एकाधिकार: क्या दूर हुआ मोहिनी की जिंदगी का खालीपन

मोहिनी को लगने लगा था, उस के घर की छत पर टंगा यह आसमान का टुकड़ा केवल उसी की धरोहर है. बचपन से ले कर आज तक वह उस के साथ अपना सुखदुख बांटती आई है. गुडि़यों से खेलना बंद कर जब वह कालेज की किताबों तक पहुंची तो यह आसमान का टुकड़ा उस के साथसाथ चलता रहा. फिर जब चाचाचाची ने उस का हाथ किसी अजनबी के हाथ में थमा कर उसे विदा कर दिया, तब भी यह आसमान का नन्हा टुकड़ा चोरीचोरी उस के साथ चला आया. तब मोहिनी को लगा कि वह ससुराल अकेली नहीं आई, कोई है उस के साथ. उस भरेपूरे परिवार में पति के प्यार की संपूर्ण अधिकारिणी होने पर भी उस के हृदय का कोई कोना इन सारे सामाजिक बंधनों से परे नितांत खाली था और उसे वह अपनी कल्पना के रंगों से इच्छानुसार सजाती रहती थी.

मोहिनी के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. मां की तो उसे याद भी न थी. हां, पिता की कोई धुंधली सी आकृति उस के अवचेतन मन पर कभीकभी उभरती थी. किसी जमाने के पुराने रईसों का उन का परिवार था, जिस में बड़े चाचा के बच्चों के साथ पलती, बढ़ती मोहिनी को यों तो कोई अभाव न था किंतु जब कभी कोई रिश्तेदार उसे ‘बेचारी’ कह कर प्यार करने का उपक्रम करता तो वह छिटक कर दूर जा खड़ी होती और सोचती, ‘वह ‘बेचारी’ क्यों है? बिंदु व मीनू को तो कोई बेचारी नहीं कहता.’ एक दिन उस ने बड़े चाचा के सम्मुख आखिर अपना प्रश्न रख दिया, ‘पिताजी, मैं बेचारी क्यों हूं?’ इस अचानक किए गए भोले प्रश्न पर श्यामलाल अपनी छोटी सी मासूम भतीजी का मुंह ताकते रह गए. उन्होंने उसे पास खींच कर अपने से चिपटा लिया. अपने छोटे भाई की याद में उन की आंखें भर आई थीं, जिस से वे बेहद प्यार करते थे. उस की एकमात्र बेटी को उस की अमानत मान कर भरसक लाड़प्यार से पाल रहे थे.

यों तो चाची भी स्नेहमयी महिला थीं, किंतु जब वे अपनी दोनों बेटियों को अगलबगल लिटा कर अपने साथ सुलातीं तो दूर खड़ी मोहिनी उदास आंखों से उन का मुंह देखती, उस पर आतेजाते रिश्तेदार मोहिनी के मुंह पर ही कह जाते, ‘अभी तो इस का बोझा भी उतारना होगा, बिन मांबाप की बेटी ब्याहना आसान है क्या?’ और टुकुरटुकुर ताकती वह उन रिश्तेदारों के पास भी न फटकती. अपनी किताबें समेट कर मोहिनी छत पर जा बैठती. नन्हीमुन्नी प्यारीप्यारी कविताएं लिखती, चित्र बनाती, जिन में बादलों के पीछे छिपे उस के बाबूजी और मां उसे प्यार से देख रहे होते. इस तरह अपनी कल्पनाओं के जाल में उलझी, सिमटी मोहिनी बड़ी होती रही. वह अधिक सुंदर तो न थी किंतु उस के भोलेपन का आकर्षण अनायास ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था. बड़ीबड़ी आंखों में मानो सागर लहराता था. फिर एक दिन श्यामलाल के पुराने मित्र लाला हरदयाल ने अपने छोटे भाई के लिए मोहिनी को मांग ही लिया. यों तो शहर में लाला हरदयाल की गिनती भी पुराने रईसों में होती थी, किंतु अब वह सब शानोशौकत समाप्त हो चुकी थी.

उन का काफी बड़ा परिवार था. 5 छोटे भाई थे, जिन में से 2 अभी पढ़ ही रहे थे. मां थीं, अपनी पत्नी और 3 बच्चे थे. पिता का निधन हुए काफी समय हो चुका था और नरेंद्र के साथ मिल कर वे इस सारे परिवार के खर्चे का इंतजाम करते थे. नरेंद्र सभी भाइयों में सब से सीधा और आज्ञाकारी था. लाला हरदयाल उस के लिए किसी ऐसी लड़की को घर में लाना चाहते थे जो उन के परिवार के इस संगठन को बिखरने न दे. हरदयाल की पत्नी और मां में बनती न थी. काफी समय से वे किसी ऐसी सुलझी हुई, पढ़ीलिखी लड़की की तलाश में थे जो उन के घर के इस दमघोंटू वातावरण को बदल सके. श्यामलाल के यहां आतेजाते वे मोहिनी को अपने छोटे भाई नरेंद्र के लिए पसंद कर बैठे. श्यामलाल ने नरेंद्र को बचपन से देखा था, बेहद सीधा लड़का था, या यों कहिए कि कुछ हद तक दब्बू भी था. किंतु उस की नौकरी अच्छी थी. मोहिनी को उस घर में कोई कष्ट न होगा, यह श्यामलाल जानते थे. सो, पत्नी से पूछ उन्होंने विवाह के लिए हां कर दी. मोहिनी से पूछने की या उसे नरेंद्र से मिलवाने की आवश्यकता नहीं समझी गई, क्योंकि उस परिवार में ऐसी परंपरा ही न थी. बिंदु और मीनू के विवाह में भी उन की सहमति नहीं ली गई थी. मोहिनी और नरेंद्र का विवाह अत्यंत सीधेसादे ढंग से संपन्न हो गया. घर के दरवाजे पर बरात पहुंचते ही शोर मच गया, ‘‘बहू आ गई…बहू आ गई.’’

‘‘मांजी कहां हैं, भाभी?’’ पहली बार मोहिनी ने नरेंद्र के मुंह से कोई बात सुनी.

‘‘वे अंदर कमरे में हैं, अभी आएंगी. तुम दोनों थोड़ा सुस्ता लो. मैं चाय भेजती हूं,’’ और जेठानी चली गईं. थोड़ी ही देर में चाय की ट्रे उठाए 3-4 लड़कियों ने अंदर आ कर मोहिनी को घेर लिया. शीघ्र ही 2-3 लड़कियां और भी आ गईं. किसी के हाथ में नमकीन की प्लेट थी तो किसी के हाथ में मिठाई की. नई बहू को सब से पहले देखने का चाव सभी को था. नरेंद्र इस शैतानमंडली को देख कर घबरा गया. वह चाय का प्याला हाथ में थामे बाहर खिसक लिया.

‘‘भाभी, हमारे भैया कैसे लगे?’’ एक लड़की ने पूछा.

‘‘भाभी, तुम्हें गाना आता है?’’ दूसरी बोली.

‘‘अरे भाभी, हम सब तो नरेंद्र भैया से छोटी हैं, हम से क्यों शरमाती हो?’’ और भी इसी तरह के न जाने कितने सवाल वे करती जा रही थीं.

मोहिनी इन सवालों की बौछार से घबरा उठी. फिर सोचने लगी, ‘नरेंद्र की मांजी कहां हैं? क्या वे उस से मिलेंगी नहीं?’

चाय का प्याला थाम कर उस ने धीरे से सिर उठा कर उन सभी लड़कियों की ओर देखा, जिन के भोले चेहरों पर अपनत्व झलक रहा था किंतु आंखें शरारत से बाज नहीं आ रही थीं. मोहिनी कुछ सहज हुई और आखिर पूछ ही बैठी, ‘‘मांजी कहां हैं?’’

‘‘कौन, चाची? अरे, वे तो अभी तुम्हारे पास नहीं आएंगी. शगुन के सारे काम तो बड़ी भाभी ही करेंगी.’’ मोहिनी कुछ ठीक से समझ न पाई, इसलिए चुप ही रही. चुपचाप चाय पीती वह सोच रही थी, क्या वह अंदर जा कर मांजी से नहीं मिल सकती.

तभी जेठानी अंदर आ गईं, ‘‘चलो मोहिनी, मांजी के पांव छू लो.’’ मोहिनी उठ खड़ी हुई. सास के पास पहुंच कर उस ने बड़ी श्रद्धा से झुक कर उन के पांव छुए और इस इंतजार में झुकी रही कि अभी वे उसे खींच कर अपने हृदय से लगा लेंगी, किंतु ऐसा कुछ भी न हुआ.

‘‘सदा सुखी रहो,’’ कहते हुए उन्होंने उस के सिर पर हाथ रख दिया और वहां से चली गईं.

ममता की प्यासी मोहिनी को ऐसा लगा जैसे उस के सामने से प्यार का ठंडा अमृत कलश ही हटा लिया गया हो.

फूलों से सजे कमरे में रात्रि के समय नरेंद्र व मोहिनी अकेले थे. यों तो नरेंद्र स्वभाव से ही शर्मीला था, किंतु उस रात वह भी सूरमा बन बैठा. हिचकिचाती, अपनेआप में सिमटी मोहिनी को उस ने जबरन अपनी बांहों में समेट लिया.

जीवनभर के विश्वासों की नींव शायद इसी परस्पर निकटता की आधारशिला पर टिकी होती है. इसीलिए सुबह होतेहोते दोनों आपस में इस तरह घुलमिल कर बातें कर रहे थे मानो वर्षों से एकदूसरे को जानते हों. मोहिनी नरेंद्र के मन को भा गई थी. दसरे दिन सुबह सभी मेहमान जाने को हो रहे थे. रसोई में नाश्ते की व्यवस्था हो रही थी. शायद उसे भी काम में हाथ बंटाना चाहिए, यही सोच कर मोहिनी भी रसोई के दरवाजे पर जा खड़ी हुई. जेठानी प्यालों में चाय छान रही थीं और मां पूरियां उतार रही थीं.

मोहिनी ने धीरे से चकला अपनी ओर खिसका कर सास के हाथ से बेलन ले लिया और ‘मैं बेलती हूं, मांजी’ कह कर पूरियां बेलने लगी. उस की बेली 4-6 पूरियां उतारने के बाद ही सास धीरे से बोल उठीं, ‘‘नरेंद्र की बहू, पूरियां मोटी हो रही हैं…रहने दो, मैं ही कर लूंगी.’’ मोहिनी सहम कर बाहर आ गई. रात को मोहिनी ने नरेंद्र के कंधे पर सिर टिका कर 2 दिन से अपने हृदय में मथ रहे प्रश्न को पूछ ही लिया, ‘‘मांजी मुझे पसंद नहीं करतीं क्या?’’

नरेंद्र इस बेतुके, किंतु बिना किसी बनावट के किए गए सीधे प्रश्न से चौंक उठा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘मांजी मुझ से प्यार से बोलती नहीं, न ही मुझे अपने से चिपटा कर प्यार किया. भाभी ने तो प्यार किया लेकिन मांजी ने नहीं.’’

मोहिनी के दोनों हाथ थाम कर वह बोला, ‘‘मां को समझने में तुम्हें अभी कुछ समय लगेगा. वैधव्य के सूनेपन ने ही उन्हें रूखा बना दिया है, उस पर भाभी के साथ कुछ न कुछ खटपट चलती ही रहती है. इसी कारण मांजी अंतर्मुखी हो गई हैं. किसी से अधिक बोलती नहीं. कुछ दिन तुम्हारे साथ रह कर शायद वे बदल जाएं.’’

‘‘मैं पूरा यत्न करूंगी,’’ और अपनेआप में हलका महसूस करते हुए मोहिनी नरेंद्र से सट कर सो गई. दूसरे दिन सुबह नरेंद्र के बड़े भाई एवं भाभी भी बच्चों सहित लौट गए. नरेंद्र से छोटे दोनों भाई अपनीअपनी नौकरियों पर वापस चले गए थे और 2 सब से छोटे भाई, जो नरेंद्र के पास रह कर पढ़ाई करते थे, अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.

नरेंद्र ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. मोहिनी सोच रही थी कि शायद वे दोनों कहीं बाहर जाएंगे. किंतु नरेंद्र ने उस से बिना कुछ छिपाए अपने मन की बात उस के सामने रख दी, ‘‘मांजी और छोटे भाइयों को अकेला छोड़ कर हमारा घूमने जाना उचित नहीं.’’

