लौटते हुए: क्यों बिछड़े थे दो प्रेमी

राइटर- अंजुला श्रीवास्तव

रेल पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी, सबकुछ पीछे छोड़ते हुए, तेज बहुत तेज. अचानक ही उस की स्पीड धीरेधीरे कम होने लगी. कोई छोटा सा स्टेशन था. रेल वहीं रुक गई. भीड़ का एक रेला सा मेरे डब्बे में चढ़ आया. मु झे हंसी आने को हुई यह सोच कर कि इन यात्रियों का बस चले तो शायद एकदूसरे के सिर पर पैर रख कर भी चढ़ जाएं.

अचानक एक चेहरे को देख कर मैं चौंकी. वह अरुण था. वह भी दूसरे यात्रियों के साथ ऊपर चढ़ आया था. उसे देखते ही दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में भी मुझे पसीना आ गया. शायद उस ने मुझे अभी नहीं देखा था, यह सोच कर मैं ने राहत की सांस ली ही थी कि अचानक वह पलटा. डब्बे में सरसरी दृष्टि फिराते हुए जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह चौंक कर बोला, ‘‘रेखा, तुम?’’

मैं अपनेआप को संयत करने की कोशिश करने लगी. इस तरह कभी अरुण से मिलना होगा, इस की तो मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. मुझे लगने लगा, दुनिया बहुत छोटी है जहां बिछड़े हुए साथी कहीं न कहीं आपस में मिल ही जाते हैं.

अरुण भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था. बोला, ‘‘सौरी, मैं ने आप को देखा नहीं था, वरना मैं इस डब्बे में न चढ़ता. खैर, अगला स्टेशन आने पर मैं डब्बा बदल लूंगा.’’

उस के मुंह से अपने लिए ‘आप’ सुनते ही मु झे एक धक्का सा लगा. मैं सोचने लगी, ‘घटनाएं आदमी को कितना बदल देती हैं. समय की धारा में संबंध, रिश्तेनाते, यहां तक कि संबोधन भी बदल जाते हैं. कल तक मैं अरुण के लिए ‘तुम’ थी और आज?’ मेरे मुंह से एक सर्द आह निकलतेनिकलते  रह गई.

‘‘यह रेल मेरी बपौती नहीं है,’’ मैं ने स्वर को यथासंभव सहज बनाते हुए कहा. लेकिन अपने हावभाव को छिपाने में मैं असमर्थ रही.

अरुण के साथ ही डब्बे में 2-4 बदमाश टाइप के लड़के भी चढ़ आए थे. पहले उन की तरफ मेरा ध्यान नहीं गया था. अरुण को देखते ही मैं अपने होश खो बैठी थी. लाल कमीज पहने एक युवक मु झ से सट कर बैठ गया. अरुण ने भी उसे देखा था, लेकिन उस ने फौरन ही मेरी तरफ से मुंह फेर लिया था. शायद उसे उस युवक का मेरे साथ इस तरह सट कर बैठना बरदाश्त नहीं हुआ था.

लेकिन मैं चाहती थी कि अरुण मेरी तरफ देखे. उस ने अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपा लिया था. लेकिन मैं जानती थी कि वह अखबार नहीं पढ़ रहा होगा, चोर नजरों से मुझे ही देख रहा होगा. 2 साल अरुण के साथ रही हूं, सबकुछ भूल कर, सिर्फ उसी की बन कर. शायद अरुण अपनी आदत भूल चुका हो, मुझे किसी और के साथ बात करते देखते ही उसे गुस्सा आ जाता था. जिद्दी बच्चे जैसा ही तो व्यवहार रहा है उस का. जो आदत उस की 26 साल में बनी थी वह 2 साल में

अपने को संभाल मैं कैब का इंतजार करने लगी. अचानक अरुण मेरे पास आया और बोला, ‘‘सुनिए, मैं यहां के बारे में कुछ नहीं जानता. आप को अगर कोई परेशानी न हो तो मु झे यहां के किसी होटल तक पहुंचा दीजिए.’’

मैं देख रही थी कि अरुण यह सबकुछ कहते हुए हिचकिचा रहा था. पहले की तरह उस के स्वर में न अपनापन था, न बेफिक्री.

मैं उस के साथ ही कैब में बैठ गई. फिर मैं सोचने लगी कि अरुण को मैं अपने घर ले चलूं तो शायद उसे दोबारा पा सकूं. लेकिन… लेकिन अगर अरुण ने मना कर दिया तो इस ‘तो’ ने सारी बात पर फुलस्टौप लगा दिया.

लेकिन न जाने कैसे मेरी दबी इच्छा बाहर निकल ही आई. मैं कह बैठी, ‘‘आप को परेशानी न हो तो मेरे घर पर रुक जाइए.’’

‘‘तुम्हारे घर,’’ अरुण ने आश्चर्यचकित हो कर कहा. उस की स्वीकृति पा कर मैं ने कैब वाले को अपने घर की तरफ चलने  का इशारा किया. मेरे दिल से एक बो झ सा उतर गया. 15 मिनट में ही कैब मेरे घर तक पहुंच गई. अपने कमरे की अस्तव्यस्त हालत के कारण मु झे अरुण के सामने शर्म आने लगी. अरुण कमरे का निरीक्षण कर रहा था, बोला, ‘‘कमरा तो तुम्हें अच्छा मिल गया है.’’

‘‘हां, 5,000 रुपए किराया है इस का. इस से कम में तो मिल ही नहीं सकता,’’ मैं कह गई.

तरोताजा होने के लिए अरुण बाथरूम में चला गया. इतनी देर में मैं ने सब चीजें करीने से लगा दीं. नाश्ते का इंतजाम भी कर लिया. अरुण को क्याक्या पसंद है, यह सब मु झे अभी तक याद था. उसे नाश्ता करा कर मैं भी नहाने चली गई.

‘‘क्या खाइएगा?’’ बहुत दिनों बाद मैं ने किसी से पूछा था. अरुण अपने सामने 4 साल पहले वाली रेखा को देख कर चौंक गया था. वह रेखा भी तो उस से सबकुछ पूछ कर बनाती थी.

‘‘जो रोज बनाती हो,’’ अरुण ने कहा. फिर मेरे जी में आया कि कह दूं, ‘अरुण, रोज मैं खाना बनाती ही कहां हूं. औरत सिर्फ अपना पेट भरने के लिए खाना नहीं बनाती. उस की कला तो दूसरों को तृप्त करने के लिए होती है. जब कोई खाने वाला ही नहीं तो मैं खाना किस के लिए बनाती?’

लेकिन मैं कुछ भी न कह पाई. चुपचाप मैं ने अरुण की पसंद की चीजें बना लीं. लेकिन हम दोनों में से कोई भी एक कौर भी आराम से नहीं खा पाया. हर कौर के साथ कुछ न कुछ घुटता जा रहा था.

रात हो चुकी थी. अरुण भी इधरउधर टहल कर लौट आया था.

‘‘मैं ने आप का बिस्तर लगा दिया है. बगल में मेरी सहेली रहती है. मैं वहां सो जाऊंगी,’’ मैं ने कहा तो अरुण आहत हो कर बोला, ‘‘रेखा, आदमी को कुछ तो विश्वास करना ही चाहिए. मैं इतना नीच तो नहीं हूं.’’

इस से आगे सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैं ने वहीं बिस्तर लगा लिया. सारी रात जागते हुए ही बीती. अरुण भी जागता रहा और हम दोनों ही एकदूसरे की नजर बचा कर एकदूसरे को देखते रहे.

रोज की तरह सूरज निकल आया था अपनी अंजलि में ढेर सारी आस्थाएं लिए, विश्वास लिए. मैं ने सोचा, ‘मेरा रोज का काला सूरज आज क्या मेरे लिए भी नई आशाएं ले कर आया है?’

मैं ने जल्दीजल्दी खाना बनाया औफिस जो जाना था. अरुण चुपचाप लेटा हुआ था. न जाने वह क्या सोच रहा था.

मैं ने तैयार हो कर चाबी उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘खाना बना हुआ है, खा लेना.’’

‘‘औफिस से जल्दी आ सको, तो अच्छा है,’’ अरुण ने कहा तो मेरी इच्छा हुई कि काश, अरुण यही कह देता, ‘रेखा, आज तुम औफिस मत जाओ.’

लेकिन मैं जानती थी, अरुण ऐसा नहीं कह पाएगा. उस समय भी तो वह ऐसा नहीं कह पाया था जब मैं हमेशाहमेशा के लिए उस का घर छोड़ रही थी. तब आज कैसे कह सकता था जबकि मैं वापस लौटने के लिए ही जा रही थी.

औफिस में भी अरुण को नहीं भूल पाई. कितना परेशान हो रहा होगा वह. शायद पहचान का नया सिरा ढूंढ़ने की कोशिश में हो. इसी उधेड़बुन में मैं जल्दी ही घर लौट आई.

मैं खाने के लिए मेज साफ करने लगी. अरुण का बैलेट वहीं रखा था. उसे हटा कर मेज साफ करने की सोच जैसे ही मैं ने बैलेट हटाया, उस में से एक फोटो नीचे गिर पड़ी.

एकाएक मैं चौंक पड़ी. किसी बच्चे का फोटो था. सहसा मु झे एक धक्का सा लगा. मैं नीचे, बहुत नीचे गिरती जा रही हूं और अरुण लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है. अब मैं अरुण को कभी नहीं पा सकूंगी. पहले एक छोटी सी आशा थी कि शायद उसे दोबारा कभी पा लूंगी. लेकिन आज उस आशा ने भी दम तोड़ दिया था. अरुण का बच्चा है, तो पत्नी भी होगी. जो बात पिछले 24 घंटों में मैं अरुण से नहीं पूछ पाई थी, उस का उत्तर अपनेआप ही सामने आ गया था. अरुण के पास सबकुछ था. पत्नी, बेटा, लेकिन मेरे पास…

‘‘बहुत प्यारा बच्चा लग रहा है. क्या नाम है इस का?’’ मैं ने किसी तरह पूछा.

‘‘अंशुक,’’ कहते हुए अरुण के चेहरे पर अपराधबोध उतर आया था.

मेरे गले में फिर से कुछ अटकने लगा था. अरुण का भी शायद यही हाल था. कभी हम दोनों ने यही नाम अपने बच्चे के लिए सोचा था. आज अंशुक अरुण का पुत्र है, लेकिन मेरा पुत्र क्यों नहीं है? अंशुक मेरा पुत्र भी तो हो सकता था.

मैं मन ही मन कुलबुलाने लगी, ‘अरुण, क्या तुम ने हमारे उस घर में लिपटी धूल को पोंछने के साथसाथ मु झे भी पोंछ डाला है? क्या तुम मु झे अपने दिल से निकाल सके हो? तुम ने अपने पुत्र का नाम अंशुक क्यों रखा?’

मैं ढेरों सवाल पूछना चाहती थी, लेकिन कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत एक बार फिर जवाब दे गई. अब तो शायद मेरी जिंदा रहने की ताकत भी खत्म हो जाएगी. अभी तक  झूठी ही सही, लेकिन फिर भी आशा तो थी ही पीछे लौटने की. लेकिन अब तो सब दरवाजे बंद हो चुके हैं और आगे भी रास्ता बंद दिखाई दे रहा है. अब मैं कहां जाऊंगी? हार… हार… इस हार ने तो मु झे अंदर तक तोड़ डाला है.

फिर भी मैं शीघ्र ही संभल गई. इन  4 सालों के एकाकीपन ने मु झे इतना तो सिखा ही दिया था कि परिस्थितियों के अनुसार अपने को किस तरह काबू में रखना चाहिए.

‘‘कहां चलना है?’’ मैं  सहज हो कर तैयार हो गई थी. अब तक मैं सम झ चुकी थी कि अरुण अब मेरा केवल परिचित मात्र रह गया है. लेकिन फिर भी मैं ने लाल बौर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी. अरुण अपनी पसंद की साड़ी में मु झे देखता ही रह गया था. मैं ने फिर मन ही मन कहा, ‘क्या देख रहे हो, अरुण? मैं वही रेखा हूं. कुछ भी, कहीं भी नहीं बदला है. फिर, किस वजह से हम एकदूसरे से इतनी दूर हो गए हैं?’

मैं ने सिर  झटक दिया. सीढि़यां उतरते ही हम भीड़भरी सड़क का एक अंग बन गए.

उस दिन मैं थक कर चूर हो गई थी. पर मेरी आंखों में नींद कहां थी. अरुण भी पिछला कुछ नहीं भूला था. वह लगातार सिगरेट पीता रहा. फिर अचानक बोला, ‘‘रेखा, वैसे तो अब तुम पर मेरा कोई हक नहीं लेकिन तब भी कह रहा हूं, इतनी दूर अकेली मत रहो. लौट आओ, वापस लखनऊ. नौकरी करना इतना जरूरी तो नहीं?’’

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. अरुण को औरतों का नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया. मैं ने फिर कहना चाहा, ‘अरुण, नौकरी करना उन के लिए जरूरी नहीं जिन के पास सबकुछ हो, मेरे पास तो कुछ भी नहीं. फिर पिछला सब भुलाने के लिए ही तो मैं इतनी दूर आई हूं. वरना नौकरी तो मु झे वहां भी मिल जाती. लखनऊ वापस लौट कर मैं क्या जिंदा भी रह पाऊंगी? जब अतीत बुरे सपने की तरह पीछा करेगा तो उस से मैं कैसे बचूंगी? कहांकहां भागूंगी? किसकिस से बचूंगी? नहीं अरुण, मु झे वापस लौटने को मत कहो. मु झे  झूठी मृगतृष्णा में मत फंसाओ. जानते हो, रेतीली चट्टानों के पीछे भागने वाले को प्यासा ही भटकना पड़ता है.’

मेरी आह निकल गई. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया.

अपनी पीड़ा को मैं किस से कहती? जिसे मैं ने तनमन से पागलपन की हद तक प्यार किया था उसी ने मु झे गलत सम झा था. मु झ पर अविश्वास किया था. इसी वजह से मेरा दबा आत्मसम्मान सिर उठा चुका था और फिर मैं ने कठोर फैसला कर ही लिया था. तब मैं अरुण से यह कह कर चली आई थी, ‘अरुण, अविश्वास करना तुम्हारी आदत में शामिल हो चुका है. इसलिए तुम मेरी किसी बात पर अब विश्वास नहीं कर पाओगे. मैं जा रही हूं.

यकीन मानो, अब कभी मैं तुम्हारे दरवाजे पर लौट कर नहीं आऊंगी.’

मु झे याद आया, अरुण उस वक्त अचकचा रहा था. लेकिन कुछ कह नहीं पाया था और तब मेरा सबकुछ लखनऊ में ही छूट गया था. फिर कोलकाता ने ही मु झे नई जिंदगी दी थी.

‘‘राकेश कहां है आजकल?’’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया.

अरुण ने कंधे सीधे कर सिगरेट  ली. मैं ने महसूस किया, वह कुछ ज्यादा ही सिगरेट पीने लगा है. मुंह से धुआं निकालते हुए उस ने कहा, ‘‘अमेरिका में है. वहीं उस ने किसी बंगाली लड़की से शादी कर ली है.’’

