Serial Story: निर्णय (भाग-2)

वह चुप रही थी. इसी तरह से दिन बीतते रहे. 6 महीने पूरे हो गए थे. उस का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो गया था. वह परमानैंट हो गई थी. उसे इंक्रीमैंट भी मिल गया था. वह खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी. वह रास्ते से मिठाई खरीदती लाई. ‘‘ताऊजी, मेरी प्रमोशन हो गई है… लीजिए मिठाई. मुंह मीठा करिए,’’ कह उस ने डब्बा

उन के सामने कर दिया. ‘‘अब कितनी सैलरी हो गई तुम्हारी?’’

‘‘क्व50 हजार.’’ ‘‘वाह रे… मैं तो इतना विद्वान लैक्चरर था, परंतु इतनी जल्दी इतनी सैलरी नहीं हुई.’’

‘‘ताऊजी, अब समय बदल गया है. इंजीनियर को इतनी ही सैलरी मिलती है और फिर आईटी सैक्टर में इंक्रीमैंट जल्दीजल्दी मिलता है.’’ ‘‘हां… हां… मैं सब समझता हूं कि तुम्हारा क्या चल रहा है,’’ उन की निगाहों में शक साफ झलक रहा था.

औफिस से लौटने में पूर्वा को रोज रात के लगभग 8 बज जाते थे. एक दिन औफिस में पार्टी थी. दूसरे साथियों के आग्रह को वह ठुकरा नहीं सकी और लौटने में उसे 10 बजे गए. वह तेजी से दौड़तीभागती घर पहुंची तो ताऊजी ने ही दरवाजा खोला. उन की आंखों में लाल डोरे तैर रहे थे.

आज उन्होंने उस पर सीधा हमला बोला, ‘‘मैं सब कुछ जानसमझ रहा हूं कि औफिस के नाम पर क्या चल रहा है. शरीर के सारे अंग अलगअलग पैसा कमाने के साधन बन गए हैं. लता मंगेशकर अपने गले की बदौलत धनकुबेर बन बैठी हैं तो सलमान खान हो या प्रियंका चोपड़ा अपनी कमर मटका कर धन कमा रहे हैं. मजदूर बोझा उठा कर पैसा कमा रहा है. नाचने वालियां नाच कर और सैक्स वर्कर अपने शरीर से धन कमा रही हैं. ‘‘यह भौतिकवाद का युग है. जिस के पास जितना अधिक धन है, वह उतना ही सामर्थ्यवान है. मैडमजी, आधुनिक बन कर क्या लड़कियां शरीर बेच कर धन नहीं कमा रही हैं… आप को मुझे सफाई देने की जरूरत नहीं है.’’

पूर्वा भाग कर ताईजी के पास पहुंच गई. इस समय ताऊजी की भावभंगिमा डरावनी लग रही थी. ताईजी ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘कुछ नहीं बिटिया… आज इन्होंने कुछ ज्यादा चढ़ा ली होगी… तुम्हारी फिक्र में सोए न होंगे, इसलिए बकबक करने लगे होंगे. हम लोग भी

तो बेटीबहू वाले हैं और फिर तुम भी तो हमारी बिटिया ही हो. ऐसी गंदी बात वे सोचते हैं तो इस का पाप तो उन्हें ही लगेगा… शराब व मुराद बड़ी बुरी चीज है. तुम इन की बातों को दिल पर मत लो.’’

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उस रात ताईजी उसे बहुत ममतामयी लगी थीं. उसे इस बात की खुशी थी कि कम से कम ताईजी तो उसे गलत नहीं समझतीं. उस से खाना भी नहीं खाया गया था. उस की आंखों से आंसू बह निकले थे. ताईजी ने प्यार से उस के आंसू पोंछे थे. वे बोली थीं, ‘‘अपने पापा से कुछ मत कहना, क्योंकि ये दोनों भाई एक से हैं. मेरी तो जिंदगी बीत गई इन के साथ रोते हुए.’’

पूर्वा मन ही मन सोच रही थी कि यदि इन बातों की भनक भी मांपापा को लगी तो नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी.

ताईजी की प्यार भरी बातों से उस का मन हलका हो गया था. कुछ ही दिन बीते थे कि सुबहसुबह वह न्यूजपेपर खोल कर उस पर निगाहें टिकाए कमरे में जा रही थी. तभी

उधर से ताऊजी चाय का प्याला हाथ में ले कर आ रहे थे. वह उन से हलकी सी टकरा गई और चाय उन के हाथ पर छलक गई. बस फिर क्या था.

वे आपे से बाहर हो उठे, ‘‘तुम अफसर होगी तो अपने दफ्तर की… हमें नहीं सौंप रही अपनी कमाई… 26 साल की होने को आई, शादी नहीं हुई वरना तो अब तक 2 बच्चों की मां होती. ‘‘तमीज तो सीखी ही नहीं है… नीचे देख कर तो चलना ही नहीं सीखा… मेरी बात गांठ बांध लो, यदि यही हाल रहा तो एक दिन तुम जिन ऊंचाइयों का ख्वाब देख रही हो, उन से औंधे मुंह गिरोगी. उस दिन सारा दिमाग ठिकाने आ जाएगा.’’

धीरेधीरे ताऊजी को शायद उस की शक्ल से ही चिढ़ होने लगी थी. रोज सुबह ही शुरू हो जाते. किसी न किसी बात पर बड़बड़ कर उस का मूड खराब कर देते. सुबह वह चाहे जितनी जल्दी बाथरूम जाए वे उसी समय बाहर से खटखटाना शुरू कर देते कि कोई इतनी देर बाथरूम में लगाता है भला? वह बाजार से कभी सब्जी, कभी फल तो कभी नाश्ता ला कर ताईजी को तो खुश रख पा रही थी, पर ताऊजी बहुत विचित्र थे. उन्हें खुश रखना टेढ़ी खीर था.

जब पूर्वा बहुत परेशान हो गई तो एक दिन फोन पर मां से अपने मन का गुबार निकाल ही दिया, ‘‘मां, लंच और सुबह का नाश्ता में औफिस में खाती हूं. बस एक टाइम रात का खाना खाती हूं. इस के एवज में मैं बराबर घर का सामान लाती रहती हूं. अब मेरी सहनशक्ति जवाब देने लगी है. मेरा यहां रहना अब नामुमकिन होता जा रहा है… अगले महीने मैं कोई पीजी देख कर उस में शिफ्ट हो जाऊंगी.’’ पापा हमेशा मां की बातों पर अपने कान लगाए रहते थे. छोटे घरों की यह मजबूरी होती है कि कोई बात किसी से छिपाना आसान नहीं होता.

वे तुरंत मोबाइल अपने हाथ में ले कर बोले, ‘‘बेटी, यदि पीजी में जा कर रहोगी तो हम दोनों भाइयों के बीच दरार पड़ जाएगी… इसलिए समझदारी से काम लो. जब वे आज भी मुझे कुछ भी बोलने से बाज नहीं आते हैं तो तुम तो मेरी बिटिया हो… उन्हें तो हमेशा चीखनेचिल्लाने और उलटासीधा बोलने की आदत रही है. मैं तेरे हाथ जोड़ता हूं, मान जाओ.’’ बस बात यहीं समाप्त हो गई थी. पूर्वा के चुप रहने के कारण ताऊजी ओछी हरकतों पर उतर आए थे. लाइट जाते ही यदि इनवर्टर से पंखा चल रहा होता तो दौड़ कर आते और पंखा बंद कर देते.

4 बातें अलग से सुनाते, ‘‘मैडमजी, यह औफिस नहीं घर है. यहां दूसरे लोग भी रहते हैं.’’ यदि फ्रिज से पानी की बोतल निकालती तो व्यंग्य से बोलते, ‘‘इस गरीब पर दया कर के यदि एक ठंडी बोतल छोड़ दी जाए, तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’ जब कभी वह रात में खाना नहीं खाती तो उसे अगली सुबह बासी रोटियां खानी पड़तीं या फिर ताऊजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़तीं. ताऊजी को सांस फूलने की बीमारी थी. सर्दियों का मौसम आ गया था. उन्हें ठंड बहुत लगती थी. इसलिए वे हफ्तों नहीं नहाते थे.

शरीर में तेल मालिश के बड़े शौकीन थे. धूप में बैठ कर घंटों तेल मालिश करना उन का प्रिय टाइमपास था. जब वे पास से निकलते तो सरसों के तेल की तेज महक से नाक बंद कर लेने का मन करता, परंतु उन के डर से पूर्वा सांस रोक कर रह जाती थी. एक दिन पूर्वा से बोले, ‘‘अभिमान तो किसी का नहीं रहा है, तुम भला कौन सी चीज हो… दुनिया में जाने कितने अफसर पड़े हैं, परंतु ऐसा अनर्थ नहीं देखा कि मंदिर में सिर भी न झुकाए?’’

 

उस ने इशारे से ताईजी से पूछा था तो वे धीरेधीरे बड़बड़ाईं, ‘‘सठिया गए हैं. हर समय दारू के नशे में रहेंगे तो ऐसे ही उलटासीधा बकेंगे. इन की इन्हीं हरकतों के चलते न तो बेटाबहू कभी यहां आना चाहते हैं और न बेटी. ‘‘बिटिया, तुम इन की बातों पर ध्यान मत दिया करो. इन की तरह जोरजोर से घंटा बजाने से ही थोड़े पूजा होती है.’’

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Serial Story: निर्णय (भाग-1)

मदन ने फोन उठाया. ‘‘कैसी तबीयत है तुम्हारी? यदि हम फोन न करें तो तुम से कभी बात भी न हो… पूर्वा की शादी के लिए कोशिश कर रहे हो या उसे ऐसे ही बैठाए रखने का इरादा है?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘नहींनहीं, भाई साहब… आप को तो मालूम है कि उस ने बैंक से लोन ले कर पढ़ाई पूरी करी है, तो पहले उसे लोन चुकाना है, इसलिए नौकरी देख रही है.’’ ‘‘तो अब तुम बैठ कर बेटी की कमाई पर ऐश करोगे.’’

