायदाद बेच दें. यहां उस का क्या मूल्य है? लेकिन उन्होंने देख लिया था कि बहुएं अपनेअपने पतियों से इशारा कर रही थीं कि पिताजी को अपने साथ रखने की कोई जरूरत नहीं है.

वैसे भी अपनी बहुओं की सारी हकीकत उन्हें ज्ञात थी. वे ठीक से उन से बात तक नहीं करती थीं. करतीं तो क्या वे स्वयं नहीं कह सकती थीं कि बाबूजी, चल कर आप हमारे साथ रहें. पर दिल से वे नहीं चाहती थीं कि बूढ़े को जिंदगी भर ढोएं और महानगर की अपनी चमकदार दुनिया को बेरंग कर दें.

बेटों को बाबू साहब ने साफ मना कर दिया कि वे उन में से किसी के साथ नहीं रहेंगे क्योंकि गांव से, खासकर अपनी कमाई से बनाई संपत्ति से उन्हें खासा लगाव हो गया था. बच्चे चले गए. एक बार मना करने के बाद दोबारा बच्चों ने चलने के लिए नहीं कहा. वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे. जीवन में किसी के सामने झुकना नहीं सीखा था. कभी किसी के दबाव में नहीं आए थे. आज बेटों के सामने क्यों झुकते?

घर में वे और रामचंद्र रह गए. रामचंद्र की बीवी आ कर खाना बना जाती. जब तक वे बिस्तर पर न जाते, रामचंद्र अपने घर न जाता. पूर्ण निष्ठा के साथ वह देर रात तक उन की सेवा में जुटा रहता. दिन भर खेतों मेें मजदूरों के साथ काम करता, फिर आ कर घर के काम निबटाता. भैंसों को चारापानी देता. हालांकि उस की बीवी घर के कामों में उस की मदद करती थी, उस का ज्यादातर काम रसोई तक ही सीमित रहता था.

बाबू साहब को मधुमेह की बीमारी थी. जिस की दवाइयां वे लेते रहते थे. अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के हाथपांवों में दर्द रहने लगा. घुटनों तक पैर जकड़ जाते और हाथों की उंगलियां

कड़ी हो जातीं. मुट्ठी तक न बांध पाते. सुबह नींद खुलने पर बिस्तर से तुरंत

नहीं उठ पाते थे. सारा शरीर जकड़ सा जाता.

पहले बाबू साहब ने आसपास ही इलाज करवाया. कोई फायदा नहीं हुआ तो जिला अस्पताल जा कर चेकअप करवाया. डाक्टरों ने बताया कि नसों के टिशूज मरते जा रहे हैं. नियमित टहलना, व्यायाम करना, कुछ चीजों से परहेज करना और नियमित दवाइयां खाने से फायदा हो सकता है. कोई गारंटी नहीं थी. फिर भी डाक्टरों का कहना तो मानना ही था.

जब वे अस्पताल में भरती थे तो दोनों बेटे एकएक कर के आए थे. डाक्टरों से परामर्श कर के और रामंचद्र को हिदायतें दे कर चले गए. किसी ने छुट्टी ले कर उन के पास रहना जरूरी नहीं समझा. उन की बीवियां तो आई भी नहीं. उन्हें यह सोच कर धक्का सा लगा था कि क्या बुढ़ापे में अपने सगे ऐसे हो जाते हैं. अंदर से उन्हें तकलीफ बहुत हुई थी लेकिन सबकुछ समय पर छोड़ दिया.

कुछ दिन अस्पताल में भरती रह कर बाबू साहब गांव आ गए. इलाज चल रहा था. पर कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा था. उन के पैर धीरेधीरे सुन्न और अशक्त होते जा रहे थे. रामचंद्र उन्हें पकड़ कर उठाता, तभी वे उठ कर बैठ पाते. चलनाफिरना दूभर होने लगा. उन्होंने बड़े बेटे को लिखा कि वह आ कर उन को लखनऊ के के.जी.एम.सी. या संजय गांधी इंस्टीट्यूट में दिखा दे.

बड़ा लड़का आया तो जरूर और उन्हें के.जी.एम.सी. में भरती करवा गया. पर इस के बाद कुछ नहीं. भरती कराने के बाद रामचंद्र से बोल गया कि जब तक इलाज चले, वह बाबूजी के साथ रहे. उस की बीवी को भी लखनऊ में छोड़ दिया.

रामचंद्र अपनी बीवी के साथ तनमन से बाबू साहब की सेवा में लगा रहा. धन तो बाबू साहब लगा ही रहे थे. उस की कमी उन के पास नहीं थी. पर न जाने उन के मन में कैसी निराशा घर कर गई थी कि किसी दवा का उन पर असर ही नहीं हो रहा था. अपनों के होते हुए भी उन का अपने पास न होने का एहसास उन्हें अंदर तक साल रहा था. डाक्टरों की लाख कोशिश के बावजूद वे ठीक न हो सके और लखनऊ से अपाहिज हो कर ही गांव लौटे.

अब स्थिति यह हो गई थी कि बाबू साहब चारपाई से उठने में भी अशक्त हो गए थे. रामचंद्र अधेड़ था पर उस के शरीर में जान थी. अपने बूते पर उन्हें उठा कर बिठा देता था तो वे तकियों के सहारे बिस्तर पर पैर लटका कर बैठे रहते थे.

एक दिन नौबत यह आ गई कि वे खुद मलमूत्र त्यागने में भी अशक्त हो गए. उन्हें बिस्तर से उतार कर चारपाई पर डालना पड़ा. चारपाई के बीच एक गोल हिस्सा काट दिया गया. नीचे एक बड़ा बरतन रख दिया गया, ताकि बाबू साहब उस पर मलमूत्र त्याग कर सकें.

अब आओ न मीता- क्या सागर का प्यार अपना पाई मीता

फौरगिव मी: क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

Story-in-Hindi

चिराग कहां रोशनी कहां: भाग 1

‘‘इहा, यह क्या किया तुम ने?’’

‘‘धरम, यह सिर्फ मैं ने किया है, तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? क्या तुम इस में शामिल नहीं थे?’’

‘‘वह तो ठीक है, पर मैं ने कहा था न तुम्हें सावधानी बरतने को.’’

‘‘सच मानो धरम, मैं ने तो सावधानी बरती थी. फिर यह कैसे हुआ, मु झे भी आश्चर्य हो रहा है.’’

‘‘तुम कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकती हो.’’

‘‘डौंट वरी. कोई न कोई हल तो निकल ही आएगा हमारी प्रौब्लम का.’’

‘‘हम दोनों को ही सोचविचार कर कोई रास्ता निकालना होगा.’’

इहा मार्टिन और धर्मदास दोनों उत्तरी केरल के एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से बायोकैमिस्ट्री में मास्टर्स कर रहे थे. इहा धर्मदास को धरम कहा करती थी. वह कैथोलिक क्रिश्चियन थी जबकि धर्मदास उत्तर प्रदेश के साधारण ब्राह्मण परिवार से था. उस के पिता का देहांत हो गया था और उस की मां गांव में रहती थी. पिता वहीं स्कूल मास्टर थे. धरम के पिता कुछ खेत छोड़ गए थे. गांव में उन की काफी इज्जत थी. उस गांव में ज्यादातर लोग ब्राह्मण ही थे, पिता की पैंशन और खेत की आय से मांबेटे का गुजारा अच्छे से हो जाता था.

करीब एक साल पहले ही इहा और धरम में दोस्ती हुई थी. धरम बीमार पड़ा था और अस्पताल में भरती था. इहा की मां नर्स थीं और पिता कुवैत में किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते थे. इहा की मां ने अस्पताल में धरम का विशेष खयाल रखा और अच्छी तरह देखभाल की थी. इसी दौरान दोनों दोस्त बने और यह दोस्ती कुछ ही दिनों में प्यार में बदल गई.

इसी प्यार का बीज इहा की कोख में पल रहा था. उन दोनों के फाइनल एग्जाम निकट थे. अचानक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस के बारे में दोनों को तनिक भी उम्मीद नहीं थी. एग्जाम खत्म होने को थे. एक दिन धरम ने इहा से कहा, ‘‘मैं परीक्षा के बाद मां के पास गांव जा रहा हूं. उन से सारी बात बता कर तुम से शादी करने की अनुमति मांगूंगा. तुम ने भी अपनी मम्मी को नहीं बताया होगा अभी तक?’’

‘‘नहीं, मैं ने अभी तक तो कुछ नहीं कहा है पर औरतों के साथ यही तो परेशानी है कि यह बात ज्यादा दिनों तक छिपाई नहीं जा सकती है. तुम ने अभी अनुमति की बात कही है तो क्या यह सब करने से पहले तुम ने उन से अनुमति ली थी?’’

‘‘अब तुम ताने न मारो. मु झे पूरी उम्मीद है, मां मेरी बात मान लेंगी.’’

‘‘अगर नहीं मानीं, तब क्या करोगे?’’

‘‘फिर तो हमें कोर्ट मैरिज करनी होगी.’’

‘‘हां, यह हुई न मर्दों वाली बात. अपना वादा भूल न जाना, मैं इंतजार करूंगी.’’

‘‘नहीं, भूल कैसे सकता हूं? एक भूल तो कर चुका हूं, दूसरी भूल नहीं करूंगा.’’

इहा को आश्वासन दे कर धरम अपने गांव चला गया. इहा को तो उस ने भरोसा दिला रखा था पर उसे खुद अपनी मां पर इस बात के लिए भरोसा नहीं था. वहां उस ने मां को इहा के बारे में बताया और अपनी शादी का इरादा भी जताया. पर मां यह सब सुनते ही आगबबूला हो उठीं. वे बोलीं, ‘‘तुम्हें पता है कि हम ब्राह्मण हैं और यह गांव भी ब्राह्मणों का है. तुम्हारे पिता की यहां कितनी इज्जत थी और आज भी उन का नाम लोग यहां आदर के साथ लेते हैं. ऐसा कदम उठाने से पहले तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि ईसाई से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती है.’’

‘‘मां, अब जमाना बदल चुका है. ये सब पुरानी बातें हैं.’’

‘‘जमाना बदल गया होगा पर हम अभी नहीं बदले हैं और न बदलेंगे. मेरे जीतेजी यह नहीं हो सकता. हां, तुम चाहो तो मु झ से नाता तोड़ कर या मु झे मरा सम झ कर उस बदजात से शादी कर सकते हो.’’

‘‘मां, पर उस बेचारी का क्या होगा? कुसूर तो सिर्फ उस का नहीं था?’’

‘‘जिस का भी कुसूर हो, मैं कुछ नहीं जानती. अगर उस से शादी करनी है तो तुम मु झे और इस गांव को सदा के लिए छोड़ कर जा सकते हो.’’

‘‘नहीं मां, मैं तुम्हें भी नहीं छोड़ सकता हूं.’’

‘‘उस लड़की को बोलो, अबौर्शन करा ले और यह सब भूल कर अपनी जातिधर्म में शादी कर ले.’’

‘‘मां, यह इतना आसान नहीं है. वह कैथोलिक ईसाई है. उस का समाज ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है.’’

‘‘मैं ने अपना फैसला बता दिया है, अब आगे तेरी मरजी.’’

इस बीच इहा ने धरम को फोन कर पूछा, ‘‘तुम्हारी मां ने क्या फैसला किया है?’’

‘‘मैं अभी तक उन्हें मना नहीं सका हूं, पर थोड़ा और समय दो मु झे. कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर तुम ने तो कहा था कि ऐसी स्थिति में कोर्ट मैरिज कर लोगे?’’

‘‘कहा तो था, मां ने भी मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं. इस उम्र में उन्हें म झधार में छोड़ भी नहीं सकता हूं. तुम ने अपनी मम्मी को कुछ बताया है या नहीं?’’

‘‘नहीं, पर अब छिपाना भी मुश्किल है. तीसरा महीना चढ़ आया है.’’

‘‘थोड़ी और हिम्मत रखो. मैं वहां आने की कोशिश करता हूं.’’

धरम की मां के गिरने से उन के कमर की हड्डी टूट गई और वे बिस्तर पर आ गईं. डाक्टर ने कहा कि कम से कम 3 महीने तो लग ही जाएंगे. इधर इहा की हालत देख कर उस की मम्मी को कुछ शक हुआ और उन्होंने बेटी से पूछा, ‘‘सच बता, क्या बात है? तुम कुछ छिपाने की कोशिश कर रही हो?’’

इहा को सच बताने का साहस नहीं हुआ. उसे चुप देख कर मम्मी का शक और गहराने लगा और वह बोली, ‘‘तु झे मेरी जान की कसम. तुम क्या छिपा रही हो?’’

इहा ने रोतेरोते सचाई बता ही दी. मां बोली, ‘‘तुम ने समाज में मु झे सिर उठा कर चलने लायक नहीं छोड़ा है. कलमुंही, तेरे पापा यह सुनेंगे तो उन पर क्या बीतेगी. दिल की बीमारी के बावजूद विदेश में वे दिनरात मेहनत कर पैसे इकट्ठा कर रहे हैं ताकि तेरी पढ़ाई का कर्ज उतार सकें और तेरी शादी भी अच्छे सेकर सकें.’’

‘‘सौरी मम्मी, मैं ने आप लोगों को दुख दिया है.’’

‘‘तेरे सौरी कहने मात्र से क्या होने वाला है. तेरे पापा का कौंट्रैक्ट भी 10 महीने में खत्म होने वाला है. वे यह सब देख कर क्या कहेंगे?’’

‘‘मैं धरम से बात करती हूं,’’ इहा रोते हुए बोली.

इहा ने धरम को फोन किया तो वह बोला, ‘‘फिलहाल 3 महीने तक मैं नहीं आ सकता हूं. तुम किसी तरह अबौर्शन करा लो. उस के बाद मैं आ कर सब ठीक कर दूंगा.’’

