Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-2)

अकसर वह गाड़ी ले कर कहीं दूर, बहुत दूर निकल पड़ती थी. शहरों की भीड़भाड़ से दूर जंगलों से गुजरते हुए खेतखलियान, गांव, कसबा देखना उसे बहुत पसंद था. कितनी बार उस के डैड ने समझाया उसे कि इतनी दूर, वह भी अकेले जाना ठीक नहीं. गाड़ी खराब हो जाए या कोई और समस्या आन पड़े, तो क्या करेगी वह? अगर जाना ही है तो किसी को साथ ले कर जाया करे. मगर त्रिशा का कहना था कि अकेले घूमने में जो मजा है वह औरों के साथ कहां? अपनी मरजी से चाहे जहां घूमो, बिंदास.

“डोंट वरी डैड, कुछ नहीं होगा आप की बेटी को,” बोल कर वह अपने डैडी को चुप करा दिया करती थी. लेकिन आज उसे समझ आ रहा था कि उस के डैडी कितने सही थे. कोई साथ होता, तो कम से कम एक बल तो मिलता.

‘काश, वह अपने डैडी की बात मान ली होती,’ मन ही मन वह पछता ही रही थी कि तभी एक बड़ी सी गाङी उस के पास से हो कर गुजरी. उस ने मदद के लिए हाथ हिलाया, पर गाड़ी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ गई.

लेकिन उस ने देखा वह गाड़ी उस के पास ही आ रही थी. अपने सीने पर हाथ रख त्रिशा ने राहत की सांस ली थी. गाड़ी ठीक उस के साम ने आ कर रुकी तो वह बोली,“भाई साहब, मेरी गाड़ी खराब हो गई है. मदद चाहिए, प्लीज.“

त्रिशा को डर भी लग रहा था. पर पूरी रात वह यहीं तो नहीं गुजर सकती न?

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गाड़ी में बैठे दोनों लड़कों ने पहले तो उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा, फिर आंखों ही आंखों में दोनों ने कुछ बातें की. फिर बोला,“आप की गाड़ी खराब हो गई? लेकिन यहां तो कोई मैकेनिक नहीं मिलेगा. इस के लिए तो आप को शहर जाना पड़ेगा. वैसे, जाना कहां है आप को?” उन लड़कों ने बड़ी शराफत से पूछा.

“जी…जी, आदर्श नगर, ग्रीन पार्क,” घबराहट के मारे त्रिशा के मुंह से ठीक से आवाज भी नहीं निकल रही थी.
“ओह… ग्रीन पार्क। हम भी तो उधर ही जा रहे हैं. अगर आप चाहें तो हम आप को आप के घर छोड़ सकते हैं. और कोई दिक्कत नहीं है, फोन कर देंगी तो मैकेनिक आप की गाड़ी ठीक कर के आप के घर पहुंचा देगा,” उन लड़कों ने कहा तो 1 मिनट के लिए त्रिशा ठिठक गई क्योंकि किसी पर भी इतनी जल्दी विश्वास करना सही नहीं है. लेकिन चेहरे से वे लड़के शरीफ लग रहे थे.

‘अगर मैं इन के साथ नहीं गई, तो क्या पता फिर कोई मदद करने वाला मिले न मिले? अंधेरा भी गहराने लगा है, यह जगह भी बहुत सुनसान लग रहा है, इसलिए इन के साथ चले जाना ही उचित रहेगा’ अपने मन में ही सोच त्रिशा उन की गाड़ी में बैठने ही लगी कि एक ने उस का हाथ जोर से खींचा और दूसरा अभी दरवाजा लगाता ही कि त्रिशा,” छोड़ो मुझे, नहीं जाना तुम्हारे साथ,” बोल कर चिल्लाने लगी.

मगर दोनों लड़के उसे जबरदस्ती पकड़ कर कर गाड़ी में बैठाने लगे और एक ने डपटते हुए बोला,“चुप रहो, नहीं तो यहीं मार कर फेंक देंगे किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा,” उस की बात सुन त्रिशा सहम उठी.

दोनों जिस तरह से त्रिशा को घूर रहे थे इस से उन की बदनीयती साफसाफ झलक रही थी.

वह समझ गई कि आज वह नहीं बच सकती इन के हाथों, क्योंकि इस वीरान और सुनसान इलाके में कोई उसे कोई बचाने नहीं आने वाला. शहरों में तो आधी रात तक लोगों की चहलपहल बनी रहती है. मगर गांवों में तो सांझसवेरे ही लोग घरों में सिमट जाते हैं.

आज त्रिशा को अपनी मौत बड़ी निकट से दिखाई दे रही थी. उसे जीवन में आज पहली बार अपनी लड़की होने पर दुख हो रहा था. अफसोस उसे इस बात का भी हो रहा था कि कैसे वह इन हैवानों को पहचान नहीं पाई? कैसे उस ने इन पर भरोसा कर लिया? रोना आ रहा था उसे पर उस के आंखों से आंसू नहीं निकल रहे थे. बोलना चाह रही थी वह पर डर के मारे मुंह नहीं खुल रहे थे.

सोच लिया उस ने जो होना है हो कर रहेगा, अब कुछ नहीं कर सकती वह. अभी उन की कार रफ्तार पकड़ती ही कि तभी गाड़ी के सामने एक शख्स को देख अचानक से चालक ने कस कर ब्रैक लगा दिया.

वह बाहर निकल कर कुछ पूछता ही कि मौका पा कर उस शख्स ने उस लड़के के सिर पर धड़ाधड़ 2-3 डंडे बरसा दिए जिस से वह वहीं ढेर हो गया. दूसरा यह सब देख कर अपनी जान बचा कर भागता ही कि उस का भी वही हश्र हुआ.

त्रिशा ने देखा वह तो वही लड़का है जो अभी कुछ देर पहले उसे मदद करने की बात कर रहा था, मगर त्रिशा ने उसे मना कर दिया था.

“आजकल लड़कियों के साथ क्याक्या हो रहा है पता है न आप को? फिर भी कैसे इन अनजान लड़कों के साथ उन की गाड़ी में बैठने को तैयार हो गईं आप? जरा भी दिमाग है कि नहीं आप में?” जब हर्ष ने त्रिशा की तरफ देख कर बोला, तो वह अकचका कर उसे देखने लगी.

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“वह तो मैं ज्यादा दूर नहीं गया था इसलिए आप के चीखने की आवाज सुनाई दे गई मुझे. वरना पता भी है, आज आप के साथ क्या हो गया होता?”

उस के आंखों से बहते आंसू देख हर्ष को लगा कि उस ने कुछ ज्यादा ही डांट दिया उसे, क्योंकि बेचारी पहले से ही डरी हुई है ऊपर से वह उसे और डांटे जा रहा है. इसलिए फिर कुछ न बोल कर वह गाड़ी देखने लगा कि उस में समस्या क्या हो गई. हर्ष थोड़ाबहुत गाड़ी ठीक करना जानता था.

“लीजिए आप की गाड़ी ठीक हो गई,” अपना हाथ झाड़ते हुए हर्ष बोला.

त्रिशा को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह से हर्ष का शुक्रिया अदा करे. ‘अगर आज वह नहीं होता तो जाने उस के साथ क्या हो गया होता,’ सोच कर अभी भी वह कांप रही थी.

“नहींनहीं शुक्रिया की कोई जरूरत नहीं, प्लीज,” जब हर्ष ने बोला तो त्रिशा हैरान रह गई गई कि उसे कैसे पता कि वह उस का शुक्रिया अदा करना चाहती है, “आप के चेहरे के भावों से,” बोल कर हर्ष हंसा तो त्रिशा को भी हंसी आ गई.

“खैर, गाड़ी के बहाने ही सही, पर अच्छा लगा आप से मिल कर,” त्रिशा को एक भरपूर नजरों से देखते हुए हर्ष बोला.

“मुझे भी अच्छा लगा तुम से मिल कर,” अपने लटों को कान के पीछे खोंसते हुए त्रिशा मुसकराई थी.

घर आ कर त्रिशा ने किसी को भी कुछ नहीं बताया, क्योंकि बेकार में सब परेशान हो जाते और गाड़ी चलाने पर पाबंदी लग जाती सो अलग. लेकिन अपनेआप से उस ने यह वादा किया कि अब वह संभल कर रहेगी. किसी पर भी तुरंत विश्वास नहीं कर लेगी. हम सब की ज़िंदगी में कोई न कोई एक ऐसा दिन जरूर आता है, जो हमारे लिए बहुत खास बन जाता है. त्रिशा के लिए भी वह दिन बहुत खास बन गया जब गाड़ी खराब होने की वजह से हर्ष से उस की मुलाकात हुई थी.

जब भी हर्ष का हंसतामुसकराता चेहरा उस के आंखों के सामने आता, वह उस से मिलने को बेचैन हो उठती थी. मगर कैसे मिलती? कोई पताठिकाना या फोन नंबर भी तो नहीं था उस के पास.

