सरकार को तो मंदिर बनाने की चिंता है

सरकार ने कोटा में सुसाइडों के बढ़ते मामलों को बड़ी चतुराई से अपने समर्थक मीडियाकी सहायता से मांबाप की इच्छाओं और कोटा के किलिंग सैंटरों पर मढ़ दिया. कोटा में 15 से 22 साल के लगभग 2 लाख युवा मांबाप से मोटा पैसा ले कर जेईई, नीट, आईएएस और इन जैसे अन्य सैकड़ों ऐग्जामों की तैयारी के लिए आते हैं ताकि बाद में उन्हें नामीगिरामी इंस्टिट्यूटों में ऐडमिशन मिल जाए.

\इन युवकों और युवतियों के मांबाप इस उम्मीद में अपना पेट काट कर, जमापूंजी लगा कर, लोन ले कर, मकान, खेत बेच कर कोटा जैसे शहरों में भेजते हैं. कुछ तो अपने साथ मां को भी ले आते हैं ताकि घर का खाना भी मिल सके.दिक्कत यह है कि  जितने युवा 12वीं पास कर के निकल रहे हैं, कालेजों में आज उतनी जगह नहीं है. कांग्रेस सरकारों ने समाजवादी सोच में धड़ाधड़ सरकारी स्कूल खोले, मोटा वेतन दे कर टीचर रखे, बड़ीबड़ी बिल्डिंगें बनाईं.

जब दूसरी तरह की भाग्यवाद में भरोसा करने वाली सरकारें आने लगीं तो ये सरकारी स्कूल बिगड़ने लगे और इन की जगह इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल खुलने लगे जो कई गुना महंगे थे पर लगभग कोई बच्चा स्कूल न होने की वजह से पढ़ाई न कर पा रहा हो ऐसा नहीं हुआ.

देश में हर साल 12वीं कक्षा पास कर के निकलने वालों की गिनती 1 करोड़ से ज्यादा है. 2022 में 1 करोड़ 43 लाख युवा 12वीं कक्षा के ऐग्जाम में बैठे और उन में से 1 करोड़ 24 लाख पास हो गए.अब सरकार के पास क्या इन 1 करोड़ 24 लाख को आगे मुफ्त या अफोर्डबिलिटी के हिसाब से आगे पढ़ाई रखने का इन्फ्रास्ट्रक्चर है, नहीं? सरकारें इन की बातें ही नहीं करतीं क्योंकि शासक नहीं चाहते कि ये सब पढ़लिख कर बराबरी की पहुंच में आ जाएं.

इसलिए ऊंची पढ़ाई में कम फीस वाले मैडिकल कालेजों में सिर्फ 8,500 सीटें सरकारी मैडिकल कालेजों में हैं और प्राइवेट कालेजों में 47,415 सीटें जिन में खर्च लाखों का है. इंजीनियरिंग कालेजों में 15,53,809 सीटें हैं पर आईआईटी जैसे इंस्टिट्यूटों की सीटें मुश्किल से 10,000-12,000 हैं जहां फीस क्व10-15 लाख तक होती है.सरकारी आर्ट्स कालेजों का तो बुरा हाल है. वहां न अंगरेजी पढ़ाई जाती है, न हिंदी, न फिलौसफी, न कौमर्स. ज्यादातर में ऐडमिशन दे दिया और छुट्टी. पर वे भी 1 करोड़44 लाख युवाओं के लायक नहीं हैं.

शिक्षा को माफिया खेल सरकार ने बनाया है. एक तरफ ऊंचे संस्थान कम रखे और दूसरी ओर स्कूलों की पढ़ाई बिगड़ने दी. सरकारी स्कूलों के फेल स्टूडैंट ही नूंह जैसी यात्रा में धर्म के नाम पर सिर फोड़ने के लिए आगे आते हैं. उन्हें कैरियर बनाने के मौके मिलने लगें तो कांवडि़यों, मंदिरों की कतारों और धर्म यात्राओं की कमी होने लगेगी.  मांबाप इस सरकारी निकम्मेपन के शिकार हैं.

कोचिंग इंस्टिट्यूट उस तंदूर में रोटियां सेंक रहे हैं जो सरकार ने जला डाला पर हर कोने पर रखे ताकि उन की आग का इस्तेमाल घरों को जलाने में भी लाया जा सके. अगर कोचिंग इंस्टिट्यूट ढील दें या सुविधा देंगे तो उन की फीस बढ़ जाएगी या उन के स्टूडैंट पिछड़ जाएंगे.जेईई, नीट, यूपीएससी की परीक्षा के रिजल्ट के अगले दिन अखबारों में पूरे पेज के ऐडवरटाइजमैंट युवा चेहरों से भरे होते हैं कि देखो यहां लाखों रुपए खर्च कर के जो पढ़े उन्हें सिलैक्ट कर लिया गया है.

इस स्थिति पर मांबाप लाए हैं या कोचिंग इंस्टिट्यूट? नहीं, सिर्फ सरकार जो1 करोड़ 44 लाख युवाओं को अच्छी कमाई के लिए स्कौलर बनाने की तैयारी नहीं कर पा रही है उसे अपने पैसों से मतलब है.  जीएसटी के क्व2 लाख करोड़ हर माह के टारगेट की चिंता है. उसे मंदिर बनाने की चिंता है. उसे अमीरों के लिए सड़कें बनानी हैं जिन पर 20 लाख से कम की गाडि़यों को हिकारत से देखा जाता है.दोष मांबाप का नहीं. उन्हें जो सरकार या समाज दे रहा है वे उसी के अनुसार रहेंगे.

वे अपने युवा बेटेबेटियों का जीवन थोथले सिद्धांतों के लिए बलिदान नहीं कर सकते. वे तो खर्च करेंगे और दबाव बनाएंगे ही. इस दबाव में कुछ आत्महत्या कर लेंगे तो सरकार बैंड एड लगा कर कहींकहीं कानून बना देगी और कुछ नहीं.मांबाप को गिल्ट से परे रहना चाहिए. उन्हें बेटेबेटियों को वह बनाना ही होगा जो कल उन का भविष्य सुधारें. उन्हें आवारागर्दी वाली लाइनों में भेज कर आज वे खुश हो सकते हैं कि उन्होंने अपनी संतानों की मान ली पर अगले 50 साल वे पक्का रोएंगे.

अबौर्शन महिला का हक है

एक एक छोटे क्लीनिक का स्त्रीरोग विभाग का आउटडोर. बाहर एक मेज पर हाउस सर्जन बैठी हैं, अंदर चैंबर में चीफ सर्जन. एक बाब कट बालों और जींसटौप पहने युवती आती है और हाउस सर्जन की मेज पर फाइल रख बिना किसी भूमिका के कहती है, ‘‘मुझे अबौर्शन कराना है.’’

हाउस सर्जन पूछती है, ‘‘अबौर्शन क्यों करवाना चाहती है?’’

‘‘बच्चा नहीं चाहती इसलिए और क्यों?’’ जवाब मिलता.

‘‘नहीं चाहती तो गर्भधारण ही क्यों किया था?’’

‘‘कौन सा चाह कर किया था, यह तो हो गया,’’ फिर थोड़ा    झुं   झलाते हुए बोली, ‘‘आप मु   झे चीफ सर्जन के पास ले चलेंगी?’’

वह युवती चीफ को बताती है, ‘‘मैं एक मल्टी नैशनल कंपनी में ऐग्जीक्यूटिव हूं, विवाह नहीं किया है. अपनी पसंद के लड़के के साथ रह रही हूं. चूक से गर्भ ठहर गया है. अबौर्शन करवाना है.’’

फाइल देख चीफ पूछती है, ‘‘चूक हो गई तो अभी तक क्या रही थी? 20 सप्ताह हो गए.’’

‘‘जी, काम ही ऐसा है. समय ही नहीं मिला. अभी भी दिक्कत है. अगर शनिवार को अबौर्शन कर दें तो सोमवार को औफिस चली जाऊं.’’

उसे मालूम है 20 सप्ताह तक गर्भपात कराना महिला का अधिकार है. वह पहले भी करवा चुकी है. सब जानती है.

चीफ उसे कानून विशेषज्ञ के पास भेज देती है. वे देख कर कहते हैं कि निरोध की असफलता से ठहरा गर्भ गिराना केवल विवाहित महिला में ही मान्य है.

वह बहस करती है कि कानून पढ़ा देते हैं. वह चली जाती है, और पति का नाम लिख दूसरी फाइल बनवाती है और कानून विशेषज्ञ को आ कर बताती है कि चीफ सर्जन मान गई हैं.

अस्पताल ने नई सोनोग्राफ मशीन ली है जिस से थ्री डाइमैंशनल वीडियोग्राफी हो सकती है. महिला उस की लिखित में अनुमती देती है. अबौर्शन होता है, उसका वीडियो बनता है. अबौर्शन के बाद चीफ सर्जन और सभी उसे देखने बैठते हैं. स्क्रीन पर नन्हे शिशु का चित्र उभरता है. हरकत करते नन्हे हाथपांव, बंद पलकें, होंठ, नाकनक्स. नीचे से औजार आता है, बच्चा बचने की कोशिश करता है और उस के बाद आताजाता औजार और छटपटाहट.

चीफ वीडियो बंद करने को कहती है. कहती है कि उस ने सैकड़ों अबौर्शन किए हैं, लेकिन इस में क्या होता है यह देखा पहली बार. जी खराब हो गया. वह तो अब गर्भपात कर ही नहीं पाएगी. फिर थोड़ी देर कुछ सोच कर कहती है, ‘‘यह तो औरत का हक है कि वह कब और कैसे अबौर्शन कराए. सरकार, समाज, अदालत और कानून को हक नहीं कि औरतों के अधिकार को कुचले.’’

फिर मुड़ कर हाउस सर्जन से कहा, ‘‘ऐसे मामलों में ज्यादा मीनमेख न निकाला करो. जब तक औरत की जान को खतरा न हो अबौर्शन कराना उस का हक है जैसे एक औरत का बच्चा पैदा करने का. हमें कोई हक नहीं कि जब तकनीक उपलब्ध है तो हम अपनी मोरैलिटी लोगों पर थोपें. बेकार में एक औरत अनचाहे बच्चेको जन्म देगी तो जिंदगीभर दोनों दुखी ही रहेंगे,’’ कह कर चीफ सर्जन ने अपने चैंबर में जा कर दरवाजा बंद कर लिया.

चांद के पार चलें

हा में आई कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीजा’ में मशहूर शायर कैफ भोपाली ने मीना कुमारी और राजकुमार से यह गाना गवाया भी था कि ‘चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो… हम हैं तैयार चलो…’ सोशल मीडिया पर यह गाना वायरल भी खूब हुआ. जैसे ही चंद्रयान-3 ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड किया तो साबित यह हुआ कि सपने देखते तो साहित्यकार हैं पर उन्हें सच कर दिखाने का माद्दा सिर्फ वैज्ञानिकों में ही होता है.

वैज्ञानिक उपलब्धियों का श्रेय लेने की होड़ तो कुछ इस तरह थी मानो किसी हाट में टमाटर लुट रहे हों. इस की शुरुआत 20 अगस्त से ही शुरू हो गई थी. देशभर के मंदिरों में पूजापाठ, यज्ञ और हवनों का दौर था. कई जगह तो शिव के अभिषेक भी हुए जिन के गले में चंद्रमा टाई की तरह लटका रहता है. फिर 21, 22 और 23 अगस्त आतेआते तो लोग पगला उठे.चंद्रमा हमारे लिए आस्था का विषय रहा है. उस के नाम पर व्रत, तीज, त्योहार और दानदक्षिणा बेहद आम हैं.

अब इस की पोल खुलने जा रही थी तो धर्म के दुकानदार घबरा से उठे. लिहाजा उन्होंने भजनकीर्तन कर यह जताने की कोशिशों में कोई कमी नहीं छोड़ी कि वैज्ञानिक तो माध्यम मात्र हैं. दरअसल, में ईश्वर ऐसा चाहता है और बिना उस की परमिशन के चांद को छू पाना नामुमकिन है. यह और बात है कि चंद्रयान की सफलता के आयोजनों में भी दोनों हाथों से दक्षिणा बटोरी गई.

भले ही सालों पहले कोई नील आर्मस्ट्रांग चांद पर उतरा था लेकिन अब हमारी बारी थी और बगैर हरिइच्छा के यह या कोई और मिशन कामयाब हो जाए ऐसा हम होने नही देंगे तो चंद्रयान-3 यों ही चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर लैंड नहीं कर गया बल्कि इस के लिए भक्तों ने 72 घंटे बड़ी मेहनत की. पूजापाठ का हिस्सा क्योंदेश के गलीमहल्लों तक में लोग इकट्ठा थे. बहुतों को तो यह भी नहीं मालूम था कि वे क्यों पूजापाठ का हिस्सा बने हैं. ये वे लोग हैं जो कहीं भी कभी भी उस मंदिर के प्रांगण में हाथ जोड़े जा खड़े होते हैं जहां से जय जगदीश हरे की आवाज आ रही होती है.

