मेरा कद बढ़ गया था. आफिस से संबंधित हर छोटेबड़े निर्णय में मेरी राय खास माने रखने लगी थी. बिजनेस टूर में रागिनी के साथ मेरा जाना लगभग अनिवार्य था. मैं उस का पर्सनल सेक्रेटरी हो गया था. कंपनी से मुझे शानदार बंगला और गाड़ी सौगात में मिली थी. वेतन की जगह भारीभरकम पैकेज ने ले ली थी.
इस नई भूमिका से जहां मैं बेहद उत्साहित था वहीं मंजरी की कठिनाइयां बढ़ गई थीं. कईकई दिन तक उसे अकेले रहना पड़ता था. व्यस्तता के कारण आफिस से मेरा देर रात तक लौटना संभव हो पाता. मंजरी उस वक्त भी उनींदी पलकों से मुझे प्रतीक्षा करती मिलती. खाने की मेज पर ही उस से चंद बातें हो पाती थीं.
रागिनी के आग्रह पर मैं जबतब बाहर खा कर आता तो वह उस से भी महरूम रह जाती थी. फिर वह भूखी सो जाती. मैं ने उस से कई बार कहा कि मुझ से पहले खा लिया करे पर वह अपनी जिद पर कायम रही. उसे भूखा रहने में क्या सुख मिलता था मैं समझ नहीं सका या मेरे पास समझने का वक्त ही नहीं था.
मैं इनसान से मशीन में तब्दील हो गया था.
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‘तुम इतने बदल जाओगे मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी,’ मेरी उपेक्षा से आजिज आ कर अंतत: एक दिन उस के सब्र का बांध टूट गया, ‘मुझ से बात करने को चैन के तुम्हारे पास दो पल भी नहीं हैं. जब से आई हूं इस चाहरदीवारी में कैद हो कर रह गई हूं. कहीं घुमाने तक नहीं ले गए मुझे.’
‘मेरी मजबूरी समझने की कोशिश करो. ऐसी नौकरी और ऐसे अवसर मुश्किल से मिलते हैं. यही मौका है खूब आगे, आगे से और आगे… ऊंचाई पर जाने का.’
‘तुम पहले ही इतना आगे जा चुके हो कि मुड़ कर देखने से मैं दिखाई नहीं देती और आगे चले गए तो…’ उस का गला रुंध गया.
‘यह क्या कह रही हो?’
‘अब और सहन नहीं होता, श्रेयांश,’ उस की आंखें भर आईं, ‘मैं कोई बुत नहीं हूं जो कोने में अकेला पड़ा रहे. हाड़मांस की बनी जीतीजागती इनसान हूं मैं. मेरे सीने में धड़कता दिल हर क्षण तुम्हारी मदभरी बातें सुनने को तरसता है. कभी मेरे मन में जमी राख को कुरेद कर देखते तो समझ पाते कि मैं पलपल किस भीषण आग से सुलग रही हूं.’
उस की हालत देख कर मैं दहल गया. यकीनन मैं इतनी गहराई तक नहीं पहुंचा था जितना वह सोचती थी. उस के अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं कभी ठीकठीक अंदाजा ही नहीं लगा सका कि क्या कुछ दहक रहा था उस के भीतर. जब स्थिति बदतर हो गई तभी उस के मन का ज्वालामुखी फटा था. मैं ने उस के आंसू पोंछे. उसे अंक में समेट कर देर तक डूबा रहा उस की देहगंध में. उस पूरी रात वह अबोध शिशु की तरह मेरे पहलू में दुबकी रही.
अगले दिन मैं ने रागिनी को फोन कर आफिस आने से मना कर दिया. उस ने बहुत सारे आवश्यक कामों का हवाला दे कर हीलहुज्जत की थी पर मुझे नहीं जाना था, सो नहीं गया.
वह पूरा दिन मंजरी के लिए रिजर्व था.
मैं उसे कई जगह घुमाने ले गया. हम थिएटर भी गए. वहां प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’ का मंचन हो रहा था.
‘दिल्ली के लोग इस युग में भी संवेदनाओं को जीवित रखे हैं,’ वह रोमांचित हो गई थी.
अंत में हम ने ढेर सारी शौपिंग की और कैंडल डिनर का लुत्फ उठाया. लौटते वक्त वह चहक रही थी. उस का खिला चेहरा कभी मुरझाने न देने का मैं निश्चय कर चुका था.
अगले दिन मैं आफिस पहुंचा. पिछले रोज आफिस न आने का कारण बताया.
‘तुम होश में तो हो, श्रेयांश?’ मेरी बात सुन कर रागिनी भड़क गई थी, ‘आज आफिस में तुम जिस लैबल पर हो उस पर तुम्हें गर्व होना चाहिए.’
‘प्लीज मैडम, मेरी बात समझने की कोशिश करें.’
‘देखो श्रेयांश, जल्दबाजी में लिए गए फैसले अकसर गलत साबित होते हैं. यहां काम करने वालों की कमी नहीं है. एक से बढ़ कर एक हैं. तुम में मुझे अपार संभावनाएं नजर आ रही हैं इसलिए नेक राय दे रही हूं. आने वाले सुनहरे कल को यों ठोकर मारना उचित नहीं है.
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‘तुम्हारी पत्नी छोटे शहर से आई है इसलिए ऐडजस्ट करने में उसे समस्या हो रही है. धीरेधीरे परिस्थितियां सब को अपने अनुरूप ढाल लेती हैं.’
‘मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा.’
‘कोशिश कर के देखने में क्या हर्ज है?’
मैं ने घर आ कर मंजरी को सारी स्थिति और अपनी मजबूरी बता दी.
‘मुझे तुम पर भरोसा है,’ मेरे सीने से लग कर वह बोली थी.
रागिनी ने मेरे सामने जो परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं उन में मंजरी के भरोसे को कायम रख पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल भरा काम था. न चाहते हुए भी मेरा काम करने का रुटीन पहले से और भी अधिक संघर्षमय होता जा रहा था.
धीरेधीरे समय गुजरता गया. साथ ही मंजरी से दूरी बढ़ती गई. मेरा ज्यादातर समय रागिनी के साथ बीतता था. मैं फिर उसी भंवर की गहराई में डूब गया था जिस से उबरने के स्वप्न मंजरी की आंखों में झिलमिला रहे थे. मेरे मन के किसी कोने में दबी महत्त्वाकांक्षा जोर मारने लगी थी. इस उफान में मंजरी हाशिए पर चली गई. उस के मुसकराते होंठ थरथराने लगे थे जैसे मुझ से कुछ कहना चाहते हों. मैं ने दोएक बार पूछा भी पर वह खामोश रही. मैं ज्यादा कुरेदता तो वह किसी बहाने से उठ कर चली जाती थी. उस की पलकों का गीलापन मुझ से छिप नहीं पाता था. उन में कई अनबूझे सवाल तैरते देखे थे मैं ने.
‘मंजरी प्लीज, संभालो अपने आप को,’ उस की उदासी से तिक्त हो कर मैं ने कहा, ‘कुछ दिन बाद तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे.’
‘उन्हीं कुछ दिनों का इंतजार है मुझे,’ वह भावहीन स्वर में बोली.
मैं फ्रीज हो कर रह गया था.
3 दिन के टूर पर मैं रागिनी के साथ मुंबई में था. जिस होटल में हम ठहरे थे उस में अंतिम दिन एक खास मीटिंग रखी गई थी. रात के लगभग 12 बजे तक मीटिंग चली. उस के बाद डिनर था. विशाल डाइनिंग हाल में खिड़की के बगल वाली सीट हमारे लिए रिजर्व थी. वहां से समुद्र का दिलकश नजारा साफ दिखाई देता था.
बैरा खाना लगा गया तो रागिनी ने उस से सोडा लाने को कहा और पर्स से महंगी विदेशी शराब की छोटी बोतल निकाल कर 2 गिलास सीधे किए.
‘मैं नहीं लूंगा,’ उस का आशय समझ कर मैं बोला तो उस ने जिद नहीं की. बैरे को बुला कर मेरे लिए कोल्ड ड्रिंक मंगवाई और अपने लिए पैग तैयार किया.
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दो घूंट गटक कर रागिनी बोली, ‘मुझे शौक नहीं है पीने का. पर क्या करूं, काम के बोझ और थकान के कारण पीनी पड़ती है. शरीर तो आखिर शरीर है, उस की भी अपनी सीमाएं हैं. दो घूंट अंदर और सब टैंशन बाहर,’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी.
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