Raksha Bandhan: कन्यादान- भाग 3- भाई और भाभी का क्या था फैसला

अगले दिन वे कालेज की सीढि़यां चढ़ रहे थे, उसी समय प्रोफैसर रंजन तेजी से उन की तरफ आए, ‘क्यों अनिरुद्धजी, श्रेयसी तो आप के किसी रिलेशन में है न. आजकल रौबर्ट के साथ उस के बड़े चरचे हैं?’ अनिरुद्ध कट कर रह गए, उन्हें तुरंत कोई जवाब न सूझा. धीरे से अच्छा कह कर वे अपने कमरे में चले गए थे.

उसी शाम रौबर्ट और श्रेयसी को फिर से साथ देख कर उन का माथा ठनका था. वे रौबर्ट के मातापिता से मिलने के लिए शाम को अचानक रौबर्ट के घर पहुंच गए. रौबर्ट उन्हें अपने घर पर आया देख, थोड़ा घबराया, परंतु उस के पिता मैथ्यू और मां जैकलीन ने खूब स्वागतसत्कार किया. मैथ्यू रिटायर्ड फौजी थे. अब वे एक सिक्योरिटी एजेंसी में मैनेजर की हैसियत से काम कर रहे थे. जैकलीन एक कालेज में इंगलिश की टीचर हैं. गरमगरम पकौडि़यों और चटनी का नाश्ता कर के अनिरुद्ध का मन खुश हो गया था.

वे प्रसन्नमन से गुनगुनाते हुए अपने घर पहुंचे. ‘क्या बात है? आज बड़े खुश दिख रहे हैं.’

‘मंजू, आज रौबर्ट की मां के हाथ की पकौडि़यां खा कर मजा आ गया.’

‘आप रौबर्ट के घर पहुंच गए क्या?’

‘हांहां, बड़े अच्छे लोग हैं.’

‘आप ने उन लोगों से श्रेयसी के बारे में बात कर ली क्या?’

‘तुम तो मुझे हमेशा बेवकूफ ही समझती हो. तुम्हारे आदरणीय भाईसाहब की अनुमति के बिना भला मैं कौन होता हूं, किसी से बात करने वाला? लेकिन अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि एक बार तुम्हारे भाईसाहब से बात करनी ही पड़ेगी.’ मंजुला नाराजगीभरे स्वर में बोली, ‘देखिए, आप को मेरा वचन है कि आप इस पचड़े में पड़ कर उन से बात न करें. आप मेरे भाईसाहब को नहीं जानते, किसी को बुखार भी आ जाए तो सीधे अपने महाराजजी के पास भागेंगे. उन के पास जन्मकुंडली दिखा कर ग्रहों की दशा पूछेंगे. उन से भभूत ला कर बीमार को खिलाएंगे और घर में ग्रहशांति की पूजापाठ करवाएंगे. डाक्टर के पास तो वे तब जाते हैं जब बीमारी कंट्रोल से बाहर हो जाती है.

‘जब से मैं ने होश संभाला है, भाईसाहब को कथा, भागवत, प्रवचन जैसे आयोजनों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हुए देखा है. वे पंडे, पुजारी और कथावाचकों को घर पर बुला कर अपने को धन्य मानते हैं. उन सब को भरपूर दानदक्षिणा दे कर वे बहुत खुश होते हैं.’

‘मंजुला, तुम समझती क्यों नहीं हो? यह श्रेयसी के जीवन का सवाल है. रौबर्ट के साथसाथ उस का परिवार भी बहुत अच्छा है.’

‘प्लीज, आप समझते क्यों नहीं हैं.

2-4 दिनों पहले ही भाभी का फोन आया था कि जीजी, आप के भाईसाहब एक बहुत ही पहुंचे हुए महात्माजी को ले कर घर में आए थे. उन्होंने उन की जन्मकुंडली देख कर बताया है कि आप की बिटिया का मंगल नीच स्थान में है, इसलिए मंगल की ग्रहशांति की पूजा जब तक नहीं होगी, तब तक शादी के लिए आप के सारे प्रयास विफल होंगे.

‘जीजी, महात्माजी बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे बहुत सुंदर कथा सुनाते हैं. उन के पंडाल में लाखों की भीड़ होती है. कह रहे थे, सेठजी दानदाताओं की सूची में शहरभर में आप का नाम सब से ऊपर रहना चाहिए. आप के भाईसाहब ने एक लाख रुपए की रसीद तुरंत कटवा ली. वे कह रहे थे कि शास्त्रों में लिखा है कि ‘दान दिए धन बढ़े’ दान से बड़ा कोई भी धर्म नहीं है.

‘महात्माजी खुश हो कर बोले थे कि सेठजी, आप की बिटिया अब मेरी बिटिया हुई, इसलिए आप बिलकुल चिंता न करें. उस के विवाह के लिए मैं खुद पूजापाठ करूंगा. आप को कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है.’ मंजुला अपने पति अनिरुद्ध को बताए जा रही थी, ‘भाभी कह रही थीं कि नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर महात्माजी भाईसाहब के हाथों से हवन करवाएंगे.’

‘वाह, आप के भाईसाहब का कोई जवाब नहीं है. अरे, जिन को महात्मा कहा जा रहा है वे महात्मा थोड़े ही हैं, वे तो ठग हैं, जो आम जनता को अपनी बातों के जाल में फंसा कर दिनदहाड़े ठगते हैं. छोड़ो, मेरा मूड खराब हो गया इस तरह की बेवकूफी की बातें सुन कर.’

‘इसीलिए तो आप से मैं कभी कुछ बताती ही नहीं हूं. जातिपांति के मामले में तो वे इतने कट्टर हैं कि घर या दुकान, कहीं भी नौकर या मजदूर रखने से पहले उस की जाति जरूर पूछेंगे.’ ‘मान गए आप के भाईसाहब को. वे आज भी 18वीं शताब्दी में जी रहे हैं. मेरा तो सिर भारी हो गया है. एक गिलास ठंडा पानी पिलाओ.’

‘अब तो आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि वे कितने रूढि़वादी और पुराने खयालों के हैं. आप भूल कर भी उन के सामने कभी भी ये सब बातें मत कीजिएगा.’

अनिरुद्ध बोले, ‘कम से कम एक बार श्रेयसी को अपने मन की बात भाईसाहब से कहनी चाहिए.’

‘अनिरुद्ध, आप समझते नहीं हैं, लड़की में परिवार वालों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं होती. उस के मन में समाज का डर, मांबाप की इज्जत चले जाने का ऐसा डर होता है कि वह अपने जीवन, प्यार और कैरियर सब की बलि दे कर खुद को सदा के लिए कुरबान कर देती है.’

‘इस का मतलब तो यह है कि बड़े भाईसाहब ने तुम्हारे साथ भी अन्याय किया था.’

‘मेरे साथ भला क्या अन्याय किया था?’ ‘तुम्हारी शादी जल्दी करने की हड़बड़ी देख मेरा माथा ठनका था. क्या सोचती हो, मैं नासमझ था. तुम्हारा उदास चेहरा, रातदिन तुम्हारी बहती आंखें, मुझे देखते ही तुम्हारी थरथराहट, संबंध बनाते समय तुम्हारी उदासीनता, तुम्हारी उपेक्षा, कमरा बंद कर के रोनाबिलखना, प्रथम रात्रि को ही तुम्हारी आंसुओं से भीगा हुआ तकिया देख कर मैं सब समझ गया था. ‘तुम्हारी भाभी का पकड़ कर फेरा डलवाना. तुम्हारे कानों में कभी दीदी फुसफुसा रही थीं तो कभी तुम्हारी बूआ. विदा के समय भाईसाहब के क्रोधित चेहरे ने तो पूरी तसवीर साफ कर दी थी. उन का बारबार कहना, ‘ससुराल में मेरी नाक मत कटवाना’ मेरे लिए काफी था.

‘मैं परेशान तो था, परंतु धैर्यपूर्वक तुम्हारे सभी कार्यकलापों को देखता रहा और चुप रहा. वह तो उन्मुक्त पैदा हुआ तो उस से ममता हो जाने के बाद तुम पूर्णरूप से मेरी हो पाई थीं.’ यह सब सुन कर मंजुला की अंतर्रात्मा कांप उठी थी. अनिरुद्ध ने तो आज उस की पूरी जन्मपत्री ही खोल कर पढ़ डाली थी. इधर उन्मुक्त और छवि शादी के लिए शौपिंग में लगे हुए थे. आयुषी भी अपने लिए लहंगा ले आई थी. परंतु अभी तक श्रेयसी से किसी की बात नहीं हो पाई थी, इसलिए मंजुला का मन उचटाउचटा सा था. एक दिन कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘‘रौबर्ट बहुत उदास था, उस ने बताया कि श्रेयसी के मम्मीपापा आए थे और उस को अपने साथ ले गए. उस के बाद से उस का फोन बंद है. सर, एक बार उस से बात करवा दीजिए.’’

उदास मन से ही सही, श्रेयसी को देने के लिए, मंजुला अच्छा सा सैट ले आई थी. शादी में 4-5 दिन ही बाकी थे कि मंजुला का फोन बज उठा. उधर भाईसाहब थे, ‘‘मंजुला, श्रेयसी घर से भाग गई. वह हम लोगों के लिए आज से मर चुकी है.’’ और उन्होंने फोन काट दिया था. घर में सन्नाटा छा गया था. सब एकदूसरे से मुंह चुरा रहे थे. मंजुला झटके से उठी, ‘‘अनिरुद्ध जल्दी चलिए.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हम दोनों श्रेयसी का कन्यादान ले कर उस को उस के प्यार से मिला दें. मुझे मालूम है, इस समय श्रेयसी कहां होगी. जल्दी चलिए, कहीं देर न हो जाए.’’ बरसों बाद आज मंजुला अपने साहस पर खुद हैरान थी.

उन्मुक्त बोला, ‘‘मां, भाई के बिना बहन की शादी अच्छी नहीं लगेगी. मैं भी चल रहा हूं. आप लोग जल्दी आइए, मैं गाड़ी निकालता हूं.’’

छवि और आयुषी जल्दीजल्दी लहंगा ले कर निकलीं. दोनों आपस में बात करने लगीं, ‘‘श्रेयसी दी, लहंगा पहन कर परी सी लगेंगी.’’ सब जल्दीजल्दी निकले और खिड़की से आए हवा के तेज झोंके ने श्रेयसी की शादी के कार्ड को कटीपतंग के समान घर से बाहर फेंक दिया था.

