Serial Story: रहने दो इन सवालों को (भाग-1)

‘भाइयो और बहनो, मैं अदना सा गगन त्रिपाठी, महान बांदा जिले के लोगों का अभिवादन करता हूं. यहां राजापुर गांव में गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म ले कर देश के इस हिस्से की धरती को तर दिया था. वहीं, यह जिला मशहूर शायर मिर्जा गालिब का कितनी ही बार पनाहगार रहा है. उसी बांदा जिले के बाश्ंिदों को अच्छेबुरे की मैं क्या तालीम दूं? वे खुद ही जानते हैं कि इस जिले का समुचित विकास कौन कर सकेगा, हिंदूमुसलिम एकता को बरकरार रख दोनों की तहजीबों को कौन सही इज्जत देगा, यमुना को प्रदूषण से कौन बचाएगा, केन नदी की धार को कौन फसलों की उपज के बढ़ाने के काम में लाएगा. कहिए भाइयोबहनो, कौन करेगा ये सब?’ गगन चीरने वाले नारों के बीच गगन त्रिपाठी का चेहरा दर्प से दमकने लगा. सभी ऊंची आवाजों में दोहरा रहे थे, गगन त्रिपाठी जिंदाबाद, लोकहित पार्टी जिंदाबाद.

भीड़ में पहली लाइन की कुरसी पर बैठा 13 साल का मृगांक पिता के ऊंचे आदर्शों और महापुरुषों से संबंधित बातों को अपने जज्बातों में शिद्दत से पिरो रहा था. वह पिता गगन त्रिपाठी के संबोधनों और भाषणों से खूब प्रेरित होता है. अकसर उन के भाषणों में गांधी, ज्योतिबा फूले और मदर टेरेसा का जिक्र होता, वे इन के कामों की प्रशंसा करते, लोगों से उन सब की जीवनधारा को अपनाने की अपील करते. बांदा जिले के प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार से है मृगांक. उस के दादाजी पुलिस विभाग में अफसर थे. मृगांक के पिता गगन त्रिपाठी को नौकरी में रुचि नहीं थी.

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गगन त्रिपाठी के होने वाले ससुरजी की राजनीतिक पैठ के चलते मृगांक के दादा के पास उन का आनाजाना लगा रहता, सरकारी अफसरशाही से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश. इधर, पिता के अफसरी अनुशासन की वजह से गगन त्रिपाठी अपने पिता से कुछ खिंचे से रहते. घर आतेजाते भावी ससुरजी को गगन में उन का पसंदीदा राजनीतिज्ञ नजर आया. उन्होंने देर किए बिना, गनन त्रिपाठी के पिता को मना कर अपनी बेटी की घंटी गगन के गले में बांध दी और उस के फुलटाइम ट्रेनर हो गए.

समय के साथ राजनीति में माहिर होते गगन त्रिपाठी विधायक बन गए. साल गुजरे. बेटी हुई, 18 साल की उस के होते ही दौलतमंद व्यवसायी के साथ उस की शादी कर दी. पारिवारिक मर्यादा अक्षुण्ण रखने के लिए उसे 10वीं से ज्यादा नहीं पढ़ाया गया. अभी बड़ा बेटा 27 वर्ष का था, पिता की राजनीति में विश्वस्त मददगार और भविष्य का राजनीतिविद, पिता की नजरों में कुशल और उन के दिशानिर्देशों के मर्म को समझने वाला. बड़े बेटे की पढ़ाई कालेज की यूनियन और राजनीतिक चुनावों के गलियारों में ही संपन्न हो गई.

मृगांक अभी 23 वर्ष का था, पढ़ाई, खेलकूद में अव्वल, विरोधी किस्म के सवाल खड़े करने वाला, कम शब्दों में गहरी बातें कहने वाला, मां का लाड़ला, पिता की दुविधा बढ़ाने वाला. मृगांक के स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद गगन त्रिपाठी की ओर से उस पर कलैक्टर बनने का जोर आ पड़ा. घरभर में इस बात की चर्चा दिनोंदिन जोर पकड़ रही थी. एक दिन पिताजी की ओर से मृगांक के लिए बुलावा आया. बुलावे

का अर्थ मृगांक भलीभांति समझ रहा था. 2 मंजिले पुश्तैनी मकान के बीचोंबीच संगमरमरी चबूतरा, आंगन में कई सारे पौधे लगे थे. गगन त्रिपाठी नाश्ते से निवृत हो आंगन में रखी आरामकुरसी पर बैठे थे. सुबह 9 बजे का वक्त था. 55 वर्ष की उम्र, गोरा रंग धूप में ताम्रवर्ण, कदकाठी ऊंची और बलिष्ठ, खालिस सफेद कुरता, चूड़ीदार पजामे पर भूरे रंग का जैकेट. वे तैयार बैठे थे, कहीं निकलना था, शायद. मृगांक सामने आ खड़ा हुआ. पिता के प्रति सम्मान और अबोला डर था लेकिन हृदय में पिता की सात्विकता और आदर्श को ले कर बड़ा गहरा विश्वास था. इस के पहले पिता से जब भी उस की बातें होतीं, वे अकसर उस की पढ़ाई व सेहत की बेहतरी के साथ बड़ा आदमी बनने की नसीहत देते.

आज उस के भविष्य के स्वप्नों की जिरह थी. पिता की सुननी थी, अपनी कहनी भी थी. उस ने पिता की नजरों में देखा. पिता के आसन से गगन त्रिपाठी बोले, ‘‘तो आप कलैक्टर बनने की तैयारी को ले कर क्या फैसला ले रहे हैं? आप पढ़ने में अच्छे हैं. हम उम्मीद लगाए हैं कि आप कलैक्टर बन कर हमारी पार्टी और परिवार का भला करेंगे. पुरानी पार्टी हम ने छोड़ दी है. अब हमारी अपनी पार्टी को सरकारी बल चाहिए. आप का इस बारे में न कहना हम पसंद नहीं करेंगे.’’

मंच के भाषण और पत्रकारों के जवाबों से अलग यह सुर मृगांक को अवाक कर गया. क्या अलग परिस्थितियों में राजनेता की सोच अलगअलग होती है? वास्तव में कौन है-पिता या गगन त्रिपाठी? या कि पिता का वास्तविक रूप यही है जो अभीअभी वह देख रहा है. सफल होना और सार्थक होना दोनों अलग बातें हैं, क्यों नहीं लोग सार्थक होने की भी पहल करें. मृगांक के दिल में आंदोलन के तूफान उठने शुरू हुए. वह स्थिर और भावहीन खड़ा रहा फिर भी.

पिता ने आगे कहा, ‘‘बेटा ऐसा हो जो पिता का सहारा बने. जैसा कि आप के अंदाज से लग रहा है, आप अपने मन की करना चाहते हैं. ऐसा है, तो आप को मुझ से सचेत रहना चाहिए.’’ बेटे के रूप में जिस गगन त्रिपाठी ने खुद के पिता की इच्छाओं को किनारे कर दिया, अब मृगांक के लिए उन की बातें कुछ और ही थीं. विशुद्ध राजनीतिज्ञ की तरह एक पिता कहता गया, ‘‘मेरे लोग कई बार आप के बारे में खबर दे चुके हैं कि बिना सोचेसमझे आप लोगों के बीच संत बने फिरते हैं. दूसरे वार्डों, तहसीलों में उन लोगों की मदद कर आते हैं जिन्होंने दूसरी पार्टी के लोगों को जिताया. समझ रहे हैं मेरी बात आप?’’

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यह पहला अवसर था जब वह पिता को भलीभांति समझने का प्रयास कर रहा था. इस के पहले वह जो देखतासुनता आया था, गहरे विश्वास की लकीर पर चल कर फकीर बना बैठा था. मृगांक कितना भी कोमल हृदय क्यों न हो, था तो खानदानी पूत ही. वह सख्त हुआ. यह बात और थी कि इस अड़े हुए घोड़े को वह कौन सी दिशा दे. विनम्रता में भी उस ने ठसक नहीं छोड़ी, कहा, ‘‘पिताजी, मैं जो भी सोचता हूं कुछ सोचसमझ कर ही. आप की सलाह मैं ने सुन ली है. अगर मैं कलैक्टर बन भी जाता हूं तो सिवा न्याय और सचाई के, किसी को नाजायज लाभ न दे पाऊंगा. कानों में मेरे न्याय के लिए चीखते लोगों की गूंज होगी तो मैं उन्हें अनसुना कर के न खुद ऐयाशी कर सकता हूं, न दूसरे को ऐयाशी करने में मदद कर सकता हूं.’’

