Short Stories in Hindi : पुनर्विवाह – शालिनी और मानस का कैसे जुड़ा रिश्ता

Short Stories in Hindi :  मनोज के गुजर जाने के बाद शालिनी नितांत तन्हा हो गई थी. नया शहर व उस शहर के लोग उसे अजनबी मालूम होते थे. पर वह मनोज की यादों के सहारे खुद को बदलने की असफल कोशिश करती रहती. शहर की उसी कालोनी के कोने वाले मकान में मानस रहते थे. उन्होंने ही जख्मी मनोज को अस्पताल पहुंचाने के लिए ऐंबुलैंस बुलवाई थी. मनोज की देखभाल में उन्होंने पूरा सहयोग दिया था. सो, मानस से शालिनी का परिचय पहचान में बदल गया था. मानस ने अपना कर्तव्य समझते हुए शालिनी को सामान्य जीवन गुजारने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा, ‘‘शालिनीजी, आप कल से फिर मौर्निंगवाक शुरू कर दीजिए, पहले मैं ने आप को अकसर पार्क में वाक करते हुए देखा है.’’

‘‘हां, पहले मैं नित्य मौर्निंगवाक पर जाती थी. मनोज जिम जाते थे और मुझे वाक पर भेजते थे. उन के बाद अब दिल ही नहीं करता,’’ उदास शालिनी ने कहा.

‘‘मैं आप की मनोदशा समझ सकता हूं. 4 साल पहले मैं भी अपनी पत्नी खो चुका हूं. जीवनसाथी के चले जाने से जो शून्य जीवन में आ जाता है उस से मैं अनभिज्ञ नहीं हूं. किंतु सामान्य जीवन के लिए खुद को तैयार करने के सिवा अन्य विकल्प नहीं होता है.’’ दो पल बाद वे फिर बोले, ‘‘मनोजजी को गुजरे हुए 3 महीने से ज्यादा हो चुके हैं. अब वे नहीं हैं, इसलिए आप को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है. आप खुद को सामान्य दिनचर्या के लिए तैयार कीजिए.’’

मानस ने अपना तर्क रखते हुए आगे कहा, ‘‘शालिनीजी, मैं आप को उपदेश नहीं दे रहा बल्कि अपना अनुभव बताना चाहता हूं. सच कहता हूं, पत्नी के गुजर जाने के बाद ऐसा महसूस होता था जैसे जीवन समाप्त हो गया, अब दुनिया में कुछ भी नहीं है मेरे लिए, किंतु ऐसा होता नहीं है. और ऐसा सोचना भी उचित नहीं है. किंतु मृत्यु तो साथ संभव नहीं है. जिस के हिस्से में जितनी सांसें हैं, वह उतना जी कर चला जाता है. जो रह जाता है उसे खुद को संभालना होता है. मैं ने उस विकट स्थिति में खुद को व्यस्त रखने के लिए मौर्निंगवाक शुरू की, फिर एक कोचिंग इंस्टिट्यूट जौइन कर लिया. रिटायर्ड प्रोफैसर हूं, सो पढ़ाने में दिल लगता ही है. इस के बाद भी काफी समय रहता है, उस में व्यस्त रहने के लिए घर पर ही कमजोर वर्ग के बच्चों को फ्री में ट्यूशन देता हूं तथा हफ्ते में 2 दिन सेवार्थ के लिए एक अनाथाश्रम में समय देता हूं. इस तरह के कार्यों से अत्यधिक आत्मसंतुष्टि तो मिलती ही है, साथ ही समय को फ्रूटफुल व्यतीत करने का संतोष भी प्राप्त होता है. आप से आग्रह करना चाहता हूं कि आप इन कार्यों में मुझे सहयोग दें.

‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं. कल सुबह कौलबैल दूंगा, निकल आइएगा, मौर्निंगवाक पर साथ चलेंगे, शुरुआत ऐसे ही कीजिए.’’

अन्य विकल्प न होने के कारण शालिनी ने सहमति में सिर हिला दिया. सच में मौर्निंगवाक की शुरुआत से वह एक ताजगी सी महसूस करने लगी. उस ने मानस के साथ कमजोर वर्ग के बच्चों को पढ़ाना व अनाथालय में समय देना भी प्रारंभ कर दिया. इन सब से उसे अद्भुत आत्मसंतुष्टि का अनुभव होता. दो दिनों से मानस मौर्निंगवाक के लिए नहीं आए. शालिनी असमंजस में पड़ गई, शायद मानस ने सोचा हो कि शुरुआत करवा दी, अब उसे खुद ही करना चाहिए. शालिनी पार्क तक चली गई. किंतु उसे  मानस वहां भी दिखाई नहीं दिए. जब तीसरे दिन भी वे नहीं आए तब उसे भय सा लगने लगा कि कहीं एक विधवा और एक विधुर के साथ का किसी ने उपहास बना, मानस को आहत तो नहीं कर दिया, कहीं उन के साथ कुछ अप्रिय तो घटित नहीं हो गया, ऐक्सिडैंट…? नहींनहीं, वे ठीक हैं, उन के साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ है. इन्हीं उलझनों में उस के कदम मानस के घर की ओर बढ़ चले. दरवाजे पर ताला पड़ा था. दो पल संकोचवश ठिठक गई, फिर वह उन के पड़ोसी अमरनाथ के घर पहुंच गई. अमरनाथ और उन की पत्नी ने उस का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आइए, शालिनीजी, कैसी हैं? हम लोग आप के पास आने की सोच रहे थे किंतु व्यस्तता के कारण समय न निकाल पाए.’’

शालिनी ने उन्हें धन्यवाद देते हुए पूछा, ‘‘आप के पड़ोसी मानसजी क्या बाहर गए हुए हैं? उन के घर पर…’’

‘‘नहींनहीं, उन्हें डिहाइड्रेशन हो गया था. वे अस्पताल में हैं. हम उन से कल शाम मिल कर आए हैं. अब वे ठीक हैं,’’ अमरनाथजी ने बताया. शालिनी सीधे अस्पताल चल दी. विजिटिंग आवर होने के कारण वह मानस के समक्ष घबराई सी पहुंच गई, ‘‘कैसे हैं आप, क्या हो गया, कैसे हो गया, आप ने मुझे इतना पराया समझा जो अपनी तबीयत खराब होने की सूचना तक नहीं दी. मैं पागलों सी परेशान हूं. न दिन में चैन है न रात में नींद.’’

‘‘ओह शालू, इतना मत परेशान हो, मुझे माफ कर दो. मुझे तुम्हें खबर करनी चाहिए थी किंतु तुम्हें मेरा हाल कैसे मालूम हुआ?’’ मानस ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आज मैं हैरानपरेशान अमरनाथजी के घर पहुंच गई. वहीं से सब जान कर सीधी चली आ रही हूं. आप बताइए, अब आप कैसे हैं, तथा यह हाल कैसे हुआ?’’ शालिनी की आंखें सजल हो उठीं. मानस भी भावुक हो उठे, उन्होंने शालिनी का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘प्लीज, परेशान मत हो, मैं एकदम ठीक हूं. उस दिन रामरतन रात में खाना बनाने न आ सका, साढ़े 8 बजे के बाद फोन करता है, ‘सर, आज नहीं आ सकूंगा, पत्नी को बहुत चक्कर आ रहे हैं.’ मैं ने कह दिया कि ठीक है, तुम पत्नी को डाक्टर को दिखाओ, अभी मैं ही कुछ बना लेता हूं. सुबह सब ठीक रहे तो जरूर आ जाना.

‘‘मैं ने कह तो दिया, किंतु कुछ बना न सका. सो, नुक्कड़ की दुकान से पकौड़े ले आया, वही हजम नहीं हुए बस, रात से दस्त और उल्टियां शुरू हो गईं.’’ ‘‘मनजी, आप मुझे कितना पराया समझते हैं. मेरे घर पर, खाना खा सकते थे, किंतु नहीं, आप नुक्कड़ की दुकान पर पकौड़े लेने चल दिए, जबकि आप के घर से दुकान की अपेक्षा मेरा घर करीब है. सिर्फ आप बात बनाते हैं कि तुम्हें अपनत्व के कारण समझाता हूं कि स्वयं को संभालो और सामान्य दिनचर्या का पालन करो. मैं ने आज आप का अपनापन देख लिया.’’ ‘‘सौरी शालू, मुझे माफ कर दो,’’ मानस ने अपने कान पकड़ते हुए कहा, ‘‘वैसे अच्छा ही हुआ, तुम्हें खबर कर देता तो तुम्हारा यह रूप कैसे देख पाता, तुम्हें मेरी इतनी फिक्र है, यह तो जान सका.’’

शालिनी ने हौले से मानस की बांह में धौल जमाते हुए अपनी आंखें पोंछ लीं तथा मुसकरा दी. भावनाओं की आंधी सारी औपचारिकताएं उड़ा ले गई. मानस शालिनी को ‘शालू’ कह बैठे, वही हाल शालिनी का था, वह  ‘मानसजी’ की जगह ‘मनजी’ बोल गई. भावनाओं के ज्वार में मानस भूल ही गए कि उन के कमरे में उन की बेटी सुगंधा भी मौजूद है. शालिनी तो उस की उपस्थिति से अनभिज्ञ थी, अतिभावुकता में उसे मानस के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं दिया. एकाएक मानस की नजरें सुगंधा से टकराईं. संकोचवश शालिनी का हाथ छोड़ते हुए उन्होंने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘शालिनी, इस से मिलो, यह मेरी प्यारी बेटी सुगंधा है. यह आई तो औफिस के काम से थी किंतु मेरी तीमारदारी में लग गई.’’

शालिनी को सुगंधा की उपस्थिति का आभास होते ही उस की हालत तो रंगे हाथों पकड़े गए चोर सी हो गई. वह सुगंधा से दोचार औपचारिक बातें कर झटपट विदा हो ली. अस्पताल से लौटते समय शालिनी अत्यधिक सकुचाहट में धंसी जा रही थी. वह भावावेश में क्याक्या बोल गई, न जाने मानस क्या सोचते होंगे. सुगंधा का खयाल आते ही उस की सकुचाहट बढ़ जाती, न जाने वह बच्ची क्या सोचती होगी, कैसे उस का ध्यान सुगंधा पर नहीं गया, वह स्वयं को समझाती. मानस के लिए व्यथित हो कर ही तो वह अस्पताल पहुंच गई थी, भावनाओं पर उस का नियंत्रण नहीं था. इसलिए जो मन में था, जबान पर आ गया. मानस घर आ गए थे. अब वे पूरी तरह स्वस्थ थे. सुगंधा को कल लौट जाना था. सुगंधा ने मानस एवं शालिनी के  परस्पर व्यवहार को अस्पताल में देखा था. इतना तो वह समझ चुकी थी कि दोनों के मध्य अपनत्व पप चुका है, बात जाननेसमझने की इच्छा से उस ने बात छेड़ते हुए कहा, ‘‘पापा, शालिनी आंटी इस कालोनी में नई आई हैं, मैं ने उन्हें पहले कभी नहीं देखा?’’

मानस शांत, गहन चिंता में बैठ गए. सुगंधा ने ही उन्हें टटोलते हुए कहा, ‘‘क्या बात है पापा, नाराज हो गए?’’ ‘‘नहीं, बेटा, तू तो मुझे, मेरे हित में ही समझा रही है किंतु मुझे भय है. शालिनी मुझे स्वार्थी समझ मुझ से दोस्ती न तोड़ बैठे. उस का अलगाव मैं सहन न कर सकूंगा,’’ मानस ने धीरेधीरे कहा. ‘‘पापा, वे आप से प्यार करती हैं किंतु नारीसुलभ सकुचाहट तो स्वाभाविक है न, पहल तो आप को ही करनी होगी.’’ ‘‘मेरी बेटी, इतनी बड़ी हो गई मुझे पता ही नहीं चला,’’ मानस के इस वाक्य पर दोनों ही मुसकरा दिए. सुगंधा लौट गई, किंतु मानस को समझा कर ही नहीं धमका कर गई कि वे जल्दी से जल्दी शालिनी से शादी की बात करेंगे वरना वह स्वयं यह जिम्मेदारी पूरी करेगी. मौर्निंगवाक पर मानस एवं शालिनी सुगंधा के संबंध में ही बातें करते रहे. मानस बोले, ‘‘5 वर्ष हो गए सुगंधा की शादी हुए. जब भी जाती है मन भारी हो जाता है. उस के आने से सारा घर गुलजार हो जाता है, जाती है तो अजीब सूनापन छोड़ जाती है.’’ शालिनी ने कहा, ‘‘बड़ी प्यारी है सुगंधा. खूबसूरत होने के साथसाथ समझदार भी, उस की आंखें तो विशेष सुंदर हैं, अपने में एक दुनिया समेटे हुए सी मालूम होती है वह.’’ मानस खुश होते हुए बोले, ‘‘वह अपनी मां की कार्बनकौपी है. मैं शुभि को अद्भुत महिला कहता था, रूप एवं गुण का अद्भुत मेल था उस के व्यक्तित्व में.’’

शालिनी सुगंधा के साथ विशेष जुड़ाव महसूस करने लगी थी. उस ने सुगंधा के पति, उस की ससुराल के संबंध में विस्तृत जानकारी ली तथा अत्यधिक प्रसन्न हुई कि बहुत समझदार एवं संपन्न परिवार है. मौर्निंगवाक से लौटते समय शालिनी का घर पहले आता है. रोज ही मानस उसे उस के घर तक छोड़ते हुए अपने घर की ओर बढ़ जाते थे, आज शालिनी ने आग्रह करते हुए कहा, ‘‘मनजी, आज आप ब्रेकफास्ट एवं लंच मेरे साथ ही लीजिए. आज ही सुगंधा लौट कर गई है, आप को अपने घर में आज सूनापन ज्यादा महसूस होगा.’’ मानस जल्दी ही मान गए. उन्होंने सोचा, इस बहाने शालिनी से अपने दिल की बात कर सकेंगे. काफी उलझन के बाद मानस ने शालिनी से साफसाफ कहना उचित समझा, ‘‘शालू, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं किंतु तुम से एक वादा चाहता हूं. यदि तुम्हें मेरी बात आपत्तिजनक लगे तो साफ इनकार कर देना किंतु नाराजगी से दोस्ती खत्म नहीं करना.’’ शालिनी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, ‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं, आप की दोस्ती मेरे जीवन का सहारा है, मनजी. खैर, चलिए वादा रहा.’’ ‘‘शालू, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं, क्या मेरा सहारा बनोगी?’’ मानस ने शालिनी की आंखों में देखते हुए कहा. शालिनी ने नजरें झुका लीं और धीरे से बोली, ‘‘यह क्या कह बैठे, मनजी, भला यह भी कोई उम्र है शादी रचाने की.’’ ‘‘देखो शालू, हम दोनों अपनेअपने जीवनसाथी को खो कर जीवन की सांध्यबेला में अनायास ही मिल गए हैं. हम दोनों ही तन्हा हैं. हम एकदूसरे का सहारा बन फिर से जीवन में आनंद एवं उल्लास भर सकते हैं. जीवन के उतारचढ़ाव में परस्पर सहयोग दे सकते हैं.

‘‘मैं अपनी पत्नी शुभि को बहुत चाहता था, किंतु बीमारी ने उसे मुझ से छीन लिया. मेरी शुभि भी मुझे बहुत चाहती थी. अपनी बीमारी के संघर्ष के दौरान भी उसे अपनी जिंदगी से ज्यादा मेरे जीवन की फिक्र थी. एक दिन मुझ से बोली, ‘मनजी, मेरा आप का साथ इतना ही था. आप को अभी लंबा सफर तय करना है. अकेले कठिन लगेगा. मेरे बाद अवश्य योग्य जीवनसाथी ढूंढ़ लीजिएगा,’ अपनी शादी वाली अंगूठी मेरी हथेली पर रख कर बोली, ‘इसे मेरी तरफ से स्नेहस्वरूप आप प्यार से उसे पहना देना. मैं यह सोच कर खुश हो लूंगी कि मेरे मनजी के साथ उन की फिक्र करने वाली कोई है.’’’ मानस, अपनी पत्नी को याद कर बेहद गंभीर हो गए थे, दो पल रुक कर स्वयं को संयत कर बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें एवं मनोज को भी साथसाथ देखा था, गृहप्रवेश के अवसर पर तथा अस्पताल के दुखद मौके पर. तुम दोनों का प्यार स्पष्टत: परिलक्षित था. मनोज को भी अपनी जिंदगी से ज्यादा तुम्हारे जीवन की चिंता थी. वे सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही चिंता व्यक्त करते थे. मैं आईसीयू में उन से मिलने जब भी जाता, सिर्फ तुम्हारे संबंध में चिंता व्यक्त करते थे. उस दिन उन्हें आभास हो चला था कि वे नहीं बचेंगे. अत्यधिक कष्ट में बोले थे, ‘दोस्त, मैं तुम्हें अकसर पुनर्विवाह की सलाह देता था, और तुम हंस कर टाल जाते थे. किंतु अब तुम से वचन चाहता हूं, मेरी शालू को अपना लेना. तुम्हारे साथ वह सुरक्षित है, यह सोच मुझे शांति मिलेगी. हम ने परिवारों के विरोध के बावजूद अंतर्जातीय विवाह किया था. सभी संबंध खत्म हो गए थे. मेरे बाद एकदम अकेली हो जाएगी मेरी शालू. दोस्त, मेरा आग्रह स्वीकार कर लो, मेरे पास समय नहीं है.’

‘‘उन की दर्द भरी याचना पर मैं हां तो न कर सका था किंतु स्वीकृति हेतु सिर अवश्य हिला दिया था. मेरी सहमति जान कर उस कष्ट एवं दर्द में भी उन के चेहरे पर एक स्मिति छा गई थी किंतु शालिनी, तुम्हारी नाराजगी के डर से मैं तुम से कहने का साहस न जुटा सका था. ‘‘सच कहता हूं शालू, सांत्वना और सहयोग ने मनोज के आग्रह के बाद कब प्यार का रूप ले लिया, इस का आभास मुझे भी नहीं हुआ. किंतु मेरे प्यार की सुगंध मेरी बेटी सुगंधा ने महसूस कर ली है,’’ कहते हुए मानस धीरे से मुसकरा दिए. शालिनी नीची नजरें किए हुए शांत बैठी थी. मानस ने ही कहा, ‘‘शालू, मैं ने तुम्हें मनोजजी की, सुगंधा की एवं अपनी भावनाएं बता दी हैं. अंतिम निर्णय तुम ही करोगी. तुम्हारी सहमति के बिना हम कुछ भी नहीं करेंगे.’’ शालिनी ने आहिस्ताअहिस्ता कहना शुरू किया, ‘‘मनोज ने जैसा आग्रह आप से किया था वैसी ही इच्छा मुझ से भी व्यक्त की थी. मुझ से कहा था, ‘

शालू, दुनिया में अकेली औरत का जीवन दूभर हो जाता है. मानसजी भले इंसान हैं तथा विधुर भी हैं. उन का हाथ थाम लेना. तुम सुरक्षित रहोगी तो मुझे शांति मिलेगी.’ मेरी चुप्पी पर अधीर हो कर बोले थे, ‘शालू, मान जाओ, हां कह दो, मेरे पास समय नहीं है.’

‘‘उन की पीड़ा, उन की अधीरता देख मैं ने भी स्वीकृति में सिर हिला दिया था. मेरी स्वीकृति मान उन्होंने हलकी मुसकराहट से कहा था, ‘मेरी शादी वाली अंगूठी मेरी सहमति मान, मानस को पहना देना. उस में लिखा ‘एम’ अब उन के लिए ही है.’ किंतु मैं भी आप की दोस्ती न खो बैठूं, इस संकोच में आप से कुछ कह न सकी,’’ वह हलके से मुसकरा दी. मानस इत्मीनान से बोले, ‘‘चलो, सुगंधा की जिद के कारण सभी बातें साफ हो गईं. मैं तो तुम्हें चाहने लगा हूं, यह स्वीकार करता हूं. तुम्हारा प्यार भी उस दिन अस्पताल में उजागर हो चुका है. मेरी  सुगंधा तो हमारी शादी के लिए तैयार बैठी है. तुम भी इस विषय में अपने बेटे से बात कर लो.’’ शालिनी ने उदासीनता से कहा, ‘‘मेरा बेटा तो सालों पहले ही पराया हो गया. अमेरिका क्या गया वहीं का हो कर रह गया. 4 साल से न आता है न हमारे आने पर सहमति व्यक्त करता है. उस की विदेशी पत्नी है तथा उस ने तो हमारा दिया नाम तक बदल दिया है. ‘‘मनोज के क्रियाकर्म हेतु बहुत कठिनाई से उस से संपर्क कर सकी थी. मात्र 3 दिन के लिए आया था. मानो संबंध जोड़ने नहीं बल्कि तोड़ने आया था. कह गया, ‘यों व्यर्थ मुझे आने के लिए परेशान न किया करें, मेरे पास व्यर्थ का समय नहीं है.’

‘‘अकेली मां कैसे रहेगी, न उस ने पूछा, न ही मैं ने बताया. अजनबी की तरह आया, परायों की तरह चला गया,’’ शालिनी की आंखें भीग आई थीं. मानस ने उस के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘शालू, जिस बेटे को तुम्हारी फिक्र नहीं है, जिस ने तुम से कोई संबंध, संपर्क नहीं रखा है, उस के लिए क्यों आंसू  बहाना. मैं तुम से एक वादा कर सकता हूं, हम दोनों एकदूसरे का इतना मजबूत सहारा बनेंगे कि हमें अन्य किसी सहारे की आवश्यकता ही नहीं होगी.’’ शालिनी अभी भी सिमटीसकुचाई सी बैठी थी. मानस ने उस की अंतर्दशा भांपते हुए कहा, ‘‘शालू, यह तुम भी जानती होगी तथा मैं भी समझता हूं कि इस उम्र में शादी शारीरिक आवश्यकता हेतु नहीं बल्कि मानसिक संतुष्टि के लिए की जाती है. शादी की आवश्यकता हर उम्र में होती है ताकि साथी से अपने दिल की बात की जा सके. एक साथी होने से जीवन में उमंगउत्साह बना रहता है.’’ फोन के जरिए सुगंधा सब बातें जान कर खुशी से उछलते हुए बोली, ‘‘पापा, इस रविवार यह शुभ कार्य कर लेते हैं, मैं और कुणाल इस शुक्रवार की रात में पहुंच रहे हैं.’’ रविवार के दिन कुछ निकटतम रिश्तेदार एवं पड़ोसियों के बीच मानस एवं शालिनी ने एकदूसरे को अंगूठी पहनाई, फूलमाला पहनाई तथा मानस ने शालिनी की सूनी मांग में सिंदूर सजा दिया.

सभी उपस्थित अतिथियों ने करतल ध्वनि से उत्साह एवं खुशी का प्रदर्शन किया. सभी ने सुगंधा की सोच एवं समझदारी की प्रसंशा करते हुए कहा कि मानस एवं शालिनी के पुनर्विवाह का प्रस्ताव रख, सुगंधा ने प्रशंसनीय कार्य किया है. सुगंधा ने घर पर ही छोटी सी पार्टी का आयोजन रखा था. सोमवार की पहली फ्लाइट से सुगंधा एवं कुणाल को लौट जाना था. शालिनी भावविभोर हो बोली, ‘‘अच्छा होता, बेटा कुछ दिन रुक जातीं.’’ सुगंधा ने अपनेपन से कहा, ‘‘मम्मी, अभी तो हम दोनों को जाना ही पड़ेगा, फाइनल रिपोर्ट का समय होने के कारण औफिस से छुट्टी मिलना संभव नहीं है.’’ ‘‘ठीक है, इस बार जाओ किंतु प्रौमिस करो, दीवाली पर आ कर जरूर कुछ दिन रहोगे,’’ शालिनी ने आदेशात्मक स्वर में कहा. सुगंधा को शालिनी का मां जैसा अधिकार जताना भला लगा. वह भावविभोर हो उस के गले लग गई. उसे आत्मसंतुष्टि का अनुभव हो रहा था. होता भी क्यों नहीं, उसे  मां जो मिल गई थी. दोनों के अपनत्त्वपूर्ण व्यवहार को देख कर मानस की आंखें भी सजल हो उठीं.

Online Hindi Story : मां

Online Hindi Story : बहुत दिनों बाद अचानक माधुरी का आना मीना को सुखद लगा था. दोचार दिन तो यों ही गपशप में निकल गए थे. माधुरी दीदी यहां अपने किसी संबंधी के यहां विवाह समारोह में शामिल होने आई थीं. जिद कर के वह मीना और उस के पति दीपक को भी अपने साथ ले गईं. फिर शादी के बाद मीना ने जिद कर के उन्हें 2 दिन और रोक लिया था. दीपक किसी काम से बाहर चले गए तो माधुरी रुक गई थीं.

‘‘और सुना…सब ठीकठाक तो चल रहा है न,’’ माधुरी ने कहा, ‘‘अब तो दोनों बेटियों का ब्याह कर के तुम लोग भी फ्री हो गए हो. खूब घूमोफिरो…अब क्यों घर में बंधे हुए हो.’’

‘‘दीदी, अब आप से क्या छिपाना,’’ मीना कुछ गंभीर हो कर कहने लगी, ‘‘आप तो जानती ही हैं कि दोनों बेटियों की शादी में काफी खर्च हुआ है. अब दीपक रिटायर भी हो गए हैं. सीमित पेंशन मिलती है. किसी तरह खर्च चल रहा है, बस. कोई आकस्मिक खर्चा आ जाता है तो उस के लिए भी सोचना पड़ता है…’’

माधुरी बीच में ही टोक कर बोलीं, ‘‘देख…मीना, तू अपनेआप को थोड़ा बदल, बेटियों के कमरे खाली पड़े हैं, उन्हें किराए पर दे. इस शहर में बच्चों की कोचिंग का अच्छा माहौल है. तुम्हारे घर के बिलकुल पास कोचिंग क्लासें चल रही हैं. बच्चे फौरन किराए पर कमरा ले लेंगे. उन से अच्छा किराया तो मिलेगा ही घर की सुरक्षा भी बनी रहेगी.’’

माधुरी की बात मीना को भी ठीक लगने लगी थी. उसे खुद आश्चर्य हुआ कि अब तक इस तरह उस ने सोचा क्यों नहीं. ठीक है, दीपक घर को किराए पर देने के पक्ष में नहीं हैं पर 2 कमरे बच्चों को देने में क्या हर्ज है. बाथरूम तो अलग है ही.

माधुरी दीदी के जाते ही पति से बात कर के मीना ने अखबार में विज्ञापन दे दिया.

‘‘देखो मीना, मैं तुम्हारे कार्यक्षेत्र में दखल नहीं दूंगा,’’ दीपक बोले, ‘‘पर निर्णय तुम्हारा ही है सो सोचसमझ कर लेना. क्या किराया होगा, किसे देना है, सारा सिरदर्द तुम्हारा ही होगा, समझीं.’’

‘‘हां बाबा, सब समझ गई हूं, किराए पर भी मेरा ही अधिकार होगा, जैसा चाहूं खर्च करूंगी.’’

दीपक तब हंस कर रह गए थे.

विज्ञापन छपने के कुछ ही दिन बाद  दोनों कमरे किराए पर उठ गए थे. निखिल और सुबोध दोनों बच्चे मीना को संभ्रांत परिवार के लगे थे. किराया भी ठीकठाक मिल गया था.

मीना खुश थी. किराएदार के रूप में बच्चों के आने से उस का अकेलापन थोड़ा कम हो गया था. दीपक ने तो अपने मन लगाने के लिए एक संस्था ज्वाइन कर ली थी. पर वह घर में अकेली बोर हो जाती थी. दोनों बेटियों के जाने के बाद तो अकेलापन वैसे भी अधिक खलने लगा था.

शीना का उस दिन फोन आया तो कह रही थी, ‘‘मां, आप ने ठीक किया जो कमरे किराए पर दे दिए. अब आप और पापा कुछ दिनों के लिए चेन्नई घूमने आ जाएं, काफी सालों से आप लोग कहीं घूमने भी नहीं गए.’’

‘‘हां, अब घूमने का प्रोग्राम बनाएंगे उधर का. रीना भी जिद कर रही है बंगलोर आने की,’’ मीना का स्वर उत्साह से भरा था.

फोन सुनने के बाद मीना बाहर लौन में आ कर गमले ठीक करते हुए सोचने लगी कि दीपक से बात करेगी कि बेटियां इतनी जिद कर रही हैं तो चलो, उन के पास घूम आएं.

तभी बाहर का फाटक खोल कर एक दुबलापतला, कुछ ठिगने कद का लड़का अंदर आया था.

‘‘कहो, क्या काम है? किस से मिलना है?’’

‘‘जी, आंटी, मैं राघव हूं. यहां जगदीश कोचिंग में एडमिशन लिया है. मुझे कमरा चाहिए था.’’

‘‘देखो बेटे, यहां तो कोई कमरा खाली नहीं है. 2 कमरे थे जो अब किराए पर चढ़ चुके हैं,’’ मीना ने गमलों में पानी डालते हुए वहीं से जवाब दे दिया.

वह लड़का थोड़ी देर खड़ा रहा था पर मीना अंदर चली गईं. दूसरे दिन दीपक के बाजार जाने के बाद यों ही मीना अखबार ले कर बाहर लौन में आई तो फिर वही लड़का दिखा था.

‘‘हां, कहो? अब क्या बात है?’’

‘‘आंटी, मैं इतने बड़े मकान में कहीं भी रह लूंगा. अभी तो मेरा सामान भी रेलवे स्टेशन पर ही पड़ा है…’’ उस के स्वर में अनुनय का भाव था.

‘‘कहा न, कोई कमरा खाली नहीं है.’’

‘‘पर यह,’’ कह कर उस ने छोटे से गैराज की तरफ इशारा किया था.

मीना का ध्यान भी अब उधर गया. मकान में यह हिस्सा कार के लिए रखा था. कार तो आ नहीं पाई. हां, पर शीना की शादी के समय इस में एक मामूली सा दरवाजा लगा कर कमरे का रूप दे दिया था. हलवाई और नौकरों के लिए पीछे एक कामचलाऊ टायलेट भी बना था. अब यह हिस्सा घर के फालतू सामान के लिए था.

‘‘इस में रह लोगे…पढ़ाई हो जाएगी?’’ मीना ने आश्चर्य से पूछा था.

‘‘हां, क्यों नहीं, लाइट तो होगी न…’’

वह लड़का अब अंदर आ गया था. गैराज देख कर वह उत्साहित था. कहने लगा, ‘‘यह मेज और कुरसी तो मेरे काम आ जाएगी और ये तख्त भी….’’

मीना समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे.

लड़के ने जेब से कुछ नोट निकाले और कहने लगा, ‘‘आंटी, यह 500 रुपए तो आप रख लीजिए. मैं 800 रुपए से ज्यादा किराया आप को नहीं दे पाऊंगा. बाकी 300 रुपए मैं एकदो दिन में दे दूंगा. अब सामान ले आऊं?’’

500 रुपए हाथ में ले कर मीना अचंभित थी. चलो, एक किराएदार और सही. बाद में इस हिस्से को भी ठीक करा देगी तो इस का भी अच्छा किराया मिल जाएगा.

घंटे भर बाद ही वह एक रिकशे पर अपना सामान ले आया था. मीना ने देखा एक टिन का बक्सा, एक बड़ा सा पुराना बैग और एक पुरानी चादर की गठरी में कुछ सामान बंधा हुआ दिख रहा था.

‘‘ठीक है, सामान रख दो. अभी नौकरानी आती होगी तो मैं सफाई करवा दूंगी.’’

‘‘आंटी, झाड़ू दे दीजिए. मैं खुद ही साफ कर लूंगा.’’

खैर, नौकरानी के आने के बाद थोड़ा फालतू सामान मीना ने बाहर निकलवा लिया और ढंग की मेजकुरसी उसे पढ़ाई के लिए दे दी. राघव ने भी अपना सामान जमा लिया था.

शाम को जब मीना ने दीपक से जिक्र किया तो उन्होंने हंस कर कहा था, ‘‘देखो, अधिक लालच मत करना. वैसे यह तुम्हारा क्षेत्र है तो मैं कुछ नहीं बोलूंगा.’’

मीना को यह लड़का निखिल और सुबोध से काफी अलग लगा था. रहता भी दोनों से अलगथलग ही था जबकि तीनों एक ही क्लास में पढ़ते थे.

उस दिन शाम को बिजली चली गई तो मीना बाहर बरामदे में आ गई थी. निखिल और सुबोध बैडमिंटन खेल रहे थे. अंधेरे की वजह से राघव भी बाहर आ गया था पर दोनों ने उसे अनदेखा कर दिया. वह दूर कोने में चुपचाप खड़ा था. फिर मीना ने ही आवाज दे कर उसे पास बुलाया.

‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? मन तो लग गया न?’’

‘‘मन तो आंटी लगाना ही है. मां ने इतनी जिद कर के पढ़ने भेजा है, खर्चा किया है…’’

‘‘अच्छा, और कौनकौन हैं घर में?’’

‘‘बस, मां ही हैं. पिताजी तो बचपन में ही नहीं रहे. मां ने ही सिलाईबुनाई कर के पढ़ाया. मैं तो चाह रहा था कि वहीं आगे की पढ़ाई कर लूं पर मां को पता नहीं किस ने इस शहर की आईआईटी क्लास की जानकारी दे दी थी और कह दिया कि तुम्हारा बेटा पढ़ने में होशियार है, उसे भेज दो. बस, मां को जिद सवार हो गई,’’ मां की याद में उस का स्वर भर्रा गया था.

‘‘अच्छा, चलो, अब मां का सपना पूरा करो,’’ मीना के मुंह से भी निकल ही गया था. सुबोध और निखिल भी थोड़े अचंभित थे कि वह राघव से क्या बात कर रही है.

एक दिन नौकरानी ने आ कर कहा, ‘‘दीदी, देखो न गैराज से धुआं सा निकल रहा है.’’

‘‘धुआं…’’ मीना घबरा गई और रसोई में गैस बंद कर के वह बाहर आई. हां, धुआं तो है पर राघव क्या अंदर नहीं है.

मीना ने जा कर देखा तो वह एक स्टोव पर कुछ बना रहा था. कैरोसिन का बत्ती वाला स्टोव धुआं कर रहा था.

‘‘यह क्या कर रहे हो?’’

चौंक कर मीना को देखते हुए राघव बोला, ‘‘आंटी, खाना बना रहा हूं.’’

‘‘यहां तो सभी बच्चे टिफिन मंगाते हैं. तुम खाना बना रहे हो तो फिर पढ़ाई कब करोगे.’’

‘‘आंटी, अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. टिफिन महंगा पड़ता है तो सोचा कि एक समय खाना बना लूंगा. शाम को भी वही खा लूंगा. यह स्टोव भी अभी ले कर आया हूं,’’ राघव धीमे स्वर में बोला.

राघव की यह मजबूरी मीना को झकझोर गई.

‘‘देखो, तुम्हारी मां जब रुपए भेज दे तब किराया दे देना. अभी ये रुपए रखो और कल से टिफिन सिस्टम शुरू कर दो. समझे…’’

मीना ने राघव के रुपए ला कर उसे वापस कर दिए.

राघव डबडबाई आंखों से मीना को देखता रह गया.

बाद में मीना ने सोचा कि पता नहीं क्यों मांबाप पढ़ाई की होड़ में बच्चों को इतनी दूर भेज देते हैं. इस शहर में इतने बच्चे आईआईटी की पढ़ाई के लिए आ कर रह रहे हैं. गरीब मातापिता भी अपना पेट काट कर उन्हें पैसा भेजते हैं. अब राघव पता नहीं पढ़ने में कैसा हो पर गरीब मां खर्च तो कर ही रही है.

महीने भर बाद मीना की मुलाकात गीता से हो गई. गीता उस की बड़ी बेटी शीना की सहेली थी और आजकल जगदीश कोचिंग में पढ़ा रही थी. कभी- कभार शीना का हालचाल जानने घर आ जाती थी.

‘‘तेरी क्लास में राघव नाम का भी कोई लड़का है क्या? कैसा है पढ़ाई में? टेस्ट में क्या रैंक आ रही है?’’ मीना ने पूछ ही लिया.

‘‘कौन? राघव प्रकाश… वह जो बिहार से आया है. हां, आंटी, पढ़ाई में तो तेज लगता है. वैसे तो केमेस्ट्री की कक्षा ले रही हूं पर जगदीशजी उस की तारीफ कर रहे थे कि अंकगणित में बहुत तेज है. गरीब सा बच्चा है…’’

मीना चुप हो गई थी. ठीक है, पढ़ने में अच्छा ही होगा.

कुछ दिनों बाद राघव किराए के रुपए ले कर आया तो मीना ने पूछा, ‘‘तुम्हारे टिफिन का इंतजाम तो है न?’’

‘‘हां, आंटी, पास वाले ढाबे से मंगा लेता हूं.’’

‘‘चलो, सस्ता ही सही. खाना तो ठीक मिल जाता होगा?’’ फिर मीना ने निखिल और सुबोध को बुला कर कहा था, ‘‘यह राघव भी यहां पढ़ने आया है. तुम लोग इस से भी दोस्ती करो. पढ़ाई में भी अच्छा है. शाम को खेलो तो इसे भी अपनी कंपनी दो.’’

‘‘ठीक है, आंटी…’’ सुबोध ने कुछ अनमने मन से कहा था.

इस के 2 दिन बाद ही निखिल हंसता हुआ आया और कहने लगा, ‘‘आंटी, आप तो रघु की तारीफ कर रही थीं…पता है इस बार उस के टेस्ट में बहुत कम नंबर आए हैं. जगदीश सर ने उसे सब के सामने डांटा है.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर मीना खामोश हो गई तो निखिल चला गया. उस के बाद वह उठ कर राघव के कमरे की ओर चल दी. जा कर देखा तो राघव की अांखें लाल थीं. वह काफी देर से रो रहा था.

‘‘क्या हुआ…क्या बात हुई?’’

‘‘आंटी, मैं अब पढ़ नहीं पाऊंगा. मैं ने गलती की जो यहां आ गया. आज सर ने मुझे बुरी तरह से डांटा है.’’

‘‘पर तुम्हारे तो नंबर अच्छे आ रहे थे?’’

‘‘आंटी, पहले मैं आगे बैठता था तो सब समझ में आ जाता था. अब कुछ लड़कों ने शिकायत कर दी तो सर ने मुझे पीछे बिठा दिया. वहां से मुझे कुछ दिखता ही नहीं है, न कुछ समझ में आ पाता है. मैं क्या करूं?’’

‘‘दिखता नहीं है, क्या आंखें कमजोर हैं?’’

‘‘पता नहीं, आंटी.’’

‘‘पता नहीं है तो डाक्टर को दिखाओ.’’

‘‘आंटी, पैसे कहां हैं…मां जो पैसे भेजती हैं उन से मुश्किल से खाने व पढ़ाई का काम चल पाता है. मैं तो अब लौट जाऊंगा…’’ कह कर वह फिर रो पड़ा था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ मीना उठ खड़ी हुई थी. रिकशे में उसे ले कर पास के आंखों के एक डाक्टर के यहां पहुंच गई और आंखें चैक करवाईं तो पता चला कि उसे तो मायोपिया है.

‘‘चश्मा तो इसे बहुत पहले ही लेना था. इतना नंबर तो नहीं बढ़ता.’’

‘‘ठीक है डाक्टर साहब, अब आप इस का चश्मा बनवा दें….’’

घर आ कर मीना ने राघव से कहा था, ‘‘कल ही जा कर अपना चश्मा ले आना, समझे. और ये रुपए रखो. दूसरी बात यह कि इतना दबदब कर मत रहो कि दूसरे बच्चे तुम्हारी झूठी शिकायत करें, समझे…’’

राघव कुछ बोल नहीं पा रहा था. झुक कर उस ने मीना के पैर छूने चाहे तो वह पीछे हट गई थी.

‘‘जाओ, मन लगा कर पढ़ो. अब नंबर कम नहीं आने चाहिए…’’

अब कोचिंग क्लासेस भी खत्म होने को थीं. बच्चे अपनेअपने शहर जा कर परीक्षा देंगे. यही तय था. राघव भी अब अपने घर जाने की तैयारी में था. निखिल और सुबोध से भी उस की दोस्ती हो गई थी.

सुबोध ने ही आ कर कहा कि  आंटी, राघव की तबीयत खराब हो रही है.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, हम ने 2-2 रजाइयां ओढ़ा दीं फिर भी थरथर कांप रहा है.’’

मीना ने आ कर देखा.

‘‘अरे, लगता है तुम्हें मलेरिया हो गया है. दवाई ली थी?’’

‘‘जी, आंटी, डिस्पेंसरी से लाया तो था और कल तक तो तबीयत ठीक हो गई थी, पर अचानक फिर खराब हो गई. पता नहीं घर भी जा पाऊंगा या नहीं. परीक्षा भी अगले हफ्ते है. दे भी पाऊंगा या नहीं…’’

कंपकंपाते स्वर में राघव बड़बड़ा रहा था. मीना ने फोन कर के डाक्टर को वहीं बुला लिया फिर निखिल को भेज कर बाजार से दवा मंगवाई.

दूध और खिचड़ी देने के बाद दवा दी और बोली, ‘‘तुम अब आराम करो. बिलकुल ठीक हो जाओगे. परीक्षा भी दोगे, समझे.’’

काफी देर राघव के पास बैठ कर वह उसे समझाती रही थी. मीना खुद समझ नहीं पाई थी कि इस लड़के के साथ ऐसी ममता सी क्यों हो गई है उसे.

दूसरे दिन राघव का बुखार उतर गया था. 2 दिन मीना ने उसे और रोक लिया था कि कमजोरी पूरी दूर हो जाए.

जाते समय जब राघव पैर छूने आया तब भी मीना ने यही कहा था कि खूब मन लगा कर पढ़ना.

बच्चों के जाने के बाद कमरे सूने तो हो गए थे पर मीना अब संतुष्ट थी कि 2 महीने बाद फिर दूसरे बच्चे आ जाएंगे. घर फिर आबाद हो जाएगा. गैराज वाले कमरे को भी अब और ठीक करवा लेगी.

आईआईटी का परिणाम आया तो पता चला कि राघव की फर्स्ट डिवीजन आई है. निखिल और सुबोध रह गए थे.

राघव का पत्र भी आया था. उसे कानपुर आईआईटी में प्रवेश मिल गया था. स्कालरशिप भी मिल गई थी.

‘ऐसे ही मन लगा कर पढ़ते रहना,’ मीना ने भी दो लाइन का उत्तर भेज दिया था. दीवाली पर कभीकभार राघव के कार्ड आ जाते. अब तो दूसरे बच्चे कमरों में आ गए थे. मीना भी पुरानी बातों को भूल सी गई थी. बस, गैराज को देख कर कभीकभार उन्हें राघव की याद आ जाती. समय गुजरता रहा था.

दरवाजे पर उस दिन सुबहसुबह ही घंटी बजी थी.

‘‘आंटी, मैं हूं राघव. पहचाना नहीं आप ने?’’

‘‘राघव…’’ आश्चर्य भरे स्वर के साथ मीना ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा था. दुबलापतला शरीर थोड़ा भर गया था. आंखों पर चश्मा तो था पर चेहरे पर दमक बढ़ गई थी.

‘‘आओ, बेटा, कैसे हो… आज कैसे अचानक याद आ गई हम लोगों की.’’

‘‘आंटी, आप की याद तो हरदम आती रहती है. आप नहीं होतीं तो शायद मैं यहां तक पहुंच ही नहीं पाता. मेरा कोर्स पूरा हो गया है और आप ने कहा कि मन लगा कर पढ़ना तो फाइनल में भी अच्छी डिवीजन आई है. कैंपस इंटरव्यू में चयन हो कर नौकरी भी मिल गई है.’’

‘‘अच्छा, इतनी सारी खुशखबरी एकसाथ,’’ कह कर मीना हंसी थी.

‘‘हां, आंटी, पर मेरी एक इच्छा है कि जब मुझे डिगरी मिले तो आप और अंकल भी वहां हों, आप लोगों से यही प्रार्थना करने के लिए मैं यहां खुद आया हूं.’’

‘‘पर, बेटा…’’ मीना इतना बोलते- बोलते अचकचा गई थी.

‘‘नहीं, आंटी, ना मत कहिए. मैं तो आप के लिए टिकट भी बुक करा रहा हूं. आज आप लोगों की वजह से ही तो इस लायक हो पाया हूं. मैं जानता हूं कि जबजब मैं लड़खड़ाया आप ने ही मुझे संभाला. एक मां थीं जिन्होंने जिद कर के मुझे इस शहर में भेजा और फिर आप हैं. मां तो आज यह दिन देखने को रही नहीं पर आप तो हैं…आप मेरी मां…’’

राघव का भावुक स्वर सुन कर मीना भी पिघल गई थी. शब्द भी कंठ में आ कर फंस गए थे.

शायद ‘मां’ शब्द की सार्थकता का बोध यह बेटा उन्हें करा रहा था.

Hindi Moral Tales : चाहत

Hindi Moral Tales : ‘‘हां हां, मैं तो छोटा हूं, सारी जिंदगी छोटा ही रहूंगा, सदा बड़े भाई की उतरन ही पहनता रहूंगा. क्यों मां, क्या मेरा इस घर पर कोई अधिकार नहीं,’’ महेश ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

रात गहरी हो चुकी थी. कमला ने रसोई समेटी और बाहर आ कर दोनों बेटों के पास खड़ी हो गई. वे दोनों आपस में किसी बात को ले कर झगड़ रहे थे.

‘‘तुम दोनों कब लड़ना छोड़ोगे, मेरी समझ में नहीं आता. तुम लोग क्या चाहते हो? क्यों इस घर को लड़ाई का अखाड़ा बना रखा है? आज तक तो तुम्हारे पिताजी मुझ से लड़ते रहे. उस मानसिक क्लेश को सहतेसहते मैं तो आधी हो चुकी हूं. जो कुछ शेष हूं, उस की कसर तुम दोनों मिल कर निकाल रहे हो.’’

‘‘पर मां, तुम हमेशा बड़े भैया का ही पक्ष क्यों लेती हो, क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं?’’

‘‘तुझे तो हमेशा उस से चिढ़ रहती है,’’ मां मुंह बनाती हुई अंदर चली गईं.

वैसे यह सच भी था. मातापिता के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण ही सुरेश व महेश आपस में बहुत लड़ते थे. मां का स्नेह बड़े सुरेश के प्रति अधिक था, जबकि पिता छोटे महेश को ही ज्यादा चाहते थे. दोनों भाइयों की एक छोटी बहन थी स्नेह.

स्नेह बेचारी घर के इस लड़ाईझगड़े के माहौल में हरदम दुखी रहती थी. सुरेश व महेश भी उसे अपने पक्ष में करने के लिए हरदम लड़ते रहते थे. वह बेचारी किसी एक का पक्ष लेती तो दूसरा नाराज हो जाता. उस से दोनों ही बड़े थे. वह चाहती थी कि तीनों भाईबहन मिल कर रहें. घर की बढ़ती हुई समस्याओं के बारे में सोचें, खूब पढ़ें ताकि अच्छी नौकरियां मिल सकें.

उस ने जब से होश संभाला था, घर का वातावरण ऐसा ही आतंकित सा देखा. मां बड़े भाई का ही पक्ष लेतीं. शायद उन्हें लगता होगा कि वही उन के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. पिता मां से ही उलझते रहते और छोटे भाई को दुलारते. वह बेचारी उन सब के लड़ाईझगड़ों से डरी परेशान सी, उपेक्षिता सुबह से शाम तक इसी सोच में डूबी रहती कि घर में कब व कैसे शांति हो सकती है.

सुबह की हुई बहस के बारे में वह आंगन में बैठी सोचती रही कि बड़े भैया सुरेश की उतरन पहनने के लिए महेश भैया ने कितना बुरा माना. लेकिन वह जो हमेशा इन दोनों की उतरन ही पहनती आई है, उस के बारे में कभी किसी का खयाल गया? वह सोचती, ‘मातापिता का ऐसा पक्षपातपूर्ण व्यवहार क्यों है? क्यों ये लोग आपस में ही लड़ते रहते हैं? अब तो हम सभी बड़े हो रहे हैं. हमारे घर की बातें बाहर पहुंचें, यह कोई अच्छी बात है भला?’ त्रस्त सी खयालों में डूबी वह चुपचाप भाइयों की लड़ाई का हल ढूंढ़ा करती.

स्नेह का मन इस वातावरण से ऊब गया था. वह एक दिन शाम को विचारों में लीन आंगन में नीम के पेड़ के नीचे बैठी थी. अचानक एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा उस के पास आ कर गिरा. चौंकते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखा कि कौन है?

अभी वह इधरउधर देख ही रही थी कि एक और टुकड़ा आ कर गिरा. इस बार उस के साथ एक छोटी सी चिट भी थी. घबरा कर स्नेह ने घर के अंदर निगाहें दौड़ाईं. इत्तफाक से मां अंदर थीं. दोनों भाई भी बाहर गए हुए थे. अब उस ने देखा कि एक लड़का पेड़ के पीछे छिपा हुआ उस की तरफ देख रहा है.

हिम्मत कर के उस ने वह चिट खोल कर पढ़ी तो उस की जान ही निकल गई. लिखा था, ‘स्नेह, मैं तुम्हें काफी दिनों से जानता हूं. तुम यों ही हर शाम इस आंगन में बैठी पढ़ती रहती हो. तुम्हारी हर परेशानी के बारे में मैं जानता हूं और उस का हल भी जानता हूं. तुम मुझे कल स्कूल की छुट्टी के बाद बाहर बरगद के पेड़ के पास मिलना. तब मैं बताऊंगा. शंकर.’

पत्र पढ़ कर डर के मारे स्नेह को पसीना आ गया. शंकर उस के पड़ोस में ही रहता था. उस के बारे में सब यही कहते थे कि वह आवारा किस्म का लड़का है. ‘उस के पास क्या हल हो सकता है मेरी समस्याओं का?’ स्नेह का दिल बड़ी कशमकश में उलझ गया.

वह भी तो यही चाहती थी कि उस के घर में लड़ाईझगड़ा न हो. ‘हमारे घर की बातें शंकर को कैसे पता चल गईं? क्या उस के पास जाना चाहिए?’ इसी सोच में सवेरा हो गया. स्कूल में भी उस का दिल न लगा. ‘हां’ और ‘नहीं’ में उलझा उस का मन कोई निर्णय नहीं ले पाया.

स्कूल की छुट्टी की घंटी से उस का ध्यान बंटा. ‘देख लेती हूं, वैसे बात करने में क्या नुकसान है,’ स्नेह खयालों में गुम बरगद के पेड़ के पास पहुंच गई. सामने देखा तो शंकर खड़ा था.

‘‘मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी,’’ शंकर ने कुटिलता से कहा, ‘‘सुबह शीशे में शक्ल देखी थी तुम ने?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ मेरी शक्ल को?’’ स्नेह डर गई.

‘‘तुम बहुत सुंदर हो,’’ शंकर ने जाल फेंका. उस के विचार में मछली फंस चुकी थी. और स्नेह भी आत्मीयता से बोले गए दो शब्दों के बदले बहक गई.

इस छोटी सी मुलाकात के बाद तो यह सिलसिला चल पड़ा. रोज ही शंकर उस से मिलता. उस के साथ दोचार घर की बातें करता. उसे यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता कि वह उस के हर दुखदर्द में साथ है. बातोंबातों में ही उस ने स्नेह से घर की सारी स्थिति जान ली. उस के दोनों भाइयों के बारे में भी वह काफी जानता था.

वह धीरेधीरे जान गया था कि स्नेह को अपने भाइयों से बहुत मोह है और वह उन के आपसी लड़ाईझगड़े के कारण बहुत तनाव में रहती है. शंकर ने यह कमजोरी पकड़ ली थी. वह स्नेह के प्रति झूठी सहानुभूति जता कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहता था. वह एक आवारा लड़का था, जिस का काम था, स्नेह जैसी भोलीभाली लड़कियों को फंसा कर अपना उल्लू सीधा करना.

अब स्नेह घर के झगड़ों से थोड़ी दूर हो चुकी थी. वह अब शंकर के खयालों में डूबी रहने लगी. महेश को एकदो बार उस की यह खामोशी चुभी भी थी, पर वह खामोश ही रहा.

महेश को तो बस सुरेश को ही नीचा दिखाने की पड़ी रहती थी. दोनों भाई घर की बिगड़ती स्थिति से बेखबर थे. वे दोनों चाहते तो आपसी समझ से लड़ाईझगड़ों को दूर कर सकते थे. और सच कहा जाए तो उन की इस स्थिति के जिम्मेदार उन के मांबाप थे. अभावग्रस्त जीवन अकसर कुंठा का शिकार हो जाता है. जहां आपस में एकदूसरे को नीचा दिखाने की बात आ जाए वहां प्यार का माहौल कैसे बना रह सकता है.

स्नेह शंकर से रोज ही कहती कि वह उस के भाइयों का झगड़ा समाप्त करा दे. शंकर भी उस की इस कमजोरी को भुनाना चाहता था. उस की समझ में स्नेह अब उस के मोहजाल में फंस चुकी थी.

दूसरी ओर स्नेह शंकर की किसी भी बुरी भावना से परिचित नहीं थी. उस ने अनजाने में ही सहज हृदय से उस पर विश्वास कर लिया था. उस का कोमल मन घर की कलह से नजात चाहता था.

एक दिन ऐसे ही स्नेह शंकर के पास जा रही थी कि रास्ते में बड़ा भाई सुरेश मिल गया, ‘‘तू इधर कहां जा रही है?’’

‘‘भैया, मैं अपनी सहेली के पास कुछ नोट्स लेने जा रही थी,’’ स्नेह ने सकपका कर कहा.

‘‘तू घर चल, नोट्स मैं ला कर दे दूंगा. और आगे से स्कूल के बाद सीधी घर जाया कर, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’ भाई ने धमकाया.

उस दिन शंकर इंतजार ही करता रह गया. अगले दिन वह बड़े गुस्से में था. कारण जानने पर स्नेह से बोला, ‘‘हूं, तुम्हें आने से मना कर दिया. और खुद जो दोनों सारा दिन घर से गायब रहते हैं, तब कुछ नहीं होता.’’

उस दिन स्नेह बहुत डर गई. शंकर के चेहरे से लगा कि वह उस के भाइयों से बदला लेना चाहता है. वह सोचने लगी कि कहीं उस के कारण भाई किसी परेशानी में न पड़ जाएं. उस ने शंकर को समझाना चाहा, ‘‘मैं अब तुम्हारे पास नहीं आऊंगी. मेरे भाइयों ने दोबारा देख लिया तो खैर नहीं. यों भी तुम मुझ पर जरूरत से ज्यादा गुस्सा करने लगे हो. मैं तो तुम्हें एक अच्छा दोस्त समझती थी.’’

‘‘ओह, जरा से भाई के धमकाने से तू डर गई? मैं तो तुझे बहुत हिम्मत वाली समझता था,’’ शंकर ने मीठे बोल बोले.

‘‘नहीं, इस में डरने की बात नहीं. पर ऐसे आना ठीक नहीं होता.’’

‘‘अरे छोड़, चल उस पहाड़ी के पीछे चल कर बैठते हैं. वहां से तुझे कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर ने फिर पासा फेंका.

‘‘नहीं, मैं घर जा रही हूं, बहुत देर हो गई है आज तो…’’

इस पर शंकर ने जोरजबरदस्ती का रास्ता अपनाने की सोची. ये लोग अभी बात ही कर रहे थे कि अचानक स्नेह का भाई सुरेश वहां आ गया. उस ने देखा कि स्नेह घबराई हुई है. उस के पास ही शंकर को खड़े देख कर उस के माथे पर बल पड़ गए.

उस ने शंकर से पूछा, ‘‘तू यहां मेरी बहन से क्या बातें कर रहा है?’’

‘‘अपनी बहन से ही पूछ ले ना,’’ शंकर ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘इस से तो मैं पूछ ही लूंगा, तू अपनी कह. इस के पास क्या करने आया था?’’ सुरेश ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘तेरी बहन ने ही मुझे आज यहां बुलाया था, कहती थी कि पहाड़ी के पीछे चलते हैं, वहां हमें कोई नहीं देखेगा,’’ शंकर कुटिलता से हंसा.

‘‘क्या कहा, मैं ने तुझे यहां बुलाया था?’’ स्नेह ने हैरान हो कर कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तू इतना बड़ा झूठ भी बोल सकता है.’’

‘‘अरे वाह, हमारी बिल्ली और हमीं को म्याऊं, तू ही तो रोज मेरा यहां इंतजार करती रहती थी.’’

‘‘बस, बहुत हो चुका शंकर, सीधे से अपने रास्ते चला जा, वरना…’’ सुरेश ने गुस्से से कहा.

‘‘हांहां, चला जाऊंगा, पर तेरी बहन को साथ ले कर ही,’’ शंकर बेशर्मी से हंसा.

‘‘जरा मेरी बहन को हाथ तो लगा कर देख,’’ कहने के साथ ही सुरेश ने जोरदार थप्पड़ शंकर के जड़ दिया.

बस फिर क्या था, उन दोनों में मारपीट होने लगी. शोर बढ़ने से लोग वहां एकत्र होने लगे. झगड़ा बढ़ता ही गया. एक बच्चे ने जा कर सुरेश के घर में कह दिया.

मां ने सुना तो झट महेश से बोलीं, ‘‘अरे, सुना तू ने. पड़ोस के शंकर से तेरे भाई की लड़ाई हो रही है. जा के देख तो जरा.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं? उस ने कभी मेरा कहा माना है? हमेशा ही तो मुझ से जलता रहता है. हर रोज झगड़ता है मुझ से. अच्छा है, शंकर जैसे गुंडों से पिटने पर अक्ल आ जाएगी,’’ महेश ने गुस्से से कहा.

‘‘पर इस वक्त बात तेरी व उस की लड़ाई की नहीं है रे, स्नेह भी वहीं खड़ी है. जाने क्या बात है, तुझे क्या अपनी बहन का जरा भी खयाल नहीं?’’

‘‘यह बात है. तब तो जाना ही पड़ेगा, स्नेह तो मेरा बड़ा खयाल रखती है. अभी जाता हूं. देखूं, क्या बात है,’’ तुरंत उठ कर महेश ने साइकिल निकाली और पलभर में बरगद के पेड़ के पास पहुंच गया.

सामने जो नजारा देखा तो उस का खून खौल उठा. शंकर के कई साथी उस के भाई को मार रहे थे और शंकर खड़ा हंस रहा था.

स्नेह ने उसे आते देखा तो एकदम रो पड़ी, ‘‘भैया, सुरेश भैया को बचा लो, वे मेरी खातिर बहुत देर से पिट रहे हैं.’’

अपने सगे भाई को यों पिटता देख महेश आगबबूला हो गया.

तभी शंकर ने जोर से कहा, ‘‘लो भई, एक और आ गया भाई की पैरवी करने.’’

लड़कों के हाथ रुके, मुड़ कर देखा तो महेश की आंखों में खून उतर आया था. उस ने वहीं से ललकारा, ‘‘खबरदार, जो अब किसी का हाथ उठा, एकएक को देख लूंगा मैं.’’

‘‘अरे वाह, पहले अपने को तो देख, रोज तो अपने भाई व मांबाप से लड़ताझगड़ता है, आज कैसा शेर हो रहा है,’’ शंकर ने चिढ़ाया.

‘‘पहले तो तुझे ही देख लूं. बहुत देर से जबान लड़ा रहा है,’’ कहते हुए महेश ने पलट कर एक घूंसा शंकर की नाक पर दे मारा और बोला, ‘‘मैं अपने घर में किसकिस से लड़ता हूं, तुझे इस से क्या मतलब? वह हमारा आपसी मामला है, तू ने यह कैसे सोच लिया कि तू मेरी बहन व भाई पर यों हाथ उठा सकता है?’’

शंकर उस के एक ही घूंसे से डर गया था. इस बीच सुरेश को भी उठने का मौका मिल गया. फिर तो दोनों भाइयों ने मिल कर शंकर की खूब पिटाई की. उस के दोस्त मैदान छोड़ कर भाग गए.

सुरेश के माथे से खून बहता देख स्नेह ने अपनी चुन्नी फाड़ी और जल्दी से उस के पट्टी बांधी. महेश ने सुरेश को अपनी बलिष्ठ बांहों से उठाया और कहा, ‘‘चलो, घर चलते हैं.’’

भरी आंखों से सुरेश ने महेश की आंखों में झांका. वहां नफरत की जगह अब प्यार ही प्यार था, अपनत्व का भाव था. घर की शांति थी, एकता का एहसास था.

स्नेह दोनों भाइयों का हाथ पकड़ कर बीच में खड़ी हो गई. फिर धीरे से बोली,

‘‘मैं भी तो यही चाहती थी.’’

फिर तीनों एकदूसरे का हाथ थामे घर की ओर चल दिए.

Short Stories in Hindi : दिशा विहीन रिश्ते

Short Stories in Hindi :  देशी घी की खुशबू धीरेधीरे पूरे घर में फैल गई. पूर्णिमा पसीने को पोंछते हुए बैठक में आ कर बैठ गई.

‘‘क्या बात है पूर्णि, बहुत बढि़याबढि़या पकवान बना रही हो. काम खत्म हो गया है या कुछ और बनाने वाली हो?’’

‘‘सब खत्म हुआ समझो, थोड़ी सी कचौड़ी और बनानी हैं, बस. उन्हें भी बना लूं.’’

‘‘मुझे एक कप चाय मिलेगी? बेटा व बहू के आने की खुशी में मुझे भूल गईं?’’ प्रोफैसर रमाकांतजी ने पत्नी को व्यंग्यात्मक लहजे में छेड़ा.

‘‘मेरा मजाक उड़ाए बिना तुम्हें चैन कहां मिलेगा,’’ हंसते हुए पूर्णिमा अंदर चाय बनाने चली गई.

65 साल के रमाकांतजी जयपुर के एक प्राइवेट कालेज में हिंदी के प्रोफैसर थे. पत्नी पूर्णिमा उन से 6 साल छोटी थी. उन का इकलौता बेटा भरत, कंप्यूटर इंजीनियरिंग के बाद न्यूयार्क में नौकरी कर लाखों कमा रहा था.

भरत छुटपन से ही महत्त्वाकांक्षी व होशियार था. परिवार की सामान्य स्थिति को देख उसे एहसास हो गया था कि उस के अच्छा कमाने से ही परिवार की हालत सुधर सकती है. यह सोच कर हमेशा पढ़ाई में जुटा रहता था. उस की मेहनत का ही नतीजा था कि 12वीं में अपने स्कूल में प्रथम और प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया.

रमाकांतजी की माली हालत कोई खास अच्छी न थी. भरत को कालेज में भरती करवाने के लिए बैंक से लोन लिया था, पर किताबें, खानापीना दूसरे खर्चे इतने थे कि उन्हें और भी कई जगह से कर्जा लेना पड़ा. एक छोटा सा मकान था, उसे आखिरकार बेच कर किसी तरह कर्जे के भार से मुक्त हुए.

भरत ने अच्छे अंकों से इंजीनियरिंग पास कर ली. फिर जयपुर में ही 2 वर्ष की टे्रनिंग के बाद उसे कंपनी वालों ने न्यूयार्क भेज दिया.

विदेश में बेटे को खानेपीने की तकलीफ न हो, सोच कर जल्दी से गरीब घर की लड़की देख बिना दानदहेज के साधारण ढंग से उस की शादी कर दी.

तुरंत शादी करने के कारण अब तक जो थोड़ी सी जमा पूंजी थी, शादी में खर्च हो गई.

बहू इंदू, गरीब घर की थी. उस के पिता एक होटल में रसोइए का काम करते थे. इंदू सिर्फ 12वीं तक पढ़ी थी और एक छोटी सी संस्था में नौकरी करती थी. उस की 3 बहनें और थीं जो पढ़ रही थीं.

रमाकांतजी व उन की पत्नी की सिर्फ यही इच्छा थी कि एक गरीब लड़की का ही हमें उद्धार करना है. उन्हें दानदहेज की कोई इच्छा न थी. उन्होंने साधारण शादी कर दी.

शादी होते ही अगले हफ्ते दोनों न्यूयार्क चले गए. शुरूशुरू में फोन से बेटाबहू बात करते थे फिर महीने में, फिर 6 महीने में एक बार बात हो जाती. बेटे की आवाज सुन, उस की खैरियत जान उन्हें तसल्ली हो जाती.

न्यूयार्क जाने के बाद भरत ने एक बार भी घर रुपए नहीं भेजे. पहले महीने पगार मिलते ही फोन पर बोला, ‘‘बाबूजी, यहां घर के फर्नीचर लेने आदि में बहुत खर्चा हो गया है. यहां बिना कार के रह नहीं सकते. 1-2 महीने बाद आप को पैसे भेजूंगा.’’

इस पर रमाकांतजी बोले, ‘‘बेटा, तुम्हें वहां जो चाहिए उसे ले लो. यहां हमें पैसों की जरूरत ही क्या है. हम 2 जनों का थोड़े में अच्छा गुजारा हो जाता है. हमारी फिक्र मत कर.’’

उस के बाद भरत से पैसे की कोई बात हुई ही नहीं.

रमाकांत व पूर्णिमा दोनों को ही इस बात का कोई गिलाशिकवा नहीं था कि बेटे ने पैसे नहीं भेजे. बेटा खुश रहे, यही उन्हें चाहिए था. थोड़े में ही वे गुजारा कर लेते थे.

2 साल बाद बेटे ने ‘मैं जयपुर आऊंगा’ फोन पर बताया तो पूर्णिमा की खुशी का ठिकाना न रहा.

पूर्णिमा से फोन पर भरत अकसर यह बात कहता था, ‘अम्मा, यह जगह बहुत अच्छी है. बड़ा घर है. बगीचा है. बरतन मांजने व कपड़े धोने की मशीन है. आप और बाबूजी दोनों आ कर हमारे साथ ही रहो. वहां क्या है?’

‘तुम्हारे बाबूजी ने यहां सेवानिवृत्त होने के बाद जयपुर में एक अपना हिंदी सिखाने का केंद्र खोल रखा है. जिस में विदेशी और गैरहिंदीभाषी लोग हिंदी सीखते हैं. उसे छोड़ कर बाबूजी आएंगे, मुझे नहीं लगता. तुम जयपुर आओ तो इस बारे में सोचेंगे,’ अकसर पूर्णिमा का यही जवाब होता था.

बेटे के बारबार कहने पर पूर्णिमा के मन में बेटे के पास जाने की इच्छा जाग्रत हुई. अब वे हमेशा पति से इस बारे में कहने लगीं कि 1 महीना तो कम से कम हमें भी बेटे के पास जाना चाहिए.

अब जब बेटे के आने का समाचार मिला, खुशी के चलते उन के हाथपैर ही नहीं चलते थे. हमेशा एक ही बात मन में रहती, ‘बेटा आ कर कब ले जाएगा.’

भरत जिस दिन आने वाला था उस दिन उसे हवाई अड्डे जा कर ले कर आने की पूर्णिमा की बहुत इच्छा थी. परंतु भरत ने कहा, ‘मां, आप परेशान मत हों. क्लियरैंस के होने में बहुत समय लगेगा, इसलिए हम खुद ही आ जाएंगे,’ उस के ऐसे कहने के कारण पूर्णिमा उस का इंतजार करते घर में अंदरबाहर चक्कर लगा रही थीं.

सुबह से ही बिना खाएपिए दोनों को इंतजार करतेकरते शाम हो गई. शाम 4 बजे करीब भरत व बहू आए. आरती कर बच्चों को अंदर ले आए. पूर्णिमा की खुशी का ठिकाना नहीं था. बेटाबहू अब और भी गोरे, सुंदर दिख रहे थे. रमाकांतजी बोले, ‘‘सुबह से अम्मा बिना खाए तुम्हारा इंतजार कर रही हैं. आओ बेटा, पहले थोड़ा सा खाना खा लें.’’

‘‘नहीं, बाबूजी, हम इंदू के घर से खा कर आ रहे हैं. अम्मा, आप अपने हाथ से मुझे अदरक की चाय बना दो. वही बहुत है.’’

तब दोनों का ध्यान गया कि उन के साथ में सामान वगैरह कुछ नहीं है.

इंदू ने अपने हाथ में पकड़े कपड़े के थैले को सास को दिए. उस में कुछ चौकलेट, एक साड़ी, ब्लाउज, कपड़े के टुकड़े थे.

पूर्णिमा का दिल बुझ गया. बड़े चाव से बनाया गया खाना यों ही ढका पड़ा था.

चाय पी कर थोड़ी देर बाद भरत बोला, ‘‘ठीक है बाबूजी, हम कल फिर आते हैं. हम इंदू के घर ही ठहरे हैं. एक महीने की छुट्टी है,’’ कहते हुए चलने के लिए खड़ा हुआ भरत तो इंदू शब्दों में शहद घोलते हुए बोली, ‘‘मांजी आप ने हमारे लिए इतने प्यार से खाना बनाया, फिर भला कैसे न खाएं. फिलहाल भूख नहीं है. पैक कर साथ ले जाती हूं.’’ और सास के बनाए हुए पकवानों को समेट कर बड़े अधिकार के साथ पैक कर दोनों मेहमानों की तरह चले गए.

रमाकांतजी और पूर्णिमा एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. रमाकांतजी पत्नी के सामने अपना दुख जाहिर नहीं करना चाहते थे. पर पूर्णिमा तो उन के जाते ही मन के टूटने से बड़बड़ाती रहीं, ‘कितने लाड़प्यार से पाला था बेटे को, क्या इसी दिन के लिए. ऐसा आया जैसे कोई बाहर का आदमी आ कर आधा घंटा बैठ कर चला जाता है,’ कहते हुए पूर्णिमा के आंसू बह निकले. रमाकांतजी पूर्णिमा के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे तसल्ली देने की कोशिश करने लगे. दिल में भरे दर्द से उन की आंखें गीली हो गई थीं लेकिन अपना दर्द जबान से व्यक्त कर पूर्णिमा को और दुखी नहीं करना चाहते थे.

रमाकांतजी ने पत्नी को कई तरह से  आश्वासन दे कर मुश्किल से खाना खिलाया. 2 दिन बाद भरत फिर आया. उस दिन पूर्णिमा जब उस के लिए चाय बनाने रसोई में गई तब अकेले में बाबूजी से बोला, ‘‘बाबूजी, इंदू को अपनी मां को न्यूयार्क ले जा कर साथ रखने की इच्छा है. उस की मां ने छोटी उम्र से परिवारबच्चों में ही रह कर बड़े कष्ट पाए हैं. इसलिए अब हम उन्हें अपने साथ न्यूयार्क ले कर जा रहे हैं. आप सब बातें अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए मैं आप को बता रहा हूं. अम्मा को समझाना अब आप की जिम्मेदारी है.

‘‘फिर, इंदू को न्यूयार्क में अकेले रहने की आदत हो गई है. आप व मां वहां हमेशा रह नहीं सकते. इंदू को अपनी प्राइवेसी चाहिए. अम्मा व इंदू साथ नहीं रह सकते, बाबूजी. आप वहां आए तो कहीं इंदू के साथ आप दोनों की नहीं बने, इस का मुझे डर है. इसीलिए आप दोनों को मैं अपने साथ रखने में हिचक रहा हूं. बाबूजी, आप मेरी स्थिति अच्छी तरह समझ गए होंगे,’’ वह बोला.

‘‘बेटा, मैं हर बात समझ रहा हूं, देख रहा हूं. तुम्हें मुझे कुछ समझाने की जरूरत नहीं है. रही बात तुम्हारी मां की, तो उसे कैसे समझाना है, अच्छी तरह जानता हूं,’’ बोलते हुए आज रमाकांतजी को सारे रिश्ते बेमानी से लग रहे थे.

इस के बाद जिस दिन भरत और इंदू न्यूयार्क को रवाना होने वाले थे उस दिन 5 मिनट के लिए विदा लेने आए.

उस रात पूर्णिमा रमाकांतजी के कंधे से लग खूब रोई थी, ‘‘क्योंजी, क्या हमें कोई हक नहीं है अपने बेटे के साथ सुख के कुछ दिन बताएं. बेटे से कुछ आशा रखना  क्या मातापिता का अधिकार नहीं.

‘‘क्या मैं ने आप से शादी करने के बाद किसी भी बात की इच्छा जाहिर की, परंतु अपने बेटे के विदेश जाने के बाद, सिर्फ 1 महीना वहां जा कर रहूं, यही इच्छा थी, वह भी पूरी न हुई…’’ पूर्णिमा रोतेरोते बोलती जा रही थी और रमाकांतजी यही सोच अपने मन को तसल्ली दे रहे थे कि शायद उन के ही प्यार में, परवरिश में कोई कमी रह गई होगी, वरना भरत थोड़ा तो उन के बारे में सोचता. मां के प्यार का कुछ तो प्रतिकार देता.

इस बात को 2 महीने बीत चुके थे. इस बीच इंदू ने भरत को बताया, आज मैं डाक्टर के पास गई थी. डाक्टर ने कहा तुम गर्भवती हो.’’

अभी भरत कुछ बोलने की कोशिश ही कर रहा था कि इंदू फिर बोली कि शायद इसीलिए कुछ दिनों से मुझे तरहतरह का खाना खाने की बहुत इच्छा हो रही है. इधर, मेरी अम्मा कहती हैं, ‘मैं 1 महीना तुम्हारे पास रही, अब बहनों व पिता को छोड़ कर और नहीं रह सकती. मुझे तो तरहतरह के व्यंजन बनाने नहीं आते. अब क्या करें?’’

‘‘तो हम एक खाना बनाने वाली रख लेते हैं.’’

‘‘यहां राजस्थानी खाना बनाने वाली तो मिलेगी नहीं. तुम्हारी मां को बुला लेते हैं. प्रसव होने तक यहीं रह कर वे मेरी पसंद का खाना बना कर खिला देंगी.’’

‘‘पिताजी 1 महीने के लिए तो आ सकते हैं. उन्होंने जो छोटा सा हिंदी सिखाने का केंद्र खोल रखा है वहां किसी दूसरे आदमी को रख कर परंतु…’’ उसे बात पूरी नहीं करने दी इंदू ने, ‘‘उन्हें यहां आने की क्या जरूरत है? आप की मां ही आएं तो ठीक है.’’

‘‘तुम्हीं ने तो कहा था, हमें प्राइवेसी चाहिए, वे यहां आए तो…ठीक नहीं रहेगा. अब वैसे भी उन से किस मुंह से आने के लिए कहूंगा.’’

‘‘वह सब ठीक है. लेकिन तुम्हारी मां को यहां आने की बहुत इच्छा है. आप फोन करो, मैं बात करती हूं.’’

इंदू की बातें भरत को बिलकुल भी पसंद नहीं आईं, बोला, ‘‘ठीक है, डाक्टर ने एक अच्छी खबर दी है. चलो, हम बाहर खाना खाने चलते हैं, फिर इस समस्या का हल सोचेंगे.’’

वे लोग एक रैस्टोरैंट में गए. वहां थोड़ी भीड़ थी, तो वे सामने के बगीचे में जा कर घूमने लगे. उन्होंने देखा कि बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे हैं. दूर से भरत को वे अपने बाबूजी जैसे लगे. अच्छी तरह देखा. देख कर दंग रह गया भरत, ‘ये तो वे ही हैं.’

‘‘बाबूजी,’’ उस के मुंह से आवाज निकली.

‘‘रमाकांतजी ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक बारी तो वे भी हैरान रह गए.

‘‘अरे भरत, बेटा तुम.’’

‘‘बाबूजी, आप यहां. कुछ समझ नहीं आ रहा.’’

बाबूजी बोले, ‘‘देखो, वहां अपना क्वार्टर है. आओ, चलें,’’ रमाकांतजी आगे चले, पीछे वे दोनों बिना बोले चल दिए.

घर का दरवाजा पूर्णिमा ने खोला. रमाकांतजी के पीछे खड़े भरत और इंदू को देख वह हैरान रह गई. फिर खुशी से भरत को गले से लगा लिया. दोनों का खुशी से स्वागत किया पूर्णिमा ने.

‘‘जयपुर में तुम्हारे पिताजी ने जो केंद्र हिंदी सिखाने के लिए खोल रखा है वहां इन के एक विदेशी शिष्य ने न्यूयार्क में ही हिंदी सिखाने के लिए कह कर हम लोगों को यहां ले आया. यह संस्था उसी शिष्य ने खोली है. सब सुविधाएं भी दीं. तुम्हारे बाबूजी ने वहां के केंद्र को अपने जयपुर के एक शिष्य को सौंप दिया.

‘‘तुम्हारे बाबूजी ने भी कहा कि हमारा जयपुर में कौन है, यह काम कहीं से भी करो, ऐसा सोच कर हम यहां आ गए. यहां तुम्हारे बाबूजी को 1 लाख रुपए महीना मिलेगा,’’ जल्दीजल्दी सबकुछ कह दिया पूर्णिमा ने.

‘‘अम्मा, तुम्हारी बहू गर्भवती है. उस की नईनई चीजें खाने की इच्छा होती है. अब उस की मां यहां नहीं आएगी. आप दोनों प्रसव तक हमारे साथ रहो तो अच्छा है.’’

‘‘वह तो नहीं हो सकता बेटा. बाबूजी का यह केंद्र सुबह व शाम खुलेगा. उस के लिए यहां रहना ही सुविधाजनक होगा.’’

‘‘अम्मा, बाबूजी नहीं आएं तो कोई बात नहीं, आप तो आइएगा.’’

‘‘नहीं बेटा, उन की उम्र हो चली है. इन को देखना ही मेरा पहला कर्तव्य है. यही नहीं, मैं भी भारतीय व्यंजन बना कर केंद्र के बच्चों को देती हूं. इस का मुझे लाभ तो मिलता ही है. साथ में, बच्चों के बीच में रहने से आत्मसंतुष्टि भी मिलती है. चाहो तो तुम दोनों यहां आ कर रहो. तुम्हें जो चाहिए, मैं बना दूंगी.’’

‘‘नहीं मां, यहां का क्वार्टर छोटा है,’’ भरत खीजने लगा.

‘‘हां, ठीक है. यहां तुम्हें प्राइवेसी नहीं मिलेगी. वहीं… उसे मैं भूल गई. ठीक है बेटा, मैं रोज इस की पसंद का खाना बना दूंगी. तुम आ कर ले जाना.’’

‘‘नहीं अम्मा, मेरा औफिस एक तरफ, मेरा घर दूसरी तरफ, तीसरी तरफ यह केंद्र है. रोज नहीं आ सकते. अम्मा, बहुत मुश्किल है.’’

‘‘भरत, अब तक हम दोनों तुम्हारे लिए ही जिए, पेट काट कर रह कर तुम्हें बड़ा किया, अच्छी स्थिति में लाए. पर शादी

‘‘तुम्हें जो सहूलियत हो वह करो. खाना तैयार है, अपनेआप ले कर खा लो. मुझे आने में आधा घंटा लगेगा,’’ कह कर पूर्णिमा एक दुकान की तरफ चली गई.

मांबाप के प्रेम को महसूस न कर, पत्नी के स्वार्थीपन के आगे झुक कर, उन की अवहेलना की. अब प्रेम के लिए तड़पने वाले भरत को आरामकुरसी में लेटे हुए पिताजी को आंख उठा कर देखने में भी शर्म आ रही थी. इंदू भी शर्मसार सी खड़ी थी. दोनों भारी मन के साथ घर से बाहर निकलने लगे. रमाकांतजी एक बारी भरत से कुछ कहने की चाह से उठने लगे थे लेकिन उन की आंखों के आगे चलचित्र की तरह पुरानी सारी बातें तैरने लगीं. पैर वहीं थम गए. भरत ने पीछे मुड़ कर देखा, शायद बाबूजी अपना फैसला बदल कर उस से कुछ कहेंगे लेकिन आज उन की आंखें कुछ और ही कह रही थीं. इस सब के लिए कुसूरवार वह खुद था. भरत का गला रुंध गया. बाबूजी के पैर पकड़ कर उन से माफी मांगने के भी काबिल नहीं रहा था.

होते ही हम तुम्हारे लिए बेगाने हो गए,’’ रमाकांतजी ने कहा, ‘‘खून के रिश्ते से दुखी हुए हम तो क्या हुआ? हालात ने नए रिश्ते बना दिए. अब इस रिश्ते को हम नहीं छोड़ सकते. पर तुम जब चाहो तब सकते हो. हम से जो बन पड़ेगा, तुम्हारे लिए करेंगे.’’

Hindi Kahaniyan : वो एक रात

Hindi Kahaniyan :  आज का दिन ही कुछ अजीब था. सुबह से ही कुछ न कुछ हो रहा था. कालेज से आते समय रिकशे की टक्कर. बस बच गई वरना हाथपैर टूट जाते. फिर वह खतरनाक सा आदमी पीछे पड़ गया. बड़ी मुश्किल से रास्ता काट कर छिपतेछिपाते घर पहुंच पाई. उसे घबराया हुआ देख कर मम्मी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अलका बड़ी घबराई हुई है?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी बस यों ही मन ठीक नहीं है,’’ कह कर वह बात टाल गई.

फिर अभीअभी फोन आया कि मौसाजी के बेटे का ऐक्सीडैंट हो गया है सो मम्मीपापा तुरंत चल दिए. उस का सिविल परीक्षा का पेपर था, इसलिए वह नहीं गई. उस पर शाम से ही मौसम अलग रंग में था. रुकरुक कर बारिश हो रही थी. बिजली चमक रही थी. थोड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था, परंतु वह अपने को दिलासा दे रही थी बस एक रात की ही तो बात है, वह रह लेगी. रात के 11 बजे थे. अभी उसे और पढ़ना था. सोचा चलो एक कौफी पी ली जाए. फिर पढ़ाई करेगी. वह किचन की तरफ बढ़ी ही थी तभी जोरदार ब्रेक लगने की आवाज आई और फिर एक चीख की. पहले तो अलका थोड़ा घबराई, फिर उस ने मेनगेट खोला तो सामने एक युवक घायल पड़ा था, खून से लथपथ और अचेत. अलका ने इधरउधर देखा कि शायद कोई दिखाई दे, परंतु वहां कोई नहीं था जो उस की हैल्प करता. ‘अगर वह अंदर आ गई तो वह युवक मर भी सकता है,’ कुछ देर सोचने के बाद उस ने उसे उठाने का निश्चय किया. तभी सामने के घर से रवि निकला.

‘‘अरे, रवि देखो तो किसी ने टक्कर मार दी है. बहुत खून बह रहा है. जरा मदद करो… इसे हौस्पिटल ले चलते हैं.’’

‘‘अरे, अलका दीदी ऐक्सीडैंट का केस है, मैं किसी लफड़े में नहीं पड़ना चाहता. आप भी अंदर जाओ,’’ रवि ने कहा.

‘‘अरे, कम से कम इसे उठाओ तो… मैं फर्स्ट एड दे देती हूं… और जरा देखो कोई मोबाइल बगैरा पड़ा है क्या आसपास.’’

रवि ने इधरउधर देखा तो कुछ दूर एक मोबाइल पड़ा था. उस ने उठा कर अलका को दे दिया और फिर दोनों ने सहारा दे कर युवक को ड्राइंगरूम में सोफे पर लिटा दिया. उस के बाद रवि चला गया.

अलका ने उस की पट्टी कर दी. फिर उस ने देखा कि वह कांप

रहा है तो वह अपने भाई के कपड़े ले आई और बोली कि आप कपड़े बदल लीजिए, परंतु वह तो बेहोश था. फिर थोड़ा हिचकते हुए उस ने उस के कपड़े बदल डाले. उसे थोड़ा अजीब लगा, लेकिन अगर वह उस के कपड़े नहीं बदलती तो चोट के साथ उसे बुखार भी आ सकता था.

‘‘ओह गीता,’’ थोड़ा कराहते हुए वह अजनबी युवक बुदबुदाया. अचानक बेहोशी की हालत में उस अजनबी युवक ने अलका का हाथ कस कर पकड़ लिया.

एक पल को अलका घबरा गई. फिर बोली, ‘‘अरे हाथ तो छोडि़ए.’’

मगर वह तो बेहोश था. धीरेधीरे उस की हालत खराब होती जा रही थी.

अब अलका घबराने लगी थी. अगर इसे कुछ हो गया तो क्या होगा. मैं ही पागल थी जो इसे घर ले आई… रवि ने मना भी किया था, मगर मैं ही नहीं मानी. पर न लाती तो यह मर जाता. मैं ने तो सोचा कि पट्टी कर के घर भेज दूंगी पर अब क्या करूं?

तभी अचानक जोर से बिजली कड़की और उस ने बेहोशी में ही उस का हाथ जोर से खींचा और अलका उस के ऊपर गिर पड़ी और फिर अंधेरा छा गया.

सुबह होने को थी. उस की हालत बिगड़ती जा रही थी. अलका ने ऐंबुलैंस बुलाई और उसे हौस्पिटल ले गई. उपचार मिलने के बाद युवक को होश आया तो डाक्टर ने उसे अलका के बारे में बताया कि वही उसे यहां लाई थी.

तब वह युवक बोला, ‘‘धन्यवाद देना तो आप के लिए बहुत छोटी बात होगी अलकाजी… समझ नहीं पा रहा कि मैं आप को क्या दूं.’’

‘‘कुछ नहीं बस आप जल्दी से ठीक हो जाएं,’’ अलका ने कहा.

वह बोला, ‘‘मेरा नाम ललित है और मैं आर्मी में लैफ्टिनैंट हूं. कल मेरी गाड़ी खराब हो गई थी. मैं मैकेनिक की तलाश में अपनी गाड़ी से बाहर आया था. तभी एक कार मुझे टक्कर मार कर चली गई. फिर उस के बाद मेरी आंखें यहां खुलीं. आप ने मेरी जान बचाई आप का बहुतबहुत धन्यवाद वरना गीता मेरा इंतजार ही करती रह जाती.’

‘‘ललितजी क्या आप को रात की बात बिलकुल याद नहीं?’’ अलका ने पूछा.

‘‘क्या मतलब? कौन सी बात?’’

ललित बोला.

‘‘नहीं मेरा मतलब वह कौन था, जिस ने आप को टक्कर मारी थी?’’ अलका जानबूझ कर असलियत छिपा गई.

‘‘नहीं अलकाजी मुझे कुछ याद नहीं आ रहा,’’ दिमाग पर जोर डालते हुए ललित बोला, ‘‘हां, अगर आप को तकलीफ न हो तो कृपया मेरी वाइफ को फोन कर दीजिए. वह परेशान होगी.’’

अब अलका को अपने चारों ओर अंधेरा दिखाई देने लगा. उफ, यह इमोशनल हो कर मैं ने क्या कर डाला और ललित वह तो निर्दोष था और अनजान भी. जो कुछ भी हुआ वह एक  झटके में हुआ और बेहोशी में. ललित की हालत देख कर वह उस से कुछ न कह पाई, पर अब?

जैसेतैसे उस ने अपने को संभाल कर ललित के घर फोन किया और उस की पत्नी के आने पर उसे सबकुछ समझा कर अपने घर लौट आई. जब वह लौट कर आई तो देखा कि मम्मीपापा दरवाजे पर खड़े हैं.

‘‘अरे अलका कहां चली गई थी सुबहसुबह और यह तेरा चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे पूरी रात सोई न हो?’’ पापा चिंतित स्वर में बोले.

‘‘ठीक कह रहे हैं अंकलजी… आजकल मैडम ने समाजसेवा का ठेका ले रखा है,’’ रवि

ने कहा.

‘‘चलो, मैं ने तो ले लिया पर तुम तो लड़के हो कर भी नजरें छिपा गए. किसी को मरने से बचाना गलत है क्या पापा?’’

उस के बाद रवि और अलका ने मिल कर पूरी बात बताई और ढूंढ़ा तो वहीं पास में ललित की गाड़ी भी खड़ी मिल गई. बाद में अलका ने ललित के घर वालों को फोन कर के बता दिया तो उस के घर वाले आ कर ले गए.

‘‘बेटा, यह तो ठीक किया परंतु आगे से हमारी गैरमौजूदगी में फिर ऐसा नहीं करना. यह तो ठीक है कि वह एक अच्छा इंसान है, परंतु अगर कोई अपराधी होता तो क्या होता,’’ अलका के पापा बोले.

‘‘अरे, अब छोडि़ए भी न. अंत भला तो सब भला. वैसे भी वह पूरी रात की जगी हुई है,’’ अलका की मम्मी बोलीं, ‘‘चल बेटी चाय पी कर थोड़ा आराम कर ले.’’

अलका अंदर चली गई साथ में एक तूफान भी वह उस रात अकेली थी, मगर पूरी थी और अब जब सब साथ हैं और वह घर में घुस रही है, तो उसे यह क्यों लग रहा है कि वह अधूरी है और यह कमी कभी पूरी होने वाली नहीं थी, क्योंकि जिस ने उसे अधूरा किया था वह तो एक अनजान इंसान था और इस बात से भी अनजान कि उस से क्या हो गया.

धीरेधीरे 1 महीना बीत गया. अलका की परीक्षा अच्छी हो गई और आज उसे लड़के वाले देखने आए थे. मम्मीपापा उन लोगों से बातें कर रहे थे. चायनाश्ता चल रहा था. लड़का डाक्टर था. परिवार भी सुलझा हुआ था.

‘‘रोहित बेटा तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. कुछ तो लो?’’ अलका के पापा बोले.

‘‘बहुत खा लिया अंकल,’’ रोहित ने जवाब दिया.

‘‘भाई साहब, अब तो अलका को बुलवा लीजिए. रोहित कब से इंतजार कर रहा है,’’ थोड़ा मुसकरा कर रोहित की मम्मी बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी ऐसी कोई बात नहीं है,’’ रोहित थोड़ा झेंपता सा बोला.

‘‘अरे अलका की मां अब तो सचमुच बहुत देर हो गई है. अब तो अलका को ले आओ.’’

मम्मी अंदर जा कर बोलीं, ‘‘अलका, अब कितनी देर और लगने वाली है… सब इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘बस हो गया मम्मी चलिए,’’ अलका बोली और फिर वह और उस की मम्मी ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ने लगीं.

अचानक अलका को लगा कि सबकुछ गोलगोल घूम रहा है और वह

बेहोश हो कर गिर पड़ी. हर तरफ सन्नाटा छा गया कि क्या हुआ. उस के पापा और सब लोग उस तरफ बढ़े तो रोहित बोला कि ठहरिए अंकल मैं देखता हूं. मगर उस ने जैसे ही उस की नब्ज देखी तो उस के चेहरे के भाव बदल गए. हर कोई जानना चाहता था कि क्या हुआ. रोहित ने उसे उठा कर पलंग पर लिटाया और फिर उस के चेहरे पर पानी के छींटे मारे तो उसे थोड़ा होश आया. अलका ने उठने की कोशिश की तो वह बोला लेटी रहो.

‘‘मुझे क्या हो गया अचानक पता नहीं,’’ अलका ने कहा.

‘‘कुछ खास नहीं बस थोड़ी देर आराम करो,’’ कह रोहित ने एक इंजैक्शन लगा दिया.

अब सब को बेचैनी होने लगी खासतौर पर अलका के पापा को. वे बोले, ‘‘रोहित बेटा, बताओ न क्या हुआ अलका को?’’

‘‘कुछ खास नहीं अंकल थोड़ी कमजोरी है और नए रिश्ते को ले कर टैंशन तो हो ही जाती है… अब सबकुछ ठीक है. क्या मैं अलका से अकेले में बात कर सकता हूं?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ अलका के पिता बोले.

अलका कुछ असमंजस में थी. सोच रही थी कि क्या हुआ. तभी कमरे में रोहित ने प्रवेश किया. उसे देख कर अलका कुछ सकुचा कर बोली, ‘‘पता नहीं क्या हुआ रोहितजी… बस कमरे में आई और सबकुछ घूमने लगा और मैं बेहोश हो गई.’’

‘‘क्या तुम्हें सचमुच कुछ नहीं मालूम

अलका?’’ रोहित उसे गहरी नजरों से देखते हुए बोला.

‘‘आप तो डाक्टर हैं आप को तो पता होगा कि मुझे क्या हुआ है?’’

‘‘क्या तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो?’’ रोहित ने कहा.

‘‘रोहितजी न तो मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं और न ही आप मुझे. फिर भी मैं आप के ऊपर पूरा भरोसा कर सकती हूं.’’

‘‘तो सुनो तुम प्रैगनैंट हो,’’ रोहित ने कहा.

अलका के सिर पर जैसे आसमान गिर गया हो. वह समझ नहीं पा रही थी कि उस दिन की एक छोटी सी घटना इतने बड़े रूप में उस के सामने आएगी. वह आंसू भरी आंखों से रोहित

को देखती रह गई और वह सारा घटनाक्रम

ललित का ऐक्सीडैंट, वह बरसात की रात,

ललित का समागम सब उस की आंखों के सामने तैर गया.

‘‘कहां, कैसे क्या हुआ तुम मुझे बता सकती हो? बेशक हमारी शादी नहीं हुई पर मैं तुम्हें धोखा नहीं दूंगा, उस धोखेबाज की तरह जो तुम्हें मंझधार में छोड़ कर चला गया.’’

‘‘नहीं वह धोखेबाज नहीं था रोहितजी,’’ अलका ने थरथराते हुए कहा.

‘‘फिर यह क्या है जरा बताओगी मुझे?’’ रोहित ने कुछ व्यंग्य से कहा.

‘‘वह तो हालात का मारा था. उस दिन बहुत बरसात हो रही थी. उस का ऐक्सीडैंट हुआ था. बहुत खून बह रहा था. मैं इमोशनल हो गई और उसे अंदर ले आई. सोचा था कि पट्टी बगैरा कर के घर भेज दूंगी पर उस की हालत बिगड़ती गई. वह बेहोश था और बेहोशी की हालत में बारबार अपनी वाइफ का नाम ले रहा था. बस तभी यह हादसा हो गया. मैं तो इसे एक हादसा समझ कर भूल गई थी पर यह इस रूप में सामने आएगा सोचा भी न था. अब क्या होगा राहितजी?’’ वह थरथराते होंठों से बोली.

‘‘कुछ नहीं होगा. जो कहता हूं ध्यान से सुनो. सामान्य हो कर बाहर आ जाओ.’’

रोहित बाहर आया तो सब इंतजार कर रहे थे खासतौर पर अलका के पापा.

‘‘हां रोहितजी, कहिए क्या फैसला है

आप का?’’

‘‘मुझे लड़की पसंद है पापाजी,’’ रोहित मुसकराते हुए बोला.

‘‘भई मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी,’’ रोहित के पापा हंसते हुए बोले.

‘‘पापाजी एक बात कहनी थी,’’ रोहित ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ अलका के पापा कुछ घबराते हुए बोले.

‘‘पापीजी आप डर क्यों रहे हैं? बस इतना कहना है कि जितनी भी रस्में हैं शादी सहित सब 1 महीने में ही कर दीजिए.’’

‘‘पर 1 महीने में हम पूरी तैयारी कैसे करेंगे बेटा? कुछ और समय दो.’’

‘‘बात यह है पापाजी मुझे आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना है तो मैं सोच रहा इस बीच में शादी भी निबटा ली जाए ताकि अलका भी मेरे साथ अमेरिका चले.’’

‘‘ठीक कह रहा है रोहित. वैसा ही करते हैं. क्यों रोहित की मां?’’ रोहित के पापा बोले.

‘‘जैसा आप लोग ठीक समझें,’’ अनमने से भाव से रोहित की मम्मी बोलीं.

अगले दिन रोहित अपने कमरे में बैठा था. तभी उस की मम्मी चाय ले कर आईं.

‘‘मैं जानता हूं मम्मी आप क्यों परेशान हो… लेकिन आप को मुझ से वादा करना पड़ेगा कि जो कुछ भी मैं आप को बताऊंगा उसे आप किसी से भी शेयर नहीं करेंगी.’’

‘‘चल वादा किया… अब तू इस आननफानन की शादी की मतलब बता.’’

रोहित ने उन्हें उस ऐक्सीडैंट से ले कर सारी बात बताई और वादा लिया कि वे किसी से भी इस बारे में कोई बात नहीं करेंगी यहां तक कि रोहित के पापा और अलका के किसी भी घर वाले से नहीं.

इस तरह चट मंगनी पट ब्याह कर के आज अलका और रोहित हनीमून पर जा रहे हैं. अलका आज बहुत भावुक थी.

रोहित से कहा, ‘‘आप ने न सिर्फ मेरी इज्जत बचाई, बल्कि मेरे पूरे परिवार की भी इज्जत बचा कर मुझे उन की नजरों से गिरने से बचा लिया. मैं आप का यह कर्ज कभी नहीं उतार पाऊंगी.’’

‘‘अलका अब अपने मन पर कोई बोझ मत रखो. जो हुआ उस में न तो तुम्हारा कोई दोष था न उस अनजाने का और न ही इस छोटी सी जान का जो इस दुनिया में अभी आई भी नहीं है. अब यह जो भी आएगा या आएगी वह मेरा ही अंश होगा, बस यह मानना.’’

तभी एअरहोस्टेस की आवाज गूंजी, ‘‘कृपया सभी यात्री अपनीअपनी सीट बैल्ट बांध लें.

Famous Hindi Stories : झूठ बोले कौआ काटे

प्रेम नेगी काफी चिंतित था. शहर में नौकरी तो मिल गई, मगर मकान नहीं मिल रहा था. कई जगह भटकता रहा. उसे कभी मकान पसंद आता, तो किराया ज्यादा लगता. कहीं किराया ठीक लगता, तो बस्ती और माहौल पसंद नहीं पड़ता था. कहीं किराया और मकान दोनों पसंद पड़ते, तो वह अपने कार्यस्थल से काफी दूर लगता. क्या किया जाए, समझ नहीं आ रहा था. आखिर कब तक होटल में रहता. उसे वह काफी महंगा पड़ रहा था.

यों ही एक महीना बीतने पर उस की चिंता और ज्यादा बढ़ गई. एक दोपहर लंच के समय उस ने अपने सीनियर सहकर्मचारियों से अपनी परेशानी कह दी. उस की परेशानी सुन कर वे हंस पड़े.

“बेचारा आशियाना ढूंढ़ रहा है,” एक बुजुर्ग बोल पड़े.

आखिर क्लर्क के ओहदे पर कार्यरत एक शख्स उस की मदद में आया. ओम तिवारी नाम था उस का. लंबा कद. घुंघराले बाल. मितभाषी. वह पिछले 6 साल से यहां कार्यरत था.

“शाम को मेरे साथ चलना,” वह बोला.

उस शाम ओम तिवारी उसे अपनी बाइक पर बिठा कर निकल पडा.  20 मिनट राइड करने के बाद दोनों एक भीड़भाड़ गली से गुजर कर संकरी गली में आए, जिस के दोनों ओर कचोरी, समोसे और गोलगप्पे लिए ठेले वाले खड़े थे और युवक, युवतियां और बच्चे खड़ेखड़े खाने में व्यस्त थे.

कुछ पल के बाद वे एक खुले से मैदान में आए, जहां कुछ मकान दिखाई पड़े. ट्रैफिक के शोरगुल से दूर वहां शांति थी. कुछ मकान को पार करते हुए वे एक डुप्लैक्स के सामने आ कर रुके. बरांडे का गेट खोल कर अंदर प्रवेश किया.

डोर बेल बजाते ही दरवाजा खुला और एक अधेड़ उम्र के आदमी ने उन्हें देखते ही स्वागत किया, “अरे ओम, तुम यहां…”

“चाचाजी, ये मेरे दोस्त हैं प्रेम नेगी,” उस ने तुरंत काम की बात कर डाली, “ये हाल ही में दफ्तर में कैशियर के ओहदे पर नियुक्त हुए हैं. इन्हें किराए पर मकान चाहिए. और मुझे याद आया कि आप का मकान खाली है,“ फिर प्रेम नेगी की तरफ मुड़ कर वह बोला, “ये मेरे चाचाजी हैं, कमल शर्मा. हाल ही में हाईकोर्ट में क्लर्क के ओहदे से रिटायर हुए हैं.“

चाचा कमल शर्मा ने उस छोरे को सिर से पांव तक निरखा और फिर अपने भतीजे की ओर देख कर बोला, “ठीक है, मगर एक शर्त है. आप शादीशुदा हैं तो ही मैं अपना मकान किराए पर दूंगा. वरना मेरा तजरबा है कि कई कुंवारे छोरे यहां बाजारू लड़कियों को लाना शुरू कर देते हैं.“

“लेकिन, मैं तो शादीशुदा हूं,” प्रेम नेगी तुरंत बोल पड़ा और फिर अपने दोस्त ओम तिवारी की तरफ देख कर बोला, “मैं मकान मिलते ही अपनी घरवाली को ले आऊंगा.”

“ठीक है, आइए और मकान देख लीजिए.”

मकान मालिक कमल शर्मा ने उठ कर उन्हें अपने साथ ले कर बगल में जो खाली मकान था, वह दिखा दिया. मकान में 2 कमरे, रसोई और आगे आलीशान बरांडा था. कमरों में अटैच टौयलेट बाथरूम भी थे. उसे मकान पसंद आया.

“किराया 5,000 रुपए प्रति माह,” मकान मालिक कमल शर्मा ने प्रेम नेगी को किराया बता दिया.

फिर चाचा ने अपने भतीजे की तरफ देख कर कहा, “वैसे तो 6 महीने का किराया एडवांस लेने का दस्तूर है, लेकिन क्योंकि तुम्हें मेरा भतीजा ले कर आया है, मैं तुम से सिर्फ 3 महीने का एडवांस लूंगा. बोलो, है मंजूर?”

“मंजूर है,“ प्रेम नेगी खुशी से बोल पडा.

वह अगले ही दिन किराए के मकान में रहने आ गया. उसे मकान तो मिल गया, लेकिन झूठ बोल कर. वह शादीशुदा नहीं था. मकान मालिक से उस ने झूठ बोला था. यहां तक कि ओम तिवारी भी समझ रहा था कि वह शादीशुदा था.

2 सप्ताह यों ही बीत गए, फिर एक रोज मकान मालिक कमल शर्मा ने उस से पूछ ही लिया, “कब ला रहे हो अपनी बीवी को?”

यह सुन कर वह चौंक गया. दिनरात उपाय सोचने लगा. क्या किया जाए? बीवी को कहां से लाए?

एक दोपहर लंच के समय वह खाना खा कर अपनी केबिन में आराम से कुरसी पर आंखें मूंदे बैठा था कि उसे एक लड़की की आवाज सुनाई पड़ी.

“क्या आप ही प्रेम नेगी हैं?” अपनी आंखें खोलते ही वह हैरान रह गया.

एक अत्यंत खूबसूरत लंबे कद वाली, गोल चेहरे पर बड़ी आंखें और कमर तक झुके हुए लंबे बाल, गुलाबी सलवार और हलके हरे कमीज पर सफेद दुपट्टा ओढ़े हुए लड़की उस के सामने थी.

“जी,” वह बोल पड़ा, “कहिए, क्या काम है?”

“मैं रितू कश्यप हूं. 2 दिन पहले ही औडिट सैक्शन में कंप्यूटर औपरेटर की हैसियत से ज्वौइन किया है. मैं ने सुना है कि आप ने हाल ही में अपने लिए मकान ढूंढ़ा है. क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं मकान ढूंढ़ने में?”

“जी,” वह एकदम से हड़बड़ा गया, ”आ… आप को मकान चाहिए?” इतना कह कर वह गहरी सोच में डूब गया.

उस के भीतर से आवाज आने लगी. यही मौका है, हां कर दे. इसे ही अपने साथ कमरे में रख ले झूठमूठ अपनी पत्नी बना कर. मगर क्या वह इस के लिए राजी होगी?

“शाम को दफ्तर से छूटते ही मुझे मिलना. मैं जरूर आप की मदद कर दूंगा,” उस ने लड़की को आश्वस्त करते हुए कहा.

शाम को दफ्तर से छूटते ही वह रितू को औटोरिकशा में अंबेडकर पार्क ले आया. दोनों एक बेंच पर बैठे. उस ने थोड़ी देर सोचा. बात कहां से शुरू की जाए. फिर वह बोला, “देखिए रितूजी, मैं आप से झूठ नहीं बोलूंगा. सच ही कहूंगा. मैं ने किराए का मकान झूठ बोल कर लिया है. सरासर झूठ…”

“कैसा झूठ…?“ रितू ने पूछा.

“यही कि मैं शादीशूदा हूं. वैसे, मैं अभी कुंवारा हूं.”

“लेकिन, इस से मुझे क्या…?” रितू ने पूछ लिया.

“यदि तुम्हें मेरे मकान का एक कमरा चाहिए, तो तुम्हें मेरी पत्नी बन कर रहना पड़ेगा, वरना मुझे भी वो मकान खाली करना पड़ेगा.”

“पत्नी बन कर…” वह आश्चर्यचकित रह गई. फिर लड़के को घूरती रही. दिखने में तो अच्छा है. भला भी लगता है. वह सोचने लगी. फिर कालेज में तो बहुत नाटक किए हैं. कई स्मार्ट लडकों को अपने पीछे लट्टू बना कर घुमाया है. एक और नाटक सही. देखते हैं कि कहां तक सफलता हासिल होती है.

“मंजूर है,” वह आत्मविश्वास के साथ बोली.

“क्या…?” वह हक्काबक्का सा रह गया. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि कोई लड़की इतनी जल्दी इतना बड़ा निर्णय ले सकती है.

“क्या तुम भी मेरे साथ झूठ बोल कर रहोगी?”

“बिलकुल,” वह बोली, ”चलिए, मकान दिखाइए.”

“देखिए रितूजी, ये झूठ सिर्फ मेरे और तुम्हारे बीच ही रहेगा. हमारा मकान मालिक और दफ्तर का कोई भी इस राज को जान न पाए, ध्यान रहे… ये सिर्फ नाटक है,” उस ने चेतावनी दे कर कहा.

“आप बेफिक्र रहिए. चलिए, मकान देखते हैं.“

अगले दिन सवेरेसवेरे रितू अपना सूटकेस ले कर प्रेम के घर चली आई. उस ने मकान के कमरों का निरीक्षण किया. दोनों कमरे अलगअलग थे और दोनों में अटैच बाथरूम और टौयलेट देख कर वह हंस पड़ी.

“वाह, कमरे तो बिलकुल अलग हैं. हम दोनों आराम से अलगअलग रह सकते हैं.”

प्रेम ने मकान मालिक को बुला कर रितू का परिचय अपनी बीवी के तौर पर करवा दिया.

“रितू को यहां एक स्कूल में टीचर की नौकरी मिली है. उस का समय भी दफ्तर की तरह ही 11बजे से 5 बजे है. हम दोनों साथ ही काम पर जाएंगे और लौटेंगे.”

“ठीक ही हुआ. तुम जल्दी ही अपनी बीवी को ले आए,” मकान मालिक ने भी खुश होते हुए कहा.

और फिर नाटक शुरू हो गया.

प्रेम और रितू एकसाथ मकान में रहने लगे, मियांबीवी की तरह. दोनों का प्रवेश द्वार एक ही था, लेकिन बरांडा पार करते हुए दोनों अलगअलग कमरे में दाखिल हो जाते. दोनों साथसाथ दफ्तर जाते और छूटने के बाद बाजार में घूम कर रैस्टोरैंट में शाम का खाना खा कर ही घर लौटते. एकाध महीने बाद ही प्रेम अपने गांव से बाइक भी ले आया. फिर दोनों हमेशा बाइक पर एकसाथ नजर आने लगे. दफ्तर में किसी को जरा सा भी शक नहीं हुआ. यहां तक कि ओम तिवारी को भी नहीं.

दिन तो व्यस्तता में गुजर जाता, लेकिन रात को दोनों अलगअलग कमरे में बिस्तर में लेटे सोचने लगते. प्रेम सोचता, “क्या अजीब परिस्थिति है? कुंवारा होते हुए भी शादीशुदा होने का नाटक करना पड़ रहा है, वह भी एक खूबसूरत लड़की के साथ.”

रितू कभीकभार रात में कुछ आहट सुनते ही जाग उठती. कहीं वह बंदा मेरे कमरे में आने की कोशिश तो नहीं कर रहा? क्या भरोसा? मौका मिलते ही पतिपत्नी के नाटक को सही बना दे. वाह रितू, तू ने भी बड़ी हिम्मत की है. मर्द के साथ रात बिता रही है. यदि कोई अनहोनी हो गई तो…?

व्यस्त दुनिया में कोई क्या कर रहा है, कैसे जी रहा है, यह सोचने की किसी को तनिक भी फुरसत नहीं होती. लेकिन जहां किसी लड़केलड़की के संदिग्ध संबंधों की बात आती है, वहां झूठ ज्यादा देर तक छुपा नहीं रहता और सच सिर चढ़ कर बोलता है. भूख, बीमारी, गरीबी व गंदगी सहन करने वाला समाज यदि कोई अनैतिक संबंधों के बारे में पता चल जाए तो फिर उसे कतई सहन नहीं कर सकता. फिर यदि कुंवारे लड़कालड़की हों, तो फिर बात ही क्या है?

दफ्तर में ओम तिवारी को भी भनक लग गई.

“रितू को नकली बीवी बना कर बड़े मजे लूट रहे हो यार… कभीकभार हमें भी मौका दे दिया करो. आखिर मकान तो हम ने ही दिलवाया है. खाली भी करवा सकते हैं. समझे?“

यह सुन कर प्रेम नेगी के पांव तले जमीन सरक गई.

शाम को उस ने रितू से कहा, “हमारा झूठ पकड़ा गया है. ओम तिवारी को इस का पता चल गया है. वह हमारे मकान मालिक को जरूर बता देगा.”

रितू के चेहरे पर भी चिंता की रेखाएं उभर आईं.

उस रात प्रेम नेगी को नींद नहीं आई. उसे यकीन हो गया कि उस का झूठ अब ज्यादा चलने वाला नहीं था. फिर उसे डर था कि उस की इस मजबूरी का फायदा उठाते हुए कहीं ओम तिवारी उस के घर आ कर रितू के साथ जबरदस्ती न करने लगे. उस की नीयत ठीक नहीं थी. उसे रात भयानक लगने लगी थी. उस ने तय कर लिया कि सवेरे सबकुछ मकान मालिक को सहीसही बता देगा. उस ने अपने सेलफोन की घड़ी में देखा तो रात के साढ़े बारह बज चुके थे, तभी किसी ने उस का दरवाजा खटखटाया.

“नेगी… दरवाजा खोलो. मैं हूं शर्मा… मकान मालिक.”

“इतनी रात… मकान मालिक,“ वह हड़बड़ा गया.

कुछ पल वह सोचता रहा कि दरवाजा खोले या नहीं. खटखटाहट दोबारा हुई.

बिस्तर से उठ कर उस ने दरवाजा खोला.

“नेगीजी… बड़े मजे लूट रहे हो यार,” ओम तिवारी ने कुछ बहक कर कहा. उस ने शराब पी रखी थी और मकान मालिक कमल शर्मा मुसकरा रहा था. वह बोला, “आज की रात ओम यहीं सोएगा, तुम्हारे साथ.”

फिर वे दोनों बेझिझक अंदर घुस आए. ओम तिवारी के हाथ में शराब की बोतल थी और वह नशे में था. मकान मालिक कमल शर्मा के मुंह से भी बदबू आ रही थी. मेज पर बोतल रख कर ओम तिवारी सोफे पर बैठ गया और बहकी हुई आवाज में बोला, “कहां है तुम्हारी नकली बीवी? महबूबा… आज तो हमें उस से ही मिलना है.”

“ तिवारीजी….देखिए रितू बीमार है और अपने कमरे में सो रही है,” वह गिड़गिड़ाने लगा.

फिर उस ने मकान मालिक कमल शर्मा के सामने अत्यंत दीन हो कर कहा, “माफ कीजिए. मैं ने झूठ बोला था. रितू मेरी बीवी नहीं, बल्कि मेरे ही दफ्तर में कार्यरत है. उसे भी मकान की जरूरत थी, इसलिए मैं उसे यहां ले आया. गलती मेरी है. मैं ने झूठ बोला था. आप कहें तो हम कल ही मकान खाली कर देंगे.”

“छोड़ यार… मकान खाली करने को कौन कहता है?” ओम तिवारी नशे में बोल पड़ा, “मुझे तो सिर्फ रितू चाहिए. तुम अकेलेअकेले मजे लूटते हो. आज हमें भी उस का स्वाद चखने दो.”

ओम तिवारी लड़खड़ाता हुआ अंदर के किवाड़ की तरफ आगे बढ़ा, जहां पर रितू सोई हुई थी. उस ने जोर से धक्का दे कर दरवाजा खोलने की कोशिश की.

“दरवाजा खोल जानेमन, हम भी प्रेम के जिगरी दोस्त हैं.”

“नहीं तिवारी, तुम ऐसा नहीं कर सकते,” चीख कर प्रेम उस की ओर लपका और उसे धक्का दे कर दरवाजे से दूर धकेल दिया. मकान मालिक कमल शर्मा ने तभी उस की तरफ लपक कर उसे अपने दोनों हाथों से जकड़ लिया, फिर वहीं पर दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई.

प्रेम नेगी ने मकान मालिक कमल शर्मा को 2-3  घूंसे जड़ दिए. उधर ओम तिवारी ने जोर से दरवाजे पर लात मारी और दरवाजा खुल गया. कमरे में अंधेरा था. ओम तिवारी ने प्रवेश किया.

“ओह,” अंदर घुसते ही वह जोर से चीखा, जैसे उस पर किसी ने करारा वार किया हो. कमल शर्मा की गिरफ्त से छूटने की कोशिश करते हुए प्रेम चिल्लाया, “रितू, यहां से भाग निकल.” तभी कमरे में लाइट जली और हाथ में टूटा हूआ गुलदस्ता लिए रितू कमरे से बाहर आई.

“छोड़ दे बदमाश, वरना इसी गुलदस्ते से तेरा भी सिर फोड़ दूंगी.”

मकान मालिक कमल शर्मा की तरफ आंखें तरेर कर रितू ने  देखा. कमल शर्मा ने सहम कर देखा, कमरे में ओम तिवारी बेहोश पड़ा हुआ है. उस ने झट से प्रेम को छोड़ दिया.

“रितू, तुम ठीक तो हो,” प्रेम उस की ओर दौड़ आया.

तभी वहां आंगन में पुलिस की जीप आ कर रुकी और तुरंत 2 पुलिस वाले और एक महिला अफसर अंदर आ पहुंचे.

“रितू कश्यप आप हैं?” महिला अफसर ने रितू की तरफ देख कर पूछा.

“ जी मैडम, ये मेरे मकान मालिक हैं- कमल शर्मा और वो जो कमरे में शराब के नशे में धुत्त पड़ा है, वो ओम तिवारी मेरे ही दफ्तर में काम करता है. इन दोनों ने हमारे घर में घुस कर मेरे पति को पीटा और मुझ पर बलात्कार करने की कोशिश की. इन्हें गिरफ्तार कीजिए. कल सुबह हम दोनों थाने आ कर रिपोर्ट लिखवा देंगे.“

“मैं… मैं बेकुसूर हूं,”  बोलतेबोलते मकान मालिक कमल शर्मा की घिग्घी बंध गई. 2 पुलिस वाले बेहोश ओम तिवारी को उठा कर ले गए और महिला अफसर ने मकान मालिक कमल शर्मा को धक्का दे कर कमरे से बाहर धकेल किया.

पुलिस की जीप के जाते ही प्रेम और रितू ने एकदूसरे की ओर बड़े प्यार से देखा.

“रितू… ये पुलिस, तुम ने बुलाई थी?” वह आश्चर्यचकित हो उठा.

“बिलकुल…” रितू ने कहा, “खतरा भांप कर मैं ने ही महिला सुरक्षा हेल्पलाइन पर अपने मोबाइल से फोन कर दिया था.”

“तुम सचमुच बहादुर हो,” कह कर प्रेम ने उस का हाथ चूम लिया.

“तुम भी तो बड़े प्यारे हो, जो मेरी खातिर अपनी जान जोखिम में डाल उन बदमाशों से भिड़ गए,” रितू ने भी प्रेम के गालों पर हलकी सी चुम्मी ले ली.

“मगर, तुम ने झूठ क्यों बोला?” प्रेम ने मुसकरा कर पूछा, “हम पतिपत्नी तो हैं नहीं, फिर कल थाने में रिपोर्ट कैसे लिखवाएंगे?”

“कोई बात नहीं,” रितू खुशी से बोल पड़ी, “कल सुबह 11 बजे हम शादी पंजीकरण के लिए अदालत जाएंगे, फिर कानूनी तौर पर पतिपत्नी बन कर पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाएंगे. आखिर कब तक झूठ बोलते रहेंगे? वह कहावत है न, झूठ बोले कौआ काटे. बोलो है मंजूर?”

“मंजूर है, मंजूर… बीवीजी,” प्रेम ने उसे आलिंगन में जकड़ लिया.

Moral Stories in Hindi : मौडर्न सिंड्रेला

Moral Stories in Hindi : आज मयंक ने मनाली को खूब शौपिंग करवाई थी. मनाली काफी खुश लग रही थी. उसे खुश देख कर मयंक भी अच्छा महसूस कर रहा था. वैसे वह बड़ा फ्लर्ट था, पर मनाली के लिए वह बिलकुल बदल गया था. मनाली से पहले भी उस की कई गर्लफ्रैंड्स रह चुकी थीं, पर जैसी फीलिंग उस के मन में मनाली के प्रति थी वैसी पहले किसी के लिए नहीं रही.

‘‘चलो, तुम्हें घर ड्रौप कर दूं,’’ मयंक ने कहते ही मनाली के लिए कार का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहीं मयंक, मुझे निमिशा दीदी का कुछ काम करना है इसलिए आप चले जाइए. मैं घर चली जाऊंगी,’’ प्यार से मुसकराते हुए मनाली निकल गई. फिर उस ने फोन कर के कोको स्टूडियो में पता किया कि कोको सर आए हैं कि नहीं. उसे आज हर हाल में फोटोशूट करवाना था. कैब बुक कर के वह कोको स्टूडियो पहुंच गई. तभी उसे याद आया, ‘आज तो ईशा मैम की क्लास है. उन की क्लास मिस करना बड़ी बात थी. वे क्लास बंक करने वाले स्टूडैंट्स को प्रैक्टिकल में बहुत कम नंबर देती थीं. तुरंत कीर्ति को फोन कर रोनी आवाज में दुखड़ा रोया, ‘‘प्लीज मेरी हाजिरी लगवा देना. चाची और निमिशा दीदी ने सुबह से जीना हराम कर रखा है.’’

‘‘ओह, तुम परेशान मत हो,’’ कीर्ति उसे दुखी नहीं देख सकती थी. वह समझती थी कि चाचाचाची मनाली को बहुत तंग करते हैं. तभी कोको सर भी आ गए. मौडलिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया था उन्होंने. हां, थोड़े सनकी जरूर थे पर मौलिक, कल्पनाशील लोग ज्यादातर ऐसे होते ही हैं. कोको सर ने मनाली को ध्यान से देखा और उस पर बरस पड़े, ‘‘तुम्हें वजन कम करने की जरूरत है. मैं ने पहले भी तुम्हें बताया था. आज तुम्हारा फोटोशूट नहीं हो सकेगा.’’‘‘बुरा हो इस मयंक का और कालेज के अन्य दोस्तों का. जबतब जबरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं,’’ मनाली आगबबूला हो कर स्टूडियो से बड़बड़ाती हुई निकली. घर पहुंची तो चाची ने चुपचाप खाना परोस दिया. चाची उस से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं पर उस का खयाल अवश्य रखती थीं.

उस ने खाने की प्लेट की तरफ देखा तक नहीं, क्योंकि अब उस पर डाइटिंग का भूत सवार हो चुका था. रात का खाना भी उस ने नहीं खाया तो चाचाचाची को चिंता हुई. वैसे भी वह चाचा की लाड़ली थी. वे उसे अपने तीनों बच्चों की तरह ही प्यार करते थे. मनाली के मातापिता का तलाक हो गया था. उस की मां ने एक एनआरआई डाक्टर के साथ दूसरी शादी कर ली थी और अमेरिका में ही सैटल हो गई थीं. वहीं पिता कैंसर के मरीज थे. मनाली जब 8 वर्ष की थी तभी उन की मृत्यु हो गई थी. कुछ समय बूआ के पास रहने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे चंडीगढ़ चाचाचाची के पास भेजा गया. पढ़ाईलिखाई में मनाली का मन कम ही लगता था जबकि चाचा के तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे थे. चाची उसे भी पढ़ने को कहतीं पर मनाली पर उस का कम ही असर होता था. इंटर में गिरतेपड़ते पास हुई तो चाचा उस के अंक देख कर चकराए. ‘‘किस कालेज में दाखिला मिलेगा?’’

इस का हल भी मनाली ने सोच लिया था. वह चाचा को आते देख कर किसी न किसी काम में जुट जाती. यह देख कर चाचा चाची पर खूब नाराज होते. उस के कम अंक आने का जिम्मेदार चाचा ने चाची और बड़ी बेटी निमिशा को मान लिया था. खैर, जैसेतैसे चाचा ने मनाली का ऐडमिशन अच्छे कालेज में करा दिया था. कालेज में भी मनाली ने सब को चाची और निमिशा के अत्याचारों के बारे में बता कर सहानुभूति अर्जित कर ली थी. चाचा की छोटी बेटी अनीशा की मनाली के साथ अच्छी बनती थी. अनीशा थोड़ी बेवकूफ थी और अकसर मनाली की बातों में आ जाती थी. दोनों बाहर जातीं और देर होने पर मनाली अनीशा को आगे कर देती. बेचारी को चाचाचाची से डांट खानी पड़ती. चाची मनाली की चालाकियां खूब समझती थीं पर अनीशा मनाली का साथ छोड़ने को तैयार न थी. उस का लैपटौप, फोन, मेकअप का सामान मनाली खूब इस्तेमाल करती थी.

एक दिन अनीशा ने उसे बताया कि वह एक लड़के को पसंद करती है. पापा के दोस्त का बेटा है. उस की पार्टी में ही मुलाकात हुई थी. अनीशा ने मनाली को मयंक से मिलवाया. मयंक बहुत हैंडसम था और अमीर बाप की इकलौती संतान. मनाली ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह कैसे भी मयंक को हासिल कर के रहेगी. ‘‘देखो मयंक, मैं कहना तो नहीं चाहती पर अनीशा को साइकोसिस की बीमारी है.’’ मनाली ने भोली सी सूरत बना कर कहा.

‘‘क्या?’’ मयंक तो हैरान रह गया था.

‘‘प्लीज, तुम यह बात अनीशा और उस की फैमिली से मत कहना. तुम्हें तो पता ही है न उस घर में मेरी क्या हैसियत है.’’

मयंक मनाली की बातों में आ गया. और उस ने अनीशा के प्रति अपना नजरिया बदल लिया. उधर अनीशा को मयंक का व्यवहार कुछ अलग लगने लगा. उस के फोन उठाने भी उस ने बंद कर दिए. अनीशा ने मनाली को इस बारे में बताया तो उस ने आंखें मटकाते हुए समझाया, ‘‘मयंक को मैं ने एक नामी मौडल के साथ देखा है. वह उस की गर्लफ्रैंड है. तुम उसे भूल जाओ.’’ मनाली को तसल्ली हो गई कि अनीशा के भी अंक इस बार कम ही आएंगे. अच्छा हो, दोनों ही डांट खाएं. एक दिन चाचा के बेटे मनीष ने उसे कालेज टाइम में मयंक के साथ घूमते देख लिया. घर आ कर चाचाचाची के सामने मनाली की पोल खुली. ‘‘मैं तो मयंक की खबर लेने गई थी कि उस ने अनीशा का दिल दुखाया,’’ सुबकते हुए मनाली ने कारण बताया. बात बनाना उसे खूब आता था. घर वालों को अनीशा की उदासी का कारण भी पता चला. अनीशा मनाली से नाराज होने के बजाय उस से लिपट गई, ‘‘इस घर में एक तुम ही हो, जिसे मेरी फिक्र है.’’ खैर, कड़ी मेहनत के बाद मनाली ने वजन घटा ही लिया. फोटोशूट भी हो गया और चोरीछिपे एक दो असाइनमैंट भी मिल गए.

एक दिन मयंक से उस ने साफसाफ पूछा, ‘‘मयंक, मैं चाचाचाची के पास रहते हुए तंग आ चुकी हूं. मुंबई में मेरी मौसी रहती हैं. क्या, तुम कुछ समय के लिए मेरी मदद कर सकते हो?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारे रहने का बंदोबस्त कर देता हूं. तुम बस मुझे बताओ कि तुम्हें कितनी रकम चाहिए,’’ मयंक सोच रहा था कि मनाली मुंबई जा कर मौसी के पास रह कर अपनी पढ़ाई करना चाहती है. उस ने ढेर सारी रकम और एटीएम कार्ड मनाली को दिया और निश्चित तारीख का टिकट भी पकड़ा दिया. चाचाचाची से कालेज ट्रिप का बहाना बना कर मुंबई जाने का रास्ता मनाली ने खोज लिया था. ‘वापसी शायद अब कभी न हो,’ सोच कर मंदमंद मुसकराती मौडर्न सिंड्रेला मुंबई की उड़ान भर चुकी थी. उसे खुद पर और उस से भी ज्यादा लोगों की बेवकूफी पर भरोसा था कि वह जो चाहेगी वह पा ही लेगी.

Latest Hindi Stories : राहें जुदा जुदा – निशा और मयंक की कहानी ने कौनसा लिया नया मोड़

Latest Hindi Stories : ‘‘निशा….’’ मयंक ने आवाज दी. निशा एक शौपिंग मौल के बाहर खड़ी थी, तभी मयंक की निगाह उस पर पड़ी. निशा ने शायद सुना नहीं था, वह उसी प्रकार बिना किसी प्रतिक्रिया के खड़ी रही. ‘निशा…’ अब मयंक निशा के एकदम ही निकट आ चुका था. निशा ने पलट कर देखा तो भौचक्की हो गई. वैसे भी बेंगलुरु में इस नाम से उसे कोई पुकारता भी नहीं था. यहां तो वह मिसेज निशा वशिष्ठ थी. तो क्या यह कोई पुराना जानने वाला है. वह सोचने को मजबूर हो गई. लेकिन फौरन ही उस ने पहचान लिया. अरे, यह तो मयंक है पर यहां कैसे?

‘मयंक, तुम?’ उस ने कहना चाहा पर स्तब्ध खड़ी ही रही, जबान तालू से चिपक गई थी. स्तब्ध तो मयंक भी था. वैसे भी, जब हम किसी प्रिय को बहुत वर्षों बाद अनापेक्षित देखते हैं तो स्तब्धता आ ही जाती है. दोनों एकदूसरे के आमनेसामने खड़े थे. उन के मध्य एक शून्य पसरा पड़ा था. उन के कानों में किसी की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पूरा ब्रह्मांड ही थम गया हो, धरती स्थिर हो गई हो. दोनों ही अपलक एकदूसरे को निहार रहे थे. तभी ‘एक्सक्यूज मी,’ कहते हुए एक व्यक्ति दोनों के बीच से उन्हें घूरता हुआ निकल गया. उन की निस्तब्धता भंग हो गई. दोनों ही वर्तमान में लौट आए.

‘‘मयंक, तुम यहां कैसे? क्या यहां पोस्टेड हो?’’ निशा ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘नहीं, मेरी कंपनी की ओर से एक सैमिनार था उसी को अटैंड करने आया हूं. तुम बताओ, कैसी हो, निशा,’’ उस ने तनिक आर्द्र स्वर में पूछा.

‘‘क्यों, कैसी लग रही हूं?’’ निशा ने थोड़ा मुसकराते हुए नटखटपने से कहा.

अब मयंक थोड़ा सकुंचित हो गया. फिर अपने को संभाल कर बोला, ‘‘यहीं खड़ेखड़े सारी बातें करेंगे या कहीं बैठेंगे भी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, चलो इस मौल में एक रैस्टोरैंट है, वहीं चल कर बैठते हैं.’’ और मयंक को ले कर निशा अंदर चली गई. दोनों एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गए. धूमिल अंधेरा छाया हुआ था. मंदमंद संगीत बज रहा था. वेटर को मयंक ने 2 कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम का और्डर दिया.

‘‘तुम्हें अभी भी मेरी पसंदनापंसद याद है,’’ निशा ने तनिक मुसकराते हुए कहा.

‘‘याद की क्या बात है, याद तो उसे किया जाता है जिसे भूल जाया जाए. मैं अब भी वहीं खड़ा हूं निशा, जहां तुम मुझे छोड़ कर गई थीं,’’ मयंक का स्वर दिल की गहराइयों से आता प्रतीत हो रहा था. निशा ने उस स्वर की आर्द्रता को महसूस किया किंतु तुरंत संभल गई और एकदम ही वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों के चोले में आ गई.

‘‘और सुनाओ मयंक, कैसे हो? कितने वर्षों बाद हम मिल रहे हैं. तुम्हारा सैमिनार कब तक चलेगा. और हां, तुम्हारी पत्नी तथा बच्चे कैसे हैं?’’ निशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘उफ, निशा थोड़ी सांस तो ले लो, लगातार बोलने वाली तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं,’’ मयंक ने निशा को चुप कराते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा, अब कुछ नही बोलूंगी, अब तुम बोलोगे और मैं सुनूंगी,’’ निशा ने उसी नटखटपने से कहा.

मयंक देख रहा था आज 25 वर्षों बाद दोनों मिल रहे थे. उम्र बढ़ चली थी दोनों की पर 45 वर्ष की उम्र में भी निशा के चुलबुलेपन में कोई भी कमी नहीं आई थी जबकि मयंक पर अधेड़ होने की झलक स्पष्ट दिख रही थी. वह शांत दिखने का प्रयास कर रहा था किंतु उस के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह बहुतकुछ पूछना चाह रहा था. बहुतकुछ कहना चाह रहा था. पर जबान रुक सी गई थी.

शायद निशा ने उस के मनोभावों को पढ़ लिया था, संयत स्वर में बोली, ‘‘क्या हुआ मयंक, चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’

‘‘अ…हां,’’ मयंक जैसे सोते से जागा, ‘‘निशा, तुम बताओ क्या हालचाल हैं तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं? तुम खुश तो हो न?’’

निशा थोड़ी अनमनी सी हो गई, उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मयंक के प्रश्नों का क्या उत्तर दे. फिर अपने को स्थिर कर के बोली, ‘‘हां मयंक, मैं बहुत खुश हूं. आदित्य को पतिरूप में पा कर मैं धन्य हो गई. बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित, संपन्न परिवार के इकलौते पुत्र की वधू होने के कारण मेरी जिंदगी में चारचांद लग गए थे. मेरे ससुर का साउथ सिल्क की साडि़यों का एक्सपोर्ट का व्यवसाय था. कांजीवरम, साउथ सिल्क, साउथ कौटन, बेंगलौरी सिल्क मुख्य थे. एमबीए कर के आदित्य भी उसी व्यवसाय को संभालने लगे. जब मैं ससुराल में आई तो बड़ा ही लाड़दुलार मिला. सासससुर की इकलौती बहू थी, उन की आंखों का तारा थी.’’

‘‘विवाह के 15 दिनों बाद मुझे थोड़ाथोड़ा चक्कर आने लगा था और जब मुझे पहली उलटी हुई तो मेरी सासूमां ने मुझे डाक्टर को दिखाया. कुछ परीक्षणों के बाद डाक्टर ने कहा, ‘खुशखबरी है मांजी, आप दादी बनने वाली हैं. पूरे घर में उत्सव का सा माहौल छा गया था. सासूमां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. बस, आदित्य ही थोड़े चुपचुप से थे. रात्रि में मुझ से बोले,’ ‘निशा, मैं तुम्हारा हृदय से आभारी हूं.’

‘क्यों.’

मैं चौंक उठी.

‘क्योंकि तुम ने मेरी इज्जत रख ली. अब मैं भी पिता बन सकूंगा. कोई मुझे भी पापा कहेगा,’ आदित्य ने शांत स्वर में कहा.

‘‘मैं अपराधबोध से दबी जा रही थी क्योंकि यह बच्चा तुम्हारा ही था. आदित्य का इस में कोई भी अंश नहीं था. फिर भी मैं चुप रही. आदित्य ने तनिक रुंधी हुई आवाज में कहा, ‘निशा, मैं एक अधूरा पुरुष हूं. जब 20 साल का था तो पता चला मैं संतानोत्पत्ति में अक्षम हूं, जब दोस्त लोग लड़की के पास ले गए, अवसर तो मिला था पर उस से वहां पर कुछ ज्यादा नहीं हो सका. नहीं समझ पाता हूं कि नियति ने मेरे साथ यह गंदा मजाक क्यों किया? मांपापा को यदि यह बात पता चलती तो वे लोग जीतेजी मर जाते और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था. मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ने लगा और मैं कुछ भी कह सकने में असमर्थ था. सोचता था, मेरी पत्नी के प्रति यह मेरा अन्याय होगा और मैं निरंतर हीनता का शिकार हो रहा था.

‘मैं ने निर्णय ले लिया था कि मैं विवाह नहीं करूंगा किंतु मातापिता पर पंडेपुजारी दबाव डाल रहे थे. उन्हें क्या पता था कि उन का बेटा उन की मनोकामना पूर्र्ण करने में असमर्थ है. और फिर मैं ने उन की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कर दी. सोचा था कि घरवालों का तो मुंह बंद हो जाएगा. अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. यदि उसे मुझ से नफरत होगी तो उसे मैं आजाद कर दूंगा. जब तुम पत्नी बन कर आई तब मुझे बहुत अच्छी लगी. तुम्हारे रूप और भोलेपन पर मैं मर मिटा.

‘हिम्मत जुटा रहा था कि तुम्हें इस कटु सत्य से अवगत करा दूं किंतु मौका ही न मिला और जब मुझे पता चला कि तुम गर्भवती हो तो मैं समझ गया कि यह शिशु विवाह के कुछ ही समय पूर्व तुम्हारे गर्भ में आया है. अवश्य ही तुम्हारा किसी अन्य से संबंध रहा होगा. जो भी रहा हो, यह बच्चा मुझे स्वीकार्य है.’ कह कर आदित्य चुप हो गए और मैं यह सोचने पर बाध्य हो गई कि मैं आदित्य की अपराधिनी हूं या उन की खुशियों का स्रोत हूं. ये किस प्रकार के इंसान हैं जिन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया. किसी परपुरुष के बच्चे को सहर्ष अपनाने को तैयार हैं. शायद क्षणिक आवेग में किए गए मेरे पाप की यह सजा थी जो मुझे अनायास ही विधाता ने दे दी थी और मेरा सिर उन के समक्ष श्रद्धा से झुक गया.

‘‘9 माह बाद प्रसून का जन्म हुआ. आदित्य ने ही प्रसून नाम रखा था. ठीक भी था, सूर्य की किरणें पड़ते ही फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार आदित्य को देखते ही प्रसून खिल उठता था. हर समय वे उसे अपने सीने से लगाए रखते थे. रात्रि में यदि मैं सो जाती थी तो भी वे प्रसून की एक आहट पर जाग जाते थे. उस की नैपी बदलते थे. मुझ से कहते थे, ‘मैं प्रसून को एयरफोर्स में भेजूंगा, मेरा बेटा बहुत नाम कमाएगा.’

‘‘मेरे दिल में आदित्य के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, देखतेदखते 15 वर्ष बीत चुके थे. मैं खुश थी जो आदित्य मुझे पतिरूप में मिले. लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था. अकस्मात एक दिन एक ट्रक से उन की गाड़ी टकराई और उन की मौके पर ही मौत हो गई. तब प्रसून 14 वर्ष का था.’’

मयंक निशब्द निशा की जीवनगाथा सुन रहा था. कुछ बोलने या पूछने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी. क्षणिक मौन के बाद निशा फिर बोली, ‘‘आज मैं अपने बेटे के साथ अपने ससुर का व्यवसाय संभाल रही हूं. प्रसून एयरफोर्स में जाना नहीं चाहता था, अब वह 25 वर्ष का होने वाला है. उस ने एमबीए किया और अपने पुश्तैनी व्यवसाय में मेरा हाथ बंटा रहा है या यों कहो कि अब सबकुछ वही संभाल रहा है.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मयंक ने मुंह खोला, ‘‘निशा, तुम्हें अतीत की कोई बात याद है?’’

‘‘हां, मयंक, सबकुछ याद है जब तुम ने मेरे नाम का मतलब पूछा था और मैं ने अपने नाम का अर्थ तुम्हें बताया, ‘निशा का अर्र्थ है रात्रि.’ तुम मेरे नाम का मजाक बनाने लगे तब मैं ने तुम से पूछा, ‘आप को अपने नाम का अर्थ पता है?’

‘‘तुम ने बड़े गर्व से कहा, ‘हांहां, क्यों नहीं, मेरा नाम मयंक है जिस का अर्थ है चंद्रमा, जिस की चांदनी सब को शीतलता प्रदान करती है’ बोलो याद है न?’’ निशा ने भी मयंक से प्रश्न किया.

मयंक थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘और तुम ने कहा था, ‘मयंक जी, निशा है तभी तो चंद्रमा का अस्तित्व है, वरना चांद नजर ही कहां आएगा.’ अच्छा निशा, तुम्हें वह रात याद है जब मैं तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे घर आया था. हमारे बीच संयम की सब दीवारें टूट चुकी थीं.’’ मयंक निशा को अतीत में भटका रहा था.

‘‘हां,’’ तभी निशा बोल पड़ी, ‘‘प्रसून उस रात्रि का ही प्रतीक है. लेकिन मयंक, अब इन बातों का क्या फायदा? इस से तो मेरी 25 वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी. और वैसे भी, अतीत को वर्तमान में बदलने का प्रयास न ही करो तो बेहतर होगा क्योंकि तब हम न वर्तमान के होंगे, न अतीत के, एक त्रिशंकु बन कर रह जाएंगे. मैं उस अतीत को अब याद भी नहीं करना चाहती हूं जिस से हमारा आज और हमारे अपनों का जीवन प्रभावित हो. और हां मयंक, अब मुझ से दोबारा मिलने का प्रयास मत करना.’’

‘‘क्यों निशा, ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मयंक विचलित हो उठा.

‘‘क्योंकि तुम अपने परिवार के प्रति ही समर्पित रहो, तभी ठीक होगा. मुझे नहीं पता तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है पर इतना जरूर समझती हूं कि तुम्हें पा कर तुम्हारी पत्नी बहुत खुश होगी,’’ कह कर निशा उठ खड़ी हुई.

मयंक उठते हुए बोला, ‘‘मैं एक बार अपने बेटे को देखना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारा बेटा? नहीं मयंक, वह आदित्य का बेटा है. यही सत्य है, और प्रसून अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता है. वह तुम्हारा ही प्रतिरूप है, यह एक कटु सत्य है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता किंतु मातृत्व के जिस बीज का रोपण तुम ने किया उस को पल्लवित तथा पुष्पित तो आदित्य ने ही किया. यदि वे मुझे मां नहीं बना सकते थे, तो क्या हुआ, यद्यपि वे खुद को एक अधूरा पुरुष मानते थे पर मेरे लिए तो वे परिपूर्ण थे. एक आदर्श पति की जीवनसंगिनी बन कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं. मेरे अपराध को उन्होंने अपराध नहीं माना, इसलिए वे मेरी दृष्टि में सचमुच ही महान हैं.

‘‘प्रसून तुम्हारा अंश है, यह बात हम दोनों ही भूल जाएं तो ही अच्छा रहेगा. तुम्हें देख कर वह टूट जाएगा, मुझे कलंकिनी समझेगा. हजारों प्रश्न करेगा जिन का कोई भी उत्तर शायद मैं न दे सकूंगी. अपने पिता को अधूरा इंसान समझेगा. युवा है, हो  सकता है कोई गलत कदम ही उठा ले. हमारा हंसताखेलता संसार बिखर जाएगा और मैं भी कलंक के इस विष को नहीं पी सकूंगी. तुम्हें वह गीत याद है न ‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए…’

‘‘भूल जाओ कि कभी हम दो जिस्म एक जान थे, एक साथ जीनेमरने का वादा किया था. उन सब के अब कोई माने नहीं है. आज से हमारी तुम्हारी राहें जुदाजुदा हैं. हमारा आज का मिलना एक इत्तफाक है किंतु अब यह इत्तफाक दोबारा नहीं होना चाहिए,’’ कह कर उस ने अपना पर्स उठाया और रैस्टोरैंट के गेट की ओर बढ़ चली. तभी मयंक बोल उठा, ‘‘निशा…एक बात और सुनती जाओ.’’

निशा ठिठक गई.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया है, यह जीवन तुम्हारे ही नाम कर रखा है.’’ और वह रैस्टोरैंट से बाहर आ गया. निशा थोड़ी देर चुप खड़ी रही, फिर किसी अपरिचित की भांति रैस्टोरैंट से बाहर आ गई और दोनों 2 विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गए.

चलतेचलते निशा ने अंत में कहा, ‘‘मयंक, इतने जज्बाती न बनो. अगर कोई मिले तो विवाह कर लेना, मुझे शादी का कार्ड भेज देना ताकि मैं सुकून से जी सकूं.’’

Famous Hindi Stories : रोशनी – मां के फैसले से अक्षिता हैरान क्यों रह गई?

Famous Hindi Stories :  खिड़कीसे आती रोशनी में बादामी परदे सुनहरे हुए जा रहे थे. मेरी नजर उन से होते हुए ड्राइंगरूम में सजे हलकेनीले रंग के सोफे, कांच की चमकती टेबल, शैल्फ पर सजे खूबसूरत शो पीसेज से वापस सामने बैठी अपनी बेटी अक्षिता के चेहरे पर टिक गई. मेरी पूरी कोशिश थी कि मैं टेबल पर रखे फोटोफ्रेम में उस की बगल में लगे लड़के के फोटो को न देखूं. बगल में बैठे आनंद के बमुश्किल दबाए गुस्से की भभक भी महसूस न करूं. पर ये सब मेरी कनपटी पर धमक पैदा कर रहे थे. सामने बैठी अक्षिता अपने दोस्त आयुष के साथ अपने लिव इन रिलेशनशिप में रहने के बारे में जाने क्याक्या बताए जा रही थी.

पर मैं उस की बात समझने में लगातार नाकामयाब हुई जा रही थी. दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. और धड़कनें बेलगाम भाग रही थीं. मेरे चश्मे का कांच बारबार धुंधला रहा था, पर उसे उतार कर पोंछने की ताकत नहीं थी मुझ में. मन मान ही नहीं पा रहा था कि मेरी यह नन्ही सी बच्ची जो कुछ वक्त पहले तक मेरी उंगली पकड़ कर चलती थी, मम्मामम्मा करती आगेपीछे घूमती थी, अपने पापा से फरमाइशें करती नहीं थकती थी, बातबात पर रो देती थी. क्या बाहर रह कर नौकरी करते ही अचानक इतनी बड़ी हो गई कि इतना बड़ा कदम उठा बैठी… एक अनजान लड़के के साथ… वह भी बिना शादी किए?

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. डबडबाती आंखें बरसने को आतुर होने लगीं. बगल में बैठे आनंद की लगातार बढ़ती कसमसाहट बता रही थी कि अब उन का गुस्सा अपनी हद तोड़ने ही वाला है. ‘‘मम्मा,’’ अक्षिता का हाथ अपनी हथेलियों पर महसूस हुआ, तो मैं चौंक पड़ी.

मेज को हलके से खिसका कर वह मेरे सामने जमीन पर बैठते हुए मुझ से कह रही थी, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप को किसी और से यह बात पता चले. तभी आप को बुलाया. मैं आप दोनों को बहुत प्यार करती हूं… पर आप भी तो मेरी बात समझिए. मैं और आयुष… पसंदगी की वजह से साथ रहते हैं पर अपनेअपने बरतन और कपड़े खुद धोते हैं, सारे खर्चे शेयर करते हैं. न मैं उस का देर रात तक इंतजार करती हूं और न वह आप का नाम ले कर मुझे ताने दे सकता है… न मैं उस के लिए बेमन से व्रतउपवास रखने को बाध्य हूं, न ही वह मेरे लिए अपने तौरतरीके बदलने को. अपने कैरियर, अपनी फैमिली के बारे में खुद फैसले लेते हैं, एकदूसरे पर थोपते नहीं. हमारी इन्वैस्टमैंट्स… सेविंग्स सब अलग हैं. पतिपत्नी होने से बेहतर हम दोस्त बनना चाहते हैं पापा. क्या यह इतना गलत है?’’ आनंद के लाल चेहरे पर अब हैरानी थी.

अक्षिता ने आगे कहा, ‘‘शादी के बंधन में बंधने से पहले एकदूसरे को जाननेबूझने में कोई बुराई तो नहीं न? बाद में मजबूरी में शादीशुदा रिश्ता ढोते चले जाने या तलाक की नौटंकी करने से बेहतर है यह देखना कि हम एकदूसरे की इज्जत करते भी हैं या नहीं. अगर हम ऐसा कर पाए, तो शायद हम शादी कर भी लें और अगर नहीं, तो बिना दिल टूटने के खतरे के अलग हो जाएंगे.’’ ‘‘लेकिन…’’

मैं अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही अक्षिता ने मेरी गोद में सिर टिका लिया, ‘‘आप दोनों ने मुझे बहुत समझदार बनाया है. अपनी जिंदगी के किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले मैं किसी और जिंदगी को इस दुनिया में नहीं लाऊंगी. इतना भरोसा तो मुझ पर है न?’’ मेरा हाथ उस का सिर सहलाने को उठा ही था कि आनंद को उठता देख गिर गया.

वे बोले, ‘‘चलो वंदना…’’ अक्षिता के बुझे चेहरे को देख पहली बार मैं उन से कड़ाई से कुछ बोलने को हुई, तभी उस की पूरी बात ने हमें चौंका दिया. बोले, ‘‘अरे भई, अंदर आराम करते हैं. अब इस आयुष से मिल कर ही वापस जाएंगे.’’

अक्षिता एक झटके में उठ कर हमारे गले लग गई, ‘‘हांहां, मैं उसे फोन कर देती हूं. थैंक्यू पापा… थैंक्यू मम्मी.’’ अक्षिका का माथा चूमते हुए मैं सोच रही थी कि अपनी जिंदगी में सब को कभी न कभी खुद फैसले लेने शुरू कर देने ही चाहिए. मैं ने नहीं किए पर मेरी बेटी ले रही है. अब वह सही निकलेगा या गलत, यह वक्त बताएगा. हालांकि मेरी कामना अभी भी उसे लाल जोड़े में लिपटे इस आयूष के साथ विदा होते देखने की हो रही थी. लेकिन तब जब उस का यह रिश्ता प्यार और भरोसे पर टिका हुआ हो और अगर ऐसा न भी हुआ, तो भी हम हमेशा अपनी बेटी के साथ खड़े रहेंगे. यह फैसला अंदर जाते हुए मैं ले चुकी थी.

नई रोशनी ने हमारे मन में घुमड़ती शंका के बादलों को पूरी तरह भेद डाला था.

Online Hindi Story : आवारा बादल – क्या हो पाया दो आवारा बादलों का मिलन

Online Hindi Story : फाल्गुन अपने रंग धरती पर बिखेरता हुआ, चपलता से गुलाल से गालों को आरक्त करता हुआ, चंचलता से पानी की फुहारों से लोगों के दिलों और उमंगों को भिगोता हुआ चला गया. सेमल के लालनारंगी फूलों से लदे पेड़ और अलगअलग रंगों में यहांवहां से झांकते बोगेनवेलिया के झाड़, हर ओर मानो रंग ही रंग बिखरे हुए थे.

फाल्गुन जातेजाते गरमियों के आने का संकेत भी कर गया. हालांकि उस समय भी धूप के तीखेपन में कोई कमी नहीं थी, पर सुबहशाम तो प्लेजेंट ही रहते थे, लेकिन जातेजाते वह अपने साथ रंगों की मस्ती तो ले ही गया, साथ ही मौसम की गुनगुनाहट भी.

‘‘उफ, यह गरमी, आई सिंपली हेट इट,’’ माथे पर आए पसीने को दुपट्टे से पोंछते हुए इला ने अपने गौगल्स आंखों पर सटा दिए, ‘‘लगता है हर समय या तो छतरी ले कर निकलना होगा या फिर एसी कार में जाना पड़ेगा,’’ कहतेकहते वह खुद ही हंस पड़ी.

‘‘तो मैडम, यह काम क्या इस बंदे को करना होगा कि रोज सुबह आप के घर से निकलने से पहले फोन कर के आप को छतरी रखने के लिए याद दिलाए या फिर खुद ही छतरी ले कर आप की सेवा में हाजिर होना पड़ेगा,’’ व्योम चलतेचलते ठहर गया था.

उस की बात सुन इला को भी हंसी आ गई.

‘‘ज्यादा स्टाइल मारने के बजाय कुछ ठंडा पिला दो तो बेहतर होगा.’’

‘‘क्या लोगी? कोल्ड कौफी या कोल्ड ड्रिंक?’’

‘‘कोल्ड कौफी मिल जाए तो मजा आ जाए,’’ इला चहकी.

‘‘आजकल पहले जैसा तो रहा नहीं कि कोल्ड कौफी कुछ सलैक्टेड आउटलेट्स पर ही मिले. अब तो किसी भी फूड कोर्ट में मिल जाती है. यहीं किसी फूड कोर्ट में बैठते हैं,’’ व्योम बोला.

अब तक दोनों राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर पहुंच चुके थे. भीड़भाड़ और धक्कामुक्की यहां रोज की बात हो गई है. चाहे सुबह हो, दोपहर, शाम या रात, लोगों की आवाजाही में कोई कमी नजर नहीं आती है.

‘‘जहां जाओ हर तरफ शोर और भीड़ ही नजर आती है. पहले ही क्या कम पौल्यूशन था जो अब नौयज पौल्यूशन भी झेलना पड़ता है,’’ इला ने कुरसी पर बैठते हुए कहा.

‘‘अच्छा है यहां एसी है,’’ व्योम मासूम सा चेहरा बना कर बोला, जिसे देख इला जोर से हंस पड़ी, ‘‘उड़ा लो मजाक मेरा, जैसे कि मुझे ही गरमी लगती है.’’

‘‘मैडम गरमी का मौसम है तो गरमी ही लगेगी. अब बिन मौसम बरसात तो आने से रही,’’ व्योम ने कोल्ड कौफी का सिप लेते हुए कहा. उसे इला को छेड़ने में बहुत मजा आ रहा था.

‘‘छेड़ लो बच्चू, कभी तो मेरी बारी भी आएगी,’’ इला ने बनावटी गुस्सा दिखाया.

‘‘बंदे को छेड़ने का पूरा अधिकार है. आखिर प्यार जो करता है और वह भी जीजान से.’’

व्योम की बात से सहमत इला ने सहमति में सिर हिलाया. 2 साल पहले हुई उन की मुलाकात उन के जीवन में प्यार के इतने सतरंगी रंग भर देगी, तब कहां सोचा था उन्होंने. बस, अब तो दोनों को इंतजार है तो एक अच्छी सी नौकरी का. फिर तो तुरंत शादी के बंधन में बंध जाएंगे. व्योेम एमबीए कर चुका था और इला मार्केटिंग के फील्ड में जाना चाहती थी.

‘‘चलो, अब जल्दी करो, पहले ही बहुत देर हो गई है. मां डांटेंगीं कि रोजरोज आखिर व्योम से मिलने क्यों जाना है,’’ इला उठते हुए बोली.

दोनों ग्रीन पार्क स्टेशन से निकल कर बाहर आए ही थे कि वहां बारिश हो रही थी.

‘‘अरे, यह क्या, पीछे तो कहीं भी बारिश नहीं थी. फिर यहां कैसे हो गई? लगता है मौसम भी आज हम पर मेहरबान है, जो बिन मौसम की बारिश से एकदम सुहावना हो गया है,’’ इला हैरान थी.

‘‘मुझे तो लगता है कि दो आवारा बादल के टुकड़े होंगे जो प्यार के नशे की खुमारी में आसमान में टकराए होंगे और बारिश की कुछ बूंदें आ गई होंगी, वरना केवल तुम्हारे ही इलाके में बारिश न हुई होती. जैसे ही उन के नशे की खुमारी उतरेगी, दोनों कहीं दूर छिटक जाएंगे और बस, बारिश भी गायब हो जाएगी,’’ आसमान को देखता हुआ व्योम कुछ शायराना अंदाज में बोला.

‘‘तुम भी किसी आवारा बादल की तरह मुझे छोड़ कर तो नहीं चले जाओगे. कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे प्यार की खुमारी भी एक दिन उतर जाए और तुम भी मुझ से छिटक कर कहीं दूर चले जाओ,’’ इला की गंभीर आवाज में एक दर्द छिपा था. शायद उस अनजाने भय की निशानी था जो हर प्यार करने वाले के दिल में कहीं न कहीं छिपा होता है.

‘‘कैसी बातें कर रही हो? आखिर तुम सोच भी कैसे लेती हो ऐसा? मैं क्यों जाऊंगा तुम्हें छोड़ कर,’’ व्योम भी भावुक हो गया था, ‘‘मेरा प्यार इतना खोखला नहीं है. मैं खुद इसे साबित नहीं करना चाहता, पर कभी मन में शक आए तो आजमा लेना.’’

‘‘मैं तो मजाक कर रही थी,’’ इला ने व्योम का हाथ कस कर थामते हुए कहा. जब से वह उस की जिंदगी में आया था, उसे लगने लगा था कि हर चीज बहुत खूबसूरत हो गई है. कितना परफैक्ट इंसान है वह. प्यार, सम्मान देने के साथसाथ उसे बखूबी समझता भी है. बिना कुछ कहे भी जब कोई आप की बात समझ जाए तो वही प्यार कहलाता है.

इला को एक कंपनी में मार्केटिंग ऐग्जीक्यूटिव का जौब मिल गया और व्योम का विदेश से औफर आया, लेकिन वह इला से दूर नहीं जाना चाहता था. इला के बहुत समझाने पर वह मान गया और सिंगापुर चला गया. दोनों ने तय किया था कि 6 महीने बाद जब दोनों अपनीअपनी नौकरी में सैट हो जाएंगे, तभी शादी करेंगे. फोन, मैसेज और वैबकैम पर रोज उन की बात होती और अपने दिल का सारा हाल एकदूसरे से कहने के बाद ही उन्हें चैन आता.

इला कंपनी के एक नए प्रोडक्ट की पब्लिसिटी के लिए जयपुर गई थी, क्योंकि उसी मार्केट में उन्हें उस प्रोडक्ट को प्रमोट करना था. वहां से वापस आते हुए वह बहुत उत्साहित थी, क्योंकि उसे बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला था और उस ने फोन पर यह बात व्योम को बता भी दी थी. अब एक प्रमोशन उस का ड्यू हो गया था. लेकिन उसे नहीं पता था कि नियति उस की खुशियों के चटकीले रंगों में काले, स्याह रंग उड़ेलने वाली है.

रात का समय था, न जाने कैसे ड्राइवर का बैलेंस बिगड़ा और उन की कार एक ट्रक से टकरा गई. ड्राइवर की तो तभी मौत हो गई. लेकिन हफ्ते बाद जब उसे होश आया तो पता चला कि उसे सिर पर गहरी चोट आई थी और उस की आवाज ही चली गई थी.

धुंधला सा कुछ याद आ रहा था कि वह व्योम से बात कर रही थी कि तभी सामने आते ट्रक को देख उसे लगा था कि शायद वह व्योम से आखिरी बार बात कर रही है और वह चिल्ला कर ड्राइवर को सचेत करना ही चाहती थी कि आवाज ही नहीं निकली थी. सबकुछ खत्म हो चुका था उस के लिए.

परिवार के लोग इसी बात से खुश थे कि इला सकुशल थी. उस की जान बच गई थी, पर वह जो हर पल व्योम से बात करने को लालायित रहती थी, नियति से खफा थी, जिस ने उस की आवाज छीन कर व्योम को भी उस से छीन लिया था.

‘‘तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि व्योम अब तुम्हें नहीं अपनाएगा? वह तुम से प्यार करता है, बहुत प्यार करता है, बेटी. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,’’ मां ने लाख समझाया पर इला का दर्द उस की आंखों से लगातार बहता रहता. वह केवल लिख कर ही सब से बात करती. उस ने सब से कह दिया था कि व्योम को इस बारे में कुछ न बताया जाए और न ही वह अब उस से कौंटैक्ट रखना चाहती थी.

‘‘अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तुझे?’’ उस की फ्रैंड रमा ने जब सवाल किया तो इला ने लिखा, ‘अपने प्यार पर तो मुझे बहुत भरोसा है, पर मैं आधीअधूरी इला जो अपनी बात तक किसी को कह न सके, उसे सौंपना नहीं चाहती. वह एक परफैक्ट इंसान है, उसे परफैक्ट ही मिलना चाहिए सबकुछ.’

व्योम ने बहुत बार उस से मिलने की कोशिश की, फोन किया, मैसेज भेजे, चैट पर इन्वाइट किया, पर इला की तो जैसे आवाज के साथसाथ भावनाएं भी मौन हो गई थीं. अपने सपनों को उस ने चुप्पी के तालों के पीछे कैद कर दिया था. उस की आवाज पर कितना फिदा था व्योम. कैसी अजीब विडंबना है न जीवन की, जो चीज सब से प्यारी थी उस से वही छिन गई थी.

3-4 महीने बाद व्योम के साथ उस का संपर्क बिलकुल ही टूट गया. व्योम ने फोन करने बंद कर दिए थे. ऐसा ही तो चाहती थी वह, फिर क्यों उसे बुरा लगता था. कई बार सोचती कि आखिर व्योम भी किसी आवारा बादल की तरह ही निकला जिस के प्यार के नशे की खुमारी उस के एक ऐक्सिडैंट के साथ उतर गई.

वक्त गुजरने के साथ इला ने अपने को संभाल लिया. उस ने साइन लैंग्वेज सीख ली और मूकबधिरों के एक संस्थान में नौकरी कर ली. वक्त तो गुजर जाता था उस का, पर व्योम का प्यार जबतब टीस बन कर उभर आता था. उसे समझ ही नहीं आता था कि उस ने व्योम को बिना कुछ कहनेसुनने का मौका दिए उस के प्यार का अपमान किया था या व्योम ने उसे छला था. जब भी बारिश आती तो आवारा बादल का खयाल उसे आ जाता.

वह मौल में शौपिंग कर रही थी, लगा कोई उस का पीछा कर रहा है. कोई जानीपहचानी आहट, एक परिचित सी खुशबू और दिल के तारों को छूता कोई संगीत सा उसे अपने कानों में बजता महसूस हुआ.

ऐस्केलेटर पर ही पीछे मुड़ कर देखा. चटकीले रंगों में मानो फूल ही फूल हर ओर बिखरते महसूस हुए. जल्दीजल्दी वहां से कदम बढ़ाने लगी, मानो उस परिचय के बंधन से छूट कर भाग जाना चाहती हो. अचानक उस का हाथ कस कर पकड़ लिया उस ने.

ओह, इस छुअन के लिए पूरे एक बरस से तरस रही है वह. मन में असंख्य प्रश्न और तरंगें बहने लगीं. पर कहे तो कैसे कहे वह? लब हिले भी तो वह सच जान जाएगा तब…हाथ छुड़ाना चाहा, पर नाकामयाब रही.

भरपूर नजरों से व्योम ने इला को देखा. प्यार था उस की आंखों में…वही प्यार जो पहले इला को उस की आंखों में दिखता था.

‘‘कैसी हो,’’ व्योम ने हाथों के इशारे से पूछा, ‘‘मुझे बस इतना ही समझा. एक बार भी मेरे प्यार पर भरोसा करने का मन नहीं हुआ तुम्हारा?’’ अनगिनत प्रश्न व्योम पूछ रहा था, पर यह क्या, वह तो साइन लैंग्वेज का इस्तेमाल कर रहा था.

अवाक थी इला, ‘‘तुम बोल क्यों नहीं रहे हो,’’ उस ने इशारे से पूछा.

‘‘क्योंकि तुम नहीं बोल सकती. तुम ने कैसे सोच लिया कि तुम्हारी आवाज चली गई तो मैं तुम्हें प्यार करना छोड़ दूंगा. मैं कोई आवारा बादल नहीं. जब तुम्हारे मुझ से कौंटैक्ट न रखने की वजह पता चली तो मैं ने ठान लिया कि मैं भी अपना प्यार साबित कर के ही रहूंगा. बस, तब से साइन लैंग्वेज सीख रहा था. अब जब मुझे आ गई तो तुम्हारे सामने आ गया.’’

उस के बाद इशारों में ही दोनों घंटों शिकवेशिकायतें करते रहे. इला के आंसू बहे जा रहे थे. उस के आंसू पोंछते हुए व्योम बोला, ‘‘लगता है दो आवारा बादल इस बार तुम्हारी आंखों से बरस रहे हैं.’’

व्योम के सीने से लगते हुए इला को लगा कि व्योम वह बादल है जो जब आसमान में उड़ता है तो बारिश को तरसती धरती उस की बूंदों से भीग जी उठती है.

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