दीनानाथ का वसीयतनामा: दीवानजी की वसीयत में क्या था

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समस्या का अंत- भाग 3: अंबर का क्या था फैसला

दूसरे दिन छुट्टी के बाद अंबर फिर रूपाली से मिला और उसे पूरी बात बताई. थोड़ी देर बाद रूपाली बोली, ‘‘यार, तुम्हारी समस्या वास्तव में गंभीर हो गई है. अच्छा, तुम्हारे जीजाजी काम क्या करते हैं?’’

‘‘स्टार इंडिया में यूनिट इंचार्ज हैं.’’

‘‘वहां के जनरल मैनेजर तो मेरे जीजाजी के दोस्त हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘हुआ कुछ नहीं, पर अब होगा. रोज का उन के घर आनाजाना  है. रास्ता मिल गया, अब तुम देखते जाओ.’’

अंबर, रूपाली से मिल कर घर पहुंचा तो पूरे मेकअप के साथ इठलाती, बलखाती लाली चाय, नमकीन सजा कर ले आई.

‘‘चाय लीजिए, साहब.’’

‘‘नहीं चाहिए, अभी बाहर से पी कर आ रहा हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब यहां एक प्याली मेरे हाथ की भी पी लीजिए.’’

‘‘नहीं, और नहीं चलेगी,’’ इतना कह कर वह अपने कमरे में जा कर आगे के बारे में योजना बनाने लगा.

2-3 दिन और बीत गए. इधर घर में वही तनाव, उधर रूपाली का मुंह बंद. अंबर को लगा वह पागल हो जाएगा. चौथे दिन जब घर लौटा तो फिर सन्नाटा ही मिला. दीदी का बुरा हाल था. बिस्तर में पड़ी रो रही थीं. जीजाजी सिर थामे बैठे थे, मांबेटी की कोई आवाज नहीं आ रही थी. कमरे का परदा पड़ा था. उसे देख दीदी आंसू पोंछ उठ बैठीं.

‘‘मुन्ना, फ्रेश हो ले. मैं चाय लाती हूं.’’

‘‘नहीं, दीदी, पहले बताओ क्या हुआ, जो घर में सन्नाटा पसरा है?’’

‘‘साले बाबू, भारी परेशानी आ पड़ी है. तुम तो जानते ही हो कि हमारी बिल्ंिडग निर्माण की कंपनी है. बिलासपुर के बहुत अंदर जंगली इलाके में एक नई यूनिट कंपनी ने खोली है, वहां मुझे प्रमोशन पर भेजा जा रहा है.’’

‘‘जीजाजी, प्रमोशन के साथ… यह तो खुशी की बात है. तो दीदी रो क्यों रही हैं. आप का भी चेहरा उतरा हुआ है.’’

‘‘तुम समझ नहीं रहे हो साले बाबू, वह घनघोर जंगल है. वहां शायद टेंट में रहना पडे़गा…बच्चों का स्कूल छुड़ाना पड़ेगा, नहीं तो उन को होस्टल में छोड़ना पडे़गा. तुम्हारी बिन्नी दीदी ने जिद पकड़ ली है कि मेरे पीछे वह मां व लाली के साथ अकेली नहीं रहेंगी, अब मैं क्या करूं, बताओ?’’

‘‘इतनी परेशानी है तो आप जाने से ही मना कर दें.’’

‘‘तुम उस श्रीवास्तव के बच्चे को नहीं जानते. प्रमोशन तो रोकेगा ही, हो सकता है कि डिमोशन भी कर दे, मेरा जूनियर तो जाने के लिए बिस्तर बांधे तैयार बैठा है. और ऐसा हुआ तो वह आफिसर की नजरों में आ जाएगा.’’

‘‘तो फिर आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘मैं बिन्नी से कह रहा था कि यहां जैसा है वैसा चलता रहे और मैं अकेला ही चला जाऊं.’’

‘‘जीजाजी, आप के और भी तो 2 भाई हैं, उन के पास भी ये दोनों रह सकती हैं.’’

‘‘कौन रखेगा इन को? यह तो मैं ही हूं जो इन के अत्याचार को सहन करती हूं,’’ बिन्नी का स्वर उभरा.

‘‘न, अब मैं ने भी फैसला ले लिया है कि इन को 4-4 महीने के हिसाब से तीनों के पास रहना होगा.’’

‘‘ठीक है, पर अब क्या होगा?’’

‘‘मैं साथ चलूंगी,’’ बिन्नी दीदी बोलीं, ‘‘तंबू क्या, मैं तो इन के साथ जंगल में भी रह लूंगी.’’

रात को खाने की मेज पर दीदी की सास बड़बड़ाईं, ‘‘यह सब इस करमजली की वजह से हो रहा है. जब से इस घर में आई है नुकसान और क्लेश…चैन तो कभी मिला ही नहीं.’’

लेकिन जीजाजी ने दीदी का समर्थन किया, ‘‘मां, अब तुम बारीबारी से अपने तीनों बेटों के पास रहोगी. मेरे पास 12 महीने नहीं. बिन्नी को भी थोड़ा आराम चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मथुरा, हरिद्वार कहीं भी जा कर रह लूंगी पर लाली का ब्याह पहले अंबर से करा दे.’’

‘‘अंबर को लाली पसंद नहीं तो कैसे करा दूं.’’

इतना सुनते ही सास ने जो तांडव करना शुरू किया तो वह आधी रात तक चलता रहा था.

दूसरे दिन मिलते ही रूपाली हंसी.

‘‘हाल कैसा है जनाब का?’’

‘‘अरे, यह क्या कर डाला तुम ने?’’

‘‘जो करना चाहिए, घर बसाना है मुझे अपना.’’

‘‘दीदी का घर उजाड़ कर?’’

‘‘उस बेचारी का घर बसा ही कब था पर अब बस जाएगा…आइसक्रीम मंगाओ.’’

‘‘जीजाजी को जाना ही पडे़गा, ऐसे में दीदी का क्या हाल करेंगी ये लोग, समझ रही हो.’’

‘‘आराम से आइसक्रीम खाओ. आज जब घर जाओगे तब सारा क्लेश ही कट चुका होगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘यह तो मैं नहीं जानती कि वह कैसे क्या करेंगे, पर इतना जानती हूं कि ऐसा कुछ करेंगे कि उस से हम सब का भला होगा.’’

अंबर चिढ़ कर बोला, ‘‘मुझे तो समझना पडे़गा ही क्योंकि समस्या मेरी है.’’

‘‘थोड़ा धैर्य तो रखो. मैदान में उतरते ही क्या जीत हाथ में आ जाएगी,’’ रूपाली अंबर को शांत करते हुए बोली.

घर पहुंच कर अंबर थोड़ा हैरान हुआ. वातावरण बदलाबदला सा लगा. दीदी खुश नजर आ रही थीं, तो जीजाजी बच्चों के साथ बच्चा बने ऊधम मचा रहे थे. मुंहहाथ धो कर वह निकला भी नहीं कि गरम समोसों के साथ दीदी चाय ले कर आईं.

‘‘मुन्ना, चाय ले. तेरी पसंद के काजू वाले समोसे.’’

‘‘अरे, दीदी, यह तो चौक वाली दुकान के हैं.’’

‘‘तेरे जीजाजी ले कर आए हैं तेरे लिए.’’

अंबर बात समझ नहीं पा रहा था. जीजाजी भी आ कर बैठे, उधर दीदी की सास कमरे में बड़बड़ा रही थीं.

‘‘जीजाजी, आप की ट्रांसफर वाली समस्या हल हो गई क्या?’’

‘‘समस्या तो अभी बनी हुई है पर उस का समाधान तुम्हारे हाथ में है.’’

‘‘मेरे हाथ में, वह कैसे?’’

‘‘तुम सहायता करो तो यह संकट टले.’’

‘‘ऐसी बात है तो मैं वचन देता हूं, मुझ से जो होगा मैं करूंगा.’’

‘‘पहले सुन तो लो, पहले ही वचन मत दो.’’

‘‘कहिए, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं…ब्याह करना होगा.’’

‘‘ब्याह…किस से?’’

‘‘हमारे बौस की एक मुंहबोली बहन है, वह चाहते हैं कि तुम्हारा रिश्ता उस के साथ हो जाए.’’

‘‘मैं…मेरे साथ…पर…न देखी…न भाली.’’

‘‘लड़की देखने में सुंदर है. बैंक में अच्छे पद पर है, यहां अपने जीजा के साथ रहती है. ग्वालियर से ही ट्रांसफर हो कर आई है.’’

अंबर ने चैन की सांस ली पर ऊपर से तनाव बनाए रखा.

‘‘आप के भले के लिए मैं जान भी दे सकता हूं पर जातपांत सब ठीक है न? मतलब आप अम्मां को तो जानते ही हैं न. पंडित की बेटी ही चाहिए उन को.’’

‘‘ठाकुर है.’’

‘‘तब तो…’’

‘‘तू उस की चिंता मत कर मुन्ना. तू बस, अपनी बात कह. बूआ को मैं मना लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा भला हो तो मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.’’

‘‘तब तो समस्या का समाधान हो ही गया.’’

‘‘पर, आप की मां तो…’’

‘‘मेरा ट्रांसफर रुका, यही बड़ी बात है. अब परसों ही भाई के घर पहुंचा रहा हूं दोनों को. 4-4 महीने तीनों के पास रहना पड़ेगा…बिन्नी ने बहुत सह लिया.’’

दूसरे दिन रूपाली से मिलते ही अंबर ने कहा, ‘‘मान गए तुम को गुरु. आज जो चाहे आर्डर दो.’’

‘‘चलो, माने तो. अपना कल्याण तो हो गया.’’

‘‘साथ ही साथ दीदी का भी भला हो गया. नरक से मुक्ति मिली, बेचारी को. 4-4 महीने के हिसाब से तीनों के पास रहेंगी उस की सासननद.’’