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Serial Story: रहने दो इन सवालों को (भाग-2)

अचानक क्रोध से फट पड़े गगन त्रिपाठी. उन्होंने कहा, ‘‘अरे मूर्ख सम्राट, जो आदर्श का पाठ मैं पढ़ाता रहा हूं, वह राजनीति की बिसात थी. शिकार के लिए फैलाए दानों को तो तू ने भूख का इलाज ही बना लिया. दूर हो जा मेरे सामने से. जिस दिन दिमाग ठिकाने आए, मेरे सामने आना.’’

आराम से सभ्य शब्दों में बातें करने वाले, लोगों को पिघला कर मक्खन बनाने वाले गगन त्रिपाठी बेटे की बातों से इतने उतावले हो चुके थे कि उन की लोकलुभावन बाहरी परत निकल गई थी. वे असली चेहरे के साथ अब बाहर थे. क्यों न हो, यह तो आस्तीन में ही सांप पालने वाली बात हो गई थी न. राजनीति की इतनी सीढि़यां चढ़ने में उन के दिमाग के पुरजेपुरजे ढीले हो गए थे. और फिर सशक्त खेमे वाले विरोधियों को पछाड़ कर ऊंचाई पर बने रहने की कूवत भी कम माने नहीं रखती.

इधर एक भी ईंट भरभरी हुई, तो पूरी मीनार के ढहने का अंदेशा हो जाता है. बेटे तो नींव की ईंटें हैं, चूलें हिल जाएंगी. यह अनाड़ी तो बिना भविष्य बांचे दरदर लोगों की भलाई किए फिरता है. दिमाग ही नहीं लगाता कि जहां भलाई कर रहा है वहां फायदा है भी या नहीं. न जाति देखता, न धर्म, न विरोधी पार्टी, न विरोधी लोग. कोई भेदविचार नहीं. सत्यवादी हरिश्चंद्र सा आएदिन सत्य उगल देता है जो अपनी ही पार्टी के लिए खतरे का सिग्नल बन जाता है. सो, क्यों न इस लड़के को यहां से निकाल कर इलाहाबाद भेज दिया जाए. कम से कम इस से उस का भला हो न हो, पार्टी को नुकसान तो कम होगा. ऐसे भी इस लड़के के आसार सुख देने वाले तो लगते नहीं. काफीकुछ भलेबुरे का सोच गगन त्रिपाठी बेटे मृगांक को आईएएस की तैयारी करने के लिए इलाहाबाद छोड़ आए. जिस के पंख निकले ही थे दूसरों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए, वह क्या दूसरों के पंख कुतरेगा खुद की भलाई के लिए?

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मृगांक इलाहाबाद में भी अपने ही तौरतरीकों में रम गया. इतिहास में पीएचडी करते हुए विश्वविद्यालय में ही प्रोफैसर हो गया. आईएएस की कोचिंग से निसंदेह उस में ज्ञान के प्रति ललक बढ़ी थी और मानव जीवन के प्रति जिज्ञासा भी. लिहाजा, सामाजिक कार्यों की उस की फेहरिस्त बड़ी लंबी थी. 29 वर्ष की अवस्था में वह 700 मुकदमे लड़ रहा था जो उपभोक्ता संरक्षण से ले कर सड़क परिवहन व्यवस्था में सुरक्षा की अनदेखी, शिक्षा के गिरते स्तरों में प्राइवेट स्कूलों की उदासीनता और सरकारी स्कूलों में लापरवाही तथा देहव्यापार में लिप्त लोगों को कानूनी दायरे में ला कर सजा दिलवाने व इस व्यापार में लगी मासूम बच्चियों के संरक्षण वगैरा के मामले थे. प्रोफैसर की नौकरी बजाते हुए अकेले ही कुछ अच्छे लोगों के सहयोग से वह इन कामों को आगे बढ़ा रहा था. हां, उस के दादाजी का कभी पुलिस विभाग में होना उसे पहचान का लाभ जरूर देता था. न जाने पहचान का लाभ लोग किसकिस वजह लेते हैं, मृगांक के लिए तो यह लाभ सिर्फ सर्वजनहिताय था.

5 फुट 10 इंच की लंबाई के साथ बलिष्ठ कदकाठी में सांवला रंग आकर्षण पैदा करता था उस में. रूमानी व्यक्तित्व में निर्विकार भाव. दिनभर क्लास, फिर दोपहर 3 बजे से शाम 8 बजे तक भागादौड़ी और रात अपनी छोटी सी कोठरी में अध्ययन, चिंतन, मनन व निद्रा. घरपरिवार, राजनीति, रिश्तों के मलाल, आदेशनिर्देश, लाभनुकसान सब पीछे छूट गए थे.

शादी के लिए घर वालों ने कितनी ही लड़कियों की तसवीरें भेजीं, मां ने कितने ही खत लिखे. दीदी ने सैकड़ों बार फोन किए. मगर मृगांक की आंखें लक्ष्य पर अर्जुन सी टिकी रहीं. उधर, बांदा में पिता की राजनीतिक ताकत और बड़े भाई का राजपाट मृगांकनुमा बाधा के बिना बेरोकटोक फलफूल रहे थे. भाई की पत्नी ऊंचे घराने की बेटी थी जो बेटा पैदा कर के ससुर की आंखों का तारा बन बैठी थी.

जिंदगी की रफ्तार तेज थी, एकतरफ लावलश्कर के साथ ठसकभरी जिंदगी, दूसरी तरफ मृगांक के कंधों पर जमानेभर का दर्द. मगर सब अपनी धुन में रमे थे. मृगांक भी लक्ष्य की ओर दौड़ रहे थे मगर निजी जिंदगी से बेखबर.

इन दिनों उस ने ‘नवलय’ संस्थान की शुरुआत की. दरअसल, देहव्यापार से मुक्त हुई लड़कियां काफी असुरक्षित थीं. एक तरफ उन लोगों से इन्हें खतरा था जो इन्हें खरीदबेच रहे थे. दूसरे, घर परिवार इन लड़कियों को सहज स्वीकार नहीं करते थे, जिन के लिए अकसर वे अपनी जिंदगियां दांव पर लगाती रही थीं. ऐसे में मृगांक खुद को जिम्मेदार मान इन लड़कियों की सुव्यवस्था के लिए पूरी कोशिश करता. नवलय इन असुरक्षित लड़कियों का सुरक्षित आसरा था. मृगांक ने बांदा जिले के चिल्लाघाट की रिजवाना को कल घर पहुंचाने की जिम्मेदारी ली थी. इस बहाने वह मां से भी मिल लेगा. कई साल हो गए थे घर गए हुए. बड़े भाई का बेटा भी अब 7 साल का हो चुका था.

शाम 5 बजे जब वह नवलय आया, तो नीम के पेड़ के पास खड़े हो कर रिजवाना को घुटघुट कर सुबकते देखा. वह संस्थान के औफिस में जा कर बैठ तो गया लेकिन मन उस का रिजवाना की ओर ही लगा रहा. अपने औफिसरूम से अब भी वह रिजवाना और उस की उदास भंगिमा को देख पा रहा था. चेहरा मृगांक का जितना ही पौरुष से भरा था, भावनाएं उस की उतनी ही मृदुल थीं. रसोइए कमल को बुला कर कहा कि वह रिजवाना को बुला लाए. रिजवाना की रोनी सूरत देख वैसे तो उस का मिजाज उखड़ गया था, सो जरा सी डपट के साथ समझाने के लहजे में उस ने कहा, ‘‘जब घर से बाहर आ ही गई हो, काफी मुसीबतें झेल भी चुकी हो, तो अब रोना क्या? अब तो हम तुम्हारे घर जा ही रहे हैं.’’

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गहरी चुप्पी. ‘‘क्यों, कुछ कहोगी?’’

चुप्पी… ‘‘देखो, मैं थप्पड़ जड़ दूंगा,’’ थकामांदा मृगांक आजकल कुछ चिड़चिड़ा सा हो रहा था. मृगांक के मुख से यह सुनते ही गुस्से से भर रिजवाना ने मृगांक की तरफ देखा. रोने से आंखें कुछ सूजी हुई थीं, मगर दृष्टि स्पष्ट. गोरे से रक्तिम चेहरे पर अनगिनत भाव, जिन में स्वाभिमान सब से मुखर था. तीखे नैननक्श, गोलाई में नुकीला चेहरा, ठुड्डी तक हीरे सी कटिंग. मृगांक के कंधे तक उस की ऊंचाई. दुबली ऐसी, कि वक्त की रेत ने चंचल नदी के किनारों को पाट दिया हो जैसे. नदी आधी जरूर हो गई थी, मगर प्यार और संभाल की बारिश मिले तो वह आबाद हो जाए.

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Serial Story: रहने दो इन सवालों को (भाग-3)

मृगांक का गुस्सा उस के रूमानी नखरों के बीच काफूर हो गया. मन ही मन उस ने कहा, ‘वाह.’ एक मिनट तक दोनों एकदूसरे की ओर देखते रहे. मृगांक ने चुप्पी तोड़ी, कहा, ‘‘क्या बात है, मुझ से कहो. यहां की सारी बच्चियों के लिए मैं ही पिता, मैं ही मां. तुम्हारी भी अगर…’’

‘‘मेरे हिस्से का रिश्ता मुझे तय करने दीजिए. जरूरी नहीं कि तुरंत 2 व्यक्तियों को किसी रिश्ते के नाम में बांध ही दिया जाए.’’ रिजवाना की इन बातों में बड़ी कशिश थी. वह क्या अनछुआ सा था अब तक जिसे छूने की प्यास सताने लगी मृगांक को. कभी ऐसा महसूस तो नहीं हुआ था उसे, आज क्यों…?

मृगांक ने मुसकराते हुए उस की तरफ देखा, फिर कहा, ‘‘क्यों दुखी हो, मुझ से कहो.’’ तड़पती सी वह धीरे से बोली, ‘‘मैं अपने घर चिल्लाघाट नहीं जाऊंगी. बच्ची को ले कर वहां जाऊंगी तो घर वाले तो क्या, पूरे गांव वाले कच्चा चबा जाएंगे.’’

मृगांक को बड़ा तरस आया उस पर. पूछा, ‘‘क्या हुआ था तुम्हारे साथ? मैं ने पुलिस की दबिश डलवा कर तुम 15 लड़कियों को जहां से छुड़ाया, वह तो नरक से कुछ कम नहीं था. इन में से कई लड़कियां असम, बिहार और पश्चिम बंगाल से लाई गई हैं. तुम और 3 दूसरी लड़कियां उत्तर प्रदेश की हो. ये लोग दुबई आदि जगहों पर शेखों के पास तुम जैसी लड़कियों को बेच देते हैं.’’

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‘‘3 महीनों से हमें इलाहाबाद में रखा हुआ था. हमारे साथ यहां बहुत बुरा सुलूक होता था. करंट देने से ले कर कोड़े बरसाने तक. 3-4 दिनों तक खाना नहीं देना, सब के सामने कपड़े फाड़ डालना, मारना, पीटना आदि.’’ रिजवाना की बातें सुन कर मृगांक की आंखों में दर्द भर आया. उस ने तड़प कर पूछा, ‘‘क्यों?’’

रिजवाना जमीन की ओर देखती, कहती गई, ‘‘ग्राहक के साथ सोने की जबरदस्ती, पैसे वे लोग रखेंगे, हम बस उन के गुलाम. जब तक हम कहीं और न बिकें, उन के लाए ग्राहकों को खुश करें. और उन्हें भी.’’ मृगांक ने पूछा, ‘‘तुम घर से निकल कर उन तक पहुंची कैसे?’’

‘‘आप को मालूम होगा, बांदा जिले में शजर पत्थरों के नक्काशीदार गहने बड़े भाव से बिकते हैं. मैं शजर पत्थरों से गहने बनाती थी, रोजीरोटी के लिए. ‘‘घर में मुझे मिला कर 3 बहनें थीं. एक भाई भी. अब्बा कौटन मिल में मजदूरी करतेकरते फेफड़े की बीमारी से चल बसे. भाई काम पर तो जाता लेकिन उम्र कम होने की वजह से मजदूरी नहीं मिलती थी. बहनों को घर पर काम होता था. 4 साल पहले जब मैं 16 साल की थी, सोचा शजर पत्थरों से गहने अच्छी बनाती हूं, क्यों न शहर में बेचा करूं, पैसे आएंगे.

‘‘चिल्लाघाट से बांदा मुख्य बाजार आने के लिए बस पर चढ़ी, तभी अचानक किसी ने नाक पर रूमाल रख दिया. जब होश आया, खुद को होटल के कमरे में 4 लोगों के साथ पाया. कोठे में बेच दी गई. बेटी शीरी वहीं हुई. ‘‘अचानक उस कोठे पर पुलिस और महिला सुरक्षा संस्थान की दबिश पड़ी तो कोठे की मालकिन ने इन लोगों के हाथों हम 15 लड़कियों को बेच दिया था. हम महीनेभर से यहीं इलाहाबाद में थे.’’

‘‘चलो, एकबार कोशिश करते हैं. तुम्हारे घर वालों तक तुम्हें पहुंचाना मेरा काम है. स्वीकार न किए जाने पर नवलय तो है ही.’’ केन नदी के किनारे से मृगांक की जीप दौड़ती जा रही थी.

भुरागढ़ किला और विंध्य पठारों के पास से गुजरती जीप पर बैठे रिजवाना और मृगांक किले को ही एकटक देख रहे थे. मृगांक ने पूछा, ‘‘जानती हो इस भुरागढ़ किले के बारे में?’’ रिजवाना उदासीन थी, कहा, ‘‘ज्यादा नहीं, आप ही बताइए.’’

‘‘महाराजा धनसाल के बेटे जगत राई और उन के बेटे थे किराट सिंह. उन्हीं किराट सिंह ने यह किला बनवाया था. 1857 में नवाब अली बहादुर ने यहीं से ब्रिटिश अधीनता के विरुद्ध बिगुल फूंका था.’’

‘‘हूं,’’ रिजवाना दूर काली मिट्टी और उस पर उपजे सरसों, मटर, गेहूं के खेतों में कहीं खो गई थी. यमुना और केन की मिलनरेखा दूर से दिखने लगी थी. चिल्लाघाट आने को था, शाम की सुरमई शांति में दूर से फाग गीतों के धुन कानों में पड़ रहे थे. धर्म के मोह से ऊपर उठ कर फाग ने यौवन की मादकता को पुकारा था.

रिजवाना बचपन के दिनों की इस मनोरम जगह पर मृगांक की उपस्थिति से प्रफुल्लित सी सिहर गई. गोद में बच्ची और गांवघर के लोगों का अचानक खयाल आना उसे मायूस कर गया. रिजवाना के छोटे से घरआंगन में तब दीपक की रोशनी टिमटिमा रही थी. दोनों बहनें खाना बना रही थीं. भाई चारपाई पर लेटा था. बहन को देख दोनों बहनें दौड़ी आईं. लेकिन रिजवाना की गोद में बच्ची को देख दोनों ठिठक गईं. भाई चारपाई से उठ बैठा. मगर, बस बैठा देखता रहा. दोनों बहनें मां को बुला लाईं जो अंदर कढ़ाई और कशीदे का काम कर रही थीं. मृगांक के साथ उस की अम्मी की बातों का सार यही रहा कि एक बेटी के चलते शबाना और अमीना, जिन का निकाह होना लगभग तय है, की जिंदगियों पर पानी फिर जाएगा. ऊपर से इस की गोद में हराम की औलाद. गांव वाले हुक्कापानी बंद कर देंगे. ऐसे भी, बेटी की गुमशुदगी से कम जिल्लतें नहीं हुई हैं.

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मृगांक समझ गया कि दाल नहीं गलेगी. कम से कम सुबह तक तो ठहरें. इलाहाबाद से बांदा तक 7 घंटे के सफर के बाद अब रात को वापस जाना मुमकिन नहीं. इधर, रिजवाना को ले कर या छोड़ कर अपने घर जाना भी संभव नहीं. अम्मी ने रातभर के लिए खाना भी मुहैया कराया और पनाह भी. सुबह दोनों निकलने वाले ही थे कि चिल्लाघाट पंचायत के 4 लोग दनदनाते सुबह 7 बजे इन के घर पहुंच गए. एक ने चीखा, ‘‘अंदर नापाक औरत के साथ क्या गुल खिला रहे हो, मृगांक बाबू? इतने बड़े नेता के बेटे हो कर भगोड़ी के साथ नापाक रिश्ता?’’

वे लोग रिजवाना को अब तक बाहर खींच लाए थे. रिजवाना की अम्मी दहाड़े मार कर रोने लगीं. बहनों ने उन्हें डपटा, तो चुप हो गईं. मृगांक ने बाहर आ कर उन्हें रोकने के लिए कहा, ‘‘क्यों मासूम परिवार को सता रहे हो आप लोग? मुझे अपने पिताजी के काम से अब कोई मतलब नहीं.’’

पंचायत के एक आदमी ने कहा, ‘‘सात घाट का पानी पीने के लिए घर से भाग खड़ी हुई और अब नापाक हो कर वापस लौटी है. हमारे मजहब में ऐसी औरतों को बागी मान कर सजा के लायक माना गया है.’’ इतना कहते हुए उन लोगों ने उस की चुन्नी नीचे खींच दी और उस के हाथों को मरोड़ कर खुद के करीब ले आए. मृगांक ने झपट कर रिजवाना को अपने पास खींचा और चीखा, ‘‘शर्म नहीं आती लड़की की इज्जत उतार कर गांव की इज्जत बचा रहे हो?’’

‘‘बात आप के पिताजी तक पहुंचेगी. आप लड़की हमें सौंप दें तो हम आप को और आप के इस लड़की के साथ ताल्लुकात को हजम कर जाएंगे.’’ ‘‘नापाक कौन है मैं समझ नहीं पा रहा- लड़की को सौंप दूं- ताकि आप शौक से इस की बोटी नोचें. कह दें गगन त्रिपाठीजी से, मुझे कोई दिक्कत नहीं,’’ मृगांक ने साफ कहा.

आगे पढें- दोनों के रिश्तों के बारे में इतने…

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Serial Story: रहने दो इन सवालों को (भाग-4)

वे दोनों इलाहाबाद वापस आ गए थे. दोनों के रिश्तों के बारे में इतने कसीदे काढ़े गए थे कि गगन त्रिपाठी और उन के बड़े बेटे शशांक आपे से बाहर हो गए. रिश्तेदारों में मृगांक के सामाजिक कामों को ले कर बड़ी छीछालेदार हुई. अब लेदे कर वेश्या ही बची थी, सपूत ने वह भी पूरा कर दिया. जातिबिरादरीधर्म सबकुछ उजड़ गया था त्रिपाठीजी का. ब्राह्मण बिरादरी गगन त्रिपाठी पर बड़ा गर्व करती थी. कैसा दिमाग चला कर सत्ता के करीबी हो गया उन की ही बिरादरी का व्यक्ति. गगन त्रिपाठी अपनी जातिबिरादरी के गर्व थे. अब बेटे ने कुजात की लड़की की संगत कर के धर्मभ्रष्ट कर दिया. गगन त्रिपाठी जितना सोचते, उन का पारा उतना सातवें आसमान पर पहुंच जाता. सदलबल बड़े बेटे को साथ ले वे इलाहाबाद पहुंच गए.

नवलय संस्थान पर त्रिपाठीजी और उन के लोगों का जब धावा पड़ा तब मृगांक के वापस आने में एक घंटा बाकी था. उन के इस तरह यहां आने से यहां की दीदियां घबरा गईं. सहयोगी नेकराम ने मृगांक को फोन लगाया. जब तक मृगांक यहां पहुंचे, शशांक रिजवाना के कमरे में घुस आया था.

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रिजवाना के कमरे में 3 और लड़कियां थीं, जिन्हें बाहर कर दिया गया था. शशांक बुरी तरह रिजवाना को जलील कर रहा था और उसे शारीरिक चोट भी पहुंचाई थी. मृगांक तुरंत रिजवाना को अपनी तरफ खींचते हुए अभी कुछ कहता, उस से पहले गगन त्रिपाठी मृगांक पर बुरी तरह चीखे, ‘‘क्या रासलीला चल रही है यहां मुसलिम वेश्या के साथ?’’ साफ शब्दों में मगर ऊंची आवाज में मृगांक ने कहा, ‘‘मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप लोग मुझे इतना अपना समझते हैं कि यहां तक पहुंच जाएंगे. नीति, ज्ञान और सचाई को सीढ़ी बना कर आप लोगों ने लोगों के सरल विश्वास का जितना बलात्कार किया है उतना ही इन मासूम लड़कियों के साथ हुआ है. छोटी बच्चियों को मांस के भाव खरीदबिक्री करने वाले लोग भी आप जैसे हैं और उन की बोटी नोचने वाले भी आप जैसे. धर्म की आड़, कभी जाति की आड़, कभी संस्कृति की आड़ में बस लोगों के झांसे में आने की देर है, आप उन के विश्वास का शोषण भी करते हैं और उन के उद्धार करने का श्रेय भी स्वयं लेते हैं.’’

गगन त्रिपाठी की पूरी पौलिश उतर चुकी थी. वे क्रोधित हो सभी को ले वहां से निकल गए. उन के जाने के बाद रिजवाना की ओर देखा मृगांक ने. मृगांक की तरफ पीठ कर के वह बगीचे में शांति से खड़े पेड़ों को देख रही थी. फल हो या छाया, हमेशा सबकुछ लुटाने को तैयार थे पेड़, मगर हमेशा हर व्यवहार को सहन कर जाने को विवश भी. उस की पीठ की आधी फटी कुरती की ओर नजर गई मृगांक की. शशांक ने कुरती को फाड़ डाला था. झक गोरी पीठ पर झुलसे हुए इलैक्ट्रिक शौक के दाग. मृगांक करुणा से भर उठा. अब तक छोटी बच्चियों के प्रति उस के मन में हमेशा पिता सा वात्सल्य रहा. लेकिन रिजवाना ने अपनी दृष्टि से मृगांक की अनुभूतियों को विराग से रागिनी के मदमाते निर्झर की ओर मोड़ दिया था.

नेहभरे स्वर में पुकारा उस ने, ‘‘रिजवाना.’’ वह अब तक खिड़की के पास खड़ी बाहर देख रही थी. पुकारते ही आंखों में मूकभाषा लिए अपनी मुखर दृष्टि उस की आंखों में डाल दी.

मृगांक ने पूछा, ‘‘बताओगी तुम्हारी पीठ पर जो झुलसे हुए दाग हैं, क्या ये उन्हीं दरिंदों की वजह से हैं.’’

‘‘हां, भूखे भेडि़यों के आगे शरीर न डालने की बेकार कोशिशों का नतीजा. और भी हैं, पेट के पास,’’ यह कह कर उस ने अपनी कमीज उठा कर दिखाई. फिर धीरे से कहा, ‘‘जाने क्यों मैं आप के सामने खुद को बहुत महफूज समझती हूं. लगता है जैसे…’’ और उस ने सिर झुका लिया. रिजवाना के अनकहे शब्दों की गरमी मृगांक के जज्बातों को पिघलाने लगी. मृगांक स्थिर नेत्रों से उस की ओर देखता रहा. एक नशा सा छाने लगा, कहा, ‘‘और कहो.’’ ‘‘मैं आप के पास रहना चाहती हूं हमेशा के लिए. जानती हूं, यह कहां मुमकिन होगा- आप ब्राह्मण और मैं मुसलमान, वह भी मैं बदनाम.’’

‘‘बस, यह मत कहो. जाति, धर्म और पेशे से इंसान कभी इंसान नहीं होता, न कोई इन्हें मानने से पाक होता है. जो दिल दूसरों के दर्द में पसीजे और दूसरों को हमेशा अपने प्रेम के काबिल समझे, बराबर समझे, वहीं इंसान है. और इस लिहाज से तुम पाक हो, प्यार के काबिल हो. लेकिन, एक दिक्कत है.’’ यह सुन कर आंखों में रिजवाना के खुशियां तैरने लगी थीं. अचानक वह खुशियों में डूबने लगी, पूछा, ‘‘क्या?’’

‘‘मैं तुम से उम्र में 20 साल बड़ा हूं. तुम्हारे साथ जुल्म न हो जाएगा? कैसे चाह सकोगी मुझे?’’ ‘‘सच कहूं तो उम्र का यह फासला आप की शख्सियत में रूमानियत भरता है.’’

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उस ने अपनी आंखें झुका लीं. मृगांक ने अपनी दोनों बांहें उस की ओर पसार दीं. रिजवाना अपने दोनों बाजुओं के घेरे में मृगांक को ले कर खुद उस में समा गई. एक महीने के भीतर ही दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली. दोनों मिल कर नवलय का काम देखने लगे. इन दोनों की शादी की बात गगन त्रिपाठी तक पहुंच चुकी थी. गगन त्रिपाठी अब सांसद बनने की तैयारी में थे, बड़ा बेटा विधायक. ब्राह्मण की ऊंची नाक की इस बेटे ने ऐसीतैसी कर दी तो सीधा असर वोटबैंक पर आ पड़ा. कम से कम मुसलिम वोट और देहव्यापार तथा नाचगाने करने वाली औरतों के वोट गगन त्रिपाठी को मिल जाएं तो ब्राह्मण वोट के खिसकने का दर्द कुछ कम हो. इस बीच, ब्राह्मण वोटर मान जाएं तो वारेन्यारे.

गगन त्रिपाठी सदलबल पहुंच गए चिल्लाघाट. पंचायतसभा बुलाई गई. रिजवाना के भाई को नौकरी, गांव में 2 हैंडपंप, बिजली की व्यवस्था तत्काल करवाई गई.

पंचायत और मुसलिम समाज के साथ चर्चा कर के इस नतीजे पर पहुंचा गया कि रिजवाना गांव की बेटी है, जब इस गांव की बेटी गगन त्रिपाठी के घर की बहू बन गई है तो उसे बदनाम औरत न समझ, पूरी इज्जत बख्शी जाए. अगर त्रिपाठी की पार्टी को जिताने का वादा किया जाए तो गांव के लोगों की मुंहमांगी मुराद पूरी होगी.

उधर, मुसलिम भाई, जो रिजवाना के साथ हाथापाई में उतरे थे, अब उस की बदौलत बांदा की कुछ मुख्य सीटों पर त्रिपाठी की पार्टी से खुद के भाईभतीजों को उतारना चाहते थे, आपस में जबरदस्त गठबंधन.

मृगांक और रिजवाना को हिंदुमुसलिम एकता का प्रतीक बना कर चुनावी रणनीति तैयार होने लगी. बड़ेबड़े होर्डिंग्स में दोनों की तसवीरें लग गईं. उन दोनों को सार्वजनिक चुनावी सभा में उपस्थित होने का निमंत्रण भेजा गया.

मंच पर आज मृगांक, रिजवाना और उस की बेटी शीरी उपस्थित थे. काफी लुभावने भाषणों के बाद मृगांक की बारी आई. उस ने माइक संभाला, कहा, ‘‘आज जो भी मैं कहूंगा, जरूरी नहीं कि उस से सब के मनोरथ पूरे हो पाएं. मैं ने रिजवाना से इसलिए शादी नहीं की कि मुझे हिंदूमुसलिम एकता के झंडे गाड़ने थे. सच कहूं तो जातिधर्म को ले कर मैं कोई भेद महसूस नहीं करता, जो जोड़ने की जुगत करूं. उस का मुसलिम होना, मेरा हिंदू होना सबकुछ सामान्य है मेरे लिए, जैसे इंसान होना. यह भी नहीं कि लाचार औरत पर मैं ने कोई कृपा बरसाई है. उस ने मुझे पसंद किया, मैं ने उसे. उम्र का फासला उसे डिगा नहीं पाया और हम एक हो गए. और हमारी बेटी, जो उस के किसी पाप का नतीजा नहीं है, हमदोनों के

प्रेम में माला सी है. मेरे पिता मुझे हमेशा बड़ा आदमी बनने की नसीहत देते थे. उन्हें अफसोस होगा उन के हिसाब से मैं बड़ा नहीं बन पाया.’’

रिजवाना की गोद से मृगांक ने बच्ची को लिया, रिजवाना का हाथ पकड़ा और स्टेज से उतर कर दोनों ने राह पकड़ी अपने तरीके से अपनी दुनिया बसाने. पीछे भीड़ देखती रही किंकर्तव्यविमूढ़ सी.

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Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस

 

 

Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस (भाग-1)

अमन ने सब से पहले श्रद्धा को एक बस स्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों के साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबू  झ कर अमन उसी समय बस स्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को ही तलाश रही थीं. उसे दूर से आती श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

ऐसा 2-3 दिन तक लगातार होता रहा. अमन उसी समय पर उसी बस स्टौप पर पहुंचता जहां वह होती थी. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन के बगल वाले बस स्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. श्रद्धा सीढि़यां चढ़ती हुई तीसरे फ्लोर पर जा कर रुकी. यह एक ऐडवरटाईजिंग कंपनी का औफिस था. वह उस में दाखिल हो गई.

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अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, ‘‘भैया,

अभी जो मैडम अंदर गई हैं वे यहां की मैनेजर हैं क्या?’’

‘‘जी वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी ऐडिटर हैं. आप बताइए क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?’’

‘‘जी हां मैं मिलना चाहता हूं,’’ अमन ने कहा.

‘‘ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं.’’ कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में लौट आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के कैबिन तक ले गया. कैबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई तो अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया.

श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी. उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, ‘‘जी हां बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी ऐडिटर भी हैं. सो आप से कुछ ऐड्स भी लिखवाने थे.’’

‘‘मगर मैं ही क्यों?’’ श्रद्धा ने पूछा तो अमन को कोई जवाब नहीं सू  झा.

फिर कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रैफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ की थी.’’

‘‘चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप की मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटैंड कर सकते हैं.’’

‘‘जी मीटिंग में मैनेजर नहीं बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें. प्लीज.’’

‘‘ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.’’

अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और लौट आया मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही अमन मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर स्वत: ही मुसकान खिल गई. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए, मगर अमन श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिन बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, ‘‘इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज एक बार पूरा पढ़ लो फिर जवाब देना.’’

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श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, ‘मैं लव एट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर तुम्हें बस स्टैंड पर पहली नजर देखते ही तुम्हें दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?’

श्रद्धा ने पलकें उठा और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, ‘‘बस स्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मु  झे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रोपोजल स्वीकार करती हूं,’’ कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्र्म से   झुक गईं. उधर अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शरमीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और 1 बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी, जबकि श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलियत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी भी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी.

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Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस (भाग-2)

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.

शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा,

‘‘बेटा रिवाज है कि नई बहू रसोई में पहले कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तु  झे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.’’

इस पर श्रद्धा ने बड़े आदर के साथ सास की बात का विरोध करते हुए कहा, ‘‘मम्मीजी, मैं कुक के बनाए तरहतरह के व्यंजनों के बजाय अपना बनाया हुआ साधारण पर हैल्दी खाना पसंद करती हूं. प्लीज, मु  झ से किचन में काम करने का मेरा अधिकार मत छीनिएगा.’’

उस की बात सुन कर सास को कुछ अटपटा सा लगा. भाभियों ने भी भवें चढ़ा लीं. छोटी भाभी ने व्यंग्य से कहा, ‘‘श्रद्धा यह तुम्हारा छोटा सा घर नहीं है जहां खुद ही खाना बनाना पड़े. हमारे यहां बहुत सारे नौकरचाकर और रसोइए दिनरात काम में लगे रहते हैं.’’

बाद में भी घर में भले ही कुक तरहतरह के व्यंजन तैयार करते रहते, मगर वह अपने हाथों का बना साधारण खाना ही खाती और अमन भी उस के हाथ का खाना ही पसंद करने लगा था. अमन को श्रद्धा के खाने की तारीफें करता देख दोनों भाभियों ने भी अपने हाथों से कुछ आइटम्स बना कर अपनेअपने पति को रि  झाने का प्रयास किया. फिर तो अकसर ही दोनों भाभियां किचन में दिखने लगी थीं.

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श्रद्धा भले ही अपना छोटा सा घर छोड़ कर बड़े बंगले में आ गई थी, मगर उस के रहने के तरीकों में कोई परिवर्तन नहीं आया था. उस ने अपने कमरे के बाहर वाले बरामदे में एक टेबलकुरसी डाल कर उसे स्टडी रूम बना लिया था. कंप्यूटर, प्रिंटर, टेबल लैंप आदि अपनी टेबल पर सजा लिए. अमन के कहने पर एक छोटा सा फ्रिज भी उस ने साइड में रखवा लिया. बरामदा बड़ा था और शीशे की खिड़कियां लगी थीं. वह बाहर का नजारा देखते हुए बहुत आराम से अपना काम करती. जब दिल करता खिड़कियां खोल कर हवा का आनंद लेती. बरामदे के कोने में 3-4 छोटे गमलों में पौधे भी लगवा दिए.

भले ही उस की अलमारियां लेटैस्ट स्टाइल के कपड़ों और गहनों से भरी हुई थीं, मगर वह अपनी पसंद के साधारण मगर कंफर्टेबल कपड़ों में ही रहना पसंद करती थी.

शानदार बाथ टब होने के बावजूद वह शावर के नीचे खड़ी हो कर नहाती. तरहतरह के शैंपू होने के बावजूद मुलतानी मिट््टी से बाल धोती. कभी हेयर ड्रायर या अन्य ऐसी चीजों का इस्तेमाल नहीं करती.

घर में कई सारी कीमती गाडि़यों के होते हुए भी वह पहले की तरह बस से औफिस आतीजाती रही. बस स्टैंड पर उतर कर 10 मिनट वाक कर के औफिस पहुंचने की आदत बरकरार रखी.

पहले दिन जब वह बस से औफिस जा रही थी तो तुषिता ने टोका, ‘‘भाभी, हमारे घर में इतनी गाडि़यां हैं. कोई क्या कहेगा कि इतने बड़े खानदान की नईनवेली बहू बस से औफिस जा रही है.’’

‘‘तुषि में बस से औफिस मजबूरी में नहीं जा रही हूं, बल्कि इसलिए जा रही हूं ताकि मेरी दौड़नेभागने और वाक करने की आदत बनी रहे. बचपन से ही मु  झे शरीर को जरूरत से ज्यादा आराम देने की आदत नहीं रही है. वैसे भी बस में आप 10 लोगों से इंटरैक्ट करते हो. आप का प्रैक्टिकल नौलेज बढ़ता है. इस में गलत क्या है?’’

‘‘जी गलत तो कुछ नहीं,’’ मुंह बना कर तुषिता ने कहा और अंदर चली गई.

श्रद्धा ने अपने कमरे में से तमाम ऐसी चीजें निकाल कर बाहर कर दीं जो केवल

शो औफ के लिए थीं या लग्जरियस लाइफ के लिए जरूरी थीं. जब श्रद्धा अपने कमरे से कुछ सामान बाहर करवा रही थी तो सास ने सवाल किया, ‘‘यह क्या कर रही हो बहू?’’

‘‘मम्मीजी मु  झे कमरा खुलाखुला सा अच्छा लगता है. जिन चीजों की जरूरत नहीं उन्हें हटा रही हूं. आप ही बताइए नकली फूलों से सजे इस कीमती फ्लौवर पौट के बजाय क्या मिट्टी का यह गमला और इस में मनी प्लांट का पौधा अच्छा नहीं लग रहा? बाजार से खरीदे गए इन शोपीसेज के बजाय मैं ने अपने हाथ की कुछ कलात्मक चीजें दीवार पर लगा दी हैं. आप कहें तो हटा दूं वैसे मु  झे तो अच्छे लग रहे हैं.’’

‘‘नहींनहीं रहने दो. दूसरों को भी तो पता चले कि हमारी छोटी बहू में कितने हुनर हैं,’’ कह कर सास ने चुप्पी लगा ली.

श्रद्धा ने खुद को अपनी मिट्टी से भी जोड़े रखा था. सुबह उठ कर ऐक्सरसाइज करना, घास पर नंगे पांव चलना, गार्डनिंग करना, कुकिंग करना, वाक करना आदि उस की पसंदीदा गतिविधियां थीं. अमन के कहने पर उस ने स्विमिंग करना और कार चलाना जरूर सीख लिया था, मगर दैनिक जीवन में इन से दूर ही रहती. शाम को समय मिलने पर डांस करती तो सुबहसुबह साइकिल ले कर निकल पड़ती. पैसे भले ही कितने भी आ जाएं, मगर फालतू पैसे खर्च नहीं करती.

उस की ये हरकतें देख कर अमन की दोनों भाईभाभियां, बहन और मांबाप कसमसा कर रह जाते पर कुछ कह नहीं पाते, क्योंकि श्रद्धा शिकायत के लायक कुछ भी गलत नहीं करती थी.

इधर एक दिन जब दोनों भाभियां सास के साथ किट्टी पार्टी में जाने के लिए

सजधज रही थीं तो सास ने श्रद्धा से भी चलने को कहा.

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इस पर श्रद्धा ने जवाब दिया, ‘‘मम्मीजी, आज तो मैं एक लैक्चर अटैंड करने जा रही हूं. संदीप महेश्वरी की मोटिवेशनल स्पीच का प्रोग्राम है. सौरी मैं आप के साथ नहीं जा पाऊंगी.’’

श्रद्धा को प्यार और आश्चर्य से देखते हुए सास ने कहा, ‘‘दूसरों से बहुत अलग है तू. पर सही है. मु  झे तेरी बातें कभीकभी अच्छी लगती हैं. एक दिन मैं भी चलूंगी तेरे साथ लैक्चर सुनने. पर आज किट्टी पार्टी का ही प्लान है. मेरी सहेली ने अरेंज किया है न.’’

‘‘जी मम्मीजी जरूर,’’ कह कर श्रद्धा मुसकरा पड़ी.

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Serial Story: बैस्ट बहू औफ द हाउस (भाग-3)

श्रद्धा की आदतों और हरकतों से चिढ़ने वाली सास, ननद और भाभियां धीरेधीरे उसी के रंग में रंगती चली गईं. अब वे भी अकसर कार अवौइड कर देतीं. घर की पार्किंग में महंगी कारों के साथ अब छोटी कारें भी खड़ी हो गईं. सास और भाभियां कई बार उस के साथ लैक्चर अटैंड करने पहुंचने लगीं. उन्हें भी सम  झ आ रहा था कि किट्टी पार्टीज में गहनेकपड़ों का शो औफ करने या बिचिंग करने में समय बरबाद करने के बजाय बहुत अच्छा है नई बातें जानना और जीवन को दिशा देने वाले लैक्चर व सेमिनार अटैंड करना, ज्ञान बढ़ाना, किताबें पढ़ना और कलादीर्घा जैसी जगहों में जाना.

श्रद्धा ने कुछ किताबें और पत्रिकाएं खरीद उन्हें अपने कमरे की एक छोटी सी अलमारी में करीने से लगा दिया था. पर धीरेधीरे जब किताबों और पत्रिकाओं की संख्या बढ़ने लगी तो अमन के कहने पर उस ने घर के एक कमरे को एक छोटी सी लाइब्रेरी का रूप दे दिया और सारी किताबें व पत्रिकाएं वहां सजा दीं. अब तो परिवार के दूसरे सदस्य भी आ कर वहां बैठते और शांति व सुकून के साथ पत्रिकाएं और किताबें पढ़ते.

श्रद्धा से प्रभावित हो कर घर धीरेधीरे घर का माहौल बदलने लगा था. दोनों भाभियों ने कुक को हटा कर खुद ही किचन का काम संभाल लिया तो सास ने भी घर के माली का हिसाब कर दिया. अब सासबहू मिल कर गार्डनिंग करते. श्रद्धा की देखादेखी भाभियां खुद कपड़े धोने, प्रैस करने और घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारियां निभाने लगी थीं. तुषिता भी अपने छोटेमोटे सारे काम खुद निबटा लेती.

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इस तरह के परिवर्तनों का एक सकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि परिवार के सदस्य अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकदूसरे के साथ बिताने लगे. खाना बनाते समय जहां दोनों भाभियों, सास और श्रद्धा को आपस में अच्छा समय बिताने का मौका मिलता तो वहीं घर के सभी सदस्य प्यार से एक ही डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाना खाने लगे. खाने की तारीफें होने लगीं. घर की बहुओं को और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलने लगा. इसी तरह गार्डनिंग के शौक ने सास के साथ श्रद्धा का बौंड बेहतर कर दिया. अब तुषिता भी गार्डनिंग में रुचि लेने लगी थी. ननद और सास के साथ श्रद्धा इन पलों का खूब आनंद लेती.

इसी तरह शौपिंग के लिए नौकरों को भेजने के बजाय श्रद्धा खुद अमन को ले कर पैदल बाजार तक जाती. मौल के बजाय वह लोकल मार्केट से सामान लेना पसंद करती. फलसब्जियां भी खुद ही ले कर आती. श्रद्धा को देख कर बाकी दोनों भाभियां भी संडे शाम को अकसर अपनी पति को ले कर शौपिंग के लिए निकलने लगीं. उन्हें अपने पति के साथ समय बिताने का अच्छा मौका मिल जाता था.

समय के साथ परिवार के सभी सदस्यों को नौकरों पर निर्भर रहने के बजाय खुद अपना काम करने की आदत पड़ चुकी थी. घर में प्यार और शांति का माहौल था. व्यापार पर भी इस का सकारात्मक प्रभाव पड़न. उन का व्यापार चमचमाने लगा. बड़ेबड़े और्डर मिलने लगे. दूरदूर तक उन के आउटलेट्स खुलने लगे. हर तरह के पारिवारिक, व्यावसायिक और सामाजिक विवाद समाप्त हो चले थे.

श्रद्धा के अच्छे व्यवहार का नतीजा था कि रिश्तेदारों और पड़ोसियों के साथ उन के संबंध और भी ज्यादा सुधरने लगे थे. किसी रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ घर के किसी सदस्य का विवाद होता तो श्रद्धा उसे सम  झाती. उस की गलतियों की तरफ ध्यान दिलाती. सम  झाती कि पड़ोसियों और रिश्तेदारों से अच्छे रिश्ते के लिए थोड़ा गम खा लेना और एकदूसरे को माफ कर देना भी जरूरी होता है. इस से रिश्ते गहरे हो जाते हैं. श्रद्धा की सोच और उस के व्यवहार का तरीका घर के सभी सदस्यों पर असर डाल रहा था. उन की जिंदगी बदल रही थी.

इसी दौरान एक दिन शाम के समय सास का फोन आया. वह काफी घबराई हुई

आवाज में बोली, ‘‘श्रद्धा, बेटा तू जल्दी से सिटी हौस्पिटल आ जा. तेरी अलका भाभी का ऐक्सीडैंट हो गया है. वह तुषिता के साथ स्कूटी पर जा रही थी तभी किसी ने टक्कर मार दी. अलका को बहुत गहरी चोट लगी है. मैं और तुषिता हौस्पिटल में हैं. तेरे दोनों जेठ आज बिजनैस के सिलसिले में नोएडा गए हुए हैं. उन को आने में देर हो जाएगी. अमन भी लगता है मीटिंग में है. फोन नहीं उठा रहा.’’

‘‘कोई नहीं मां आप घबराओ नहीं. मैं अभी आती हूं.’’

श्रद्धा तुरंत कैब कर सिटी हौस्पिटल पहुंच गई. अलका के सिर में गहरी चोट लगी थी. काफी खून बह गया था. उसे तुरंत औपरेट करना था. खून भी चढ़ाना था. श्रद्धा ने तुरंत डाक्टर से अपना खून देने की बात की, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ पौजिटिव’ था.

फटाफट सारे काम हो गए. श्रद्धा अपनी चैकबुक साथ लाई थी. डाक्टर ने क्व2 लाख जमा करने को कहा तो उस ने तुरंत जमा कर दिए.

शाम तक घर के बाकी लोग भी हौस्पिटल पहुंच गए थे. अलका अभी आईसीयू में ही थी. उसे होश नहीं आया था. अगले दिन डाक्टर्स ने कहा कि अलका अब खतरे से बाहर है मगर अभी उस के एक पैर की सर्जरी भी होनी है, क्योंकि इस दुर्घटना में उस के एक पैर के घुटने से नीचे वाली हड्डी डैमेज हो गई थी सो उसे भी औपरेट करना. आननफानन में यह काम भी हो गया. 1 सप्ताह हौस्पिटल में रह कर अलका घर आ गई. मगर अभी भी उसे करीब 2 महीने बैडरैस्ट पर रहना था.

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ऐसे समय में श्रद्धा ने अलका की सारी जिम्मेदारी उठा ली. उस ने औफिस से 15 दिनों की छुट्टी ले ली. अलका के सारे काम वह अपने हाथों से करती. यहां तक कि उस के बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना, स्कूल से लाना, पढ़ाना, खिलानापिलाना सब श्रद्धा करने लगी. औफिस जौइन करने के बाद भी वह सारी जिम्मेदारियां बखूबी उठाती रही. हालांकि अब तुषिता भी यथासंभव उस की मदद करती.

धीरेधीरे यह कठिन समय भी गुजर गया. अलका अब ठीक हो गई थी. सारा परिवार श्रद्धा के व्यवहार की तारीफ करते नहीं थक रहा था. उस ने अपने प्यार भरे व्यवहार से सब को अपना मुरीद बना लिया था.

कई महीनों बाद जब अलका ठीक हो गई तो सासससुर ने घर में ग्रैंड पार्टी रखी और उस में अपनी बहू श्रद्धा को ‘बैस्ट बहू औफ द हाउस’ का अवार्ड दे कर सम्मानित किया. घर का हर सदस्य आज मिल कर श्रद्धा के लिए तालियां बजा रहा था.

तुम ने मेरे लिए किया क्या: प्रसून के लिए उमाजी ने दी बड़ी कुरबानी

Serial Story: तुम ने मेरे लिए किया क्या (भाग-3)

उमाजी ने अपनी योजना के अनुसार सब को शीशे में उतारने के बाद मान्या पर ध्यान देना शुरू किया. प्रसून अब जल्दीजल्दी आने लगा था. इशारेइशारे में उमाजी ने सब को बता दिया था कि प्रसून मान्या के साथ शादी करने को तैयार है, साथ ही आयुष को भी अपना बेटा मान लेगा.

मदनजी और निशिजी के मन में मान्या की शादी के बारे में सोच कर लड्डू फूटने लगे थे. प्रसून जब भी आता उस का ज्यादा समय आयुष के साथ ही बीतता. उस के लिए तरहतरह के खिलौने ले कर आता. उसे पार्क में भी ले जाता. उस के लिए वीडियोगेम ले आता. दोनों साथसाथ वीडियोगेम खेलते.

एक दिन आयुष तोतली आवाज में मान्या से बोला, ‘‘मम्मा, प्रसून अंकल बहुत अच्छे हैं. मेरे साथ वीडियोगेम खेलते हैं.’’

बच्चे की बात मान्या के दिल को छू गई. परंतु मान्या अभी भी अपने को तैयार नहीं कर पा रही थी. यद्यपि प्रसून के आकर्षण से वह भी नहीं बच पाई थी. वह प्रसून को मन ही मन चाहने लगी थी परंतु उस ने कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उस के प्रभावशाली व्यक्तित्व और लच्छेदार बातों में वह खो जाती थी.

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उन दोनों के बीच पनपते हुए रिश्ते पर निशिजी पूरी निगाह रखती थीं. एक दिन मान्या को टटोलने के लिए बोलीं, ‘‘यह प्रसून कुछ ज्यादा ही आयुष के करीब आता जा रहा है. आयुष तो बच्चा है. अंकल अंकल कर के उस से लिपटा रहता है. मुझे तो अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मां इस में परेशान होने की क्या बात है? प्रसून अकेला है, इसलिए बच्चे के साथ अपना मन बहला लेता है.’’

शुरू में आयुष को कभीकभी आइसक्रीम खिलाने ले जाता था. फिर उस ने मान्या को भी ले जाना शुरू कर दिया. 1-2 बार वह डिनर पर भी ले गया, यद्यपि उमाजी भी साथ होती थीं, परंतु करीबी तो बढ़ ही रही थी.

एक दिन उमाजी निशिजी से बोलीं, ‘‘बहन, यदि दोनों शादी के लिए तैयार हो जाएं तो कितना अच्छा हो. दोनों ही एक बार धोखा खा चुके हैं, इसलिए दोनों के हक में अच्छा होगा. मुझे तो आयुष की लगती है… प्रसून उस पर किस कदर जान छिड़कता है.’’

निशिजी हां में हां मिलाती हुई बोली थीं कि वे भी यही चाहती हैं कि दोनों आपस में बंध जाएं और आयुष को भी पापा की कमी पूरी हो जाए.

वे मन ही मन सोचने लगीं कि प्रसून के कामधाम की जानकारी करना जरूरी है. क्या पता पहले की तरह यह भी गड़बड़ निकले.

उन्होने एक दिन मदनजी से कहा, ‘‘आप एक बार पुणे जा कर इस की प्लेसमैंट एजेंसी के बारे में अच्छी तरह पता कर लीजिए. उस के बाद ही हम लोग मान्या के साथ इस का रिश्ता करने की बात करेंगे.’’

मदनजी भी बेटी के अकेलेपन को देख परेशान रहते थे. उन्हें भी प्रसून हर तरह से अच्छा दिखाई दे रहा था. अत: उन्होंने गुपचुप तरीके से पुणे जाने का निश्चय किया, परंतु तेज दिमाग उमाजी और प्रसून ने उन के जाने की तारीख और फ्लाइट का पता कर लिया था.

प्रसून ने उन्हें एअरपोर्ट पर ही रिसीव कर लिया और मात्र थोड़ी देर के लिए अपने औफिस ले गया. उन्हें अपना आलीशान फ्लैट भी दिखा दिया. उन्हें बड़ी गाड़ी में घुमाता रहा. पांचसितारा होटल में लंच करवाया.

मदनजी को किसी दूसरे के पास फटकने का प्रसून ने मौका ही नहीं दिया. सीधेसरल मदनजी प्रसून के वैभवपूर्ण जीवन को देख बेटी के भविष्य को ले कर आश्वस्त हो गए. अब उन्हें प्रसून और मान्या के मिलनेजुलने पर कोई आपत्ति नहीं थी वरन वे स्वयं ऐसे मौके बनाते थे कि दोनों एकदूसरे से मिलजुल कर आपस में अच्छी तरह रिश्ता मजबूत कर लें. प्रसून जब भी दिल्ली आता आयुष के लिए कुछ न कुछ उपहार जरूर लाता. अब वह मान्या के लिए भी कुछ लाने लगा था.

मदन और निशिजी दोनों ने मन ही मन उन के रिश्ते को स्वीकार कर लिया था. इसी बीच मान्या का बर्थडे आया. वह बोली, ‘‘मां, आप प्रसून से या आंटी से मेरे बर्र्थडे का जिक्र मत करना, नहीं तो ये लोग फिर मेरे लिए कोई गिफ्ट ले आएंगे. बारबार गिफ्ट लेना मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

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लेकिन प्रसून तो मौका तलाशता रहता था. उस ने चुपचाप सरप्राइज पार्टी का इंतजाम कर लिया. पार्टी में उस ने उन के सभी परिचितों और रिश्तेदारों को इनवाइट किया.

शाम को उमाजी उसे एक प्यारी सी डिजाइनर साड़ी देते हुए बोलीं, ‘‘चल इसे पहन कर आ जा. आज हम लोग फैमिली डिनर पर चलते हैं. आज तेरा बर्थडे मनाएंगे.’’

प्रसून के प्र्रति पनपते प्यार के कारण आज साड़ी देख कर मान्या का मन मचल उठा. आज वह मन से तैयार हुई थी. उस ने मन पसंद ज्वैलरी भी निकाल कर पहनी थी. आज वह बहुत खुश थी. तैयार होने के बाद अपना चेहरा आईने में देख वह स्वयं चौंक पड़ी थी. उसे अपना चेहरा बहुत प्यारा लग रहा था.

जब वह तैयार हो कर नीचे आई तो मां उसे देखते ही बोलीं, ‘‘आज भी मेरी बेटी कितनी सुंदर लगती है. भला कोई कह सकता है कि यह 5 वर्ष के बेटे की मां है,’’ उन की आंखें गीली हो उठी थीं.

प्रसून और उमाजी पहले ही जा चुके थे. मान्या अपनी मम्मी और पापा के साथ होटल पहुंची. आयुष तो उस का हाथ छुड़ा कर तुरंत प्रसून के पास पहुंच गया.

वहां बहुत बड़ी ग्रैंड पार्टी का आयोजन देख मान्या चौंक उठी थी. उस के रिश्तेदारों और परिचितों की भीड़ उसी के आने का इंतजार कर रही थी.

उस ने केक काटा तो पूरा हौल तालियों और हैप्पी बर्थडे की आवाज से गूंज उठा. वह गद्गद हो उठी थी. ऐसा बर्थडे तो उस के जीवन में कभी नहीं मना था. वह प्रसून के एहसानों तले कुछ ज्यादा ही दब गई.

यद्यपि प्रसून सब तरह से सही लग रहा था, फिर भी पता नहीं क्यों अपने बुरे अनुभव के चलते मान्या को हर किसी पर शक होता था.

लेकिन यह क्या? सब से बड़ा सरप्राइज तो अभी उस का इंतजार कर रहा था. उस के मम्मी पापा ने उस की और प्रसून की सगाई की घोषणा कर दी. अंतत: उस की उंगली में डायमंड की कीमती अंगूठी सज गई. उस ने भी शरमाते हुए मां की दी अंगूठी प्रसून को पहना दी.

पूरा हौल तालियों से गूंज उठा. सभी उसे बधाई दे रहे थे. उसे सब कुछ स्वप्न सा लग रहा था.

अब मान्या पार्टी का आनंद उठाने में लग गई थी. उस ने प्रसून की बांहों में बांहें डाल कर बरसों बाद आज डांसफ्लोर पर उन्मुक्त हो कर डांस किया था. इतनी मुश्किल से मिली खुशी के पलों को वह अपनी मुट्ठी में बंद कर लेना चाह रही थी. आज उसे प्रसून की हर अदा अच्छी लग रही थी. आयुष को खुश देख उस का रोम रोम प्रसून के प्रति कृतज्ञता महसूस कर रहा था.

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प्रसून के फोन का अब उसे हर पल इंतजार रहता. उस की प्यार भरी मीठीमीठी बातों, मम्मीपापा का शादी के इंतजामों का ऐक्साइटमैंट, सब अपने चरम पर था. आयुष भी प्रसून के जाते ही उदास हो उठता और हर समय अपने अंकल के आने का इंतजार करता.

एक दिन वह प्रसून से बोला, ‘‘मैं अब आप को पापा कहा करूंगा. सब बच्चों के पापा स्कूल आते हैं, लेकिन मेरे पापा नहीं आते. मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता. अब मैं अपने सब दोस्तों से कहूंगा कि देखो ये हैं मेरे पापा,’’ कह वह उस से लिपट गया.

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