हमारी आंखों से देखो: गायत्री ने कैसे सब का दिल जीत लिया

Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-3)

‘‘अगर यही सच हो जो आप ने  अभीअभी समझाया तो यही सच है. शैली पत्थर है और मैं उस पर अपना प्यार लुटाना नहीं चाहता. मैं उस के लिए नहीं बना, भैया.

मैं यह नहीं कहता वह मुझे पसंद नहीं. वह बहुत सुंदर है, स्मार्ट है. सब है उस में लेकिन मुझ जैसा इंसान उस के लिए उचित नहीं होगा. मैं वैसा नहीं हूं जैसा उसे चाहिए. उस के लिए 2 और 2 सदा 4 ही होंगे और मैं 2 और 2 कभीकभी 5 और कभीकभी 22 भी करना चाहूंगा. शैली में कोई कमी नहीं है. मैं ही उस के योग्य नहीं हूं. मैं शैली से शादी नहीं कर सकता,’’ अनुज ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘पिछले कितने समय से आप साथसाथ हैं?’’ हैरान रह गई थी गायत्री.

‘‘साथ नहीं हैं हम, सिर्फ एक जगह काम करते हैं. अब मुझे समझ में आ रहा है, वह लड़की शैली नहीं हो सकती जिस पर मैं आंख मूंद कर भरोसा कर सकूं. इंसान को जीवन में कोई तो पड़ाव चाहिए. शैली तो मात्र एक अंतहीन यात्रा होगी और मैं भागतेभागते अभी से थकने लगा हूं. मैं रुक कर सांस लेना चाहता हूं, भैया,’’ अपना मन खोल दिया था अनुज ने गायत्री के सामने. पूरापूरा न सही, आधाअधूरा ही सही.

‘‘शैली जानती है यह सब?’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘वह पत्थर है. मैं ने अभी बताया न. उसे मेरी पीड़ा पर दर्द नहीं होता, उसे मेरी खुशी पर चैन नहीं आता. हमारा रिश्ता सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि मेरी तनख्वाह 50 हजार है. उस के 50 हजार और मेरे 50 हजार मिल कर लाख बनेंगे और उस के बाद वह लाख कहांकहां खर्च होगा वह इतना ही सोचती है. मैं 2 पल चैन से काटना चाहूंगा, यह सुन उसे बुरा लगता है. मेरे लिए घर का सुखचैन लाखोंकरोड़ों से भी कीमती है और उस के लिए यह कोरी भावुकता. जैसे तुम सोचती हो हमारे बारे में, मेरेपिता के बारे में, भैयाभाभी के बारे में, वह तो कभी नहीं सोचेगी. वह इतनी अपनी कभी लगी ही नहीं जितनी तुम.’’

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मानो सब कुछ थम सा गया. कमरे में, चलती हवा भी और हमारी सांस भी.

‘‘मैं… मैं कहां चली आई आप औैर शैली के बीच,’’ हड़बड़ा गई थी गायत्री. घबरा कर मेरी ओर देखा. जैसे कुछ अनहोनी होने जा रही हो. क्या कहता मैं? जो हो रहा था वह हो ही जाए, अचेतन में मैं भी तो यही चाहता था न. वास्तव में घबरा गई गायत्री, साधारण सी बातचीत किस मोड़ पर चली आई थी, उस का घबरा जाना स्वाभाविक ही था न. सुरक्षा के लिए उस ने मेरी ओर देखा और जब कुछ भी समझ नहीं आया तो चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. नाश्ता वहीं मेज पर पड़ा था. अनुज शायद उस के पीछे जाना चाहता था, मैं ने ही रोक लिया.

‘‘जाने दो. सोचने दो उसे. इतना बड़ा झटका दे दिया अब जरा संभलने का समय

तो दो.’’

‘‘वह भूखी ही चली गई. आप ही चले जाइए,’’ अनुज ने कहा.

‘‘यह तो होना ही था. कुछ समय अकेला रहने दो. देखते हैं क्या होगा.’’

‘‘भैया, उस ने कुछ भी नहीं खाया. उसे भूख लगी होगी. आप चलिए मेरे साथ,’’ अनुज के चेहरे पर विचित्र भाव थे. क्या यही उस का गायत्री के प्रति ममत्व और अनुराग है? सब की भूख की चिंता रहती है गायत्री को तो क्या अनुज उसे भूखा ही छोड़ देगा? भला कैसे छोड़ देगा? उस की प्लेट उठा मैं गायत्री के कमरे में चला आया जहां वह सन्न सी बैठी थी. अपराधी सा मेरे पीछे खड़ा था अनुज.

‘‘गायत्री, बेटा, नाश्ता क्यों छोड़ आईं? गायत्री, मेरा बच्चा, नाराज है मुझ से?’’ अपने परिवार की अति कीमती धरोहर मेरे मित्र ने मेरे घर इसी विश्वास पर छोड़ी थी कि उस का मानसम्मान हमारी जान से भी ज्यादा प्रिय होगा हमें.

मैं ने कंधे पर हाथ रखा तो मेरी बांहों में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगी. थपथपाता रहा मैं तनिक संभली तो स्वयं से अलग कर उस के आंसू पोंछे, ‘‘अगर तुम्हें हमारा घर, हमारे घर के लोग पसंद नहीं तो तुम न कर दो. अनुज तुम्हें पसंद नहीं तो किस की मजाल, जो कोई तुम्हारी तरफ नजर भी उठा पाए.’’

चुप रही गायत्री, सुबकती रही. कुछ भी नहीं कहा. अनुज ने नाश्ता सामने रख दिया, ‘‘भूखी मत रहो, गायत्री.’’

अनुज की भीगी आंखों में अपार स्नेह और निष्ठा पा कर मुझे ऐसा लगा, अनुज की भावनाओं के सामने संसार का हर भाव फीका है, झूठा है.

‘‘गायत्री, गायत्री तुम बहुत अच्छी हो और मेरा मन कहता है मुझे तुम से बेहतर इंसान नहीं मिल सकता,’’ अनुज ने कहा.

‘‘शैली के साथ धोखा करेंगे आप?’’

‘‘हम दोनों में कोई नाता, कोई भी संबंध नहीं है, गायत्री. न स्नेह का, न अपनेपन का. पिछले 6 महीनों से मैं उस में वही सब तो ढूंढ़ रहा हूं जो नहीं मिला. गलती मुझ से होती है और उसी गलती के लिए तुम माफी मांगती हो. मेरी आंखों में पानी आ जाए तो तुम अपने बनाए नाश्ते में ही मिर्च तीखी होने को वजह मान कर दुखी होती हो. तुम्हें देखता हूं तो लगता है तुम्हारे बाद सारी इच्छाएं शांत हो गईं और कुछ चाहिए ही नहीं.

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‘‘शैली वह नहीं जिसे देख कर जरा सा भी सुख, जरा सा भी चैन आए. धोखा तो तब होता अगर वह भी मुझे पसंद करती. लगाव होता उसे मुझ से. हमारा नाता कभी भावनाओं का रहा ही नहीं. कोई भी एहसास नहीं हमारे मन में एकदूसरे के लिए. वह आज के युग की ‘प्रोफैशनल’ लड़की है, जिस के पास वह सब है ही नहीं, जो मुझे चाहिए. तुम मेरी गलती पर भी माफी मांगती हो और वह अपनी बड़ी से बड़ी भूल भी मेरे माथे मढ़ मेरे ही कंधे पर पैर रख कर अगली सीढ़ी चढ़ जाएगी. मैं आंखें मूंद कर उस पर भरोसा नहीं कर सकता.’’

‘‘शैली तो बहुत सुंदर है?’’ मासूम सा प्रश्न था गायत्री का.

‘‘सच है, वह बहुत सुंदर है लेकिन तुम्हारी सुंदरता के सामने कहीं नहीं टिकती. तुम्हारी सुंदरता तो हमारे घर के चप्पेचप्पे में नजर आती है. पिताजी से पूछना. वह भी बता देंगे, तुम कितनी सुंदर हो. भैया से पूछा. भैया, आप बताइए न गायत्री को, वह कितनी सुंदर है,’’ अनुज बोलता गया.

बच्चा समझता था मैं अनुज को. सोचता था पूरी उम्र उसे मेरी उंगली पकड़ कर चलना पड़ेगा. डर रहा था, मैं कैसे गायत्री के प्रति पनप गए उस के प्रेम को कोई दिशा, कोई सहारा दे पाऊंगा. नहीं जानता था इतनी सरलता से वह मन का हाल गायत्री के आगे खोल देगा.

