Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-1)

ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर रुकी तो सांझ घिरने लगी थी. सुनहरे अतीत में लिपटी रेशमी हवाओं ने मेरी अगवानी की. मैं अपने ही शहर में देर तक खड़ा चारों ओर देखता रहा. मेरे सिवा वहां कुछ भी तो नहीं बदला था. मेरे आने के बाद हुई बूंदाबांदी तेज बारिश में बदल गई थी. यहां टैक्सी की जगह रिकशे मिलते हैं. बारिश के कारण वे भी नजर नहीं आ रहे थे. मैं पैदल ही चल दिया. पानी के साथ भूलीबिसरी यादोें की बौछारें मुझे भिगोने लगी थीं.

कालेज के दिनों में मेरे सूखे जीवन में पुरवाई के झोंके की तरह मंजरी का प्रवेश हुआ था. बनावटीपन से दूर, बेहद भोली और मासूम लगी थी वह. पता नहीं कैसा आकर्षण था उस के रूपरंग में कि मेरे भीतर प्रपात सा झरने लगा था.

कुछ दिन में वह खाली समय में लाइब्रेरी में आने लगी थी. उस की उपस्थिति में वहां का जर्राजर्रा महकने लगता था. जितनी देर वह लाइब्रेरी में रुकती मेरी सुधबुध खोई रहती थी.

कुछ दिनों तक मंजरी नजर नहीं आई तो कालेज सूनासूना सा लगने लगा था. पढ़नेलिखने से मेरा जी उचट गया. ऐसे ही एक दिन मैं निरुद्देश्य…लाइब्रेरी में गया तो एकांत में किताब लिए वह बैठी दिखाई दी. अगले ही पल मैं ठीक उस के सामने खड़ा था.

‘कहां थीं इतने दिन तक? तुम नहीं जानतीं उस दौरान मैं कितना अपसैट हो गया था. मेरे लिए एकएक पल काटना मुश्किल हो गया. बता कर तो जाना चाहिए था…’ मैं एक सांस में बिना रुके जाने क्याकुछ कहता चला गया.

ये भी पढ़ें- थोड़ी सी जमीन, सारा आसमान: क्या राकेश को भुला पाई फरहा

‘क्यों परेशान हो गए थे आप?’ उस ने मासूमियत से पूछा.

मैं बगलें झांकने लगा. एकदम से मुझे कोई जवाब नहीं सूझा था.

‘कुछ दिन पहले ही हम यहां शिफ्ट हुए हैं. सारा सामान अस्तव्यस्त पड़ा था. उसे करीने से लगाने में कुछ वक्त तो लगना ही था,’ वह बोली, ‘खड़े क्यों हैं आप?’

मैं निशब्द उस के समीप बैठ गया. हम दोनों चुप थे. देर तक ऐसे ही बुत बने बैठे रहे. केवल पलकें झपक रही थीं हमारी. मेरे मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा था…शायद उस के भी. मेरे बंद होंठों से शब्द झरने लगे थे…शायद उस के भी. मैं उस की धड़कनें महसूस कर रहा था… शायद वह भी मेरी धड़कनों को महसूस कर रही थी. हमारे बीच बोलने से कहीं अधिक मूक संवेदनाएं मुखरित होने लगी थीं.

महकते हुए 3 वर्ष कब फिसल गए पता ही नहीं चला. गुजरे वक्त के एकएक पल को हम ने हिफाजत से सहेज कर रखा था. इस बीच हम एकदूसरे को बेहतर तरीके से समझ चुके थे.

एक दिन वह मुझे अपने घर ले गई. वे दिन मेरे इम्तिहान के दिन थे. मैं नर्वस था. मन में शंकाओं के बादल घुमड़ रहे थे. ऐसी ही कुछ हालत मंजरी की भी थी. पर सबकुछ ठीक रहा, उस के पापा सुलझे हुए इनसान थे. बिलकुल मेरे बाबूजी की तरह. मंजरी मेरे घर में सब को पसंद थी. फाइनल इयर की परीक्षा के बाद हमारी सगाई हो गई.

शादी से पहले मुझे कैरियर संवारना था. हमारे घर वालों के साथ मंजरी भी यही चाहती थी.

‘भविष्य के बारे में क्या सोचा है, श्रेयांश?’ उस ने पूछा.

‘मैं एम.बी.ए. करूंगा,’ मैं ने उस की आंखों में झांका, ‘कुछ वक्त के लिए, तुम से और इस शहर से दूर जाना पड़ेगा.’

‘मैं इंतजार करूंगी तुम्हारा,’ उस की आंखों में नमी उतर आई, ‘मेरा शरीर मात्र यहां रहेगा…मन से हर पल मैं तुम्हारे साथ रहूंगी.’

मैं ने उसे बांहों में जोर से भींच कर चूम लिया.

दिल्ली के शुरुआती दिन बेहद संघर्ष भरे रहे. एम.बी.ए. में प्रवेश के बाद कुछ राहत मिली. कालेज के निकट होस्टल में कमरा मिल गया था. वहां मैस में खाने का इंतजाम था. दिन में मैं कालेज में रहता, रात को देर तक पढ़ाई करता और जब सोता तो आसपास तैर रहे मंजरी की यादों के साए मुझ से लिपट जाते.

एम.बी.ए. के बाद मुझे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा. थोड़ी सी कोशिश और भागदौड़ के बाद अच्छीखासी नौकरी हासिल हो गई थी. अब मेरे और मंजरी के बीच के सारे फासले खत्म होने को थे.

कुछ दिन की छुट्टी ले कर मैं कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाता वापस आ गया. मंजरी स्टेशन पर इंतजार करती मिली. मुझ से लिपट कर वह रो पड़ी थी.

मेरे पास वक्त कम था सो सीमित समय में विवाह की सारी रस्में पूरी की गईं. हंसीखुशी के माहौल में सबकुछ अच्छे से निबट गया था.

वापसी में मंजरी को साथ लाने में मुझे हिचक हो रही थी. अभीअभी शादी हुई है. पता नहीं लोग क्या सोचेंगे?

ये भी पढ़ें- फर्स्ट ईयर: दोस्ती के पीछे छिपी थी प्यार की लहर

बाबूजी ने मीठी झिड़की दी, ‘अपना स्वास्थ्य देखा है…होटल में खाखा कर कैसा बिगाड़ लिया है. बहू को साथ ले कर जा. घर का खाना मिलेगा तो सेहत सुधरेगी.’

मेरा मन भर आया, यह सोच कर कि बड़ेबुजुर्ग अपने बच्चों का कितना खयाल रखते हैं.

मंजरी की देहगंध से ईंटपत्थरों का बना 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट मधुवन बन गया था. मेरी हर सुबह बसंती, हर दिन ईद और हर रात दीवाली हो गई थी. फिर भी एक बात सालती थी मुझे और वह थी मंजरी का अकेलापन. मैं सारा दिन आफिस में व्यस्त रहता और वह घर में अकेली.

मैं ने उसे ‘लेडीज डे क्लब’ जौइन करने की राय दी, जहां संपन्न घरों की औरतें साफसुथरे मनोरंजन के लिए जमा होती थीं. हर रोज कुछ नया होता था वहां.

वह हंस कर टाल गई.

साहित्य और लेखकों के प्रति मंजरी के मन में श्रद्धा की हद तक लगाव था. प्रेमचंद, गोर्की, चेखब, शरत बाबू, रेणू, महादेवी से ले कर अमृता प्रीतम, विष्णु प्रभाकर…और भी बहुत से नाम जो याद नहीं, उस के पसंदीदा थे. उस की अलमारी गोदान, ध्रुवस्वामिनी…सरीखी किताबों के साथसाथ सरिता और गृहशोभा जैसी पत्रिकाओं से भरी थी.

‘इन रूखी किताबों को पढ़ कर तुम बोर नहीं होतीं?’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘इन में हर किताब अपने में पूरा दर्शन है, श्रेयांश,’ वह गंभीरता से बोली, ‘इन के कथानक लेखकों की कठोर तपस्या का प्रतिफल होते हैं जिन्हें वे अपना तनमन जला कर रचते हैं. आज लोगों में तनाव और हताशा हावी है तो इसलिए कि वे किताबों से दूर हो गए हैं.’

मैं निरुत्तर हो गया था.

मेरे आफिस में पुराने बौस के स्थानांतरण के रूप में नई घटना हुई. उन की जगह रागिनी ने ली थी. 30 साल की नई बौस जितनी सुंदर और स्मार्ट थी उतनी ही ऐक्टिव और त्वरित निर्णय लेने में सक्षम भी थी. मैनेजमैंट में उस की गजब की पकड़ थी. इस का असर कुछ ही दिनों में आफिस के कामकाज में दिखाई देने लगा था. मैं उस की असाधारण योग्यता का प्रशंसक था.