मोहिनी खुशीखुशी पति की बात मान गई थी. उसे तो वैसे भी अपने दोनों छोटे देवर बहुत प्यारे लगते थे. मायके में बहनें तो थीं, लेकिन छोटे भाई नहीं. हृदय के किसी कोने में छिपा यह अभाव भी मानो पूरा होने को था. किंतु वे दोनों तो उस से इस कदर शरमाते थे कि दूरदूर से केवल देखते भर रहते थे. कभी मोहिनी से आंखें मिल जातीं तो शरमा कर मुंह छिपा लेते. तब मोहिनी हंस कर रह जाती और सोचती, ‘कभी तो उस से खुलेंगे.’ एक दिन मोहिनी को अवसर मिल ही गया. दोपहर का समय था. नरेंद्र किसी काम से बाहर गए हुए थे और मां पड़ोस में किसी से मिलने गई हुई थीं. अचानक दोनों देवर रमेश और सुरेश किताबें उठाए स्कूल से वापस आ गए.

‘‘मां, जल्दी से खाना दो, स्कूल में छुट्टी हो गई है. अब हम मैच खेलने जा रहे हैं.’’ किताबें पटक कर दोनों रसोई में आ धमके, किंतु वहां मां को न पा दोनों पलटे तो दरवाजे पर भाभी खड़ी थीं, हंसती, मुसकराती.

‘‘मैं खाना दे दूं?’’ मोहिनी ने हंस कर पूछा तो दोनों सकुचा कर बोले, ‘‘नहीं, मां ही दे देंगी, वे कहां गई हैं?’’

‘‘पड़ोस में किसी से मिलने गई हैं. उन्हें तो मालूम नहीं था कि आप दोनों आने वाले हैं. चलिए, मैं गरमगरम परांठे सेंक देती हूं.’’

मोहिनी ने रसोई में रखी छोटी सी मेज पर प्लेटें लगा दीं. सुबहसुबह जल्दी से सब यहीं इसी मेज पर खापी कर भागते थे. मोहिनी ने फ्रिज से सब्जी निकाल कर गरम की. कटा हुआ प्याज, हरीमिर्च, अचार सबकुछ मेज पर रखा. फ्रिज में दही दिखाई दिया तो उस का रायता भी बना दिया. ये सारी तैयारी देख रमेश व सुरेश कूद कर मेज के पास आ धमके. जल्दीजल्दी गरम परांठे उतार कर देती भाभी से खाना खातेखाते उन की अच्छीखासी दोस्ती भी हो गई. स्कूल के दोस्तों का हाल, मैच में किस की टीम अच्छी है, कौन सा टीचर अच्छा है, कौन नहीं आदि सब खबरें मोहिनी को मिल गईं. उस ने उन्हें अपने मायके के किस्से सुनाए. बिंदु और मीनू के साथ होने वाले छोटेमोटे झगड़े और फिर छत पर बैठ कर उस का कविताएं लिखना, सबकुछ सुरेश, रमेश को पता लग गया. ‘‘अरे वाह भाभी, तुम कविता लिखती हो? तब तो तुम हमें हिंदी भी पढ़ा सकती हो?’’ सुरेश उत्साहित हो कर बोला.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. अपनी किताबें मुझे दिखाना. हिंदी तो मेरा प्रिय विषय है. कालेज में तो…’’ और मोहिनी बोलतेबोलते सहसा रुक गई क्योंकि चेहरे पर अजीब सा भाव लिए मांजी दरवाजे के पास खड़ी थीं. मोहिनी से कुछ न कह वे अपने दोनों बेटों से बोलीं, ‘‘तुम दोनों मेरे आने तक रुक नहीं सकते थे.’’

रमेश और सुरेश को तो मानो सांप ही सूंघ गया. मां के चेहरे का यह कठोर भाव उन के लिए नया था. भाभी से खाना मांग कर उन्होंने क्या गलती कर दी है, समझ न सके. हाथ का कौर हाथ में ही पकड़े खामोश रह गए. पल दो पल तो मोहिनी भी चुप ही रही, फिर हौले से बोली, ‘‘ये दोनों तो आप ही को ढूंढ़ रहे थे. आप थीं नहीं तो मैं ने सोचा, मैं ही खिला दूं.’’

‘‘क्यों? क्या घर में फल, डबलरोटी… कुछ भी नहीं था जो परांठे सेंकने पड़े?’’ मां ने तल्खी से पूछा.

‘‘ऐसा नहीं है मांजी. मैं ने सोचा बच्चे हैं, जोर की भूख लगी होगी, इसलिए बना दिए.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे तो नहीं हैं न? मैं खुद ही निबट लेती आ कर,’’ अत्यंत निर्ममतापूर्वक कही गई सास की यह बात मोहिनी को मानो अंदर तक चीर गई, ‘क्या रमेश, सुरेश उस के कुछ नहीं लगते? नरेंद्र के छोटे भाइयों को प्यार करने का क्या उसे कोई हक नहीं? उन पर केवल मां का ही एकाधिकार है क्या? फिर कल जब ये दोनों भी बड़े हो जाएंगे तो मांजी क्या करेंगी? विवाह तो इन के भी होंगे ही, फिर…?’

रमेश व सुरेश न जाने कब के अपने कमरों में जा दुबके थे और मांजी अपनी तीखी दृष्टि के पैने चुभते बाणों से मोहिनी का हृदय छलनी कर अपने कमरे में जा बैठी थीं. एक अजीब सा तनाव पूरे घर में छा गया था. मोहिनी की आंखें छलछला आईं. उसे याद आया अपना मायका, जहां वह किसी पक्षी की भांति स्वतंत्र थी, जहां उस का अपना आसमान था, जिस के साथ अपने छोटेमोटे सुखदुख बांट कर हलकी हो जाती थी. मोहिनी को लगा, अब भी उस के साथसाथ चल कर आया आसमान का वह नन्हा टुकड़ा उस का साथी है, जो उसे हाथ हिलाहिला कर ऊपर बुला रहा है. वह नरेंद्र की अलमारी में कुछ ढूंढ़ने लगी. एक सादी कौपी और पैन उसे मिल ही गया. जल्दीजल्दी धूलभरी सीढि़यां चढ़ती हुई वह छत पर जा पहुंची. कैसी शांति थी वहां, मानो किसी घुटनभरी कैद से मुक्ति मिली हो. मन किसी पक्षी की भांति बहती हवा के साथ उड़ने लगा. धूप छत से अभीअभी गई थी. पूरा माहौल गुनगुना सा था. वहीं जीने की दीवार से पीठ टिका कर मोहिनी बैठ गई और कौपी खोल कर कोई प्यारी सी कविता लिखने की कोशिश करने लगी.

विचारों में उलझी मोहिनी के सामने सास का एक नया ही रूप उभर कर आया था. उसे लगा, व्यर्थ ही वह मांजी से अपने लिए प्यार की आशा लगाए बैठी थी. इन के प्यार का दायरा तो इतना सीमित, संकुचित है कि उस में उस के लिए जगह बन ही नहीं सकती और जैसेजैसे उन के बेटों के विवाह  होते जाएंगे, यह दायरा और भी सीमित होता जाएगा, इतना सीमित कि उस में अकेली मांजी ही बचेंगी. मोहिनी के मुंह में न जाने कैसी कड़वाहट सी घुल गई. उस का हृदय वितृष्णा से भर उठा. जीवन का एक नया ही पक्ष उस ने देखा था. शायद नरेंद्र भी 23 वर्षों में अपनी मां को इतना न जान पाए होंगे जितना इन कुछ पलों में मोहिनी जान गई. साथ ही, वह यह भी जान गई कि प्यार यदि बांटा न जाए तो कितना स्वार्थी हो सकता है. मोहिनी ने मन ही मन एक निश्चय किया कि वह प्यार को इन संकुचित सीमाओं में कैद नहीं करेगी. मांजी को बदलना ही होगा. प्यार के इस सुंदर कोमल रूप से उन्हें परिचित कराना ही होगा.

प्रायश्चित्त: क्या शिशिर को मिला सुकून

शिखा की आंखों से नींद कोसों दूर थी. मन में तरहतरह की आशंकाएं घुमड़ रही थीं. उस की बेचैन निगाहें बारबार घड़ी की ओर जा टिकतीं. रात का 1 बज चुका था, कहां रह गए शिशिर?

दोपहर में इंदौर से आए फोन ने उसे लगभग चेतना शून्य ही कर दिया था. बड़ी भाभी ने रुंधे गले से बमुश्किल इतना बताया कि तुम्हारे भैया को हार्ट अटैक हुआ है… आईसीयू में भरती करा दिया है. डाक्टरों ने तुरंत बाईपास सर्जरी की आवश्यकता बताई है, जिस पर करीब 2 लाख रुपए खर्च आएगा.

भाभी इस बात को ले कर काफी व्यथित थीं कि इस समय इतने रुपए की व्यवस्था कहां से और कैसे हो सकेगी. शिखा ने भाभी को हौसला बनाए रखने की सलाह दी व शीघ्र इंदौर पहुंचने का आश्वासन दिया.

कुछ संयत हो कर शिखा ने सब से पहले शिशिर को फोन कर के घटना की जानकारी दी. शिशिर की व्यस्तता से वह भलीभांति परिचित थी इसलिए अकेले ही भैया के पास जाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन शिशिर का अब तक घर न पहुंचना अनेक आशंकाओं को जन्म दे रहा था. एकएक मिनट घंटों के समान बीत रहा?था. इंतजार के इन पलों में उस के मानस पटल पर वह कभी न भूलने वाली घटना चलचित्र की भांति जीवंत हो उठी.

शिखा के विवाह से पहले की बात है. मां को ब्रेन हैमरेज हो गया था. काफी इलाज के बाद वह ठीक तो हुईं पर अकसर बीमार रहने लगीं. शिखा पर पढ़ाई के साथसाथ घरगृहस्थी की पूरी जिम्मेदारी भी आ पड़ी. कभी पीएच.डी. को अपना ध्येय बना चुकी शिखा ने पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति के लिए अपने लक्ष्य को तिलांजलि दे दी और एक स्थानीय स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली.

भैया तो नौकरी के सिलसिले में पहले ही इंदौर शिफ्ट हो चुके थे. छोटे भाईबहन और मां की देखभाल की जिम्मेदारी बखूबी निबाहते हुए वह पूरी तरह परिवार को समर्पित हो गई.

समय पंख लगाए उड़ रहा था. मां को रहरह कर उस के विवाह की चिंता सताए जाती थी. शिखा के सद्गुणों व घरेलू कार्यों में निपुणता की प्रशंसा सुन कर कई प्रस्ताव आ रहे थे किंतु शिखा इस शहर से दूर शादी करने को कतई तैयार नहीं हुई. उस का अपना वजनदार तर्क था कि दूर की ससुराल से वह जरूरत पड़ने पर मां के पास जल्दी नहीं आ सकेगी.

आखिर उस की इच्छानुसार इसी शहर के एक प्रतिष्ठित परिवार में उस का विवाह हो गया. नए परिवार में नई जिम्मेदारियों ने शिखा का स्वागत किया. नौकरी व परिवार के बीच सामंजस्य बिठाती हुई शिखा की व्यस्तता दिनोंदिन बढ़ती गई.

पहले हफ्ते 10 दिन में मायके का चक्कर लग जाता था पर बिटिया के जन्म के बाद धीरेधीरे यह अवधि बढ़ने लगी. फिर?भी समय निकाल कर कभीकभी टेलीफोन पर मां का हालचाल पूछ लिया करती.

एक दिन शिखा स्कूल से घर लौटी ही थी कि छोटे भाई का फोन आ गया, ‘दीदी, मां की तबीयत बिगड़ गई है. डाक्टर ने चेकअप कर कुछ टेस्ट कराए हैं… रिपोर्ट देख कर पूरी दवा लिखेंगे.’

शिखा का मन मां से मिलने को व्याकुल हो उठा. शिशिर के आफिस में आडिट चल रहा था इसलिए वह रोज देर से घर लौट रहे थे. इधर गुडि़या को भी सुबह से बुखार था. उसे ले कर सर्दी के इस मौसम में कैसे घर से निकले, यह प्रश्न शिखा को दुविधा में डाल रहा था. रात को थकेमांदे लौटे शिशिर को उस ने मां की तबीयत खराब होने की बात बताई तो उन्होंने, ‘कल देखने चलेंगे,’ कह कर बात समाप्त कर दी.

अगला दिन भी नियमित दिनचर्या से कतई अलग नहीं था. फिर भी समय निकाल कर शिखा ने भाई से फोन पर मां के हालचाल पूछे और शाम को आने का वादा किया. शाम को शिशिर का फोन आ गया कि चीफ आडिटर आज ही काम समाप्त कर वापस जाना चाहते हैं अत: घर लौटने में देर हो जाएगी. शिखा मनमसोस कर रह गई लेकिन उसे यह जान कर तसल्ली हुई कि बड़े भैया आ गए हैं और मां को अस्पताल में भरती कराया जा रहा है.

सुबह आफिस के लिए निकलते हुए शिशिर ने कहा, ‘मैं आडिट रिपोर्ट डाक से भिजवा कर लंच तक वापस लौट आऊंगा… तुम तैयार रहना… मां को देखने अस्पताल चलेंगे.’ शिखा ने कोई जवाब नहीं दिया. पिछले 3 दिन से ये कोरे आश्वासन ही तो मिल रहे थे.

गुडि़या को सुबह की दवा दे कर शिखा उठी ही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी. किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल धड़क उठा. आशंका निर्मूल नहीं थी. ‘मां नहीं रहीं…’ ये शब्द पिघले शीशे की तरह उस के कानों में उतरते चले गए.

मातृशोक ने उस के हृदय को छलनी कर दिया. जिस मां की सेवा में कभी उस ने रातदिन एक कर दिया था, आज एक ही शहर में रहते हुए उन्हें अंतिम बार जीवित भी न देख सकी.

खबर मिलते ही शिशिर भी तुरंत घर लौट आए और दोनों अस्पताल जा पहुंचे. सभी का रोरो कर बुरा हाल था. भैया ने बताया कि आखिरी वक्त तक मां की आंखें बस, शिखा को ही तलाश रही थीं. गमगीन माहौल में शिशिर एक कोने मेें स्तब्ध से खड़े थे. उन्हें आत्मग्लानि हो रही थी कि अपनी व्यस्तता के कारण वह एक महत्त्वपूर्ण पारिवारिक दायित्व को नहीं निभा सके.

वक्त हर जख्म का मरहम है. ‘मां’ अतीत हो गईं किंतु एक टीस, शिखा और शिशिर के मन में हमेशा के लिए छोड़ गईं.

शिखा की वैचारिक तंद्रा टूटी. आज पुन: वही मंजर सामने था. उस के भैया जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे… क्या इस बार भी वही कहानी दोहराई जाएगी… नियति उस की राह में रोड़े अटका रही है या शिशिर को काम के अलावा किसी की परवा नहीं… क्या इस संकट की घड़ी में वह भैयाभाभी का संबल बन सकेगी…

तभी दरवाजे की घंटी बजी… शिखा ने बेसब्री से दरवाजा खोला. सामने शिशिर खड़े थे, चेहरे पर दिनभर की भागदौड़ के स्पष्ट निशान लिए. शिखा ने सोचा कि अभी कोई व्यस्तता का नया बहाना सुनने को मिलेगा जिस के लिए वह मानसिक रूप से तैयार भी थी.

सोफे पर बैठते हुए शिशिर ने चुपचाप बैग खोला और 500 के नोटों की 4 गड्डियां उसे सौंपते हुए कहा, ‘‘सौरी शिखा… तुम्हारा फोन आने के बाद से ही आपरेशन के रुपए की व्यवस्था करने में जुट गया था. बैंक की एफडी तो दिन में तुड़वा ली थी, बाकी रुपयों की व्यवस्था दोस्तों से करने में इतनी रात हो गई… जल्दी तैयारी कर लो.. सुबह की ट्रेन से हम इंदौर जा रहे हैं.’’

शिखा हतप्रभ रह गई. उस के मन से संशय और अनिश्चय का कुहासा छंट गया. आज शिशिर ने वह कर दिखाया था जिस की उस ने उम्मीद भी नहीं की थी. वह कितना गलत समझ रही थी. उस की आंखों से अश्रुधार बहने लगी… इन आंसुओं ने वह फांस निकाल कर बाहर की, जो मां के निधन के वक्त से उस के हृदय में धंसी हुई थी.

शिशिर बेहद आत्मिक शांति का अनुभव कर रहे थे. शायद उन्होंने बरसों पहले हुई चूक का प्रायश्चित्त कर लिया था.

तुम्हारी कोई गलती नहीं: भाग 3- रिया के साथ ऐसा क्या हुआ था

‘‘शाम के धुंधलके में अचानक उस का मुंह दबा कर 2 अनजान लोगों ने बेचारी के साथ जबरदस्ती की. देर रात में गांव के कुछ लोगों ने लहूलुहान उसे हालत में झडि़यों में बेहोश पड़े देखा. छोटे से गांव में आग की तरह यह खबर फैल गई. मंदिर के महंत और धर्म के ठेकेदार जमा हो गए. लड़की पर सैकड़ों लांछन लगे. उसे जाति व समाज से बाहर कर दिया गया. उस के परिवार को जाति से बाहर कर खेत और संपत्ति छीनने की धमकी दी गई, फिर गांव से बाहर निकलने को कहा गया.

‘‘मजबूर मांबाप अपने बच्चों के भविष्य की दुहाई दे कर बहुत गिड़गिड़ाए, तब मंदिर का महंत इस बात पर राजी हुआ कि परिवार पहले जैसा ही घर और खेत ले कर गांव में रह सकता है परंतु लड़की चूंकि अपवित्र हो चुकी है, इस के कारण गांव पर कोई विपत्ति न आए इस के लिए उसे मंदिर में ईश्वर की सेवा में सौंप दिया जाए. आखिर में समाज के दबाव के चलते उस के पिता को मजबूर हो कर उन की बात माननी पड़ी.

‘‘ईश्वर की सेवा का तो बस दिखावा था. असल में वह महंत और धर्म के ठेकेदारों और जमींदारों की वासनापूर्ति का माध्यम बनी. इन धर्म के ढोंगी ठेकेदारों का यही काम होता है. पहले धर्म का डर दिखा कर लड़की को घर से निकाल कर मंदिर की सेवा में अर्पण करने या आश्रम में रहने के लिए मजबूर करो और फिर उस का जी भर कर दैहिक शोषण करो. एक दिन बेचारी मौका पा कर जैसेतैसे वहां से भाग कर शहर की मिशनरी में आश्रय लेने पहुंची. पर वहां तो उस की और दुर्गति हुई. वहां के कार्यकर्ता स्वयं तो उस का शोषण करते ही, उसे दूसरी जगहों पर भी सप्लाई करने लगे…’’ डा. आशा की आंखों से आंसू बहने लगे.

‘‘फिर उस का क्या हुआ?’’ रिया का स्वर कांप रहा था. शायद वह स्वयं को उस की स्थिति में महसूस कर रही थी.

‘‘जब बेचारी उन के भोग और वासना पूर्ति के लायक नहीं रही, तो एक दिन उसे एक सरकारी अस्पताल के सामने फेंक कर चले गए. मैं उस समय उसी अस्पताल में नौकरी कर रही थी. उसी ने मुझे इन आश्रमों और धार्मिक संस्थानों की घिनौनी सचाई के बारे में बताया. उस की हालत इतनी नाजुक थी कि मैं बहुत कोशिशों के बाद भी उसे बचा नहीं पाई.’’

डा. आशा अपनी आंखें पोंछ कर आगे बोलीं, ‘‘इसलिए मैं कहती हूं कि पवित्रअपवित्र जैसी खोखली दकियानूसी बातों में कुछ नहीं रखा है. बीती बातों को भूल कर अपने परिवार के साथ रहो.’’

रिया पर उन की बातों का गहरा असर हुआ. 4 दिनों में ही वह झूठे अपराधबोध से बाहर निकल कर स्वस्थ हो गई. जब उस ने मम्मीपापा से आगे बढ़ने की इच्छा प्रकट की तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रिया ने जीतोड़ मेहनत की और एमबीबीएस में सिलैक्ट हो गई. जब वह डाक्टर बन कर इंटर्नशिप कर रही थी, तभी डा. आशा भी वहीं आ गईं. उन के अंडर में ही रिया ने एमडी किया.

जन्म से ही घुट्टी में मिली हुई रूढिवादी मान्यताओं को अपने मन से निकाल फेंकना आसान नहीं था. पर रिया ने साहसपूर्वक यह कर दिखाया और हिम्मत से अपने जीवनपथ पर आगे बढ़ती रही. उसी साहस और सचाई के चलते वह यह बात नीरज से छिपाना नहीं चाहती थी. जिस हिम्मत से उस ने समाज की थोथी मान्यताओं और कुसंस्कारों को झटक कर अपने लिए एक रास्ता बनाया था, वह चाहती थी कि नीरज सारी सचाई को जान कर उसी हिम्मत से उसे स्वीकार कर उस के साथ जीवनपथ पर आगे बढ़े.

रात के 2 बज गए थे. रिया तो अपने अतीत को रात में देखा बुरा सपना समझ कर झटक चुकी थी, लेकिन नीरज से वह यह बात छिपा कर उसे धोखे में नहीं रखना चाहती थी. अत: उस ने फैसला किया कि वह कल नीरज को सब कुछ बता देगी. यह फैसला करने पर ही उसे नींद आई.

दूसरे दिन रिया की ड्यूटी नहीं थी. उस ने नीरज को फोन लगाया. संयोग से उस दिन उस की भी छुट्टी थी. 4 बजे लेकव्यू स्थित विंड्स ऐंड वेव्स पर उन का मिलना तय हुआ.

4 बजे रिया नियत स्थान पर पहुंची तो देखा नीरज पहले से ही वहां बैठा था. नीरज ने उठ कर उस का स्वागत किया. रिया का कलेजा धड़कने लगा, परंतु जल्द ही उस ने अपनेआप को संयत किया और नीरज के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद रिया ने झिझकते हुए नीरज से कहा, ‘‘मुझे आप से कुछ कहना है.’’

‘‘कहो न,’’ नीरज के स्वर में प्रेमपूर्ण आग्रह था.

रिया ने हिम्मत जुटा कर निगाहें नीची कर के अपने साथ हुई दुर्घटना की पूरी बात नीरज को बता दी. फिर उस की आंखों से आंसू छलकने लगे. उस ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संयत किया, लेकिन आंखें उठा कर नीरज की ओर देखने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी. उसे लग रहा था कि जिन नजरों में थोड़ी देर पहले तक उस के लिए प्यार झलक रहा था, उन में अब घृणा झलक रही होगी. वह आंखें नीचे किए ही बैठी रही. तभी अचानक अपने हाथ पर नीरज के हाथ का स्पर्श पा कर उस ने चौंक कर निगाहें ऊपर उठाईं तो आश्चर्यचकित रह गई. नीरज

अब भी उस की ओर प्यार से देख रहा था. नीरज ने रिया का हाथ प्यार से सहलाया और कहा, ‘‘मैं तुम्हारे बारे में पहले से ही सब कुछ जानता था.’’

‘‘क्या? लेकिन आप को किस ने बताया?’’ रिया अवाक रह गई.

‘‘डा. आशा रिश्ते में मेरी बूआ लगती हैं. उन्होंने ही तुम्हारे बारे में हमें बताया था. सुनते ही मैं ने तय किया था कि मैं ऐसी हिम्मत व आत्मविश्वास से भरी लड़की से शादी करूंगा. लेकिन खुद सचाई बता कर तुम ने मेरे मन में अपने लिए सम्मान और बढ़ा लिया है,’’ नीरज ने संक्षेप में बताया.

‘‘लेकिन मैं… मैं तो अपवित्र…’’ आगे की बातें रिया के गले में ही अटक कर रह गईं.

‘‘नहीं रिया, बूआ की तरह मैं भी यह मानता हूं कि इस में दोष उस हैवान का रहता है, जो यह नीच कार्य करता है. रास्ता चलते यदि कोई गाड़ी वाला हम पर कीचड़ के छींटे डाल कर चला जाए, तो हम घर आ कर नहा कर कपड़े धो लेते हैं न. उन छींटों को सहेज कर उम्र भर अपने से घिन तो नहीं करते? तुम भी उन छींटों को धो डालो. मेरे लिए तुम वैसी ही निर्मल, उज्ज्वल हो. तुम्हारी कोई गलती नहीं,’’ नीरज के स्वर में प्यार और अपनापन था.

रिया विभोर हो गई. ‘‘तो अब झटपट बता दो कि तुम्हें हमारा नीरज पसंद है कि नहीं ताकि हम जल्द से जल्द तुम दोनों की सगाई करा सकें,’’ अपने पीछे से अचानक किसी की आवाज सुन कर रिया ने मुड़ कर देखा तो डा. आशा मुसकरा रही थीं.

‘‘आप के बहुत से एहसान हैं मुझ पर मैडम,’’ रिया की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

‘‘मैडम नहीं, अब मैं तुम्हारी बूआसास हूं. और यह तो तुम्हारे लिए मेरा प्यार और अपनापन है पगली, कोई एहसान नहीं. अब झटपट बता दो कि सगाई कब कराऊं?’’ डा. आशा ने पूछा तो रिया ने एक नजर नीरज पर डालते हुए शरमा कर जवाब दिया, ‘‘जब आप चाहें…’’

यह सुनते ही डा. आशा ने रिया और नीरज दोनों को अपनी बांहों में भर लिया.

आशीर्वाद- भाग 1 : क्यों टूट गए मेनका के सारे सपने

दोपहर का खाना खा कर मेनका थोड़ी देर आराम करने के लिए कमरे में आई ही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

मेनका ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला. सामने डाकिया खड़ा था.

डाकिए ने उसे नमस्ते की और पैकेट देते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप की रजिस्टर्ड डाक है.’’

मेनका ने पैकेट लिया और दरवाजा बंद कर कमरे में आ गई. वह पैकेट देखते ही समझ गई कि इस में एक किताब है. पैकेट पर भेजने वाले गुरुजी के हरिद्वार आश्रम का पता लिखा हुआ था.

मेनका की जरा भी इच्छा नहीं हुई कि वह उस किताब को खोल कर देखे या पढ़े. वह जानती थी कि यह किताब गुरु सदानंद ने लिखी है. सदानंद उस के पति अमित का गुरु था. वह उठतेबैठते, सोतेजागते हर समय गुरुजी की ही बातें करता था, जबकि मेनका किसी गुरुजी को नहीं मानती थी.

मेनका ने किताब का पैकेट एक तरफ रख दिया. अजीब सी कड़वाहट उस के मन में भर गई. उस ने बिस्तर पर लेट कर आंखें बंद कर लीं. साथ में उस की 3 साल की बेटी पिंकी सो रही थी.

मेनका समझ नहीं पा रही थी कि उसे अमित जैसा अपने गुरु का अंधभक्त जीवनसाथी मिला है तो इस में किसे दोष दिया जाए?

शादी से पहले मेनका ने अपने सपनों के राजकुमार के पता नहीं कैसेकैसे सपने देखे थे. सोचा था कि शादी के बाद वह अपने पति के साथ हनीमून पर शिमला, मसूरी या नैनीताल जाएगी. पहाड़ों की खूबसूरत वादियों में उन दोनों का यादगार हनीमून होगा.

मेनका के सारे सपने शादी की पहली रात को ही टूट गए थे. उस रात वह अमित का इंतजार कर रही थी. काफी देर के बाद अमित कमरे में आया था.

अमित ने आते ही कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात का हर कोई बहुत बेचैनी से इंतजार करता है पर मैं उन में से नहीं हूं. मेरा खुद पर बहुत कंट्रोल है.’

मेनका चुपचाप सुन रही थी.

‘सदानंद मेरे गुरुजी हैं. हरिद्वार में उन का बहुत बड़ा आश्रम है. मैं कई सालों से उन का भक्त हूं. उन के उपदेश मैं ने कई बार सुने हैं. उन की इच्छा के खिलाफ मैं कुछ भी करने की सोच ही नहीं सकता.

‘मैं ने तो गुरुजी से कह दिया था कि मैं शादी नहीं करना चाहता पर गुरुजी ने कहा था कि शादी जरूर करो तो मैं ने कर ली.’

मेनका चुपचाप अमित की ओर देख रही थी.

अमित ने आगे कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात हमारी अनोखी रात होगी. हम नए ढंग से शादीशुदा जिंदगी की पहली रात मनाएंगे. मेरे पास गुरुजी की कई किताबें हैं. मैं तुम्हें एक किताब से गुरुजी के उपदेश सुनाऊंगा जिन्हें सुन कर तुम भी मान जाओगी कि हमारे गुरुजी कितने ज्ञानी और महान हैं.

‘और हां मेनका, मैं तुम्हें एक बात और भी बताना चाहता हूं…’

‘क्या?’ मेनका ने पूछा था.

‘मेरा तुम से एक वादा है कि तुम मां जरूर बनोगी यानी तुम्हें तुम्हारा हक जरूर मिलेगा, क्योंकि गुरुजी ने कहा है कि गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत को तोड़ना पड़ता है.’

मेनका जान गई थी कि अमित गुरुजी के जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है. उस के सारे सपने बिखरते चले गए थे.

अमित एक सरकारी दफ्तर में बाबू के पद पर काम करता था. जब भी उसे समय मिलता तो वह गुरुजी की किताबें ही पढ़ता रहता था.

एक दिन किताब पढ़ते हुए अमित ने कहा था, ‘मेनका, गुरुजी के प्रवचन पढ़ कर तो ऐसा मन करता है कि मैं भी संन्यासी हो जाऊं.’

यह सुन कर मेनका को ऐसा लगा था मानो कुछ तेज सा पिघल कर उस के दिल को कचोट रहा है. वह शांत आवाज में बोल उठी थी, ‘मेरे लिए तो तुम अब भी संन्यासी ही हो.’

‘ओह मेनका, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मैं सच कह रहा हूं. अगर तुम गुरुजी की यह किताब पढ़ लो, तुम भी संन्यासिनी हो जाने के लिए सोचने लगोगी,’ अमित ने वह किताब मेनका की ओर बढ़ाते हुए कहा था.

‘अगर इन गुरुओं की किताबें पढ़पढ़ कर सभी संन्यासी हो गए तो काम कौन करेगा? मैं गृहस्थ जीवन में संन्यास की बात क्यों करूं? अगर तुम्हारी तरह मैं भी संन्यासी बनने के बारे में सोचने लगूंगी तो हमारी बेटी पिंकी का क्या होगा? बिना मांबाप के औलाद किस तरह पलेगी? बड़ी हो कर उस की क्या हालत होगी? उस के मन में हमारे लिए प्यार नहीं नफरत होगी. इस नफरत के जिम्मेदार हम दोनों होंगे.

‘जिस बच्चे को हम पालपोस नहीं सकते, उसे पैदा करने का हक भी हमें नहीं है और जिसे हम ने पैदा कर दिया है उस के प्रति हमारा भी तो कुछ फर्ज है,’ मेनका कहा था.

अमित ने कोई जवाब नहीं दिया था.

एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा था, ‘मेनका, मेरे दफ्तर में 3 दिन की छुट्टी है. मैं सोच रहा हूं कि हम दोनों गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार चलेंगे.’

‘मैं क्या करूंगी वहां जा कर?’

‘जब से हमारी शादी हुई है, तुम एक बार भी वहां नहीं गई हो. अब तो तुम मां भी बन चुकी हो. हमें गुरुजी का आशीर्वाद लेना चाहिए… वे हमारे भगवान हैं.’

‘मेरे नहीं सिर्फ तुम्हारे. जहां तक आशीर्वाद लेने की बात है, वह भी तुम ही ले लो. मुझे नहीं चाहिए किसी गुरु का आशीर्वाद.’

‘मेनका, मैं ने फोन कर के पता कर लिया है. गुरुजी अगले एक हफ्ते तक आश्रम में ही हैं. तुम मना मत करो.’

‘देखो अमित, मैं नहीं जाऊंगी,’ मेनका ने कड़े शब्दों में कहा था.

अमित को गुरुजी से मिलने के लिए अकेले ही हरिद्वार जाना पड़ा था.

3 दिन बाद अमित गुरुजी से मिल कर घर लौटा तो बहुत खुश था.

‘दर्शन हो गए गुरुजी के?’ मेनका ने पूछा था.

‘हां, मैं ने तो गुरुजी से साफसाफ कह दिया था कि आप की शरण में यहां आश्रम में आना चाहता हूं… हमेशा के लिए. गुरुजी ने कहा कि अभी नहीं, अभी वह समय बहुत दूर है. कभी मेनका से बात कर उसे भी समझाएंगे.’

‘वे भला मुझे क्या समझाएंगे? क्या मैं कोई गलत काम कर रही हूं या कोई छोटी बच्ची हूं? तुम ही समझते रहो और आशीर्वाद लेते रहो,’ मेनका ने कहा था.

तभी मेनका को पिंकी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी. पिंकी नींद से जाग चुकी थी. मेनका उसे थपकियां दे कर दोबारा सुलाने की कोशिश करने लगी.

शाम को अमित दफ्तर से लौट कर आया तो मेनका ने कहा, ‘‘आज आप के गुरुजी की किताब आई है डाक से.’’

इतना सुनते ही अमित ने खुश हो कर कहा, ‘‘कहां है… लाओ.’’

मेनका ने अमित को किताब का वह पैकेट दे दिया.

अमित ने पैकेट खोल कर किताब देखी. कवर पर गुरुजी का चित्र छपा था. दाढ़ीमूंछें सफाचट. घुटा हुआ सिर. चेहरे पर तेज व आंखों में खिंचाव था.

अमित ने मेनका को गुरुजी का चित्र दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो मेनका, गुरुजी कितने आकर्षक और तेजवान लगते हैं. ऐसा मन करता है कि मैं हरदम इन को देखता ही रहूं.’

‘‘तो देखो, मना किस ने किया है.’’

‘‘मेनका, तुम जरा एक कप चाय बना देना. मैं अपने गुरुजी की यह किताब पढ़ रहा हूं,’’ अमित बोला.

मेनका चाय बना कर ले आई और मेज पर रख कर चली गई.

अमित गुरुजी की किताब पढ़ने में इतना खो गया कि उसे समय का पता ही नहीं चला.

रात के साढ़े 8 बज गए तो मेनका ने कहा, ‘‘अब गुरुजी को ही पढ़ते रहोगे क्या? खाना खा लीजिए, तैयार है.’’

‘‘अरे हां मेनका, मैं तो भूल ही गया था कि मुझे खाना भी खाना है. गुरुजी की किताब सामने हो तो मैं सबकुछ भूल जाता हूं.’’

‘‘किसी दिन मुझे ही न भुला देना.’’

‘‘अरे वाह, तुम्हें क्यों भुला दूंगा? तुम क्या कोई भूलने वाली चीज हो…’’ अमित ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खाना लगाओ… मैं आता हूं.’’

मेनका रसोई में चली गई.

रात के 11 बजे थे. मेनका आंखें बंद किए बिस्तर पर लेटी थी. साथ में पिंकी सो रही थी. अमित आराम से बैठा हुआ गुरुजी की किताब पढ़ने में मगन था. तभी वह पुरानी यादों में खो गया.

कुछ साल पहले अमित अपने दोस्त से मिलने चंडीगढ़ गया था. दोस्त के घर पर ही गुरुजी आए हुए थे. तब पहली बार वह गुरुजी के दर्शन और उन के प्रवचन सुन कर बहुत प्रभावित हुआ था.

कुछ महीने बाद अमित गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार जा पहुंचा था. आश्रम में गुरुजी के कई शिष्य थे जो आनेजाने वालों की खूब देखभाल कर रहे थे.

अमित उस कमरे में पहुंचा जहां एक तख्त पर केसरी रंग की महंगी चादर बिछी थी. उस पर गुरुजी केसरी रंग का कुरता व लुंगी पहने हुए बैठे थे. भरा हुआ शरीर. गोरा रंग. चंदन की भीनीभीनी खुशबू से कमरा महक रहा था. 8-10 मर्दऔरत गुरुजी के विचार सुन रहे थे. अमित ने गुरुजी के चरणों में माथा टेका था.

कुछ देर बाद अमित कमरे में अकेला ही रह गया था.

‘कैसे हो बच्चा?’ गुरुजी ने उस से पूछा था.

‘कृपा है आप की. आप के पास आ कर मन को बहुत शांति मिली. गुरुजी, मन करता है कि मैं यहीं आप की सेवा में रहने लगूं.’

‘नहीं बच्चा, अभी तुम पढ़ाई कर रहे हो. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. यह आश्रम तुम्हारा ही है, कभी भी आशीर्वाद लेने आ सकते हो.’

‘जी, गुरुजी.’

‘एक बात का ध्यान रखना बच्चा कि औरत से हमेशा बच कर रहना. उस से बचे रहोगे तो खूब तरक्की कर सकोगे, नहीं तो अपनी जिंदगी बरबाद कर लोगे. ब्रह्मचर्य से बढ़ कर कोई सुख संसार में नहीं है,’ गुरुजी ने उसे समझाया था.

उस के बाद जब कभी अमित परेशान होता तो गुरुजी के आश्रम में जा पहुंचता.

विचारों में तैरतेडूबते अमित को नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा.

