उपाय: आखिर क्या थी नीला के बदले व्यवहार की वजह?

‘‘सुनिए, इस बार दशहरे की छुट्टियां 4-5 दिन की हो रही हैं,’’ नीला ने चाय का कप पकड़ाते हुए बड़ी शोखी से कहा.

‘‘तो क्या?’’ रणवीर तल्खी से बोला.

‘‘दशहरा में मुझे झांसी जाना है,’’ नीला बोली.

‘‘फिर तो मम्मी से पूछ लो न,’’ रणवीर लापरवाही से बोला.

‘‘पूछना है तो तुम्हीं पूछो, मुझे उलटेसीधे बहाने नहीं सुनने हैं,’’ झुंझलाते हुए नीला बोली.

रणवीर जानता है कि सासबहू की पटती नहीं है. दोनों को एकदूसरे के विचार पसंद नहीं हैं. नीला बहुत तेज स्वभाव वाली है. उसे अपने कामों में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं है. यदि किसी ने जरा सा भी किसी बात के लिए टोका तो वह बड़ाछोटा नहीं देखती और ऐसीऐसी बातें सुनाती है कि फिर बोलने वाला आगे बोलने की हिम्मत न करे. उस के दिमाग में यह बात अच्छी तरह बैठी है कि ससुराल में सब को दबा कर रखो. सासससुर का वह बिलकुल लिहाज नहीं करती. मामूली सी बात पर भी खूब खरीखोटी सुना देती है. इसीलिए सब उस से थोड़ा अलग रहते हैं और इसी वजह से घर का वातावरण बड़ा बोझिल हो चला है, क्योंकि यहां न अनुशासन है और न बड़ों का आदरसम्मान.

‘‘ठीक है, मैं ही पूछ लेता हूं,’’ रणवीर ने रुख बदल कर कहा. फिर बोला, ‘‘चलो, अब की बार मैं भी वहीं अपनी छुट्टियां बिताऊंगा.’’

नीला कुछ चकित सी हुई, ‘‘क्यों, अब की बार क्या बात है? हर बार तो मुझे पहुंचा कर चले आते थे.’’

‘‘बस मन हो गया. फोन कर दो कि दामादजी भी इस बार वहीं दशहरा मनाने की सोच रहे हैं.’’

‘‘नहीं नहीं, तुम मुझे पहुंचा कर चले आना. नहीं तो तुम्हारी मां मुझे ताना देंगी.’’

‘‘अब छोड़ो भी, मैं भी चल रहा हूं, बस,’’ गंभीर स्वर में रणवीर बोला.

रणवीर के वहीं छुट्टी बिताने की बात सुन जैसे कि आशा थी, मां खुश नहीं हुईं. उन्हें बिना मतलब ससुराल में रहना पसंद नहीं था. उन्होंने समझाने की कोशिश की पर रणवीर अड़ा रहा, बोला, ‘‘मां, तुम चिंता न करो, सब ठीक रहेगा.’’

नीला जब भी मायके से लौट कर आती थी, तकरार के नएनए नुसखे सीख कर आती थी. यह बात रणवीर भी जानता था और मां भी. इसीलिए नीला के मायके जाने को ले कर मां हमेशा अप्रसन्नता जताती थीं.

रणवीर के आने की खबर मिलते ही ससुराल में सभी स्वागतसत्कार के लिए तत्पर हो उठे. टैक्सी दरवाजे पर रुकी तो छोटा साला अरविंद, जो बाहर क्रिकेट खेलने जाने के लिए किसी साथी का इंतजार कर रहा था, लपक कर आया और सभी को नमस्ते कर सामान उठा कर अंदर ले गया. सास रसोईघर में कुछ बनाने में व्यस्त थीं और ससुरजी कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे.

ससुरजी को नमस्ते कर उन का आशीर्वाद ले कर रणवीर रसोईघर में चला गया और अपनी सासूमां को नमस्कार कर बोला, ‘‘अरे, क्या बना रही हैं, मांजी, बड़ी अच्छी सुगंध आ रही है. आप के बनाए नाश्ते का मजा ही कुछ और है.’’

सासूमां अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकरा दीं. बोलीं, ‘‘बैठो बेटा, मैं अभी नाश्ता ले कर आती हूं.’’

रणवीर ससुरजी के पास बैठ गया. थोड़ी देर में नाश्ता आ गया. चाय पीते हुए वह सब का हालचाल पूछता रहा. फिर वह अपना बैग उठा लाया और उस में से कुरतापाजामा का एक सैट जोकि चिकन का था, निकाल कर ससुरजी को दिखाया और बोला, ‘‘बताइए पापा, यह सैट कैसा है?’’

ससुरजी ने हाथ में ले कर कहा, ‘‘बढि़या है. इस की कढ़ाई, डिजाइन सोबर और महीन है.’’

‘‘यह आप के लिए है,’’ रणवीर ने हंस कर कहा, ‘‘इस बार लखनऊ गया था, तो 2 सैट लाया था, एक आप के लिए और एक पिताजी के लिए.’’

‘‘अरे भाई, मेरे लिए तुम्हें लाने की क्या जरूरत थी,’’ और पत्नी शारदा की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘देखो, रणवीर मेरे लिए क्या लाए हैं.’’

सासूमां चहक कर बोलीं, ‘‘इस का रंग और डिजाइन तो बहुत अच्छा है. क्या दाम है?’’

‘‘अब आप दाम वाम की बात मत करिए. मुझे अच्छा लगा तो मैं ने ले लिया, बस.’’

फिर रणवीर ने बैग से चिकन की एक साड़ी निकालते हुए कहा, ‘‘यह आप के लिए.’’

सासूमां पुलकित हो उठीं, ‘‘अरे बेटा, इतना खर्च करने की क्यों तकलीफ की.’’

‘‘मम्मीजी, फिर वही बात. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं.’’

‘‘अरे बेटा, यह बात नहीं. तुम्हारे व्यवहार और विचार से हम वैसे ही प्रसन्न हैं.’’

रणवीर ने सालेसालियों को भी कुछ न कुछ दिया.

नीला यह सब चकित सी देख रही थी. उस से रहा न गया. जैसे ही एकांत मिला, उस ने रूठे अंदाज में रणवीर से कहा, ‘‘तुम ने यह सब कब खरीदा? मुझे बताया नहीं.’’

‘‘कोई जरूरी नहीं कि सब कुछ तुम्हें बताया ही जाए.’’

नीला मुंह बना कर चुप हो गई.

रणवीर ने खाना खाते समय खाने की खूब तारीफ की. बीचबीच में हंसी की फुलझडि़यां भी छोड़ रहा था वह. सभी लोग बड़े खुश लग रहे थे.

खाना खाने के बाद रणवीर साले व सालियों के साथ गपशप करने लगा और नीला मां के पास बैठ गई.

रणवीर ने अरविंद को पास बुला कर बैठा लिया और उस की पढ़ाई आदि के बारे में काफी दिलचस्पी दिखाई.

‘‘बातें तो बहुत हो गईं

अब ये बताओ तुम लोग कभी पिकनिक के लिए जाते हो?’’ रणवीर ने अरविंद से मुसकरा कर पूछा.

‘‘हम 1-2 बार कालेज से ही गए हैं, पर वैसा मजा नहीं आया, जो अपने परिवार के साथ आता है,’’ अरविंद और रिंकी मुंह बनाते हुए बोले.

‘‘ठीक है, कल पिकनिक का प्रोग्राम रहेगा,’’ रणवीर बड़े दोस्ताने ढंग से बोला.

अरविंद व रिंकी को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. उन्होंने सारी प्लानिंग झटपट कर डाली. दामाद के इस मिलनसार व्यवहार से पूरा घर बहुत खुश था.

दूसरे दिन किराए की टैक्सी कर ली गई. सभी लोग बैठ कर चल दिए. शहर से बाहर एक झील थी और पास में ही अमराई थी. नीला ने मां के साथ मिल कर पूरियां आदि बना ली थीं. रणवीर पास की दुकान से कुछ मीठा ले आया.

पिकनिक में बड़ा आनंद आया. बच्चों ने खूब खेलकूद किया. खानेपीने के बाद सब ने खूब चुटकुले सुनाए. सभी हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.

ऐसे ही मौजमस्ती करते छुट्टी के 4-5 दिन कैसे बीत गए, कुछ पता ही नहीं चला. रणवीर घर लौटने का मन बना रहा था. उस दिन शाम को सभी चाय पी रहे थे, तभी रणवीर ने टेप रिकौर्डर निकाला और सब से बोला, ‘‘आप लो यह आवाज पहचानिए तो जरा किस की है?’’

टेप चालू हो गया, सभी लोग ध्यान से सुनने लगे.

अचानक अरविंद चिल्लाया, ‘‘अरे यह तो नीला दीदी की आवाज है. दीदी, तुम किस से डांटडांट कर बोल रही हो? अरे हां, दूसरी आवाज तो तुम्हारी सासूमां की लग रही है. वे धीरेधीरे कुछ कह रही हैं.’’

रिंकी बोली, ‘‘क्यों दीदी, ससुराल में तुम ऐसे ही बोलती हो? यहां हम लोगों से तो तुम कुछ और ही बताया करती हो.’’

नीला के मम्मीपापा हतप्रभ हो नीला का मुंह ताकने लगे. रणवीर मंदमंद मुसकरा रहा था.

रणवीर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी छोटीछोटी बातों को सुन कर चिल्लाना शुरू कर देती है और सब पर दोष लगाया करती है. ऐसी बात नहीं कि मैं कुछ कहता या समझाता नहीं पर यह माने तब न. इस के दिमाग में यह है कि ससुराल में सब को दबा कर रखना चाहिए.

‘‘मैं तो आए दिन की चिकचिक से परेशान हो गया. फिर मैं ने सोचा आप लोग ऐसे तो समझेंगे नहीं, इसलिए मैं ने यह उपाय अपनाया. अब आप लोग जो समझें…’’

तभी ससुर बोले, ‘‘बेटा, हम इतना नहीं जानते थे. यह तेज तो है, लेकिन यह तो हद हो गई. छोटेबड़े का लिहाज करना ही छोड़ दिया. बेटा, हम बड़े शर्मिंदा हैं.’’

सासूमां ने नीला को डांटा और समझाया. नीला को रणवीर पर रहरह कर क्रोध आ रहा था. मायके आ कर नीला सासससुर की खूब बुराई करती थी. सासूमां ऐसे चिल्लाती हैं, ऐसे बोलती हैं, वगैरहवगैरह. आज पोल खुल गई. वह कुछ शर्मिंदा व क्रोधित भी थी. सासूमां ने रणवीर से माफी मांगी. अकेले में नीला को बड़ी हिदायतें दीं और समझाया. नीला बस रोती रही.

रास्ते भर नीला रणवीर से बोली नहीं. जब वे घर पहुंचे तो मां का मूड कुछ उखड़ा उखड़ा सा था. वे कुछ कहने वाली ही थीं कि नीला ने झुक कर पैर छुए और हालचाल पूछा. सास का मुंह खुला का खुला रह गया. तभी उन्हें ध्यान आया, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया. नीला ने ससुर के भी पैर छुए उन्होंने भी आशीर्वाद दिया. जब सास किचन में जाने लगीं तो नीला ने रोक कर कहा, ‘‘आप बैठिए चाय मैं बनाती हूं.’’

स्वर में मिठास व अपनापन था. सास ने अविश्वास से बहू को देखा फिर रणवीर की ओर देखा. वह मंदमंद मुसकरा रहा था. नीला अभी भी मुंह फुलाए थी. बात नहीं कर रही थी, बस अपना काम यंत्रवत करती जा रही थी.

रणवीर बैडरूम में जा कर कपड़े बदल रहा था, तभी नीला ने चाय का प्याला मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘यह चाय रखी है.’’

वह जाने के लिए मुड़ी ही थी कि रणवीर ने हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘तुम भी बैठो, अपनी चाय यहीं ले आओ.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं बैठना है,’’ नीला गुस्से में बोली.

परंतु रणवीर ने जाने नहीं दिया. उसे पास में बैठा लिया. फिर बोला, ‘‘तुम्हारी नाराजगी उचित नहीं. मैं तुम्हें समझाता था मगर तुम मानती नहीं थीं. ऐसे में घर की सुखशांति के लिए कोई उपाय तो करना ही था. मेरे मां पिता ने बहुत संघर्ष किया है. आज जब मैं हर तरह से समर्थ हूं, मेरा फर्ज है सब तरह से उन्हें सुखी रखना. उन को दुखी व अपमानित होते देखना मुझे सहन नहीं होता. जरा सा मीठा बोलो, अच्छा व्यवहार करो तो मां कितनी गद्गद हो जाती हैं. यदि वे अपनी तरह से कुछ चाहती हैं तो कर देने में कौन सी मेहनत करनी पड़ती है,’’ रणवीर ने नीला को समझाते हुए कहा.

नीला कुछ सोचती रही, फिर धीरेधीरे सकुचाते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो रणवीर. आज के बाद मैं कभी तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘वैरी गुड,’’ रणवीर ने शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब अपनी चाय ले कर यहीं आओ, हम साथ में चाय पिएंगे.’’

‘‘नहीं, हम चाय सब के साथ पिएंगे, चाय ले कर तुम बाहर आओ,’’ नीला ने भी उसी शरारती अंदाज में नकल उतारते हुए मुसकरा कर कहा और पलट कर बाहर चली गई. रणवीर मन ही मन मुसकराया, उपाय काम कर गया.

करीपत्ता: भाग 1-आखिर पुष्कर ने ईशिता के साथ क्या किया

अब तो ईशिता को लगता है कि जीवन में कुछ भी अपने वश में नहीं है. ये बड़ीबड़ी बातें करते, अपनी करनी बखानते और डींगें हांकते लोग शायद नहीं जानते कि पलभर में विधिना किसी को भी कहां से कहां ला कर पटक देती है.ईशिता तो जीवनभर अपनेआप पर मान करती आई.

संसार के पंक कीचड़ से बचती आई. संयम, नियम से जीना, कामनाओं को मुट्ठी में बंद रखना ही सीखा था उस ने. उस ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वह अपनी भावनाओं के बहाव में यों बह जाएगी कि संयम की बागडोर उस की मुट्ठी से खिसकती चली जाएगी.कहते हैं कि स्त्री के एक ही जन्म में कई जन्म होते हैं. ईशिता के भी हुए.

जो ईशिता अपने पितृगृह में तितली के पंखों सी सुकुमार सम झी गई, प्यारमनुहार जतन से पलकों की छांव में पालीपोसी गई वही ससुराल की देहरी पर पदार्पण करते ही दायित्वों के पहाड़ के नीचे दबा दी गई. उपालंभ, भर्त्सना और उपेक्षा भरे निर्मम व्यवहार के मध्य उस के कान प्यार भरे दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते.