‘‘हमारी आंखों से अपनेआप को देखो, गायत्री,’’ पुन: भीग उठी थी अनुज की आंखें. हाथ बढ़ा कर उस ने गायत्री का गाल थपथपा दिया. रो पड़ी थी गायत्री भी. पता नहीं क्या भाव था, मैं दोनों को गले लगा कर रो पड़ा. ऐसा लगा मन मांगी मुराद पूरी हो गई. ये आंसू भी कितने विचित्र हैं न, जबतब आंखें भिगोने को तैयार रहते हैं. स्नेह से गायत्री का माथा चूम लिया मैं ने. सच ही कहा अनुज ने, ‘‘हमारी आंखों से देखो, गायत्री, अपनेआप को हमारी आंखों से देखो.’’

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Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-1)

अनुज आज फिर से यही गजल सुन रहा है:

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

मैं जानता हूं, अभी वह आएगा और मुझ से इस का अर्थ पूछेगा.

‘‘भैया, इस का मतलब क्या हुआ, जरा समझाओ न. पहली पंक्ति का अर्थ तो समझ में आता है. वह यह कि अगर हम विश्वास से पत्थर के आगे भी सिर झुका देंगे तो वह देवता हो जाएगा. यह दूसरी पंक्ति का मतलब क्या हुआ? ‘इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’ कौन बेवफा हो जाएगा? क्या देवता बेवफा हो जाएगा? भैया दूसरी पंक्ति का पहली से कुछ मेल नहीं बनता न.’’

अनुज को क्या बताऊंगा मैं, सदा की तरह आज भी मैं यही कहूंगा, ‘‘देखो बेटा, कवि और शायर जब कुछ लिखने बैठते हैं, उस पल वे किस मनोस्थिति में होते हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. उस पल उस की नजर में देवता कौन था, पत्थर कौन था और बेवफा कौन है, वही बता सकता है.’’

वास्तव में मैं भी समझ नहीं पा रहा हूं इस का अर्थ क्या हुआ. सच पूछा जाए तो जीवन में हम कभी किसी पर सही या गलत का ठप्पा नहीं लगा सकते. आपराधिक प्रवृत्ति के इंसान को एक तरफ कर दें तो कई बार वह भी अपने अपराधी होने का एक जायज कारण बता कर हमें निरुत्तर कर देता है. जब एक अपराधी स्वयं को सही होने का एहसास दे जाता है तो सामान्य इंसान और उस पर कवि और शायर क्या समझा जाए, क्या जानें. समाज को कानून ने एक नियम में बांध रखा है वरना हर मनुष्य क्या से क्या हो जाए, इस का अंत कहां है.

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‘‘बड़े भैया, नाश्ता?’’ गायत्री ने मुझे पुकारा.

कपड़े बदल कर मैं बाहर आ गया. गायत्री बिजली की गति से सारे काम कर स्वयं तैयार होने जा चुकी थी. मेज पर नाश्ता सजा था. आज मटर वाला नमकीन दलिया सामने था, जो मुझे पहलेपहल तो पसंद नहीं आया था, लेकिन अब अच्छा लगने लगा था.

‘‘अनुज… आ जाओ मुन्ना. वरना देर हो जाएगी. जल्दी करो और यह गजल भी बंद कर दो.’’

यह गजल भी चुभने लगी है मेरे दिमाग में. मैं भी अकसर सोचने लगता हूं, आखिर क्या मतलब हुआ इस का.

मेरी पत्नी बैंक में नौकरी करती है. हमारे बच्चे बाहर होस्टल में पढ़ते हैं. मेरे एक सहकर्मी का तबादला हो गया था और उन की बहन को 6 महीने के लिए हमारे पास रहना पड़ रहा है. यह गायत्री वही है, जो है तो हमारी मेहमान लेकिन पिछले 6 महीनों से हमारी अन्नपूर्णा बन कर हमारी सभी आदतें बिगाड़ चुकी है.

पत्नी के जाने के बाद अकसर मुझे अपने वृद्ध पिता और छोटे भाई का नाश्ता बनाना पड़ता था, जो पिछले 6 महीनों से मैं नहीं बना रहा. अनुज की सगाई लगभग हो चुकी है. उसी कंपनी में है लड़की, जिस में अनुज है. अनुज की शाम अकसर उसी के साथ बीतती है.

पिताजी का नाश्ता भी उन तक पिछले 6 महीने से यह गायत्री ही पहुंचा रही है. जैसेजैसे गायत्री का समय समाप्त हो रहा है मुझे अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी का आभास और भी शिद्दत से होने लगा है. गायत्री के बाद क्या होगा, मैं अकसर सोचता रहता हूं.

‘‘गायत्री, चलो बच्चे, जल्दी करो. तुम्हारी बस छूट जाएगी,’’ मैं गाड़ी में रोज गायत्री को बस स्टैंड पर छोड़ देता हूं जहां से वह पी.जी.ई. की बस पकड़ लेती है.

गायत्री होम साइंस में एम.ए. कर रही है. आजकल मरीजों की खुराक पर अध्ययन चल रहा है. शाम को भी वह हम से पहले आ जाती है और रात को खाना मेज पर सजा मिलता है.

‘‘गायत्री के बाद क्या होगा?’’

‘‘वही जो पहले होता था. पहले भी तो हम जी ही रहे थे न?’’ अधेड़ होती पत्नी भी बेबसी दर्शाने लगी थी.

‘‘जीना तो पड़ेगा. अनुज की पत्नी भी तो नौकरी वाली है. समझ लो चाय का कप सदा खुद ही बना कर पीना पड़ेगा.’’

पता नहीं क्यों अब तकलीफ सी होने लगी है. सहसा थकावट होने लगी है. अब रुक कर सांस लेने को जी चाहने लगा है. भागभाग कर थक सा गया हूं मैं भी. मेरा कालेज 4 बजे छूट जाता है, जिस के बाद रात तक घर की देखभाल होती है और मैं होता हूं. बिस्तर पर पड़े पिता होते हैं और पिछले 6 महीने से यह मासूम सी गायत्री होती है, जिस ने एक और ही सुख से मेरा साक्षात्कार करा दिया है.

पहली बार जब इसे देखा था, तब बड़ी सामान्य सी लगी थी गायत्री. सीधीसादी, सांवली सी, सलवारकमीज, दुपट्टे में लिपटी घरेलू लड़की, जिस पर उचटती सी नजर डाल कर अनुज चला गया था. चलो, अच्छा ही है, घर में जवान भाई है. दोस्त की अमानत से दूर ही रहे तो अच्छा है. अनुज शरीफ, सच्चरित्र है, फिर भी दूरी रहे तो बुरा भी क्या है. फिर पता चला अपनी एक सहकर्मी से उस की दोस्ती रिश्ते में बदलने वाली है तो मैं और भी निश्चिंत हो गया.

रात सब खाने पर इकट्ठा हुए तो मेज पर सजा स्वादिष्ठ खाना परोसते समय गायत्री ने बताया, ‘‘भाभी, 15 तारीख को मैं चली जाऊंगी.’’

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‘‘क्या?’’ हाथ ही रुक गए मेरे. क्या सचमुच?

अनुज से मेरी नजरें मिलीं. बचपन से जानता हूं भाई को. उसे क्या चाहिए, क्या

नहीं, उस की नजरें ही देख कर भांप जाता हूं. अगर मेरा उम्र भर का तजरबा गलत नहीं तो वह भी गलत नहीं, जो अभीअभी उस की नजरों में मैं ने पढ़ा. ज्यादा बात नहीं करते थे दोनों और इस एक पल में जो पढ़ा वह ऐसा था मानो अनुज का कुछ बहुत प्रिय छिन जाने वाला हो. प्लेट का छोर पकड़तेपकड़ते छूट

गया था उस के हाथों से और सारा खाना प्लेट से निकल कर मेज पर बिखर गया था.

‘‘अरे, क्या हो गया? गरम तो नहीं लगा? क्षमा कीजिएगा, प्लेट छूट गई मेरे हाथ से,’’ क्षमा मांग रही थी गायत्री, जिस पर अनुज चुप था. प्लेट किस के हाथ से छूटी, मैं ने यह भी देखा और क्षमा कौन मांग रहा है यह भी.

‘‘क्या बात है, अनुज?’’

‘‘कुछ भी नहीं भैया, बस, ऐसे ही.’’

‘‘आज शैली नहीं मिली क्या? परेशान हो, क्या बात है?’’

मैं ने पुन: पूछा. शैली उस की मंगेतर का नाम है. उस के नाम पर भी न वह शरमाया और न ही हंसा.

गायत्री ने नई प्लेट सजा दी.

‘‘धन्यवाद,’’ चुपचाप प्लेट थाम ली अनुज ने.

गायत्री वैसी ही थी जैसी सदा थी.

पिताजी का खाना परोस कर उन के कमरे में चली गई. मेरी पत्नी ने भी बड़ी गौर से सब देखा. अनुज यों खा रहा था जैसे कोई जबरदस्ती खिला रहा हो. ऐसा क्या है, जो हमारी समझ में आ भी रहा है और नहीं भी. जरा सा मैं ने भी कुरेदा.