2 महीने बाद एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा, ‘‘मेनका, अगले हफ्ते गुरुजी के आश्रम में चलना है.’

‘‘तो चले जाना, किस ने मना किया है,’’ मेनका बोली.

‘‘इस बार मैं अकेला नहीं जाऊंगा. तुम्हें भी साथ चलना है.’’

तुम्हारी कोई गलती नहीं: भाग 2- रिया के साथ ऐसा क्या हुआ था

महीने भर में रिया के शरीर की खरोंचें और घाव तो ठीक हो गए, लेकिन वह अपने साथ हुए हादसे को भूल नहीं पा रही थी. न वह खातीपीती, न स्कूल जाने या पढ़ने को तैयार होती. बस बिस्तर पर लेटी हुई एक ही बात बोलती रहती, ‘‘मुझे मर जाने दो, मुझे मर जाने दो.’’

मम्मीपापा, भैया ने बहुत कोशिश की  वह दोबारा पढ़ने में अपना मन लगा ले तो यह हादसा भूल जाएगी, लेकिन उस की जीने की इच्छा ही खत्म हो चुकी थी. वह अपने मन की गहराई में कहीं अपनेआप को ही गुनहगार मान बैठी थी. उसे अपने शरीर से घृणा हो गई थी.

मम्मीपापा को उस के भविष्य की चिंता होने लगी. उन की मेधावी बेटी का भविष्य एक हैवान ने बरबाद कर दिया था. उन्होंने बहुत कोशिश की पता लगाने की, मगर नहीं जान पाए कि वह कौन शैतान था, जिस ने एक मासूम की खुशियां, उस का सुनहरा भविष्य, उस की प्यारी मुसकराहट सब कुछ बरबाद कर दिया.

डा. आशा अब भी कभीकभी रिया से मिलने आ जाती थीं. उन्हें उस से हमदर्दी हो गई थी. वे स्वयं भी इस घटना से बहुत दुखी और क्षुब्ध थीं और नहीं चाहती थीं कि इतनी अच्छी प्रतिभा यों घुट कर रह जाए.

एक दिन वे रिया से बोलीं, ‘‘बेटा, अब तो तुम ठीक हो चुकी हो. स्कूल जाना और पढ़ना शुरू करो. इस साल तो तुम्हें बहुत मेहनत से पढ़ना होगा, क्योंकि तुम्हें मैडिकल की तैयारी भी तो करनी है. अब समय मत गंवाओ और कल से ही स्कूल जाना शुरू करो.’’

‘‘क्या करूंगी मैं पढ़ कर? मैं अब जीना नहीं चाहती. सब कुछ खत्म हो गया.’’

उस का सदमे से भरा सपाट स्वर सुन कर आशाजी धक रह गईं. सचमुच रिया में जीने की कोई इच्छा बाकी नहीं रह गई थी. फिर भी उन्होंने कोशिश करना नहीं छोड़ा. वे उसे सम?ाने लगीं, ‘‘पढ़ कर तुम डाक्टर बनोगी. तुम्हारे तो मम्मीपापा, भाईबहन सब हैं. जीते तो वे भी हैं जिन का कोई नहीं होता. फिर तुम्हारा तो पूरा परिवार है. उन के लिए और डाक्टर बन कर लोगों का दुख बांटने के लिए तुम्हें जीना है, लोगों की सेवा करनी है. अपने लिए नहीं तो दूसरों के लिए जीना सीखो रिया. यों हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता.’’

‘‘आप तो जानती हैं मेरे साथ क्या हुआ. मैं स्कूल जाऊंगी तो सब मु?ा से दूर भागेंगे. कौन अपनी लड़की को मेरे साथ रहने देगा. तब मेरे साथसाथ मेरे घर वालों का भी घर से बाहर निकलना बंद हो जाएगा आंटी. सब जगह मेरी बदनामी होगी,’’ और रिया फफकफफक कर रो दी.

आशाजी ने उसे रोने दिया. वे चाहती थीं कि रिया के मन का सारा गुबार निकल जाए, तभी वह कुछ अच्छा सोच और समझ पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ पर हाथ फेरती रहीं. जब रिया कुछ शांत हुई तब उन्होंने उसे प्यार से देखा और बोलीं, ‘‘दुनिया बस कालापीपल तक ही सीमित नहीं है. तुम दूसरे शहर भी जा सकती हो. मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी वे अपना ट्रांसफर करा लें और ऐसी जगह चले जाएं जहां तुम्हें कोई न पहचानता हो और तुम सहजता से रह सको.’’

रिया की आंखों में क्षण भर को एक चमक सी आ गई. फिर बोली, ‘‘लेकिन मैं तो वही रहूंगी न. लोग मुझे नहीं जानेंगे, लेकिन मैं कैसे भूल पाऊंगी कि मेरे साथ क्या हुआ है?’’ रिया की आंखों में फिर एक भय उभर आया.

इसी बात का डा. आशा को डर था. दरअसल, हमारे समाज का ढांचा ही ऐसा है कि बचपन से ही लड़की को यह सिखाया जाता है कि विवाह होने तक उसे अक्षत यौवना रहना चाहिए. पति के अलावा किसी भी पुरुष के छूने या कौमार्य भंग होने से लड़की अपवित्र हो जाती है. बचपन से ही रूढिवादी समाज ऐसी मान्यताएं लड़की के मन में कूटकूट कर भर देता है और इन खोखली मान्यताओं के जाल में उलझ बेचारी पीडि़ता निर्दोष होते हुए भी किसी दूसरे के कुकर्म की सजा उम्र भर भोगने को विवश हो जाती है.

रिया भी ऐसे ही समाज में पलीबढ़ी है, इसलिए उस में भी ऐसे ही संस्कार भरे हुए हैं. समाज में भले ही किसी को पता न चले पर वह स्वयं अपनेआप को उम्र भर के लिए अपवित्र हो गई है, मान बैठी है. पर डा. आशा ऐसा हरगिज नहीं होने देना चाहती थीं.

‘‘तुम्हें भूलना होगा रिया,’’ आशाजी कठोर स्वर में बोलीं, ‘‘क्या लोगों के ऐक्सीडैंट नहीं होते? हाथपैर नहीं टूटते? उस के लिए तो लोग जिंदगी भर मुंह छिपा कर रोते नहीं रहते? फिर तुम क्यों रोओगी? जो कुछ भी हुआ उस में तुम्हारा क्या दोष है? यह तुम्हारा कुसूर नहीं है. हमारे संस्कार ही ऐसे हैं कि इस केस में हमेशा लड़की को ही दोषी ठहराया जाता है. वह नीच राक्षस तो समाज में सिर ऊंचा कर के चलता है और पीडि़त लड़की कोई गलती न होने के बाद भी ताउम्र एक अपराधबोध से ग्रस्त रहती है.

‘‘लेकिन मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूंगी रिया. मैं किसी भी हालत में तुम्हारी प्रतिभा को बरबाद नहीं होने दूंगी. तुम न गलत हो, न ही दोषी. गलत और दोषी तो वह हैवान था. तुम्हें इस घटना को रात में देखा गया बुरा सपना समझ कर भूलना ही होगा. एक सुनहरा भविष्य तुम्हारा इंतजार कर रहा है.’’

‘‘मैं किसी आश्रम या मिशनरी चली जाऊंगी. ईश्वर की आराधना कर लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता लूंगी,’’ रिया ने उदास स्वर में कहा.

‘‘ईश्वर होता तो तुम्हारे साथ यह होने देता? वह पत्थर या मूर्तियों में कभी नहीं होता और तुम्हें अभी इन धार्मिक स्थलों और आश्रमों की सचाई पता नहीं है. ऐसी बात भी अपने मन में कभी मत लाना. धर्म के तथाकथित ठेकेदार भगवान और धर्म के नाम पर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए इन आश्रमों में ऐसेऐसे काले कारनामे करते हैं, जिन के बारे में कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता. मैं तुम्हें अपने बचपन की एक घटना बताती हूं.’’

डाक्टर आशा ने 2 मिनट रुक कर अपने माथे से पसीना पोंछा और आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं तब 10-11 साल की थी और छुट्टियों में नानी के गांव गई थी. नानी के पड़ोस में एक परिवार रहता था. उन की 16-17 वर्ष की एक छोटी बेटी थी, जो बहुत सुंदर व गुणवान थी. मैं सारा दिन दीदीदीदी कहती उस के आसपास घूमती रहती थी. एक दिन खेत से वह अकेली लौट रही थी. पिता जरूरी काम से खेत पर ही रुक गए थे.

रिया पलंग पर लेटी तो उसे देर तक नींद नहीं आई. वह भी नीरज से काफी प्रभावित हुई थी. जिंदगी में पहली बार किसी ने उस के दिल के एक कोने को छू लिया था. लेकिन वह बारबार यह सोच रही थी कि क्या वह नीरज को अपने अतीत के बारे में बता दे या चुप रह कर रिश्ता स्वीकार कर ले? अगर वह बता देती है, तो नीरज से रिश्ता टूटना तय था और अगर नहीं बताती तो सारी उम्र उस के मन पर एक बोझ रहेगा और वह यह बोझ ले कर जी नहीं पाएगी.

रिया बेचैनी में उठ कर टहलने लगी. उस का अतीत उस की आंखों के सामने नाचने लगा… तब रिया के पिता कालापीपल नामक छोटे कसबे में रहते थे. 2 साल के लिए उन की पोस्टिंग वहां हुई थी. हंसताखेलता सुखी परिवार था उन का, जिस में उन के बच्चे रिया, उस का बड़ा भाई और छोटी बहन थी. तीनों ही मेधावी छात्र थे. उन का बड़ा सा सरकारी बंगला कसबे से बाहर की ओर था.

रिया तब मात्र 16 साल की किशोरी थी. अपने रंगरूप और मेधावी होने के कारण वह सब की लाडली थी. पूरे कसबे में उस की सुंदरता के चर्चे थे. लड़के उस की एक झलक पाने के लिए उस के स्कूल के आसपास चक्कर काटते थे, लेकिन रिया इन सब बातों से बेखबर अपनी ही दुनिया में मस्त रहती थी. वह खुशमिजाज थी, हमेशा हंसती रहती और सब से मीठा व्यवहार करती.

रिया तब 11वीं कक्षा में पढ़ती थी. अगले साल उसे मैडिकल की प्रवेश परीक्षा देनी थी. कसबे में एक टीचर थे सिद्धार्थ सर. वे बौटनी और जुलौजी बहुत अच्छा पढ़ाते थे. उन से पढ़े हुए बहुत से स्टूडैंट्स का चयन मैडिकल में हो चुका था. रिया ने 11वीं कक्षा की परीक्षा समाप्त होते ही एक सीनियर से 12वीं कक्षा की किताबें लीं और सिद्धार्थ सर के यहां पढ़ने जाने लगी. उन का घर कसबे के बिलकुल दूसरे छोर पर था और वहां ज्यादा घनी बस्ती भी नहीं थी.

यह 27 जून की बात है. मानसून आ चुका था. शाम 6 बजे तक आसमान बिलकुल साफ था. रिया अपनी स्कूटी उठा कर पढ़ने चली गई. उस की 2 सहेलियां भी उस के साथ पढ़ती थीं. पढ़ाई के बाद उन के बीच स्कूल की पढ़ाई और पीएमटी की तैयारी पर चर्चा होने लगी. ऐसे में रात के 8 कब बज गए, पता ही नहीं चला. बाहर आसमान पर बादल छाए हुए थे. रिया की सहेलियां पास ही में रहती थीं. अत: वे पैदल ही चली गईं.

रिया ने भी अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर तेजी से चल दी. अभी वह आधा किलोमीटर दूर भी नहीं पहुंची होगी कि तेज बारिश शुरू हो गई. रिया बारिश से तरबतर हो गई.

तभी अचानक रिया की स्कूटी चलतेचलते रुक गई. रिया स्कूटी से उतर कर किक लगा कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश करने लगी मगर गाड़ी स्टार्ट नहीं हुई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आया कि सहेलियों ने कहा था, मगर वह उन के घर नहीं गई. सोचा था कि बारिश शुरू होने से पहले ही घर पहुंच जाएगी, लेकिन अब क्या हो सकता है?

रिया का घर 2 किलोमीटर आगे है और सहेलियों के लगभग इतना ही पीछे. आखिर उस ने तय किया कि स्कूटी को ताला लगा कर यहीं खड़ी कर पैदल ही घर चली जाएगी. आते समय धूप थी इसलिए वह रेनकोट भी नहीं लाई थी. वह जिस स्थान पर थी, वह एकदम सुनसान था.

स्ट्रीट लाइट की रोशनी में वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि अचानक बिजली गरजी और लाइट चली गई. चारों ओर घुप्प अंधेरा हो गया. रिया का दिल जोरों से धड़कने लगा. वह अपना बैग सीने से दबाए तेजी से घर की ओर भागने लगी कि तभी 2 मजबूत हाथों ने उसे पीछे से दबोच लिया. रिया की चीख निकल गई. वह छूटने के लिए बहुत छटपटाई, चीखीचिल्लाई, लेकिन उस की चीखें मूसलाधार बारिश और बिजली की गड़गड़ाहट में दब कर रह गईं. हवस में अंधे नरपिशाच के आगे रिया बेदम हो गई.

जब उसे होश आया उस समय वह अपने पलंग पर अधमरी पड़ी थी. सुबह के शायद 8 बजे थे. मम्मीपापा व दोनों भाईबहन सहमे से खड़े थे. मम्मी के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रिया को होश आता देख कर सब लोग उस के आसपास सिमट आए. रिया ने निर्जीव निगाहों से सब की ओर देखा और तभी उस के मस्तिष्क में रात की घटना कौंध गई और वह चीख मार कर पुन: बेहोश हो गई.

4-5 दिन बाद रिया की तबीयत जरा संभली. डाक्टर आशा सुबहशाम रिया का चैकअप करने आतीं. अपने सामने उसे सूप या जूस वगैरह दिलवातीं.

इस घटना को 1 माह बीत गया. रिया अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकली. घर वालों की बातों से पता चला कि उस रात जब वह काफी देर तक घर नहीं पहुंची, तो उस का भाई उसे ढूंढ़ने निकला. रास्ते में ही उसे रिया की किताबें पड़ी दिखाई दे गईं और पास ही सड़क से थोड़ा हट कर झडि़यों में रिया पड़ी मिली.

घर के नौकरचाकरों को यही पता है कि वह स्कूटी से फिसल कर गिर पड़ी है. उस के स्कूल में भी यही खबर भिजवाई गई थी. उस की सहेलियां जब भी उसे देखने आतीं कोई न कोई बहाना बना कर उस का भाई उन्हें उस से मिलने से रोक देता था.

तुम्हारी कोई गलती नहीं: भाग 1- रिया के साथ ऐसा क्या हुआ था

ड नंबर 8 के मरीज की दवाओं और इंजैक्शन के बारे में नर्स को समझ कर रिया जनरल वार्ड से निकल कर प्राइवेट वार्ड की ओर चल दी. स्त्रीरोग विभाग में 16 प्राइवेट कमरे थे, जिन में से 11 इस समय भरे हुए थे. उन में औपरेशन, डिलीवरी, गर्भपात आदि के पेशैंट थे. 1-1 पेशैंट का हालचाल पूछते हुए जब डा. रिया सब से आखिरी पेशैंट को देख कर रूम से बाहर निकली, तो बहुत थक गई थी. नर्सों के ड्यूटीरूम में जा कर उस ने हैड नर्स को कुछ पेशैंट्स के उपचार संबंधी निर्देश दिए और डाक्टर्स ड्यूटीरूम की ओर चल दी.

ड्यूटीरूम में डा. प्रशांत और डा. नीलम बैठे थे.

‘‘क्या बात है रिया, काफी थकी हुई लग रही हो? लो, कौफी पी लो,’’ कह डा. प्रशांत ने 1 कप रिया की ओर बढ़ा दिया.

‘‘थैंक्स डा. प्रशांत,’’ रिया ने आभार प्रकट करते हुए कौफी ले ली.

‘‘सच में रिया तुम्हारा चेहरा काफी डल लग रहा है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

डा. नीलम ने पूछा.

‘‘तबीयत तो ठीक है. बस थोड़ा थक गई हूं, इसलिए सिर थोड़ा भारी है,’’ रिया ने जवाब दिया, ‘‘ओह, 4 बज गए, आज मुझे जरा जल्दी घर जाना है. मैं डा. अश्विन को बता कर घर चली जाती हूं,’’ रिया ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘डा. अश्विन तो ओ.टी. में होंगे, तुम आशा मैडम को रिपोर्ट कर के चली जाओ,’’ नीलम ने कहा और फिर चुटकी लेते हुए पूछ ही लिया, ‘‘वैसे काम क्या है, जो आज अचानक जल्दी जा रही हो? घर में खास मेहमान आ रहे हैं क्या?’’

रिया मुसकरा दी, ‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. शौपिंग करने जाना है,’’ रिया दोनों को बाय कर के आशा मैडम के कैबिन की ओर चली दी. वैसे डिपार्टमैंट के हैड डा. अश्विन थे, लेकिन चूंकि वे सर्जन थे, इसलिए उन का अधिकांश समय औपरेशन थिएटर में ही गुजरता था. उन के बाद डा. आशा थीं, जो उन की अनुपस्थिति में विभाग का काम संभालती थीं. रिया ने उन के पास जा कर अपनी प्रौब्लम बताई और छुट्टी ले कर अपनी गाड़ी से घर की ओर चल दी.

नीलम ने सही सोचा था कि रिया के यहां खास मेहमान आने वाले हैं. सचमुच वह आज इसीलिए जल्दी जा रही थी कि लड़के वाले उसे देखने आ रहे हैं. लड़का नीरज भी डाक्टर है. लंदन से कैंसर पर रिसर्च कर के आया है. उस के पिताजी का भोपाल में स्वयं का क्लीनिक है, लेकिन वह कैंसर हौस्पिटल में कार्यरत है. नीरज के पिता और्थोपैडिक सर्जन हैं और मां ने रिटायरमैंट के बाद प्रैक्टिस छोड़ दी है.

रिया 5 बजे अपने घर पहुंची. सारे रास्ते वह अनमनी सी रही. घर पहुंचते ही देखा मां दरवाजे पर ही खड़ी थीं.

‘‘कितनी देर लगा दी बेटी,’’ आते ही उन्होंने रिया को प्यार भरा उलाहना दिया.

‘‘सौरी मां, राउंड लेते हुए लेट हो गई थी,’’ रिया ने मां के गले में बांहें डाल कर मुसकराते हुए कहा.

‘‘अच्छा चल, हाथमुंह धो कर चाय पी ले,’’ मां ने कहा.

‘‘नहीं मां, मैं कौफी पी कर आई हूं. वे लोग कितने बजे आएंगे?’’ रिया ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘6 बजे तक आने को कह रहे थे,’’ मां ने घड़ी की ओर देखते हुए कहा.

रिया ने अपने जीवन का यही ध्येय बनाया था कि डाक्टर बन कर लोगों की सेवा करेगी. वह हर रिश्ते के लिए मना कर देती थी, क्योंकि वह भलीभांति जानती थी कि उस के अतीत के बारे में पता लगते ही हर कोई मना कर देगा. डाक्टर लड़की के लालच में बहुत से लोग अपने बेटे का रिश्ता ले कर आए, लेकिन रिया ने किसी से भी मिलने से इनकार कर दिया. लेकिन नीरज के पिता रिया के पिता से एक पार्टी के दौरान मिले, तो रिया से मिलने की जिद ही कर बैठे. हार कर रिया के पिता को उन्हें घर पर आमंत्रित करना ही पड़ा.

6 बजने में 5 मिनट थे, जब रिया पलंग से उठी. सिर थोड़ा हलका लग रहा था. बाथरूम में जा कर उस ने मुंह पर पानी के छींटे मारे तो थोड़ी ताजगी आई. उस ने एक साधारण सा सूट निकाला और पहन लिया. पता था रिश्ता तो होना नहीं, तो क्यों बेकार अपना प्रदर्शन करे? माथे पर बिंदी लगाई, केशों की चोटी बनाई और नीचे मां के पास आ गई. उस ने जरा भी मेकअप नहीं किया था, लेकिन वह सुंदर ही इतनी थी कि उसे किसी भी तरह का मेकअप करने की जरूरत ही नहीं थी. उस के खिले हुए रंग पर उस के सूट का गुलाबी रंग उसे एक स्वाभाविक गुलाबी आभा प्रदान कर रहा था. उस के कानों में छोटेछोटे सोने के टौप्स थे.

मां ने उसे देखा तो टोका नहीं, क्योंकि उन्हें पता था कि वह अन्य लड़कियों की तरह बननेसंवरने में विश्वास नहीं करती. उन्होंने केवल अपनी चैन निकाल कर उसे पहना दी और उस के खाली हाथों में 1-1 चूड़ी पहना दी. रिया ने विरोध नहीं किया.

ठीक साढ़े 6 बजे नीरज अपने मातापिता के साथ आ गया. वे लोग काफी सहज थे. रिया के मातापिता को थोड़ा तनाव था, लेकिन जल्द ही नीरज और उस के मातापिता के सहजसरल स्वभाव ने माहौल को एकदम सहज बना दिया. जल्द ही रिया भी औपचारिकता और झिझक छोड़ कर उन लोगों से घुलमिल गई.

नीरज की मां सीधेसादे स्वभाव की लगीं. पिताजी काफी हंसमुख थे. बातबात पर वे ठहाके लगा रहे थे. नीरज स्वयं गंभीर स्वभाव का था, परंतु उस के चेहरे पर एक सरल स्वाभाविकता थी, जिस ने सब को काफी प्रभावित किया. चायनाश्ते के बाद सब के कहने पर नीरज और रिया बाहर लौन में चले गए.

नीरज का व्यवहार और बातचीत का तरीका बेहद शालीन था. रिया को ऐसा लगा ही नहीं कि वह उस से पहली बार बात कर रही है. डाक्टरी से ले कर बगीचे के फूलों तक विभिन्न विषयों पर उस ने रिया से बात की. रिया उस से काफी प्रभावित हुई. नीरज ने उसे अपना मोबाइल नंबर दिया.

रात घिरने लग गई, तब वे दोनों अंदर आ गए. कुछ देर बाद नीरज के पिताजी जाने के लिए उठ खड़े हुए. बाहर निकलते वक्त उन्होंने रिया और उस के मातापिता को चौंका दिया.

वे कार में बैठने से पहले बोले, ‘‘भई,

हमें तो रिया बहुत पसंद आई. हम ने उसे अपनी बहू बनाने का फैसला कर लिया है. हमारी ओर से यह रिश्ता पक्का है. अब आप लोग हमें अपना फैसला बता दीजिएगा,’’ और वे चले गए.

उन के जाने के बाद रिया और उस के मातापिता 2 मिनट तक तो अवाक से वहीं खड़े रह गए. उन्हें इतनी जल्दी हुए फैसले पर यकीन ही नहीं हो रहा था.

अंदर आ कर रिया की मां ने रिया के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘रिया बेटा, सोच ले, नीरज बहुत अच्छा लड़का है और परिवार भी अच्छा है. सारी बातें भूल कर एक नई जिंदगी की शुरुआत कर ले बेटा,’’ उन की आवाज में मां के दिल का दर्द उमड़ आया.

रिया हौले से आश्वासन की मुद्रा में मुसकरा दी तो मां थोड़ी आश्वस्त हो गईं.

Raksha Bandhan:सोनाली की शादी- क्या बहन के लिए रिश्ता ढूंढ पाया प्रणय

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Raksha Bandhan:अंतत- भाग 3- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

बूआ के दर्दभरे पत्र दादी के मर्म पर कहीं भीतर तक चोट कर जाते थे. मन की घनीभूत पीड़ा जबतब आंसू बन कर बहने लगती थी. कई बार मैं ने स्वयं दादी के आंसू पोंछे. मैं समझ नहीं पाती कि वे इस तरह क्यों घुटती रहती हैं, क्यों नहीं बूआ के लिए कुछ करतीं? यदि फूफाजी निर्दोष हैं तो उन्हें किसी से भी डरने की क्या आवश्यकता है?

लेकिन मेरी अल्पबुद्धि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ़ पाती थी. बूआ के पत्र बदस्तूर आते रहते. उन्हीं के पत्रों से पता चला कि फूफाजी का स्वास्थ ठीक नहीं चल रहा. वे अकसर बीमार रहे और एक दिन उसी हालत में चल बसे.

फूफाजी क्या गए, बूआ की तो दुनिया ही उजड़ गई. दादी अपने को रोक नहीं पाईं और उन दुखद क्षणों में बेटी के आंसू पोंछने उन के पास जा पहुंचीं. जाने से पूर्व उन्होंने पिताजी से पहली बार कहा था, ‘जिसे तू अपना बैरी समझता था वह तो चला गया. अब तू क्यों अड़ा बैठा है. चल कर बहन को सांत्वना दे.’

मगर पिताजी जैसे एकदम कठोर और हृदयहीन हो गए थे. उन पर दादी की बातों का कोई प्रभाव न पड़ा. दादी क्रोधित हो उठीं. और उस दिन पहली बार पिताजी को खूब धिक्कारा था. इस के बाद दादी को ताऊजी से कुछ कहने का साहस ही नहीं हुआ था.

बूआ ने भाइयों के न आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. उन्होंने सारे दुख को पी कर स्वयं को कठोर बना लिया था. पति की मौत पर न वे रोईं, न चिल्लाईं, बल्कि वृद्ध ससुर और बच्चों को धीरज बंधाती रहीं और उन्हीं के सहयोग से सारे काम निबटाए. बूआ का यह अदम्य धैर्य देख कर दादी भी चकित रह गई थीं, साथ ही खुश भी हुईं. फूफाजी की भांति यदि बूआ भी टूट जातीं तो वृद्ध ससुर और मासूम बच्चों का क्या होता?

फूफाजी के न रहने के बाद अकेली बूआ के लिए इतने बड़े शहर में रहना और बचेखुचे काम को संभालना संभव न था. सो, उन्होंने व्यवसाय को पति के मित्र के हवाले किया और स्वयं बच्चों को ले कर ससुर के साथ गांव चली गईं, जहां अपना पैतृक मकान था और थोड़ी खेतीबाड़ी भी.

बूआ को पहली बार मैं ने तब देखा था जब वे 3 वर्ष पूर्व ताऊजी के निधन का समाचार पा कर आई थीं, हालांकि उन्हें बुलाया किसी ने नहीं था. ताऊजी एक सड़क दुर्घटना में अचानक चल बसे थे. विदेश में पढ़ रहे उन के बड़े बेटे ने भारत आ कर सारा कामकाज संभाल लिया था.

दूसरी बार बूआ तब आईं जब पिछले साल समीर भैया की शादी हुई थी. पहली बार तो मौका गमी का था, लेकिन इस बार खुशी के मौके पर भी किसी को बूआ को बुलाना याद नहीं रहा, लेकिन वे फिर भी आईं. पिताजी को बूआ का आना अच्छा नहीं लगा था. दादी सारा समय इस बात को ले कर डरती रहीं कि बूआ की घोर उपेक्षा तो हो ही रही है, कहीं पिताजी उन का अपमान न कर दें. लेकिन जाने क्या सोच कर वे मौन ही रहे.

पिताजी का रवैया मुझे बेहद खला था. बूआ कितनी स्नेहशील और उदार थीं. भाई द्वारा इतनी अपमानित, तिरस्कृत हो कर क्या कोई बहन दोबारा उस के पास आती, वह भी बिन बुलाए. यह तो बूआ की महानता थी कि इतना सब सहने के बाद भी उन्होंने भाई के लिए दिल में कुछ नहीं रखा था.

चलो, मान लिया कि फूफाजी ने पिताजी के साथ विश्वासघात किया था और उन्हें गहरी चोट पहुंची थी, लेकिन उस के बाद स्वयं फूफाजी ने जो तकलीफें उठाईं और उन के बाद बूआ और बच्चों को जो कष्ट झेलने पड़े, वे क्या किसी भयंकर सजा से कम थे. यह पिताजी की महानता होती यदि वे उन्हें माफ कर के अपना लेते.

अब जबकि बूआ ने बेटी की शादी पर कितनी उम्मीदों से बुलाया है, तो पिताजी का मन अब भी नहीं पसीज रहा. क्या नफरत की आग इंसान की तमाम संवेदनाओं को जला देती है?

दादी ने उस के बाद पिताजी को बहुतेरा समझाने व मनाने की कोशिशें कीं. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. विवाह का दिन जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, दादी की चिंता और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ऐसे में ही दादी के नाम बूआ का एक पत्र आ गया. उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में लिखा था, ‘अगले हफ्ते तान्या की शादी है. लेकिन भैया नहीं आए, न ही उन्होंने या तुम ने ऐसा कोई संकेत दिया है, जिस से मैं निश्चिंत हो जाऊं. मैं जानती हूं कि तुम ने भैया को मनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी होगी, मगर शायद इस बार भी हमेशा की तरह मेरी झोली में भैया की नफरत ही आई है.

‘मां, मैं भैया के स्वभाव से खूब परिचित हूं. जानती हूं कि कोई उन के फैसले को नहीं बदल सकता. पर मां, मैं भी उन की ही बहन हूं. अपने फैसले पर दृढ़ रहना मुझे भी आता है. मैं ने फैसला किया है कि तान्या का कन्यादान भैया के हाथों से होगा. बात केवल परंपरा के निर्वाह की नहीं है बल्कि एक बहन के प्यार और भांजी के अधिकार की है. मैं अपना फैसला बदल नहीं सकती. यदि भैया नहीं आए तो तान्या की शादी रुक जाएगी, टूट भी जाए तो कोई बात नहीं.’

पत्र पढ़ कर दादी एकदम खामोश हो गईं. मेरा तो दिमाग ही घूम गया. यह बूआ ने कैसा फैसला कर डाला? क्या उन्हें तान्या दीदी के भविष्य की कोई चिंता नहीं? मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिरने लगा.

आखिर में दादी से पूछ ही बैठी, ‘‘अब क्या होगा, बूआ को ऐसा करने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘तू नहीं समझेगी, यह एक बहन के हृदय से निकली करुण पुकार है,’’ दादी द्रवित हो उठीं, ‘‘माधवी आज तक चुपचाप भाइयों की नफरत सहती रही, उन के खिलाफ मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला. आज पहली बार उस ने भाई से कुछ मांगा है. जाने कितने वर्षों बाद उस के जीवन में वह क्षण आया है, जब वह सब की तरह मुसकराना चाहती है. मगर तेरा बाप उस के होंठों की यह मुसकान भी छीन लेना चाहता है. पर ऐसा नहीं होगा, कभी नहीं,’’ उन का स्वर कठोर होता चला गया.

दादी की बातों ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मुझे लगा उन्होंने कोई फैसला कर लिया है. किंतु उन की गंभीर मुखमुद्रा देख कर मैं कुछ पूछने का साहस न कर सकी. पर ऐसा लग रहा था कि अब कुछ ऐसा घटित होने वाला है, जिस की किसी को कल्पना तक नहीं.

शाम को पिताजी घर आए तो दादी ने बूआ का पत्र ला कर उन के सामने रख दिया. पिताजी ने एक निगाह डाल कर मुंह फेर लिया तो दादी ने डांट कर कहा, ‘‘पूरा पत्र पढ़, रघुवीर.’’

पिताजी चौंक से गए. मैं कमरे के दरवाजे से सटी भीतर झांक रही थी कि पता नहीं क्या होने वाला है.

पिताजी ने सरसरी तौर पर पत्र पढ़ा और बोले, ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें क्या करना चाहिए, इतना भी नहीं जानते,’’ दादी के स्वर ने सब को चौंका दिया था. मां रसोई का काम छोड़ कर कमरे में चली आईं.

‘‘मां, मैं तुम से पहले भी कह चुका हूं.’’

‘‘कि तू वहां नहीं जाएगा,’’ दादी ने व्यंग्यभरे, कटु स्वर में कहा, ‘‘चाहे तान्या की शादी हो, न हो…वाह बेटे.’’

क्षणिक मौन के बाद वे फिर बोलीं, ‘‘लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मैं आज तक तेरी हठधर्मिता को चुपचाप सहती रही. तुम दोनों भाइयों के कारण माधवी का तो जीवन बरबाद हो ही गया, पर मैं तान्या का जीवन नष्ट नहीं होने दूंगी.’’

दादी का स्वर भर्रा गया, ‘‘तेरी जिद ने आज मुझे वह सब कहने पर मजबूर कर दिया है, जिसे मैं नहीं कहना चाहती थी. मैं ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस बेटे के जीतेजी उस के अपराध पर परदा डाले रही, आज उस के न रहने के बाद उस के बारे में यह सब कहना पड़ेगा. पर मैं और चुप नहीं रहूंगी. मेरी चुप्पी ने हर बार मुझे छला है.

‘‘सुन रहा है रघुवीर, फर्म में गबन धीरेंद्र ने नहीं बल्कि तेरे सगे भाई ने किया था.’’

मैं सकते में आ गई. पिताजी फटीफटी आंखों से दादी की तरफ देख रहे थे, ‘‘नहीं, नहीं, मां, यह नहीं हो सकता.’’

दादी गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन सच यही है, बेटा. क्या मैं तुझ से झूठ बोलूंगी? क्या कोई मां अपने मृत बेटे पर इस तरह का झूठा लांछन लगा सकती है? बोल, जवाब दे?’’

‘‘नहीं मां, नहीं,’’ पिताजी का समूचा शरीर थरथरा उठा. उन की मुट्ठियां कस गईं, जबड़े भिंच गए और होंठों से एक गुर्राहट सी खारिज हुई, ‘‘इतना बड़ा विश्वासघात…’’

फिर सहसा उन्होंने चौंक कर दादी से पूछा, ‘‘यह सब तुम्हें कैसे पता चला, मां?’’

‘‘शायद मैं भी तुम्हारी तरह अंधेरे में रहती और झूठ को सच मान बैठती. लेकिन मुझे शुरू से ही सचाई का पता चल गया था. हुआ यों कि एक दिन मैं ने सुधीर और बड़ी बहू की कुछ ऐसी बातें सुन लीं, जिन से मुझे शक हुआ. बाद में एकांत में मैं ने सुधीर को धमकाते हुए पूछा तो उस ने सब सचसच बता दिया.’’

‘‘तो तुम ने मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई?’’ पिताजी ने तड़प कर पूछा.

‘‘कैसे बताती, बेटा, मैं जानती थी कि सचाई सामने आने के बाद तुम दोनों भाई एकदूसरे के दुश्मन बन जाओगे. मैं अपने जीतेजी इस बात को कैसे बरदाश्त कर सकती थी. मगर दूसरी तरफ मैं यह भी नहीं चाहती थी कि बेकुसूर दामाद को अपराधी कहा जाए और तुम सभी उस से नफरत करो. किंतु दोनों ही बातें नहीं हो सकती थीं. मुझे एक का परित्याग करना ही था.

‘‘मैं ने बहुत बार कोशिश की कि सचाई कह दूं. पर हर बार मेरी जबान लड़खड़ा गई, मैं कुछ नहीं कह पाई और तभी से अपने सीने पर एक भारी बोझ लिए जी रही हूं. बेटी की बरबादी की असली जिम्मेदार मैं ही हूं,’’ कहतेकहते दादी की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.

‘‘मां, यह तुम ने अच्छा नहीं किया. तुम्हारी खामोशी ने बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया,’’ पिताजी दोनों हाथों से सिर थाम कर धड़ाम से बिस्तर पर गिर गए. मां और मैं घबरा कर उन की ओर लपकीं.

पिताजी रो पड़े, ‘‘अब तक मैं क्या करता रहा. अपनी बहन के साथ कैसा अन्याय करता रहा. मैं गुनाहगार हूं, हत्यारा हूं. मैं ने अपनी बहन का सुहाग उजाड़ दिया, उसे घर से बेघर कर डाला. मैं अपनेआप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा.’’

पिताजी का आर्तनाद सुन कर मां और मेरे लिए आंसुओं को रोक पाना कठिन हो गया. हम तीनों ही रो पड़े.

दादी ही हमें समझाती रहीं, सांत्वना देती रहीं, विशेषकर पिताजी को. कुछ देर बाद जब आंसुओं का सैलाब थमा तो दादी ने पिताजी को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं, बेटा, इस तरह अपनेआप को दोषी मान कर सजा मत दे. दोष किसी एक का नहीं, हम सब का है. वह वक्त ही कुछ ऐसा था, हम सब परिस्थितियों के शिकार हो गए. लेकिन अब समय अपनी गलतियों पर रोने का नहीं बल्कि उन्हें सुधारने का है. बेटा, अभी भी बहुतकुछ ऐसा है, जो तू संवार सकता है.’’

दादी की बातों ने पिताजी के संतप्त मन को ऐसा संबल प्रदान किया कि वे उठ खड़े हुए और एकदम से पूछा, ‘‘समीर कहां है?’’

समीर भैया उसी समय बाहर से लौटे थे, ‘‘जी, पिताजी.’’

‘‘तुम जाओ और इसी समय कानपुर जाने वाली ट्रेन के टिकट ले कर आओ, पर सुनो, ट्रेन को छोड़ो… मालूम नहीं, कब छूटती होगी. तुम एक टैक्सी बुक करा लो और ज्योत्सना, माया तुम दोनों जल्दी से सामान बांध लो. मां, हम लोग इसी समय दीदी के पास चल रहे हैं,’’ पिताजी ने एक ही सांस में हस सब को आदेश दे डाला.

फिर वे शिथिल से हो गए और कातर नजरों से दादी की तरफ देखा, ‘‘मां, दीदी मुझे माफ कर देंगी?’’ स्वर में जाने कैसा भय छिपा हुआ था.

‘‘हां, बेटा, उस का मन बहुत बड़ा है. वह न केवल तुम्हें माफ कर देगी, बल्कि तुम्हारी वही नन्हीमुन्नी बहन बन जाएगी,’’ दादी धीरे से कह उठीं.

अंतत: भाईबहन के बीच वर्षों से खड़ी नफरत और गलतफहमी की दीवार गिर ही गई. मैं खड़ी हुई सोच रही थी कि वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब पिताजी बूआ को गले से लगाएंगे.

Rakhsa Bandhan:एक विश्वास था- अमर ने क्यों निभाया बड़े भाई का फर्ज

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

Raksha Bandhan: अंतत- भाग 2- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

तमाम हेराफेरी औफिस की फाइलों में हुई थी और वे सब फाइलें यानी कि सभी दस्तावेज फूफाजी के अधिकार में थे. आखिरकार शक की पहली उंगली उन पर ही उठी. हालांकि फूफाजी ने इस बात से अनभिज्ञता प्रकट की थी और अपनेआप को निर्दोष ठहराया था. पर चूंकि फाइलें उन्हीं की निगरानी में थीं, तो बिना उन की अनुमति या जानकारी के कोई उन दस्तावेजों में हेराफेरी नहीं कर सकता था.

लेकिन जाली दस्तावेजों और फर्जी बिलों ने फूफाजी को पूरी तरह संदेह के घेरे में ला खड़ा किया था. सवाल यह था कि यदि उन्होंने हेराफेरी नहीं की तो किस ने की? जहां तक पिताजी और ताऊजी का सवाल था, वे इस मामले से कहीं भी जुड़े हुए नहीं थे और न ही उन के खिलाफ कोई प्रमाण था. प्रमाण तो कोई फूफाजी के खिलाफ भी नहीं मिला था, लेकिन वे यह बताने की स्थिति में नहीं थे कि अगर फर्म का रुपया उन्होंने नहीं लिया तो फिर कहां गया? ऐसी ही दलीलों ने फूफाजी को परास्त कर दिया था. फिर भी वे सब को यही विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहे कि वे निर्दोष हैं और जो कुछ भी हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ नहीं जानते.

इन घटनाओं ने जहां एक ओर पिताजी को स्तब्ध और गुमसुम बना दिया था, वहीं ताऊजी उत्तेजित थे और फूफाजी से बेहद चिढ़े थे. जबतब वे भड़क उठते, ‘यह धीरेंद्र तो हमें ही बदनाम करने पर तुला हुआ है. अगर इस पर विश्वास न होता तो हम सबकुछ इसे कैसे सौंप देते. अब जब सचाई सामने आ गई है तो दुहाई देता फिर रहा है कि निर्दोष है. क्या हम दोषी हैं? क्या यह हेराफेरी हम ने किया है?

‘मुझे तो इस आदमी पर शुरू से ही शक था, इस ने सबकुछ पहले ही सोचा हुआ था. हम इस की मीठीमीठी बातों में आ गए. इस ने अपने पैसे लगा कर हमें एहसान के नीचे दबा देना चाहा. सोचा होगा कि पकड़ा भी गया तो बहन का लिहाज कर के हम चुप कर जाएंगे. मगर उस की सोची सारी बातें उलटी हो गईं, इसलिए अब अनापशनाप बकता फिर रहा है.’

एक बार तो ताऊजी ने यहां तक कह दिया था, ‘हमें इस आदमी को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.’

लेकिन दादी ने कड़ा विरोध किया था. पिताजी को भी यह बात पसंद नहीं आई कि यदि मामला पुलिस में चला गया तो पूरे परिवार की बदनामी होगी.

बात घर से बाहर न जाने पाई, लेकिन इस घटना ने चारदीवारी के भीतर भारी उथलपुथल मचा दी थी. घर का हरेक प्राणी त्रस्त व पीडि़त था. पिताजी के मन को ऐसा आघात लगा कि वे हर ओर से विरक्त हो गए. उन्हें फर्म के नुकसान और बदनामी की उतनी चिंता नहीं थी, जितना कि विश्वास के टूट जाने का दुख था. रुपया तो फिर से कमाया जा सकता था. मगर विश्वास? उन्होंने फूफाजी पर बड़े भाई से भी अधिक विश्वास किया था. बड़ा भाई ऐसा करता तो शायद उन्हें इतनी पीड़ा न होती, मगर फूफाजी ऐसा करेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी न सोचा था.

उधर फूफाजी भी कम निराश नहीं थे. वे किसी को भी अपनी नेकनीयती का विश्वास नहीं दिला पाए थे. दुखी हो कर उन्होंने यह जगह, यह शहर ही छोड़ देने का फैसला कर लिया. यहां बदनामी के सिवा अब धरा ही क्या था. अपने, पराए सभी तो उन के विरुद्ध हो गए थे. वे बूआ को लेकर अपने एक मित्र के पास अहमदाबाद चले गए.

दादी बतातीं कि जाने से पूर्व फूफाजी उन के पास आए थे और रोरो कहा था, ‘सब लोग मुझे चोर समझते हैं, लेकिन मैं ने गबन नहीं किया. परिस्थितियों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा है. मैं चाह कर भी इस कलंक को धो नहीं पाया. मैं भी तो आप का बेटा ही हूं. मैं ने उन्हें हमेशा अपना भाई ही समझा है. क्या मैं भाइयों के साथ ऐसा कर सकता हूं. क्या आप भी मुझ पर विश्वास नहीं करतीं?’

‘मुझे विश्वास है, बेटा, मुझे विश्वास है कि तुम वैसे नहीं हो, जैसा सब समझते हैं. पर मैं भी तुम्हारी ही तरह असहाय हूं. मगर इतना जानती हूं, झूठ के पैर नहीं होते. सचाई एक न एक दिन जरूर सामने आएगी. और तब ये ही लोग पछताएंगे,’ दादी ने विश्वासपूर्ण ढंग से घोषणा की थी.

व्यवसाय से पिताजी का मन उचट गया था, उन्होंने फर्म बेच देने का प्रस्ताव रखा. ताऊजी भी इस के लिए राजी हो गए. गबन और बदनामी के कारण फर्म की जो आधीपौनी कीमत मिली, उसे ही स्वीकार कर लेना पड़ा.

पिताजी ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली, जबकि ताऊजी का मन अभी तक व्यवसाय में ही रमा हुआ था. वे पिताजी के साथ कोई नया काम शुरू करना चाहते थे. किंतु उन के इनकार के बाद उन्होंने अकेले ही काम शुरू करने का निश्चय कर लिया.

फर्म के बिकने के बाद जो पैसा मिला, उस का एक हिस्सा पिताजी ने फूफाजी को भिजवा दिया. हालांकि यह बात ताऊजी को पसंद नहीं आई, मगर पिताजी का कहना था, ‘उस ने हमारे साथ जो कुछ किया, उस का हिस्सा ले कर वही कुछ हम उस के साथ करेंगे तो हम में और उस में अंतर कहां रहा. नहीं, ये पैसे मेरे लिए हराम हैं.’

किंतु लौटती डाक से वह ड्राफ्ट वापस आ गया था और साथ में थी, फूफाजी द्वारा लिखी एक छोटी सी चिट…

‘पैसे मैं वापस भेज रहा हूं इस आशा से कि आप इसे स्वीकार कर लेंगे. अब इस पैसे पर मेरा कोई अधिकार नहीं है. फर्म में जो कुछ भी हुआ, उस की नैतिक जिम्मेदारी से मैं मुक्त नहीं हो सकता. यदि इन पैसों से उस नुकसान की थोड़ी सी भी भरपाई हो जाए तो मुझे बेहद खुशी होगी. वक्त ने साथ दिया तो मैं पाईपाई चुका दूंगा, क्योंकि जो नुकसान हुआ है, वह आप का ही नहीं, मेरा, हम सब का हुआ है.’

पत्र पढ़ कर ताऊजी वितृष्णा से हंस पड़े थे और व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘देखा रघुवीर, सुन लो मां, तुम्हारे दामाद ने कैसा आदर्श बघारा है. चोर कहीं का. आखिर उस ने सचाई स्वीकार कर ही ली. लेकिन अब भी अपनेआप को हरिश्चंद्र साबित करने से बाज नहीं आया.’

पिताजी इस घटना से और भी भड़क उठे थे. उन्होंने उसी दिन आंगन में सब के सामने कसम खाई थी कि ऐसे जीजा का वे जीवनभर मुंह नहीं देखेंगे. न ही ऐसे किसी व्यक्ति से कोई संबंध रखेंगे, जो उस शख्स से जुड़ा हुआ हो, फिर चाहे वह उन की बहन ही क्यों न हो.

बूआ न केवल फूफाजी से जुड़ी हुई थीं बल्कि वे उन का एकमात्र संबल थीं. उस के बाद वास्तव में ही पिताजी फूफाजी का मुंह न देख सके. वे यह भी भूल गए कि उन की कोई बहन भी है. उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे लोग कहां हैं, किस हालत में हैं.

इधर ताऊजी ने बिलकुल ही नए क्षेत्र में हाथ डाला और अपना एक पिं्रटिंग प्रैस खोल लिया. शुरू में एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ. बहुत समय तक ऐसे ही चला, किंतु धीरेधीरे पत्रिका का प्रचारप्रसार बढ़ने लगा. कुछ ही वर्षों में उन के प्रैस से 1 दैनिक, 2 मासिक और 1 साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा. ताऊजी की गिनती सफल प्रकाशकों में होने लगी. किंतु जैसेजैसे संपन्नता बढ़ी, वे खुद और उन का परिवार भौतिकवादी होता चला गया. जब उन्हें यह घर तंग और पुराना नजर आने लगा तो उन्होंने शहर में ही एक कोठी ले ली और सपरिवार वहां चले गए.

इस बीच बहुतकुछ बदल गया था. मैं और भैया जवान हो गए थे. मां, पिताजी ने बुढ़ापे की ओर एक कदम और बढ़ा दिया. दादी तो और वृद्ध हो गई थीं. सभी अपनीअपनी जिंदगी में इस तरह मसरूफ हो गए कि गुजरे सालों में किसी को बूआ की याद भी नहीं आई.

पिताजी ने बूआ से संबंध तोड़ लिया था, लेकिन दादी ने नहीं, इस वजह से पिताजी, दादी से नाराज रहते थे और शायद इसीलिए दादी भी बेटी के प्रति अपनी भावनाओं का खुल कर इजहार न कर सकती थीं. उन्हें हमेशा बेटे की नाराजगी का डर रहा. बावजूद इस के, उन्होंने बूआ से पत्रव्यवहार जारी रखा और बराबर उन की खोजखबर लेती रहीं. बूआ के पत्रों से ही दादी को समयसमय पर सारी बातों का पता चलता रहा.

फूफाजी ने अहमदाबाद जाने के बाद अपने मित्र के सहयोग से नया व्यापार शुरू कर दिया था. लेकिन काम ठीक से जम नहीं पाया. वे अकसर तनावग्रस्त और खोएखोए से रहते थे. बूआ ने एक बार लिखा था, ‘बदनामी का गम उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है. वे किसी भी तरह इस सदमे से उबर नहीं पा रहे. अकेले में बैठ कर जाने क्याक्या बड़बड़ाते रहते हैं. समझाने की बहुत कोशिश करती हूं, पर सब व्यर्थ.’

कुछ समय बाद बूआ ने लिखा था, ‘उन की हालत देख कर डर लगने लगा है. उन का किसी काम में मन नहीं लगता. व्यापार क्या ऐसे होता है. पर वे तो जैसे कुछ समझते ही नहीं. मुझ से और बच्चोें से भी अब बहुत कम बोलते हैं.’

बूआ को भाइयों से एक ही शिकायत थी कि उन्होंने मामले की गहराई में गए बिना बहुत जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया था. यदि ईमानदारी से सचाई जानने की कोशिश की गई होती तो ऐसा न होता और न वे (फूफाजी) इस तरह टूटते.

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