‘‘अरे नहीं, मैं तो अपाहिज हूं… उस की शादी आप को ही करनी है. कोई लड़का निगाह में हो तो बात चलाइएगा.’’ ‘‘ठीक है.’’

मदनजी पत्नी संध्या से बोले, ‘‘भाई साहब को हम लोगों की कितनी फिक्र रहती है.’’ तभी चहकती हुई पूर्वा मां से लिपट कर बोली, ‘‘मां, मेरा कैंपस सलैक्शन हो गया है.’’

‘‘अरे वाह, शाबाश,’’ वे बेटी का माथा चूमते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी जौब किस कंपनी में लगी है?’’ ‘‘विप्रो,’’ कह उस ने पापा के चरणस्पर्श किए.

पापा की आंखें सजल हो उठीं. बोले, ‘‘खूब तरक्की करो, मेरी बेटी… कब और कहां जौइन करना है?’’ ‘‘पापा, जौइनिंग लैटर आने के बाद ही पता लगेगा… वैसे मैं ने दिल्ली के लिए लिखा था.’’

‘‘ठीक है, तुम्हारा रहने का प्रबंध ताऊजी के यहां हो जाएगा.’’ ‘‘पापा, मैं अपने रहने के विषय में निर्णय नहीं कर सकती?’’

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‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या?’’ पूर्वा का जौइनिंग लैटर आ गया था. दिल्ली औफिस में जौइन करना था.

दिल्ली का नाम सुनते ही पापा खुश हो उठे. उन्होंने तुरंत ताऊजी को फोन लगा कर सूचना दे दी, ‘‘भाई साहब, पूर्वा की नौकरी दिल्ली में लग गई है. 15 तारीख से जौइन करना है.’’ ‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है.’’

‘‘अभी कुछ दिन आप के पास रहेगी, फिर अपने लिए कमरा देख लेगी.’’ ‘‘क्यों? क्या वह मेरी बेटी नहीं है? डौली, बिन्नी का कमरा खाली ही तो पड़ा है. हम लोगों का भी मन लग जाएगा.’’

संध्याजी धीरे से बोलीं, ‘‘उन के घर पर रहना ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि औफिस के चक्कर में घर के कामों में यह हाथ नहीं बंटा पाएगी, तो भाभीजी को अच्छा नहीं लगेगा.’’ ‘‘तुम्हारे दिमाग में तो बस ऊटपटांग बातें ही घूमती रहती हैं. मेरे भाई साहब तो हमेशा तुम्हारी आंखों की किरकिरी रहे हैं. जवान लड़की यहांवहां रहेगी वह तुम्हारे लिए ठीक है, पर भाई साहब के घर ठीक नहीं है. तुम्हें तो कभी यह अच्छा ही नहीं लगता कि हम दोनों भाई आपस में प्रेम से रहें.’’

पूर्वा ने स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘‘बस पापा, आप शांत हो जाएं… मैं ताऊजी के घर ही रहूंगी.’’

संध्या मन ही मन सोचने लगीं कि यदि उन के पास पैसा होता तो उस के लिए कोई राजकुमार ढूंढ़ कर उसे डोली में बैठा कर विदा कर देतीं. परंतु मजबूरी जो न करवाए वह थोड़ा है. वे सोचने लगीं कि बैंक से लोन उठा कर किसी तरह बेटी को इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाई है. इसीलिए शादी से पहले नौकरी कर के लोन चुकाना जरूरी है. दूसरी बात आजकल सभी लोग बताते हैं कि नौकरी करने वाली लड़कियों को अच्छे लड़के जल्दी मिलते हैं, क्योंकि महंगाई के जमाने में एक की कमाई से सारे शौक पूरे नहीं हो सकते. इसलिए अपने सपनों को सच करने के लिए दोनों का कमाऊ होना आवश्यक हो गया है. आजकल शादियों में खर्च भी अधिक होने लगा है. उस दिन घरघर झाड़ूपोंछा करने वाली माधुरी भी अपनी बेटी की शादी में क्व4 लाख खर्च हो जाने की बात कह रही थी. वह क्व4 लाख खर्च कर सकती है तो वे तो सरकारी स्कूल में टीचर हैं. उन के पास तो कुछ भी नहीं है… जो कुछ कमाया वह पति की बीमारी और बेटी की शिक्षा पर खर्च करती रही हैं.

उन्होंने तो यह शपथ भी ले रखी है कि बेटी की शादी में दहेज नहीं देंगी और बेटे की शादी में लेंगी नहीं. तभी बेटी की आवाज से उन की तंद्रा भंग हुई, ‘‘मां, यह आप ने इतने बड़े डब्बे में क्या भर दिया है?’’

‘‘तू नहीं समझती, तेरे ताऊजी को लड्डू बहुत पसंद हैं और अचार व मठरियां तेरी ताई के लिए हैं,’’ फिर आंखों में आंसू भर आगे बोलीं, ‘‘देख बेटा, दूसरे के घर में निभाना आसान थोड़े ही होता है. यहां की तरह पटरपटर मत करना… ताऊजी के सामने तो बिलकुल मुंह बंद रखना. ‘‘ताऊजी को तो तुम जानती ही हो. 3-5 कर के उन्होंने 2-4 किताबें छपवा ली हैं, तो अपने को बहुत महान लेखक, ज्ञानी और विद्वान समझने लगे हैं. मेरी बात गांठ बांध ले,

उन से न तो बहस करना और न ही उन्हें कभी जवाब देना.’’ संध्याजी ने भीगी आंखों से बेटी को विदा किया था. जबकि उस के पापा भाई साहब के घर भेज कर बहुत खुश और आश्वस्त थे कि उन की बेटी अपने घर पर रहेगी और वहां उसे कोई परेशानी नहीं होगी.

पूर्वा पहली बार दिल्ली अकेले जा रही थी, इसलिए थोड़ी घबराई हुई थी, मगर स्टेशन पर ताऊजी को देख उस ने राहत की सांस ली. घर पहुंचते ही ताईजी की निगाहें उस से अधिक उस के साथ आए बड़े से डब्बे पर थीं.

ताऊजी के सूने घर में पूर्वा के आने से मानो नवजीवन का संचार हो गया. ताऊजी को उन की ऊलजलूल तुकबंदियों को सुनने के लिए एक श्रोता मिल गया था और ताईजी को उन की किचन के लिए एक पार्टटाइम सहायक. कुछ दिन तक तो पूर्वा इन सब परिस्थितियों से तालमेल बैठाने का प्रयास करती रही, पर चक्की के 2 पाटों के बीच वह पिसने लगी थी. थकीमांदी औफिस से आती तो दोनों अपनीअपनी जरूरतों के लिए उसे अपने पास चाहते और फिर दोनों के बीच लड़ाई शुरू हो जाती. उस की समझ नहीं आता कि क्या करे?

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उस ने मन ही मन हल सोचा कि वह औफिस से देर से आया करेगी. तब तक दोनों अपने टीवी सीरियल में व्यस्त हुआ करेंगे. मगर ताऊजी बहुत तेज दिमाग थे या कह लो पूरे घाघ. उन्हें यह उस की उद्दंडता लगी थी. वे उस की चतुराई को समझ गए थे. इसलिए उन्होंने विरोधी पार्टी वाले तेवर दिखाने शुरू कर दिए.

अगले ही दिन उसे घुड़कते हुए बोले, ‘‘इतनी देर औफिस में क्या करती रहती हो? समय से लौटा करो. यह कोई होटल थोड़े ही है कि जब मरजी मुंह उठा कर चली आई. वहां दिन भर चहकती रहती होगी और घर में घुसी नहीं कि मुंह लटक जाता है.’’

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Serial Story: निर्णय (भाग-3)

रात में जब ताऊजी टीवी बंद कर के अपने कमरे में चले जाते तो वह अपना मनपसंद सीरियल, गाने या फिर पिक्चर लगा लेती. परंतु उसे परेशान करने के लिए वे फिर से लौट कर वहां आ जाते और झट चैनल बदल देते. अनावश्यक घंटों ऊंघते हुए हाथ में रिमोट ले कर चैनल बदलते रहते. कभी भूलवश टीवी की आवाज अधिक हो जाती तो चीखते हुए हाजिर हो जाते, ‘‘महारानीजी, आज आप सोने देंगी या रात्रिजागरण का कार्यक्रम करवाओगी. ‘‘मैडमजी आप तो जवान हैं. मैं 65 साल का बूढ़ा हूं… अब इतना दमखम तो बचा नहीं कि रात भर जाग सकूं.’’

पूर्वा तुरंत टीवी बंद कर के सोने का अभिनय करती और मन ही मन टीवी से दूर रहने का निश्चय करती. मगर 2-4 दिन बाद उस का मन मचल उठता और रिमोट हाथ में उठा लेती.

वहां रहते हुए लगभग 2 साल हो चुके थे. अपनी कंपनी और सैलरी दोनों से वह खुश थी, परंतु ये ताऊजी तो पूरी तरह से हाथ धो कर उस के पीछे पड़े रहते थे.

कुछ दिनों से ताऊजी अखबार के वैवाहिक विज्ञापनों में निशान लगाने में व्यस्त थे. एक दिन पूर्वा ने उन्हें ताईजी से कहते सुना, ‘‘अब तो इस ने बहुत रुपए जमा कर लिए होंगे. उन्हीं पैसों से इस की शादी कर देंगे.’’