पति भोलेभाले थे. पत्नी के अधिक पढे़लिखे और नौकरी करने से भयत्रस्त थे. उस पर से उन की कंडीशनिंग भी ऐसी की गई थी कि प्रशंसा करना तो दूर वे चाह कर भी उस का पक्ष नहीं ले पाते कि कहीं वह सिर ही पर न चढ़ जाए या कोई उन्हें पत्नी का दास न कह दे.

ईशिता नौकरी करती थी. गृहकार्य पूर्ण होते तो औफिस जाने का समय हो आता. औफिस में कार्य कर वहां से थकहार कर घर लौटती तो ससुर कुल के लोग त्योरियां चढ़ाए दिनभर के कार्यों का अंबार पटकते हुए ऐसा दर्शाते मानो वह कहीं से घूमघाम कर, पिकनिक मना कर लौटी हो.

क्लांत ईशिता एक प्याली गरम चाय और विश्रांत के 2 पलों के लिए तरस जाती पर उसे कहीं चैन नहीं दो घड़ी का भी. रोनेबिसूरने का भी नहीं. स्कूलकालेज की परीक्षाओं में प्रथम आने वाली, अपने में व्यस्त रहने वाली ईशिता को सब की प्रशंसा पाने का ही अभ्यास था.

ससुर कुल के समवेत व्यवहार ने जैसे उस का विवेक ही छीन लिया. उसे लगने लगा कि उस में अपार कमियां हैं. ऐसी आत्महीनता में जीए जा रही थी ईशिता कि तभी एक दिन समय ने करवट ली.‘‘आप के हाथ बड़े सुंदर हैं, कलात्मक हाथ हैं आप के.’’ईशिता चौंक उठी.

संकोच से हाथ फाइल से हटा कर अपने आंचल में छिपा लिए. लगा जैसे कोई उपहास कर रहा हो. नित्य की भांति वह आज भी इन हाथों से जूठे बरतनों का ढेर साफ कर,  झाड़ूपोंछा कर के आई है. आज से पहले तो किसी ने उस के हाथों की प्रशंसा नहीं की.

नजर उठा कर सामने देखा, पुष्कर मुसकरा रहे थे. उन की आंखों में प्रशंसा लहलहा रही थी. वह पलभर के लिए उन आंखों में डूब गई.सचमुच मनुष्य सब से अधिक प्यार अपनेआप को करता है, तभी तो वह आकृष्ट हुई उन आंखों के प्रति जिन में उस के प्रति प्रशंसा छलक रही थी.मैं ने कहा, ‘‘आप की उंगलियां कलाकारों जैसी हैं, तराशी लंबी उंगलियां.

इतने सुंदर हाथ मैं ने सचमुच नहीं देखे.’’ वह इस बार हड़बड़ाई. क्या कहे, सम झ नहीं आया. सकुचाते हुए टेबल से फाइल ली और वापस अपनी सीट पर चली आई. गोद में रखे हाथों का छिप कर निरीक्षण किया. वाशरूम जा कर देखा. क्या सचमुच उस के हाथ सुन्दर हैं.

पर किसी ने कभी कहा क्यों नहीं. उस की हथेलियां पसीने से भीग गईं. दिल नगाड़े बजने जैसा इतना तेज धड़कने लगा कि उसे डर हुआ कि उस की धड़कन कोई बाहर से न सुन ले. घर में कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता उस से.

वह एक ऐसा जंतु है जिस से सारे कार्य कराए जाते हैं और कैसा भी व्यवहार.दूसरे दिन पुष्कर ने बुलाया. चर्चा के दौरान चाहकर भी आंखें नहीं उठतीं. लग रहा है जैसे वह सैकड़ों आंखों उसे ही देखती जा रही हैं. वह हीनभावना से सकुचाई जा रही है. एकाएक उन की आंखों में कौंधा भाव पढ़ कर वह ठगी सी रह गई. ढेरों प्रशंसा भरे नयन.

वह सिहर उठी. कोई उस की भी प्रशंसा कर सकता है, विश्वास न हुआ क्योंकि ससुराल में उसे अब तक जो भी मिला वह उस की कमी ही गिनता दिखा. बाहर औफिस में अब तक उस ने सब से दूरी ही बरती.

पुष्कर मन ही मन मुसकराए. अपनी पीठ ठोंकी उन्होंने. जिस ईशिता को सब लोग अलग प्रकृति का और आकाश के सितारे सा अलभ्य सम झते आए, वही कैसे उन की  झोली में गिरी पड़ रही है. ठिगने कद के, अति सामान्य रंगरूप के पुष्कर का मन खुशी से अट्टहास करने का होने लगा.

21 मार्च को जन्मदिन था ईशिता का. ससुराल में किसी को याद नहीं (या जानबू झ कर भूलने का ढोंग). जिस घर में कुत्तेबिल्ली का जन्मदिन भी धूमधाम से मनता हो, वहां उस के जन्मदिन पर एक नन्हा सा फूल भी नहीं, प्यार शुभकामना आशीष भरे बोल तक नहीं.

वचनों में भी दरिद्रता. पति तो और भी रूखेपन से बोले उस दिन. अंदर कुछ छनाक से टूट कर किर्चों में बिखर गया.‘क्यों जन्मी मैं. न जन्मती तो कितना अच्छा होता,’ ऐसे उदास विचारों में घिरी ईशिता जब औफिस पहुंची तो अपनी टेबल पर एक सुंदर कार्ड और फूलों का गुलदस्ता देख कर अभिभूत रह गई पुष्कर ने भेजा यह जान कर कसक हुई कि क्या पति  झूठमूठ भी उसे विश नहीं कर सकते थे.

यदि यही उपहार उन्होंने दिया होता तो कितना अच्छा होता. कार्ड में हाथ से लिखी कुछ पंक्तियां भी थीं-चांदनी रातों मेंसितारों की बरसातों मेंलगता है जैसे तुम साथ होसूने हृदय की देहरी परदीप जलातीमंदमंद मुसकराती तुममेरे जीवन कीअनमोल निधि हो.

अब घर चल: भाग 2- जब रिनी के सपनों पर फिरा पानी

यह सुन कर श्वेता दीदी मुसकराईं, ‘‘मुझे सब पता है आंटी और रिनी कितनी भली हैं, मैं यह भी जानती हूं. मेरे भाई ने शशि भाभी के बाद कभी न शादी करने का फैसला किया था आंटी. बच्चियां उन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हैं. उन्हें सौतेली मां का रिश्ता नहीं देना चाहता था मेरा भाई पर अब जब उस ने देखा रिनी बिना स्वार्थ मन से इन्हें प्यार करती है तो…’’

सोचने के लिए कुछ वक्त मांग कर अम्मू ने श्वेता दीदी को विदा कर दिया.

फिर रिनी को मनाने लगीं, ‘‘लड़का नेक है, शरीफ भी, खाताकमाता भी अच्छा है, देखने में भी बहुत अच्छा है और सब से बड़ी बात कि उम्र भी तेरे हिसाब से ही है. मना मत करना बेटी.’’

ऐसे कैसे एकदम से हां कह दे. अभी तो पिछले घाव भी नहीं भरे हैं.

रचना दीदी को पता चला तो दौड़ी चली आईं, ‘‘हां न कहना रिनी. और अम्मू आप को हो क्या गया है, जो ऐसी सुंदर, पढ़ीलिखी, गुणी बेटी को 2 बेटियों के विधुर बाप के हवाले करने की ठान बैठी हैं. पहले क्या कम गम उठाए हैं इस ने? अरे, एक से बढ़ कर एक कुंआरा लड़का मिल जाएगा हमारी गुडि़या को. आप पर भारी पड़ रही है तो मैं ले जाती हूं. मैं इस की 2 बेटियों के बाप से शादी नहीं होने दूंगी.’’

जीजाजी भी बेटी की तरह मानते थे उसे. अत: उन्होंने भी पत्नी की बात का समर्थन किया. फिर खूब अच्छी तरह बहन का ब्रेनवाश कर के रचना दीदी चली गईं.

रिनी घोर असमंजस की स्थिति में थी. एक ओर रुचिशुचि का मोह खींचता तो दूसरी ओर पहली शादी से डरा मन दूसरी शादी की बेडि़यां पहनने से साफ इनकार करता. अम्मू व पापा चाहते थे शेखर से शादी हो जाए पर रचना दीदी और जीजाजी इस के सख्त खिलाफ थे. वह करे तो करे क्या? तभी अचानक उस के दिमाग में बिजली सी कौंधी. शीतल चाची, जो ससुराल की गली की चचिया सास होते हुए भी मां की तरह थीं उस के लिए, जिन से संपर्कसूत्र अब भी नहीं टूटा था. वे हमेशा उसे सही राह सुझाती थीं.

पूरा किस्सा सुन कर शीतल चाची ने कहा, ‘‘यह ठीक है रिनी कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, बल्कि कई बार तो दूध जैसी सफेद चीज को हाथ लगाने से भी इनकार कर देता है और तू ने रंजन से प्यार भी तो किया था. ये 2 बातें ही रोक रही हैं न तु झे. तो सुन रंजन तो दूसरा ब्याह रचा कर घर बसा कर बैठा है और तू?’’

‘‘कब चाची? यह कैसी खबर सुना दी आप ने?’’ वह बुदबुदाई.

‘‘अरे, तू क्यों गम करती है मेरी अच्छी बेटी? उस ने तो तलाक का भी इंतजार नहीं किया. लोग तो कहते हैं ब्याह से बहुत पहले से ही चक्कर चल रहा था रंजन का उस से. रंजन की कंपनी में ही मामूली सी नौकरी करती है. शक्लसूरत भी खास नहीं. नाम शन्नो है, इसी से जान ले किस तबके की है. तू किस के लिए जोग धारे बैठी है? कर ले रानी ब्याह, इसी में कल्याण है तेरा.’’

मन में बगावत जागी या रंजन के प्रति कड़वाहट कि रिनी ने शादी के लिए फौरन हां कर दी. रचना दीदी इतना बरसीं फोन पर, इतनी नाराज हुईं कि शादी में भी नहीं आईं.

जिंदगी के इस नए मोड़ की पहली रात को शेखर ने एक पोटली उस के  हाथ में थमा दी, जिस में 5-7 गहने थे. एक मोटी चैन थी, जिस में पहली वाली के कुछ केश फंसे हुए थे. चूडि़यां धुलाई मांगती थीं और बुंदों के 2-4 नग निकले हुए थे. वितृष्णा सी हो आई रिनी को और उस ने फिर से पोटली बांध कर तकिए के नीचे रख दी.

श्वेता दीदी ने बच्चियों को अपने पास सुला लिया था. शेखर हाथ भर की दूरी पर बैठे थे. न चाहते हुए भी उसे रंजन के साथ की पहली रात याद आ गई और मन में टीस सी उठी. शेखर खिसक कर उस के पास आ बैठे तो वह कांप गई. लेकिन शेखर ने उसे छुआ तक नहीं. बस, मुलायम स्वर में बोले, ‘‘मेरी विनती है ये 2 शर्तें सम झ लो रिनी.’’

रिनी ने सवालिया निगाहें उठाईं, ‘‘एक तो पतिपत्नी वाले संबंध के लिए मु झे कुछ वक्त चाहिए. मैं शशि, मतलब… शुचिरुचि की मां को मन से नहीं निकाल पाया हूं और दूसरे, मु झे कभी कोई बच्चा नहीं चाहिए. मैं नहीं चाहता

मेरी बच्चियों का प्यार किसी के साथ बंटे. सम झ गईं न?’’

हां, सम झ गई थी वह. मन ही मन खुश भी हुई थी कि उस का जो बां झपन पहले पति के लिए श्राप था, इस घर के लिए वरदान बन गया.

अगली सुबह शायद बूआ के सम झाने पर शुचिरुचि  िझ झकते हुए उस के पास आईं और एक सुर में बोलीं, ‘‘गुडमौर्निंग नई मम्मा.’’

रिनी ने दोनों को सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘नई नहीं, सिर्फ मम्मा कहो बच्चो. मांमां होती है नई या पुरानी नहीं.’’

‘‘ओके मम्मा,’’ रिनी खिल उठी.

रिनी मातृत्व जैसे उस एक पल में ही तृप्त हो उठा.

4 दिन रह कर श्वेता दीदी भाई और बच्चियों की ओर से बेफिक्र हो कर चली गईं और रिनी की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ. वह बच्चियों के साथ ही स्कूल जाती और उन्हीं के साथ लौटती.

एक दिन शेखर ने कहा भी, ‘‘ये बच्चियां और घर तुम्हारे हवाले है रिनी. इस घर में किसी चीज की कमी नहीं पाओगी तुम. तुम्हारा मन चाहे तो नौकरी करो नहीं तो छोड़ दो. जैसा तुम ठीक सम झो.’’

रिनी ने विश्वास दिलाया कि वह घर, नौकरी, बच्चे, सब ठीक से निभा लेगी. बच्चियां उस से इतना घुलमिल गई थीं कि उस के बिना सांस भी नहीं लेती थीं. शेखर अलग सोते थे

और वह अलग बच्चियों के कमरे में. बड़ी मस्त और व्यस्त जिंदगी गुजर रही थी. शेखर भी दिल के बहुत अच्छे और सहयोगी प्रवृत्ति के थे. शुचिरुचि उस के अम्मू व पापा से भी खूब हिलमिल गई थीं.

शेखर की आंखों में एक गहरा संतोष नजर आने लगा था उसे और एक रात उन्होंने पत्नी का दर्जा दे ही डाला रिनी को, लेकिन बड़ा असहज और कष्टप्रद लगा था उसे वह सब. कहते हैं, वर्जित फल जब तक न खाया जाए तब तक ही वर्जित लगता है. एक बार चखने के बाद उस

की लालसा बढ़ती ही जाती है. यही बात शेखर पर ही लागू हुई, पर रिनी के दिल पर चोट लगती जब हर तरह से उस का पूरी तरह उपयोग करने के बाद भी शेखर जबतब उसे सुना ही देते कि यह शादी उन्होंने अपनी बेटियों की खुशी के लिए की है.

एक दोपहर बच्चों को सुला कर पड़ोस वाली राधा अम्मां के घर दही का जामन लेने गई तो लौटते हुए आंखों के आगे अंधेरा छा गया और हाथ से दही की कटोरी छूट गई. राधा अम्मां ने आगे बढ़ कर उसे संभाला. उन की अनुभवी आंखें फौरन ताड़ गईं, ‘‘तुम मां बनने वाली हो बहू.’’

यह सुन कर रिनी जैसे आकाश से गिरी, ‘‘यह कैसे हो सकता है अम्मांजी? ऐसा तो हो ही नहीं सकता.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? तुम दोनों जवान हो, तंदुरुस्त हो.’’

‘‘यह बात नहीं अम्मांजी? मैं आप को कैसे बताऊं? कैसे सम झाऊं?’’ आंसू भरी आंखों से कह कर वह चली आई.

लेकिन अम्मां की बात की पुष्टि जब डाक्टर ने भी की तो रिनी अवाक सी खड़ी रह गई थी. उसे ऐसी सुखद अनुभूति इस से पहले कभी नहीं हुई थी. जी चाह रहा था कि वह डाक्टर की बात ‘आप मां बनने वाली हैं’ बारबार दोहराएं. मन खुशी से चिल्लाने को चाहा कि मैं बां झ नहीं हूं. मैं मां बनने वाली हूं… रंजन. सुना तुम ने. मैं बंजर खेत नहीं हूं… मेरे भीतर भी एक अंकुर फूटा है.

यह सुन कर श्वेता दीदी मुसकराईं, ‘‘मु झे सब पता है आंटी और रिनी कितनी भली हैं, मैं यह भी जानती हूं. मेरे भाई ने शशि भाभी के बाद कभी न शादी करने का फैसला किया था आंटी. बच्चियां उन्हें अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हैं. उन्हें सौतेली मां का रिश्ता नहीं देना चाहता था मेरा भाई पर अब जब उस ने देखा रिनी बिना स्वार्थ मन से इन्हें प्यार करती है तो…’’

सोचने के लिए कुछ वक्त मांग कर अम्मू ने श्वेता दीदी को विदा कर दिया.

फिर रिनी को मनाने लगीं, ‘‘लड़का नेक है, शरीफ भी, खाताकमाता भी अच्छा है, देखने में भी बहुत अच्छा है और सब से बड़ी बात कि उम्र भी तेरे हिसाब से ही है. मना मत करना बेटी.’’

ऐसे कैसे एकदम से हां कह दे. अभी तो पिछले घाव भी नहीं भरे हैं.

रचना दीदी को पता चला तो दौड़ी चली आईं, ‘‘हां न कहना रिनी. और अम्मू आप को हो क्या गया है, जो ऐसी सुंदर, पढ़ीलिखी, गुणी बेटी को 2 बेटियों के विधुर बाप के हवाले करने की ठान बैठी हैं. पहले क्या कम गम उठाए हैं इस ने? अरे, एक से बढ़ कर एक कुंआरा लड़का मिल जाएगा हमारी गुडि़या को. आप पर भारी पड़ रही है तो मैं ले जाती हूं. मैं इस की 2 बेटियों के बाप से शादी नहीं होने दूंगी.’’

जीजाजी भी बेटी की तरह मानते थे उसे. अत: उन्होंने भी पत्नी की बात का समर्थन किया. फिर खूब अच्छी तरह बहन का ब्रेनवाश कर के रचना दीदी चली गईं.

रिनी घोर असमंजस की स्थिति में थी. एक ओर रुचिशुचि का मोह खींचता तो दूसरी ओर पहली शादी से डरा मन दूसरी शादी की बेडि़यां पहनने से साफ इनकार करता. अम्मू व पापा चाहते थे शेखर से शादी हो जाए पर रचना दीदी और जीजाजी इस के सख्त खिलाफ थे. वह करे तो करे क्या? तभी अचानक उस के दिमाग में बिजली सी कौंधी. शीतल चाची, जो ससुराल की गली की चचिया सास होते हुए भी मां की तरह थीं उस के लिए, जिन से संपर्कसूत्र अब भी नहीं टूटा था. वे हमेशा उसे सही राह सुझाती थीं.

पूरा किस्सा सुन कर शीतल चाची ने कहा, ‘‘यह ठीक है रिनी कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है, बल्कि कई बार तो दूध जैसी सफेद चीज को हाथ लगाने से भी इनकार कर देता है और तू ने रंजन से प्यार भी तो किया था. ये 2 बातें ही रोक रही हैं न तु झे. तो सुन रंजन तो दूसरा ब्याह रचा कर घर बसा कर बैठा है और तू?’’

‘‘कब चाची? यह कैसी खबर सुना दी आप ने?’’ वह बुदबुदाई.

‘‘अरे, तू क्यों गम करती है मेरी अच्छी बेटी? उस ने तो तलाक का भी इंतजार नहीं किया. लोग तो कहते हैं ब्याह से बहुत पहले से ही चक्कर चल रहा था रंजन का उस से. रंजन की कंपनी में ही मामूली सी नौकरी करती है. शक्लसूरत भी खास नहीं. नाम शन्नो है, इसी से जान ले किस तबके की है. तू किस के लिए जोग धारे बैठी है? कर ले रानी ब्याह, इसी में कल्याण है तेरा.’’

मन में बगावत जागी या रंजन के प्रति कड़वाहट कि रिनी ने शादी के लिए फौरन हां कर दी. रचना दीदी इतना बरसीं फोन पर, इतनी नाराज हुईं कि शादी में भी नहीं आईं.

जिंदगी के इस नए मोड़ की पहली रात को शेखर ने एक पोटली उस के  हाथ में थमा दी, जिस में 5-7 गहने थे. एक मोटी चैन थी, जिस में पहली वाली के कुछ केश फंसे हुए थे. चूडि़यां धुलाई मांगती थीं और बुंदों के 2-4 नग निकले हुए थे. वितृष्णा सी हो आई रिनी को और उस ने फिर से पोटली बांध कर तकिए के नीचे रख दी.

श्वेता दीदी ने बच्चियों को अपने पास सुला लिया था. शेखर हाथ भर की दूरी पर बैठे थे. न चाहते हुए भी उसे रंजन के साथ की पहली रात याद आ गई और मन में टीस सी उठी. शेखर खिसक कर उस के पास आ बैठे तो वह कांप गई. लेकिन शेखर ने उसे छुआ तक नहीं. बस, मुलायम स्वर में बोले, ‘‘मेरी विनती है ये 2 शर्तें सम झ लो रिनी.’’

रिनी ने सवालिया निगाहें उठाईं, ‘‘एक तो पतिपत्नी वाले संबंध के लिए मु झे कुछ वक्त चाहिए. मैं शशि, मतलब… शुचिरुचि की मां को मन से नहीं निकाल पाया हूं और दूसरे, मु झे कभी कोई बच्चा नहीं चाहिए. मैं नहीं चाहता

मेरी बच्चियों का प्यार किसी के साथ बंटे. सम झ गईं न?’’

हां, सम झ गई थी वह. मन ही मन खुश भी हुई थी कि उस का जो बां झपन पहले पति के लिए श्राप था, इस घर के लिए वरदान बन गया.

अगली सुबह शायद बूआ के सम झाने पर शुचिरुचि  िझ झकते हुए उस के पास आईं और एक सुर में बोलीं, ‘‘गुडमौर्निंग नई मम्मा.’’

रिनी ने दोनों को सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘नई नहीं, सिर्फ मम्मा कहो बच्चो. मांमां होती है नई या पुरानी नहीं.’’

‘‘ओके मम्मा,’’ रिनी खिल उठी.

रिनी मातृत्व जैसे उस एक पल में ही तृप्त हो उठा.

4 दिन रह कर श्वेता दीदी भाई और बच्चियों की ओर से बेफिक्र हो कर चली गईं और रिनी की जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ. वह बच्चियों के साथ ही स्कूल जाती और उन्हीं के साथ लौटती.

एक दिन शेखर ने कहा भी, ‘‘ये बच्चियां और घर तुम्हारे हवाले है रिनी. इस घर में किसी चीज की कमी नहीं पाओगी तुम. तुम्हारा मन चाहे तो नौकरी करो नहीं तो छोड़ दो. जैसा तुम ठीक सम झो.’’

रिनी ने विश्वास दिलाया कि वह घर, नौकरी, बच्चे, सब ठीक से निभा लेगी. बच्चियां उस से इतना घुलमिल गई थीं कि उस के बिना सांस भी नहीं लेती थीं. शेखर अलग सोते थे

और वह अलग बच्चियों के कमरे में. बड़ी मस्त और व्यस्त जिंदगी गुजर रही थी. शेखर भी दिल के बहुत अच्छे और सहयोगी प्रवृत्ति के थे. शुचिरुचि उस के अम्मू व पापा से भी खूब हिलमिल गई थीं.

शेखर की आंखों में एक गहरा संतोष नजर आने लगा था उसे और एक रात उन्होंने पत्नी का दर्जा दे ही डाला रिनी को, लेकिन बड़ा असहज और कष्टप्रद लगा था उसे वह सब. कहते हैं, वर्जित फल जब तक न खाया जाए तब तक ही वर्जित लगता है. एक बार चखने के बाद उस

की लालसा बढ़ती ही जाती है. यही बात शेखर पर ही लागू हुई, पर रिनी के दिल पर चोट लगती जब हर तरह से उस का पूरी तरह उपयोग करने के बाद भी शेखर जबतब उसे सुना ही देते कि यह शादी उन्होंने अपनी बेटियों की खुशी के लिए की है.

एक दोपहर बच्चों को सुला कर पड़ोस वाली राधा अम्मां के घर दही का जामन लेने गई तो लौटते हुए आंखों के आगे अंधेरा छा गया और हाथ से दही की कटोरी छूट गई. राधा अम्मां ने आगे बढ़ कर उसे संभाला. उन की अनुभवी आंखें फौरन ताड़ गईं, ‘‘तुम मां बनने वाली हो बहू.’’

यह सुन कर रिनी जैसे आकाश से गिरी, ‘‘यह कैसे हो सकता है अम्मांजी? ऐसा तो हो ही नहीं सकता.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? तुम दोनों जवान हो, तंदुरुस्त हो.’’

‘‘यह बात नहीं अम्मांजी? मैं आप को कैसे बताऊं? कैसे सम झाऊं?’’ आंसू भरी आंखों से कह कर वह चली आई.

लेकिन अम्मां की बात की पुष्टि जब डाक्टर ने भी की तो रिनी अवाक सी खड़ी रह गई थी. उसे ऐसी सुखद अनुभूति इस से पहले कभी नहीं हुई थी. जी चाह रहा था कि वह डाक्टर की बात ‘आप मां बनने वाली हैं’ बारबार दोहराएं. मन खुशी से चिल्लाने को चाहा कि मैं बां झ नहीं हूं. मैं मां बनने वाली हूं… रंजन. सुना तुम ने. मैं बंजर खेत नहीं हूं… मेरे भीतर भी एक अंकुर फूटा है.

वक्त बदल रहा है

सुबह-सुबह अखबार के पन्ने पलटते हुए लीना की नजर स्थानीय समाचार वाले पन्ने पर छपी एक खबर पर पड़ी :

‘सुश्री हरिनाक्षी नारायण ने आज जिला कलक्टर व चेयरमैन, शहर विकास प्राधिकार समिति का पदभार ग्रहण किया.’

आगे पढ़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि लीना अपने कालिज और कक्षा की सहपाठी रह चुकी हरिनाक्षी के बारे में सबकुछ जानती थी.

यह अलग बात है कि दोनों की दोस्ती बहुत गहरी कभी नहीं रही थी. बस, एकदूसरे को वे पहचानती भर थीं और कभीकभी वे आपस में बातें कर लिया करती थीं.

मध्यवर्गीय दलित परिवार की हरिनाक्षी शुरू से ही पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पिताजी डाकखाने में डाकिया के पद पर कार्यरत थे. मां एक साधारण गृहिणी थीं. एक बड़ा भाई बैंक में क्लर्क था. पिता और भाई दोनों की तमन्ना थी कि हरिनाक्षी अपने लक्ष्य को प्राप्त करे. अपनी महत्त्वाकांक्षा को प्राप्त करने के लिए वह जो भी सार्थक कदम उठाएगी, उस में वह पूरा सहयोग करेंगे. इसलिए जब भी वे दोनों बाजार में प्रतियोगिता संबंधी अच्छी पुस्तक या फिर कोई पत्रिका देखते, तुरंत खरीद लेते थे. यही वजह थी कि हरिनाक्षी का कमरा अच्छेखासे पुस्तकालय में बदल चुका था.

हरिनाक्षी भी अपने भाई और पिता को निराश नहीं करना चाहती थी. वह जीजान लगा कर अपनी पढ़ाई कर रही थी. कालिज में भी फुर्सत मिलते ही अपनी तैयारी में जुट जाती थी. लिहाजा, वह पूरे कालिज में ‘पढ़ाकू’ के नाम से मशहूर हो गई थी. उस की सहेलियां कभीकभी उस से चिढ़ जाती थीं क्योंकि हरिनाक्षी अकसर कालिज की किताबों के साथ प्रतियोगी परीक्षा संबंधी किताबें भी ले आती थी और अवकाश के क्षणों में पढ़ने बैठ जाया करती.

लीना, हरिनाक्षी से 1 साल सीनियर थी. कालिज की राजनीतिक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने के कारण वह सब से संपर्क बनाए रखती थी. वह विश्वविद्यालय छात्र संघ की सचिव थी. उस के पिता मुखराम चौधरी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल ‘जनमत मोर्चा’ के अध्यक्ष थे. इस राजनीतिक पृष्ठभूमि का लाभ उठाने में लीना हमेशा आगे रहती थी. यही वजह थी कि कालिज में भी उस की दबंगता कायम थी.

एकमात्र हरिनाक्षी थी जो उस के राजनीतिक रसूख से जरा भी प्रभावित नहीं होती थी. लीना ने उसे कई बार छात्र संघ की राजनीति में खींचने की कोशिश की थी. किंतु हर बार हरिनाक्षी ने उस का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. उसे केवल अपनी पढ़ाई से मतलब था. जलीभुनी लीना फिर ओछी हरकतों पर उतर आई और उस के सामने जातिगत फिकरे कसने लगी.

‘अरे, यह लोग तो सरकारी कोटे के मेहमान हैं. थोड़ा भी पढ़ लेगी तो अफसर…डाक्टर…इंजीनियर बन जाएगी. बेकार में आंख फोड़ती है.’

कभी कहती, ‘सरकार तो बस, इन्हें कुरसी देने के लिए बैठी है.’

हरिनाक्षी पर उस के इन फिकरों का जरा भी असर नहीं होता था. वह बस, मुसकरा कर रह जाती थी. तब लीना और भी चिढ़ जाती थी.

लीना के व्यंग्य बाणों से हरिनाक्षी का इरादा दिनोदिन और भी पक्का होता जाता था. कुछ कर दिखाने का जज्बा और भी मजबूत हो जाता.

हरिनाक्षी ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा में सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त किया तो सब ने उसे बधाई दी. एक विशेष समारोह में विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने उस का सम्मान किया.

हरिनाक्षी ने उस समारोह में शायद पहली और आखिरी बार अपने उद्गार व्यक्त करते हुए परोक्ष रूप से लीना के कटाक्षों का उत्तर देने की कोशिश की थी :

‘शुक्र है, विश्वविद्यालय में और सब मामलों में भले ही कोटे का उपयोग किया जाता हो, मगर अंक देने के मामले में किसी भी कोटे का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ यह कहते हुए हरिनाक्षी की आंखों में नमी आ गई थी. सभागार में सन्नाटा छा गया था. सब से आगे बैठी लीना के चेहरे का रंग उड़ गया था.

उस दिन के बाद से लीना ने हरिनाक्षी से बात करना बंद कर दिया था.

इस बीच हरिनाक्षी की एक प्यारी सहेली अनुष्का का दिन दहाडे़ एक चलती कार में बलात्कार किया गया था. बलात्कारी एक प्रतिष्ठित व्यापारी का बिगडै़ल बेटा था. पुलिस उस के खिलाफ सुबूत जुटा नहीं पाई थी. लिहाजा, उसे जमानत मिल गई थी.

क्षुब्ध हरिनाक्षी पहली बार लीना के पास मदद के लिए आई कि बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए वह अपने पिता के रसूख का इस्तेमाल करे ताकि उस दरिंदे को उस के किए की सजा मिल सके.

लीना ने साफसाफ उसे इस झमेले में न पड़ने की हिदायत दी थी, क्योंकि वह जानती थी कि उस के पिता उस व्यापारी से मोटी थैली वसूलते थे.

अनुष्का ने आत्महत्या कर ली थी. लीना बुरी तरह निराश हुई थी.

हरिनाक्षी उस के बाद ज्यादा दिनों तक कालिज में रुकी भी नहीं थी. एम.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ते हुए ही उस ने ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ की परीक्षा दी थी और अपनी मेहनत व लगन के बल पर तमाम बाधाओं को पार करते हुए सफल प्रतियोगियों की सूची में देश भर में 7वां स्थान प्राप्त किया था. आरक्षण वृत्त की परिधि से कहीं ऊपर युवतियों के वर्ग में वह प्रथम नंबर पर थी.

उस के बाद लीना के पास हरिनाक्षी की यादों के नाम पर एक प्रतियोगिता पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी उस की मुसकराती छवि ही रह गई थी. अपनी भविष्य की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करती हुई लीना ने जाने क्या सोच कर उस पत्रिका को सहेज कर रखा था. एक भावना यह भी थी कि कभी तो यह दलित बाला उस की राजनीति की राहों में आएगी.

लीना के पिता अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में हर जगह बेटी को पेश करते थे. लीना की शादी भी उन्होंने एक व्यापारिक घराने में की थी. उस के पति का छोटा भाई वही बलात्कारी था जिस ने लीना के कालिज की लड़की अनुष्का से बलात्कार किया था और सुबूत न मिल पाने के कारण अदालत से बरी हो गया था.

लीना शुरू में इस रिश्ते को स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाई थी, लेकिन पिता ने जब उसे विवाह और उस के राजनीतिक भविष्य के बारे में विस्तार से समझाया तो वह तैयार हो गई. लीना के पिता ने लड़के के पिता के सामने यह शर्त रख दी थी कि वह अपनी होने वाली बहू को राजनीति में आने से नहीं रोकेंगे.

लीना आज अपनी राष्ट्रीय पार्टी ‘जनमत मोर्चा’ की राज्य इकाई की सचिव है. पूरे शहर के लिए हरदम चर्चा में रहने वाला एक अच्छाखासा नाम है. आम जनता के साथसाथ ब्लाक स्तर से ले कर जिला स्तर तक सभी प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उसे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल वह अपने पति के भवन निर्माण व्यवसाय की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति के लिए बखूबी कर रही थी. इन दिनों उस के पति कमलनाथ अपने एक नए प्रोजेक्ट का काम शुरू करने से पहले कई तरह की अड़चनों का सामना कर रहे थे.

लीना को पूरी उम्मीद थी कि हरिनाक्षी पुरानी सहपाठी होने के नाते उस की मदद करेगी और अगर नहीं करेगी तो फिर खमियाजा भुगतने के लिए उसे तैयार रहना होगा. ऐसे दूरदराज के इलाके में तबादला करवा देगी कि फिर कभी कोई महिला दलित अधिकारी उस से पंगा नहीं लेगी. कमलनाथ लीना को बता चुके थे कि इस प्रोजेक्ट में उन के लाखों रुपए फंस चुके थे.

दरअसल, शहर के व्यस्त इलाके में एक पुराना जर्जर मकान था. इस के आसपास काफी खाली जमीन थी. मकान मालिक शिवचरण उस मकान और जमीन को किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हो रहे थे. अपने बापदादा की निशानी को वह खोना नहीं चाहते थे. उस मकान से उन की बेटी अनुष्का की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई थीं.

कमलनाथ ने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को अपने प्रोजेक्ट में यह कह कर हिस्सेदारी देने की पेशकश की थी कि वह शिवचरण को ‘येन केन प्रकारेण’ जमीन खाली करने पर या तो राजी कर लेंगे या फिर मजबूर कर देंगे.

उस पुलिस अधिकारी ने अपने रोबदाब का इस्तेमाल करना शुरू किया, लेकिन शिवचरण थे कि आसानी से हार मानने को तैयार नहीं हो रहे थे. पहले तो वह पुलिसिया रोब से भयभीत नहीं हुआ बल्कि वह अपनी शिकायत पुलिस थाने में दर्ज कराने जा पहुंचा. यहां उसे बेहद जिल्लत झेलनी पड़ी थी. भला पुलिस अपने ही किसी आला अधिकारी के खिलाफ कैसे मामला दर्ज कर सकती थी? उन्होंने लानतमलामत कर उसे भगा दिया.

शिवचरण ने भी हार नहीं मानी और उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन उन की फरियाद जरूर सुनी जाएगी.

नई कलक्टर के कार्यभार संभालने की खबर ने उन के दिल में फिर से आस जगाई.

हर तरफ से निराश शिवचरण कलक्टर के दफ्तर पहुंचे.

आज कलक्टर साहिबा से वह मिल कर ही जाएंगे. चाहे कितना भी इंतजार क्यों न करना पडे़.

एक कागज पर शिवचरण ने अपना नाम लिखा और सचिव रामसेवक को दिया. रामसेवक ने कागज पर लिखा नाम पढ़ा तो उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं. एक सीनियर पुलिस अधिकारी के मामले में लिप्त होने के कारण उस का नाम जिले के सभी प्रशासनिक अधिकारी जानते थे.

‘‘काम क्या है?’’ रामसेवक ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘वह मैं कलक्टर साहिबा को ही बताऊंगा,’’ शिवचरण ने गंभीरता से उत्तर दिया.

‘‘बिना काम के वह नहीं मिलतीं,’’ रामसेवक ने फिर टालना चाहा.

‘‘आज उन से मिले बगैर मैं नहीं जाऊंगा,’’ शिवचरण की आवाज थोड़ी तेज हो गई.

कलक्टर साहिबा के केबिन के बाहर खड़ा चपरासी यह सब देख रहा था.

अंदर से घंटी बजी.

चपरासी केबिन के अंदर जा कर वापस आया.

‘‘आप अंदर जाइए. मैडम ने बुलाया है,’’ चपरासी ने शिवचरण से कहा.

कुछ ही क्षणों के बाद शिवचरण कलक्टर साहिबा हरिनाक्षी के सामने बैठे थे.

शिवचरण को देख कर कलक्टर साहिबा चौंक पड़ीं, ‘‘चाचाजी, आप अनुष्का के पिता हैं न?’’

‘‘आप अनुष्का को कैसे जानती हैं?’’ शिवचरण थोडे़ हैरान हुए.

‘‘मैं अनुष्का को कैसे भूल सकती हूं. उस के साथ मेरी गहरी दोस्ती थी. उस का कालिज से घर लौटते समय अपहरण कर लिया गया था. 3 दिन बाद उस की विकृत लाश नेशनल हाइवे पर मिली थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार दरिंदों ने उस के साथ बलात्कार किया था और फिर गला घोंट कर उस की हत्या कर दी थी. अफसोस इस बात का है कि अपराधी आज भी बेखौफ घूम रहे हैं. खैर, आप बताइए कि आप की समस्या क्या है?’’

शिवचरण की आंखें भर आईं. एक तो बेटी की यादों की कसक और दूसरा अपनी समस्या पूरी तरह खुल कर बताने का अवसर मिलना. वह तुरंत कुछ न कह पाए.

‘‘चाचाजी, आप कहां खो गए?’’ हरिनाक्षी ने उन की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आप अपना आवेदनपत्र दीजिए.’’

शिवचरण ने अपना आवेदनपत्र हरिनाक्षी की तरफ बढ़ाया तो वह उसे ले कर ध्यानपूर्वक पढ़ने लगी.

शिवचरण ने पूरी बातें विस्तार से लिखी थीं.

कैसे कमलनाथ ने एक पुलिस अधिकारी से मिल कर उन का जीना हराम कर दिया था और पुलिस अधिकारी ने अपनी कुरसी का इस्तेमाल करते हुए उन्हें धमकाने की कोशिश की थी. पत्र में और भी कई नाम थे जिन्हें पढ़ कर हरिनाक्षी हैरान हो रही थी. अनुष्का के बलात्कार के आरोपी निर्मलनाथ का नाम पढ़ कर तो उस के गुस्से का ठिकाना न रहा और लीना का नाम पढ़ कर तो उस ने अविलंब काररवाई करने का फैसला कर लिया.

‘खादी की ताकत का घमंड बढ़ता ही गया है लीना देवी का,’ हरिनाक्षी ने सोचा.

‘‘चाचाजी, आप चिंता न करें. आप की अपनी इच्छा के खिलाफ कोई आप को उस जमीन से, उस घर से निकाल नहीं सकता. आप जाएं,’’ हरिनाक्षी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा.

‘‘तुम्हारा उपकार मैं जीवन भर नहीं भूल सकता, बेटी,’’ शिवचरण ने भरे गले से कहा.

‘‘इस में उपकार जैसा कुछ भी नहीं, चाचाजी. बस, मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी,’’ हरिनाक्षी की आवाज में दृढ़ता थी.

उस ने घंटी बजाई. चपरासी अंदर आया तो हरिनाक्षी बोली, ‘‘ड्राइवर से कहो इन्हें घर तक छोड़ आए.’’

‘‘चलिए, सर,’’ चपरासी ने शिवचरण से कहा.

चपरासी के साथ शिवचरण को बाहर आता देख कर रामसेवक आश्चर्य- चकित हो उठा और तुरंत अपना मोबाइल निकाला और दोएक नंबरों पर बात की.

इस बीच, अंदर से घंटी बजी तो रामसेवक मोबाइल जेब में रख कर तुरंत उठ कर केबिन में आने के लिए तत्पर हुआ.

‘‘एस.पी. साहब से कहिए कि वह हम से जितनी जल्द हो सके संपर्क करें,’’ हरिनाक्षी ने कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ रामसेवक ने तुरंत उत्तर दिया और बाहर आ कर एस.पी. शैलेश कुमार को फोन घुमाने लगा.

‘‘साहब, रामसेवक बोल रहा हूं. मैडम ने फौरन याद किया है.’’

‘‘ठीक है,’’ उधर से आवाज आई.

आधे घंटे बाद एस.पी. शैलेश कुमार हरिनाक्षी के सामने आ कर बैठे नजर आए.

‘‘शैलेशजी, क्या हम जिले के सभी पुलिस अधिकारियों की एक संयुक्त बैठक कल बुला सकते हैं?’’ हरिनाक्षी ने पूछा.

‘‘हां…हां…क्यों नहीं?’’ एस.पी. साहब ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘तो फिर कल ही सर्किट हाउस में यह बैठक रखें,’’ हरिनाक्षी ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ एस.पी. साहब ने हामी भरी.

कलक्टर हरिनाक्षी के आदेश के अनुसार संयुक्त बैठक का आयोजन हुआ. जिले के सभी पुलिस थानों के थानेदारों समेत सभी छोटेबडे़ पुलिस अधिकारी बैठक में शामिल हुए.

सभी उत्सुक थे कि प्रशासनिक सेवा में बडे़ ओहदे पर कार्यरत यह सुंदर दलित बाला कितनी कड़कदार बातें कह पाएगी.

हरिनाक्षी ने बोलना शुरू किया :

‘‘साथियो, जिले की कानून व्यवस्था को संतुलित बनाए रखना और आम जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना 2 अलगअलग चीजें नहीं हैं. आप को यह वरदी आतंक फैलाने या दबंगता बढ़ाने के लिए नहीं दी गई बल्कि आम लोगों के इस विश्वास को जीतने के लिए दी गई है कि हम उन की हिफाजत के लिए हर वक्त तैयार रहें.

‘‘बड़े अफसोस की बात है कि हमारे पुलिस थानों में आम जनता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है. इसलिए आम जन पुलिस थाने में जाने से डरते हैं जबकि पैसे वाले और प्रभावशाली लोगों को तरजीह दी जाती है. मेरे पास कई ऐसी शिकायतें लिखित रूप में आई हैं जिन्हें पुलिस स्टेशन में दर्ज होना चाहिए था, लेकिन वहां उन की बात नहीं सुनी गई.

‘‘मेरा सभी पुलिस अधिकारियों से यह आग्रह है कि मेरे पास आए ऐसे सभी आवेदनपत्रों के आधार पर केस संख्या दर्ज की जाए और संबंधित व्यक्तियों को बताया जाए और उन्हें आश्वस्त किया जाए कि उन की शिकायतों पर उचित काररवाई की जाएगी.’’

हमारी सासूमां महान

सुबह हम औफिस जाने की तैयारी कर रहे थे कि अचानक ऐसा लगा मानो तबीयत खराब हो रही है. घबराहट होने लगी, सीने में दर्द भी होने लगा और लगा कि हम चक्कर खा कर गिर पड़ेंगे.

हम ने अपनी श्रीमतीजी को आवाज देनी चाही तो आवाज गले में दब कर रह गई. पसीना आने लगा. हम सोचने लगे कि क्या करें? वहीं धम्म से बैठ गए. श्रीमतीजी किचन में हमारे लिए लंच बना रही थीं. हमें उन के गाने की आवाज सुनाई दे रही थी. अंतिम आवाज श्रीमतीजी की हमारे कानों में यह आई थी, ‘‘औफिस जाओ, लेट हो रहे हो, मैं ने लंच बना दिया है. कब तक इस तरह फर्श पर लेटे रहोगे?’’

उस के बाद क्या हुआ, हमें नहीं मालूम. हमारी श्रीमतीजी ने जो कुछ बखान किया वह कुछ इस तरह है, ‘‘तुम्हें फर्श पर पड़ा देख कर मैं समझी तुम मुझे परेशान करने के लिए लोट रहे हो. मैं ने तुम्हें खूब खरीखरी सुनाई. लेकिन तुम्हारी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मुझे हैरानी हुई. मैं ने जब तुम्हारे शरीर को देखा तो बर्फ की तरह ठंडा था. तुम पसीने से नहा चुके थे. मैं ने तुरंत पड़ोस के खड़से भैया और उन की बीवी खड़सी को बुलाया. वे तुरंत आ गए. उन्होंने बताया कि तुम्हें हार्ट अटैक आया है.

‘‘सुन कर मेरे हाथपांव फूल गए. फिर पूरे तीन दिनों तक आप को न जाने कितने इंजैक्शन, न जाने कितनी खून की बोतलें चढ़ाईं तब मेरा सुहाग बच पाया है,’’ कहतेकहते हमारी श्रीमतीजी की आंखों से गंगाजमना बहने लगी.

हम ने बिस्तर पर पड़ेपड़े ही कहा, ‘‘क्यों रोती हो? हमारे नहीं रहने पर तुम्हें अनुकंपा नौकरी मिल जाती, फंड का रुपया रिफंड हो जाता, बीमे के रुपए मिल जाते… अच्छा था तुम्हें चैन मिल जाता…’’

श्रीमतीजी ने साड़ी के पल्लू से अपनी तोते जैसी नाक को पोंछा और फिर कहने लगीं, ‘‘क्यों फालतू की बातें करते हो… अगर तुम ने ऐसी बातें की तो सच कहती हूं खटमल मार दवा पी कर मर जाऊंगी.’’

‘‘यानी मरतेमरते भी खर्च में डाल कर जाओगी,’’ हम ने नाराजगी भरे स्वर में कहा. फिर पूछा, ‘‘यह तो बताओ डाक्टर ने हमें बीमारी क्या बताई?’’

‘‘3 ट्यूब ब्लाकेज हैं, कोलैस्ट्रौल बढ़ गया है. हमेशा कहती थी कि घी, तेल वाली व चटपटी चीजें न खाया करो. लेकिन तुम सुनते कहां थे. हमेशा कहते थे कि उबली सब्जियां बनाती हो… कहो, मैं तुम्हारे अच्छे के लिए बनाती थी न? अब जो कुछ भी बनाऊंगी चुपचाप खा लेना.’’

‘‘ऐसे उबले खाने से तो मरना अच्छा है, हम नहीं खाएंगे,’’ हम ने गुस्से से कहा.

‘‘तुम्हें मैं क्या ठीक करूंगी… तुम्हें तो संसार में एक ही… ठीक कर सकती है…’’ न जाने किस का नाम लिया, हम सुन नहीं पाए और वे चली गईं.

एक शाम श्रीमतीजी ने हंसते हुए हमारे कमरे में प्रवेश किया और बताया, ‘‘शाम को मेरी मम्मी आ रही हैं.’’

‘‘आप की मम्मी आ रही हैं? मगर क्यों?’’

‘‘तुम्हें देखने.’’

‘‘हम ठीक तो हैं.’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें आने से मना कर देती?’’

शाम को हमारी सासूमां आ धमकीं. आते ही हमारे पास आईं और फटाफट 1 दर्जन हिदायतें दीं.

अगले दिन सुबह से दूध के गिलास में मलाई बिलकुल नहीं थी. परांठे खाने को बैठे तो 2 फुलके बिना घी के आ गए. हम ने यह देखा तो माथा पीट लिया. यह सब परोसने के लिए हमारी सासूमां मौजूद थीं. खाने से घी गायब था, अंडे नहीं थे और जो फल यानी पपीते, सेब, अनार, आम आदि थे उन में से मात्र 25% हम तक आ रहे थे शेष 75% के छिलके हम ने अपनी सासूमां के बैडरूम में रखी डस्टबिन में देखे.

एक दिन पड़ोसी मिस्टर कैथवास और मिसेज कैथवासनी ने चिकन तंदूर चुपके से भेजने का वचन दिया. हम भी प्रतीक्षा कर रहे थे. श्रीमतीजी को हम ने कसम दे कर अपनी ओर मिला लिया था. रात को हम मुंह में पानी लिए खाने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तभी हमारी थाली में मुरगा नहीं, बल्कि दलिया लिए हमारी सासूमां प्रकट हुईं और आंखें तरेर कर कहने लगीं, ‘‘मैं ने आज आप के दोस्त कैथवास की खूब आरती उतारी है, मुरगा लाया था नालायक आप के लिए…’’

‘‘अरे,’’ हम ने आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘मुरगा है कहां?’’ हम ने पूछा.

‘‘हमें आप के मित्र की इज्जत का ध्यान था इसलिए मुरगा रख लिया, आप दलिया जल्दी से खा लो ताकि मैं जा कर मुरगे को निबटाऊं.’’

हम ने आंखें बंद कर के दलिया खाया, पानी पीया और अपनी किस्मत पर बिसूरते हुए सो गए. हमारी सासूमां ने पूरा मुरगा और बटर को निबटाया. यह सिलसिला महीने भर तक चलता रहा.

डाक्टर ने चैकअप किया, रक्त परीक्षण किया और श्रीमतीजी को बधाई दी, ‘‘कोलैस्ट्रौल एकदम 1 महीने में सामान्य हो गया… ऐसा परहेज 3-4 माह और चलने दें, ब्लाकेज भी अपनेआप ठीक हो जाएंगे.’’

श्रीमतीजी प्रसन्न हो गईं, मगर इतना लंबा परहेज सुन कर हम परेशान हो गए. वजन की मशीन पर हमारी सासूमां ने वजन लिया जो पूरा 60 किलोग्राम था.

1 माह में 30 किलोग्राम की बढ़ोतरी हो चुकी थी. सच में हमारी सासूमां के गालों पर लाली आ गई थी, माशा अल्लाह हैल्थ भी अच्छी हो गई थी.

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘जब तक आप पूरी तरह ठीक नहीं हो जाएंगे मम्मी यहीं रहेंगी.’’

हम ने कभी विरोध नहीं किया था इसलिए चुप हो गए. पूरे 3 महीने तक हमें 25% भोजन दिया गया.

एक रोज सुबह श्रीमतीजी रोते हुए बोलीं, ‘‘मम्मीजी के सीने में दर्द है, पसीना आ रहा है, जी घबरा रहा है, बेहोशी आ रही है…’’

हम तेजी से उठे और उन्हें देखा. सच में वे ठीक हमारी तरह ही हो रही थीं. हम उन्हें तुरंत अस्पताल ले गए. डाक्टर ने उन्हें हार्ट अटैक बताया. खानेपीने के परहेज में घी, मक्खन, पनीर, मुरगा, अंडे सब खाने के लिए मना कर दिया. हम इलाज करा कर उन्हें घर ले आए. घर में उन के लिए बिस्तर लगा दिया.

हम उन्हें देखने जब उन के कमरे में गए तो उन्होंने हंसतेमुसकराते हुए हमें देखा और कहा, ‘‘दामादजी, आप की तबीयत ठीक रहे इसलिए नहीं चाहते हुए भी हम ने वह सब खाया, क्योंकि हमें आप की चिंता थी. यदि सामान घर में रहता तो आप भला किसी की सुनते?’’

‘‘हमारे स्वास्थ्य की आप को कितनी चिंता है सासूमां,’’ हम ने बड़े प्यार से कहा.

‘‘क्यों न हो? दामाद बेटे समान होता है.’’

हम प्रेमश्रद्धा से भर उठे और उन के चरण स्पर्श कर लिए. श्रीमतीजी परदे की ओट से सास और दामाद का स्नेह, श्रद्धा से भरा मिलन देख रही थीं. सच में, हमें पहली बार अपनी सास पर गर्व हुआ कि ऐसी महान सास सब को मिले.

उपेक्षा- कैसे टूटा अनुभा का भ्रम?

हमेशा सहेलियों की तरह रहने वाली मां और अनीषा चाची का व्यवहार अनुभा को आज पहली बार असहज लगा. अनीषा चाची कुछ परेशान लग रही थीं. मां के बहुत पूछने पर उन्होंने हिचकते हुए बताया, ‘‘मेरा चचेरा भाई सलिल यहां ट्रेनिंग पर आ रहा है शीतल भाभी. रहेगा तो कंपनी के गैस्टहाउस में, लेकिन छुट्टी के रोज तो आया ही करेगा.’’

‘‘नहीं आएगा तो गाड़ी भेज कर बुला लिया करेंगे,’’ शीतल उत्साह से बोली, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है?’’

‘‘परेशान होने वाली बात तो है शीतल भाभी. मम्मी कहती हैं कि तेरे घर में जवान लड़की है, फिर उस की सहेलियां भी आतीजाती होंगी. ऐसे में सलिल का तेरे घर आनाजाना सही नहीं होगा.’’

‘‘उसे आने से रोकना सही होगा?’’

‘‘तभी तो परेशान हूं भाभी, सलिल को समझाऊंगी कि वह निक्की और गोलू का ही नहीं अनुभा और अजय का भी मामा है.’’

‘‘वह तो है ही, लेकिन आजकल के बच्चे ये सब नहीं मानते,’’ शीतल का स्वर चिंतित था.

‘‘इसीलिए जब आया करेगा तो अपने कमरे में ही बैठाया करूंगी.’’

‘‘जैसा तू ठीक समझे. बस न तो सलिल को बुरा लगे और न कोई ऊंचनीच हो,’’ शीतल के स्वर में अभी भी चिंता थी.

अनुभा ने मां और चाची को इतना परेशान देख कर सोचा कि वह स्वयं ही सलिल को घास नहीं डालेगी. उस के आने पर अपने कमरे में चली जाया करेगी ताकि चाची और मां उस के साथ सहज रह सकें.

सलिल को पहली बार अमित चाचा घर ले कर आए. सब से उस का परिचय करवाया, ‘‘है तो यह तेरा भी मामा अनु, लेकिन हमउम्र्र है, इसलिए तुम दोनों में दोस्ती ठीक रहेगी.’’

‘‘जी चाचा,’’ अनुभा ने हतप्रभ लग रहीं चाची और मां की ओर देख कर उस समय तो सलिल से हैलो के अलावा और बात नहीं की, लेकिन सलिल की आकर्षक छवि और मजेदार बातों को वह चाह कर भी दिल से नहीं निकाल सकी.

सलिल की मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही वह अपने कमरे में तो चली जाती थी, लेकिन कान बराबर चाची के कमरे से आने वाली ठहाकों की आवाजों पर लगे रहते थे और जब मां या चाची सलिल के सुनाए चुटकुले पापा और अमित चाचा को सुनाती थीं तो वह बड़े ध्यान से सुनती थी और फिर कालेज में अपनी सहेलियों को सुनाती थी.

कुछ दिन बाद अपनी सहेली माधवी की बहन की सगाई में उस के बड़े भाई मोहन के साथ खड़े सलिल को देख कर अनुभा चौंक पड़ी.

‘‘यह मेरा दोस्त सलिल है, अनु,’’ मोहन ने परिचय करवाया, ‘‘और यह माधवी की

खास सहेली…’’

‘‘जानता हूं यार, मामा हूं मैं इस का,’’ सलिल हंसा.

‘‘रियली? तब तो तू संभाल अपने मामा को अनु. यह पहली बार हमारे घर आया है. इस का परिचय करवा सब से. मैं दूसरे काम कर लेता हूं,’’ कह कर मोहन चला गया.

सलिल शरारत से मुसकराया, ‘‘मेरे एक सवाल का जवाब दोगी प्लीज? क्या मेरी शक्ल इतनी खराब है कि मेरे आने की आहट सुनते ही तुम अपने कमरे में छिप जाती हो? जानती हो इस से कितनी तकलीफ होती है मुझे?’’

‘‘तकलीफ तो मुझे भी बहुत होती है,’’ अनुभा के मुंह से बेसाख्ता निकला, ‘‘छिपने से नहीं बल्कि तुम्हें न देख पाने की वजह से.’’

‘‘तो फिर देखती क्यों नहीं?’’

अनुभा ने सही वजह बता दी.

‘‘ओह, तो यह बात है. मेरे यहां आने से पहले मेरे घर में भी यही टैंशन थी, लेकिन तुम्हारे चाचा ने तो मुझ से दोस्ती करने को कहा था, सामने न आने के लिए किस ने कहा?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. चाचा की बात सुन कर मां और चाची इतनी परेशान लगीं कि मैं ने उन्हें और परेशान करने के बजाय खुद ही बेचैन होना बेहतर समझा.’’

सलिल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘तुम्हारे घर से और कोई नहीं आया?’’

‘‘मां और चाची आएंगी कुछ देर बाद.’’

‘‘उस से पहले अपनी सहेलियों से कहो कि वे सब भी मुझे मामा बुलाएं. मैं दीदी को विश्वास दिला दूंगा कि मैं रिश्तों की मान्यता में विश्वास रखता हूं ताकि मेरीतुम्हारी दोस्ती पर किसी को शक न हो.’’

लड़कियों को भला उसे मामा बुलाने में क्या ऐतराज होता? जब तक अनीषा और शीतल आईं, सलिल भागभाग कर काम कर के सब का चहेता और प्राय: छोटेबड़े सब का ही मामा बन चुका था.

‘‘ये सब क्या है भाई?’’ अनीषा ने पूछा.

‘‘दीदी के शहर में आने का प्रसाद,’’ सलिल ने मुंह लटका कर कहा, ‘‘यह सोच कर आया था कि कोई गर्लफ्रैंड बन जाएगी. मगर अनुभा की सारी सहेलियां भी तो मेरी भानजियां ही लगीं. भानजी को गर्लफ्रैंड बनाने के संस्कार तो आप ने दिए नहीं सो बस काम कर के और मामा बन कर आशीष बटोर रहा हूं.’’

शीतल तो भावविभोर होने के साथसाथ अभिभूत भी हो गई. सगाई की रस्म के बाद जब उन्होंने अनुभा से घर चलने को कहा तो माधवी ने कहा, ‘‘अनुभा अभी कैसे जाएगी? काम के चक्कर में हम ने कुछ खाया भी नहीं है. आप जाओ, अनुभा बाद में आएगी.’’

‘‘अकेली?’’

‘‘अकेली क्यों?’’ माधवी की मां ने पूछा, ‘‘इस का मामा है न, उस के साथ आ जाएगी.’’

‘‘क्यों सलिल, ले आओगे?’’ अनुभा की आशा के विपरीत शीतल ने पूछा.

‘‘जी बड़ी दीदी, मगर इन सब का खाने का ही नहीं नाचगाने का भी प्रोग्राम है जो देर तक चलेगा.’’

‘‘तुम जब तक चाहो रुकना, फिर भानजी को कान पकड़ कर ले आना. मामा हो तुम उस के,’’ शीतल ने हंसते हुए कहा.

शीतल की हरी झंडी दिखाने के बावजूद अनुभा सलिल के घर आने पर न अपने कमरे से बाहर निकलती थी और न ही उस के बारे में बात करती थी, मगर सलिल की छुट्टी के रोज माधवी के घर पढ़ने के बहाने चली जाती थी और वहां से सलिल के साथ घूमने. माधवी तक को शक नहीं होता था. इम्तिहान खत्म होते ही घर में उस की शादी की चर्चा होने लगी. उस ने सलिल को बताया.

‘‘मुझे भी दीदी ने अपने दोस्तों में तुम्हारे लिए उपयुक्त वर ढूंढ़ने को कहा है.’’

‘‘अपना नाम सुझाओ न.’’

‘‘पागल हूं क्या? मेरे यहां आने पर जो इतना बवाल मचा था. वह इसीलिए तो था कि अगर मैं ने तुम से शादी करनी चाही तो अनर्थ हो जाएगा. जिस घर में लड़की दी है उस घर से लड़की नहीं लेते.’’

‘‘तुम ये सब मानते हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं, लेकिन अपने परिवार की मान्यताओं और भावनाओं की कद्र करता हूं.’’

‘‘मगर मेरे प्यार की नहीं.’’

‘‘उस की भी कद्र करता हूं और तुम्हारे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘हो सकता है तुम्हारे घर वाले तुम्हारी शादी न करने की जिद मान लें, मगर मुझे तो शादी करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘वह तो मैं भी करूंगा अनु.’’

अनुभा झुंझला गई. अजीब मसखरा आदमी है. मेरे सिवा किसी और के साथ जिंदगी गुजारने की सोच भी नहीं सकता, मगर शादी करेगा. सलिल तो जैसे उस का चेहरा खुली किताब की तरह पढ़ लेता था.

‘‘शादी किसी से भी हो, तसव्वुर में तो मेरे हमेशा तुम रहोगी और तुम्हारे तसव्वुर में मैं, बस अपने जीवनसाथी से यह सोच कर प्यार किया करेंगे कि हम एकदूसरे से कर रहे हैं.’’

‘‘अगर गलती से कभी मुंह से असली नाम निकल गया तो चोरी पकड़ी नहीं जाएगी?’’

अनुभा ने भी यह सोच कर सब्र कर लिया कि जैसे अभी वह सलिल के खयालों में जीती है, हमेशा जीती रहेगी और शादी के बाद मिलना भी आसान हो जाएगा, क्योंकि विवाहित मामाभानजी के मिलने पर किसी को ऐतराज नहीं होगा.

सलिल यह सुन कर खुशी से बोला, ‘‘अरे वाह, फिर तो चोरीछिपे नहीं सब के सामने तुम्हें गले लगाया करूंगा, कहीं घुमाने के बहाने बढि़या होटल में ले जाया करूंगा.’’

जल्द ही दुबई में बसे डाक्टर गिरीश से अनुभा का रिश्ता पक्का हो गया. देखने में गिरीश सलिल से 21 ही था और बहुत खुशमिजाज भी, लेकिन अनुभा ने उस में सलिल की छवि ही देखी. शादी में अनीषा का पूरा परिवार आया. मौका मिलते ही अनुभा ने सलिल से कहा कि वह अपने प्यार की निशानी के तौर पर कुछ भेंट तो दे.

‘‘देना तो चाहता था, लेकिन दीदी ने कहा कि अम्मां दे तो रही हैं, तुझे अलग से कुछ देने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘फिर भी कुछ तो दे दो, जिस के पास रहने से मुझे यह एहसास रहे कि तुम मेरे पास हो.’’

सलिल ने जेब से रूमाल निकाला और उसे चूम कर अनुभा को पकड़ा दिया. अनुभा ने उसे आंखों से लगाया.

‘‘यह मेरे जीवन की सब से अनमोल वस्तु होगी.’’

उस ने शुरू से ही गिरीश को सलिल समझा, इसलिए उसे कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि मजा ही आया और सोचा कि वह सलिल को मिलने पर बताएगी कि फौर्मूला कामयाब रहा. लेकिन मिलने का मौका ही नहीं मिला. नैनीताल में हनीमून मना कर लौटने पर सलिल की मोटरसाइकिल अजय को चलाते देख कर उस ने पूछा, ‘‘सलिल मामा की मोटरसाइकिल तुम्हारे पास कैसे?’’

‘‘सलिल मामा से पापा ने खरीद ली है यह मेरे लिए.’’

‘‘मगर सलिल मामा ने बेची क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे कनाडा चले गए.’’

अनुभा बुरी तरह चौंक गई, ‘‘अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘यह तो मालूम नहीं.’’

अनुभा ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया. शाम को वह माधवी से मिलने के बहाने मोहन से सलिल के अचानक जाने की वजह पूछने गई.

‘‘सलिल मामा अचानक कनाडा कैसे चले गए?’’

‘‘पहली बार कोई भी अचानक विदेश नहीं जाता अनु, सलिल यहां हैड औफिस में कनाडा जाने से पहले खास प्रशिक्षण लेने आया था. प्रशिक्षण खत्म होते ही चला गया,’’ मोहन ने जैसे उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया.

‘‘वह कनाडा से आप को फोन तो करते होंगे… मुझे उन का नंबर दे दीजिए प्लीज,’’ अनुभा ने मनुहार करी.

‘‘चंद महीनों के दोस्तों को न कोई इतनी दूर से फोन करता है और न ही याद रखता है. बेहतर रहेगा कि तुम भी सलिल को भूल कर अपनी नई जिंदगी में खुश रहो.’’

अनुभा को लगा कि मोहन जैसे उस पर तरस खा रहा है. वह नई जिंदगी का मजा तो ले रही थी, लेकिन सलिल को याद करते हुए, उस के दिए रूमाल को जबतब चूम कर.

अचानक एक रोज गिरीश ने उस के हाथ में वह रूमाल देख कर कहा, ‘‘इतना गंदा रूमाल एक डाक्टर की बीवी के हाथ में क्या कर रहा है? फेंको इसे.’’

अनुभा सिहर उठी. फेंकना तो दूर, सलिल के चूमे उस रूमाल को तो वह धो भी नहीं सकती थी. उस ने रूमाल को गिरीश से छिपा कर टिशू पेपर में सहेज दिया अकेले में चूमने के लिए.

गिरीश का परिवार कई वर्षों से दुबई में सैटल था. जुमेरा बीच के पास उन का बहुत बड़ा विला था और शहर में कई मैडिकल स्टोर और उन से जुड़े क्लीनिक्स की शृंखला थी. गिरीश भी एक क्लीनिक संभालता था. परिवार की सभी महिलाएं व्यवसाय के विभिन्न विभागों की देखरेख करती थीं.

अनुभा भी जेठानी वर्षा के साथ आधे दिन को औफिस जाती थी. अनुभा दुबई आ कर बहुत खुश थी. लेकिन न जाने क्यों सलिल की याद अब कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगी थी. जबतब उस का रूमाल चूम कर तसल्ली करनी पड़ती थी.

एक रोज वर्षा की कजिन लता ने फोन पर बताया कि उस के पति का भी दुबई में तबादला हो गया है, अभी तो होटल में रह रही है, घर और गाड़ी मिलने पर वर्षा से मिलने आएगी. लेकिन वर्षा उस से तुरंत मिलना चाहती थी. अनुभा ने सुझाया कि औफिस से लौटते हुए वे दोनों लता को उस के होटल से ले आएंगी. शाम को ड्राइवर उस के पति को औफिस से पिक कर लेगा और रात के खाने के बाद होटल छोड़ देगा. वर्षा का सुझाव अच्छा लगा पर घर के पुरुष तो देर से आते थे, तब तक लता का पति औरतों में बोर हो जाता. गिरीश हर बृहस्पति की शाम को क्लीनिक से जल्दी लौटता था. अत: अनुभा के कहने पर वर्षा ने लता को बृहस्पति को बुलाया. दोपहर को जेठानी देवरानी लता को लेने उस के होटल में गईं.

‘‘तू तो शादी के बाद अमेरिका या कनाडा गई थी, फिर यहां कैसे आ गई?’’ वर्षा ने पूछा.

‘‘मुझे बर्फ रास नहीं आई, इसलिए इन्होंने यहां तबादला करवा लिया,’’ लता दर्प से बोली.

‘‘अरे वाह, बड़ा दिलदार आदमी है भई, बीवी के लिए डौलर छोड़ कर दिरहम कमाना मान गया,’’ वर्षा ने चुहल करी.

‘‘मेरे लिए तो जांनिसार भी हैं दीदी,’’

लता इठलाई. वर्षा और अनुभा हंस पड़ी.

‘‘इस जांनिसर दिलदार से रिश्ता करवाया किस ने, चुन्नो चाची ने?’’ वर्षा ने पूछा.

लता हंसने लगी, ‘‘नहीं दीदी, चाची तो इस रिश्ते के बेहद खिलाफ थीं. उन का कहना था कि लड़का दिलफेंक और छोकरीबाज है. लेकिन चाचाजी ने कहा कि सभी लड़कों के शादी से पहले टाइम पास होते हैं, शादी के बाद सब ठीक हो जाते हैं.’’

‘‘आप के जांनिसार आप को किसी पुरानी टाइम पास के नाम से यानी किसी खास नाम से तो नहीं बुलाते?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘नहीं, लता ही पुकारते हैं.’’

‘‘फिर कोई फिक्र की बात नहीं है,’’ अनुभा बोली, ‘‘आप के जांनिसार सिर्फ आप के हैं.’’

शाम को गिरीश के आने के बाद वर्षा ने कहा, ‘‘गिरीश, मैं लता को जुमेरा बीच घुमाने ले जा रही हूं. लता के पति के आने पर तुम और अनुभा उन का स्वागत कर लेना.’’

कुछ देर के बाद गिरीश ने उत्साहित स्वर में अनुभा को पुकारा, ‘‘अनु, देखो तो लता के पति कौन हैं, तुम्हारे सलिल मामा.’’

उल्लासउत्साह से उफनती गिरतीपड़ती अनुभा ड्राइंगरूम में आई. हां, सलिल ही तो था, शरीर थोड़ा भर जाने से और भी आकर्षक लग रहा था.

‘‘लीजिए, आप की भानजी आ गई,’’ गिरीश बोला.

‘‘लेकिन मेरी बीवी कहां है?’’ सलिल ने अनुभा की उल्लसित किलकारी की ओर ध्यान दिए बगैर उतावली से पूछा.

‘‘भाभी के साथ समुद्र तट घूमने गई हैं, मैं बुला कर लाता हूं. तब तक आप अपनी भानजी के साथ बतियाइए.’’

‘‘बतियाने से पहले गले लगा कर आशीर्वाद तो दो मामा,’’ अनुभा मचली.

‘‘मामाजी की गोद में ही बैठ जाओ न,’’ गिरीश हंसा.

‘‘अभी तो गोद में लता को बैठा कर देखने को बेचैन हूं कि उस की आंखें ज्यादा गहरी हैं या समुद्र. आप वर्षा जीजी को घर ले आना प्लीज ताकि हम दोनों कुछ देर अकेले बैठ सकें, समुद्र के किनारे,’’ सलिल ने बेसब्री से कहा, ‘‘चलिए, गिरीशजी.’’

इतनी बेशर्मी, इतनी उपेक्षा. अनुभा सहन नहीं कर सकी, अपमान से तिलमिलाती हुई तेजी से अपने कमरे में गई, अकेले में रोने नहीं, बल्कि सलिल के दिए अनमोल रूमाल को फाड़ कर फेंकने के लिए.

सलाह लेना जरूरी: क्या पत्नी का मान रख पाया रोहित?

घंटी बजी तो मैं खीज उठी. आज सुबह से कई बार घंटी बज चुकी थी, कभी दरवाजे की तो कभी टेलीफोन की. इस चक्कर में काम निबटातेनिबटाते 12 बज गए. सोचा था टीवी के आगे बैठ कर इतमीनान से नाश्ता करूंगी. बाद में मूड हुआ तो जी भर कर सोऊंगी या फिर रोहिणी को बुला कर उस के साथ गप्पें मारूंगी, मगर लगता है आज आराम नहीं कर पाऊंगी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी को देख मेरी बांछें खिल गईं. रोहिणी मेरी ओर ध्यान दिए बगैर अंदर सोफे पर जा पसरी.

‘‘कुछ परेशान लग रही हो, भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ उस का उतरा चेहरा देख मैं ने उसे छेड़ा.

‘‘देखा, मैं भी तो यही कहती हूं, मगर इन्हें मेरी परवाह ही कब रही है. मुफ्त की नौकरानी है घर चलाने को और क्या चाहिए? मैं जीऊं या मरूं, उन्हें क्या?’’ रोहिणी की बात का सिरपैर मुझे समझ नहीं आया. कुरेदने पर उसी ने खुलासा किया, ‘‘2 साल की पहचान है, मगर तुम ने देखते ही समझ लिया कि मैं परेशान हूं. एक हमारे पति महोदय हैं, 10 साल से रातदिन का साथ है, फिर भी मेरे मन की बात उन की समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो तुम ही बता दो न,’’ मेरे इतना कहते ही रोहिणी ने तुनक कर कहा, ‘‘हर बार मैं ही क्यों बोलूं, उन्हें भी तो कुछ समझना चाहिए. आखिर मैं भी तो उन के मन की बात बिना कहे जान जाती हूं.’’

रोहिणी की फुफकार ने मुझे पैतरा बदलने पर मजबूर कर दिया, ‘‘बात तो सही है, लेकिन इन सब का इलाज क्या है? तुम कहोेगी नहीं, बिना कहे वे समझेंगे नहीं तो फिर समस्या कैसे सुलझेगी?’’

‘‘जब मैं ही नहीं रहूंगी तो समस्या अपनेआप सुलझ जाएगी,’’ वह अब रोने का मूड बनाती नजर आ रही थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ मैं ने उसे टटोलने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘डूब मरूंगी कहीं किसी नदीनाले में. मर जाऊंगी, तभी मेरी अहमियत समझेंगे,’’ उस की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की बरसात होने लगी.

‘‘यह तो कोई समाधान नहीं है और फिर लाश न मिली तो भाई साहब यह भी सोच सकते हैं कि तू किसी के साथ भाग गई. मैं बदनाम महिला की सहेली नहीं कहलाना चाहती.’’

‘‘सोचने दो, जो चाहें सोचें,’’ कहने को तो वह कह गई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘बात तो सही है. ऐसे तो बड़ी बदनामी हो जाएगी. फांसी लगा लेती हूं. कितने ही लोग फांसी लगा कर मरते हैं.’’

‘‘पर एक मुश्किल है,’’ मैं ने उस का ध्यान खींचा, ‘‘फांसी लगाने पर जीभ और आंखें बाहर निकल आती हैं और चेहरा बड़ा भयानक हो जाता है, सोच लो.’’

बिना मेकअप किए तो रोहिणी काम वाली के सामने भी नहीं आती. ऐसे में चेहरा भयानक हो जाने की कल्पना ने उस के हाथपांव ढीले कर दिए. बोली, ‘‘फांसी के लिए गांठ बनानी तो मुझे आती ही नहीं, कुछ और सोचना पड़ेगा,’’ फिर अचानक चहक कर बोली, ‘‘तेरे पास चूहे मारने वाली दवा है न. सुना है आत्महत्या के लिए बड़ी कारगर दवा है. वही ठीक रहेगी.’’

‘‘वैसे तो तेरी मदद करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर सोच ले. उसे खा कर चूहे कैसे पानी के लिए तड़पते हैं. तू पानी के बिना तो रह लेगी न?’’ उस की सेहत इस बात की गवाह थी कि भूखप्यास को झेल पाना उस के बूते की बात नहीं.

रोहिणी ने कातर दृष्टि से मुझे देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘तो अब क्या करूं?’’

‘‘छत से कूदना या फिर नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर सोए रहना भी विकल्प हो सकते हैं,’’ मुश्किल वक्त में मैं रोहिणी की मदद करने से पीछे नहीं हट सकती थी.

‘‘ऊफ, छत से कूद कर हड्डियां तो तुड़वाई जा सकती हैं, पर मरने की कोई गारंटी नहीं और गोली खाते ही मुझे उलटी हो जाती है,’’ रोहिणी हताश हो गई.

हर तरकीब किसी न किसी मुद्दे पर आ कर फेल होती जा रही थी. आत्महत्या करना इतना मुश्किल होता है, यह तो कभी सोचा ही न था. दोपहर के भोजन पर हम ने नए सिरे से आत्महत्या की संभावनाओं पर विचार करना शुरू किया तो हताशा में रोहिणी की आंखें फिर बरस पड़ीं. मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा, परेशान मत हो.’’

रोहिणी ने छक कर खाना खाया. बाद में 2 गुलाबजामुन और आइसक्रीम भी ली वरना उस बेचारी को तो भूख भी नहीं थी. मेरी जिद ने ही उसे खाने पर मेरा साथ देने को मजबूर किया था.

चाय के दूसरे दौर तक पहुंचतेपहुंचते मुझे विश्वास हो गया कि आत्महत्या के प्रचलित तरीकों से रोहिणी का भला नहीं होने वाला. समस्या से निबटने के लिए नवीन दृष्टिकोण की जरूरत थी. बातोंबातों में मैं ने रोहिणी के मन की बात जानने की कोशिश की, जिस को कहेसुने बिना ही उस के पति को समझना चाहिए था.

बहुत टालमटोल के बाद झिझकते हुए उस ने जो बताया उस का सार यह था कि 2 दिन बाद उसे भाई के साले की बेटी की शादी में जाना था और उस के पास लेटैस्ट डिजाइन की कोई साड़ी नहीं थी. इसलिए 4 माह बाद आने वाले अपने जन्मदिन का गिफ्ट उसे ऐडवांस में चाहिए था ताकि शादी में पति की हैसियत के अनुरूप बनसंवर कर जा सके और मायके में बड़े यत्न से बनाई गई पति की इज्जत की साख बचा सके.

मुझे उस के पति पर क्रोध आने लगा. वैसे तो बड़े पत्नीभक्त बने फिरते हैं, पर पत्नी के मन की बात भी नहीं समझ सकते. अरे, शादीब्याह पर तो सभी नए कपड़े पहनते हैं. रोहिणी तो फिर भी अनावश्यक खर्च बचाने के लिए अपने गिफ्ट से ही काम चलाने को तैयार है. लोग तनख्वाह का ऐडवांस मांगते झिझकते हैं, यहां तो गिफ्ट के ऐडवांस का सवाल है. भला एक सभ्य, सुसंस्कृत महिला मुंह खोल कर कैसे कहेगी? पति को ही समझना चाहिए न.

‘‘अगर मैं बातोंबातों में भाई साहब को तेरे मन की बात समझा दूं तो कैसा रहे?’’ अचानक आए इस खयाल से मैं उत्साहित हो उठी. असल में अपनी प्यारी सहेली को उस के पति की लापरवाही के कारण खो देने का डर मुझे भी सता रहा था.

एक पल के लिए खिल कर उस का चेहरा फिर मुरझा गया और बोली, ‘‘उन्हें फिर भी न समझ आई तो?’’

मैं अभी ‘तो’ का जवाब ढूंढ़ ही रही थी कि टेलीफोन घनघना उठा. फोन पर रोहिणी के पति की घबराई हुई आवाज ने मुझे चौंका दिया.

‘‘रोहिणी मेरे पास बैठी है. हां, हां, वह एकदम ठीक है,’’ मैं ने उन की घबराहट दूर करने की कोशिश की.

‘‘मैं तुरंत आ रहा हूं,’’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. कुछ पल भी न बीते थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी के पति सामने खड़े थे. रोहित भी आते दिखाई दे गए. इसलिए मैं चाय का पानी चढ़ाने रसोई में चली गई और रोहित हाथमुंह धो कर रोहिणी के पति से बतियाने लगे.

रोहिणी की समस्या के निदान हेतु मैं बातों का रुख सही दिशा में कैसे मोड़ूं, इसी पसोपेश में थी कि रोहिणी ने पति के ब्रीफकेस में से एक पैकेट निकाल कर खोला. कुंदन और जरी के खूबसूरत काम वाली शिफोन की साड़ी को उस ने बड़े प्यार से उठा कर अपने ऊपर लगाया और पूछा, ‘‘कैसी लग रही है? ठीक तो है न?’’

‘‘इस पर तो किसी का भी मन मचल जाए. बहुत ही खूबसूरत है,’’ मेरी निगाहें साड़ी पर ही चिपक गई थीं.

‘‘पूरे ढाई हजार की है. कल शोकेस में लगी देखी थी. इन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली, तभी मुझे बिना बताए खरीद लाए,’’ रोहिणी की चहचहाट में गर्व की झलक साफ थी.

एक यह है, पति को रातदिन उंगलियों पर नचाती है, फिर भी मुंह खोलने से पहले ही पति मनचाही वस्तु दिलवा देते हैं. एक मैं हूं, रातदिन खटती हूं, फिर भी कोई पूछने वाला नहीं. एक तनख्वाह क्या ला कर दे देते हैं, सोचते हैं सारी जिम्मेदारी पूरी हो गई. साड़ी तो क्या कभी एक रूमाल तक ला कर नहीं दिया. तंग आ गई हूं मैं इन की लापरवाहियों से. किसी दिन नदीनाले में कूद कर जान दे दूंगी, तभी अक्ल आएगी, मेरे मन का घड़ा फूट कर आंखों के रास्ते बाहर आने को बेताब हो उठा. लगता है अब अपनी आत्महत्या के लिए रोहिणी से दोबारा सलाहमशवरा करना होगा.

आशीर्वाद- भाग 3 : क्यों टूट गए मेनका के सारे सपने

तभी एक शिष्य अमित के पास आया और बोला, ‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है.’’

अमित एकदम उठा और शिष्य के साथ चल दिया.

गुरुजी के कमरे में पहुंच कर अमित हाथ जोड़ कर बैठ गया.

सामने बैठे गुरुजी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अमित? मेनका नहीं आई?’’

‘‘गुरुजी, मैं ने उसे बहुत कहा, पर वह नहीं आई. कहने लगी कि मैं माफी नहीं मांगूंगी. इस पर मैं ने उसे थप्पड़ भी मार दिया और वह गुस्से में बेटी के साथ कहीं चली गई.’’

‘‘चली गई? कहां चली गई? इस तरह अपनी पत्नी से हमें अपमानित करा कर तुम ने उसे जानबूझ कर यहां से भेजा है. यह तुम ने अच्छा नहीं किया,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखा.

अमित घबरा गया. वह गुरुजी के चरणों में सिर रख कर बोला, ‘‘मैं ने उसे नहीं भेजा गुरुजी. मैं सच कह रहा हूं. मेरा विश्वास कीजिए.’’

‘‘विश्वास… कैसा विश्वास? मुझे तुम जैसे अविश्वासी भक्त नहीं चाहिए. जिन की पत्नी अपने पति की बात न मानती हो. हम ने मेनका को इसलिए बुलाया था कि उसे भी आशीर्वाद मिल जाता.’’

‘‘गुरुजी, आप कहें तो मैं उसे छोड़ दूं. उस से तलाक ले लूं.’’

‘‘हम कुछ नहीं कहेंगे. जो तुम्हारी इच्छा हो करो…’’ गुरुजी ने नाराजगी

भरी आवाज में कहा, ‘‘अब तुम जा सकते हो.’’

‘‘गुरुजी, मेनका की ओर से मैं माफी मांगता हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं होता कि किसी के अच्छेबुरे कर्मों का फल किसी दूसरे को दिया जाए. तुम अपने कमरे में जाओ,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखते हुए कहा.

अमित चुपचाप थके कदमों से अपने कमरे में पहुंचा.

कुछ देर बाद 2 शिष्य अमित के पास आए और उस के बैग में से कपड़े निकाल कर बाहर डालने लगे मानो कुछ ढूंढ़ रहे हों.

अमित समझ नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है? उस ने पूछा, ‘‘भैयाजी, यह क्या कर रहे हो? बैग से कपड़े क्यों निकाल रहे हो?’’

‘‘अभी पता चल जाएगा,’’ कहते हुए एक शिष्य ने बैग में से एक लाल रंग की बहुत सुंदर सी डब्बी निकाल कर खोली. उस में हीरे की एक अंगूठी थी.

दूसरा शिष्य बोला, ‘‘आज ही यह अंगूठी गुरुजी को दिल्लीवासी एक भक्त ने भेंट में दी थी. उस भक्त की आभूषण की दुकान है. यह डब्बी कुछ देर पहले से गायब थी. हमें तुम पर शक था, पर अब तो पता चल गया कि यह चोरी तुम ने ही की है.’’

‘‘नहीं, मैं ने अंगूठी नहीं चुराई. मैं चोर नहीं हूं. मुझे अंगूठी के बारे में कुछ नहीं मालूम. मैं बेकुसूर हूं,’’ अमित घबरा कर बोला.

‘‘अंगूठी तेरे पास से मिली है और तू कहता है कि तू ने चोरी नहीं की,’’ एक शिष्य ने कहा.

तभी 2 शिष्य और आ गए. उन चारों ने अमित के साथ मारपीट शुरू कर दी.

अमित के साथ हो रही मारपिटाई की आवाज सुन आश्रम में कुछ भक्त कमरों से बाहर निकल कर देखने गए. जब उन्हें पता चला कि गुरुजी की अंगूठी चुराने पर उस की पिटाई की जा रही है तो किसी ने भी उसे छुड़ाने की कोशिश नहीं की. सभी नफरत और गुस्से से अमित की ओर देख रहे थे.

सभी का कहना था कि ऐसे चोर की तो खूब पिटाई कर के पुलिस में देना चाहिए.

चारों शिष्यों ने अमित की इतनी पिटाई कर दी कि वह बेहोश हो गया. आश्रम से बाहर उसे सड़क के किनारे फेंक दिया.

गाडि़यां आतीजाती रहीं. लोग देखते रहे कि सड़क के किनारे कोई शख्स पड़ा हुआ है.

पुलिस की गश्ती गाड़ी उधर से जा रही थी. सड़क के किनारे किसी को पड़ा हुआ देख कर गाड़ी रुकी. दारोगा और

2 सिपाही उतरे. उन्होंने अमित को देखा. उस के चेहरे पर मारपिटाई के निशान थे. मुंह व सिर से खून भी निकला था.

पुलिस ने उसे उठा कर जिला अस्पताल में भरती करा दिया. डाक्टर से कह दिया कि जब यह होश में आ जाए तो सूचना दे देना.

सुबह तकरीबन 7 बजे अमित को होश आया तो उस का पूरा शरीर बुरी तरह से दुख रहा था.

डाक्टर ने अमित के पास आ कर पूछा, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘अमित.’’

‘‘क्या रात को किसी से झगड़ा हो गया था?’’ डाक्टर ने सवाल किया.

अमित ने सबकुछ बता दिया कि वह गुरुजी का एक भक्त है. पत्नी के साथ यहां आश्रम में आया था. रात पत्नी से कहासुनी होने पर वह चली गई. गुरुजी के शिष्यों ने उस पर चोरी का आरोप लगा कर मारपिटाई कर सड़क पर फेंक दिया.

‘‘तुम्हारा समय अच्छा है अमित कि उन शिष्यों ने तुम्हारी जान नहीं ली. वे तुम्हें बेहोशी की हालत में गंगा में भी फेंक सकते थे. अब उन्होंने तुम्हारा बैग, मोबाइल वगैरह सामान जरूर फेंक दिया होगा गंगा में.’’

अमित चुप रहा.

‘‘अब तुम्हारी पत्नी कहां होगी?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘पता नहीं. वह बेटी को ले कर चली गई थी कि रात को किसी होटल में रुकेगी. सुबह बस या टे्रन से वापस जाने की बात कह रही थी.’’

‘‘उस के पास मोबाइल फोन होगा. जरा उस का नंबर बताओ.’’

अमित ने मेनका का मोबाइल नंबर बताया. डाक्टर ने नंबर मिलाया तो उधर घंटी बजने लगी.

‘हैलो,’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘मैडम मेनका बोल रही हैं?’’

‘हां, बोल रही हूं. आप कौन?’

‘‘मैं यहां सिविल अस्पताल से डाक्टर विपिन बोल रहा हूं. आप के पति अमित यहां अस्पताल में भरती हैं. अब वे काफी ठीक हैं. लीजिए उन से बात कीजिए,’’ कहते हुए डाक्टर ने मोबाइल अमित को दे दिया.

‘‘हैलो,’’ अमित की कराहती सी आवाज निकली.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो न? अस्पताल में क्यों? तुम्हारी तो आवाज भी नहीं निकल रही है.’

‘‘तुम यहां आ जाओ मेनका. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूंगा,’’ कहतेकहते अमित को रुलाई आ गई.

‘मैं आ रही हूं. बस अभी पहुंच रही हूं,’ उधर से मेनका की घबराई सी आवाज सुनाई पड़ी.

डाक्टर ने पुलिस को सूचना दे दी कि अमित को होश आ गया है.

कुछ देर बाद चिंतित व डरी सी मेनका पिंकी के साथ अस्पताल में अमित के पास पहुंची. अमित के चेहरे पर चोट के निशान थे. सिर पर पट्टी बंधी हुई थी.

अमित को देखते ही वह कांप उठी. उस ने पूछा, ‘‘यह कैसे हुआ?’’

अमित ने सबकुछ बता दिया.

तभी दारोगा व एक सिपाही उन के पास आए. दारोगा ने पूछा, ‘‘अब कैसे हो आप?’’

‘‘ठीक हूं…’’ अमित ने कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी और बेटी हैं.’’

‘‘अच्छा, अब आप यह बताओ कि हमें क्या करना है? आप चाहें तो रिपोर्ट लिखा सकते हो.’’

‘‘नहीं सर, हमें कोई रिपोर्ट नहीं लिखवानी है. हमें यह भी पता चल गया है कि गुरुजी की पहुंच ऊपर तक है. कई मंत्री व बड़ेबड़े नेता भी यहां आश्रम में आते रहते हैं. गुरुजी का कुछ नहीं बिगड़ेगा,’’ अमित ने कहा.

‘‘जिस दिन भी इस शैतान गुरु के पाप का घड़ा भर जाएगा, उस दिन यह भी नहीं बचेगा,’’ मेनका बोली.

कुछ देर तक बातचीत कर के दारोगा सिपाही के साथ वापस चला गया.

पछतावे के साथ अमित बोला, ‘‘कल सुबह अस्पताल से मुझे छुट्टी मिल जाएगी. हम वापस घर चले जाएंगे.

‘‘मेनका, मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस गुरु को मैं भगवान समझता रहा, वह एक शैतान है. इस गुरु की अंधभक्ति में मैं ने जिंदगी के इतने साल बरबाद कर दिए.

‘‘मैं ने हमेशा तुम्हारी कही गई बातों की अनदेखी की. तुम तो इन ढोंगी बाबाओं से नफरत करती थीं, लेकिन मैं उस की वजह नहीं समझ पाया.

‘‘तुम ने इशारोंइशारों में कई बार मुझे समझाने की कोशिश भी की थी, पर मेरी अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़ गए थे. दुख की बात तो यह है कि मैं ही तुम्हें यहां जबरदस्ती लाया था.’’

‘‘पुरानी बातों को सोच कर अपना मन मत दुखाओ. अगर मैं इस शैतान का कहना मान लेती तो कुछ भी न होता. तुम पर कोई आरोप न लगता. मारपिटाई भी न होती और न ही मुझे पिंकी के साथ होटल में जाना पड़ता.

‘‘मैं उन औरतों जैसी नहीं हूं जो अपने पति से विश्वासघात कर ऐसे ढोंगी गुरु की हर बात मान लेती हैं,’’ मेनका बोली.

‘‘मेनका, तुम तो बहुत पहले से ही मुझे समझा रही थीं, पर मैं ही गहरी नींद में आंखें बंद किए हुए था. काश, मैं भी तुम्हारी तरह गुरुजी के जाल में न फंसता.’’

‘‘कोई बात नहीं, जब जागो तभी सवेरा,’’ मेनका ने अमित की ओर देखते हुए कहा.

अमित एक नई सीख ले कर अस्पताल से सीधा अपने घर की ओर चल दिया. उस ने मन में ठान लिया था कि घर जाते ही वह उस ढोंगी गुरु के दिए गए सामान को फिंकवा देगा.

आशीर्वाद- भाग 2 : क्यों टूट गए मेनका के सारे सपने

‘‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम पता नहीं क्यों बारबार मुझे अपने गुरुजी के पास ले जाना चाहते हो जबकि मैं किसी गुरुवुरु के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती. अखबारों में और टैलीविजन पर आएदिन अनेक गुरुओं की करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता?है,’’ मेनका बोली.

‘‘सभी गुरु एकजैसे नहीं होते. आज मैं ने जब गुरुजी से फोन पर कहा कि आप के दर्शन करना चाहता हूं तो उन्होंने कहा कि मेनका को भी साथ लाना. हम उसे भी आशीर्वाद देना चाहते हैं.’’

‘‘मुझे किसी आशीर्वाद की जरूरत नहीं है. तुम ही चले जाना.’’

‘‘मैं ने गुरुजी को वचन दिया है कि तुम्हें जरूर ले कर आऊंगा. तुम्हें मेरी कसम मेनका, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा. अगर इस बार भी तुम मेरे साथ नहीं गईं तो मैं वहीं गंगा में डूब जाऊंगा,’’ अमित ने अपना फैसला सुनाया.

यह सुन कर मेनका कांप कर रह गई. वह जानती थी कि अमित गुरुजी के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंस चुका है. उस पर गुरुजी का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है. वह भावुक भी है. अगर वह साथ न गई तो हो सकता है कि गुरुजी अमित को इतना बेइज्जत कर दें कि उस के सामने डूब कर मरने के अलावा कोई दूसरा रास्ता न बचे.

मेनका को मजबूरी में कहना पड़ा, ‘‘ऐसा मत कहो… मैं तुम्हारे साथ हरिद्वार चलूंगी.’’

अमित के चेहरे पर मुसकान फैल गई, ‘‘यह हुई न बात. मेनका, तुम्हें गुरुजी से मिल कर बहुत अच्छा लगेगा. वहां मुझे, तुम्हें और पिंकी को आशीर्वाद मिलेगा.’’

मेनका ने कोई जवाब नहीं दिया.

एक हफ्ते बाद अमित मेनका और पिंकी के साथ हरिद्वार जा पहुंचा. रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर उस ने एक आटोरिकशा किया और गुरुजी के आश्रम जा पहुंचा. शिष्यों ने उन के लिए एक कमरा खोल दिया.

सामान रख कर अमित ने मेनका से कहा, ‘‘कुछ देर आराम कर लेते हैं. शाम को गुरुजी से मिलेंगे और आरती देखेंगे. 2-3 दिन हरिद्वारऋषिकेश घूमेंगे.’’

शाम को तकरीबन 6 बजे अमित मेनका व पिंकी के साथ गुरुजी के कमरे के बाहर इंतजार में बैठ गया. कुछ देर बाद शिष्य ने उन को कमरे में भेजा.

कमरे में पहुंचते ही अमित ने हाथ जोड़ कर गुरुजी के चरणों में सिर रख दिया. मेनका ने भी चरण छू कर प्रणाम किया.

‘‘सदा सुखी रहो, सौभाग्यवती रहो,’’ गुरुजी ने आशीर्वाद दिया, ‘‘तुम्हारे घर में अपार सुख और वैभव आ रहा?है मेनका. तुम्हें जल्दी पुत्र रत्न भी प्राप्त होगा.

‘‘यह तुम्हारा पति अमित बहुत भोला और सीधासादा सच्चा इनसान है.’’

मेनका कुछ नहीं बोली.

गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा, ‘‘शाम की आरती में जरूर शामिल होना.’’

‘‘जी गुरुजी,’’ अमित ने तुरंत जवाब दिया.

शाम को साढ़े 7 बजे आश्रम के मंदिर में खूब जोरशोर से आरती हुई. गुरुजी और शिष्य आरती में लीन थे.

प्रसाद ले कर कमरे में लौट कर अमित ने कहा, ‘‘मुझे तो यहां आ कर बहुत अच्छा लगता है मेनका. तुम्हें कैसा लगा?’’

‘‘ठीक है.’’

कुछ देर बाद एक शिष्य ने आ कर कहा, ‘‘गुरुजी मेनका को बुला रहे हैं.’’

‘‘अभी आ रही है,’’ अमित बोला.

‘‘जाओ मेनका. लगता है, गुरुजी तुम्हें कुछ खास आशीर्वाद देना चाहते हैं.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी,’’ मेनका ने कहा.

‘‘अरे मेनका, हम तो भाग्यशाली हैं. गुरुजी हमें बुला कर दर्शन और आशीर्वाद दे रहे हैं. बहुत से लोग तो इन से मिलने को तरसते रहते हैं. जाओ, देर न करो. पिंकी यहीं है मेरे पास,’’ अमित ने कहा.

मेनका को अकेले ही जाना पड़ा. वह धड़कते दिल से नमस्कार कर गुरुजी के सामने बैठ गई.

तख्त पर बैठे हुए गुरुजी ने उस की ओर देख कर कहा, ‘‘मेनका, तुम्हारा भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है. जरा अपना हाथ दिखाओ. हम देखना चाहते हैं कि तुम्हारा भाग्य क्या कह रहा है?’’

मेनका ने न चाहते हुए भी गुरुजी की तरफ अपना हाथ बढ़ा दिया. उस की कोमल हथेली पकड़ कर गुरुजी गंभीर मुद्रा में खो गए.

मेनका के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. उसे यह सब जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था.

‘‘देखो मेनका, जब तक अमित तुम्हारे पास है तुम्हें बहुत सुख मिलेगा, पर…’’ कहतेकहते गुरुजी रुक गए.

‘‘लेकिन क्या गुरुजी…?’’ मेनका चौंकी.

‘‘अमित ज्यादा दिनों तक तुम्हारी जिंदगी में नहीं रहेगा. वह तुम्हारी जिंदगी से काफी दूर निकल जाएगा. बिना पति के पत्नी की हालत कटी पतंग की तरह होती है. यह तुम भी अच्छी तरह जानती हो. मुझे अमित और तुम्हारे बीच के संबंध के बारे में पूरी जानकारी है. जो तुम चाहती हो, वह नहीं चाहता.’’

‘‘गुरुजी, इस में गलती पर कौन है?’’ मेनका ने पूछा.

‘‘गलती पर कोई नहीं है. अपनेअपने सोचने का ढंग है. मैं तुम्हारे मन की हालत समझ रहा हूं. तुम एक प्यासी नदी की तरह हो मेनका. तुम सुंदर ही नहीं, बहुत सुंदर हो, पर तुम्हारे रूप का असर अमित पर जरा भी नहीं पड़ रहा है. अमित इस समय मेरे प्रभाव में है. अगर मैं चाहूं तो वह कभी भी सबकुछ छोड़ कर मेरी शरण में आ सकता है,’’ गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा.

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘मेनका, तुम जितनी सुंदर हो, अमित उतना ही भोला है. वह तुम्हारी इच्छाओं को आज तक समझ नहीं पाया. तुम्हारा यह सुंदर रूप देख कर मेरी प्यास बढ़ गई है. मैं भी एक प्यासा सागर हूं,’’ कहते हुए गुरुजी ने मेनका की हथेली चूमनी चाही.

मेनका को लगा, जैसे उस के शरीर में कोई बिच्छू डंक मार देना चाहता है. उस ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप? यहां बुला कर आप ऐसी हरकतें करते हैं क्या?’’

‘‘मेनका, तुम्हें मेरी बात माननी होगी, नहीं तो तुम्हारा अमित तुम्हें छोड़ कर मेरी शरण में आ जाएगा. उस के बिना क्या तुम अकेली रह लोगी?’’

‘‘मैं अकेली रह लूंगी या नहीं, यह तो बाद की बात है, लेकिन मैं आप की असलियत जान चुकी हूं. इस देश में आप की तरह अनेक ढोंगी व पाखंडी गुरु हैं जिन के बारे में अखबारों में छपता रहता है.

‘‘अमित भोला है, पर मैं नहीं. मैं तो यहां आना ही नहीं चाहती थी. मुझे तो अमित की कसम के सामने मजबूर होना पड़ा. अब मैं आप के इस आश्रम में नहीं रहूंगी,’’ मेनका ने गुस्से में कहा.

यह सुनते ही गुरुजी खिलखिला कर हंस पड़े. मेनका हैरान सी गुरुजी की ओर देखती रह गई.

‘‘सचमुच तुम बहुत समझदार हो मेनका, तुम भोली नहीं हो. मैं तो तुम्हारा इम्तिहान ले रहा था. मैं यह देखना चाह रहा था कि तुम कितने पानी में हो. अब तुम जा सकती हो,’’ गुरुजी ने मेनका की ओर देखते हुए कहा.

मेनका बाहर निकली और तेजी से कमरे में लौट आई. आते ही मेनका ने कहा, ‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे.’’

‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’ अमित ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘यह तुम्हारे गुरुजी भी उन ढोंगी बाबाओं की तरह हैं जो पकड़े जा रहे हैं. असलियत खुल जाने पर जिन की जगह आश्रम में नहीं, जेल में होती है. कई गुरु जेल में हैं. देखना, किसी न किसी दिन तुम्हारा यह ढोंगी गुरु भी जरूर पकड़ा जाएगा.’’

‘‘क्या हुआ? कुछ बताओ तो सही? तुम तो गुरुजी के पास आशीर्वाद लेने गई थीं, फिर क्या हो गया जो तुम गुरुजी के लिए ऐसे शब्द बोल रही हो?’’

‘‘मैं तो पहले ही यहां आने के लिए मना कर रही थी. पर तुम्हारी कसम ने मुझे मजबूर कर दिया,’’ कहते हुए मेनका ने पूरी घटना सुना दी.

अमित कुछ कहने ही वाला था, तभी एक शिष्य ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘अमितजी, आप को गुरुजी बुला रहे हैं.’’

अमित शिष्य के साथ चल दिया.

मेनका धड़कते दिल से कमरे में बैठी रही. उस की आंखों के सामने बारबार गुरुजी का चेहरा और वह सीन याद आ रहा था, जब गुरुजी ने उस का हाथ पकड़ कर चूमना चाहा था. उस के मन में गुरुजी के प्रति नफरत भर उठी.

कुछ देर बाद अमित लौटा और बोल उठा, ‘‘मेनका, यह तुम ने अच्छा नहीं किया जो गुरुजी की बेइज्जती कर दी. गुरुजी ने तो तुम्हें आशीर्वाद देने के लिए बुलाया था लेकिन तुम ने गुरुजी की शान में ऐसी बातें कह दीं, जो नहीं कहनी चाहिए थीं. अब तुम्हें मेरे साथ चल कर गुरुजी से माफी मांगनी पड़ेगी.’’

यह सुन कर मेनका समझ गई कि गुरुजी ने अमित से झूठ बोल दिया है. वह बोली, ‘‘अमित, यहां आ कर तो मैं बेइज्जत हुई हूं. गुरुजी ने जो हरकत मेरे साथ की है, उस के बाद तो मैं ऐसे गुरु की शक्ल भी देखना नहीं चाहूंगी. माफी मांगने का तो सवाल ही नहीं उठता है.’’

अमित का भी पारा ऊपर चढ़ने लगा. वह मेनका को घूरता हुआ बोला, ‘‘मेनका, मुझे गुस्सा न दिलाओ. मेरे गुरुजी झूठ नहीं बोलते. मेरे साथ चल कर तुम्हें माफी मांगनी पड़ेगी.’’

‘‘मुझे नहीं जाना तुम्हारे ढोंगी गुरु के पास.’’

अमित अपने गुस्से पर काबू न रख सका. उस ने एक जोरदार थप्पड़ मेनका के मुंह पर दे मारा और कहा, ‘‘मैं तुम्हारी शक्ल भी देखना नहीं चाहता…’’

‘‘मैं यहां से चली जाऊंगी अपनी बेटी को ले कर. आज की रात किसी होटल में रुक जाऊंगी. कल सुबह होते ही बस या टे्रन से वापस मेरठ चली जाऊंगी. तुम चाहे जितने दिन बाद आना.

‘‘देख लेना किसी न किसी दिन इस ढोंगी गुरु की पोल भी खुलेगी और यह भी जेल में पहुंचेगा.’’

मेनका ने एक बैग में अपने व पिंकी के कपड़े भरे और पिंकी को गोद में उठा कर आश्रम से बाहर निकल गई.

मेनका एक होटल में पहुंची और एक कमरा ले कर बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ी.

आश्रम के कमरे में बैठे अमित को बारबार मेनका पर गुस्सा आ रहा था. मेनका ने गुरुजी की बेइज्जती कर दी. वह माफी मांगने भी नहीं गई. वह बहुत हठी है. न जाने खुद को क्या समझती है वह. चली जाएगी जहां जाना होगा, वह तो अब उस से कभी बात नहीं करेगा. उसे ऐसी पत्नी नहीं चाहिए जो गुरुजी और उस की बात ही न सुने. इस के लिए उसे तलाक भी लेना पड़े तो वह पीछे नहीं हटेगा.

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