उस ने एक अभिनव प्रयोग और किया. हर शख्स को उस ने नए सिरे से जिम्मेदारी सौंपी थी.

आगे पढ़ें- इस नई भूमिका से जहां मैं..

ये भी पढ़ें- 8 नवंबर की शाम: आखिर उस शाम कैसे बदल गए मुग्धा की जिंदगी के माने

Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-3)

मैं मूकदर्शक बना रहा.‘मेरे बारे में अभी तुम जानते ही क्या हो, मेरा पति अमेरिका में है. 5 साल पहले हमारा प्रेमविवाह हुआ था. शादी से पहले ही तय हो गया था कि वैल सैटल होने के बाद ही मैरिजलाइफ को ऐंजौय करेंगे. इस बीच एकदूसरे के व्यक्तिगत जीवन को कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा. मैं ने अपने सपनों को विस्तार देने के लिए अपना देश चुना और वह अमेरिका चला गया.

‘शुरुआत के कुछ महीनों तक तो हम संपर्क में रहे फिर काम में ऐसे डूबे कि अपने बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं मिली. आज मेरे पास लाखों का बैंक बैलेंस है. ऐशोआराम की हर चीज है. मेरी अपनी एक पहचान है पर मानसिक शांति नहीं है. मैं भीतर से बिलकुल खोखली हूं.’

उस की आंखों में सुरूर के लाल डोरे उभरने लगे थे.मैं चुपचाप खाना खाने लगा. वह भी खाती और पीती रही.‘सच कहूं श्रेयांश,’ वह बोली, ‘उस दिन तुम्हारी बातें मुझे मूर्खतापूर्ण लगी थीं. फिर धीरेधीरे तुम्हारी भावनाओं की मैं मुरीद होती गई. अपने प्यार के लिए कैरियर दांव पर लगाना मामूली बात नहीं है. यह काम तुम्हारे जैसा व्यक्ति ही कर सकता है. सोचती हूं वह लड़की कितनी खास होगी जिसे तुम ने प्यार किया.’

‘तुम्हारे पति भी तो तुम्हें प्यार करते होंगे?’ पानी पी कर मैं ने धीरे से पूछा.

ये भी पढ़े-ं झुनझुना: क्यों लोगों का गुस्सा सहती थी रीना?

‘वह जिस कल्चर में रहता है वहां प्यार का अर्थ मतलबपरस्ती से है. पलक झपकते महिला और पुरुष पार्टनर बदल जाते हैं. बस, फायदा दिख रहा होना चाहिए. किसी की बीवी का दूसरे की बांहों में चले जाना आम बात है. बड़ी से बड़ी डील चुटकियों में हो जाती है. वहां पार्टियों का आयोजन होता ही इसलिए है कि जिस की बीवी जितनी सुंदर और बोल्ड वह उतना ही कामयाब. सब के सब जानवर हैं,’ उस ने घृणा से मुंह बनाया.

‘तुम्हें एक राज की बात बताऊं, श्रेयांश. मेरे प्रमोशन का लैटर कई दिन पहले आ चुका है. मैं ने उसे फाड़ कर डस्टबिन में फेंक दिया. तुम से दूर जाने का साहस नहीं जुटा पाई मैं. मैं ने कभी हारना नहीं सीखा पर तुम से हारना अच्छा लगा. तुम से बहुत कुछ सीखने को मिला है…आगे भी सीखती रहूंगी. यू आर माई आइडियल…’ उस ने अधूरी बात छोड़ कर मेरी आंखों में झांका.

मैं सन्नाटे में आ गया.

‘तुम्हें लगता होगा मैं पागल हो गई हूं. तुम में बात ही कुछ ऐसी है कि कोई भी पागल हो जाए.’

‘स्टौप इट,’ मैं सख्ती से बोला, ‘इस वक्त तुम होश में नहीं हो. चलो, तुम्हें रूम तक छोड़ दूं.’

‘नो, आई एम ओ.के.,’ वह झूमती हुई बोली, ‘यू नो, इतना ऊपर मैं स्टैप बाई स्टैप नहीं, एक छलांग में आई हूं. कंपनी के मालिक उस बुड्ढे की मुझे देखते ही लार टपकती है. होटल के ऐसे कमरों में उस ने सैकड़ों बार भोगा है मुझे. न चाहते हुए भी मुझे उस के सामने बिछना पड़ा. सफलता की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है. मैं अपनी योग्यता के बलबूते पर भी यहां तक पहुंच सकती थी पर मेरी मांसल देह के आगे मेरी योग्यता किसी को दिखाई ही नहीं देती.’

उस का यह रूप आज मैं पहली बार देख रहा था. मुझे उबकाई आने लगी थी.

उस ने मुझे अपनी ओर खींच लिया, ‘हरिश्चंद्र का चरित्र घर तक ठीक है. यहां हमारे अलावा और कोई नहीं है. और हम मौजमस्ती करते हैं.’

उसे परे धकेल कर मैं अपने कमरे में आ गया. मेरा मूड खराब हो गया था. उस भोली सी दिखने वाली लड़की के दिमाग में कितने छलप्रपंच भरे थे. वह नफा- नुकसान का हिसाबकिताब लगा कर संबंध जोड़ती थी. उसे शरीर को गणित के फार्मूले की तरह इस्तेमाल करना आता था. बाजारवाद की मानसिकता उस पर इतनी हावी थी कि उस से इतर कुछ सोच ही नहीं सकती थी.

दिल्ली पहुंचते ही उस की मेज पर अपना त्यागपत्र रख कर नौकरी से नमस्ते कर लूंगा…मैं सोच चुका था. मुझे कोई वास्ता नहीं रखना ऐसी खतरनाक लड़की से.

मेरी आंखों से नींद उड़ गई थी. मैं ने परदा खींच कर खिड़की खोली. दूरदूर तक फैला सागर अब भी शांत था. आसमान में पूरी आभा के साथ चमकता चांद थोड़ा नीचे की ओर झुक आया था. विशाल सागर मानो हाथ पसारे उस की प्रतीक्षा कर रहा था. रात ढलने के बाद एक वक्त ऐसा भी आएगा जब चांद सागर की लहरों को स्पर्श करता हुआ उसी में एकाकार हो जाएगा. शायद यही प्रेम का शाश्वत रूप है…जिसे रागिनी देह की आंच में झोंक देना चाहती है.

अचानक चांद में मंजरी का चेहरा उभर आया. खोईखोई सी…उदास रंगत लिए. उस की सूनी आंखें एकटक मेरी ओर निहार रही थीं. एकसाथ कई तीर मेरे दिल को बेध गए.

‘तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता, मंजरी,’ मेरे होंठ कांपने लगे थे.

हम सुबह की पहली फ्लाइट से दिल्ली रवाना हुए. रागिनी की सूरत बिलकुल बदली हुई थी. रात की घटना का उसे क्षोभ नहीं था. रात गई बात गई. रास्ते में वह ज्यादातर लैपटौप में उलझी रही थी. उसी दौरान चंद काम की बातें हुईं. मैं ने उस से अघोषित दूरी बना ली थी.

एअरपोर्ट से मैं सीधा घर पहुंचा. मेन गेट पर ताला लटक रहा था. ऐसा पहली बार हुआ था. मैं अभी सोच ही रहा था कि पड़ोस की लड़की चाबी और एक लिफाफा दे गई.

‘आंटी कल सुबह से कहीं गई हैं,’ मुझे उलझन में खड़े देख कर वह बोली.

ये भी पढ़ें- तुम ने मेरे लिए किया क्या: प्रसून के लिए उमाजी ने दी बड़ी कुरबानी

मंजरी बहुत कम ही कहीं आतीजाती थी. वह भी कभीकभार घंटे आधघंटे के लिए. किसी अज्ञात आशंका से मेरा दिल धड़कने लगा. मैं जल्दी से ताला खोल कर अंदर आया. लिफाफे के भीतर मंजरी के हाथ का लिखा एक कागज रखा था. मैं कांपते हाथों से उसे निकाल कर पढ़ने लगा :

‘श्रेयांश,

‘याद करो कालेज के वे दिन. उन दिनों का पागलपन, मेरी देहगंध पाने की छटपटाहट, जो तुम्हें मेरे करीब खींच लाई थी. वह प्यार, वह कशिश, वे महकते लम्हे, मैं हर पल यहां तलाशती रही…यह मेरी भूल थी. वे सब तो तुम वहीं छोड़ आए हो…उसी छोटे से शहर की सरहद में जहां हमारा प्रेम अंकुरित हुआ था. यहां अकेली चलतेचलते थक गई हूं इसलिए वापस जा रही हूं…उन्हीं यादों की छाया तले विश्राम करने. इस शहर ने तुम्हें मुझ से छीन लिया पर उस धरोहर से मुझे कोई अलग नहीं कर सकता, जो उस शहर के चप्पेचप्पे में बिखरी है. यहां चैन से जी नहीं सकी…वहां यादों से लिपट कर सुकून से मर तो सकती हूं. यह अधिकार मुझ से कोई नहीं छीन सकता…तुम भी नहीं.