उस ने उन विज्ञापनों को देखा, जिन पर निशान लगे थे. उन में से कोई 40 वर्ष का था तो कोई विधुर. यहां तक कि एक मंदबुद्धि भी था. अब वह परेशान हो उठी थी कि ताऊजी ने तो हद ही पार कर दी. वह परेशान हो उठी थी. इस समस्या का सामना वह कैसे करे. उस का औफिस में भी मन नहीं लगता था. तभी एक दिन किसी लड़के को उस के औफिस का पता बता कर वहां भेज दिया. उस समय उस की स्थिति बहुत विचित्र हो गई. फ्रैंड्स के बीच उस का खूब मजाक बना. वह बिफर पड़ी थी. घर पहुंचते ही ताईजी से लिपट कर बिलख पड़ी.

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जब वह काफी देर रो ली तो उन्होंने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘देखो बिटिया, तुम्हारे ताऊजी की सब बेवकूफियां हम जानते हैं. तुम अपने औफिस के किसी लड़के को पसंद करती हो तो बताओ, मैं तुम्हारा साथ दूंगी.’’ ताईजी ने प्यार से अपने हाथ से उसे खाना खिलाया था. रात में जब वह लेटी तो उस की नींद उड़ी हुई थी. उसे अपने कालेज के मस्ती भरे दिन याद आ रहे थे. वह बीटैक में फ्रैशर थी. रैगिंग के डर से कांप रही थी. उसे अपने सीनियर को प्रोपोज कर के किस करना था. उस की आंखें बरस पड़ी थीं.

उस के आंसू देख कर एक सीनियर को उस पर दया आ गई. उस ने शालीनतापूर्वक अपनी हथेली उस के सामने रख कर किस करने को कहा. उस दिन वह आसानी से बच गई थी. वह सीनियर शशांक था. उसी दिन से वह उस का दोस्त बन गया. दोनों साथ पढ़ाई करते, कौफी पीते, साथ घूमते. उस की सारी समस्याओं का हल शशांक चुटकियों में कर देता.

धीरेधीरे न जाने कब शुरू हो गया मोबाइल पर कभी न खत्म होने वाला लंबीलंबी बातों का सिलसिला. जिस दिन दोनों एकदूसरे को न देखते या बात न करते सब कुछ अधूराअधूरा लगता. शायद इसी को प्यार कहते हैं, परंतु अभी तो दोनों के सामने अपनाअपना कैरियर था. यह सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा था. शशांक की फाइनल परीक्षा हो चुकी थी. वह बहुत खुश था. उस का कैंपस सलैक्शन भी हो चुका था. बस प्लेसमैंट मिलना था. उस की जाने की तैयारी चल रही थी. वह उदास हो उठी थी. तब उस ने गंभीर हो कर उसे शादी के लिए प्रोपोज कर दिया. बस इसी बात को ले कर वह उस से नाराज हो गई और उस से बातचीत बंद कर दी.

जब जाने का समय आया तो शशांक उस से मिलने आया. उस ने प्रौमिस किया कि दोनों दोस्त बने रहेंगे, उस से अधिक कुछ नहीं. वह सिलसिला आज भी चल रहा था. शशांक को बैंगलुरु में पोस्टिंग मिली थी. वह गुड़गांव में थी, इसलिए मुलाकातें तो मुश्किल हो गई थीं, पर औनलाइन चैटिंग और फोन पर मस्ती चलती रहती थी.

अब जब ताऊजी उस की शादी की कोशिश करने लगे हैं और ताईजी भी उस से उस के मनपसंद लड़के के बारे में पूछ रही हैं तो उस के लिए प्यार की मीठीमीठी घंटियां बजने लगीं. शशांक जैसा जीवनसाथी ही तो उसे अपने लिए चाहिए पर उस ने तो इन दिनों उस से इस संबंध में कोई बात ही नहीं की. उस का मन तरंगित हो उठा… मगर क्षण भर में ही उसे अपने सपने टूटते से लगे, क्योंकि शशांक एसटी कोटे से था. पापा और ताऊजी दोनों को ही अपने ब्राह्मणत्व का बड़ा गुमान था. इस विषय को ले कर वे पक्के रूढि़वादी थे. कई दिनों तक वह अनिर्णय की स्थिति में रही.

अब वह करे तो क्या करे? मांपापा की आंखों में तैरती खुशियों की चमक, ममतामयी ताईजी का पलपल प्यार से गले लगा कर कहना कि मेरी लाडो को दुनियाजहां की सारी खुशियां मिलें. परंतु ताऊजी उसे संदिग्ध लगते थे. वे फोन पर फुसफुसाते हुए न जाने किस गुणाभाग में लगे रहते थे. पूर्वा को दूरदूर तक कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था. वह ताऊजी की फुसफुसाहटों पर अपने कान लगाए रहती. उसे पूरा विश्वास था कि ताऊजी उस की शादी फिक्स करवाने के एवज में अवश्य कोई लंबा हाथ मार रहे होंगे. वह चुपके से उन के कागज टटोलती, उन का फोन चैक करती कि कोई एसएमएस उसे पढ़ने को मिल जाए, परंतु वह अपने शक को सच में परिवर्तित करने में सफल नहीं हो पा रही थी.

पूर्वा को ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे किसी दलदल में धंसती जा रही है जहां से निकलना कठिन है. वह इसी उलझन में थी. तभी उसे ऐसा अनुभव हुआ कि शशांक ने उस की हथेलियों को पकड़ लिया है और उसे दलदल से बाहर निकाल लिया है. वह उस के साथ भागती जा रही है. वह चौंक कर अपने चारों ओर देखने

लगी, क्योंकि वह अब भी अपनी हथेलियों में उस के हाथों के स्पर्श को महसूस कर रही थी. उस ने शरमाते हुए अपनी हथेलियों को स्वयं ही चूम लिया जैसे वे अपनी नहीं वरन शशांक की हों. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. शशांक जैसे उस के रोमरोम में समाया हो. अब वह उस के बिना एक पल भी नहीं रह सकती थी.

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उस के मन की ऊहापोह एवं अनिर्णय की स्थिति समाप्त हो चुकी थी. वह ताऊजी के लिए अपने भावी जीवन की बलि नहीं चढ़ा सकती. उस ने तुरंत शशांक को फोन मिला कर पूछा, ‘‘मुझ से शादी करोगे?’’

शशांक खुशी से उछल पड़ा, ‘‘डियर, इस दिन का तो मैं कब से इंतजार कर रहा था. बताओ मैं कब आऊं?’’ उस का दिल बल्लियों उछल रहा था.

ताऊजी के रुद्र रूप को सोच आज पूर्वा मुसकरा उठी थी. अंतत: वह ताऊजी के जाल से आजाद होने जा रही थी. अब उस के मन में न ताऊजी का डर था और न ही मम्मीपापा का. वह ममतामयी ताईजी की शुक्रगुजार थी. उन्होंने सदा उस का साथ दिया.

पूर्वा के सिर से बड़ा बोझ उतर चुका था. वह तय कर चुकी थी कि वह अपने निर्णय पर अडिग रहेगी. इस घुटन भरी जिंदगी से आजाद हो कर खुली हवा में सांस लेगी. वह मंदमंद मुसकरा उठी थी.

मुसकुराता नववर्ष: भाग-1

कावेरी लंचबाक्स पैक कर उसे अपने बैग में रखने के लिए बढ़ी ही थीं कि उन का बेटा दौड़ता हुआ आया और दरवाजे से ही चिल्ला कर बोला, ‘‘अम्मां, गांव में पिताजी का इंतकाल हो गया.’’

कावेरी ने सुना पर बात को अनसुना कर वे अपना काम करती रहीं. यद्यपि पति के मरने की खबर से एक क्षण को मन में कुछ जरूर हुआ था, किंतु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.

‘‘आप सुन रही हैं न?’’ यह कह कर सुंदरम ने मां का कंधा पकड़ उन्हें झकझोरा तो कावेरी उसे एकटक निहारती रहीं, मानो पूछ रही हों कि तू क्यों झकझोरझकझोर कर यह कह रहा है.

छोटा बेटा भी तब तक वहां आ गया था और क्रोध से मां को घूरने लगा, मानो वे उस की अपराधिनी हों, ‘‘पिता कल रात को गुजर गए हैं और आप यह सुन कर भी दफ्तर जाने की तैयारी में हैं?’’

कावेरी चुपचाप फाइलें उठा कर बैग में सहेजने लगीं. उन का दिल सुन्न था. न उस में स्पंदन, न संवेदन की कोई लहर थी. उन का हृदय मरुस्थल सा बन चुका था.

छोटे बेटे ने अपनी पत्नी की ओर देख कर कहा, ‘‘रोओ…चिल्लाओ…छाती पीटो… माथा पटको…अपने अनाथ होने की दुहाई दो…’’ इस पर भी अम्मां की कोई प्रतिक्रिया न देख कर छोटे बेटे मुन्नूस्वामी ने पूछा, ‘‘अम्मां, तुम दफ्तर जा रही हो…’’

कावेरी अपना पर्स और बैग उठा कर घर से निकल गईं.

बसों की भीड़भाड़ में भी कावेरी का मन शांत रहा. दफ्तर में भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं बताया और रोज की तरह अपना काम करती रहीं.

कावेरी के दफ्तर चले जाने से उन की दोनों भाभियां मन ही मन काफी नाराज थीं. बड़ी भाभी अमलू तड़प उठी और उस ने देवरानी वल्ली को खूब भड़काया. एक बजतेबजते दफ्तर में अमलू भाभी ने फोन कर बता दिया कि कावेरी के पति की रात को मौत हो गई है.

‘तुम्हारे पति का कल रात देहांत हो गया और तुम दफ्तर आ गईं?’’ मैनेजर ने कहा.

कावेरी के इस व्यवहार से दफ्तर के लोगों को समझ में आ गया कि कहीं कुछ गड़बड़ है. दफ्तर में दबी जबान से चर्चा होने लगी.  कावेरी को दफ्तर का वातावरण अजनबी सा लगने लगा तो वे घर आ गईं. घर में आसपड़ोस के लोग जमा थे. उन की भाभियां और बहुएं उन के बुरे व्यवहार को ले कर चर्चा कर रही थीं. घर का दृश्य देख कावेरी को समझते देर न लगी कि अमलू भाभी किस बात को ले कर इतना फसाद खड़ा कर रही हैं.

