Serial Story: तुम ने मेरे लिए किया क्या (भाग-2)

अगली सुबह जब उमाजी चाय ले कर प्रसून के कमरे में गईं तो वह रात की कही हुई सारी बातें भूल चुका था.

प्रसून का प्यारा सा चेहरा देख कर वे पिघल उठीं. बोलीं, ‘‘बेटा प्रसून, तुम नैट पर अपना प्रोफाइल रजिस्टर करवा लो, शायद कहीं बात बन जाए.’’

‘‘हां मौसी, मैं ने रजिस्टर करवा दिया है. लेकिन मुझे फुरसत नहीं मिलती कि मैं टाइम दे पाऊं.’’

‘‘अच्छा चलो, आज से मैं तुम्हारी शादी के लिए कोशिश करूंगी.’’

‘‘मौसी, कोई तलाकशुदा लड़की ही ढूंढ़ो, मैं उस से भी कर लूंगा. आखिर मेरी उम्र भी तो 40 की होने वाली है.’’

उमाजी भी दिल से चाहती थीं कि किसी तरह प्रसून की शादी हो जाए तो वे दादी बन कर बुढ़ापे में बच्चों के साथ रहें. वे मन ही मन मुसकरा कर काम में लग गई थीं. उन्होंने प्रसून का प्रोफाइल बनाया. उस के कई सारे अच्छेअच्छे फोटो अपलोड कर दिए. उन्होंने प्रोफाइल को कई साइटों पर डाला.

इस से भी उन का मन नहीं भरा तो वे मैरिज ब्यूरो में जा कर भी उस का बायोडाटा और फोटो दे कर उस का नाम रजिस्टर करवा आईं.

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इधर प्रसून भी अपनी कोशिश में लगा था. वह फेसबुक पर फर्जी नाम से लड़कियों के साथ औनलाइन चैटिंग करता था. इसी शौक में एक दिन उस ने मान्या को फ्रैंड बनने के लिए रिक्वैस्ट भेजी. मान्या ने यों ही उस की रिक्वैस्ट मान ली और शुरू हो गई दोनों के बीच बातें. सीधीसादी मान्या ने अपने विषय में सब कुछ सचसच बता डाला कि वह अपने मांबाप की अकेली लड़की है. मेरा एक 5 साल का बेटा है और मैं ने निश्चय कर लिया है कि अब मैं फिर से शादी के चक्कर में नहीं पड़ूंगी.

प्रसून की मीठीमीठी बातों में वह डूब गई थी. उसे वह अपना दोस्त समझ कर कभी बेटे आयुष की बातें करती तो कभी मम्मीपापा की.

इस दौरान तेज दिमाग प्रसून ने मान्या से उस के घर का पता जान लिया. फिर तो जल्द ही उस ने पता कर लिया कि दिल्ली के कनाट प्लेस के पास उस के पिता का तीन मंजिला मकान है. उस में नीचे दुकानें भी हैं. भविष्य में मान्या ही इस की मालिक बनने वाली है.

वह मौसी से बोला, ‘‘मौसी, यह रिश्ता मेरे लिए बहुत फायदेमंद है, इसलिए आप कुछ भी करो, किसी भी तरह मेरी शादी इसी मान्या से करवाओ.’’ और फिर उस ने प्रोफाइल खोल कर मान्या के कई सारे फोटो मौसी को दिखा दिए.

‘‘इतनी दूर दिल्ली की लड़की भला कैसे बात बनेगी. खैर तुम फोन नंबर देना. मैं बात कर के देखूंगी.’’

तेज दिमाग प्रसून ने नैट पर फोन नंबर देख कर एजेंट से बात कर के उस के घर के पास एक फ्लैट किराए पर ले लिया और उमाजी को वहां जा कर रहने के लिए भेज दिया.

वहां पहुंचते ही उमाजी ने जाल बिछाना शुरू कर दिया. प्रसून के निर्देश के अनुसार उन्होंने सब से पहले मान्या की मां से दोस्ती कर ली.

हैलोहाय करते हुए उमाजी जल्द ही मान्या की मां निशिजी के ड्राइंगरूम तक पहुंच गईं.

अपनी मीठीमीठी बातों में उलझा कर उन्होंने निशिजी को मनगढ़ंत कहानी सुना कर उन्हें अपना खास दोस्त बना लिया था.

‘‘बहन, मेरा एक बेटा है. उस की बहुत बड़ी कंपनी है, लेकिन शादी करने को राजी नहीं है. कहता है लड़कियां बहुत धोखेबाज होती हैं, इसलिए शादी नहीं करूंगा. जब वह स्कूल में पढ़ता था, तभी कच्चेपक्के प्यार में किसी से धोखा खा बैठा था. बस तब से जिद कर बैठा है कि वह जिंदगी भर शादी नहीं करेगा. बस उस की इसी बात से नाराज हो कर मैं यहां दिल्ली रहने आ गई. यहां मेरी पुरानी जानपहचान है, उसी वजह से मैं यहां आ गई,’’ और फिर उन की सहानुभूति पाने के लिए फूटफूट कर रोने लगीं.

निशिजी ने उन्हें चुप कराया. उन के आंसू पोंछ कर भी उन्हें उन की बातें अविश्वसनीय लग रही थीं कि भला कहीं ऐसा संभव है कि कोई मां बेटे से नाराज हो कर दूसरे शहर में रहने के लिए चली जाए. उन्होंने अपने पति मदनजी से और बेटी मान्या से भी इस विषय में चर्चा की. मान्या की मां निशिजी सीधीसादी घरेलू महिला थीं. उन की दुखती रग उन की बेटी थी.

एक दिन उमाजी ने बड़ा अपनापन दिखाते हुए उन से पूछा, ‘‘बुरा मत मानिएगा

बहनजी, मान्या बहुत उदास सी रहती है. आयुष भी पापा की बातें कभी नहीं करता. आपस में दोनों के बीच कोई अनबन है क्या?’’

निशिजी सिसकते हुए बोलीं, ‘‘बहन, अब तुम से क्या छिपाना. हम लोगों ने खूब धूमधाम से मान्या की शादी की थी. रईस परिवार का अकेला चिराग देख कर हम लोगों ने शादी तय की थी. लेकिन मान्या वहां साल भर भी नहीं रह पाई थी. पति के दूसरी औरतों के साथ संबंध को भला कौन स्त्री बरदाश्त कर सकती है.

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‘‘उस ने पति को समझानेबुझाने और उसे सही रास्ते पर लाने की बहुत कोशिशें की, परंतु उस का प्रयास सफल नहीं हुआ. उस के पिता मदनजी ने भी भरसक कोशिश की कि दोनों के बीच रिश्ता बना रहे, परंतु मान्या के पति ने तो मानों न सुधरने का प्रण कर रखा था.

‘‘एक दिन तो सारी हदें पार करते हुए उस ने मान्या की पिटाई कर दी. बस उसी दिन वह अपनी ससुराल छोड़ कर हम लोगों के पास आ गई. जब वह लौट कर आई थी, तो वह 5 महीने के गर्भ से थी.

‘‘उस के सासससुर को अपने बेटे की बुरी आदतों के बारे में पता था, परंतु यह सोच कर कि शादी के बाद वह सुधर जाएगा, उन लोगों ने मान्या के साथ उस की शादी करवा दी थी.

‘‘उन लोगों ने माफी मांगते हुए मान्या का सारा सामान लौटा दिया और 1 करोड़ की एफडी बनवा कर दी. लेकिन मैं पैसे से उस की खुशियां तो नहीं खरीद सकती न.

‘‘मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई है. बेटी को देखते ही आंखों में आंसू आ जाते हैं. यह आयुष ही है जिस की वजह से घर में थोड़ी रौनक हो जाती है.

‘‘सब कुछ इतनी जल्दी घट गया कि वह आज भी इस हादसे से उबर नहीं पाई है. उसे कितना समझाती हूं पर वह शादी करने के लिए राजी ही नहीं होती.

‘‘मदनजी ने बेटी को व्यस्त रखने के लिए उसी स्कूल में नौकरी लगवा दी, जहां आयुष पढ़ता है. अब सभी लोग नन्हे आयुष में ही अपनी खुशी ढूंढ़ते हैं.’’

उमाजी ने कमजोर कड़ी आयुष को समझ कर अब उस पर अपना ध्यान केंद्रित किया. उसे कभी पार्क घुमाने ले जातीं, कभी होमवर्क करवाने बैठ जातीं तो कभी उसे कहानी सुनातीं.

सोसायटी में अपनी पैठ बनाने के लिए उन्होंने हमउम्र महिलाओं की किटी पार्टी जौइन कर ली. 3 महीनों के अंदर उन्हें सोसायटी में लोकप्रिय और जानीमानी महिला समझा जाने लगा.

उमाजी को सोसायटी की महिलाएं इज्जत की निगाह से देखती थीं. इस बीच प्रसून 2 बार दिल्ली आ चुका था. निशिजी और मदनजी को अपने घर चाय पर बुला कर उमाजी ने उन से प्रसून को मिलवा दिया था. प्रसून के आकर्षक व्यक्तित्व, उस की सादगी और सरल स्वभाव पर वे दोनों लट्टू हो गए थे. लेकिन उन की बेटी तलाकशुदा है, इसलिए उन लोगों में प्रसून के साथ मान्या के संबंध की बात करने की हिम्मत नहीं थी.

