Serial Story: कमीशन (भाग-1)

अंकल की कोशिशों से आखिर मुझे आकाशवाणी के कार्यक्रमों में जगह मिल ही गई. एक वार्ता के लिए कांट्रेक्ट लेटर मिलते ही सब से पहले अंकल के पास दौड़ीदौड़ी पहुंची तो मुझे बधाई देने के बाद पुन: अपनी बात दोहराते हुए उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारे इतना जिद करने पर मैं ने तुम्हारे लिए जुगाड़ तो कर दिया है, लेकिन जरा संभल कर रहना. किसी की भी बातों में मत आना, अपनी रिकार्डिंग के बाद अपना पारिश्रमिक ले कर सीधे घर आ जाना.’’ ‘‘अंकल, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. कोई भी मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता. मजाल है, जो प्रोग्राम देने के बदले किसी को जरा सा भी कोई कमीशन दूं. मम्मी ही थीं, जो उन लोगों के हाथों बेवकूफ बन कर हर कार्य- क्रम में जाने का कमीशन देती रहीं और फिर एक दिन बुरा मान कर पूरा का पूरा पारिश्रमिक का चेक उस डायरेक्टर के मुंह पर मार आईं. शुरू में ही मना कर देतीं तो इतनी हिम्मत न होती किसी की कि कोई उन से कुछ उलटासीधा कहता.’’

मेरे द्वारा मम्मी का जिक्र करते ही अंकल के चेहरे पर टेंशन साफ झलकने लगा था लेकिन अपने कांट्रेक्ट लेटर को ले कर मैं इतनी उत्साहित थी कि बस उन्हें तसल्ली सी दे कर अपने कमरे में आ कर रिकार्डिंग के लिए तैयारी करने लगी. उस में अभी पूरे 8 दिन बाकी थे, सो ऐसी चिंता की कोई बात नहीं थी. हां, कुछ अंकल की बातों से और कुछ मम्मी के अनुभव से मैं डरी हुई जरूर थी. दरअसल, मेरी मम्मी भी अपने समय में आकाशवाणी पर प्रोग्राम देती रहती थीं. उस समय वहां का कुछ यह चलन सा बन गया था कि कलाकार प्रोग्राम के बदले अपने पारिश्रमिक का कुछ हिस्सा उस स्टेशन डायरेक्टर के हाथों पर रखे. मम्मी को यह कभी अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि अपने टैलेंट के बलबूते हम वहां जाते हैं, किसी भी कार्यक्रम की इतनी तैयारी करते हैं फिर यह सब ‘हिस्सा’ या ‘कमीशन’ आदि क्यों दें भला. इस से तो एक कलाकार की कला का अपमान होता है न. ऐसा लगता है कि जैसे कमीशन दे कर उस के बदले में हमें अपनी कला के प्रदर्शन का मौका मिला है. मम्मी उस चलन को ज्यादा दिन झेल नहीं पाईं.

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उन दिनों उन्हें एक कार्यक्रम के 250 रुपए मिलते थे, जिस में से 70 रुपए उन्हें अपना पारिश्रमिक पाने के बदले देने पड़ जाते थे. बात पैसे देने की नहीं थी, लेकिन इस तरह रिश्वत दे कर प्रोग्राम लेना मम्मी को अच्छा नहीं लगता था जबकि वहां पर इस तरह कार्यक्रम में आने वाले सभी को अपनी इच्छा या अनिच्छा से यह सब करना ही पड़ता था. मम्मी की कितने ही ऐसे लोगों से बात होती थी, जो उस डायरेक्टर की इच्छा के भुक्तभोगी थे. बस, अपनीअपनी सोच है. उन में से कुछ ऐसा भी सोचते थे कि आकाशवाणी जैसी जगह पर उन की आवाज और उन के हुनर को पहचान मिल रही है, फिर इन छोटीछोटी बातों पर क्या सोचना, इस छोटे से अमाउंट को पाने या न पाने से कुछ फर्क थोड़े ही पड़ जाएगा. प्रोग्राम मिल जाए और क्या चाहिए.

पता नहीं मुझे कि उस समय उस डायरेक्टर ने ही यह गंदगी फैला रखी थी या हर कोई ही ऐसा करता था. कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है. मम्मी तो बस फिर वहां जाने के नाम से ही चिढ़ गईं. आखिरी बार जब वे अपने कार्यक्रम की रिकार्डिंग से लौटीं तो पारिश्रमिक के लिए उन्हें डायरेक्टर के केबिन में जाना था. चेक देते हुए डायरेक्टर ने उन से कहा, ‘अब अमाउंट कुछ और बढ़ाना होगा मैडम. इधर अब आप लोगों के भी 250 से 350 रुपए हो गए हैं, तो हमारा कमीशन भी तो बढ़ना चाहिए न.’ मम्मी को उस की बात पर इतना गुस्सा आया और खुद को इतना अपमानित महसूस किया कि बस चेक उस के मुंह पर मारती, यह कहते हुए गुस्से में बाहर आ गईं कि लो, यह लो अपना पैसा, न मुझे यह चेक चाहिए और न ही तुम्हारा कार्यक्रम. मैं तो अपनी कहानियां, लेख पत्रपत्रिकाओं में ही भेज कर खुश हूं. सेलेक्ट हो जाते हैं तो घरबैठे ही समय पर पारिश्रमिक आ जाता है.

उस के बाद मम्मी फिर किसी आकाशवाणी या दूरदर्शन केंद्र पर नहीं गईं. मैं उन दिनों यही कोई 10-11 साल की थी. उस वक्त तो ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई थी लेकिन जैसेजैसे बड़ी होती गई, बात समझ में आती गई. मम्मी के लिए मेरे मन में बहुत दुख था. मम्मी कितनी अच्छी वक्ता थीं कि बता नहीं सकती. एक तो कुछ उन की जल्दबाजी और दूसरे वहां के ऐसे माहौल के कारण एक प्रतिभा अंदर ही अंदर दब कर रह गई.

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कहते हैं न कि एक कलाकार की कला को यदि बाहर निकलने का मौका न मिले तो वह दिल ही दिल में जिस तरह दम तोड़ती है, उस का अवसाद, उस की कुंठा कलाकार को कहीं का नहीं छोड़ती. मम्मी ने भी उस घटना को दिल से लगा लिया था. कुछ दिन तो वह काफी बीमार रहीं फिर पापा के अपनत्व और स्नेह से किसी तरह जिंदगी में लौट पाईं और पुन: लेखन में लग गईं. मम्मी के ये गुण मुझ में भी आ गए थे. मेरा भी लेखन वगैरह के प्रति झुकाव समय के साथ बढ़ता ही चला गया. साथ ही एक अच्छे वक्ता के गुणों से भी स्कूल के दिनों से ही मालामाल थी. वादविवाद प्रतियोगिता हो, गु्रप डिस्कशंस हों या कुछ और, सदा जीत कर ही आती थी. मगर इस से पहले कि मैं इस फील्ड में अपना कैरियर तलाशती, गे्रजुएशन के साथ ही पापा के ही एक खास मित्र के लड़के, जोकि मर्चेंट नेवी में था, ने एक पार्टी में मुझे पसंद कर लिया और बस चट मंगनी, पट ब्याह हो कर बात दिल की दिल में ही रह गई. इस के बाद अभिमन्यु के साथ 4-5 साल मैं शिप पर ही रहती रही. वहीं मेरी बेटी हीरामणि का भी जन्म हुआ. यों तो डिलीवरी के लिए मैं मम्मीपापा के पास मुंबई आ गई थी, मगर हीरामणि के कुछ बड़ा होने के बाद पुन: अभिमन्यु के पास शिप पर ही चली गई थी.

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विरासत: अपराजिता को मिले उन खतों में ऐसा क्या लिखा था

Serial Story: विरासत (भाग-2)

वक्त तेजी से आगे बढ़ रहा था. अपराजिता अब इंजीनियरिंग के आखिरी साल में थी और अपनी इंटर्नशिप में मशगूल थी. वह जिस कंपनी में इंटर्नशिप कर रही थी, प्रतीक भी वहीं कार्यरत था. कम समय में ही दोनों में गहरी मित्रता हो गई.

बीते सालों में अपराजिता नानी से 18वें जन्मदिन पर मिले सौगाती खत को अनगिनत बार पढ़ा था. क्यों न पढ़ती. यह कोई मामूली खत नहीं था. भाववाहक था नानी का. अकसर सोचती कि काश नानी ने उस के हर दिन के लिए एक खत लिखा होता तो कुछ और ही मजा होता. नानी के लिखे 1-1 शब्द ने मन के जख्मों पर चंदन के लेप का काम किया था. उस आधे पन्ने के पत्र की अहमियत किसी ऐक्सपर्ट काउंसलर के साथ हुए 10 सैशन की काउंसलिंग के बराबर साबित हुई थी. अब अपराजिता के मस्तिष्क में बचपन में झेले सदमों के चलचित्रों की छवि धूमिल सी हो कर मिटने लगी थी. मम्मीपापा की बेमेल व कलहपूर्ण मैरिड लाइफ, पापा के जीवन में ‘वो’ की ऐंट्री और फिर रोजरोज की जिल्लत से खिन्न मम्मी का फांसी पर झूल कर जान दे देना… थरथर कांपती थी वह डरावने सपनों के चक्रवात में फंस कर. नानी के स्नेह की गरमी का लिहाफ उस की कंपकंपाहट को जरा भी कम नहीं कर पाया था.

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नानी जब तक जिंदा रहीं लाख कोशिश करती रहीं उस की चेतना से गंभीर प्रतिबिंबों को मिटाने की, मगर जीतेजी उन्हें अपने प्रयासों में शिकस्त के अलावा कुछ हासिल न हुआ. शायद यही दुनिया का दस्तूर है कि हमें प्रियजनों के मशवरे की कीमत उन के जाने के बाद समझ में आती है.

प्रतीक और अपराजिता का परिचय अगले सोपान पर चढ़ने लगा था. बिना कुछ सोचे वह प्रतीक के रंग में रंग गई. कमाल की बात थी जहां इंटर्नशिप के दौरान प्रतीक उस के दिल में समाता जा रहा था तो दूसरी तरफ इंजीनियरिंग के पेशे से उस का दिल हटता जा रहा था. वह औफिस आती थी प्रतीक से मिलने की कामना में, अपने पेशे की पेचीदगियों में सिर खपाने के लिए नहीं. ट्रेनिंग बोझ लग रही थी उसे. अपने काम से इतनी ऊब होती थी कि वह औफिस आते ही लंचब्रेक का इंतजार करती और लंचब्रेक खत्म होने पर शाम के 5 बजने का. कुछ सहकर्मी तो उसे पीठ पीछे ‘क्लौक वाचर’ पुकारते थे.

जाहिर था कि अपराजिता ने प्रोफैशन चुनते समय अपने दिल की बात नहीं सुनी. मित्रों की देखादेखी एक भेड़चाल का हिस्सा बन गई. सब ने इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया तो उस ने भी ले लिया. उस ने जब अपनी उलझन प्रतीक से बयां की तो सपाट प्रतिक्रिया मिली, ‘‘अगर तुम्हें इस प्रोफैशन में दिलचस्पी नहीं अप्पू तो मुझे भी तुम में कोई रुचि नहीं.’’ ‘‘ऐसा न कहो प्रतीक… प्यार से कैसी शर्त?’’

‘‘शर्तें हर जगह लागू होती हैं अप्पू… कुदरत ने भी दिमाग का स्थान दिल से ऊपर रखा है. मुझे तो अपने लिए इंजीनियर जीवनसंगिनी ही चाहिए…’’ यह सुन कर अपराजिता होश खो बैठी थी. दिल आखिर दिल है, कहां तक खुद को संभाले… एक बार फिर किसी प्रियजन को खोने के कगार पर खड़ी थी. कैसे सहेगी वह ये सब? कैसे जूझेगी इन हालात से बिना कुछ गंवाए?

अगर वह प्रतीक की शर्त स्वीकार लेती है तो क्या उस कैरियर में जान डाल पाएगी जिस में उस का किंचित रुझान नहीं है? उस की एक तरफ कूआं तो दूसरी तरफ खाई थी, कूदना किस में है उसे पता न था.

अगले महीने फिर अपराजिता का खास जन्मदिन आने वाला था. खास इसलिए क्योंकि नानी ने अपने खत की सौगात छोड़ी थी इस दिन के लिए भी. बड़ी मुश्किल से दिन कट रहे थे… उस का धीरज छूट रहा था… जन्मदिन की सुबह का इंतजार करना भारी हो रहा था. बेसब्री उसे अपने आगोश में ले कर उस के चेतन पर हावी हो चुकी थी. अत: उस ने जन्मदिन की सुबह का इंतजार नहीं किया. जन्मदिन की पूर्वरात्रि पर जैसे ही घड़ी ने रात के 12 बजाए उस ने नानी के दूसरे नंबर के ‘लैगसी लैटर’ का लिफाफा खोल डाला.

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लिखा था:

‘‘डियर अप्पू’’ ‘‘जल्दी तुम्हारी इंजीनियरिंग पूरी हो जाएगी. बहुत तमन्ना थी कि तुम्हें डिगरी लेते देखूं, मगर कुदरता को यह मंजूर न था. खैर, जो प्रारब्ध है, वह है… आओ कोई और बात करते हैं.’’

‘‘तुम ने कभी नहीं पूछा कि मैं ने तुम्हारा नाम अपराजिता क्यों रखा. जीतेजी मैं ने भी कभी बताने की जरूरत नहीं समझी. सोचती रही जब कोई बात चलेगी तो बता दूंगी. कमाल की बात है कि न कभी कोई जिक्र चला न ही मैं ने यह राज खोलने की जहमत उठाई. तुम्हारे 21वें जन्मदिन पर मैं यह राज खोलूंगी, आज के लिए इसी को मेरा तोहफा समझना. ‘‘हां, तो मैं कह रही थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम क्यों दिया. असल में तुम्हारे पैदा होने के पहले मैं ने कई फीमेल नामों के बारे में सोचा, मगर उन में से ज्यादातर के अर्थ निकलते थे-कोमल, सुघड़, खूबसूरत वगैराहवगैराह. मैं नहीं चाहती थी कि तुम इन शब्दों का पर्याय बनो. ये पर्याय हम औरतों को कमजोर और बुजदिल बनाते हैं. कुछए की तरह एक कवच में सिमटने को मजबूर करते हैं. औरत एक शरीर के अलावा भी कुछ होती है.

‘‘तुम देवी बनने की कोशिश भी न करना और न ही किसी को ऐसा सोचने का हक देना. बस अपने सम्मान की रक्षा करते हुए इंसान बने रहने का हक न खोना. ‘‘मैं तुम्हें सुबह खिल कर शाम को बिखरते हुए नहीं देखना चाहती. मेरी आकांक्षा है कि तुम जीवन की हर परीक्षा में खरी उतरो. यही वजह थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम दिया… अपराजिता अर्थात कभी न पराजित होने वाली. अपनी शिकस्त से सबक सीख कर आगे बढ़ो… शिकस्त को नासूर बना कर अनमोल जीवन को बरबाद मत करो. जिस काम के लिए मन गवाही न दे उसे कभी मत करो, वह कहते हैं न कि सांझ के मरे को कब तक रोएंगे.’’

‘‘बेटा, जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है. मेरा विश्वास है तुम अपनी मां की तरह हौसला नहीं खोओगी. हार और जीत के बीच सिर्फ अंश भर का फासला होता है. तो फिर जिंदगी की हर जंग जीतने के लिए पूरा दम लगा कर क्यों न लड़ा जाएं.

‘‘बहुतबहुत प्यार’’ ‘‘नानी.’’

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Serial Story: विरासत (भाग-3)

अपराजिता ने खत पढ़ कर वापस लिफाफे में रख दिया. रात का सन्नाटा गहराता जा रहा था, किंतु कुछ महीनों से जद्दोजहद का जो शिकंजा उस के दिलोदिमाग पर कसता जा रहा था उस की गिरफ्त अब ढीली होती जान पड़ रही थी. दूसरे दिन की सुबह बेहद दिलकश थी. रेशमी आसमान में बादलों के हाथीघोड़े से बनते प्रतीत हो रहे थे. चंद पल वह यों ही खिड़की से झांकती हुई आसमान में इन आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही. ऐसी ही आकृतियों को देखते हुए ही तो वह बचपन में मम्मी का हाथ पकड़ कर स्कूल से घर आती थी.

कल रात वाले लैगसी लैटर को पढ़ने के बाद से ही वह खुद में एक परिवर्तन महसूस कर रही थी… कहीं कोई मलाल न था कल रात से. वह जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का निर्णय कर चुकी थी. औफिस जाने से पहले उस ने एक लंबा शावर लिया मानो कि अब तक के सभी गलत फैसलों व चिंताओं को पानी से धो कर मुक्ति पा लेना चाहती हो. प्रतीक के साथ औफिस कैंटीन में लंच लेते हुए उस ने अपना निर्णय उसे सुनाया, ‘‘प्रतीक मैं तुम्हें भुलाने का फैसला कर चुकी हूं, क्योंकि मेरी जिंदगी के रास्ते तुम से एकदम अलग हैं.’’

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‘‘यह क्या पागलपन है? कौन से हैं तुम्हारे रास्ते… जरा मैं भी तो सुनूं?’’ प्रतीक कुछ बौखला सा गया. ‘‘लेखन, भाषा, साहित्य ये हैं मेरे शौक… किसी वजह से 4 साल पहले मैं ने गलत लाइन पकड़ ली, लेकिन इस का यह अर्थ कतई नहीं कि मैं इस गलती के साथ उम्र गुजार दूं या इस के बोझ से दब कर दूसरी गलती करूं… अगर मैं ने तुम से शादी की तो वह मेरी एक और भूल होगी क्योंकि सच्चा प्यार करने वाले सामने वाले को ज्यों का त्यों अपनाते हैं. उन्हें अपने सांचे में ढाल कर अपनी पसंद और अपने तरीके उन पर नहीं थोपते.’’