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उधर हर्ष भी जबतब त्रिशा के खयालों में खो जाता और फिर अपना सिर झटकते हुए मुसकरा कर खुद को ही कोसते हुए कहता, “पागल कहीं का, अरे, कम से कम एक फोन नंबर तो मांग लिया होता उस लड़की का.”

इसी तरह उन की मुलाक़ात को 2 महीने बीत गए, पर अब भी वे एकदूसरे को नहीं भूले थे. अकसर वे एकदूसरे के खयालों में खो जाते और सोचते कि काश, एक बार फिर मिल जाएं.

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Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-3)

उस दिन अचानक दोनों चांदनी चौक मार्केट में टकरा गए. एकदूसरे से मिलने के बाद उन के दिल में जो एहसास जागा, वह बयां करना भी कठिन था. त्रिशा को हर्ष का सीधासाधा, ईमानदार और हंसमुख रवैया बहुत पसंद आया था, वहीं त्रिशा की छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढंकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मनमोहक हंसी देख हर्ष उस की ओर खींचता चला आया था.

इस के बाद दोनों कई बार मिले. अब एकदूसरे से दोनों खुलने लगे थे। दोनों की पसंद और सोच काफी मिलतीजुलती थी. त्रिशा की तरह हर्ष भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. बेकार में लोगों की चापलूसी करना हर्ष को भी नहीं पसंद था. वह भी जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए हमेशा खड़ा रहता था. दोनों की पसंदनापसंद इतनी मिलतीजुलती थी कि उन्हें लगता दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं.

इन कुछ महीनों की दोस्ती में उन्हें लगने लगा कि उन्हें एकदूसरे की आदत सी हो गई है. वे एकदूसरे से बिना मिले एक दिन भी नहीं रह सकते हैं अब. यह कहना गलत नहीं होगा कि दोनों एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे.

हर्ष का साथ पा कर त्रिशा को लगता जैसे जीवन में उसे क्याकुछ मिल गया हो. हर्ष की सोच और उस के बात करने का अंदाज त्रिशा को बहुत पसंद आता था.

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पूछती कि वह इतना अच्छा कैसे बोल लेता है? कहां से आते हैं उस के पास इतने अच्छेअच्छे शब्द? तो हर्ष कहता, “अनुभव से. जिंदगी इंसान को सबकुछ सीखा देती है। बोलना भी…” त्रिशा ने तो अपने भावी जीवनसाथी के रूप में हर्ष को देख लिया था. जानती थी डैडी को मनाना मुश्किल नहीं होगा, पर मम्मी को मनाना थोड़ा कठिन है. लेकिन उसे विश्वास था कि हर्ष को देख कर वह भी मान जाएगी.

हर्ष को इस बात का कोई डर नहीं था, क्योंकि उसे पता था उस के मातापिता तो सिर्फ अपने बेटे की खुशी चाहते थे. मगर हर्ष को अपनी 2 जवान व कुंआरी बहनों की फिक्र थी. घर में खाने वाले 5 जन थे पर कमाने वाला सिर्फ एक यानी उन के पापा थे.

कई बार हर्ष ने कहा भी कि अब वह कहीं नौकरी ढूंढ़ लेगा क्योंकि कब तक वह अकेले अपने कंधे पर पूरे घर की जिम्मेदारी ढोते रहेंगे? पर हर्ष के पापा का कहना था कि वह सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. उन का सपना था कि उन का बेटा अपने आगे की पढ़ाई विदेश जा कर करे और इसलिए वह हर्ष को घर की झंझटों से दूर रखना चाहते थे.

त्रिशा, अपने और हर्ष के बारे में अपनी मम्मी को बताती, उस से पहले ही एक लड़के की फोटो दिखा कर वह कहने लगी कि यह उस के अमेरिका वाली सहेली का बेटा है और वह इस से त्रिशा की शादी करना चाहती है.

“पर मम्मी, मैं इस से शादी नहीं करना चाहती क्योंकि मैं किसी और से प्यार करती हूं,” कह कर त्रिशा ने अपने और हर्ष के बारे में नताशा को सब कुछ बता दिया. त्रिशा की बात पर उस के डैडी अशोक को तो कोई एतराज नहीं हुआ, पर उस की मम्मी नताशा भड़क उठीं, यह बोल कर कि पहले वह उस लड़के से मिलना चाहती हैं. फिर फैसला करेगी कि वह त्रिशा के लायक है भी या नहीं.

त्रिशा को पूरा विश्वास था कि उस की मम्मी को हर्ष जरूर पसंद आएगा, क्योंकि वह इतना अच्छा इंसान जो है. इधर हर्ष अभी भी इस दुविधा में था कि क्या त्रिशा के मम्मीडैडी उसे स्वीकारेंगे? अगर उन्हें वह पसंद नहीं आया तो?

लेकिन त्रिशा की जिद के आगे उस की एक न चली और उसे उस के साथ जाना ही पड़ा.

रास्ते भर त्रिशा हर्ष को समझाती रही कि उसे उस के मम्मीडैडी से कैसे और क्या बोलना है. उसे किस तरह उन के मम्मीडैडी को इंप्रैस करना है. लेकिन फिर भी हर्ष के दिल में एक धुकधुकी लगी हुई थी कि कहीं वह उन्हें पसंद ना आया तो? कहीं वह उन्हें इंप्रैस नहीं कर पाया तो?

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वह बहुत घबराया हुआ था. मगर त्रिशा के पापा अशोक से मिलकर उसे ऐसा लगा ही नहीं कि वह उन से पहली बार मिल रहा है. कुछ ही देर में वह अशोक से ऐसे घुलमिल गया कि पुछो मत. हर्ष जैसे जिंदादिल इंसान से मिल कर अशोक भी बहुत खुश हुए. मजा आ गया उन्हें तो हर्ष से मिल कर.

बहुत दिनों बाद अशोक को कोई अपने जैसा इंसान मिला था. लेकिन नताशा अभी भी आंखों ही आंखों में हर्ष को तौल रही थी कि वह उस की बेटी के लायक है या नहीं.

उस का साधारण पहनावाओढ़ावा, बात करने का अंदाज… कहीं से भी वह उस की बेटी के लायक नहीं लग रहा था. लेकिन वह कुछ बोली नहीं, क्योंकि पहले वह हर्ष और उस के पूरे परिवार के बारे में जान लेना चाहती थी. जैसेकि उस के घर में कौनकौन हैं? पिता क्या करते हैं? मां क्या करती हैं? लड़के का चरित्र कैसा है? कहीं परिवार का कोई क्रिमिनल रिकंर्ड तो नहीं जैसे तमाम सवालों का जवाब जानने के लिए नताशा ने ‘प्री मैट्रीमोनियम इन्वैस्टिगेशन (शादी से पहले जांच) करा लेना चाहती थी, फिर सोचेगी क्या करना है क्योंकि अकसर सीधे बन कर ही लोग दूसरों को अपनी जाल में फंसाते हैं, ऐसा नताशा का मानना था. और इस के लिए नताशा ने एक डिटैक्टिव ऐजेंसी हायर किया.

जांच के बाद पता चला कि हर्ष बहुत ही साधारण परिवार का लड़का है. पिता की एक साधारण सी नौकरी है जिस से घर खर्च और बांकी भाईबहनों की पढ़ाईलिखाई हो पाती है. मां गृहिणी है. अपना घर नहीं है और वे किराए के मकान में रहते हैं.

हर्ष अपनी खुद की पढ़ाई का खर्चा बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेता है. वह स्कौलरशिप के लिए अप्लाई कर चुका है. लड़के का चरित्र खराब नहीं है, यह भी बताया डिटैक्टिव ऐजेंसी वालों ने.

‘ये मुंह और मसूर की दाल… चले हैं मेरी बेटी से शादी का सपने देखने,’ अपने अधर को टेढ़ा करते हुए नताशा मन ही मन बोली,’चरित्र तो अब मैं तुम्हारा खराब करूंगी, वह भी अपनी बेटी के सामने. अरे, तुम बापबेटे उतना नहीं कमा लेते होगे 1 महीने में, जितना मेरी बेटी का 1 दिन का खर्चा है. क्या सोचा पैसे वाली लड़की को फंसा कर पूरी उम्र मौज करोगे? खुद का खर्चा तो चलता नहीं होगा. रोटी पर सब्जी नदारद और चले हैं मेरी बेटी से शादी का सपना देखने,’

मन तो किया उस का अभी जा कर त्रिशा को सब बता दें और कहें कि वह लड़का तुम से नहीं, बल्कि तुम्हारे पैसों से प्यार करता है. पर वह कहेगी कि क्या आप के लिए पैसा ही सबकुछ है? प्यार का कोई मोल नहीं है आप की नजरों में? जो भी हो पर मैं हर्ष से प्यार करती हूं और शादी भी उसी से करूंगी समझ लो आप,’ और फिर नताशा कुछ बोल नहीं पाएगी.

आजकल के बच्चों से बहस लगाने का मतलब है खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारना और नताशा अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती है, बल्कि वह तो अपनी बेटी के पैरों में जंजीर डालना चाहती है. लेकिन दिमाग से, बहुत सोचसमझ कर कदम बढ़ाएगी वह.

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अशोक से तो कुछ उम्मीद ही नहीं कर सकते, क्योंकि वे तो हर हाल में अपनी बेटी त्रिशा का ही साथ देंगे. उन का मानना है किसी पर जोरजबरदस्ती सही नहीं. सब को अपनी तरह से जीने का हक है. और इस में कोई दोराय नहीं है कि वह अपनी बेटी त्रिशा से बहुत प्यार करते हैं, कुछ भी कर सकते हैं उस के लिए.

लेकिन नताशा इतनी पागल नहीं है कि वह अपनी बेटी का अच्छाबुरा न देख पाए. वह कभी भी हर्ष से त्रिशा की शादी नहीं होने दे सकती.

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Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-4)

नताशा को तो हर्ष फूटी आंख नहीं सुहाया था. मन तो किया था उस का नौकरों से धक्के मरवा कर उसे घर से बाहर फिकवा दें और कहे कि यही उस की असली जगह है. लेकिन बेटी की खातिर वह खून का घूंट पी कर रह गई थी.

हर्ष से मिलने के बाद नताशा के मन में एक बौखलाट भर गई थी यह सोच कर कि अगर कहीं त्रिशा ने हर्ष से शादी करने की जिद पकड़ ली तो वह क्या करेगी? समाज में उस की इज्जत और मानमर्यादा का क्या होगा? लोग तो हसेंगे उस पर और कहेंगे कि बड़ी पैसे वाली बनती है, तो बेटी की शादी एक ऐसे लड़के से क्यों कर दी जिस का अपना एक घर भी नहीं है?

नताशा किसी भी तरह हर्ष से अपनी बेटी को दूर कर देना चाहती थी. और इस के लिए वह कोई भी रास्ता अपनाने को तैयार थी.

पता लगाते हुए एक रोज वह हर्ष के घर पहुंच गई और उस के परिवार वालों की खूब बेइज्जती करने लगी यह बोलकर कि जानबूझ कर उन्होंने अपने बेटे को उस की बेटी के पीछे लगाया, ताकि सारी उम्र मुफ्त की रोटियां तोड़ सकें.

“क्या समझते हो, तुम बापबेटे अपने चाल में कामयाब हो जाओगे? कभी नहीं. कभी मैं तुम्हें तुम्हारे मंसूबों में कामयाब नहीं होने दूंगी,” जो मन सो नताशा उन्हें सुना आई.

चाहते तो हर्ष के पिता भी उस की बेइज्जती कर सकते थे, पर घर आए मेहमान को उन्होंने इज्जत देना सीखा था, इसलिए चुपचाप सब सुनते रहे.

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हर्ष ने कुछ नहीं बताया, मगर त्रिशा को सब पता चल ही गया कि मम्मी ने हर्ष के घर जा कर उस के मांपापा की खूब बेइज्जती की है और इतना ही नहीं, उस ने उन्हें पैसों से भी खरीदने की कोशिश की.

त्रिशा का दिमाग ही सन्न रह गया कि मम्मी ऐसा कैसे कर सकती हैं? तमतमाती हुई वह मम्मी के कमरे में जा कर उन्हें खूब खरीखोटी सुना आई और कहा कि यह उस की जिंदगी है, वह जिस से चाहे शादी कर सकती है, बालिग है, कोई रोक नहीं सकता उसे. वह तो उस घर को छोड़ कर चली जाना चाहती थी मगर अपने डैडी का मुंह देख कर वह रुक गई.

अशोक तो खुद ही अपनी पत्नी नताशा के खराब व्यवहार से त्रस्त थे. नताशा ने कभी अशोक को पति का सम्मान नहीं दिया. घर में वही होता आया आजतक जो नताशा चाहती है. मजाल नहीं जो अशोक उस के एक भी बात का विरोध कर पाए, हिम्मत ही नहीं थी उन में।

नताशा बहुत बड़े घर की बेटी है. उस के पापा नेवी में बहुत बड़े औफिसर थे. गांव में भी उन की अच्छीखासी जमीन जगह थी और संतान मात्र एक नताशा ही थी.

नाजों में पलीबङी हुई नताशा बचपन से ही जिद्दी और घमंडी स्वभाव की थी. उस के पापा चाहते थे कि उन की जिद्दी और घमंडी बेटी के लिए कोई शांतसरल लड़का चाहिए, जो इस के गुस्से को सहन कर सके, इसे संभाल सके.

अपनी बेटी के लिए अशोक से बेहतर लड़का उन्हें और कोई नहीं लगा. दहेज के लालच में अशोक के मांपापा भी अपने बेटे की शादी नताशा से करने को तैयार हो गए. लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि पैसे से कभी किसी को सुख नहीं मिला है.

नताशा ने कभी अशोक से सीधे मुंह बात नहीं की और न ही अपने सासससुर को अपनाया. उसे अपने धनदौलत का इतना घमंड था कि वह अपने सामने हर इंसान को तुच्छ समझती थी और आज भी वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझती.

वह लोगों से इस तरह से बात करती है जैसे वह उस का खरीदा हुआ गुलाम हो. लेकिन त्रिशा अपनी मां की तरह बिलकुल नहीं है. उसे जरा भी अपने पैसे और शोहरत का घमंड नहीं है. वह हर इंसान को एकजैसा समझती है. तभी तो वह शहर की चकाचौंध से दूर कहीं दूर गांवबस्ती में जा कर सुकून का पल बिताती है.

नताशा ने मन ही मन सोच लिया कि वह कुछ ऐसा करेगी जिस से खुदबखुद त्रिशा का मन उस हर्ष से फटने लगेगा.

एक दिन वह अपनी गाड़ी से कहीं जा रही थी तभी उस ने देखा हर्ष एक लड़की के साथ बस स्टैंड पर खड़ा है. दोनों जिस तरह से सट कर खड़े थे नताशा को शंका हुआ, तो वह अपनी गाड़ी पार्क कर उन से थोड़ी दूरी बना कर खड़ी हो गई. देखा उस ने दोनों खूब हंसहंस कर बातें कर रहे थे. फिर उन्होंने चाय पी.

बस में बैठने से पहले उस लड़की ने हर्ष को गले लगाया, तो प्यार से हर्ष ने भी उसे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर उस का गाल थपथपा कर उसे विदा किया. नताशा ने चुपके से उन की सारी तसवीर अपने फोन में कैद कर लिया ताकि उसे त्रिशा को दिखा सके.

हर्ष और उस लड़की की फोटो दिखाते हुए नताशा कहने लगी, “देखो, क्या अब भी तुम यही कहोगी कि हर्ष अच्छा लड़का है? जिस हर्ष पर तुम आंख बंद कर के विश्वास कर रही हो न, असल में वह है क्या, अच्छे से देख लो. वह तुम से नहीं, बल्कि तुम्हारे पैसों से प्यार करता है त्रिशा, सही कह रही हूं मैं. वह केवल प्यार का दिखावा कर है तुम से, धोखा दे रहा है तुम्हें बेटा, समझो मेरी बात को,” एक ही सांस में नताशा बोलती चली गई.

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“मम्मी, क्या हो गया है आप को ? क्यों आप बिना जानेबुझे कुछ भी बोलती जा हो? और यह चंद तसवीरें दिखा कर आप क्या साबित करना चाहती हैं कि हर्ष बुरा लड़का है? चरित्र खराब है उस का? तो आप गलत हो मम्मी क्योंकि यह लड़की हर्ष की चाचा की लड़की है जो यहां बैंक के जौब के लिए परीक्षा देने आई थी और हर्ष उसे बस में छोड़ने गया था.

“पैसापैसापैसा… बस पैसा ही दिखता है आप को. क्या पैसा ही इंसान के लिए सबकुछ होता है मम्मी? और आप को क्या लगता है हर्ष मेरे पैसे के लिए मुझे प्यार करता है? तो आप गलत हो. नहीं चाहिए मुझे आप का एक भी पैसा. मैं अपने हर्ष के साथ हर हाल में खुश रह लूंगी,” बोल कर त्रिशा अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा लगा लिया.

तंग आ चुकी थी वह मम्मी की हरकतों से. जब देखो हर्ष की कोई न कोई बुराई निकाल कर अनापशनाप बोलने लगती थी. हरदम यह जतलाने की कोशिश करती कि हर्ष किसी भी तरह से उस के लायक नहीं है. और उसशका परिवार भी एकदम मराटूटा है, तो कैसे वह उस घर में सुखी रह पाएगी?

नताशा चाहती थी त्रिशा उस की सहेली के बेटे विलियम से शादी कर के अमेरिका शिफ्ट हो जाए. इसलिए वह त्रिशा पर इस बात का दबाव बनाती कि वह कुछ वक्त विलियम के साथ गुजारे, उस के साथ घूमेफिरे, उसे वक्त दे. मगर त्रिशा को विलियम जरा भी अच्छा नहीं लगता था. पर नताशा की जिद के कारण उसे उस के साथ बाहर घूमने जाना पड़ता था.

नताशा की सहेली थी तो इंडियन, पर अमेरिका जा कर उस ने वहां शादी कर हमेशा वहीं की हो कर रह गई. लेकिन अकसर दोनों सहेलियों में फोन पर बातें होती रहती थीं.

नताशा भी कई बार अपनी सहेली के घर अमेरिका हो आई थी. उसे विलियम अच्छा लगा था इसलिए चाहती थी क्यों न यह दोस्ती रिश्तेदारी में बदल दी जाए. मगर त्रिशा सपने में भी उस विलियम से शादी नहीं करना चाहती थी. वह तो नताशा की जिद के कारण उसके साथ कहीं घूमने चली जाती थी, मगर शादी… कभी नहीं, क्योंकि जिस तरह से वह अपने अमेरिकन दोस्तों से फोन पर लड़कियों के प्राइवैट पार्ट्स की बातें कर हंसता था, उस से त्रिशा को उस से घृणा हो आती थी.

आगे पढ़ें- स्कौलरशिप के लिए हर्ष ने…

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Serial Story: तुम से मिल कर (भाग-5)

विलियम की सिर्फ चमड़ी ही सफेद थी, मगर उस का दिल एकदम काला था. कई बार वह त्रिशा को भी गलत तरीके से छूना चाहा था, पर त्रिशा ने उसे वह मौका ही नहीं दिया. नताशा जितना त्रिशा को विलियम के करीब करना चाहती थी वह उतना ही उस से दूर भगाती थी. त्रिशा अपनी मां को समझाना चाहती थी कि विलियम अच्छा लड़का नहीं है. पर वह सुने तब न.

स्कौलरशिप के लिए हर्ष ने परीक्षा दिया था जिस में वह चुन लिया गया. कालेज की पढ़ाई पूरी होते ही 2 साल के लिए वह स्लौकरशिप पर स्विट्जरलैंड चला गया. त्रिशा भी बीबीए करने के बाद एमबीए करने 2 साल के लिए स्विट्जरलैंड चली गई.

वहां से लौटते ही दोनों परिवार की सहमति से विवाह बंधन में बंधने का फैसला कर चुके थे. त्रिशा ने अपना प्लान पहले ही डैडी को बता दिया था, पर मम्मी को बताने में उसे डर लग रहा था इसलिए सोचा वहां जा कर बताएगी.

लेकिन हर्ष से शादी की बात सुनते ही नताशा ने घर में कुहराम मचा दिया था. दोनों मांबेटी में इस बात को ले कर जंग छिड़ गई थी. न त्रिशा अपनी मां की बात को समझने को तैयार थी और न ही नताशा बेटी की भावनाओं को समझ रही थी.

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नताशा का कहना था कि हर्ष का रहनसहन, खानपान, पहनावा सबकुछ अलग है. दोनों परिवारों का कहीं से भी कोई मेल नहीं है. वह कैसे निभाएगी हर्ष के साथ? और तो और दोस्तरिशतेदारों में उन की हंसी उड़ेगी. लोग कहेंगे कि अपनी इकलौती बेटी की शादी हम ने अपने से छोटे परिवार में कर दिया.

लेकिन त्रिशा अपनी मां की एक भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. उस का कहना था कि वह मर जाएगी पर हर्ष के सिवा किसी और से शादी नहीं करेगी. नताशा को एक यह भी डर सताने लगा था कि त्रिशा बालिग है. अपनी मरजी से जिस से चाहे शादी कर सकती है. वह रोक नहीं पाएगी उसे. मगर वह भी हार मनाने वाली नहीं थी.

उस ने त्रिशा को हर्ष से मिलने पर रोक लगा दी. उस का अकेले कहीं आनेजाने पर भी पाबंदी लगा दिया गया. फोन पर वह किस से कितनी देर बात करती है, उस पर भी नजर रखा जाने लगा. घर के बाहर भी सख्त पहरा लगवा दिया गया था ताकि हर्ष घर के आसपास मंडरा न सके.

त्रिशा अपने ही घर में कैद हो कर रह गई थी. नताशा का कहना था जब तक वह विलियम से शादी के लिए नहीं मान जाती, उसे ऐसे ही रहना होगा. त्रिशा चाहती तो अपनी मां के हर बात का जवाब दे सकती है. घर से भाग कर हर्ष से शादी कर सकती थी. मगर वह केवल अपने डैडी का मुंह देख कर चुप रह गई. जानती थी उस के बाद मम्मी उन का जीना हराम कर देंगी.

ऐसे ही तो बोलती रहती है कि अशोक ने ही त्रिशा को बिगाड़ रखा है. वरना क्या उस की इतनी हिम्मत थी कि वह हर्ष जैसे लड़के से प्यार करने की जुर्रत करती?

लेकिन क्या प्यार करना कोई पाप है? बल्कि प्यार में तो वह परिवत्रा होती है जो सब को एक करना सिखाती है. एक नए भारत के निर्माण का सपना, जहां धर्म, जाति और दकियानुसी परंपराओं की संक्रीण दीवारों से उठ कर इंसानियत और प्यार के पैगाम के साथ आगे बढ़ा जाता है.

लेकिन आज दिमागी तौर पर जाति, धर्म और संकीर्णता की दीवारें ढहने के बजाय बढ़ने लगी हैं.

उस रोज विलियम का जन्मदिन था. नताशा, अशोक और त्रिशा उस पार्टी के स्पैशल गेस्ट थे. वैसे, त्रिशा उस पार्टी में नहीं जाना चाहती थी. मगर नताशा ने घर में इतना हंगामा मचाया कि त्रिशा को जाना ही पड़ा.

पार्टी शहर के सब से बड़े होटल में रखी गई थी. उस पार्टी में शहर के बड़ेबड़े लोगों के अलावा, अमेरिका से विलियम के कुछ दोस्त भी आए थे जिसे वह त्रिशा से मिलवा रहा था.

नताशा चाहती थी कि किसी तरह त्रिशा विलियम को पसंद करने लगे और उस हर्ष को भूल जाए तो सब ठीक हो जाएगा. इसलिए जबरदस्ती फोर्स कर उस ने विलियम के साथ उसे डांस करने को मजबूर किया.

एक जरूरी फोन कौल के कारण पार्टी के बीच में ही नताशा को जाना पड़ गया. लेकिन उस ने कहा कि वह जल्द ही आएगी. पार्टी देररात तक चली. डांस के बाद विलियम ने त्रिशा को ड्रिंक ला कर दिया जिसे न चाहते हुए भी उसे पीना पड़ा. लेकिन ड्रिंक पीते ही त्रिशा को मदहोसी छाने लगी और वह वहीं सोफे पर ही लुढ़क गई.

विलियम का इरादा त्रिशा को ले कर नेक नहीं था, यह बात हर्ष पहले से ही जानता था तभी तो वह उस पार्टी में किसी तरह शामिल हो गया था.

विलियम को उस ने त्रिशा को कमरे में ले जाते हुए देखा, पर वह उसे किस कमरे में ले कर गया पता नहीं चल रहा था. तभी होटल के एक कमरे के बाहर उसे त्रिशा का ब्रैसलेट पड़ा दिखाई दिया. कान लगा कर सुना तो अंदर से फुसफुसाहट सुनाई पड़ी. हर्ष समझ गया कि त्रिशा इसी कमरे में है.

उसने तुरंत जा कर होटल के मैनेजर को सारी बात बताई और कहा कि अगर उस लड़की के साथ कुछ ऐसावैसा हो जाता है, तो वही जिम्मेदार होगा और इस होटल की बदनामी होगी सो अलग.

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हर्ष की बात सुन होटल के मैनेजर ने तुरंत दूसरी चाबी से दरवाजा खुलवाया और सब ने जो देखा, आवाक रह गया…

विलियम अपने 2 दोस्तों के साथ त्रिशा के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा था और वह अर्धचेतना में ही अपनेआप को उनसे बचाने की कोशिश कर रही थी.

“तुम्हारी इतनी हिम्मत की तुम मेरी बेटी के साथ…” कह कर नताशा विलियम के गाल पर तड़ातड़ थप्पड़ बरसाने लगी. उन दोनों लड़कों को भी नताशा ने खूब मारा।

अपनी सहेली को भी उस ने खूब खरीखोटी सुनाई और कहा कि अच्छा हुआ जो उन का असली चेहरा सब के सामने आ गया, वरना वह तो बरबाद हो गई होती.

तब तक पुलिस भी वहां पहुंच चुकी गई. विलियम की मां ने नताशा के सामने हाथ जोड़े, पांव पड़े पर नताशा ने उन की एक न सुनी और विलियम और उस के दोनों दोस्तों को पुलिस के हवाले कर दिया.

यह सोचसोच कर नताशा के आंसू नहीं रुक रहे थे कि आज अगर हर्ष न होता तो उस की बेटी के साथ क्या हो गया होता. शायद ये दरिंदे उन की बेटी के साथ बलात्कार कर उसे मार भी डालते, फिर क्या कर लेती वह?केसकानून करने से भी क्या उस की बेटी वापस आ जाती?

आज नताशा को समझ में आ गया कि त्रिशा सही थी और वह गलत. सही कहती थी त्रिशा कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता.

इंसान अच्छा और सच्चा होना चाहिए. धन तो कैसे भी कर के कमाया जा सकता है, पर अच्छे संस्कार हर किसी के पास नहीं होते. पढ़लिख कर बड़ा आदमी बन जाना, अच्छे कपड़े पहनना, अच्छा खाना खाना, बड़ीबड़ी गाड़ियों में घूमना यही सब अच्छे संस्कारों की गिनती में नहीं आते, बल्कि अच्छे संस्कार का मतलब होता है लोगों के दुखों को समझना, अपनों से बड़ों को सम्मान देना, जो विलियम में तो बिलकुल नहीं था.

यह बात त्रिशा ने कई बार बताना चाहा कि विलियम अच्छा लड़का नहीं है, पर नताशा हर बार उस की बात को नजरअंदाज कर उसे ही चुप करा देती थी. लेकिन आज उसे समझ में आ गया कि त्रिशा बिलकुल सही थी.

घर पहुंच कर नताशा ने सिर्फ अपनी बेटी त्रिशा और पति अशोक से ही हाथ जोड़ कर माफी नहीं मांगी, बल्कि हर्ष के सामने भी वह सिर झुका कर खड़ी हो गई. हाथ जोड़ कर कहने लगी कि हर्ष उसे माफ कर दे. उस से इंसान के चुनाव में गलती हो गई.

“नहीं आंटी, प्लीज, ऐसा मत कहिए. आप अपनी जगह एकदम सही थीं. हर मांबाप अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुखी देखना चाहते हैं. आप ने भी ऐसा ही सोचा तो क्या गलत किया? और आप को लगा विलियम से शादी कर के त्रिशा ज्यादा सुखी रहेगी.”

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नताशा उसे देखती रह गई कि वह कितनी गलत थी उसे ले कर. अपनी जिद और अहंकार के कारण उस ने हीरा को पत्थर और पत्थर को हीरा समझ लिया.

आज नताशा को हर्ष से मिल कर बहुत खुशी महसूस हो रही थी. अब वह दिल से हर्ष को अपना दामाद मान चुकी थी.

त्रिशंकु: नवीन का फूहड़पन और रुचि का सलीकापन

Serial Story: त्रिशंकु (भाग-3)

शादी के बाद भी सबकुछ ठीक था. उन के बीच न तो तनाव था, न ही सामंजस्य का अभाव. दोनों को ही ऐसा नहीं लगा था कि विपरीत आदतें उन के प्यार को कम कर रही हैं. नवीन भूल से कभी कोई कागज फाड़ कर कचरे के डब्बे में फेंकने के बजाय जमीन पर डाल देता तो रुचि झुंझलाती जरूर थी पर बिना कुछ कहे स्वयं उसे डब्बे में डाल देती थी. तब उस ने भी इन हरकतों को सामान्य समझ कर गंभीरता से नहीं लिया था.

अपने सीमित दायरे में वे दोनों खुश थे. स्नेहा के होने से पहले तक सब ठीक था. रुचि आम अमीर लड़कियों से बिलकुल भिन्न थी, इसलिए स्वयं घर का काम करने से उसे कभी दिक्कत नहीं हुई.

हां, स्नेहा के होने के बाद काम अवश्य बढ़ गया था पर झगड़े नहीं होते थे. लेकिन इतना अवश्य हुआ था कि स्नेहा के जन्म के बाद से उन के घर में रुचि की मां, बहनों का आना बढ़ गया था. उन लोगों की मीनमेख निकालने की आदत जरूरत से ज्यादा ही थी. तभी से रुचि में परिवर्तन आने लगा था और पति की हर बात उसे बुरी लगने लगी थी. यहां तक कि वह उस के कपड़ों के चयन में भी खामियां निकालने लगी थी.

उन का विवाह रुचि की जिद से हुआ था, घर वालों की रजामंदी से नहीं. यही कारण था कि वे हर पल जहर घोलने में लगे रहते थे और उन्हें दूर करने, उन के रिश्ते में कड़वाहट घोलने में सफल हो भी गए थे.

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काम करने वाली महरी दरवाजे पर आ खड़ी हुई तो वह उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा कि उस से ही कितनी बार कहा है कि जरा रोटी, सब्जी बना दिया करे. लेकिन उस के अपने नखरे हैं. ‘बाबूजी, अकेले आदमी के यहां तो मैं काम ही नहीं करती, वह तो बीबीजी के वक्त से हूं, इसलिए आ जाती हूं.’

नौकर को एक बार रुचि की मां ले गई थी, फिर वापस भेजा नहीं. तभी रुचि ने यह महरी रखी थी.

नवीन के बाबूजी को गुजरे 7 साल हो गए थे. मां वहीं ग्वालियर में बड़े भाई के पास रहती थीं. भाभी एक सामान्य घर से आई थीं, इसलिए कभी तकरार का प्रश्न ही न उठा. उस के पास भी मां मिलने कई बार आईं, पर रुचि का सलीका उन के सरल जीवन के आड़े आने लगा. वे हर बार महीने की सोच कर हफ्ते में ही लौट जातीं. वह तो यह अच्छा था कि भाभी ने उन्हें कभी बोझ न समझा, वरना ऐसी स्थिति में कोई भी अपमान करने से नहीं चूकता.

वैसे, रुचि का मकसद उन का अपमान करना कतई नहीं होता था, लेकिन सभ्य व्यवहार की तख्ती अनजाने में ही उन पर यह न करो, वह न करो के आदेश थोपती तो मां हड़बड़ा जातीं. इतनी उम्र कटने के बाद उन का बदलना सहज न था. वैसे भी उन्होंने एक मस्त जिंदगी गुजारी थी, जिस में बच्चों को प्यार से पालापोसा था, हाथ में हर समय आदेश का डंडा ले कर नहीं.

रुचि के जाने के बाद उस ने मां से कहा था कि वे अब उसी के पास आ कर रहें, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया था, ‘बेटा, तेरे घर में कदम रखते डर लगता है, कोई कुरसी भी खिसक जाए तो…न बाबा. वैसे भी यहां बच्चों के बीच अस्तव्यस्त रहते ज्यादा आनंद आता है. मैं वहां आ कर क्या करूंगी, इन बूढ़ी हड्डियों से काम तो होता नहीं, नाहक ही तुझ पर बोझ बन जाऊंगी.’

रुचि के जाने के बाद नवीन ने उस के मायके फोन किया था कि वह अपनी आदतें बदलने की कोशिश करेगा, बस एक बार मौका दे और लौट आए. पर तभी उस के पिता की गर्जना सुनाई दी थी और फोन कट गया था. उस के बाद कभी रुचि ने फोन नहीं उठाया था, शायद उसे ऐसी ही ताकीद थी. वह तो बच्चों की खातिर नए सिरे से शुरुआत करने को तैयार था पर रुचि से मिलने का मौका ही नहीं मिला था.

शाम को दफ्तर से लौटते वक्त बाजार की ओर चला गया. अचानक साडि़यों की दुकान पर रुचि नजर आई. लपक कर एक उम्मीद लिए अंदर घुसा, ‘हैलो रुचि, देखो, मैं तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं. मेरी बात सुनो.’

पर रुचि ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती. तुम अपनी मनमानी करते रहे हो, अब भी करो. मैं वापस नहीं आऊंगी. और कभी मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’

‘ठीक है,’ नवीन को भी गुस्सा आ गया था, ‘मैं बच्चों से मिलना चाहता हूं, उन पर मेरा भी अधिकार है.’

‘कोई अधिकार नहीं है,’ तभी न जाने किस कोने से उस की मां निकल कर आ गई थी, ‘वे कानूनी रूप से हमारे हैं. अब रुचि का पीछा छोड़ दो. अपनी इच्छा से एक जाहिल, गंवार से शादी कर वह पहले ही बहुत पछता रही है.’

‘मैं रुचि से अकेले में बात करना चाहता हूं,’ उस ने हिम्मत जुटा कर कहा.

‘पर मैं बात नहीं करना चाहती. अब सबकुछ खत्म हो चुका है.’

उस ने आखिरी कोशिश की थी, पर वह भी नाकामयाब रही. उस के बाद कभी उस के घर, बाहर, कभी बाजार में भी खूब चक्कर काटे पर रुचि हर बार कतरा कर निकल गई.

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नवीन अकसर सोचता, ‘छोटीछोटी अर्थहीन बातें कैसे घर बरबाद कर देती हैं. रुचि इतनी कठोर क्यों हो गई है कि सुलह तक नहीं करना चाहती. क्यों भूल गई है कि बच्चों को तो बाप का प्यार भी चाहिए. गलती किसी की भी नहीं है, केवल बेसिरपैर के मुद्दे खड़े हो गए हैं.

‘तलाक नहीं हुआ, इसलिए मैं दोबारा शादी भी नहीं कर सकता. बच्चों की तड़प मुझे सताती रहेगी. रुचि को भी अकेले ही जीवन काटना होगा. लेकिन उसे एक संतोष तो है कि बच्चे उस के पास हैं. दोनों की ही स्थिति त्रिशंकु की है, न वापस बीते वर्षों को लौटा सकते हैं न ही दोबारा कोशिश करना चाहते हैं. हाथ में आया पछतावा और अकेलेपन की त्रासदी. आखिर दोषी कौन है, कौन तय करे कि गलती किस की है, इस का भी कोई तराजू नहीं है, जो पलड़ों पर बाट रख कर पलपल का हिसाब कर रेशेरेशे को तौले.

वैसे भी एकदूसरे पर लांछन लगा कर अलग होने से तो अच्छा है हालात के आगे झुक जाएं. रुचि सही कहती थी, ‘जब लगे कि अब साथसाथ नहीं रह सकते तो असभ्य लोगों की तरह गालीगलौज करने के बजाय एकदूसरे से दूर हो जाएं तो अशिक्षित तो नहीं कहलाएंगे.’

रुचि को एक बरस हो गया था और वह पछतावे को लिए त्रिशंकु की भांति अपना एकएक दिन काट रहा था. शायद अभी भी उस निपट गंवार, फूहड़ और बेतरतीब इंसान के मन में रुचि के वापस आने की उम्मीद बनी हुई थी.

वह सोचने लगा कि रुचि भी तो त्रिशंकु ही बन गई है. बच्चे तक उस के खोखले सिद्धांतों व सनक से चिढ़ने लगे हैं. असल में दोषी कोई नहीं है, बस, अलगअलग परिवेशों से जुड़े व्यक्ति अगर मिलते भी हैं तो सिर्फ सामंजस्य के धरातल पर, वरना टकराव अनिवार्य ही है.

क्या एक दिन रुचि जब अपने एकांतवास से ऊब जाएगी, तब लौट आएगी? उम्मीद ही तो वह लौ है जो अंत तक मनुष्य की जीते रहने की आस बंधाती है, वरना सबकुछ बिखर नहीं जाता. प्यार का बंधन इतना कमजोर नहीं जो आवरणों से टूट जाए, जबकि भीतरी परतें इतनी सशक्त हों कि हमेशा जुड़ने को लालायित रहती हों. कभी न कभी तो उन का एकांतवास अवश्य ही खत्म होगा.

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Serial Story: त्रिशंकु (भाग-2)

नवीन ने रुचि की व्यवस्थित ढंग से जीने की आदत के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश की पर हर बार वह हार जाता. बचपन से ही मां, बाबूजी ने उसे अपने ऊपर इतना निर्भर बना कर रखा था कि वह अपनी तरह से जीना सीख ही न पाया. मां तो उसे अपनेआप पानी भी ले कर नहीं पीने देती थीं. 8 वर्षों के वैवाहिक जीवन में वह उन संस्कारों से छुटकारा नहीं पा सका था.

वैसे भी नवीन, रुचि को कभी संजीदगी से नहीं लेता था, यहां तक कि हमेशा उस का मजाक ही उड़ाया करता था, ‘देखो, कुढ़कुढ़ कर बालों में सफेदी झांकने लगी है.’

तब वह बेहद चिढ़ जाती और बेवजह नौकर को डांटने लगती कि सफाई ठीक से क्यों नहीं की. घर तब शीशे की तरह चमकता था, नौकर तो उस की मां ने जबरदस्ती कन्नू के जन्म के समय भेज दिया था.

सुबह की थोड़ी सब्जी पड़ी थी, जिसे नवीन ने अपने अधकचरे ज्ञान से तैयार किया था, उसी को डबलरोटी के साथ खा कर उस ने रात के खाने की रस्म पूरी कर ली. फिर औफिस की फाइल ले कर मेज पर बैठ गया. बहुत मन लगाने के बावजूद वह काम में उलझ न सका. फिर दराज खोल कर बच्चों की तसवीरें निकाल लीं और सोच में डूब गया, ‘कितने प्यारे बच्चे हैं, दोनों मुझ पर जान छिड़कते हैं.’

एक दिन स्नेहा से मिलने वह उस के स्कूल गया था. वह तो रोतेरोते उस से चिपट ही गई थी, ‘पिताजी, हमें भी अपने साथ ले चलिए, नानाजी के घर में तो न खेल सकते हैं, न शोर मचा सकते हैं. मां कहती हैं, अच्छे बच्चे सिर्फ पढ़ते हैं. कन्नू भी आप को बहुत याद करता है.’

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अपनी मजबूरी पर उस की पलकें नम हो आई थीं. इस से पहले कि वह जीभर कर उसे प्यार कर पाता, ड्राइवर बीच में आ गया था, ‘बेबी, आप को मेम साहब ने किसी से मिलने को मना किया है. चलो, देर हो गई तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी.’

उस के बाद तलाक के कागज नवीन के घर पहुंच गए थे, लेकिन उस ने हस्ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया था. मुकदमा उन्होंने ही दायर किया था पर तलाक का आधार क्या बनाते? वे लोग तो सौ झूठे इलजाम लगा सकते थे, पर रुचि ने ऐसा करने से मना कर दिया, ‘अगर गलत आरोपों का ही सहारा लेना है तो फिर मैं सिद्धांतों की लड़ाई कैसे लड़ूंगी?’

तब नवीन को एहसास हुआ था कि रुचि उस से नहीं, बल्कि उस की आदतों से चिढ़ती है. जिस दिन सुनवाई होनी थी, वह अदालत गया ही नहीं था, इसलिए एकतरफा फैसले की कोई कीमत नहीं थी. इतना जरूर है कि उन लोगों ने बच्चों को अपने पास रखने की कानूनी रूप से इजाजत जरूर ले ली थी. तलाक न होने पर भी वे दोनों अलगअलग रह रहे थे और जुड़ने की संभावनाएं न के बराबर थीं.

नवीन बिस्तर पर लेटा करवटें बदलता रहा. युवा पुरुष के लिए अकेले रात काटना बहुत कठिन प्रतीत होता है. शरीर की इच्छाएं उसे कभीकभी उद्वेलित कर देतीं तो वह स्वयं को पागल सा महसूस करता. उसे मानसिक तनाव घेर लेता और मजबूरन उसे नींद की गोली लेनी पड़ती.

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उस ने औफिस का काफी काम भी अपने ऊपर ले लिया था, ताकि रुचि और बच्चे उस के जेहन से निकल जाएं. दफ्तर वाले उस के काम की तारीफ में कहते हैं, ‘नवीन साहब, आप का काम बहुत व्यवस्थित होता है, मजाल है कि एक फाइल या एक कागज, इधरउधर हो जाए.’

वह अकसर सोचता, घर पहुंचते ही उसे क्या हो जाया करता था, क्यों बदल जाता था उस का व्यक्तित्व और वह एक ढीलाढाला, अलमस्त व्यक्ति बन जाता था?

मेजकुरसी के बजाय जब वह फर्श पर चटाई बिछा कर खाने की फरमाइश करता तो रुचि भड़क उठती, ‘लोग सच कहते हैं कि पृष्ठभूमि का सही होना बहुत जरूरी है, वरना कोई चाहे कितना पढ़ ले, गांव में रहने वाला रहेगा गंवार ही. तुम्हारे परिवार वाले शिक्षित होते तो संभ्रांत परिवार की झलक व आदतें खुद ही ही तुम्हारे अंदर प्रकट हो जातीं पर तुम ठहरे गंवार, फूहड़. अपने लिए न सही, बच्चों के लिए तो यह फूहड़पन छोड़ दो. अगर नहीं सुधर सकते तो अपने गांव लौट जाओ.’

उस ने रुचि को बहुत बार समझाने की कोशिश की कि ग्वालियर एक शहर है न कि गांव. फिर कुरसी पर बैठ कर खाने से क्या कोई सभ्य कहलाता है.

‘देखो, बेकार के फलसफे झाड़ कर जीना मुश्किल मत बनाओ.’

‘अरे, एक बार जमीन पर बैठ कर खा कर देखो तो सही, कुरसीमेज सब भूल जाओगी.’ नवीन ने चम्मच छोड़ हाथ से ही चावल खाने शुरू कर दिए थे.

‘बस, बहुत हो गया, नवीन, मैं हार गई हूं. 8 वर्षों में तुम्हें सुधार नहीं पाई और अब उम्मीद भी खत्म हो गई है. बाहर जाओ तो लोग मेरी खिल्ली उड़ाते हैं, मेरे रिश्तेदार मुझ पर हंसते हैं. तुम से तो कहीं अच्छे मेरी बहनों के पति हैं, जो कम पढ़ेलिखे ही सही, पर शिष्टाचार के सारे नियमों को जानते हैं. तुम्हारी तरह बेवकूफों की तरह बच्चों के लिए न तो घोड़े बनते हैं, न ही बर्फ की क्यूब निकाल कर बच्चों के साथ खेलते हैं. लानत है, तुम्हारी पढ़ाई पर.’

नवीन कभी समझ नहीं पाया था कि रुचि हमेशा इन छोटीछोटी खुशियों को फूहड़पन का दरजा क्यों देती है? वैसे, उस की बहनों के पतियों को भी वह बखूबी जानता था, जो अपनी टूटीफूटी, बनावटी अंगरेजी के साथ हंसी के पात्र बनते थे, पर उन की रईसी का आवरण इतना चमकदार था कि लोग सामने उन की तारीफों के पुल बांधते रहते थे.

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शादी से पहले उन दोनों के बीच 1 साल तक रोमांस चला था. उस अंतराल में रुचि को नवीन की किसी भी हरकत से न तो चिढ़ होती थी, न ही फूहड़पन की झलक दिखाई देती थी, बल्कि उस की बातबात में चुटकुले छोड़ने की आदत की वह प्रशंसिका ही थी. यहां तक कि उस के बेतरतीब बालों पर वह रश्क करती थी. उस समय तो रास्ते में खड़े हो कर गोलगप्पे खाने का उस ने कभी विरोध नहीं किया था.

नींद की गोली के प्रभाव से वह तनावमुक्त अवश्य हो गया था, पर सो न सका था. चिडि़यों की चहचहाहट से उसे अनुभव हुआ कि सवेरा हो गया है और उस ने सोचतेसोचते रात बिता दी है.

चाय का प्याला ले कर अखबार पढ़ने बैठा, पर सोच के दायरे उस की तंद्रा को भटकाने लगे. प्लेट में चाय डालने की उसे इच्छा ही नहीं हुई, इसलिए प्याले से ही चाय पीने लगा.

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Serial Story: त्रिशंकु (भाग-1)

नवीन को बाजार में बेकार घूमने का शौक कभी नहीं रहा, वह तो सामान खरीदने के लिए उसे मजबूरी में बाजारों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. घर की छोटीछोटी वस्तुएं कब खत्म होतीं और कब आतीं, उसे न तो कभी इस बात से सरोकार रहा, न ही दिलचस्पी. उसे तो हर चीज व्यवस्थित ढंग से समयानुसार मिलती रही थी.

हर महीने घर में वेतन दे कर वह हर तरह के कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता था. शुरूशुरू में वह ज्यादा तटस्थ था लेकिन बाद में उम्र बढ़ने के साथ जब थोड़ी गंभीरता आई तो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझने लगा था.

बाजार से खरीदारी करना उसे कभी पसंद नहीं आया था. लेकिन विडंबना यह थी कि महज वक्त काटने के लिए अब वह रास्तों की धूल फांकता रहता. साइन बोर्ड पढ़ता, दुकानों के भीतर ऐसी दृष्टि से ताकता, मानो सचमुच ही कुछ खरीदना चाहता हो.

दफ्तर से लौट कर घर जाने को उस का मन ही नहीं होता था. खाली घर काटने को दौड़ता. उदास मन और थके कदमों से उस ने दरवाजे का ताला खोला तो अंधेरे ने स्वागत किया. स्वयं बत्ती जलाते हुए उसे झुंझलाहट हुई. कभी अकेलेपन की त्रासदी यों भोगी नहीं थी. पहले मांबाप के साथ रहता था, फिर नौकरी के कारण दिल्ली आना पड़ा और यहीं विवाह हो गया था.

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पिछले 8 वर्षों से रुचि ही घर के हर कोने में फुदकती दिखाई देती थी. फिर अचानक सबकुछ उलटपुलट हो गया. रुचि और उस के संबंधों में तनाव पनपने लगा. अर्थहीन बातों को ले कर झगड़े हो जाते और फिर सहज होने में जितना समय बीतता, उस दौरान रिश्ते में एक गांठ पड़ जाती. फिर होने यह लगा कि गांठें खुलने के बजाय और भी मजबूत सी होती गईं.

सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए नवीन ने फ्रिज खोला और बोतल सीधे मुंह से लगा कर पानी पी लिया. उस ने सोचा, अगर रुचि होती तो फौरन चिल्लाती, ‘क्या कर रहे हो, नवीन, शर्म आनी चाहिए तुम्हें, हमेशा बोतल जूठी कर देते हो.’

तब वह मुसकरा उठता था, ‘मेरा जूठा पीओगी तो धन्य हो जाओगी.’

‘बेकार की बकवास मत किया करो, नाहक ही अपने मुंह की सारी गंदगी बोतलों में भर देते हो.’

यह सुन कर वह चिढ़ जाता और एकएक कर पानी की सारी बोतलें निकाल जूठी कर देता. तब रुचि सारी बोतलें निकाल उन्हें दोबारा साफ कर, फिर भर कर फ्रिज में रखती.

जब बच्चे भी उस की नकल कर ऐसा करने लगे तो रुचि ने अपना अलग घड़ा रख लिया और फ्रिज का पानी पीना ही छोड़ दिया. कुढ़ते हुए वह कहती, ‘बच्चों को भी अपनी गंदी आदतें सिखा दो, ताकि बड़े हो कर वे गंवार कहलाएं. न जाने लोग पढ़लिख कर भी ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं?’

बच्चों का खयाल आते ही उस के मन के किसी कोने में हूक उठी, उन के बिना जीना भी कितना व्यर्थ लगता है.

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रुचि जब जाने लगी थी तो उस ने कितनी जिद की थी, अनुनय की थी कि वह बच्चों को साथ न ले जाए. तब उस ने व्यंग्यपूर्वक मुंह बनाते हुए कहा था, ‘ताकि वे भी तुम्हारी तरह लापरवाह और अव्यवस्थित बन जाएं. नहीं नवीन, मैं अपने बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती. मैं उन्हें एक सभ्य व व्यवस्थित इंसान बनाना चाहती हूं. फिर तुम्हारे जैसा मस्तमौला आदमी उन की देखभाल करने में तो पूर्ण अक्षम है. बिस्तर की चादर तक तो तुम ढंग से बिछा नहीं सकते, फिर बच्चों को कैसे संभालोगे?’

नवीन सोचने लगा, न सही सलीका, पर वह अपने बच्चों से प्यार तो भरपूर करता है. क्या जीवन जीने के लिए व्यवस्थित होना जरूरी है?

रुचि हर चीज को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करने की आदी थी.  विवाह के 2 वर्षों बाद जब स्नेहा पैदा हुई थी तो वह पागल सा हो गया था. हर समय गोदी में लिए उसे झुलाता रहता था. तब रुचि गुस्सा करती, ‘क्यों इस की आदत बिगाड़ रही हो, गोदी में रहने से इस का विकास कैसे होगा?’

रुचि के सामने नवीन की यही कोशिश रहती कि स्नेहा के सारे काम तरतीब से हों पर जैसे ही वह इधरउधर होती, वह खिलंदड़ा बन स्नेहा को गुदगुदाने लगता. कभी घोड़ा बन जाता तो कभी उसे हवा में उछाल देता.

वह सोचने लगता कि स्नेहा तो अब 6 साल की हो गई है और कन्नू 3 साल का. इस साल तो वह कन्नू का जन्मदिन भी नहीं मना सका, रुचि ने ही अपने मायके में मनाया था. अपने दिल के हाथों बेबस हो कर वह उपहार ले कर वहां गया था पर दरवाजे पर खड़े उस के पहलवान से दिखने वाले भाई ने आंखें तरेरते हुए उसे बाहर से ही खदेड़ दिया था. उस का लाया उपहार फेंक कर पान चबाते हुए कहा था, ‘शर्म नहीं आती यहां आते हुए. एक तरफ तो अदालत में तलाक का मुकदमा चल रहा है और दूसरी ओर यहां चले आते हो.’

‘मैं अपने बच्चों से मिलना चाहता हूं,’ हिम्मत जुटा कर उस ने कहा था.

‘खबरदार, बच्चों का नाम भी लिया तो. दे क्या सकता है तू बच्चों को,’ उस के ससुर ने ताना मारा था, ‘वे मेरे नाती हैं, राजसी ढंग से रहने के अधिकारी हैं. मेरी बेटी को तो तू ने नौकरानी की तरह रखा पर बच्चे तेरे गुलाम नहीं बनेंगे. मुझे पता होता कि तेरे जैसा व्यक्ति, जो इंजीनियर कहलाता है, इतना असभ्य होगा, तो कभी भी अपनी पढ़ीलिखी, सुसंस्कृत लड़की को तेरे साथ न ब्याहता, वही पढ़ेलिखे के चक्कर में जिद कर बैठी, नहीं तो क्या रईसों की कमी थी. जा, चला जा यहां से, वरना धक्के दे कर निकलवा दूंगा.’

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वह अपमान का घूंट पी कर बच्चों की तड़प मन में लिए लौट आया था. वैसे भी झगड़ा किस आधार पर करता, जब रुचि ने ही उस का साथ छोड़ दिया था. वैसे उस के साथ रहते हुए रुचि ने कभी यह नहीं जतलाया था कि वह अमीर बाप की बेटी है, न ही वह कभी अपने मायके जा कर हाथ पसारती थी.

रुचि पैसे का अभाव तो सह जाती थी, लेकिन जब जिंदगी को मस्त ढंग से जीने का सवाल आता तो वह एकदम उखड़ जाती और सिद्धांतों का पक्ष लेती. उस वक्त नवीन का हर समीकरण, हर दलील उसे बेमानी व अर्थहीन लगती. रुचि ने जब अपने लिए घड़ा रखा तो नवीन को महसूस हुआ था कि वह चाहती तो अपने पिता से कह कर अलग से फ्रिज मंगा सकती थी पर उस ने पति का मान रखते हुए कभी इस बारे में सोचा भी नहीं.

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सरप्राइज गिफ्ट: मिताली ने संजय को सरप्राइज गिफ्ट देकर कैसे चौंका दिया

Serial Story: सरप्राइज गिफ्ट (भाग-3)

09.06.07

सं…जी ने मुझे अपनी लिखी कविताएं दीं. कविताएं…? मुझे हंसी आ रही थी. कविता नहीं बातें थीं वे, जो उन्होंने मेरे लिए लिखी थीं. यानी वे भी मेरे बारे में सोचते हैं? आज डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ है. वे भी मुझे बेहद चाहते हैं. ‘मेरी पत्नी सुंदर है, पर रूह, तुम में एक अजीब सी कशिश है, जो किसी में नहीं है. तुम बहुत ही अलग हो.’

हाय. आज उन्होंने यह एहसास दिला दिया कि मैं अपनी पत्नी से कहीं ज्यादा उन्हें भाती हूं. कभीकभी सोचने लगती हूं कि मैं ने इतनी जल्दी शादी क्यों की? थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती थी. कभीकभी उन्हें छोड़ने का मन नहीं होता.

06.07.07

संजयजी यह काम भी करते हैं? मैं हैरान हो गई. मुझे वह कागजों का पुलिंदा अहमद खान को देने के लिए होटल भेजा. बाद में मुझे बता रहे हैं कि वे कोई सीक्रेट कागज थे, जो वे स्वयं उसे नहीं दे सकते थे. ऐसा क्या होगा उन में? छोड़ो, संजयजी ने कहा और मैं ने किया, बस, मेरे लिए इतना ही काफी है. सो स्वीट सं…

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09.07.07

क्या बात है, आज सं… ने मुझे लेख लिखने के लिए अपने आफिस के कुछ ऐसे ओरिजिनल पत्र दिखाए. जिन्हें शायद उन्हें किसी को दिखाने भी नहीं चाहिए थे. इतना विश्वास करते हैं वे मुझ पर? हां, वैसे तो उन्होंने मुझे अपना लैपटौप, मोबाइल यहां तक कि अपने केबिन की हर चीज इस्तेमाल करने का हक भी दे रखा है, अपनी पत्नी के सामने भी रोब से ही रहते हैं. अब तो मुझे उन की पत्नी के आने, देखने या खड़े रहने की जरा भी परवाह नहीं होती, बल्कि मुझे लगता है कि मैं ही उन की पत्नी… हाय कितना अच्छा लगता है यह सोचना.

02.08.08

क्या बात है. इस बार भी क्रिसमस से पहले मुझे सरप्राइज गिफ्ट दिया. मुझे बहुत पसंद आया. मेरे लिए एक नया बेड. अ आ… बहुत ही शानदार. मजा आ गया.

09.09.08

आज डाक्टर के पास हो कर आई. उस ने कहा कि मैं… मुझे शर्म आ रही थी. मैं ने संजय को बताया, वह कहने लगे कि अबार्ट करा लो. पैसे मैं दे दूंगा. पता नहीं क्यों, मन नहीं है अबार्ट कराने का. पर क्या कहूंगी लोगों से? पति तो पास में है ही नहीं. कराना तो पड़ेगा ही. मन बहुत दुखी हो रहा है.

21.09.08

आज सं… मेरे पास बैठे रहे पर मेरा मन नहीं हो रहा था बात करने को. मुझे बहुत से ड्राई फ्रूट, फल और पैसे भी दे गए. आज मैं ने मम्मी को पैसे भिजवाए हैं. पूरे 6 महीने के लिए निश्चिंत हो गई मैं. क्या करूं? भावुक हो कर क्या मिलेगा, पैसा भी तो चाहिए. पर लगता है भीतर से कोई जोरजोर से रो रहा है. चुप चुप…

30.10.08

मैं बहुत खुश हूं, मैं ने आज लेटैस्ट डिजाइन की टीशर्ट्स और जींस ली. आज मेरे लगातार 3 लेख अलगअलग अखबारों में छपे हैं. 2 तो संजय की जानपहचान से ही लिए गए इंटरव्यू थे. मेरे संपादक भी मुझ से बहुत ही खुश हैं. एक संपादक ने तो मुझे एक रेगुलर कालम भी दे दिया है. थैंक्यू संजयजी…

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30.05.09

मुझे बहुत ही परेशानी हो रही है. मन बहुत ही खराब हो रहा है. लगता है कि फिर गड़बड़ हो गई है. यही सोच कर डाक्टर के पास गई थी. पर डाक्टर ने कहा कि अभी इंतजार कर लो. कभीकभी लेट भी हो जाते हैं. हे भगवान, कोई गड़बड़ न हो. मैं ने तो इतना ध्यान रखा था फिर कैसे? अंहं… संजयजी का एक पैकेट सुबहसुबह फिर अहमदजी को देने भी तो जाना है. अब सो जाना चाहिए. रात के 2 बजे सो कर सुबह साढ़े 4 बजे फिर कैसे उठ पाऊंगी. पर जाना तो जरूरी है. मन कर रहा है कि पैकेट खोल कर देखूं कि इस में क्या है? पर नहीं, कहीं सं… को पता न चल जाए. ख्वाहमख्वाह का लफड़ा पड़ जाएगा. अपने पास झंझट क्या कम हैं, जो एक झंझट और मोल ले लूं.

04.06.09

क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा. सं… को बताऊं या नहीं. मेरा मन चाहता है कि वह मुझे अपनी बना कर रखें. पर उस ने पहले भी कहा था कि वह मेरे साथ रिश्ता तो रख सकता है पर बच्चे को नहीं अपनाएगा. बताना तो पड़ेगा ही.

15.06.09

मन कर रहा है कि या तो संजय का गला दबा दूं या खुद मर जाऊं. कहता है कि मुझे तुम्हारे बच्चे से कोई लेनादेना नहीं है. पैसा चाहिए तो ले लो. मुझे भी गुस्सा आ रहा है.

एक मन करता है कि उस की पत्नी को सब कुछ बता दूं. पर नहीं, संजय नाराज हो जाएगा फिर… पर मैं इस बार अबार्ट नहीं कराना चाहती. मैं इसे रखना चाहती हूं. मुझे दुनिया की परवाह नहीं है. मैं उस की पत्नी को भी कुछ नहीं बताऊंगी, बस, वह इसे अपना नाम दे दे. तो संजय ने जवाब दिया कि ऐसे तो मेरे नाम का एक स्कूल खुल जाएगा. मैं हक्कीबक्की रह गई. संजय ने ऐसा कहा, मैं विश्वास नहीं कर पा रही.

19.06.09

आज तो संजय ने हद कर दी. उस का व्यवहार एकदम से बदल गया. मुझे सब के सामने बेइज्जत कर दिया. मुझे अपने कमरे के भीतर ही नहीं आने दिया. मैं जबरदस्ती चली गई तो चपरासी से कह कर बाहर निकलवा दिया. इतना अपमान. इतनी जिल्लत. सिर्फ इसलिए कि मैं वह बच्चा अबार्ट नहीं कराना चाहती. वह क्यों नहीं समझ रहा कि मैं उस से प्रेम करती हूं. पर अब पता चला कि वह प्रेम तो उस के मन में ही नहीं. मैं… मेरी इतनी इंसल्ट. क्या इतने दिनों की दोस्ती कोई माने नहीं रखती? पर आज तो मैं उसे धमकी दे ही आई कि तुम्हारी पत्नी को मैं सब कुछ बता दूंगी. तो उस ने भी पलट कर मुझे धमकी दी कि अगर मेरे मुंह से एक शब्द भी निकला तो उस का अंजाम बहुत ही बुरा होगा. क्या कर लेगा संजय? मैं भी देख लूंगी. मैं ने भी कह दिया कि मैं डीएनए टैस्ट करा कर यह साबित कर दूंगी कि बच्चा तुम्हारा ही है.

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18.08.09

क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा? यह बच्चा… संजय ने मेरा फोन तक नहीं उठाया. मुझ से इतनी बेइज्जती बरदाश्त नहीं हो रही. मुझे इतना नीचे गिरा दिया उस ने. मुझ से अपना लैपटौप भी वापस मांगा. आज तो हद ही हो गई. मैं 4 घंटे उस के कमरे के बाहर बैठी रही. जब बाहर निकला तो किसी आफिसर के साथ था. मुझे बैठे देख चपरासी को डांटने लगा कि तुम्हें पता है कि मैं बिजी हूं तो लोगों की लाइन क्यों लगवा लेते हो, और मुझे बिना देखे वहां से चला गया. अब मैं चुप नहीं रहूंगी. बहुत हो गया.

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