दाग: भाग 2- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

पर पता नहीं क्यों आज का माहौल कुछ बदलाबदला था. वह जवाब दे कर चुप हो जाती. लगता कहीं खो गई है. उसे देखने से ही पता चल रहा था कि हो न हो ऐसीवैसी जरूर कोई बात है, पर इस के दिल की बात जानूं कैसे, समझ में नहीं आ रहा था. तभी उस की रूमपार्टनर भारती आ गई.

‘‘मामीजी, इसे साथ ले जाइए. रात भर कमरे में टहलती रहती है. पूछने पर कहती है कि नींद नहीं आती. बेचैनी होती है. मैं ने ही इसे नींद की दवा खाने को कहा. ढंग से खाना नहीं खाती. पढ़नालिखना भी पूरी तरह से ठप कर बैठी है. लग रहा है इसे लवेरिया हो गया है,’’ कह भारती हंसी.

 

‘‘चुप भारती, जो मुंह में आ रहा है, बकती जा रही है,’’ माही का चेहरा तमतमा गया.

‘‘अरे, मुझ से नहीं कम से कम मामीजी से उस लवर का नाम बता दे ताकि इस लगन में ये तेरा बेड़ा पार करवा दें,’’ हंसते हुए भारती बैडमिंटन ले बाहर निकल गई. मैं मुसकरा पड़ी.

‘‘ईडियट कहीं की,’’ माही भुनभुनाई.

शायद यही बात हो. यह सोच कर मैं ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा, ‘‘कोई लड़का है तो बोलो. मैं दीदी से बात करूंगी.’’

‘‘कोई नहीं है,’’ उस ने हाथ खींच लिए.

मैं ने उस की ठुड्डी ऊपर उठाई, ‘‘सचसच बता आखिर बात क्या है? मैं तुम्हारी मामी हूं. कोई बात तेरे दिल में घर कर गई है, इसलिए तू नींद की गोलियां खाती है. बता क्या बात है? मुझ पर विश्वास कर मैं तेरी हर बात अपने दिल में दफन कर लूंगी. तू मुझे दोस्त मानती है न… बता मेरी बेटी, तू ने कोई गलती की है, जो आज तेरी यह हालत हो गई है? देख, कहने से दुख हलका होता है. शायद मैं तेरी कुछ मदद करूं. बता न प्यारव्यार का चक्कर है या कोई होस्टल की प्रौब्लम…’’ मैं 10-15 मिनट तक यही दोहराती रही ताकि वह अपने दिल की बात बता दे.

फिर भी माही कुछ नहीं बोली तो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया, ‘‘जब तू मुझे कुछ बताएगी नहीं तो ठीक है मैं जा रही हूं. तुम्हें मुझ पर विश्वास ही नहीं, तो मैं चली,’’ कह कर मैं उठ गई.

‘‘मामी…’’ माही ने सिर उठा कर कहा. उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे. आंसू देख मैं घबरा गई. मगर उस की जबान खुलवाने के लिए बोली, ‘‘मैं जा रही हूं…’’ कह फिर आगे बढ़ी.

वह उठ कर मुझ से लिपट गई और बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘‘मुझ से एक गलती हो गई है…’’

‘‘कैसी गलती?’’

‘‘एक आदमी से संबंध…’’

लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर पड़ूंगी. मेरा दिमाग एक क्षण के लिए सन्न हो गया. हाथपांव कांपने लगे कि यह इस ने क्या कर दिया. मैं ने सोचा था किसी लड़के से प्यार होगा, पर यहां तो… मैं खुद अपनेआप को संभाल नहीं पा रही थी. मुझे माही पर हद से ज्यादा गुस्सा आ रहा था, पर उसे काबू में कर उस से सारी सचाई जानना मैं ने जरूरी समझा.

उसे पलंग पर बैठा मैं खुद भी बैठ गई. वह फूटफूट कर रो रही थी. मैं ने सोचा अगर मैं अभी इसे बुराभला कहूंगी तो हो सके मेरे जाने के बाद यह कहीं गले में फंदा डाल फांसी पर न लटक जाए या होस्टल की छत से ही कूछ जाए. अत: मैं ने उस से सारी बातें कोमलता से पूछीं.

माही ने बताया कि वह अकसर होस्टल की बगल में चंदन स्टेशनरी में फोटो कौपी कराने जाती थी. नोट्स या सर्टिफिकेट को हमेशा फोटोस्टेट कराने की जरूरत पड़ती ही रहती. होस्टल की सारी लड़कियां उसी दुकान पर जातीं. स्टेशनरी और फोटोस्टेट के साथसाथ मेल, कुरियर, बूथ और स्टूडियो को मिला कर 4-5 बिजनैस एक ही में थे.

मालिक चंदन के घर में ही दुकान थी. उस ने एक नौकर रखा था. चंदन की पत्नी रीता भी दुकान देखती.

रोज आतेजाते सभी लड़कियों के साथ माही की भी दोस्ती रीता और चंदन से हो गई थी. कभीकभी रीता उसे चायनाश्ता भी करा देती. उस के 4 और 6 साल के 2 बेटे थे. जिन्हें ट्यूशन पढ़ाने के लिए वह एक अच्छा टीचर ढूंढ़ रही थी.

रीता ने भारती से बात की. पढ़ाई से शाम को जो भी 1-2 घंटे फुरसत के मिलते थे उन्हें भारती बच्चों को पढ़ा कर अपनी उछलकूद बंद नहीं करना चाहती थी. अत: उस ने माही को राजी किया. उसे बच्चों को पढ़ाने का शौक था. वह पढ़ाने लगी. रीता और चंदन से हंसीमजाक होता. बच्चों को पढ़ाने के कारण उस में और इजाफा हुआ.

चंदन था तो 2 बच्चों का पिता, मगर वह बिलकुल नौजवान और हैंडसम लगता था. माही भी 20-21 साल की यौवन की दहलीज पर खड़ी छरहरे बदन की खूबसूरत लड़की थी. माही जब बच्चों को पढ़ाती या चंदन ग्राहकों के बीच रहता तो दोनों एकदूसरे को चोर निगाहों से देख लेते.

दोनों अपनी उम्र और स्थितियों से अवगत थे, मगर फिर भी विपरीत लिंगी आकर्षण की तरफ बढ़ चुके थे.

एक दिन अचानक रीता के पास फोन आया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है. हौस्पिटल में ऐडमिट हैं. वह घबराई सी छोटे बेटे को ले कर अकेले ही मायके चली गई.

शहर के एक विधायक के बच्चे का किसी ने अपहरण कर लिया था. फिर क्या था? उस के चमचों ने शहर की सभी दुकानों को बंद करवा दिया और जलूस निकाल कर अपहरणकर्ताओं को पकड़ने के लिए पुलिस से उलझ पड़े.

चंदन अपनी दुकान बंद कर घर के कामों में जुट गया. रीता रसोई और कपड़ेलत्ते बिखेर गई थी. वह उन्हें समेटने लगा.

शाम को माही बच्चों को पढ़ाने आई. उस ने दुकान बंद होने का कारण पूछा. छोटे भाई के नानी गांव जाने पर बड़ा भाई पढ़ना नहीं चाहता था. माही किसी तरह उसे पढ़ा रही थी.

बनियान और लुंगी पहने चंदन चाय ले कर आया, ‘‘लो माही, चाय पीयो.’’

‘‘दीदी कब आएंगी?’’ कप लेते हुए माही की उंगलियां चंदन से छू गईं. दिल धड़क गया उस का.

‘‘कलपरसों तक आ जाएगी,’’ चंदन वहीं बैठ कर खुद भी चाय पीने लगा.

‘‘चाय बहुत अच्छी है,’’ माही मुसकराई.

‘‘शुक्र है आप जैसी मैडम को मेरी बनाई चाय अच्छी लगी, नहीं तो…’’ चंदन हंसा.

दाग: भाग 1- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

सुबह सुबह मेरा 2 कमरों वाला घर कचरे का ढेर दिखता है. पति को औफिस, बेटे को स्कूल और दोनों बेटियों को कालेज जाने की हड़बड़ी रहती है, इसलिए वे सारे सामान को जैसेतैसे फेंक कर चले जाते हैं. उन के जाने के बाद मैं घर की साफसफाई करती हूं. रात में खाई मूंगफली के छिलकों को उठा कर डस्टबिन में डालने जा ही रही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. सुबहसुबह घर के इतने सारे काम ऊपर से ये मोबाइल कंपनी वाले लेटैस्ट गानों की सुविधाओं के साथ फोन करकर के परेशान कर देते हैं. मैं ने थोड़े गुस्से से फोन पर नजर डाली, तो गुस्सा जले कपूर की तरह उड़ गया. फोन बड़ी ननद का था. मन में थोड़ा डर समा गया कि क्या बात हो गई, जो दीदी ने इतनी सुबह फोन किया? वे ज्यादातर फोन दोपहर में करतीं.

‘‘हां, प्रणाम दीदी, सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं कविता, कुछ ठीक नहीं है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं घबरा गई कि कोई बुरी खबर न सुनने को मिले, क्योंकि ज्यादातर दिल दहला देने वाली खबरें सुबह ही मालूम पड़ती हैं.

खैर, दीदी बताने लगीं, ‘‘देखो न कविता, माही की तबीयत खराब है. उस की सहेली बता रही थी कि वह रातरात भर जगी रहती है. पूछने पर कहती है कि उसे नींद नहीं आती. बेचैनी होती है.’’

‘‘उसे कब से ऐसा हो रहा है?’’

‘‘2-3 महीनों से,’’ दीदी सुबक पड़ीं.

‘‘अरे दीदी, आप रोती क्यों हैं? मैं हूं न. मैं आज उस से मिल लूंगी,’’ कह मैं ने घड़ी देखी. 9 बज रहे थे, ‘‘अब तो वह कालेज चली गई होगी. आप चिंता न कीजिए. शाम को उस से मिल कर मैं आप को फोन करूंगी. चायनाश्ता किया आप ने?’’

‘‘नहीं…’’

‘‘अभी तक आप भूखी हैं? जाइए, नाश्ता कीजिए. मैं भी सारे काम कर के नहाने जा रही हूं. टैंशन न लीजिए,’’ कह मैं ने फोन बंद कर दिया.

घर के काम करने के साथ माही मेरे दिमाग में घूमने लगी. अच्छीभली लड़की को यह क्या हो गया? हमारे सभी रिश्तेदारों के बच्चों में वह सब से तेजतर्रार है. पढ़नेलिखने, खेलकूद सब में अव्वल. अभी वह इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में है. हमेशा अपने बेटे और दोनों बेटियों को उस से कुछ सीख लेने की बात कहती हूं, पर वे तीनों बहरे हो जाते हैं. मैं फालतू में उन पर हर महीने 8-10 हजार रुपए खर्च करती हूं.

दोपहर में चावलदाल बना कर सत्तू की पूरियां और चने की सब्जी बनाई ताकि माही भी खा ले. उसे सत्तू की पूरियां बहुत पसंद हैं. होस्टल में ये सब कहां मिलता है. मैं ने फोन कर के उसे अपने आने का प्रोग्राम नहीं बताया. एक तरह से उसे सरप्राइज देना था. घर बंद कर के चाबी बगल वाली आंटी को दे दी. पति और बच्चों के पास फोन कर दिया.

होस्टल शहर से 27-28 किलोमीटर दूर है. वहां जाने में 2 बसें बदलनी पड़ती

हैं. बस के भरने में घंटों लग जाते हैं. यही कारण था कि मैं माही से मिलने जल्दी नहीं जाती थी.

करीब 4 बजे मैं होस्टल पहुंची. लड़कियां ट्यूशन के लिए जा रही थीं.

‘‘नमस्ते मामीजी,’’ माही की सहेली भारती मुसकराई.

‘‘खुश रहो बेटा, माही कहां है?’’

‘‘अपने कमरे में.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं वार्डन रमा के कैबिन में चली गई.

रजिस्टर में साइन कर सीढि़यां चढ़ माही के कमरे में दाखिल हुई. देखा लाइट बंद थी. वह छत पर टकटकी लगाए पलंग पर लेटी थी. मैं दबे पांव पीछे से उस के पास गई और उस की आंखों को अपने हाथों से ढक दिया.

‘‘कौन है?’’ वह हड़बड़ाई.

‘‘पहचानो…’’

‘‘अरे, मामीजी आप…’’ आवाज पहचान कर उस के सूखे अधरों पर मुसकान फैल गई. उस ने लाइट जलाई.

मैं पलंग पर बैठ गई. मेरे हाथों में उस के आंसू लग गए थे, ‘‘रो रही थी क्या?’’

‘‘नहीं तो?’’ उस ने आंखें पोंछ लीं.

मैं ने उसे ध्यान से देखा. सूखे फूल की तरह मुरझा गई थी वह. आंखें लाल थीं. बाल भी बिखरे थे.

‘‘क्या हो गया है तुम्हें? बिलकुल मरियल दिख रही हो. सुबह में दीदी मतलब तुम्हारी मम्मी का फोन आया कि तुम्हारी तबीयत खराब है. तुम मेरे पास चली आती या अपने घर चली जाती. डाक्टर को दिखाया? क्या बोला? दवा ले रही हो?’’ एक ही बार में मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘अरे मामी, मैं ठीक हूं. आप परेशान न होइए. रुकिए, आप के लिए चाय लाती हूं,’’ माही अपने हलके भूरे बालों को समेटते हुए पलंग से उतरने लगी.