मु झे चक्कर सा आने लगा. यानी, सब आगे बढ़ गए हैं. राकेश अमेरिका में है अपनी पत्नी के पास. मु झ पर अविश्वास करने वाला मेरा पति भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ है. तो क्या मैं ही अभिशप्त हूं? क्या मेरा कारावास कभी खत्म नहीं होगा?

अपने लिए निर्णय पर अब मु झे पछतावा होने लगा.  झूठे आत्मसम्मान के चक्कर में मु झे क्या मिला? अतीत के चंद सुखद पन्ने और अंधकारमय एकाकी भविष्य ही न, जहां भटक जाने पर भी अब मु झे कोई पुकारने वाला नहीं. अभी तक कभी रोई नहीं थी. फिर इस वक्त ही क्यों मु झे पछतावा हो रहा है? तब मैं खुद ही तो उन सारे दरवाजों को बंद कर आई थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक सवाल ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी. अरुण से उस समय नहीं पूछ पाई थी, सोचा था, अरुण खुद पूछेगा और मैं  झूठा आत्मसम्मान छोड़ कर उस के पास वापस चली जाऊंगी. लेकिन उस का भी तो आत्मसम्मान बाधक बना हुआ था. इसीलिए तो मेरे इस सवाल का जवाब मु झे नहीं मिल पाया था,  ‘अरुण, तुम ने मु झ पर अविश्वास क्यों किया? मैं ने तो तुम्हें हमेशा ही चाहा. एक ही छत के नीचे, एक ही बिस्तर पर लेटे हम क्या एकदूसरे से इतना दूर हो गए थे कि एकदूसरे को सम झ नहीं सकते थे या सम झा नहीं सकते थे?’ मु झे याद है, 4 साल पूर्व की घटना, लग रहा था जैसे अभी कल ही घटी है.

‘आज राकेश आया था. हम कितनी देर बातें करते रहे, पता ही न चला.’

मेरी आवाज पर अरुण कुछ चौंक सा गया था, बोला था, ‘अच्छा, कब आया था? मु झ से मिला नहीं.’ लेकिन मैं ने अरुण की बात पर ध्यान नहीं दिया था. तब अरुण अपने अंदर एक वहम पाल बैठा था. फिर वह उसे पालता ही रहा था. जानेअनजाने मैं ने भी उस वहमरूपी पौधे को और सींच दिया था, कहा था, ‘तुम से अच्छा ही है वह.’

उस वक्त उम्र के उस मोड़ पर रंगीन दुनिया में विचरते हुए मैं ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की जरूरत नहीं सम झी थी. प्यार के आवेश में मैं सबकुछ भूल गई थी. प्यार के साथ सम झदारी भी चाहिए. अरुण पर अगाध विश्वास के कारण ही तो मैं सब से हंसती हुई बोलती रहती थी.

लेकिन तभी मैं ने महसूस किया था कि अरुण बदलता जा रहा है. हमारे संबंधों में अजीब सा ठंडापन आ गया है. जब हम दोनों बैठते तो बीच में एक निशब्द सन्नाटा पसरा रहता. पहले दूर रहते हुए भी एकदूसरे के सुखद स्पर्श का एहसास होता रहता था, लेकिन अब स्थिति में एक अजीब सा अंतर आ गया था.

मैं अरुण के पास जाने की कोशिश करती तो लगता, अरुण मेरी आंखों में किसी और को तलाश रहा है. अरुण ऊपर से अब ठंडी राख की तरह लगने लगा था, लेकिन उस का अंतर जल रहा था, क्रोध से या फिर ईर्ष्या से. और फिर एक दिन ठंडी राख के अंदर जलते अंगारों से मन जल उठा था, बुरी तरह  झुलस गया था.

अब अरुण लौट रहा था अपने बच्चे और पत्नी के पास, जो व्याकुलता से उस का इंतजार कर रहे होंगे. मैं अरुण को स्टेशन छोड़ने गई थी. मेरा पल्ला हवा में लहरा कर अरुण के कंधे से लिपट गया था, जो शायद मेरे लौट जाने की इच्छा को प्रकट कर रहा था.

हम दोनों ही चुप थे. कितने अनपूछे प्रश्न हमारे बीच तैर रहे थे. रेल आ गई. 2-3 मिनट बाकी थे. मैं पूछना चाह रही थी, ‘अरुण, क्या सारा दोष मेरा ही था, तुम निर्दोष थे? तब फिर मु झे ही क्यों सजा भुगतनी पड़ रही है? क्या इसलिए कि मैं तुम्हें आज भी भुला नहीं पाई हूं?’ रेल ने सीटी दे दी. अरुण लपक कर डब्बे में चढ़ गया. बंद मुट्ठी से कुछ फिसलने लगा था. खिड़की पर रखे मेरे कांपते हाथ पर अरुण ने हौले से अपना हाथ रख दिया था और फिर धीरे से बोला था, ‘‘अपना खयाल रखना.’’

रेल चल चुकी थी. 2-3 दिन का सुखद वर्तमान  झटके से फिसल गया था. अरुण लौट रहा था अपने परिवार के पास और मु झे… मु झे इन फिसले हुए कणों को सहेज कर रखना था. मैं सिसक पड़ी थी मन ही मन बड़बड़ाते हुए, ‘अरुण, तुम्हारा तो इंतजार हो रहा होगा, लेकिन मेरा अब कौन इंतजार करेगा?

‘तुम्हारी कहानी शायद यहीं समाप्त हो जाएगी, लेकिन मेरी कहानी तो यहीं से शुरू हो रही है, नए सिरे से.’

और मेरे पैर उस रास्ते पर बढ़ चले जिसे मैं खुद भी नहीं जानती.

Holi 2024: मौन निमंत्रण- क्या अलग हो गए प्रशांत और प्राची

‘‘क्या प्राची, अभी तक ऐसे ही बैठी हो अस्तव्यस्त सी? मैं ने सोचा तैयार बैठी होगी तुम, ड्राइवर तुम्हें रिंकी के यहां छोड़ देगा,’’ बहुत सारी खरीदारी कर के लौटी थीं नीलाजी पर, प्राची को देखते ही उस पर बरस पड़ीं.

‘‘मेरा मन नहीं है रिंकी के यहां जाने का,’’ प्राची रिमोट से चैनल बदलते हुए बेमन से बोली.

‘‘अरे तो समझाओ अपने मन को. अपने मन पर काबू रखना सीखो. पर यहां तो उलटा ही हो रहा है. मन ही तुम्हें अपने पंजों में जकड़ता जा रहा है,’’ नीलाजी ने प्राची को समझाया.

‘‘मेरा मन मेरी सुनता कहां है मम्मी,’’ प्राची खोखली हंसी हंस दी.

‘‘ऐसा नहीं कहते. रिंकी तुम्हारी सब से प्यारी सहेली है. कितना आग्रह कर के गई थी कि मेहंदी की रस्म से ले कर विवाह की समाप्ति तक तुम्हें उस के घर में ही रहना है. तुम ने छुट्टी ले ली है. 2 महीनों से तुम्हारी तैयारी चल रही थी. ढेरों कपडे़ खरीद डाले तुम ने. फिर अचानक ऐसी बेरुखी क्यों?’’

‘‘कोई बेरुखी नहीं है. बस जाने का मन नहीं है. मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो मम्मी.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी बच्ची को? इस तरह तो तू घर की चारदीवारी में घुट कर रह जाएगी. जीवन है तो उस के सुखदुख भी होंगे. रिंकी के यहां तेरी अन्य सहेलियां भी आएंगी, मन बदल जाएगा,’’ नीलाजी ने उसे जबरदस्ती उठा दिया. नीलाजी देर तक शून्य में बनतीबिगड़ती आकृतियों को देखती रहीं… क्या नहीं था उन के पास धन, प्रतिष्ठा और प्राची व प्रखर जैसी मेधावी संतानें. पर प्राची का विवाह होते ही जैसे इस सुख को ग्रहण लग गया. प्राची ने जब प्रशांत से विवाह का प्रस्ताव रखा था तो उन की खुशी की सीमा नहीं थी. प्रशांत था भी लाखों में एक. 35 वर्ष का प्रशांत अपनी कंपनी का सर्वेसर्वा था. उस के शालीन व सुसंस्कृत व्यवहार ने सभी का मन जीत लिया था.

पर विवाह होते ही नवविवाहित जोड़े को न जाने क्यों ग्रहण लग गया. हर बात पर दोनों का अहं टकराता. प्राची ने हनीमून के बाद से ही प्रशांत में मीनमेख निकालना जो शुरू किया तो कभी रुकी ही नहीं. पहले तो प्राची ने इन छोटीमोटी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया. वह तो यही सोचती रही कि हर विवाह में एकदूसरे को जाननेसमझने में समय लगता ही है. पर जब तक वह चेती शायद बहुत देर हो चुकी थी. एक दिन अचानक ही प्राची ने घोषणा कर दी कि अब उस का प्रशांत के साथ रहना संभव नहीं है. यह सुन कर नीलाजी कुछ क्षणों तक स्तब्ध रह गईं. उन्होंने और उन के पति ने बात संभालने का भरसक प्रयत्न किया पर प्राची तो जैसे कुछ सुनने को ही तैयार नहीं थी. उन्होंने प्रशांत को अलग से समझाया, पर उस का उत्तर सुन कर नीलाजी निरुत्तर हो गईं.

‘‘प्राची पढ़ीलिखी, स्वावलंबी युवती है. यदि उसे लगता है कि वह मेरे साथ नहीं रह सकती तो उसे बांध कर तो नहीं रखा जा सकता न मम्मी?’’ प्रशांत का तर्क अकाट्य था. 2 वर्षों से प्राची और प्रशांत का तलाक का केस चल रहा है. अब तो नीलाजी की यही इच्छा है कि प्राची को शीघ्र मुक्ति मिल जाए ताकि वे भी इस झमेले से छुटकारा पा सकें. प्राची का हाल तोे उन से भी बुरा है. कई बार पूछने पर ही किसी बात का उत्तर देती है. हंसनाखेलना तो वह जैसे भूल ही चुकी है. रिंकी अपने विवाह का निमंत्रणपत्र देने आई तो नीलाजी की बांछें खिल गईं. रिंकी प्राची की सब से प्रिय सहेली है. इसी बहाने प्राची कुछ लोगों से मिलेगी. कम से कम कुछ दिनों के लिए तो अपनी घुटन से बाहर निकलेगी.

पिछले 2 महीनों से प्राची रिंकी के विवाह की तैयारी में व्यस्त थी. सप्ताहांत दोनों सखियां साथ बितातीं. जब तक प्राची रिंकी के साथ रहती घर दोनों की खिलखिलाहटों से गूंजता रहता. प्राची ने मेहंदी की रस्म से ले कर विदाई तक हर अवसर के लिए अलगअलग परिधान बनवाए थे. हर परिधान के साथ मेल खाते गहने तथा पर्स खरीदे थे. तरहतरह की चप्पलों और सैंडलों का चुनाव किया गया था. सब कुछ संजो कर करीने से सूटकेस में सजा कर पैक किया था और अचानक आज विवाह में जाने से मना कर दिया. नीलाजी की विचारशृंखला टूटी तो पुन: प्राची पर नजर गई. वह अब भी समाचारपत्र में मुंह गड़ाए बैठी थी. वे कुछ कहतीं उस से पहले ही फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो, रिंकी,’’ प्राची ने फोन उठा कर कहा.

‘‘कहां हो प्राची? हम सब कब से इंतजार कर रहे हैं,’’ रिंकी का स्वर उभरा.

‘‘मैं नहीं आ सकूंगी. तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को? यह बहानेबाजी मुझ से नहीं चलेगी. 10 मिनट में नहीं पहुंची तो मैं स्वयं आ रही हूं लेने,’’ रिंकी ने धमकी दे डाली.

‘‘अब तो जाओ वरना रिंकी यहीं आ धमकेगी,’’ नीलाजी बोलीं.

‘‘बात वह नहीं है मम्मी. मैं तो कुछ और ही सोच रही थी.’’

‘‘क्या?’’

‘‘रिंकी वहां अकेली तो होगी नहीं, घर मित्रों और संबंधियों से भरा होगा. मुझे देख कर किसी ने कुछ कह दिया तो? मेरा मतलब किसी ने आपत्ति उठाई तो?’’

‘‘आपत्ति? कैसी आपत्ति?’’ नीलाजी अचरज भरे स्वर में बोलीं.

‘‘आप समझीं नहीं, विवाह में सभी नवविवाहितों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं. वहां मेरी मौजूदगी मेरा मतलब मैं तो असफल विवाह का प्रतीक हूं न मम्मी,’’ प्राची ने किसी तरह अपनी बात पूरी की.

‘‘क्या? ऐसी बात तुम्हारे मन में आई भी कैसे? कुदरत की कृपा से प्रशांत सहीसलामत है,’’ नीलाजी स्तब्ध रह गईं.

‘‘मन में विचार मेरी इच्छानुसार थोड़े ही आते हैं. अनायास यह बात मन में कौंधी,’’ चाह कर भी प्राची अपनी भर आई आंखों को न छिपा पाई.

‘‘चलो उठ कर तैयार हो जाओ. रिंकी को तो तुम अच्छी तरह जानती हो, वह सचमुच यहां आ धमकेगी,’’ नीलाजी आदेश भरे स्वर में बोलीं.

‘‘कितनी देर कर दी प्राची, कब से तेरी राह देख रही हूं. कहा था न आज छुट्टी ले लेना,’’ रिंकी ने प्राची को देखते ही शिकायत की.

‘‘छुट्टी ली थी रिंकी पर…’’

‘‘पर क्या?’’

‘‘मन को अजीब से संशय ने घेर लिया था.’’

‘‘कैसा संशय?’’

‘‘यही कि तेरे शुभ विवाह में मेरा क्या काम…’’

‘‘तेरे दिमाग में बड़ी ऊटपटांग बातें आने लगी हैं प्राची… खबरदार जो आज के बाद ऐसी बात मुंह से निकाली,’’ कह रिंकी ने उसे चुप करा दिया. मेहंदी की रस्म हंसीखुशी संपन्न हो गई. सब खानेपीने और बातचीत में व्यस्त थे पर प्राची को लगता सब उसी की बातें कर रहे हैं. रिंकी लगातार फोन करने में व्यस्त थी. बधाई देने वालों का तांता लगा था. उन से फुरसत मिलती तो सूरज का फोन आ जाता. वह अपने यहां होने वाले उत्सव का विवरण देता. फिर रिंकी उसे विस्तार से अपने मित्रों, संबंधियों और मेहंदी की रस्म के बारे में बताती. ‘‘आज रात को नृत्य और संगीत का कार्यक्रम है. प्राची मेरी अच्छी तरह फोटो लेना, मैं पूरा अलबम सूरज को भेंट करूंगी, फोटोग्राफर तो कल से आएगा,’’ रिंकी ने आग्रह किया.

‘‘ठीक है,’’ प्राची ने अनजाने ही सिर हिला दिया. वह तो अपनी ही सोच में डूबी थी. उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि कितनी बदल गई है वह, बिलकुल अकेली और उदास. मन में अजीब सा शून्य पसरा हुआ है. कोई फोन पर बात करने वाला भी नहीं है. अपना मोबाइल निकाल कर देर तक उस में सुरक्षित नंबरों को आगेपीछे करती रही. प्रशांत का नंबर अभी तक सुरक्षित था. सोचा फोन मिला कर देखे नंबर वही है या बदल गया है. अनजाने नंबर डायल कर दिया. उधर से प्रशांत का स्वर उभरा तो घबरा कर फोन बंद कर दिया. स्वयं पर ही क्रोध आया, प्रशांत न जाने क्या सोचता होगा. अगले दिन ढेर सारे काम थे. रिंकी की मम्मी साधनाजी ने रिंकी को ब्यूटीपार्लर ले जाने का काम उसे सौंप दिया. प्राची भी प्रसन्न थी. कम से कम लोगों की तीखी निगाहें तो नहीं झेलनी पड़ेंगी.

‘‘तेरी बूआजी तो मुझे ऐसे घूरघूर कर देख रही थीं गोया दिव्यदृष्टि से सब उगलवा लेंगी,’’ प्राची कार में बैठते ही बोली.

‘‘कौन? रमा बूआजी?’’

‘‘हां, तू कह रही थी न बड़ी अंधविश्वासी हैं वे.’’

‘‘प्राची क्या हो गया है तुझे? मैं ने किसी को नहीं बताया कि तेरा तलाक का मुकदमा चल रहा है… और तू क्या सोचती है पूरी दुनिया को केवल तेरी ही चिंता है? अरे, प्राची होश में आ. लोग अपनी उलझनों में ऐसे उलझे हैं कि किसी और के संबंध में सोचते तक नहीं,’’ रिंकी ने अपनी बातों से प्राची को दर्पण में अपनी छवि निहारने को मजबूर कर दिया था. ‘‘तू ठीक कहती है रिंकी, किसी को क्या पड़ी है मुझ जैसी तुच्छ युवती के बारे में सोचे,’’ प्राची सुबकने लगी.

‘‘यह क्या है प्राची… हर बात को अपनी सुविधानुसार मोड़ लेती है. पता है रमा बूआजी क्या कह रही थीं?’’

‘‘क्या?’’ प्राची ने आंसू पोंछ लिए थे.

‘‘कह रही थीं, तेरी सहेली तो बड़ी सुंदर है. मेरी नजर में एक बड़ा अच्छा लड़का है. उस से शादी करवाऊंगी तेरी सहेली की.’’

‘‘तो तूने क्या कहा?’’ प्राची आंसुओं के बीच भी मुसकरा दी.

‘‘मैं ने कहा कि मेरी सहेली न केवल सुंदर है वरन बहुत गुणी भी है. 50 हजार प्रति माह वेतन है उस का.’’

‘‘रिंकी तू जब भी मेरी प्रशंसा के पुल बांधती है तो मैं ठगी सी रह जाती हूं,’’ प्राची बोली.

‘‘मैं ने कुछ गलत कहा क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने यह तो नहीं कहा. सच कहूं तो तेरे जैसी मित्र पर नाज है मुझे.’’

‘‘नाज है न मुझ पर? तो प्रशांत से समझौता कर ले.’’

‘‘क्या कह रही है… तू तो हमारे केस को सुन रहे जज की तरह बात करने लगी है. पिछली सुनवाई में वे यही कह रहे थे. विवाह एक अनुबंध नहीं बंधन है बेटी. यह कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल नहीं है कि आज खेला कल भूल गए.’’

‘‘तो तूने क्या कहा?’’

‘‘मैं क्या कहती. वे समझौते की बात कर रहे थे पर प्रशांत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.’’

‘‘तो क्या हुआ. तुम भी पहल कर सकती थीं. पहले आप पहले आप में तुम दोनों की गाड़ी निकल जाएगी.’’

‘‘यदि उसे मेरी जरूरत नहीं है तो मुझे भी परवाह नहीं है,’’ प्राची क्रोधित स्वर में बोली.

‘‘प्राची अक्ल से काम ले. क्या बुराई है प्रशांत में, नशे में धुत्त घर लौटता है? मारतापीटता है? किसी और के चक्कर में है?’’

‘‘नहीं… नहीं… नहीं… पर वह मेरी चिंता ही नहीं करता. उस ने तो अपने काम से विवाह किया है. मेरा तो उसे जन्मदिन तक याद नहीं रहता.’’

‘‘पर विवाह से पहले तो उस के अपने काम के प्रति समर्पण पर ही तू मरमिटी थी प्राची,’’ रिंकी ने याद दिलाया.

‘‘तब की बात और थी. तब मैं नासमझ थी.’’ ‘‘अब तो समझदार हो गई है न तू. तो इस समझ का ठीक से प्रयोग क्यों नहीं करती?’’

रिंकी की बात का उत्तर दे पाती प्राची, उस से पहले ही गाड़ी ब्यूटीपार्लर के सामने रुक चुकी थी. दोनों सहेलियां नीचे उतर गईं. रिंकी से बातचीत कर के प्राची बहुत हलका महसूस करती है. यही तो खासीयत है रिंकी की. बड़ी सुलझी हुई बातें करती है. ऐसे मित्र बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. ब्यूटीपार्लर में भी प्राची की विचारधारा अनवरत चल रही थी… विवाह का दिन गहमागहमी से भरा था. सजनेधजने से रिंकी का रूप और निखर आया था.

‘‘कितनी सुंदर लग रही है रिंकी. हैं न आंटी?’’ प्राची रिंकी को एकटक देखते हुए बोली.

‘‘तुम दोनों सहेलियां सब को मात कर रहीं…’’

रिंकी की मम्मी अपनी बात पूरी कर पातीं तभी आवाजें आने लगीं कि बरात आ गई. सब उसी ओर दौड़ गए. प्राची रिंकी के पास बैठी थी.

‘‘चल, बालकनी से बरात देखते हैं. देखें तो दूल्हे के वेश में सूरज कैसा लगता है,’’ प्राची बोली.

‘‘चल, वैसे बरात में तेरे लिए भी एक आश्चर्य है,’’ रिंकी बोली.

‘‘मेरे लिए? वह क्या?’’

‘‘स्वयं ही देख लेना.’’

बालकनी में पहुंच कर प्राची हैरान रह गई. बरातियों की भीड़ में माला पहने प्रशांत भी खड़ा था.

‘‘तुम ने प्रशांत को भी आमंत्रित किया था?’’

‘‘मैं ने नहीं, सूरज ने बुलाया है, दोनों अच्छे मित्र हैं,’’ रिंकी बोली. प्राची चुप रह गई. मन में हूक सी उठी कि सब ठीक होता तो दोनों साथ ही आते. जयमाला के समय दोनों आमनेसामने पड़ ही गए.

‘‘कैसी हो प्राची? बड़ी सुंदर लग रही हो,’’ प्रशांत बोला तो प्राची उसे गहरी नजरों से देखती रह गई कि अब प्रशांत को सामान्य शिष्टाचार समझ आने लगा है.

‘‘तुम भी कम सुंदर नहीं लग रहे हो,’’ प्राची ने पलट कर उत्तर दिया.

‘‘धन्यवाद, तुम्हारे मुंह से यह सुन कर बहुत अच्छा लगा,’’ कह प्रशांत मुसकराया. विवाह की अन्य रस्मों के बीच भी दोनों में आंखमिचौली चलती रही. प्रशांत कभी प्राची के लिए आइसक्रीम ले आता तो कभी और कोई खाने की चीज. प्राची झुंझला कर रह जाती. विवाह संपन्न हुआ तो मित्रों ने रिंकी और सूरज को घेर लिया. दोनों पर प्रश्नों की बौछार होने लगी. कब, कहां, कैसे मिले थे दोनों? संपर्क कैसे बढ़ा? विवाह करने का निर्णय कब लिया? दोनों हासपरिहास समझ कर हर प्रश्न का उत्तर दे रहे थे.

तभी मित्रगण आग्रह करने लगे कि दोनों एकदूसरे का नाम लेंगे.

‘‘यह कौन सा कठिन काम है रिंकी,’’ सूरज हंसते हुए बोला.

‘‘ऐसे नहीं. प्रशांत बाबू, कुछ सिखाओ अपने मित्र को,’’ मित्रों का समवेत स्वर गूंजा.

‘‘प्राची भई प्रशांत की रिंकी हुई उदास,’’ प्रशांत मुसकराते हुए बोला.

‘‘रिंकी सूरज की हुई, प्राची हुई उदास,’’ सूरज ने तुरंत ही दोहरा दिया. अब रिंकी की बारी थी पर प्राची न कुछ बोल रही थी न सुन. अपने विवाह की 1-1 घटना चलचित्र की भांति उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी.

‘‘प्राची भई प्रशांत की…’’ यही तो कहा था प्रशांत ने, फिर यह अलगाव की भावना कहां से आ गई? प्राची का चेहरा आंसुओं से भीग गया. सब ने सोचा बेचारी सहेली की विदाई का दुख नहीं सह पा रही. तभी प्रशांत ने आगे बढ़ कर रूमाल पकड़ाया कि आंसू पोंछ डालो प्राची. क्या आज इस मंडप के नीचे एक और विदाई संभव है? मैं आज पुन: वचन देता हूं कि तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं आने दूंगा. प्राची ने मौन स्वीकृति में नजरें उठाईं तो प्रशांत की आंखों में उभरे मौन निमंत्रण को देख कर दंग रह गई. कौन कहता है कि मौन की भाषा नहीं होती.

Holi 2024: कल हमेशा रहेगा: वेदश्री ने किसे चुना

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Holi 2024: प्रेम न बाड़ी उपजै

लीला ने जब से उस को देखा था, तब से ही उस के दिल में चैन ओ करार था ही नहीं. यह लड़का मनोज उस का सब सुकून छीन रहा था. इतना ही नहीं, सपनों में भी वह आ रहा था, पर वो जैसे कमजोर पड़ रही थी और आसक्ति में फंस कर खुद कुछ नहीं कर पा रही थी या शायद करना ही नहीं चाहती थी.

लीला कोई गईगुजरी तो थी नहीं. वह खुद एक दौलतमंद महिला थी. उस की इतनी लंबीचैड़ी जमींदारी थी, फिर भी वह साधना के पथ पर अपना आध्यात्मिक काम भी कर रही थी. वह जगहजगह यात्रा कर रही थी और प्रेम की कार्यशाला चला रही थी.

यों सच्ची बात यह थी कि साधना, वार्ता वगैरह यह सब वह अपने अकेलेपन की सूखी नदी को भरने के लिए ही कर रही थी. समाज उस को इतनी गपशप करने नहीं देता, मगर इस बहाने कितने चेहरे कितनी रसभरी बातें सब काम हो रहे थे. साथ ही, उस पर एक आवरण लग गया था त्याग करती महिला का, वह अपनी प्रेम पिपासा को ढंक कर, छिपा कर बहुत ही मजे में पूरा कर रही थी.

मगर, आज सुबह 3 बजे अचानक ही भद्देपन से फिर मनोज सपने में आ धमका और उस ने ही प्रीत की अगन जलाई और लीला को तत्परता से अपनी देह में भर कर यहांवहां टटोलने लगा. वह खुद भी बेसुध हो सब भूल सा गई थी. पुरुषोचित शौर्य से सम्मोहित वह कितनी पागल कैसी मोहित हो गई थी.

पर, आज वह 5 बजे जाग कर फिर से यही सोच रही थी कि कहीं कुछ जाहिर न हो जाए. मनोज को रोकना होगा. वह बेकार के लफडे़ में ही क्यों पड़ रही है, जबकि वह इस से पहले इसी तरह अचानक वहां, जहां उस के प्रवचन और वार्ता ही भलीभांति प्यास बुझा सकती हैं, कितने भी दर्जी बदल लो, न कपड़ा बदलता है, न तन और न ही मन. तो…, तो फिर खुद लीला क्या देहचक्र के साथ इतनी तेजी से खुद ही गोलगोल घूम रही थी?

यही सब सोचतेसोचते 6 बज गए. वह यों ही बाहर आंगन में निकल आई. देखा, अरे, मनोज  एक कुरसी पर बुत बना बैठा है. कम उजाले में अनिश्चितता में, उस के पदचाप सुन कर वह उठ खड़ी हुई और हंस दी.

यह हंसी मनोज की किसी सांस में झनझना उठी. वह चुपचाप उस के निकट गया. शायद वह देखना चाहता था, उस को आत्मा के भीतर बिलकुल उस की गहराई में देखना चाहता हो, पर यह तो, हमारा खयाल है, लीला ने एक मंत्र कहा और आवाज के तीव्र एकरस प्रकाश से उस का मुख एकबारगी चकाचौंध सा हो गया.

नहीं… यह खयाल नहीं है. मैं अभीअभी खेतों से चल कर यहां आया हूं.

और भरोसा दिलाने के लिए मनोज ने तिलमिला कर लीला को थाम लिया. उस की उंगली को 2-3 बार चूस कर छोड़ दिया.

‘‘ओह, बस… बस, मनोज बस… बहुत हुआ,‘‘ कह कर लीला ने हाथ छुड़ा लिया.

अब वे दोनों ही वहीं बैठ गए और फिर कोई जादू सा छाने लगा. उस खामोशी में जैसे मनोज अपने अंक में लीला को अचानक एक क्षण में पा गया.

‘‘फिर मिलेंगे. आज मैं चली जाऊंगी. अंतिम सत्र है आज मेरा,‘‘ वह जैसे इन एकएक शब्दों की सूक्ष्म ध्वनि नहीं, स्थूल शरीर दांतों से चबाना चाहती है. यह सुन कर मनोज जैसे हताश सा हो गया.

‘तो लीला, तुम्हारे आगे क्या इरादे हैं?’ जैसे इसी प्रश्न को करने के लिए शब्दों का दास बना हुआ है मनोज. जैसे उसे यह प्रश्न करने का निर्विवाद अधिकार है. लीला ने निर्विकार कहा, ‘कुछ… नहीं, नहीं.’

यह सुन कर वह चौंक उठा. एक विचित्र संतोष से, जैसे यह उत्तर पाने के लिए ही उस ने यह प्रश्न किया था, फिर बोला, ’क्या तुम मुझ से बंधी नहीं हो?’

‘बंधी’,  मैं तो जाने कब से जीवन के हर बंधन के मुंह पर थूक रही हूं. वह बोली, जैसे वह कुछ और कहना चाहती थी, ‘‘तो मुझे अभी और इसी समय प्रेम का रहस्य जानना है,‘‘ कह कर वह उस के पैरों से लिपट गया.

‘‘मगर, अभी तो भोर हुई है बस. ये क्या तमाशा कर रहे हो… यहां गेस्ट हाउस के नौकरचाकर आते ही होंगे,‘‘ लीला कुछ परेशान सी हो रही थी.

‘‘आने दो… आ जाते हैं तो भला हो क्या जाएगा? लीला, मैं तो तुम्हारा भक्त हो गया हूं. अब मैं अपनी देवी के पास जब चाहे आ सकता हूं… मुझे कोई डर नहीं है, कोई भय नहीं है.‘‘

सचमुच लीला यही सुनना चाहती थी. वह भी तो मन ही मन मनोज की दीवानी हो गई थी. उस ने यह भी नहीं पूछा कि 9 बजे का सत्र है. तुम इतनी सुबह क्यों खेतों से और कैसे पैदलपैदल ही आ धमके,‘‘ वह उस के गाल सहलाती हुई बोली, ‘‘मनोज, तुम बच्चे नहीं हो. तुम को यह पता होना चाहिए कि प्रेम करने की कला या किसी के प्यार में डूब जाने का गुर, किसी भी कार्यशाला में सीखे जाने लायक कौशल या हुनर बिलकुल नहीं है.”

‘‘हां… हां, जानता हूं,‘‘ मनोज ने बीच में टोका और कहने लगा, ‘‘लीला, ये बात अलग है कि कई विदेशी और भारतीय मीडिया में ‘क्रिएटिव लव’ यानी जादुई अटैचमेंट के फार्मूले सिखलाने के रसीले कोर्स बाकायदा चलाए जाते आ रहे हैं, और वे अकेले पड़ गए मनोज जैसे संकोची जीवों के बीच लोकप्रिय भी हैं.‘‘

‘‘लीला, मुझे मालूम है कि अकेले में मैं ने ही यही कोई 3,000 वैबसाइट देख रखी हैं, जो प्यार कैसे करें का बाकायदा लज्जतदार मसाला बना कर अनोखा आनंद भी देती हैं,‘‘ मनोज के  मुंह से निकल पड़ा.

यह सुनते ही लीला ने भी तपाक से कहा, ‘‘मनोज, मेरा मतलब प्रेम का आनंद आकर्षित करने वाली कुछ जरूरी चीजों की याद दिलाने की कोशिश तक ही सीमित नहीं है. मैं प्यार की कला के बारे में वे छोटीमोटी बातें कहूंगी, जिन्हें हम सब जानते हैं, पर जिन्हें हम अकसर भूल जाते हैं, इसलिए… और इस वार्ता के अंत में होने वाली निराशा के लिए मैं खासतौर पर मनोज तुम जैसे प्रेमियों से क्षमादान की उम्मीद करती हूं, जिन्होंने अपने दिल में ये छाप लिया है कि मैं तुम को आज प्यार करने के जादुई गुर सिखाने जा रही हूं… दुनिया में अनेक आविष्कार हुए हैं, पर प्यार करने, उस में डूबने का फार्मूला आज तक नहीं बना.‘‘

‘‘अच्छा… तो कब बनेगा? ऐसा करो, तुम ही बना दो ना,‘‘ मनोज ने उस की कलाई थाम ली.

‘‘मनोज, जहां तक सुंदर देह को सोचने का सवाल है, हमारे प्राचीन रसिकों ने, प्रेमशास्त्रियों ने 2 बातें जोर दे कर कही हैं- एक तो कल्पना और दूसरी लगाव. तुम जानते ही होगे या कभी सुना तो होगा ना…’’

‘‘क्या सुना होगा? साफसाफ कहो लीला?‘‘

‘‘वही मनोज, ‘करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’. मनोज, मेरा मतलब है कि देह की  आहट सुनो… भाव को दफनाओ मत.‘‘

यह सुन कर मनोज जोरों से हंस पड़ा. लीला समझ गई तो वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘मन में कोई देवी स्थापित कर लो मनोज इस की तर्ज पर, न सिर्फ अकेली सौंदर्य कला का आनंद मिल जाता है. साथ में लगाव का अभ्यास करते जाने से, बल्कि दोनों के आदर्श मेल से सुकून ही सुकून… इसलिए प्रेम प्रतिभा को भी युद्ध अभ्यास की तरह जरूरी बतलाया गया है.”

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मनोज ने अपनी दोनों आंखों को बंद कर लिया.

‘‘देखो, तबला बजाना सीखना है, तो इस कला में  ‘रियाज’ का असाधारण महत्त्व है. मुझे लगता है, प्रेम में भी अभ्यास या रियाज शायद उतना ही उपयोगी और जरूरी चीज होनी चाहिए, मुझे उम्मीद है कि संकल्प ही प्रेम को झरने की तरह प्रस्फुटित करता है, बहने देता है. प्रेम की हर गली में नयापन खोजने की संभावना है? इस मामले में कल, आज और कल कोई पगडंडी नहीं है.

“इसलिए जादुई अहसास में डूबने को राजी मन, उस की कल्पनाशक्ति और गंध महसूस करना यही एक बेहतरीन प्रेमी होने के लिए 3 जरूरी औजार हैं,‘‘ लीला कहती रही.

‘‘मनोज, सुन लो, यह भी एक विचार है, सौंदर्य और आनंद को ‘देखने’ की आदत से बंधा विचार, जो यह बतलाता है कि हम कितना कम देखते हैं.‘‘

‘‘लीला, यह लगाव और देखने के अलावा एक और बात है, खुद अपनी देह की जरूरत उस से प्रेम करने की निरंतरता, अनिवार्यता, यही ना लीला,‘‘ मनोज ने कहा, तो लीला ने सहमति में सिर हिला दिया.

वह फिर उस का माथा चूम कर बोली, ‘‘सुनो मनोज, कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचा है… और हां, एक बात और सुन लो, याद भी रखना, अचार, चटनी बेशक कम खाएं,  पर अच्छा खाएं.

‘‘यह लालसा भी वही है… समझे, यानी तुम्हारी सलाह है, प्रेमी, आशिक बेशक कम ही डूबें, पर शानदार ढंग से.‘‘

मनोज ने सवाल किया, “केवल आकर्षण के जोर से या केवल जरूरत के चमत्कार भर से कोई अच्छा प्रेम पूरा हो पाएगा, मुझे संदेह है.‘‘

मनोज के इस सवाल पर लीला ने उस को संकेत किया कि उसे तैयार होना है क्योंकि सत्र का समय हो रहा है और उसे आज यहां से लौट कर भी जाना था. आज इस गेस्ट हाउस में उस का अंतिम दिन था. अब वह यहां कब वापस लौटेगी, कुछ पता नहीं था.

मनोज ने सत्र में रुकना उचित नहीं समझा. वह किसान था. अब उस को फसल कटवानी थी. मजदूरों की व्यवस्था करनी थी. वह भी लौट चला. जब तक अपने खेतों मे पहुंचा, याद करता रहा कि लीला क्या कह रही थी…

‘‘मनोज, प्रेम की दुनिया वैसी ही दुनिया है, जिस में अनगिनत महकतेगमकते चित्रों का असमाप्त मेला है, हर कोने में हर कदम पर आप का साबका तसवीरों से पड़ता है, पर जिन के बारे में आप तब तक जागरूक नहीं होते, जब तक आप उन्हें देखने की सही कोशिश और अभ्यास न करें, जैसा रोमियो जैसे समर्पित प्रेमी ने कभी जूलियट से कहीं कहा था. हमें चाहिए कि हम थोडा सा रुकें और वे अद्भुतअनूठे चित्र देखें, जो सिर्फ प्रेम ही हमें दिखला सकता है.’’

‘‘हर पल, हर समय आनंद आने तक रोज कई घंटे बस एक ही रंगरूप का विचार इस बात का सब से बड़ा उदाहरण है… अब भले ही वह युद्ध जैसा उतना कठोर और भयानक न हो, पर हौलेहौले उस रूप को दिल की कल्पना की किताब में रोज लिख रहा था और यथासंभव कलापूर्ण तरीके से उस में अपने अनुभव लिखना प्रेम रियाज की एक शुरुआत हो चुकी थी. यह चौंकाने वाला अनुभव वह झरोखा बन गया, जो उस को घरबैठे संसारभर के आनंद  दिखला रही थी.

अब मनोज विधिवत अपना कामधंधा देख रहा था. अनाज मंडी जा रहा था. रुपया आ रहा था. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सब सिद्ध हो गए. हर काम हो रहा था. सबकुछ आसान था.

जहां जैसी जरूरत होती है, वो अपनी कल्पना का वैसा ही उपयोग कर रहा था. जैसी उस पल की मांग होती, पर अब उस के दिमाग में कल्पना का भंडार ही इतना चटपटा था कि अभिव्यक्ति भी वैसी ही होने लगी थी.

अब तो कल्पना की कामधेनु को वह कितना दुह सकता, यह उस की कलाकारी थी. अब वह माहिर हो गया तो वह जान चुका था कि कैसे आती है सुंदरी किसी दृश्य, किसी आवाज, किसी गंध, किसी आकृति, किसी याद, किसी स्पर्श में सुंदरी की आत्मा एक पल के हजारवें हिस्से में दिखती है और सांस की तरह उस में दाखिल हो जाती है… पर, वह जानता था कि वह बहुत देर रुकने वाला अनुभव नहीं. फौरन वह उस आत्मा को अपनी हैरत, अचरज के आभूषण पहना कर सफलतम लाभ ले लिया करता था. अब तो हर जादुई अनुभव उस के निकट उस अनुभव को व्यक्त करने की, ‘’मोहिनी विद्या का खुशबूदार- प्रस्ताव भी साथ ही लिए आता रहा.”

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फैसला: सुगंधा का प्यार की कुर्बानी देना क्या सही था

सुगंधा लौन में इधरउधर देख अपने  लिए एक कोना तलाश रही थी कि सामने खंभे के पास खड़े व्यक्ति के चेहरे की झलक ने उसे चौंका दिया. अपना शक दूर करने के लिए वह थोड़ा और करीब आ गई. वह मयंक ही था जो विवाह के अवसर पर सामने लगे सजावटी बल्बों को निहारते हुए जाने किस दुनिया में खोया हुआ था. उसे देख सुगंधा को लगा सारी दुनिया थम सी गई है. पहलू में धड़कते दिल को संभालना उस के लिए मुश्किल हो रहा था. पूरे 15 वर्षों के बाद वह मयंक को देख पा रही थी.

समय के इस लंबे अंतराल ने मयंक  में कहीं कुछ नहीं बदला था. वही छरहरा बदन और मुसकराता हुआ चेहरा. समय सिर्फ उस के बालों को छू कर निकल गया था. बालों पर जहांतहां सफेदी झलक रही थी.

मुड़ते ही मयंक की नजर सुगंधा पर पड़ी और उसे इस तरह अपने सामने पा कर वह भी स्तब्ध रह गया. उस के चेहरे पर आताजाता रंग बता रहा था कि उसे भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘सुगंधा, तुम यहां कैसे? कब आईं दिल्ली? क्या तुम्हारे पति का तबादला यहां हो गया है?’’

एक ही सांस में मयंक ने कई प्रश्न पूछ लिए थे. उस की आवाज में आश्चर्य और उत्सुकता साफ झलक रही थी पर आवाज की मिठास पहले की तरह ही कायम थी.

सुगंधा ने तबतक अपनेआप को काफी हद तक संभाल लिया था फिर भी आवाज की लड़खड़ाहट शब्दों में झलक ही आई थी.

‘‘नहीं, तबादला नहीं हुआ है, यह सौरभ के मामाजी का घर है और हम इस शादी में आमंत्रित हैं,’’ सुगंधा बोली.

‘‘अच्छा, कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं, अपनी कहो. तुम ने शादी कर ली या…’’ सुगंधा न चाहते हुए भी अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाई थी.

‘‘किसी ने खुद को बेगाना बना इंतजार करने का अवसर ही नहीं दिया तो शादी करनी ही पड़ी. मांपापा का इकलौता, आशाओं का केंद्र जो था.’’

दोनों में अभी इतनी ही बात हो पाई थी कि एक खूबसूरत सी आधुनिका वहां आ धमकी थी.

‘‘इतनी देर से कहां गायब थे? जल्दी चलो, सब लोग तुम्हारा कब से इंतजार कर रहे हैं,’’ इतना कह कर वह लगभग मयंक को खींचते हुए वहां से ले जाने लगी.

‘‘रुको यार, क्या कर रही हो?’’ मयंक अपनेआप को उस से छुड़ाते हुए बोला था.

‘‘यह मेरी सहपाठी सुगंधा है. अचानक आज हम वर्षों बाद मिले हैं. कालिज के दिनों में हम दोनों के बीच अच्छी निभती थी.’’

फिर मयंक सुगंधा से बोला, ‘‘यह मेरी पत्नी सुकन्या है.’’

सुकन्या शायद जल्दी में थी इसीलिए बिना किसी भाव के उस ने यंत्रवत अपने दोनों हाथ जोड़ दिए. सुगंधा के हाथ भी स्वत: जुड़ गए थे जैसे. हवा के झोंके की तरह आई सुकन्या तेजी से मयंक को ले कर वहां से चली गई और अकेली खड़ी सुगंधा उसे देखती ही रह गई, ठीक वैसे ही जैसे आज से 15 वर्ष पहले मयंक उस से दूर हो गया था और वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकी थी. बस, चुपचाप टुकड़ेटुकडे़ होते तकदीर के खेल को देखती रही थी.

जिंदगी भी जाने कैसेकैसे रंग दिखाती है, जिस अतीत को अपनी जिंदगी की राहों पर हमेशाहमेशा के लिए वह पीछे छोड़ आई थी, आज मृगतृष्णा बन स्वयं उस के सामने आ खड़ा हुआ था.

आज मयंक के मुंह से अपने लिए ‘यह मेरी सहपाठी’ सुन सुगंधा के कलेजे में टीस सी उठी थी. सिर्फ सहपाठी और कुछ नहीं. एक समय था जब सबकुछ उस की मुठ्ठी में था जिसे उस ने रेत की तरह मुट्ठी से जानबूझ कर फिसल जाने दिया था.

उस ने ही मयंक से शादी न करने का फैसला किया था. यद्यपि मयंक ने उस पर फैसला बदलने के लिए भरपूर दबाव डाला था पर सुगंधा टस से मस नहीं हुई थी.

सच पूछो तो वह फैसला भी उस का कहां था, वह तो भैया और पापा का फैसला था जिसे उस ने अपना दायित्व समझ कर सिर्फ निबाहा था. तब उस ने अपने सुखों से ज्यादा पापा और भैया के सुखों को अहमियत दी थी, अपने परिवार के सुखों की रक्षा और समाज से जोड़े रखने की कीमत दी थी.

फिर सुगंधा के सामने अपनी 2 छोटी बहनों के भविष्य का सवाल भी था जो उस के दूसरी जाति में विवाह करने के साथ ही तहसनहस हो सकता था. दुनिया ने चाहे जितनी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं शताब्दी में ही जी रहा है. वैसे भी घरबार त्याग कर, परिवार के सभी सदस्यों को दुखी कर वह मयंक के साथ कभी भी सुखी वैवाहिक जीवन नहीं व्यतीत कर सकती थी.

जिंदगी हमेशा मनमुताबिक नहीं मिलती. सब को कहीं न कहीं समझौता तो करना ही पड़ता है. सौरभ के साथ शादी कर के जो समझौता उस ने अपनेआप से किया था वह उसे बहुत भारी पड़ा था. उस के और सौरभ के विचार कहीं नहीं मिलते थे. सौरभ उन दंभी पतियों में से था जिस के दिमाग में हमेशा यही रहता कि जो वह करता है, कहता है, सोचता है सब सही है, गलत तो हमेशा उस की पत्नी होती है.

सौरभ के दोहरे व्यक्तित्व से अकसर वह अचंभित रह जाती थी. जो व्यक्ति बाहर इतना हंसमुख, मिलनसार और सहयोगी दिखता था वही घर पहुंचतेपहुंचते कैसे दंभी, गुस्सैल और झगड़ालू व्यक्ति में बदल जाता था, बातबात में उसे नीचा दिखा अपमानित कर सुखी होता था, पर अपना वजूद खो कर भी सुगंधा ने अपनी सहनशीलता और समझौते से इस रिश्ते को अब तक बिखरने नहीं दिया था.

सौरभ के उद्दंड स्वभाव से कभीकभी पापा और भैया भी सहम जाते थे. सुगंधा के दुखों का एहसास कर अकसर उन के चेहरे पर पछतावे की परछाईं साफ दिखती थी जिस में मयंक जैसे सुशील लड़के को खो देने का गम भी शामिल होता था. न जाने क्यों उन क्षणों में सुगंधा को एक अजीब सी आत्मसंतुष्टि मिलती थी. चलो, पापा और भैया को अपनी गलती का एहसास तो हुआ.

सुगंधा और मयंक के घरों के बीच बस, एक सड़क का ही तो फासला था. यह अलग बात है कि उस का घर कोठीनुमा था और मयंक अपने परिवार के साथ 2 कमरों के फ्लैट में रहता था. उस के पिता सिंचाई विभाग में ऊंचे ओहदे पर थे जबकि मयंक के पिता एक सरकारी आफिस में मामूली क्लर्क थे पर मयंक की गिनती कालिज के मेधावी छात्रों में होती थी और सभी का विश्वास था कि एक दिन जरूर वह अपने मांबाप का ही नहीं अपने कालिज का भी नाम रोशन करेगा.

दिनप्रतिदिन की मुलाकातों और पढ़ाई की कठिनाइयों को हल करतेकरते जाने कब दोनों की दोस्ती के बीच प्यार का नन्हा सा अंकुर फूट पड़ा जो समय के साथ बढ़तेबढ़ते परिणयसूत्र में बंधने की आकांक्षा तक बढ़ गया. इस का थोड़ाबहुत आभास घर के लोगों को भी होने लगा था. भैया ने उस की शादी के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था, पर इन सब बातों से अनजान दोनों के प्यार की पेंगें मुक्त आकाश को छूने लगी थीं.

मयंक अपनी पढ़ाई में भी जोरशोर से जुटा हुआ था. उसे पूरा विश्वास था कि अगर वह एक अच्छी नौकरी पाने में सफल हो गया तो सुगंधा के मातापिता उन की शादी से कभी इनकार नहीं करेंगे पर नियति को कुछ और ही मंजूर था.

अचानक एक दिन सुगंधा के भैया उस की शादी सौरभ से लगभग पक्की कर आए. घर में लड़की दिखाने की तैयारियां जोरशोर से शुरू हो गई थीं. इस अप्रत्याशित फैसले के लिए सुगंधा कतई तैयार नहीं थी. सुनते ही सुगंधा पर मानो बिजली गिर पड़ी. वह अच्छी तरह जानती थी कि मयंक और उस की शादी का घर में काफी विरोध होगा, फिर भी वह उसे आसानी से गंवा नहीं सकती थी.

भाभी को सबकुछ बता कर सुगंधा ने अंतिम कोशिश की थी. भाभी भी सब सुन सकते में आ गई थीं. वह उसे इस तरह की शादियों से होने वाली परेशानियों को समझाती रही थीं, पर सुगंधा का अत्यंत उदास चेहरा देख मौका पा भाभी ने भैया से बात की थी.

भैया के कान में बात पड़ते ही जैसे भूचाल आ गया. गुस्से से उबलते हुए भैया ने थोड़ी ही देर में भाभी और ननद के रिश्ते को ले कर न जाने कितनी बातों के पिन भाभी को चुभाए थे. दरवाजे की ओट में खड़ी सुगंधा भाभी की बेइज्जती से आहत और पछताती अपने कमरे में आ गई थी. उस का एकमात्र आसरा भाभी ही थीं, वह भी टूट गया था.

भैया बैठे उसे घंटों समझाते रहे थे, पर सुगंधा के बोल नहीं फूटे थे. भैया के विनीत भाव, कमरे के दरवाजे पर खड़ी अम्मां के चेहरे की बेचैनी और बहनों के अंधकारमय होते भविष्य ने उसे अपना फैसला बदलने के लिए मजबूर कर दिया था. सारे अपनों को दुखी कर वह कैसे सुखी रह सकती थी.

जब उस ने अपना यह फैसला मयंक को सुनाया था तो वह भी कम आहत नहीं हुआ था.

पटना छोड़तेछोड़ते सुगंधा के परिवार के लोग सिर्फ इतना ही जान पाए थे कि मयंक सिविल सर्विसेज में चुन लिया गया था और टे्रनिंग के लिए गया हुआ था. 15 वर्षों बाद यों मुलाकात हो जाएगी उस ने कभी सोचा भी नहीं था.

अगले दिन दोपहर में वह कपड़े बदल कर लेटने जा ही रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी. दरवाजा खोलते ही अप्रत्याशित रूप से मयंक को सामने पा सुगंधा बुरी तरह से चौंक गई थी.

‘‘अब अंदर भी आने दोगी या इसी तरह खड़ा रहूं,’’ मयंक ने कहा.

बिना कुछ बोले सुगंधा ने मयंक को रास्ता दे दिया. ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के मयंक ने सीधेसीधे बात शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरी जिंदगी के साथ इतना बड़ा मजाक क्यों किया?’’

अचानक मयंक के इस सवाल और उस की आंखों के कोर पर चमकते हुए आंसुओं ने सुगंधा को बेहद व्याकुल बना दिया था. उस ने कल्पना भी नहीं की थी कि मयंक यों सीधेसीधे बात करेगा.

अपने को संयत करने का प्रयास करते हुए सुगंधा बोली, ‘‘क्या बचपना है, मयंक? अब हम बच्चे नहीं रहे. हम दोनों की एक बसीबसाई गृहस्थी और जिम्मेदारियां हैं जिस से हम भाग नहीं सकते.’’

‘‘सिद्धांत की बातें छोड़ो सुगंधा, मैं क्या करूं यह बताओ? मेरे लिए तुम्हें भुला देना आज भी आसान नहीं है.’’

अब सुगंधा के शब्द भी उस के भर्राए गले और भर आईं आंखों में खो गए थे. थोड़ी देर की चुप्पी को सुगंधा ने ही तोड़ा.

‘‘मैं जानती हूं, मयंक मेरे फैसले ने तुम्हें बहुत आहत किया है. इस फैसले ने मुझे भी कम आहत नहीं किया था. मेरे लिए तुम्हारे बिना जीना और भी कठिन था फिर भी मेरी अंतरात्मा ने मुझे स्वार्थ की डोर पकड़ने से रोक दिया था. उस समय अपने कर्तव्य से पलायन और अपनों को आहत करने का साहस मैं जुटा नहीं पाई थी.

‘‘ऐसा भी नहीं था कि मैं ने प्रयास नहीं किए. जब अत्यधिक प्रयास के बाद भी मुझे मेरे अपनों की मंजूरी नहीं मिली और मेरे अंदर उन्हें आहत करने का साहस चुक गया, मेरी कितनी रातें बेचैनी और छटपटाहट में गुजरीं. मेरे पास दो ही रास्ते थे, विद्रोह या अपनी इच्छाओं की कुरबानी. जी तो चाहता था समाज की पुरानी जीर्णशीर्ण मान्यताओं को रौंद, जीवन भर दूसरों के लिए जीने के बजाय खुद के लिए जीऊं. लेकिन सारी जद्दोजेहद के बाद मेरे अंतस ने मुझे कुरबानी के रास्ते पर ही ढकेला था.

‘‘मुझे लगा, प्यार के बंधन के अलावा दुनिया में और भी बंधन होते हैं जिन से इनकार नहीं किया जा सकता. जिन अपनों के स्नेह की छांव में हम पलते हैं, जिन के संग खेल कर, लड़ कर हम बड़े होते हैं, ये सभी रिश्ते भी तो प्यार के बंधन होते हैं. उन के सुखदुख भी तो हमारे सुखदुख होते हैं इसलिए मेरे कारण सभी के जीवन में घुलते जहर को खुद ही पी लेना मुझे कल्याणकारी लगा था.’’

एक गहरी सांस ले सुगंधा ने फिर अपनी बात कहनी शुरू की, ‘‘पर मन के बंधन क्या इतनी आसानी से टूट जाते हैं? मेरी समझ से शारीरिक आकर्षण से परे प्यार एक एहसास है जो हमेशा मन के कोने में सुरक्षित रहता है, जो सहजता से जीवन का फैसला लेने और निभाने का साहस देता है. आज मेरे जीवन में भी मेरा प्यार ही जीवन जीने की शक्ति है. अपने अंदर की उसी शक्ति के बलबूते मैं ने जीवन में आई कठिन परिस्थितियों को झेला है.

‘‘आज तुम्हें देख कर न मेरे दिल के तार झनझनाए न ही मन में कोई घंटी बजी, फिर भी यह सोच कर मेरी आंखें भर आईं कि आज भी तुम से ज्यादा अंतरंग मित्र और मुझे समझने वाला कोई नहीं है. यह विश्वास शायद उसी अछूते प्यार का एहसास है.

‘‘आज का सत्य यही है कि ढेर सारी कमियों के बावजूद मैं अपने पति और बच्चों से बेहद प्यार करती हूं. इतने दिनों के वैवाहिक जीवन में चाहे जितनी भी कमियां रही हों फिर भी एक अटूट विश्वास का रिश्ता जरूर हम दोनों के बीच कायम हो गया है जिसे तोड़ने का साहस हम में से कोई नहीं कर सकता.’’

वर्षों पहले अपने द्वारा लिए गए फैसले की अबूझ पहेली के सूत्र मयंक के हाथों में थमा कर सुगंधा यकायक चुप हो गई. थोड़ी देर तक उन दोनों के बीच एक सन्नाटा व्याप्त रहा. अब तक निढाल से बैठे मयंक का दुखी और मुरझाया चेहरा काफी कुछ सहज हो चला था. थोड़ी देर पहले आंखों में छाया दर्द पिघलने लगा था.

‘‘शायद तुम ठीक ही कह रही हो  सुगंधा. आज तक मैं भी एक मृगतृष्णा के पीछे ही तो भाग रहा था. जिस सचाई को जानते हुए भी मानने को तैयार नहीं था, संयोग से आज मिलते ही तुम ने उस का दूसरा पहलू दिखा कर मेरी सारी उलझन ही दूर कर दी. आज मुझे तुम्हारी दोस्ती पर गर्व हो रहा है. क्या मैं आशा रखूं कि आगे भी हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे,’’ कुछ देर पहले मयंक की आवाज में जो दर्द भरा था वह अब गायब हो चुका था.

‘‘क्यों नहीं? आज और इसी वक्त से हम अपनी टूटी हुई दोस्ती की नई शुरुआत करेंगे.’’

शाम को खाने पर सौरभ से सुगंधा ने गर्व के साथ मयंक को मिलवाया, ‘‘इन से मिलो, यह मेरे सहपाठी और यहां के कमिश्नर मयंक अग्रवाल हैं.’’

‘‘हमारी दोस्ती बचपन के दिनों की तरह मजबूत है, चाहे हम 15 साल बाद मिल रहे हों,’’ मयंक ने सौरभ को गले लगाते हुए कहा, ‘‘हां, आज मुझे एक नया दोस्त मिल रहा है, सौरभ?’’

अब पछताए होत क्या: किससे शादी करना चाहती थी वह – भाग 2

भोपाल स्टेशन के जाते ही मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. फिर पता नहीं कब मेरी आंख लग गई और मैं इतनी गहरी नींद सोई कि सिकंदराबाद जंक्शन आने पर ही मेरी आंख खुली. मैं ने अपनी कलाई घड़ी में समय देखा, शाम के साढ़े 6 बज रहे थे.

मैं ने पर्स से निकाल कर अपना मास्क पहना, परदा पूरा खिसकाया और सामने देखा. अमित नीचे की बर्थ पर बैठा हुआ किन्हीं गहरे खयालों में खोया हुआ था. विंडो के नीचे लगे होल्डर पर रखे खाली टी कप को देख कर मेरी भी चाय पीने की इच्छा प्रबल हो उठी. मैं ने मास्क लगेलगे ही अमित से पूछा, “आई बेग योर पार्डन मिस्टर, आर द सर्विसेस औफ पेंट्री कार इज अवेलेबल एट दिस टाइम औफ कोविड 19, इन दिस स्पेशल ट्रेन.”

“यस. यू जस्ट काल द अटेंंडेंट औफ दिस कोच, ही विल अरेंज टी फौर यू. एंड माय नेम इज अमित. एंड आई विल बी हैप्पी, इफ यू टेल मी योर नेम.”

“नन्ना हेसारु सुम्मी,” मैं ने कन्नड़ भाषा में उत्तर दिया, जो अमित के सिर के ऊपर से गुजर गया.

उस ने हिंदी में कहा, “मैं कुछ समझा नहीं…?”

“ओह दैट मीन्स यू कांट स्पीक इन कन्नड़?”

“हां, मैं कन्नड़ भाषा न पढ़ सकता हूं, न लिख और बोल सकता हूं…”

“ओके. देन आई विल टाक इन इंगलिश?” मुझे ऐसा लग रहा था कि बहुत पहले उस से हुई वार्तालाप की जंग मैं ने जीत ली है, इसलिए जैसे ही उस ने कहा, “मैडम, क्यों न हम हिंदी में बात करें. मेरे खयाल से दिल्ली और आगरा में बोली जाने वाली भाषा में एक अजीब सा अपनापन लगता है.”

“तो क्या और भाषाओं में अपनापन नहीं रहता?”

“अपनापन जरूर रहता होगा, पर जब सामने वाला भी अपने जैसी भाषा में बात करने वाला हो तो मजा तो उसी भाषा में बात करने में आता है,” सुन कर मैं ने अपने ही मन से कहा, “तो ये बात उस दिन क्यों समझ में नहीं आ रही थी बच्चू, जब मुझ पर अंगरेजी बोल कर रोब झाड़ रहे थे.”

मैं ने ज्यादा देर उसे परेशानी में नहीं रखा और हिंदी में उस से बात करने लगी, “मेरा नाम सुमन है. मैं बैंगलोर यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हूं. आगरा में लौकडाउन में फंस गई थी, अब वापस अपने ससुराल जा रही हूं.”

“सुमन” शब्द दोहराते हुए वह अपने मस्तिष्क पर जोर देता हुआ मुझे गौर से देखने लगा.

तभी अटेंडेंट मेरी बर्थ के सामने से गुजरा. उसे देख कर मैं समझ गई कि हो न हो, ये कर्नाटक का ही रहने वाला है, इसलिए मैं ने उस से कन्नड़ में कहा, “हे, नानू चाह कुडियालु बयसुत्तेने.” (सुनो, मुझे चाय पीने की इच्छा हो रही है.)

“निमगे इष्टो कप चाह बेकू.” (आप को कितने कप चाय चाहिए.)

अटेंडेंट से कन्नड़ में बात करते हुए मैं ने अमित से पूछा, “मिस्टर अमित, क्या आप मेरे साथ एक चाय पीना पसंद करेंगे?”

“हां, लेकिन पेमेंट मैं करूंगा.”

“ओके,” कहते हुए मैं फिर अटेंडेंट की तरफ मुखातिब हुई और उसे 2 कप चाय लाने का कन्नड़ में आदेश देते हुए उठ कर टायलेट के लिए चली गई. मास्क लगा ही हुआ था और सैनेटाइजर की छोटी स्प्रे बोतल अपने पर्स में रख कर लेती गई.

जब लौटी तो मैं ने अमित की तरफ देखे बिना ही अपने चादर, तकिए व कंबल को फिर से सैनेटाइज किया और अपनी बर्थ पर मास्क को नाक पर सेट करती हुई बैठ गई.

कुछ ही देर में ‘टी’ सर्व हो गई. अमित ने लपक कर वेटर को अपने पर्स से रुपए निकाल कर भुगतान किया.

ट्रेन अपनी रफ्तार पर थी. हम दोनों ने अपने मास्क ठुड्डी के नीचे सरका कर चाय के सिप लेने शुरू कर दिए थे.

चाय पी कर मैं ने मास्क फिर ठुड्डी से ऊपर की ओर सरका लिया और एक नजर अमित पर डाली. वह तेज रफ्तार चलती ट्रेन में खिड़की की तरफ मुंह किए हुए किन्हीं गहरे विचारों में खोया हुआ था.

अचानक उस ने मेरी तरफ मुंह घुमाया और मुझे अपनी तरफ देखता पा कर बोला, “दिल्ली से बैंगलोर का ट्रेन सफर तो बहुत लंबा है. अभी तो पूरी रात भी इसी ट्रेन में काटनी है. कल सवेरेसवेरे 6 बजे के आसपास ये ट्रेन वहां पहुंच पाएगी.”

कुछ देर चुप रहने के बाद वह मुझ से पूछ बैठा, ”क्या आप बैंगलोर की रहने वाली हैं?”

“नहीं. मैं तो आगरा की रहने वाली हूं. बैंगलोर में ससुराल है. लौकडाउन के कारण मैं आगरा में फंस गई थी, पर आप…?”

अचानक मेरा मन यह जानने को उत्सुक हो उठा कि मुझे ठुकराने के बाद उस की शादी किस से हुई और वह बैंगलोर क्यों जा रहा है?

उस ने बताना शुरू किया, “मैं विप्रो में हूं. दिल्ली में पोस्टिंग है. बैंगलोर तो मजबूरी में जाना पड़ रहा है.“

“मजबूरी में…? ऐसी क्या मजबूरी हो सकती है?” मैं ने पूछा, तो तुरंत कोई उत्तर न दे कर मौन हो कर कहीं खो गया… फिर कुछ देर बाद वह बोला, “वास्तविकता ये है कि अपनी इस स्थिति का जिम्मेदार मैं खुद हूं.”

“मैं कुछ समझी नहीं… कैसी स्थिति? कौन सी जिम्मेदारी?”

मैं ने पूछा, तो उस ने बताया, “दरअसल, विप्रो में मेरी नौकरी क्या लगी कि मम्मीपापा की महत्वाकांक्षाओं के साथसाथ मेरा दिमाग भी खराब हो गया और मैं इतने अभिमान में रहने लगा कि जो भी लड़की देखने जाऊं, उसे किसी न किसी बहाने रिजेक्ट कर मुझे बहुत खुशी महसूस हो…

“आखिर बैंगलोर में सेटल हुए. कभी दिल्ली के ही रहने वाले एक परिवार की लड़की मानसी मुझे और मम्मी दोनों को पसंद आ गई. वह लड़की माइक्रोसौफ्ट में अच्छे पैकेज पर थी. वह बहुत अच्छी अंगरेजी बोलती थी. स्मार्ट और डैशिंग. अपनी शर्तों पर दिल्ली पोस्टिंग लेने और जौब न छोड़ने का हम से वादा ले कर वह मुझ से शादी करने के लिए राजी हो गई…

“हमारी शादी हुई. दिल्ली का माइक्रोसौफ्ट औफिस भी उस ने ज्वाइन कर लिया, लेकिन मम्मी को जौब करने के लिए रातभर उस का घर से गायब रहना और सवेरे वापस आ कर देर तक सोते रहना अखरने लगा…

“बरसों तक तो वो इस आस में जीती रहीं कि बहू आएगी तो उन्हें घरगृहस्थी से फुरसत मिलेगी. पर यहां तो मानसी के हिसाब से घर का रूटीन सेट होता जा रहा था, इसलिए उन्होंने मानसी को रोकनाटोकना शुरू कर दिया. मुझे भी लगने लगा था कि वास्तव में मानसी को अपनी पत्नी बना कर लाने का फायदा ही क्या हुआ. मैं ने उसी को समझाना शुरू कर दिया, तो वह एक दिन मुझ से भिड़ गई और बोली, “तुम एक बात बताओ कि मां मुझे बहू बना कर लाई हैं या नौकरानी. जितना मुझ से बन पड़ता है, मैं घर संभालती तो हूं… फिर शादी से पहले मैं ने इसीलिए कुछ शर्तें…

“तुम ये रात का जौब छोड़ कर कोई दिन वाला…

“ओह… तो तुम भी एक ही पक्ष देख रहे हो. ऐसी स्थिति में मेरा यहां रहने का कोई औचित्य नहीं है… मैं बैक ट्रांसफर ले कर वापस बैंगलोर जा रही हूं…”

“इस के एक ही हफ्ते बाद वह बैंगलोर चली गई. मैं भी उसे रोक न पाया. उस ने वहां का औफिस फिर से ज्वाइन कर लिया. उस के महीनेभर बाद ही मुझे बैंगलोर कोर्ट से डिवोर्स का लीगल नोटिस प्राप्त हुआ और उसी कोर्ट में उपस्थित होने का सम्मन मिला.

“लेकिन, तभी कंप्लीट लौकडाउन लग गया और सभी कोर्टकचहरी के कामकाज ठप हो गए. अब जब फिर से सब खुला है, तो स्पीड पोस्ट से मिला नोटिस पा कर मजबूरी में मुझे वहां जाना पड़ रहा है.”

शायद रात में पड़ने वाला कोई बड़ा स्टेशन आने वाला था, क्योंकि इस राजधानी एक्सप्रेस की गति धीमी हो गई थी.

अमित चुप हो कर खिड़की के बाहर देखने लगा था और मेरा ध्यान उस वेटर की तरफ चला गया था, जो खाने की थाली का और्डर लेता हुआ हमारी बर्थ की तरफ चला आ रहा था.

अमित ने खाने का और्डर प्लेस करने से पहले मेरी तरफ देखा, तो मैं बोल पड़ी, ”मेरे पास अपना टिफिन है. तुम बस अपने लिए मंगा लो.”

खाना खा कर जब मैं सोने के लिए लेटी, तो मेरी रिस्ट वाच में रात का 12 बजा था और अमित अपनी ऊपर की बर्थ पर जा कर लेट गया था.

आपस का संवाद जैसे पूरा हो चुका हो. मैं परदा खींच कर चुपचाप लेट गई. ट्रेन की रफ्तार पर गौर करने लगी. सोचने लगी, “कहीं इस से मेरी शादी हो गई होती तो क्या मुझे भी इस से तलाक लेना पड़ता.

“लेकिन, मैं ये सब क्यों सोच रही हूं… मेरे लिए रमन से अच्छा तो कोई और हो ही नहीं सकता था. और मां…जैसी सास तो शायद ही किसी लड़की के नसीब में होती होगी.”

यही सब सोचते हुए मेरी न जाने कब आंख लग गई. जब आंख खुली तो बैंगलोर स्टेशन आ चुका था. मैं ने मोबाइल में अभीअभी फ्लैश हुए मैसेज को पढ़ा. रमन द्वारा भेजा गया मैसेज था, “कोविड 19 को स्प्रैड होने से बचाने के लिए किसी को भी स्टेशन के अंदर आ कर रिसीव करने की अनुमति नहीं दी जा रही है. मैं बाहर पार्किंग के पास तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. वहीं मिलो.”

मैं ने तेजी से मास्क चढ़ाया, धूप का चश्मा पहना और बैग व अटैची लिए ट्रेन से उतर कर स्टेशन के एक्जिट की तरफ बढ़ गई.

मुझे आभास था कि वो मेरे पीछे ही एक्जिट की तरफ बढ़ रहा है, पर मुझे उस से क्या लेनादेना. मुझे तो बाहर इंतजार करते रमन के पास जल्दी से जल्दी पहुंचना था.

अब पछताए होत क्या: किससे शादी करना चाहती थी वह- भाग 1

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

स्टेशन के भीतर प्रवेश करते ही मैं ने अपने फेस मास्क को नाक पर ढंग से चढ़ाया. स्टेशन के बाहर तो खामोशी थी ही, लेकिन अंदर प्लेटफार्म पर जैसा सन्नाटा था वैसा तो इस से पहले मैं ने कभी नहीं देखा था.

रेलवे द्वारा औपचारिक थर्मल चेकिंग के बाद जब मैं अपनी सेकंड एसी की साइड वाली बर्थ पर पहुंची, तो अमित को देख कर चौंक गई.

अमित इस राजधानी ट्रेन में दिल्ली से चढ़ा होगा, क्योंकि उस का बेड रोल पहले से ही ऊपरी बर्थ पर बिछा था और वो आगरा आने से पहले तक नीचे वाली बर्थ पर बैठा हुआ आया था.

उस सीमित यात्रियों वाले सैनेटाइज्ड कोच में मास्क लगाए हुए मुझे वो पहचान नहीं पाया.

मुझ से उस की मुलाकात तभी हुई थी, जब वो मुझे पसंद करने अपने मम्मीपापा के साथ आया था. मेरी मम्मी महेश मामाजी द्वारा सुझाए इस रिश्ते को ले कर अति उत्साह से भरी हुई थीं.

अमित से एकांत में बात करते समय मैं ने महसूस किया कि वो घर में बोलने वाली आम बोलचाल की भाषा हिंदी में पूछी गई मेरी हर बात का उत्तर सिर्फ और सिर्फ अंगरेजी भाषा में दे कर मुझ पर अपना रोब डालने का लगातार प्रयास कर रहा था और मैं दो कारणों से उस से हिंदी में ही बात किए जा रही थी.

पहला कारण तो ये था कि अभी कुछ देर पहले सब के बीच वो खूब ढंग से हिंदी में बात कर रहा था. मेरे साथ एकांत मे ऐसा शो कर रहा था, जैसे लंदन से आया हो.

दूसरे, मैं एमए तक लगातार हिंदी मीडियम से पढ़ाई करते रहने के कारण अंगरेजी लिख, पढ़ और समझ तो लेती थी, पर बोलने और बात करने में हिचकिचाती थी.

इस के अलावा एक बात और थी कि मेरा झुकाव इन दिनों प्रोफैसर रमन की तरफ कुछ ज्यादा ही हो चला था, जिन के अंडर में मैं हिंदी में अपनी थीसिस लिख कर पीएचडी की डिगरी हासिल करने में जुटी हुई थी.

सच तो ये था कि मैं दरअसल अमित से शादी करने के मूड में थी ही नहीं और चाह रही थी कि मेरे न कहने के बजाय वो ही मुझे रिजेक्ट कर दे.

और वही हुआ. मुझ से इर्रिटेट हो कर उस ने मेरे मामाजी और मम्मी के सामने अपने मम्मीडैडी से कह ही दिया, “आई कान्ट एक्सेप्ट द गर्ल एज माई लाइफ पार्टनर, हू कान्ट स्पीक इंगलिश, फ्लुएन्टली… नो डैडी. नौट एट आल.”

इस इनकार के बाद मम्मी ने भी धीरज रख लिया और सब समय के हाथों में छोड़ दिया. मैं भी अपनी थीसिस पूरी करने में जुट गई.

मैं जानती थी कि आगरा यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर डाक्टर एस. रमन के अंडर में अगर अगले साल के अंत तक मैं थीसिस सबमिट नहीं कर पाई, तो फिर डाक्टरेट की उपाधि पाने में कई साल और लग सकते हैं, क्योंकि रमन पिछले कई महीनों से बैंगलोर यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर की पोस्ट के लिए ट्राई कर रहे थे. इधर जब से उन्होंने न्यूजपेपर में निकले विज्ञापन के आधार पर उस यूनिवर्सिटी के लिए
औनलाइन फार्म सबमिट किया था, तब से उन्हें विश्वास था कि उन का सेलेक्शन अवश्य हो जाएगा और वो अपने पैतृक घर बैंगलोर अपने मांबाप के पास पहुंच जाएंगे.

और उन का विश्वास निराधार नहीं था. 34 साल के रमन बहुत ही स्मार्ट और आकर्षक व्यक्तित्व के प्रोफैसर थे. वे जितनी शुद्धता के साथ, धाराप्रवाह हिंदी बोल सकते थे, उसी प्रकार कन्नड़ और अंगरेजी भी बोलने में सक्षम थे.

घुंघराले काले सेट करे हुए बाल, सम्मोहन कर देने वाली आंखें, स्वस्थ होंठ और तराशी हुई प्रभावित करने वाली काली मूंछें, अकसर हलके बैगनी या नीले कलर की शर्ट के नीचे काला ट्राउजर उन की पहचान थी. उन के काले जूतों की चमक तो मैं ने कभी भी फीकी नहीं देखी.

सच तो ये था कि थीसिस के दौरान उन से 10 साल छोटी होने के बावजूद भी मन ही मन उन्हें चाहने लगी थी. उधर अमित मुझे रिजेक्ट कर के जा चुका था, लेकिन मैं इस बात से खुश थी कि अब मैं रमन के बारे में इतमीनान से सोच सकती हूं, उन से प्यार का इजहार भी कर सकती हूं.

उन्हें भी शायद इस बात का आभास होने लगा था, इसलिए एक दिन जब उन्होंने मुझे विषय से हट कर किन्हीं दूसरे खयालों में खोए देखा तो पूछ बैठे, ”तुम अचानक क्या सोचने लगती हो? अगर मेरा कहा एक बार में समझ नहीं आता, तो दोबारा पूछ सकती हो.”

“सर, यह बात नहीं है. मैं यही सोचने लगती हूं कि आगे चल कर जब मैं लेक्चरर बनूंगी तो क्या इसी तरह अपने स्टूडेंट्स को समझा सकूंगी.”

“क्या यह बात इतनी गहराई से सोचने वाली है? निश्चय ही कोई और बात तुम्हारे दिमाग में थी. ये बात मैं दावे से कह सकता हूं…”

“अच्छा इतना दावा कर रहे हैं तो बताइए कि और कौन सी बात हो सकती है?”

मैं ने जानबूझ कर छेड़ा, तो वो बोले, ”अकसर जब कोई किसी के प्यार में डूबा होता है, तभी वो इस ब्रह्माण्ड में खो जाता है. वह यह नहीं जानता है कि जिस ब्रह्माण्ड में वो अपने विचार भेज रहा है, उसे पूरा करने में ये प्रकृति जुट जाती है.”

“अच्छा… ऐसा है तो जो विचार मेरे दिमाग से निकल कर ऊपर ब्रह्माण्ड में गया, वो पूरा हो सकता है क्या?“

“ये तो इस बात पर निर्भर करता है कि उस के मस्तिष्क से निकला विचार कितना स्ट्रांग था?

“ओह, अब ये निर्णय कौन करेगा कि वो विचार स्ट्रांग था या वीक?”

“इस पर हम बाद में बहस करेंगे. अब थीसिस के टौपिक पर फिर से आते हैं,” कह कर रमन मुझे थीसिस लिखवाने में जुट गए.

एक दिन मैं ने उन्हें फिर छेड़ा, ”आप तो कह रहे थे कि ब्रम्हाण्ड में भेजी गई इच्छा पूरी अवश्य होती है.“

“हां. अगर प्रबल हो तो जैसे किसी का सपना सोचते रहने से पूरा नहीं हो सकता, उसे उस सपने को पूरा करने का प्रयास तो करना ही होगा, ठीक इसी तरह मन की उस इच्छा की पूर्ति के लिए कदम तो बढ़ाना ही होगा.

“ठीक है तो मैं कदम बढ़ाती हूं…” कहती हुई मैं रमन के करीब पहुंच गई और मुसकराते हुए बोली, ”लीजिए, मैं ने कदम बढ़ा दिए. अब तो मेरी इच्छा पूरी हो जानी चाहिए?“

“अरे, मेरी तरफ कदम बढ़ाने से क्या होगा?”

“मैं आप की थ्योरी समझ गई. जैसे आप की तरफ कदम बढ़ाने से मेरी डाक्टरेट होने की इच्छा कम्प्लीट हो गई, वैसे ही मेरी आप से शादी करने की इच्छा भी पूरी हो जाएगी,“ कह कर मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ”सर, मैं भी आप की आंखों में अपने लिए प्यार उमड़ता देख चुकी हूं.”

रमन ने अचानक मुझे अपनी बांहों में भर लिया और बोला, ”हमारे और तुम्हारे बीच जो उम्र का गैप था, उसे ले कर मैं इस तरफ से ध्यान हटा लिया करता था. पर अब तुम ने अपने प्यार का इजहार कर ही दिया है, तो मैं इसी समय अपनी मां से शादी की परमीशन ले लेता हूं. फिर तुम से कोर्ट मैरिज कर के मैं तुम्हें अपने साथ ही बैंगलोर ले जाऊंगा.”

“लेकिन, अभी तक तो वहां से आप के अपौइंटमेंट का कोई लेटर तो आया नहीं है?”

“मुझे विश्वास है कि जैसे तुम मेरे जीवन में आ गई हो, वैसे शीघ्र ही अपौइंटमेंट लेटर भी आ ही जाएगा,” कह कर पहली बार रमन ने मेरा प्रगाढ़ चुम्बन लिया. फिर अपने मोबाइल से वीडियो काल कर अपनी मां से मेरा परिचय कराते हुए कहा, ”मां, गौर से अपनी होने वाली बहू को देख लो. हम कोर्ट मैरिज करने जा रहे हैं.”

रमन की मां की हंसी देख कर मैं समझ गई कि उन्होंने मुझे पसंद कर लिया है… मुझे खुशी हुई कि उन्होंने मुझ से हिंदी में बात की, जबकि रमन बीचबीच में उन्हें कन्नड़ में कुछकुछ समझाते रहे.

मेरे मम्मीपापा की भी लव मैरिज हुई थी. बड़ी दीदी ने मां की पसंद के लड़के से शादी की थी. मेरी शादी को ले कर भी वो तब से और चिंतित रहने लगी थीं, जब से अमित मुझे रिजेक्ट कर गया था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मुझे कोर्ट मैरिज करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी, मैं ने उसी दिन रमन को अपने मम्मीडैडी से मिलवा दिया.

अब पछताए होत क्या: किससे शादी करना चाहती थी वह- भाग 3

मम्मीडैडी को सामने देख रमन ने जैसे ही झुक कर उन के पैर छूना चाहे, तो मां बोल पड़ी, ”हमारे यहां दामाद से पैर नहीं छुआए जाते.”

“क्यों मम्मी…? बड़ों के पैर छूने में आखिर हर्ज ही क्या है..?”

“अरे भई, रीतिरिवाज तो मानने ही पड़ते हैं.”

“लेकिन, मैं इन रीतिरिवाजों से परे, शादी के बाद जब भी अपनी इस मां से मिलने आऊंगा तो पैर अवश्य ही छुऊंगा…”

मां से आगे कुछ कहते ना बन पड़ा था. वो डैडी के पास रमन को बिठा कर मुझे साथ लेती हुई किचन में घुस गई थीं. आखिर होने वाला दामाद घर जो आया था.

मेरी पीएचडी कम्प्लीट हो गई थी और रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी से अपौइंटमेंट लेटर आ चुका था. इस बीच हम कोर्ट मैरिज कर चुके थे, इसलिए रमन ने अपना रेजिगनेशन लेटर दिया और नोटिस पीरियड पूरा होते ही मुझे ले कर बैंगलोर आ गए.

अपनी ससुराल आ कर मैं सास से मिल कर बहुत प्रभावित हुई थी. वो एक ऐसी सास थीं, जो पूरी जिंदादिली और बेबाकी से अपनी बात कहने से नहीं चूकती थीं.

मुझे ससुराल में आए हुए अभी चार महीने ही हुए थे. रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने के बाद का रूटीन फिक्स हो चला था.

हम दोनों एकदूसरे के प्रति पूरे समर्पण भरे प्यार में डूब चुके थे. एक दिन रात के अंतरंग क्षणों में मैं रमन से बोली, “मैं चाहती हूं कि यूनिवर्सिटी में लेक्चर बन कर अपनी डिगरी का मान रख लूं.”

“हां, चाहता तो मैं भी हूं, लेकिन लैंग्वेज प्रौब्लम कैसे फेस करोगी?” रमन मुझे अपनी बांहों में भींच कर… कुछ देर तक मेरे दिल की तेज धड़कनें सुनता रहा, फिर बोले, “सुमी, ऐसा करते हैं कि यहां की लोकल कन्नड़ भाषा तो तुम्हें मां बोलना सिखा देंगी और इंगलिश स्पीकिंग मैं सिखा देता हूं. मुझे विश्वास है कि ये दोनों भाषाएं सीखने के बाद तुम कौन्फिडेंस से बोलने लगोगी तो यूनिवर्सिटी में भी जौब लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी.”

इस के बाद हम दोनों एकदूसरे में गहरे खो गए.

अगली सुबह जब सास को पता लगा कि मैं भी जौब करना चाहती हूं, तो वे मजाक में बोलीं, “इस का मतलब है कि बहू लाने के बाद भी चूल्हाचौका मुझे ही संभालना पड़ेगा…”

ऐसा सुन कर मैं एकदम से घबरा गई. बोली, “ऐसा आप मत सोचिए, मैं चौका भी संभाल लूंगी और जौब भी…”

“अरे पगली, तू घबरा मत. अभी मुझ में बहुत दम है. मेरा तो एमए इंगलिश से करना व्यर्थ गया, पर मैं तेरी पीएचडी पर ग्रहण नहीं लगने दूंगी. मैं ने भी तो कन्नड़ भाषा यहीं आने के बाद सीखी और मतलब भर की इंगलिश का उपयोग भी यहां मौका पड़ने पर कर लेती हूं.”

“ओह मांजी, आप जैसी सास हर लड़की को मिले,” कह कर वह उन के गले लग गई.

“देखो सुमी, तुम्हें आज मैं अपना अनुभव बताती हूं कि कोई भी भाषा हमें तब तक कठिन लगती है, जब तक हमारा मस्तिष्क उसी भाषा में शब्दों को नहीं सोचता अर्थात मस्तिष्क हिंदी में सोचता है और हम बोलना चाहते हैं इंगलिश तो निश्चित रूप से बोलने में अटक जाएंगे…

“इसे यों समझो कि तुम हिंदी का उच्चारण इसलिए अच्छा कर पाती हो कि तुम्हारा मस्तिष्क बिना समय गंवाए किसी भी वाक्य को तुरंत हिंदी भाषा में बना कर बुलवा देता है.

“ऐसा ही हर भाषा के साथ है. सब मस्तिष्क की सोच और विचारों का खेल है.

“कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक भाषा भावनाओं की अभिव्यक्ति से जुड़ी है. रही कन्नड़ भाषा की बात तो उस के लिए भी पहले तो नित्य प्रति बोले जाने वाले शब्दों के उच्चारण को समझना होगा और कौन शब्द जैसे है, हूं, हो का उपयोग न के बराबर करना होगा. मैं तुम्हें कल कुछ आवश्यक कन्नड़ वाक्य बोलना सिखा दूंगी.”

मां और रमन के सहयोग से तीन महीने में ही मेरी लगन काम आई और मैं अंगरेजी तो ऐसे बोलने लगी कि रमन भी हैरान रह गया और मां द्वारा सिखाई गई कन्नड़ भाषा का डर भी मेरे दिमाग से निकल गया.

मुझे भी बैंगलोर यूनिवर्सिटी में जौब मिल गई थी. तभी आगरा से डैडी का फोन आ गया. उन्होंने बताया कि मां कोविड सस्पेक्टेड हो कर होस्पिटलाइज्ड हैं और मुझे लगातार याद कर रही हैं, तो मैं अपने को रोक ना सकी. रमन को छुट्टी मिल न सकी, तो मैं फ्लाइट से आगरा पहुंच गई.

मां एक्चुअली कोविड की खबरें सुनसुन कर डिप्रेशन में आ गई थीं. फिर जब उन को तेज बुखार और खांसी हुई, तो पापा ने उन्हें घबरा कर अस्पताल में भरती करा दिया था.

लेकिन जब उन की कोविड रिपोर्ट नेगेटिव आई और 5 दिन में बुखार भी उतर गया, तो हम उन्हें घर ले आए. मेरे लगातार समझाने और समय से उन के खानपान का ध्यान रखने से वे ठीक हो गईं.

मैं वापस बैंगलोर जाने का प्लान बना ही रही थी कि अचानक पूरे भारत में कंप्लीट लौकडाउन की घोषणा कर दी गई. परिवहन के सारे साधन बंद होने के कारण आगरा में ही फंस कर रह गई. एक अजीब से भय का वातावरण आसपास हर आने वाले दिन गंभीर होता चला जा रहा था.

मेरा वो समय मायके में मां के साथ तो बीता, पर लगता रहा जैसे मुझे किसी पिंजरे में कैद कर दिया गया हो. वही घर जहां कभी मेरी किलकारियां गूंजती रही होंगी. जहां के फर्श पर मैं ने चलना सीखा. जहां मैं बड़ी हुई, पीएचडी किया, वही घर उन दिनों मेरे लिए कैदखाना बन कर रह गया.

रमन से तकरीबन रोज ही मोबाइल पर बात होती और मन करता कि अभी उड़ जाऊं और जा कर रमन की बांहों में समा जाऊं.

दोपहर में अकसर सासू मां का फोन आ जाता और वे भी मुझ से और मेरी मम्मी से बड़ी देर तक बातें करती रहतीं.

जैसेतैसे वो कठिन समय बीता और स्पेशल ट्रेनें चलाने की घोषणा हुई. रमन ने मेरा औनलाइन ट्रेन का टिकट बुक करा कर मेरे मेल पर भेज दिया.

और मैं ससुराल जाने के लिए मां से विदा ले कर राजधानी एक्सप्रेस पकड़ने आगरा कैंट स्टेशन पहुंच गई.

अचानक ट्रेन की धीमी स्पीड संकेत दे रही थी कि कोई स्टेशन आने वाला है.

मैं ने डबल कांच की काली खिड़की से बाहर चमकने वाली रोशनियों में स्टेशन पढ़ने का प्रयास किया. झांसी स्टेशन था. राजधानी एक्सप्रेस का एक और स्टापेज. गिनेचुने यात्री चढ़े.

मैं ने मन ही मन सोचा, ”ये क्या हाल कर दिया है इस कोरोना ने. फिजां में एक अजीब सी दहशत. भारत का हर स्टेशन इतना वीरान. झांसी, जहां शादी के बाद रमन के साथ इसी ट्रेन से यात्रा के दौरान इस स्टेशन से इतने यात्री चढ़े थे कि वो एसी कोच खचाखच भर गया था. और आज…?

आगरा कैंट स्टेशन से भी तो गिनती के यात्री चढ़े थे. मैं
ने कलाई घड़ी देखी, रात के 22 बज कर 40 मिनट हो चुके थे. ठीक 22 बज कर 45 पर ट्रेन चल दी.

चूंकि अमित पीछे से यात्रा करते हुए रिलैक्स था. इसी कारण उस ने मास्क अपनी जेब में रख लिया था, लेकिन मुझे अपनी बर्थ की तरफ आते देख उस ने मास्क जेब से निकाल कर पुनः पहन लिया. दाढ़ी बढ़ी होने के बावजूद भी मैं उसे पहचान चुकी थी.

अपनी तरफ से कोई भी प्रतिक्रिया न दिखाते हुए मैं ने अपनी साइड वाली लोअर बर्थ के नंबर पर गौर करते हुए बर्थ के नीचे अपना ब्रीफकेस और बैग सरकाया और अपना बेड रोल बिछाने के बाद फ्रेश हो कर आई, फिर अपनी बर्थ पर बैठते हुए परदा खींच दिया.

अपने पर्स से सैनेटाइजर निकाल कर हथेलियों और चादर, कंबल व तकिए को सैनेटाइज कर के मैं लेट गई.

मैं ने अपना मास्क उतार कर पर्स में रख लिया और साइड बर्थ की विंडो से पीछे जाते हुए खामोश आगरा स्टेशन को देखती रही.

सन्नाटे में डूबा प्लेटफार्म गुजर गया, तो मैं ने परदे की झिरी में से झांक कर देखा, अमित ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ कर लेट गया था.

परदे को पूर्ववत कर के मैं बर्थ पर ही सीधी हो कर बैठ गई. ट्रेन रफ्तार पकड़ कर आगे बढ़ती चली जा रही थी. कुछ देर बाद जम्हाई आने पर मैं ने अपनी रिस्ट वाच पर नजर डाली. अगली तारीख का 1 बज कर 25 मिनट बजा था. मैं ने आंखें बंद कर लीं और रमन की याद करते हुए सो गई.

इस बार फिर जब ट्रेन रुकी, तो मैं ने सन्नाटे में डूबे स्टेशन के पिलर्स पर गौर से देखा, भोपाल जंक्शन था. लेटेलेटे ही उस स्टेशन की इलेक्ट्रानिक वाच में समय दिख गया 4 बज कर 35 मिनट अर्थात पौ फटने में कुछ ही देर थी.

 

रिश्ता: क्या हुआ था शमा के साथ

लेखक- कुंवर गुलाब सिंह

शमा के लिए रफीक का रिश्ता आया. वह उसे पहले से जानती थी. वह ‘रेशमा आटो सर्विस’ में मेकैनिक था और अच्छी तनख्वाह पाता था.

शमा की मां सईदा अपनी बेटी का रिश्ता लेने को तैयार थीं.

शमा बेहद हसीन और दिलकश लड़की थी. अपनी खूबसूरती के मुकाबले वह रफीक को बहुत मामूली इनसान समझती थी. इसलिए रफीक उसे दिल से नापसंद था.

दूसरी ओर शमा की सहेली नाजिमा हमेशा उस की तारीफ करते हुए उकसाया करती थी कि वह मौडलिंग करे, तो उस का रुतबा बढ़ेगा. साथ ही, अच्छी कमाई भी होगी.

एक दिन शमा ख्वाबों में खोई सड़क पर चली जा रही थी.

‘‘अरी ओ ड्रीमगर्ल…’’ पीछे से पुकारते हुए नाजिमा ने जब शमा के कंधे पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी.

‘‘किस के खयालों में चली जा रही हो तुम? तुझे रोका न होता, तो वह स्कूटर वाला जानबूझ कर तुझ पर स्कूटर चढ़ा देता. वह तेरा पीछा कर रहा था,’’ नाजिमा ने कहा.

शमा ने नाजिमा के होंठों पर चुप रहने के लिए उंगली रख दी. वह जानती थी कि ऐसा न करने पर नाजिमा बेकार की बातें करने लगेगी.

अपने होंठों पर से उंगली हटाते हुए नाजिमा बोली, ‘‘मालूम पड़ता है कि तेरा दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगा है. तेरी चमड़ी में जरा सफेदी आ गई, तो इतराने लगी.’’

‘‘बसबस, आते ही ऐसी बातें शुरू कर दीं. जबान पर लगाम रख. थोड़ा सुस्ता ले…’’

थोड़ा रुक कर शमा ने कहा, ‘‘चल, मेरे साथ चल.’’

‘‘अभी तो मैं तेरे साथ नहीं चल सकूंगी. थोड़ा रहम कर…’’

‘‘आज तुझे होटल में कौफी पिलाऊंगी और खाना भी खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरी मां ने मेरे लिए जो पकवान बनाया होगा, उसे कौन खाएगा?’’

‘‘मैं हूं न,’’ शमा नाजिमा को जबरदस्ती घसीटते हुए पास के एक होटल में ले गई.

‘‘आज तू बड़ी खुश है? क्या तेरे चाहने वाले नौशाद की चिट्ठी आई है?’’ शमा ने पूछा.

यह सुन कर नाजिमा झेंप गई और बोली, ‘‘नहीं, साहिबा का फोटो और चिट्ठी आई है.’’

‘‘साहिबा…’’ शमा के मुंह से निकला.

साहिबा और शमा की कहानी एक ही थी. उस के भी ऊंचे खयालात थे. वह फिल्मी दुनिया की बुलंदियों पर पहुंचना चाहती थी.

साहिबा का रिश्ता उस की मरजी के खिलाफ एक आम शख्स से तय हो गया था, जो किसी दफ्तर में बड़ा बाबू था. उसे वह शख्स पसंद नहीं था.

कुछ महीने पहले साहिबा हीरोइन बनने की लालसा लिए मुंबई भाग गई थी, फिर उस की कोई खबर नहीं मिली थी. आज उस की एक चिट्ठी आई थी.

चिट्ठी की खबर सुनने के बाद शमा ने नाजिमा के सामने साहिबा के तमाम फोटो टेबिल पर रख दिए, जिन्हें वह बड़े ध्यान से देखने लगी. सोचने लगी, ‘फिल्म लाइन में एक औरत पर कितना सितम ढाया जाता है, उसे कितना नीचे गिरना पड़ता है.’

नाजिमा से रहा नहीं गया. वह गुस्से में बोल पड़ी, ‘‘इस बेहया लड़की को देखो… कैसेकैसे अलफाजों में अपनी बेइज्जती का डंका पीटा है. शर्म मानो माने ही नहीं रखती है. क्या यही फिल्म स्टार बनने का सही तरीका है? मैं तो समझती हूं कि उस ने ही तुम्हें झूठी बातों से भड़काया होगा.

‘‘देखो शमा, फिल्म लाइन में जो लड़की जाएगी, उसे पहले कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘फिल्मों में आजकल विदेशी रस्म के मुताबिक खुला बदन, किसिंग सीन वगैरह मामूली बात हो गई है.

‘‘कोई फिल्म गंदे सीन दिखाने पर ही आगे बढ़ेगी, वरना…’’ शमा बोली.

‘‘सच पूछो, तो साहिबा के फिल्मस्टार बनने से मुझे खुशी नहीं हुई, बल्कि मेरे दिल को सदमा पहुंचा है. ख्वाबों की दुनिया में उस ने अपनेआप को बेच कर जो इज्जत कमाई, वह तारीफ की बात नहीं है,’’ नाजिमा ने कहा.

बातोंबातों में उन दोनों ने 3-3 कप कौफी पी डाली, फिर टेबिल पर उन के लिए वेटर खाना सजाने लगा.

‘‘शमा, ऐसे फोटो ले जा कर तुम भी फिल्म वालों से मिलोगी, तो तुझे फौरन कबूल कर लेंगे. तू तो यों भी इतनी हसीन है…’’ हंस कर नाजिमा बोली.

‘‘आजकल मैं इसलिए ज्यादा परेशान हूं कि मां ने मेरी शादी रफीक से करने के लिए जीना मुश्किल कर दिया है. उन्हें डर है कि मैं भी मुंबई न भाग जाऊं.’’

‘‘अगर तुझे रफीक पसंद नहीं है, तो मना कर दे.’’

‘‘वही तो समस्या है. मां समझती हैं कि ऐसे कमाऊ लड़के जल्दी नहीं मिलते.’’

‘‘उस में कमी क्या है? मेहनत की कमाई करता है. तुझे प्यारदुलार और आराम मुहैया कराएगा. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘तू भी मां की तरह बतियाने लगी कि मैं उस मेकैनिक रफीक से शादी कर लूं और अपने सारे अरमानों में आग लगा दूं.

‘‘रफीक जब घर में घुसे, तो उस के कपड़ों से पैट्रोल, मोबिल औयल और मिट्टी के तेल की महक सूंघने को मिले, जिस की गंध नाक में पहुंचते ही मेरा सिर फटने लगे. न बाबा न. मैं तो एक हसीन जिंदगी गुजारना चाहती हूं.’’

‘‘सच तो यह है कि तू टैलीविजन पर फिल्में देखदेख कर और फिल्मी मसाले पढ़पढ़ कर महलों के ख्वाब देखने लगी है, इसलिए तेरा दिमाग खराब होने लगा है. उन ख्वाबों से हट कर सोच. तेरी उम्र 24 से ऊपर जा रही है. हमारी बिरादरी में यह उम्र ज्यादा मानी जाती है. आगे पूछने वाला न मिलेगा, तो फिर…’’

इसी तरह की बातें होती रहीं. इस के बाद वे दोनों अपनेअपने घर चली गईं.

उस दिन शमा रात को ठीक से सो न सकी. वह बारबार रफीक, नाजिमा और साहिबा के बारे में सोचती रही.

रात के 3 बज रहे थे. शमा ने उठ कर आईने के सामने अपने शरीर को कई बार घुमाफिरा कर देखा, फिर कपड़े उतार कर अपने जिस्म पर निगाहें गड़ाईं और मुसकरा दी. फिर वह खुद से ही बोली, ‘मुझे साहिबा नहीं बनना पड़ेगा. मेरे इस खूबसूरत जिस्म और हुस्न को देखते ही फिल्म वाले खुश हो कर मुझे हीरोइन बना देंगे.’’

जब कोई गलत रास्ते पर जाने का इरादा बना लेता है, तो उस का दिमाग भी वैसा ही हो जाता है. उसे आगेपीछे कुछ सूझता ही नहीं है.

शमा ने सोचा कि अगर वह साहिबा से मिलने गई, तो वह उस की मदद जरूर करेगी. क्योंकि साहिबा भी उस की सहेली थी, जो आज नाम व पैसा कमा रही है.

लोग कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं. वे सच कहते हैं, लेकिन जब मुसीबत आती है, तो वही ढोल कानफाड़ू बन कर परेशान कर देते हैं.

शमा अच्छी तरह जानती थी कि उस की मां उसे मुंबई जाने की इजाजत नहीं देंगी, तो क्या उस के सपने केवल सपने बन कर रह जाएंगे? वह मुंबई जरूर जाएगी, चाहे इस के लिए उसे मां को छोड़ना पड़े.

शमा ने अपने बैंक खाते से रुपए निकाले, ट्रेन का रिजर्वेशन कराया और मां से बहाना कर के एक दिन मुंबई के लिए चली गई.

शमा ने साहिबा को फोन कर दिया था. साहिबा ने उसे दादर रेलवे स्टेशन पर मिलने को कहा और अपने घर ले चलने का भरोसा दिलाया.

जब ट्रेन मुंबई में दादर रेलवे स्टेशन पर पहुंची, उस समय मूसलाधार बारिश हो रही थी. बहुत से लोग स्टेशन पर बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे. प्लेटफार्म पर बैठने की थोड़ी सी जगह मिल गई.

शमा सोचने लगी, ‘घनघोर बारिश के चलते साहिबा कहीं रुक गई होगी.’

उसी बैंच पर एक औरत बैठी थी. शायद, उसे भी किसी के आने का इंतजार था.

शमा उस औरत को गौर से देखने लगी, जो उम्र में 40 साल से ज्यादा की लग रही थी. रंग गोरा, चेहरे पर दिलकशी थी. अच्छी सेहत और उस का सुडौल बदन बड़ा कशिश वाला लग रहा था.

शमा ने सोचा कि वह औरत जब इस उम्र में इतनी खूबसूरत लग रही है, तो जवानी की उम्र में उस पर बहुत से नौजवान फिदा होते रहे होंगे.

उस औरत ने मुड़ कर शमा को देखा और कहा, ‘‘बारिश अभी रुकने वाली नहीं है. कहां जाना है तुम्हें?’’

शमा ने जवाब दिया, ‘‘गोविंदनगर जाना था. कोई मुझे लेने आने वाली थी. शायद बारिश की वजह से वह रुक गई होगी.’’

‘‘जानती हो, गोविंदनगर इलाका इस दादर रेलवे स्टेशन से कितनी दूर है? वह मलाड़ इलाके में पड़ता है. यहां पहली बार आई हो क्या?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस के यहां जाना है?’’

‘‘मेरी एक सहेली है साहिबा. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ती थीं. 2-3 साल पहले वह यहां आ कर बस गई. उस ने मुझे भी शहर देखने के लिए बुलाया था.’’

उस औरत ने शमा की ओर एक खास तरह की मुसकराहट से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पास सामान तो बहुत कम है. क्या 1-2 दिन के लिए ही आई हो?’’

‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती. साहिबा के आने पर ही बता सकूंगी.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने घर से बिना किसी को बताए यहां भाग कर आई हो? अकसर तुम्हारी उम्र की लड़कियों को मुंबई देखने का बड़ा शौक रहता है, इसलिए वे बिना इजाजत लिए इस नगरी की ओर दौड़ पड़ती हैं और यहां पहुंच कर गुमराह हो जाती हैं.’’

शमा के चेहरे की हकीकत उस औरत से छिप न सकी.

‘‘मुझे लगता है कि तुम भी भाग कर आई हो. मुमकिन है कि तुम्हें भी हीरोइन बनने का चसका लगा होगा, क्योंकि तुम्हारी जैसी हसीन लड़कियां बिना सोचे ही गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं.’’

‘‘आप ने मुझे एक नजर में ताड़ लिया. लगता है कि आप लड़कियों को पहचानने में माहिर हैं,’’ कह कर शमा हंस दी.

‘‘ठीक कहा तुम ने…’’ कह कर वह औरत भी हंस दी, ‘‘मैं भी किसी जमाने में तुम्हारी उम्र की एक हसीन लड़की गिनी जाती थी. मैं भी मुंबई में उसी इरादे से आई थी, फिर वापस न लौट सकी.

‘‘मैं भी अपने घर से भाग कर आई थी. मुझ से पहले मेरी सहेली भी यहां आ कर बस चुकी थी और उसी के बुलावे पर मैं यहां आई थी, पर जो पेशा उस ने अपना रखा था, सुन कर मेरा दिल कांप उठा…

‘‘वह बड़ी बेगैरत जिंदगी जी रही थी. उस ने मुझे भी शामिल करना चाहा, तो मैं उस के दड़बे से भाग कर अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन यहां के दलालों ने मुझे ऐसा वश में किया कि मैं यहीं की हो कर रह गई.

‘‘मुझे कालगर्ल बनना पड़ा. फिर कोठे तक पहुंचाया गया. मैं बेची गई, लेकिन वहां से भाग निकली. अब स्टेशनों पर बैठते ऐसे शख्स को ढूंढ़ती फिरती हूं, जो मेरी कद्र कर सके, लेकिन इस उम्र तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस का दामन पकड़ कर बाकी जिंदगी गुजार दूं,’’ बताते हुए उस औरत की आंखें नम हो गईं.

‘‘कहीं तुम्हारा भी वास्ता साहिबा से पड़ गया, तो जिंदगी नरक बन जाएगी. तुम ने यह नहीं बताया कि तुम्हारी सहेली करती क्या है?’’ उस औरत ने पूछा.

शमा चुप्पी साध गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, तो ठीक है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वह हीरोइन बनने आई थी. अभी उस को किसी फिल्म में काम करने को नहीं मिला, पर आगे उम्मीद है.’’

‘‘फिर तो बड़ा लंबा सफर समझो. मुझे भी लोगों ने लालच दे कर बरगलाया था,’’ कह कर औरत अजीब तरह से हंसी, ‘‘तुम जिस का इंतजार कर रही हो, शायद वह तुम्हें लेने नहीं आएगी, क्योंकि जब अभी वह अपना पैर नहीं जमा सकी, तो तुम्हारी खूबसूरती के आगे लोग उसे पीछे छोड़ देंगे, जो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगी.’’

दोनों को बातें करतेकरते 3 घंटे बीत गए. न तो बारिश रुकी, न शाम तक साहिबा उसे लेने आई. वे दोनों उठ कर एक रैस्टोरैंट में खाना खाने चली गईं.

शमा ने वहां खुल कर बताया कि उस की मां उस की शादी जिस से करना चाहती थीं, वह उसे पसंद नहीं करती. वह बहुत दूर के सपने देखने लगी और अपनी तकदीर आजमाने मुंबई चली आई.

‘‘शमा, बेहतर होगा कि तुम अपने घर लौट जाओ. तुम्हें वह आदमी पसंद नहीं, तो तुम किसी दूसरे से शादी कर के इज्जत की जिंदगी बिताओ, इसी में तुम्हारी भलाई है, वरना तुम्हारी इस खूबसूरत जवानी को मुंबई के गुंडे लूट कर दोजख में तुम्हें लावारिस फेंक देंगे, जहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई न होगा.’’

शमा उस औरत से प्रभावित हो कर उस के पैरों पर गिर पड़ी और वापस जाने की मंसा जाहिर की.

‘‘अगर तुम इस ग्लैमर की दुनिया में कदम न रखने का फैसला कर घर वापस जाने को राजी हो गई हो, तो मैं यही समझूंगी कि तुम एक जहीन लड़की थी, जो पाप के दलदल में उतरने से बच गई. मैं तुम्हारे वापसी टिकट का इंतजाम करा दूंगी,’’ उस औरत ने कहा.

शमा घर लौट कर अपनी बूढ़ी मां सईदा की बांहों में लिपट कर खूब रोई.

आखिरकार शमा रफीक से शादी करने को राजी हो गई.

मां ने भी शमा की शादी बड़े ही धूमधाम से करा दी.

अब रफीक और शमा खुशहाल जिंदगी के सपने बुन रहे हैं. शमा भी पिछली बातें भूलने की कोशिश कर रही है.

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