‘‘मैं सोच रहा था शैली के साथ ‘रिंग सैरेमनी’ हो जाती तो अच्छा ही है. अभी गायत्री भी है. उसे भी अच्छा लगेगा. घर की सदस्या ही है न यह भी. तुम शैली से बात करना. उस का भाई कब तक आ रहा है अमेरिका से? सगाई को लटकाना अच्छा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी…’’ बस, इतना ही कह कर अनुज ने बात समाप्त कर दी.

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Serial Story: हमारी आंखों से देखो (भाग-2)

खाने के बाद अपनी प्लेट रसोई में छोड़ने चला गया अनुज और मेरी नजरें उस का पीछा करती रहीं.

गायत्री रसोई में ही थी. वैसे तो अपना काम स्वयं करने की हमारे घर में सब को आदत है लेकिन जब से गायत्री आई थी अनुज रसोई में कम ही जाता था.

‘‘लाइए, फल मैं काट लेता हूं. दीजिए… कृपया,’’ पहली बार हमारे बीच बैठ कर अनुज ने फल काटे, बड़े आदरभाव से गायत्री को, हम सब को खिलाता रहा.

‘‘अब तो आप जा रही हैं न. भाभी, आप कुछ दिन छुट्टी ले लीजिए. कुछ दिन के लिए बच्चों के पास चलते हैं. गायत्रीजी से भी बच्चे मिल लेंगे,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन मेरा तो अभी बहुत काम है.

मैं छुट्टी कैसे लूंगी. आप लोग चले जाइए,

मैं पिताजी के पास रहूंगी,’’ गायत्री ने असमर्थता जताई.

‘‘शैली को भी साथ ले लें? उस से भी पूछ लो,’’ मैं पुन: पूछने लगा.

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शैली के नाम पर चुप रहा अनुज. क्या हो गया है इसे? कहीं शैली से कोई अनबन तो नहीं हो गई? गायत्री अस्पताल का कोई किस्सा मुझे सुनाने लगी और अनुज एकटक गायत्री को ही निहारता रहा. सीधीसादी साधारण सी दिखने वाली यह बच्ची हमारे घर में रह कर कब हम सब के जीवन का हिस्सा बन गई,

हमें पता ही नहीं चला था. किसी बात पर मेरी पत्नी और गायत्री जोरजोर से हंस पड़ीं और अनुज मंदमंद मुसकराने लगा. लंबे बालों की चोटी को पीछे धकेलते गायत्री के हाथ क्षण भर को चेहरे पर आए और पसीने की चंद बूंदों को पोंछ कर अन्य कामों में व्यस्त हो गए. सुबह की तैयारी में वह हर रात मेरी पत्नी का हाथ बंटाती थी.

कुछ फर्क है मेरे भाई की नजरों में. नजरनजर का अंतर मैं समझ पाऊं, इतनी तो नजर रखनी पड़ेगी न मुझे.

‘‘यह गायत्री चली जाएगी तब क्या होगा, यही सोचसोच कर मेरा तो दम घुटने लगा है.’’

‘‘भैया, क्या गायत्री सदा यहीं नहीं रह सकती?’’ सुबह नाश्ता करते हुए अनुज ने मेरी भी सांस वहीं रोक दी. क्या कह रहा है मेरा समझदार, पढ़ालिखा भाई? मैं ने गौर से देखा, नम आंखों में वह सब कुछ था, जो बिना कुछ कहे ही सब कह जाए. धीरेधीरे चम्मच चला रहा था अनुज प्लेट में.

‘‘आप को याद है न, भैया जब मां थी तब हमारा घर कैसा हराभरा लगता था. जब थक कर घर आते थे तब मां कैसे नाश्ता कराती थी. प्यार से खाना खिलाती थी. मां के बाद सब उजड़ सा गया. भाभी नौकरी करती थीं, जिस वजह से घर बस, होटल बन कर रह गया,’’ अनुज बोलता रहा.

मैं अनुज को अपलक निहारता रहा.

‘‘क्या पिछले 6 महीनों से ऐसा नहीं लगता जैसे मां लौट आई है. घर घर बन गया है, जहां कोई थकेहारे इंसान को पानी का घूंट तो पिलाता है. भैया, यह गायत्री तो हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है. क्या आप इसे रोक नहीं सकते?’’

‘‘किस अधिकार से रोकें, मुन्ना? वह पराई बच्ची है,’’ मैं ने कहा.

‘‘पराई है तो पराई लगती क्यों नहीं? ऐसा क्यों लगता है जैसे जन्मजन्म से हमारे साथ है? भैया, ऐसा क्यों लगता है? अगर गायत्री चली गई तो मेरे प्राण पखेरू भी साथ ही…’’

मानो छनाक से कुछ टूट गया मेरे सामने. अनुज क्या कहना चाह रहा है, मैं समझ तो रहा हूं लेकिन उस का अर्थ क्या है? शैली के साथ सगाई लगभग तय है, मात्र अमेरिका से उस के भाई का इंतजार है. हर शाम अनुज शैली के साथ होता है और प्राण पखेरू गायत्री में होने का भी दावा.

‘‘तुम क्या कह रहे हो, जानते हो न?’’ मैं ने कहा. सफेद कपड़ों में लिपटी गायत्री मेज तक चली आई थी. उस पल तनिक रुकना पड़ा मुझे. तब नई नजर से मैं ने भी गायत्री को देखा.

‘‘भैया, उपमा कैसा बना है?’’ हमारी अवस्था से अनभिज्ञ गायत्री बड़ी सरलता से पूछने लगी. पूछना उस का रोज का क्रम था.

‘‘मैं चली जाऊंगी तो बासी डबलरोटी और अटरमशटरम मत खाते रहना. इतनी सारी विधियां मैं ने आप को खिला भी दी हैं और सिखा भी दी हैं. भैया, आप की उम्र 40+ है न, इसलिए अब अपना खयाल रखना शुरू कर दीजिए,’’ प्लेट में अपना नाश्ता लेतेलेते उस ने रुक कर देखा.

‘‘अनुजजी, क्या हुआ? हरीमिर्च ज्यादा तेज लगी क्या? आप की आंखों में तो पानी है,’’ झट से रसोई में गई गायत्री और गाजर का मुरब्बा ले आई, ‘‘जरा इसे खा कर देखिए. भैया, आप भी खाइए. कल और परसों मैं यही तो बना रही थी. आप पूछ रहे थे न,

इतनी गाजरों का क्या करोगी,’’ गायत्री बोली.

गायत्री मस्त भाव से नाश्ता कर रही थी. वास्तव में लग रहा था, यह सीधीसादी प्यारी सी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की है, जिस में मेरे भाई के प्राण अटक से गए हैं.

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आजकल की तेजतर्रार पीढ़ी की ही है यह गायत्री. फिर भी हमें इतना चैन, इतना संतोष देती रही है कि क्या कहूं. अनुज को गायत्री में क्या नजर आया, समझा चुका है मुझे. मां के समय जो सुख था वही उसे अब भी नजर आया. एक इंसान चाहे आसमान को छू ले, जमीन का मोह, नकारा तो नहीं जा सकता न? थकाहारा इंसान जब घर आता है तो एक ठंडी छाया की इच्छा हर पुरुष को रहती है, वह चाहे मां की हो या पत्नी की, बहन की हो या बेटी की.

‘‘भैया, आज आप की क्लास नहीं है क्या?’’ गायत्री ने पूछा.

पता नहीं कहां खो गया था मैं. कंधे पर बैग लटकाए गायत्री सामने ही खड़ी थी. उठ गया मैं. उचटती नजर अनुज पर डाली, जो अब भी धीरेधीरे नाश्ता कर रहा था.

‘‘अनुजजी, आप को नाश्ता पसंद नहीं आया. आई एम सौरी. हरीमिर्च ज्यादा तीखी निकल गई न?’’ गायत्री ने पूछा.

उत्तर में मुसकरा पड़ा अनुज. इनकार में सिर हिला कर किसी तरह बात को टाल दिया. रास्ते में धीरे से पूछा गायत्री ने, ‘‘भैया, अनुजजी कुछ उदास से हैं न कल शाम से? आप शैली से मिल कर बात करना. कोई झगड़ा हो गया होगा.’’

हां में गरदन हिला दी मैं ने. स्नेह से गायत्री का सिर थपक दिया. क्या बताऊं उसे? कैसे कहूं कल शाम से वही नहीं, हमारा सारा परिवार ही उदास है.

शाम को घर आने पर सभी चुप थे. बस, गायत्री ही किसी मरीज के बारे में बातें कर रही थी. वहां अस्पताल में जो भी नया लगता उसे वह हम से बांटती थी. अनुज अपने कमरे में था और वही गजल एक बार फिर गूंजने लगी.

‘सिर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,

इतना मत चाहो उसे वह बेवफा हो जाएगा…’

‘‘इस का मतलब क्या हुआ, गायत्री?’’ मैं उदासी से बाहर आना चाहता था, इसलिए बात को टाल देने के लिए पूछ लिया.

‘‘किस का मतलब, भैया? इस गजल का…’’ कुछ पल रुक गई गायत्री. फिर धाराप्रवाह कहने लगी, ‘‘इस का मतलब यह है कि अगर सामने वाला इंसान पत्थर है तो उस पर अपना प्यार मत लुटाओ. जो इंसान तुम्हारे प्यार के लायक ही नहीं उसे अगर जरूरत से ज्यादा प्यार करोगे तो वह तुम्हारे प्यार का नाजायज लाभ उठाएगा. पत्थर अपनेआप को देवता समझने लगेगा, अगर तुम उस के आगे सिर झुकाओगे.’’

हक्काबक्का रह गया मैं गायत्री के शब्दों पर. यह बच्ची इतना सब जानती है. तभी देखा, अनुज भी पास खड़ा था, होंठों पर एक हलकी सी मुसकान ले कर.

‘‘यही मतलब होगा, जो मुझे समझ में आया,’’ हम दोनों को हैरान देख वह तनिक झेंप सी गई. बारीबारी से हमारा चेहरा देखा. कंधे उचका कर रसोई में चली गई. लौटी तो गरमगरम चाय और नाश्ता हाथ में था.

‘‘अनुजजी, आप फिर से उदास हैं. शैली से कोई…’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘गायत्री, क्या आप यह सत्य स्वीकार करती हैं जिसे अभीअभी समझा रही थीं?’’ अनुज ने प्रश्न किया.

‘‘कौन सा सत्य? अच्छा यह जो गजल में समझ आया मुझे?’’

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‘‘हां, जो आप को समझ में आया और जो हमें भी समझाया आप ने.’’

‘‘कवि और शायर क्या कहना चाहते हैं, यह तो वही जानते हैं न, क्योंकि लिखते समय उन की मनोस्थिति क्या थी, हम नहीं जानते. वास्तव में गजल का मतलब वही है, जो आप की समझ में आए.’’

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निशान: शादी से इनकार क्यों करती थी मासूमी

Serial Story: निशान (भाग-2)

पूर्व कथा

हर मातापिता की तरह सुरेश और सरला भी अपनी बेटी मासूमी को धूमधाम से विदा कर ससुराल भेजना चाहते हैं. 2 भाइयों की इकलौती बहन मासूमी खूबसूरत होने के साथ घर के कामों में दक्ष है. उस के रिश्ते भी खूब आते लेकिन जब शादी की बात पक्की होने को आती, उसे दौरे पड़ जाते. वह चीख उठती और रिश्ता जुड़ने से पहले टूट जाता. एक दिन मौसी ने मासूमी से उस के दिल की बात जाननी चाही तो वह बोली, ‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे…’ वहीं, मासूमी को कई बार विवाह की महत्ता का एहसास होता रहा. वह सोचने लगी कि उसे भी शादी कर घर बसा लेना चाहिए. 28 साल की हो चुकी मासूमी का नया रिश्ता आया तो सभी ने सोचा कि यह रिश्ता चूंकि काफी समय बाद आया है, लड़का अच्छा पढ़ालिखा व उच्च पद पर है और मासूमी ज्यादा समझदार भी हो गई है, अत: वह इस रिश्ते को हरी झंडी दे देगी लेकिन मासूमी को लगा कि वह विवाह का रिश्ता संभालने में असफल रहेगी. उधर वह अपने पापा से बेहद डरीसहमी रहती थी. स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए, राकेश भैया स्कूल गए थे या नहीं, दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’ सरला उसे परेशानी में देख कहती, ‘तू क्यों इन चिंताओं में डूबी रहती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े भी होंगे.’ इसी असमंजस में फंसी मासूमी स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था…

अब आगे…

भाई राकेश का मुकदमा मां की अदालत में था. मांपिताजी दोनों की चुप्पी आने वाले तूफान का संकेत दे रही थी. किसी भी क्षण झगड़ा होने वाला था. इसलिए मासूमी फिर पिता की ओर बढ़ कर बोली, ‘‘पापा, आप हाथमुंह धोएं, मैं चाय बनाती हूं.’’

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रसोई में जा कर भी मासूमी का मस्तिष्क उलझा रहा. पापा काम से थकेहारे आते हैं. ये बातें तो बाद में भी हो सकती हैं. भाई राकेशप्रकाश भी अब बड़े हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए. समय से घर आना व पढ़ना चाहिए पर दोनों कुछ खयाल ही नहीं रखते. मासूमी अकसर पिता का पक्ष लेती. इस के पीछे छिपा कारण यह था कि वह मां को गुस्से से बचाना चाहती थी लेकिन सरला को शिकायत होती कि वह सबकुछ जानते हुए भी पिता का पक्ष लेती है.

पिता चाय की प्याली ले कमरे में चले गए और मासूमी से पूछा, ‘‘तुम्हारी मां को क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, क्यों? आप से कुछ कहा?’’ मासूमी ने अनजान बन कर पूछा.

‘‘नहीं, कहा तो नहीं पर लग रहा है कुछ गड़बड़ है. जाओ, बुला कर लाओ मां को,’’ उन्होंने आदेश देने के अंदाज में मासूमी से कहा तो उस का दिल अनजानी आशंका से धड़क उठा.

दरवाजे पर खड़ी मां तमतमाए चेहरे से उसे देख कर बोलीं, ‘‘रसोई में जाओ और खाने की तैयारी करो.’’

‘‘जी,’’ कह मासूमी बाहर निकल गई पर उस के पैर कांपने लगे थे. हमेशा यही होता था. जब घर में कलह होती तो उसे रसोई में जाने का आदेश मिल जाता था. और फिर वह पल आ गया जिस से उस का मन हमेशा कांपता था. अंदर मां पापा से कह रही थीं :

‘‘देखिए, आज मैं आप से ऐसी बात कहने वाली हूं जिस में आप की, बच्चों की व इस घर की भलाई है. यह समझ लीजिए कि घर के इस माहौल ने मासूमी की जिंदगी पर गहरा असर डाला है. हमेशा एक तानाशाह बन कर घर पर राज किया है. मुझे बराबरी का दर्जा देना तो दूर, आप ने हमेशा अपने पैर की जूती समझा है. मैं ने फिर भी कुछ नहीं कहा. मासूमी भी मुझे ही चुप कराती है, क्योंकि वह लड़ाईझगड़े से डरती है लेकिन अब मामला दोनों लड़कों का है. अब राकेश ने भी कह दिया है कि पापा हमें दूसरों के सामने बेइज्जत न करें. संभालिए खुद को वरना कल प्रकाश घर से भागा था अब कहीं राकेश भी…’’

‘‘कर चुकीं बकवास. खबरदार, अब एक शब्द भी आगे बोला तो,’’ अंगारों सी लाल आंखें लिए मुट्ठियां भींचे सुरेश की कड़क आवाज दूर तक जा रही थी, ‘‘कान खोल कर सुन लो, बच्चों को बिगाड़ने में सिर्फ तुम्हारा हाथ है. तुम्हारे कारण ही वे इतनी हिम्मत करते हैं. कहां है वह उल्लू का पट्ठा, मेरे सामने कहता तो खाल खींच देता उस सूअर की औलाद की.’’

‘‘गाली देने से झूठ, सच नहीं हो जाता. तुम्हें बदलते वक्त का अंदाजा नहीं. बच्चों के साथ कदम नहीं मिला सकते तो उन का रास्ता मत रोको,’’ सरला भी तैश में आ गई थीं.

जिस बात से दूर रखने के लिए सरला ने मासूमी को रसोई में भेजा था वे सारी बातें दीवारों की हदें पार कर उस के कानों में गूंज रही थीं.

सुरेश मर्दों वाले अंदाज में सरला की कमजोरियों को गिनवा रहे थे और दोनों बेटे मां की बेइज्जती पर दुख से पहलू बदल रहे थे तो मासूमी दोनों भाइयों को फटकार रही थी :

‘‘लो, पड़ गया चैन. एक दिन भी घर में शांति नहीं रहने देते. रोज कोई न कोई हंगामा होता है. रोज के झगड़ों से मेरी जान निकल जाती है. इस से अच्छा है, मैं मर ही जाऊं. ऊपर से मौसी, बूआ रोज आ कर अपने पतियों की वीरगाथाएं सुनाती हैं कि वे उन से लड़ते हैं. क्या सारे पुरुष एक से होते हैं? उन्हें यही करना होता है तो वे शादियां ही क्यों करते हैं?’’

प्रकाश गुस्से से गुर्राया, ‘‘तुम चुप ही रहो. सारा दोष मांपिताजी का है. हर समय ये झगड़ते रहते हैं. पापा तो सारी उम्र हमें बच्चा ही समझते रहेंगे. जब मन में आया डांट दिया, जब मन आया गाली दे दी.’’

उधर मां की तेज आवाज आने पर मासूमी मां की ओर बढ़ी, ‘‘मां, रहने दो. आप ही चुप हो जाइए. आप को पता है कि पापा अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते तो आप मत बोलिए.’’