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केयर ऑफ: कैसी थी सुमित्रा की जिंदगी

समूची दुनिया में कहर बरपा रही संक्रामक बीमारी कोरोना का आतंक कुछ मद्धिम हुआ है.यह खुशी की बात है कि शुरुआती तीन मौतों के बाद हमारे डाॅक्टरों और नर्सों की सतर्कता ने इस अस्पताल में भर्ती तिरपन में से ग्यारह जानें बचा ली हैं. इस तरह उन ग्यारहों लोगों को अपने घर लौटने की छुट्टी दी जाती है.शेष लोगों के लिए हम प्रयासरत हैं. आशा है कि उनके परिजन भी शीघ्र उन्हें अपने पास पायेंगे.” अस्पताल के सुपरिंटेंडेंट जब वार्डों में गूंजी , तो उन चेहरों पर मुस्कानें फैल गयीं , जो इस महामारी में मरते – मरते बच गये थे और अब स्वस्थ घोषित किये जा रहे थे.उन चेहरों पर भी एक हरापन आकार लेने लगा था , जिन पर मास्क चढ़े थे या जिनके नथुनों में ऑक्सीजन की नलियाँ घुसेड़ी गयी थीं. कुछ लोग बेसुध थे. उनकी तीमारदारी में लगे डॉक्टरों एवं नर्सों ने मास्कों के भीतर से मुस्कानें बिखेरकर अपनी सफलताओं के लिए स्वयं की प्रशंसा की.

घंटे – दो घंटे में सारी ऑपचारिकताएँ पूरी कर ली गयीं. वार्ड के दस बेड खाली हो गये. सुमित्रा ने महीनेभर के बाद यह हल्कापन महसूस किया. किसी नर्स के लिए उसके मरीजों का स्वस्थ होकर घर के लिए लौटना तपस्या से वरदान प्राप्त करने जैसा है. उसने मास्क और दस्ताने को ढक्कन वाले कूड़ेदान में उतारकर फेंका.वाॅशरूम गयी और आधे घंटे में निकल आयी.अब इस वार्ड में जब तक कोई नया मरीज नहीं आता , नहीं आना पड़ेगा. वह दरवाजे से निकलने ही वाली थी कि ठहर गयी.वह कुछ समझ पाती कि हल्की – सी मुस्कान के साथ बेड पर बैठे बैठे युवक ने कहा : ” मैं अभी ठीक नहीं हुआ हूँ”
सुमित्रा सन्न रह गयी , अब यह कौन -सी बला है!उसने जाँच के लिए स्वयं सैंपल इकट्ठे किये थे और सिनियर डाॅक्टर अमिताभ शुक्ला ने रिपोर्ट बनायी थी.

सुमित्रा ने याद किया , यह तो वही युवक है , जिसे पहले ही से टीबी है, नाम रघुवर है. सुमित्रा ने दुपट्टे को नाक पर चढ़ाया और निकट चली गयी , ” तुम बिल्कुल ठीक हो , रघुवर जाओ, घरवाले चिंतित होंगे”
वह कुछ नहीं बोला , हल्की – फीकी मुस्कान लाकर होठों पर जीभ फेरी और सिर झुका लिया.
” समस्तीपुर के हो न ? ” सुमित्रा ने फिर पूछा
जवाब में उसने सिर हिला दिया, बोला नहीं
सुमित्रा ने फिर पूछा: ” कौन – सा प्रखंड? रघुवर ”
” मोहीउद्दीननगर हजरतपुर गाँव” इस बार उसे बोलना पड़ा
” तुम बिल्कुल ठीक हो” सुमित्रा ने उसे आश्वस्त किया
” लेकिन , मैं नहीं जा पाऊंगा, मैडम!कमजोरी है” रघुवर ने असमर्थता व्यक्त की
वार्ड की पहरेदारी में लगे चार सिपाहियों में से एक उत्तेजित हो गया, ” जवान आदमी है. तीस – बत्तीस की उम्र कहीं से रोगी नहीं लग रहा घंटेभर से कहे जा रहा हूँ कि घर लौटने के लिए सरकारी व्यवस्था है , लौट जाये।र जिद पर अड़ा हुआ है”
” मैं कल जाऊंगा” रघुवर ने निगाहें उठाकर सुमित्रा पर टिका दीं
” तब तुम यहाँ नहीं रह सकते सिपाहियो ! रघुवर के साथ किसी प्रकार की सख्ती नहीं होनी चाहिए. इसे बाहर खड़ी गाड़ियों में से किसी पर बैठाओ और शीतला माता मंदिर वाली धर्मशाला में पहुँचा दो.ऐसे लोगों के लिए वहीं व्यवस्था की गयी है” सुमित्रा नर्स इंचार्ज है , लोग अदब भी करते हैं. एक सिपाही ने स्वीकृति में सिर हिलाया. सुमित्रा घर के लिए निकल गयी.

दिनभर की थकी – मांदी सुमित्रा ने जैसे ही कालोनी में पाँव रखे , खिड़कियों से घूरती हुईं नजरों ने उसे अविनम्रता से देखा. उसे न तो गुस्सा आया , न ग्लानि महसूस हुई.ऐसा रोज होता है , पर वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना उचित नहीं समझती सुमित्रा के परिवार के लोग भी उसके प्रति ऐसे ही भाव रखते हैं.वह किस – किस से कहे- बीते तेईस दिनों में उसने जो सहा है , वह असह्य है. हालांकि पेशे से इंजीनियर पति साकेत ने कभी नहीं चाहा कि सुमित्रा नर्स की इस छोटी-सी नौकरी से लिपटी रहे.विवाह के छह सालों के बाद भी सुमित्रा अपने पति को अपने सुख – दुःख का सहभागी नहीं बना सकी.पति को मित्र के रूप में देखने की इच्छा दबाये हुए उसने एक बेटे को जन्म दिया, पर वह स्वामी और अधिपति ही बना रहा.
सुमित्रा ने घड़ी पर निगाह डाली, छह बजेंगे. सीढ़ियों पर पाँव रखे , तो सिहर गयी.पति की डाँट वह बीते तेईस दिनों से नहीं सुन रही. एक प्रकार से इन तेईस दिनों में उससे दूर रहकर वह सुकून ही महसूस करती रही है. पर चार साल के बेटे नलिन के निकट नहीं जाना उसके लिए सबसे अधिक दुःखदायी है.दूसरे कमरे में वह अपने पिता के साथ कैसे रहता होगा. सुमित्रा की चिंता पति के कड़े स्वभाव को लेकर नहीं बढ़ती,वह तो इंजीनियर होने के दंभ में जीता है. सुमित्रा अपने पति के साथ नहीं जीती, यहाँ तो एक इंजीनियर के साथ कोई नर्स जबरन रिश्तेदारी कायम करने की चेष्टा करती हुई बीते छह सालों में बार बार पिछड़ी है.
दरवाजे के करीब पहुँचकर उसने फोन लगाया, कोरोना संक्रमितों की तीमारदारी में लगी नर्स को काॅलबेल छूने का अधिकार नहीं.दाई दरवाजा खोलकर पीछे हट गयी. सुमित्रा अपने कमरे की ओर बढ़ गयी.
कोई दो घंटे बाद दाई खाना रख गयी और दूसरे कमरे से झाँकते नलिन की ओर इशारा किया.सुमित्रा ने मुस्कुराकर हाथ हिला दिया.नलिन के पीछे बिछावन पर लेटा हुआ उसका पति मोबाइल पर व्यस्त था.उसके कमरे से टेलीविजन के आते – जाते चित्र शीशे पर चमक जा रहे थे.सुमित्रा ने एक बार पति के कमरे को शीशे की दीवार से ऐसे ही देख लिया.उसके मन में कोई भाव नहीं आया. इंजीनियर के कमरे के ऐश्वर्य ने उसे आकर्षित नहीं किया. बेटे नलिन को देखकर मुस्कुराते हुए उसने हाथों से इशारे किये.शीशे की दीवार आर – पार के लोगों का दीदार भले करा दे ,पर आवाज निगल जाती है.सुमित्रा ने कुछ बोलना निरर्थक समझा.

थकावट से बोझिल आँखें लग गयीं , तो दिनभर के लिए ताजग देकर सुबह – सुबह खुल भी गयीं. यह तो रोज का सिलसिला है.सुमित्रा की तरह के सैंकड़ों लोगों के भीतर के अंधेरे को रात अपने आँचल में छुपा लेती है.ऐसे ही , हर दिन फिर से जीवन शुरु करती है सुमित्रा.