कावेरी को देखते ही बेटा सुंदरम पास आ कर बोला, ‘‘अम्मां, हम सब जा रहे हैं. तुम चलोगी?’’

‘‘तुम सब का मरने वाले के साथ कौन सा रिश्ता है जो मेरा जीवन यातनाओं से भरते जा रहे हो…आज तक तुम ने अपने बाप की शक्ल देखी…आज 35 साल के बाद सब चेत रहे हैं… जिस से मेरा नाता तुम सब ने मिल कर तुड़वा दिया था. आज मेरे सूखे जख्म क्यों छील कर हरे कर रहे हो?’’

‘‘नहीं, कावेरी,’’ बड़े भाई ने समझाते हुए कहा, ‘‘जो हुआ सो हुआ…तुम्हारी ससुराल से यह खबर आई है, अगर खबर न आई होती तो बात दूसरी थी.’’

‘‘आखिर है तो वह तुम्हारे दोनों बेटों का पिता…’’ छोटे भाई ने जोड़ा.

दोनों बहुएं यह नहीं चाहती थीं कि बाहर का कोई बात बनाए. इसलिए कहा, ‘‘देखो, अम्मां, अब पिताजी जीवित नहीं हैं. मरते समय उन्होंने अपने भाई से अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने की बात कही भी होगी तो हमें क्या पता? मां, अगर आप जाएंगी तो उन की आत्मा को शांति मिलेगी कि मेरी पत्नी ने मुझे माफ कर दिया, मेरा अंतिम संस्कार भी किया. आप की आने वाली पीढ़ी यानी पोतेपोतियों के सुखमय जीवन के लिए आप का चलना जरूरी है.’’

‘‘आप सब जाइए और दुनियादारी निभाइए,’’ कावेरी ने कहा, ‘‘मैं न दुनियादारी निभाऊंगी और न आप की बातों में आऊंगी.’’

यह सुनने के बाद बड़ी भाभी अमलू ने सिर धुनना शुरू किया और जोरजोर से कावेरी को ताने देने लगीं. दूसरी भाभी भी बड़ी के मुताबिक छाती पीटने लगीं. घर में चीखनेचिल्लाने की आवाजें गूंजने लगीं.

दोनों भाइयों के जोर देने पर अनमनी सी कावेरी उठीं और बोलीं, ‘‘आप को मेरा जीवन नरक में ढकेल कर खुशी होती है तो चलो,’’ इतना कह चप्पल पहन वे घर से बाहर आ गईं.

35 साल पहले जिस घर को छोड़ कर कावेरी गई थीं उस घर में पति कुमरेशन की लाश जमीन पर पड़ी थी. शराब पीपी कर उन का शरीर बड़ा भद्दा और स्याह पड़ चुका था. दूर से देखने पर किसी कोढ़ी की लाश लगती थी. उस पर मक्खियां भिनभिना रही थीं. कावेरी ने एक नजर लाश पर डाली और मन घृणा से भर गया था. इतना ऊंचा पद और पैसा होते हुए भी कुत्ते की मौत…इस पियक्कड़ को क्या पता कि सारा पैसा छोटा भाई खा गया था. कावेरी का मन भर आया. वे बाहर आ गईं.

‘‘क्रियाकर्म, दाहसंस्कार, रीतिनीति नहीं निभाओगी, भाभी?’’ कावेरी के देवर ने पूछा.

‘‘आज तक तुम ने किया है, आगे भी तुम ही करो,’’ इतना कह कर कावेरी खामोश हो गईं.

उन के मन में पति के मरने का तनिक भी अफसोस न था. रिश्तेदारों ने उन को बिठा कर सिर पर पानी डाला, पहनने को साधारण सी साड़ी दी और विधवा को लगाने वाली भभूत लगाई.

दाहसंस्कार करते समय पोतीपोते मृतक कुमरेशन के इर्दगिर्द खड़े कर दिए गए. दाहसंस्कार कर शाम 7 बजे सब घर आ गए थे. बड़े बेटे सुंदरम ने बताया कि दाहसंस्कार का सारा इंतजाम उन्हें (अम्मां को) ही करना है. कावेरी क्षुब्ध हो उठीं.

‘‘मुझे कुछ नहीं करना है. मैं इस आदमी को नहीं जानती. जब मेरे दफ्तर के पीछे रहते हुए भी यह कभी मुझ से मिलने नहीं आया, न कभी पता लगाया कि बच्चे कैसे हैं, कितने बड़े हो गए हैं? क्या कर रहे हैं? आज मेरे दोनों बच्चे काबिल और बेहतर जीवन जी रहे हैं तो अपने बाप के कारण नहीं बल्कि मेरे कारण क्योंकि मैं खुद रातदिन मेहनत करती रही, किसी ने मुझे मदद की…’’

‘‘पर अम्मां,’’ मुन्नूस्वामी ने टोका.

‘‘तू चुप कर,’’ कावेरी चीखीं, ‘‘तू क्या उस की तरफदारी कर रहा है? तू ने तो अपने पिता की शक्ल तक नहीं देखी. आज ही देखी है न…फिर कौन सा पिता और कौन सा चाचा…

‘मर गया तो क्रियाकर्म हमें करना है और जिंदा था तो सब उस का था…’ कावेरी ने भाभियों के तेवर देखे तो समझ गईं कि ये बदला लेना चाहती हैं, अत: एकाएक चिल्लाईं, ‘‘तुम मुझे विधवा देखना चाहती हो न, ठीक है आज से तुम सब अपने मन की करो. मैं कुछ नहीं बोलूंगी.’’

आगे पढ़ें- तेरहवीं तक प्रतिदिन पौ…

मुसकुराता नववर्ष: भाग-3

कावेरी की सास मरने से 1 साल पहले चोरी से उस से मिलने आई थीं. उस के जेवर लौटाते हुए उन्होंने कहा था, ‘तेरी हिम्मत की दाद देती हूं. औरतों को हमेशा भोगने की चीज ही समझा जाता रहा है, हमारी बिरादरी की औरतों ने ऐसा ही जीवन जिया है. उन की दुनिया को बड़ी चतुराई से घर की चारदीवारी में सीमित रखने की साजिश पुरुषों द्वारा आज भी रची जा रही है और आज भी वे शोषण की शिकार हैं.’

वे थोड़ी देर को रुकीं फिर कहने लगीं, ‘अनुशासन, हया, तमीज सब औरतों के ही आभूषण हैं. पुरुष कितना भी अनैतिक और अशोभनीय आचरण करे, उस के चरित्र पर कभी कलंक नहीं लगाया जाता जैसे कि वह सामाजिक अनुशासन के परे है. समाज के सभी स्तरों पर औरतों के ऊपर अकथनीय उत्पीड़न होता है.’ फिर उन्होंने बातों का रुख बदला, ‘तू ने सुंदरम को वकील बना दिया. यह तेरी हिम्मत की बात है. भाइयों से कभी पैसे की मदद नहीं मांगी. शादी भी भाई की लड़की से न कर वकालत पास लड़की से की यह और भी खुशी की बात थी.’ ‘छोटे मुन्नूस्वामी को लाइब्रेरियन बना दिया और उस की शादी भी भाई की लड़की से नहीं की. यह भी शान की बात है. छोटी बहू को काम पर लगवा दिया. आज की महंगाई के चलते सब काम अच्छी तरह निबटा दिया. मैं तुम्हें आज प्रणाम करती हूं. ये गहने ले.’

‘नहीं, अम्मां,’ कावेरी बोली, ‘आप ने मेरी हर बात को समझा और मुझ से मिलने आईं, यही मेरे लिए काफी है. ये गहने आप ही रखिए. कभी आड़े वक्त आप के काम आएंगे,’ फिर थोड़ा रुक कर आगे बोली, ‘क्या एक सवाल आप से कर सकती हूं…’

‘हां,’ उन्हें शायद अंदेशा हो गया था.

‘मां हो कर भी आप ने घर में ऐसा वातावरण क्यों बनने दिया था?’

वे बहुत देर तक गंभीर बनी रहीं फिर बोलीं, ‘तुझे यह पता है न कि हमारे यहां ज्यादातर पुरुष के कम से कम 2 घर होते ही हैं. यह सामाजिक प्रथा मान्यता प्राप्त थी. संध्या समय खूब बनावशृंगार कर औरतों का मंदिर में प्रिय को मिलने जाना, और मैं इस प्रथा के खिलाफ थी, उस का अंत करना चाहती थी किंतु पुलिसकर्मी हो कर भी तेरे दादा व नाना, पिता सब बढ़ावा देते रहे और अपना अधिकार समझ कर खुलेआम इस अनैतिकता को करते रहे,’ कह कर वे चुप हो गईं…

‘अब तो सबकुछ बदल चुका है. समाज में बहुत बदलाव आ गया है, अम्मां.’

‘मैं ने मन पर एक बड़ा पत्थर रख कर जीवन से समझौता कर लिया था, किंतु तू ने बहादुरी से काम लिया क्योंकि तू पढ़ीलिखी थी.’

‘जीवन साहस का नाम है, अम्मां,’ कावेरी बोली, ‘अगर आप साहस करतीं तो आज न आप के पुत्र की दुर्दशा होती और न मेरी गृहस्थी टूटती. अब मैं उसे अपना पति नहीं मानती. उस के मरने पर मैं किसी प्रकार का शोक नहीं मनाऊंगी.’

‘ठीक है,’ अम्मां ने कहा और इसी के साथ कावेरी उठ कर बैठ गई. घड़ी पर नजर डाली तो 4 बजने वाले थे. अब उस का मन बेचैन नहीं था. मन ही मन विचार उत्पन्न हुए कि दुनिया का सब से बड़ा आश्चर्य क्या है? यक्ष के प्रश्न वाला प्रसंग मन में उठा.

