Story-in-Hindi
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‘‘इहा, यह क्या किया तुम ने?’’
‘‘धरम, यह सिर्फ मैं ने किया है, तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? क्या तुम इस में शामिल नहीं थे?’’
‘‘वह तो ठीक है, पर मैं ने कहा था न तुम्हें सावधानी बरतने को.’’
‘‘सच मानो धरम, मैं ने तो सावधानी बरती थी. फिर यह कैसे हुआ, मु झे भी आश्चर्य हो रहा है.’’
‘‘तुम कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकती हो.’’
‘‘डौंट वरी. कोई न कोई हल तो निकल ही आएगा हमारी प्रौब्लम का.’’
‘‘हम दोनों को ही सोचविचार कर कोई रास्ता निकालना होगा.’’
इहा मार्टिन और धर्मदास दोनों उत्तरी केरल के एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से बायोकैमिस्ट्री में मास्टर्स कर रहे थे. इहा धर्मदास को धरम कहा करती थी. वह कैथोलिक क्रिश्चियन थी जबकि धर्मदास उत्तर प्रदेश के साधारण ब्राह्मण परिवार से था. उस के पिता का देहांत हो गया था और उस की मां गांव में रहती थी. पिता वहीं स्कूल मास्टर थे. धरम के पिता कुछ खेत छोड़ गए थे. गांव में उन की काफी इज्जत थी. उस गांव में ज्यादातर लोग ब्राह्मण ही थे, पिता की पैंशन और खेत की आय से मांबेटे का गुजारा अच्छे से हो जाता था.
करीब एक साल पहले ही इहा और धरम में दोस्ती हुई थी. धरम बीमार पड़ा था और अस्पताल में भरती था. इहा की मां नर्स थीं और पिता कुवैत में किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते थे. इहा की मां ने अस्पताल में धरम का विशेष खयाल रखा और अच्छी तरह देखभाल की थी. इसी दौरान दोनों दोस्त बने और यह दोस्ती कुछ ही दिनों में प्यार में बदल गई.
इसी प्यार का बीज इहा की कोख में पल रहा था. उन दोनों के फाइनल एग्जाम निकट थे. अचानक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस के बारे में दोनों को तनिक भी उम्मीद नहीं थी. एग्जाम खत्म होने को थे. एक दिन धरम ने इहा से कहा, ‘‘मैं परीक्षा के बाद मां के पास गांव जा रहा हूं. उन से सारी बात बता कर तुम से शादी करने की अनुमति मांगूंगा. तुम ने भी अपनी मम्मी को नहीं बताया होगा अभी तक?’’
‘‘नहीं, मैं ने अभी तक तो कुछ नहीं कहा है पर औरतों के साथ यही तो परेशानी है कि यह बात ज्यादा दिनों तक छिपाई नहीं जा सकती है. तुम ने अभी अनुमति की बात कही है तो क्या यह सब करने से पहले तुम ने उन से अनुमति ली थी?’’
‘‘अब तुम ताने न मारो. मु झे पूरी उम्मीद है, मां मेरी बात मान लेंगी.’’
‘‘अगर नहीं मानीं, तब क्या करोगे?’’
‘‘फिर तो हमें कोर्ट मैरिज करनी होगी.’’
‘‘हां, यह हुई न मर्दों वाली बात. अपना वादा भूल न जाना, मैं इंतजार करूंगी.’’
‘‘नहीं, भूल कैसे सकता हूं? एक भूल तो कर चुका हूं, दूसरी भूल नहीं करूंगा.’’
इहा को आश्वासन दे कर धरम अपने गांव चला गया. इहा को तो उस ने भरोसा दिला रखा था पर उसे खुद अपनी मां पर इस बात के लिए भरोसा नहीं था. वहां उस ने मां को इहा के बारे में बताया और अपनी शादी का इरादा भी जताया. पर मां यह सब सुनते ही आगबबूला हो उठीं. वे बोलीं, ‘‘तुम्हें पता है कि हम ब्राह्मण हैं और यह गांव भी ब्राह्मणों का है. तुम्हारे पिता की यहां कितनी इज्जत थी और आज भी उन का नाम लोग यहां आदर के साथ लेते हैं. ऐसा कदम उठाने से पहले तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि ईसाई से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती है.’’
‘‘मां, अब जमाना बदल चुका है. ये सब पुरानी बातें हैं.’’
‘‘जमाना बदल गया होगा पर हम अभी नहीं बदले हैं और न बदलेंगे. मेरे जीतेजी यह नहीं हो सकता. हां, तुम चाहो तो मु झ से नाता तोड़ कर या मु झे मरा सम झ कर उस बदजात से शादी कर सकते हो.’’
‘‘मां, पर उस बेचारी का क्या होगा? कुसूर तो सिर्फ उस का नहीं था?’’
‘‘जिस का भी कुसूर हो, मैं कुछ नहीं जानती. अगर उस से शादी करनी है तो तुम मु झे और इस गांव को सदा के लिए छोड़ कर जा सकते हो.’’
‘‘नहीं मां, मैं तुम्हें भी नहीं छोड़ सकता हूं.’’
‘‘उस लड़की को बोलो, अबौर्शन करा ले और यह सब भूल कर अपनी जातिधर्म में शादी कर ले.’’
‘‘मां, यह इतना आसान नहीं है. वह कैथोलिक ईसाई है. उस का समाज ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है.’’
‘‘मैं ने अपना फैसला बता दिया है, अब आगे तेरी मरजी.’’
इस बीच इहा ने धरम को फोन कर पूछा, ‘‘तुम्हारी मां ने क्या फैसला किया है?’’
‘‘मैं अभी तक उन्हें मना नहीं सका हूं, पर थोड़ा और समय दो मु झे. कोशिश कर रहा हूं.’’
‘‘पर तुम ने तो कहा था कि ऐसी स्थिति में कोर्ट मैरिज कर लोगे?’’
‘‘कहा तो था, मां ने भी मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं. इस उम्र में उन्हें म झधार में छोड़ भी नहीं सकता हूं. तुम ने अपनी मम्मी को कुछ बताया है या नहीं?’’
‘‘नहीं, पर अब छिपाना भी मुश्किल है. तीसरा महीना चढ़ आया है.’’
‘‘थोड़ी और हिम्मत रखो. मैं वहां आने की कोशिश करता हूं.’’
धरम की मां के गिरने से उन के कमर की हड्डी टूट गई और वे बिस्तर पर आ गईं. डाक्टर ने कहा कि कम से कम 3 महीने तो लग ही जाएंगे. इधर इहा की हालत देख कर उस की मम्मी को कुछ शक हुआ और उन्होंने बेटी से पूछा, ‘‘सच बता, क्या बात है? तुम कुछ छिपाने की कोशिश कर रही हो?’’
इहा को सच बताने का साहस नहीं हुआ. उसे चुप देख कर मम्मी का शक और गहराने लगा और वह बोली, ‘‘तु झे मेरी जान की कसम. तुम क्या छिपा रही हो?’’
इहा ने रोतेरोते सचाई बता ही दी. मां बोली, ‘‘तुम ने समाज में मु झे सिर उठा कर चलने लायक नहीं छोड़ा है. कलमुंही, तेरे पापा यह सुनेंगे तो उन पर क्या बीतेगी. दिल की बीमारी के बावजूद विदेश में वे दिनरात मेहनत कर पैसे इकट्ठा कर रहे हैं ताकि तेरी पढ़ाई का कर्ज उतार सकें और तेरी शादी भी अच्छे सेकर सकें.’’
‘‘सौरी मम्मी, मैं ने आप लोगों को दुख दिया है.’’
‘‘तेरे सौरी कहने मात्र से क्या होने वाला है. तेरे पापा का कौंट्रैक्ट भी 10 महीने में खत्म होने वाला है. वे यह सब देख कर क्या कहेंगे?’’
‘‘मैं धरम से बात करती हूं,’’ इहा रोते हुए बोली.
इहा ने धरम को फोन किया तो वह बोला, ‘‘फिलहाल 3 महीने तक मैं नहीं आ सकता हूं. तुम किसी तरह अबौर्शन करा लो. उस के बाद मैं आ कर सब ठीक कर दूंगा.’’
‘‘तुम जानते हो कि हमारा धर्म इस की इजाजत नहीं देता है. और अगर मैं गलत तरीके से अबौर्शन करा लेती हूं, तब तुम आ कर क्या कर लोगे? और तुम क्या सम झते हो, मैं तुम पर आगे भरोसा कर सकूंगी?’’
आगे पढ़ें- मैं भी मजबूर हूं, इहा …
रविवार को ईशा ने फूलों की प्रिंट वाली ड्रेस के साथ हाई हील्स पहनी और अपने बालों को हाई पोनीटेल में बांध लिया. इस वेषभूषा में वो अपनी साड़ी वाली छवि से बिलकुल उलट लग रही थी. इस नए अवतार में निशांत ने उसे देखा तो वह पूरे जोर-शोर से ईशा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. उसे लगने लगा मानो ईशा उसे अपने व्यक्तित्व का हर रंग दिखाना चाहती है. पाश्चात्य परिधान में उसे देखकर निशांत उस पर और भी मोहित हो गया, “अरे रे रे, मैं तो तुम्हें भारतीय नारी समझा था पर तुम तो दो धारी तलवार निकलीं. बेचारा मयूर! उसके पास तो ऐसी तलवार के लायक कमान भी नहीं है”, धीरे से ईशा के कानों में फुसफुसा कर कहता हुआ निशांत साइड से निकल गया.
मन ही मन ईशा हर्षाने लगी. शादीशुदा होने के उपरांत भी उसमें आशिक बनाने की कला जीवित थी, यह जानकार वह संतुष्ट हुई. उसपर ऐसा भी नहीं था कि निशांत, मयूर की आँख बचाकर यह सब कह रहा था. उस दिन निशांत, मयूर के सामने भी कई बार ईशा से फ्लर्ट करने की कोशिश करता रहा और मयूर हँसता रहा.
घर लौटते समय ईशा ने मयूर से निशांत की शिकायत की, “देखा तुमने, निशांत कैसे फ़्लर्ट करने की कोशिश करता है.” वह नहीं चाहती थी कि मयूर के मन में उसके प्रति कोई गलतफहमी हो जाए.
ईशा की बात को मयूर ने यह कहकर टाल दिया, “निशांत तो है ही मनमौजी किस्म का लड़का. और फिर तुम उसकी भाभी लगती हो. देवर भाभी में तो हँसी-मजाक चलता रहता है. पर तुम उसे गलत मत समझना, वह दिल का बहुत साफ और नेक लड़का है.”
अगले हफ्ते मयूर कंपनी के काम से दूसरे शहर टूर पर गया. हर रोज की तरह ईशा दोपहर में कुछ देर सुस्ता रही थी कि अचानक दरवाजे की घंटी बजी. किसी कोरियर बॉय की अपेक्षा करती ईशा ने जब दरवाजा खोला तो सामने निशांत को खड़ा देख वह हतप्रभ रह गई, “तुम… इस वक्त यहां? लेकिन मयूर तो ऑफिस के काम से बाहर गए हैं.”
“मुझे पता है. मैं तुमसे ही मिलने आया हूं. अंदर नहीं बुलाओगी”, निशांत की साफगोई पर ईशा मन ही मन मोहित हो उठी. ऊपर से चेहरे पर तटस्थ भाव लिए उसने निशांत को अंदर आने का इशारा किया और स्वयं सोफे पर बैठ गई.
निशांत ठीक उसके सामने बैठ गया, “अरे यार, तुम्हारे यहां घर आए मेहमान को चाय-कॉफी पूछने का रिवाज नहीं है क्या?”
“मैंने सोचा ऑफिस के टाइम पर यहां आए हो तो ज़रूर कोई खास बात होगी. पहले वही सुन लूं”, ईशा ने अपने बालों में उँगलियाँ घुमाते हुए कहा. निशांत के साथ ईशा का बातों में नहले पर दहला मारना दोनों को पसंद आने लगा. आँखों ही आँखों के इशारे और जुबानी जुगलबाजी उनकी छेड़खानी में नए रंग भरते.
“खास बात नहीं, खास तो तुम हो. सोचा मयूर तो यहां है नहीं, तुम्हारा हालचाल पूछता चलूं”, निशांत के चेहरे पर लंपटपने के भाव उभरने लगे.
“मैं अपने घर में हूं. मुझे भला किस बात की परेशानी?”, ईशा ने दो-टूक बात की. वो देखना चाह रही थी कि निशांत कहाँ तक जाता है.
“ईशा, तुम शायद मुझे गलत समझती हो इसीलिए मुझसे यूं कटी-कटी रहती हो. क्या मैं तुम्हें हैंडसम नहीं लगता?”, संभवतः निशांत को अपने सुंदर रंग रूप का आभास भली प्रकार था.
“ऐसी कोई बात नहीं. असल में, निशांत, तुम मयूर के दोस्त हो, मेरे नहीं.”
“यह कैसी बात कह दी तुमने? दोस्ती करने में कितनी देर लगती है… फ्रेंड्स?”, कहते हुए निशांत ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो प्रतिउत्तर में ईशा ने अदा से अपना हाथ निशांत के हाथ में दे दिया. “ये हुई न बात”, कह निशांत पुलकित हो उठा.
फिर कॉफी पीकर, कुछ देर बैठकर निशांत लौट गया. आज पहली मुलाक़ात में इतना पर्याप्त था – दोनों ने अपने मन में यही सोचा. निशांत को आगे बढ्ने में कोई संकोच नहीं था किन्तु वो ईशा के दिल के अंदर की बात नहीं जनता था. इतनी जल्दी वो कोई खतरा उठाने के मूड में नहीं था. कहीं ईशा उसपर कोई आरोप लगा दे तो उसकी क्या इज्ज़त रह जाएगी समाज में! उधर ईशा विवाहिता होने के कारण हर कदम फूँक-फूँक कर रखने के पक्ष में थी. वैसे भी निशांत, मयूर का मित्र है. उसकी अनुपस्थिति में आया है. कहीं ऐसा न हो कि इसे मयूर ने ही भेजा हो… ईशा के मन में कई प्रकार के विचार आ रहे थे. दुर्घटना से देर भली!
मयूर के लौटने पर ईशा ने उसे निशांत के आने की बात स्वयं ही बता दी. मयूर को ज़रा-सा अटपटा लगा, “अच्छा! मेरी गैरहाजरी में क्यूँ आया?” उसकी प्रतिक्रिया से ईशा आश्वस्त हो गयी कि निशांत के आने में मयूर का कोई हाथ नहीं. फिर उसने स्वयं ही बात संभाल ली, “मैं खुश हुई निशांत के आने से. कम से कम तुम्हारे यहाँ ना होने पर इस नए शहर में मेरी खैर-खबर लेने वाला कोई तो है.” ईशा की बात से मयूर शांत हो गया. “निशांत सच में तुम्हारा एक अच्छा मित्र है”, ईशा ने बात की इति कर दी.
अब ईशा के फोन पर निशांत के कॉल अक्सर आने लगे. सावधानी बरतते हुए उसने नंबर याद कर लिया पर अपने फोन में सेव नहीं किया. ऐसे में कभी उसका फोन मयूर के हाथ लग भी जाए तो बात खुलने का कोई डर नहीं.
किन्तु ऐसे संबंध मन की चपलता को जितनी हवा देते हैं, मन के अंदर छुपी शांति को उतना ही छेड़ बैठते हैं. एक दिन मयूर के फोन पर निशांत का कॉल आया. मयूर बाथरूम में था. ईशा ने देखा कि निशांत का कॉल है तो उसका दिल फोन उठाने का कर गया. “मयूर, तुम्हारे लिए निशांत का कॉल है. कहो तो उठा लूँ?”, ईशा ने बाथरूम के बाहर से पुकारा.
“रहने दो, मैं बाहर आकर कर लूँगा”, मयूर से इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी ईशा को.
दिल के हाथों मजबूर उसने फोन उठा लिया. “हेलो”, बड़े नज़ाकत भरे अंदाज़ में उसने कहा तो निशांत भी मचल उठा, “पता होता कि फोन पर आपकी मधुर आवाज़ सुनने को मिल जाएगी तो ज़रा तैयार होकर बैठता.” निशांत ने फ़्लर्ट करना शुरू कर दिया.
ईशा मुस्कुरा उठी. वो कुछ कहती उससे पहले मयूर पीछे से आ गया, “किससे बात कर रही हो?”
“बताया तो था कि निशांत का कॉल है.”
“मैंने तुम्हें फोन उठाने के लिए मना किया था. मैं बाद में कॉल कर लेता. खैर, अब लाओ मुझे दो फोन”, मयूर के तल्खी-भरी स्वर ने ईशा को डगमगा दिया. उसने सोचा नहीं था कि मयूर उससे इस सुर में बात करेगा.
“क्या मयूर को निशांत और मुझ पर शंका होने लगी है? क्या मयूर ने कभी निशांत का कोई मेसेज पढ़ लिया मेरे फोन पर? पर मैं तो सभी डिलीट कर देती हूँ. कहीं गलती से कभी कोई छूट तो नहीं गया…”, ईशा के मन में अनगिनत खयाल कौंधने लगे. निशांत से रंगरलियों में ईशा को जितना आनंद आने लगा उतना ही मयूर के सामने आने पर बात बिगड़ जाने का डर सताने लगा. जैसे उस दिन जब ईशा और निशांत एक कैफ़े में मिले थे तब कैसे ईशा ने निशांत को एक भी पिक नहीं खींचने दी थी. ये चोरी पकड़े जाने का डर नहीं तो और क्या था!
अगले दिन निशांत की ज़िद पर ईशा फिर उससे मिलने चल दी. सोचा “आज निशांत से मिलना भी हो जाएगा और रिटेल थेरेपी का आनंद भी ले लूँगी”, तैयार होकर ईशा शहर के चुनिंदा मॉल पहुँची. जब तक निशांत पहुँचता, उसने थोड़ी विंडो शॉपिंग करनी शुरू की कि किसी ने उसका बाया कंधा थपथपाया. पीछे मुड़ी तो सागरिका को सामने देख जड़ हो गई.
“अरे, क्या हुआ, पहचानना भी भूल गई क्या? ऐसा तो नहीं होना चाहिए शादी के बाद कि अपनी प्यारी सहेली को ही भुला बैठे”, सागरिका बोल उठी. वह वहां खड़ी खिलखिलाने लगी लेकिन ईशा उसे अचानक सामने पा थोड़ी हतप्रभ रह गई. फिर दोनों बचपन की पक्की सहेलियां गले मिलीं और एक कॉफी शॉप में बैठकर गप्पे लगाने लगीं. अपनी शादीशुदा जिंदगी के थोड़े बहुत किस्से सुनाकर ईशा, सागरिका से उसका हाल पूछने लगी.
“क्या बताऊं, ईशु, हेमंत मेरी जिंदगी में क्या आया बहार आ गई. उस जैसा जीवनसाथी शायद ही किसी को मिले. मेरी इतनी प्रशंसा करता है, हर समय साथ रहना चाहता है. आज भी मुझे लेने आने वाला है. तुम भी मिल लेना”, सागरिका ने बताया.
“नहीं-नहीं सागू, मुझे लेट हो जाएगा. मुझे निकलना होगा”, ईशा, हेमंत की शक्ल नहीं देखना चाहती थी. वह तुरंत वहाँ से घर के लिए निकल गई. रास्ते में निशांत को फोन करके अचानक तबीयत बिगड़ जाने का बहाना बना दिया. रास्ते भर ईशा विगत की गलियों से गुजरते हुए अपने कॉलेज के दिनों में पहुँच गई जब बहनों से भी सगी सखियों सागरिका और ईशा के सामने हेमंत एक छैल छबीले लड़के के रूप में आया था. ऊंची कद काठी, एथलेटिक बॉडी, बास्केटबॉल चैंपियन और पूरे कॉलेज का दिल मोह लेने वाला. ईशा की दोस्ती जल्दी ही हेमंत से हो गई क्योंकि ईशा को स्वयं भी बास्केटबॉल में रुचि थी. वह हेमंत से बास्केटबॉल खेलने के पैंतरे सीखने लगी. फिर सागरिका के कहने पर निकट आते वैलेंटाइंस डे पर ईशा ने हेमंत से अपने दिल की बात कहने की ठानी. किंतु वैलेंटाइंस डे से पहले रोज डे पर हेमंत ने सागरिका को लाल गुलाब देकर अचानक प्रपोज कर दिया. ईशा के साथ-साथ सागरिका भी हक्की बक्की रह गई. कुछ कहते ना बना. बाद में अकेले में ईशा ने अपने दिल को समझा लिया कि हेमंत की तरफ से कभी कोई संदेश नहीं आया था और ना ही उसने कभी उससे कुछ ऐसा कहा था. वो दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त थे.
कमबख्त, घंटी बजती जा रही थी और वौइस मैसेज पर जा कर थम जाती, तो वह झल्ला कर फोन काट देती. पता नहीं, डेविड फोन क्यों नहीं उठा रहा है, कुछ सोच कर उस ने फोन रख दिया. अपने दफ्तर के बालकनी में वह इधरउधर घूमने लगी. फिर सोचा, क्यों न मम्मीपापा को फोन करूं? रिंग जाने लगी लेकिन वहां भी कोई फोन नहीं उठा रहा था.
वह मन में सोचने लगी. यह क्या बात है, मैं इतनी बड़ी खबर बताना चाहती हूं और कोई फोन उठा ही नहीं रहा है. जब कोई बात नहीं होती तो घंटों बिना मतलब की बातें करते हैं और बारबार कहते हैं, ‘‘और बताओ क्या चल रहा है?’’
आज जब बात है तो कोई सुनने वाला नहीं है.
तभी जैनेटर कूड़ा उठाने के लिए आई और एक मुसकान के साथ में बोली, ‘‘हाउ आर यू?’’ अब तो मौली के पेट में गुड़गुड़ होने लगी और पेट में दबी बात बाहर आने के लिए छटपटाने लगी. आखिर में उस ने अपने को रोका और सिर्फ इतना ही बोल पाई, ‘‘गुड, ऐंड यू?’’ उस ने जवाब में अंगूठे और तर्जनी को मिलाया और एक वी शेप बनाते हुए अपने ठीकठाक होने का संकेत देते हुए ‘हैव ए नाइस डे…’ का रटारटाया संवाद कह कर चलती बनी.
उस ने सोचा कि अच्छा ही हुआ जो उसे कुछ नहीं बताया. नहीं तो सारा मजा किरकिरा हो जाता. वह अपनी मशीनी मुसकान के साथ मुबारकबाद देती और चली जाती. अपनी खास बात वह सब से पहले उन लोगों को बताना चाहती थी जो इसे उसी की तरह महसूस कर सकें.
उस का मन हुआ फोन पर मैसेज भेज दूं लेकिन फिर वह रुक गई क्योंकि वह उस ऐक्साइटमैंट को नहीं सुन पाएगी जो वह शब्दों से सुनना चाह रही थी. तभी फोन की घंटी घनघना उठी.
उस ने थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘कहां थे? इतनी देर से फोन मिला रही थी?’’
‘‘कहां हो सकता हूं? जेलर हूं. राउंड पर तो जाना ही पड़ता है,’’ डेविड की आवाज में थोड़ी झुं झलाहट थी.
‘‘अच्छा तो यहां भी एक राउंड लगाने आ जाओ,’’ आवाज में मधु घोलते हुए उस ने कहा.
‘‘क्या बात है आज तो बड़ी रोमांटिक हो रही हो?’’
‘‘क्या लंच पर मिलें. ब्राइटस्ट्रीट पर?’’
‘‘नहीं यार, आज बहुत काम है.’’
देख लो, मु झे तुम्हें कुछ बताना है. बहुत खास बात है.’’
उस की आवाज की गुदगुदी और खुशी को महसूस करते हुए वह बोला, ‘‘अच्छा ठीक है चलो मिलते हैं 12 बजे.’’
फिर दोनों अपनेअपने काम में मशगूल हो गए. मौली अपनी मीटिंग जल्दीजल्दी निबटाने लगी और बराबर घड़ी भी देखती जाती. जैसे
12 बज जाएंगे और उसे पता नहीं चलेगा. उस ने काम इतनी रफ्तार से खत्म किया कि पौने 12 बजे ही लंच पर पहुंच गई और बैठते ही एक लैमनेड और्डर कर दिया. करने को कुछ नहीं था तो अपने मोबाइल से डेविड को संदेश पर संदेश भेजने लगी.
‘‘कहां हो? जल्दी आओ यार.’’
जब वह आया तो उस ने पूछा, ‘‘भई, ऐसी क्या बेताबी थी कि तुम ने यहां मिलने के लिए बुला लिया?’’
‘‘पति महोदय, इतनी आसानी से तो मैं नहीं बता दूंगी,’’ मौली मुसकराती हुई बोली.
‘‘तुम्हें प्रमोशन मिला है क्या?’’
‘‘उस ने ‘न’ में सिर हिला दिया.’’
‘‘अच्छा पहले बताओ. दफ्तर की खबर है या घर की?’’
‘‘घर की.’’
‘‘अच्छा…’’
‘‘तुम ने नया सोफा और्डर कर दिया है जिस के बारे में तुम बोल रही थीं?’’
‘‘उफ, तुम भी कितने बोरिंग हो. नए सोफे के लिए कौन इतना ऐक्साइटेड होता है?’’
‘‘क्या तुम्हारी बहन आ रही है?’’
‘‘नहीं, बाबा.’’
‘‘फिर तुम्हारे घर से कोई और आ रहा है क्या?’’
‘‘नहीं, जी,’’ मौली इतराते हुए बोली, ‘‘अच्छा, मैं हार गया अब बताओ.’’
मौली से अब और नहीं रोका जा रहा था, ‘‘हम पेरैंट्स बनने वाले हैं,’’ उस ने लगभग चीखते हुए कहा.
आसपास के लोग उन की तरफ देखने लगे और कुछ लोगों ने तो बाकायदा ताली बजाते हुए मुबारकबाद भी दे दी.
लजाते हुए गुलाबी हो आए गालों पर हाथ रखते हुए उस ने सब को ‘शुक्रिया’ कहा.
डेविड सामने की सीट से उठ कर उस के पास आ गया और उसे गले से लगा लिया.
फिर उस के हाथ सरकते हुए मौली के पेट पर आ कर रुक गए.
देर तक डेविड मौली की आंखों में देखता रहा उस की आंखें गीली हो गईं. उसे लगा वह रो देगा. मौली की आंखों में भी नमी थी.
उस ने कहा, ‘‘मु झे लग रहा था कि यही बात है.’’
‘‘तो पहले क्यों नहीं बताया, बुद्धू.’’
‘‘मु झे लगा कि अगर यह सच नहीं हुआ तो तुम परेशान हो जाओगी,’’ डेविड ने मौली के होंठों को चूमते हुए कहा.
तभी वहां वेटर आया और दोनों ने फलाफल और सैंडविच और्डर किया और अपने इन खुशी के पलों को बारबार जीने की कोशिश करने लगे. आज दोनों बहुत खुश हैं मानो जिंदगी में सबकुछ मिल गया हो.
मौली ने कहा, ‘‘देखो, अभी सितंबर का महीना है तो हमारा बच्चा जून में होगा. जून में तो हमारी छुट्टियां भी होती हैं और मेरी मां के स्कूल भी बंद होते हैं, वे भी हमारे पास रहने आ सकती हैं. कितना अच्छा होगा कि हमारे बच्चे को नानी का साथ मिलेगा. क्या जिंदगी में कुछ इतना परफैक्ट होता है? कुदरत ने हमें सबकुछ कितना सोचसम झ कर दिया है.’’
डेविड ने मुसकरा कर उस की बात का समर्थन किया. डेविड मौली की किसी भी बात को नहीं काटना चाहता था जो वह कहती उसे खुशी से स्वीकृति दे देता. उसे मालूम है कि मौली के लिए उस की स्वीकृति कितनी जरूरी है.
क्रिसमस को डेविड की मां भी जरमनी से आ गईं. मौली उन को ज्यादा पसंद नहीं करती थी. उसे लगता था कि वे उन की जिंदगी में बहुत दखल देती हैं. भई, सभी लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहते हैं.
मौली ने डेविड से साफ कह दिया था कि तुम्हारी मां बहुत कड़क स्वभाव वाली हैं और उन का हुक्म बजाना मु झ से नहीं हो पाएगा. तब से डेविड कोशिश करता था कि मौली और मां को दूर रखा जाए लेकिन बच्चे की खबर सुन कर उस की मां मिलने चली आईं और इस अवसर पर उन्हें रोकना डेविड को उचित भी नहीं लगा था.
वे आईं तो उन्होंने मौली का खूब ध्यान रखा और उसे खानेपीने की पौष्टिक चीजें खिलाती रहीं.
इस बार मौली और मां में खूब बन रही थी. दोनों जब भी साथ होतीं तो खिलखिलाती रहतीं. अभी टीवी पर खबर आ रही थी कि चीन में नोवल कोरोना वायरस पाया गया है. इसलिए पूरे वुहान शहर को ही बंद कर दिया गया है. दोनों खबर देख कर पेट पकड़ कर हंसने लगीं कि भला किसी शहर को यों भी लौकडाउन किया जा सकता है. कितने बेवकूफ हैं?
मौली बोली, ‘‘अगर यहां ऐसा हो तो मैं तो मर ही जाऊं.’’
मां ने कहा, ‘‘जाने कैसेकैसे लोग हैं, चमगादड़ तक को नहीं छोड़ते.’’
‘‘कुत्ते और बिल्ली कम पड़ गए होंगे,’’ कह कर दोनों देर तक हंसती रहीं.
फिर एक दिन जब मौली ने कहा कि उस की मां एक बेबी शौवर रखना चाहती हैं तो उन्होंने कहा, ‘‘जरमन में लोग कहते हैं पहले बच्चे में बेबी शौवर नहीं करना चाहिए.’’
मौली को यह बात नागवार गुजरी. अब वह किस संस्कृति के तौर तरीके अपनाए अमेरिकी या जरमनी? हालांकि मौली का पेट दिखने लगा था और अब तो 5 महीने गुजर चुके थे और सब को बताना सेफ था. जाने क्या सोच कर उस ने सास की बात रख ली और बेबी शावर नहीं रखा, बस फोन पर अपने खास जानने वालों को खबर कर दी.
सर्दी में मौली अपना खास ध्यान रखने लगी और जाने कितने ही लेख और किताबें गर्भावस्था पर पढ़ डालीं. अपने पहले बच्चे के लिए जितनी तैयारी कर सकती थी कर ली. लेकिन कोरोना के कहर के बारे में रोज सुनसुन के उस के कान पक गए थे. क्या है यह कोरोना और कैसे फैलता है किसी को ठीक से नहीं मालूम था.
जल्दी ही नर्सिंगहोम में सब को एक ज्ञापन मिला कि सभी कर्मचारियों के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है, तो मौली को यह सम झने में बहुत मुश्किल आई कि क्यों जरूरी है? वह तो नर्सिंगहोम में एक फाइनैंशियल औफिसर है और उस का डाक्टर और नर्स से इतना वास्ता भी नहीं पड़ता. उसे ज्यादातर इंश्योरैंस कंपनी के साथ ही बातचीत करनी होती थी या मरीजों के क्लेम फाइल करने होते थे जिसे वह नर्सिंगहोम में ही बने हुए अपने एक अंडरग्राउंड दफ्तर में बैठ कर करती थी जिस में उस के साथ 3 और लोग भी थे.
अब इस कोरोना की मुसीबत की वजह से उसे पूरे दिन मास्क लगाके और बारबार हैंड सैनिटाइजर से हाथ रगड़ने पड़ते थे. हर 1 घंटे में वह दफ्तर के बाहर आ बैठती और एक पेड़ के नीचे मास्क हटा कर लंबीलंबी सांस लेती. उस की सांसें वैसे भी बहुत फूलती हैं लंबेचौड़े कद और भरेभरे बदन वाली तो वह पहले से ही थी.
रामचंद्र भी जीवट का आदमी था. न कोई घिन न अनिच्छा. पूरी लगन, निष्ठा और निस्वार्थ भाव से उन का मलमूत्र उठा कर फेंकने जाता. बाबू साहब ने उसे कई बार कहा कि वह कोई मेहतर बुला लिया करे. सुबहशाम आ कर गंदगी साफ कर दिया करेगा, पर रामचंद्र ने बाबू साहब की बातों को अनसुना कर दिया और खुद ही उन का मलमूत्र साफ करता रहा. उन्हें नहलाताधुलाता और साफसुथरे कपड़े पहनाता. उस की बीवी उन के गंदे कपड़े धोती, उन के लिए खाना बनाती. रामचंद्र खुद स्नान करने के बाद उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाता. अपने सगे बहूबेटे क्या उन की इस तरह सेवा करते? शायद नहीं…कर भी नहीं सकते थे. बाबू साहब मन ही मन सोचते.
बाबू साहब उदास मन लेटेलेटे जीवन की सार्थकता पर विचार करते. मनुष्य क्यों लंबे जीवन की आकांक्षा करता है, क्यों वह केवल बेटों की कामना करता है? बेटे क्या सचमुच मनुष्य को कोई सुख प्रदान करते हैं? उन के अपने बेटे अपने जीवन में व्यस्त और सुखी हैं. अपने जन्मदाता की तरफ से निर्लिप्त हो कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जैसे अपने पिता से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.
और एक तरफ रामचंद्र है, उस की बीवी है. इन दोनों से उन का क्या रिश्ता है? उन्हें नौकर के तौर पर ही तो रखा था. परंतु क्या वे नौकर से बढ़ कर नहीं हैं? वे तो उन के अपने सगे बेटों से भी बढ़ कर हैं. बेटेबहू अगर साथ होते, तब भी उन का मलमूत्र नहीं छूते.
जब से वे पूरी तरह अशक्त हुए हैं, रामचंद्र अपने घर नहीं जाता. अपनी बीवी के साथ बाबू साहब के मकान में ही रहता है. उन्होंने ही उस से कहा था कि रात को पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए? वह भी मान गया. घर में उस के बच्चे अपनी दादी के साथ रहते थे. दोनों पतिपत्नी दिनरात बाबू साहब की सेवा में लगे रहते थे.
खेतों में कितना गल्लाअनाज पैदा हुआ, कितना बिका और कितना घर में बचा है, इस का पूरापूरा हिसाब भी रामचंद्र रखता था. पैसे भी वही तिजोरी में रखता था. बाबू साहब बस पूछ लेते कि कितना क्या हुआ? बाकी मोहमाया से वह भी अब छुटकारा पाना चाहते थे. इसलिए उस की तरफ ज्यादा ध्यान न देते. रामचंद्र को बोल देते कि उसे जो करना हो, करता रहे. रुपएपैसे खर्च करने के लिए भी उसे मना नहीं करते थे. तो भी रामचंद्र उन का कहना कम ही मानता था. बाबू साहब का पैसा अपने घर में खर्च करते समय उस का मन कचोटता था. हाथ खींच कर खर्च करता. ज्यादातर पैसा उन की दवाइयों पर ही खर्च होता था. उस का वह पूरापूरा हिसाब रखता था.
रात को जगदीश नारायण को जब नींद नहीं आती तो पास में जमीन पर बैठे रामचंद्र से कहते, ‘‘रमुआ, हम सभी मिथ्या भ्रम में जीते हैं. कहते हैं कि यह हमारा है, धनसंपदा, बीवीबच्चे, भाई- बहन, बेटीदामाद, नातीपोते…क्या सचमुच ये सब आप के अपने हैं? नहीं रे, रमुआ, कोई किसी का नहीं होता. सब अपनेअपने स्वार्थ के लिए जीते हैं और मिथ्या भ्रम में पड़ कर खुश हो लेते हैं कि ये सब हमारा है,’’ और वे एक आह भर कर चुप हो जाते.
रामचंद्र मनुहार भरे स्वर में कहता, ‘‘मालिक, आप मन में इतना दुख मत पाला कीजिए. हम तो आप के साथ हैं, आप के चाकर. हम आप की सेवा मरते दम तक करेंगे और करते रहेंगे. आप को कोई कष्टतकलीफ नहीं होने देंगे.’’
‘‘हां रे, रमुआ, एक तेरा ही तो आसरा रह गया है, वरना तो कब का इस संसार से कूच कर गया होता. इस लाचार, बेकार और अपाहिज शरीर के साथ कितने दिन जीता. यह सब तेरी सेवा का फल है कि अभी तक संसार से मोह खत्म नहीं हुआ है. अब तुम्हारे सिवा मेरा है ही कौन?
‘‘मुझे अपने बेटों से कोई आशा या उम्मीद नहीं है. एक तेरे ऊपर ही मुझे विश्वास है कि जीवन के अंतिम समय तक तू मेरा साथ देगा, मुझे धोखा नहीं देगा. अब तक निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा करता आ रहा है. बंधीबंधाई मजदूरी के सिवा और क्या दिया है मैं ने?’’
‘‘मालिक, आप की दयादृष्टि बनी रहे और मुझे क्या चाहिए? 2 बेटे हैं, बड़े हो चुके हैं, कहीं भी कमाखा लेंगे. एक बेटी है, उस की शादी कर दूंगा. वह भी अपने घर की हो जाएगी. रहा मैं और पत्नी, तो अभी आप की छत्रछाया में गुजरबसर हो रहा है. आप के न रहने पर आवंटन में जो 2 बीघा बंजर मिला है, उसी पर मेहनत करूंगा, उसे उपजाऊंगा और पेट के लिए कुछ न कुछ तो पैदा कर ही लूंगा.’’
एक तरफ था रामचंद्र…उन का पुश्तैनी नौकर, सेवक, दास या जो भी चाहे कह लीजिए. दूसरी तरफ उन के अपने सगे बेटेबहू. उन के साथ खून के रिश्ते के अलावा और कोई रिश्ता नहीं था जुड़ने के लिए. मन के तार उन से न जुड़ सके थे. दूसरी तरफ रामचंद्र ने उन के संपूर्ण अस्तित्व पर कब्जा कर लिया था, अपने सेवा भाव से. उस की कोई चाहत नहीं थी. वह जो भी कर रहा था, कर्तव्य भावना के साथ कर रहा था. वह इतना जानता था कि बाबू साहब उस के मालिक हैं, वह उन का चाकर है. उन की सेवा करना उस का धर्म है और वह अपना धर्म निभा रहा था.
बाबू साहब के पास उन के अपने नाम कुल 30 बीघे पक्की जमीन थी. 20 बीघे पुश्तैनी और 10 बीघे उन्होंने स्वयं खरीदी थी. घर अपनी बचत के पैसे से बनवाया था. उन्होेंने मन ही मन तय कर लिया था कि संपत्ति का बंटवारा किस तरह करना है.
उन के अपने कई दोस्त वकील थे. उन्होंने अपने एक विश्वस्त मित्र को रामचंद्र के माध्यम से घर पर बुलवाया और चुपचाप वसीयत कर दी. वकील को हिदायत दी कि उस की मृत्यु पर अंतिम संस्कार से पहले उन की वसीयत खोल कर पढ़ी जाए. उसी के मुताबिक उन का अंतिम संस्कार किया जाए. उस के बाद ही संपत्ति का बंटवारा हो.
फिर उन्होंने एक दिन तहसील से लेखपाल तथा एक अन्य वकील को बुलवाया और अपनी कमाई से खरीदी 10 बीघे जमीन का बैनामा रामचंद्र के नाम कर दिया. साथ ही यह भी सुनिश्चित कर दिया कि उन की मृत्यु के बाद इस जमीन पर उन के बेटों द्वारा कोई दावामुकदमा दायर न किया जाए. इस तरह का एक हलफनामा तहसील में दाखिल कर दिया.
यह सब होने के बाद रामचंद्र और उस की बीवी उन के चरणों पर गिर पड़े. वे जारजार रो रहे थे, ‘‘मालिक, यह क्या किया आप ने? यह आप के बेटों का हक था. हम तो गरीब आप के सेवक. जैसे आप की सेवा कर रहे थे, आप के बेटों की भी करते. आप ने हमें जमीन से उठा कर आसमान का चमकता तारा बना दिया.’’
वे धीरे से मुसकराए और रामचंद्र के सिर पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘रमुआ, अब क्या तू मुझे बताएगा कि किस का क्या हक है. तू मेरे अंश से नहीं जन्मा है, तो क्या हुआ? मैं इतना जानता हूं कि मनुष्य के अंतिम समय में उस को एक अच्छा साथी मिल जाए तो उस का जीवन सफल हो जाता है. तू मेरे लिए पुत्र समान ही नहीं, सच्चा दोस्त भी है. क्या मैं तेरे लिए मरते समय इतना भी नहीं कर सकता?
‘‘मैं अपने किसी भी पुत्र को चाहे कितनी भी दौलत दे देता, फिर भी वह मेरा इस तरह मलमूत्र नहीं उठाता. उस की बीवी तो कदापि नहीं. हां, मेरी देखभाल के लिए वह कोई नौकर रख देता, लेकिन वह नौकर भी मेरी इतनी सेवा न करता, जितनी तू ने की है. मैं तुझे कोई प्रतिदान नहीं दे रहा. तेरी सेवा तो अमूल्य है. इस का मूल्य तो आंका ही नहीं जा सकता. बस तेरे परिवार के भविष्य के लिए कुछ कर के मरते वक्त मुझे मानसिक शांति प्राप्त हो सकेगी,’’ बाबू साहब आंखें बंद कर के चुप हो गए.
मनुष्य का अंत समय आता है तो बचपन से ले कर जवानी और बुढ़ापे तक के सुखमय चित्र उस के दिलोदिमाग में छा जाते हैं और वह एकएक कर बाइस्कोप की तरह गुजर जाते हैं. वह उन में खो जाता है और कुछ क्षणों तक असंभावी मृत्यु की पीड़ा से मुक्ति पा लेता है.
‘‘ओहो…, कहां खोई हैं मेरी दीदी?’’ ‘‘ना रे, सोच रही थी तेरी शादी में किस को बुलाऊं, किस को नहीं? तू ही बता किसेकिसे बुलाना चाहेगी? मैं तो समझ नहीं पा रही किसे बुलाना है, किसे नहीं?’’ ‘‘दीदी, मैं समझ रही हूं आप की समस्या. आप विश्वास रखो आप जिसे भी बुलाएंगी वे हमारे शुभचिंतक ही होंगे, न कि हम पर ताने कसने वाले. चाहे वे हमारे पापा ही क्यों न हों. यदि उन्हें हमारी खुशी से खुशी नहीं तो मत ही बुलाइएगा. पर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप कुछ और ही सोच रही हैं.’’ ‘‘अरे नहीं, कोई बात नहीं है. तू एंजौय कर अपनी शादी. तेरी खुशी से बढ़ कर मेरे लिए कोई चिंताफिक्र नहीं.’’
‘‘कुछ तो छिपा रही हो दीदी, क्या अपनी बहन को भी नहीं बताओगी?’’ ‘‘मैं ने कहा न, कोई बात नहीं. क्या मुझे थोड़ी देर आराम करने देगी?’’ मैं झुंझला कर बोली. मैं पहली बार अभिलाषा पर झुंझलाई थी. वह भी असहज हो कर चली गई. मैं कैसे बताती मुझे क्या चिंता खाए जा रही थी? अतीत के पन्ने को फिर से उधेड़ने की हिम्मत अब रही नहीं और उस में उलझ कर निकलने की काबिलीयत भी अब पस्त हो चुकी है. जो मोहित के रहते कभी नमकतेल का भाव न जान सकी थी वह आज आशियाना सजाना चाहती है.
जुगनू की रोशनी जैसा कमल के इश्क को तवज्जुह देती रह गई पूरी जिंदगी. कभी समझ ही नहीं पाई मोहित की खामोशी को. भरसक उस ने मुझे अपने पावर का इस्तेमाल कर के अपनाया था. लेकिन वह पावर भी तो उस का प्यार ही था. कहां मैं एक औरकेस्ट्रा में नाचने वाली खूबसूरत मगर मगरूर लड़की और कहां मोहित ग्वालियर के राजमहल के केयरटेकर का बेटा. काले रंग का गोलमटोल ठिगना जवान. मुझे शुरू से ही पसंद नहीं था. लेकिन उसे पता नहीं किस शो में मैं दिख गई थी और वह मुझ पर फिदा हो गया था. मैं मोहित को कभी प्यार करने की सोच भी नहीं सकती थी. भले ही वह और उस के दोस्तों ने मेरे पिता को लालच की कड़ाही में छौंक दिया हो लेकिन मुझे इंप्रैस न कर सका. मैं तो शादी जैसे लफड़े में पड़ना ही नहीं चाहती थी. लेकिन पापा ने मोहित के साथ शादी के बंधन में बांध दिया. मुझे उन्मुक्त हो कर नाचना था. अपनी मरजी के लड़के से प्यार और फिर शादी करना चाहती थी.
पर इस जबरन में पापा की भी कोई गलती नहीं थी. मेरे आशिकों की बढ़ती तादाद और मिलने वाली प्रशंसा व रुपयों से मेरा ही दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ बैठा था. मैं कला को भूल चुकी थी. मेरे लिए नाचना केवल व्यापार बन कर रह गया था. और व्यापार में सबकुछ जायज होता है. बस, यही मैं समझती थी. और समझतेसमझते इतना गिर गई कि गिरती ही चली गई. कौमार्य कब भंग कर आई, पता ही नहीं चला. पापा की चिंता और फैसला दोनों ही अपनी जगह जायज थे परिस्थिति के अनुसार. और शादी कर मैं ग्वालियर से गुड़गांव डीएलएफ आ गई.
गुड़गांव में ही तो कमल से मिली थी. वह हरियाणवीं लोकसभा के स्टेज प्रोग्राम में अनाउंसर का काम करता था. जब भी आता था तो रंगीनियां साथ ले कर ही आता था. उस के छींटेदार चुटकुले, हरियाणवी लोकगीतों के झड़ते बोल, रोमांटिक शेरोशायरी में बात करने का अंदाज मुझे आकर्षित करने लगा. मैं कमल में अपने टूटे सपनों को ढूंढ़ती रहती. देखते ही देखते कमल, मोहित से ज्यादा मेरा दोस्त बन गया. हम दोनों एकदूसरे के समक्ष खुलने लगे. उस की रोजरोज के स्टेज प्रोग्राम पर की जाने वाली चर्चाएं, खट्टीमीठी नोंकझोक वाली बातें, उस के हंसनेबोलने का स्टाइल सब मुझे भाने लगा.
सबकुछ तो उस में कमाल ही था. गेहुआं रंग पर मद्धिममद्धिम मोहक मुसकान. किसी भी महिला को कैसे अपनी ओर आकर्षित किया जाता है, यह कोई कमल से सीखे. मैं कमल के रंग में रंगने लग गई थी. मुझे उस से प्यार होने लगा. मैं कमल के प्रति समर्पित होने लगी. लेकिन मुझे कमल की आर्थिक स्थिति हमेशा से खलती रही पर उसे कोईर् परवा नहीं थी. वह असीम पर निर्भर रहता. उसी दौरान असीम से भी मिलवाया था मुझे और मोहित को, कुछ ही समय में असीम हमारे परिवार में घुलमिल गया. उन दिनों असीम की उम्र 23-24 के लगभग होगी. इधर अभिलाषा की भी उम्र 14-15 की होने जा रही थी. एक तरफ नईनई जवानी, दूसरी तरफ गांवदेहात से आया आशिक. उस पर से मेरे घर का माहौल, जहां मैं खुद इश्क के जाल में फंसी थी वहां अपनी बहन को कैसे रोक पाती.
कमल असीम को प्यार और शादी के सपने दिखाता रहा और रुपए ऐंठता रहा. पर सच तो यह है कि मैं प्यार में थी ही नहीं, बल्कि वासनाग्रस्त थी. जब खुद की ही आंखों पर हवस की पट्टी चढ़ी हो तो बहन को किस संस्कार का वास्ता देती. मोहित के औफिशियल टूर पर जाते ही मैं खुद को कमल के हवाले सौंप दिया करती. मैं पूरी तरह ब्लैंक पेपर की तरह कमल के सामने पन्नादरपन्ना खुलती जाती और कमल उस पर अपने इश्क के रंग से रंगबिरंगी तस्वीरें बनाता रहता. उस की आगोश में मैं खुद को भूल जाती थी.
वह मेरे मखमली बदन को चूमचूम कर कविताएं लिखता. सांस में सांसों को उबाल कर जब इश्क की चाशनी पकती, मैं पिघल जाया करती. मुझे एक अजीब सी ताकत अपनी ओर खींचने लगती. मैं कमल के गरम बदन को अपने बदन में महसूस करने लगती. उस के बदन के घर्षण को पा कर मैं मदहोश हो जाती. वह मेरे दिलोदिमाग पर बादल की तरह उमड़ताघुमड़ता और मेरे शरीर में बारिश की तरह झमाझम बूंदों की बौछारें करने लगता. मैं पागलों की तरह प्यार करने लगती कमल से. मुझे उस के साथ संतुष्टि मिलती थी. मैं इतनी पागल हो चुकी थी कि भूल गई थी कि मैं प्रैग्नैंट भी हूं. मोहित के बच्चे की मां बनने वाली हूं. मुझे सिर्फ और सिर्फ अपनी खुशी, अपनी दैहिक संतुष्टि चाहिए थी. मैं ने सैक्स और प्यार में से केवल और केवल सैक्स चुना. मुझे तनिक भी परवा न रही अपने ममत्व की.
मेरी ममता तनिक भी नहीं सकपकाई मोहित के बच्चे को गिराते हुए. जब मेरे गुप्तांगों में सूजन आ जाया करती या मेरे रक्तस्राव न रुकते तब असीम दवाईयां ला कर देता मुझे. उस ने भी कई बार समझाने की कोशिश की, ये सब गलत है भाभी. पर मेरी ही आंखों पर हवस की, ग्लैमर की पट्टी बंधी थी. मैं कुछ सोचनेसमझने के पक्ष में ही नहीं थी. मैं खुद को मौडर्न समझती रही. और फिर से मैं जब दोबारा प्रैग्नैट हुई वह बच्चा तुम्हारा नहीं था, वह कमल का बच्चा था. मैं कमल के बच्चे की मां बनने वाली थी. मेरी जिंदगी पर से तुम्हारा वजूद खत्म होने को था. मैं पूरी तरह से कमल से प्यार की गहराई में थी. मुझ पर मेरा खुद का जोर नहीं था. कमल पिता बनने की खुशी में एक पल भी मुझे अकेला न छोड़ता.
सुबह औफिस निकलते ही कमल आ जाया करता. शाम तक मेरे साथ रहता और फिर तुम्हारे आने के समय एकआध घंटे के लिए मार्केट में निकल जाता, अपने और तुम्हारे लिए कुछ खानेपीने का सामान लेने. और तुम्हारे आने के एकआध घंटे बाद फिर वापस आ जाता. कमल तुम्हारे सामने मुझे माया कह कर भी संबोधित नहीं करता था. तुम्हें तो शायद पता भी नहीं कि वह अकसर तुम्हारे लिए कौकटेल ड्रिंक ही बनाया करता था ताकि तुम्हें होश ही न रहे और हम अपनी मनमानी करते रहें. मैं कमल की हरकतों पर खुश हो जाया करती थी. उस के माइंड की तारीफ करते न थकती.
शीना ट्रिप के लिए निकल गई. बस में शीना मीताली के साथ ही बैठी थी. ट्रिप उदयपुर जा रही थी और सफर लंबा था. बस दिल्ली से निकली तो सभी गाने गाते हुए यहां से वहां बस में घूम रहे थे, इसी बीच अक्षत शीना के बगल में आ कर बैठ गया. शीना और अक्षत कभी ज्यादा बात कर ही नहीं पाए थे तो अब भी उन के पास कुछ खास था नहीं कहने के लिए. अक्षत ने शीना से पूछा कि क्या यह उस की पहली ट्रिप है जिस पर शीना ने बताया कि वह शूट्स के लिए बाहर जाती है मम्मी के साथ, लेकिन दोस्तों के साथ यह पहली बार है. दोनों में इसी तरह की बातें होने लगीं.
“तुम ने फ्रैंड्स शो देखा क्या ?” शीना ने अक्षत से पूछा.
“नहीं, मैं शोज कम देखता हूं.”
“अरे, थोड़ा बहुत तो देख सकते हो, कितनी अच्छी चीजें हैं दुनिया में.”
“और पढ़ाई कौन करेगा?” अक्षत ने पूछा.
“वो साथसाथ हो जाएगी न,” शीना ने बच्चों जैसी आवाज में कहा.
अक्षत शीना को देख हंसने लगा.
“इस में हंस क्या रहे हो, मजाक उड़ा रहे हो मेरा?” शीना ने मुंह बनाते हुए कहा.
“नहीं, सोच रहा हूं कि तुम्हें इंग्लिश औनर्स की जगह थिएटर औनर्स जैसा कुछ करना चाहिए था, और उस में भी बस बच्चों का रोल.”
“कुछ भी. बड़ी हूं में ठीक है न,” शीना बोली.
“बड़ी हूं मैं ठीक है न,” अक्षत ने दोहराया.
“मेरी नकल मत करो.”
“मेरी नकल मत करो,” अक्षत ने फिर शीना की मिमिक्री की.
“तुम न पिटोगे अब,” शीना ने बनावटी गुस्से से कहा.
“तुम न पिटोगे अब,” अक्षत के कहते ही शीना ने उसे हलके से धक्का दिया तो अक्षत हंसने लगा, उसे देख शीना मुट्ठी बना गालों पर हाथ रख कर बैठ गई.
“अच्छा सौरी,” अक्षत ने शीना के हाथों को हिलाते हुए कहा.
पूरे रास्ते शीना और अक्षत बातें करते हुए ही गए थे. उदयपुर पहुंचने पर अक्षत और शीना साथसाथ ही घूम रहे थे. शीना को बातें करते हुए इतना कम्फर्टेबल कभी किसी और के साथ नहीं लगा था. अगले दिन साइट सीन करने जाने पर शीना अपनी तस्वीरें खिंचाने में व्यस्त थी लेकिन अक्षत सब से काफी दूर जा कर एक चबूतरे पर बैठा हुआ था. शीना ने उसे देखा तो उस की तरफ जाने लगी.
“ओ शीना मैडम, अभी आप का फोटोशूट शुरु भी नहीं हुआ है, कहां जा रही हो?”
“अरे, मैं अक्षत को भी बुला लाती हूं.”
“उसे फोटो न खींचना पसंद है न ही खिंचवाना, वो नहीं आएगा.”
“आई मैं अभी,” कहते हुए शीना अक्षत की तरफ बढ़ गई.
अक्षत ने शीना को आते हुए देखा तो हाथ से इशारा करते हुए पास बैठने के लिए कहा और शीना के बैठने की जगह से मिट्टी हटाने लगा.
“कहां खोये हुए हो, चलो न पिक्चर्स क्लिक करते हैं,” शीना ने चहकते हुए कहा.
“मेरा मन नहीं है. तुम जाओ.”
“तुम नहीं जा रहे तो मैं भी नहीं जा रही,” शीना ने कहा और मुस्कराने लगी. उसे देख अक्षत के चेहरे पर भी हलकी मुस्कराहट आ गई.
शीना अक्षत के चेहरे को देखने लगी तो अक्षत ने ‘क्या हुआ’ के भाव में आंखें ऊंचीनीची कीं.
“तुम्हें न मोडलिंग करनी चाहिए, हैंडसम हो तुम.”
“नहीं, मैं प्रोफेसर बनने में ही खुश हूं,” अक्षत ने कहा.
“प्रोफेसर बन कर क्या करोगे?”
“बच्चों को पढ़ाऊंगा और समझाऊंगा कि खूबसूरती ही सब नहीं होती.”
“तुम मुझे ताना दे रहे हो?” शीना ने गंभीरता से पूछा.
“नहीं, पर मुझे कभीकभी लगता है तुम अपने चेहरे में, अपनी बौडी में इतनी खोयी हुई हो कि तुम्हें और कुछ नहीं दिखता. तुम किसी के साथ समय नहीं बिताती, बातें नहीं करती, इंग्लिश ओनर्स में होते हुए किताबी लड़की नहीं हो तुम, ऊपर से नीचे तक ब्रांड्स में लदालद हो, किसी के प्यार में नहीं पड़तीं, बचपन से ही काम कर रही हो और बस यही तुम्हारे दिमाग में है.”
“तुम मुझे जानते ही कितना हो?” शीना के चेहरे पर भावुकता थी.
“जानना चाहता हूं,” अक्षत ने शीना की आंखों में देखते हुए कहा.
“जानने के लिए कुछ है ही नहीं.”
“मुझे लगता है बहुत कुछ है.”
“मुझे बचपन से सिखाया गया है कि आंखें हमेशा जीत पर टिकी होनी चाहिए, सुंदर दिखने के लिए प्रोडक्ट्स लगाओ, मेकअप करो, कम खाओ और एकसरसाइज ज्यादा करो, सीधे चलो, कैटवौक करो, सभी को देख कर मुस्कराओ, कैमरा देखो और पोज करो. किसी दोस्त से ही ज्यादा घुलनेमिलने नहीं दिया गया तो बौयफ्रेंड तो दूर की बात है. और तुम्हें भी लगता है मैं खोखली हूं, है न?” शीना ने अक्षत से पूछा.
“नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता. वैसे, तुम अपनी मम्मी से इतना डरती क्यों हो?”
“पता नहीं. वे हमेशा से मेरे लिए दौड़भाग करती रही हैं, उन्हें खुश करना ही चाहा है मैं ने हमेशा बस. डरती हूं क्योंकि मेरा उन के बिना है ही कौन. पापा के पैसे देते रहने को प्यार और समय कह सकते हैं तो वह भी था मेरे पास. पर पैसो को प्यार और समय मान लेने से वह प्यार और समय बन नहीं जाता न. तो मम्मी से झगड़ कर क्या ही करूंगी.”
“अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हो, आखिर जिंदगी तुम्हारी है अपनी खुशी के लिए नहीं जियोगे तो किस के लिए जियोगी. तुम्हारे अंदर जो मासूमियत है वह इस इंडस्ट्री में खत्म हो जाएगी और तुम अपने मन की नहीं सुनोगी तो डिप्रेशन और तनाव से हट कर कुछ हाथ नहीं लगेगा. अभी खोखली नहीं हो पर क्या पता हो जाओ,” अक्षत की बात सुन शीना सोच में पड़ गई थी.
शाम ढलने लगी और सभी को अब होटल की तरफ लौटना था. शीना और अक्षत भी चलने के लिए उठे. अक्षत ने शीना को हाथ पकड़ कर रोका और पौकेट से फोन निकाल लिया. “साथ में एक पिक्चर तो ले ही सकते हैं,” अक्षत ने कहा तो शीना चहक उठी.
होटल के रूम में बैठ शीना अक्षत और अपनी फोटो को देखदेख कर ही खुश हो रही थी. मीताली भी रूम में थी.
“तू अक्षत को पसंद करती है, है न?” मीताली के पूछने पर शीना ने आंखें बड़ी करते हुए कहा, “नहीं तो.”
“झूठ मत बोल, मुझे सब पता है. मुझे लगता है अक्षत को भी तू पसंद है.”
“सच?” शीना ने अपनी खुशी छिपाते हुए कहा.
“हां, आज सुबह ब्रेकफास्ट टेबल पर वो तुझे ही देखे जा रहा था बारबार, तू ने नोटिस नहीं किया.”
मीताली की बातें सुन शीना बेहद खुश हो गई थी. रात में डिनर के बाद सभी नीचे स्विमिंग पूल के पास बैठे थे. अक्षत भी वहीं था. शीना उस के पास जा कर बैठी तो सभी लड़के शीना को देखने लगे. सब उस के कायल पहले से थे. अक्षत ने शीना से कहा कि उस ने आने में देर कर दी क्योंकि वह वापस जा रहा है.
“क्या करोगे जा कर?” शीना पूछने लगी.
“यहां बैठने का मन नहीं है मेरा,” अक्षत ने बताया.
“मुझे तुम से कुछ बात करनी थी.”
“बोलो.”
“यहां नहीं, अंदर चलें?”
“ओके,” अक्षत ने कहा और वे दोनों शीना के रूम की तरफ बढ़ गए.
शीना, मीताली और नैना का एक ही रूम था, लेकिन इस वक्त न रूम में मीताली थी और न नैना. अक्षत और नैना रूम में बैठे तो शीना अपनी बात कहने के लिए हिम्मत जुटाने लगी और उस की झिझक अक्षत को भी दिख रही थी.
“अगर तुम मुझे प्रपोज करने वाली हो तो मेरा जवाब हां है,” अक्षत ने मजाक करते हुए कहा.
“तुम्हें कैसे पता,” शीना का मुंह खुला का खुला रह गया.
“तुम मुझे प्रपोज करने वाली हो?”
अक्षत अब हैरानी से कहने लगा.
“तुम्हें किस ने बताया?”
“तुम ने.”
“कब?”
“अभी.”
“हें? ओहह शिट,” शीना को अपनी बेवकूफी का एहसास हुआ तो उस ने अपने माथे पर हथेली दे मारी.
“आई लाइक यू,” आखिर अक्षत ने पहल करते हुए कहा.
“सच?”
“हां.”
“आई लाइक यू टू,” शीना का चेहरा लाल हो गया.
आगे पढ़ें- अक्षत ने शीना का हाथ पकड़ा और उसे किस…
इरा की स्कूल में नियुक्ति इसी शर्त पर हुई थी कि वह बच्चों को नाटक की तैयारी करवाएगी क्योंकि उसे नाटकों में काम करने का अनुभव था. इसीलिए अकसर उसे स्कूल में 2 घंटे रुकना पड़ता था.
इरा के पति पवन को कामकाजी पत्नी चाहिए थी जो उन की जिम्मेदारियां बांट सके. इरा शादी के बाद नौकरी कर अपना हर दायित्व निभाने लगी.
वह स्कूल में हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ का नाट्य रूपांतर कर बच्चों को उस की रिहर्सल करा रही थी. प्रधानाचार्य ने मुख्य पात्र के लिए 10वीं कक्षा के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझाया क्योंकि वह शहर के बड़े उद्योगपति का बेटा था और उस के सहारे पिता को खुश कर स्कूल अनुदान में खासी रकम पा सकता था.
मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह कुशलता से करने लगा था. उसी नाटक के पूर्वाभ्यास में इरा को घर जाने में देर हो जाती है. वह घर जाने के लिए स्टाप पर खड़ी थी कि तभी एक कार रुकती है. उस में मुकुल अपने पिता के साथ था. उस के पिता शरदजी को देख इरा चहक उठती है. शरदजी बताते हैं कि जब मुकुल ने नाटक के बारे में बताया तो मैं समझ गया था कि ‘इरा मैम’ तुम ही होंगी.
इरा उन के साथ गाड़ी में बैठ जाती है. तभी उसे याद आता है कि आज उस के बेटे का जन्मदिन है और उस के लिए तोहफा लेना है. शरदजी को पता चलता है तो वह आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की तरफ गाड़ी घुमा देते हैं. वह इरा को कंप्यूटर गेम दिलवाने पर उतारू हो जाते हैं. इरा बेचैन थी क्योंकि पर्स में इतने रुपए नहीं थे. अब आगे…
3ह्म्द्मड्डस्र द्यह्य 1द्म3ह्य्न्न्न
एक महंगा केक और फूलों का बुके आदि तमाम चीजें शरदजी गाड़ी में रखवाते चले गए. वह अवाक् और मौन रह गई.
शरदजी को घर में भीतर आने को कहना जरूरी लगा. बेटे सहित शरदजी भीतर आए तो अपने घर की हालत देख सहम ही गई इरा. कुर्सियों पर पड़े गंदे, मुचड़े, पहने हुए वस्त्र हटाते हुए उस ने उन्हें बैठने को कहा तो जैसे वे सब समझ गए हों, ‘‘रहने दो, इरा… फिर किसी दिन आएंगे… जरा अपने बेटे को बुलाइए… उस से हाथ मिला लूं तब चलूं. मुझे देर हो रही है, जरूरी काम से जाना है.’’
इरा ने सुदेश और पति को आवाज दी. वे अपने कमरे में थे. दोनों बाहर निकल आए तो जैसे इरा शरम से गड़ गई हो. घर में एक अजनबी को बच्चे के साथ आया देख पवन भी अचकचा गए और सुदेश भी सहम सा गया पर उपहार में आई ढेरों चीजें देख उस की आंखें चमकने लगीं… स्नेह से शरदजी ने सुदेश के सिर पर हाथ फेरा. उसे आशीर्वाद दिया, उस से हाथ मिला उसे जन्मदिन की बधाई दी और बेटे मुकुल के साथ जाने लगे तो सकुचाई इरा उन्हें चाय तक के लिए रोकने का साहस नहीं बटोर पाई.
पवन से हाथ मिला कर शरदजी जब घर से बेटे मुकुल के साथ बाहर निकले तो उन्हें बाहर तक छोड़ने न केवल इरा ही गई, बल्कि पवन और सुदेश भी गए.
उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और गाड़ी में बैठने से पहले अपना कार्ड दे कर बोले, ‘‘इरा, कभी पवनजी को ले कर आओ न हमारे झोंपड़े पर… तुम से बहुत सी बातें करनी हैं. अरसे बाद मिली हो भई, ऐसे थोड़े छोड़ देंगे तुम्हें… और फिर तुम तो मेरे बेटे की कैरियर निर्माता हो… तुम्हें अपना बेटा सौंप कर मैं सचमुच बहुत आश्वस्तहूं.’’
पवन और सुदेश के साथ घर वापस लौटती इरा एकदम चुप और खामोश थी. उस के भीतर एक तीव्र क्रोध दबे हुए ज्वालामुखी की तरह भभक रहा था पर किसी तरह वह अपने गुस्से पर काबू रखे रही. इस वक्त कुछ भी कहने का मतलब था, महाभारत छिड़ जाना. सुदेश के जन्मदिन को वह ठीक से मना लेना चाहती थी.
सुदेश के जन्मदिन का आयोजन देर रात तक चलता रहा था. इतना खुश सुदेश पहले शायद ही कभी हुआ हो. इरा भी उस की खुशी में पूरी तरह डूब कर खुश हो गई.
बिस्तर पर जब वह पवन के साथ आई तो बहुत संतुष्ट थी. पवन भी संतुष्ट थे, ‘‘अरसे बाद अपना सुदेश आज इतना खुश दिखाई दिया.’’
‘‘पर खानेपीने की चीजें मंगाने में काफी पैसा खर्च हो गया,’’ न चाहते हुए भी कह बैठी इरा.
‘‘घर वालों के ही खानेपीने पर तो खर्च हुआ है. कोई बाहर वालों पर तो हुआ नहीं. पैसा तो फिर कमा लिया जाएगा… खुशियां हमें कबकब मिलती हैं,’’ पवन अभी तक उस आयोजन में डूबे हुए थे.
‘‘सोया जाए… मुझे सुबह फिर जल्दी उठना है. सुदेश का कल अंगरेजी का टेस्ट है और मैं अंगरेजी की टीचर हूं अपने स्कूल में. मेरा बेटा ही इस विषय में पिछड़ जाए, यह मैं कैसे बरदाश्त कर सकती हूं? सुबह जल्दी उठ कर उस का पूरा कोर्स दोहरवाऊंगी…’’
‘‘आजकल की यह पढ़ाई भी हमारे बच्चों की जान लिए ले रही है,’’ पवन के चेहरे पर से प्रसन्नता गायब होने लगी, ‘‘हमारे जमाने में यह जानमारू प्रतियोगिता नहीं थी.’’
‘‘अब तो 90 प्रतिशत अंक, अंक नहीं माने जाते जनाब… मांबाप 99 और 100 प्रतिशत अंकों के लिए बच्चों पर इतना दबाव बनाते हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य तक चौपट हुआ जा रहा है. क्यों दबा रहे हैं हम अपने बच्चों को… कभीकभी मैं भी बच्चों को पढ़ाती हुई इन सवालों पर सोचती हूं…’’
‘‘शायद इसलिए कि हम बच्चों के भविष्य को ले कर बेहद डरे हुए हैं, आशंकित हैं कि पता नहीं उन्हें जिंदगी में कुछ मिलेगा या नहीं… कहीं पांव टिकाने को जगह न मिली तो वे इस समाज में सम्मान के साथ जिएंगे कैसे?’’ पवन बोले, ‘‘हमारे जमाने में शायद यह गलाकाट प्रतियोगिता नहीं थी पर आजकल जब नौकरियां मिल नहीं रहीं, निजी कामधंधों में बड़ी पूंजी का खेल रह गया है. मामूली पैसे से अब कोई काम शुरू नहीं किया जा सकता, ऐसे में दो रोटियां कमाना बहुत टेढ़ी खीर हो गया है, तब बच्चों के कैरियर को ले कर सावधान हो जाने को मांबाप विवश हो गए हैं… अच्छे से अच्छा स्कूल, ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं, साधन, अच्छे से अच्छा ट्यूटर, ज्यादा से ज्यादा अंक, ज्यादा से ज्यादा कुशलता और दक्षता… दूसरा कोई बच्चा हमारे बच्चे से आगे न निकल पाए, यह भयानक प्रत्याशा… नतीजा तुम्हारे सामने है जो तुम कह रही हो…’’
‘‘मैं तो समझती थी कि तुम इन सब मसलों पर कुछ न सोचते होंगे, न समझते होंगे… पर आज पता चला कि तुम्हारी भी वही चिंताएं हैं जो मेरी हैं. जान कर सचमुच अच्छा लग रहा है, पवन,’’ कुछ अधिक ही प्यार उमड़ आया इरा के भीतर और उस ने पवन को एक गरमागरम चुंबन दे डाला.
पवन ने भी उसे बांहों में भर, एक बार प्यार से थपथपाया, ‘‘आदमी को तुम इतना मूर्ख क्यों मानती हो? अरे भई, हम भी इसी धरती के प्राणी हैं.’’
‘‘यह नाटक मैं ठीक से करा ले जाऊं और शरदजी को उन के बेटे के माध्यम से प्रसन्न कर पाऊं तो शायद उस एहसान से मुक्त हो सकूं जो उन्होंने मुझ पर किए हैं. जानते हो पवन, शरदजी ने अपने निर्देशन में मुझे 3 नाटकों में नायिका बनाया था. बहुत आलोचना हुई थी उन की पर उन्होंने किसी की परवा नहीं की थी. अगर तब उन्होंने मुझे उतना महत्त्व न दिया होता, मेरी प्रतिभा को न निखारा होता तो शायद मैं नाटकों की इतनी प्रसिद्ध नायिका न बनी होती. न ही यह नौकरी आज मुझे मिलती. यह सब शरदजी की ही कृपा से संभव हुआ.’’
नाटक उम्मीद से कहीं अधिक सफल रहा. मुकुल ने इंस्पेक्टर मातादीन के रूप में वह समां बांधा कि पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. स्कूल प्रबंधक और प्रधानाचार्या अपनेआप को रोक नहीं सके और दोनों उठ कर इरा के पास मंच के पीछे आए, ‘‘इरा, तुम तो कमाल की टीचर हो भई.’’
मुकुल के पिता शरदजी तो अपने बेटे की अभिनय क्षमता और इरा के कुशल निर्देशन से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने वहीं, मंच पर आ कर स्कूल के लिए एक वातानुकूलित कंप्यूटर कक्ष और 10 कंप्यूटर अत्यंत उच्च श्रेणी के देने की घोषणा कर प्रबंधक और प्रधानाचार्या के मन की मुराद ही पूरी कर दी.
जब वे आयोजन के बाद चायनाश्ते पर अन्य अतिथियों के साथ प्रबंधक के पास बैठे तो न जाने उन के कान में क्या कहते रहे. इरा ने 1-2 बार उन की ओर देखा भी पर वे उन से ही बातें करते रहे. बाद में इरा को धन्यवाद दे वे जातेजाते पवन और सुदेश की तरफ देख हाथ हिला कर बोले, ‘‘इरा…मुझे अभी तक उम्मीद है कि किसी दिन तुम आने के लिए मुझे दफ्तर में फोन करोगी…’’
‘‘1-2 दिन में ही तकलीफ दूंगी, सर, आप को,’’ इरा उत्साह से बोली थी.
‘‘जो आदमी खुश हो कर लाखों रुपए का दान स्कूल को दे सकता है, उस से हम बहुत लाभ उठा सकते हैं, इरा… और वह आदमी तुम से बहुत खुश और प्रभावित भी है,’’ अपना मंतव्य आखिर पवन ने घर लौटते वक्त रास्ते में प्रकट कर ही दिया.
परंतु इरा चुप रही. कुछ बोली नहीं. किसी तरह पुन: पवन ने ही फिर कहा, ‘‘क्या सोच रही हो? कब चलें हम लोग शरदजी के घर?’’
‘‘पवन, तुम्हारे सोचने और मेरे सोचने के ढंग में बहुत फर्क है,’’ कहते हुए बहुत नरम थी इरा की आवाज.
‘‘सोच के फर्क को गोली मारो, इरा. हमें अपने मतलब पर ध्यान देना चाहिए, अगर हम किसी से अपना कोई मतलब आसानी से निकाल सकते हैं तो इस में हमारे सोच को और हमारी हिचक व संकोच को आड़े नहीं आना चाहिए,’’ पवन की सूई वहीं अटकी हुई थी, ‘‘तुम अपने घरपरिवार की स्थितियों से भली प्रकार परिचित हो, अपने ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं, यह भी तुम अच्छी तरह जानती हो. इसलिए हमें निसंकोच अपने लिए कुछ हासिल करने का प्रयास करना चाहिए.’’
‘‘मैं तुम्हें और सुदेश को ले कर उन के बंगले पर जरूर जाऊंगी, पर एक शर्त पर… तुम इस तरह की कोई घटिया बात वहां नहीं करोगे. शरदजी के साथ मैं ने नाटकों में काम किया है, मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं. वह इस तरह से सोचने वाले व्यक्ति नहीं हैं. बहुत समझदार और संवेदनशील व्यक्ति हैं. उन से पहली बार ही उन के घर जा कर कुछ मांगना मुझे उन की नजरों में बहुत छोटा बना देगा, पवन. मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.’’
दूसरे दिन इरा जब स्कूल में पहुंची तो प्रधानाचार्या ने उसे अपने दफ्तर में बुलाया, ‘‘हमारी कमेटी ने तय किया है कि यह पत्र तुम्हें दिया जाए,’’ कह कर एक पत्र इरा की तरफ बढ़ा दिया.
एक सांस में उस पत्र को धड़कते दिल से पढ़ गई इरा. चेहरा लाल हो गया, ‘‘थैंक्स, मेम…’’ अपनी आंतरिक प्रसन्नता को वह मुश्किल से वश में रख पाई. उसे प्रवक्ता का पद दिया गया था और स्कूल की सांस्कृतिक गतिविधियों की स्वतंत्र प्रभारी बनाई गई थी. साथ ही उस के बेटे सुदेश को स्कूल में दाखिला देना स्वीकार किया गया था और उस की इंटर तक फीस नहीं लगेगी, इस का पक्का आश्वासन कमेटी ने दिया था.
शाम को जब घर आ उस ने वह पत्र पवन, ससुरजी व घर के अन्य सदस्यों को पढ़वाया तो जैसे किसी को विश्वास ही न आया हो. एकदम जश्न जैसा माहौल हो गया, सुदेश देर तक समझ नहीं पाया कि सब इतने खुश क्यों हो गए हैं.
इरा ने नजदीकी पब्लिक फोन से शरदजी को दफ्तर में फोन किया, ‘‘आप को हार्दिक धन्यवाद देने आप के बंगले पर आज आना चाहती हूं, सर. अनुमतिहै?’’
सुन कर जोर से हंस पड़े शरदजी, ‘‘नाटक वालों से नाटक करोगी, इरा?’’
‘‘नाटक नहीं, सर. सचमुच मैं बहुत खुश हूं. आप के इस उपकार को कभी नहीं भूलूंगी,’’ वह एक सांस में कह गई, ‘‘कितने बजे तक घर पहुंचेंगे आप?’’
‘‘मेरा ड्राइवर तुम्हें लगभग 9 बजे घर से लिवा लाएगा… और हां, सुदेश व पवनजी भी साथ आएंगे,’’ उन्होंने फोन रख दिया था.
अपनी इरा मैम को अपने घर पर पाकर मुकुल बेहद खुश था. देर तक अपनी चीजें उन्हें दिखाता रहा. अगले नाटकों में भी इरा मैम उसे रखें, इस का वादा कराता रहा.
पूरे समय पवन कसमसाते रहे कि किसी तरह इरा मतलब की बात कहे शरदजी से. शरदजी जैसे बड़े आदमी के लिए यह सब करना मामूली सी बात है, पर इरा थी कि अपने विश्वविद्यालय के उन दिनों के किए नाटकों के बारे में ही उन से हंसहंस कर बातें करती रही.
जब वे लोग वापस चलने को उठे तो शरदजी ने अपने ड्राइवर से कहा, ‘‘साहब लोगों को इन के घर छोड़ कर आओ…’’ फिर बड़े प्रेम से उन्होंने पवन से हाथ मिलाया और उन की जेब में एक पत्र रखते हुए बोले, ‘‘घर जा कर देखना इसे.’’
रास्ते भर पवन का दिल धड़कता रहा, माथे पर पसीना आता रहा. पता नहीं, पत्र में क्या हो. जब घर आ कर पत्र पढ़ा तो अवाक् रह गए पवन… उन की नियुक्ति शरदजी ने अपने दफ्तर में एक अच्छे पद पर की थी.