इन्हें नहीं मालूम कि लैंडर और रोवर किस बला के नाम हैं. इन्हें यह जरूर मालूम है कि अक्षत कब चढ़ाए जाते हैं और स्वाहा कब बोला जाता है. गलियोंनुक्कड़ों तक के मंदिर आबाद हो उठे.काशी, उज्जैन, मथुरा, वृंदावन, प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार, ऋषिकेश सहित अयोध्या में भी स्पैशल अनुष्ठान हुए. वैज्ञानिकों की मेहनत पर भगवान पानी न फेर दे इस के लिए फायर ब्रैंड साध्वी ऋतंभरा ने मथुरा में कई बार हनुमान चालीसा का पाठ किया तो अयोध्या में तपस्वी छावनी के जगतगुरु आचार्य परमहंस के नेतृत्व में चारों वेदों की ऋचाओं का पाठ साधुसंतों ने किया.

इस पर भी जी नहीं भरा तो महामंत्र और विजय मंत्र का भी पाठनवाचन किया गया.श्रेय लेने की होड़छुटभैयों से ले कर ब्रैंडैड मंदिरों में हर कैटेगिरी के साधुसंतों ने ऐसा समां बांधा, इतना हल्ला मचाया कि एक बार तो लगा कि कहीं सचमुच में भगवान खासतौर से कल्कि अवतार जिस की जयंती कुछ दिन पहले ही मनाई गई थी. धरती पर आ कर इन भक्तों के पांव यह कहते न पकड़ ले कि मु   झे बख्शो मेरे बच्चो, चंद्रयान-3 सफल होगा इस का मैं वरदान देता हूं.

सारा श्रेय सनातनी ही ले जा रहे हैं यह खयाल आते ही मुसलिम धर्मगुरु भी जंग के इस मैदान में कूद पड़े. जगहजगह मसजिदों में विशेष नमाज होने लगी. इस से आम मुसलमानों में भी जोश आया कि देश हमारा भी है और कहीं ऐसा न हो कि कल को हमें इस बात पर भी न लताड़ा जाने लगे कि तुम ने तो चंद्रयान-3 की कामयाबी के लिए नमाज तक नहीं पढ़ी इसलिए तुम देशभक्त नहीं हो. दूसरा मकसद ज्यादा अहम था कि हमारा अल्लाह भी तुम्हारे भगवान से कमतर करिश्माई और रसूखदार नहीं.एक दिन में ही पूजापाठ का यह रोग कोरोना वायरस से भी ज्यादा फैला.

जैन मंदिरों में पूजापाठ हुआ, गुरुद्वारों में अरदास का दौर चला. केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी इस बाबत खासतौर से दिल्ली के गुरुद्वारे बंगला साहिब गए. और तो और रांची में आदिवासियों ने अपनी आराध्य सरना मां से प्रार्थना की. कुछ गिरिजाघरों में भी प्रार्थना की गई.हम भी पीछे क्यों रहेंयोग गुरु बाबा रामदेव ने भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए हरिद्वार में हवन कर डाला.

अच्छा तो उन का यह बताना न रहा कि चंद्रमा पर इतनी दुर्लभ जड़ीबूटियां पाई जाती हैं जो संजीवनी से भी ज्यादा करामाती और कारगर होती हैं. जैसे ही चांद पर आवाजाही आम होगी तो वे और बालकृष्ण वहां जा कर इन्हें लाएंगे और पतंजलि चांद की जड़ीबूटियों से बने प्रोडक्ट लौंच करेगी.माहौल स्कूलकालेजों में भी गरमाया जहां शासन के आदेश पर छात्र और अध्यापक टीवी स्क्रीन के सामने बैठे समोसा कुतरते अगली आइटम का इंतजार कर रहे थे जो 23 अगस्त को ठीक 6 बज कर 4 मिनट के कुछ देर बाद ही नुमाया हुई.

ये देश के ‘यशस्वी’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे जिन के स्क्रीन पर प्रकट होते ही लगा कि प्रार्थनाएं, पूजापाठ और दुआएं जाया नहीं गई हैं  नीचे वाले तो प्रकट हुए. मोदीजी ने संक्षिप्त सारगर्भित संस्कृतनुमा भाषण दिया. तब वे दक्षिण अफ्रीका के सरकारी दौरे पर थे, लेकिन गौरतलब यह कि देश को और चंद्रयान को नहीं भूले थे.भगवान बड़ा या विज्ञानअसल में हम विश्वगुरु तो तब से ही हैं जब विश्व नाम की कोई चीज अस्तित्व में ही नहीं थी.

बकौल सोमनाथ अफसोस तो इस बात का है कि हमारे ज्ञानविज्ञान को यूरोप और दूसरे विदेशियों ने चुराया. मई में यह कहते वक्त उन्होंने ज्ञानविज्ञान की इस दुर्लभ चोरी का रूट बदल दिया था कि हमारे विज्ञान के सिद्धांत अरब देशों से होते हुए पश्चिमी देशों में पहुंचे जबकि हमारे पूर्वज यूरोपियनों के सिर इस महान चोरी और डकैती का इलजाम मढ़ते रहे थे.

सोमनाथ की मानें तो दुनिया में हम कभी उन्नत विज्ञान के मालिक हुआ करते थे.इस के कारण वे गिना भी सकते हैं कि संजय ने धृतराष्ट्र को महाभारत का जो आखों देखा हाल सुनाया था वह दरअसल में आज की तरह का आम वीडियो कौल थी.

लेकिन वे चाह कर भी यह नहीं बता सकते कि पौराणिक युग में खीर और कान के मैल तक से बच्चे कैसे पैदा हो जाते थे, किसी योद्धा का एक सिर कटता था तो दूसरा वह भी हुबहू कैसे आ जुड़ता था, किसी बच्चे की गरदन पर हाथी का सिर वह भी भारीभरकम सूंड सहित कैसे जोड़ दिया जाता था?अंतहीन सवालऐसे सवाल अंतहीन हैं जिन का चंद्रयान-3 की सफलता का श्रेय लेने वाले लीडर से इतना तअल्लुक भर है कि यह सब था लेकिन हम अज्ञानी वक्त रहते इसे न सम   झ पाए और न ही संभाल पाए.

जाहिर है सोमनाथ भी आस्था या किसी लालच, दबाव या विवशता के चलते वह भाषा बोल रहे हैं जो प्रमाण और परिणाम नहीं देती बल्कि मान्यताओं को थोपती है.हम कथित तौर पर लुटे इसलिए कि हम आज भी जातपात, धर्म के पचड़े में पड़े हैं. यह मिशन इसरो टीम की मेहनत, प्रतिभा और कोशिशों से कामयाब नहीं हुआ बल्कि इश कृपा से हुआ है जिस के लिए खुद सोमनाथ जुलाई में खासतौर से तिरुपति के मंदिर में पूजापाठ कर के आए थे.

हरि ने उन की सुन ली तो मुमकिन है वे जल्द ही मन्नत पूरी होने पर फिर तिरुपति जाएं और सूर्य मिशन की तैयारियों में जुट जाएं जिसे हनुमान ने फल सम   झ कर मुंह में ले लिया था. इस पर वे या कोई और यही कहेगा कि हनुमान का मुंह फायरपू्रफ था.अब अहम सवाल यह कि हम बच्चों को क्या पढ़ाएं और युवाओं को क्या सम   झाएं? यह कि एक तरफ तो चंद्रमा उपग्रह साबित हो चुका है और भारत ने उस के दक्षिणी धु्रव पर दस्तक दे दी है. दूसरी तरफ हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं कि चंद्रमा ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक अत्रि की संतान था, जिस की शादी कर्दम मुनि की बेटी अनुसुइया से हुई थी.

चंद्रमा इन्हीं दोनों का बेटा है. चंद्रमा की शादी दक्ष प्रजापति की 27 बेटियों से हुई थी जिन्हें नक्षत्र कहा और माना जाता है. कभी गणेश ने चंद्रमा को श्राप दिया था और कभी चंद्रमा ने अपने गुरु बृहस्पति की खूबसूरत पत्नी तारा को अगवा कर उस से ही शादी कर ली थी जिस से बुध पैदा हुआ था. इसे भी ज्योतिष में ग्रह माना गया है.इन किस्सेकहानियों से तो यही जाहिर होता है कि चंद्रमा व्यभिचारी था और तब एकसाथ कई शादियां की जाती थीं.

उधर चंद्रयान से ऐसी कोई तसवीर अभी तक तो सामने नहीं आई है जिस में शादी का मंडप तो दूर की बात है मानवजीवन होने के भी संकेत मिलते हों. हां, इस की संभावनाएं जरूर जताई जा रही हैं कि वहां आदमी को बसाया जा सकता है. कुछ लोगों ने तो चंद्रमा पर जमीन बेचने और खरीदने का भी कारोबार शुरू कर दिया है. चंद्रयान-3 की कामयाबी के बाद तो लगता है कि चंद्रमा रियल ऐस्टेट का केंद्र बन कर रह जाएगा.पौराणिक मान्यताएंमगर 23 अगस्त को एक खास बात यह भी हुई है कि हमारी धार्मिक और पौराणिक मान्यताएं ध्वस्त हो गई हैं.

लेकिन इस से लोग तार्किक सोच पाएंगे ऐसा लग नहीं रहा. यह बात 1 नवंबर को करवाचौथ पर सिद्ध भी हो जानी है. इस दिन महिलाएं चंद्रमा का पूजापाठ करेंगी.लोगों ने चंद्रयान के रोमांचक क्षणों को जीया है तो बाद में उस पर स्वस्थ हंसीमजाक भी जम कर किया है. लेकिन इस पर राजनीति भी जम कर हुई जिस की शुरुआत न्यूज चैनल्स पर बाइट्स दे रहे आम लोगों ने की कि यह तो मोदीजी का कमाल है.

हम उन्हें बधाई देते हैं व उन का आभार व्यक्त करते हैं. मोदीजी के स्क्रीन पर अवतरित होने के बाद तो भक्त ऊपर वाले को भूल कर नीचे वाले इन भगवान का गुणगान करते दिखे जैसे मोदीजी न होते या न चाहते तो चंद्रयान अभियान परवान नहीं चढ़ पाता.व्यक्तिपूजा की मिसालमध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो मोदीजी का आभार व्यक्त करते सभी अखबारों में एक पेज का सरकारी विज्ञापन भी छपवा दिया. चाटुकारिता, खुशामद और व्यक्तिपूजा की इस से बड़ी मिसाल शायद ही कहीं मिले. इस खेल में बेचारा इसरो औपचारिक बधाई का पात्र बन कर रह गया.

राहुल गांधी ने तो अपने संदेश में खासतौर से यह कहा कि अंतरिक्ष गतिविधियों ने 1962 में जो जोर पकड़ा था वे अब फलीभूत हो रही हैं. इस बहाने उन्होंने अपने पूर्वजों की योगदान को याद दिलाने की कोशिश की.मगर नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी भगवा गैंग के लिए कोसने के किरदार भर हैं. उन्हें तभी याद किया जाता है जब किसी परेशानी का ठीकरा फोड़ना होता है.

ऐसे में राहुल को यह उम्मीद  नहीं करनी चाहिए कि चंद्रयान की सफलता और इसरो की जहमत कोई उठाएगा.अब चांद पर बसने की सुगबुगाहट ने बहुतों को और रोमांचित कर दिया है. लोग मीना कुमारी और राजकुमार की तरह चांद पर बसने जाने तैयार हैं क्योंकि वे धरती की आपाधापी, नफरत और रोजरोज दुश्वार होती जिंदगी से आजिज आ चुके हैं.

लेकिन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आदमी चांद पर बसा तो वह धरती से धर्म और भगवान जरूर ले जाएगा और वहां भी मंदिरमसजिद और चर्च वगैरह बनाएगा. फिर शुरू होगा जातपात का फसाद, धार्मिक दुकानदारी और रंगभेद सहित अमीरीगरीबी का भी भेदभाव. आज जो कल्पना है वह साकार भी होती है यह बात कैफ भोपाली के सच होते शेर से भी साबित होती है.

सनी देओल तक नहीं चुका पा रहे बैंक का कर्जा

देश के सुपररिचों से ज्यादा ईष्या न करें क्योंकि वे अपने पैसे पर ऐश नहीं करते बल्कि या तो पब्लिक को बेवकूफ बना कर पैसा जमा करते हैं या बैंकों से कर्ज लेते हैं, नीरव मोदी, ललित मोदी, चोखसी, विजय माल्या जैसे सुपर रिच ही नहीं, सोसो रिच सनी देओल जैसे भी बैंक से पैसा लेते हैं और ऐश करते हैं.

सनी  देवल की फिल्म ‘गदर-2’ ने पैसा तो कमाया है पर केवल उसी हिंदू-मुस्लिम खाई को भुना कर. वरना तो जो आलीशान जिंदगी वह जीता था उस में बहुत कुछ बैंकों का है. बैंक औफ बड़ोदा ने उस के वर्ली के 600 गज के मकान के 55 करोड़ के कर्ज को न चुका पाने के लिए अब निर्यात करने का नोटिस दिया है. ‘गदर-2’ की कमाई से आम हिंदू-मुस्लिम  तो एक दूसरे को दुश्मन कुछ और ज्यादा मानने लगेंगे पर सनी देओल शायद इस मकान को बचा ले जाएं.

अदानी, अंबानी जैसे सुपर रिच भी बैंकों के कर्जों में डूबे है और उन के चेहरों पर शिकन नहीं है क्योंकि सरकार की गोदी में फल रहे थे उद्योगपति जानते हैं कि बैंक कभी इन्हें तो छू भी नहीं पाएंगे. इन को वही प्रोटेक्शन हासिल है जो हरियाणा के बजरंगी बिट्टू या नुपूर शर्मा को मिली है.

