आखिर क्यों: निशा का दिल टूटा, स्मृति बनी राज की जीवनसंगिनी

निशा को उस के पति नील ने औफिस में फोन किया और कहा उस के बचपन की मित्र स्मृति अपने पति के साथ दिल्ली में आई है. बेचारी का कैंसर लास्ट स्टेज पर है. प्लीज तुम उस से मिलने चलो मेरे साथ क्योंकि वह मेरी बचपन की मित्र है और हमारे ही शहर में बड़ी मुसीबत में है. बहुत सालों तक हम मिले ही नहीं. पापा का फोन आया था कि वह अपने पति के साथ इसी शहर में डाक्टर को दिखाने आ रही है. निशा को भी ठीक लगा कि उस का जाना जरूरी है. दोनों अस्पताल पहुंचे. वहा पहुंच कर निशा ने देखा राज को स्मृति के पति के रूप में.

उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह थोड़ी देर तक रुकी फिर स्मृति से कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी हौसल रखें और मैं शाम को फिर आप से मिलने आऊंगी. अभी मु झे निकलना होगा.’’ फिर उस ने अपने पति नील से कहा, ‘‘आप यहीं रुको. मैं गाड़ी से चली जाती हूं. शाम को हम दोनों साथ घर चलेंगे.’’ बाहर निकल कर निशा ने देखा कि आकाश में काले बादल छाए हुए हैं. निशा अपने औफिस लौट रही थी. सड़क खाली थी शायद बारिश की आशंका की वजह से लोग अभी बाहर नहीं निकल रहे थे. कार और मन दोनों तेज गति से दौड़ रहे थे… निशा का मन अपने बचपन में पहुंच गया था. वह स्कूल की होनहार विद्यार्थी थी. सभी टीचर्स उसे बहुत पसंद करती थीं.

सहपाठी भी उसे तवज्जो देते थे और निशा का जीवन अच्छा चल रहा था. वह अपने भविष्य की बहुत शानदार बुनियाद रख रही थी. वह जितनी तेज और कुशाग्रबुद्धि की थी उस की प्रिय सखी रोशनी उतनी ही सीधीसादी थी. शायद विपरीत गुणों में भी प्रगाढ़ मित्रता हो सकती है, उन दोनों को देख कर यह आसानी से सम झा जा सकता था. 12वीं कक्षा पास कर निशा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई थी किंतु रोशनी का विवाह हो गया था जिस में निशा शामिल नहीं हो सकी थी. बाद में निशा रोशनी से मिलने पहुंची और वहां उस की मुलाकात रोशनी के पति के मित्र राज से हुई और दोनों एकदूसरे से प्रभावित हो गए.

राज सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था और निशा पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम जौब भी कर रही थी. अत: रोशनी के साथसाथ निशा राज को भी कभीकभी गिफ्ट भेजती थी. उस को भी एसटीडी कौल लगा देती थी. निशा राज की हर छोटीबड़ी खुशी और दुख की सहभागी बनती थी. निशा राज के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिनों को अपनी खुशी सम झ कर सैलिब्रेट करती थी. उस ने ऐसा कभी नहीं सोचा कि राज उस के लिए कभी कुछ नहीं करता क्योंकि शायद निशा प्रेम कर रही थी और प्रेम कभी प्रतिदान नही मांगता. समय बीत रहा था. निशा के पिता निशा का विवाह करना चाहते थे. एक अच्छा लड़का मिलते ही पिता ने निशा का रिश्ता तय कर दिया और ठीक इसी समय राज का भी चयन प्रशासनिक सेवा में हो गया. जब निशा ने राज को बताया कि उस की सगाई हो गई तो राज ने भरी आंखों से उसे बधाई दी और उस से मिलने दिल्ली आया. राज ने निशा से कहा कि वह उस के पिता से मिलना चाहता है.

बहुत अनुनयविनय कर निशा के पिता को राजी किया. निशा के पिता ने दोनों के प्रेम को देखते हुए ही शादी के लिए हां कर दी और निशा की सगाई तोड़ दी. कोई दिक्कत भी नहीं थी दोनों की धर्मजाति भी एक थी. किंतु कुछ महीनों के बाद राज जब ट्रेनिंग पर गया तो वहां उस की मुलाकात स्मृति से हुई. उस का भी चयन राज के साथ ही हुआ था. दोनों ने जीवनसाथी बन कर साथ रहने का फैसला किया. निशा राज के इस आकस्मिक बदलाव से बहुत आहत हुई. लेकिन उस की राज से अपने प्यार के लिए भीख मांगने की मंशा नहीं थी. किंतु वह सोचती थी आखिर राज ने ऐसा क्यों किया? क्या राज ने सफलता की चकाचौंध और शोर में अपने दिल की आवाज को दबा दिया? राज ने ट्रेनिंग से आने के बाद स्मृति से विवाह कर लिया. मगर निशा राज की स्मृति को मन से निकाल नहीं पा रही थी. खैर, वक्त कभी रुकता नहीं है. धीरेधीरे निशा भी जीवन में आगे बढ़ गई और उस का विवाह भी नील से हो गया.

नील एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. आज अचानक राज के बारे में सुना कि उस की पत्नी कैंसर से जू झ रही है और 2 साल से बिस्तर पर है. वह सम झ नहीं पा रही थी कि राज की गलती की सजा स्मृति को मिल रही है या राज को उस के किए की सजा मिल रही है. निशा दिनभर औफिस में भी राज के ही बारे में सोच रही थी और उन्हीं विचारों में डूबी हुई शाम को वह वापस अस्पताल पहुंची नील को लेने. उस के विचारों को विराम लग तब जब निशा के पति नील ने राज से उसे मिलवाया और कहा, ‘‘आप हैं राज मेरी बचपन की मित्र स्मृति के पति.’’ उस ने राज की आंखों में कुछ देखा.

वह क्या था पता नहीं. शायद पछतावा या शर्मिंदगी या कायरता. किंतु निशा की आंखों में राज के लिए एक ही सवाल बरसों से था, ‘‘आखिर क्यों…’’ स्मृति की तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ. वह अब शायद जीवन की आशा छोड़ चुकी थी. किंतु जब तक सांस है तब तक तो जीवन जीना ही होता है. वह सोच रही थी कि उस के पीछे राज कहीं अकेला न रह जाए. बस यही बात उसे दिनरात खा रही थी. नील भी स्मृति की देखभाल में लगा हुआ था. इसलिए निशा का भी आनाजाना होता रहता था. एक दिन निशा स्मृति के पास बैठी थी और थकावट के कारण उसे झपकी आ गई. तभी राज वहां आ गया. उस ने निशा से कहा, ‘‘आप बहुत थकी हुई लग रही हैं. ऐसे में ड्राइव कर के मत जाओ. इंतजार करो मैं नील को भी औफिस से यहीं बुला लेता हूं. आप दोनों साथ ही घर चले जाना.’’ निशा इतने सालों बाद अचानक नील को इस अधिकार वाले स्वर में अपने लिए कुछ कहते सुना तो असमंजस में पड़ गई कि राज की बात मान ले या टाल दे. खैर, जीत राज की हुई. अब दोनों चुप बैठे थे.

हालांकि अंदर भावनाओं का तूफान उठा था दोनों के ही. राज ने ही चुप्पी तोड़ी बोला, ‘‘निशा, मु झे माफ कर दो,’’ और फिर जो भावावेश में बोलना चालू हुआ तो उसे कुछ भी होश न रहा और उस ने अपनी गलती की स्वीकारोक्ति भी कर ली. उस ने मान भी लिया कि उस ने पदप्रतिष्ठा के लिए स्मृति से शादी की और शादी के बाद उसे पता चला कि उस की असली खुशी कहीं और थी. स्मृति जो पहले सो रही थी न जाने कब जाग गई थी और चुपचाप लेटी थी. उस ने सब सुन लिया और उसे लगा कि क्यों न मरते हुए भी वह एक अच्छा काम कर जाए और 2 सच्चे प्यार वाले दिलों को मिलवा कर इस दुनिया से जाए. बस वह मन ही मन कुछ सोचने लगी. नील जब शाम को निशा को लेने आया तो स्मृति ने उसे बातों में उल झा लिया. फिर राज से कहा कि वह निशा को घर ड्रौप कर दे. वह नील के साथ बचपन की बातें कर रही है… उसे कुछ राहत मिलती है अपने वर्तमान के दुखों से. निशा और राज के जाते ही स्मृति ने नील से कहा, ‘‘नील, तुम से कुछ मांगना चाहती हूं.’’ नील थोड़ा भावुक हो गया. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? बोलो मैं तुम्हें दूंगा.’’ स्मृति ने कहा, ‘‘नील मैं तुम से राज की खुशियां मांगती हूं,’’ और फिर उसे बताया, ‘‘राज और निशा बहुत पुराने प्रेमी हैं. राज ने पदप्रतिष्ठा के लिए मु झ से शादी की थी, किंतु प्रेम वह निशा से ही करता था. यह बात मु झे आज ही पता चली है.

देखो मैं तो इस दुनिया से जा रही हूं किंतु तुम निशा को वापस राज को दे देना, बस तुम से यही चाहिए.’’ नील के तो पैरों तले की जमीन खिसक गई. नील ने निशा की सहेली रोशनी से बात की तो उसे सारी सचाई पता चली. अब नील ने सोचा कि 2 सच्चे प्रेमियों को मिलाना ही होगा. उस ने जाते ही अपना रैज्यूम एक अमेरिकन आईटी कंपनी में भेजा जहां पर स्मृति का एक दोस्त पहले से ही काम कर रहा था. स्मृति के कहने पर नील का चयन उस कंपनी में हो गया. उसे 3 साल का कौंट्रैक्ट साइन करना था. नील ने निशा से कहा, ‘‘निशा, मु झे अमेरिका में जौब औफर हुई है.’’ निशा बहुत खुश हुई. किंतु नील ने कहा, ‘‘देखो निशा मु झे वहां अकेले ही बुलाया गया है. अब तुम जैसा कहो.’’ निशा ने कहा, ‘‘नील, मैं तुम्हारी खुशी में कभी रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. अगर तुम मु झ से दूर जा कर जिंदगी में कामयाबी हासिल करना चाहते हो तो मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं.’’ इस पर नील ने कहा, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हें किसी बंधन में बांध कर नहीं जाना चाहता हूं. 3 साल का समय बहुत लंबा होता है.

तुम भी मेरी तरफ से आजाद हो,’’ नील थोड़ा भावुक हो गया था. निशा भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि यह सब अचानक से क्या हो रहा है. खैर, वह चुप रही. 10 दिन बाद नील का वीजा और टिकट आ गया और वह चला गया. नील के जाते ही निशा काफी अकेली हो गई. ऐसे में राज ने उसे संभाला. अपनेपन की उष्णता पाते ही पुरानी भावनाएं पिघलने लगीं. उधर स्मृति की हालत बहुत तकलीफदेह हो गई थी. उस ने डाक्टर से पूछा, ‘‘उसे अब कितने दिन यह दर्द झेलना पड़ेगा?’’ डाक्टर ने कोई जवाब नहीं दिया. अब उस ने नर्स से एक कागज और पैन मांगा और राज को एक पत्र लिखा और साथ ही निशा से भी निवेदन किया कि वह राज को अपना ले और नील की कुरबानी को जाया न करे. जैसे ही स्मृति ने पत्र पूरा कर अपने तकिए के नीचे रखा वह एक संतोष लिए हमेशा के लिए सो गई और हर दर्द से आजाद हो गई. निशा एक बार फिर सोचने लगी कि नील और स्मृति ने ऐसा किया आखिर क्यों? द्य

सही डोज: भाग 1- आखिर क्यों बनी सविता के दिल में दीवार

दीवारें  बन गई थीं. दिलों के भीतर बनी इन दीवारों के पीछे से घर का हर व्यक्ति एकदूसरे की हरकतों को देखता रहता था. सविता के दिल में दीवार की नींव तब पड़ी जब नवीन ने 1 साल पहले ही ब्याह कर आई अपनी पत्नी की सारी भारी-भारी साडि़यां, डैकोरेशन पीसेज, चांदी के बरतन सब उस को मना कर बहन की शादी में दे दिए थे. नवीन 2 बहनों का भाई था और अपनी जिम्मेदारियां संभालता था पर सविता की भावनाओं की कद्र उसने नहीं की. यह सारा सामान सविता चाहे इस्तेमाल नहीं करती थी पर मां-बाप की निशानी थी.

नवीन उठते तनाव को देख रहा था, पर वह चुप रहता था. वह मूक दर्शक था. पत्नी के व्यंग्य को तो बरदाश्त करता ही था, विवाहित और एक बची अविवाहित बहन की फरमाइशों को भी सुनता था. कभी-कभी मां फोन पर चिल्लाकर कहती, ‘‘अरे, तू कुछ बोलता क्यों नहीं?’’ तंग आ कर वह कहता, ‘‘क्या बोलूं, मम्मी आप लोग ही बोलने को काफी हैं.’’

सुबह 6 बजे से ही सविता की सास प्रमिला देवी को मैसेज नवीन के व्हाट्सऐप पर आने शुरू हो जाते. आज दफ्तर जाते समय 2 किलोग्राम आटा और 1 किलोग्राम चीनी देते जाना. तेरे पापा की दवाइयां खत्म हो गई हैं, शाम को लेते आना.

मगर वे अपनी बेटी रश्मि को कभी फोन नहीं लगाती थीं जो उन्हीं के साथ रहती थी. शायद उसी गुस्से से मैसेज देख लेने पर भी सविता करवट बदल कर फिर सो जाती थी. मम्मी के मैसेजों की टिनटिन आवाज से नींद नवीन की भी खुल जाती थी पर वह भी चुपचाप लेटा रहता था. वह सविता को भी उठने को नहीं कहता था.

उसके पापा नरेंद्रनाथ ने कभी चाय तक नहीं बनाई थी. जब से नवीन और सविता ने अलग रहना शुरू किया है उन्हें काम के लिए न जाने कितनी बार रसोई के चक्कर लगाने पड़ते हैं. प्रमिला 1 घंटा व्यायाम करने के बाद ही 1 प्याला चाय उन के सामने मेज पर रखती थीं. बेचारे चुपचाप उठा कर पीते. यह रोज की दिनचर्या जो थी, कहां तक बुरा मानते. नवीन व सविता ने सालभर यह देखा था या कहिए भुगता था. शादी के 10-15 दिन बाद घर की हालत कुछ ऐसी होती थी.

‘‘सवेरे-सवेरे उठ जाते हो, यह नहीं कि सब की तरह पड़े सोते रहो,’’ यह प्रमिला की आवाज होती थी.

‘‘क्या करूं, पुरानी आदत है, नींद जल्दी खुल जाती है और फिर 7 बजे उठा तो 9 बजे दफ्तर कैसे जा पाऊंगा,’’ कह कर नरेंद्रनाथ खाली प्याला पत्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘1 प्याला और दे दो, आज कुछ ज्यादा ही थकावट लग रही है.’’

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ प्रमिला आखिर पत्नी ही तो थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं, अब उम्र का तकाजा है, प्रमिला,’’ कह कर उन्होंने प्यार से पत्नी के कंधे को छू लिया.