यक्ष के इस प्रश्न पर युधिष्ठिर ने जवाब दिया, ‘हम में से प्रत्येक को इस बात की जानकारी है कि जब हम पैदा हुए हैं तो एक दिन मरना भी पडे़गा, फिर भी यही माने बैठे हैं कि हम सदा के लिए जिंदा रहेंगे. आज पति नाम का जीव शरीर छोड़ कर चला गया है तो कल मुझे भी जाना ही होगा.’

इस तथ्य से मुक्त होने में मानव तब तक अक्षम है जब तक कि वह अपनी सोच अथवा मानसिक स्तर को ऊर्ध्वमुखी न बनाए. जीवन भी ऐसा ही सत्य है और मृत्यु भी, जिस का सामना हम सभी को कभी न कभी करना ही होगा. इस दुनिया में पैदा हुई हर चीज का अंत है. जीवन हर क्षण में हमें मृत्यु के करीब ला रहा है. हम बूढ़े होना नहीं चाहते किंतु होते जाते हैं. हम अपने शरीर को अपना मानते हैं किंतु यह तो हमारा नहीं है.

मुझे अब क्या करना चाहिए…विचार पलटा. हमारा इस धरा पर आवागमन चलता रहेगा. हर दिन सूर्य निकलता है तो डूबता भी है. बड़ी बात तो यह है कि हर वक्त नया बन कर निकलता है. प्रकृति का यह नियम कब कौन बदल सका है. इसलिए मुझे भी हर दिन नए सूर्य की तरह जीना चाहिए. उसे आने वाले नववर्ष से प्रेरणा मिलने लगी. हर साल एक नया साल के रूप में आता है. मैं ने अपने हिस्से की तमाम जिम्मेदारियां निभा दी हैं.

मैं आज तक अनभिज्ञ रही. आज से और ज्यादा काम करूंगी. क्या जरूरत है बीती जिंदगी की गलतियों पर विचार कर कोसना. मेरी जो बची जिंदगी है उसे और ऊर्जावान बना कर कुछ अपने बच्चों, कुछ खुद के लिए और कुछ इस धरा के लिए कर पाऊं यही तो नियति है.

मंदिर के घंटे ने 4 बजाए. दर्शनार्थियों की भीड़ उद्घोष के साथ मंदिर के मुख्यद्वार की ओर चल पड़ी. कोरा पाखंड. जिस ने पत्नी को जीवन भर दुख दिए उस को पंडेपुरोहित भी दानदक्षिणा के लालच में आसानी से श्रेष्ठ जन साबित कर देते हैं. यह धोखेबाजी औरतों को बहुत महंगी पड़ती है. कावेरी ने तमाम मलिनता को परे फेंक दिया. कमरे में देखा तो सारा परिवार उसी तरह थकामांदा सोया था. उस ने केसरी बार्डर वाली साड़ी निकाली. नहाधो कर तैयार हुई. कुमकुम लगाई. पर्स खोल कर चैकबुक निकाली. बड़ेछोटे सब के नाम 2-2 हजार के चैक काटे. साथ ही एक पत्र लिखा :

‘मेरे बच्चो,

‘मैं बस स्टैंड के बाहर की सीढि़यों पर बैठी हूं, सूर्य की प्रथम किरण के फूटते ही मेरे मन का अंधकार मिट गया है. जन्ममरण हमारी नियति है इसलिए सब लोग घूमेंफिरें, जो खरीदफरोख्त करनी है, करें. किसी को अब और मायूस हो कर बैठने की जरूरत नहीं है. ‘आज नया वर्ष है. इस नए वर्ष का स्वागत नई सोच से करें. ‘मैं जिस तरह प्रतिदिन रहती आई हूं वैसे ही रहूंगी.

आप की कावेरी.’

प्रात: 7 बजे के आसपास जब परिवार के सदस्य उठे और पत्र पढ़ा तो उन के मन में भी नया प्रकाश हुआ. कल तक जो कावेरी को दोषी करार दे रहे थे, उस के परिपक्व विचार देख सब के सब नकारात्मक मार्ग से सकारात्मक मार्ग की ओर सोचने लगे. एक नई खुशी की लहर घरपरिवार में फैल गई. ऐसी खुशी जो बिलकुल नई तरह की थी. सब ने देखा, केसरी साड़ी पहने सजीधजी अम्मां बस स्टैंड की सीढि़यों के पास बैठी थीं और एकटक सूर्य को देख रही थीं. सब दौड़ते हुए उन के पास पहुंच गए और उन्हें गले से लगा कर प्यार करने लगे.

आज सूर्य की किरणें नई आभा बिखेर रही हैं.

मुसकुराता नववर्ष: भाग-2

तेरहवीं तक प्रतिदिन पौ फटने से पहले ससुराल के रिश्तेनाते वाले कावेरी पर पानी डालते. उन का हर दिन अलगअलग फूलों से शृंगार करते किंतु पहनने को 2 साडि़यां ही देते. किसी चीज को छूना उन के लिए मना था. 12वें दिन मुंहअंधेरे ही उठ कर गले का मंगलसूत्र दूध में डलवा दिया गया और मुंह छिपा कर घर के एक कोने में बिठा दिया गया.

तेरहवीं के बाद मंगलसूत्र तिरुपति की हुंडी में डालने के लिए परिवार एकसाथ जाना चाहता था पर दूरदर्शी बड़े भाई ने समझदारी से काम किया. वे अपनी छोटी बहन के दिल का हाल जानते थे. वे कावेरी को और टूटते नहीं देखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने ऐसी तारीख निश्चित की जिस से काम भी हो जाए और आने वाले नए साल की सुखदाई सुबह भी हो जाए.

कावेरी पिछले 35 साल के जीवन में  जाने कैसेकैसे कंटीले रास्तों को पार कर चुकी थीं. उन्होंने कमरे में झांका तो सारा परिवार गहरी नींद में सो रहा था. खिड़की खोल कर बाहर देखा तो सड़क पर उन के जीवन की भांति सन्नाटा छाया था. हां, भाभियों के चेहरे संतुष्ट प्रतीत हो रहे थे.

हवा तेज चल रही थी. खिड़की के पट जोरजोर से हिलने लगे. उन्हें अंदर तक किसी अज्ञात भय ने घेर लिया. उन्होंने झट उठ कर खिड़की बंद कर दी. मन में उठ रहा शोर बढ़ता जा रहा था. सांयसांय की आवाज मानो मरे पति की हो जो मुंह चिढ़ा कर कह रही हो, ‘क्यों, घर छोड़ कर भाग गई थी न. आज मेरी विधवा बनी है.’ और इस के साथ ही अतीत के वे दिन कावेरी की आंखों के सामने साकार होने लगे.

अमलू भाभी की जिद के चलते ही मातापिता ने इस रिश्ते के लिए हां की थी क्योंकि कुमरेशन भाभी का चचेरा भाई था और कावेरी की सुंदरता पर मुग्ध था. उस ने अमलू भाभी को उपहार में साडि़यां, गहने दे कर पटा लिया था.

कुमरेशन पुलिस विभाग में कर्मचारी था. आसपड़ोस वालों ने तारीफ करते हुए कहा था, ‘कावेरी ने क्या तकदीर पाई है. लड़का अच्छी सरकारी नौकरी के साथसाथ हृष्टपुष्ट व रूपवान भी है.’ भाभी की मां ने कहा था, ‘उपहारों से घर भर जाएगा और कुमरेशन तो एक काबिल पुलिस वाला है.’

शादी के बाद कावेरी की घरगृहस्थी खूब जमी. सास ज्यादा न बोलतीं. मशीन की तरह घर का सारा काम करती रहतीं. कावेरी भी उन का पूरा हाथ बटाती. सुंदरम 2 साल का था और मुन्नूस्वामी 2 माह का था. एक दिन सास ने कहा, ‘आज कुछ मेहमान आने वाले हैं. अच्छी तरह से तैयार हो जाना’ और उन की आज्ञानुसार वह तैयार हो गई थी. घर में जो मेहमान के नाम पर आए वे सारे के सारे ऐयाश थे. देर रात तक खातेपीते रहे. उस दिन से यह हर रोज का नियम बन गया.  आएदिन शराब की बोतलें, सोडा, मछली आदि लाई जाती और मां बनाया करतीं. जब वे आते उस समय कुमरेशन ड्यूटी पर होते. कावेरी जब भी इस बारे में पति से कुछ कहना चाहती तो वे बिना सुने उठ कर चल पड़ते.

एक दिन सास ने जब कहा, ‘कावेरी, उस के साथ पिक्चर जा कर देख आ,’ तो वह भौचक्की हो सास की तरफ देखती रह गई.

‘मुझे पिक्चर देखना पसंद नहीं है, मां. मेरा बच्चा बहुत छोटा है,’ यह कह कावेरी सास की बात टाल गई.

2 दिन बाद कुमरेशन ड्यूटी से घर आए तो मां की बातें सुन कर झुंझला उठे. ‘तुम ने इसे समझाया नहीं कि इसे पिक्चर जाना चाहिए था, क्या वे इसे खा जाते?’

पति के मुंह से यह सुन कर कावेरी को काठ मार गया. उस रात इसी बात को ले कर पतिपत्नी दोनों में खूब बहस छिड़ी. बात मारपीट पर उतर आई थी. कावेरी समझ नहीं पा रही थी कि पुलिस विभाग में काम करने वाला उस का पति उसे गलत काम करने को क्यों कह रहा है. पत्नी को दासी समझने वाला कुमरेशन आदेशात्मक स्वर में बात करता रहा, ‘2 बच्चों की मां बन चुकी हो परंतु जीवन में पति का फायदा कैसे करना है, यह पता नहीं,’ बालों को पकड़ कर कहा था, ‘ऐ सुन, जो मां कहती हैं वैसा कर. मुझे यह अच्छी नौकरी ही नहीं अपने परिवार को भी बचा कर रखना है.’

‘तो ईमानदारी से काम कीजिए…’

‘क्या…मुझे पाठ पढ़ाती है… पुलिस वाले को…’

कावेरी पति की ओर देखती रह गई.

‘ऐसे क्या देख रही है…’ कहतेकहते उस का सिर दीवार पर दे मारा था. बहुत चोट लगी थी. सिर से खून बहने लगा था.

उस दिन से दोनों के बीच तनाव बढ़ने लगा और दूरियां भी. हर रोज जलसे मनाए जाते. दोपहर तक मछली, चिकन, अंडे, सोडा शराब की बोतलें आ जातीं. देवर इन्हें ला कर कमरे में रख देता. धीरेधीरे कावेरी की सहनशक्ति का हृस होने लगा. मेहमानों की सेवा में लगी कावेरी जब भी बच्चा रोता तो वह उन्हें छोड़ कर बच्चे को उठा लेती, दूध पिलाती. एक दिन कमरे से बाहर आने में देर होती देख पति खूब झल्लाए और मुन्नूस्वामी और सुंदरम को उठा कर घर के बाहर पटक दिया.

कावेरी तब पहली बार बिफरी थी, ‘आप बच्चों को इस तरह क्यों पटक रहे हैं. घड़ी देखी है. पौने 12 बज रहे हैं. मैं अब कमरे से बाहर नहीं आऊंगी.’ और दोनों बच्चों को ले वह अंदर आ गई थी. कमरा बंद कर लिया. उस दिन जीवन में जो तूफान आया तो उस ने जीवन की धारा ही बदल दी. बंद कमरे में कावेरी यही सोचती रही कि मायके जा कर क्या कहेगी? ऐयाश लोग कब किस को क्या कह दें, पता थोड़े ही चलता है. दहेज मैं कम नहीं लाई… फिर…ऐसी हरकतें क्यों…

कावेरी घृणा, क्रोध से भर उठी. पतिपत्नी का पवित्र रिश्ता… उसे घुटन होने लगी. अगर घर में पैसे चाहिए तो वह कमा कर लाएगी, ट्यूशनों से कमाएगी किंतु अपने चरित्र में दाग नहीं लगने देगी.

मुन्नूस्वामी के 2 साल पूरे होते ही उस ने नौकरी ढूंढ़नी शुरू कर दी. नौकरी पब्लिक लाइब्रेरी में मिल गई थी. वह भी पूरे 1,500 रुपए की. इसे सुन कर सास सब से ज्यादा खुश हुई थीं. पहली बार उन के चेहरे पर सच्ची मुसकान थी. तब यह नौकरी और तनख्वाह बहुत बड़ी मानी जाती थी. अब छोटीछोटी बात भी घर में उठने लगी. एक दिन कावेरी पुस्तकालय से बाहर निकली तो लाइब्रेरी के एक कर्मचारी को उस ने समझाया कि चाबी कहां जमा करनी है. पति ने यह देखा तो वे आगबबूला हो उठे.

‘कावेरी, किसी पराए मर्द के साथ बातें करते तुझे शर्म नहीं आती?’ उस ने तब पति को बहुत समझाया कि वह कर्मचारी है और लाइबे्ररियन होने के नाते उसे समझाना होता है. उस दिन कुमरेशन ने उसे खूब पीटा और खिन्न हो कर वह दोनों बच्चों को ले कर मायके आ गई. पिता को जब पता चला तो उन्होंने अपना सिर पीट लिया. दोनों भाइयों ने उसे ससुराल नहीं जाने दिया. यद्यपि कावेरी ने भाइयों को समझाया था कि जा कर पता तो लगाओ कि सचाई क्या है. किंतु किसी ने कुछ न सुना. रिश्ता तोड़ दिया गया.

आगे पढ़ें- कावेरी की सास मरने से…

तोहफा: भाग 3- पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

एक अधूरे और घिनौने प्यार का एहसास उसे अंदर तक व्याकुल कर रहा था. जिन लमहों में उस ने सुमित के लिए कुछ महसूस किया था, वे लमहे अब शूल की तरह उसे चुभने लगे थे. कई दिनों तक उदास सी रही वह. जब भी जिंदगी में उस ने प्यार की चाहत की, तो उसे उपेक्षा और धोखा ही मिला. शायद उस की जिंदगी में प्यार लिखा ही नहीं है. उसे उम्र भर अकेले ही रहना है. इस विचार के साथ रहरह कर तड़प उठती थी वह. एक दिन उस की बेटी ने माथा सहलाते हुए उस से कहा था, ‘‘ममा, आजकल आप उदास क्यों रहती हो?’’

शैली ने कुछ नहीं कहा. बस म़ुसकरा कर रह गई.

‘‘ममा, आप वापस पापा के पास क्यों नहीं चलतीं. पापा अच्छे हैं ममा.’’ शैली का चेहरा पीला पड़ गया. संकल्प से अलग होने के बाद पहली दफा नेहा ने वापस चलने की बात कही थी. कोई तो बात होगी जो इस मासूम को परेशान किए हुए है. कहां तो वह बीती जिंदगी याद भी नहीं करना चाहती थी और कहां उस की बेटी उसे वापस उसी दुनिया में चलने को कह रही थी.

शैली ने प्यार से बेटी का माथा सहलाया, ‘‘बेटा , आप वापस पापा के पास जाना क्यों चाहती हो? आप को याद नहीं, पापा आप की ममा के साथ कितना झगड़ा किया करते थे.’’

‘‘पर ममा, पापा आप से प्यार भी तो करते थे,’’ उस ने कहा और चुपचाप शैली की तरफ देखने लगी. शैली ने उस की आंखें बंद करते हुए कहा, ‘‘अब सो जा नेहा. कल स्कूल भी जाना है न तुझे.’’ सच तो यह था कि शैली उस की नजरों का सामना ही नहीं कर पा रही थी. उस की बातों के भंवर में डूबने लगी थी. कई सवाल उस के जेहन में कौंधने लगे थे. वह सोच रही थी कि संकल्प मुझ से प्यार करते थे तो मुझे अलग होने से रोका क्यों नहीं? कभी मुझे कहा क्यों नहीं कि वे मुझ से प्यार करते हैं. मेरे बगैर रह नहीं सकते. मैं तो जैसे अनपेक्षित थी उन की जिंदगी में, तभी तो कभी मनाने की कोशिश नहीं की, सौरी भी नहीं कहा. एक दिन पड़ोस की एक महिला से नेहा की झड़प हो गई. वैसे आंटीआंटी कह कर नेहा उस के साथ काफी बातें करती थी और क्लोज भी थी मगर जब उस ने उस की मां को उलटीसीधी बातें कहीं तो वह बिलकुल आपा खो बैठी और उस महिला को बढ़चढ़ कर बातें सुनाने लगी.

उस वक्त  तो शैली ने उसे चुप करा दिया, मगर बाद में जब शैली ने इस बारे में नेहा से बात करनी चाही कि जो भी हुआ, सही नहीं था, तो बड़े ही रोंआसे स्वर में वह बोली, ‘‘ममा, वह आप को बात सुना रही थीं और यह बात मुझे सहन नहीं हुई. मुझे खुद समझ नहीं आ रहा कि मैं उन के प्रति इतनी रूखी कैसे हो गई.’’ शैली खामोश हो गई थी. नेहा की बात उस के दिल को छू गई.

‘‘एक बात कहूं ममा,’’ अचानक नेहा ने मां के गले में प्यार से अपना हाथ डालते हुए कहा, ‘‘ममा, पापा की आप से लड़ाई सब से ज्यादा किस बात पर होती थी? जहां तक मुझे याद है, इस वजह से ही न कि वे दादी का पक्ष ले कर आप से झगड़ा करते थे.’’

‘‘हां बेटे, यही बात मुझे ज्यादा बुरी लगती थी कि बात सही हो या गलत हमेशा मां का ही पक्ष लेते थे.’’

‘‘ममा, मुझे लगता है, पापा उतने भी गलत नहीं, जितना आप समझने लगी हैं. बिलीव मी ममा, वे आज भी आप से बहुत प्यार करते हैं. बस जाहिर नहीं कर पाते,’’ नेहा ने बड़ी मासूमियत से कहा था. उस की बातों में छिपा इशारा शैली समझ गई थी. उसे खुशी हुई थी कि उस की बेटी अब वाकई समझदार हो गई है. शैली ने उस का मन टटोलते हुए पूछा था, ‘‘एक बात बता नेहा, क्या तू आज भी वापस पापा के पास जाना चाहती है? क्या उन के हाथ मुझे पिटता हुआ देख पाएगी या फिर मुझे छोड़ कर तू पापा के पास चली जाएगी?’’

‘‘नहीं ममा, ऐसा बिलकुल भी नहीं है. मैं ममा को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ कहते हुए नेहा शैली से लिपट गई. बेटी के दिल में छिपी ख्वाहिश से अनभिज्ञ नहीं थी वह. पर अपने जख्मों को याद कर कमी भी हिम्मत नहीं होती थी उस की वापस लौटने की. कैसे भूल सकती थी वह संकल्प का बातबात में चीखनाचिल्लाना. एक बार फिर कड़वे अतीत की आंच ने उसे अपना फैसला बदलने से रोक लिया था. आज नेहा का जन्मदिन था. शैली ने उस के लिए खासतौर पर केक मंगवाया था और खूबसूरत गुलाबी रंग की ड्रैस खरीदी थी. उसे पहन कर नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पार्टी के लिए उस ने पासपड़ोस के कुछ लोगों और नेहा की खास सहेलियों को बुलाया था. नेहा ने अपने पापा को भी बुलाया होगा, इस बात का यकीन था उसे. 8 बजे पार्टी शुरू होनी थी. आज शौर्टलीव ले कर निकल जाएगी सोच कर वह जल्दीजल्दी काम निबटाने लगी थी. ठीक 4 बजे वह औफिस से निकल गई. अभी रास्ते में ही थी कि संकल्प का फोन आया. बहुत बेचैन आवाज में उन्होंने कहा,  ‘‘शैली, हमारी नेहा…’’

‘‘क्या हुआ नेहा को?’’ परेशान हो कर शैली ने पूछा.

