तोसे लागी लगन: क्या हो रहा था ससुराल में निहारिका के साथ

मनोविज्ञान की छात्रा निहारिका सांवलीसलोनी सूरत की नवयुवती थी. तरूण से विवाह करना उस की अपनी मरजी थी, जिस में उस के मातापिता की रजामंदी भी थी. तरूण हैदराबाद का रहने वाला था और निहारिका लखनऊ की. दोनों दिल के रिश्ते में कब बंधे यह तो वे ही जानें.

सात फेरों के बंधन में बंध कर दोनों एअरपोर्ट पहुंचे. हवाईजहाज ने जब उड़ान भरी तो निहारिका ने आंखे बंद कर लीं और कस कर तरूण को थाम लिया। स्थिति सामान्य हुई तो लज्जावश नजरें झुक गईं पर तरुण की मंद मुसकराहट ने रिश्ते में मिठास घोल दी थी.

“हम पग फेरे के लिए इसी हवाई जहाज से वापस आएंगे,” निहारिका ने आत्मियता से कहा.

“नहीं, अब आप कहीं नहीं जाएंगी, हमेशाहमेशा मेरे पास रहेंगी,” तरूण ने निहारिका के कंधे पर सिर रखते हुए कहा.

सैकड़ों की भीड़ में नवविवाहिता जोड़ा एकदूसरे की आंखों में खोने लगा था.

तरूण की मां ने पड़ोसियों की मदद से रस्मों को निभाते हुए निहारिका का गृहप्रवेश करवाया. घर में बस 3 ही
सदस्य थे. शुरू के 2-4 दिन वह अपने कमरे में ही रहती थी फिर धीरेधीरे उस ने पूरा घर देखा। पूरा घर पुरानी कीमती चीजों से भरा पङा था। एक कोने में कोई पुरानी मूर्ति रखी हुई थी. निहारिका ने उसे हाथ में उठाया ही था कि पीछे से आवाज आई,”क्या देख रही हो, चुरा मत लेना।”

आवाज में कड़वाहट घुली हुई थी. निहारिका ने पीछे मुड़ कर देखा, तरूण की मां खड़ी थीं.

“नहीं मम्मीजी, बस यों ही देख रही थी,” निहारिका ने सहम कर जबाव दिया.

ससुराल में पहली बार इस तरह का व्यवहार… उस का मन भारी हो गया. मां की याद आने लगी. रात को बातों ही बातों में तरूण के सामने दिन वाले घटना का जिक्र हो आया.

“हां वे थोड़ी कड़क मिजाज हैं… पर प्लीज, तुम उन की किसी बात को दिल पर मत लेना। वे दिल की बेहद अच्छी हैं,” तरुण अपनी तरफ से निहारिका को बहलाने लगा.

एक दिन दोपहर को जब निहारिका लेटी हुई कोई पत्रिका पढ़ रही थी तभी तरूण की मां मनोहरा देवी उस के कमरे में आईं. उन्हें देख वह उठ कर बैठ गई। उस के बाद सासबहु में इधरउधर की बातें हुईं, बातों ही बातों में निहारिका के गहनों का जिक्र हो आया तो निहारिका खुशी से उन्हें गहने दिखाने लगीं. बातों का सिलसिला चलता रहा। करीब आधे
घंटे बाद जब निहारिका गहनों को डब्बे में डालने लगीं तो सोने के कंगन गायब थे. वह परेशान हो कर उसे ढूंढ़ने लगी.

आश्चर्य भी हो रहा था उसे। सासुमां से कुछ पूछे इतनी हिम्मत कहां थी उस में. रात को तरूण से बताया तो उस ने भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी.

“तुम औरतें केवल पहनना जानती हो, यहीं कहीं रख कर भूल गईं होगी। मिल जाएंगे। अभी सो जाओ,” दिनभर का थका हुआ तरूण करवट बदल कर सो गया.

‘नईनवेली दुलहन का ज्यादा बोलना भी ठीक नहीं,’ यह सोच कर निहारिका चुपचाप रह गई.

लेकिन वह मनोविज्ञान की छात्रा थी। अनकहे भावों को पढ़ना जानती थी, पर कहे किस से? तरूण के बारे में सोचते ही कंगन बेकार लगने लगे. लेकिन अगले ही दिन घर में सोने की एक और मूर्ति दिखाई दिए.

“मम्मीजी, बहुत सुंदर है यह मूर्ति। कहां से खरीद कर लाईं आप?” निहारिका ने तारीफ करते हुए पूछा.

“कहीं से भी, तुम से मतलब…” मनोहरा देवी ने तुनक कर जवाब दिया.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

15 दिन के अंदरअंदर उस के नाक की नथ कहीं गुम हो गई थी. पानी सिर के ऊपर जा रहा था. तरूण कुछ सुनने को तैयार न था। स्थिति दिनबदिन बिगड़ती जा रही थी.

एक दिन दोपहर के भोजन के बाद सभी अपनेअपने कमरे में आराम करने गए। उस वक्त मनोहरा देवी पूरे गहने पहन कर स्वयं को आईने में निहार रही थीं। तरहतरह के भावभंगिमा कर रही थीं. संयोगवश उसी वक्त निहारिका किसी काम से उन के पास आना चाहती थी. अपने कमरे से निकली ही थी कि खिड़की से ही उसे वह मंजर दिख गया.

उस वक्त उन के शरीर पर वे गहने भी थे जो उस के डब्बे से गायब हुए थे. शक को यकीन में बदलते देख निहारिका सिहर उठी। उस ने चुपके से 1-2 तसवीरें ले लीं।

रात को डिनर खत्म करने के बाद…

“तरूण, मुझे कुछ गहने चाहिए थे…” निहारिका अभी वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि तरूण बोला,”मेरी खूबसूरत बीबी को गहनों की क्या जरूरत है? सच कह रहा हूं नीरू, तुम बहुत बहुत खूबसूरत हो।”

पर तरुण की बातें अभी उसे बेमानी लग रही थीं क्योंकि वह जहां पहुंचना चाहती वह रास्ता ही तरुण ने बंद कर
दिया था. हार कर निहारिका ने वे फोटोज दिखाए जिसे देखते ही तरुण उछल पड़ा। उस की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।

“मम्मी के पास इतने गहने हैं, मुझे तो पता ही नहीं था,” तरूण ने आश्चर्य से फैली आंखों को सिकोड़ते हुए कहा.

“नहीं यह अच्छी बात नहीं है। तरूण, तुम ने शायद देखा नहीं। इन में वे गहने भी हैं जो मेरे डब्बे से गायब हुए थे,” निहारिका ने उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा.

मामला संजीदा था लेकिन उसे दबाना और भी मुश्किल स्थिति को जन्म दे
सकता था.

“मां के गहने यानी तुम्हारे गहने…” तरूण को शर्मिंदगी महसूस हो रही थी तो उस ने बात को टालते हुए कहा.

“तरूण, तुम क्यों समझना नहीं चाहते या फिर…” निहारिका उस के चेहरे पर आ रहे भाव को पढ़ने की कोशिश करने लगी, क्योंकि जो बात सामने आ रही थी वह अजीब सी थी.

“या फिर क्या…” तरूण ने तैश से कहा.

“यही कि तुम जानबूझ कर कुछ छिपाना चाहते हो,” निहारिका ने गंभीर आवाज में कहा.

“मैं क्या छिपा रहा हूं?”

निहारिका चुप रही।

“बोलो नीरू, मैं क्या छिपा रहा हूं?”

“यही कि मम्मी जी क्लाप्टोमैनिया की शिकार हैं…”

“क्या… यह क्या होता है?” तरुण ने कभी नहीं सुना था यह नाम.

“यह एक तरह की बीमारी है। इस बीमारी में व्यक्ति चीजें चुराता है और भूल जाता है,” निहारिका एक ही सांस में सारी बातें कह गई.

“देखो नीरू, मैं मानता हूं मेरी मां बीमार हैं पर चोरी… तरूण बौखला गया.

“वे चोर नहीं हैं। प्लीज मुझे गलत मत समझो,” निहारिका ने अपनी सफाई दी.

“तुम्हें पग फेरे के लिए घर जाना था न, बताओ कब जाना है?” तरूण बहस को और बढ़ाना नहीं चाहता था.

निहारिका स्तब्ध रह गई.

दोनों ने करवट फेर ली लेकिन नींद किसी के आंखों में न थी. तरूण ने वापस जाने के लिए कह दिया था। सपनों में जो ‘होम स्वीट होम’ का सपना था वह टूट कर चकनाचूर हो गया था.

निहारिका ने हार नहीं मानी। उस ने अपने प्रोफैसर साहब से बात की,”सर, मुझे आप की मदद चाहिए,” निहारिका का दृढ़ स्वर बता रहा था कि वह अपने काम के प्रति कितनी संकल्पित है.

“अवश्य मिलेगी, काम तो बताओ,” प्रोफेसर की आश्वस्त करने वाली आवाज ने निहारिका को निस्संकोच हो अपनी बात रखने का हौसला दिया। इस से पहले वह अपराधबोध से दबी जा रही थी.

“सर, मेरी सासूमां यहांवहां से चुरा कर वस्तुएं ले आती हैं और पूछे जाने पर इनकार कर देती हैं,” निहारिका के आंसुओं ने अनकही बात भी कह दी थी.

“घबराओ मत, धीरज से काम लो निहारिका। सब ठीक हो जाएगा। कभीकभी जीवन का एकाकीपन इस की वजह बन जाती है। आगे तुम खुद समझदार हो,” प्रोफैसर साहब ने रिश्ते की नाजुकता को समझते हुए कहा.

“क्लाप्टोमैनिया लाइलाज बीमारी नहीं, अपनापन और लगाव से इसे दूर किया जा सकता है,” प्रोफैसर साहब के आखिरी वाक्य ने निहारिका के मनोबल को बढ़ा दिया था. वह उन के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने लगी। इलाज का पहला कदम था गाढ़ी दोस्ती…

“मम्मीजी, आज से मैं आप के कमरे में आप के साथ रहूंगी, आप के बेटे से मेरी लड़ाई हो गई है,” निहारिका ने अपना तकिया मनोहरा देवी के बिस्तर पर रखते हुए कहा.

“रहने दो, बीच रात में उठ कर न चली गई तो कहना,” मनोहरा देवी ने अपना अनुभव बांटते हुए कहा.

“कुछ भी हो जाए नहीं जाउंगी,” निहारिका ने आत्मविश्वास से कहा.

रात में उन दोनों ने एकदूसरे के पसंद की फिल्में देखीं। धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के करीब आने लगीं. मनोहरा देवी जब भी बाहर जाने के लिए तैयार होतीं तो निहारिका साथ चलने के लिए तैयार हो जाती या उन्हें अकेले जाने से रोक लेती। कभी मानमुनहार से तो कभी जिद्द से.

ऐसा नहीं था कि तरूण कुछ भी जानता नहीं था, कितनी बार उसे भी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी पर मां तो आखिर मां है न… सबकुछ सह जाता था. मां को समझाने की कोशिश भी की पर बिजनैस की व्यस्तता की वजह से ध्यान बंट गया था। निहारिका की कोशिश रंग ला रही थी, यह बात उस से छिपी नहीं थी. अपनी नादानी पर शर्मिंदा भी था। अपने बीच
के मनमुटाव को कम करने के लिए निहारिका के पसंद की चौकलैट फ्लैवर वाली आइस्क्रीम लाया था जिसे अपने हाथों से खिला कर कान पकड़ कर माफी मांगी थी। उठकबैठक भी करने को तैयार था पर नीरू ने गले लगा कर रोक दिया
था.

“नीरू, तुम ने जिस तरह से मम्मी को संभाला है न उस के लिए तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, तरूण ने नम आंखों से कहा.

“अभी नहीं, अभी हमें उन सभी चीजों की लिस्ट बनानी होगी जो मम्मीजी कहीं और से ले आई हैं, उन्हें लौटाना भी होगा,” निहारिका ने इलाज का दूसरा कदम उठाया.

“लौटाना क्यों है नीरू, इस से तो बात…” तरूण ने अपने घर की इज्जत की परवाह करते हुए कहा.

“लोगों को समझने दो। क्लापटोमेनिया एक बीमारी है, समाज को उन्हें उसी रूप में स्वीकारने दो, वे भी समाज का
हिस्सा हैं, कमरे में बंद रखना उपाय नहीं है,” निहारिका की 1-1 बात उस के आत्मविश्वास का परिचय दे रही
थी. निहारिका के रूप का दीवाना तो वह पहले से ही था पर आज अपनी मां के प्रति फिक्रमंद देख मन ही मन अपनी पसंद पर गर्व करने लगा था.
रातरात भर जाग कर दोनों ने उन सभी सामानों का लिस्ट बनाई जो घर के नहीं थे, सब को गिफ्ट की तरह रैपिंग किया। अंदर एक परची पर ‘सौरी’ लिख कर वस्तुओं को लोगों के घर तक पहुंचाया. पतिपत्नी दोनों ने
मिल कर मुश्किल काम को आसान कर लिया था. धीरेधीरे स्थिति सामान्य होने लगी थी.

मंगलवार की सुबह मम्मीजी को बाजार जाना था।

“मम्मी, तुम जल्दी से तैयार हो जाओ जाते वक्त छोड़ दूंगा,” तरूण ने नास्ता करते हुए कहा,

“नहींनहीं तुम जाओ, मैं नीरू के साथ चली जाउंगी।”

निहारिका ने तरुण की ओर देख कर अपनी पीठ अपने हाथों से थपथपाई।प्रतिउत्तर में तरूण ने हाथ जोड़ने का अभिनय किया. निहारिका मुसकरा दी।

तभी निहारिका की मम्मी का फोन आया,”बेटाजी, नीरू को मायके आए हुए बहुत दिन हो गए, पग फेरे के लिए भी नहीं आए आप दोनों, हो सके तो इस इस दशहरे में कुछ दिनों के लिए उसे छोड़ जाते,” निहारिका की मां अपनी बात एक ही सांस में कह गई थीं.

“माफी चाहूंगा मम्मीजी, लेकिन मेरी मम्मी अब नीरू के बगैर एक पल भी नहीं रहना चाहतीं, ऐसे में मैं उसे वहां
छोड़ना नहीं चाहता…” तरूण ने गर्व से कहा.

“कोई बात नहीं बेटाजी, बेटी अपने घर में खुश रहे, राज करे इस से ज्यादा और क्या चाहिए,” मां ने रुंधे गले से कहा और फोन रख दिया. तरूण के स्वर ने उसे उस घर में मुख्य भूमिका में ला दिया था. निहारिका का होम स्वीट होम का सपना साकार हो रहा था.

Raksha Bandhan 2024: सांझा दुख- क्यों थी भाई-बहन के रिश्ते में कड़वाहट

कोरोनाकाल चल रहा है. हम सब अपनेअपने घरों में लौकडाउन का पालन करते हुए भी डरे हुए हैं. पता नहीं कब किस को क्या हो जाए. एक ही तरह की दिनचर्या निभाते हुए मन की उल?ान और बढ़ती ही जा रही है. कब, कहां, और कैसे? हर मौत पर दिमाग में ये सवाल कौंध रहे हैं.

अरे, अभी उन से 10 दिनों पहले ही तो बात हुई थी और आज… विवशता, हताशा और पीड़ा का मिलाजुला रूप हम सब पर भारी है. कैसी महामारी है कि हम अपनों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं जब उन को हमारी सब से ज्यादा जरूरत है.

स्पर्श, प्यार के दो बोल और सेवा के लिए तड़पते हमारे अपने, अकेले में किस से गुहार कर रहे होंगे? तकलीफ को सांझ कर मन शांत हो जाता है. हम ऐसी डरावनी बीमारी के खौफ से घिरे हैं कि उस के पास हम बैठ भी नहीं सकते जिस से हमारा जीवनभर का नाता है.

दूर से अपनों की परेशानी देख मन तड़प जाता है और एक टीस कि काश.. ऐसा नहीं होता. हमारे अपने बिछुड़ रहे हैं और ऐसी बिछुड़न, कि हम फिर से मिलने की आस भी नहीं संजो पा रहे हैं.

मेरे दिल में यही सब बातें चल रही थीं कि मां आ कर मेरे पास खड़ी हो गईं. नम आंखें बहुतकुछ कह रही थीं. मुझे सीने से लगाते हुए बोलीं, ‘‘शरद नहीं रहा, बिट्टू. कोरोना के काल ने उस को अपनी चपेट में ले लिया.’’

मैं स्तब्ध मां का चेहरा देखती रही. खामोशी के बीच हमारे अंदर दिल चीर डालने वाला दुख सांझ हो रहा था. आंखें उमड़ रही थीं.

मां के जाते ही औंधेमुंह बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह ढह गई मैं. आंसू हमारे सुखदुख की साथी तकिया को भिगोते रहे.

शरद भैया से मेरा खून का रिश्ता नहीं था, पर खून के रिश्तों पर हमेशा भारी रहा है यह आत्मिक रिश्ता. बचपन से ही वे हमारे लिए रोलमौडल रहे. भैया के कंधे पर बैठ हम कहांकहां की सैर कर आते थे. मैं छोटीछोटी समस्याओं पर उन के पास पहुंच, रोते हुए और अपनी फ्रौक से आंसू पोंछते हुए उन की गोद में सिर रख कर शिकायतों का पुलिंदा खोल दिया करती थी. कभी मां सा, कभी भाई सा, तो कभी सहेलियों सा बरताव करते.

वे हंसते हुऐ कहते, ‘थोड़ा रूक जा बिट्टू. जब मैं डाक्टर बन जाऊंगा, तब इन सब को इंजैक्शन लगा कर दर्द का एहसास करवाऊंगा.’

खूब हंसती मैं, और तरहतरह की ऐक्टिंग कर के बताती कि दर्द के कारण वे सब कैसे बिलबिलाएंगे. थोड़ी बड़ी हुई. उन के आने पर चाय मैं ही बनाती थी, क्योंकि उन को मेरे हाथ की बनी चाय पसंद थी.

चाय पीते हुए वे कहते, ‘चाची, बिट्टू की शादी हम इसी शहर में कराएंगे, ताकि हम सब को उस के हाथ की बनी चाय हमेशा मिलती रहे.’

बनावटी गुस्सा दिखाती हुई मैं भैया को मारने लगती. वे मुझे सीने से लगाते हुए कहते, ‘इस को कभी भी अपनेआप से दूर नहीं जाने दूंगा.’

मेरी हर समस्या का समाधान था भैया के पास. मेरे स्कूल से ले कर कालेज तक के सफर में भैया हमेशा मार्गदर्शक रहे मेरे.

एक दिन हंसते हुए मैं उन से बोली, ‘आप की अपनी कोई बहन नहीं है न, इसीलिए आप मु?ा से बहुत प्यार करते हैं.’

मु?ो आज भी याद है वह दिन. उन्हें बिलकुल भी बुरी नहीं लगी मेरी बात. उलटे, उन्होंने मेरी नाक पकड़ कर बोला था, ‘बिट्टू, तुम हर जन्म में मेरी बहन हो, और रहोगी. अपना और पराया क्या होता है? जहां प्रेम की लौ जगी, वही अपना है.’

कुछ वर्षों बाद भैया मैडिकल की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चले गए. मैं बहुत रोई थी. जैसे, मेरी दुनिया बेरंग हो गई हो. सुबह के उजाले से ले कर देररात तक उन के साथ की यादें मु?ो और उदास कर जातीं.

फोन पर जब मैं अपनी समस्याएं बताने लगती तो वे कहते, ‘इतनी समस्याओं का, बस, एक समाधान है तेरी शादी. दूल्हा आ जाएगा तेरी जिंदगी में, तब जा कर इस निरीह भाई को राहत मिलेगी.’

गुस्से से कहती मैं, ‘अच्छा, तो आप मु?ा से छुटकारा चाहते हैं. इतनी जल्दी नहीं छोड़ने वाली मैं आप को. और वैसे भी, पहले आप की शादी होगी, तब मेरी.’

भैया के डाक्टर बनते ही उन की शादी हो गई. खूब नाची थी मैं. खुशी मेरे दामन में नहीं समा रही थी.

बाद के दिनों में वे मुझे चिढ़ाते, ‘चाची, मेरी शादी में नागिन डांस के लिए तो इस को पद्मश्री अवार्ड मिलना चाहिए था.’

वक्त के साथ हम सब बदलते गए. मेरी भी शादी हो गई. जिम्मेदारियों ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. मां की आवाज सुन कर मैं आंसू पोंछते हुए बैठ गई.

अपनी गोद में मेरा सिर रख कर प्यार से हाथ फेरते हुए मां बोलीं, ‘‘बिट्टू, तुम्हारे अंदर एक जीव पल रहा है, वह भी तो तुम्हारे खाने का इंतजार कर रहा है.’’

पेट पर हाथ रख कर सोचने लगी मैं, ‘काश, भैया मेरी कोख में आ जाते. मैं मां बन कर उन का खूब खयाल रखती और अपने से कभी भी दूर न जाने देती.’

बहुत प्रयास करने के बाद मैं ने खुद को संयत कर भाभी को कौल किया. उन के रोने की आवाज मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह आहत कर रही थी.

‘‘शरद बगैर मुझ से कुछ बोले चले गए, बिट्टू. मैं अब किस को प्यार करूंगी? किस के सहारे रहूंगी? चारों तरफ अंधेरा दिख रहा है? मेरे तो सिर का ताज ही बिखर गया, बिट्टू.’’

‘‘समय के सामने हम सब विवश हैं, भाभी. धैर्य रखिए. अमन का खयाल रखिए. उस पर इन दुखों का असर नहीं होना चाहिए. टूट जाएगा तो बिखरे को समेटना बहुत मुश्किल होगा, भाभी.’’

तभी अमन की आवाज ने मेरी बची हुई हिम्मत को भी तोड़ कर रख दिया, ‘‘मैं पापा के साथ खेलना चाहता हूं. पापा से मिले हम को एक महीना हो गया है बूआ. सब के पापा हैं, तो मेरे पापा हमें छोड़ कर क्यों चले गए? बताओ बूआ?’’

सांत्वना के शब्द यहीं पर खत्म हो गए थे मेरे. मैं शून्य में निहारते हुए बोली, ‘‘इस का जवाब किसी के पास भी नहीं होगा, अमन बेटा.’’

मां के हाथों में खाने की थाली दिखी, तो आंखों ने सवाल किया और जबान पूछ बैठी, ‘‘मां, पीर पराई है या अपनी है?’’

‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे,’’ गाती हुई मां वहां से चली गईं.

सती: अवनि की जिंदगी में क्या हुआ पति की मौत के बाद

अवनी ने मनीष को दवा खिलाई और बाहर आ कर ड्राइंगरूम में टीवी देखने लगी. तभी अंदर से मनीष
के चिल्लाने की आवाज आई. अवनी भगाती हुई अंदर गई तो देखा मनीष गुस्से से भरा बैठा था.

अवनी को देखते ही बोला,”तुम मेरी नर्स हो या पत्नी? 2 मिनट भी साथ नहीं बैठ सकतीं? तुम्हें नाम, पैसा, 2 बेटे, कोठी क्या कुछ नहीं दिया और मेरे बीमार पड़ते ही तुम ने नजरें फेर लीं?”

अवनी इस से पहले कुछ बोलती, उस के दोनों बेटे रचित, सार्थक और सासससुर भी आ गए थे.

रचित गुस्से में बोला,”मम्मी, शर्म आनी चाहिए आप को। एक दिन टीवी नहीं देखोगी तो कोई तूफान नहीं आ जाएगा।”

सास गुस्से में बोलीं,”पत्नी अपने पति के लिए क्या क्या नहीं करती। मेरे बेटे को कैंसर क्या हुआ अवनी कि तुम ने अपनी नजरें ही फेर लीं…”

अवनी कमरे में एक तरफ अपराधी की तरह बैठी रही, वह अपराध जो उस ने किया ही नहीं था. मनीष के सिर पर अवनी ने जैसे ही हाथ फेरा मनीष ने झटक कर हाथ हटा दिया। अवनी की आंखों मे आंसू आ गए. उसे पता था मनीष कैंसर के कारण चिड़चिड़ा हो गया है पर वह क्या करे? वह पूरी कोशिश करती है पर आखिर है तो इंसान ही. पिछले 3 सालों से मनीष के कैंसर का इलाज चल रहा था. अवनी शुरुआत में रातदिन मनीष के साथ साए की तरह बनी रहती थी. पर धीरेधीरे वह तनमन से थक गई थी.

पर परिवार के सब लोग मनीष का भार अवनी पर डाल कर निश्चिंत हो गए थे. मनीष की बीमारी मानों
अवनी के लिए एक कैदखाना हो गई थी. अवनी के उठनेबैठने, कपड़े पहनने तक पर सब की निगाहें रहती थीं. अवनी अगर थोड़ा सा तैयार हो जाती तो मनीष की नजरों में सवाल तैरने लगते थे. अवनी का बहुत मन होता मनीष को बताने का कि उसे दुख है पर वह जीना नहीं छोड़ सकती.

पिछले 3 सालों से अवनी ने घर से बाहर कदम नहीं रखा था. किसी की शादी या कोई समारोह होता तो अवनी के सासससुर दोनों बेटों के साथ चले जाते थे. अवनी को ऐसा महसूस होने लगा था कि वह मनीष
के जिंदा होते हुए भी सती हो गई है. सती तो शायद पति की चिता के साथ एक बार ही जली थी पर अवनी तो पिछले 3 सालों से तिलतिल कर जल रही थी.

कल रात बहुत देर से अवनी की आंख लगी और मनीष के चिल्लाने की आवाज से एक झटके से खुल गई.
मनीष गुस्से में बड़बड़ा रहा था,”अगर मेरे पास पैसा न होता तो तुम तो मुझे सड़क पर बैठा देतीं।”

अवनी बिना कुछ बोले चुपचाप चाय बनाने चली गई. उस को देखते ही सास बोलीं,”आज तो तुम ने हद
कर दी है, कब मनीष कुछ खाएगा और कब वह दवा लेगा? तुम्हें पता है न कीमोथेरैपी के लिए डाइट का अच्छा होना जरूरी है…”

मनीष को चाय और बादाम दे कर अवनी नहाने चली गई. जब नहा कर बाहर निकली तो देखा कमरे में से
किसी के जोरजोर से हंसने की आवाज आ रही थी. अवनी ने गीले बालों को तौलिए से लपेट रखा था।कुछ गीले बाल छितर कर इधरउधर बिखरे हुए थे और इंडिगो ब्लू रंग का सूट उस पर खूब खिल रहा था.

जैसे ही वह बाहर आई, वह युवक बोला,”अरे भाभीजी को तो देख कर लगता ही नहीं इन के 18 और 20 साल के बेटे भी होंगे।”

मनीष कड़वा सा मुंह बनाते हुए बोला,”हां कुदरत ने सारा बुढ़ापा तेरे भैया के ही नसीब में लिख दिया है,”
और फिर वह फफकफफक कर रोने लगा. अवनी अपराधी की तरह खड़ी रह गई.

अवनी सब समझती थी। कीमोथेरैपी के कारण मनीष के बाल झड़ गए थे। चेहरे पर काले धब्बे पड़ गए थे और आंखे अंदर धंस गई थीं. पर अवनी को समझ नहीं आता था कि वह कैसे मनीष का मनोबल बढ़ाए.

तभी वह युवक बोला,”अरे अवनीजी, आप ने मुझे पहचाना नहीं, मैं मनीष की बुआ का बेटा हूं और रिश्ते में
आप का देवर हूं। मेरा नाम कुणाल है।”

अवनी बोली,”अरे आप बैठो, मैं चायनाश्ते का इंतजाम करती हूं।”

अवनी ने फटाफट कुक की मदद से पनीर के परांठे, ढोकला, सूजी का हलवा और लालमिर्च की चटनी बना
ली थी. जैसे ही वह बाहर निकली तो मनीष को डाइनिंग टेबल पर बैठा देख कर खुश हो गई.

कुणाल बोला,”जल्दीजल्दी नाश्ता लगाएं, बड़ी कस कर भूख लगी है।”

आज शायद लगभग 1 साल के बाद मनीष ने डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब के साथ खाया होगा. कुणाल पूरे समय चुटकले सुनाता रहा और अवनी के नाश्ते की तारीफ करता रहा. न जाने क्यों अवनी को लग रहा था कि कुणाल के आने से पूरे घर में खुशियों की लहर आ गई है. नाश्ते के बाद सब लोग अपनेअपने काम में लग गए और कुणाल ड्राइंगरूम में बैठ कर टीवी पर कोई प्रोग्राम देखने लगा. अवनी भी वहीं बैठ कर सब्जी काटने लगी और सब्जी काटतेकाटते कुणाल से बोली,”और आप के घर में सब कैसे हैं?”

कुणाल हंसते हुए बोला,”मैं ही घर हूं।
और कोई नहीं है मेरे घर में। मैं अच्छा हूं तो घर भी अच्छा है।”

अवनी बोली,”आप ने अब तक शादी नहीं करी क्या?”

कुणाल बोला,”करी थी मगर सोनल शादी के 4 साल बाद मुझ से अलग हो गई थी।”

अवनी ने धीमे से कहा,”सौरी…”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अरे इस में सौरी की क्या बात है। अगर कोई मेरी टाइप की मिलेगी तो शादी कर लूंगा।”

कुणाल बिजनैस के सिलसिले में यहां आया हुआ था. वह अगले दिन से रोज सुबह काम पर निकल जाता
और शाम को आ जाता था. उस के आते ही अवनी के चेहरे पर रौनक आ जाती थी. कुणाल अवनी से सुखदुख की बात कर लेती थी.

धीरेधीरे कुणाल और अवनी के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी. कुणाल लगभग 2 महीने रहा और इन 2 महीनों में वह हर वीकैंड पर आउटिंग का प्लान करता था. जब पहली बार कुणाल ने मूवी का प्लान बनाया तो रचित और सार्थक का हमेशा की तरह अपने प्रोग्राम बने हुए थे.

सासससुर जब तैयार हो गए तो कुणाल बोला,”मनीष भैया और अवनी भाभी नही चलेंगे?”

अवनी की सास बोलीं,”अरे मनीष कहीं आताजाता नहीं है। वह तो तेरे कहने पर हम भी बरसों बाद मूवी
देखने जा रहे हैं।”

कुणाल ने जबरदस्ती मनीष को यह कहते हुए तैयार कर लिया कि अगर मन नहीं लगा तो वह खुद बीच में ही मनीष के साथ घर आ जाएगा.

जब इंटरवल में कुणाल और अवनी पौपकौर्न लेने गए तो कुणाल बोला,”ऐसे ही खुश रहा करो, अच्छी लगती हो। भैया बीमार हैं पर आप क्यों उन के साथ समय से पहले ही सती हो रही हो?”

कुणाल जातेजाते अवनी को हिम्मत और साहस दे गया था. अब अवनी महीने में 1 बार जरूर बाहर अपने दोस्तों से मिलने या मूवी देखने चली जाती थी. मनीष की चिड़चिड़ाहट, बच्चों की शिकायतें या
सासससुर की नसीहतों को अब अवनी अनदेखा कर देती थी. जब भी अवनी को अकेलापन लगता या हौसला टूटने लगता तो वह कुणाल से फोन पर बात कर लेती थी. मनीष के अंतिम दिनों में कुणाल भी वहीं आ गया था. कुणाल के आने से अवनी को हर तरह से सहारा मिल गया था.

जब मनीष की मृत्यु हो गई तो कुणाल ही था जो पूरे परिवार के लिए रातदिन खड़ा रहा था. वह पूरे 1 माह रुका और जाने से पहले कुणाल ने अवनी को कहा,”जब कभी भी मेरी जरूरत महसूस हो बस एक कौल कर देना…”

अब अवनी ने फिर से अपनी जिंदगी नई सिरे से शुरू करनी चाही पर उस का अपना परिवार उसे यह करने
से रोक रहा था. जब अवनी ने अपने ससुर से बिजनैस जौइन करने की बात करी तो ससुर बोले,”यह उम्र तुम्हारे बेटों की बिजनैस सीखने की है। तुम घर पर रह कर योगसाधना में अपना ध्यान लगाओ। पूजापाठ करो ताकि अगले जन्म में वैधव्य का दुख न भोगना पड़े।”

अवनी उन की अंधविश्वास भरी बातें सुन कर हैरान रह जाती। अगर वह थोड़ा ढंग से तैयार हो जाती तो सास की तीखी नजरें उसे चुभती रहती थीं. अवनी कभीकभी दुखी हो कर सोचती कि इस से अच्छा तो पहला जमाना था जब पति के साथ ही पत्नी सती हो जाती थी। कम से कम रोज तिलतिल कर मरना तो नहीं पड़ता था.

मनीष की मृत्यु को पूरे 1 साल हो गए थे. आज मनीष की बरसी थी और कुणाल भी आया हुआ था. अवनी
को देखते ही बोला,”यह तुम ने अपना क्या हाल बना लिया है? भैया की मृत्यु हुई है तुम्हारी नहीं।”

अवनी फफकफफक कर रो पड़ी और बोली,”काश, मैं ही मर जाती, कुणाल। मेरे कपड़े पहनने, हंसनेबोलने सब पर पाबंदी है। मेरे खुद के बेटे मुझे खुश देखते ही शक करने लगते हैं। मुझे बाहर काम करने की इजाजत नहीं है। घर पर कोई काम है नहीं, बच्चे बड़े हो गए हैं। बताओ मैं क्या करूं?

“इस पूजापाठ, व्रत में मेरी श्रद्धा नहीं है। मुझे एक सामान्य औरत की तरह जीने का मन है। मुझे देवी नहीं बनना है…”

कुणाल ने एकाएक कहा,”अवनी, मुझ से शादी करोगी?”

अवनी एकदम से हक्कीबक्की रह गई और बोली,”क्या कह रहे हो तुम? मेरे 2-2 जवान बेटे हैं…”

कुणाल बोला,”हां 2-2 बेटे हैं जिन्हें कभी भी तुम्हारी जरूरत नहीं थी।सोच कर बताना, अगर जवाब न भी होगा तो भी तुम्हारा दोस्त बन कर हमेशा खड़ा रहूंगा।”

कुणाल के जाने के बाद अवनी बहुत दिनों तक सोचविचार करती रही मगर उस के अंदर डर उसे भयभीत करता रहता।

कुछ दिनों बाद मनीष के परिवार में ही शादी थी. सब लोग अच्छे से तैयार हुए मगर अवनी जैसे ही तैयार हो
कर बाहर आई तो सास बोलीं,”यह नारंगी रंग की साड़ी के बजाए कोई लाइट कलर पहन लो। लोग क्या सोचेंगे कि तुम्हें जरा भी मनीष के जाने का दुख नहीं है।”

जैसे ही अवनी जाने लगी तो बड़े बेटे रचित की आवाज आई,”मम्मी, यह लिपस्टिक भी हलकी कर लीजिए।लोग आप को ऐसे देखें तो अच्छा नहीं लगता।”

अवनी अंदर जा कर फूटफूट कर रोई और जब बाहर निकली तो वह एक सफेद साड़ी में लिपटी थी।

ससुरजी गुस्से में बोले,”यह जानबूझ कर नाटक क्यों कर रही हो अवनी, ताकि सब को लगे हम एक विधवा पर जुल्म कर रहे हैं…”

आखिरकार अवनी उस शादी में गई ही नहीं मगर उस रात बहुत देर तक वह कुणाल से बात करती रही।
अगले दिन सब के सामने अवनी ने कुणाल से विवाह करने का फैसला सुना दिया। दोनों बेटे सकते में
आ गए थे.

सास रोते हुए बोलीं,”तेरा चक्कर तो कुणाल से शायद बहुत पहले से ही चल रहा था, अवनी. तभी तो तुम मेरे
बीमार बेटे की देखभाल नहीं करती थीं।”

ससुरजी बोले,”बेवकूफ औरत, यह तुम्हारे बेटों की शादी की उम्र है नाकि तुम्हारी. जरा अपनी उम्र का लिहाज तो करो. 2 साल भी तुम से मर्द के बिना नहीं रहा जा रहा है?”

सार्थक गुस्से में बोला,”अगर आप ने कुणाल से शादी करी तो आप हम से रिश्ता तोड़ लेना।”

अवनी के मातापिता भी उस के फैसले से खुश नहीं थे. अवनी की भाभी बोलीं,”दीदी, सार्थक और
रचित के बारे में तो सोचो। कुछ वर्षों बाद आप के पोतेपोती खिलाने की उम्र हो जाएगी और आप डोली में बैठने की तैयारी कर रही हो… अगर आप अकेली होतीं तो ठीक था पर आप के तो 2 जवान बेटे हैं, आप को क्यों किसी सहारे की आवश्यकता है?”

अवनी को समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे किसी को समझाए. जिंदगी का मतलब बस रोटी, कपड़ा और
मकान ही तो नहीं है. सब के विरोध के बावजूद भी अवनी और कुणाल ने कोर्ट में विवाह कर लिया था.

जब सब पुराने रिश्तों से रीति हो कर अवनी कुणाल का हाथ थाम कर उस के घर मे आई तो उस की आंखें
गीली थीं. अवनी कुणाल से बोली,”कुणाल, मुझे मेरे बेटों ने अपनी जिंदगी से बेदखल कर दिया है।”

कुणाल हंसते हुए बोला,”अवनी, देरसवेर रचित और सार्थक तुम्हारा पहलू समझ जाएंगे. सती प्रथा को समाप्त करने के लिए किसी को तो पहल करनी होती है न…”

अवनी के मन में ये पंक्तियां बारबार उमड़ रही थीं,”न बनना चाहती हूं मैं देवी और न ही बनना चाहती हूं सती, मैं हूं एक सामान्य नारी जो हर उम्र में चाहती है जीवन में भावनाओं की गति.

अबोध : मां को देखते ही क्यों रोने लगी गौरा?

लेखक- धर्मेंद्र राजमंगल

माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ.

माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया.

माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती.

जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.

अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था. माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.

शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था. गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं

लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए. गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे  उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई. गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गौरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता.

जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था. जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तुझे कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’

गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबूझ कर उस से ज्यादा काम कराती थीं. बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात  ते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.

एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था. मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’ सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझती.’’

गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी. दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे. अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.

माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.

घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं.

घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मुझे अब तेरे ही पास रहना है.’’

मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.

‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’

गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.

रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी.

आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.

सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’

गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’

गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए.

हवा के हलके झोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.

यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे. गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी  थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.

गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया. अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था. थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था.

जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी. एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को समझता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.

सांप सीढ़ी: प्रशांत का कौनसा था कायरतापूर्ण फैसला

जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

बोलने में विनम्रता, चाल में आत्मविश्वास, व्यवहार में बड़ों का आदरमान, चरित्र में सोना. सचमुच हजारों में एक को ही नसीब होता है ऐसा बेटा. मौसी वाकई समय की बलवान थीं.

मां के अनुशासन की डोरी पर स्वयं को साधती मैं विवाह की उम्र तक पहुंच चुकी थी. एमए पास थी, गृहकार्य में दक्ष थी, इस के बावजूद मेरा विवाह होने में खासी परेशानी हुई. कारण था, मेरा दबा रंग. प्रत्येक इनकार मन में टीस सी जगाता रहा. पर फिर भी प्रयास चलते रहे.

और आखिरकार दिवाकर के यहां बात पक्की हो गई. इस बात पर देर तक विश्वास ही नहीं हुआ. बैंक में नौकरी, देखने में सुदर्शन, इन सब से बढ़ कर मुझे आकर्षित किया इस बात ने कि वे हमारे ही शहर में रहते थे. मां से, मौसी से और खासकर प्रशांत से मिलनाजुलना आसान रहेगा.

पर मेरी शादी के बाद मेरी मां और पिताजी बड़े भैया के पास भोपाल रहने चले गए, इसलिए उन से मिलना तो होता, पर कम.

मौसी अलबत्ता वहीं थीं. उन्होंने शादी के बाद सगी मां की तरह मेरा खयाल रखा. मुझे और दिवाकर को हर त्योहार पर घर खाने पर बुलातीं, नेग देतीं.

प्रशांत का पीईटी में चयन हो चुका था. वह धीरगंभीर युवक बन गया था. मेरे दोनों सगे भाई तो कोसों दूर थे. राखी व भाईदूज का त्योहार इसी मुंहबोले छोटे भाई के साथ मनाती.

स्कूटर की जानीपहचानी आवाज आई, तो मेरी विचारशृंखला टूटी. दिवाकर आ चुके थे. मैं हर्ष की उंगली पकड़े बाहर आई. कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं था. हर्ष को उस की बूआ के घर छोड़ कर हम मौसी के घर जा पहुंचे.

घर के सामने लगी भीड़ देख कर और मौसी का रोना सुन कर कुछ भी जानना बाकी न रहा. भीतर प्रशांत की मृतदेह पर गिरती, पछाड़ें खाती मौसी और पास ही खड़े आंसू बहाते मौसाजी को सांत्वना देना सचमुच असंभव था.

शब्द कभीकभी कितने बेमानी, कितने निरर्थक और कितने अक्षम हो जाते हैं, पहली बार इस बात का एहसास हुआ. भरी दोपहर में किस प्रकार उजाले पर कालिख पुत जाती है, हाथभर की दूरी पर खड़े लोग किस कदर नजर आते हैं, गुजरे व्यक्ति के साथ खुद भी मर जाने की इच्छा किस प्रकार बलवती हो उठती है, मुंहबोली बहन हो कर मैं इन अनुभूतियों के दौर से गुजर रही थी. सगे मांबाप के दुख का तो कोई ओरछोर ही नहीं था.

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

Raksha Bandhan 2024 : मुझे जवाब दो- क्या शोभा अपने भाई को समझा पाई

‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक शोभा.’’

Raksha Bandhan 2024 : कन्यादान- भाई और भाभी का क्या था फैसला

अनिरुद्ध घर के अंदर घुसते हुए मंजुला से बोले, ‘‘मैडम, आप के भाईसाहब ने श्रेयसी के कन्यादान की तैयारी कर ली है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘उन्होंने उस की शादी का कार्ड भेजा है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, आप?’’ चौंकती हुई मंजुला बोली, ‘‘क्या श्रेयसी की शादी तय हो गई है?’’

‘‘जी मैडम, निमंत्रणकार्ड तो यही कह रहा है.’’

मंजुला ने तेजी से कार्ड खोल कर पढ़ा और उसे खिड़की पर एक किनारे रख दिया. फिर बुदबुदाई, ‘भाईसाहब कभी नहीं बदलेंगे.’ उस के चेहरे पर उदासी और खिन्नता का भाव था.

‘‘क्या हुआ? तुम श्रेयसी की प्रस्तावित शादी की खबर सुन कर खुश नहीं हुई?’’

‘‘आप तो बस.’’

तभी बहू छवि चाय ले कर ड्राइंगरूम में आई, ‘‘पापाजी, किस की शादी का कार्ड है?’’

‘‘अरे बेटा, खुशखबरी है. अपनी श्रेयसी की शादी का कार्ड है.’’

छवि खुश हो कर बोली, ‘‘वाउ, मजा आ गया.’’

छवि के जाने के बाद मंजुला बोली, ‘‘क्या भाईसाहब एक बार भी फोन नहीं कर सकते थे?’’

‘‘तो क्या हुआ? लो, मैं अपनी ओर से भाई साहब को फोन कर के बधाई दे देता हूं.’’

मन ही मन अपमानित महसूस करती हुई मंजुला वहां से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई.

‘‘साले साहब, बहुतबहुत बधाई. आप का भेजा हुआ कार्ड मिल गया. श्रेयसी की तरह उस की शादी का कार्ड भी बहुत सुंदर है. मेरे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच कहिएगा. लड़के के बारे में आप ने अच्छी तरह से जानकारी तो कर ही ली होगी?’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. महाराजजी ने सब पक्का कर दिया है.’’

‘‘एक बात बताइए, आप ने श्रेयसी से पूछा कि नहीं?’’

‘‘उस से क्या पूछना? ऐसा राजकुमार सा छोरा सब को नहीं मिलता. अपनी श्रेयसी तो सीधे अमेरिका जाएगी. इसी वजह से जल्दबाजी में 15 दिनों के अंदर शादी करनी पड़ रही है.’’

‘‘अच्छा, श्रेयसी कहां है, फोन दीजिए उसे, बधाई तो दे दें.’’

‘‘देखिए अनिरुद्धजी, बधाईवधाई रहने दीजिए. पहले मेरी बात सुनिए, हमारे हिंदू धर्म में कन्यादान को महादान कहा गया है, लेकिन भई, आप की और मेरी सोच में बहुत अंतर है. आप तो पहले आयुषी से नौकरी करवाएंगे, फिर उस के लिए लड़का खोजेंगे या फिर उस की पसंद के लड़के से उस की शादी कर देंगे. परंतु मैं तो जल्द से जल्द बेटी का कन्यादान कर के बोझ को सिर से उतारना चाहता हूं. मेरी तो रातों की नींद उड़ी हुई थी. अब तो उस की डोली विदा करने के बाद ही चैन कीनींद सोऊंगा. अच्छा, ठीक है, अब मैं फोन रखता हूं.’’

‘‘छवि, तुम्हारी आदरणीया मम्मीजी कहां गईं? अपने भाईसाहब या भाभी से उन्होंने बात भी नहीं की, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’ मंजुला को आता देख अनिरुद्ध बोले, ‘‘आइए श्रीमतीजी, चाय आप के इंतजार में उदास हो कर ठंडी हुई जा रही है.’’

मंजल का मुंह उतरा हुआ था पर शादी की खबर से उत्साहित छवि बोली, ‘‘मुझे तो बहुत सारी खरीदारी करनी है, आखिर मेरी प्यारी ननद की शादी जो है.’’

‘‘हांहां, कर लेना, जो चाहे वह खरीद लेना,’’ अनिरुद्ध बोले.

बेटा उन्मुक्त मौका देखते ही बोला, ‘‘पापा, आप का इस बार कोई भी बहाना नहीं चलेगा, आप को नया सूट बनवाना ही पड़ेगा.’’

‘‘न, यार, मुझे कौन देखेगा?’’ मंजुला की ओर निगाहें कर के अनिरुद्ध बोले, ‘‘भीड़ में सब की निगाहें लड़की की सुंदर सी बूआ और भाभी पर होंगी. और हां, आयुषी कहां है? वह तो शादी की खबर सुनते ही कितना हंगामा करेगी.’’

मंजुला चिंतामग्न हो कर बोली, ‘‘वह कालेज गई है, उस का आज कोई लैक्चर था.’’

मंजुला सोचने लगी कि बड़े भाईसाहब क्या कभी नहीं बदलेंगे. वे हमेशा अपनी तानाशाही ही चलाते रहेंगे. वे रूढि़वादिता और जातिवाद के चंगुल से अपने को कभी भी बाहर नहीं निकाल पाएंगे.

फिर वह मन ही मन शादी होने वाले खर्च का हिसाबकिताब लगाने लगी. तभी आयुषी कालेज से लौट कर आ गई. जैसे ही उस ने श्रेयसी की शादी का कार्ड देखा, उस का चेहरा एकदम बदरंग हो उठा. उस के मुंह से एकबारगी निकल पड़ा, ‘‘श्रेयसी की शादी’’ फिर वह एकदम से चुप रह गई.

मंजुला ने पूछा कि क्या कह रही हो? तो वह बात बदलते हुए बोली, ‘‘पापा, इस बार आप की कोई कंजूसी नहीं चलेगी. मेरा और भाभी का लहंगा बनेगा और सुन लीजिए, डियर मौम के लिए भी इस बार महंगी वाली खूबसूरत कांजीवरम साड़ी खरीदेंगे. हर बार जाने क्या ऊटपटांग पुरानी सी साड़ी पहन कर खड़ी हो जाती हैं.’’

‘‘आयुषी, तुम बहुत बकबक करती हो. पैसे पेड़ पर लगते हैं न, कि हिला दिया और बरस पड़े.’’ मंजुला अपनी खीझ निकालती हुई बोली, ‘‘श्रेयसी को कुछ उपहार देने के लिए भी तो सोचना है.’’

‘‘श्रीमतीजी आप इतनी चिंतित क्यों हैं?’’

‘‘मेरी सुनता कौन है? आप को तो अपनी आयुषी की कोई फिक्र ही नहीं है.’’

‘‘जब वह शादी के लिए तैयार होगी, तभी तो उस के लिए लड़का देखेंगे.’’

‘‘इस साल 24 की हो जाएगी. मेरी तो रातों की नींद उड़ जाती है.’’

‘‘तुम अपने भाईसाहब की असली शागिर्द हो. उन की भी नींद उड़ी रहती है.’’ यह कह कर अनिरुद्ध अपने लैपटौप में कुछ करने में व्यस्त हो गए.

मंजुला इस बीच श्रेयसी के बचपन में खो गई. उस ने श्रेयसी को पालपोस कर बड़ा किया है. भाभी के जुड़वां बच्चे हुए थे. वे 2 बच्चों को एकसाथ कैसे पालतीं, इसीलिए वह श्रेयसी को अपने साथ ले आई थी. उस ने रातदिन एक कर के उसे पालपोसकर बड़ा किया. जब वह 6 साल की हो गई तो भाभी बोलीं, ‘यह मेरी बेटी है, इसलिए यह मेरी जिम्मेदारी है.’ और वे उसे अपने साथ ले गई थीं.

श्रेयसी के जाने के बाद वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस के मन में श्रेयसी के प्रति अतिरिक्त ममत्व था. श्रेयसी बहुत दिनों तक मंजुला को ही अपनी मां समझती रही थी. मंजुला छुट्टियों में श्रेयसी को बुला लेती थी.

श्रेयसी आती तो उन्मुक्त और आयुषी उस के हाथ से खिलौना झपट कर छीन लेते. उसे कोई चीज छूने नहीं देते. इस बात पर मंजुला जब उन्मुक्त को डांट रही थी तो वह धीरे से बोली थी, ‘मम्मी, मुझे तो आदत है. वहां प्रखर मेरे हाथ से सब खिलौने छीन लेता है. चाहे खाने की हों या खेलने की, सब चीजें झपट लेता है. अम्मा भी कहती हैं कि वह भाई है, उसे दे दो.’

यह सब कहते हुए श्रेयसी की आंखें नम हो उठी थीं. तभी वह मंजुला से लिपट कर बोली थी, ‘मम्मी, मेरा घर कहां है? आप अच्छी मम्मी हैं. वे गंदी अम्मा हैं, मुझे मारती हैं.’

‘‘मैडम, क्या बात है बड़ी अपसैट दिख रही हो?’’ अनिरुद्ध की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी. ‘‘सुनिए जी, श्रेयसी अपनी ससुराल में खुश तो रहेगी न? मेरे मन में अपराधबोध है कि मैं ने उसे अपने से दूर कर के भाभी के पास क्यों भेजा?’’

‘‘तुम तो फुजूल की बात करती हो. वह उन की बेटी है, जैसा वे चाहें वैसा करें.’’

जैसेजैसे श्रेयसी बड़ी होती गई, गुमसुम और चुप होती गई. श्रेयसी की आंखों का सूनापन देख मंजुला अपराधबोध से भर जाती. वह सोचती कि यदि वह उसे अपने पास रख सकती तो शायद श्रेयसी खुश रहती. भाभी के कड़क और दकियानूसी स्वभाव के कारण श्रेयसी सब से दूर, अकेली खड़ी दिखाई पड़ती. हंसनेचहचहाने की उम्र में भी उस के चेहरे पर गंभीरता का आवरण होता था.

उन्मुक्त और आयुषी धीरेधीरे बड़े होते गए और भाईसाहब व भाभी ने अपने बच्चों को मंजुला के यहां भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

उन्मुक्त की शादी में श्रेयसी को बहुत दिनों बाद देखा था मंजुला ने. श्रेयसी के लिए फैशनेबल कपड़े पहनना मना था. उसे केवल सलवारकुरता पहनने की इजाजत थी. दुपट्टा हर समय पहनना जरूरी था. भाभी की हर समय की डांटफटकार से श्रेयसी को अकेले में आंसू बहाते हुए देख, वह भी रो पड़ी थी.

उस के आंसू देख भाभी गरम हो कर बोली थीं, ‘अपने टेसुए किसी और को दिखाना, अपनी चालचलन ठीक रखो. लड़कियों का जोरजोर से हंसना अच्छा नहीं होता. इतनी जोर के ठहाके क्यों लगाती हो? चल कर नाश्ता लगाओ.’

यदि वह उन्मुक्त से मजाक करती, तो भाभी जोर से डांट कर कहतीं, ‘लड़कों के बीच घुसी रहती हो, चलो, ढोलक बजाओ और औरतों के साथ बैठो.’

ऐसी बातें सुन कर सब का मन खराब हो गया था. भैयाभाभी के चले जाने के बाद सब ने चैन की सांस ली थी. सब अपनीअपनी दुनिया में व्यस्त हो गए थे. प्यारी सी बहू छवि के आने के बाद घर में रौनक आ गई थी.

8 महीने बीते थे कि एक दिन मंजुला के मोबाइल पर भाभी का फोन आया, ‘जीजी, श्रेयसी रिसर्च करना चाहती है. इसलिए हम लोग आप पर विश्वास कर के उसे लखनऊ भेज रहे हैं. वह लड़कियों वाले होस्टल में रहेगी. आप लोगों के विश्वास पर ही उसे आगे पढ़ने के लिए भेज रहे हैं. मेरा तो बहुत जी घबरा रहा है. समय बहुत खराब है. आजकल लड़कियों के कदम बहकते देर नहीं लगती है.’

‘भाभी, घबराने की कोई बात नहीं है. श्रेयसी बहुत समझदार है. आप ठीक समझो तो श्रेयसी को मेरे घर पर ही रहने दो. मुझे अच्छा ही लगेगा. छवि और आयुषी के साथ उस को खूब अच्छा लगेगा.’

भाईसाहब और भाभी श्रेयसी को ले कर आए. 3 दिन रह कर होस्टल में उस की सब व्यवस्था करवाई. चुपचुप, सहमी और गंभीर श्रेयसी को देख कर मन में प्रश्नचिह्न उठा, समझ में नहीं आया कि क्या बात है. एक रात अकेले में भाभी अपने मन का गुबार निकालते हुए बोली थीं, ‘जीजी, अब तुम से क्या छिपाएं. श्रेयसी के पीछे एक बदमाश लड़का पड़ा हुआ है, इसलिए इस को वहां से दूर भेजना आवश्यक हो गया था. हम लोगों ने बहुत हाथपैर मारे, लेकिन कहीं भी रिश्ता तय नहीं हो पाया. इसलिए मजबूरी में यहां ऐडमिशन करवाना पड़ रहा है. इस की सुंदरता इस की दुश्मन बन बैठी है.’

सच ही श्रेयसी को कुदरत ने बड़े मन से गढ़ा था. दूध सा गोरा, सफेद संगमरमर सा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, लंबे व काले घुंघराले बाल. बिना मेकअप के भी वह परी सी दिखती थी.वे आगे बोली थीं, ‘जीजी, जीजाजी तो उसी कालेज में ही प्रोफैसर हैं. वे श्रेयसी पर निगाह रखेंगे. हम इस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. जैसे ही कहीं बात बनी, तुरंत शादी कर देंगे.’ भाभी अपने दिल का बोझ हलका कर के भाईसाहब के साथ अपने घर चली गई थीं.

श्रेयसी होस्टल में रह रही थी. उस की रूमपार्टनर जूली थी, जिस से उस की दोस्ती हो गई थी. उस का भाई रौबर्ट उसी कालेज में लैक्चरर था. जूली के साथ ही श्रेयसी उस के भाई से मिली. रौबर्ट पहली नजर में ही श्रेयसी की सुंदरता पर मर मिटा. शायद मन ही मन श्रेयसी को भी वह अच्छा लगा था.

रौबर्ट ईसाई था परंतु सुलझा और समझदार युवक था. वह अनिरुद्ध से कालेज में कई बार मिल चुका था. अनिरुद्ध उसे पसंद भी करते थे. भाईसाहब और भाभी के लिए उस का ईसाई होना सब से बड़ा दुर्गुण था. श्रेयसी छोटे शहर और भाभी के अनावश्यक प्रतिबंधों से आजाद होने के बाद होस्टल के रंगबिरंगे माहौल में जल्द ही रम गई. उस के तो पर ही निकल पड़े. पहले तो हर शनिवार की शाम को आती रही, फिर धीरेधीरे उस ने आना बंद कर दिया.

आयुषी और छवि जब भी उस से मिलने गए, वह उन्हें मिली नहीं. फोन पर कभीकभी बात हो जाती तो अब उस के सुर बदल चुके थे. अब वह हौलीवुड फिल्में, पिकनिक, पीजा, बर्गर और पार्टी की बातें करने लगी थी.

उस को घर आए बहुत दिन हो गए थे, इसलिए एक दिन मंजुला ने खुद फोन कर के उस से आने को कहा. वह आई, जींसटौप में बहुत स्मार्ट लग रही थी. अनिरुद्ध उसे देख कर बड़े खुश हुए, ‘श्रेयसी, तुम होस्टल में रह कर बिलकुल बदल गई हो.’

‘फूफाजी, मेरी रूममेट जूली कहती है, ‘जैसा देश वैसा भेस’ समय के साथ कदम मिला कर चलो, तभी आगे बढ़ पाओगी. मैं सलवारसूट पहनती थी तो पूरे डिपार्टमैंट में मेरा नाम बहनजी पड़ गया था. सैमिनार में जाती, तो क्लास के लड़केलड़कियां खीखी कर हंसते थे, और मुझे हूट करते थे. मैं ने अपने पुराने चोले को उतार फेंका. इस में जूली ने मेरी बहुत मदद की.’

फिर वह होस्टल चली गई. एक शाम कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘मंजुला, तुम श्रेयसी को बुला कर एक दिन बात करो. आज स्टाफरूम में रौबर्ट के साथ श्रेयसी का नाम जोड़ कर लोग खुसुरफुसुर कर रहे थे. ये दोनों यहांवहां अकसर साथ में दिखाई भी पड़ जाते हैं.’

मंजुला परेशान हो उठी थी. उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘भाईसाहब और भाभी तो ये सब बातें सुन कर आपे से बाहर हो जाएंगे. उन्होंने तो हमीं लोगों की जिम्मेदारी पर उसे यहां छोड़ा था.’

‘हां, मैं भी यह सब देखसुन कर परेशान हूं. श्रेयसी के तो रंगढंग ही बदल गए हैं.’

वह मन ही मन सोचती रह गई कि एक शाम श्रेयसी अपनी दोस्त जूली के साथ उस की स्कूटी पर आ गई. सब की प्रश्नवाचक निगाहों का जवाब दे कर बोली, ‘बूआ, यह जूली है. इसे हिंदी नहीं आती, इसलिए यह मुझ से हिंदी सीख रही है. और यह मुझे फ्रैंच सिखा रही है. हम लोग लाइब्रेरी में पढ़तेपढ़ते बोर हो गए थे, तो जूली बोली कि चलो, अपनी फैमिली से मिलवाओ. बस, मैं इसे ले कर यहां आ गई.’

‘अच्छा किया, जो तुम आ गईं. मुझे तुम से कुछ बात भी करनी है. तुम्हारी यह दोस्त हम लोगों का खाना पसंद करे तो खाना खा कर जाना.’

जूली खाने की बात सुन कर खिल उठी, ‘मुझे इंडियन खाना बहुत पसंद है. मेरी मां भी इंडियन खाना कभीकभी बनाती हैं. मेरे पापा तो इंडिया में रहते हुए पूरे शाकाहारी बन गए हैं.’

‘श्रेयसी, इधर मेरे साथ अंदर आना. तुम से कुछ बात करनी है,’ मंजुला ने कहा.

‘बूआ, क्या बात है? बड़ी गंभीर दिख रही हैं आप, कोई खास बात?’

‘साफसाफ शब्दों में कहूं तो तेरा और रौबर्ट का कोई चक्कर चल रहा है क्या?’

उस के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख समझ में आ गया था कि बात सच है. वह अपने को संभाल कर बोली, ‘बूआ, ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप सोच रही हैं. उस से एकाध बार हायहैलो जूली की वजह से हुई है, बस.’ इतना कह

कर वह तेजी से जूली के पास जा कर बैठ गई.

खाने की मेज पर श्रेयसी का तमतमाया चेहरा देख पहले तो सब शांत रहे, फिर थोड़ी ही देर में शुरू हो गया बातों का सिलसिला. फिल्म, फैशन, एसएमएस, फेसबुक, यूट्यूब की गौसिप पर कहकहे. जूली हिंदी अच्छी तरह नहीं समझ पा रही थी, इसलिए वह खाने का स्वाद लेने में लगी हुई थी. मिर्च के कारण उस की आंख, नाक और कान सब लाल हो रहे थे. चेहरा सुर्ख हो रहा था. खाना खाने के बाद आंखों के आंसू पोंछते हुए वह बोली, ‘वैरी टैस्टी, यमी फूड.’ उस की बात सुनते ही सब जोर से हंस पड़े थे. श्रेयसी किचन से रसगुल्ला लाई और उस के मुंह में डाल कर बोली, ‘पहले इस को खाओ, फिर बोलना.’

श्रेयसी जूली की स्कूटी पर बैठी और बाय कहती हुई चली गई. अनिरुद्ध बोले, ‘जूली अच्छी लड़की है.’

अगले दिन वे कालेज की सीढि़यां चढ़ रहे थे, उसी समय प्रोफैसर रंजन तेजी से उन की तरफ आए, ‘क्यों अनिरुद्धजी, श्रेयसी तो आप के किसी रिलेशन में है न. आजकल रौबर्ट के साथ उस के बड़े चरचे हैं?’ अनिरुद्ध कट कर रह गए, उन्हें तुरंत कोई जवाब न सूझा. धीरे से अच्छा कह कर वे अपने कमरे में चले गए थे.

उसी शाम रौबर्ट और श्रेयसी को फिर से साथ देख कर उन का माथा ठनका था. वे रौबर्ट के मातापिता से मिलने के लिए शाम को अचानक रौबर्ट के घर पहुंच गए. रौबर्ट उन्हें अपने घर पर आया देख, थोड़ा घबराया, परंतु उस के पिता मैथ्यू और मां जैकलीन ने खूब स्वागतसत्कार किया. मैथ्यू रिटायर्ड फौजी थे. अब वे एक सिक्योरिटी एजेंसी में मैनेजर की हैसियत से काम कर रहे थे. जैकलीन एक कालेज में इंगलिश की टीचर हैं. गरमगरम पकौडि़यों और चटनी का नाश्ता कर के अनिरुद्ध का मन खुश हो गया था.

वे प्रसन्नमन से गुनगुनाते हुए अपने घर पहुंचे. ‘क्या बात है? आज बड़े खुश दिख रहे हैं.’

‘मंजू, आज रौबर्ट की मां के हाथ की पकौडि़यां खा कर मजा आ गया.’

‘आप रौबर्ट के घर पहुंच गए क्या?’

‘हांहां, बड़े अच्छे लोग हैं.’

‘आप ने उन लोगों से श्रेयसी के बारे में बात कर ली क्या?’

‘तुम तो मुझे हमेशा बेवकूफ ही समझती हो. तुम्हारे आदरणीय भाईसाहब की अनुमति के बिना भला मैं कौन होता हूं, किसी से बात करने वाला? लेकिन अब मैं ने निश्चय कर लिया है कि एक बार तुम्हारे भाईसाहब से बात करनी ही पड़ेगी.’ मंजुला नाराजगीभरे स्वर में बोली, ‘देखिए, आप को मेरा वचन है कि आप इस पचड़े में पड़ कर उन से बात न करें. आप मेरे भाईसाहब को नहीं जानते, किसी को बुखार भी आ जाए तो सीधे अपने महाराजजी के पास भागेंगे. उन के पास जन्मकुंडली दिखा कर ग्रहों की दशा पूछेंगे. उन से भभूत ला कर बीमार को खिलाएंगे और घर में ग्रहशांति की पूजापाठ करवाएंगे. डाक्टर के पास तो वे तब जाते हैं जब बीमारी कंट्रोल से बाहर हो जाती है.

‘जब से मैं ने होश संभाला है, भाईसाहब को कथा, भागवत, प्रवचन जैसे आयोजनों में बढ़चढ़ कर भाग लेते हुए देखा है. वे पंडे, पुजारी और कथावाचकों को घर पर बुला कर अपने को धन्य मानते हैं. उन सब को भरपूर दानदक्षिणा दे कर वे बहुत खुश होते हैं.’

‘मंजुला, तुम समझती क्यों नहीं हो? यह श्रेयसी के जीवन का सवाल है. रौबर्ट के साथसाथ उस का परिवार भी बहुत अच्छा है.’

‘प्लीज, आप समझते क्यों नहीं हैं.

2-4 दिनों पहले ही भाभी का फोन आया था कि जीजी, आप के भाईसाहब एक बहुत ही पहुंचे हुए महात्माजी को ले कर घर में आए थे. उन्होंने उन की जन्मकुंडली देख कर बताया है कि आप की बिटिया का मंगल नीच स्थान में है, इसलिए मंगल की ग्रहशांति की पूजा जब तक नहीं होगी, तब तक शादी के लिए आप के सारे प्रयास विफल होंगे.

‘जीजी, महात्माजी बहुत बड़े ज्ञानी हैं. वे बहुत सुंदर कथा सुनाते हैं. उन के पंडाल में लाखों की भीड़ होती है. कह रहे थे, सेठजी दानदाताओं की सूची में शहरभर में आप का नाम सब से ऊपर रहना चाहिए. आप के भाईसाहब ने एक लाख रुपए की रसीद तुरंत कटवा ली. वे कह रहे थे कि शास्त्रों में लिखा है कि ‘दान दिए धन बढ़े’ दान से बड़ा कोई भी धर्म नहीं है.

‘महात्माजी खुश हो कर बोले थे कि सेठजी, आप की बिटिया अब मेरी बिटिया हुई, इसलिए आप बिलकुल चिंता न करें. उस के विवाह के लिए मैं खुद पूजापाठ करूंगा. आप को कोई भी चिंता करने की जरूरत नहीं है.’ मंजुला अपने पति अनिरुद्ध को बताए जा रही थी, ‘भाभी कह रही थीं कि नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर महात्माजी भाईसाहब के हाथों से हवन करवाएंगे.’

‘वाह, आप के भाईसाहब का कोई जवाब नहीं है. अरे, जिन को महात्मा कहा जा रहा है वे महात्मा थोड़े ही हैं, वे तो ठग हैं, जो आम जनता को अपनी बातों के जाल में फंसा कर दिनदहाड़े ठगते हैं. छोड़ो, मेरा मूड खराब हो गया इस तरह की बेवकूफी की बातें सुन कर.’

‘इसीलिए तो आप से मैं कभी कुछ बताती ही नहीं हूं. जातिपांति के मामले में तो वे इतने कट्टर हैं कि घर या दुकान, कहीं भी नौकर या मजदूर रखने से पहले उस की जाति जरूर पूछेंगे.’ ‘मान गए आप के भाईसाहब को. वे आज भी 18वीं शताब्दी में जी रहे हैं. मेरा तो सिर भारी हो गया है. एक गिलास ठंडा पानी पिलाओ.’

‘अब तो आप अच्छी तरह समझ गए होंगे कि वे कितने रूढि़वादी और पुराने खयालों के हैं. आप भूल कर भी उन के सामने कभी भी ये सब बातें मत कीजिएगा.’

अनिरुद्ध बोले, ‘कम से कम एक बार श्रेयसी को अपने मन की बात भाईसाहब से कहनी चाहिए.’

‘अनिरुद्ध, आप समझते नहीं हैं, लड़की में परिवार वालों के विरुद्ध जाने की हिम्मत नहीं होती. उस के मन में समाज का डर, मांबाप की इज्जत चले जाने का ऐसा डर होता है कि वह अपने जीवन, प्यार और कैरियर सब की बलि दे कर खुद को सदा के लिए कुरबान कर देती है.’

‘इस का मतलब तो यह है कि बड़े भाईसाहब ने तुम्हारे साथ भी अन्याय किया था.’

‘मेरे साथ भला क्या अन्याय किया था?’ ‘तुम्हारी शादी जल्दी करने की हड़बड़ी देख मेरा माथा ठनका था. क्या सोचती हो, मैं नासमझ था. तुम्हारा उदास चेहरा, रातदिन तुम्हारी बहती आंखें, मुझे देखते ही तुम्हारी थरथराहट, संबंध बनाते समय तुम्हारी उदासीनता, तुम्हारी उपेक्षा, कमरा बंद कर के रोनाबिलखना, प्रथम रात्रि को ही तुम्हारी आंसुओं से भीगा हुआ तकिया देख कर मैं सब समझ गया था. ‘तुम्हारी भाभी का पकड़ कर फेरा डलवाना. तुम्हारे कानों में कभी दीदी फुसफुसा रही थीं तो कभी तुम्हारी बूआ. विदा के समय भाईसाहब के क्रोधित चेहरे ने तो पूरी तसवीर साफ कर दी थी. उन का बारबार कहना, ‘ससुराल में मेरी नाक मत कटवाना’ मेरे लिए काफी था.

‘मैं परेशान तो था, परंतु धैर्यपूर्वक तुम्हारे सभी कार्यकलापों को देखता रहा और चुप रहा. वह तो उन्मुक्त पैदा हुआ तो उस से ममता हो जाने के बाद तुम पूर्णरूप से मेरी हो पाई थीं.’ यह सब सुन कर मंजुला की अंतर्रात्मा कांप उठी थी. अनिरुद्ध ने तो आज उस की पूरी जन्मपत्री ही खोल कर पढ़ डाली थी. इधर उन्मुक्त और छवि शादी के लिए शौपिंग में लगे हुए थे. आयुषी भी अपने लिए लहंगा ले आई थी. परंतु अभी तक श्रेयसी से किसी की बात नहीं हो पाई थी, इसलिए मंजुला का मन उचटाउचटा सा था. एक दिन कालेज से आने के बाद अनिरुद्ध बोले, ‘‘रौबर्ट बहुत उदास था, उस ने बताया कि श्रेयसी के मम्मीपापा आए थे और उस को अपने साथ ले गए. उस के बाद से उस का फोन बंद है. सर, एक बार उस से बात करवा दीजिए.’’

उदास मन से ही सही, श्रेयसी को देने के लिए, मंजुला अच्छा सा सैट ले आई थी. शादी में 4-5 दिन ही बाकी थे कि मंजुला का फोन बज उठा. उधर भाईसाहब थे, ‘‘मंजुला, श्रेयसी घर से भाग गई. वह हम लोगों के लिए आज से मर चुकी है.’’ और उन्होंने फोन काट दिया था. घर में सन्नाटा छा गया था. सब एकदूसरे से मुंह चुरा रहे थे. मंजुला झटके से उठी, ‘‘अनिरुद्ध जल्दी चलिए.’’

‘‘कहां?’’

‘‘हम दोनों श्रेयसी का कन्यादान ले कर उस को उस के प्यार से मिला दें. मुझे मालूम है, इस समय श्रेयसी कहां होगी. जल्दी चलिए, कहीं देर न हो जाए.’’ बरसों बाद आज मंजुला अपने साहस पर खुद हैरान थी.

उन्मुक्त बोला, ‘‘मां, भाई के बिना बहन की शादी अच्छी नहीं लगेगी. मैं भी चल रहा हूं. आप लोग जल्दी आइए, मैं गाड़ी निकालता हूं.’’

छवि और आयुषी जल्दीजल्दी लहंगा ले कर निकलीं. दोनों आपस में बात करने लगीं, ‘‘श्रेयसी दी, लहंगा पहन कर परी सी लगेंगी.’’ सब जल्दीजल्दी निकले और खिड़की से आए हवा के तेज झोंके ने श्रेयसी की शादी के कार्ड को कटीपतंग के समान घर से बाहर फेंक दिया था.

Raksha Bandhan 2024 : जरा सी बात- क्यों ननद से नाराज थी प्रथा

प्रथा नहीं जानती थी कि यों जरा सी बात का बतंगड़ बन जाएगा. हालांकि अपने क्षणिक आवेश का उसे भी बहुत दुख है, लेकिन अब तो बात उस के हाथ से जा चुकी है. वैसे भी विवाहित ननदों के तेवर सास से कम नहीं होते. फिर रजनी तो इस घर की लाडली छोटी बेटी थी. सब के स्नेह की इकलौती अधिकारी… उस के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के लिए ये जरा सी बात बहुत बड़ी बात थी.

‘हां, जरा सी बात ही तो थी… क्या हुआ जो आवेश में रजनी को एक थप्पड़ लग गया. उसे इतना तूल देने की क्या जरूरत थी. वैसे भी मैं ने किसी द्ववेष से तो उसे थप्पड़ नहीं मारा था. मैं तो रजनी को अपनी छोटी बहन मानती हूं. रजनी की जगह मेरी अपनी बहन होती तो क्या इसे पी नहीं जाती. लेकिन रजनी लाख बहन जैसी होगी, बहन तो नहीं है न. इसीलिए तांडव मचा रखा है,’ प्रथा जितना सोचती उतना ही उल झती जाती. मामले को सुल झाने का कोई सिरा उस के हाथ नहीं आ रहा था.

दूसरा कोई मसला होता तो प्रथा पति भावेश को अपनी बगल में खड़ा पाती, लेकिन यहां तो मामला उस की अपनी छोटी बहन का है, जिसे रजनी ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है. अब तो भावेश भी उस से नाराज है. किसकिस को मनाए… किसकिस को सफाई दे… प्रथा सम झ नहीं पा रही थी.

हालांकि ननद पर हाथ उठते ही प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. लेकिन वह जली हुई साड़ी बारबार उसे अपनी गलती नहीं मानने के लिए उकसा रही थी. दरअसल, प्रथा को अपनी सहेली की शादी की सालगिरह पार्टी में जाना था. भावेश पहले ही तैयार हो कर उसे देर करने का ताना मार रहा था ऊपर से जिस साड़ी को वह पहनने की सोच रही थी वह आयरन नहीं की हुई थी.

छुट्टियों में मायके आई हुई ननद ने लाड़ दिखाते हुए भाभी की साड़ी को आयरन करने की जिम्मेदारी ले ली. प्रथा ननद पर री झती हुई बाथरूम में घुस गई. इधर ननदोईजी का फोन आ गया और उधर रजनी बातों में डूब गई. बातों में व्यस्त रजनी आयरन को साड़ी पर से उठाना भूल गई और जब प्रथा बाथरूम से निकली तो अपनी साड़ी को जलते देख कर अपना होश खो बैठी. उस ने ननद को उस की गलती का एहसास करवाने के लिए गुस्से में उस से मोबाइल छीनने की कोशिश की, लेकिन खतरे से अनजान रजनी के अचानक मुंह घुमा लेने से प्रथा का हाथ उस के गाल पर लग गया जिसे उस ने ‘थप्पड़’ कह कर पूरे घर को सिर पर उठा लिया.

देखते ही देखते घर में भूचाल आ गया. घर भर की लाडली बहू अचानक किसी खलनायिका सी अप्रिय हो गई.

मनहूसियत के साए में भी भला कभी रूमानियत खिली है? प्रथा का पार्टी में जाना तो कैंसिल होना ही था. अब सासननद तो रसोई में घुसने से रही क्योंकि वह तो पीडि़त पक्ष था. लिहाजा प्रथा को ही रात के खाने में जुटना पड़ा.

खाने की मेज पर सब के मुंह चपातियों की तरह फूले

हुए थे. ननद ने खाने की तरफ देखना तो दूर खाने की मेज पर आने तक से इनकार कर दिया. सास ने बहुत मनाया कि किसी तरह दो कौर हलक से नीचे उतार ले, लेकिन रूठी हुई रानियां भी भला बनवास से कम मानी हैं कभी?

रजनी की जिद थी कि भाभी उस से माफी मांगे. सिर्फ दिखावे भर की नहीं, बल्कि पश्चात्ताप के आंसुओं से तर माफी. उधर प्रथा इसे अपनी गलती ही नहीं मान

रही थी तो माफी और पश्चात्ताप का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि वह तो चाह रही थी कि रजनी को उस की कीमती साड़ी जलाने का अफसोस करते हुए स्वयं उस से माफी मांगनी चाहिए.

जिस तरह से एक घर में 2 महत्त्वाकांक्षाएं नहीं रह सकतीं उसी तरह से यहां भी यह जरा सी बात अब प्रतिष्ठा का सवाल बनने लगी थी. रजनी अब यहां एक पल रुकने को तैयार नहीं थी. वहीं सास को डर था कि बात समधियाने तक जाएगी तो बेकार ही धूल उड़ेगी. किसी तरह सास उसे मामला सुलटने तक रुकने के लिए मना सकी. एक उम्मीद भी थी कि हो सकता है 1-2 दिन में प्रथा को अपनी गलती का एहसास हो जाए.

ससुरजी का कमरा और सास की अध्यक्षता… देर रात तक चारों की मीटिंग चलती रही. प्रथा इस मीटिंग से बहिष्कृत थी. अपने कमरे में विचारों में डूबी प्रथा के लिए पति को अपने पक्ष में करना कठिन नहीं था. पुरुष की नाराजगी भला होती ही कितनी देर तक है… कामिनी स्त्री की पहल जितनी ही न… एक रति शस्त्र में ही पुरुष घुटनों पर आ जाता है. लेकिन आज प्रथा इस अमोघ बाण को चलाने के मूड में भी तो नहीं थी. वह भी देखना चाहती थी कि इस ससुरजी के कमरे में होने वाले मंथन से उस के हिस्से में क्या आता है. जानती थी कि हलाहल ही होगा लेकिन बस आधिकारिक घोषणा का इंतजार कर रही थी.

ढलती रात भावेश ने कमरे में प्रवेश किया. प्रथा जागते हुए भी सोने का नाटक करती रही. भावेश ने उस की कमर के गिर्द घेरा डाल दिया. प्रथा ने कसमसा कर अपना मुंह उस की तरफ घुमाया.

‘‘प्रथा, तुम सुबह रजनी से माफी मांग लेना. बड़ी मुश्किल से उसे इस बात के लिए राजी कर पाए हैं कि वह इस बात को यहीं खत्म कर दे,’’ भावेश ने अपनी आवाज को यथासंभव धीरे रखा ताकि बात बैडरूम से बाहर न जाए.

उस का प्रस्ताव सुनते ही प्रथा के सीने में जलन होने लगी. बोली, ‘‘भावेश तुम भी… जिस ने गलती की उसी का पक्ष ले रहे हो?  एक तो तुम्हारी उस नकचढ़ी बहन ने मेरी इतनी कीमती साड़ी जला दी, ऊपर से तुम चाहते हो कि मैं नाराजगी जाहिर करने का अपना अधिकार भी खो दूं? गिर जाऊं उस के पैरों में? नहीं, मु झ से यह नहीं होगा… किसी सूरत में नहीं.’’

‘‘साड़ी ही तो थी न, जाने दो. मैं वैसी 5 नई ला दूंगा. तुम प्लीज उस से माफी मांग लो,’’ भावेश ने फिर खुशामद की.

मगर प्रथा ने कोई जवाब नहीं दिया और पीठ फेर कर सो गई, जो उस के स्पष्ट इनकार का द्योतक था.

भावेश ने उसे मजबूत बांह से पकड़ कर जबरदस्ती अपनी तरफ फेरा. प्रथा को उस की यह हरकत बहुत ही नागवार लगी.

‘‘एक थप्पड़ ही तो मारा था न… वह भी उस की गलती पर. यदि वह तुम्हारी

बहन न हो कर मेरी बहन होती तब भी क्या ऐसा ही बवाल मचता? नहीं न? बात आईगई हो जाती. तुम बहनभाई कभी आपस में नहीं लड़े क्या? क्या तुम ने या तुम्हारे मांपापा ने आज तक कभी उस पर हाथ नहीं उठाया? फिर आज ये महाभारत क्यों छिड़ गई?’’ प्रथा ने उस का हाथ  झटकते हुए कहा.

भावेश ने बात आगे न बढ़ाना ही उचित सम झा. उस रात शायद घर का कोई भी सदस्य नहीं सोया होगा. सब अपनेअपने मन को मथ रहे थे. विचारों की  झड़ी लगी थी. रजनी अपनी मां के आंचल को भिगो रही थी तो प्रथा तकिए को.

सुबह प्रथा ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी सम झते हुए सब को चाय थमाई, लेकिन आज इस चाय में किसी को कोई मिठास महसूस नहीं हुई. रजनी और सास ने तो कप को छुआ तक नहीं. बस, घूरती रहीं. हरकोई बातचीत शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘भाई, तुम किसे ज्यादा प्यार करते हो मु झे या अपनी बीवी को?’’ अचानक रजनी का अटपटा प्रश्न सुन कर भावेश चौंक गया. उस ने अपनी मां की तरफ देखा. मां ने कन्नी काट ली. पिता ने अपना सिर अखबार में घुसा लिया. प्रथा की निगाहें भी भावेश के चेहरे पर टिक गई.

‘‘यह कैसा बेतुका प्रश्न है?’’ भावेश ने धर्मसंकट से बचना चाहा, लेकिन यह इतना आसान कहां था.

‘‘अटपटाचटपटा मैं नहीं जानती. आप जवाब दो कि यदि आप को बहन औैर बीवी में से एक को चुनना पड़े तो आप किसे चुनेंगे?’’ रजनी ने उसे रणछोड़ नहीं बनने दिया.

भावेश ने देखा कि प्रथा बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए बाथरूम में घुस गई. उस ने राहत की सांस ली. वह रजनी की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गया. भावेश ने स्नेह से बहन की गले में अपने हाथ डाल धीरे से गुनगुनाया, ‘‘फूलों का तारों का…सब कहना है…एक हजारों में… मेरी बहना है…’’

दृश्य देख कर मां मुसकराई. पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. रजनी को अपने प्रश्न का जवाब मिल गया था.

‘‘भाई, यदि आप मु झे सचमुच प्यार करते हो तो भाभी को तलाक दे दो,’’ रजनी ने भाई के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा. उस की आंखें  झर रही थीं.

बहन की बात सुनते ही भावेश को सांप सूंघ गया. उस ने रजनी का मुंह अपने हाथों में ले लिया, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? जरा सी बात पर इतना बड़ा फैसला? तलाक का मतलब जानती हो न? एक बार फिर से सोच कर देखो. मेरे खयाल से प्रथा की गलती इतनी बड़ी तो नहीं है जितनी बड़ी तुम सजा तय कर रही हो,’’ भावेश ने रजनी को सम झाने की कोशिश की. फिर अपनी बात के समर्थन में उस ने मांपापा की तरफ देखा, लेकिन मां ने अनसुना कर दिया और पापा तो पहले से ही अखबार में घुसे हुए थे. भावेश निराश हो गया.

‘‘जरा सी बात? क्या बहन के स्वाभिमान पर चोट भाई के लिए जरा सी बात हो सकती है? हम बहनें इसी दिन के लिए राखियां बांधती हैं क्या?’’ रजनी ने गुस्से से कहा.

‘‘रजनी ठीक ही कहती है. वो 2 साल की ब्याही लड़की तुम्हें अपनी सगी बहन से ज्यादा प्यारी हो गई? आज उस ने रजनी से माफी मांगने से मना किया है कल को सासससुर की इज्जत को भी फूंक मार देगी,’’ बहनभाई की बहस को नतीजे पर पहुंचाने की मंशा से मां बोली.

‘‘मनरेगा में बरसात से पहले ही नदीनालों पर बांध बनवाए जा रहे हैं ताकि तबाही होने से रोकी जा सके. सरकार का यह फैसला प्रशंसनीय है,’’ पापा ने अखबार की खबर पढ़ कर सुनाई.

भावेश सम झ गया कि इन का पलड़ा भी बेटी की तरफ ही  झुका हुआ है.

कहां तो भावेश सोच रहा था कि इस बार बहन के प्यार को रिश्तों के पलड़े पर रख कर मकान पर उस के हिस्से वाले आधे भाग को भी अपने नाम करवा लेगा, लेकिन यहां तो खुद उस का प्यार ही पलडे़ पर रखा जा रहा है. प्रथा का थप्पड़ उस के मंसूबों की लिखावट पर पानी फेर रहा है. उस ने वैभव ने प्रथा को शीशे में उतारना तय कर लिया. वह इस जरा सी बात के लिए अपना इतना बड़ा नुकसान नहीं कर सकता. फिर वैसे भी यदि वह नुकसान में होगा तो प्रथा भी कहां फायदे में रहेगी.

रजनी दिनभर अपने कमरे में पड़ी रही. सब ने

कोशिश कर देख ली, लेकिन वह तो प्रथा को तलाक देने की बात पर अड़ ही गई. हालांकि सब को उस की यह जिद बचकानी ही लग रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भय भी सिर उठा रहा था कि इस बार की जीत कहीं प्रथा के सिर पर सींग न उगा दे. कहीं ऐसा न हो कि वह छोटेबड़े का लिहाज ही बिसरा दे…  झाडि़यों को बेतरतीब होने से पहले ही कतर देना ठीक रहता है. इसलिए प्रथा को एक सबक सिखाने के पक्ष में तो सभी थे.

‘‘प्रथा, सुनो न,’’ रात को सोने से पहले भावेश ने स्वर पर चाशनी चढ़ाई. प्रथा ने सिर्फ आंखों से पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘रजनी को सौरी बोल भी दो न. उस का बालहठ सम झ कर. जरा सोचो. यदि यह बात उस की ससुराल चली गई तो वे लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे खासकर तुम्हारे बारे में? तुम जानती हो न कि रजनी के ससुरजी तुम्हें कितना मान देते हैं,’’ भावेश ने निशाना साध कर चोट की. निशाना लगा भी सही जगह पर प्रहार अधिक दमदार न होने के कारण अपने लक्ष्य को बेध नहीं सका.

‘‘इसे बालहठ नहीं इसे तिरिया हठ कहते हैं.’’ प्रथा ने ननद पर व्यंग्य कसते हुए पति के कमजोर ज्ञान पर तीर चला दिया.

भावेश को पत्नी की यह बात खली तो बहुत, लेकिन मौके की नजाकत को भांपते हुए उस ने इसे खुशीखुशी सह लिया.

‘‘अरे हां, तुम तो साहित्य में मास्टर्स हो. वह कहावत सुनी ही होगी कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है. सम झ लो कि आज अपनी जरूरत है और हमें रजनी को मनाना है,’’ भावेश ने आवेश में प्रथा के हाथ पकड़ लिए.

कहावत के अनुसार उस में रजनी के पात्र की कल्पना कर के अनायास प्रथा के चेहरे पर मुसकान आ गई. भावेश को लगा मानो अब उस के प्रयास सही दिशा में जा रहे हैं. उस ने प्रथा को सारी बात बताते हुए उसे अपनी योजना में शामिल कर लिया.

रूठे हुए पतिपत्नी के मिलन के बीच एक प्यारभरी मनुहार की ही तो दूरी होती है. अभिसार के एक इसरार के साथ ही यह दूरी खत्म हो गई. शक्कर के दूध में घुलते ही उस की मिठास कई गुणा बढ़ जाती है.

अगली सुबह प्रथा को सब को गुनगुनाते हुए चाय बनाते देखा तो इस परिवर्तन पर किसी को यकीन नहीं हुआ. भावेश अवश्य राजभरी पुलक के साथ मेज पर हाथों से तबला बजा रहा था. मांपापा उठ कर कमरे से बाहर आ चुके थे. रजनी अभी भी भीतर ही थी. प्रथा ने 3 कप चाय बाहर रखे और 2 कप ले कर रजनी को उठाने चल दी. मांपापा की आंखें लगातार उस का पीछा कर रही थीं.

‘‘आई एम सौरी रजनी. मु झे इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. प्लीज, मु झे माफ कर दो,’’ प्रथा ने बिस्तर में गुमसुम बैठी ननद के पास बैठते हुए कहा.

रजनी को सुबहसुबह इस माफीनामे की उम्मीद नहीं थी. वह अचकचा गई.

‘‘कल तक मैं इसे जरा सी बात ही सम झ रही थी औैर तुम्हारी जिद को तुम्हारा बचपना, लेकिन कल रात जब से मैं ने ‘थप्पड़’, मूवी देखी है तब से तुम्हारे दर्द को बहुत नजदीक से महसूस कर पा रही हूं. मैं इस बात से शर्मिंदा हूं कि एक स्त्री हो कर मैं तुम्हारे स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर पाई. मैं सचमुच तुम से माफी मांगती हूं… दिल से.’’

रजनी ने देखा प्रथा की पलकें सचमुच नम थी. उस ने एक पल सोचा और फिर भाभी के गले में बाहें डाल दीं.

भावेश खुश था कि वह अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने में कामयाब हुआ. मांपापा खुश थे,

क्योंकि बेटी भी खुश थी और रजनी भी, क्योंकि एक स्त्री ने दूसरी स्त्री के स्वाभिमान को पोषित किया था.

Raksha Bandhan 2024 : समय चक्र- अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रहे थे बिल्लू भैया?

शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…य-पि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी? जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते.

कभी सोचा भी न था कि ‘अपने घर’ और ‘अपनों’ से इतने वर्षों बाद मिलना होगा. ऐसा नहीं था कि घर की याद नहीं आती थी, कैसे न आती? बचपन की यादों से अपना दामन कौन छुड़ा पाया है? परंतु परिस्थितियां ही तो हैं, जो ऐसा करने पर मजबूर करती हैं कि हम उस बेहतरीन समय को भुलाने में ही सुकून महसूस करते हैं. अगर बिल्लू भैया का पत्र न आया होता तो मैं शायद ही कभी शिमला आने के लिए अपने कदम बढ़ाती.

4 दिन पहले मेरी ओर एक पत्र बढ़ाते हुए मेरे पति ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिल्लू भैया इतने भावुक व कमजोर दिल के कैसे हो गए? मैं ने तो इन के बारे में कुछ और ही सुना था…’’

पत्र में लिखी पंक्तियां पढ़ते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए, गला भर आया. लिखा था, ‘छोटी, तुम लोग कैसे हो? मौका लगे तो इधर आने का प्रोग्राम बनाना, बड़ा अकेलापन लगता है…पूरा घर सन्नाटे में डूबा रहता है, तेरी भाभी भी मायूस दिखती है, टकटकी लगा कर राह निहारती रहती है कि क्या पता कहीं से कोई आ जाए…’

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे आज बिल्लू भैया जैसा इनसान एक निरीह प्राणी की तरह आने का निमंत्रण दे रहा है और वह भी ‘अकेलेपन’ का वास्ता दे कर. यादों पर जमी परत पिघलनी शुरू हुई. वह भी बिल्लू भैया के प्रयास से क्योंकि यदि देखा जाए तो यह परत भी उन्हीं के कारण जमानी पड़ी थी.

बचपन में बिल्लू भैया जाड़ों के दिनों में अकसर पानी पर जमी पाले की परत पर हाकी मार कर पानी निकालते और हम सब ठंड की परवा किए बिना ही उस पानी को एकदूसरे पर उछालने का ‘खेल’ खेलते.

एक बार बिल्लू भैया, बड़े गर्व से हम को अपनी उपलब्धि बता ही रहे थे कि अचानक उन से बड़े कन्नू भैया ने उन का कान जोर से उमेठ कर डांट लगाई…

‘अच्छा, तो ये तू है, जो मेरी हाकी का सत्यानाश कर रहा है…मैं भी कहूं कि रोज मैच खेल कर मैं अपनी हाकी साफ कर के रखता हूं और वह फिर इतनी गंदी कैसे हो जाती है.’

और बिल्लू भैया भी अपमान व दर्द चुपचाप सह कर, बिना आंसू बहाए कन्नू भैया को घूरते रहे पर ‘सौरी’ नहीं कहा. बचपन से ही वे रोना या अपना दर्द दूसरे से कहना अच्छा नहीं समझते थे, कभीकभी तो वे नाटकीय अंदाज में कहते थे, ‘आई हेट टियर्स…’

दूसरों से निवेदन करना जो इनसान अपनी हेठी समझता हो आज वह इस तरह…इस स्थिति में.

कितना अच्छा समय था. जब हम छोटे थे और एकता के धागे से बंधा कुल मिला कर लगभग 20 सदस्यों का हमारा संयुक्त परिवार था, जिस में दादी, एक विधवा व निसंतान चचेरी बूआ, हमारे पिता, उन से बड़े 3 भाई, सब के परिवार, हम 10 भाईबहन जोकि अपनीअपनी उम्र के भाईबहनों के साथ दोस्त की तरह रहते थे. सगे या चचेरे का कोई भाव नहीं, ताऊजी की दुकान थी…जहां पर ग्राहक को सामान से ज्यादा ताऊजी की ईमानदारी पर विश्वास था.

मेरे पिता, ताऊजी के साथ दुकान पर काम करते थे और उन के अन्य 2 भाइयों में से एक स्थानीय डिगरी कालेज में तथा एक आयकर विभाग में क्लर्क के पद पर थे जोकि निसंतान थे. कन्नू व बिल्लू भैया ताऊजी के बेटे थे. उस के बाद नन्हू व सोनू भैया थे. हम 3 बहनें, 1 भाई थे. अध्यापन का कार्य करने वाले ताऊजी के 2 बच्चे अभी छोटे थे क्योंकि वे उन की शादी के लगभग 10 साल बाद हुए थे. आयकर विभाग वाले ताऊजी निसंतान थे.

समय के साथ घर में परिवर्तन आने शुरू हुए, दादी व बूआ की मौत एक के बाद एक कर हो गई. घर के लड़के शहर छोड़ कर बाहर जाने लगे. कोई डाक्टरी की पढ़ाई के लिए, तो कोई नौकरी के लिए. मेरी भी बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी. बिल्लू भैया की भी नागपुर में एक दवा की कंपनी में नौकरी लग गई, जब वे भी चले गए तब अचानक एक दिन ताऊजी पापा से बोले, ‘छोटे, अच्छा हुआ कि सभी अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, मैं चाहता भी नहीं था कि आने वाले समय में नई पीढ़ी यहां बसे. हम ने तो निभा लिया पर ये बच्चे हमारी तरह साथ नहीं रह सकते. बड़ी मुश्किल से परिवार जुड़ता है और उस में किसी एक का योगदान नहीं होता बल्कि सभी का धैर्य, निस्वार्थ त्याग, स्नेह व समर्पण मिला कर ही एकतारूपी मजबूत धागे की डोर सब को जोड़ पाती है, वर्षों लग जाते हैं…यह सब होने में.’

वैसे तो दूसरे लोग भी घर से गए थे पर ताऊजी ने यह बात बिल्लू भैया के जाने के बाद ही क्यों कही? यह विचार मेरे मन में कौंधा और उस का उत्तर मुझे मात्र 6 महीने बाद ही मिल गया. वह भी एक तीव्र प्रहार के रूप में. ऐसी चोट मिली कि आज तक उस की कसक अंदर तक पीड़ा पहुंचा देती है.

बात यह हुई कि मात्र 6 महीने बाद ही बिल्लू भैया नौकरी छोड़ कर घर वापस आ गए.

‘मैं भी दुकान संभाल लूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि बुढ़ापे में आप लोग अकेले रह जाएंगे, आप लोगों की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए,’ कहते हुए जब बिल्लू भैया ने अपना सामान अंदर रखना शुरू किया तो घर के सभी सदस्य बहुत खुश हुए किंतु ताऊजी अपने चेहरे पर निर्लिप्त भाव लिए अपना कार्य करते रहे.

मुझे जीवन की कड़वी सचाइयों का इतना अनुभव न था अन्यथा मैं भी समझ जाती कि यह चेहरा केवल निर्लिप्तता लिए हुए नहीं है बल्कि इस के पीछे आने वाले तूफान के कदमों की आहट पहचानने की चिंता व्याप्त है और यही सत्य था. तूफान ही तो था, जिस का प्रभाव आज तक महसूस होता रहा. धमाका उस दिन महसूस हुआ जब मैं अलसाई सी अपने बिस्तर पर आंखें मूंदे पड़ी थी कि एक तेज आवाज मेरे कानों में पड़ी :

‘चाचाजी, कभीकभी मुझे लगता है कि आप अपने फायदे के लिए हमारे पिताजी के साथ रह रहे हैं. आप को अपनी बेटियों की शादी के लिए पैसा चाहिए न इसीलिए…’ यह क्या, मैं ने आंखें खोल कर देखा तो अपने पापा के सामने बिल्लू भैया को खड़ा देखा…

‘यह क्या कह रहे हो? हमारे बीच में ऐसी भावना होती तो हम इतने वर्षों तक कभी साथ न रह पाते. संयुक्त परिवार है हमारा, जहां हमारेतुम्हारे की कोई जगह नहीं. इतनी छोटी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’ पापा लगभग चिल्लाते हुए बोले.

पापा की एक आवाज पर थर्राने वाले बिल्लू भैया की आज इतनी हिम्मत हो गई कि उम्र का लिहाज ही भूल गए थे. मैं सिहर कर चुपचाप पड़ी सोने का नाटक करने लगी पर ताऊजी के उस वाक्य का अर्थ मेरी समझ में आ गया था. नई पीढ़ी का रंग सामने आ रहा था. पिता होने के नाते वे अपने बेटे की नीयत जानते थे और अपने संयुक्त परिवार को हृदय से प्यार करने वाले ताऊजी इस की एकता को हर खतरे से बचाना चाहते थे.

हतप्रभ से मेरे पापा ने जब यह बात मेरे ताऊजी से कही तो वे केवल एक ही वाक्य बोल पाए, ‘शतरंज की बाजी में, दूसरे के मजबूत मोहरे पर ही सब से पहले वार किया जाता है. वही हो रहा है. तुम मुझ पर विश्वास रखोगे तो कुछ नहीं बिगड़ेगा.’

कही हुई बात इतनी कड़वी थी कि उस की कड़वाहट धीरेधीरे घर के वातावरण में घुलने लगी…उस का प्रभाव धीरेधीरे अन्य लोगों पर भी दिखने लगा और एक अदृश्य सी सीमारेखा में सभी परिवार सिमटने लगे. एक ताऊजी कालेज के वार्डन बन कर वहीं होस्टल में बने सरकारी घर में चले गए. दूसरे भी मन की शांति के लिए घर के पीछे बने 2 कमरों में रहने लगे. अपमान से बचने के लिए उन्होंने रसोई भी अलग कर ली. अलगाव की सीमारेखा को मिटाने वाले सशक्त हाथ भी उम्र के साथ धीरेधीरे अशक्त होते चले गए. ताऊजी को लकवा मार गया और पापा भी अपने सबल सहारे को कमजोर पा कर परिस्थितियों के आगे झुकने को मजबूर हो गए, परंतु अंत समय तक उन्होंने ताऊजी का साथ न छोड़ा.

अब घर बिल्लू भैया व उन की पत्नी के इशारे पर चलने लगा, समय आने पर मेरी भी शादी हो गई और मैं शिमला के अपने इस प्यारे से घर को भूल ही गई. ताऊजी, ताईजी, पापा का इंतकाल हो गया. मां मेरे भाई के पास आ गईं. अब मेरे लिए उस घर में बचपन की यादों के सिवा कुछ न था.

समय का चक्र अविरल गति से घूम रहा था…और आज बिल्लू भैया भी उम्र के उसी पड़ाव पर खड़े थे, जिस पड़ाव पर कभी मेरे पापा अपमानित हुए थे, पर उन्होंने ऐसा पत्र क्यों लिखा? क्या कारण होगा?

अचानक कानों में पति के स्वर पड़े तो मेरी तंद्रा भंग हुई थी.

‘‘तुम शिमला क्यों नहीं चली जातीं, तुम्हारा घूमना भी हो जाएगा और उन का अकेलापन भी दूर होगा…चाहे थोड़े दिनों के लिए ही सही,’’ अचानक अपने पति की बातें सुन कर मैं ने सोचा कि मुझे जाना चाहिए…और मैं तैयारी करने लग गई थी.शिमला पहुंचते ही, मैं अपनी थकान भूल गई. तेज चाल से अपने मायके की ओर बढ़ते हुए मुझे याद ही नहीं रहा कि दिल्ली में रोज मुझे अपने घुटनों के दर्द की दवा खानी पड़ती है. कौलबेल पर हाथ रखते ही, बिल्लू भैया की आवाज सुनाई पड़ी, मानो वे मेरे आने के इंतजार में दरवाजे के पीछे ही खड़े थे…

‘‘छोटी, तू आ गई…बहुत अच्छा किया.’’ मुझे ऐसा लगा मानो ताऊजी सामने खड़े हों. ‘‘तेरी भाभी तो तेरे लिए पकवान बनाने में व्यस्त है…’’ तब तक भाभीजी भी डगमग चाल से चल कर मुझ से लिपट गईं. सच कहूं तो उन के प्यार में आज भी वह आकर्षण नहीं था, जो किसी ‘अपने’ में होता है. आज हम सब को अपने पास बुलाना उन की मजबूरी थी. अकेलेपन के अंधेरे से बाहर निकलने का एक प्रयास मात्र था…उस में अपनापन कहां से आएगा.

‘‘चलचल, अंदर चल,’’ बिल्लू भैया मेरा सामान अंदर रखने लगे, घर में घुसते ही मेरी आंखें भर आईं. यों तो चारों ओर सुंदरसुंदर फर्नीचर व सामान सजा हुआ था. पर सबकुछ निर्जीव सा लगा. काश, बिल्लू भैया व भाभीजी समझ पाते कि रौनक इनसानों से होती है, कीमती सामान से नहीं.

घर से हमारे बचपन की यादें मिट चुकी थीं. आज मां के हाथ के बने आलू की खुशबू, मात्र कल्पना में महसूस हो रही थी. मकान की शक्ल बदल चुकी थी… दुकान से मिसरी, गुड़, किशमिश गायब थी. बिल्लू भैया भी तो वे बिल्लू भैया कहां थे?

‘‘कितना बदल गया सबकुछ…’’ मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया.

‘‘सच कहती है तू…वाकई सब बदल गया, देख न, तनय, जिसे बच्चे की तरह गोद में खिलाया था…आज मुझ से कितनी ऊंची आवाज में बात करने लगा,’’ बिल्लू भैया के मन का गुबार मौका मिलते ही बाहर आ गया.

‘‘तनय, कन्नु भैया का बेटा… क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कहता है, मैं जायदाद पर अपना अधिकार जमाने के लिए, नौकरी छोड़ कर यहां आया था,’’ बता भला, मैं ऐसा क्यों करने लगा. जानता है न कि मैं कमजोर हो गया हूं तो जो चाहे कह जाता है, अपना हिस्सा मांग रहा है… कौन सा हिस्सा दूं और लोग भी तो हैं,’’ कहतेकहते बिल्लू भैया हांफने लगे, ‘‘बंटवारे का चक्कर होगा तो मैं और तेरी भाभी कहां जाएंगे.’’

विनी (भैया की बेटी) भी अमेरिका में बस गई थी. असुरक्षा व भय का भाव भैया की आवाज में साफ झलक रहा था.

मेरे कदम जम गए… कानों में दोनों आवाजें गूजने लगीं… एक जो मेरे पापा से कही गई थी और दूसरी आज ये बिल्लू भैया की. कितनी समानता है. न्याय मिलने में सालों तो लगे पर मिला. शायद इसीलिए परिस्थितियों ने बिल्लू भैया से मुझे ही चिट्ठी लिखवाई, क्योंकि उस दिन अपने पापा को मिलने वाली प्रत्यक्ष पीड़ा की प्रत्यक्षदर्शी गवाह मैं ही थी. इसीलिए आज न्याय प्राप्त होने की शांति भी मैं ही महसूस कर सकती थी.

आंखें बंद कर मन ही मन मैं ने ऊपर वाले को धन्यवाद दिया. आज बिल्लू भैया को इस स्थिति में देख कर मुझे अपार दुख हो रहा था… बचपन के सखा थे वे हमारे.

‘‘भैया, हम आप के साथ हैं. हमारे होते हुए आप अकेले नहीं हैं. मैं वादा करती हूं कि तीजत्योहारों पर और इस के अलावा भी जब मौका लगेगा हम एकदूसरे से मिलते रहेंगे,’’ मैं ने अपनी आवाज को सामान्य करते हुए कहा क्योंकि मैं किसी भी हालत में अपने हृदय के भाव भैया पर जाहिर नहीं करना चाहती थी. मेरे इतने ही शब्दों ने भैया को राहत सी दे दी थी…उन के चेहरे से अब तनाव की रेखाएं कम होने लगी थीं.

आखिर मेरे चलने का दिन आ गया. पूरे घर का चक्कर लगा कर एक बार फिर अपने मन की उदासी को दूर करने का प्रयास किया पर प्रयास व्यर्थ ही गया. बस स्टैंड पर भैया की आंखों में आंसू देख कर मेरे सब्र का बांध टूट गया क्योंकि ये आंसू सचाई लिए हुए थे. पश्चात्ताप था उन में, पर अब खाइयां इतनी गहरी थीं कि उन को पाटने में वर्षों लग जाते… ताऊजी की सहेजी गई अमानत अब पहले जैसा रूप कैसे ले सकती थी.

बस चल पड़ी और भैया भी लौट गए. मन में एक टीस सी उठी कि काश, यदि बिल्लू भैया जैसे लोग कोई भी ‘दांव’ लगाने से पहले समय के चक्र की अविरल गति का एहसास कर लें तो वे कभी भी ऐसे दांव लगाने की हिम्मत न करें…

यह अटल सत्य है कि यही चक्र एक दिन उन्हें भी उसी स्थिति पर खड़ा करेगा जिस पर उन्होंने दूसरे व्यक्ति को कमजोर समझ कर खड़ा किया है. इस तथ्य को भुलाने वाले बिल्लू भैया आज दोहरी पीड़ा झेल रहे थे…निजी व पश्चात्ताप की.

Raksha Bandhan 2024 – क्या खोया क्या पाया : क्या वापस पा सकी संध्या

इस बार जब मैं मायके गई तब अजीब सा सुखद एहसास हुआ मुझे. मेरे बीमार पिता के पास मेरी इकलौती मौसी बैठी थीं. वह मुझे देख कर खुश हुईं और मैं उन्हें देख कर हैरान.

यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले 18 साल से हमारा उन से अबोला चल रहा था. किन्हीं कारणों से कुछ अहं खड़े कर लिए थे हमारे परिवार वालों ने और चुप होतेहोते बस चुप ही हो गए थे.

जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, हम ने अकेले रह कर भोगे थे. उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे. मौसा की मौत का समाचार मिला तो मैं आई थी. पराए लोगों की तरह बैठी रही थी, सांत्वना के दो शब्द मेरे मुंह से भी नहीं निकले थे और मौसी ने भी मेरे साथ कोई बात नहीं की थी.

मौसी से मुझे बहुत प्यार था. अपनी मां से ज्यादा प्रिय थीं मौसी मुझे. पता नहीं स्नेह के तार क्यों और कैसे टूट गए थे जिन्हें जोड़ने का प्रयास यदि एक ने किया तब दूसरे ने स्वीकार नहीं किया था और यदि दूसरे ने किया तो पहले की प्रतिक्रिया ठंडी रही थी.

‘‘कैसी हो, संध्या? बच्चे साथ नहीं आए?’’ मौसी के स्वर में मिठास थी और बालों में सफेदी. 18 सालों में कितनी बदल गई थीं मौसी. सफेद साड़ी और उन का सूना माथा मेरे मन को चुभा था.

‘‘दिनेशजी साथ नहीं आए, अकेली आई हो?’’ मेरे पति के बारे में पूछा था मौसी ने. लगातार एक के बाद एक सवाल करती जा रही थीं मौसी. मेरी आवाज नहीं निकल रही थी. हलक  में 18 साल के वियोग का गोला जो अटक गया था. एकाएक मौसी से लिपट कर मैं चीखचीख कर रो पड़ी थी.

‘‘पगली, रोते नहीं. देख, चुप हो जा संध्या,’’ इस तरह बड़े स्नेह से मौसी दुलारती रही थीं मुझे.

कितने ही अधिकार, जो कभी मुझे मौसी और मौसी के परिवार पर थे, अपना सिर उठाने लगे थे, मानो पूछना चाह रहे हों कि क्यों उचित समय पर हमारा सम्मान नहीं किया गया पर यह भी तो एक कड़वा सच है न कि प्यार तथा अधिकार कोई वस्तु नहीं हैं जिन्हें हाथ बढ़ा कर किसी के हाथ से छीन लिया जाए. यह तो एक सहज भावना है जिसे बस महसूस किया जा सकता है.

‘‘बच्चे साथ नहीं आए, किस के पास छोड़ आई है उन्हें?’’ मौसी के इस प्रश्न पर मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

‘‘वे अब मेरी उंगली पकड़ कर नहीं चलते, मौसी. होस्टल में रह कर पढ़ते हैं.’’

‘‘अच्छा, इतने बड़े हो गए.’’

‘‘आप  भी तो बूढ़ी हो गईं, और मेरे भी बाल देखो, अब सफेद हो रहे हैं.’’

‘‘हां,’’ कह कर मेरा गाल थपक दिया मौसी ने.

‘‘जीवन ही बीत गया अब तो…चल, आ, बैठ…मैं तेरे लिए चायनाश्ता लाती हूं. दीदी दवा लेने बाजार गई हैं.’’

‘‘छोटी भाभी कहां हैं?’’ मैं ने आगेपीछे नजरें दौड़ाई थीं.

‘‘आज उस के मायके में कोई फंक्शन था, इसलिए वह वहां गई है. घर में अकेले थे सो मैं भी चली आई. चल, हाथमुंह धो ले…मैं देखती हूं, क्या है फ्रिज में,’’ यह कह कर मौसी चली गईं.

5-7 मिनट में ही मौसी मेरे लिए चाय और नाश्ता ले कर आईर्ं.

‘‘ले, डबलरोटी के पकौड़े तुझे बहुत पसंद हैं न, मुझे याद है…साथ है यह मीठी डबलरोटी…यह भी तेरी पसंद की ही है.’’

मौसी का उत्साह वही वर्षों पुराने वाला ही था, यह देख कर आंखें भर आई थीं मेरी. मुसकरा पड़ी थी मैं.

‘‘बहुएं कैसी हैं, मौसी?’’ खातेखाते मैं ने पूछा था, ‘‘अब तो आप दादी भी बन गई हैं. कैसा लगता है दादी बनना?’’

‘‘अरे, आज की दादी बनी हूं मैं… 10 साल की पोती है मेरी. अब तो वह 5वीं में पढ़ती है. पोता भी 8 साल का है. नरेश की बेटी भी इस साल स्कूल जाएगी.’’

‘‘नरेश की भी बेटी है?’’ मैं आश्चर्य से बोली, ‘‘वह जरा सा था जब देखा था उसे.’’

‘‘हां, कल आना घर पर, देख लेना सब को. तुझे बहुत याद करते हैं लड़के. राखी पर सब का मन दुखी हो जाता है. तेरे बाद कभी किसी से उन लोगों ने राखी नहीं बंधवाई.’’

खातेखाते कौर मेरे गले में ही अटक गया. मुझे याद है, 18 साल पहले जब मैं मौसी के घर उन के बेटों को राखी बांधने गई थी तब मौसा ने कितना अनाप- शनाप कहा था.

आपसी संबंधोें की कटुता उस के मुंह पर इस तरह दे मारी थी मानो भविष्य में कभी उस की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कैसी विडंबना है न हमारे जीवन की. जब हम जवान होते हैं, हाथों में ताकत होती है तब कभी नहीं सोचते कि धीरेधीरे यह शक्ति घटनी है. हमें भी किसी पर एक दिन आश्रित होना पड़ सकता है. अपने स्वाभिमान को हम इतनी ऊंचाई पर ले जाते हैं कि वह अभिमान बन कर सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने लगता है. अपनी सीमा समाप्त हो कर कब दूसरे की सीमा शुरू हो गई पता ही नहीं चलता.

राखी बांधना छोड़ दिया था तब मैं ने. उस के बाद मौसी की दहलीज ही नहीं लांघी थी. आज मौसी उसी के बारे में बात कर रही थीं. पूछना चाहा था मैं ने कि अगर मैं राखी बांधने नहीं आई तो तीनों लड़कों में से कोई भी राखी बंधवाने क्यों नहीं आया था? क्यों नहीं किसी ने उस से मिलना चाहा? मैं तो सदा दोनों बहनों में पुल का ही काम करती रही थी. पर एक दिन जब मैं पुल की ही भांति दोनों तरफ से प्रताडि़त होने लगी तब मैं ने बीच में से हट जाना ही ठीक समझा था.

‘‘मौसी, आप भी चाय लें न,’’ मैं ने उन की बात को उड़ा देना ही ठीक समझा था.

‘‘अभी तेरे आने से पहले मैं ने और जीजाजी ने चाय पी थी.’’

मौसी मेरे पिता की पीठ सहला रही थीं. 2 बूढ़ों में एक की सेवा दूसरा कर रहा था. देखने में अच्छा भी लग रहा था और विचित्र भी.

‘‘आप का जूस ले आऊं न अब…6 बज गए हैं,’’ मौसी ने पूछा और साथ ही जा कर जूस ले भी आईं.

पिताजी जूस पी ही रहे थे कि अम्मां भी आ गईं. वह मुझे देख कर खुश थीं और मैं दोनों बहनों को साथसाथ देख कर.

शाम गहरी हुई तो मौसी अपने घर चली गईं. दूसरी शाम आईं तो मेरे लिए पूरा दिन अपने साथ बिताने का न्योता था उन के होंठों पर.

‘‘भाभियों से नहीं मिलेगी क्या? सब तुझे देखना चाहती हैं…कल सुबह नरेश तुझे लेने आ जाएगा.’’

मौन स्वीकृति थी मेरे होंठों पर.

सुबह नरेश लेने चला आया. सुंदर, सजीला निकला था नरेश. इस से पहले जब देखा था तब बीमार रहने वाला, कमजोर सा लड़का था वह.

‘‘चरण स्पर्श, दीदी, पहचाना कि नहीं. मैं हूं तुम्हारा सींकिया पहलवान… नरेश…याद आया कि नहीं.’’

याद आया, अकसर सब उसे सींकिया पहलवान कह कर चिढ़ाते थे. वह सब को मारने दौड़ता था, सिवा मेरे.

आज भी उसे मेरा संबोधन याद था. आत्मग्लानि होने लगी मुझे. मैं सोचने लगी कि कैसी बहन हूं, यही सुंदर सा प्यारा सा युवक आज यदि मुझे कहीं बाजार में मिल जाता तो शायद मैं पहचान भी न पाती.

‘‘जीते रहो,’’ सस्नेह मैं ने उस का सिर थपथपाया था.

‘‘चलो, दीदी, वहां बड़ी बेसब्री से आप का इंतजार हो रहा है.’’

‘‘अच्छा, अम्मां, मैं चलती हूं,’’ मां से विदा ली थी मैं ने.

मौसी के घर मेरा भरपूर स्वागत हुआ था. तीनों बहुएं मेरे आगेपीछे सिमट आई थीं. बारीबारी से सभी चरण स्पर्श करने लगीं. बच्चों को मेरे पास बैठाया और कहा, ‘‘यह बूआ हैं, बेटे. इन्हें नमस्ते करो.’’

कितने चेहरे थे जो मेरे अपने थे, मगर मुझ से अनजान थे. जिन से आज तक मैं भी अनजान थी. बीते 18 सालों में कितना कुछ बीत गया, कितना कुछ ऐसा बीत गया जिसे साथसाथ रह कर भी भोगा जा  सकता था, साथसाथ रह कर भी जिया जा सकता था.

पूरा दिन एक उत्सव सा बीत गया. बीते 18 साल मानो किसी कोने में सिमट गए हों, मानो वह बनवास, वह एकदूसरे से अलग रहने की पीड़ा कभी सही ही नहीं थी.

कड़वे पल न उन्होंने याद दिलाए न मैं ने, मगर आपस की बातों से मैं यह सहज ही जान गई थी कि मुझे वह भूले कभी भी नहीं थे. बारबार मेरे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था, जब दोनों तरफ प्यार बराबर था तो क्यों झूठे अहं खड़े किए थे दोनों परिवारों ने? क्यों अपनेअपने अहंकार संबंधों के बीच ले आए थे? समझ में नहीं आ रहा था, आखिर क्या पाया था हम दोनों परिवार वालों ने इतना सुख, इतना प्यार खो कर?

शाम के समय नरेश मुझे वापस घर छोड़ गया. रात में अम्मां और पिताजी मुझ से पूरा हालचाल सुनते रहे. 18 वर्षों के बाद मौसी के घर जो गई थी मैं.

‘‘कैसे लगे सब लोग…बहुएं… बच्चे?’’

‘‘बहुत अच्छे लगे. मेरे आगेपीछे ही पूरा परिवार डोलता रहा. बच्चे बूआबूआ करते रहे और भाभियां दीदीदीदी. लगा ही नहीं, कभी हम अजनबी भी रह चुके हैं,’’ एक पल रुकने के बाद मैं फिर बोली, ‘‘अम्मां, एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि अचानक यह सब पुन: जुड़ कैसे गया?’’

‘‘ऐसा ही तो होता है…और यही जीवन है,’’ हंस कर बोले थे पिताजी, ‘‘जब इनसान जवान होता है तब भविष्य की बंद मुट्ठी उसे क्याक्या सपने दिखाती रहती है, तुम खुद भी महसूस करती होगी. भविष्य क्या है उस से अनजान हम तनमन से जुटे रहते हैं, बच्चों की लिखाईपढ़ाई है, बेटी की जिम्मेदारी है, सभी कर्तव्य पूरे करने होते हैं हमें और हम सांस भी लिए बिना कभीकभी निरंतर चलते रहते हैं. हमारी आंखों के सामने बच्चों के साथसाथ अपना भी एक उज्ज्वल भविष्य होता है कि जब बूढ़े हो जाएंगे तो चैन से बैठ कर अपनी मेहनत का फल भोगेंगे, बुढ़ापे में संतान सेवा करेगी, पूरा जीवन इसी आस पर ही तो बिताया होता है न हम ने. उस पल कभीकभी अपने सगे भाईबहनों से भी हम विमुख हो जाते हैं क्योंकि तब हमें अपनी संतान ही नजर आती है…बाकी सब पराए.

‘‘कई बार तो हम अपने मांबाप के साथ भी स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने लग जाते हैं, क्योंकि उन के लिए कुछ भी करना हमें अपने बच्चों के अधिकार में कटौती करना लगता है. तब हम यह भूल जाते हैं कि हमारे मातापिता ने भी हमें इसी तरह पाला था. उन का भी चैन से बैठ कर दो रोटी खाने का समय अभी आया है. उन को छोड़ हम अपनी गृहस्थी में डूब जाते हैं और जब हम खुद बूढ़े हो जाते हैं तब पता चलता है कि हम भी अकेले रह गए हैं.

‘‘लगता है, हम तो ठगे गए हैं. मेरामेरा कर जिस बच्चे को पालते रहे वह तो मेरा था ही नहीं. वह तो अपने परिवार का है और हम उस की गृहस्थी के अवांछित सदस्य हैं, बस.’’

बोलतेबोलते थक गए थे पिताजी. कुछ रुक कर हंस पड़े वह. फिर बोले, ‘‘बेटा, ऐसा सभी के साथ होता है. जीवन की संध्या में हर इनसान अकेला ही रह जाता है. पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही होता आया है. तब थकाहारा मनुष्य अपने जीवन का लेखाजोखा करता है कि उस ने जीवन में क्या खोया और क्या पाया. भविष्य से तो तब कोई उम्मीद रहती नहीं जिस की तरफ आंख उठा कर देखे, सो अतीत की ओर ही मुड़ जाता है.

‘‘तुम्हारी मौसी भी इसीलिए अतीत को पलटी हैं. शायद भाईबहन ही अपने हों…और मजे की बात बुढ़ापे में पुराने दोस्त और पुराने संबंधी याद भी बहुत आते हैं. सब की पीड़ा एक सी होती है न इसीलिए एकदूसरे को आसानी से समझ भी जाते हैं, जबकि जवानों के पास बूढ़ों को समझने का समय ही नहीं होता.’’

‘‘आप का मतलब है संतान से हुआ  मोहभंग उन्हें भाईबहनों की ओर मोड़ देता है?’’

‘‘हां, क्योंकि तब उसे जीने को कुछ तो चाहिए न…भविष्य नहीं, वर्तमान नहीं तो अतीत ही सही.

‘‘तुम्हारी मौसी का भरापूरा परिवार है. वह सुखी हैं. फिर भी अकेलेपन का एहसास तो है न. मौसा रहे नहीं, बच्चों के पास उन के लिए समय नहीं सो एक भावनात्मक संबल तो चाहिए न उन्हें… और हमें भी.’’

पिताजी ने खुद की तरफ भी इशारा किया.

‘‘हम भी अकेले से रह गए हैं. तुम दूर हो, तुम्हारे भाई अपनेअपने जीवन में व्यस्त हैं…एक दिन सहसा तुम्हारी मौसी सामने चली आईं… तब हम हक्केबक्के रह गए, स्नेह का धागा कहीं न कहीं अभी भी हमें बांधे हुए है यह जान हमें बहुत संतोष हुआ. और बुढ़ापे में सोच भी तो परिपक्व हो जाती है न. पुरानी कड़वी बातें न वह छेड़ती हैं न हम. बस, मिलबैठ कर अच्छा समय काट लेते हैं हम सब.

‘‘अब चलाचली के समय चैन चाहिए हमें भी और तुम्हारी मौसी को भी, क्योंकि जीवन का लेखाजोखा तो हो चुका न, अब कैसा मनमुटाव?’’

सारे जीवन का सार पिताजी ने छान कर सामने परोस दिया. जवानी के जोश में भाईबहनों से विमुखता क्या जायज है? जबकि यह एक शाश्वत सत्य है कि आज के युग में संयुक्त परिवारों का चलन न रहने पर हर इनसान का बुढ़ापा एक एकाकी श्राप बनता जा रहा है, क्या यह उचित नहीं कि हम अपनी सोच को थोड़ा सा और बढ़ा कर स्नेह के धागे को बांधे रखें ताकि बुढ़ापे में एकदूसरे के सामने आने पर शरम न आए और अपनी संतान का भी उचित मार्गदर्शन कर सकें… बुढ़ापा तो उन पर भी आएगा न. बुढ़ापे में भाईबहनों में घिर उन्हें भी अच्छा लगेगा क्योंकि तब उन की संतानें भी उन्हें अकेला छोड़ अपनेअपने रास्ते निकल चुकी होंगी.

पीढि़यों का यह चलन पहली बार संध्या को बड़ी गहराई से कचोट गया. क्या वास्तव में उस के साथ भी ऐसा ही होगा? जेठजी के साथ परिवार वालों की खटपट चल रही है, जिस वजह से उन से कोई भी मिलना नहीं चाहता. उस के पति भी नहीं, बात क्या हुई कोई नहीं जानता. बस, जराजरा से अहं उठा लिए और बोलचाल बंद. कोई भी पहल करना नहीं चाहता जबकि सचाई यह है कि घर में हर पल उन्हीं की बात की जाती है.

‘‘आप को भाई साहब से मिलना चाहिए, हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं, हम भला उन के सामने कैसा उदाहरण पेश कर रहे हैं. खून के रिश्तों में अहं नहीं लाना चाहिए, वह हमारे बड़े हैं, हमारे अपने हैं. पहल हम ही कर लेते हैं, कोई छोटे नहीं हो जाएंगे हम…चलिए चलें.’’

संध्या ने घर वापस पहुंच कर सब से पहले अपने घर के टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास किया. पति एकटक उस का चेहरा ताकने लगे.

‘‘जहां तक हो सके हमें निभाना सीखना चाहिए, तोड़ने की जगह जोड़ना सिखाना चाहिए अपने बच्चों को…’’

बात को बीच में काटते हुए संध्या के पति बोले, ‘‘और सामने वाला चाहे मनमानी करता रहे.’’

‘‘फिर क्या हो गया… वह आप के बड़े भाई हैं…मैं ने कहा न, व्यर्थ अहं रख कर खून के  रिश्ते की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए.’’

संध्या ने मौसी की पूरी कहानी पति को सुना दी. चुपचाप सुनते रहे वह, जरा सा तुनके, फिर सहज होने लगे.

‘‘तुम ही पैर छूना, मैं नहीं…’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं ही छू लूंगी, वह मेरे ससुर समान जेठ हैं. आप साथ तो चलिए.’’

संध्या मनाती रही, समझाती रही. उम्मीद जाग उठी थी मन में कि पति भी मान जाएंगे. एक सीमा में रह कर रिश्तों को निभाना इतना मुश्किल नहीं, ऐसा उसे विश्वास था. मन में जरा सा संतोष जाग उठा कि हो सकता है कि जब उस का बुढ़ापा आए तो वह अकेली न हो, उस के भाई, उस के रिश्तेदार आसपास हों, एकदूसरे से जुड़े हुए. तब वह यह न सोचे कि उस ने जीवन में अपनों को अपने से काट कर क्या खोया क्या पाया.

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