Latest Hindi Stories : यही सच है

Latest Hindi Stories :  उस ने एक बार फिर सत्या के चेहरे को देखा. कल से न जाने कितनी बार वह इस चेहरे को देख चुकी है. दोपहर से अब तक तो वह एक मिनट के लिए भी उस से अलग हुई ही न थी. बस, चुपचाप पास में बैठी रही थी. दोनों एकदूसरे से नजरें चुरा रही थीं. एकदूसरे की ओर देखने से कतरा रही थीं. सत्या का चेहरा व्यथा और दहशत से त्रस्त था. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी बेटी को किस तरह दिलासा दे. उस के साथ जो कुछ घट गया था, अचानक ही जैसे उस का सबकुछ लुट गया था. वह तकिए में मुंह छिपाए बस सुबकती रही थी. सबकुछ जाननेसमझने के बावजूद उस ने सत्या से न तो कुछ कहा था न पूछा था. ऐसा कोई शब्द उस के पास नहीं था जिसे बोल कर वह सत्या की पीड़ा को कुछ कम कर पाती और इस विवशता में वह और अधिक चुप हो गई थी.

जब रात घिर आई, कमरे में पूरी तरह अंधेरा फैल गया तो वह उठी और बत्ती जला कर फिर सत्या के पास आ खड़ी हुई, ‘‘कुछ खा ले बेटी, दिनभर कुछ नहीं लिया है.’’ ‘‘नहीं, मम्मी, मुझे भूख नहीं है. प्लीज आप जाइए, सो जाइए,’’ सत्या ने कहा और चादर फैला कर सो गई.

कुछ देर तक उसी तरह खड़ी रहने के बाद वह कमरे से निकल कर बालकनी में आ खड़ी हुई. उस के कमरे का रास्ता बालकनी से ही था अपने कमरे में जाने से वह डर रही थी. न जाने कैसी एक आशंका उस के मन में भर गई थी. आज दोपहर को जिस तरह से लिथड़ीचिथड़ी सी सत्या आटो से उतरी थी और आटो का भाड़ा दिए बिना ही भाग कर अपने कमरे में आ गई थी, वह सब देख कर उस का मन कांप उठा था. सत्या ने उस से कुछ कहा नहीं था, उस ने भी कुछ पूछा नहीं था. बाहर निकल कर आटो वाले को उस ने पैसे दिए थे.

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आटो वाला ही कुछ उदासउदास स्वर में बोला था, ‘‘बहुत खराब समय है बीबीजी, लगता है बच्ची गुंडों की चपेट में आ गई थी या फिर…रिज के पास सड़क पर बेहाल सी बैठी थी. किसी तरह घर तक आई है…इस तरह के केस को गाड़ी में बैठाते हुए भी डर लगता है. पुलिस के सौ लफड़े जो हैं.’’ पैसे दे कर जल्दी से वह घर के भीतर घुसी. उसे डर था, आटो वाले की बातें आसपास के लोगों तक न पहुंच जाएं. ऐसी बातें फैलने में समय ही कितना लगता है. वह धड़धड़ाती सी सत्या के कमरे में घुसी. सत्या बिस्तर पर औंधी पड़ी, तकिए में मुंह छिपाए हिचकियां भर रही थी. कुछ देर तक तो वह समझ ही न पाई कि क्या करे, क्या कहे. बस, चुपचाप सत्या के पास बैठ कर उस का सिर सहलाती रही. अचानक सत्या ही उस से एकदम चिपक गई थी. उसे अपनी बांहों से जकड़ लिया था. उस की रुलाई ने वेग पकड़ लिया था.

‘‘ममा, वे 3 थे…जबरदस्ती कार में…’’ सत्या आगे कुछ बोल नहीं पाई, न बोलने की जरूरत ही थी. जो आशंकाएं अब तक सिर्फ सिर उठा रही थीं, अब समुद्र का तेज ज्वार बन चुकी थीं. उस का कंठ अवरुद्ध हो आया, आंखें पनीली… परंतु अपने को संभालते हुए बोली, ‘‘डोंट वरी बेटी, डोंट वरी…संभालो अपने को… हिम्मत से काम लो.’’

कहने को तो कह दिया, सांत्वना भरे शब्द, किंतु खुद भीतर से वह जिस तरह टूटी, बिखरी, यह सिर्फ वह ही समझ पाई. जिस सत्या को अपने ऊपर अभिमान था कि ऐसी स्थिति में आत्मरक्षा कर पाने में वह समर्थ है, वही आज अपनी असमर्थता पर आंसू बहा रही थी. बेटी की पीड़ा ने किस तरह उसे तारतार कर दिया था, दर्द की कितनी परतें उभर आई थीं, यह सिर्फ वह समझ पा रही थी, बेटी के सामने व्यक्त करने का साहस नहीं था उस में.

सत्या इस तरह की घटनाओं की खबरें जब भी अखबार में पढ़ती, गुस्से से भर उठती, ‘ये लड़कियां इतनी कमजोर क्यों हैं? कहीं भी, कोई भी उन्हें उठा लेता है और वे रोतीकलपती अपना सबकुछ लुटा देती हैं? और यह पुलिस क्या करती है? इस तरह सरेआम सबकुछ हो जाता है और…’ वह सत्या को समझाने की कोशिश करती हुई कहती, ‘स्त्री की कमजोरी तो जगजाहिर है बेटी. इन शैतानों के पंजे में कभी भी कोई भी फंस सकता है.’

‘माई फुट…मैं तो इन को ऐसा मजा चखा देती…’ उस ने घबराए मन से फिर सत्या के कमरे में एक बार झांका और चुपचाप अपने कमरे में आ कर लेट गई. खाना उस से भी खाया नहीं गया. यों ही पड़ेपड़े रात ढलती रही. बिस्तर पर पड़ जाने से ही या रात के बहुत गहरा जाने से ही नींद तो नहीं आ जाती. उस ने कमरे की बत्ती भी नहीं जलाई थी और उस अंधेरे में अचानक ही उसे बहुत डर लगने लगा. वह फिर उठ कर बैठ गई. कमरे से बाहर निकली और फिर सत्या के कमरे की ओर झांका. सत्या ने बत्ती बुझा दी थी और शायद सो रही थी.

वह मंथर गति से फिर अपने कमरे में आई. बिस्तर पर लेट गई. किंतु आंखों के सामने जैसे बहुत कुछ नाच रहा था. अंधेरे में भी दीवारों पर कईकई परछाइयां थीं. वह सत्या को कैसे बताती कि जो वेदना, जो अपमान आज वह झेल रही है, ठीक उसी वेदना और अपमान से एक दिन उसे भी दोचार होना पड़ा था. सत्या तो इसे अपने लिए असंभव माने बैठी थी. शायद वह भूल गई थी कि वह भी इस देश में रहने वाली एक लड़की है. इस शहर की सड़कों पर चलनेघूमने वाली हजारों लड़कियों के बीच की एक लड़की, जिस के साथ कहीं कुछ भी घट सकता है.

सत्या के बारे में सोचतेसोचते वह अपने अतीत में खो गई. कितनी भयानक रात थी वह, कितनी पीड़ाजनक. वह दीवारों पर देख रही थी, कईकई चेहरे नाच रहे थे. वह अपने मन को देख रही थी जहां सैकड़ों पन्ने फड़फड़ा रहे थे.

एक सुखीसंपन्न परिवार की बहू, एक बड़े अफसर की पत्नी, सुखसाधनों से लदीफंदी. एक 9 साल की बेटी. परंतु पति सुख बहुत दिनों तक वह नहीं भोग पाई थी. वैवाहिक जीवन के सिर्फ 16 साल बीते थे कि पति का साथ छूट गया था. एक कार दुर्घटना घटी और उस का जीवन सुनसान हो गया. पति की मौत ने उसे एकदम रिक्त कर दिया था. यद्यपि वह हमेशा मजबूत दिखने की कोशिश में लगी रहती थी. कुछ महीने बाद ही उस ने बेटी को अपने से दूर दून स्कूल में भेज दिया था. शायद इस का एक कारण यह भी था कि वह नहीं चाहती थी कि उस की कमजोरियां, उस की उदासी, उस का खालीपन किसी तरह बेटी की पढ़ाई में बाधक बने. अब वह नितांत अकेली थी. सासससुर का वर्षों पहले इंतकाल हो गया था. एक ननद थी, वह अपने परिवार में व्यस्त थी. अब बड़ा सा घर उसे काटने को दौड़ता था. एकाकीपन डंक मारता था. तभी उस ने फैसला किया था कि वह भारतदर्शन करेगी. इसी बहाने कुछ समय तक घर और शहर से बाहर रहेगी. यों भी देशदुनिया घूमने का उसे बहुत शौक था. खासकर भारत के कोनेकोने को वह देखना चाहती थी.

उस ने फोन पर बेटी को बता दिया था. कुछ सहेलियों को भी बताया. 1-2 ने इतनी लंबी यात्रा से उसे रोका भी कि अकेली तुम कहां भटकती फिरोगी? पर वह कहां रुकने वाली थी. निकल पड़ी थी भारत दर्शन पर और सब से पहले दक्षिण गई थी. कन्याकुमारी, तिरुअनंतपुरम, तिरुपति, मदुरै, रामेश्वरम…फिर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनेक शहर. राजस्थान को उस ने पूरी तरह छान मारा था. फिर पहुंची थी हिमाचल प्रदेश. धर्मशाला के एक होटल में ठहरी थी. वहीं वह अंधेरी रात आई थी. जिन पहाड़ों के सौंदर्य ने उसे खींचा था उन पहाड़ों ने ही उसे धोखा दिया.

दिन भर वह इधरउधर घूमती रही थी. रात का अंधियारा जब पहाड़ों पर उगे पेड़ों को अपनी परछाईं से ढकने लगा, वह अपने होटल लौटी थी. वे दोनों शायद उस के पीछेपीछे ही थे. उस का ध्यान उधर था ही नहीं. वह तो प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्यसुख में ऐसी डूबी थी कि मानवीय छाया पर उस की नजर ही नहीं गई. जैसे रात चुपकेचुपके धीरेधीरे आती है, उन के पैरों की गति भी वैसी ही थी. सन्नाटे में डूबा रास्ता. भूलेभटके ही कोई नजर आता था. उसी मुग्धावस्था में उस ने अपने कमरे का ताला खोला था, फिर भीतर घुसने के लिए एक कदम उस ने उठाया ही था कि पीछे से किसी ने धक्का मारा था उसे. वह लड़खड़ाती हुई फर्श पर गिर पड़ी थी. गिरना ही था क्योंकि अचानक भूकंप सा वह झटका कैसे संभाल पाती. वह कुछ समझती तब तक दरवाजा बंद हो चुका था.

उन दोनों ने ही बत्ती जलाई थी. उम्र ज्यादा नहीं थी उन की. झटके में उस के हाथपैर बांध दिए गए थे. वह चाहती थी चिल्लाए पर चिल्ला न सकी. उस की चीख उस के अंदर ही दबी रह गई थी. होटल तो खाली सा ही पड़ा था क्योंकि पहाड़ों का सीजन अभी चालू नहीं हुआ था. वह अकेली औरत. होटल का उस का अपना कमरा. एक अनजान जगह में बदनाम हो जाने का भय. मन का भय बहुत बड़ा भय होता है. उस भय से ही वह बंध गई थी. इस उम्र में यह सब भी भोगना होगा, वह सोच भी नहीं सकती थी.

वे लूटते रहे. पहले उसे, फिर उस का सामान. वह चुपचाप झेलती रही सबकुछ. कोई कुंआरी लड़की तो थी नहीं वह. भोगा था उस ने सबकुछ पति के साथ. परंतु अभी तो वह रौंदी जा रही थी. एक असह्य अपमान और पीड़ा से छटपटा रही थी वह. उन पीड़ादायी क्षणों को याद कर आज भी वह कांप जाती है. बस, यही एक स्थिति ऐसी होती है जहां नारी अकसर शक्तिहीन हो जाती है. अपनी सारी आकांक्षाओं, आशाओं की तिलांजलि देनी पड़ती है उसे. बातों में, किताबों में, नारों में स्त्री अपने को चाहे जितना भी शक्तिशाली मान ले, इस पशुवृत्ति के सामने उसे हार माननी ही पड़ती है.

उस रात उसे अपने पति की बहुत याद आई थी. कहीं यह भी मन में आ रहा था कि उन के न होने के बाद उन के प्रति उसे किसी ने विश्वासघाती बना दिया है. न जाने कब तक वे लोग उस के ऊपर उछलतेकूदते रहे. एक बार गुस्से में उस ने एक की बांह में अपने दांत भी गड़ा दिए थे. प्रत्युत्तर में उस शख्स ने उस की दोनों छातियों को दांत से काटकाट कर लहूलुहान कर दिया था. उस के होंठों और गालों को तो पहले ही उन लोगों ने काटकाट कर बदरंग कर दिया था. वह अपनी सारी पीड़ा को, गुस्से को, चीख को किस तरह दबाए पड़ी रही, आज सोच कर चकित होती है. यह स्पष्ट था कि वे दोनों इस काम के अभ्यस्त थे. जाने से पहले दोनों के चेहरों पर अजीब सी तृप्ति थी. खुशी थी. एक ने उस के बंधन खोलने के बाद रस्सी को अपनी जैकेट के अंदर छिपाते हुए कहा, ‘गुड नाइट मैडम…तुम बहुत मजेदार हो.’ घृणा से उस ने मुंह फेर लिया था. कमरे के दूसरी तरफ एक खिड़की थी, उसे खोल कर वे दोनों बाहर कूद गए थे. बाहर का अंधेरा और घना हो उठा था.

कमरे में जैसे चारों तरफ बदबू फैल गई थी. बाहर का घना अंधेरा उछलते हुए उस कमरे में भरने लगा था. वह उठी. कांपते शरीर के साथ खिड़की तक पहुंची. खिड़की को बंद किया. बदबू और तेज हो गई थी. उस ने नाक पर हाथ रख लिया और दौड़ती हुई बाथरूम में घुसी.

उस ठंडी रात में भी न जाने वह कब तक नहाती रही. बारबार पूरे शरीर पर साबुन रगड़ती रही. चेहरे को मलती रही. छातियों को रगड़रगड़ कर धोती रही, परंतु वह बदबू खत्म होने को नहीं आ रही थी. वह नंगे बदन ही फिर कमरे में आई. पूरे शरीर पर ढेर सारा पाउडर थोपा, परफ्यूम लगाया, कमरे में भी चारों तरफ छिड़का, किंतु उस बदबू का अंत नहीं था. कैसी बदबू थी यह. कहां से आ रही थी. वह कुछ समझ नहीं पा रही थी. बिस्तर पर लेटने के बाद भी देर तक नींद नहीं आई थी. जीवन व्यर्थ लगने लगा था. उसे लग रहा था, उस का जीवन दूषित हो गया है, उस का शरीर अपवित्र हो गया है. अब जिंदगी भर इस बदबू से उसे छुटकारा नहीं मिलेगा. वह कभी किसी से आंख मिला कर बात नहीं कर पाएगी. अपनी ही बेटी से जिंदगी भर उसे मुंह छिपाना पड़ेगा. हालांकि एक मिनट के लिए वह यह भी सोच गई थी कि अगर वह किसी को कुछ नहीं बताएगी तो भला किसी को कुछ भी पता कैसे चलेगा.

फिर भी एक पापबोध, हीनभाव उस के अंदर पैदा हो गया था. और ढलती रात के साथ उस ने तय कर लिया था कि उस के जीवन का अंत इन्हीं पहाड़ों पर होना है. यही एक विकल्प है उस के सामने.

वह बेचैनी से कमरे में टहलने लगी. उस होटल से कुछ दूरी पर ही एक ऊंची पहाड़ी थी, नीचे गहरी खाई. वह कहीं भी कूद सकती थी. प्राण निकलने में समय ही कितना लगता है. कुछ देर छटपटाएगी. फिर सबकुछ शांत. पर रात में होटल का बाहरी गेट बंद हो जाता था. कोई आवश्यक काम हो तभी दरबान गेट खोलता था. वह भला उस से क्या आवश्यक काम बताएगी इतनी रात को? संभव ही नहीं था उस वक्त बाहर निकल पाना. चक्कर लगाती रही कमरे में सुबह के इंतजार में. भोर में ही गेट खुल जाता था.

अपने शरीर पर एक शाल डाल कर वह बाहर निकली. कमरे का दरवाजा भी उस ने बंद नहीं किया. अभी भी अंधकार घना ही था. पर ऐसा नहीं कि रास्ते पर चला न जा सके. टहलखोरी के लिए निकलने वाले भी दोचार लोग रास्ते पर थे. वह मंथर गति से चलती रही. सामने ही वह पहाड़ी थी…एकदम वीरान, सुनसान. वह जा खड़ी हुई पहाड़ी पर. नीचे का कुछ भी दिख नहीं रहा था. भयानक सन्नाटा. वह कुछ देर तक खड़ी रही. शायद पति और बेटी की याद में खोई थी. हवा की सरसराहट उस के शरीर में कंपन पैदा कर रही थी. पर वह बेखबर सी थी. शाल भी उड़ कर शायद कहीं नीचे गिर गई थी. नीचे, सामने कहीं कुछ भी दिख नहीं रहा…सिवा मृत्यु के एक काले साए के. एक संकरी गुफा. वह समा जाएगी इस में. बस, अंतिम बार पति को प्रणाम कर ले. उस ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए और ऊपर आसमान की ओर देखा. अचानक उस की नजरें सामने गईं. देखा, दूर पहाड़ों के पीछे धीरेधीरे लाली फैलने लगी है. सुनहरी किरणें आसमान के साथसाथ पहाड़ों को भी सुनहरे रंग में रंग रही हैं. सूर्योदय, सुना था, लोग यहां से सूर्योदय देखते हैं. आसमान की लाली, शिखरों पर फैली लाली अद्भुत थी.

वह उसी तरह हाथ जोड़े विस्मित सी वह सब देखती रही. उस के देखतेदेखते लाल गोला ऊपर आ गया. तेजोमय सूर्य. रात के अंधकार को भेदता अपनी निर्धारित दिशा की ओर अग्रसर सूर्य. सच, उस दृश्य ने पल भर में ही उस के भीतर का सबकुछ जैसे बदल डाला. अंधकार को तो नष्ट होना ही है, फिर उस के भय से अपने को क्यों नष्ट किया जाए? कोशिश तो अंधकार से लड़ने की होनी चाहिए, उस से भागने की थोड़े ही. वही जीत तो असली जीत होगी. और वह लौट आई थी. एक नए साहस और उमंग के साथ. एक नए विश्वास और दृढ़ता के साथ.

अचानक छन्न की आवाज हुई. उस की तंद्रा टूट गई. अतीत से वर्तमान में लौटना पड़ा उसे. यह आवाज सत्या के कमरे से ही आई थी. वह समझ गई, सत्या अभी तक सोई नहीं है. शायद वह भी किसी बदबू से परेशान होगी. एक दहशत के साथ शायद अंधेरे कमरे में टहल रही होगी. उस से टकरा कर कुछ गिरा है, टूटा है…छन्न. यह अस्वाभाविक नहीं था. सत्या जिन स्थितियों से गुजरी है, जिस मानसिकता में अभी जी रही है, किसी के लिए भी घोर यातना का समय हो सकता है.

संभव है, उस के मन में भी आत्महत्या की बात आई हो. सारी वेदना, अपमान, तिरस्कार का एक ही विकल्प होता है जैसे, अपना अंत. परंतु वह नहीं चाहती कि सत्या ऐसा कुछ करे…ऐसा कोई कदम उठाए. अभी बहुत नादान है वह. पूरी जिंदगी पड़ी है उस के सामने. उसे सबकुछ झेल कर जीना होगा. जीना ही जीत है. मर जाने से किसी का क्या बिगड़ेगा? उन लोगों का ही क्या बिगड़ेगा जिन्होंने यह सब किया? वह सत्या को बताएगी, एक ठोकर की तरह ही है यह सबकुछ. ठोकर खा कर आदमी गिरता है परंतु संभल कर फिर उठता है, फिर चलता है. वह स्थिर कदमों से सत्या के कमरे की ओर बढ़ी. उस के पैरों में न कंपन थी न मन में अशांति. कमरे में घुसने से पहले बालकनी की बत्ती को उस ने जला दिया था.

Moral Stories in Hindi : सुलझती जिंदगियां

Moral Stories in Hindi : विवाहस्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महि कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया.

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने. सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी. आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया. भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

‘‘ऐसा कौन सा दुख है तुझे, जिस के बोझ तले तू पगला गई है? उच्च पदस्थ इंजीनियर पति, प्रतिष्ठित परिवार और क्या चाहिए जिंदगी से तुझे?’’ सीमा बोली.

‘‘चल छोड़, तू नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी ने ताना दिया.

‘‘मैं, मैं नहीं समझूंगी?’’ अचानक ही उत्तेजित हो उठी सीमा, ‘‘तू कितना समझ पाई है मुझे, क्या जानती है मेरे बारे में… आज 10 वर्ष के बाद हम मिले हैं. इन 10 सालों का मेरा लेखाजोखा है क्या तेरे पास? जो इतने आराम से कह रही है? क्या मुझे कोई गम नहीं, कोई घाव नहीं मिला इस जिंदगी में? फिर भी मैं तेरे सामने मजबूती से खड़ी हूं, वर्तमान में जीती हूं, भविष्य के सपने भी बुनती हूं और अतीत से सबक भी सीख चुकी हूं, मगर अतीत में उलझी नहीं रहती. अतीत के कुछ अवांछित पलों को दुस्वप्न समझ कर भूल चुकी हूं. तेरी तरह गांठ बांध कर नहीं बैठी हूं,’’ सीमा तमतमा उठी.

‘‘क्या तू भी किसी की वासना का शिकार बन चुकी है?’’ रागिनी बोल पड़ी.

‘‘तू भी क्या मतलब? क्या तेरे साथ भी यह दुर्घटना हुई है?’’ सीमा चौंक पड़ी.

‘‘हां, वही पल मेरा पीछा नहीं छोड़ते. फिल्म, सीरियल, अखबार में छपी खबर, सब मुझे उन पलों में पहुंचा देते हैं. मुझे रोना आने लगता है, दिल बैठने लगता है. न भूख लगती है न प्यास, मन करता है या तो उस का कत्ल कर दूं या खुद मर जाऊं. बस दवा का ही तो सहारा है, दवा ले कर सोई रहती हूं. कोई आए, कोई जाए मेरी बला से. मेरे साथ मेरी सास रहती हैं. वही मेड के साथ मिल कर घर संभाले रहती हैं और मुझे कोसती रहती हैं कि मेरे हीरे से बेटे को धोखे से ब्याह लिया. एक से एक रिश्ते आए, मगर हम तो तेरी शक्ल से धोखा खा गए. बीमारू लड़की पल्ले पड़ गई. मैं क्या करूं,’’ आंखें छलछला उठीं रागिनी की.

‘‘तू अकेली नहीं है इस दुख से गुजरने वाली. इस विवाहस्थल में तेरीमेरी जैसी न जाने कितनी और भी होंगी, पर वे दवा के सहारे जिंदा नहीं हैं, बल्कि उसे एक दुर्घटना मान कर आगे बढ़ गई हैं. अच्छा चल, तू ही बता तू रोड पर राइट साइड चल रही है और कोई रौंग साइड से आ कर तुम्हें ठोकर मार कर चला जाता है, तो गलत तो वही हुआ न? ऐसे ही, जिन्होंने दुष्कर्म कर हमारे विश्वास की धज्जियां उड़ाईं, दोषी वे हैं. हम तो निर्दोष हैं, मासूम हैं और पवित्र हैं. अपराधी वे हैं, फिर हम घुटघुट कर क्यों जीएं, यह एहसास तो हमें उन्हें हर पल कराना चाहिए, ताकि वे बाकी की जिंदगी घुटघुट कर जीएं.’’ सीमा ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘क्या तू ने दिलाया यह एहसास उसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘मेरा तो बौयफ्रैंड ही धोखेबाज निकला. आज से 10 साल पहले जब हम पापा  के दिल्ली ट्रांसफर के कारण लखनऊ छोड़ कर चले गए थे, तब वहां नया कालेज, नया माहौल पा कर मैं कितना खुश थी. हां तेरी जैसी बचपन की सहेली से बिछुड़ने का दुख तो बहुत था, मगर मैं दिल्ली की चकाचौंध में कहीं खो गई थी. जल्दी ही मैं ने क्लास में अपनी धाक जमा ली…

‘‘धु्रव मेरा सहपाठी, जो हमेशा प्रथम आता था, दूसरे नंबर पर चला गया. 10वीं कक्षा में मैं ने ही टौप किया तो धु्रव जलभुन कर राख हो गया, मगर बाहरी तौर पर उस ने मुझ से आगे बढ़ कर मित्रता का हाथ मिलाया और मैं ने खुशीखुशी स्वीकार भी कर लिया. 12वीं कक्षा की प्रीबोर्ड परीक्षा में भी मैं ने ही टौप किया तो वह और परेशान हो उठा. मगर उस ने इसे जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘इसी खुशी में ट्रीट का प्रस्ताव जब धु्रव ने रखा तो मैं मना न कर सकी. मना भी क्यों करती? 2 सालों से लगातार हम साथ कालेज, कोचिंग और न जाने कितने फ्रैंड्स की बर्थडे पार्टीज अटैंड करते आए थे. फर्क यह था कि हर बार कोई न कोई कौमन फ्रैंड साथ रहता था. मगर इस बार हम दोनों ही थे और धु्रव पर अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं था.

‘‘पहले हम एक रेस्तरां में लंच के लिए गए. फिर वह अपने घर ले गया. घर में किसी को भी न देख जब मैं ने पूछा कि तुम ने तो कहा था मम्मी मुझ से मिलना चाहती हैं. मगर यहां तो कोई भी नहीं है? तो उस ने जवाब दिया कि शायद पड़ोस में गई होंगी. तुम बैठो मैं बुला लाता हूं और फिर मुझे फ्रिज में रखी कोल्डड्रिंक पकड़ा कर बाहर निकल गया.

‘‘मैं सोफे पर बैठ कर ड्रिंक पीतेपीते उस का इंतजार करती रही, मुझे नींद आने लगी तो मैं वहीं सोफे पर लुढ़क गई. जब नींद खुली तो अपने को अस्तव्यस्त पाया. धु्रव नशे में धुत पड़ा बड़बड़ा रहा था कि मुझे हराना चाहती थी. मैं ने आज तुझे हरा दिया. अब मुझे समझ आया कि धु्रव ने मेरे नारीत्व को ललकारा है. मैं ने भी आव देखा न ताव, पास पड़ी हाकी उठा कर उस के कोमल अंग पर दे मारी. वह बिलबिला कर जमीन पर लोटने लगा, मैं ने चीख कर कहा कि अब दिखाना मर्दानगी अपनी और फिर घर लौट आई. बोर्ड की परीक्षा सिर पर थी. ऐसे में अपनी पूरी ताकत तैयारी में झोंक दी. फलतया बोर्ड परीक्षा में भी मैं टौपर बनी.  ‘‘धु्रव का परिवार शहर छोड़ कर जा चुका था. उन्हें अपने बेटे की करतूत पता चल गई थी,’’ कह कर सीमा पल भर को रुकी और फिर पास से गुजरते बैरे को बुला कर पानी का गिलास ले कर एक सांस में ही खाली कर गई.

फिर आगे बोली, ‘‘मां को तो बहुत बाद में मैं ने उस दुर्घटना के विषय में बताया था.  वे भी यही बोली थीं कि भूल जा ये सब. इन का कोई मतलब नहीं. कौमार्य, शारीरिक पवित्रता, वर्जिन इन भारी भरकम शब्दों को अपने ऊपर हावी न होने देना… तू अब भी वैसी ही मासूम और निश्चल है जैसी जन्म के समय थी… मां के ये शब्द मेरे लिए अमृत के समान थे. उस के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर देखना छोड़ दिया,’’ सीमा ने अपनी बात समाप्त की. ‘‘मैं तो अपने अतीत से भाग भी नहीं सकती. वह शख्स तो मेरे मायके का पड़ोसी और पिताजी का मित्र है, इसीलिए मेरा तो मायके जाने का ही मन नहीं करता. यहीं दिल्ली में पड़ी रहती हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘कौन वे टौफी अंकल? वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? मुझे अच्छी तरह याद है वे सफेद कुरतापाजामा पहने हमेशा बैडमिंटन गेम के बीच में कूद कर गेम्स के रूल्स सिखाने लगते थे और फि र खुश होने पर अपनी जेब से टौफी, चौकलेट निकाल कर ईनाम भी देते थे. हम लोगों ने तो उन का नाम टौफी अंकल रखा था,’’ सीमा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा.

‘‘वह एक मुखौटा था उन का अपनी घिनौनी हरकतें छिपाने का. तुझे याद है वे हमारे गालों पर चिकोटी भी काट लेते थे गलती करने पर और कभीकभी अपने हाथों में हमारे हाथ को दबा कर रैकेट चलाने का अभ्यास भी कराने लगते थे. उन सब हरकतों को कोई दूर से देखता भी होगा तो यही सोचता होगा कि वे बच्चों से कितना प्यार करते हैं. मगर हकीकत तो यह थी कि वे जाल बिछा रहे थे, जिस में से तू तो उड़ कर उन की पहुंच से दूर हो गई पर रह गई मैं.

‘‘अपने हाथ से एक पंछी निकलता देख वे बौखला उठे और तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया. उस दिन मां ने मुझे पड़ोस में आंटी को राजमा दे कर आने को कहा. हमेशा की तरह कभी यह दे आ, कभी वह दे आ. मां पर तो अपने बनाए खाने की तारीफ  सुनने का भूत जो सवार रहता था. हर वक्तरसोई में तरहतरह के पकवान बनाना और लोगों को खिला कर तारीफें बटोरना यही टाइम पास था मां का.

‘‘उस दिन आंटी नहीं  घर पर… अंकल ने मुझ से दरवाजे पर कहा कि अांटी किचन में हैं, वहीं दे आओ, मैं भीतर चली गई. पर वहां कोई नहीं था. अंकल ने मुझे पास बैठा कर मेरे गालों को मसल कर कहा कि वे शायद बाथरूम में हैं. तुम थोड़ी देर रुक जाओ. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. मैं उठ कर जाने लगी तो हाथ पकड़ कर बैठा कर बोले कि कितने फालतू के गेम खेलती हो तुम… असली गेम मैं सिखाता हूं और फिर अपने असली रूप में प्रकट हो गए. कितनी देर तक मुझे तोड़तेमरोड़ते रहे. जब जी भर गया तो अपनी अलमारी से एक रिवौल्वर निकाल कर दिखाते हुए बोले कि किसी से भी कुछ कहा तो तेरे मांबाप की खैर नहीं.

‘‘मन और तन से घायल मैं उलटे पांव लौट आई और अपने कमरे को बंद कर देर तक रोती रही. मां की सहेलियों का जमघट लगा था और वे अपनी पाककला का नमूना पेश कर इतरा रही थीं और मैं अपने शरीर पर पड़े निशानों को साबुन से घिसघिस कर मिटाने की कोशिश कर रही थी.  ‘‘धीरेधीरे मैं पढ़ाई में पिछड़ती चली गई और मैं 10वीं कक्षा में फेल हो गई. मां ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई, मगर कभी मेरी पीड़ा न सुनी. मैं गुमसुम रहने लगी. सोती तो सोती ही रहती उठने का मन ही न करता. मां खाना परोस कर मेरे हाथों में थमा देती तो खा भी लेती अन्यथा शून्य में ही निहारती रहती. सब को लगा फेल होने का सदमा लग गया है, किसी ने सलाह दी कि मनोचिकित्सक के पास जाओ.

3-4 सीटिंग के बाद जब मैं ने महिला मनोचिकित्सक को अपनी आपबीती बताई तो उन्होंने मां को बुला कर ये सब बताया. मगर वे मानने को ही तैयार न हुईं. कहने लगीं कि साल भर तो पढ़ा नहीं, अब उलटीसीधी बातें बना रही है. इस की वजह से हमारी पहले ही कम बदनामी हुई है, जो अब पड़ोसी को ले कर भी एक नया तमाशा बनवा लें अपना… जब मेरी कोई सुनवाई ही नहीं तो मैं भी चुप्पी लगा गई. मुझे ही आरोपी बना कर कठघरे में खड़ा कर दिया गया था. फिर इंसाफ  किस से मांगती?

‘‘तब से अपना मुंह बंद कर जीना सीख लिया. मगर इस दिल और दिमाग का क्या करूं. जो अब भी चीखचीख कर इंसाफ  मांगता है जब दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो नशा ही मेरा सहारा है, उन गोलियों को खा बेहोशी में डूब जाती हूं. तू ही बता कोई इलाज है क्या इस का तेरे पास?’’ रागिनी ने सीमा के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा.

‘‘हां है… हर मुसीबत का कोई न कोई हल जरूर होता है. बस उसे ढूंढ़ने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. इस बार तेरे मायके मैं भी साथ चलूंगी और उस शख्स के भी घर चल कर, बलात्कारियों की सजा पर चर्चा करेंगे. बलात्कारियों को खूब कोसेंगे, गाली देंगे और बातों ही बातों में उस शख्स के चेहरे पर लगे मुखौटे को उस की पत्नी के समक्ष नोंच कर फेंक देंगे.

‘‘उन्हें भी तो पता चले उन के पतिपरमेश्वर की काली करतूत…देखो बलात्कारी की पत्नी उस की कितनी सेवा करती हैं… उन का बुढ़ापा नर्क बना कर छोड़ेंगे… रोज मरने की दुआ मांगता न फिरे वह तो मेरा नाम बदल देना,’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को मजबूती से थाम कर बोला.

रागिनी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. तभी रमन ने आ कर रागिनी के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बचपन की सहेली क्या मिल गई, तुम तो एकदम बदल ही गई. यह मुसकराहट कभी हमारे नाम भी कर दिया करो.’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को रमन के हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘‘अब से यह इसी तरह मुसकराएगी, आप बिलकुल फिक्र न करें… इस के कंधे से कंधा मिलाने के लिए मैं जो वापस आ गई हूं इस की जिंदगी में.’’

Famous Hindi Stories : बाउंसर – हवलदार को देख क्यों सूखने लगी झुमकी की जान

Famous Hindi Stories :  रेलवेस्टेशन के गर्भ से नाल की तरह निकल कर पतली सी कमर सा नेताजी सुभाष मार्ग दुलकी चाल से चलता शहर के बीचोंबीच से गुजरने वाले जीटी रोड को जिस स्थान पर लंबवत क्रौस करता आगे बढ़ जाता है, वह शहर के व्यस्ततम चौराहे में तबदील हो गया है-प्रेमचंद चौक. चौक के ऐन केंद्र में कलात्मकता से तराशा, फूलपौधों की क्यारियों से सजा छोटा सा वृत्ताकार उपवन है. उपवन के मध्य में छहफुटिया वेदी के ऊपर ब्लैकस्टोन पर उकेरी मुंशी प्रेमचंद की स्कंध प्रतिमा. स्टेशन से जीटी रोड तक के पतले, ऊबड़खाबड़ नेताजी सुभाष मार्ग के सहारेसहारे दोनों ओर ग्रामीण कसबाई परिवेश से कदमताल मिलाते सब्जियों, फल, जूस, सस्ते रैडिमेड वस्त्र, पुरानी पत्रिकाओं, सैक्स साहित्य और मर्दानगी की जड़ीबूड़ी बेचते फुटकर विक्रेताओं की छोटीछोटी गुमटियां व ठेलों की कतारें सजी हुई थीं. स्टेशन वाले इसी मार्ग के कसबाई कुरुक्षेत्र में झुमकी भी किसी दुर्दांत योद्धा की तरह भीख की तलवार भांजती सारे दिन एक छोर से दूसरे छोर तक मंडराती रहती. 9 साल की कच्ची उम्र. दुबलीपतली, मरगिल्ली काया. मटमैला रंग. दयनीयता औैर निरीहता का रोगन पुता मासूम चेहरा.

झुमकी ने स्टेशन के कंगूरे पर टंगी घड़ी की ओर तिरछी निगाहों से देखा, ढाई बज रहे थे. अयं, ढाई बज गए? इतनी जल्दी? वाह, झुमकी मन ही मन मुसकराई. ढाई बज गए और अभी तक भूख का एहसास ही नहीं हुआ. कभीकभी ऐसा हो जाता है, ड्यूटी में वह इस कदर मगन हो जाती है कि उसे भूख की सुध ही नहीं रहती.

खैर, अब घर लौटने का समय हो गया है. वहां जो भी रूखासूखा मां ने बना कर रखा होगा, जल्दीजल्दी उसे पेट के अंदर पहुंचाएगी. उस ने लौटने के लिए कदम आगे बढ़ा दिए. 4 बजे वापस फिर ड्यूटी पर लौटना भी तो है. दोपहर के वक्त बाजार में आवाजाही कम हो जाती है. अधिकांश ठेले और गुमटियां खालीखाली थीं. चलते हुए उस ने फ्रौक की जेब में हाथ डाल कर सिक्कों को टटोला. चेहरे पर आश्वस्ति की चमक बिखर गई. उड़ती नजरों से बाबा प्रेमचंद का धन्यवाद अदा किया- सब आप ही का प्रताप है, महाराज.

तभी, पांडेजी के ठेले पर एक ग्राहक दिख गया. उस की आंखों में फुरती ठुंस गई. आम का खरीदार, संभ्रांत वेशभूषा. झुमकी तेजतेज चल कर ठेले के पास तक आ गई और एक दूरी बना कर उस पल का इंतजार करने लगी जब ग्राहक आम ले चुकने के बाद भुगतान करने के लिए जेब से पर्स निकालेगा. इंतजार के उन्हीं कुछ बेचैन क्षणों के दौरान नजरें ठेले के एक कोने में रखे कुछेक आमों पर जा पड़ीं जो लगभग खराब हो चुके थे. इन का रंग काला पड़ गया था. त्वचा पिलपिली हो चुकी थी. ये भद्र लोगों के खाने लायक नहीं रह गए थे. पांडेजी इन आमों को संभवतया इस उम्मीद में रखे हुए थे कि कोई निम्नवर्ग का कोलियरी मजदूर या श्रमिक ग्राहक ऐसा मिल ही जाएगा जो इन्हें खरीद ले. इस तरह तो भरपाई हो सकेगी क्षति की. झुमकी की नजरें इन पिलपिले आमों पर चिपक गईं. पहले ऐसा हो चुका है कि काफी इंतजार के बाद भी जब ऐसे बेकार से आमों के ग्राहक नहीं मिल पाते तो पांडेजी खुद ही इन्हें झुमकी को दे देते. देते हुए उन के अंदाज में शाही ठुनक घुली होती, ‘तू भी क्या याद करेगी कि कोई दिलदार पांडे मिले थे.’

झुमकी ने इन आमों का खूब करीबी से मुआयना किया. अब कोई नहीं खरीदने वाला इन्हें. न हो तो ग्राहक के विदा हो जाने के बाद वह खुद ही पांडेजी से इन आमों को मांग लेगी. आम पा जाने की क्षणिक सी उम्मीद जगते ही आंखों में एकमुश्त जुगनुओं की चमक भर गई. इन की पिलपिली, काली त्वचा को और भीतर से रिस कर आती कसैली बू को अनदेखा कर दिया जाए तो ये आम ‘पके और गोरे’ लंगड़ा आमों जैसी ही तृप्ति देते हैं. उस के कंठ से तृप्ति की किलकारी निकलतेनिकलते बची.

ग्राहक को आम तोले जा चुके थे. उस ने जेब से पर्स निकाला और पांडेजी को पैसे देने लगा. उसी क्षण झुमकी लपक कर ग्राहक के पास जा पहुंची और छोटी सी हथेली को उस के आगे फैला दिया. ‘‘क्या है रे?’’ ग्राहक ने उस को ऊपर से नीचे तक निहारा. निहारने में दुत्कार नहीं, सहानुभूति का पुट घुला था, ‘‘भीख चाहिए?’’

झुमकी ने हां में सिर हिला दिया. हथेली फैला देने का मतलब नहीं समझ में आ रहा है हुजूर को. ‘‘ठीक है,’’ ग्राहक भी संभवतया फुरसत में था. उस से चुहल करने में मजा लेने लगा, ‘‘बोल, भीख में पैसे चाहिए या आम?’’

आम की बात सुन कर झुमकी के मन में लालसा फुफकार उठी. दिल जोरजोर से धड़कने लगा. कल्पना में आम का रसीला स्वाद उतर आया. उस ने डरते हुए तर्जनी उठा कर ठेले के कोने में पड़े परित्यक्त आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘मुंह से बोल न रे, छोरी.’ ग्राहक हंसा, ‘क्या गूंगी की तरह इशारे में बतिया रही है.’’

झुमकी चुप रही. ‘‘अरे बोल न, क्या लेगी-आम या पैसे?’’

झुमकी ने फिर भी मौन साधे रखा और डरती हुई पहले की तरह ही उन आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘‘जब तक मुंह से नहीं बोलेगी, कुछ नहीं देंगे,’’ ग्राहक झुंझला उठा. झुमकी सहम गई. ऐसे क्षणों में जबान तालू से चिपक जाती है तो वह क्या करे भला? चाह कर भी बोल नहीं फूट रहे थे. सो, फिर से मौनी बाबा की तरह वही संकेत.

‘‘धत तेरे की,’’ ग्राहक फनफनाते हुए दमक पड़ा, ‘‘सरकार ससुर दलितों, गरीबों और अन्त्यजों की पूजाआरती उतारने में बावली हुई जा रही है. उन्हें हक और जमीर के लिए लड़ने को उकसा रही है. पकड़पकड़ कर जबरदस्ती सरकारी कुरसियों पर बैठा रही है. इ छोरी है कि सरकार बहादुर की नाक कटवाने पर तुली हुई है, हुंह. अरे, अब तो अपना रवैया बदल तू लोग. रिरियाना छोड़ कर हक से मांगना सीख.’’ ‘‘हां रे झुमकी, साहब ठीक ही तो कह रहे हैं. मुंह से बोल दे न, आम चाहिए या पैसा,’’ पांडेजी उसे प्रोत्साहित करते हुए हिनहिना दिए. ग्राहक की बेतरतीब टिप्पणियों से झुमकी का दिमाग झनझना उठा. क्षणभर में संन्यासी मोड़ वाले स्कूल के पास का ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का बोर्ड और बोर्ड में चित्रित खिलखिलाते बच्चे आंखों के आगे आ गए. ग्राहक या तो सनकी है या अत्यधिक वाचाल. क्या इस को पता नहीं कि सरकार बहादुर की गरीबोंदलितों के पक्ष में की जा रही सारी पूजाआरती सिर्फ कागजकलम पर हवाहवाई हो कर रह जाती है.

‘‘हम तो चले पांडेजी,’’ ग्राहक खीझता हुआ आम वाले लिफाफे को उठा कर चलने को मुड़ गया. झुमकी धक से रह गई. सिर पर चिरकाल से पड़ी कुंठा और लाचारगी की भारीभरकम शिला को पूरा जोर लगा कर थोड़ा सा खिसकाया तो कंठ की फांक से एक महीन किंकियाहट गुगली की तरह उछल कर बाहर आई, ‘आम…’ अधमरी बेजान सी आवाज. ग्राहक वापस दुकान पर आ गया. उस के होंठों पर विजयी मुसकान चस्पा हो गई, ‘‘यह हुई न बात.’’ ‘‘दोष इन लोगों का भी नहीं न है साहेब,’’ पांडेजी मुसकराए, ‘‘सदियों से चली आ रही स्थिति को बदलने में वक्त तो लगेगा ही.’’

ग्राहक ने अपने लिफाफे से एक आम निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया, ‘‘ले, खा ले.’’ ग्राहक के बढ़े हाथ को देख कर झुमकी स्तब्ध रह गई. ताजा और साबुत लंगड़ा आम दे रहा है ग्राहक बाबू. मजाक तो नहीं कर रहा? एक पल के लिए मौन रखने के बाद इनकार में सिर हिलाते हुए उस ने तर्जनी से उन परित्यक्त आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘‘छी…’’ ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़ा, अरे, ‘‘पूरे समकालीन साहित्य के दलित स्त्री विमर्श की नायिका है तू. बदबूदार आम तुझे शोभा देंगे? न, न, ये ले ले.’’

ग्राहक की व्यंग्योक्ति में चुटकीभर हंसी पांडेजी भी मिलाए बिना नहीं रह सके. झुमकी ने फिर भी इनकार में सिर हिला दिया. तर्जनी उन्हीं आमों की तरफ उठी रही, मुंह से बोल न फूटे.

‘‘अजीब खब्ती लड़की है रे तू,’’ ग्राहक झुंझला उठा. झुमकी का रिरियाना और ऐसी शैली में बतियाना ग्राहक की खीझ को बढ़ा रहा था. उसे उम्मीद थी कि अच्छा आम पा कर लड़की एकदम से खिल उठेगी. पर यहां तो वही मुरगे की डेढ़ टांग. झिड़की में पुचकार का छौंक डालते हुए फनफनाया, ‘‘अरे हम अपनी मरजी से न दे रहे हैं यह आम. इतनीइतनी सरकारी योजनाएं, इतनेइतने फंड, इतनेइतने अनुदान…सारी कवायदें तुम लोगों को ऊपर उठाने के लिए ही न हो रही हैं? इन सरकारी कवायदों में एक छोटा सा सहयोग हमारा भी, बस.’’

झुमकी कभी आम को और कभी ग्राहक के चेहरे को टुकुरटुकुर ताकती रही. आंखों में भय सिमटा हुआ था. भीतर के बिखरेदरके साहस को केंद्रीभूत करती आखिरकार मिमियायी, ‘‘नहीं सर, इ आम नहीं, ऊ वाला आम दे दो.’’ ‘‘क्यों? जब हम खुद दे रहे हैं तो लेने में क्या हर्ज है रे, अयं?’’

‘‘हम भिखारी हैं, सर. अच्छा आम हमारे तकदीर में नहीं लिखा. ऊहे आम ठीक लगता है.’’ पूरे एपिसोड में पहली बार लड़की के मुंह से इतना लंबा वाक्य फूटा था. ‘‘देखा पांडेजी?’’

‘‘एक बात है, सर,’’ हथेली पर खैनी मसलते हुए पांडेजी ने कहा, ‘दलितों के लिए सरकारी सारे अनुदान, योजना वगैरावगैरा राजधानी से ऐसे कार्टून में भर कर लादान किया जाता है जिस के तल में बड़ा सा छेद बना होता. सारा कुछ ससुर रस्ते में ही रिस जाता है और कार्टून जब इन लोगन के दरवाजे आ कर लगता है तो पूरा का पूरा छूछा. हा, हा, हा.’’ ‘‘कुछ हद तक ठीक है आप की बात, पांडेजी,’’ ग्राहक भी हंसे बिना नहीं रह सका, ‘‘पर इस में सारा दोष सरकार को देना भी ठीक नहीं. कुछ दोष इन लोग का भी है. इन लोगों को भी तो अपना हक बूझना होगा, उस को पाने के लिए हाथपांव चलाना होगा. मतलब, पहल तो इन लोगों को ही न करना है. एक बार तन कर देखें तो. सारे हक मिलते चले जाते हैं कि नहीं? सब से पहले तो रिरियाना छोड़ना होगा.’’

‘‘हां साहब, ठीक कह रहे हैं आप. माओवादी लड़ाई कुछकुछ हक के प्रति सचेत हो जाने का परिणाम ही तो है,’’ पांडे ने कहा और फिर झुमकी की ओर मुखाबित होते हुए बोले, ‘लेले रे, लेले. साहब और तेरे बीच कोई बिचौलिया नहीं है न. साहब के हाथ से सीधे तेरे हाथ में आ रहा है इ अनुदान.’’

ग्राहक आगे बढ़ा और आम को झुमकी की हथेली में ठूंसते हुए हिनहिनाया, ‘‘तकदीर, मुकद्दर और भाग्य, सब बेकार बातें हैं, रे. जरूरी है हक बचाने के लिए लड़ाई की पहल. देख, इस आम की मालकिन अब तू हुई. यह पूरी तरह तेरा है. अब इस पर तेरा हक है. तकदीर तेरी मुट्ठी में कैद हो गई कि नहीं?’’ आम थामे झुमकी की हथेली थरथरा रही थी. आम की साफ पुखराजी रंगत और खरगोश सा मुलायम स्पर्श रोमांचित कर रहा था. पर आंखों में अविश्वास और डर अभी भी दुबका हुआ था.

‘‘बाबू, इ आम हम नहीं ले सकते. हम को उहे आम दिला दें,’’ फिर से लिजलिजी गिड़गिड़ाहट. ‘‘भाग सुसरी,’’ ग्राहक इस बात से उखड़ गया, ‘‘भाग, नहीं तो दू थप्पड़ लगा देंगे.’’

झुमकी चुपचाप पांडेजी की गुमटी से उतर आई और धीरेधीरे घर को जाने वाली राह पर आगे बढ़ने लगी. उसे अभी भी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि हथेली में ताजा गोराचिट्टा लंगड़ा आम दुबका हुआ है. चलतेचलते अचानक रुकी और एक ओर खड़ी हो कर आम को भरपूर नजरों से निहारने लगी. उस निहार में एकसाथ आश्वस्ति, प्यार और तृप्ति के कईकई रंग घुले हुए थे. इतने करीब से इस तरह के साबुत आम को पहली बार देख रही है. आज तक जितने भी ग्राहक मिले, भीख में या तो एकाध सिक्का दिया या फिर परित्यक्त आमों में से एकाध दिला दिया. ताजा व पक्का आम पहली बार झोली में आया है. लग रहा था जैसे दलितों के लिए घोषित असंख्य सरकारी अनुदानों में से एक अनुदान एकदम मूर्त हो कर उस की झोंपड़ी के भीतर आ टपका हो. वह मन ही मन आम के रसीले स्वाद की कल्पना में खोने लगी. कदम तेजी से बस्ती की ओर बढ़ चले. स्टेशन लांघ कर कदम कब लाइन पार आ गए और देखतेदेखते संन्यासी मोड़ भी कब आ पहुंचा, झुमकी को पता ही नहीं चला. तंद्रा टूटी तो सामने स्कूल का गेट दिखा. गेट बंद था. पीछे का ग्राउंड सूना. कक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं न. झुमकी के पांव एक पल को गेट के पास थम गए. नजरें पखेरु सी उड़ती हुई पेड़ पर टंगे ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बोर्ड पर जा बैठीं. बोर्ड में चित्रित निश्ंिचत मुसकराहटों को देख कर मन कचोट से भर गया. वह आगे बढ़ने को उद्यत हुई ही थी कि सामने वाली पतली गली से निकल कर हवलदार निमाई बाबू प्रकट हो गए. खाकी वरदी, हाथ में रूल, आंखों में लोमड़ सी चमक. खाकी वरदी देख कर न जाने क्यों झुमकी की जान सूखने लगती है. मन में एक किस्म का डर रेंग जाता है. इस बार भी वही हुआ. भीतर ही भीतर कलेजा धकधक करने लगा. आसपास निपट सन्नाटा. दूरदूर तक कोई भी नहीं. एहतियात बरतते हुए आम वाली हथेली को पीछे ले जा कर फ्रौक के भीतर कर लिया.

‘का रे झुमकी?’ निमाई बाबू ने खींसें निपोर दिए, ‘धंधा से लौट रही?’ ‘हां सर, एही वक्त तो लौटते हैं रोज,’ झुमकी मन ही मन फनफना उठी. हमरे काम को धंधा कहते हैं. खुद बाजार की दुकानों से और बस्ती वालों से वसूली करते हैं, वह धंधा नहीं है?

निमाई बाबू भी पोस्टमौर्टमी नजरें न जाने किस चीज की तलाश में उस के बदन का नखशिख मुआयना करने लगीं. निस्तेज चेहरा, सपाट छाती और किसी पुतले की सी पतलीपतली जांघें.

‘‘तोर काछे किच्छू नेई रे? (तेरे पास कुछ भी नहीं है रे?)’’ होंठों पर लिजलिजी हंसी उभर आई और आगे बढ़ कर रूल को उस की बांह पर 2-3 बार ठकठका दिया. रूल का स्पर्श होना था कि बांह थरथरा गई और हथेली से फिसल कर आम जमीन पर आ गिरा. ‘‘अयं…?’’ निमाई बाबू की आंखें विस्मय से फैल गईं, झुक कर आम को झट से उठा लिया, ‘‘इ आम कहां से मिला रे?’’

‘‘एगो साहब भीख में दिया, सर,’’ सफाई देती हुई झुमकी की जबान अनायास ही लड़खड़ा गई. निमाई बाबू की आंखों में अविश्वास सिमट आया. एक पल को झुमकी की आंखों के भीतर ताकते रहे, निर्निमेष, फिर हाहा कर के हंस पड़े, ‘‘एतना सुंदर आम भीख में? असंभव. सचसच बता, भीख में मिला या किसी दुकान से पार किया?’’ ‘‘नहीं सर,’’ झुमकी की सांसें रुकनेरुकने को हो रही थीं, ‘‘पांडेजी की दुकान पर मिला. एक ग्राहक ने दिया. उन से पूछ लें.’’

हवलदार निमाई ने आम का एकदम करीब से अवलोकन किया. नाक के पास ले जा कर भरपूर सांस खींची तो नथुनों के भीतर महक अलौकिक सी महसूस हुई. ऐसा लगा जैसे इस महक में लंगड़ा आम की महक के अलावा भी एक अन्य सनसना देने वाली महक शामिल है. स्मृति में खलबली मच गई. ऊफ, याद क्यों नहीं आ रहा कि यह दूसरी महक कौन सी है? एकदम आत्मीय और जानीपहचानी. उत्तेजना के ये कुछेक पल बड़ी मुश्किल से ही कटे कि तभी आंखों में जुगनुओं की एकमुश्त चमक भर गई. अरे, यह महक शतप्रतिशत वही महक तो है जो दलितों के लिए घोषित मलाईदार सरकारी योजनाओं और अनुदानों से निकला करती है. खूब, ऐसी महक का स्वाद तो उन के जबान में गहराई से रचाबसा है. तभी तो… ‘‘ए,’’ निर्णय लेने में एक पल ही लगा, ‘‘ऐसा सुंदर और पका आम तुम लोग कैसे खा सकता है, रे? फिर सभ्य समाज का क्या होगा? यह आम तुझे नहीं मिल सकता.’’

‘‘हम को भीख में मिला, सर,’’ झुमकी किंकिया ही तो उठी. ‘‘हर चोर पकड़े जाने पर ऐसी ही सफाई देता. यह भीख का नहीं, चोरी का माल है,’’ निमाई बाबू के लहजे से हिकारत चू रही थी. ठीठ हिकारत.

‘‘हम सफाई नहीं दे रहे, सर. सच बोल रहे हैं. आप पांडेजी से पूछ लें.’’ ‘‘पूछने की कोईर् जरूरत नहीं. यह चोरी का ही माल है. थाना में जमा होगा,’’ निमाई बाबू की आंखों में लोलुप चमक चिलक रही थी.

‘‘हम चोरी नहीं किए,’’ झुमकी के हौसले पस्त होते जा रहे थे. ‘‘चोप्प, जबान लड़ा रही? जब हम कह रहे हैं कि चोरी का माल है तो, बस, है.’’

‘‘हमारा यकीन करें, सर.’’ ‘‘बोला न, चोप्प. एक शब्द भी बोला तो लौकअप में ले जा कर बंद कर देगा, समझी? प्रमाण लाना होगा. प्रमाण ले कर आओ, तब मिलेगा.’’

झुमकी स्तब्ध खड़ी रही. प्रमाण? हंह, भीख का प्रमाण मांग रहे? बाजार की दुकानों से और बस्ती से दैनिक वसूली करते हैं, उस का प्रमाण मांगा जाए तो…? तो दे सकेंगे? ग्राहक बाबू से कितना बोली थी कि ऐसे सुंदर आम उस जैसों के लिए नहीं होते. उन्होंने नहीं माना. बहादुरी में सरकारी योजनाओं और अनुदानों के बड़ेबड़े हवाले दे डाले. अरे, कोई भी सरकारी योजना या अनुदान सहीसलामत उन तक पहुंचता भी है? हंह, सब फुस हो गया न. उस के चेहरे पर स्याह मायूसी पुत गई. उसे महसूस हुआ जैसे हमेशा की तरह आज भी, कोई अनुदान मुट्ठी में आ जाने के बाद भी रेत की तरह फिसल कर अदृश्य हो गया है.

तभी उस की आंखें धुआंने लगीं. क्या वाकई सबकुछ इतनी आसानी से फुस हो जाने दे? ग्राहक बाबू ने कहा था न कि हक को पाने और बचाने के लिए चौकन्ना रहने के साथसाथ हाथपांव चलाते हुए संघर्ष की पहल करनी भी जरूरी है. पहल..? इस मौजूदा स्थिति में पहले के क्या विकल्प हैं, भला? वह नन्हीं जान, लंबेतगड़े निमाई बाबू से हाथापाई कर के जीत सकती है? आम छीन कर दौड़ भी पड़े तो निमाई बाबू लपक कर पकड़ लेंगे. आम तो जाएगा ही, भरपूर पिटाई भी खूब होगी. तब?

उस का छोटा सा दिमाग तेजी से कईकई विकल्पों का जायजा ले रहा था. कोईर् तो पहल करनी ही होगी हक बचाने के लिए. एकदम आसानी से सबकुछ फुस नहीं होने देगी वह. अचानक भीतर एक कौंध हुई. आंखें चमत्कृत रह गईं. कलेजा धकधक करने लगा. निमाई बाबू आम पा जाने की खुशी में चूर होते तनिक असावधान तो थे ही, झुमकी ने चीते की तरह लपक कर उन के हाथों से आम को कब्जे में लिया और पूरी ताकत से उस आम पर दांत गड़ा दिए.

Best Hindi Stories : कराटे वाला चाणक्य – क्यों विनय बन गया पूरा कालेज का चहेता

Best Hindi Stories :  विनय शरीर से दुबलापतला था. मगर उसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह भीतर से बहुत मजबूत है. कराटे सीखने के इरादे ने ही उसे भीतर से भी काफी मजबूत बना दिया था. मन और बुद्धि का भी वह धनी था. ‘‘सर,’’ कमरे में प्रवेश कर विनय राजन सर से बोला.

‘‘कहो, कौन हो तुम? क्या चाहते हो,’’ राजन सर ने पूछा. प्रश्नों की इस बौछार से जरा भी विचलित हुए बिना विनय बोला, ‘‘सर, मैं कराटे सीखना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कहा, कराटे? यह शरीर ले कर तुम कराटे सीखना चाहते हो,’’ राजन सर मजाकिया मूड में हंस कर बोले. ‘‘हां, सर. क्या मैं कराटे नहीं सीख सकता?’’ विनय ने पूछा.

‘‘नहीं, पहले खापी कर अपने शरीर को मजबूत बनाओ, तब आना. अभी तो एक बच्चा भी तुम्हें गिरा सकता है,’’ कह कर राजन सर अखबार पढ़ने लगे. ‘‘सर, मैं इतना कमजोर भी नहीं हूं,’’ विनय बोला.

‘‘कैसे मान लूं?’’ यह सुनते ही विनय ने अपने एक हाथ की मुट्ठी बांध ली और फिर बोला, ‘‘सर, मेरी इस मुट्ठी को खोलिए.’’

सुन कर राजन सर मुसकराए मगर कुछ ही देर में उन की मुसकराहट गायब हो गई. विनय की मुट्ठी खोलने में उन के पसीने छूटने लगे. तब कुछ ही क्षणों बाद विनय ने खुद ही अपनी मुट्ठी खोल ली. राजन सर के मुंह से केवल इतना ही निकला, ‘‘वंडरफुल, तुम कल से टे्रनिंग सैंटर पर आ सकते हो लेकिन इस ढीलीढाली धोती में नहीं. अच्छा होगा कि तुम पाजामा पहन कर आओ.’’

विनय ने झुक कर उन के पैर छुए, फिर बाहर निकल आया. राजन सर चकित हो कर जाते हुए विनय को देखते रहे. विनय नियमित रूप से राजन सर के यहां आने लगा. कालेज में किसी को इस की भनक तक नहीं लगी. अब भी वह उन के लिए एक कार्टून मात्र था, क्योंकि जब वह पहले दिन कालेज आया तो उस का हुलिया कुछ ऐसा ही था. सिर पर छोटे बालों के बीच गांठ लगी एक लंबी सी चुटिया, ढीलाढाला कुरता पैरों में मोटर टायर की देसी चप्पल.

सब से पहले उस का सामना कालेज के एक शरारती छात्र राजेंद्र से हुआ. उस ने इन शब्दों से उस का स्वागत किया, ‘‘कहिए, मिस्टर चाणक्य, यहां नंद वंश का कौन है जो इस लंबी चुटिया में गांठ लगा कर आए हो? गांठ खोलो तो लहराती चुटिया और भी अच्छी लगेगी.’’ सुनते ही उस के पीछे खड़ी छात्रछात्राओं की भीड़ ठठा कर हंस पड़ी. विनय ने कोई उत्तर नहीं दिया. केवल मुसकरा कर रह गया. यह जरूर हुआ कि उस दिन से सभी शरारती छात्रछात्राओं को उसे मिस्टर चाणक्य कहने में मजा आने लगा.

वैसे धीरेधीरे विनय ने खुद को वहां के माहौल में ढाल लिया. सिर पर गांठ लगी चुटिया के कारण उस का नया नाम चाणक्य पड़ गया. विनय की क्लास में अधिकतर छात्रछात्राएं बड़े घरों से थे. कैंटीन में उन का नाश्ता मिठाई, समोसे, कौफी आदि से होता था. उन के कपड़े भी मौडर्न और सुपर स्टाइल के होते थे. मामूली कपड़ों वाला विनय तो सिर्फ चाय पी कर ही उठ जाता था. इसीलिए लड़केलड़कियां उस के पास बैठने में अपनी तौहीन समझते थे. विशेष रूप से वीणा और शीला को तो उस से बात तक करने में शर्म आती थी. मगर विनय इन सब से दूर पता नहीं किस दुनिया में खोया रहता था.

राजेंद्र, नरेश, वीणा और शीला की दोस्ती पूरे कालेज में मशहूर थी. राजेंद्र और नरेश भी संपन्न घरों से थे. वे कालेज की कैंटीन यहां तक कि बाहर भी अकसर वे साथसाथ घूमतेफिरते थे. उस दिन परीक्षा के फौर्म और फीस जमा हो रही थी, नाम पुकारे जाने पर विनय भी फौर्म व फीस ले कर पहुंचा. क्लर्क ने पैसे गिनने के बाद विनय से पूछा, ‘‘यह क्या, डेढ़ सौ रुपए कम क्यों हैं? क्या तुम ने नोटिस बोर्ड पर कल बढ़ी हुई फीस के बारे में नहीं पढ़ा?’’

‘‘नहीं सर, मेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए मैं जल्दी घर चला गया था. इसी कारण मैं नोटिस बोर्ड नहीं पढ़ पाया. सौरी सर,’’ विनय बोला. ‘‘देखो, मैं इतना कर सकता हूं कि फौर्म और पैसे तो अभी रख लेता हूं, लेकिन कल बाकी पैसे जमा कर देना वरना तुम्हारा फौर्म रुक जाएगा,’’ क्लर्क ने चेतावनी भरे स्वर में विनय से कहा.

वीणा शीला के कान में फुसफुसाई, ‘‘यार, तेरे पर्स में तो पैसे हैं, इसे देदे तो आज ही इस का फौर्म जमा हो जाएगा.’’ शीला बोली, ‘‘क्यों दे दूं? 10-20 रुपए की बात होती तो दे भी देती, डेढ़ सौ रुपए की उधारी यह चाणक्य महाशय चुकता कर भी पाएंगे,’’ वीणा चुप लगा गई.

विनय शाम को भारी मन से कालेज से बाहर निकला, कल कहां से आएंगे डेढ़ सौ रुपए, घर में तो मां की दवा के लिए ही मुश्किल आन खड़ी होती है. कभी यह भी सोचता कि क्यों कराटे सीखने में उस ने इतने पैसे बरबाद कर दिए. इसी सोच में डूबा विनय यह भी भूल गया कि वह साइकिल पकड़े पैदल ही चल रहा है. तभी एक स्कूटी पर वीणा और शीला उस की बगल से गुजरीं. दोनों स्कूटी पर कालेज आयाजाया करती थीं. विनय ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया.

मगर तुरंत ही वह चौंक पड़ा. एक बाइक पर सवार 3 आवारा लड़के अश्लील हरकतें करते हुए वीणा व शीला का पीछा कर रहे थे. किसी अनिष्ट की आशंका से वह साइकिल से उन का पीछा करने लगा. उस ने देखा, वे दोनों उन आवारा लड़कों से पीछा छुड़ाने के लिए स्कूटी की रफ्तार बढ़ाती जा रही थीं. मगर वे भी बाइक की रफ्तार उसी तरह बढ़ा रहे थे. उस रफ्तार में साइकिल से उन का पीछा करना मुश्किल था फिर भी वह जीजान से उन के पीछे लगा रहा.

इत्तफाक से एक जगह जाम लगा हुआ था. इस से बाइक की रफ्तार कुछ धीमी हो गई. यह देखते ही विनय ने साइकिल और तेज कर दी. वह सोच चुका था कि अब उसे क्या करना है. करीब पहुंचते ही उस ने साइकिल से बाइक पर एक जोरदार टक्कर मारी. बाइक तुरंत लड़खड़ा कर गिर पड़ी, उसी के साथ वे तीनों भी नीचे जमीन पर गिर गए. ‘‘सौरी, भाईसाहब. अचानक मेरी साइकिल के बे्रक फेल हो गए,’’ विनय बोला. मगर तभी उन्होंने विनय को लड़कियों को हाथ से भाग जाने का इशारा करते देख लिया. वे उस की चालाकी समझ गए. उन्होंने अपने एक साथी को विनय से निबटने के लिए छोड़ उन लड़कियों को घेर लिया.

विनय के लिए अब काम आसान हो गया था. उस ने कराटे के दोएक वार में ही युवक को इस तरह चित्त कर दिया कि वह फिर उठने लायक ही नहीं रहा. उधर विनय जब उन लोगों के पास पहुंचा तो देखा कि वहां भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी. उन आवारा लड़कों ने वीणा और शीला के दुपट्टे फाड़ कर फेंक दिए थे. वे दोनों चीख रही थीं. मगर भीड़ मूकदर्शक बनी खड़ी थी. गुंडों के भय से कोई आगे आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. कहीं उन के पास हथियार हुए तो? तभी विनय की नजर भीड़ में खड़े राजेंद्र और नरेश पर पड़ी. इस समय वे भी भीड़ का हिस्सा बने हुए थे जैसे कि वे वीणा और शीला को पहचानते ही न हों.

विनय के लिए अब खुद को रोकना मुश्किल हो गया. वह ललकारता हुआ बाइकर्स पर टूट पड़ा. एक मामूली से लड़के के इस साहस से प्रभावित हो कर भीड़ में मौजूद लोग भी उन पर टूट पड़े और उन की अच्छीखासी पिटाई करने के बाद तीनों को पुलिस को सौंप दिया. विनय ने एक नजर वीणा और शीला पर डाली तो उन की आंखों में कृतज्ञता के आंसू झलक रहे थे. मगर विनय वहां एक मिनट के लिए भी नहीं रुका, क्योंकि उसे मां के लिए दवा भी तो ले जानी थी. अगले दिन न चाहते हुए भी मां की दवा के लिए रखे पैसों में से विनय ने डेढ़ सौ रुपए निकाल लिए. विनय के कालेज पहुंचने से पहले ही उस के इस साहसिक कारनामे की सूचना पूरे कालेज को लग चुकी थी. मगर सब से पहले वह फीस के बाकी पैसे ले कर औफिस में गया, लेकिन वह चकित रह गया जब क्लर्क ने उसे बताया, ‘‘नहीं, इन्हें और कल दिए हुए पैसों को भी वापस रख लो. तुम्हारी पूरी फीस किसी और ने जमा कर दी है.’’

‘‘मगर सर, किस ने?’’ ‘‘जमा करने वाले ने नाम न बताने की शर्त पर ऐसा किया है.’’

विनय समझ गया. उस ने शीला और वीणा की ओर देखा. उन की आंखें नीचे झुकी हुई थीं. पहले तो उस ने सारे पैसे उन्हें लौटाने की बात सोची, मगर फिर मां की बीमारी का खयाल कर फिलहाल उस ने चुप रहना ही ठीक समझा. प्रिंसिपल के नोटिस पर मध्यावकाश में 10 मिनट के लिए कालेज के सभी छात्र और टीचर हौल में पहुंचे. प्रिंसिपल बोले, ‘‘आप लोग यहां बुलाए जाने का उद्देश्य तो समझ ही रहे होंगे. मैं चाहता हूं कि आप सब के सामने उस छात्र को उपस्थित करूं जिस ने इस कालेज का नाम रोशन किया है. आप ने व्यंग्य से उसे चाणक्य नाम दिया है. इतिहास में एक ही चाणक्य पैदा हुआ है. मगर विनय ने कल जिस साहस का परिचय दिया, वह किसी चाणक्य से कम नहीं है. इतिहास का चाणक्य कूटनीति में पारंगत था और हमारा चाणक्य बेमिसाल साहस का धनी है. उस का कराटे का ज्ञान कल खूब काम आया. आओ विनय, लोग तुम्हारे मुख से भी दो शब्द सुनना चाहते हैं.’’

प्रिंसिपल के पीछे खड़ा विनय सामने आ कर बोला, ‘‘आदरणीय गुरुजन और साथियो, मुझे आप से केवल दो बातें कहनी हैं. पहली यह कि अपनी माताबहनों के साथ आवारा लड़कों द्वारा अश्लील हरकतें करते देख चुप न रहें, भीड़ के साथ आप भी मूकदर्शक न बनें. आवारा लड़कों में कोई बल नहीं होता. आप उन्हें ललकारते हुए आगे बढ़ें. विश्वास कीजिए, आप की हिम्मत देख भीड़ भी उन्हें मजा चखाने आगे आ जाएगी. ‘‘दूसरी बात यह कि आप किसी को भी सोचसमझ कर ही अपना दोस्त बनाएं. दोस्त भरोसेमंद और संकट में काम आने वाला हो.’’

पूरे कालेज ने तालियों से विनय के इन शब्दों का स्वागत किया. परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ. विनय पूरे कालेज में अव्वल आया. उस की इस सफलता पर बधाई देने वालों में सब से पहले उस के घर पहुंचने वाली वीणा और शीला थीं. उन के भीतर आया बदलाव बिना कुछ बोले ही उन के चेहरे पर साफ झलक रहा था.

Hindi Kahaniyan : झलक – मीना के नाजायज संबंधों का क्या था असली राज?

Hindi Kahaniyan :  सुबह 10 बजे के करीब मीना बूआ अचानक घर आईं और मुझे देखते ही जोशीले लहजे में बोलीं, ‘‘शिखा, फटाफट तैयार हो जा. तू और मैं बाहर घूमने चल रहे हैं.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने फौरन खुश हो कर पूछा.

‘‘घर से निकलने के बाद मालूम हो जाएगा. तू जल्दी से तैयार तो हो जा.’’

‘‘क्या मोहित को भी साथ ले चलूं?’’

मैं ने अपने 3 वर्षीय बेटे के बारे में पूछा.

‘‘अरी, उसे उस की नानी संभाल लेंगी.’’

मैं ने सवालिया नजरों से मां की तरफ देखा.

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मोहित को रखने के लिए ‘हां’ कहते हुए मां कई दिनों के बाद मेरी तरफ देख कर मुसकराईं.

मीना बूआ के साथ मेरी हमेशा से बहुत अच्छी पटती रही है. स्मार्ट, सुंदर और समझदार होने के साथसाथ उन का स्वभाव भी मस्ती भरा है. फूफाजी को जब से दिल की बीमारी ने पकड़ा है, वे ही उन का बिजनैस सलीके से संभाल रही हैं.

‘‘बूआ, आज फैक्टरी जाना कैसे टाल दिया?’’ घर से बाहर निकलते ही मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने सोचा 2-4 दिनों में तू ससुराल लौट जाएगी, तो तेरे साथ घूमने का मौका कहां मिलेगा. तेरे फूफाजी की बीमारी के कारण कभीकभी उदास हो जाती हूं. सोचा, आज तेरे साथ घूमफिर कर गपशप करूंगी, तो मन बहल जाएगा.’’

सचमुच बूआ ने 2 घंटे तक मुझे खूब ऐश कराई. हम ने एक अच्छे रेस्तरां में खायापिया और शौपिंग की.

मैं सोच रही थी कि अब हम घर लौटेंगे, पर बूआ ने एक बहुमंजिला इमारत के सामने गाड़ी रोकी. मेरे कुछ पूछने से पहले ही बूआ झेंपे से अंदाज में मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘हम दोनों एक पुराने जानकार से मिलने चल रहे हैं. इस व्यक्ति से आज मैं करीब 15 साल बाद मिलूंगी.’’

‘‘कौन हैं ये व्यक्ति?’’

‘‘राकेश नाम है उन का. वे मेरे साथ कालेज में पढ़े भी हैं और 15 साल पहले हम पड़ोसी भी थे.’’

‘‘फिर क्या ये कहीं बाहर चले गए थे, जो 15 साल तक आप की इन से मुलाकात नहीं हुई?’’ मैं ने कार से उतरते हुए पूछा.

‘‘ये बाहर तो नहीं गए थे, पर हमारे परिवारों के बीच संपर्क नहीं रहा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह तुम हमारी बातें सुन कर समझ जाओगी,’’ बूआ की आंखों में शरारत भरी चमक उभरी, ‘‘बस, तुम राकेश के सामने एक बात का ध्यान रखना.’’

‘‘किस बात का, बूआ?’’

‘‘इस का कि तुम मेरी भतीजी नहीं, बल्कि पड़ोसिन की बेटी हो. तभी वे और मैं खुल कर बातें कर पाएंगे. मैं उन की लच्छेदार बातें सुनने ही इतने सालों बाद आई हूं.’’

‘‘बूआ, चक्कर क्या है, जरा खुल कर बताओ न,’’ मेरी यह बात सुन कर बूआ जिस शोख अदा से हंसीं, वह मुझे उलझन का शिकार बना गई थी. बूआ के करीब हमउम्र 42 साल के राकेश से हम दोनों उन के औफिस में मिलीं.

‘‘माई डियर मीना, व्हाट ए ग्रेट सरप्राइज,’’ उन्होंने खड़े हो कर बूआ का स्वागत किया, ‘‘तुम्हें अचानक सामने देख कर बड़ी खुशी हो रही है. कैसे बना रखा है तुम ने अपने को 15 साल पहले जैसा खूबसूरत, फिट और स्मार्ट?’’

‘‘राकेश, तुम्हारे सिर के बाल कम जरूर हुए हैं, पर झूठी तारीफ कर के किसी भी स्त्री को खुश करने की आदत अभी भी कायम है. कैसी गुजर रही है, जनाब?’’ बूआ ने उन का हाथ हलके से पकड़ कर छोड़ दिया और खुल कर मुसकराती हुई कुरसी पर बैठ गईं.

मेरे झूठे परिचय पर जरा सा ध्यान देने के बाद राकेश मुझे जैसे भूल सा गए. उन की प्रशंसा भरी दृष्टि का केंद्र पूरी तरह से बूआ ही थीं.

उन के बीच पुरानी घटनाओं व पिछले 15 साल की जानकारियों का आदानप्रदान शुरू हो गया. मेरे लिए यह अंदाजा लगाना बिलकुल कठिन नहीं था कि राकेश आज भी बूआ के जबरदस्त प्रशंसक हैं.

‘क्या इन दोनों के बीच में पहले कभी कोई प्यार का चक्कर था?’ यह प्रश्न मेरे मन

में अचानक उभरा, तो मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी.

औफिस में लंचटाइम चल रहा था. राकेश ने हमारे लिए बढि़या कौफी व स्वादिष्ठ पेस्ट्री मंगवाई. उन का बस चलता तो वे मारे उत्साह के अपने हाथ से जबरदस्ती उन्हें पेस्ट्री खिलाने लगते.

‘‘अजय के क्या हाल हैं?’’ राकेश ने फूफाजी के बारे में सवाल पूछा, तो बूआ गंभीर नजर आने लगीं.

बूआ ने उदास स्वर में उन्हें फूफाजी की दिल की बीमारी के बारे में बताया. बिजनैस में इस कारण जो परेशानियां आई थीं, उन की भी चर्चा की.

‘‘अपनी हिम्मत और समझदारी के कारण तुम ने काफी बिजनैस संभाल लिया है, यह सचमुच खुशी की बात है. मैं आता हूं किसी दिन अजय से मिलने,’’ आखिरी वाक्य बोलते हुए राकेश ने बेचैनी भरे अंदाज में बूआ की तरफ देखा.

बूआ ने कोई जवाब नहीं दिया, तो राकेश ने भावुक लहजे में कहा, ‘‘मीना, आगे कोई भी कठिनाई आए, तो तुम मुझे जरूर याद करना. मुझे लगता है कि हमें अब आपस में संपर्क बनाए रखना चाहिए.’’

‘‘श्योर. अब चलने की इजाजत दो.’’

‘‘अपना मोबाइल नंबर तो दे दो और जल्द ही फिर मिलने का वादा कर के जाओ,’’ राकेश ने आगे झुक कर बूआ से हाथ मिलाया और जल्दी से छोड़ा नहीं.

‘‘कुदरत को मंजूर होगा तो जल्द मिलेंगे.’’

‘‘देखो, लंबे समय के लिए फिर से गायब मत हो जाना. पुरानी दोस्ती की जड़ें हमें फिर से मजबूत करनी हैं,’’ बड़े अपनेपन से अपनी इच्छा जाहिर करने के बाद राकेश ने बूआ का मोबाइल नंबर नोट कर लिया.

लिफ्ट से नीचे आते हुए मैं ने बूआ को छेड़ा, ‘‘बूआ, यह बंदा तो आज भी आप पर पूरी तरह से फिदा है. था न आप दोनों के बीच प्यार का चक्कर कभी?’’

‘‘ऐसी बातें किसी और के सामने कभी मत करना, शिखा.’’

‘‘मेरा अंदाजा सही है न?’’

‘‘चुप कर,’’ बूआ ने मुझे प्यार से डपटा.

बूआ की जिंदगी में अजय फूफाजी के अलावा एक अन्य पुरुष भी कभी प्रेमी के रूप में मौजूद रहा है, इस बात को सोच कर मन ही मन अचंभा महसूस करती मैं बूआ की बगल में बैठ गई.

कार को घर की दिशा में न जाते देख मैं ने बूआ से पूछा, ‘‘अब हम कहां जा रहे हैं?’’

‘‘अतीत के एक दोस्त से तुम मिल चुकी हो. अब एक पुरानी सहेली से मिलवाने ले जा रही हूं तुम्हें,’’ बूआ अजीब ढंग से मुसकराईं.

मैं ने उन से वार्त्तालाप करने की कोशिश की पर वे अचानक ‘हूं, हां’ में जवाब देने लगीं. उन के यों अचानक गंभीर हो जाने से मैं ने अंदाजा लगाया कि शायद वे राकेश या अपनी इस पुरानी सहेली के बारे में बातें करने में उत्सुक नहीं हैं.

बूआ ने एक बड़े बंगले के सामने कार रोकी. कुछ देर उन्होंने स्टेयरिंग व्हील पर उंगलियों से इस अंदाज में तबला बजाया मानो सोच रही हों कि उतरूं या नहीं.

फिर उन्होंने मेरे चेहरे को कुछ पलों तक ध्यान से देखने के बाद गंभीर लहजे में कहा, ‘‘चलो, मेरी पड़ोसिन की बिटिया रानी, मेरे अतीत के एक और पृष्ठ को पढ़ने के लिए मेरे साथ चलो.’’

घंटी बजाने पर जिस स्त्री ने दरवाजा खोला वे भी मुझे बूआ की उम्र की ही लगीं. उन के माथे पर पड़े बल और भिंचे होंठ शायद उन के स्वभाव की सख्ती की तरफ इशारा कर रहे थे.

पहली नजर में वे बूआ को पहचान नहीं पाईं. फिर आंखों में पहचान के भाव उठने के साथसाथ पहले हैरानी और फिर नफरत व गुस्से के भाव उभरे.

मैं ने बूआ की तरफ देखा तो पाया कि वे एक मशीनी मुसकराहट होंठों पर बनाए रखने का पूरा प्रयास कर रही हैं.

‘‘पहचाना मुझे, अनीता?’’ बूआ ने असहज लहजे में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘तुम मेरे घर किसलिए आई हो?’’

‘‘क्या अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ बूआ ने सवाल पूछने से पहले एक गहरी सांस ली थी.

‘‘सौरी, अपने घर के दरवाजे मैं ने बहुत पहले तुम्हारे लिए बंद कर दिए थे.’’

‘‘आज 15 साल बाद भी मुझ से तुम्हारी नाराजगी खत्म नहीं हुई?’’

‘‘जो जख्म तुम ने मुझे दिया था, वह कभी नहीं भरेगा.’’

‘‘शायद मेरे माफी मांगने से भर जाए और यही काम करने मैं आज यहां आई हूं.’’

‘‘जीतेजी तो मैं तुम्हें कभी माफ नहीं कर सकती हूं, मीना.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘दोस्ती की आड़ में तुम ने मेरे वैवाहिक जीवन की खुशियों को नष्ट करने की कोशिश की थी. मेरे साथ विश्वासघात किया था तुम ने.’’

‘‘मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूं. मेरी 15 साल पुरानी गलती को भुला कर मुझे माफ कर दो, अनीता. प्लीज, तुम्हारे माफ कर देने से मेरे दिलोदिमाग को बहुत शांति मिलेगी,’’ बूआ ने उन के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘मैं चाह कर भी तुम्हें माफ नहीं कर सकती हूं,’’ अनीता की आवाज गुस्से और नफरत की अधिकता के कारण कांप उठी, ‘‘मेरे पति के साथ अवैध संबंध बना कर तुम ने हम पतिपत्नी के प्रेम व विश्वास की नींव को सदा के लिए खोखला कर दिया था. तुम्हारी उस भूल के कारण हम आज तक फिर कभी एकदूसरे के दिल में प्यार की जगह नहीं बना पाए. तुम चली जाओ यहां से. आई हेट यू.’’

अनीता की ऊंची आवाज सुन कर एक किशोर लड़की घर के अंदर से हमारे पास आ पहुंची. उस का चेहरा अनीता की बातें सुन लेने के कारण गुस्से से तमतमा रहा था.

इस वक्त बूआ और अनीता की आंखों में आंसू थे. बूआ ने सहानुभूतिपूर्ण, कोमल अंदाज में अनीता के कंधे पर हाथ रखना चाहा, तो उस लड़की ने बूआ का हाथ झटके से दूर कर दिया.

‘‘मेरी मां को अपने नापाक हाथों से मत छुओ, गंदी औरत,’’ वह लड़की गुस्से से फट पड़ी, ‘‘मैं सब जानती हूं तुम्हारे बारे में. तुम्हारे चक्कर में फंसने के बाद पापा न कभी अच्छे पति बने, न अच्छे पिता. हम तुम्हारी शक्ल कभी नहीं देखना चाहते हैं. भाग जाओ यहां से.’’

‘‘नेहा बेटी, तुम शांत रहो. मैं निबट लूंगी तुम्हारी इस मीना आंटी से,’’ नेहा की पीठ सहलाने के बाद अनीता ने फिर से बूआ को नफरत भरे अंदाज में घूरना शुरू कर दिया.

‘‘नेहा बेटी, तुम्हें मैं ने बहुत लाड़प्यार से अपनी गोद में खिलाया है. हम बड़ों के बीच में बोल कर तुम तो मेरा अपमान करने की कोशिश मत करो,’’ बूआ रोआंसी हो उठीं.

‘‘अगर अपमानित नहीं होना चाहती हो, तो हमारी आंखों के सामने आने से बचना. अगर पापा के साथ मैं ने कभी तुम्हें देख लिया, तो तुम्हारी खैर नहीं.’’

‘‘राकेश के पास अब क्या लौटोगी तुम. अब तक तो दसियों प्रेमी पाल कर छोड़ चुकी होगी तुम,’’ अनीता का स्वर बेहद जहरीला हो गया, ‘‘तुम्हारी तो कोई बेटी नहीं है, तो यह लड़की कौन है? कहीं पुरुषों को फांसने की अपनी कुशलता के बल पर लड़कियों से धंधा तो नहीं…’’

‘‘शटअप,’’ मैं एकाएक चीख पड़ी, ‘‘मेरी बूआ माफी मांगने आई हैं और आप हैं कि बेकार की बकवास करती ही जा रही हैं. ऐसा घटिया व्यवहार आप को शोभा नहीं देता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारी बूआ को 15 साल पहले ही मेरे घर की दहलीज कभी न लांघने को आगाह कर दिया था. अब ले क्यों नहीं जाती हो तुम इन्हें यहां से?’’ मुझ से भी ज्यादा जोर से वह मुझ पर चिल्लाईं और फिर धड़ाम की आवाज के साथ उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया.

वापस कार में आ कर बैठने तक हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई. फिर मैं ने बूआ की आंखों में झांका तो वहां मुझे दुख से ज्यादा हैरानी के भाव नजर आए.

‘‘मुझे इन पतिपत्नी व बेटी का ध्यान कभीकभी आता है, पर इन के दिलों में कितना गुस्सा… कितनी नफरत भरी हुई है आज भी मेरे प्रति,’’ बूआ के होंठों पर थकी सी मुसकान उभरी.

‘‘आप को क्या जरूरत थी इन से मिलने आने की?’’ मैं अभी भी तेज गुस्से का शिकार बनी हुई थी.

‘‘तुम्हें साथ ले कर मेरा राकेश व अनीता से मिलने आना मुझे जरूरी लगा था,’’ बूआ ने अर्थपूर्ण अंदाज में मेरी तरफ देखा.

‘‘ऐसा क्यों कह रही हो, बूआ?’’ अपराधबोध की एक तेज लहर अचानक मेरे मन में उठ कर मुझे सुस्त सा कर गई.

‘‘शिखा बेटी, 15 साल पहले मैं ने राकेश से अवैध संबंध बनाने की नासमझी की थी. इस कारण मैं ने अनीता की दोस्ती खो कर उसे सदा के लिए अपना दुश्मन बना लिया. आज उस की बेटी भी मुझ से नफरत करती है.

‘‘तू ने देखा न कि राकेश की दिलचस्पी आज भी मेरे साथ अवैध प्रेम का चक्कर फिर से शुरू करने में है. कुछ पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही होता है… शायद तुम्हारा दोस्त नवीन भी इसी श्रेणी का एक दिलफेंक खिलाड़ी है.’’

बूआ की पैनी नजरों का सामना न कर पाने के कारण मैं ने नजरें झुका लीं.

मुझे चुप देख कर बूआ ने मुझे समझाया, ‘‘देख शिखा, तुम्हारी अच्छी सहेली वंदना का भाई तुम्हारी ही तरह शादीशुदा है. कभी तुम दोनों एकदूसरे से प्यार करते थे, पर अब उस प्यार को जिंदा करने की नासमझी मत करो, प्लीज.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, बूआ,’’ झूठ बोलने के कारण मेरी आवाज बेहद भारी सी हो गई थी.

‘‘मुझ से असलियत छिपाने का क्या फायदा है, शिखा? तुम मायके आती हो, तो उस से मिलने जाती हो. वंदना को तुम्हारी ससुराल में लाने व छोड़ने के बहाने नवीन तुम्हारे पति संजय का भी दोस्त बन गया है. बिलकुल ऐसी ही परिस्थितियां 15 साल पहले तब थीं जब मैं ने मर्यादाओं को तोड़ कर राकेश से अवैध संबंध कायम कर लिए थे.’’

मैं ने अपनी सफाई में कुछ बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि बूआ उत्तेजित लहजे में आगे बोलीं, ‘‘पहले मुझे अपनी बात पूरी कर लेने दो शिखा. राकेश और मैं भी यही सोचते थे कि हम अपने संबंधोंके बारे में अजय या अनीता को कभी कुछ पता नहीं लगने देंगे, पर ऐसे चक्कर कभी छिपाए नहीं छिपते.

‘‘हमारे उस एक गलत कदम के परिणाम की ही झलक तुम्हें अनीता व नेहा के व्यवहार में दिखी ही है. कहीं सारी बात तुम्हारे फूफाजी को मालूम हो जाती, तो मेरे वैवाहिक जीवन की खुशियों व सुरक्षा की नींव भी जरूर खोखली हो जाती. अपने जीवनसाथी के चरित्र पर लगे धब्बे को भुलाना आसान नहीं होता. नवीन से संबंध बनाए रखने की मूर्खता कर के अपने व उस के वैवाहिक जीवन की खुशियों को दांव पर लगाने का खतरा मत मोल ले, मेरी बच्ची.’’

बूआ ने झुक कर मुझे अपनी छाती से लगाया, तो मेरी आंखों से आंसू बह निकले. मेरा मन अजीब से डर का शिकार हो गया था. रहरह कर अनीता और नेहा की गुस्से व नफरत भरी आंखें याद आ रही थीं. संजय को नवीन और मेरे संबंध की जानकारी लग गई, तो क्या होगा, इस सवाल का जवाब सोचना शुरू करते ही बदन कांप उठा.

‘‘मां ने आप को सब बता कर अच्छा ही किया, बूआ. आप की हिम्मत व समझदारी के कारण, जो मुझे देखनेसुनने को मिला, उस ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मैं वादा करती हूं कि गलत राह पर अब मेरा एक कदम भी और नहीं उठेगा,’’ बूआ को यह वादा देते हुए मेरा आत्मविश्वास लौट आया था और निडर भाव से उन की आंखों में देख पाना मेरे दृढ़ निश्चय की घोषणा कर रहा था.

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Inspirational Hindi Stories : ‘‘तारेश. यह क्या नाम रखा है मां तुम ने मेरा? एक तो नाम ऐसा और ऊपर से सर नेम का पुछल्ला तिवाड़ी… पता है स्कूल में सब मुझे कैसे चिढ़ाते हैं?’’ तारेश ने स्कूल बैग को सोफे पर पटकते हुए शिकायत की.

‘‘क्या कहते हैं?’’

‘‘तारू तिवाड़ी…खोल दे किवाड़ी…’’ तारेश गुस्से में बोला.

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मां मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘तुम्हारा यह नाम तुम्हारी दादी ने रखा था, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे उस वक्त भोर होने वाली थी और आसमान में सिर्फ भोर का तारा ही दिखाई दे रहा था.’’

‘‘मगर नाम तो मेरा है न और स्कूल भी मुझे ही जाना पड़ता है दादी को नहीं. मुझे यह नाम बिलकुल पसंद नहीं… आप मेरा नाम बदल दो बस,’’ तारेश जैसे जिद पर अड़ा था.

‘‘तारेश यानी तारों का राजा यानी चांद… तुम तारेश हो तभी तो चांद सी दुलहन आएगी…’’ मां ने प्यार से समझाते हुए कहा.

‘‘नहीं चाहिए मुझे चांद सी दुलहन… मुझे तो तेज धूप और रोशनी वाला सूरज पसंद है,’’ तारेश गुस्से में चीखा. मगर तब तारेश खुद भी कहां जानता था कि उसे सूरज क्यों पसंद है.

‘‘बधाई हो, बेटी हुई है,’’ नर्स ने आ कर कहा तो तारेश जैसे सपने से जागा.

‘‘क्या मैं उसे देख सकता हूं, उसे छू सकता हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ तारेश का उतावलापन देख कर नर्स मुसकरा दी.

‘‘नर्ममुलायम… एकदम रुई के फाहे सी… इतनी छोटी कि उस की एक हथेली में ही समा गई. बंद आंखों से भी मानो उसे ही देख रही हो,’’ तारेश ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘तुम्हारी यह निशानी बिलकुल तुम पर गई है सोमल…’’ तारेश बुदबुदाया. फिर उस ने हौले से नवजात को चूमा और उस की सैरोगेट मां की बगल में लिटा दिया.

स्कूल के दिनों से ही तारेश सब से अलग था. हालांकि वह पढ़ने में बहुत तेज था, मगर उसे लड़कियों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. हां, उस के स्पोर्ट्स टीचर अशोक सर उसे बहुत अच्छे लगते थे. खासकर उन का बलिष्ठ शरीर…जब वे ग्राउंड में प्रैक्टिस करवाते थे तो तारेश किनारे बैठ कर उन के चौड़े सीने और लंबी मजबूत भुजाओं को निहारा करता था. वैसे तो उस की स्पोर्ट्स में कोई खास रुचि नहीं थी, फिर भी सिर्फ अशोक सर का सानिध्य पाने के लिए वह गेम्स पीरियड में जिमनास्टिक सीखने जाने लगा. जब अशोक सर प्रैक्टिस करवाते समय उस के शरीर को यहांवहां छूते थे तो तारेश के पूरे बदन में जैसे बिजली सी दौड़ जाती थी. उस की सांसें अनियंत्रित हो जाती थीं. वह आंखें बंद कर अपने शरीर को ढीला छोड़ देता था और अशोक सर की बांहों में झूल जाता था. सब हंसने लगते तब उसे होश आता और वह शरमा कर प्रैक्टिसहौल से बाहर निकल जाता.

कालेज में भी जहां सब लड़के अपनी मनपसंद लड़की को पटाने के चक्कर में रहते, वह बस अपनेआप में ही खोया रहता. लेकिन सोमल में कुछ ऐसा था कि बस उसे देखा तो उस में डूबता ही चला गया. सोमल को भी शायद तारेश का साथ पसंद आया और जल्दी दोनों बहुत अच्छे साथी बन गए. दोनों क्लास में पीछे की सीट पर बैठ कर पूरा पीरियड न जाने क्या खुसरफुसर करते रहते. तारेश तो उस का दीवाना ही हो गया. कालेज में एक दिन की छुट्टी भी उसे नागवार लगती. वह तो शाम से ही अगली सुबह होने का इंतजार करने लगता.

कालेज खत्म कर के दोनों ने ही बिजनैस मैनेजमैंट में मास्टर डिग्री करना तय किया. दोनों साथ ही रहेंगे, सोच कर दोनों के ही घर वालों ने खुशीखुशी जाने की इजाजत दे दी. तारेश को तो जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गई. दिल्ली के एक बड़े कालेज में दोनों को ऐडमिशन मिल गया और 1 कमरे का फ्लैट दोनों ने मिल कर किराए पर ले लिया.

सब कुछ सामान्य चल रहा था. दोनों साथसाथ कालेज जाते, साथसाथ घूमतेफिरते और मजे करते. कभी खाना बाहर खाते, कभी बाहर से मंगवाते, तो कभीकभी दोनों मिल कर रसोई में हाथ आजमाते… दोनों की जोड़ी कालेज में ‘रामलखन’ के नाम से मशहूर थी.

देखते ही देखते लास्ट सैमैस्टर आ गया और कालेज में कैंपस इंटरव्यू शुरू हो गए. लगभग सभी स्टूडैंट्स का अच्छीअच्छी कंपनियों में प्लेसमैंट हो गया. तारेश को बैंगलुरु की कंपनी ने चुना तो सोमल को हैदराबाद की कंपनी ने. पैकेज से तो दोनों ही बेहद खुश थे, मगर एकदूसरे से जुदा होना अब दोनों को ही गवारा नहीं था. घर आ कर दोनों देर तक गुमसुम बैठे रहे. क्या करें क्या न करें की स्थिति थी. मगर एक को तो छोड़ना ही पड़ेगा… चाहे नौकरी चाहे साथी.

दोनों एकदूसरे से लिपट कर देर तक रोते रहे. वे जुदा नहीं होना चाहते… आज रात तारेश और सोमल को पता चल गया कि वे दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं. इस एक रात ने उन्हें समझा दिया कि क्यों उन्हें एकदूसरे का साथ इतना अच्छा लगता. आज रात दोनों ने अपने प्यार का इजहार कर अपने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया, जो दुनिया की निगाहों में धर्मविरोधी था, अप्राकृतिक था… हां, वे गे थे और उन्हें इस बात पर कोई शर्म नहीं थी.

दोनों ने अपनाअपना प्लेसमैंट कैंसिल कर तय किया कि वे दिल्ली में ही रह कर काम तलाश करेंगे. कुछ दिनों के प्रयास के बाद तारेश को एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई. फिर कुछ दिन बाद सोमल को भी. दोनों की जिंदगी फिर से पटरी पर आ गई. सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहा.

तारेश की मां अब उस पर शादी के लिए दबाव बनाने लगी थीं और सोमल के घर वाले भी यही चाहते थे कि उस का घर बस जाए. दोनों घरों में जोरशोर से लड़कियां देखी जा रही थीं. मगर वे दोनों लव बर्ड्स इन सब बातों से बेखबर अपने में ही खोए थे. उन की एक अलग ही दुनिया थी. उन्हें बिलकुल अंदेशा नहीं था कि कोई तूफान आने वाला है.

जब बारबार बिना किसी ठोस कारण के लड़कियां रिजैक्ट होने लगीं तो तारेश की मां का माथा ठनका कि कहीं किसी लड़की का चक्कर तो नहीं…

यही हाल सोमल के घर पर भी था. हकीकत जानने के लिए एक दिन बिना बताए तारेश की मां दिल्ली उन के फ्लैट पहुंच गईं. दोनों के हावभाव से उन्हें दाल में कुछ काला लगा. उन्होंने फोन कर के तारेश के पापा और सोमल के घर वालों को भी बुला लिया.

दोनों लड़कों ने साफसाफ कह दिया कि वे एकदूसरे के साथ जिंदगी बिताना चाहते हैं और किसी को भी उन के लिए लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है. पहले तो दोनों के घर वालों ने उन्हें समाज में अपनी इज्जत का हवाला दे कर बहुत समझाया. सोमल की मां ने बहन की शादी में आने वाली परेशानी का वास्ता दिया. वंश बेल के खत्म होने का डर भी दिखाया, मगर जब दोनों अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए तो तारेश की मां ने सोमल को और सोमल के घर वालों ने तारेश को जी भर कर कोसा. खूब हंगामा हुआ. मामला फ्लैट से बिल्डिंग में फैला और फिर पूरी सोसाइटी में वायरल हो गया. मकानमालिक ने फ्लैट खाली करने का नोटिस दे दिया.

बात धीरेधीरे दोनों के औफिस में भी पहुंच गई. हर व्यक्ति उन्हें ऐसे देख रहा था जैसे वे किसी दूसरे ही ग्रह के प्राणी हों. कल तक जो साथी उन के साथ काम करते, खातेपीते, उठतेबैठते, पार्टियां करते थे आज अचानक उन से कन्नी काटने लगे, अछूतों सा व्यवहार करने लगे. दोनों को ही घुटन होने लगी.

सोमल के तो बौस ने उसे एकांत में बुला कर समझा भी दिया, ‘‘देखो सोमल, तुम्हारे कारण औफिस का माहौल खराब हो रहा है. कर्मचारी अपने काम पर कम, तुम्हारी स्टोरी पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. बेहतर होगा तुम इस्तीफा दे दो. अगर रिमार्क के साथ निकाले जाओगे तो तुम्हारे भविष्य के लिए घातक होगा.’’

तूफानों में बहने वालों के लिए वक्त कभी आसान नहीं होता. हार कर दोनों ने शहर छोड़ने का फैसला कर लिया और मुंबई शिफ्ट हो गए. इस बीच सोमल की बहन राखी की भी शादी हो गई. मगर उसे खबर तक नहीं की गई.

घर वालों ने तो पहले ही किनारा कर लिया था. सभी पुराने दोस्त भी छूट चुके थे. बस सोमल की एक चचेरी भाभी लीना ही थी, जिस ने इतना कुछ होने के बाद भी उस से संपर्क बनाए रखा था. अब इस नए शहर में दोनों को कोई नहीं जानता था. फिर से एक नई जिंदगी की शुरुआत हुई.

एक दिन अचानक लीना भाभी ने फोन पर बताया कि सोमल राखी के पति की ऐक्सीडैंट में डैथ हो गई. सोमल तड़प उठा. बहुत प्यार करता था अपनी बहन से.

‘उसे इस मुश्किल घड़ी में अपनी बहन के पास होना चाहिए,’ सोच कर तत्काल में ट्रेन के टिकट ले सोमल पहुंच गया अपनी बहन के पास.

उसे देखते ही राखी दौड़ कर लिपट गई भाई से. तभी उस की सास आई और उसे खींचते हुए भीतर ले गई. साथ ही सोमल को भी एहसास करवा गई कि उस का आना उन्हें जरा भी नहीं भाया. बस यही आखिरी मुलाकात थी सोमल की अपने अपनों से. इस के बाद उस की और तारेश की दुनिया एकदूसरे तक ही सिमट कर रह गई.

एक दिन दोनों फुरसत के पलों में टीवी पर ‘हे बेबी’ फिल्म देख रहे थे, जिस में 3 पुरुष साथी मिल कर एक बच्ची की परवरिश करते हैं.

सोमल ने कहा, ‘‘तारु, क्या हमारा भी बच्चा हो सकता है?’’

‘‘पता नहीं… मगर बच्चा तो मां के गर्भ में ही पलता है न… फिर कैसे होगा?’’ तारेश ने कहा.

‘‘विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, कोई तो रास्ता होगा… क्या हम सैरोगेसी तकनीक का सहारा नहीं ले सकते?’’

‘‘हो सकता है यह संभव हो, मगर इस में कई कानूनी अड़चनें भी आ सकती हैं. क्या कानून हम जैसे लोगों को सैरोगेसी की इजाजत देता है और सब से बड़ी बात यह कि हम सैरोगेट मां कहां से लाएंगे? हमारे तो सब रिश्तेदार भी हम से किनारा कर चुके हैं. खैर अभी तुम ये सब बातें छोड़ो… किसी दिन किसी विशेषज्ञ से मिलते हैं,’’ कह कर तारेश ने एक बार तो चर्चा को विराम दे दिया, मगर बात उस के दिमाग से निकली नहीं. उस ने ठान लिया कि अगर संभव हुआ तो वह सोमल की इस इच्छा को जरूर पूरा करेगा.

एक दिन तारेश किसी काम से एक नामी हौस्पिटल गया. वहां आईवीएफ सैंटर देख कर उस के पांव ठिठक गए. उसे सोमल का सपना याद आ गया. उस ने वहां की हैड डा. सरोज से अपौइंटमैंट लिया और सोमल के साथ उन से मिलने पहुंच गया.

डा. सरोज ने उन की पूरी बात ध्यान से सुनी और बताया कि सोमल का सपना आईवीएफ और सैरोगेसी तकनीक के माध्यम से पूरा हो सकता है.

दोनों के चेहरे पर आई उम्मीद की रोशनी को परखते हुए वे आगे बोलीं, ‘‘देखिए, सरकार ने हाल ही में सैरोगेसी बिल पास किया है जिस के अनुसार सिंगल पेरैंट और समलैंगिक जोड़ों को इस की इजाजत नहीं होगी. हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है, लेकिन निकट भविष्य में यह परेशानी आ सकती है. वैसे आप ने सुना होगा कि पिछले दिनों ही फिल्म अभिनेता तुषार कपूर इसी तकनीक के माध्यम से पहले सिंगल पिता बने हैं. हमारे पास और भी कई सिंगल महिलाओं और पुरुषों ने मातापिता बनने के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखा है. आप भी करवा सकते हैं.’’

‘‘किराए की कोख का इंतजाम कैसे होगा?’’

‘‘इस के लिए आप को अपनी किसी नजदीकी रिश्तेदार की मदद लेनी होगी.’’

‘‘मगर हमारे रिश्तेदारों ने हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.’’

‘‘अब इतनी मेहनत तो आप लोगों को करनी ही होगी,’’ कह कर डा. ने अगले विजिटर को बुलवा लिया.

सोमल को लीना भाभी याद आ गईं. उस ने उन्हें फोन लगाया, ‘‘हाय भाभी, कैसी हैं आप?’’

‘‘सोमल बाबू को आज हमारी याद कैसे आ गई?’’ लीना ने अपनेपन से पूछा तो सोमल मुद्दे पर आ गया और कहा, ‘‘मुझे इस काम के लिए तुम्हारी मदद की जरूरत है.’’

‘‘माफ करना सोमल, मगर इस मसले पर मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती. तुम्हारे भैया इस के लिए कभी राजी नहीं होंगे और मेरे लिए अपना परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है.’’

लीना के टके से जवाब से सोमल की एकमात्र उम्मीद भी खत्म हो गई.

अब जो आखिरी उम्मीद उन्हें नजर आ रही थी वह था इंटरनैट. कहते हैं यहां खोजो तो सब मिल जाता है. दोनों साथी जोरशोर से इंटरनैट खंगालने लगे. इसी कवायद में उन्हें एक समाचारपत्र रिपोर्टर की कवर स्टोरी पढ़ने को मिली, जिस में उस ने लिखा था कि गुजरात में स्थित आणंद एक ऐसी जगह है जहां सैरोगेट मदर आसानी से उपलब्ध हैं और यही नहीं यहां अब तक सैरोगेसी से लगभग 1,100 बच्चों का जन्म हो चुका है. पढ़ते ही दोनों खिल उठे. फिर क्या था पहुंच गए दोनों आणंद, जहां उन के सपने पर सचाई की मुहर लगने वाली थी. यहां एक टैस्ट ट्यूब बेबी क्लिनिक के बाहर उन का संपर्क एक दलाल से हुआ जोकि सैरोगेसी के लिए किराए की कोख का इंतजाम करता था. उन की स्थिति और बच्चा पाने की प्रबल इच्छा को देखते हुए दलाल ने उन की मजबूरी का पूरापूरा फायदा उठाया और कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए मुंहमांगी कीमत में उन के लिए एक औरत को कोख किराए पर देने के लिए तैयार कर लिया. 2 ही दिन में सभी आवश्यक औपचारिकताएं भी पूरी करवा दीं.

1 महीने बाद उन्हें वापस आना था ताकि आगे की कार्यवाही को अंजाम दिया जा सके. दोनों खुशीखुशी वापस मुंबई आ गए.

तभी अचानक एक दिन यह हादसा हुआ और तारेश की दुनिया में अंधेरा छा गया. दोनों साथी पिता बनने की खुशी सैलिब्रेट करने और मौसम की पहली बारिश में भीगने का मजा लेने खंडाला जा रहे थे. तभी हाईवे पर तेज गति से आ रहे एक ट्रक ने अनियंत्रित हो कर उन की कार को टक्कर मार दी. दोनों को जख्मी हालत में हौस्पिटल ले जाया जा रहा था, मगर रास्ते में सोमल जिंदगी की जंग हार गया. सोमल की मौत पर भी उस के घर से कोई नहीं आया.

1 महीना बीतने पर दलाल का फोन आया तो तारेश ने उसे अपने साथ हुए हादसे के बारे में बताया और सोमल के संरक्षित शुक्राणुओं की मदद से पिता बनने की इच्छा जाहिर की. दलाल ने इस बाबत कुछ और रकम का इंतजाम करने के लिए कहा. तारेश ने अपनी सारी जमापूंजी इस प्रोजैक्ट पर खर्च कर दी.

सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद महिला के अंडाणु और सोमल के स्पर्म बैंक में सुरक्षित रखे शुक्राणुओं को प्रयोगशाला में निषेचित करवा कर भ्रूण को सैरोगेट मदर के गर्भ में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया और निश्चित समय पर उस बच्ची का जन्म हुआ जिस का जैनेटिक पिता सोमल था.

तारेश जानता था कि इस बच्ची को अकेले पालना आसान काम नहीं है. मगर सोमल का सपना पूरा करना ही अब उस का एकमात्र सपना था और इस के लिए वह किसी नहीं भी हालात का सामना करने के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार था.

कौंट्रैक्ट के अनुसार 1 महीने तक बच्ची को सैरोगेट मां ने अपना दूध  पिलाया और फिर बच्ची को तारेश के अनाड़ी हाथों में सौंप कर चली गई.

1 महीने की कोमल काया को ले कर तारेश सोमल के घर गया. जब उस ने सोमल के मम्मीपापा को बताया कि यह बच्ची सोमल की है तो राखी उसे गोद में लेने आगे बढ़ी. मगर मम्मीपापा के विरोध के कारण उस के बढ़ते कदम रुक गए.

तारेश ने कहा, ‘‘मैं जानता हूं आप लोग मुझ से नफरत करते हैं, मगर इस बच्ची में तो आप का अपना अंश है… हालांकि मैं अकेला ही इसे बेहतर परवरिश दे सकता हूं, मगर आज अगर सोमल जिंदा होता तो वह भी यही चाहता कि उस की बच्ची को उस के दादादादी का आशीर्वाद और बूआ का स्नेह मिले…’’ कह कर तारेश कुछ देर खड़ा रहा. मगर सामने से कोई पौजिटिव जवाब न पा कर वह बच्ची को गोद में लिए बाहर की ओर पलट गया.

अभी दरवाजे से बाहर नहीं निकला था कि सोमल की मां की आवाज आई, ‘‘रुको.’’

तारेश ने मुड़ कर देखा तो बच्ची के दादादादी अपनी आंखें पोंछते हुए उस की तरफ बढ़ रहे थे.

दादा ने कहा, ‘‘बेटा तो चला गया, लेकिन उस की निशानी को हम अपने से दूर नहीं जाने देंगे. इस बच्ची को हम पालेंगे और हां, मूल न सही सूद ही सही… हम तुम्हारा एहसान नहीं भूलेंगे…’’

‘‘मगर यह बच्ची हम दोनों का सपना है,’’ तारेश को लगा मानो वह बच्ची को हमेशा के लिए खो देगा.

‘‘हांहां, तुम्हीं इस के पिता रहोगे. मगर अभी इसे एक मां की ज्यादा जरूरत है… अगर तुम्हें एतराज न हो तो यह जिम्मेदारी राखी निभा सकती है.’’

‘‘मगर आप लोग तो सचाई जानते हैं… मैं राखी को कभी पति का सुख नहीं दे पाऊंगा.’’

‘‘मैं पत्नी का नहीं मां बनने का सुख चाहती हूं,’’ इस बार राखी ने कहा और बच्ची को अपनी गोद में ले लिया. तारेश को लगा जैसे बच्ची की मासूम मुसकराहट में सोमल खिलखिला रहा है.

Latest Hindi Stories : गरम लोहा – बबिता ने पति और बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा क्यों ली थी

Latest Hindi Stories : अपूर्व और बच्चों को मेरी टांग खींचने का अच्छा मौका मिल गया था. सब से पहले छोटे बेटे ऋतिक ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मा, मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि आप मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी, क्योंकि आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि आप हम लोगों के साथ अब कहीं नहीं जाओगी.’’

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ऋतिक की बात पूरी होते ही अपूर्व ने उस के हाथ से फोन लेते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा, मेरे होते हुए तुम नानी से बात करो यह मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. लाओ फोन मुझे दो. मैं नानी को ठीक से समझा देता हूं कि वे साले साहब की शादी की सारी तैयारी अकेले ही कर लें, क्योंकि उन की लाडली ने कहीं भी न जाने की प्रतिज्ञा कर ली है.’’

मेरे दिमाग के गरम पारे पर मां के फोन से पानी की जो ठंडी फुहार पड़ी थी वह पुन: इन लोगों की चुहलबाजी से ज्वलंत होने लगी.

हुआ यों था कि शिमला में 1 सप्ताह तक छुट्टियां बिता कर हम बस घंटा भर पहले ही घर आए थे. घर में घुसते ही अपूर्व और बच्चे एसी और टीवी औन कर के बैठ गए और फिर 1-1 कर के फरमाइशें शुरू कर दीं, ‘‘बबीता, फटाफट 1 कप चाय पिलाओ… होटल की चाय पी कर मन खराब हुआ पड़ा है.’’

‘‘मम्मा, प्लीज साथ में प्याज के पकौड़े भी बना देना. रास्ते में कहीं पकौड़े बन रहे थे. उन की महक मेरी नाक में ऐसी समाई कि मैं ने वहीं तय कर लिया था कि घर पहुंच कर सब से पहले मम्मा से पकौड़े बनवाऊंगा, बड़े बेटे गौरव ने अपनी इच्छा जताई.’’

‘‘मम्मा, आप ने मुझ से वादा किया था कि घर पहुंचते ही मुझे नूडल्स खिलाओगी. अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. फटाफट अपना वादा पूरा करो,’’ छोटे बेटे ऋतिक ने भी उन दोनों के सुर में सुर मिलाया.

मेरे कानों में उन तीनों की बातें पड़ तो रही थीं पर ध्यान घर में बिखरे काम पर था.

बालकनी में सप्ताह भर के पेपर्स के बंडल बिखरे पड़े थे, जिन्हें हमारी गैरमौजूदगी में भी पेपर वाला डालता गया था, क्योंकि उसे हम मना करना भूल गए थे. उन्हें उठा कर खोल कर अलमारी में रखना था. सामने और पीछे दोनों तरफ की बालकनियों के गमलों के पौधे 1 सप्ताह में पानी के अभाव में झुलस से गए थे. उन में पानी डालना था. घर में इतनी धूल दिखने लगी थी कि फर्श पर चप्पलों के निशान बन रहे थे. कामवाली तो कल सुबह ही आएगी. अत: झाड़ूपोंछा भी करना ही पड़ेगा. सारे कमरों की बैडशीटें बदलनी हैं. किचन समेत पूरे घर की डस्टिंग करनी पड़ेगी. सूटकेस और बैग्स को खाली कर के धूप दिखा कर ऊपर की अलमारी में रखना है. सब से बढ़ कर तो गंदे कपड़ों के अंबार से निबटना है. कपड़े मशीन में धुलने डालने हैं. धुलने के बाद सूखने डालना और फिर सूखने के बाद उठा कर अंदर लाने हैं.

इस सब के अलावा सप्ताह भर बाहर का खाना खा कर ऊब चुके अपूर्व और बच्चों की दिली तमन्ना कि आज घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाने को मिलेगा, बिना कहे ही मैं समझ रही थी.

2-4 दिन के लिए भी घर छोड़ कर कहीं चले जाओ तो आने के बाद काम का अंबार देख कर मन इतना घबरा जाता है कि यह सोचने लग जाती हूं कि गई ही क्यों? अपूर्व और बच्चे तो बस सूटकेस और बैग्स को घर के अंदर पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. उन्हें किसी और काम से मतलब नहीं रह जाता. मैं अकेली सारे काम निबटातेनिबटाते अधमरी हो जाती हूं.

अपूर्व और बच्चे तो अपनीअपनी फरमाइशें मुझे सुना कर टीवी के सामने बैठ गए और मैं किचन में खड़ी सोचने लगी कि कहां से काम शुरू करूं.

मुझे पता था कि जब तक तीनों की खानेपीने की फरमाइशें पूरी नहीं कर दूंगी तब तक ये शोर मचाते रहेंगे और मैं कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाऊंगी. हालांकि लंबे सफर से आने के बाद नहाए बिना कुछ करने का मन नहीं कर रहा था, पर नहाने का इरादा त्याग कर जल्दीजल्दी प्याज काटने में जुट गई. गैस पर एक तरफ 2 कप चाय चढ़ा दी और दूसरी तरफ भगौने में नूडल्स बनने रख दी. तीसरे आंच पर कड़ाही में तेल गरम होते ही फटाफट पकौड़े तल कर सारा सामान ट्रे में लगा कर उन के पास पहुंच गई.

सब के साथ खुद भी सफर की थकान कम करने के इरादे से बैठ कर मैं ने भी चाय पी और उस के बाद पल्लू कमर में ठूंस कर काम निबटाने उठ गई.

सोचा सब से पहले कपड़ों को मशीन में डाल दूं. मशीन में कपड़े अपनेआप धुलते रहेंगे और मैं उस दौरान दूसरे काम करती रहूंगी.

मशीन लगाने के नाम पर मुझे पानी का खयाल आया कि पता नहीं टंकी में कितना पानी है? पर जब मैं ने ऋतिक से कहा कि जा कर देख कर आ कि टंकी में कितना पानी है ताकि मैं अपना काम उसी हिसाब से शुरू करूं तो वह मुंह तक चादर ओढ़ कर सो गया और अपने बड़े भाई की ओर इशारा कर के मुझे सलाह दे डाली कि इसे भेज दो.

उस की हरकत पर गुस्सा तो बहुत आया पर मैं बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से बाहर निकल आई.

गौरव ने शायद मेरी नाराजगी को महसूस कर लिया. अत: उस ने बिना मेरे कुछ कहे ही उठते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं देख कर आता हूं.’’

‘शुक्र है, किसी को तो दया आई मुझ पर,’ सोचते हुए मैं ने सूटकेस और बैग खाली करना शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, टंकी पूरी भरी हुई है… अब प्लीज कम से कम 1 घंटे तक आप मुझ से कोई काम करने को मत कहिएगा,’’ कहते हुए वह फिर से टीवी के सामने बैठ गया.

मैं अकेली इतने सारे कामों को ले कर परेशान हो रही हूं पर मेरे पति और बच्चों को इस की कोई परवाह नहीं है. कोई झूठमूठ भी मदद के लिए नहीं उठ रहा है. कहीं जाने का प्रोग्राम बनाने में तो तीनों ही बहुत तेज रहते हैं पर जाने से पहले की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही वापस आने के बाद फैले कामों को समेटने में.

‘बस अब बहुत हो गया. ये सब मेरे सीधेपन का ही नतीजा है. मैं तो हरेक की सुविधा के लिए खटती रहती हूं पर इन्हें मेरी रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती. अब तो इन्हें इन की गलती का और घर के प्रति जिम्मेदारियों का एहसास कराना ही पड़ेगा,’ यह सोचते हुए मैं कमरे में पहुंच गई.

‘‘मैं भी तुम सब के साथ ही लंबा सफर कर के आई हूं. मैं भी इनसान हूं, इसलिए थकान मुझे भी होती है, पर तुम लोगों के हिसाब से आराम करने का हक मुझे नहीं है. तुम लोगों की सोच यह है कि बाहर बिखरे सारे काम निबटाना मुझ अकेली की जिम्मेदारी है. इसलिए मैं ने भी अब तय कर लिया है कि अब आगे से मैं तुम लोगों के साथ कहीं भी आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाऊंगी. प्रोग्राम बनाने में तो तुम तीनों आगे रहते हो पर जाने के समय की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही आने के बाद बिखरे कामों को समेटने में. जाते वक्त अपने कपड़े तक छांट कर नहीं देते हो तुम सब कि कौनकौन से रखूं. ऊपर से वहां पहुंच कर नखरे दिखाते हो कि मम्मा, यह शर्ट क्यों रख ली. यह तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं, यह जींस क्यों रख ली यह तो टाइट होती है. वापस आने के बाद इस समय कितने काम हैं करने को, जिन में तुम लोग मेरी मदद कर सकते हो पर तुम में से किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. तुम सब को आराम चाहिए. तुम सब को एसी चाहिए पर क्या मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही इन चीजों की?’’

मेरी बात का तीनों पर तुरंत असर पड़ा. गौरव तुरंत टीवी बंद कर के उठ गया. पति भी एसी बंद कर बाहर आ गए. उन दोनों की देखादेखी छोटा भी अनमना सा चादर फेंक कर हाल में आ कर खड़ा हो गया.

तीनों ही अपने करने लायक काम की तलाश में इधरउधर नजर डाल ही रहे थे कि अचानक मेरा सेलफोन बज उठा. गुस्से की वजह से मेरा फोन उठाने का मन नहीं कर रहा था पर मम्मी का नाम देख कर फोन उठाने को मजबूर हो गई.

‘‘हैलो बबीता, तुझे खुशखबरी देनी थी. आयूष की शादी पक्की हो गई है. लड़की वाले अभी यहीं बैठे हैं. हम सगाई और शादी की तारीख तय कर रहे हैं. तय होते ही तुम्हें दोबारा फोन करूंगी. तारीख बहुत जल्दी की तय करेंगे, इसलिए बस तुम फटाफट आने की तैयारी शुरू कर दो, क्योंकि जब तक तुम नहीं आओगी मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाऊंगी,’’ कह कर मम्मी ने फोन रख दिया.

मम्मी के फोन रखते ही मैं चहक उठी, ‘‘सुनो, आयूष की शादी पक्की हो गई है और शादी की बहुत जल्दी की तारीख भी निकलने वाली है. मम्मी ने हमें तैयारी शुरू कर देने को कहा है.’’

‘‘पर मम्मा आप जाएंगी क्या मामा की शादी में?’’ छोटे बेटे ने बड़ी मासूमियत से कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं जाऊंगी? क्या तुम लोगों को नहीं जाना मामा की शादी में?’’ मैं ने आश्चर्य से ऋतिक की ओर देखा.

‘‘जाना तो था पर अभीअभी तो आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि अब आप हम लोगों के साथ कहीं आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाएंगी, तो मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि मम्मा मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी. आप हम लोगों का इंतजार न करें.’’

बस फिर क्या था. अपूर्व को भी मौका मिल गया बच्चों के साथ मिल कर मेरी टांग खींचने का. उन्होंने ऋतिक के हाथ से फोन ले लिया और कहने लगे कि बेटा मेरे होते हुए तुम नानी को यह खबर दो, कुछ ठीक नहीं लगता. लाओ, मैं ठीक से समझा कर बता देता हूं नानी को कि वे अपनी प्यारीदुलारी बेटी का इंतजार न करें शादी में.

थोड़ी देर पहले ही मेरे गुस्से का जो असर तीनों पर पड़ा था और तीनों ही मेरी मदद के लिए आ गए थे उस पर मम्मी के फोन से पानी फिर गया.

मेरा मूड अच्छा हुआ देख थोड़ाबहुत इधरउधर कर के दोबारा फिर सब टीवी के सामने जा बैठे. अब दोबारा चीखनेचिल्लाने के बजाय मैं ने अकेले ही काम में जुट जाना बेहतर समझा.

दूसरे दिन से अपूर्व अपने औफिस और बच्चे स्कूल में व्यस्त हो गए. मैं भी बिखरे काम समेटने के साथसाथ आयूष की शादी की कल्पना में जुट गई.

लेकिन जब आयूष की शादी में जाने और शादी की तैयारी के बारे में सोचना शुरू किया तो जाने के पहले की तैयारी और आने के बाद के बिखरे काम के बारे में सोच कर मेरा मानसिक तनाव फिर से बढ़ गया.

अपूर्व और बच्चों के असहयोगात्मक रवैए के कारण कहीं आनेजाने के नाम पर सचमुच मुझे घबराहट होने लगी थी. मुझे दिलोजान से चाहने वाले मेरे पति और बच्चे कहीं भी आनेजाने की तैयारी में कोई भी मदद नहीं करते थे. सब से अधिक परेशानी मुझे होती है सब के कपड़ों के चयन में. कब और किस अवसर पर तीनों कौनकौन से कपड़े पहनेंगे यह भी मुझे अकेले ही तय करना पड़ता है. बच्चों को साथ बाजार चल कर पसंद के कपड़े लेने को कहती हूं तो जवाब मिलता है, ‘‘प्लीज मम्मा, तुम ले आओ. हमें शौपिंग पर जाना बिलकुल पसंद नहीं है. जब कहती हूं कि बेटा मुझे तुम लोगों की पसंदनापसंद समझ में नहीं आती है तो कहते हैं कि आप व्हाट्सऐप पर फोटो भेज देना हम बता देंगे कि पसंद हैं या नहीं.’’

मैं जब हार कर अपनी पसंद के कपड़े ले जाती तो कभी किसी को रंग पसंद नहीं आता तो कभी डिजाइन. मैं गुस्सा हो कर कहती कि इसीलिए कहती हूं कि अपने कपड़े खरीदने मेरे साथ चला करो पर कोई मेरी बात नहीं मानता. अब कल चलो मेरे साथ और इन्हें बदल कर अपनी पसंद के लेना.

उन्हें क्या पता कि मां जब तक अपने बच्चों को नए कपड़े नहीं पहना लेती खुद अपने तन पर नए कपड़े नहीं डालती. बच्चों का पहनावा और संस्कार मां की परवरिश और सुघड़ता को उजागर करते हैं, इसलिए मेरे बच्चे और पति का पहनावा हर अवसर पर सलीकेदार हो, इस का मैं विशेष ध्यान रखती हूं.

बच्चे छोटे थे तो ठीक था. जो भी खरीद कर लाती थी खुशीखुशी पहन लेते थे. पर बड़े हो जाने पर पहनते वही हैं जो उन्हें पूरी तरह से पसंद हो. मगर शौपिंग के लिए साथ हरगिज नहीं जाएंगे. कई बार खीज कर कह बैठती कि तुम दोनों की जगह अगर 2 बेटियां होतीं मेरी तो वे मेरे साथ शौपिंग के लिए भी जातीं और घर के कामों में भी मेरा हाथ बंटातीं.

सब से अधिक असमंजस और परेशानी वाली स्थिति मेरे लिए तब बन जाती है जब कहीं जाने पर वहां पहुंच कर दूसरेतीसरे दिन पहनने के लिए कपड़े निकाल कर देती हूं और वे यह कह कर पहनने से इनकार कर देते कि यह तो अब टाइट होने लगा है या इस की तो चेन खराब है. तब मेरे पास अपना सिर पीटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. कई बार तो इस वजह से नई जगह में मुझे टेलर और कपड़ों की दुकान तक के चक्कर लगाने पड़ गए थे.

मैं ने मन ही मन तय किया कि मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिस से इन्हें मेरी स्थिति का अंदाज लगे और ये अपनी जिम्मेदारियां समझने लगें. मैं ने मन ही मन प्लान बनाया और फिर उस पर अमल करना शुरू कर दिया.

मुझे पता था कि इकलौते साले और इकलौते मामा की शादी के लिए अपूर्व और बच्चे भी बहुत उत्साहित हैं, साथ ही उन्हें मेरे उत्साह का भी अंदाजा है, बस इसी बात को हथियार बना कर मैं अपने प्लान पर अमल करने में जुट गई.

आयूष की शादी 1 महीने के बाद होनी तय हुई थी, इसलिए मुझे तैयारी ज्यादा करनी थी और समय कम था.

मैं ने तय यह किया कि मैं अपूर्व के औफिस और बच्चों के स्कूल जाने के बाद बाजार जाऊंगी पर मैं शादी के लिए कोई तैयारी कर रही हूं, इस की भनक तीनों को नहीं लगने दूंगी. खरीदे सारे कपड़े और बाकी सारा सामान मैं लाने के बाद अलमारियों में रख देती. सब के सामने सामान्य रहने का नाटक करती. शादी के प्रति न ही सब के सामने अपनी खुशी और उत्साह को प्रकट करती और न ही शादी की कोई चर्चा उन के सामने करती.

10-15 दिन तो सभी अपनेअपने काम में मशगूल रहे. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मैं शादी के मसले पर शांत बैठी हूं. फिर एक दिन डिनर पर अपूर्व ने जब शादी का जिक्र छेड़ा तो मेरी ठंडी प्रतिक्रिया ने सब को चौकन्ना कर दिया. मैं ने कनखियों से देखा कि तीनों की सवालियां नजरें एकदूसरे से टकराईं.

‘‘क्या बात है बबीता आयूष की शादी के नाम पर तुम इतनी चुपचाप बैठी हो… अभी तक तुम ने कोई तैयारी भी शुरू नहीं की… सब कुछ ठीक तो है न?’’

‘‘हां ठीक है,’’ मैं ने जानबूझ कर संक्षिप्त जवाब दिया पर यह जवाब उन के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था.

‘‘कोई परेशानी है?’’ मेरी खामोशी से अपूर्व विचलित नजर आए.

तीर निशाने पर लगता देख मैं अपने प्लान की कामयाबी के प्रति आश्वस्त होते हुए गंभीर मुद्रा बना कर बोली, ‘‘मैं नहीं जा रही शादी में.’’

‘‘क्यों? क्या हो गया?’’ तीनों बुरी तरह चौंके.

‘‘भूल गए मेरी भीष्म प्रतिज्ञा?’’ मैं ने ऋतिक की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘अरे मम्मा, मामा की शादी हो जाने दो, फिर ले लेना प्रतिज्ञा,’’ नटखट ऋतिक अपनी शैतानी से बाज नहीं आ रहा था. पर मैं ने अपनी हंसी पर पूर्ण नियंत्रण रखा था.

‘‘मैं सीरियस हूं. मेरी बात को कौमेडी बनाने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर मैं जल्दीजल्दी अपना खाना खत्म कर प्लेट सिंक में रख बैडरूम में चली गई.

‘‘पापा, लगता है मम्मा नाराज हैं हम लोगों से,’’ गौरव की फुसफुसाती आवाज सुनाई दी मुझे.

‘‘तुम लोग चिंता न करो, अगर वह नाराज होगी तो मैं संभाल लूंगा,’’ अपूर्व ने बच्चों से कहा.

दूसरे ही दिन दोपहर में औफिस से अपूर्व का फोन आया. मेरे हैलो बोलते ही कहने लगे, ‘‘बबीता, आज सोच रहा हूं शाम को घर जल्दी आ जाऊं. आयूष की शादी की शौपिंग कर लेते हैं. मेरी भी सारी पैंटशर्ट्स पुरानी हो गई हैं.

2-4 जोड़ी कपड़े नए ही ले लेता हूं और तुम भी अपने लिए नईनई साडि़यां ले लो. आखिर इकलौते भाई की शादी है, पुरानी साडि़यां थोड़े ही जंचेंगी तुम पर.’’

बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी पर काबू रख पाई थी मैं अपूर्व से बात करते समय. सोचने लगी जब तक प्यार से मिन्नतें करती थी कि अपनेअपने कपड़ों की खरीदारी में तो कम से कम मेरा साथ दिया करो तुम सब तब तक किसी के ऊपर मेरी बात का असर नहीं हुआ पर जरा सी टेढ़ी हुई नहीं कि एक झटके में जिम्मेदारी का एहसास हो गया जनाब को.

उधर कालेज से आते ही गौरव ने कहा, ‘‘मम्मा, कल रात मैं ने नैट पर सर्च किया. औनलाइन बड़ी अच्छीअच्छी शर्ट्स मिल रही हैं. सोच रहा हूं मामा की शादी के लिए इस बार औनलाइन ही कपड़े मंगवा लूं. ख्वाहमख्वाह ही तुम्हें हम लोगों के कपड़ों के लिए बाजार के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.’’

मेरा तीर निशाने पर लगा था. अपूर्व और बच्चे दोनों ही अपनेअपने कपड़ों के इंतजाम में जुट गए तो मुझे भी लगा कि अपना रुख थोड़ा ढीला कर देना चाहिए.

एक दिन जब अपूर्व ने सूटकेस निकाल कर उस में कपड़े डालते हुए कपड़े पैक करने की पहल की तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं हंसते हुए बोली, ‘‘अब बस रहने दो. यह सब काम तुम्हारे वश का नहीं है. तुम लोगों ने अपने कपड़े अपनी पसंद के खरीद लिए और यह तय कर लिया कि किस अवसर पर क्या पहनोगे यही मेरे लिए बहुत है. कहीं जाने की तैयारी के लिए इस से अधिक की अपेक्षा नहीं करती मैं तुम लोगों से.’’

‘सच लोहा जब गरम हो तब वार करने पर वस्तु को मनपसंद आकार दिया जा सकता है.

कहने को उसके पास सब कुछ है अच्छी नौकरी, दिल्ली जैसे शहर में अपना घर, एक लाइफ पार्टनर, लेकिन फिर भी वह अकेली है पास बैठे पति से बात करने के बजाय वह सोशल साइट्स पर ऐसा कोई ढूँढती रहती है जिससे अपनी फीलिंग्स शेयर कर सके.

Hindi Stories Online : सासुमां के सात रंग – उषा के मन में कैसी थीं शंकाएं ?

Hindi Stories Online : जब मैं नईनई बहू बन कर ससुराल आई तो दूसरी बहुओं की तरह मेरे मन में भी सास नाम के व्यक्तित्व के प्रति भय व शंका सी थी. सहेलियों व रिश्तेदारों की चर्चा में हर कहीं सास की हिटलरी तानाशाही का उल्लेख रहता. जब पति के घर गई तो मालूम हुआ कि मेरे पति कुछ ही दिनों बाद विदेश चले जाएंगे. नया घर, नए लोग, नया वातावरण और एकदम नया रिश्ता. मुझे तो सोच कर ही घबराहट हो रही थी.

कुछ दिनों का साथ निभा कर मेरे पति नरेन को दूर देश रवाना होना था. इसी क्षण मुझे सासुमां का पहला रंग स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ. आवश्यक रीतिरिवाज व पार्टी वगैरह के बाद सासुमां ने ऐलान किया कि आज से 2 माह के लिए बहू ऊषा और नरेन दोनों उस संस्था के मकान में रहने चले जाएंगे, जहां नरेन काम करते हैं. नरेन द्वारा आनाकानी करने पर वे दृढ़ शब्दों में बोलीं, ‘‘ऊषा को समय देना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. आखिर तुम्हारी अनुपस्थिति में वह तुम्हारी यादें ले कर ही तो यहां शांति से रह पाएगी.’’

विदेश यात्रा के 2 दिन पूर्व हम लोग सासुमां के पास आए. 26 साल तक जो बेटा उन के तनमन का अंश बन कर रहा, उस जिगर के टुकड़े को एक अनजान लड़की को किस सहजता से उन्होंने सौंप दिया, यह सोच कर मैं अभिभूत हो उठी. नरेन को विदा कर हम लोग जब लौटे तो मेरी आंखों के आंसू अंदर ही अंदर उफन रहे थे. सोच रही थी फूटफूट कर रो लूं, पर इतने नए लोगों के बीच यह अत्यंत मुश्किल था. रास्ते के पेड़पौधों को यों ही मैं देख रही थी. अचानक मैं ने सासुमां का हाथ अपने कंधे पर महसूस किया.

 

सासुमां के स्पर्श ने मेरी भावनाओं के सामिली ने बंधन तोड़ दिए. मैं ने अपना सिर उन की गोद में रख दिया और आंसुओं को बह जाने दिया. अब मुझे कोई भय, कोई संकोच, कोई दुविधा न थी. सासुमां की ममता के रंग ने मुझे आश्वस्त कर दिया था, ‘मैं अकेली नहीं हूं. मेरे साथ मेरी मां है.’ सासुमां का दूसरा रंग मैं ने छोटे देवर की शादी में देखा. बरात विदा होने से पहले लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम था. वधू पक्ष द्वारा लिया गया सजासजाया हौल, साजोसामान सब उन्होंने नकार दिया और अपनी ओर से पूरा खर्च कर लक्ष्मीपूजन संपन्न किया.’’

उन के अंदर के हठ का रंग मुझे करीब 10 वर्ष बाद देखने को मिला. ससुरजी ने मकान बनाने के लिए जो योजना बनाई थी, वह सिवा सासूमां के, सब को पसंद थी. ससुरजी 4 शयनकक्षों और एक हौल वाला दोमंजिला बंगला बनवाना चाहते थे. नीचे 2-2 शयनकक्ष और रसोईघर वाले 2 फ्लैट और ऊपर 2 शयनकक्ष के साथ एक बड़ा हौल, रसोई समेत बनवाया जाए. नीचे बगीचे और गैरेज के लिए जगह रखी जाए. एक दिन ससुरजी कागजों का एक पुलिंदा लाए और बोले, ‘‘लो वसंती, तुम्हारी इच्छानुसार मकान का नक्शा बनवा कर लाया हूं. अब उठ कर मेरे साथ कुछ खापी लो.’’

सासुमां के चेहरे पर विजय की एक स्निग्ध रेखा अभर आई. इस घटना के वर्षों बाद मुझे अपनी सासुमां के सत्याग्रह का असली अर्थ समझ में आया. 4 हिस्से वाले इस घर में रहते हुए पूरे परिवार में जो सुख, शांति और अपनत्व है, उस का श्रेय सासुमां के उस सत्याग्रह व दूरदृष्टि को जाता है.

सासुमां के अंदर की ईर्ष्या का रंग तब अचानक ही उभर आता जब नानीसास हम से मिलने आतीं, हमारे लिए तरहतरह के कीमती उपहार लातीं. महंगी साड़ी सासुमां को भेंट देतीं और पूरे समय अपने डाक्टर बेटे की दौलत, व्यवसाय और प्रतिष्ठा का गुणगान करतीं. नानीमां जितने दिन रहतीं, सासुमां विचलित और अशांत रहतीं. किसी का भी दिल न दुखाने वाली सासुमां का अपनी ही मां से किया जाने वाला रूखा व्यवहार मेरी समझ से बाहर था.

एक दिन हमेशा की तरह ‘मामापुराण’ शुरू हुआ था. ‘‘अब बस भी करो अम्मा,’’ सासुमां ने रुखाई से कहा.

‘‘कमाल है,’’ नानीमां अचकचा कर बोलीं, ‘‘सगे भाई की दौलत, खुशी की तारीफ तुझ से सही नहीं जाती. देख रही हूं तुझे तो कांटा ही चुभ रहा है.’’ सासुमां ने सीधे अपनी मां की ओर तीव्र दृष्टि डाली और कड़े शब्दों में बोलीं, ‘‘सो क्यों है, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो.’’

इस घटना के बाद नानीमां जब भी हमारे घर आतीं, मामाजी की दौलत और प्रतिष्ठा के बारे में अपना मुंह बंद ही रखतीं. काफी समय बाद सासुमां के इस व्यवहार का असली कारण मुझे तब पता चला जब मेरी बेटी सुरभि का मैडिकल में दाखिला होना था. उसी समय सुधीर, मेरे बेटे, को रीजनल कालेज में प्रवेश लेना था. सुरभि और सुधीर, दोनों को बाहर छात्रावास में रख कर पढ़ाई का खर्र्च उठाना संभव नहीं था. लिहाजा, हम ने सुरभि को घर में रह कर एमएससी करने को कहा. लेकिन सासुमां ने जब सुना तो बहुत नाराज हुईं, ‘‘सुधीर के लिए सुरभि के भविष्य की बलि क्यों चढ़ा रही हो. सुधीर को स्थानीय कालेज में इंजीनियरिंग पढ़ने दो, सुरभि का खर्च मैं उठाऊंगी. आखिर मेरे जेवर किस काम आएंगे. मैं नहीं चाहती कि एक और वसंती को अपने स्वप्नों के टूटने का दुख भोगना पड़े.’’

तब मैं ने जाना कि डाक्टर मामा की खातिर ही सासुमां का डाक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया था. मेरे बेटे सुधीर की शादी के लिए 6 दिन बचे थे. घर में नाचगाने की योजना थी. सहभोज और वीडियो शूटिंग का कार्यक्रम था. अचानक ससुरजी का पैर फिसला और पैर की हड्डी टूट गई. उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. जाहिर है, ऐसे में सासुमां को ससुरजी की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रहना था. ससुरजी की तबीयत संभलने के तीसरे दिन सासुमां घर वापस आईं और सन्नाटा व उदास माहौल देख कर बोलीं, ‘‘अरी ऊषा, यह शादी का घर है क्या? न कहीं रौनक, न कहीं उत्साह…’’

‘‘वह क्या है…’’ मैं दुविधा में बोली. ‘‘अब रहने भी दे, 2 दिन के लिए मैं घर छोड़ कर क्या गई, सब के सब एकदम सुस्त हो गए,’’ वे नाराज हो कर बोलीं. फिर नरेन से बोलीं, ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत अब ठीक है, आज तुम दोनों भाई उन के साथ रहना. मैं कल सुबह अस्पताल आऊंगी. घर में 2-2 बहुएं हैं, 2-2 लड़कियां हैं, पर शादी का घर तो एकदम भूतघर जैसा लग रहा है. मेरे पोते की शादी में ऐसी खामोशी क्यों भला, ऐसा खुशी का मौका क्या बारबार आता है?’’

फिर क्या पूछना, उस रात ऐसी महफिल जमी कि आज तक भुलाए नहीं भूलती. देररात तक संगीतसमारोह की रौनक रही. सासुमां खुद खूब नाचीं और हर एक को उठाउठा कर हाथ पकड़ कर खूब नचाया.

सुबह हुई तो स्नान कर के वे अस्पताल के लिए चल दीं. मैं उन की ममता और स्नेह से अभिभूत थी. अपने दुख, अपनी चिंता, परेशानी को छिपा कर उन्होंने किस तरह मेरी खुशी को महत्त्व दिया था, उसे मैं कभी नहीं भूल पाती. उत्साह का वह रंग कभीकभार आज भी उन में उभर आता है. सासुमां के व्यक्तित्व के 7 रंगों में एक रंग और था और वह था, अंधविश्वास का. घर में कोई भी समस्या हो, निवारण हेतु वे सब से पहले गुरुजी के पास दौड़ी जातीं. फिर मनौती, चढ़ावा, पूजा, हवन वगैरह का दौर शुरू हो जाता.

एक बार छोटे देवर ट्रैकिंग पर गए हुए थे. प्रतिदिन वहां के समाचारों में बादल, वर्षा, तूफान का जिक्र रहता. जब वे निश्चित समय तक नहीं लौटे तो हम सभी चिंता से व्याकुल हो गए. सासुमां ने तुरंत गुरुजी की सलाह ली और दूसरे दिन से अंधेरे में स्नानध्यान कर गीले कपड़ों में मंदिर जाने लगीं.

‘‘अम्मा, इस तरह परेशानी पर परेशानी बढ़ाओगी क्या. अब तुम भी बीमार पड़ कर रहीसही कसर पूरी कर दो,’’ एक दिन नरेन बरस पड़े. अम्माजी ने शांतसहज उत्तर दिया, ‘‘भोलेनाथ की कृपा से हरेंद्र जल्दी घर वापस आएगा और रही मेरी बात, तो मुझे कुछ नहीं होगा. देखना, तेरा पोता गोद में खिलाने के बाद ही मरूंगी.’’

वक्तबेवक्त नहाने, खाने और सोने से एक दिन जब सासुमां मंदिर में ही मूर्च्छित हो गईं तो उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया. 15 दिन बाद देवरजी सकुशल लौटे. आते ही सासुमां ने उन्हें गले लगा लिया और भावविह्वल स्वर में बोलीं, ‘‘मेरे भोलेनाथ की कृपा से तुम मौत के मुंह से लौटे हो.’’

देवरजी अवाक उन की तरफ देखते रहे और बोले, ‘‘क्या कह रही हो अम्मा, मैं और मौत के मुंह में, कुछ समझ नहीं आ रहा है…’’ पूरी बात बताने पर वे उन पर बरस पड़े, ‘‘अम्मा, जाने कैसेकैसे लोग तुम्हारे इस अंधविश्वास का फायदा उठा कर तुम से पैसे ऐंठ लेते हैं. इस व्रतउपवास के चक्कर में तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है. मैं तो नहीं पर तुम खुद ही अपने इन अंधविश्वासों के कारण मौत के मुंह में जा रही थीं.’’

देवरजी ने बताया कि उन का ट्रैकिंग कार्यक्रम अचानक स्थगित हो गया और उन्हें वहीं से औफिस के काम से मुंबई जाना पड़ा. इस की जानकारी उन्होंने पत्र द्वारा घर भेज दी थी. पर संभवतया किसी कारण से पत्र मिला नहीं. वह दिन और आज का दिन, सासुमां ने नजर उतारना, मनौती, चढ़ावा सब छोड़ दिया है. अपनी इतनी पुरानी मान्यता तो छोड़ पाना उन की दृढ़ता का ही परिचायक था.

सासुमां में सही समय पर विरक्ति का रंग भी छलक उठा. मेरे बेटे के संपन्न ससुराल वाले अपनी बेटी को वे सब सुविधाएं देना चाहते थे, जिन की वह आदी थी. लेकिन सासुमां की इच्छानुसार हम ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, हम ने महसूस किया कि उन सुविधाओं के अभाव में बहू को यहां समझौता करना मुश्किल हो रहा है.

हम दुविधा में थे, इधर बहू भी अशांत थी. लेकिन अम्माजी समधियाने का सामान लेने में खुद को अपमानित महसूस करती थीं. हमारी उलझन को समझ कर एक दिन वे बोलीं, ‘‘बहू, अब सीढ़ी चढ़नाउतरना मुझ से होता नहीं. मेरे रहने के लिए नीचे ही इंतजाम कर दो. तुम लोग ऊपर के दोनों हिस्सों में चले जाओ. बुढ़ापे में मोहमाया जरा कम कर लेने दो. अब मुझे घर की जवाबदारी से मुक्त करो, न सलाह मांगो, न देखभाल का जिम्मा दो.’’ तब से अब तक सासुमां अपनेआप में मगन हैं. उन्होंने अपने चारों तरफ विरक्ति की दीवार खड़ी कर ली है, पर उस विरक्ति में रूखापन नहीं है. वे आज भी उतनी ही ममतामयी और जागरूक हैं, जितनी पहले थीं.

आश्चर्य की बात तो यह है कि बहू का ज्यादा से ज्यादा समय अपनी दादीसास के साथ ही गुजरता है. वह अपनी दादीसास की सब से ज्यादा लाड़ली है. उस ने भी महसूस कर लिया है कि अपने परिवार की सुखशांति के लिए ही दादीमां खुद ही तटस्थ हो गई हैं. अपने अधिकारों को छोड़ कर वे सब के कल्याण में लगी हुई हैं.

Famous Hindi Stories : जेनेरेशन गैप – लड़कों के लिए बदल गई नीता की धारणा

Famous Hindi Stories :  नई दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से स्पेशल राजधानी एक्सपे्रेस चली तो नीता अपने जीजाजी को नमस्कार कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गई. एक हफ्ता पहले वह अपनी बीमार मां को देखने आई थी. मुंबई तक का सफर लंबा तो था ही, उस ने बैग से शरतचंद्र का उपन्यास ‘दत्ता’ निकाल लिया. सफर में किसी से ज्यादा बात करने की उस की आदत नहीं थी, सफर में उसे कोई अच्छा उपन्यास पढ़ना ही अच्छा लगता था. नीता अपनी सीट पर बैठी सोच ही रही थी कि पता नहीं आसपास की खाली सीटों पर कौन लोग आएंगे, इतने में 7 युवा लड़के आ गए और सीट के नीचे अपना सामान रखने लगे.

उन लड़कों को देख कर नीता का दिमाग घूम गया, ऐसा नहीं कि लड़कों को देख कर उसे घबराहट हुई थी. वह 40 साल की आत्मविश्वास से भरी महिला थी. 18 साल की उस की एक बेटी और 15 साल का एक बेटा भी था. उसे यह घबराहट युवा पीढ़ी के तौरतरीकों से होती थी. उस ने सोचा कि अब मुंबई तक के सफर में उसे चैन नहीं आएगा. लड़के हल्लागुल्ला करते रहेंगे, न खुद आराम करेंगे न उसे करने देंगे. उन लड़कों ने अपना सामान रख कर आपस में बातें करनी शुरू कर दीं. नीता ने अपना चेहरा भावहीन बनाए रखा और अपने उपन्यास पर नजरें जमा लीं, लेकिन कानों में उन की बातें पड़ रही थीं. लड़के मुंबई कोई इंटरव्यू देने जा रहे थे. अब तक नीता खिड़की पर बैठी थी, पैर फैलाने की इच्छा हुई तो जैसे ही पैर आगे बढ़ाए उस की बर्थ पर बैठे लड़के तुरंत खड़े हो गए और बोले, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाइए.’’

नीता ने उन पर नजर डाले बिना गरदन हिला दी. पैर फै ला कर अपना दुपट्टा हलके से ओढ़ कर वह आंख बंद कर के लेट गई. आज की युवा पीढ़ी के लिए उस के मन में बहुत दिन से आक्रोश जमा होता जा रहा था. घर पर अकसर बच्चों से उस की बहस हो जाती है. उसे लगता है, बच्चे उस की बात नहीं समझ रहे हैं और बच्चों को लगता है मम्मी को समझाना मुश्किल है. बच्चों से वह हमेशा यही कहती, ‘मैं इतनी बूढ़ी नहीं हूं कि जवान बच्चों की बात न समझ सकूं लेकिन तुम लोग बात ही ऐसी करते हो.’ लेटेलेटे नीता को याद आया कि पिछले महीने वह पार्लर में फेशियल करवा रही थी तो वहां पर 2 लड़कियां भी आई हुई थीं. उन के रंगढंग देख कर उसे बहुत गुस्सा आ रहा था. वे लगातार अपने मांबाप की सख्ती, शक्की स्वभाव और कम जेबखर्च का रोना रो रही थीं. फिर धीरेधीरे उन्होंने अपने दोस्त लड़कों की आशिकी, बेवफाई और प्यारमनुहार की चर्चा शुरू कर दी थी. घर आ कर भी काफी देर तक उस के दिमाग में उन लड़कियों के विचार घूमते रहे थे.

मुंबई में नीता अकसर संडे को अपने पति अमित के साथ घर से कुछ ही दूरी पर स्थित उपवन लेक पर शाम को टहलने जाती है. लेक के चारों तरफ घने पेड़ों की हरियाली देख कर उस का प्रकृतिप्रेमी मन खुश हो जाता है. वहां शाम होतेहोते सैकड़ों युवा जोड़े हाथों में हाथ डाले आते और करीब से करीबतर होते जाते. हर पेड़ के नीचे एक जोड़ा अपने में ही मस्त नजर आता. शाम गहराते ही उन की उन्मुक्तता बढ़ने लगती किंतु वाचमैन की बेसुरी सीटी चेतावनी की घंटी होती जो उन्हें सपने से यथार्थ में ले आती. कुछ बहुत ही कम उम्र के बच्चे होते, बराबर में स्कूल बैग रखे बहुत ही आपत्तिजनक स्थिति में आपस में खोए रहते. नैतिकता, संस्कार किस चिडि़या का नाम है आज का युवावर्ग नहीं जानता. कायदेकानून न मानने में ही उन्हें मजा आता है. इसी प्रकार का मंथन करते हुए नीता भयभीत हो कर हाई ब्लडप्रेशर की शिकार हो जाती. उसे अपने युवा बच्चों की चिंता शुरू हो जाती. उस लेक पर जाना उसे बहुत अच्छा लगता था लेकिन वहां के माहौल से उस के मन में उथलपुथल मच जाती और उस की चिड़चिड़ाहट शुरू हो जाती. अमित माहौल को हलके ढंग से लेते, उसे समझाते भी लेकिन नीता का मूड मुश्किल से ठीक होता.

अटेंडेंट ने आ कर कंबल आदि रखे तो नीता वर्तमान में लौटी. खाना टे्रन में ही सर्व होना था, वह घर से अपने खाने के लिए कुछ ले कर नहीं चली थी. हां, उस की मम्मी ने बच्चों की पसंद की बहुत सी चीजें साथ बांध दी थीं. खाना खा कर नीता लेट गई तो लड़के कुछ देर तो आपस में धीरेधीरे बातें करते रहे फिर नीता को सोता हुआ समझ कर धीरे से बोले, ‘‘चलो, हम लोग भी लेट जाते हैं, बातें करते रहेंगे तो मैडम डिस्टर्ब होंगी.’’

नीता की आंखें बंद थीं लेकिन वह सुन तो रही थी. वह थोड़ी हैरान हुई. लड़के चुपचाप अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए, नीता भी सो गई. सुबह उठने पर पता चला कि टे्रन बहुत लेट है. फे्रश हो कर वह आई तब तक चाय और नाश्ते की ट्रे आ गई. लड़के भी नाश्ता कर रहे थे. नाश्ता कर के नीता उपन्यास में लीन हो गई. बीचबीच में उन लड़कों की बातें सुनाई दे रही थीं. लड़के कभी फिल्मों की बातें कर रहे थे तो कभी अपने सीनियर्स की, कभी अपने घर वालों की. आपस में उन का हंसीमजाक चल रहा था. उपन्यास पढ़तेपढ़ते नीता थोड़ी असहज सी हो गई. उसे सिरदर्द शुरू हो गया था. नीता को इसी बात का डर रहता था कि वह बाहर निकले और कहीं यह दर्द शुरू न हो जाए और अब दर्द बढ़ता जा रहा था. काफी समय से वह शारीरिक रूप से अस्वस्थ चल रही थी. आधे सिर का दर्द, हाई ब्लडप्रेशर और अब कुछ महीने से अल्सर की वजह से उस की तबीयत बारबार खराब हो जाती थी. नीता ने तुरंत उपन्यास बंद किया और उठ कर बैग में से अपनी दवा की किट निकालने की कोशिश की तो उसे चक्कर आ गया और वह ए.सी. में भी पसीनेपसीने हो गई. लड़के तुरंत सजग हुए, एक बोला, ‘‘मैडम, क्या आप की तबीयत खराब है?’’

नीता बोली, ‘‘हां, माइग्रेन का तेज दर्द है.’’ लड़के ने कहा, ‘‘आप के पास दवा है?’’

‘‘हां, ले रही हूं.’’ ‘‘आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं, थैंक्यू,’’ कहतेकहते नीता ने दवा ली और लेट गई. सुबह के 9 बज रहे थे. एक लड़का बोला, ‘‘मैडम, हम सब ऊपर की बर्थ पर चले जाते हैं, आप आराम कर लीजिए,’’ और लाइट बंद कर के परदे खींच कर सब लड़के चुपचाप ऊपर चले गए. दवा के असर से नीता की भी आंख लग गई. वह करीब 1 घंटा सोई रही, उठी तो लड़के ऊपर ही लैपटाप में अपना काम कर रहे थे. कोई चुपचाप पढ़ रहा था, उसे जागा हुआ देख कर लड़कों में से एक ने पूछा, ‘‘मैडम, अब आप कैसी हैं?’’

नीता ने पहली बार हलके से मुसकरा कर कहा, ‘‘थोड़ी ठीक हूं.’’ ‘‘मैडम, चाय पीनी हो तो मंगा दें?’’

‘‘नहीं, अभी नहीं, थैंक्यू.’’ ‘‘मैडम, सूरत आ रहा है, आप को कुछ चाहिए?’’

नीता ने फिर कहा, ‘‘नहीं.’’ सूरत स्टेशन आया, लड़के कुछ खानेपीने के लिए उतर गए. फिर एक लड़का वापस आया, ‘‘आप को फ्रूट्स चाहिए?’’

‘‘हां,’’ नीता ने कहा और पर्स से पैसे निकालने लगी. ‘‘नहीं, नहीं, मैडम, रहने दीजिए, मैं ले आता हूं.’’

‘‘नहीं, नहीं, पैसे लोगे तभी मंगवाऊंगी,’’ नीता ने मुसकरा कर कहा. लड़के ने पैसे ले लिए और हंस कर बोला, ‘‘अभी लाता हूं.’’

थोड़ी देर में सब वापस आ गए. लड़के ने नीता को पोलिथीन और बाकी पैसे पकड़ाए. नीता ने एक केला ले कर बाकी के उसी लड़के को दे कर कहा, ‘‘आप लोग भी खा लो.’’ ‘‘नहीं, मैडम, हम ने तो स्टेशन पर पकौड़े खाए थे.’’

‘‘खा लो, फ्रूट्स ही तो हैं,’’ नीता ने फिर उपन्यास खोल लिया. उस का मन अचानक बहुत हलका हो चला था. तबीयत भी संभल गई थी. साढ़े 11 बजे मुंबई पहुंचने वाली टे्रन अब 5 बजे पहुंचने वाली थी.

आज पहली बार नीता को लग रहा था कि उस ने अपनी बेटी मिनी की बात मान कर मोबाइल रख लिया होता तो अच्छा होता. वह अमित को टे्रन लेट होने की खबर दे सकती थी. कहीं बेचारे स्टेशन पर आ कर न बैठ गए हों. ठाणे से मुंबई सेंट्रल आना- जाना आसान भी नहीं था. वह मोबाइल से दूर रहती थी, हाउसवाइफ थी, घर में लैंडलाइन तो था ही, बच्चे कई बार कहते कि मम्मी, आप भी मोबाइल ले लो तो वह यही कहती, ‘‘मुझे इस बीमारी का कोई शौक नहीं है, तुम लोगों की तरह हर समय कान में लगा कर रखने के अलावा भी मुझे कई काम हैं.’’ मिनी ने मुंबई से चलते समय कितना कहा था, ‘मम्मी, मेरा मोबाइल ले जाओ, आप सफर में होंगी तो हम आप से बात तो कर पाएंगे, आप का भी समय कट जाएगा, हमें भी आप के हालचाल मिल जाएंगे,’ लेकिन नीता नहीं मानी थी और आज पहली बार उसे लग रहा था कि मिनी ठीक कह रही थी.

लड़कों ने शायद नोट कर लिया था कि उस के पास मोबाइल नहीं है. एक लड़का बोला, ‘‘मैडम, आप चाहें तो हमारे फोन से अपने घर टे्रन लेट होने की खबर दे सकती हैं.’’ नीता ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘नहीं, नहीं, ठीक है.’’

‘‘मैडम, आप को जो लेने आएगा उसे परेशानी हो सकती है, स्टेशन पर जल्दी ठीक से बताता नहीं है कोई.’’ बात तर्कसंगत थी, नीता को यही उचित लगा. उस ने एक लड़के का फोन ले कर अमित को टे्रन के लेट होने के बारे में बताया. बहुत बड़ा बोझ सा हट गया नीता के दिल से. अब अमित समय से घर से निकलेंगे, नहीं तो स्टेशन पर आ कर बैठे रहते.

नीता के मन में इस सफर में टे्रन के इतना लेट होने पर भी चिड़चिड़ाहट नहीं थी. वह चुपचाप मन ही मन आज के युवावर्ग के बारे में सोचती रही. हैरान थी अपनी सोच पर कि जमाना कितना बदल गया है, कितनी समझदार है आज की पीढ़ी. 2 पीढि़यों का यह अंतर क्या आज का है? यह तो सैकड़ों वर्ष बल्कि उस से भी पहले का है. अंतर बस यह है कि आज के बच्चे मुखर हैं. अपने हक के प्रति सचेत हैं, लेकिन इस के साथ ही वे बुद्धिमान भी हैं, अपने लक्ष्य पर निगाह रखते हैं और सफल भी होते हैं फिर चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों न हो. उस ने चुपचाप एक नजर सब लड़कों पर डाली, सब इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थे, बीचबीच में हलका हंसीमजाक.

नीता सोच रही थी यह एक्सपोजर का समय है जिस में बच्चे दुस्साहसी हैं तो जहीन भी हैं. बच्चों की जिन गतिविधियों से वह असंतुष्ट थी उन से अपने समय में वह भी दोचार हो चुकी थी. बचपन, जवानी, प्रौढ़ा और वृद्धावस्था की आदतें, स्वभाव, सपने, विचार हमेशा एक जैसे ही रहते हैं और इन के बीच जेनेरेशन गैप की दूरी भी सदैव बनी रहती है. समाज में तरहतरह के लोग तो पहले भी थे, आगे भी रहेंगे. नकारात्मक नजरिया रख कर तनाव में रहना कहां तक ठीक है? नीता का मन पंख सा हलका हो गया. कई दिनों से मन पर रखा बोझ उतरने पर बड़ी शांति मिल रही थी. मुंबई सेंट्रल आ रहा था, वह अपना सामान बर्थ के नीचे से निकालने लगी तब उन्हीं लड़कों ने उस का सामान गेट तक पहुंचाने में उस की मदद करनी शुरू कर दी, टे्रन के रुकने पर वह उन्हें थैंक्यू और औल द बेस्ट कह कर उतर गई.

Short Stories in Hindi : वह बुरी लड़की

Short Stories in Hindi :  ‘‘क्या सोच रहे हैं? बहू की मुंहदिखाई कीजिए न. कब से बेचारी आंखें बंद किए बैठी है.’’

कमलकांत हाथ में कंगन का जोड़ा थामे संज्ञाशून्य खड़े रह गए. ज्यादा देर खड़े होना भी मानो मुश्किल लग रहा था, ‘‘मुझे चक्कर आ रहा है…’’ कहते हुए उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया और तेजी से हौल से बाहर निकल आए.

अपने कमरे में आ कर वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़ कर आए हों, पीछेपीछे नंदा भी दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, चक्कर आ गया था.’’

‘‘आप आराम करें. लगता है शादी का गरिष्ठ भोजन और नींद की कमी, आप को तकलीफ दे गई.’’

‘‘मुझे अकेला ही रहने दो. किसी को यहां मत आने देना.’’

‘‘हां, हां, मैं बाहर बोल कर आती हूं,’’ वह जातेजाते बोली.

‘‘नहीं नंदा, तुम भी नहीं…’’ कमलकांत एकांत में अपने मन की व्यथा का मंथन करना चाहते थे जो स्थिति एकदम से सामने आ गई थी उसे जीवनपर्यंत कैसे निभा पाएंगे, इसी पर विचार करना चाहते थे. पत्नी को आश्चर्य हुआ कि उसे भी रुकने से मना कर रहे हैं, फिर कुछ सोच, पंखा तेज कर वह बाहर निकल गई.

धीरेधीरे घर में सन्नाटा फैल गया. नंदा 2-3 बार आ कर झांक गई थी. कमलकांत आंख बंद किए लेटे रहे. एक बार बेटा देबू भी आ कर झांक गया, लेकिन उन्हें चैन से सोता देख कर चुपचाप बाहर निकल गया. कमलकांत सो कहां रहे थे, वे तो जानबूझ कर बेटे को देख कर सोने का नाटक कर रहे थे.

सन्नाटे में उन्हें महसूस हुआ, वह गुजरती रात अपने अंदर कितना बड़ा तूफान समेटे हुए है. बेटे व बहू की यह सुहागरात एक पल में तूफान के जोर से धराशायी हो सकती है. अपने अंदर का तूफान वे दबाए रहें या बहने दें. कमलकांत की आंख के कोरों में आंसू आ कर ठहर गए.

नंदा आई, उन्हें निहार कर और सोफे पर सोता देख स्वयं भी सोफे से कुशन उठा कर सिर के नीचे लगा कालीन पर ही लुढ़क गई. देबू ने कई बार डाक्टर बुलाने के लिए कहा था, पर कमलकांत होंठ सिए बैठे रहे थे. पति के शब्दों का अक्षरश: पालन करने वाली नंदा ने भी जोर नहीं दिया. विवाह के 28 वर्षों में कभी छोटीमोटी तकरार के अलावा, कोई ऐसी चोट नहीं दी थी, जिस का घाव रिसता रहता.

कमलकांत को जब पक्का यकीन हो गया कि नंदा सो गई है तो उन्होंने आंखें खोल दीं. तब तक आंखों की कोरों पर ठहरे आंसू सूख चुके थे. वे चुपचाप उठ कर बैठ गए. कमरे में धीमा नीला प्रकाश फैला था. बाहर अंधेरा था. दूर छत की छाजन पर बिजली की झालरें अब भी सजी थीं.

रात के इस पहर यदि कोई जाग रहा होगा तो देबू, उस की पत्नी या वह स्वयं. उन्होंने बेबसी से अपने होंठों को भींच लिया. काश, उन्होंने स्वाति को पहले देख लिया होता. काश, वह जरमनी गए ही न होते. उन के बेटे के गले लगने वाली स्वाति जाने कितनों के गले लग चुकी होगी. कैसे बताएं वह देबू और नंदा से कि जिसे वह गृहस्वामिनी बना कर लाए हैं वह किंकिर बनने के योग्य भी नहीं है. वह एक गिरी हुई चरित्रहीन लड़की है. अंधकार में दूर बिजली की झिलमिल में उन्हें एक वर्ष पूर्व की घटना याद आई तो वे पीछे अतीत में लुढ़क गए.

कमलकांत का ऊन का व्यापार था. इस में काफी नाम व पैसा कमाया था उन्होंने. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. सभी व्यसनों से दूर कमलकांत ने जो पैसा कमाया, वह घरपरिवार पर खर्च किया. पत्नी नंदा व पुत्र देबू के बीच, उन का बहुत खुशहाल परिवार था.

एक साल पहले उन्हें व्यापार के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा था. वे एक अच्छे होटल में ठहरे थे. वहां चेन्नई की एक पार्टी से उन की मुलाकात होनी थी. नियत समय पर वे शाम 7 बजे होटल के कमरे में पहुंचे थे. लिफ्ट से जा कर उन्होंने होटल के कमरा नंबर 305 के दरवाजे पर ज्यों ही हाथ रखा था, फिर जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक झटके से दरवाजा खुला और एक लड़की तेजी से बाहर निकली. उस लड़की का पूरा चेहरा उन के सामने था.

उस लड़की की तरफ वे आकर्षित हुए. कंधे पर थैला टांगे, आकर्षक वस्त्रों में घबराई हुई सी वह युवती तेजी से बिना उन की तरफ देखे बाहर निकल गई. पहले तो उन्होंने सोचा, वापस लौट जाएं पता नहीं अंदर क्या चल रहा हो. तभी सामने मिस्टर रंगनाथन, जो चेन्नई से आए थे, दिख गए तो वापस लौटना मुश्किल हो गया.

‘आइए, कमलकांतजी, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. कैसे रही आप की यात्रा?’

‘जी, बहुत अच्छी, पर मिस्टर नाथन, मैं…वह लड़की…’

‘ओह, वे उस समय पैंट और शर्ट पहन रहे थे. मुसकरा कर बोले, ‘ये तो मौजमस्ती की चीजें हैं. भई कमलकांत, हम ऊपरी कमाई वाला पैसा 2 ही चीजों पर तो खर्च करते हैं, बीवी के जेवरों और ऐसी लड़कियों पर,’ रंगनाथन जोर से हंस पड़े.

कमलकांत का जी खराब हो गया. लानत है ऐसे पैसे और ऐश पर. लाखों के नुकसान की बात न होती तो शायद वे वापस लौट आते. लेकिन बातचीत के बीच वह लड़की उन के जेहन से एक सैकंड को भी न उतरी. क्या मजबूरी थी उस की? क्यों इस धंधे में लगी है? इतने अनाड़ी तो वे न थे, जानते थे, पैसे दे कर ऐसी लड़कियों का प्रबंध आराम से हो जाता है.

होटल में ठहरे उन के व्यवसायी मित्र ने जरूर उसे पैसे दे कर बुलवाया होगा. उस वक्त वे उस लड़की की आंखों का पनीलापन भी भूल गए थे. याद था, सिर्फ इतना कि वह एक बुरी लड़की है.

जालंधर लौट कर वे अपने काम में व्यस्त हो गए. कुछ माह बीत गए. तभी उन्हें 3 माह के लिए जरमनी जाना पड़ गया. जब वे जरमनी में थे, देबू का रिश्ता तभी पत्नी ने तय कर दिया था. उन के लौटने के

2 दिनों बाद की शादी की तारीख पड़ी थी. जरमनी से बहू के लिए वे कीमती उपहार भी लाए थे. आने पर नंदा ने कहा भी था, ‘यशोदा को तो तुम जानते हो?’

‘हां भई, तुम्हीं ने तो बताया था जो मुंबई में रहती है. उसी की बेटी स्वाति है न?’

‘हां,’ नंदा बोली, ‘सच पूछो तो पहले मैं बहुत डर रही थी कि पता नहीं तुम इनकार न कर दो कि एक साधारण परिवार की लड़की को…’

‘पगली,’ उस की बात काट कर कमलकांत ने कहा, ‘इतना पैसा हमारे पास है, हमें तो सिर्फ एक सुशील बहू चाहिए.’

‘यशोदा मेरी बचपन की सहेली थी. शादी के बाद पति के साथ मुंबई चली गई थी. 10 वर्ष हुए दिवाकर को गुजरे, तब से बेटी स्वाति ने ही नौकरी कर के परिवार को चलाया है. सुनो, उस का एक छोटा भाई भी है, जो इस वर्ष इंजीनियरिंग में चुन लिया गया है. मैं ने यशोदा से कह दिया है कि बेटे की पढ़ाई के खर्च की चिंता वह न करे. हम यह जिम्मेदारी प्यार से उठाना चाहते हैं. आप को बुरा तो नहीं लगा?’

‘नंदा, यह घर तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हारा,’ वे हंस कर बोले थे.

‘पर बहू की फोटो तो देख लो.’

‘अब कितने दिन बचे हैं. इकट्ठे दुलहन के लिबास में ही बहू को देखूंगा. हां, अपना देबू तो खुश है न?’

‘एक ही तो बेटा है. उस की मरजी के खिलाफ कैसे शादी हो सकती है?’

शादी के दौरान भी वे स्वाति को ठीक से न देख पाए थे. जब भी कोई उन्हें दूल्हादुलहन के स्टेज पर उन के साथ फोटो लेने के लिए बुलाने आता, आधे रास्ते से फिर कोई खींच ले जाता. बहू की माथा ढकाई पर वह घूंघट में थी. काश, उसी समय उन्होंने फोटो देख ली होती.

चीं…चीं…के शोर पर कमलकांत वर्तमान में लौट आए. सुबह का धुंधलका फैल रहा था. लेकिन उन के घर की कालिमा धीरेधीरे और गहरा रही थी.

नाश्ते के समय भी जब वे बाहर नहीं निकले तो देबू डाक्टर बुला लाया. उस ने चैकअप के बाद कहा, ‘‘कुछ तनाव है. लगता है सोए भी नहीं हैं. यह दवा दे दीजिएगा. इन्हें नींद आनी जरूरी है.’’

घरभर परेशान था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वे एकदम से बीमार पड़ गए. बहू ने आ कर उन के पांव छुए और थोड़ी देर वहां खड़ी भी रही, लेकिन वे आंखें बंद किए पड़े रहे.

‘‘बाबूजी, आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

बहू लौट गई थी. कमलकांत का जी चाहा, इस लड़की को फौरन घर से निकाल दें. यदि यह सारी जिंदगी इसी घर में रहेगी तो भला वे कैसे जी पाएंगे? क्या उन का दम नहीं घुट जाएगा. इस घर की हर सांस, हर कोना उन्हें यह एहसास कराता रहेगा कि उन की बहू एक गिरी हुई लड़की है. इस सत्य से अनभिज्ञ नंदा और देबू, कितने खुश हैं, वे समझ रहे हैं कि स्वाति के रूप में घर में खुशियां आ गई हैं. अजीब कशमकश है जो उन्हें न तो जीने दे रही है, न मरने.

दूसरे दिन जब उन्होंने पत्नी से किसी पहाड़ी जगह चलने की बात कही तो वह हंस दी, ‘‘सठिया गए हो क्या? विवाह हुआ है बेटे का, हनीमून मनाने हम चलें. लोग क्या कहेंगे.’’

‘‘तो बेटेबहू को भेज दो.’’

‘‘उन का तो आरक्षण था, पर बहू ही तैयार नहीं हुई कि पिताजी अस्वस्थ हैं, हम अभी नहीं जाएंगे.’’

वे चिढ़ गए, शराफत व शालीनता का अच्छा नाटक कर रही है यह लड़की. जी हलका करने के लिए वे फैक्टरी चले गए. वहां सभी उन का हाल लेने के लिए आतुर थे. लेकिन इतने लोगों के बीच भी वे सहज नहीं हो पाए. चुपचाप कुरसी पर बैठे रहे. न कोई फाइल खोल कर देखी, न किसी से बात की. जिस ने जो पूछा, ‘हां हूं’ में उत्तर दे दिया.

धीरेधीरे कमलकांत शिथिल होते गए. कारोबार बेटे ने संभाल लिया था. नंदा समझ रही थी, जरमनी में पति के साथ कुछ ऐसा घटा है जिस ने इन्हें तनाव से भर दिया है.

10 माह गुजर गए. स्वाति के पांव उन दिनों भारी थे. अचानक काम के सिलसिले में मुंबई जाने की बात आई तो देबू ने जाने की तैयारी कर ली. पर कमलकांत ने उसे मना कर दिया. मुंबई के नाम से एक दबी चिनगारी फिर भड़क उठी. इतने दिनों बाद भी वह उन के मन से न निकल पाईर् थी. मन में मंथन अभी भी चालू था.

मुंबई जा कर वे एक बार स्वाति के विषय में पता करना चाहते थे. यह प्रमाणित करना होगा कि स्वाति की गुजरी जिंदगी गंदी थी. बलात्कार की शिकार या मजबूरी में इस कार्य में लगी युवती को चाहे वे एक बार अपना लेते, पर स्वेच्छा से इस कार्य में लगी युवती को वे माफ करने को तैयार न थे.

एक बार यदि प्रमाण मिल जाए तो वे बेटे का उस से तलाक दिलवा देंगे. क्यों नहीं मुंबई जा कर यह बात पता करने का विचार उन्हें पहले आया? चुपचाप शादी के अलबम से स्वाति की एक फोटो निकाल उन्होंने मुंबई जाने का विचार बना लिया.

घर में पता चला कि कमलकांत मुंबई जा रहे हैं तो स्वाति ने डरतेसहमते एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया, ‘‘बाबूजी, मौका लगे तो घर हो आइएगा. मां आप से मिल कर बहुत खुश होंगी.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्र ले लिया.

स्वाति के घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन फिर भी कुछ टोह लेने की खातिर उस के घर पहुंच गए.

‘‘बहू यहां कहां काम करती थी?’’ वे शीघ्र ही मतलब की बात पर आ गए.

‘‘होराइजन होटल में, चाचाजी,’’ स्वाति के भाई ने उत्तर दिया.

‘‘भाईसाहब, हमारी इच्छा तो नहीं थी कि स्वाति होटल की नौकरी करे, पर नौकरी अच्छी थी. इज्जतदार होटल है, तनख्वाह भी ठीकठाक थी. फिर आसानी से नौकरी मिलती कहां है?’’

कमलकांत को लगा, समधिन गोलमोल जवाब दे रही हैं कि होटल में उन की बेटी का काम करना मजबूरी थी.

होटल होराइजन के स्वागतकक्ष में पहुंच कर उन्होंने स्वाति की फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘मुझे इन मैडम से काम था. क्या आप इन से मुझे मिला सकती हैं?’’

‘‘मैं यहां नई हूं, पता करती हूं,’’ कह कर स्वागतकर्मी महिला ने एक बूढ़े वेटर को बुला कर कुछ पूछा, फिर कमलकांत की तरफ इशारा किया. वह वेटर उन के पास आया फिर साश्चर्य बोला, ‘‘आप स्वातिजी के रिश्तेदार हैं, पहले कभी तो देखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं उन का रिश्तेदार नहीं, मित्र हूं. एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझ से कुछ सामान मंगवाया था.’’

‘‘आश्चर्य है, स्वाति बिटिया का तो कोई मित्र ही नहीं था. फिर आप से सामान मंगवाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता.’’

कमलकांत को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें, वेटर कहता रहा, ‘‘वे यहां रूम इंचार्ज थीं. सारा स्टाफ उन की इज्जत करता था.’’

तभी कमलकांत की आंखों के सामने होटल का वह दृश्य घूम गया…जब इसी होटल में उन के चेन्नई के मित्र ठहरे थे. उन्होंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उसी होटल में ठहर गए. जब यहां तक पहुंच ही गए हैं तो मंजिल का भी पूरा पता कर ही लें. शाम को चेन्नई फोन मिलाया. व्यापार की कुछ बातें कीं. पता चला 2 दिनों बाद ही चेन्नई की वह पार्टी मुंबई आने वाली है, तो वे भी रुक गए.

सबकुछ मानो चलचित्र सा घटित हो रहा था. कभी कमलकांत सोचते पीछे हट जाएं, बहुत बड़ा जुआ खेल रहे हैं वे. इस में करारी मात भी मिल सकती है. फिर क्या वे उसे पचा पाएंगे? पर इतने आगे बढ़ने के बाद बाजी कैसे फेंक देते.

रात में चेन्नई से आए मित्र के साथ उस के कमरे में बैठ कर इधरउधर की बातों के बीच वे मुख्य मुद्दे पर आ गए, ‘‘रंगनाथन, एक बात बता, यह लड़कियां कैसे मिलती हैं?’’

रंगनाथन ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हंसे, ‘‘वाह, शौक भी जताया तो इस उम्र में. भई, हम ने तो यह सब छोड़ दिया है. हां, यदि तुम चाहो तो इंतजाम हो जाएगा, पर यहां नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह होटल इन सब चीजों के लिए नहीं है. यहां इस पर सख्त पाबंदी है.’’

‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मैं ने अपनी आंखों से तुम्हारे कमरे से एक लड़की को निकलते देखा था.’’

रंगनाथन कुछ पल सोचता रहा… फिर अचानक चौंक कर बोला, ‘‘तुम 2 वर्ष पहले की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, हां…’’ वही, उस की बात, लपक कर कमलकांत बोले. उन की सांस तेजी से ऊपरनीचे हो रही थी. ऐसा मालूम हो रहा था, जीवन के किसी बहुत बड़े इम्तिहान का नतीजा निकलने वाला हो.

‘‘मुझे याद है, वह लड़की यहां काम करती थी. मैं ने उसे जब स्वागतकक्ष में देखा, तभी मेरी नीयत खराब हो गई थी. अकसर होटलों में मैं लड़की बुलवा लिया करता था. उस दिन…हां, बाथरूम का नल टपक रहा था. उस ने मिस्त्री भेजा. दोबारा फिर जब मैं ने शिकायत तनिक ऊंचे लहजे में की तो वह खुद चली आई.

उस समय वह घर जा रही थी, इसलिए होटल के वस्त्रों में नहीं थी. इस कारण और आकर्षक लग रही थी.  ने उस का हाथ पकड़ कर नोटों की एक गड्डी उस के हाथ पर रखी. लेकिन वह मेरा हाथ झटक कर तेजी से बाहर निकल गई. यह वाकेआ मुझे इस कारण भी याद है कि कमरे से निकलते वक्त उस की आंखें आंसुओं में डूब गई थीं.

ऐसा हादसा हमारे साथ कम हुआ था. यहां से जाने के बाद मुझे दिल का दौरा पड़ा. अब ज्यादा उत्तेजना मैं सहन नहीं कर पाता. 6 माह पहले ही पत्नी भी चल बसी. अब सादा, सरल जीवन काफी रास आता है.’’

रंगनाथन बोलते जा रहे थे, उधर कमलकांत को लग रहा था कि वे हलके हो कर हवा में उड़ते जा रहे हैं. अब वे स्वाति की ओर से पूर्ण संतुष्ट थे.

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