-मंजरी’

मैं निर्जीव सा सोफे पर पसर गया.

पत्र हाथ में लिए मैं कई पलों तक किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा बैठा रहा था. फिर होश आते ही स्टेशन पहुंचा और जो पहली ट्रेन मिली उसी में बैठ गया. अपने पीछे उन तमाम बंधनों को तोड़ आया जिन के कारण मेरा जीवन इस दोराहे तक आ पहुंचा था. दोराहे से पलट कर भी अपने शहर के पुराने रास्तों पर मेरी निगाहें अपनी मोहब्बत के दीदार के बिना इधरउधर भटक रही थीं.

मोहब्बत तो एक नाजुक सा एहसास होता है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. मंजरी ने डूब कर जिया था इस एहसास को. वह मुझे हृदय की असीम गहराइयों से प्रेम करती रही और मैं उस की भावनाओं को आहत करता रहा. मेरे दिल में टीस उठ रही थी. घटाएं घुमड़ कर आंखों में उतर आई थीं. हवा के तेज झोंके उन्हें बरसने से पहले ही सोखने लग गए थे.

सहसा एक सम्मोहक सी गंध फिजाओं में घुलने लगी. मेरी चिरपरिचित गंध. मेरी आत्मा में गहरे तक बिखरी हुई गंध. मेरे जीवन को ऊर्जावान कर देने वाली गंध…मंजरी की देहगंध. मैं पगलाया सा दौड़ने लगा. बारिश के कारण सड़क के दोनों ओर दुकानों के छज्जों के नीचे खड़े लोग मुझे कौतूहल से देख रहे थे. उन से बेपरवाह में दौड़ता ही रहा…जल्दी से जल्दी मंजरी के करीब पहुंचने और उसे सदा के लिए बांहों में समेट लेने के जनून में.

ये भी पढ़ें- पूर्णाहुति: पति की आदतों से परेशान मणि ने जब किया घर छोड़ने का फैसला

Serial Story: मंजरी की तलाश (भाग-2)

मेरा कद बढ़ गया था. आफिस से संबंधित हर छोटेबड़े निर्णय में मेरी राय खास माने रखने लगी थी. बिजनेस टूर में रागिनी के साथ मेरा जाना लगभग अनिवार्य था. मैं उस का पर्सनल सेक्रेटरी हो गया था. कंपनी से मुझे शानदार बंगला और गाड़ी सौगात में मिली थी. वेतन की जगह भारीभरकम पैकेज ने ले ली थी.

इस नई भूमिका से जहां मैं बेहद उत्साहित था वहीं मंजरी की कठिनाइयां बढ़ गई थीं. कईकई दिन तक उसे अकेले रहना पड़ता था. व्यस्तता के कारण आफिस से मेरा देर रात तक लौटना संभव हो पाता. मंजरी उस वक्त भी उनींदी पलकों से मुझे प्रतीक्षा करती मिलती. खाने की मेज पर ही उस से चंद बातें हो पाती थीं.

रागिनी के आग्रह पर मैं जबतब बाहर खा कर आता तो वह उस से भी महरूम रह जाती थी. फिर वह भूखी सो जाती. मैं ने उस से कई बार कहा कि मुझ से पहले खा लिया करे पर वह अपनी जिद पर कायम रही. उसे भूखा रहने में क्या सुख मिलता था मैं समझ नहीं सका या मेरे पास समझने का वक्त ही नहीं था.

मैं इनसान से मशीन में तब्दील हो गया था.

ये भी पढ़ें- Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस

‘तुम इतने बदल जाओगे मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी,’ मेरी उपेक्षा से आजिज आ कर अंतत: एक दिन उस के सब्र का बांध टूट गया, ‘मुझ से बात करने को चैन के तुम्हारे पास दो पल भी नहीं हैं. जब से आई हूं इस चाहरदीवारी में कैद हो कर रह गई हूं. कहीं घुमाने तक नहीं ले गए मुझे.’

‘मेरी मजबूरी समझने की कोशिश करो. ऐसी नौकरी और ऐसे अवसर मुश्किल से मिलते हैं. यही मौका है खूब आगे, आगे से और आगे… ऊंचाई पर जाने का.’

‘तुम पहले ही इतना आगे जा चुके हो कि मुड़ कर देखने से मैं दिखाई नहीं देती और आगे चले गए तो…’ उस का गला रुंध गया.

‘यह क्या कह रही हो?’

‘अब और सहन नहीं होता, श्रेयांश,’ उस की आंखें भर आईं, ‘मैं कोई बुत नहीं हूं जो कोने में अकेला पड़ा रहे. हाड़मांस की बनी जीतीजागती इनसान हूं मैं. मेरे सीने में धड़कता दिल हर क्षण तुम्हारी मदभरी बातें सुनने को तरसता है. कभी मेरे मन में जमी राख को कुरेद कर देखते तो समझ पाते कि मैं पलपल किस भीषण आग से सुलग रही हूं.’

उस की हालत देख कर मैं दहल गया. यकीनन मैं इतनी गहराई तक नहीं पहुंचा था जितना वह सोचती थी. उस के अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं कभी ठीकठीक अंदाजा ही नहीं लगा सका कि क्या कुछ दहक रहा था उस के भीतर. जब स्थिति बदतर हो गई तभी उस के मन का ज्वालामुखी फटा था. मैं ने उस के आंसू पोंछे. उसे अंक में समेट कर देर तक डूबा रहा उस की देहगंध में. उस पूरी रात वह अबोध शिशु की तरह मेरे पहलू में दुबकी रही.

अगले दिन मैं ने रागिनी को फोन कर आफिस आने से मना कर दिया. उस ने बहुत सारे आवश्यक कामों का हवाला दे कर हीलहुज्जत की थी पर मुझे नहीं जाना था, सो नहीं गया.

वह पूरा दिन मंजरी के लिए रिजर्व था.

मैं उसे कई जगह घुमाने ले गया. हम थिएटर भी गए. वहां प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’ का मंचन हो रहा था.

‘दिल्ली के लोग इस युग में भी संवेदनाओं को जीवित रखे हैं,’ वह रोमांचित हो गई थी.

अंत में हम ने ढेर सारी शौपिंग की और कैंडल डिनर का लुत्फ उठाया. लौटते वक्त वह चहक रही थी. उस का खिला चेहरा कभी मुरझाने न देने का मैं निश्चय कर चुका था.

अगले दिन मैं आफिस पहुंचा. पिछले रोज आफिस न आने का कारण बताया.

‘तुम होश में तो हो, श्रेयांश?’ मेरी बात सुन कर रागिनी भड़क गई थी, ‘आज आफिस में तुम जिस लैबल पर हो उस पर तुम्हें गर्व होना चाहिए.’

‘प्लीज मैडम, मेरी बात समझने की कोशिश करें.’

‘देखो श्रेयांश, जल्दबाजी में लिए गए फैसले अकसर गलत साबित होते हैं. यहां काम करने वालों की कमी नहीं है. एक से बढ़ कर एक हैं. तुम में मुझे अपार संभावनाएं नजर आ रही हैं इसलिए नेक राय दे रही हूं. आने वाले सुनहरे कल को यों ठोकर मारना उचित नहीं है.

ये भी पढ़ें- अंतिम टैलीग्राम: क्या तनु अपने प्रेमी अनिरुद्ध से मिल पाई?

‘तुम्हारी पत्नी छोटे शहर से आई है इसलिए ऐडजस्ट करने में उसे समस्या हो रही है. धीरेधीरे परिस्थितियां सब को अपने अनुरूप ढाल लेती हैं.’

‘मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा.’

‘कोशिश कर के देखने में क्या हर्ज है?’

मैं ने घर आ कर मंजरी को सारी स्थिति और अपनी मजबूरी बता दी.

‘मुझे तुम पर भरोसा है,’ मेरे सीने से लग कर वह बोली थी.

