एक और मित्र: प्रिया की मदद किसने की

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जिजीविषा: अनु पर लगे चरित्रहीनता के आरोपों ने कैसे सीमा को हिला दिया- भाग 3

‘‘उस वक्त जोश में मुझे इस बात का होश ही न रहा कि समाज में हमारे इस संबंध को कभी मान्य न किया जाएगा. मुझ से वाकई बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ भैया हाथ जोड़ कर बोले.

‘‘गलती… सिर्फ गलती कह कर तुम जिस बात को खत्म कर रहे हो, उस के लिए मेरी सहेली को कितनी बड़ी सजा भुगतनी पड़ी है, क्या इस का अंदाजा भी है तुम्हें? नहीं भैया नहीं तुम सिर्फ माफी मांग कर इस पाप से मुक्ति नहीं पा सकते. यह तो प्रकृति ही तय करेगी कि तुम्हारे इस नीच कर्म की भविष्य में तुम्हें क्या सजा मिलेगी,’’ कहती हुई मैं पैर पटकती तेजी से नीचे चल दी. सच कहूं तो उस वक्त उन के द्वारा की गई गलती से अधिक मुझे बेतुकी दलील पर क्रोध आया था.

फिर उन की शादी भी एक मेहमान की तरह ही निभाई थी मैं ने. अपनी शादी के कुछ ही महीनों बाद भैयाभाभी मांपापा से अलग हो कर रहने लगे थे. ज्यादा तो मुझे पता नहीं चला पर मम्मी के कहे अनुसार भाभी बहुत तेज निकलीं. भैया को उन्होंने अलग घर ले कर रहने के लिए मजबूर कर दिया था. मुझे तो वैसे भी भैया की जिंदगी में कोई रुचि नहीं थी.

हां, जब कभी मायके जाना होता था तो मां के मना करने के बावजूद मैं अनु से मिलने अवश्य जाती थी. मुझे याद है हमारी पिछली मुलाकात करीब 10-12 साल पहले हुई थी जब मैं मायके गई हुई थी. अनु के घर जाने के नाम पर मां ने मुझे सख्त ताकीद की थी कि वह लड़की अब पुरानी वाली अनु नहीं रह गई है.

जब से उसे सरकारी नौकरी मिली है तब से बड़ा घमंड हो गया है. किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती. सुना है फिर किसी यारदोस्त के चक्कर में फंस चुकी है. मैं जानती थी कि मां की सभी बातें निरर्थक हैं, अत: मैं  उन की बातों पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा.

पर अनु से मिल कर इस बार मुझे उस में काफी बदलाव नजर आया. पहले की अपेक्षा उस में अब काफी आत्मविश्वास आ गया था. जिंदगी के प्रति उस का रवैया बहुत सकारात्मक हो चला था. उस के चेहरे की चमक देख कर आसानी से उस की खुशी का अंदाजा लग गया था मुझे. बीती सभी बातों को उस ने जैसे दफन कर दिया था. मुझ से बातों ही बातों में उस ने अपने प्यार का जिक्र किया.

‘‘अच्छा तो कब कर रही है शादी?’’ मेरी खुशी का ठिकाना न था.

‘‘शादी नहीं मेरी जान, बस उस का साथ मुझे खुशी देता है.’’

‘‘तू कभी शादी नहीं करेगी… मतलब पूरी जिंदगी कुंआरी रहेगी,’’ मेरी बात में गहरा अविश्वास था.

‘‘क्यों, बिना शादी के जीना क्या कोई जिंदगी नहीं होती?’’ उस ने कहना जारी रखा, ‘‘सीमा तू बता, क्या तू अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट है?’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने मेरी ओर कई प्रश्न उछाल दिए.

‘‘नहीं, लेकिन इस के माने ये तो नहीं…’’

‘‘बस इसी माने पर तो सारी दुनिया टिकी है. इंसान का अपने जीवन से संतुष्ट होना माने रखता है, न कि विवाहित या अविवाहित होना. मैं अपनी जिंदगी के हर पल को जी रही हूं और बहुत खुश हूं. मेरी संतुष्टि और खुशी ही मेरे सफल जीवन की परिचायक है.

‘‘खुशियों के लिए शादी के नाम का ठप्पा लगाना अब मैं जरूरी नहीं समझती. कमाती हूं, मां का पूरा ध्यान रखती हूं. अपनों के सुखदुख से वास्ता रखती हूं और इस सब के बीच अगर अपनी व्यक्तिगत खुशी के लिए किसी का साथ चाहती हूं तो इस में गलत क्या है?’’ गहरी सांस छोड़ कर अनु चुप हो गई.

मेरे मन में कोई उत्कंठा अब बाकी न थी. उस के खुशियों भरे जीवन के लिए अनेक शुभकामनाएं दे कर मैं वहां से वापस आ गई. उस के बाद आज ही उस से मिलना हो पाया था. हां, मां ने फोन पर एक बार उस की तारीफ जरूर की थी जब पापा की तबीयत बहुत खराब होने पर उस ने न सिर्फ उन्हें हौस्पिटल में एडमिट करवाया था, बल्कि उन के ठीक होने तक मां का भी बहुत ध्यान रखा था. उस दिन मैं ने अनु के लिए मां की आवाज में आई नमी को स्पष्ट महसूस किया था. बाद में मेरे मायके जाने तक उस का दूसरी जगह ट्रांसफर हो चुका था. अत: उस से मिलना संभव न हो पाया था.

एक बात जो मुझे बहुत खुशी दे रही थी वह यह कि आज अकेले में जब मैं ने उस से उस के प्यार के बारे में पूछा तो उस ने बड़े ही भोलेपन से यह बताया कि उस का वह साथी तो वहीं छूट गया, पर प्यार अभी भी कायम है. एक दूसरे साथी से उस की मुलाकात हो चुकी है औ वह अब उस के साथ अपनी जिंदगी मस्त अंदाज में जी रही है. मैं सच में उस के लिए बहुत खुश थी. उस का पसंदीदा गीत आज मेरी जुबां पर भी आ चुका था, जिसे धीरेधीरे मैं गुनगुनाने लगी थी…

‘हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी… छांव है कभी, कभी है धूप जिंदगी… हर पल यहां जी भर जियो… जो है समा, कल हो न हो.’

लॉकडाउन सरप्राइज: क्या हुआ था रमा की बेटी के साथ

“ये देखो जी ,अब कल से शराब की दुकान भी खुल जाएगी .अब देखना लोग मधुमक्खी की तरह , दुकानों पर टूट पड़ेंगे .जमकर उड़ने लगेगी सोशल डिस्टेंस की धज्जियां .सड़क एक्सीडेंट भी बढ़ेगी और घरों के अंदर की हिंसा भी ” रमा ने चिढ़कर अखबार पटक दिया .

“हर बात को ,नकारात्मक दृष्टिकोण से ,नहीं देखना चाहिए .इससे राजस्व आय बढ़ेगी .सरकार इतने सारे ,सामाजिक कार्यक्रम,जो सभी के हित में चला रही है उसके लिए घन की आपूर्ति के स्रोत भी तो होने चाहिए ” सुरेश ने समझाया.

“हां हां ,आप तो पक्ष लेंगे ही न पिछले चालीस दिनों से ,मधुशाला खुलने का इंतजार ,ही तो कर रहे है .अपनी फैक्ट्री में ताला लगा है उसका इतना गम नहीं है जितना मधुशाला बन्द होने का हैं ”

“ये सब छोड़ो ,अपनी दिल्ली में बैठी बिटिया का,  दो दिन से फोन नहीं आया ,उसे जरा पूछो तो ,,क्या हाल है उसके ?” सुरेश ने टॉपिक बदला .

“वीकेंड में नेट पर फिल्म ,सीरिज देखने या फिर नीद निकाल कर समय बिता रही होगी ,बता रही थी कि सारे सरकारी , अर्धसरकारी ऑफिस में भी ऑनलाइन काम होने से , सॉफ्टवेयर कम्पनियों के ऊपर, अधिक कार्य भार बढ़ गया है .इसी से उसका कार्य भी, बहुत बढ़ गया है ” रमा ने जानकारी दी .

“यह अच्छा है कि दिल्ली में, उसके साथ चार लड़कियां फ्लैट शेयर कर रह रही है एक दूसरे का सहारा बनी है. हम इतनी दूर बाराबंकी , से उसके लिए कुछ कर भी नहीं सकते ” सुरेश परेशान हो उठा .

“हां हमने भी उसकी शिक्षा दीक्षा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. ग्यारहवीं कक्षा से उसे लखनऊ भेज दिया था उसने भी वहीं से इंजीियरिंग के बाद ,तुरंत दिल्ली  में सॉफ्ट वेयर कंपनी ज्वाइन कर ली . बड़ी होशियार है अपनी बेटी” रमा ने बड़े गर्व से कहा .

“मैंने तो कई बार ,उसका मन टटोलने की कोशिश कर ली मगर वो कुछ बताती नहीं , अगर उसकी नज़र में कोई लड़का  नहीं है तो हम उसके लिए रिश्ते की बातचीत ,उचित घर वर देख कर शुरू करें “सुरेश ने चिंतित स्वर में कहा.

“हां जब छोटी थी तो हमेशा कहती थी, पापा आप अपने जैसा ही लड़का मेरे लिए ढूंढना ,बहुत बकबक करती रहती थी .मगर अब चुप चुप रहती हैं ज्यादा बात नहीं करती .पता नहीं पिछले दो सालों से ,जबसे दिल्ली गई है कुछ ज्यादा ही चुप रहने लगी है ” रमा उदास होकर बोली .

“तुम फिर निगेटिव बातें करने लगी ,अरे बड़ी हो गई है अब ,बचकानी बातों की, फुर्सत कहा है उसे ,अच्छा चलो अभी बात कर लेते हैं लगाओ अपनी लाडली  सुप्रिया को फोन”

“सुबह के दस बज गए हैं .वो ऑनलाइन कार्य में व्यस्त हो गई होगी अगर आज उसका फोन,  शाम तक न आया तो फिर मैं स्वयं, बात कर लूंगी”.

रविवार शाम को सुप्रिया ने ,अपने कुशल मंगल होने की ,सूचना दी और बोली “अच्छा फोन रखती हूं अभी हम फिल्म देख रहे हैं ”

रमा ने ,डायनिंग टेबल से बर्तन समेटते हुए सुरेश, से कहा “सुनिए जी मुझे तो कुछ दाल में काला लग रहा है वो जरूर हमसे कुछ छिपा रही हैं ”

बर्तन सिंक में रखकर ,सुरेश चुपचाप बर्तन धुलने लगा .उसका मन भी अब अपनी इकलौती संतान के प्रति चिंतित हो उठा था .रमा सच कहती हैं, अब सुप्रिया पहले की तरह मुखर नहीं रही .पहले अपनी पूरी दिनचर्या बताती थी ,उसे रोकना  पड़ता था कि भई बस कर ,मगर अब ,उसे न जाने क्या हो गया है . इकलौती संतान होने के बावजूद सुप्रिया , अनुशासन प्रिय और मेधावी छात्रा रही हैं  .उनके लाड़ प्यार का उसने कभी गलत फायदा नहीं उठाया .

दूसरे दिन सुबह रमा , समाचार सुनने के लिए , टी. वी के आगे चाय ,नाश्ता लेकर बैठ गई.पूरे देश से ,अलग अलग राज्यों के , कोरोना मरीजों के आंकड़े पेश होने लगे लेकिन कुछ देर बाद ही , जगह जगह सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ने की खबरें आने लगी .शराब की दुकानों के आगे उमड़ी भीड़ ने ,बेकाबू होना शुरू कर दिया था .

“अब क्या होगा ?लगता है सभी “शराब के साथ , कोरोना हैं मुफ़्त “,वाले ऑफर को लेने आए हैं “रमा बड़बड़ाई .

“अजी सुनते हो , यहां आकर तमाशा देखो “कोई प्रतिउत्तर न पाकर रमा घबरा उठी कि कहीं सुरेश भी मधुशाला की तरफ , न दौड़ गया हो .

उसने उठकर बेडरूम ,बाथरूम सब जगह, तलाशी लेना शुरू कर दिया .सुरेश को कहीं न पाकर वो छत की सीढियां जल्दी , जल्दी चड़ने लगी .तेजी से छत में पहुंचने के चक्कर में उसकी सांस फूल गई .

“अरे ऐसी भी क्या जल्दी है आराम से भी आ सकती थी ”

सुरेश ,रमा की धौंकनी की तरह से चलती सांस को देख कर बोला .

“मुझे टी. वी.की भीड़ देखकर ,ऐसा लगा मानों  किसी मुनि की चालीस दिन की तपस्या को ,सुरासुंदरी ने भंग कर दिया है और उसने सुरासुंदरी को शापित कर दिया कि जा, जो तुझे लेने को, संयम तोड़कर आए है ,तू उन्हें  कोरान्ना फैलाने का माध्यम बना .मुझे बहुत डर लग गया , इसीलिए मैं आपको ढूंढने निकल पड़ी ”

“इतनी अक्ल मुझे भी है. पता था ,आज ही दुकान खुली हैं लोग दौड़ पड़ेंगे . भीड़ भी होगी ,लंबी लाइन में भी लगना पड़ेगा और कहीं भगदड़ मची तो ,दो चार लाठी भी पड़ जाएगी . मैं तो कल आराम से जाऊंगा .  न भीड़  होगी और न वायरस पीछे पीछे घर आएगा “सुरेश ने छत में रखे गमलों में पानी डालते हुए कहा .

” सुनो जी , मैं सोच रही हूं कि एक पी पी ई किट तुम्हारे लिए खरीद लूं जब कभी भीड़ में जाओ तो पहन लेना ,पिछली गली में जो सरकारी सिलाई केंद्र है वहीं आजकल मास्क और किट बन रहे हैं “रमा की बात सुनकर सुरेश मन ही मन बहुत हंसा .फिर बोला “अरे मेरे पास दस्ताने ,मास्क और सैनिटाइजर मौजूद हैं जो बाहर जाकर, सामान लाने के लिए पर्याप्त हैं .वैसे भी ,मै किसी भीड़ भाड़ वाली जगहों पर नहीं जाता हूं ”

रमा को तसल्ली हो गई दोनों छत से नीचे उतर कर आ गए .

सुरेश टी.वी समाचार सुनने में और रमा कपड़ों के ढेर को धुलने में व्यस्त हो गई . शाम गहराती गई और सुरेश के हृदय में दुःख की कालिमा छाती गई वो बेसब्री से शाम के आठ बजने का इंतजार करने लगा .रोज शाम को आठ बजे का समय, उनकी बेटी ने ही फोन करने का तय किया था इससे पूर्व जब वो लखनऊ में थी तो कॉलेज के समय के अतिरिक्त उसका फोन कभी भी आ जाता या वे ही कॉल कर लेते .कभी तो सुबह ही बात होती मगर शाम को वो घर पहुंच जाती फिर कहती “सरप्राइज “.अब कहो तो कहती हैं वो  तो मेरा बचपना था .पता नहीं बच्चे इतनी जल्दी बड़े क्यों हो जाते हैं .सुरेश ने ठंडी सांस भरी .

शाम सात बजे ही फोन की घंटी बज उठी .सुरेश चौंक उठा .आज सात बजे ही सुप्रिया का फोन कैसे आ गया .

“सरप्राइज ,देखो पापा ,अब लॉक डाउन में घर नहीं आ सकती तो क्या ?जल्दी फोन कर सरप्राईज तो ,दे ही सकती हूं न “सुप्रिया चहकी . सुप्रिया की वीडियो कॉल की आवाज सुनकर रमा भी किचन से सब्जी काटने का सामान , उठाकर ले आई और सुरेश के बगल में बैठ कर बोली

“प्रिया तुम लोगों को सारा सामान उपलब्ध तो हो पा रहा हैं न ”

“अरे मम्मी ,आप भी किस दुनिया में रहती हैं यहां तो कॉल करो ,सामान तुरन्त हाज़िर हो जाता हैं .पापा अाई लव यू , आप वर्ड के बेस्ट पापा हो . आई लव यू मम्मी , आप वर्ड की बेस्ट मम्मी हो . सॉरी मम्मी अगर मेरी कोई गलती हो तो मुझे माफ़ कर देना ,पापा आप भी मुझे माफ कर देना .क्या पता ,कल मुझे वायरस ने जकड़ लिया और मै आपसे अपनी गलतियों की माफ़ी भी न मांग पाऊं . इसीलिए आज ही मांग ले रही हूं .मम्मी मुझे आपका बनाया खाना हमेशा याद आता है .पापा मुझे आपने कभी किसी बात के लिए नहीं रोका ,पापा आपने मुझे, हमेशा प्रोत्साहित ही किया .पापा आज मुझे घर आने का मन कर रहा है,मम्मी मै अपने हाथ का बना ,खाकर ऊब चुकी हूं “तभी उसके हाथ फोन छीन कर ,उसकी सहेली ऋचा ने कहा “सॉरी आंटी जी और अंकल जी,आप लोग प्रिया से ,कल आराम से ,बात कर लीजिएगा .आज इसकी तबियत कुछ ठीक नहीं है तभी बहकी बहकी बातें कर रही हैं “फिर फोन काट दिया .

रमा का तो दिल ही बैठ गया वो तो यूं भी मामूली बातों पर ट्सूएं बहाने लगती हैं आज तो महामारी काल है ऐसे में उसका अपनी बेटी का बड़बड़ाना ,दिल में खौफ पैदा कर गया . उसने देखा सुरेश मोबाइल पर सन्देश लिखने में लगा है .

“बड़े अजीब हैं आप ,बेटी की कोई चिंता नहीं हैं ? मैसेज मैसेज खेलने लगे ” रमा गुस्से से बोली “बेटी की हालत देखी ?कितनी बकवास कर रही हैं ”

अपने मोबाइल की ओर देखते हुए , सन्देश  की प्रतीक्षा में ,बैचेनी से पहलू बदलते हुए सुरेश ने अपनी पत्नी की ओर ताका ,कुछ कहना चाहा मगर फिर चुप्पी साध ली .

रमा का पारा चढ़ गया .कुछ समय के सन्नाटे के बाद सुरेश के फोन की मैसेज टोन  बज उठी .

मैसेज पढ़ कर सुरेश ने रमा की ओर ठंडी सांस भरकर कहा “बाप हूं मैं ,मुझे भी फिक्र हैं , परियों की तरह रखा हैं उसे ,आज  टी वी पर ,सुबह के समाचार में, लाल टीशर्ट और काली नेकर के साथ ही, उसके  मुंह पर बधे स्कार्फ को भी ,पहचान गया था .बस खुद को झूटी तसल्ली देता रहा कि वो हमारी सुप्रिया नहीं , कोई और ही है .अब उससे बात करके और उसकी दोस्त को मैसेज कर बात को कन्फर्म भी कर लिया है”

“अरे पहेलियां क्या बुझा रहे हो ? साफ साफ कहो “रमा बौखला कर बोली .

“टी . वी पर लगी शराब खरीदने की होड़ में,तुम्हारी बिटिया सबसे आगे लगी थी ,उसका नतीजा भी तुमने बात करके ,देख लिया है “सुरेश ने यह बात कहकर रमा की प्रतिक्रिया जाननी चाही .

“अच्छा सरप्राईज दिया आज तो, मैं तो उसकी हरकतों से डर गई थी  . इस बार जब घर लौट कर आएगी तो अच्छे से ख़बर लूंगी .फिर सुरेश की तरफ डबडबाई आंखों से देख कर बोली “वो सही सलामत घर लौट आयेगी न?”.

आंसू छलक आए: अरुण साहब ने कैसे की मदद

‘‘देखो विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो पहले तुम्हें अपने पिता से रजामंदी लेनी पड़गी…’’ प्रेमशंकर ने समझाते हुए कहा, ‘‘शादी में उन की रजामंदी होना बहुत जरूरी है.’’

‘‘मगर अंकल, वे इस की इजाजत नहीं देंगे,’’ विनोद ने इनकार करते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं देंगे इजाजत?’’ प्रेमशंकर ने सवाल पूछा, ‘‘क्या तुम उन्हें समझाओगे नहीं?’’

‘‘मैं अपने पिता की आदतों को अच्छी तरह से जानता हूं. वे कभी नहीं समझेंगे और हमारी इस शादी के लिए इजाजत भी नहीं देंगे…’’ एक बार फिर इनकार करते हुए विनोद बोला, ‘‘आप उन्हें समझा दें, तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘मेरे समझाने से क्या वे मान जाएंगे?’’ प्रेमशंकर ने पूछा.

‘‘हां अंकल, वे मान जाएंगे,’’ यह कह कर विनोद ने गेंद उन के पाले में फेंक दी.

विनोद प्रेमशंकर के मकान में किराएदार था. उसे अभी बैंक में लगे 2 साल हुए थे. इन 2 सालों में विनोद ने किराए के मामले में उन्हें कभी दिक्कत नहीं पहुंचाई थी. एक तरह से उन के घरेलू संबंध हो गए थे.

विनोद के बैंक में ही कल्पना काम करती थी. उसे भी बैंक में लगे तकरीबन 2 साल हुए थे. उम्र में वे दोनों बराबर के थे. दोनों कुंआरे थे. दोनों में कब प्यार पनपा, पता ही नहीं चला.

वे एकदूसरे के कमरे में घंटों बैठे रहते थे. दोनों ही तकरीबन 2 हजार किलोमीटर दूर से इस शहर में नौकरी करने आए थे.

कभीकभी कल्पना की मां जरूर उस के पास रहने आ जाती थीं. तब कल्पना मां से कोई बहाना कर के विनोद के कमरे में आती थी. प्रेमशंकर यह सब जानते थे.

जब कल्पना घंटों विनोद के कमरे में बैठी रहती, तब प्रेमशंकर को लगा कि उन दोनों में प्यार की खिचड़ी पक रही है.

एक दिन मौका देख कर उन्होंने विनोद से खुल कर बात की. नतीजा यही निकला कि विनोद के पिता इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे, क्योंकि वह ऊंची जाति का था, जबकि कल्पना निचली जाति की थी.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘ठीक है विनोद, अगर तुम कल्पना से शादी करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने मातापिता को भरोसे में लेना होगा.’’

मगर विनोद इनकार करते हुए बोला, ‘‘अंकल, वे इस शादी के लिए कभी इजाजत नहीं देंगे.’’

तब प्रेमशंकर ने कहा था, ‘‘आखिर वे भी तो इनसान हैं, कोई जानवर नहीं. तुम उन्हें बुलाओ. अगर वे नहीं आएंगे, तो मैं चलूंगा तुम्हारे साथ उन को समझाने…’’

इस तरह प्रेमशंकर बिचौलिया बनने को राजी हो गए.

विनोद के बुलाने पर पिता अरुण आ गए. साथ में उन की पत्नी मनोरमा भी थीं. प्रेमशंकर ने उन्हें अपने घर में इज्जत से बिठाया.

अरुण बोले, ‘‘बताइए प्रेमशंकर साहब, हमें किसलिए बुलाया है?’’

‘‘अरुण साहब, आप को खास वजह से ही यहां बुलाया है.’’

‘‘खास वजह… मैं समझा नहीं…’’ अरुण बोले, ‘‘जो कुछ कहना है, साफसाफ कहें.’’

‘‘ठीक है, पर इस के लिए आप को दिल थोड़ा मजबूत करना होगा.’’

‘‘मजबूत से मतलब?’’ अरुण ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मतलब यह कि आप ने विनोद की शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘उस के लिए मैं ने एक लड़की देख ली है प्रेमशंकरजी. अब विनोद की हां चाहिए और उस की हां के लिए मैं यहां आया हूं,’’ यह कह कर अरुण ने प्रेमशंकर को अजीब सी निगाह से देखा.

‘‘अगर मैं कहूं कि विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है, तो…’’

‘‘क्या कहा, विनोद ने अपने लिए लड़की देख ली है?’’

‘‘जी हां अरुण साहब, अब आप का क्या विचार है?’’

‘‘कौन है वह लड़की?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘उस के साथ बैंक में ही काम करती है. उस का नाम कल्पना है. आप इस पर क्या कहना चाहते हैं?’’

‘‘मतलब, विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है?’’

‘‘हां,’’ इतना कह कर प्रेमशंकर ने अरुण के दिल में हलचल पैदा कर दी.

‘‘वह किस जाति की है? क्या समाज है उस का?’’ अरुण जरा गुस्से से बोले.

‘‘वह निचली जाति की है,’’ प्रेमशंकर ने बिना किसी लागलपेट के कहा.

‘‘क्या कहा, वह एक दलित घर से है? मैं यह शादी कभी नहीं होने दूंगा…’’ अरुण ने गुस्से में साफ मना कर दिया, फिर आगे बोले, ‘‘अरे प्रेमशंकरजी, शादीब्याह अपनी ही बिरादरी में होते हैं.’’

‘‘हांहां, होते हैं अरुणजी, मगर आप जिस जमाने की बात कर रहे हैं, वह जमाना गुजर गया. यह 21वीं सदी है.’’

‘‘हां, मैं भी जानता हूं. मुझे समझाने की कोशिश न करें.’’

‘‘जब आप इतना जानते हैं, तब इस शादी के लिए मना क्यों कर रहे हैं?’’

‘‘मैं अपने बेटे की गैरबिरादरी में शादी करा कर बिरादरी पर दाग नहीं लगाना चाहता. मैं यह शादी हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

प्रेमशंकर मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो आप विनोद की शादी अपनी ही बिरादरी में करना चाहते हैं?’’

‘‘हां, क्या आप को शक है?’’

‘‘आप विनोद से तो पूछ लीजिए.’’

‘‘पूछना क्या है? वह मेरा बेटा है. मेरा कहना वह टाल नहीं सकता.’’

‘‘अपने बेटे पर इतना भरोसा है, तो पूछ लीजिए उस से कि वह आप की पसंद की लड़की से शादी करेगा या अपनी पसंद की लड़की से,’’ कह कर प्रेमशंकर ने भीतर की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘विनोद, यहां आ जाओ.’’

भीतर बैठे विनोद और कल्पना इसी इंतजार में थे. वे दोनों बाहर आ गए. अरुण कल्पना को देखते रह गए.

प्रेमशंकर बोले, ‘‘पूछ लो अपने बेटे से… यह वह कल्पना है, जिस से यह शादी करना चाहता है.’’

‘‘क्यों विनोद, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’’ विनोद के पापा अरुण बोले.

‘‘जो कुछ सुन रहे हैं, सच सुन रहे हैं पापा,’’ विनोद ने कहा.

‘‘तुम इस कल्पना से शादी नहीं कर सकते,’’ अरुण ने कहा.

‘‘पापा, मैं शादी करूंगा, तो इस से ही,’’ विनोद बोला.

‘‘मैं तुम्हारी शादी इस लड़की से हरगिज नहीं होने दूंगा.’’

‘‘मैं शादी करूंगा, तो सिर्फ कल्पना से ही.’’

‘‘ऐसा क्या है, जो तुम इस की रट लगाए हुए हो?’’

‘‘कल्पना मेरा प्यार है.’’

‘‘प्यार… 2-4 मुलाकातों को तुम प्यार समझ बैठे हो?’’ चिल्ला कर अरुण बोले, ‘‘कान खोल कर सुन लो विनोद, तुम्हारी शादी वहीं होगी, जहां हम चाहेंगे.’’

‘‘पापा सच कर रहे हैं विनोद…’’ मां मनोरमा बीच में ही बात काटते हुए बोलीं, ‘‘यह लड़की हमारी जातबिरादरी की भी नहीं है. इस से शादी कर के हम समाज में अपनी नाक नहीं कटा सकते हैं, इसलिए इस के साथ शादी करने का इरादा छोड़ दे.’’

‘‘मां, मेरे इरादों को कोई बदल नहीं सकता है. शादी करूंगा तो कल्पना से ही, किसी दूसरी लड़की से नहीं.’’

अपना फैसला सुना कर विनोद कल्पना को ले कर घर से बाहर चला गया.

पलभर के सन्नाटे के बाद प्रेमशंकर बोले, ‘‘अब क्या सोचा है अरुण साहब? अब भी आप इस शादी से इनकार करते हैं?’’

‘‘यह सब आप लोगों की रची हुई साजिश है. आप ने ही मेरे बेटे को बरगलाया है, इसलिए आप उस का ही पक्ष ले रहे हैं,’’ कह कर अरुण ने अपनी बात पूरी की.

‘‘अरुण साहब सोचो, विनोद कोई दूध पीता बच्चा नहीं है…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘आप उसे डराधमका कर अपने वश में कर लेंगे, यह भी मुमकिन नहीं है. वह नौकरी करता है, अपने पैरों पर खड़ा है. वह अपना भलाबुरा समझता है.

‘‘वह मेरे यहां किराएदार बन कर जरूर रह रहा है, मगर मैं उस को पूरी तरह समझ चुका हूं कि वह समझदार है. वैसे, वह आप की भावनाओं को भी समझता है. मगर वह शादी करेगा, तो कल्पना से ही. इस के पहले मैं भी यह सब बातें उसे समझा चुका हूं, इसलिए आप उसे समझदार समझें.’’

‘‘क्या खाक समझदार है भाई साहब…’’ मनोरमा झल्ला कर बोलीं, ‘‘वह उस लड़की को अपने साथ ले गया है. कहीं वह गलत कदम न उठा ले. सुनो जी, उस की शादी वहीं करो, जहां हम चाहते हैं.’’

‘‘भाभीजी, विनोद ऐसावैसा लड़का नहीं है, जो गलत कदम उठा ले…’’ प्रेमशंकर समझाते हुए बोले, ‘‘अरुण साहब, अगर आप उस पर दबाव डाल कर शादी कर भी देंगे, तब वह बहू के साथ वैसा बरताव नहीं करेगा, जो आप चाहेंगे. दिनरात उन में कलह मचेगी और आपस में मनमुटाव होगा.

‘‘अगर आप उन की मरजी से शादी नहीं करोगे, तब वे कोर्ट में ही शादी कर सकते हैं, क्योंकि कोर्ट उन्हीं का पक्ष लेगा. इसलिए आप सोचिए मत. मेरा कहना मानिए, इन की शादी आप आगे रह कर करें और पिता की जिम्मेदारी से छुटकारा पा जाएं.’’

‘‘मगर इस शादी से समाज में हमारी कितनी किरकिरी होगी, यह आप ने सोचा है?’’ एक बार फिर अरुण अपनी बात रखते हुए बोले.

‘‘समाज तो दोनों हाथों में लड्डू रखता है. थोड़े दिनों तक समाज ताना दे कर चुप हो जाएगा. इस बात पर जितना विचार कर के गहराई में उतरेंगे, उतनी ही तकलीफ उठाएंगे.

‘‘आप अपनी हठ छोड़ दें. इस के बावजूद भी आप अपनी जिद पर अड़े हो, तो विनोद की शादी अपनी देखी लड़की से कर दो. मैं इस मामले में आप से कुछ नहीं बोलूंगा,’’ प्रेमशंकर के ये शब्द सुन कर अरुण के सारे गरम तेवर ठंडे पड़ गए.

वे थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘ठीक है प्रेमशंकरजी, मैं अपनी हठ छोड़ता हूं. विनोद कल्पना से शादी करना चाहता है, तो इस के लिए मैं तैयार हूं.’’

‘‘ओह, शुक्रिया अरुण साहब,’’ कह कर प्रेमशंकर की आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए.

घर ससुर: क्यों राजी हुए बापूजी

मेहुल ने तल्ख शब्दों में पूछा था, ‘‘मैं आप से फिर पूछ रहा हूं पिताजी कि आप घर आ रहे हैं या नहीं. आखिर कब तक दामाद के घर पड़े रहेंगे? अपनी नहीं तो मेरी इज्जत का तो कुछ खयाल कीजिए. भला आज तक किसी ने ‘घर ससुर’ बनने की बात सुनी है. मुझे तो लगता है कि आप का दिमाग ही चल गया है जो ऐसी बातें करते हैं.’’

‘‘नहीं सुनी तो अब सुन लो, और कितनी बार कहूं कि मैं ने  घर ससुर बनने का फैसला काफी सोचसमझ कर लिया है. मुझे अपने दामाद का घर ही अच्छा लग रहा है. कम से कम यहां एक प्याली चाय के लिए 10 बार कुत्ते की तरह भौंकना नहीं पड़ता. सीमा और किशोर मेरी हर बात का पूरा खयाल रखते हैं.

‘‘और सुनो, मेहुल, जब वे लोग भी मुझे बोझ समझने लगेंगे तो दिल्ली का ‘आशीर्वाद सीनियर सिटीजन्स होम’ तो है

ही   मुझ   जैसे उपेक्षित और बोझ बन चुके बूढ़ों के लिए. इसलिए तुम लोग अब मेरी चिंता मत करो,’’ मेघा के ससुर रुद्रप्रताप सिंह बोले.

जवाब में मेहुल कुछ और विषवमन करता हुआ बोला, ‘‘तो फिर बने रहिए घर ससुर और दामाद के हाथों अपनी इज्जत की धज्जियां उड़वाते रहिए.’’

मेघा को अपने ससुर के कहे शब्द स्पष्ट सुनाई पडे़, ‘‘हांहां, अपना आत्मसम्मान खो कर बेइज्जत बाप बने रहने से कहीं बेहतर है कि मैं इज्जतदार ‘घर ससुर’ ही बना रहूं,’’ और इसी के साथ उन्होंने फोन पटक कर अपनी नाराजगी जाहिर की तो मेहुल ने भी गुस्से में स्पीकर का स्विच बंद कर दिया.

मेघा को अपनेआप पर ग्लानि हो आई. सोचने लगी कि उस के मायके में जब लोगों को पता चलेगा कि उस की और मेहुल की लापरवाही के चलते उस के ससुर को बेटी के घर जाना पड़ा तो मायके के लोग उन के बारे में क्या सोचेंगे. उस की भाभियां क्या मां को ताना मारने का ऐसा सुनहरा अवसर हाथ से जाने देंगी. नहींनहीं, किसी भी तरह रिश्तेदारों को यह खबर होने से पहले उसे अपने ससुर को मना कर वापस लाना ही पडे़गा.

इस बारे में पहले मेहुल से बात करनी होगी. यह सोच कर मेघा ने मेहुल से कहा, ‘‘देखो, जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ. आखिर वह तुम्हारे पिताजी हैं और उन्होंने तुम को दो बातें कह भी दीं तो क्या हुआ, तुम्हें चुप रहना था. थोड़ा सा सह लेते और उन से नरमी से पेश आते तो यों बात का बतंगड़ नहीं बनता.’’

‘‘हांहां, अब तो तुम भली बनने का नाटक करोगी ही लेकिन तब एक वृद्ध व्यक्ति को समय पर खाना और चायनाश्ता देने में तुम्हारी नानी मरती थी. उस पर रातदिन बाबूजी की शिकायत करकर के तुम्हीं ने मेरा जीना हराम कर रखा था. अब भी तुम्हें बाबूजी के जाने का दुख नहीं है बल्कि उन के साथ पेंशन के 10 हजार रुपए जाने का गम सता रहा है.’’

इस तरह मेहुल ने सारा दोष मेघा के सिर मढ़ दिया तो वह तिलमिला उठी और व्यंग्यात्मक लहजे में बोली, ‘‘तो तुम भी कौन सा बाबूजी की याद में तड़प रहे हो. अपने दिल पर हाथ रख कर कहो कि तुम्हें बाबूजी के रुपयों की कोई जरूरत नहीं है.’’

मेहुल को जब मेघा ने उलटा आईना दिखाया तो वह खामोश हो गया. फिर कुछ नरमी से बोला, ‘‘खैर, जो हो गया सो हो गया. अब इस पर बहस कर के क्या फायदा. सोचो कि उन्हें कैसे बुलाया जाए. क्योंकि जितना मैं उन्हें जानता हूं वह अब खुद आने वाले नहीं हैं. अभी तो वह सीमा के घर हैं पर जहां कहीं उन के आत्म- सम्मान को जरा सी ठेस पहुंची तो वह ‘आशीर्वाद सीनियर सिटीजन्स होम’ जाने में एक पल की भी देर नहीं लगाएंगे. उस के बाद वहां से वह शायद ही वापस आएं.’’

‘‘तुम कहो तो मैं बात कर के देखती हूं,’’ मेघा बोली, ‘‘अब गलती हम ने की है तो उसे सुधारने की कोशिश भी हमें ही करनी पडे़गी. पिताजी हैं.’’

‘‘नहीं, रहने दो,’’ मेहुल बोला, ‘‘बाबूजी को गए महीना भर तो हो ही गया है. अब हफ्ते भर बाद ही बच्चों की क्रिसमस की छुट्टियां होने वाली हैं. हम सब जा कर बाबूजी को मना कर आदर के साथ ले आएंगे.’’

यह सब सुन कर हुर्रे कहते हुए रानी और फनी परदे के पीछे से निकल आए जो मम्मीपापा की ऊंची आवाज सुन कर वहां आ गए थे.

‘‘मां, सच में दादाजी हमारे पास वापस आ जाएंगे?’’ दोनों बच्चे खुशी से उछलते हुए एक स्वर में बोले.

‘‘हां, बेटे, वह जरूर आएंगे. हम सब मिल कर उन्हें लेने जाएंगे,’’ मेघा भीगे स्वर में बोली तो मेहुल के चेहरे पर भी स्नेहसिक्त मुसकान आ गई.

बच्चों की छुट्टियां शुरू होने पर वे अपनी कार से बाबूजी को लेने निकल पडे़. मेहुल ने घर छोड़ने से पहले फोन पर सीमा से यह पूछ लिया था कि बाबूजी घर पर हैं कि नहीं और उन का कहीं जाने का कार्यक्रम तो नहीं है.’’

सच है बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो साथ रहने वाले अपनों के महत्त्व को समझ नहीं पाते पर किसी कारण से जब वही अपने दूर चले जाते हैं तब उन की कमी शिद्दत से महसूस करते हैं. यही हाल मेहुल और मेघा का था. जब तक बाबूजी साथ रहते थे उन्हें हर समय ऐसा लगता था कि बाबूजी बेवजह उन के कामों में टोकाटाकी करते हैं. बच्चों से गैरजरूरी बातें कर के उन का समय बरबाद करते हैं. बाबूजी ने सब पर ही एक तरह से अंकुश लगा रखा था. ऐसा लगता था मानो उन की आजादी खत्म हो गई थी.

बाबूजी कहते थे कि जीवन में कुछ बनने के लिए अपने बच्चों में अनुशासन का बीजारोपण करने के लिए खुद को अनुशासित रह कर आचरण करना पड़ता है तभी बच्चे भी हमें अपना आदर्श मान कर हम से कुछ सीख पाते हैं. तब मेघा और मेहुल को उन की ये बातें कोरी बकवास लगा करती थीं किंतु आज उन्हें बाबूजी की कही एकएक बात में सचाई का आभास हो रहा है.

बाबूजी से हर महीने उन की पेंशन को लेना तो उन्हें याद रहा या यों कहें कि अपना अधिकार तो उन्हें याद रहा पर फर्ज निभाने से वे चूक गए. अपनी सहेलियों के साथ गप लड़ाते हुए मेघा अकसर भूल जाती कि बाबूजी चाय के लिए इंतजार कर रहे हैं. वह शुगर के मरीज हैं पर उन के ही दिए पैसों से शुगर फ्री खरीदने में उन्हें पैसों की बरबादी लगती थी.

मेहुल ने भी कभी यह न सोचा कि वृद्ध पिता को उस से भी कुछ उम्मीदें हो सकती हैं. दो घड़ी मेहुल से बात करने को वह तरस जाते पर उस को इस की कोई परवा न थी. बाबूजी ने तो मेहुल के बड़ा होते ही उसे अपना मित्र बना लिया था पर वही कभी उन का दोस्त नहीं बन पाया.

अचानक गाड़ी घर्रघर्र कर हिचकोले खा कर रुक गई. यह तो अच्छा हुआ कि पास ही में एक मोटर गैराज  था. धक्के दे कर गाड़ी को वहां तक ले जाया गया. मैकेनिक ने जांच करने के बाद बताया कि ब्रेक पाइप फट गया है और उसे ठीक होने में कम से कम एक दिन तो लगेगा ही. चूंकि यह एक इत्तेफाक था कि हादसा मेघा के मायके वाले शहर में हुआ था. इसलिए कोई उपाय न देख उन्होंने गाड़ी ठीक होने तक मेघा के मायके में रुकने का फैसला लिया.

एक टैक्सी कर मेहुल अपने परिवार को ले कर ससुराल की ओर चल दिया. उन्हें अचानक आया देख कर सभी बहुत खुश हुए. मेघा के परिवार में मम्मीपापा के अलावा उस के 2 बडे़ भाई और भाभियां थीं. बडे़ भैया के 2 जुड़वां बेटे जय और लय तथा छोटे भैया की एक बेटी स्वीटी थीं. बच्चों में उम्र का ज्यादा फासला नहीं था इसलिए जल्दी ही वे एकदूसरे से घुलमिल गए और हुड़दंग मचाने लगे.

मांबाबूजी के साथ थोड़ी देर बातें करने के बाद मेघा मेहुल को वहीं छोड़ कर रसोई की ओर चल पड़ी जहां उस की  दोनों भाभियां रात के खाने की तैयारी में जुटी थीं.

मेघा ने भाभियों का हाथ बंटाना चाहा पर उन्होंने उस का मन रखने के लिए चावल बीनने की थाली पकड़ा दी और वहीं रसोई के बाहर पड़ी कुरसी पर बैठा लिया. मेघा ने देखा कि उस की भाभियों ने बातोंबातों में कितने सारे पकवान बना लिए. वे जब 2 तरह की सब्जियां बना रही थीं तब मेघा ने पूछ लिया कि भाभी यह कम तेलमसाले की सब्जी किस के लिए बना रही हो तो बड़ी भाभी ने कहा कि मम्मीपापा बहुत सी खाने की चीजों से परहेज करते हैं. उन की उम्र देखते हुए उन के लिए थोड़ा अलग से बनाना पड़ता है.

‘‘पर मांबाबूजी को तो कोई बीमारी नहीं है. फिर उन के लिए आप लोग इतना झंझट क्यों कर रही हैं?’’ मेघा ने पूछा.

जवाब छोटी भाभी ने दिया, ‘‘तो क्या हुआ, बुजुर्ग लोग हैं, परहेज करते हैं तभी तो उन का स्वास्थ्य अच्छा है. फिर उन के लिए कुछ करने में कष्ट कैसा? यह तो हमारा फर्ज है. वैसे भी तुम जितना अपने ससुर के लिए करती हो उस हिसाब से हम तो कुछ भी नहीं करतीं.’’

‘‘मैं ने क्या किया और आप को कैसे पता चला?’’ मेघा कुछ असमंजस भरे स्वर में बोली.

‘‘अब रहने भी दो, दीदी,’’ बड़ी भाभी हंसती हुई बोलीं, ‘‘ज्यादा बनो मत. कल ही तो तुम्हारे ससुरजी का फोन आया था. उन्होंने ही तुम्हारे और मेहुल के बारे में हमें सबकुछ बताया.’’

मेघा के मन में जाने कैसेकैसे कुविचार और संदेह सिर उठाने लगे कि बाबूजी ने जरूर उन की शिकायत की होगी और इसीलिए भाभियां उसे यों ताने मार रही हैं पर मन का संशय प्रकट न कर मेघा बोली, ‘‘क्या बताया बाबूजी ने, क्या वह हम से नाराज हैं?’’

‘‘भला क्यों नाराज होंगे? वह तो तुम्हारी और मेहुल की बहुत तारीफ कर रहे थे. कह रहे थे कि बहू तो ऐसी है कि किसी चीज के लिए मेरे मुंह खोलने से पहले ही वह समझ जाती है कि मुझे क्या चाहिए.’’

पता नहीं भाभी और क्याक्या कहती रहीं, मेघा को और कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था. उस की अंतरात्मा उसे धिक्कारने लगी कि अपनी नासमझी की वजह से उस ने कभी बाबूजी की परवा नहीं की. अपनी सुविधानुसार इस बात का खयाल किए बगैर कि वह खाना बाबूजी के स्वास्थ्य के लिए उचित है या नहीं, वह कुछ भी उन के सामने रख देती थी.

शुरुआत में 1-2 बार बाबूजी ने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की थी पर उस ने कोई ध्यान न दिया. नतीजतन, उन की तबीयत आएदिन खराब हो जाती थी. एक उस की भाभियां हैं जो उस के स्वस्थ मातापिता का कितना ध्यान रखती हैं और एक वह है.

दूसरी ओर बाबूजी हैं कि इतना होने पर भी मायके में उस की किसी से शिकायत न कर तारीफ ही की. पश्चात्ताप की आग में जलती हुई उस की भावनाएं आंसुओं के रूप में आंखों से छलकने लगीं. वह मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगी कि अब आगे से वह कभी भी बाबूजी को किसी तरह की शिकायत का मौका नहीं देगी.

उधर मेहुल भी मेघा के भाइयों का अपने मातापिता के साथ व्यवहार देख कर ग्लानि से भरा जा रहा था. मेघा के दोनों भाई अपना खुद का कारोबार संभालते थे. दोनों ने ही घर आ कर उस दिन की बिक्री से प्राप्त रुपयों से अपने पिताजी को अवगत कराया. हालांकि उन्होंने किसी से भी रुपयों का ब्योरा देने के लिए नहीं कहा था. कुछ देर पास बैठ पितापुत्र ने एकदूसरे का हालचाल पूछा. फिर वे लोग मेहुल के साथ व्यस्त हो गए.

मेहुल मन ही मन सोच रहा था कि वह तो अपने पिता का इकलौता पुत्र है. इसलिए उसे तो उन की हर बात की ओर ध्यान देने की जरूरत है. मां के गुजर जाने के बाद वह अपनी बात कहते भी तो किस से. वह क्यों नहीं अब तक अपने पिता के मन की पीड़ा को समझ पाया. अब से वह बाबूजी के पेंशन के रुपयों को हाथ भी नहीं लगाएगा बल्कि उन की जरूरतों को अपने कमाए रुपए से पूरी करेगा.

अगले दिन गाड़ी ठीक हो कर घर आ गई पर मेघा के घर वालों ने जिद कर के उन्हें 2 दिन और रोक लिया. इस दौरान मेहुल ने मेघा के भाइयों का अपने मातापिता के  साथ बातचीत और व्यवहार को देख कर पहली बार जाना कि बुजुर्गों के अनुभव से कैसे लाभ उठाया जा सकता है. बच्चे कैसे दादा- दादी की वजह से अपने पारिवारिक इतिहास को जानते हैं तथा अपनी संस्कृति और रिश्तों की जड़ों से जुड़ते हैं. हमारे बुजुर्ग ही तो इन सारी चीजों की मूल जड़ होते हैं, हम तो बस, शाखा मात्र होते हैं. यदि मूल जड़ को ही काट कर फेंक दिया जाए तो गृहस्थी का वृक्ष कैसे फलफूल सकता है.

जब से मेघा और मेहुल बच्चों सहित बाबूजी को लेने निकले तो उन दोनों के सामने अपना ध्येय बिलकुल साफ हो चुका था. उन्हें विश्वास था कि उन की नादानी को माफ कर बाबूजी अवश्य उन के साथ वापस अपने घर आ जाएंगे. भला उन जैसा स्वाभिमानी व्यक्ति कभी ‘घर ससुर’ बन कर थोड़े ही रह सकता है. यह सब तो उन्हें सबक सिखाने के लिए बाबूजी ने कहा होगा. इस विश्वास के साथ वे खुशी मन से अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले.

स्वयंसिद्धा- भाग 3: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

जब उस ने कालेज में प्रिंसिपल को अपना त्यागपत्र सौंपा, तो उस को यात्रा की शुभकामनाएं देने के साथ ही वे यह कहे बिना न रह सके, ‘‘मिसेज राणा, आप जैसे टीचर्स की हमें सदैव जरूरत रहती है. यदि कभी भी वापस आएं तो आप का यहां स्वागत ही होगा.’’

अपनों व परिचितों की ढेरों शुभकामनाएं लिए व सुखद भविष्य की कामना करती स्मिता हिम्मत कर के पलक के साथ अमेरिका के लिए रवाना हो गई. दिल में कहीं पति से मिलने की उमंग थी, तो थोड़ा अबूझा सा डर भी. पर साथ ही स्वयं पर हर स्थिति से निबटने का विश्वास भी था. इसी के सहारे वह इस अनजाने सफर पर निकल पड़ी थी. अचानक उसे आया देख आशुतोष कितना चौंक उठेंगे… क्या प्रतिक्रिया होगी उन की? इन्हीं विचारों में उलझी स्मिता ने 16-17 घंटे का लंबा सफर तय कर जब अमेरिका की धरती पर कदम रखा, तो उस की हवाएं उसे बेहद अपनी सी लगीं क्योंकि आशुतोष भी तो वहीं था.

एक प्रीपेड टैक्सी ले कर, उसे पता बता, वह बेटी के साथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली. आधे घंटे के बाद एक छोटे सुंदर से घर के सामने जा कर टैक्सी रुक गई. स्मिता ने नेमप्लेट चैक की. वह सही पते पर पहुंची थी. उसे उतार कर टैक्सी लौट गई और स्मिता ने कालबैल का बटन दबाया, तो एक 15-16 वर्षीय लड़की दरवाजा खोल प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखने लगी. पर स्मिता द्वारा अपना परिचय देने पर वह दरवाजा पूरा खोल, एक तरफ हट गई. पर उस की निगाहों में छिपा असमंजस स्मिता से छिप न सका था.

अंदर आते हुए स्मिता ने पूछा, ‘‘डा. राणा नहीं हैं घर पर?’’

‘‘वे और रिया मैडम 1 घंटे में आ जाएंगे,’’ उस का सामान अंदर रखती वह युवती बोली.

‘‘तुम्हारा क्या नाम है? सारा दिन यहीं रहती हो क्या?’’

‘‘जी चीना…’’ कुछ सकुचाते हुए वह बोली, ‘‘मैडम और साहब के आने पर चली जाती हूं. उन के आने तक घर की देखभाल व अन्य काम खत्म हो जाते हैं. मैडम, आप दोनों फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं कुछ नाश्ता वगैरह लाती हूं.’’ तत्परता से उस का सामान एक कमरे में रख वह चली गई.

स्मिता एक नजर साफसुथरे, सुसज्जित कमरे पर डाल कर अटैची खोलने लगी. कमरा गैस्टरूम ही लग रहा था, क्योंकि किसी पर्सनल यूज की कोई चीज वहां नजर नहीं आ रही थी. जब वे दोनों तैयार हो कर आईं तो चीना कौफी व नाश्ता ट्रौली पर सजा कर ड्राइंगरूम में ले आई. नाश्ता कर के स्मिता एक मैगजीन के पन्ने पलटने लगी. आशुतोष के आने में अभी 15-20 मिनट बाकी थे. पलक वहीं पास में खेल रही थी. काम खत्म कर के चीना अपना बैग उठा कर जाने लगी, तभी आशुतोष व रिया एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले बातें करते हुए अंदर आए. स्मिता को सामने बैठा देख आशुतोष बुरी तरह चौंक गया, उस के चेहरे का रंग उड़ गया. सकपका कर उस ने रिया का हाथ छोड़ दिया. रिया उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देख रही थी, तभी पलक दौड़ती हुई आ कर आशुतोष से, ‘पापा…पापा…’ कहती हुई लिपट गई. पापा…? रिया ने हैरानी से उसे देखा. फिर पूछा, ‘‘क्या यह तुम्हारी डौटर है?’’

‘‘ओह नो… ये मेरी रिलेटिव हैं और यह इन्हीं की बच्ची है. इस के पापा दुबई गए हुए हैं, इसलिए यह शुरू से मुझे ही पापा कह कर बुलाती है,’’ स्मिता की तरफ इशारा कर उस से नजरें चुराता आशुतोष साफ झूठ बोल गया.

सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि स्मिता को कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं मिला. एक क्षण में वह बिलकुल बेगानी बना दी गई. ऐसी परिस्थिति की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. अभी इस आघात से वह उबर भी न पाई थी कि रिया ने उसे अभिवादन किया और ‘यहां अपने घर जैसा फील करें,’ कह कर अंदर की तरफ बढ़ गई.

तभी उसे आशुतोष का स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे स्मिताजी, आप अचानक यहां? कम से कम खबर तो कर दी होती आने की…’’ कहतेकहते आवाज में नाराजगी स्पष्ट झलक उठी थी.

रिया के आंखों से ओझल होते ही वह रोष भरे स्वर में बोला, ‘‘तुम से मैं ने अभी आने को मना किया था न… इतनी जल्दी क्या थी… आने से पहले कम से कम एक फोन तो कर दिया होता.’’

‘‘कैसे करती फोन… न आप का मोबाइल मिलता था, न आप ने ही महीने भर से फोन किया. घर में सब कितने परेशान थे और यह क्या तमाशा है? अब मैं एक रिलेटिव हो गई हूं, बस? और पलक… पलक आप की बेटी नहीं है?’’ कहतेकहते अपमान व पीड़ा से स्मिता की आंखें भर आईं. विदेशी धरती पर वह कितनी अकेली हो गई थी.

एकाएक आशुतोष का स्वर कुछ नर्म पड़ा, ‘‘मेरा मोबाइल कुछ खराब हो गया था. और देखो स्मिता, विस्तार में मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा. आज की हकीकत यह है कि रिया से चर्च में मेरी शादी हो चुकी है. वह मुझे बैचलर समझती थी. मेरा प्लान था कि बाद में मैं उसे किसी तरह समझा कर मना लूंगा. वह मुझे बहुत चाहती है, मेरी खुशी के लिए वह मान भी जाती. तब मैं तुम दोनों को भी यहीं बुला लेता. पर तुम ने इस तरह आ कर मेरा सारा प्लान चौपट कर दिया.’’

‘‘और आप ने जो मेरी जिंदगी चौपट कर डाली है उस का क्या? ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई थी, जो आप ने यह सब किया? आप ने यह सोच भी कैसे लिया कि इस योजना में मैं भी सहभागी बनूंगी? मुझे इस तरह धोखा दे कर आप ने अच्छा नहीं किया. हम सब की छोड़ो, पलक तक का ध्यान नहीं आया आप को?’’ बेबसी में उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘देखो, मैं जानता हूं मैं गलत कर रहा हूं. पर रिया से संबंध बना कर यहां की हाई सोसाइटी में मेरी अच्छी पैठ हो गई है. इस के पिता काफी ऊंची पोस्ट पर हैं. उन्होंने मुझे कई तरह के बेहतर अवसर दिलाए हैं. आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में कितनों को ऐसे मौके मिलते हैं. तुम थोड़ा इंतजार करो बस, रिया को मैं जल्द ही मना लूंगा. फिर तुम दोनों भी यहीं आ जाना.’’

3 दिन बाद आशुतोष इंडिया जाने के लिए निकल पड़ा. एक लंबे अरसे के बाद अपने देश की मिट्टी की गंध महसूस कर उसे रोमांच हो आया. एक होटल में ठहरने का बंदोबस्त कर के वह एक टैक्सी कर रोनित से लिए पते पर जा पहुंचा.

थोड़ी देर पहले ही घर लौटी स्मिता कौफी का सिप लेती हुई ड्राइंगरूम में आ कर बैठी ही थी कि कालबैल बजी. स्मिता ने दरवाजा खोला तो सामने आगंतुक को देख चौंक उठी.

‘‘आप… आज अचानक यहां कैसे?’’

‘‘क्या अंदर आने के लिए नहीं कहोगी?’’

‘‘ओह… आइए…,’’ हिचकिचाहटपूर्वक एक तरफ हटती स्मिता ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हम तो ठेठ भारतीय ही हैं, घर आए मेहमान को बैठने को तो कहते ही हैं. घर का पता कहां से मिला?’’

‘‘रोनित से. मैं आज सुबह ही यहां पहुंचा हूं और एक होटल में ठहरा हूं.’’

‘‘मेरे लिए इतनी तकलीफ उठाने की वजह?’’ स्मिता ने उपेक्षा से पूछा. वह चाह कर भी पति के आने पर स्वयं को खुश नहीं पा रही थी. मन का आक्रोश उस के कहे वाक्यों में झलक ही उठा था.

‘‘स्मिता मैं जानता हूं मैं ने जो कुछ तुम सब के साथ किया, अक्षम्य है. पर मैं तुम से अपनी हर गलती की क्षमा मांगने आया हूं. मेरा अपराध माफी के लायक तो नहीं, पर क्या तुम मुझे माफ कर सकोगी…?’’

बीच में ही उस की बात काटती स्मिता बोली, ‘‘रिया नहीं आई आप के साथ?’’

‘‘नहीं, वह अब इस हालत में नहीं है कि सफर कर सके. मन तो उस का भी बहुत था, पर कैंसर की वजह से बहुत कमजोर हो गई है.’’

‘‘ओह… आई एम सौरी,’’ सपाट से स्वर में स्मिता की आवाज उभरी.

‘‘तुम्हारी तबीयत खराब होने की खबर सुन कर मैं स्वयं को रोक नहीं पाया. अब कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं… जिंदा हूं. आप को क्षमा देने वाले तो अब इस दुनिया में रहे नहीं. रही मेरी व पलक की बात, तो पलक की तो मैं नहीं जानती, हां, अपनी बता सकती हूं. आप के कारण विश्वास टूटने पर प्यार नफरत में बदल गया था. पर नफरत के साथ जी कर जिंदगी तो नहीं गुजारी जा सकती, इसलिए मैं ने आप से नफरत करनी भी छोड़ दी. तब मुझे अपनी बच्ची के साथ जीवनसंग्राम में जूझने का हौसला मिला. आज मैं आप के प्रति उतनी ही तटस्थ हो चुकी हूं, जितनी किसी भी अन्य अजनबी के लिए हो सकती हूं. अब आप हमें शांति से रहने दें और कृपया यहां दोबारा न आएं.’’

‘‘ऐसे न कहो स्मिता… मैं एक बार अपनी बेटी से मिलना चाहता हूं, वह क्या कर रही है आजकल?’’ आशुतोष बेहद भावुक हो उठा था.

‘‘पलक अपनी फ्रैंड के साथ बाहर गई हुई है. काफी देर बाद लौटेगी. आजकल वह इंटर्नशिप के साथ ही एमएस की तैयारी भी कर रही है.’’

‘‘और अभिजीत कैसा है? कौनकौन हैं परिवार में?’’ बात करने के लिए उसे और कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘अभिजीत के 2 बेटे हैं. बड़ा रोनित डाक्टर है, जो कनाडा में आप से मिला था और छोटा अभी इंटर में है,’’ कहते हुए स्मिता उठ कर खड़ी हो गई. परोक्ष रूप से जाने का संकेत पा कर आशुतोष भी उठ खड़ा हुआ.

उस के जाने के बाद स्मिता जीवन में अचानक आए इस मोड़ से थोड़ी विचलित हो उठी. क्या वास्तव में वह कभी उसे भूल पाई थी? कितनी ही रातें उस ने अकेले करवटें बदलते, रोते काटी थीं. क्या उन का कोई हिसाब था? उस का दर्द कौन जान सका था? पति की बेवफाई का जहर पी कर भी वह नीलकंठ सी मुसकराती रही, पलक की खुशी के लिए. पर कहीं अंदर से पति के प्रति उस की समस्त संवेदनाएं मरती चली गई थीं.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी और उस ने रिसीवर उठा लिया, ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘भाभी, मैं अभिजीत बोल रहा हूं, नमस्ते.’’

‘‘ओह अभि भैया, कहिए कैसे हैं आप सब? फोन कैसे किया?’’

‘‘भाभी, बेटी के डाक्टर बनने की मुबारकबाद देना चाहता हूं. सच कहूं तो यह आप की कड़ी तपस्या का ही फल है. बधाई हो.’’

‘‘आप सब को भी बधाई हो. आप सब के सहयोग के बिना तो मैं बिलकुल अकेली थी. इस दिन के लिए आप सब की भी तहे दिल से आभारी हूं. अब तो बस पलक को अच्छा घर और वर मिल जाए तो आखिरी जिम्मेदारी भी पूरी हो जाए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को फोन किया है, भाभी… मेरे एक परिचित हैं, मिस्टर तनवीर. वे इनकम टैक्स औफिसर हैं. उन के घर के सब लोग बहुत ही मिलनसार व भले स्वभाव के हैं. उन का बेटा विवेक डाक्टरी पास कर के स्कौलरशिप पर रिसर्च करने कनाडा गया हुआ है. वहां वह रोनित का दोस्त है. रोनित ने विवेक को हर तरह से समझापरखा है. उस की बहुत तारीफ कर रहा था. विवेक अगले हफ्ते 10-15 दिनों के लिए भारत आ रहा है. आप कहें तो मैं पलक के लिए वहां बात चलाऊं?’’ अभिजीत ने कहा.

‘‘यदि आप ठीक समझते हैं, तो जरूर बात कर के देखिए, बल्कि मेरी तरफ से आप उन लोगों को यहां आने के लिए निमंत्रण दे दीजिए.’’

इस के बाद स्मिता ने आशुतोष के आने की जानकारी अभिजीत को फोन पर ही दे दी.

दीप दीवाली के- भाग 3: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

इतने में एक नर्स रितु को इंजैक्शन लगाने आ गई. उस औरत की बेटी ने शायद पानी मांगा और उसे वह पानी पिलाने चली गई. रितु सोचने लगी कि उस की मम्मी भी एक औरत हैं और उस की सास भी, पर दोनों में कितना फर्क है. एक केवल शासन करना चाहती है, दूसरी नम्रतापूर्वक अनुसरण. एक किसी के घर को तोड़ना चाहती है, तो एक घर को बचाने के लिए स्वयं तकलीफ उठाती है. एक में दिखावा है, अभिमान है तो दूसरी में गंभीरता एवं सहजता है. पहली नारी है इसलिए सम्माननीय है, दूसरी सम्मान के साथसाथ श्रद्धा व प्रेम की पात्र भी है. एक केवल जननी है तो दूसरी मां. रितु की आंखें छलक रही थीं.

‘‘बेटा, चाय पी लो,’’ रामअवतार की आवाज से रितु का ध्यान भंग हो गया. रितु ने बड़े ध्यान से अपने ससुर की ओर देखा और सोचने लगी इस व्यक्ति ने आज तक मुझे बेटा के सिवा और किसी नाम से बात नहीं की और न ही कठोर शब्द बोले. इन लोगों के साथ गलत व्यवहार कर के मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है. फिर रितु का ध्यान भंग हुआ क्योंकि रामअवतारजी बगल वाली स्त्री से कह रहे थे :

‘‘बहनजी, आप को एक कष्ट दे रहा हूं. आप मेरी बहू को हाथ लगा कर उठा दें, ताकि वह चाय पी ले.’’

वह औरत उठी और रितु को उठा कर चाय पिलाने लगी तो रामअवतारजी वार्ड से बाहर चले गए. करीब 10 बजे सुनयना खिचड़ी और कुछ साफसुथरे कपड़े ले कर आ गईं और रितु को धीरे से बैठा कर चम्मच से अपने हाथ से खिलाने लगीं. आज उसे यह खिचड़ी मोहनभोग के समान लग रही थी.

शाम को करीब 4 बजे रितु के पापा गिरधारी प्रसाद और उस की मम्मी रजनी ने एकसाथ वार्ड में प्रवेश किया. उस समय सास सुनयना रितु के बालों में कंघी कर रही थीं. बैड की दूसरी तरफ एक खाली बैंच पर वे दोनों बैठ गए. दोनों का यहां आना ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी पार्टी में आए हों. गिरधारी प्रसाद बारबार अपनी टाई को ठीक कर रहे थे और रजनी का तो कहना ही क्या था. दोनों के कपड़ों से महंगे परफ्यूम की खुशबू आ रही थी. पूरा जच्चाबच्चा वार्ड उस खुशबू से महक रहा था. दोनों ने औपचारिकता- वश हाथ जोड़ कर सुनयना को नमस्कार किया पर फिर उन  से कोई बात नहीं की.

एक थैले में कुछ सामान रख कर सुनयना ने उठते हुए कहा, ‘‘रितु, जितना मुझ से बन सका मैं ने कर दिया. अब तुम्हारे मम्मीपापा आ गए हैं, अब मैं अपने घर जा रही हूं. तुम भी एक सप्ताह बाद अपना टांका कटवा कर अपने घर चली जाओगी और हां, आज तक की दवाइयों का और अस्पताल के बिल का भुगतान मैं ने कर दिया है, जिस की सारी रसीदें तुम्हारे तकिए के नीचे रखी हैं. अखिलेश आएगा तो उसे मेरा आशीर्वाद कह देना.’’

इतना कह कर चलने के लिए जैसे ही उन्होंने कदम बढ़ाया, अचानक लगा कि उन का आंचल कहीं फंस गया है. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा तो रितु उन का आंचल पकड़े हुए है और डबडबाई आंखों से उन्हें ही देखे जा रही है. सुनयना ने आंचल छुड़ाने का प्रयास किया तो रितु धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, क्या अपनी इस मूर्ख बेटी को माफ नहीं करोगी?’’

सुनयना ने झट से रितु का सिर अपनी छाती से लगा लिया और उस समय उन की भी आंखें छलछला उठीं. उन्होंने उस के माथे को सहलाते हुए कहा, ‘‘पगली, कहीं मां भी अपनी बेटी से नाराज होती है, स्वयं को मूर्ख क्योें कहती है. अरे, सैकड़ों लड़कियों में से चुन कर तुझे मैं अपने घर लाई थी तो तू मूर्ख कैसे हो गई. तू मेरी बहू नहीं बेटी है और बेटी ही तुझे समझा है.’’

सुनयना रोती जा रही थीं और कहती जा रही थीं, ‘‘ज्यादा नहीं रोते बेटा. अभी तुम्हारा शरीर कमजोर है, टांके कच्चे हैं, रोने से उन पर जोर पड़ता है और टूटने का भय रहता है,’’ यह कहते हुए वे अपने आंचल से उस के आंसुओं को पोंछने लगीं.

अचानक सुनयना का ध्यान दूसरी तरफ बैठे गिरधारी प्रसाद और उन की पत्नी रजनी की ओर गया तो वे लोग कब के चले गए थे. शायद रजनी ने सोचा होगा कि यहां अब उन का कोई काम नहीं, क्योंकि उन की कोई भी विद्या अब रितु पर असर नहीं करने वाली.

एक सप्ताह बाद रितु के टांके कट चुके थे और उसे अस्पताल से छुट्टी की अनुमति मिल गई थी. अखिलेश भी टूर से वापस आ गया. जब वह अपने कमरे पर गया तो उसे वहां सारी बातों की जानकारी मिल गई. वह अपना सामान कमरे में रख कर सीधे ही अस्पताल चला गया. मां को रितु के पास देख कर पहले तो ग्लानि से अखिलेश के पांव ही आगे नहीं बढ़ पा रहे थे, लेकिन जब उस ने रितु और अपनी मम्मी को मुसकराते हुए देखा तो मम्मी के पास जा कर उन के चरण छू कर प्रणाम किया.

अस्पताल से जिस दिन रितु को छुट्टी मिली उस ने स्पष्ट कह दिया कि वह अब किराए के मकान में न जा कर मम्मी के साथ सीधे अपने घर जाएगी. इसलिए उसे ले कर सुनयना घर आ गई थीं. अब उस घर में खुशियां ही खुशियां थीं. सभी के चेहरे मुसकराते रहते थे. नन्ही सी जान सब के लिए खिलौना बनी हुई थी.

रितु पर अभी बहुत प्रतिबंध था इसलिए वह केवल अपने कमरे में लेटी रहती थी. घर का सारा काम सुनयना ही करती थीं.

सुनयना ने रितु के पास आ कर कहा, ‘‘बेटी, मैं जरा बाजार जा रही हूं और बाहर से ताला लगा देती हूं ताकि तुझे बारबार उठना न पड़े,’’ और वे बाहर से ताला लगा कर चली गईं. रितु अपने कमरे में आ कर बेटी को दूध पिलाते हुए सो गई. अचानक उस की आंख खुली तो देखा कि कमरे में ट्यूबलाइट जल रही है. वह धीरे से अपने कमरे से बाहर निकली तो देखा कि आंगन में चावल के घोल का अल्पना बना हुआ था और वहां पर बहुत से दीपक रखे हुए हैं जिन्हें मम्मीजी बैठ कर जला रही हैं.

दीवाली बीतने के बाद मम्मीजी दीपक जला रही हैं. यह रहस्य उस की समझ में नहीं आ रहा था. वह धीरे से अपनी सास के पास गई. रितु की पायल की आवाज से सुनयना का ध्यान दरवाजे की ओर गया तो उन्होंने देखा कि दरवाजे पर रितु खड़ी है.

रितु ने आश्चर्यचकित स्वर में पूछा, ‘‘मम्मी, दीवाली तो कब की बीत गई… फिर ये सब आज क्यों?’’

सुनयना मुसकराते हुए रितु की ठोड़ी को ऊपर उठाते हुए बोलीं, ‘‘मेरे घर वर्षों बाद मेरे बच्चे आए हैं तो दीवाली तो अभी ही मनाऊंगी. मेरी बेटी दीवाली के बाद गई थी और दीवाली के बाद अपने साथ मेरी पोती भी ले कर आई है. इस खुशी में मैं ने आज दीवाली मनाई है. जाओ, तुम भी अच्छी सी साड़ी पहन लो और नूपुर को नए कपड़े पहना दो. मैं ने तुम दोनों के लिए नए कपड़े अलमारी में रख दिए हैं, फिर हमसब साथ मिल कर दीपक जलाएंगे.’’

रितु का हृदय गद्गद हो गया. वह अलमारी से कपड़े ले कर बाथरूम में बदलने चली गई. रितु ने झुक कर पहले सुनयना के पैर छू कर प्रणाम किया, फिर उस ने कहा कि मम्मी, नूपुर को आज यही आशीर्वाद दें कि इस में आप के जैसे गुण आ जाएं और वह जिस घर में जाए उस घर को स्वर्ग बना दे.

आंगन में रखी परात में जो 11 दीपक जल रहे थे, आज उन की लौ रितु को बड़ी ही सुंदर लग रही थी. वह अपलक केवल जलते दीपकों को ही देखे जा रही थी और वे जलते हुए दीपक उसे यों लग रहे थे मानो उन दीपकों की लौ से उस का जीवन ही जगमगा गया.

दीप दीवाली के- भाग 2: जब बहू ने दिखाएं अपने रंग-ढंग

दीवाली का त्योहार आया तो हर घर में धूमधाम से तैयारी शुरू हो गई, घरों में दीप जलाए जा रहे थे, पर सुनयना और रामअवतार दोनों उदास बैठे अतीत की यादों में खोए रहे. उन में त्योहार को ले कर न कोई उत्साह था न कोई उमंग. शाम को सुनयना केवल एक दीपक जला कर आंगन में रख आईं.

दीवाली के 2 दिन बाद रामअवतार को आफिस भेज कर सुनयना बच्चों को पढ़ाने चली गईं और जब वे शाम को लौट रही थीं तो रास्ते में उन की मुलाकात एक अनजान औरत से हो गई, जो उन्हें जानती थी पर सुनयना उसे नहीं जानती थीं.

पहले तो उस स्त्री ने सुनयना को नमस्ते की, फिर बताया कि रितु व अखिलेश उस के मकान के पास ही रहते हैं. आज रितु की तबीयत ज्यादा खराब थी और उसे उस के मकानमालिक आटोरिकशा से अस्तपाल ले गए हैं, क्योंकि अखिलेश यहां है नहीं और रितु की डिलीवरी होने वाली है.

सुनयना ने जब उस औरत से यह पूछा कि रितु के मकानमालिक उसे ले कर किस अस्पताल गए हैं, तो उस ने वर्मा नर्सिंग होम का नाम बता दिया.

सुनयना जल्दी से घर आईं और एक थैले में कुछ आवश्यक सामान रखा. अलमारी में जो पैसा रखा था उसे लिया और घर को ताला लगा कर आटो से वर्मा नर्सिंग होम चली गईं. वहां जा कर जब रितु के बारे में पता किया तो पता चला कि बच्चा नार्मल नहीं हो सकता इसलिए डाक्टर रितु को आपरेशन थिएटर में ले गए हैं. तभी एक नर्स ने आ कर आवाज लगाई कि रितु के साथ कौन है? डाक्टर एक फार्म पर साइन करने और आपरेशन फीस जमा कराने के लिए बुला रहे हैं.

सुनयना नर्स से जब रितु के बारे में पूछ रही थी तब वहीं पर रितु के मकान मालिक भी खड़े थे. वे समझ गए कि यह स्त्री शायद अखिलेश की मां हैं तभी इतनी बेचैनी से पूछ रही हैं. उन्होंने हाथ जोड़ कर सुनयना को नमस्ते किया और फिर सारी बातें उन्हें बता दीं. सुनयना ने भी उन्हें बता दिया कि रितु उन की बहू है.

सुनयना उस नर्स के साथ डाक्टर के कक्ष में चली गईं और डा. विमला भाटिया को नमस्ते कर उन्हें अपना परिचय दिया कि रितु उन की बहू है और वे आपरेशन की फीस जमा कराने आई हैं. पहले तो डाक्टर ने उन से एक फार्म पर हस्ताक्षर करवाए और फिर आपरेशन के लिए 25 हजार रुपए जमा कराने को कहा.

‘‘डाक्टर साहब, अभी तो आप 10 हजार रुपए जमा कर लें. बाकी पैसा मैं अपने पति से फोन कर के मंगवा लेती हूं, जब तक आप उस का आपरेशन करें. मुझे किसी भी हालत में जच्चा व बच्चा स्वस्थ चाहिए.’’

‘‘ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है. सब ठीक होगा. हां, आप यह पैसा काउंटर पर जा कर जमा करा दें और रसीद प्राप्त कर लें. वहीं से आप अपने पति को फोन भी कर दें.’’

डाक्टर के पास से आ कर सुनयना ने काउंटर पर जा कर पैसा जमा कर दिया और रसीद ले कर वहीं से रामअवतारजी को फोन कर के सारी बातें बता दीं. साथ ही यह भी कह दिया कि जल्दी से 15 हजार रुपए ले कर वर्मा नर्सिंग होम में आ जाएं.

करीब डेढ़ घंटे बाद रामअवतारजी वहां पर पैसा ले कर पहुंच गए लेकिन रितु के मम्मीपापा अभी तक नहीं आए थे. वे आपरेशन रूम के पास एक बैंच पर सुनयना के साथ बैठ कर इंतजार करने लगे. थोड़ी देर बाद एक नर्स सुनयना के पास आ कर पूछने लगी कि रितु के साथ कौन आया है.

सुनयना ने कहा, ‘‘मैं हूं.’’

‘‘बधाई हो, लड़की हुई है,’’ नर्स ने कहा, ‘‘बच्ची और उस की मां दोनों स्वस्थ हैं,’’ फिर थोड़ी देर बाद एक नर्स ने लड़की को ला कर सुनयना को दिखाया जिसे बड़े प्यार से उन्होंने पहले तो देखा फिर उस का माथा चूम अपने पति से कुछ इशारा किया. रामअवतारजी ने 500 रुपए का नोट निकाल कर नर्स को देते हुए कहा कि यह मेरी तरफ से आप सब लोगों को मिठाई खाने के लिए है.

थोड़ी देर बाद रितु को एक स्ट्रैचर पर लिटा कर वार्ड में लाया गया. उस समय वह बेहोश थी. वार्ड में एक बिस्तर पर लिटा कर उस के पास के पालने में बच्ची को भी लिटा दिया गया. सुनयना वहीं एक बैंच पर बैठ कर कभी बच्चे को तो कभी रितु को देखती रहीं और पति को घर भेज दिया.

करीब साढ़े 4 घंटे बाद रितु को होश आया. उस ने आंखें खोलीं तो देखा उस की सास सुनयना उस के पास बैठी हैं और उस की गोद में एक बच्चा है.

‘‘लक्ष्मी आई है, ठीक तुम्हारी तरह. तुम भी शायद जब पैदा हुई होगी तो ऐसी ही होगी,’’ सुनयना ने मुसकराते हुए कहा और रितु के माथे पर हाथ फेरने लगीं. रितु को बड़ा अच्छा लग रहा था. तभी उस के मकानमालिक भी वहां आ गए और बोले, ‘‘रितु, जब तुझे ले कर यहां आ रहा था तब मेरी पत्नी की तुम्हारी मम्मी से बातें हुई थीं और उन्होंने कहा था कि वे जल्द ही अस्पताल पहुंच रही हैं, पर अभी तक न खुद आईं और न तुम्हारे पापा आए हैं.’’

शाम हो गई थी, अभी तक सुनयना ने कुछ नहीं खाया था, बल्कि चाय तक भी नहीं पी थी. रात भर वह बैड के पास स्टूल पर बैठी कभी रितु का सिर दबातीं तो कभी बच्ची के रोने पर उसे उठा कर घुमातीं. इस तरह जिम्मेदारी को ढोते उन की रात आंखोंआंखों में कट गई.

सुबह रामअवतार थर्मस में चाय ले कर आए और दोनों को कपों में डाल कर चाय दी, फिर पत्नी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुम अब घर जाओ. मैं यहां बैठता हूं. कल से तुम ने खाना भी नहीं खाया है. तुम्हारा खाना किचन में कल से ज्यों का त्यों बना हुआ रखा है. घर जाओ और रितु के लिए खिचड़ी बना कर लेती आना. तब तक मैं यहां पर बैठता हूं. आज मैं ने आफिस से छुट्टी ले रखी है.’’

सुनयना दोनों को बहुत सी हिदायतें दे कर चली गईं. रामअवतार वहीं बैंच पर बैठ गए. करीब 1 घंटे बाद कुछ सोच कर रितु से उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, मैं जरा बाहर बैठता हूं, कोई चीज चाहिए तो नर्स से कहलवा देना,’’ और वार्ड से बाहर निकल गए.

रितु के बगल वाले बैड पर भी एक स्त्री को आपरेशन से बच्चा हुआ था. उस की देखभाल के लिए उस की मां वहीं पर बैठी हुई थीं. जब रामअवतार वार्ड से बाहर चले गए तब वह औरत अपनी जगह से उठ कर रितु के बैड के पास आ गई और पूछने लगी, ‘‘तुम्हारे मम्मीपापा अच्छे स्वभाव के मालूम पड़ते हैं. खासकर तुम्हारी मम्मी तो बहुत ही अच्छी हैं. बेचारी रातभर तुम्हारी सेवा करती रही हैं.’’

‘‘ये दोनों मेरे मम्मीपापा नहीं, सासससुर हैं.’’

‘‘क्या?’’ वह औरत आश्चर्य से रितु का मुंह देखने लगी. फिर उस ने कहा, ‘‘क्या दुनिया में ऐसी भी सास होती है, जो कल से बिना खाएपिए अपनी बहू की सेवा कर रही है. बेटी, तुम बहुत खुशनसीब हो जो तुम्हें ऐसे सासससुर मिले हैं. पूरा वार्ड अब तक यही समझ रहा था कि ये तुम्हारे मम्मीपापा हैं. कोई सास अपनी बहू के लिए इतना कर सकती है यह मैं ने पहली बार देखा है. अगर हर सास तुम्हारी सास जैसी हो जाए तो कोई बहू जल कर नहीं मरेगी, कोई बहू गले में फंदा लगा कर नहीं मरेगी. कोई बहू जहर खा कर या गाड़ी के नीचे आ कर अपनी जान नहीं देगी.

‘‘मैं तो तुम्हें यही कहूंगी कि कभी अपनी सास को तकलीफ मत देना, कभी उन से कठोर बातें मत बोलना और बेटी, सच्चे मन से उन की बुढ़ापे में सेवा करोगी तो इस बुढि़या की आत्मा तुम्हें आशीर्वाद ही देगी.’’

स्वयंसिद्धा- भाग 7: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

हर कक्षा अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण करती हुई पलक अब आकर्षक, बुद्धिमान एवं आधुनिक तरुणी बन चुकी थी. पारिवारिक संस्कार एवं आधुनिकता के अद्भुत संगम वाले व्यक्तित्व की स्वामिनी पलक आधुनिक पीढ़ी की सोच के अनुरूप ही हर बात तार्किक ढंग से सोचनेसमझने में विश्वास रखती थी.

प्रथम श्रेणी में इंटर करने के साथ ही उस का मैडिकल की हर प्रतियोगी परीक्षा में चयन होने से घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. एक लंबे अंतराल के पश्चात स्मिता ने सुख व चैन की सांस ली. बेटी के जीवन की एक दिशा तय होने के सुकून के साथ ही अपनी जिम्मेदारियों का सही निर्वाह कर पाने का संतोष भी था. मैडिकल कालेज में दाखिला होते ही पलक भी दूसरे शहर चली गई. उस के बाद के 5-6 वर्ष तो जैसे महीनों में बंट कर रह गए. हर वर्ष छुट्टियों में पलक के आने पर स्मिता के लिए तो घर में त्योहार जैसा माहौल हो जाता था. जितनी बेकरारी से वह बेटी के आने का इंतजार करती थी, उस के जाने के बाद उतनी ही बेचैन हो जाती. पर उस बेचैनी में भी कहीं गहरा आत्मसंतोष होता था. बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए सभी मांबाप कभी न कभी इस दौर से गुजरते ही हैं. आज बेटी को डाक्टर बन कर अपनी डिगरी प्राप्त करते देख उस के पूरे जीवन की तपस्या मानो सार्थक हो उठी थी.

पुरानी यादों में खोई स्मिता को समय बीतने का कुछ पता ही न चला था. उस ने घड़ी पर निगाह डाली. उसे आए घंटा भर से कुछ ज्यादा ही हो चुका था. पलक के आने का समय हो रहा था. आज पलक की पसंद का पूरा डिनर बनाने वह किचन की तरफ बढ़ गई.

आशुतोष ने स्मिता व पलक को आननफानन वापस तो लौटा दिया था पर रिया के सम्मुख भला बना रह कर भी वह अपनी नजरों में गिर गया था. जहां एक तरफ उसे अपना झूठ न पकड़े जाने का संतोष था, वहीं दिल के किसी कोने में उन दोनों के साथ किए गए अन्याय का अपराधबोध भी.

घर व परिजनों से दूर, बेइंतहा कमाई, कोई रोकनेटोकने वाला नहीं, ऐसे में माहौल के खुलेपन व समय के खालीपन को भरता रिया जैसी अत्याधुनिक विचारों वाली युवती का संग. वह भूल ही गया कि उस की पत्नी दूर भारत में कहीं उस के आने का इंतजार कर रही है. छोटी सी बेटी बाट जोह रही है. रिया के डैडी के उच्च सामाजिक रुतबे व रिया द्वारा किए गए प्रेम निवेदन की पहल ने उसे अपने विगत को बिसरा एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए उकसाने में अहम भूमिका निभाई थी. जल्द से जल्द समाज में ऊंचा रुतबा हासिल करने के लिए प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में शामिल हो कर, अपना जमीर मार कर उस ने पैसा तो बहुत कमाया, परंतु दिल का एक कोना सदैव खाली रहा. पैसे से सुविधाएं ही तो खरीदी जा सकती हैं, संतोष नहीं. वह चाह कर भी कभी रिया को अपने अतीत के बारे में नहीं बता पाया.

विवाह के कुछ ही वर्षों बाद दोनों में अकसर छोटीछोटी बातों पर विवाद हो जाता. पश्चिमी संस्कृति में पलीबढ़ी रिया पति की हर बात तोलपरख कर मानती. रिया का शक्की एवं झगड़ालू स्वभाव अकसर उसे स्मिता की याद दिला जाता. तब पछताने के अलावा वह कुछ न कर पाता. उसे हैरानी भी होती थी कि रिया के स्वभाव का यह शक्कीपन वह पहले क्यों नहीं महसूस कर पाया? मातापिता के न रहने का दुखद समाचार पा कर भी, कुछ तो रिया की गिरती सेहत व कुछ अपने काम के बोझ तले दबा वह भारत जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया.

रिया के स्वास्थ्य संबंधी टैस्टों की रिपोर्ट देख कर तो उस के पैरों तले जमीन ही खिसक गई थी. कैंसर के बेरहम पंजों में दबी वह धीरेधीरे मौत के मुंह में जा रही थी. आशुतोष ने उस के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. महंगी से महंगी दवाओं तथा अत्याधुनिक तकनीकों के सहारे उसे जिंदगी के कुछ वर्ष और मिल गए. उन्हीं दिनों अचानक आशुतोष से मिलने एक आकर्षक नवयुवक उस के घर पहुंचा. अपने भतीजे को पहचानने में उसे अधिक देर नहीं लगी. उसे देखते ही आशुतोष ने उसे गले लगा लिया. बिलकुल उस के छोटे भाई का ही तो प्रतिरूप था रोनित, जिसे सामने देख न जाने कितनी भूलीबिसरी यादें ताजा हो आई थीं.

बचपन से अपने पिता के मुंह से उन के बड़े भाई की बातें गाहेबगाहे सुनते बड़ा हुआ रोनित कनाडा में स्कौलरशिप पर जब पढ़ने पहुंचा, तो बरसों से घर से बिछुड़े सदस्य से मिलने की तीव्र इच्छा दबा न सका और पिता से उन का पता ले कर ढूंढ़ता हुआ पहुंच ही गया. रिया ने भी उस का परिचय जान कर उस की मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बचपन से सब को रिया के खिलाफ बोलते सुनते आए रोनित के मन में रिया की बहुत ही खराब छवि बनी हुई थी पर यहां तो बिलकुल उलटा ही मिला था. देर तक अपना दुखसुख सुनाने के बाद जब आशुतोष को पता चला कि इधर स्मिता की तबीयत हाई ब्लडप्रैशर व कुछ अन्य कारणों से अकसर खराब रहती है तथा कुछ दिन पहले अपैंडिक्स का औपरेशन भी हो चुका है, तो उसे झटका सा लगा था. चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं. रिया के सामने स्मिता के जिक्र से आशुतोष थोड़ा सकपकाया पर रिया अचंभित हुए बिना चुपचाप उन की बातें सुनती रही. आशुतोष ने रोनित से सब के पते ले लिए थे.

रोनित के जाने के बाद आशुतोष व रिया के बीच एक बोझिल सा मौन पसर गया. आशुतोष को हैरानी हो रही थी कि रिया ने उस के अतीत की सचाई जानने के बाद भी उस से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया? अनुत्तरित प्रश्नों के भंवर से घिरे आशुतोष ने आखिर इस सन्नाटे को तोड़ते हुए कुछ कहना शुरू किया ही था कि रिया ने अपने निर्बल हाथ से उस की कलाई पकड़ कर उसे रोकने का उपक्रम किया तो वह चौंक गया. उसे रिया की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘आशु तुम हैरान होगे कि मैं ने तुम्हारे अतीत के बारे में जान कर भी तुम से कोई प्रश्न क्यों नहीं किया?’’

‘‘दरअसल, मैं खुद तुम्हें बताना चाहता था पर…’’

‘‘बस, अब कुछ नहीं बोलो मेरी सुनो. सच तो यह है कि शादी के कुछ वर्षों बाद ही मैं तुम्हारी पहली शादी के बारे में जान गई थी. जब स्मिताजी यहां आई थीं तब तो मैं उन्हें नहीं जानती थी. पर काफी दिन बाद हमारी मेड सर्वेंट चीना ने मुझे उन के बारे में बताया था. उस दिन उसी ने उन को अटैंड किया था अत: बातोंबातों में वह उन का परिचय जान गई थी. तुम्हें खो देने के डर से न चाहते हुए भी मैं तुम से कुछ पूछ नहीं पाई. सोचा, जैसे चल रहा है चलने दूं. उन का ध्यान आने पर कहीं तुम वापस न चले जाओ. पर तुम्हारे अतीत की जानकारी ने मुझे तुम्हारे प्रति शक्की बना दिया था. तुम्हें प्यार करते हुए भी, तुम पर मैं विश्वास न कर सकी. साथ ही, चाहते हुए भी स्मिता दीदी से कभी माफी न मांग पाई. तुम इंडिया जा कर मेरी तरफ से उन से क्षमा जरूर मांग लेना. अनजाने में ही सही, मैं उन की गुनहगार तो हूं ही.’’

आशुतोष केवल इतना ही कह सका, ‘‘तुम्हें मुझे बताना तो चाहिए था.’’

‘‘तो क्या तुम्हें नहीं बताना चाहिए था? उस समय शायद हम दोनों ही अपनेअपने स्वार्थ में अंधे हो गए थे. तुम्हें खो देने के डर से मेरे होंठ सिले रहे, पर आज जब जिंदगी मुझ से दामन छुड़ाने लगी है, मुझे एहसास हो रहा है कि हम ने स्मिता के साथ कितना बड़ा अन्याय किया है. हमारा रिश्ता ही दुरावछिपाव की बुनियाद पर रखा गया था, तो सुख कहां से मिलता? आज रोनित के मुंह से उन की अस्वस्थता का समाचार सुन कर तुम्हारी आंखों में उभर आई चिंता देख मुझे अपना अपराध और भी खल रहा है. पता नहीं क्यों, मैं तुम दोनों के बीच आ गई,’’ कहतेकहते रिया का स्वर भर्रा उठा.

‘‘मैं सोच रहा हूं एक बार इंडिया जाऊं, सब से मिलूं, पर तुम तो कमजोरी के कारण सफर कर नहीं पाओगी और यहां तुम्हें अकेला…’’

‘‘ओह, तुम मेरी चिंता न करो… मैं यहां मां को बुला लूंगी और नर्स तो 24 घंटे रहती ही है. मैं तो यों भी कुछ ही दिनों की मेहमान हूं, जाने से पहले तुम्हारे जीवन में सब ठीक से व्यवस्थित होता देख लूं तो चैन से मर सकूंगी. तुम जाओ मेरी तरफ से माफी जरूर मांगना,’’ कहतेकहते वह आशुतोष के सीने में मुंह छिपा कर फफक पड़ी. दिल पर रखा बोझ हटते ही आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा था.

स्वयंसिद्धा- भाग 6: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

स्मिता हलके से मुसकराई फिर बोली, ‘‘रुकिए… दूसरों से हम जितनी अपेक्षाएं रखते हैं, यदि उस की आधी भी दूसरों के प्रति पूरी करें तो शायद जिंदगी ज्यादा खुशहाल हो जाए. आज आप ने ईमानदारी से उत्तर दिया तो खुशी हुई कि आप को अपने किए का एहसास है. समस्याएं तो हम सब के जीवन में आती हैं. यह हम पर है कि हम उस समस्या को खींच कर बड़ा बना देते हैं या उस का समाधान ढूंढ़ कर उसे हल करते हैं. कोई भी समस्या इंसान से बड़ी नहीं होती. हम सब इंसान ही हैं, हम से गलतियां भी हो जाती हैं पर कहते हैं, प्रायश्चित्त के आंसू गुनाह धो देते हैं और माफ करने वाला छोटा नहीं हो जाता… ऐसा किसी ने मुझे समझाया है,’’ कहते हुए उस ने कविता की तरफ देखा जिस की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला उठे थे.

‘‘अपने परिवार की खुशी ही सदैव मेरी प्राथमिकता रही है… अगर सब यही चाहते हैं तो…’’ आगे कुछ कहते सहसा वह रुक गई.

उस की बातों का अर्थ समझते ही अभिजीत खुशी से भर उठा, ‘‘मुझे आप से यही उम्मीद थी भाभी…’’ और दौड़ कर आशुतोष को खींच कर स्मिता के बगल में खड़ा कर दिया. मौसी भी खुश हो कर दोनों को ढेरों शुभकामनाएं देने लगीं.

पलक तनिक हैरानी से मां को देखते फुसफुसा कर बोली, ‘‘मां आप के स्वाभिमान को यह गंवारा होगा?’’

‘‘बेटा… मेरा स्वाभिमान तो आज भी अपनी जगह है. पर पति हर स्त्री का अभिमान होता है, उसे कैसे वापस कर दूं?’’

पलक दौड़ कर अपनी मां के गले से लिपट गई. स्वयंसिद्धा के मान ने सब को जीवन की नई खुशियों से भर दिया था.

‘‘हरगिज नहीं… मैं रिया को अभी सब कुछ बता दूंगी. वह भले ही तैयार हो जाए पर मैं तैयार नहीं हूं ऐसी जिंदगी के लिए.’’

आशुतोष ने बिफरते हुए एकाएक स्मिता को चांटा मारने के लिए हाथ उठा लिया तो स्मिता चौंक गई. आशुतोष उसे धमकाते हुए बोला, ‘‘खबरदार जो इस विषय में तुम ने रिया से कोई बात की. तुम्हारे लिए अंजाम अच्छा न होगा, मैं कुछ भी कर सकता हूं.’’

उस का यह रूप देख कर स्मिता में न जाने कहां से हिम्मत आ गई. क्रोध से उस की आंखें लाल हो उठीं, ‘‘मारना चाहते हो? यह शौक भी पूरा कर लो. पैसे की हवस ने तुम्हें अंधा बना दिया है. मुझे यह सोच कर शर्म आती है कि मैं तुम्हारी पत्नी हूं. बस आज के बाद से हमारा कोई संबंध नहीं है.’’

उसी क्षण स्मिता ने अपना सामान समेटा व सहमी हुई पलक का हाथ थामे वापस एअरपोर्ट की तरफ निकल गई. रिया तब तक बाहर नहीं आई थी. आशुतोष ने उसे रोकने की कोई चेष्टा नहीं की. चुपचाप उसे जाते देखता रहा.

आते समय स्मिता के मन में जितनी उमंग व उत्साह था, वापसी का सफर उतना ही कष्टप्रद था. सारी घटनाएं एक के बाद एक इतनी तेजी से घटती चली गईं कि कहीं कुछ सोचनेसमझने की गुंजाइश ही नहीं थी. पर अब अकेले सफर में उस के सामने भविष्य की अनेकानेक समस्याएं सिर उठाए खड़ी थीं. पूरा जीवन उसे इसी छले गए विश्वास के दंश के साथ ही बिताना था. नन्ही पलक का क्या गुनाह था जो उसे पिता के प्यार से वंचित रहना पड़ेगा? क्या उसे आशुतोष के साथ उन्हीं परिस्थितियों में समझौता कर के जिंदगी गुजारनी चाहिए थी? तुरंत उस के दिल से आवाज आई, ‘हरगिज नहीं. नारी सब कुछ बरदाश्त कर सकती है पर सौत नहीं.’

बेहद तनाव भरे अगले कुछ घंटे गुजारने के पश्चात घर वापस पहुंच कर स्मिता को कुछ राहत मिली. अप्रत्याशित रूप से तीसरे ही दिन बहू को वापस आया देख मां व बाबूजी हतप्रभ रह गए. पर सहमी, चुप खड़ी पलक एवं स्मिता की उदास व सूजी आंखों से उन्होंने घट चुकी अनहोनी का अंदाजा लगा लिया था. मां को सामने पा कर स्मिता स्वयं को रोक न सकी और उन के गले लग फूटफूट कर रो पड़ी. जब दिल का गुबार कुछ हलका हुआ, तो उस ने उन्हें वहां का पूरा हाल कह सुनाया. सारी बात सुन कर बेटे की नालायकी से मांबाप को गहरा आघात पहुंचा था, पर अपनी पीड़ा भूल कर उन्होंने स्मिता को सांत्वना देते हुए कहा कि वे सब ठीक करने की कोशिश करेंगे.

‘‘अब क्या ठीक होगा मां… बचा ही क्या है? मैं उन पर जबरन कोई रिश्ता थोपना नहीं चाहती. वे यदि इसी में खुश हैं तो यही सही,’’ कह कर स्मिता अंदर चली गई.

स्मिता के पहुंचने के अगले ही दिन आशुतोष का फोन आया. रिसीवर उस के पिता ने ही उठाया था. पिता द्वारा समझाए जाने पर जब उस ने खुद को सही ठहराने का प्रयास किया और सालडेढ़ साल बाद उन्हें अपने पास बुला लेने के लिए कहा, तो उन्होंने उसे कड़ी फटकार लगाते हुए यहां तक कह दिया कि आज से वे सोच लेंगे कि उन का एक ही बेटा है और स्मिता भी अब उन की बहू नहीं, बल्कि बेटी है. वे स्वयं उस की दूसरी शादी करवाएंगे.

पर स्मिता ने दृढ़ स्वर में इसे नकार दिया, ‘‘नहीं बाबूजी… मुझे नहीं करनी है दूसरी शादी. एक गलती उन्होंने की है, अब मैं दूसरी नहीं करना चाहती. बस आप लोगों की छत्रछाया बनी रहे. मेरी जिंदगी का लक्ष्य अब केवल मेरी बेटी का भविष्य होगा. मुझे और कुछ नहीं चाहिए.’’

जिंदगी फिर इतनी आसान नहीं रह गई थी. कालेज की लैक्चररशिप तो उस ने तुरंत ही जौइन कर ली थी. नौकरी अब उस के लिए शौक नहीं वरन एक जरूरत बन गई थी. मुश्किलों के इस दौर में भी उस ने हिम्मत नहीं हारी और वक्त के इम्तिहान में हर चुनौती का सामना पूरे आत्मविश्वास के साथ किया. उस के साथ घटी बात की जानकारी केवल उस के चंद मित्रों व परिवार तक ही सीमित थी. अंजलि ने इस कठिन वक्त में स्मिता को एक सच्चे दोस्त की तरह मानसिक संबल दिया.

कालेज में सब की अपेक्षाओं पर खरी उतरती स्मिता ने घर में भी सारी जिम्मेदारियां बिना कहे ही संभाल ली थीं. मांबाबूजी के मार्गदर्शन में अभिजीत का विवाह एक सुशिक्षित एवं सुशील युवती कविता से तय कर के, बड़ी धूमधाम के साथ संपन्न कराया. मांबाबूजी दोनों बहुओं की तारीफ करते नहीं थकते थे.

कतराकतरा होती जिंदगी सप्रयत्न सहेज स्मिता सारा दिन स्वयं को अनेकानेक जिम्मेदारियों के निर्वाह में व्यस्त रखती, परंतु कभीकभी नन्ही पलक जब अपने पापा की याद में हुड़कती, तो उस पल को झेलना उसे सर्वाधिक दुष्कर लगता. ऐसे में उसे परिवार वालों का भरपूर सहयोग मिलता. कभी उस के चाचाचाची, जिन्हें पलक छोटे पापा व छोटी मां कहती थी, तो कभी उस के दादादादी, जिन्हें वह बड़े पापा व बड़ी मां कहती थी, अपनीअपनी तरह से उसे बहलाने का प्रयत्न करते थे. स्मिता भी अपनी तरफ से उसे मांबाप दोनों का प्यार देने का पूरा प्रयास करती थी. धीरेधीरे समय अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. अभिजीत का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. दिन महीनों में व महीने सालों में बदलते रहे. वसंत व पतझड़ एक के बाद एक आते रहे.

लंबी बीमारी के बाद ससुर का निधन होने पर घर में सब दुख से भर उठे. आशुतोष ने खबर पहुंचने के बाद भी मात्र संवेदना कार्ड भेज कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. बेटे की हृदयविदारक उपेक्षा का दुख मां को गहरा आघात दे गया था, जिसे वे साल भर से ज्यादा नहीं झेल पाईं और चल बसीं. स्मिता एक तरह से बिलकुल अकेली रह गई थी. नातेरिश्तेदार भी संवेदना व्यक्त कर के अपनेअपने घर जा चुके थे. किशोर होती बेटी व बढ़ती जिम्मेदारियां… कभीकभी वह बेहद थक जाती थी पर फिर नए सिरे से जीवन समर में जूझने के लिए स्वयं को तैयार कर, सजग प्रहरी सी उठ खड़ी होती. उम्र के हर पड़ाव पर पलक को स्मिता का पूरा मार्गदर्शन मिला.

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