संविधान बड़ा या धर्म

सनातन धर्म का नाम ले कर भाजपा के कट्टरपंथी और उनके अंधभक्त एक बार फिर वही पौराणिक युग लाना चाहते हैं जिस में औरतों को केवल दासी के समान, पति की सेवा, पिता-पति-पुत्र की आज्ञाकारिणी और बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाता था. हमारे अधिकांश देवता यही सिद्ध करने में लगे रहे कि औरतों का अपना कोई वजूद नहीं है जबकि समाज का एक वर्ग, एक बड़ा वर्ग, इन्हीं औरतों की देवी के रूप में पूजा करता रहा.

आजकल इस अलिखित पौराणिक कानून को संविधान के बराबर सिद्ध करने की कोशिश करी जा रही है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पुत्र उदयनिधि के सनातन धर्म के भेदभाव वाले बयान के कारण सनातन धर्म के दुकानदार तिलमिलाए हुए हैं क्योंकि उन्हें आधी आबादी केवल सेवा करने के लिए सदियों से मिलती रही है.

कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा है कि सनातन धर्म का अपमान करना संविधान का अपमान करना है. यह कैसे तर्क पर ठीक ठहरेगा? सनातन धर्म तो न लिखा गया है, न उस की अदालतें हैं और न ही उस में कोई बराबरी या न्याय का स्थान है जबकि संविधान लिखित है, अदालतों में उस की व्याख्या होती है. उस के दुकानदार नहीं हैं. इस का लाभ हर नागरिक और भारत निवासी को मिलता है.

सनातन धर्म का एक गुण भी भाजपाई नहीं बता सकते जबकि संविधान की हर धारा, हर पंक्ति नागरिक को सरकार के विरुद्ध कुछ अधिकार देती है. संविधान की ढाल में पैसा नहीं कमाया जा सकता जबकि सनातन धर्म का मुख्य ध्येय तो दानदक्षिणा है. पूजापाठ, देवीदेवता, रीतिरिवाज सभी सनातन के दुकानदारों को हलवापूरी का इंतजाम करते रहे हैं. हर मंदिर पैसे से लबालब भरा है और हर मंदिर में मौजूद हर जना इस पैसे का अघोषित मालिक है.

सनातन धर्म के केंद्र मंदिरों में देवदासियों का बोलबाला था, वहां नाचगाना होता था. वहां देश की 80% जनता को घुसने तक की इजाजत नहीं थी जबकि संविधान हर नागरिक को बराबर का हक देता है और औरतों को पुरुषों के बराबर खड़ा करता है.

अर्जुन राम मेघवाल ने धर्म की भगवा पट्टी आंखों पर बांध रखी हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता पर सच फिर भी छिपाया नहीं जा सकता कि सनातन धर्म की देन संविधान की देन के सामने तुच्छ, रेत के कण के बराबर है जबकि संविधान को तो अभी 75 वर्ष भी नहीं हुए.

ताकि औरत गुलाम रहे

मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहती है कि उस ने मुसलिम औरतों को 3 तलाक की क्रूरता से बचाया पर वह यह नहीं बता सकती कि जिन मुसलिम मर्दों ने 3 तलाक नहीं दिया क्या उन की शादियां बच गईं और मियांबीवी राजीखुशी रहने लगे? अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की जो आदत हिंदू कट्टरवादियों में है वह धर्म से परे नहीं देखती कि जब पतिपत्नी की न बने तो कोई काजी, पंडा, जज, कानून कुछ नहीं कर सकता.

17 या 18 सितंबर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक जोड़े को तलाक दिलवाया जिस में पत्नी पति के घर सिर्फ 35 दिन रही और फिर मायके या अपने खुद के घर जा बैठी पर पति को तलाक देने को तैयार नहीं हुई. हिंदू पति के पास मुसलिम मर्द की तरह 3 तलाक ए हसन का हक होता तो वह अदालतों की कुरसियां 18 साल तक न तोड़ता रहता. उच्च न्यायालय ने उसे पत्नी की क्रूएलिटी की वजह से तलाक दिलवा दिया क्योंकि हिंदू मैरिज ऐक्ट में ब्रेकडाउन औफ मैरिज की बात कह कर तलाक लेने का हक दोनों को मिल कर या अकेले, दूसरे के मना करने के बावजूद नहीं है.

यह हिंदू औरत और हिंदू पुरुष दोनों के प्रति सनातनी सोच की वजह से सामाजिक अत्याचार है, जो मुसलिम कानून के 3 तलाक यानी तलाक ए इद्दत से ज्यादा खतरनाक और बेहूदा है. जब मियांबीवी की न बने तो वे अपनेअपने रास्ते पकड़ें यही सही है.

2004 में हुई शादी पर 35 दिन बाद ही घर छोड़ कर चले जाना पर तलाक न देना औरत को सनातन धर्म की वजह से करना पड़ता है. वह पत्नी जानती है कि पति का घर छोड़ कर आने के बाद यदि उसे तलाक मिल गया तो उस की हालत विधवा जैसी पापिन की हो जाएगी. वह न शृंगार कर पाएगी, न सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा ले पाएगी. हिंदू औरतों को तलाक के बाद पति नहीं मिलते क्योंकि लड़के तलाकशुदा औरत से शादी करने से डरते हैं. धर्म भी कहता है कि उन्हें अक्षत योनि वाली स्त्री से ही शादी करनी चाहिए.

इस मामले में अदालतों ने 10 साल लगाए. यह समाज की क्रूरता और धर्म के घरघर में घुसने की वजह से है. कानून अभी भी हिंदू शादी को संस्कार मानता है और 1956 के कानून के बावजूद जज तलाक देने में हिचकिचाता है. खासतौर पर जब तलाक मांगने पति आए.

हालांकि हिंदू सनातन धर्म औरतों को तुच्छ सम   झता है. आपस्तंब धर्मसूत्र स्पष्ट कहता है कि पत्नी पुत्र पैदा करने में सक्षम हो तो पुरुष पुनर्विवाह न करे पर यदि वह धार्मिक न हो, पुत्र (संतान ही नहीं) पैदा करने में सक्षम न हो तो अग्निहोत्र की अग्नि जलाने के पूर्व दूसरा विवाह कर लेना चाहिए. धर्मसूत्र की कंडिका 9 के सूत्र 13 में यह बात दोहराई गई है जो लगभग हर हिंदूग्रंथ में घुमाफिरा कर कही जाती रही है.