रागिनी ने मेरे सामने जो परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं उन में मंजरी के भरोसे को कायम रख पाना मेरे लिए बेहद मुश्किल भरा काम था. न चाहते हुए भी मेरा काम करने का रुटीन पहले से और भी अधिक संघर्षमय होता जा रहा था.

धीरेधीरे समय गुजरता गया. साथ ही मंजरी से दूरी बढ़ती गई. मेरा ज्यादातर समय रागिनी के साथ बीतता था. मैं फिर उसी भंवर की गहराई में डूब गया था जिस से उबरने के स्वप्न मंजरी की आंखों में झिलमिला रहे थे. मेरे मन के किसी कोने में दबी महत्त्वाकांक्षा जोर मारने लगी थी. इस उफान में मंजरी हाशिए पर चली गई. उस के मुसकराते होंठ थरथराने लगे थे जैसे मुझ से कुछ कहना चाहते हों. मैं ने दोएक बार पूछा भी पर वह खामोश रही. मैं ज्यादा कुरेदता तो वह किसी बहाने से उठ कर चली जाती थी. उस की पलकों का गीलापन मुझ से छिप नहीं पाता था. उन में कई अनबूझे सवाल तैरते देखे थे मैं ने.

‘मंजरी प्लीज, संभालो अपने आप को,’ उस की उदासी से तिक्त हो कर मैं ने कहा, ‘कुछ दिन बाद तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएंगे.’

‘उन्हीं कुछ दिनों का इंतजार है मुझे,’ वह भावहीन स्वर में बोली.

मैं फ्रीज हो कर रह गया था.

3 दिन के टूर पर मैं रागिनी के साथ मुंबई में था. जिस होटल में हम ठहरे थे उस में अंतिम दिन एक खास मीटिंग रखी गई थी. रात के लगभग 12 बजे तक मीटिंग चली. उस के बाद डिनर था. विशाल डाइनिंग हाल में खिड़की के बगल वाली सीट हमारे लिए रिजर्व थी. वहां से समुद्र का दिलकश नजारा साफ दिखाई देता था.

बैरा खाना लगा गया तो रागिनी ने उस से सोडा लाने को कहा और पर्स से महंगी विदेशी शराब की छोटी बोतल निकाल कर 2 गिलास सीधे किए.

‘मैं नहीं लूंगा,’ उस का आशय समझ कर मैं बोला तो उस ने जिद नहीं की. बैरे को बुला कर मेरे लिए कोल्ड ड्रिंक मंगवाई और अपने लिए पैग तैयार किया.

ये भी पढ़ें- टूटी चप्पल: क्या हुआ था अंजलि के साथ उस शादी में ?

दो घूंट गटक कर रागिनी बोली, ‘मुझे शौक नहीं है पीने का. पर क्या करूं, काम के बोझ और थकान के कारण पीनी पड़ती है. शरीर तो आखिर शरीर है, उस की भी अपनी सीमाएं हैं. दो घूंट अंदर और सब टैंशन बाहर,’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी.

आगे पढ़ें- 5 साल पहले हमारा प्रेमविवाह…

लड़की: वीणा की जिंदगी में कैसे आ गई उलझनें

Serial Story: लड़की (भाग-1)

मुंबई स्थित जसलोक अस्पताल के आईसीयू में वीणा बिस्तर पर निस्पंद पड़ी थी. उसे इस हालत में देख कर उस की मां अहल्या का कलेजा मुंह को आ रहा था. उस के कंठ में रुलाई उमड़ रही थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन ऐसे दुखदायी दृश्य का सामना करना पड़ेगा. वह वीणा के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. ‘मेरी बेटी,’ वह बुदबुदाई, ‘तू एक बार आंखें खोल दे, तू होश में आ जा तो मैं तुझे बता सकूं कि मैं तुझे कितना चाहती हूं, तू मेरे दिल के कितने करीब है. तू मुझे छोड़ कर न जा मेरी लाड़ो. तेरे बिना मेरा संसार सूना हो जाएगा.’

बेटी को खो देने की आशंका से वह परेशान थी. वह व्यग्रता से डाक्टर और नर्सों का आनाजाना ताक रही थी, उन से वीणा की हालत के बारे में जानना चाह रही थी, पर हर कोई उसे किसी तरह का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ था. जैसे ही उसे वीणा के बारे में सूचना मिली वह पागलों की तरह बदहवास अस्पताल दौड़ी थी. वीणा को बेसुध देख कर वह चीख पड़ी थी. ‘यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ?’ उस के होंठों पर हजारों सवाल आए थे.

‘‘मैं आप को सारी बात बाद में विस्तार से बताऊंगा,’’ उस के दामाद भास्कर ने कहा था, ‘‘आप को तो पता ही है कि वीणा ड्रग्स की आदी थी. लगता है कि इस बार उस ने ओवरडोज ले ली और बेहोश हो गई. कामवाली बाई की नजर उस पर पड़ी तो उस ने दफ्तर में फोन किया. मैं दौड़ा आया, उसे अस्पताल लाया और आप को खबर कर दी.’’ ‘‘हायहाय, वीणा ठीक तो हो जाएगी न?’’ अहल्या ने चिंतित हो कर सवाल किया.

ये भी पढ़ें- थोड़ी सी जमीन, सारा आसमान: क्या राकेश को भुला पाई फरहा

‘‘डाक्टर्स पूरी कोशिश कर रहे हैं,’’ भास्कर ने उम्मीद जताई. भास्कर से कोई आश्वासन न पा कर अहल्या ने चुप्पी साध ली. और वह कर भी क्या सकती थी? उस ने अपने को इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था. वह जानती थी कि वीणा ड्रग्स लेती थी. ड्रग्स की यह आदत उसे अमेरिका में ही पड़ चुकी थी. मानसिक तनाव के चलते वह कभीकभी गोलियां फांक लेती थी. उस ने ओवरडोज गलती से ली या आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था?

उस का मन एकबारगी अतीत में जा पहुंचा. उसे वह दिन याद आया जब वीणा पैदा हुई थी. लड़की के जन्म से घर में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई थी. कोई उत्साहित नहीं हुआ था. अहल्या व उस का पति सुधाकर ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे जहां लड़कों को प्रश्रय दिया जाता था. लड़कियों की कोई अहमियत नहीं थी. लड़कों के जन्म पर थालियां बजाई जातीं, लड्डू बांटे जाते, खुशियां मनाई जाती थीं. बेटी हुई तो सब के मुंह लटक जाते.

बेटी सिर का बोझ थी. वह घाटे का सौदा थी. एक बड़ी जिम्मेदारी थी. उसे पालपोस कर, बड़ा कर दूसरे को सौंप देना होता था. उस के लिए वर खोज कर, दानदहेज दे कर उस की शादी करने की प्रक्रिया में उस के मांबाप हलकान हो जाते और अकसर आकंठ कर्ज में डूब जाते थे. अहल्या और सुधाकर भी अपनी संकीर्ण मानसिकता व पिछड़ी विचारधारा को ले कर जी रहे थे. वे समाज के घिसेपिटे नियमों का हूबहू पालन कर रहे थे. वे हद दर्जे के पुरातनपंथी थे, लकीर के फकीर.

देश में बदलाव की बयार आई थी, औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही थीं, स्त्री सशक्तीकरण की मांग कर रही थीं. पर अहल्या और उस के पति को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा था. अहल्या को याद आया कि बच्ची को देख कर उस की सास ने कहा था, ‘बच्ची जरा दुबलीपतली और मरियल सी है. रंग भी थोड़ा सांवला है, पर कोई बात नहीं.

2-2 बेटों के जन्म के बाद इस परिवार में एक बेटी की कमी थी, सो वह भी पूरी हो गई.’ जब भी अहल्या को उस की सास अपनी बेटी को ममता के वशीभूत हो कर गोद में लेते या उसे प्यार करते देखतीं तो उसे टोके बिना न रहतीं, ‘अरी, लड़कियां पराया धन होती हैं, दूसरे के घर की शोभा. इन से ज्यादा मोह मत बढ़ा. तेरी असली पूंजी तो तेरे बेटे हैं. वही तेरी नैया पार लगाएंगे. तेरे वंश की बेल वही आगे बढ़ाएंगे. तेरे बुढ़ापे का सहारा वही तो बनेंगे.’

सासूमां जबतब हिदायत देती रहतीं, ‘अरी बहू, बेटी को ज्यादा सिर पे मत चढ़ाओ. इस की आदतें न बिगाड़ो. एक दिन इसे पराए घर जाना है. पता नहीं कैसी ससुराल मिलेगी. कैसे लोगों से पाला पड़ेगा. कैसे निभेगी. बेटियों को विनम्र रहना चाहिए. दब कर रहना चाहिए. सहनशील बनना चाहिए. इन्हें अपनी हद में रहना चाहिए.’ देखते ही देखते वीणा बड़ी हो गई. एक दिन अहल्या के पति सुधाकर ने आ कर कहा, ‘वीणा के लिए एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया है.’