अस्पताल में पहुँचते ही उसने बड़े – से रजिस्टर पर निगाह दौड़ायी. गहरी साँस ली , ” उफ ! रात भर में तीन मरीज बढ़ गये. ”
सुमित्रा वार्ड में घूमने के लिए उठी ही थी कि रघुवर दिख गया।वह उसी को देख रहा था।
” अरे ! गये नहीं ? ” सुमित्रा ने आश्चर्य से पूछा।
रघुवर कुछ नहीं बोला।
सुमित्रा जल्दीबाजी में थी , वार्ड की ओर निकल गयी।

दूसरे दिन रघुवर फिर सुमित्रा को अस्पताल के दरवाजे पर दिख गया।उसके साँवले चेहरे पर एक प्रसन्नकारी ताजगी दिखाई पड़ रही थी।सुमित्रा ने मुस्कुराकर पूछा , ” खुश लग रहे हो । लेकिन घर क्यों नहीं गये ? ”
” घर में क्या रखा है ! ”  रघुवर ने हल्की – सी मुस्कान बिखेरी।
” क्यों ?  पत्नी, बच्चे , माँ – बाप ।इंतजार तो करते होंगे? ” सुमित्रा ने सहजता से पूछा।
” पत्नी बीते साल चल बसी।एक बच्चा है, उसे मेरे माँ – बाप देखते हैं।” रघुवर ने सिर झुका लिया।
” ओह ! लेकिन , घर जाना चाहिए।” सुमित्रा ने अधिक रुचि नहीं ली और अस्पताल के वार्डों की ओर निकल गयी।

रात में खाना खाने के बाद रघुवर का चेहरा अनायास सुमित्रा की आँखों में आ गया।उसके लिए रघुवर के संबंध में सोचने की न तो कोई जरूरत थी , न कोई विषय था।पर , वह यह नहीं समझ पा रही थी कि यह लड़का ठीक होने के बजाय अस्पताल के निकट क्यों मंडराता रहता है।सुमित्रा की आँखें बंद हुई जा रही थीं।कोरोना के नये मरीज अब अस्पताल में नहीं आ रहे थे, सरकार आश्वस्त हुई जा रही थी।उसने अनायास अपने कमरे का टीवी ऑन कर दिया।महीनेभर से वह देश दुनिया से बेखबर रही है।पर टीवी के समाचारों ने उसे आकर्षित नहीं किया ।जैसे खोला था , वैसे ही बंद भी कर दिया।

सुमित्रा ने सुबह उठते उठते विचार किया था, आज कुछ सवेरे अस्पताल जायेगी।यदि रघुवर फिर खड़ा दिखा , तो आज कुछ बातें करेगी।नर्स प्रेम और अपनापन बाँटती है , यदि यह किसी को भला लगता है , तो इसे उसकी सफलता कहेंगे।
नियत समय से एक घंटा पूर्व सुमित्रा ने अस्पताल में
कदम रखा।रघुवर फिर उसका इंतजार करता दिखा।वह उसी के निकट जा बैठी। रघुवर ऐसे मुस्कुराया , जैसे उसकी मुराद पूरी हो गयी।
” रघुवर ! मैं आज तुम्हारे लिए सवेरे आयी हूँ।कहो , कुछ कहना है मुझसे?” सुमित्रा के मुँह से अनायास निकल गया।
रघुवर एक पल कुछ नहीं बोला, हाथ जोड़कर उसे निहारता रहा।फिर , हाथ जोड़कर उसे निहारता रहा।फिर , धीरे – से बोल पड़ा- ” आप मुझे अच्छी लगती हैं, बस।”
” मुझे ही देखने आते हो ? ” पता नहीं उसने क्यों मुस्कुरा दिया।
” हाँ। ” रघुवर ने सिर हिला दिया।
” ऐसा क्या है मुझमें ? ” सुमित्रा के इस प्रश्न पर रघुवर  चुप हो गया।फिर धीरे से बोला, ” मेरी पत्नी आप ही के जैसी थी।स्वभाव , चाल – चलन , हँसी – मुस्कुराहट सब कुछ आप से मिलता था।”
सुमित्रा गंभीर हो गयी।
” मैं मैं आपके साथ रह सकता हूँ? ” उसने हकलाते हुए हिम्मत जुटायी।
” क्या ?” जैसे चौंक पड़ी सुमित्रा, ” रघुवर ! मैं शादीशुदा हूँ।मेरा एक बच्चा भी है।मेरा इंजीनियर पति सुन भी लेगा , तो तुम्हें कच्चा चबा जायेगा।”
रघुवर उदास हो गया।
” और कुछ बोलो ।” सुमित्रा ने सहानुभूति दिखायी।रघुवर दूसरी ओर देखने लगा।
अस्पताल दुःखों की दुनिया है।दुःखों को देख – देखकर नर्स जीना सीखती है और दूसरों के दुःख में अपनत्व बढ़ाकर उनके लिए जीवन की आशाएँ जगाती हैं।रघुवर का दुःख अपने दुःख जैसा लगा , उसे लगा कि रघुवर जैसे अनजान युवक के जीवन को उसकी जरूरत है।पर यह तो सर्वथा असंभव है।
उसीने बात बढ़ायी , ” कैसे मरी तुम्हारी पत्नी?”
रघुवर की आँखें छलछला आयीं, ” हम दोनों ने प्रेमविवाह किया था।महीनों तक ससुरालवालों से भागते रहे ।केस हो गया।हमने आपसी मर्जी से विवाह का हलफनामा दिया , तो जान छूटी।मैं एक हाॅस्टल में दरबानी करने लगा।कम आमदनी होती थी , पर हम खुश थे।मेरी पत्नी रूना मुझपर जान लुटाती थी।उसने जान लुटा भी दी।बच्चे के जन्म के बाद महीनों तक खून गिरा।वह घर – आंगन में थकावट महसूस करने लगी और उचित चिकित्सा के अभाव में उसे कैंसर हो गया।” रघुवर चुप हो गया , उसकी आँखें पनीली हो गयीं।
कुछ देर चुप रहकर फिर बोलना शुरु किया , ” मैं कंपाउंडरी करने लगा , इच्छा थी कि अपने जैसे कमजोर लोगों की सेवा करूँ।दिल्ली में एक अस्पताल में नौकरी की , साल भर।वहीं से आया हूँ। ”
” ओह ! ” रघुवर के दर्द को सुमित्रा ने महसूस किया।
सुमित्रा ने रघुवर की आँखों में देखा , ” अब बीती हुई बातें भूलकर नया जीवन शुरु करो रघुवर!मेरा दुःख तुम- सा ही है , मैं हर रोज एक नया जीवन शुरु करती हूँ।”
” आप आपके साथ कंपाउंडर बनकर रह लेता , तो अच्छा होता।” रघुवर ने विकल्प सुझाया।
” साथ रहोगे और मुझमें अपनी पत्नी का चेहरा
देखोगे ।” सुमित्रा खीझ गयी।वह उठकर जाने लगी , तो रघुवर ने फिर टोका , ” मैं यही कहने के लिए रुका हुआ था।कल गाँव लौट जाऊंगा।फोन नंबर देतीं , तो कभी – कभार बात कर लेता ।”
सुमित्रा ने सुना , पर जैसे नहीं सुना।वह आगे बढ़ गयी। फिर पीछे लौटकर रघुवर की ओर देखा , कहा :
” लिखो।”
रघुवर ने जेब से कलम निकाली और हाथ ही पर जल्दी – जल्दी में सुमित्रा का मोबाईल नंबर लिख लिया।

कोरोना के मरीज नहीं आ रहे थे।सरकार ने सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए पूर्णबंदी समाप्त कर दी।लेकिन नर्स की दिनचर्या तो रोगियों से शुरु होती है और रोगियों पर ही खत्म।इस दौरान रघुवर का कोई फोन नहीं आया।न जाने क्यों , सुमित्रा ने प्रायः हर दिन उसके फोन का इंतजार किया।उसने रघुवर का नंबर लिया भी नहीं कि हालचाल पूछ लेती।किसी से हालचाल पूछ लेना अंतरंगता बढ़ाना तो नहीं होता।रघुवर टीबी का मरीज था , पर लगता नहीं था।उसकी आँखें गहरी और सपने देखनेवाली थीं, उनमें जीने का साहस था।
सुमित्रा ने गहरी साँस ली और शीशे की दीवार से पति और बच्चे की ओर निगाह दौड़ायी, ” मैं इनके बारे में क्यों नहीं सोचती कि एक अनजान युवक के बारे में सोचकर परेशान हुई जाती हूँ!” उसका प्रश्न अपने आप से था ।उसीके अंदर से उत्तर भी आ गया , ” किसी के बारे में सोचने में हर्ज क्या है ! ”

वक्त के साथ यादें धुंधली हो ही जाती हैं।कि एक दिन फिर रघुवर अस्पताल के अहाते में दिख गया ।सुमित्रा ने तपाक से पूछ दिया , ” अरे , फोन नहीं किया ? ”
” आपने इंतजार किया था ? ”
” कैसे हो ? ” सुमित्रा ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया।
” यहाँ से जाने के बाद खून की कई उल्टियाँ हुईं।अब कुछ ठीक हूँ, तो रहा न गया।आपको देखने आ गया।अब एक भी उल्टी हुई , तो नहीं बचूंगा । ” वह एक पीली- सी हँसी हँसकर रह गया।
” आओ। ” सुमित्रा के पीछे – पीछे रघुवर अस्पताल में दाखिल हो गया।
अस्पताल में रघुवर की जाँच हुई, टीबी के अतिरिक्त पेप्टिक अल्सर भी निकला।सुमित्रा ने तय कर लिया , यहीं अपनी देखरेख में उसका ऑपरेशन करायेगी।अस्पताल के सुपरिंटेंडेंट सुमित्रा को मानते हैं।उसने तय कर लिया कि उसके ठीक होते ही इसी अस्पताल
में कंपाऊंडर के रूप में रघुवर को रखवाने के लिए बात करेगी।यदि उसे देखकर किसी को खुशी मिले , तो इसमें क्या बुराई है !
चार दिनों तक रघुवर की चिकित्सा चली।हिमोग्लोबिन की स्थिति ठीक होते ही उसका ऑपरेशन होना तय हो गया।
सुमित्रा दूसरे वार्ड में थी ।तभी वार्डब्वाय दौड़ा हुआ आया , ” आपका मरीज खून की उल्टियाँ कर रहा है।”
वह दौड़ी।रघुवर बुखार से तप रहा था, उसके कपड़े खून से रंग गये थे।
सुमित्रा सुई लाने के लिए मुड़ी , रघुवर ने हाथ पकड़ लिया , ” कहीं मत जाइए।” हिचकियों से उसका दम उखड़ रहा था।सुमित्रा ने उसके सिर पर हाथ रखा ,
” रघुवर ! हौसला रखो।”
रघुवर ने एक और हिचकी ली, ” आपको देखने की इच्छा थी , पूरी हुई।” उसके मुँह से निकली लार में खून के थक्के निकल आये।सिर एक तरफ लुढक कर शांत हो गया।सुमित्रा सन्न रह गयी , उसकी ओर झुकती चली गयी।
” आपका कोई सगा था सिस्टर? ” वार्डब्वाय ने पूछा।पर वह बिना कुछ बोले चुप रही।
डाॅक्टर ने पूछा , ” रजिस्टर में इसके किसी परिजन का नाम नहीं! ”
” केयर ऑफ माइन ” उसके मुँह से निकल गया।
शुक्र है , किसी ने नहीं पूछा कि मृतक उसका कौन था।

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विवाह: विदिशा को किस बात पर यकीन नही हुआ

राज आज बहुत खुश था. विदिशा से मिलने के लिए वह पुणे आया था. दोनों गर्ल्स होस्टल के पास ही एक आइसक्रीम पार्लर पर मिले.

‘‘मैं लेट हो गई क्या?’’ विदिशा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं ही जल्दी आ गया था,’’ राज बोला.

‘‘तुम से एक बात पुछूं क्या?’’ विदिशा ने कहा.

‘‘जोकुछ पूछना है, अभी पूछ लो. शादी के बाद कोई उलझन नहीं होनी चाहिए,’’ राज ने कहा.

‘‘तुम ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है, फिर भी गांव में क्यों रहते हो? पुणे में कोई नौकरी या कंपीटिशन का एग्जाम क्यों नहीं देते हो?’’‘‘100 एकड़ खेती है हमारी. इस के अलावा मैं देशमुख खानदान का एकलौता वारिस हूं. मेरे अलावा कोई खेती संभालने वाला नहीं है. नौकरी से जो तनख्वाह मिलेगी, उस से ज्यादा तो मैं अपनी खेती से कमा सकता हूं. फिर क्या जरूरत है नौकरी करने की?’’

राज के जवाब से विदिशा समझ गई कि यह लड़का कभी अपना गांव छोड़ कर शहर नहीं आएगा.

शादी का दिन आने तक राज और विदिशा एकदूसरे की पसंदनापसंद, इच्छा, हनीमून की जगह वगैरह पर बातें करते रहे.

शादी के दिन दूल्हे की बरात घर के सामने मंडप के पास आ कर खड़ी हो गई, लेकिन दूल्हे की पूजाआरती के लिए दुलहन की तरफ से कोई नहीं आया, क्योंकि दुलहन एक चिट्ठी लिख कर घर से भाग गई थी.

‘पिताजी, मैं बहुत बड़ी गलती कर रही हूं, लेकिन शादी के बाद जिंदगीभर एडजस्ट करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं है. मां के जैसे सिर्फ चूल्हाचौका संभालना मुझ से नहीं होगा. आप ने जो रिश्ता मेरे लिए ढूंढ़ा है, वहां किसी चीज की कमी नहीं है. ऐसे में मैं आप को कितना भी समझाती, मुझे इस विवाह से छुटकारा नहीं मिलता, इसलिए आप को बिना बताए मैं यह घर हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं…’

‘‘और पढ़ाओ लड़की को…’’ विदिशा के पिता अपनी पत्नी पर गुस्सा करते हुए रोने लगे. वर पक्ष का घर श्मशान की तरह शांत हो गया था. देशमुख परिवार गम में डूब गया था. गांव वालों के सामने उन की नाक कट चुकी थी, लेकिन राज ने परिवार की हालत देखते हुए खुद को संभाल लिया.

विदिशा पुणे का होस्टल छोड़ कर वेदिका नाम की सहेली के साथ एक किराए के फ्लैट में रहने लगी. उस की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई.

वेदिका शराब पीती थी, पार्टी वगैरह में जाती थी, लेकिन उस के साथ रहने के अलावा विदिशा के पास कोई चारा नहीं था. 4 साल ऐसे ही बीत गए.

एक रात वेदिका 2 लाख रुपए से भरा एक बैग ले कर आई. विदिशा उस से कुछ पूछे, तभी उस के पीछे चेहरे पर रूमाल बांधे एक जवान लड़का भी फ्लैट में आ गया.

‘‘बैग यहां ला, नहीं तो बेवजह मरेगी,’’ वह लड़का बोला.

‘‘बैग नहीं मिलेगा… तू पहले बाहर निकल,’’ वेदिका ने कहा.

उस लड़के ने अगले ही पल में वेदिका के पेट में चाकू घोंप दिया और बैग ले कर फरार हो गया.

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने तुरंत वेदिका के पेट से चाकू निकाला और रिकशा लेने के लिए नीचे की तरफ भागी. एक रिकशे वाले को ले कर वह फ्लैट में आई, लेकिन रिकशे वाला चिल्लाते हुए भाग गया.

विदिशा जब तक वेदिका के पास गई, तब तक उस की सांसें थम चुकी थीं. तभी चौकीदार फ्लैट में आ गया. पुलिस स्टेशन में फोन किया था. विदिशा बिलकुल निराश हो चुकी थी. वेदिका का यह मामला उसे बहुत महंगा पड़ने वाला था, इस बात को वह समझ चुकी थी. रोरो कर उस की आंखें लाल हो चुकी थीं.

पुलिस पूरे फ्लैट को छान रही थी. वेदिका की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई. दूसरे दिन सुबह विदिशा को पुलिस स्टेशन में पूछताछ के लिए बुलाया गया. सवेरे 9 बजे से ही विदिशा पुलिस स्टेशन में जा कर बैठ गई. वह सोच रही थी कि यह सारा मामला कब खत्म होगा.

‘‘सर अभी तक नहीं आए हैं. वे 10 बजे तक आएंगे. तब तक तुम केबिन में जा कर बैठो,’’ हवलदार ने कहा.

केबिन में जाते ही विदिशा ने टेबल पर ‘राज देशमुख’ की नेमप्लेट देखी और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

तभी राज ने केबिन में प्रवेश किया. उसे देखते ही विदिशा खड़ी हो गई.

‘‘वेदिका मर्डर केस. चाकू पर तुम्हारी ही उंगलियों के निशान हैं. हाल में भी सब जगह तुम्हारे हाथों के निशान हैं. खून तुम ने किया है. लेकिन खून के पीछे की वजह समझ नहीं आ रही है. वह तुम बताओ और इस मामले को यहीं खत्म करो,’’ राज ने कहा.

‘‘मैं ने खून नहीं किया है,’’ विदिशा बोली.

‘‘लेकिन, सुबूत तो यही कह रहे हैं,’’ राज बोला.

‘‘कल जो कुछ हुआ है, मैं ने सब बता दिया है,’’ विदिशा ने कहा.

‘‘लेकिन वह सब झूठ है. तुम जेल जरूर जाओगी. तुम ने आज तक जितने भी गुनाह किए हैं, उन सभी की सजा मैं तुम्हें दूंगा मिस विदिशा.’’

‘‘देखिए…’’

‘‘चुप… एकदम चुप. कदम, गाड़ी निकालो. विधायक ने बुलाया है हमें. मैडम, हर सुबह यहां पूछताछ के लिए तुम्हें आना होगा, समझ गई न.’’

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. शाम को वह वापस पुलिस स्टेशन के बाहर राज की राह देखने लगी.

रात के 9 बजे राज आया. वह मोटरसाइकिल को किक मार कर स्टार्ट कर रहा था, तभी विदिशा उस के सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘मुझे तुम से बात करनी है.’’

‘‘बोलो…’’

‘‘मैं ने 4 साल पहले बहुत सी गलतियां की थीं. मुझे माफ कर दो. लेकिन मैं ने यह खून नहीं किया है. प्लीज, मुझे इस सब से बाहर निकालो.’’

‘‘लौज में चलोगी क्या? हनीमून के लिए महाबलेश्वर नहीं जा पाए तो लौज ही जा कर आते हैं. तुम्हारे सारे गुनाह माफ हो जाएंगे… तो फिर मोटरसाइकिल पर बैठ रही हो?’’

‘‘राज…’’ विदिशा आगे कुछ कह पाती, उस से पहले ही वहां से राज निकल गया.

दूसरे दिन विदिशा फिर से राज के केबिन में आ कर बैठ गई.

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘एक प्राइवेट कंपनी में हूं.’’

‘‘शादी हो गई तुम्हारी? ओह सौरी, असलम बौयफ्रैंड है तुम्हारा. बिना शादी किए ही आजकल लड़केलड़कियां सबकुछ कर रहे हैं… हैं न?’’

‘‘असलम मेरा नहीं, वेदिका का दोस्त था.’’

‘‘2 लड़कियों का एक ही दोस्त हो सकता है न?’’

‘‘मैं ने अब तक असलम नाम के किसी शख्स को नहीं देखा है.’’

‘‘कमाल की बात है. तुम ने असलम को नहीं देखा है. वाचमैन ने रूमाल से मुंह बांधे हुए नौजवान को नहीं देखा. पैसों से भरे बैग को भी तुम्हारे सिवा किसी ने नहीं देखा है. बाकी की बातें कल होंगी. तुम निकलो…’’

रोज सुबह पुलिस स्टेशन आना, शाम 3 से 4 बजे तक केबिन में बैठना, आधे घंटे के लिए राज के सामने जाना. वह विदिशा की बेइज्जती करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता था. तकरीबन 2 महीने तक यही चलता रहा. विदिशा की नौकरी भी छूट गई. गांव में विदिशा की चिंता में उस की मां अस्पताल में भरती हो गई थीं. रोज की तरह आज भी पूछताछ चल रही थी.

‘‘रोजरोज चक्कर लगाने से बेहतर है कि अपना गुनाह कबूल कर लो न?’’

विदिशा ने कुछ जवाब नहीं दिया और सिर नीचे कर के बैठी रही.

‘‘जो लड़की अपने मांपिता की नहीं हुई, वह दोस्त की क्या होगी? असलम कौन है? बौयफ्रैंड है न? कल ही मैं ने उसे पकड़ा है. उस के पास से 2 लाख रुपए से भरा एक बैग भी मिला है,’’ राज विदिशा की कुरसी के पास टेबल पर बैठ कर बोलने लगा.

लेकिन फिर भी विदिशा ने कुछ नहीं कहा. उसे जेल जाना होगा. उस ने जो अपने मांबाप और देशमुख परिवार को तकलीफ पहुंचाई है, उस की सजा उसे भुगतनी होगी. यह बात उसे समझ आ चुकी थी.

तभी लड़की के पिता ने केबिन में प्रवेश किया और दोनों हाथ जोड़ कर राज के पैरों में गिर पड़े, ‘‘साहब, मेरी पत्नी बहुत बीमार है. हमारी बच्ची से गलती हुई. उस की तरफ से मैं माफी मांगता हूं. मेरी पत्नी की जान की खातिर खून के इस केस से इसे बाहर निकालें. मैं आप से विनती करता हूं.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप घर जाइए,’’ राज ने कहा.

विदिशा पीठ पीछे सब सुन रही थी. अपने पिता से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं थी उस में. लेकिन उन के बाहर निकलते ही विदिशा टेबल पर सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी.

‘‘तुम अभी बाहर जाओ, शाम को बात करेंगे,’’ राज बोला.

‘‘शाम को क्यों? अभी बोलो. मैं ने खून किया है, ऐसा ही स्टेटमैंट चाहिए न तुम्हें? मैं गुनाह कबूल करने के लिए तैयार हूं. मुझ से अब और सहन नहीं हो रहा है. यह खेल अब बंद करो.

‘‘तुम से शादी करने का मतलब केवल देशमुख परिवार की शोभा बनना था. पति के इशारे में चलना मेरे वश की बात नहीं है. मेरी शिक्षा, मेरी मेहनत सब तुम्हारे घर बरबाद हो जाती और यह बात पिताजी को बता कर भी कोई फायदा नहीं था. तो मैं क्या करती?’’ विदिशा रो भी रही थी और गुस्से में बोल रही थी.

‘‘बोलना चाहिए था तुम्हें, मैं उन्हें समझाता.’’

‘‘तुम्हारी बात मान कर पिताजी मुझे पुणे आने देते क्या? पहले से ही वे लड़कियों की पढ़ाई के विरोध में थे. मां ने लड़ाईझगड़ा कर के मुझे पुणे भेजा था. मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए मुझे मंडप छोड़ कर भागना पड़ा.’’

‘‘और मेरा क्या? मेरे साथ 4 महीने घूमी, मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, उस का क्या? मेरे मातापिता का इस में क्या कुसूर था?’’

‘‘मुझे लगा कि तुम्हें फोन करूं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई.’’

‘‘तुम्हें जो करना था, तुम ने किया. अब मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा. तुम बाहर निकलो.’’

विदिशा वहां से सीधी अपने गांव चली गई. मां से मिली. ‘‘मेरी बेटी, यह कैसी सजा मिल रही है तुझे? तेरे हाथ से खून नहीं हो सकता है. अब कैसे बाहर निकलेगी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ जो छल किया?है, उस की सजा मुझे भुगतनी होगी मां.’’

‘‘कुछ नहीं होगा आप की बेटी को, केस सुलझ गया है मौसी. असलम नाम के आदमी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. वह वेदिका का प्रेमी था. दोनों के बीच पैसों को ले कर झगड़ा था, जिस के चलते उस का खून हुआ.

‘‘आप की बेटी बेकुसूर है. अब जल्दी से ठीक हो जाइए और अस्पताल से घर आइए,’’ राज यह बात बता कर वहां से निकल गया.

विदिशा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘सर, मैं आप का यह उपकार कैसे चुकाऊं?’’

‘‘शादी कर लो मुझ से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मजाक कर रहा था. मेरा एक साल का बेटा है मिस विदिशा.’’

थोड़ी सी जमीं थोड़ा आसमां भाग-3

अपने ही छोटे भाई की पत्नी के प्रति मन में पनपते अनुराग ने उन्हें एक अपराधभाव से भर दिया. वह चाह कर भी इस समय कविता से दूर नहीं जा सकते थे. लेकिन मन ही मन राघव ने निर्णय कर लिया था कि रंजन के आते ही वह उन दोनों के जीवन से कहीं दूर चले जाएंगे.

अचानक एक शाम काम करतेकरते कविता आंगन में फिसल कर गिर गई. राघव तुरंत उसे ले कर अस्पताल भागे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कविता अपने बच्चे को खो चुकी थी. राघव ने जब रंजन को इस बारे में बता कर उसे लौट आने को कहा तो रंजन बोला, ‘‘भैया, जो होना था सो हो गया. इस वक्त तो मेरा आ पाना संभव नहीं, पर जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

इस घटना के बाद तो कविता एकदम ही गुमसुम रहने लगी थी. इस दौरान राघव ने अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर एक छोटे बच्चे की तरह कविता की देखभाल की.

कविता को यों मन ही मन घुटते देख, एक दिन मां ने उस से कहा, ‘‘कविता, मैं तुम्हारा दर्द समझती हूं, बेटा, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि जीना छोड़ दिया जाए.’’

मां की बात सुन कर कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तो और क्या करूं, अब किस के लिए जीने की इच्छा रखूं मैं, रंजन के लिए, जिस ने यह खबर सुन कर भी आने से मना कर दिया…सोचा था बच्चे के आने पर सब ठीक हो जाएगा, पर…मां, रंजन अपने बड़े भाई जैसे क्यों नहीं हैं…’’ कहते हुए कविता मां के गले से लग गई.

कविता के स्वास्थ्य में कुछ सुधार आने के बाद राघव एक दिन एक व्यक्ति को ले कर घर आए और बोले, ‘‘कविता, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छा डांस करती हो और मैं चाहता हूं कि तुम नृत्य की विधिवत शिक्षा लो.’’

अब कविता को एक नया लक्ष्य मिल गया था. वह लगन से डांस सीखने लगी. उसे खुश देख कर राघव को बहुत संतुष्टि मिलती थी.

एक दिन मां ने राघव से कहा, ‘‘बेटा, तेरी मौसी का फोन आया था, वह तीर्थयात्रा पर जा रही हैं, मैं भी साथ जाना चाहती हूं, तुम मेरे जाने का इंतजाम कर दो.’’

राघव कुछ चिंतित हो कर बोले, ‘‘मां, कविता से तो पूछ लो, वह यहां मेरे साथ अकेली रह लेगी.’’

मां ने इस बारे में जब कविता से पूछा तो वह मान गई.

मां के जाने के बाद राघव कविता से कुछ दूरी बना कर रहने की कोशिश करते और कविता भी अपने डांस में व्यस्त रहती थी. एक दिन कविता ने राघव से कहा, ‘‘मुझे आप को एक अच्छी खबर सुनानी है. गुरुजी एक स्टेज शो ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ कर रहे हैं और मैं उस में शकुंतला बन रही हूं.’’

राघव खुश हो कर बोले, ‘‘अरे, वाह, कब है वह?’’

‘‘अगले शुक्रवार…’’

राघव ताली बजा कर बोले, ‘‘वाह, इसे कहते हैं संयोग, उसी दिन तो रंजन और मां वापस  आ रहे हैं. बड़ा मजा आएगा, जब रंजन तुम्हें स्टेज पर शकुंतला बना देखेगा.’’

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शाम को राघव घर लौटे तो तेज बारिश हो रही थी. आते ही उन्होंने आवाज दी, ‘‘कविता, एक कप चाय दे दो.’’

बहुत देर तक जब कविता नहीं आई तो वह बाहर आ कर कविता को देखने लगे, कविता वहां भी न थी, तभी उन्हें छत पर पैरों के थाप की आवाज सुनाई दी. वह छत पर गए तो देखा कि कविता बारिश में भीगते हुए नृत्य का अभ्यास कर रही थी और उस की गुलाबी साड़ी उस के शरीर से चिपक कर शरीर का एक हिस्सा लग रही थी. उस पल कविता बहुत खूबसूरत लग रही थी. राघव ने अपनी नजरें झुका लीं और बोले, ‘‘कविता… नीचे चलो, बीमार पड़ जाओगी.’’

राघव की आवाज सुन कर कविता चौंक पड़ी और उन के पीछेपीछे चल पड़ी. थोड़ी देर बाद जब वह चाय ले कर राघव के कमरे में आई तब भी उस के गीले केशों से पानी टपक रहा था.

चाय पीते हुए राघव बोले, ‘‘कविता, बैठो, तुम्हारा एक पोट्रेट बनाता हूं,’’ कविता बैठ गई. पोटे्रट बनाते हुए राघव ने देखा कि कविता की आंखों से आंसू बह रहे हैं. वह ब्रश रख कर कविता के पास आ गए और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘कविता, अब तो रंजन आने वाला है, अब इन आंसुओं का कारण?’’

कविता तड़प उठी और राघव के सीने से जा लगी. राघव चौंक पडे़. कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे अपने लिए क्यों नहीं चुना…चुना होता तो आज मैं इतनी अतृप्त और अधूरी न होती.’’

कविता भी उन से प्यार करने लगी है, यह जान कर राघव अचंभित हो उठे. अनायास ही उन के हाथ कविता के बालों को सहलाने लगे. कविता ने राघव की ओर देखा, तो उन्होंने कविता की भीगी हुई आंखों को चूम लिया.

राघव के स्पर्श से बेचैन हो कर कविता ने अपने प्यासे अधर उन की ओर उठा दिए. कविता की आंखों में उतर आए मौन आमंत्रण को राघव ठुकरा न सके और दोनों कब प्यार के सुखद एहसास में खो गए उन्हें पता ही न चला.

सुबह जब राघव की नींद खुली तो कविता को अपने पास न पा कर वह हड़बड़ा कर उस के कमरे की ओर भागे, देखा, वह चाय बना रही थी. तब उन की जान में जान आई. कविता ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप उठ गए, लो, चाय पी लो.’’

राघव नजरें झुका कर बोेले, ‘‘कविता, कल रात जो हुआ…’’

‘‘मुझे उस का कोई अफसोस नहीं…’’ कविता राघव की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘और आप भी अफसोस जता कर मुझे मेरे उस सुखद एहसास से वंचित मत करना.’’

कविता ने राघव के पास जा कर कहा, ‘‘सच राघव, मैं ने पहली बार जाना है कि प्यार क्या होता है. रंजन के प्यार में सदा दाता होने का दंभ पाया है मैं ने, पर आप के साथ मैं ने अपनेआप को जिया है, उस कोमल एहसास को आप मुझ से मत छीनो.’’

‘‘पर कवि… आज रंजन वापस आने वाला है, फिर…’’ कहते हुए राघव ने कविता को जोर से अपने सीने से लगा लिया, मानो अब वह कविता को अपने से दूर जाने नहीं देना चाहते हैं.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. कविता ने दरवाजा खोला तो मां को सामने पा कर वह खुशी  से उछल पड़ी. मां ने कविता के चेहरे पर छाई खुशी को देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, कविता, बहुत खुश लग रही हो, रंजन आ गया क्या?’’

मां की बात सुन कर कविता ने राघव की ओर देखा तो बात को संभालते हुए वह बोले, ‘‘रंजन आज शाम को आएगा, और आज कविता का स्टेज शो है न इसीलिए यह बहुत खुश है.’’

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शाम को कविता को मानस भवन छोड़ कर राघव, रंजन को लेने एअरपोर्ट चले गए. एअरपोर्ट से लौटते समय घर न जा कर कहीं और जाते देख रंजन बोला, ‘‘हम कहां जा रहे हैं, भैया?’’

‘‘चलो, तुम्हें कुछ दिखाना है.’’

स्टेज पर अपनी पत्नी कविता को शकुंतला के रूप में देख कर रंजन निहाल हो गया. वह बहुत ही आकर्षक लग रही थी, उस का डांस भी बहुत अच्छा था. नाटक खत्म होने पर जब राघव और रंजन, कविता से मिलने गए तो वहां लोगों की भीड़ देख कर हैरान रह गए. लौटते हुए रंजन ने कविता से कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी अच्छी डांसर हो.’’

कविता ने धन्यवाद कहा.

घर लौटते ही कविता बोली, ‘‘मां, मैं अपने घर जा रही हूं.’’

कविता की बात सुन कर सभी सकते में आ गए. मां ने चौंक कर कहा, ‘‘आज ही तो रंजन आया है और तुम अपने घर जाने की बात कर रही हो.’’

‘‘इसीलिए तो जा रही हूं मां, अब मैं रंजन के साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकती.’’

कविता की यह बात सुन कर रंजन ने गुस्से से कहा, ‘‘यह क्या बकवास कर रही हो, कविता. मैं तुम्हारा पति हूं, कोई गैर नहीं.’’

कविता बिफर कर बोली, ‘‘पति… तुम जानते भी हो कि पति शब्द का मतलब क्या होता है? नहीं…तुम्हारे लिए बस, काम, पैसा, तरक्की, स्टेटस यही सबकुछ है. भावनाएं, प्यार क्या होता है इस से तुम अनजान हो.’’

रंजन भड़क कर बोला, ‘‘तुम इस तरह मुझे छोड़ कर नहीं जा सकतीं…’’

‘‘क्यों…क्यों नहीं जा सकती? ऐसा क्या किया है तुम ने आज तक मेरे लिए, जो तुम मुझे रोकना चाहते हो? जबजब मुझे तुम्हारी जरूरत थी, तुम नहीं थे, यहां तक कि जब मैं ने अपना बच्चा खोया तब भी तुम मेरे साथ नहीं थे और तुम्हें तो इस से खुशी ही हुई होगी, तुम उस झंझट के लिए तैयार जो नहीं थे. मन का रिश्ता तो तुम मुझ से कभी जोड़ ही नहीं सके और इस तन का रिश्ता भी मैं आज तोड़ कर जा रही हूं.’’

कविता के तानों से तिलमिला कर रंजन ने तल्खी से कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम यों ही चली जाओगी और मैं तुम्हें जाने दूंगा,’’ इतना कह कर रंजन कविता की बांह पकड़ कमरे की ओर ले जाते हुए बोला, ‘‘चुपचाप अंदर चलो, मैं तुम्हें अपने को इस तरह अपमानित नहीं करने दूंगा. आखिर मेरी भी समाज में कोई इज्जत है.’’

‘‘रंजन…कविता का हाथ छोड़ दो…’’ मां ने तेज स्वर में कहा.

‘‘मां, तुम भी इस का साथ दे रही हो?’’ रंजन चौंक कर बोला.

कविता की बांह रंजन से छुड़ाते हुए मां बोलीं, ‘‘हां, रंजन, क्योंकि मैं जानती हूं कि यह जो कर रही है, सही है. आज भी तुम उसे अपने प्यार की खातिर नहीं, समाज में बनी अपनी झूठी प्रतिष्ठा के कारण रोकना चाहते हो. कविता को यह कदम तो बहुत पहले उठा लेना चाहिए था. जाने दो उसे…’’

कविता ने नम आंखों के साथ मां के पैर छुए और राघव की ओर पलट कर बोली, ‘‘आप ने मुझे जीने की जो नई राह दिखाई है उस के लिए आप की आभारी हूं, अब नृत्य साधना को ही मैं ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है. आप से जो भी मैं ने पाया है वह मेरे लिए अनमोल है. वह सदा मेरी अच्छी यादों में अंकित रहेगा…’’

इतना कह कर कविता चल पड़ी, अपने लिए, अपने हिस्से की थोड़ी सी जमीं और थोड़ा सा आसमां

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तृष्णा: क्यों खुश नहीं थी इरा

‘‘सीधेसीधे कहो न कि चंदन तो आ गया, अब चांदनी चाहिए,’’ उदय ने हंस कर इरा से कहा.

उस का मन एक स्वच्छ और निर्मल आकाश था, एक कोरा कैनवस, जिस पर वह जब चाहे, जो भी रंग भर लेती थी. ‘लेकिन यथार्थ के धरातल पर ऐसे कोई रह सकता है क्या?’ उस का मन कभीकभी उसे यह समझाता, पर ठहर कर इस आवाज को सुनने की न तो उसे फुरसत थी, न ही चाह.

फिर उसे अचानक दिखा था, उदय, उस के जीवन के सागर के पास से उगता हुआ. उस ने चाहा था, काश, वह इतनी दूर न होता. काश, इस सागर को वह आंखें मूंद कर पार कर पाती. उस ने आंखें मूंदी थीं और आंखें खुलने पर उस ने देखा, उदय सागर को पार कर उस के पास खड़ा है, बहुत पास. सच तो यह था कि उदय उस का हाथ थामे चल पड़ा था.

दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. संसार का मायाजाल अपने भंवर की भयानक गहराइयों में उन्हें निगलने को धीरेधीरे बढ़ने लगा था. उन के प्यार की खुशबू चंदन बन कर इरा की गोद में आ गिरी तो वह चौंक उठी. बंद आंखों, अधखुली मुट्ठियों, रुई के ढेर से नर्म शरीर के साथ एक खूबसूरत और प्यारी सी हकीकत, लेकिन इरा के लिए एक चुनौती.

इरा की सुबह और शाम, दिन और रात चंदन की परवरिश में बीतने लगे. घड़ी के कांटे के साथसाथ उस की हर जरूरत को पूरा करतेकरते वह स्वयं एक घड़ी बन चुकी थी. लेकिन उदय जबतब एक सदाबहार झोंके की तरह उस के पास आ कर उसे सहला जाता. तब उसे एहसास होता कि वह भी एक इंसान है, मशीन नहीं.

चंदन बड़ा होता गया. इरा अब फिर से आजाद थी, लेकिन चंदन का एक तूफान की तरह आ कर जाना उसे उदय की परछाईं से जुदा सा कर गया. अब वह फिर से सालों पहले वाली इरा थी. उसे लगता, ‘क्या उस के जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया? क्या अब वह निरुद्देश्य है?’

एक बार उदय रात में देर से घर आया था, थका सा आंखें बंद कर लेट गया. इरा की आंखों में नींद नहीं थी. थोड़ी देर वह सोचती रही, फिर धीरे से पूछा, ‘‘सो गए क्या?’’

‘‘नहीं, क्या बात है?’’ आंखें बंद किए ही वह बोला.

‘‘मुझे नींद नहीं आती.’’

उदय परेशान हो गया, ‘‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है न?’’ अपनी बांह का सिरहाना बना कर वह उस के बालों में उंगलियां फेरने लगा.

इरा ने धीरे से अलग होने की कोशिश की, ‘‘कोई बात नहीं, मुझे अभी नींद आ जाएगी, तुम सो जाओ.’’ थोड़ी देर तब उदय उलझा सा जागा रहा, फिर उस के कंधे पर हाथ रख कर गहरी नींद सो गया.

कुछ दिनों बाद एक सुबह नाश्ते की मेज पर इरा ने उदय से कहा, ‘‘तुम और चंदन दिनभर बाहर रहते हो, मेरा मन नहीं लगता, अकेले मैं क्या करूं?’’

उदय ने हंस कर कहा, ‘‘सीधेसीधे कहो न कि चंदन तो आ गया, अब चांदनी चाहिए.’’

‘‘जी नहीं, मेरा यह मतलब हरगिज नहीं था. मैं भी कुछ काम करना चाहती हूं.’’

‘‘अच्छा, मैं तो सोचता था, तुम्हें घर के सुख से अलग कर बाहर की धूप में क्यों झुलसाऊं? मेरे मन में कई बार आया था कि पूछूं, तुम अकेली घर में उदास तो नहीं हो जाती हो?’’

‘‘तो पूछा क्यों नहीं?’’ इरा के स्वर में मान था.

‘‘तुम क्या करना चाहती हो?’’

‘‘कुछ भी, जिस में मैं अपना योगदान दे सकूं.’’

‘‘मेरे पास बहुत काम है, मुझ से अकेले नहीं संभलता. तुम वक्त निकाल सकती हो तो इस से अच्छा क्या होगा?’’ इरा खुशी से झूम उठी.

दूसरे दिन जल्दीजल्दी सब काम निबटा कर चंदन को स्कूल भेज कर दोनों जब घर से बाहर निकले तो इरा की आंखों में दुनिया को जीत लेने की उम्मीद चमक रही थी. सारा दिन औफिस में दोनों ने गंभीरता से काम किया. इरा ने जल्दी ही काफी काम समझ लिया. उदय बारबार उस का हौसला बढ़ाता.

जीवन अपनी गति से चल पड़ा. सुबह कब शाम हो जाती और शाम कब रात, पता ही न चलता था.

एक दिन औफिस में दोनों चाय पी रहे थे कि एकाएक इरा ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘हांहां, कहो.’’

‘‘यह बताओ, हम जो यह सब कर रहे हैं, इस से क्या होगा?’’

उदय हैरानी से उस का चेहरा देखने लगा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि रोज सुबह यहां आ कर वही काम करकर के हमें क्या मिलेगा?’’

‘‘क्या पाना चाहती हो?’’ उदय ने हंस कर पूछा.

‘‘देखो, मेरी बात मजाक में न उड़ाना. मैं बहुत दिनों से सोच रही हूं, हमें एक ही जीवन मिला है, जो बहुत कीमती है. इस दुनिया में देखने को, जानने को बहुत कुछ है. क्या घर से औफिस और औफिस से घर के चक्कर काट कर ही हमारी जिंदगी खत्म हो जाएगी?’’

‘‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम जो कुछ कर रही हो, वह काफी नहीं है?’’ उदय गंभीर था.

इरा को न जाने क्यों गुस्सा आ गया. वह रोष से बोली, ‘‘क्या तुम्हें लगता है, जो तुम कर रहे हो, वही सबकुछ है और कुछ नहीं बचा करने को?’’

उदय ने मेज पर रखे उस के हाथ पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘देखो, अपने छोटे से दिमाग को इतनी बड़ी फिलौसफी से थकाया न करो. शाम को घर चल कर बात करेंगे.’’

शाम को उदय ने कहा, ‘‘हां, अब बोलो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

इरा ने आंखें बंद किएकिए ही कहना शुरू किया, ‘‘मैं जानना चाहती हूं कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए, आदर्श जीवन किसे कहना चाहिए, इंसान का सही कर्तव्य क्या है?’’

‘‘अरे, इस में क्या है? इतने सारे विद्वान इस दुनिया में हुए हैं. तुम्हारे पास तो किताबों का भंडार है, चाहो तो और मंगवा लो. सबकुछ तो उन में लिखा है, पढ़ लो और जान लो.’’

‘‘मैं ने पढ़ा है, लेकिन उन में कुछ नहीं मिला. छोटा सा उदाहरण है, बुद्ध ने कहा कि ‘जीवहत्या पाप है’ लेकिन दूसरे धर्मों में लोग जीवों को स्वाद के लिए मार कर भी धार्मिक होने का दावा करते हैं और लोगों को जीने की राह सिखाते हैं. दोनों पक्ष एकसाथ सही तो नहीं हो सकते. बौद्ध धर्म को मानने वाले बहुत से देशों में तो लोगों ने कोई भी जानवर नहीं छोड़ा, जिसे वे खाते न हों. तुम्हीं बताओ, इस दुनिया में एक इंसान को कैसे रहना चाहिए?’’

‘‘देखो, तुम ऐसा करो, इन सब को अपनी अलग परिभाषा दे दो,’’ उदय ने हंस कर कहा.

इरा ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं बहुतकुछ जानना चाहती हूं. देखना चाहती हूं कि जब पेड़पौधे, जमीन, नदियां सब बर्फ से ढक जाते हैं तो कैसा लगता है? जब उजाड़ रेगिस्तान में धूल भरी आंधियां चलती हैं तो कैसा महसूस होता है? पहाड़ की ऊंची चोटी पर पहुंच कर कैसा अुनभव होता है? सागर के बीचोंबीच पहुंचने पर चारों ओर कैसा दृश्य दिखाई देता है? ये सब रोमांच मैं स्वयं महसूस करना चाहती हूं.’’

उदय असहाय सा उसे देख रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इरा को कैसे शांत करे. फिर भी उस ने कहा, ‘‘अच्छा उठो, हाथमुंह धो लो, थोड़ा बाहर घूम कर आते हैं,’’ फिर उस ने चंदन को आवाज दी, ‘‘चलो बेटे, हम बाहर जा रहे हैं.’’

उन लोगों ने पहले एक रैस्तरां में कौफी पी. चंदन ने अपनी पसंद की आइसक्रीम खाई. फिर एक थिएटर में पुरानी फिल्म देखी. रात हो चुकी थी तो उदय ने बाहर ही खाना खाने का प्रस्ताव रखा. काफी रात में वे घर लौटे.

कुछ दिनों बाद उदय ने इरा से कहा, ‘‘इस बार चंदन की सर्दी की छुट्टियों में हम शिमला जा रहे हैं.’’

इरा चौंक पड़ी, ‘‘लेकिन उस वक्त तो वहां बर्फ गिर रही होगी.’’

‘‘अरे भई, इसीलिए तो जाएंगे.’’

‘‘लेकिन चंदन को तो ठंड नुकसान पहुंचाएगी.’’

‘‘वह अपने दादाजी के पास रहेगा.’’

शिमला पहुंच कर इरा बहुत खुश थी. हाथों में हाथ डाल कर वे दूर तक घूमने निकल जाते. एक दिन सर्दी की पहली बर्फ गिरी थी. इरा दौड़ कर कमरे से बाहर निकल गई. बरामदे में बैठे बर्फ गिरने के दृश्य को बहुत देर तक देखती रही.

फिर मौसम कुछ खराब हो गया था. वे दोनों 2 दिनों तक बाहर न निकल सके.

3-4 दिनों बाद ही इरा ने घर वापस चलने की जिद मचा दी. उदय उसे समझाता रह गया, ‘‘इतनी दूर इतने दिनों बाद आई हो, 2-4 दिन और रुको, फिर चलेंगे.’’

लेकिन उस ने एक न सुनी और उन्हें वापस आना पड़ा.

एक बार चंदन ने कहा, ‘‘मां, जब कभी आप को बाहर जाना हो तो मुझे दादाजी के पास छोड़ जाना, मैं उन के साथ खूब खेलता हूं. वे मुझे बहुत अच्छीअच्छी कहानियां सुनाते हैं और दादी ने मेरी पसंद की बहुत सारी चीजें बना कर मुझे खिलाईं.’’

इरा ने उसे अपने सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘शिमला में उसे चंदन का एक बार भी खयाल नहीं आया. क्या वह अच्छी मां नहीं? अब वह चंदन को एक दिन के लिए भी छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी.’

एक शाम चाय पीते हुए इरा ने कहा, ‘‘सुनो, विमलेशजी कह रही थीं कि इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट औफ फिजिकल एजुकेशन से 2-3 लोग आए हैं, वे सुबह 1 घंटे ऐक्सरसाइज करना सिखाएंगे और उन के लैक्चर भी होंगे. मुझे लगता है, शायद मेरे कई प्रश्नों का उत्तर मुझे वहां जा कर मिल जाएगा. अगर कहो तो मैं भी चली जाया करूं, 15-20 दिनों की ही तो बात है.’’

उदय ने चाहा कि कहे, ‘तुम कहां विमलेश के चक्कर में पड़ रही हो. वह तो सारा दिन पूजापाठ, व्रतउपवास में लगी रहती है. यहां तक कि उसे इस का भी होश नहीं रहता कि उस के पति व बच्चों ने खाना खाया कि नहीं?’ लेकिन वह चुप रहा.

थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘ठीक है, सोच लो, तुम्हें ही समय निकालना पड़ेगा. ऐसा करो, 15-20 दिन तुम मेरे साथ औफिस न चलो.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं है, मैं कर लूंगी,’’ इरा उत्साहित थी.

इरा अब ऐक्सरसाइज सीखने जाने लगी. सुबह जल्दी उठ कर वह उदय और चंदन के लिए नाश्ता बना कर चली जाती. उदय चंदन को ले कर टहलने निकल जाता और लौटते समय इरा को साथ ले कर वापस आ जाता. फिर दिनभर औफिस में दोनों काम करते.

शाम को घर लौटने पर कभी उदय कहता, ‘‘आज तुम थक गई होगी, औफिस में भी काम ज्यादा था और तुम सुबह 4 बजे से उठी हुई हो. आज बाहर खाना खा लेते हैं.’’

लेकिन वह न मानती.

अब वह ऐक्सरसाइज करना सीख चुकी थी. सुबह जब सब सोते रहते तो वह उठ कर ऐक्सरसाइज करती. फिर दिन का सारा काम करने के बाद रात में चैन से सोती.

एक दिन इरा ने उदय से कहा, ‘‘ऐक्सरसाइज से मुझे बहुत शांति मिलती है. पहले मुझे छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था, लेकिन अब नहीं आता. कभी तुम भी कर के देखो, बहुत अच्छा लगेगा.’’

उदय ने हंस कर कहा, ‘‘भावनाओं को नियंत्रित नहीं करना चाहिए. सोचने के ढंग में परिवर्तन लाने से सबकुछ सहज हो सकता है.’’