‘‘तुम जानते हो कि हमारा धर्म इस की इजाजत नहीं देता है. और अगर मैं गलत तरीके से अबौर्शन करा लेती हूं, तब तुम आ कर क्या कर लोगे? और तुम क्या सम झते हो, मैं तुम पर आगे भरोसा कर सकूंगी?’’

आगे पढ़ें- मैं भी मजबूर हूं, इहा

नो एंट्री- भाग 2 : ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

रविवार को ईशा ने फूलों की प्रिंट वाली ड्रेस के साथ हाई हील्स पहनी और अपने बालों को हाई पोनीटेल में बांध लिया. इस वेषभूषा में वो अपनी साड़ी वाली छवि से बिलकुल उलट लग रही थी. इस नए अवतार में  निशांत ने उसे देखा तो वह पूरे जोर-शोर से ईशा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. उसे लगने लगा मानो ईशा उसे अपने व्यक्तित्व का हर रंग दिखाना चाहती है. पाश्चात्य परिधान में उसे देखकर निशांत उस पर और भी मोहित हो गया, “अरे रे रे, मैं तो तुम्हें भारतीय नारी समझा था पर तुम तो दो धारी तलवार निकलीं. बेचारा मयूर! उसके पास तो ऐसी तलवार के लायक कमान भी नहीं है”, धीरे से ईशा के कानों में फुसफुसा कर कहता हुआ निशांत साइड से निकल गया.

मन ही मन ईशा हर्षाने लगी. शादीशुदा होने के उपरांत भी उसमें आशिक बनाने की कला जीवित थी, यह जानकार वह संतुष्ट हुई. उसपर ऐसा भी नहीं था कि निशांत, मयूर की आँख बचाकर यह सब कह रहा था. उस दिन निशांत, मयूर के सामने भी कई बार ईशा से फ्लर्ट करने की कोशिश करता रहा और मयूर हँसता रहा.

घर लौटते समय ईशा ने मयूर से निशांत की शिकायत की, “देखा तुमने, निशांत कैसे फ़्लर्ट करने की कोशिश करता है.” वह नहीं चाहती थी कि मयूर के मन में उसके प्रति कोई गलतफहमी हो जाए.

ईशा की बात को मयूर ने यह कहकर टाल दिया, “निशांत तो है ही मनमौजी किस्म का लड़का. और फिर तुम उसकी भाभी लगती हो. देवर भाभी में तो हँसी-मजाक चलता रहता है. पर तुम उसे गलत मत समझना, वह दिल का बहुत साफ और नेक लड़का है.”

अगले हफ्ते मयूर कंपनी के काम से दूसरे शहर टूर पर गया. हर रोज की तरह ईशा दोपहर में कुछ देर सुस्ता रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी. किसी कोरियर बॉय की अपेक्षा करती ईशा ने जब दरवाजा खोला तो सामने निशांत को खड़ा देख वह हतप्रभ रह गई, “तुम… इस वक्त यहां? लेकिन मयूर तो ऑफिस के काम से बाहर गए हैं.”

“मुझे पता है. मैं तुमसे ही मिलने आया हूं. अंदर नहीं बुलाओगी”, निशांत की साफगोई पर ईशा मन ही मन मोहित हो उठी. ऊपर से चेहरे पर तटस्थ भाव लिए उसने निशांत को अंदर आने का इशारा किया और स्वयं सोफे पर बैठ गई.

निशांत ठीक उसके सामने बैठ गया, “अरे यार, तुम्हारे यहां घर आए मेहमान को चाय-कॉफी पूछने का रिवाज नहीं है क्या?”

“मैंने सोचा ऑफिस के टाइम पर यहां आए हो तो ज़रूर कोई खास बात होगी. पहले वही सुन लूं”, ईशा ने अपने बालों में उँगलियाँ घुमाते हुए कहा. निशांत के साथ ईशा का बातों में नहले पर दहला मारना दोनों को पसंद आने लगा. आँखों ही आँखों के इशारे और जुबानी जुगलबाजी उनकी छेड़खानी में नए रंग भरते.

“खास बात नहीं, खास तो तुम हो. सोचा मयूर तो यहां है नहीं, तुम्हारा हालचाल पूछता चलूं”, निशांत के चेहरे पर लंपटपने के भाव उभरने लगे.

“मैं अपने घर में हूं. मुझे भला किस बात की परेशानी?”, ईशा ने दो-टूक बात की. वो देखना चाह रही थी कि निशांत कहाँ तक जाता है.

“ईशा, तुम शायद मुझे गलत समझती हो इसीलिए मुझसे यूं कटी-कटी रहती हो. क्या मैं तुम्हें हैंडसम नहीं लगता?”, संभवतः निशांत को अपने सुंदर रंग रूप का आभास भली प्रकार था.

“ऐसी कोई बात नहीं. असल में, निशांत, तुम मयूर के दोस्त हो, मेरे नहीं.”

“यह कैसी बात कह दी तुमने? दोस्ती करने में कितनी देर लगती है… फ्रेंड्स?”, कहते हुए निशांत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो प्रतिउत्तर में ईशा ने अदा से अपना हाथ निशांत के हाथ में दे दिया. “ये हुई न बात”, कह निशांत पुलकित हो उठा.

फिर कॉफी पीकर, कुछ देर बैठकर निशांत लौट गया. आज पहली मुलाक़ात में इतना पर्याप्त था – दोनों ने अपने मन में यही सोचा. निशांत को आगे बढ्ने में कोई संकोच नहीं था किन्तु वो ईशा के दिल के अंदर की बात नहीं जनता था. इतनी जल्दी वो कोई खतरा उठाने के मूड में नहीं था. कहीं ईशा उसपर कोई आरोप लगा दे तो उसकी क्या इज्ज़त रह जाएगी समाज में! उधर ईशा विवाहिता होने के कारण हर कदम फूँक-फूँक कर रखने के पक्ष में थी. वैसे भी निशांत, मयूर का मित्र है. उसकी अनुपस्थिति में आया है. कहीं ऐसा न हो कि इसे मयूर ने ही भेजा हो… ईशा के मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे. दुर्घटना से देर भली!

मयूर के लौटने पर ईशा ने उसे निशांत के आने की बात स्वयं ही बता दी. मयूर को ज़रा-सा अटपटा लगा, “अच्छा! मेरी गैरहाजरी में क्यूँ आया?” उसकी प्रतिक्रिया से ईशा आश्वस्त हो गयी कि निशांत के आने में मयूर का कोई हाथ नहीं. फिर उसने स्वयं ही बात संभाल ली, “मैं खुश हुई निशांत के आने से. कम से कम तुम्हारे यहाँ ना होने पर इस नए शहर में मेरी खैर-खबर लेने वाला कोई तो है.” ईशा की बात से मयूर शांत हो गया. “निशांत सच में तुम्हारा एक अच्छा मित्र है”, ईशा ने बात की इति कर दी.

अब ईशा के फोन पर निशांत के कॉल अक्सर आने लगे. सावधानी बरतते हुए उसने नंबर याद कर लिया पर अपने फोन में सेव नहीं किया. ऐसे में कभी उसका फोन मयूर के हाथ लग भी जाए तो बात खुलने का कोई डर नहीं.

किन्तु ऐसे संबंध मन की चपलता को जितनी हवा देते हैं, मन के अंदर छुपी शांति को उतना ही छेड़ बैठते हैं. एक दिन मयूर के फोन पर निशांत का कॉल आया. मयूर बाथरूम में था. ईशा ने देखा कि निशांत का कॉल है तो उसका दिल फोन उठाने का कर गया. “मयूर, तुम्हारे लिए निशांत का कॉल है. कहो तो उठा लूँ?”, ईशा ने बाथरूम के बाहर से पुकारा.

“रहने दो, मैं बाहर आकर कर लूँगा”, मयूर से इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी ईशा को.

दिल के हाथों मजबूर उसने फोन उठा लिया. “हेलो”, बड़े नज़ाकत भरे अंदाज़ में उसने कहा तो निशांत भी मचल उठा, “पता होता कि फोन पर आपकी मधुर आवाज़ सुनने को मिल जाएगी तो ज़रा तैयार होकर बैठता.” निशांत ने फ़्लर्ट करना शुरू कर दिया.

ईशा मुस्कुरा उठी. वो कुछ कहती उससे पहले मयूर पीछे से आ गया, “किससे बात कर रही हो?”

“बताया तो था कि निशांत का कॉल है.”

“मैंने तुम्हें फोन उठाने के लिए मना किया था. मैं बाद में कॉल कर लेता. खैर, अब लाओ मुझे दो फोन”, मयूर के तल्खी-भरी स्वर ने ईशा को डगमगा दिया. उसने सोचा नहीं था कि मयूर उससे इस सुर में बात करेगा.

“क्या मयूर को निशांत और मुझ पर शंका होने लगी है? क्या मयूर ने कभी निशांत का कोई मेसेज पढ़ लिया मेरे फोन पर? पर मैं तो सभी डिलीट कर देती हूँ. कहीं गलती से कभी कोई छूट तो नहीं गया…”, ईशा के मन में अनगिनत खयाल कौंधने लगे. निशांत से रंगरलियों में ईशा को जितना आनंद आने लगा उतना ही मयूर के सामने आने पर बात बिगड़ जाने का डर सताने लगा. जैसे उस दिन जब ईशा और निशांत एक कैफ़े में मिले थे तब कैसे ईशा ने निशांत को एक भी पिक नहीं खींचने दी थी. ये चोरी पकड़े जाने का डर नहीं तो और क्या था!

अगले दिन निशांत की ज़िद पर ईशा फिर उससे मिलने चल दी. सोचा “आज निशांत से मिलना भी हो जाएगा और रिटेल थेरेपी का आनंद भी ले लूँगी”, तैयार होकर ईशा शहर के चुनिंदा मॉल पहुँची. जब तक निशांत पहुँचता, उसने थोड़ी विंडो शॉपिंग करनी शुरू की कि किसी ने उसका बाया कंधा थपथपाया. पीछे मुड़ी तो सागरिका को सामने देख जड़ हो गई.

“अरे, क्या हुआ, पहचानना भी भूल गई क्या? ऐसा तो नहीं होना चाहिए शादी के बाद कि अपनी प्यारी सहेली को ही भुला बैठे”, सागरिका बोल उठी. वह वहां खड़ी खिलखिलाने लगी लेकिन ईशा उसे अचानक सामने पा थोड़ी हतप्रभ रह गई. फिर दोनों बचपन की पक्की सहेलियां गले मिलीं और एक कॉफी शॉप में बैठकर गप्पे लगाने लगीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के थोड़े बहुत किस्से सुनाकर ईशा, सागरिका से उसका हाल पूछने लगी.

“क्या बताऊं, ईशु, हेमंत मेरी जिंदगी में क्या आया बहार आ गई. उस जैसा जीवनसाथी शायद ही किसी को मिले. मेरी इतनी प्रशंसा करता है, हर समय साथ रहना चाहता है. आज भी मुझे लेने आने वाला है. तुम भी मिल लेना”, सागरिका ने बताया.

“नहीं-नहीं सागू, मुझे लेट हो जाएगा. मुझे निकलना होगा”, ईशा, हेमंत की शक्ल नहीं देखना चाहती थी. वह तुरंत वहाँ से घर के लिए निकल गई. रास्ते में निशांत को फोन करके अचानक तबीयत बिगड़ जाने का बहाना बना दिया. रास्ते भर ईशा विगत की गलियों से गुजरते हुए अपने कॉलेज के दिनों में पहुँच गई जब बहनों से भी सगी सखियों सागरिका और ईशा के सामने हेमंत एक छैल छबीले लड़के के रूप में आया था. ऊंची कद काठी, एथलेटिक बॉडी, बास्केटबॉल चैंपियन और पूरे कॉलेज का दिल मोह लेने वाला. ईशा की दोस्ती जल्दी ही हेमंत से हो गई क्योंकि ईशा को स्वयं भी बास्केटबॉल में रुचि थी. वह हेमंत से बास्केटबॉल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. फिर सागरिका के कहने पर निकट आते वैलेंटाइंस डे पर ईशा ने हेमंत से अपने दिल की बात कहने की ठानी. किंतु वैलेंटाइंस डे से पहले रोज डे पर हेमंत ने सागरिका को लाल गुलाब देकर अचानक प्रपोज कर दिया. ईशा के साथ-साथ सागरिका भी हक्की बक्की रह गई. कुछ कहते ना बना. बाद में अकेले में ईशा ने अपने दिल को समझा लिया कि हेमंत की तरफ से कभी कोई संदेश नहीं आया था और ना ही उसने कभी उससे कुछ ऐसा कहा था. वो दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त थे.

 

Mother’s Day 2024- अधूरी मां- भाग 2: क्या खुश थी संविधा

संविधा भी पहले नौकरी करती थी. उसे भी 6 अंकों में वेतन मिलता था. इस तरह पतिपत्नी अच्छी कमाई कर रहे थे. लेकिन संविधा को इस में संतोष नहीं था. वह चाहती थी कि भाई की तरह उस का भी आपना कारोबार हो, क्योंकि नौकरी और अपने कारोबार में बड़ा अंतर होता है. अपना कारोबार अपना ही होता है.

नौकरी कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कितना भी वेतन मिलता हो, नौकरी करने वाला नौकर ही होता है. इसीलिए संविधा भाई की तरह अपना कारोबार करना चाहती थी. वह फ्लैट में भी नहीं, कोठी में रहना चाहती थी. अपनी बड़ी सी गाड़ी और ड्राइवर चाहती थी. यही सोच कर उस ने सात्विक को प्रेरित किया, जिस से उस ने अपना कारोबार शुरू किया, जो चल निकला. कारोबार शुरू करने में राजन के ससुर ने काफी मदद की थी.

संविधा ने सात्विक को अपनी प्रैगनैंसी के बारे में बताया तो वह बहुत खुश

हुआ, जबकि संविधा अभी बच्चा नहीं चाहती थी. वह अपने कारोबार को और बढ़ाना चाहती भी. अभी वह अपना जो काम बाहर कराती थी, उस के लिए एक और फैक्टरी लगाना चाहती थी. इस के लिए वह काफी मेहनत कर रही थी. इसी वजह से अभी बच्चा नहीं चाहती थी, क्योंकि बच्चा होने पर कम से कम उस का 1 साल तो बरबाद होता ही. अभी वह इतना समय गंवाना नहीं चाहती थी.

सात्विक संविधा को बहुत प्यार करता था. उस की हर बात मानता था, पर इस तरह अपने बच्चे की हत्या के लिए वह तैयार नहीं था. वह चाहता था कि संविधा उस के बच्चे को जन्म दे. पहले उस ने खुद संविधा को समझाया, पर जब वह उस की बात नहीं मानी तो उस ने अपनी सास से उसे मनाने को कहा. रमा बेटी को मनाने की कोशिश कर रही थीं, पर वह जिद पर अड़ी थी. रमा ने उसे मनाने के लिए अपनी बहू ऋता को बुलाया था. लेकिन वह अभी तक आई नहीं थी. वह क्यों नहीं आई, यह जानने के लिए रमा देवी फोन करने जा ही रही थीं कि तभी डोरबैल बजी.

ऋता अकेली आई थी. राजन किसी जरूरी काम से बाहर गया था. संविधा भैयाभाभी की बात जल्दी नहीं टालती थी. वह अपनी भाभी को बहुत प्यार करती थी. ऋता भी उसे छोटी बहन की तरह मानती थी.

संविधा ने भाभी को देखा तो दौड़ कर गले लग गई. बोली, ‘‘भाभी, आप ही मम्मी को समझाएं, अभी मुझे कितने काम करने हैं, जबकि ये लोग मुझ पर बच्चे की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं.’’

ऋता ने उस का हाथ पकड़ कर पास बैठाया और फिर गर्भपात न कराने के लिए समझाने लगी.

‘‘यह क्या भाभी, मैं ने तो सोचा था, आप मेरा साथ देंगी, पर आप भी मम्मी की हां में हां मिलाने लगीं,’’ संविधा ने ताना मारा.

‘‘खैर, तुम अपनी भाभी के लिए एक काम कर सकती हो?’’

‘‘कहो, लेकिन आप को मुझे इस बच्चे से छुटकारा दिलाने में मदद करनी होगी.’’

‘‘संविधा, तुम एक काम करो, अपना यह बच्चा मुझे दे दो.’’

‘‘ऋता…’’ रमा देवी चौंकीं.

‘‘हां मम्मी, इस में हम दोनों की समस्या का समाधान हो जाएगा. पराया बच्चा लेने से मेरी मम्मी मना करती हैं, जबकि संविधा के बच्चे को लेने से मना नहीं करेंगी. इस से संविधा की भी समस्या हल हो जाएगी और मेरी भी.’’

संविधा भाभी के इस प्रस्ताव पर खुश हो गई. उसे ऋता का यह प्रस्ताव स्वीकार था. रमा देवी भी खुश थीं. लेकिन उन्हें संदेह था तो सात्विक पर कि पता नहीं, वह मानेगा या नहीं?

संविधा ने आश्वासन दिया कि सात्विक की चिंता करने की जरूरत नहीं है, उसे वह मना लेगी. इस तरह यह मामला सुलझ गया. संविधा ने वादा करने के लिए हाथ बढ़ाया तो ऋता ने उस के हाथ पर हाथ रख कर गरदन हिलाई. इस के बाद संविधा उस के गले लग कर बोली, ‘‘लव यू भाभी.’’

‘‘पर बच्चे के जन्म तक इस बात की जानकारी किसी को नहीं होनी चाहिए,’’ ऋता

ने कहा.

ठीक समय पर संविधा ने बेटे को जन्म दिया. सात्विक बहुत खुश था. बेटे के

जन्म के बाद संविधा मम्मी के यहां रह रही थी. इसी बीच ऋता ने अपने लीगल एडवाइजर से लीगल दस्तावेज तैयार करा लिए थे. ऋता ने संविधा के बच्चे को लेने के लिए अपनी मम्मी और पापा को राजी कर लिया था. उन्हें भी ऐतराज नहीं था. राजन के ऐतराज का सवाल ही नहीं था. लीगल दस्तावेजों पर संविधा ने दस्तखत कर दिए. अब सात्विक को दस्तखत करने थे. सात्विक से दस्तखत करने को कहा गया तो वह बिगड़ गया.

रमा उसे अलग कमरे में ले जा कर कहने लगी, ‘‘बेटा, मैं ने और ऋता ने संविधा को समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह मानी ही नहीं. उस के बाद यह रास्ता निकाला गया. तुम्हारा बेटा किसी पराए घर तो जा नहीं रहा है. इस तरह तुम्हारा बेटा जिंदा भी है और तुम्हारी वजह से ऋता और राजन को बच्चा भी मिल रहा है.’’

रमा की बातों में निवेदन था. थोड़ा सात्विक को सोचने का मौका दे कर रमा देवी ने आगे कहा, ‘‘रही बच्चे की बात तो संविधा का जब मन होगा, उसे बच्चा हो ही जाएगा.’’

रमा देवी सात्विक को प्रेम से समझा तो रही थीं, लेकिन मन में आशंका थी कि पता नहीं, सात्विक मानेगा भी या नहीं.

सात्विक को लगा, जो हो रहा है, गलत कतई नहीं है. अगर संविधा ने बिना बताए ही गर्भपात करा लिया होता तो? ऐसे में कम से कम बच्चे ने जन्म तो ले लिया. ये सब सोच कर सात्विक ने कहा, ‘‘मम्मी, आप ठीक ही कह रही हैं… चलिए, मैं दस्तखत कर देता हूं.’’

सात्विक ने दस्तखत कर दिए. संविधा खुश थी, क्योंकि सात्विक को मनाना आसान नहीं था. लेकिन रमा देवी ने बड़ी आसानी से मना लिया था.

समय बीतने लगा. संविधा जो चाहती थी, वह हो गया था. 2 महीने आराम कर के संविधा औफिस जाने लगी थी. काफी दिनों बाद आने से औफिस में काम कुछ ज्यादा था. फिर बड़ा और्डर आने से संविधा काम में कुछ इस तरह व्यस्त हो गई कि ऋता के यहां आनाजाना तो दूर वह उस से फोन पर भी बातें नहीं कर पाती.

एक दिन ऋता ने फोन किया तो संविधा बोली, ‘‘भाभी, लगता है आप बच्चे में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गई हैं, फोन भी नहीं करतीं.’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, इसलिए फोन नहीं किया. दिनभर औफिस की व्यस्तता, शाम को थकीमांदी घर पहुंचती हैं. सोचती हूं, फोन कर के क्यों बेकार परेशान करूं.’’

‘‘भाभी, इस में परेशान करने वाली क्या बात हुई? अरे, आप कभी भी फोन कर सकती हैं. भाभी, आप औफिस टाइम में भी फोन करेंगी, तब भी कोई परेशानी नहीं होगी. आप के लिए तो मैं हमेशा फ्री रहती हूं.’’

संविधा ने कहा, ‘‘बताओ, दिव्य कैसा है?’’

‘‘दिव्य तो बहुत अच्छा है. तुम्हारा धन्यवाद कैसे अदा करूं, मेरी समझ में नहीं आता. इस के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मम्मीपापा बहुत खुश रहते हैं. पूरा दिन उसी के साथ खेलते रहते हैं.

प्रतिदान: भाग 2 – कौन बना जगदीश बाबू के बुढ़ापे का सहारा

रामचंद्र भी जीवट का आदमी था. न कोई घिन न अनिच्छा. पूरी लगन, निष्ठा और निस्वार्थ भाव से उन का मलमूत्र उठा कर फेंकने जाता. बाबू साहब ने उसे कई बार कहा कि वह कोई मेहतर बुला लिया करे. सुबहशाम आ कर गंदगी साफ कर दिया करेगा, पर रामचंद्र ने बाबू साहब की बातों को अनसुना कर दिया और खुद ही उन का मलमूत्र साफ करता रहा. उन्हें नहलाताधुलाता और साफसुथरे कपड़े पहनाता. उस की बीवी उन के गंदे कपड़े धोती, उन के लिए खाना बनाती. रामचंद्र खुद स्नान करने के बाद उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाता. अपने सगे बहूबेटे क्या उन की इस तरह सेवा करते? शायद नहीं…कर भी नहीं सकते थे. बाबू साहब मन ही मन सोचते.

बाबू साहब उदास मन लेटेलेटे जीवन की सार्थकता पर विचार करते. मनुष्य क्यों लंबे जीवन की आकांक्षा करता है, क्यों वह केवल बेटों की कामना करता है? बेटे क्या सचमुच मनुष्य को कोई सुख प्रदान करते हैं? उन के अपने बेटे अपने जीवन में व्यस्त और सुखी हैं. अपने जन्मदाता की तरफ से निर्लिप्त हो कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जैसे अपने पिता से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.

और एक तरफ रामचंद्र है, उस की बीवी है. इन दोनों से उन का क्या रिश्ता है? उन्हें नौकर के तौर पर ही तो रखा था. परंतु क्या वे नौकर से बढ़ कर नहीं हैं? वे तो उन के अपने सगे बेटों से भी बढ़ कर हैं. बेटेबहू अगर साथ होते, तब भी उन का मलमूत्र नहीं छूते.

जब से वे पूरी तरह अशक्त हुए हैं, रामचंद्र अपने घर नहीं जाता. अपनी बीवी के साथ बाबू साहब के मकान में ही रहता है. उन्होंने ही उस से कहा था कि रात को पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए? वह भी मान गया. घर में उस के बच्चे अपनी दादी के साथ रहते थे. दोनों पतिपत्नी दिनरात बाबू साहब की सेवा में लगे रहते थे.

खेतों में कितना गल्लाअनाज पैदा हुआ, कितना बिका और कितना घर में बचा है, इस का पूरापूरा हिसाब भी रामचंद्र रखता था. पैसे भी वही तिजोरी में रखता था. बाबू साहब बस पूछ लेते कि कितना क्या हुआ? बाकी मोहमाया से वह भी अब छुटकारा पाना चाहते थे. इसलिए उस की तरफ ज्यादा ध्यान न देते. रामचंद्र को बोल देते कि उसे जो करना हो, करता रहे. रुपएपैसे खर्च करने के लिए भी उसे मना नहीं करते थे. तो भी रामचंद्र उन का कहना कम ही मानता था. बाबू साहब का पैसा अपने घर में खर्च करते समय उस का मन कचोटता था. हाथ खींच कर खर्च करता. ज्यादातर पैसा उन की दवाइयों पर ही खर्च होता था. उस का वह पूरापूरा हिसाब रखता था.

रात को जगदीश नारायण को जब नींद नहीं आती तो पास में जमीन पर बैठे रामचंद्र से कहते, ‘‘रमुआ, हम सभी मिथ्या भ्रम में जीते हैं. कहते हैं कि यह हमारा है, धनसंपदा, बीवीबच्चे, भाई- बहन, बेटीदामाद, नातीपोते…क्या सचमुच ये सब आप के अपने हैं? नहीं रे, रमुआ, कोई किसी का नहीं होता. सब अपनेअपने स्वार्थ के लिए जीते हैं और मिथ्या भ्रम में पड़ कर खुश हो लेते हैं कि ये सब हमारा है,’’ और वे एक आह भर कर चुप हो जाते.

रामचंद्र मनुहार भरे स्वर में कहता, ‘‘मालिक, आप मन में इतना दुख मत पाला कीजिए. हम तो आप के साथ हैं, आप के चाकर. हम आप की सेवा मरते दम तक करेंगे और करते रहेंगे. आप को कोई कष्टतकलीफ नहीं होने देंगे.’’

‘‘हां रे, रमुआ, एक तेरा ही तो आसरा रह गया है, वरना तो कब का इस संसार से कूच कर गया होता. इस लाचार, बेकार और अपाहिज शरीर के साथ कितने दिन जीता. यह सब तेरी सेवा का फल है कि अभी तक संसार से मोह खत्म नहीं हुआ है. अब तुम्हारे सिवा मेरा है ही कौन?

‘‘मुझे अपने बेटों से कोई आशा या उम्मीद नहीं है. एक तेरे ऊपर ही मुझे विश्वास है कि जीवन के अंतिम समय तक तू मेरा साथ देगा, मुझे धोखा नहीं देगा. अब तक निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा करता आ रहा है. बंधीबंधाई मजदूरी के सिवा और क्या दिया है मैं ने?’’

‘‘मालिक, आप की दयादृष्टि बनी रहे और मुझे क्या चाहिए? 2 बेटे हैं, बड़े हो चुके हैं, कहीं भी कमाखा लेंगे. एक बेटी है, उस की शादी कर दूंगा. वह भी अपने घर की हो जाएगी. रहा मैं और पत्नी, तो अभी आप की छत्रछाया में गुजरबसर हो रहा है. आप के न रहने पर आवंटन में जो 2 बीघा बंजर मिला है, उसी पर मेहनत करूंगा, उसे उपजाऊंगा और पेट के लिए कुछ न कुछ तो पैदा कर ही लूंगा.’’

एक तरफ था रामचंद्र…उन का पुश्तैनी नौकर, सेवक, दास या जो भी चाहे कह लीजिए. दूसरी तरफ उन के अपने सगे बेटेबहू. उन के साथ खून के रिश्ते के अलावा और कोई रिश्ता नहीं था जुड़ने के लिए. मन के तार उन से न जुड़ सके थे. दूसरी तरफ रामचंद्र ने उन के संपूर्ण अस्तित्व पर कब्जा कर लिया था, अपने सेवा भाव से. उस की कोई चाहत नहीं थी. वह जो भी कर रहा था, कर्तव्य भावना के साथ कर रहा था. वह इतना जानता था कि बाबू साहब उस के मालिक हैं, वह उन का चाकर है. उन की सेवा करना उस का धर्म है और वह अपना धर्म निभा रहा था.

बाबू साहब के पास उन के अपने नाम कुल 30 बीघे पक्की जमीन थी. 20 बीघे पुश्तैनी और 10 बीघे उन्होंने स्वयं खरीदी थी. घर अपनी बचत के पैसे से बनवाया था. उन्होेंने मन ही मन तय कर लिया था कि संपत्ति का बंटवारा किस तरह करना है.

उन के अपने कई दोस्त वकील थे. उन्होंने अपने एक विश्वस्त मित्र को रामचंद्र के माध्यम से घर पर बुलवाया और चुपचाप वसीयत कर दी. वकील को हिदायत दी कि उस की मृत्यु पर अंतिम संस्कार से पहले उन की वसीयत खोल कर पढ़ी जाए. उसी के मुताबिक उन का अंतिम संस्कार किया जाए. उस के बाद ही संपत्ति का बंटवारा हो.

फिर उन्होंने एक दिन तहसील से लेखपाल तथा एक अन्य वकील को बुलवाया और अपनी कमाई से खरीदी 10 बीघे जमीन का बैनामा रामचंद्र के नाम कर दिया. साथ ही यह भी सुनिश्चित कर दिया कि उन की मृत्यु के बाद इस जमीन पर उन के बेटों द्वारा कोई दावामुकदमा दायर न किया जाए. इस तरह का एक हलफनामा तहसील में दाखिल कर दिया.

यह सब होने के बाद रामचंद्र और उस की बीवी उन के चरणों पर गिर पड़े. वे जारजार रो रहे थे, ‘‘मालिक, यह क्या किया आप ने? यह आप के बेटों का हक था. हम तो गरीब आप के सेवक. जैसे आप की सेवा कर रहे थे, आप के बेटों की भी करते. आप ने हमें जमीन से उठा कर आसमान का चमकता तारा बना दिया.’’

वे धीरे से मुसकराए और रामचंद्र के सिर पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘रमुआ, अब क्या तू मुझे बताएगा कि किस का क्या हक है. तू मेरे अंश से नहीं जन्मा है, तो क्या हुआ? मैं इतना जानता हूं कि मनुष्य के अंतिम समय में उस को एक अच्छा साथी मिल जाए तो उस का जीवन सफल हो जाता है. तू मेरे लिए पुत्र समान ही नहीं, सच्चा दोस्त भी है. क्या मैं तेरे लिए मरते समय इतना भी नहीं कर सकता?

‘‘मैं अपने किसी भी पुत्र को चाहे कितनी भी दौलत दे देता, फिर भी वह मेरा इस तरह मलमूत्र नहीं उठाता. उस की बीवी तो कदापि नहीं. हां, मेरी देखभाल के लिए वह कोई नौकर रख देता, लेकिन वह नौकर भी मेरी इतनी सेवा न करता, जितनी तू ने की है. मैं तुझे कोई प्रतिदान नहीं दे रहा. तेरी सेवा तो अमूल्य है. इस का मूल्य तो आंका ही नहीं जा सकता. बस तेरे परिवार के भविष्य के लिए कुछ कर के मरते वक्त मुझे मानसिक शांति प्राप्त हो सकेगी,’’ बाबू साहब आंखें बंद कर के चुप हो गए.

मनुष्य का अंत समय आता है तो बचपन से ले कर जवानी और बुढ़ापे तक के सुखमय चित्र उस के दिलोदिमाग में छा जाते हैं और वह एकएक कर बाइस्कोप की तरह गुजर जाते हैं. वह उन में खो जाता है और कुछ क्षणों तक असंभावी मृत्यु की पीड़ा से मुक्ति पा लेता है.

तेरे जाने के बाद- भाग 2 क्या माया की आंखों से उठा प्यार का परदा

‘‘ओहो…, कहां खोई हैं मेरी दीदी?’’ ‘‘ना रे, सोच रही थी तेरी शादी में किस को बुलाऊं, किस को नहीं? तू ही बता किसेकिसे बुलाना चाहेगी? मैं तो समझ नहीं पा रही किसे बुलाना है, किसे नहीं?’’ ‘‘दीदी, मैं समझ रही हूं आप की समस्या. आप विश्वास रखो आप जिसे भी बुलाएंगी वे हमारे शुभचिंतक ही होंगे, न कि हम पर ताने कसने वाले. चाहे वे हमारे पापा ही क्यों न हों. यदि उन्हें हमारी खुशी से खुशी नहीं तो मत ही बुलाइएगा. पर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप कुछ और ही सोच रही हैं.’’ ‘‘अरे नहीं, कोई बात नहीं है. तू एंजौय कर अपनी शादी. तेरी खुशी से बढ़ कर मेरे लिए कोई चिंताफिक्र नहीं.’’

‘‘कुछ तो छिपा रही हो दीदी, क्या अपनी बहन को भी नहीं बताओगी?’’ ‘‘मैं ने कहा न, कोई बात नहीं. क्या मुझे थोड़ी देर आराम करने देगी?’’ मैं झुंझला कर बोली. मैं पहली बार अभिलाषा पर झुंझलाई थी. वह भी असहज हो कर चली गई. मैं कैसे बताती मुझे क्या चिंता खाए जा रही थी? अतीत के पन्ने को फिर से उधेड़ने की हिम्मत अब रही नहीं और उस में उलझ कर निकलने की काबिलीयत भी अब पस्त हो चुकी है. जो मोहित के रहते कभी नमकतेल का भाव न जान सकी थी वह आज आशियाना सजाना चाहती है.

जुगनू की रोशनी जैसा कमल के इश्क को तवज्जुह देती रह गई पूरी जिंदगी. कभी समझ ही नहीं पाई मोहित की खामोशी को. भरसक उस ने मुझे अपने पावर का इस्तेमाल कर के अपनाया था. लेकिन वह पावर भी तो उस का प्यार ही था. कहां मैं एक औरकेस्ट्रा में नाचने वाली खूबसूरत मगर मगरूर लड़की और कहां मोहित ग्वालियर के राजमहल के केयरटेकर का बेटा. काले रंग का गोलमटोल ठिगना जवान. मुझे शुरू से ही पसंद नहीं था. लेकिन उसे पता नहीं किस शो में मैं दिख गई थी और वह मुझ पर फिदा हो गया था. मैं मोहित को कभी प्यार करने की सोच भी नहीं सकती थी. भले ही वह और उस के दोस्तों ने मेरे पिता को लालच की कड़ाही में छौंक दिया हो लेकिन मुझे इंप्रैस न कर सका. मैं तो शादी जैसे लफड़े में पड़ना ही नहीं चाहती थी. लेकिन पापा ने मोहित के साथ शादी के बंधन में बांध दिया. मुझे उन्मुक्त हो कर नाचना था. अपनी मरजी के लड़के से प्यार और फिर शादी करना चाहती थी.

पर इस जबरन में पापा की भी कोई गलती नहीं थी. मेरे आशिकों की बढ़ती तादाद और मिलने वाली प्रशंसा व रुपयों से मेरा ही दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ बैठा था. मैं कला को भूल चुकी थी. मेरे लिए नाचना केवल व्यापार बन कर रह गया था. और व्यापार में सबकुछ जायज होता है. बस, यही मैं समझती थी. और समझतेसमझते इतना गिर गई कि गिरती ही चली गई. कौमार्य कब भंग कर आई, पता ही नहीं चला. पापा की चिंता और फैसला दोनों ही अपनी जगह जायज थे परिस्थिति के अनुसार. और शादी कर मैं ग्वालियर से गुड़गांव डीएलएफ आ गई.

गुड़गांव में ही तो कमल से मिली थी. वह हरियाणवीं लोकसभा के स्टेज प्रोग्राम में अनाउंसर का काम करता था. जब भी आता था तो रंगीनियां साथ ले कर ही आता था. उस के छींटेदार चुटकुले, हरियाणवी लोकगीतों के झड़ते बोल, रोमांटिक शेरोशायरी में बात करने का अंदाज मुझे आकर्षित करने लगा. मैं कमल में अपने टूटे सपनों को ढूंढ़ती रहती. देखते ही देखते कमल, मोहित से ज्यादा मेरा दोस्त बन गया. हम दोनों एकदूसरे के समक्ष खुलने लगे. उस की रोजरोज के स्टेज प्रोग्राम पर की जाने वाली चर्चाएं, खट्टीमीठी नोंकझोक वाली बातें, उस के हंसनेबोलने का स्टाइल सब मुझे भाने लगा.

सबकुछ तो उस में कमाल ही था. गेहुआं रंग पर मद्धिममद्धिम मोहक मुसकान. किसी भी महिला को कैसे अपनी ओर आकर्षित किया जाता है, यह कोई कमल से सीखे. मैं कमल के रंग में रंगने लग गई थी. मुझे उस से प्यार होने लगा. मैं कमल के प्रति समर्पित होने लगी. लेकिन मुझे कमल की आर्थिक स्थिति हमेशा से खलती रही पर उसे कोईर् परवा नहीं थी. वह असीम पर निर्भर रहता. उसी दौरान असीम से भी मिलवाया था मुझे और मोहित को, कुछ ही समय में असीम हमारे परिवार में घुलमिल गया. उन दिनों असीम की उम्र 23-24 के लगभग होगी. इधर अभिलाषा की भी उम्र 14-15 की होने जा रही थी. एक तरफ नईनई जवानी, दूसरी तरफ गांवदेहात से आया आशिक. उस पर से मेरे घर का माहौल, जहां मैं खुद इश्क के जाल में फंसी थी वहां अपनी बहन को कैसे रोक पाती.

कमल असीम को प्यार और शादी के सपने दिखाता रहा और रुपए ऐंठता रहा. पर सच तो यह है कि मैं प्यार में थी ही नहीं, बल्कि वासनाग्रस्त थी. जब खुद की ही आंखों पर हवस की पट्टी चढ़ी हो तो बहन को किस संस्कार का वास्ता देती. मोहित के औफिशियल टूर पर जाते ही मैं खुद को कमल के हवाले सौंप दिया करती. मैं पूरी तरह ब्लैंक पेपर की तरह कमल के सामने पन्नादरपन्ना खुलती जाती और कमल उस पर अपने इश्क के रंग से रंगबिरंगी तस्वीरें बनाता रहता. उस की आगोश में मैं खुद को भूल जाती थी.

वह मेरे मखमली बदन को चूमचूम कर कविताएं लिखता. सांस में सांसों को उबाल कर जब इश्क की चाशनी पकती, मैं पिघल जाया करती. मुझे एक अजीब सी ताकत अपनी ओर खींचने लगती. मैं कमल के गरम बदन को अपने बदन में महसूस करने लगती. उस के बदन के घर्षण को पा कर मैं मदहोश हो जाती. वह मेरे दिलोदिमाग पर बादल की तरह उमड़ताघुमड़ता और मेरे शरीर में बारिश की तरह झमाझम बूंदों की बौछारें करने लगता. मैं पागलों की तरह प्यार करने लगती कमल से. मुझे उस के साथ संतुष्टि मिलती थी. मैं इतनी पागल हो चुकी थी कि भूल गई थी कि मैं प्रैग्नैंट भी हूं. मोहित के बच्चे की मां बनने वाली हूं. मुझे सिर्फ और सिर्फ अपनी खुशी, अपनी दैहिक संतुष्टि चाहिए थी. मैं ने सैक्स और प्यार में से केवल और केवल सैक्स चुना. मुझे तनिक भी परवा न रही अपने ममत्व की.

मेरी ममता तनिक भी नहीं सकपकाई मोहित के बच्चे को गिराते हुए. जब मेरे गुप्तांगों में सूजन आ जाया करती या मेरे रक्तस्राव न रुकते तब असीम दवाईयां ला कर देता मुझे. उस ने भी कई बार समझाने की कोशिश की, ये सब गलत है भाभी. पर मेरी ही आंखों पर हवस की, ग्लैमर की पट्टी बंधी थी. मैं कुछ सोचनेसमझने के पक्ष में ही नहीं थी. मैं खुद को मौडर्न समझती रही. और फिर से मैं जब दोबारा प्रैग्नैट हुई वह बच्चा तुम्हारा नहीं था, वह कमल का बच्चा था. मैं कमल के बच्चे की मां बनने वाली थी. मेरी जिंदगी पर से तुम्हारा वजूद खत्म होने को था. मैं पूरी तरह से कमल से प्यार की गहराई में थी. मुझ पर मेरा खुद का जोर नहीं था. कमल पिता बनने की खुशी में एक पल भी मुझे अकेला न छोड़ता.

सुबह औफिस निकलते ही कमल आ जाया करता. शाम तक मेरे साथ रहता और फिर तुम्हारे आने के समय एकआध घंटे के लिए मार्केट में निकल जाता, अपने और तुम्हारे लिए कुछ खानेपीने का सामान लेने. और तुम्हारे आने के एकआध घंटे बाद फिर वापस आ जाता. कमल तुम्हारे सामने मुझे माया कह कर भी संबोधित नहीं करता था. तुम्हें तो शायद पता भी नहीं कि वह अकसर तुम्हारे लिए कौकटेल ड्रिंक ही बनाया करता था ताकि तुम्हें होश ही न रहे और हम अपनी मनमानी करते रहें. मैं कमल की हरकतों पर खुश हो जाया करती थी. उस के माइंड की तारीफ करते न थकती.

 

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