‘अरे,’ अहल्या अचकचाई, ‘अभी तो वह केवल 18 साल की है.’ ‘तो क्या हुआ. शादी की उम्र तो हो गई है उस की, जितनी जल्दी अपने सिर से बोझ उतरे उतना ही अच्छा है. लड़के ने खुद आगे बढ़ कर उस का हाथ मांगा है. लड़का भी ऐसावैसा नहीं है. प्रशासनिक अधिकारी है. ऊंची तनख्वाह पाता है. ठाठ से रहता है. हमारी बेटी राज करेगी.’

‘लेकिन उस की पढ़ाई…’ ‘ओहो, पढ़ाई का क्या है, उस के पति की मरजी हुई तो बाद में भी प्राइवेट पढ़ सकती है. जरा सोचो, हमारी हैसियत एक आईएएस दामाद पाने की थी क्या? घराना भी अमीर है. यों समझो कि प्रकृति ने छप्पर फाड़ कर धन बरसा दिया हम पर. ‘लेकिन अगर उस के मातापिता ने दहेज के लिए मुंह फाड़ा तो…’

‘तो कह देंगे कि हम आप के द्वारे लड़का मांगने नहीं गए थे. वही हमारी बेटी पर लार टपकाए हुए हैं…’

ये भी पढ़ें- फर्स्ट ईयर: दोस्ती के पीछे छिपी थी प्यार की लहर

जब वीणा को पता चला कि उस के ब्याह की बात चल रही है तो वह बहुत रोईधोई. ‘मेरी शादी की इतनी जल्दी क्या है, मां. अभी तो मैं और पढ़ना चाहती हूं. कालेज लाइफ एंजौय करना चाहती हूं. कुछ दिन बेफिक्री से रहना चाहती हूं. फिर थोड़े दिन नौकरी भी करना चाहती हूं.’ पर उस की किसी ने नहीं सुनी. उस का कालेज छुड़ा दिया गया. शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं.

वर के मातापिता ने एक अडं़गा लगाया, ‘‘हमारे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. लाखों का दहेज मिल रहा है. माना कि हमारा बेटा आप की बेटी से ब्याह करने पर तुला हुआ है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि आप हमें सस्ते में टरका दें. नकद न सही, उस की हैसियत के अनुसार एक कार, फर्नीचर, फ्रिज, एसी वगैरह देना ही होगा.’’ सुधाकर सिर थाम कर बैठ गए. ‘मैं अपनेआप को बेच दूं तो भी इतना सबकुछ जुटा नहीं सकता,’ वे हताश स्वर में बोले.

‘मैं कहती थी न कि वरपक्ष वाले दहेज के लिए मुंह फाड़ेंगे. आखिर, बात दहेज के मुद्दे पर आ कर अटक गई न,’ अहल्या ने उलाहना दिया. ‘आंटीजी, आप लोग फिक्र न करें,’ उन के भावी दामाद उदय ने उन्हें दिलासा दिया, ‘मैं सब संभाल लूंगा. मैं अपने मांबाप को समझा लूंगा. आखिर मैं उन का इकलौता पुत्र हूं वे मेरी बात टाल नहीं सकेंगे.’

आगे पढ़ें- आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे…

ये भी पढ़ें- 8 नवंबर की शाम: आखिर उस शाम कैसे बदल गए मुग्धा की जिंदगी के माने

Serial Story: लड़की (भाग-2)

पर उस के मातापिता भी अड़ कर बैठे थे. दोनों में तनातनी थी. आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे शादी के मंडप से उदय को जबरन उठा कर ले गए और सुधाकर व अहल्या कुछ न कर सके. देखते ही देखते शादी का माहौल मातम में बदल गया. घराती व बराती चुपचाप खिसक लिए. अहल्या और वीणा ने रोरो कर घर में कुहराम मचा दिया.

‘अब इस तरह मातम मनाने से क्या हासिल होगा?’ सुधाकर ने लताड़ा, ‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. हमारी लायक बेटी के लिए बहुतेरे वर जुट जाएंगे.’ वीणा मन ही मन आहत हुई पर उस ने इस अप्रिय घटना को भूल कर पढ़ाई में अपना मन लगाया. वह पढ़ने में तेज थी. उस ने परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. इधर, उस के मांबाप भी निठल्ले नहीं बैठे थे. वे जीजान से एक अच्छे वर की तलाश कर रहे थे. तभी वीणा ने एक दिन अपनी मां को बताया कि वह अपने एक सहपाठी से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है.

जब अहल्या ने यह बात पति को बताई तो उन्होंने नाकभौं सिकोड़ कर कहा, ‘बहुत खूब. यह लड़की कालेज पढ़ने जाती थी या कुछ और ही गुल खिला रही थी? कौन लड़का है, किस जाति का है, कैसा खानदान है कुछ पता तो चले?’ और जब उन्हें पता चला कि प्रवीण दलित है तो उन की भृकुटी तन गई, ‘यह लड़की जो भी काम करेगी वह अनोखा होगा. अपनी बिरादरी में योग्य लड़कों की कमी है क्या? भई, हम से तो जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाएगी. समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? हमें किसी तरह से इस लड़के से पीछा छुड़ाना होगा. तुम वीणा को समझाओ.’

‘मैं उसे समझा कर हार चुकी हूं पर वह जिद पकड़े हुए है. कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’ ‘पागल है वह, नादान है. हमें कोई तरकीब भिड़ानी होगी.’

ये भी पढ़ें- Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस

सुधाकर ने एक तरीका खोज निकाला. वे वीणा को एक ज्योतिषी के पास ले गए.

‘हम ने इन के बारे में बहुतकुछ सुना है. तेरा विदेश जा कर पढ़ने का बहुत मन है न, चलो, इन से रायमशवरा करते हैं और पता लगाते हैं कि तुम्हारे भविष्य में क्या है.’ सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा. ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’ ‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली. ‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी. समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा. ‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’ मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता. वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

ये भी पढ़ें- अंतिम टैलीग्राम: क्या तनु अपने प्रेमी अनिरुद्ध से मिल पाई?

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती. एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’ ‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’ ‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’ अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले. ‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया. एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

आगे पढ़ें- अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन…

ये भी पढ़ें- टूटी चप्पल: क्या हुआ था अंजलि के साथ उस शादी में ?

Serial Story: लड़की (भाग-3)

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

हर मांबाप अपनी संतान का भला चाहते हैं, अहल्या ने सोचा. हम ने भी वीणा का भला ही चाहा था. पर समय को कुछ और ही मंजूर था. आज उसे लग रहा था कि उस ने व उस के पति ने बेटी के प्रति न्याय नहीं किया. क्या हमारी सोच गलत थी? उस ने अपनेआप से सवाल किया. शायद हां, उस के मन ने कहा. हम जमाने के साथ नहीं चले. हम अपनी परिपाटी से चिपके रहे. पहली गलती हम से यह हुई कि बेटी के परिपक्व होने के पहले ही उस की शादी कर देनी चाही. अल्हड़ अवस्था में उस के कंधों पर गृहस्थी का बोझ डालना चाहा. हम जल्द से जल्द अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. और दूसरी भूल हम से तब हुई जब वीणा ने अपनी पसंद का लड़का चुना और हम ने उस की मरजी को नकार कर उस की शादी में हजार रोडे़ अटकाए. अब जब वह अपनी शादी से खुश नहीं थी और पति से तलाक लेना चाह रही थी तो हम दोनों पतिपत्नी ने इस बात का जम कर विरोध किया.

ये भी पढ़ें- झुनझुना: क्यों लोगों का गुस्सा सहती थी रीना?

बेटी की खुशी से ज्यादा उन्हें समाज की चिंता थी. लोग क्या कहेंगे, यही बात उन्हें दिनरात खाए जाती थी. उन्हें अपनी मानमर्यादा का खयाल ज्यादा था. वे समाज में अपनी साख बनाए रखना चाहते थे, पर बेटी पर क्या बीत रही है, इस बात की उन्हें फिक्र नहीं थी. बेटी के प्रति वे तनिक भी संवेदनशील न थे. उस के दर्द का उन्हें जरा भी एहसास न था. उन्होंने कभी अपनी बेटी के मन में पैठने की कोशिश नहीं की. कभी उस की अंतरंग भावनाओें को नहीं जानना चाहा. उस के जन्मदाता हो कर भी वे उस के प्रति निष्ठुर रहे, उदासीन रहे.

अहल्या को पिछली बीसियों घटनाएं याद आ गईं जब उस ने वीणा को परे कर बेटों को कलेजे से लगाया था. उस ने हमेशा बेटों को अहमियत दी जबकि बेटी की अवहेलना की. बेटों को परवान चढ़ाया पर बेटी जैसेतैसे पल गई. बेटों को अपनी मनमानी करने की छूट दी पर बेटी पर हजार अंकुश लगाए. बेटों की उपलब्धियों पर हर्षित हुई पर बेटी की खूबियों को नजरअंदाज किया. बेटों की हर इच्छा पूरी की पर बेटी की हर अभिलाषा पर तुषारापात किया. बेटे उस की गोद में चढ़े रहते या उस की बांहों में झूलते पर वीणा के लिए न उस की गोद में जगह थी न उस के हृदय में. बेटे और बेटी में उस ने पक्षपात क्यों किया था? एक औरत हो कर उस ने औरत का मर्म क्यों नहीं जाना? वह क्यों इतनी हृदयहीन हो गई थी? बेटी के विवर्ण मुख को याद कर उस के आंसू बह चले. वह मन ही मन रो कर बोली, ‘बेटी, तू जल्दी होश में आ जा. मुझे तुझ से बहुतकुछ कहनासुनना है. तुझ से क्षमा मांगनी है. मैं ने तेरे साथ घोर अन्याय किया. तेरी सारी खुशियां तुझ से छीन लीं. मुझे अपनी गलतियों का पश्चात्ताप करने दे.’

आज उसे इस बात का शिद्दत से एहसास हो रहा था कि जानेअनजाने उस ने और उस के पति ने बेटी के प्रति पक्षपात किया. उस के हिस्से के प्यार में कटौती की. उस की खुशियों के आड़े आए. उस से जरूरत से ज्यादा सख्ती की. उस पर बचपन से बंदिशें लगाईं. उस पर अपनी मरजी लादी. वीणा ने भी कठपुतली के समान अपने पिता के सामंती फरमानों का पालन किया. अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं का दमन कर उन के इशारों पर चली. ढकोसलों, कुरीतियों और कुसंस्कारों से जकड़े समाज के नियमों के प्रति सिर झुकाया. फिर एक पुरुष के अधीन हो कर उस के आगे घुटने टेक दिए. अपने अस्तित्व को मिटा कर अपना तनमन उसे सौंप दिया. फिर भी उस की पूछ नहीं थी. उस की कद्र नहीं थी. उस की कोई मान्यता न थी.

प्रतीक्षाकक्ष में बैठेबैठे अहल्या की आंख लग गई थी. तभी भास्कर आया. वह उस के लिए घर से चायनाश्ता ले कर आया था. ‘‘मांजी, आप जरा रैस्टरूम में जा कर फ्रैश हो लो, तब तक मैं यहां बैठता हूं.’’

अहल्या नीचे की मंजिल पर गई. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर निकली थी कि एक अनजान औरत उस के पास आई और बोली, ‘‘बहनजी, अंदर जो आईसीयू में मरीज भरती है, क्या वह आप की बेटी है और क्या वह भास्करजी की पत्नी है?’’ ‘‘हां, लेकिन आप यह बात क्यों पूछ रही हैं?’’

‘‘एक जमाना था जब मेरी बेटी शोभा भी इसी भास्कर से ब्याही थी.’’ ‘‘अरे?’’ अहल्या मुंहबाए उसे एकटक ताकने लगी.

‘‘हां, बहनजी, मेरी बेटी इसी शख्स की पत्नी थी. वह इस के साथ कालेज में पढ़ती थी. दोनों ने भाग कर प्रेमविवाह किया, पर शादी के 2 वर्षों बाद ही उस की मौत हो गई.’’ ‘‘ओह, यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ.’’

‘‘हां, अगर उस की मौत किसी बीमारी की वजह से होती तो हम अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उस का वियोग सह लेते. उस की मौत किसी हादसे में भी नहीं हुई कि हम इसे आकस्मिक दुर्घटना समझ कर मन को समझा लेते. उस ने आत्महत्या की थी. ‘‘अब आप से क्या बताऊं. यह एक अबूझ पहेली है. मेरी हंसतीखेलती बेटी जो जिजीविषा से भरी थी, जो अपनी जिंदगी भरपूर जीना चाहती थी, जिस के जीवन में कोई गम नहीं था उस ने अचानक अपनी जान क्यों देनी चाही, यह हम मांबाप कभी जान नहीं पाएंगे. मरने के पहले दिन वह हम से फोन पर बातें कर रही थी, खूब हंसबोल रही थी और दूसरे दिन हमें खबर मिली कि वह इस दुनिया से जा चुकी है. उस के बिस्तर पर नींद की गोलियों की खाली शीशी मिली. न कोई चिट्ठी न पत्री, न सुसाइड नोट.’’

‘‘और भास्कर का इस बारे में क्या कहना था?’’ ‘‘यही तो रोना है कि भास्कर इस बारे में कुछ भी बता न सका. ‘हम में कोई झगड़ा नहीं हुआ,’ उस ने कहा, ‘छोटीमोटी खिटपिट तो मियांबीवी में होती रहती है पर हमारे बीच ऐसी कोई भीषण समस्या नहीं थी कि जिस की वजह से शोभा को जान देने की नौबत आ पड़े.’ लेकिन हमारे मन में हमेशा यह शक बना रहा कि शोभा को आत्महत्या करने को उकसाया गया.

ये भी पढ़ें- तुम ने मेरे लिए किया क्या: प्रसून के लिए उमाजी ने दी बड़ी कुरबानी

‘‘बहनजी, हम ने तो पुलिस में भी शिकायत की कि हमें भास्कर पर या उस के घर वालों पर शक है पर कोई नतीजा नहीं निकला. हम ने बहुत भागदौड़ की कि मामले की तह तक पहुंचें पर फिर हार कर, रोधो कर चुप बैठ गए. पतिपत्नी के बीच क्या गुजरती थी, यह कौन जाने. उन के बीच क्या घटा, यह किसी को नहीं पता. ‘‘हमारी बेटी को कौन सा गम खाए जा रहा था, यह भी हम जान न पाए. हम जवान बेटी की असमय मौत के दुख को सहते हुए जीने को बाध्य हैं. पता नहीं वह कौन सी कुघड़ी थी जब भास्कर से मेरी बेटी की मित्रता हुई.’’

अहल्या के मन में खलबली मच गई. कितना अजीब संयोग था कि भास्कर की पहली पत्नी ने आत्महत्या की. और अब उस की दूसरी पत्नी ने भी अपने प्राण देने चाहे. क्या यह महज इत्तफाक था या भास्कर वास्तव में एक खलनायक था? अहल्या ने मन ही मन तय किया कि अगर वीणा की जान बच गई तो पहला काम वह यह करेगी कि अपनी बेटी को फौरन तलाक दिला कर उसे इस दरिंदे के चंगुल से छुड़ाएगी.

वह अपनी साख बचाने के लिए अपनी बेटी की आहुति नहीं देगी. वीणा अपनी शादी को ले कर जो भी कदम उठाए, उसे मान्य होगा. इस कठिन घड़ी में उस की बेटी को उस का साथ चाहिए. उस का संबल चाहिए. देरसवेर ही सही, वह अपनी बेटी का सहारा बनेगी. उस की ढाल बनेगी. हर तरह की आपदा से उस की रक्षा करेगी. एक मां होने के नाते वह अपना फर्ज निभाएगी. और वह इस अनजान महिला के साथ मिल कर उस की बेटी की मौत की गुत्थी भी सुलझाने का प्रयास करेगी.

भास्कर जैसे कई भेडि़ये सज्जनता का मुखौटा ओढ़े अपनी पत्नी को प्रताडि़त करते रहते हैं, उसे तिलतिल कर जलाते हैं और उसे अपने प्राण त्यागने को मजबूर करते हैं. लेकिन वे खुद बेदाग बच जाते हैं क्योंकि बाहर से वे भले बने रहते हैं. घर की चारदीवारी के भीतर उन की करतूतें छिपीढकी रहती हैं. वह वापस प्रतीक्षाकक्ष में पहुंची तो उस ने देखा कि एक डाक्टर आईसीयू से निकल कर सीधा उस की तरफ आ रहा था. अहल्या के हृदय में धुकधुकी होने लगी. उस की आशान्वित नजरें उस डाक्टर पर टिक गईं.

ये भी पढे़ं- पूर्णाहुति: पति की आदतों से परेशान मणि ने जब किया घर छोड़ने का फैसला

अब और नहीं: आखिर क्या करना चाहती थी दीपमाला

Serial Story: अब और नहीं (भाग-1)

नन्हीगौरैया ने बड़ी कोशिश से अपना घोंसला बनाया था. घास के तिनके फुरती से बटोर कर लाती गौरैया को देख कर दीपमाला के होंठों पर मुसकान आ गई. हाथ सहज ही अपने पेट पर चला गया. पेट के उभार को सहलाते हुए वह ममता से भर उठी. कुछ ही दिनों में एक नन्हा मेहमान उस के आंगन में किलकारियां मारेगा. तार पर सूख रहे कपड़े बटोर वह कमरे में आ गई. कपड़े रख कर रसोई की तरफ मुड़ी ही थी कि तभी डोरबैल बजी.

‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गई?’’ घर में घुसते ही भूपेश ने पूछा.

‘‘आज मन नहीं किया काम पर जाने का. तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ दीपमाला ने जवाब दिया.

दीपमाला इस आस से भूपेश के पास खड़ी रही कि तबीयत खराब होने की बात जान कर वह परेशान हो उठेगा. गले से लगा कर प्यार से उस का हाल पूछेगा, मगर बिना कुछ कहेसुने जब वह हाथमुंह धोने बाथरूम में चला गया तो बुझी सी दीपमाला रसोई की ओर चल पड़ी.

शादी के 4 साल बाद दीपमाला मां बनने जा रही थी. उस की खुशी 7वें आसमान पर थी, मगर भूपेश कुछ खास खुश नहीं था. दीपमाला अकेली ही डाक्टर के पास जाती, अपने खानेपीने का ध्यान रखती और अगर कभी भूपेश को कुछ कहती तो काम की व्यस्तता का रोना रो कर वह अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता. वह बड़ी बेसब्री से दिन गिन रही थी. बच्चे के आने से भूपेश को शायद कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो जाए, शायद उस के अंदर भी नन्ही जान के लिए प्यार उपजे, इसी उम्मीद से वह सब कुछ अपने कंधों पर संभाले बैठी थी.

ये भी पढ़ें- टूटी चप्पल: क्या हुआ था अंजलि के साथ उस शादी में ?

कुछ ही दिनों की तो बात है. बच्चे के आने से सब ठीक हो जाएगा, यही सोच कर उस ने काम पर जाना नहीं छोड़ा. जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उस की और भूपेश की कमाई से घर मजे से चल रहा था. पार्लर की मालकिन दीपमाला के हुनर की कायल थी. एक तरह से दीपमाला के हाथों का ही कमाल था जो ग्राहकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई थी. दीपमाला के इस नाजुक वक्त में सैलून की मालकिन और बाकी लड़कियां उसे पूरा सहयोग देतीं. उस का जब कभी जी मिचलाता या तबीयत खराब लगती तो वह काम से छुट्टी ले लेती.

एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर भूपेश स्वभाव से रूखा था. उस के अधीन 2-4 लोग काम करते थे. उस के औफिस में एक पोस्ट खाली थी, जिस के लिए विज्ञापन दिया गया था. कंपनी में ग्राहक सेवा के लिए योग्यता के साथसाथ किसी मिलनसार और आकर्षक व्यक्तित्व की जरूरत थी.

एक दिन तीखे नैननक्शों वाली उपासना नौकरी के आवेदन के लिए आई. उस की मधुर आवाज और व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर और कुछ उस के पिछले अनुभव के आधार पर उस का चयन कर लिया गया. भूपेश के अधीनस्थ होने के कारण उसे काम सिखाने की जिम्मेदारी भूपेश पर थी.

उपासना उन लड़कियों में से थी जिन्हें योग्यता से ज्यादा अपनी सुंदरता पर भरोसा होता है. अब तक के अपने अनुभवों से वह जान चुकी थी कि किस तरह अदाओं के जलवे दिखा कर आसानी से सब कुछ हासिल किया जा सकता है. छोटे शहर से आई उपासना कामयाबी की मंजिल छूना चाहती थी. कुछ ही दिनों बाद वह समझ गई कि भूपेश उस पर फिदा है. फिर इस बात का वह भरपूर फायदा उठाने लगी.

उपासना का जादू भूपेश पर चला तो वह उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहने लगा. उपासना बहाने बना कर औफिस के कामों को टाल देती जिन्हें भूपेश दूसरे लोगों से करवाता. अकसर बेवजह छुट्टी ले कर मौजमस्ती करने निकल पड़ती. उसे बस उस पैसे से मतलब था जो उसे नौकरी से मिलते थे. साथ में काम करने वाले भूपेश के दबदबे की वजह से उपासना की हरकतों को नजरंदाज कर देते.

अपने यौवन और शोख अदाओं के बल पर उपासना भूपेश के दिलोदिमाग में पूरी तरह उतर गई. उस की और भूपेश की नजदीकियां बढ़ने लगीं. काम के बाद दोनों कहीं घूमने निकल जाते. उसे खुश करने के लिए भूपेश उसे महंगे तोहफे देता. आए दिन किसी पांचसितारा होटल में लंच या डिनर पर ले जाता. भूपेश का मकसद उपासना को पूरी तरह से हासिल करना था और उपासना भी खूब समझती थी कि क्यों भूपेश उस के आगेपीछे भंवरे की तरह मंडरा रहा है.

पहले भूपेश औफिस से घर जल्दी आता था तो दोनों साथ में खाना खाते, अब देर रात तक दीपमाला उस का इंतजार करती रहती और फिर अकेली ही खा कर सो जाती. कुछ दिनों से भूपेश के रंगढंग बदल गए थे. औफिस में भी सजधज कर जाता. उधर इन सब बातों से बेखबर दीपमाला नन्हें मेहमान की कल्पना में डूबी रहती. उस की दुनिया सिमट कर छोटी हो गई थी.

एक रोज धोने के लिए कपड़े निकालते वक्त उसे भूपेश की पैंट की जेब से फिल्म के 2 टिकट मिले. उसे थोड़ी हैरानी हुई. भूपेश फिल्मों का शौकीन नहीं था. कभी कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो दीपमाला ही जबरदस्ती उसे खींच ले जाती.

उस ने भूपेश से इस बारे में पूछा. टिकट की बात सुन कर वह कुछ सकपका गया. फिर तुरंत संभल कर उस ने बताया कि औफिस के एक सहकर्मी के कहने पर वह चला गया था. बात आईगई हो गई.

इस बात को कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन भूपेश के बटुए में दीपमाला को सुनार की दुकान की एक परची मिली. शंकित दीपमाला ने भूपेश के घर लौटते ही उस पर सवालों की बौछार कर दी.

उपासना को जन्मदिन में देने के लिए भूपेश ने एक गोल्ड रिंग बुक करवाई थी, लेकिन किसी शातिर अपराधी की तरह भूपेश उस दिन सफेद झूठ बोल गया. अपने होने वाले बच्चे का वास्ता दे कर.

उस ने दीपमाला को यकीन दिला दिया कि उस के दोस्त ने अपनी पत्नी को सरप्राइज देने के लिए ही परची उस के पास रखवाई है. इस घटना के बाद से भूपेश कुछ सतर्क रहने लगा. अपनी जेब में कोई सुबूत नहीं छोड़ता था.

ये भी पढ़ें- झुनझुना: क्यों लोगों का गुस्सा सहती थी रीना?

दीपमाला की डिलीवरी का समय नजदीक था. भूपेश ने उस के जाने का इंतजाम कर दिया. दीपमाला अपनी मां के घर चली आई. अपने मायके पहुंचने के कुछ दिन बाद ही दीपमाला ने एक बेटे को जन्म दिया. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस के दिनरात नन्हे अंशुल के साथ बीतने लगे. 4 दिन दीपमाला और बच्चे के साथ रह कर भूपेश औफिस में जरूरी काम की बात कह कर लौट आया. दीपमाला के न रहने पर वह अब बिलकुल आजाद पंछी था. उस की और उपासना की प्रेमलीला परवान चढ़ रही थी. औफिस में लोग उन के बारे में दबीछिपी बातें करने लगे थे, मगर भूपेश को अब किसी की परवाह नहीं थी. वह हर हालत में उपासना का साथ चाहता था.

कुछ महीने बीते तो दीपमाला ने भूपेश को फोन कर के बताया कि वह अब घर आना चाहती है. जवाब में भूपेश ने दीपमाला को कुछ दिन और आराम करने की बात कही. दीपमाला को भूपेश की बात कुछ जंची नहीं, मगर उस के कहने पर वह कुछ दिन और रुक गई. 3 महीने बीतने को आए, मगर भूपेश उसे लेने नहीं आया तो उस ने भूपेश को बताए बिना खुद ही आने का फैसला कर लिया.

आगे पढ़ें- दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक…

ये भी पढ़ें- तुम ने मेरे लिए किया क्या: प्रसून के लिए उमाजी ने दी बड़ी कुरबानी

Serial Story: अब और नहीं (भाग-2)

दरवाजे की घंटी पर बड़ी देर तक हाथ रखने पर भी जब दरवाजा नहीं खुला तो दीपमाला को फिक्र होने लगी. ‘आज इतवार है. औफिस नहीं गया होगा. दरवाजे पर ताला भी नहीं है. इस का मतलब कहीं बाहर भी नहीं गया है. तो फिर इतनी देर क्यों लग रही है उसे दरवाजा खोलने में?’ वह सोचने लगी.

कंधे पर बैग उठाए और एक हाथ से बच्चे को गोद में संभाले वह अनमनी सी खड़ी थी कि खटाक से दरवाजा खुला.

एक बिलकुल अनजान लड़की को अपने घर में देख दीपमाला हैरान रह गई. वह कुछ पूछ पाती उस से पहले ही उपासना बिजली की तेजी से वापस अंदर चली गई. भूपेश ने दीपमाला को यों इस तरह अचानक देखा तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उस के माथे पर पसीना आ गया.

उस का घबराया चेहरा और घर में एक पराई औरत को अपनी गैरमौजूदगी में देख दीपमाला का माथा ठनका. गुस्से में दीपमाला की त्योरियां चढ़ गईं. पूछा, ‘‘कौन है यह और यहां क्या कर रही है तुम्हारे साथ?’’

भूपेश अपने शातिर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा. उपासना उस के मातहत काम करती है, यह बताने के साथ ही उस ने दीपमाला को एक झूठी कहानी सुना डाली कि किस तरह उपासना इस शहर में नई आई है. रहने की कोई ढंग की जगह न मिलने की वजह से वह उस की मदद इंसानियत के नाते कर रहा है.

ये भी पढ़ें- पूर्णाहुति: पति की आदतों से परेशान मणि ने जब किया घर छोड़ने का फैसला

‘‘तो तुम ने यह मुझे फोन पर क्यों नहीं बताया? तुम ने मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं समझा कि हमारे साथ कोई रह सकता है या नहीं?’’

‘‘यह आज ही तो आई है और मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि तुम ने आ कर मुझे चौंका दिया. और देखो न मुझे तुम्हारी और मुन्ने की कितनी याद आ रही थी,’’ भूपेश ने उस की गोद से ले कर अंशुल को सीने से लगा लिया. दीपमाला का शक अभी भी दूर नहीं हुआ कि तभी उपासना बेहद मासूम चेहरा बना कर उस के पास आई.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए, मेरी वजह से आप लोगों को तकलीफ हो रही है. वैसे इस में इन की कोई गलती नहीं है. मेरी मजबूरी देख कर इन्होंने मुझे यहां रहने को कहा. मैं आज ही किसी होटल में चली जाती हूं.’’

‘‘इस शहर में बहुत से वूमन हौस्टल भी तो हैं, तुम ने वहां पता नहीं किया?’’ दीपमाला बोली.

‘‘जी, हैं तो सही, लेकिन सब जगह किसी जानपहचान वाले की गारंटी चाहिए और यहां मैं किसी को नहीं जानती.’’

भूपेश और उपासना अपनी मक्कारी से दीपमाला को शीशे में उतारने में कामयाब हो गए. दीपमाला उन दोनों की तरह चालाक नहीं थी. उपासना के अकेली औरत होने की बात से उस के दिल में थोड़ी सी हमदर्दी जाग उठी. उन का गैस्टरूम खाली था तो उस ने उपासना को कुछ दिन रहने की इजाजत दे दी.

भूपेश की तो जैसे बांछें खिल गईं. एक ही छत के नीचे पत्नी और प्रेमिका दोनों का साथ उसे मिल रहा था. वह अपने को दुनिया का सब से खुशनसीब मर्द समझने लगा.

दीपमाला के आने के बाद भूपेश और उपासना की प्रेमलीला में थोड़ी रुकावट तो आई पर दोनों अब होशियारी से मिलतेजुलते. कोशिश होती कि औफिस से भी अलगअलग समय पर निकलें ताकि किसी को शक न हो. दीपमाला के सामने दोनों ऐसे पेश आते जैसे उन का रिश्ता सिर्फ औफिस तक ही सीमित हो.

दीपमाला घर की मालकिन थी तो हर काम उस की मरजी से होता

था. थोड़े ही अंतराल बाद उपासना उस की स्थिति की तुलना खुद से करने लगी थी. उस के तनमन पर भूपेश अपना हक जताता था, मगर उन का रिश्ता कानून और समाज की नजरों में नाजायज था. औफिस में वह सब के मनोरंजन का साधन थी, सब उस से चुहल भरे लहजे में बात करते, उन की आंखों में उपासना को अपने लिए इज्जत कम और हवस ज्यादा दिखती थी.

समाज में पत्नी का दर्जा क्या होता है, भूपेश और दीपमाला के साथ रहते हुए उसे इस बात का अंदाजा हो गया था. दीपमाला की जो जगह उस घर में थी वह जगह अब उपासना लेना चाहती थी. वह सोचने लगी आखिर कब तक वह भूपेश की खेलने की चीज बन कर रहेगी. कभी न कभी तो भूपेश इस खिलौने से ऊब जाएगा. उपासना को अब अपने भविष्य की चिंता होने लगी.

भूपेश के पास ओहदा और पैसा दोनों थे. उस के साथ रह कर उपासना को अपना भविष्य सुनहरा लग रहा था. उस ने अब अपना दांव फेंकना शुरू किया. वह भूपेश पर दीपमाला को तलाक देने का दबाव डालने लगी. शातिर दिमाग भूपेश को घरवाली और बाहरवाली दोनों का सुख मिल रहा था. वह शादी के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता था. उस ने उपासना को कई तरीकों से समझाने की कोशिश की तो वह जिद पर अड़ गई. उस ने भूपेश के सामने शर्त रख दी कि या तो वह दीपमाला को तलाक दे कर उस से शादी करे या फिर वह सदा के लिए उस से अपना रिश्ता तोड़ लेगी.

ये भी पढ़ें- चक्कर हारमोंस का: मंजु के पति का सीमा के साथ चालू था रोमांस

कंटीली चितवन और मदमस्त हुस्न की मालकिन उपासना को भूपेश कतई नहीं छोड़ना चाहता था. उस ने उपासना से कुछ दिन की मोहलत मांगी.

एक रात दीपमाला की नींद अचानक खुली तो उस ने पाया भूपेश बिस्तर से नदारद

है. दीपमाला को बातचीत की आवाजें सुनाई दीं तो वह कमरे से बाहर आई. आवाजें उपासना के कमरे से आ रही थीं. दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था. एक झिरी से दीपमाला ने अंदर झांका. बिस्तर पर उपासना और भूपेश सिर्फ एक चादर लपेटे हमबिस्तर थे. दोनों इतने बेखबर थे कि उन्हें दीपमाला के वहां होने का भी पता नहीं चला.

उस दृश्य ने दीपमाला को जड़ कर दिया. उस की हिम्मत नहीं हुई कुछ देर और वहां रुकने की. जैसे गई थी वैसे ही उलटे पांव कमरे में लौट आई. आंखों से लगातार आंसू बहते जा रहे थे. उस की नाक के नीचे ये सब हो रहा था और वह बेखबर रही. वह यकीन नहीं कर पा रही थी कि इतना बड़ा विश्वासघात किया दोनों ने उस के साथ.

दीपमाला के दिल में नफरत का ज्वारभाटा उछाल मार रहा था. उस के आंसू पोंछने वाला वहां कोई नहीं था. दिमाग में बहुत से विचार कुलबुलाने लगे. अगर अभी कमरे में जा कर दोनों को जलील करे तो उस का मन शांत हो और फिर वह हमेशा के लिए यह घर छोड़ कर चली जाए. फिर उसे खयाल आया कि वह क्यों अपना घर छोड़ कर जाए. यहां से जाएगी तो उपासना जिस ने उस के सुहाग पर डाका डाला. अपने सोते हुए बच्चे पर नजर डाल दीपमाला ने खुद को किसी तरह सयंत किया और फिर एक फैसला ले लिया.

आगे पढ़ें- दीपमाला को नींद में बेखबर समझ…

ये भी पढ़ें- वह मेरे जैसी नहीं है: स्नेहा को आशीर्वाद क्यों देती थी मां

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें