तीज स्पेशल: झूठा सच- पत्नी आशा से क्यों नफरत कर बैठा ओम

“ऐसे कैसे अकेले ही निर्णय ले बैठा है शरत… अब वह अविवाहित नहीं, शादीशुदा है. पत्नी का भी बराबर का अधिकार है उस के जीवन में. जाना ही था तो संग ले कर जाए कामिनी को,” आशा बोल रही थी.

यों शरत और कामिनी की शादी को पूरे 3 साल हो चुके थे. उस के पति शरत ने भारत में नौकरी छोड़ दी और आस्ट्रेलिया में आगे शिक्षा प्राप्त करने हेतु अरजी दी थी जो स्वीकार हो गई थी. उसे अच्छाखासा वजीफा भी मिल रहा था. ऐसे में शरत यह मौका हाथ से जाने देने को बिलकुल तैयार न था. कामिनी यहां अकेली नहीं रहना चाहती थी, मगर खर्चों के कारण शरत के साथ जाना भी संभव नहीं था और यही कारण था दोनों में क्लेश का. कुछ दिन सोचविचार करने हेतु कामिनी मायके आ गई थी.

‘थोड़े दिन अलग रह कर, बिना भावनाओं को बीच में लाए सोचेंगे तो शायद सही निर्णय पर पहुंच पाएं,’ यह दोनों का मत था.

कामिनी नहीं चाहती थी कि मातापिता दोनों में से कोई भी उस की गृहस्थी के निर्णयों में दखल दें. वैसे भी पिता ओम चुपचाप हमेशा अपनी ही चलाते थे और हर मामले में आशा तिरस्कार सहती आ रही थी. वह इस बात को देखती और समझती रही थी और इसलिए उस ने दोनों को कुछ नहीं बताया. पिता एकदम उग्र हो उठेंगे, उसे मालूम था.

आखिर कई दिनों बाद कामिनी और शरत ने एकसाथ ओम व आशा को अपने निर्णय से अवगत कराया, ‘‘शरत 2 वर्षों की प्रबंधक शिक्षा हेतु आस्ट्रेलिया जाएंगे और इस बीच मैं यहां रह कर अपनी नौकरी करती रहूंगी. फिर इन की शिक्षा पूरी होने पर देखते हैं कि कहां अच्छी नौकरी मिलती है, उसी हिसाब से आगे की योजना बनाएंगे,” कामिनी की इस बात से जहां मां आशा सहमत न होते हुए भी ब्याहता बेटी के निर्णय का सम्मान कर रही थी, वहीं ओम के चेहरे पर कुंठा साफ झलक रही थी, ‘‘मैं तुम दोनों के इस निर्णय से असंतुष्ट हूं. विवाहोपरांत अलग रहना और वह भी इतनी समायाविधि के लिए कहां उचित है?’’ ओम के ऐसा कहते ही मानों एक गहरी खाई खुल गई और एकायक वे उस में गिरते चले गए…

करीब 24 वर्ष पूर्व, जब कामिनी मात्र 3 साल की थी, उस के पिता ओम को एक अच्छी नौकरी की तलाश विदेश ले गई. कतर में कंपनी ने ही रहने को क्वार्टर किया था. पीछे आशा और कामिनी को एक किराए के घर में छोड़ ओम अच्छा पैसा कमाने निकल पड़े थे. आखिर यह पैसा ही उन की गृहस्थी की गाड़ी को फर्राटे से चला पाएगा न.

कतर में दिनरात कड़ी मेहनतमशक्कत मेंं कब व्यतीत हो जाता, पता ही नहीं चलता. रात को शहर से दूर, औफ साइट कंपनी के अहाते में ओम अपनी पत्नी आशा की स्नेहपूर्ण यादों के सहारे समय काटते.

भारत में थे तो घर चाहे कितना छोटा था, टीन की छत वाली रसोई हो, दोपहरी में कितनी भी गरमी बरस रही हो, आशा गरमगरम खाना ही परोसती. ओम के पेट भर लेने के बाद भी एक और फुलके की जिद करती. उन को खाने के बाद कुछ मीठा खाना पसंद था तो हर रोज कुछ न कुछ, चाहे कितना भी कम बन पड़े, मीठा बनाती और बड़े प्यार से खिलाती. जब ओम शाम को थक कर घर लौटते तो गली के मोड़ से ही आशा को द्वार पर खड़ा पाते और जब तक चल कर घर में दाखिल होते, आशा हाथ में पानी का गिलास और आखों में प्रेममनुहार लिए आ पहुंचती.

दूर परदेस में ओम यही सब छोटीछोटी बातें याद करते रहते और उदास हो उठते. साल में एक बार घर आने का अवसर मिलता. वह 1 माह फिर उसी स्नेह और आदरसत्कार के बीच बीत जाता. कामिनी भी इस बार उन्हें बड़ी सी लगने लगी थी.

साल बीतने लगे. करीब 3-4 सालों के बाद आशा शिकायत करने लगी कि अब उस से अकेलापन नहीं झेला जाता. साथ के अपने जैसे लोगों के साथ कुछ समय बीत जाता पर सब इसी दुख को झेल रहे थे.

‘‘तुम यहां अपने घर में, अपनी बच्ची के साथ हो, तुम्हें काहे का अकेलापन? मेरा सोचो, वहां सुदूर परदेस मैं अकेला तो मैं हूं,’’ ओम तर्क देते.

‘‘आप समझ नहीं रहे हैं, एक बच्ची को अकेले पालना…अब मैं कैसे कहूं…’’ आशा ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी.

बस इस बार छुट्टियां पूरी होने पर कतर लौटने के 1 महीने बाद ही ओम को आशा की चिट्ठी मिली थी-

‘कामिनी के पापा, आप से साफ तरह से कह न सकी, इस बारबार या तो हमें अपने साथ ले चलिए या खुद लौट आइए. लगता है, आप को जैसा चल रहा है वही रास आने लगा है. लेकिन मुझ से अब यों नहीं रहा जाता. मेरी जिंदगी में कोई और आ गया है…वह मुझ से बहुत प्यार करता है, अपने साथ रखने को तैयार है. कामिनी को भी अपनाना चाहता है. आप मुझे तलाक दे दीजिए.

‘आप की आशा.’

आघात ने ओम के पांव तले जमीन हिला दी. आशा ने यह क्या सब लिख भेजा? और अंत में लिखती है ‘आप की आशा.’ कौन हो सकता है वह आदमी आशा के जीवन में? जब वे इस बार भारत गए थे, तब उन्हें कोई शक क्यों नहीं हुआ? कामिनी ने भी कभी कोई उत्तर नहीं दिया…पत्नी वियोग में पहले ही उन के लिए यहां स्वयं को स्थापित करना मुश्किल लगता था, साथ ही अकेलेपन की टीस और वीरान सी उन की जिंदगी बेचैन हुआ करती थी. आशा के इस पत्र से ओम को बहुत रोष हुआ था. उन का मन खिन्न हो उठा था. वह तन और मन से कितना भार ढो रहे हैं. इस से अनजान कैसे हो सकती थी उस की पत्नी. ओम आहत थे.

मगर उन्होंने इस रिश्ते को ऐसे ही खत्म करने का सोच लिया. आशा ऐसा चाहती है, तो ऐसा ही सही. जल्द से जल्द लौट कर उन्होंने अपने लिए एक अलग मकान का बंदोबस्त किया और अदालत के रास्ते अपना लिए.

नोटिस मिलने पर लुटीपिटी सी आशा अदालत में दुहाई देने लगी, ‘‘जज साहिबा, मैं ने झूठ लिखा था, ऐसावैसा कुछ नहीं है. वह तो मेरी एक सहेली ने मुझे यह तरकीब सुझाया कि शायद जलन और असुरक्षा की वजह से कामिनी के पापा वापस आ जाएं या फिर हमें अपने संग ले जाएं.’’

‘‘आप समझ रही हैं कि आप क्या कह रही हैं…’’ जज साहिबा ने झिडक़ी लगाई.

‘‘जज साहिबा, मुझे गलत न समझें. एक अकेली औरत के लिए समाज में जीना बहुत मुश्किल है. रास्ते से जाओ तो मनचलेमजनुओं के ताने सुनो, यहां तक कि त्योहारों पर भी लोग सुना देते हैं. ऐसे कमाने का क्या फायदा कि इंसान होलीदीवाली पर भी घर न आ पाएं. और तो और अपने खास दोस्त भी…’’ कहतेकहते आशा वियोग में बिताए पलों की खट्टी यादों में पहुंच गई…

एक बार कामिनी काफी बीमार हो गई थी. उस कष्ट की घड़ी में आशा की पड़ोस की सहेली अंबिका ने उस का बहुत साथ दिया. अंबिका के पति गगन ने उन के अपने छोटे से बेटे का ध्यान रखा और अंबिका कामिनी के माथे पर पट्टी रखती रही, जब तक आशा डाक्टर के पास जा कर दवा ले आई. उस रात आशा के घर गगन रुक गया ताकि जरूरत के समय काम आ सके. आशा, अंबिका को जातियों के भेदभाव के बावजूद अपनी बहन समान मानती थी और गगन उसे दीदी कह कर संबोधित करता था. इस वक्त उन्होंने यह रिश्ता निभा कर दिखाया था. आशा कामिनी के पास ही सो गई और गगन साथ वाले कमरे में.

अचानक रात के तीसरे पहर नींद की कच्ची आशा ने कमरे में कुछ आहट महसूस की. देखा तो गगन पास खड़ा था, ‘‘क्या हुआ गगन? कुछ चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं आशा, मैं तो बस देखने आ गया कि तुम्हें नींद आ गई क्या?’’ गगन के मुंह से अपना नाम व ‘तुम’ सुन आशा का चौंकना स्वाभाविक था. उस के लाल डोरे और उन में एक अजीब सा नशा आशा को डरा रहा था. प्रकृति ने स्त्री को छठी इंद्री प्रदान की है जिस से वह परपुरुष की मन की इच्छा आसानी से भांप लेती है.

घर अकेला था और कामिनी बीमार अवस्था में सो रही थी. आशा ने फौरन बात टाली, ‘‘चाय लोगे गगन भाई?’’

‘‘आशा, यह समय चाय का नहीं बल्कि…’’

‘‘नहीं, मैं चाय बना ही लाती हूं. तब तक आप जरा कामिनी के पास बैठिए,’’ कह जबरदस्ती चाय बनाने लगी. उस ने 2 कप चाय बनाई, एक गगन को दी और एक खुद घूंटघूंट कर के पी. जैसेतैसे सुबह के 5 बजे. सूर्योदय से पहले की लालिमा के साथ चिडिय़ों की चहचहाहट पौ फटते ही सारे आकाश में फैल गई. आशा बोली, ‘‘गगन भाई, अब आप अपने घर जाइए, अंबिका आप का इंतजार कर रही होगी.’’

उस घटना के बाद आशा अंदर तक हिल गई. किस से कहे? अंबिका को कैसे बताए? कहीं उस ने आशा को ही गलत समझ लिया कि एक तो मेरे पति ने इतनी मदद की और ऊपर से उन पर इतना घिनौना इल्जाम. और फिर हुआ तो कुछ भी नहीं. यह तो सिर्फ उस का डर है, कोई सुबूत नहीं है उस के पास. काफी परेशान हो गई वह और उस ने ठान लिया कि अब वह अकेली नहीं रहेगी. इस संसार में उस का कोई है तो बस उस का अपना पति. वह फौरन उन्हें घर वापस बुलाना चाहती थी. बस, एक अन्य सहेली की सुझाई हुई तरकीब अपना कर आशा ने ओम को वह चिट्ठी लिख डाली.

कितनी मूर्ख थी आशा. क्या वह कभी समझ पाएगी कि उस की इस तरकीब से ओम को कितना गुस्सा होगा? उन में कितनी निराशा, कितना अंधकार घर कर चुका था. इस तरकीब के पीछे के सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ ओम इस फैसले पर पहुंच गए थे कि चुप्पी ही तूतूमैंमैं से बेहतर है. वे तो केवल अपनी पत्नी की ओर कमजोर आंखों से देख रहे थे. आशा ने बहुत माफी मांगी. कोर्ट ने भी उसे खरीखोटी सुनाई. मगर आशा के न मानने पर तलाक न हो पाया. उन्हें साथ ही रहना था लेकिन ओम के मन में गङी फांस ने उन्हें आशा की ओर से एक तरह अलग कर दिया. तो बस, यों ही बुझे मन से, निभाने के लिए ओम ने अपना जीवन काट दिया था.

कामिनी को इस बात की कुछ हलकीफुलकी जानकारी मौसी से मिली थी जो कभीकभार आती थीं. आज उस का पति वही करने जा रहा था जिस का परिणाम उस के पिता आज तक भुगत रहे थे तो भला कैसे मान जाते इस निर्णय को? नेपथ्य से वाकिफ कामिनी भी समझ रही थी कारण को. बेटियां मांओं की थोड़ी अधिक करीब होती हैं. यही कारण था कि बड़ी होती कामिनी ने मातापिता के बीच की दूरी भांप ली थी. पूछने पर मां ने अपनी गलती तथा अपने दिल का हाल दोनों ही उड़ेल दिए थे. संवेदनशील कामिनी सब समझ गई थी. लेकिन मर्यादा का पालन इसी में था कि वह छोटी थी और छोटों की भांति रहती सो इस विषय में उस का चुप रहना ही उचित था.

मगर आज एक झूठे सच को ले कर इतना परेशान भी तो नहीं देख पा रही थी. बहुत उधेड़बुन में उलझे थे दिल और दिमाग. आज वह स्वयं शादीशुदा है, पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत को पहचानती है. क्या आगे बढ़ कर एक प्रयास करना उचित न होगा?

कामिनी शरत के साथ अपने घर लौट गई. शरत जाने की तैयारी में था. कामिनी उस का पूरा साथ दे रही थी. वह चाहती थी कि शरत खुश मन से जाए, पूरी लगन से अपनी शिक्षा पूर्ण करे और फिर दोनों साथ में एक बेहतर जिंदगी जिएं.

नियत दिन शरत चला गया. आजकल के युग में जहां संपूर्ण दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है. जहां स्काइप, ट्विटर, व्हाट्सऐप आदि ने सात समुंदर पार की भी दूरियों को हमारी हथेलियों पर सिमटा दिया है, वहां लौंग डिस्टैंस रिलेशनशिप का निभना इतना कठिन नहीं, कामिनी यह बात अच्छी तरह समझती थी.

उस का पति उस से बहुत दूर, एक दूसरे महाद्वीप में होते हुए भी उस के इतने पास था कि आज उस ने क्या खाया, कितने बजे सोया, क्या कपड़े पहने, किसकिस से मिला, क्या सीखा आदि सब से वाकिफ थी कामिनी. इसी तरह वह भी जो कुछ अपने पति से बांटना चाहती, वह हर बात वह शरत से कर सकती थी. बिस्तर जरूर अकेला था, मगर इतना साथ भी बहुत था. और फिर वह जानती थी कि ये दूरियां केवल 2 साल के लिए हैं. जब समायाविधि नियत हो तो प्रतीक्षा इतनी कठिन नहीं लगती.

कुछ समय बाद कामिनी फिर अपने मायके चली जाती. एक ही शहर में मायका और ससुराल होने का एक फायदा यह भी है कि जल्दीजल्दी मिलना हो जाता है. मातापिता ने शरत के हालचाल पूछे और कामिनी को सारी जानकारी है इस बात से उन्हें तसल्ली मिली, ‘‘चल, अच्छा है बिटिया, तेरी शरतजी से रोज बातें हो जाती हैं. हमारे जमाने में तो बस चिट्ठियों का सहारा था…’’

आशा के कहते ही ओम बिफर पड़े, ‘‘हां, बहुत सहारा था चिट्ठियों का. जो बातें मुंह पर न कह सको, वे लिख कर भेज दो. एक बार फिर उपेक्षा से आशा की आंखें छलक आईं. पल्लू के कोर से धीरे से आंखें पोंछती आशा बहाने से उठ गई पर कामिनी से यह बात न छिप सकी, ‘‘पापा, आप कब तक यों…”

फिर कुछ सोच कर उस ने अपने पिता का हाथ थाम कमरे में ले गई और चिटकनी चढ़ा दी. उन की प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में वह बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती कि मम्मी हमारी बातें सुन लें. पापा, शायद मैं पूरी तरह न समझ पाऊं कि आप पर मम्मी की वह चिट्ठी पढ़ कर क्या गुजरी होगी क्योंकि जिस पर बीतती है, वही जानता है. लेकिन फिर यही लौजिक मम्मी की भावनाओं पर भी तो लागू होगा न. जैसे आप को अपनी ठेस, अपना आघात ज्ञात है, वैसे ही क्या आप ने कभी मम्मी से यह जानना चाहा कि क्यों उन्होंने इतना बड़ा झूठ बोला? इतना बड़ा झूठ जिस की सजा वे आज तक भुगत रही हैं…”

कामिनी ने आगे कहा,”जैसे आज मेरे पति के मुझ से दूर जाने पर आप को एक पिता के रूप में परेशानी हुई क्योंकि आप मानते हो कि मैं अकेली कैसी जिंदगी जिऊंगी. लेकिन पापा, मेरे पास आप दोनों हो और बच्चे की जिम्मेदारी भी नहीं है. मम्मी के पास मैं थी और घरपरिवार वाले सब दूर. ऐसे में उन्हें कितनी ही परेशानियां आई होंगी. एक महानगर में अकेली औरत, एक छोटे बच्चे का साथ, उस की पढ़ाईलिखाई का इंतजाम. स्कूल में दाखिला कराना, स्कूल की मीटिंग में जाना, घरगृहस्थी की सारी संभाल, राशन, कपड़ों इत्यादि की खरीदारी, ऊपर से बढ़ते बच्चे का पालनपोषण… मैं सोच भी नहीं पाती हूं कि कैसे मां ने अकेले ही सब किया होगा.

“याद है आप को जब आप छुट्टियों में आया करते थे, तब सभी रिश्तेदार दूरदूर से आप सेे मिलने बारीबारी आते रहते थे. एक तो उस 1 माह में मम्मी आप के साथ ढंग से समय नहीं बिता पाती थीं ऊपर से बढ़ा हुआ काम और घर खर्च.

“आज सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि उन्हें कितनी कोफ्त होती होगी कि 1 माह को पति आया है, फिर 1 साल नहीं मिल पाएंगी और इस 1 माह में भी रिश्तेदारों का तांता.

‘‘एक औरत की तरह सोचती हूं तो समझ पाती हूं कि कितना अकेलापन सालता होगा उन्हें. काम बांटने की इच्छा, बातें करने की इच्छा, मानसिक संबल की आवश्यकता, हंसनेबोलने और बदन को छूनेसहलाने का मन, मन बढ़त की जरूरतें, विरह भरे दिनमहीने…

‘‘उस समय उम्र ही क्या थी उन की? किसी भी औरत के लिए कितना नीरस हो जाएगा जीवन जब उस का पति दूर परदेस में हो और उस के लौटने का कोई सूत्र भी नहीं दिखे. जरा सोचिए पापा, किस हद तक अकेली हो गई होगी उन की जिंदगी जो उन्होंने यह कदम उठा लिया. किसी परपुरुष के अपने जीवन में न होते हुए भी उन्होंने इतना बड़ा रिस्क उठाया कि अपने पति को अपनी बेवफाई का लिखित सुबूत दे डाला. यह उन की चालाकी नहीं, सीधापन था.

“जो वे वाकई बेवफा होतीं तो कुछ भी कर सकती थीं. आप तो साल में 1 बार आते थे और सभी रिश्तेनातेदार भी उसी 1 माह में आते थे. यहां क्या हो रहा है किस को खबर?’’

कामिनी ने आज वह खिडक़ी खोली थी जिसे ओम कस कर बंद चुके थे. यह बात ठीक है कि ओम अपने परिवार से दूर, कठिन परिस्थितियों में परदेस में मेहनत कर अपनी गृहस्थी के लिए कमा रहे थे मगर यह भी उतना ही सच था कि उस गृहस्थी की गाड़ी को आशा अकेली ही खींच रही थी. उस ने कई बार ओम को घर लौट आने या उसे भी साथ ले चलने की मांग की थी. ओम की अनिच्छा देख हो सकता है उसे यही एक विकल्प सूझा हो. गलती दोनों में से किसी की भी नहीं थी. गलती केवल परिस्थिति की थी. ओम की परिस्थिति उन्हें बीवीबच्चे साथ रखने की इजाजत नहीं दे रही थी और आशा की परिस्थिति उसे अकेले आगे नहीं बढ़ने दे रही थी. वह जानती थी कि कतर में नौकरी मिलने की शर्त ही यह थी कि पत्नी को साथ न लाओ. वह यह भी जानती थी कि ओम न जाते, तो वे टूटेफूटे, टीनटप्पर के मकान में रहने को मजबूर रहते.

कामिनी को भी 2 वर्ष ही अकेले विरहगीत गाने थे लेकिन आज उस ने जो किया था उस से एक ही छत के नीचे रह रहे अपने मांबाप की कभी न खत्म होने वाली विरह की दीवार को तोङ जरूर दिया था. इस बार मायके से अपने घर वापस लौटने पर कामिनी अकेले होते हुए भी मुसकरा रही थी. उस का मन हलका हो गया था.

कासनी का फूल: भाग 3- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

एक बार इंस्टिट्यूट के फाउंडेशन डे पर क्लासिक सौंग्स के कंपीटिशन में जब दर्शकों की वाहवाही के बाद भी चित्रा को तीसरा स्थान मिला था तो ईशान ने कितने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हारी वजह से यहां के स्टूडैंट्स पुरानी फिल्मों के गीतों में रुचि दिखा रहे हैं. यही तुम्हारा इनाम है. दुनिया में तरहतरह के लोग होते हैं और उन की पसंद भी अलगअलग होती है. हमें खानेपीने के साथसाथ और बातों में भी सभी लोगों की पसंद का ध्यान रखना पड़ेगा क्योंकि हौस्पिटैलिटी इंडस्ट्री में जाना है.’’

यहां आने के बाद चित्रा को ईशान की कुछ ज्यादा ही याद आने लगी है. शिमला के आसपास ही तो बताता था वह अपना घर. जब से यहां आई है जहां निगाह पड़ती है ईशान की दृष्टि से सब देखने लगती है. ईशान के पास प्रतिदिन उस का बैठना और ईशान से पहाड़ों के बारे में सवाल करना उस की दिनचर्या का सब से सुखद पहलू था. ईशान भी बातें करते हुए खो जाता था चित्रा में. सच तो यह है कि ईशान का मन पढ़ते हुए वह जान गई थी कि एक मुलायम सा मखमली कोना ईशान के हृदय में बन चुका है उस के लिए. अपने दिल को कभी टटोला ही नहीं था उस ने क्योंकि चंदनदास वाली घटना के बाद उसे प्रेम संबंधों के विषय में सोच कर ही डर लगता था.

आज अपने मन के अंधेरे, उजाले के बीच झलती चित्रा घाटी में उतर रहे हलके उजाले और घाटी से पहाड़ पर चढ़ रहे अंधेरे में खोई थी. थोड़ी देर बाद दृष्टि वहां से हट कर सामने कुछ दूरी पर बने मकानों पर टिकी तो एक घर में प्रवेश करती आकृति उसे ईशान जैसी लगी.

‘ईशान इतना छा गया है मुझ पर कि दिखाई भी देने लगा,’ अशांत कहीं खोईखोई सी चित्रा मोबाइल में मैसेज देख अपना ध्यान उस ओर से हटाने के प्रयास में लग गई.

चित्रा का होटल घर से बहुत दूर नहीं था. सुबह जल्दी उठकर पैदल ही निकल जाती थी वह. उस दिन भी घर से निकली, सामने की छोटी पहाड़ी पर बने मकान पर निगाहें टिक गईं. जब से ईशान के प्रवेश का भ्रम हुआ है वहां से निकलते हुए एक चोर सा मोह उस के मन को जकड़ने लगता है. ऊंचाई अधिक न होने के कारण 2 मिनट रुक कर एक भरपूर दृष्टि उस मकान पर डाल सिर झट कर चल दी.

‘‘चित्रा…’’ अपने नाम की पुकार सुन एकाएक चित्रा विश्वास न कर सकी, ‘उफ, मुझे तो ईशान की आवाज भी सुनाई देने लगी,’ चित्रा ने अपना सिर उठा कर देखा तो आंखें खुली की खुली रह गईं. ईशान बालकनी में खड़ा हाथ हिला रहा था.

‘‘मैं नीचे आ रहा हूं, रुको,’’ ईशान झटपट सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘तुम्हें देखा तो लगा कि तुम चित्रा ही हो, सोचा कि नाम पुकारता हूं कोई और हुई तो तुम्हारे नाम से रुक थोड़े ही जाएगी,’’ हांफते हुए ईशान एक सांस में सब बोल गया.

‘‘मुझे भी एक दिन तुम जैसा कोई मतलब तुम दिखे थे वहां से,’’ चित्रा अपने घर की ओर इशारा करते हुए बोली.

दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. एकदूसरे को अपने वर्तमान की झलक दे कर शाम को मिलने की बात हुई. चित्रा चली ही थी कि ईशान ने पुकार कर कहा, ‘‘पता है अपने जिस रैस्टोरैंट की बात मैंने अभी की है वह तुम्हें डैडिकेटेड है. एक दिन वहां ले जाऊंगा फिर बताना कैसे जुड़ा है वह तुम से? देखता हूं तुम्हें दोस्ती की पुरानी बातें कितनी याद हैं?’’

‘‘मिलते ही उलझन में डाल दिया ईशान,’’ चित्रा मुसकरा दी.

दोनों ने हंसते हुए विदा ली और अपनी राह चल दिए. ईशान ने कसौली में एक ढाबानुमा रैस्टोरैंट खोला था. उस का अपना घर वहां से कोई 150 किलोमीटर दूर धरौट नाम के गांव में था. चित्रा को याद है कि पढ़ते हुए भी ईशान अकसर फूड शौप खोलने के सपने देखता था. गांव में ऐसे रैस्टोरैंट्स के चलने की संभावना कम ही थी. कसौली में इस व्यवसाय को शुरू करने का मुख्य कारण पर्यटकों का कसौली के प्रति बढ़ता आकर्षण था. चित्रा के सामने वाले मकान में वह उन 2 लड़कों के साथ किराए पर रह रहा था जिन्हें अपने साथ ही काम पर रखा हुआ था.

चित्रा ने थोड़ी दूर चलने के बाद पगडंडी छोड़ सड़क का रास्ता पकड़ लिया. वह सड़क उस ओर जाती थी, जहां ईशान ने अपना रैस्टोरैंट होने की बात कही थी. वह रैस्टोरैंट उसे कैसे समर्पित है, यह देखने की चाह उसे खींच रही थी.

रास्तेभर चित्रा सोचती आ रही थी कि शाम को अपने विषय में ईशान को क्या बताए, क्या छिपाए? अभी तो ईशान को उस ने केवल यही बताया कि उस का विवाह हो चुका और यहां वह अकेली रह कर जौब कर रही है. अपनी व्यथा और पीड़ा के सिवा बताने को है ही क्या उस के पास. क्या ईशान उस की जिंदगी की अंधेरी गलियों में जाना पसंद करेगा?

चित्रा की सोच एक झटके में थम गई. सामने दिख रही फूड शौप ईशान की थी, नाम था ‘कासनी फूड हट.’ बोर्ड पर बना लोगो (प्रतीक चिह्न) भी कासनी के फूल की बनावट लिए था.

चित्रा कैसे भूल सकती है कि एक बार पढ़ाई के दौरान उन को हल्द्वानी के एक संस्थान में ले कर गए थे, जहां कासनी के फूल प्रचुर मात्रा में उगाए जाते थे. होटल मैनेजमैंट के विद्यार्थियों को वहां कासनी के पौधों की सूखी जड़ें पीस कर पाउडर बनाने के बाद कौड़ी में मिलाना सिखाया गया था. सामान्य सी दिखने वाली जड़ों से सूखने पर चौकलेट जैसी गंध आती है, स्वाद भी चौकलेट से मिलताजुलता होता है, लेकिन कैफीन नहीं होता उस में. चित्रा उस मनभावन सुगंध में खो गई थी. कासनी का फूल उसे हमेशा से बहुत प्रिय था.

ईशान ने उस दिन कहा था, ‘‘चित्रा, तुम इन कासनी के फूलों जैसी ही हो. नीले रंग के फूल प्रकृति ने बहुत कम दिए हैं, तुम सी भी कम ही होंगी दुनिया में. कासनी न सिर्फ सुंदर है इस का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में लाभकारी भी है. तुम भी खूबसूरती के साथ अपने में अनेक गुण समेटे हो. इस की मीठी खुशबू सा व्यवहार भी है तुम्हारा. कासनी को चिकोरी भी कहते हैं इसलिए आज से मैं तुम्हें चिकोरी कह कर बुलाऊंगा.’’

यह बात ईशान और चित्रा तक ही सीमित थी. कोई चिकोरी नाम के विषय में पूछता तो ईशान कह देता कि चित्रा की तुलना में चिकोरी बोलना आसान है, इसलिए बुलाता है वह इस नाम से.

‘ईशान को मैं न सिर्फ याद हूं उस के मन में मेरी अब भी वही खास जगह है. तभी तो उस ने कासनी रखा है अपने रैस्टोरैंट का नाम. मैं ईशान से कुछ नहीं छिपाऊंगी. अपनी जिंदगी खोल कर रख दूंगी उस के सामने. ऐसे दिल से चाहने वाले दोस्त कहां मिलते हैं? मुझे अपना राजदार बनाना ही है उसे,’ सोच चित्रा की आंखें नम हो गईं.

किसी तरह पलपल गिनते हुए उस का दिन बीता. सांझ को घर लौटी. ईशान की प्रतीक्षा में आकुल मन कुछ करने ही नहीं दे रहा था.

ईशान आते ही बोला, ‘‘सुबह हिम्मत नहीं जुटा सका था, क्या मैं तुम्हें अब भी चिकोरी कह कर बुला सकता हूं.’’

चित्रा खिल उठी. लौंग, इलायची डाल कर चाय बनाई. उसे याद था कि ईशान को चाय में इलायची और लौंग डाल कर पीना बहुत पसंद है. ईशान अपने रैस्टोरैंट के बने मोमोज ले कर आया था.

‘‘चिकोरी, तुम से बहुत सी बातें करनी हैं या यों कहूं कि बहुत कुछ सुनना है. मुझे तो जो कहना था सुबह ही कह दिया था मैं ने,’’ ईशान चित्रा के विषय में जानने को उत्सुक था.

दोनों बालकनी में बैठे तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया.

‘‘चिकोरी, तुम ने बताया कि तुम्हारी शादी हो गई, लेकिन तुम तो पहले जैसी ही दिख रही हो, बल्कि चेहरा कुछ मुरझाया सा लग रहा है. यह बात दूसरी है कि सूखे हुए कासनी के फूल की तरह सुंदरता कम नहीं हुई तुम्हारी.’’

इतने अपनेपन में भीगे शब्द चित्रा ने न जाने कितने दिनों बाद सुने थे. अत: वह आपबीती सुनाने लगी. अभिषेक से विवाह और तलाक के विषय में तो उस ने सब बता दिया, लेकिन चंदनदास वाली घटना और अभिषेक के साथ संबंध बनाते हुए सहयोग न कर पाने की बात कहते हुए उसे झिझक आ रही थी. इतना ही कह सकी, ‘‘हम मिलते रहेंगे तो जीवन की अनकही परतें खोलती रहूंगी, जाने कब से मन के अंधेरे कुएं में बंद मेरा दम घोटती रहती हैं काली यादें.’’

‘‘ओह, तुम्हारी जिंदगी इतनी दुखभरी रही और मुझे पता तक नहीं चला,’’ ईशान के शब्दों में चित्रा को सहानुभूति और आंखों में जज्बात की वह झील दिख रही थी जो इतना समय बीत जाने पर भी नहीं सूखी थी. अनायास ही उस का सिर ईशान के कंधे पर जा टिका. ईशान ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा तो चित्रा की पलकें मुंद गईं. दोनों देर तक यों ही शांत बैठे रहे.

रात को ईशान घर लौटा तो आंखों में नींद की जगह बेचैनी ने ले ली थी, ‘लगता है अभी भी बहुत कुछ दबा है चिकोरी के दिल में. मैं उस के मन की थाह लूंगा, उस के दुख में भागीदार बनूंगा.’

ईशान का काम अच्छा चलने लगा था. सहयोग के लिए 2 और लड़कों को रख लिया उस ने. इस का एक अन्य कारण चित्रा को समय देना भी था.

‘‘2 दिनों के लिए चैल चलोगी? यहां से ज्यादा दूर नहीं है, बहुत सुंदर हिल स्टेशन है,’’ एक दिन चित्रा के सामने ईशान ने प्रस्ताव रखा तो उस ने पूरे मन से हां कर दी.

ईशान को पहाड़ों पर ड्राइव करने का अच्छा अनुभव था, इसलिए अपनी कार से जाने का निश्चय किया. 2 घंटे की यात्रा थी लगभग. नियत दिन वे सुबह जल्दी घर से निकल पड़े. सर्दी के दिन बीत चुके थे, फिर भी हलकी सी धुंध फैली. कुछ देर बाद हलके कुहरे को चीरती सूर्य की किरणें बिखरने लगीं. ठंडी हवा के ?ांके हृदय को आह्लादित कर रहे थे.

बलखाती सड़क के एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे पहाड़, चित्रा मन ही मन ईशान व अभिषेक की तुलना करने लगी, ‘खाई दूर से हरीभरी लग रही है लेकिन भूले से भी कोई फिसल जाए तो गिरता ही जाए नीचे, नीचे, कहां तक पता नहीं. अभिषेक का साथ मिला तो मेरी नौकरी भी छूटी, सुकून भी गया. इस के विपरीत पहाड़ पर चढ़ना मतलब ऊंचाइयों को छू लेना. अपने मन में तरल प्रेम सा पानी छिपाए हैं जो कभीकभी झरनों के रूप में फूट पड़ता है ठीक ईशान की तरह.’

‘‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा ओ हमनवा…’’ कानों में गीत की आवाज आने से चित्रा अपने खयालों से बाहर निकल आई.

‘‘चिकोरी, कैसा है गाना? जहां तक मुझे याद है तुम्हें पुराने गाने पसंद हैं. जो कहोगी वही सौंग लगा दूंगा. बहुत बड़ा कलैक्शन है मेरे पास. रैस्टोरैंट में सारा दिन अलगअलग तरह के गाने लगाने पड़ते हैं.’’

‘‘इतना सुंदर गाना किस को पसंद नहीं आएगा,’’ चित्रा सचमुच गाने में खो गई.

‘‘गाने की दूसरी लाइन मेरे दिल सी निकली लगती है चिकोरी, न कोई है न कोई था जिंदगी में तुम्हारे सिवा…’’ ईशान ने गाने के बहाने मन की बात कह ही दी.

उन का कमरा पैलेस होटल में बुक था. कार वहां पहुंची तो होटल की भव्यता देख चित्रा ठगी सी रह गई.

‘‘जानती हो चिकोरी यह एक महल था जिसे 19वीं शताब्दी के अंत में पटियाला के महाराजा ने बनवाया था.’’

बातें करते हुए दोनों कमरे में पहुंच गए. कौफी और हलकेफुलके स्नैक्स लेने के बाद घूमने चल दिए.

मन के तहखाने-भाग 2: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

उसे जेठानी का चेहरा अकसर याद आता रहता. सोचती, इतने थोड़े समय का साथ था पर मैं नासमझ उन से चिढ़ने में ही लगी रही. धीरेधीरे मन को शांत कर सकी थी. जब सुध आई तो सामने पहाड़ की तरह एक उत्तरदायित्व उसे परेशान करने लगा. क्या होगा अवनी का? जैसे ही उसे सीने से लगाती तो अतीत के कई स्वर उसे आंदोलित करते और वह पुन: विक्षिप्त सी हो उठती. विवाह की पहली रात ही पूरब ने कहा था, ‘‘श्रावणी, हम चाहते हैं कि तुम्हारा मीठा स्वभाव उसी तरह मां के मन पर राज करे, जैसे भाभी का करता है.’’

प्रथम मिलन के समय अपने पति से मीठी प्यारी बातों के स्थान पर ऐसी बात उसे आश्चर्यचकित कर गई. वह कह रहा था, ‘‘भैया भाभी ने इस घर के लिए बहुत से त्याग किए हैं पर कभी भी उलाहना नहीं दिया.’’

पूरब ने उसे बताया कि कैसे बाबूजी के कम वेतन में इस घर में दरिद्रता का राज था. भैया ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ कुछ ट्यूशन ले रखी थीं ताकि घर की स्थिति में भी सुधार आए और वह पढ़ाई भी पूरी कर लें. भैया की लगन और परिश्रम से उन्हें एक अच्छी नौकरी भी मिल गई. घर में सुख के छोटे छोटे पौधे लहराने लगे. जब भाभी ब्याह कर आईं तो उन्होंने भी हर प्रकार से घर के हितों का ही ध्यान रखा. उन्हीं की जिद से मैं एम.बी.ए. कर सका और आज एक बड़ी कंपनी में नौकरी कर रहा हूं.

श्रावणी को याद है कि कैसे अपनी उबासियों को रोक कर उस ने सारी बातें सुनी थीं. उस रात की मर्यादा बनाए रखने के लिए उस ने मन का उफनता हुआ लावा सदा मन में दबाए रखा. जब जेठ जेठानी चले गए तो वह लावा समय असमय अवनी पर फूटने लगा.

अवनी के विवाह के नाम पर जेठ जेठानी ने बहुत पहले ही एक पौलिसी ली थी जिसे अब निश्चित समय पर आगे बढ़ाना पूरब के जिम्मे था. जब तक अवनी 20 वर्ष की होगी, उस के विवाह के लिए अच्छी रकम जमा हो चुकी होगी. फिर भी वह समयसमय पर अवनी के विवाह की चिंता दिखाने बैठ जाती. ‘इस महंगाई में अपनी बेटी का विवाह करना ही कठिन है, ऊपर से जेठजी की बेटी का भी सब कुछ हमें ही संभालना है.’

उस की बातों से आसपड़ोस की महिलाएं बहुत प्रभावित हो जातीं लेकिन पूरब खीज उठता, जो श्रावणी को सहन नहीं होता था.

पूरब कहता, ‘‘भैया सिर्फ अवनी के लिए ही नहीं अपनी विधू के लिए भी छोड़ गए हैं. दोनों उस में ब्याह जाएंगी.’’

श्रावणी खीज कर कहती, ‘‘मेरे पास बहुत काम है, तुम्हारी भैयाभाभी स्तुति सुनने का समय नहीं है.’’

अवनी पढ़ाई में बहुत तेज थी. घर के सारे काम निबटा कर अपनी पढ़ाई पूरी करती. कभी विविधा कुछ पूछती तो उसे भी पढ़ाने में समय देती.

एक दिन श्रावणी की दूर की मौसी का फोन आया कि वे अपने पुत्र के लिए लड़की देखने आ रही हैं. उन का एक ही पुत्र था.

2 बेटियों का विवाह कर चुकी थीं, अब पुत्र का शीघ्र विवाह करना चाहती थीं ताकि कनाडा जाने से पूर्व उस के पैरों में बेडि़यां डाल दें. श्रावणी ने अवनी से कहा, ‘‘मेरी दूर की मौसी आ रही हैं, पहली बार आएंगी, खूब खातिर करना.’’

विविधा ने तुरंत टोका, ‘‘फिर दीदी कालेज कब जाएंगी?’’

‘‘हम सब कर लेंगे चाची, आप चिंता न करिए…’’

श्रावणी ने विविधा को क्रोध से देख कर कहा, ‘‘तुम्हारी तरह आलसी नहीं है अवनी. सब कुछ मैनेज करना जानती है.’’

कहने को तो वह कह गई पर तुरंत उसे अपनी गलती का एहसास हो गया. अवनी से काम करवाने के चक्कर में अपनी बेटी पर कटाक्ष कर बैठी. वह मन ही मन में अपनी नासमझी पर विकल हो उठी.

न चाहते हुए भी बहुत कुछ हो जाता है और उस सब की जिम्मेदारी उसी पर है. अपना हाथ एकसाथ दोनों पर रख कर बोली, ‘‘हमारा मतलब है कि आज तुम भी अपनी दीदी का हाथ बटाओ और सीख लो कि कैसे वह सब बनाती है,’’ अपनी गलती सुधारती श्रावणी तीव्रता से बाहर चली गई.

मौसी आईं तो उन का पुत्र अनिकेत भी साथ आया. उस ने बहुत जल्दी हर एक का मन जीत लिया. भोजन करने बैठे सब तो मौसी ने खूब प्रशंसा आरंभ कर दी.

श्रावणी बोली, ‘‘दोनों बहनों ने मिल कर बनाया है.’’

‘‘नहीं आंटी,’’ विविधा तुरंत बोली, ‘‘यह सारा खाना दीदी ने बनाया है.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत अच्छी गृहस्थन हो बेटा,’’ मौसी ने प्यार से अवनी को देखा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, अवनी.’’

‘‘पढ़ती हो?’’ मौसी ने अगला प्रश्न उछाल दिया.

‘‘बी.ए. फाइनल में,’’ अवनी ने धीरे से कहा.

‘‘काश! वह लड़की भी तुम्हारी ही तरह गुणी हो, जिसे हम लोग अनिकेत के लिए देखने जा रहे हैं.’’

मौसी और अनिकेत के जाने के बाद अवनी कालेज चली गई. उस के 2 पीरियड छूट चुके थे.

शाम को जब घर पहुंची तो घर में बहुत सन्नाटा था. मौसी और चाची धीरेधीरे कुछ बोल कर चुप्पी साध लेती थीं. अनिकेत समाचारपत्र पकड़ कर लगातार कुछ सोच रहा था.

अवनी ने पुस्तकें रखीं और चाची के पास जा कर बोली, ‘‘चाय बनाऊं?’’

मौसी ने चौंक कर उसे देखा. उन की आंखों में जाने क्या था. श्रावणी ने कहा, ‘‘हां, साथ में कुछ गरमगरम पकौड़े भी बना लो.’’

अवनी लौटी तो उस ने सुना मौसी कह रही थीं, ‘‘कितनी प्यारी और शांत स्वभाव की है तुम्हारी अवनी.’’

रात तक अवनी को उन लोगों की चुप्पी का कारण पता चल गया था. इन लोगों को तो लड़की पसंद थी पर उस लड़की ने एकांत में अनिकेत से कहा कि वह किसी से प्यार करती है, मांबाप जबरन उस की शादी करवा रहे हैं. विविधा ने ये सारी बातें करते मौसी और मां को सुना था और अवनी को बताने चली आई थी.

अवनी के काम में हाथ बटाते हुए वह निरंतर कुछ न कुछ बोलती जा रही थी. अवनी मन ही मन में सोच रही थी कि वह लड़की कितनी बहादुर है, जिस ने सच को इस तरह सामने रख दिया.

खाने की मेज पर सब बैठे तो मौसी ने कहा, ‘‘अवनी बेटा, तुम भी हमारे साथ बैठो.’’

‘‘आप खाइए, हम गरम गरम फुलके सेंक रहे हैं.’’

मौसी ने उसे बहुत हसरत से देखा और अचानक बोलीं, ‘‘श्रावी, अपनी अवनी हमें दे दो,’’ फिर उन्होंने अनिकेत से कहा, ‘‘क्यों अनि, अवनी हमें बहुत पसंद है, तुम्हारे लिए मांग लें.’’

रसोई में कदम रखतेरखते अवनी ने सुना तो हठात ठहर गई. पूरा शरीर सिहर उठा. चाची से पहले चाचा ने कहा, ‘‘आप की ही बेटी है मौसी, जब चाहें अपना बना लें.’’

‘‘लेकिन अवनी से भी तो पूछिए,’’ अचानक उसे अनिकेत का यह स्वर सुनाई दिया.

इस असंभव सी बात पर वह आश्चर्यचकित भी थी और प्रसन्न भी. मन उत्तेजना से धड़क रहा था. क्या यह कोई सपना है? मौसी ने अगली बार उस के आते ही अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘बैठो बेटा, रोटी श्रावी बना लेगी,’’ उन की बात पर श्रावणी घबरा कर उठ गई और अवनी को बैठना पड़ा. मौसी ने प्यार से उस की पीठ पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘बेटा,एक बात सचसच बताना, हमारा अनिकेत कैसा है?’’

अवनी ने धीरे से पलकें उठाईं. अनिकेत मुसकरा रहा था. उसे घबराहट सी होने लगी. अचानक आए ये अनोखे पल उसे अवाक कर रहे थे, पर स्थिति का सामना तो करना था. उस ने अपने चाचा की ओर देखा, फिर धीरे से बोली, ‘‘अच्छे हैं.’’

‘‘इस से शादी करोगी?’’ मौसी ने फिर पूछा. घबरा कर उस ने फिर चाचा की ओर देखा. उन्होंने ‘हां’ का संकेत दिया तो गरदन झुकाते हुए लजा कर उस ने ‘हां’ में हिला दी.

‘‘थैंक्यू अवनी,’’ अचानक अनिकेत का स्वर उस के कानों में गूंजा, ‘‘मुझे तो पहली ही नजर में आप पसंद आ गई थीं.’’

मौसी ने आश्चर्य से उसे देखा फिर बोलीं, ‘‘अरे, तो पहले ही क्यों नहीं कहा. हम वहां जाते ही नहीं.’’

अनिकेत ने संकोच से उधर देखा, ‘‘मां, मैं आप का वचन तोड़ कर कभी कुछ नहीं करना चाहता हूं. आप ने अपने वहां जाने की सूचना उन्हें दे रखी थी.’’

‘‘वाह बेटा वाह,’’ पूरब ने झट से कहा, ‘‘आजकल ऐसी अच्छी सोच कहां देखने को मिलती है.’’

श्रावणी मन ही मन में सोच रही थी कि जेठ जेठानी अकेली छोड़ गए बेटी को पर देखो तो, घर बैठे विदेश में बसा लड़का मिल गया. पता नहीं हमारी बेटी का क्या होगा.

एक नारी ब्रह्मचारी- भाग 4 : पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

चाय पीते हुए भी वह वही सब बातें सोचने लगा. आज उस का औफिस जाने का जरा भी मन नहीं हो रहा था. पर, जाना तो पड़ेगा ही. सो, खापी कर तैयार हो कर वह औफिस के लिए निकल गया और सोचने लगा, ‘काश, रूपम एक बार फिर उसे मिल जाए, तो इस बार उसे जाने नहीं देगा.‘

3-4 दिन ऐसे ही बीत गए, पर रूपम नहीं आई. एक दिन अचानक एक अनजान नंबर से वरुण के फोन पर फोन आया, तो उस ने उठा लिया. वह अभी हैलो बोलता ही कि सामने से वही मधुर आवाज सुन कर उस का रोमरोम सिहर उठा. रूपम कहने लगी कि क्या कल वह उस से मिलने बैंक आ सकती है?

वरुण अभी बोलने ही जा रहा था कि वह तो खुद उस से मिलने को बेचैन है. लेकिन उस ने खुद को कंट्रोल कर लिया, क्योंकि इतनी जल्दी वह शिकारी को अपने जाल में नहीं फंसाना चाहता था. पहले थोड़ा दाना डालेगा, फिर वह खुदबखुद उस के जाल में फंसती चली आएगी.

“सर, आप ने बताया नहीं, क्या मैं कल आप से मिलने आ सकती हूं?” रूपम ने फिर वही बात दोहराई, तो वरुण ने बड़े ही शालीनता से हां में जबाव दे कर फोन रख दिया. लेकिन उस के दिल में जो हलचल मची थी, नहीं बता सकता था.

कई दिनों से वरुण को गुमशुम, उदास देख स्नेहा को भी अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन आज बाथरूम में उसे गुनगुनाते देख स्नेहा को जरा अचरज तो हुआ, पर खुश भी हुई कि वरुण खुश है.

औफिस पहुंच कर वरुण बेसब्री से रूपम के आने का इंतजार करने लगा. कुछ देर बाद मैसेंजर ने आ कर बताया कि एक महिला उस से मिलना चाहती है.

“भेज दो,” कह कर वरुण रूपम के सपनों में खो गया. तभी उस की खनकती आवाज से वरुण की तंद्रा टूटी और जब उस ने मुसकुराते हुए ‘गुड मार्निंग सर‘ कहा, तो वरुण को जैसे जोर का करंट लगा.

“गुड मार्निंग… प्लीज, हैव ए सीट,” वरुण ने कुरसी की तरफ इशारा किया.

‘थैंक यू सर’ बोल कर वह कुरसी पर बैठ गई और कहने लगी कि वह एकदो बैंक गई थी लोन मांगने, पर कहीं भी उस का काम नहीं बना. लेकिन अगर आप मेरी मदद कर दें तो लोन मिल सकता है.

“वह कैसे मैडम…?” वरुण ने उसे तिरछी नजरों से देखते हुए पूछा.

“सर, वह तो मुझे नहीं पता, लेकिन आप इतने बड़े बैंक में मैनेजर हैं. देखने में आप इनसान भी अच्छे लग रहे हैं, तो कुछ तो मेरी मदद कर ही सकते हैं.

‘‘सर, मुझे पैसों की सख्त जरूरत है, वरना मैं यों बैंकों के चक्कर नहीं काट रही होती.

‘‘मैं जल्दी ही बैंक का लोन चुका दूंगी, विश्वास कीजिए सर मेरी बात पर.”

रूपम की बात पर वरुण को कुछकुछ विश्वास होने लगा कि यह औरत सही बोल रही है. इसी तरह वह रोज किसी न किसी बहाने वरुण से मिलने लगी. अगर वह नहीं आ पाती तो सामने से वरुण ही उसे फोन लगा देता.

रूपम को अच्छे से जान लेने के बाद कि सच में इस औरत को पैसों की जरूरत है, वरुण खुद गारंटर बन कर उसे बैंक से लोन दिलवा देता है.

इधर वरुण की मदद पा कर रूपम उस की शुक्रगुजार हो जाती है और वह उस के लिए अपने हाथों का बना पकवान ले कर आती है.

इसी तरह दोनों की दोस्ती गहरी होती जाती है और जिस का फायदा रूपम खूब अच्छे से उठाने लगती है.

अब वरुण की शाम रूपम की बांहों में बीतने लगती है. और जब स्नेहा उस से देर से आने का कारण पूछती है तो कोई न कोई बहाना बना कर उसे टाल देता है, जैसे कि आज औफिस में बहुत काम था, बौस के साथ जरूरी मीटिंग चल रही थी, क्लाइंट के साथ बिजी था, बोल कर स्नेहा को बहला देता. और उसे लगता कि वरुण सही कह रहा है.

उस रोज वरुण की शर्ट की जेब में मूवी की 2 टिकटें देख कर स्नेहा चीख पड़ी, “वरुण… वरुण, ये तुम्हारी जेब में मूवी की 2 टिकट… क्या चल रहा है?”

“मू… मूवी की टिकट. अरे, वो… वो तो मैं एक क्लाइंट के साथ ही गया था पागल. बौस ने कहा था क्लाइंट को खुश करने के लिए मूवी दिखा आ. अब बोलो बौस की बात कैसे टाल सकता था मैं. जानती तो हो अगले साल मेरा प्रमोशन ड्यू है, क्या तुम नहीं चाहती मेरी तरक्की हो? हद है भाई… बातबात पर शक करती हो मुझ पर,” वरुण ने मुंह बनाया, तो स्नेहा को भी लगा कि वह बेकार में उस के पीछे पड़ी रहती है.

वरुण को लग रहा था कि वह स्नेहा को चकमा दे रहा है. लेकिन उसे नहीं पता कि रूपम उसे चकमा दे रही थी. वह एक नंबर की फ्रौड थी. उस ने कितनों को ठगा था अब तक. और इस बार वरुण की बारी थी.

वरुण अपने प्रमोशन के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहा था, लेकिन अभी भी कई लोन एमपीए जा रहा था, जिस के लिए रोज उसे अपने बौस की डांट खानी पड़ रही थी. वैसे तो रूपम को उस ने कई बार कहा लोन भरने के लिए, लेकिन हर बार वह यही कहती, गांव में उस का एक पुराना पुश्तैनी मकान है, जिसे बेच कर वह एकसाथ बैंक के सारे पैसे भर देगी.

वरुण को उस की बात सही लगती, मगर इधर कई दिनों से रूपम का कुछ अतापता नहीं था. न तो वह उस से मिलने आ रही थी और न ही उस का फोन उठा रही थी. लेकिन जब उस का फोन स्विच औफ आने लगा तो वरुण को लगा कि कहीं वह किसी मुसीबत में तो नहीं है? या कहीं उस की तबीयत तो नहीं खराब है? यह सोच कर वह उस से मिलने उस के घर चला गया. वैसे तो बैंक अधिकारी किसी के घर नहीं जाते जल्दी, लेकिन उस रोज रूपम के बहुत जिद करने पर वह उस के घर चला गया था. 2 कमरे के एक छोटे से घर में वह अकेली रहती थी. बताया था उस ने उस के मांबाप का देहांत हो चुका है. शादी हुई, पर पति से उस का तलाक हो चुका है और अब वह अपने जीवन में अकेली है. ब्यूटीपार्लर का कोर्स कर रखा था, इसलिए अपना खुद का एक पार्लर खोलना चाहती थी, जिस के लिए उसे बैंक से लोन चाहिए.

खैर, जब वरुण उस के घर पहुंचा, तो दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका देख हैरान रह गया… हैरान इसलिए, क्योंकि अपनी हर एक छोटी से छोटी बात वह उस से बताती आई थी. तो यह बात कैसे नहीं बताई कि वह कहीं जा रही है? वह कहां गई है? कब आएगी ? कैसे पता करेगा, समझ नहीं आ रहा था उसे. तभी उसे सामने से एक अधेड़ उम्र की महिला आती दिखी.

“ए… एक मिनट मैडम, क्या आप बता सकती हैं कि इस घर में जो महिला रहती थी, रूपम व्यास… कहां गई है और कब आएगी?”

पहले तो उस महिला ने वरुण को ऊपर से नीचे तक गौर से देखा, फिर यह बोल कर आगे बढ़ गई कि उसे कुछ नहीं पता.

वरुण ने फिर कई बार रूपम को फोन मिलाया, पर वही स्विच औफ.

‘कहीं उस ने मुझे धोखा तो नहीं दे दिया? अगर ऐसा हुआ तो गया काम से मैं,’ अपने मन में ही सोच वरुण ने माथा पकड़ लिया. बहुत पता लगाया, लेकिन रूपम का कहीं कोई पताठिकाना नहीं मिला उसे, लेकिन एक रोज रूपम की सचाई जान कर वरुण को जोर का करंट लगा. उस ने वरुण को जोजो बताया अपने बारे में, सब झूठ था. यहां तक कि उस का नाम भी झूठा था. वह एक फ्रौड महिला थी, जो लोगों को लूटने का काम करती थी. पहले वह लोगों को अपनी सुंदरता के जाल में फंसाती थी, फिर उस के पैसे लूट कर रफूचक्कर हो जाती थी.

कितना समझाया था स्नेहा ने, ‘सुधर जाओ, वरना… खुद तो डूबोगे ही एक दिन हमें भी ले डूबोगे,’ और ऐसा ही हुआ.

वरुण हमेशा स्नेहा की बातों को इगनोर करता आया था. लेकिन आज उसे एहसास हो रहा था कि वह कितना गलत था. लेकिन अब क्या…? पैसे तो अब उसे अपनी जेब से ही भरने पड़ेंगे न, वरना अपनी नौकरी से जाएगा.. बड़ी हिम्मत कर के जब उस ने स्नेहा को यह सारी बात बताई, तो वह सिर पकड़ कर बैठ गई. पूरी रात दोनों चिंता, अनिद्रा और तनाव के कारण करवटें बदलते रहे. अब एकदो पैसे की बात तो थी नहीं, पूरे 10 लाख रुपए…? कहां से लाएगा वो इतनी बड़ी रकम…? अब स्नेहा भी क्या कर सकती थी. लेकिन गुस्सा तो उसे अभी भी बहुत आ रहा था. रात में कितना सुनाया उस ने वरुण को कि देख लिया न अपनी करनी का फल? सुंदर औरतों के पीछे भागने का नतीजा? उस पर वरुण ने अपने दोनों कान पकड़ कर उस से माफी मांगी थी और कहा था कि अब कभी वह ऐसी गलती नहीं करेगा. अब गलतियां तो इनसान से ही होती हैं न? यह सोच कर स्नेहा ने भी उसे माफ कर दिया और अपने सारे जेवर यह बोल कर उस के हाथों में पकड़ा दिए कि वह जा कर लोन की रकम भर दे, वरना प्रमोशन मिलना भी मुश्किल हो जाएगा.

“चलो, मैं औफिस के लिए निकलता हूं,” स्नेहा को सीने से लगाते हुए वरुण बोला, तो स्नेहा ने चुटकी ली कि फिर वह कहीं किसी मेनका के फेर में न पड़ जाए.

“पागल हो क्या…?‘‘ अपनी आंखें गोलगोल घुमाते हुए वरुण बोला, “गलती बारबार थोड़ी ही दोहराई जाती है. मैं तो एक नारी ब्रह्मचारी हूं और रहूंगा…” लेकिन गाड़ी में बैठते ही वह बड़ी कुटिलता से मुसकराया और बोला, “पागल… अब घोड़ा घास से यारी नहीं करेगा तो खाएगा क्या?

 

कासनी का फूल: भाग 2- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

उस रात अभिषेक बेकाबू हो गया. चित्रा की न… न… करती गुहार को अनसुना कर अपनी पिपासा मिटाने को आतुर हो गया. भय से नीले पड़े चित्रा के अधरों को उस ने अपने दहकते होंठों से सिल दिया. अपनी बलिष्ठ भुजाओं में कांपती देह दबोच ली. एक शिकारी पक्षी निरीह जीव को पंजों में दबाए था. अभिषेक के निढाल हो कर लुढ़कने के बाद चित्रा सिसकियां ले कर लगातार आंसू बहाती रही, लेकिन उस के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं था.

सिलसिला चल निकला. चित्रा अपने को अभिषेक द्वारा रौंदे जाने से पहले मन पक्का कर लेती, किसी तरह वे 10-15 मिनट बीतते और वह चैन की सांस लेती. धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई. अब अभिषेक के छूने पर वह चुपचाप पड़ी रहती. न कोई पीड़ा, न दुख, न उत्साह, न रोमांच. प्रेम में उत्तेजित होना क्या होता है, यह तो वह कभी जान ही नहीं पाई.

चित्रा का शुष्क व ठंडा व्यवहार अभिषेक को रास नहीं आ रहा था, लेकिन पति के खोल से बाहर निकल उस ने एक मित्र या प्रेमी के समान कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि चित्रा के ऐसे व्यवहार का कारण आखिर है क्या? चित्रा को उस ने न कभी प्यार से सहलाया और न गले लगा कर आंसू पोंछे. चित्रा बेचैन और उदास रहने लगी थी. चेहरा मलिन, क्लांत हो गया था.

‘‘कल सुबह जल्दी उठ कर नहाधो लेना. हमारा परिवार एक स्वामीजी का बहुत सम्मान करता है. वे कुछ. महीनों से विदेश गए हुए थे. कल ही लौटे हैं, सुबह उन का आशीर्वाद लेने चलेंगे,’’ उस रात सोने से पहले अभिषेक बोला.

‘‘साधु बाबा टाइप के हैं क्या स्वामीजी?’’ चित्रा अनिष्ट से आशंकित हो रही थी.

‘‘तो और कैसे होते हैं स्वामीजी? फालतू बातें ही करनी आती हैं तुम्हें.’’

‘‘मुझे ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं है. उन का आशीर्वाद तो दूर मैं तो पास भी नहीं फटकना चाहूंगी.’’

अभिषेक उठ कर बैठ गया. क्रोध में बढ़बढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम कैसी औरत हो? बिस्तर पर पति का साथ पसंद नहीं, बिन वजह रोज की यही समस्या. समाधान चाहा सिर्फ स्वामीजी के आशीर्वाद रूप में तो वह भी मंजूर नहीं. मैं तो पछता रहा हूं तुम से शादी कर के.’’

‘‘सौरी,’’ चित्रा रुंधे गले से बोली, ‘‘ऐसे लोगों से मुझे डर लगता है. एक बार जब मैं छोटी थी तो…’’

‘‘रहने दो बस. अब मेरी बात टालने के लिए बना लो कोई नई कहानी. मुझे परेशान देख कर बहुत मजा आता है न तुम्हें?’’ अभिषेक ने चित्रा को अपनी पूरी बात कहने का मौका ही नहीं दिया.

करवटें बदलती अगले दिन की भयावह कल्पनाओं में डूबी चित्रा रातभर सो न सकी. सुबह सिर भारी था. अभिषेक से चित्रा ने स्वामीजी के पास जाने में असमर्थता जताई तो उस ने घर वालों के साथ मिल कर आसमान सिर पर उठा लिया. चित्रा के सामने शर्त रखी गई कि उसे न केवल आज बल्कि माह में एक दिन स्वामीजी की सेवा में व्यतीत करना होगा वरना इस घर में उस के लिए कोई जगह नहीं होगी.

चित्रा के क्षमा मांगते हुए असहमति दर्शाने का कोई लाभ नहीं हुआ. हाथ जोड़ कर वह गिड़गिड़ाई भी, लेकिन कोई उस की बात सुनने को तैयार न था. अभिषेक उसी दिन चित्रा को यह कहते हुए मायके छोड़ आया कि स्वामीजी का अपमान वे लोग किसी कीमत पर नहीं सह सकते.

कुछ दिन यों ही बीत गए. चित्रा ने कई बार कौल कर बात करने का प्रयास किया, लेकिन अभिषेक ने फोन अटैंड नहीं किया. चित्रा के एक प्यार भरे मैसेज के जवाब में अभिषेक ने स्वामीजी से जुड़ने की शर्त को दोहरा दिया. अंतत: चित्रा को तलाक का रास्ता चुनना पड़ा. अभिषेक से रिश्ता रखने का अर्थ स्वामीजी से भी संबंध जोड़ना था.

‘‘जंगली जानवरों से भी डरावने चेहरे लिए चंदनदास जैसे ही किसी स्वामीजी के पास जाने के बारे में सोचते हुए भी मुझे डर लगता है,’’ अपनी मां से उस ने कहा था जब वे तलाश को ले कर फिर से सोचने की बात कह रही थीं.

‘‘तू बच्ची थी तब. मंत्र याद करने से बचना चाहती थी. अब तो सच स्वीकार कर ले चित्रा,’’ मां को बेटी से ज्यादा अभी भी चंदनदास पर भरोसा था.

‘‘नहीं आप को जो बताया था वही सच है कि चंदनदास ने अंधेरे में… मैं अब उस बारे में बात भी नहीं करना चाहती,’’ चित्रा के स्वर में घृणा उतर आई थी.

अभिषेक और चित्रा का वैवाहिक जीवन तलाक की भेंट चढ़ गया. जब चित्रा का परिवार ही उस का दुख नहीं समझ सका तो किसी से क्या आशा करती? मन पर बोझ लिए सब के बीच रहने से अच्छा विकल्प उसे दूर चले जाना ही लगा. कई होटलों में नौकरी के लिए अप्लाई किया. हिमाचल प्रदेश के छोटे से नगर कसौली से बुलावा आया तो उस ने तनिक देर नहीं की.

पहाड़ों पर बिखरे सौंदर्य को निहारते, आत्मसात करते हुए चित्रा अपने दुख को कम करने का प्रयास करती. उस दिन भी चाय ले कर बालकनी में खड़ा हो ढलती सांझ के झुटपुटे में खो रहे पेड़पौधों और रंगबिरंगे फूलों से कह रही थी कि अंधेरा हमेशा नहीं रहता, कल फिर धूप खिलेगी, फिर से रूपसौंदर्य दिखने लगेगा सब का. यही तो कहता था उसे ईशान जब कभी वह निराश होती थी. होटल मैनेजमैंट करते हुए ईशान के रूप में कितना बेहतरीन दोस्त पाया था उस ने. कोई डिश बनाते हुए चित्रा पीछे रह जाती तो ईशान चख कर स्वाद की प्रशंसा कर हौसला बढ़ाता.

 

मन के तहखाने-भाग 1: अवनी के साथ ससुराल वाले गलत व्यवहार क्यों करते थे

चाची बरामदा पार करने लगीं तो आंगन में गेहूं साफ करती अवनी पर दृष्टि ठहर गई. कमाल है यह लड़की भी. धूप में, पानी में कहीं भी बैठा दो, चुपचाप बैठी काम पूरा करती रहेगी.

सुबह उस के हाथों से गिर कर चायदानी टूट गई थी. उसी के दंडस्वरूप चाची ने अवनी को धूप में गेहूं बीनने का आदेश दिया था.

सुबह की धूप अब धीरेधीरे पूरे आंगन को अपनी बांहों में घेरती जा रही थी. चाची ने देखा, अवनी का गोरा रंग धूप की हलकी तपिश में और भी चमक रहा था. मन ने कहा, ‘श्रावणी, तू इतनी निर्दयी क्यों बन गई?’ पर उत्तर उस के पास नहीं था.

जब वह ब्याह कर इस घर में आई थी, तब जेठानी मानसी के रूपरंग को देख धक रह गई थी. वह उन के आसपास भी कहीं नहीं ठहरती थी. मानसी जीजी ने प्यार से उसे बांहों में भर लिया था और एकांत होते ही बोली थीं, ‘‘हमारी कोई छोटी बहन नहीं है, बस 2 भाई हैं, तुम हमारी बहन बनोगी न?’’

वह मुसकरा कर आश्वस्त हो गई थी. जिसे अपने रूप का तनिक भी गर्व नहीं उस से भला कैसा डरना? पर सब कुछ वैसा ही नहीं होता है, जैसा व्यक्ति सोचता है. प्राय: किसी भी काम से पहले सास का स्वर उसे आहत कर देता, ‘‘श्रावणी बेटा, जरा मानसी से भी पूछ लेना कि भरवां टिंडे कैसे बनेंगे. पूरब को अभी तक अपनी भाभी के हाथों के स्वाद की आदत पड़ी है.’’

उस का तनमन सुलग उठता. कैसे प्यार भरी चाशनी में लपेट कर सास ने उसे जता दिया था कि अभी तुम रसोई में कच्ची हो.

श्रावणी धीमे कदमों से आंगन में पहुंची और उसे झंझोड़ कर बोली, ‘‘इतनी देर में बस आधा कनस्तर गेहूं बीना है, चल उठ, रसोई में जा कर नाश्ता कर ले.’’

अवनी चुपचाप उठ गई. श्रावणी जब मन ही मन दयावान होती, तब भी क्रोध से ही उसे परेशानी से नजात दिलाती. धूप की ताप से परेशान अवनी को देख कर मन में तो दया उपज रही थी, पर दिखाने से तो मन के तहखाने का सच सामने आ जाता, अत: नाश्ते के बहाने उसे वहां से उठा दिया था.

अवनी ने स्टील की छोटी प्लेट हटा कर देखा, 2 रोटियों पर आलू को कुछ टुकड़े रखे थे. वह चुपचाप खाने लगी. छुट्टी का दिन था, वह परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ना चाहती थी, पर अब रसोई के काम का समय हो गया था. उस की आंखें नम होने लगीं.

उसी समय पानी लेने विविधा वहां आ गई. उसे खाते देख कर बोली, ‘‘यह क्या अवनी दीदी, आप रोटी क्यों खा रही हैं? हम ने तो ब्रैडपैटीज खाई हैं.’’

अवनी के मन में हलचल मची पर संभालने की आदत पड़ चुकी थी उसे. बोली, ‘‘आज हीरा काम पर नहीं आया है तो बासी रोटी कौन खाता. इस महंगाई में अनाज फेंकना नहीं चाहिए.’’

विविधा ने 2-3 डोंगे खोल डाले और ब्रैडपैटीज उस की प्लेट में रखते हुए बोली, ‘‘पता है, आप बहुत अच्छी गृहस्थन हैं पर चख कर तो देखिए.’’

वह पानी ले कर मटकती हुई बाहर चली गई. अवनी की आंखें सदा ऐसे प्रसंगों पर नम हो जाती हैं. विविधा उस से 7 वर्ष छोटी है. जब पूरब चाचा का विवाह हुआ तब अवनी 5 वर्ष की थी. नई चाची को हुलस हुलस कर देखती. वे टौफी देतीं तो झट उन की गोद में बैठ जाती. ‘‘चाची आप बहुत अच्छी हैं,’’ वह कहती.

श्रावणी तब उसे बहुत प्यार करती थी. 2 वर्ष पूरे होतेहोते ही विविधा आ गई तो अवनी फूली नहीं समाई. स्कूल से आते ही उस के साथ खेलने लगती. कभीकभी चाची उसे टोकतीं, ‘‘देख संभल कर, गिरा मत देना,’’ मां सामने होतीं तो आगे बढ़ कर उस का हाथ विविधा की गरदन के नीचे लगा कर कहतीं, ‘‘देख बेटा, छोटे बच्चों को ऐसे संभाल कर गोद में उठाते हैं.’’

अवनी को जब भी अतीत याद आता वह उदास हो जाती. दादी जब बहुत बीमार थीं,

तब वह उन से कहती, ‘‘दादी, आप कब ठीक हो जाएंगी?’’

‘‘पता नहीं रानी, ठीक हो जाऊंगी या जाने का समय आ गया है,’’ दादी खांसते हुए कहतीं.

‘‘कहां जाना है दादी?’’ वह भोलेपन से पूछती तो दादी की आंखों के कोर भीग जाते.

‘‘तुम्हारे दादाजी के पास,’’ दादी दुख से शून्य में देखते हुए बोलतीं. तब तक वह इतनी बड़ी हो चुकी थी कि जन्म और मृत्यु का अर्थ समझ सकती थी. उसे पता था कि दादाजी अब इस संसार में नहीं हैं.

 

नाश्ता कर के उस ने प्लेट धो कर रख दी. तभी चाची आ गईं. बोलीं, ‘‘अवनी, जितना आटा है, गूंध कर रोटी बना लेना. दाल हम ने बना दी है. गोभीआलू भी बना लेना.’’

‘‘जी चाची, सब हो जाएगा,’’ उस ने सादगी से कहा.

चाची कमरे में पहुंचीं तो विविधा ने घेर लिया, ‘‘मम्मी, आप ऐसा क्यों करती हैं?’’ उस ने कहा.

‘‘क्या कैसा करती हूं?’’ श्रावणी ने पसीना पोंछते हुए पूछा.

‘‘दीदी को बासी रोटी क्यों दी?’’

श्रावणी के चेहरे पर हलकी सी घबराहट उभर आई. वह विविधा के समक्ष लज्जित होना नहीं चाहती थी. अपने आप को संभालती हुई बोली, ‘‘कल को उस का विवाह होगा और वहां बासी भी खाना पड़ा तो उसे दुख तो नहीं होगा.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. ऐसे घर में क्यों करोगी उन की शादी. उन के लिए खूब अच्छा घर खोजना,’’ विविधा ने कहा तो वह खीजते हुए बोली, ‘‘इतना दहेज कहां से लाएंगे.’’

विविधा जातेजाते ठिठक कर बोली, ‘‘इतनी सुंदर हैं दीदी, उन्हें तो कोई बिना दहेज के भी ब्याह लेगा.’’

श्रावणी के मन पर किसी ने जैसे पत्थर मार दिया. वह जब से ब्याह कर आई, यही तो सुनती रही, ‘बड़ी बहू बहुत सुंदर है. उस की बेटी भी मां पर ही गई है.’ कभी पड़ोसिनें कहतीं, कभी रिश्तेदार. वह डूबते मन से सुनती रहतीं.

पूरब अकसर कहता रहता, ‘‘भाभी बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाती हैं. उन के हाथों में तो जादू है जैसे.’’

मांजी तो खाने की मेज पर बैठते ही पूछतीं, ‘‘मानसी बेटा, आज क्या बनाया?’’

हालांकि यह सब जान कर नहीं होता था पर ये अप्रत्यक्ष सी टिप्पणियां उस का सर्वांग आहत कर जातीं. वह अपमानित सा महसूस करती स्वयं को. साड़ी वाला साडि़यां ले कर प्राय: घर पर ही आया करता था. मांजी स्वयं ही साडि़यां चुनतीं और कहतीं, ‘‘ये कत्थई रंग तो अपनी मानसी पर खूब खिलेगा. श्रावणी बेटा, तुम पर यह हलका नीला रंग फबेगा.’’

वह उदास हो जाती. लगता यह सीधा प्रहार है उस के साधारण रूपरंग पर. मन के अंदर ईर्ष्या की ज्वाला सी धधकने लगती.

जब एक दिन कार दुर्घटना में जेठ जेठानी की अचानक मृत्यु हो गई तो पूरे घर पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी. कुछ वर्ष पहले ही मांजी की मृत्यु भी हो चुकी थी. लाख ईर्ष्या थी पर उस हादसे ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था. वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

 

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

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एक नारी ब्रह्मचारी- भाग 3 : पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

घर आ कर उस ने किसी को कुछ नहीं बताया, क्योंकि जानती थी कि उस का घर से निकलना बंद करवा दिया जाता. हो सकता था कि उस का स्कूल भी छुड़वा दिया जाता. इसलिए उसे चुप रहना ही बेहतर लगा. लेकिन आज सोचती है तो लगता है कि गलत किया. मारना चाहिए था पकड़ कर उसे, शोर मचाना चाहिए था, ताकि लोगों को पता तो चलता कि वह कितना गंदा इनसान है?

लेकिन एक डर कि उस की बदनामी हो जाएगी. हमारे समाज में दोषी वह नहीं होता, जो लड़की के साथ छेड़छाड़ करता है, उस का बलात्कार करता है, बल्कि दोषी तो लड़की होती है, क्योंकि उसे घर से नहीं निकलना चाहिए था. हमारे समाज में दोषी आजाद घूमते हैं और निर्दोष को घर में कैद कर दिया जाता है.

दरवाजे की घंटी से स्नेहा अतीत से वर्तमान में आ गई. दरवाजा खोला।तो सामने वरुण खड़ा मुसकरा रहा था.

“आ गए तुम…? और ये हाथ में क्या है?” वरुण के हाथ में लाल पन्नी से लपेटा एक पैकेट देख कर स्नेहा चिहुक उठी.

“अब अंदर भी आने दोगी या यहीं खड़ेखड़े सवालजवाब करोगी,” वरुण ने कहा, तो स्नेहा जरा साइड हो गई.

“खोल कर देखो तो इस में क्या है,” लाल पन्नी से लपेटा पैकेट स्नेहा की ओर बढ़ाते हुए वरुण उस के चेहरे के आतेजाते भावों को पढ़ने लगा.

“वाउ वरुण… इस में तो आईफोन है… मेरे लिए?” स्नेहा ने पूछा, तो आंखों के इशारे से वरुण बोला की हां ये फोन उस के लिए ही है.

‘‘ओह्ह, आई लव यू सो मच वरुण,” कह कर उस ने वरुण के गालों को चूम लिया.

“लेकिन, यह मोबाइल तो बहुत महंगा लगता है?कितने का आया है बताओ?”

“तुम आम खाओ न, गुठली क्यों गिनती हो ?” वरुण ने कहा.

“गिनूंगी, बताओ कहां से आए इतने पैसे…?” स्नेहा तो वरुण के पीछे ही पड़ गई कि आखिर अचानक से उस के पास इतने सारे पैसे कहां से आ गए?

“बोलो न वरुण, नहीं तो मुझे नहीं चाहिए यह मोबाइल… रखो अपना मोबाइल अपने पास,” स्नेहा ने मुंह बनाया.

“अरे भई, एरियर मिला था, उसी पैसे से ले कर आया हूं. तुम बोल रही थी न कि तुम्हारा मोबाइल ठीक से काम नहीं कर रहा है. बात करतेकरते कट जाता है, तो इसलिए नया ले आया और अगले महीने तुम्हारा जन्मदिन भी तो आ रहा है न, तो गिफ्ट समझ कर रख लो,” वरुण ने कहा, तो स्नेहा उस से लिपट गई यह बोल कर कि वह उस का कितना खयाल रखता है.

“हम और तुम… बातबात पर मुझे गालियां देती रहती हो. जरा किसी लड़की को देख क्या लेता हूं, आंखें दिखाने लगती हो, जबकि जानती हो कि मैं तुम से कितना प्यार करता हूं. मैं तो एक नारी ब्रहचारी हूं.“

“अच्छा ठीक है, मैं तुम्हें नहीं डाटूंगी, लेकिन तुम भी ऐसीवैसी हरकतें मत किया करो,” बोल कर स्नेहा हंस पड़ी.

स्नेहा जानती है कि वरुण उसे कभी धोखा नहीं दे सकता. लेकिन डर इस बात का है कि कोई उसे बेवकूफ न बना दे. कितनों को देखा है, लड़कियों के चक्कर में कंगाल बनते हुए.

सुबह वरुण को औफिस भेज कर रोज की तरह वह अपने काम में लग गई.

“सर, मे आई कम इन… वरुण के कैबिन के बाहर खड़ी एक महिला बोली.

वरुण किसी से फोन पर बात करने में व्यस्त था, इसलिए बिना देखे ही उस ने इशारों से उसे अंदर आने को बोल दिया.

“थैंक यू सर,” उस महिला की मधुर खनकती आवाज जब वरुण के कानों में पड़ी और उस ने अपनी नजरें उठा कर देखा तो बला की खूबसूरत उस महिला पर वरुण की नजर टिक गई. उस ने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी खूबसूरत महिला देखी थी. बड़ीबड़ी कजरारी नशीली आंखें, गुलाब की पंखुड़ियों से रसभरे होंठ, रेशमी बाल, जो उस के गोरेगोरे मुखड़े पर अठखेलियां करते हुए कभी उस की आंखों को, कभी गालों को तो कभी उस के गुलाब सी पंखुड़ियों से अधरों को छू रही थी और जिसे वह बारबार अपने कोमल हाथों से हटाने का असफल प्रयास कर रही थी.

“सर, मैं रूपम व्यास हूं,” जब उस महिला ने अपना नाम बताया, तो वरुण की सुस्ती तुरंत फुरती में बदल गई.

“बोलिए मैडम, मैं आप की क्या सहायता कर सकता हूं?‘‘ रूपम के चेहरे पर से नजरें हटाते हुए वरुण ने कहा.

“सर, मुझे अपना ब्यूटीपार्लर खोलने के लिए बैंक से 10-12 लाख रुपए का लोन चाहिए,” रूपम बोले जा रही थी और वरुण उस की मादक और मोहक खुशबू में सराबोर हुए जा रहा था. उस का मन कर रहा था कि वह यों ही बोलती रहे और वह ऐसे ही उसे निहारता रहे.

“सर, क्या मुझे बैंक से लोन मिल सकता है?”

‘‘हां… हां, क्यों नहीं मैडम. हम यहां बैठे किसलिए हैं, आप की सेवा में… मेरा मतलब कि आप जैसों की सेवा के लिए ही न,” उस की आंखों में झांकते हुए वरुण बोला, “वैसे, लोन तो आप को मिल जाएगा, कोई समस्या नहीं है. लेकिन इस के लिए गारंटर का होना जरूरी है. ऐसे हम किसी को लोन नहीं दे सकते,” लेकिन रूपम कहने लगी कि वह इस शहर में अभी कुछ महीने पहले ही रहने आई है. यहां किसी को ज्यादा नहीं जानती.

रूपम आगे और कुछ बोलती कि वरुण बीच में ही बोल पड़ा, “आप की बात सही है मैडम, लेकिन यह तो बैंक का रूल है. हम बिना गारंटर के किसी को भी लोन नहीं दे सकते,“ बोल कर वह हंस पड़ा.

“ठीक है सर, तो फिर मैं चलती हूं,” खड़ी होती हुई रूपम बोली. वह समझ गई कि इस बैंक में उसे लोन नहीं मिलने वाला, इसलिए उसे अब किसी दूसरे बैंक का रुख करना पड़ेगा.

“क्या बात है, आज बड़े चुपचुप लग रहे हो, सब ठीक तो है न?” खाना खाते समय वरुण को चुप देख कर स्नेहा ने पूछा, तो वह यह बोल कर कमरे की तरफ बढ़ गया कि आज औफिस में काम ज्यादा था, इसलिए जरा थकावट हो रही है.

‘बेचारा, औफिस में पूरे दिन खटता रहता है और मैं पागल फिर भी इस से लड़ती रहती हूं. कितनी बुरी हूं मैं भी,’ अपने मन में ही सोच स्नेहा ग्लानि से भर उठी. लेकिन वरुण यह सोच कर गुस्से से भर उठा कि वह भी न, एक नंबर का गधा है. इतनी सुंदर औरत खुद चल कर उस के पास आई और वह उसे इतनी आसानी से जाने दिया. हाऊ केन? और कुछ भी तो नहीं जानता वह उस के बारे में कि वह कौन है, कहां रहती है? अरे, कम से कम उस का फोन नंबर तो ले लिया होता,‘ लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत. और गारंटर का क्या है, अपने किसी दोस्त को बना देता या खुद मैं भी तो बन सकता था न? अरे, कौन सा वह बैंक के पैसे ले कर भाग जाती? सही कहती है स्नेहा, मैं ने पिछली रोटी खाई है, तभी मेरा दिमाग सही समय पर काम नहीं करता,’ अपने मन में ही सोच वरुण पछतावे से भर उठा. रात में कितनी देर तक उसे नींद नहीं आई. फिर जाने कब उस की आंख लग गई. सुबह स्नेहा ने उठाया तब जा कर उस की आंख खुली.

 

कासनी का फूल: भाग 1- अभिषेक चित्रा से बदला क्यों लेना चाहता था

‘‘क्वैक, क्वैक,’’ चित्रा के कानों में मोनाल पक्षी की आवाज पड़ी. वह कमरे से निकल बालकनी में जा खड़ी हुई. सायंकाल आसपास के पेड़ों पर अनेक पक्षी आ कर बैठते. चित्रा को ओक के पेड़ पर बैठा मोनाल और उस की सुरीली आवाज बहुत भाती थी. चित्रा ऊंचे पहाड़ों, पेड़ों, पौधों, फूलों और पक्षियों से नाता जोड़ उन के साए में प्रसन्न रहने का पूरा प्रयास कर रही थी. उस के लिए पहाड़ों की जीवनशैली नई थी. 2 मास पहले ही वह कसौली आई थी.

नई जगह, नया घर, नई नौकरी. चित्रा जीवन को नई दिशा दे कर अपने दुख को कम करने के प्रयास में लगी थी. पुराना सब भूल जाए, इसलिए ही तो सुदूर हिमाचल प्रदेश के कसौली शहर में नौकरी करने आ गई, जहां कोई उस से पूछने वाला नहीं होगा कि शादी हुई या नहीं? हुई तो पति के साथ क्यों नहीं हो? वह तलाक शब्द सब के सामने बारबार दोहरा कर लोगों के चुभते सवालों का सामना नहीं करना चाहती थी.

कभी दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में जौब थी, इसलिए कसौली जैसे छोटे नगर के थ्रीस्टार में फ्रंट डैस्क की नौकरी पाना आसान रहा, लेकिन बीते समय से दूर हो पाना इतना आसान कहां?

दूर पगडंडी पर बस्ता उठाए 2 बच्चों को जाते देख उसे अपना बचपन याद आने लगा.

2 साल बड़े इकलौते भाई मोहित से हमेशा उसे कमतर आंका जाता था. बचपन में अध्यापक मातापिता से शिकायत करते कि मोहित जैसे प्रतिभावान भाई की बहन इतनी साधारण क्यों?

न परीक्षा में वाहवाही पाने योग्य प्रदर्शन कर पाती है और न ही किसी अन्य क्षेत्र में कोई कमाल कर सकी है. छठी, 7वीं कक्षा तक आतेआते यह भी स्पष्ट होने लगा कि गणित और साइंस में ट्यूशन टीचर की सिरखपाई के बावजूद वह साधारण अंक ले कर ही उत्तीर्ण हो पा रही है. पिता ने इस बात पर जब उसे फटकार लगाई तो सुबकती हुई चित्रा मां के पास पहुंच गई.

‘‘मोहित सब कर लेता है, तो फिर तू क्यों नहीं? जरूर तेरे भाग्य में कुछ अड़चन है. कल बाबा को बुला कर बात करती हूं.’’

मां की दृष्टि में प्रत्येक समस्या का समाधान बाबा चंदनदास ही थे. जबतब वे उन के घर आता और बड़े रोब से अपनी सेवा करवाते. चित्रा अनमनी हो जाती. मेवा डली खीर, पूरी, साग, भाजी बना कर परोसते हुए मां उसे एक दासी सरीखी लगती थीं.

चंदनदास सदैव भविष्य में किसी अनहोनी की ओर इशारा कर मां को आतंकित करते थे. इस का उपाय दानदक्षिणा बता कर खूब खर्चा करवाते. मां का उन पर अडिग विश्वास था. उन का मानना था कि बाबाजी के पावन चरण जब भी घर में पड़े हैं कुछ शुभ ही हुआ है. मां की इतनी श्रद्धा होने पर भी चित्रा को न जाने क्यों बाबा का मुसकरा कर देखना अच्छा नहीं लगता था. जब भी वह मां के कहने पर उन को प्रणाम करने जाती तो बाबा की आंखें उसे अपने शरीर पर फिसलती सी लगती थीं. चित्रा को उन की एक अन्य आदत बहुत खटकती थी. मोहित भैया के प्रणाम करने पर वे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद देते, जबकि उसे अपने सीने से लगा कर दुलार करते.

उस ने मां से एक बार यह कहा भी मां ने उलटा उसे ही लताड़ दिया, ‘‘पापा डांटें तब भी तुम्हें दिक्कत है और बाबाजी प्यार करें तो भी परेशानी है. दिमाग को एक तरफ रखा करो.’’

चित्रा की अनिच्छा के बाद भी मां ने फोन कर बाबाजी को उस की पढ़ाई वाली समस्या बताई और घर बुला लिया. इस बार चंदनदासजी ने उसे भी मोहित के समान सिर पर हाथ रख आशीष दिया तो चित्रा को कुछ राहत मिली, लेकिन अगले ही पल जब सुना कि वे उसे अपने मठ में बुलाएंगे वह अनमनी, बेचैन सी हो गई.

‘‘बाबाजी आप यहीं कह दें मुझे जो कहना है,’’ चित्रा हिम्मत जुटा कर बोली.

‘‘यह तो बिलकुल बेवकूफ है, आप बुरा न मानिएगा,’’ मां बाबाजी के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़ी हो गईं.

वे कुछ और भी कहना चाह रही थीं कि चंदनदास ने मुसकराते हुए हाथ के इशारे से रुकने को कहा. चित्रा को संबोधित करते हुए वे बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी स्मरणशक्ति विकसित नहीं हो रही. मैं कुछ मंत्र वहां अपने सामने पढ़वा कर कंठस्थ करवाऊंगा. इस से 2 लाभ ये होंगे कि एक तो तुम कुछ भी पढ़ कर मस्तिष्क में रखना सीखोगी, दूसरा मंत्रशक्ति के प्रभाव से जीवन में सफलता प्राप्त करोगी.’’

अगले दिन चित्रा को मां के साथ बाबा के मठ जाना पड़ा. चंदनदास के एक शिष्य ने कुछ मंत्र लिख कर दिए और कहा कि इन को कंठस्थ करने का प्रयास करे. चित्रा को बारबार पढ़ कर भी 1-2 मंत्र ही याद हुए. चंदनदास ने सुन कर संतुष्टि दर्शाई और चित्रा को घर भेज दिया. यह सिलसिला 4 दिन चला. चित्रा का डर धीरेधीरे कम हो रहा था.

उस दिन अकेले ही मठ जाने को तैयार हो गई. इस बार शिष्य ने उसे सीधा चंदनदास के पास भेज दिया. चंदनदास मखमली बिस्तर पर तकिए का सहारा लिए बैठे थे. हाथ में कोई पेयपदार्थ लिए घूंटघूंट पीते हुए चित्रा की ओर एक लंबी मुसकान फेंकने के बाद चंदनदास ने उसे अपने पास बैठने का इशारा किया. कुटील मुसकराहट और चंदनदास के मुख पर आई वासना की भंगिमा चित्रा को असहज करने लगी. कमरे में सुनहरे बल्बों के चकाचौंध उजाले में चित्रा की धड़कनें असामान्य होने लगीं, कंठ सूख रहा था. वह संभलते हुए चंदनदास के निकट जा कर बैठी तो बाबा की आंखों में तैर रही लोलुपता स्पष्ट दिखने लगी.

‘‘मैं कल आऊंगी, सिर में दर्द हो गया अचानक,’’ चित्रा उठ कर जाने लगी.

मगर उस के कमरे के द्वार तक पहुंचने से पहले ही बत्तियां बुझ गईं. अकबका कर अंधेरे में दौड़ी तो दीवार से टकरा कर गिर पड़ी. चंदनदास ने उसे कस कर भींच लिया. कमरे में फैली अगरबत्ती की महक थी या चंदनदास ने कोई इत्र लगाया हुआ था, चित्रा को उबकाई आने लगी. कुछ. देर बाद उस के अनावृत शरीर के नीचे नर्म गद्देदार बिस्तर था और ऊपर कठोर, घृणित दानव. चित्रा का दम घुट रहा था. असहनीय पीड़ा से उस की चीख निकल गई. इस के बाद नहीं पता उसे कि क्या हुआ? जब चेतना लौटी तो वह मठ के एक कमरे में थी. मां सिरहाने बैठी थीं. सफेद कपड़े पहने एक महिला उस की तीमारदारी कर रही थी.

‘‘बिजली चली गई तो डर के मारे यह दौड़ पड़ी थी… थोड़ीबहुत चोट आई. कुछ दिनों बाद ठीक हो जाएगी,’’ उजले परिधान वाली मां से कह रही थी.

उस दिन घटी घटना ने चित्रा को भीतर तक तोड़ दिया. दिनरात उसे भय सताता था कि बाबा ने मां को फुसला कर यदि फिर उसे बुला लिया तो क्या करेगी. मगर चित्रा को चंदनदास का सामना दोबारा नहीं करना पड़ा. उस के पिता का ट्रांसफर लखनऊ हो गया.

चित्रा उस घटना को भूल तो नहीं सकती थी लेकिन प्रयास अवश्य करती थी. अपना ध्यान हटाने के लिए उस ने पढ़ाई को अधिक से अधिक समय देना शुरू किया तो खोया आत्मविश्वास फिर से लौटने लगा. 12वीं के बाद होटल मैनेजमैंट की प्रवेश परीक्षा में अच्छा रैंक आ गया. आईएचएम लखनऊ में दाखिला ले कर डिगरी पूरी करने के बाद दिल्ली के एक फाइवस्टार होटल में प्लेसमैंट भी हो गई.

एक ओर अपनी नई नौकरी को ले कर उत्साहित थी तो दूसरी ओर इस बात की शंका थी कि मां फिर से चंदनदास कांड न आरंभ कर दें. दिल्ली में मां के साथ उन की एक सहेली के घर ठहरी चित्रा की यह चिंता जल्द ही दूर हो गई. उसे पता लगा कि चंदनदास का डेरा वहां से उखड़ चुका है. एक दिन मां की सखी को यह कहते सुना, ‘‘जितने मुंह उतनी बातें. कोई कहता है बाबाजी तपस्या के लिए कहीं दूर निकल गए हैं तो कोई यह भी कह रहा था कि पुलिस के डर से कहीं छिप गए हैं.’’

मां यह सुन कर उदास हो गईं तो चित्रा ने चैन की सांस ली. जौब करते हुए चित्रा को 1 साल ही बीता था कि उस के लिए रिश्ता ढूंढ़ा जाने लगा. चित्रा इस बात को ले कर भयभीत रहती कि चंदनदास ने उस के साथ जबरन जो संबंध बनाया था, उस के विषय में पति को कुछ पता तो नहीं लग जाएगा? कहीं उसे ही चरित्रहीन न समझने लगे भावी पति. मातापिता जोरशोर से मैट्रिमोनियल साइट्स खंगाल रहे थे.

इंदौर का रहने वाला अभिषेक उन को पसंद आ गया. अभिषेक ने बीबीए के बाद एमबीए किया था और किसी कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्य कर रहा था. अभिषेक व उस के परिवार वाले चाहते थे कि चित्रा नौकरी छोड़ दे क्योंकि रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी. उन को समझदार, सुंदर लड़की की तलाश थी. चित्रा असमंजस में थी. अंत में उस ने विवाह करने के पक्ष में निर्णय ले लिया. सोच रही थी कि मातापिता को कब तक टालेगी? पति को प्रेम भी करेगी और दोस्त भी मानेगी. संभव है तब कोई समस्या न आए. वह चाहती थी कि अभिषेक के साथ विवाहपूर्व कुछ समय साथ बिता ले जिस से आपस में बनी झिझक की दीवार गिरने लगे.

चित्रा का यह प्रस्ताव न उस के मातापिता को पसंद आया और न ही अभिषेक ने शादी से पहले मिलने में रुचि दिखाई. चित्रा ने मन को सम?ा लिया कि नौकरी तो शादी के बाद करनी नहीं, ऐसे में अभिषेक के साथ समय बिताने का भरपूर अवसर मिलेगा. विवाह के बाद सर्वस्व लुटा दूंगी उस पर. मखमली सपने देखते हुए वह अभिषेक की पत्नी बन गई.

विवाह की पहली रात को कमरा सुगंधित पुष्पों से सजा था. शैंडलेयर्स का तीव्र प्रकाश, फूलों की महक और नर्म बिस्तर. चित्रा का अवचेतन मन बरसों पुरानी घटना को याद कर भय से कांप उठा. अभिषेक ने कमरे में आ कर

2 गिलासों में सौफ्ट ड्रिंक डाल एक गिलास चित्रा की ओर बढ़ा दिया. अभिषेक के हाथ में गिलास और तकिए के सहारे बैड पर उसे अधलेटा देख चित्रा को उस में चंदनदास की छवि दिखने लगी. घबराहट के कारण उसे चक्कर आने लगा. जब अभिषेक ने उसे अपने पास खींचा तो वह चिल्ला उठी. नाराजगी दिखा कर डांटते हुए अभिषेक ने उस के मुंह पर अपना हाथ रख नियंत्रण में रहने को कहा. चित्रा का दम फूलने लगा. अभिषेक उस रात चुपचाप सो गया.

3 रातें बीत गईं. अभिषेक नाराज ही रहा. दिन में चित्रा उस के साथ खुल कर बातें करने का प्रयास करती, प्यार जताती, लेकिन अभिषेक मुंह फेर लेता. रात को उस के पास लेटे हुए चित्रा चिंता में घुलती रहती. अभिषेक कभी क्रोध से बड़बड़ाते हुए तो कभी भावभंगिमाओं के सहारे अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करता.

एक नारी ब्रह्मचारी- भाग 2: पति वरुण की हरकतों पर क्या था स्नेहा का फैसला

कभीकभी वरुण का व्यवहार स्नेहा के लिए इतना एम्ब्रेसिंग हो जाता है कि वही शर्म से गड़ जाती है. अब वह कोई बच्चा तो है नहीं, जो दोचार थप्पड़ लगा कर समझा दिया जाए? उस दिन अपने दोस्त की वेडिंग एनिवर्सरी में कैसे वह उस खूबसूरत महिला के साथ शराब के नशे में झूमने लगा था. यह भी नहीं सोचा कि उस की इस हरकत से स्नेहा को कितना बुरा लग रहा होगा. और वह औरत भी कितनी बेशर्म थी, जो वरुण की बांहों में लिपटी मजे से थिरक रही थी. कौन थी वो औरत? जो भी हो, पर उसे देख कर लग नहीं रहा था कि वह शादीशुदा है. वैसे, अब कहां पता चल पाता है कि उक्त महिला शादीशुदा है या नहीं. क्योंकि सिंदूर, चूड़ियां और मंगलसूत्र पहनना तो अब बीते जमाने की बात हो गई.

आज की महिलाएं काफी मौडर्न बन चुकी हैं. वैसे, इस बात से स्नेहा को भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह खुद शादी का टैग लगा कर घूमना पसंद नहीं करती. लेकिन हां, जब उसे किसी पार्टी में जाना होता है तो कभीकभार स्टाइल के लिए मांग में जरा सा सिंदूर भर लेती है. वैसे भी, करीना कपूर हो, दीपिका पादुकोण या अनुष्का शर्मा, सभी शादीशुदा हीरोइनें बस फैशन के लिए ही तो मांग में सिंदूर भरती हैं.

वैसे, वरुण को भी इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. वह तो खुद कहता है, जरूरत क्या है यह सब करने की. खुल कर जियो यार. बचा हुआ खाना फ्रिज में रखते हुए स्नेहा सोचने लगी कि वरुण की हर बात सही है, पर उस का औरतों को घूरना, उस के साथ फ्लर्ट करना उसे जरा भी नहीं पसंद. तभी पीछे से आ कर वरुण ने उसे पकड़ लिया और कान में फुसफुसाते हुए बोला,
‘मेरी जान, चलो न. कितनी देर लगा रही हो. तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही है मुझे,’ अचानक से वरुण की पकड़ से स्नेहा सिहर उठी. मन तो उस का भी मचला, पर एकदम से उस ने अपना रुख बदल लिया.

“ऊंह… छोड़ो मुझे. और मेरे पास क्यों आए हो…?जाओ न अपनी उन महिला दोस्तों के पास, जिन के साथ हमेशा मोबाइल में चिपके रहते हो?” बोल कर स्नेहा ने कुहनी मारी, तो वरुण ने और कस कर उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया.

“छोड़ो न वरुण, मुझे नहीं अच्छा लगता ये सब. तुम बड़े वो हो…” लेकिन उस की बात पूरी होने से पहले ही वरुण ने उस के मुंह पर उंगली रख दी और उसे अपनी गोद में उठा कर कमरे में ले गया और स्नेहा कुछ न बोल पाई.

सुबह स्नेहा के चेहरे पर न तो कोई गुस्सा था और न ही कोई शिकवाशिकायत, बल्कि वह तो गुनगुनाते हुए अपने वरुण के लिए अदरकइलायची वाली चाय बना रही थी. अपनी प्यार भरी बातों से आज फिर वरुण ने अपनी भोलीभाली पत्नी को शीशे में उतार लिया था.

वरुण को औफिस भेज कर स्नेहा किचन के बाकी काम निबटाने लगी. तब तक कमला भी आ गई. कमला चुप नहीं रह सकती कभी भी. काम करते हुए ही पटरपटर बोलते रहना उस की आदत है.

कमला, कमला नहीं, बल्कि एक चलताफिरता टेपरेकौर्डर थी. आसपड़ोस के घरों में क्या हो रहा है, किस पतिपत्नी के बीच मनमुटाव चल रहा है, किस सासबहू में टंटा हुआ, किस की बेटी भाग गई? सब रेकौर्ड कर के रखती है और जाजा कर दूसरे घरों में सुनाती है. काम करते हुए ही रस लेले कर वह आसपड़ोस के घरों की कहानियां बोलती रहती है और सब बड़े प्यार से सुनते हैं.

कमला काम करने के तो पैसे लेती ही है, रसीली खबरें सुनाने के भी उसे कुछ न कुछ मिल ही जाता है. खुश हो कर कोई उसे अपनी अच्छीभली साड़ियां, सूट दे देती हैं, तो किसी के घर से पुरानी लिपस्टिक, नेल पालिश या मेकअप का सामान मिल जाने पर वह झूम उठती है. अब दे भी क्यों न, जब बिना मेहनत किए दूसरेतीसरे घरों का ‘आंखोंदेखा हाल’ जो सुनने को मिल जाता है तो… इनसानों की फितरत में है दूसरों के घरों में ताकझांक करना. लोग क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसे रहते हैं, उन की दिनचर्या क्या है? जानने की लोगों में बड़ी उत्सुकता रहती है. लेकिन खुद के घरों में क्या हो रहा है, यह उन्हें खुद पता नहीं होता है.

स्नेहा भी कमला के आने का बेसब्री से इंतजार करती, ताकि आसपड़ोस की चटपटी खबरें सुनने को मिल सकें.अपनी आदत के अनुसार आते ही कमला शुरू हो गई.

“क्या बात कर रही है कमला? मिश्राइन चाची का अपनी बहू से झगड़ा हुआ? अच्छा… बहू उन्हें अब अपने साथ नहीं रखना चाहती? हाय, क्या जमाना आ गया है देखो तो… लेकिन, वह तो अपनी बहू की बड़ाई करते नहीं थकती थी. जब देखो, मेरी बहू ये, मेरी बहू वो,” स्नेहा ने मुंह बिचकाया, तो कमला कहने लगी, “अरे दीदी, वह सब तो दिखावा था, असल में सासबहू एकदूसरे का मुंह तक देखना नहीं चाहती हैं. सास कहती है कि निकल जा इस घर से… और बहू कहती है कि तू निकल बुढ़िया, हम क्यों निकलें?

“सच कहूं दीदी, सही हुआ है उस मिश्राइन चाची के साथ… उस बुढ़िया ने अपनी बड़ी बहू का जीना हराम कर रखा था, तो देखो, मिल गया न सेर को सवा सेर.

‘‘अरे दीदी, इस मिश्राइन चाची को छोड़ो. मेनका मैडम के बारे में सुनो. अरे वही, पार्लर वाली.‘‘

“हां… हां, बता न क्या हुआ उस के साथ?” स्नेहा ने सांस रोक कर पूछा.

“दीदी, सुना है कि उस के फेशियल से किसी को रिएक्शन हो गया. चेहरा सूज कर लाल हो गया बेचारी का. वह औरत तो मेनका मैडम को पुलिस में ले जाने की धमकी देने लगी.‘‘

“ये क्या कह रही है तू कमला? पर तुझे यह सब कैसे पता चला?” हैरानी से स्नेहा बोली.

“आप को तो पता ही है कि मेनका मैडम ने मुझ पर पार्लर से सामान चोरी करने का इलजाम लगाया था? हां, तो तभी से मैं ने उन के घर काम करना छोड़ दिया. लेकिन मेरी ही बस्ती की एक औरत उस के घर काम करने जाती है. उस ने ही बताया कि वह महिला मेनका मैडम पर केस करने जा रही थी. फिर मेनका मैडम ने उस औरत के सामने हाथपैर जोड़े, अपने बच्चों का वास्ता दिया, तब जा कर वह रुकी. पता नहीं, कुछ पैसे भी दिए होंगे शायद उसे. तभी तो वह पुलिस के पास नहीं गई. अच्छा हुआ, सारी बेईमानी एक बार में निकल गई. सच कहती हूं दीदी बड़ा मजा आया सुन कर कि उस की सारी अकड़ टांयटांय फुस हो गई,” एक लंबी सांस छोड़ते हुए विजयी मुसकान के साथ कमला बोली, “हम्म… अपनेआप को बड़ी श्रीदेवी समझती थी,” कमला की बात पर स्नेहा की हंसी छूट गई.

वैसे, स्नेहा को भी खूब मजा आ रहा था मेनका की बुराई सुन कर. उस के घमंडी व्यवहार के कारण ही तो स्नेहा ने उस का पार्लर जाना छोड़ दिया था.

“और मेनका मैडम के पति तो एकदम गिरा हुआ इनसान है,” कमला फिर शुरू हो गई, “आज सुबह जब मैं काम पर आ रही थी, तब वह मुझे ऐसे घूरने लगा कि क्या कहूं. ऐसा लग रहा था जैसे खा ही जाएगा. मैं भी उस के सामने थू कर आगे बढ़ गई. अच्छा किया न दीदी? ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए,” बोल कर कमला जिस तरह से हंसने लगी, स्नेहा को अच्छा नहीं लगा.

“सच कहूं, ये मर्दजात बड़े छिछोरे होते हैं. औरत या लड़की देखी नहीं कि इन के मुंह से लार टपकने लगती है.‘‘

“अच्छा… अच्छा, चुप हो जा अब, बहुत बोलती है तू,” स्नेहा ने डपटा, तो वह चुप हो गई. लेकिन स्नेहा का सिर भारी होने लगा.

“सुन, तेरा काम पूरा हो जाए तो एक कप चाय बनाती जाना. मेरा सिर भारी हुआ जा रहा है,” बोल कर स्नेहा किताब उठा कर उस के पन्ने पलटने लगी. लेकिन उस के चेहरे के आगे उस स्कूटी वाली लड़की का चेहरा नाचने लगा, जिसे वरुण गंदी नजरों से घूर रहा था और वह उस से बचने की कोशिश कर रही थी.

‘उस लड़की का मन भी तो वरुण के मुंह पर थूकने का कर रहा था?’ सोच कर स्नेहा शर्म से गढ़ गई. अपनी जिंदगी में हर एक लड़की को एक न एक बार इस सिचुएसन से गुजरना ही पड़ता है. कभीकभी तो करीबी दोस्त या परिवार का ही कोई सदस्य लड़कियों का शोषण करता है और वह कुछ बोल नहीं पाती है. एकाएक स्नेहा को वर्षों पुरानी बात याद हो आई और उस का मन कड़वाहट से भर उठा.

वह और उस की दोस्त मालती एक ही स्कूल में साथ पढ़ती थीं. दोनों का साथ आनाजाना, पढ़ना होता था. चूंकि दोनों का घर आसपास ही था, तो अकसर दोनों एकदूसरे के घर भी आयाजाया करती थीं. लेकिन उसे बुरा लगता, जब मालती का भाई उसे गंदी नजरों से घूरता. वह तो उसे अपने भाई की तरह मानती थी, लेकिन वह उस पर गंदी नजर रखता था.

एक बार अकेले पा कर वह स्नेहा के साथ गंदी हरकतें करने लगा. उसे यहांवहां छूने लगा. स्नेहा चिल्लाती रही, ‘भैया छोड़ो मुझे,’ मगर वह उस के स्तन को दबाता रहा. तब स्नेहा 15 साल की थी. कितनी मुश्किल से वह वहां से अपनी जान बचा कर भागी थी, वही जानती है.

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