अनमोल उपहार- भाग 2: सरस्वती के साथ क्या हुआ

विश्वनाथ की बूआ कमला अपने परिवार के साथ शादी के बाद से ही मायके में रहती थीं. उन के पति ठेकेदारी करते थे. बूआ की 3 बेटियां थीं. इसलिए भी अब विश्वनाथ ही सब की आशाओं का केंद्र था. तेज दिमाग विश्वनाथ ने जिस दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पास की सारे घर में जैसे दीवाली का माहौल हो गया.

‘मैं जानती थी, मेरा विशू एक दिन सारे गांव का नाम रोशन करेगा. मां, तेरे पोते ने तो खानदान की इज्जत रख ली.’  विश्वनाथ की बूआ खुशी से बावली सी हो गई थीं. प्रसन्नता की उत्ताल तरंगों ने सरस्वती के मन को भी भावविभोर कर दिया था.

विश्वनाथ पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले मां के पांव छूने आया था.

‘सुखी रहो, खुश रहो बेटा,’ सरस्वती ने कांपते स्वर में कहा था. बेटे के सिर पर हाथ फेरने की नाकाम कोशिश करते हुए उस ने मुट्ठी भींच ली थी. तभी बूआ की पुकार ‘जल्दी करो विशू, बस निकल जाएगी,’ सुन कर विश्वनाथ कमरे से बाहर निकल गया था.

समय अपनी गति से बीतता रहा. विशू की नौकरी लगे 2 वर्ष बीत चुके थे. उस की दादी का देहांत हो चुका था. अपनी तीनों फुफेरी बहनों की शादी उस ने खूब धूमधाम से अच्छे घरों में करवा दी थी. अब उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे.

एक शाम सरस्वती की ननद कमला एक लड़की की फोटो लिए उस के पास आई. उस ने हुलस कर बताया कि लड़की बहुत बड़े अफसर की इकलौती बेटी है. सुंदर, सुशील और बी.ए. पास है.

‘क्या यह विशू को पसंद है?’ सरस्वती ने पूछा.

‘विशू कहता है, बूआ तुम जिस लड़की को पसंद करोगी मैं उसी से शादी करूंगा,’ कमला ने गर्व के साथ सुनाया, तो सरस्वती के भीतर जैसे कुछ दरक सा गया.

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

अनमोल उपहार- भाग 1: सरस्वती के साथ क्या हुआ

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

बिस्तर पर लेटी दादीमां अतीत की धुंध भरी गलियों में अनायास भागती चली गईं.

‘अम्मां, मनहूस किसे कहते हैं?’ 4 साल के विश्वनाथ ने पूछा तो सरस्वती चौंक पड़ी थी.

‘बूआ कहती हैं, तुम मनहूस हो, मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो मैं भी मर जाऊंगा,’ बेटे के मुंह से यह सब सुन कर सरस्वती जैसे संज्ञाशून्य सी हो गई और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘बूआ झूठ बोलती हैं, विशू. तुम ही तो मेरा सबकुछ हो.’

तभी सरस्वती की ननद कमला तेजी से कमरे में आई और उस की गोद से विश्वनाथ को छीन कर बोली, ‘मैं ने कोई झूठ नहीं बोला. तुम वास्तव में मनहूस हो. शादी के साल भर बाद ही मेरा जवान भाई चल बसा. अब यह इस खानदान का अकेला वारिस है. मैं इस पर तुम्हारी मनहूस छाया नहीं पड़ने दूंगी.’

‘पर दीदी, मैं जो नीरस और बेरंग जीवन जी रही हूं, उस की पीड़ा खुद मैं ही समझ सकती हूं,’ सरस्वती फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘क्यों उस मनहूस से बहस कर रही है, बेटी?’ आंगन से विशू की दादी बोलीं, ‘विशू को ले कर बाहर आ जा. उस का दूध ठंडा हो रहा है.’

बूआ गोद में विशू को उठाए कमरे से बाहर चली गईं.

सरस्वती का मन पीड़ा से फटा जा रहा था कि जिस वेदना से मैं दोचार हुई हूं उसे ये लोग क्या समझेंगे? पिता की मौत के 5 महीने बाद विश्वनाथ पैदा हुआ था. बेटे को सीने से लगाते ही वह अपने पिछले सारे दुख क्षण भर के लिए भूल गई थी.

सरस्वती की सास उस वक्त भी ताना देने से नहीं चूकी थीं कि चलो अच्छा हुआ, जो बेटा हुआ, मैं तो डर रही थी कि कहीं यह मनहूस बेटी को जन्म दे कर खानदान का नामोनिशान न मिटा डाले.

सरस्वती के लिए वह क्षण जानलेवा था जब उस की छाती से दूध नहीं उतरा. बच्चा गाय के दूध पर पलने लगा. उसे यह सोच कर अपना वजूद बेकार लगता कि मैं अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिला सकती.

कभीकभी सरस्वती सोच के अथाह सागर में डूब जाती. हां, मैं सच में मनहूस हूं. तभी तो जन्म देते ही मां मर गई. थोड़ी बड़ी हुई तो बड़ा भाई एक दुर्घटना में मारा गया. शादी हुई तो साल भर बाद पति की मृत्यु हो गई. बेटा हुआ तो वह भी अपना नहीं रहा. ऐसे में वह विह्वल हो कर रो पड़ती.

समय गुजरता रहा. बूआ और दादी लाड़लड़ाती हुई विश्वनाथ को खिलातीं- पिलातीं, जी भर कर बातें करतीं और वह मां हो कर दरवाजे की ओट से चुपचाप, अपलक बेटे का मुखड़ा निहारती रहती. छोटेछोटे सपनों के टूटने की चुभन मन को पीड़ा से तारतार कर देती. एक विवशता का एहसास सरस्वती के वजूद को हिला कर रख देता.

भाभी- भाग 6: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

‘बहुओं की क्यों नहीं आएगी, आखिर बड़े चाव से उन्हें घर लाई हूं, उन के सभी अरमान पूरे कर के मैं ने अपने ही मन की साध पूरी की है, पहनओढ़ कर कितनी सुंदर लगती हैं, जब कभी शृंगार कर लेती हैं तो मेरा मन उन की नजर उतारने को करता है, उन्हें देख कर तो मेरी चाल में एक घमंड उभर आता है. पता है गौरव कभीकभी तो मैं रिश्तेदारों की बहुओं से उन की तुलना करने बैठ जाती हूं कि पासपड़ोस में, रिश्तेदारों में है कोई जो मेरी बहुओं से अधिक सुंदर हो.’’

तभी बेला बोल उठी, ‘‘और भाभी मैं?’’

‘‘अरी, तू किसी और की पसंद की है क्या? तुझे भी तो मैं ही ठोकबजा कर लाई थी, तू किसी से कम कैसे हो सकती है? बहुएं छांटने में मैं ने कोई समझौता नहीं किया, मैं दहेज के लोभ में कभी नहीं आई, बस गुण, शील, सौंदर्य के पीछे ही भागी.’’

तभी फोन की घंटी बजी, तो गौरव ने रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो, चाचाजी, प्रणाम. सौमित्र बोल रहा हूं… वहां सब ठीक है?’’

‘‘हां बेटा सब ठीकठाक है और तुम लोग?’’

‘‘यहां सब कुशलमंगल हैं, जरा मां से बात करा दो.’’

‘‘हांहां,’’ कह कर मैं ने भाभी को रिसीवर थमा दिया, ‘‘भाभी, सौमित्र का फोन है.’’

‘‘हैलो मां, प्रणाम.’’

‘‘सुखी रह, इतने दिनों बाद मां की याद आई, नालायक. इतने दिनों तक फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘फोन किसलिए करता, आप कहीं गैर जगह थोड़े ही न गई हैं, अपने तीसरे बेटे के पास गई हैं, बड़े के पास आप हो तो क्या हालचाल पूछता? वैसे मैं उन से बातचीत करता रहता हूं. हां मां, फोन इसलिए किया है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है. परसों ही वे कह रहे थे कि सौमित्र तुम्हारी माताजी को जरूर आना है. आप आ जाइए. कहें तो मैं लेने आ जाऊं? पूछ लीजिए चाचाजी से.’’

भाभी बोलीं, ‘‘अरे गौरव, सौमित्र बुला रहा है कि डा. योगेश की लड़की की शादी है, आ जाएं, मुझे जाना चाहिए. डा. योगेश हमारे फैमिली डाक्टर हैं, उन से बिलकुल घर जैसे संबंध हैं. सौमित्र पूछ रहा है कि मैं लेने आ जाऊं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं भाभी, वह क्या करेगा आ कर, कल शनिवार है, मेरी छुट्टी है. मैं छोड़ आऊंगा आप को.’’

मैं भाभी को शनिवार की प्रात: आगरा छोड़ कर शाम को ही वापस दिल्ली लौट आया.

उस के बाद जो वहां हुआ उस की खबर मुझे सौमित्र ने एक दिन फोन पर दी.

भाभी… के आदेशानुसार दोनों बहुएं डा. योगेश की लड़की की शादी के लिए सजधज कर तैयार हो गईं.

भाभी ने आदेश दिया, ‘‘अरी, बड़की, छुटकी जल्दी करो, बरात आने का समय हो चला है.’’

दोनों बहुओं ने साड़ी और गहने पहने, शृंगार किया और फिर सिर पर साड़ी का पल्लू रखा, आ कर भाभी के सामने खड़ी हो गईं और बोलीं, ‘‘चलिए मम्मीजी, हम तैयार हैं.’’

