तोहफा: भाग 1- पति के जाने के बाद शैली ने क्यों बढ़ाई सुमित से नजदीकियां

शैली एकटक बादलों की तरफ देख रही थी और सोच रही थी कि बहती हवाओं के साथ बदलती आकृतियों में ढलते रुई के फाहों से ये बादल के टुकड़े मन को कितना सुकून देते हैं. लगता है जैसे अपना ही वजूद वक्त के झोंकों के साथ कभी सिमट रहा है, तो कभी नए आयामों को छूने का प्रयास कर रहा है. एक अजीब सा स्पंदन था उस के मन के हर कोने में. लोग कहते हैं, प्रेम की उम्र तो बस युवावस्था में ही होती है. मगर शैली उस की अल्हड़ता को इस उम्र में भी उतनी ही प्रगाढ़ता से महसूस कर रही थी. उस का मन तो चाह रहा था कि वह भी हवा के झोंकों के साथ उड़ जाए. वहां जहां किसी की भी नजर न पड़े उस पर. बस वह हो और उस के एहसास.

वह बचपन से आज तक अपनी जिंदगी अपने ही तरीकों से जीती आई है. कभी जिंदगी की गति को चंद पड़ावों में  नहीं बांटा वरन नदी के प्रवाह की तरह बह जाने दिया. उस दिन सुमित ने उसे छेड़ा था, ‘‘तुम दूसरों जैसी बिलकुल भी नहीं, काफी अलग तरह से सोचती हो और अपनी जिंदगी के प्रति तुम्हारा रवैया भी बहुत अलग है…’’

‘‘हां सच कहा. वैसे होता तो यही है कि लोगों की जिंदगी की शुरुआत में ही तय कर दिया जाता है कि इस उम्र में पढ़ाई पूरी करनी है, उस उम्र में शादी, बच्चे और फिर उम्र भर के लिए उसी रिश्ते में बंधे रहना. भले ही खुशी से ज्यादा गम ही क्यों न मिले. मैं घिसेपिटे फौर्मूले से अलग जीना चाहती हूं, इसलिए स्वयं को एक मकसद के हवाले कर दिया. मकसद के बगैर इंसान कितना अधूरा होता है न.’’ ‘‘पर मुझे तो लगता है कि जो इंसान अधूरा होता है, वही जीने के लिए मकसद तलाशता है.’’

सुमित ने उस की कही बात की खिल्ली उड़ाने जैसी बात कही थी पर वह सुमित के इस कथन से स्वयं को विचलित होता दिखाना नहीं चाहती थी. उस ने स्वयं को समझाया कि बिलकुल विपरीत सोच है सुमित की, तो इस में बुराई क्या है? नदी के 2 किनारों की तरह हम भी नहीं मिल सकते पर साथ तो चल सकते हैं. उस ने सुमित से बस इतना कहा था,   ‘‘क्या इंसान को पूर्ण होने के लिए दूसरे की मदद लेनी जरूरी है? क्या प्रकृति ने इंसान को पूर्ण बना कर नहीं भेजा है? लोग यह क्यों समझते हैं कि जीवनसाथी के बगैर व्यक्ति अधूरा है.’’

‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा,’’ सुमित ने प्रतिरोध किया.

‘‘मगर तुम्हारे कहने का अर्थ तो यही था.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं है. तुम ने मेरी बात को उसी रूप में घुमा लिया जैसा तुम दूसरों को बोलते सुनती हो.’’

फिर थोड़ी देर शैली खामोश रही तो सुमित ने उसे छेड़ते हुए पूछा, ‘‘एक बात बताओ शैली, तुम्हें इतना बोलना क्यों पसंद है? कभी खामोश रह कर भी देखो. उन लमहों को महसूस करो जिन्हें वैसे कभी महसूस नहीं कर सकतीं. बहुत सी बातें और यादें एकएक कर तुम्हारे जेहन में खिले फलों सी महकने लगेंगी.’’ ‘‘जरूरी नहीं कि वह फूलों की महक ही हो, कांटों की चुभन भी हो सकती है. तो कोई क्यों आने दे उन एहसासों को मन के गलियारों में फिर से?’’

‘‘तुम ने कभी अपने बारे में कुछ नहीं बताया, पर लगता है कि तुम जिस से बेहद प्यार करती थीं उसी ने गम दिया है तुम्हें.’’

‘‘कोई बात मैं कहती हूं, तो जरूरी तो नहीं कि उस का सरोकार मुझ से हो ही.’’

‘‘कुछ भी कह लो, पर तुम्हारी जबान कभी तुम्हारी आंखों का साथ नहीं देती.’’

‘‘साथ तो कोई किसी का नहीं देता. साथ की आस करना ही बेमानी है. जो अपना होता है, परछाईं की तरह खुद ही साथ चला आता है. पर किसी से अपेक्षाएं रखो तो गमों के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता.’’

‘‘तुम्हारी बातें मुझे समझ में नहीं आतीं, पर बहुत अच्छी लगती हैं. लगता है जैसे शब्दों के साथ खेल रही हो. काश तुम्हारा यह अंदाज मेरे पास भी होता.’’

‘‘वैसे शब्दों से खेलते तो तुम भी हो. अंतर सिर्फ इतना है कि दोनों का अंदाज अलगअलग है,’’ यह कहते हुए. एक राज भरी मुसकान आई  थी शैली के होंठों पर. उसे न जाने क्यों आजकल सुमित से मिलना, बातें करना अच्छा लगने लगा था.  सब से पहले सुमित की पेंटिंग्स देख कर उस की और आकर्षित हुई थी वह. पर अब उस की बातें भी अच्छी लगने लगी थीं.

किसी को पसंद करना ऐसा एहसास है, जिसे लाख छिपाना चाहो तो भी दूसरों को खबर लग ही जाती है. कल की ही तो बात है. वह बरामदे में बैठी सुमित की बातें सोच रही थी कि बेटी नेहा का स्वर गूंजा,  ‘‘ममा अकेली बैठ कर मुसकरा क्यों रही हो?’’ वह कोई जवाब नहीं दे सकी. तुरंत खड़ी हो गई जैसे चोरी पकड़ी गई हो.फिर खुद को संभाल कर, प्यार से बेटी के कंधों पर हाथ रखते हुए बोली,  ‘‘कुछ नहीं, सोच रही हूं कि आज खाने में क्या बनाऊं,’’ और किचन की तरफ चल दी. कितना अंतर था सुमित और उस के पति संकल्प में. कढ़ी बनाते समय सहसा ही पुराने जख्म हरे हो गए थे. उस के जेहन में संकल्प के कहे गए शब्द गूंजने लगे थे.

‘‘शैली तुम खाना अच्छा बनाती हो. पर जो भी हो तुम्हारी बनाई कढ़ी में वह स्वाद नहीं जो अम्मां की बनाई कढ़ी में आता है.’’

अपने पति का यह रिमार्क उसे अंदर तक बेध गया क्योंकि सामने बैठी सास ने बड़े ही व्यंग्य से मुसकुरा कर उसे देखा था. यह एक दिन की बात नहीं थी. रोज ही ऐसा होता था. संकल्प मां के गुण गाता, मां मुसकरातीं और यह मुसकराहट जले पर नमक का काम करती. शैली बातबात पर संकल्प से झगड़ कर अपना गुस्सा उतारती, तो संकल्प भी उसे जी भर कर जलीकटी सुनाता. उस के पिता ने कितने अरमानों से संकल्प के साथ उस की शादी की थी. उस ने भी ख्वाहिशें लिए हुए ही ससुराल में कदम रखा था. पर छोटीछोटी बातों ने कब रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं, उसे पता ही नहीं चला. कभी सास के साथ बदतमीजी की बात, कभी दोस्तों, रिश्तेदारों की सही आवभगत न करने की शिकायत. कभी बात न मानने का गिला और कभी अपनी मरजी चलाने का हवाला दे कर किसी न किसी तरह संकल्प उस पर बरसते ही रहते थे और कभी अन्याय न सहने वाली शैली हर दफा बंद कमरे में चीखचीख कर रोती और अपना गुस्सा उतारती.

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लक्ष्य: जीवन में क्या पाना चाहती थी सुधा?

Serial Story: लक्ष्य (भाग-3)

सुधा का बैग उस ने अपने हाथों में ले कर कमरे में प्रवेश किया. जहां उस की मां एक पलंग पर बैठी थीं. पलंग से सटी एक मेज थी जिस पर दवाइयां रखी थीं. कमरा बहुत बड़ा था. सामने की दीवार पर एक तसवीर टंगी थी, जिस पर फूलों की माला लटक रही थी. सुधा ने उस की मां के चरणों को स्पर्श किया तो वे पलंग पर बैठे उसे आश्चर्यचकित नजरों से देखने लगीं. तभी निलेश ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां, यह सुधा है, दिल्ली से आई है. कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी.’’ उस की मां सुधा से औपचारिक बातें करने लगीं, पर सुधा की नजरें दीवार पर लगी उस तसवीर पर टिकी थीं.

निलेश ने कहा, ‘‘सुधा, यह मेरे पिताजी की तसवीर है. वह पलंग से उठ कर उस तसवीर को स्पर्श कर भावविह्वल हो गई. उस की आंखों से आंसू टपकने लगे. निलेश की मां देख कर समझ गई कि यह बहुत भावुक लड़की है.’’

उन्होंने उस का ध्यान हटाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘बेटी, मेरे पति जिंदा होते तो तुम्हें देख कर बहुत खुश होते, पर नियति को कौन टाल सकता है. आओ, मेरे पास बैठो. लगता है तुम मेरे बेटे से बहुत प्यार करती हो. तभी तो इतनी दूर से मिलने आई हो वरना इस कुटिया में कौन आता है. मेरी बूढ़ी आंखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं. क्या तुम मेरे बेटे को पसंद करती हो?’’ यह सुन सुधा ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘हम और निलेश कालेज में बहुत अच्छे दोस्त थे.’’

जब निलेश की मां ने कहा, ‘‘तो क्या अब नहीं हो?’’ मुसकराते हुए उस ने बड़ी सहजता से कहा, ‘‘हां, अभी भी मैं उस की दोस्त हूं, तभी तो मिलने आई हूं.’’

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निलेश की मां मुसकराने लगीं, और उस के सिर पर हाथ रख कहा, ‘‘सदा खुश रहो बेटी, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, पर मेरी बीमारी के कारण वह कोई डिगरी न पा सका. मैं ने बहुत समझाया कि दिल्ली जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले, मेरा क्या है, आज हूं कल नहीं रहूंगी. पर उस की तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’’ सुधा ने तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मांजी, आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी. आप को इस हालत में छोड़ कर कोई भी बेटा कैसे जा सकता था?’’

तभी निलेश चाय का प्याला ले कर कमरे में उपस्थित हुआ और सुधा की बातें सुन कर सोचने लगा कि क्या यह वही सुधा है? जो परिवार की जिम्मेदारी के नाम से कोसों दूर भागती थी. मां को खुश करने के लिए कितना अच्छा नाटक कर रही है. न जाने क्यों झूठी तसल्ली दे रही है. वह उस के करीब जा कर कहने लगा, ‘‘सुधा, तुम सफर में थक गई होगी, फ्रैश हो कर चाय पी लो.’’ चाय मेज पर रखते हुए उसे आदेश दिया. निलेश की मां पलंग से उठीं और अपने कमरे से बाहर चली गईं ताकि वे दोनों आपस में बातें कर सकें. उन के जाते ही सुधा निलेश से सवाल कर बैठी, ‘‘निलेश, क्या चाय तुम ने बनाई है?’’

‘‘हां, सुधा, मुझे सबकुछ काम करना आता है और कोई है भी तो नहीं हमारी मदद करने के लिए घर में.’’ सुधा आश्चर्यचकित होती हुई बोली, ‘‘तुम लड़का हो कर भी अकेले कैसे सब मैनेज कर लेते हो. अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, ताकि तुम्हें जीवन में कुछ आराम तो मिलता.’’

निलेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह तुम कह रही हो सुधा. आजकल की लड़कियां घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहना चाहतीं. हर लड़की के सपने होते हैं. किसी लड़की के उन सपनों को मैं बिखेरना नहीं चाहता. मैं जैसा भी हूं, अकेले ही ठीक हूं.’’

सुधा अचानक एक प्रश्न कर बैठी, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करना चाहोगे?’’

वह उस की तरफ देख कर फीकी हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘सुधा, क्यों मजाक कर रही हो?’’

‘‘यह मजाक नहीं निलेश, हकीकत है. क्या तुम मुझ से शादी करोगे? तुम से बिछड़ने के बाद एहसास हुआ कि जीवन में एक हमसफर तो होना ही चाहिए. अब जीवन में मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है. मैं ने जो चाहा, सब किया पर खुशी की तलाश में अब तक भटक रही हूं. मुझे लगता है कि वो खुशी तुम हो, कोई और नहीं. न जाने क्यों दिल तुम्हें ही पुकारता रहा. तुम ने ठीक कहा था. प्यार कब किस से हो जाए पता नहीं चलता, जब पता चला तो दिल पर तुम्हारा ही नाम देखा. तुम्हारी प्यारभरी बातें, मुझे सोने नहीं देतीं.’’

‘‘यही तो प्यार है, सुधा, दो दिल मिलते हैं पर कभीकभी एकदूजे को समझ नहीं पाते, और जब समझते हैं तो बहुत देर हो जाती है. सुधा, सच तो यह है कि मैं तुम्हें खुश नहीं रख पाऊंगा. क्या तुम इस गांव के वातावरण में मेरे साथ रह पाओगी? मेरी परिस्थिति अब तुम्हारे सामने हैं. जैसी जिंदगी तुम्हें चाहिए, मैं नहीं दे सकता. तुम्हें बंधन पसंद नहीं और मैं उन्मुक्त नहीं. तुम्हारे सपने अधूरे रह जाए, यह मुझे मंजूर नहीं.’’ चाय की चुस्की लेते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, मेरे सपने तो अब पूरे होंगे. अब तक मैं शहर के बच्चों को पढ़ाती रही, चित्रकला भी सिखाती रही पर अब तुम्हारे गांव के बच्चों के साथ बिताना चाहती हूं. शहर में तो सभी रहना चाहते हैं, पर अब मैं तुम्हारे गांव के बच्चों को पढ़ाऊंगी. एक अलग अनुभव होगा मेरे जीवन में. इस तरह तुम्हारी मां की देखभाल भी कर पाऊंगी, अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिम्मेदारी और प्यार का एहसास तो तुम्हीं ने कराया है. तुम ठीक कहा करते थे कि बंधन में सुख भी होता है और दुख भी.’’

वह सुधा की बातें सुन, अवाक उसे देखने लगा. उस का जी चाहा कि सुधा को गले लगा ले. वह सोचने लगा, वक्त ने सुधा को कितना परिपक्व बना दिया या मेरी जुदाई ने प्यार का एहसास करा दिया है कि जब किसी से प्यार होता तो सभी परिस्थितियां अनुकूल दिखाई देने लगती हैं.

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‘‘क्या सोच रहे हो, निलेश, दरअसल, तुम से जुदा हो जाने के बाद मुझे एहसास हो गया कि दोस्ती और प्यार के बिना इंसान जीवनपथ पर चल नहीं सकता. कभी न कभी औरत हो या पुरुष दोनों को जीवन में एकदूसरे की आवश्यकता होती ही है. फिर तुम क्यों नहीं मेरी जिंदगी में. आज उस प्यार को स्वीकार करने आई हूं जो कभी ठुकरा दिया था. बोलो, क्या मुझे स्वीकार करोगे?’’ ‘‘सुधा, बात स्वीकार की नहीं, लक्ष्य की है. तुम तो अपनी सफलता की सारी मंजिले पार कर गई. पर मैं आज भी लक्ष्यविहीन हूं. तुम्हारे शब्दों में कहूं तो समय पर भरोसा जो करता था.’’

उसे दिलासा देते हुए सुधा ने कहा, ‘‘निलेश, परिस्थितियां इंसान को बनाती हैं, और बिगाड़ती भी हैं. इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. तुम ने तो अपनी मां के लिए अपना कैरियर दांव पर लगा दिया. ऐसा बेटा होना भी तो आजकल इस संसार में दुर्लभ है. क्या तुम्हारा यह लक्ष्य नहीं? आज मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे पास अभी भी समय है, अपनी अधूरी शिक्षा पूरी कर सकते हो. बीए कर सेना में भरती हो सकते हो तुम्हारे पिता की भी यही इच्छा थी न?’’ यह सुन निलेश की खुशी का ठिकाना न रहा,‘‘तुम सचमुच ग्रेट हो. यहां आते ही मेरी हर समस्या को तुम ने ऐसे सुलझा दिया जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.’’

तभी दरवाजे की ओर से निलेश की मां ने जब यह सुना तो खुशी से फूले न समाईं. अपने बेटे के भविष्य को ले जो उन के हृदय पर संकट के बादल घिर आए थे, वे सब छंट गए. आगे बढ़ कर सुधा को उन्होंने गले लगा लिया.

सुधा ने कहा, ‘‘आंटी, यदि आप इजाजत दें तो मैं अपनी नौकरी और शहर छोड़ कर यहीं आ जाऊं?’’ ‘‘आंटी नहीं, सुधा, आज से तुम मुझे मां कहोगी,’’ निलेश की मां ने जब यह कहा तो दोनों मुसकरा पड़े. सुधा ने अपने मातापिता की इजाजत ले कर निलेश से शादी कर ली और गांव में ही जीवन व्यतीत करने लगी.

निलेश ने स्नातक की परीक्षा पास कर सेना में भरती होने के लिए अर्जी दे दी थी. आज वह अपने देश की सीमा पर तैनात है. शादी के 6 महीने बाद ही निलेश की मां की मृत्यु हो गई थी.

आज वे जीवित होतीं तो कितनी खुश होतीं. सीमा पर तैनात निलेश यही सोच रहा है. शायद यही जीवन की रीत है. कभी मिलती खुशी तो कभी गम की लकीर. पर जिंदगी रुकती तो नहीं है. सुधा ठीक तो कहा करती थी कि इंसान चाहे तो कभी भी, कुछ भी कर सकता है. पर आज अगर अपने लक्ष्य तक पहुंचा हूं तो सुधा के सहयोग से. जीवन का हमसफर साथ दे तो कोई भी जंग इंसान जीत सकता है.

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Serial Story: लक्ष्य (भाग-2)

सुधा के मुख से यह सुन उस की मां उस के करीब जा कर समझाने लगी, ‘‘बेटी, कुछ लोगों का काम ही उत्पाद मचाना होता है. अगर उन के दिल में संवेदना होती तो ऐसा काम करते ही क्यों? पर तुम निलेश के पिता के लिए इतनी दुखी न हो. सैनिक का जीवन तो ऐसा ही होता है बेटी, उन के सिर पर हमेशा कफन बंधा होता है. वे देश के लिए लड़ते हैं, पर उन का परिवार एक दिन अचानक ऐसे ही बिखर जाता है. मरता तो एक इंसान है लेकिन बिखर जाते हैं मानो घर के सभी सदस्य. हम उस शहीद को नमन करते हैं. ऐसे लोग कभी मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं.’’ पर सुधा अपने कमरे में आ कर सोचने लगी कि काश, निलेश के लिए वह कुछ कर पाती. आज वह कितना दुखी होगा. एक तरफ मैं ने उस का प्यार ठुकरा दिया, दूसरी तरफ उस के सिर से पिता का साया उठ गया. इस समय मुझे उस के साथ होना चाहिए था. आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है. कई बार जब मैं निराश होती तो वह मेरा साहस बढ़ाता. आज क्या मैं उस के लिए कुछ नहीं कर सकती? वह बारबार फोन करती पर कोई जवाब नहीं आता तो निराश हो जाती.

2 महीने बाद परीक्षा हौल में उस की आंखें निलेश को ढूंढ़ रही थीं. पर उस का कोई अतापता नहीं था. वह सोचने लगी, क्यों उस के विषय में वह चिंतित रहने लगी है? वह मात्र दोस्त ही तो था, एकदिन जुदा तो होना ही था. फिर उसे ध्यान आया कि कहीं उस की परीक्षा खराब न हो जाए, और वह अपना पेपर पूरा करने लगी. एक महीने बाद जिस दिन रिजल्ट निकलने वाला था, वह कालेज गई तो सभी दोस्तों से उस का हाल जानने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसे संतुष्ट नहीं किया. सभी अपने कैरियर की बातों में मशगूल दिख रहे थे. वह घर लौट गई. एकदिन अपनी डिगरी हाथ में ले कर सोचने लगी कि काश, निलेश को भी स्नातक की उपाधि मिली होती तो उस की खुशियां भी दोगुनी होती. न जाने वह जिंदगी कहां और कैसे काट रहा है? जिन आंखों को देख कर वह उन में समा जाना चाहता था क्या वे आंखें अब उसे याद नहीं आतीं? कालेज के अंतिम दिन जो बातें मुझ से की थीं, क्या वह सब नाटक था या यों ही भावनाओं में बह कर बयां कर दिया था, पर मैं ने भी तो उसे तवज्जुह नहीं दी थी. कहीं वह मुझ से नाराज तो नहीं. उस के मन में अनेक खयालों के बुलबुले उठते रहते.

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इस तरह 2 साल गुजर गए. उस ने स्नातक के बाद बीएड भी कर लिया, ताकि स्कूल में पढ़ा सके. जब उसे निलेश की याद सताती तो वह चित्र बनाने बैठ जाती. उसे चित्र बनाने का बहुत शौक था. स्कूल में भी बच्चों को चित्रकला का पाठ सिखाने लगी. इस तरह वह अपने चित्रों के साथ दिल बहलाती रही. अब वह किसी से नहीं मिलती, अपने सभी दोस्तों से कन्नी काटती रहती. अपना काम करती और घर आ कर गुमसुम रहती.

उस की हालत देख उस के मातापिता भी परेशान रहने लगे. उस की शादी के लिए उसे किसी लड़के की तसवीर दिखाते तो उस में निलेश की तसवीर ढूंढ़ने लगती. उस के प्यारभरे शब्द याद आने लगते. तब वह मन ही मन कहने लगती, क्या उसे निलेश से प्यार होने लगा है, पर वह तो मेरी जिंदगी से, शहर से जा चुका है. क्या वह लौट कर कभी आएगा मेरी जिंदगी में. इस तरह उस की यादों में सदा खोई रहती.

एक दिन उस के स्कूल के बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में जब अनेक स्कूलों के साथ हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया तो उन की तसवीर अखबार में प्रकाशित हुई, उन के साथ सुधा की भी तसवीर उन बच्चों के साथ साफ दिखाई दे रही थी. उधर जब एक समाचारपत्र पढ़ते हुए निलेश ने सुधा की तसवीर देखी तो दंग रह गया और सोचने लगा, आखिर सुधा अपनी मंजिल पर पहुंच ही गई. उस ने जो कहा था, कर दिखाया. सचमुच जब मन में दृढ़विश्वास हो तो सफलता मिल ही जाती है. मैं भी कितना मशगूल हो गया कि अपने दोस्तों को भूल गया. कल क्या थी मेरी जिंदगी और आज क्या बन गई. कहां उसे पाने का ख्वाब देखा करता था, और आज उस की कोई तसवीर भी मेरे पास नहीं. मैं तो आज भी सुधा से प्यार करता हूं, पर न जाने क्यों वह प्यार से अनजान है. क्यों न एकबार उसे फोन किया जाए. बधाई तो दे ही सकता हूं.

उस ने फोन किया तो सुधा उस की आवाज सुन चकित रह गई. जब उस ने ‘हैलो सुधा,’ कहा तो आवाज पहचान गई, और शब्दों पर जोर दे कर वह बोल पड़ी, ‘‘क्या तुम निलेश बोल रहे हो?’’

‘‘हां, सुधा.’’ ‘‘तुम तो सचमुच दुनिया की भीड़ में खो गए, निलेश, और मैं तुम्हें ढूंढ़ती रही.’’ उस ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों ढूंढ़ती रही, सुधा? तुम तो मुझ से प्यार भी नहीं करती थी?’’ तब वह रोष प्रकट करती हुई बोली, ‘‘पर दोस्ती तो थी तुम से? क्यों कभी पलट कर मुझे देखने की आवश्यकता नहीं समझी?’’

वह उधर से उदास स्वर में बोला, ‘‘जीवन की कठिनाइयों ने भूलने पर मजबूर कर दिया सुधा वरना मैं तुम्हें कभी नहीं भूला. मैं तो अपनेआप को ही भूल चुका हूं. पापा क्या गुजर गए, मेरी तो दुनिया ही बदल गई. मैं दिल्ली लौट जाना चाहता था अपनी स्नातक की परीक्षा देने के लिए. पर जिस दिन दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था, मां की तबीयत खराब हो गई. अस्पताल ले गया तो जांच में पता चला कि मां को ब्रेन ट्यूमर है. इसलिए मैं उन की देखभाल करने लगा. मां को ऐसी हालत में छोड़ कर जाना उचित नहीं समझा. मेरी मां अकेले न जाने कब से अपने दर्द को छिपाए जी रही थीं. कहतीं भी तो किस से. पापा तो थे नहीं. ‘‘मेरी पढ़ाई खराब न हो, मां ने कुछ नहीं बताया. ऐसे में उन्हें अकेले छोड़ दिल्ली आता भी तो कैसे.’’

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‘‘ओह, तुम इतना सबकुछ अकेले सहते रहे. अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’ निलेश ने धीरे से कहा, ‘‘अभी 2 महीने पहले ही तो औपरेशन हुआ है बे्रन ट्यूमर का. अभी भी इलाज चल रहा है. कीमोथेरैपी करानी पड़ती है. ब्रेन ट्यूमर कोई छोटी बीमारी तो होती नहीं, कई तरह के साइड इफैक्ट हो जाते हैं. बहुत देखभाल की जरूरत होती है. इसलिए मैं कहीं उन्हें छोड़ कर जा भी नहीं सकता. तुम अपनी सुनाओ. आज तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचते देख मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया. स्कूल के बच्चों के साथ चित्रकारिता में इनाम लेते हुए अखबार में तसवीर देखी, तो फोन उठा लिया. आखिर तुम चित्रकारी में सफल हो ही गई. बहुत बधाई. तुम सफलताओं के ऊंचे शिखर पर विराजमान रहो, मैं तुम्हें दूर से देखता रहूं, यह मेरी कामना है.’’

‘‘धन्यवाद निलेश, पर मैं तुम से एक बार मिलना चाहती हूं. तुम नहीं आ सकते तो अपने घर का पता ही बता दो, मैं आ जाऊंगी.’’

यह सुन नीलेश को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने पूछा, ‘‘सुधा, सचमुच मुझ से मिलने आओगी?’’ ‘‘यकीन नहीं हो रहा न, एक दिन यकीन भी हो जाएगा. अपने घर का पता मैसेज कर देना.’’

एक सप्ताह बाद सुधा, अपने मातापिता की अनुमति ले कर घर से निकल कोलकाता एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर निलेश के बताए पते पर एक टैक्सी में सवार हो कर उस के गांव पहुंच गई. ज्योंज्यों वह उस के घर के करीब जा रही थी उस के दिल में उथलपुथल मचने लगी कि उस के घर के सदस्य क्या कहेंगे. वह ज्यादा निलेश के परिवार के बारे में जानती भी तो नहीं. वह गांव के वातावरण से अनभिज्ञ थी. उस ने टैक्सी ड्राइवर से रुकने को कहा और टैक्सी से उतर स्वयं ढूंढ़ते हुए वह निलेश के घर पहुंच गई. वह दरवाजा खटखटाने लगी. दरवाजा खुलते ही उस की नजर निलेश पर पड़ी तो खुशी का ठिकाना न रहा. निलेश ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘सुधा, मैं कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूं.’’

उस का कान मरोड़ते हुए वह बोली,‘‘तो जाग जाओ अब सपने से.’’

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Serial Story: लक्ष्य (भाग-1)

निलेश और सुधा दोनों दिल्ली के एक कालेज में स्नातक के छात्र थे. दोनों में गहरी दोस्ती थी. आज उन की क्लास का अंतिम दिन था. इसलिए निलेश कालेज के पार्क में गुमसुम अपने में खोया हुआ फूलों की क्यारी के पास बैठा था. सुधा उसे ढूंढ़ते हुए उस के करीब आ कर पूछने लगी, ‘‘निलेश यहां क्यों बैठे हो?’’ उस का जवाब जाने बिना ही वह एक सफेद गुलाब के फूल को छूते हुए कहने लगी, ‘‘इन फूलों में कांटे क्यों होते हैं. देखो न, कितना सुंदर होता है यह फूल, पर छूने से मैं डरती हूं. कहीं कांटे न चुभ जाएं.’’ निलेश से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘आज किस सोच में डूबे हो, निलेश?’’

निलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा हूं कि जब हम किसी से मिलते हैं तो कितना अच्छा लगता है पर बिछड़ते समय बहुत बुरा लगता है. आज कालेज का अंतिम दिन है. कल हम सब अपनेअपने विषय की तैयारी में लग जाएंगे. परीक्षा के बाद कुछ लोग अपने घर लौट जाएंगे तोकुछ और लोग की तलाश में भटकने लगेंगे. तब रह जाएगी जीवन में सिर्फ हमारी यादें इन फूलों की खूशबू की तरह. यह कालेज लाइफ कितनी सुहानी होती है न, सुधा. ‘‘हर रोज एक नई स्फूर्ति के साथ मिलना, क्लास में अनेक विषयों पर बहस करना, घूमनाफिरना और सैर करना. अब सब खत्म हो जाएगा.’’ सुधा की तरफ देखता हुआ निलेश एक सवाल कर बैठा, ‘‘क्या तुम याद करोगी, मुझे?’’

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‘‘ओह, तो तुम इसलिए उदास बैठे हो. आज तुम शायराना अंदाज में बोल रहे हो. रही बात याद करने की, तो जरूर करूंगी, पर अभी हम कहां भागे जा रहे हैं?’’ वह हाथ घुमा कर कहने लगी, ‘‘सुना है दुनिया गोल है. यदि कहीं चले भी जाएं तो हम कहीं न कहीं, किसी मोड़ पर मिल जाएंगे. एकदूसरे की याद आई तो मोबाइल से बातें कर लेंगे. इसलिए तुम्हें उदास होने की जरूरत नहीं.’’

सुधा का अंदाज देख कर निलेश गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दुनिया बहुत बड़ी है, सुधा. क्या पता दुनिया की भीड़ में हम खो जाएं और फिर कभी न मिलें? इसलिए आज तुम से अपने दिल की बातें करना चाहता हूं. क्या पता कल हम मिलें, न मिलें. नाराज मत होना.’’ वह घास पर बैठा उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘सुधा, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मुझ से प्यार करती हो?’’ यह सुनते ही सुधा के चेहरे का रंग बदल गया. वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, निलेश? हमारे बीच प्यार कब और कहां से आ गया? हम एक अच्छे दोस्त हैं और दोस्त बन कर ही रहना चाहते हैं. अभी हमें अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए, न कि प्यार के चक्कर में पड़ कर अपना समय बरबाद करना चाहिए. प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं.

‘‘सौरी, तुम बुरा मत मानना. सच तो यह है कि मैं शादी ही नहीं करना चाहती. शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी बदल जाती है. उन के सपने मोती की तरह बिखर जाते हैं. उन की जिंदगी उन की नहीं रह जाती, दूसरे के अधीन हो जाती है. वे जो करना चाहती हैं, जीवन में नहीं कर पातीं. पारिवारिक उलझनों में उलझ कर रह जाती हैं. मेरे जीवन का लक्ष्य है कुशल शिक्षिका बनना. अभी मुझे बहुत पढ़ना है.’’ ‘‘सुधा, पढ़ने के साथसाथ क्या हम प्यार नहीं कर सकते? मैं तो प्यार में सिर्फ तुम से वादा चाहता हूं. भविष्य में तुम्हारे साथ कदम मिला कर चलना चाहता हूं. जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तभी हम घर बसाएंगे. अभी तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं, और रही बात शादी के बाद की, तो तुम जो चाहे करना. मैं कभी तुम्हें किसी भी चीज के लिए टोकूंगा नहीं.’’

‘‘पर मैं कोई वादा करना नहीं चाहती. अभी कोई भी बंधन मुझे स्वीकार नहीं.’’ तब सुधा की यह बात सुन कर उस ने कहा, ‘‘प्यार इंसान की जरूरत होती है. आज भले ही तुम इस बात को न मानो, पर एक दिन तुम्हें यह एहसास जरूर होगा. इन सब खुशियों के अलावा अपने जीवन में एक इंसान की जरूरत होती है. जिसे जीवनसाथी कहते हैं. खैर, मैं तुम्हारी सफलता में बाधक बनना नहीं चाहता. दिल ने जो महसूस किया, वह तुम से कह बैठा. बाकी तुम्हारी मरजी.’’ वह अनमना सा उठा और घर की तरफ चल पड़ा. उस के पीछेपीछे सुधा भी चल पड़ी. कुछ देर चुपचाप उस के साथसाथ चलती रही. अब दोनों बस स्टौप पर खड़े थे, अपनीअपनी बस का इंतजार करने लगे. तभी सुधा ने खामोशी तोड़ने के उद्देश्य से उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे जीवन में भी तो कोई लक्ष्य होगा. स्नातक के बाद क्या करना चाहोगे क्या यों ही लड़की पटा कर शादी करने का इरादा?’’

यह सुन कर निलेश झुंझलाते हुए बोला, ‘‘ऐसी बात नहीं है, सुधा. मैं तुम्हें पटा नहीं रहा था. अपने प्यार का इजहार कर रहा था. पर जरूरी तो नहीं कि जैसा मैं सोचता हूं वैसा ही तुम सोचो, और प्यार किसी से जबरदस्ती नहीं किया जाता. यह तो एक एहसास है जो कब दिल में पलने लगता है, हमें पता ही नहीं चलता. आज के बाद कभी तुम से प्यार का जिक्र नहीं करूंगा. दूसरी बात, जीवन के लक्ष्य के बारे में अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं. वक्त जहां ले जाएगा, चला जाऊंगा.’’ ‘‘निलेश, यह तुम्हारी जिंदगी है, कोई और तो नहीं सोच सकता. समय को पक्ष में करना तो अपने हाथ में होता है. अपने लक्ष्य को निर्धारित करना तुम्हारा कर्तव्य है.’’

इस पर निलेश बोला, ‘‘हां, मेरा कर्तव्य जरूर है लेकिन अभी तो स्नातक की परीक्षा सिर पर सवार है. उस के बाद हमारे मातापिता जो कहेंगे वही करूंगा.’’ तभी सुधा की बस आ गई और वह बाय करते हुए बस में चढ़ गई. निलेश भी अपने गंतव्य पर चला गया.

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सुधा अब अपने घर आ चुकी थी. जब खाना खा कर वह अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी तो सोचने लगी, क्या सचमुच निलेश मुझ से प्यार करता है? या यों ही मुझे आजमा रहा था. पर उस ने तो अपने जीवन का निर्णय मातापिता पर छोड़ रखा है. उन्हीं लागों को हमेशा प्रधानता देता है. क्या जीवन में वह मेरा साथ देगा? अच्छा ही हुआ जो उस का प्यार स्वीकार नहीं किया. प्यार तो कभी भी किया जा सकता है, पर जीवन का सुनहला वक्त अपने हाथों से नहीं जाने दूंगी. समय के भरोसे कोई कैसे जी सकता है? जो स्वयं अपना निर्णय नहीं ले सकता वह मेरे साथ कदम से कदम मिला कर कैसे चल सकता है? क्या कुछ पल किसी के साथ गुजार लेने से किसी से प्यार हो जाता है? निलेश न जाने क्यों ऐसी बातें कर रहा था? यह सोचतेसोचते वह सो गई. अगले दिन वह परीक्षा की तैयारी में लग गई. निलेश से कम ही मुलाकात होती. एकदिन सुबह वह उठी तो रमन, जो निलेश का दोस्त था ने बुरी खबर से उसे अवगत कराया कि निलेश के पापा एक आतंकी मुठभेड़ में मारे गए हैं. आज सुबह 6 बजे की फ्लाइट से वह अपने गांव के लिए रवाना हो गया. उस के पापा की लाश वहीं गांव में आने वाली है. वह बहुत रो रहा था. उस ने कहा कि तुम्हें बता दें.

यह सुन वह बहुत व्याकुल हो उठी. उस को फोन लगाने लगी पर उस का फोन स्विच औफ आ रहा था. वह दुखी हो गई, उसे दुखी देख उस की मां ने सवाल किया कि सुधा क्या बात है, किस का फोन था? तब उस ने रोंआसे हो कर कहा, ‘‘मां, निलेश के पापा की आतंकी मुठभेड़ में मृत्यु हो गई,’’ यह कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए और कहने लगी, क्यों आएदिन ये आतंकी देश में उत्पात मचाते रहते हैं? कभी मंदिर में धमाका तो कभी मसजिद में करते हैं तो कहीं सरहद पर गोलीबारी कर बेकुसूरों का सीना छलनी कर देते हैं. क्या उन की मानवता मर चुकी है या उन के पास दिल नहीं होता जो औरतों के सुहाग उजाड़ लेते हैं. आतंक की डगर पर चल कर आखिर उन्हें क्या सुख मिलता है?’’

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प्रतिवचन: त्याग की उम्मीद सिर्फ स्त्री से ही क्यों

Serial Story: प्रतिवचन (भाग-3)

दिल कर रहा था कि चरित्रवान बेटे की झाड़ खाने की बात मां को बता दूं. परंतु कह नहीं पाई. विवाह के वचन फिर कानों के पास आ कर चुगली करने लगे.

‘मैं अपनी सखियों के साथ या अन्य स्त्रियों के साथ बैठी हूं, आप मेरा अपमान न करें. आप दूसरी स्त्री को मां समान समझें और मुझ पर क्रोध न करें.’

सप्तक को मैं ने सदा प्रश्न करना सिखाया था. सुमित अकसर उस के सवालों से चिढ़ जाया करते थे, परंतु मैं सदा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करती थी. मेरे और सप्तक के प्रश्नोत्तर के खेल में ही मुझे मेरे जीवन के सब से बड़े सवाल का जवाब मिल गया था.

‘मम्मा, मेरा नाम सप्तक क्यों है?’

‘बेटा, सप्तक अर्थात सात सुर सा रे गा मा पा धा नी, तुम मेरे जीवनरूपी गीत के सुर हो.’

‘मां, आप गाती क्यों नहीं?’

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‘वो बेटा, कभीकभी जीवन में कुछ फैसले मानने पड़ते हैं.’

‘मम्मा, आप कोई भी बात ऐसे ही मान लेती हो. ऐसा होता आया है, इसलिए हम बात क्यों मानें? हमें पहले यह जानना चाहिए की जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है.’

‘पापा और दादी मुझे होस्टल भेजना चाहते हैं, पर मैं नहीं चाहता, उन्हें मेरा नाम भी पसंद नहीं है. वह भी बदल देंगे शायद. मम्मा, आप दादी से बात करोगी?’

सुमित ने मुझे इस विषय में कुछ नहीं बताया था. शादी के वचन आज कानों में तेज चिल्ला रहे थे, ‘आप अपने हर निर्णय में मुझे शामिल अवश्य करें.’

परंतु मैं फिर भी जाग नहीं पाई.

‘बेटा, दादी जो कहती हैं…’

‘मैं जानता था आप से नहीं होगा. मैं दादी से बात खुद कर लूंगा.’

फिर मुंह फेर कर सप्तक तो सो गया था, परंतु 13 साल से सोई अपनी मां को जगा दिया था उस ने. मेरा 10 साल का बेटा इतना बड़ा कब हो गया, मैं जान ही न पाई. शादी के जो वचन मेरे कानों में आ कर फुसफुसाते थे, आज वे पूरी तरह से आ कर सामने खड़े हो गए थे.

कितने पुरुष निभाते हैं ये सारे वचन? शायद एक भी नहीं, उन से तो निभाने की उम्मीद तक नहीं की जाती. मेरे अब तक के जीवन में समझौता केवल मैं ने किया है, वचन केवल मैं ने निभाए हैं. सुमित को तो शायद याद भी नहीं कि उन्होंने कोई वचन भी दिया था.

वह इसलिए क्योंकि पुरुष बड़ी चतुराई से इन वचनों को भूल जाता है परंतु स्त्री को ये वचन भूलने ही नहीं दिए जाते. अपने सासससुर की सेवा न करने पर क्या किसी दामाद को कभी कठघरे में खड़ा करता है यह समाज? उस की लाख बुराइयों को भी छिपा लिया जाता है. परंतु एक बहू जब ऐसा करती है तो बिना कारण जाने उसे अनगिनत गलत संबोधनों से नवाजा जाता है. तानेउलाहने सुन कर भी जो चुप रहे उसी स्त्री को अच्छी बहू का मैडल मिलता है. कभीकभी तो वह भी नहीं मिलता.

उस दिन समझ पाई थी मैं, शादी के इन वचनों को बनाया ही इसलिए गया था ताकि स्त्रियों को पुरुषों के ऊपर निर्भर रखा जा सके. यह पूरी प्रथा ही पितृसत्तात्मक सोच के अहं को संतुष्ट करने के लिए बनाई गई थी. स्त्री को अपने सुखों के लिए किसी पर निर्भर क्यों रहना पड़ता है?

पंडितों ने अपनी तथा पुरुष संप्रभुता को बनाए रखने के लिए ये सारे नियमकानून बनाए थे.

मैं अपने बेटे को पुरुष होने का दंभ भरते हुए नहीं देख सकती थी. मैं उसे इस सोच के साथ बड़ा होता नहीं देख सकती कि हर स्त्री को अपनी रक्षा अथवा अपने फैसले लेने के लिए पुरुष की आवश्यकता होती है. अपने लिए तो फैसला अब मैं खुद लूंगी.

अगले दिन सुबह ही मैं ने सुमित को बता दिया था कि मैं ने नोएडा में रहने का निर्णय लिया है. घर में तूफान आ गया था. सबकुछ बहुत कठिन था, परंतु मेरे ससुर, देवर और छोटी ननद इस बार चट्टान की तरह मेरे साथ खड़े थे. अगर वे साथ न भी होते तो भी मैं पीछे हटने वाली नहीं थी.

मेरी सास ने मुझे इस के लिए कभी भी माफ नहीं किया था. परंतु पिछले 15 सालों से भी तो वे मुझे अकारण ही सजा दे रही थीं.

जया की शादी के अगले ही दिन हम नोएडा आ गए थे. सुमित का असहयोग आंदोलन यहां आ कर भी जारी था. मांबेटे की जुगलबंदी मुझे परेशान करने के तरीके निकालती रहती थी.

मैं ने कुछ दिनों बाद ही एक स्कूल में संगीत की शिक्षा देनी शुरू कर दी थी. धीरेधीरे सुमित भी समझने लगे थे कि अब मेरा पीछे लौटना नामुमकिन था.

समय अपनी रफ्तार से बढ़ता रहा. सप्तक जब फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने कनाडा गया, तो उसी दौरान मैं ने अपने संगीत स्कूल की नींव डाली थी.

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सप्तक ने जब अलीना से विवाह का निर्णय लिया तब भी सारे परिवार के विरुद्ध खड़े हो कर मैं ने अपने बेटे के सही कदम का साथ दिया था. अलीना एक ईसाई परिवार की लड़की थी परंतु मेरे लिए यह बात कोई माने नहीं रखती थी.

धर्मजाति पर पता नहीं क्यों लोग इतना घमंड करते हैं. आप कहां पैदा होंगे, इस पर आप का क्या अधिकार? इसलिए कोई उच्च और कोई नीच कैसे हो सकता है?

सप्तक ने कोर्टमैरिज करने का निर्णय लिया था. इन झूठे कर्मकांडों और व्यर्थ के आडंबरों से मेरा भरोसा भी उठ चुका था. सुमित को भी सप्तक ने अपनी दलीलों से चुप करा दिया था. शादी के बाद हम ने एक छोटी सी पार्टी दे दी थी.

जब सारी उम्र मैं ने सप्तक को सही का साथ देना सिखाया, फिर आज जब वह अलीना का साथ दे रहा है तो मुझे बुरा क्यों लगा? हर प्रश्न का सही प्रतिवचन दिया था उस ने. मैं भी जानती थी कि अलीना और सप्तक  सही हैं.

क्या अपने बेटे को मुझे अलीना के साथ बांटना असहनीय लग रहा है? क्या मुझे उस का अलीना को सही और मुझे गलत कहना तकलीफ दे रहा है?

नहीं, शायद अपनी कल्पना को यथार्थरूप में देख कर मैं अभिभूत हो गई हूं. सप्तक मेरी कल्पना का ही तो मूर्तरूप है.

‘‘मम्मा, अंदर आ सकता हूं.’’

सप्तक की आवाज मुझे वर्तमान में खींच लाई थी.

‘‘हां बेटा, आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘आप मुझ से नाराज हैं न मां?’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने कुछ गलत किया है?’’

‘‘नहीं, पर वो आज…’’

‘‘जो सत्य है वह अप्रिय हो सकता है परंतु वह गलत नहीं हो सकता. यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उस के गलत को भी सही कहने के लिए बाध्य नहीं हैं. इसलिए मैं तुम से नाराज

नहीं हूं बल्कि आज मुझे तुम पर गर्व हो रहा है.

‘‘मैं जैसे पुरुष की कल्पना किया करती थी, तुम ने उसे साकार कर के मेरे सामने खड़ा कर दिया है. मेरा बेटा एक ऐसा पुरुष है जो अपने पुरुष होने को मैडल की तरह नहीं पहनता.

‘‘जिस प्रकार वह सिर झुका कर अपनी मां का आदर करता है उसी प्रकार अपनी मां द्वारा लिए गए गलत निर्णय का विरोध भी करता है.’’

‘‘यह सब क्या कह रही हो तुम, मधु? क्या तुम्हें सप्तक की बात बिलकुल बुरी नहीं लगी?’’

‘‘सुमित, इस में बुरा लगने जैसा क्या है? मेरा बेटा किसी भी प्रश्न का प्रतिवचन देने से न स्वयं डरता है और न अपनी साथी, अपनी पत्नी को रोकता है.’’

‘‘हां, सही कह रही हो,’’ इतना कह कर सुमित चुप हो गए थे.

‘‘तो इस का मतलब है मैं ट्रेकिंग पर जा रही हूं,’’ अलीना भी मेरे कमरे में आ गई थी.

‘‘ट्रेकिंग पर बाद में जाना है, अभी तुम दोनों सोने जाओ. मुझे भी नींद आ रही है.’’

‘‘मम्मापापा, चलिए पहले आइसक्रीम पार्टी करते हैं,’’ सप्तक ने हंसते हुए कहा, ‘‘चलो, सब चलते हैं.’’

‘‘मैं फ्रिज से आइसक्रीम निकालती हूं, सप्तक तुम कोई अच्छी सी मूवी लगा लो,’’ यह कह कर अलीना चली गई.

हम सब भी उस के पीछे कमरे से निकल ही रहे थे कि अचानक सुमित मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘वैसे तुम लिख क्या रही थी, मधु?’’

‘‘कुछ नहीं, एक समाज की कल्पना कर रही थी.’’

‘‘कैसे समाज की, मम्मा?’’

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‘मैं तो बस, एक ऐसे समाज की कल्पना करती हूं जहां-

‘‘पुत्रजन्म पर अभिमान न हो

‘‘पुत्री का कहीं दान न हो

‘‘मानवता के धर्म का हो नमन

‘‘सत्यकथन पर न लगे ग्रहण

‘‘रिश्ते निभें बिना लिए वचन

‘‘हर प्रश्न को मिले प्रतिवचन.’’

Serial Story: प्रतिवचन (भाग-2)

मेरी ननद भी अपनी मां की आज्ञा का पूरा पालन करती थीं, साल में 6-7 महीने यहीं गुजरते थे उन के.

मेरा मायके जाना मेरी सास को पसंद नहीं था, परंतु हर तीजत्योहार पर मेरे मायके से आने वाले तोहफों से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

‘अरे, कमलेशजी आप इतना सब क्यों ले आते हैं?’ मेरे सहृदय ससुरजी कहा करते थे.

सासूजी कहां चुप रहने वाली, ‘अरे, क्यों नहीं लाएंगे,’ बोल पड़तीं, ‘बेटी के घर क्या खाली हाथ आएंगे? अब हम क्या विमला की ससुराल इतना कुछ भेजते नहीं हैं. इन की उतनी औकात तो नहीं है पर जो लाए हैं…’

यह सुन कर मैं कट के रह जाती, जी करता था कि बाबूजी के जुड़े हाथों को पकड़ कर उन्हें इस घर से चले जाने को कह दूं. नहीं देखा जाता था मुझ से उन का यह अपमान.

मेरे दुख को मेरी छोटी ननद जया और देवर समय समझते थे, परंतु जब आप खुद के लिए खड़े नहीं हो सकते तो किसी और से क्या उम्मीद कर सकते हैं. सुमित ने तो बहुत पहले ही अपना फैसला मुझे सुना दिया था.

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जब भी बाबूजी मेरी ससुराल से अपमानित हो कर जाते, मेरे अंदर कुछ टूट जाता और कानों में विवाह के दूसरे वचन की ध्वनि सुनाई पड़ती थी. ‘जिस प्रकार आप अपने मातापिता का आदर करते हो उसी प्रकार मेरे मातापिता का आदर करो.’

जब सुमित का तबादला नोएडा हुआ तब पहली बार मेरे ससुर अपनी पत्नी के खिलाफ बोले थे, ‘सरला, जाने दो माधुरी को सुमित के साथ. अपनी गृहस्थी संभालेगी और तुम्हें सुमित के खानेपीने की चिंता भी नहीं रहेगी.’

‘अरे वाह, मां, पापा को तो भाभी की बड़ी चिंता है,’ विमला ने व्यंग्य कसा था.

‘जिसे जहां जाना है जाए. मुझे तो सारी उम्र रोटियां ही बेलनी हैं,’ सासूजी बड़बड़ाती रहीं.

मेरे आज्ञाकारी पति कैसे पीछे रह जाते, ‘नहीं मां, माधुरी यहां रहेगी आप के पास. मैं ने वहां एक कुक का इंतजाम कर लिया है. वैसे भी, रमेश के साथ रहूंगा तो पैसे कम खर्च होंगे.’

‘मेरा राजा बेटा, यह जानता है कि इस पर अपने छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी है.’

‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं निठल्ला बैठा हूं…घर जैसे इस की कमाई से चलता है,’ ससुरजी ने एक कोशिश और की.

‘चुप होगे अब. हर शनिवार को तो घर आ ही जाएगा,’ सासूजी ने यह कह कर पति की बोलती बंद कर दी.

सुमित नोएडा चले गए थे. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मैं अपनी सास पर मुहताज थी. कई बार सुमित से कहा भी कि मुझे कुछ पैसे भेज दिया करो.

‘तुम्हें क्या जरूरत है पैसों की? जब कभी जरूरत हो तो मां से मांग लिया करो. मां ने कभी मना किया है क्या?’

उन्होंने कभी किसी वस्तु के लिए मना नहीं किया. परंतु उस वस्तु की उपयोगिता बताने के क्रम में जो कुछ भी मुझे सहना पड़ता था, वह मैं सुमित को नहीं समझा सकती थी.

मैं कपड़ों की जगह सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करना चाहती थी. हिम्मत बटोर कर यह बात जब मैं ने अपनी सास को बताई थी, उन की प्रतिक्रिया आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देती है-

‘अरे, सुनते हो…समय…जया…’

घर के सभी लोग, नौकर तक, बरामदे में आ गए थे.

‘मांजी गलती हो गई, माफ कर दीजिए, प्लीज चुप हो जाइए.’

‘तू होती कौन है मुझे चुप कराने वाली…’

‘अरे, बताओगी भी हुआ क्या?’ ससुरजी की आवाज थी.

‘आप की बहू को अपना मैल उतारने के लिए पैसे चाहिए.’

‘मांजी, प्लीज चुप हो जाइए,’ रो पड़ी थी मैं. ‘तेरे बाप ने भी देखा है कभी पैड, बेटी को पैड चाहिए.’

सारा माजरा समझते ही मेरे ससुर और देवर सिर झुका कर अंदर चले गए थे और मेरे बगल में खड़ी जया मेरे आंसू पोंछती रही थी.

कई घंटे तक वे लगातार मुझे अपमानित करती रही थीं.

इस घटना के बाद मैं ने अपनी सारी अभिलाषाओं तथा जरूरतों को एक संदूक में बंद कर के दफन कर दिया था.

मेरे बेटे के जन्म ने मुझे मां बनने का गौरव तो प्रदान किया परंतु जब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मुझे हाथ फैलाना पड़ता, तब मेरा हृदय चीत्कार कर उठता था.

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विवाह का तीसरा वचन भी मेरे कानों के पास आ कर दबी आवाज में चीखा करता था. ‘आप अपनी युवावस्था से ले कर वृद्धावस्था तक कुटुंब का पालन करोगे.’

मेरी एक पुरानी सहेली रम्या मुझे एक दिन बाजार में घूमते हुए मिल गई. औपचारिकतावश मैं ने उसे घर आने को कह दिया था. परंतु मैं उस समय अवाक रह गई जब शनिवार को वह अपने पति व बच्चों के साथ अचानक आ गई.

मेरा आधुनिक वस्त्र पहनना न तो सुमित को पसंद था और न ही उन की मां को. बिना बांहों का ब्लाउज पहनना भी उन के परिवार में मना था. रम्या को जींस और स्लीवलैस टौप में देख कर मैं समझ गई कि आज पति और सास दोनों की ही बातें सुननी पड़ेंगी.

परंतु उस दिन मैं ने सुमित का अलग ही रूप देखा था. जितने वक्त रम्या रही, सुमित मेरे कमरे में ही मौजूद रहे. दिन के समय सुमित हमारे कमरे में बहुत कम आते थे, इसलिए यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. रम्या की तारीफ करते नहीं थक रहे थे वे. और तो और, अगले दिन बाहर घूमने का प्लान भी बना लिया उन्होंने.

रात में मैं ने सुमित से पूछा भी था, ‘बिना मां से पूछे कल घूमने का प्लान कैसे बना लिया तुम ने?’

‘ उस की चिंता तुम छोड़ो. क्या औरत हैं रम्याजी, कितना मेंटेन किया है. उन की फिगर को देख कर कौन कहेगा कि 2 बच्चों की मां हैं.’

‘सौरभजी भी तो कितने अच्छे हैं.’

‘क्या अच्छा लगा तुम्हें सौरभजी में?’

‘नहीं, बस रम्या से पूछ कर निर्णय…’

‘जोरू का गुलाम है. और तुम्हें शर्म नहीं आती अपने पति के सामने किसी और मर्द की तारीफ करती हो. सो जाओ चुपचाप.’

अगले दिन पिकनिक में बातोंबातों के दौरान रम्या ने सुमित को मेरे बारे में बताया कि मैं अपने कालेज की मेधावी छात्राओं में आती थी. इतना सुनना था कि सुमित जोरजोर से हंसने लगे.

‘रम्याजी, क्या आप के कालेज में सभी गधे थे? माधुरी और मेधावी में सिर्फ अक्षर की समानता है. रसोई में खाने में नमक तो सही से डाल नहीं पाती. न चलने का ढंग, न कपड़े पहनने की तमीज. शरीर पर चरबी देखिए, कितनी चढ़ा रखी है,’ इतना कह कर वे अपनी बात पर खुद ही हंस पड़े थे. मेरा चेहरा शर्म और अपमान से काला पड़ गया था.

‘चलिए, बातें बहुत हो गईं, अब बैडमिंटन खेलते हैं,’ सौरभजी ने बात बदलते हुए कहा.

खेल के दौरान सुमित ने फिर एक ऐसी हरकत कर दी जिस की उम्मीद मुझे भी नहीं थी. स्त्री के चरित्र का आकलन आज भी उस के पहने गए कपड़ों से किया जाता है. सुमित ने भी रम्या को ले कर गलत विचारधारा बना ली थी. खेल के दौरान सुमित ने कई बार रम्या को छूने की कोशिश की थी, यह बात मुझ से भी छिपी नहीं रह पाई थी.

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इसलिए जब रम्या सुमित को किनारे पर ले जा कर दबे परंतु कड़े शब्दों में कुछ समझा रही थी, मैं समझ गई थी कि वह क्या कह रही है.

घर लौटते ही सुमित की मां रम्या की चर्चा ले कर बैठ गईं. सुमित जैसे इंतजार ही कर रहे थे.?‘अरे मां, बड़ी तेज औरत है. उस से तो दूर रहना ही ठीक होगा.’

‘मैं न कहती थी. अरी ओ माधुरी, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें चरित्रवान पति मिला है.’

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Serial Story: प्रतिवचन (भाग-1)

कमरे का वातावरण बाहर के मौसम की ही तरह गरम था. मेरी बहू द्वारा लिया गया एक निर्णय मुझे बिलकुल नागवार गुजरा था. मैं इस बात से ज्यादा नाराज थी कि मेरे बेटे की भी इस में मूल सहमति थी. ऐसा नहीं था कि मैं पोंगापंथी विचारधारा की कोई कड़क सास थी. परंतु बात ही कुछ ऐसी थी कि आधुनिक विचारधारा तथा स्त्री स्वतंत्रता का हिमायती मेरा मन मान ही नहीं पा रहा था.

‘‘मम्मी आप समझ नहीं रही हैं…’’

‘‘मैं नहीं समझ रही हूं, यह सही कह रही हो तुम. मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें अकेले ही क्यों घूमने जाना है? सप्तक नहीं जाना चाहता तो अगले महीने स्नेहल और अपनी बाकी दोस्तों के साथ चली जाना.’’

‘‘मम्मी, स्नेहल या कोई और ट्रेकिंग पर जाना पसंद नहीं करती.’’

‘‘तो तुम्हें क्यों जाना है? वैसे भी शादी के बाद यह सब ठीक नहीं है. अनजान लोगों के साथ रातरात भर अकेले रहने में भला कौन सी समझदारी है.’’

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‘‘मधु एकदम ठीक कह रही है.’’ सुमित, मेरे पति बोल पड़े थे.

‘‘पापाजी, मेरी जानपहचान का गु्रप है. ग्रुप के सदस्यों के साथ पहले भी गई हूं मैं.’’

‘‘बात जानपहचान की नहीं है, अलीना. मैं ने क्या कभी तुम्हें किसी भी काम के लिए मना किया है? परंतु बच्चे, शादी के बाद कुछ चीजें सही नहीं लगतीं. सप्तक साथ होता तो बात अलग होती. मैं तो तुम्हें रजामंदी नहीं दूंगी, बाकी तुम खुद समझदार हो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो, वयस्क हो.’’

‘‘मम्मी, शादी का क्या अर्थ होता है?’’ काफी देर से शांत हो कर हमारी बातें सुन रहा मेरा बेटा सप्तक अचानक बोला.

‘‘अर्थ…’’

‘‘हां मम्मी, क्या यह अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न होता है?’’

‘‘नहीं, ऐसा तो मैं ने नहीं कहा.’’

‘‘आज तक मुझे तो मेरी किसी पसंद को भूलने को नहीं कहा आप लोगों ने. फिर अलीना के साथ यह अलग व्यवहार क्यों? शादी का अर्थ अपनी पसंदनापसंद को पति के अनुरूप बदलना तो नहीं होता.’’

फिर वह मेरे घुटनों के पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘इस रिश्ते से विलग स्त्री का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रिश्ता स्वयं से भी है. शादी का अर्थ उस रिश्ते को तो भुला देना कदापि नहीं है. पता नहीं हमारा समाज स्त्रियों से ही सदा त्याग की उम्मीद रखना कब छोड़ेगा? वे भी पुरुषों की तरह इंसान हैं. उन की भी इच्छाएं हैं. अपने पति से इतर उन का एक अलग व्यक्तित्व भी है.’’

‘‘बेटा…’’ मैं ने कुछ कहना चाहा, लेकिन वह बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप को तो पता है मुझे एक्रोफोबिया है, मुझे ऊंचाई से घबराहट होती है. परंतु अलीना तो कई सालों से ट्रेकिंग पर जाती रही है, उस का पहला प्यार ही ट्रेकिंग है. हिमालय की चोटी पर चढ़ना तो उस का ख्वाब रहा है और आज उस का यह सपना पूरा होने जा रहा है, मैं उसे यह कह कर रोक दूं कि तुम अब किसी घर की बहू हो, इसलिए तुम अपना सपना भूल जाओ.

‘‘स्त्री को त्याग की देवी, परिवार की धुरी और ममता की छांव बता कर पुरुष और यह समाज अपने स्वार्थ की पूर्ति कब तक करता रहेगा.

‘‘मेरे अनुसार, अलीना सही है और उसे जाना ही चाहिए. मम्मा, इस बार आप गलत हैं.’’

बात उस दिन यहीं समाप्त हो गई थी. अलीना के जाने में अभी 15 दिन का समय बाकी था. रात को खाने के बाद मैं लेटने जा ही रही थी कि सुमित ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘‘देख लिया अपने बेटे को, तुम्हारा बेटा जोरू का गुलाम हो गया है. तुम्हारा बुढ़ापा तो कष्टमय गुजरने वाला है. नाक कटा दी खानदान की. मैं ने तो कभी भी अपनी मां की बात नहीं काटी और इसे देखो. मधु, सोचा था मेरा बेटा मेरे जैसा बनेगा, परंतु यह तो…’’

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शुरू से ही सप्तक बड़ा हो कर क्या बनेगा, यह निर्णय मैं ने पूरी तरह सप्तक की खुद की पसंद पर छोड़ रखा था. परंतु वह कैसा पुरुष बनेगा, इस की एक छवि मैं ने अपने मन में बना रखी थी, और वह छवि कहीं भी सुमित से मेल नहीं खाती थी.

सुमित के बड़बड़ाने की आवाज अभी भी नेपथ्य में आ रही थी, परंतु मैं 30 साल पहले की अपनी दुनिया में पहुंच चुकी थी.

संगीत मेरे शरीर में लहू की तरह बहता था. पिताजी संगीत शिक्षक थे और मां गृहिणी. हम चारों बहनों के नाम भी संगीतात्मक थे. बड़ी दीदी सुरीली, मंझली दीदी स्वरा, छोटी दीदी संगीता और मैं सब से छोटी माधुरी. परंतु संगीत से मन भले ही संतुष्ट होता हो, पेट नहीं भरता. और जब गरीब के घर में शादी करने के लायक 4 बेटियां हों तो उन का गुण भी अवगुण बन जाता है.

बड़ी मुश्किल से पिताजी हम बहनों को शिक्षा दिला पाए थे. कन्यादान करने के लिए उन्हें न जाने कहांकहां से उधार लेना पड़ा था. पूरे विश्व में शायद भारत ही एक ऐसा देश होगा जहां दान देने के लिए भी दाता को ग्रहीता को शुल्क अदा करना पड़ता है.

स्त्री वह वस्तु नहीं, कर दिया जिसे तुम ने दान दे कर दान में उसे तुम ने, छीन लिया उस का स्वाभिमान…

शादी के सात फेरों के साथ सात वचन ले कर मैं ने सुमित के घर में प्रवेश किया. सात वचन तो हम दोनों ने लिए थे परंतु निभाने की एकमात्र उम्मीद मुझ से ही की गई थी. मेरी ससुराल वालों को मेरा गाना बिलकुल पसंद नहीं था, विशेषकर मेरी सास को. उन का मानना था कि यह काम अच्छे घर की कुलवधू को शोभा नहीं देता. उन के आदेश की अवहेलना जब कभी भी उन के पति नहीं कर पाए तो फिर मेरे पति क्या कर पाते. वैसे मैं ने एक कमजोर ही सही, परंतु प्रयास किया था, सुमित से कहा था अपनी माताजी से बात करने को.

‘माधुरी, मैं एक आदर्शवादी पुत्र हूं, मुझे तुम जोरू का गुलाम नहीं बना पाओगी. मां ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है.’

‘चाहे वह गलत ही क्यों न हो,’ मैं ने कहा था.

‘हां, आज के बाद इस बारे में कोई भी बात नहीं होगी. किसी भी बात में तुम मुझे सदा मां के साथ ही खड़ा पाओगी. प्रेम मैं तुम से करता हूं पर खानदानभर में मैं तुम्हारी वजह से बदनाम नहीं होना चाहता.’

विवाह के समय कन्या वामांग में आने के लिए सात वचन मांगती है. प्रथम वचन मेरे कानों में उस समय गूंज गया था. ‘हर निर्णय आप मुझे साथ ले कर करोगे, तभी मैं आप के वाम भाग में आना स्वीकार करूंगी.’ मेरी सास को शब्दों के व्यंगबाण से मुझे मारना बहुत पसंद था. मेरी बड़ी ननद विमला भी मेरी सास का इस में पूर्ण सहयोग करती थीं. उन की शादी मेरठ में ही हुई थी. एक ही शहर में मायका और ससुराल होने की वजह से लगातार उन का मायके चक्कर लगता रहता था. हालांकि मेरा मायका भी मेरठ ही था परंतु मेरी सास को मेरा वहां ज्यादा आनाजाना पसंद नहीं था.

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वे कहा करती थीं, ‘बहू को अपने मायके ज्यादा नहीं जाने देना चाहिए. मायके वाले बिगाड़ देते हैं. वैसे भी शादी हो गई है, सासससुर की सेवा करो, मांबाप को भूलो.’

परंतु ननद के समय वे यह सब बातें भूल जाया करती थीं. तब उन का वाक्य होता था, ‘घर में रौनक तो बेटियों से ही होती है. अपनी सास की मत सुना कर ज्यादा. जब दिल करे आ जाया कर.’

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