कीमती चीज: पैसों के लालच में सौतेले पिता ने क्या काम किया

‘‘मैडम,क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अभिनव ने दरवाजे के बाहर से आवाज दी.

‘‘बताइए क्या काम है?’’  अंदर से आवाज आई.

‘‘जी मैं एक सेल्समैन हूं. हाउसवाइफ्स के लिए एक अनोखा औफर ले कर आया हूं,’’ अभिनव ने अंदर झांकते हुए कहा.

सुनैना अपने बाल समेटती कमरे में से बाहर निकली. उस समय वह नाईटी में थी. गोरे रंग और आकर्षक नैननक्स वाली सुनैना की खूबसूरती किसी को भी मोह सकती थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में कुतूहल साफ नजर आ रहा था. अभिनव से नजरें मिलते ही दोनों कुछ पल के लिए एकदूसरे को देखते रह गए. खुद को सेल्समैन बताने वाला अभिनव अच्छी कदकाठी का सभ्रांत युवक था.

‘‘आइए बैठिए न,’’ सुनैना ने उस से बैठने का आग्रह किया और फिर खुद भी पास ही बैठ गई.

‘‘कहिए क्या बात है?’’ सुनैना ने पूछा.

‘‘जी मैं हाउसवाइफ्स के लिए एक औफर ले कर आया हूं.’’

‘‘कैसा औफर?’’ सुनैना ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘दरअसल, मेरे पास किचन एंप्लायंसिस की एक लंबी रेंज है. आप को पसंद आए तो औनलाइन भी और्डर कर सकती हैं. मिक्सर ग्राइंडर जूसर की एक रेंज साथ

भी लाया हूं. फौर ए ट्रायल आप इस का प्रयोग कर के देखें. इस के साथ ही एक प्रैस बिलकुल फ्री है. हमारे पास दूसरी किसी भी कंपनी के मुकाबले कम कीमत में बैस्ट औफर्स हैं. हमारे ये प्रोडक्ट्स दूसरों से अलग हैं. मैं इन की खासीयतें 1-1 कर बताता हूं.’’

सुनैना एकटक अभिनव की तरफ देखती हुई बोली, ‘‘इन बेजुबान, बेजबान चीजों में भला क्या खासीयत हो सकती है? मुझे तो आप के बोलने के अंदाज में खासीयत लग रही है.’’

अभिनव एकदम से शरमा गया. फिर हंसता हुआ बोला, ‘‘मैडम, आप भी ऐसी बातें कर इस नाचीज की कीमत बढ़ा रही हैं.’’

‘‘मैं कीमत कहां बढ़ा रही? जिंदगी में किसी भी चीज की कीमत बढ़ाई या घटाई नहीं जा सकती. हर इंसान के लिए एक ही चीज की कीमत अलगअलग होती है. मेरे पति की नजर में ऐसी चीजें ही कीमती हैं, जो लोगों के आगे उन की शान को बढ़ाती हैं, मगर मेरे लिए ऐसी चीजें कीमती हैं, जो किसी की आंखों में मुसकान सजाती हैं.’’

अभिनव बिलकुल गंभीर हो कर बोला, ‘‘कितनी खूबसूरत सोच है आप की. काश, हर इंसान ऐसे ही सोचता. बुरा न मानें तो एक बात कहूं मैडम, आप दूसरी महिलाओं से बहुत अलग हैं.’’

‘‘मैं भी एक बात कहना चाहती हूं अभिनवजी. मुझे अपने लिए मैडम सुनना बिलकुल पसंद नहीं. आप मुझे सुनैना कह सकते हैं. मेरा नाम सुनैना है.’’

‘‘यथा नाम तथा गुण. सुनैना यानी सुंदर आंखें. वाकई आप की आंखें  बेहद खूबसूरत हैं सुनैनाजी,’’ सुनैना की आंखों में झंकते हुए अभिनव ने कहा.

सुनैना कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘पता नहीं मुझे क्यों लग रहा है जैसे आप सेल्समैन हो ही नहीं सकते. आप कुछ और ही हो.’’

अभिनव ने खुद को संभाला और जल्दी से सेल्समैन की टोन में बोला, ‘‘नो मैम मैं सेल्समैन ही हूं. हमारी कंपनी ने कुछ नए प्रोडक्ट्स लौंच किए हैं, उन से आप का परिचय करा दूं. यकीनन आप को हमारे प्रोडक्ट्स पसंद आएंगे और आप इन्हें जरूर खरीदेंगी. मैम क्या मैं डैमो दे सकता हूं?’’

‘‘औफकोर्स औफ डैमो दिखा सकते हो, मगर मैं घर में अकेली हूं. आप को किचन में कैसे ले जाऊं?’’ सुनैना ने मजबूरी बताई.

‘‘छोडि़ए फिर आप ऐसे ही फील कीजिए… यह प्रोडक्ट कितना अच्छा है,’’ कहते हुए अभिनव ने मशीन सुनैना को थमाई तो दोनों के हाथ एकदूसरे से स्पर्श हो गए.

सुनैना ने उस की तरफ देखते हुए हौले से कहा, ‘‘फील तो मैं कर रही हूं.’’

अभिनव एकदम से असहज हो उठा और कहने लगा, ‘‘प्लीज, एक गिलास पानी मिलेगा?’’

‘‘बिलकुल,’’ कह सुनैना अंदर गई और पानी ले आई.

पानी पीते हुए अभिनव बोला, ‘‘बुरा न मानें तो एक बात कहूं, आप के पति और आप का कोई मैच नहीं. स्वभाव के साथ आप दोनों की उम्र में भी बहुत अंतर है.’’

‘‘मैं जानती हूं पर क्या मैं पूछ सकती हूं कि आप मेरे पति को कैसे जानते हैं?’’

‘‘मैं नहीं जानता … आप ने बताया था न… ’’ अभिनव हकलाते हुए बोला.

‘‘अच्छा मैं चाय भी बना लाती हूं. आप थक गए होंगे.’’

‘‘धन्यवाद.’’

सुनैना 2 कप चाय बना कर ले आई. दोनों बैठ कर चाय पीने लगे. दोनों अजनबी थे, मगर एकदूसरे के लिए अलग तरह का आकर्षण महसूस कर रहे थे. कहीं न कहीं अभिनव सुनैना का दर्द महसूस कर रहा था. सुनैना भी समझ रही थी कि यह कोई साधारण सेल्समैन नहीं.

‘‘मेरे पति केवल पैसों से प्यार करते हैं,’’ सुनैना ने खामोशी तोड़ते हुए कहा.

‘‘जी हां पैसों के लिए वे किसी की जिंदगी से भी खेल सकते हैं,’’ अभिनव बोल पड़ा.

सुनैना ने फिर से उस की तरफ सवालिया नजरों से देखा.

अभिनव ने सामने टंगी सुनैना और उस के पति के फोटो को देखते हुए कहा, ‘‘वे आप से प्यार नहीं करते?’’

‘‘नहीं उन के लिए जज्बातों की कोई कीमत नहीं. मगर मैं आप से ये सब क्यों कह रही हूं?’’

‘‘क्योंकि मेरे अंदर आप को एक दोस्त नजर आया है. यकीन मानिए मुझे जज्बातों की बहुत ज्यादा कद्र है. यदि आप ने वाकई मुझे अपना दोस्त माना तो मैं आप के लिए बहुत कुछ कर सकता हूं. पर यदि आप को मुझ पर जरा सा भी शक है तो मैं अभी अपना सारा सामान ले कर निकल जाऊंगा.’’

‘‘मुझे आप पर कोई शक नहीं, उलटा शक तो मुझे अपने पति पर है. जरूर उन्होंने आप के साथ कुछ गलत किया होगा, जिस का बदला लेने आप यहां आए हैं,’’ सुनैना ने अभिनव पर नजरें जमाते हुए कहा.

सुनैना के मुंह से बदला शब्द सुनते ही अभिनव चौंक  गया, ‘‘मगर यह बात आप को कैसे पता चली?’’

‘‘मैं पानी लेने गई तब और जब चाय बना रही थी तब, आप की आंखें घर में कुछ ढूंढ़ रही थीं. आप मेरे पति के स्वभाव के बारे में भी जानते हैं. यही नहीं मेरे पति की तसवीर आप ने जिस नफरत से देखी उस से भी स्पष्ट था कि आप का उन से पहले ही सामना हो चुका है. एक सवाल यह भी है कि हमारे इस मुहल्ले में आज तक तो कोई सेल्समैन आया नहीं, फिर आज आप कैसे आ गए और वह भी बीच के सारे घरों को छोड़ कर सीधा मेरे घर आ कर बैल बजाई. इन्हीं सब बातों पर गौर कर मैं ने यह निष्कर्ष निकाला कि जरूर आप के मन में कोई बात है.’’

‘‘आप तो सच में काफी ब्रिलियंट हैं. मेरे बिना कुछ बोले भी आप ने हर बात पर नजर रखी. फिर तो आप को यह भी एहसास हो गया होगा कि आप के लिए मेरी क्या फीलिंग है?’’ अभिनव की आंखों में प्यार झलक उठा.

‘‘हां एहसास तो हो गया है कि आप मुझे पसंद करने लगे हैं. मेरा स्पर्श आप को विचलित कर रहा है. हमारे बीच आकर्षण का एक सेतु बनता जा रहा है. मैं थोड़ी भी कमजोर पड़ी तो हमारे बीच कुछ भी हो सकता है.’’

अभिनव ने अचानक बढ़ कर सुनैना को बांहों में भर लिया. सुनैना ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया. दोनों को एकदूसरे के मन की थाह मिल चुकी थी. कुछ देर इस खूबसूरत पल का आनंद लेने के बाद सुनैना अलग हो गई और अभिनव को बैठने का इशारा किया.

‘‘दिल का सौदा करने से पहले जरूरी है कि मुझे यह पता चले कि आप कौन हैं, कहां से आए हैं और क्या चाहते हैं?’’ सुनैना ने कहा.

‘‘कहानी लंबी है. शुरुआत से बतानी होगी.’’

‘‘मुझे भी कोई हड़बड़ी नहीं है. आप बताइए,’’ सुनैना ने इत्मीनान से कहा.

‘‘ऐक्चुअली मैं एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार का इकलौता कमाऊ बेटा हूं. मैं ने एमबीए किया हुआ है और एक कंपनी में जौब करता था. इस बीच हमारी कंपनी में घोटाला हुआ, जिस में करोड़ों की रकम चोरी की गई. आप के पति हमारी कंपनी में काफी सीनियर पद पर हैं. घोटाला उन्होंने किया और नाम मेरा लगा दिया. मेरे खिलाफ गवाही दे कर मुझे चोरी और धोखाधड़ी के मामले में फंसा दिया. मुझे जेल भेज दिया गया.

‘‘आप ही बताइए किसी घर के कमाऊ बेटे के साथ ऐसा किया जाए तो मांबाप  पर क्या बीतेगी. किसी तरह मैं ने अपनी बेगुनाही का सुबूत दे कर खुद को जेल से बाहर निकाला. जेल जाते समय मैं ने प्रण किया था कि दिनदहाड़े आप के पति के घर में घुस कर उन की सब से कीमती चीज चुरा कर ले जाऊंगा.’’

‘‘ओके तो आप चोरी के मकसद से आए हैं,’’  हलके से मुसकराते हुए सुनैना ने कहा.

‘‘देखिए मैं आया तो चोरी के मकसद से ही था, मगर अब आप से मिल कर ऐसा कुछ करने की इच्छा नहीं हो रही.’’

‘‘अगर आप चोरी के मकसद से आए थे तो ठीक है न. मैं कहती हूं आप को जो भी चीज कीमती लग रही है उसे ले जाइए. मैं आप को तिजोरी और अलमारी की चाभी देती हूँ. देखिए आप के साथ नाइंसाफी हुई है तो उस का बदला जरूर लीजिए. मैं जानती हूं आप सच कह रहे हैं. मेरे पति ऐसे ही हैं. वे केवल अपना लाभ देखते हैं भले किसी की जान ही क्यों न चली जाए. ये लीजिए चाबियां.’’

‘‘नहीं ऐसा मत कीजिए. आप के पति नाराज हो जाएंगे. फिर वे आप के साथ कुछ भी कर सकते हैं,’’ अभिनव ने हिचकिचाते हुए कहा.

‘‘वे खुश ही कब रहते हैं, जो आज नाराज हो जाएंगे. यह कोई बड़ी बात नहीं है. वैसे भी मैं ने उन्हें छोड़ने का मन बना लिया है. किसी भी दिन उन्हें छोड़ कर चली जाऊंगी. इसलिए आप मेरी चिंता न करें,’’ कह सुनैना ने तिजोरी और अलमारी खोल दी. तिजोरी में गहने और अलमारी में रुपयों की गड्डियां रखी थीं, मगर अभिनव ने उन की तरफ देखा भी नहीं.

‘‘माना पहले तिकड़म लगा कर मैं आप के घर चोरी करने वाला था, मगर अब आप से मुलाकात के बाद मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता… बिलकुल भी नहीं.’’

‘‘मैं ने कहा न आप मेरी चिंता बिलकु  न करें. यकीन मानिए पहली दफा मैं उस शख्स का साथ देना चाहती हूं, जिस का मकसद चोरी करना है, वह भी मेरे घर में. प्लीज डौंट हैजिटेट.’’

‘‘नहीं अब नहीं. मैं ने आप को दोस्त मान लिया है. एक दोस्त के घर चोरी कैसे कर सकता हूं?’’

‘‘पर मैं एक दोस्त के मकसद के आड़े भी कैसे आ सकती हूं? मैं कह रही हूं न अपना बदला पूरा करो.’’

‘‘ठीक है मुझे सोचने का समय दीजिए.’’

‘‘चोर बैठ कर सोचते नहीं, कर गुजरते हैं. कहीं तुम्हें यह डर तो नहीं लग रहा कि मैं तुम्हें पकड़वा सकती हूं, पुलिस बुला सकती हूं?’’  सुनैना ने पूछा.

‘‘पता नहीं क्यों पर यह डर बिलकुल नहीं है. अगर आप ने ऐसा कुछ किया भी तो मैं खुशीखुशी फिर से जेल जाने को तैयार हूं,’’ यह बात कहते हुए अभिनव सुनैना के करीब आ गया था. सुनैना ने उस की तरफ कातिलाना नजरों से देखा तो अभिनव ने फुसफुसा कर कहा,’’  ऐ हुस्न वाले, तू कत्ल भी कर दे तो कोई गम नहीं.’’

सुनैना भी शोख नजरों से देखती हुई बोली, ‘‘कमाल करते हो तुम भी. चुराने आए थे सामान और दिल चुरा कर ले गए.’’

‘‘ऐ हंसी तेरे दिल से कीमती कुछ और दिखा ही नहीं. तेरी इनायत है, जो इस नाचीज को नगीना मिल गया,’’  अभिनव ने उसी लहजे में जवाब दिया.

इस तरह शायराना अंदाज में बातें करतेकरते कब दोनों एकदूसरे के करीब  आ गए, पता ही नहीं चला. सुनैना, जिसे आज तक पति का प्यार नहीं मिला था, एक अनजान शख्स के लिए तड़प उठी थी तो वहीं अभिनव भी कहां जानता था कि जिस के घर चोरी करने और बदला लेने जा रहा है वहां अपने दिल का सौदा कर आएगा.

सुनैना ने बताया, ‘‘मेरी शादी एक धोखा थी. मेरे सौतेले पिता ने मुझे इन के कजिन का फोटो दिखाया था और कहा था कि मैं उस के साथ एक खुशहाल जिंदगी जीऊंगी, पर मुझे क्या पता था कि मेरी जिंदगी का सौदा किया गया है.

मेरे सौतेले पिता ने चंद रुपयों की खातिर मुझे अपने से दोगुनी उम्र के व्यक्ति के हाथ बेच दिया था. ये विधुर थे. पहली पत्नी ऐक्सीडैंट में मर गई थी. मेरे साथ इन का रिश्ता पहले दिन से ही मालिक और दासी का रहा है न कि पतिपत्नी का.

मायके में सौतेले पिता के सिवा अब कोई नहीं. यहां भी इन के सिवा सिर्फ नौकरचाकर हैं. अपना दर्द किस से कहती. इसलिए परिस्थितियों से समझौता कर लिया, पर तुम से मिल कर ऐसा लग रहा है जैसे मेरे जीवन में खुशियों के गुल फिर से खिलने वाले हैं. मुझे एक नई जिंदगी मिल गई है.’’

‘‘मैं ने भी प्यार के नाम पर केवल धोखे खाए हैं. इसलिए अब तक शादी नहीं की. अब समझ आता है कि इन सब के पीछे वजह क्या थी. दरअसल, तुम्हारे साथ मेरी कहानी जो पूरी होनी थी.’’

दोनों देर तक एकदूसरे से प्यार भरी बातें करते रहे. फिर अचानक सुनैना को  होश आया तो घबरा कर बोली, ‘‘देखो अब तुम्हारे पास ज्यादा समय नहीं है. वे आते होंगे, इसलिए जल्दी से फैसला करो कि तुम्हें यहां से क्या ले जाना है.’’

‘‘यदि मैं कहूं कि मुझे तुम्हें ले जाना है तो तुम्हारा जवाब क्या होगा?’’ हिम्मत कर के अभिनव ने अपने दिल की बात कह दी.

‘‘मेरा जवाब…’’ कहतेकहते सुनैना चुप हो गई. ‘‘बताओ सुनैना तुम्हारा जवाब क्या होगा?’’  बेचैन हो कर अभिनव ने पूछा.

‘‘मेरा जवाब यही होगा कि मैं खुद इस सोने के पिंजरे में रह कर थक चुकी हूं. अब एक परिंदे की भांति खुल कर उड़ान भरना चाहती हूं. मैं अनुमति देती हूँ,  तुम मुझे  मेरे घर से चुरा कर ले चलो. मैं तैयार हूं अभिनव.’’

‘‘तो ठीक है मैं तुम्हें यानी इस घर की सब से कीमती चीज को चुरा कर ले जा रहा हूं. मेरा बदला इतना खूबसूरत रुख ले कर पूरा होगा यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ और फिर दोनों ने एकदूसरे का हाथ थामा और एक नई जिंदगी की शुरुआत के लिए निकल पड़े.

कभी नहीं: क्या गायत्री को समझ आई मां की अहमियत

‘‘पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों पर विश्वास है तुम्हें?’’ सूखे पत्तों को पैरों के नीचे कुचलते हुए रवि ने पूछा.

कड़ककड़क कर पत्तों का टूटना देर तक विचित्र सा लगता रहा गायत्री को. बड़ीबड़ी नीली आंखें उठा कर उस ने भावी पति को देखा, ‘‘क्या तुम्हें विश्वास है?’’

गायत्री ने सोचा, उस के प्रेम में आकंठ डूब चुका युवा प्रेमी कहेगा, ‘है क्यों नहीं, तभी तो संसार की इतनी लंबीचौड़ी भीड़ में बस तुम मिलते ही इतनी अच्छी लगीं कि तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना ही शून्य हो गई.’ चेहरे पर गुलाबी रंगत लिए वह कितना कुछ सोचती रही उत्तर की प्रतीक्षा में, परंतु जवाब न मिला.तनिक चौंकी गायत्री, चुप रवि असामान्य सा लगा उसे. सारी चुहलबाजी कहीं खो सी गई थी जैसे. हमेशा मस्त बना रहने वाला ऐसा चिंतित सा लगने लगा मानो पूरे संसार की पीड़ा उसी के मन में आ समाई हो.

उसे अपलक निहारने लगा. एकबारगी तो गायत्री शरमा गई. मन था, जो बारबार वही शब्द सुनना चाह रहा था. सोचने लगी, ‘इतनी मीठीमीठी बातों के लिए क्या रवि का तनाव उपयुक्त है? कहीं कुछ और बात तो नहीं?’ वह जानती थी रवि अपनी मां से बेहद प्यार करता है. उसी के शब्दों में, ‘उस की मां ही आज तक उस का आदर्श और सब से घनिष्ठ मित्र रही हैं. उस के उजले चरित्र के निर्माण की एकएक सीढ़ी में उस की मां का साथ रहा है.’एकाएक उस का हाथ पकड़ लिया गायत्री ने रोक कर वहीं बैठने का आग्रह किया. फिर बोली, ‘‘क्या मां अभी तक वापस नहीं आईं जो मुझ से ऐसा प्रश्न पूछ रहे हो? क्या बात है?’’

रवि उस का कहना मान वहीं सूखी घास पर बैठ गया. ऐसा लगा मानो अभी रो पड़ेगा. अपनी मां के वियोग में वह अकसर इसी तरह अवश हो जाया करता है, वह इस सत्य से अपरिचित नहीं थी.

‘‘क्या मां वापस नहीं आईं?’’ उस ने फिर पूछा.

रवि चुप रहा.‘‘कब तक मां की गोद से ही चिपके रहोगे? अच्छीखासी नौकरी करने लगे हो. कल को किसी और शहर में स्थानांतरण हो गया तब क्या करोगे? क्या मां को भी साथसाथ घसीटते फिरोगे? तुम्हारे छोटे भाईबहन दोनों की जिम्मेदारी है उन पर. तुम क्या चाहते हो, पूरी की पूरी मां बस तुम्हारी ही हों? तुम्हारे पिता और उन दोनों का भी तो अधिकार है उन पर. रवि, क्या हो गया है तुम्हें?’’

‘‘ऐसा लगता है, मेरा कुछ खो गया है. जी ही नहीं लगता गायत्री.  पता नहीं, मन में क्याक्या होता रहता है.’’

‘‘तो जा कर मां को ले आओ न. उन्हें भी तो पता है, तुम उन के बिना बीमार हो जाते हो. इतने दिन फिर वे क्यों रुक गईं?’’ अनायास हंस पड़ी गायत्री. धीरे से रवि का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगी, ‘‘शादी के बाद क्या करोगे? तब मेरे हिस्से का प्यार क्या मुझे मिल पाएगा? अगर मुझे ही तुम्हारी मां से जलन होने लगी तो? हर चीज की एक सीमा होती है. अधिक मीठा भी कड़वा लगने लगता है, पता है तुम्हें?’’

रवि गायत्री की बड़ीबड़ी नीली आंखों को एकटक निहारने लगा.

‘‘मां तो वे तुम्हारी हैं ही, उन से तुम्हारा स्नेह भी स्वाभाविक ही है लेकिन वक्त के साथसाथ उस स्नेह में परिपक्वता आनी चाहिए. बच्चों की तरह मां का आंचल अभी तक पकड़े रहना अच्छा नहीं लगता. अपनेआप को बदलो.’’

‘‘मैं अब चलूं?’’ एकाएक वह उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘कल मिलोगी न?’’

‘‘आज की तरह गरदन लटकाए ही मिलना है तो रहने दो. जब सचमुच मिलना चाहो, तभी मिलना वरना इस तरह मिलने का क्या अर्थ?’’ एकाएक गायत्री खीज उठी. वह कड़वा कुछ भी कहना तो नहीं चाहती थी पर व्याकुल प्रेमी की जगह उसे व्याकुल पुत्र तो नहीं चाहिए था न. हर नाते, हर रिश्ते की अपनीअपनी सीमा, अपनीअपनी मांग होती है.

‘‘नाराज क्यों हो रही हो, गायत्री? मेरी परेशानी तुम क्या समझो, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’

‘‘क्या समझाना है मुझे, जरा बताओ? मेरी तो समझ से भी बाहर है तुम्हारा यह बचपना. सुनो, अब तभी मिलना जब मां आ जाएं. इस तरह 2 हिस्सों में बंट कर मेरे पास मत आना.’’गायत्री ने विदा ले ली. वह सोचने लगी, ‘रवि कैसा विचित्र सा हो गया है कुछ ही दिनों में. कहां उस से मिलने को हर पल व्याकुल रहता था. उस की आंखों में खो सा जाता था.’   भविष्य के सलोने सपनों में खोए भावी पति की जगह एक नादान बालक को वह कैसे सह सकती थी भला. उस की खीज और आक्रोश स्वाभाविक ही था. 2 दिन वह जानबूझ कर रवि से बचती रही. बारबार उस का फोन आता पर किसी न किसी तरह टालती रही. चाहती थी, इतना व्याकुल हो जाए कि स्वयं उस के घर चल कर आ जाए. तीसरे दिन सुबहसुबह द्वार पर रवि की मां को देख कर गायत्री हैरान रह गई. पूरा परिवार समधिन की आवभगत में जुट गया.

‘‘तुम से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ उस के कमरे में आ कर धीरे से मां बोलीं तो कुछ संशय सा हुआ गायत्री को.

‘‘इतने दिन से रवि घर ही नहीं आया बेटी. मैं कल रात लौटी तो पता चला. क्या वह तुम से मिला था?’’ ‘‘जी?’’ वह अवाक् रह गई, ‘‘2 दिन पहले मिले थे. तब उदास थे आप की वजह से.’’

‘‘मेरी वजह से उसे क्या उदासी थी? अगर उसे पता चल गया कि मैं उस की सौतेली मां हूं तो इस में मेरा क्या कुसूर है. लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है?

‘‘वह मेरा बच्चा है. इस में संशय कैसा? मैं ने उसे अपने बच्चों से बढ़ कर समझा है. मैं उस की मां नहीं तो क्या हुआ, पाला तो मां बन कर है न?’’ ऐसा लगा, जैसे बहुत विशाल भवन भरभरा कर गिर गया हो. न जाने मां कितना कुछ कहती रहीं और रोती रहीं, सारी कथा गायत्री ने समझ ली. कांच की तरह सारी कहानी कानों में चुभने लगी. इस का मतलब है कि इसी वजह से परेशान था रवि और वह कुछ और ही समझ कर भाषणबाजी करती रही.

‘‘उसे समझा कर घर ले आ, बेटी. सूना घर उस के बिना काटने को दौड़ता है मुझे. उसे समझाना,’’ मां आंसू पोंछते हुए बोलीं.

‘‘जी,’’ रो पड़ी गायत्री स्वयं भी, सोचने लगी, कहां खोजेगी उसे अब? बेचारा बारबार बुलाता रहा. शायद इस सत्य की पीड़ा को उसे सुना कर कम करना चाहता होगा और वह अपनी ही जिद में उसे अनसुना करती रही.

मां आगे बोलीं, ‘‘मैं ने उसे जन्म नहीं दिया तो क्या मैं उस की मां नहीं हूं? 2 महीने का था तब, रातों को जागजाग कर उसे सुलाती रही हूं. कम मेहनत तो नहीं की. अब क्या वह घर ही छोड़ देगा? मैं इतनी बुरी हो गई?’’

‘‘वे आप से बहुत प्यार करते हैं मांजी. उन्हें यह बताया ही किस ने? क्या जरूरत थी यह सच कहने की?’’

‘‘पुरानी तसवीरें सामने पड़ गईं बेटी. पिता के साथ अपनी मां की तसवीरें दिखीं तो उस ने पिता से पूछ लिया, ‘आप के साथ यह औरत कौन है?’ वे बात संभाल नहीं पाए, झट से बोल पड़े, ‘तुम्हारी मां हैं.’

‘‘बहुत रोया तब. ये बता रहे थे. बारबार यही कहता रहा, ‘आप ने बताया क्यों? यही कह देते कि आप की पहली पत्नी थी. यह क्यों कहा कि मेरी मां भी थी.’

‘‘अब जो हो गया सो हो गया बेटी, इस तरह घर क्यों छोड़ दिया उस ने? जरा सोचो, पूछो उस से?’’

किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.उसे महसूस हो रहा होगा कि उस की मां कहीं खो गई है. तभी तो पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों में विश्वास का विषय शुरू किया होगा. कुछ राहत चाही होगी उस से और उस ने उलटा जलीकटी सुना कर भेज दिया. मातापिता और दोनों छोटे भाई समीप सिमट आए. चंद शब्दों में गायत्री ने उन्हें सारी कहानी सुना दी.

‘‘तो इस में घर छोड़ देने वाली क्या बात है? अभी फोन आएगा तो उसे घर ही बुला लेना. हम सब मिल कर समझाएंगे उसे. यही तो दोष है आज की पीढ़ी में. जोश से काम लेंगे और होश का पता ही नहीं,’’ पिताजी गायत्री को समझाने लगे.

फिर आगे बोले, ‘‘कैसा कठोर है यह लड़का. अरे, जब मां ही बन कर पाला है तो नाराजगी कैसी? उसे भूखाप्यासा नहीं रखा न. उसे पढ़ायालिखाया है, अपने बच्चों जैसा ही प्यार दिया है. और देखो न, कैसे उसे ढूंढ़ती हुई यहां भी चली आईं. अरे भई, अपनी मां क्या करती है, यही सब न. अब और क्या करें वे बेचारी?

‘‘यह तो सरासर नाइंसाफी है रवि की. अरे भई, उस के कार्यालय का फोन नंबर है क्या? उस से बात करनी होगी,’’ पिता दफ्तर जाने तक बड़बड़ाते रहे.

छोटा भाई कालेज जाने से पहले धीरे से पूछने लगा, ‘‘क्या मैं रवि भैया के दफ्तर से होता जाऊं? रास्ते में ही तो पड़ता है. उन को घर आने को कह दूंगा.’’

गायत्री की चुप का भाई ने पता नहीं क्या अर्थ लिया होगा, वह दोपहर तक सोचती रही. क्या कहती वह भाई से? इतना आसान होगा क्या अब रवि को मनाना. कितनी बार तो वह उस से मिलने के लिए फोन करता रहा था और वह फोन पटकती रही थी. शाम को पता चला रवि इतने दिनों से अपने कार्यालय भी नहीं गया.

‘क्या हो गया उसे?’ गायत्री का सर्वांग कांप उठा.

मां और पिताजी भी रवि के घर चले गए पूरा हालचाल जानने. भावी दामाद गायब था, चिंता स्वाभाविक थी. बाद में भाई बोला, ‘‘वे अपने किसी दोस्त के पास रहते हैं आजकल, यहीं पास ही गांधीनगर में. तुम कहो तो पता करूं. मैं ने पहले बताया नहीं. मुझे शक है, तुम उन से नाराज हो. अगर तुम उन्हें पसंद नहीं करतीं तो मैं क्यों ढूंढ़ने जाऊं. मैं ने तुम्हें कई बार फोन पटकते देखा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, अजय,’’ हठात निकल गया होंठों से, ‘‘तुम उन्हें घर ले आओ, जाओ.’’

बहन के शब्दों पर भाई हैरान रह गया. फिर हंस पड़ा, ‘‘3-4 दिन से मैं तुम्हारा फोन पटकना देख रहा हूं. वह सब क्या था? अब उन की इतनी चिंता क्यों होने लगी? पहले समझाओ मुझे. देखो गायत्री, मैं तुम्हें समझौता नहीं करने दूंगा. ऐसा क्या था जिस वजह से तुम दोनों में अबोला हो गया?’’

‘‘नहीं अजय, उन में कोई दोष नहीं है.’’

‘‘तो फिर वह सब?’’

‘‘वह सब मेरी ही भूल थी. मुझे ही ऐसा नहीं करना चाहिए था. तुम पता कर के उन्हें घर ले आओ,’’ रो पड़ी गायत्री भाई के सामने अनुनयविनय करते हुए.

‘‘मगर बात क्या हुई थी, यह तो बताओ?’’

‘‘मैं ने कहा न, कुछ भी बात नहीं थी.’’ अजय भौचक्का रह गया.

‘‘अच्छा, तो मैं पता कर के आता हूं,’’ बहन को उस ने बहला दिया.

मगर लौटा खाली हाथ ही क्योंकि उसे रवि वहां भी नहीं मिला था. बोला, ‘‘पता चला कि सुबह ही वहां से चले गए रवि भैया. उन के पिता उन्हें आ कर साथ ले गए.’’

‘‘अच्छा,’’ गायत्री को तनिक संतोष हो गया.

‘‘उन की मां की तबीयत अच्छी नहीं थी, इसीलिए चले गए. पता चला, वे अस्पताल में हैं.’’चुप रही गायत्री. मां और पिताजी का इंतजार करने लगी. घर में इतनी आजादी और आधुनिकता नहीं थी कि खुल कर भावी पति के विषय में बातें करती रहे. और छोटे भाई से तो कदापि नहीं. जानती थी, भाई उस की परेशानी से अवगत होगा और सचमुच वह बारबार उस से कह भी रहा था, ‘‘उन के घर फोन कर के देखूं? तुम्हारी सास का हालचाल…’’

‘‘रहने दो. अभी मां आएंगी तो पता चल जाएगा.’’

‘‘तुम भी तो रवि भैया के विषय में पूछ लो न.’’

भाई ने छेड़ा या गंभीरता से कहा, वह समझ नहीं पाई. चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. काफी रात गए मां और पिताजी घर लौटे. उस समय कुछ बात न हुई. परंतु सुबहसुबह मां ने जगा दिया, ‘‘कल रात ही रवि की माताजी को घर लाए, इसीलिए देर हो गई. उन की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. खानापीना सब छोड़ रखा था उन्होंने. रवि मां के सामने आ ही नहीं रहा था. पता नहीं क्या हो गया इस लड़के को. बड़ी मुश्किल से सामने आया.‘‘क्या बताऊं, कैसे बुत बना टुकुरटुकुर देखता रहा. मां को घर तो ले गया है, परंतु कुछ बात नहीं करता. तुम्हें बुलाया है उस की मां ने. आज अजय के साथ चली जाना.’’

‘‘मैं?’’ हैरान रह गई गायत्री.

‘‘कोई बात नहीं. शादी से पहले पति के घर जाने का रिवाज हमारी बिरादरी में नहीं है, पर अब क्या किया जाए. उस घर का सुखदुख अब इस घर का भी तो है न.’’

गायत्री ने गरदन झुका ली. कालेज जाते हुए भाई उसे उस की ससुराल छोड़ता गया. पहली बार ससुराल की चौखट पर पैर रखा. ससुर सामने पड़ गए. बड़े स्नेह से भीतर ले गए. फिर ननद और देवर ने घेर लिया. रवि की मां तो उस के गले से लग जोरजोर से रोने लगीं. ‘‘बेटी, मैं सोचती थी मैं ने अपना परिवार एक गांठ में बांध कर रखा है. रवि को सगी मां से भी ज्यादा प्यार दिया है. मैं कभी सौतेली नहीं बनी. अब वह क्यों सौतेला हो गया? तुम पूछ कर बताओ. क्या पता तुम से बात करे. हम सब के साथ वह बात नहीं करता. मैं ने उस का क्या बिगाड़ दिया जो मेरे पास नहीं आता. उस से पूछ कर बताओ गायत्री.’’ विचित्र सी व्यथा उभरी हुई थी पूरे परिवार के चेहरे पर. जरा सा सच ऐसी पीड़ादायक अवस्था में ले आएगा, किस ने सोचा होगा.

‘‘भैया अपने कमरे में हैं, भाभी. आइए,’’ ननद ने पुकारा. फिर दौड़ कर कुछ फल ले आई, ‘‘ये उन्हें खिला देना, वे भूखे हैं.’’

गायत्री की आंखें भर आईं. जिस परिवार की जिम्मेदारी शादी के बाद संभालनी थी, उस ने समय से पूर्व ही उसे पुकार लिया था. कमरे का द्वार खोला तो हैरान रह गई. अस्तव्यस्त, बढ़ी दाढ़ी में कैसा लग रहा था रवि. आंखें मींचे चुपचाप पड़ा था. ऐसा प्रतीत हुआ मानो महीनों से बीमार हो. क्या कहे वह उस से? कैसे बात शुरू करे? नाराज हो कर उस का भी अपमान कर दिया तो क्या होगा? बड़ी मुश्किल से समीप बैठी और माथे पर हाथ रखा, ‘‘रवि.’’

आंखें सुर्ख हो गई थीं रवि की. गायत्री ने सोचा, क्या रोता रहता है अकेले में? मां ने कहा था वह पत्थर सा हो गया है.

‘‘रवि यह, यह क्या हो गया है तुम्हें?’’ अपनी भूल का आभास था उसे. बलात होंठों से निकल गया, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी. मुझ से ऐसा क्या हो गया, यह नहीं होना चाहिए था,’’ सहसा स्वर घुट गया गायत्री का. वह रवि, जिस ने कभी उस का हाथ भी नहीं पकड़ा था, अचानक उस की गोद में सिर छिपा कर जोरजोर से रोने लगा. उसे दोनों बांहों में कस के बांध लिया. उसे इस व्यवहार की आशा कहां थी. पुरुष भी कभी इस तरह रोते हैं. गायत्री को बलिष्ठ बांहों का अधिकार निष्प्राण करने लगा. यह क्या हो गया रवि को? स्वयं को छुड़ाए भी तो कैसे? बालक के समान रोता ही जा रहा था.

‘‘रवि, रवि, बस…’’ हिम्मत कर के उस का चेहरा सामने किया.

‘‘ऐसा लगता है मैं अनाथ हो गया हूं. मेरी मां मर गई हैं गायत्री, मेरी मां मर गई हैं. उन के बिना कैसे जिंदा रहूं, कहां जाऊं, बताओ?’’

उस के शब्द सुन कर गायत्री भी रो पड़ी. स्वयं को छुड़ा नहीं पाई बल्कि धीरे से अपने हाथों से उस का चेहरा थपथपा दिया.

‘‘ऐसा लगता है, आज तक जितना जिया सब झूठ था. किसी ने मेरी छाती में से दिल ही खींच लिया है.’’

‘‘ऐसा मत सोचो, रवि. तुम्हारी मां जिंदा हैं. वे बीमार हैं. तुम कुछ नहीं खाते तो उन्होंने भी खानापीना छोड़ रखा है. उन के पास क्यों नहीं जाते? उन में तो तुम्हारे प्राण अटके हैं न? फिर क्यों उन्हें इस तरह सता रहे हो?’’

‘‘वे मेरी मां नहीं हैं, पिताजी ने बताया.’’

‘‘बताया, तो क्या जुर्म हो गया? एक सच बता देने से सारा जीवन मिथ्या कैसे हो गया?’’

‘‘क्या?’’ रवि टुकुरटुकुर उस का मुंह देखने लगा. क्षणभर को हाथों का दबाव गायत्री के शरीर पर कम हो गया.

‘‘वे मुझ बिन मां के बच्चे पर दया करती रहीं, अपने बचों के मुंह से छीन मुझे खिलाती रहीं, इतने साल मेरी परछाईं बनी रहीं. क्यों? दयावश ही न. वे मेरी सौतेली मां हैं.’’

‘‘दया इतने वर्षों तक नहीं निभाई जाती रवि, 2-4 दिन उन के साथ रहे हो क्या, जो ऐसा सोच रहे हो? वे बहुत प्यार करती हैं तुम से. अपने बच्चों से बढ़ कर हमेशा तुम्हें प्यार करती रहीं. क्या उस का मोल इस तरह सौतेला शब्द कह कर चुकाओगे? कैसे इंसान हो तुम?’’ एकाएक उसे परे हटा दिया गायत्री ने. बोली, ‘‘उन्हें सौतेला जान जो पीड़ा पहुंची थी, उस का इलाज उन्हीं की गोद में है रवि, जिन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया. मेरी गोद में नहीं जिस से तुम्हारी जानपहचान कुछ ही महीनों की है. तुम अपनी मां के नहीं हो पाए तो मेरे क्या होगे, कैसे निभाओगे मेरे साथ?’’

लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया रवि ने, ‘‘मैं अपनी मां का नहीं हूं, तुम ने यह कैसे सोच लिया?’’

‘‘तो उन से बात क्यों नहीं करते? क्यों इतना रुला रहे हो उन्हें?’’

‘‘हिम्मत नहीं होती. उन्हें या भाईबहन को देखते ही कानों में सौतेला शब्द गूंजने लगता है. ऐसा लगता है मैं दया का पात्र हूं.’’

‘‘दया के पात्र तो वे सब बने पड़े हैं तुम्हारी वजह से. मन से यह वहम निकालो और मां के पास चलो. आओ मेरे साथ.’’

‘‘न,’’ रवि ने गरदन हिला दी इनकार में, ‘‘मां के पास नहीं जाऊंगा. मां के पास तो कभी नहीं…’’

‘‘इस की वजह क्या है, मुझे समझाओ? क्यों नहीं जाओगे उन के पास? क्या महसूस होता है उन के पास जाने से?’’ एकाएक स्वयं ही उस की बांह सहला दी गायत्री ने. निरीह, असहाय बालक सा वह अवरुद्ध कंठ और डबडबाए नेत्रों से उसे निहारने लगा.

‘‘तुम्हें 2 महीने का छोड़ा था तुम्हारी मां ने. उस के बाद इन्होंने ही पाला है न. तुम तो इन्हें अपना सर्वस्व मानते रहे हो. तुम ही कहते थे न, तुम्हारी मां जैसी मां किसी की भी नहीं हैं. जब वह सच सामने आ ही गया तो उस से मुंह छिपाने का क्या अर्थ? वर्तमान को भूत में क्यों मिला रहे हो? ‘‘अब तुम्हारा कर्तव्य शुरू होता है रवि, उन्हें अपनी सेवा से अभिभूत करना होगा. कल उन्होंने तुम्हें तनमन से चाहा, आज तुम चाहो. जब तुम निसहाय थे, उन्होंने तुम्हें गोद में ले लिया था. आज तुम यह प्रमाणित करो कि सौतेला शब्द गाली नहीं है. यह सदा गाली जैसा नहीं होता. बीमार मां को अपना सहारा दो रवि. सच को उस के स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना सीखो, उस से मुंह मत छिपाओ.’’

‘‘मां मुझे इतना अधिक क्यों चाहती रहीं, गायत्री? मेरे मन में सदा यही भाव जागता रहा कि वे सिर्फ मेरी हैं. छोटे भाईबहन को भी उन के समीप नहीं फटकने दिया. मां ने कभी विरोध नहीं किया, ऐसा क्यों, गायत्री? कभी तो मुझे परे धकेलतीं, कभी तो कहतीं कुछ,’’ रवि फिर भावुक होने लगा.

‘‘हो सकता है वे स्वाभाविक रूप में ही तुम्हें ज्यादा स्नेह देती रही हों. तुम सदा से शांत रहने वाले इंसान रहे हो. उद्दंड होते तो जरूर डांटतीं किंतु बिना वजह तुम्हें परे क्यों धकेल देतीं.’’

‘‘गायत्री, मैं इतना बड़ा सच सह नहीं पा रहा हूं. मैं सोच भी नहीं सकता. ऐ लगता है, पैरों के नीचे से जमीन ही सरक गई हो.’’

‘‘क्या हो गया है तुम्हें, इतने कमजोर क्यों होते जा रहे हो?’’कुछ ऐसी स्थिति चली आई. शायद उस का यही इलाज भी था. स्नेह से गायत्री ने स्वयं ही अपने समीप खींच लिया रवि को. कोमल बाहुपाश में बांध लिया.भर्राए स्वर में गिला भी किया रवि ने, यही सब सुनाने तुम्हारे पास भी तो गया था. सोचा था, तुम से अच्छी कोई और मित्र कहां होगी, तुम ने सुना नहीं. मैं कितने दिन इधरउधर भटकता रहा. मैं कहां जाऊं, कुछ समझ नहीं पाता?’’

‘‘मां के पास चलो, आओ मेरे साथ. मैं जानती हूं, उन्हीं के पास जाने को छटपटा रहे हो. चलो, उठो.’’

रवि चुप रहा. भावी पत्नी की आंखों में कुछ ढूंढ़ने लगा.

गायत्री तनिक गुस्से से बोली, ‘‘जीवन में बहुतकुछ सहना पड़ता है. यह जरा सा सच नहीं सह पा रहे तो बड़ेबड़े सच कैसे सहोगे? आओ, मेरे साथ चलो?’’ रवि खामोशी से उसे घूरता रहा.

‘‘देखो, आज तुम्हारी मां इतनी मजबूर हो गई हैं कि मेरे सामने हाथ जोड़े हैं उन्होंने. तुम्हें समझाने के लिए मुझे बुला भेजा है. तुम तो जानते हो, हम लोगों में शादी से पहले एकदूसरे के घर नहीं जाते. परंतु मुझे बुलाया है उन्होंने, तुम्हें समझाने के लिए. अपनी मां का और मेरा मान रखना होगा तुम्हें. मेरे साथ अपनी मां और भाईबहन से मिलना होगा और बड़ा भाई बन कर उन से बात करनी होगी. उठो रवि, चलो, चलो न.’’ अपने अस्तित्व में समाए बालक समान सुबकते भावी पति को कितनी देर सहलाती रही गायत्री. आंचल से कई बार चेहरा भी पोंछा.

रवि उधेड़बुन में था, बोला, ‘‘मां मेरे पास क्यों नहीं आतीं, क्यों नहीं मुझे बुलातीं?’’

‘‘वे तुम्हारी मां हैं. तुम उन के बेटे हो. वे क्यों आएं तुम्हारे पास. तुम स्वयं ही रूठे हो, स्वयं ही मानना होगा तुम्हें.’’

‘‘पिताजी मां को मेरे कमरे में नहीं आने देना चाहते, मुझे पता है. मैं ने उन्हें मां को रोकते सुना है.’’

‘‘ठीक ही तो कर रहे हैं. उन की भी पत्नी के मानसम्मान का प्रश्न है. तुम उन के बच्चे हो तो बच्चे ही क्यों नहीं बनते. क्या यह जरूरी है कि सदा तुम ही अपना अधिकार प्रमाणित करते रहो? क्या उन्हें हक नहीं है?’’

बड़ी मुश्किल से गायत्री ने उसे अपने शरीर से अलग किया. प्रथम स्पर्श की मधुर अनुभूतियां एक अलग ही वातावरण और उलझे हुए वार्त्तालाप की भेंट चढ़ चुकी थीं. ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार उसे छुआ है. साधिकार उस का मस्तक चूम लिया गायत्री ने. गायत्री पर पूरी तरह आश्रित हो वह धीरे से उठा, ‘‘तुम भी साथ चलोगी न?’’

‘‘हां,’’ वह तनिक मुसकरा दी.

फिर उस का हाथ पकड़ सचमुच वह बीमार मां के समीप चला आया. अस्वस्थ और कमजोर मां को बांहों में बांध जोरजोर से रोने लगा.

‘‘मैं ने तुम से कितनी बार कहा है, तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाया करो,’’ उसे गोद में ले कर चूमते हुए मां रोने लगीं. छोटी बहन और भाई शायद इस नई कहानी से पूरी तरह टूट से गए थे. परंतु अब फिर जुड़ गए थे. बडे़ भाई ने मां पर सदा से ही ज्यादा अधिकार रखा था, इस की उन्हें आदत थी. अब सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे.

‘‘तुम कहीं खो सी गई थीं, मां. कहां चली गई थीं, बोलो?’’

पुत्र के प्रश्न पर मां धीरे से समझाने लगीं, ‘‘देखो रवि, सामने गायत्री खड़ी है, क्या सोचेगी? अब तुम बड़े हो गए हो.’’

‘‘तुम्हारे लिए भी बड़ा हो गया हूं क्या?’’

‘‘नहीं रे,’’ स्नेह से मां उस का माथा चूमने लगीं.

‘‘आजा बेटी, मेरे पास आजा,’’ मां ने गायत्री को पास बुलाया और स्नेह से गले लगा लिया. छोटा बेटा और बेटी भी मां की गोद में सिमट आए. पिताजी चश्मा उतार कर आंखें पोंछने लगे.गायत्री बारीबारी से सब का मुंह देखने लगी. वह सोच रही थी, ‘क्या शादी के बाद वह इस मां के स्नेह के प्रति कभी उदासीन हो पाएगी? क्या पति का स्नेह बंटते देख ईर्ष्या का भाव मन में लाएगी? शायद नहीं, कभी नहीं.’

जिस गली जाना नहीं: क्या हुआ था सोम के साथ

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?’

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

आ, अब लौट चलें

लेखक- डा. रंजना जायसवाल

कोर्टरूम में सन्नाटा छाया हुआ था. सिर के ऊपर लगे एक पुराने पंखे और फाइलों के पन्नों के पलटने के अलावा कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी.

आज मुकदमे की आख्रिरी तारीख थी. पाखी सांस रोके फैसले के इंतजार में थी. उस ने दोनों बच्चों के हाथ कस कर पकड़ रखे थे. वकीलों की दलीलों के आगे वह हर बार टूटती, बिखरती और फिर अपनेआप को मजबूती से समेट हर तारीख पर अपनेआप को खड़ा कर देती. क्याक्या आरोप नहीं लगे थे इन बीते दिनों में. हर तारीख पर जलील और अपमानित होती थी पाखी. 8 साल की शादी. सबकुछ तो ठीक ही था.

अरुण एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे, खुद का मकान, खातापीता परिवार, सासससुर और एक छोटा भाई व बहन. एक लड़की को और क्या चाहिए था. फूफाजी ने रिश्ता बताया था. पापा कितने खुश थे. कोई जिम्मेदारी नहीं, एक छोटी बहन है वह भी शादी के बाद अपने घर चली जाएगी. पाखी उन्हें एक ही नजर में पसंद आ गई थी. पापा बहुत खुश थे.

‘’आप लोगों की कोई डिमांड हो तो बता दीजिए…’ पाखी के पिताजी ने कहा था. पाखी को आज भी याद है… अरुण ने छूटते ही कहा था, ‘अंकल, मैं इतना कमा लेता हूँ कि आप की बेटी को खुश रख लूंगा. आप अपनी बेटी को जो देना चाहे, दे सकते हैं, पर हमें कुछ नहीं चाहिए.‘ पाखी की नजर में कितनी इज्जत बढ़ गई थी अरुण के लिए. पर…

“कृपया शांति बनाए रखें, जज साहब आ रहे हैं.” इस आवाज़ ने पाखी की सोच को तेजी से ब्रेक लगा दिया. जज साहब ने बड़े ही सधे स्वर में फैसला सुनाना शुरू किया. वाद संख्या 15, सन 2018 अरुण सिंह बनाम पाखी सिंह के द्वारा याचिका दाखिल की गई थी. न्यायालय के द्वारा 6 महीने का वक्त दिए जाने पर भी दोनों पक्ष  साथ रहने को सहमत नहीं है. सो, यह न्यायालय तलाक के मुकदमे तथा बच्चों की कस्टडी के सम्बंध में मुकदमे का फैसला सुनाती है.

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 बी के अनुसार दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि अरुण सिंह एवं पाखी सिंह दोनों की सहमति से उन का सम्बंध विच्छेद किया जाता है. चूंकि दोनों की संतानें अभी नाबालिग हैं और पाखी सिंह एक सामान्य गृहिणी हैं व आर्थिक रूप से कमजोर हैं, इसलिए अरुण सिंह पाखी सिंह को उन के भरणपोषण के अलावा बच्चों के पालनपोषण व भरणपोषण के लिए भी 10 हजार रुपये खर्चे के तौर पर देंगे,  साथ ही, यह न्यायालय महीने में 2 बार या हर 15 दिन पर पिता को अपने बच्चों से मिलने का अधिकार देने का फैसला सुनाती है. पाखी सिंह को इस सम्बंध में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

जज साहब फैसला सुना कर चले गए. धीरेधीरे सभी लोग कमरे से बाहर निकल गए. पाखी बहुत देर तक यों ही बैठी रही. अरुण ने जातेजाते मुड कर उसे देखा. दोनों की आंखें टकरा गईं. न जाने कितने सवाल उन की आंखों में तैर रहे थे. मानो दोनों एकदूसरे से पूछ रहे थे, अब तो खुश हो न… यही चाहते थे न हम. पर क्या सचमुच वे दोनों यही चाहते थे…

विवाह की वेदी पर ली गईं सारी कसमें एकएक याद आ रही थीं… हिंदू विवाह सिर्फ एक संस्कार नहीं, सात जन्मों का नाता है जिसे कोई नहीं तोड़ सकता. एकदूसरे का हाथ थामे अरुण और पाखी ने भी तो यही कसमें खाई थीं. पर वक्त के थपेड़ों ने रिश्तों के धागों को तारतार कर दिया था. पारिवारिक न्यायालय के बाहर तलाक के लिए खड़े दंपतियों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर ऐसा क्या हो जाता है जो संभाला नहीं जा सकता. पाखी भी तो यही सोचती थी. पर उसे क्या पता था, जिंदगी उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी.

पिताजी ने यथासंभव सबकुछ तो दिया. पर कहीं कुछ अधूरा सा था जिस की भरपाई पाखी अपने आसुओं से करती रही. बड़ी बहू…बहुत सारी जिम्मेदारियाँ उस के कंधों पर थीं. दिनभर वह चकरघिन्नी की तरह नाचती रहती. कभी पापा की दवा तो माँ जी का नाश्ता, तो कभी सोनल का प्रोजेक्ट. कहने को तो सोनल उस की हमउम्र थी पर 2 भाई की लाडली और इकलौती बहन लाड़ के कारण कभी बड़ी न हो पाई.

पाखी हमेशा सोचती थी…हमउम्र हैं, सहेलियों की तरह चुटकियों में हर काम निबटा देंगे और देवर तो मेरे भाई सोनू की तरह ही है. जब सोनू का काम कर सकती थी, उस का क्यों नहीं. पर लोग सच कहते हैं, ससुराल तो ससुराल ही होती है.

पाखी की बचपन की सहेली हमेशा कहती थी, पाखी किसी रिश्ते में कोई रिश्ता न ढूंढना, तो खुश रहोगी. कितनी नादान थी वह. उसे क्या पता था ससुराल पहुँचने से पहले ही एक छवि वहाँ बन चुकी थी – बड़े बाप की बेटी है, डिग्री वाली है. इन को कौन समझा सकता है. मांजी अकसर कह देतीं, ‘वह तो अरुण ने शराफत में कह दिया कि दो जोड़ी कपड़ों में विदा कर दीजिए. इस के पापा मान भी गए. कितने अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे मेरे लाडले के लिए. पर हमारी ही मति मारी गई थी.‘ पाखी हदप्रद सी देखती रह जाती. जिन डिग्रियों को देख कर पापा का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था, आज वही उलाहनों और तानों का जरिया बन गई थीं.

पापा ने शादी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. सबकुछ तो दिया था पर…. पर मांजी अनर्गल प्रलाप अकसर शुरू हो जाता था. पाखी ने कई बार अरुण से इस बारे में बात करने की कोशिश की. पर अरुण तो जैसे कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे. शुरुआत में तो वे हँस कर टाल देते पर वक्त बीतने के साथ वह मुसकराहट झुंझलाहट में बदलती चली गई. सब को खुश करने के चक्कर में पाखी अपनेआप को खुश रखना तो कब का भूल चुकी थी. तारीफ और ढांढस का एक शब्द सुनने के लिए उस के कान तरस गए थे.

अरुण भी खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. पाखी भरेपूरे घर मे अकेले रह गई थी. पाखी और अरुण में न के बराबर बातें होती थीं और जब कभी बातें होतीं भी,   धीरेधीरे बहस, फिर झगड़े का रूप ले लेतीं. पाखी और अरुण के बीच झगड़े अपने मसलों को ले कर नहीं होते, पर आखिर पिस तो दोनों ही रहे थे. पाखी…पाखी, तुम ने बच्चों की फीस नहीं जमा  की, स्कूल से नोटिस आई है.

पाखी अरुण की आवाज सुन कर किचन से दौड़ी चली आई. अरे, अभी तक फीस नहीं जमा हुई? मैं ने तो भैया को बोला था. ‘मुझ से…मुझ से कब बोला भाभी’? ‘अरे भैया, आप उस दिन अपने दोस्त से मिलने जा रहे थे उसी तरफ, तब आप ही ने कहा था कि मैं जमा कर दूंगा’. पाखी की आवाज सुन कर पापा, मांजी, सोनल कमरे से बाहर निकल आए, ‘क्या बात है भाई, सुबहसुबह इतना शोर क्यों मचा रखा है’.

‘पापा देखिए न, बच्चों के स्कूल से नोटिस आई है कि अभी तक फीस जमा नहीं हुई है. मैं क्याक्या देखूं… घर कि बाहर’. अरुण सिर पकड़ कर बैठ गए. मम्मी ने बेटे की ऐसी हालत देख कर पाखी पर ही चिल्लाना शुरू कर दिया. एक काम ठीक से नहीं कर पाती. पता नहीं दिनभर करती क्या रहती है. हर चीज़ के लिए आदमी लगा हुआ है, तब भी महारानी को अपनेआप से फुरसत नहीं.

पाखी की आंखें फ़टी की फटी रह गईं. दिनभर इन लोगों की फरमाइशों को पूरा करतेकरते दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता. और मैं दिनभर करती ही क्या हूं. पाखी ने बड़ी उम्मीद से अरुण की तरफ देखा, शायद …शायद आज तो कुछ बोलेंगे. पर अरुण हमेशा की तरह आज भी चुप थे.

पाखी के दिल का दर्द आंखों मे उभर आया और वह सैलाब बन कर आंखों की सरहदों को तोड़ कर बह निकला. पाखी चुपचाप अपने कमरे में चली आई. वह घंटों तक रोती रही. तभी कमरे में किसी ने लाइट जलाई. कमरा रोशनी से नहा गया. रोतेरोते उस की आंखें लाल हो चुकी थीं. अरुण चुपचाप बिस्तर पर आ कर लेट गए.

पाखी चुपचाप बाथरूम में चली गई और शावर की तेज धार के नीचे खड़े हो कर अपने मनमस्तिष्क में चल रहे तूफान को रोकने का प्रयास करती रही. पर, बस, अब बहुत ही हो चुका. अब और बरदाश्त नहीं होता. इस घर के लिए वह एक सजावटी गुड़िया से ज्यादा कुछ नहीं थी, जिस का होना न होना किसी के लिए कोई माने नहीं रखता था. पाखी ने अपने कपड़े बदले और गीले बालों का एक ढीला सा जूड़ा बना कर छोड़ दिया.

‘अरुण…अरुण, मुझे आप से कुछ बात करनी है.‘ ‘हूं, मेरे सिर में बहुत दर्द है. मैं इस समय बात करने के मूड में नहीं हूँ.’ पाखी ने जैसे अरुण की बात ही नहीं सुनी और वह बोलती चली गई. ‘अरुण, अब बस, बहुत हो चुका. मैं ने अब तक बहुत निभाया कि आप सभी को खुश रखने की कोशिश करूं. पर बस, अब और नहीं. अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. हर बात पर मेरे घर वालों को और मुझे घसीटा जाता है. दम घुटता है मेरा. अब मैं यहाँ और नहीं रख सकती. मैं बच्चों को ले कर अपने घर जा रही.’

अरुण ने जलती निगाहों से देखा, ‘पाखी सोच लो, अगर आज तुम गईं तो इस गलतफहमी में बिलकुल भी नहीं रहना कि मैं या मेरे घरवाले तुम्हें मनाने आएंगे. आज से इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद’.

पाखी का दिल टूट गया. सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाने वाले रिश्ते एक झटके के साथ टूट  गए. 6 महीने की मोहलत भी उन के रिश्ते को नहीं जोड़ पाई.

समय बीतता गया. जीवन पटरी पर आने लगा. पाखी ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी. अरुण हर दूसरे हफ्ते बच्चों से मिलने आते और दिनभर उन को होटल व माल घुमाते. शाम को बच्चे जब लौटते तो कभी उन के हाथों में खिलौने कभी चौकलेट तो कभी किताबें होतीं.

पाखी कभीकभी अरुण को चाय के लिए पूछ लेती. पर चाय की चुस्कियों की बीच एक अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता. दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती.शब्द मानो खो से गए थे. एक बार चीकू का जन्मदिन था. अरुण ने चीकू से वादा किया था उसे पसंदीदा होटल में खाना खिलाएंगे. इस बार बच्चों की जिद के आगे पाखी की भी एक  न चली. कितने दिनों बाद वह किसी होटल में आई थी. अरुण वेटर को खाने का और्डर दे रहे थे.

पाखी ने चोर निगाहों से अरुण की ओर देखा…कितना कमजोर लगने लगा था. चेहरे की रौनक भी न जाने कहां खो गई थी. पाखी का भी तो कुछ ऐसा ही हाल था…पहननेओढ़ने का शौक तो न जाने कब का मर चुका था. आईने की तरफ देखे तो जमाना हो गया था. पाखी ने गहरी सांस ली.

अरुण पाखी और बच्चों छोड़ कर वापस अपने घर लौट गए. चीकू आज बहुत खुश था. आज उस के पापा ने उसे रिमोट कंट्रोल कार गिफ्ट में दी थी. पाखी ने कपड़े बदले और टीवी खोल कर बैठ गई. हर तरफ कोरोना का समाचार चल रहा था. समाचारवाचक गला फाड़फाड़ चिल्ला रहा था. दुनियाभर के सभी देशों में यह बीमारी अपने पैर पसार चुकी है. इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस संबंध में सख्त निर्णय लेते हुए आज रात 12 बजे से लौकडाउन की घोषणा की है.

पाखी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं.  घर में राशन और जरूरत का सामान सब तो लाना पड़ेगा. तभी मोबाइल की घंटी बजी…”पाखी, मैं… मैं अरुण बोल रहा हूं.” क्या कहती पाखी, उस की आवाज तो वह हजारों में भी पहचान सकती थी. “पाखी, तुम ने टीवी देखा?”

“हां, वही देख रही थी”.

“अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो बच्चों के साथ घर आ जाओ. पता नहीं कल क्या हो. जब तक सासें हैं, मैं अपने बच्चों के साथ रहना चाहता हूं,” अरुण की आवाज में निराशा का स्वर सुनाई दिया. पता नहीं वह क्या था.

पाखी अरुण को मना नहीं कर पाई, “पर अरुण, आप आएंगे कैसे? कल से तो निकलना बंद हो जाएगा”.

“तुम तैयारी करो, मैं अभी आ रहा हूं”. पता नहीं वह  कौन सा धागा था जो पाखी को खींचता ले जा रहा था. बच्चे खुशी से नाच रहे थे कि वे पापा के पास रहने जा रहे हैं पर वे मासूम यह नहीं जानते थे कि उन की यह खुशी कितने दिनों की है.

बच्चों की आवाजों से सासससुर कमरे से निकल आए. सासससुर की सवालिया निगा्हें उसे अंदर तक भेद गईं. “यह यहां क्या कर रही, नशा उतर गया सारा,” मम्मीजी ने भुनभुनाते हुए तीर छोड़ा. “मां, इन्हें मैं ले कर आया हूं,” अरुण ने सख्ती से कहा.

“चीकू, मिष्टि चलो, दादी व बाबा का पैर छुओ,” पाखी की बात सुन कर बच्चों ने झट से पैर छू लिए. मम्मी वहां भी ताना मारने से नहीं चूकीं, “चलो, कुछ तो संस्कार दिए वरना…”

“पापा, आप का कमरा कहाँ है?” अरुण ने उंगली से कमरे की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे हल्ला मचाते हुए उस ओर भागे. कितने वर्षों बाद अरुण के चेहरे पर मुसकान आई थी.

पाखी कमरे के बाहर आ कर ठिठक कर रह गई. पैर जम से गए. जिस कमरे में वह दुलहन बन कर आई थी, आज वह उसे अपरिचितों की तरह देख रहा था. “मां, हम पापा के पास ही सोएंगे.” “अरे नहीं, तुम लोग बहुत पैर चलाते हो, पापा को दिक्कत होगी.” “पाखी, इन्हें यहीं रहने दो,” अरुण ने कहा था. अरुण की आंखों में अजीब सा दर्द उस ने महसूस किया था. वह आगे बोला, “सोनल और सोबित की शादी के बाद कमरा खाली पड़ा है. मैं तुम्हारा सामान उसी कमरे में रख देता हूँ.

सब अपनेअपने कमरे में चले गए. पाखी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सारी रात करवटें बदलते बीत गई. भोर में न जाने कब आंखे लग गईं. बरतनों की आवाज से पाखी की नींद टूट गई. ‘अरे इतना दिन चढ़ आया’ पाखी बुदबुदा कर उठ बैठी. आने को तो वह अरुण के साथ चली आई पर यह सब क्या इतना आसान था.

सहमे हुए कदमों से उस ने ड्राइंगरूम में कदम रखा. अरुण झाड़ू लगा रहे थे. मम्मीजी बरतन धो रही और पापाजी…पापाजी शायद चाय बनाने की कोशिश कर रहे थे. पाखी के कदमों की आहट सुन कर मम्मीजी बड़बड़ाईं, “आ गई महारानी.” पाखी ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. उस ने सोचा, ‘वह कौन सा यहां बसने आई है. कुछ ही दिनों की तो बात है. फिर वही जिंदगी और फिर वही कशमकश.

“पाखी, तुम जग गईं,”  अरुण की आवाज़ थी. “आप…आप क्यों झाडू लगा…” पाखी बोल ही रही थी कि अरुण बोल पड़ा, “अरे वह अचानक लौकडाउन हो गया न, इसलिए कोई कामवाली काम करने नहीं आएगी. अब तो अपना हाथ जगन्नाथ.” इतना कहने के साथ ही अरुण के चेहरे पर सहज मुसकान आ गई. कितना बदल गया है इन सालों में सबकुछ.

जिस अरुण को औफिस के कामों, मम्मीजी को पूजापाठ और पापाजी को अखबार से फुरसत नहीं मिलती थी, आज वक्त ने सबकुछ सिखा दिया था. पाखी के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था. मम्मीजी ने शुरूशुरू में पाखी के चौके में घुसने पर नाकभौं सिकोड़ी. पर अरुण के सख्त चेहरे और परिस्थितियों के आगे को वे ढीली पड़ गईं. शुरूशुरू में रिश्तेदारों के फोन आते रहते और घर बैठेबैठे आग में घी डालने का काम करते रहते पर जैसेजैसे लौकडाउन की समयसीमा खिसकती रही, उन के फोन आने बंद हो गए.

पाखी ने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली. उसे देख कर लगता ही नहीं था कि वह इस घर से कभी गई भी थी. पापा की नीबू वाली चाय, मम्मीजी की बिना चीनी वाली चाय और अरुण की चीनी कम ज्यादा दूध वाली चाय… आज भी उसे याद थी. पर इन बीते सालों में एक एक बहुत बड़ा बदलाव आया था. जो पाखी अकेले दिनभर घर के कामों में जूझती रहती थी, आज हर आदमी उस की सहायता के लिए तत्पर था. मम्मीजी सब्जी काट कर दे देतीं तो अरुण धुले कपड़ो को फैलाने व तह लगाने में उस की मदद कर देता. बच्चे दिनभर बाबा और दादी की रट लगाए रहते. अरुण को लगा मानो उस के घर की खुशियां वापस लौट आई हों.

लौकडाउन की तारीख बारबार बढ़ रही थी. सब बहुत परेशान थे, पर अरुण और पाखी के सूखते रिश्ते को मानो नया जीवन मिल गया था. सब लोग ड्राईंगरूम में समाचार देख रहे थे… ‘कोरोना की व्यापकता को देखते हुए पूरे देश को कई जोन में बांट दिया गया है. लौकडाउन में कुछ छूट दी जाएगी. कल से कुछ जरूरी दुकानें और प्रतिष्ठान कुछ नियमों के साथ खुलेंगे. पर अभी भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

“मां, हम  लोग का शहर किस जोन में आएगा?” चीकू ने पूछा तो पाखी ने बताया, “ग्रीन”. “मां, तो क्या अब हम वापस अपने घर जाएंगे. अब हम पापा के साथ नहीं रहेंगे?” चीकू की बात सुन कर सब सकते में आ गए. किसी के पास कोई जवाब नहीं था. पाखी ने धीरेधीरे अपना सामान समेटना शुरू किया. पता नहीं क्यों उस का मन भारी हो रहा था. पर किस हक़ से वह यहाँ रुक सकती है. न जाने कितने सवाल उस के मनमस्तिष्क में घूम रहे थे. बच्चे उदास मन से गाड़ी में जा कर बैठ गए.

पाखी ने पापा और मम्मीजी के पैर छुए. “खुश रहो, अखंड…. यह क्या कहने जा रहे थे वे. वे बुझेमन से अपने कमरे की तरफ चले गए. अरुण को समझ नहीं आ रहा था कि वह पाखी से क्या कहे. इन बीते दिनों में दोनों ने एकदूसरे को जितना करीब से समझा था उतना तो पहले भी नहीं जानते थे. पाखी के कान भी न जाने क्या सुनने को आतुर थे. एक बार, बस एक बार तो कह कर देखो.

अरुण के शब्द लड़खड़ा रहे थे, “पाखी…पाखी, क्या ऐसा नहीं हो सकता तुम हमेशा के लिए यही रुक जाओ”. अरुण की आंखों से आंसू बह रहे थे, पश्चात्ताप के आँसू, उम्मीद के आँसू. पाखी, बस, यही तो सुनना चाहती थी. कितने साल लगा दिए अरुण ने यह कहने के लिए.

पाखी की आंखों से भी आंसू बह रहे थे. उस ने अपने आंसुओ को आंचल में समेटा. अरुण बहुत देर हो रही है, मुझे…मुझे अब जाने दीजिए हमेशा के लिए लौट आने के लिए. दोनों की आंखें आंसुओ से भरी थीं. पर ये आंसू खुशी के थे. करोना ने न जाने कितनों की गोद उजाड़ी, कितनों का सुहाग छीना पर आज किसी के घर की खुशियों का कारण भी यह कोरोना ही बना था.

अपनी ही दुश्मन: कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी. लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी.

बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

भाभी का मुंह खुला का खुला रह गया. बोली, ‘‘कहीं और चक्कर तो नहीं चल रहा?’’

‘‘वह बौड़म क्या चक्कर चलाएगा भाभी, फैक्ट्री से आते ही बेदम हो कर पड़ जाता है. बिलकुल बेकार नौकरी है उस की.’’ कविता रोष में बोली, ‘‘2 दिन सुबह की शिफ्ट, फिर 2 दिन शाम की और 2 दिन रात की शिफ्ट.’’

‘‘तो तुझे क्या परेशानी है.’’ भाभी ने कविता को समझाया, ‘‘दामादजी की नईनई नौकरी है. मेहनत कर रहे हैं तो आगे जा कर लाभ मिलेगा.’’

‘‘भाभी, तुम नहीं समझोगी. एक तो वैसे ही फैक्ट्री के उलटेसीधे टाइमटेबल हैं, ऊपर से मोनू को संभालने के लिए इतना वक्त देना पड़ता है. इस सब से ऊब गई हूं मैं. बिलकुल नीरस जिंदगी है, किस से कहूं. क्या कहूं?’’

भाभी आश्चर्य से देखती रह गईं. वह समझ कर भी कुछ नहीं समझ पा रही थीं. 5 फुट 5 इंच लंबी, इकहरे बदन और तीखे नैननक्श वाली उस की ननद कविता में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उस के मोहपाश में कोई भी बंध सकता था. सुरेश के साथ भी यही हुआ था.

उस ने छत पर कई बार कविता और सुरेश को नैनों के दांवपेंच लड़ाते देखा था. इस के बाद उस ने ही दादी को समझाबुझा कर सुरेश और कविता की शादी करा दी थी. सुरेश था तो उस के पति का सहपाठी, पर कविता के चक्कर में उन्हीं के घर में घुसा रहता था.

काफी भागदौड़ के बाद सुरेश को एक कंपनी में नौकरी मिली थी. कंपनी की तरफ से ही रहने का भी इंतजाम हो गया था. कविता की नाजायज मांगों के लिए वह अपनी नौकरी खतरे में कैसे डाल सकता था. भाभी कविता की मांग सुन कर हैरत में रह गईं. सुरेश भला उस की चांदतारों की मांग के लिए रोजीरोटी की फिक्र कैसे छोड़ सकता था.

‘‘क्या सोच रही हो भाभी, बडे़ भैया तो अभी भी तुम्हारे आगेपीछे घूमते हैं.’’ भाभी को चुप देख कर कविता ने हल्के व्यंग्य में कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो तुम ने अभी बच्चे का बवाल नहीं पाला. अभी तो खूब मौजमजे की उम्र है.’’

कविता की बात का कोई जवाब दिए बिना भाभी सोचने लगी, ‘जब तक दादी जिंदा हैं, पूरा परिवार एक डोर में बंधा है, बाद में तो सब को अलगअलग ही हो जाना है. कविता अपना घर छोड़ कर आ गई तो सब के लिए मुसीबत बन जाएगी. अपनी आधी पढ़ाई छोड़ कर शादी के मंडप में बैठ गई थी और अब बच्चे को उठा कर चली आई, वह भी यह सोच कर कि अब वापस नहीं जाएगी. जरूर इस का कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा.’

‘‘कहां खो गईं भाभी,’’ कविता ने भाभी की आंखों के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘बड़के भैया की रोमांटिक यादों में खो गईं क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम मोनू की वजह से परेशान हो न, ऐसा करो उसे यहीं छोड़ जाओ, हम पाल लेंगे. बस आगे से सावधानी रखना कि कहीं मोनू का भैया न आ जाए. रही बात सुरेश की तो उन की ड्यूटी दिन की हो या रात की, बाकी वक्त तुम्हारे साथ ही रहेंगे, तुम्हारे पास. समय बचे तो अपना ग्रैजुएशन पूरा कर लेना. तुम भी व्यस्त हो जाओगी.’’

भाभी की राय कविता को जंच गई. बात चली तो यह सुझाव घर में भी सब को पसंद आया. बहरहाल 2 दिनों बाद कविता मोनू को मायके में छोड़ कर सुरेश के पास चली गई. उस के जाने से सभी ने राहत की सांस ली.

देखतेदेखते 5 साल गुजर गए. इस बीच कविता कानपुर छोड़ कर लखनऊ आ गई. वहां उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी. मोनू को भी उस ने अपने पास बुला लिया था. सुरेश शनिवार को उस के पास आता और रविवार को उस के साथ रह कर सोमवार सुबह वापस लौट जाता.

बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

विधवा रहूंगी पर दूसरी औरत नहीं बनूंगी

लेखक- सुनील आनंद

लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

मर्यादा : आखिर क्या हुआ निशा के साथ

देर रात गए घर के सारे कामों से फुरसत मिलने पर जब रोहिणी अपने कमरे में जाने लगी तभी उसे याद आया कि वह छत से सूखे हुए कपड़े लाना तो भूल ही गई है. बारिश का मौसम था. आसमान साफ था तो उस ने कपड़ों के अलावा घर भर की चादरें भी धो कर छत पर सुखाने डाल दी थीं. थकान की वजह से एक बार तो मन हुआ कि सुबह ले आऊंगी, लेकिन फिर ध्यान आया कि अगर रात में कहीं बारिश हो गई तो सारी मेहनत बेकार चली जाएगी. फिर रोहिणी छत पर चली गई.

वह कपड़े उठा ही रही थी कि छत के कोने से उसे किसी के बात करने की धीमीधीमी आवाज सुनाई दी. रोहिणी आवाज की दिशा में बढ़ी. दायीं ओर के कमरे के सामने वाली छत पर मुंडेर से सट कर खड़ा हुआ कोई फोन पर धीमी आवाज में बातें कर रहा था. बीचबीच में हंसने की आवाज भी आ रही थी. बातें करने वाले की रोहिणी की ओर पीठ थी इसलिए उसे रोहिणी के आने का आभास नहीं हुआ, मगर रोहिणी समझ गई कि यह कौन है.

रोहिणी 3-4 महीनों से निशा के रंगढंग देख रही थी. वह हर समय मोबाइल से चिपकी या तो बातें करती रहती या मैसेज भेजती रहती. कालेज से आ कर वह कमरे में घुस कर बातें करती रहती और रात का खाना खाने के बाद जैसे ही मोबाइल की रिंग बजती वह छत पर भाग जाती और फिर घंटे भर बाद वापस आती.

रोहिणी के पूछने पर बहाना बना देती कि सहेली का फोन था या पढ़ाई के बारे में बातें कर रही थी. लेकिन रोहिणी इतनी नादान नहीं है कि वह सच न समझ पाए. वह अच्छी तरह जानती थी कि निशा फोन पर लड़कों से बातें करती है. वह भी एक लड़के से नहीं कई लड़कों से.

‘‘निशा इतनी रात गए यहां अंधेरे में क्या कर रही हो? चलो नीचे चलो,’’ रोहिणी की कठोर आवाज सुन कर निशा ने चौंक कर पीछे देखा.

‘‘चल यार, मैं तुझे बाद में काल करती हूं बाय,’’ कह कर निशा ने फोन काट दिया और बिना रोहिणी की ओर देखे नीचे जाने लगी.

‘‘तुम तो एकडेढ़ घंटा पहले छत पर आई थीं निशा, तब से यहीं हो? किस से बातें कर रही थीं इतनी देर तक?’’ रोहिणी ने डपट कर पूछा.

निशा बिफर कर बोली, ‘‘अब आप को क्या अपने हर फोन काल की जानकारी देनी पड़ेगी चाची? आप क्यों हर समय मेरी पहरेदारी करती रहती हैं? किस ने कहा है आप से? मेरा दोस्त है उस से बातें कर रही थी.’’

‘‘निशा, बड़ों से बातें करने की भी तमीज नहीं रही अब तुम्हें. मैं तुम्हारे भले के लिए ही तुम्हें टोकती हूं,’’ रोहिणी गुस्से से बोली.

‘‘मेरा भलाबुरा सोचने के लिए मेरी मां हैं. सच तो यह है कि आप मुझ से जलती हैं. आप की बेटी मेरे जितनी सुंदर नहीं है. उस का मेरे जैसा बड़ा सर्कल नहीं है, दोस्त नहीं हैं. इसीलिए मेरे फोन काल से आप को जलन होती है,’’ निशा कठोर स्वर में बोल कर बुदबुदाती हुई नीचे चली गई.

कपड़ों को हाथ में लिए हुए रोहिणी स्तब्ध सी खड़ी रह गई. उस की गोद में पली लड़की उसे ही उलटासीधा सुना गई.

रोहिणी की बेटी ऋचा निशा से कई गुना सुंदर है, लेकिन हर समय सादगी से रहती है और पढ़ाई में लगी रहती है.

रोहिणी बचपन से ही उसे समझती आई है और ऋचा ने बचपन से ले कर आज तक उस की बताई बात का पालन किया है. वह अपने आसपास फालतू भीड़ इकट्ठा करने में विश्वास नहीं करती. तभी तो हर साल स्कूल और कालेज में टौप करती आई है.

लेकिन निशा संस्कार और गुणों पर ध्यान न दे कर हर समय दोस्तों व सहेलियों से घिरे रहना पसंद करती है. तारीफ पाने के लिए लेटैस्ट फैशन के कपड़े, मेकअप बस यही उस का प्रिय शगल है और इसी में वह अपनी सफलता समझती है. तभी तो ऋचा से 2 साल बड़ी होने के बावजूद भी उसी की क्लास में है.

नीचे जा कर रोहिणी ने ऋचा के कमरे में झांक कर देखा. ऋचा पढ़ रही थी, क्योंकि वह पी.एस.सी. की तैयारी कर रही थी. रोहिणी ने अंदर जा कर उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और अपने कमरे में आ गई.

‘जिंदगी में हर बात का एक नियत समय होता है. समय निकल जाने के बाद सिवा पछतावे के कुछ हासिल नहीं होता. इसलिए जीवन में अपने लक्ष्य और प्राथमिकताएं तय कर लेना और उन्हीं के अनुसार प्रयत्न करना,’ यही समझाया था रोहिणी ने ऋचा को हमेशा. और उसे खुशी थी कि उस की बेटी ने जीवन का ध्येय चुनने में समझदारी दिखाई है. पूरी उम्मीद है कि ऋचा अपने लक्ष्य प्राप्ति में अवश्य सफल होगी.

अगले दिन ऋचा और निशा के कालेज जाने के बाद रोहिणी ने अपनी जेठानी से बोली कि निशा आजकल रोज घंटों फोन पर अलगअलग लड़कों से बातें करती है. आप जरा उसे समझाइए. लेकिन बदले में जेठानी का जवाब सुन कर वह अवाक रह गई.

‘‘करने दे रे, यही तो दिन हैं उस के हंसनेखेलने के. बाद में तो उसे हमारी तरह शादी की चक्की में ही पिसना है. बस बातें ही तो कर रही है न और वैसे भी सभी लड़के एक से एक अमीर खानदान से हैं.’’

रोहिणी को समझते देर नहीं लगी कि जेठानी की मनशा क्या है. वैसे भी उन्होंने निशा को ऐसे ढांचे में ही ढाला है कि अमीर खानदान में शादी कर के ऐश से रहना ही उस का एकमात्र ध्येय है. अमीर परिवार के इतने लड़कों में से वह एक मुरगा तो फांस ही लेगी.

रोहिणी को जेठानी की बात अच्छी नहीं लगी, लेकिन उस ने समझ लिया कि उन से और निशा से कुछ भी कहनासुनना बेकार है. वह ऋचा को उन दोनों से भरसक दूर रखने का प्रयत्न करती. वह नहीं चाहती थी कि ऋचा का ध्यान इन बातों पर जाए.

कई महीनों तक रोहिणी ऋचा की पढ़ाई को ले कर व्यस्त रही. उस ने निशा को टोकना छोड़ दिया और अपना सारा ध्यान ऋचा पर केंद्रित कर लिया. आखिर बेटी के भविष्य का सवाल है. रोहिणी अच्छी तरह समझती थी कि बेटी को अच्छे संस्कार दे कर बड़ा करना और बुरी सोहबत से बचा कर रखना एक मां का फर्ज होता है.

एक दिन रोहिणी ने निशा के हाथ में बहुत महंगा मोबाइल देखा तो उस का माथा ठनका. निशा और उस की मां की आपसी बातचीत से पता चला कि कुछ दिन पहले किसी हिमेश नामक लड़के से निशा की दोस्ती हुई है और उसी ने निशा को यह मोबाइल उपहार में दिया है.

जेठानी रोहिणी की ओर कटाक्ष कर के कहने लगीं कि लड़का आई.ए.एस. है. खानदान भी बहुत ऊंचा और अमीर है. निशा की तो लौटरी खुल गई. अब तो यह सरकारी अफसर की पत्नी बनेगी.

रोहिणी को इस बात पर बड़ी चिंता हुई. कुछ ही दिनों की दोस्ती पर कोई किसी पर इतना पैसा खर्च कर सकता है, यह बात उस के गले नहीं उतर रही थी.

उस ने अपने पति नीरज से बात की तो नीरज ने कहा, ‘‘मैं भी धीरज भैया को कह चुका हूं, लेकिन तुम तो जानती हो, वे भाभी और बेटी के सामने खामोश रहते हैं. तुम जबरन तनाव मत पालो. ऋचा पर ध्यान दो.

जब उन्हें अपनी बेटी के भविष्य की चिंता नहीं है तो हम क्यों करें? समझाना हमारा काम था हम ने कर दिया.’’

रोहिणी को नीरज की बात ठीक लगी. उस ने तो निशा को भी अपनी बेटी समान ही समझा, पर अब जब मांबेटी दोनों अपने आगे किसी को कुछ समझती ही नहीं तो वह भी क्या करे.

अगले कुछ महीनों में तो निशा अकसर हिमेश के साथ घूमने जाने लगी. कई बार रात में पार्टियां अटैंड कर के देर से घर आती. उस के कपड़ों से महंगे विदेशी परफ्यूम की खुशबू आती.

कपड़े दिन पर दिन कीमती होते जा रहे थे. रोहिणी ने कभी ऋचा और निशा में भेद नहीं किया था, इसलिए उस के भविष्य के बारे में सोच कर उस के मन में भय की लहर दौड़ जाती. पर वह मन मसोस कर मर्यादा का अंशअंश टूटना देखती रहती. घर में 2 विपरीत धाराएं बह रही थीं.

ऋचा सारे समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती और निशा सारे समय हिमेश के साथ अपने सुनहरे भविष्य के सपनों में खोई रहती. उस के पैर जमीन पर नहीं टिकते थे. उस के सुंदर दिखने के उपायों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी. वह ऋचा और रोहिणी को ऐसी हेय दृष्टि से देखती थी मानो हिमेश का सारा पैसा और पद उसी का हो.

ऋचा के बी.ए. फाइनल और पी.एस.सी. प्रिलिम्स के इम्तिहान हो गए, लेकिन आखिरी पेपर दे कर आने के तुरंत बाद ही वह अन्य परीक्षा की तैयारियों में जुट गई. उस की दृढ़ता और विश्वास देख कर रोहिणी और नीरज भी आश्वस्त थे कि वह पी.एस.सी. की परीक्षा में जरूर सफल हो जाएगी.

और वह दिन भी आ गया जब रोहिणी और नीरज के चेहरे खिल गए. उन के संस्कार जीत गए. ऋचा की मेहनत सफल हो गई. वह प्रिलिम्स परीक्षा पास कर गई और साथ ही बी.ए. में पूरे विश्वविद्यालय में अव्वल रही.

लेकिन इस खुशी के मौके पर घर में एक तनावपूर्ण घटना घट गई. निशा रात में हिमेश के साथ उस की बर्थडे पार्टी में गई. घर में वह यही बात कह कर गई कि हिमेश ने बहुत से फ्रैंड्स को होटल में इन्वाइट किया है. खानापीना होगा और वह 11 बजे तक घर वापस आ जाएगी. लेकिन जब 12 बजे तक निशा घर नहीं आई तो घर में चिंता होने लगी. वह मोबाइल भी रिसीव नहीं कर रही थी. रात के 2 बजे तक उस की सारी सहेलियों के घर पर फोन किया जा चुका था पर उन में से किसी को भी हिमेश ने आमंत्रित नहीं किया था. जिस होटल का नाम निशा ने बताया था नीरज वहां गया तो पता चला कि ऐसी कोई बर्थडे पार्टी वहां थी ही नहीं.

गंभीर दुर्घटना की आशंका से सब का दिल धड़कने लगा. रोहिणी जेठानी को तसल्ली दे रही थी पर उन के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. वे रोहिणी से नजरें नहीं मिला पा रही थीं. सुबह 4 बजे जब वे लोग पुलिस में रिपोर्ट करने की सोच रहे थे कि तभी एक गाड़ी तेजी से आ कर दरवाजे पर रुकी और तेजी से चली गई. कुछ ही पलों बाद निशा अस्तव्यस्त और बुरी हालत में घर आई और फूटफूट कर रोने लगी.

उस की कहानी सुन कर धीरज और उस की पत्नी के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. रोहिणी और नीरज अफसोस से भर उठे.

बर्थडे पार्टी का बहाना बना कर हिमेश निशा को एक दोस्त के फार्म हाउस में ले गया. वहां उस के कुछ अधिकारी आए हुए थे. उसने निशा से उन्हें खुश करने को कहा. मना करने पर वह गुस्से से चिल्लाया कि महंगे उपहार मैं ने मुफ्त में नहीं दिए. तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी. उपहार लेते समय तो हाथ बढ़ा कर सब बटोर लिया और अब ढोंग कर रही हो. और फिर पता नहीं उस ने निशा को क्या पिला दिया कि उस के हाथपांव बेदम हो गए और फिर…

कहां तो निशा उस की पत्नी बनने का सपना देख रही थी और हिमेश ने उसे क्या बना दिया. हिमेश ने धमकी दी थी कि किसी को बताया तो…

रोहिणी सोचने लगी अगर मर्यादा का पहला अंश भंग करने से पहले ही निशा सचेत हो जाती तो आज अपनी मर्यादा खो कर न आती.

निशा के कानों में रोहिणी के शब्द गूंज रहे थे, जो उन्होंने एक बार उस से कहे थे कि मर्यादा भंग करते जाने का साहस ही हम में एकबारगी सारी सीमाएं तोड़ डालने का दुस्साहस भर देता है.

वाकई एकएक कदम बिना सोचेसमझे अनजानी राह पर कदम बढ़ाती वह आज गड्ढे में गिर गई थी.

गर्लफ्रैंड: क्यों कुंदन को खानी पड़ी हवालात की हवा?

लेखिका-  रेणु सिंह

’कोई न कोई चाहिए प्यार करने वाला…’

‘‘यार, तू पिटवाए बिना मानेगा नहीं क्या? जहां भी कोई लड़की पास से गुजरती है तू बेहूदे गाने बुदबुदाने लगता है. कल जब उस द्वितीय वर्ष की शीला ने कालर पकड़ लिया था तो कैसे घिग्घी बंध गई थी तेरी. तू अपनी आदत सुधार ले, वरना मैं तेरे साथ उठनाबैठना भी बंद कर दूंगा. तेरे साथ रहने के कारण मुझे भी लोग ब्लैक लिस्ट में डाल देंगे. लफंगा समझेंगे मुझे. ’’ कुंदन को धीमे से गाते सुन कर सुनील झल्ला गया तो वह ढिठाई से मुसकरा दिया.

‘‘अरे यार, ब्लैक नहीं स्मार्ट लिस्ट में आ जाएगा तू. अब कालेज में आ गया है, बड़ा हो गया है. क्या अभी भी स्कूल जाने वाले बच्चे की तरह नजरें नीची किए नाक की सीध में क्लास में आताजाता है? ऐसे तो लोग तुझे बबुआ समझेंगे. जमाना स्टाइल का है यार, यहां स्मार्ट लोगों की कद्र होती है. तेरे जैसे सीधेसादे लड़कों को देख लड़कियां मुंह दबा कर हंसती हैं और पीठ पीछे खिल्ली उड़ाती हैं. शीला ने मेरा कालर झगड़ा करने के इरादे से नहीं, बल्कि मुझे गौर से देखने के लिए पकड़ा था, वरना सोच उस ने फिर अपनेआप कालर छोड़ कैसे दिया? वापस जाते समय शरमा कर मुसकराई भी थी वह.’’

‘‘बस, वह मुसकराना तुझे ही दिखाई दिया था, वरना सारे कालेज ने उसे जलती नजरों से तुझे घूरते हुए ही देखा था. उस का भाई बौक्सर है. अगर उसे पता चल गया तो फिर तुझे भी शरमाना पड़ेगा.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा मेरे भाई, तू शर्त लगा ले. अब ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्मों का जमाना नहीं है. अब लड़कियां बोल्ड होती हैं और उन्हें बोल्ड माचोमैन टाइप के लड़के अच्छे लगते हैं. देखा है, अजीत, कुणाल और संजय को? कपड़ों की तरह गर्लफ्रैंड बदलते रहते हैं. स्टाइल से चश्मा लगाए बाइक धड़धड़ाते आते हैं तो सारी लड़कियों की नजरें उधर ही घूम जाती हैं.’’

‘‘और तुम्हारे जैसे नकलची बंदरों की नजरें भी उठ जाती हैं. उन का रिपोर्ट कार्ड देखा है कभी? हर क्लास में डबल शिफ्ट लगाते हैं.’’

‘‘उफ, तुम्हें समझाना नामुमकिन है. यार, यही तो दिन हैं मस्ती करने के. अब हम बच्चे नहीं रहे, जवान हो रहे हैं. पढ़ाईलिखाई अपनी जगह सही है, पर ये सुनहरे दिन भी तो लौट कर दोबारा नहीं आने वाले. अभी इन का मजा नहीं लिया तो कब लेंगे? साथ में अगर एक हसीन स्मार्ट गर्लफ्रैंड हो, तब देखो, पूरे कालेज में तुम्हारा दबदबा कैसे बनता है. बस, इसी इंतजार में हूं कि उन मोटरसाइकिल सवार हीरो लड़कों की तरह मेरी भी गोटी फिट हो जाए कहीं. पापा को हाथपैर जोड़ कर एक बाइक के लिए मना भी लिया है मैं ने,’’ सरसरी नजर से सीढ़ी पर बैठ कर गप्पें मार रही लड़कियों को देख कर वह बोला.

‘‘तुझे गर्लफ्रैंड की क्या जरूरत है. मैं तो हूं ही तेरी फ्रैंड और गर्ल भी हूं,’’ स्नेहा पास आ कर बोली.

‘‘तेरे जैसी गर्लफ्रैंड हों तो लड़के जेब में राखियां ले कर घूमेंगे. तुम कपड़े ऐसे पहनती हो जैसी हमारी मांएं अपने जमाने में पहना करती होंगी. क्लास में पूरे वक्त किताब में नजरें गड़ाए बैठी रहोगी. अरे यार, एक पल नजरें उठा कर अगर आसपास के लोगों को एक स्माइल दे दोगी तो कोई भयंकर पाप हो जाएगा और यदि गलती से किसी लड़के ने कंधे पर हाथ रख दिया तो सीधे चप्पल निकाल लोगी.’’

‘‘साले, तेरी पिटाई तो पक्की होगी मेरे हाथ से किसी दिन,’’ स्नेहा बुदबुदाते हुए अपनी क्लास में चली गई.

कुंदन मुसकराते हुए स्टाइल से पास खड़ी लड़की की ओर बढ़ा, जो अपने मोबाइल पर बारबार कहीं फोन लगाने की कोशिश कर रही थी और फोन कट जा रहा था. उस ने जेब से फोन निकाल कर उस की ओर बढ़ाया, ‘‘नैटवर्क नहीं मिल रहा होगा, मेरा फोन ट्राइ करो. कहीं से भी कभी भी लग जाएगा.’’

‘‘ओह, थैंक्यू. ऐक्चुअली मां को बताना था कि मुझे घर आने में देर हो जाएगी, अचानक आर्ट गैलरी जाने का प्रोग्राम बन गया.’’

‘‘वह हाईफाई मौल वाली? बहुत अच्छी है, यू शुड गो. आज तो मैं भी वहां जाने वाला था. तुम्हारा तो लड़कियों का ग्रुप होगा…’’

‘‘नहीं… निखिल और रवि भी हैं.’’

सुनते ही कुंदन का मुंह उतर गया. अगले दिन जब वह काला चश्मा लगाए बाइक धड़धड़ाता हुआ आया तो स्नेहा ने उसे देख कर मुंह बिचका लिया.

‘‘उंह, लंगूर के मुंह में अंगूर.’’

‘‘मैं जानता था कि तू जलभुन जाएगी. नजर मत लगा, तुझे भी लिफ्ट दे दूंगा कभी.’’

‘‘ऐक्सक्यूज मी, तुम्हारे पास ऐक्स्ट्रा पैन है? मेरे पैन का रिफिल खत्म हो गया है और मेरी क्लास है अभी,’’ एक खूबसूरत लड़की ने कैंटीन में कुंदन के पास आ कर पूछा.

‘‘हांहां, है न…’’ कुंदन ने जेब से पैन निकाल कर झट से उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘थैंक्स, मैं क्लास के बाद लौटा दूंगी. तुम्हें अर्थशास्त्र की क्लास में देखा है मैं ने.’’

‘‘मैं ने भी देखा है तुम्हें… बाइ द वे मेरा नाम कुंदन है, तुम…’’

‘‘मैं रोमा हूं,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और अपनी क्लास में चली गई.

‘‘कमाल है, इतनी सारी सहेलियां हैं इस की, उन के पास पैन नहीं मिला इसे, जो कैंटीन में तुझे खोज कर तेरे से मांगने आई है?’’ सुनील ने अचरज से कहा.

‘‘जल गए न? यह सब स्टाइल का कमाल है मेरे दोस्त. मेरी बाइक देख कर वह इंप्रैस हो गई होगी.’’

‘‘और तू उसे देख कर इंप्रैस हो गया. पैन निकाल कर तू ने एकदम पेश कर दिया. अब क्लास में क्या नाखून से लिखेगा?’’ स्नेहा ने मुंह बना कर पूछा.

‘‘तुम दोनों अपनी बकवास बंद करो.’’

‘‘कुंदन तुझे पता भी है कि वह कौन है? हमारे सीनियर संजीव की बहन है वह. तू उसे अपनी बाइक पर बिठाने का ख्वाब भूल जा. सारा कालेज जानता है कि वह रोहित की गर्लफ्रैंड है,’’ सुनील ने बताया.

‘‘हाय, कुंदन घर जा रहे हो?’’ 2 दिन बाद कालेज की सीढि़यां उतरते कुंदन को रोमा ने टोका.

‘‘हां.’’

‘‘तुम यहां किस का इंतजार कर रही हो?’’

‘‘रिकशे का, घर जाना है न, पर अब सोचती हूं क्यों न तुम्हारे साथ ही चलूं. बड़ी शानदार बाइक है. मुझे एक राइड दोगे?’’

‘‘हां… हां… रोहित नहीं दिख रहा है कहीं,’’ उस ने इधरउधर देखते हुए पूछा.

‘‘नाम मत लो उस का. मेरा उस से ब्रेकअप हो गया है. एक नंबर का फ्लर्ट है वह. भैया ठीक कहता था कि वह लड़का मेरे लिए ठीक नहीं था. वैसे तुम्हारे बारे में उस की राय सही है.’’

‘‘मेरे बारे में?’’ कुंदन चौंक गया.

‘‘हां, ऐडमिशन के दिन उस ने मुझे तुम्हारे साथ बातें करते देखा था. कह रहा था कि तुम स्कूल में उस के जूनियर थे. मुझे घर ड्रौप कर दो, इसी बहाने भैया से भी मिल लेना.’’

‘‘हांहां… आओ, बैठो,’’ कुंदन की तो बांछें खिल गईं. उस की मनचाही मुराद पूरी हो रही थी. कालेज की सब से हसीन और स्मार्ट लड़कियों में गिनी जाने वाली रोमा उस की बाइक पर, उस की कमर में हाथ डाले हुए थी.

उस दिन के बाद दोनों कभी कैंटीन तो कभी लाइब्रेरी में साथसाथ दिखते. कभीकभी वह उसे घर भी ड्रौप कर देता. पूरे कालेज में दोनों बौयफ्रैंड गर्लफ्रैंड के रूप में मशहूर हो गए.

‘‘कमाल है उस के घर वाले कुछ नहीं कहते तुझे उस के साथ देख कर?’’  एक दिन सुनील ने कुंदन से पूछा.

‘‘कहेंगे क्या, वे तो खुश हैं कि उस लफंगे रोहित से उस का पीछा  छूटा. मैं ने खुद सुना था, संजीव अपनी मां से कह रहा था, ‘अच्छा हुआ रोमा ने कुंदन से दोस्ती कर ली. मैं उसे स्कूल से जानता हूं. घर भी देखा है उस का. अच्छे लोग हैं. उस के साथ रहेगी तो उस लफंगे रोहित की बुराइयां खुद ही समझ में आने लगेंगी इसे और वह भी दूसरे लड़के के साथ देख कर इस के पीछे नहीं पड़ेगा. एकदम से छोड़ देने पर वह लफंगा क्या कर दे कुछ भरोसा नहीं. कम से कम एक लड़के को साथ देख कर उस की रोमा को नुकसान पहुंचाने की हिम्मत नहीं होगी.’’

‘‘बहुत अच्छा. और अगर उस ने तुम्हें नुकसान पहुंचाने का इरादा कर लिया तो क्या करोगे?’’ स्नेहा ने पूछा.

‘‘वह कुछ नहीं करेगा. आजकल अपने लिए नई गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने में बिजी है. मेरी या रोमा की तरफ देखने की तो फुरसत ही नहीं है उसे. आजकल तो दूसरी लड़कियों के आसपास चक्कर लगाता रहता है वह.’’

‘‘तब तो तेरी पांचों उंगलियां घी में हैं. बैठेबिठाए एक अदद गर्लफ्रैंड मिल गई. कहां तो लड़कियों को फंसाने के लिए एक से एक पैंतरे बदल रहा था और कहां मछली खुद ही आ कर जाल में फंस गई.’’

‘‘बस, सब स्टाइल का खेल है मेरे भाई. तुझ से भी कहता हूं कि इस स्कूलबौय वाली इमेज से बाहर निकल. यही तो दिन हैं दुनिया की रंगीनियों के मजे लेने के,’’ सुनील ने छेड़ा तो कुंदन ने गरदन टेढ़ी कर प्रवचन दे डाला.

‘‘अब बाकी रंगीनी क्लास में चल कर करना. वैसे भी रोमा तो तुम्हारे बगल में ही बैठती है,’’ स्नेहा ने कहा.

‘‘आज क्लास अटैंड करने का मूड नहीं है. मैं और रोमा इंगलिश मूवी देखने जा रहे हैं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘अच्छा, अगले साल अपनी गर्लफ्रैंड के साथ ये क्लास कर लेना, क्योंकि तुम दोनों को देख कर लगता तो नहीं कि इस साल पास करने का इरादा है. दोनों क्लास में कम और कैंटीन में ज्यादा दिखते हो.’’

‘‘हैलो कुंदन, क्या तुम अभी फ्री हो?’’ रोमा का फोन आया.

‘‘तुम्हारे लिए तो चौबीसों घंटे फ्री हूं मेरी जान, तुम बस हुक्म करो.’’

‘‘आज मेरी सहेली नर्मदा की सगाई है. भैया बैंकिंग की परीक्षा देने दूसरे शहर गया है. नर्मदा का घर काफी दूर है. शाम को रिकशे या आटो से उतनी दूर अकेले जाने में डर लगता है. क्या तुम मुझे वहां ले जाओगे? मां ने भी कह दिया है तुम साथ रहोगे तभी मुझे जाने देंगी.’’

‘‘अरे, मेरे होते हुए तुम अकेली कैसे हो गई. तैयार हो जाओ, मैं 15 मिनट में पहुंचता हूं.’’

‘‘अरे, तुम तैयार नहीं हुई, सगाई में जींस पहनोगी,’’ रोमा को सादे कपड़ों में देख कुंदन ने पूछा.

‘‘डोंट बी रिडिकुलस कुंदन. वैसी भड़कीली ड्रैस पहन कर बाइक पर चलूंगी तो सारे रास्ते लोग घूरेंगे मुझे. मैं ने अपनी ड्रैस रख ली है, वहीं जा कर तैयार हो जाऊंगी,’’ रोमा ने अपने हाथ में पकड़ा बड़ा सा बैग दिखा कर कहा और बाइक पर उस के पीछे बैठ गई.

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी. मैं इसे सेफली ले जाऊंगा और वापस भी पहुंचा दूंगा,’’ उस ने रोमा की मां से कहा और बाइक स्टार्ट कर चल दिया.

‘‘बसबस, यहीं रोक दो. यहां से मैं पैदल ही चली जाऊंगी,’’ रोमा ने दयाल कालोनी के पास पहुंचते ही कहा तो उस ने मोटरसाइकिल रोक दी.

‘‘यहां? यहां सुनसान जगह पर क्यों उतर रही हो? कालोनी तो आगे है.’’

‘‘तुम नहीं समझोगे, नर्मदा की फैमिली बड़ी कंजरवेटिव है. उन्हें पता चल गया कि मैं अपने बौयफ्रैंड के साथ आई हूं तो अजीबोगरीब सवाल पूछ कर मुझे पागल कर देंगे. मैं पैदल चली जाऊंगी. तुम चले जाओ.’’

‘‘जो हुक्म सरकार का. लेने कब आ जाऊं?’’

‘‘लेने आने की जरूरत नहीं है. मैं ने बताया न कि वे कंजरवेटिव लोग हैं. नर्मदा के पापा मुझे घर छोड़ने जाएंगे. देर हुई तो रात को यहीं रुक जाऊंगी.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम्हारी मां को कहा था…’’

‘‘ओ… तुम उन की चिंता मत करो स्वीटहार्ट, उन्हें पता है,’’ रोमा ने फ्लाइंग किस दे कर कहा और अपना बड़ा सा बैग ले कर पैदल कालोनी की ओर चल दी. देर तक कुंदन उसे जाते देखता रहा फिर जब वह कालोनी में चली गई तब वापस लौट आया.

‘कैसे दकियानूसी लोग हैं. आज के जमाने में भी लड़केलड़की को साथ देखा कि कानाफूसी करने लगेंगे. समझते नहीं जमाना बदल गया है. आज के जमाने में जिस लड़के की गर्लफ्रैंड न हो या जिस लड़की का बौयफ्रैंड न हो उसे लल्लू समझते हैं लोग. सुनील और स्नेहा की तरह. कोई स्टाइल नहीं, कोई खूबी नहीं, तभी तो कोई ध्यान नहीं देता.

‘इस उम्र में लड़कालड़की में एकदूसरे के लिए आकर्षण होना तो आम बात है. सभी जानते हैं इस फैक्ट को, पर मान नहीं सकते. रोमा का परिवार ही समझदार है, वरना यहां मां को पता लग गया तो कल ही घर में तूफान खड़ा कर देंगी, कालेज में लड़के नहीं जाते, जो लड़की से दोस्ती कर ली?’ रात बिस्तर पर लेटेलेटे कुंदन ने सोचा.

‘‘कुंदन, अरे ओ कुंदन… घोड़े बेच कर सो रहा है? उठ पुलिस आई है,’’ सुबह पापा ने गुस्से से उसे झिंझोड़ कर जगाया.

‘‘क्या… पुलिस हमारे घर… क्यों… क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ? नाक कटा दी तू ने हमारी और भोला बन कर पूछ रहा है क्या हुआ? कहां है वह लड़की?’’ पापा ने जोर से एक थप्पड़ मार कर पूछा.

‘‘क… कौन लड़की? क्या किया है मैं ने?’’

‘‘नाटक कर रहा है? मैं ने क्या समझा था तुझे और तू क्या निकला. रोमा कहां है? कहां छिपाया है तू ने उसे?’’ तूफान की तरह कमरे में संजीव घुसा और उसे घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गया. बाहर का दृश्य देख कर कुंदन के पैरों तले जमीन खिसक गई.

बरामदे में इंस्पैक्टर 2 सिपाहियों के साथ खड़ा था. रोमा की मां जलती नजरों से उसे घूर रही थी. उस का परिवार घबरायासहमा सा खड़ा था और पूरा महल्ला उस के गेट पर खड़ा अंदर झांक रहा था.

‘‘इंस्पैक्टर साहब, गिरफ्तार कर लीजिए इसे. इस ने मेरी बेटी को फुसला कर घर से भगा लिया है. जाने कहां छिपा दिया है उसे. रात को वह घर नहीं लौटी. मोबाइल भी बंद है उस का और जिस सहेली के घर जाने के बहाने यह उसे ले गया, वह कहती है कि रोमा उस के घर आई ही नहीं. जाने किस हाल में है मेरी बेटी. कहां रखा है तू ने उसे?’’ रोमा की मां गरजी.

‘‘म… मैं ने कहीं नहीं रखा. मैं तो कल उसे नर्मदा के घर दयाल कालोनी छोड़ कर वापस आ गया था.’’

‘‘झूठ बोलता है ये. नर्मदा दयाल कालोनी नहीं इंद्रपुर में रहती है. कहीं इस ने गहनों और पैसों के लालच में उसे मार तो नहीं दिया?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘गहने, पैसे? कैसे पैसे? मैं ने कुछ नहीं लिया,’’ घबरा कर कुंदन बोला.

‘‘कैसे पैसे? वही जो रोमा तेरे साथ भागते समय साथ ले गई थी. इंस्पैक्टर साहब, घर से मां के गहने और 25 हजार रुपए कैश गायब है.  इस ने रोमा को बेवकूफ बना कर घर में चोरी कराई और माल हथिया कर उसे ठिकाने लगा दिया.’’

‘‘यह झूठ है… मैं ने कुछ नहीं किया. रोमा ने बताया था कि वह सहेली की सगाई में पहनने के लिए कपड़े ले जा रही है. मैं ने देखा भी नहीं, आंटी, आप के सामने ही तो कहा था उस ने,’’ कुंदन ने गिड़गिड़ा कर रोमा की मां से कहा.

‘‘और तुम ने क्या कहा था? सुरक्षित वापस ले आऊंगा? बता कहां है मेरी बेटी?’’

‘‘मैं… मैं नहीं जानता. मुझे तो उस ने यही कहा था कि वह नर्मदा के घर जा रही है और उस के पापा उसे घर छोड़ देंगे. उस के बाद वह कहां गई, मुझे नहीं मालूम.’’

‘‘नहीं मालूम? 17-18 साल उम्र होगी और यह करतूत? लड़की भगाता है. चल हवालात, बेटा, 2 डंडे तबीयत से मारूंगा न तो सब याद आ जाएगा,’’ इंस्पैक्टर उसे घसीट कर जीप की ओर ले जाता हुआ बोला. उस के लाख रोनेपीटने और घर वालों की मिन्नतों का पुलिस पर कोई असर नहीं हुआ और वे कुंदन को पुलिस स्टेशन ले गए. 2 दिन हवालात में बंद रहने के बाद उसे छोड़ दिया गया. रोमा रोहित से शादी करने के बाद घर वापस आ गई थी.

‘‘पर… पर यह कैसे हो सकता है? उस का तो रोहित से ब्रेकअप हो गया था. वे दोनों तो एकदूसरे से बात तक नहीं करते थे, फिर शादी… कहीं रोहित ने जबरदस्ती तो नहीं की उस के साथ?’’ स्नेहा और सुनील के मुंह से समाचार सुनते ही कुंदन तैश में आ गया.

‘‘शांत हो जा रोमियो, तुझे बेवकूफ बनाया गया है. गर्लफ्रैंड के चक्कर में तू ऐसा अंधा हुआ है कि सीधीसादी बात समझ में नहीं आती तुझे. नर्मदा दयाल कालोनी में नहीं रहती, फिर भी रोमा झूठ बोल कर तुझे वहां ले गई. अपने साथ वह घर के गहने और सारे पैसे लपेट कर ले गई और तुझे बताया गया कि चेंज करने के लिए ड्रैस रखी है. इतनी मोटी अक्ल है तेरी कि समझ नहीं रहा. उस ने रोहित के साथ मिल कर इस्तेमाल किया है तेरा. भागी रोहित के साथ और अंदर तुझे करा दिया. वह कमीना वहीं कहीं छिपा होगा. तेरी बाइक से उतर कर वह उस के साथ चली गई.

हर कोई तेरे पीछे हैरानपरेशान था और वह आराम से रोहित के साथ शादी कर रही थी. रोहित तो सारी घटना में कहीं था ही नहीं, इसलिए किसी ने उसे खोजने की कोशिश नहीं की और उन दोनों ने बिना किसी बाधा के आराम से मंदिर में और फिर अगले दिन कोर्ट में शादी कर ली,’’ स्नेहा ने झल्ला कर कहा तो कुंदन सिर पकड़ कर बैठ गया.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया रोमा?’’ एक दिन रोमा को कालेज आया देख कुंदन ने मौका पाते ही उस से पूछा.

‘‘आई एम वैरी सौरी कुंदन. मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था. मेरे घर वालों को मेरे और रोहित के बारे में पता चल गया था. वे रोहित को बिलकुल पसंद नहीं करते थे.

भैया मेरे ऊपर नजर रखने लगा था ताकि मैं उस से न मिलूं. मेरे कहीं आनेजाने पर रोक लग गई थी. मेरा फोन भी ले लिया गया था. एक दिन रोहित ने तुम्हें अपने दोस्तों से बातें करते सुन कर अंदाजा लगाया कि तुम्हें गर्लफ्रैंड का बड़ा क्रेज है तो हम ने यह प्लान बनाया. सहेलियों से बातें करने के बहाने तुम्हारे ही फोन से मैं उस से बातें कर प्लानिंग करती थी. मेरे घर वाले भी मुझे तुम्हारे साथ देख कर निश्चिंत थे कि अब मैं रोहित के साथ नहीं हूं.

‘‘उन्हें मेरे स्वभाव से पता था कि तुम्हारे साथ मैं कोई रिलेशनशिप नहीं बनाऊंगी. इस का फायदा उठा कर मैं तुम्हारे साथ घर से भाग गई. तुम नहीं होते तो मां किसी भी तरह भैया के न रहने पर मुझे जाने नहीं देती और भैया ने मेरी सारी सहेलियों के घर देख रखे हैं.

‘‘उसे मैं बेवकूफ नहीं बना सकती थी. फिर मेरे भागते ही भैया पुलिस को ले कर रोहित के घर आ धमकता और जो तुम्हारे साथ हुआ वह उस के साथ होता. तब हमारा शादी करना असंभव था. इसलिए हम ने तुम्हारी मदद ली. मैं तुम्हारे साथ गई तो किसी ने रोहित पर शक तक नहीं किया. आई एम सौरी कुंदन, बट एज यू नो एवरी थिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार.’’

‘‘रिलैक्स यार, तुम्हें तो खुश होना चाहिए तुम ने 2 प्रेमियों को मिलवाने में मदद की है. अपनी गर्लफ्रैंड को इस से अच्छा मैरिज गिफ्ट कोई दे सकता है क्या?’’ रोहित ने पीछे से आ कर उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा तो वह उसे आंखें तरेर कर देखने लगा और चुपचाप वहां से चला गया.

‘सालों ने लड़की भगाने और चोरी के इल्जाम में मुझे अंदर करा दिया और बेशर्मी से कहते हैं कि गर्लफ्रैंड को मैरिज गिफ्ट दिया है,’ अपनी सीट पर बैठ कर भुनभुनाता हुआ कुंदन बोला.

‘‘वैसे ठीक ही तो कह रहे हैं, तेरे जैसा बौयफ्रैंड मिलना आसान है क्या, जिस ने लड़की भी भगाई, पुलिस के डंडे भी खाए और लड़की भी नहीं मिली,’’ सुनील के कहने पर स्नेहा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘और ताने देने की जरूरत नहीं, मुझे सबक मिल गया है. आज से दूसरों की देखादेखी गर्लफ्रैंड बनाने के चक्कर में किसी भी लड़की के पीछे आंख मूंद कर नहीं चलूंगा,’’ सिर झुका कर कुंदन बोला.

‘‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं. लड़केलड़कियों में दोस्ती में कुछ गलत नहीं. गलती तब होती है जब तुम स्टाइल और दिखावे के चक्कर में इसे दोस्ती की हद से बाहर ले जाने की कोशिश करते हो.’’

‘‘हां, अब मैं भी समझ गया हूं. यह मेरी अपनी बेवकूफी का नतीजा था. दूसरों के सामने खुद को मौर्डन दिखाने के चक्कर में मैं ने बिना सोचेसमझे खुद को मुसीबत में डाल दिया. अब से ऐसा नहीं होगा,’’ स्नेहा के समझाने पर कुंदन ने मुसकरा कर कहा.

कड़वा फल : क्या अपनी बहन के भविष्य को संवार पाया रवि?

अपने मम्मी पापा की शादी की 10वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हुई भव्य पार्टी की यादें आज भी मेरे दिलोदिमाग में तरोताजा हैं. वह पार्टी लंबे समय तक हमारे परिचितों के बीच चर्चा का विषय बनी रही थी.

पार्टी क्लब में हुई थी. करीब 500 मेहमानों की आवभगत वरदीधारी वेटरों की पूरी फौज ने की थी. अपनीअपनी रुचि के अनुरूप मेहमानों ने जम कर खाया, और देर रात तक डांस करते रहे. इतने सारे गिफ्ट आए कि पापा को उन्हें कारों से घर पहुंचाने के लिए अपने 2 दोस्तों की सहायता लेनी पड़ी.

मेरे लिए वे बेहद खुशी भरे दिन थे. हम ने एक बड़े घर में कुछ महीने पहले शिफ्ट किया था. मेरी छोटी बहन शिखा और मुझे अपना अलग कमरा मिला. मम्मी ने उसे बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया था.

अपने नए दोस्तों के बीच मेरी धाक शुरू से ही जम गई. मेरी साइकिल हो या जूते, कपड़े हों या स्कूल बैग, हर चीज सब से ज्यादा कीमती और सुंदर होती.

‘‘मेरे मम्मी पापा दोनों सर्विस करते हैं और मेरी हर इच्छा को फौरन पूरा करना उन्हें अच्छा लगता है. तुम सब मुझ से जलो मत. मैं बहुत खुशहाल हूं,’’ अपने दोस्तों के सामने ऐसी डींगें मारते हुए मेरी छाती गर्व से फूल जाती.

अपने दोस्तों की ईर्ष्याभरी प्रतिक्रियाएं मैं मम्मी पापा को बताता तो वे दोनों खूब हंसते.

‘‘मेरे बच्चों को सुख सुविधा की हर चीज मिलेगी और वह भी ‘बैस्ट क्वालिटी’ की,’’ ऐसा आश्वासन पापा से बारबार पा कर मेरा चेहरा फूल सा खिल जाता.

‘‘रवि बेटे, हमारे ठाटबाट देख कर हम से जलने वालों में तुम्हारे दोस्त ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार और पड़ोसी भी शामिल हैं. इन की बातों पर कभी ध्यान मत देना. कुत्तों के भूंकने से हाथी अपनी मस्त चाल नहीं बदलता है,’’

मां के मुंह से अकसर निकलने वाला आखिरी वाक्य अपने ईर्ष्यालु दोस्तों को सुनाने का मैं कोई अवसर नहीं चूकता.

मम्मी पापा दोनों अच्छी पगार जरूर लेते, पर फिर भी उन की मासिक आय थी तो सीमित ही. घर के खर्चों में कटौती वे करते नहीं थे. बाजार में सुखसुविधा की आई कोई भी नई चीज हमारे घर अधिकतर पड़ोसियों के यहां आने से पहले आती. हर दूसरेतीसरे दिन बाहर होटल में खाना खाने का चाव हम सभी को था. महंगे स्कूल की फीस, कार के पैट्रोल का खर्चा, सब के नए कपड़े, मम्मी की महंगी प्रसाधन सामग्री इत्यादि नियमित खर्चों के चलते आर्थिक तंगी के दौर से भी अकसर हमें गुजरना पड़ता.

मम्मीपापा के बीच तनातनी का माहौल मैं ने सिर्फ ऐसे ही दिनों में देखा. अधिकतर तो वे हम भाईबहन के सामने झगड़ने से बचते, पर फिर भी एकदूसरे पर फुजूलखर्ची का आरोप लगा कर आपस में कड़वे, तीखे शब्दों का प्रयोग करते मैं ने कई बार उन्हें देखासुना था.

‘‘मम्मीपापा, मैं बड़ा हो कर डाक्टर बनूंगा. अपना नर्सिंगहोम बनाऊंगा. ढेर सारे रुपए कमा कर आप दोनों को दूंगा. तब हमें पैसों की कोई तंगी नहीं रहेगी. खूब दिल खोल कर खर्चा करना आप दोनों,’’ वे दोनों सदा ऐशोआराम की जिंदगी बसर करें, ऐसा भाव बचपन से ही मेरे दिल में बड़ी मजबूती से कायम रहा.

सब से छोटी बूआ की शादी पर पापा ने 21 हजार रुपए दिए, जबकि दादा दादी 50 हजार की आशा रखते थे. इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ.

‘‘मैं अपने किसी दोस्त से कर्जा ले कर 50 हजार रुपए ही दे देता हूं,’’ पापा की इस पेशकश का मम्मी ने सख्त विरोध किया.

‘‘पहली दोनों ननदों की शादियों में हम बहुत कुछ दे चुके हैं. क्या आप के दोनों छोटे भाई मिल कर यह एक शादी भी नहीं करा सकते? हमारा हाथ पहले ही तंग चल रहा है. ऊपर से कर्जा लेने की आप सोचो भी मत,’’ मम्मी को गुस्से में देख कर पापा ने चुप्पी साध ली थी.

मेरे दादा दादी, दोनों चाचाओं और तीनों बूआओं ने तब हम से सीधे मुंह बात करना ही बंद कर दिया. सारी शादी में हम बेगानों से घूमते रहे थे.

‘‘राजीव, देख ले, अपनी जिम्मेदारी ढंग से न निभा पाने के कारण कितनी बदनामी हुई है तेरी,’’ दादी ने बूआ की विदाई के बाद आंखों में आंसू भर कर पापा से कहा, ‘‘सब से अच्छी माली हालत होने के बावजूद बहन की शादी में तेरा सब से कम रुपए देना ठीक नहीं था.’’

‘‘मेरी सहूलियत होती तो मैं ज्यादा रुपए जरूर देता. जो मैं ने पहले किया उसे तुम सब भूल गए. जिस तरह से इस शादी में मुझे बेइज्जत किया गया है, उसे मैं भी कभी नहीं भूलूंगा,’’ पापा की आवाज में गुस्सा भी था और दुख भी.

‘‘पुरानी बातों को कोई नहीं याद रखता, बेटे. तुम दोनों इतना कमाने के बावजूद तंगी में फंस जाते हो, तो अपना जीने का ढर्रा बदलो. ऐसी शानोशौकत व तड़कभड़क का क्या फायदा, जो जरूरत के वक्त दूसरों का मुंह देखो या किसी के सामने हाथ फैलाओ,’’ दादी की इस नसीहत का बुरा मान पापा उन से जोर से लड़ पड़े थे.

उस शादी के बाद हमारा दादादादी, चाचा और बूआओं से मिलनाजुलना न के बराबर रह गया. मम्मीपापा के सहयोगी मित्रों के परिवारों से हमारे संबंध बहुत अच्छे थे. उन से क्लब में नियमित मुलाकात होती और एकदूसरे के घर में आनाजाना भी खूब होता.

कक्षा 8 तक मैं खुद पढ़ता रहा और खूब अच्छे नंबर लाता रहा. इस के बाद पापा ने ट्यूशन लगवा दी. विज्ञान और गणित की ट्यूशन फीस 1,500 रुपए मासिक थी.

‘‘रवि बेटा, पढ़ने में जीजान लगा दो. तुम्हारी पढ़ाई पर हम दिल खोल कर खर्चा करेंगे, मेहनत तुम करो. तुम्हें डाक्टर बनना ही है,’’ मेरे सपने की चर्चा करते हुए मम्मीपापा भावुक हो उठते.

मैं ने काफी मेहनत की भी थी, पर 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में मेरे सिर्फ  75% नंबर आए. पापामम्मी को इस कारण काफी निराशा हुई.

‘‘मेरी समझ से तुम ने यारीदोस्ती में ज्यादा वक्त बरबाद किया था, रवि. उन के साथ सजसंवर कर बाहर घूमने के बजाय तुम्हें पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए था. अगर अच्छा कैरियर बनाना है, तो आगामी 2-3 सालों के लिए सब शौक छोड़ कर सिर्फ पढ़ने में मन लगाओ,’’ पापा की कठोरता व रूखापन मुझे बहुत बुरा लगा था.

11वीं कक्षा में मैं ने साइंस के मैडिकल ग्रुप के विषय लिए. अंगरेजी को छोड़ कर मैं ने बाकी चारों विषयों की ट्यूशन पढ़ने को सब से बढि़या व महंगे कोचिंग संस्थान में प्रवेश लिया. वहां की तगड़ी फीस मम्मीपापा ने माथे पर एक भी शिकन डाले बिना कर्जा ले कर भर दी.

कड़ी मेहनत करने का संकल्प ले कर मैं पढ़ाई में जुट गया. दोस्तों से मिलना और बाहर घूमनाफिरना काफी कम कर दिया. क्लब जाना बंद कर दिया. बाहर घूमने जाने के नाम से मुझे चिढ़ होती.

‘‘मम्मीपापा, मैं जो नियमित रूप से पढ़ने का कार्यक्रम बनाता हूं, वह बाहर जाने के चक्कर में बिगड़ जाता है. आप दोनों मुझे अकेला छोड़ कर जाते हो, तो खाली घर में मुझ से पढ़ाई नहीं होती. मेरी खातिर आप दोनों घर में रहा करो, प्लीज,’’ एक शनिवार की शाम मैं ने उन से अपनी परेशानी भावुक अंदाज में कह दी.

‘‘रवि, पूरे 5 दिन दफ्तर में सिर खपा कर हम दोनों तनावग्रस्त हो जाते हैं. अगर शनिवारइतवार को भीक्लब नहीं गए, तो पागल हो जाएंगे हम. हां, बाकी और जगह जाना हम जरूर कम करेंगे,’’ उन के इस फैसले को सुन कर मैं उदास हो गया.

सुख देने व मनोरंजन करने वाली आदतों को बदलना और छोड़ना आसान नहीं होता. मम्मीपापा ने शुरू में कुछ कोशिश की, पर घूमनेफिरने की आदतें बदलने में दोनों ही नाकाम रहे.

उन्हें घर से बाहर घूमने जाने का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता. कभी बोरियत व तनाव दूर करने तो कभी खुशी का मौका होने के कारण वे बाहर निकल ही जाते.

मैं उन के साथ नहीं जाता, पर चिढ़ और कुढ़न के कारण मुझ से पीछे पढ़ाई भी नहीं होती. मन की शिकायतें उसे पढ़ाई में एकाग्र नहीं होने देतीं.

चढ़ाई मुश्किल होती है, ढलान पर लुढ़कना आसान. वे दोनों नहीं बदले, तो मेरा संकल्प कमजोर पड़ता गया. मैं ने भी धीरेधीरे उन के साथ हर जगह आनाजाना शुरू कर दिया.

इस कारण मुझे वक्तबेवक्त मम्मीपापा की डांट व लैक्चर सुनने को मिलते. उन की फटकार से बचने के लिए मैं उन के सामने किताब खोले रहता. वे समझते कि मैं कड़ी मेहनत कर रहा हूं, पर आधे से ज्यादा समय मेरा ध्यान पढ़ने में नहीं होता.

अपनी लापरवाही के परिणामस्वरूप मैं पढ़ाई में पिछड़ने लगा. टैस्टों में नंबर कम आने पर मम्मीपापा से खूब डांट पड़ी.

‘‘अपनी लापरवाही की वजह से कल को अगर तुम डाक्टर नहीं बन पाए, तो हमें दोष मत देना. अपना जीवन संवारने की जिम्मेदारी सिर्फ तुम्हारी है, क्योंकि अब तुम बड़े हो गए हो,’’ मारे गुस्से के मम्मी का चेहरा लाल हो गया था.

यही वह समय था जब अपने मम्मीपापा के प्रति मेरे मन में शिकायत के भाव जनमे.

‘मेरे उज्ज्वल भविष्य की खातिर मम्मीपापा अपने शौक व आदतों को कुछ समय के लिए बदल क्यों नहीं रहे हैं? सुखसुविधाओं की वस्तुएं जुटा देने से ही क्या उन के कर्तव्य पूरे हो जाएंगे? मेरे मनोभावों को समझ मेरे साथ दोस्ताना व प्यार भरा वक्त गुजारने का महत्त्व उन्हें क्यों नहीं समझ आता?’ मन में उठते ऐसे सवालों के कारण मैं रातदिन परेशान रहने लगा.

तब तक क्रैडिट कार्ड का जमाना आ गया. यह सुविधा मम्मीपापा के लिए वरदान साबित हुई. जेब में रुपए न होने पर भी वे मौजमस्ती की जिंदगी जी सकते थे.

उन की दिनचर्या व उन के व्यवहार के कारण मेरे मन में नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती. उन से कुछ कहनासुनना बेकार जाता और घर में ख्वाहमख्वाह का तनाव अलग पैदा होता.

मैं सचमुच डाक्टर बनना चाहता था. मैं ने इस नकारात्मक ऊर्जा का उपयोग पढ़नेलिखने के लिए करना आरंभ किया. मम्मीपापा के साथ ढंग से बातें किए हुए कईकई दिन गुजर जाते. मन के रोष व शिकायतों को भुलाने के लिए मैं रात को देर तक पढ़ता. मुझे बहुत थक जाने पर ही नींद आती वरना तो मम्मीपापा के प्रति गलत ढंग के विचार मन में घूमते रह कर सोने न देते.

मेरी 12वीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान भी मम्मीपापा ने अपने घूमनेफिरने में खास कटौती नहीं की. वे मेरे पास होते भी, तो मुझे उन से खास सहारा या बल नहीं मिलता, क्योंकि मैं ने उन से अपने दिल की बातें कहना छोड़ दिया था.

बोर्ड की परीक्षाओं के बाद मैं ने कंपीटीशन की तैयारी शुरू की. अपनी आंतरिक बेचैनी को भुला कर मैं ने काफी मेहनत की.

बोर्ड की परीक्षा में मुझे 78% अंक प्राप्त हुए, लेकिन किसी भी सरकारी मैडिकल कालेज के लिए हुए कंपीटीशन की मैरिट लिस्ट में मेरा नाम नहीं आया.

मेरी निराशा रात को आंसू बन कर बहती. मम्मीपापा की निराशा कुछ दिनों के लिए उदासी के रूप में और बाद में कलेजा छलनी करने वाले वाक्यों के रूप में प्रकट हुई.

मेरा डाक्टर बनने का सपना अब प्राइवेट मैडिकल कालेज ही पूरा कर सकते थे. उन में प्रवेश पाने को डोनेशन व तगड़ी फीस की जरूरत थी. करीब 15-20 लाख रुपए से कम में डाक्टरी के कोर्स में प्रवेश लेना संभव न था.

हमारे रहनसहन का ऊंचा स्तर देख कर कोई भी यही अंदाजा लगाता कि मेरी उच्च शिक्षा पर 15-20 लाख रुपए खर्च करने की हैसियत मेरे मम्मीपापा जरूर रखते होंगे, पर यह सचाई नहीं थी. तभी मैं ने निराश और दुखी अंदाज में मम्मीपापा के सामने प्राइवेट मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की अपनी इच्छा जाहिर की.

पहले तो उन दोनों ने मेरे नकारापन के लिए मुझे खूब जलीकटी बातें सुनाईं. फिर गुस्सा शांत हो जाने के बाद उन्होंने जरूरत की राशि का इंतजाम करने के बारे में सोचविचार आरंभ किया. इस सिलसिले में पापा पहले अपने बैंक मैनेजर से मिले.

‘‘मिस्टर राजीव, मैं आप की सहायता करना चाहता हूं, पर नियमों के कारण मेरे हाथ बंधे हैं,’’ मैनेजर की प्रतिक्रिया बड़ी रूखी थी, ‘‘अपनी जीवन बीमा पालिसी पर आप ने पहले ही हम से लोन ले रखा है. किसी जमीनजायदाद के कागज आप के पास होते, तो हम उस के आधार पर लोन दे देते. आप को अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बहुत पहले से कुछ प्लानिंग करनी चाहिए थी. मुझे अफसोस है, मैं आप की कोई सहायता नहीं कर सकूंगा.’’

क्लब में पापा के दोस्त राजेंद्र उन के ब्रिज पार्टनर भी हैं. काफी लंबाचौड़ा व्यवसाय है उन का. पापा ने उन से भी रुपयों का इंतजाम करने की प्रार्थना की, पर बात नहीं बनी.

राजेंद्र साहब के बेटे अरुण से मुझे उन के इनकार का कारण पता चला.

‘‘रवि, अगर तुम्हारे पापा ने मेरे पापा से लिए पुराने कर्ज को वक्त से वापस कर दिया होता, तो शायद बात बन जाती. मेरे पापा की राय में तुम्हारे मम्मीडैडी फुजूलखर्च इनसान हैं, जिन्हें बचत करने का न महत्त्व मालूम है और न ही उन की आदतें सही हैं. मेरे पापा एक सफल बिजनेसमैन हैं. जहां से रकम लौटाने की उम्मीद न हो, वे वहां फंसेंगे ही नहीं,’’ अरुण के मुंह से ऐसी बातें सुनते हुए मैं ने खुद को काफी शर्मिंदा महसूस किया था.

दादाजी, चाचाओं और बूआओं से हमारे संबंध ऐसे बिगड़े हुए थे कि पापा की उन से इस मामले में कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी.

मम्मी ने भी अपने रिश्तेदारों व सहेलियों से कर्ज लेने की कोशिश की, पर काम नहीं बना. यह तथ्य प्रमाणित ही है कि जिन की अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है उन्हें बैंक और परिचित दोनों ही आर्थिक सहायता देने को तैयार रहते हैं. मेरी राय में अगर मम्मीपापा के पास अपनी बचाई आधी रकम भी होती, तो बाकी आधी का इंतजाम कहीं न कहीं से वही रकम करवा देती.

अंतत: मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की तिथि निकल गई. उस दिन हमारे घर में गहरी उदासी का माहौल बना रहा. पापा ने मुझे गले लगा कर मेरा हौसला बढ़ाने की कोशिश की, तो मैं रो पड़ा. मेरे आंसू देख कर मम्मीपापा और छोटी बहन शिखा की पलकें भी भीग उठीं.

कुछ देर रो कर मेरा मन हलका हो गया, तो मैं ने मम्मीपापा से संजीदा लहजे में कहा, ‘‘जो हुआ है, उस से हमें सीख लेनी होगी. आगे शिखा के कैरियर व शादी के लिए भी बड़ी रकम की जरूरत पड़ने वाली है. उस का इंतजाम करने के लिए हमें अपने जीने का ढंग बदलना होगा, मम्मीपापा.’’

‘‘मेहनती और होशियार बच्चे अपने मातापिता से बिना लाखों का खर्चा कराए भी काबिल बन जाते हैं. रवि, तुम अपनी नाकामयाबी के लिए न हमें दोष दो और न ही हम पर बदलने के लिए बेकार का दबाव बनाओ,’’ मम्मी एकदम से चिढ़ कर गुस्सा हो गईं.

पापा ने मेरे जवाब देने से पहले ही उदास लहजे में कहा, ‘‘मीनाक्षी, रवि का कहना गलत नहीं है. छोटे मकान में रह कर, फुजूलखर्ची कम कर के, छोटी कार, कम खरीदारी और सतही तड़कभड़क के आकर्षण में उलझने के बजाय हमें सचमुच बचत करनी चाहिए थी. आज हमारी गांठ में पैसा होता, तो रवि का डाक्टर बनने का सपना पूरा हो सकता था.’’

‘‘ऐसा होता, तो वैसा हो जाता, ऐसे ढंग से अतीत के बारे में सोचने से चिंता और दुखों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता है,’’ मम्मी भड़क कर बोलीं, ‘‘हमें भी अपने ढंग से जिंदगी जीने का अधिकार है. रवि और शिखा को हम ने आज तक हर सुखसुविधा मुहैया कराई है. कभी किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने दी.

‘‘डाक्टर बनने के अलावा और भी कैरियर इस के सामने हैं. दिल लगा कर मेहनत करने वाला बच्चा किसी भी लाइन में सफल हो जाएगा. कल को ये बच्चे भी अपने ढंग से अपनी जिंदगी जिएंगे या हमारी सुनेंगे?’’

‘‘तुम भी ठीक कह रही हो,’’ पापा गहरी सांस छोड़ कर उठ खड़े हुए, ‘‘रवि बेटा, जैसा तुम चाहो, जिंदगी में वैसा ही हो, इस की कोई गारंटी नहीं होती. दिल छोटा मत करो. इलैक्ट्रौनिक्स आनर्स में तुम ने प्रवेश लिया हुआ है. मेहनत कर के उसी लाइन में अपना कैरियर बनाओ.’’

कुछ देर बाद मम्मीपापा अपने दुखों व निराशा से छुटकारा पाने को क्लब चले गए. शिखा और मैं बोझिल मन से टीवी देखने लगे.

कुछ देर बाद शिखा ने अचानक रोंआसी हो कर कहा, ‘‘भैया, मम्मीपापा कभी नहीं बदलेंगे. भविष्य में आने वाले कड़वे फल उन्हें जरूर नजर आते होंगे, पर वर्तमान की सतही चमकदमक वाली जिंदगी जीने की उन्हें आदत पड़ गई है. उन से बचत की उम्मीद हमें नहीं रखनी है. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनीअपनी जिंदगी संवारेंगे.’’

मैं ने शिखा को गले से लगा लिया. देर तक वह मेरा कंधा अपने आंसुओं से भिगोती रही. अपने से 5 साल छोटी शिखा के सुखद भविष्य का उत्तरदायित्व सुनियोजित ढंग से उठाने के संकल्प की जड़ें पलपल मेरे मन में मजबूत होती जा रही थीं.

सुगंधा लौट आई : क्या थी सुगंधा की अनिल को छोड़ने की वजह?

मैं उन दिनों बीबीए के अंतिम सैमेस्टर में था. इरादा तो ग्रैजुएशन के बाद एमबीए करने का था पर इस की हैसियत नहीं थी. पापा रिटायर हो चुके थे और रिटायरमैंट पर पैसे बहुत कम मिले थे. नौकरी के दौरान ही 2 बेटियों की शादी के लिए उन्होंने पीएफ से काफी पैसे निकाल लिए थे. छोटी बेटी की शादी के कुछ महीने बाद मम्मी चल बसीं.

पापा की पेंशन इतनी थी कि मेरी पढ़ाई और घर का खर्र्च आराम से चल जाता था. पापा ने मुझे बीबीए करने को कहा. मैं ने सोचा कि बीबीए के बाद बिजनैस के कुछ गुर सीख लूंगा और नौकरी न भी मिली तो अपना बिजनैस करूंगा. पापा ने कहा कि जरूरत पड़ने पर अपना घर गिरवी रख कर बैंक से कर्ज ले लेंगे. घर क्या था, बंटवारे के बाद पुश्तैनी घर में 3 रूम का एक फ्लैट उन के हिस्से आया था.

एक दिन मैं घर से निकल कर थोड़ी दूर ही गया था कि अचानक मेरे ऊपर पानी की कुछ बूंदें गिरीं. मौसम बरसात का नहीं था और ऊपर नीले आसमान में दूर तक बादल का नामोनिशान भी नहीं था. हां, जाड़े की शुरुआत जरूर थी. फिर दोबारा पानी की कुछ बूंदें मेरे सिर और चेहरे पर आ गिरीं. तब मैं ने देखा कि ठीक ऊपर पहली मंजिल की बालकनी पर खड़ी एक लड़की बालों को झटक रही थी. मैं ने रूमाल से अपने चेहरे से उन बूंदों को पोंछते हुए ऊपर देखा. लड़की थोड़ी सहमी सी लगी, फिर मुसकराई. उस के होंठ से कुछ अनसुने शब्द निकले हालांकि होंठों की मूवमैंट से मैं समझ गया कि वह सौरी बोल रही थी.

मैं ने शरारत से हंसते हुए कहा ‘‘इट्स ओके पर एक बार फिर मुसकरा दो.’’

इस पर वह खिलखिला कर हंस पड़ी और शरमा कर अंदर चली गई. मैं ने महसूस किया कि  गोरे रंग की इस लड़की के मुख में दूधिया दंतपंक्तियां उस की सुंदरता में चार चांद लगा रही थीं.

इस के 2 दिन बाद मैं फिर उस रास्ते से जा रहा था तो उस लड़की की बालकनी की ओर देखने लगा. वह लड़की तो वहीं खड़ी थी पर उस ने बालों में तौलिया बांध रखा था. इस बार मैं मुसकरा पड़ा तो जवाब में वह खिलखिला उठी, मुझे अच्छा लगा. फिर कुछ दिनों तक वह नजर नहीं आई. करीब 2 सप्ताह के बाद मुझे वह बाजार में सब्जी खरीदती मिली. इत्तफाक से मैं भी वहीं गया था. दोनों की नजरें मिलीं, मैं ने हिम्मत कर पूछा ‘‘इधर कुछ दिनों से आप दिखीं नहीं.’’

‘‘हां, छुट्टियां थीं, मैं दीदी के यहां गई थी. आज ही लौटी हूं.’’

मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह पहली मुलाकात में इतनी फ्रैंकली बात करेगी. उस ने काफी सामान लिया था और उन्हें 2 थैलों में बांट कर दोनों हाथों में ले कर चलने लगी. मैं एक थैला उस के हाथ से लेना चाहता था, पर वह बोली. ‘‘थैंक्स, मैं खुद ले लूंगी आप क्यों तकलीफ करेंगे. घर ज्यादा दूर भी नहीं है. अगर जरूरत पड़ी तो रिक्शा ले लूंगी.’’

मैं ने उस के हाथ से थैला लगभग छीनते हुए कहा, ‘‘इस में तकलीफ की कोई बात नहीं है. रिक्शा के पैसे बचा कर हम चाय पी लेंगे.’’

चाय की दुकान सामने थी, वहां बैंच पर बैग रख कर बोला. ‘‘भैया 2 स्पैशल चाय बना देना.’’ चाय पीतेपीते थोड़ा परिचय हुआ, उस ने अपना नाम सुगंधा बताया. उस के पिता नहीं थे और वह मां के साथ रहती थी. वह बीसीए कर एक प्राइवेट स्कूल में टीचर थी. मैं ने भी अपनी पढ़ाई और बिजनैस के इरादे के बारे में बताया. मैं ने चाय के पैसे देने के लिए पर्स निकाला तो उस ने रोकते हुए कहा, ‘‘रिक्शा का पैसा मेरा बचा है तो पेमैंट मैं ही करूंगी.’’

मुझे अच्छा नहीं लगा, माना कि अभी नौकरी नहीं थी पर चाय के पैसे तो दे ही सकता

था. चाय पी कर टहलते हुए निकले, पहले उस का ही घर पड़ता था. उस ने दूसरा थैला मुझ से ले कर कहा, ‘‘थैंक्स, अनिलजी.’’

मैं और सुगंधा अकसर मिलने लगे थे जहां तक नौकरी का सवाल था वह सैटल्ड थी. मुझे बीबीए करने के बाद भी कोई मन लायक नौकरी नहीं मिल रही थी, जो औफर थे उन के वेतन बहुत कम थे. मैं कुछ अपना ही बिजनैस करने की सोच रहा था. वह मुझे प्रोत्साहित करती रही और ऐसे लोगों के उदाहरण देती जो निरंतर कठिन संघर्ष के बाद सफल हुए.

मेरे पास लैपटौप और इंटरनैट था. मैं दिन भर उसी पर अच्छी नौकरी या वैकल्पिक बिजनैस के अवसर तलाश रहा था. सुगंधा कभीकभी मुझे अपने घर भी ले जाती. उस की मां मुझे बहुत प्यार करती थी. एक दिन सुगंधा मेरे घर आई और उस ने बताया कि उस के स्कूल में कंप्यूटर लगने जा रहा है और फिर बच्चों को कंप्यूटर सिखाना है. उसी सिलसिले में एक प्रोजैक्ट रिपोर्ट और टैंडर बनाना है. वह चाहती थी कि मैं भी अपना टैंडर भरूं. मैं ने कंप्यूटर ऐप्लिकेशन का कोर्स भी किया था और पढ़ाई के दौरान टैंडर, मार्केटिंग की जानकारी भी मिली थी. मेरे पापा भी यही चाहते थे कि इस अवसर को न गवाऊं.

मैं ने टैंडर भरा और इत्तफाक कहें या सौभाग्य मुझे पहला अवसर मिला. सुगंधा के स्कूल की शाखाएं हमारे राज्य के कुछ अन्य शहरों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी थीं. उस के प्रिंसिपल इस राज्य के स्कूलों में कंप्यूटर प्रोजैक्ट के इंचार्र्ज थे. सुगंधा ने कहा ‘‘अगर तुम्हारे काम से वे खुश हुए तो अन्य स्कूलों में भी तुम्हें काम मिलने की संभावना है.’’

मैं ने कहा ‘‘मैं टीचर नहीं बनना चाहता हूं. कंप्यूटर इंस्टौल कर नैटवर्किंग आदि एक टीचर और कुछ बच्चों को दोचार दिनां में सिखा दूंगा, इस के बाद उसे आगे बढ़ाना तुम लोगों की जिम्मेदारी होगी.’’

‘‘ठीक है, आप मुझे ही बता देना. मैं ने भी कंप्यूटर का कोर्स किया है.’’

मुझे मेरे पहले काम में ही आशातीत सफलता मिली. प्रिंसिपल बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बाकी 11 स्कूलों के लिए टैंडर भरने को कहा. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. सुगंधा, उस की मां और पापा सभी बहुत खुश थे. पापा ने तो यहां तक कहा ‘‘इस लड़की के कदम बहुत शुभ हैं. इन के पड़ते ही तुम्हारी जिंदगी में एक खुशनुमा मोड़ आया है, क्यों न तुम दोनों ही मिल कर काम करो, बल्कि मुझे तो यह लड़की बेहद पसंद है. तुम्हारी जीवनसाथी बनने लायक है.’’

सुगंधा की मां के भी कुछ ऐसे ही विचार थे. मुझे एहसास था कि हम दोनों

एकदूसरे को चाहने लगे थे पर हम ने अपनी चाहत को मन में ही दबा कर रखा था, खास कर मैं ने क्योंकि अभी तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं था. अब तो बड़ों की इजाजत मिल चुकी थी सो खुल्लमखुल्ला मर्यादित और एक दायरे के अंदर इश्क का सिलसिला शुरू हो गया.

मुझे बाकी स्कूल के टैंडर भी मिल गए तब मैं ने अपने घर से ही अपनी निजी कंपनी की शुरूआत की. ‘‘सुनील डौट कौम.’’ पापा ने पूछा ‘‘यह सुनील कौन है जिस के नाम की कंपनी तुम ने खोली है?’’

मैं ने उन्हें कहा ‘‘सु फौर सुगंधा और नील आप के बेटे अनिल का नाम दोनों को मिला कर सुनील रखा है.’’

‘‘अच्छा तो बात यहां तक पहुंच गई है तब तो मुझे सुगंधा की मां से बात करनी होगी.’’

सुगंधा को भी मेरी कंपनी का नाम सुन कर आश्चर्य हुआ. मैं ने जब उसे इस का मतलब समझाया तो वह हंसने लगी. पापा ने उस की मां से मिल कर हम दोनों की चट मंगनी पट शादी करा दी.

कुछ ही दिनों में मुझे और काम मिले. मैं अकेले तो सब काम नहीं कर सकता था

इसलिए मैं ने 2 नए आदमी रखे. इसलिए

अलग औफिस के लिए बड़ी जगह की जरूरत पड़ी तो मैं ने 2 औफिस केबिन किराए पर

लिए. बाहर वाले केबिन में मेरा स्टाफ और

अंदर वाले में मैं खुद बैठता. कभीकभी सुगंधा

भी आ कर मेरे साथ कुछ देर बैठती. मैं उसे पा कर बहुत खुश था. मुझे लगा मुझे मेरा मुकाम मिल गया है.

शादी के 2 साल बाद सुगंधा गर्भवती हुई. हम दोनों बहुत खुश थे. मैं उसे काफी समय देने लगा था. हर पल आने वाले मेहमान को ले कर सोचता और भविष्य का प्लान करता रहा. इस के चलते बिजनैस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था. सुगंधा मुझे बारबार आगाह करती कि वह तो आजीवन मेरे साथ है उस की इतनी ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है और अपने काम पर ज्यादा समय दे. इसी बीच उस की मां चल बसी. दुर्भाग्यवश चौथे महीने में सुगंधा का मिसकैरेज हो गया. वह बहुत उदास रहने लगी थी और डिप्रैशन में चली गई.

अब मैं अपना पहले से भी ज्यादा समय उस पर देने लगा. वह मुझे समझाती कि कुछ दिनों की बात है मैं ठीक हो जाऊंगी. मैं उसे समझाता कि उस के ठीक होने के बाद ही मैं काम पर जाऊंगा. मेरे प्रोजैक्ट्स डेडलाइन मिस करने लगे थे. नए काम का अकाल पड़ने लगा और पुराने कस्टमर भी नाराज थे. इस बीच सुगंधा बहुत कुछ ठीक हो चली थी पर मेरा बिजनैस दुबारा पटरी पर नहीं आ सका था.

मुझे अपने स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी. औफिस का किराया देने के लिए सुगंधा

ने स्कूल से कर्ज लिया था. मैं फिर से अपने घर से काम करने लगा, पर काम तो था नहीं. काम ढूंढ़ना ही मेरा काम था. सुगंधा मुझे ढाढ़स देती और कहती कि काम के लिए और लोगों के

पास जाऊं. मैं अपमानित महसूस कर रहा था कि कुछ दिन पहले मैं दूसरों को नौकरी देता था

और अब मुझे काम के लिए दूसरों की चौखट पर जाना होगा. मुझे लगा कि सुगंधा इस बात से नाराज हुई थी.

कुछ ही दिनों के बाद अचानक मेरे जीवन में भूचाल आया. एक सुबह अचानक  सुगंधा घर से गायब थी. वह एक लिफाफा छोड़ गई थी. उस में एक पत्र था जिस में लिखा था-

मैं आप को और इस शहर को छोड़ कर जा

रही हूं. आप मेरी फिक्र न करें. मैं लौट कर आप के जीवन में आऊंगी या नहीं अभी नहीं कह सकती, पर आप की यादों के सहारे मैं जी

लूंगी. आप किसी की कही एक बात हमेशा

याद रखें- ‘‘जिंदगी जीना आसान नहीं होता,

बिना संघर्ष के कोई महान नहीं होता, जब तक

न पड़े हथौड़े की चोट, पत्थर भी भगवान नहीं होता. बस आप पूरी लगन से एक बार फिर

अपने काम में लगे रहिए, कामयाबी जरूर मिलेगी. मेरी दुआएं और शुभकामनाएं सदा आप के साथ हैं.’’

मैं सकते में था कि सुगंधा ने ऐसा फैसला क्यों लिया होगा. मैं ने पापा से भी उस के बारे में पूछा कि शायद उन्हें कुछ बताया हो पर उन्हें भी कुछ पता नहीं था.

मुसीबत की इस घड़ी में सिर्फ पापा मेरे साथ खड़े रहे. मैं ने सुगंधा के स्कूल में पता किया कि शायद वह इसी गु्रप के किसी दूसरे स्कूल में हो. पर सुगंधा का कोई सुराग नहीं मिला. मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. पापा ने कहा, ‘‘फिलहाल तुम काम के बारे में सोचना छोड़ दो और मैनेजमैंट करो. तुम ने पहले से मैनेजमैंट में ग्रैजुएशन कर रखा है अब तुम एमबीए करोगे. वहां से तुम्हें बहुत सारे अवसर और विकल्प मिलेंगे. मैं इस घर को गिरवी रख कर तुम्हें एमबीए करने भेज सकता हूं. इस बीच तुम्हारा ध्यान भी दुनियादारी से हट जाएगा.’’

आईआईएम अहमदाबाद भारत का

सर्वश्रेष्ठ मैनेजमैंट स्कूल माना जाता है, वहां

मुझे दाखिला मिला. मेरी पढ़ाई और पूर्व

अनुभव के चलते मुझे दूसरे वर्ष में मल्टीनैशनल कंपनी में बहुत अच्छा प्लेसमैंट मिल गया.

पढ़ाई पूरी होने के बाद 6 महीने की ट्रैनिंग

ब्रिटेन में और फिर ब्रिटेन या अन्य किसी देश में पोस्टिंग होती.

मैं मैनेजमैंट करने के बाद लंदन गया. मैं अपने नए काम और पोस्टिंग से बहुत खुश था. हर 2-3 साल के बाद मेरी पोस्टिंग ब्रिटेन के अतिरिक्त फ्रांस, इटली, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में होती रही और साथ में मुझे

प्रमोशन भी मिलता रहा. इस बीच 10 साल

बीत गए. इस दौरान मुझे सुगंधा के बारे में कोईर् खबर नहीं मिली. ऐसा नहीं था कि मैं उसे पूरी तरह से भूल चुका था. प्रमोशन के साथ बढ़ते टारगेट और जिम्मेदारी के चलते अपने निजी जीवन के बारे में सोचने का समय कम मिलता था. फिर भी तन्हाई के आलम में उस की बहुत याद आती और शराब भी उस गमगीन माहौल

को भुलाने में नाकाम होती थी. मन में उम्मीद अभी भी जिंदा थी कि सुगंधा शायद किसी दिन वापस आ जाए. पापा से लगभग रोजाना संपर्क होता था.

मेरी कंपनी मुंबई में अपना दफ्तर खोलने जा रही थी और मेरे एक जूनियर कलीग को

इस काम के लिए मुंबई भेजा गया. पूरा औफिस सैट होने के बाद कंपनी मुझे वहां चीफ बना कर भेज रही थी. इस औफिस के लिए के कुछ सौफ्टवेयर इंजीनियर चाहिए थे. इस के लिए पहले राउंड का इंटरव्यू मेरा कलीग

लेता उस के बाद उस की डिटेल्स के साथ फाइनल इंटरव्यू फोन और विडियो कौनफ्रैंस

द्वारा मुझे लेना था. मेरे पास 6 लोगों के नाम आए उन में से मुझे दो इंजीनियर मुझे लेने थे. पहले राउंड के इंटरव्यू के बाद जो लिस्ट मुझे मिली उसे देख कर मैं चौंक उठा. सुगंधा लिस्ट में टौप पर थी. पहले मुझे कुछकुछ संदेह हुआ कि शायद कोई और सुगंधा हो जब मैं ने उस का पूरा बायोडाटा देखा तो पाया कि वह मेरी सुगंधा ही थी. उस ने बीसीए के बाद एमसीए किया और पिछले 5 वर्षों से एक कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर थी.

मैं ने सुगंधा का फाइनल विडियो इंटरव्यू लिया. मैं ने 10 वर्षों से

दाढ़ी बढ़ा रखी थी, आंखों पर चश्मा चढ़ गया था और कनपटी के बालों पर सफेदी थी. शायद उस ने मुझे पहचाना नहीं, मैं ने औफिस को बोल रखा था कि मेरा नाम उसे नहीं बताया जाए बस चीफ ऐग्जीक्यूटिव बोला जाए.

बहुत दिनों के बाद सुगंधा की तस्वीर देख कर मुझे जो खुशी मिली उसे शब्दों

में मैं बयां नहीं कर सकता. मुझे उस के फोटो

से ही सुगंधा की खुशबू का अहसास हो रहा

था जो मेरे मन को तरंगित कर जाता. उस ने

अपने को बड़ी खूबसूरती से मैंटैन कर रखा

था. खैर उस का इंटरव्यू पूरा हुआ. मुझे उसे सिलैक्ट करना ही था, इसलिए नहीं कि वह मेरी ऐक्स थी. वह अपनी काबीलियत के बल पर टौपर थी.

मैं ने अपने मुंबई वाले कलीग से कहा कि बिना मेरे बारे में सुगंधा को बताए वह मेरे बारे

में उस के मन की बात जानने की कोशिश करे. निजी बातें होशियारी से करे ताकि उसे संदेह नहीं हो. सुगंधा से बात कर उस ने फोन पर कहा, ‘‘आप के लिए मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े. मैं ने जब उस से पूछा कि आप के परिवार में आप के अलावा और कौनकौन हैं तो उस ने कहा मैं ही मेरा परिवार हूं. और आगे निजी बातें पूछने के लिए सुगंधा से बहुत फटकार मिली. जब मैं ने कहा कि आप ने मेरे निकटतम मित्र की जिंदगी बरबाद कर दी है और वह आप की याद में काफी दिनों तक शराब के नशे में डूबे इधरउधर भटक रहा था.’’

मैं ने पूछा ‘‘उस ने क्या कहा?’’

वह बोली ‘‘मैं अनिल को बहुत प्यार करती थी और उन का सम्मान आज भी करती हूं. वे बहुत टैलेंटेड हैं और वे अपने काम में ज्यादा ध्यान न दे कर मेरे पीछेपीछे अपना समय बरबाद कर रहे थे. मैं उन्हें ऊंचाईयों पर देखना चाहती हूं. मुझे लगा कि मैं उन की उन्नति में बाधा बन गई थी इसीलिए दिल पर पत्थर रख कर उन से दूर चली गई.’’

‘‘अगर आज वे कहीं से मिल जाएं तो

आप दोबारा उन्हें स्वीकार करेंगी?’’ मेरे कलीग के पूछने पर सुगंधा बोली, ‘‘अगर अनिलजी

मेरे सामीप्य से अपने मुकाम तक पहुंचने में कामयाब होंगे तो मैं समझूंगी कि मेरा त्याग

और मेरी उपासना सफल रही और मैं अपने को खुशनसीब समझूंगी.’’

‘‘अगर मैं कहूं कि मेरा वह दोस्त आज

भी आप के इंतजार में पलकें बिछाए बैठा है

और अब उस ने इतना कुछ हासिल कर रखा

है जिसे जान कर आप को गर्व होगा और

आप इसे अपने वर्षों की उपासना का नतीजा

ही समझें.’’

‘‘वे कहां है आजकल? मुझे बस इतना पता है कि मैनेजमैंट करने के बाद वे विदेश चले गए थे.’’ सुगंधा ने मेरे  कलीग से कहा.

‘‘फिलहाल मुझे भी ठीक से पता नहीं है फिर भी मैं जल्द ही पता कर आप को बता दूंगा. वैसे आप का जौइनिंग लैटर रैडी है. आज फ्राइडे है, आप मंडे को ज्वाइन करेंगी. तब तक हमारे चीफ भी यहां होंगे और आप सीधा उन्हें ही रिपोर्ट करेंगी.’’ मेरे कलीग ने कहा.

मैं मुंबई आ गया. सोमवार को अपने केबिन में बैठा था, मेरी पीए ने फोन पर कहा ‘‘सर, सुगंधा मैम हैज कम. शी इज गोइंग टू रिपोर्ट यू.’’

‘‘सैंड हर इन.’’

‘‘गुड मौर्निंग सर, दिस इज सुगंधा योर सौफ्टवेयर इंजीनियर रिपोर्टिंग टू यू.’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘वैलकम इन अवर फैमिली, मेरा मतलब मेरी कंपनी में. मेरी कंपनी ही मेरी फैमिली रही है अब तक.’’

सुगंधा मुझे अभी भी नहीं पहचान सकी

थी. मैं ने उस से कहा ‘‘आप अपने केबिन में

जा कर अपनी जौब की जानकारी लें. कल

सुबह आप मुझे मिलेंगी फिर बाकी काम मैं समझा दूंगा.’’

दूसरे दिन सुबह मैं ने अपने केबिन डोर पर अपना नेम प्लेट ‘अनिल कुमार’ लगवा

दी थी. मैं क्लीन शेव्ड हो कर अपनी कुर्र्सी पर बैठा था. सुगंधा नौक कर मेरे केबिन में आई

और मुझे देख कर ठिठक कर खड़ी हो गई और बोली ‘‘आप?’’

‘‘लगता है तुम ने मेरी नेम प्लेट नहीं देखी?’’

‘‘मैं ने गौर नहीं किया.’’

‘‘यही मेरी कंपनी और फैमिली है. आज

से तुम भी इसी फैमिली की अतिविशिष्ट सदस्य हुई. मुझे उम्मीद थी मेरी सुगंधा एक न एक दिन जरूर आएगी इसीलिए तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में मैं ने आज तक सोचा ही नहीं.’’

मेरे कलीग ने तुम्हारे दूर जाने का कारण मुझे बता दिया था. मुझे तुम पर नाज है और तुम्हें सैल्यूट करना होगा.

मैं ने उठ कर सैल्यूट किया और उसे

गले लगाया. मेरा कलीग केबिन के शीशे के पारदर्शी दीवार के उस पार से यह नजारा देख रहा था. उस ने मुझे कनखी मारी और हम तीनों मुस्करा उठे.

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