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Serial Story: तुम ने मेरे लिए किया क्या (भाग-1)

रात के 2 बज चुके थे. अभी तक प्रसून घर नहीं आया था. उमाजी की आंखों की नींद उड़ी हुई थी. वे काफी दिनों से देख रही थीं कि प्रसून ने देर से आने की आदत बना ली थी.

गेट के खुलने की आहट होते ही वे उठ खड़ी हुईं. ड्राइवर के कंधे पर लदे नशे में धुत्त प्रसून को देखते ही वे आपे से बाहर हो उठीं. क्रोध भरे स्वर में चिल्लाईं, ‘‘प्रसून, आईने में अपना चेहरा देखा है तुम ने? क्या हालत हो गई है तुम्हारी? लेकिन तुम ने जैसे न सुधरने का प्रण कर रखा हो… आखिर क्यों अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ कर रहे हो?’’

प्रसून भी उसी लहजे में नशे के कारण लड़खड़ाती आवाज में बोला, ‘‘पहले तो तुम मुझे उपदेश देना बंद करो. जरा बताओ तो तुम ने मेरे लिए किया क्या है? मैं कहकह कर थक गया हूं कि मेरी शादी करवा दो. लेकिन तुम्हें क्या मतलब? तुम्हारा अपना बेटा होता तो उस के लिए यहां वहां भागती फिरतीं.

‘‘तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है… तुम तो मेरे पैसे पर ऐश कर ही रही हो. रोज नए गहने खरीदो, क्लब जाओ, बड़ी गाड़ी में यहांवहां घूमो, बस हो गई तुम्हारी जरूरतें पूरी.

‘‘लेकिन मुझे तो रोज अपने शरीर की भूख मिटाने के लिए यहां वहां भटकना ही पड़ेगा. छोड़ो, तुम्हारी बकवास के कारण मेरा मूड और खराब हो गया,’’ और फिर लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे में चला गया.

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आज प्रसून की बातें सुन कर उमाजी के दिल को बहुत ठेस पहुंची थी. लेटेलेटे वे घंटों सिसकती रहीं. प्रसून उन की बहन की निशानी है. उन्होंने स्वयं इसी बच्चे के लिए अपनी सारी खुशियां कुरबान कर दी थीं. वे स्कूल में नौकरी कर के उसे सारी खुशियां देने का प्रयास करती रहीं.

पिताजी ने बहुत समझाया था. लेकिन उन्होंने उन की बात को अनसुनी कर दिया. यही कहती रहीं कि इस अबोध को कौन पालेगा.

मीरा जीजी ने तो इस के पैदा होते ही अपनी आंखें मूंद ली थीं. अनूप जीजाजी पहले तो अकसर इस की खबर लेने आते थे, लेकिन उन की लालची निगाहों को देख वह समझ गई थी कि उन की कामुक निगाहें बच्चे से ज्यादा उसे निहारने और छूने में रहती हैं.

कोई भी लड़की मर्द की वासना भरी निगाहों को एक पल में पहचान सकती है. एक दिन जब ढिठाई से उन्होंने उन्हें अपनी आगोश में समेटने का प्रयास किया तब बिना देर किए उन्होंने जोरदार तमाचा जड़ दिया था.

उस दिन के बाद से आज तक उन्होंने किसी मर्द को अपने जीवन में झांकने का अवसर नहीं दिया था.

प्रसून ही उन का वर्तमान था और वही उन का भविष्य था. हर क्षण वे प्रसून की खुशियों में ही अपनी खुशी ढूंढ़ा करती थीं.

उन के अधिक लाड़प्यार का नतीजा यह हुआ कि वह जिद्दी और बदतमीज होता चला गया. जो उस ने मुंह से निकाला, उसे हर हालत में चाहिए. वे भी हर सूरत में उस की इच्छा पूरी करने का प्रयास करतीं.

वह पढ़ने में तो ठीकठाक था लेकिन हर समय बड़ा आदमी बनने का ख्वाब देखा करता.

उमाजी ने प्रसून के बी.कौम. करने के बाद एक प्राइवेट कालेज में एमबीए में उस का ऐडमिशन कराने के लिए अपनी जमापूंजी लगा दी थी कि चलो कहीं प्लेसमैंट हो जाएगी तो उस की शादी धूमधाम से कर के उन का बुढ़ापा चैन से कटेगा.

प्रसून ने जवान हो कर बिलकुल अपने पापा का रंगरूप पाया था. गोरा, लंबा और आकर्षक 6 फुट का युवक अपनी लच्छेदार बातों से हर जगह अपना रंग जमा लेता था.

कालेज जाते ही लड़कियों के फोन कौल्स से उन का माथा ठनका था. लेकिन उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया था. उन्होने सोचा था जवानी की उम्र में तो यह सब होता ही है.

जब प्रसून एमबीए के दूसरे वर्ष में था तभी उस की निगाह अपने साथ पढ़ने वाली जया पर पड़ी थी. दोनों के बीच की दोस्ती जल्द ही प्यार में बदल गई. लेकिन प्रसून की निगाह तो जया से ज्यादा उस के करोड़पति पापा के पैसों पर थी. उस के प्यार में पागल जया एक रात घर से ढेरों जेवर ले कर भाग गई.

अगली सुबह ही पुलिस ने उन के घर पर छापा मारा और उन्हें गिरफ्तार कर के ले गई. उमाजी को कुछ पता ही न था, जो वे पुलिस को कुछ बता पातीं.

महीनों तक दोनों यहां वहां भागते रहे, लेकिन आखिर एक दिन वे पुलिस की गिरफ्त में आ ही गए. जया के पिता ने पैसे और पहुंच के जोर से बेटी को छुड़ा लिया परंतु प्रसून की जमानत भी न हो सकी और उसे 2 वर्ष का सश्रम कारावास हो गया.

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उमाजी के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था. पैसे भी बरबाद हो चुके थे और समाज में उन की इज्जत भी मिट्टी में मिल गई थी. वे किसी को अपना मुंह दिखाने लायक नहीं रह गई थीं. परंतु ममता से मजबूर जब प्रसून सजा काट कर जेल से बाहर निकला तो वे वहीं बाहर उस का इंतजार करती मिली थीं. प्रसून उन के कंधे पर सिर रख कर बच्चों की तरह फूटफूट कर रो पड़ा था.

रात के स्याह अंधेरे में दोनों थोड़ाबहुत सामान समेट कर पुणे चल दिए थे. पुणे पहुंच कर नौकरी के लिए यहांवहां हाथपांव मारता रहा. बहुत मुश्किल समय था. उमाजी ने भी 1-2 ट्यूशन पकड़ ली थीं.

तभी प्रसून को एक प्लेसमैंट एजेंसी में नौकरी मिल गई. तेज दिमाग प्रसून ने बहुत जल्दी वहां के कामकाज को अच्छी तरह देखसमझ लिया और साल भर के अंदर ही उस ने अपनी कंपनी खोल ली.

5-6 वर्षों में अब उस के पास सब कुछ था. पौश कालोनी में बंगला, बड़ी गाड़ी. परंतु वह अभी भी आज तक अकेला था. कई लड़कियों के साथ उस ने रिश्ते बनाने का प्रयास किया, पर शादी तक बात नहीं पहुंच सकी. टीना के साथ 6 महीने तक लिव इन में भी रहा, परंतु वह भी उसे छोड़ कर चली गई.

उस का अहंकारी और क्रोधी स्वभाव कोई भी रिश्ता चलने ही नहीं देता था. उस का सिद्धांत था पत्नी को गुलाम की तरह पति के इशारे पर नाचना चाहिए. लेकिन वह स्वयं सब कुछ करने को आजाद है.

प्लेसमैंट के लिए आने वाले लड़के तो उसे कमीशन दे कर चले जाते थे, परंतु श्रेया को अच्छी नौकरी का हसीन ख्वाब दिखा कर, उस ने उस के साथ शारीरिक संबंध बना लिए और साथ ही चोरीचोरी उस का एमएमएस भी बना लिया. उस के बाद तो उस की चांदी हो गई. वह डर के मारे मनचाही रकम अदा करती रही.

अब तो शातिर दिमाग प्रसून के लिए यह धंधा ज्यादा फायदे वाला बन गया था. कई लड़कियों के साथ उस ने यही किया. यद्यपि श्रेया की शिकायत पर उस के औफिस में छापा भी पड़ा था, परंतु वह किसी तरह छूट गया था.

अब उस के पास पैसा तो बहुत था, लेकिन बदनामी के कारण उस की शादी अभी तक नहीं हो पाई थी.

उमाजी भी चाहती थीं कि इस की शादी हो जाए, तो यह सुधर जाएगा और बीवीबच्चों के साथ शांतिपूर्वक अपनी जिंदगी बिताएगा. उस के औफिस के काले कारनामों का उन्हें बिलकुल भी पता नहीं था. उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि प्रसून जब सुबह के समय अपने होशहवास में होगा तो वे उस से लड़कियों से दूर रहने का वादा लेंगी. तब वे उस की शादी के प्रयास में गंभीरतापूर्वक जुट जाएंगी.

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Serial Story: तुम ने मेरे लिए किया क्या (भाग-4)

अब प्रसून पुणे बहुत कम समय के लिए जाता. मान्या कभी उस के संग लहंगा पसंद करने जाती तो कभी उस की शेरवानी. पता ही नहीं चला कि समय कब बीत गया. कार्ड भी छप कर आ गए.

मगर अभी तक उस ने अपने स्कूल में किसी को अपनी सगाई की बात नहीं बताई थी. उस की उंगली में अंगूठी देख उस की साथी टीचर्स ने उसे छेड़ा था तो उस ने साफ मना कर दिया.

लेकिन भला ऐसी बातें कहीं छिप पाती हैं. स्कूल की ओनर को उस की सगाई की खबर लग चुकी थी. उन्होंने उसे अपने कैबिन में बुला कर कहा, ‘‘मान्या, नए जीवन के लिए तुम्हें बहुतबहुत बधाई. शादी कर के कहां जाने वाली हो?’’

उस ने शरमाते हुए कहा, ‘‘पुणे.’’

‘‘मुझे सुन कर बहुत खुशी हुई, क्योंकि मैं भी अपने जीवन में एक बार धोखा खा चुकी हूं. लेकिन अक्षय के प्यार में जीवन के उस कड़वे दौर को बिलकुल भूल चुकी हूं.’’

‘‘मैडम, प्रसून भी बहुत अच्छे इनसान हैं. आयुष को तो बहुत ही प्यार करते हैं. उसी के भविष्य के बारे में सोच कर तो मैं शादी के लिए तैयार हुई हूं.’’

‘‘क्या नाम बताया तुम ने? जरा फिर से बताओ तो?’’

‘‘जी, प्रसून. उन की पुणे में प्लेसमैंट एजेंसी है. बहुत अच्छा काम है.’’

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‘‘चलो, शादी में तो मिलना होगा ही.’’

फिर कुछ देर सोच कर बोलीं, ‘‘अपनी सगाई का फोटो यदि मोबाइल में हो तो दिखाओ. हम भी तो तुम्हारे होने वाले हमसफर को देखें.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. इस फोन में मेरे पास नहीं है. कल मैं सीडी ले कर आऊंगी या आप की मेल आईडी पर पोस्ट कर दूंगी.’’

‘‘हां, यह ठीक होगा. तुम मुझे पोस्ट कर देना. मैं प्रसून को देखना चाहती हूं.’’

‘‘मैडम, प्रसून बहुत ही गुडलुकिंग और हैंडसम हैं.’’

‘‘तुम्हारी नई शुरुआत के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं. अरे हां, फोटो जरूर मेल पर डाल देना.’’

‘‘जी, मैं घर पहुंचते ही डाल दूंगी.’’

जयाजी जो कि उस के स्कूल की ओनर थीं, सगाई का फोटो देखते ही चौंक उठीं. यह वही प्रसून था जिस ने उन के जीवन के साथ भी खिलवाड़ किया था. उन्होंने मान्या को आगाह करने के लिए फोन उठाया, परंतु फिर उन का हाथ रुक गया कि क्या पता प्रसून सुधर गया हो? ऐसे मामले में सब से पहले अच्छी तरह पता लगाना आवश्यक है. लेकिन यह मान्या के भविष्य का प्रश्न था, इसलिए उन्होंने अपनी ननद इशिता को फोन किया कि इस प्रसून नाम के लड़के और उस की प्लेसमैंट एजेंसी का पूरा ब्योरा जल्दी से जल्दी पता लगा कर मुझे बताओ. वह पुणे में ही रहती थी.

इशिता ने थोड़ी देर में ही फोन कर के उस के सारे काले कारनामों के बारे में बता दिया. वह प्लेसमैंट एजेंसी की आड़ में सैक्स का धंधा करता है. वह अच्छा आदमी नहीं है. कई बार उस के औफिस में छापे पड़ चुके हैं, लेकिन वह हर बार छूट जाता है. चूंकि उस का औफिस उन के घर के काफी पास है, इसलिए उन्हें सब बातें अच्छी तरह मालूम हैं.

जयाजी का शक विश्वास में बदल गया. उन्होंने मान्या को फोन कर अपने घर बुलाया, ‘‘मान्या, तुम्हारे लिए अच्छी खबर नहीं है, परंतु भविष्य को ध्यान में रखते हुए तुम्हें बताना आवश्यक है.

‘‘प्रसून ही वह लड़का है जिस ने मेरे जीवन के साथ भी खिलवाड़ किया था. मैं उस पर ध्यान न देती, परंतु वह अभी भी प्लेसमैंट एजेंसी की आड़ में सैक्स रैकेट चला रहा है. मेरी समझ में तुम से शादी का नाटक तुम्हारी प्रौपर्टी के लिए कर रहा होगा, क्योंकि यह शुरू से पैसे का लालची है. मुझ से भी सारे जेवर छीन कर भाग गया था.’’

सुनते ही मान्या फूटफूट कर रो पड़ी. फिर बोली, ‘‘मैडम, क्या मेरे जीवन में ठगा

जाना ही लिखा है. पहले भी एक बार ऐसे ही धोखे का शिकार हो चुकी हूं.’’

‘‘मान्या, हिम्मत से काम लो. अब सब से पहले ऐसा प्लान बनाओ कि वह कुछ कह ही न सके.’’

मान्या ने अपने आंसुओं को दृढ़ता से पोंछा और बोली, ‘‘मैडम, आप के पास कोई पुराने फोटोग्राफ्स हों तो मुझे दे दीजिए. मैडम, आप की मदद से इस कहानी का अंत कल ही कर दिया जाए तो बहुत अच्छा रहेगा. क्या कल शाम आप मेरे घर आ सकती हैं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं?’’

‘‘तो शाम 5 बजे आप आ जाइएगा.’’

फिर प्रसून को फोन कर के बोली, ‘‘प्रसून, शादी से पहले हमें कोर्टमैरिज कर लेनी चाहिए, क्योंकि बिना मैरिज सर्टिफिकेट के बाद में परेशानी हो जाएगी.

‘‘हां, तो शाम को 4 बजे तक आ जाओ. ज्वैलरी भी फाइनल करनी है. मम्मीपापा हम लोगों के नाम पर अपनी वसीयत भी लिखवा रहे हैं, इसलिए तुम्हारा रहना जरूरी है.

‘‘प्लीज, आ जाना. मैं भी तुम्हें बहुत मिस कर रही हूं. मम्मी के साथ इन्हीं बातों को ले कर मेरी जोरदार बहस भी हो गई… मेरा मूड बहुत खराब है.’’

‘‘मूड खराब करने की क्या बात है? सही कर रहे हैं, वसीयत वगैरह कर ही देनी चाहिए, इस जिंदगी का क्या भरोसा,’’ प्रसून बोला और फिर शाम को 4 बजे मान्या के घर पहुंच गया. उन सब बातों से अनजान मम्मीपापा उस की आवभगत में लगे थे.

लालची प्रसून का दिमाग तो ज्वैलरी और वसीयत में था. अत: बोला, ‘‘मान्या यह तो तुम्हारा मामला है, जो ज्वैलरी या जायदाद पापा दे रहे हैं, उसे चुपचाप ले लो. चाहे आज लो चाहे कल… उन के बाद में सब कुछ तो हम दोनों का ही है.’’

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वसीयत शब्द पर निशिजी चौंक उठी थीं. उन्हें उस के कहने का अंदाज अच्छा नहीं लगा था, परंतु अपने को संभाल कर बोलीं, ‘‘हांहां, हम लोगों के बाद तो सब कुछ तुम्हीं लोगों का होगा,’’ पर उन का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा था.

तभी वाचमैन ने फोन किया कि कोई जयाजी आप लोगों से मिलने आई हैं.

मान्या तो पहले से ही उन का इंतजार कर रही थी. तभी उस ने मम्मीपापा की खुसुरफुसुर सुनी कि मम्मी कह रही थीं, ‘‘यह तो बड़ा लालची दिख रहा है. जायदाद और वसीयत की बात कर रहा है. पहले ही धंधे के लिए 20 लाख का चैक दे चुके हैं. यदि मान्या को ये सब पता लगेगा तो वह तो शादी से ही मना कर देगी.’’

पापा धीमे से बोले, ‘‘चुप रहो. देना तो इन्हीं लोगों को है चाहे आज दें चाहे कल.’’

‘‘मैं तो आज उमाजी से बात कर के रहूंगी. वे अपने बेटे को समझा लें कि इस तरह की बातें उन्हें पसंद नहीं हैं.’’

पापा बोले, ‘‘बात तो सही है. अभी जाने कितने साल जीना है… इन की निगाहें बदल गईं, तो हम दोनों तो कहीं के नहीं रहेंगे.

‘‘मुझे तो वह तुम्हारी सखी उमाजी भी मिली हुई लग रही हैं… कहीं कुछ गड़बड़ तो जरूर है… एक बात समझ लो यदि मेरी बेटी को जरा भी परेशानी हुई तो मैं तो अपनी जान दे दूंगा.’’

दोनों के बीच की बातें सुन कर मान्या के समक्ष उस के रिश्ते का सच जाहिर हो गया था. उस ने मन ही मन जयाजी को धन्यवाद दिया कि उन्हीं के कारण वह इस हैवान से बच पा रही है.

तभी घंटी की आवाज सुनते ही उस ने दौड़ कर दरवाजा खोला. जयाजी को प्रसून

इतने समय के अंतराल के कारण तुरंत पहचान नहीं पाया.

मगर मान्या ने जानबूझ कर उस को याद दिलाने के लिए कहा, ‘‘आइए, जयाजी, बड़े अच्छे मौके पर आप आईं हैं. मेरे होने वाले पति प्रसूनजी से मिलिए.’’

अब तक प्रसून को सब याद आ चुका था. वह तेजी से अंदर चला गया. जयाजी और मान्या पीछेपीछे अंदर चली गईं.

‘‘कब तक और कहां तक भागोगे प्रसून? तुम्हारे पाप का घड़ा भर चुका है. मैं ने पुणे से तेरी सारी कर्मकुंडली मंगा ली है. वहां प्लेसमैंट एजेंसी के नाम पर जो गंदा खेल खेल रहा है, उस की सारी जानकारी मेरे पास है.’’

प्रसून की सचाई जान कर पापा चक्कर खा कर गिर पड़े. मां भी फूटफूट कर रोने लगीं कि इस ने तो हम लोगों से अपने को कुंआरा बताया था.

जया मैडम चीख पड़ीं, ‘‘इस बदमाश को तो आजन्म कुंआरा ही रहना चाहिए…’’

आंटी, शुक्र करो कि आप की बेटी इस बदमाश के चंगुल से बच गई.

प्रसून चुपचाप धीरे से खिसकने की कोशिश कर रहा था. तभी मान्या जोर से उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘भाग कहां रहे हो? कुछ दिन ही सही धोखेबाजी और काले धंधे के आरोप में तुम्हें जेल तो जाना ही होगा,’’ फिर अपने पापा से बोली, ‘‘वाह पापा वाह, आप के लिए यह धोखेबाज ज्यादा सगा था… 20 लाख का चैक आप ने बिना सोचेसमझे दे दिया. दहेज देने वालों से ज्यादा दोषी तो आप जैसे लोग हैं, जो ब्लैंक चैक ले कर लड़के वालों के सामने सिर झुका कर खड़े रहते हैं… उन्हें लालची तो आप लोग बनाते हैं.’’

अभी तक एकदम चुपचाप खड़ी उमाजी गिड़गिड़ा कर बोलीं, ‘‘मैं हाथ जोड़ती हूं, मेरे बेटे को माफ कर दो. हम लोग यहां से चले जाएंगे.’’

प्रसून नया दांव चलते हुए चीख पड़ा, ‘‘चुप करो, तुम ने मेरे लिए किया क्या है? हर समय कहती रहती थीं, शादी कर लो, शादी कर लो. अब हो गई शादी…’’

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आज उमाजी को उस का झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, ‘‘मैं ने अपनी सारी जिंदगी इस के लिए होम कर दी, फिर भी यह हमेशा यही कहता रहता है तुम ने मेरे लिए किया क्या? मैं इस के सभी काले कारनामों का चिट्ठा खोलूंगी. इस के खिलाफ कोर्ट में गवाही दूंगी.’’

इसी बीच पुलिस ने आ कर प्रसून को गिरफ्तार कर लिया.

फैशन: आधुनिक विचारों वाली मनु को क्यों नहीं थी किसी की परवाह

Serial Story: फैशन (भाग-3)

‘‘आजकल बच्चों की अपनी मरजी है… जहां मन हो करें. मेरी ही बेटी है पर मैं ही इस की गारंटी लेने को तैयार नहीं हूं. कल को ससुराल वालों को ही दहेज के नाम पर सूली पर लटका देगी. पति जरा सा नानुकर करेगा तो उसे भी पत्नी प्रताड़ना के कानून में फंसा देगी. जो अपने मांबाप की सगी नहीं वह पराए खून को दलदल में नहीं फंसाएगी, इस का क्या भरोसा? नफरत हो गई है मुझे मनु से. जरा भी प्यार नहीं रहा मेरे मन में इस लड़की के लिए. तुम भी इस की चालढाल पर परेशान हो न… कल को इस का पति भी होगा.

‘‘क्या यह लड़की घर बसाएगी जो बातबात पर अपने अधिकारों की बात करती है? गृहस्थी को सफल बनाने के लिए कई बार जबान होते हुए भी गूंगा बनना पड़ता है. सहना भी पड़ता है, कभी भी आती है कभीकभी, सदा एकजैसा तो नहीं रहता. ऊंचनीच सहनी पड़ती है और यह लड़की तो बातबात पर कानून का डंडा दिखाती है.’’

‘‘इतना कानून कहां से पढ़ लिया इस ने? कहीं वकीलों से दोस्ती ज्यादा तो नहीं बढ़ा ली? कानून तो हम भी जानते हैं बेटा, लेकिन यही कानून अगर बातबेबात गृहस्थी में घुस जाएगा तब क्या प्यार बना रहेगा पतिपत्नी में? पतिपत्नी के बीच किसी तीसरे का जो दखल होना ही नहीं चाहिए मांबाप तक को भी जरूरत पड़ने पर बोलना चाहिए कानून तो बहुत दूर की बात है. अधिकारों की बात करती है क्या अपने फर्जों के बारे में भी सोचा है इस ने? हमारे तो बेटे ने कभी इस जबान में हम से बात नहीं की जिस सुर में यह बोलती है. क्या चाहते हैं इस से? सिर्फ यही कि सलीके से रहे, मर्यादा में रहे, शालीनता से जीए… हमारे सिखाए सारे संस्कार इस ने पता नहीं किस गंदे पानी में बहा दिए.’’

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‘‘नहीं बूआ ऐसा नहीं हो सकता. कुछ भी हो जाए संस्कारों का प्रभाव कभी नहीं जाता है. फैशन की दौड़ में भी एक सीमा ऐसी जरूरत आती है जब संस्कार जीत जाते हैं. किसी गलत संगत में हो सकता दिमाग घूम गया हो.’’ ‘‘गलत संगत में और भी क्या होता होगा, हमें क्या पता बेटा… क्या करें हम? कहां जाएं? पता होता पढ़लिख कर जमीन की मिट्टी सिर पर उठा लेगी तो मैं अनपढ़ ही रखती इसे,’’ बूआ का आक्रोश उन की आंखों से साफ फूट रहा था.

बूआ ईमानदार हैं जो अपनी संतान पर परदा नहीं डाल रहीं वरना हमारे समाज में मांबाप अकसर अपने बच्चों के ऐबों को छिपा जाते हैं. जहां तक मनु के ऐबों का सवाल है एक लड़की का मुंहफट होना और अपने घर के तौरतरीकों के खिलाफ जाना ही सब से बड़ा ऐब है. कहने को तो हम सब कहते हैं लड़कालड़की एकसमान हैं, लेकिन एकसमान हो कैसे सकते हैं? जो बुनियादी फर्क प्रकृति ने बना दिया है उस से आंखें तो नहीं न फेरी जा सकतीं? बूआ का मन समझ रहा हूं मैं. सत्य तो यही है कि कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन स्वीकार नहीं किया जा सकता.

12 बज गए थे. मनु अभी अपने कमरे से बाहर नहीं आई थी. तब बूआ ने ही मुझे भेजा, ‘‘जरा देख तो…कहीं कोई नशावशा कर के मर तो नहीं गई.’’ ममत्व किस सीमा तक आहत हो चुका है, यह इन्हीं शब्दों से अंदाजा लगाया जा सकता है. मैं ने ही दूध का गिलास भरा और मनु के कमरे में जा कर उसे डठाने की सोची. ‘‘उठो मनु, 12 बज गए हैं,’’ कहते हुए मैं ने दरवाजा धकेला.

कुरसी पर चुपचाप बैठी थी आंखें मूंदे. मैं ने पास जा कर सिर पर हाथ रखा. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि उस में कुछ बदल गया है. कल जैसे भाव नहीं थे उस के चेहरे पर.

‘‘12 बज गए हैं… क्या नाश्ता नहीं करोगी? भूख नहीं लगी है क्या?’’

चुप रही वह. जब हाथ पकड़ कर उठाने का प्रयास किया तब मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया.

‘‘कुछ है क्या जो कहना चाहती हो? समझदार हो अपने अधिकार जानती हो… मेरे समझाने का कोई अर्थ नहीं है.’’

‘‘नाराज हो तुम भी?’’

‘‘तुम्हारे मातापिता से बढ़ कर मैं कैसे हो सकता हूं. उन की नाराजगी की जब तुम्हें परवाह नहीं तो मेरी तो बिसात ही क्या है? तुम्हारी भूख की चिंता थी मुझे, इसलिए दूध का गिलास ले आया.’’

जब मैं लौटने लगा तो उस ने मेरी बांह कस कर पकड़ ली. बोली, ‘‘मैं ने गलती की है, उस के लिए मां और पापा से माफी मांगना चाहती हूं… अजय मैं ही गलत थी, तुम सही थे. मुझे अपने साथ मां के पास ले चलो… पापा सही कहते थे मनुष्य शालीन न हो तो कोई भी गलत अनुमान लगा लेता है. चरित्र और व्यक्तित्व का पता पहनावे से भी लगता है. सही वेशभूषा न हो तो कोई कुछ भी समझने लगता है.’’

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समझ गया मैं. ज्यादा खोल कर समझाने को था ही क्या. जो घरवाले न सिखा पाए लगता है किसी बाहर वाले ने सिखा दिया है. क्षण भर को चौंकना तो था ही मुझे, क्योंकि मनु को इतनी जल्दी अक्ल आ जाएगी, मुझे भी कहां उम्मीद थी.

‘अच्छा, क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’ चिंता तो जागती ही बहन के लिए. बड़े गौर से उस का चेहरा पढ़ना चाहा. लगता है किसी का अनुचित व्यवहार इसे बहुत कुछ समझा गया है. मर्यादा बहुत बारीक सी रेखा है, जिस का निर्वाह बेहद जरूरी है. चेहरे का भाव बता रहा था मर्यादा सहीसलामत है.

‘‘मुझे माफी मांगनी है मां से.’’

स्वर रुंध गया था मनु का. इतनी ऊंची नाक कहीं खो सी गई लगी.

‘‘किस मुंह से जाऊं?’’

‘‘अपने ही मुंह से जाओ माफ कर देंगे. तरक्की का सही मतलब तुम्हारी समझ में आ जाए इस से ज्यादा उन्होंने भी क्या चाहा है. उन की तो काफी बीत चुकी है. बाकी की भी बीत जाएगी. तुम्हारी सारी उम्र पड़ी है. सही मानदंड नहीं अपनाओगी तो सारी उम्र रास्ता ही ढूंढ़ती रह जाओगी… एक कदम गलत उठा तो समझो जीवन समाप्त… भाई हूं तुम्हारा, इसलिए कुछ बातें खोल कर समझा नहीं सकता… आशा है स्वयं ही समझने का प्रयास करोगी.’’

‘‘कह तो रही हूं मैं समझ गई हूं. मेरे साथ मां के पास चलो,’’ स्वर भारी था मनु का.

ढीलीढाली सलवारकमीज पहने बहुत अपनी सी लगने लगी थी मनु. गरिमामय भी लग रही थी और सुंदर भी. कौन कहता है तरक्की पाने और आधुनिक बनने के लिए नंगा रहना जरूरी है.

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Serial Story: फैशन (भाग-2)

‘‘मन का करने के लिए क्या नंगा रहना जरूरी है? कपड़ों में पूरीपूरी पीठ गायब होती है, टांगें खुली होती हैं. क्याक्या नंगा है, क्या आप नहीं देखतीं बूआ? कैसीकैसी नजरें नहीं पड़तीं…फिर दोष देना लड़कों को कि राह चलते छेड़ दिया.’’

‘‘ढकीछिपी लड़कियों पर क्या कोई बुरी नजर नहीं डालता?’’

‘‘डालता है बूआ बुरे लोग अगर घर में हैं तो लड़कियां वहां भी सुरक्षित नहीं. मैं मानता हूं इस बात को पर नंगे रहना तो खुला निमंत्रण है न. जिस निगाह को न उठनी हो वह भी हैरानी से उठ जाए… टीवी और फिल्मों की बात छोड़ दीजिए. उन्हें नंगा होने की कीमत मिलती है. वे कमा कर चली गईं. रह गई पीछे परछाईं जिस पर कोई हाथ नहीं डाल सकता और हमारी लड़कियां उन्हीं का अनुसरण करती घूमेंगी तो कहां तक बच पाएंगी, बताइए न? पिता और भाई तो कुत्ते बन गए न जो रखवाली करते फिरें.’’

‘‘अरे भाई क्या हो गया? कौन बन गया कुत्ता जो रखवाली करता फिर रहा है?’’ सहसा किसी ने टोका.

हम अपनी बहस में देख ही नहीं पाए कि फूफाजी पास खड़े हैं जो सामान से लदेफंदे हैं. बड़े स्नेही हैं फूफाजी. आज सुबह ही कह रहे थे कि शाम को पहलवान हलवाई की जलेबियां और समोसे खिलाएंगे. हाथ में वही सब था. बूआ के हाथों में सामान दे कर हाथमुंह धोने चले गए. वापस आए तो विषय पुन: छेड़ दिया, ‘‘क्या बात है अजय, किस वजह से परेशान हो? क्या मनु के फैशन की वजह से? देखो बेटा, हमारे समझाने से तो वह समझने वाली है नहीं. मनुष्य अपनी ही गलतियों से सीखता है. जब तक ठोकर न लगे कैसे पता चले आगे खड्ढा था. फैशन पर बहस करना बेमानी है बेटा. आज ऐसा युग आ गया है कि हर इंसान अपने ही मन की करना चाहता है. हर इंसान कहता है यह उस की जिंदगी है उसे उसी के ढंग से जीने दिया जाए. तो ठीक है भई जी लो अपनी जिंदगी.

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‘‘अकसर जो चीज घर के लोग या मांबाप नहीं सिखा पाते उसे दुनिया सिखा देती है. तरस तो मांबाप करेंगे न बाहर वालों को क्या पड़ी है. जब बाहर से धक्के खा कर आएंगे तभी पता चलेगा न घर वाले सही थे. मैं तो कहता हूं मांबाप को औलाद को पूरापूरा मौका देना चाहिए ठोकरें खाने का. तभी सबक पूरा होगा वरना कहते रहो दिनरात अपनी कथा. कौन सुनता है? अब बच्ची तो नहीं है न मनु. पढ़लिख गई है. अपना कमा रही है. हम क्यों टोकाटाकी करते रहें? अपना माथा भी खराब करें. क्या पता हम पिछड़ गए हों जो इसे समझ नहीं पा रहे…अब इस उम्र में हम तो बदल नहीं सकते न?’’

‘‘मैं तो पिछड़ा हुआ नहीं हूं न फूफाजी? मनु की ही पीढ़ी का हूं.’’

‘‘छोड़ो न बेटा क्यों खून जला रहे हो? मनु वही करेगी जो उस का मन कहेगा. तुम समोसा खाओ न. तुम्हारी बूआ चाय लाती होगी.

देखो बेटा, एक सीमा के बाद मांबाप को अपने हाथ खुले छोड़ देने चाहिए. हमारी बीत गई न. इन की भी बीत जाने दो. ऐसे या वैसे. जाने दो न…लो चाय लो.’’ फूफाजी का आचरण देख कर मैं चुप रह गया. बड़ी मस्ती से समोसे और जलेबियां खाने लगा. मनु उन के सामने ही मुझे हाथ हिलाती हुई निकल गई. उस का अजीबोगरीब पहनावा देख मेरा खून पुन: जलने लगा. मगर पिता हो कर जब फूफाजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं उस का सिर तो नहीं न फोड़ सकता. मैं सोच रहा हूं अगर मनु मेरी अपनी बहन होती तो क्या कर लेता मैं? तब भी मैं मुंह से ही मना करता न? उसे पिंजरे में तो नहीं डाल पाता. भविष्य में अगर मेरी बेटी ही हो तो ज्यादा से ज्यादा क्या कर लूंगा मैं? शायद यही जो अभी फूफाजी कर रहे हैं. मुंहजोरी का भला क्या उत्तर हो सकता है.

बस भरोसा रखो अपने बच्चों पर कि वे कभी अपनी सीमा का अतिक्रमण न करें… विश्वास करो उन पर. उस के बाद यह बच्चों पर है कि वे अपनी परीक्षा में खरे उतर पाते हैं या नहीं. आप के भरोसे और विश्वास की कद्र कर पाते हैं या नहीं. तभी फूफाजी ने मेरा हाथ हिलाया, ‘‘समोसे ठंडे हो रहे हैं अजय…मनु अपनी सहेली के घर पार्टी में गई है. वहीं से खा कर आएगी…तुम खाओ न…’’ फूफाजी की मनुहार पर तो मेरा मन भीग रहा था पर मनु के प्रति उन का इतना खुला व्यवहार मेरी समझ में नहीं आ रहा था. यह उन का अपनी संतान पर विश्वास था या विश्वास करने की मजबूरी?

9 बजे के करीब मनु आई और सीधी अपने कमरे में चली गई. सुबह देर तक सोई रही.

‘‘क्या आज औफिस नहीं जाना है? बूआ ने नाश्ता लगा दिया है. चलो, उठो…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ मैं पूछ आया, मगर बूआ और फूफाजी पूछने नहीं गए.

‘‘जब मरजी होगी उठ कर बना भी लेगी और खा भी. जब हमारी रोकटोक का कोई मोल नहीं है, तो हमारी देखभाल का भी क्या मतलब? प्यार को प्यार होता है और इज्जत को इज्जत. जब से इस ने मुंहजोरी पकड़ी है हम कुछ भी नहीं कहते हैं…इस उम्र में क्या हमें आराम नहीं चाहिए?

‘‘सुबह जल्दी उठ कर इस का नाश्ता बनाना मेरे बस का नहीं…नौकरी करनी है तो सुबह 6 बजे उठो, अपना नाश्ता बनाओ… नहीं बनता तो 8 तक सोना भी जरूरी नहीं. हमारी सेवा मत करो कम से कम अपना काम तो खुद करो,’’ बूआ ने बड़बड़ाते हुए अपना आक्रोश निकाला. तब मैं सहज ही समझ गया उन का भी दर्द. मस्त रहने की कोशिश कर रहे हैं दोनों, मगर भीतर से परेशान हैं. फूफाजी नाश्ता कर के औफिस चले गए और बूआ बड़े स्नेह से मुझ से और खाने का अनुरोध करती रहीं. ‘‘बूआ, वह भूखी है और मैं खा रहा हूं.’’

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‘‘तो क्यों भूखी है? क्या मजबूरी है? देर रात तक जागना जरूरी तो नहीं है न?’’

‘‘कल तो आप दोनों बड़े खुश लग रहे थे और…’’

‘‘खुश न रहें तो क्या करें, तुम्हीं बताओ मुझे? तुम्हारे फूफा ने एक दिन सख्ती से बात की तो जानते हो क्या कह रही थी? कह रही थी कि ज्यादा सख्ती की तो घर से हिस्सा मांग कर अलग रहने चली जाएगी… यह घर उस के दादाजी का है… बराबर की हकदार है… आजकल लड़कियां अपने अधिकारों के लिए बड़ी जागरूक हो गई हैं न, तो ले ले अपना अधिकार. मांबाप का प्यार भी जबरदस्ती ले ले मिलता है तो…’’

‘‘क्या?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मनु ने ऐसा किया… मेरी तो कल्पना से भी परे था ऐसा सोचना. लड़का हो कर कभी अपने पापा के आगे जबान नहीं चलाई हम दोनों भाइयों ने. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. मांबाप के साथ मर्यादित रिश्ता है हमारा और मनु ने लड़की हो कर अपना हिस्सा मांगा? अरे लड़कियां तो मांबाप के लिए एक भावनात्मक संबल होती हैं. लड़कों पर आरोप होता है कि शादी होते ही मांबाप को अंगूठा दिखा देते हैं और मनु ने लड़की हो कर ऐसा किया. बूआ की पीड़ा पर मैं भी आहत हो गया एकाएक. शायद इसीलिए पिछले दिनों पापा ने एक अच्छा रिश्ता सुझाया था तो बूआ ने साफ इनकार कर दिया था.

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Serial Story: फैशन (भाग-1)

‘‘जरादेखना मेरे बाल ठीक हैं… ठीक लग रही हूं न मैं?’’ मैं ने नजरें उठा कर देखा. मेरी बूआ की लड़की पूछ रही थी.

‘‘किस तरफ से ठीक हैं, पूछ रही हो? मेरी तरफ से कुछ भी ठीक नहीं है. रूखेरूखे, उलझे से हैं… कटे भी इस तरह हैं मानों चुहिया कुतर गई हो…कंघी किए कितने दिन हो गए हैं?’’‘‘क्या बात करते हो?…अभीअभी क्व500 खर्च कर सैट करा कर आ रही हूं.’’

‘‘अच्छा, तो फिर खुद ही देख लो न… मेरी समझ से तो बाहर है तुम्हारा क्व500 खर्चना,’’ मैं हैरान रह गया था.

वह खीज गई, ‘‘तुम कैसे लड़के हो अजय? तुम्हें यह भी पता नहीं?’’

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‘‘तुम मुझ से पूछती ही क्यों हो मनु? कल तुम अपनी फटी ड्रैस दिखा कर पूछ रही थी कैसी है… क्या इतने बुरे दिन आ गए हैं आप लोगों के कि तन का कपड़ा भी साबूत नहीं रहा? मैं कुछ कहता हूं तो कहती हो मैं कैसा लड़का हूं. कैसा हूं मैं? न तुम्हारे कपड़े मेरी समझ में आते हैं और न ही तुम्हारी बातें. ऊपर से मेरा ही दिमाग घुमाने लगती हो. तुम्हें जो अच्छा लगता है करो… मुझे बिना वजह गंवार, जाहिल क्यों बनाती जा रही हो? चिथड़े पहनती हो और कहती हो फैशन है. बाल बुरी तरह उलझा रखेहैं… ऐसा है देवीजी अगर इंसानों की तरह जीना पुराना फैशन है तो मुझे बख्शो…आईना देखो… जैसा सुहाए वैसा करो,’’ यह कह कर मैं चुपचाप कमरे से बाहर आ गया.

बूआ ने दूर से देखा तो बोलीं, ‘‘फिर से झगड़ा हो गया क्या तुम दोनों में?’’

‘‘झगड़ा नहीं बूआ इसे कहते हैं वैचारिक मतभेद. यह लड़की जो भी करती है करे उस पर मेरी स्वीकृति की मुहर क्यों चाहती है? क्या हो गया है इसे? पहले अच्छीभली होती थी… यह कैसी हवा लगी है इसे?’’

‘‘इसे फैशन कहते हैं बबुआ… इसे कहते हैं जमाने के साथ चलना.’’

‘‘जमाने के साथ जो चलते हैं वे क्या पागलों की तरह बालों की लटें बना कर रहते हैं? जगहजगह से फटी जींस में से शरीर नजर आ रहा था कल… मैं ने अचानक देखा तो घबरा गया. एकदम भिखारिन लग रही थी. एकाएक ऐसा रूप बूआजी? वह दिन न आए इस पर कि इतनी दयनीय लगने लगे.’’

‘‘बूआ हंसते हुए बोलीं, ‘‘बिलकुल अपने पापा की तरह बात कर रहे हो. तुम्हारी ही उम्र का था जब एक बार यहां आया था. तब उसे मेरा ब्लाउज जरा सा फटा नजर आया था.’’

बूआ साग बीन रही थीं. वे आम बूढ़ी औरतों जैसी झक्की नहीं हैं. तभी तो लाडली बेटी को इतनी छूट दे रखी है. बूआ ने मेरे पिता की जो बात शुरू की थी उसे मैं अपने घर पर भी कई बार सुन चुका था. मेरे पिता 4 भाई थे, 1 ही बहन थी बूआ. राखी, भैयादूज पर ही बूआ को 8 सूट या साडि़यां मिल जाती थीं. दादीदादा जो देते थे वह अलग. फिर बूआ का ब्लाउज फटा क्यों? आगबबूला हो गए थे पापा. अपने बहनोई से ही झगड़ पड़े थे कि मेरी बहन का ब्लाउज फटा हुआ क्यों है? तब उन का जवाब था कि गरमी में बबुआ घिसा कपड़ा अच्छा लगता है.

‘‘तब गरमी थी और अब फैशन…

बूआ तुम मांबेटी हमारा ही खून क्यों जलाती रहतीं? तुम ने फटा ब्लाउज पहना ही क्यों था?’’

‘‘फटा नहीं था घिस कर नर्म हो गया था. तेरा पापा उसी पल बाजार गया और चिकन की कढ़ाई वाले 12 ब्लाउज ला कर मेरे आगे रख गया.’’

‘‘और हां घर जा कर खूब रोए भी थे पापा… दादी सुनाया करती थीं यह कहानी. उन्हें शक हो गया था शायद आप लोगों के हालात अच्छे नहीं हैं. आप की भी 3 ननदें थीं. फूफा अकेले थे कमाने वाले. पापा ने सोचा था जो हम देते हैं उसे बूआ अपनी ननदों को दे देती होगी और खुद फटों से ही काम चलती होगी.’’

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यह कहानी बहुत बार सुनी है मैं ने. फूफाजी के अहम को तब बहुत चोट लगी थी. बहन के लिए चिंता तो जायज थी लेकिन पति का मानसम्मान भी आहत हो गया था. कितने ही साल फूफाजी हमारे घर नहीं आए थे. घिसा ब्लाउज लड़ाई और मनमुटाव का कारण बन गया था. अपनीअपनी जगह दोनों ठीक थे. पापा बहन से प्यार करते थे, इसलिए असुरक्षा से घिर गए थे और फूफाजी इसलिए नाराज थे कि पापा ने उन पर शक किया कि वे अपनी पत्नी का खयाल नहीं रखते.

‘‘मायके का सामान कभी अपनी ननदों को नहीं दिया था मैं ने. तुम्हारे फूफा कभी मानते ही नहीं थे देने को. मेरे ट्रंक में हर पल 10-12 नए जोड़े रहते थे. कभी मैं भी कुछ खरीद लिया करती थी. 3 ननदें थीं और 3 ही बूआ. तुम्हारे फूफा की समझ लो 6-6 बेटियां थीं, जिन्हें इस चौखट से कभी खाली हाथ नहीं जाने दिया था मैं ने. देने का समय आता तो तुम्हारे फूफा सदा पहले पूछ लेते थे कि यह साड़ी या सूट तुम्हें कहां से मिला है? खुद खरीदा है या किसी भाईभाभी ने दिया है? कभी मैं कह भी देती कि क्या फर्क पड़ता है अब मेरी चीज है मैं जिसे मरजी दूं तो नहीं मानते थे. जैसे मैं चाहता हूं मेरा उपहार मेरी बहन पहने उसी तरह अपने भाई का उपहार भी सिर्फ तुम ही पहनोगी.’’

‘‘तुम ने वह घिसा कपड़ा पहना क्यों ही था बूआ जिस ने मेरे पापा को रुलारुला कर मारा…फूफाजी बेचारों का अपमान हुआ. मनमुटाव चलता रहा इतने साल. प्रश्न सिर्फ इतना सा था कि कोई भी अपनी बहनबेटी को फटेहाल नहीं देखना चाहता. ऐसा लगता है शायद हम ही नाकारा, नाकाबिल हैं जो उन के लिए कपड़े तक नहीं जुटा सके…तन का कपड़ा ऐसा तो हो जो गरिमा प्रदान करे. कपड़ों से ही तो हम किसी के व्यक्तित्व का अंदाजा लगाते हैं. मुझे तो बड़ा बुरा लगता है जब कोई शालीन कपड़े न पहने. आजकल जैसे चिथड़े लड़कियां पहन कर निकलती हैं मुझे सोच कर हैरानी होती है. क्या इन के पिता, इन के भाई देखते नहीं हैं? क्या उन के सिर शर्म से झुकते नहीं हैं?’’

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‘‘जिन के भाई रोकते हैं उन की बहनें अपने घर से इस तरह के कपड़े पहन कर निकलती ही नहीं हैं. अपनी सहेली के घर जा कर बदल लेंगी या कालेज के टौयलेट में दिन भर उन में रहेंगी. घर लौटते वही पहन लेंगी जो घर से निकलते पहना था. अपने मन की कर लेंगी न…यही सोच तो मैं मना नहीं करती हूं…ठीक है कर अपने मन की, एक बार हमारी तरह चूल्हेचक्की में पिसने लगेगी तो कहां मन का कर पाएगी.’’

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हमारी आंखों से देखो: गायत्री ने कैसे सब का दिल जीत लिया

Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-3)

‘‘अगर यही सच हो जो आप ने  अभीअभी समझाया तो यही सच है. शैली पत्थर है और मैं उस पर अपना प्यार लुटाना नहीं चाहता. मैं उस के लिए नहीं बना, भैया.

मैं यह नहीं कहता वह मुझे पसंद नहीं. वह बहुत सुंदर है, स्मार्ट है. सब है उस में लेकिन मुझ जैसा इंसान उस के लिए उचित नहीं होगा. मैं वैसा नहीं हूं जैसा उसे चाहिए. उस के लिए 2 और 2 सदा 4 ही होंगे और मैं 2 और 2 कभीकभी 5 और कभीकभी 22 भी करना चाहूंगा. शैली में कोई कमी नहीं है. मैं ही उस के योग्य नहीं हूं. मैं शैली से शादी नहीं कर सकता,’’ अनुज ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘पिछले कितने समय से आप साथसाथ हैं?’’ हैरान रह गई थी गायत्री.

‘‘साथ नहीं हैं हम, सिर्फ एक जगह काम करते हैं. अब मुझे समझ में आ रहा है, वह लड़की शैली नहीं हो सकती जिस पर मैं आंख मूंद कर भरोसा कर सकूं. इंसान को जीवन में कोई तो पड़ाव चाहिए. शैली तो मात्र एक अंतहीन यात्रा होगी और मैं भागतेभागते अभी से थकने लगा हूं. मैं रुक कर सांस लेना चाहता हूं, भैया,’’ अपना मन खोल दिया था अनुज ने गायत्री के सामने. पूरापूरा न सही, आधाअधूरा ही सही.

‘‘शैली जानती है यह सब?’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘वह पत्थर है. मैं ने अभी बताया न. उसे मेरी पीड़ा पर दर्द नहीं होता, उसे मेरी खुशी पर चैन नहीं आता. हमारा रिश्ता सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि मेरी तनख्वाह 50 हजार है. उस के 50 हजार और मेरे 50 हजार मिल कर लाख बनेंगे और उस के बाद वह लाख कहांकहां खर्च होगा वह इतना ही सोचती है. मैं 2 पल चैन से काटना चाहूंगा, यह सुन उसे बुरा लगता है. मेरे लिए घर का सुखचैन लाखोंकरोड़ों से भी कीमती है और उस के लिए यह कोरी भावुकता. जैसे तुम सोचती हो हमारे बारे में, मेरेपिता के बारे में, भैयाभाभी के बारे में, वह तो कभी नहीं सोचेगी. वह इतनी अपनी कभी लगी ही नहीं जितनी तुम.’’

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मानो सब कुछ थम सा गया. कमरे में, चलती हवा भी और हमारी सांस भी.

‘‘मैं… मैं कहां चली आई आप औैर शैली के बीच,’’ हड़बड़ा गई थी गायत्री. घबरा कर मेरी ओर देखा. जैसे कुछ अनहोनी होने जा रही हो. क्या कहता मैं? जो हो रहा था वह हो ही जाए, अचेतन में मैं भी तो यही चाहता था न. वास्तव में घबरा गई गायत्री, साधारण सी बातचीत किस मोड़ पर चली आई थी, उस का घबरा जाना स्वाभाविक ही था न. सुरक्षा के लिए उस ने मेरी ओर देखा और जब कुछ भी समझ नहीं आया तो चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. नाश्ता वहीं मेज पर पड़ा था. अनुज शायद उस के पीछे जाना चाहता था, मैं ने ही रोक लिया.

‘‘जाने दो. सोचने दो उसे. इतना बड़ा झटका दे दिया अब जरा संभलने का समय

तो दो.’’

‘‘वह भूखी ही चली गई. आप ही चले जाइए,’’ अनुज ने कहा.

‘‘यह तो होना ही था. कुछ समय अकेला रहने दो. देखते हैं क्या होगा.’’

‘‘भैया, उस ने कुछ भी नहीं खाया. उसे भूख लगी होगी. आप चलिए मेरे साथ,’’ अनुज के चेहरे पर विचित्र भाव थे. क्या यही उस का गायत्री के प्रति ममत्व और अनुराग है? सब की भूख की चिंता रहती है गायत्री को तो क्या अनुज उसे भूखा ही छोड़ देगा? भला कैसे छोड़ देगा? उस की प्लेट उठा मैं गायत्री के कमरे में चला आया जहां वह सन्न सी बैठी थी. अपराधी सा मेरे पीछे खड़ा था अनुज.

‘‘गायत्री, बेटा, नाश्ता क्यों छोड़ आईं? गायत्री, मेरा बच्चा, नाराज है मुझ से?’’ अपने परिवार की अति कीमती धरोहर मेरे मित्र ने मेरे घर इसी विश्वास पर छोड़ी थी कि उस का मानसम्मान हमारी जान से भी ज्यादा प्रिय होगा हमें.

मैं ने कंधे पर हाथ रखा तो मेरी बांहों में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. थपथपाता रहा मैं तनिक संभली तो स्वयं से अलग कर उस के आंसू पोंछे, ‘‘अगर तुम्हें हमारा घर, हमारे घर के लोग पसंद नहीं तो तुम न कर दो. अनुज तुम्हें पसंद नहीं तो किस की मजाल, जो कोई तुम्हारी तरफ नजर भी उठा पाए.’’

चुप रही गायत्री, सुबकती रही. कुछ भी नहीं कहा. अनुज ने नाश्ता सामने रख दिया, ‘‘भूखी मत रहो, गायत्री.’’

अनुज की भीगी आंखों में अपार स्नेह और निष्ठा पा कर मुझे ऐसा लगा, अनुज की भावनाओं के सामने संसार का हर भाव फीका है, झूठा है.

‘‘गायत्री, गायत्री तुम बहुत अच्छी हो और मेरा मन कहता है मुझे तुम से बेहतर इंसान नहीं मिल सकता,’’ अनुज ने कहा.

‘‘शैली के साथ धोखा करेंगे आप?’’

‘‘हम दोनों में कोई नाता, कोई भी संबंध नहीं है, गायत्री. न स्नेह का, न अपनेपन का. पिछले 6 महीनों से मैं उस में वही सब तो ढूंढ़ रहा हूं जो नहीं मिला. गलती मुझ से होती है और उसी गलती के लिए तुम माफी मांगती हो. मेरी आंखों में पानी आ जाए तो तुम अपने बनाए नाश्ते में ही मिर्च तीखी होने को वजह मान कर दुखी होती हो. तुम्हें देखता हूं तो लगता है तुम्हारे बाद सारी इच्छाएं शांत हो गईं और कुछ चाहिए ही नहीं.

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‘‘शैली वह नहीं जिसे देख कर जरा सा भी सुख, जरा सा भी चैन आए. धोखा तो तब होता अगर वह भी मुझे पसंद करती. लगाव होता उसे मुझ से. हमारा नाता कभी भावनाओं का रहा ही नहीं. कोई भी एहसास नहीं हमारे मन में एकदूसरे के लिए. वह आज के युग की ‘प्रोफैशनल’ लड़की है, जिस के पास वह सब है ही नहीं, जो मुझे चाहिए. तुम मेरी गलती पर भी माफी मांगती हो और वह अपनी बड़ी से बड़ी भूल भी मेरे माथे मढ़ मेरे ही कंधे पर पैर रख कर अगली सीढ़ी चढ़ जाएगी. मैं आंखें मूंद कर उस पर भरोसा नहीं कर सकता.’’

‘‘शैली तो बहुत सुंदर है?’’ मासूम सा प्रश्न था गायत्री का.

‘‘सच है, वह बहुत सुंदर है लेकिन तुम्हारी सुंदरता के सामने कहीं नहीं टिकती. तुम्हारी सुंदरता तो हमारे घर के चप्पेचप्पे में नजर आती है. पिताजी से पूछना. वह भी बता देंगे, तुम कितनी सुंदर हो. भैया से पूछा. भैया, आप बताइए न गायत्री को, वह कितनी सुंदर है,’’ अनुज बोलता गया.

बच्चा समझता था मैं अनुज को. सोचता था पूरी उम्र उसे मेरी उंगली पकड़ कर चलना पड़ेगा. डर रहा था, मैं कैसे गायत्री के प्रति पनप गए उस के प्रेम को कोई दिशा, कोई सहारा दे पाऊंगा. नहीं जानता था इतनी सरलता से वह मन का हाल गायत्री के आगे खोल देगा.

‘‘हमारी आंखों से अपनेआप को देखो, गायत्री,’’ पुन: भीग उठी थी अनुज की आंखें. हाथ बढ़ा कर उस ने गायत्री का गाल थपथपा दिया. रो पड़ी थी गायत्री भी. पता नहीं क्या भाव था, मैं दोनों को गले लगा कर रो पड़ा. ऐसा लगा मन मांगी मुराद पूरी हो गई. ये आंसू भी कितने विचित्र हैं न, जबतब आंखें भिगोने को तैयार रहते हैं. स्नेह से गायत्री का माथा चूम लिया मैं ने. सच ही कहा अनुज ने, ‘‘हमारी आंखों से देखो, गायत्री, अपनेआप को हमारी आंखों से देखो.’’

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अनुज आज फिर से यही गजल सुन रहा है:

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

मैं जानता हूं, अभी वह आएगा और मुझ से इस का अर्थ पूछेगा.

‘‘भैया, इस का मतलब क्या हुआ, जरा समझाओ न. पहली पंक्ति का अर्थ तो समझ में आता है. वह यह कि अगर हम विश्वास से पत्थर के आगे भी सिर झुका देंगे तो वह देवता हो जाएगा. यह दूसरी पंक्ति का मतलब क्या हुआ? ‘इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’ कौन बेवफा हो जाएगा? क्या देवता बेवफा हो जाएगा? भैया दूसरी पंक्ति का पहली से कुछ मेल नहीं बनता न.’’

अनुज को क्या बताऊंगा मैं, सदा की तरह आज भी मैं यही कहूंगा, ‘‘देखो बेटा, कवि और शायर जब कुछ लिखने बैठते हैं, उस पल वे किस मनोस्थिति में होते हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. उस पल उस की नजर में देवता कौन था, पत्थर कौन था और बेवफा कौन है, वही बता सकता है.’’

वास्तव में मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं इस का अर्थ क्या हुआ. सच पूछा जाए तो जीवन में हम कभी किसी पर सही या गलत का ठप्पा नहीं लगा सकते. आपराधिक प्रवृत्ति के इंसान को एक तरफ कर दें तो कई बार वह भी अपने अपराधी होने का एक जायज कारण बता कर हमें निरुत्तर कर देता है. जब एक अपराधी स्वयं को सही होने का एहसास दे जाता है तो सामान्य इंसान और उस पर कवि और शायर क्या समझा जाए, क्या जानें. समाज को कानून ने एक नियम में बांध रखा है वरना हर मनुष्य क्या से क्या हो जाए, इस का अंत कहां है.

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‘‘बड़े भैया, नाश्ता?’’ गायत्री ने मुझे पुकारा.

कपड़े बदल कर मैं बाहर आ गया. गायत्री बिजली की गति से सारे काम कर स्वयं तैयार होने जा चुकी थी. मेज पर नाश्ता सजा था. आज मटर वाला नमकीन दलिया सामने था, जो मुझे पहलेपहल तो पसंद नहीं आया था, लेकिन अब अच्छा लगने लगा था.

‘‘अनुज… आ जाओ मुन्ना. वरना देर हो जाएगी. जल्दी करो और यह गजल भी बंद कर दो.’’

यह गजल भी चुभने लगी है मेरे दिमाग में. मैं भी अकसर सोचने लगता हूं, आखिर क्या मतलब हुआ इस का.

मेरी पत्नी बैंक में नौकरी करती है. हमारे बच्चे बाहर होस्टल में पढ़ते हैं. मेरे एक सहकर्मी का तबादला हो गया था और उन की बहन को 6 महीने के लिए हमारे पास रहना पड़ रहा है. यह गायत्री वही है, जो है तो हमारी मेहमान लेकिन पिछले 6 महीनों से हमारी अन्नपूर्णा बन कर हमारी सभी आदतें बिगाड़ चुकी है.

पत्नी के जाने के बाद अकसर मुझे अपने वृद्ध पिता और छोटे भाई का नाश्ता बनाना पड़ता था, जो पिछले 6 महीनों से मैं नहीं बना रहा. अनुज की सगाई लगभग हो चुकी है. उसी कंपनी में है लड़की, जिस में अनुज है. अनुज की शाम अकसर उसी के साथ बीतती है.

पिताजी का नाश्ता भी उन तक पिछले 6 महीने से यह गायत्री ही पहुंचा रही है. जैसेजैसे गायत्री का समय समाप्त हो रहा है मुझे अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी का आभास और भी शिद्दत से होने लगा है. गायत्री के बाद क्या होगा, मैं अकसर सोचता रहता हूं.

‘‘गायत्री, चलो बच्चे, जल्दी करो. तुम्हारी बस छूट जाएगी,’’ मैं गाड़ी में रोज गायत्री को बस स्टैंड पर छोड़ देता हूं जहां से वह पी.जी.ई. की बस पकड़ लेती है.

गायत्री होम साइंस में एम.ए. कर रही है. आजकल मरीजों की खुराक पर अध्ययन चल रहा है. शाम को भी वह हम से पहले आ जाती है और रात को खाना मेज पर सजा मिलता है.

‘‘गायत्री के बाद क्या होगा?’’

‘‘वही जो पहले होता था. पहले भी तो हम जी ही रहे थे न?’’ अधेड़ होती पत्नी भी बेबसी दर्शाने लगी थी.

‘‘जीना तो पड़ेगा. अनुज की पत्नी भी तो नौकरी वाली है. समझ लो चाय का कप सदा खुद ही बना कर पीना पड़ेगा.’’

पता नहीं क्यों अब तकलीफ सी होने लगी है. सहसा थकावट होने लगी है. अब रुक कर सांस लेने को जी चाहने लगा है. भागभाग कर थक सा गया हूं मैं भी. मेरा कालेज 4 बजे छूट जाता है, जिस के बाद रात तक घर की देखभाल होती है और मैं होता हूं. बिस्तर पर पड़े पिता होते हैं और पिछले 6 महीने से यह मासूम सी गायत्री होती है, जिस ने एक और ही सुख से मेरा साक्षात्कार करा दिया है.

पहली बार जब इसे देखा था, तब बड़ी सामान्य सी लगी थी गायत्री. सीधीसादी, सांवली सी, सलवारकमीज, दुपट्टे में लिपटी घरेलू लड़की, जिस पर उचटती सी नजर डाल कर अनुज चला गया था. चलो, अच्छा ही है, घर में जवान भाई है. दोस्त की अमानत से दूर ही रहे तो अच्छा है. अनुज शरीफ, सच्चरित्र है, फिर भी दूरी रहे तो बुरा भी क्या है. फिर पता चला अपनी एक सहकर्मी से उस की दोस्ती रिश्ते में बदलने वाली है तो मैं और भी निश्चिंत हो गया.

रात सब खाने पर इकट्ठा हुए तो मेज पर सजा स्वादिष्ठ खाना परोसते समय गायत्री ने बताया, ‘‘भाभी, 15 तारीख को मैं चली जाऊंगी.’’

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‘‘क्या?’’ हाथ ही रुक गए मेरे. क्या सचमुच?

अनुज से मेरी नजरें मिलीं. बचपन से जानता हूं भाई को. उसे क्या चाहिए, क्या

नहीं, उस की नजरें ही देख कर भांप जाता हूं. अगर मेरा उम्र भर का तजरबा गलत नहीं तो वह भी गलत नहीं, जो अभीअभी उस की नजरों में मैं ने पढ़ा. ज्यादा बात नहीं करते थे दोनों और इस एक पल में जो पढ़ा वह ऐसा था मानो अनुज का कुछ बहुत प्रिय छिन जाने वाला हो. प्लेट का छोर पकड़तेपकड़ते छूट

गया था उस के हाथों से और सारा खाना प्लेट से निकल कर मेज पर बिखर गया था.

‘‘अरे, क्या हो गया? गरम तो नहीं लगा? क्षमा कीजिएगा, प्लेट छूट गई मेरे हाथ से,’’ क्षमा मांग रही थी गायत्री, जिस पर अनुज चुप था. प्लेट किस के हाथ से छूटी, मैं ने यह भी देखा और क्षमा कौन मांग रहा है यह भी.

‘‘क्या बात है, अनुज?’’

‘‘कुछ भी नहीं भैया, बस, ऐसे ही.’’

‘‘आज शैली नहीं मिली क्या? परेशान हो, क्या बात है?’’

मैं ने पुन: पूछा. शैली उस की मंगेतर का नाम है. उस के नाम पर भी न वह शरमाया और न ही हंसा.

गायत्री ने नई प्लेट सजा दी.

‘‘धन्यवाद,’’ चुपचाप प्लेट थाम ली अनुज ने.

गायत्री वैसी ही थी जैसी सदा थी.

पिताजी का खाना परोस कर उन के कमरे में चली गई. मेरी पत्नी ने भी बड़ी गौर से सब देखा. अनुज यों खा रहा था जैसे कोई जबरदस्ती खिला रहा हो. ऐसा क्या है, जो हमारी समझ में आ भी रहा है और नहीं भी. जरा सा मैं ने भी कुरेदा.

‘‘मैं सोच रहा था शैली के साथ ‘रिंग सैरेमनी’ हो जाती तो अच्छा ही है. अभी गायत्री भी है. उसे भी अच्छा लगेगा. घर की सदस्या ही है न यह भी. तुम शैली से बात करना. उस का भाई कब तक आ रहा है अमेरिका से? सगाई को लटकाना अच्छा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी…’’ बस, इतना ही कह कर अनुज ने बात समाप्त कर दी.

आगे पढ़ें- गायत्री रसोई में ही थी….

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