बैंकों से कर्ज लेना हर जने का हक है पर उसे लौटाने का कर्तव्य भी है, आमतौर पर सुपररिचों को लौटाने की चिंता नहीं होती, सिर्फ किसानों की होती है जो आए दिन आत्महत्या करते रहते हैं और अब तो उन की खबरें भी छपनी सरकारी ईशारों पर बंद हो गई हैं. उन्हें इस हिंदू-मुस्लिम  भेदभाव या सरकारी गोदी का लाभ नहीं मिलता.

बहुत छोटे व्यापारियों के 5 लाख से ले कर 25 लाख तक के करों की निलामी के इश्तेहार अखबारों में छपते रहते है. व्यवसाय में गलत फैसलों या सरकारी परमिटों की देर के कारण कितने ही उद्योग नुकसान में चले जाते है और उन के ठीकठाक मकानों से खोलियों में जा कर रहना पड़ता है.

कर्ज देते समय बैंक बड़ी लुभावनी बातें करते हैं और बाद में जब कोई कठिन समय आए तो वे तुरंत पैसा ले कर बैठ जाते हैं और चलता उद्योग या चलती दुकान बंद हो जाती है.

अच्छा तो यही है कि कर्ज लिया न जाए क्योंकि चाह यह कितना लुभावना हो बाद में दर्द देता है. कर्ज में डुबे घर की बुरी हालत होती है. औरतों के जेवर बिकते हैं, बच्चे की पढ़ाई बंद होती है.

बड़े काम, बड़े मकान, बड़ी गाड़ी का सपना देखने वाले अवसर इस चक्कर में फंसते है. अधबने मकानों की किस्ते देतेदेते लाखों लोगों की हालत पतली हो रही है. हर कोई सनी देओल नहीं होता जिस से भाजपा से अच्छे संबंध है और उस का सांसद है. उस का मकान असल में बिकेगा, इस में शक है जैसे नरेंद्र मोदी के कहने के बावजूद चोखसी, नीरव मोदी, ललित मोदी और विजय माल्या देश में लौटेंगे, इस में शक है.

वाइल्ड लाइफ चीतों का पुनर्वास करना मुश्किल क्यों हो रहा है, जानें एक्सपर्ट की राय

मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में लगातार हो रही चीतों की मौत ने सरकार और वनकर्मी की चिंता बढ़ा दी है. अब तक कुल नौ चीतों की मौत हो चुकी है. कुछ विशेषज्ञ इन मौतों का कारण चीतों को लगाए घटिया रेडियो कॉलर को मानते हैं. ये कॉलर टाइगर के थे मगर चीतों को लगा दिए गए, यही वजह है कि अब सभी बाकी बचे चीते के रेडियों कॉलर हटा दिए गए है और उनकी पूरी निगरानी की जा रही है.

असल में कूनो में नर चीते सूरज के रेडियो कॉलर को हटाने पर उसके गर्दन के नीचे संक्रमण पाया गया था. गहरे घाव में कीड़े भरे हुए थे. सूरज 8वां चीता था  जिसकी कूनों में मौत हुई. दावा है कि इसके पहले तेजस चीते में भी गर्दन में ऐसा ही इन्फेक्शन मिला था. ये इन्फेक्शन फ़ैल रहा है. कॉलर आईडी के कारण ऐसा हो रहा है, ऐसा विशेषज्ञ मान रहे है. जबकि 9वां मादा चीता धात्री भी इन्फेक्शन की वजह से ही मृत पाई गई.

असल में मध्यप्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में नामीबिया से आठ और दक्षिण अफ्रीका से 12 इस प्रकार कुल 20 चीते ‘प्रोजेक्ट चीता’ लाए गए. 29 मार्च को कूनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ी गई तीन वर्ष की नामीबियाई मादा चीता ‘सियाया’ ने चार चीता शावकों को जन्म दिया. वर्तमान में 10 चीते खुले जंगल में विचरण कर रहे हैं और पांच चीतों को बाड़ों में रखा गया है. सभी चीतों की 24 घंटे मॉनीटरिंग की जा रही है. इसके अलावा कूनो वन्य-प्राणी चिकित्सक टीम और नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञों द्वारा स्वास्थ्य परीक्षण भी किया जा रहा है.

इसके बावजूद कूनो नेशनल पार्क में अब तक छह चीते और तीन शावकों की जान जा चुकी हैं. इन घटनाओं के बीच कई सवाल भी खड़े हुए. आखिर कूनो नेशनल पार्क में चीतों की लगातार हो रही मौत की वजह क्या है?

चीता न लाने की वजह

असल में चीता (Cheetah). दुनिया का सबसे तेज भागने वाला जानवर है. अधिकतम गति 120 किलोमीटर प्रतिघंटा के हिसाब से भाग सकता है. वर्ष 1948 में छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के खुले साल जंगल में तीन चीतों का शिकार किया गया. साल 1952 में चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया गया. 70 साल से चीतें भारत में नहीं थे, फिर अचानक चीतों को लाने की जरुरत क्यों पड़ी? इसे पहले लाया क्यों नहीं गया? आइये जानते है इसका इतिहास, वर्ष 1970 के दशक में ईरान के शाहने कहा था कि वे ईरान से चीतें देने के लिए तैयार है, लेकिन बदले में उन्हें एशियाटिक लायन चाहिए.

लगभग उसी दौरान भारत सरकार ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट बनाया, जिसे साल 1972 में लागू किया गया. इसके अनुसार देश में किसी भी जगह किसी भी जंगली जीव का शिकार करना प्रतिबंधित है. जब तक इन्हें मारने की कोई वैज्ञानिक वजह न हो या फिर वो इंसानों के लिए किसी प्रकार का खतरा न हो. इसके बाद देश में जंगली जीवों के लिए संरक्षित इलाके बनाए गए, लेकिन किसी ने चीतों के बारें में नहीं सोचा. असल में इसकी आवाज साल 2009 में उठी.

जब वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (WTI) ने राजस्थान के गजनेर में दो दिन का इंटरनेशनल वर्कशॉप रखा. सितंबर में हुए इस दो दिवसीय आयोजन में यह मांग की गई कि भारत में चीतों को लाया जा सकता है. दुनिया भर के एक्सपर्ट इस कार्यक्रम में शामिल थे. केंद्र सरकार के मंत्री और संबंधित विभाग के अधिकारियों ने भी इसमें भाग लिया था.

फ़ूड चैन में रखता है संतुलन

दरअसल चीतों के विलुप्त होने के बाद भारतीय ग्रासलैंड की इकोलॉजी खराब हो चुकी है, उसे ठीक करना जरुरी था, चीता अम्ब्रेला प्रजाति का जीव है, जो बहुत ही सेंसेटिव होता है, यानि फ़ूड चैन में सबसे ऊपर के जीव, जो फ़ूड चेन की संतुलन को बनाए रखता है. कूनो नेशनल पार्क को इसलिए चुना गया था, क्योंकि यहाँ चीतों के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है और चीता की सबसे पसंदीदा भोजन ब्लैक बग्स यानि काला हिरन है. इसके अलावा चीता की पसंदीदा जगह के बारें में बात करें, तो उन्हें ऊँचे घास वाले मैदान पसंद होते है, जहाँ वातावरण में अधिक उमस न हों.

कुल पांच राज्यों में चीतों के लायक वातावरण पाए गए, जहाँ पर चीतों को रखा जा सकता है. उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के सभी स्थानों को एक्सपर्ट ने जाँच किया और पाया कि इन सबमें मध्यप्रदेश का वातावरण सबसे अधिक उपयुक्त है, लेकिन फिर इसे होल्ड पर रखा गया और एक्सपर्ट ने पाया कि ईरान और अफ्रीका के चीतों की जेनेटिक्स एक जैसी है, ऐसे में सभी ने अफ्रीका से चीतों को लाया जाना उचित समझा और 8 चीते नामीबिया से और बाकी 12 साउथ अफ्रीका से लाए गए.

सही वातावरण जरुरी

इस बारें में महाराष्ट्र के रिटायर्ड चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन विश्वजीत मजुमदार कहते है कि टाइगर, पैंथर, लेपर्ड, लायन आदि सभी बिग कैट के इकोलॉजी, फिजियोलोजी, टेरिटोरी जरूरतें अलग -अलग होती है, जो वातावरण टाइगर के लिए सही है वह पैंथर के लिए सही नहीं हो सकता. चीता को पुनर्वास करना पूरे विश्व में बहुत कठिन होता है. चीता की ब्रीडिंग सबसे अधिक मुश्किल होती है. चीता जेनिटिकली दो तरह के होते है. अफ्रीकन चीता भी जेनिटकली एशियन चीता से अलग होते है.

इंडिया में एशियन वाइल्ड चीता मरने की वजह कई है, उनके शिकार करने के तरीके भी बहुत स्पेशल होते है, उन्हें काले हिरन बहुत पसंद होते है, लेकिन काले हिरण की संख्या में लगातार कमी होने की वजह से चीता की नैचुरल फ़ूड में कमी आने लगी, जिससे उन्हें कम पोषक तत्व मिलने लगे. वर्ष 1960 में जब अंतिम चीता का शिकार हुआ, तब हंटिंग के विरुद्ध कानून नहीं थे, जिससे शिकार होते रहे. अब कानून की वजह से वह बंद हो गए.

असल में पहले इंडिया में एशियाटिक चीता हुआ करते थे. वाइल्ड एशियाटिक चीता अभी केवल ईरान में है. सरकार उन्हें इंडिया लाना चाहती थी, लेकिन वे इसके बदले एशियाटिक लायन मांग रहे थे , इसलिए ये डील नहीं हो पाई और बातें होल्ड पर चली गई. ईरान की तरह भारत में भी गुजरात के गिर फारेस्ट में ही केवल एशियाटिक लायन है. भारत ने उसे देने से मना कर दिया थ. ईरान के मना करने की वजह से सभी चीते अफ्रीका से लाये गए.

इन्फेक्शन के अतिसंवेदनशील जानवर

जानकारों की माने तो पहले कई बार एशियाटिक लायन को मध्यप्रदेश के कुनो फारेस्ट में भी लाने का प्रावधान रहा, ताकि कूनों में उनकी संख्या बढे और कूनों एशियाटिक लायन का दूसरा होम बन जाय, क्योंकि ये सभी बिग कैट्स  वायरल इन्फेक्शन के अतिसंवेदनशील होते है. ये अधिकतर वायरल इन्फेक्शन आसपास के जानवरों से प्राप्त करते है, क्योंकि जंगलों के पास रहने वालों की आबादी अधिकतर पशुपालन करती है.

उनके जानवर इधर-उधर चरते रहते है, उन्हें जंगल के शेर से बचाना आसान नहीं होता, ऐसे चरते हुए जानवरों को शेर अधिकतर शिकार करते है, उन्हें खाने पर शेर भी उस जानवर के इन्फेक्शन को कैरी कर लेते है. इसका उदाहण साउथ अफ्रीका के क्रूगर नेशनल पार्क से लिया जा सकता है. वहां लायन बेस्ड टूरिज्म नंबर वन है. वहां के शेरों के घटने की वजह इन्फेक्शन ही रही, जो उन्हें डोमेस्टिक कैटल से मिलता था, क्योंकि वहां के पशुपालक अपने जानवरों को चरने के लिए छोड़ देते थे और इन इन्फेक्शन वाले जानवरों का शिकार लायन करते थे, जिससे उनमे भी इन्फेक्शन आ जाता था.

इसे देखते हुए वहां की सरकार ने वन मिलियन किलोमीटर के जंगल के दायरे को फेंसिंग किया और सारें ग्रामवासी हटाये गए. इस तरह की समस्या किसी भी प्रकार की इन्फेक्शन वाली बीमारी बिग कैट्स या शेरों में आने पर उनकी पूरी जनसंख्या ख़त्म हो सकती है. इसलिए ऐसे जानवरों के लिए सेकंड होम बनाया जाना चाहिए, ताकि एक जगह इन्फेक्शन होने पर उनकी प्रजाति को सेकंड होम में सुरक्षित रखा जाय, लेकिन तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री ने ऐसा करने से मना किया. अभी केंद्र सरकार चीतों को लाई है और उन्हें कुनो फ़ॉरेस्ट में रखने का मन बनाया है, ताकि पर्यटन के साथ-साथ उनके काम को भी सराहा जाय. यही कड़वी सच्चाई है, लेकिन लगातार चीतों की मृत्यु ने सबको सोचने पर मजबूर किया है.

जेनेटिक वेरिएशन में सबसे नीचे

इसके आगे विश्वजीत कहते है कि चीता खासकर बहुत कम बच्चे को जन्म देती है. जिसमे बहुत कम बच्चे एडल्ट हो पाते है, क्योंकि वे बचपन में ही मर जाते है, या मेल चीता उन्हें मार डालते  है. इसके अलावा चीता जेनेटिक वेरिएशन में सबसे नीचे आता है, वे अपने ही समूह में ब्रीड करते है. वे अफ्रीका के नामीबिया, जोहेंसबर्ग आदि सभी जगहों पर संगीन जेनेटिक डाइवर्सिटी यानि बोटलनेक के अंदर आते है. पूरे विश्व में इनकी पूरी जनसंख्या केवल 2 या 3 चीतों पर टिकी हुई है.

जिसमे 1 पुरुष चीता दो या तीन फिमेल चीता के साथ सम्भोग करता है, उससे अलग वह किसी भी जगह के मादा चीते साथ सम्भोग नहीं करता, यही वजह है कि उनकी जनसँख्या किसी भी बिमारी के लिए अति संवेदनशील होते है, क्योंकि उनकी जेनेटिक गुण स्ट्रोंग नहीं होती. अफ्रीका के चीता किसी भी बीमारी के बहुत अधिक संवेदनशील है, लेकिन उनकी जनसंक्या वहां अधिक होने की वजह से उसपर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता.

कम रोगप्रतिरोधक क्षमता

फारेस्ट वार्डन का आगे कहना है कि चीतों को जब भारत लाया गया, तो यहाँ की जलवायु तक़रीबन एक जैसी है और फारेस्ट भी उनके अनुसार होने की वजह से कुनो में लाया गया, लेकिन ऐसा देखा गया है कि, ऐसे बीमारी के संवेदनशील चीतों को यहाँ लाकर बचाया जाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि चीते ने यहाँ जन्म नहीं लिया है, उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता भारत के अनुसार विकसित नहीं हुई है और इसे विकसित होने में भी सालों लगेंगे और तकरीबन 10 से 15 साल बाद ही ये काम सफल हो सकेगा, इससे पहले होना संभव नहीं.

इसके अलावा सबसे जरुरी है जू में रखे जानवरों और जंगलों में रहने वालें जानवरों के बीच अंतर को समझना. चीता ने अगर कुनो में शावकों को जन्म दिया है तो इसकी वजह बहुत अधिक अफ्रीकन और इंडियन एक्सपर्ट के देखभाल का नतीजा है. इस बारें में बहुत अधिक टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी. उदहारण को लें तो वाइल्ड लाइफ में टाइगर की अगर बात करें तो 3 शावक में केवल एक शावक बहुत मुश्किल से बच पाता है.

मादा टाइगर अपने बच्चों को दूसरे जंगली जानवरों और नर बाघ से बचाती है, क्योंकि नर टाइगर हमेशा शावकों को मार डालता है, ताकि मादा बाघ फिर से सम्भोग के लायक हो जाय. इसलिए 90 प्रतिशत अपना समय मादा टाइगर अपने बच्चों को सुरक्षित रखने में बीता देती है. वाइल्ड एनिमल वर्ल्ड में ये सबसे बड़ी समस्या है, जब उनके बच्चे एडल्ट नहीं हो पाते.

एक शावक को एडल्ट होने में 4 से 5 साल लगते है. चीता लाने के पहले वैज्ञानिकों ने काफी छानबीन की है और उपयुक्त माहौल उन्हें देने की कोशिश भी की गयी है. चीता की देखरेख में आज पूरा जू कमिशन काम कर रहा है, जबकि वाइल्ड कमीशन में काम करना जू कमीशन बिल्कुल अलग होता है. इसलिए उन्हें चीता के बारें में अधिक जानकारी होना जरुरी है. रिस्क फैक्टर ये भी है कि आगे आने वाली किसी  सरकार को भी इस प्रोजेक्ट पर ध्यान देने और जिम्मेदारी लेने की जरुरत है.

रिहैबिलिटेशन करना नहीं आसान

इसके आगे वे कहते है कि भारत में जानवरों का रिहैबिलिटेशन बहुत कम किया जाता है, अगर कही पर जानवर आसपास के लोगों को अटैक कर रह हो, तो उसे उठाकर दूसरी जगह भेज दिया जाता है, लेकिन एक सफल रिहैबिलिटेशन दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में किया गया था, क्योंकि दुधवा राष्ट्रीय उद्यान कभी गैंडो (RHINOCEROS) का होम टाउन हुआ करता था, लेकिन अचानक सभी राइनो के गायब होने पर आसाम के काजीरंगा नेशनल पार्क से उन्हें लाकर दुधवा नेशनल पार्क में छोड़ा गया और सभी राइनो वहां पर सरवाईव कर गए, क्योंकि दुधवा के जंगल भी मार्शी और गीले है, जो असम के काजीरंगा नेशनल पार्क से मेल खाते है.

किसी भी जानवर को पुनर्वास कराने से पहले उसकी पूरी छानबीन करना पड़ता है, जिसमे वहां के वातावरण जानवर को सूट करें और उसे रहने में किसी प्रकार की असुविधा न हो. इसमे उनके आहार का सबसे अधिक ध्यान रखना पड़ता है, ताकि वे स्वस्थ रहे.

इसमें एक पूरी टीम होती है, जिसमे वेटेरनरी डॉक्टर, लोकल वैज्ञानिक, आब्जर्वर आदि होते है, जो उनके घूमने फिरने और उनके स्वास्थ्य और हाँव-भाव को मोनिटर करते है. कुनो में भी यही किया जा रहा है, जिसमे वाइल्ड लाइफ मैनेजर का सबसे अधिक भागीदारी होती है. इसके लिए रेडियो कॉलर लगाया जाता है, जिसपर विवाद चल रहा है, लेकिन चीतों को सेटल होने में अभी काफी समय लगेगा, इस बारें में अभी बहुत कुछ कह पाना जल्दबाजी होगी.

सोशल मीडिया है बीमारी

सोशल मीडिया पर धामकी धंधेबाजी आजकल खूब चमक रही है. न सिर्फ अपने पूजे जाने वाले देवीदेवताओं के फोटो सुबहसबेरे अपने सारे व्हाट्सएप गु्रपों पर डालने का आदेश हरेक के गुरू पंडे समयसमय पर देते रहते हैं. पढ़ीलिखी समझदार औरतें भी नहीं समझ पातीं कि जिस देवीदेवता को सब का कल्याणकारी और सर्वव्यापी माना जाता है वह अमेरिका की बनी तकनीक और कोरिया के बने मोबाइल के सहारे धर्म प्रचार में लग जाती है.

इसी के साथ हिंदू मुस्लिम वैरभाव भी चालू हो जाता है. धर्म के पिताओ ने बाकायदा फैक्टरियां खोल रखी हैं जिस में दसियों लोग एक साथ बैठ कर इतिहास और तथ्यों को तोड़मरोड़ वह फैलाते रहते हैं. इस फैक्टरियों में नकली मुसलिम बने कैरेक्टर ऐसा काम करते नजर आ सकते हैं जो ङ्क्षहदूमुसलिम बैर की आग पर पैट्रोल डाले.

ऐसे हर काम से फायदा पूजापाठ के धंधेबाजों को होता है. मंदिरों में भीड़ बढ़ जाती है. चंदा ज्यादा आने लगता है. छोटेमोटे त्यौहारों पर भी पंडितों की घरों में हाजिरी जरूरी हो जाती है जो स्लिक का कुरता पहने धर्म कार्य कराने आते हैं.

दिक्कत यह है कि यह बकवास, झूठी कहानियों, नकली वीडियो पोस्ट करने वाले गालीगलौच की भाषा को सोशल मीडिया पर इस्तेमाल करने के पूरी तरह आदी हो जाते है और यही शब्द अपने दोस्तों, सहेलियों रिश्तेदारों या जिन से व्यापारिक या व्यावसायिक संबंध हो उन पर भी लागू भी लागू होने लगते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ही कहा कि सोशल मीडिया पर भाषा का इस्तेमाल बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए क्योंकि एक गलत शब्द दूसरे को बुरी तरह चुभ भी सकती है और उस की रेपूटेशन को हानि पहुंचा सकता है. एक मामले में एक डिफेमेशस मामले में राहत देने से इंकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया का मनमाना दुरुपयोग किया जाना किसी तरह माफ नहीं किया जाता. यहां 2 जनों के बीच मामला राजनीतिक था पर किसी भी मामले में कोई परिचित भी नाराज हो कर अदालत की शरण ले सकता है और तक मैसेज डिलीट करने या एपोंलोजी देेने का कदम भी सुप्रीमकोर्ट के हिसाब से काफी नहीं है. गलत पोस्ट के लिए कोई भी जिम्मेदार हो सकता है.

हिंदू मुस्लिम बैरभाव वाले पोस्टों पर अगर मुसलिम पुलिस में मामले ले जाने लगे तो अच्छीखासी पूजापाठी औरतें चपेटे में आ जाएंगे और उन की ऊंची एड़ी की सैंडिल घिसतेघिसते चप्पल बन जाएंगे क्योंकि अदालतों के कौरीडोर गंदे और खुरदुरे होते हैं.

व्हाट्सएप का इस्तेमाल डाक से भेजे जाने वाले पंखों की तरह करें जिन में सलाह या सूचना दी जाती रही थी, वैरभाव नहीं सिखाया जाता था. गलत मैसेजों को पोस्ट करने के पाप ऐसे ही देवीदेवताओं के फोटो पोस्ट करने से नहीं धुल जाएंगे.

धर्म के नाम पर दंगा

2020 में दिल्ली के उत्तर पूर्व इलाकों में हिंदू मुस्लिम दंगे हुए और मुसलिमों की बहुत सी संपत्तियां जलाई गई. मजेदार बात यह है गिरफ्तार भी ज्यादातर मुसलिम ही हुए और इस दंगे को भडक़ाने वालों में से एक कपिल मिश्रा को अब भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली शाखा का उपाध्यक्ष बना दिया गया है और सरकार लगातार गिरफ्तारों को जेल में रख रही है.

धर्म के नाम पर कुरबानी कोई नई बात नहीं है. हर काल में हर धर्म के अंधभक्तों ने दी है ताकि धर्मों को चलाने वालों का पाखंड बना ही नहीं रहे, फलदाफूलता भी रहे. हर समाज में धर्म के नाम पर उकसाया गया पर धर्म के मुख्य केंद्र आमतौर पर बचे रहे. मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरूद्वारे, मठ, आश्रम हमेशा बचे रहे. धर्म के नाम पर उकसा कर मारने वालों को कहा यही जाता रहा कि आम विधर्मी को मारो, आम विधर्मी की औरत का बलात्कार करो, आम विधर्मी की लड़कियों को अगवा कर जीत की निशानी बना कर गुलाम बनाओ.

हर मामले में अंतिम शिकार औरतें ही होती हैं. धर्म को सब से बड़ी सौगात औरतें देती हैं पर सब से बड़ी शिकार भी वही ही होती है. धर्म इस कदर रीतिरिवाजों, किस्से कहानियों से जकड़ लेता है अपने ही धर्म की औरतें धर्म का आदेश पूरी तरह न मानने वाली औरतों को दोषी मान लेती हैं.

आज देश में वह दौर फिर आ गया है. गृह युद्ध तो नहीं हो रहा है पर धर्म युद्ध के निशान सारे देश में दिखने लगे हैं प्रचार स्तंभ ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘केरला स्टोरीज’ जैसी अतिश्योक्ति से भरी कहानियों को दोहराता रहता है. धर्मेंदी मीडिया जिस ने  शक कर तबलीगियों को कोविड फैलाने के लिए जिम्मेदार सुबूतों सहित ठहरा दिया था. धर्म प्रचार और धर्म की खाई खोदने में लगा है. इस खाई में औरतें मर रही है.

मणिपुर हो या हरियाणा का नूंह, या उत्तर प्रदेश के आतिक के घर, हर धाॢमक विवाद के बाद आफत औरत की होती है कि वह कैसे बच्चों की रोटियों का इंतजाम करें, कैसे कपड़े धोए, कैसे खाने का इंतजाम करे. औरतों का कोई धर्म लंबाचौड़ा हक नहीं देता पर शिकार बनती हैं तो मुंह पर टेप लगा लेता है. घर टूटते या जलते हैं तो छत का इंतजाम औरतों को करना होता है.

अफसोस यही है कि पढ़ीलिखी समझदार औरतें भी धर्म की इस चालबाजी को नहीं समझा पा रहीं. अमेरिका में चर्च के आदेश पर गर्भपात कराने पर प्रतिबंध लगाने में औरतें आगे है, भारत में विधवाओं को अछूत मानने में औरतें ही आगे हैं.

15 अगस्त स्पेशल: युवकों की तरह अब युवतियों को भी चाहिए आजादी

युवतियों को बराबर की शिक्षा और रोजगार के बल पर लड़कों के समान सामाजिक और आर्थिक अवसर व ईनाम मिलने का कानूनन हक है. लेकिन जमीनी हकीकत इस से कोसों दूर है, फिर चाहे वह भारत में हो या फिर अफ्रीका में, हौलीवुड में हो या आस्ट्रेलिया की संसद में. इसी असमानता के कारण युवतियों को कई बार विरोध करना पड़ता है, अपने लिए आवाज उठानी पड़ती है. आज की युवती अपने लिए केवल शिक्षा और रोजगार ही नहीं, युवकों के बराबर आजादी भी मांग रही है.

नीति आयोग के अध्यक्ष का कहना है कि 10 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि के  लिए देश में ह्यूमन डैवलैपमैंट इंडैक्स में सुधार होना चाहिए जिस में भारत 180 देशों में  130वें स्थान पर है. इस इंडैक्स में बराबरी को भी एक मानक माना जाना है.

विश्वभर में यौन अधिकारों को मानवाधिकारों से जोड़ कर देखा जाता है. एक लड़की पहले एक मानव है और उस के भी बराबर के अधिकार हैं. कहने को तो हम कह देते हैं कि हमारे यहां युवतियां युवकों के बराबर हैं, लेकिन जब बात युवतियों को उन की पसंद, उन के अपने शरीर पर हक देने की आती है तो क्या उन को मनमरजी करने का अधिकार मिलता है? इस विषय की असलियत जानने के लिए समाज के अलगअलग पहलुओं से जुड़ीं कुछ महिलाओं के विचार जानने की कोशिश करते हैं.

महिला सशक्तीकरण की बात

पुणे की सिंबायोसिस इंटरनैशनल यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर डा. सारिका शर्मा बताती हैं, ‘‘कहने को तो हम सब कहते हैं कि हमारे लिए बेटों और बेटियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन जब बात जमीनी सचाई की आती है तब युवकयुवतियों के लिए अलग नियम होते हैं. युवतियों के लिए अकसर कुछ अनकहे नियम होते हैं, जिन का उन्हें पालन करना होता है. जैसा कि फिल्म ‘पिंक’ में दिखाया गया कि युवकयुवतियों द्वारा किए गए एक ही काम के लिए समाज का नजरिया  बदल जाता है. उदाहरणस्वरूप, युवक सिगरेट पिएं तो सिर्फ उन के स्वास्थ्य की हानि की चिंता होती है, वहीं अगर युवती सिगरेट पिए तो उस के चालचलन तक बात पहुंच जाती है.’’

जहां तक सारिका का मां की हैसियत से प्रश्न है, वे बेटी को उस का कैरियर चुनने का, अपनी इच्छा के मुताबिक कपड़े पहनने का या फिर बाहर आनेजाने का पूरा अधिकार देती हैं. लेकिन यदि उन की बेटी उन्हें अपने बौयफ्रैंड से मिलवाए तो उस के लिए वे तैयार नहीं हैं.

वे मानती हैं कि महिला सशक्तीकरण के कई रास्ते हैं. आज युवतियां फौज में जा रही हैं, हवाईजहाज उड़ाने के साथसाथ सड़क पर ट्रक भी दौड़ा रही हैं और फाइटर जैट तक उड़ा रही हैं. लेकिन सैक्स की मनमानी का अधिकार देना उन की दृष्टि में आजादी नहीं है.

डा. सारिका कहती हैं, ‘‘अभी हमारा समाज इस स्तर तक नहीं पहुंचा है जहां युवतियों की शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति को हम सहज स्वीकार सकें. यदि इस समय हम अपनी बेटियों को ऐसी आजादी देंगे तो समाज में उन्हें कई मुसीबतें झेलनी पड़ सकती हैं.’’

नोएडा के एक स्कूल में अंगरेजी की अध्यापिका व फ्रीलांस क्विजीन ऐक्सपर्ट साक्षी शुक्ला बेबाकी से कहती हैं, ‘‘आज हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहां महिला सशक्तीकरण एक अहम मुद्दा है. ऐसे में युवतियों को सैक्स के बारे में जागरूक करना चाहिए. एक ओर सैक्स एजुकेशन की बात होती है, जबकि दूसरी तरफ घर के अंदर इस विषय पर बात करने में भी मातापिता हिचकिचाते हैं. परंतु यदि सच में समाज में बदलाव लाना है, तो युवतियों को उन के अपने शरीर पर अधिकार की अनुमति देनी होगी.

‘‘सैक्स एक कुदरती प्रक्रिया है. एक महिला का सम्मान, उस की इज्जत सिर्फ उस की सैक्सुऐलिटी में ही नहीं है. समय आ गया है कि समाज अपनी इज्जत महिला के जननांगों में नहीं, बल्कि उस के बौद्धिक विकास में ढूंढ़े, उस के फैसले लेने की क्षमता में खोजे.’’

साक्षी आचार्य चाणक्य से सहमत हैं कि 5 वर्षों तक बच्चों को लाड़ करो, किशोरावस्था तक उन पर कड़े नियम लगाओ और फिर उस के मित्र बन जाओ. साक्षी कहती हैं, ‘‘आज हमें ‘मेरा शरीर मेरे नियम’ जैसे कैंपेन का हिस्सा बनना चाहिए, क्योंकि यदि लोग खुद इस का हिस्सा नहीं बनेंगे तो बदलते हालात में युवतियां बागी होने को मजबूर हो जाएंगी.

‘‘किशोरावस्था में गर्भधारण और फिर गर्भपात, यौनशोषण या यौनउत्पीड़न आदि से युवतियों को सही समय पर यौन संबंधी जानकारी दे कर बचाया जा सकता है और इस का सही समय तभी आरंभ हो जाता है जब युवतियां किशोरावस्था में कदम रखती हैं.’’

बराबर के हों नियम

फिनलैंड की एक बहुद्देशीय कंपनी में कार्य कर चुकीं रिंपी नरूला कहती हैं, ‘‘महिला होने के नाते मैं यह अनुभव करती हूं कि हमारे समाज में युवकों की तुलना में युवतियों को कम आजादी मिलती है.

‘‘मातापिता को अपने घर की चारदीवारी के अंदर युवकयुवतियों में फर्क नहीं करना चाहिए. उन्हें दोनों के लिए समान नियम लागू करने चाहिए. यदि एक घर में युवक को देररात तक बाहर आनेजाने की इजाजत है तो युवती को भी होनी चाहिए. और यदि युवतियों की इज्जत को खतरा लगता है तो फिर युवकों को भी देररात बाहर नहीं निकलने दिया जाना चाहिए.

‘‘आखिर युवकों के कारण ही तो युवतियों की इज्जत को खतरा होता है न. यदि नियम हों तो बराबर के हों. कुछ लोगों की ऐसी सोच होती है कि यदि युवतियों को पूरी आजादी दे दी जाएगी तो वे बिगड़ जाएंगी, यह सोच गलत है.

‘‘युवतियों पर भरोसा रखें, उन्हें संस्कार के साथ प्यार, विश्वास और इज्जत दें. उन में आत्मविश्वास जगाएं और फिर नतीजा देखें. युवतियों को घरेलू संस्कार देना हर परिवार अपना कर्तव्य समझता है, क्योंकि उन्हें गृहस्थी संभालनी होती है. लेकिन एक युवती की कुछ अपनी इच्छाएं भी हो सकती हैं. तो वह भी परिवार की जिम्मेदारी है कि वह युवतियों को अपनी ऐसी इच्छाओं को सुरक्षा के साथ कैसे पूरा करना है, यह सिखाए.

‘‘आजादी देने से युवतियां बिगड़ जाएंगी, यह जरूरी नहीं है. हां, वे अपनी सोच को अंजाम जरूर देंगी और इस के लिए जैसे समाज युवकों को स्वीकारता है वैसे ही उसे युवतियों को भी स्वीकारना होगा.’’

जिम्मेदारीभरी आजादी

मुंबई के टिस्स (टाटा इंस्ट्टियूट औफ सोशल साइंसैस) की मनोवैज्ञानिक मोना उपाध्याय अपने बेटाबेटी में पूरी तरह बराबरी रखती हैं. ऐसा वे एक सजग मां होने के नाते करती हैं. जब उन का बेटा कालेज में पढ़ने गया तब, और फिर जब बेटी दूसरे शहर कालेज गई तब उन्होंने अपने दोनों बच्चों से निजी वार्त्तालाप किया जिस में उन्होंने दबेढके रूप से यह बात उठाई कि दूसरी जगह, परिवार से दूर रहने पर, उम्र की इस दहलीज पर हो सकता है कि बच्चों के दिल को कोई भा जाए और उन के कदम बहक जाएं.

ऐसे में उन्हें यह यकीन होना चाहिए कि उन का परिवार उन के फैसले में साथ रहेगा, लेकिन साथ ही उन्हें यह एहसास भी होना चाहिए कि उन के जीवन के प्रति उन का कर्तव्य है कि वे सही फैसला लें. जो भी फैसला वे लेंगे उस का खमियाजा उन्हें खुद अपने जीवन में भुगतना होगा. उस के लिए परिवार के सदस्य उन की कोई सहायता नहीं कर सकेंगे.

मोना यह जानने को भी आतुर हैं कि यदि कदम आगे बढ़े तो उस की वजह क्या रही? एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते वे मानती हैं कि सैक्स एक कुदरती प्रक्रिया है और उसे भावनात्मक बनाना जरूरी नहीं है. फि र भी दिल टूटता है तो उसे जोड़ना खुद ही होता है. वे अपनी बेटी को टूटे दिल को संभालने के गुर जरूर सिखाना चाहेंगी. दिल टूटने का मतलब जीवन का अंत नहीं.

मोना अपनी बेटी को बेटे के समान आजादी देने के पक्ष में हैं. साथ ही, वे यह भी चाहती हैं कि बेटी अपने जीवन में भावनाओं में बह कर कोई गलत फैसला न ले. इस से निबटने का हथियार है बच्चों से बातचीत. यदि परिवार में बातचीत है तो कोई ठोस कदम उठाने से पहले बच्चे मातापिता से अपने दिल की बात कहने में हिचकिचाएंगे नहीं. परिवार की महिला का यह कर्तव्य है कि वह पूरे परिवार में खुली बातचीत का माहौल कायम करे. फिर चाहे वह बेटी को पीरिएड्स में पैड्स की जरूरत की बात हो या अपने दिल का हाल सुनाने की.

डेल कंपनी की सीनियर कंसल्टैंट पल्लवी बताती हैं, ‘‘विदेशों में बेटे की गर्लफ्रैंड हो या बेटी का बौयफ्रैंड, दोनों को घर आने की आजादी होती है. अंतर्राष्ट्रीय महिला स्वास्थ्य संगठन सैक्सुअल अधिकार को मानवाधिकार के रूप में देखता है. सैक्स हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है, लेकिन इतना भी महत्त्वूपर्ण नहीं कि सारी जिंदगी उस के आसपास ही डोलें और न इतना हलका होता है कि उस के बारे में सोचा भी न जाए.’’

सैक्सुअल अधिकार अपने शरीर पर अधिकार की एक खास भावना है. पल्लवी अपने बच्चों को उन के शरीर पर अधिकार देने के पक्ष में हैं. अपने शरीर पर अपना अधिकार एक बड़ा कौंसैप्ट है जो जितनी जल्दी समझ में आए उतना ही बेहतर है. यह जीवन में आगे चल कर बच्चों को भावनात्मक रूप से ताकतवर बनाता है और इस के चलते वे जिंदगी के कई अहम फैसले लेने में सक्षम होते हैं जो उन्हें शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रभावित करते हैं.

जागरूक बेटियों को दें आजादी

दिल्ली के द्वारका कोर्ट में पारिवारिक मामलों की वकालत कर रहीं रजनी रानी पुरी कहती हैं, ‘‘कैसे दोहरे मापदंड हैं हमारे समाज में, जहां युवतियों को बौयफ्रैंड रखने पर बदचलन कहा जाता है जबकि युवकों को गर्लफ्रैंड रखने पर मर्द कहा जाता है. मेरी सहेली के बेटे की गर्लफ्रैंड घर आती है, कमरे का दरवाजा बंद कर वे दोनों घंटों बिता देते हैं और घर वाले हंस कर छेड़ते हैं कि चाय की जरूरत है क्या. लेकिन उसी सहेली की बेटी ने जब अपने बौयफ्रैंड को परिवार से मिलवाना चाहा तो हंगामा मच गया.

‘‘उस सहेली से जब मैं ने इस दोहरे मापदंड पर सवाल किया तो उस के पास एक ही सवाल था, लड़की के साथ घर की इज्जत जुड़ी होती है. माना कि कुदरती रूप से युवती सैक्स के मामले में कमजोर है, क्योंकि उस की बात पकड़ में आ सकती है जबकि युवक आसानी से बच जाता है, लेकिन इस से बचने के लिए हमें अपनी बेटियों को यौनशिक्षा देनी चाहिए, उन्हें उन के यौन अधिकारों से परिचित करवाना चाहिए.

‘‘हमारा पुरुषप्रधान समाज युवकों को शौर्ट्स पहनने पर कूल कहता है जबकि युवतियों को चरित्रहीन. उन्नति की ओर बढ़ते हमारे समाज की करनी और कथनी में बहुत अंतर है. समाज की कट्टर सोच को ध्यान में रखते हुए युवतियों को समान अधिकार पाने के लिए बहुत होशियारी के साथ जीवन के फैसले लेने होंगे. इस के लिए उन्हें बचपन से ही जागरूक करना मातापिता की जिम्मेदारी है.’’

समाज बदल रहा है और युवतियों को आजादी मिलने लगी है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा. लेकिन आजादी मुफ्त नहीं होती, उस की कीमत अदा करनी पड़ती है और वह कीमत होती है जिम्मेदारी. केवल आजादी के नारे लगाने से आजादी नहीं मिल सकती. जिन्हें आजादी की गुहार लगानी आती है, उन्हें आजादी मिलने से पहले अपनी जिम्मेदारी भी निभानी होगी. यह जिम्मेदारी है अपने जीवन के प्रति, अपने परिवार की खुशियों और ख्वाहिशों के प्रति, ताकि आगे चल कर समाज को अपने बदलने पर कोई पछतावा न हो.

15 अगस्त स्पेशल: कपड़ों में जकड़ी आजादी

पितृसत्तात्मक समाज की चालाकी और लालच आज भी महिलाओं का अस्तित्व उस के शरीर से आगे स्वीकार करने को तैयार नहीं है और उस की देह पर अपना कब्जा जमाए रखने के लिए वह औरत को कपड़ों की जकड़ व आभूषणों की बेडि़यों में कसे रखना चाहता है. इन बेडि़यों को काटे बिना औरत की गति नहीं है. इस षड्यंत्र को समझना और इस से मुक्त होने के रास्ते औरत को ही निकालने होंगे.

