एहसास : क्या दोबारा एक हो पाए राघव और जूही?

आज सुबह सुबह औफिस जाते हुए जैसे ही राघव की नजर कैलेंडर पर पड़ी, तो आज की तारीख देख कर एक बार उस के मन में जैसे कुछ छन्न से टूट गया. आज 9 जनवरी थी औैर आज ही उस की दुनिया पूरे 1 साल के अकेलेपन की बरसी मना रही थी.

जूही को उस के जीवन से गुजरे आज पूरा 1 साल हो गया था. जूही उस की पत्नी… हां, आज भी तो यह सामाजिक रिश्ता कायम था. कानून और समाज की नजर में जूही और राघव आज भी शादी के बंधन में बंधे थे. लेकिन सिर्फ नाम के लिए ही यह रह गया था. जूही को उस की जिंदगी से गए लंबा अरसा हो गया था. खुद को इस विवाहरूपी बंधन से आजाद करने की कोशिश न तो जूही ने की थी और न ही राघव ही इस मैटर को आगे बढ़ा पाया था.

दिमाग में उमड़ते इन पुराने दिनों के चक्रवात ने अनायास ही राघव के जिस्म को अपने शिकंजे में जकड़ लिया. राघव ने अपना लैपटौप बैग और मोबाइल उठा कर कमरे की मेज पर रखा और फिर अपनी नौकरानी शांति को 1 कप कौफी बनाने की हिदायत देता हुआ अपनी अलमारी की ओर बढ़ चला. वह जानता था कि अब उस का मन उस सुविधायुक्त कमरे में नहीं लगेगा. उस ने अलमारी खोलते हुए उस नीले कवर वाले लिफाफे को बाहर निकाला. कवर पर आज भी खूबसूरत लफ्जों में ‘राघव’ लिख हुआ था. वही कर्विंग लैटर्स वाली लिखावट जो जूही की खास पहचान है

‘‘राघव, इन खाली पन्नों पर आज अपने उन जज्बातों को उकेर कर जा रही हूं, जिन्हें शब्द देने से न जाने क्यों मेरे हाथ कांपते रहते थे. आज जब यह चिट्ठी तुम्हें मिलेगी, मैं तुम्हारी इस दुनियावी आडंबरों से भरे जीवन से बहुत दूर जा चुकी हूंगी. लेकिन चलने से पहले तुम से चंद बातें कर लेना जरूरी है. जानते हो कल रात मझे फिर वही सपना आया. तुम मुझे अपने दफ्तर की किसी पार्टी में ले गए हो. सपने में जानेपहचाने लोग हैं. परस्पर अभिवादन और बातचीत हो रही है कि अचानक सब के चेहरों पर देखते ही देखते एक भयानक हंसी आ जाती है.

‘‘उन सभी की वह भयानक हंसी किसी राक्षसी अट्टाहास में बदल जाती है. धीरेधीरे वे सभी भयानक अंदाज में हंसने और चिल्लाने लगते हैं और तब एक और भयानक बात होती है. उन खतरनाक आवाजों और हंसी के भीतर घृणा में लिपटा तुम्हारा डरावना चेहरा नजर आने लगता है. तुम्हारे सिर पर 2 सींग उग जाते हैं. जैसे तुम तुम न हो कर कोई भयावह यमदूत हो. मानों बड़ेबड़े दांतों वाले असंख्य यमदूत… डर के मारे मेरी आंखें खुल गईं. जनवरी की उस सर्द रात में भी मैं पसीने से तरबतर थी. मैं जब अपने सपने का जिक्र करती तो तुम उसे मेरे दिमाग में पनप रही कुंठा की संज्ञा दे देते. विडंबना यह है कि मेरी तमाम कुंठाओं के जनक तुम ही तो हो.

‘‘मुड़ कर देखने पर लगता है कि मामूली सी ही तो बात थी. मेरे शरीर पर काबिज वह  कुछ ऐक्स्ट्रा वजन ही तो था. लेकिन तुम्हारे उस यमदूत रूप के जड़ में मेरा यह बढ़ा हुआ वजन ही तो था. लेकिन क्या यह बात वाकई इतनी मामूली सी थी? तुम ने ‘आइसबर्ग’ देखा है? उस का केवल थोड़ा सा हिस्सा पानी की सतह के ऊपर दिखता है. यदि कोई अनाड़ी देखे तो लगेगा जैसे छोटा सा बर्फ का टुकड़ा पानी की सतह पर तैर रहा है. पर ‘आइसबर्ग’ का असली आकार तो पानी की सतह के नीचे तैर रहा होता है, जिस से टकरा कर बड़ेबडे जहाज डूब जाते हैं. जो बात ऊपर से मामूली दिखती है उस की जड़ में कुछ और ही छिपा होता है. बड़ा और भयावह.’’

आंखों में पनप रही उस नमकीन  झील को काबू में करते हुए राघव सोचने लगा कि सच, वह कितना गुस्सैल हो गया था. बातबात पर चिढ़ना और जूही पर अपना सारा गुस्सा उतारना उस का रोज का रूटीन बन गया था. शुरुआत में ऐसा नहीं था. जूही और उस का वैवाहिक जीवन खुशहाल था. लेकिन धीरेधीरे काम के भार और सहकर्मियों के साथ व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता के चलते वह इतना परेशान हो गया था कि अपनी सारी फ्रस्ट्रेशन वह अब जूही पर उतारने लगा था.

राघव खत का बचा हिस्सा पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. लेकिन वह जानता था कि जूही के उन सिसकते लफ्जों की मार सहना ही उस की सजा है, इसीलिए उस ने आगे पढ़ना शुरू किया.

‘‘8 महीने पहले करवाए ब्लड टैस्ट में ही तो पता चला है कि मु झे हाइपोथायराइडिज्म है. इस में न चाहते हुए भी वज़न का बढ़ना तो लाजिम है न? क्या इस में मेरा अपना कोई कसूर है?’’

खत में जूही ने आगे लिखा था, ‘‘भद्दी, बदसूरत कहीं की. तुम गुस्से से पागल हो कर चीख रहे होते. शायद मैं तुम्हें शुरू से ही भद्दी लगती थी, बदसूरत लगती थी. मेरा मोटापा तो एक बहाना था. शायद यही वजह रही होगी कि तुम्हें मेरी हमेशा हंसने और खिलखिलाने की मामूली सी आदत भी असहनीय लगती थी.जब हम किसी से चिढ़ने लगते हैं, नफरत करने लगते हैं तब उस की हर आदत हमें बुरी लगती है.

‘‘यदि तुम्हे मु झ से प्यार होता तो शायद तुम मेरे मोटापे को नजरअंदाज कर देते. लेकिन तुम अकसर किसी न किसी बात पर अपने विश बुझे बाणों से मुझे बेधते रहते. सचाई तो यह है कि शादी के बाद से अब तक तुम ने अपनी एक भी आदत सिगरेट पीना, शराब पीना, रात में देर तक कमरे की बत्ती जला कर काम करते रहना नहीं बदली. केवल मैं ही बदलती रही. तुम्हारी हर पसंदनापसंद के लिए. तुम्हारी हर खुशी के लिए. जो तुम खाना चाहते थे, घर में केवल वही चीजें बनती थीं. जो तुम्हें अच्छा लगे, मुझे वही करना था. जो तुम्हें पसंद हो, मुझे वही कहनासुनना था. जैसे मैं मैं नहीं रह गई थी केवल तुम्हारा विस्तार भर थी.’’

राघव के दिलोदिमाग में जैसे किसी ने ढेरों कांटे चुभो दिए थे. लेकिन वह उस पीड़ा को भोगना चाहता था. वह आज जूही को उस के वजूद को फिर से महसूस करना चाहता था.

अब वह खत का आगे का हिस्सा पढ़ने लगा- ‘‘खाना मैं बनाती थी, कपड़ेलत्ते मैं धोती थी, बरतन मैं साफ करती थी,  झाड़ूपोंछा मैं लगाती थी. तुम रोज औफिस से आ कर ‘आज बहुत थक गया हूं’ कहते और टांगें फैला कर बिस्तर पर लेट अपना पसंदीदा टीवी प्रोग्राम चला लेते. एक गिलास पानी भी तुम खुद उठ कर नहीं ले सकते थे. फिर भी थकते सिर्फ तुम थे. शिकायत सिर्फ तुम कर सकते थे. उलाहने सिर्फ तुम दे सकते थे. बुरी सिर्फ मैं थी.

‘‘कमियां सिर्फ मुझ में थीं. दूध के धुले, अच्छाई के पुतले सिर्फ तुम थे. मैं ने तुम से कुछ ज्यादा तो नहीं चाहा था. एक पत्नी अपने पति से जो चाहती है, मैं भी केवल उतना भर ही चाहती थी. काश, तुम भी मुझे थोड़ा प्यार दे पाते, घर के कामों में मेरा थोड़ा हाथ बंटाते, अपनी किसी प्यारी अदा से मेरा मन मोह ले जाते. असल में तुम ने मुझ से कभी प्यार किया ही नहीं. मैं केवल घर का काम करने वाली मशीन थी, घर की नौकरानी थी जिसे रात में भी तुम्हारी खुशी के लिए बिस्तर पर रौंदा जाता था.

‘‘बिस्तर और रसोई के गणित से परे भी स्त्री होती है, यह बात तुम्हारी समझ से बाहर थी. लेकिन इस सब के बावजूद मेरे हाल ही में बढ़ गए वजन से इतनी परेशानियों के बाद भी मेरे चेहरे पर हमेशा खेलती मुसकान से तुम्हें चिढ़ थी. पर उस बेवजह के तनाव का क्या… उन यातना भरे भारी दिनों का क्या… उन परेशान रातों का क्या जो मैं ने तुम्हारे साथ किसी सजायाफ्ता मुजरिम की तरह गुजारी हैं? तुम चाहते थे कि मैं अपनी बिगड़ रही फिगर पर शर्मिंदा रहूं. क्यों? क्या शरीर के भूगोल में जरा सा भी फेरबदल हो जाना कोई अपराध है, जो तुम मुझे सजा देने पर तुले रहे?

‘‘राघव, तुम जानते हो तुम्हारे चेहरे पर भी एक मस्सा उगा हुआ है. मैं ने तो कभी इस बात पर एतराज नहीं जताया कि वहां वह मस्सा क्यों है? मैं ने तो कभी यह नहीं कहा कि उस मस्से की वजह से तुम बदसूरत लगते हो. असल में तुम्हारे लिए मेरा मोटापा मुझे नीचा दिखाने का बहाना भर था. अब जबकि मेरा थायराइड काबू में है और अब मैं पहले से काफी बेहतर भी दिखने लगी हूं तो अब तुम्हें मुझ से कोई लेनादेना नहीं है. तुम ने एक बार भी नहीं कहा कि मैं अब तुम्हें कैसी लगती हूं. जानते हो राघव, घृणा का बरगद जब फैलने लगता है, तो उस की जड़ें संबंधों की मिट्टी में बहुत गहरे तक अपने पांव पसार लेती हैं. पता नहीं मैं इतने साल तुम्हारे साथ कैसे रह गई. अपना मन मार कर, अपना वजूद मिटा कर.

‘‘पर अब बहुत हो गया. मुझे तुम्हारे हाथों पिटना मंजूर नहीं. मेरे वजूद को हर कदम पर इस तरह और जलील होना मंजूर नहीं. तुम एक बीमार मानसिक अवस्था में हो और मु झे अब इस रुग्ण मानसिक अवस्था का हिस्सा और नहीं बनना. हमारे पास जीने के लिए एक ही जीवन होता है और मुझे अब यों घुटघुट कर और नहीं जीना. आज मैं स्वयं को तुम से मुक्त करती हूं. हां, एक बात और मुझे अपने चेहरे पर हमेशा खेलती हुई यह मुसकान बेहद अच्छी लगती थी और वे सभी लोग अच्छे लगते थे, जो मेरे बढ़े हुए वजन के बावजूद मु झे चाहते थे, मु झ से प्यार करते थे.  प्यार, जो तुम मझे कभी नहीं दे सके.

-जूही.’’

अपने हाथ में सिहरते हुए उस खत को राघव बहुत देर तक योंही थामे रहा. इस 1 साल ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया. पत्नी केवल शोपीस नहीं होती. वह जीवन का अभिन्न अंग होती है. इस 1 साल में शालिनी डिसूजा, वह विदेशी कैथी जो इंटर्न बन कर आई थीं आदि ने उस पर डोरे डालने चाहे थे.

कुछ रात भर साथ भी रहीं पर वह किसी को न मन दे सका न शरीर. बिस्तर पर पहुंचतेही वह ठंडा पड़ जाता. रात को साथ खाना खातेखाते जब किसी का फोन आ जाता, तो वे लड़कियां उकता जातीं जबकि जूही ने रात को बिस्तर पर न कोईर् मांग की न उस के फोनों से शिकायतें कीं.

पिछले 1 साल भर से उस ने बहुत बार यह सोचा था कि वह जूही को फोन करेगा, उस से अपनी ज्यादतियों के लिए माफी मांगेगा, लेकिन अब और इंतजार नहीं.

आज वह उसे बताना चाहता है कि उसे अपनी सभी गलतियों का एहसास है औैर हां,एक बात और भी तो बतानी है कि उसे जूही की मुसकान से प्यार है और जूही के हाइपोथायराइडिज्म से उसे कोई शिकायत नहीं है. वह जैसी भी है उस की अपनी है. वहीउस की है.

सोनाली बोस 

ये घर बहुत हसीन है : आर्यन की जिंदगी में क्या था एक कौल का रहस्य?

“वान्या, अब तुम ही संभालना घर और मेरे इस अनाड़ी से भाई को. अगर फ्लाइट्स बंद नहीं हो रही होतीं तो मैं कुछ दिन तुम लोगों के साथ बिताकर जाती. चलो ठीक भी है हमारा जल्दी जाना. बच्चे दादा-दादी को खूब तंग कर रहे होंगे कोलकाता में. बहुत चाह रहे थे बच्चे अपनी दुल्हन मामी से मिलना. जल्दबाज़ी में सब कुछ नहीं करना पड़ता तो सबको लेकर आती.” सुरभि अपनी नई-नवेली भाभी वान्या को टैक्सी में पीछे की सीट पर बैठे हुए बता रही थी. वान्या मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर कभी सुरभि को देखती तो कभी पास ही बैठे अपने पति आर्यन को.

सुरभि का बोलना जारी था, “शादी चाहे जल्दबाज़ी में हुई, लेकिन सही फ़ैसला है. अब मुझे आर्यन की फ़िक्र तो नहीं रहेगी. कोविड-19 ने तो ऐसा आतंक मचाया है कि डर लगने लगा है. तुम लोग भी ध्यान रखना अपना. हो सके तो अभी घर पर ही रहना, घूमने के लिए तो उम्र पड़ी है…..!”

“बस, बस….रहने दो. टीचर है भाभी तुम्हारी और हमारे साले साहब आर्यन भी बेवकूफ़ थोड़े ही हैं कि जब इंडिया में भी कोरोना अपने पैर फैला रहा है तब बिना सोचे-समझे चल देगें कहीं घूमने. क्यों साले साहब?” ड्राईवर के साथ आगे की सीट पर बैठे सुरभि के पति विशाल ने सिर पीछे घुमाकर आर्यन पर मुस्कुराती दृष्टि डालते हुए कहा.

वान्या और आर्यन का विवाह दो दिन पहले ही हुआ था. जुलाई में डेट थी शादी की, लेकिन कोरोना के कारण आर्यन ने ही फ़ैसला किया था कि सादे समारोह में केवल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाह जल्दी से जल्दी हो जाये. वान्या का घर दिल्ली में था, इसलिए विवाह का आयोजन वहीं हुआ था. आर्यन हिमाचल-प्रदेश के बड़ोग शहर का रहने वाला था. परिवार के नाम पर आर्यन की एक बड़ी बहन सुरभि थी, जो कोलकाता में अपने परिवार के साथ रहती थी. पति के साथ विवाह में सम्मिलित होने सुरभि वहां से सीधा दिल्ली पहुंच गयी थी. आज वे दोनों वापिस जा रहे थे, वान्या को लेकर आर्यन भी अपने घर आ रहा था. दीदी, जीजू  को एअरपोर्ट छोड़ने के बाद उनको रेलवे स्टेशन जाना था. दिल्ली से कालका तक वे ट्रेन से जाने वाले थे, जो रात 11 बजे चलकर सुबह 4 बजे कालका पहुंचती है. वहां से टैक्सी द्वारा उन्हें आगे का सफ़र तय करना था.

“लो बातों बातों में पता ही नहीं लगा और एअरपोर्ट आ भी गया.” सुरभि के कहते ही टैक्सी रुक गयी. आर्यन सामान उतारने लगा और विशाल दौड़कर ट्रौली ले आया. सुरभि और विशाल हाथ हिलाकर एअरपोर्ट के गेट की ओर चल दिए.

आर्यन और वान्या को लेकर टैक्सी रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गयी.

ट्रेन अपने निर्धारित समय पर चली. रात सोते हुए कब बीत गयी पता ही नहीं लगा. सुबह वे ट्रेन से उतरकर बाहर आये तो वान्या को ठंडी हवा के झोंके स्वागत करते से प्रतीत हुए. “मार्च में भी इतना ठंडा मौसम?” वान्या पूछ बैठी.
“यह कोई ठंड है? अभी तो पहाड़ पर चढ़ना है मैडम. ठंड से आपकी मुलाक़ात तो होनी बाकी है अभी.” आर्यन ने कहा तो वान्या ख्यालों में ही ठिठुरने लगी. उसका चेहरा देख आर्यन ठहाका लगाकर हंसते हुए बोला, “अरे, डर गयीं? बड़ोग में इस समय सिर्फ़ रातें ठंडी होंगी, दिन में तो मौसम सुहाना ही होगा. तुम कभी हिली एरियाज़ में नहीं गयीं इसलिए पता नहीं होगा.”

टैक्सी आई तो दोनों की बातचीत का सिलसिला टूट गया. चलती टैक्सी में वान्या उनींदी आंखों से बाहर झांक रही थी. भोर के नीरव अंधेरे में जलते बल्बों की मद्धम रोशनी से पेड़ भी ऊंघते हुए लग रहे थे. कुछ देर बाद सूर्य उदय हुआ तो खिलती धूप से उर्जा पाकर वातावरण में नवजीवन संचरित हो उठा.
परवाणु आने तक वान्या प्रकृति की सुन्दरता को मन में क़ैद करती रही, आगे का रास्ता तन में झुरझुरी बढ़ाने लगा था. एक ओर खाई तो दूसरी ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर घने दरख्त !

धरमपुर आकर ड्राईवर ने चाय पीने के लिए टैक्सी रोकी. हवा की ताज़गी वान्या भीतर तक महसूस कर रही थी. सड़क किनारे बने ढाबे में जाकर आर्यन चाय ले आया. वान्या की निगाहें चारों ओर के मनोरम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती थी. मौसम की खनक और आर्यन का साथ….वान्या के दिल में बरसों से छुपकर बैठे अरमान अंगडाई लेने लगे.

धरमपुर से बड़ोग अधिक दूर नहीं था. पाइनवुड होटल आया तो टैक्सी चौड़ी सड़क से निकलकर संकरे रास्ते पर चलती हुई एक घर के सामने रुक गयी. बंगलेनुमा मकान देख वान्या ठगी सी रह गयी. सफ़ेद मार्बल से जड़ा उजला, धवल महल सा तनकर खड़ा मकान जैसे याद दिला रहा था कि वान्या अब हिमाचल प्रदेश में है. हिम का उज्जवल रंग आर्यन की तरह ही अब उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जायेगा.
सामान निकालकर आर्यन टैक्सी वाले का बिल चुका दो सूटकेसों पर बैग्स रख पहियों के सहारे खींचता हुआ ला रहा था. वान्या भी अपना पर्स थामे कदम बढ़ाने लगी. पहाड़ में बनी चार-पांच सीढ़ियां चढ़ने पर वे गेट के सामने थे, जिसे किले का फ़ाटक कहना उचित होगा. गेट के भीतर दोनों ओर मखमली घास कालीन सी बिछी थी. बंगले की ऊंची दीवारों के साथ-साथ लगे लम्बे पाइन के पेड़ सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे.
आर्यन ने चाबी निकालकर लकड़ी का नक्काशीदार भारी-भरकम दरवाज़ा खोला और दोनों कमरे के भीतर दाखिल हो गए. कमरा क्या एक विशाल हौल था. लकड़ी के फ़र्श पर मोटा रंग-बिरंगी आकृतियों के काम वाला तिब्बती कालीन बिछा था. बैठने के लिए सोफ़े के तीन सेट रखे थे. उनकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई राजसी शोभा लिए थी. सोफ़ों से कुछ दूरी पर एक दीवान बिछा हुआ था. उसे देखकर वान्या को म्यूज़ियम में रखे शाही तख़्त की याद आ गयी. तख़्त के एक ओर हाथीदांत की नक्काशी वाली लकड़ी की तिपाही पर नीली लम्बी सुराही रखी थी. नीचे ज़मीन पर पीतल के गमले में सेब का बोनसाई किया पौधा लगा था, जिसमें लाल-लाल नन्हे सेब ऐसे लग रहे थे जैसे क्रिसमस ट्री पर बौल्स सजाई गयी हों.
“सामान अन्दर के कमरे में रख देते हैं….फिर मैं चाय बना लेती हूं, किचन कहां है?” वान्या समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बंगले में रसोई किस ओर होगी? उसे तो लग रहा था जैसे वह किसी महल में खड़ी है.
“आउटहाउस से नरेन्द्र आता ही होगा. वह लगा देगा सामान….उसकी वाइफ़ प्रेमा किचन संभालती है, तुम फ्रैश हो जाओ बस.” कहते हुए आर्यन ने खिडकियां खोल मोटे पर्दे हटा दिए. जाली से छनकर कमरे में आ रही धूप हल्के ठंडे मौसम में सुकून दे रही थी.

“यहां घर अधिकतर ऐसे बने होते हैं कि ठंड का असर कम से कम हो. यह मकान मेरे परदादा ने बनवाया था, मोटी-मोटी दीवारें हैं और फ़र्श लकड़ी से बने हैं. छत ढलुआं है ताकि बरसात और बर्फ़ बिल्कुल न ठहरे.” आर्यन बता रहा था कि डोरबैल बज गयी. नरेन्द्र और प्रेमा आये थे. दोनों ने घर का काम शुरू कर दिया.

“अच्छा अब मैं नहा लेता हूं.” कहकर आर्यन चल दिया, वान्या भी उसके पीछे-पीछे हो ली. कमरे से बाहर निकल लम्बी गैलरी में नीले रंग के कारपेट पर चलते हुए पैरों की पदचाप खो गयी थी. गैलरी के दोनों ओर कमरे दिख रहे थे. घर के बाकी कमरे भी बड़े-बड़े होंगे इसकी वन्या ने कल्पना भी नहीं की थी. एक कमरे में दाखिल हो आर्यन ने दस फुट ऊंची महागनी की गोलाकार फ्रैंच स्टाइल में बनी अलमारी खोल कपड़े निकाले और बाथरूम में चला गया.

वान्या की आंखें कमरे का मुआयना करने लगीं. चौड़ी सिहांसननुमा कुर्सी को देख वान्या का दिल चाह रहा था कि उस पर बैठ आंखें मूंद रास्ते की सारी थकान भूल जाये, लेकिन पहले नहाना ज़रूरी है सोचते हुए वापिस ड्राइंग-रूम में जा अपना सूटकेस खोल कपड़े देखने लगी.

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.

वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.

निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.

आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.

“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.

दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.

“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.

“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.

इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.
“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.
“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”

वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.

“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”

आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.

आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

बेवफाई: हीरा ने क्यों दिया रमइया को धोखा

रमइया गरीब घर की लड़की थी. सुदूर बिहार के पश्चिमी चंपारण की एक छोटी सी पिछड़ी बस्ती में पैदा होने के कुछ समय बाद ही उस की मां चल बसीं. बीमार पिता भी दवादारू की कमी में गुजर गए. अनाथ रमइया को दादी ने पालपोस कर बड़ा किया. वे गांव में दाई का काम करती थीं. इस से दादीपोती का गुजारा हो जाया करता था. रमइया जब 7 साल की हुई, तो दादी ने उसे सरकारी स्कूल में पढ़ने भेजा, पर वहां उस का मन नहीं लगा. वह स्कूल से भाग कर घर आ जाया करती थी. दादी ने उसे पढ़ाने की बहुत कोशिश की, पर हठीली पोती को नहीं पढ़ा पाईं. रमइया अब 16 साल की हो गई. चिकने बाल, सांवली रंगत और बड़ीबड़ी पनीली आंखों में एक विद्रोह सा झलकता हुआ.

अब दादी को रातों में नींद नहीं आती थी. रमइया के ब्याह की चिंता हर पल उन के दिलोदिमाग पर हावी रहने लगी. कहां से पैसे आएंगे? कैसे ब्याह होगा? वगैरह. जायदाद के नाम पर सिकहरना नदी के किनारे जमीन के छोटे से टुकड़े पर बनी झोंपड़ी और शादी के वक्त के कुछ चांदी के जेवर और सिक्के… यही थी दादी की जिंदगीभर की जमापूंजी. रातदिन इसी चिंता में घुल कर बुढि़या की कमर ही झुकने लगी. गांवबिरादरी के ही कुछ लोगों ने बुढि़या पर तरस खा कर पड़ोस के गांव के हीरा के साथ रमइया का ब्याह करवा दिया.

हीरा सीधासादा और मेहनती था, जो अपनी मां के साथ दलितों की बस्ती में रहता था. घर में मांबेटे के अलावा एक गाय भी थी, जिस का दूध बेच कर कुछ पैसे आ जाते थे. इस के अलावा फसलों की रोपाईकटाई के समय मांबेटे दूसरे के खेतों में काम किया करते थे. शादी के बाद 3 जनों का पेट भरना मुश्किल होने लगा, तो हीरा गांव के ही कुछ नौजवानों के साथ परदेश चला गया. पंजाब जा कर हीरा खेतों पर काम करने लगा. वहां हर दिन कहीं न कहीं काम मिलता, जिस से रोजाना अच्छी कमाई होने लगी. हीरा जी लगा कर काम करता, जिस से मालिक हीरा से बहुत खुश रहते.

 

हीरा ने 8 महीने में ही काफी पैसे इकट्ठे कर लिए थे. पंजाब आए साथी जब गांव वापस जाने लगे, तो वह भी वापस आ गया. गांव आने से पहले हीरा ने रमइया और मां के लिए घरेलू इस्तेमाल की कुछ चीजें खरीदीं. अपने लिए उस ने एक मोबाइल फोन खरीदा. घर आ कर हीरा ने बड़े जोश से रमइया को फोन दिखाया और शान से बोला, ‘‘यह देख… इसे मोबाइल फोन कहते हैं. देखने में छोटा है, पर इस के अंदर ऐसे तार लगा दिए हैं कि हजारों मील दूर रह कर एक बटन दबा दो और जितनी भी चाहे बातें कर लो.’’ यह सुन कर रमइया की आंखें चौड़ी हो गईं. उस ने फोन लेने के लिए हीरा की ओर हाथ बढ़ाया.

‘‘अरे, संभाल कर,’’ कह कर हीरा ने रमइया के हाथों में मोबाइल फोन थमाया.

रमइया थोड़ी देर उलटपलट कर फोन को देखती रही, फिर उस ने हीरा से कहा, ‘‘सुनो, हमें साड़ीजेवर कुछ नहीं चाहिए. तुम जाने से पहले हमें यह फोन देते जाना. वहां जा कर अपने लिए दूसरा फोन खरीद लेना. फिर हम दिनरात फोन पर बात करेंगे.’’हीरा पत्नी रमइया के भोलेपन पर जोर से हंस पड़ा. रमइया के सिर पर एक प्यार भरी चपत लगाते हुए वह बोला, ‘‘पगली, बातें मुफ्त में नहीं होतीं. उस में पैसा भरवाना पड़ता है.’’इस तरह हंसतेबतियाते कई महीने गुजर गए. गांव के साथियों के साथ हीरा फिर से वापस काम पर पंजाब जाने की तैयारी करने लगा. इस बार रमइया ज्यादा दुखी नहीं थी.

हीरा के जाने के बाद अब सास की डांट खा कर भी रमइया रोती नहीं थी. वह मां बनने वाली थी और यह खबर वह हीरा को सुनाने के लिए बेचैन थी. वह मोबाइल फोन ले कर किसी कोने में पड़ी रहती और हीरा के फोन के आने का इंतजार करती रहती. हीरा चौथी क्लास तक पढ़ालिखा था, सो उस ने रमइया को मोबाइल फोन की सारी बारीकियां समझा दी थीं. 2 महीने बाद आखिर वह दिन भी आया, जब मोबाइल फोन की घंटी घनघना कर बज उठी. रमइया का दिल बल्लियों उछल पड़ा. थरथराते हाथों से उस ने फोन का बटन दबाया और जीभर कर हीरा से बातें कीं. सास से भी हीरा की बात करवाई गई. जब पैसे खत्म हो गए, तो फोन कट गया. देर तक फोन को गोद में ले कर रमइया बैठी रही. वक्त गुजरता गया. हीरा फिर से गांव वापस आया. वह इस बार भी अपने साथ कपड़े, सामान और पैसे ले कर आया था.

रमइया का पीला चेहरा देख कर हीरा को चिंता हुई. इस बार रमइया में वह चंचलता भी नहीं दिख रही थी. वह बिस्तर पर चुपचाप सी पड़ी रहती. हीरा ने जब इस बारे में मां से बात की, तो मां ने कहा कि ऐसा होता ही है, चिंता की कोई बात नहीं.रमइया के वहां से जाने के बाद मां ने बेटे हीरा को एकांत में बुला कर कहा, ‘‘बेटा, रमइया को इस की दादी के पास छोड़ आ. काम न धाम, यहां दिनभर पड़ी रहती है… दादी बहुत अनुभवी हैं, उन की देखरेख में रहेगी तो सबकुछ ठीक रहेगा. जब तू दो बारा आएगा, तो इस को वहां से ले आना.’’

‘‘ठीक है मां,’’ कहते हुए हीरा ने सहमति में सिर हिला दिया.

तीसरे ही दिन हीरा रमइया को उस की दादी के पास पहुंचा कर अपने गांव लौट आया. अब हीरा को रमइया के बिना घर सूनासूना सा लगता. वह चुपचाप किसी काम में लगा रहता या फोन से खेलता रहता. एक दिन हीरा ने अपने किसी साथी को फोन लगाया. ‘हैलो’ कहते ही उधर से किसी औरत की आवाज सुन कर हीरा हड़बड़ाया और उस ने जल्दी से फोन काट दिया. थोड़ी देर बाद उसी नंबर से हीरा के मोबाइल फोन पर 4 बार मिस्ड काल आईं. हीरा की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे… थोड़ी देर बाद उस ने फिर से उसी नंबर पर फोन लगाया. बात हुई… वह नंबर उस के दोस्त का नहीं, बल्कि कोई रौंग नंबर था. जिस औरत ने फोन उठाया था, वह उसी बस्ती से आगे शहर में रहती थी. उस का पति रोजीरोटी के सिलसिले में दिल्ली में रहता था. उस औरत का नाम प्रीति था. उस की आवाज में मिठास थी और बात करने का तरीका दिलचस्प था. रात के 10 बजे से 2 बजे के बीच हीरा के फोन पर 3 बार मिस्ड काल आईं. अब यह रोज का सिलसिला बन गया. हीरा जबजब अपने, रमइया और प्रीति के बारे में सोचता, तो उसे लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है. ऐसे में सारा दिन उसे खुद को संभालने में लग जाता, पर फिर जब रात होती, प्रीति की मिस्ड काल आती, तो हीरा का दिल फिर से उस मीठी आवाज की चपेट में आ कर रुई की तरह बिखर जाता.

अब उन में हर रोज बात होने लगी, फिर एक दिन मुलाकात तय की गई. शहर के पार्क में शाम के 4 बजे हीरा को आने को कहा गया. जहां हीरा समय से पहले ही पहुंच गया, वहीं प्रीति 15 मिनट देर से आई.गोरा रंग और छरहरे बदन की प्रीति की अदाओं में गजब का खिंचाव था. कुरती और चूड़ीदार पाजामी में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी. वह 5वीं जमात तक पढ़ीलिखी थी.  दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में बदलते चले गए. रमइया एक बेटी की मां बन गई और इधर हीरा के गांव के साथी फिर से काम पर लौटने की तैयारी करने लगे.परदेश जाने से पहले मां ने हीरा से रमइया और बच्ची को देख आने को कहा. हीरा 5-6 दिनों के लिए ससुराल पहुंचा. रमइया का पीला और बीमार चेहरा देख कर हीरा के मन में एक ऊब सी हुई. काली और मरियल सी बच्ची को देख कर उस का मन बै ठ सा गया.हीरा का मन एक दिन में ही ससुराल से भाग जाने को हुआ. खैर, जैसेतैसे उस ने 4 दिन बिताए और 5वें दिन जेल से छूटे कैदी सा घर भाग आया.

पंजाब जाने से पहले हीरा प्रीति से मिला, तो उस की सजधज और चेहरे की ताजगी ने उसे रिरियाती बच्ची और रमइया के पीले चेहरे के आतंक से बाहर निकाल लिया. एक साल गुजर गया. हीरा वहीं रह कर दूसरा रोजगार भी करने लगा. अब वह प्रीति को पैसे भी भेजने लगा था. इधर रमइया की सास से नहीं बनने के चलते वह मायके में ही पड़ी रही. उम्र बढ़ने के साथसाथ रमइया की दादी का शरीर ज्यादा काम करने में नाकाम हो रहा है. अपना और बेटी का पेट भरने के लिए रमइया ने बस्ती से आगे 2-3 घरों में घरेलू काम करना शुरू कर दिया. बच्ची जनने से टूटा जिस्म और उचित खानपान की कमी में वह दिनोंदिन कमजोर और चिड़चिड़ी होने लगी. इधर तकरीबन एक साल से भी ज्यादा समय बाद हीरा जब वापस घर आया, तो आते ही प्रीति से मिलने चल पड़ा. न तो उस ने रमइया की खबर ली, न ही मां ने उसे रमइया को घर लाने को कहा.

अब प्रीति भी उस से मिलने बस्ती की ओर चली आती. कभी बस्ती के बाहर वाले स्कूल में, कभी खेतों के पीछे, तो कभी कहीं और मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा. पोती की हालत और अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए रमइया की दादी ने हीरा की मां के पास बहू को लिवा लाने के लिए कई संदेश भिजवाए. आखिर में मां के कहने पर हीरा रमइया को लिवाने ससुराल पहुंचा. ससुराल आ कर रमइया ने देखा कि हीरा या तो घर में नहीं रहता और अगर रहता भी है, तो हमेशा कहीं खोयाखोया सा या फिर अपने मोबाइल फोन के बटनों को दबाता रहता है. पता नहीं, क्या करता रहता है. ऐसे में एक रात रमइया की नींद खुली, तो उसे लगा कि हीरा किसी से बातें कर रहा है. आधी रात बीत चुकी थी. इस वक्त हीरा किस से बातें कर रहा है? बातों का सिलसिला लंबा चला. रमइया दीवार से कान लगा कर सुनने की कोशिश करने लगी, पर उस की समझ में ज्यादा कुछ नहीं आ सका.

दूसरे दिन रमइया मौका पा कर हीरा का फोन ले कर बगल वाले रतन काका के पोते, जो छठी जमात में पढ़ता था, के पास गई और उसे सारे मैसेज पढ़ कर सुनाने को कहा. मैसेज सुन कर रमइया गुस्से से सुलग उठी. वह हीरा के पास पहुंची और उस नंबर के बारे में जानना चाहा. एक पल के लिए हीरा सकपकाया, पर दूसरे ही पल संभल गया. वह बोला, ‘‘अरे पगली, मुझ पर शक करती है. यह तो मेरे साथ काम करने वाले की घरवाली का नंबर है. वह इस दफा घर नहीं आया, इसलिए उस का हालचाल पूछ रही थी.’’ रमइया चुप रही, पर उस के चेहरे पर संतोष के भाव नहीं आए. वह हीरा और उस के मोबाइल फोन पर नजर रखने लगी थी. 2 दिन बाद ही रात को रमइया ने हीरा को प्रीति से फोन पर यह कहते हुए सुन लिया कि कल रविवार है. स्कूल पर आ जाना. 2-3 दिनों के बाद फिर मुझे वापस भी लौटना होगा.

दूसरे दिन हीरा 12 बजे के आसपास घर से निकल गया और स्कूल पर प्रीति के आने का इंतजार करने लगा. थोड़ी ही देर में प्रीति दूर से आती दिखी. कुछ देर तक दोनों खेतों में ही खड़ेखड़े बातें करते रहे, फिर स्कूल के भीतर आ गए. प्रीति थोड़ी बेचैन हो कर बोल उठी, ‘‘ऐसे छिपछिप कर हम आखिर कब तक मिलते रहेंगे हीरा. हमेशा ही डर लगा रहता है. अब मैं तुम्हारे साथ ही रहना चाहती हूं.’’ हीरा प्यार से बोला, ‘‘मैं भी तो यही चाहता हूं. बस, महीनेभर रुक जाओ… दोस्तों के साथ तुम्हें नहीं रख सकता… इस बार जाते ही कोई अलग कमरा लूंगा, फिर आ कर तुम्हें ले जाऊंगा. उस के बाद छिपछिप कर मिलने की कोई जरूरत नहीं होगी.’’

प्रीति ने कहा, ‘‘और तुम जो यहां आ कर 3-3 महीने तक रुकते हो, उस वक्त मैं क्या करूंगी? परदेश में कैसे अकेली रहूंगी और अपना घर कैसे चलाऊंगी?’’ हीरा बोला, ‘‘अरे, 3-3 महीने तो मैं यहां तुम्हारी खातिर पड़ा रहता हूं. जब मेरी प्रीतू मेरे पास होगी, तो मुझे यहां आने की जरूरत ही क्यों पड़ेगी. यहां कभीकभार खर्च के पैसे भेज दिया करूंगा, बाकी जो भी कमाऊंगा, वह सब तुम्हारा.’’ प्रीति ने बड़ी अदा से पूछा, ‘‘अच्छा… तुम कितने पैसे कमा लेते हो कि वहां भी घर चलाओगे, यहां भी भेजोगे?’’

हीरा ने थोड़ा इतरा कर कहा, ‘‘इतना तो कमा ही लेता हूं कि 2 घर आराम से चला लूं,’’ कहते हुए हीरा ने जैकेट उतार कर अपनी दोनों बांहें किसी बौडी बिल्डर के अंदाज में ऊपर उठा कर दिखाईं. प्रीति ने आंखें झुका कर मुंह फेर लिया. हीरा की मजबूत हथेलियों ने प्रीति को कमर से थाम कर अपने करीब कर लिया और उस प्यारे चेहरे से बालों को हटाते हुए आगे झुका. प्रीति ने आंखें बंद कर लीं. उधर टोकरे में गंड़ासा रख और पल्लू से चेहरे को ढक कर रमइया सीधा स्कूल जा पहुंची. गुस्से से जलती आंखों ने दोनों को एकसाथ ही देख लिया. फुफकारती हुई रमइया ने प्रीति के ऊपर गंड़ासा फेंका, जो सीधा जा कर हीरा को लगा. देखते ही देखते पूरी बस्ती में कुहराम मच गया. जैसेतैसे हीरा को अस्पताल पहुंचाया गया. रमइया को पुलिस पकड़ कर ले गई. प्रीति बड़ी मुश्किल से जान बचा कर वहां से भाग निकली. गरदन की नस कट जाने से हीरा की मौत हो गई. सुनवाई के बाद अदालत ने रमइया को उम्रकैद की सजा सुनाई. डेढ़ साल की मरियल सी बच्ची को अनाथ बना कर, पेट में एक बच्चे को साथ ले कर रमइया हमेशा के लिए जेल की सलाखों के पीछे कैद कर दी गई.

काली की भेंट: क्या हुआ पुजारीजी के साथ

लेखक- धर्मेंद्र राजमंगल

शहर के किनारे काली माता का मंदिर बना हुआ था. सालों से वहां कोई पुजारी नहीं रहता था. लोग मंदिर में पूजा तो करने जाते थे, लेकिन उस तरह से नहीं, जिस तरह से पुजारी वाले मंदिर में पूजा की जाती है. एक दिन एक ब्राह्मण पुजारी काली माता के मंदिर में आए और अपना डेरा वहीं जमा लिया. लोगों ने भी पुजारीजी की जम कर सेवा की. मंदिर में उन की सुखसुविधा का हर सामान ला कर रख दिया.

पहले तो पुजारीजी बहुत नियमधर्म से रहते थे, सत्यअसत्य और धर्मअधर्म का विचार करते थे, लेकिन लोगों द्वारा की गई खातिरदारी ने उन का दिमाग बदल दिया. अब वे लोगों को तरहतरह की बातें बताते, अपनी हर सुखसुविधा की चीजों को खत्म होने से पहले ही मंगवा लेते.

काली माता की पूजा का तरीका भी बदल दिया. पहले पुजारीजी काली माता की सामान्य पूजा कराते थे, लेकिन अब उन्होंने इस तरह की पूजा करानी शुरू कर दी, जिस से उन्हें ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा मिल सके.

धीरेधीरे पुजारीजी ने काली माता पर भेंट चढ़ाने की प्रथा शुरू कर दी. वे पशुओं की बलि काली माता को भेंट करने के नाम पर लोगों से बहुत सारा पैसा ऐंठने लगे. जब कोई किसी काम के लिए काली माता की भेंट बोलता, तो पुजारीजी उस से बकरे की बलि चढ़ाने के नाम पर 5 हजार रुपए ले लेते और बाद में कसाई से बकरे का खून लाते और काली माता को चढ़ा देते.

बकरे के नाम पर लिए हुए 5 हजार रुपए पुजारीजी को बच जाते थे, जबकि बकरे का मुफ्त में मिला खून काली माता की भेंट के रूप में चढ़ जाता था. धीरेधीरे दूरदूर के लोग भी काली माता के मंदिर में आने शुरू हो गए. पुजारीजी दिनोंदिन पैसों से अपनी जेब भर रहे थे. लोग सब तरह के झंझटों से बचने के लिए पुजारीजी को रुपए देने में ही अपनी भलाई समझते थे.

लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे, जो पुजारीजी की इस प्रथा का विरोध करते थे. लेकिन पुजारीजी के समर्थकों की तुलना में ये लोग बहुत कम थे, इसलिए उन्हें ऐसा काम करने से रोक न सके.

जब पुजारीजी के ढोंग की हद बढ़ गई, तो कुछ लोगों ने पुजारी की अक्ल ठिकाने लगाने की ठान ली. शहर में रहने वाले घनश्याम ने इस का बीड़ा उठाया.

घनश्याम सब से पहले पुजारीजी के भक्त बने और 2-4 झूठी समस्याएं उन्हें सुना डालीं. साथ ही बताया कि उन के पास पैसों की कमी नहीं है, लेकिन इतना पैसा होने के बावजूद भी उन्हें शांति नहीं मिलती. अगर किसी तरह उन्हें शांति मिल जाए, तो वे किसी के कहने पर एक लाख रुपए भी खर्च कर सकते हैं.

एक लाख रुपए की बात सुन कर पुजारीजी की लार टपक गई. उन्होंने तुरंत घनश्याम को अपनी बातों के जाल में फंसाना शुरू कर दिया.

पुजारी बोला, ‘‘देखो जजमान, अगर तुम इतने ही परेशान हो, तो मैं तुम्हें कुछ उपाय बता सकता हूं.

‘‘अगर तुम ने ये उपाय कर दिए, तो समझो तुम्हें मुंहमांगी मुराद मिल जाएगी. लेकिन इस सब में खर्चा बहुत होगा.’’

घनश्याम ने पुजारीजी को अपनी बातों में फंसते देखा, तो झट से बोल पड़े, ‘‘पुजारीजी, मुझे खर्च की चिंता नहीं है. बस, आप उपाय बताइए.’’

पुजारीजी ने काली माता की पूजा के लिए एक लंबी लिस्ट तैयार कर दी.

घनश्याम पुजारीजी की कही हर बात  मानता गया. पुजारीजी ने काली माता की भेंट के लिए 2 बकरों का पैसा भी घनश्याम से ले लिया. साथ ही, उन्हें घर में एक पूजा कराने को कह दिया.

पुजारीजी की इस बात पर घनश्याम तुरंत तैयार हो गए. तीसरे दिन घनश्याम के घर पर पूजा की तारीख तय हुई, जबकि भेंट चढ़ाने के लिए पैसे तो पुजारीजी उन से पहले ही ले चुके थे.

तीसरे दिन पुजारीजी घनश्याम के घर जा पहुंचे. पुजारीजी ने अमीर जजमान को देख हर बात में पैसा वसूला और घनश्याम अपनी योजना को कामयाब करने के लिए पुजारी द्वारा की गई हर विधि को मानते गए.

जोरदार पूजा के बाद घनश्याम ने पुजारीजी के लिए स्वादिष्ठ पकवान बनवाए, बाजार से भी बहुत सी स्वादिष्ठ चीजें मंगवाई गईं. पुजारीजी ने जम कर खाना खाया. उन्होंने आज तक इतना लजीज खाना नहीं खाया था.

जब पुजारीजी खाना खा चुके, तो उन्होंने घनश्याम से पूछा, ‘‘घनश्याम, तुम ने हमें इतना स्वादिष्ठ खाना खिला कर खुश कर दिया. ये कौन सा खाना है और किस ने बनाया है?

पुजारी के पूछने पर घनश्याम ने जवाब दिया, ‘‘पुजारीजी, कुछ खाना तो बाजार से मंगवाया था और कुछ यहीं पकाया था. सारा खाना ही बकरे के मांस से बना हुआ था.’’

घनश्याम ने बकरे के मांस का नाम लिया, तो पुजारीजी की सांसें अटक गईं, लेकिन उन्होंने सोचा कि शायद घनश्याम मजाक कर रहे हैं. वे बोले, ‘‘जजमान, आप मजाक बहुत कर लेते हैं, लेकिन हमारे सामने मांसाहारी चीज का नाम मत लो. हम तो मांसमदिरा को छूते भी नहीं, खाना तो बहुत दूर की बात है.’’

घनश्याम ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘मैं सच कह रहा हूं पुजारीजी. आप चाहें तो जिस बावर्ची ने खाना बनाया है, उस से पूछ लें.’’

घनश्याम की बात सुन पुजारीजी का दिल बैठ गया. मन किया कि उलटी कर दें. नफरत से भरे मन में घनश्याम के लिए गुस्सा भी बहुत था.

घनश्याम ने आवाज दे कर बावर्ची को बुला कर कहा, ‘‘जरा पुजारीजी को बताओ तो कि तुम ने क्या बनाया था.’’

बावर्ची अपने बनाए हुए खाने को बताने लग गया. सारा खाना बकरे के मांस से बनाया गया था.

पुजारीजी पैर पटकते हुए गुस्से से भरे घनश्याम के घर से चले गए. घर के बाहर आ कर उन्होंने गले में उंगली डाली और खाए हुए खाने को अपने पेट से खाली कर दिया, लेकिन मन की नफरत इतने से ही शांत नहीं हुई.

पुजारीजी ने बस्ती में हंगामा कर लोगों को जमा कर लिया, जिन में ज्यादातर उन के भक्त थे. उन्होंने घनश्याम द्वारा की गई हरकत सब लोगों को बताई, तो हर आदमी घनश्याम की इस हरकत पर गुस्सा हो उठा.

अब लोग पुजारीजी समेत घनश्याम के घर जा पहुंचे. सब ने घनश्याम को भलाबुरा कहा.

घनश्याम ने सब लोगों की बातें चुपचाप सुनीं, फिर अपना जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मैं किसी भी गलती के लिए माफी मांगने के लिए तैयार हूं, लेकिन आप पहले मेरी बात ध्यान से सुनें,

उस के बाद जो आप कहेंगे, वह मैं करूंगा.’’

सब लोग शांत हो कर घनश्याम की बात सुनने लगे. घनश्याम ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखो भाइयो, जब मैं पुजारीजी के पास गया और अपनी परेशानी बताई, तो इन्होंने मुझ से 2 बकरों की भेंट काली माता पर चढ़ाने के लिए रुपए लिए थे. साथ ही, मुझ से यह भी कहा था कि मैं घर में पूजा कराऊं.’’

‘‘मैं ने पुजारीजी के कहे मुताबिक ही पूजा कराई और घर में बकरे के मांस से बना खाना परोसा. पुजारीजी ने मुझ से पूछा नहीं और मैं ने बताया नहीं.’’

भीड़ में से एक आदमी ने लानत भेजते हुए कहा, ‘‘तो भले आदमी, तुम को तो सोचना चाहिए कि पुजारी को मांस खिलाना कितना अधर्म का काम है. क्या तुम यह नहीं जानते थे?’’

घनश्याम ने शांत लहजे में जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मुझे नहीं लगता कि यह कोई अधर्म का काम है. जब ब्राह्मण पुजारी अपनी आराध्य काली माता पर बकरे की बलि चढ़ा सकता है, तो उस बकरे के मांस को खुद क्यों नहीं खा सकता? क्या पुजारी की हैसियत भगवान से भी ज्यादा है या भगवान ब्राह्मण से छोटी जाति के होते हैं?’’

लोगों में सन्नाटा छा गया. घनश्याम की बात पर किसी से कोई जवाब न मिल सका.

पुजारीजी का सिर शर्म से झुक गया. उन्होंने यह बात तो कभी सोची ही नहीं थी. लोग खुद इस बात को सोचे ही बिना काली माता के लिए बकरे की बलि देते रहे थे.

आज पंडितजी की समझ में आया कि भला भगवान किसी जानवर का मांस क्यों खाने लगे? वे तो किसी भी जीव की हत्या को बुरा मानते हैं, वहां मौजूद सभी लोग घनश्याम की बात का समर्थन करने लगे.

भीड़ के लोगों ने पुजारीजी को ही फटकार कर काली माता का मंदिर छोड़ देने की चेतावनी दे दी. उस दिन से काली माता के मंदिर पर पशु बलि की प्रथा बंद हो गई.

पुजारीजी का धर्म भ्रष्ट हो चुका था, ऊपर से लोगों की नजरों में उन की इज्जत न के बराबर हो गई थी. उन्होंने वहां से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी. अब मंदिर वीरान हो गया था. अब वहां जानवर बंधने लगे थे.

नानू का बेटा: क्यों नानू को गोद लेने के लिए भीड़ लग गई

सुधा की बिटिया ने बेटे को जन्म दिया तो मानुषी भी बहुत खुश थी क्यों न हो तीनों बहनों के बच्चों परिवार में तीसरी पीढ़ी का अगुआ जो था और फिर सुधा और मानुषी के बीच प्रेम और स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ था जो शादी के बाद भी बना हुआ था .दोनों अपनी अपनी दुनिया में खुश थी लेकिन जीवन के सुख दुःख एक दूसरे से साझा कर लेती थीं. मानुषी सुधा से दो साल बड़ी थी ,पिता के शांत हो जाने के बाद वह अब सचमुच बड़ी बहिन की तरह सुधा का ख्याल रखती थी. कोरोना जब सामाजिक ताने बाने को तार- तार कर रहा था तब दोनों बहनें अपने अपने शहर के हालत के बारे में बात करती बल्कि देश दुनिया की चिंता भी उनकी बातों में उभर आती .दोनों कोरोना से बचने के उपाय एक दूसरे से साझा करती. मानुषी का पति वरिष्ठ नागरिक की देहरी छू चूका था और दिल का मरीज होने के नाते उसे उनकी ज्यादा फिक्र रहती थी और फिर खुद भी डायबिटिक थी अतः बहुत सावधानी बरत रही थी.

सुधा तो अब अपने नवासे गोलू की तीमारदारी में लगी रहती. नवजात शिशु  और जच्चा के अपने बहुत काम होते हैं लेकिन वह ख़ुशी की उस नाव पर सवार थी जिसके आगे किसी लहर से परेशानी नहीं अनुभव हो रही थी .उस नन्हे मेहमान ने घर में नई ऊर्जा का संचार कर दिया था परंतु यह डर मन में बना रहता था कि बच्चा और उसकी बिटिया रक्षिता दोनों कोरोना से ग्रसित न हो जाएँ.

बच्चे की अठखेलियों के वीडियो दोनों बहनों के घरों में देखे जाने लगे. अब सामान्य कॉलकी जगह वीडियोकॉल ने ले ली थी क्योंकि बच्चे की हरकतें देखना सब को भा रहा था .बच्चे ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया था लेकिन सारा घर तुतलाने लगा था.

अचानक एक दिन सुबह छः बजे मानुषी के फोन की घंटी बजी तो मानुषी परेशान हो उठी ,उठ कर देखा तो सुधा का फोन था. वह भीतर से किसी अनहोनी से बहुत डर गई . इतनी सुबह तो सुधा कभी फोन नहीं करती,कहीं बच्चा बीमार तो नहीं हो गया जिसे सब अब प्यार से नानू का बेटा कहने लगे थे.खैर उसने फोन उठा कर बात की तो सुधा भी घबराई हुई थी और उसने छूटते ही कहा कि–“ मैं रक्षिता को टैक्सी से तेरे पास भेज रही हूँ. परसों सब का कोरोनाटेस्टकराया था तो मुकुल(सुधा का पति) और मैं दोनों पॉजिटिव आये हैं. मुकुल तो अस्पताल में भरती है ,मेरे पास भी एस.डी.एम् ऑफिस से फोन आ चुका है, सुबह एम्बुलेंस लेने आएगी ,रक्षिता के टेस्ट का रिजल्ट अभी नहीं आया है ,मेरे जाने के बाद उसकी देख भाल कौन करेगा इसलिए उसे तेरे पास भेज रही हूँ ,वो शाम तक तेरे पास पहुँच जाएगी”

मानुषी के मुंह से सिर्फ ठीक है भेज दे निकला, और फोन कट गया. इस अप्रत्याशित स्थिति की उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसे समझ नहीं आ रहा था एक और बहन और बहनोई की चिंता ऊपर से रक्षिता अपने के साथ उसके पास आ रही थी. ऐसा कैसे हो सकता है कि जब सब बच्चे को खिला रहे हों और साथ रहे हों ,तब रक्षिता संक्रमित होने से कैसे बच  सकती है ? एक ओर  उसके मन में जच्चा (रक्षिता) और उसके के बच्चे की देख भाल का द्वन्द चल रहा था तो दूसरी और अपने पति अनिल के संक्रमित होने के खतरे की चिंता थी. लेकिन सुधा ने तो उसे कुछ भी कहने का मौका ही कहाँ दिया था.

शाम को टैक्सी से रक्षिता अपने बीस दिन के प्यारे से बेटे को लेकर मानुषी के पास पहुँच गई. मानुषी ने उसे गेस्ट रूम में ठहरा कर अगले चौदह दिन के आइसोलेशन की हिदायत यह समझाते हुए दे दी कि अभी टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई है अतः दूसरे बच्चे की सेहत के लिए अलग रहना जरूरी है. रक्षिता ने सब ध्यान से सुना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी,यधपि उसे मौसी का व्यवहार बड़ा अटपटा सा लग रहा था. यहाँ तक कि उसकी कजिन नम्रता भी दूरी बनाये हुए थी.

उधर सुधा ने फोन करके बता दिया कि उसे भी अस्पताल में आइसोलेशन में रख कर इलाज़ शुरू कर दिया है. उसने मानुषी से रक्षिता के बारे में पूछा तो उसने कह दिया –“ तू उसकी चिंतामत कर अपना ख्याल रख “ तीन प्राणी और तीन जगह ,न कोई एक दूसरे से मिल सकता था ,न कहीं आ जा सकता था. कोरोना ने मानवीय रिश्तों के बीच संक्रमण के भय से जो सामाजिक दूरी बना थी ऐसी जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी.

रक्षिता को दो दिन में हीगेस्ट रूम जेल लगाने लगा था. न तो वह बाहर आ सकती थी न ही कोई उसके कमरे में आता था. यहाँ तक कि खाने पीने का सामान या अन्य किसी चीज की जरूरत होती तो मानुषी कमरे के बाहर रख कर फोन कर देती और रक्षिता उसे कलेक्ट कर लेती. अभी उसकी डिलीवरी को बाईस दिन ही तो हुए थे. बच्चे की देख भाल ,उसके शू- शूपोट्टी के कपडे धोना ,उसकी मालिश करना ,दवाई देना ,सब जंजाल लग रहा था.  रात भर बच्चा सोने नहीं देता था अतः वह जल्दी दुखी हो गई. आगरा में तो मम्मी यानि सुधा कर रही थी. वह मन ही मन माँ के मौसी घर भेजने के निर्णय को गलत मान रही थी. सुधा भी मानुषी के व्यवहार से ज्यादा खुश नहीं थी ,उसे लगता था कि वैसे तो वीडियोकॉल पर दूर से सब बच्चे से लाड लड़ा रहे थे लेकिन जब बच्चा पास आ गया तो उसे अछूत करार दे रखा है और वह भी उसकी सगी बहन ने उधर अनिल भी मानुषी के प्रोटोकॉल से बहनों के रिश्ते में खटास आने के डर से रहा था. वह जब भी छोटे बच्चे की रोने की आवाज़ सुनता गेस्ट रूम की सीडियां चढ़ने को होता लेकिन मानुषी के डर से मन मसोस कर रह जाता. नम्रता तो मानुषी से निगाह बचा कर नानू के बेटे को देख आती.

तीसरे दिन आखिर सुधा ने मानुषी से कह दिया कि रक्षिता का जयपुर में मन नहीं लग रहा. मानुषी ने साफ़ कह दिया –“ बच्चे और अनिल की सेहत को देखते हुए यह सब एक हफ्ते तक चलेगा ,तू और मुकुल कब अस्पताल से डिस्चार्ग होंगे ?” सुधा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुएमानुषी ने सवाल दागा  सुधा ने बताया की अभी चार दिन तो कम से कम अस्पताल में रहना होगा. बच्चे की आवाज़ का जादू धीरे धीरे घर में फैलने लगा था. मानुषी ने चौथे दिन से बच्चे की बाहर धूप में लिटा कर मालिश करने के लिए कह दिया. खुद मानुषी बच्चे और रक्षिता के खान- पान और दवाइयों आदि की व्यवस्था में मशगूल रहती . रिश्तों में दरार से ज्यादा वह अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह पर ध्यान दे रही थी | उसे मालूम था कि प्रसव के बाद माँ और बच्चे की देख भाल कैसे की जाती है ,आखिर उसने भी तो दो बच्चे पाल पोस कर बड़े किये थे.

अब अनिल सीढ़ियां चढ़ कर दूर से बच्चे को निहारने लगा था. नानू का बेटा नाम उसी ने तो दिया था. पूरे घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार नानू के बेटे ने कर दिया था. अब नम्रता भी बच्चे को खिलाने लगी थी. नानू के बेटे की अठखेलियों से रिश्तों की कड़वाहट फीकी पड़ने लगी थी.

दस दिन के बाद सुधा और मुकुल को अस्पताल से छुट्टी मिली ,अब वह घर आ गई थी लेकिन इन दस दिनों में जो देख भाल उसकी बेटी रक्षिता और उसके बच्चे की मानुषी ने की थी उसने शुरुआत की कडवाहट को दूर कर दिया था. उसे समझ आ गया था कि भावुकता में वह मानुषी को कोस रही थी जबकि मानुषी ने वह सब बच्चे की सेहत के लिया किया था.

वह दिन भी आ गया जब मानुषी के घर में नानू के बेटे को गोद में लेने की होड़ होने लगी.  पंद्रह दिन बाद जब रक्षिता वापस आगरा लौट रही थी तो मौसी से जेठ भर कर मिली. नानू का बेटा मौसी की गोद में खुश था. गाड़ी में बिठाते हुए मानुषी ने इतना ही कहा –“ ठीक से जाना , पहुँच कर फोन जरूर करना, बेटियां घर की रौनक भी होती हैं और जिम्मेवारी भी ” रक्षिता के मुंह से सिर्फ इतना ही निकला -मौसी …. और दो आंसू उसके गाल पर ढुलक आये |मानुषी ने महसूस किया कि उसका कंधा रक्षिता के आंसुओं से नम हो रहा था. अनिल यह सोच कर खुश था कि आखिर नानू के बेटे और मानुषी ने रिश्तों की डोर में गाँठ पड़ने से बचा ली .

उस रात: कौनसा हादसे के शिकार हुए थे राकेश और सलोनी

लेखिका- रमेश चंद्र छबीला

राकेश ने कार रोकी और उतर कर सलोनी के घर का दरवाजा खटखटाया.

सलोनी ने दरवाजा खोलते ही कहा, ‘‘नमस्ते जीजाजी.’’

‘‘नमस्ते…’’ राकेश ने आंगन में घुसते हुए कहा, ‘‘क्या हाल है सलोनी?’’

‘‘बस, आप का ही खयाल दिल में है,’’ मुसकराते हुए सलोनी ने कहा.

कमरे में आ कर एक कुरसी पर बैठते हुए राकेश ने पूछा, ‘‘मामीजी दिखाई नहीं दे रही हैं… कहीं गई हैं क्या?’’

‘‘कल पास के एक गांव में गई थीं. वे एक घंटे में आ जाएंगी. कुछ देर पहले मां का फोन आया था. आप बैठो, तब तक मैं आप के लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘राजन तो स्कूल गया होगा?’’

‘‘हां, वह भी 2 बजे तक आ जाएगा,’’ कहते हुए सलोनी जाने लगी.

‘‘सुनो सलोनी…’’

‘‘हां, कहो?’’ सलोनी ने राकेश की तरफ देखते हुए कहा.

राकेश ने उठ कर सलोनी को अपनी बांहों में भर कर चूम लिया.

सलोनी ने कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद वह रसोई में चाय बनाने चली गई.

राकेश खुशी के मारे कुरसी पर बैठ गया.

राकेश की उम्र 35 साल थी. सांवला रंग, तीखे नैननक्श. वह यमुनानगर में अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी बबीता, 2 बेटे 8 साला राजू और 5 साला दीपू थे. राकेश प्रोपर्टी डीलर था.

सलोनी बबीता के दूर के रिश्ते के मामा की बेटी थी. वह जगतपुरा गांव में रहती थी. उस के पिताजी की 2 साल पहले खेत में सांप के काटने से मौत हो गई थी. परिवार में मां और छोटा भाई राजन थे. राजन 10वीं जमात में पढ़ रहा था. गांव में उन की जमीन थी. फसल से ठीकठाक गुजारा हो रहा था.

सलोनी को पता भी न चला कि कब राकेश उस के प्रति खिंच गया था.

एक दिन तो राकेश ने उस से कह दिया था, ‘सलोनी, तुम बहुत खूबसूरत हो. तुम्हारी आंखें देख कर मुझे नशा हो जाता है. दिल करता है कि हर समय तुम्हें अपने साथ रखूं.’

‘मुझे अपने साथ रखोगे तो बबीता दीदी को कब टाइम दोगे?’

‘उसे तो कई साल से टाइम दे रहा हूं. तुम मेरी जिंदगी में देर से आई हो. अगर पहले आती तो अपना बना लेता.’

‘बहुत अच्छे सपने देखते हो आप…’

‘मैं इस सपने को सच करना चाहता हूं.’

‘कैसे?’

‘यही तो समझ में नहीं आ रहा है अभी.’

इस के बाद सलोनी भी राकेश की ओर खिंचती चली गई. वह देखती थी कि राकेश की बहुत बड़ी कोठियां हैं.

2 कारें हैं. धनदौलत की कमी नहीं है. बबीता तो सीधीसादी है. वह घर में ही रहना ज्यादा पसंद करती है. अगर वह बबीता की जगह पर होती तो राकेश के साथ खूब घूमतीफिरती और ऐश करती.

राकेश जब चंडीगढ़ जाता तो सलोनी के साथ कभीकभी राजन को भी साथ ले जाता था. जब राजन साथ होता तो वे केवल घूमतेफिरते व खरीदारी करते थे.

जब कभी राकेश अकेली सलोनी को ले कर चंडीगढ़ जाता तो वे दोनों किसी छोटे होटल में कुछ घंटे के लिए रुकते थे. वहां राकेश उस से जिस्मानी रिश्ता बनाता था. इस के बाद सलोनी को कुछ खरीदारी कराता और शाम तक वे वापस लौट आते.

बबीता व राकेश के बीच कई बार सलोनी को ले कर बहस हुई, झगड़ा हुआ, पर नतीजा कुछ नहीं निकला. राकेश व सलोनी उसी तरह मिलते रहे.

एक दिन बबीता ने सलोनी को फोन कर दिया था, ‘सलोनी, तुझे शर्म नहीं आती जो अपनी बहन का घर उजाड़ रही है. कभी भी चंडीगढ़ चली जाती है घूमने के लिए.’

‘मैं अपने जीजा की साली हूं. साली आधी घरवाली होती है. आधी घरवाली जीजा के साथ नहीं जाएगी तो फिर किस के साथ जाएगी?’

‘आधी नहीं तू तो पूरी घरवाली बनने की सोच रही है.’

‘दीदी, मेरी ऐसी किस्मत कहां? और हां, मैं जीजाजी को बुलाने नहीं जाती, वे ही आते हैं मेरे पास. तुम उन को रोक लो न,’ सलोनी ने कहा था.

सलोनी की मां भी यह सब जानती थीं. पर वे मना नहीं करती थीं क्योंकि राकेश सलोनी पर खूब रुपए खर्च कर रहा था.

सलोनी कमरे में चाय व खाने का कुछ सामान ले कर लौटी.

चाय पीते हुए राकेश ने कहा, ‘‘चंडीगढ़ जा रहा हूं. एक पार्टी से बात करनी है. मैं ने सोचा कि तुम्हें भी अपने साथ ले चलूं.’’

‘‘आप ने फोन भी नहीं किया अपने आने का.’’

‘‘मैं ने सोचा था कि आज फोन न कर के तुम्हें सरप्राइज दूंगा.’’

‘तो मिल गया न सरप्राइज. मां भी नहीं हैं. सूना घर छोड़ कर मैं कैसे जाऊंगी?’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं मामीजी के आने का इंतजार कर लेता हूं. मुझे कौन सी जल्दी है. तुम जरा मामीजी को फोन मिलाओ.’’

सलोनी ने फोन मिलाया. घंटी तो जाती रही, पर कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘पता नहीं, मां फोन क्यों नहीं उठा रही?हैं,’’ सलोनी ने कहा.

‘‘कोई बात नहीं. मैं थोड़ी देर बाद चला जाऊंगा. अब चंडीगढ़ तुम्हारे बिना जाने को मन नहीं करता. अगर तुम आज न जा पाई तो 2 दिन बाद चलेंगे,’’ राकेश ने सलोनी की ओर देखते हुए कहा.

कुछ देर बाद सलोनी की मां आ गईं. वे राकेश को देख कर बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘‘और क्या हाल है बेटा? बच्चे कैसे हैं? बबीता कैसी है? कभी उसे भी साथ ले आया करो.’’

‘‘वह तो कहीं आनाजाना ही पसंद नहीं करती मामीजी.’’

‘‘पता नहीं, कैसी आदत है बबीता की,’’ कह कर मामी ने मुंह बिचकाया.

‘‘मामीजी, मैं चंडीगढ़ जा रहा हूं. सलोनी को भी साथ ले जा रहा हूं.’’

‘‘ठीक है बेटा. शाम को जल्दी आ जाना. सलोनी तुम्हारी बहुत तारीफ करती है कि मेरे जीजाजी बहुत अच्छे हैं. वे मेरा बहुत ध्यान रखते हैं.’’

‘‘सलोनी भी तो किसी से कम नहीं है,’’ राकेश ने मुसकरा कर कहा.

कुछ देर बाद राकेश सलोनी के साथ चंडीगढ़ पहुंच गया. एक होटल में कुछ घंटे मस्ती करने के बाद वे रोज गार्डन और उस के बाद झील पहुंच गए.

‘‘शाम हो चुकी है. वापस नहीं चलना है क्या?’’ सलोनी ने झील के किनारे बैठे हुए कहा.

‘‘जाने का मन नहीं कर रहा है.’’

‘‘क्या सारी रात यहीं बैठे रहोगे?’’

‘‘सलोनी के साथ तो मैं कहीं भी सारी उम्र रह सकता हूं.’’

‘‘बबीता दीदी से यह सब कह कर देखना.’’

‘‘उस का नाम ले कर क्यों मजा खराब करती हो. सोचता हूं कि मैं हमेशा के लिए उसे रास्ते से हटवा दूं. दूसरा रास्ता है कि उस से तलाक ले लूं. उस के बाद हम दोनों खूब मजे की जिंदगी जिएंगे,’’ राकेश ने सलोनी का हाथ अपने हाथों में पकड़ कर कहा.

‘‘पहला रास्ता तो बहुत खतरनाक है. पुलिस को पता चल जाएगा और हम मजे करने के बजाय जेल में चक्की पीसेंगे.

‘‘बबीता से तलाक ले कर पीछा छुड़ा लो. वैसे भी वह तुम्हारे जैसे इनसान के गले में मरा हुआ सांप है,’’ सलोनी ने कहा.

अब सलोनी मन ही मन खुश हो रही थी कि बबीता से तलाक हो जाने पर राकेश उसे अपनी पत्नी बना लेगा. वह कोठी, कार और जायदाद की मालकिन बन कर खूब ऐश करेगी.

एक रैस्टोरैंट से खाना खा कर जब राकेश व सलोनी कार से चले तो रात के 8 बज रहे थे. राकेश ने बबीता व सलोनी की मां को मोबाइल फोन पर सूचना दे दी थी कि वे 2 घंटे में पहुंच रहे हैं.

रात के 12 बज गए. राकेश व सलोनी घर नहीं पहुंचे तो मां को चिंता हुई. मां ने सलोनी के मोबाइल फोन का नंबर मिलाया. ‘फोन पहुंच से बाहर है’ सुनाई दिया. राकेश का नंबर मिलाया तब भी यही सुनाई दिया.

कुछ देर बाद बबीता का फोन आया, ‘‘मामीजी, राकेश अभी तक चंडीगढ़ से नहीं लौटे हैं. वे आप के पास सलोनी के साथ आए हैं क्या? उन दोनों का फोन भी नहीं लग रहा है. मुझे तो बड़ी घबराहट हो रही?है.’’

‘‘घबराहट तो मुझे भी हो रही है बबीता. चंडीगढ़ से यहां आने में 2 घंटे भी नहीं लगते. सोचती हूं कि कहीं जाम में न फंस गए हों, क्योंकि आजकल पता नहीं कब जाम लग जाए. हो सकता है कि वे कुछ देर बाद आ जाएं,’’ मामी ने कहा.

‘पता नहीं क्यों मुझे बहुत डर लग रहा है. कहीं कुछ अनहोनी न हो गई हो.’

‘‘डर मत बबीता, सब ठीक ही होगा,’’ मामी ने कहा जबकि उन का दिल भी बैठा जा रहा था.

पूरी रात आंखोंआंखों में कट गई, पर राकेश व सलोनी वापस घर नहीं लौटे.

सुबह पूरे गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई कि कल दोपहर सलोनी और राकेश चंडीगढ़ गए थे. रात लौटने की सूचना दे कर भी नहीं लौटे. उन का कुछ पता नहीं चल रहा है.

बबीता व मामी के साथ 3-4 पड़ोसी थाने पहुंचे और पुलिस को मामले की जानकारी दी. पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली.

पुलिस इंस्पैक्टर ने बताया, ‘‘रात चंडीगढ़ से यहां तक कोई हादसा नहीं हुआ है. यह भी हो सकता है कि वे दोनों कहीं और चले गए हों.

‘‘खैर, मामले की जांच की जाएगी. आप को कोई बात पता चले या कोई फोन आए तो हमें जरूर सूचना देना.’’

वे सभी थाने से लौट आए.

दिन बीतते चले गए, पर उन दोनों का कुछ पता नहीं चल सका.

जितने मुंह उतनी बातें. वे दोनों तो एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते थे. वे तो चंडीगढ़ मजे करने के लिए जाते थे. राकेश का बस चलता तो सलोनी को दूसरी पत्नी बना कर घर में ही रख लेता. सलोनी तो उस की रखैल बनने को भी तैयार थी. सलोनी की मां ने तो आंखें मूंद ली थीं, क्योंकि घर में माल जो आ रहा था. नहीं तो वे अब तक सलोनी की शादी न करा देतीं.

2 महीने बीत जाने के बाद भी जब राकेश व सलोनी का कुछ पता नहीं चला तो सभी ने यह समझ लिया कि वे दोनों किसी दूसरे शहर में जा कर पतिपत्नी की तरह रह रहे होंगे. अब वे यहां कभी नहीं आएंगे.

एक साल बाद…

उस इलाके की 2 लेन की सड़क को चौड़ा कर के 4 लेन के बनाए जाने का प्रदेश सरकार की ओर से आदेश आया तो बहुत तेजी से काम शुरू हो गया.

2 साल बाद…

एक दिन सड़क किनारे मशीन द्वारा जमीन की खुदाई करने का काम चल रहा था तो अचानक मशीन में कुछ फंस गया. देखा तो वह एक सफेद रंग की कार थी जिस का सिर्फ ढांचा ही रह गया था. उस कार में 2 नरकंकाल भी थे. कार की नंबर प्लेट बिलकुल साफसाफ पढ़ी जा रही थी.

देखने वालों की भीड़ लग गई. पुलिस को पता चला तो पुलिस इंस्पैक्टर व कुछ पुलिस वाले भी वहां पहुंच गए. कार की प्लेट का नंबर पढ़ा तो पता चला कि वह कार राकेश की थी. वे

2 नरकंकाल राकेश व सलोनी के थे.

बबीता, सलोनी की मां व भाई भी वहां पहुंच गए. वे तीनों रो रहे थे.

पुलिस इंस्पैक्टर के मुताबिक, उस रात राकेश व सलोनी कार से लौट रहे होंगे. पहले उस जगह सड़क के किनारे बहुत दूर तक दलदल थी. हो सकता है कि कार चलाते समय नींद में या किसी को बचाते हुए या किसी दूसरी वजह से उन की कार इस दलदल में जा गिरी. सुबह तक कार दलदल में पूरी तरह समा गई. किसी को पता भी नहीं चला. धीरेधीरे यह दलदल सूख गया. उन दोनों की कार में ही मौत हो गई.

अगर सड़क न बनती तो किसी को कभी पता भी न चलता कि वे दोनों अब इस दुनिया में नहीं हैं. दोनों के परिवारों को हमेशा यह उम्मीद रहती कि शायद कभी वे लौट कर आ जाएं. पर अब सभी को असलियत का पता चल गया है कि वे दोनों लौट कर घर क्यों नहीं आए.

अब बबीता व सलोनी की मां के सामने सब्र करने के अलावा कुछ नहीं बचा था.

टीचर : क्या था रवि और सीमा का नायाब तरीका?

जिससुंदर, स्मार्ट महिला को मैं रहरह कर देखे जा रहा था, वह अचानक अपनी कुरसी से उठ कर मेरी तरफ मुसकराती हुई बढ़ी तो एअरकंडीशंड बैंकेट हौल में भी मुझे गरमी लगने लगी थी.

मेरे दोस्त विवेक के छोटे भाई की शादी की रिसैप्शन पार्टी में तब तक ज्यादा लोग नहीं पहुंचे थे. उस महिला का यों अचानक उठ कर मेरे पास आना सभी की नजरों में जरूर आया होगा.

‘‘मैं सीमा हूं, मिस्टर रवि,’’ मेरे नजदीक आ कर उस ने मुसकराते हुए अपना परिचय दिया.

मैं उस के सम्मान में उठ खड़ा हुआ.

फिर कुछ हैरान होते हुए पूछा, ‘‘आप मुझे जानती हैं?’’

‘‘मेरी एक सहेली के पति आप की फैक्टरी में काम करते हैं. उन्होंने ही एक बार क्लब में आप के बारे में बताया था.’’

‘‘आप बैठिए, प्लीज.’’

‘‘आप की गरदन को अकड़ने से बचाने के लिए यह नेक काम तो मुझे करना ही पड़ेगा,’’ उस ने शिकायती नजरों से मेरी तरफ देखा पर साथ ही बड़े दिलकश अंदाज में मुसकराई भी.

‘‘आई एम सौरी, पर कोई आप को बारबार देखने से खुद को रोक भी तो नहीं सकता है, सीमाजी. मुझे नहीं लगता कि आज रात आप से ज्यादा सुंदर कोई महिला इस पार्टी में आएगी,’’ उस की मुसकराने की अदा ही कुछ ऐसी थी कि उस ने मुझे उस की तारीफ करने का हौसला दे दिया.

‘‘कुछ सैकंड की मुलाकात के बाद ही ऐसी झूठी तारीफ… बहुत कुशल शिकारी जान पड़ते हो, रवि साहब,’’ उस का तिरछी नजर से देखना मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा गया.

‘‘नहीं, मैं ने तो आज तक किसी चिडि़या का भी शिकार नहीं किया है.’’

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इतने भोले लगते तो नहीं हो. क्या आप की शादी हो गई है?’’

‘‘हां, कुछ महीने पहले ही हुई है और तुम्हारे पूछने से पहले ही बता देता हूं कि मैं अपनी शादी से पूरी तरह संतुष्ट व खुश हूं.’’

‘‘रियली?’’

‘‘यस, रियली.’’

‘‘जिस को घर का खाना भर पेट मिलता हो, उस की आंखों में फिर भूख क्यों?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांकते हुए पूछा.

‘‘कभीकभी दूसरे की थाली में रखा खाना ज्यादा स्वादिष्ठ प्रतीत हो तो इनसान की लार टपक सकती है,’’ मैं ने भी बिना शरमाए कहा.

‘‘इनसान को खराब आदतें नहीं डालनी चाहिए. कल को अपने घर का खाना अच्छा लगना बंद हो गया तो बहुत परेशानी में फंस जाओगे, रवि साहब.’’

‘‘बंदा संतुलन बना कर चलेगा, तुम फिक्र मत करो. बोलो, इजाजत है?’’

‘‘किस बात की?’’ उस ने माथे पर बल डाल लिए.

‘‘सामने आई थाली में सजे स्वादिष्ठ भोजन को जी भर कर देखने की? मुंह में पानी लाने वाली महक का आनंद लेने की?’’

‘‘जिस हिसाब से तुम्हारा लालच बढ़ रहा है, उस हिसाब से तो तुम जल्द ही खाना चखने की जिद जरूर करने लगोगे,’’ उस ने पहले अजीब सा मुंह बनाया और फिर खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘क्या तुम वैसा करने की इजाजत नहीं दोगी?’’ उस की देखादेखी मैं भी उस के साथ खुल कर फ्लर्ट करने लगा.

‘‘दे सकती हूं पर…’’ वह ठोड़ी पर उंगली रख कर सोचने का अभिनय करने लगी.

‘‘पर क्या?’’

‘‘चिडि़या को जाल में फंसाने का तुम्हारा स्टाइल मुझे जंच नहीं रहा है. मन पर भूख बहुत ज्यादा हावी हो जाए तो इनसान बढि़या भोजन का भी मजा नहीं ले पाता है.’’

‘‘तो मुझे सिखाओ न कि लजीज भोजन का आनंद कैसे लिया जाता है?’’ मैं ने अपनी आवाज को नशीला बनाने के साथसाथ अपना हाथ भी उस के हाथ पर रख दिया.

‘‘मेरे स्टूडैंट बनोगे?’’ उस की आंखों में शरारत भरी चमक उभरी.

‘‘बड़ी खुशी से, टीचर.’’

‘‘तो पहले एक छोटा सा इम्तिहान दो, जनाब. इसी वक्त कुछ ऐसा करो, जो मेरे दिल को गुदगुदा जाए.’’

‘‘आप बहुत आकर्षक और सैक्सी हैं,’’ मैं ने अपनी आवाज को रोमांटिक बना कर उस की तारीफ की.

‘‘कुछ कहना नहीं, बल्कि कुछ करना है, बुद्धू.’’

‘‘तुम्हें चूम लूं?’’ मैं ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘मुझे बदनाम कराओगे? मेरा तमाशा बनाओगे?’’ वह नाराज हो उठी.

‘‘नहीं, सौरी.’’

‘‘जल्दी से कुछ सोचो, नहीं तो फेल कर दूंगी,’’ वह बड़ी अदा से बोली.

उस के दिल को गुदगुदाने के लिए मुझे एक ही काम सूझा. मैं ने अपना पैन  जेब से निकाल कर गिरा दिया और फिर उसे उठाने के बहाने झुक कर उस का हाथ चूम लिया.

‘‘मैं पास हुआ या फेल, टीचर?’’ सीधा होने के बाद जब मैं ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा तो शर्म से उस के गोरे गाल गुलाबी हो उठे.

‘‘पास, और अब बोलो क्या इनाम चाहिए?’’ उस ने शोख अदा से पूछा.

‘‘अब इसी वक्त तुम कुछ ऐसा करो जिस से मेरा दिल गुदगुदा जाए.’’

‘‘मेरे लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं है,’’ कह वह मेरा हाथ थाम डांस फ्लोर की तरफ चल पड़ी.

उस रूपसी के साथ चलते हुए मेरा मन खुश हो गया. उधर लोग हमें हैरानी भरी नजरों से देख रहे थे.

डांस फ्लोर पर कुछ युवक और बच्चे डीजे के तेज संगीत पर नाच रहे थे. सीमा ने बेहिचक डांस करना शुरू कर दिया. मेरा ध्यान नाचने में कम और उसे नाचते हुए देखने में ज्यादा था. क्या मस्त हो कर नाच रही थी. ऐसा लग रहा था मानो उस के अंगअंग में बिजली भर गई हो. आंखें यों अधखुली सी थीं मानो कोई सुंदर सपना देखते हुए किसी और दुनिया में पहुंच गई हों.

करीब आधा घंटा नाचने के बाद हम वापस अपनी जगह आ बैठे. मैं खुद जा कर 2 कोल्डड्रिंक ले आया.

‘‘थैंक यू, रवि पर मेरा दिल कुछ और पीने को कह रहा है,’’ उस ने मुसकराते हुए कोल्डड्रिंक लेने से इनकार कर दिया.

‘‘फिर क्या लोगी?’’

‘‘ताजा, ठंडी हवा की मिठास के बारे में क्या खयाल है?’’

‘‘बड़ा नेक खयाल है. मैं ने कुछ दिन पहले ही घर में नया एसी. लगवाया है. वहीं चलें?’’

‘‘बच्चे, इस टीचर की एक सीख तो इसी वक्त गांठ बांध लो. जिस का दिल जीतना चाहते हो, उस के पहले अच्छे दोस्त बनो. उस के शौक, उस की इच्छाओं व खुशियों को जानो और उन्हें पूरा कराने में दिल से दिलचस्पी लो. अपने फायदे व मन की इच्छापूर्ति के लिए किसी करीबी इनसान का वस्तु की तरह से उपयोग करना गलत भी है और मूर्खतापूर्ण भी,’’ सीमा ने सख्त लहजे में मुझे समझाया तो मैं ने अपना चेहरा लटकाने का बड़ा शानदार अभिनय किया.

‘‘अब नौटंकी मत करो,’’ वह एकदम हंस पड़ी और फिर मेरा हाथ पकड़ कर उठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारी कार में ठंडी हवा का आनंद लेने हम कहीं घूमने चलते हैं.’’

‘‘वाह, तुम्हें कैसे पता चला कि मुझे लौंग ड्राइव पर जाना बहुत पसंद है?’’ मैं ने बहुत खुश हो कर पूछा.

‘‘अरे, मुझे तो दूल्हादुलहन को सगुन भी देना है. तुम यहीं रुको, मैं अभी आया,’’ कह कर मैं स्टेज की तरफ चलने को हुआ तो उस ने मेरा बाजू थाम कर मुझे रोक लिया. बोली, ‘‘अभी चलो, खाना खाने को तो लौटना ही है. सगुन तब दे देना,’’ और फिर मुझे खींचती सी दरवाजे की तरफ ले चली.

‘‘और अगर नहीं लौट पाए तो?’’ मैं ने उस के हाथ को अर्थपूर्ण अंदाज में कस कर दबाते हुए पूछा तो वह शरमा उठी.

 

कुछ देर बाद मेरी कार हाईवे पर दौड़ रही थी. सीमा ने मुझे एसी. नहीं चलाने

दिया. कार के शीशे नीचे उतार कर ठंडी हवा के झोंकों को अपने चेहरे व केशों से खेलने दे रही थी. वह आंखें बंद कर न जाने कौन सी आनंद की दुनिया में पहुंच गई थी.

कुछ देर बाद हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई पर उस ने फिर भी खिड़की का शीशा बंद नहीं किया. आंखें बंद किए अचानक गुनगुनाने लगी.

गाते वक्त उस के शांत चेहरे की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना असंभव था. उस का मूड न बदले, इसलिए मैं ने बहुत देर तक एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं निकाला.

गाना खत्म कर के भी उस ने अपनी आंखें नहीं खोलीं. अचानक उस का हाथ मेरी तरफ बढ़ा और वह मेरा बाजू पकड़ कर मेरे नजदीक खिसक आई.

‘‘भूख लग रही हो तो लौट चलें?’’

मैं ने बहुत धीमी आवाज में उस की इच्छा जाननी चाही.

‘‘तुम्हें लग रही है भूख?’’ बिना आंखें खोले वह मुसकरा पड़ी.

‘‘अब हम जो करेंगे, वह तुम्हारी मरजी से करेंगे.’’

‘‘तुम तो बड़े काबिल शिष्य साबित हो रहे हो, रवि साहब.’’

‘‘थैंक यू, टीचर. बोलो, कहां चलें?’’

‘‘जहां तुम्हारी मरजी हो,’’ वह मेरे और करीब खिसक आई.

‘‘तब खाना खाने चलते हैं. यह चुनाव तुम करो कि शादी का खाना खाना है या हाईवे के किसी ढाबे का.’’

‘‘अब भीड़ में जाने का मन नहीं है.’’

‘‘तब किसी अच्छे से ढाबे पर रुकते…’’

‘‘बच्चे, एक नया सबक और सीखो. लोहा तेज गरम हो रहा हो, तो उस पर चोट करने का मौका चूकना मूर्खता होती है,’’ उस ने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा तो मेरी रगरग में खून तेज रफ्तार से दौड़ने लगा.

‘‘बिलकुल होगी, टीचर. अरे, गोली मारो ढाबे को,’’ मैं ने मौका मिलते ही कार को वापस जाने के लिए मोड़ लिया.

अपने घर का ताला खोल कर मैं जब तक ड्राइंगरूम में नहीं पहुंच गया, तब तक सीमा ने न मेरा हाथ छोड़ा और न ही एक शब्द मुंह से निकाला. जब भी मैं ने उस की तरफ देखा, हर बार उस की नशीली आंखों व मादक मुसकान को देख कर सांस लेना भी भूल जाता था.

मैं ने ड्राइंगरूम से ले कर शयनकक्ष तक का रास्ता उसे गोद में उठा कर पूरा किया. फिर बोला, ‘‘तुम दुनिया की सब से सुंदर स्त्री हो, सीमा. तुम्हारे गुलाबी होंठ…’’

‘‘अब डायलौग बोलने का नहीं, बल्कि ऐक्शन का समय है, मेरे प्यारे शिष्य,’’ सीमा ने मेरे होंठ अपने होंठों से सील कर मुझे खामोश कर दिया.

फिर जो ऐक्शन हमारे बीच शुरू हुआ, वह घंटों बाद ही रुका होगा, क्योंकि मेरी टीचर ने स्वादिष्ठ खाने को किसी भुक्खड़ की तरह खाने की इजाजत मुझे बिलकुल नहीं दी थी.

अगले दिन रविवार की सुबह जब दूध वाले ने घंटी बजाई, तब मेरी नींद मुश्किल से टूटी.

‘‘आप लेटे रहो. मैं दूध ले लेती हूं,’’ सीमा ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पलंग से नहीं उठने दिया.

‘‘नहीं, तुम यहां से हिलना भी मत, टीचर, क्योंकि यह शिष्य कल रात के सबक को 1 बार फिर से दोहराना चाहता है,’’ मैं ने उस के होंठों पर चुंबन अंकित किया और दूध लेने को उठ खड़ा हुआ.

आजकल मैं अपनी जीवनसंगिनी सीमा की समझदारी की मन ही मन खूब दाद देता हूं. मैं फैक्टरी के कामों में बहुत व्यस्त रहता हूं और वह अपनी जौब की जिम्मेदारियां निभाने में. हमें साथसाथ बिताने को ज्यादा वक्त नहीं मिलता था और इस कारण हम दोनों बहुत टैंशन में व कुंठित हो कर जीने लगे थे.

‘‘हम साथ बिताने के वक्त को बढ़ा नहीं सकते हैं तो उस की क्वालिटी बहुत अच्छी कर लेते हैं,’’ सीमा के इस सुझाव पर खूब सोचविचार करने के बाद हम दोनों ने पिछली रात से यह ‘टीचर’ वाला खेल खेलना शुरू किया है.

कल रात हम रिसैप्शन में पहले अजनबियों की तरह से मिले और फिर फ्लर्ट करना शुरू कर दिया. कल उसे टीचर बनना था और मुझे शिष्य. कल मैं उस के हिसाब से चला और मेरे होंठों पर एकाएक उभरी मुसकराहट इस बात का सुबूत थी कि मैं ने उस शिष्य बन कर बड़ा लुत्फ उठाया, खूब मौजमस्ती की.

अगली छुट्टी वाले दिन या अन्य उचित अवसर पर मैं टीचर बनूंगा और सीमा मेरी शिष्या होगी. उस अवसर को पूरी तरह से सफल बनाने के लिए मेरे मन ने अभी से योजना बनानी शुरू कर दी है. हमें विश्वास है कि साथसाथ बिताने के लिए कम वक्त मिलने के बावजूद इस खेल के कारण हमारा विवाहित जीवन कभी नीरसता व ऊब का शिकार नहीं बनेगा.

आखिर क्यों : अंधभक्ति के कारण बर्बाद हुई रोली की जिंदगी

रोली बहुत देर तक अपनी मम्मी की बात पर विचार करती रही. कुछ गलत तो नहीं कह रही थी उस की मम्मी. परंतु रोली को अच्छे से पता था कि शिखर और उस के मातापिता रोली की बात को पूरी तरह से नकार देंगे. तभी बाहर ड्राइंगरूम में शिखर ने न्यूज लगा दी. चारों तरफ कोरोना का कहर मचा हुआ था. हर तरफ मृत्यु और बेबसी का ही नजारा था, तभी पापाजी चिंतित से बाहर निकले और शिखर से बोले, ‘‘वरुण को कंपनी ने 2 महीने का नोटिस दे दिया है.‘‘

वरुण शिखर की बहन का पति था. शिखर बोला, ‘‘पापा, चिंता मत कीजिए, वरुण टैलेंटेड लड़का है. कुछ न कुछ हो जाएगा, मैं 1-2 जगह बात कर के देखता हूं.‘‘

रोली रसोई में चाय बनाते हुए सोच रही थी, ‘आज वरुण हैं तो कल शिखर भी हो सकता है,’ चाय बनातेबनाते रोली ने दृढ़ निश्चय ले लिया था.

जब सभी लोग चाय की चुसकियां ले रहे थे, तो रोली बोली, ‘‘अगले हफ्ते मेरठ वाले गुरुजी यहीं पर आ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि हम भी अपने घर पर यज्ञ करवाएं.

‘‘यज्ञ करवाने के पश्चात न केवल हमारा परिवार कोरोना के संकट से बचा रहेगा, बल्कि शिखर की नौकरी पर भी कोई आंच नहीं आएगी.‘‘

‘‘बस 50,000 रुपए का खर्च है, पर ये कोरोना पर होने वाले खर्च से तो बहुत सस्ता है शिखर.”

रोली की सास अपनी पढ़ीलिखी बहू के मुंह से ये बात सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और बोलीं, ‘‘रोली, ये तुम क्या कह रही हो? चारों तरफ कोरोना का कहर है और तुम ऐसे में घर में यज्ञ करवाना चाहती हो?‘‘

रोली तुनकते हुए बोली, ‘‘हां मम्मीजी, आप को तो मेरी सब चीजों से दिक्कत है.’‘

‘‘आप खुद जपतप करें सब ठीक, पर अगर मैं परिवार की भलाई के लिए कुछ करवाना चाहूं तो आप को उस में भी दिक्कत है.‘‘

रोली के ससुर बोले, ‘‘रोली बेटा, ऐसी बात नहीं है, पर ये संभव नहीं है.

‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि हम ऐसे भीड़ इकट्ठी नहीं कर सकते हैं.‘‘

शिखर उठते हुए बोला, ‘‘रोली, मेरे पास ऐसे यज्ञपूजन पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं और शायद हम अब कोरोना से बच भी जाएं, परंतु उस यज्ञ के कारण हमारा पूरा परिवार जरूर कोरोना के कारण स्वाहा हो जाएगा.‘‘

रोली गुस्से में पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई. रात के 8 बज गए, लेकिन रसोई में सन्नाटा था. शिखर कमरे में गया और प्यार से बोला, ‘‘रोली गुस्सा थूक दो, आज खाना नहीं खिलाओगी क्या?‘‘

रोली चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्यों नौकरानी हूं तुम्हारी और तुम्हारे मम्मीपापा की?‘‘

‘‘अपनी इच्छा से मैं घर में एक काम भी नहीं कर सकती, पर जब काम की बारी आती है तो बस वह ही याद आती है.’‘

शिखर रोली को प्यार से समझाता रहा, परंतु वह टस से मस नहीं हुई.

शिखर और उस के मम्मीपापा की सारी कोशिशें बेकार हो गई थीं. रोली की आंखों पर गुरुजी के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी.

रोली के मन में कोरोना का डर इस कदर हावी था कि वह किसी भी तरह कोरोना के पंजे से बचना चाहती थी.

रोली की मम्मी उसे रोज फोन पर बताती कि कैसे गुरुजी ने अपने तप से रोली के मायके में पूरे परिवार को कोरोना से पूरी तरह सुरक्षित कर रखा है.

रोली की मम्मी यह भी
बोलतीं, ‘‘अरे, हम लोग न तो मास्क लगाते हैं और न ही सेनेटाइजर का प्रयोग करते हैं. बस गुरुजी की भभूति लगा लेते हैं.‘‘

‘‘सारी कंपनियों में छंटनी और वेतन में कटौती हो रही है, पर तेरे छोटे भाई का तो गुरुजी के कारण ऐसे संकट काल में भी प्रमोशन हो गया है.‘‘

आज गुरुजी रोली के शहर देहरादून आ गए थे. रोली को पता था कि शिखर गुरुजी का यज्ञ घर पर कभी नहीं कराएगा और न ही कभी पैसे देगा.

रोली ने गुरुजी के मैनेजर से फोन पर बात की, तो उन्होंने कहा, ‘‘आप यहीं पर आ जाएं. तकरीबन 500 भक्त और भी हैं. गुरुजी के भक्तों ने ही गुरुद्वारा रोड पर एक हाल किराए पर ले लिया है…

‘‘आप बेझिझक यहां चली आएं,‘‘ गुरुजी के मैनेजर ने कहा.

रोली मन ही मन खुश थी, परंतु 50,000 रुपयों का इंतजाम कैसे करे? वह यही सोच रही थी, तभी रोली को ध्यान आया कि क्यों न वह अपने मायके से मिला हुआ सेट इस अच्छे काम के लिए दान कर दे.

सुबह काम करने के बाद रोली तैयार हो गई और शिखर और उस के मम्मीपापा से बोली, ‘‘मैं 2 दिन के लिए गुरुजी के शिविर में जा रही हूं.‘‘

‘‘मैं ने पैसों का बंदोबस्त कर लिया है. परिवार की खुशहाली के लिए यज्ञ कर के मैं परसों तक लौट आऊंगी.‘‘

शिखर की मम्मी बोलीं, ‘‘रोली, होश में तो हो ना…‘‘

‘‘हम तुम्हें कहीं नहीं जाने देंगे. तुम्हें मालूम है ना कि ये महामारी है और इस का वायरस बड़ी तेजी से फैलता है.‘‘

रोली गुस्से में बोली, ‘‘आप भी भूल रही हैं मम्मी कि मैं एक बालिग हूं. आप को शायद मालूम नहीं है कि जिस तरह का व्यवहार आप मेरे साथ कर रही हैं, वो घरेलू हिंसा के दायरे में आता है. यह एक तरह की मानसिक और भावनात्मक हिंसा है.‘‘

शिखर ने अपने मम्मीपापा से कहा, ‘‘जब रोली ने कुएं में छलांग लगाने का निर्णय ले ही लिया है, तो आप उसे रोकिए मत.‘‘

शिखर बिना कुछ बोले रोली को उस हाल के गेट तक छोड़ आया. हाल के गेट पर भीड़ देख शिखर ने रोली से कहा, ‘‘रोली, एक बार और सोच लो.‘‘

रोली मुसकराते हुए बोली, ‘‘मैं तो गुरुजी को घर पर बुलाना चाहती थी, पर तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की जिद के कारण मैं यहां पर हूं.‘‘

रोली जैसे ही हाल के अंदर पहुंची, बाहर गेट पर खड़े युवकों ने उस का मास्क उतरवा दिया और फिर गंगाजल से उस के हाथ धुलवाए.

अंदर धीमाधीमा संगीत चल रहा था. रोली ने देखा कि तकरीबन 300 लोग वहां थे. हर कोई गुरुजी के आगे सिर झुका कर श्रद्धा के साथ दान कर रहा था.

रोली भी गुरुजी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘गुरुजी, मेरे पास तो बस ये गहने हैं देने के लिए.‘‘

गुरुजी शांत स्वर में बोले, ‘‘बेटी, दान से अधिक भाव का महत्व है. तुम जो भी पूरी श्रद्धा से भेंट करोगी, वह हमें स्वीकार है.‘‘

सात्विक भोजन, सात्विक माहौल, न कोई महामारी का डर और न ही चिंता. रोली को इतना हलका तो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था. उस का गुस्सा भी काफूर हो गया था. अब तो रोली को अपने परिवार की बुद्धि पर तरस आ रहा था कि वो ऐसे अच्छे आनंदमय वातावरण से वंचित रह गए हैं.

पूरा दिन गुरुजी के प्रवचन और यज्ञ में बीत गया था. रात में जब रोली सोने के लिए कमरे में गई तो देखा कि उस छोटे से कमरे में 8 महिलाओं के बिस्तर लगे हुए थे.

रोली पहले तो हिचकिचाई, पर फिर उसे गुरुजी की कही हुई बात याद आई कि कैसे हम ने डरडर कर इस वायरस को अपने ऊपर हावी कर रखा है. ये वायरस मनुष्य को मनुष्य से दूर करना चाहता है. दरअसल, ऐसे पूजाहवन से ही इस महाकाल वायरस का सफाया हो जाएगा. ये ऊपर वाले का इशारा है हम मूर्ख मनुष्यों के लिए कि हम उन की शरण में जाएं. अगर विज्ञान कुछ करने में सक्षम होता, तो क्यों पूरे विश्व मे त्राहित्राहि मची रहती.

ये सब बातें याद आते ही रोली शांत मन से आंखें बंद कर के सो गई. सुबह 6 बजे रोली की आंखें खुलीं तो उसे लगा, जैसे वह रूई की तरह हलकी हो गई है.

गुरुजी को स्मरण कर के रोली ने सब से पहले अपनी मम्मी को फोन लगाया और फिर शिखर को फोन कर अपना हालचाल बताया.

अगला दिन भी भजन, प्रवचन और ध्यान में ऐसे बीत गया कि रोली को पता भी नहीं चला कि कब शाम हो गई. तकरीबन 500 लोग इस पूजा में सम्मलित थे, परंतु न तो कोई आपाधापी थी, न ही कोई घबराहट.

शाम के 7 बजे रोली ने गुरुजी को प्रणाम किया, तो गुरुजी ने उसे भभूति देते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये भभूति तुम्हारी हर तरह से रक्षा करेगी.‘‘

जब रोली बाहर निकली तो देखा कि शिखर कार में बैठा उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

रोली बिना कोई प्रतिक्रिया किए कार में बैठ गई. घर आ कर भी वह बेहद शांत और संभली हुई लग रही थी. रोली ने किसी से कुछ नहीं कहा और न ही उस के सासससुर ने उस से कुछ पूछा.

अगले रोज सुबहसुबह शिखर ने रोली को खुशखबरी सुनाई कि बहुत दिनों से जिस कंपनी में उस की बात अटकी हुई थी, वहां से बात फाइनल हो गई है. 1 अगस्त को उसे पूना में ज्वाइनिंग के लिए जाना है.

रोली नाचते हुए बोली, ‘‘ये सब गुरुजी की कृपा है.‘‘

शिखर बोला, ‘‘अरे वाह, मेहनत मैं करूं और क्रेडिट तुम्हारे गुरुजी ले जाएं.‘‘

जब से रोली गुरुजी के पास से आई थी, उस ने सावधानी बरतनी छोड़ दी थी. शिखर की नौकरी के कारण रोली का विश्वास और पक्का हो गया था.

और फिर एक हफ्ते बाद रोली को वह खुशखबरी भी मिल गई, जिस का पिछले 5 साल से इंतजार कर रही थी. वह मां बनने वाली थी. घर में ऐसा लग रहा था, चारों ओर खुशियों की बरसात हो रही है. रोली को पक्का विश्वास था कि देरसवेर ही सही, शिखर और उस का परिवार भी गुरुजी की भक्ति में आ जाएगा. पर, जब 5 दिन बाद रोली को बुखार हो गया, तो रोली के सासससुर और शिखर के होश उड़ गए थे. परंतु रोली ने कोई दवा नहीं ली, बल्कि गुरुजी के यहां से लाई भभूति चाट ली.

शिखर ने रोली को टेस्ट कराने के लिए भी कहा, परंतु रोली ने कहा, ‘‘मैं ने गुरुजी से फोन पर बात की थी. मुझे वायरल हुआ है. गुरुजी ने कहा है कि परसों तक सब ठीक हो जाएगा.‘‘

पर, उसी रात अचानक ही रोली को सांस लेने में दिक्कत होने लगी. रोली को महसूस हो रहा था, जैसे पूरे वातावरण में औक्सीजन की कमी हो गई हो.

शिखर रात में ही रोली को ले कर अस्पताल भागा. बहुत मुश्किलों से रोली को किसी तरह अस्पताल में दाखिला मिला. पुलिस ने पूछताछ की, तो एक के बाद एक लगभग 500 लोगों की एक लंबी कोरोना चेन बन गई.

गुरुजी का फोन स्विच औफ आ रहा था. यज्ञ में शामिल हुए परिवारों का जब कोरोना टेस्ट हुआ तो ऐसा लगा, कोरोना बम का विस्फोट हो गया है. जहां पहले शहर में बस गिनती के 50 मामले थे, वे अब सीधे 500 पार कर गए थे.

रोली शर्म के कारण आंख नहीं उठा पा रही थी. काश, उस ने शिखर और उस के परिवार की बात मान ली होती. रोली को अपने से ज्यादा पेट में पल रहे बच्चे की चिंता हो रही थी. उधर शिखर को रोली के साथसाथ अपने डायबिटिक मातापिता की भी चिंता हो रही थी. शिखर को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों रोली की इस अंधभक्ति का नतीजा रोली के साथसाथ पूरे परिवार को भुगतना पड़ेगा. आखिर कब तक हम पढ़ेलिखे लोग भी अपनेआप को इस तरह अंधविश्वास के कुएं में धकेलते रहेंगे? आखिर क्यों हम आज भी हर समस्या का शार्टकट ढूंढ़ते हैं? आखिर क्यों…?

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी

बेटा बेटीको बराबर मानने वाले सुकांत और निधि दंपती ने अपने तीनों बच्चों उन्नति, काव्या और सुरम्य में कभी कोई फर्क नहीं रखा. एकसमान परवरिश की. यही कारण था जब बड़ी बेटी उन्नति ने डैंटल कालेज में प्रवेश लेने की इच्छा जाहिर की तो…

‘‘पापा ऐश्वर्या डैंटल कोर्स करने के लिए चीन जा रही है. मैं भी जाना चाहती हूं. मुझे भी डैंटिस्ट ही बनना है.’’

‘‘तो बाहर जाने की क्या जरूरत है? डैंटल कोर्स भारत में भी तो होते हैं.’’

‘‘पापा, वहां डाइरैक्ट ऐडमिशन दे रहे हैं 12वीं कक्षा के मार्क्स पर… यहां कोचिंग लूं, फिर टैस्ट दूं. 1-2 साल यों ही चले जाएंगे,’’ उन्नति बोली.

‘‘पर बेटा…’’

‘‘परवर कुछ नहीं पापा. आप ऐश्वर्या के पापा से बात कर लीजिए. मैं उन का नंबर मिला देती हूं… उन्हें सब पता है… वे अपने काम के सिलसिले में अकसर वहां जाते रहते हैं.’’

सुकांत ने बात की. फीस बहुत ज्यादा थी. अत: वे सोच में पड़ गए.

‘‘ऐजुकेशन लोन भी मिलता है जी आजकल बच्चों को विदेश में पढ़ने के लिए… पढ़ने में भी ठीकठाक है… पढ़ लेगी तो दांतों की डाक्टर बन जाएगी,’’ निधि भी किचन से हाथ पोंछते हुए उन के पास आ गई थीं.

‘‘पर पहले पता करने दो ठीक से कि वह मान्यताप्राप्त है भी या नहीं.’’

‘‘है न मां. बस वापस आ कर यहां एक परीक्षा देनी पड़ती है एमसीआई की और प्रमाणपत्र मिल जाता है. पापा, अगर मेरी जगह सुरम्य होता तो आप जरूर भेज देते.’’

‘‘नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. तुम ने ऐसा क्यों सोचा? क्या तुम भाईबहनों में मैं ने कभी कोई फर्क किया?’’ सुकांत ने उस के गालों पर प्यार से थपकी दी.

बैंक में कैशियर ही तो थे सुकांत. निधि स्कूल में टीचर थीं. दोनों के वेतन से घर बस ठीकठाक चल रहा था. कुछ ज्यादा जमा नहीं कर सके थे दोनों. सुकांत की पैतृक संपत्ति भी झगड़े में फंसी थी. बरसों से मुकदमे में पैसा अलग लग रहा था. हां, निधि को मायके से जरूर कुछ संपत्ति का अपना हिस्सा मिला था, जिस से भविष्य में बच्चों की शादी और अपना मकान बनाने की सोच रहे थे.

‘‘मकान तो बनता रहेगा निधि, शादियां भी होती रहेंगी… पहले बच्चे लायक बन जाएं तो यह सब से बड़ी बात होगी… है न?’’ कह सुकांत ने सहमति चाही थी, फिर खुद ही बोले, ‘‘हो सकता है हम मुकदमा जीत जाएं… तब तो पैसों की कोई कमी नहीं रहेगी.’’

‘‘हां, ठीक तो कह रहे हैं. आजकल बहुएं भी लोग कामकाजी ही लाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. बढि़या प्रोफैशनल कोर्स कर लेगी तो घरवर भी बहुत अच्छा व आसानी से मिल जाएगा,’’ निधि ने अपनी सहमति जताई.

‘‘जमा राशि आड़े वक्त के लिए पड़ी रहेगी… कोई ऐजुकेशन लोन ही ले लेते हैं. वही ठीक रहेगा… पता करता हूं डिटेल… इस के जौब में आने के बाद ही किस्तें जानी शुरू होंगी.’’

सुकांत ने पता किया और फिर सारी प्रक्रिया शुरू हो गई. उन्नति पढ़ाई के लिए विदेश चली गई. दूसरी बेटी काव्या के अंदर भी विदेश में पढ़ाई करने की चाह पैदा हो गई. 12वीं कक्षा के बाद उस ने लंदन से बीबीए करने की जिद पकड़ ली.

‘‘पापा, दीदी को तो आप ने विदेश भेज दिया मुझे भी लंदन से पढ़ाई करनी है… पापा प्लीज पता कीजिए न.’’

सुकांत और निधि ने सारी तहकीकात कर काव्या को भी पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया.

अब रह गया था सब से छोटा बेटा सुरम्य. पढ़ने में वह भी अच्छा था. वह भी डाक्टर बनना चाहता था. मगर घर का खर्च देख कर उस का खयाल बदलने लगा कि मातापिता कहां तक करेंगे… साल 6 महीने बाद पीएमटी परीक्षा में सफल भी हुआ तो 4 साल एमबीबीएस की पढ़ाई. फिर इंटर्नशिप. उस के बाद एमडी या एमएस उस के बिना तो डाक्टरी का कोई मतलब ही नहीं. फिर अब मम्मीपापा रिटायर भी होने वाले हैं… कब कमा पाऊंगा, कब उन की मदद कर पाऊंगा… 2 लोन पहले ही उन के सिर पर हैं.

मुझे कुछ जल्दी पढ़ाई कर के पैसा कमाना है. फिर उस ने अपना स्ट्रीम ही कौमर्स कर लिया. 12वीं कक्षा के बाद उस ने सीए की प्रवेश परीक्षा पास कर ली. स्टूडैंट लोन ले कर उस ने अपनी सीए की पढ़ाई शुरू कर दी. दिन में पढ़ाई करना और रात में काल सैंटर में जौब करने लगा. सुकांत और निधि थोड़े परेशान अवश्य थे, पर मन में कहीं यह संतोष था कि बच्चे काबिल बन कर अपने पैरों पर खड़े हो इज्जत और शान की जिंदगी जीएंगे, इस से बड़ी और क्या बात होगी उन के लिए.

सुकांत रिटायर हो कर किराए के मकान में आ गए थे.

‘‘और क्या जी हम नहीं बनवा सके घर तो क्या बच्चे तो अपना घर बना कर ठाठ से रहेंगे,’’ एक दिन निधि बोलीं.

उन्नति का बीडीएस पूरा हो गया. वापस आ कर उस ने भारत की मान्यता के लिए परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली. इंटर्नशिप के बाद उसे लाइसैंस मिल गया. मांबाप का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. उन्नति ने एक पीजी डैंटिस्ट रवि को जीवनसाथी के रूप में पसंद कर लिया. रवि को दहेज नहीं चाहिए था पर घर वालों को शादी धूमधाम से चाहिए थी.

‘‘ठीक ही तो है पापा शादी रोजरोज थोड़े ही होती है. अब ये लोग दहेज तो नहीं ले रहे न,’’ उन्नति मम्मीपापा, को दलील के साथ राजी करने की कोशिश में थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तू चिंता मत कर,’’ सुकांत ने उसे तसल्ली देते हुए कहा.

जैसेतैसे सुकांत और निधि ने बड़ी बेटी को फाइवस्टार होटल से विदा किया.

‘‘मम्मीपापा मुझे पढ़ने का शौक था सो पढ़ लिया… प्रैक्टिस वगैरह मेरे बस की नहीं… मुझे तो बस घूमनाफिरना और मस्ती करनी है. लोन का आप देख लेना… मेरे पास वहां बैंक का कोई लेटरवैटर नहीं आना चाहिए वरना बड़ा बुरा फील होगा ससुराल में… रवि को मैं ने लोन के बारे में कुछ नहीं बताया है,’’ उन्नति ने जातेजाते दोटूक अपना मंतव्य बता डाला.

‘‘रवि को मालूम है तू काम नहीं करेगी?’’ सुरम्य को जब मालूम हुआ तो उस ने हैरानगी से पूछा.

इस पर उन्नति बोली, ‘‘और क्या… कह रहे थे कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस रानी बन कर रहना… पलकों पर बैठा कर रखेंगे तू देखना,’’ और वह हंस दी थी.

‘‘दीदी तुम्हें मालूम है न कि मम्मीपापा अब रिटायर हो चुके हैं… हम लोगों के चक्कर में बेचारे मकान तक नहीं बनवा सके… बैंक से स्टूडैंट लोन तो है ही प्राइवेट लोन अलग से, विदेश की पढ़ाई उन्हें कितनी महंगी पड़ी पता है?’’

‘‘भाई, तू तो लड़का है. सीए बनते ही बढि़या कंपनी में लग जाना है. तू ठहरा तेज दिमाग… फिर धड़ाधड़ पैसे कमाएगा तू… थोड़ा ओवरटाइम भी कर लेना हमारे लिए… मुझे तो गृहस्थी संभालने दे… लाइफ ऐंजौय करनी है मुझे तो, वह अपने लंबे नाखूनों में लगी ताजा नेलपौलिश सुखाने लगी.’’

‘‘कमाल है दीदी पहले विदेश की महंगी प्रोफैशनल पढ़ाई पर खर्च करवाया, फिर फाइवस्टार में शादी की… दहेज न देने पर भी इतना खर्च हुआ जिस की गिनती नहीं. अब काम नहीं करेगी तो तुम्हारा लोन कैसे अदा होगा, सोचा है? माना काव्या दीदी का और मेरा लोन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं पर अपना लोन तो चुकता कर जो बैंक से तुम ने अपने नाम लिया है… काम क्यों नहीं करोगी? फिर प्रोफैशनल पढ़ाई क्यों की? इतना पैसा क्यों बरबाद करवाया जब तुम्हें केवल हाउसवाइफ ही बनना था?’’

‘‘तू तो करेगा न भाई काम?’’

‘‘तुम काम नहीं करोगी तो कुछ दिनों में ही प्यार हवा हो जाएगा रवि का.’’

‘‘तमीज से बात कर. रवि तेरे जीजू हैं.’’

‘‘तुम्हारी वजह से मैं ने डाक्टरी की पढ़ाई नहीं की जबकि मैं बचपन से ही डाक्टर बनना चाहता था. घर की स्थिति देख कर अपना इरादा ही बदल लिया. न… न… करतेकरते भी इतना खर्च करवा डाला… कर्ज में डूब गए हैं मम्मीपापा… शर्म नहीं आती तुम्हें? कब जीएंगे वे अपने लिए कभी सोचा है?’’

‘‘तू है न उन का बेटा… करना सेवा सारी उम्र लायक बेटा बन कर.’’

‘‘वाह, बाकी हर चीज में बराबरी पर जिम्मेदारी में नहीं. वह तो शुक्र है मकान नहीं बना वरना बिकवा कर उस में से भी अपना शेयर लेती… छोड़ उन्नति दीदी तुम क्या समझोगी… जाओ खुश रहो,’’ सुरम्य बाकी का सारा उफान पी गया.

उधर काव्या ने भी लंदन में कमाल कर दिया. वहीं अपने एक दोस्त प्रतीक से ब्याह रचा लिया. 1 महीने के गर्भ से थी. पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भारत लौट आई. ससुराल वालों ने उसे स्वीकारा नहीं.

वे कट्टर रीतिरिवाजों वाले दक्षिण भारतीय मूल के थे. बड़ी जद्दोजहद के बाद राजी हुए पर घर में फिर भी नहीं रखा. लिहाजा प्रतीक और वह घर से अलग रहने पर मजबूर हो गए. दोनों में से किसी के अभी जौब में न होने की वजह से सारा खर्च सुकांत और निधि के कंधों पर ही आ गया.

काव्या ने तो पढ़ाई छोड़ ही दी थी पर प्रतीक ने अपना एमबीए पूरा कर लिया. बाद में उसे जौब भी मिल गई.

उधर उन्नति की ससुराल की असलियत सामने आने  लगी. आए दिन सास तकाजा करतीं, ताने देतीं, ‘‘बहू, तुम्हारी हर महीने की इनकम कहां है. हम ने रवि को तुम से शादी की इजाजत इसलिए दी थी कि दोनों मिल कर घरपरिवार का स्तर बढ़ाने में मदद करोगे… वैसे ही लंबाचौड़ा परिवार है हमारा… बहू तुम से न घर का काम संभाला जाता है न बाहर का… देखती हूं रवि भी कितने दिन तुम्हारी आरती उतारता है,’’ भन्नाई हुई सास रेवती महीने बाद ही अपने असली रूप में आ गई थी.

रवि जब अपने दोस्तों की प्रोफैशनल वर्किंग पत्नियों को देखता तो उन्नति को ले कर अपमानित सा महसूस करता. रोजरोज दोस्तों की महंगी पार्टियों से उसे हाथ खींचना पड़ता. उन्नति को न ढंग का कुछ पकाना आता न कुछ सलीके से करनेसीखने में ही दिलचस्पी लेती. सजनेसंवरने में वक्त बरबाद करती.

फिर वही हुआ जो सुरम्य ने कहा था. खर्चे से रवि परेशान था, क्योंकि अपनी बहनों की ससुराल और रिश्तेदारी निभाने के लिए वही एक जरीया था. उस पर छोटे भाई आकाश की पढ़ाई भी उस के सिर थी.

बहनों की ससुराल वालों ने उस की पुश्तैनी प्रौपर्टी बिकवा कर उस में से हिस्सा लेने के बाद भी मुंह बंद नहीं किया. आए दिन फरमाइशें होती रहतीं, जिन से घर के सभी सदस्य चिड़ेचिड़े से रहते.

तब उन्नति को समझ आया कि बहनों की शादी के बाद प्रौपर्टी और पैसों में ही नहीं घर की जिम्मेदारियों में भी अपनी कुछ हिस्सेदारी समझनी चाहिए. उन्नति को मम्मीपापा और सुरम्य की बहुत याद आई.

आंखें सजल हो उठीं कि कितनी मुश्किल हुई होगी उन्हें. इतने कम पैसों में वे कैसे घर चलाते थे? हमारी जरूरतें, शौक पूरे करते रहे वे… अपना तो उन से सब कुछ करवा लिया हम ने पर उन की जरूरतों को कभी न समझा. सिर्फ नाम के लिए महंगी पढ़ाई कर ली. अपनी मस्ती और स्वार्थ के चलते न काम किया न अपना लोन ही चुकाया. वह आत्मग्लानि से भर उठी.

सप्ताह उपरांत उन्नति ने रवि की मदद से एक प्राइवेट डैंटल हौस्पिटल में काम करना शुरू कर दिया. रवि से उस ने साफ कह दिया, ‘‘जानती हूं कि और कुछ तो मम्मीपापा लेंगे नहीं पर कम से कम अपना ऐजुकेशन लोन जो मैं ने लिया था उसे अवश्य चुकाना चाहूंगी… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

रवि ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख मन ही मन सोचा कि काश उस की बहनें भी ऐसा सोच पातीं.

कुछ सालों बाद काव्या के ससुराल वालों ने उसे अपना लिया. उधर प्रतीक को बड़ी प्रमोशन मिली. उस ने यूएसए के क्लाइंट से अपनी कंपनी को बड़ा फायदा पहुंचाया था. वह एक झटके में ऊंचे ओहदे पर पहुंच गया.

काव्या को ऐशोआराम की सारी सुविधाएं मिलने लगीं तो उसे रहरह कर मम्मीपापा और घर की परिस्थितियों से जूझते भाई की तकलीफ ध्यान आने लगी कि उस ने कैसेकैसे उन का साथ दिया. हम बहनें तो निकम्मी निकलीं. उस का मन पश्चात्ताप से भर उठा. फिर उस ने उन्नति से मन की पीड़ा शेयर की तो उन्नति ने उस से.

इधर सुकांत के गांव की बरसों से मुकदमे में फंसी पैतृक संपत्ति का फैसला उन के पक्ष में हो गया. करीब 50 लाख उन की झोली में आ गए.

‘‘शुक्र है निधि जो फैसला हमारे पक्ष में हो गया. देर आए दुरुस्त आए. मैं ने सुरम्य को औफिस में ही फोन कर बता दिया. आता ही होगा. उन्नति और काव्या को भी खुशखबरी दे दो. उन्हें संडे को आने को कहना.’’

सुकांत के स्वरों में खुशी और उत्साह छलक रहा था. वे जल्द ही अपनी खुशी तीनों बच्चों में बांट लेना चाहते थे और रकम भी.

‘‘संडे को तो दोनों वैसे भी आने वाली हैं. रक्षाबंधन जो है. तभी सरप्राइज देंगे. अभी नहीं बताते,’’ निधि बोलीं.

पीछे का दरवाजा खुला था. उन्नति और काव्या दबे पांव हिसाब लगाते हुए कि पापा इस समय बाथरूम में होंगे और मां किचन में. मेड जा चुकी होगी. 9 बज रहे हैं तो सुरम्य सो ही रहा होगा. एकदूसरे को देख मुसकराते हुए वे सुकांत और निधि के बैडरूम में पहुंच गईं. सुकांत की दराज खोल उन्होंने चुपके से कुछ रखा. फिर सीधे सुरम्य के रूम में जा कर तकियों के वार से उसे जगा दिया.

‘‘आज भी देर तक सोएगा? संडे तो है पर रक्षाबंधन भी है. उठ जल्दी नहा कर आ. राखी नहीं बंधवानी?’’

‘‘अरे उठ भी तुझे राखी बांधने के बाद ही मां कुछ खाने को देंगी… बहुत जोर की भूख लग रही है,’’ कहते हुए काव्या ने एक तकिया उसे और जमा दिया.

‘‘क्या है,’’ सुरम्य आंखें मलते हुए उठ बैठा.

दोनों बहनें उसे बाथरूम की ओर धकेल हंसती हुई किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘मां सरप्राइज,’’ कह दोनों निधि से लिपट गईं.

‘‘अरे, कब घुसी तुम दोनों? मुझे तो पता ही नहीं चला,’’ कह निधि मुसकरा उठी.

राखियां बंधवाने के बाद जब सुरम्य ने दोनों को 6-6 लाख के चैक दिए तो दोनों बहनें उस का चेहरा देखने लगीं.

‘‘मजाक कर रहा है?’’

‘‘मजाक नहीं सच में बेटा… हम वह मुकदमा जीत गए… उसी के 4 हिस्से कर दिए. एक मेरा व निधि का बाकी तुम तीनों के.’’

‘‘अरे नहीं पापा ये हम नहीं ले सकतीं,’’ काव्या और उन्नति एकसाथ बोलीं. उन्होंने उन पैसों को लेने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं मम्मीपापा, इन पर केवल सुरम्य का ही हक है. उसी ने आप दोनों के साथ सारी जिम्मेदारियां उठाई हैं. पहले घर के छोटेछोटे कामों में फिर बड़े कामों में… लोन, बिल्स, औपरेशन, इलाज, रिश्तेदारी, गाड़ी और अब यह मकान. आप दोनों और घर से अलग अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा उस ने.

‘‘सच है मम्मीपापा हर बात में बराबरी करने वाली हम बेटियां पढ़लिख कर भी बेटियां ही रह गईं बेटा न बन सकीं. हम ने शान और मस्ती के अलावा कुछ सोचा ही नहीं… कभी समझना ही नहीं चाहा. दायित्व तो दूर की बात… मेरे और काव्या के लिए बहुत कुछ कर लिया आप ने… अब तो इस का ही हक बनता है हमारा नहीं.’’

‘‘हां पापा, अब तो बस झट से इस के लिए अच्छी सी लड़की पसंद कीजिए और इस की धूमधाम से शादी कर दीजिए, बहुत आनाकानी कर चुका है. हां, नेग हम बड़ाबड़ा लेंगी.’’

उन्नति और काव्या एक के बाद एक बोले जा रही थीं. फिर वे सुरम्य को छेड़ने लगीं, ‘‘वैसे एक बहुत सुंदर लड़की मेरे पड़ोस में है. बस थोड़ी तोतली है. उस से करेगा शादी?’’ उन्नति ने ठिठोली की तो काव्या भी पीछे नहीं रही, ‘‘अरे, मेरी ननद की देवरानी की छोटी बहन दूध जैसी गोरीचिट्टी है. बस थोड़ी भैंगी है. पर उस के बड़े फायदे रहेंगे एक नजर किचन में तो दूसरी से वह तुझे निहारेगी.’’

काव्या और उन्नति दोनों अगले ही दिन चली गईं. घर सूना हो गया.

‘‘निधि… ये मेरी दराज में लिफाफे कैसे रखे हैं?’’ कह उन्होंने एक खोला तो पत्र में लिखावट उन्नति की थी. लिफाफे में हजारहजार के नोट रखे थे. वे अचरज से पढ़ने लगे-

‘‘मम्मीपापा यह मेरी पहली कमाई का छोटा सा अंश है,  आप दोनों के चरणों में. आप इसे मना मत करिएगा. आप दोनों ने मुझे इस काबिल बनाया. मैं कमा कर कम से कम अपना लोन तो खुद उतार सकती थी पर मैं तो अपने में ही मस्त थी. मैं इतनी स्वार्थी कैसे बन गई.

‘‘न कभी आप लोगों के लिए सोचा न सुरम्य के लिए. छोटा था पर हर बात में उस से बराबरी करते हुए उस से घर के कामों में भी फायदा उठाया और अपने बाहर के काम भी उसी से करवाए कि वह लड़का है. सब कुछ उसी पर डाल कर हम बहनें मजे लेती रहीं. सौरी मम्मीपापा. मैं फिर जल्द आऊंगी. आप की डैंटिस्ट बेटी उन्नति.’’

दूसरा लिफाफा काव्या का था, लिखा था-

‘‘मां और पापा, आप ने हमेशा हम तीनों को बराबर का प्यार दिया, हक दिया. बराबर मानते हैं न तो सुरम्य की ही तरह मुझे भी अपना लोन चुकाने दीजिए. आप दोनों मना नहीं करेंगे, सामने से देती तो आप बिलकुल न लेते पर सोचिए तो पापा अगर बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं मानते तो आप को इसे लेना ही पड़ेगा. प्रतीक की भी यही इच्छा है.

‘‘पता नहीं बेटियों का बेटों की तरह मांबाप पर तो हक है पर मांबाप को बेटों की तरह बेटियों पर हक अभी भी समाज में क्यों मान्य नहीं हो पा रहा? प्रतीक ऐसा ही सोचता है. आप ने अपनी परेशानियों को एक ओर कर के हमारे सपने, हमारी जरूरतें पूरी की हैं. हमारा आप पर हक है ठीक है पर हमारा फर्ज भी तो है कुछ… जिसे मैं पहले कभी नहीं समझ पाई. आप दोनों की लाडली बेटी काव्या.’’

पत्र के पीछे लोन अमाउंट का चैक संलग्न था.

बेटियों की चिट्ठियां पढ़ रहे सुकांत और उन के पास खड़ी निधि की आंखें सजल हो उठी थी और सीना गर्व से भर उठा.

‘‘हमें इन्हें वापस करना होगा निधि, कितने समझदार बन गए हैं बच्चे. इन्होंने हमारे लिए इतना सोचा यही बहुत है… अब हमें वैसे भी पैसे की कोई जरूरत नहीं रही.’’

निधि ने आंचल से आंखों के कोरों को पोंछ मुसकराते हुए अपनी सहमति में सिर हिला दिया.

खिलौना : क्या हुआ पलक के साथ मां रीना के घर?

पलक बहुत ही खोईखोई सी घर के एक कोने में बैठी थी. न जाने क्यों उसे यह घर बहुत अजनबी सा लगता था.

बिजनौर में सबकुछ कितना अपनाअपना सा था. सबकुछ जानापहचाना, कितने मस्त दिन थे वे…

पासपड़ोस में घंटों खेलती थी और बड़ी मम्मी कितने प्यार से पकवान बनाती थीं. स्कूल में हमेशा प्रथम
आती थी वह. वादविवाद प्रतियोगिता हो या गायन, पलक हमेशा ही अव्वल आती.

रविवार का दिन तो जैसे एक त्यौहार होता था। पासपड़ोस के अंकलआंटी आते थे और फिर घर की छत पर
मूंगफली और रेवड़ी की बैठक होती थी. बड़े पापा, मम्मी अपने बचपन के किस्से सुनाते थे. पलक घंटों अपनी
सहेलियों के साथ बैठ कर उन पलों में सारा बचपन जी लेती थी.

पूरा दिन 24 घंटों में ही बंटा हुआ था। यहां की तरह नही था कि कुछ पलों में ही खत्म हो जाता है।

तभी ऋषभ भैया अंदर आए और बोले,”पलक, तुम यहां क्यों एक कोने में बैठी रहती हो? क्या प्रौब्लम है।”

ऋषभ भैया अनवरत बोले जा रहे थे,”यह दिल्ली है, बिजनौर नहीं। यह क्या अजीब किस्म की जींस और ढीली कुरती पहन रखी हैं…पता है कल मेरे दोस्त तुम्हें देख कर कितना हंस रहे थे।”

पलक को समझ नहीं आ रहा था, जो कपड़े बिजनौर में मौडर्न कहलाते थे वे यहां पर बेकार कहलाते हैं. पलक
सोच रही थी कि बड़ी मम्मी, पापा ने तो उसे दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजा था पर यहां के स्कूल में तो लगता है पढ़ाई के अलावा सारे काम होते हैं. सब लोग धड़ाधड़ इंग्लिश बोलते हैं, कैसीकैसी गालियां देते हैं कि उस के कान लाल हो जाते हैं।

वैसे इंग्लिश तो पलक की भी अच्छी थी पर न जाने क्यों दिल्ली में उसे बहुत झिझक होती है.

आज ऋषभ भैया और मम्मीपापा पलक को मौल ले कर गए थे, शौपिंग कराने के लिए। इतना बड़ा मौल पलक ने इस से पहले कभी नहीं देखा था.

जब पलक छोटी थी तो बारबार उस के दिमाग मे यही बात आती थी कि वह नानानानी के साथ क्यों रहती है?

पेरैंटटीचर मीटिंग में वह अपने नानानानी को ले कर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि सब की मम्मी इतनी सुंदर, जवान और नएनए स्टाइल के कपड़े पहनती हैं और उस की नानी खिचड़ी बाल और उलटीसीधी साड़ी पहन कर जाती थी.

एक बार उस ने अपनी नानी से पूछ ही लिया,”मैं अपने मम्मीपापा के साथ क्यों नही रहती हूँ?”

नानी हंसते हुए बोली थीं,”क्योंकि कुदरत ने तुम्हें अपने नानानानी के जीवन मे रंग भरने भेजा है।”

पलक को कुछ समझ नहीं आता था पर यह दुविधा उस के बालमन में हमेशा रहती थी. बस इस के अलावा उस की जिंदगी में सब कुछ परफैक्ट था.

जब कभी कभी पलक की मम्मी रीना दिल्ली से अपने बेटे ऋषभ के साथ आती थी तो पलक को बहुत बुरा लगता था. उन दिनों पलक की नानी कितनी अजनबी हो जाती थीं. सारा दिन वह रीना के चारों तरफ घूमती थीं. ऋषभ भैया उसे कितनी हेयदृष्टि से देखते थे.

पलक जब 11 साल की हुई तो उस के जन्मदिन पर उस की मम्मी ने उसे पूरी कहानी बताई कि पलक की
बेहतर देखभाल के लिए ही वह नानानानी के पास रहती है और जल्द ही पलक को वे लोग दिल्ली ले जाएंगे.

कितनी खुश हुई थी पलक यह सुन कर कि जल्द ही वह अपने मम्मीपापा के साथ चली जाएगी.

उस बार जब छुट्टियों में रीना बिजनौर आई हुई थी तो पलक रीना को कर अपने स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में ले कर गई. दोस्तों को उस ने बहुत शान से अपनी मम्मी से मिलवाया था.

रीना बहुत खुश हो कर पलक के साथ उस के स्कूल गई थी, क्योंकि अब वह अपनी बेटी को उस के बेहतर भविष्य
के लिए दिल्ली ले कर जाना चाहती थी.

पलक का स्कूल देख कर रीना को धक्का लगा था, क्योंकि पलक का
स्कूल छोटा और पुरानी तकनीक पर आधारित था.

आते ही रीना अपनी मां से बोली,”मम्मी, अब पलक को दिल्ली ले कर जाना ही होगा। इस छोटे शहर में पलक का ठीक से विकास नहीं हो पाएगा। इस के स्कूल में कुछ भी ठीक नही है।”

पलक की नानी रुआंसी हो कर बोलीं,”रीना, तुम भी तो इसी स्कूल में पढ़ी थीं और बेटा तुम तो पलक को इस दुनिया मे लाना ही नहीं चाहती थी। वह तो जब मैं ने सारी जिम्मेदारी उठाने की बात की थी तब तुम उसे जन्म देने के लिए तैयार हुई थी।”

रीना बेहद महत्त्वाकांक्षी युवती थी. जब उस का बेटा ऋषभ 3 वर्ष का ही हुआ था तब पलक के आने की आहट रीना को मिली थी। ऋषभ की जिम्मेदारी, नौकरी और घर की भागदौड़ में रीना थक कर चूर हो जाती थी. ऐसे में एक नई
जिम्मेदारी के लिए वह तैयार नहीं थी. वैसे भी उन्हें बस एक ही बच्चा चाहिए था, ऐसे में पलक के लिए उन की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

दिल्ली में आसानी से गर्भपात नहीं हो सकता था इसलिए रीना बिजनौर गर्भपात कराने आयी थी. पर
रीना के मम्मीपापा अपने अकेलेपन से ऊब चुके थे. बेटा विदेश में बस गया था. रीना को भी घरपरिवार और
नौकरी के कारण यहां आने की फुरसत नहीं थी. इसलिए रीना के मम्मीपापा, जानकीजी और कृष्णकांतजी को ऐसा लगा जैसे यह कुदरत की इच्छा हो और यह बच्चा उन के पास आना चाह रहा हो…

कितनी मुश्किल से जानकी ने रीना को मनाया था। पूरे समय वे रीना के साथ बनी रही थीं ताकि उसे किसी बात की तकलीफ न हो।

पलक के जन्म के 2 माह बाद जानकी पलक को ले कर बिजनौर आ गई थी. रीना किसी
भी कीमत पर पलक की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, इसलिए उस ने पलक को अपना दूध भी नहीं पिलाया
था.

मां का दूध न मिलने के कारण पहले 2 साल तक पलक बेहद बीमार रही. जानकी और कृष्णकांतजी का एक पैर घर और दूसरा हौस्पिटल में रहता।

पासपड़ोस वाले कहते भी,”आराम के वक्त इस उम्र में यह क्या झंझाल मोल ले लिया है…”

पर जानकी की जिंदगी को एक मकसद मिल गया था। उन की दुनियाभर की बीमारियां एकाएक गायब हो गई थीं.

सारा दिन कैसे बीत जाता था जानकी को पता भी नहीं लगता था। पलक के साथ जानकी ने बहुत मेहनत की थी।

4 वर्ष की होतेहोते पलक एकदम जापानी गुड़िया सी लगने लगी थी.
अब जब भी छुट्टियों में रीना घर जाती तो पलक की बालसुलभ हरकतें और उस का भोलापन देख कर उस की सोई हुई ममता जाग उठती थी. पर रीना किस मुंह से अपनी मां से यह कहती, क्योंकि वह तो पलक को इस दुनिया में लाना ही नहीं चाहती थी और न उस की कोई जिम्मेदारी उठाना चाहती थी। इसलिए कितनेकितने दिनों तक वह अपने मम्मीपापा के पास बिजनौर फोन भी नहीं करती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया और ऋषभ भी अब किशोरवस्था
में पहुंच गया था. ऋषभ अब अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहता।.

जब रीना ने अपने पति पराग से इस बात का जिक्र किया तो उस ने भी रीना को झिड़क दिया,”तुम कितनी खुदगर्ज हो रीना, अब पलक बड़ी हो गई है और ऋषभ की तरफ से तुम फ्री हो तो तुम्हें पलक याद आने लगी है और तुम्हें यह एहसास होने लगा है कि तुम पलक की मम्मी हो?

“याद है तुम्हें जब वह 7 महीने की थी और बेहद बीमार थी, तुम्हारी मम्मी ने तुम से आने के लिए कहा था पर
तुम औफिस के काम का हवाला दे अमेरिका चली गई थी।

“हर वर्ष जब हम छुट्टियों में घूमने जाते थे तो मैं कितना कहता था कि पलक को भी साथ ले लेते हैं पर तुम हमेशा कतराती थीं क्योंकि तुम 2 बच्चों की जिम्मेदारी एकसाथ नहीं उठा सकती थीं…”

रीना चुपचाप बैठी रही और पलक को अपने घर लाने के लिए मंथन करती रही.

समय बीतता गया और रीना हर
संभव कोशिश करती रही अपनी मम्मी को यह जताने की कि उन का पालनपोषण करने का तरीका पुराना है।

वह यह जताना चाहती थी कि पलक की बेहतर परवरिश के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए.

आज रीना को पलक के स्कूल जाने से यह मौका मिल भी गया. पलक 12 वर्ष की हो चुकी थी। रीना अपनी बेटी को अपने जैसा ही स्मार्ट बनाना चाहती थी. जब रीना की मम्मी ने अपनी बेटी की बात को अनसुना कर दिया तो रीना ने अपने पापा से बात की कि पलक की आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए।

कृष्णकांतजी एक व्यवहारिक किस्म के इंसान थे। दिल से न चाहते हुए भी कृष्णकांतजी को पलक की
भविष्य की खातिर रीना की बात माननी पड़ी.

पलक को जब पता चला कि वह अपने मम्मीपापा के साथ दिल्ली जा रही है तो वह बेहद खुश थी. पर जब सारा सामान पैक हो गया तो पलक एकाएक रोने लगी कि वह किसी भी कीमत पर नानानानी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती…

उधर जानकीजी का घोंसला एक बार फिर से खाली हो गया था पर इस बार पंछी के उड़ने का दर्द अधिक
था. कृष्णकांतजी जितना जानकीजी को समझाते,”वह रीना की ही बेटी है और तुम्हे खुश होना चाहिए कि हमारी पलक बड़े और अच्छे स्कूल में पढ़ेगी पर जानकीजी को तो जैसे उस की दुनिया ही वीरान लगने लगी थी।

जानकीजी को पूरा विश्वास था कि पलक उन के बिना रह नहीं पाएगी. बेटी ने एक बार भी नहीं कहा था, इसलिए उन्हें खुद तो दिल्ली जाने की हिम्मत नही हुई थी पर पति कृष्णकांतजी की चिरौरी कर के घर के पुराने नौकर मातादीन को ढेर सारी मिठाईयों के साथ दिल्ली भेज दिया.

नई दुनिया, नए लोग और चमकदमक सभी को अच्छी लगती हैं और पलक तो फिर भी बच्ची ही थी. वह इस टीमटाम में अपने पुराने घर और साथियों को भूल गई थी. मातादीन को देख कर एक पल के लिए पलक की आंखों
में चमक तो आई पर नए रिश्तों के बीच फिर वह चमक भी धीमी पड़ गई थी.

मातादीन पलक को खुश देख कर उसे आशीष दे कर अगले दिन विदा हो गया था. मातादीन को विदा करते हुये रीना का स्वर कसैला हो उठा और
बोली,”काका, मम्मी को बोलिएगा, पलक की चिंता छोड़ दे, वह मेरी बेटी है, मैं अपनेआप संभाल लूँगी।”

दिल्ली आ कर मातादीन ने कहा,”बीबीजी, चिंता छोड़ दीजिए। पलक बिटिया नई दुनिया में रचबस गयी हैं।”

पर जानकीजी खुश होने के बजाए दुखी हो गई थीं और फिर से उन का शरीर बीमारियों का अड्डा बन गया था.

उधर 1 माह बीत गया था और पलक के ऊपर से चमकदमक की खुमारी उतर गई थी. अब पलक चाह कर भी अपनेआप को दिल्ली की भागतीदौड़ती जिंदगी में ठीक से ढाल नहीं पा रही थी.

स्कूल का माहौल उस के पुराने स्कूल से बिलकुल अलग था. घर आ कर पलक किस से अपने मन की बात कहे, उसे समझ ही नहीं आता था.

पलक बहुत कोशिश करती थी अपनेआप को ढालने की पर असफल ही रहती. नानानानी का जब भी बिजनौर से फोन आता तो पलक हर बार यही ही बोलती कि उसे दिल्ली में बहुत मजा आ रहा है. पलक
अपने नानानानी को परेशान नहीं करना चाहती थी.

पलक के मम्मीपापा सुबह निकल कर रात को ही आते थे. ऋषभ भैया अपने दोस्तों और दुनिया में व्यस्त रहते। पासपड़ोस न के बराबर था. यहां के बच्चे उसे बेहद अलग लगते थे।

जब पलक ने अपनी मम्मी से इस बारे में बात की तो 12 साल की बच्ची का अकेलपन दूर करने के लिए उस की मम्मी ने उसे समय देने के बजाए विभन्न प्रकार की हौबीज क्लासेज में डाल दिया।

पहले ही पलक स्कूल में ही ऐडजस्ट नहीं कर पा रही थी और अब गिटार क्लास, डांस क्लास, अबेकस क्लास
पलक को हौबी क्लासेज के बजाए स्ट्रैस क्लासेज लगती थी.

पलक की नन्हीं सी जान इतनी अधिक भागदौड़ और तनाव को झेल नहीं पाई थी. उस के हौंसले पस्त हो गए थे.

वार्षिक परीक्षाफल आ गया था और पलक 2 विषयो में फेल हो गई थी.

परीक्षाफल देखते ही रीना पलक पर
आगबबूला हो उठी,”बेवकूफ लड़की, कितना कुछ कर रही हूं मैं तुम्हारे लिए… दिल्ली के सलीके सिखाने के लिए कितनी हौबी क्लासेज पर पैसे खर्च हो गए पर तुम तो रहोगी वही छोटे शहर की सिलबिल।”

पराग रीना को समझाने की कोशिश भी करता कि पलक और ऋषभ को एक तराज़ू पर ना तौले. पलक को थोड़ा समय दे, वह जैसे रहना चाहती है उसे रहने दे.

इतने तनाव का यह असर हुआ कि पलक को बहुत तेज बुखार हो गया था. पराग रात भर पलक के माथे पर गीली पट्टियां बदलता रहा था. रीना यह कह कर जल्दी सो गई कि अगले दिन औफिस में उस की जरूरी मीटिंग है.

रात भर बुखार में पलक तड़पती रही. अपनी बेटी को तड़पता देख कर पराग ने निर्णय ले लिया था.
पराग ने जानकीजी को फोन कर दिया और वे जल्दी ही शाम पलक के पास पहुंच गईं.

पराग ने खुद यह महसूस किया कि जानकीजी के आते ही पलक का बुझा हुआ चेहरा चमक उठा था.
जब रात को रीना औफिस से लौटी तो जानकीजी को देख कर वह सकपका गई.

रात में खाने की मेज पर बहुत दिनों
बाद पलक ने मन से खाया और बोली,”नानी, यहां पर किसी को ढंग से खाना बनाना नहीं आता।”

रीना कट कर रह गई और बोली,”मम्मी, आप ने पलक की आदत खराब कर रखी है, हैल्थी फूड उसे पसंद ही नही हैं।”

जानकीजी कुछ न बोलीं बस पलक को दुलारती रहीं। 2 दिनों के अंदर ही पलक स्वस्थ हो कर चिड़िया की तरह
चहकने लगी.

एक हफ्ते बाद जब जानकीजी अपना सामान बांधने लगीं तो पलक भी अपना बैग पैक करने लगी.

जानकीजी बोलीं,”पलक, तुम कहां जा रही हो?”

पलक बोली,”नानी, मैं आप के बिना नहीं रह सकती हूं, मुझे यहां नहीं पढ़ना।”

रीना चिल्लाने लगी,”मम्मी इसलिए मैं नहीं चाहती थी आप यहां आओ…

“आप ने उसे बिगाड़ दिया है, बिलकुल भी प्रतिस्पर्धा नही है पलक में, बिलकुल छुईमुई खिलौना बना कर छोड़ दिया है। मेरी बेटी इस दुनिया में कभी कुछ कर भी पाएगी या नहीं…”

जानकीजी इस से पहले कुछ बोलतीं कि तभी पराग बोल उठा,”खिलौना पलक को मम्मीजी ने बनाया है या तुम ने?”

“जब तुम्हारा मन था तुम पलक को बिजनौर छोड़ देती हो और जब मन करता है तब तुम सब की अनदेखी कर के पलक को दिल्ली ले कर आ जाती हो, बिना यह जाने कि इस में पलक की मरजी है या नहीं…”

रीना ने हलका सा विरोध किया और बोली,”मां हूं मैं उस की…”

पराग बोला,”हां तुम उस की मां हो और वह तुम्हारी बेटी है मगर कोई चाबी वाला खिलौना नहीं।”

रीना पराग पर कटाक्ष करते हुए बोली,”लगता है तुम बेटी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो, इसलिये यह सब बोल रहे हो।”

पराग रीना की बात सुन कर तिलमिला उठा क्योंकि उस में लेशमात्र भी सचाई नहीं थी।

इस से पहले पराग कुछ
कहता, पलक ने धीरे से कहा,”मम्मी, मेरी खुशी मेरे अपने घर मे है, जो बिजनौर में है. यह भागदौड़, यह कंपीटिशन मेरे लिए नहीं हैं।”

इस से पहले कि रीना कुछ बोलती, जानकीजी बोलीं,”रीना, जो जहां का पौधा है वह वहीं पर पनपता है।”

रीना ने आगे कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे में चली गई. जाने से पहले पराग ने पलक को गले लगाते हुए कहा,”पलक जब भी तुम्हारा मन करे बिना एक पल सोचे चली आना और बेटा तुम्हारे 2 घर हैं एक बिजनौर में और दूसरा दिल्ली में।

“बेटा, कामयाबी कभी भी किसी जगह की मुहताज नहीं होती.”

पलक और जानकीजी को जाते हुए देख कर पराग सोच रहा था कि शायद खिलौने की चाबी अब खिलौने के पास ही है.

अब पराग अपनी बेटी की भविष्य को ले कर निश्चिंत हो गया था.

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