बैंकटहाल की सजावट से आंखें चौंधिया रही थीं. ऐसा लगता था मानो बच्चों से ले कर बड़ेबूढ़ों तक सभी नरनारियों की कोई सौंदर्य प्रतियोगिता हो, नवयुवतियां, बहुएं खासतौर से जम रही थीं. सभी की नजर वहां उपस्थित बहुओं पर थी, पर पता ही नहीं लग रहा था कि कौन बहू है, कौन बेटी. हाथ में चूड़ा पहने कोईकोई नववधू तो पहचानी जा सकती थी.

अधिकतर बहुएं, लड़कियां घाघरे पहने थीं, जो फर्श पर घिसटते हुए पोंछा सा लगाते प्रतीत हो रहे थे. कुछ स्त्रियां साड़ी पहने हुए थीं, सभी नंगे सिर, मात्र छोटा सा ब्लाउज पहने थीं. चुन्नी शायद ही किसी के सिर पर हो. यदि किसी के पास चुन्नी थी भी तो वह एक कंधे पर लटकी हुई, मात्र कंधे की शोभा बढ़ा रही थी.

भाभी की दोनों बहुएं, जरी की भारी कीमती साड़ी पहने हुए थीं, सिर साड़ी के पल्लू से ढके थे. भाभी को अपनी बहुएं सब से अलगथलग सी लग रही थीं. अजीब सी दिखाई दे रही थीं, भाभी ने सोचा कि इतने प्यारे लंबे, घने, काले बालों के जूड़े बनाए हुए हैं बहुओं ने… क्या फायदा? सिर ढके हुए हैं.

भाभी को बहुओं का यह रंगढंग कुछ जंचा नहीं. इतनी महंगी साडि़यां पहने हुए हैं बहुएं, जो किसी के पास ऐसी नहीं, लेकिन जो चीप तो नहीं कहनी चाहिए, पर अपेक्षाकृत सस्ती हैं, उन में जो बात नजर आती है, वह बात मेरी बहुओं के परिधान में नहीं दिखाई दे रही थी.

भाभी सारे समारोह का गहराई से निरीक्षण कर रही थीं, सब के हावभाव, एकदूसरे से हंसहंस कर बातें करना, मटकमटक कर चलना. भाभी को लगा कि मेरी बहुएं तो इन के सामने सेठानी सी लग रही हैं. उन्हें बरदाश्त नहीं हुआ, वे बहुओं के पास गईं. वे अकेली बैठी हुई थीं.

भाभी ने धीरे से कहा, ‘‘गवारों की तरह सिर क्यों ढके बैठी हो?’’

बहुओं ने झट से सिर से साड़ी के पल्लू उतार लिए. भाभी को वे पहले से अच्छी लगीं.

घर लौटतेलौटते रात का 1 बजने जा रहा था. रास्ते में भाभी ने कहा, बेटों से पूछा ‘‘तुम लोग कहां थे, दिखाई नहीं पड़े?’’

‘‘वहीं तो थे यारदोस्तों के साथ,’’ सौमित्र ने कहा.

‘‘और बीवियां कहां हैं, यह पता ही नहीं रहा तुम दोनों को? अपनीअपनी पत्नी के साथ क्यों नहीं थे? मैं देख रही थी कि सब अपनीअपनी पत्नी के साथ घूमघूम कर खापी रहे थे. कितना अच्छा लग रहा था. उन के प्यार को देख कर, लगता था कितने खुश हैं ये लोग और तुम्हारा कुछ पता नहीं, कहां छिप गए थे? जरा भी मैनर्स नहीं तुम लोगों में.’’

अगले दिन भाभी ने सुबह ही बहुओं को हुक्म दिया, ‘‘अरी बड़की, छुटकी सुनो, आज मार्केट चलना है, थोड़ी शौपिंग करनी है. खाने से जल्दी निबट लेना.’’

दोपहर के बाद भाभी बहुओं को ले कर एक प्रसिद्ध मौल में पहुंची. सब से पहले साडि़यों के शोरूम में प्रविष्ट हुईं. बोलीं, ‘‘देखो बड़की, छुटकी अपनीअपनी पसंद की कुछ डिजाइनर साडि़यां ले लो.’’

‘‘पर मम्मीजी, हमारे पास तो एक से बढ़ कर कीमती साडि़यों से अलमारियां भरी पड़ी हैं, क्या करना है और साडि़यां ले कर?’’ बड़की ने कहा और पीछे से छुटकी को चुटकी काटी.

छुटकी बोली, ‘‘दीदी ले लेंगी, मुझे नहीं चाहिए.’’

बड़की बोली, ‘‘अरी, मैं बड़ी हूं, तेरे सामने पहनती क्या मैं अच्छी लगूंगी? नहीं, तू ही ले ले.’’

भाभी- भाग 5: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अगली प्रात: मैं भाभी को ले कर दिल्ली आ गया, बेटेबहुओं ने बहुत विनती की कि मां मत जाओ, पर मैं उन्हें यह कह कर ले आया कि मेरा अपना घर भी उन का अपना ही घर है.

भाभी को दिल्ली आए हुए 15 दिन बीत गए. मैं सूक्ष्मता से परख रहा था उन के चेहरे को. मैं ने महसूस किया कि उन के चेहरे की उत्फुल्लता का ग्राफ दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा है और उदासी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है.

मैं ने बेला से पूछा, ‘‘लगता है भाभी की मुखकांति कुछ फीकी सी पड़ने लगी है. क्या तुम भी ऐसा ही सोचती हो?’’

‘‘हां, लगता तो मुझे भी ऐसा ही है.’’

‘‘आखिर क्यों?’’

‘‘कह नहीं सकती गौरव. पर मैं सतर्क हूं कि कोई भी ऐसा काम न करूं, जो उन्हें बुरा लगे. कई बार उन के सामने मेरे मुंह से ‘गौरव’ निकलते निकलते बचा है. मैं जो कुछ भी करती हूं, पहले सोच लेती हूं कि उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा. उन के उठने से पहले सो कर उठ जाती हूं, उन के उठते ही उन के पास जा कर उन के चरणस्पर्श करती हूं, उन के पास बैठ कर पूछती हूं, ‘‘भाभी, नींद ठीक से आई?’’

‘‘हां, बहू, बहुत अच्छी आई.’’

‘‘चाय ले आऊं भाभी?’’

‘‘अभी ठहर जा जरा फ्रैश हो लूं.’’

‘‘रात को जब वे कई बार कहती हैं कि अरी उठ, जा देख गौरव तेरे इंतजार में जाग रहा होगा, जा अब छोड़ मुझे, कब तक मेरे पैर दबाती रहेगी.’’

तब कहीं रात में उन के पास से आती हूं. आज सुबह थोड़ी देर उन के पलंग पर बैठी ही थी तो बोलीं, ‘‘अरी उठ, यहां बैठी रहेगी क्या? जा उठ कर गौरव को चाय दे, उठा उसे, सूरज चढ़ आया है, कब तक सोता रहेगा आलसियों की तरह?’’

‘‘वे तो नहा कर तैयार भी हो चुके.’’

यह सुनते ही वे आंखें फाड़ कर देखने लगीं, ‘‘अच्छा?’’

‘‘हां, भाभी.’’

तभी मैं वहां पहुंच गया. भाभी के चरणस्पर्श किए तो भाभी ने आशीर्वाद देते हुए पूछा, ‘‘अरे, गौरव आज सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यही गौरव सुबह कान पकड़ कर उठाने से उठता था और आंखें बंद किएकिए ही चाय का प्याला हाथ में पकड़ लिया करता था और आज वही गौरव…’’

‘‘सच कहूं भाभी, कान पकड़ कर उठाने वाली तो चली गईं और कोई ऐसा है नहीं, जो कान पकड़ कर उठाने की हिम्मत करे?’’

‘‘बेला नहीं है?’’ भाभी बोलीं.

भाभी के इतना कहते ही बेला बोली, ‘‘भाभी, मैं इन के कान पकड़ूं? मेरी तो रूह कांपती है इन के गुस्से से, हर वक्त डरीडरी रहती हूं, तो इन के डर के मारे मैं आप से इन की शिकायत भी नहीं कर सकती. ये बस डरते हैं तो आप से.’’ कह कर बेला चुप हो गई.

मैं बोला, ‘‘सच पूछो तो भाभी, आप की अनुपस्थिति, आप की उपस्थिति से ज्यादा महसूस होती है, हर समय यही लगता है कि भाभी छिप कर देख रही हैं, सावधान रहता हूं कि आप को कुछ बुरा न लग जाए.’’

इस पर बेला बोली, ‘‘सच भाभी, मैं तो हर वक्त डरीडरी रहती हूं कि कहीं भाभी को बुरा न लग जाए,’’

भाभी बोलीं, ‘‘इतनी चिंता करती हो मेरी, हर वक्त डरती हो मुझ से? तुम्हें भी कुछ अच्छा लगता है, यह नहीं सोचती?’’

बेला बोली, ‘‘अपने बारे में तो तब न सोचूं भाभी, जब मुझे आप के बारे में सोचने में कोई कष्ट हो, आप के बारे में सोचने में, आप की भावनाओं की कद्र करने में ही सुख महसूस करती हूं मैं तो. मैं जानती हूं भाभी कि जब मां को अपने बच्चे का टट्टीपेशाब साफ करने में कोई कष्ट नहीं होता तो बड़ा हो कर उस बच्चे के मन में भी क्यों तकलीफ हो मां के लिए कुछ करने में?’’