अकसर देखा गया है कि किसी बिल्ंिडग में आग लगने पर हताहतों की संख्या में औरतों की संख्या मर्दों से ज्यादा होती है क्योंकि वे अपने कपड़ों के कारण जल्दी भाग नहीं पातीं, पुरुषों की तरह तीनतीन सीढि़यां फलांग कर उतर नहीं पातीं. खिड़की के रास्ते कूद नहीं पातीं. उन के लबादेनुमा कपड़े इस में बाधक बन जाते हैं. उन की साड़ी या दुपट्टा आग पकड़ लेता है और वे उस आग में घिर कर झुलस जाती हैं या मर जाती हैं.

दुर्घटना के वक्त ज्यादातर औरतों के कपड़े ही उन की जान जाने का कारण बनते हैं. इस के उलट मर्द जोकि पैंट या निक्कर में होते हैं, तेजी से बच कर भाग निकलते हैं. पैंट, जिस में चलनाफिरना आसान है, लगातार पहनते रहने के कारण उन को आदत होती है तेज चलने या भागने की, लिहाजा वे तेजी से सीढि़यां फलांग लेते हैं, खिड़कियों से कूद जाते हैं. वहीं सलवारकुरता या साड़ी में औरतों को धीमे चलने की ट्रेनिंग यह समाज देता है, लिहाजा दुर्घटना के वक्त भी उन के पैरों में गति नहीं आ पाती, और दूसरी ओर उन के पहने गए कपड़े भी रुकावट पैदा करते हैं. ऐसे समाचार भी अकसर सुनने को मिल जाते हैं कि बाइक या स्कूटर पर पीछे बैठी महिला का दुपट्टा उस के गले और बाइक के टायर के बीच फंस कर उस की मौत का कारण बन गया.

अकसर देखा गया है कि बलात्कार, हिंसा, उत्पीड़न और छेड़छाड़ की शिकार वे महिलाएं ही ज्यादा होती हैं जो सलवारसूट या साड़ी में होती हैं. ये कपड़े उन को मानसिक व शारीरिक रूप से इतना कमजोर और लाचार बना देते हैं कि वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध भी नहीं कर पाती हैं. अत्याचारी के चंगुल से निकल कर भाग नहीं पाती हैं. ये दब्बूपना, डर, आतंरिक कमजोरी और लाचारी की भावना उन को उन पर थोपे गए कपड़ों से मिलती है. जबकि जींसटीशर्ट पहनने वाली महिला को कोई अपराधी तत्त्व जल्दी छेड़ने की हिम्मत नहीं करता है क्योंकि वे पलटवार करती हैं. तेजी से बच निकलती हैं. ये हिम्मत और निडरता उन को उन के कपड़ों से मिलती है.

अकसर देखा गया है कि पैंटशर्ट या जींस पहनने वाली महिलाएं कहीं आनेजाने के लिए किसी पर आश्रित नहीं होती हैं. वे खुद स्कूटर या बाइक चला कर निकल जाती हैं. उन्हें कहीं जाने के लिए पति, पिता या भाई का रास्ता नहीं देखना पड़ता है, बस या रिकशा का इंतजार नहीं करना पड़ता है. वे खुद सक्षम हैं, यह आत्मविश्वास उन को उन के कपड़ों से मिलता है.

जींसटीशर्ट या पैंटशर्ट पहनने वाली महिलाएं, साड़ी या सलवारसूट पहनने वाली महिलाओं के मुकाबले ज्यादा चुस्त, ऊर्जावान, शारीरिक रूप से फिट, खूबसूरत, आत्मविश्वास से भरी हुई और तेजी से काम निबटाने वाली होती हैं. कार्यालयों में उन की पूछ भी ज्यादा होती है. इस में दोराय नहीं कि यह चुस्तीफुरती उन को उन के कपड़ों से मिलती है.

सवाल यह उठता है कि जो कपड़े स्त्री को संबल, निडरता, ताकत, ऊर्जा और गति देते हैं, उन को पहनने के बजाय वे क्यों खुद को 6 गज लंबे कपड़े में लपेटे रखना चाहती हैं? क्यों इधरउधर लटके रहने वाले, मशीनों में फंस कर ऐक्सिडैंट कराने वाले कपड़े पहनती हैं? आखिर क्यों अपनी गति को बाधित करती हैं? दुनिया का हर घर चलाने वाली औरत, मर्द के मुकाबले दोगुना काम करने वाली औरत, घर और कार्यालय एकसाथ संभालने वाली औरत क्यों अपने मूवमैंट के लिए जीवनभर दूसरों की दया पर निर्भर रहती है?

सवाल यह भी उठता है कि क्यों फैशन वर्ल्ड, कपड़ा उद्योग, मनोरंजन की दुनिया में उन ड्रैसों का प्रचारप्रसार, दिखावा और ट्रैंड में होने का विज्ञापन ज्यादा है जो महिलाओं की आजादी और गति को बाधित करता है? दरअसल, यह पितृसत्तात्मक सोच है जो औरत को गुलाम बनाए रखने की कोशिश में आदिकाल से लगी है. औरत के वस्त्र हों या आभूषण अथवा अन्य साजशृंगार, ये सभी औरत को मर्द की दासी घोषित करने वाले प्रतीक माने जाते हैं.

जिस दिन पति अपनी पत्नी के गले में मंगलसूत्र बांधता है, उस दिन वह उस को अपनी दासी घोषित करता है, क्योंकि आभूषण अगर धर्म, संबंध, धन और वैभव के प्रतीक के रूप में स्त्री को पहनाए जाते हैं, तो इस धर्म, संबंध, धन और वैभव का प्रदर्शन फिर पुरुष भी क्यों नहीं करता? भारी पायल सिर्फ स्त्री के पैरों में ही क्यों सजाई जाती है? सिर्फ इस उद्देश्य से ताकि उस की गति को रोका जा सके और पायल की छम्मछम्म से उस के मूवमैंट का पता चलता रहे. ये आभूषण नहीं स्त्री के शरीर पर बांधे गए झुनझुने हैं जो घर के पुरुष को पलपल इस बात की जानकारी देते रहते हैं कि उस की स्त्री किस जगह है और क्या कर रही है. शृंगार और कपड़ों के जरिए औरत को गुलाम बनाने की कोशिश सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनियाभर में कमोबेश एक जैसी ही रही है.

पश्चिमी समाज की गुलाम स्त्री

पहनावे की शैलियों का फर्क दुनियाभर के मर्दों और औरतों के बीच हमेशा से रहा है. विक्टोरियाई इंग्लैंड में महिलाओं को बचपन से ही आज्ञाकारी, खिदमती, सुशील व दब्बू होने की शिक्षा दी जाती थी. उन के पितृसत्तात्मक समाज में आदर्श नारी वही थी जो दुखदर्द सह सके. जहां मर्दों से धीरगंभीर, बलवान, आजाद और आक्रामक होने की उम्मीद की जाती थी, वहीं औरतों को क्षुद्र, छुईमुई, निष्क्रिय व दब्बू माना जाता था.

पहनावे में, रस्मोरिवाज में भी यह फर्क दिखाई देता था. छुटपन से ही लड़कियों को सख्त फीतों से बंधे और शरीर से चिपके कपड़ों में कस कर रखा जाता था. मकसद यह था कि उन के जिस्म का फैलाव न हो, उन का बदन इकहरा रहे. थोड़ी बड़ी होने पर लड़कियों को बदन से चिपके कौर्सेट पहनने होते थे. टाइट फीतों से कसी पतली कमर वाली महिलाओं को आकर्षक, शालीन व सौम्य समझा जाता था. इस तरह विक्टोरियाई महिलाओं की अबला दब्बू छवि बनाने में उन के कपड़ों ने अहम भूमिका निभाई.

महिलाओं ने इन तौरतरीकों को अपने बचपन से देखा. बच्ची ने देखा कि उस की मां कैसे कपड़े पहनती है, तो उस ने भी वही कपड़े अपनाए. उन कपड़ों को पहनने पर उसे अपने पुरुष पिता की ओर से शाबाशी और स्नेह मिला तो उस ने इस बारे में सोचा ही नहीं कि वह ऐसे कपड़े क्यों पहन रही है, जिस को पहन कर न तो वह खेल सकती है और न ही भागदौड़ कर सकती है.

उस ने कभी यह सवाल ही नहीं उठाया कि वह अपने पिता की तरह के कपड़े क्यों नहीं पहन सकती है. विक्टोरिया काल में आदर्श नारी की इस परिभाषा को बहुत सारी महिलाएं मानती थीं. यह संस्कार उन के माहौल में, उस हवा में जहां वे सांस लेतीं,  किताबें जो वे पढ़तीं, जो वह उन किताबों के चित्रों में देखतीं और घर व स्कूल में जो शिक्षा उन्हें दी जाती थी, सर्वव्याप्त था. बचपन से ही उन्हें घुट्टी पिला दी जाती थी कि पतली कमर रखना उन का नारीसुलभ कर्तव्य है. सहनशीलना महिलाओं का जरूरी गुण है. आकर्षक दिखने के लिए उन का शरीर से चिपका, कमर पर कसा और एड़ी तक लंबा कौर्सेट पहनना जरूरी था. इस के लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात मानी जाती थी.

हालांकि कालांतर में इन मूल्यों को सभी औरतों ने स्वीकार नहीं किया. 19वीं सदी के दौरान कुछ विचार बदले. इंग्लैंड में 1830 के दशक तक महिलाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं ने आंदोलन किया और पोशाक सुधार की मुहिम भी चल पड़ी. महिला पत्रिकाओं ने बताना शुरू कर दिया कि तंग कपड़े और कौर्सेट पहनने से युवतियों में कैसीकैसी बीमारियां और जटिलताएं आ जाती हैं. ऐसे पहनावे शारीरिक विकास में बाधा पहुंचाते हैं, इन से रक्तप्रवाह भी अवरुद्ध होता है. मांसपेशियां अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ की हड्डी भी झुक जाती है.

पत्रिकाओं में इंटरव्यू के जरिए डाक्टरों ने बताया कि महिलाएं आमतौर पर कमजोरी की शिकायत ले कर आती हैं, बताती हैं कि शरीर निढाल रहता है, जबतब बेहोश हो जाया करती हैं.

अमेरिका में भी पूर्वी तट के गोरे प्रवासी लोगों के बीच ऐसा ही आंदोलन चला. पारंपरिक महिला कपड़ों को कई कारणों से बुरा बताया गया. कहा गया कि लंबे स्कर्ट, घाघरा, लहंगा आदि झाड़ू की तरह फर्श को बुहारते हुए चलते हैं और अपने साथसाथ कूड़ा व  धूल बटोरते हैं जो कई गंभीर बीमारियों का कारण है. फिर औरतों की स्कर्ट इतनी विशाल होती थी कि संभलती ही नहीं थी और चलने में परेशानी होने के कारण औरतों का काम करना  व जीविका कमाना मुश्किल था. कपड़ों में सुधार करने से महिलाओं की स्थिति में बदलाव आएगा, ऐसी बातों की लहर चलने लगी. कहा गया कि कपड़े अगर आरामदेह हों तो औरतें बाहर निकल कर कामधंधा कर सकती हैं, स्वतंत्र भी हो सकती हैं.

1870 के दशक में, श्रीमती स्टैंटन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ और अमेरिकी महिला मताधिकार एसोसिएशन के नेतृत्व में लुसी स्टोन ने ड्रैस सुधार के लिए बहुत प्रचार किया. उद्देश्य था पोशाक को आसान बनाना, स्कर्टों को छोटा करना और शरीर से कसे हुए कौर्सेट छोड़ना. उन का कहना था, ‘कपड़ों को सरल बनाओ, स्कर्ट छोटी करो और कौर्सेट का त्याग करो.’ इस तरह अटलांटिक के दोनों तरफ आसानी से पहने जाने वाले कपड़ों की मुहिम चल पड़ी.

सामाजिक मूल्यों में बदलाव तुरंत नहीं हुए

पाश्चात्य देशों में स्त्री पहनावे को ले कर कई आंदोलन हुए मगर पितृसत्तात्मक समाज से अपनी मांगें मनवाने में महिलाएं फौरन कामयाब नहीं हुईं. उन्हें उपहास और दंड दोनों झेलने पड़े. दकियानूसी तबकों ने हर जगह परिवर्तन का विरोध किया. उन का प्रलाप यह होता था कि पारंपरिक शैली की ड्रैसें नहीं पहनने से महिलाओं की खूबसूरती खत्म हो जाएगी. यही नहीं, उन की शालीनता भी गायब हो जाएगी. इन लगातार हमलों से त्रस्त हो कर कई महिला सुधारकों ने अपने कदम वापस घरों में खींच लिए और एक बार फिर पारंपरिक कपड़े पहनने लगीं.

फिर भी, 19वीं सदी के अंत तक हवा का रुख काफी बदल गया. कई तरह के दबावों में आ कर सौंदर्य के विचार और पहनावे की शैलियों में बुनियादी बदलाव आए. नए वक्त के साथ नए मूल्य भी चलन में आए. नए दौर में मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं के पहनावे में कई बड़े बदलाव आए और उन की स्कर्ट से लंबी झालरें गायब हो गईं.

प्रथम विश्व युद्ध ने औरत की पोशाक बदली

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान महिलाएं भी ब्रितानी हथियार फैक्ट्री में काम करने के लिए घरों से बाहर निकलीं. तब इसी पितृसत्ता ने, जो उन्हें लंबे लबादों में शालीन और सुंदर मानती थी, अपने मतलब के लिए उन के पहनावे में बदलाव को सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस वक्त सहज गति की जरूरत के चलते महिलाओं के कपड़ों में बड़ा परिवर्तन आया और कार्यस्थलों पर महिलाएं पुरुषों की तरह के कपड़े करने लगीं.

ब्रिटेन में 1917 तक आतेआते करीब 70 हजार औरतें हथियार की फैक्ट्रियों में काम कर रही थीं. वे फैक्ट्री में ब्लाउज व पैंट वाली वर्दी पर स्कार्फ पहनने लगीं. बाद में इस वर्दी में स्कार्फ की जगह टोपी ने ले ली. जंग लंबी खिंची, शहीद मर्दों की संख्या बढ़ने लगी तो घरेलू महिलाओं के कपड़ों का भी चटख रंग गायब होने लगा. वे हलके रंग के सादे और सरल कपड़ों में आ गईं. स्कर्ट तो छोटी हुई ही, ट्राउजर भी जल्द ही पाश्चात्य महिला की पोशाक का अहम हिस्सा बन गया. इस से उन्हें चलनेफिरने की बेहतर आजादी हासिल हुई और सब से जरूरी बात, सहूलियत की खातिर औरतों ने बाल भी छोटे रखने शुरू कर दिए.

20वीं सदी आतेआते कठोर और सादगीभरी जीवनशैली गंभीरता और प्रोफैशनल अंदाज का पर्याय हो गई. बच्चों के स्कूलों में सादी पोशाक पर शोर दिया गया और तड़कभड़क को हतोत्साहित किया गया. लड़कियों के पाठ्यक्रम में जिमनास्टिक व अन्य खेलों का प्रवेश हुआ. खेलनेकूदने में उन्हें ऐसे कपड़ों की दरकार थी, जिस से उन की गति में बाधा न आए. उसी तरह काम के लिए बाहर जाने के वक्त उन्हें आरामदेह और सुविधाजनक कपड़ों की जरूरत हुई.

महिलाओं ने भारीभरकम, बेहद तंग और उलझाऊ वस्त्रों को 1870 के दशक तक धीरेधीरे त्याग दिया. कपड़े अब हलके, छोटे और पतले होने लगे. लेकिन फिर भी 1914 तक तो महिलाओं के कपड़े एड़ी तक होते ही थे और यह लंबाई 13वीं सदी से बदस्तूर चली आ रही थी. लेकिन अगले साल, 1915 में ही, स्कर्ट का पायंचा उठ कर अचानक पिंडलियों तक सरक आया.

दरअसल, यह बड़ा परिवर्तन विश्व युद्ध के कारण आया जब यूरोप में ढेर सारी औरतों ने जेवर और बेशकीमती कपड़े पहनने छोड़ दिए. उच्चवर्ग की महिलाएं अन्य तबकों की महिलाओं से घुलनेमिलने लगीं जो अपने कामधंधे के दौरान पिंडलियों तक की स्कर्ट पहनती थीं. उन की देखादेखी उच्चवर्ग की महिलाओं ने भी अपनी स्कर्ट छोटी की. इस से सामाजिक सीमाएं भी टूटीं और महिलाएं एकसी दिखने लगीं.

इस तरह औरत के कपड़ों का इतिहास समाज के वृहत्तर इतिहास से गुंथा रहा. पितृसत्ता ने अपने मतलब के लिए जब भी औरत की शारीरिक व मानसिक शक्ति का इस्तेमाल किया, उस ने उस के पहनावे में बदलाव को भी स्वीकार कर लिया. खूबसूरती की परिभाषा जरूरत के मुताबिक बदल ली जाती रही. मगर अधिकांश देशों में और खासतौर पर मुसलिम देशों में औरत को घर की चारदीवारी में समेटे रखने की मानसिकता के चलते उस के शरीर पर वजनी और गतिरोधक लबादे डाल कर रखे गए, जो आज तक बदस्तूर जारी है.

अरब देश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत हर जगह औरतों की हालत लगभग एकजैसी है. उन्हें सुंदर, शालीन, संस्कारी जैसी तारीफों के मकड़जाल में फंसा कर कपड़ों और जेवरों की बेडि़यों में जकड़ दिया गया है. कितनी हैरत की बात है कि धन की देवी लक्ष्मी को पूजने वाले अपने घर की बेटी लक्ष्मी को धनसंपत्ति में कोई अधिकार नहीं देना चाहते. वह एकएक पैसे के लिए घर के मर्दों के आगे भिखारी की तरह हाथ फैलाती है.

ज्ञान की देवी सरस्वती की आराधना करने वाले घर की ‘सरस्वतियों’ को स्कूल नहीं भेजना चाहते, उस को उच्च शिक्षा नहीं लेने देते, बल्कि उस के गले में एक मर्द से मंगलसूत्र बंधवा कर उस को उस की दासी घोषित करना अपना सब से बड़ा धर्म व गर्व समझते हैं. कहानियों में, लोककथाओं में, धार्मिक किताबों में, पूजा स्थलों में नारी को नर से आगे रखने वाले वास्तविक जीवन में नारी की गति और आजादी को बांध कर उसे हमेशा पीछे धकेले रखना चाहते हैं.

बंगलादेश में रेडीमेड कपड़ों की दुकानों पर नजर डालें, तो वहां पुरुषों के लिए शर्ट, पैंट, टाई या कुरता, पायजामा तो है, लेकिन महिलाओं के लिए बुर्के की तरह लंबी पोशाक है. सिर ढकने के लिए हिजाब भी है. कहींकहीं महिलाएं साड़ी के ऊपर बुर्के की जगह गाउन पहनती हैं. साड़ी पहनने पर पूरी बांह वाले ब्लाउज पहनने का चलन है. बंगलादेश में भीषण गरमी पड़ती है. फिर भी महिलाओं को लबादे पर लबादा ओढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है. गरम मुसलिम इलाकों में बुर्के और हिजाब का चलन लागू करना धर्म के नाम पर उस की गति रोकने का वही तरीका है, जिसे औरत शताब्दियों से भुगत रही है.

दरअसल, पुरुष खुद अपने को बंधनमुक्त रख कर महिलाओं को संस्कारों के नाम पर बांधे रखना चाहता है ताकि महिलाओं को अपने बारे में सोचने की ही फुरसत न मिले. महिलाओं को भी अपनी उस पारंपरिक और तथाकथित पवित्र छवि से मोह हो गया है जो उन के लिए पुरुषों ने गढ़ी है. जबकि वे काम की जगहों पर अपने कपड़ों की वजह से पिछड़ रही हैं, अपने कपड़ों के कारण कई तरह की मुसीबतों का सामना कर रही है. वे खुद यह भी मानती हैं कि कपड़ा किसी के चरित्र का मापदंड नहीं होता है. वे सवाल भी उठाती हैं कि जहां महिलाएं घूंघट या बुर्के में रहती हैं, वहां क्या उन का बहुत सम्मान किया जाता है? क्या उन्हें वहां बराबरी के सारे अधिकार हासिल हैं? क्या कपड़े हमारे चरित्र का पैमाना हैं? बावजूद इन तमाम सवालों के, महिलाएं खुद आगे बढ़ कर गतिरोधक कपड़ों की बेडि़यां उतारना नहीं चाहतीं.

नजर से गिरने का थोथा डर

कपड़ों में बदलाव न करने की सब से बड़ी वजह है डर. यह डर है अपनों की नजरों से गिरने का. सिर से पल्ला हटाया तो ससुर क्या कहेगा? देवर कैसी नजरों से देखेगा? जेठ के सामने से कैसे निकलूंगी? सास ताने मारेगी. महल्ले वाले बातें बनाएंगे. कैसी असंस्कारी, असभ्य, निर्लज्ज बहू है, ऐसी बातों के बाण मारेंगे. मनचले छेड़ेंगे. यही डर बेटियों को है कि जींसटौप पहना, तो पापा गुस्सा होंगे, भाई चिल्लाएगा. इस डर का मुकाबला कर के इस को हरा कर जो लड़कियां आगे बढ़ गईं, जीवन उन के लिए आसान हो गया. जीवन में गति आ गई, आजादी और आत्मनिर्भरता आ गई, खुद में आत्मविश्वास जागा.

कुसुम को पति की मौत के बाद जब सरकारी फैक्ट्री में उस की जगह काम करने का मौका मिला तो उस की ससुराल वालों ने सहर्ष हामी भर दी. बल्कि उस को पति की जगह काम दिलवाने की कोशिश तो घर वालों की सलाह से उस के जेठ ने ही की और कुसुम को काम मिल गया. 2 नन्हे बच्चों की विधवा मां कुसुम को ससुराल में रहने के लिए पैसे की जरूरत थी और ससुराल वालों को भी उस धन की लालसा जो वेतन के रूप में पहले बेटा लाता था और अब उस के मरने के बाद उन की बहू लाएगी.

कुसुम काम के लिए फैक्ट्री जाने लगी. वह रोज सुबह साड़ी लपेट कर सिर पर माथे तक पल्ला निकाल कर घर से निकलती थी, महल्ला पार करती, बस में सवार होती और आधे घंटे के सफर के बाद पसीने से लथपथ फैक्ट्री पहुंचती थी. फैक्ट्री पहुंच कर वह सिर से पल्ला उतार कर कमर में खोंस लेती ताकि मशीन पर खड़ी हो कर काम कर सके. लेकिन कुसुम की तारीफ घर और महल्ले में थी कि देखो, काम पर जाती है पर क्या मजाल कि सिर से एक इंच भी पल्ला खिसक जाए, कैसी संस्कारी बहू है. बस, यही संस्कारी बहू वाले तमगे ने उसे अपने कपड़ों में बदलाव से रोका हुआ है.

मशीन पर खड़े होते वक्त वह साड़ी के कारण परेशान होती रहती है, रास्तेभर यह 6 गज का कपड़ा उसे तेज चलने से रोकता है, गरमी के कारण आए पसीने में पेटीकोट बारबार दोनों पैरों के बीच चिपकता और फंसता है, मगर संस्कारी बहू इन परेशानियों को जीवनभर झेलती है और यही घुटनभरा संस्कार वह अपनी बेटियों को भी परोसती है.

पाकिस्तान में औफिस में काम करने वाली कितनी महिलाएं और कालेज जाने वाले लड़कियां जींसटौप के ऊपर बुर्का पहनती हैं, जो औफिस या कालेज पहुंचने के बाद उतर जाते हैं. महज इस कारण से कि कहीं उन की तथाकथित ‘शालीनता’ और ‘लज्जा’ पर सवाल न खड़े हो जाएं. यह बिलकुल ऐसा है जैसे मन गतिमान है, वह उड़ना चाहता है मगर सामाजिक तमगों के कारण औरतें खुद कपड़े पर कपड़ा ओढ़ कर उस गति को रोक देती हैं.

धर्म डालता है आजादी में बाधा

औरत को आजाद होने और गतिशील होने में सब से बड़ा बाधक है धर्म. धार्मिक स्थलों पर पुरुष तो पैंटशर्ट पहन कर जा सकता है मगर औरत नहीं. पुरुष अगर लुंगी या धोती पहने है तो अपनी लुंगी या धोती को घुटनों तक चढ़ा कर अपने पैरों का प्रदर्शन कर सकता है मगर औरत की साड़ी एड़ी तक होनी चाहिए. औरत को पल्लू से सिर भी ढांकना होगा. धार्मिक स्थल पर वह स्कर्ट पहन कर नहीं घुस सकती. सलवारकुरता पहने है तो लंबे दुपट्टे से सिर और छाती को ढकना होगा. हिंदू औरत पति के साथ पूजा में बैठती है, तो पूरे शरीर सहित उस का सिर और आधा चेहरा भी साड़ी के पल्लू से छिपा रहता है.

ये तमाम नियम धर्म और धर्म के ठेकेदारों ने औरतों पर थोपे हैं. ये नियम सभी धर्मों में हैं. ईसाई औरत लंबे गाउन पहनती है और सिर पर स्कार्फ या दुपट्टा बांध कर चर्च जाती है. मुसलमान औरतों को तो मसजिद में आना ही मना है, हालांकि वे आ सकती हैं, मगर उन के घरों से ही इजाजत नहीं मिलती. अन्य कामों से बाहर निकलती हैं तो उन को अपने सिर सहित पूरा शरीर लाबादेनुमा बुर्के में लपेटना होता है.

औरतें कैसे कपड़े पहनें, यह उन के धर्म और उस के ठेकेदार तय कर के उन के समाज और परिवार के माध्यम से उन पर लागू करवाते हैं. मगर यही धर्म और उस के ठेकेदार वहां चुप्पी साध लेते हैं जहां औरतें तपती धूप में खेतों या फैक्ट्रियों में काम करती हैं. जहां वे अपनी साडि़यों को धोती की तरह दोनों पैरों के बीच इस तरह पहन लेती हैं कि काम करने के लिए उन के पैर कपड़े में न अटकें. धोतीनुमा पहनी गई साड़ी कभीकभी उन की जांघों तक चढ़ आती है. आमतौर पर धान की रोपाई के वक्त पानी से भरे खेतों में औरतों को आप इसी पोशाक में पाएंगे. तब उन के सिर पर कोई घूंघट भी नहीं होता. तब क्योंकि, औरत से शारीरिक श्रम लेना है तो वहां कपड़ों के कारण शालीनता खोने या स्त्रियों के गुण खत्म होने का कोई सवाल पैदा नहीं होता है. वाह रे, दोमुंहा पितृसत्तात्मक समाज.