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‘‘तू हट जा. आज फैसला हो कर रहेगा. मुझे गुलाम समझ रखा है. बाप रौब जमाता है तो बेटे अलग मनमानी करते हैं. तेरा क्या है, शादी के बाद अपने घर चली जाएगी, पर मेरे सामने तो बुढ़ापा है. अगर तेरे पिता का यही हाल रहा तो क्या दामाद और बहुओं के सामने भी ऐसे ही गालियां खाती रहूंगी? नहीं, आज होने दे फैसला,’’ मां बुरी तरह हांफ रही थीं और मासूमी रो रही थी.

राकेश बोला, ‘‘क्यों रोती है? हम बच्चे तो नहीं कि हर बात को सही मान लें.’’

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Serial Story: निशान (भाग-3)

मासूमी चिल्लाई, ‘‘देखा प्रकाश, सारा झगड़ा इसी का शुरू किया है. बित्ते भर का है और मांबाप का मुकाबला कर रहा है.’’

‘‘चुप रह वरना एक कस कर पड़ेगा. पापा की चमची कहीं की,’’ राकेश लालपीला हो कर बोला.

प्रकाश भी तमक उठा, ‘‘दिमाग फिर गया है तुम लोगों का…उधर वे लड़ रहे हैं इधर तुम. कोई मानने को तैयार नहीं है.’’

‘‘आप माने थे…’’ राकेश ने पलट- वार किया तो प्रकाश उसे मारने दौड़ा.

उसी समय अंदर से कुछ टूटने की आवाजें आईं. मासूमी दौड़ कर अंदर गई तो देखा पिताजी हाथ में क्रिकेट का बैट लिए शो केस पर तड़ातड़ मार रहे हैं.

राकेश द्वारा पाकेटमनी जोड़ कर खरीदा गया सीडी प्लेयर और सारी सीडी जमीन पर पड़ी धूल चाट रही थीं…शोपीस टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखरा पड़ा था.

मासूमी हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘पापा, प्लीज, शांत हो जाएं.’’

लेकिन सुरेशजी की जबान को लगाम कहां थी, गालियों पर गालियां देते चीख रहे थे, ‘‘तू हट जा. एकएक को देख लूंगा. बहुत खिलाड़ी, गवैए बने फिरते हैं पर मैं ये नहीं होने दूंगा. इन को सीधा कर दूंगा या जान से मार डालूंगा.’’

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प्रकाश का जवान खून भी उबाल खा गया, ‘‘हां, हां, मार डालिए. रोजरोज के झगड़ों से तो अच्छा ही है.’’

सरला और मासूमी ने मिल कर प्रकाश को बाहर धकेलना चाहा और राकेश ने बाप को पकड़ा पर कोई बस में नहीं आ रहा था.

मासूमी ने घबरा कर इधरउधर देखा तो बहुत सारी आंखें उन की खिड़कियों से झांक रही थीं और कान दरवाजे से चिपके हुए थे. बस, यही वह समय था जब मासूमी का सिर चकराने लगा. उसे लगा कि वह गहरे पाताल में धंसती जा रही है, जहां न उसे मां की बेबसी का होश था न पिता के गुस्से का और न भाइयों की बगावत का.

मासूमी को होश आया तो सारा माहौल बदला हुआ था. पिता सिर झुकाए सिरहाने बैठे थे, मां पल्लू से आंखें पोंछ रही थीं, भाई हाथपैर सहला रहे थे. पिता का गुस्सा तो साबुन के बुलबुलों की तरह बैठ गया था पर मां सरला आज मौके का फायदा उठा कर फिर बोल उठी थीं, ‘‘जवान बच्चों के लिए आप को अपनी आदतों और कड़वाहटों पर काबू पाना चाहिए. यह नहीं कि घर में घुसते ही हुक्म देना शुरू कर दें.’’

प्रकाश ने उन्हें चुप कराया, ‘‘मां, बस भी करो. देख नहीं रही हैं मासूमी की हालत.’’

सुरेशजी मासूमी की हालत देख खामोश और शर्मिंदा थे तो मांबेटों की तकरार चालू थी. सब एकदूसरे को दोष दे रहे थे. पिता का कहना था कि अगर बच्चों पर लगाम न कसो तो वे बेकाबू हो जाएंगे. बच्चों का कहना था, ‘‘पापा हमें हर बात पर बस डांटते हैं. घर से बाहर रहो तो घर में रहने का आदेश, घर पर रहो तो टोकाटाकी. गाने सुनें तो हमें भांड बनाने लगते हैं. दोस्तों के साथ खेलें तो उसे आवारागर्दी कहते हैं. हम तो यहां बस मां के कारण चुप हैं वरना…’’

सरला बेटों को चुप करा रही थीं, ‘‘चुप रहो, जवान हो गए हो तो इस का मतलब यह नहीं कि पिता के सामने जबान खोलो.’’

सब मिल कर मासूमी को एहसास दिलाना चाह रहे थे कि कोई किसी का दुश्मन नहीं. हां, झगड़े तो होते ही रहते हैं. देखो, तुम्हें तकलीफ हुई तो सब तुम्हारी चिंता में बैठे हैं.

मां ने मासूमी के बाल सहलाए, ‘‘सब लड़झगड़ कर एक हो जाते हैं पर तुम बेकार में उसे दिल में पाल लेती हो…’’

मासूमी बिखर गई, ‘‘मां, आप को अच्छा लगे या बुरा पर सच यह है कि गलती आप की भी है. आप को यही लगता है कि पिताजी ने कभी आप की कद्र नहीं की लेकिन मैं जानती हूं कि पापा के मन में आप के लिए क्या है. आप घर नहीं होतीं तो आप को पूछते हैं. आप की बहुत सी बातों की सराहना निगाहों से करते हैं पर कहना नहीं आता उन्हें. लेकिन उन की तकलीफदेह बातों के कारण आप का ध्यान उन की इन बातों पर नहीं जाता. इसी कारण पापा पर गुस्सा आने पर आप बच्चों के सामने पापा की कमजोरियां गिनवाती हैं और फिर बच्चे उन को आप की पीठ पीछे बुराभला कहते हैं,’’ मासूमी बोल रही थी और सरला चोर सी बनी सब बातें सुन रही थीं.

सुरेशजी भी मासूमी की हालत से घबराए थे. हमेशा ही गुस्सा ठंडा होने पर वह एकदम बदल जाते. उन्हें बीवीबच्चों पर प्यार उमड़ आता था. आज भी यही हुआ. वे उठे और टूटा शोपीस, सीडी प्लेयर उठा कर गाड़ी में रखने लगे. टूटी सीडी के नाम, नंबर नोट करने लगे. मासूमी खामोशी से लेटी देख रही थी कि अब पापा बाजार जा कर सब नया सामान लाएंगे. आइसक्रीम, मिठाई से फ्रिज भर जाएगा. मां के लिए नई साड़ी, भाइयों को पाकेटमनी मिलेगी. प्यार से समझाएंगे कि बेटा, अभी तुम लोगों का ध्यान पढ़ने में लगना चाहिए. मैं तो चाहता हूं कि तुम लोग खाओपियो, हंसोबोलो.

पिताजी खुश होंगे तो सब के साथ बैठे दुनियाजहान की बातें करेंगे. मां भी चहकती फिरेंगी. बस, 2 दिन बाद ही जरा सी कोई बात होगी तो फिर हंगामा शुरू हो जाएगा. मासूमी का तो कालेज जाना भी बंद हो चुका था. यों वहां जाने पर भी हमेशा की तरह मन धड़कता था कि कहीं फिर दोनों भाइयों में, मांबाप में झगड़ा न हो गया हो. कहीं मौसी और बूआ अपनेअपने पतियों से झगड़ कर न आ बैठी हों. बस, यही हालात थे जिन के कारण मासूमी को पुरुषों से नफरत हो गई थी, जिस में उस के पिता, भाई, फूफा, मौसा सभी शामिल थे. सारे पुरुष उसे जल्लाद लगते थे, जो सिर्फ स्त्रियों पर अपना हक जता कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते थे. इस से बचने के लिए वह इतना ही कर सकती थी कि मर्दों के साए से दूर रहे.

आज उस के भाई अच्छाखासा कमा कर परिवार वाले हो गए थे. एक मासूमी ही थी जिस के लिए सबकुछ बेकार हो चला था. अब यह रिश्ता फिर से हाथ आया था और मासूमी ने फिर से इनकार कर दिया था. इस बार सुरेशजी को गुस्सा तो बहुत आया फिर भी खुद पर काबू पा कर वे मासूमी को समझा रहे थे, ‘‘यह क्या नादानी है. तुम्हारी इतनी उम्र होने पर भी यह रिश्ता आया है. अब कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा. खुशियां दरवाजे पर खड़ी हैं फिर तुम्हें क्या परेशानी है? या तो तुम्हें मुझे यह बात स्पष्ट समझानी होगी वरना मैं अपने हिसाब से जो करना है कर दूंगा.’’

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कुछ समय मासूमी सिर झुकाए खड़ी रही फिर हिम्मत कर के बोली, ‘‘आप मुझ से जवाब मांग रहे हैं तो सुनिए पापा, मैं हार गई हूं खुद से लड़तेलड़ते. बहुत सोचने के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि मैं मां जैसी हिम्मत व सब्र नहीं रखती. मैं नहीं चाहती कि मेरे पिता द्वारा जो व्यवहार मेरी मां से किया गया वही व्यवहार कोई और व्यक्ति मेरे साथ करे.

‘‘औरत होने के नाते मैं उस औरत के दुख को महसूस कर सकती हूं जो मेरी मां है. हो सकता है कि विवाह के बाद मैं भी व्यावहारिकता में जा कर सबकुछ सह लूं पर मैं इतिहास दोहराना नहीं चाहती. आप के, मां व परिवार के बीच होने वाले झगड़ों ने मेरे अस्तित्व को ही जैसे खोखला व कमजोर बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि मैं अब किसी परिवार का हिस्सा बनने लायक हूं. एक अनजाना सा डर मुझे हर खुशी से दूर ही रखेगा. इसलिए आप मुझे माफ कर दें और रिश्ते के लिए मना कर दें.’’

इतना कह कर वह दोनों हाथों से मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो दी और कमरे में भाग गई. मासूमी की बात सुन कर सुरेशजी सन्न रह गए. उन्होंने सोचा भी नहीं था कि आएदिन घर में होने वाले झगड़े उन की बेटी की जिंदगी में ऐसा गहरा निशान छोड़ जाएंगे कि उस की जिंदगी की खुशियां ही छिन जाएंगी. जिंदगी के कटघरे में आज वे अपराधी बन सिर झुकाए खड़े थे.

Serial Story: निशान (भाग-1)

उस दिन शन्नो ताई के आने के बाद सब के चेहरों पर फिर से उम्मीद की किरण चमकने लगी थी. ऐसा होता भी क्यों नहीं, आखिर ताई 2 साल बाद घर की बेटी मासूमी के लिए इतना अच्छा रिश्ता जो लाई थीं. लड़के ने इंजीनियरिंग और एम.बी.ए. की डिगरी ली हुई थी. 2 साल विदेश में रह कर पैसा भी खूब कमाया हुआ था. उस की 32 साल की उम्र मासूमी की 28 साल की उम्र के हिसाब से अधिक भी नहीं थी. खानदान भी उस का अच्छा था. रिश्ता लड़के वालों की तरफ से आया था, सो मना करने की गुंजाइश ही नहीं थी. सब से बड़ी बात तो यह थी कि जिस कारण से मासूमी का विवाह नहीं हो पा रहा था वह समस्या अब 2 साल से सामने नहीं आई थी.

हर मातापिता की तरह मासूमी के मातापिता भी चाहते थे कि बेटी को वे खूब धूमधाम से विदा कर ससुराल भेज सकें. फिर भी उस का विवाह नहीं हो पा रहा था. 2 भाइयों की इकलौती बहन, खातापीता घर और कम बोलने व सरल स्वभाव वाली मासूमी घर के कामों में निपुण थी. खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की भी कमी नहीं थी पर समस्या तब आती थी जब कहीं उस के रिश्ते की बात चलती थी.

पहले दोचार दिन तो मासूमी ठीक रहती थी पर जैसे ही रिश्ता पक्का होने की बात होती उसे दौरा सा पड़ जाता था. उस की हालत अजीब सी हो जाती, हाथपैर ठंडे पड़ जाते, शरीर कांपने लगता और होंठ नीले पड़ जाते थे. वह फटी सी आंखों से बस, देखती रह जाती और जबान पथरा जाती थी. सब पूछने की कोशिश कर के हार जाते थे कि मासूमी, कुछ तो बोल, तेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है. तू कुछ बता तो सही. पर मासूमी की जबान पर जैसे ताला सा पड़ा रहता. बस, कभीकभी चीख उठती थी, ‘नहीं, नहीं, मुझे बचा लो. मैं मर जाऊंगी. नहीं करनी मुझे शादी.’ और फिर रिश्ते वालों को मना कर दिया जाता.

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शुरूशुरू में तो उस की हालत को परिवार वालों ने छिपाए रखा. सो रिश्ते आते रहे और वही समस्या सामने आती रही पर धीरेधीरे यह बात रिश्तेदारों और फिर बाहर वालों को भी पता चल गई. तरहतरह की बातें होने लगीं. कोई हमदर्दी दिखाने के साथ उसे तांत्रिकों के पास ले जाने की सलाह देता तो कोई साधुसंतों का आशीर्वाद दिलाने को कहता और कोई डाक्टरों को दिखाने की बात करता, पर कोई बीमारी होती तो उस का इलाज होता न.

एक दिन मौसी से बूआजी ने कह भी दिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला लगता है. चाहे कोई माने न माने, मुझे तो लग रहा है कि लड़की कहीं दिल लगा बैठी है और शर्म के मारे मांबाप के सामने मुंह नहीं खोल पा रही है वरना ऐसा क्या हो गया कि इतने अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते ठुकरा रही है. अरे, यह जहां कहेगी हम इस का रिश्ता कर देंगे. कम से कम यह आएदिन की परेशानी तो हटे.’’

‘‘हां, दीदी, लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन उस समय उस की हालत देखी नहीं जाती. रिश्ते का क्या, कहीं न कहीं हो ही जाएगा. इकलौती भांजी है मेरी, कुछ तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा,’’ मौसी दुख से कहतीं.

और फिर जब मौसी ने एक दिन बातों ही बातों में बड़े लाड़ के साथ मासूमी के मन की बात जाननी चाही तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं, जैसे दुनिया का सब से बड़ा दोष उस के सिर मढ़ दिया गया हो. काफी देर बाद संभल कर बोली, ‘‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे? क्या आप को मैं ऐसी लगती हूं कि इतना बड़ा कदम उठा सकूं?’’

‘‘नहीं बेटा, यह कोई गुनाह या अपराध नहीं है. हम तो बस, तेरे मन की बात जान कर तेरी मदद करना चाहते हैं, तेरा घर बसाना चाहते हैं.’’

‘‘क्या कहूं मौसी, मैं तो खुद हैरान हूं कि रिश्ते की बात चलते ही जाने मुझे क्या हो जाता है. बस, यह समझ लीजिए कि मुझे शादी के नाम से नफरत है. मैं सारी जिंदगी शादी नहीं करूंगी,’’ मासूमी सिर झुकाए कहती रही और फिर सच में वह 18 से 28 साल की हो गई पर उस ने शादी के लिए हां नहीं की.

हालांकि कई बार मासूमी को विवाह की अहमियत का एहसास होता था कि मातापिता नहीं रहेंगे, भाई शादी के बाद अपने घरपरिवार में व्यस्त हो जाएंगे तो उसे कौन सहारा देगा. उसे भी शादी कर के घर बसा लेना चाहिए. उस की सखीसहेलियों के विवाह हो चुके थे और कितनों के तो बच्चे भी हो गए हैं.

अब इतने लंबे समय के बाद इस उम्र में उस के लिए इतना अच्छा रिश्ता आया था. सब को यही उम्मीद थी कि अब इतना समय गुजरने के बाद वह समझदार हो गई होगी और सोचसमझ कर फैसला लेगी पर मासूमी ने फिर मना कर दिया था. पूरे हफ्ते तो इसी उधेड़बुन में लगी रही और आखिर में उसे यही लगा कि विवाह का रिश्ता संभालने में वह असफल रहेगी.

उस रात वह जी भर कर रोई. इन सब बातों में उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि उसे लगता था कि वह किसी की जिंदगी में शामिल हो कर उसे कोई खुशी देने के लायक नहीं है. रात भर अनेक विचार उस के दिमाग में आतेजाते रहे और सुबह उसे फिर दौरा पड़ गया था.

मां ने मासूमी के सिर में नारियल के तेल की मालिश की थी. उसे बादाम का दूध पिलाया था. दोनों भाई बारबार उसे आ कर देख जाते थे. पिता उस के बराबर में सिर झुकाए बैठे सोच रहे थे कि आखिर क्या दुख है मेरी बेटी को? कोई कमी नहीं है. सब लोग इसे इतना प्यार करते हैं, फिर कौन सा दुख है जो इसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है? पर मासूमी के होंठों पर फैली उस फीकी मुसकान का राज कोई नहीं समझ सका जिस ने उस के अस्तित्व को ही टुकडे़टुकड़े कर दिया था.

मासूमी ने बहुत कोशिश की थी खुद को बहलाने की, अकेली जिंदगी के कड़वे सच का आईना खुद को दिखाने की, लेकिन हर बार मायूसी ही उस के हाथ लगी थी. बिस्तर पर लेटी आंखें छत पर जमाए वह अतीत की गलियों से गुजर रही थी कि भाई राकेश की आवाज पर ध्यान गया, जिस ने गुस्से में पहले गमले को ठोकर मारी फिर अंदर आ कर मां से बोला, ‘‘मां, आप पापा को समझा दीजिए. उन्हें कुछ तो सोचना चाहिए कि वे कहां बोल रहे हैं. हमें कहीं भी डांटना, गाली देना शुरू कर देते हैं. हमारी इज्जत का उन्हें तनिक भी खयाल नहीं है. अब हम बच्चे तो नहीं रहे न.’’

मां ने हड़बड़ाते हुए रसोई से आ कर राकेश की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने मन की भड़ास निकाल दी. 16 साल का राकेश मां से अपने पिता के व्यवहार की शिकायत कर रहा था और मां मौके की नजाकत भांप कर बेटे को समझा रही थीं.

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‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी कि इस बात का ध्यान रखें. वैसे बेटा, तुम यह तो समझते ही हो कि वे तुम से कितना प्यार करते हैं. तुम्हारी हर फरमाइश भी पूरी करते हैं. अब गुस्सा आता है तो वे खुद को रोक नहीं पाते. यही कमी है उन में कि जराजरा सी बात पर गुस्सा करना उन की आदत बन गई है. तुम उसे दिल पर मत लिया करो.’’

‘‘रहने दो मां, पापा को हमारी फिक्र कहां, कभी भी, कहीं भी हमारी बेइज्जती कर देते हैं. दोस्तों के सामने ही कुछ भी कह देते हैं. तब यह कौन देख रहा है कि वे हमें कितना प्यार करते हैं. लोग तो हमारा मजाक बनाते ही हैं.’’

राकेश अभी भी गुस्से से भनभना रहा था और उस की मां सरला माथा पकड़ कर बैठ गई थीं, ‘‘मैं क्या करूं, तुम लोग तो मुझे सुना कर चले जाते हो पर मैं किस से कहूं? तुम क्या जानो, अगर तुम्हारे पिता के पास कड़वे बोल न होते तो दुख किस बात का था. उन की जबान ने मेरे दिल पर जो घाव लगा रखे हैं वे अभी तक भरे नहीं और आज तुम लोग भी उस का निशाना बनने लगे हो. मैं तो पराई बेटी थी, उन का साथ निभाना था, सो सब झेल गई पर तुम तो हमारे बुढ़ापे की लाठी हो, तुम्हारा साथ छूट गया तो बुढ़ापा काटना मुश्किल हो जाएगा. काश, मैं उन्हें समझा सकती.’’

तभी परदे के पीछे सहमी खड़ी मासूमी धड़कते दिल से मां से पूछने लगी, ‘‘मां, क्या हुआ, भैया को गुस्सा क्यों आ रहा था?’’

‘‘नहीं बेटा, कोई बात नहीं, तुम्हारे पापा ने उसे डांट दिया था न, इसीलिए कुछ नाराज था.’’

‘‘मां, आप पापा से कुछ मत कहना. बेकार में झगड़ा शुरू हो जाएगा,’’ डर से पीली पड़ी मासूमी ने धीरे से कहा.

‘‘तू बैठ एक तरफ,’’ पहले से ही भरी बैठी सरला ने कहा, ‘‘उन से बात नहीं करूंगी तो जवान बेटों को भी गंवा बैठूंगी. क्या कर लेंगे? चीखेंगे, चिल्लाएंगे, ज्यादा से ज्यादा मार डालेंगे न, देखूंगी मैं भी, आज तो फैसला होने ही दे. उन्हें सुधरना ही पड़ेगा.’’

सरला जब से ब्याह कर आई थीं उन्होंने सुख महसूस नहीं किया था. वैसे तो घर में पैसे की कमी नहीं थी, न ही सुरेशजी का चरित्र खराब था. बस, कमी थी तो यही कि उन की जबान पर उन का नियंत्रण नहीं था. जराजरा सी बात पर टोकना और गुस्सा करना उन की सब से बड़ी कमी थी और इसी कमी ने सरला को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था.

वे तो यह सब सहतेसहते थक चुकी थीं, अब बच्चे पिता की तानाशाही के शिकार होने लगे हैं. बच्चों को बाहर खेलने में देर हो जाती तो वहीं से गालियां देते और पीटते घर लाते, उन के पढ़ने के समय कोई मेहमान आ जाता तो सब को एक कमरे में बंद कर यह कहते हुए बाहर से ताला लगा देते, ‘‘हरामजादो, इधर ताकझांक कर के समय बरबाद किया तो टांगें तोड़ दूंगा. 1 घंटे बाद सब से सुनूंगा कि तुम लोगों ने क्या पढ़ा है? चुपचाप पढ़ाई में मन लगाओ.’’

उधर सरला उस डांट का असर कम करने के लिए बच्चों से नरम व्यवहार करतीं और कई बार उन की गलत मांगों को भी चुपचाप पूरा कर देती थीं. पर आज तो उन्होंने सोच रखा था कि वे सुरेशजी को समझा कर ही रहेंगी कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उस से दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए. वरना कल औलाद ने पलट कर जवाब दे दिया तो क्या इज्जत रह जाएगी. औलाद भी हाथ से जाएगी और पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

अपने विचारों में सरला ऐसी डूबीं कि पता ही नहीं चला कि कब सुरेशजी घर आ गए. घर अंधेरे में डूबा था. उन्होंने खुद बत्ती जलाई और उन की जबान चलने लगी :

‘‘किस के बाप के मरने का मातम मनाया जा रहा है, जो रात तक बत्ती भी नहीं जलाई गई. मासूमी, कहां है, तू ही यह काम कर दिया कर, इन गधों को तो कुछ होश ही नहीं रहता.’’

फिर उन्होंने तिरछी नजरों से सरला को देखा, ‘‘और तुम, तुम्हें किसी काम का होश है या नहीं? चायपानी भी पिलाओगी या नहीं? मासूमी, तू ही पानी ले आ.’’

उधर मासूमी मां की आड़ में छिपी थी. उस का दिल आज होने वाले झगड़े के डर से कांप रहा था. फिर भी उस ने किसी तरह पिता को पानी ला कर दिया. पानी पीते उन्होंने मासूमी से पूछा, ‘‘इन रानी साहिबा को क्या हुआ?’’

मासूमी के मुंह से बोल नहीं फूटे तो हाथ के इशारे से मना किया, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘वे दोनों नवाबजादे कहां हैं?’’

‘‘पापा, बड़े भैया का आज मैच था. वे अभी नहीं आए हैं और छोटे किसी दोस्त के यहां नोट्स लेने गए हैं,’’ किसी अनिष्ट की आशंका मन में पाले मासूमी डरतेडरते कह रही थी.

‘‘हूं, ये सूअर की औलाद सोचते हैं कि बल्ला घुमाघुमा कर सचिन तेंदुलकर बन जाएंगे और दूसरा नोट्स का बहाना कर कहीं आवारागर्दी कर रहा है, सब जानता हूं,’’ सुरेशजी की आंखें शोले बरसाने को तैयार थीं.

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बस, इसी अंदाज पर सरला कुढ़ कर रह जाती थीं. उन की आत्मा तब और छलनी हो जाती जब बच्चे पिता की इस ज्यादती का दोष भी उन के सिर मढ़ देते कि मां, अगर आप ने शुरू से पिताजी को टोका होता या उन का विरोध किया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती. मगर वे बच्चों को कैसे समझातीं, यहां तो पति के विरोध में बोलने का मतलब होता है कुलटा, कुलक्षिणी कहलाना.

वे तब उस इनसान की पत्नी बन कर आई थीं जब पुरुष अपनी पत्नियों को किसी काबिल नहीं समझते थे घर में उन की कोई अहमियत नहीं होती थी, न ही बच्चों के सामने उन की इज्जत की जाती थी. वरना सरला यह कहां चाहती थीं कि पितापुत्र का सामना लड़ाईझगड़े के सिलसिले में हो और इसीलिए सरला ने खुद बहुत संयम से काम ले कर पितापुत्र के बीच सेतु बनने की कोशिश की थी.

उन्होंने तो जैसेतैसे अपना समय निकाल दिया था पर अब नया खून बगावत का रास्ता अपनाने को मचल रहा था और इसी के चलते घर के हालात कब बिगड़ जाएं, कुछ भरोसा नहीं था और इन सब बातों का सब से बुरा असर मासूमी पर पड़ रहा था.

मासूमी मां की हमदर्द थी तो पिता से भी उसे बहुत स्नेह था, लेकिन जबतब घर में होने वाली चखचख उस को मानसिक रूप से बीमार करने लगी थी. स्कूल जाती तो हर समय यह डर हावी रहता कि कहीं पिताजी अचानक घर न आ गए हों क्योंकि राकेश भाई अकसर स्कूल से गायब रहते थे…और घर में रहते तो तेज आवाज में गाने सुनते थे…इन दोनों बातों से पिता बुरी तरह चिढ़ते थे.