उधर युवा सविता उठी और उतरी सलवारकमीज को फिर से लपेट कर ऐसे बाहर जाने लगी जैसे कोई शेरनी शिकार के लिए निकल रही हो. ‘‘सविता, सुनो,’’ नवीन ने कुछ कहना चाहा, पर वह बिना जवाब दिए ही तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. शादी के सपने इतने जल्दी धुल जाएंगे, उसे उम्मीद नहीं थी.

रोज की तरह रसोई में जा कर वह काम में जुट गई. नाश्ते से निबटने के बाद खाने की तैयारी शुरू हो गई. नरेंद्रनाथ बाहर का खाना नहीं खाते हैं, इसलिए पहले उन का ही डब्बा तैयार कर के रख दिया गया. नवीन का दफ्तर पास ही है, इसलिए वह घर आ कर खा लेता है. अगर किसी वजह से घर न आ सके तो कैंटीन में ही खा लेता है.

‘‘अब तुम बोलो, क्वीन, तुम्हारे डब्बे में क्या रख दूं?’’ सविता ने अपनी ननद रश्मि से पूछा.

‘‘कुछ भी रख दो, भाभी देर हो गई है. नहीं बना हो तो बिना लिए ही चली जाऊंगी और हां भाभी, मुझे क्वीन तो नहीं कहो.’’

‘‘बिना लिए क्यों जाएगी, क्या तेरी मां मर गई है,’’ प्रमिला दूर से अपनी बेटी की बात सुन कर बोलीं.

‘‘रश्मि, अम्मांजी हजारों साल जिंदा रहें पर तुम्हारा खाने का डब्बा मुझे लगाना है, इसलिए जल्दी बोलो क्या चाहिए,’’ सविता ने फुसफुसा कर रश्मि से कहा. सविता की आवाज की गरमी से प्रमिला झलस कर रह गईं.

‘‘मैं तो इस घर में बस भाड़ ?झोंक रही हूं,’’ सविता बड़बड़ा उठी. प्रमिला ने सुन लेने के बाद भी पूछा, ‘‘क्या मुझसे कुछ कहा सविता?’’

‘‘नहीं मम्मी, सवेरे देर से उठी थी इसलिए हनुमान चालीसा पढ़ रही हूं.’’

‘‘पढ़ो बहू जरूर पढ़ो.’’

अब जब से वे नए घर में शिफ्ट हुए हैं, प्रमिला को पता चल रहा है कि घर संभालना उम्र हो जाने के बाद कितना कठिन हो जाता है. अब सविता ने घर से निकलते हुए बैठक की ओर देखा, चारों तरफ चीजें ढंग से रखी थीं.

सास- ससुर के घर में बाबूजी का आधा पढ़ा अखबार कुरसी पर चिडि़या की तरह अपने पंख फड़फड़ा रहा होता था. पैंसिलें कालीन पर पड़ी होतीं. रश्मि की चप्पलें खाने की मेज के नीचे रखी होती थीं. खाने की मेज पर जूठे बरतन, प्याले पड़े होते थे. प्रतिमा आराम से चौकी पर बैठ कर अपनी टांगों में तेल की मालिश कर रही होतीं और ऊंचे स्वर में भक्ति गीत गा रही होतीं. हर सुबह सविता को यह दृश्य देखने को मिला करता.

  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 3

दूसरे दिन इला ने अपनेआप को बदलने का यत्न शुरू कर दिया. शाम को बालकनी में जब राजन के साथ बैठती तो उस की बातों में रुचि लेती. कभीकभार उस के दफ्तर के कामकाज के विषय में भी पूछती परंतु रात सोने के समय फिर कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट जाती.

राजन इतने परिवर्तन से भी प्रसन्न था. सोचता था कि  आहिस्ताआहिस्ता इला अपनी ?ि?ाक से मुक्ति पा लेगी. इस बार राजन गंगटोक के दौरे पर जाने लगा तो एक छोटे से सूटकेस में 2-3 कपड़े ले कर इला भी कार में आ बैठी.

3-4 दिन में काम समाप्त कर राजन सिलीगुड़ी के लिए लौट पड़ा. इस बार राजन भी इतना खुश था कि  कार की टंकी भराने का भी उसे ध्यान न रहा. अभी वे लोग काली?ोरा तक ही पहुंचे थे कि कार बंद हो गई. रात होने लगी थी. किसी तरह कार ठेल कर वह काली?ोरा के रैस्टहाउस तक ले आया. पत्थरों पर उछलती, बहती पहाड़ी नदी के किनारे बना यह सुंदर रैस्टहाउस एक बड़ी चट्टान पर स्थित था.

गोलाकार सीढि़यां ऊपर तक चली गई थीं. रैस्टहाउस का चौकीदार राजन को पहचानता था. उस ने दोनों के लिए बड़ा वाला कमरा खोल दिया. राजन कार से एक ट्रक में लिफ्ट ले कर पैट्रोल लाने चला गया. जाने से पहले रात का खाना उस ने चौकीदार को बनाने को कह दिया था.

इला बरामदे के जंगले पर खड़ी नदी की ओर देखने लगी. वहां एक जोड़ा पानी के किनारे बैठा शायद पिकनिक मना रहा था. टिफिन एक किनारे पड़ा था. स्त्री की खनखनाती हंसी यहां तक सुनाई दे रही थी.

चौकीदार इला के पास आ कर खड़ा हो गया. उसे युगल जोड़े की ओर देखते पा कर बोला, ‘‘ये साहब लोग भी यहीं ठहरे हैं. छुट्टी पर आए हैं.’’

इला बोली, ‘‘मैं जरा नदी किनारे घूम

आती हूं.’’

जाने क्यों वह पुरुष उसे जानापहचाना लग रहा था. सीढि़यां उतर कर नदी का सूखा चौड़ा पाट पार कर के नदी किनारे तक पहुंचने में इला को काफी समय लग गया. इला की ओर उन दोनों की पीठ थी. तभी पुरुष बोला, ‘‘चलो, रैस्टहाउस में चल कर चाय पीएंगे.’’

‘‘नहीं, यहीं बना कर पिलाओ जैसे बाकी पिकनिक पर पिलाते हो.’’

इला अपने स्थान पर जड़ सी हो गई. रमण को पहचानने में वह कभी भी भूल नहीं कर सकती थी. तभी रमण पलटा व इला को सामने देख कर हत्प्रभ सा रह गया. बोला, ‘‘तुम.’’

रमण की पत्नी भी दोनों को देख रही थी.

‘‘आप एकदूसरे को जानते हैं क्या?’’

‘‘हां… आं… आं…’’  रमण संभला, ‘‘कालेज में हम एक साथ पढ़ते थे.’’

रमण ने दोनों का परिचय कराया. उस की पत्नी मीता ने रमण से फिर कहा, ‘‘जाइए न, लकडि़यां जमा कर के लाइए, अब तो इला को भी चाय पिलाएंगे.’’

रमण चला गया. मीता इला के साथ बातें करने लगी. बड़ी प्यारी सरल हृदया लड़की थी. 15 मिनट में ही चटाचट बोलती ढेरों बातें कर गई. अपने व रमण के हनीमून की बातें, प्यार?ागड़े का सारा ब्योरा उस ने इला को सुना डाला.

हंसतीखिलखिलाती, शर्म से दोहरी होती वह सब कहती गई. इला मुख पर मुसकराहट लिए उस की सब बातें सुनाती रही. तब तक रमण लकडि़यां जमा कर के ले आया. तीन बड़ेबड़े पत्थर जोड़ कर उस ने चूल्हा बना पतीले में चाय का पानी रख दिया. थोड़ी ही देर में उबलती चाय मगों में डाल कर उस ने दोनों को दे दी. स्वयं भी एक मग ले कर पास बैठ गया.

मीता नाक चढ़ा कर बोली, ‘‘एकदम कड़वी कर दी है. आज कैसी चाय बनाई है?’’

‘‘अच्छी तो है,’’ इला बोली.

‘‘नहीं इला, रोज सवेरे मु?ो बैड टी बना कर देते हैं. इतनी बढि़या बनाते हैं क्या बताऊं?’’

रमण शरमा सा गया, ‘‘क्या बेकार बातें कर रही हो, इला क्या सोचेगी?’’

इला हंस पड़ी. मीता रूठ कर मुंह फुला कर बैठ गई. दोनों ने मिल कर उसे मनाया, फिर सब सामान समेट कर रेस्ट हाउस की ओर चल पड़े.

‘‘तुम्हारे पति कहां हैं?’’

‘‘वह तो पैट्रोल लेने गए हैं.’’

तीनों सहज बातचीत करते हुए रेस्ट हाउस तक आ गए. मीता कपड़े बदलने चली गई तथा रमण व इला बरामदे में खड़े हो गए.

‘‘शादी कब की, रमण?’’ इला ने पूछा.

‘‘अभी 1 साल हुआ.’’

फिर चुप्पी छाई रही. जिस रमण के लिए इला इतनी उदासपरेशान रहती थी, आज सामने पा कर उसे उस से कोई बात करने के लिए नहीं सू?ा रही थी.

रमण ही बोला, ‘‘तुम्हारा कार्ड मिला था, उस से पहले पत्र भी मिला था.’’

‘‘तुम्हें मु?ा से कोई गिला तो नहीं रमण?’’ इला ने रुकरुक कर पूछा.

‘‘शुरू में बुरा लगा था परंतु तुम्हारे पत्र के बाद शादी का कार्ड मिलने पर मैं सम?ा गया. मैं तुम्हें किसी भी तरह दोष नहीं दे सका.’’

इला के हृदय से एक भारी बोे?ा सा उतर गया.

‘‘तुम्हारी शादी के बाद काफी समय तक खोया सा रहा. फिर मां ने मेरे लिए मीता को पसंद कर लिया. मां का दिल न दुखाने के लिए मैं ने भी हां कर  दी. तुम ने तो शादी कर ही ली थी. तुम्हारे वियोग में कब तक उदास बना बैठा रहता?’’ रमण हंसने लगा.

‘‘बहुत अच्छा किया रमण, मीता बहुत ही प्यारी लड़की है. वही तुम्हारा वर्तमान और भविष्य है. मैं और तुम एकदूसरे का अतीत हैं, जो मर चुका है.’’

‘‘हां इला, जीवन में कहीं कुछ खो देने पर जीवन वहीं तो समाप्त नहीं हो जाता. अपने समाज, परिवार, मातापिता के प्रति भी तो हमारा कुछ कर्तव्य होता है, जिसे भावनाओं की वेदी पर निछावर नहीं  किया जा सकता. टूटे तारों का जोड़ कर फिर प्यार का तारतम्य बैठाया जा सकता है. सुनने वाला बदल जाता है परंतु गीत तो वही रहता है.’’

‘‘अब आप इला के सामने क्या दर्शन ?ाड़ रहे हैं?’’ मीता अंदर से आते हुए बोली, ‘‘आप को तो दार्शनिक होना चाहिए था, फौज में कहां भरती हो गए फौजियों का नाम बदनाम करने.’’

कुछ देर बाद राजन भी पैट्रोल ले कर वापस आ गया. मीता व रमण से मिल कर वह बड़ा प्रसन्न हुआ. रात सब ने एकसाथ खाना खाया व देर तक बरामदे में कुरसियों पर बैठे गप्पें मारते रहे. सवेरे तड़के उन से विदा ले कर राजन व इला चल पड़े. रमण व मीता देर तक खड़े हाथ हिलाते रहे. वापसी में राजन ने उन से सिलीगुड़ी रुकने का वचन ले लिया.

राजन तेजी से कार चला रहा था. आज वह हर हालत में दफ्तर जाना चाहता था. उन का तो पिछली रात ही सिलीगुड़ी पहुंच जाने का कार्यक्रम था. आज उस ने एक जरूरी बैठक रखी हुई थी.

इला का तो एक रात में ही जैसे कायापलट हो गया था. जिस मरीचिका के पीछे वह कब से भाग रही थी, पिछली शाम उसे पा कर लगा कि वह तो सूखी जलती रेत के सिवा कुछ भी नहीं. उस का न खलिस्तान तो उस ने अपने घर में ही था, जिसे वह अपनी मूर्खता से अब तक मरुस्थल बनाए हुए थी. उसे अपने पर बड़ी ग्लानि हुई कि अब वह और नहीं भटकेगी.

अब वह राजन को कभी कुएं के पास से प्यासा नहीं जाने देगी. अपनी अनंत प्यास का भी उसे आज एहसास हो रहा था. रमण अपने वर्तमान से सम?ौता कर कितना प्रसन्न था. दोनों हाथों से मीता के साथ मिल कर जीवन की खुशियां बटोर रहा था, जबकि वह अपनी बेवकूफी से अपना आचंल रीता किए जा रही थी. पर अब वह कभी ऐसा नहीं होने देगी. उस ने अपना हाथ बढ़ा कर राजन की गोद में रख दिया. राजन ने एक हाथ से स्टीयरिंग संभालते हुए दूसरे हाथ से इला का हाथ दबाया, जैसे दोनों में नए कौल इकरार हुए हों.

  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 1

राजन शाम को घर में घुसते ही बोला, ‘‘इला, शनिवार को तैयार रहना, सब मित्रों के साथ मनाली जाने का कार्यक्रम बनाया है.’’

इला सुन कर भी रसोई में बैठी चुपचाप अपना काम करती रही. अब की बार राजन जरा जोर से बोला, ‘‘इला, सुन लिया न, शनिवार को मनाली जाने का कार्यक्रम है?’’

इला ? झल्ला सी गई, ‘‘हांहां, सुन लिया. लेकिन तुम्हीं जाना. तुम तो जानते ही हो कि मुझे पहाड़ पर आनेजाने में कितनी परेशानी होती है.’’

‘‘इस में परेशानी की क्या बात है. मतली रोकने के लिए खट्टीमीठी गोलियां चूसती रहना.’’

‘‘मुझे साथ घसीटने की तुक क्या है? तुम्हारा मन है, तुम्हीं चले जाना,’’ इला ने दो टूक शब्दों में कहा.

राजन खिन्न सा हो गया कि पता नहीं कैसी है इला. कोई भी कार्यक्रम बनाओ, कभी सिरदर्द तो कभी मूड खराब, सदा कोई न कोई बहाना लगा ही रहता है. वह गुस्से में पैर पटकता हुआ बिना चाय पीए ही बाहर चला गया. इतना जरूर कहता गया, ‘‘अकेले ही जाना होता तो शादी किसलिए की थी?’’

इला को बुरा भी लगा व अपने पर क्रोध भी आया. कितना दुख देती है राजन को वह. हर समय उस के पिकनिक या सैर के उत्साह पर पानी फेर देती है. वह उसे प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करता है परंतु इला का मन सदा बुआबुआ ही रहता है. शादी को 2 साल होने का आए परंतु अब तक वह अपने अतीत को नहीं भुला पाई।

कालेज में पढ़ते समय अपने सहपाठी रमण के साथ इला की जानपहचान मित्रता की सीमाओं से काफी आगे बढ़ गई थी. बस में दोनों एकसाथ चढ़ कर विश्वविद्यालय जाते थे. शुरूशुरू में तो मुलाकात एकदूसरे की पहचान तक ही सीमित रही, फिर धीरेधीरे अनजाने ही दोनों एकदूसरे की प्रतीक्षा करने लगे. जब तक दूसरा न आ जाता, उन में से कोई बस में न चढ़ता. सुब्रत पार्क से विश्वविद्यालय तक कितना लंबा सफर था. एकडेढ़ घंटे तक दोनों गप्पें मारते रहते. समय कैसे कट जाता, पता ही न चलता.

विश्वविद्यालय में दोनों आर्ट्स फैक्लटी के स्टौप पर उतरते. कक्षा के बाद अकसर दोनों कैफे में जा बैठते. चारों ओर छात्रों की भीड़ रहती. रमण काउंटर पर पेमैंट कर खानेपीने का सामान ले आता. कभी कड़की होने पर दोनोें एकएक हौट डौग खरीद कर कहीं छाया में बैठ कर खा लेते. दोनों की मित्रता सहज भाव से चल रही थी.

पढ़ाई का मूड होता तो दोपहर भी लाइब्रेरी में बैठ कर दोनों नोट बनाते रहते. रमण खूब मेधावी था. उस के सारे नोट तैयार भी हो जाते और इला अभी किताबों में ही उल?ा होती. फिर वह तंग आ कर रमण के नोट ही ले लेती.

एम.ए. (प्रथम वर्ष) में रमण ने इला की खूब सहायता की. तभी इला के पिता का ट्रांसफर दिल्ली से बाहर हो गया. बिछुड़ने के समय इला और रमण को पता चला कि उन की मित्रता मात्र मित्रता न रह कर प्रेम में परिवर्तित हो चुकी है. दोनों में चैटिंग होती रहा. फिर रमण सेना में कमीशन ले कर सैनिक अधिकारी हो गया. उसे लगा यह नौकरी अच्छी एडवैंचरस होगी.

प्रशिक्षण के बाद वह मोरचे पर भेज दिया गया. वहां से भी इला को उस के मैसेज आते रहे. पर इला हर समय भय और आशंका से त्रस्त रहती. कहीं किसी टैररिस्ट घटना में कुछ अनिष्ट न घट जाए. जब कुछ दिन पौलिटिकल डिप्लोमेसी से संघर्ष विराम हुआ तो इला की जान में जान आई.

अब रमण इला से मिलने आया. अब तक इला एक पब्लिक स्कूल में टीचर बन चुकी थी. रमण स्कूल से ही इला को चाय के लिए बाहर ले गया व उस के मातापिता से मिलने की इच्छा प्रकट की.

‘‘अभी नहीं रमण, घर में मेरे ताऊजी आए हुए हैं. वे बहुत पुराने विचारों के हैं. यदि उन्हें पता चला कि मैं तुम से प्रेम करती हूं तो वे मु?ो जान से ही मार देंगे. पिताजी भी उन की बात कभी नहीं टालते. वे उन्हें मेरे और तुम्हारे विरुद्ध कर देंगे. पिताजी उन की बहुत सुनते है क्योंकि वही गांव में पुश्तैनी 100 एकड़ जमीन संभालते हैं. उन का गांव और पौलिटिक्स में दबदबा है. वे गांव की खाप के मुखिया भी हैं.

‘‘परंतु मु?ा में क्या दोष है?’’ रमण बोला.

‘‘इतनी बात भी नहीं सम?ाते? तुम ब्राह्मण हो और हम जाट.’’

‘‘ओह,’’ कुछ क्षण चुप रहने के बाद रमण ने पूछा, ‘‘तुम भी यह सब मानती हो क्या?’’

‘‘सवाल मेरे मानने या न मानने का नहीं परंतु बड़ों को हम कैसे सम?ाएं?’’

रमण इला के पिता से मिलना चाहता था परंतु इला के मना करने पर न मिला. 2 दिन

ठहर कर वह फिर चला गया. जाते समय इला को लगा जैसे कोई उस के शरीर का एक भाग काट कर ले गया हो. कितना फब रहा था रमण सेना के कैप्टेन की वर्दी में. बिलकुल अभिनेता जैसा. क्या जानती थी इला कि यही उस से अंतिम भेंट है. फिर अचानक बहुत कुछ घट गया. पिता का रक्तचाप बहुत बढ़ गया. वह अचानक एक दिन आंगन में चक्कर खा कर गिर पड़े. डाक्टर ने आ कर देखा और पूरे 1 महीने तक आराम करने को कहा. घर में सब को सम?ा दिया गया कि उन्हें किसी प्रकार का सदमा न पहुंचने दिया जाए.

मानसिक आघात से हृदय को आघात लगने का खतरा था. इला के बड़े भाई, जिन्हें उस के व रमण के संबंधों की भनक मिल चुकी थी, इला को सम?ाने लगे कि इन दिनों पिताजी को स्वप्न में भी गुमान न हो कि वह एक विजातीय लड़के से प्रेम करती है. इस से उन का जीवन खतरे में पड़ जाएगा. इला ने रमण को एक चैट में सब बता दिया और आगे से चैट करने से मना कर दिया.

2 महीने बाद इला के पिता अच्छे हो गए और दफ्तर जाने लगे. तभी राजन के घर से इला के लिए रिश्ता आया. राजन हर प्रकार से उपयुक्त था. अच्छी नौकरी थी. देखने में भी अच्छाखासा था. फिर वह अपनी बिरादरी का भी था. पिता को यह रिश्ता बहुत पसंद आया और फिर लड़के वाले स्वयं रिश्ता मांग रहे थे. इला उन की एक ही बेटी थी. आंगन में गिरने की घटना से वे बहुत आशंकित रहने लगे थे. सोचते, पता नहीं कब जीवन का अंत हो जाए, जितनी शीघ्र बेटी के हाथ पीले हो जाएं, अच्छा है. अब तो घर बैठे इतना बढि़या रिश्ता आया था. इला की मां को उन्होंने इला से बात करने को कहा.

 

मां ने जब इला से बात चलाई तो वह सम?ा न पाई कि क्या उत्तर दे. कैसे अंधविश्वासों में डूबी मां से रमण के विषय में कहे. इस छोटे से शहर में ‘प्रेम विवाह’ के नाम से कैसा बवंडर

उठ खड़ा होगा, यह वह अपनी सखी रमा के विवाह के समय जान चुकी थी. रमा ने एक विजातीय लड़के से अदालत में विवाह कर लिया था परंतु रमा तो पहले ही अपने चाचाचाची के दुर्व्यवहार से तंग थी. शादी के बाद उस ने अपने सब पुराने रिश्ते तोड़ डाले थे और अपना नया घर बसाने चली गई थी. मगर इला तो ऐसा नहीं कर सकती थी.

और फिर कहीं पिता को रमण के साथ प्रेम संबंधों का पता चलाने पर दिल का दौरा पड़ गया तो? छोटे भाई अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. उन की भोली सूरतें उस की आंखों के आगे घूम जातीं. पिताजी के बाद कमाने वाले तो केवल बड़े भैया ही हैं. कैसे वह इतनी स्वार्थी बन जाए? अपने प्रेम के लिए मां का सुहाग व बच्चों से पिता कैसे छीन ले?

मां से उस ने सोचने के लिए 2 दिन का समय ले लिया. मां ने भी सोचा, पढ़ीलिखी, अपने पैरों पर खड़ी लड़की है, ?ाट से हां कैसे कर देगी. इला ने भाई से बात की. भाई पहले तो सोच में पड़े रहे, फिर बोले, ‘‘देख ले, इला, पिताजी के हैल्थ के

विषय में तो तू जानती ही है. अपने भाई का भविष्य अंधकारमय कर क्या तू स्वयं पितृविहीन हो कर प्रसन्न रह सकेगी? फिर राजन में भी तो कोई कमी नहीं है. रमण ऐसा तु?ो क्या खास दे देगा, जो राजन के पास नहीं है?’’

इला ने निश्चय कर लिया कि रमण को अपनी स्मृति से निकाल कर मांबाप का कहना मानने में ही सब का कल्याण है. सो उस ने मां से ‘हां’ कह दी. जीवन के कटु यथार्थ के सामने भावुकता का क्या मूल्य? विवाह का निमंत्रणपत्र अपने हाथों से नाम व पता लिख कर उसे कूरियर से रमण को भेज दिया.

 

मरजी की मालकिन: भाग-3 घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

औपचारिक बातचीत के बाद रश्मि ने पिछले दिनों अपने बेहोश होने की बात बताई. वर्षा के बताए कुछ टैस्ट्स की रिपोर्ट ले कर वह अगले दिन वर्षा के क्लीनिक पहुंची. उस की रिपोर्ट्स देखते ही वर्षा एकदम भड़क गई और गुस्से से बोली, ‘‘नौकरी के अलावा तु  झे कभी अपनी परवाह भी होती है बीपी, शुगर दोनों की शिकार हो चुकी है तू और हीमोग्लोबिन एकदम बाउंडरी पर है. ऐसे में तू बेहोश नहीं होगी तो और क्या होगा.

वर्षा से प्रिस्क्रिप्शन लेकर रश्मि घर आ गई. उन्हीं दिनों उस के मम्मीपापा अपनी बेटी से मिलने मुंबई आए. रश्मि की हालत देख कर उस की मां की आंखों में तो आंसू ही आ गए. बोलीं, ‘‘क्या हालत बना ली तूने बेटा… कितनी कमजोर हो गई है… अपना ध्यान क्यों नहीं रखती?’’

मां हमेशा से उस की सब से अच्छी दोस्त रही थीं सो मां के प्यार भरे शब्दों को सुनते ही वह फट पड़ी और रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘मां थक गई हूं अब मैं औफिस, घर और अक्षिता को संभालतेसंभालते,’’ यह कह कर उस ने सारी आपबीती मां को कह सुनाई.

‘‘जब तुम दोनों ही कामकाजी हों तो सारी जिम्मेदारियों को भी मिल कर ही संभालना चाहिए. यदि एक इंसान ही घरबाहर दोनों मोरचे पर लड़ेगा तो पस्त तो होगा ही. यदि अनुराग तु  झे सपोर्ट नहीं कर पा रहे तो मेरी मान छोड़ दे तू नौकरी, अब तेरी बेटी बड़ी हो रही है उसे समय दे… और अपनी सेहत पर ध्यान दे. जब तेरी सेहत ही नहीं रहेगी तो नौकरी कर के भी क्या करेगी बेटा.’’

कुछ दिनों बाद मम्मीपापा तो चले गए पर अपनी बेटी और अपनी खातिर उस ने बैंक से इस्तीफा देने का मन बना लिया. 6 माह के मानसिक द्वंद्व के उपरांत आखिर एक दिन उस ने इस्तीफा अपने बौस को सौंप दिया. घर आ कर जैसे ही उस ने इस की सूचना अनुराग को दी वह बिफर पड़ा, ‘‘क्या करोगी घर में पड़ीपड़ी… इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले एक बार मु  झ से पूछने की भी जरूरत नहीं सम  झी तुम ने. क्या जरूरत थी यह सब करने की? सब ठीक तो चल रहा था? इतनी महंगाई के जमाने में लगीलगाई नौकरी कोई छोड़ता है क्या? अपने खर्चे तुम्हें पता नहीं हैं क्या?’’ शायद उसे रश्मि के ऐसा करने की उम्मीद नहीं थी.

‘‘मेरी नौकरी, मेरी मरजी, जिस आत्मसम्मान के लिए मेरे मातापिता ने मु  झे आत्मनिर्भर बनाया वही नहीं है तो मेरे नौकरी करने का भी क्या लाभ… याद है जब मैं ने तुम्हें औफिस में बेहोश हो जाने की बात बताई थी तो तुम ने क्या कहा था, अपना ध्यान तो तुम्हें ही रखना पड़ेगा… कोई बात नहीं वर्षा को दिखा कर दवा ले लेना.’’

‘‘तुम्हारे बराबर कमाने के बाद भी अपने लिए एक साड़ी मैं नहीं खरीद सकती तो क्यों खटूं मैं घर, बैंक और बच्ची के बीच में.नौकरी मेरी मैं करूं या न करूं. मैं ने तो दसियों बार तुम से कहा था कि मु  झे मैनेज करने में परेशानी आ रही है पर शादी से पहले महिलापुरुष की बराबरी की बातें करने वाले तुम ने मेरी समस्या को समस्या ही नहीं सम  झा बल्कि हर बार यही कहा कि मैनेज नहीं कर पा रही तो छोड़ दो तो मैं ने छोड़ दी,’’ रश्मि ने कहा तो अनुराग वहां से उठ कर बैडरूम में चला गया और टीवी देखने में व्यस्त हो गया.

इस के बाद से रश्मि के और अनुराग के संबंधों में कुछ ठंडापन सा आ गया. कुछ दिनों तक नाराज रहने के बाद अनुराग एक दिन बड़े ही अच्छे मूड में था सो अंतरंग क्षणों में उस के बालों में अपनी उंगलियां फिरातेफिराते बोला, ‘‘रेषु क्या सच में तुम ने इस्तीफा दे दिया है?’’

‘‘हां अनुराग मैं मैनेज करने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी… तुम से पूछती तो तुम निस्संदेह मना करते… जबजब मैं ने अपनी परेशानी तुम से शेयर की तुम ने बजाय हल बताने या मेरी मदद करने के एक ही बात कही, नहीं कर पा रही हो तो छोड़ दो नौकरी. घरबाहर सभी जगहों पर तुम्हारा सहयोग नगण्य था… 40 की उम्र में मैं शुगर और बीपी जैसी बीमारियों को अपने गले लगा बैठी हूं… अब मैं अपनी पसंद का काम करूंगी और जिंदगी के मजे लूंगी क्योंकि मु  झे लगता है जिंदगी जीने के लिए है ढोने के लिए नहीं.’’

अनुराग चुपचाप सुनता रहा फिर धीरे से बोला, ‘‘वैसे कौन सा पसंद का काम करोगी और कौन से मजे लोगी मैं भी तो सुनूं?’’ अनुराग ने हलके से तैश से कहा.

‘‘शांति की जिंदगी, अपने शौक, अपनी बिटिया का साथ और अपनी सेहत. हम महिलाओं की यही तो समस्या है कि सब से पहले अपनी सेहत से सम  झौता कर लेती हैं पर मेरे लिए मेरी सेहत सब से पहले है. जो भी करूंगी अपने मन का करूंगी और अपना एक नया वजूद बनाऊंगी. जरूरी तो नहीं कुछ करने के लिए घर से बाहर ही जाया जाए. आधी उम्र तो खटतेखटते ही निकल गई है पर अब और नहीं,’’ कह कर रश्मि करवट ले कर सो गई.

भले ही अनुराग को रश्मि का निर्णय पसंद नहीं आया था पर चुप रह कर स्वीकार करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था.

अब रश्मि ने अपना पूरा ध्यान अपनी सेहत और अक्षिता पर केंद्रित कर दिया. उस की मेहनत का ही परिणाम था कि अक्षिता ने टैंथ में अपनी क्लास में टौप किया और वह खुद भी स्वयं को काफी सेहतमंद महसूस करने लगी थी.