‘‘मैं चाय पी कर आई हूं. कहीं मत जा. तुम्हारे लिए सत्तू की पूरियां लाई हूं. खा लो,’’ मैं ने उसे लंचबौक्स पकड़ाया. यह सोच कर कि अभी वह खा लेगी. जैसे पहले मेरे सामने ही निकाल कर खाती और मेरी तारीफ करती कि मामीजी, आप कितना अच्छा खाना बनाती हैं. साथ में यह फरमाइश भी करती कि अगली बार गुझिया लाना. मैं भी उस की फरमाइश पूरी करती.

पर यह क्या, बाद में खा लूंगी कह कर उस ने लंचबौक्स बगल के स्टूल पर रख दिया. लंचबौक्स रखते हुए एक किताब नीचे गिर गई. किताब के अंदर रखी दवा फर्श पर बिखर गई. मैं ने उसे झट से उठा लिया, ‘‘यह तो नींद की दवा है. क्या तुम्हें नींद नहीं आती?’’ मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

वह नजरें नहीं मिला पाई, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप बैठिए न. मैं चाय ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम पीओगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो बस, मेरे पास बैठो. मुझे जल्दी निकलना होगा. पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

पता नहीं क्यों माही मुझ से नजरें मिला कर बातें नहीं कर रही थी. मैं जब इस से पहले मिलने आती थी, तो चहक कर मुझ से मिलती. एक दोस्त की तरह होस्टल और सहेलियों की हर छोटीबड़ी बातें मुझ से शेयर करती. शुरू से ही यह मेरे करीब रही है और मैं भी इसे उतना ही प्यार करती हूं.

बात एक रात की: क्या चित्रा और तपन की शादी हुई?

तपन रहने वाला तो झारखंड के बोकारो शहर का था, पर किसी काम से कोलकाता गया हुआ था. वह बस से बोकारो आ रहा था. उस की बगल की सीट पर एक हसीन लड़की बैठी थी. उसे भी बोकारो ही आना था. उस की उम्र 25 के आसपास रही होगी. इस हसीना के गोरे रंग, गोल आकर्षक चेहरे पर जिस की भी नजर पड़ती, तारीफ किए बिना नहीं रह सकता था. दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठे मैगजीन पढ़ रहे थे. जब उन की बस कोलकाता शहर से बाहर निकल कर हाईवे पर आई तो यात्रियों को अल्पाहार दिया गया. दोनों ने अपनीअपनी मैगजीन रख कर एकदूसरे की ओर मुसकराते हुए देखा.

‘‘हाय, मैं तपन,’’ तपन ने पहल करते हुए कहा, ‘

‘‘और मैं चित्रा,’’ उस लड़की ने कहा.

खाते हुए दोनों कुछ बातें करने लगे.

फिर अपनीअपनी मैगजीन पढ़ने लगे. थोड़ी देर बाद दुर्गापुर आया तो बस 10 मिनट के लिए रुकी. तपन ने उतर कर चाय पी और एक कप चाय चित्रा के लिए ले कर बस में चढ़ गया. चित्रा ने ‘थैंक्स’ कहते हुए चाय ले कर पीना शुरू की.

कुछ देर बाद जब बस आसनसोल के पास पहुंचने वाली थी तभी अचानक बस रुक गई. कुछ यात्री सो रहे थे तो कुछ जगे थे. पर बस के अचानक रुकते ही सोने वाले यात्री भी जग गए. यात्रियों ने पहले तो आपस में एकदूसरे से बस रुकने का कारण जानना चाहा, पर सही कारण किसी को पता नहीं था. तभी कंडक्टर ने यात्रियों को बताया कि किसी बड़ी दुर्घटना के कारण रोड जाम है और यह जाम खत्म होने में काफी समय लग सकता है. यात्री बस के अंदर ही आराम करें. थोड़ी देर में बस का एसी बंद कर दिया गया. गरमी के दिन थे. ज्यादातर लोग बस से नीचे उतर गए.

तपन भी नीचे आ चुका था. पर चित्रा बस में ही बैठी रही. उस ने खिड़की खोल रखी थी. तपन ने उस की ओर देखा तो उसे महसूस हुआ कि वह चिंतित है. तपन ने उस से नीचे आने को कहा, क्योंकि बस में गरमी बहुत थी पर बाहर अच्छा लग रहा था.

चित्रा बस से नीचे आ गई पर काफी बेचैन लग रही थी. उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि वह चिंतित और सहमी थी. तपन ने उस की चिंता का कारण जानना चाहा तो वह बोली, ‘‘मुझे बोकारो बस स्टैंड पर लेने एक दूर के रिश्तेदार आने वाले हैं. अब पता नहीं बस कब पहुंचे. रात भर तो वे बस स्टैंड पर वेट नहीं कर सकते हैं पर आज रात मेरा बोकारो पहुंचना भी बहुत जरूरी है.’’

‘‘इस आपदा के बारे में तो किसी ने नहीं सोचा था. पर तुम चिंता न करो, अपने रिश्तेदार को फोन कर मना कर दो कि वे तुम्हारा वेट न करें. जाम के सुबह के बाद ही खत्म होने की उम्मीद लगती है. वह भी श्योर नहीं है. सुबह होने के बाद ही कोई विकल्प सोचा जा सकता है.’’

चित्रा ने फोन कर अपने रिश्तेदार को बस स्टैंड आने से मना तो कर दिया, पर उस की आंखें भर आई थीं जिसे तपन ने आसानी से देख लिया था. उस की परेशानी वैसी ही बनी थी.

तपन ने पूछा, ‘‘क्या बात है तुम कुछ ज्यादा ही परेशान लग रही हो? सभी यात्री फंसे हैं, सब को बोकारो ही जाना है… हम सब मजबूर हैं… तुम्हारी कोई खास वजह हो तो चाहो तो बता सकती हो. शायद मैं कुछ मदद कर सकूं?’’

वह कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ‘‘मेरा आज रात बोकारो पहुंचना बहुत जरूरी है. कल सुबह मेरा एक बहुत ही जरूरी काम है…समय पर न पहुंचने से बहुत नुकसान हो सकता है.’’

‘‘वैसे तो मुझे जानने का कोई हक नहीं है, पर अगर कुछ खुल कर कहो तो कोई हल खोजने की कोशिश जरूर करूंगा.’’

अपने को थोड़ा संभालते हुए कहा, ‘‘कल सुबह 7 बजे मुझे कोर्ट में हाजिर होना है और यह दिन कोर्ट का आखिरी वर्किंग डे है. उस के बाद कोर्ट लगभग 2 महीनों के लिए समर वेकेशन के चलते बंद हो जाएंगे.’’

‘‘अगर आज रात तक ही पहुंचना है तो मैं कोई विकल्प देखूं क्या?’’

‘‘मैं आजीवन आप की आभारी रहूंगी. कुछ हो सके तो करें प्लीज.’’

तपन ने बस के कंडक्टर से पूछा कि आखिर जाम क्यों लगा है तो उस ने बताया कि आगे पुलिया पर एक ट्रक खराब हो गया है. वहां बस इतनी जगह बची है कि एक टू व्हीलर ही निकल सकता है… दोनों तरफ से बड़ी गाडि़यों का जाम लगा है. तपन ने जब उस से आगे कहा कि उस का जल्दी आगे जाना बहुत जरूरी है. कोई उपाय सुझाओ तो कंडक्टर ने कहा कि अगर आप के पास सामान ज्यादा नहीं है तो पैदल पुलिया पार कर रिकशे से टैक्सी स्टैंड तक जा कर बोकारो की टैक्सी पकड़ लो पर बस का भाड़ा वह नहीं लौटा सकता.

‘‘नहीं, भाड़े कि कोई चिंता नहीं है,’’ बोल कर वह चित्रा के पास गया और बोला, ‘‘चलो, आगे जाने का उपाय हो गया है. तुम्हारे पास कोई हैवी सामान तो नहीं?’’

‘‘नहीं, बस एक बैग ही है.’’

फिर दोनों ने अपना सामान उठाया और पैदल चल कर पुलिया पार कर रिकशा ले कर टैक्सी स्टैंड की ओर चल पड़े. रास्ता ऊबड़खाबड़ था. रिकशे के बारबार हिचकोले खाने से चित्रा की बाहों का स्पर्श पा कर उसे मीरा की याद आ गई. उसे 5 साल पहले की बात याद आ गई जब वह अपनी पत्नी मीरा के साथ रिकशे पर होता था और रिकशे के हिचकोले खाने से उस का शरीर मीरा के स्पर्श का आनंद लिया करता था. पर अब मीरा उस की जिंदगी से जा चुकी थी.

खैर दोनों टैक्सी स्टैंड पहुंचे. उन्होंने बोकारो के लिए एक टैक्सी ली. पर बोकारो पहुंचतेपहुंचते रात के 2 बज गए.

तपन ने चित्रा से पूछा कि बोकारो में उसे किस सैक्टर में जाना है तो उस ने कहा, ‘‘मुझे जाना तो सैक्टर 1 में है जो कोर्ट के समीप ही है, पर मुझे उन का फ्लैट नंबर याद नहीं है. दरअसल, मेरे पिताजी एक जरूरी टैंडर के सिलसिले में नेपाल गए हैं. मैं मातापिता की इकलौती संतान हूं,’’ इसलिए अकेले आना पड़ा… काम ही कुछ ऐसा है.

‘‘इतनी देर रात में बिना फ्लैट नंबर तो उन्हें ढूंढ़ना संभव नहीं है. बस कुछ घंटों की तो बात है, मेरे घर चलो. अपने रिश्तेदार को इतनी रात में क्यों तंग करोगी?’’

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं होगा. मैं टैक्सी स्टैंड में रुक जाऊंगी. सुबह उन्हें फोन कर बुला लूंगी.’’

‘‘नहीं, स्टैंड पर रुकना सेफ नहीं है,’’ कह कर तपन ने अपने घर फोन किया और बोला, ‘‘मां, तुम अभी तक सोई नहीं थीं. एक ही रिंग पर फोन उठा लिया. मां, मैं 10 मिनट के अंदर घर पहुंच रहा हूं,’’ कह कर चित्रा से बोला, ‘‘मेरी बूढ़ी मां अभी तक मेरे लिए जाग रही हैं. तुम्हें कोई प्रौब्लम नहीं होगी. तुम मेरे घर चलो.’’

चित्रा ने सिर हिला कर अपनी सहमति

जाता दी. थोड़ी देर में दोनों घर पहुंचे, तो चित्रा को देख उस की मां बोलीं, ‘‘क्यों, मीरा को मना लाया है क्या?’’

दरअसल, उस की मां की आंखों की रोशनी बहुत कमजोर थी और फिर रात की वजह से और परेशानी होती थी, इसलिए ठीक से नहीं देख पा रही थीं.

तपन बोला, ‘‘मां, आप समझती क्यों नहीं? अब वह यहां क्यों आएगी? आप जा कर सो जाओ.’’

पर मां ने जब उस से चित्रा के बारे में पूछा तो तपन ने संक्षेप में उस के बारे में बता कर मां को सोने के लिए भेज दिया.

फिर उस ने चित्रा को गैस्टरूम में आराम करने को कहा.

चित्रा ने तपन से पूछा, ‘‘बुरा न मानें तो एक बात पूछूं?’’

फिर तपन के हां कहने पर वह बोली, ‘‘मीरा आप की पत्नी है?’’

‘‘है नहीं थी. हमारा तलाक हो चुका है.’’

‘‘सौरी. क्या इत्तफाक है. कल कोर्ट में मेरे तलाक पर फाइनल फैसला होना है. फैसला क्या बस तलाक पर मुहर लगनी है. मेरा और चेतन का आपसी सहमति से तलाक हो रहा है.’’

कुछ देर तक दोनों खामोश एकदूसरे को हैरानी से देखते रहे. फिर तपन ने कहा, ‘‘तुम तो पढ़ीलिखी हो, काफी खूबसूरत भी हो. तुम्हारे पति को तो तुम पर गर्व होना चाहिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मेरी ससुराल यहीं है, पर अब हमारा तलाक हो रहा है, इसलिए मैं वहां नहीं जा सकती हूं. मेरे पति कोलकाता में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करते हैं. मेरा मायके तो पटना में है. मैं भी सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं. मैं ने अपने कालेज के 3 सीनियर लड़कों के साथ मिल कर एक स्टार्टअप कंपनी खोली है. शुरू में तो यह कंपनी मेरे पति के गैराज में ही थी. लगभग 1 साल तक ठीकठाक रहा था. हम एक अमेरिकन कंपनी के लिए प्रोडक्ट बना रहे हैं. अकसर देर रात तक गैराज में ही हम चारों काम किया करते थे. बीचबीच में मैं चायकौफी भी बना लाती थी. कभी हम चारों होते तो कभी मैं किसी एक के साथ अकेले भी होती थी. अपना मूड ठीक करने के लिए कभी हंसीमजाक भी कर लेते थे. यह सब मेरे पति चेतन को ठीक नहीं लगा. अकसर झगड़ा होने लगा. इसी बीच हमें अमेरिकन कंपनी से कुछ फंड भी मिला, तो अपने घर की बगल में ही एक छोटा फ्लैट किराए पर ले लिया और कंपनी को वहां शिफ्ट करा लिया, पर अकसर रात में देर हो जाती थी. हालांकि यह नितांत आवश्यक था, क्योंकि प्रोडक्ट को समय पर देना होता है. इस से हम लोगों को लाखों रुपए का लाभ होता.’’

चित्रा ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘पर चेतन हमारी मजबूरी समझने को तैयार नहीं था. एक दिन तो हद हो गई जब उस ने कहा कि काम के साथसाथ वहां रंगरलियां भी मनाते हो तुम लोग… या तो मैं कंपनी छोड़ दूं या हम दोनों को तलाक लेना होगा. मैं ने उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की पर वह नहीं माना, उलटे उस ने मेरे चरित्र पर ऊंगली उठाई थी. फिर हम दोनों आपसी सहमति से तलाक के लिए तैयार हो गए.’’

अब तक सुबह के 5 बज गए थे. तपन चाय ले कर चित्रा के पास गया और बोला, ‘‘अभी चाय के साथ कुछ बिस्कुट या स्नैक्स लोगी? नाश्ते में थोड़ा वक्त लगेगा.’’

चित्रा ने कहा कि फिलहाल सिर्फ चाय ही लेगी. फिर दोनों वहीं बैठ कर चाय पीने लगे. चित्रा ने अपने रिश्तेदार को फोन किया तो पता चला कि उन की ए शिफ्ट ड्यूटी है. प्लांट चले गए हैं. दोपहर 3 बजे तक लौटेंगे. चित्रा ने उन्हें फोन पर बता दिया कि वह थोड़ी देर में कोर्ट जाएगी और फिर वहां का काम कर सीधे कोलकाता लौट जाएगी.

चित्रा ने फिर तपन से कहा, ‘‘अगर उचित समझें तो बताएं कि आप और मीरा क्यों अलग हुए थे?’’

‘‘मैं यहां के प्लांट में इंजीनियर हूं, परचेज डिपार्टमैंट में हूं. मशीनों के पार्ट्स खरीदने के लिए बीचबीच में कोलकाता जाना पड़ता है. मैं मध्यवर्गीय परिवार से हूं. मीरा के पिता का अपना अच्छाखासा बिजनैस है, पर मीरा भी इसी प्लांट में अकाउंट औफिस में काम करती थी. हम दोनों में जानपहचान हुई. आगे चल कर प्यार हुआ और हम ने शादी कर ली. शुरू में 6 महीने काफी अच्छे बीते. उस के बाद उस ने जिद पकड़ ली अलग घर लेने की. उस ने कहा कि मां को किसी अच्छे वृद्धाश्रम में छोड़ देंगे. मैं इस के लिए तैयार नहीं?था. रोज खिचखिच होने लगी. अंत में उस ने कहा कि मुझे मां या मीरा में से किसी एक को चुनना होगा. मैं ने जब कहा कि मैं मां को अकेली नहीं छोड़ सकता तो उस ने कहा कि फिर मुझे छोड़ दो. मैं ने इस रिश्ते को बचाने की बहुत कोशिश की, पर वह नहीं मानी और उस ने तलाक के विकल्प को ही बेहतर समझा.’’

‘‘आजकल हमारे देश में भी तलाक लेने वालों की संख्या काफी बढ़ गई है. यह दुख की बात है न? लड़कियां भी पढ़लिख कर कमाने लगी हैं मर्दों की तरह तो उन को भी घर में उतनी इज्जत देनी होगी जितना मर्द अपने लिए चाहते हैं. उन्हें भी अपना कैरियर बनाने का हक है न? क्या मैं गलत बोल रही हूं?’’

‘‘नहीं, पर लड़के क्या अपने मातापिता के भले के लिए कुछ करना चाहें तो यह गलत है?’’

आखिर चित्रा और चेतन के तलाक पर कोर्ट ने मुहर लगा दी. तपन ने कहा कि यह एक ऐसा फैसला है जिस पर खुशी भी जाहिर नहीं की जा सकती है. चित्रा और चेतन अब सदा के लिए अलग हो चुके थे.

इस के बाद तपन चित्रा को अपने घर ले कर आया. उस ने उस दिन छुट्टी ले ली थी. मां ने दोनों को भोजन परोसा. मां ने पूछा, ‘‘बेटी, तुम ने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? अभी तुम्हारे आगे लंबी जिंदगी है.’’

‘‘मैं ने अभी कुछ नहीं सोचा है. अभी मैं कंपनी के जरूरी काम में कुछ महीने इतनी व्यस्त रहूंगी कि कुछ और सोचने की फुरसत ही नहीं है,’’ चित्रा ने कहा.

‘‘चिंता नहीं करना, एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है…’’

तपन चित्रा को विदा करने स्टेशन गया. चलते समय चित्रा ने कहा, ‘‘आगे जब कोलकाता आएं तो मुझ से जरूर मिलना. फिलहाल मेरे साल्ट लेक फ्लैट में ही मेरी कंपनी है,’’ और फिर अपना कार्ड तपन को दे दिया.

‘‘श्योर,’’ कह तपन ने भी अपना कार्ड चित्रा को दे दिया.

चित्रा कोलकाता लौट गई. अब वे अकसर फोन पर बातें करते थे. तपन ज्यादातर चित्रा के काम और स्वास्थ्य के बारे में पूछता, तो चित्रा तपन और उस की मां के बारे में. कभी चित्रा मां से बात करती तो हर बार मां यही पूछतीं कि उस ने अपने भविष्य के बारे में क्या फैसला लिया है? चित्रा भी हर बार यही कहती कि अभी कोई फैसला नहीं लिया.

एक बार जब चित्रा का फोन आया तो मां ने उस से पूछा, ‘‘मेरा तपन तुम्हें कैसा लगता है?’’

चित्रा इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी, फिर भी उस ने कहा, ‘‘तपन तो बहुत ही अच्छे इनसान हैं.’’

‘‘वह हमेशा तुम्हारी तारीफ करता रहता है. कहता है कि बहुत मेहनती लड़की है. खूब तरक्की करेगी,’’ मां बोलीं.

‘‘यही तो उन का बड़प्पन है.’’

कुछ दिनों के बाद तपन को कोलकाता जाना पड़ा. वह चित्रा से मिला. चित्रा ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया. दोनों ने काफी देर तक बातें कीं, पर केवल काम से संबंधित. चलते समय चित्रा ने उसे फिर आने को कहा और हाथ मिला कर विदा किया. यह तपन और चित्रा का दूसरा दैहिक स्पर्श था. पहला स्पर्श रिकशे पर हुआ था. इधर चित्रा का प्रोजैक्ट पूरा होने जा रहा था. उस का टैस्ट चल रहा था, जिस के बाद प्रोजैक्ट को अमेरिकन कंपनी को बेचा जाना था. इधर तपन की मां की तबीयत काफी खराब थी. चित्रा भी सुन कर आई थी. बोकारो में बड़े अस्पताल नहीं थे, तो चित्रा ने तपन को उन्हें कोलकाता ले चलने को कहा. वह स्वयं टैक्सी बुक कर मां और तपन के साथ कोलकाता आई. मां को बड़े अस्पताल में भरती कराया गया. 2 हफ्ते में तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. इस बीच तपन चित्रा के फ्लैट में रहा. चित्रा और तपन अब थोड़ा करीब आ चुके थे. दोनों एकदूसरे को बेहतर समझ रहे थे.

तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिली तो चित्रा उन्हें भी अपने घर ले आई थी और कहा था कि यहां कुछ दिन आराम करने के बाद ही लौटना. 1 हफ्ते तक वे चित्रा के फ्लैट में ही रहे.

1 सप्ताह बाद तपन मां के साथ बोकारो लौट रहा था. पर चलते समय मां ने चित्रा से फिर कहा, ‘‘बेटी, तुम ने तो अपनी बेटी से भी बढ़ कर मेरा खयाल रखा है. कुदरत तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे… पर मेरी बात पर भी सोचना.’’

‘‘कौन सी बात मां?’’ चित्रा ने पूछा.

‘‘अपने और तपन के बारे में.’’

आप के आशीर्वाद से मेरा प्रोजैक्ट पूरा हो गया है. 2 हफ्तों के अंदर ही इस के

अच्छे परिणाम मिलने की आशा है. फिर आप की बात भी मान लूंगी.

तपन और मां दोनों चित्रा की ओर देखने लगे. चित्रा की तरफ से पहला पौजिटिव संकेत मिला था.

इधर चित्रा के मातापिता भी उस के लिए चिंतित रहते थे. चित्रा ने तपन की चर्चा उन से कर रखी थी. उस ने कहा था कि बोकारो जाने वाली एक रात की बात ने चित्रा को काफी इंप्रैस किया है. इतना ही नहीं, चित्रा के पिता ने एक बार चुपके से बोकारो आ कर तपन के बारे में जानकारी भी ले ली थी. वे तपन से संतुष्ट थे. उन्होंने अपनी सहमति चित्रा को बता दी थी.

इस के 1 महीने के अंदर ही चित्रा ने तपन को फोन पर बताया कि उस का प्रोडक्ट अमेरिका की कंपनी ने अच्छी कीमत दे कर खरीद लिया है. उस की कंपनी के चारों पार्टनर्स को 5-5 करोड़ रुपए का फायदा हुआ है.

तपन की मां ने चित्रा से फोन पर कहा, ‘‘तुम्हारी सफलता पर बहुतबहुत बधाई. देखा तपन ने ठीक ही कहा था कि तुम बहुत मेहनती लड़की हो और जल्द ही तुम्हें तरक्की मिलेगी.’’

‘‘सब आप लोगों के आशीर्वाद से है.’’

‘‘अब तो तेरा प्रोजैक्ट भी पूरा हो गया तो बता तपन के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘मैं ने कहा था न कि तपन बहुत अच्छे इनसान हैं. मुझे भी अच्छे लगते हैं. इस के आगे मैं क्या बोलूं? हां, एक और सरप्राइज है, मेरी कंपनी को अमेरिका से बहुत बड़ा और्डर मिला है.’’

मां ने जब यह बात तपन को बताई तो उस ने फोन मां के हाथ से ले कर चित्रा से कहा, ‘‘बहुतबहुत बधाई इस दूसरी कामयाबी पर और एक सरप्राइज मेरी ओर से भी है. मुझे प्रमोशन दे कर कंपनी ने कोलकाता औफिस में पोस्टिंग की है. 1 हफ्ते के अंदर जौइन करना होगा.’’

फिर मां ने चित्रा से कहा, ‘‘अब तो और इंतजार नहीं कराना है?’’

‘‘नो मोर इंतजार मांजी. अब आगे आप की मरजी का इंतजार है. आप जो कहेंगी वैसा ही करूंगी,’’ और हंसते हुए फोन काट दिया.

इधर मां की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आए थे.

सामंजस्य: क्या रमोला औफिस और घर में सामंजस्य बिठा पाई?

रमोला के हाथ जल्दीजल्दी काम निबटा रहे थे, पर नजरें रसोई की खिड़की से बाहर गेट की तरफ ही थीं. चाय के घूंट लेते हुए वह सैंडविच टोस्टर में ब्रैड लगाने लगी.

‘‘श्रेयांश जल्दी नहा कर निकलो वरना देर हो जाएगी,’’ उस ने बेटे को आवाज दी.

‘‘मम्मा, मेरे मोजे नहीं मिल रहे.’’

मोजे खोजने के चक्कर में चाय ठंडी हो रही थी. अत: रमोला उस के कमरे की तरफ भागी. मोजे दे कर उस का बस्ता चैक किया और फिर पानी की बोतल भरने लगी.

‘‘चलो बेटा दूध, कौर्नफ्लैक्स जल्दी खत्म करो. यह केला भी खाना है.’’

‘‘मम्मा, आज लंचबौक्स में क्या दिया है?’’

श्रेयांश के इस सवाल से वह घबराती थी. अत: धीरे से बोली, ‘‘सैंडविच.’’

‘‘उफ, आप ने कल भी यही दिया था. मैं नहीं ले जाऊंगा. रेहान की मम्मी हर दिन उसे बदलबदल कर चीजें देती हैं लंचबौक्स में,’’ श्रेयांश पैर पटकते हुए बोला.

‘‘मालती दीदी 2 दिनों से नहीं आ रही है. जिस दिन वह आ जाएगी मैं अपने राजा बेटे को रोज नईनई चीजें दिया करूंगी उस से बनवा कर. अब मान जा बेटा. अच्छा ये लो रुपए कैंटीन में मनपसंद का कुछ खा लेना.’’

रेहान की गृहिणी मां से मात खाने से बचने का अब यही एक उपाय शेष था. सोचा तो था कि रात में ही कुछ नया सोच श्रेयांश के लंचबौक्स की तैयारी कर के सोएगी पर कल दफ्तर से लौटतेलौटते इतनी देर हो गई कि खाना बाहर से ही पैक करा कर लेती आई.

खिड़की के बाहर देखा. गेट पर कोई आहट नहीं थी. घड़ी देखी 7 बज रहे थे. स्कूल बस आती ही होगी. बेटे को पुचकारते हुए जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी.

ये बाइयां भी अपनी अहमियत खूब समझती हैं. अत: मनमानी करने से बाज नहीं आती हैं. मालती पिछले 3 सालों से उस के यहां काम कर रही थी. सुबह 6 बजे ही हाजिर हो जाती और फिर रमोला के जाने के वक्त 9 बजे तक लगभग सारे काम निबटा लेती. वह खाना भी काफी अच्छा बनाती थी. उसी की बदौलत लंचबौक्स में रोज नएनए स्वादिष्ठ व्यंजन रहते थे. शाम 6 बजे उस के दफ्तर से लौटते वह फिर हाजिर हो जाती. चाय के साथ मालती कुछ स्नैक्स भी जरूर थमाती.

मालती की बदौलत ही रमोला घर के कामों से बेफिक्र रहती थी और दफ्तर में अच्छा काम कर पाती. नतीजा 3 सालों में 2 प्रमोशन. अब तो वह रोहन से दोगुनी सैलरी पाती थी. परंतु अब मालती के न होने पर काम के बोझ तले उस का दम निकले जा रहा था. बढ़ती सैलरी अपने साथ बेहिसाब जिम्मेदारियां ले कर आ गई थी. हां, साथ ही साथ घर में सुखसुविधाएं भी बढ़ गई थीं. तभी रोहन और रमोला इस पौश इलाके में इतने बड़े फ्लैट को खरीद पाने में सक्षम हुए थे.

मालती के रहते उसे कभी किसी और नौकर या दूसरी कामवाली की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. लगभग उसी की उम्र की औरत होगी मालती और काम बिलकुल उसी लगन से करती जैसे वह अपनी कंपनी के लिए करती थी. इसी से रमोला हमेशा उस का खास ध्यान रखती और घर के सदस्य जैसा ही सम्मान देती. परंतु इधर कुछ महीनों से मालती का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सुबह अकसर देर से आती या न भी आती. बिना बताए 2-2, 3-3 दिनों तक गायब रहती. अचानक उस के न आने से रमोला परेशान हो जाती. पर समयाभाव के चलते रमोला ज्यादा इस मामले में पड़ नहीं रही थी. मालती की गैरमौजूदगी में किसी तरह काम हो ही जाता और फिर जब वह आती तो सब संभाल लेती.

श्रेयांश को बस में बैठा रमोला तेजी से सीढि़यां चढ़ते हुए घर में घुसी. बिखरी हुई बैठक को अनदेखा कर वह एक बार फिर रसोई में घुस गई. वह कम से कम 2 सब्जियां बना लेना चाहती थी, क्योंकि आज रात उसे लौटने में फिर देर जो होनी थी.

हाथ भले छुरी से सब्जी काट रहे थे पर उस का ध्यान आज दफ्तर में होने वाली मीटिंग पर अटका था. देर रात एक विदेशी क्लाइंट के साथ एक बड़ी डील के लिए वीडियो कौन्फ्रैंसिंग भी करनी थी. उस के पहले मीटिंग में सारी बातें तय करनी थीं. आधेपौने घंटे में उस ने काफी कुछ बना लिया. अब रोहन को उठाना जरूरी था वरना उसे भी देर हो जाएगी.

रोहन कभी घर के कामों में उस का हाथ नहीं बंटाता था उलटे हजार नखरे करता. कल रात भी वह बड़ी देर से आया था. उलझ कर वक्त जाया न हो, इसलिए रमोला ने ज्यादा सवालजवाब नहीं किए. जबकि रोहन का बैंक 6 बजे तक बंद हो जाता था. वह महसूस कर रही थी कि इन दिनों रोहन के खर्चों में बेहिसाब वृद्धि हो रही है. शौक भी उस के महंगे हो गए थे. आएदिन महंगे होटलों की पार्टियां रमोला को नहीं भातीं. फिर सोचती आखिर कमा किस लिए रहे हैं. घर और दोनों गाडि़यों की मासिक किश्तों और उस पर बढ़ रहे ब्याज के विषय में सोचती तो उस के काम की गति बढ़ जाती.

‘‘आज तुम श्रेयांश को मम्मी के घर से लाने ही नहीं गए, बेचारा इंतजार करता वहीं सो गया था. तुम तो जानते ही हो मम्मी के हार्ट का औपरेशन हुआ है. वह श्रेयांश की देखभाल करने में असमर्थ हैं,’’ रमोला ने बेहद नर्म लहजे में कहा पर मन तो हो रहा था कि पूछे इस बार क्रैडिट कार्ड का बिल इतना अधिक क्यों आया?

मगर रोहन फट पड़ा, ‘‘हां मैं तो बेकार बैठा हूं. मैडम खुद देर रात तक बाहर गुलछर्रे उड़ा कर घर आएं. मैं जल्दी घर आ कर करूंगा क्या? बच्चे की देखभाल?’’

रोहन के इस जवाब से रमोला हैरान रह गई. उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा. सिर झुकाए लैपटौप पर काम करती रही. क्लाइंट से मीटिंग  के पहले यह प्रेजैंटेशन तैयार कर उसे कल अपने मातहतों को दिखानी जरूरी थी. कनखियों से उस ने देखा रोहन सीधे बिस्तर पर ही पसर गया. खून का घूंट पी वह लैपटौप पर तेजी से उंगलियां चलाने लगी.

चाय बन चुकी थी पर रोहन अभी तक उठा नहीं था. अपनी चाय पी वह दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगी. अपने बिखरे पेपर्स समेटे, लैपटौप बंद किया. साथसाथ वह नाश्ता भी करती जा रही थी. हलकी गुलाबी फौर्मल शर्ट के साथ किस रंग की पतलून पहने वह सोच रही थी. आज खास दिन जो था.

तभी रोहन की खटरपटर सुनाई देने लगी. लगता है जाग गया है. यह सोच रमोला उस की चाय वहीं देने चली गई.

‘‘गुड मौर्निंग डार्लिंग… अब जल्दी चाय पी लो. मैं बस निकलने वाली हूं,’’ परदे को सरकाते हुए रमोला ने कहा.

‘‘क्या यार जब देखो हड़बड़ी में ही रहती हो. कभी मेरे पास भी बैठ जाया करो,’’ रोहन लेटेलेटे ही उस के हाथ को खींचने लगा.

‘‘मुझे चाय नहीं पीनी, मुझे तो रात से ही भूख लगी है. पहले मैं खाऊंगा,’’ कहते हुए रोहन ने उसे बिस्तर पर खींच लिया.

‘‘रोहन, अब ज्यादा रोमांटिक न बनो, मेरी कमीज पर सलवटें पड़ जाएंगी. छोड़ो मुझे. नाश्ता और लंचबौक्स मैं ने तैयार कर दिया है. खा लेना, 9 बजने को हैं. तुम भी तैयार हो जाओ,’’ कह रमोला हाथ छुड़ा चल दी.

‘‘रोहन, दरवाजा बंद कर लो मैं निकल रही हूं,’’ रमोला ने कहा और फिर सीढि़यां उतर गैराज से कार निकाल दफ्तर चल दी. रमोला मन ही मन मीटिंग का प्लान बनाती जा रही थी.

‘उमेश को वह वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के वक्त अपने साथ रखेगी. बंदा स्मार्ट है और उसे इस प्रोजैक्ट का पूरा ज्ञान भी है. जितेश को मार्केटिंग डिटेल्स लाने को कहा ही है. एक बार सब को अपना प्रेजैंटेशन दिखा, उन के विचार जान ले तो फिर फाइनल प्रेजैंटेशन रचना तैयार कर ही लेगी. सब सहीसही सोचे अनुसार हो जाए तो एक प्रमोशन और पक्की,’ यह सोचते रमोला के अधरों पर मुसकान फैल गई.

दफ्तर के गेट के पास पहुंच उसे ध्यान आया कि लैपटौप, लंचबौक्स सहित जरूरी कागजात वह सब घर भूल आई है. आज इतनी दौड़भाग थी सुबह से कि निकलते वक्त तक मन थक चुका था. रमोला ने कार को घर की तरफ घुमा दिया. कार को सड़क पर ही छोड़ वह तेजी से सीढि़यां चढ़ने लगी. दरवाजा अंदर से बंद न था. हलकी थपकी से ही खुल गया. बैठक में कदम रखते ही उसे जोरजोर से हंसने की आवाजें सुनाई दीं.

‘‘ओह मीतू रानी तुम ने आज मन खुश कर दिया… सारी भूख मिट गई… मीतू यू आर ग्रेट,’’ रोहन की आवाज थी.

‘‘साहबजी आप भी न…’’

‘तो मालती आ चुकी है… रोहन उसे ही मीतू बोल रहा है. पर इस तरह…’ सोच रमोला का सिर मानो घूमने लगा, पैर जड़ हो गए.

जबान तालू से चिपक गई. उस की बचीखुची होश की हवा चूडि़यों की खनखनाहट और रोहन के ठहाकों ने निकाल दी. वह उलटे पांव लौट गई. बिना लैपटौप लिए ही जा कर कार में बैठ गई. उस के तो पांव तले से जमीन खिसक गई थी.

‘मेरी पीठ पीछे ऐसा कब से चल रहा है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. रोहन मेरे साथ ऐसी बेवफाई करेगा, मैं सोच भी नहीं सकती. घर संभालतेसंभालते महरी उस के पति को भी संभालने लगी,’ मालती की जुरअत पर वह तड़प उठी कि कब रोहन उस से इतनी दूर हो गया. वह तो हमेशा हाथ बढ़ाता था. मैं ही छिटक देती थी. उस के प्यारइजहार की भाषा को मैं ने खूब अनदेखा किया.

‘रोहन को इस गुनाह के रास्ते पर धकेलने वाली मैं ही हूं. साथसाथ तो चल रहे थे हम… अचानक यह क्या हो गया. शायद साथ नहीं, मैं कुछ ज्यादा तेज चल रही थी, पर मैं तो घर, पति और बच्चे के लिए ही काम कर रही हूं, उन की जरूरतें और शौक पूरा हो इस के लिए दिनरात घरबाहर मेहनत करती हूं. क्या रोहन का कोई फर्ज नहीं? वह अपनी ऐयाशी के लिए बेवफाई करने की छूट रखता है?’ विचारों की अंधड़ में घिरी कार चला वह किधर जा रही थी, उसे होश नहीं था. बगल की सीट पर रखे मोबाइल पर दफ्तर से लगातार फोन आ रहे थे. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बेहद उच्च पदासीन रमोला अचानक खुद को हारी हुई, लुटीपिटी, असहाय महसूस करने लगी. उसे सब कुछ बेमानी लगने लगा कि कैसी तरक्की के पीछे वह भागी जा रही है. उसे होश ही न रहा कि वह कार चला रही है.

जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. सिरहाने रोहन और श्रेयांश बैठे थे. डाक्टर बता रहे थे कि अचानक रक्तचाप काफी बढ़ जाने से ये बेहोश हो गई थीं. कुछ दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई. उमेश और जितेश दफ्तर से उस से मिलने आए थे. उन की बातों से लगा कि उस की अनुपस्थिति में दफ्तर में काफी मुश्किलें आ रही हैं. रमोला ने उन्हें आश्वासन दिया कि बेहतर महसूस करते ही वह दफ्तर आने लगेगी, तब तक घर से स्काइप के जरीए वर्क ऐट होम करेगी.

रोहन को देख उसे घृणा हो जाती. उस दिन की हंसी और चूडि़यों की खनखनाहट की गूंज उसे बेचैन किए रहती. रोहन को छोड़ने यानी तलाक की बात भी उस के दिमाग में आ रही थी. पर फिर मासूम श्रेयांश का चेहरा सामने आ जाता कि क्यों उस का जीवन बरबाद किया जाए. उस के उच्च शिक्षित होने का क्या फायदा यदि वह अपनी जिंदगी की उलझनों को न सुलझा सके.

‘हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा’ एक कवि की ये पंक्ति उसे हमेशा उत्साहित करती थी, विपरीत परिस्थितियों में शांतिपूर्वक जूझने के लिए प्रेरणा देती थी. आज भी वह हार नहीं मानेगी और अपने घर को टूटने से बचा लेगी, ऐसा उसे विश्वास था.

रमोला से उस की कालेज की एक सहेली मिलने आई. वह यूएस में रहती थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि वहां तो नौकर, दाई मिलते नहीं. अत: सारा काम पतिपत्नी मिल कर करते हैं. रमोला को उस की बात जंच गई कि अपने घर का काम करने में शर्म कैसी.

उस के जाने के बाद कुछ सोचते हुए रमोला ने रोहन से कहा, ‘‘रोहन मैं सोचती हूं कि मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूं. घर पर रह कर तुम्हारी तथा श्रेयांश की देखभाल करूं. तुम्हारी शिकायत भी दूर हो जाएगी कि मैं बहुत व्यस्त रहती हूं, घर पर ध्यान नहीं देती हूं.’’

यह सुनना था कि रोहन मानो हड़बड़ा गया. उसे अपनी औकात का पल भर में भान हो गया. श्रेयांश के महंगे स्कूल की फीस, फ्लैट और गाडि़यों की मोटी किस्त ये सब तो उस के बूते पूरा होने से रहा. कुछ ही पलों में उसे अपनी सारी ऐयाशियां याद आ गईं.

‘‘नहीं डियर, नौकरी छोड़ने की बात क्यों कर रही हो? मैं हूं न,’’ हकलाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘ताकि तुम अपनी मीतू के साथ गुलछर्रे उड़ा सको… नहीं मुझे अब घर पर रहना है और किसी महरी को नहीं रखना है,’’ रमोला ने सख्त लहजे में तंज कसा.

रोहन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह घुटनों के बल वहीं जमीन पर बैठ गया और रमोला से माफी मांगने लगा. भारतीय नारी की यही खासीयत है, चाहे वह कम पढ़ीलिखी हो या ज्यादा घर हमेशा बचाए रखना चाहती है. रमोला ने भी रोहन को एक मौका और दिया वरना दूसरे रास्ते तो हमेशा खुले हैं उस के पास.

रमोला ठीक हो दफ्तर जाने लगी. गाड़ी के पहियों की तरह दोनों अपनी गृहस्थी की गाड़ी आगे खींचने लगे. अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए रमोला ने भी तय कर लिया था कि वह घर और दफ्तर दोनों में सामंजस्य बैठा कर चलेगी, भले ही एकाध तरक्की कम हो. नौकरी छोड़ने की उस की धमकी के बाद से रोहन अब घर के कामों में उस का हाथ बंटाने लगा था. इन सब बदलावों के बाद श्रेयांश पहले से ज्यादा खुश रहने लगा था, क्योंकि लंचबौक्स उस की मम्मी खुद तैयार करती और रोज नईनई डिश देती.

फेसबुक: श्वेता और राशी क्या बच पाई इस जाल से

कालेज में फ्री पीरियड में जैसे ही श्वेता ने अपनी सहेली अमिता और राशी को अपने बौयफ्रैंड रोहन के बारे में बताया तो राशी हैरान होते हुए बोली, ‘‘तू बड़ी छिपीरुस्तम निकली, पिछले 6 महीने से तुम दोनों का चक्कर चल रहा है और हमें तू आज बता रही है.’’

‘‘तो तुम ने कौन सा अपने जयपुर वाले बिजनैसमैन बौयफ्रैंड संचित से हमें अभी तक मिलवाया है,’’ श्वेता ने पलट कर जवाब दिया.

‘‘प्लीज, दोनों लड़ो मत. चलो, कैंटीन चलते हैं, बाकी बातें वहीं कर लेना,’’ अमिता दोनों को चुप कराते हुए बोली.तीनों क्लास रूम से उठ कर कैंटीन की तरफ चल दीं.

राशी ने 3 बर्गर और हौट कौफी और्डर करते हुए श्वेता से पूछा, ‘‘चल छोड़, अब यह बता, तुम मिले कहां? रोहन के परिवार में कौनकौन है? हमें उस से कब मिलवा रही है?’’

‘‘क्या एक के बाद एक सवालों की बौछार कर रही है, आराम से एकएक कर के पूछ,’’ अमिता ने राशी को टोका.

‘‘अभी तो मैं ही रोहन से नहीं मिली तो तुम्हें कैसे मिलवाऊं,’’ श्वेता ने मजबूरी जताई.

‘‘तो पिछले 6 महीने से तुम एक बार भी नहीं मिले,’’ राशी ने हैरानी से पूछा.

‘‘तो तुम कौन सा संचित से मिली हो,’’ श्वेता ने उसी लहजे में राशी से पूछा.

‘‘संचित बिजनैस के सिलसिले में अकसर विदेश जाता है, उस ने तो मुझे अपने साथ सिंगापुर चलने के लिए कहा था, पर मैं ने ही मना कर दिया. शादी के बाद उस के साथ दुनिया घूमूंगी,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘चलो, चलो, बर्गर खाओ, ठंडा हो रहा है,’’ अमिता ने कहा.

‘‘अच्छा, यह तो बता रोहन दिखता कैसा है, उस का कोई फोटो तो दिखा,’’ राशी श्वेता का मोबाइल उठाते हुए बोली.

‘‘अभी उस की आर्मी की ट्रेनिंग पूरी नहीं हुई है, इसलिए उस ने कोई फोटो नहीं भेजा,’’ श्वेता ने जवाब दिया, ‘‘सुनो, कल उस का बर्थडे है, मैं तुम सब को ट्रीट दूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘क्या तू ने रोहन के लिए कोई गिफ्ट नहीं भेजा,’’ अमिता ने श्वेता से पूछा.

‘‘क्यों नहीं, मैं ने उस की मनपसंद घड़ी कोरियर से एक हफ्ते पहले ही भेज दी थी,’’ श्वेता बोली.

‘‘पिछले महीने तेरे बर्थडे पर रोहन ने क्या दिया,’’ राशी ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘उस ने कहा कि वह ट्रेनिंग खत्म होते ही दिल्ली आएगा और मुझे मनपसंद शौपिंग कराएगा,’’ श्वेता चहकते हुए बोली.

‘‘ग्रेट,’’ राशी ने कहा.

‘‘एक मिनट, मुझे तो तुम दोनों के बौयफ्रैंड्स में कुछ गड़बड़ लग रही है,’’ अमिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड नहीं है, इसलिए तू हम से जलती है,’’ राशी तुनक कर बोली.

तीनों कैंटीन से आ कर क्लास रूम में बैठ गईं, पर अमिता का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था, वह यही सोचती रही कि जिन लड़कों को इन्होंने देखा नहीं, उन से मिली नहीं, उन के सपनों में खो कर अपना कीमती समय बरबाद कर रही हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन दोनों को एक ही लड़का बेवकूफ बना रहा हो, लेकिन इन्हें समझाना बहुत मुश्किल है. उस ने मन ही मन एक प्लान बनाया और कालेज की छुट्टी के समय दोनों से बोली, ‘‘सुनो, तुम दोनों संडे को मेरे घर आ जाओ, मैं घर पर अकेली हूं, मम्मीपापा कहीं बाहर जा हे हैं.’’

राशी और श्वेता दोनों संडे को 11 बजे अमिता के घर पहुंच गईं. अमिता दोनों के लिए गरमागरम मैगी बना कर लाई. इसी बीच अमिता अपना लैपटौप भी उठा लाई और दोनों से बोली, ‘‘चलो, आज रोहन और संचित से चैटिंग करते हैं.’’

यह सुन कर श्वेता ने जल्दी से अपना फेसबुक अकाउंट ओपेन किया और रोहन से चैटिंग करने लगी.

‘‘सुन, तू उसे यह मत बताना कि मेरी सहेलियां भी साथ हैं. उस से उस के कुछ फोटो मंगा,’’ अमिता ने श्वेता को सलाह दी.

‘‘6 महीने में रोहन को पूरा विश्वास हो गया था कि श्वेता उस के जाल में पूरी तरह फंस चुकी है, इसलिए उस ने अपने कुछ फोटो उसे भेज दिए.’’

फोटो देखते ही राशी चौंक उठी और बोली, ‘‘ये तो संचित के फोटो हैं.’’

अमिता उसे शांत करते हुए बोली, ‘‘चौंक मत, संचित और रोहन अलग न हो कर एक ही शख्स है, यह न तो आर्मी में है और न ही बिजनैसमैन. यह तुम दोनों को अपने अलगअलग नामों से बेवकूफ बना रहा है.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, क्या तू इसे जानती है?’’ राशी ने अमिता से पूछा.

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम ही सोचो, तुम ने अपने बौयफ्रैंड्स को महंगे गिफ्ट भेजे, लेकिन उन्होंने तुम्हें कुछ नहीं दिया, मिलने के मौकों को टाला, यह तो अच्छा है कि तुम दोनों समय रहते बच गईं.’’

‘‘आजकल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर आएदिन ऐसे किस्से सुनने को मिल रहे हैं. इसलिए इन सब से सावधान रहना चाहिए,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘पर मुझे तो रोहन ने अपना एड्रैस दिया था, जिस पर मैं ने गिफ्ट भेजे हैं,’’ श्वेता ने कहा.

‘‘मेरी भोली सहेली, जब तक तुम उस का पता करने उस के एड्रैस पर पहुंचोगी तब तक वह शातिर वहां से भाग चुका होगा, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं, इसलिए कभी भी वे एक एड्रैस पर लंबे समय तक नहीं ठहरते. बस, अपना उल्लू सीधा किया और नौदो ग्यारह हो गए.’’ अमिता ने कहा.ॉ

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‘‘कम औन, पहले अपनी ग्रैजुएशन पूरी करो फिर बौयफ्रैंड बनाना,’’ उस ने दोनों को सुझाव दिया.

‘‘तू ठीक कहती है अमिता, तू ने हमें हकीकत से परिचित करवा कर समय रहते बचा लिया, न जाने यह हमें कितना बेवकूफ बनाता,’’ राशी बोली.

‘‘चलो, तुम दोनों किसी अनहोनी से बच गईं अन्यथा ताउम्र उन्हें इस का खमियाजा भुगतना पड़ता. आओ, इसी बात पर पकौड़े बनाते हैं,’’ कह कर अमिता दोनों सहेलियों को ले कर किचन की ओर बढ़ गई.

आगाज: क्या ज्योति को मिल पाया उसका सच्चा प्यार?

कहानी- प्रेमलता यादु

‘‘क्यातुम मेरे इस जीवनपथ की हमराही बनना चाहोगी? क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति आवाक उसे देखती रही. वह समझ ही नहीं पाई क्या कहे? उस ने कभी सोचा नहीं था कि प्रकाश के मन में उस के लिए ऐसी

कोई भावना होगी. उस के स्वयं के हृदय में प्रकाश के लिए इस प्रकार का खयाल कभी नहीं आया.

कई वर्षों से दोनों एकदूजे को जानते हैं. दोनों ने संग में न जाने कितना ही वक्त बिताया है. जब भी उसे कांधे की जरूरत होती. प्रकाश का कंधा सदैव मौजूद होता. ज्योति अपनी हर छोटी से छोटी खुशी

और बड़े से बड़ा दुख इस अनजान शहर में प्रकाश से ही साझा करती.

उन दोनों की दोस्ती गहरी थी. जबजब ज्योति किसी रिलेशनशिप में आती तो प्रकाश को बताती और जब ब्रेकअप होता तब भी वह प्रकाश से ही दुख जाहिर करती.

उस का यह पहला ब्रेकअप नहीं था. लेकिन दिल तो इस बार भी टूटा था. हां, दर्द जरूर थोड़ा कम था. यह सब जानते हुए प्रकाश का आज इस तरह शादी के लिए प्रपोज करना उसे उलझन में डाल गया. वह अपनी कौफी खत्म किए बिना और प्रकाश से कुछ कहे बगैर औफिस कैंटीन से अपने चैंबर में लौट आई. प्रकाश ने भी उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की. ज्योति विचारों के गिरह में उलझने लगी थी.

मरुस्थल के गरम रेत पर चलते हुए ज्योति के पैरों में फफोले आ चुके थे. मृगतृष्णा की तलाश में न जाने वह कब से अकेली भटक रही थी. जिस अमृतरूपी प्रेम का वह रसपान करना चाहती थी, वह प्रेम उसे हर बार एक विष के रूप में मिला. बचपन में मां को खोने के बाद लाड़प्यार को तरसती रही. सौतेली मां का दुर्व्यवहार और दबाव इतना था कि पिता भी उसे दुलार करने से डरते.

ज्योति का सारा बचपन मातापिता के स्नेह से वंचित रहा. फिर जब उसे जिंदगी को अपने ढंग से जीने का अवसर मिला, वह आंखों में रंगीन सपने लिए इस महानगरी मुंबई में आ पहुंची. यहां उसे लगने लगा उस की सच्चे प्यार और जीवनसाथी की तलाश जरूर पूरी होगी. लेकिन जब भी उसे ऐसा लगा कि उस ने अपना सच्चा प्यार पा लिया है, अगले ही पल वह प्रेम, वासना में तबदील हो गया. यों, आज जब प्रकाश उस के सामने एक सच्चे प्यार के रूप में खड़ा है वह क्यों उसे स्वीकार नहीं करना चाह रही? कारण शायद साफ था कि अब वह टूटना नहीं चाहती.

मन में चल रही उलझनों को सुलझाने के लिए सिगरेट सुलगा वह धुआं उड़ाने लगी. धीरेधीरे पूरा पैकेट खत्म होने लगा लेकिन इस धुएं में गुत्थियां खुलने के बजाय उलझने लगीं तो वह धुआं उड़ाती हुई अतीत की गलियों में मुड़ गई. जब उस ने अपने छोटे शहर पटना से एमबीए कर असिस्टैंट मैनेजिंग डायरैक्टर के पद पर इस जगमगाती कौर्पोरेट दुनिया में अपना पहला कदम रखा था. उस दिन से ही वह प्रकाश को जानती है. लेकिन प्रकाश से प्यार… नहीं. नहीं. प्रकाश उस के दिल के बहुत करीब जरूर है लेकिन वह उस से प्यार नहीं करती. प्रकाश उस का सब से अच्छा और सच्चा मित्र है.

उस का पहला प्यार तो पीयूष है, जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी और वह भी तो उस का दीवाना था. पीयूष के प्यार में वह इस कदर पागल थी कि दुनिया की परवा करना छोड़ चुकी थी. पीयूष जैसे लड़के की ही तमन्ना उसे थी. जब उसे देखती तो उस की आंखों में डूब जाती. हमउम्र थे दोनों. उस की हर बात ज्योति को दीवाना कर देती. इस पागलपन में उस ने कब अपना सबकुछ उसे समर्पित कर दिया, उसे पता ही नहीं चला. जब होश आया तब तक सब लुट चुका था और पीयूष का असली चेहरा सामने था.

पीयूष ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा था, ‘ज्योति, मैं तुम से प्यार तो करता हूं लेकिन मैं अपने मातापिता के विरुद्ध जा कर तुम्हारा साथ नहीं निभा सकता.’ यह सुनते ही ज्योति के जीवन में सैलाब आ गया था. पीयूष उस का पहला प्यार था जिसे वह अब खो चुकी थी. उस वक्त एक प्रकाश ही था जिस ने उसे इस हलाहल में डूबने से बचाया था. यह सब सोच ज्योति को घुटन महसूस होने लगी. वह घबरा कर खुली हवा में सांस लेने टैरेस पर जा खड़ी हुई.

रात गहरी और काली थी. इस से पहले उसे रात इतनी डरावनी कभी नहीं लगी. रोड पर इक्कादुक्का वाहनों की आवाजाही थी. दिन में कोलाहल से भरा यह शहर यामिनी की गोद में सो रहा था, लेकिन ज्योति के नयनों में निद्रा कहां? उस के मन में तो हलचल मची हुई थी.

पीयूष से मिली बेवफाई के बाद उस ने निश्चय कर लिया कि अब वह कभी किसी से प्यार नहीं करेगी, किसी पर विश्वास नहीं करेगी. अपने इन्हीं विचारों के साथ जब वह आगे बढ़ चली तभी उस के दिल के किवाड़ पर आयुष नाम की दस्तक हुई और एक बार फिर उस ने अपने दिल का दरवाजा खुलेमन से खोल दिया. लेकिन इस बार वह पूर्णरूप से सतर्क  थी.

धीरेधीरे उसे लगने लगा आयुष का प्रेम जिस्मानी नहीं. लेकिन यह भी भ्रम मात्र था. असल में आयुष का लक्ष्य भी उस के शरीर को ही पाना था. वह मौके की तलाश में था. ज्योति जब उस की असलियत से रूबरू हुई तो दोनों के रास्ते जुदा हो गए और इस बार फिर दिल ज्योति का ही टूटा.

हलकीहलकी ठंड लगने लगी, परंतु ज्योति टैरेस पर ही खड़ी रही. उसे याद है किस तरह आयुष से ब्रेकअप के बाद अवसाद ने उसे अपनी गिरफ्त में इस प्रकार जकड़ा था कि वह सिगरेट और शराब में अपनेआप को डुबोने लगी. इस वजह से औफिस में उस का परफौर्मैंस ग्राफ गिरने लगा. उस वक्त भी प्रकाश ही था जिस ने उसे इस परिस्थिति से उभारा. तब उस के मन में प्रकाश के लिए सम्मान और बढ़ गया.

साथ ही साथ, मन के एक कोने में प्रेम का बीज भी अंकुरित होने लगा जिसे वह दफना देना चाहती थी क्योंकि वह प्रकाश को खोना नहीं चाहती और न ही वह अपनेआप को उस के काबिल समझती है. यही कारण है कि उस ने अब तक प्रकाश से कुछ नहीं कहा.

आयुष के बाद चिराग पतझड़ में वसंत की बहार बन कर आया, जो उस की सारी सचाई जानते हुए उसे अपनाना चाहता था. लेकिन, उस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि चिराग की यह शर्त थी कि उसे अपने अतीत के साथसाथ प्रकाश को भी हमेशा के लिए भुला उस के संग चलना होगा. ज्योति किसी शर्त के साथ रिश्ते में नहीं बंधना चाहती थी, और फिर मोहब्बत में कैसी शर्त?

वह प्रकाश को किसी भी हाल में खोने को तैयार नहीं थी. फिर आज जब प्रकाश सदा के लिए उस का हो जाना चाहता है तो वह क्यों शादी के लिए हां नहीं कह पाई? बेशक, प्रकाश देखने में साधारण था, लेकिन बोलने में ऐसी कशिश थी कि उस के आगे उस का रंगरूप माने नहीं रखता था.

तभी उस के कंधे पर किसी ने हाथ रखा. वह घबरा कर मुड़ी, सामने प्रकाश खड़ा था. प्रकाश उस के हाथों से सिगरेट ले कर फेंकते हुए बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें इन सब से दूर रहने को कहा था न, और तुम…,’’ प्रकाश अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि ज्योति उस से लिपट फफकफफक कर रोने लगी. फिर खुद को प्रकाश से अलग कर उस की ओर पीठ करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां से चले जाओ, प्रकाश. मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे मुझ पर पहले ही बहुत एहसान हैं. पर बस… अब और नहीं. वैसे भी तुम जानते हो, मैं तुम्हारे लायक नहीं.’’

ज्योति की बातें सुन प्रकाश उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘‘तुम ने ऐसा कैसे सोच लिया कि तुम मेरे लायक नहीं. तुम तो उन सब के साथ पाक दिल से चली थीं, नापाक तो उन के इरादे थे जिन्होंने तुम्हें मलिन किया. शादी के लिए जब लड़के का वर्जिन होना अनिवार्य नहीं, तो लड़की का होना जरूरी कैसे हो सकता है? शादी के लिए जरूरी होता है अपने जीवनसाथी के प्रति दिल से समर्पित होना, वफादार होना, जो तुम हो.’’ प्रकाश के ऐसा कहते ही ज्योति प्रकाश की बांहों में सिमट गई. काली अंधेरी रात बीत चुकी थी. ऊषा की पहली सुनहरी किरणें दोनों पर पड़ने लगीं जो नई सुबह का आगाज थीं.

स्वयंवर: मीता ने आखिर पति के रूप में किस को चुना

टेक्सटाइल डिजाइनर मीता रोज की तरह उस दिन भी शाम को अकेली अपने फ्लैट में लौटी, परंतु वह रोज जैसी नहीं थी. दोपहर भोजन के बाद से ही उस के भीतर एक कशमकश, एक उथलपुथल, एक अजीब सा द्वंद्व चल पड़ा था और उस द्वंद्व ने उस का पीछा अब तक नहीं छोड़ा था.

सुलभा ने दीपिका के बारे में अचानक यह घोषणा कर दी थी कि उस के मांबाप को बिना किसी परिश्रम और दानदहेज की शर्त के दीपिका के लिए अच्छाखासा चार्टर्ड अकाउंटैंट वर मिल गया है. दीपिका के तो मजे ही मजे हैं. 10 हजार रुपए वह कमाएगा और 4-5 हजार दीपिका, 15 हजार की आमदनी दिल्ली में पतिपत्नी के ऐशोआराम के लिए बहुत है.

दीपिका के बारे में सुलभा की इस घोषणा ने अचानक ही मीता को अपनी बढ़ती उम्र के प्रति सचेत कर दिया. सब के साथ वह हंसीबोली तो जरूर परंतु वह स्वाभाविक हंसी और चहक अचानक ही गायब हो गई और उस के भीतर एक कशमकश सी जारी हो गई.

जब तक मीता इंस्टिट्यूट में पढ़ रही थी और टेक्सटाइल डिजाइनिंग की डिगरी ले रही थी, मातापिता उस की शादी को ले कर बहुत परेशान थे. लेकिन जब वह दिल्ली की इस फैशन डिजाइनिंग कंपनी में 4 हजार रुपए की नौकरी पा गई और अकेली मजे से यहां एक छोटा सा फ्लैट ले कर रहने लगी, तब से वे लोग भी कुछ निश्ंिचत से हो गए.

मीता जानती है, उस के मातापिता बहुत दकियानूसी नहीं हैं. अगर वह किसी उपयुक्त लड़के का स्वयं चुनाव कर लेगी तो वे उन के बीच बाधा बन कर नहीं खड़े होंगे. परंतु यही तो उस के सामने सब से बड़ा संकट था. नौकरी करते हुए उसे यह तीसरा साल था और उस के साथ की कितनी ही लड़कियां शादी कर चुकी थीं. वे अब अपने पतियों के साथ मजे कर रही थीं या शहर छोड़ कर उन के साथ चली गई थीं. एक मीता ही थी जो अब तक इस पसोपेश में थी कि क्या करे, किसे चुने, किसे न चुने.

ऐसा नहीं था कि कहीं गुड़ रखा हो और चींटों को उस की महक न लगे और वे उस की तरफ लपकें नहीं. अपने इस खयाल पर मीता बरबस ही मुसकरा भी दी, हालांकि आज उस का मुसकराने का कतई मन नहीं हो रहा था.

राखाल बाबू प्राय: रोज ही उसे कंपनी बस से रास्ते में लौटते हुए मिलते हैं. एकदम शालीन, सभ्य, शिष्ट, सतर्क, मीता की परवा करने वाले, उस की तकलीफों के प्रति एक प्रकार से जिम्मेदारी अनुभव करने वाले, बुद्धिजीवी किस्म के, कम बोलने वाले, ज्यादा सुननेगुनने वाले. समाज की हर गतिविधि पर पैनी नजर. आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा, गंभीर सा चेहरा, ऊंचा ललाट, कुछ कम होते जा रहे बाल. सदैव सफेद कमीज और सफेद पैंट ही पहनने वाले. जेब में लगा कीमती कलम, हाथ में पोर्टफोलियो के साथ दबे कुछ अखबार, पत्रिकाएं, किताबें.

जब तक मीता आ कर उन की सीट के पास खड़ी न हो जाती, वे बेचैन से बाहर की ओर ताकते रहते हैं. जैसे ही वह आ खड़ी होती है, वे एक ओर को खिसक कर उस के बैठने लायक जगह हमेशा बना देते हैं. वह बैठती है और नरम सी मुसकराहट उस के अधरों पर उभर आती है.

ऐसा नहीं है कि वे हमेशा असामान्य सी बातें करते हैं, परंतु मीता ने पाया है, वे अकसर सामान्य लोगों की तरह लंपटतापूर्ण न व्यवहार करते हैं, न बातें. उन के हर व्यवहार में एक गरिमा रहती है. एक श्रेष्ठता और सलीका रहता है. एक प्रकार की बहुत बारीक सी नफासत.

‘‘कहो, आज का दिन कैसा बीता…?’’ वे बिना उस की ओर देखे पूछ लेते हैं और वह बिना उन की ओर देखे जवाब दे देती है, ‘‘रोज जैसा ही…कुछ खास नहीं.’’

‘‘मीता, कैसी अजीब होती है यह जिंदगी. इस में जब तक रोज कुछ नया न हो, जाने क्यों लगता ही नहीं कि आज हम जिए. क्यों?’’ वे उत्तर के लिए मीता के चेहरे की रगरग पर अपनी पैनी नजरों से टटोलने लगते हैं, ‘‘जानती हो, मैं ने अखबारों से जुड़ी जिंदगी क्यों चुनी…? महज इसी नएपन के लिए. हर जगह बासीपन है, सिवा अखबारों के. यहां रोज नई घटनाएं, नए हादसे, नई समस्याएं, नए लोग, नई बातें, नए विचार…हर वक्त एक हलचल, एक उठापटक, एक संशय, संदेह भरा वातावरण, हर वक्त षड्यंत्र, सत्ता का संघर्ष. अपनेआप को बनाए रखने और टिकाए रखने की जीतोड़ कोशिशें… मित्रों के घातप्रतिघात, आघात और आस्तीनों के सांपों का हर वक्त फुफकारना… तुम अंदाजा नहीं लगा सकतीं मीता, जिंदगी में यहां कितना रोमांच, कितनी नवीनता, कितनी अनिश्चितता होती है…’’

‘‘लेकिन आप के धीरगंभीर स्वभाव से आप का यह कैरियर कतई मेल नहीं खाता…कहां आप चीजों पर विभिन्न कोणों से गंभीरता से सोचने वाले और कहां अखबारों में सिर्फ घटनाएं और घटनाएं…इन के अलावा कुछ नहीं. आप को उन घटनाओं में एक प्रकार की विचारशून्यता महसूस नहीं होती…? आप को नहीं लगता कि जो कुछ तेजी से घट रहा है वह बिना किसी सोच के, बिना किसी प्रयोजन के, बेकार और बेमतलब घटता चला जा रहा है?’’

‘‘यहीं मैं तुम से भिन्न सोचता हूं, मीता…’’

‘‘आजकल की पत्रपत्रिकाओं में तुम क्या देख रही हो…? एक प्रकार की विचारशून्यता…मैं इन घटनाओं के पीछे व्याप्त कारणों को तलाशता हूं. इसीलिए मेरी मांग है और मैं अपनी जगह बनाने में सफल हुआ हूं. मेरे लिए कोई घटना महज घटना नहीं है, उस के पीछे कुछ उपयुक्त कारण हैं. उन कारणों की तलाश में ही मुझे बहुत देर तक सोचते रहना पड़ता है.

‘‘तुम आश्चर्य करोगी, कभीकभी चीजों के ऐसे अनछुए और नए पहलू उभर कर सामने आते हैं कि मैं भी और मेरे पाठक भी एवं मेरे संपादक भी, सब चकित रह जाते हैं. आखिर क्यों…? क्यों होता है ऐसा…?

‘‘इस का मतलब है, हम घटनाओं की भीड़ से इतने आतंकित रहते हैं, इतनी हड़बड़ी और जल्दबाजी में रहते हैं कि इन के पीछे के मूल कारणों को अनदेखा, अनसोचा कर जाते हैं जबकि जरूरत उन्हें भी देखने और उन पर भी सोचने की होती है…’’

राखाल बाबू किसी भी घटना के पक्ष में सोच लेते हैं और विपक्ष में भी. वे आरक्षण के जितने पक्ष में विचार प्रस्तुत कर सकते थे, उस से ज्यादा उस के विपक्ष में भी सोच लेते थे. गजरौला के कानवैंट स्कूल की ननों के साथ घटी बलात्कार और लूट की घटना को उन्होंने महज घटना नहीं माना. उस के पीछे सभ्यता और संस्कृति से संपन्न वर्ग के खिलाफ, उजड्ड, वहशी और बर्बर लोगों का वह आदिम व्यवहार जिम्मेदार माना जो आज भी आदमी को जानवर बनाए हुए है.

मीता राखाल बाबू से नित्य मिलती और प्राय: नित्य ही उन के नए विचारों से प्रभावित होती. वह सोचती रह जाती, यह आदमी चलताफिरता विचारपुंज है. इस के साथ जिंदगी जीना कितना स्तरीय, कितना श्रेष्ठ और कितना अच्छा होगा. कितना अर्थपूर्ण जीवन होगा इस आदमी के साथ. वह महीनों से राखाल बाबू की कल्पनाओं में खोई हुई है. कितना अलग होगा उस का पति, सामान्य सहेलियों के साधारण पतियों की तुलना में. एक सोचनेसमझने वाला, चिंतक, श्रेष्ठ पुरुष, जिसे सिर्फ खानेपीने, मौज करने और बिस्तर पर औरत को पा लेने भर से ही मतलब नहीं होगा, जिस की जिंदगी का कुछ और भी अर्थ होगा.

लेकिन दूसरे क्षण ही मीता को अपनी कंपनी के निर्यात प्रबंधक विजय अच्छे लगने लगते. गोरा रंग, आकर्षक व्यक्तित्व, करीने से रखी गई दाढ़ी. चमकदार, तेज आंखें. हर वक्त आगे और आगे ही बढ़ते जाने का हौसला. व्यापार की प्रगति के लिए दिनरात चिंतित. कंपनी के मालिक के बेहद चहेते और विश्वासपात्र. खुला हुआ हाथ. खूब कमाना, खूब खर्चना. जेब में हर वक्त नोटों की गड्डियां और उन्हें हथियाने के लिए हर वक्त मंडराने वाली लड़कियां, जिन में एक वह खुद…

‘‘मीता, चलो आज 12 से 3 वाला शो देखते हैं.’’

‘‘क्यों साहब, फिल्म में कोई नई बात है?’’

मीता के चेहरे पर मुसकराहट उभरती है. जानती है, विजय जैसा व्यस्त व्यक्ति फिल्म देखने व्यर्थ नहीं जाएगा और लड़कियों के साथ वक्त काटना उस की आदत नहीं.

‘‘और क्या समझती हो, मैं बेकार में 3 घंटे खराब करूंगा…? उस में एक फ्रैंच लड़की है, क्या अनोखी पोशाक पहन रखी है, देखोगी तो उछल पड़ोगी. मैं चाहता हूं कि तुम उस में कुछ और नया प्रभाव पैदा कर उसे डिजाइन करो… देखना, यह एक बहुत बड़ी सफलता होगी.’’

कितना फर्क है राखाल बाबू में और विजय में. एक जिंदगी के हर पहलू पर सोचनेविचारने वाला बुद्धिजीवी और एक अलग किस्म का आदमी, जिस के साथ जीवन जीने का मतलब ही कुछ और होगा. नए से नए फैशन का दीवाना. नई से नई पोशाकों की कल्पना करने वाला, हर वक्त पैसे से खेलने वाला…एक बेहद आकर्षक और निरंतर आगे बढ़ते चले जाने वाला नौजवान, जिसे पीछे मुड़ कर देखना गवारा नहीं. जिसे एक पल ठहर कर सोचने की फुरसत नहीं.

तीसरा राकेश है, राजनीति विज्ञान का विद्वान. पड़ोस की चंद्रा का भाई. अकसर जब यहां आता है तो होते हैं उस के साथ उस के ढेर सारे सपने, तमाम तमन्नाएं. अभी भी उस के चेहरे पर न राखाल बाबू वाली गंभीरता है, न विजय वाली व्यस्तता. बस आंखों में तैरते बादलों से सपने हैं. कल्पनाशील चेहरा एकदम मासूम सा.

‘‘अब क्या इरादा है, राकेश?’’ एक दिन उस ने यों ही हंसी में पूछ लिया था.

‘‘इजाजत दो तो कुछ प्रकट करूं…’’ वह सकुचाया.

‘‘इजाजत है,’’ वह कौफी बना लाई थी.

‘‘अपने इरादे हमेशा नेक और स्पष्ट रहे हैं, मीताजी,’’ राकेश ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘पहला इरादा तो आईएएस हो जाना है और वह हो कर रहूंगा, इस बार या अगली बार. दूसरा इरादा आप जैसी लड़की से शादी कर लेने का है…’’

राकेश एकदम ऐसे कह देगा इस की मीता को कतई उम्मीद नहीं थी. एक क्षण को वह अचकचा ही गई, पर दूसरे क्षण ही संभल गई, ‘‘पहले इरादे में तो पूरे उतर जाओगे राकेश, लेकिन दूसरे इरादे में तुम मुझे कच्चे लगते हो. जब आईएएस हो जाओगे और कोरा चैक लिए लड़की वाले जब तुम्हें तलाशते डोलेंगे तो देखने लगोगे कि किस चैक पर कितनी रकम भरी जा सकती है. तब यह 4 हजार रुपल्ली कमाने वाली मीता तुम्हें याद नहीं रहेगी.’’

‘‘आजमा लेना,’’ राकेश कह उठा, ‘‘पहले अपने प्रथम इरादे में पूरा हो लूं, तब बात करूंगा आप से. अभी से खयाली पुलाव पकाने से क्या फायदा?’’

एक दिन दिल्ली में आरक्षण विरोध को ले कर छात्रों का उग्र प्रदर्शन चल रहा था और बसों का आनाजाना रुक गया था. बस स्टाप पर बेतहाशा भीड़ देख कर मीता सकुचाई, पर दूसरे ही क्षण उसे अपनी ओर आते हुए राखाल बाबू दिखाई दिए, ‘‘आ गईं आप…? चलिए, पैदल चलते हैं कुछ दूर…फिर कहीं बैठ कर कौफी पीएंगे तब चलेंगे…’’

एक अच्छे रेस्तरां में कोने की एक मेज पर जा बैठे थे दोनों.

‘‘जीवन में क्या महत्त्वपूर्ण है राखाल बाबू…?’’ उस ने अचानक कौफी का घूंट भर कर प्याले की तरफ देखते हुए उन पर सवाल दागा था, ‘‘एक खूब कमाने वाला आकर्षक पति या एक आला दर्जे का रुतबेदार अफसर अथवा जीवन पर विभिन्न कोणों से हर वक्त विचार करते रहने वाला एक चिंतक…एक औरत इन में से किस के साथ जीवन सुख से बिता सकती है, बताएंगे आप…?’’

एक बहुत ही अहम सवाल मीता ने

राखाल बाबू से पूछ लिया था जिस

सवाल का उत्तर वह स्वयं अपनेआप को कई दिनों से नहीं दे पा रही थी. वह पसोपेश में थी, क्या सही है, क्या गलत? किसे चुने? किसे न चुने?

राखाल बाबू को वह बहुत अच्छी तरह समझ गई थी. जानती थी, अगर वह उन की ओर बढ़ेगी तो वे इनकार नहीं करेंगे बल्कि खुश ही होेंगे. विजय ने तो उस दिन सिनेमा हौल में लगभग स्पष्ट ही कर दिया था कि मीता जैसी प्रतिभाशाली फैशन डिजाइनर उसे मिल जाए तो वह अपनी निजी फैक्टरी डाल सकता है और जो काम वह दूसरों के लिए करता है वह अपने लिए कर के लाखों कमा सकता है. और राकेश…? वह लिखित परीक्षा में आ गया है, साक्षात्कार में भी चुन लिया जाएगा, मीता जानती है. लेकिन इन तीनों को ले कर उस के भीतर एक सतत द्वंद्व जारी है. वह तय नहीं कर पा रही, किस के साथ वह सुखी रह सकती है, किस के साथ नहीं…?

बहुत देर तक चुपचाप सोचते रहे राखाल बाबू. अपनी आदत के अनुसार गरम कौफी से उठती भाप ताकते हुए अपने भीतर कहीं डूबे रहे देर तक. जैसे भीतर कहीं शब्द ढूंढ़ रहे हों…

‘‘मीता…महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि इन में से औरत किस के साथ सुखी रह सकती है…महत्त्वपूर्ण यह है कि इन में से कौन है जो औरत को सचमुच प्यार करता है और करता रहेगा. औरत सिर्फ एक उपभोग की वस्तु नहीं है मीता. वह कोई व्यापारिक उत्पादन नहीं है…न वह दफ्तर की महज एक फाइल है, जिसे सरसरी नजर से देख कर आवश्यक कार्रवाई के लिए आगे बढ़ा दिया जाए. जीवन में हर किसी को सबकुछ तो नहीं मिल सकता मीता…अभाव तो बने ही रहेंगे जीवन में…जरूरी नहीं है कि अभाव सिर्फ पैसे का ही हो. दूसरों की थाली में अपनी थाली से हमेशा ज्यादा घी किसी न किसी कोण से आदमी को लगता ही रहेगा…ऐसी मृगतृष्णा के पीछे भागना मेरी समझ से पागलपन है. सब को सब कुछ तो नहीं लेकिन बहुत कुछ अगर मिल जाए तो हमें संतोष करना सीखना चाहिए.

‘‘जहां तक मैं समझता हूं, आदमी के लिए सिर्फ बेतहाशा भागते जाना ही सब कुछ नहीं है…दिशाहीन दौड़ का कोई मतलब नहीं होता. अगर हमारी दौड़ की दिशा सही है तो हम देरसवेर मंजिल तक भी पहुंचेंगे और सहीसलामत व संतुष्ट होते हुए पहुंचेंगे. वरना एक अतृप्ति, एक प्यास, एक छटपटाहट, एक बेचैनी जीवन भर हमारे इर्दगिर्द मंडराती रहेगी और हम सतत तनाव में जीते हुए बेचैन मौत मर जाएंगे.

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम मेरी इन बातों से किस सीमा तक सहमत होगी, पर मैं जीवन के बारे में कुछ ऐसे ही सोचता हूं…’’

और मीता को लगा कि वह जीवन के सब से आसन्न संकट से उबर गई है. उसे वह महत्त्वपूर्ण निर्णय मिल गया है जिस की उसे तलाश थी. एक सतत द्वंद्व के बाद उस का मन एक निश्छल झील की तरह शांत हो गया और जब वह रेस्तरां से बाहर निकली तो अनायास ही उस ने अपना हाथ राखाल बाबू के हाथ में पाया. उस ने देखा, वे उसे एक स्कूटर की तरफ खींच रहे हैं, ‘‘चलो, बस तो मिलेगी नहीं, तुम्हें घर छोड़ दूं.’’

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New Year Special: मुसकुराता नववर्ष- क्या हुआ था कावेरी के साथ

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New Year Special: हैप्पी न्यू ईयर- निया को ले कर माधवी की सोच उस रात क्यों बदल गई

निया औफिस के लिए तैयार हो रही थी. माधवी वैसे तो ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ रही थीं पर उन का पूरा ध्यान अपनी बहू निया की ओर ही था. लंबी, सुडौल देहयष्टि, कंधों तक कटे बाल, अच्छे पद पर कार्यरत अत्याधुनिक निया उन के बेटे विवेक की पसंद थी. माधवी को भी इस प्रेमविवाह में आपत्ति करने का कोई कारण नहीं मिला था. इतनी समझ तो वे भी रखती हैं कि इकलौते योग्य बेटे ने यों ही कोई लड़की पसंद नहीं की होगी. उन्होंने मूक सहमति दे दी थी पर पता नहीं क्यों उन्हें निया से दिल से एक दूरी महसूस होती थी. वे स्वयं उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में अकेली रहती थीं. पति श्याम सालों पहले साथ छोड़ गए थे.

विवेक की नौकरी मुंबई में थी. उस ने जब भी साथ रहने के लिए कहा था, माधवी ने यह कह कर टाल दिया था, ‘‘सारा जीवन यहीं तो बिताया है, पासपड़ोस है, संगीसाथी हैं. वहां

मुंबई में शायद मेरा मन न लगे. तुम दोनों तो औफिस में रहोगे दिन भर. अभी ऐसे ही चलने दो, जरूरत हुई तो तुम्हारे पास ही आऊंगी. और कौन है मेरा.’’

साल में एकाध बार वे मुंबई आ जाती हैं पर यहां उन का मन सचमुच नहीं लगता. दोनों दिन भर औफिस रहते, घर पर भी लैपटौप या फोन पर व्यस्त दिखते. साथ बैठ कर बातें करने का समय दोनों के पास अकसर नहीं होता. ऊपर से निया का मायका भी मुंबई में ही था. कभी वह मायके चली जाती तो घर उन्हें और भी खाली लगता.

नया साल आने वाला था. इस बार वे मुंबई आई हुई थीं. निया ने भी फोन पर कहा था, ‘‘यहां आना ही आप के लिए ठीक होगा. मेरठ की ठंड से भी आप बच जाएंगी.’’

निया से उन के संबंध कटु तो बिलकुल भी नहीं थे पर निया उन से बहुत कम बात करती थी. माधवी को लगता था कि शायद विवेक उन्हें जबरदस्ती मुंबई बुला लेता है और निया को शायद उन का आना पसंद न हो. निया की सोच बहुत आधुनिक थी.

‘‘पतिपत्नी दोनों कामकाजी हों तो घरबाहर दोनों के काम दोनों मिल कर ही संभालते हैं,’’ यह माधवी ने निया के मुंह से सुना था तो उस की स्पष्टवादिता पर बड़ी हैरान हुई थीं.

निया को वे मन ही मन खूब जांचतीपरखती और उस की बातों पर मन ही मन हैरान सी रह जातीं. सोचतीं, अजीब मुंहफट लड़की है. आधुनिकता और आत्मनिर्भरता ने इन लड़कियों का दिमाग खराब कर दिया है.

कल ही कह रही थी, ‘‘विवेक, मैं बहुत थक गई हूं. तुम ही सब का खाना लगा लो.’’

उन्हें तो थकेहारे बेटे पर तरस ही आ गया. फौरन कहा, ‘‘अरे, तुम दोनों आराम से फ्रैश हो लो. मैं खाना लगा लूंगी. श्यामा सब बना कर तो रख ही गई है. बस, लगाना ही तो है,’’ और फिर उन्होंने सब का खाना टेबल पर लगाया.

पिछले संडे को सुबह उठते ही कह रही थी, ‘‘विवेक, आज पूरा दिन रैस्ट का मूड है, श्यामा के हाथ के खाने का मूड नहीं है. नाश्ता बाहर से ले आओ और लंच भी और्डर कर देना.’’

माधवी ने पूछ लिया, ‘‘निया, मैं बना दूं कुछ?’’

निया ने हमेशा की तरह संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘नहीं मां, आप रैस्ट कीजिए.’’

मुझ से तो पता नहीं क्यों इतना कम बोलती है यह लड़की. अभी 2 साल ही तो हुए हैं विवाह को. सासबहू वाला कोई झगड़ा भी कभी नहीं हुआ, फिर इतनी गंभीर क्यों रहती है. ऐसा भी क्या सोचसमझ कर बात करना, माधवी अपनी सोच के दायरे में उलझी सी रहतीं.

माधवी को मुंबई आए 10 दिन हो रहे थे. निया नए साल पर सब दोस्तों को घर पर बुला कर पार्टी करने के मूड में थी. विवेक भी खूब उत्साहित था. पर अगले ही पल क्या हो जाए, किसे पता होता है. शाम को अचानक बाथरूम में माधवी का पैर फिसला तो वे चीख पड़ीं. विवेक और निया भागे आए. दर्द की अधिकता से माधवी के आंसू बह निकले थे. उन्हें फौरन हौस्पिटल ले जाया गया. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. प्लास्टर चढ़ाया गया.

माधवी को इस बेबसी में रोना आ रहा था. घर आ कर भी 2-3 दिन सो न सकीं. बड़ी बेचैन थीं. डाक्टर को घर पर ही बुलाया गया. उन का ब्लडप्रैशर हाई था, पूर्ण आराम और दवा के लिए निर्देश दे डाक्टर चला गया. विवेक उन्हें आराम करने के लिए कह लैपटौप पर व्यस्त हो गया. माधवी को इस तकलीफ में जीने की आदत डालने में कुछ दिन लग गए. पहले निया के मना करने पर भी कुछ न कुछ इधरउधर करते हुए अपना समय बिता लेती थीं, अब तो अकेलापन और बढ़ता लग रहा था.

एक संडे को वे चुपचाप अपने रूम में लेटी थीं. अचानक उन का मन हुआ कि वाकर की सहायता से ड्राइंगरूम तक जा कर देखें. यह टू बैडरूम फ्लैट था. वे बड़ी हिम्मत से वाकर के सहारे अपने रूम से बाहर निकलीं तो उन्हें बच्चों के रूम से निया का तेज स्वर सुनाई दिया. उन का दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था. न चाहते हुए भी उन्होंने निया की बात पर ध्यान दिया.

निया तेज स्वर में कह रही थी, ‘‘मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.’’

माधवी को तेज झटका लगा, मन आहत हुआ कि इस का मतलब मेरा अंदाजा सही था कि निया को मेरा यहां आना पसंद नहीं. अब? इतना स्वाभिमान तो मुझ में भी है कि बेटेबहू के घर अवांछित सी नहीं रहूंगी. फिर फैसला कर लिया कि जल्द ही वापस चली जाएगी. अकेली रह लेंगी पर यहां नहीं आएंगी. इसलिए निया इतनी गंभीर रहती है.

उन की आंखों से मजबूरी और अपमान से आंसू बहने लगे. चुपचाप अपने रूम में आ कर लेट गईं. थोड़ी देर बाद निया उन के लिए शाम की चाय ले कर आई तो उन्होंने उस के चेहरे पर नजर भी नहीं डाली.

निया ने कहा, ‘‘मां, उठिए, चाय लाई हूं.’’

‘‘ले लूंगी, तुम रख दो.’’

निया चाय रख कर चली गई. माधवी का दिल भर आया, कोई उन से पूछने वाला भी नहीं कि वे क्यों उदास, दुखी हैं. थोड़ी देर में उन्होंने ठंडी होती चाय पी ली और विवेक को आवाज दी. विवेक आ कर गंभीर मुद्रा में बैठ गया. उन्हें बेटे पर बड़ा तरस आया. सोचा,पिसते हैं बेटे मां और पत्नी के बीच.बेटा भी क्या करे. नहीं वह बेटे की गृहस्थी में तनाव का कारण नहीं बनेगी, सोच माधवी बोलीं, ‘‘विवेक प्लास्टर कटते ही मेरा टिकट करवा देना.’’

विवेक चौंका, ‘‘क्या हुआ, मां?’’

‘‘बस, जाने का मन कर रहा है.’’

‘‘ठीक हो जाओ, चली जाना. अभी तो टाइम लगेगा,’’ कह कर विवेक चला गया.

ठंडी सांस भर कर माधवी अपने विचारों में डूबतीउतरती रहीं. 27 दिसंबर की शाम को तीनों साथ ही डिनर कर रहे थे. माधवी ने यों ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, तुम्हारी न्यू ईयर पार्टी का क्या हुआ?’’

‘‘निया ने कैंसिल कर दी, मां.’’

‘‘क्यों? तुम लोग तो इतने खुश थे?’’

‘‘बस, निया ने मना कर दिया.’’

‘‘पर क्यों, बेटा?’’

‘‘सब आएंगे, शोरशराबा होगा, आप डिस्टर्ब होंगी, आप को आराम की जरूरत है.’’ निया ने जवाब दिया.

‘‘अरे नहीं, मुझे तो अच्छा लगेगा, घर में रौनक होगी, बहुत बोर हो रही हूं मैं तो, तुम लोग आराम से नए साल का स्वागत करो, मजा आएगा.’’

निया बहुत हैरान हुई, ‘‘सच? मां? आप डिस्टर्ब नहीं होंगी?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’

निया ने मुसकरा कर थैंक्स मां कहा तो माधवी को अच्छा लगा.

फिर कहा, ‘‘बस, मेरे जाने का टिकट भी करवा दो अब.’’

निया ने कहा, ‘‘नहीं, अभी तो आप की फिजियोथेरैपी भी होगी कुछ दिन.’’

माधवी उफ, कह कर चुप हो गईं. प्रत्यक्षतया तो सब सामान्य था पर माधवी अनमनी थीं. अब माधवी से दिन नहीं कट रहे थे. कभीकभी बेबस, बेचैन सी हो जातीं. मन रहा था अब. बहू उन्हें रखना नहीं चाहती, बेटा मजबूर है, यह बात दिल को कचोटती रहती थी.

31 दिसंबर की पार्टी की तैयारी में निया व्यस्त हो गई. विवेक भी हर बात, हर काम में यथासंभव साथ दे रहा था. दोनों के करीब 15 दोस्त आने वाले थे. बैठेबैठे जितना संभव था माधवी भी हाथ बंटा रही थीं. खाने की कुछ चीजें बना ली थीं, कुछ और्डर कर दी थीं. दोपहर तक सारी तैयारी के बाद लंच कर के माधवी थोड़ी देर अपने रूम में आ कर लेट गईं. अभी 3 बजे थे. 20 मिनट के लिए उन की आंख भी लग गई. उठी तो चाय की इच्छा हुई. पर फिर सोचा कि बेटाबहू आराम कर रहे होंगे, वे थक गए होंगे. अत: वह खुद ही चाय बना लेंगी.

अपने वाकर के साथ वे धीरे से उठीं तो बेटेबहू के कमरे से तेज आवाजें सुन कर ठिठक गईं, वे सुनने की कोशिश करने लगीं कि क्या फिर मेरी उपस्थिति को ले कर दोनों में झगड़ा हो रहा है? रात को तो पार्टी है और अब यह झगड़ा, वह भी उस के कारण? आंसू बह निकले.

निया की आवाज बहुत स्पष्ट थी, ‘‘मां को कहने दो, तुम कैसे मां को वापस भेजने के लिए तैयार हो? मां इतनी शांत, स्नेहिल हैं, उन से किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? वे दिन भर अकेली रहती हैं, उन का मन नहीं लगता होगा. तभी उस दिन अपना टिकट करवाने के लिए कहा होगा. मैं ने अपने औफिस में बात कर ली है. जब तक उन का प्लास्टर नहीं उतरता मैं वर्क फ्रौम होम कर रही हूं. बहुत ही जरूरी होगा किसी दिन तब चली जाऊंगी. तुम बेटे हो कर भी उन्हें भेजने की बात कैसे मान जाते हो? और कौन है उन का? वे अब कहीं नहीं जाएंगी, यहीं रहेंगी हमारे साथ.’’

मन में उठे भावों के उतारचढ़ाव से वाकर पकड़े माधवी के तो हाथ ही कांप गए, चुपचाप आ कर अपने बैड पर धम्म से बैठ गईं कि वह क्या सोच रही थी और सच क्या था.

वह कितना गलत सोच रही थी. क्या उस ने अपने मन के दायरे इतने सीमित कर लिए थे कि निया के गंभीर स्वभाव, उस की आधुनिकता को ही जांचनेपरखने में लगी रही. उस के मन की गहराई तक तो वह पहुंच ही नहीं पाई.

उफ, उस दिन भी तो निया यही कह रही थी कि मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.

सच ही तो है कि कई बार आंखें जो देखती हैं, कान जो सुनते हैं वही सच नहीं होता. वह तो निया के कम बोलने, गंभीर स्वभाव को अपनी उपेक्षा समझती रही पर यह तो निया का स्वभाव है, क्या बुराई है इस में?

उस के दिल में तो उस के लिए इतना अपनापन और प्यार है, आज निया जैसी बहू पा कर तो वह धन्य हो गई. आंखों से अब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था, सब कुछ धुंधला सा गया था. खुशी और संतोष के आंसू जो भरे थे आंखों में.

तभी निया चाय ले कर अंदर आ गई. माधवी को विचारमग्न देखा, पूछा, ‘‘क्या सोच रही हैं, मां?’’

माधवी को कुछ समझ नहीं आया तो ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहते हुए मुसकरा कर अपनी बांहें फैला दीं.

कुछ न समझते हुए भी उन की बांहों में समाते हुए कहा, ‘‘यह क्या मां, अभी से?’’

माधवी खुल कर हंस दीं, ‘‘हां, अचानक अपने दिल में अभी से नववर्ष का उल्लास, उत्साह अनुभव कर रही हूं.’’

नए साल का स्वागत नई उमंग से करने के लिए माधवी अब पूरी तरह से तैयार थीं. निया के सिर पर अपना स्नेहभरा हाथ फिरा कर मुसकराते हुए चाय का आनंद लेने लगीं.

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