Raksha Bandhan:अंतत- भाग 1- क्या भाई के सितमों का जवाब दे पाई माधवी

बैठक में तनावभरी खामोशी छा गई थी. हम सब की नजरें पिताजी के चेहरे पर कुछ टटोल रही थीं, लेकिन उन का चेहरा सपाट और भावहीन था. तपन उन के सामने चेहरा झुकाए बैठा था. शायद वह समझ नहीं पा रहा था कि अब क्या कहे. पिताजी के दृढ़ इनकार ने उस की हर अनुनयविनय को ठुकरा दिया था.

सहसा वह भर्राए स्वर में बोला, ‘‘मैं जानता हूं, मामाजी, आप हम से बहुत नाराज हैं. इस के लिए मुझे जो चाहे सजा दे लें, किंतु मेरे साथ चलने से इनकार न करें. आप नहीं चलेंगे तो दीदी का कन्यादान कौन करेगा?’’

पिताजी दूसरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘देखो, यहां यह सब नाटक करने की जरूरत नहीं है. मेरा फैसला तुम ने सुन लिया है, जा कर अपनी मां से कह देना कि मेरा उन से हर रिश्ता बहुत पहले ही खत्म हो गया था. टूटे हुए रिश्ते की डोर को जोड़ने का प्रयास व्यर्थ है. रही बात कन्यादान की, यह काम कोई पड़ोसी भी कर सकता है.’’

‘‘रघुवीर, तुझे क्या हो गया है,’’ दादी ने सहसा पिताजी को डपट दिया.

मां और भैया के साथ मैं भी वहां उपस्थित थी. लेकिन पिताजी का मिजाज देख कर उन्हें टोकने या कुछ कहने का साहस हम लोगों में नहीं था. उन के गुस्से से सभी डरते थे, यहां तक कि उन्हें जन्म देने वाली दादी भी.

मगर इस समय उन के लिए चुप रहना कठिन हो गया था. आखिर तपन भी तो उन का नाती था. उसे दुत्कारा जाना वे बरदाश्त न कर सकीं और बोलीं, ‘‘तपन जब इतना कह रहा है तो तू मान क्यों नहीं जाता. आखिर तान्या तेरी भांजी है.’’

‘‘मां, तुम चुप रहो,’’ दादी के हस्तक्षेप से पिताजी बौखला उठे, ‘‘तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं ने तुम्हें तो कभी वहां जाने से मना नहीं किया. लेकिन मैं नहीं जाऊंगा. मेरी कोई बहन नहीं, कोई भांजी नहीं.’’

‘‘अब चुप भी कर,’’ दादी ने झिड़क कर कहा, ‘‘खून के रिश्ते इस तरह तोड़ने से टूट नहीं जाते और फिर मैं अभी जिंदा हूं, तुझे और माधवी को मैं ने अपनी कोख से जना है. तुम दोनों मेरे लिए एकसमान हो. तुझे भांजी का कन्यादान करने जाना होगा.’’

‘‘मैं नहीं जाऊंगा,’’ पिताजी बोले, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि सबकुछ जानने के बाद भी तुम ऐसा क्यों कह रही हो.’’

‘‘मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि माधवी मेरी बेटी है और तेरी बहन और तुझे उस ने अपनी बेटी का कन्यादान करने के लिए बुलाया है,’’ दादी के स्वर में आवेश और खिन्नता थी, ‘‘तू कैसा भाई है. क्या तेरे सीने में दिल नहीं. एक जरा सी बात को बरसों से सीने से लगाए बैठा है.’’

‘‘जरा सी बात?’’ पिताजी चिढ़ गए थे, ‘‘जाने दो, मां, क्यों मेरा मुंह खुलवाना चाहती हो. तुम्हें जो करना है करो, पर मुझे मजबूर मत करो,’’ कह कर वे झटके से बाहर चले गए.

दादी एक ठंडी सांस भर कर मौन हो गईं. तपन का चेहरा यों हो गया जैसे वह अभी रो देगा. दादी उसे दिलासा देने लगीं तो वह सचमुच ही उन के कंधे पर सिर रख कर फूट पड़ा, ‘‘नानीजी, ऐसा क्यों हो रहा है. क्या मामाजी हमें कभी माफ नहीं करेंगे. अब लौट कर मां को क्या मुंह दिखाऊंगा. उन्होंने तो पहले ही शंका व्यक्त की थी, पर मैं ने कहा कि मामाजी को ले कर ही लौटूंगा.’’

‘‘धैर्य रख, बेटा, मैं तेरे मन की व्यथा समझती हूं. क्या कहूं, इस रघुवीर को. इस की अक्ल पर तो पत्थर पड़ गए हैं. अपनी ही बहन को अपना दुश्मन समझ बैठा है,’’ दादी ने तपन के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘खैर, तू चिंता मत कर, अपनी मां से कहना वह निश्चिंत हो कर विवाह की तैयारी करे, सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं धीरे से तपन के पास जा बैठी और बोली, ‘‘बूआ से कहना, दीदी की शादी में मैं और समीर भैया भी दादी के साथ आएंगे.’’

तपन हौले से मुसकरा दिया. उसे इस बात से खुशी हुई थी. वह उसी समय वापस जाने की तैयारी करने लगा. हम सब ने उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहा, आखिर वह हमारे यहां पहली बार आया था. पर तपन ने यह कह इनकार कर दिया कि वहां बहुत से काम पड़े हैं. आखिर उसे ही तो मां के साथ विवाह की सारी तैयारियां पूरी करनी हैं.

तपन का कहना सही था. फिर उस से रुकने का आग्रह किसी ने नहीं किया और वह चला गया.

तपन के अचानक आगमन से घर में एक अव्यक्त तनाव सा छा गया था. उस के जाने के बाद सबकुछ फिर सहज हो गया. पर मैं तपन के विषय में ही सोचती रही. वह मुझ से 2 वर्ष छोटा था, मगर परिस्थितियों ने उसे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था. कितनी उम्मीदें ले कर वह यहां आया था और किस तरह नाउम्मीद हो कर गया. दादी ने उसे एक आस तो बंधा दी पर क्या वे पिताजी के इनकार को इकरार में बदल पाएंगी?

मुझे यह सवाल भीतर तक मथ रहा था. पिताजी के हठी स्वभाव से सभी भलीभांति परिचित थे. मैं खुल कर उन से कुछ कहने का साहस तो नहीं जुटा सकी, लेकिन उन के फैसले के सख्त खिलाफ थी.

दादी ने ठीक ही तो कहा था कि खून के रिश्ते तोड़ने से टूट नहीं जाते. क्या पिताजी इस बात को नहीं समझते. वे खूब समझते हैं. तब क्या यह उन के भीतर का अहंकार है या अब तक वर्षों पूर्व हुए हादसे से उबर नहीं सके हैं? शायद दोनों ही बातें थीं. पिताजी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे भूल पाना इतना सहज भी तो नहीं था. हां, वे हृदय की विशालता का परिचय दे कर सबकुछ बिसरा तो सकते थे, किंतु यह न हो सका.

मैं नहीं जानती कि वास्तव में हुआ क्या था और दोष किस का था. यह घटना मेरे जन्म से भी पहले की है. मैं 20 की होने को आई हूं. मैं ने तो जो कुछ जानासुना, दादी के मुंह से ही सुना. एक बार नहीं, बल्कि कईकई बार दादी ने मुझे वह कहानी सुनाई. कहानी नहीं, बल्कि यथार्थ, दादी, पिताजी, बूआ और फूफा का भोगा हुआ यथार्थ.

दादी कहतीं कि फूफा बेकुसूर थे. लेकिन पिताजी कहते, सारा दोष उन्हीं का था. उन्होंने ही फर्म से गबन किया था. मैं अब तक समझ नहीं पाई, किसे सच मानूं? हां, इतना अवश्य जानती हूं, दोष चाहे किसी का भी रहा हो, सजा दोनों ने ही पाई. इधर पिताजी ने बहन और जीजा का साथ खोया तो उधर बूआ ने भाई का साथ छोड़ा और पति को हमेशा के लिए खो दिया. निर्दोष बूआ दोनों ही तरफ से छली गईं.

मेरा मन उस अतीत की ओर लौटने लगा, जो अपने भीतर दुख के अनेक प्रसंग समेटे हुए था. दादी के कुल 3 बच्चे थे, सब से बड़े ताऊजी, फिर बूआ और उस के बाद पिताजी. तीनों पढ़ेपलेबढ़े, शादियां हुईं.

उन दिनों ताऊजी और पिताजी ने मिल कर एक फर्म खोली थी. लेकिन अर्थाभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसी समय फूफाजी ने अपना कुछ पैसा फर्म में लगाने की इच्छा व्यक्त की. ताऊजी और पिताजी को और क्या चाहिए था, उन्होंने फूफाजी को हाथोंहाथ लिया. इस तरह साझे में शुरू हुआ व्यवसाय कुछ ही समय में चमक उठा और फलनेफूलने लगा. काम फैल जाने से तीनों साझेदारों की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी.

औफिस का अधिकतर काम फूफाजी संभालते थे. पिताजी और ताऊजी बाहर का काम देखते थे. कुल मिला कर सबकुछ बहुत ठीकठाक चल रहा था. मगर अचानक ऐसा हुआ कि सब गड़बड़ा गया. ऐसी किसी घटना की, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

हैदराबाद डिलाइट: प्रज्ञा और मनीष के साथ कौन-सी घटना घटी

‘‘मनीष ने आज औफिस में ठीक से लंच भी नहीं किया था. बस 2 कौफी और 1 सैंडविच पर पूरा दिन गुजर गया था. रास्ते में भयंकर ट्रैफिक जाम था. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए थे.

मनीष ने घर पहुंचते ही कपड़े बदले और अपनी पत्नी भावना से बोला, ‘‘जल्दी खाना लगायो यार, कस कर भूख लगी है.’’

भावना मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों चिल्ला रहे हो, गुगु अभी सोई है. रसोई में खाना लगा हुआ है, ले लो.’’

खाने को देखते ही मनीष की भूख गायब हो गई. पानीदार तरी में कुछ तोरी के टुकड़े तैर रहे थे और सूखे आलुओं में कहींकहीं काला जीरा दिख रहा था. मनीष का मन हुआ थाली फेंक दे. बिना स्वाद किसी तरह से मनीष ने निवाले गटके और बाहर जाने के लिए जैसे ही चप्पलें पहन रहा था कि भावना दनदनाते हुएआ गई और बोली, ‘‘अब फिर से कहां जा रहे हो?’’

मनीष खीजते हुए बोला, ‘‘इतने स्वादिष्ठ खाने के बाद पान खाने जा रहा हूं.’’

भावना ने भी मानो आज लड़ाई करने की ठान रखी थी. बोली, ‘‘हां मालूम है साहब कुछ और करने जा रहे हैं. बच्चे क्या अकेले मेरे हैं? सारा दिन बच्चे देखो, रसोई में पकवान बनाओ और फिर इन के नखरे.’’

मनीष की कार न चाहते हुए भी हैदराबाद डिलाइट के सामने खड़ी थी. वहां की चिकन बिरयानी उसे बेहद पसंद थी. अंदर बेहद भीड़ थी. बस एक टेबल खाली थी जहां पर पहले से एक लड़की बैठे हुए बिरयानी ही खा रही थी.

मनीष लड़की के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?’’

लड़की बोली, ‘‘जरूर, आज यहां बेहद भीड़ है.’’

मनीष ने बिरयानी और कोल्ड ड्रिंक और्डर करी और मोबाइल में गेम खेलने लगा. तभी मनीष के फोन की घंटी बजी.

मनीष जल्दबाजी में यह बात भूल गया था कि फोन स्पीकर पर है. जैसे ही उस ने फोन लिया, उधर से भावना के चिल्लाने की आवाज आने लगी, ‘‘मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूं… कहां हो? अगर फौरन वापस न आए तो पूरी रात बाहर रहना.’’

मनीष एकाएक शर्म से पानीपानी हो गया. तभी सामने बैठी हुई लड़की खिलखिलाते हंसते हुए बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मैडम ने वाकई दरवाजा नहीं खोला तो क्या करोगे?’’

मनीष झेंप गया और बोला, ‘‘लगता है तुम भी अपने पति के साथ ऐसा कुछ करती हो.’’

लड़की बोली, ‘‘हम तो भई इस पतिपत्नी के खेल से आजाद हैं.’’

इसी बीच मनीष की बिरयानी भी आ गई थी और उस लड़की की फिरनी. लड़की ने खुद ही पहल करते हुए अपना नाम बताया. लड़की का नाम प्रज्ञा था और वह एक स्थानीय कंपनी में इंजीनियर थी. दोनों कुछ देर तक हैदराबाद डिलाइट की बिरयानी की तारीफ करते रहे.

प्रज्ञा ने फिर मनीष को फिरनी भी ट्राई करने के लिए कहा. मनीष बिल चुकाते हुए बोला, ‘‘अब अगर कुछ देर और रुका तो वाकई बाहर ही रुकना पड़ेगा.’’

घर आ कर मनीष के ऊपर भावना की बातों का कोई असर नहीं हो रहा था.चिकन बिरयानी खा कर उस का मन तृप्त हो चुका था, मगर भावना के सामने उसे ?ाठ ही बोलना पड़ा कि वह बाहर टहलने निकला था. मनीष का कितना मन करता था कि वह भावना के साथ अपने मन का खाना खा सके. मगर भावना तो अंडे पर भी नाकभौं सिकोड़ती थी. हर समय कभी एकादशी, कभी पूर्णमासी तो कभी अमावस्या का व्रत चलता रहता था.

मनीष को शादी के बाद ऐसे लगने लगा था कि वह घर में नहीं किसी होस्टल में रह रहा है. भावना को मनीष की लहसुन खाने से ले कर  चिकन खाने तक से प्रौब्लम थी. उसे लगता था कि ब्राह्मण हो कर भी मनीष का ये सब खानापीना उसे शोभा नहीं देता. मगर मनीष को लगता, भावना जो मांसमछली से परहेज करती है पर क्या यह काफी है उस के करीब जाने के लिए.

भावना का हर छोटीबड़ी बात पर काम वाली पर जाहिलों की तरह चिल्लाना, हर महीने छोटीछोटी बातों पर उस की तनख्वाह काट लेना, मंदिर में कीर्तन के समय बुराई करना क्या ये सब करने से ब्राह्मण ब्राह्मण कहलाता है?

रविवार की सुबह मनीष उठने के बाद भी बिस्तर पर यों ही अलसाया से लेटे रहना चाहता था. तभी भावना जलती नजरों से उस के सामने आई और हैदराबाद डिलाइट का बिल फेंकते हुए बोली, ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें ?ाठ बोलते हुए? कैसे ब्राह्मण हो कर झूठ बोलते

हो? चिकन खाते हो? तुम ने कल मेरा व्रत भंग कर दिया.’’ मनीष को समझ नहीं आया उस के चिकन बिरयानी खाने से भावना का व्रत कैसे भंग हो गया.

पूरे 2 घंटे तक चाय की प्रतीक्षा करने के बाद मनीष ने खुद ही अपनी और भावना की चाय बनाई और भावना को चाय पकड़ाते हुए बोला, ‘‘भावना, मैं क्या करूं यार मुझ से यह घासफूस नहीं खाया जाता है.’’

भावना आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोली, ‘‘हां ये सब तो मैं अपने लिए कर रही हूं. शादी से पहले मेरे घर वालों ने साफसाफ बता दिया था कि मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं. मगर तुम्हारे घर वालों ने कहा था कि लड़का कभीकभी औफिस पार्टी में नौनवेज खा लेता है. रोज खाएगा यह भी नहीं बताया था.’’

घर के तनाव से मुक्त होने के लिए मनीष दोनों बच्चों को कार में बैठा कर पार्क ले गया. तभी पीछे से किसी महिला की आवाज सुनाई दी. पलट कर देखा तो प्रज्ञा खड़ी थी.

‘‘आप भी इस पार्क में आते हैं अपने बालगोपाल को ले कर?’’ मनीष मुसकराते हुए बोला, ‘‘ताकि इन की मम्मी नाश्ता बना सके.’’

रात के अंधेरे में जो प्रज्ञा मनीष को लड़की लग रही थी, मगर दिन के उजाले में प्रज्ञा मनीष को अपनी हमउम्र ही लग रही थी. प्रज्ञा कुछ देर तक गुगू और आर्य के साथ बात करती रही और फिर मनीष से बोली, ‘‘चलो आप

लोगों को आज रुस्तम के बड़े सांभर का स्वाद चखाया जाए.’’

जब तक मनीष और बच्चों ने बड़ा सांभर खाया तब तक भावना का फोन आ गया. भावना ने नाश्ते में दलिया परोस दिया. मनीष ने मन ही मन प्रज्ञा को धन्यवाद किया वरना यह बेस्वाद दलिया मनीष को चिढ़ाने के लिए काफी था.

आज संडे था. मनीष को लगा शायद भावना लंच में कुछ अच्छा सा बना दे, मगर भावना का आज घर की सुखशांति के लिए एकादशी का व्रत था.

मनीष की शादी की यह एक ऐसी समस्या थी जिसे शायद कोई समस्या भी नहीं मानता था. मनीष की मम्मी के अनुसार मनीष की जीभ बहुत चटोरी है. अगर भावना मनीष की सेहत को ध्यान में रख कर उसे हैल्दी खाना देती है तो इस में क्या गलत है?’’

मनीष कैसे बताए कि उस के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. अपने ही घर में वह अपनी पसंद का खाना नहीं खा सकता है.

मनीष को आज भी याद है, जब शादी के बाद पहली बार भावना और मनीष ने हैदराबाद में नई गृहस्थी शुरू करी थी. अगले दिन प्यार में मनीष ने नाश्ता बनाया था.उसे मालूम था कि भावना वैजिटेरियन है इसलिए उस ने भावना के लिए वेज सैंडविच और अपने लिए आमलेट बनाया था. मगर भावना ने इतना शोर मचाया कि ऐसा लगा कि मनीष ने कोई अपराध कर दिया हो.

‘‘तुम ने रसोई में अंडा कैसे पका लिया. पूरे घर का शुद्धिकरण करना होगा.’’ मनीष को समझ ही नहीं आता था कि पढ़लिख कर भी भावना की सोच ऐसी कैसे है.

मनीष ने कभी भावना को किसी भी बात के लिए फोर्स नहीं किया था. मगर भावना ने मनीष के खानपान पर पहरे लगा रखे थे. नतीजा यह हुआ कि मनीष अधिकतर खाना चिढ़ कर बाहर ही खाता. इस कारण उस का कोलैस्ट्रौल और तनाव दोनों ही बढ़ रहे थे.

भावना को जब भी पता चलता मनीष बाहर से नौनवेज खा कर आया, वह न तो उसे करीब आने देती और न ही उस से बोलती. नतीजा यह हुआ अब मनीष और भावना के रिश्ते में झूठ भी पांव पसारने लगा था.

कभीकभी मनीष को लगता कि उन के रिश्ते के कारण बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है, मगर भावना जरा भी बदलना नहीं चाहती थी. उसे मनीष के बाहर भी नौनवेज खाने से समस्या थी.

करीब 10 दिन बाद ऐसे ही एक झगड़े के बाद मनीष ने हैदराबाद डिलाइट का रुख किया. वहां पर आज भी प्रज्ञा बैठी थी.

मनीष प्रज्ञा के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘तुम क्या यहां पर ही डिनर करती हो?’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘और अगर मैं तुम से पूछूं तो?’’

मनीष ने कहा, ‘‘चलो आज मैं तुम्हें ट्रीट देता हूं.’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘आज यहां चिकन की कोई आइटम नहीं है. मैं तो बिरयानी का पार्सल लेने आई हूं, तुम घर चलो मैं ने मसाला अंडा बना रखा है.’’

मनीष बोला, ‘‘इस समय?’’

‘‘चिंता न करो, घर पर मैं ही अपना परिवार हूं.’’

न जाने क्यों मनीष बिना किसी जानपहचान के भी प्रज्ञा के साथ चला गया. प्रज्ञा का घर मनीष के घर से न ज्यादा दूर था और न ही एकदम करीब. प्रज्ञा का घर छोटा मगर खूबसूरत था. बड़े ही नफासत से प्रज्ञा ने बिरयानी, मसाला अंडा, पापड़, रायता सजा दिया था. खाना बेहद ही लजीज था और उस से भी अधिक लजीज थी प्रज्ञा की बातें और सब से बड़ी बात वो आजादी जो उसे आज पहली बार खाते हुए महसूस हुई थी.

न कभी मनीष ने प्रज्ञा की निजी जिंदगी के बारे में कुछ पूछा और न ही कभी प्रज्ञा ने मनीष की निजी जिंदगी में दखल दिया. एक मौन अनुबंध था दोनों के बीच और इस मौन अनुबंध के भावों का गवाह हैदराबाद डिलाइट था. कभी हर हफ्ते तो कभी महीने में 2 बार जिसे जैसे सुविधा होती दोनों हैदराबाद डिलाइट में मिल लेते थे. बहुत बार मनीष को लगता क्या अपनी पसंद का आजादी से खाना खाना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसी कारण वह प्रज्ञा के करीब जा रहा है. उधर प्रज्ञा के लिए भी मनीष के साथ अपनी दोस्ती एक पहेली सी लगती जो खानपान पर आधारित है.

धीरेधीरे हैदराबाद डिलाइट प्रज्ञा और मनीष की जिंदगी का वह जायका बन गया जिस ने दोनों की फीकी जिंदगी में स्वाद भर दिया.

Raksha Bandhan: राखी का उपहार

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

‘‘आप को सभी की फिक्र है पर अपने घर को आप ने कभी देखा है?’’ अचानक ही नेहा मुखर हो उठी थी, ‘‘भैया, कभी फुरसत के 2 पल निकाल कर भाभी की तरफ तो देखो. क्या उन की सूनी आंखें आप से कुछ पूछती नहीं हैं?’’

‘‘ओह, तो यह बात है. उस ने जरूर तुम से मेरी चुगली की है. जो कुछ कहना था मुझ से कहती, तुम्हें क्यों मोहरा बनाया?’’

‘‘न भैया न, ऐसा न कहो,’’ नेहा का दर्द भरा स्वर उभरा, ‘‘बस, उन का निस्तेज चेहरा और सूनी आंखें देख कर ही मुझे उन के दर्द का एहसास हुआ. उन्होंने मुझ से कुछ नहीं कहा.’’ फिर वह मुझ से पूछने लगी, ‘‘बड़े मनोयोग से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी को सजाती और संवारती भाभी के प्रति क्या आप ने कभी कोई उत्साह दिखाया है? आप को याद होगा, जब भाभी शादी कर के इस परिवार में आई थीं, तो हंसना, खिलखिलाना, हाजिरजवाबी सभी कुछ उन के स्वभाव में कूटकूट कर भरा था. लेकिन आप के शुष्क स्वभाव से सब कुछ दबता चला गया.

‘‘भैया आप अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में इतने अनुदार क्यों हो जबकि यह तो भाभी का हक है?’’

‘‘हक… उसे हक देने में मैं ने कभी कोई कोताही नहीं बरती,’’ मैं उस समय अपना आपा खो बैठा था, ‘‘क्या कमी है स्वाति को? नौकरचाकर, बड़ा घर, ऐशोआराम के सभी सामान क्या कुछ नहीं है उस के पास. फिर भी वह…’’

‘‘अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन शायद आप को सतही लगता हो, लेकिन भैया प्रेम की अभिव्यक्ति भी एक औरत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पर नेहा, क्या तुम यह चाहती हो कि मैं अपना सारा काम छोड़ कर स्वाति के पल्लू से जा बंधूं? अब मैं कोई दिलफेंक आशिक नहीं हूं, बल्कि ऐसा प्रौढ हूं जिस से अब सिर्फ समझदारी की ही अपेक्षा की जा सकती है.’’ ‘‘पर भैया मैं यह थोड़े ही न कह रही हूं कि आप अपना सारा कामधाम छोड़ कर बैठ जाओ. बल्कि मेरा तो सिर्फ यह कहना है कि आप अपने बिजी शैड्यूल में से थोड़ा सा वक्त भाभी के लिए भी निकाल लो. भाभी को आप का पूरा नहीं बल्कि थोड़ा सा समय चाहिए, जब आप उन की सुनें और कुछ अपनी कहें. ‘‘सराहना, प्रशंसा तो ऐसे टौनिक हैं जिन से शादीशुदा जीवन फलताफूलता है. आप सिर्फ उन छोटीछोटी खुशियों को समेट लो, जो अनायास ही आप की मुट्ठी से फिसलती जा रही हैं. कभी शांत मन से उन का दिल पढ़ कर तो देखो, आप को वहां झील सी गहराई तो मिलेगी, लेकिन चंचल नदी सा अल्हड़पन नदारद मिलेगा.’’

अचानक ही वह मेरे नजदीक आ गई और उस ने चुपके से कल की पिक्चर के 2 टिकट मुझे पकड़ा दिए. फिर भरे मन से बोली, ‘‘भैया, इस से पहले कि भाभी डिप्रेशन में चली जाएं संभाल लो उन को.’’ ‘‘पर नेहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वह इतनी खिन्न, इतनी परेशान है,’’ मैं अभी भी नेहा की बात मानने को तैयार नहीं था.

‘‘भैया, ऊपरी तौर पर तो भाभी सामान्य ही लगती हैं, लेकिन आप को उन का सूना मन पढ़ना होगा. आप जिस सुख और वैभव की बात कर रहे हो, उस का लेशमात्र भी लोभ नहीं है भाभी को. एक बार उन की अलमारी खोल कर देखो, तो आप को पता चलेगा कि आप के दिए हुए सारे महंगे उपहार ज्यों के त्यों पड़े हैं और कुछ उपहारों की तो पैकिंग भी नहीं खुली है. उन्होंने आप के लिए क्या नहीं किया. आप को और आप के बेटों अंशु व नमन को शिखर तक पहुंचाने में उन का योगदान कम नहीं रहा. मांबाबूजी और मेरे प्रति अपने कर्तव्यों को उन्होंने बिना शिकायत पूरा किया, तो आप अपने कर्तव्य से विमुख क्यों हो रहे हैं?’’

‘‘पर पगली, पहले तू यह तो बता कि इतने ज्ञान की बातें कहां से सीख गई? तू तो अब तक एक अल्हड़ और बेपरवाह सी लड़की थी,’’ मैं नेहा की बातों से अचंभे में था.

‘‘क्यों भैया, क्या मैं शादीशुदा नहीं हूं. मेरा भी एक सफल गृहस्थ जीवन है. समर का स्नेहिल साथ मुझे एक ऊर्जा से भर देता है. सच भैया, उन की एक प्यार भरी मुसकान ही मेरी सारी थकान दूर कर देती है,’’ इतना कहतेकहते नेहा के गाल शर्म से लाल हो गए थे. ‘‘अच्छा, ये सब छोड़ो भैया और जरा मेरी बातों पर गौर करो. अगर आप 1 कदम भी उन की तरफ बढ़ाओगे तो वे 10 कदम बढ़ा कर आप के पास आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, अब बस भी कर. मुझे औफिस जाने दे, लेट हो रहा हूं मैं,’’ इतना कह कर मैं तेजी से बाहर निकल गया था. वैसे तो मैं सारा दिन औफिस में काम करता रहा पर मेरा मन नेहा की बातों में ही उलझा रहा. फिर घर लौटा तो यही सब सोचतेसोचते कब मेरी आंख लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मैं उसी आरामकुरसी पर सिर टिकाएटिकाए सो गया.

‘‘भैया ये लो चाय की ट्रे और अंदर जा कर भाभी के साथ चाय पीओ,’’ नेहा की इस आवाज से मेरी आंख खुलीं.

‘‘तू भी अपना कप ले आ, तीनों एकसाथ ही चाय पिएंगे,’’ मैं आंखें मलता हुआ बोला.

‘‘न बाबा न, मुझे कबाब में हड्डी बनने का कोई शौक नहीं है,’’ इतना कह कर वह मुझे चाय की ट्रे थमा कर अंदर चली गई. जब मैं ट्रे ले कर स्वाति के पास पहुंचा तो मुझे अचानक देख कर वह हड़बड़ा गई, ‘‘आप चाय ले कर आए, मुझे जगा दिया होता. और नेहा को भी चाय देनी है, मैं दे कर आती हूं,’’ कह कर वह बैड से उठने लगी तो मैं उस से बोला, ‘‘मैडम, इतनी परेशान न हो, नेहा भी चाय पी रही है.’’ फिर मैं ने चाय का कप उस की तरफ बढ़ा दिया. चाय पीते वक्त जब मैं ने स्वाति की तरफ देखा तो पाया कि नेहा सही कह रही है. हर समय हंसती रहने वाली स्वाति के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी थी, जिसे मैं आज तक या तो देख नहीं पाया था या उस की अनदेखी करता आया था. जितनी देर में हम ने चाय खत्म की, उतनी देर तक स्वाति चुप ही रही.

‘‘अच्छा भाई. अब आप दोनों जल्दीजल्दी नहाधो कर तैयार हो जाओ, नहीं तो आप लोगों की मूवी मिस हो जाएगी,’’ नेहा आ कर हमारे खाली कप उठाते हुए बोली.

‘‘लेकिन नेहा, तुम तो बिलकुल अकेली रह जाओगी. तुम भी चलो न हमारे साथ,’’ मैं उस से बोला.

‘‘न बाबा न, मैं तो आप लोगों के साथ बिलकुल भी नहीं चल सकती क्योंकि मेरा तो अपने कालेज की सहेलियों के साथ सारा दिन मौजमस्ती करने का प्रोग्राम है. और हां, शायद डिनर भी बाहर ही हो जाए.’’ फिर नेहा और हम दोनों तैयार हो गए. नेहा को हम ने उस की सहेली के यहां ड्रौप कर दिया फिर हम लोग पिक्चर हौल की तरफ बढ़ गए.

‘‘कुछ तो बोलो. क्यों इतनी चुप हो?’’ मैं ने कार ड्राइव करते समय स्वाति से कहा पर वह फिर भी चुप ही रही. मैं ने सड़क के किनारे अपनी कार रोक दी और उस का सिर अपने कंधे पर टिका दिया. मेरे प्यार की ऊष्मा पाते ही स्वाति फूटफूट कर रो पड़ी और थोड़ी देर रो लेने के बाद जब उस के मन का आवेग शांत हुआ, तब मैं ने अपनी कार पिक्चर हौल की तरफ बढ़ा दी. मूवी वाकई बढि़या थी, उस के बाद हम ने डिनर भी बाहर ही किया. घर पहुंचने पर हम दोनों के बीच वह सब हुआ, जिसे हम लगभग भूल चुके थे. बैड के 2 सिरों पर सोने वाले हम पतिपत्नी के बीच पसरी हुई दूरी आज अचानक ही गायब हो गई थी और तब हम दोनों दो जिस्म और एक जान हो गए थे. मेरा साथ, मेरा प्यार पा कर स्वाति तो एक नवयौवना सी खिल उठी थी. फिर तो उस ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया था. हम दोनों थोड़ी देर सो कर सुबह जब उठे, तब हम दोनों ने ही एक ऐसी ताजगी को महसूस किया जिसे शायद हम दोनों ही भूल चुके थे. बारिश के गहन उमस के बाद आई बारिश के मौसम की पहली बारिश से जैसे सारी प्रकृति नवजीवन पा जाती है, वैसे ही हमारे मृतप्राय संबंध मेरी इस पहल से मानो जीवंत हो उठे थे.

रक्षाबंधन वाले दिन जब मैं ने नेहा को उपहारस्वरूप हीरे की अंगूठी दी तो वह भावविभोर सी हो उठी और बोली, ‘‘खाली इस अंगूठी से काम नहीं चलेगा, मुझे तो कुछ और भी चाहिए.’’

‘‘तो बता न और क्या चाहिए तुझे?’’ मैं मिठाई खाते हुए बोला. ‘‘इस अंगूठी के साथसाथ एक वादा भी चाहिए और वह यह कि आज के बाद आप दोनों ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगे. मैं जब भी इंडिया आऊंगी मुझे यह घर एक घर लगना चाहिए, कोई मकान नहीं.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, आज के बाद ऐसा ही होगा,’’ इतना कह कर मैं ने उसे अपने गले से लगा लिया. मेरा मन अचानक ही भर आया और मैं भावुक होते हुए बोला, ‘‘वैसे तो रक्षाबंधन पर भाई ही बहन की रक्षा का जिम्मा लेते हैं पर यहां तो मेरी बहन मेरा उद्धार कर गई.’’ ‘‘यह जरूरी नहीं है भैया कि कर्तव्यों का जिम्मा सिर्फ भाइयों के ही हिस्से में आए. क्या बहनों का कोई कर्तव्य नहीं बनता? और वैसे भी अगर बात मायके की हो तो मैं तो क्या हर लड़की इस बात की पुरजोर कोशिश करेगी कि उस के मायके की खुशियां ताउम्र बनी रहें.’’ इतना कह कर वह रो पड़ी. तब स्वाति ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया

Raksha Bandhan: सोनाली की शादी- भाग 3- क्या बहन के लिए प्रणय ढूंढ पाया रिश्ता

कुछ सोच कर प्रणय ताड़देव जा पहुंचा. अचानक मनपसंद संस्था का द्वार खुला और बाबूभाई बाहर निकले, ‘‘सुनिए?’’

‘‘जी, आप ने मुझ से कुछ कहा?’’ प्रणय ने पूछा.

‘‘हां, मैं आप ही से बात करना चाहता हूं. मैं कई दिनों से नोट कर रहा हूं कि आप हमारे दफ्तर के आसपास मंडराते रहते हैं और जो भी ग्राहक आता है, उसे फुसला कर ले जाते हैं. क्या आप किसी प्रतिद्वंद्वी संस्था के लिए काम करते हैं?’’

‘‘जी नहीं, और न ही मुझे आप के ग्राहकों में कोई दिलचस्पी है.’’

‘‘मेरी आंखों में धूल झोंकने की कोशिश मत करो. मैं तुम्हारे हथकंडों से वाकिफ हूं. दरबान ने बताया है कि तुम कई बार हमारे ग्राहकों को बहका कर ले गए हो.’’

‘‘मैं आप के दफ्तर के बाहर किसी से भी मिलूं, बात करूं, इस से आप को क्या? यह इमारत तो आप की नहीं है. यह सड़क तो आप की नहीं है?’’ प्रणय ने बिगड़ कर कहा.

‘‘अरे, मुझे ऐसावैसा न समझना. मेरा नाम बाबूभाई है, क्या समझे? मैं इस इलाके का दादा हूं. बहुत होशियारी दिखाने की कोशिश की तो हाथपैर तोड़ कर रख दूंगा. अब यहां से चलते बनो, दोबारा मेरे दफ्तर के आसपास नजर आए तो तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा.’’

प्रणय ने वहां से खिसक जाने में ही भलाई समझी.

शाम को रणवीर सिंह के घर पहुंच कर उस ने घंटी बजाई तो एक स्थूलकाय, मूंछों वाले सज्जन ने द्वार खोला.

‘‘क्या रणवीर सिंह घर पर हैं?’’ प्रणय ने हौले से पूछा.

‘‘नहीं, वे व्यापार के सिलसिले में दिल्ली गए हुए हैं. आप कौन साहब हैं?’’

‘‘मैं उन का मित्र हूं.’’

‘‘उस के सारे मित्रों को तो मैं भलीभांति जानता हूं. आप को तो पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘मैं उन से कुछ रोज पहले मिला था…’’

‘‘आइए, अंदर आइए, कुछ ठंडावंडा पीजिए. मैं रणवीर का चाचा हूं, दिग्विजय सिंह.’’

वे उसे अंदर ले गए और खोदखोद कर प्रश्न करने लगे. जल्द ही उन्होंने प्रणय के मुंह से सब उगलवा लिया.

‘‘शादी?’’ वे भड़क गए. ‘‘अरे, जब घर में बड़ेबूढ़े मौजूद हैं तो इन छोकरों को अपने लिए लड़की तलाशने की क्या सूझी? हम लोग मर गए हैं क्या? और आप भी क्यों इस झमेले में अपना सिर खपा रहे हैं?’’

‘‘जी, मैं… नहीं तो, मेरी तो रणवीरजी से अचानक मुलाकात हो गई मनपसंद संस्था के बाहर.’’

‘‘मनपसंद संस्था किस चिडि़या का नाम है,’’ दिग्विजय सिंह के माथे पर बल पड़ गए.

‘‘यह एक वैवाहिक संस्था है. वहां पर जोडि़यां मिलाई जाती हैं, वहां के संचालक हैं, बाबूभाई.’’

‘‘बाबूभाई, कौन बाबूभाई?’’

‘‘बाबूभाई मनपसंद संस्था के संचालक हैं. वे अब तक पचासों शादियां करा चुके हैं.’’

‘‘अरे, बाबूभाई होता कौन है हमारे बेटे की शादी कराने वाला? उस की ऐसी जुर्रत कि हमारे घरेलू मामलों में दखल दे? उसे तो मैं देख लूंगा.’’

‘‘आप जरा उस से संभल कर रहें,’’ प्रणय ने डरतेडरते कहा, ‘‘वह बहुत खतरनाक आदमी है. ताड़देव इलाके का दादा है.’’

‘‘अरे, ऐसे बीसियों दादाओं को हम ने ठिकाने लगा दिया है. वह किस खेत की मूली है. अभी तुरंत जाते हैं, उस की सारी दादागीरी झाड़ देंगे. मेरा नाम भी दिग्विजय सिंह है. देखते हैं वह कितने पानी में है. अरे, कोई है?’’ वे दहाड़े, ‘‘हमारी कार निकालो.’’

प्रणय वहां से जान बचा कर भागा. नरीमन पौइंट पर वह हताश सा बैठा समुद्र की लहरों का उतारचढ़ाव देखता रहा.

‘‘हैलो, दोस्त,’’ सहसा उस के कानों में एक आवाज आई.

प्रणय ने चौंक कर देखा, सामने सतीश खड़ा था.

‘‘अरे यार, तुम?’’ प्रणय खुशी से चिल्लाया, ‘‘इतने दिन कहां गायब रहे? मैं ने तुम्हें कहांकहां नहीं तलाश किया. शहर के सारे गैस्टहाउस छान मारे. आखिर वादा कर के मुकरने की वजह?’’

‘‘अभी बताता हूं,’’ सतीश ने बताया कि उस रात जब वह प्रणय से मिल कर घर गया तो नर्गिस उस की राह में बैठी थी. बातोंबातों में जब सतीश ने कहा कि वह शादी करना चाहता है तो नर्गिस रोने लगी. उस ने रोतेरोते बताया कि वह उसे बेहद प्यार करती है. अगर उस ने उस के प्रेम को ठुकराया तो वह अपनी जान पर खेल जाएगी.

सतीश ने आगे कहा, ‘‘मेरा मन पसीज गया. मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि मैं भी नर्गिस को बेहद पसंद करता हूं. सो, सोचा, शादी के लिए नर्गिस क्या बुरी है. अब मैं ने उस से शादी कर ली है और घरजमाई बन गया हूं.’’

‘ठीक है बेटा,’ प्रणय ने मन ही मन कहा, ‘छप्पनभोग से परसी थाली ठुकरा दी, अब खाते रहना जिंदगीभर आमलेट.’

प्रणय घर पहुंचा तो टैलीफोन की घंटी घनघना रही थी. उस ने रिसीवर उठाया तो उधर से दीपाली बोली, ‘‘प्रणय, आजकल कहां रहते हो? कई दिनों से तुम्हारी सूरत नहीं दिखी. खैर, एक खुशखबरी सुनो, दीदी की शादी तय हो गई है.’’

‘‘अरे, कब हुई? किस से हुई?’’ प्रणय ने प्रश्नों की बौछार लगा दी.

‘‘दीदी जिस कालेज में पढ़ाती हैं, वहीं के एक प्राध्यापक निरंजन से.’’

‘‘यह तो कमाल हो गया. क्या उन में वे सभी बातें हैं, जो सोनाली को चाहिए थीं?’’

‘‘क्या पता. अब तुम जल्दी से घर आ जाओ. निरंजनजी हमारे घर आ रहे हैं. जानते हो, दीदी का उन से कुछ चक्कर चल रहा था. शायद इसीलिए उन्होंने इतने लड़कों को नापसंद कर दिया. खैर, मैं ने सोचा कि यही मौका है कि हम भी अपने प्यार की बात जगजाहिर कर दें. तो आ रहे हो न?’’

‘‘आ रहा हूं जानेमन, तुरंत आ रहा हूं,’’ प्रणय ने चहकते हुए जवाब दिया.

सफर अनजाना मैंसिविल सर्विसेज की परीक्षा देने पटना गई थी. परीक्षा खत्म होने के बाद मेरे मातापिता हजारीबाग चले गए और मैं अपनी बहन के साथ वापस दिल्ली आ रही थी. हमारा टिकट तूफान मेल का था.

इस ट्रेन से दिल्ली तक का सफर 24 घंटे का है. दरअसल, हम ने जिसे टिकट लेने भेजा था, उस ने गलत टिकट ले लिया. स्लीपर क्लास की 2 टिकटें हमारे पास थीं. मैं अपनी बहन के साथ एसी कोच में बैठ गई और टीटीई का इंतजार करने लगी.

उस ट्रेन में मात्र एक ही एसी कोच था. ट्रेन चलने के डेढ़ घंटे बाद टीटीई के आने पर मैं ने उन्हें अपनी समस्या बता कर एसी कोच में 2 टिकट देने को कहा.

इत्तफाक से 4 सीटें खाली थीं, जिस के कारण हमें आसानी से टिकट मिल गए. टीटीई ने स्लीपर के टिकटों का पैसा काट कर मुझे 1,140 रुपए का टिकट दिया.

मैं ने पैसे देने के लिए जब पर्स ढूंढ़ा तो मुझे वह कहीं नहीं मिला. तभी मेरी मम्मी का फोन आ गया.

मम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारा पर्स मेरे पास ही रह गया.’’ हम दोनों बहनों के पास कुल मिला कर 1,400 रुपए ही थे, जिस में कि एक 500 रुपए का नोट फटा हुआ था, जिसे लेने से टीटीई ने मना कर दिया.

टीटीई ने कहा, ‘‘आप को स्लीपर कोच में जाना पड़ेगा.’’

तभी एक लड़का, जो हमारी बातें सुन रहा था, ने तुरंत आ कर टीटीई को 500 रुपए का नोट दे दिया और मुझ से वह फटा नोट ले लिया. मैं ने सोचा कि वह शायद कोई जानपहचान का है, जिसे मैं नहीं पहचान रही हूं, लेकिन बाद में बात करने पर पता चला कि हम दोनों एकदूसरे से अनजान थे. मैं ने उस लड़के का शुक्रिया अदा किया तब उस ने कहा, ‘‘इंसान ही इंसान के काम आता है. जरूरत पड़ने पर आप भी किसी की मदद कर दीजिएगा.’’

वह लड़का अगले स्टेशन पर ही उतर गया. आज भी मैं उस घटना को याद कर घबरा जाती हूं कि अगर उस दिन उस अनजान शख्स ने हमारी मदद नहीं की होती तो इतना लंबा सफर तय करना बहुत मुश्किल होता. अब मैं हर सफर पर जाने से पहले अपनी हर चीज संभाल कर रखती हूं ताकि उस दिन की तरह मुझे कोई परेशानी न उठानी पड़े.

Raksha Bandhan: कन्यादान- भाग 2- भाई और भाभी का क्या था फैसला

उन्मुक्त की शादी में श्रेयसी को बहुत दिनों बाद देखा था मंजुला ने. श्रेयसी के लिए फैशनेबल कपड़े पहनना मना था. उसे केवल सलवारकुरता पहनने की इजाजत थी. दुपट्टा हर समय पहनना जरूरी था. भाभी की हर समय की डांटफटकार से श्रेयसी को अकेले में आंसू बहाते हुए देख, वह भी रो पड़ी थी.

उस के आंसू देख भाभी गरम हो कर बोली थीं, ‘अपने टेसुए किसी और को दिखाना, अपनी चालचलन ठीक रखो. लड़कियों का जोरजोर से हंसना अच्छा नहीं होता. इतनी जोर के ठहाके क्यों लगाती हो? चल कर नाश्ता लगाओ.’

यदि वह उन्मुक्त से मजाक करती, तो भाभी जोर से डांट कर कहतीं, ‘लड़कों के बीच घुसी रहती हो, चलो, ढोलक बजाओ और औरतों के साथ बैठो.’

ऐसी बातें सुन कर सब का मन खराब हो गया था. भैयाभाभी के चले जाने के बाद सब ने चैन की सांस ली थी. सब अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो गए थे. प्यारी सी बहू छवि के आने के बाद घर में रौनक आ गई थी.

8 महीने बीते थे कि एक दिन मंजुला के मोबाइल पर भाभी का फोन आया, ‘जीजी, श्रेयसी रिसर्च करना चाहती है. इसलिए हम लोग आप पर विश्वास कर के उसे लखनऊ भेज रहे हैं. वह लड़कियों वाले होस्टल में रहेगी. आप लोगों के विश्वास पर ही उसे आगे पढ़ने के लिए भेज रहे हैं. मेरा तो बहुत जी घबरा रहा है. समय बहुत खराब है. आजकल लड़कियों के कदम बहकते देर नहीं लगती है.’

‘भाभी, घबराने की कोई बात नहीं है. श्रेयसी बहुत समझदार है. आप ठीक समझो तो श्रेयसी को मेरे घर पर ही रहने दो. मुझे अच्छा ही लगेगा. छवि और आयुषी के साथ उस को खूब अच्छा लगेगा.’

भाईसाहब और भाभी श्रेयसी को ले कर आए. 3 दिन रह कर होस्टल में उस की सब व्यवस्था करवाई. चुपचुप, सहमी और गंभीर श्रेयसी को देख कर मन में प्रश्नचिह्न उठा, समझ में नहीं आया कि क्या बात है. एक रात अकेले में भाभी अपने मन का गुबार निकालते हुए बोली थीं, ‘जीजी, अब तुम से क्या छिपाएं. श्रेयसी के पीछे एक बदमाश लड़का पड़ा हुआ है, इसलिए इस को वहां से दूर भेजना आवश्यक हो गया था. हम लोगों ने बहुत हाथपैर मारे, लेकिन कहीं भी रिश्ता तय नहीं हो पाया. इसलिए मजबूरी में यहां ऐडमिशन करवाना पड़ रहा है. इस की सुंदरता इस की दुश्मन बन बैठी है.’

सच ही श्रेयसी को कुदरत ने बड़े मन से गढ़ा था. दूध सा गोरा, सफेद संगमरमर सा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, लंबे व काले घुंघराले बाल. बिना मेकअप के भी वह परी सी दिखती थी.वे आगे बोली थीं, ‘जीजी, जीजाजी तो उसी कालेज में ही प्रोफैसर हैं. वे श्रेयसी पर निगाह रखेंगे. हम इस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. जैसे ही कहीं बात बनी, तुरंत शादी कर देंगे.’ भाभी अपने दिल का बोझ हलका कर के भाईसाहब के साथ अपने घर चली गई थीं.

श्रेयसी होस्टल में रह रही थी. उस की रूमपार्टनर जूली थी, जिस से उस की दोस्ती हो गई थी. उस का भाई रौबर्ट उसी कालेज में लैक्चरर था. जूली के साथ ही श्रेयसी उस के भाई से मिली. रौबर्ट पहली नजर में ही श्रेयसी की सुंदरता पर मर मिटा. शायद मन ही मन श्रेयसी को भी वह अच्छा लगा था.

रौबर्ट ईसाई था परंतु सुलझा और समझदार युवक था. वह अनिरुद्ध से कालेज में कई बार मिल चुका था. अनिरुद्ध उसे पसंद भी करते थे. भाईसाहब और भाभी के लिए उस का ईसाई होना सब से बड़ा दुर्गुण था. श्रेयसी छोटे शहर और भाभी के अनावश्यक प्रतिबंधों से आजाद होने के बाद होस्टल के रंगबिरंगे माहौल में जल्द ही रम गई. उस के तो पर ही निकल पड़े. पहले तो हर शनिवार की शाम को आती रही, फिर धीरेधीरे उस ने आना बंद कर दिया.

आयुषी और छवि जब भी उस से मिलने गए, वह उन्हें मिली नहीं. फोन पर कभीकभी बात हो जाती तो अब उस के सुर बदल चुके थे. अब वह हौलीवुड फिल्में, पिकनिक, पीजा, बर्गर और पार्टी की बातें करने लगी थी.

उस को घर आए बहुत दिन हो गए थे, इसलिए एक दिन मंजुला ने खुद फोन कर के उस से आने को कहा. वह आई, जींसटौप में बहुत स्मार्ट लग रही थी. अनिरुद्ध उसे देख कर बड़े खुश हुए, ‘श्रेयसी, तुम होस्टल में रह कर बिलकुल बदल गई हो.’

‘फूफाजी, मेरी रूममेट जूली कहती है, ‘जैसा देश वैसा भेस’ समय के साथ कदम मिला कर चलो, तभी आगे बढ़ पाओगी. मैं सलवारसूट पहनती थी तो पूरे डिपार्टमैंट में मेरा नाम बहनजी पड़ गया था. सैमिनार में जाती, तो क्लास के लड़केलड़कियां खीखी कर हंसते थे, और मुझे हूट करते थे. मैं ने अपने पुराने चोले को उतार फेंका. इस में जूली ने मेरी बहुत मदद की.’

फिर वह होस्टल चली गई. एक शाम कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘मंजुला, तुम श्रेयसी को बुला कर एक दिन बात करो. आज स्टाफरूम में रौबर्ट के साथ श्रेयसी का नाम जोड़ कर लोग खुसुरफुसुर कर रहे थे. ये दोनों यहांवहां अकसर साथ में दिखाई भी पड़ जाते हैं.’

मंजुला परेशान हो उठी थी. उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘भाईसाहब और भाभी तो ये सब बातें सुन कर आपे से बाहर हो जाएंगे. उन्होंने तो हमीं लोगों की जिम्मेदारी पर उसे यहां छोड़ा था.’

‘हां, मैं भी यह सब देखसुन कर परेशान हूं. श्रेयसी के तो रंगढंग ही बदल गए हैं.’

वह मन ही मन सोचती रह गई कि एक शाम श्रेयसी अपनी दोस्त जूली के साथ उस की स्कूटी पर आ गई. सब की प्रश्नवाचक निगाहों का जवाब दे कर बोली, ‘बूआ, यह जूली है. इसे हिंदी नहीं आती, इसलिए यह मुझ से हिंदी सीख रही है. और यह मुझे फ्रैंच सिखा रही है. हम लोग लाइब्रेरी में पढ़तेपढ़ते बोर हो गए थे, तो जूली बोली कि चलो, अपनी फैमिली से मिलवाओ. बस, मैं इसे ले कर यहां आ गई.’

‘अच्छा किया, जो तुम आ गईं. मुझे तुम से कुछ बात भी करनी है. तुम्हारी यह दोस्त हम लोगों का खाना पसंद करे तो खाना खा कर जाना.’

जूली खाने की बात सुन कर खिल उठी, ‘मुझे इंडियन खाना बहुत पसंद है. मेरी मां भी इंडियन खाना कभीकभी बनाती हैं. मेरे पापा तो इंडिया में रहते हुए पूरे शाकाहारी बन गए हैं.’

‘श्रेयसी, इधर मेरे साथ अंदर आना. तुम से कुछ बात करनी है,’ मंजुला ने कहा.

‘बूआ, क्या बात है? बड़ी गंभीर दिख रही हैं आप, कोई खास बात?’

‘साफसाफ शब्दों में कहूं तो तेरा और रौबर्ट का कोई चक्कर चल रहा है क्या?’

उस के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख समझ में आ गया था कि बात सच है. वह अपने को संभाल कर बोली, ‘बूआ, ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप सोच रही हैं. उस से एकाध बार हायहैलो जूली की वजह से हुई है, बस.’ इतना कह

कर वह तेजी से जूली के पास जा कर बैठ गई.

खाने की मेज पर श्रेयसी का तमतमाया चेहरा देख पहले तो सब शांत रहे, फिर थोड़ी ही देर में शुरू हो गया बातों का सिलसिला. फिल्म, फैशन, एसएमएस, फेसबुक, यूट्यूब की गौसिप पर कहकहे. जूली हिंदी अच्छी तरह नहीं समझ पा रही थी, इसलिए वह खाने का स्वाद लेने में लगी हुई थी. मिर्च के कारण उस की आंख, नाक और कान सब लाल हो रहे थे. चेहरा सुर्ख हो रहा था. खाना खाने के बाद आंखों के आंसू पोंछते हुए वह बोली, ‘वैरी टैस्टी, यमी फूड.’ उस की बात सुनते ही सब जोर से हंस पड़े थे. श्रेयसी किचन से रसगुल्ला लाई और उस के मुंह में डाल कर बोली, ‘पहले इस को खाओ, फिर बोलना.’

श्रेयसी जूली की स्कूटी पर बैठी और बाय कहती हुई चली गई. अनिरुद्ध बोले, ‘जूली अच्छी लड़की है.’

मन के तहखाने: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

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Raksha Bandhan:सोनाली की शादी- भाग 2- क्या बहन के लिए प्रणय ढूंढ पाया रिश्ता

प्रणय ने होटल में बैठ कर सोनाली की तारीफ के पुल बांधे तो उस युवक ने पूछा, ‘‘क्या सचमुच ऐसी कन्या उपलब्ध है?’’

‘‘अजी, हाथ कंगन को आरसी क्या.  मैं कल ही आप को उस से मिला देता हूं, लेकिन कुछ अपने बारे में भी बताइए.’’

‘‘मेरा नाम सतीश है. मैं नागपुर से नौकरी की तलाश में यहां आया था. आप जानते ही हैं कि मुंबई महानगरी में नौकरी मिल जाती है, छोकरी भी मिल जाती है, पर रहने को मकान नहीं मिलता. लाचारी से पिछले 5 वर्षों से एक पारसी महिला के घर पर बतौर पेइंगगैस्ट रह रहा हूं. वह है तो भली, पर जरा खब्ती है. पैसेपैसे का हिसाब रखती है, रात को 10 बजे रसोई में ताला लगा देती है. देर से लौटो तो थाली से ढका ठंडा खाना मिलता है, जिसे खाने की तबीयत नहीं होती. वह तो भला हो मकान मालकिन की बेटी नर्गिस का, जो मेरे लिए चोरी से आमलेट

बना देती है. चाय के तो अनगिनत

प्याले पिलाती है, बड़ी भली है, बेचारी 30 साल पार कर चुकी है, पर उसे भी मनपसंद वर नहीं मिला.

‘‘मैं अपने एकाकीपन से आजिज आ गया हूं. सोचा, एक लड़की ढूंढ़ कर शादी कर ही डालूं. अच्छा, अब मुझे चलना चाहिए.’’

‘‘तो कल मिल रहे हो न? इसी जगह, इसी समय?’’

‘‘पक्का.’’

दूसरे दिन प्रणय बेसब्री से सतीश की राह देखता रहा, पर वह न आया. प्रणय ने अपनेआप को कोसा कि उस ने सतीश का पता, ठिकाना तक मालूम नहीं किया.

वह फिर मनपसंद कार्यालय जा पहुंचा और बाहर टहलता रहा. उसे निराश नहीं होना पड़ा. अचानक उस ने देखा कि एक सुंदर नौजवान लिफ्ट से निकल कर मनपसंद की ओर बढ़ रहा है.

प्रणय ने उसे बीच ही में घेर लिया, वे बातें करतेकरते वर्ली की तरफ निकल गए, समुद्र के किनारे घूमतेघूमते उन्होंने ढेरों बातें कर डालीं. प्रणय ने शीघ्र ही जान लिया कि युवक का नाम शांतनु है. वह अपने मातापिता के साथ मालाबार हिल पर रहता है, उस के पिता व्यापारी हैं यानी खातेपीते लोग हैं. घर में शांतनु के अलावा 2 छोटे भाईबहन हैं.

प्रणय को शांतनु बेहद जंचा. कोई भी लड़की उसे पतिरूप में पा कर धन्य हो जाएगी.

प्रणय खुशीखुशी घर पहुंचा. रात को देर तक अपने और दीपाली के बारे में सोचता रहा.

दूसरे दिन शांतनु आग्रह कर के उसे अपने घर ले गया. उस ने प्रणय को बढि़या खाना खिलाया और अपने परिवार के दूसरे सदस्यों से मिलाया. फिर वह उसे उस के घर छोड़ने गया.

रास्ते में वे हाजीअली पर रुके. एक पान की दुकान से पान ले कर खाया. बात लड़कियों की चल पड़ी तो प्रणय ने पूछ लिया, ‘‘तुम्हें कैसी लड़की पसंद है?’’

शांतनु ने उसे विस्तार से बताया.

‘‘मेरी नजर में एक बहुत सुंदर लड़की है,’’ प्रणय ने कहा, ‘‘ऐसी लड़की चिराग ले कर ढूंढ़ोगे, तो भी नहीं मिलेगी. लाखों में एक है.’’

‘‘सच?’’ शांतनु की आंखें चमकने लगीं.

‘‘एकदम सच, जब कहो दिखा दूं? तुम उसे कब देखना चाहोगे?’’

‘‘देखने की जरूरत ही क्या है. तुम जब इतनी तारीफ कर रहे हो तो जरूर अच्छी होगी.’’

‘‘फिर भी. शादीब्याह के मामले में अच्छी तरह देखभाल कर लेनी चाहिए.’’

‘‘भई, मैं तुम से साफसाफ बता दूं, मैं ने तय कर लिया है कि जो व्यक्ति मेरी बहन से शादी करेगा, मैं उस की बहन या उस के परिवार की लड़की से ब्याह कर लूंगा.’’

‘‘अरे,’’ प्रणय अचकचाया, ‘‘यह क्या कह रहे हो, यार?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं, मेरी बहन की शादी नहीं हो रही है. जहां बात चलती है, टूट जाती है. मेरे मांबाप उस की शादी को ले कर बहुत परेशान हैं. इसीलिए मैं ने फैसला किया है कि जो मेरी बहन का हाथ थामेगा, मैं उस की बहन से शादी कर लूंगा. इस हाथ दे, उस हाथ ले. बोलो, क्या कहते हो?’’

‘‘अब मैं क्या बोलूं?’’

‘‘क्यों, क्या तुम्हें मेरी बहन पसंद नहीं आई?’’

‘‘यार, पसंदनापसंद का सवाल नहीं है. मैं किसी और लड़की को चाहता हूं. हमारी मंगनी हो चुकी है.’’

‘‘ओह, तुम यह मंगनी तोड़ नहीं सकते?’’

‘‘असंभव,’’ प्रणय ने दृढ़ता से कहा.

‘‘ओह,’’ शांतनु मायूस हो गया.

‘‘मेरे भाई,’’ प्रणय ने उसे समझाना चाहा, ‘‘क्यों तुम अपनी बहन की खातिर अपना जीवन बरबाद करना चाहते हो. तुम्हारी बहन को अच्छा लड़का मिल ही जाएगा. मैं खुद भी उस के लिए वर खोजूंगा, बल्कि एक लड़का तो मेरी नजर में है भी.’’

प्रणय घर लौट कर सोचने लगा कि कुछ भी हो, सोनाली की शादी तो वह करा कर ही रहेगा. इस काम का बीड़ा उठाया है तो पूरा कर के रहेगा.

अगले रोज जब प्रणय मनपसंद कार्यालय के करीब पहुंचा तो दरबान ने उसे घूर कर देखा.

करीब एक घंटे बाद उस ने देखा कि एक लंबाचौड़ा कद्दावर इंसान मनपसंद की ओर बढ़ रहा है. प्रणय सोचने लगा, ‘वाह, यदि यह शिकार फंस जाए तो क्या कहने, सोनाली के मांबाप मेरे चरणों में बिछ जाएंगे. खुद सोनाली भी उम्रभर मेरा आभार मानेगी.’

‘‘भाईसाहब,’’ वह फुसफुसाया.

युवक ठिठक गया, ‘‘कहिए?’’

प्रणय ने सोनालीपुराण शुरू किया तो युवक भड़क उठा, ‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं यहां लड़कियों की खोज में नहीं आया. मैं शादी कर के बाकायदा घर बसाना चाहता हूं.’’

प्रणय ने दांतों तले जीभ काटी, ‘‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं. मैं भी शादी की ही बात कर रहा हूं.’’

उस ने अपनी बात का खुलासा किया तो युवक चुपचाप सुनता रहा. वे दोनों उस इमारत से बाहर निकले और चौपाटी की ओर चलते गए.

मेरीन ड्राइव पर पहुंच कर उस युवक ने कहा, ‘‘मैं यहीं रहता हूं,’’ उस ने एक भव्य इमारत की तरफ इशारा किया, ‘‘मैं आप को अपने घर ले चलता, पर क्या करूं, मजबूर हूं.’’

प्रणय ने उस की ओर सवालिया नजरों से देखा तो युवक ने अपनी गाथा सुनाई, ‘‘मेरा नाम रणवीर सिंह है. हम लोग ठाकुर हैं. बिहार में हमारी बहुत जमीनजायदाद है. लेकिन कईर् सालों से हम मुंबई में ही रह रहे हैं, क्योंकि यहां भी हमारा व्यापार फैला हुआ है. मेरे मांबाप बहुत पहले गुजर गए. मैं अपने चाचाचाची के साथ रहता हूं. जायदाद हाथ से निकल जाने के डर से वे मेरी शादी नहीं करना चाहते. जब भी कोई रिश्ता आता है, वे लड़की वालों को मेरे खिलाफ उलटासीधा बता कर भड़का देते हैं. इधर मेरी शादी की उम्र बीतती जा रही है. लाचार हो कर मैं ने सोचा, किसी वैवाहिक संस्था में अरजी दे दूं.’’

‘‘बस, आप अब सबकुछ मुझ पर छोड़ दीजिए,’’ प्रणय ने आश्वासन दिया.

‘‘तो आप लड़की वालों से मेरी बात चलाइए, यदि वे राजी हों, तो हम इसी जगह, इसी समय, ठीक 8 दिनों बाद मिलते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ प्रणय ने मुसकराते हुए कहा.

लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी, प्रणय घंटों रणवीर की प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन वह न आया.

Raksha Bandhan: कन्यादान- भाग 1- भाई और भाभी का क्या था फैसला

अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’

‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’

मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था.

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’

‘‘आप तो बस.’’

तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

‘‘अरे बेटा, खुशखबरी है. अपनी श्रेयसी की शादी का कार्ड है.’’

छवि खुश हो कर बोली, ‘‘वाउ, मजा आ गया.’’

छवि के जाने के बाद मंजुला बोली, ‘‘क्या भाईसाहब एक बार भी फोन नहीं कर सकते थे?’’

‘‘तो क्या हुआ? लो, मैं अपनी ओर से भाई साहब को फोन कर के बधाई दे देता हूं.’’

मन ही मन अपमानित महसूस करती हुई मंजुला वहां से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘साले साहब, बहुतबहुत बधाई. आप का भेजा हुआ कार्ड मिल गया. श्रेयसी की तरह उस की शादी का कार्ड भी बहुत सुंदर है. मेरे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच कहिएगा. लड़के के बारे में आप ने अच्छी तरह से जानकारी तो कर ही ली होगी?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. महाराजजी ने सब पक्का कर दिया है.’’

‘‘एक बात बताइए, आप ने श्रेयसी से पूछा कि नहीं?’’

‘‘उस से क्या पूछना? ऐसा राजकुमार सा छोरा सब को नहीं मिलता. अपनी श्रेयसी तो सीधे अमेरिका जाएगी. इसी वजह से जल्दबाजी में 15 दिनों के अंदर शादी करनी पड़ रही है.’’

‘‘अच्छा, श्रेयसी कहां है, फोन दीजिए उसे, बधाई तो दे दें.’’

‘‘देखिए अनिरुद्धजी, बधाईवधाई रहने दीजिए. पहले मेरी बात सुनिए, हमारे हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है, लेकिन भई, आप की और मेरी सोच में बहुत अंतर है. आप तो पहले आयुषी से नौकरी करवाएंगे, फिर उस के लिए लड़का खोजेंगे या फिर उस की पसंद के लड़के से उस की शादी कर देंगे. परंतु मैं तो जल्द से जल्द बेटी का कन्यादान कर के बोझ को सिर से उतारना चाहता हूं. मेरी तो रातों की नींद उड़ी हुई थी. अब तो उस की डोली विदा करने के बाद ही चैन कीनींद सोऊंगा. अच्छा, ठीक है, अब मैं फोन रखता हूं.’’

‘‘छवि, तुम्हारी आदरणीया मम्मीजी कहां गईं? अपने भाईसाहब या भाभी से उन्होंने बात भी नहीं की, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’ मंजुला को आता देख अनिरुद्ध बोले, ‘‘आइए श्रीमतीजी, चाय आप के इंतजार में उदास हो कर ठंडी हुई जा रही है.’’

मंजल का मुंह उतरा हुआ था पर शादी की खबर से उत्साहित छवि बोली, ‘‘मुझे तो बहुत सारी खरीदारी करनी है, आखिर मेरी प्यारी ननद की शादी जो है.’’

‘‘हांहां, कर लेना, जो चाहे वह खरीद लेना,’’ अनिरुद्ध बोले.

बेटा उन्मुक्त मौका देखते ही बोला, ‘‘पापा, आप का इस बार कोई भी बहाना नहीं चलेगा, आप को नया सूट बनवाना ही पड़ेगा.’’

‘‘न, यार, मुझे कौन देखेगा?’’ मंजुला की ओर निगाहें कर के अनिरुद्ध बोले, ‘‘भीड़ में सब की निगाहें लड़की की सुंदर सी बूआ और भाभी पर होंगी. और हां, आयुषी कहां है? वह तो शादी की खबर सुनते ही कितना हंगामा करेगी.’’

मंजुला चिंतामग्न हो कर बोली, ‘‘वह कालेज गई है, उस का आज कोई लैक्चर था.’’

मंजुला सोचने लगी कि बड़े भाईसाहब क्या कभी नहीं बदलेंगे. वे हमेशा अपनी तानाशाही ही चलाते रहेंगे. वे रूढि़वादिता और जातिवाद के चंगुल से अपने को कभी भी बाहर नहीं निकाल पाएंगे.

फिर वह मन ही मन शादी होने वाले खर्च का हिसाबकिताब लगाने लगी. तभी आयुषी कालेज से लौट कर आ गई. जैसे ही उस ने श्रेयसी की शादी का कार्ड देखा, उस का चेहरा एकदम बदरंग हो उठा. उस के मुंह से एकबारगी निकल पड़ा, ‘‘श्रेयसी की शादी’’ फिर वह एकदम से चुप रह गई.

मंजुला ने पूछा कि क्या कह रही हो? तो वह बात बदलते हुए बोली, ‘‘पापा, इस बार आप की कोई कंजूसी नहीं चलेगी. मेरा और भाभी का लहंगा बनेगा और सुन लीजिए, डियर मौम के लिए भी इस बार महंगी वाली खूबसूरत कांजीवरम साड़ी खरीदेंगे. हर बार जाने क्या ऊटपटांग पुरानी सी साड़ी पहन कर खड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘आयुषी, तुम बहुत बकबक करती हो. पैसे पेड़ पर लगते हैं न, कि हिला दिया और बरस पड़े.’’ मंजुला अपनी खीझ निकालती हुई बोली, ‘‘श्रेयसी को कुछ उपहार देने के लिए भी तो सोचना है.’’

‘‘श्रीमतीजी आप इतनी चिंतित क्यों हैं?’’

‘‘मेरी सुनता कौन है? आप को तो अपनी आयुषी की कोई फिक्र ही नहीं है.’’

‘‘जब वह शादी के लिए तैयार होगी, तभी तो उस के लिए लड़का देखेंगे.’’

‘‘इस साल 24 की हो जाएगी. मेरी तो रातों की नींद उड़ जाती है.’’

‘‘तुम अपने भाईसाहब की असली शागिर्द हो. उन की भी नींद उड़ी रहती है.’’ यह कह कर अनिरुद्ध अपने लैपटौप में कुछ करने में व्यस्त हो गए.

मंजुला इस बीच श्रेयसी के बचपन में खो गई. उस ने श्रेयसी को पालपोस कर बड़ा किया है. भाभी के जुड़वां बच्चे हुए थे. वे 2 बच्चों को एकसाथ कैसे पालतीं, इसीलिए वह श्रेयसी को अपने साथ ले आई थी. उस ने रातदिन एक कर के उसे पालपोसकर बड़ा किया. जब वह 6 साल की हो गई तो भाभी बोलीं, ‘यह मेरी बेटी है, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी है.’ और वे उसे अपने साथ ले गई थीं.

श्रेयसी के जाने के बाद वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस के मन में श्रेयसी के प्रति अतिरिक्त ममत्व था. श्रेयसी बहुत दिनों तक मंजुला को ही अपनी मां समझती रही थी. मंजुला छुट्टियों में श्रेयसी को बुला लेती थी.

श्रेयसी आती तो उन्मुक्त और आयुषी उस के हाथ से खिलौना झपट कर छीन लेते. उसे कोई चीज छूने नहीं देते. इस बात पर मंजुला जब उन्मुक्त को डांट रही थी तो वह धीरे से बोली थी, ‘मम्मी, मुझे तो आदत है. वहां प्रखर मेरे हाथ से सब खिलौने छीन लेता है. चाहे खाने की हों या खेलने की, सब चीजें झपट लेता है. अम्मा भी कहती हैं कि वह भाई है, उसे दे दो.’

यह सब कहते हुए श्रेयसी की आंखें नम हो उठी थीं. तभी वह मंजुला से लिपट कर बोली थी, ‘मम्मी, मेरा घर कहां है? आप अच्छी मम्मी हैं. वे गंदी अम्मा हैं, मुझे मारती हैं.’

‘‘मैडम, क्या बात है बड़ी अपसैट दिख रही हो?’’ अनिरुद्ध की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी. ‘‘सुनिए जी, श्रेयसी अपनी ससुराल में खुश तो रहेगी न? मेरे मन में अपराधबोध है कि मैं ने उसे अपने से दूर कर के भाभी के पास क्यों भेजा?’’

‘‘तुम तो फुजूल की बात करती हो. वह उन की बेटी है, जैसा वे चाहें वैसा करें.’’

जैसेजैसे श्रेयसी बड़ी होती गई, गुमसुम और चुप होती गई. श्रेयसी की आंखों का सूनापन देख मंजुला अपराधबोध से भर जाती. वह सोचती कि यदि वह उसे अपने पास रख सकती तो शायद श्रेयसी खुश रहती. भाभी के कड़क और दकियानूसी स्वभाव के कारण श्रेयसी सब से दूर, अकेली खड़ी दिखाई पड़ती. हंसनेचहचहाने की उम्र में भी उस के चेहरे पर गंभीरता का आवरण होता था.

उन्मुक्त और आयुषी धीरेधीरे बड़े होते गए और भाईसाहब व भाभी ने अपने बच्चों को मंजुला के यहां भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

 

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