सच के फूल- भाग 1: क्या हुआ था सुधा के साथ

सुधा भागती चली जा रही थी, भागते हुए उसे पता नहीं चला कि वह कितनी दूर आ गई है. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया हो. उसे जल्दी से जल्दी इस शहर से भाग जाना है. उसे सम झ में आ गया था वह अच्छे से बेवकूफ बनी है. घर से भाग कर उस ने भारी भूल कर दी. विकी ने उसे धोखा दिया है. अगर वह आज भागने में कामयाब हो गई  तभी वह बच पाएगी.  दिल्ली शहर उस के लिए एकदम नया है. वह स्टेशन जाएगी और किसी तरह…

तभी किसी ने उसे पकड़ कर खींचा, ‘‘अरे दीदी देख कर चलो न अभी मोटर के नीचे आ जाती.’’

सुधा कांपने लगी. उसे लगा जैसे विकी ने उसे पकड़ लिया. ये स्कूल से लौटते छोटे बच्चे थे बच्चे आगे बढ़ गए. उस ने औटो को रोका, ‘‘मैडम आप अकेली जाएंगी या मैं और सवारी बैठा लूं.’’

‘नहींनहीं हम को स्टेशन जाना है… ट्रेन पकड़नी है… जल्दी है.’’

‘‘एक सवारी का ज्यादा लगेगा.’’

‘‘ठीक है चलो.’’

संयत हो बोली, ‘‘आप बिहार से है.’’

सुधा घबडाई हुई थी उसे गुस्सा आ गया ‘‘काहे बिहारी को नहीं बैठाते हो उतर जायें.’’

‘‘ अरे नहीं नहीं मैडम इहां का लोग तनी ‘मैं’ ‘मैं’ करके बतियाता है इसी कारण.’’

सुधा को अगर विकी पर शक नहीं होता तब वह भाग भी नहीं पाती. कितना कमीना है विकी उसे बरबाद करना चाहता था. कैसे चालाकी से वह भागी है. वह होटल में घुसी तभी उसे संदेह हो गया था. कितना गंदा लग रहा था वह होटल और वह बूढ़ा रिसैप्शिनष्ट… मोटे चश्में के अंदर से  कितनी गंदी तरह से घूर रहा था. वह बारबार विकी को उस के मामा के यहां चलने के लिए बोल रही थी पर वह सुन नहीं रहा था. फिर भी वह आश्वस्त थी. उस ने घर से भागकर कोई गलती नहीं की है. वह विकी से प्यार करती है. वह जानती है पापा कभी तैयार नहीं होंगे क्योंकि दोनों की जाति अलगअलग है.

जब सुधा वाशरूम गई तो उस ने अपने कानों से सुन लिया, ‘‘हां यार मेरे साथ भाग कर आई है.’’

‘‘शादी करने?’’

‘‘अरे नहीं यार ऐसे सब से शादी करता रहूंगा… तब तो अब तक मेरी 7-8 शादियां हो गई होतीं.’’

अगर सुधा उस का फोन नहीं सुन पाती तब आज उस की इज्जत तारतार हो चुकी होती सोच कर वह अंदर तक कांप गई. वह अभी तक की घटनाओं को याद करने लगी. अभी कल की ही बात है. वह ट्यूशन के बहाने विकी के साथ निकली थी. विकी ने उस से कुछ पैसे लाने को कहा था. मां के बटुए से 17 हजार नकद और मां के कुछ गहने भी ले लिए थे. उस ने सारे पैसे विकी को दे दिए थे.

‘‘बस इतने ही?’’ विकी ने कहा.

‘‘और है देती हूं वाशरूम से आ कर,’’ वाशरूम में जाते उसे सारा मामला सम झ आ गया.

जब उस ने देर लगाई तब विकी ने पुकारा, ‘‘सुधा सब ठीक है न?’’

‘‘हां सब ठीक है आ रही हूं.’’

आ कर उस ने विकी से कहा, ‘‘विकी डियर देखो न बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई है.’’

‘‘क्या हुआ?’’ विकी अधीर होने लगा.

‘‘कैसे बताऊं मु झे शर्म आ रही है,’’ सुधा  िझ झकने लगी.

‘‘अरे यार बताओ न अब हम से शर्म कैसी… बताओ जल्दी.’’

‘‘विकी वह बात है कि…’’ वह रुक गई विकी घबरा गया. बोला, ‘‘जल्दी बताओ न सुधा.’’

‘‘मु झे पीरियड आ गया है तुरंत पैड चाहिए.’’

‘‘ले कर नहीं आई हो?’’ वह  झल्ला कर बोला.

‘‘पागल हो किसी तरह भाग कर आई हूं तुम ला दो न.’’

‘‘मैं कैसे लाऊं तुम खुद जा कर ले आओ.’’

‘‘दुकान कहां है… मैं कैसे…’’

‘‘होटल से बाहर जा कर बाएं जाना वहां मैडिकल स्टोर है.’’

‘‘पैसा दो,’’ वह बोली.

‘‘जेवर लाई हो न… हम बोले थे न…’’

‘‘नहीं ला पाई बैंक में हैं,’’ उस ने  झूठ बोला.

‘‘कितने का मिलता है पैड.’’

‘‘मुझे क्या पता मां लाती है.’’

‘‘लो बस वही लेना और खर्च मत करना… बगल में है दुकान पैदल जाना… पैसे बचाने हैं.’’

‘‘हां मैं अभी ले कर आती हूं.’’

बस फिर वह भाग निकली. अगर वह भाग नहीं पाती तब? उस की आंखों में आंसू आ गए. तभी ड्राइवर क मोबाइल बजा तो उसे याद आया उस का मोबाइल तो वहीं छूट गया चार्ज में लगा रह गया. अच्छा हुआ अब वह मेरी लोकेशन पता नहीं लगा पाएगा. अब तक तो उसे पता चल गया होगा कि मैं उस के चंगुल से भाग चुकी हूं.

स्टेशन उतर कर सुधा तेजी से वेटिंगरूम की ओर बढ़ गई. उस ने वाशरूम में जा कर कुरते के अंदर छिपाया हुआ छोटा बटुआ निकाला जिस के बारे में उस ने विकी को नहीं बताया था. उस में मां के कुछ जेवरों के साथ 13 सौ रुपए थे.

कितनी गंदी औलाद है वह… अपने मांबाप की इज्जत की थोड़ी भी परवाह नहीं की. क्या हाल हो रहा होगा उन लोगों का. पापा और मां का सोच वह फूटफूट कर रोने लगी. जब मन शांत हो गया तब सोचने लगी कि कहीं विकी उसे स्टेशन ढूंढ़ने न चला आए पर कैसे बाहर निकले. बाहर अभी भी खतरा है. टिकट तो लेना है कैसे लूं.

तभी पास में 2 औरतें आ कर बैठ गईं, ‘‘दीदी मैं टिकट ले कर आ रही हूं, तुम यहीं बैठो. आप जरा मेरी दीदी को देखेंगी इस की तबीयत ठीक नहीं है,’’ सुधा को देख कर एक औरत बोली,

‘‘पर मु झे भी टिकट लेना है,’’ सुधा बोली.

‘‘मैं जा रही हूं. आप बता दीजिए.’’

‘‘मेरा टिकट पटना के गरीब रथ में चेयर कार का ले लीजिएगा,’’ उस ने पर्स से पैसे निकाल कर दे दिए. दोनों बहनें टिकट ले कर चली गईं.

ट्रेन समय पर थी. सुधा ने चुन्नी से अपने पूरे मुंह को कवर कर लिया कि कहीं कोई पहचान वाला न मिल जाए. बैठने के बाद उसे घर की यादें सताने लगीं. जब वह घर जाएगी तो क्या होगा? अगर मांपापा ने घर के अंदर घुसने नहीं दिया तब?

वह सोच में थी तभी बगल की सीट पर एक सज्जन आ कर बैठे. वे लगातार सुधा को देख रहे थे. सुधा की रोती आंखों को देख कर उन को कुछ शंका हो रही थी. सुधा कोशिश कर रही थी कि वह सामान्य रहे पर मन की चिंताएं, परेशानियां उसे सामान्य नहीं रहने दे रही थीं. घर से भागना मांबाप की बेइज्जती, विश्वास को ठेस पहुंचाना सब उसे और विह्ववल कर रहे थे.

उन सज्जन से नहीं रहा गया तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, तुम ने किसी को खो दिया है?’’

वह कुछ नहीं बोली पर रोना जारी था.

‘‘मु झे लगता है बेटा तुम से कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है.’’

सुधा ने बडे़ अचरज से उन को देखा कि यह आदमी है या कोई देवदूत… मन की बात इन्हें कैसे पता चल गई.

‘‘देखो रोओ मत शांत हो कर मु झे बताओ शायद मैं मदद कर सकूं.’’

सुधा बो िझल बैठी थी उसे लगा सचमुच शायद मदद कर दें. उस ने धीरेधीरे सारी बातें बता दीं. उसे कैसे विकी ने  झूठे प्यार के जाल में फंसाया फिर घर से भागने को उकसाया… पैसे मंगवाना…

वे चुपचाप सुनते रहे फिर पूछा, ‘‘कहां रहती हो और कहां जा रही हो?’’

‘‘ मेरा घर पटना में है, लेकिन मैं गया अपनी सहेली के यहां जा रही हूं.’’

‘‘ घर क्यों नहीं?’’

‘‘किस मुंह से जाऊं टिकट पटना का है पर हिम्मत नहीं हो रही है,’’ और वह रोने लगी.

सच के फूल- भाग 2: क्या हुआ था सुधा के साथ

उन्होंने चुप रहने को कहा और बोले, ‘‘सुनो मांबाप से बढ़ कर माफ करने वाला कोई नहीं है. तुम सीधा अपने घर जाओ और सब सचसच बता दो. सचाई में बड़ी ताकत होती है. वे लोग तुम्हारे पछतावे को भी सम झेंगे और माफ भी करेंगे साथ ही सीने से लगाएंगे.’’

‘‘और मैं कैसे अपनेआप को माफ कर पाएंगी,’’ कह कर सुधा रोने लगी.

‘‘अपनेआप को सुधार कर एक अच्छी बेटी बन कर,’’ अंकल ने सम झाया, ‘‘देखो बेटी कुदरत ने सभी को सोचनेसम झने की बराबर शक्ति दी है. जो लोग इस का सही उपयोग करते हैं वे हमेशा विजयी होते हैं. हां हम सभी आखिर हैं तो मनुष्य ही न गलतियां भी हो जाती हैं. पर सही मनुष्य वही है जो अपनी गलतियों को सम झे, माने और उन से सबक ले, सचाई के साथ आगे बढ़े. हां एक बात और याद रखना सच नंगा होता है. उस को देखने और बोलने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है. यह भी सम झ लो तुम को अब हिम्मत से काम लेना होगा.’’

‘‘अगर मांपापा ने माफ नहीं किया और घर से निकाल दिया तब?’’ सुधा का मन शंकाओं से घिरा था.

‘‘तुम अभी बच्ची हो इसलिए अभी नहीं सम झोगी पर मेरा विश्वास करो वे तुम्हारे मातापिता हैं. तुम किस दर्द से गुजर रही हो तुम बताओ या न बताओ उन को सब पता होगा. अच्छा अब रोना बंद करो और कुछ अच्छी बात सोचो.’’

‘‘अंकल आप कहां जा रहे हैं?’’ सुधा थोड़ा सामान्य हो चली थी.

‘‘मैं भी पटना ही जा रहा हूं. वहीं रहता हूं. पटना में मैं फिजिक्स का प्रोफैसर हूं. दिल्ली में सेमिनार अटैंड करने आया था… लेकिन ट्रेन से उतरने के बाद मैं तुम को नहीं पहचानता.’’

सुधा उन की बात सुन कर हंसने लगी. ट्रेन से उतरने के बाद सुधा ने दोनों हाथ जोड़ कर उन को नमस्ते की. फिर दो कदम आगे बढ़ी और वापस आ कर उस ने अंकल के पैर छू लिए. दोनों की आंखें भर आईं. उन्होंने सुधा के सिर पर हाथ रख कर रुंधे गले से आशीर्वाद दिया, ‘‘कुदरत तुम्हें सही राह दिखाए,’’ और फिर बिना देखे आगे बढ़ गए.

सुधा उस देवपुरुष को भीगी आंखों से जाते देखती रही. अब असली परीक्षा थी… वह घर से संपर्क करे. पहले फोन पर बात कर ले या सीधे घर चली जाए. अगर उन लोगों ने उसे घर में घुसने न दिया तब? पहले बात करते हैं पता चल जाएगा वह घर जा सकती है या नहीं. वह मां को मोबाइल लगाने लगी. लंबी रिंग बजी पर किसी ने फोन नहीं उठाया. वैसे भी मां अपरिचित का फोन नहीं उठातीं. मां को लगातार फोन लगाएंगे तभी उन को शक होगा सोच वह लगातार फोन मिलाने लगी.

इस बार किसी ने उठाया. कहा, ‘‘हैलो.’’

वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

‘‘इसीलिए हम अननोन नंबर नहीं उठाते है,’’ मां का गुस्से वाला स्वर था.

सुधा ने  झट से फोन बंद कर दिया.पर फोन काटने से काम नहीं चलेगा बात तो करनी ही पडे़गी. इस बार बात करनी ही है चाहे जो उठाए… उस ने फिर फोन लगाया, ‘‘हैलोहैलो,’’ सुधा सिसकने लगी.

‘‘सुधासुधा तुम हो… बोलो बेटा कहां से फोन कर रही हो. रोओ मत बेटा तुम ठीक हो न?’’

फोन पापा ने उठाया था. सुधा रोती जा रही थी. तभी मां की आवाज आई, ‘‘सुधा कैसी हो बेटी? कहां से बोल रही हो बताओ? हम सभी बहुत परेशान हैं. किसी मुश्किल में तो नहीं हो न बोलो न बेटी. तुम ठीक हो न…’’

सुधा को अपने लिए ‘बेटा’ या ‘बेटी’ शब्द की आशा नहीं थी. उन लोगों की विह्वलता देख उस का मन पीड़ा से भर गया. वह रोरो कर बोलने लगी, ‘‘मां मैं सुधा… पटना स्टेशन से बोल रही हूं…’’ आगे वह बोल नहीं पाई.

‘‘तुम स्टेशन पर रहो. वहीं पास में मंदिर है वहीं पर रुको हम लोग आ रहे हैं. वहीं रहना बेटा कहीं जाना मत. बस हम आ रहे हैं.’’

मां के भीगे स्वर सुधा के आहत मन को चीरते चले गए. वह मंदिर के पास चुपचाप बैठ गई. उस ने अपना मुंह ढक लिया था. शहर उस का था कोई भी पहचान सकता था. करीब 20 मिनट के भीतर उसे मां लीला देवी व पापा रमाकांत दिखे. दोनों के चेहरे का रंग गायब था. सुधा को अपनी गलती और अपने मातापिता की दशा देख कर फिर रोना आ गया वह मां से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

सुधा के मातापिता ने उसे संभालते हुए गाड़ी में बैठाया. एक ओर मां दृढ़ता के साथ हाथ पकड़ कर बैठी दूसरी ओर पापा ने उस के हाथ को बड़ी कठोरता से पकड़ रखा था जैसे कहना चाहते हो कि हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं… तुम को प्यार करते हैं. कभी भी चाहे जो भी परिस्थिति हो साथ नहीं छोड़ सकते. तुम को अकेले नहीं छोड़ सकते हैं. मां कभी आंसू पोछती, कभी चुन्नी संभालती तो कभी बड़े प्यार से हवा से  झूलते बालों को चेहरे से हटा रही थी. दोनों के बीच में बैठी सुधा किसी डरीसहमी हुई बच्ची की तरह रोतीसिसकती चली जा रही थी. घर पहुंच कर सुधा सीधे अपने कमरे में जा कर दीवार से लग कर दहाड़ मार रोने लगी. मां चुप कराने को आगे बढ़ने लगी.

तब रमाकांत ने कहा, ‘‘उसे रो लेने दो.’’

सुधा का इस तरह रोना लीला देवी के कलेजे को चीर रहा था. जब बरदाश्त नहीं हुआ तब वह सुधा को चुप कराने लगी.

घर में सब लोग सामान्य होने की कोशिश कर रहे थे. सुधा के लिए यह बड़ा मुश्किल लग रहा था पर घर वालों का साहस उस का हौसला बढ़ा रहा था. सुधा वक्त की मारी खुद को कैसे इतनी जल्दी माफ कर दे. इतने भोलेभाले मातापिता के साथ उसे अपनेआप को सही लड़की और अच्छी बेटी बन कर दिखाना है और वह बन कर दिखाएगी, फिर से मांपापा का खोया विश्वास हासिल करेगी. अभी तक किसी ने भी यहां तक कि उस के छोटे भाई दीपू ने भी नहीं पूछा शायद पापा की हिदायत होगी. खाना खाते वक्त उस ने मां से अपने पास सोने का आग्रह किया.

तब उन्होंने कहा, ‘‘हां बेटा वैसे भी मैं तुम्हारे साथ ही सोने वाली थी.’’

सुधा सम झ गई आज मां उस से सारी बातें जानना चाहती हैं.ठीक है वह सब सचसच बता देगी कुछ भी नहीं छिपाएगी.

मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मां चुपचाप सो गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं. सुधा के लिए ये सब असहनीय हो रहा था. सब लोग उसे एक बार भी डांट क्यों नहीं रहे हैं न फटकार लगा रहे हैं. ऐसे मातापिता के लिए उस ने कितनी घृणित बात सोची कैसे कि ‘घर में घुसने नहीं देंगे.

सुधा की नींद उड़ गई थी. वह सारी बातें बता कर अपना मन हलका करना चाहती थी. सब की खामोशी उस के मन को जला रही थी. उस के पास तो  अब नाराजगी या रूठने का हक भी नहीं रहा. मन को चैन नहीं आ रहा था. उस ने सोच लिया यदि मां उस से कुछ भी जानना चाहेगी तब तो ठीक है वरना वह स्वयं ही उन्हें सबकुछ बता देगी. सोचतेसोचते सुधा कब सो गई उसे भी पता नहीं चला.

क्या मिला: उसने पूरी जिंदगी क्यों झेली तकलीफ

अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

दूध के दांत: क्या सही साबित हुई रोहित की तरकीब

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काश, मेरी बेटी होती: शोभा की मां का क्या था फैसला

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तीसरी कौन: क्या था दिशा का फैसला

पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

‘‘लाओ, यह कपड़ा मुझे दो. मैं तुम से बेहतर ड्रैसिंग टेबल चमका दूंगा… तुम इस गुलाब को अपने बालों में सजा कर दिखाओ.’’

‘‘यह तो रोहित की आवाज है,’’ दिशा बुदबुदाई. एक क्षण तो उसे लगा कि दोनों मियांबीवी के वार्त्तालाप के बीच कूद पड़े. फिर दूसरे ही क्षण जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, सोच चुपचाप पड़ी रही. उन का वार्त्तालाप उस के कान गूंजने लगा…

‘‘अरे, आप रहने दो मैं कर लूंगी.’’

‘‘फिक्र न करो. मुझे अपने काम की कीमत वसूलनी भी आती है.’’

‘‘आप जाइए न यहां से… कहीं दिन में ही न शुरू हो जाइएगा.’’

‘‘अरे मान भी जाओ… यह रोमांटिक बारिश देख रही हो.’’

दिशा के कान बंद हो चुके थे और आंसू आंखों से निकल कर कनपटियों को जलाने लगे थे. ये रोहित कब से इतने रोमांटिक हो गए? चूडि़यों की खनखन और एक उन्मत्त प्रेमी की सांसें मानो उस के चारों ओर भंवर सी मंडराने लगी थीं. अब उस के अंदर हिलनेडुलने की भी शक्ति शेष न रही थी. कमरे में आया तूफान भले ही थम गया हो, मगर दिशा की गृहस्थी की जड़ों को बुरी तरह हिला गया. किसी तरह अपनेआप को संभाला और दरवाजे की ओर बढ़ गई. जातेजाते एक नजर उस बैड पर डालना न भूली जिस पर अपरा और रोहित कंबल के अंदर एकदूसरे को बांहों में भरे थे.

अपने कमरे में आ कर दिशा ने एक नजर चारों तरफ दौड़ाई… क्या अंतर है इस बैडरूम और अपरा दीदी के बैडरूम में? जो रोहित इस कमरे में तो शांत और गंभीर बने रहते हैं वे उस कमरे में इतने रोमांटिक हो जाते हैं? आज भले ही उस के वैवाहिक जीवन के 15 वर्ष गुजर गए हों. मगर उस ने रोहित का यह रूप कभी नहीं देखा. आईने के सम्मुख दिशा एक बार फिर से अपने चेहरे को जांचने को विवश हो गई थी.

रोहित और दिशा के विवाह के 10 वर्ष बीत जाने पर भी जब उन को संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो अपनी शारीरिक कमी को स्वीकारते हुए दिशा ने खुद ही रोहित को पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया और अपने ताऊजी की बेटी, जो 35 वर्ष की दहलीज पर भी कुंआरी थी के साथ करवा दिया. अपरा भले ही दिशा से 6-7 वर्ष बड़ी थी, मगर विवाह के विषय में पीछे रह गई थी. शुरूशुरू के रिश्तों में अपरा मीनमेख ही निकालती रही.

30 पार करतेकरते रिश्ते आने बंद हो गए. फिर दुहाजू रिश्ते आने लगे, जिन के लिए वह साफ मना कर देती. मगर दिशा का लाया प्रस्ताव उस ने काफी नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया.

तीनों जानते थे कि यह दूसरा विवाह गैरकानूनी है. ज्यादातर मामलों में हर जगह पत्नी का नाम दिशा ही लिखा जाता चाहे मौजूद अपरा हो. कुछ जुगाड़ कर के अपरा ने 2-2 आधार कार्ड और पैन कार्ड बनवा लिए थे. एक में उस का फोटो पर नाम दिशा था और दूसरे में फोटो व नाम भी उसी के. तीनों जानते थे कि कभी कुछ गड़बड़ हो सकती है पर उन्हें आज की पड़ी है.

फिर साल भर में गोलू भी गोद में आ गया तो सभी कहने लगे कि देखा अपरा का गठजोड़ तो यहां का था तो पहले कैसे विवाह हो जाता. दिशा तो पहले ही इस स्थिति को कुदरत का लेखा मान कर स्वीकार कर चुकी थी.

अब तो गोलू भी 4 वर्ष का हो गया है. तो फिर आज ही उसे क्यों लग रहा है कि वही गलत थी. उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है. उस ने कभी अपने और अपरा दीदी के बीच रोहित के समय को ले कर न कोई विवाद किया, न ही शारीरिक संबंधों को कोई तवज्जो दी. लेकिन आज रोहित का उन्मुक्त व्यवहार उसे कचोट गया. आज लग रहा है वह ठगी गई है अपनों के ही हाथों.

वह कभी रोहित से पूछती कि कैसी लग रही हूं तो सुनने को मिलता ठीक. खाना कैसा बना है? ठीक. यह सामान कैसा लगा? ठीक है.

इन छोटेछोटे वाक्यों से रोहित की बात समाप्त हो जाती. न कभी कोई उपहार, न कोई सरप्राइज और न ही कोई हंसीमजाक. वह तो रोहित के इसी धीरगंभीर रूप से परिचित थी. फिर आज का उन्मुक्त प्रेमी. यह नया मुखौटा… ये सब क्या है? वह रातदिन अपरा दीदी, अपरा दीदी कहते नहीं थकती. पूरे घर की जिम्मेदारी अपरा को सौंप गोलू की मां बन कर ही खुश थी. अगर कोई नया घर में आता तो उसे ही दूसरे विवाह का समझता, एक तो कम उम्र दूसरा कार्यों को जिस निपुणता से अपरा संभालती उस का मुकाबला तो वह कर ही नहीं सकती थी. लोग कहते दोनों बहनें कितने प्रेम से रहती हैं. रहती भी कैसे नहीं, दिशा ने अपने सारे अधिकार जो खुशीखुशी अपरा को सौंप दिए थे. घर की चाबियों से ले कर रोहित तक. पर आज उसे इतना कष्ट क्यों हो रहा है?

बारबार एक ही खयाल आ रहा है कि वह एक बच्चा गोद भी ले सकती थी. मां ने कितना समझाया था कि एक दिन तू जरूर पछताएगी दिशा,

पुनर्विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले अनाथाश्रम से… उसे घर मिल जाएगा और तुझे संतान… जब रोहित को कोई एतराज ही नहीं है

तो फिर तू यह जिद क्यों कर रहीहै? सौत तो मिट्टी की भी बुरी लगती है.

इस पर दिशा कहती कि नहीं मां रोहित मेरी हर बात मानते हैं, कमी मुझ में है, तो मैं रोहित को उस की संतान से वंचित क्यों रखूं?

आज लगता है कि क्या फर्क पड़ जाता यदि गोलू की जगह गोद लिया बच्चा होता तो? घर में सिर्फ 3 प्राणी ही होते और रोहित उस के पहलू में सोया करते. आज उसे अपरा से ज्यादा रोहित अपराधी लग रहे थे. वे हमेशा उस की उपेक्षा करते रहे. लोग ठीक ही कहते हैं कि पहली सेवा करने के लिए और दूसरी मेवा खाने के लिए होती है. वह हमेशा 2 मीठे बोल सुनने को तरसती रही. फिर इसे रोहित की आदत मान कर चुप्पी साध ली, पर आज यह क्या था? ये उच्छृंखल व्यवहार, ये मीठेमीठे बोल, वह गुलाब का फूल.

अपरा दीदी मुझे जो इतना मान देती हैं वह सब नाटक है. मेरे सामने दोनों आपस में ज्यादा बात भी नहीं करते और अपने कमरे में बिछुड़े प्रेमीप्रेमिका या फिर कोई नयानवेला जोड़ा? दिशा की आंखें रोतेरोते सूजने लगी थीं. अपरा दीदी, अपरा दीदी कहतेकहते उस की जबान न थकती थी… वही अपरा आज उस की अपराधी बन सामने है. उस से उम्र में तजरबे में हर लिहाज से बड़ी थीं. उसे समझा सकती थीं कि यह दूसरे विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले. मेरा विवाह तो 19 वर्ष की कच्ची उम्र में ही हो गया था. रोहित 10 साल बड़े थे. एक परिपक्व पुरुष… उन का मेरा क्या जोड़? न तो एकजैसे विचार न ही आचार… सास भी विवाह के साल भर में साथ छोड़ गईं. अपनी कच्ची गृहस्थी में जैसा उचित लगा वैसा करती गई. शायद ज्यादा भावुकता भी उचित नहीं होती. अपनी बेरंग जिंदगी के लिए किसे दोषी ठहराए? कौन है उस का अपराधी. रोहित, अपरा या वह खुद?

हार की जीत- भाग 3: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

शालू की समझ में नहीं आ रहा था क्या जवाब दे? पता नहीं क्या मांगने आई है? हो सकता है, सब्जी ही मांग बैठे. उस ने कपिल का दिया हुआ अस्त्र ही चलाया, ‘‘करेले पका रही हूं.’’

‘‘करेले,’’ आरुषि की आंखों में चमक आ गई.

शालू घबरा गई, ‘‘अब ये करेले मांगेगी… मुझे क्या पता था कि इसे करेले इतने पसंद हैं, नहीं तो झूठ ही बोल देती.’’

खिली हुई बांछों से आरुषि बोली, ‘‘फिर तो तेरे आलू बच गए होंगे. सौरभ कल बता रहा था कि औफिस से लौटते समय कपिल ने मंडी से अन्य सब्जियों के साथ आलू भी खरीदे थे. 4 आलू दे दे शाम को वापस कर दूंगी.’’

शालू रोआंसी हो गई. एक ही दिन में 2 अस्त्र बरबाद हो गए. शाम को उस ने कपिल को सारी बात बताई. कपिल सिर पकड़ कर बैठ गया. उस की समझ में ही नहीं आ रहा था इस समस्या से कैसे निबटा जाए?

अगले दिन रविवार था. कपिल और सौरभ का एक अन्य बैचमेट राघव अपनी

बीवी नैना और बच्ची समेत सामने वाले ब्लौक में ट्रक से सामान उतरवा रहा था. उन दोनों के कहने पर उस ने भी उसी कालोनी में 2 बैडरूम का फ्लैट खरीद लिया था. ट्रक से सामान उतरवा कर सौरभ तो वापस आ गया, कपिल वहीं रुका रहा.

अगले दिन शालू और कपिल डिनर ले कर राघव और नैना से मिलने पुन: उस के घर गए. बातों ही बातों में राघव ने कहा, ‘‘यार, यह सौरभ तो बड़ा अजीब आदमी है. दोपहर में आया और बोला, घर में सिलैंडर खत्म हो गया है. बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं. अपना जरिकैन मुझे दे दे. शाम को दुकान खुलते ही वापस कर दूंगा.’’

‘‘तूने बताया ही क्यों कि तेरे पास जरिकैन भर मिट्टी का तेल है?’’

‘‘बताने की क्या जरूरत है? वह तो सामान उतरवा रहा था, सो उस की नजर पड़ गई. जब तक गैस का कनैक्शन चालू हो, हौट प्लेट से काम चलाना पड़ेगा.’’

‘‘जरिकैन वापस मिला की नहीं?’’

‘‘अरे जरिकैन तो नहीं मिला, मजेदार बात यह है कि थोड़ी देर पहले नैना आरुषि से बात कर रही थी, तो उस के मुंह निकल गया कि कानपुर में मिट्टी के तेल की तो बेहद किल्लत है, तो जानते हो आरुषि क्या बोली?’’

‘‘क्या?’’

‘‘पता नहीं तुम्हारे हसबैंड कहां गए ढूंढ़ने? मेरे हसबैंड तो दोपहर में निकले और 10 मिनट में ही तेल ले कर आ गए. अब बताओ भला, हमारे यहां से तेल ले गए और हमारे ऊपर ही रोब झाड़ रहे हैं.’’

कपिल और शालू दोनों के मुंह खुले के खुले रह गए. मियांबीवी दोनों ही उस्ताद हैं. दोनों को मांगने की तो बुरी आदत है ही, मांग कर भूलने का नाटक करना भी इन की आदत में शुमार है.

घर लौट कर कपिल ने शालू से इस समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए कहा, तो शालू ने तुरंत हल सुझाया, ‘‘हम साफ मना कर दें कि कुछ नहीं देंगे.’’

‘‘नहीं, वे बुरा मान सकते हैं.’’

शालू ने अगला प्रयत्न किया, ‘‘अच्छा अगर हम दी हुई चीज वापस मांग लें?’’

‘‘हां, किया जा सकता है, पर इस में आपस के संबंधों में तनातनी हो सकती है.’’

शालू सोच में पड़ गई, ‘‘एक तरीका और है, हम मकान ही बदल लें?’’

‘‘इतना आसान नहीं है मकान बदलना शालू. अगर दूसरी जगह भी ऐसा ही मांगने वाला पड़ोसी मिल जाए, तो फिर क्या तीसरा मकान ढूंढ़ेंगे?’’

‘‘एक तरीका है,’’ अगली सुबह औफिस जाते समय कपिल ने शालू से कहा, ‘‘कोई भी सामान आरुषि या सौरभ को दो तो मुझे जरूर बता देना.’’

औफिस पहुंचने के बाद शालू के 3 फोन आए और उस ने जोजो सामान आरुषि को दिया, सब बता दिया. औफिस में लंच सब लोग साथ किया करते थे, मिलबांट कर खाते थे. जब सब लोग इकट्ठा हो गए तो कपिल ने सौरभ से कहा, ‘‘सौरभ, आज तेरे घर, प्याज, चीनी और डिटर्जैंट खत्म हो गया है लौटते समय ले कर जाना.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’ सौरभ का कौर मुंह तक आतेआते रुक गया.

‘‘अरे यार तुझ से लापरवाह कोई नहीं हो सकता. तू तो घर का सामान लाना भूल जाता है, उधर भाभीजी घरघर सामान मांगमांग कर तेरी गृहस्थी चलाती रहती हैं. मैं ने इसीलिए शालू से कह दिया था कि भाभीजी के घर जोजो सामान खत्म होता जाए मुझे फोन पर बताती जाए. अभी तक ये 3 चीजें भाभीजी मेरे घर से ले कर गई हैं.’’

सौरभ को इस तरह सब के बीच पोल खुलना रास नहीं आया. वह गुर्राते हुए बोला, ‘‘ऐसा क्या सामान मांग लिया मेरी बीवी ने? भले पड़ोसी होने के नाते थोड़ाबहुत लेनदेन तो चलता ही है, आरुषि भी तेरे यहां से कुछ ले गई होगी. इस का मतलब यह तो नहीं कि तू ढिंढोरा पीटता फिरे?’’

इस से पहले कि कपिल कुछ बोल पाता, राघव बीच में ही बोल पड़ा, ‘‘अरे सौरभ, तुझे मिट्टी का तेल मिला कि नहीं? तूने तो जरिकैन भी वापस नहीं किया.’’

सौरभ इस दोतरफा हमले के लिए तैयार नहीं था. उस ने चुप बैठने में ही भलाई समझी. अमन वर्मा उन के गु्रप में सब से ज्यादा मस्त था. जानतेबूझते हुए बोला, ‘‘भिंडी की सब्जी बहुत अच्छी बनी हुई है. यह कौन लाया है?’’

‘‘मैं लाया हूं,’’ सौरभ बोला.

‘‘यानी कपिल के घर की भिंडी पर अपनी मुहर लगा रहे हो?’’

सौरभ के मुंह से जोर से निकला, ‘‘खबरदार, आज की सब्जी मेरे घर की है.’’

‘‘इस का मतलब, रोज की सब्जी कपिल के घर की होती थी,’’ अमन वर्मा ने बात पकड़ ली. इस के साथ ही पूरे गु्रप का जोरदार ठहाका गूंजा.

शाम को कपिल ने सब्जी मंडी में स्कूटर रोक लिया और सौरभ से बोला,

‘‘जा, जोजो सामान घर में खत्म हो रहा है वह ले ले. मुझे बहुत बुरा लगता है, जब भाभी घरघर हाथ फैलाती हैं.’’

सौरभ एक हारे हुए सिपाही की तरह स्कूटर से उतरा और सामान लेने चला गया.

सौरभ को देखते ही दुकानदार बोला, ‘‘बहुत दिन बाद आए बाऊजी.’’

कपिल मन ही मन बोला, ‘‘जब मैं रोज आ रहा था, तो यह क्या करते आ कर? मगर अब चिंता न करो, ये रोज आएंगे.’’

सौरभ ने सामान पैक करवाना शुरू किया, तो कपिल ने दुकानदार से उसी सामान में से कई चीजों के अलगअलग पैकेट बनाने को कहा.

सौरभ ने टोका, तो कपिल बोला, ‘‘अरे यार, तेरी इस भूलने की आदत के

कारण मैं भाभी को अब और अपमानित होते नहीं देख सकता, इसलिए बजाय इस के कि वे मांगा हुआ सामान मुझे वापस करने आएं, मैं पहले ही उसे अपने घर ले जा रहा हूं.’’

सौरभ के पास इतने जोरदार तर्क का कोई जवाब नहीं था. उस ने चुपचाप दुकानदार के पैसे चुकाए और दोनों लोगों की थैलियां हाथ में पकड़े चुपचाप स्कूटर के पीछे बैठ गया.

सौरभ से अपनी थैली ले कर जब कपिल अपने घर पहुंचा, तो शालू ने उस के हाथ से थैली ली और बोली, ‘‘सुनो यह मांगी हुई चीजों की लिस्ट क्या रोजरोज तुम्हें फोन पर देनी पड़ेगी?’’

‘‘कल से शायद तुम्हें इस की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

उधर आरुषि सौरभ को क्व2 हजार का बिल पकड़ाते हुए बोली, ‘‘आज सर्विस स्टेशन से मैकैनिक आया था. स्कूटर ठीक कर गया है. कह रहा था सौरभ का फोन आया था. उन्होंने ही घर का पता और स्कूटर नंबर दिया है.’’

दोनों घर आसपास थे, पर दोनों में माहौल अलग था. इधर कपिल से अपनी जीत की मुसकराहट रोके नहीं रुक रही थी और उधर सौरभ परेशान था कि उस ने तो कोई फोन नहीं किया था पर बीवी के आगे अपनी हार का परदाफाश होने के डर से वह शांत खड़ा था.

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हार की जीत- भाग 2: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

छोटी सी सोसायटी थी. कुल मिला कर 4 टावर. गेट पर चौबीस घंटे का पहरा. कालोनी के बीच में बड़ा सा मैदान, जिस में बच्चों के लिए झूले लगे थे. शहर से थोड़ी दूर थी कालोनी, पर थी बहुत सुंदर. एक ही सप्ताह में दोनों अपनाअपना परिवार ले कर सामान समेत पहुंच गए. दोनों सपरिवार साथसाथ रह कर खुश भी थे. दिनभर औफिस का काम निबटा कर शाम को दोनों परिवार एकसाथ बैठ कर गपशप करते. कई बार रात का डिनर भी हो जाता था. कुछ सौरभ की पत्नी आरुषि पका लेती, तो कुछ शालू पका लेती… पिकनिक, पिक्चर, शौपिंग का प्रोग्राम भी साथसाथ ही चलता रहता था. दिन मजे से कट रहे थे.

एक दिन आरुषि सुबहसुबह शालू के पास आई. कुछ परेशान थी. बोली, ‘‘शालू, आज अचानक चीनी खत्म हो गई. मैं सोच रही थी डब्बे में होगी, पर डब्बा भी खाली था. गलती मेरी ही थी. शायद मंगाना ही भूल गई थी. गुडि़या दूध के लिए रो रही है. 1 कटोरी चीने दे दे. बाजार से मंगा कर वापस दे दूंगी.’’

शालू हंस दी थी, ‘‘हो जाता है कभीकभी. औफिस के काम में हमारे पति भी इतने मशगूल हो जाते हैं कि कई बार घर का सामान लाना ही भूल जाते हैं.’’

आरुषि खुश हो कर बोली, ‘‘शाम को वापस कर दूंगी.’’

‘‘अब 1 कटोरी चीनी वापस करोगी? बस इतनी ही दोस्ती रह गई हमारी…’’ शालू ने आरुषि के संकोच को दूर करने की गरज से कहा, ‘‘लेनदेन तो पड़ोसियों में चलता ही रहता है,’’ और फिर काफी देर तक उदाहरण समेत एक पड़ोसी ने दूसरे पड़ोसी की किस तरह सहायता की, इन भूलीबिसरी बातों की चर्चा छिड़ गई.

आरुषि ने शालू से इतने अच्छे व्यवहार की उम्मीद नहीं की थी. अब वक्तबेवक्त उस का शालू से कुछ भी मांगने का संकोच कम होने लगा. उस के घर हर समय कोई न कोई चीज घटती ही रहती थी. मौका मिलते ही पहुंच जाती थी शालू के घर और साथ ही सौरभ की लापरवाही के किस्से भी सुना आती थी.

आरुषि की हालत देख कर शालू का दिल पसीज उठता. सोचती वह कितनी खुश है कि कपिल कभी कोई सामान समाप्त ही नहीं होने देता. शुरू में उस के पास सिर्फ एक ही गैस का सिलैंडर था. गैस खत्म होती तो उसे हौट प्लेट पर खाना पकाना पड़ता था. जैसे ही दूसरे सिलैंडर की बुकिंग शुरू हुई उस ने दूसरा सिलैंडर तुरंत बुक कर लिया. पर सौरभ कितना लापरवाह है. सामान समाप्त हो जाता है, वह कईकई दिनों तक लाने की सुध ही नहीं लेता. यह तो अच्छा है हम दोनों के घर पासपास हैं वरना ऐसी जरूरत के समय बेचारी कहां मांगती फिरती.

शुरू में कपिल और सौरभ दोनों अपनेअपने स्कूटर से औफिस जाते थे. फिर सौरभ

ने प्रस्ताव रखा कि जब साथसाथ ही जाना है तो डबल खर्चा क्यों किया जाए. एक दिन सौरभ स्कूटर निकाल ले एक दिन कपिल.

इधर काफी दिनों से सौरभ का स्कूटर खराब पड़ा था. वह कपिल के स्कूटर से ही आ जा रहा था. एक बार कपिल ने पूछा तो बोला कि दफ्तर में काम ज्यादा होने के कारण उसे स्कूटर ठीक करवाने का समय ही नहीं मिल पा रहा है.

स्कूटर के हौर्न की आवाज आई तो, शालू दौड़ीदौड़ी बाहर भागी. कब शाम हो गई, उसे पता ही नहीं चला. कपिल औफिस से वापस आ गया था. पीछे सौरभ एक 5 लिटर का रिफाइंड औयल का डब्बा पकड़े बैठा था.

‘‘लीजिए भाभीजी, आप के रसोईघर का इमरजैंसी प्रबंध,’’ सौरभ तेल का डब्बा शालू को पकड़ाते हुए बोला.

उधर कपिल के दिमाग में घर के खर्चे का हिसाब घूम रहा था. उस ने शालू को साथ बैठा कर ध्यान से हिसाब की कौपी में 1-1 आइटम देखनी शुरू की. थोड़ी देर कुछ जोड़तोड़ के बाद उस ने उन जरूरी खर्चों का ही विश्लेषण करना शुरू किया जिन के बारे में शालू ने उसे सुबह बताया था.

‘‘शालू, पिछले महीने चीनी 5 किलोग्राम कैसे आई? 2 लोगों में तो ज्यादा

से ज्यादा 2 किलोग्राम चीनी खर्च होनी चाहिए.’’

शालू एकदम से कोई जवाब नहीं दे पाई.

कपिल फिर से हिसाब में घुस गया, ‘‘इस बार डिटर्जैंट भी 1 किलोग्राम लगा है, जबकि हम 2 लोगों के कपड़ों में 500 ग्राम डिटर्जैंट ही लगा करता था.’’

‘‘वह इस बार दफ्तर में व्यस्तता के कारण सौरभ सामान नहीं ला पाया था, इसलिए आरुषि चीनी और डिटर्जैंट उधार मां कर ले गई थी. कह रही थी कि जल्दी वापस कर देगी.’’

एक तो शालू खुद को गुनहगार समझ रही थी कि कपिल से बिना पूछे उस ने सामान आरुषि को दे दिया, दूसरे सौरभ कपिल का प्रिय मित्र था, इस कारण भी शालू अपनी बात को शिकायत का रूप नहीं देना चाह रही थी.

‘‘और यह क्या गैस का सिलैंडर 20 दिन में खत्म… कहां हमारा सिलैंडर 3 महीने चलता था?’’

‘‘वह सौरभ को टाइम नहीं मिल रहा था, इसलिए गैस बुक नहीं कर पा रहा था… आरुषि दालसब्जी हमारी ही गैस पर बना लेती है,’’ शालू धीरे से बोली तो कपिल चिल्लाया, ‘‘अगर सौरभ को समय नहीं मिल रहा था तो आरुषि बुक कर लेती… मुझे कहती मैं बुक कर देता. और यह क्या, पिछले महीने सब्जी भी बहुत ज्यादा आई है.’’

शालू एकदम से उस का कुछ हिसाब नहीं दे पाई. उसे याद भी नहीं आ रहा था कि सब्जी अधिक क्यों आई होगी? जो भी आई थी, पका कर खा ली गई थी, किसी भी दिन फेंकी नहीं गई थी.

थोड़ीबहुत नोकझोंक के बाद कपिल ने कौपी बंद कर दी.

माहौल को हलका बनाने के लिए शालू बोली, ‘‘तुम भी क्या हिसाबकिताब ले कर बैठ गए हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है शालू. मेरे अकाउंट में कुल क्व10 हजार थे. क्व5 हजार फ्रिज की किस्त में निकल गए. आज सौरभ ने कहा कि उस के पैसे खत्म हो गए हैं और उसे बेटे की फीस भरनी है, सो ढाई हजार मैं ने उधार दे दिए. अब तो मात्र ढाई हजार बचे हैं. इतने पैसों में घर का हिसाब कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह तो इस महीने हम प्रैस नहीं खरीद पाएंगे. मालूम है प्रैस करने का रोज का धोबी का खर्च 10-15 रुपए हो जाता है.’’

कपिल ने गरदन हिला कर बात वहीं समाप्त कर दी.

रविवार का दिन था. अचानक पड़ोस के घर से खटखट की आवाज आई. कपिल ऊपर छत पर चढ़ गया. सौरभ डिश लगवा रहा था. भुनभुनाते हुए वह नीचे उतर आया. बोला, ‘‘कल तक तो फीस के पैसे नहीं थे और आज डिश लगवा रहा है.’’

शालू ने आरुषि की ओर से सफाई दी, ‘‘अरे, उन का टीवी बेकार बंद पड़ा था. आरुषि भी बोर होती थी. इसलिए शायद लगवा लिया होगा.’’

कपिल ने झुंझलाई सी आवाज में कहा, ‘‘ठीक है, पर उधार ले कर क्यों.’’

शालू को थोड़ी हिम्मत बंधी. बोली, ‘‘अगर तुम नाराज न हो तो एक बात बताऊं? तुम्हारे जाने के बाद मैं हिसाब की कौपी ले कर बैठी. काफी सोचने पर मैं ने देखा कि आरुषि जो सामान ले कर जाती है, वह कह तो देती है कि वापस कर देगी, पर आज तक उस ने कभी कुछ वापस नहीं किया. हमें ही अधिक खरीदना पड़ता है. इसीलिए तुम्हें हिसाब में सामान अधिक खरीदा हुआ दिख रहा था.’’

‘‘और क्याक्या ले जाती थी वह…?’’

शालू ने एक ही सांस में बता दिया, ‘‘सभी कुछ सब्जी, दूध, चाय, चीनी, पाउडर, रिफाइंड तेल, बच्चों के लिए रबर, पैंसिल, शार्पनर, गैस का सिलैंडर तो उस ने कभी मांगा नहीं, मेरी किचन में आ कर चायनाश्ता और खाना खूब पकाया है. तभी तो सिलैंडर 15-20 दिन में खत्म हो जाता था.’’

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘एक तो मेरा ध्यान ही नहीं गया, दूसरा सौरभ तुम्हारा मित्र है. इस तरह की छोटीछोटी बातें बताती तो तुम्हें शिकायत लगती.’’

शालू की डरी शक्ल देख कर कपिल थोड़ा शांत हो गया. बोला, ‘‘ठीक है आगे से थोड़ा सतर्क रहना शुरू कर दो.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘आगे से वह कुछ मांगने आए तो बहाना बना देना. ऐसे मना कर देना जिस से उसे बुरा भी न लगे.’’

‘‘मुझे तो बहाने बनाने भी नहीं आते.’’

‘‘अरे, कुछ भी कह देना जैसे दूध फट गया है. चीनी खत्म हो गई है और हम गुड़ की चाय पी रहे हैं. आलू मांगे तो कहना करेले बना रही हूं.’’

कपिल घर से निकला ही था कि आरुषि धड़धड़ाती हुई अंदर आ गई.

‘‘अरे यार यह दरवाजा कैसे खुला छोड़ रखा है? फिर बिना शालू के जवाब की प्रतीक्षा किए ही बोली, ‘‘मैं नहाने घुसी और गैस पर रखा दूध सारा उबल गया. शालू, थोड़ा दूध दे दे. गुडि़या रो रही है.’’

‘‘दूध फट गया,’’ शालू को कपिल का वह बहाना याद आया. जब तक वह यह बहाना बना पाती, उस से पहले ही आरुषि ने फ्रिज खोल लिया. सामने 2 पैकेट रखे थे, ‘‘एक पैकेट मैं ले लेती हूं. शाम को सौरभ से कह कर मंगवा दूंगी,’’ और फिर आरुषि तेजी से वापस लौट गई.

घंटेभर बाद फिर घंटी बजी. आरुषि ही थी. किचन की तरफ पैर बढ़ाते हुए बोली, ‘‘आज क्या बना रही है खाने में?’’

हार की जीत- भाग 1: कपिल ने पत्नी को कैसे समझाया

कपिल हिसाब की कौपी देख कर दंग रह गया. इतना अधिक खर्चा? यह तो 1 महीने का ही हिसाब है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो दिवाला ही निकल जाएगा.

पिछले 1-2 महीनों से कपिल देख रहा था कि जबतब शालू एटीएम से पैसे निकाल कर भी खर्च कर लेती थी. एटीएम नहीं जा पाती तो कपिल से पैसे मांग लेती थी. शुरू में तो कपिल यही सोच कर टालता रहा कि नईनई शादी है और शालू ने पहली बार गृहस्थी संभाली है, शायद इसीलिए खर्चों का हिसाब नहीं बैठा पा रही. खुद उसे भी कहां अंदाजा था. संयुक्त परिवार में खर्चा मां और बाबूजी चलाते थे. लेकिन हर महीने वेतन से ज्यादा खर्च तो पानी सिर के ऊपर जाने वाली बात हो गई. कपिल दुविधा में था. आखिर इतने पैसे कहां खर्च कर रही शालू?

कुछ दिन पहले ही उन दोनों की शादी हुई थी. कानपुर स्थानांतरण के बाद भी शुरूशुरू के 1-2 महीनों तक तो हिसाब सही चला, पर धीरेधीरे कपिल को महसूस होने लगा कि खर्चा कुछ ज्यादा हो रहा है. उस ने शालू को खर्चों के बारे में सावधान रहने के लिए इशारा भी किया, पर शालू ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया. कपिल को थोड़ी सी झल्लाहट हुई. बिजनैसमैन की बेटी है. ज्यादा कमाई है. शायद उसे अंदाजा ही नहीं होगा कि बंधीबंधाई कमाई से खर्चा कैसे चलाया जाता है. शादी से पहले उसे इसी बात का तो डर था.

कपिल के मांबाप शालू को पहले ही देख आए थे. शहर में शालू के पिता का नाम था. जितना बड़ा नाम उतनी ही बड़ी कोठी. शालू सुंदर थी, शिष्ट थी, पढ़ीलिखी थी. उन्हें पहली ही नजर में शालू पसंद आ गई थी. लेकिन कपिल थोड़ा असमंजस में था. उस ने ऐसे कई किस्से सुन रखे थे, जहां बड़े घर की लड़की बंधीबंधाई आमदनी से गुजारा नहीं कर पाती और खर्चों को ले कर रोज लड़ाईझगड़े होते हैं. कुछ मामलों में तो नौबत तलाक तक पहुंच जाती है.

ऐसा नहीं कि कपिल बड़े घर का नहीं था, पर उस का मानना था कि बड़ा घर तो उस के पिता का है. वह स्वयं तो वेतनभोगी ही है जिसे महीने में सिर्फ 1 बार ही बंधीबंधाई तनख्वाह मिलती है और कभीकभार टूर पर जाता है तो टीए, डीए मिल जाता है. इस के अलावा कोई आमदनी नहीं है. जो भी लड़की उस की पत्नी बन कर आएगी उसे पूरा महीना उसी सैलरी से गुजारा करना पड़ेगा.

मातापिता ने जब शालू के लिए कपिल पर थोड़ा दबाव डाला तो वह इस शर्त पर राजी हो गया कि वह पहले लड़की से बात करेगा, फिर निर्णय लेगा. कपिल की शर्त मान ली गई. कपिल ने दोटूक बात करना उचित समझा, ‘‘देखो शालू हम दोनों को अपनेअपने जीवन के विषय में एक अहम निर्णय लेना है. शक्लसूरत या जन्मपत्री ही सबकुछ नहीं होती. यह जरूरी है कि हम दोनों एकदूसरे के विषय में अच्छी तरह जान लेने के बाद ही किसी तरह का निर्णय लें. कुछ प्रश्न तुम्हारे दिल में होंगे और कुछ मेरे दिल में हैं. उस के बाद ही हम यह निर्णय लेंगे कि हम एकदूसरे के साथ रह सकते हैं या नहीं.’’

शालू को कपिल से इतनी खुली बात की आशा नहीं थी. वह समझ भी नहीं पा रही थी कि कपिल उस से किस विषय पर बात करेगा. उस की पढ़ाई के विषय में या उस की हौबी के विषय में या फिर घरेलू कामकाज के विषय में उस से सवाल पूछेगा…? हो सकता है उस के सामान्य ज्ञान की परीक्षा ले. उस ने डर के मारे उसी दिन से अखबार पढ़ना शुरू कर दिया. कोर्स की किताबें एक बार फिर खुल गईं. जैसे नौकरी के लिए साक्षात्कार की तैयारी कर रही हो.

कपिल ने अपना पक्ष रखा, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि हम दोनों के परिवारों का रहनसहन का स्तर सामान्य है. दोनों के घरों में खासा पैसा भी है, लेकिन वे दोनों घर हमारे मातापिता के हैं. मैं एक नौकरीपेशा आदमी हूं. मुझे माह में बंधा हुआ वेतन मिलता है और तुम्हें उसी वेतन में काम चलाना होगा. एक और बात, भविष्य में मैं या तुम कभी अपने मातापिता के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे.’’

शालू ने सहमति में गरदन हिला दी.

‘‘चौकाबरतन के अतिरिक्त हम दूसरे किसी काम के लिए नौकर नहीं रखेंगे. घर के सारे काम हम दोनों को मिलजुल कर करने होंगे.’’

शालू ने इस बार भी हामी भर दी.

‘‘किसी दूसरे की सुखसुविधाओं को देख कर तुलना नहीं करनी है. हम जब समर्थ होंगे, तब खुद ही खरीद लेंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘मुझे बेईमानी की कमाई से सख्त नफरत है. मुझे कभी ऊपर की कमाई के लिए मत कहना.’’

‘‘रिश्वत से तो मुझे भी चिढ़ है.’’

‘‘मेरे रैंक के अनुसार मुझे बड़ा मकान नहीं मिलेगा. शुरूशुरू में तुम्हें छोटे मकान में ही गुजारा करना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं कहूंगी. बड़ा मकान तो वैसे भी मैंटेन करना मुश्किल होता है.’’

‘‘बस मुझे इतना ही कहना था. अब तुम्हारी कोई शर्त हो तो वह भी बता दो.’’

शालू मंत्रमुग्ध सी कपिल का चेहरा निहारने लगी. उसे खुद पर नाज हुआ कि कितना सरल स्वभाव है कपिल का. और कोई होता तो अपनी नौकरी के लिए बढ़चढ़ कर बता उसे प्रभावित करने की कोशिश करता. वह तो इस के लिए तैयार ही नहीं थी. तो उस के मुंह से इतना भर ही निकला, ‘‘मेरे पापा मुझे कभी शहर से बाहर घुमाने नहीं ले जाते. तुम मुझे घुमाने तो ले जाओगे न?’’

‘‘भला यह क्या शर्त हुई?’’ कपिल शालू के भोलेपन पर हंस दिया.

दोनों ने एकदूसरे की शर्तें मान लीं और फिर विवाह हो गया.

बरामदे में खड़ाखड़ा कपिल यही सोच रहा था, जब शादी से पहले उस ने सारी बातें खुल कर बता दी थीं, फिर शालू खर्चों पर नियंत्रण क्यों नहीं रख रही है? उस ने वहीं से शालू को आवाज दी. भरसक नियंत्रण रखने के बावजूद उस की आवाज तेज हो गई थी. शालू घबराईहड़बड़ाई सी रसोईघर से बाहर निकल आई. हड़बड़ाहट में वह और सुंदर लग रही थी. अपनी नई पत्नी को इस हाल में देख कर कपिल को तरस आ गया. थोड़ा क्रोध भी शांत हुआ. उस ने बड़े प्यार से पूछा, ‘‘शालू, यह हिसाब की कौपी देखो. तुम खर्चों पर नियंत्रण क्यों नहीं रख रही हो? मैं ने पिछले माह भी टोका था?’’

शालू ने सहम कर उत्तर दिया, ‘‘मैं तो पूरा खर्चा हाथ रोक कर करती हूं. न कोई कपड़ा खरीदती हूं, न मेकअप का सामान खरीदती हूं, न ब्यूटीपार्लर ही जाती हूं. यह तो रोजमर्रा का आवश्यक सामान है.’’

जब तक कपिल 1-1 आइटम हिसाब की कौपी में देख पाता, उस के मित्र सौरभ का मोबाइल पर फोन आ गया. बिल्ंिडग के बाहर गेट के पास खड़ा वह कपिल की प्रतीक्षा कर रहा था. कपिल अपनी कार निकाल कर सौरभ के साथ औफिस निकल गया. कपिल के स्थानांतरण के साथ ही उस के बैचमैट सौरभ का भी स्थानांतरण कानपुर हो गया था. दोनों ने साथसाथ ही मकान ढूंढ़ा. एक ही बैच के होने के कारण दोनों यही चाहते थे कि एक ही सोसायटी में दोनों को मकान मिल जाए.

सौरभ का परिवार थोड़ा बड़ा था. पत्नी, सासससुर और 2 बच्चे. उस ने 3 बीएचके का फ्लैट लिया. कपिल का परिवार छोटा था. वह और शालू. उस ने 1 बीएचके का फ्लैट लिया. दोनों को एक ही बिल्डिंग में आमनेसामने फ्लैट मिल गए.

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