तिहरे बोझ तले दबी कामकाजी महिलाएं

वर्तमान में नारी शक्ति अपने चरम पर है. समय के साथसाथ स्त्री की भूमिका में भी बहुत बदलाव आए हैं. महिलाएं घर से बाहर निकल कर अपनी एक वृहद पहचान बना चुकी हैं. उन की एक खासीयत यह भी है कि ज्यादातर महिलाएं मल्टीटास्किंग होती हैं जो अपने मैनेजमैंट द्वारा अपने कार्यों को बखूबी अंजाम दे रही हैं. आज हर क्षेत्र में महिलाएं अपने काम में दक्षता पूर्ण प्रदर्शन कर रही हैं. मगर लिंगभेद के विचारों की जड़ें आज भी समाज की खोखली मानसिकता से जकड़ी हुई हैं.

आज हम बात कर रहे हैं कामकाजी महिलाओं की, जिन पर दोहरा नहीं तिहरा बो?ा है. दफ्तर से कमा कर लाओ, घर चलाओ, बच्चों में संस्कारों का रोपण करो. इतना ही नहीं उस पर पूजापाठ, कर्मकांड को भी उतनी ही शिद्दत से पूर्ण करो. क्या यह न्यायसंगत है?

कोल्हू के बैल की तरह जुतती हुई महिलाएं  2 पल सुकून के लिए तरसती रहती हैं. जिम्मेदारी के ओढ़े हुए लबादे उन्हें चैन से जीने नहीं देते हैं. संविधान भले ही महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए हैं, किंतु पूर्वाग्रह और लिंगभेद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे उन से बाहर ही नहीं निकल पा रही हैं.  परिवर्तन समाज का नियम है तो क्या यह नियम सिर्फ महिलाओं पर ही लागू होना चाहिए? क्या यह समाज सिर्फ महिलाओं से बना है पुरुषों से नहीं?

ओछी मानसिकता का शिकार

आज 58त्न महिलाएं नौकरीपेशा हैं. महिलाएं अपनी सामर्थ्य के अनुसार परिवार में आर्थिक योगदान प्रदान कर रही है, लेकिन उन का जीवन संघर्षों से भरा होता है और उन की चुनौतियां खत्म होने का नाम नहीं लेती हैं.  परिवार की देखभाल, खाना बनाने, बच्चों को विद्यालय के लिए तैयार करने, पति के लिए टिफिन तैयार करने और साफसफाई इत्यादि के लिए सुबह जल्दी उठना पड़ता है. इन सब कामों को निबटा कर वे कार्यालय जाने के लिए तैयार होती हैं.

यदि काम के लिए किसी हैल्पर को रख ले तो उन्हें स्वयं ही इस से 2-4 होना पड़ता है. समय व पैसे की बचत के लिए कामकाजी महिलाएं स्वयं को पूर्णरूप से काम में लिप्त कर लेती हैं. घरपरिवार के साथसाथ कामकाजी महिलाओं को अपने औफिस में भी समाज के विचारों की दोगली मानसिकता का सामना करना पड़ता है.

डिंपल कामकाजी महिला हैं. तीक्ष्ण बुद्धि की डिंपल अपने घर से ही अपने काम को अंजाम देती हैं. एक मैडिकल स्टोर संभालती हैं, परिवार व कार्य का संतुलन बनाने में काफी हद तक सफल हैं. लेकिन समाज की घिसीपिटी जंजीरे उन का पीछा नहीं छोड़ती हैं. परिवार के लोगों से ले कर पासपड़ोसी तक उन की इस सफलता को पचा नहीं पाते. उस पर टीकाटिप्पणी की जाती है कि पूजापाठ करो, निर्जला व्रत भी करो व घर के लोगों के स्वादिष्ठ पकवान भी बनाओ. यह स्त्री का धर्म होता है. क्या सभी स्त्री धर्म ही हैं?

क्या कहता है सर्वे

एक सर्वे में पुरुष कर्मचारियों के विचार कुछ इस तरह थे- महिलाएं अपने महिला होने का फायदा उठाती हैं कि हमें जल्दी घर जाना है. सरकारी नौकरी में सरकार ने महिलाओं को छूट दे रखी है. अरे भई नौकरी मिल गई है तो क्या महिला होने का फायदा उठाएंगी? जब हमें छोटेछोटे गांवों में तबादला मिलता है तो उन्हें क्यों नहीं?

फिर उन से पूछा गया कि क्या घर जा कर आप अपनी पत्नी की मदद करते हैं आखिर वे भी नौकरी करती हैं? तो जवाब था कि हम ने नहीं कहा नौकरी करो, यह उन का चुनाव है. हम घर कमा कर लाते हैं, घर चलाते हैं, घर के काम के लिए नौकरानी है. हम क्यों करेंगे घर के काम?

अधिकारों की विभाजन रेखा

आखिर अधिकारों की विभाजन रेखा को किस ने गहरा किया है? किसी भी पुरुष को घर के कार्यों में मदद करने पर शर्म क्यों आती है? हालांकि समाज में 10त्न लोग ऐसे भी हैं जो खुल कर अपनी पत्नी का सहयोग करते हैं, लेकिन यह संख्या न के बराबर है. ऐसे लोगों को समाज जोरू का गुलाम कहता है.

अंकिता स्वयं एक बड़े पद पर सरकारी संस्था में कार्यरत है और उस के पति भी एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करते हैं. अंकिता सुबह  तड़के उठ जाती है. नाश्ते से ले कर मांपिताजी की दवा बच्चों का टिफिन सब तैयार कर 10 बजे औफिस जाती है. यहां तक कि पूजापाठ का जिम्मा भी उस के हक में आता है. हर वर्ष वह अपने बच्चों के जन्मदिन पर पंडितों को बुला कर पूजाअर्चना कराती है.

अंकिता से जब पूछा गया तो उस का कहना था कि ये हमारे संस्कार हैं. हम अपने बच्चों और अपनों के लिए नहीं करेंगे तो कौन करेगा? यह मेरी सच्ची श्रद्धाभक्ति है जिस के कारण पूरे परिवार को खुशी मिलती है और यदि वह पूजापाठ न करे, तब परिवार में कोई दीपक जलाने वाला भी नहीं होता है. सास कहती हैं कि बहू बहू की तरह ही अच्छी लगती है. आखिर हम ने भी सब किया है.

उसी तरह प्रीति ने भी अपने परिवार की संपूर्ण जिम्मेदारी निभाने का बो?ा अपने कंधों पर ले रखा है. पूजापाठ इत्यादि में वह अपना शेष समय गुजारती है. परिवार की हर जिम्मेदारी के साथसाथ बच्चों का पढ़ाई का जिम्मा भी उस ने उठा रखा है. रात को थक कर जब बिस्तर पर निढाल पड़ती है तो अगले दिन की चिंता सोने नहीं देती है. यह हाल सिर्फ शहरों में ही नहीं गांवों में भी आधिपत्य जमा चुका है.

पत्नी के पैसों पर ऐश

मध्य प्रदेश के एक छोटे गांव में चंचल स्कूल की शिक्षिका है. पति को कोई कार्य करने का शौक नहीं है. पहले वह घर वालों के पैसों पर ऐश करता था. डाक्टर भाई की उस के क्लीनिक में मदद करता था. पढ़ाई खास की नहीं. अब परिवार से अलग हो कर पत्नी के पैसों पर ऐश करता है. मटरगश्ती के अलावा कोई काम नहीं आता और कोई उसे सम?ाने की कोशिश करता है  कि पत्नी कमा रही है उस की मदद ही कर दिया कर तो जवाब आता है कि मु?ा से काम नहीं होता है. लुगाई किसलिए ले कर आया है?

चंचल ने अपने परिवार को संभाला, बच्चों की शादी की, आर्थिक जिम्मेदारी भी अकेले ही उठाई, लेकिन पति का कोई सहयोग नहीं मिला. पति का सहयोग तो उसे उस के गृहकार्य में भी नहीं मिला. जब चंचल से कहा गया कि तुम अपने पति से क्यों नहीं कहती हो कि घर के काम में तो मदद करो? तो उस का कहना था कि उन्हें तो आता नहीं है और यदि कोई काम करें तो ऐसा करते हैं कि मेरे काम का बो?ा और बढ़ जाता है. इस से बेहतर है कि खुद ही जल्दी सब कर के चली जाऊं. बस मु?ा से पूजापाठ ही नहीं होता लेकिन जबरदस्ती करना पड़ता है.

हर क्षेत्र में आगे हैं महिलाएं

आज देश में बहुत कामकाजी महिलाएं हैं जो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर कमा रही हैं. लेकिन जब बात घर के काम की जिम्मेदारियां की आती है तब वहां भी अपेक्षाओं के बादल अपना प्रचंड रूप दिखाते हैं. आखिर इन कार्यों की विभाजन रेखा को किस ने गहरा किया है? आखिर इस समस्या की जड़ कहां है जो समय के साथ उखड़ ही नहीं रही है?

निधि और मयंक दोनों ही कौरपोरेट जगत में साथ में नौकरी करते हैं. साथ में औफिस जाते हैं. घर आने के बाद मयंक बैग को एक तरफ फेंक कर टीवी चला कर सोफे पर आराम फरमाता है कि यार बहुत थक गया हूं कुछ खाने को दो साथ में चाय हो जाए. बहुत थक गया हूं और निधि भी खुशीखुशी दौड़ कर गरमगरम चाय नाश्ता बना लाती है और फिर अपना घर समेटती है. प्रेम इंसान से क्या न करवाए. उस का कहना है इसी में तो सुख है.

लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि वह भी तो औफिस जाती है उतना ही कमा कर आती है. लेकिन जब बात घर के काम की आती है तो ज्यादातर पति यह कहते हैं कि नौकरी करना उस का चुनाव है. हम ने नहीं कहा. वह नौकरी छोड़ दे घर संभाले. यह अंतिम ब्रह्मास्त्र कमोवेश हर महिला के समक्ष फेंका जाता है. अपने सपनों की तिलांजलि न देते हुए कामकाजी महिलाएं अपनी पीठ पर जिम्मेदारियों को लादती चली जाती हैं, जिन्हें हलका करने वाला कोई नहीं होता है.

असंतुलन और मानसिक तनाव

महिलाएं जिम्मेदारियों के बो?ा तले इतनी दब जाती हैं कि स्वयं के स्वास्थ्य व खानपान के प्रति लापरवाह हो जाती हैं. इस के चलते दांपत्य जीवन की मिठास भी खो जाती है. सैक्स के प्रति उदासीनता, अपने रखरखाव में कमी आ जाती है. महिला चाहे कितनी भी कठोर उद्यमी क्यों न हो उस की कमियां निकलना, उसे डांटना पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार सम?ाते हैं. उस की स्थिति 2 नावों में सवार व्यक्ति के समान होती है क्योंकि एक ओर कार्यालय में स्त्री होने के कारण अधिकारी वर्ग उसे दबाने की कोशिश में लगा रहता है. तो दूसरी तरफ परिवार व पति. इन में वह गेहूं में घुन की तरह पिसती है.

असंतुलन उसे मानसिक तनाव देता है जिस के चलते थकान, नींद पूरी न होना, चिड़चिड़ापन, नींद न आना, बीपी, शुगर जैसी बीमारियों से ग्रस्त होना पड़ता है. ऐसी दिनचर्या अनेक बीमारियों को न्योता देती है. समाज को नई दिशा प्रदान करने वाली महिलाएं दोहरेतिहरे बो?ा को ढोतढोते अपनी जिंदगी से इतनी थकित हो जाती है कि एक समय के बाद उन का शरीर व मन दोनों जवाब दे देते हैं.

आखिर कब तक लिंग, स्त्री व धर्म के नाम पर उन्हें ठगा जाएगा? जब सारे कार्य महिलाओं को ही करने हैं तो पुण्य भी सिर्फ उन्हें ही मिलना चाहिए.

आज हमें अपने विचारों में क्रांति की जरूरत है. सिर्फ मोबाइल या सोशल मीडिया में बड़ीबड़ी बातें करने से कुछ नहीं होगा. उसे व्यवहार में लाने की बेहद आवश्यकता है. यही परिवर्तन आगे सुखद भविष्य का निर्माण करेगा.

जीवनसाथी को अपने साथी से प्रेम से पेश आना चाहिए. पुरुष घरेलू कार्यों में अपनी पत्नियों का सहयोग करें. मदद करने से कोई छोटा नहीं होता है. परिवार में वूमन फ्रैंडली माहौल हो. सहयोग व प्रेम मन में सुरक्षा की भावना प्रदान करता है. छुट्टियों में परिवार के साथ क्वालिटी समय व्यतीत करें. लिंगभेद से ऊपर बढ़ कर सोचें. कामकाजी महिलाओं को अपनी समस्याएं  परिवार के साथ खुल कर बांटनी चाहिए. सोच बदलेगी तो महिलाओं की स्थिति के साथसाथ समाज भी बदलेगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें