Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

‘‘अब आप को जातपांत का ध्यान आ रहा है, तब क्यों नहीं आया था जब नेहा दीदी के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा?’’ ज्योति कुछ भावुक स्वर में बोली. उसे मन में थोड़ी शंका भी हुई कि कहीं मनीष उस की बातों का बुरा न मान जाए, आखिर वह इस घर में सिर्फ एक खाना पकाने वाली ही थी.

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औरत ने सुमित को महीने की पगार बताई और साथ ही, यह भी कि वह एक पैसा भी कम नहीं लेगी.

दोनों दोस्तों ने सवालिया निगाहों से एकदूसरे की तरफ देखा. पगार थोड़ी ज्यादा थी, मगर और चारा भी क्या था. ‘‘हमें मंजूर है,’’ सुमित ने कहा. आखिरकार खाने की परेशानी तो हल हो जाएगी.

‘‘ठीक है, मैं कल से आ जाऊंगी,’’ कहते हुए वह जाने के लिए उठी.

‘‘आप ने नाम नहीं बताया?’’ सुमित ने उसे पीछे से आवाज दी.

‘‘मेरा नाम ज्योति है,’’ कुछ सकुचा कर उस औरत ने अपना नाम बताया और चली गई.

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही ज्योति आ गई थी. रसोई में जो कुछ भी पड़ा था, उस से उस ने नाश्ता तैयार कर दिया.

आज कई दिनों बाद सुमित और मनीष ने गरम नाश्ता खाया तो उन्हें मजा आ गया. रोहन अभी तक सो रहा था, तो उस का नाश्ता ज्योति ने ढक कर रख दिया था.

‘‘भैयाजी, राशन की कुछ चीजें लानी पड़ेंगी. शाम का खाना कैसे बनेगा? रसोई में कुछ भी नहीं है,’’ ज्योति दुपट्टे से हाथ पोंछते हुए सुमित से बोली.

सुमित ने एक कागज पर वे सारी चीजें लिख लीं जो ज्योति ने बताई थीं. शाम को औफिस से लौटता हुआ वह ले आएगा.

रोहन को अब तक इस सब के बारे में कुछ नहीं पता था. उसे जब पता चला तो उस ने अपने हिस्से के पैसे देने से साफ इनकार कर दिया. ‘‘बहुत ज्यादा पगार मांग रही है वह, इस से कम पैसों में तो हम आराम से बाहर खाना खा सकते हैं.’’

‘‘रोहन, तुम को पता है कि बाहर का खाना खाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है. कुछ पैसे ज्यादा देने भी पड़ रहे तो क्या हुआ, सुविधा भी तो हमें ही होगी.’’

‘‘हां, सुमित ठीक कह रहा है. घर के बने खाने की बात ही कुछ और है,’’ सुबह के नाश्ते का स्वाद अभी तक मनीष की जबान पर था.

लेकिन रोहन पर इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा. वह जिद पर अड़ा रहा कि वह अपने हिस्से के पैसे नहीं देगा और अपने खाने का इंतजाम खुद कर कर लेगा.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी’’, सुमित बोला, उसे पता था रोहन अपने मन की करता है.

थोड़े ही दिनों में ज्योति ने रसोई की बागडोर संभाल ली थी. ज्योति के हाथों के बने खाने में सुमित को मां के हाथों का स्वाद महसूस होता था.

ज्योति भी उन की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखती. अपने परिवार से दूर रह रहे इन लड़कों पर उसे एक तरह से ममता हो आती. अन्नपूर्णा की तरह अपने हाथों के जादू से उस ने रसोई की काया ही पलट दी थी.

कई बार औफिस की भागदौड़ से सुमित को फुरसत नहीं मिल पाती तो वह अकसर ज्योति को ही सब्जी वगैरह लाने के पैसे दे देता.

जिन घरों में वह काम करती थी, उन में से अधिकांश घरों की मालकिनें अव्वल दर्जे की कंजूस और शक्की थीं. नापतौल कर हरेक चीज का हिसाब रख कर उसे खाना पकाना होता था. सुमित या मनीष ज्योति से कभी, किसी चीज का हिसाब नहीं पूछते थे. इस बात से उस के दिल में इन लड़कों के लिए एक स्नेह का भाव आ गया था.

अपनी हलकी बीमारी में भी वह उन के लिए खाना पकाने चली आती.

एक शाम औफिस से लौटते वक्त रास्ते में सुमित की बाइक खराब हो गई. किसी तरह घसीटते हुए उस ने बाइक को मोटर गैराज तक पहुंचाया.

‘‘क्या हुआ? फिर से खराब हो गई?,’’ गैराज में काम करने वाला नौजवान शकील ग्रीस से सने हाथ अपनी शर्ट से पोंछता हुआ सुमित के पास आया.

‘‘यार, सुरेश कहां है? यह तो उस के हाथ से ही ठीक होती है, सुरेश को बुलाओ.’’

जब भी उस की बाइक धोखा दे जाती, वह गैराज के सीनियर मेकैनिक सुरेश के ही पास आता और उस के अनुभवी हाथ लगते ही बाइक दुरुस्त चलने लगती.

शकील सुरेश को बुलाने के लिए गैराज के अंदर बने छोटे से केबिन में चला गया. थोड़ी ही देर में मध्यम कदकाठी के हंसमुख चेहरे वाला सुरेश बाहर आया. ‘‘माफ कीजिए सुमित बाबू, हम जरा अपने लिए दोपहर का खाना बना रहे थे.’’

‘‘आप अपना खाना यहां गैराज में बनाते हैं? परिवार से दूर रहते हैं क्या?’’ सुमित ने हैरानी से पूछा. इस गैराज में वह कई सालों से काम कर रहा था. अपने बरसों के अनुभव और कुशलता से आज वह इस गैराज का सीनियर मेकैनिक था. ऐसी कोई गाड़ी नहीं थी जिस का मर्ज उसे न पता हो, इसलिए हर ग्राहक उसे जानता था.

‘‘अब क्या बताएं, 2 साल पहले घरवाली कैंसर की बीमारी से चल बसी. तब से यह गैराज ही हमारा घर है. कोई बालबच्चा हुआ नहीं, तो परिवार के नाम पर हम अकेले हैं. बस, कट रही है किसी तरह. लाइए, देखूं क्या माजरा है?’’

‘‘सुरेश, पिछली बार आप नहीं थे तो राजू ने कुछ पार्ट्स बदल कर बाइक ठीक कर दी थी. अब तो तुम्हें ही अपने हाथों का कमाल दिखाना पड़ेगा,’’ सुमित बोला.

सुरेश ने दाएंबाएं सब चैक किया, इंजन, कार्बोरेटर सब खंगाल डाला. चाबी घुमा कर बाइक स्टार्ट की तो घरर्रर्र की आवाज के साथ बाइक चालू हो गई.

‘‘देखो भाई, ऐसा है सुमित बाबू, अब इस को तो बेच ही डालो. कई बरस चल चुकी है. अब कितना खींचोगे? अभी कुछ पार्ट्स भी बदलने पड़ेंगे. उस में जितना पैसा खर्च करोगे उस से तो अच्छा है नई गाड़ी ले लो.’’

‘‘तुम ही कोई अच्छी सी सैकंडहैंड दिला दो,’’ सुमित बोला.

‘‘अरे यार, पुरानी से अच्छा है नईर् ले लो,’’ सुरेश हंसते हुए बोला.

‘‘बात तो तुम्हारी सही है, मगर थोड़ा बजट का चक्कर है.’’

‘‘हूं,’’ सुरेश कुछ सोचने की मुद्रा में बोला, ‘‘कोई बात नहीं, बजट की चिंता मत करो. मेरा चचेरा भाई एक डीलर के पास काम करता है. उस को बोल कर कुछ डिस्काउंट दिलवा सकता हूं, अगर आप कहो तो.’’

सुमित खिल गया, कब से सोच रहा था नई बाइक लेने के लिए. कुछ डिस्काउंट के साथ नई बाइक मिल जाए, इस से बढि़या क्या हो सकता था. उस ने सुरेश का धन्यवाद किया और नई बाइक लेने का मन बना लिया.

‘‘ठीक है सुरेश, मैं अगले ही महीने ले लूंगा नई गाड़ी. बस, आप जरा डिस्काउंट अच्छा दिलवा देना.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो सुमित बाबू, निश्ंिचत रहो.’’

लगभग 45 वर्ष का सुरेश नेकदिल इंसान था. सुमित ने उसे सदा हंसतेमुसकराते ही देखा था. मगर वह अपनी जिंदगी में एकदम अकेला है, इस बात का इल्म उसे आज ही हुआ.

इधर कुछ दिनों से रोहन बहुत परेशान था. औफिस में उस के साथ हो रहे भेदभाव ने उस की नींद उड़ा रखी थी. रोहन के वरिष्ठ मैनेजर ने रोहन के पद पर अपने किसी रिश्तेदार को रख लिया था और रोहन को दूसरा काम दे दिया गया जिस का न तो उसे खास अनुभव था न ही उस का मन उस काम में लग रहा था. अपने साथ हुई इस नाइंसाफी की शिकायत उस ने बड़े अधिकारियों से की, लेकिन उस की बातों को अनसुना कर दिया गया. नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उस की शिकायतें दब कर रह गई थीं. आखिरकार, तंग आ कर उस ने नौकरी छोड़ दी.

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -3

आज तक पढ़ी जासूसी कहानियां याद आने लगीं. एक दिन दफ्तर में देर से पहुंच जाएंगे, उस ने सोचा. फिर सोचने लगा कि यह देश बड़ा पिछड़ा हुआ है. विदेशों की तरह यहां पर भी यदि जासूसी एजेंसी होती तो कुछ रुपए खर्च कर के वह पत्नी की गतिविधियों की साप्ताहिक रिपोर्ट लेता रहता. तत्काल सारी बातें साफ हो जातीं. पहचाने जाने का भय भी न रहता.

पत्नी सीधी सामान्य चाल से चलती रही. प्रतिक्षण वह कल्पना करता रहा, अब वह किसी दूसरी राह या गली में मुड़ेगी या कोई आदमी उस से राह में बाइक या कार में मिलेगा. कितु सभी अनुमान गलत साबित करती हुई वह सीधे स्कूल पहुंची. दरबान ने द्वार खोला, वह भीतर चली गई.

वह भी स्कूल पहुंचा. गार्ड ने बड़े रूखे शब्दों में पूछा, ‘‘व्हाट कैन आई डू फौर यू?’’

‘‘जरा एक काम था, एक टीचर से.’’

‘‘किस से?’’ गार्ड की आंखों में सतर्कता का भाव आ गया.

उस ने लापरवाही दिखाते हुए अपनी अक्षरा का ही नाम बताया और कहा, ‘‘इन्हें तो जानते

ही होंगे, उन से मिलने तो रोज कोई न कोई आता ही होगा.’’

‘‘कोई नहीं आता साहब,’’ गार्ड ने बताया, ‘‘आप को धोखा हुआ है. दूसरी टीचर्स से

मिलने वाले तो आते रहते हैं, पर उन से मिलने तो आज तक कोई नहीं आया यहां. कहें तो

बुला दूं?’’

‘‘नहीं, जरूर नाम में कुछ धोखा हो रहा है. मैं बाद में ठीक पता कर के आऊंगा.’’

वह दफ्तर चला गया. राह में और दफ्तर में भी दिमागी उलझन बनी रही.

दोपहर में एक कौफी शौप में कौफी पीते वक्त उस के दिमाग में एक नई बात कौंधी. वह दफ्तर से 6 बजे तक घर लौटता है. पत्नी स्कूल से 3 बजे तक लौट आती है. बीच के 2 घंटे.

इस बीच कोई आता होगा? नौकरानी 3 बजे तक काम कर के चली जाती है. घर में वही अकेली रहती है.

इस शंका ने उसे इतना उद्विग्न कर दिया कि चाय पीते हुए वह एक निश्चिय पर पहुंचा. उस ने सड़क पर एक दवा की दुकान पर जा कर लैंड लाइन से यूनिवर्सल गैराज को फोन किया. सुरेश वहीं काम करता है. फोन रिसैप्शनिस्ट ने उठाया. उस ने अपना नाम बताए बिना अपनी पत्नी का नाम ले कर कहा कि

सुरेश को इन्होंने 3 बजे घर बुलाया है और फोन रख दिया. खुद वह सिरदर्द के बहाने छुट्टी ले कर ढाई बजे ही घर लौट आया. सावधानी से इधरउधर देख कर अपने पास की चाबी से ताला खोला और भीतर जा कर पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर बाहर निकला. चक्कर लगा कर बाहरी द्वार पर पहुंचा. ताला बाहर से पूर्ववत लगा कर फिर पिछवाड़े से भीतर आ पहुंचा. दरवाजा भीतर से बंद कर सोचने लगा कहां छिप कर बैठे. पलंग के नीचे. यह ठीक न रहेगा. वहां लंबे समय तक छिपे रहना पड़ सकता है.

अंत में सोचविचार कर कपड़ों के बड़े से रैक के पीछे जा खड़ा हुआ. यहां सोने के कमरे की ?ांकी भी मिलती है और रैक पर पड़े कपड़ों, परदों के भारी ढेर में से उसे बाहर से कोई देख भी नहीं सकेगा.

खड़ेखड़े थकने के बाद भी वह वहीं खड़ा रहा. धीरेधीरे 3 बजे, फिर 3 बज गए.

3-25 पर बाहरी ताले के खटकने की आवाज आई. उस की तमाम नसें तन गईं. दम साधे वह खड़ा रहा. पद्चाप सुनाई दी और पत्नी अक्षरा सीधी बैठक में आई और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया.

उसे आश्चर्य हुआ कि सुरेश अभी तक क्यों नहीं पहुंचा. अक्षरा ने साड़ी खोल कर रैक पर उछाल दी.

पीछे से वह उस के सिर पर भी पड़ी, पर बिना हिलेडुले वहीं खड़ा रहा. दरार में से देखता रहा. ब्लाउज उतरा, ब्रा हटी. उस की पत्नी का यौवन पूर्ववत बरकरार था. ऐसी आकर्षक लगती है और कैसे कहे कि वह… पेटीकोट खोल कर उस की पत्नी ने रैक पर डाल दिया और स्नानगृह में जा घुसी.

वह अपनी उखड़ी तेज सांसों को व्यवस्थित करने लगा. पत्नी को यों चोरी से सर्वथा नग्न देख कर उसे ऐसा लगा कि जैसे पहली बार देख रहा हो. वह उसे बहुत दूर की अप्राप्य वस्तु लगी. वह भूल गया कि वह उस की पत्नी ही है.

जब वह नहा कर निकली तो उस के शीशे की तरह चमकते शरीर पर पानी की मोती जैसी बूंदें बड़ी भली लग रही थीं. उस ने एक बड़ा तौलिया ले कर शरीर सुखाया, बाल यथावत जूड़े में बंधे थे, उस ने उन्हें भिगोया नहीं था. वह दूसरे कपड़े पहनने लगी. ब्रा एवं टीशर्ट और पैंट पहन कर बाहर निकली. उस ने मन में खैर मनाई कि वह हिंदी फिल्मों की तरह कपड़ों की अलमारी में नहीं छिपा.

थोड़ी देर बाद बाहर से घंटी बजने की आवाज आई तो उस की धड़कनें तेज होने लगीं. उसे पत्नी की पद्चाप बैठक की ओर जाती सुनाई दी और उस की आवाज भी, ‘‘कौन है?’’

‘‘भाभी, मैं हूं, सुरेश,’’ उस की आवाज आई.

उस का मन उछल पड़ा. आखिर प्रतीक्षा रंग लाई. अब देखेगा वह उन्हें.

उस ने दरवाजा खुलने की आहट सुनी और पत्नी की तेज आवाज भी, ‘‘सुरेश, आज इस वक्त कैसे आए?’’

‘‘तुम्हीं ने तो फोन किया था 3 बजे के बाद आने के लिए.’’

‘‘फोन किया था मैं ने? तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही है. मैं क्यों तुम्हें इस वक्त बुलाऊंगी?’’

‘‘वाह भाभी, पहले तो बुला लिया, अब ऐसा कह रही हो. भीतर तो आने दो जरा…’’

‘‘देखो भई, इस वक्त तुम जाओ. शाम को महेश के रहने पर आना तो बातें होंगी. मैं ने सचमुच कोई फोन नहीं किया है. उन की अनुपस्थिति में तुम्हारा यहां आना ठीक नहीं.

अभी तो मुझे स्कूल का बहुत काम करना है. जाओ शाम को आना.’’

पत्नी की आखिरी बात में कड़ाई थी. सुरेश के अच्छा कह कर लौटने की आहट उस ने स्पष्ट सुनी. द्वार फिर बंद हो गया और पत्नी वापस शयनकक्ष में लौट आई.

उसे जरा निराशा सी हुई पर मन में एक अजीब सा सुकून भी आने लगा. दिलदिमाग में खोखलेपन की जगह कैसे कुछ ठोस सा भर उठा. उस ने जरा झंक कर देखा वह पलंग पर लेटी खिड़की से आती धूप में तकिए पर बाल फैलाए उसी की लाई पत्रिका पढ़ रही थी.

मन हुआ जा कर उसे अपने से लिपटा ले पर उस का खिंचा बेरुखा सा चेहरा. वह दबे पांव स्नानगृह में गया, वहां से पीछे के दरवाजे से बाहर निकला और मुख्यद्वार पर आ कर घंटी बजा दी.

पत्नी ने आ कर दरवाजा खोला. उस के सख्त चेहरे से आंखें चुराता वह सफाईर् देने लगा, ‘‘क्या करूं, जरा सिरदर्द करने लगा तो जल्दी चल आया.’’

वह द्वार बंद कर चुपचाप चली आई. उस ने खुद चाय बना कर पी और कपड़े बदलने लगा.

अगले दिन शाम को उस ने हलके मूड में सोचा, आज पत्नी के लिए जरूर कोई उपहार देगा. बहुत दिनों से कुछ नहीं लिया है उस के लिए. मन में क्या कह रही होगी.

उस ने बाजार से एक अच्छा महंगा विदेशी परफ्यूम कौस्मैटिक बौक्स खरीदा. महीनों से खरीदना चाहता था, आज स्वयं को रोक न पाया. इस से उस की जेब लगभग खाली हो गई, पर उस ने परवाह न की. दूसरे दिन वेतन मिलेगा ही.

पैकेट में लपेटे वह उसे छिपा कर घर लाया और पत्नी की नजर बचा कर उसे शृंगारमेज के पास की खिड़की पर यों रख दिया कि सीधे नजर न पड़े.

वह मन में परेशान था कि कैसे यह उपहार देगा. बैठा ही था कि अक्षरा भीतर आई. उस ने आश्चर्य से देखा, वह बहुत प्रसन्न है. आंखें जैसे मधु में डूबी हों. आते ही वह बोली, ‘‘जरा, इधर तो आना.’’

वह मंत्रमुग्ध सा उस के पीछे चला. सोने के कमरे में आ कर पत्नी ने मुसकराते हुए

एक पैकेट खोल कर गहरे नीले रंग का एक पुलोवर निकाला और कहा, ‘‘देखो तो इसे पहन कर.’’

वह हैरान रह गया. नेवी ब्लू रंग का पुलोवर खरीदने की उस की बहुत दिनों से इच्छा थी.

मगर वह अपने टालू स्वभाव के कारण टालता जा रहा था.

उस ने पूछा, ‘‘यह क्यों ले आई?’’

‘‘आज स्कूल से तनख्वाह मिली है न. इसे पहनो तो,’’ उस ने प्यार से आदेश दिया और फिर स्वयं पहनाने लगी. पहना कर उसे शृंगारमेज के सामने लाई, ‘‘कैसा जंच रहा है?’’

उस ने मुग्ध भाव से खुद को शीशे में देखा. वह बड़ा चुस्त लग रहा था. उस ने पत्नी को बाहुपाश में लपेट कर एक चुंबन लिया. तभी कुछ याद कर के बोला, ‘‘एक मिनट को तुम आंखें तो मूंदो.’’

हैरान सी अक्षरा ने आंखें मूंद लीं. होंठ जरा खुले से मुसकराते ही रहे. उस ने झट खिड़की पर से परफ्यूम बौक्स निकाल कर उस के आगे किया और उल्लास से बोला, ‘‘आंखें खोलो.’’

आंखें खुलीं, प्रसन्नता की एक लहर के साथ उस की पत्नी उस से लिपट गई. परफ्यूम और उसे दोनों को संभाले वह पलंग तक आया. पत्नी पलंग पर बैठ कर परफ्यूम की पैकिंग उतारने लगी. वह चुपके से अपने कमरे में आ गया और मेज की दराज से डायरी निकाल कर लाल स्याही से लिखी वह पंक्ति कलम से घिसघिस कर काटने लगा. बीचबीच में पीछे मुड़ कर देख लेता कि कहीं अक्षरा तो नहीं आ रही है.

दोस्त ही भले: प्रतिभा ने शादी के लिए क्यूं मना किया

‘‘तुम गंभीरतापूर्वक हमारे रिलेशन के बारे में नहीं सोच रहे,’’ प्रतिभा ने सोहन से बड़े नाजोअंदाज से कहा.

‘‘तुम किसी बात को गंभीरतापूर्वक लेती हो क्या?’’ सोहन ने भी हंस कर जवाब दिया.

दोनों ने आज छुट्टी के दिन साथ बिताने का निर्णय लिया था और अभी कैफे में बैठे कौफी पी रहे थे. दोनों कई दिनों से दोस्त थे और बड़े अच्छे दोस्त थे.

‘‘लेती क्यों नहीं, जो बात गंभीरतापूर्वक लेने की हो. तुम मेरे सब से प्यारे दोस्त हो, मैं तुम से प्यार करती हूं, तुम्हारे साथ जीवन बिताना चाहती हूं. यह बात बिलकुल गंभीरतापूर्वक बोल रही हूं और चाहती हूं कि तुम भी गंभीर हो जाओ,’’ प्रतिभा ने आंखें नचाते हुए जवाब दिया. सोहन को उस की हर अदा बड़ी प्यारी लगती थी और इस अदा ने भी उस के दिल पर जादू कर दिया पर उस ने एक बात नोट की थी प्रतिभा के बारे में कि उस ने कई पुरुष मित्रों से मित्रता की थी पर किसी से उस की मित्रता ज्यादा दिनों तक टिकी

नहीं थी.

‘‘देखो प्रतिभा, जहां तक दोस्ती का सवाल है तो तुम मेरी सब से अच्छी दोस्त हो. तुम्हारे साथ समय बिताना मुझे बहुत पसंद है. इसीलिए मैं तुम से समय बिताने के लिए अनुरोध करता हूं और जब कभी तुम साथ में समय बिताने का कार्यक्रम बनाती हो तो झट से तैयार हो जाता हूं. पर शादी अलग चीज है. दोस्त कोई जरूरी नहीं पतिपत्नी बनें ही. मेरी कई महिलाएं दोस्त हैं. तुम्हारे भी कई पुरुष दोस्त हैं. सभी से शादी तो नहीं हो सकती. हम दोस्त ही भले हैं,’’ सोहन ने समझया.

‘‘देखो, शादी तो किसी से करनी ही है, तो क्यों न उस से करें जिस से सब से ज्यादा विचार मिलते हों. मुझे लगता है कि इस मामले में हमारी सब से अच्छी जोड़ी है,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया.

‘‘प्रतिभा, मैं तुम्हें वर्षों से जानता हूं और यह भी जानता हूं कि कई पुरुषों से तुम्हारी दोस्ती हुई है पर किसी के साथ तुम्हारी बहुत दिनों तक नहीं निभी. फिर मु?ा से कैसे निभा पाओगी? शायद कुछ दिनों बाद तुम्हारा दिल किसी और पर आ जाए. फिर तुम्हारी गंभीरता धरी की धरी रह जाएगी,’’ सोहन ने हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसा नहीं होगा. दूसरों की बात और है, तुम्हारी बात और है. मैं तुम्हें दिल से चाहती हूं. अन्य लोगों से बस परिचय है, दोस्ती है,’’ प्रतिभा ने गंभीरतापूर्वक कहा.

‘‘थोड़ा समय दो मुझे सोचने के लिए. और हां, तुम भी गंभीरतापूर्वक सोचो. शादी एक गंभीर मसला है और इसे गंभीरतापूर्वक ही सोचना चाहिए,’’ सोहन ने कौफी का अंतिम घूंट लिया और कप रखते हुए खड़ा हो गया. प्रतिभा पहले ही अपनी कौफी खत्म कर चुकी थी.

‘‘चलो, पार्क में टहलते हैं,’’ सोह

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

‘‘हां मां, खाना खा लिया था औफिस की कैंटीन में. तुम बेकार ही इतनी चिंता करती हो मेरी. मैं अपना खयाल रखता हूं,’’ एक हाथ से औफिस की मोटीमोटी फाइलें संभालते हुए और दूसरे हाथ में मोबाइल कान से लगाए सुमित मां को समझाने की कोशिश में जुटा हुआ था.

‘‘देख, झूठ मत बोल मुझ से. कितना दुबला गया है तू. तेरी फोटो दिखाती रहती है छुटकी फेसबुक पर. अरे, इतना भी क्या काम होता है कि खानेपीने की सुध नहीं रहती तुझे.’’ घर से दूर रह रहे बेटे के लिए मां का चिंतित होना स्वाभाविक ही था, ‘‘देख, मेरी बात मान, छुटकी को बुला ले अपने पास, बहन के आने से तेरे खानेपीने की सब चिंता मिट जाएगी. वैसे भी 12वीं पास कर लेगी इस साल, तो वहीं किसी कालेज में दाखिला मिल जाएगा,’’ मां उत्साहित होते हुए बोलीं.

जिस बात से सुमित को सब से ज्यादा कोफ्त होती थी वह यही बात थी. पता नहीं मां क्यों नहीं समझतीं कि छुटकी के आने से उस की चिंताएं मिटेंगी नहीं, उलटे, बहन के आने से सुमित के ऊपर जिम्मेदारी का एक और बोझ आ पड़ेगा.

अभी तो वह परिवार से दूर अपने दोस्तों के साथ आजाद पंछी की तरह बेफिक्र जिंदगी का आनंद ले रहा था. उस के औफिस में ही काम करने वाले रोहन और मनीष के साथ मिल कर उस ने एक किराए पर फ्लैट ले लिया था. महीने का सारा खर्च तीनों तयशुदा हिसाब से बांट लेते थे. अविवाहित लड़कों को घरगृहस्थी का कोई ज्ञान तो था नहीं, मनमौजी में दिन गुजर रहे थे. जो जी में आता करते, किसी तरह की बंदिश, कोई रोकटोक नहीं थी उन की जिंदगी में. कपड़े धुले तो धुले, वरना यों ही पहन लिए. हफ्ते में एक बार मन हुआ तो घर की सफाई हो जाती थी, वरना वह भी नहीं.

सुमित से जब भी उस की मां छोटी बहन को साथ रखने की बात कहती, वह घोड़े सा बिदक जाता. छुटकी रहने आएगी तो सुमित को दोस्तों से अलग कमरा ले कर रहना पड़ेगा और ऊपर से उस की आजादी में खलल भी पड़ेगा. यही वजह थी कि वह कोई न कोई बहाना बना कर मां की बात टाल जाता.

‘‘मां, अभी बहुत काम है औफिस में, मैं बाद में फोन करता हूं,’’ कह कर सुमित ने फोन रख दिया.

वह सोच रहा था, कहीं मां सचमुच छुटकी को न भेज दें.

तीनों दोस्तों को यों तो कोई समस्या नहीं थी लेकिन खाना पकाने के मामले में तीनों ही अनाड़ी थे, ब्रैड, अंडा, दूध पर गुजारा करने वाले. रोजरोज एक ही तरह का खाना खा कर सुमित उकता गया था. बाहर का खाना अकसर उस का हाजमा खराब कर देता था. परिवार से दूर रहने का असर सचमुच उस की सेहत पर पड़ रहा था. मां का इस तरह चिंता करना वाजिब भी था. इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालना पड़ेगा, वह मन ही मन सोचने लगा. फिलहाल तो 4 बजे उस की एक मीटिंग थी. खाने की चिंता से ध्यान हटा, वह एक बार फिर से फाइलों के ढेर में गुम हो गया.

सुमित के अलावा रोहन और मनीष की भी यही समस्या थी. उन के घर वाले भी अपने लाड़लों की सेहत की फिक्र में घुले जाते थे.

शाम को थकहार कर सुमित जब घर आया तो बड़ी देर तक घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला. एक तो दिनभर औफिस में माथापच्ची करने के बाद वह बुरी तरह थक गया था, उस पर घर की चाबी ले जाना आज वह भूल गया था. फ्लैट की एकएक चाबी तीनों दोस्तों के पास रहती थी, जिस से किसी को असुविधा न हो.

थकान से बुरी तरह झल्लाए सुमित ने एक बार फिर बड़ी जोर से घंटी पर हाथ दे मारा.

थोड़ी ही देर में इंचभर दरवाजे की आड़ से मनीष का चेहरा नजर आया. सुमित को देख कर उस ने हड़बड़ा कर दरवाजा पूरा खोल दिया.

‘‘क्यों? इतना टाइम लगता है क्या? बहरा हो गया था क्या जो घंटी सुनाई नहीं दी?’’ अंदर घुसते ही सुमित ने उसे आड़ेहाथों लिया.

गले में बंधी नैकटाई को ढीला कर सुमित बाथरूम की तरफ जा ही रहा था कि मनीष ने उसे टोक दिया, ‘‘यार, अभी रुक जा कुछ देर.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ सुमित ने पूछा, फिर मनीष को बगले झांकते देख कर वह सबकुछ समझ गया, ‘‘कोई है क्या, वहां?’’

‘‘हां यार, वह नेहा आई है. वही है बाथरूम में.’’

‘अरे, तो ऐसा बोल न,’’ सुमित ने फ्रिज खोल कर पानी की ठंडी बोतल निकाल ली.

मनीष की प्रेमिका नेहा नौकरी करती थी और एक वुमेन होस्टल में रह रही थी. जब भी सुमित और रोहन घर पर नहीं होते, मनीष नेहा को मिलने के लिए बुला लेता.

सुमित को इस बात से कोई एतराज नहीं था, मगर रोहन को यह बात पसंद नहीं आती थी. उस का मानना था कि मालिकमकान कभी भी इस बात को ले कर उन्हें घर खाली करने को कह सकता है.

जब कभी नेहा को ले कर मनीष और रोहन के बीच में तकरार होती, सुमित बीचबचाव से मामला शांत करवा लेता.

‘‘यार, बड़ी भूख लगी है, खाने को कुछ है क्या?’’ सुमित ने फ्रिज में झांका.

‘‘देख लो, सुबह की ब्रैड पड़ी होगी,’’ नेहा के जाने के बाद मनीष आराम से सोफे पर पसरा टीवी देख रहा था.

सुमित को जोरों की भूख लगी थी.

इस वक्त उसे मां के हाथ का

बना गरमागरम खाना याद आने लगा. वह जब भी कालेज से भूखाप्यासा घर आता था, मां उस की पसंद का खाना बना कर बड़े लाड़ से उसे खिलाती थीं. ‘काश, मां यहां होतीं,’ मन ही मन वह सोचने लगा.

‘‘बहुत हुआ, अब कुछ सोचना पड़ेगा. ऐसे काम नहीं चलने वाला,’’ सुमित ने कहा तो मनीष बोला, ‘‘मतलब?’’

‘‘यार, खानेपीने की दिक्कत हो रही है, मैं ने सोच लिया है किसी खाना बनाने वाले को रखते हैं,’’ सुमित बोला.

‘‘और उस को पगार भी तो देनी पड़ेगी?’’ मनीष ने कहा.

‘‘हां, तो दे देंगे न, आखिर कमा किसलिए रहे हैं.’’

‘‘लेकिन, हमें मिलेगा कहां कोई खाना बनाने वाला,’’ मनीष ने कहा.

‘‘मैं पता लगाता हूं,’’ सुमित ने जवाब दिया.

दूसरे दिन सुबह जब सुमित काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा, किसी ने दरवाजा खटखटाया. करीब 30-32 साल की मझोले कद की एक औरत दरवाजे पर खड़ी थी.

सुमित के कुछ पूछने से पहले ही वह औरत बोल पड़ी, ‘‘मुझे चौकीदार ने भेजा है, खाना बनाने का काम करती हूं.’’

‘‘ओ हां, मैं ने ही चौकीदार से बोला था.’’

‘‘अंदर आ जाइए,’’ सुमित उसे रास्ता देते हुए बोला और कमरे में रखी कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया.

कुछ झिझकते हुए वह औरत अंदर आई. गेहुंए रंग की गठीले बदन वाली वह औरत नजरें चारों तरफ घुमा कर उस अस्तव्यस्त कमरे का बारीकी से मुआयना करने लगी. बेतरतीब पड़ी बिस्तर की चादर, कुरसी की पीठ पर लटका गीला तौलिया, फर्श पर उलटीसीधी पड़ी चप्पलें.

‘‘हमें सुबह का नाश्ता और रात का खाना चाहिए. दिन में हम लोग औफिस में होते हैं, तो बाहर ही खा लेते हैं,’’ सुमित ने उस का ध्यान खींचा.

मनीष भी सुमित के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘कितने लोगों का खाना बनेगा?’’ औरत ने सुमित से पूछा.

‘‘कुल मिला कर 3 लोगों का, हमारा एक और दोस्त है, वह अभी घर पर नहीं है.’’

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -2

अपनी पत्नी को उस ने समझया भी कि सुरेश जरा घटिया आदमी है. उस से अधिक हंसनाबोलना अच्छा नहीं. पर उस की अक्षरा उसी को बेवकूफ कहने लगी, ‘‘वह जो भी हो, मेरा क्या ले लेता है. तुम्हारा ही तो दोस्त है, हमारा परिवार तो वही है. घर में और कौन है, जिस से हंसूंबोलूं? देवर से जरा बात कर लेती हूं तो जलने लगे हो.’’

वह अक्षरा पर किसी बात के लिए दबाव या जोर डालना पसंद नहीं करता. केवल सलाह दे देता. यह सुन कर वह चुप ही रहा.

आज सुरेश 10 बजे ही आ टपका. आते ही फरमाइश की, ‘‘भाभी, आज केक खाने का मूड है.’’

भाभी ने झट ओवन चलाया और केक बनाना शुरू कर दिया. छोटी कड़ाही चढ़ाई और हलवे की तैयारी शुरू हो गई. वह अपने कमरे में बैठा देवरभाभी के संवाद सुन कर गुस्से से भुन रहा था कि यही देवीजी हैं, उस दिन कहा कि आज जरा कटलेट तो तलना तो तुरंत नाकभौं चढ़ा कर कहने लगीं कि अभी स्कूल की कौपियां जांचनी हैं. कल उन्हें वापस करना है. पर यह लफंगा सुरेश उस से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया.

केक को ले कर अपनी नाराजगी प्रकट करने के लिए वह एक नई पत्रिका उठा कर रसोई की तरफ चला. एक बालटी को उलटा कर रसोई में ही जमे बैठे सुरेश को अनदेखा करता वह पत्नी से बोला, ‘‘लो, इस की पहली कहानी बहुत अच्छी है, जरा पढ़ कर देखना. अरे, यह क्या बना रही हो?’’

पत्नी ने केक पर ध्यान लगाए हुए कहा, ‘‘केक खाने का मूड है सुरेश देवरजी का.’’

‘‘केक भारी होता है बहुत फैट होता है इस में, वैसे भी आज मेरा पेट ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम मत खाना, भई. तुम्हें कौन कह रहा है. इस मैगजीन को मेरे पलंग पर रख देना. बाद में पढ़ लूंगी.’’

पत्रिका लिए वह तनतनाता लौट गया. अपने कमरे में आ कर डायरी खोली और उस में लाल स्याही से स्पष्ट अक्षरों में लिखा कि आज की तारीख से मेरा अक्षर के साथ कोई संबंध नहीं. उस के बाद वह पार्क  में चला आया.

सामने से एक गाय चरती हुई उधर ही आने लगी. उस ने घड़ी देखी, 3 बज रहे थे. अब चलना चाहिए, भूखी बैठी होगी.

घर आने पर महरी ने दरवाजा खोला. वह रसोई में बरतन साफ कर रही थी. उस ने अपना भोजन खाने की मेज पर ढका रखा देखा. कमरे में झंका, पत्नी पलंग पर लेटी पत्रिका पढ़ रही थी.

‘यह बात है,’ कड़वाहट के साथ उस ने सोचा, ‘खुद मजे से खा लिया, मेरा खाना ढका रखा है.’

उसे याद आया. विवाह के बाद शुरू के वर्षों में खुद उसी ने कई बार पत्नी को सम?ाया था कि उसे जब बहुत देर हो जाया करे तो वह भोजन कर लिया करे. बेकार की रस्मों का वह कायल नहीं है कि  पति को खिला कर ही पत्नी खाए. उस की पत्नी ने तो उस की आज्ञा का पालन ही किया है.

उसे थोड़ा संतोष हुआ. भोजन कर वह चुपके से बैठक में जा कर सोफे पर पड़ गया. एक बात खटकती रही कि कम से कम उठ कर खाना तो परोस देती, पानी दे देती.

सुरेश के रहने तक घर में अक्षरा की खिलखिलाहट गूंजती रही. अब कैसा सन्नाटा है. वह टीवी रिमोट से चैनल बदलते हुए सोचने लगा, ऐसी स्त्री के साथ अब वह जीवन बरबाद नहीं कर सकता. बीचबीच में इस पर न जाने क्या भूत चढ़ता है कि हफ्तों के लिए घर में ही अपरिचित सी हो जाती है. पर दूसरे के सामने कैसी चहकती है.

वह कितना चाहता है कि कभी फुरसत में उस की अक्षरा उस के साथ बैठे, प्यार की बातें करे. वह उस के बालों को सहलाता हुआ कहे कि तुम तो आज भी पहले दिन की तरह ही सुंदर एवं नईनवेली हो.

मगर लगता है कि अक्षरा को इन बातों को सुनने की आवश्यकता ही नहीं रही है. क्या कारण हो सकता है? संसार में कुछ भी बिना कारण के नहीं होता. उसे अकस्मात संदेह हुआ कि कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं है. इन औरतों को समझ पाना वैसे ही टेढ़ी खीर है. उस पर नौकरीपेशा स्त्रियां तो खूब मौका पाती हैं. स्कूल में ही कितने मेल टीचर हैं. फिर शास्त्रों

में यो ही नहीं कहा गया है, ‘‘स्त्रियांश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं…’’

जरूर कोई ऐसी ही बात है, तभी आजकल उस की पत्नी को उस की जरूरत नहीं रही है. इस निश्चय पर पहुंच कर जैसे उस का मन हलका हुआ. आखिर कारण तो मिला. अब वह सावधानी से इस बात का पता लगाएगा.

अगर कोई बात पकड़ में आएगी तो वह तत्काल उसे तलाक दे देगा, किंतु हिंदू तलाक कानून तो बड़ा जटिल और झंझट वाला है. वह उठ कर किताबों की अलमारी से एक किताब निकाल लाया. ‘तलाक का कानूनी ज्ञान.’ इसे उस ने एक दिन एक बुक शौप में 400 रुपए में खरीदा था. तलाक पर लंबी व्याख्या है इस में.

वह बाहर बरामदे में बैठ कर पढ़ने लगा. इतनी बात समझ में आई कि तलाक से पहले प्राय: सालभर अलग रहने की व्यवस्था है. इस बीच में यदि दंपती का मूड बदले और मेल हो जाए तो कोई बात नहीं वरना तलाक मिल सकता है. अब डोमैस्टिक वायलैंस और संपत्ति में हिस्से की बात भी बहुत ज्यादा होने लगी है. जेल जाने की नौबत मिनटों में आ सकती है.

उस ने सोचा मान लो यह अक्षरा सुरेश या किसी ऐसे ही लोफर के साथ चल देती है तो ही छुटकारा मिलेगा. एक दिन उसे लौट कर यहीं आना पड़ेगा. तब वह क्या करेगा?

उसी वक्त लात मार कर निकाल देगा. फिर उस ने शहीदों के भाव से सोचा कि जब वह आ कर मेरे कदमों पर गिरेगी तो सारी भूल क्षमा कर मैं उसे उठा कर गले से लगा लूंगा.

तब वह समझेगी, मेरा दिल कितना बड़ा है. तब तो हर बात में मेरा मुंह देखेगी, जो कहूंगा तुरंत मानेगी. तब घर में वास्तविक सुखशांति छा जाएगी.

लोग क्या कहेंगे, उस ने फिर सोचा. वह लोगों के कहने पर ध्यान न देगा. वह समाज का गुलाम नहीं है. न अब हुक्कापानी, नाई, धोबी बंद करने का जमाना है. नई पीढ़ी उसे कितनी श्रद्धा से देखेगी. वह उस का आदर्श बन जाएगा. संभव है, अखबारों में भी चर्चा हो, देश के बड़े लोग उसे आशीर्वाद देंगे.

रसोई में खटपट की आवाज आ रही थी. उस ने घड़ी देखी, 4 बज रहे थे. तभी परदा हटा कर उस की पत्नी ने बैठक में प्रवेश किया. उस ने उस की तरफ स्नेह, ममता एवं क्षमाभाव से देखा. पर पत्नी का चेहरा तो वैसे ही खिंचा रहा. वह सामने की तिपाई कर चाय का कप रख कर लौट गई.

उस ने सोचा कि ये औरतें नाक के नीचे के हीरे को न पहचान कर दूर की कौड़ी के चक्कर में खुद तो तबाह होती ही हैं, दूसरों को भी तनाव में रखती हैं.

दूसरे दिन वह ठीक 10 बजे दफ्तर के लिए निकला तो चौराहे पर रेस्तरां के सामने बाइक रोकी. भीतर जा कर एक चाय मंगवा कर यों बैठा कि सामने की सड़क पर छिपी दृष्टि डालता रहे. उस की पत्नी स्कूल के लिए 10 बजे चलती है. पैदल ही जाती है, अधिक दूर नहीं है स्कूल. तभी वह सामने सड़क पर दिख पड़ी.

हाथ में कौपियों का एक बंडल और कंधे पर बैग संभाले. वह बिल चुका कर उठ खड़ा हुआ. काफी दूर से बाइक हाथ में संभाले पीछा करते हुए उसे जासूसी का मजा आ रहा था.

छोड़ो कल की बातें: कृति के अतीत के बारे में क्या जान गया था विशाल?

विशाल को सूरज के व्यवहार पर बड़ा क्रोध आया. माना कि वह उस का काफी करीबी मित्र है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि वह जब चाहे जैसा चाहे व्यवहार करे. आज किसी बात पर बौस ने जब उसे झिड़का तो सामने तो वह चुप रहा पर बाद में मजाक उड़ाने लगा. वह उसे समझता रहा पर वह उसे चिढ़ाता ही रहा. अंत में उस ने उसे काफी खरीखोटी सुना दी. जवाब में उस ने जो कहा वह सुन उस का माथा चकरा गया. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी गर्लफ्रैंड कृति ने तुम से पहले मुझे प्रोपौज किया था. जिसे तुम अपनी गर्लफ्रैंड समझ रहे हो वह सैकंड हैंड गर्लफ्रैंड है.’’

पहले तो यह सुन कर सन्न रह गया था वह पर उसे लगा उस की डांट के जवाब में उस ने गुस्से में यह बात कह दी है. वह सिर्फ उसे दुखी करने के लिए ऐसा कह रहा है. विश्वास उसे नहीं हुआ था उस की बात पर परंतु संदेह तो हो ही गया था. लोगों ने बीचबचाव कर उन्हें अलग कर दिया.

विशाल के मन में संदेह का बीज उपज चुका था. उस ने पहले तो सोचा कि कौल कर कृति से पूछ लिया जाए. पर कुछ सोच कर वह व्यक्तिगत रूप से मिल कर ही उस से बात करना चाहता था. दिनरात उस के मन में यही विचार आ रहे थे कि कृति जिसे वह अपनी गर्लफ्रैंड, अपनी प्रेमिका समझता है वह किसी और को चाहती है.

दोनों प्राय: हर छुट्टी के दिन मिलते थे और घंटों साथ बिताते थे. अगली छुट्टी के दिन जब विशाल की मुलाकात कृति से हुई तो वह कुछ अनमना सा था. कृति को उस का व्यवहार कुछ अटपटा सा लगा.

‘‘क्या बात है विशाल, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ कृति ने पूछा.

‘‘तबीयत तो ठीक है पर एक प्रश्न है जो मुझे परेशान कर रहा है. मुझे तुम से उस का जवाब चाहिए,’’ विशाल ने कहा.

‘‘मुझ से? ऐसा कौन सा प्रश्न है जिस का जवाब मुझ से चाहिए? मैं कोई प्रोफैसर हूं क्या?’’ कृति ने बात को हलके में लिया और हंसती हुई बोली.

‘‘यह प्रश्न तुम से ही संबंधित है अत: जवाब भी तुम्हीं से चाहिए,’’ विशाल ने कहा.

कृति अब गंभीर हो गई. वह विशाल के लहजे से समझ गई कि जरूर कोई गंभीर मुद्दा है. बोली, ‘‘पूछो.’’

‘‘क्या यह सही है कि तुम सूरज से प्यार करती हो?’’ विशाल ने पूछा.

कृति सकपका गई. उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सुझा. वह थोड़ी देर विशाल को देखती रही. फिर बोली, ‘‘ऐसा क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘मुझ से सूरज ने कहा है कि तुम मुझ से पहले उस से प्यार करती थी,’’ विशाल ने कहा.

कृति तुरंत कुछ न कह सकी. पर बात झूठी भी नहीं थी और सूरज ने जब विशाल

से यह बात बता ही दी है तो वह लाख मना करे विशाल शायद न माने. पर उस ने कहा, ‘‘मैं अभी भी सूरज को पसंद करती हूं. पहले भी मैं उस के साथ ही बार बाहर कौफी पीने जा चुकी हूं. लेकिन मैं उस से ज्यादा तुम से प्यार करती हूं. यही कारण है कि मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ कृति ने कहा.

विशाल बस उसे देखता रहा. शायद वह कृति की बात पर विश्वास नहीं कर पा रहा था. उसे संदेह था कि कृति आज भी सूरज को चाहती है और उसे धोखा दे रही है. वह अनमना सा कृति के साथ घूमता रहा. कृति हमेशा की तरह उस के हाथ को अपने हाथ में ले कर चलती तो वह अपना हाथ खींच लेता. कृति उस के कंधे पर सिर रखती तो वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता.

पहले दिन तो कृति ने कुछ नहीं कहा पर बाद में भी जब विधाता का व्यवहार ऐसा ही रहा तो उस ने उसे सम?ाया, ‘‘किसी को पसंद करना और किसी से प्यार करना अलगअलग बात है. मैं सूरज को और कई लोगों को पसंद करती हूं. उन के साथ कभीकभार कौफी पीने, मूवी देखने भी जाती हूं पर प्यार मैं तुम से करती हूं इसलिए हर छुट्टी का दिन तुम्हारे साथ ही बिताती हूं.’’

मगर उस की बातों का विशाल पर कोई असर नहीं पड़ता और कृति धीरेधीरे नाराज रहने लगी. विशाल भी उस से दूरी बना कर रहने लगा. इस बीच सूरज ने विशाल से माफी मांग ली और दोनों फिर से पहले की तरह ही रहने लगे. पर कृति के प्रति विशाल के मन में अभी भी वही नाराजगी की भावना थी. उस के मन में उस के साथ ब्रेकअप करने का विचार आने लगा. वैसे एक मन यह भी कहता था कि कृति की बात को वह मान ले और उस के साथ पहले की तरह जीवन बिताए. पर पता नहीं क्यों वह इस बात के लिए कुछ ही देर तक तैयार होता था.

कुछ ही देर में संदेहरूपी सांप अपना फन उठा लेता था. सूरज भी उन के बीच आई दरार के लिए खुद को दोषी मानता था पर कृति के प्रति विशाल के मन में आए विचार के लिए वह कर ही क्या सकता था. जो बात जबान से निकाल गई उसे वापस तो लिया नहीं जा सकता था.

घर में भी विशाल का व्यवहार बदलाबदला सा रहने लगा. उस की मां इस बदलाव को महसूस कर रही थीं. उन्होंने 2 बार उस से पूछ भी कि माजरा क्या है. पर विशाल उन की बातों को टाल जाता.

एक दिन उस की मां ने पूछ ही लिया, ‘‘पहले तो कृति से बातें किया करता था. मैं कई बार मना भी करती थी कि वक्तबेवक्त क्यों बातें करता रहता है फोन पर. किसी बात को ले कर तुम्हारे बीच झगड़ा हो गया है क्या? इसी कारण तुम असामान्य व्यक्ति की तरह हरकत करते हो?’’

‘‘कुछ नहीं मां. तुम तो बिना बात संदेह करती हो,’’ विशाल ने टालना चाहा. पर मां के बारबार जिद करने पर उसे बताना ही पड़ा कि माजरा क्या है.

इस पर उस की मां ने उसे समझया, ‘‘वह जो कह रही है तुम्हें मानना चाहिए. आखिर

क्या वजह है तुम्हारे पास उस की बात नहीं मानने की? वह तुम्हारे दोस्त के बारे में क्या विचार रखती है इस से क्या मतलब है. इस बात से मतलब रखो कि वह तुम्हारे बारे में क्या विचार रखती है और फिर एक बार और सोचो कि जब तुम अपने दोस्त को माफ कर के उस के साथ सामान्य संबंध रख सकते हो तो फिर अपनी प्रेमिका के साथ सामान्य संबंध क्यों नहीं रख सकते?

आखिर वह तुम्हारे साथ है तो किसी कारण से ही है और दूसरा कारण क्या हो सकता है इस के अलावा कि वह तुम से प्यार करती है. वह पढ़ीलिखी है, आत्मनिर्भर है तुम्हारे ऊपर आश्रित नहीं है, फिर भी तुम्हारे साथ क्यों है तुम्हारी उदासीनता को सहते हुए भी. तुम दोनों वयस्क हो. मिलबैठ कर बातें करो, एकदूसरे को समझ.’’

विशाल अपनी मां को देखे जा रहा था. कितनी सुलझी हुई बात कह रही थीं वे विशाल की मां ने कहना जारी रखा, ‘‘कैसे अपने संबंध को मजबूत बनाना है इस पर विचार करो.’’

विशाल के मन में कृति के प्रति जो कड़़वे विचार थे वे धीरेधीरे मधुर होते गए. उस ने फैसला किया कि वह इस बात पर ध्यान देगा कि अभी दोनों का एकदूसरे के प्रति क्या नजरिया है. भूतकाल की बातों को अपने बीच नहीं आने देगा.

खूंटियों पर लटके हुए: भाग -1

वह झल्लाता हुआ अपने कमरे में वापस आया और पत्रिका जोर से मेज पर पटक दी, ‘‘क्या पड़ी थी मुझे जो पत्रिका देने चला गया था. अपनी तरफ से कुछ करो तो यह नखरे करने लगती है. सुरेश के सामने ही बुराभला कह डाला. मेरी बला से जहन्नुम में जाए.’’

फिर कुछ संयत हो कर उस ने दराज में रखी डायरी उठाई और उस में कुछ लिखने के बाद 2-4 बार उलटीसीधी कंघी बालों में चलाई और फिर कौलर को सीधा करता हुआ बाहर चल दिया कि आज खाने का वक्त गुजार कर ही घर लौटूंगा. देखूं, मैडम क्या करती हैं. अभी तो कई जोरदार पत्ते मेरे हाथ में हैं.

ड्राइंगरूम से बाहर निकलते हुए उसे सुरेश के जोरदार ठहाके की आवाज सुनाई पड़ी. वह पलभर को ठिठका. गुस्से की एक लहर सी दिमाग में उठी, पर फिर सिर झटक कर तेज कदमों से बाहर निकल आया.

जाड़ों के दिन थे. 11 बजे भी ऐसा लग रहा था, जैसे अभी थोड़ी देर पहले ही सूरज निकला हो. वैसे भी रविवार का दिन होने से सड़क पर ट्रैफिक कम था. उसे छुट्टी की खुशी के बदले कोफ्त हुई. औफिस खुला रहता तो वहीं जा बैठता.

बाइक पर बैठ कर कुछ दूर जा कर फिर दाएं मुड़ गया. इस समय लोधी गार्डन ही अच्छी जगह है बैठने की, वहीं आराम किया जाए. फिर वह एक बैंच पर जा लेटा. सामने का नजारा देख उसे अक्षरा की याद आने लगी. जिधर देखो जोड़े गुटरगूं में लगे थे.

वह सोचने लगा कि सभी तो कामदेव के हाथों पराजित हैं. मैं ने भी यदि शादी न की होती तो चैन रहता. आज छुट्टी होते हुए भी यों पार्क में तो न लेटना पड़ता. दोस्तों के साथ कहीं घूमता. अब अक्षरा से शादी के बाद किसी के यहां अकेले भी नहीं जा सकता.

अतिरिक्त आवेग में वह अमेरिका जाने के बारे में विचार करने लगा. फिर सोचने लगा कि पहले जैसी बात तो अब है नहीं, अमेरिका में नौकरियां कौन सी आसानी से मिलती हैं. नहीं मैं अमेरिका नहीं जा सकता. फिर बबलू को कैसे देखूंगा?

फिर कड़वाहट से बुदबुदाया कि मैं अमेरिका ही चला जाता हूं. बेटे से मेरा क्या मतलब… दुनिया की नजर में मैं बाप हूं, पर

घर में कोई घास नहीं डालता. जहन्नुम में जाएं सब. इस बात से उसे हमेशा हैरानी हुई है कि क्या सभी लड़कियां ऐसी ही होती हैं? जहां अपने पति को देखा कि नाकभौंहें के चढ़ जाती हैं. लेकिन बाहरी लोगों के आगे कैसी मधुरता और विनम्रता की अवतार बन जाती हैं.

इधर सालभर से तो मैडम कभी झल्लाए और चिढ़े बिना बात ही नहीं करतीं. ये तेवर तो तब हैं, जब मैं कमा रहा हूं. यदि बेकार होता और सिर्फ बीवी की कमाई से ही घर चल रहा होता, तब तो मेरी स्थिति गुलामों से भी बदतर होती.

वह अपनी कमाई से साडि़यां लाती है, बच्चों के कपड़ों पर खर्र्च करती है, बैंक में डालती है. घर का सारा खर्च तो मैं ही चलाता हूं. इतना घमंड किस बात का है.

उस ने उंगलियों पर हिसाब किया. यह छठा दिन है. आज से 6 दिन पहले वह उसे रेस्तरां ले गया था. खाना बहुत अच्छा था और मूड भी अच्छा था. लौटते वक्त रास्ते में उस ने चमेली के फूलों का गजरा खरीदा. मन बहुत खुश था. वह एक पुराना गीत गुनगुनाता रहा था, ‘‘गोरी मो से जमना के पार मिलना…’’

घर आ कर कपड़े बदलने के बाद वह फिर ड्रैसिंगटेबल के आगे खड़ी हो कर गालों पर क्लींजिंग क्रीम लगाने लगी. उस ने मूड में आ कर पीछे से उस की गरदन चूमते हुए कुछ कहना चाहा. तभी अक्षरा ने गरदन ?ाटक दी. एक हाथ से गरदन को झड़ कर उस की तरफ यों घूर कर देखा जैसे वह कोई अपरिचित हो और अनधिकार वहां घुसा हो. वह फिर शीशे में देख कर क्रीम लगाने लगी.

उस का बनाबनाया मूड पलभर में बिखर गया. नशा टूटने पर अफीमची को जैसा अनुभव होता है, वैसा ही लगा. मन में खिलते गुलाब, चमेली, चंपा के तमाम फूल तत्काल मुर?ा गए. इन औरतों को बैठेबैठे यों ही क्या हो जाता है, समझना कठिन है.

चेहरा सख्त बनाए हुए उस ने भी कपड़े बदले. स्टडीरूम में आ कर टेबललैंप जलाया और यों ही एक मोबाइल उठा कर देखने लगा. उस की आंखें जरूर मोबाइल पर थीं, पर कान पत्नी की जरा सी भी आहट को लपकने को तैयार थे.

जब बैडरूम की बत्ती बुझ तो वह धीरे से उठा. बाहरी कमरों के चक्कर लगा कर दरवाजे सब देख लिए. बैडरूम का दरवाजा बंद हैं या नहीं धीरे से बंद कर वह भी पलंग पर आ लेटा. सिरहाने चमेली का गजरा रख दिया. खिड़की से आ रही हलकी लाइट पलंग पर पड़ रही थी. सिरहाने रखे गजरे की सुगंध फैलने लगी.

अक्षरा उस की तरफ पीठ फेरे दूसरे किनारे पर सो रही थी. चांदनी के हलके आभास में वह उस की समान गति से उठतीगिरती पीठ और कंधे देख रहा था.

यों ही थोड़ी देर देखते रहने के बाद उस ने जरा लापरवाही के साथ एक हाथ अक्षरा की कमर पर रख दिया. श्वास में थोड़ा सा अंतर पड़ा. उस ने अक्षरा की पीठ को थोड़ा सहलाया और उसे धीरे से अपनी तरफ खींचना चाहा.

तभी वह झटके के साथ उठ बैठी. झनझन कर बोली, ‘‘क्यों तंग कर रहे हो? दिनभर की थकी हूं, रात में भी चैन नहीं लेने देते.’’

हलके अंधेरे में उस की आंखें बिल्ली की तरह चमक रही थीं. उस ने कुछ कहने का प्रयास किया, पर तब तक वह और परे खिसक कर पीठ फेर कर लेट गईर् थी. शादी से पहले

तो जब भी मौका मिलता था वह लपक कर बांहों में समा जाती थी, शादी हुई नहीं कि तेवर बदल गए.

वह कमरे की छत को घूरता रहा. मन कर रहा था, अक्षरा को खींच कर उठाए, कस कर दो ?ापड़ लगाए और पीठ फेर कर लेट जाए. पर आज का आदमी या तो बड़ा कायर है या आवश्यकता से अधिक सभ्य हो गया है. उसे अंगरेजी की एक पत्रिका में छपा कार्टून याद आया, जिस में आदिम युग का एक जंगली सा पुरुष कंधे पर मोटे से तने की अनगढ़ गदा रखे, चमड़ा कमर में लपेटे एक स्त्री के बाल पकड़ कर उसे खींचे लिए जा रहा है. स्त्री की कमर में भी चमड़े का वस्त्र लिपटा है, वह जमीन पर पड़ी घिसटती जा रही है.

एक वह जमाना था. आज हम सभ्य हो गए हैं. आपसी संबंधों में सरलता की जगह जटिलताएं आ गई हैं. वह सोचने लगा कि मैं उस जमाने में हुआ होता तो अच्छा रहता. रात में पता नहीं उसे कब नींद आई.

उस दिन से यही दिनचर्या है. बहुत सोचने पर भी वह इस तरह के व्यवहार का कारण सम?ा नहीं पाया. दिनभर पत्नी सामान्य कामकाजी बातों के अलावा उस से कुछ नहीं कहतीसुनती. रात में दोनों एक पलंग पर यों सोते हैं जैसे बीच में कोसों की दूरी हो.

आज सुरेश आया तो उस ने पत्नी को हफ्ते भर में पहली बार जरा हंसतेबोलते सुना. सुरेश उस के साथ स्कूल और कालेज में पढ़ा था. अब वह उसे जरा भी नहीं सुहाता. उस के तौरतरीके घटिया, बाजारू से लगते. खासतौर पर उस की हमेशा माउथ फ्रैश खाते रहने की आदत से वह बहुत चिढ़ता. पर उस की पत्नी उसे बड़े प्यार से ‘देवरजी’ और वह ‘भाभी’ कहता. उसे तो उस का आना ही नहीं सुहाता.

साथ: भाग 3- पति से दूर होने के बाद कौन आया शिवानी की जिंदगी में

भारी मन से मैं घर से साहिल के घर पहुंच गई. वहां काफी भीड़ थी. शाम को मन न होते हुए भी पार्टी में जाना पड़ा, पर सारा वक्त मन साहिल के खयाल में ही डूबा रहा. मांजी को गुजरे हुए 13 दिन हो गए तो साहिल ने औफिस आना शुरू कर दिया. हमारा मिलनाजुलना फिर शुरू हो गया. मैं ने

महसूस किया कि अब हम पहले से ज्यादा करीब आ चुके थे. जो प्यार व सम्मान मुझे अमन से नहीं मिला था वह साहिल ने मुझे दिया था.

एक दिन साहिल ने मुझ से कहा, ‘‘शिवी, मां के जाने के बाद मैं बिलकुल अकेला हो गया हूं. तुम मेरे पास आ जाओ तो हम अपनी दुनिया बसाएंगे.’’

मैं बहुत खुश हो गई. मुझे उस वक्त अमन का खयाल तक नहीं आया. मैं ने साहिल से कुछ वक्त मांगा. उस शाम मैं जब घर पहुंची तो अमन पहले ही घर आ चुके थे. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन मम्मीपापा कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ रहे हैं. मैं ने साहिल से फोन पर कहा कि मैं कुछ दिन नहीं मिल पाऊंगी.

सासससुर के घर में आते ही मेरा सारा ध्यान घर पर लग गया. अमन भी अब जल्दी घर आ जाते थे. मैं साहिल से फोन पर भी ठीक से बात नहीं कर पा रही थी. एक दिन मौका पा कर मैं ने साहित से बात की.

फोन उठाते ही वह बोला, ‘‘शिवी, प्लीज मेरे साथ ऐसा मत करो. तुम जानती हो कि मैं तुम्हारे बिना अब नहीं रह सकता.’’

‘‘साहिल तुम समझने कोशिश करो. घर पर मम्मीपापा हैं, उन को वापस जाने दो फिर हम मिलेंगे,’’ मैं ने उसे समझया.

‘‘शिवी, मां के जाने के बाद तुम ही मेरा सहारा हो. प्लीज, एक बार मिलने आ जाओ,’’ उस ने मुझ से कहा.

‘‘मैं कोशिश करती हूं. बाय, मांजी बुला रही हैं,’’ मैं ने जल्दी से फोन काट दिया.

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आज जब मांपापा के घर होने के कारण मैं साहिल से ठीक से बात तक नहीं कर पा रही हूं तो अमन से तलाक की बात मैं कैसे करूंगी? फिर जब मेरे मम्मीपापा, भैयाभाभी यहां आएंगे तो उन को क्या कहूंगी? अमन को मुझ में जो कमियां दिखती थीं वे तो मैं ने दूर कर ली थीं. अब हमारे बीच कोई लड़ाई नहीं होती थी. क्या कहूंगी सब को कि एक सहकर्मी से प्यार हो गया?

मैं सारी रात परेशान रही. सुबह बिस्तर से उठी तो चक्कर खा कर गिर पड़ी. अमन ने मुझे संभाला. आंख खुली तो बिस्तर पर निढाल पड़ी थी और अमन मेरा सिर दबा रहे थे. सासूमां चाय का कप ले कर हमारे कमरे में दाखिल हुईं.

‘‘बहू, अब से तू बस आराम कर,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है. मैं ने तेरे पापा से कह दिया कि अब जब तक पोते का मुंह नहीं देख लेती मैं वापस नहीं जाने वाली,’’ उन का चेहरा यह कहतेकहते चमक रहा था.

‘‘पोता?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘हां मैडमजी पोता, पर मां मुझे बेटी चाहिए बिलकुल शिवानी जैसी,’’ अमन ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उन के चेहरे पर ऐसी खुशी मैं ने पहले कभी नहीं देखी थी. मेरी समझ में अब सारी बात आ चुकी थी. मैं मां बनने जा रही थी.

‘‘मेरी सासूमां ने मेरी नजर उतारी. उस दिन तो फोन पर फोन आते रहे. कभी मम्मी का, कभी दीदी का, कभी बूआ का तो कभी भाभी का. सब मुझ पर स्नेह और शुभकामनाओं की बौछार कर रहे थे और ढेर सारी नसीहतें भी दे रहे थे. सारा दिन कैसे गुजरा पता ही नहीं चला. मुझे साहिल का खयाल भी नहीं आया. रात को जब साहिल का फोन आया तो मैं फिर परेशान हो गई. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? मैं बहक गई थी पर भटकी नहीं थी. मुझे साहिल से मिलना जरूरी हो गया था.’’

अगले दिन मैं ने अमन से कहा कि मुझे  जौब से इस्तीफा देना है, तो उन्होंने भी साथ चलने को कहा. पर उन्हें समझबुझकर मैं अकेली ही निकली और सीधे साहिल के पास पहुंच गई.

‘‘शिवी तुम… तुम नहीं जानतीं मैं कितना खुश हूं तुम को देख कर,’’ साहिल ने दरवाजे पर ही मुझे गले लगा लिया.

‘‘साहिल, मैं तुम से कुछ कहने आई हूं,’’ मैं ने उसे अपने से दूर करते हुए कहा.

‘‘क्या बात है शिवी, तुम परेशान लग रही हो?’’ साहिल ने शायद मेरे चेहरे को पढ़ लिया था, ‘‘अंदर आओ पहले तुम.’’

हम दोनों अब घर के अंदर थे. मैं ने एक ही सांस में साहिल को अपने मां बनने की बात कह दी और अपनी परेशानी भी.

‘‘देखो शिवी, तुम को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं थोड़ा भटक गया था, भूल गया था कि तुम पर मुझ से पहले किसी

और का हक है. तुम बिलकुल परेशान मत होना शिवी, मैं तुम से बहुत दूर चला जाऊंगा. बस तुम खुश रहो,’’ साहिल की आंखें भर चुकी थीं.

मैं ने साहिल का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘साहिल, हमारा रिश्ता साथ रहने से ही बनता? तुम मेरी जिंदगी की सब से बड़ी हिम्मत हो और मैं चाहती हूं कि तुम हमेशा मेरी हिम्मत बने रहो. हम साथ रह नहीं सकते तो क्या हुआ, साथ निभा तो सकते हैं. एकदूसरे का सहारा तो बन सकते हैं. तुम चाहो तो शादी कर सकते हो, पर मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी. हम दोस्त बन कर रहेंगे. सुखदुख में एकदूसरे का सहारा बनेंगे.

‘‘मैं मानती हूं कि समाज इस रिश्ते को सही नहीं मानेगा पर चंद लोगों की सोच के लिए हम अपनी खुशियों को नहीं मारेंगे. बोलो तुम मेरा साथ दोगे?’’

‘‘शिवी, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं, एक साए की तरह,’’ साहिल के चेहरे पर चमक आ गई.

आज 5 वर्षों के बाद भी मैं और साहिल साथ हैं. एकदूसरे के सहारे की तरह. साहिल की शादी हो चुकी है. हम दोनों अपने परिवार में खुश हैं, क्योंकि हम एकदूसरे के साथ हैं. अगर हम एकदूसरे के साथ नहीं होते तो शायद हम अपने घर में भी खुश नहीं होते.

बरसों की साध: जब सालों बाद से मि भाभी रूपमती की मुलाकात ने क्या लिया मोड़?

प्रशांत को जब अपने मित्र आशीष की बेटी सुधा के साथ हुए हादसे के बारे में पता चला तो एकाएक उसे अपनी भाभी की याद आ गई. जिस तरह शहर में ठीकठाक नौकरी करने वाले मित्र के दामाद ने सुधा को छोड़ दिया था, उसी तरह डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद प्रशांत के ताऊ के बेटे ईश्वर ने भी अपनी पत्नी को छोड़ दिया था. अंतर सिर्फ इतना था कि ईश्वर ने विदाई के तुरंत बाद पत्नी को छोड़ा था, जबकि सुधा को एक बच्चा होने के बाद छोड़ा गया था.

आशीष के दामाद ने उन की भोलीभाली बेटी सुधा को बहलाफुसला कर उस से तलाक के कागजों पर दस्तखत भी करा लिए थे. सुधा के साथ जो हुआ था, वह दुखी करने और चिंता में डालने वाला था, लेकिन इस में राहत देने वाली बात यह थी कि सुधा की सास ने उस का पक्ष ले कर अदालत में बेटे के खिलाफ गुजारेभत्ते का मुकदमा दायर कर दिया था.

अदालत में तारीख पर तारीख पड़ रही थी. हर तारीख पर उस का बेटा आता, लेकिन वह मां से मुंह छिपाता फिरता. कोर्टरूम में वह अपने वकील के पीछे खड़ा होता था.

लगातार तारीखें पड़ते रहने से न्याय मिलने में देर हो रही थी. एक तारीख पर पुकार होने पर सुधा की सास सीधे कानून के कठघरे में जा कर खड़ी हो गई. दोनों ओर के वकील कुछ कहतेसुनते उस के पहले ही उस ने कहा, ‘‘हुजूर, आदेश दें, मैं कुछ कहूं, इस मामले में मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’

अचानक घटी इस घटना से न्याय की कुरसी पर बैठे न्यायाधीश ने कठघरे में खड़ी औरत को चश्मे से ऊपर से ताकते हुए पूछा, ‘‘आप कौन?’’

वकील की आड़ में मुंह छिपाए खडे़ बेटे की ओर इशारा कर के सुधा की सास ने कहा, ‘‘हुजूर मैं इस कुपुत्र की मां हूं.’’

‘‘ठीक है, समय आने पर आप को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा. तब आप को जो कहना हो, कहिएगा.’’ जज ने कहा.

‘‘हुजूर, मुझे जो कहना है, वह मैं आज ही कहूंगी, आप की अदालत में यह क्या हो रहा है.’’ बहू की ओर इशारा करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप इस की ओर देखिए, डेढ़ साल हो गए. इस गरीब बेसहारा औरत को आप की ड्योढ़ी के धक्के खाते हुए. यह अपने मासूम बच्चे को ले कर आप की ड्योढ़ी पर न्याय की आस लिए आती है और निराश हो कर लौट जाती है. दूसरों की छोडि़ए साहब, आप तो न्याय की कुरसी पर बैठे हैं, आप को भी इस निरीह औरत पर दया नहीं आती.’’

न्याय देने वाले न्यायाधीश, अदालत में मौजूद कर्मचारी, वकील और वहां खडे़ अन्य लोग अवाक सुधा की सास का मुंह ताकते रह गए. लेकिन सुधा की सास को जो कहना था. उस ने कह दिया था.

उस ने आगे कहा, ‘‘हुजूर, इस कुपुत्र ने मेरे खून का अपमान किया है. इस के इस कृत्य से मैं बहुत शर्मिंदा हूं. हुजूर, अगर मैं ने कुछ गलत कह दिया हो तो गंवार समझ कर माफ कर दीजिएगा. मूर्ख औरत हूं, पर इतना निवेदन जरूर करूंगी कि इस गरीब औरत पर दया कीजिए और जल्दी से इसे न्याय दे दीजिए, वरना कानून और न्याय से मेरा भरोसा उठ जाएगा.’’

सुधा की सास को गौर से ताकते हुए जज साहब ने कहा, ‘‘आप तो इस लड़के की मां हैं, फिर भी बेटे का पक्ष लेने के बजाए बहू का पक्ष ले रही हैं. आप क्या चाहती हैं इसे गुजारे के लिए कितनी रकम देना उचित होगा?’’

‘‘इस लड़की की उम्र मात्र 24 साल है. इस का बेटा ठीक से पढ़लिख कर जब तक नौकरी करने लायक न हो जाए, तब तक के लिए इस के खर्चे की व्यवस्था करा दीजिए.’’

जज साहब कोई निर्णय लेते. लड़के के वकील ने एक बार फिर तारीख लेने की कोशिश की. पर जज ने उसी दिन सुनवाई पूरी कर फैसले की तारीख दे दी. कोर्ट का फैसला आता, उस के पहले ही आशीष सुधा की सास को समझाबुझा कर विदा कराने के लिए उस की ससुराल जा पहुंचा. मदद के लिए वह अपने मित्र प्रशांत को भी साथ ले गया था कि शायद उसी के कहने से सुधा की सास मान जाए.

उन के घर पहुंचने पर सुधा की सास ने उन का हालचाल पूछ कर कहा, ‘‘आप लोग किसलिए आए हैं, मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मुझे पता है कि आप लोग सुधा को ले जाने आए हैं. मुझे इस बात का अफसोस है कि मेरे समधी और समधिन को मेरे ऊपर भरोसा नहीं है. शायद इसीलिए बिटिया को ले जाने के लिए दोनों इतना परेशान हैं.’’

‘‘ऐसी बात नहीं हैं समधिन जी. आप के उपकार के बोझ से मैं और ज्यादा नहीं दबना चाहता. आप ने जो भलमनसाहत दिखाई है वह एक मिसाल है. इस के लिए मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’ आशीष ने कहा.

सुधा की सास कुछ कहती. उस के पहले ही प्रशांत ने कहा, ‘‘दरअसल यह नहीं चाहते कि इन की वजह से मांबेटे में दुश्मनी हो. इन की बेटी ने तलाक के कागजों पर दस्तखत कर दिए हैं. उस हिसाब से देखा जाए तो अब उसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. सुधा इन की एकलौती बेटी है.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. मेरे पास जो जमीन है उस में से आधी जमीन मैं सुधा के नाम कर दूंगी. जब तक मैं जिंदा हूं, अपने उस नालायक आवारा बेटे को इस घर में कदम नहीं रखने दूंगी. सुधा अगर आप लोगों के साथ जाना चाहती है तो मैं मना भी नहीं करूंगी.’’ इस के बाद उस ने सुधा की ओर मुंह कर के कहा, ‘‘बताओ सुधा, तुम क्या चाहती हो.’’

‘‘चाचाजी, आप ही बताइए, मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली अपनी इन सास को छोड़ कर मैं आप लोगों के साथ कैसे चल सकती हूं.’’ सुधा ने कहा.

सुधा के इस जवाब से प्रशांत और आशीष असमंजस में पड़ गए. प्रशांत ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली सास को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिए कैसे कह सकता हूं.’’

‘‘तो फिर आप मेरी मम्मी को समझा दीजिएगा.’’ आंसू पोंछते हुए सुधा ने कहा.

‘‘ऐसी बात है तो अब हम चलेंगे. जब कभी हमारी जरूरत पड़े, आप हमें याद कर लीजिएगा. हम हाजिर हो जाएंगे.’’ कह कर प्रशांत उठने लगे तो सुधा की सास ने कहा, ‘‘हम आप को भूले ही कब थे, जो याद करेंगे. कितने दिनों बाद तो आप मिले हैं. अब ऐसे ही कैसे चले जाएंगे. मैं तो कब से आप की राह देख रही थी कि आप मिले तो सामने बैठा कर खिलाऊं. लेकिन मौका ही नहीं मिला. आज मौका मिला है. तो उसे कैसे हाथ से जाने दूंगी.’’

‘‘आप कह क्या रही हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है?’’ हैरानी से प्रशांत ने कहा.

‘‘भई, आप साहब बन गए, आंखों पर चश्मा लग गया. लेकिन चश्मे के पार चेहरा नहीं पढ़ पाए. जरा गौर से मेरी ओर देखो, कुछ पहचान में आ रहा है?’’

प्रशांत के असमंजस को परख कर सुधा की सास ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप तो ज्ञानू बनना चाहते थे. मुझ से अपने बडे़ होने तक राह देखने को भी कहा था. लेकिन ऐसा भुलाया कि कभी याद ही नहीं आई.’’

अचानक प्रशांत की आंखों के सामने 35-36 साल पहले की रूपमती भाभी का चेहरा नाचने लगा. उस के मुंह से एकदम से निकला, ‘‘भाभी आप…?’’

‘‘आखिर पहचान ही लिया अपनी भाभी को.’’

गहरे विस्मय से प्रशांत अपनी रूपमती भाभी को ताकता रहा. सुधा का रक्षाकवच बनने की उन की हिम्मत अब प्रशांत की समझ में आ गई थी. उन का मन उस नारी का चरणरज लेने को हुआ. उन की आंखें भर आईं.

रूपमती यानी सुधा की सास ने कहा, ‘‘देवरजी, तुम कितने दिनों बाद मिले. तुम्हारा नाम तो सुनती रही, पर वह तुम्हीं हो, यह विश्वास नहीं कर पाई आज आंखों से देखा, तो विश्वास हुआ. प्यासी, आतुर नजरों से तुम्हारी राह देखती रही. तुम्हारे छोड़ कर जाने के बरसों बाद यह घर मिला. जीवन में शायद पति का सुख नहीं लिखा था. इसलिए 2 बेटे पैदा होने के बाद आठवें साल वह हमें छोड़ कर चले गए.

‘‘बेटों को पालपोस कर बड़ा किया. शादीब्याह किया. इस घर को घर बनाया, लेकिन छोटा बेटा कुपुत्र निकला. शायद उसे पालते समय संस्कार देने में कमी रह गई. भगवान से यही विनती है कि मेरे ऊपर जो बीती, वह किसी और पर न बीते. इसीलिए सुधा को ले कर परेशान हूं.’’

प्रशांत अपलक उम्र के ढलान पर पहुंच चुकी रूपमती को ताकता रहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. रूपमती भाभी के अतीत की पूरी कहानी उस की आंखों के सामने नाचने लगी.

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी.

अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

जब इस बात की जानकारी प्रशांत को हुई तो वह खुशी से फूला नहीं समाया. विदाई से पहले ईश्वर की बहन को दुलहन के स्वागत के लिए बुला लिया गया था. जिस दिन दुलहन को आना था, सुबह से ही घर में तैयारियां चल रही थीं.

प्रशांत के पिता सुबह 11 बजे वाली टे्रन से दुलहन को ले कर आने वाले थे. रेलवे स्टेशन प्रशांत के घर से 6-7 किलोमीटर दूर था. उन दिनों बैलगाड़ी के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं होता था. इसलिए प्रशांत बहन के साथ 2 बैलगाडि़यां ले कर समय से स्टेशन पर पहुंच गया था.

ट्रेन के आतेआते सूरज सिर पर आ गया था. ट्रेन आई तो पहले प्रशांत के पिता सामान के साथ उतरे. उन के पीछे रेशमी साड़ी में लिपटी, पूरा मुंह ढापे मजबूत कदकाठी वाली ईश्वर की पत्नी यानी प्रशांत की भाभी छम्म से उतरीं. दुलहन के उतरते ही बहन ने उस की बांह थाम ली.

दुलहन के साथ जो सामान था, देवनाथ के साथ आए लोगों ने उठा लिया. बैलगाड़ी स्टेशन के बाहर पेड़ के नीचे खड़ी थी. एक बैलगाड़ी पर सामान रख दिया गया. दूसरी बैलगाड़ी पर दुलहन को बैठाया गया. बैलगाड़ी पर धूप से बचने के लिए चादर तान दी गई थी.

दुलहन को बैलगाड़ी पर बैठा कर बहन ने प्रशांत की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘यह आप का एकलौता देवर और मैं आप की एकलौती ननद.’’

मेहंदी लगे चूडि़यों से भरे गोरेगोरे हाथ ऊपर उठे और कोमल अंगुलियों ने घूंघट का किनारा थाम लिया. पट खुला तो प्रशांत का छोटा सा हृदय आह्लादित हो उठा. क्योंकि उस की भाभी सौंदर्य का भंडार थी.

कजरारी आंखों वाला उस का चंदन के रंग जैसा गोलमटोल मुखड़ा असली सोने जैसा लग रहा था. उस ने दशहरे के मेले में होने वाली रामलीला में उस तरह की औरतें देखी थीं. उस की भाभी तो उन औरतों से भी ज्यादा सुंदर थी.

प्रशांत भाभी का मुंह उत्सुकता से ताकता रहा. वह मन ही मन खुश था कि उस की भाभी गांव में सब से सुंदर है. मजे की बात वह दसवीं तक पढ़ी थी. बैलगाड़ी गांव की ओर चल पड़ी. गांव में प्रशांत की भाभी पहली ऐसी औरत थीं. जो विदा हो कर ससुराल आ गई थीं. लेकिन उस का वर तेलफुलेल लगाए उस की राह नहीं देख रहा था.

इस से प्रशांत को एक बात याद आ गई. कुछ दिनों पहले मानिकलाल अपनी बहू को विदा करा कर लाया था. जिस दिन बहू को आना था, उसी दिन उस का बेटा एक चिट्ठी छोड़ कर न जाने कहां चला गया था.

उस ने चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं घर छोड़ कर जा रहा हूं. यह पता लगाने या तलाश करने की कोशिश मत करना कि मैं कहां हूं. मैं ईश्वर की खोज में संन्यासियों के साथ जा रहा हूं. अगर मुझ से मिलने की कोशिश की तो मैं डूब मरूंगा, लेकिन वापस नहीं आऊंगा.’

इस के बाद सवाल उठा कि अब बहू का क्या किया जाए. अगर विदा कराने से पहले ही उस ने मन की बात बता दी होती तो यह दिन देखना न पड़ता. ससुराल आने पर उस के माथे पर जो कलंक लग गया है. वह तो न लगता. सब सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए. तभी मानिकलाल के बडे़ भाई के बेटे ज्ञानू यानी ज्ञानेश ने आ कर कहा, ‘‘दुलहन से पूछो, अगर उसे ऐतराज नहीं हो तो मैं उसे अपनाने को तैयार हूं.’’

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