मां राकेश को समझातीं तो वह अनसुनी कर देता. उसे पता था कि पिता ही मां की बातों पर ध्यान नहीं देते हैं इसलिए उन का क्या है बड़बड़ करती ही रहेंगी. ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका मासूमी के मन को सहमाए रखती और स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए? भैया स्कूल गए थे या नहीं? पापा ने प्रकाश भाई को क्रिकेट खेलते तो नहीं पकड़ा? दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’

मां उसे परेशानी में देखतीं तो कह देती थीं, ‘क्यों तू हर समय इन्हीं चिंताओं में जीती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े होंगे ही. तुझे तो बहुत शांत होना चाहिए, पता नहीं तुझे आगे कैसा घरवर मिले.’

मगर मासूमी खुद को इन बातों से दूर नहीं रख पाती और हर समय तनावग्रस्त रहतेरहते ही वह स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था.

-क्रमश:

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सजा किसे मिली: पाबंदियों से घिरी नन्ही अल्पना की कहानी

Serial Story: सजा किसे मिली (भाग-3)

प्रमाण की बात सुनते ही अल्पना गुस्से से थरथराती हुई राहुल को मारने के लिए झपटी. वह तेजी से हटा तो सामने रखी टेबल से अल्पना टकराई और जमीन पर गिर गई. असहनीय दर्द से पेट पकड़ कर वह वहीं बैठ गई.

राहुल ने उसे उठाना चाहा तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘मुझे छूना मत…तुम ने मुझे धोखा दिया…तुम मेरी जिंदगी में न कभी थे, न हो और न ही रहोगे…चले जाओ मेरे घर से.’

राहुल अपना सामान समेट कर चला गया…पूरी रात वह रोती रही. पेट दर्द सहा नहीं गया तो उठ कर उस ने पेन किलर खा लिया. अल्पना को बारबार यही लगता रहा कि क्यों उसे किसी का प्यार और विश्वास नहीं मिलता. पहले मातापिता और अब राहुल…खैर सुबह तक पेटदर्द तो ठीक हो गया था पर मन अभी भी ठीक नहीं हुआ था.

क्या करे इस बच्चे का…माना कि यह बच्चा उस की जिंदगी में जबरदस्ती आ गया है पर है तो उस का अपना अंश ही न, वह अकेली कैसे इस बच्चे की परवरिश कर पाएगी…क्या अपने बच्चे को वह प्यारदुलार और अपनत्व दे पाएगी जिस के लिए वह अपने मातापिता को दोष देती रही थी.

मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी. अपने कैरियर के लिए जहां वह बच्चे का बलिदान देना चाहती थी वहीं उस के प्रति स्नेह भी जागने लगा था. वह जानती थी कि बिना विवाह के मां बनना समाज सह नहीं पाएगा…उस के मातापिता सुनेंगे तो जीतेजी ही मर जाएंगे. आज न जाने क्यों मां के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे, जो उन्होंने उसे राहुल के साथ रहते देख कहे थे, ‘बेटा, माना कि मैं तुझे उतना प्यार, दुलार नहीं दे पाई जिस की तू आकांक्षी थी. मैं अपराधिनी हूं तेरी…पर मेरे किए की सजा तू खुद को तो न दे. आज भी हमारा समाज विवाहपूर्व संबंधों को मान्यता नहीं देता है, ऐसे संबंध अवैध ही कहलाएंगे.’

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उस समय तो वह सिर्फ वही करना चाहती थी जिस से उस के मातापिता को चोट पहुंचे…राहुल, जिस पर उस ने विश्वास किया उस से ऐसी उम्मीद नहीं थी. बारबार राहुल के शब्द उस के दिलोदिमाग में गूंज कर उस के अस्तित्व को नकारने लगते कि मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूं जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो.

कभी मन करता कि आत्महत्या कर ले पर तभी मन उसे धिक्कारने लगता…उसे अपनी वार्डन के शब्द याद आते कि जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद ही कठिन, पर तुम ने तो आसान राह ढूंढ़ ली है.

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आफिस में छुट्टी की अर्जी भिजवा दी थी. कशमकश इतनी ज्यादा थी कि उस का न बाहर निकलने का मन कर रहा था और न ही किसी से मिलने का. पेट में दर्द उठता पर वह डाक्टर को दिखाने के बजाय दर्दनाशक दवा खा कर दबाने की कोशिश करती रही.

एक दिन जब वह ऐसे ही दर्द से तड़प रही थी तभी बीना मिलने आ पहुंची, उस की ऐसी दशा देख कर वह अचंभित रह गई तथा उसे जबरन अपनी गाड़ी में बिठा कर डाक्टर के पास ले गई…

डाक्टर ने उसे चेकअप करवाने के लिए कहा.

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देख कर डाक्टर उस पर बहुत गुस्सा हुई तथा बोली, ‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम गर्भवती हो.’

उस को कोई उत्तर न देते देख वह फिर बोली, ‘तुम लड़कियों की यही तो समस्या है…जरा भी सावधानी नहीं बरततीं…क्या पेट में तुम्हें कोई चोट लगी थी…अपने पति को बुलवा लो, क्योंकि तुम्हारा शीघ्र आपरेशन करना पड़ेगा. लगता है किसी चोट के कारण तुम्हारा बच्चा मर गया है और उसी के इन्फेक्शन से पेट में दर्द हो रहा है.’

डाक्टर की बात सुन कर वह दोनों चौंक गईं. बीना ने बात बनाते हुए कहा, ‘डाक्टर, आपरेशन कब करना पडे़गा. दरअसल इन के पति कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन का इतनी जल्दी आना संभव नहीं है.’

‘आपरेशन कल ही करना पड़ेगा. कोई तो रिश्तेदार होंगे…उन्हें जल्द बुलवा लो…हम इन्हें आज ही एडमिट कर लेते हैं.’

बीना ने अल्पना को देखा फिर डाक्टर की ओर मुखातिब होती हुई बोली, ‘डाक्टर, मैं ही इन की जिम्मेदारी लेती हूं क्योंकि इन का कोई भी रिश्तेदार इतनी जल्दी नहीं आ सकता.’

अल्पना के मना करने पर भी बीना ने उस के मातापिता को फोन कर दिया था. उन्होंने तुरंत आने की बात कही. उन के आने से पहले ही वह आपरेशन थिएटर में जा चुकी थी. बेहोशी की हालत में भी डाक्टर के शब्द उस के कानों में पड़ ही गए, ‘इस के यूट्रस में इन्फेक्शन इतना फैल गया है कि अगर निकाला नहीं तो जान जाने का खतरा है. बाहर जा कर इन के रिश्तेदारों से इजाजत ले लो.’

उस के बाद क्या हुआ पता नहीं. सुबह जब आंख खुली तो मम्मीपापा को अपने पास बैठा पाया. उन को देखते ही उस की नफरत फिर से भड़क उठी थी, अगर उसे उन का प्यार और अपनत्व मिलता तो उस के साथ ऐसे हादसे ही क्यों होते? अगर उस समय नर्स नहीं आती तो वह पता नहीं क्याक्या कह बैठती.

‘‘बेटा, कुछ खा ले वरना ताकत कैसे आएगी?’’ आवाज सुनते ही अल्पना अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई. नर्स पता नहीं कब चली गई थी. मां हाथ में फलों की प्लेट लिए खाने का इसरार कर रही थीं तथा उन के पास ही बैठे पापा आशा भरी नजरों से उसे देख रहे थे. उस ने बिना कुछ कहे ही मुंह फेर लिया क्योंकि वह जानती थी कि मां की आंखों से आंसू बह रहे होंगे पर वह अपने दिल के हाथों विवश थी.

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बारबार एक ही विचार उस के मन में आ रहा था कि माना मातापिता उस की उचित परवरिश न कर पाने के लिए दोषी थे पर हर सुविधा मिलने के बावजूद उस ने भी कौन सा अच्छा काम किया. दूसरों को दोष देना तो बहुत आसान है पर जिंदगी बनानाबिगाड़ना तो इनसान के अपने हाथ में है.

अल्पना समझ नहीं पा रही थी कि कुदरत ने औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है कि एक छोटा सा आंधी का झोंका उस के सारे वजूद को हिला कर रख देता है. सब से ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि हादसे में उस के गर्भाशय को निकाल देना पड़ा…अपूर्ण औरत बन कर वह कैसे जीएगी?

मां ने तो अपने कैरियर के लिए उस की तरफ ध्यान नहीं दिया पर उस ने तो उन्हें दुख देने के लिए ही यह सब किया…उस का तो यही हश्र होना था. पर वह अभी भी नहीं समझ पा रही थी कि सजा किसे मिली?

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