‘‘दरअसल, घर में अचानक ही आग लग गई. मुझे लगता है कि यह सब शौर्ट सर्किट की वजह से हुआ होगा. मैं नेहा को ले कर हौस्पिटल जा रहा हूं, सिटी हौस्पिटल. तुम भी जल्दी पहुंचो.’’

शैली दौड़तीभागती अस्पताल पहुंची तो देखा बेसुध से संकल्प कोने में बैठे हैं. उसे देखते ही वे दौड़ कर आए और रोते हुए उसे अपने बाहुपाश में बांध लिया. ऐसा लगा ही नहीं जैसे वर्षों से दोनों एकदूसरे से दूर रहे हों. एक अजीब सा सुखद एहसास हुआ था उसे. लगा जैसे बस वक्त यहीं थम गया हो. फिर उन से अलग होती हुई वह बोली,  ‘‘नेहा कहां है? कैसी है ?’’ ‘‘चलो मेरे साथ,’’ संकल्प बोले. फिर दोनों नेहा के कमरे में पहुंचे तो नेहा उन्हें साथ देख कर ऐसी हालत में भी मुसकरा पड़ी.

शैली ने उस का माथा सहलाते हुए पूछा, ‘‘बेटे, कैसी है तू?’’

नेहा मुसकराती हुई बोली, ‘‘जब मेरे मम्मीपापा मेरे साथ हैं तो भला मुझे क्या हो सकता है? पापा ही थे जिन्होंने उस धुएं, जलन और आग की लपटों से निकाल कर मुझे हौस्पिटल तक पहुंचाया. पापा, रिअली आई लव यू.’’

शैली चुप खड़ी बापबेटी का प्यार देखती रही. उसे दिल में अंदर ही अंदर कुछ जुड़ता हुआ सा महसूस हुआ. अपने अंदर का दर्द सिमटता हुआ सा लगा. उसे जिंदगी ने शायद वह वापस दे दिया था जिसे वह खो चुकी थी. शायद यह उसी पूर्णता का एहसास था जो पहले संकल्प के साथ महसूस होता था. अचानक नेहा ने शैली का हाथ थामा और उसे संकल्प के हाथों में देती हुई बोली,  ‘‘मुझे आप दोनों से बस एक ही तोहफा चाहिए और वह यह कि आप एक हो जाएं. क्या मेरे जन्म दिन पर आप मुझे इतना भी नहीं दे सकते?’’ शैली और संकल्प पहले तो सकपका गए मगर फिर मुसकरा कर दोनों ने नेहा को चूम लिया. नेहा ने शायद शैली और संकल्प दोनों को नए सिरे से जिंदगी के बारे में  सोचने को विवश कर दिया था.

तोहफा: भाग 2- पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

इस तरह अपने गुस्से की आग को पानी बनाने के प्रयास में कब उस का प्यार भी पानी बनता चला गया इस बात का उसे एहसास  भी नहीं हुआ. अब संकल्प के करीब आने पर उसे मिलन की उत्कंठा नहीं  होती थी. कोई एहसास नहीं जागता था. उन दोनों के बीच वक्त के साथ दूरियां बढ़ती ही गईं और एक दिन उस ने अलग रहने का फैसला कर लिया, जब छोटी सी बात पर संकल्प ने उस पर हाथ उठा दिया. दरअसल, उस की सास सदा ही शैली के खिलाफ संकल्प को भड़काती रहतीं और उलटीसीधी बातें कहतीं. लगातार किसी के खिलाफ बातें कही जाएं तो स्वाभाविक है, कोई भी शख्स उसे सच मान लेगा. संकल्प के साथ भी ऐसा ही हुआ. आवेश के किन्हीं क्षणों में शैली के मुंह से सास के लिए कुछ ऐसा निकल गया जिस की शिकायत सास ने बढ़ाचढ़ा कर बेटे से कर दी. बिना कुछ पूछे संकल्प ने मां के आगे ही शैली को तमाचा रसीद कर दिया और मां व्यंग्य से मुसकरा पड़ीं.

संकल्प का यह व्यवहार शैली के दिल में कांटे की तरह चुभ गया. उस ने उसी समय घर छोड़ने का फैसला कर  लिया और अपना सामान पैक करने लगी. उसे किसी ने नहीं रोका. वह बेटी  को ले कर निकलने ही वाली थी कि सास ने उस की बेटी नेहा का हाथ थाम लिया. उन का हाथ झटक कर नेहा को लिए वह बाहर निकल आई.पीछे से सास की आवाज कानों में गूंजी,  ‘‘इस तरह घर छोड़ कर जा रही हो तो याद रखना, लौट कर आने की जरूरत नहीं है.’’

शैली ने मुड़ कर जवाब दिया था,  ‘‘अब जिंदगी में कभी आप की सूरत नहीं देखूंगी.’’ और फिर सचमुच परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन की सूरत दोबारा देखने का मौका शैली को नहीं मिला. 2 साल पहले ही टायफाइड बुखार में उन की जान चली गई. छोटी ननद बिट्टन ने अब तक सब संभाला था मगर पिछले साल संकल्प ने उस की शादी कर दी. शैली को आमंत्रित किया था वह गई नहीं. बस फोन पर ही बातें कर के शुभकामनाएं दे दी थीं. अब संकल्प बिलकुल अकेले रह गए थे. शैली को लगता था कि वे उस से तलाक ले कर दूसरी शादी करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. यह बात अलग है कि संकल्प ने कभी उसे वापस चलने को भी नहीं कहा. हां वे नेहा से मिलने अकसर आ जाया करते थे.

शैली ने स्वयं को एक संस्था से जोड़ लिया तो उसे जीने की वजह मिल गई और वहीं पर मिला सुमित, जिस से मिल कर शैली को ऐसा लगा था जैसे जिंदगी ने उसे दोबारा मौका दिया है. अब तक वह 40वां वसंत पार कर चुकी थी और बेटी भी 14वें साल में प्रवेश कर चुकी थी. धीरेधीरे वह सुमित के करीब होती जा रही थी. शुरुआत में उस ने चाहा था कि वह स्वयं को रोक ले पर ऐसा कर न सकी और सुमित के मोहपाश में बंधती चली गई. अब सुमित कभीकभी शैली के घर भी आने लगा था. वह उस की बेटी नेहा के लिए हमेशा कुछ न कुछ गिफ्ट ले कर आता. कभी नई ड्रैस, तो कभी कुछ और. शैली को खुशी होती कि वह बेटी को भी अपनाने को तैयार है. मगर एक दिन बेटी से बात करने के बाद वह अपने ही फैसले पर पुन: सोचने को मजबूर हो गई.

उस दिन वह जल्दी आ गई थी. बेटी के साथ इधरउधर की बातें कर रही थी. तभी वह बोली, ‘‘ममा, एक बात कहूं?’’

‘‘हां बेटा, बोलो न.’’

‘‘ममा, आप को सुमित अंकल बहुत अच्छे लगते हैं न?’’ थोड़ा सकुचा गई थी वह. फिर बोली, ‘‘हां बेटा, पर वे तो तुम्हें भी अच्छे लगते हैं न?’’

‘‘ममा, मैं मानती हूं कि वे अच्छे हैं और हमारा खयाल भी रखते हैं, पर…’’

‘‘पर क्या नेहा?’’

‘‘पर ममा पता नहीं क्यों उन का स्पर्श वैसा नहीं लगता जैसा पापा का है. पापा करीब आते हैं तो लगता है जैसे मैं सुरक्षा के घेरे में हूं. मगर अंकल बहुत अजीब तरह से देखते हैं. बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता मुझे.’’ दिल की बात कह दी थी नेहा ने. शैली हतप्रभ सी रह गई.

‘‘और ममा, एक बात बताऊं.’’

‘‘हांहां नेहा बोलो.’’

‘‘याद है ममा, पिछले संडे स्कूल में देर ज्यादा हो गई थी, तो आप ने सुमित अंकल को भेजा था, मुझे लाने को.’’

‘‘हां बेटा, तो क्या हुआ?’’

‘‘ममा…,’’ अचानक नेहा की आंखें भर आईं, ‘‘ममा, वे मुझे कुछ अजीब तरह से छूने लगे थे. तभी मुझे रास्ते में  काजल दिख गई और मैं ने फौरन गाड़ी रुकवा कर काजल को बैठा लिया वरना जाने क्या…’’ शब्द उस के गले में ही अटक गए थे. एक अजीब सी हदस शैली के अंतर तक उतरती चली गई.

‘‘तूने पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘मैं क्या कहती ममा, मुझे लगा आप नाराज होंगी.’’

‘‘नहींनहीं बेटा, तुझ से महत्त्वपूर्ण मेरे लिए कुछ भी नहीं,’’ और फिर अपने आगोश में भर लिया था उस ने नेहा को. फिर उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब सुमित को घर कभी नहीं बुलाएगी. बाहर भी ज्यादा मिलने नहीं जाएगी. भले ही अपनी जिंदगी का फैसला करने का उसे पूरा हक है मगर अपनी बेटी की भावनाओं को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती, क्योंकि बेटी की जिंदगी भी तो  उस से जुड़ी हुई है और फिर बेटी की सुरक्षा यों भी बहुत माने रखती है उस के लिए. अगले दिन से ही शैली ने सुमित के साथ एक दूरी बना ली. औफिस में सब का ध्यान इस बात पर गया. उस के बगल में बैठने वाली मीरा ने उस से सीधा सवाल ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ शैली? आजकल सुमित को भाव नहीं दे रहीं?’’

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं. बस मुझे अपनी मर्यादा का खयाल रखना होगा न, एक बेटी की मां हूं मैं.’’

‘‘बहुत सही फैसला किया है, तुम ने शैली,’’ मीरा ने कहा, ‘‘मुझे खुशी है कि तुम उस का अगला शिकार होने से बच गईं.’’

‘‘अगला शिकार…?’’ वह चौंक गई.

‘‘भोलीभाली, अकेली महिलाओं से दोस्ती कर उन की बहूबेटियों पर हाथ साफ करना खूब आता है उसे.’’

‘‘क्या…?’’

एकबारगी हिल गई थी वह यानी नेहा का शक सही था. वाकई सुमित की नीयत साफ नहीं. अच्छा हुआ जो उस की आंखें खुल गईं. दिल ही दिल में राहत की सांस ली थी उस ने. जीवन के इस मोड़ पर मन में उठे झंझावातों से राहत पाने के लिए उस ने 3 दिनों की छुट्टी ले ली और पूरा समय अपनी बेटी के साथ बिताने का फैसला किया. दिन भर शौपिंग, मस्ती और नईनई जगह घूमने जाना, यही उन की दिनचर्या बन गई थी. और फिर एक दिन शाम को कनाट प्लेस में शौपिंग के बाद शैली बेटी को ले कर एक रैस्टारैंट की तरफ मुड़ गई. यह वही रैस्टोरैंट था जहां वह अकसर सुमित के साथ आती थी. अंदर आते ही एक टेबल पर उस की नजर पड़ी, तो वह भौचक्की रह गई. सुमित एक 15-16 साल की लड़की के साथ वहां बैठा था. किसी तरह का रिएक्शन न देते हुए वह दूर एक कोने की टेबल पर बैठ गई. यहां से वह सुमित पर नजर रख सकती थी. थोड़ी देर में ही शैली ने सुमित के हावभाव से महसूस कर लिया कि वह लड़की सुमित का नया शिकार है. शैली चुपचाप बेटी के साथ रैस्टोरैंट से निकल आई और तय कर लिया कि सुमित से दूरी बनाने के अपने फैसले पर पुरी दृढ़ता से कायम रहेगी.

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तोहफा: भाग 1- पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

शैली एकटक बादलों की तरफ देख रही थी और सोच रही थी कि बहती हवाओं के साथ बदलती आकृतियों में ढलते रुई के फाहों से ये बादल के टुकड़े मन को कितना सुकून देते हैं. लगता है जैसे अपना ही वजूद वक्त के झोंकों के साथ कभी सिमट रहा है, तो कभी नए आयामों को छूने का प्रयास कर रहा है. एक अजीब सा स्पंदन था उस के मन के हर कोने में. लोग कहते हैं, प्रेम की उम्र तो बस युवावस्था में ही होती है. मगर शैली उस की अल्हड़ता को इस उम्र में भी उतनी ही प्रगाढ़ता से महसूस कर रही थी. उस का मन तो चाह रहा था कि वह भी हवा के झोंकों के साथ उड़ जाए. वहां जहां किसी की भी नजर न पड़े उस पर. बस वह हो और उस के एहसास.

वह बचपन से आज तक अपनी जिंदगी अपने ही तरीकों से जीती आई है. कभी जिंदगी की गति को चंद पड़ावों में  नहीं बांटा वरन नदी के प्रवाह की तरह बह जाने दिया. उस दिन सुमित ने उसे छेड़ा था, ‘‘तुम दूसरों जैसी बिलकुल भी नहीं, काफी अलग तरह से सोचती हो और अपनी जिंदगी के प्रति तुम्हारा रवैया भी बहुत अलग है…’’

‘‘हां सच कहा. वैसे होता तो यही है कि लोगों की जिंदगी की शुरुआत में ही तय कर दिया जाता है कि इस उम्र में पढ़ाई पूरी करनी है, उस उम्र में शादी, बच्चे और फिर उम्र भर के लिए उसी रिश्ते में बंधे रहना. भले ही खुशी से ज्यादा गम ही क्यों न मिले. मैं घिसेपिटे फौर्मूले से अलग जीना चाहती हूं, इसलिए स्वयं को एक मकसद के हवाले कर दिया. मकसद के बगैर इंसान कितना अधूरा होता है न.’’ ‘‘पर मुझे तो लगता है कि जो इंसान अधूरा होता है, वही जीने के लिए मकसद तलाशता है.’’

सुमित ने उस की कही बात की खिल्ली उड़ाने जैसी बात कही थी पर वह सुमित के इस कथन से स्वयं को विचलित होता दिखाना नहीं चाहती थी. उस ने स्वयं को समझाया कि बिलकुल विपरीत सोच है सुमित की, तो इस में बुराई क्या है? नदी के 2 किनारों की तरह हम भी नहीं मिल सकते पर साथ तो चल सकते हैं. उस ने सुमित से बस इतना कहा था,   ‘‘क्या इंसान को पूर्ण होने के लिए दूसरे की मदद लेनी जरूरी है? क्या प्रकृति ने इंसान को पूर्ण बना कर नहीं भेजा है? लोग यह क्यों समझते हैं कि जीवनसाथी के बगैर व्यक्ति अधूरा है.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा,’’ सुमित ने प्रतिरोध किया.

‘‘मगर तुम्हारे कहने का अर्थ तो यही था.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं है. तुम ने मेरी बात को उसी रूप में घुमा लिया जैसा तुम दूसरों को बोलते सुनती हो.’’

फिर थोड़ी देर शैली खामोश रही तो सुमित ने उसे छेड़ते हुए पूछा, ‘‘एक बात बताओ शैली, तुम्हें इतना बोलना क्यों पसंद है? कभी खामोश रह कर भी देखो. उन लमहों को महसूस करो जिन्हें वैसे कभी महसूस नहीं कर सकतीं. बहुत सी बातें और यादें एकएक कर तुम्हारे जेहन में खिले फलों सी महकने लगेंगी.’’ ‘‘जरूरी नहीं कि वह फूलों की महक ही हो, कांटों की चुभन भी हो सकती है. तो कोई क्यों आने दे उन एहसासों को मन के गलियारों में फिर से?’’

‘‘तुम ने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया, पर लगता है कि तुम जिस से बेहद प्यार करती थीं उसी ने गम दिया है तुम्हें.’’

‘‘कोई बात मैं कहती हूं, तो जरूरी तो नहीं कि उस का सरोकार मुझ से हो ही.’’

‘‘कुछ भी कह लो, पर तुम्हारी जबान कभी तुम्हारी आंखों का साथ नहीं देती.’’

‘‘साथ तो कोई किसी का नहीं देता. साथ की आस करना ही बेमानी है. जो अपना होता है, परछाईं की तरह खुद ही साथ चला आता है. पर किसी से अपेक्षाएं रखो तो गमों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता.’’

‘‘तुम्हारी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं, पर बहुत अच्छी लगती हैं. लगता है जैसे शब्दों के साथ खेल रही हो. काश तुम्हारा यह अंदाज मेरे पास भी होता.’’

‘‘वैसे शब्दों से खेलते तो तुम भी हो. अंतर सिर्फ इतना है कि दोनों का अंदाज अलगअलग है,’’ यह कहते हुए. एक राज भरी मुसकान आई  थी शैली के होंठों पर. उसे न जाने क्यों आजकल सुमित से मिलना, बातें करना अच्छा लगने लगा था.  सब से पहले सुमित की पेंटिंग्स देख कर उस की और आकर्षित हुई थी वह. पर अब उस की बातें भी अच्छी लगने लगी थीं.

किसी को पसंद करना ऐसा एहसास है, जिसे लाख छिपाना चाहो तो भी दूसरों को खबर लग ही जाती है. कल की ही तो बात है. वह बरामदे में बैठी सुमित की बातें सोच रही थी कि बेटी नेहा का स्वर गूंजा,  ‘‘ममा अकेली बैठ कर मुसकरा क्यों रही हो?’’ वह कोई जवाब नहीं दे सकी. तुरंत खड़ी हो गई जैसे चोरी पकड़ी गई हो.फिर खुद को संभाल कर, प्यार से बेटी के कंधों पर हाथ रखते हुए बोली,  ‘‘कुछ नहीं, सोच रही हूं कि आज खाने में क्या बनाऊं,’’ और किचन की तरफ चल दी. कितना अंतर था सुमित और उस के पति संकल्प में. कढ़ी बनाते समय सहसा ही पुराने जख्म हरे हो गए थे. उस के जेहन में संकल्प के कहे गए शब्द गूंजने लगे थे.

‘‘शैली तुम खाना अच्छा बनाती हो. पर जो भी हो तुम्हारी बनाई कढ़ी में वह स्वाद नहीं जो अम्मां की बनाई कढ़ी में आता है.’’

अपने पति का यह रिमार्क उसे अंदर तक बेध गया क्योंकि सामने बैठी सास ने बड़े ही व्यंग्य से मुसकुरा कर उसे देखा था. यह एक दिन की बात नहीं थी. रोज ही ऐसा होता था. संकल्प मां के गुण गाता, मां मुसकरातीं और यह मुसकराहट जले पर नमक का काम करती. शैली बातबात पर संकल्प से झगड़ कर अपना गुस्सा उतारती, तो संकल्प भी उसे जी भर कर जलीकटी सुनाता. उस के पिता ने कितने अरमानों से संकल्प के साथ उस की शादी की थी. उस ने भी ख्वाहिशें लिए हुए ही ससुराल में कदम रखा था. पर छोटीछोटी बातों ने कब रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं, उसे पता ही नहीं चला. कभी सास के साथ बदतमीजी की बात, कभी दोस्तों, रिश्तेदारों की सही आवभगत न करने की शिकायत. कभी बात न मानने का गिला और कभी अपनी मरजी चलाने का हवाला दे कर किसी न किसी तरह संकल्प उस पर बरसते ही रहते थे और कभी अन्याय न सहने वाली शैली हर दफा बंद कमरे में चीखचीख कर रोती और अपना गुस्सा उतारती.

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लक्ष्य: जीवन में क्या पाना चाहती थी सुधा?

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