‘‘नहीं बेला, यह गलत है, मैं क्या हौआ हूं, जो तुम मुझ से हर वक्त डरीडरी सी रहो, बच्चे अपना मन मारें तो क्या मां को अच्छा लगेगा? मैं कोई जेलर हूं? तुम्हें कैदी बना कर रखने में मुझे सुख मिलेगा? ‘‘नहींनहीं, यह सब नहीं चलेगा गौरव. तुम भी सुन लो, अपने को मेरा नौकर समझते हो? क्या मैं चाहती हूं कि मुझ तानाशाह के सामने तुम बाअदब, बामुलाहिजा, पेश आओ? मैं हंटर वाली हूं? क्या समझ रखा है मुझे? मैं देख रही हूं कि तुम लोगों ने घर में एक शून्य फैला दिया है, मरघटी चुप्पी नजर आती है मुझे यहां.

‘‘अरे, यह घर किलकारियों से जब गूंजेगा तब गूंजेगा, लेकिन तब तक तो तुम लोग चहकतेफुदकते रहो, एकदूसरे के शिकवेशिकायत करते रहो. तुम कभी एकदूसरे की शिकायतें क्यों नहीं करते? अरे, छोटों की शिकायतें सुनने और उन का फैसला करने में भी एक सुख होता है.

‘‘मुझे तुम उस से वंचित रख रहे हो. क्या मैं देख नहीं रही हूं बेला कि तुम गौरव को टाइम नहीं देती. गौरव शाम को लौटता है, तुम मुझ से चिपकी बैठी रहती हो, वह चुपचाप आता है, कपड़े बदल कर चुपचाप नौकर से चाय को कह देता है और अकेला अपने कमरे में चाय पी लेता है.

‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग मेरे सामने न खिलखिला कर हंसते हो, न ही एकदूसरे के साथ अपनत्व की बातें करते हो, मुझे सब कुछ बनावटी लगता है. दिखावट क्या अच्छी लगती है?

‘‘अरे, बहूबेटे खिलखिलाते अच्छे लगते हैं, तुम ने एक बार भी अब तक शिकायत नहीं की कि देख लो भाभी ये मुझे चिढ़ा रहे हैं, मुझे तंग कर रहे हैं, न ही कभी मैं ने गौरव को देखा कि वह तुझे डांट रहा है. अरे शिकवेशिकायत, रूठनामनाना, ये सब तो स्वस्थ जीवन के मिर्चमसाले हैं, ये न हों तो जीवन स्वादहीन सा बन जाता है. साफ सुन लो, इन्हीं सब कारणों से मैं यहां सहज अनुभव नहीं कर रही हूं, एक घुटन सी महसूस करती हूं. ‘‘मैं देख रही हूं कि तुम लोग दब्बू से, सहमेसहमे से रहते हो, यह सब मेरे भीतर एक अपराधबोध जगाता है, जैसे मैं आतंकी हूं तुम लोगों के लिए,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

थोड़ी देर रुक कर भाभी फिर बोलीं, ‘‘मैं देख रही हूं मैं किसी नए गौरव के पास आई हूं, पता नहीं मेरा पुराना गौरव कहां खो गया? कहता है भाभी उदास हो? उसे मेरी उदासी तो दिखाई दी, कहां गई मेरी वह सुंदरता… भाभी आज तो बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘भाभी तब तो रुपए ऐंठने होते थे.’’

‘‘मतलब कि मैं सुंदर नहीं थी? मुझे धोखा दे कर रुपए ठगा करता था?’’

‘‘न भाभी, न, सुंदर तो तुम अब भी उतनी ही हो, पाला पड़ने से मुरझाए फूल का सौंदर्य खत्म हो जाता है क्या? मेरी भाभी, अतीव सुंदरी थीं, हैं और सदा रहेंगी,’’ कह कर मैं ने उन की कोली भर ली.

‘‘अरे, हट. अभी भी मस्ती सूझ रही है, बता कितने रुपए चाहिए?’’ भाभी शरमाती हुई बोलीं.

फिर हम तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘बस, ऐसा ही वातावरण चाहिए मुझे घर में एकदम निर्द्वंद्व, उत्फुल्ल, उन्मुक्त,’’ कह कर भाभी मौन हो गईं.

15-20 दिनों बाद मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, उदास सी लग रही हो, क्या बात है?’’

‘‘कुछ खास नहीं, पता नहीं बच्चे कैसे हैं?’’ भाभी ने कहा.

‘‘ठीक ही होने चाहिए, कोई बात होती तो फोन आ जाता,’’ मैं बोला.

‘‘लगता है वे परेशान हैं, नाराज हैं, उस दिन से फोन भी नहीं आया.’’

‘‘फोन तो कई बार आ चुका, मैं ने तुम्हें बताया नहीं.’’

‘‘क्यों? उन्होंने मुझे फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम से डरते हैं भाभी, कह रहे थे कि पता नहीं मम्मी किस बात पर डांट दें?’’

‘‘और अब जो डांटूंगी कि अपनी खैरखबर क्यों नहीं दी मुझे?’’

‘‘अरी भाभी, क्यों चिंता करती हैं, वे अब ज्यादा सुखी होंगे.’’

‘‘नहीं, सौमित्र, राघव दोनों को मैं जानती हूं, दोनों बहुत प्यार करते हैं मुझे… उन की याद आ रही है.’’

‘‘और बहुओं की नहीं?’’ मैं ने तपाक से पूछा.

भाभी- भाग 4: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

अपनी बात को पानी देती हुई वे बोलीं, ‘‘क्या मैं इतनी नासमझ हूं कि यह भी नहीं जानती कि दो दूनी चार होते हैं, पांच नहीं? मुझे क्या एकदम बेवकूफ समझ रखा है? तू यह बता कि जब बहू के चेहरे पर सास यह लिखा पढ़ ले कि इस बुढि़या ने तो हमारा जीना हराम कर दिया, हमारी सारी प्राइवेसी पर बंदूक ताने सिपाही की तरह पहरा देती रहती है, तो कौन बरदाश्त करेगा? इस का अर्थ क्या है? बता कोई दूसरा अर्थ हो सकता है इस का? इसे अपराध न मानूं? क्या यह मेरा अपमान नहीं? दब्बुओं की तरह इस कान से सुन कर उस कान से निकालती रहूं? क्या मैं उन के पतियों का दिया खाती हूं? क्या लाई थीं वे अपनेअपने घर से? हम ने दहेज के नाम पर ‘छदाम’ भी न लिया?

‘‘कौन सा ऐसा शौक है इन का जो मैं ने पूरा नहीं किया? अरे, हमारी सुहागरात तो घर में ही मनी थी, पर मैं ने एक को ऊटी भेजा तो दूसरी को गोवा. कौन सी कमी छोड़ी है मैं ने इन के अरमानों को पूरा करने में? आते ही बेटों को अपने काबू में कर लिया.’’

मैं ने भाभी के प्रश्नों की बौछारों पर एकदम ढाल सी तानते हुए कहा, ‘‘छोड़ो भी भाभी, यह सब मुझे क्या बता रही हो, मैं नहीं जानता? नयानया जोश है, बच्चे ही तो हैं सब, इन्हें दीनदुनिया की क्या खबर?’’

‘‘अरे, सुगृहिणियों के कुछ तौरतरीके होते हैं कि नहीं? सुबह 8 बजे तक सोते रहो, नौकर चाय ले कर पहुंचे… महारानियां बिस्तर पर ही चाय पीती हैं. सुबह उठ कर किसी को नमस्कार, प्रणाम, नहीं… उठते ही टूट पड़ो चाय के प्याले पर… अपने मजनुओं के साथ मेरे सामने मटकमटक कर निर्लज्जों की तरह बातें करती हैं, बेटों पर ऐसा हक जमाती हैं जैसे अपने बाप के यहां से लाई हुई कोई जायदाद हो, हुक्म चलाती हैं, नाम ले कर पुकारती हैं. अरे सौमित्र सुनो तो… अरे राघव तुम ने यह काम नहीं किया, कितनी बार कहना पड़ेगा यार, तुम समझते क्यों नहीं? पति को यार कहती हैं, काम पूरा क्यों नहीं किया, इस का स्पष्टीकरण मांगती हैं… यह तमीज है पति से बात करने की? अब तू कहेगा गौरव कि भाभी पति को पति मानने का जमाना गया. अरे, पति को पति न माने तो क्या बाप माने, भाई माने या बेटा? क्या माने?’’

‘‘भाभी, पति को दोस्त भी तो माना जा सकता है,’’ कह कर मैं ने भाभी की प्रतिक्रिया को परखने की कोशिश की.

‘‘ठीक है, गौरव. तुझे भी मुझ में ही बुराई नजर आई.’’

‘‘फिर गलत समझ रही हो, भाभी. मेरा आशय यह नहीं. मैं तो इतना जानता हूं भाभी कि बहूबेटों में किसी की हिम्मत नहीं, जो आप का अपमान कर सके. यदि कोई आप का अपमान करता है, तो क्या मैं बरदाश्त कर लूंगा? बस मेरा तो यही कहना है कि चीजों को देखने के अपने दृष्टिकोण को बदल कर देखो, फिर देखो कि कुछ अच्छा नजर आता है कि नहीं?’’

तभी सौमित्र आ गया, ‘‘चाचाजी प्रणाम,’’  कह झुक कर उस ने मेरे पैर छुए.

‘‘खुश रहो बेटा. ठीक हो?’’

‘‘जी, चाचाजी.’’

‘‘तुम्हारा कामधाम कैसा चल रहा है?’’

‘‘सब बढि़या है, राघव भी साथ ही है, हम दोनों भाई मिलजुल कर हंसीखुशी अपने काम को बढ़ाते जा रहे हैं. अच्छा चाचाजी, मैं अभी आता हूं, जरा फ्रैश हो लूं,’’ कह कर सौमित्र उठ कर चला गया.

शाम हो चली थी. भाभी मुझे ड्राइंगरूम में ले गईं. मैं ड्राइंगरूम में जा कर बैठा ही था कि दोनों बहुएं बाहर से आ गईं. मुझे देख कर दोनों मेरे पास आईं और मेरे पैर छुए.

बड़ी बोली, ‘‘कितनी देर हो गई चाचाजी आप को आए हुए? चाची नहीं आईं?’’

‘‘बस अभी आ कर बैठा हूं. उन्हें कुछ काम था. कैसी हो तुम लोग?’’

‘‘हम ठीक हैं,’’ कह कर बड़ी मुसकरा पड़ी.

छोटी ने भी मुसकान बिखेरी और बोली, ‘‘चाचाजी, सब कुशलमंगल तो है न?’’

‘‘हां बेटा, सब ठीक है, जाओ तुम लोग… थक गई होगी.’’

वे भीतर चली गईं.

भाभी बोलीं, ‘‘गौरव जब से आया है यों ही कसा हुआ बैठा है. जा हाथमुंह धो कर कपड़े बदल ले, डिनर का समय हो रहा है.’’

भाभी, मैं और चारों बहूबेटे खाने की मेज पर बैठ गए. आधे घंटे में डिनर समाप्त हो गया. मैं ने रामू से कहा, ‘‘रामू, एकएक प्याला चाय तो बना ला.’’

थोड़ी ही देर में रामू ने चाय ला कर मेज पर रख दी. मैं ने उस से कहा, ‘‘रामू, अब तू घर जा. कल जल्दी आ जाना.’’

चाय पीतेपीते मैं ने उन चारों को डांटना शुरू किया, ‘‘क्यों भई, आप चारों, भाभी का बोझ उठातेउठाते थक गए हो क्या?’’

सभी चौंक पड़े मानो अचानक बिजली कड़क उठी हो. सौमित्र बोला, ‘‘क्या मतलब चाचाजी! हम समझे नहीं. हम उठाएंगे मां का बोझ?’’

‘‘हां, मुझे ऐसा ही लगता है,’’ मैं ने थोड़ा तेज स्वर में कहा.

इस पर सौमित्र कुछ आहत सा बोला, ‘‘बोझ तो अकेली ये उठा रही हैं हम सब का, हम कौन होते हैं इन का बोझ उठाने वाले? मां के कारण ही तो समाज में हमारी एक अलग पहचान बनी है, सभी एक स्वर से कहते हैं कि बच्चों का भविष्य बनाना कोई सुमित्रा से सीखे, कितने गुणी, सुशील, सभ्य और होनहार बच्चे हैं. पिताजी का नाम कोई नहीं लेता, आज जो हम राजा बने फिर रहे हैं, मां की ही बदौलत.’’

तभी राघव ने पूछा, ‘‘क्या मां ने कुछ कहा आप से?’’

मैं बोला, ‘‘क्यों, भाभी तुम्हारी शिकायत क्या मुझ से करेंगी? क्या उन्हें तुम ने इतना कमजोर समझा है कि वे तुम्हें ठीक करने के लिए मेरी सहायता मांगेंगी? वे तो तुम्हें क्या मुझे भी ठीक कर सकती हैं,’’ कह कर मैं रुक गया और मेरे चेहरे पर एक रोष उभर आया.

सौमित्र बोला, ‘‘चाचाजी, क्या मुझे इस का प्रमाण देना पड़ेगा कि इस घर में मां की इजाजत के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता?’’

इस पर मैं ने कहा, ‘‘आगे भी उन्हीं का हुक्म चलेगा, वे इस घर की मालकिन हैं, उन्हीं की इजाजत से सब कुछ होगा.’’

‘‘हम कब इनकार करते हैं, चाचाजी?’’ इस बार राघव बोला.

‘‘और सुन लो बहुओ!’’ मैं ने कहना शुरू किया, ‘‘सब लोग अच्छी तरह सुन लो, अगर तुम में से कोई भी दाएंबाएं चला तो ये तो बाद में कहेंगी मैं ही तुम सब को यह कह दूंगा कि तुम ने जो कुछ कमाया है, उसे उठाओ और अपनीअपनी पत्नी की उंगली पकड़ कर दफा हो जाओ इस घर से, समझ क्या रखा है तुम लोगों ने? न बड़े की शर्म न छोटे का लिहाज. कुल की कुछ परंपराएं होती हैं, उन का पालन करते तुम्हें शर्म आती है, बेशर्मों की तरह मां के सामने नंगा नाचनाच कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते हो, समाज में उन्होंने जो प्रतिष्ठा बनाई है, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते हो.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है चाचाजी… आखिर बात क्या है?’’ सौमित्र ने पूछा.

‘‘बात कुछ नहीं, बेटा. मैं समझता हूं, तुम चारों के भीतर इतनी अक्ल जरूर है कि यह पहचान सको कि मां को क्या अच्छा लगता है, क्या बुरा. इतना भी त्याग नहीं कर सकते तुम अपनी मां के लिए कि कोई ऐसा काम न करो, जिस से उन्हें पीड़ा पहुंचे? मैं समझता हूं तुम लोगों में त्याग की भावना है ही नहीं, स्वार्थी हो तुम सब लोग. एक बार आंखें बंद कर के यह तो सोच लिया करो कि मां न होतीं तो तुम क्या होते? ये भी अपने ऐशोआराम के लिए मनमानी करतीं तो तुम लोग क्या होते? बस, इस से अधिक मैं कुछ और नहीं कहूंगा.’’ कह कर मैं शांत हो गया.

कुछ देर शांत रह कर मैं ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, कल सुबह यहां से हम दिल्ली के लिए निकल लेंगे, मुझे आप की जरूरत है, आप के प्यार और आशीर्वाद की जरूरत है. अब आप मेरे साथ रहेंगी, जब इन लोगों का मन करेगा, ये मिलने आ जाया करेंगे, जब आप का मन करे, आप यहां आ जाना… यह आप का घर है.’’

भाभी- भाग 7: क्या अपना फर्ज निभा पाया गौरव?

भाभी कुछ रोष दिखाते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, दोनों बुढि़या हो गईं… जुम्माजुम्मा 8 दिन तो नए जीवन में प्रवेश किए हुए नहीं कि अभी से अपने को बुढि़या समझने लगीं. अरी, यही तो उम्र है पहननेओढ़ने की, उछलनेकूदने की, जब बच्चे हो जाएंगे, तो क्या सुध रहेगी अपनी? चलो मैं कहती हूं, खरीदो.’’

दोनों बहुएं मन ही मन मुसकरा रही थीं. बड़की बोली, ‘‘मम्मीजी, आप कह रही हैं, तो खरीद तो हम लेंगी, पर आप ने पहले ही हमें जेवर, कपड़ेलत्तों से लादा हुआ है कि अब जरूरत ही महसूस नहीं होती, क्या करना है?’’

छुटकी ने भी हां में हां मिलाई.

भाभी ने कहा, ‘‘अरी सुना नहीं, बहस किए जा रही हो, जब कह दिया कि खरीदो, तो बस खरीदो, नो कमैंट.’’

दोनों बहुओं ने जी भर कर डिजाइनर साडि़यां खरीदीं. हर साड़ी पर यह कहना नहीं भूलती थीं, ‘‘मम्मीजी, यह कैसी है?’’

‘‘हांहां, अच्छी है,’’ की मुहर लगवाती जाती थीं.

बड़की बोली, ‘‘बस मम्मीजी, बहुत हो गईं, अब रहने दीजिए.’’

‘‘अरी, अभी मेरी पसंद की तो खरीदी ही नहीं,’’ कह कर मम्मी ने दोनों के लिए अपनी पसंद की कुछ साडि़यां, लहंगे आदि और खरीदे. दोनों बहुओं के मन में लड्डू फूट रहे थे. दोनों सासूमां के साथ खुशीखुशी घर लौट आईं.

शाम को सौमित्र और राघव लौटे. आते ही बिना कपड़े चेंज किए, मां से चिपट कर बैठ गए.

‘‘अरे, उठो भी यहां से. कब तक मेरा दिमाग चाटते रहोगे? जाओ, अपनेअपने कमरे में और कपड़े चेंज करो,’’ और फिर जोर से बोलीं, ‘‘अरी बड़की, छुटकी, मैं देख रही हूं कि तुम दोनों के रंगढंग बिगड़ते जा रहे हैं.’’

दोनों ही घबराई हुई सी भागी आईं, ‘‘क्यों क्या हुआ मम्मीजी?’’ बड़की बोली.

‘‘हुआ ही कुछ नहीं, तुम्हें पता है दोनों लड़के कब के घर आ चुके हैं? उन दोनों को कुछ चायवाय चाहिए या नहीं, खयाल है तुम लोगों को? पतियों के घर आते ही पत्नियां उन की ओर दौड़ी चली जाती हैं, उन का हालचाल पूछती हैं, चायपानी देती हैं, कुछ मैनर्स भी आते हैं तुम्हें या नहीं? जाओ, यों खड़ीखड़ी मेरा मुंह क्या ताक रही हो, उन की खैरखबर लो.

‘‘इतनी भी तमीज नहीं कि शाम को घर लौटा पति क्या चाहता है? यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा कि उस ने अगर पत्नी के मुख पर खिलखिलाहट नहीं देखी, यदि उस के सामने उस की पत्नी फूहड़ सी आ कर खड़ी हो जाए तो कैसा लगेगा उसे? तुम लोगों के पास अच्छे कपड़े नहीं रहे क्या? नौकरानियां सी लग रही हो… जाओ यहां से.’’

दोनों बहुएं चली गईं.

सभी लोगों ने रात को खाना एकसाथ खाया. खाना खाते ही सौमित्र, राघव, भाभी के कमरे में चले गए. दोनों मां से लिपट कर बैठ गए और बातें करने लगे.

थोड़ी देर में ही भाभी बोलीं, ‘‘जाओ, बहुएं इंतजार कर रही होंगी, सुबह की थकीमांदी हैं, जाग रही होंगी.’’

‘‘जागने दो मां, जब नींद आएगी तो सो जाएंगी.’’

‘‘नहींनहीं, उठो तुम लोग यहां से मुझे भी नींद आ रही है.’’

वे उठ कर गए तो दोनों बहुएं भाभी के पास आ पहुंचीं.

‘‘अरी, तुम लोग क्या करने आई हो यहां?’’

‘‘आप जब सो जाएंगी मम्मीजी, तभी हम सोएंगी. लाइए, आप के पैर दबा दें.’’

‘‘नहींनहीं, जाओ यहां से, मुझे नींद आ रही है.’’

दोनों बहुएं भाभी के चरण छू कर चली गईं.

अगले दिन भाभी ने डिनर पर कहा, ‘‘देख रही हूं सौमित्र, राघव तुम दोनों बहुओं की उपेक्षा कर रहे हो और बहुएं भी कम नहीं, वे भी तुम्हारी परवाह नहीं कर रही हैं. सारे काम मेरे सिर पर डालते जा रहे हो. मम्मीजी, नौकरों को तनख्वाह देनी है पैसे दे दीजिए, अखबार वाले का बिल देना है, बाजार से सामान लाना है, पैसे दे दीजिए, मुझे जैसे और कोई काम ही नहीं रह गया, हर वक्त उठती रहूं, सेफ खोल कर पैसे देती रहूं, बस तुम्हारे कामों में फिरकी बनी घूमती रहूं.’’

‘‘पर चाबी तो आप के पास ही रहती है मम्मीजी,’’ बड़की बोली.

‘‘तू खुद क्यों नहीं रख लेती बड़की? चाबी भी मैं संभालू, घर के सारे खर्चों का हिसाब भी मैं ही रखूं, तुम सब लोग खाली पड़े रहो, यह लो गुच्छा, संभालो सब कुछ अपनेआप करो, मुझ से अब नहीं होती तुम्हारी चौकीदारी, अब लेनदेन के मामले में मुझे डिस्टर्ब मत करना, मैं क्या सदा तुम लोगों के चक्करों में ही फिरती रहूंगी? अब से तुम जानो तुम्हारा काम, जो चाहो जैसे चाहो, खर्च करो, अब तुम लोग समर्थ हो, अपना भलाबुरा सब समझती हो,’’ और भाभी ने चाबियों का गुच्छा बड़की को थमा दिया.

बड़की बोली, ‘‘आप के जितनी अक्ल कहां से लाएं हम लोग, हम तो अभी बच्चे हैं, आप जैसेजैसे कहती रहेंगी, हम करते रहेंगे, हमारे बुरेभले की तो आप ही सोचेंगी, आप को ऐसे कैसे फ्री कर दें, अपने इन पौधों को सींचना तो आप को ही है,’’ और दोनों बच्चियों की भांति सास के दाएंबाएं बैठ गईं.

‘‘अरी, मैं कहीं भागी जा रही हूं क्या? जो कुछ गलत होगा, मैं कह दिया करूंगी, पर अब मैं स्वतंत्र होना चाहती हूं. और सुन लो सौमित्र, राघव. घर में मनहूसियत मुझे बरदाश्त नहीं, मुझे हर समय सन्नाटा सा महसूस होता है इस घर में. क्या यह एक घर है? न हल्लागुल्ला, न हंसीमजाक, न बच्चों की किलकारियां, न किसी का रूठनामनाना,’’ कहतेकहते भाभी भावुक हो उठीं. ‘‘तुम चारों ही तो हो, जिन में मैं अपनी खुशी ढूंढ़ती हूं, घर की यह चुप्पी, यह शांति मुझे खाने को दौड़ती है. मैं ने गौरव से भी कहा था कि गौरव, फूल खिले ही अच्छे लगते हैं, मुरझाए फूल देखने की मेरी आदत नहीं. तुम लोग भी कान खोल कर सुन लो, घर में मुझे शांति नहीं, खिलखिलाहट भरा माहौल चाहिए,’’ कह कर भाभी ने साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछ लीं.

एक और मित्र- भाग 4: प्रिया की मदद किसने की

‘‘मैं जानती हूं कि भाभी को घूमने का शौक है पर बच्चों के कारण वे जा नहीं पातीं. इसीलिए यहां आ कर मैं ज्यादा से ज्यादा उन्हें घूमने का अवसर देती हूं. घर के कामों में उन का हाथ बंटाती हूं. इस से उन्हें भी अच्छा लगता है और मुझे भी यहां पर परायापन नहीं लगता.

‘‘फिर दीदी, जरा यह भी सोचो कि सिर्फ भाई होने के नाते क्या वे हमेशा ही हमारी झोली भरने का दायित्व निभाते रहेंगे? आखिर अब उन का भी अपना परिवार है. फिर हम लोगों के पास भी कोई कमी तो नहीं है.’’

‘‘वीरा बूआ, वीरा बूआ,’’ तभी नीचे से भैया के बेटे रोहित का स्वर गूंजा और वह लपक कर नीचे चली गई पर जातेजाते वह प्रिया के लिए विचारों का अथाह समुद्र छोड़ गई.

प्रिया सोचने लगी, ‘कितना सही कहती है वीरा. स्वयं मैं ने भी तो भैया के ऊपर हमेशा यही विवशता थोपी है. दिल्ली आ कर घूमनाफिरना या फिल्म देखने के अतिरिक्त मुझे याद नहीं कि भाभी के साथ मैं ने कभी रसोईघर में हाथ बंटाया हो.’

‘‘किस सोच में डूब गईं, दीदी?’’ काम निबटा कर वीरा फिर ऊपर आ गई तो प्रिया चौंक गई. पर मन की बात छिपाते हुए उस ने विषय पलट दिया, ‘‘वह भैया की समस्या…’’

‘‘हां, सुनो, भैया को इस बार व्यापार में 5 लाख रुपए का घाटा हुआ है. उन की आर्थिक स्थिति इस समय बहुत ही खराब है,’’ वीरा का गंभीर स्वर प्रिया को बेचैन कर गया. वह बोली, ‘‘क्या कह रही हो?’’

‘‘हां, भैया ने माल देने के लिए किसी से 5 लाख रुपए बतौर पेशगी लिए थे पर उस के बाद ही उन्हें किसी काम से बाहर जाना पड़ा. उन के पीछे कर्मचारियों की लापरवाही से माल इतने निम्न स्तर का बना कि उसे कोई आधेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं.’’

‘‘पेशगी देने वाली पार्टी का कहना है कि 1 माह के भीतर या तो वे उन्हें अच्छे स्तर का माल दें वरना उन का पैसा वापस कर दें. नहीं तो वे लोग फैक्टरी कुर्क करवा कर अपना पैसा वसूल लेंगे.’’

‘‘पर वह पेशगी 5 लाख…?’’

‘‘वह भैया ने कच्चा माल खरीदने में व्यय कर दिया. अब वह भाभी का पूरा जेवर भी गिरवी रख दें तो भी उन्हें

2 लाख से ज्यादा रुपया नहीं मिलेगा,’’ वीरा इतना कह कर चुप हो गई.

पर प्रिया के मस्तिष्क में तो अभी भी कुछ चल रहा था, ‘‘पर भैया ने हम लोगों से यह बात क्यों नहीं बताई?’’

‘‘कैसे बताते,’’ वीरा का स्वर इस बार जरूरत से ज्यादा तीखा था, ‘‘तुम तो इस घर में हमेशा बेटी के हक की बग्घी में बैठ कर मानसम्मान पाने की दृष्टि से आईं. फिर भला वे अपने घर की इज्जत को तुम्हारे सामने कैसे निर्वस्त्र करते. हम मध्यवर्गीय परिवारों का आत्मसम्मान ही तो एक पूंजी है. फिर भैया का स्वभाव तो तुम जानती ही हो, कोई उन के गले में हाथ डाल कर उन का दर्द भले ही उगलवा ले, पर दूर खड़े व्यक्ति पर तो वे अपनी पीड़ा की छाया भी नहीं पड़ने देंगे.’’

वीरा ने इतनी बेरहमी से सचाई की परतें उधेड़ीं कि प्रिया कराह उठी, ‘‘वीरा, बस करो. अब और सुनने का मुझ में साहस नहीं है. मुझे अपनी भूल समझ में आ गई है.’’

‘‘प्रिया,’’ तभी नीचे से प्रणव का स्वर गूंजा और वे दोनों उठ कर नीचे आ गईं. दिनेश और प्रणव बाजार से ही खाना ले आए थे.

‘‘भाभी, आज आप की रसोई की छुट्टी,’’ प्रणव ने हाथ में पकड़ा बड़ा सा पैकेट भाभी की ओर बढ़ाया तो वे अचकचा गईं, ‘‘पर, यह सब?’’ उन्हें कुछ सूझा नहीं कि क्या कहें.

‘‘अरे, आज हम लोगों की छुट्टी है तो आप लोगों को भी तो आराम मिलना चाहिए. आखिर यह समानता का युग है न.’’

एक समवेत ठहाका लगा और अचानक ही प्रिया को जैसे वातावरण हलकाफुलका लगने लगा.

शाम को चलते समय भाभी ने प्रिया के सम्मुख साड़ी और बच्चों के कपड़ों के लिए रुपए रखे तो वह पहली बार सकुचा उठी, ‘‘बस भाभी, औपचारिकताओं के बंधन को तोड़ कर आज मैं खुद को बहुत हलकाफुलका महसूस कर रही हूं. अब फिर मुझे उसी दलदल में मत घसीटो.’’

भाभी पता नहीं इन शब्दों का अर्थ समझीं या नहीं, पर पास खड़ी वीरा ने उन्हें आंख से इशारा किया. कुछ न बोलते हुए उन्होंने प्रिया को अपने अंक में भर लिया.

‘‘क्यों, मायके से बिछुड़ने का गम सता रहा है?’’ टे्रन में उसे उदास देख प्रणव ने उसे छेड़ा तो वह धीमे से बोली, ‘‘वह बात नहीं…’’

‘‘तो फिर, किसी और से बिछुड़ने का…?’’ प्रणव के स्वर में शैतानी उतर आई. पर वह तो रोंआसी हो उठी, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं, भैया इस समय कितनी परेशानी में हैं. काश, हम उन की मदद कर पाते.’’

इतने दिनों बाद एकांत पाने पर प्रणव का मन तो कर रहा था कि वह प्रिया को कुछ और चिढ़ाए पर उस का उदास स्वर सुन उस ने यह विचार छोड़ दिया, ‘‘मुझे मालूम है, पर तुम्हें कैसे पता चला?’’

प्रणव के स्वर में आश्चर्य का स्पर्श था. पर प्रिया ने उस ओर ध्यान न दे चिंतित स्वर में कहा, ‘‘अब क्या होगा? क्या भैया की फैक्टरी कुर्क…?’’

पर प्रणव मुसकरा दिया, ‘‘तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘पर इतना रुपया…?’’

‘‘मैं ने लघु उद्योग विकास बैंक के प्रबंधक से बात की थी. वह मेरा पुराना मित्र निकला. 15 दिन के भीतर भैया को 5 लाख रुपए का ऋण मिल जाएगा.’’

‘‘ओह, प्रणव, तुम कितने अच्छे हो…’’ खुशी और गर्व से भर कर प्रिया ने पति के दोनों हाथ अपनी मुट्ठियों में भर लिए तो मुसकरा कर उस ने बच्चों की ओर संकेत किया. लजा कर प्रिया ने झटके से हाथ छोड़ दिए.

बाद में सीट पर बिस्तर लगाते हुए प्रणव ने उसे बताया, ‘‘भैया की परेशानी की कुछ भनक तो मुझे यहां आते ही हो गई थी पर उन से साफ पूछने का साहस नहीं हो रहा था. दिनेश के आते ही उस से मुझे पूरा ब्योरा मिल गया और फिर भैया से बात कर के समस्या चुटकियों में हल हो गई.’’

पत्नी का बदला रूप देख कर प्रणव को बहुत प्रसन्नता हो रही थी. रिश्ते में दुर्गंध आने से पहले ही प्रिया ने बासी औपचारिकताओं को जड़ से उखाड़ उस में हमेशा के लिए ताजगी भर दी थी. पर उस से भी ज्यादा खुशी का एहसास उस वक्त भाभी के घर से वापस जाते हुए वीरा को हो रहा था, क्योंकि उस के भैया को एक मित्र जो मिल गया था.

एक और मित्र- भाग 2: प्रिया की मदद किसने की

पर शिमला में पहला दिन ही उस का अच्छा नहीं बीता. वहां पहुंचते ही मौसम बहुत खराब हो गया. तेज हवा के साथ बूंदाबांदी भी होने लगी. प्रणव के जाने के बाद प्रिया को होटल के कमरे में ही सारा दिन गुजारना पड़ा. इसलिए जब प्रणव ने रात में लौट कर बताया कि मीटिंग 2 दिन के बजाय 1 ही दिन में खत्म हो गई है और वे सवेरे ही दिल्ली वापस जा रहे हैं तो प्रिया ने चैन की सांस ली.

भैया के घर पहुंचते ही गेट पर ही प्रिया की छोटी बहन वीरा मिल गई. दौड़ कर उस ने प्रिया को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘ओह दीदी, कितने दिन बाद मिली हो.’’

‘‘पर तू कब आई?’’ प्रिया ने उस के साथ भीतर कदम रखते हुए पूछा.

‘‘कल, बस तुम्हारे जाने के 5 मिनट बाद, दिनेश को कुछ सामान खरीदना था.’’

‘‘अच्छा, पर इस से तो तू 5 मिनट पहले आ जाती तो मैं शिमला की बोरियत से बच जाती,’’ प्रिया ने हंस कर कहा तो वीरा भी मुसकरा दी, ‘‘क्यों, शिमला में जीजाजी के साथ अच्छा नहीं लगा क्या?’’

‘‘यह बात नहीं,’’ प्रिया झेंपती सी बोली, ‘‘वहां पहुंचते ही मौसम इतना खराब हो गया कि होटल से बाहर पांव निकालना भी दुश्वार था,’’ कहतेकहते उस ने सोफे पर बैठते हुए वहीं से आवाज लगाई, ‘‘अरे भाभी, जरा चाय तो पिला दो.’’

‘‘पर तुम कहां चलीं सालीजी, हमारे आते ही?’’ टैक्सी वाले को भाड़ा चुका कर तब तक प्रणव भी भीतर आ गया. वीरा को उठते देख उस ने चुटकी ली तो उस ने भी हंस कर जवाब दिया, ‘‘आप के लिए बढि़या सी चाय बनाने.’’

‘‘पर तू क्यों जा रही है? रसोई में भाभी तो हैं,’’ प्रिया ने वीरा का हाथ पकड़ उसे बिठाने का प्रयत्न किया.

पर उस ने धीमे से हाथ छुड़ा लिया, ‘‘भाभी गाजियाबाद गई हैं भैया के साथ. उन की बहन के लड़के का जन्मदिन है आज.’’

‘‘क्या? पर तुझे यहां अकेली छोड़ कर?’’ प्रिया का स्वर आश्चर्य की नोक पर लटक गया तो वीरा गंभीर हो उठी, ‘‘वे गईं नहीं बल्कि मैं ने ही उन्हें जबरदस्ती भेजा है. इस घर में तो ब्याह से पहले मैं ने 20 साल गुजारे हैं. यहां रह कर अकेलापन कैसा? फिर रोहित, सीमा हैं, वे लोग स्कूल के कारण नहीं गए हैं और दिनेश तो शाम को आ ही जाते हैं.’’

‘‘हूं,’’ कुछ सोच में पड़ गई प्रिया, फिर धीमे से बोली, ‘‘पर भाभी को तो मालूम था कि हमें लौटते ही कानपुर जाना है.’’

‘‘हां, लेकिन दीदी, तुम अपने कार्यक्रम के मुताबिक 1 दिन पहले लौट आई हो और कल तुम्हारे जाने से पहले तक भाभी आ जाएंगी,’’ कह कर वीरा चाय बनाने चली गई.

पर प्रिया को भाभी का यह उपेक्षित व्यवहार कुछ अच्छा नहीं लगा. सोचने लगी कि आखिर वह रोजरोज तो मायके आती नहीं.

कुछ ही देर में वीरा चाय के साथ पकौड़े भी बना लाई और सब लोग चाय पीने के साथ हंसीमजाक में व्यस्त हो गए. बातों के दौरन ही वीरा रसोईघर से सब्जी उठा लाई और जब तक बातें खत्म हुईं तब तक उस ने रात के खाने के लिए सब्जियां काट ली थीं.

अगले 2 घंटों में वीरा ने रात का खाना तैयार कर लिया. प्रिया ने भी उस की थोड़ीबहुत मदद कर दी थी. तब तक दिनेश भी आ गया. फिर खाने की मेज पर कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की बातों में कब रात के 11 बज गए, पता ही न चला.

दूसरे दिन सुबह ही भैयाभाभी आ गए. प्रिया को पहले ही वहां उपस्थित देख कर भाभी को थोड़ी हैरानी हुई पर वीरा ने तुरंत आगे आते हुए हंस कर कहा, ‘‘दीदी का प्रोग्राम बदल गया था, इसलिए कल शाम ही आ गईं. पर घबराओ नहीं, भाभी, तुम्हारे मेहमान को मैं ने कोई तकलीफ नहीं होने दी है.’’

यह सुन और समझ कर प्रिया चिढ़ गई, ‘हुंह, मैं मेहमान हूं तो वीरा क्या है,’ पर बहन से बात न बढ़ाने की गरज से चुप रही. तभी भाभी रसोईघर की ओर बढ़ीं तो वीरा ने उन्हें रोक दिया, ‘‘तुम बैठो भाभी, अभी सफर से थकीमांदी आई हो. मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’’

फिर प्रिया ने गौर किया कि भाभी के आने के बाद भी वीरा घर के हर काम में इतनी रुचि ले रही है जैसे वह कभी इस घर से गई ही न हो. वह उसी घर का एक अंग लग रही थी. भैया भी बातबात पर वीरा और दिनेश से सलाह ले रहे थे. भैया के बच्चों को तो वह कल से ही देख रही थी. वे किसी न किसी बहाने वीरा को घेरे हुए थे. खाना बनाते समय रसोईघर से बराबर वीरा और भाभी की आवाजें आ रही थीं.

 

सबकुछ महसूस कर प्रिया को पहली बार उस घर में अपना अपमान सा लगा, वह भी अपनी ही छोटी बहन के कारण. वह सोचने लगी, ‘आखिर ऐसा क्या कर दिया है वीरा ने जो भाभी उस से इस कदर घुलमिल कर बातें कर रही हैं. मुझे तो याद नहीं कि भाभी ने कभी मुझ से भी इतनी अंतरंगता से बात की हो. आखिर मुझ में क्या कमी है. वीरा का पति अगर सफल व्यवसायी है तो प्रणव भी तो एक प्रतिष्ठित फर्म में उच्चाधिकारी हैं.’

प्रिया का मन उदास हो गया तो वह चुपचाप कमरे में आ कर लेट गई. प्रणव दफ्तर जा चुके थे और दिनेश भैया के साथ फैक्टरी चले गए. बच्चे बाहर खेल रहे थे. तनहाई उसे बहुत खल रही थी. पर इस से भी ज्यादा गम उसे इस बात का था कि उस की उपस्थिति से बेखबर वीरा और भाभी अपनी ही बातों में मशगूल हैं.

‘‘अरे दीदी, तुम यहां लेटी हो और मैं तुम्हें सारे घर में ढूंढ़ढूंढ़ कर थक गई,’’ कुछ ही देर में वीरा ने कमरे में घुसते हुए कहा तो वह जानबूझ कर चुप रही. पर मन ही मन बड़बड़ाई, ‘हुंह, खाक मुझे ढूंढ़ रही थी, झूठी कहीं की.’

‘‘क्या बात है प्रिया, तबीयत तो ठीक है?’’ तब तक भाभी भी आ गईं. प्रिया के माथे पर हाथ रख उन्होंने बुखार का अंदाजा लगाना चाहा पर उस ने धीमे से उन का हाथ हटा दिया, ‘‘ठीक हूं, कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘सिर में दर्द है क्या?’’ भाभी के स्वर में चिंता उभर आई तो वह गुस्से से भर गई. ‘ऊपर से कैसे दिखावा करती हैं,’ उस ने सोचा.

एक और मित्र- भाग 1: प्रिया की मदद किसने की

कार्यालय से लौट कर जैसे ही प्रणव ने बताया कि उसे मीटिंग के सिलसिले में 5-6 दिन के लिए दिल्ली जाना है, प्रिया खुशी से उछल पड़ी, ‘‘इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी. वीनू और पायल के स्कूल में 3 दिन की छुट्टियां हैं, 2 दिन की छुट्टी उन्हें और दिला देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ प्रणव ने जूते के फीते खोलते हुए कहा.

प्रिया के उत्साह का उफान दोगुना हो गया, ‘‘कितने दिन हो गए दिल्ली गए हुए. अब 5-6 दिन बहुत मजे से कटेंगे. बच्चों को भी इस बार पूरी दिल्ली घुमा दूंगी.’’

प्रिया के स्वर में बच्चों की सी शोखी देख प्रणव के अधरों पर मुसकराहट उभर आई, ‘‘अच्छा बाबा, खूब घूमनाघुमाना, पर अब चाय तो पिला दो.’’

‘‘हां, चाय तो मैं ला रही हूं पर तुम कल सुबह ही दफ्तर से फोन कर के भैया को अपना प्रोग्राम बता देना,’’ प्रिया ने उठते हुए कहा तो प्रणव फिर धीमे से मुसकरा दिया, ‘‘पर मैं तो सोच रहा था कि इस बार उन्हें अचानक पहुंच कर आश्चर्यचकित कर देंगे.’’

‘‘नहीं, तुम पहले फोन जरूर कर देना,’’ कमरे से निकलती हुई प्रिया एक पल को ठहर गई.

‘‘पर क्यों?’’

‘‘अरे, उन्हें कुछ तैयारी करनी होगी. आखिर तुम दामाद हो उस घर के,’’ कहते हुए प्रिया रसोईघर की ओर मुड़ गई.

पर प्रणव का चेहरा गंभीर हो उठा. प्रिया की यही बात तो उसे अच्छी नहीं लगती थी. ससुराल में उस की इतनी आवभगत होती कि संकोच महसूस कर के वह स्वयं वहां बहुत कम जाता था. प्रिया के भैयाभाभी से जबजब उस ने औपचारिकता के इन बंधनों को काटने का अनुरोध किया तो प्रिया ने बीच में आ कर सबकुछ वहीं का वहीं स्थिर कर दिया. वह बोली, ‘हम कौन सा रोजरोज यहां आते हैं.’

इस संबंध में प्रणव ने खुद कितनी बार पत्नी को समझाने का प्रयत्न किया पर सब व्यर्थ रहा. उस के मस्तिष्क पर तो संस्कारों की स्याही से लिखी इबारत इतनी पक्की थी कि उस पर कोई रंग चढ़ने को तैयार न था.

प्रिया चाय ले आई. चाय पी कर उठते हुए प्रणव धीमे से बोला, ‘‘शुक्रवार को रात की गाड़ी से चलना है. मैं दफ्तर से किसी को भेज कर आरक्षण करवा लूंगा. तुम सब तैयारी कर लेना.’’

दिल्ली जाने की बात सुन कर बच्चों की भी खुशी का ठिकाना न था. पिछली बार की स्मृतियां अभी भी ताजा थीं. सो वे आगे का प्रोग्राम बना रहे थे.

‘‘याद है वीनू, पिछली बार मामाजी के यहां कितना मजा आया था. रोज खूब चाट, पकौड़े, आइसक्रीम और रसगुल्ले खाते थे, वीसीआर पर रोज फिल्म…’’

पायल ने अपनी आंखें नचाते हुए कहा तो वीनू भी बोल पड़ा, ‘‘अरे, इस बार तो हम खूब दिल्ली घूमेंगे और मां कह रही थीं कि हम पूरे सालभर बाद वहां जा रहे हैं, मामाजी हम को नएनए कपड़े भी देंगे.’’

सुन कर उधर से गुजरते प्रणव का मन खट्टा हो गया. दिल तो किया कि प्रिया का जाना रद्द कर दे. वह सोचने लगा, ‘आखिर क्या कमी है उस के घर में जो वह अभी तक मायके वालों से इतनी अपेक्षाएं रखती है. फिर वह यह क्यों नहीं सोचती कि उस के भाई का अपना परिवार है, कब तक अपने मांबाप के दायित्वों का बोझ वह उठाता रहेगा. शराफत की भी एक सीमा होती है. अगर भाई अपने कर्तव्यों को निबाह रहा है तो बहन का भी तो कुछ फर्ज बनता है…

‘पर प्रिया तो इस मामले में बिलकुल कोरी है. अधिकारों की सीमाएं लांघना तो उसे खूब आता है पर कर्तव्यों की लक्ष्मणरेखा के करीब भी जाना उसे पसंद नहीं. अब बच्चों के भोले मस्तिष्क में भी इस प्रकार की बातें डाल कर वह अच्छा नहीं कर रही.’

उसी पल प्रणव ने निश्चय कर लिया कि इस बार वापस आने पर वह प्रिया से इस विषय में कड़ाई से पेश आएगा. अब जाते समय वह इस बात को छेड़़ कर पत्नी और फिर स्वयं का मूड खराब नहीं करना चाहता था.

स्टेशन पर ही भैयाभाभी आए हुए थे. पर इस बार प्रणव ने महसूस किया कि हर बार की तरह उन के चेहरों पर वह ताजगी नहीं थी जिसे देखने का वह अभ्यस्त था. घर जाते समय उस ने दबे शब्दों में उन से पूछने का प्रयत्न भी किया, जिसे भैया हंस कर टाल गए. पर प्रिया इन सब से बेखबर अपनी ही रौ में भाभी को कानपुर के किस्से सुनाती जा रही थी.

घर पहुंचते ही सब ने छक कर नाश्ता किया. एक तो जबरदस्त भूख, ऊपर से भाभी ने इतना स्वादिष्ठ नाश्ता बनाया था कि प्लेटों पर प्लेटें साफ होती चली गईं.

नाश्ते के बाद भाभी तो रसोईघर में दोपहर के भोजन की व्यवस्था में लग गईं और प्रिया भैया से गपशप मारने में मशगूल हो गई.

‘‘भैया, आप दफ्तर जा कर गाड़ी वापस भेज दीजिएगा क्योंकि इस बार मैं बच्चों को दिल्ली घुमाने का वादा कर चुकी हूं.’’

बातों के दौरान प्रिया ने कहा तो पास ही खड़ा टाई की गांठ लगाता प्रणव झल्ला उठा, ‘‘तुम भी कमाल करती हो प्रिया, भैया का दफ्तर यहां रखा है, 30-35 किलोमीटर दूर से कार वापस आए और फिर शाम को भैया को भी लौटना है. इस से तो अच्छा है तुम लोग टैक्सी से जाओ. बच्चे आराम से घूम लेंगे.’’

‘‘देखो जी, तुम मेरे और मेरे भैया के बीच में मत बोलो. यह हमारे आपस की बात है,’’ प्रिया ने चिढ़ कर कहा तो क्रोध में भरा प्रणव बिना कुछ बोले बाहर निकल गया. वह जानता था कि मायके में प्रिया से कुछ कहना और भी व्यर्थ सिद्ध होगा.

अगले 2 दिनों तक प्रणव अपने कार्यालय की मीटिंग में व्यस्त रहा. उस की कंपनी द्वारा एक नई फैक्टरी लगाने के सिलसिले में कनाडा से कुछ विशेषज्ञ आए हुए थे. इसलिए दोपहर और रात का खाना भी उसे विदेशी अतिथियों के साथ ही खाना पड़ता था.

इस बीच, प्रिया ने भैया की कार से बच्चों को जीभर कर सैर कराई. भाभी के बच्चे तो स्कूल चले जाते थे और भाभी को घर में ही काफी काम था. क्योंकि पुराना नौकर इन दिनों छुट्टी पर था इसलिए प्रिया के साथ केवल वीनू और पायल ही थे.

तीसरे दिन प्रणव ने आ कर बताया कि अगले 2 दिनों की मीटिंग शिमला में होनी है और प्रिया अगर वहां अकेले घूमना पसंद करे तो उस के साथ चल सकती है. घुमक्कड़ प्रिया को इस से बढ़ कर खुशी क्या हो सकती थी. शानदार होटल में रहना, खाना और घूमने के लिए कंपनी की गाड़ी, उस ने झट से ‘हां’ कर दी.

विधवा विदुर- भाग 3: किस कशमकश में थी दीप्ति

दीप्ति की सास को यह सुन कर अच्छा तो नहीं लगा पर वह कुछ नहीं बोली और उस ने घर आ कर यह बात जब दीप्ति के ससुर से कही तो वे भी अपना अनुभव बताने लगे कि जब वे सुबह पार्क में टहलने गए थे तब राजेश भी उन से कुछ इसी तरह की बातें कर रहे थे. अब समाज में रहना है तो उस के अनुसार चलना भी तो पड़ेगा ही.

सास ने दीप्ति से कहा कि वे जानते हैं कि उस के आचरण में कहीं कोई कमी नहीं है और उन्हें दीप्ति पर पूरा भरोसा है, लेकिन परी और रजनीश से दूरी बना कर रखने का समय आ गया है.

दीप्ति बहुत कुछ कहना चाहती थी, मगर कह न सकी क्योंकि उसे पता था कि कुछ तो लोग कहेंगे जैसी बातें फिल्मों में तो अच्छी लगती हैं पर असल जिंदगी में तो एक विधवा को मरते दम तक इम्तिहान ही देते रहना पड़ता है. विधवा का कोई अस्तित्व नहीं.

उधर विधुर रजनीश को भी लोग फिर से शादी करने की सलाह देते और उस के न मानने पर कहते कि इधरउधर मुंह मारने से तो अच्छा होता है कि एक ही खूंटे से बंध कर रहा जाए.

लोगों के तानों के आगे 2 सालों तक परी को जो प्यार उस की दीप्ति आंटी से मिल रहा था वह आज बंद हो गया था. रजनीश के सामने फिर से वही बच्ची को पालने वाली समस्या आ रही थी. अब उस के सामने 2 ही रास्ते थे- पहला कि वह दूसरी शादी कर ले और दूसरा यह कि वह परी को बोर्डिंग स्कूल में डाल दे.

रजनीश ने दूसरा रास्ता चुनना ज्यादा बेहतर सम झा क्योंकि दूसरी शादी कर के भी परी को नई मां स्वीकार कर पाए या नहीं इस बात में संदेह था. रजनीश ने परी से बात करी और उसे बोर्डिंग स्कूल में जाने के लिए उस का रुख जानना चाहा. परी वैसे भी मां के अभाव में जल्दी सम झदार हो चुकी थी, इसलिए उस ने बोर्डिंग स्कूल जाने के लिए हामी भर दी.

रजनीश परी को स्कूल में दाखिला दिला कर निश्चिंत हो गया.

एक दिन उस के मोबाइल पर एक फोन आया, उधर से देविका के पापा बोल रहे थे, ‘‘तेरे जीवन में इतना कुछ हो गया पर तूने हमें बताया तक नहीं… हम इतने पराए हो गए क्या?’’

ससुर की आवाज इतने वर्षों के बाद सुन कर रजनीश सिसकता रहा. उन्होंने उसे बताया कि उन्हें तो किसी और से पता चला कि उस की दुनिया उजड़ चुकी है. आखिर कैसे और क्यों? इतना कह कर उन्होंने रजनीश को यह बताया कि पुरानी बातें भूल कर वे लोग गाजियाबाद में उस से मिलने आए हैं.

मां और पापा को अपने फ्लैट पर ले आया था रजनीश, सामने देविका की तसवीर पर माला देख कर काफी व्याकुल हो गए थे उस के मांबाप.

झूठी शान और जातिपाति के भेद में हम डूबे हुए थे और समय रहते सही फैसला नहीं कर पाए थे पर अब उन्हें यह एहसास हो गया था कि रजनीश को नहीं अपनाना उन लोगों की भूल थी. ये सारी बातें रजनीश की सास और ससुर ने उसे बताईं. शायद बढ़ती उम्र और बेटी को त्याग कर अकेलेपन के अनुभव ने उन्हें सही और गलत का बोध करा दिया था और इसलिए वे दोनो यहां आए थे.

‘‘अब हम दोनों यहां आ गए हैं, इसलिए परी की तरफ से तुम्हें चिंता करने की जरूरत

नहीं है.’’

मांबाप की बातें सुन कर रजनीश खुश हो गया और स्कूल में संपर्क कर के परी को वापस घर ले आया. वह अपने नानानानी से मिल कर बहुत खुश हो रही थी. उस ने जीवन में पहली बार बचपन जैसे किसी स्वाद का अनुभव किया था.

आज परी का जन्मदिन था, वह 8 साल की हो चुकी थी. नानानानी के साथ मिल कर परी ने केक काटा और पापा के तो पूरे चेहरे पर ही केक लगा दिया परी ने.

घर के हलकेफुलके माहौल के बीच

रजनीश के ससुर ने कहा, ‘‘बेटे रजनीश, हम जानते हैं कि देविका के जाने के बाद भी तुम ने शादी नहीं करी क्योंकि नई मां आ कर कोई लापरवाही न बरते.’’

रजनीश सम झ नहीं पा रहा था कि उस के ससुर क्या कहना चाह रहे हैं. इस के बाद ससुर ने कहा कि अभी रजनीश का पूरा जीवन बाकी है और परी भी बड़ी हो रही है. इस नाजुक उम्र में मां की बहुत जरूरत रहती है. इसलिए वे चाहते हैं कि रजनीश दोबारा शादी कर ले.

ससुर की यह बात सुन कर रजनीश चौंक गया. वह कुछ बोल नहीं पाया. कुछ देर तक खामोश रहने के बाद बोला और अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क भी दिए मसलन नई मां ने अगर परी को नहीं अपनाया तो? कौन करेगा एक बच्चे वाले विदुर से शादी? फिर समाज. समाज क्या कहेगा?

परी अब अपने नाना की गोद से उतर कर दूसरे कमरे में चली गई थीं.

‘‘देखो बेटा, तुम्हारी हर बात का जवाब मैं सिर्फ एक बार में दे सकता हूं अगर तुम कहो तो.’’

रजनीश की आंखों में कई सवाल थे.

तभी सासूमा ने परी को आवाज लगाई.

दूसरे कमरे से परी निकल कर आई,

उस के साथ में दीप्ति भी थी और उस का बेटा शान और दीप्ति के सासससुर भी थे जो रजनीश की तरफ उम्मीद और प्रेम भरी नजरों से देखे जा रहे थे.

रजनीश कुछ सम झ नहीं पाया तो उस के ससुर ने कहा कि इस दुनिया में इंसान को स्वार्थी बनना पड़ता है, दीप्ति भी जिंदगी के सफर में अकेली है और तुम भी और फिर तुम दोनों पर बच्चों की जिम्मेदारी भी है… साथ मिल कर चलोगे तो राह की मुश्किलें भी आसान हो जाएंगी और सफर भी सुहाना हो जाएगा.

‘‘पर पापा… मैं तो एक नीची जाति से हूं और दीप्ति ऊंची जाति की. दीप्ति को उस का परिवार मंजूरी नहीं देगा.’’

‘‘इस का समाधान सब परी ने कर लिया है. वह अकसर दीप्ति से तेरी बातें करती थी और दीप्ति व शान भी तेरे बारे में रुचि रखते थे. जब यह बात हमें पता चली तो हम ने दीप्ति के मम्मीपापा से बात चलाई तो हमें सहमति मिल गई. तुम दोनों की हां का तो देविका को भी इंतजार होगा.’’

परी दीप्ति की उंगली पकड़े हुए अपने

पापा को निहार रही थी. दीप्ति और रजनीश की नजरें टकराईं तो दोनों के होंठों पर हलकी सी मुसकराहट फैल गई, जिस का मतलब था कि एक विधवा और एक विदुर ने अपने बच्चों के जीवन की बेहतरी और खुद के अस्तित्व के

लिए समाज से बिना डरे एक साहस भरा फैसला ले ही लिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें