स्कूल के बाद एक सुनहरे भविष्य के निर्माण के लिए एक नवयुवा विश्वविद्यालयों की तरफ देखता है, जहां वह अपने इंटरैस्ट के अनुसार आगे उच्च शिक्षा हासिल कर सकता है. देश में लगभग हर साल लाखों स्टूडैंट्स 12वीं के एग्जाम के बाद विश्वविद्यालयों के लिए आवेदन की कतार में खड़े हो जाते हैं जिस में वे सफल होंगे, इस की संभावना 30 फीसदी से भी कम होती है.इस साल 2023 में करीब सवा सौ करोड़ से भी ज्यादा स्टूडैंट्स ने 12वीं का एग्जाम दिया, जिस में 80-90 प्रतिशत से भी अधिक पास हो गए. जाहिर है, इस के बाद ये सभी पास होने वाले छात्र देश के बड़ेबड़े कालेजों में एडमिशन की दौड़ में शामिल हो जाते हैं.
इस दौड़ में केवल वही छात्र जीत पाते हैं जिन की शिक्षा किसी सरकारी स्कूल से न हो कर बड़े प्राइवेट स्कूल से हुई हो क्योंकि उन की योग्यता अधिक होती है. एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला स्टूडैंट संसाधनों के अभाव व अध्यापक की कम रुचि के कारण उतना योग्य नहीं बन पाता जितना कि एक प्राइवेट स्कूल का स्टूडैंट.
ऐसे में वह अकसर एडमिशन की दौड़ में पीछे रह जाता है.भारत लगभग 1,000 विश्वविद्यालयों और 40,000 कालेजों के साथ दुनिया की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करता है पर वास्तविकता यह है कि इतनी बड़ी चेन होते हुए भी अधिकतर छात्र उन कालेजों या कोर्सों में एडमिशन नहीं ले पाते जिन में वे लेना चाहते हैं और उन्हें अपने भविष्य व सपनों के साथ समझता करना पड़ता है.एनईपी 2020 (नई शिक्षा नीति) कहती है, हमें अपनी जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना चाहिए जबकि अभी सरकार शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.9 प्रतिशत ही खर्च कर रही है. जबकि, काफी समय से शिक्षाविदों की मांग रही है कि शिक्षा बजट को 10 प्रतिशत तक बढ़ाए जाने की जरूरत है.
सरकार का कहना है शिक्षा का खर्च 2013 की तुलना में दोगुना कर दिया गया है लेकिन मंदिरों और सरकारी इमारतों पर किया गया खर्च जिस तरह दिखाई देता है, वह खर्च शिक्षा संस्थानों में दिखाई नहीं देता. आज भी 12वीं पास करने वाला स्टूडैंट असमंजस की स्थिति में यहांवहां भटकता रहता है जिन में से गरीब निम्न क्लास स्टूडैंट एडमिशन की उम्मीदें तक छोड़ देता है और कई मामलों में तो पढ़ाई तक.भारत के कालेजों में इतनी सीटें नहीं हैं.
आकांशा सरकारी स्कूल से बीए पास कर चुकी है और एक आर्कियोलौजिस्ट बनना चाहती है. राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान और इंस्टिट्यूट औफ आर्कियोलौजी में सीटें इतनी कम हैं कि उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. 60 प्रतिशत नंबर के साथ उसे किसी सरकारी कालेज में एडमिशन मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा लगता है.
कटऔफ की होड़ से तो वह पहले ही बाहर हो चुकी है. अब प्रवेश परीक्षा ही एक रास्ता है पर क्या वह एंट्रैंस पास कर पाएगी, इस में उसे शक है, क्योंकि सरकारी और निजी स्कूलों के भेद ने पहले ही उस जैसे कई स्टूडैंट्स को रेखा से बाहर कर दिया है. आकांशा के लिए चिंता की बात यह है कि अगर वह नहीं कर पाती तो फिर उस के पास क्या रास्ता है.इस साल करीब 3,04,699 विद्यार्थियों ने डीयू के केंद्रीय विश्वविद्यालय सीयूइटी के माध्यम से डीयू की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया.
यहां हम केवल स्नातक या बीए की बात कर रहे हैं जबकि डीयू में केवल 59,554 सीटें ही हैं. ऐसे में जिन छात्रों का एडमिशन नहीं हो पाएगा, वे कहां जाएंगे. हर साल इसी तरह देश के युवाओं का एक बड़ा तबका उच्च शिक्षा की रेस से बाहर हो जाता है. इस की वजहों को सरकार दरकिनार कर जाती है. सरकारों का फोकस आज भी केवल मंदिर, स्टैच्यू आदि बनाने में है, न कि इन भटक रहे छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के इंतजाम के लिए.
शिक्षा की गुणवत्ताएक रिपोर्ट में, सरकार के अनुसार, 2014 के बाद से भारत में 5709 कालेज, 320 नए विश्वविद्यालय खोले गए. अब देश में कुल 23 आईआईटी, 25 आईआईआईटी, 20 आईआईएम और 22 एम्स हैं. शिक्षा का बजट दोगुना कर दिया गया.
ये सब कागजों में दिखाई पड़ते हैं, धरातल पर नहीं.अगर यह सही है तो फिर देश से विदेश पढ़ने जाने वालों की संख्या 7 लाख क्यों पार कर गई. शिक्षा मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार, 2022 में 7,70,000 से अधिक भारतीय छात्र अध्ययन के लिए विदेश गए, जो 6 साल का उच्चतम स्तर है. इस की भी एक खास वजह है. यदि महानगरों के विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो देश के अन्य राज्यों की भारतीय शिक्षा व्यवस्था छात्रों को वह वातावरण और अवसर नहीं दे पाती जो विदेशी विश्वविद्यालय देते हैं.
भारत में शिक्षा की गुणवत्ता आजादी के बाद से जस की तस बनी हुई है, जो दुनिया के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती. यही वजह है की नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार, 48 फीसदी इंजीनियरिंग छात्र बेरोजगार रह गए हैं. ये केवल सरकारी आकड़े हैं. सरकारी और वास्तविक आंकड़ों में कितना फर्क होता है, यह जगजाहिर है. वास्तविकता में 80 प्रतिशत से भी ज्यादा इस लायक नहीं कि एक इंजीनियर के तौर पर काम कर सकें. तो, वे यहांवहां छोटीमोटी नौकरियों में लगे हुए हैं.शिक्षा का कारोबारदेश के सरकारी विश्वविद्यालयों में फीस का क्या स्तर है, आप इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि कुछ कालेजों में बीए कोर्स में फीस 1 लाख से 7 लाख रुपए तक पहुंच जाती है.
अगर मैडिकल और आईआईटी की बात करें तो फीस 40-45 लाख रुपए तक पहुंच जाती है. उन में प्रवेश लेने का सपना एक गरीब स्टूडैंट देख भी नहीं सकता और यदि वह देख भी लेता है तो उस के लिए वहां, जहां केवल मजबूत घरों से आने वाले छात्र ही पढ़ते हैं, के लिए शिक्षा हासिल करना वैसा ही है जैसा किसी युद्ध की तैयारी करना. जिस के कारण कितनी ही बार मानसिक तनाव में आ कर विद्यार्थी आत्महत्या तक कर लेते हैं.
भारत का शिक्षातंत्र दोहरी व्यवस्था पर काम करता है जिस में सरकारी और निजी दोनों ही शामिल हैं, जिस की वजह से निजी कालेजों का कारोबार बड़ी तेजी से फलफूल रहा है. यही कारण है कि सरकारें अपने देश में नए कालेजों पर ध्यान नहीं दे रही हैं और न ही पुराने कालेजों के विकास पर ध्यान देती हैं. और, इस तरह पुराने ढर्रे पर चल रहे कालेज नई तकनीकी दुनिया से पिछड़ जाते हैं.
सरकारी कालेजों में सीटें नहीं हैं और निजी कालेजों की फीस इतनी ज्यादा है कि आकांशा जैसे छात्रों को अपने सपनों को मार देना पड़ता है और ऐसे ही किसी विषय को चुनना पड़ता है जो उस की पसंद का नहीं है या केवल उस वक्त वह उपलब्ध हो. यदि उसे फिर भी वही करना है तो एक भारीभरकम फीस के साथ उसे निजी कालेज में एडमिशन लेना होगा.
जो फिर भी उस का सफल भविष्य सुनिश्चित नहीं करती क्योंकि बेरोजगारी का 8 प्रतिशत आंकड़ा देश के जो हालात प्रस्तुत करता है वह बहुत ही भयावह सा लगता है.भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 और 2019 के बीच विदेश में पढ़ाई करने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीय छात्र घर लौटने पर रोजगार सुरक्षित करने में सफल रहे.
देश में हर साल जो लाखों छात्र 12वीं पास कर के निकलते हैं, देश की शिक्षा की लचर व्यवस्था के शिकार होते हैं. उच्च शिक्षा की जब बारी आती है तो देश एक बड़ा बाजार बन के सामने खड़ा हो जाता है. एक ऐसा बाजार जहां केवल वही लोग व्यापार कर सकते हैं जिन के पास अथाह पैसा है या जो सक्षम हैं. इस पर सरकारों को ध्यान देना चाहिए.
आस्ट्रिया, साइप्रस गणराज्य, चेक गणराज्य, डेनमार्क, फिनलैंड, जरमनी, ग्रीस, आइसलैंड, नौर्वे, पोलैंड, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया और स्वीडन सहित कई अन्य देशों मे या तो शिक्षा मुफ्त है या केवल कुछ हिस्सा ही फीस के तौर पर देना पड़ता है. दुनिया के ये देश विकसित केवल इसलिए हैं क्योंकि उन का शिक्षा पर पूरा फोकस है. इसलिए, जरूरत है शिक्षा के अधिक से अधिक अवसर छात्रों को मुहैया कराए जाने की.