उन्हीं दिनों उस की अभिन्न सखी अनीता का मुंबई आगमन हुआ. अनीता वनारस की ही थी और स्कूल से ले कर कालेज तक साथसाथ रहने के कारण दोनों की मित्रता बड़ी प्रगाढ़ थी. उस के पति अविनाश एक कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर थे और अब मुंबई में ही शिफ्ट हो गए थे.

अनीता ने स्वयं भी कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की थी इसलिए जहां भी पति की सर्विस होती थी वहीं अपनी जौब भी ले लेती थी. सो यहां भी उस ने एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में जौब जौइन कर ली थी. फोन पर तो अकसर दोनों की बातचीत होती ही रहती थी सो एक दिन जब रश्मि ने उसे अपनी नौकरी छोड़ने की बात बताई तो वह एकदम चौंक गई और अगले ही दिन उस के घर आ धमकी, ‘‘पागल हो गई है क्या, इतनी मेहनत से प्राप्त की नौकरी तूने छोड़ दी… तु  झे याद है कि तेरा पहली बार में ही चयन हुआ था और अनुराग का दूसरी बार में.’’

‘‘सब याद है माई डियर… तु  झे क्या लगता है मैं ने यों ही छोड़ दी होगी लगीलगाई नौकरी… एक नहीं हजारों बार सोचा मैं ने छोड़ने से पहले… बैंक और घर 2 मोरचों पर लड़तेलड़ते मैं पस्त होने लगी थी. इस का सीधा असर मेरी सेहत, बेटी अक्षिता और घर की शांति पर पड़ रहा था. हम दोनों में से कोई भी उसे वक्त नहीं दे पा रहा था. अनुराग घरबाहर कहीं भी सहयोग कर ही नहीं पा रहे थे. मैं उन की गलती भी नहीं मानती क्योंकि उन के घर में लड़कों को अपनी पत्नियों और बहनों का सहयोग करना सिखाया ही नहीं गया तो वे करें भी क्या… उन्हें तो अपने स्वयं के काम करने तक की आदत नहीं है. उन के घर में हमेशा से वित्तीय मामले अनुराग के पापा ने ही देखे हैं इसलिए उन्हें भी मेरी राय तक लेना ठीक नहीं लगता. इस के अलावा अपने कमाए पैसे को भी मु  झे. खर्च करने की आजादी तक नहीं थी… एक पैसा कमाने की मशीन बन कर जीना पसंद नहीं आ रहा था मु  झे हमारे पुरुषवादी समाज की यही तो खासीयत है कि नौकरी वाली पत्नी और बहू तो चाहिए पर अपेक्षाओं से कोई सम  झौता नहीं… और सहयोग लेशमात्र भी नहीं… और उस के कमाए पैसे को अपनी मरजी से खर्च करने का अधिकार भी नहीं. तु  झे पता है इतनी कमउम्र में बीपी और शुगर की मरीज बन गई हूं मैं. मेरी इकलौती बेटी अपनी कक्षा में पिछड़ने लगी थी. हम उसे जरा भी समय नहीं दे पा रहे थे. इस में उस का क्या दोष. इस स्थिति में मेरे पास 2 ही रास्ते थे या तो पूरी जिंदगी कलह और तनाव में गुजारूं या फिर नौकरी छोड़ अपनी मरजी से जीऊं.

‘‘तुझे आश्चर्य होगा कि नौकरी छोड़े मु  झे 8 माह से ऊपर हो गए पर एक दिन भी मु  झे अपने निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ. अक्षिता की परफौर्मैंस में बहुत सुधार है. मेरी सेहत में भी काफी सुधार आ गया है. अपने घर को अपने मनमुताबिक संवारनासजाना और ढंग से चलाना क्या किसी नौकरी से कम है? इस के अलावा अपनी बेटी की कीमत पर मैं कुछ नहीं करना चाहती थी. देख मु  झ में अगर टेलैंट है तो मैं घर में रह कर भी चारों ओर अपनी छटा बिखेरूंगी,’’  रश्मि ने उत्साह से कहा.

‘‘मु  झे जहां तक याद है अनुराग तो कालेज में अपनी फेमनिस्ट विचारधारा के लिए जाना जाता था फिर अपने ही घर में उस का ऐसा व्यवहार कुछ सम  झ नहीं आ रहा,’’ अनीता आश्चर्य से बोली.

‘‘विचार बनाने और अपने घर में लागू करने में बहुत अंतर होता है मेरी जान. हमारे समाज में अनुराग ही नहीं अधिकांश पुरुष दोहरा व्यक्तित्व रखते हैं. बाहर बहुत उदार और आजाद खयालों वाले लोग अपने घर की महिलाओं को 7 परदों में कैद कर के रखना पसंद करते हैं और इसे कहते हैं थोथी फेमनिज्म और हमारे समाज के अधिकांश पुरुष इस थोथी फेमनिज्म से ही ओतप्रोत रहते हैं,’’ रश्मि ने व्यंग्य से कहा.

‘‘तु  झ से बात कर के तो लग रहा है कि तूने बिलकुल ठीक किया… पर हां मेरी मान खाली मत बैठ वरना फ्रस्टेड हो जाएगी… फुल टाइम नहीं तो तू कोई पार्ट टाइम जौब कर ले जिस से एक्जर्शन भी नहीं होगा और तू काम भी कर पाएगी क्योंकि अभी तो नयानया है इसलिए तू ऐंजौय कर रही है. कुछ दिनों बाद जब अक्षिता भी चली जाएगी तो तू फ्रस्टेड होने लगेगी.’’

‘‘चल ठीक है सोचूंगी इस बारे में… फिर तु  झे बताऊंगी.’’

इस के बाद अनीता चली गई. काफी सोचविचार और गूगल सर्चिंग के बाद रश्मि ने इग्नू से एमबीए करने का निश्चय किया और फौर्म भर दिया. इग्नू का चयन करने का लाभ यह था कि घर और अक्षिता को छोड़े बिना वह अपनी योग्यता बढ़ा सकती थी. इस तरह 2 वर्षों में उस ने अपनी एक डिगरी हासिल कर ली. अब तक अक्षिता भी 10वीं पास कर के 11वीं में आ गई थी और पहले से काफी मैच्योर हो गई थी. उन्हीं दिनों अनीता ने उसे बताया कि उस की ही कंपनी में एक इंप्लोई की जरूरत है. अगर इंट्रैस्टेड हो तो कल आ कर प्लेसमैंट औफिसर और कंपनी के मालिक से मिल ले.

उस दिन रात के खाने के समय रश्मि ने अनुराग से जौब जौइन करने के बारे में बताया तो अनुराग बोले, ‘‘देखो तुम ने छोड़ी भी अपनी मरजी से और अब पार्टटाइम फुल टाइम जो भी करना है अपनी मरजी से करो. मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता,’’ कह कर अनुराग ने अपना पल्ला   झाड़ लिया.

काफी सोच-विचार के बाद अगले दिन जींसटौप पहन कर रश्मि अनीता की कंपनी जा पहुंची. उसे बैंकिंग का 15 साल का ऐक्सपीरियंस तो था ही, साथ ही अब उस ने एमबीए भी कर लिया था. सो उस की योग्यता से तो कंपनी के मालिक राज बेहद प्रभावित हो गए. दरअसल, उन की कंस्ट्रक्शन कंपनी थी, जिस के अंतर्गत वे सरकारी स्कीम्स के अंतर्गत आने वाले ओवरब्रिज और सड़कों का निर्माण करवाते थे. सरकारी स्कीम्स के अंतर्गत टैंडर प्राप्त करना सब से टेढ़ी खीर होती थी जिस के लिए ही उन्हें एक अनुभवी, फाइनैंशियल मामलों के जानकार और होशियार इंप्लोई की जरूरत थी जो उन्हें सरकारी टैंडर दिलवा सके.

रश्मि से बातचीत करने के बाद वे बोले, ‘‘रश्मिजी जैसाकि आप ने कहा कि आप औफिस आएं या न आएं काम पूरा करेंगी यह हमें मंजूर है. आप कल से काम कर सकती हैं.’’

उस दिन अति उत्साह से भर कर डिनर के समय जब रश्मि ने यह न्यूज अनुराग को बताई तो

वे बोले, ‘‘जब इतनी अच्छी सरकारी बैंक की नौकरी छोड़ दी थी तो अब फिर से यह नौकरी… तुम्हारा हिसाबकिताब मु  झे तो कुछ सम  झ नहीं आता.’’

‘‘अनु, जिंदगी में हमेशा सबकुछ एकजैसा नहीं होता. उस समय अगर मैं नौकरी नहीं छोड़ती तो अब तक अधमरी तो हो जाती दूसरे अक्षिता जो आज अपनी क्लास की टौपर है डफर में कन्वर्ट हो चुकी होती. अभी मैं ने जो जौब ली है वह अपनी शर्तों पर अपनी मरजी से ली है. अक्षिता जब स्कूल जाएगी तब मैं जाऊंगी और उस के आने से पहले आ जाऊंगी, बचा काम मैं घर से ही करूंगी. इस से मेरी सेहत भी प्रभावित नहीं होगी और कुछ न करने का मलाल भी नहीं रहेगा.’’

इस तरह रश्मि एक बार फिर से एक कंपनी की कर्मचारी हो गई. अभी काम करते हुए उसे 1 साल ही हुआ था और यह कंपनी का पहला टैंडर था जिस की जिम्मेदारी उसे दी गई थी. उस ने भी इस में अपनी पूरी जीजान लगा दी थी. उस ने इसे पूरे मार्केट का वैल्युएशन कर के बहुत अधिक मेहनत और कैलकुलेशन कर के डाला था और इस तरह पहली ही बार में उस ने अपनी सफलता के   झंडे गाढ़ दिए थे और इस तरह कुछ ही सालों में अपने टेलैंट के बल पर कंपनी के डाइरैक्टर के पद तक जा पहुंची. सब से बड़ी बात थी कि यहां वह अपनी मरजी की मालिक थी.

वैलकम : भाग-1 आखिर क्या किया था अनुराग ने शेफाली के साथ

ऐसा क्या किया था अनुराग ने शेफाली के साथ कि वह उस दिन का इंतजार कर रही थी जब अनुराग से उस की मुलाकात अकेले में हो? और फिर जब एक दिन यह मौका आया तो वह आपे से बाहर हो गई.. जैसे ही कैप्टन ने एअरक्राफ्ट को पीछे करना शुरू किया, विंडो सीट पर बैठी शेफाली को लगा जैसे उस के बहुत दिनों से संजोए मधुर सपनों का संसार भी उस की आकांक्षाओं के आंचल से सरक कर दूर जा गिरा है. बड़ी-बड़ी पलको की कोरों से   झांकते आंसू बराबर वाले देख न लें, इसलिए उसने   झटसे किताब उठा ली. हालांकि ज्यादातर अपने मोबाइलों में डूबे हुए थे. शेफाली ने पढ़ने के बहाने   झट से अपना चेहरा नीचे कर लिया.

मगर वहां तो किताब का हर अक्षर उसकी स्मृति के पन्नों से जुड़ कर उस का उपहास उड़ा रहा था. ग्राउंड आईआईटी इंजीनियर अनुराग स्वस्थ, सुंदर, खूबसूरत, अच्छी नौकरी, लंबाई 5 फुट 11 इंच. क्या तू उस की बीवी बनने योग्य है? नहीं, कभी नहीं, स्वप्न में भी नहीं. तू तो ठिगनी है. क्या हुआ जो तू हर

ऐग्जाम में फर्स्ट डिवीजन में पास होती आई है, सुडौल है, नैननक्ष तीखे हैं, रंग कश्मीरियों जैसा है और गायिका भी है, लेकिन कद तो सिर्फ 5 फुट 2 इंच ही है, जबकि अनुराग और उस के मातापिता चाहते हैं कि उन की बहू कम से कम 5 फुट 4 इंच हो. कद में इस 2 इंच की कमी ने ही तो शेफाली की सारी योग्यता, सारी सुंदरता पर पानी फेर दिया. महीनों से संजोया उस का सपनों का महल धराशायी हो गया. उस की 1-1 ईंट गल कर उस के मन को आंसुओं से सराबोर कर गई.

बहुत प्रयत्न करने पर भी शेफाली हठीले आंसुओं को न रोक सकी. आंसू ढलते रहे, वह किताब पढ़ने की आड़ ले कर उन्हें सुखाती रही. जो कुछ बीत चुका था और घाव बन कर उसे कुरेद रहा था, न चाहते हुए भी उन उपहास भरे क्षणों के बीच निराश नायिका की तरह उसे दौड़ना पड़ रहा था और साथ ही दौड़ रही थीं

उस के बीमार भैया और असमर्थ भाभी की आंसू भरी निगाहें. कैसी रिमझिम रिमझिम सोंधी सुगंध से भरापूरा था वह दिन, जब कॉलेज पहुंचते ही शरारती उर्वशी ने उसे मोबाइल पकड़ा कर उस के गुलाबी कपोलों को मल कर बिलकुल सिंदूरी कर दिया था. फिर कहा, ‘‘ले, आ गया तेरे अनुराग का बुलावा. रसगुल्ले जैसी कुछ मधुरमधुर बात है तभी तो तु  झे भैया ने मु  झ से कह कर बुलाया है. देख शेफाली, बढि़या मिठाई ले कर न लौटी तो कमरे में न घुसने दूंगी. अरी, अब तो तू भी आकाश में उड़ेगी. फिर मु  झ धरती वालों की तू कहां सुधि लेगी.’’

और उत्तर में पुलक से भर कर शेफाली ने अपनी प्रिय सहेली को पकड़ कर चूम लिया, ‘‘अरी पगली, समय तो आने दे, तु  झे रस के सागर में डुबो दूंगी,’’ और फिर पुलकित तनमन से धरती से आकाश तक आकांक्षाओं को समेटे वह उसी क्षण छुट्टी ले कर बैंगलुरु से भैयाभाभी के पास लखनऊ के लिए चल पड़ी थी.

रात 8 बजे जब शेफली घर पहुंची तो भाभी उस के थकान से भरे चेहरे की ओर देख कर घबरा कर बोली थीं, ‘‘अरे शेफाली, तू किधर से अंदर घुसी है? वे लोग तु  झ से मिलने के लिए आए हुए हैं. अनुराग की भाभी, बहन और छोटा भाई सभी लोग आए हुए हैं और बाहर ड्राइंगरूम में ही ठहरे हैं. कहीं तु  झे इस थके, कुम्हलाए रूप में देखा तो नहीं उन लोगों ने?’’ ‘‘भाभी, मु  झे क्या मालूम था कि अपने ही घर में मुझे चोर की तरह छिपकर आना चाहिए था. इन लोगों को इस समय क्यों बुला लिया भाभी? सफर से सारा शरीर टूट रहा है. पहले गरम चाय दो न,’और हमेशा की तरह दुलार से वह भाभी से लिपट गई.

‘‘यही तो तेरी सब से कड़ी परीक्षा का समय है, शेफाली. लेकिन मेरी शेफाली में क्या कमी है- कश्मीरियों को भी मात करने वाला रंग है, सुंदर है, स्वस्थ है, मधुर कंठ है और पढ़ाई में भी हमेशा अव्वल आई है.’’ ‘‘बसबस भाभी, अपने दही को तो सभी मीठा कहते हैं, लेकिन…’’ और इस के बाद भाभी की आश्चर्य भरी दृष्टि देख कर वह स्वयं लज्जा से लाल हो कर छोटी भतीजी को उठा कर कमरे से बाहर भाग गई.

दूसरे दिन भोर में चाय पर ही शेफाली को दिखाने की बात थी. भोर से ही उस के मन में इस प्रदर्शन को ले कर हीनभावना नहीं थी. उस ने दर्पण के सामने जा कर स्वयं से कई बार पूछा कि आाखिर मु  झ में क्या कमी है? फिर वे लोग मु  झे कैसे नकार सकते हैं? उस मैट्रिमोनियल साइट में डले कितने ही फोटो हैं. वे फोटो तो पसंद आ ही गए हैं, यह तो मात्र एक औपचारिकता भर होगी. अनुराग से चैटिंग भी होती रही है. वीडियो कौल भी हुई है. विवाह के बाद जब मिलूंगी तो उन की अच्छी तरह खबर लूंगी.

अनुराग को ले कर शेफाली सपनों की गहराइयों में डूब गईर् कि उसी समय एक लौंग ड्रैस तथा मेकअप का सामान ले कर भाभी आ गई, ‘‘अरे शेफाली, तू यहां बैठी क्या कर रही है? जल्दी से तैयार हो जा न. वे लोग इंतजार रहे हैं. और सुन, वे लोग कैसा भी व्यवहार करें, तू अपनी जबान ज्यादा न खोलना. सदा की तरह आज भी अपने भैया की लाज रखना. और हां, अपनी ऊंची एड़ी के सैंडिल जरूर पहन लेना,’’ और यह कह कर भाभी तेजी से चली गई.

सच्ची खुशी: विशाखा को भूलकर वसंत क्या दूसरी शादी से खुश रह पाया?

वसंत एक जनरल स्टोर के बाहर खड़ा अपने दोस्तों से बातें कर रहा था. उसे आज फिर विशाखा दिखाई दे गई. विशाखा उस के पास से निकली तो उस के दिल में आंधियां उठने लगीं. उस ने पहले भी कई बार आतेजाते विशाखा को देख कर सोचा, ‘धोखेबाज, कहती थी मेरे बिना जी नहीं सकती, अब यही सब अपने दूसरे पति से कहती होगी. बकवास करती हैं ये औरतें.’ फिर अगले ही पल उस के मन से आवाज आई कि तुम ने भी तो अपनी दूसरी पत्नी से यही सब कहा था. बेवफा तुम हो या विशाखा?

वह अपने दोस्तों से विदा ले कर अपनी गाड़ी में आ बैठा और थोड़ी दूर पर ही सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के ड्राइविंग सीट पर सिर टिका कर विशाखा के बारे में सोचने लगा…

वसंत ने विशाखा से प्रेमविवाह किया था. विवाह को 2 साल ही हुए थे कि वसंत की मां उमा देवी को पोतापोती का इंतजार रहने लगा. उन्हें अब विशाखा की हर बात में कमियां दिखने लगी थीं. विशाखा सोचती क्या करे, उस के सिर पर मां का साया था नहीं और पिता अपाहिज थे. बरसों से वे बिस्तर पर पड़े थे. एक ही शहर में होने के कारण वह पिता के पास चक्कर लगाती रहती थी. उस की एक रिश्ते की बूआ और एक नौकर उस के पिता प्रेमशंकर का ध्यान रखते थे.

उमा देवी को अब हर समय वसंत की वंशवृद्धि की चिंता सताती. विशाखा उन की हर कड़वी बात चुपचाप सहन कर जाती. सोचती, जो बात कुदरत के हाथ में है, उस पर अपना खून जलाना बेकार है. वह आराम से घर के कामों में लगी रहती. उसे परेशानी तब होती जब वसंत को उस से कोई शिकायत होती. वह वसंत को इतना प्यार करती थी कि उस की बांहों में पहुंच कर वसंत कह उठता, ‘तुम किस मिट्टी की बनी हो, पहले दिन की तरह आज भी कितनी सुंदर दिखती हो.’

विशाखा हंस कर उस के सीने से लग जाती और इस तरह 5 साल बीत गए थे.

वसंत के औफिस से आने के समय विशाखा उसे तैयार हंसतीमुसकराती मिलती. उमा देवी को यह पसंद नहीं था. एक दिन वे वसंत से बोलीं, ‘तुम उदास और दुखी क्यों रहते हो?’

वसंत हंसा, ‘क्या हुआ है मुझे? अच्छा तो हूं?’

‘बिना बच्चे के भी कोई जीवन है,

बच्चों से ही तो जीवन में रौनक आती है,’ उमा देवी बोलीं.

‘मां, दुनिया में हजारों लोग हैं, जिन्हें बच्चे नहीं हैं,’ वसंत शांत रहते हुए बोला.

‘तुम ढंग से डाक्टर को दिखाते क्यों नहीं हो?’

‘अभी तक इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था मां, अगले हफ्ते दिखाता हूं,’ यह कह कर वसंत अपने कमरे में चला गया.

विशाखा वसंत के लिए चाय ले कर आई, तो वसंत की मुखमुद्रा देख कर समझ गई कि मांबेटे में क्या बातें हुई होंगी.

फिर डाक्टर, चैकअप, टैस्ट का सिलसिला शुरू हुआ और जब रिपोर्ट आई कि विशाखा कभी मां नहीं बन सकती, तो विशाखा के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे.

वसंत विशाखा को समझाता रहता कि हम किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले लेंगे. लेकिन उमा देवी किसी पराए बच्चे को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुईं.

वसंत उन्हें भी समझाता, ‘मां, जमाना कहां से कहां पहुंच गया है और आप अपनेपराए में उलझी हुई हैं.’

वसंत के बचपन में ही उस के पिता का देहांत हो गया था. उमा देवी ने बड़ी मेहनत से वसंत को पढ़ायालिखाया था. वसंत मां का दिल कभी नहीं दुखाना चाहता था.

उमा देवी अब कभीकभी वसंत को अपने पास बैठा कर दूसरे विवाह की बात करतीं तो वह चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चला जाता.

अब बच्चे के नाम पर वसंत की ठंडी आहें विशाखा को अंदर तक चीरने लगीं. वसंत की वही आंखें जो पहले उस के प्यार के विश्वास से लबालब नजर आती थीं, अब निरादर और अवहेलना के भाव दर्शाने लगी थीं. वसंत लाख अपने भावों को छिपाने का प्रयास करता, लेकिन विशाखा उस की हर धड़कन, उस की हर नजर पहचानती थी.

मन ही मन घुटती रहती विशाखा, चारों ओर कुहासा सा नजर आता उसे. जीवन के सफर में साथ चलतेचलते अब दोनों के हाथ एकदूसरे से छूटने लगे थे.

एक दिन विशाखा अपने पिता को देखने गई. उन की तबीयत बहुत खराब थी. वसंत ने फोन पर कह दिया, ‘जितने दिन चाहो उतने दिन रह लो.’

विशाखा ने पूछा, ‘तुम्हें परेशानी तो नहीं होगी?’

‘नहीं,’ सपाट स्वर में कह कर वसंत ने रिसीवर रख दिया.

विशाखा हैरान रह गई कि यह वही वसंत है, जिस ने इतने सालों में 2 दिन के लिए भी पिता के पास नहीं छोड़ा था. सुबह छोड़ता तो शाम को अपने साथ ले जाता था. उसे लगा, वसंत सचमुच पूरी तरह बदल गया है और फिर वसंत ने न फोन किया, न आया ही. विशाखा फोन करती तो अनमना सा हां, हूं में जवाब दे कर रिसीवर रख देता.

एक बार भी वसंत ने विशाखा को घर आने के लिए नहीं कहा और अब 2 महीने बीत गए थे.

विशाखा को रोज उस का इंतजार रहता. प्रेमशंकर बोल तो नहीं सकते थे, मगर देख तो सकते थे. उन की हालत बिगड़ती जा रही थी. आंखों में विशाखा के प्रति चिंता व दुख साफ दिखाई देता था.

एक दिन वसंत ने तलाक के पेपर भेज दिए और उसी दिन शाम को किसी से विशाखा का सारा सामान भी भिजवा दिया.

विशाखा के घर में सन्नाटा फैल गया. जिसे दिल की गहराई से इतना प्यार किया था, ऐसा करेगा, विशाखा ने कभी सोचा न था. इतना बड़ा धोखा. जिस आदमी को इतना प्यार किया, जिस के सुख में सुखी, दुख में दुखी हुई, वही आदमी इतना बदल गया… वह जितना सोचती उतना ही उलझती जाती. फिर अपने को समझाने लगती, अगर मैं गलत नहीं हूं तो मैं इतनी दुखी क्यों होऊं? तलाक के पेपर फिर आंखों के आगे घूम गए, वह छटपटाती, बेचैन, असहाय सी सुबकती रही.

इतना बड़ा विस्फोट पर कहीं कोई आवाज नहीं. बाहर से सब कुछ कितना शांत पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट कर बिखर गया. पिता की बिगड़ती हालत देख कर वह और दुखी हो जाती.

थोड़े समय बाद तलाक भी हो गया. उसे पता चला कि वसंत ने दूसरा विवाह कर लिया है. रात भर वह रोतीसिसकती रही. वसंत के साथ बिताया 1-1 पल याद आता रहा.

प्रेमशंकर को अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा. उन्होंने अपने वकील सिद्धार्थ गुप्ता को बुला लिया और घर व किराए पर चढ़ी हुई सारी दुकानें विशाखा के नाम कर दीं. उन की आंखों में विशाखा के लिए चिंता साफ दिखाई देती.

सिद्धार्थ गुप्ता शहर के प्रसिद्ध वकील थे, उम्र में विशाखा से कुछ ही बड़े थे, लेकिन बहुत ही सहृदय व सुलझे हुए इंसान थे. इस पूरी दुनिया में प्रेमशंकर को सिद्धार्थ से ज्यादा भरोसा किसी पर न था.

वे जब भी आते, विशाखा ने देखा था प्रेमशंकर की चिंता कुछ कम हो जाती थी. विशाखा के विवाह के बाद भी सिद्धार्थ ही प्रेमशंकर का हर तरह से ध्यान रख रहे थे. प्रेमशंकर सिद्धार्थ को सालों से जानते थे. विशाखा से सिद्धार्थ की जितनी भी बातें होतीं, प्रेमशंकर के बारे में ही होतीं. विशाखा तलाकशुदा है, यह वे जानते थे, लेकिन विशाखा से इस बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं पूछा था.

वसंत के दुख के साथसाथ पिता की आंखों में बसी चिंता विशाखा को और व्याकुल किए रहती. उस की बूआ और नौकर घर संभालते रहे. वह अस्पताल में प्रेमशंकर के पास थी. सिद्धार्थ आतेजाते रहते.

एक दिन सिद्धार्थ जाने लगे, तो विशाखा बोली, ‘एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछना चाहती हूं आप से.’

सिद्धार्थ ने देखा, प्रेमशंकर नींद में हैं और विशाखा बहुत परेशान है व कुछ कहने की हिम्मत जुटा रही है. अत: बोले, ‘पूछिए.’

‘आप ने विवाह क्यों नहीं किया?’

सिद्धार्थ को एक झटका सा लगा, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘कोई मजबूरी थी,’ कह कर वे जाने लगे तो विशाखा ने तेजी से आगे बढ़ कर कहा, ‘क्या आप मुझे बता सकते हैं?’

सिद्धार्थ वहीं अपना बैग रख कर बैठ गए और फिर धीरेधीरे बोले, ‘कुछ लोग कमियों के साथ पैदा होते हैं और अगर मैं विवाह के योग्य होता तो सही समय पर विवाह कर लेता… आप मेरी बात समझ गई होंगी.’

‘हां, सिद्धार्थ साहब, ऐसा सिर्फ पुरुषों के साथ ही नहीं, स्त्रियों के साथ भी तो होता है. मैं भी कभी मां नहीं बन सकती. इसी कारण मेरा तलाक हो गया. मैं ने हर संभव तरीके से विवाह को बचाने का प्रयत्न किया, लेकिन बचा नहीं सकी.’

सिद्धार्थ ने हैरान हो कर उस की तरफ देखा तो विशाखा ने कहा, ‘क्या आप मेरे साथ विवाह कर सकते हैं?’

‘विशाखा, आप होश में तो हैं?’

‘बहुत सोचसमझ कर कह रही हूं, मेरे पापा की जान मुझ में अटकी है, आप तो वकील हैं, यह जानते हैं कि एक अकेली औरत को दुनिया कैसे परेशान करती है. अगर आप मुझ से विवाह कर लेंगे तो हम दोनों को एक जीवनसाथी और उस से भी बढ़ कर एक दोस्त मिल जाएगा. हम अच्छे दोस्तों की तरह जीवन बिता लेंगे. बस, आप का साथ मांग रही हूं, मुझे और कुछ नहीं चाहिए. क्या आप मेरी बात मान सकते हैं?’

सिद्धार्थ ने विशाखा को गौर से देखा, उस के सच्चे चेहरे को परखा और फिर मुसकरा दिए.

शीघ्र ही दोनों का विवाह हो गया और विवाह के कुछ समय बाद ही प्रेमशंकर ने हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं.

विशाखा सिद्धार्थ के घर आ गई. घर वैसा ही था जैसा औरत के बिना होता है. नौकर तो थे, लेकिन विशाखा का हाथ लगते ही घर चमक उठा. एक दिन सिद्धार्थ भावुक हो कर बोले, ‘कैसा पति था, जिस ने तुम्हें तलाक दे दिया.’

दोनों अपने मन की ढेरों बातें करते, दोनों को एकदूसरे में अच्छा दोस्त दिखाई देता था. विशाखा दिन भर घर को बनातीसंवारती, उन की फाइलें संभालती. रात को उन के कमरे में उन की दवा और पानी रख कर मुसकरा कर ‘गुडनाइट’ बोल कर अपने बैडरूम में आ जाती. बैड पर लेट कर किताबें पढ़ती और सो जाती. सुबह अच्छी तरह तैयार हो कर सिद्धार्थ के साथ नाश्ता करती. उन के जाने के बाद गाड़ी निकालती और सिद्धार्थ के बताए कामों को पूरा करती यानी कभी बैंक जाना, कभी उन के डाक्टर से मिलती, उन का हिसाबकिताब देखती, उन का हर काम हंसीखुशी करती.

आज वसंत को विशाखा फिर दिखाई दे गई थी. छोटा शहर था, इसलिए कई बार पहले भी दिख चुकी थी. औफिस से उठ कर इधरउधर घूमना वसंत की आदत बन गई थी. न जाने क्यों अब भी जब कभी विशाखा को देख लेता, दिल में एक फांस सी चुभती. कई महीने तो विशाखा उसे नजर नहीं आई थी. वैसे उस ने सुन लिया था कि उस ने शादी कर ली है और बहुत खुश रहती है.

न जाने क्यों उसे विशाखा की शादी से दुख पहुंचा था. शहर के किसी चौराहे पर, किसी मार्केट में विशाखा कभीकभी नजर आ ही जाती थी अपने पति के साथ, किसी नई सहेली के साथ, तो कभी अकेली कार में. उस के शरीर पर शानदार कपड़े होते और चेहरे पर शांति. वसंत का दिल जल कर रह जाता. ऐसी सुखशांति तो उस के जीवन में नहीं आई थी. आज भी जब विशाखा उस के सामने से निकली तो उस का दिल चाहा कि वह उस का पीछा करे, बिलकुल उसी तरह जैसे विवाह से पहले करता था.

गाड़ी खड़ी कर के वसंत बेचैनी में टहलता सड़क पर दूर निकल गया. सड़क के पार उस की नजर ठिठक गई, विशाखा बैंक से आ रही थी. वसंत तेजी से सड़क पार कर के उस तरफ बढ़ा जहां विशाखा अपनी गाड़ी में बैठने वाली थी.

जैसे ही विशाखा गाड़ी में बैठ कर गाड़ी स्टार्ट करने लगी वसंत ने नौक किया.

विशाखा देखती रह गई. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि इस तरह वसंत से मुलाकात हो जाएगी. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

वसंत ने कहा, ‘‘क्या गाड़ी में बैठ कर बात कर सकता हूं?’’

विशाखा ने पल भर सोचा, फिर कहा, ‘‘नहीं, आप को इस तरह बात करने का कोई हक नहीं है अब.’’

वसंत को धक्का सा लगा. वह टूटे

स्वर में बोला, ‘‘बस थोड़ी देर, फिर खुद ही उतर जाऊंगा.’’

‘‘कौन सी बातें आप को 3 साल बाद याद आ गई हैं?’’

वसंत बैठता हुआ बोला, ‘‘बहुत बदल गई हो… क्या खुश हो अपने जीवन से? कैसा है तुम्हारा पति?’’

‘‘वे बहुत अच्छे हैं और उन्हें बच्चे की भी कोई इच्छा नहीं है. बच्चे के लिए वे पत्नी को धोखा देने वाले इंसान नहीं हैं,’’ विशाखा ने सख्त स्वर में कहा.

वसंत झूठ नहीं बोल सका, कोई बात न बना सका, चोर की तरह अपने दिल का हर राज उगलने लगा, ‘‘विशाखा, मुझे देखो, मैं खुश नहीं हूं.’’

विशाखा ने पलट कर उस की तरफ देखा, सच में वह खुश नहीं लग रहा था. उस का हुलिया ही बदल गया था. वह बहुत सुंदर हुआ करता था, लेकिन आज बदसूरत और बेहाल लग रहा था.

‘‘विशाखा,’’ वसंत शर्मिंदा सा बोला, ‘‘यह तो ठीक है कि बच्चे दुनिया का सब से बड़ा उपहार हैं, लेकिन सिर्फ तुम्हारी खुशी के लिए मैं इस सच से आंखें फेर लिया करता था. लेकिन जब मां ने दूसरे विवाह की बातें कीं तो मेरी इच्छा भी जाग उठी… मेरे जुड़वां बच्चे हुए. मैं ने दुनिया की सब से बड़ी खुशी देख ली है फिर भी मैं टूट गया हूं. मंजिल पर पहुंचने के बाद भी भटक रहा हूं, क्योंकि मेरी पत्नी रेखा बहुत ही कर्कश स्वभाव की है. वह समझती है मैं ने बच्चों के लिए ही शादी की है. उसे अपने सिवा किसी का खयाल नहीं. कहती है कि बच्चे तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. बहुत ही फूहड़ और बदमिजाज लड़की है.

‘‘मां से बातबात पर उस का झगड़ा होता है. वही घर, जो तुम्हारी उपस्थिति में खुश और शांत नजर आता था, अब कलह का अड्डा लगता है. घर जाने का मन नहीं होता. तुम ने मेरा इतना खयाल रखा था कि मैं बीते दिन याद कर के रात भर सो नहीं पाता हूं. बहुत दिन बाद मुझे पता चला कि संसार की सब से बड़ी खुशी तुम्हारे जैसी पत्नी है. मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सका और मानता हूं कि बच्चे का न होना इतनी बड़ी कमी नहीं जितनी बड़ी तुम्हारे जैसी पत्नी को ठुकराना है.’’

विशाखा ने बेरुखी से पूछा, ‘‘क्या यही वे बातें हैं, जो आप करना चाहते थे?’’

‘‘विशाखा, मुझे यकीन है तुम भी मेरे बिना खुश तो नहीं होगी. मैं ने तुम से अलग हो कर अच्छा नहीं किया. हम अच्छे दोस्तों की तरह तो रह सकते हैं न?’’

‘‘अच्छे दोस्तों की तरह से मतलब?’’

‘‘और कुछ तो हो नहीं सकता… कुछ समय तो एकदूसरे के साथ बिता ही सकते हैं… मैं तुम्हें अब भी प्यार करता हूं, विशाखा.’’

‘‘तुम्हारे लिए प्यार जैसा पवित्र शब्द एक खेल बन कर रह गया है. मेरे पति का प्रेम कितना शक्तिशाली है, तुम सोच भी नहीं सकते. उन के निश्छल, निर्मल प्रेम के प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर उठा है. हमारे रिश्ते में विश्वास, समर्पण, आदर, अपनापन है और जब भी मैं उन के साथ होती हूं, तो मुझे लगता है कि मैं एक घनी छाया में बैठी हूं. निश्चिंत, सुरक्षित और बहुत खुश,’’ कहतेकहते विशाखा ने वसंत की तरफ का दरवाजा खोल दिया, ‘‘अब आप जा सकते हैं.’’

वसंत ने कुछ कहना चाहा, लेकिन विशाखा पहले ही बोल पड़ी, ‘‘अब और नहीं,’’ और फिर वसंत के उतरते ही उस ने गाड़ी आगे बढ़ा दी और अपने दिल में सिद्धार्थ के प्रेम की भीनीभीनी सुगंध से सराबोर घर पहुंची तो सिद्धार्थ उसे देखते ही मुसकरा दिए.

विशाखा को लगा कि कुछ पल आंखों में तैरता प्यार भी कभीकभी पूरा जीवन जीने के लिए काफी होता है. लेकिन इस बात को सिर्फ खुशनुमा पलों को जीने वाले ही समझ सकते हैं.

रुक्मिणी: आखिर शादीशुदा रुक्मिणी का क्या था अतीत

खिड़की के पास खड़ी हो कर रुक्मिणी रीति बिटिया को आंखों से दूर जाते देख रही थी. ज्योंज्यों रीति नजरों से ओ?ाल होती गई उस के अतीत का पन्ना फड़फड़ा कर खुलता चला गया…

रीति बस 3 बरस की ही थी जब विनय ने उसे तलाकदे दिया था. उस के बाद कब और कैसे उस की बिटिया इतनी जल्दी सयानी हो गई, उसे पता ही न लगा. बचपन से ही गंभीरता की चादर ऐसे ओढ़ ली थी कि सारी चंचलता ही छूमंतर हो गई. उफ, एक गलत फैसले ने उस का जीवन बरबाद कर दिया. विनय जैसे रसिए को भला क्योंकर न पहचान सकी. उस केबिछाए जाल में फंस कर जीवनसाथी आदित्य को धोखा दे दिया. बदले में उसे क्या मिला आखिर धोखा ही न. साथ ही मिली तनहाई जो हाथपांव फैला कर उस के जीवन में दूर तक पसर गई.

आदित्य ने उस से प्रेमविवाह किया था.

पूरे समाज के सामने बरात ले कर आया था. शहर की सब से खूबसूरत शादी थी उन की. सालों तक लोग उस शादी का गुणगान करते न थकते थे. दोनों ही नौकरीशुदा थे. आदित्य ने नेवी जौइन की और रुकु ने एअरलाइंस. पति महीनों बाहर रहता और रुकु अंतर्राष्ट्रीय विमानों में अनेक यात्रियों की मनपसंद परिचारिका बनी रही.

दोनों एकदूसरे को पागलों की तरह चाहते थे. महीनों बाद जब भी मिलते तो

लवबर्ड्स की तरह घोंसले में घुस जाते पर मिलना कम ही हो पाता था. कहते हैं न दूरदूर रहने से दूरियां आ ही जाती हैं ऊपर से एअरहोस्टेस की ग्लैमरस दुनिया…

जब से नए पायलट विनय ने जौइन किया था तब से पूरा माहौल ही बदल गया था. हर वक्त उस से फ्लर्ट करता रहता. बालों का पोनी टेल, कानों में बालियां और जबान पर गाली तो ऐसे रखता जैसे कोई बड़ा रौक स्टार हो. पूरा क्रू उस के पीछे था और वह रुकु के पीछे. आदित्य के ठीक विपरीत स्वभाव के इस प्राणी को रुक्मिणी कभी भाव तक न देती थी. वह उसे जितना ही टालती वह उतना ही पीछेपीछे आता. उस रात जब घर लौटने में देर हो रही थी तो उस ने विनय की कार में लिफ्ट ले ली और वही उस के जीवन की सब से बड़ी गलती हो गई.

रात भी कमाल थी. तूफान के साथ बारिश जोरों पर थी. लगता था जैसे पूरे शहर को डुबो कर ही मानेगी. ऐसे में निर्दयता से उसे वापस कैसे भेज देती. कुछ औपचारिकता तो कुछ इंसानियत के नाते उसे रोक लिया. पहले कौफी, फिर वोदका और फिर ढेरों बातें करते न जाने कैसे वे खुलते चले गए यह पता ही नहीं लगा. नौकरानी खाना लगा कर अपने कमरे में सोने चली गई. महीनों से पति आदित्य से दूरी का असर था या फिर उस तूफानी रात का कहर कि न जाने कैसे 2 पैग के बाद वह उस की बांहों में थी. फिर क्या हुआ उसे कुछ भी याद नहीं.

कमली जब सुबह की चाय ले कर कमरे में आई तो मालकिन को निर्दोष बच्ची के समान विनय की छाती से लगा पाया. एक बार को तो उस का दिल धक से रह गया. महीनों की क्षुधा शांत हुई तो मुख पर अजीब सा भोलापन छाया था.

‘‘रुकु बेबी चाय…’’ कह कर वह निकल आई.

‘‘उफ, यह क्या हो गया?’’ बीती रात से लिपटी हर बात जैसे कानों में शोर मचाने लगी. उसे अपनी ही हालत पर बुरी तरह रोना आया तो विनय पर बिफर पड़ी पर वह तो मोटी चमड़ी का बना था. पूरी ढिठाई से बोला, ‘‘तुम ने कुछ गलत नहीं किया है. मैं आदित्य की जगह होता तो तुम्हें अकेली कभी नहीं छोड़ता.’’

उस ने उलटी ही बात कहनी शुरु की. रुक्मिणी जानती थी कि वह गलत कर रही है पर कहते हैं न कोई गलती पहली बार ही गलती लगती है. बारबार की जाए तो वह आदत में शुमार हो जाती है. तब व्यक्ति में एक किस्म की ढिठाई आ जाती है. रुकु के साथ यही हो रहा था और विनय जैसा रसिक भला उसे कैसे सुधरने देता. पहले ही वह शराब की बोतल सी हसीन हसीना के नशे में डूबने को तरस रहा था. अब वह साथ ही रहने लग गया.

फिर वही हुआ जो अमूमन होता है. रुक्मिणी उलटियां करती परेशान हो रही थी. विनय बच्चे को हटाना चाहता था पर रुक्मिणी उसे जन्म देना चाहती थी. सब से पहले उस ने आदित्य को फोन पर यह बताया तो उसे गहरा सदमा लगा. चाहता तो लड़ सकता था. तमाम इलजाम लगा कर उस का अपमान कर सकता

था मगर रुक्मिणी से प्यार करता था. उस की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ कर उस ने खुद ही किनारा कर लिया. प्यार के लिए शादी की थी. जब प्यार ही न रहा तो फिर क्या कहतासुनता या प्रतिकार करता.

बच्चे को जन्म देने के लिए विवाह की अनिवार्यता थी. रुक्मिणी के पिता बचपन में ही गुजर गए थे. परिवार के नाम पर बस मां थीं. रुक्मिणी के दबंग व्यक्तिव के आगे मां की भी क्या चलती? विनय से शादी हो गई. शादी में आमंत्रित रिश्तेदारों के बीच कानाफूसी चलती रही. आखिर आदित्य से अचानक शादी टूटना और आननफानन में दूसरी शादी, लोगों को दाल में कुछ काला लग रहा था. बचाखुचा सस्पैंस 9वें महीने में खत्म हुआ जब दिन पूरे हुए और नन्ही रीति ने आंखें खोलीं.

रुक्मिणी अपनी बेटी को पा कर धन्य हो गई थी. नौकरी छोड़ कर पूरे मन से बेटी को बड़ा करने लगी. रातदिन बस एक ही धुन में लगी रहती जैसे जीताजागता खिलौना हाथ लग गया हो और विनय. उस जैसे भंवरे एक फूल पर कब टिकते हैं. आज यहां तो कल वहां. उस के पास हवाईजहाज उड़ाने का बहाना तो था ही, एक दिन ऐसा उड़ा कि लौट कर ही न आया. बस तलाक के कागज भिजवा दिए.

चोर जब तक चोरी करता है उसे लगता ही नहीं वह कुछ गलत कर रहा है पर जिस पल पछताता है उसे अपने सभी पाप याद आने लगते हैं. वह पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगता है. रुक्मिणी ने अनजाने में मन पर तन की इच्छा को महत्त्व दे दिया था. अब उसी अग्नि में तप रह थी. आदित्य जैसे भद्रपुरुष के ऊपर विनय जैसे तेजतर्रार लवर बौय को वरीयता दे कर पछताने

के सिवा और कुछ शेष न रहा था. उस के पास कुछ था तो एक 3 वर्षीय बच्ची, फ्लैट और कुछ बैंक बैलैंस जिस के सहारे उसे बेटी को बड़ा करना था.

रुक्मिणी याद है विदा होते वक्त आदित्य ने कहा था, ‘‘जब मन भर जाए तब लौट आना. मैं आजीवन तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

मगर रुक्मिणी किस मुंह से लौटती. अब उसे अपनी बेटी का भविष्य संवारना था. उस ने अपनी मां को अपने पास बुला लिया और वापस एअरलाइंस जौइन कर ली. बेटी बड़ी होने लगी थी. देखते ही देखते 20 वर्ष निकल गए. आज के जमाने जैसे कोई गुण न थे उस में. सादगीभरी सुंदर काया की स्वामिनी कला की अद्भुत पुजारिन थी. ब्लू जींस के ऊपर

ढीलेढाले सिल्क के कुरते और बालों को मोड़ कर बनाए गए जूड़े में अल्ट्रा मौडर्न मां नहीं बल्कि अपनी नानी जैसी संजीदगी की मूरत दिखाई देती. बेटी के खयालों में खोई थी कि फोन की घंटी बजी.

‘‘मां, आप और नानी घर से निकले क्या? आज का दिन मेरे लिए बहुत बड़ा है. मैं इसे आप दोनों के साथ महसूस करना चाहती हूं.’’

‘‘हां बेटा, बस निकल रहे हैं.’’

अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ऐग्जिबिशन में उस के कई चित्रों को स्थान मिला था. रुक्मिणी मां

के साथ सही वक्त पर हौल में दाखिल हुई. वहां उस की बेटी को विदेशी डैलीगेट्स के द्वारा सम्मानित किया जाना था. पहली पंक्ति के आरक्षित स्थान पर पहुंचते ही बढ़ी हुई दाढ़ी में आदित्य को देख कर ठिठक गई. वह उस की बेटी की आर्ट ऐग्जिबिशन की स्पौंसरशिप कर रहा था.

इस पूरे आयोजन के पीछे उसी का योगदान था. नानी के चेहरे पर विजयभरी मुसकान दिखी. उन्होंने ही तो रीति की जिम्मेदारियां आदित्य को सौंप कर, पितापुत्री को एकदूसरे के स्नेह का अवलंब बनाया. आज उन का काम पूरा हो गया.

‘‘ये सब क्या है मां?’’ बेटी रुक्मिणी ने मां से पूछा तो वे सकपका गई.

‘‘तेरे पिता के जाने के बाद उन के लौट कर आने की कोई गुंजाइश नहीं थी तो मन मजबूत करना पड़ा मगर आदित्य जैसे भले इंसान से जीते जी दूरी क्यों?’’

‘‘मगर मां किसी की अच्छाई का फायदा क्यों उठाना?’’ रुक्मिणी ने कहा.

‘‘बेटा गुरूर में जवानी कट जाएगी बुढ़ापा नहीं… वह तु?ा से प्यार करता है. तभी तो मेरे आते ही मु?ा से मिलने आया. कब से तेरी ‘हां’ का इंतजार कर रहा है. तुम ने खुद के लिए जो अकेलेपन की सजा तामील की थी अब तो उसे खत्म कर दे.’’

तभी माइक पर रुक्मिणी को पुकारा गया. पूर्व पति और बेटी के साथ मंच पर खड़ी इन खूबसूरत पलों को महसूस कर मुसकराई तो दबी जबान में आदित्य ने पूछ ही लिया, ‘‘रीति मु?ो अपना धर्मपिता मानती है.

इस नाते क्या तुम्हें अपनी धर्मपत्नी बुला सकता हूं?’’

सहज भाव से पूछे गए प्रश्न का जवाब सरलता से ‘हां’ में देती रुकु को सम?ाते देर न लगी कि जन्मदाता से कहीं ज्यादा रीति में अपने धर्मपिता के सधे व्यक्तित्व की ?ालक है. इस पिता की छत्रछाया में ही उस की बेटी इतने सुंदर व्यक्तित्व की स्वामिनी बन सकी है.

कौन कहता है रक्त संबंधी ही अपने होते हैं. प्रेम से बढ़ कर कोई संवेदना नहीं, निस्स्वार्थ सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं, अच्छाई से बड़ा कोई आदर्श नहीं. इन तीनों गुणों से युक्त आदित्य अपनी धर्मपत्नी व पुत्री के साथ एक आदर्श रिश्ता निभाता हुआ अंतत: अपने ही परिवार में लौट आया.

मन का बोझ: भाग 3

भाई की यह कलेजा चीरने वाली बात सुन अभिषेक को तो मानो सांप सूंघ गया. वह कुछ देर यों ही बैठा रहा. वह सोचने लगा कि उस की कोई कीमत नहीं. इंजीनियरिंग की डिगरी ले कर भी वह चूडि़यों के डब्बे घर से दुकान और दुकान से घर पर ढोता रहता है. उस से अच्छी तो उस की पत्नी है.

अभिषेक के पापा का आशुतोष से कुछ कहने का तो मन नहीं था लेकिन घर की बात घर में ही रहे, इसलिए उन्होंने आशुतोष से कह कर अभिषेक के लिए 8 हजार मासिक मेहनताना बंधवा दिया. अभिषेक ने डाकखाने और जीवन बीमे के एजेंट का काम भी शुरू कर दिया लेकिन इस काम के लिए वह इतना व्यावहारिक नहीं था. इसी बीच शीतल ने 2 जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. एक लड़का, एक लड़की.

अभिषेक को अब एक नया काम मिल गया. वह काम था दोनों बच्चों को पालने का. शीतल कालेज जाती और कोचिंग क्लासेज लेती, बेचारा अभिषेक बच्चों को संभालता और घर के काम भी करता.

मगर धीरेधीरे अभिषेक के मन में यह बात गहराने लगी कि इस दुनिया में उस की कोई कीमत नहीं है. उस की इज्जत न घर में है और न बाहर. उस पर इंजीनियर होने का ठप्पा लगा हुआ था लेकिन वह अपने भाई का नौकर बन कर रह गया था. उधर उस के मन में बैठा पितृसत्तात्मक समाज उसे उलाहना देता कि अभिषेक तू अपने भाई का ही नौकर नहीं, अपनी जोरू का भी गुलाम है. तु?ो धिक्कार है, धिक्कार.

अभिषेक हीनभावना और कुंठा का शिकार होता चला गया. उसे अवसाद घेरने लगा. वह हर किसी से बच कर रहने लगा. उसे लगता जैसे दुनिया में उस का कोई नहीं. वह बिलकुल अकेला है. अभिषेक की मनोदशा को भांप कर एक दिन शीतल ने उस से कहा, ‘‘अभिषेक, तुम इतने उदास क्यों रहते हो? हमारे पास किस चीज की कमी है?’’

‘‘पता नहीं शीतल. लेकिन मेरे मन में एक अजीब सा बो?ा रहता है. मु?ो लगता है मैं इस दुनिया में फालतू का आदमी हूं.’’

‘‘अभिषेक, ऐसा क्यों कहते हो? तुम चाहो तो अपने भाई की दुकान पर जाना छोड़ दो. मैं पर्याप्त कमाती तो हूं. कहो तो अपने पैसे से तुम्हें अलग दुकान खुलवा दूं. वह कर लो.’’

मगर जिस के मन में नकारात्मक सत्ता ने अपना राज्य स्थापित कर लिया हो, उसे सकारात्मक बात कैसे सम?ा में आएगी. अभिषेक ने तुरंत भड़क कर कहा, ‘‘शीतल, दिखा दी न तुम ने मु?ो मेरी औकात. अब मैं दुकान भी खोलूंगा तो अपनी पत्नी के पैसे से. जोरू का गुलाम सम?ा रखा है मु?ा को?’’ शीतल चुप हो गई. वह अभिषेक की मानसिक दशा को और नहीं बिगाड़ना चाहती थी. अभिषेक न जाने क्याक्या बड़बड़ाता रहा.

अब अभिषेक ने अपनी पत्नी और बच्चों से भी किनारा करना शुरू कर दिया. वह बेवजह उन पर भड़क उठता. अपना गुस्सा घर के सामान पर निकालता. उसे उठा कर फेंकता, तोड़फोड़ करता. उस ने शीतल के साथ कहीं भी जाना छोड़ दिया. उसे लगता पूरी दुनिया उसे उस की पत्नी के सामने गिरी हुई नजरों से देखती है.

यह अवसाद, हीनभावना और कुंठा का रोग इस कदर बढ़ गया कि अभिषेक को दुनिया से ही नफरत हो गई. उसे लगा कि इस दुनिया में रहना ही बेकार है. इस दुनिया को अलविदा कह देना चाहिए. शीतल कालेज और बच्चे स्कूल गए हुए थे. वह अपने कमरे में अकेला था. उस ने एक मोटी रस्सी पंखे में डाल कर फांसी का फंदा तैयार किया और बिना कोई देरी किए उस में ?ाल गया. कुछ ही देर में उस की इहलीला समाप्त हो गई.

शीतल की मांग का सिंदूर उजड़ चुका था. लेकिन किसी को अभिषेक की आत्महत्या की बात गले नहीं उतर रही थी. जितने मुंह, उतनी बातें थीं. ऐसे में नकारात्मक बातों का प्रभाव ज्यादा होता है.

बेसिरपैर की बातें करने वाले कह रहे थे, ‘‘अरे कहने की बात ही क्या है? जिस की औरत जवान लौंडों को ट्यूशन पढ़ाती हो, उस का मर्द मरेगा नहीं तो क्या जिंदा रहेगा? भिड़ा लिए होंगे किसी लौंडे से नैन. बेचारा कैसे बरदाश्त करता, ?ाल गया पंखे से लटक कर.’’

अभिषेक का तेहरवीं होते ही आशुतोष ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया. भाई तो फिर भी अपना था, शीतल कौन सी अपनी है. एक दिन उस ने शीतल से साफसाफ कह दिया, ‘‘शीतल, देखो यह मकान मेरा है. अगर तुम्हें यहां कोचिंग क्लासेज चलानी हैं तो 5 हजार रुपए प्रति माह किराया देना होगा.’’

जेठ की यह बात सुनते ही शीतल भौचक्की रह गई. जब उस ने यह बात अपने ससुर से कही तो वे अपने बेटे का पक्ष लेते हुए बोले, ‘‘शीतल बिटिया, मकान तो यह आशुतोष का ही है. उसी ने बनवाया था. तुम्हारे हिस्से में तो वह पुराना खंडहर है, वह भी आधा. कल अगर वह तुम से नीचे के दोनों कमरों का किराया मांगे या खाली करने को कहे, तो मु?ा से शिकायत मत करना, मैं मजबूर हूं.’’

शीतल सम?ा गई कि अब उस का यहां कोई नहीं है. उस को यहां से जाना ही होगा. इस से पहले कोई मुसीबत मुंह बाए आ खड़ी हो जाए उसे अपना बंदोबस्त कर लेना चाहिए. शीतल ने अपनी परेशानी अपनी बड़ी बहन मीतल को बताई जो चंडीगढ़ के एक डिगरी कालेज में प्रोफैसर थी. मीतल सम?ा गई कि

इन हालात में क्या करना है? उस ने तुरंत पता लगाया कि चंडीगढ़ के किस डिगरी कालेज में फिजिक्स लैक्चरर की पोस्ट खाली है. जल्द ही उसे ऐसे 3 कालेजों का पता चल गया. उन में से एक कालेज की प्रिंसिपल को मीतल व्यक्तिगत रूप से जानती थी.

शीतल का इंटरव्यू हुआ और उसे उस की योग्यता और अनुभव के आधार पर चयनित भी कर लिया गया. मीतल की सिफारिश भी खूब काम आई. अब शीतल ने बच्चों सहित अपनी ससुराल को छोड़ दिया. किसी ने उसे रोकने की

कोशिश तक नहीं की. किसी का कलेजा मोम नहीं था जो पिघलता. किसी ने यह तक नहीं पूछा कि वह कहां जा रही है? आशुतोष तो खुश था कि वह  भाई की इस विधवा बहू के बो?ा को ढोने से बच गया. उसे तो अपनी राह का एक बड़ा कांटा निकलता नजर आया. अब वह पूरी पैतृक संपत्ति का एकमुश्त मालिक था. कुछ वर्षों के बाद शीतल उसी कालेज में सरकारी प्रोफैसर हो गई. उस के बच्चे भी पढ़ने में काबिल निकले. शीतल ने उन्हें पढ़ाने में कोई कसर बाकी न रखी. बेटा रोहन साइंटिस्ट बन गया और बेटी कोकिला चंडीगढ़ में ही डाक्टर हो गई. शीतल ने चंडीगढ़ में ही एक फ्लैट ले लिया. दोनों बच्चों की शादी बड़ी धूमधाम से कर दी. मीतल हर काम में उस के साथ खड़ी होती.

बच्चों की शादी करने के बाद शीतल फ्लैट में अकेली रह गई थी. वह भाई से निवेदन कर के रुड़की से अपनी बूढ़ी मां को अपने साथ ले आई. एक रात जब मांबेटी अपनी पुरानी यादों में खोई थीं, तब बूढ़ी मां ने कहा, ‘‘शीतल बेटी, अब मेरे अंतिम दिन चल रहे हैं. एक बड़ा बो?ा मेरे मन पर है, उसे मरने से पहले उतार देना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सा बो?ा मां?’’ शीतल ने बड़ी व्यग्रता से पूछा.

‘‘शीतल, तु?ो याद है न, बचपन में एक दिन पढ़ाई न करने पर मैं ने एक जोरदार थप्पड़ तेरे गाल पर जड़ दिया था. उस थप्पड़ का बो?ा आज भी मेरे मन पर भारी है. मु?ो माफ कर देना बिटिया, मु?ो वह थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था. मैं उस थप्पड़ की गुनहगार हूं,’’ कहतेकहते बूढ़ी आंखों में आंसू भर आए.

बूढ़ी मां की आंखों में आंसू देख कर शीतल रोंआसी हो गई. मां की आंखों के आंसू अपने हाथों से पोंछते हुए, शीतल ने कहा, ‘‘हां मां, उस थप्पड़ को मैं कैसे भूल सकती हूं. उस थप्पड़ की गूंज तो आज भी मेरे कानों में गूंजती है. वह थप्पड़ ही इतना निराला था, मां. उस थप्पड़ ने तो मेरी जिंदगी बदल दी.’’

बूढ़ी मां की नजरें उत्सुकता से शीतल को देख रही थीं. शीतल ने अपनी मां के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘मां, तुम्हें विश्वास नहीं होगा. उस से पहले तक मेरा पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लगता था. मेरा पढ़ने का कोई इरादा ही नहीं था. मैं सोचती थी कि शादी के बाद वह कमा कर लाएगा और मैं घर में बैठ कर मजे करूंगी. लड़कियों को पढ़ने की जरूरत ही क्या है?

‘‘मगर सचमुच मां, उस थप्पड़ ने मेरी जिंदगी बदल दी. उस दिन से मैं ने पढ़लिख कर कुछ बनने की ठान ली. वही पढ़ाई मां आज मेरे काम आई. मैं तो कहती हूं मां न पढ़ने वाली हर लड़की के गाल पर ऐसा थप्पड़ पड़ना चाहिए ताकि वह पढ़ सके. मां, यही सोच कर मैं सिहर उठती हूं कि अगर वह थप्पड़ न पड़ा होता और मैं न पढ़ी होती तो…’’ इस से पहले कि शीतल का वाक्य पूरा होता, बूढ़ी मां की गरदन एक ओर लुढ़क चुकी थी. शायद मां के मन का बो?ा उतर चुका था.

 

सोलमेट: भाग 3- शादी के बाद निकिता का प्रेमी ने उसके साथ क्या किया?

ऋतिक मु झे जीवन का भरपूर सुख दे रहा था. मैं ऋतिक से एक पोस्ट ऊपर थी तो मु झे सैलरी भी उस से ज्यादा मिलती थी. ऋतिक ने बैंक में क्लर्क से जौइन किया था और फिर उस की प्रमोशन हुई थी जबकि मैं डाइरैक्ट औफिसर बन कर बैंक में आई थी. मगर इस बात को ले कर कभी हमारे बीच कोई भेदभाव जैसी बात नहीं होती थी बल्कि मैं खुद आगे बढ़ कर ज्यादा ही खर्च कर दिया करती थी घर में. सबकुछ सही चल रहा था. हमारे जीवन में रोज नएनए रंग भर रहे थे. इस तरह साथ रहते हुए हमें 1 साल हो गया.

एक दिन अचानक ऋतिक की मां की तबीयत खराब हो गई तो वह अपने शहर यूपी चला गया. वहां से उस ने बताया कि उसे अपनी मां के इलाज के लिए कुछ पैसों की जरूरत है तो मैं दे दूं वह बाद में वापस कर देगा. मैं ने बिना कुछ पूछे जाने उसे पैसे भेज दिए और ऐसा उस ने कई बार किया पर एक बार भी ऋतिक ने मु झे मेरे पैसे नहीं लौटाए. बस प्रौब्लम ही बताता रहा कि उस के जीवन में कितनी समस्याएं हैं. मैं ने कभी उस से अपने पैसे नहीं मांगे यह सोच कर कि जब होंगे खुद ही दे देगा. बेचारा वैसे ही परेशान है. इधर मेरे मांपापा ने मेरी शादी के लिए एक लड़के का फोटो भेजा. लड़का सीए था और काफी स्मार्ट भी. लड़के का घरपरिवार भी अच्छा था. लेकिन मेरे दिल में तो ऋतिक बसा था. मैं उसे ही अपना जीवनसाथी बनाना चाहती थी. ऋतिक भी तो कई बार बोल चुका था कि मैं उस की सोलमेट हूं यानी वह भी मु झ से प्यार करता. वैसे जुड़े तो हम एक एकदूसरे के साथ जरूरत के लिए थे, लेकिन साथ रहते हुए हमें एकदूसरे की आदत बन चुकी थी.

इसलिए मैं हर बार मांपापा के सामने शादी न करने का कोई न कोई बहाना रख देती थी और वे मान भी जाते थे. ऋतिक अभी भी अपने गांव में ही था. अपनी को देखने. कहीं न कहीं मु झे उस की मां की सेहत की फिक्र होने लगी थी. मैं अपने एक कुलीग से इसी विषय पर बात करने लगी तो वह जोर से हंसते हुए बोला कि मैं चिंता न करूं क्योंकि ऋतिक की मां की कोई तबीयत खराब नहीं है बल्कि वह अपनी मां की झूठी मैडिकल रिपोर्ट दिखा कर बैंक से हर महीने पैसे लेता है. ‘क्या,’ मैं तो सुन कर हैरान रह गई. लेकिन मु झे उस आदमी की बात पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि कोई भी इंसान इतनी नीच हरकत नहीं कर सकता है और वह भी अपनी मां को ले कर? सब से बड़ी बात यह कि क्या उसे अपनी नौकरी की नहीं पड़ी जो वह ऐसा गलत काम करेगा? लेकिन शक की सूई तो मेरे दिमाग में घुस ही गई थी क्योंकि पहले भी कई बार मैं ने उसे छोटेछोटे ही पर बैंक में गलत बिल रखते देखा था.

उस पर मैं ने उसे टोकते हुए कहा भी था कि वह ठीक नहीं कर रहा है. मेरी दादी कहा करती थीं, ‘‘खीरा चोर और हीरा चोर दोनों बराबर ही होते हैं. लेकिन मेरी बात पर उस ने बेफिक्री से हंसते हुए कहा था कि सब करते हैं, कुछ नहीं होता और कौन सा वह बैंक लूट रहा है. मु झे भी इंस्टीट किया था उस ने ऐसा करने को कहा पर मैं ने तो साफ मना कर दिया. कुछ दिन बाद ऋतिक ने फिर अपनी मां की तबीयत की कह कर मु झ से पैसे की मांग की तो मैं ने पैसे देने में असमर्थता जताई और कहा कि क्या सच में उस की मां की तबीयत खराब है या यों ही वह बहाने बना रहा है? मेरी बात सुन कर वह एकदम से गुस्सा हो गया और कहने लगा कि वह उस से पैसे कर्ज मांग रहा है तो वह इतना सवाल क्यों कर रही है? मुझे लगा मैं ने बेकार में ही उस से पूछ लिया. हो सकता वह आदमी झूठ बोला हो और सच में इस की मां की तबीयत खराब हो.

ऋतिक मु झ से रूठ न जाए इसलिए उसे पैसे भेज दिए और पूछा कि वह कब आएगा? तो ऋतिक ने सिर्फ इतना कह कर फोन रख दिया कि कह नहीं सकता. एक दिन फिर मैं ने उसे फोन लगाया तो फोन किसी महिला ने उठाया. पूछने पर वह बोली कि वह ऋतिक की पत्नी बोल रही है. ‘‘पत्नी,’’ मु झे जोर का झटका लगा. मैं कुछ और पूछती कि तभी एक दूसरी महिला की आवाज आई. वह शायद किसी को आवाज दे रही थी. ऋतिक की पत्नी फोन टेबल पर औन रख कर ही उस महिला की आवाज पर भागी. मु झे ऋतिक की आवाजें साफसाफ सुनाई पड़ रही थीं. वह अपनी पत्नी से कुछ बोल रहा था. फिर कुछ हंसने की आवाजें आई. जब मु झ से सुना नहीं गया तो मैं ने फोन रख दिया. मु झे सारा मामला सम झ में आ गया कि ऋतिक एक झूठा और फरेबी इंसान है. उस ने सिर्फ बैंक के साथ ही फ्रौड नहीं किया बल्कि मेरे साथ भी फ्रौड किया है. वह मेरे शरीर और पैसे के लिए मु झ से प्यार का नाटक करता रहा आज तक.

आज तक वह अपनी मां की झूठी रिपोर्ट बैंक में दिखा कर बैंक को चूना लगता रहा. लेकिन अब नहीं, मैं ने सोच लिया उस की करनी का परदाफास कर के रहूंगी मैं. इसलिए मैं ने बैंक मैनेजर साहब को ऋतिक के बारे में सब कुछ सचसच बता दिया कि वह बैंक के साथ क्या कुछ गलत कर रहा है क्योंकि अगर मैं सबकुछ जानते हुए भी ऐसा न करती तो गलत तो मैं भी होती न. मु झ पर भी ऐक्शन लिया जाता क्योंकि गलत का साथ देने वाला भी उतना ही गलत होता है. जांच बैठाई गई और पाया गया कि ऋतिक ने सच में बैंक के साथ फ्रौड किया है और इसलिए उसे बैंक से सस्पैंड कर दिया गया. इतना ही नहीं, उस डाक्टर को भी, जो कुछ पैसों के लालच में उस की मां की गलत मैडिकल रिपोर्ट बनाता रहा. उस के खिलाफ भी एक्शन लिया गया. बैंक में यह रूल है कि अगर किसी इंप्लोई के मातापिता उसी पर आश्रित हैं, तो बैंक उन का भी मैडिकल खर्चा देती है और ऋतिक इसी बात का फायदा उठा कर हर महीने बैंक से हजारों रुपए ऐंठ रहा था.

मुझे यह भी पता चला कि ऋतिक ने अपने मांपापा के बारे में जो कहानियां बताईं वे सब झूठी थीं. शादीशुदा होने के बावजूद उस ने मु झ से झूठ कहा कि उस का उस की पत्नी के साथ तलाक का केस चल रहा है और मेरे साथ शारीरिक संबंध बनाता रहा. लेकिन बेवकूफ तो मैं ही थी न कि उस की असलियत जाने बिना उस के झांसे में आ गई. लेकिन अब मैं उस के झांसे में नहीं आने वाली थी. मैं ने अपने मन में सोच लिया और तुरंत अपने मांपापा को फोन लगा कर उस रिश्ते के लिए हामी भर दी जहां मेरी शादी की बात चल रही थी पर मैं ही टाल रही थी कब से. गोरा रंग, लंबेसुनहरे बाल, मोटीमोटी आंखें और प्यारी सी गोल नाक में छोटी सी नथनी पहने देख प्रणय मु झ पर लट्टू हो गए और तुरंत शादी के लिए हां बोल दिया. 6 फुट लंबे, सांवले रंग और प्यारे सा हंसमुख चेहरे वाले प्रणय पर मैं भी मोहित हो उठी थी.

मुझे तब यही लगा था कि ऋतिक कहीं से भी प्रणय के बराबर नहीं है और वह पागल थी जो उस के पीछे मर रही थी. खैर, लड़कालड़की और दोनों परिवारों के रजामंदी से जल्द ही हम दोनों की सगाई और फिर शादी हो गई. शादी के बाद मैं अपने पति प्रणय के साथ मुंबई शिफ्ट हो गई. मैं अपना पुराना सारा कुछ भूल कर प्रणय के साथ हंसीखुशी जीवन व्यतीत कर रही थी कि ऋतिक नाम का कांटा जीवन में चुभने लगा. पता नहीं उसे कैसे पता चला गया कि मैं ने ही बैंक मैनेजर साहब को उस के बारे में सबकुछ बता दिया था और जिस के कारण उस की नौकरी चली गई. लेकिन उस की नौकरी तो उस की गलत हरकतों के कारण गई थी यह बात उसे सम झ नहीं आई. ऋतिक मु झे धमकाता और मेरा अतीत मेरे पति के सामने लाने की बात कह कर मेरे पैसे और शरीर की मांग रखता. इसलिए ही तो मैं ने उस का फोन ब्लौक कर दिया था. लेकिन फिर पता नहीं किस नंबर से उस ने मु झे फोन किया और मैं फिर फंस गई लेकिन अब मु झे सम झ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं?

कैसे ऋतिक जैसे इंसान से निबटूं क्योंकि उस का क्या भरोसा पैसे लेने के बाद भी वह मु झे तंग करे. मु झे बिछावन पर चिंतित करबटें बदलते देख कर प्रणय ने पूछा कि क्या हुआ, इतनी परेशान क्यों लग रही हूं मैं? तो मैं ने फिर वही अपने पीरियड का बहाना बनाया कि इस वजह से मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. लेकिन प्रणय को सम झ आ रहा था कि बात कुछ और है और मैं उन से छिपाने की कोशिश कर रही हूं. ‘‘बोलो न कोई बात है जो तुम्हें परेशान कर रही है?’’ मेरे शरीर को हौले से स्पर्श करते हुए प्रणय बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें शादी के समय ही कहा था कि हम एकदूसरे के सुखदुख के साथी बनेंगे तो फिर क्यों तुम मु झ से अपना दुख छिपा रही हो. बताओ न क्या बात है? कई महीनों से देख रहा हूं तुम काफी परेशान दिख रही हो. क्या बात है निक्की?’’ प्रणय की बात पर मैं ने कस कर उन्हें पकड़ लिया और फफक कर रोने लगी.

उन्होंने जब प्यार से मेरे बालों को सहलाया तो एकएक कर के शुरू से अंत तक मैं ने सारी बात बता दी. ‘‘ओह, तो यह बात है,’’ प्रणय बोले. ‘‘सौरी प्रणय लेकिन मैं ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया सच में बल्कि मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बताना चाहती थी, लेकिन…’’ ‘‘लेकिन तुम्हें मौका नहीं मिला, यही कहोगी तुम? पहले उठ कर बैठो तुम,’’ मु झे दोनों हाथों से पकड़ कर उठाते हुए प्रणय बोले, ‘‘मेरा भी अतीत था. मैं भी एक लड़की के साथ रिलेशन में था और यह बात शादी के पहले मैं ने तुम्हें बताई थी? यह भी कहा था कि तुम भी अपने अतीत के बारे में बे िझ झक मु झे बता सकती हो.’’ ‘‘हां, लेकिन मु झे लगा मेरा अतीत जानने के बाद कहीं तुम मु झ से शादी करने से इनकार न कर 2 और मेरी मां ने भी मु झे ऐसा ही सम झाया था. ‘‘मां को रहने दो… शादी तुम से हो रही थी मेरी, साथ हमें जीवन बिताना था, तो मां को बीच में क्यों ला रही हो?’’ प्रणय के तेवर देख मैं एकदम डर गई कि पता नहीं अब क्या होगा. मगर वे मेरे करीब आते हुए बोला, ‘‘देखो निकिता शादी जैसे पवित्र बंधन में बंधने से पहले पतिपत्नी को एकदूसरे के प्रति ईमानदार होना जरूरी है. नहीं, मैं ऐसा नहीं कहना चाहता कि तुम गलत हो. नहीं हो गलत तुम क्योंकि वह उम्र ही ऐसी होती है. कोई बुराई नहीं है इस में. लेकिन एकदूसरे से बात छिपाना गलत है. अगर तुम ने मु झे सबकुछ बता दिया होता अपने बारे में तो क्या उस ऋतिक की हिम्मत होती तुम्हें ब्लैकमेल करने की?’’ बात तो प्रणय सही कह रहे थे लेकिन अब क्या किया जा सकत था. इसलिए मु झे रोना आ गया.

मु झे सिसकते देख प्रणय बोले, ‘‘अब रोनाधोना बंद करो और जैसा मैं कहता हूं करो. तुम उस ऋतिक को फोन लगाओ और कहो कि उसे जो करना है कर ले. लेकिन अब तुम भी उस की बीवी को हम दोनों के रिश्ते के बारे में सबकुछ बता दोगी क्योंकि तुम्हारे पास भी तुम दोनों के कुछ फोटो और वीडियो हैं.’’ जब मैं ने ऋतिक को फोन कर के कहा कि उसे जो भी प्रणय को बताना है बता दे लेकिन यह भी याद रखे कि उस के पास भी हम दोनों के कुछ फोटो और वीडियो हैं और अब वह उन्हें उस की बीवी के व्हाट्सऐप पर सैंड करने जा रही है. हालांकि मेरे पास ऐसा कोई फोटो और वीडियो नहीं था, सिर्फ उसे डराने के लिए बोल रही थी. मेरी बात सुनते ही ऋतिक के पसीने छूट गए. शेर की तरह दहाड़ने वाला ऋतिक पल में मेरे सामने भीगी बिल्ली बन गया और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा कि मैं ऐसा न करूं क्योंकि उस का साला पुलिस इंस्पैक्टर हैं.

अगर उसे पता चल गया कि उस ने उन की बहन के साथ धोखा किया है तो वह उसे खड़ेखड़े गोली मार देगा.बड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिली है, वह भी हाथ से चली जाएगी. कहीं का नहीं रहेगा वह. इसलिए वह उसे माफ कर दे. वैसे, मैं यह सब करने वाली नहीं थी बल्कि सबूत के तौर पर उस की बातें रिकौर्ड कर रख लीं ताकि वह कभी फिर मु झे परेशान न कर सके. मैं ने उस से सख्त लहजे में कहा कि ध्यान से सुन लो, मेरा सोलमेट सिर्फ मेरा पति है और आज के बाद कभी तुम ने मु झे परेशान करने की सोची भी तो मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगी. प्रणय की सू झबू झ के कारण मैं इस भंवरजाल से निकल पाई.

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