हिंदू औरत तलाक लेने में या देने में हिचकिचाती है क्योंकि उस का दूसरा विवाह नहीं होता, जबकि मुसलिम तलाकशुदा औरत की शादी जल्दी हो जाती है जैसे अमिताभ बच्चन, नूतन और पद्मा खन्ना को अरसे पहले भी फिल्म ‘सौदागर’ में दिखाया गया था.

अगर इस मामले में पत्नी

10 साल पति से अलग रह कर भी तलाक नहीं दे रही थी तो इसलिए कि वह तलाकशुदा नहीं कहलवाना चाहती थी. अभी भी मामला खत्म हुआ, यह पक्का नहीं. तलाकशुदा पत्नी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है और अगर मामला विचारार्थ ले लिया गया तो 5-7 साल फिर लग जाएंगे.

इसी सनातन धर्म का गुण गाया जाता है जो पतिपत्नी के बिस्तर तक घुसा हुआ है और उन्हें यह तक बताता है कि कब किस से कैसे विवाह करे या यौन संबंध बनाए. यह नियम धर्म या समाज की रक्षा के लिए नहीं, औरतों को गुलाम बनाए रखने के लिए है.

  संविधान बड़ा या धर्म

सनातन धर्म का नाम ले कर भाजपा के कट्टरपंथी और उन के अंधभक्त एक बार फिर वही पौराणिक युग लाना चाहते हैं जिस में औरतों को केवल दासी के समान, पति की सेवा, पिता-पति-पुत्र की आज्ञाकारिणी और बच्चे पैदा करने की मशीन सम   झा जाता था. हमारे अधिकांश देवता यही सिद्ध करने में लगे रहे कि औरतों का अपना कोई वजूद नहीं है जबकि समाज का एक वर्ग, एक बड़ा वर्ग, इन्हीं औरतों की देवी के रूप में पूजा करता रहा.

आजकल इस अलिखित पौराणिक कानून को संविधान के बराबर सिद्ध करने की कोशिश करी जा रही है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पुत्र उदयनिधि के सनातन धर्म के भेदभाव वाले बयान के कारण सनातन धर्म के दुकानदार तिलमिलाए हुए हैं क्योंकि उन्हें आधी आबादी केवल सेवा करने के लिए सदियों से मिलती रही है.

कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा है कि सनातन धर्म का अपमान करना संविधान का अपमान करना है. यह कैसे तर्क पर ठीक ठहरेगा? सनातन धर्म तो न लिखा गया है, न उस की अदालतें हैं और न ही उस में कोई बराबरी या न्याय का स्थान है जबकि संविधान लिखित है, अदालतों में उस की व्याख्या होती है. उस के दुकानदार नहीं हैं. इस का लाभ हर नागरिक और भारत निवासी को मिलता है.

सनातन धर्म का एक गुण भी भाजपाई नहीं बता सकते जबकि संविधान की हर धारा, हर पंक्ति नागरिक को सरकार के विरुद्ध कुछ अधिकार देती है. संविधान की ढाल में पैसा नहीं कमाया जा सकता जबकि सनातन धर्म का मुख्य ध्येय तो दानदक्षिणा है. पूजापाठ, देवीदेवता, रीतिरिवाज सभी सनातन के दुकानदारों को हलवापूरी का इंतजाम करते रहे हैं. हर मंदिर पैसे से लबालब भरा है और हर मंदिर में मौजूद हर जना इस पैसे का अघोषित मालिक है.

सनातन धर्म के केंद्र मंदिरों में देवदासियों का बोलबाला था, वहां नाचगाना होता था. वहां देश की 80% जनता को घुसने तक की इजाजत नहीं थी जबकि संविधान हर नागरिक को बराबर का हक देता है और औरतों को पुरुषों के बराबर खड़ा करता है.

अर्जुन राम मेघवाल ने धर्म की भगवा पट्टी आंखों पर बांध रखी हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता पर सच फिर भी छिपाया नहीं जा सकता कि सनातन धर्म की देन संविधान की देन के सामने तुच्छ, रेत के कण के बराबर है जबकि संविधान को तो अभी 75 वर्ष भी नहीं हुए.

ढोल पीटने की जरूरत नहीं थी

किसी भी उत्सव पर घरों, दुकानों, दफ्तरों को सजाना आम बात है. दीवाली, ओणम, ईद में तो ऐसा करते ही हैं पर शादी के समय जो कुछ किया जाता है उस से जगह एकदम चमचमा उठती है और मेहमान खुश हो कर आते हैं और वाहवाह कर के जाते हैं. अमीर तो बहुत कुछ करते हैं पर अब गरीब भी देखादेखी ऐसा कुछ करने लगे हैं. आज एक गरीब किसान मजदूर भी शादी पर क्व3-4 लाख खर्च कर डालता है, चाहे पैसा कहीं से भी आए.

भारत सरकार ने नरेंद्र मोदी को उभारने के लिए जी-20 सम्मेलन के लिए ऐसा ही कुछ किया. पूरी दिल्ली को लड़की वालों के घर की तरह सजाया गया और अपनी गरीबी, फटेहाली, बदबू, टूटे मकानों को छिपाने की पूरी कोशिश की गई. नरेंद्र मोदी यह कहते अघाते नहीं कि भारत विश्व की चौथीपांचवीं अर्थव्यवस्था है और इसीलिए बड़ेबड़े नेता आ रहे हैं. खर्च हो रहा है तो वाजिब है मगर यह न समझें कि आने वाले बरातियों को भारत की असलियत नहीं मालूम है.

140 करोड़ लोगों का देश होने की वजह से भारत चौथेपांचवें नंबर पर चाहे हो और उस की अर्थव्यवस्था 3 ट्रिलियन डौलर से ज्यादा हो पर यह न भूलें कि जी-20 की चमकदमक यह नहीं छिपा सकती कि आम भारतीय की आय

2,030 डौलर प्रतिवर्ष है जबकि नंबर 1 देश अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय 70 हजार डौलर है, हमारे औसत आदमी से 35 गुना ज्यादा. चीन में भी प्रति व्यक्ति आय 13 हजार डौलर है.

इसीलिए जी-20 पर किया खर्च सिर्फ अपनों को झूठी तसल्ली दिलाने की कोशिश है. गरीब के घर में छक कर खाते बाराती जानते हैं कि चमचम आशियाने के पीछे कैसा जर्जर मकान है और यह शानोशौकत न जाने कितने दिन पेट काट कर सोने की वजह से है.

जी-20 का सरगना होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के इस क्लब में एकएक कर के हर देश मेजबान बनता है. पिछले साल इंडोनेशिया था, अगले साल ब्राजील होगा. दोनों की कुल संपदा कम है पर दोनों के ही नागरिक भारत के नागरिकों से ज्यादा अमीर हैं.

जी-20 ने कोई ऐसा फैसला नहीं लिया है जिस से भारत को कोई फायदा हुआ है. जो बाइडन, ऋषि सुनक आदि से मेलमुलाकातों का मतलब यह नहीं कि वे अब भारत का लोहा मानने लगेंगे. 2003 में भी भारत ने मेजबानी की थी पर तब ऐसा हल्ला नहीं मचाया गया था क्योंकि इस में सभी देशों के राष्ट्रप्रमुख नहीं थे और केवल मं   झले स्तर पर मीटिंगें दिल्ली में हुई थीं.

2007 के बाद राष्ट्रप्रमुख आएंगे यह फैसला किया गया. भारत को जी-20 की चेयरमैन पिछले साल इंडोनेशिया से मिली थी और यह ऐसा नहीं कि हमारे यहां कोई बरात आ रही हो. यह केवल राष्ट्रप्रमुखों की किट्टी पार्टी है जिस में 2-3 के अलावा सब आए और मेजबान के रूप में हम ने सिर्फ ठहरने व खानेपीने की व्यवस्था की.

जो फैसले हुए वे पहले से तय ऐजैंडे पर थे और भारत का कोई दखल नहीं था. रूस के पुतिन नहीं आए और चीन के जिनपिंग भी नहीं आए.

इस मौके पर ढोल पीटने की जरूरत नहीं थी. हां, शहर को सजाना ठीक था पर उस तरह से नहीं जिस तरह किया गया. दिल्ली अब फालतू में कुछ दिन दूसरे शहरों से बहुत चमचमाती नजर आएगी जिस में श्रेय सिर्फ मोटे खर्च का है. गरीब भारतीय ने सूट पहन कर मेजबानी की है.

सत्ताधारी पार्टी की मनमानी

स्कूल  व कालेजों की टैक्स्ट बुक्स में बदलाव की फिराक में भारतीय जनता पार्टी सरकार उस दिन ही जुट गई जिस दिन वह सत्ता में आई थी. यह मामला अब गहरा गया है क्योंकि योगेंद्र यादव व सुहास पलशिकर ने एनसीईआरटी को नोटिस दिया कि उन के नाम टैक्स्ट बुक डैवलपमैंट कमेटी से हटा दिए जाएं क्योंकि इन किताबों को इतना बदल डाला गया है कि उन की असली शक्ल रह ही नहीं गई है. इतना ही नहीं, इन 2 के बाद 33 और विशेषज्ञों ने कह दिया कि सलाहकार समिति से उन के नाम हटा दिए जाएं.

विश्व के कई देशों में वहां की सरकारों ने पाठ्यपुस्तकों को बदल कर झूठा इतिहास और झूठी संस्कृति फैलाई. वर्ष 1917 के बाद सोवियत संघ में लेनिन और स्टालिन ने यह काम रूस में जम कर किया और 1932 में सत्ता में आने के बाद एडोल्फ हिटलर ने जरमनी में किया.

इतिहास और संस्कृति की झूठी व्याख्या के जरिए आम जनता को बहकाने का काम राजा लोग हमेशा करते रहे हैं. वे अपने को बड़ा, और बड़ा, ईश्वर के निकट दिखाने की कोशिश करते रहे हैं और इजिप्ट में अबू सिंबल के मंदिरों से ले कर राज्य के पिरामिडों तक किया गया. इस में दूसरे डरें या नहीं, देश की अपनी प्रजा जरूर प्रभावित हो व डर जाती है.

इस प्रचार का शासक को सब से बड़ा लाभ यह होता है कि उस के लिए जनता पर टैक्स लगाना आसान हो जाता है और इस संस्कृति व इतिहास की रक्षा के नाम पर विरोध करने वालों को मारने के लिए सेना, पुलिस व देशभर में फैले सरकारी गुंडा तत्त्वों को एक बल मिल जाता है.भारतीय जनता पार्टी को ये सब लाभ मिल रहे हैं. सरकार दनादन टैक्स बढ़ा रही है. बारबार नोटबंदी कर के पैसा लूट रही है.

पंडितों की अच्छी कमाई होने लगी है और देशभर में भव्य मंदिर व पार्टी के विशाल कार्यालय बनने लगे हैं. धर्म, संस्कृति, इतिहास की झूठी कहानियों को सुना कर भक्तों की फौज को कभी कांवड़ यात्रा में धकेला जाता है, कभी कुंभ में लाया जाता है तो कभी तीर्थों के लिए पहाड़ों, जंगलों और मैदानों के मंदिरों में ले जाया जाता है जो हर रोज फैल रहे हैं और जिन में गुप्त कमरों में धर्म है, औरतें हैं और हथियार भी. आम जनता इस ढोल को बजाने से सुखी हो रही है, इस की कोई गारंटी नहीं है.

पिछले साल ही कम से कम 6,500 अरबपति लोगों ने भारत छोड़ कर दूसरे देशों की नागरिकता ले ली. अमेरिका में ऊंचे पदों पर नौकरियों के लिए भारतीय युवा सब से आगे हैं. छोटेछोटे देशों ने इंग्लिश मीडियम के मैडिकल व इंजीनियरिंग कालेज खोल लिए हैं जहां अपनी संस्कृति व इतिहास का झूठा ढोल पीटने वाले हर रोज प्लेन में बैठ कर जा रहे हैं.

यह बदलाव अगर काम का होता तो भारत से बाहर बसे 3 करोड़ से ज्यादा मूल भारतीय भारत लौटते. इस महान इतिहास के बावजूद, भाजपाभक्ति के बावजूद भारतीय भाग रहे हैं तो इसलिए क्योंकि इस झूठ की सचाई सामने जो है.

लगामरहित सोशल प्लेटफौर्म

सोशल   मीडिया प्लेटफौर्मों में व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर के बाद अब फेसबुक की कंपनी से ट्विटर जैसा थ्रैड्स भी जुड़ गया है. सोशल मीडिया आज मुख्य मीडिया से ज्यादा महत्त्व का हो गया है. मुसीबत यह है कि इन सब का कोई संपादक नहीं है, कोई यह नहीं देख रहा है कि लोग जो फौरवर्ड कर रहे हैं या लिख रहे हैं वह मतलब का है या नहीं, भ्रामक है या नहीं, झूठा है या सच्चा, उकसाता है या थोड़ा मनोरंजन करता है आदिआदि.

दरअसल, सोशल मीडिया सुलभ है, हाथ में ले कर एकदूसरे से बात करने के लिए बने मोबाइल पर यह मिल रहा है, इसलिए इसे जम कर देखा जा रहा है. वहीं, इस पर बकवास करने वालों की भीड़ इतनी बड़ी हो गई है कि सही व समझदारी की बात ढूंढ़ना मुश्किल हो गया है.दुनिया की सारी सरकारें आज सोशल मीडिया से भयभीत हैं क्योंकि इस ने चौराहों पर होने वाली गपों को एक क्षेत्र तक सीमित न रख कर दुनियाभर में फैला दिया है. इस से जहां सरकारों की पोल खोली जा रही है वहीं सरकारों के समर्थक जम कर अपना प्रचार कर रहे हैं और आमजन सरकारी झूठ को सच मानने लगे हैं.

जो काम कभी समाचारपत्रों और पत्रिकाओं के लेखक-संपादक बड़ी गंभीरता और जिम्मेदारी से करते थे वही चीज आज नौसिखिए बिना आगेपीछा सोचे पोस्ट कर रहे हैं. सरकारों को उन मैसेजों की तो चिंता है जो सत्ता में बैठे नेताओं और जनता की परेशानियों पर खरीखोटी सुनाएं. पर जो उन की ?ाठी बड़ाई करें या फालतू के लोगों के स्वास्थ्य, चमत्कारी उपायों, डरावने व घिनौने वीडियो पोस्ट करें उन की कोई चिंता नहीं है.

मार्क जुकरबर्ग का थैड्स एलन मस्क के ट्विटर को नुकसान पहुंचा कर दोनों का बंटाधार कर दे तो अच्छा है वरना सोशल मीडिया उस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां यह सिर्फ लोगों को परियों की कहानियां सुनाने वाला रह गया है और उन्हें लगातार मानसिक दीवालिया बना रहा है. शातिर लोग पैसा बनाने या सिर्फ चख लेने के लिए जो बातें सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, वे तर्क, तथ्य, विवेक से दूर हैं. वे लोगों की सोचनेसमझने की शक्ति को कुंद कर रही हैं.

इन पर कंट्रोल करना सरकार का काम नहीं है, लोगों का खुद का है. यदि समाज को समझदारी और विशेषज्ञों की जानकारी चाहिए तो सोशल मीडिया कभी काम का नहीं हो सकता क्योंकि इस में कौन सा तथ्य कहां से आया, कभी पता नहीं चल सकता. बाजार में मजमा लगा कर झूठी कहानियों के बल पर मर्दानगी की दवाएं बेचने वालों से भी बदतर है यह क्योंकि वहां एक शक्ल तो होती है. सोशल मीडिया पर न पता है, न सूरत है, न स्रोत है.

लोग, बस, इस से भ्रमित हुए चले जा रहे हैं.सोशल मीडिया से लाभ हो रहा है तो टैक्नोलौजी देने वाले प्लेटफौर्मों को, जो मनचाहे मुनाफे विज्ञापनों से कमा रहे हैं. लोग इन विज्ञापनों से भी वैसे ही बहकाए जा रहे हैं जैसे अपने धर्मगुरुओं और नेताओं के चमत्कारों के माध्यम से बहकाए जाते हैं.

हायर एजुकेशन सरकार भी ले टैंशन

स्कूल के बाद एक सुनहरे भविष्य के निर्माण के लिए एक नवयुवा विश्वविद्यालयों की तरफ देखता है, जहां वह अपने इंटरैस्ट के अनुसार आगे उच्च शिक्षा हासिल कर सकता है. देश में लगभग हर साल लाखों स्टूडैंट्स 12वीं के एग्जाम के बाद विश्वविद्यालयों के लिए आवेदन की कतार में खड़े हो जाते हैं जिस में वे सफल होंगे, इस की संभावना 30 फीसदी से भी कम होती है.इस साल 2023 में करीब सवा सौ करोड़ से भी ज्यादा स्टूडैंट्स ने 12वीं का एग्जाम दिया, जिस में 80-90 प्रतिशत से भी अधिक पास हो गए. जाहिर है, इस के बाद ये सभी पास होने वाले छात्र देश के बड़ेबड़े कालेजों में एडमिशन की दौड़ में शामिल हो जाते हैं.

इस दौड़ में केवल वही छात्र जीत पाते हैं जिन की शिक्षा किसी सरकारी स्कूल से न हो कर बड़े प्राइवेट स्कूल से हुई हो क्योंकि उन की योग्यता अधिक होती है. एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला स्टूडैंट संसाधनों के अभाव व अध्यापक की कम रुचि के कारण उतना योग्य नहीं बन पाता जितना कि एक प्राइवेट स्कूल का स्टूडैंट.

ऐसे में वह अकसर एडमिशन की दौड़ में पीछे रह जाता है.भारत लगभग 1,000 विश्वविद्यालयों और 40,000 कालेजों के साथ दुनिया की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करता है पर वास्तविकता यह है कि इतनी बड़ी चेन होते हुए भी अधिकतर छात्र उन कालेजों या कोर्सों में एडमिशन नहीं ले पाते जिन में वे लेना चाहते हैं और उन्हें अपने भविष्य व सपनों के साथ समझता करना पड़ता है.एनईपी 2020 (नई शिक्षा नीति) कहती है, हमें अपनी जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए जबकि अभी सरकार शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.9 प्रतिशत ही खर्च कर रही है. जबकि, काफी समय से शिक्षाविदों की मांग रही है कि शिक्षा बजट को 10 प्रतिशत तक बढ़ाए जाने की जरूरत है.

सरकार का कहना है शिक्षा का खर्च 2013 की तुलना में दोगुना कर दिया गया है लेकिन मंदिरों और सरकारी इमारतों पर किया गया खर्च जिस तरह दिखाई देता है, वह खर्च शिक्षा संस्थानों में दिखाई नहीं देता. आज भी 12वीं पास करने वाला स्टूडैंट असमंजस की स्थिति में यहांवहां भटकता रहता है जिन में से गरीब निम्न क्लास स्टूडैंट एडमिशन की उम्मीदें तक छोड़ देता है और कई मामलों में तो पढ़ाई तक.भारत के कालेजों में इतनी सीटें नहीं हैं.