‘‘भेजा फिर गया है तुम्हारा… जो समझ में आए करो मेरी बला से.’’ तमतमाया प्रतीक लंच बीच में ही छोड़ कर तेजी से कैंटीन से बाहर निकल गया. अपराजिता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इत्मीनान से अपना लंच खत्म करने में मशगूल रही. अपराजिता हर संघर्ष से निबटने को तैयार थी. सच ही तो लिखा था नानी ने कि सांझ के

मरे को कब तक रोएंगे. गलत शादी, गलत कैरियर में फंस कर जिंदगी दारुण मोड़ पर ही चली जानी थी… वह इस अंधे मोड़ के पहले ही सतर्क हो गई. ‘‘अपराजिता नानी ने तुम्हारे लिए कुछ पैसा फिक्स डिपौजिट में रखवाया था. अब तक मैं इस पौलिसी को 2 बार रिन्यू करा चुकी हूं. पर सोचती हूं अब अपनी जिम्मेदारी तुम खुद उठाओ और यह रकम ले कर अपने तरीके से इनवैस्ट करो,’’ एक शाम मौसी ने कहा.

‘‘जैसा आप चाहो मौसी. अगर आप ऐसा चाहती हैं तो ठीक है.’’ अपराजिता अब काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चुकी थी. अब तक उस के 2 उपन्यास छप चुके थे. एक पर उसे ‘बुकर प्राइज’ मिला था तो दूसरे उपन्यास ने भी इस साल सब से ज्यादा प्रतिलिपियां बिकने का कीर्तिमान स्थापित किया. अब उसे खुद के नीड़ की तलाश थी. मौसी के प्रति वह कृतज्ञ थी पर उम्रभर उन पर निर्भर रहने का उस का इरादा न था.

बहुत दिन हो चुके थे उसे लेखनसाधना में खोए हुए. कुछ सालों से वह सिर से पांव तक काम में इतना डूबी रही कि स्वयं को पूरी तरह नजरअंदाज कर बैठी थी. इस बार उस ने 21वें जन्मदिन पर खुद को ट्रीट देने का फैसला किया. तमाम टूअर पैकेजेस देखनेसमझने के बाद उसे कुल्लूमनाली का विकल्प पसंद आ गया. कुछ दिन बस खुद के लिए… कहीं बिलकुल अलग कोलाहल से दूर. साथ में होगा तो बस नानी का 21वें जन्मदिन के लिए लिखा गया सौगाती खत :

‘‘डियर अप्पू ‘‘अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा आंसुओं में डुबोने के बाद मैं ने जाना कि 2 प्रकार के व्यक्तियों से कोई संबंध न रखो- मूर्ख और दुष्ट. इस श्रेणी के लोगों को न तो कुछ समझाने की चेष्टा करो न ही उन से कोई तर्कवितर्क करो. मानो या न मानो तुम उन से कभी नहीं जीत पाओगी.

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‘‘ऐसे आदमी से नाता न जोड़ो जिस की पहली, दूसरी, तीसरी और आखिरी प्राथमिकता वह खुद हो. ऐसे व्यक्तियों के जीवन के शब्दकोश में ‘मैं’ सर्वनाम के अतिरिक्त कोई दूसरा लफ्ज ही नहीं होता. अहं के अंकुर से अवसाद का वटवृक्ष पनपता है. अहं से मदहोश व्यक्ति अपने शब्द और अपनी सोच को अपने आसपास के लोगों पर एक कानून की तरह लागू करना चाहता है. ऐसों से नाता जुड़ने के बाद दूसरों को रोज बिखर कर खुद को रोज समेटना पड़ता है. तब कहीं जा कर जीवननैया किनारे लग पाती है उन की. ‘‘जोड़े तो ऊपर से बन कर आते हैं जमीं पर तो सिर्फ उन का मिलन होता है, यह निराधार थ्योरी गलत शादी में फंस के दिल को समझाने के लिए अच्छी है, किंतु मैं जानती हूं तुम्हारे जैसी बुद्धिजीवी कोरी मान्यताओं को बिना तार्किक सत्यता के स्वीकार नहीं कर सकती. न ही मैं तुम से ऐसी कोई उम्मीद करती हूं.

‘‘बेटा मेरी खुशी तो इस में होगी कि तुम वे बेडि़यां तोड़ने की हिम्मत रखो जिन का मंगलसूत्र पहन कर तुम्हारी मां की सांसें घुटती रहीं और आखिर में वही मंगलसूत्र उस के गले का फंदा बन कर उस की जान ले गया. ‘‘तुम्हारा बाप तुम्हारी मां की जिंदगी में था, मगर उस के अकेलेपन को बढ़ाने के लिए.

डियर अप्पू शादी का सीधा संबंध भावनात्मक जुड़ाव से होता है. जब यह भावनात्मक बंधन ही न हो तो वह शादी खुदबखुद अमान्य हो जाती है… ऐसी शादियां और कुछ भी नहीं बस सामाजिकता की मुहर लगा हुआ बलात्कार मात्र होती हैं. यह कैसा गठबंधन जहां सांसें भी दूसरों की मरजी से लेनी पड़ें? ‘‘अगर हालातवश ऐेसे रिश्तों में कभी फंस भी जाओ तो अपने आसपास उग आई अवांछित रिश्तों की नागफनियों को काटने का साहस भी रखो अन्यथा ये नागफनियां तुम्हारे पांव को लहूलुहान कर के तुम्हारी ऊंची कुलांचें लेने की शक्ति खत्म कर देंगी, साथ ही तुम्हें जीवन भर के लिए मानसिक तौर पर पंगू बना देंगी.

‘‘ढेर सा प्यार ‘‘तुम्हारी नानी.’’

कुल्लू की वादियों में झरने के किनारे एक चट्टान पर बैठी अपराजिता की आंखों से अचानक आंसू झरने लगे. जाने क्यों आज प्रतीक की याद आ रही थी. शायद यह इन शोख नजारों का असर था कि मन मचलने लगा था किसी के सान्निध्य के लिए. नामपैसा कमा कर भी वह कितनी अकेली थी… या फिर यह अकेलापन उस की सोच का खेल था? वह अकेली कहां थी. उस के साथ थे हजारोंलाखों प्रसंशक. क्यों याद कर रही है वह प्रतीक को… क्यों चाहिए था उसे किसी मर्द का संबल? ऐसा क्या था जो वह खुद नहीं कर पाई? क्या प्रतीक भी उस के बारे में सोचता होगा? ऐसा होता तो वह 10 साल पहले ही उसे ठोकर न मार गया होता. दोष क्या था उस का? सिर्फ इतना कि वह इंजीनियरिंग नहीं लेखन में आगे बढ़ना चाहती थी. ‘‘कौन जानता है प्रतीक को आज की तारीख में?

आगे पढ़ें- खुशबू को अपराजिता के आंगन में..

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Serial Story: विरासत (भाग-4)

वहीं वह खुद लेखन के क्षेत्र का प्रमुख हस्ताक्षर बन कर शोहरत का पर्यात बन चुकी थी. बड़ा गुमान था प्रतीक को अपने काबिल इंजीनियर होने पर… लकीर का फकीर कहीं का. मध्यवर्गीय मानसिकता का शिकार… जिन्हें सिर्फ इंजीनियरिंग और कुछ दूसरे इसी तरह के प्रोफैशन ही समझ में आते हैं. लेखन, संगीत और आर्ट उन की सोच से परे की बातें होती हैं. नहीं चाहिए था उसे दिखावे का हीरो अपनी जिंदगी में. रही बात अकेलेपन की तो राहें और भी थी. उस ने निश्चित किया कि वह दिल्ली लौट कर किसी अनाथ बच्ची को अपना लेगी… गोद ले कर उसे अपना उत्तराधिकारी… अपने सूने आंगन की खुशबू बना लेगी.

खुशबू को अपराजिता के आंगन में महकते हुए करीब 10 साल हो गए थे. जिस दिन अपराजिता किसी बच्चे की तलाश में अनाथाश्रम पहुंची थी तो उस 4-5 साल की पोलियोग्रस्त बच्ची की याचक दृष्टि उस के दिल को भीतर तक भेद गई थी. उस रात आंखों से नींद की जंग चलती रही थी. सारी रात करवटें लेतेलेते बदन थक गया था. दूसरे दिन बिना विलंब किए अनाथाश्रम पहुंच गई अपराजिता जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने के लिए. अगले कुछ महीनों तक गंभीर कागजी कार्यवाही को पूरा करने के बाद वह कानूनी तौर पर खुशबू को अपनी बेटी का दर्जा देने में कामयाब हो गई. हैरान रह गई थी अपराजिता दुनिया का चलन देख कर तब. किसी ने छींटाकशी की कि उस का दिमाग खराब हो गया है जो वह यह फालतू का काम कर रही है.

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किसी ने यहां तक कह दिया कि यदि वह एक संस्कारित, खानदानी परिवार का खून होती तो मर्यादा में रह कर शादी कर के अपने बालबच्चे पाल रही होती. कुछ और लोगों के ऐक्सपर्ट कमैंट थे कि वह शोहरत पाने की लालसा में यह सब कर रही है. मात्र उंगलियों पर गिनने लायक ही लोग थे, जिन्होंने उस के इस कदम की दिल से सराहना की थी.

खैर, कोई बात नहीं. नेकी और बदी की जंग का दस्तूर जहां में सदियों पुराना है. बरसों के लंबे इलाज और फिजियोथेरैपी सैशंस के बाद खुशबू काफी हद तक स्वस्थ हो गई थी. गजब का आत्मविश्वास था उस में. उस की हर पेंटिंग में जीवन रमता था. वह हर समय इंद्रधनुषी रंग कैनवस पर बिखेरती हुई उमंगों से भरपूर खूबसूरत चित्र बनाती. शरीर की विकलांगता, अनाथाश्रम में बीता कोमल बचपन दोनों उस की उमंगों के वेग को बांध न सके थे.

खुशबू के प्रयासों की महक से अपराजिता की जीत का मान बढ़ता ही चला गया. अपनी शर्तों पर नेकी के साथ जिंदगी जीते हुए दोनों जहां की खुशियां पा ली थीं अपराजिता ने और अपने नाम को सार्थक कर दिखाया था. आज रात वह अपना 50वां जन्मदिन मनाने वाली थी नानी के आखिरी ‘सौगाती खत’ को खोल कर.

‘‘डियर अप्पू

तुम अब तक उम्र के 50 वसंत देख चुकी होगी और अपने रिटायरमैंट में स्थिर होने की सोच रही होगी. यह वह उम्र है जिसे जीने का मौका तुम्हारी मां को कुदरत ने नहीं दिया था. इसलिए मुबारक हो… बेटा वक्त तुम पर हमेशा मेहरबान रहे. ‘‘तुम्हारे मन में शायद अध्यात्म और तीर्थ के ख्याल भी आते होंगे. ऐसे ख्याल कई बार स्वेच्छा अनुसार आते हैं और कई बार इस दिशा में दूसरों के दबाव में भी सोचना पड़ता है. विशेषतौर पर महिलाओं से इस तरह की अपेक्षा जरूर की जाती है कि उन का आचरण पूर्णतया धार्मिक हो. यों तो धर्म एक बहुत ही व्यक्तिगत मामला है फिर भी धर्म में रुचि न रखने वाली स्त्रियों पर असंस्कारित होने की मुहर लगा दी जाती है.

‘‘मैं तुम से कहूंगी कि ये सब बकवास है. मैं ने अपने जीवन में अनेक ऐसे महात्मा, मुल्ला और पादरियों के बारे में पढ़ा और सुना है जो धर्म की आड़ में हर तरह के घृणित कृत्य करते हैं और दूसरों के बूते पर ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं. ‘‘ज्यादा दूर क्यों जाए मैं ने तो स्वयं तुम्हारे नाना को ये सब पाखंड करते देखा है. उन्होंने हवन, जप, मंत्र करने में पूरी उम्र तो बिताई पर उस के सार के एक अंश को कभी जीवन में नहीं उतारा. दूसरों को प्रताड़ना देना ही उन के जीवन का एकमात्र उद्देश्य और उपलब्धि था. अब तुम ही बताओ यह कैसा पूजापाठ और कर्मकांड जिस में आडंबर करने वाले के स्वयं के कर्म और कांड ही सही नहीं हैं.

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‘‘तो डियर अप्पू कहने का सार मेरा यह है कि धर्म, पूजापाठ कभी भी मन की शुद्धता के प्रमाण नहीं होते. मन की शुद्धता होती है अच्छे कर्मों में, अपने से कमजोर का संबल बनने में, बाकी सब तो तुम्हारे अपने ऊपर है, पर एक वचन मैं भी तुम से लेना चाहूंगी और मुझे पूरा भरोसा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी. ‘‘बेटी यह शरीर नश्वर है, जो भी दुनिया में आया है उसे जाना ही है. इस शरीर का महत्त्व तभी तक है जब तक इस में जान है. जान निकलने के बाद खूबसूरत से खूबसूरत जिस्म भी इतना वीभत्स लगता है कि मृतक के परिजन भी उसे छूने से डरते हैं. जीतेजी हम दुनिया के फेर में इस कदर फंसे होते हैं कि कई बार चाह कर भी कुछ अच्छा नहीं कर पाते. मौत में हम सारी बंदिशों से आजाद हो जाते हैं, तो फिर क्यों न कुछ इंसानियत का काम कर जाएं और दूसरों को भी इंसान बनने का हुनर सिखा जाएं?

‘‘डियर अप्पू, संक्षेप में मेरी बात का अर्थ है कि जैसे मैं ने किया था वैसे ही तुम भी मेरी तरह मृत्यु के बाद अंगदान की औपचारिकताएं पूरी कर देना. मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे 50वें जन्मदिन को मनाने का इस से श्रेष्ठतर तरीका कोई और हो सकता है. ‘‘बस आज के लिए इतना ही अप्पू… तबीयत आज कुछ ज्यादा ही नासाज है. ज्यादा लिखने की हिम्मत नहीं हो रही… लगता है अब जान निकलने ही वाली है. कोशिश करूंगी, मगर फिलहाल तो ऐसा ही महसूस हो रहा है कि यह मेरा आखिरी खत होगा तुम्हारे लिए.

‘‘सदा सुखी रहो मेरी बच्ची. ‘‘नानी.’’

अपराजिता ने पत्र को सहेज कर सुनहरे रंग के कार्डबोर्ड बौक्स में नानी के अन्य पत्रों के साथ रख दिया. इन सभी पत्रों को आबद्ध करा के वह खुशबू के अठारवें जन्मदिन पर भेंट करेगी. अपराजिता अब तक एक बहुत ही सफल लेखिका थी. उस के लिखे उपन्यासों पर कई दूरदर्शन चैनल धारावाहिक बना चुके थे. ट्राफी और अवार्ड्स से उस के ड्राइंगरूम का शोकेस पूरी तरह भर चुका था. रेडियो, टेलीविजन पर उस के कितने ही इंटरव्यू प्रसारित हो चुके थे. देशभर की पत्रपत्रिकाएं भी उस के इंटरव्यू छापने का गौरव ले चुकी थीं.

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इन सभी साक्षात्कारों में एक प्रश्न हमेशा पूछा गया कि अपनी लिखी किताबों में उस की पसंदीदा किताब कौन सी है और इस सवाल का एक ही जवाब उस ने हमेशा दिया था, ‘‘मेरी नानी के लिखे ‘विरासती खत’ ही मेरे जीवन की पसंदीदा किताब है और मेरी इच्छा है कि मैं अपनी बेटी के लिए भी ऐसी ही विरासत छोड़ कर जाऊं जो कमजोर पलों में उस का उत्साहवर्द्धन कर उस का जीवनपथ सुगम बनाए. वह लकीर की फकीर न बन कर अपनी एक स्वतंत्र सोच का विकास करे.’’

Serial Story: विरासत (भाग-1)

अपराजिता की 18वीं वर्षगांठ के अभी 2 महीने शेष थे कि वक्त ने करवट बदल ली. व्यावहारिक तौर पर तो उसे वयस्क होने में 2 महीने शेष थे, मगर बिन बुलाई त्रासदियों ने उसे वक्त से पहले ही वयस्क बना दिया था. मम्मी की मौत के बाद नानी ने उस की परवरिश का जिम्मा निभाया था और कोशिश की थी कि उसे मम्मी की कमी न खले. यह भी हकीकत है कि हर रिश्ते की अपनी अलग अहमियत होती है. लाचार लोग एक पैर से चल कर जीवन को पार लगा देते हैं. किंतु जीवन की जो रफ्तार दोनों पैरों के होने से होती है उस की बात ही अलग होती है. ठीक इसी तरह एक रिश्ता दूसरे रिश्ते के न होने की कमी को पूरा नहीं कर सकता.

वक्त के तकाजों ने अपराजिता को एक पार्सल में तब्दील कर दिया था. मम्मी की मौत के बाद उसे नानी के पास पहुंचा दिया गया और नानी के गुजरने के बाद इकलौती मौसी के यहां. मौसी के दोनों बच्चे उच्च शिक्षा के लिए दूसरे शहरों में रहते थे. अतएव वह अपराजिता के आने से खुश जान पड़ती थीं. अपराजिता के बहुत सारे मित्रों के 18वें जन्मदिन धूमधाम से मनाए जा चुके थे. बाकी बच्चों के आने वाले महीनों में मनाए जाने वाले थे. वे सब मौका मिलते ही अपनाअपना बर्थडे सैलिब्रेशन प्लान करते थे. तब अपराजिता बस गुमसुम बैठी उन्हें सुनती रहती थी. उस ने भी बहुत बार कल्पनालोक में भांतिभांति विचरण किया था अपने जन्मदिन की पार्टी के सैलिब्रेशन को ले कर मगर अब बदले हालात में वह कुछ खास करने की न तो सोच सकती थी और न ही किसी से कोई उम्मीद लगा सकती थी.

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2 महीने गुजरे और उस की खास सालगिरह का सूर्योदय भी हुआ. मगर नानी की हाल ही में हुई मौत के बादलों से घिरे माहौल में सालगिरह उमंग की ऊष्मा न बिखेर सकी. अपराजिता सुबह उठ कर रोज की तरह कालेज के लिए निकल गई. शाम को घर वापस आई तो देखा कि किचन टेबल पर एक भूरे रंग का लिफाफा रखा था. वह लिफाफा उठा कर दौड़ीदौड़ी मौसी के पास आई. लिफाफे पर भेजने वाले का नामपता नहीं था और न ही कोई पोस्टल मुहर लगी थी.

‘‘मौसी यह कहां से आया?’’ उस ने आंगन में कपड़े सुखाने डाल रहीं मौसी से पूछा. ‘‘उस पर तो तुम्हारा ही नाम लिखा है अप्पू… खोल कर क्यों नहीं देख लेतीं?’’

अपराजिता ने लिफाफा खोला तो उस के अंदर भी थोड़े छोटे आकार के कई सफेद रंग के लिफाफे थे. उन पर कोई नाम नहीं था. बस बड़ेबड़े अंकों में गहरीनीली स्याही से अलगअलग तारीखें लिखी थीं. तारीखों को गौर से देखने पर उसे पता चला कि ये तारीखें भविष्य में अलगअलग बरसों में पड़ने वाले उस के कुछ जन्मदिवस की हैं. खुशी की बात कि एक लिफाफे पर आज की तारीख भी थी. अपराजिता ने प्रश्नवाचक निगाहों से मौसी को निहारा तो वे मुसकरा भर दीं जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं. ‘प्लीज मौसी बताइए न ये सब क्या है. ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आप को इस के बारे में कुछ खबर न हो… यह लिफाफा पोस्ट से तो आया नहीं है… कोई तो इसे दे कर गया है… आप सारा दिन घर में थीं और जब आप ने इसे ले कर रखा है तो आप को तो पता ही होना चाहिए कि आखिर यह किस का है?’’

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‘‘मुझे कैसे पता चलता जब कोई बंद दरवाजे के बाहर इसे रख कर चला गया. तुम तो जानती हो कि दोपहर में कभीकभी मेरी आंख लग जाती है. शायद उसी वक्त कोई आया होगा. मैं ने तो सोचा था कि तुम्हारे किसी मित्र ने कुछ भेजा है. हस्तलिपि पहचानने की कोशिश करो शायद भेजने वाले का कोई सूत्र मिल जाए,’’ मौसी के चेहरे पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कराहट फैली हुई थी. अपराजिता ने कई बार ध्यान से देखा, हस्तलिपि बिलकुल जानीपहचानी सी लग रही थी. बहुत देर तक दिमागी कसरत करने पर उसे समझ में आ गया कि यह हस्तलिपि तो उस की नानी की हस्तलिपि जैसी है. परंतु यह कैसे संभव है? उन्हें तो दुनिया को अलविदा किए 2 महीने गुजर गए हैं और आज अचानक ये लिफाफे… उसे कहीं कोई ओरछोर नहीं मिल रहा था.

‘‘मौसी यह हस्तलिपि तो नानी की लग रही है लेकिन…’’ ‘‘लेकिनवेकिन क्या? जब लग रही है तो उन्हीं की होगी.’’

‘‘यह असंभव है मौसी?’’ अपराजिता का स्वर द्रवित हो गया. ‘‘अभी तो संभव ही है अप्पू, मगर 2 महीने पहले तक तो नहीं था. जिस दिन से तुम्हारी नानी को पता चला कि उन का हृदयरोग बिगड़ता जा रहा है और उन के पास जीने के लिए अधिक समय नहीं है तो उन्होंने तुम्हारे लिए ये लैगसी लैटर्स लिखने शुरू कर दिए थे, साथ ही मुझे निर्देश किया था कि मैं यह लिफाफा तुम्हें तुम्हारे 18वें जन्मदिन वाले दिन उपहारस्वरूप दे दूं. अब इन खतों के माध्यम से तुम्हें क्या विरासत भेंट की गई है, यह तो मुझे भी नहीं मालूम. कम से कम जिस लिफाफे पर आज की तारीख अंकित है उसे तो खोल ही लो अब.’’

अपराजिता ने उस लिफाफे को उठा कर पहले दोनों आंखों से लगाया. फिर नजाकत के साथ लिफाफे को खोला तो उस में एक गुलाबी कागज मिला. कागज को आधाआधा कर के 2 मोड़ दे कर तह किया गया था. चंद पल अपराजिता की उंगलियां उस कागज पर यों ही फिसलती रहीं… नानी के स्पर्श के एहसास के लिए मचलती हुईं. जब भावनाओं का ज्वारभाटा कुछ थमा तो उस की निगाहें उस कागज पर लिखे शब्दों की स्कैनिंग करने लगीं:

डियर अप्पू

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‘‘जीवन में नैतिक सद््गुणों का महत्त्व समझना बहुत जरूरी है. इन नैतिक सद्गुणों में सब से ऊंचा स्थान ‘क्षमा’ का है. माफ कर देना और माफी मांग लेना दोनों ही भावनात्मक चोटों पर मरहम का काम करते हैं. जख्मों पर माफी का लेप लग जाने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र सब भूल कर जीवनधारा के प्रवाह में बहने लगते हैं. वहीं माफ न कर के हताशा के बोझ में दबा व्यक्ति जीवनपर्यंत अवसाद से घिरा पुराने घावों को खुरचता हुआ पीड़ा का दामन थामे रहता है. जबकि वह जानता है कि वह इस मानअपमान की आग में जल कर दूसरे की गलती की सजा खुद को दे रहा है. ‘‘अप्पू मैं ने तुम्हें कई बार अपने मांबाप पर क्रोधित होते देखा है. तुम्हें गम रहा कि तुम्हारी परवरिश दूसरे सामान्य बच्चों जैसी नहीं हुई है. जहां बाप का जिंदगी में होना न होना बराबर था वही तुम्हारी मां ने जिंदगी के तूफानों से हार कर स्वयं अपनी जान ले ली और एक बार भी नहीं सोचा कि उस के बाद तुम्हारा क्या होगा… बेटा तुम्हारा कुढ़ना लाजिम है. तुम गलत नहीं हो. हां, अगर तुम इस क्रोध की ज्वाला में जल कर अपना मौजूदा और भावी जीवन बरबाद कर लेती हो तो गलती सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही होगी. किसी दूसरे के किए की सजा खुद को देने में कहां की अक्लमंदी है?

‘‘मेरी बात को तसल्ली से बैठ कर समझने की चेष्टा करना और एकदम से न सही तो कम से कम अगले जन्मदिन तक धीरेधीरे उस पर अमल करने की कोशिश करना… बस यही तोहफा है मेरे पास तुम्हारे इस खास दिन पर तुम्हें देने के लिए. ‘‘ढेर सारा प्यार,’’

‘‘नानी.’’

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Serial Story: तुम से मिल कर

 

 

 

Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-1)

हर्ष बहुत प्यार से त्रिशा के बालों में उंगलियां फेर रहा था और वह उस की गोद में लेटी आंखें बंद किए मंदमंद मुसकरा रही थी.

पार्क के उस कोने वाली बैंच पर दोनों दिनदुनिया से बेखबर अपनेआप में ही मगन थे.

“हर्ष, आगे का क्या सोचा है?” आंखें बंद किए ही उस के हाथों को चूमते हुए आतुरता से त्रिशा बोली,“ अगर तुम्हें स्कौलरशिप मिल जाती है, तो तुम तो विदेश चले जाओगे. लेकिन कभी सोचा है कि यहां अकेली मैं क्या करूंगी तुम्हारे बिना?”

“यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,” गंभीरता से हर्ष बोला, “एक काम करना, तुम शादी कर लेना. लाइफ में व्यस्त हो जाओगी. जब तक मैं आऊंगा, 1-2 बच्चों की मां तो बन ही चुकी होगी. क्या कहती हो?”

किसी तरह अपनी हंसी को रोकते हुए हर्ष बोला,“ मैं तुम्हारे बच्चों के लिए विदेशी खिलौने ले कर आऊंगा देखना.“

उस की बातें सुन त्रिशा झटके से उठ बैठी और बोली, “तो तुम यही चाहते हो की मैं किसी और से शादी कर लूं? तो ठीक है. रिश्ते तो आ ही रहे हैं कई, उन में से 1 को मैं हां बोल देती हूं,“ बोल कर गुस्से से वह जाने ही लगी कि हर्ष ने उस का हाथ पकड़ लिया.

”वह तो ठीक है लेकिन यह तो बताती जाओ कि तुम मुझे अपनी शादी में बुलाओगी या नहीं? चलो कोई बात नहीं, शादी की बधाइयां मैं तुम्हें अभी ही दे देता हूं, किसी तरह अपनी हंसी रोकते हुए हर्ष बोला.

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“थैंक यू सो मच…” त्रिशा ने मुंह बनाया, “अब छोड़ो मेरा हाथ और अपनी बकवास बंद करो.”

“अरे, ऐसे कैसे छोड़ दूं? जीवनभर साथ निभाने का वादा किया है,” हर्ष की बांहों ने उसे घेरा तो वह रुक गई. उस का चेहरा हर्ष से इंच भर की दूरी पर ही था. फिर हर्ष के होंठों ने उस के होंठों को छुआ, तो त्रिशा की नजरें अपनेआप ही शर्म के मारे झुक गई.

हर्ष ने त्रिशा का चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा, “बेकार में समुंद्र मथा गया क्योंकि 14 रत्न तो तुम्हारी आंखों में हैं. एक और सच कहूं, गुस्से में तुम और भी हसीन लगती हो.“

“अच्छा, तो वैसे मैं बदसूरत दिखती हूं, यही कहना चाहते हो न तुम ?” अपनेआप को हर्ष की बांहों से छुड़ाते हुए त्रिशा बोली,“कितनी बार कहा है कि ऐसी बातें मत किया करो. मुझे नहीं पसंद, फिर भी क्यों करते हो ऐसी बातें?”

“अच्छा बाबा सौरी,अब से नहीं करूंगा ऐसीवैसी बातें,” कह कर हर्ष अपना कान पकड़ कर उठकबैठक करने लगा.

“अच्छाअच्छा बस करो अब. बहुत हो चुकी नौटंकी. पहले तो गुस्सा दिलाते हो और फिर यह सब…” मुसकराते हुए त्रिशा बोली, “मैं तुम्हें अपने मम्मीडैडी से मिलवाना चाहती हूं. वे तुम से मिल कर बहुत खुश होंगे. आखिर वह भी तो देखें मैं ने उन के लिए कितना हैंडसम और समझदार दामाद पसंद किया है,” त्रिशा की बात पर हर्ष भले ही मुसकरा पड़ा. लेकिन उसे उस के मम्मीडैडी से मिलने में बहुत संकोच महसूस हो रहा था कि जाने वे उस से मिल कर कैसे रिऐक्ट करेंगे क्योंकि कहां वे लोग और कहां हर्ष का परिवार. जमीनआसमान का फर्क था दोनों में.

लेकिन त्रिशा के सामने वह यह बात बोल भी तो नहीं सकता था, वरना वह फिर से गुस्सा हो जाती.

एक बार ऐसे ही हर्ष ने बोल दिया था कि क्या उस के मम्मीडैडी उन के रिश्ते को स्वीकारेंगे? तो गुस्से में नाक फुलाती हुई त्रिशा बोली थी, “क्यों नहीं स्वीकारेंगे? एक इंसान में जो चीजें होनी चाहिए, जैसे 2 आंखें, 2 कान, 1 नाक, हाथपैर, दिमाग सबकुछ तो है तुम्हारे पास. स्मार्ट भी बहुत हो और सब से बड़ी बात कि उन की इकलौती बेटी तुम्हें पसंद करती है, तो फिर क्यों नहीं स्वीकारेंगे तुम्हें बोलो? मेरे मम्मीडैडी मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं,” सीना तानते हुए त्रिशा बोली थी.

“तुम कहां इतने बड़े मांबाप की इकलौती बेटी हो. तुम्हें ऐशोआराम में जीने की आदत है और मैं ठहरा एक साधारण परिवार का लड़का. तो क्या तुम्हारे मम्मीडैडी मुझ जैसे लड़के…” बोलतेबोलते हर्ष चुप हो गया था लेकिन त्रिशा सारी बात समझ गई कि वह कहना क्या चाहता है.

“अच्छा, तो तुम यह कहना चाहते हो कि मैं एक पैसे वाले बाप की बेटी हूं और तुम एक साधारण परिवार से, तो हमारा मिलन कैसे हो सकता है? लेकिन जब हम एकदूसरे से मिले थे, जब हमें एकदूसरे से प्यार हुआ था, तब क्या तुम्हें या मुझे पता था कि तुम गरीब हो और मैं अमीर? नहीं न, फिर? हम एकदूसरे से प्यार करते हैं और यही सब से बड़ी सचाई है हर्ष. हमारे बीच न तो कभी पैसा आएगा, न धर्म और न ही जातपात की दीवारें खड़ी होंगी, वादा करती हूं तुम से,” बड़ी दृढ़ता से बोल कर त्रिशा ने हर्ष को चूम लिया था.

त्रिशा का चुंबन हर्ष के होंठों के साथसाथ उस के मन के भीतर किसी गहराई तक गतिशील हुआ था. दोनों घंटों एकदूसरे में खोए रहे थे.

“कहां खो गए हर्ष,” त्रिशा ने जब उसे झंझकोरा तो वह अतीत से वर्तमान में पहुंच गया.

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“मैं कल तुम्हें लेने आऊंगी तैयार रहना, और हां, वह लाइट ग्रीन वाली शर्ट पहनना, जो मैं ने तुम्हारे जन्मदिन पर गिफ्ट किया था. उस में तुम बहुत अच्छे लगते हो,“ त्रिशा बहुत खुश थी कि पहली बार वह अपने मम्मीडैडी से हर्ष को मिलवाने जा रही है और उसे पूरा विश्वास था कि हर्ष उन्हें जरूर पसंद आएगा. खासकर त्रिशा के डैडी अशोक तो उस से मिल कर बहुत खुश होंगे, क्योंकि उन का विचार हर्ष से काफी मिलताजुलता है.

दोनों जिंदादिल इंसान हैं, एकजैसे ही. हां, त्रिशा की मम्मी थोड़ी अलग टाइप की इंसान हैं, पर वे भी हर्ष को देख कर ना नहीं कह पाएंगी.

हर्ष और त्रिशा की मुलाकात न तो किसी कालेज में हुई थी और न ही किसी दोस्त की पार्टी में, बल्कि दोनों संयोग से मिले थे.

कुछ महीने पहले, एक रोज अचानक त्रिशा की गाड़ी बीच सड़क पर खराब हो गई थी. आसपास कोई मैकेनिक भी नजर नहीं आ रहा था जिस से वह अपनी गाड़ी ठीक करवा सके.

यह सोच कर ही वह परेशान हो रही थी कि ऐसी सुनसान जगह पर कुछ देर और रुकना पड़ा तो खतरा हो सकता है क्योंकि आजकल जिस तरह से लड़कियों के साथ वारदातें हो रही हैं, सुन कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

वह मम्मीडैडी को फोन लगा रही थी ताकि वे आ कर उसे ले जाएं. मगर नेटवर्क क्षेत्र से बाहर होने के कारण उस का फोन भी नहीं लग रहा था.

“अब मैं क्या करूं, किसी का फोन भी नहीं लग रहा है,” अपनेआप में ही बुदबुदाते हुए त्रिशा इधरउधर देखे जा रही थी कि शायद कोई उस की मदद के लिए आ जाए. मगर कोई भी ऐसा इंसान नहीं दिख रहा था जिसे वह मदद के लिए पुकारे.

नीले रंग की ड्रैस और बालों को इकठ्ठा कर बनाई गई एक हाई पोनीटेल वाली लड़की को सड़क के किनारे खड़े देख हर्ष को समझते देर नहीं लगी कि वह कोई मुसीबत में है.

“कोई समस्या है क्या? अचानक पीछे से किसी की आवाज सुन त्रिशा चौंक कर मुड़ी. लेकिन सामने जब हट्ठेकट्ठे नौजवान को देखा, तो वह बुरी तरह से डर गई।

“लगता है आप की गाड़ी खराब हो गई है. मैं कुछ मदद करूं?” बाइक को साइड में रोकते हुए हर्ष ने पूछा, तो डर के मारे त्रिशा की रूह कांप उठी कि जाने यह लड़का उस के साथ क्या करेगा?

‘इस सुनसान जगह में अकेली लड़की जान कर कहीं यह मेरा रेप कर के मुझे मार तो नहीं डालेगा? कुछ महीने पहले ऐसे ही तो मदद के नाम पर कुछ लड़कों ने एक लड़की का रेप कर उसे जला कर मार डाला था, तो कहीं मेरे साथ भी ऐसा कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी?’

“हैलो मैडम, कहां खो गईं आप?” हर्ष ने त्रिशा के चेहरे के सामने हवा में हाथ लहराते हुए पूछा, “कोई मदद चाहिए या मैं निकलूं?”

“नहींनहीं, कोई मदद नहीं चाहिए, तुम जाओ,” घबराते हुए वह फिर से अपने घर वालों को फोन लगाने लगी कि शायद कोई फोन उठा ले और उसे लेने आ जाए. लेकिन फोन लगे तब न. त्रिशा को अकेले लौंग ड्राइव पर जाना बहुत पसंद था.

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Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-2)

अकसर वह गाड़ी ले कर कहीं दूर, बहुत दूर निकल पड़ती थी. शहरों की भीड़भाड़ से दूर जंगलों से गुजरते हुए खेतखलियान, गांव, कसबा देखना उसे बहुत पसंद था. कितनी बार उस के डैड ने समझाया उसे कि इतनी दूर, वह भी अकेले जाना ठीक नहीं. गाड़ी खराब हो जाए या कोई और समस्या आन पड़े, तो क्या करेगी वह? अगर जाना ही है तो किसी को साथ ले कर जाया करे. मगर त्रिशा का कहना था कि अकेले घूमने में जो मजा है वह औरों के साथ कहां? अपनी मरजी से चाहे जहां घूमो, बिंदास.

“डोंट वरी डैड, कुछ नहीं होगा आप की बेटी को,” बोल कर वह अपने डैडी को चुप करा दिया करती थी. लेकिन आज उसे समझ आ रहा था कि उस के डैडी कितने सही थे. कोई साथ होता, तो कम से कम एक बल तो मिलता.

‘काश, वह अपने डैडी की बात मान ली होती,’ मन ही मन वह पछता ही रही थी कि तभी एक बड़ी सी गाङी उस के पास से हो कर गुजरी. उस ने मदद के लिए हाथ हिलाया, पर गाड़ी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ गई.

लेकिन उस ने देखा वह गाड़ी उस के पास ही आ रही थी. अपने सीने पर हाथ रख त्रिशा ने राहत की सांस ली थी. गाड़ी ठीक उस के साम ने आ कर रुकी तो वह बोली,“भाई साहब, मेरी गाड़ी खराब हो गई है. मदद चाहिए, प्लीज.“

त्रिशा को डर भी लग रहा था. पर पूरी रात वह यहीं तो नहीं गुजर सकती न?

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गाड़ी में बैठे दोनों लड़कों ने पहले तो उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा, फिर आंखों ही आंखों में दोनों ने कुछ बातें की. फिर बोला,“आप की गाड़ी खराब हो गई? लेकिन यहां तो कोई मैकेनिक नहीं मिलेगा. इस के लिए तो आप को शहर जाना पड़ेगा. वैसे, जाना कहां है आप को?” उन लड़कों ने बड़ी शराफत से पूछा.

“जी…जी, आदर्श नगर, ग्रीन पार्क,” घबराहट के मारे त्रिशा के मुंह से ठीक से आवाज भी नहीं निकल रही थी.
“ओह… ग्रीन पार्क। हम भी तो उधर ही जा रहे हैं. अगर आप चाहें तो हम आप को आप के घर छोड़ सकते हैं. और कोई दिक्कत नहीं है, फोन कर देंगी तो मैकेनिक आप की गाड़ी ठीक कर के आप के घर पहुंचा देगा,” उन लड़कों ने कहा तो 1 मिनट के लिए त्रिशा ठिठक गई क्योंकि किसी पर भी इतनी जल्दी विश्वास करना सही नहीं है. लेकिन चेहरे से वे लड़के शरीफ लग रहे थे.

‘अगर मैं इन के साथ नहीं गई, तो क्या पता फिर कोई मदद करने वाला मिले न मिले? अंधेरा भी गहराने लगा है, यह जगह भी बहुत सुनसान लग रहा है, इसलिए इन के साथ चले जाना ही उचित रहेगा’ अपने मन में ही सोच त्रिशा उन की गाड़ी में बैठने ही लगी कि एक ने उस का हाथ जोर से खींचा और दूसरा अभी दरवाजा लगाता ही कि त्रिशा,” छोड़ो मुझे, नहीं जाना तुम्हारे साथ,” बोल कर चिल्लाने लगी.

मगर दोनों लड़के उसे जबरदस्ती पकड़ कर कर गाड़ी में बैठाने लगे और एक ने डपटते हुए बोला,“चुप रहो, नहीं तो यहीं मार कर फेंक देंगे किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा,” उस की बात सुन त्रिशा सहम उठी.

दोनों जिस तरह से त्रिशा को घूर रहे थे इस से उन की बदनीयती साफसाफ झलक रही थी.

वह समझ गई कि आज वह नहीं बच सकती इन के हाथों, क्योंकि इस वीरान और सुनसान इलाके में कोई उसे कोई बचाने नहीं आने वाला. शहरों में तो आधी रात तक लोगों की चहलपहल बनी रहती है. मगर गांवों में तो सांझसवेरे ही लोग घरों में सिमट जाते हैं.

आज त्रिशा को अपनी मौत बड़ी निकट से दिखाई दे रही थी. उसे जीवन में आज पहली बार अपनी लड़की होने पर दुख हो रहा था. अफसोस उसे इस बात का भी हो रहा था कि कैसे वह इन हैवानों को पहचान नहीं पाई? कैसे उस ने इन पर भरोसा कर लिया? रोना आ रहा था उसे पर उस के आंखों से आंसू नहीं निकल रहे थे. बोलना चाह रही थी वह पर डर के मारे मुंह नहीं खुल रहे थे.

सोच लिया उस ने जो होना है हो कर रहेगा, अब कुछ नहीं कर सकती वह. अभी उन की कार रफ्तार पकड़ती ही कि तभी गाड़ी के सामने एक शख्स को देख अचानक से चालक ने कस कर ब्रैक लगा दिया.

वह बाहर निकल कर कुछ पूछता ही कि मौका पा कर उस शख्स ने उस लड़के के सिर पर धड़ाधड़ 2-3 डंडे बरसा दिए जिस से वह वहीं ढेर हो गया. दूसरा यह सब देख कर अपनी जान बचा कर भागता ही कि उस का भी वही हश्र हुआ.

त्रिशा ने देखा वह तो वही लड़का है जो अभी कुछ देर पहले उसे मदद करने की बात कर रहा था, मगर त्रिशा ने उसे मना कर दिया था.

“आजकल लड़कियों के साथ क्याक्या हो रहा है पता है न आप को? फिर भी कैसे इन अनजान लड़कों के साथ उन की गाड़ी में बैठने को तैयार हो गईं आप? जरा भी दिमाग है कि नहीं आप में?” जब हर्ष ने त्रिशा की तरफ देख कर बोला, तो वह अकचका कर उसे देखने लगी.

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“वह तो मैं ज्यादा दूर नहीं गया था इसलिए आप के चीखने की आवाज सुनाई दे गई मुझे. वरना पता भी है, आज आप के साथ क्या हो गया होता?”

उस के आंखों से बहते आंसू देख हर्ष को लगा कि उस ने कुछ ज्यादा ही डांट दिया उसे, क्योंकि बेचारी पहले से ही डरी हुई है ऊपर से वह उसे और डांटे जा रहा है. इसलिए फिर कुछ न बोल कर वह गाड़ी देखने लगा कि उस में समस्या क्या हो गई. हर्ष थोड़ाबहुत गाड़ी ठीक करना जानता था.

“लीजिए आप की गाड़ी ठीक हो गई,” अपना हाथ झाड़ते हुए हर्ष बोला.

त्रिशा को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह से हर्ष का शुक्रिया अदा करे. ‘अगर आज वह नहीं होता तो जाने उस के साथ क्या हो गया होता,’ सोच कर अभी भी वह कांप रही थी.

“नहींनहीं शुक्रिया की कोई जरूरत नहीं, प्लीज,” जब हर्ष ने बोला तो त्रिशा हैरान रह गई गई कि उसे कैसे पता कि वह उस का शुक्रिया अदा करना चाहती है, “आप के चेहरे के भावों से,” बोल कर हर्ष हंसा तो त्रिशा को भी हंसी आ गई.

“खैर, गाड़ी के बहाने ही सही, पर अच्छा लगा आप से मिल कर,” त्रिशा को एक भरपूर नजरों से देखते हुए हर्ष बोला.

“मुझे भी अच्छा लगा तुम से मिल कर,” अपने लटों को कान के पीछे खोंसते हुए त्रिशा मुसकराई थी.

घर आ कर त्रिशा ने किसी को भी कुछ नहीं बताया, क्योंकि बेकार में सब परेशान हो जाते और गाड़ी चलाने पर पाबंदी लग जाती सो अलग. लेकिन अपनेआप से उस ने यह वादा किया कि अब वह संभल कर रहेगी. किसी पर भी तुरंत विश्वास नहीं कर लेगी. हम सब की ज़िंदगी में कोई न कोई एक ऐसा दिन जरूर आता है, जो हमारे लिए बहुत खास बन जाता है. त्रिशा के लिए भी वह दिन बहुत खास बन गया जब गाड़ी खराब होने की वजह से हर्ष से उस की मुलाकात हुई थी.

जब भी हर्ष का हंसतामुसकराता चेहरा उस के आंखों के सामने आता, वह उस से मिलने को बेचैन हो उठती थी. मगर कैसे मिलती? कोई पताठिकाना या फोन नंबर भी तो नहीं था उस के पास.

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उधर हर्ष भी जबतब त्रिशा के खयालों में खो जाता और फिर अपना सिर झटकते हुए मुसकरा कर खुद को ही कोसते हुए कहता, “पागल कहीं का, अरे, कम से कम एक फोन नंबर तो मांग लिया होता उस लड़की का.”

इसी तरह उन की मुलाक़ात को 2 महीने बीत गए, पर अब भी वे एकदूसरे को नहीं भूले थे. अकसर वे एकदूसरे के खयालों में खो जाते और सोचते कि काश, एक बार फिर मिल जाएं.

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Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-3)

उस दिन अचानक दोनों चांदनी चौक मार्केट में टकरा गए. एकदूसरे से मिलने के बाद उन के दिल में जो एहसास जागा, वह बयां करना भी कठिन था. त्रिशा को हर्ष का सीधासाधा, ईमानदार और हंसमुख रवैया बहुत पसंद आया था, वहीं त्रिशा की छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढंकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मनमोहक हंसी देख हर्ष उस की ओर खींचता चला आया था.

इस के बाद दोनों कई बार मिले. अब एकदूसरे से दोनों खुलने लगे थे। दोनों की पसंद और सोच काफी मिलतीजुलती थी. त्रिशा की तरह हर्ष भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. बेकार में लोगों की चापलूसी करना हर्ष को भी नहीं पसंद था. वह भी जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए हमेशा खड़ा रहता था. दोनों की पसंदनापसंद इतनी मिलतीजुलती थी कि उन्हें लगता दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं.

इन कुछ महीनों की दोस्ती में उन्हें लगने लगा कि उन्हें एकदूसरे की आदत सी हो गई है. वे एकदूसरे से बिना मिले एक दिन भी नहीं रह सकते हैं अब. यह कहना गलत नहीं होगा कि दोनों एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे.

हर्ष का साथ पा कर त्रिशा को लगता जैसे जीवन में उसे क्याकुछ मिल गया हो. हर्ष की सोच और उस के बात करने का अंदाज त्रिशा को बहुत पसंद आता था.

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पूछती कि वह इतना अच्छा कैसे बोल लेता है? कहां से आते हैं उस के पास इतने अच्छेअच्छे शब्द? तो हर्ष कहता, “अनुभव से. जिंदगी इंसान को सबकुछ सीखा देती है। बोलना भी…” त्रिशा ने तो अपने भावी जीवनसाथी के रूप में हर्ष को देख लिया था. जानती थी डैडी को मनाना मुश्किल नहीं होगा, पर मम्मी को मनाना थोड़ा कठिन है. लेकिन उसे विश्वास था कि हर्ष को देख कर वह भी मान जाएगी.

हर्ष को इस बात का कोई डर नहीं था, क्योंकि उसे पता था उस के मातापिता तो सिर्फ अपने बेटे की खुशी चाहते थे. मगर हर्ष को अपनी 2 जवान व कुंआरी बहनों की फिक्र थी. घर में खाने वाले 5 जन थे पर कमाने वाला सिर्फ एक यानी उन के पापा थे.

कई बार हर्ष ने कहा भी कि अब वह कहीं नौकरी ढूंढ़ लेगा क्योंकि कब तक वह अकेले अपने कंधे पर पूरे घर की जिम्मेदारी ढोते रहेंगे? पर हर्ष के पापा का कहना था कि वह सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. उन का सपना था कि उन का बेटा अपने आगे की पढ़ाई विदेश जा कर करे और इसलिए वह हर्ष को घर की झंझटों से दूर रखना चाहते थे.

त्रिशा, अपने और हर्ष के बारे में अपनी मम्मी को बताती, उस से पहले ही एक लड़के की फोटो दिखा कर वह कहने लगी कि यह उस के अमेरिका वाली सहेली का बेटा है और वह इस से त्रिशा की शादी करना चाहती है.

“पर मम्मी, मैं इस से शादी नहीं करना चाहती क्योंकि मैं किसी और से प्यार करती हूं,” कह कर त्रिशा ने अपने और हर्ष के बारे में नताशा को सब कुछ बता दिया. त्रिशा की बात पर उस के डैडी अशोक को तो कोई एतराज नहीं हुआ, पर उस की मम्मी नताशा भड़क उठीं, यह बोल कर कि पहले वह उस लड़के से मिलना चाहती हैं. फिर फैसला करेगी कि वह त्रिशा के लायक है भी या नहीं.

त्रिशा को पूरा विश्वास था कि उस की मम्मी को हर्ष जरूर पसंद आएगा, क्योंकि वह इतना अच्छा इंसान जो है. इधर हर्ष अभी भी इस दुविधा में था कि क्या त्रिशा के मम्मीडैडी उसे स्वीकारेंगे? अगर उन्हें वह पसंद नहीं आया तो?

लेकिन त्रिशा की जिद के आगे उस की एक न चली और उसे उस के साथ जाना ही पड़ा.

रास्ते भर त्रिशा हर्ष को समझाती रही कि उसे उस के मम्मीडैडी से कैसे और क्या बोलना है. उसे किस तरह उन के मम्मीडैडी को इंप्रैस करना है. लेकिन फिर भी हर्ष के दिल में एक धुकधुकी लगी हुई थी कि कहीं वह उन्हें पसंद ना आया तो? कहीं वह उन्हें इंप्रैस नहीं कर पाया तो?

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वह बहुत घबराया हुआ था. मगर त्रिशा के पापा अशोक से मिलकर उसे ऐसा लगा ही नहीं कि वह उन से पहली बार मिल रहा है. कुछ ही देर में वह अशोक से ऐसे घुलमिल गया कि पुछो मत. हर्ष जैसे जिंदादिल इंसान से मिल कर अशोक भी बहुत खुश हुए. मजा आ गया उन्हें तो हर्ष से मिल कर.

बहुत दिनों बाद अशोक को कोई अपने जैसा इंसान मिला था. लेकिन नताशा अभी भी आंखों ही आंखों में हर्ष को तौल रही थी कि वह उस की बेटी के लायक है या नहीं.

उस का साधारण पहनावाओढ़ावा, बात करने का अंदाज… कहीं से भी वह उस की बेटी के लायक नहीं लग रहा था. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, क्योंकि पहले वह हर्ष और उस के पूरे परिवार के बारे में जान लेना चाहती थी. जैसेकि उस के घर में कौनकौन हैं? पिता क्या करते हैं? मां क्या करती हैं? लड़के का चरित्र कैसा है? कहीं परिवार का कोई क्रिमिनल रिकंर्ड तो नहीं जैसे तमाम सवालों का जवाब जानने के लिए नताशा ने ‘प्री मैट्रीमोनियम इन्वैस्टिगेशन (शादी से पहले जांच) करा लेना चाहती थी, फिर सोचेगी क्या करना है क्योंकि अकसर सीधे बन कर ही लोग दूसरों को अपनी जाल में फंसाते हैं, ऐसा नताशा का मानना था. और इस के लिए नताशा ने एक डिटैक्टिव ऐजेंसी हायर किया.

जांच के बाद पता चला कि हर्ष बहुत ही साधारण परिवार का लड़का है. पिता की एक साधारण सी नौकरी है जिस से घर खर्च और बांकी भाईबहनों की पढ़ाईलिखाई हो पाती है. मां गृहिणी है. अपना घर नहीं है और वे किराए के मकान में रहते हैं.

हर्ष अपनी खुद की पढ़ाई का खर्चा बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेता है. वह स्कौलरशिप के लिए अप्लाई कर चुका है. लड़के का चरित्र खराब नहीं है, यह भी बताया डिटैक्टिव ऐजेंसी वालों ने.

‘ये मुंह और मसूर की दाल… चले हैं मेरी बेटी से शादी का सपने देखने,’ अपने अधर को टेढ़ा करते हुए नताशा मन ही मन बोली,’चरित्र तो अब मैं तुम्हारा खराब करूंगी, वह भी अपनी बेटी के सामने. अरे, तुम बापबेटे उतना नहीं कमा लेते होगे 1 महीने में, जितना मेरी बेटी का 1 दिन का खर्चा है. क्या सोचा पैसे वाली लड़की को फंसा कर पूरी उम्र मौज करोगे? खुद का खर्चा तो चलता नहीं होगा. रोटी पर सब्जी नदारद और चले हैं मेरी बेटी से शादी का सपना देखने,’

मन तो किया उस का अभी जा कर त्रिशा को सब बता दें और कहें कि वह लड़का तुम से नहीं, बल्कि तुम्हारे पैसों से प्यार करता है. पर वह कहेगी कि क्या आप के लिए पैसा ही सबकुछ है? प्यार का कोई मोल नहीं है आप की नजरों में? जो भी हो पर मैं हर्ष से प्यार करती हूं और शादी भी उसी से करूंगी समझ लो आप,’ और फिर नताशा कुछ बोल नहीं पाएगी.

आजकल के बच्चों से बहस लगाने का मतलब है खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारना और नताशा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती है, बल्कि वह तो अपनी बेटी के पैरों में जंजीर डालना चाहती है. लेकिन दिमाग से, बहुत सोचसमझ कर कदम बढ़ाएगी वह.

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अशोक से तो कुछ उम्मीद ही नहीं कर सकते, क्योंकि वे तो हर हाल में अपनी बेटी त्रिशा का ही साथ देंगे. उन का मानना है किसी पर जोरजबरदस्ती सही नहीं. सब को अपनी तरह से जीने का हक है. और इस में कोई दोराय नहीं है कि वह अपनी बेटी त्रिशा से बहुत प्यार करते हैं, कुछ भी कर सकते हैं उस के लिए.

लेकिन नताशा इतनी पागल नहीं है कि वह अपनी बेटी का अच्छाबुरा न देख पाए. वह कभी भी हर्ष से त्रिशा की शादी नहीं होने दे सकती.

आगे पढ़ें- नताशा को तो हर्ष फूटी आंख…

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