आकांशा सरकारी स्कूल से बीए पास कर चुकी है और एक आर्कियोलौजिस्ट बनना चाहती है. राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान और इंस्टिट्यूट औफ आर्कियोलौजी में सीटें इतनी कम हैं कि उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. 60 प्रतिशत नंबर के साथ उसे किसी सरकारी कालेज में एडमिशन मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा लगता है.

कटऔफ की होड़ से तो वह पहले ही बाहर हो चुकी है. अब प्रवेश परीक्षा ही एक रास्ता है पर क्या वह एंट्रैंस पास कर पाएगी, इस में उसे शक है, क्योंकि सरकारी और निजी स्कूलों के भेद ने पहले ही उस जैसे कई स्टूडैंट्स को रेखा से बाहर कर दिया है. आकांशा के लिए चिंता की बात यह है कि अगर वह नहीं कर पाती तो फिर उस के पास क्या रास्ता है.इस साल करीब 3,04,699 विद्यार्थियों ने डीयू के केंद्रीय विश्वविद्यालय सीयूइटी के माध्यम से डीयू की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया.

यहां हम केवल स्नातक या बीए की बात कर रहे हैं जबकि डीयू में केवल 59,554 सीटें ही हैं. ऐसे में जिन छात्रों का एडमिशन नहीं हो पाएगा, वे कहां जाएंगे. हर साल इसी तरह देश के युवाओं का एक बड़ा तबका उच्च शिक्षा की रेस से बाहर हो जाता है. इस की वजहों को सरकार दरकिनार कर जाती है. सरकारों का फोकस आज भी केवल मंदिर, स्टैच्यू आदि बनाने में है, न कि इन भटक रहे छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के इंतजाम के लिए.

शिक्षा की गुणवत्ताएक रिपोर्ट में, सरकार के अनुसार, 2014 के बाद से भारत में 5709 कालेज, 320 नए विश्वविद्यालय खोले गए. अब देश में कुल 23 आईआईटी, 25 आईआईआईटी, 20 आईआईएम और 22 एम्स हैं. शिक्षा का बजट दोगुना कर दिया गया.

ये सब कागजों में दिखाई पड़ते हैं, धरातल पर नहीं.अगर यह सही है तो फिर देश से विदेश पढ़ने जाने वालों की संख्या 7 लाख क्यों पार कर गई. शिक्षा मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार, 2022 में 7,70,000 से अधिक भारतीय छात्र अध्ययन के लिए विदेश गए, जो 6 साल का उच्चतम स्तर है. इस की भी एक खास वजह है. यदि महानगरों के विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो देश के अन्य राज्यों की भारतीय शिक्षा व्यवस्था छात्रों को वह वातावरण और अवसर नहीं दे पाती जो विदेशी विश्वविद्यालय देते हैं.

भारत में शिक्षा की गुणवत्ता आजादी के बाद से जस की तस बनी हुई है, जो दुनिया के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती. यही वजह है की नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार, 48 फीसदी इंजीनियरिंग छात्र बेरोजगार रह गए हैं. ये केवल सरकारी आकड़े हैं. सरकारी और वास्तविक आंकड़ों में कितना फर्क होता है, यह जगजाहिर है. वास्तविकता में 80 प्रतिशत से भी ज्यादा इस लायक नहीं कि एक इंजीनियर के तौर पर काम कर सकें. तो, वे यहांवहां छोटीमोटी नौकरियों में लगे हुए हैं.शिक्षा का कारोबारदेश के सरकारी विश्वविद्यालयों में फीस का क्या स्तर है, आप इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि कुछ कालेजों में बीए कोर्स में फीस 1 लाख से 7 लाख रुपए तक पहुंच जाती है.

अगर मैडिकल और आईआईटी की बात करें तो फीस 40-45 लाख रुपए तक पहुंच जाती है. उन में प्रवेश लेने का सपना एक गरीब स्टूडैंट देख भी नहीं सकता और यदि वह देख भी लेता है तो उस के लिए वहां, जहां केवल मजबूत घरों से आने वाले छात्र ही पढ़ते हैं, के लिए शिक्षा हासिल करना वैसा ही है जैसा किसी युद्ध की तैयारी करना. जिस के कारण कितनी ही बार मानसिक तनाव में आ कर विद्यार्थी आत्महत्या तक कर लेते हैं.

भारत का शिक्षातंत्र दोहरी व्यवस्था पर काम करता है जिस में सरकारी और निजी दोनों ही शामिल हैं, जिस की वजह से निजी कालेजों का कारोबार बड़ी तेजी से फलफूल रहा है. यही कारण है कि सरकारें अपने देश में नए कालेजों पर ध्यान नहीं दे रही हैं और न ही पुराने कालेजों के विकास पर ध्यान देती हैं. और, इस तरह पुराने ढर्रे पर चल रहे कालेज नई तकनीकी दुनिया से पिछड़ जाते हैं.

सरकारी कालेजों में सीटें नहीं हैं और निजी कालेजों की फीस इतनी ज्यादा है कि आकांशा जैसे छात्रों को अपने सपनों को मार देना पड़ता है और ऐसे ही किसी विषय को चुनना पड़ता है जो उस की पसंद का नहीं है या केवल उस वक्त वह उपलब्ध हो. यदि उसे फिर भी वही करना है तो एक भारीभरकम फीस के साथ उसे निजी कालेज में एडमिशन लेना होगा.

जो फिर भी उस का सफल भविष्य सुनिश्चित नहीं करती क्योंकि बेरोजगारी का 8 प्रतिशत आंकड़ा देश के जो हालात प्रस्तुत करता है वह बहुत ही भयावह सा लगता है.भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 और 2019 के बीच विदेश में पढ़ाई करने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीय छात्र घर लौटने पर रोजगार सुरक्षित करने में सफल रहे.

देश में हर साल जो लाखों छात्र 12वीं पास कर के निकलते हैं, देश की शिक्षा की लचर व्यवस्था के शिकार होते हैं. उच्च शिक्षा की जब बारी आती है तो देश एक बड़ा बाजार बन के सामने खड़ा हो जाता है. एक ऐसा बाजार जहां केवल वही लोग व्यापार कर सकते हैं जिन के पास अथाह पैसा है या जो सक्षम हैं. इस पर सरकारों को ध्यान देना चाहिए.

आस्ट्रिया, साइप्रस गणराज्य, चेक गणराज्य, डेनमार्क, फिनलैंड, जरमनी, ग्रीस, आइसलैंड, नौर्वे, पोलैंड, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया और स्वीडन सहित कई अन्य देशों मे या तो शिक्षा मुफ्त है या केवल कुछ हिस्सा ही फीस के तौर पर देना पड़ता है. दुनिया के ये देश विकसित केवल इसलिए हैं क्योंकि उन का शिक्षा पर पूरा फोकस है. इसलिए, जरूरत है शिक्षा के अधिक से अधिक अवसर छात्रों को मुहैया कराए जाने की.

असफलता से मिली सीख खोलती है जीत का रास्ता

हर किसी व्यक्ति को अपने जीवन में कभी ना कभी हार का सामना करना ही पड़ता है फिर वह चाहें करियर में हो बिज़नेस में हो, किसी रिश्ते में हो या जीवन की किसी भी परिस्थिति में. लेकिन यह हार हमें कुछ ना कुछ नया सबक अवश्य सिखाती है और अक्सर वहीं लोग अधिक कामयाब होते हैं जो अपनी हार से सीख लेते हैं ना की अपनी किस्मत को कोसते हैं. वृंद सतसई का दोहा, करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. रसरी आवत-जात ते सिल पर पड़त निशान. इस बात के लिए बिलकुल सटीक हैं कि यदि हम असफलता के बाद भी निरंतर प्रयास करते हैं तो कठिन से कठिन  कार्य भी आसान बन जाता है इसलिए जरूरी  हैं कि अपनी  गलतियों से सीख लें  और जीवन में सकरात्मक  सोच के साथ आगे बढ़ते रहें. क्योंकि आपकी सही सोच आपके लक्ष्य को पाने में मदद करती है.तो चलिए जानते हैं कुछ ऐसे टिप्स एंड ट्रिक्स जो आपको सफल बनाने में मदद करते हैं.

गलतियों से लें सीख

यदि हम अपनी हार को खुद पर हावी कर लेते हैं तो हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगती हैं लेकिन यदि अतीत में की गई  गलती से हम सबक लेते हैं तो निश्चित ही कामयाबी एक ना एक दिन हमारे कदम चूमती हैं. इसलिए अपने अतीत में की गई  गलती का पछतावा न करें  बल्कि अपनी खामियों और खूबियों को जाने व उन पर और काम करें व सकरात्मक  बदलाव के साथ आगे बढ़े.

डरना मना है

एक मूवी का बहुत ही फेमस डायलॉग हैं “जो डर गया सो मर गया ” और यह सही भी है जो इंसान डर  के सामने घुटने टेक लेता है और पीछे हट जाता है वो अपना आत्म विश्वाश बिलकुल खो देता है रोजमर्रा के कामकाजों तक में निर्णय लेने में वह असहज महसूस करते हैं  इसलिए जरूरी है कि  असफलता से डरें नहीं बल्कि डट कर सामना करें और सफल बने.

अपने सपने का पीछा करें

परिस्थिति कोई भी हो लेकिन असफलता मिलने पर हमें अपने सपनो को बिखरने  नहीं देना चाहिए बल्कि अपने अनुभवों से सीख लेनी चाहिए क्योंकि दोबारा प्रयास करतें समय आपकी शुरुआत शून्य से नहीं बल्कि अनुभव से होती है. इसलिए अपने सपने को पूरा करे बिना हार न  माने.

कम्फर्ट ज़ोन से हट कर कुछ नया करो

असफलता  हमें सिखाती है  कि हमें अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर कुछ अलग कुछ नया करना है कुछ लोग किसी भी काम को करने से पहले ही उससे डरने लगते हैं लेकिन हमें नकरात्मक विचारों को त्याग कर  सकरात्मक सोच के साथ कुछ नया करने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि जब तक  नया करने की कोशिश नहीं करेंगे तब तक हम आगे नहीं बढ़ सकते. साथ ही हमें कभी भी किसी और के जीवन से खुद की तुलना नहीं करनी चाहिए क्योंकि हर किसी व्यक्ति की क्षमता अलग होती है.

अक्षरज्ञान ही नहीं जूनून भी है जरूरी

हमें सफल बनने के लिए केवल डिग्री की आवश्यकता नहीं होती बल्कि जूनून की अवश्यकता होना बेहद  जरूरी है. कुछ लोग बिना किसी डिग्री के भी कामयाब होते हैं तो कुछ लोग पढ़े लिखें होने के बाद भी नाकामयाब रहते हैं सफलता के लिए, इंसान के अंदर जूनून और आगे बढ़ने की भूख होनी चाहिए. फिर कामयाबी आपके कदम अवश्य  चूमेगी.

महंगा पड़ता है कर्ज का जाल

फिल्मों में भव्य सैटों के पीछे बड़ी मेहनत होती है और हर फिल्म में आर्ट डाइरैक्टर का बड़ा काम होता है. नितिन देसाई ने  ‘1942 ए लव स्टोरी,’ ‘हम दिल दे चुके सनम,’ ‘लगान,’ ‘देवदास,’ ‘जोधा अकबर’ जैसी फिल्मों के सैट बना कर फिल्म इंडस्ट्री में उस का बड़ा नाम था. पर सफलता जब सिर पर चढ़ने लगती है तो अकसर अच्छेभले नाक के आगे देखना बंद कर देते हैं.

नितिन देसाई ने 2005 में कर्जत रोड, मुंबई के पास 52 एकड़ जगह में एक भव्य स्टूडियो बनाया और सोचा कि वह जल्द ही मालामाल हो जाएगा. बहुत सी फिल्मों और टीवी धारावाहियों की शूटिंग वहां हुई थी पर हर सफलता के लिए एक व्यावहारिक व व्यावसायिक बुद्धि चाहिए होती है. जिन के सपने ऊंचे होते हैं और कुछ सफलताओं के सर्टिफिकेट हाथ में होते हैं वे अकसर अपनी सीमाएं भूल जाते हैं नितिन देसाई भी उन्हीं में से एक था.

58 साल के नितिन देसाई पर 252 करोड़ का कर्ज चढ़ गया और उसे यह साफ हो गया कि सबकुछ बेचने के बाद भी यह कर्ज चुकाया नहीं जा सकता. इसलिए इस मेधावी, इन्नोवेटिव आर्ट डाइरैक्टर ने तमाशदारों की जिद के कारण अपने को फांसी लगा कर जीवन लीला समाप्त कर ली.

सफलता पर गर्व करना जरूरी है पर उस में अंधा हो जाना भी गलत है. नितिन देसाई जैसे लोग कागजों पर वैसे ही सपनों के महल बना लेते हैं जैसे वे कच्ची लकड़ी, प्लाईबोर्ड और प्लास्टर औफ पैरिस के महल बनाते हैं. कर्ज लेते समय उन्हें सफलता का पूरा अंदाजा होता है. व्यावहारिक बुद्धि काल्पनिक सैंटों में खो जाती है.

यह हर देशप्रदेश में होता है. सैकड़ों लोग केवल ओवर ऐंबीशियन में फिसल जाते हैं. देश के औद्योगिक क्षेत्र आज मरघटों की तरह लगते हैं तो इसलिए कि नितिन देसाई जैसों की कमी नहीं है. बैंक कर्जा दे तो देते हैं पर तब तक वसूली के पीछे पड़े रहते हैं, जब तक कर्ज लेने वाला कंगाल और कंकाल न बन जाए.

ताकि औरतों का मुंह बंद रहे

यूनिफौर्म सिविल कोड का मसला कश्मीर और 3 तलाक की तरह कट्टर हिंदुओं को बहुत भाता है. उन्हें लगता है कि मुसलिम पुरुष 4-4 शादियां कर के मौज करते हैं और बच्चे पैदा कर अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं. वे यह भूल जाते हैं कि अगर मुसलमानों के लिए भी एक ही शादी की लिमिट कानूनी हो जाए तो भी समाज एक से ज्यादा शादियां होते रहने देगा और पहली औरतें सिवा अपने कमाऊ, घर मुहैया कराने वाले खाविंद को जेल भेज कर खुद बेकार हो जाएंगी.

हर समाज में सुधार होते रहने चाहिए और दुनिया को तार्किक व बराबरी के लक्ष्य की ओर चलते रहना चाहिए पर आज का हिंदू पारिवारिक कानून अभी भी पौराणिक नियमों के हिसाब से चल रहा है और यूनिफौर्म सिविल कोड इस हिस्से को छूने की भी कोशिश नहीं कर सकता क्योंकि इस से पंडों की रोजीरोटी का सवाल जुड़ा है.आज कितने हिंदू परिवार हैं जो कुंडली देख कर शादी नहीं करते?

आज कितने घर दूसरी जाति में शादी बड़ी खुशीखुशी कर देते हैं? 1956 और 2005 के कानूनों के बावजूद कितनी औरतों को पिता की संपत्ति में हिस्सा और बराबर का हिस्सा मिल रहा है?आज कितने हिंदू परिवार हैं जिन में बेटे की चाह नहीं है? कितने घर हैं जिन में बेटी अपने पिता का घर शादी पर छोड़ कर पति के पिता के घर नहीं जाती? बराबरी के कानून की बात करने वाले क्या साबित कर सकते हैं कि सभी हिंदू गरीब दलित गरीब परिवारों में 2 से कम बच्चे पैदा हो रहे हैं?

कानून में बदलाव समाज की मांग पर होना चाहिए पर विज्ञान के युग में जब इसरो के चेयरमैन खुद पाखंडबाजी करते हुए पूजापाठ कर सफल चंद्रयान-3 प्रोजैक्ट का धन्यवाद किसी मंदिर को देते हैं और प्रधानमंत्री उस स्थान का नाम हिंदू देवता शिव पर रखते हैं तो हम कौन सी आधुनिकता, कौन सी बराबरी की बात कर रहे हैं?जैसे 3 तलाक के बारे में कानून बनने पर हिंदुओं के कलेजे में ठंडक तो पड़ गई पर यह आंकड़ा किसी के पास नहीं होगा कि क्या मुसलिम औरतें तलाक की त्रासदी से बच गईं?

जब हिंदू औरतें ही कानूनी ढाल के बावजूद तलाक देने या न देने पर वर्षों अदालतों के चक्कर काटती रहती हैं तो कौन सी बराबरी की बात करते हैं?आज हिंदू औरतों के लिए सामाजिक सुधारों की जरूरत है कि वे कलश उठाए सड़कों पर नंगे पैर चलने को मजबूर न हों, कि वे घंटों घर का काम टाल कर घंटों किसी जगह बैठ कर घंटियां न बजाएं, कि वे विधवा या तलाकशुदा होने पर समाज से बहिष्कृत न की जाएं, कि वे भाई से बराबर का हिसाब मांगने पर घर तोड़ने वाली संस्कारहीन न कहलाएं जबकि उन के 2 भाई घर तोड़ दें तो कोई उंगली नहीं उठाता.

अगर देश में पितृसत्तात्मक समाज है तो बहुसंख्यक होने के कारण वह हिंदू समाज ही है जिस की केवल कुछ चुनिंदा औरतें अपना वजूद रखती हैं. यूनिफौर्म सिविल कोड एक भ्रांति को पूरा करने के लिए एक खाई को चौड़ा करने का काम है. यह सुधार मुसलिम महिलाओं को मांगना चाहिए. उन्हें पढ़ने के मौके दिए जाने चाहिए पर जब हिंदू लड़कियां ही पढ़लिख कर किट्टी पार्टियों और सत्संगों में अपना समय काट रही हैं तो उस पढ़ाई का भी क्या फायदा?ये यूसीसी का शिगूफा केवल औरतों का मुंह बंद करने के लिए है. इस चक्कर में हिंदू कानूनों के सुधारों की बात उठनी बंद हो चुकी है.

जो हिंदू सुधार की बात करता है उसे हिंदू धर्म विरोधी कहने को देर नहीं लगती है. वे औरतें अरबन नक्सल कही जाने लगती हैं, देशद्रोही मानी जाने लगती हैं क्योंकि वे पुराणसम्मत नियम जिन का जीताजागता उदाहरण नरेंद्र मोदी के नए संसद भवन के उद्घाटन के समय दिया था.यूनिफौर्म सिविल कोड की यूनिफौर्म मैनेबिलिटी और ऐक्स्पटेबिलिटी कोड जो तर्क व विज्ञान पर आधारित हो बनना जरूरी है.

सरकार को तो मंदिर बनाने की चिंता है

सरकार ने कोटा में सुसाइडों के बढ़ते मामलों को बड़ी चतुराई से अपने समर्थक मीडियाकी सहायता से मांबाप की इच्छाओं और कोटा के किलिंग सैंटरों पर मढ़ दिया. कोटा में 15 से 22 साल के लगभग 2 लाख युवा मांबाप से मोटा पैसा ले कर जेईई, नीट, आईएएस और इन जैसे अन्य सैकड़ों ऐग्जामों की तैयारी के लिए आते हैं ताकि बाद में उन्हें नामीगिरामी इंस्टिट्यूटों में ऐडमिशन मिल जाए.

\इन युवकों और युवतियों के मांबाप इस उम्मीद में अपना पेट काट कर, जमापूंजी लगा कर, लोन ले कर, मकान, खेत बेच कर कोटा जैसे शहरों में भेजते हैं. कुछ तो अपने साथ मां को भी ले आते हैं ताकि घर का खाना भी मिल सके.दिक्कत यह है कि  जितने युवा 12वीं पास कर के निकल रहे हैं, कालेजों में आज उतनी जगह नहीं है. कांग्रेस सरकारों ने समाजवादी सोच में धड़ाधड़ सरकारी स्कूल खोले, मोटा वेतन दे कर टीचर रखे, बड़ीबड़ी बिल्डिंगें बनाईं.

जब दूसरी तरह की भाग्यवाद में भरोसा करने वाली सरकारें आने लगीं तो ये सरकारी स्कूल बिगड़ने लगे और इन की जगह इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल खुलने लगे जो कई गुना महंगे थे पर लगभग कोई बच्चा स्कूल न होने की वजह से पढ़ाई न कर पा रहा हो ऐसा नहीं हुआ.

देश में हर साल 12वीं कक्षा पास कर के निकलने वालों की गिनती 1 करोड़ से ज्यादा है. 2022 में 1 करोड़ 43 लाख युवा 12वीं कक्षा के ऐग्जाम में बैठे और उन में से 1 करोड़ 24 लाख पास हो गए.अब सरकार के पास क्या इन 1 करोड़ 24 लाख को आगे मुफ्त या अफोर्डबिलिटी के हिसाब से आगे पढ़ाई रखने का इन्फ्रास्ट्रक्चर है, नहीं? सरकारें इन की बातें ही नहीं करतीं क्योंकि शासक नहीं चाहते कि ये सब पढ़लिख कर बराबरी की पहुंच में आ जाएं.

इसलिए ऊंची पढ़ाई में कम फीस वाले मैडिकल कालेजों में सिर्फ 8,500 सीटें सरकारी मैडिकल कालेजों में हैं और प्राइवेट कालेजों में 47,415 सीटें जिन में खर्च लाखों का है. इंजीनियरिंग कालेजों में 15,53,809 सीटें हैं पर आईआईटी जैसे इंस्टिट्यूटों की सीटें मुश्किल से 10,000-12,000 हैं जहां फीस क्व10-15 लाख तक होती है.सरकारी आर्ट्स कालेजों का तो बुरा हाल है. वहां न अंगरेजी पढ़ाई जाती है, न हिंदी, न फिलौसफी, न कौमर्स. ज्यादातर में ऐडमिशन दे दिया और छुट्टी. पर वे भी 1 करोड़44 लाख युवाओं के लायक नहीं हैं.

शिक्षा को माफिया खेल सरकार ने बनाया है. एक तरफ ऊंचे संस्थान कम रखे और दूसरी ओर स्कूलों की पढ़ाई बिगड़ने दी. सरकारी स्कूलों के फेल स्टूडैंट ही नूंह जैसी यात्रा में धर्म के नाम पर सिर फोड़ने के लिए आगे आते हैं. उन्हें कैरियर बनाने के मौके मिलने लगें तो कांवडि़यों, मंदिरों की कतारों और धर्म यात्राओं की कमी होने लगेगी.  मांबाप इस सरकारी निकम्मेपन के शिकार हैं.

कोचिंग इंस्टिट्यूट उस तंदूर में रोटियां सेंक रहे हैं जो सरकार ने जला डाला पर हर कोने पर रखे ताकि उन की आग का इस्तेमाल घरों को जलाने में भी लाया जा सके. अगर कोचिंग इंस्टिट्यूट ढील दें या सुविधा देंगे तो उन की फीस बढ़ जाएगी या उन के स्टूडैंट पिछड़ जाएंगे.जेईई, नीट, यूपीएससी की परीक्षा के रिजल्ट के अगले दिन अखबारों में पूरे पेज के ऐडवरटाइजमैंट युवा चेहरों से भरे होते हैं कि देखो यहां लाखों रुपए खर्च कर के जो पढ़े उन्हें सिलैक्ट कर लिया गया है.

इस स्थिति पर मांबाप लाए हैं या कोचिंग इंस्टिट्यूट? नहीं, सिर्फ सरकार जो1 करोड़ 44 लाख युवाओं को अच्छी कमाई के लिए स्कौलर बनाने की तैयारी नहीं कर पा रही है उसे अपने पैसों से मतलब है.  जीएसटी के क्व2 लाख करोड़ हर माह के टारगेट की चिंता है. उसे मंदिर बनाने की चिंता है. उसे अमीरों के लिए सड़कें बनानी हैं जिन पर 20 लाख से कम की गाडि़यों को हिकारत से देखा जाता है.दोष मांबाप का नहीं. उन्हें जो सरकार या समाज दे रहा है वे उसी के अनुसार रहेंगे.

वे अपने युवा बेटेबेटियों का जीवन थोथले सिद्धांतों के लिए बलिदान नहीं कर सकते. वे तो खर्च करेंगे और दबाव बनाएंगे ही. इस दबाव में कुछ आत्महत्या कर लेंगे तो सरकार बैंड एड लगा कर कहींकहीं कानून बना देगी और कुछ नहीं.मांबाप को गिल्ट से परे रहना चाहिए. उन्हें बेटेबेटियों को वह बनाना ही होगा जो कल उन का भविष्य सुधारें. उन्हें आवारागर्दी वाली लाइनों में भेज कर आज वे खुश हो सकते हैं कि उन्होंने अपनी संतानों की मान ली पर अगले 50 साल वे पक्का रोएंगे.

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