चंदन की गरमी की छुट्टियां हुईं. सब ने नेपाल घूमने का कार्यक्रम बनाया. जैसे ही वे रेलवेस्टेशन पहुंचे, छोटेछोटे भिखारी बच्चों ने उन्हें घेर लिया, ‘माई, भूख लगी है, माई, तुम्हारे बच्चे जीएं. बाबू 10 रुपए दे दो, सुबह से कुछ खाया नहीं है.’ लेकिन यह सब कहते हुए उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, तोते की तरह रटे हुए वे बोले चले जा रहे थे. इस से पहले कि उदय पर्स निकाल कर उन्हें पैसे दे पाता, इरा ने 20-25 रुपए निकाले और उन्हें दे कर कहा, ‘‘आपस में बराबरबराबर बांट लेना.’’

काठमांडू पहुंच कर वहां की सुंदर छटा देख कर सब मुग्ध रह गए. इरा सवेरे उठ कर खिड़की से पहाड़ों पर पड़ती धूप के बदलते रंग देख कर स्वयं को भी भूल जाती.

एक रात उस ने उदय से कहा, ‘‘मुझे आजकल सपने में भूख से बिलखते, सर्दी से ठिठुरते बच्चे दिखाई देते हैं. फिर मुझे अपने इस तरह घूमनेफिरने पर पैसा बरबाद करने के लिए ग्लानि सी होने लगती है. जब हमारे चारों तरफ इतनी गरीबी, भुखमरी फैली हुई है, हमें इस तरह का जीवन जीने का अधिकार नहीं है.’’

उदय ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘तुम सच कहती हो, लेकिन स्वयं को धिक्कारने से समस्या खत्म तो नहीं हो सकती. हमें अपने सामर्थ्य के अनुसार ऐसे लोगों की सहायता करनी चाहिए, लेकिन भीख दे कर नहीं. हो सके तो इन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए. अगर हम ने अपनी जिंदगी में ऐसे 4-6 घरों के कुछ बच्चों को पढ़नेलिखने में आर्थिक या अन्य सहायता दे कर अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दिया तो वह कम नहीं है. तुम इस में मेरी मदद करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’’

इरा प्रशंसाभरी नजरों से उदय को देख रही थी. उस ने कहा, ‘‘लेकिन दुनिया तो बहुत बड़ी है. 2-4 घरों को सुधारने से क्या होगा?’’

नेपाल से लौटने के बाद इरा ने शहर की समाजसेवी संस्थाओं के बारे में पता लगाना शुरू किया. कई जगहों पर वह स्वयं जाती और शाम को लौट कर अपनी रिपोर्ट उदय को विस्तार से सुनाती.

कभीकभी उदय झुंझला जाता, ‘‘तुम किस चक्कर में उलझ रही हो. ये संस्थाएं काम कम, दिखावा ज्यादा करती हैं. सच्चे मन से तुम जो कुछ कर सको, वही ठीक है.’’

लेकिन इरा उस से सहमत नहीं थी. आखिर एक संस्था उसे पसंद आ गई. अनीता कुमारी उस संस्था की अध्यक्ष थीं. वे एक बहुत बड़े उद्योगपति की पत्नी थीं. इरा उन के भाषण से बहुत प्रभावित हुई थी. उन की संस्था एक छोटा सा स्कूल चलाती थी, जिस में बच्चों को निशुल्क पढ़ाया जाता था. गांव की ही कुछ औरतों व लड़कियों को इस कार्य में लगाया गया था. इन शिक्षिकाओं को संस्था की ओर से वेतन दिया जाता था.

समाज द्वारा सताई गई औरतों, विधवाओं, एकाकी वृद्धवृद्धाओं के लिए भी संस्था काफी कार्य कर रही थी.

इरा सोचती थी कि ये लोग कितने महान हैं, जो वर्षों निस्वार्थ भाव से समाजसेवा कर रहे हैं. धीरेधीरे अपनी मेहनत और लगन की वजह से वह अनीता का दाहिना हाथ बन गई. वे गांवों में जातीं, वहां के लोगों के साथ घुलमिल कर उन की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करतीं.

इरा को कभीकभी महसूस होता कि वह उदय और चंदन के साथ अन्याय कर रही है. एक दिन यही बात उस ने अनीता से कह दी. वे थोड़ी देर उस की तरफ देखती रहीं, फिर धीरे से बोलीं, ‘‘तुम सच कह रही हो…तुम्हारे बच्चे और तुम्हारे पति का तुम पर पहला अधिकार है. तुम्हें घर और समाज दोनों में सामंजस्य रखना चाहिए.’’

इरा चौंक गई, ‘‘लेकिन आप तो सुबह आंख खुलने से ले कर रात देर तक समाजसेवा में लगी रहती हैं और मुझे ऐसी सलाह दे रही हैं?’’

‘‘मेरी कहानी तुम से अलग है, इरा. मेरी शादी एक बहुत धनी खानदान में हुई. शादी के बाद कुछ सालों तक मैं समझ न सकी कि मेरा जीवन किस ओर जा रहा है? मेरे पति बहुत बड़े उद्योगपति हैं. आएदिन या तो मेरे या दूसरों के यहां पार्टियां होती हैं. मेरा काम सिर्फ सजसंवर कर उन पार्टियों में जाना था. ऐसा नहीं था कि मेरे पति मुझे या मेरी भावनाओं को समझते नहीं थे, लेकिन वे मुझे अपने कीमती समय के अलावा सबकुछ दे सकते थे.

‘‘फिर मेरे जीवन में हंसताखेलता एक राजकुमार आया. मुझे लगा, मेरा जीवन खुशियों से भर गया. लेकिन अभी उस का तुतलाना खत्म भी नहीं हुआ था कि मेरे खानदान की परंपरा के अनुसार उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया. अब मेरे पास कुछ नहीं था. पति को अकसर काम के सिलसिले में देशविदेश घूमना पड़ता और मैं बिलकुल अकेली रह जाती. जब कभी उन से इस बात की शिकायत करती तो वे मुझे सहेलियों से मिलनेजुलने की सलाह देते.

‘‘धीरेधीरे मैं ने घर में काम करने वाले नौकरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. शुरू में तो मेरे पति थोड़ा परेशान हुए, फिर उन्होंने कुछ नहीं कहा. वहां से यहां तक मैं उन के सहयोग के बिना नहीं पहुंच सकती थी. उन्हें मालूम हो गया था कि अगर मैं व्यस्त नहीं रहूंगी तो बीमार हो जाऊंगी.’’

इरा जैसे सोते से जागी, उस ने कुछ न कहा और चुपचाप घर चली आई. उसे जल्दी लौटा देख कर उदय चौंक पड़ा. चंदन दौड़ कर उस से लिपट गया.

उदय और चंदन खाना खाने जा रहे थे. उदय ने अपने ही हाथों से कुछ बना लिया था. चंदन को होटल का खाना अच्छा नहीं लगता था. मेज पर रखी प्लेट में टेढ़ीमेढ़ी रोटियां और आलू की सूखी सब्जी देख कर इरा का दिल भर आया.

चंदन बोला, ‘‘मां, आज मैं आप के साथ खाना खाऊंगा. पिताजी भी ठीक से खाना नहीं खाते हैं.’’

इरा ने उदय की ओर देखा और उस की गोद में सिर रख कर फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं तुम दोनों को बहुत दुख देती हूं. तुम मुझे रोकते क्यों नहीं?’’

उदय ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है और पति होने का अधिकार मैं जबरदस्ती तुम से नहीं लूंगा, यह तुम जानती हो. जीवन के अनुभव प्राप्त करने में कोई बुराई तो नहीं, लेकिन बात क्या है तुम इतनी परेशान क्यों हो?’’

इरा उसे अनीताजी के बारे में बताने लगी, ‘‘जिन को आदर्श मान कर मैं अपनी गृहस्थी को अनदेखा कर चली थी, उन के लिए तो समाजसेवा सूने जीवन को भरने का साधन मात्र थी. लेकिन मेरा जीवन तो सूना नहीं. अनीता के पास करने के लिए कुछ नहीं था, न पति पास था, न संतान और न ही उन्हें अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना था. लेकिन मेरे पास तो पति भी है, संतान भी, जिन की देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है, जिन के साथ इस समाज में अपनी जगह बनाने के लिए मुझे संघर्ष करना है. यह सब ईमानदारी से करते हुए समाज के लिए अगर कुछ कर सकूं, वही मेरे जीवन का उद्देश्य होगा और यही जीवन का सत्य भी…’’

जूनियर, सीनियर और सैंडविच: क्यों नाराज थी सोनिका

सोनिका सुबह औफिस के लिए तैयार हो गई तो मैं ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटी, आराम से नाश्ता कर लो, गुस्सा नहीं करते, मन शांत रखो वरना औफिस में सारा दिन अपना खून जलाती रहोगी. मैनेजर कुछ कहती है तो चुपचाप सुन लिया करो, बहस मत किया करो. वह तुम्हारी सीनियर है. उसे तुम से ज्यादा अनुभव तो होगा ही. क्यों रोज अपना मूड खराब कर के निकलती हो?’’

‘‘आप को क्या पता, मौम, बस मुझे और्डर दे कर इधरउधर घूमती रहती है. फिर कभी कहती है, यह अभी तक नहीं किया, इतनी देर से क्या कर रही हो? जैसे हम जूनियर्स उस के गुलाम हैं. हुंह, मैं किसी दिन छोड़ दूंगी सब कामवाम, तब उसे फिर से किसी जूनियर को सारा काम सिखाना पड़ेगा.’’

‘‘नहीं, सोनू, मैनेजर्स अपने जूनियर्स के दुश्मन थोड़े ही होते हैं. नए बच्चों को काम सिखाने में उन्हें थोड़ा तो स्ट्रिक्ट होना ही पड़ता है. तुम्हें तो औफिस में सब पर गुस्सा आता है. टीमवर्क से काम चलता है, बेटा.’’

‘‘मौम, इस मामले में आप मुझे कुछ न कहो तो अच्छा है. मैं जानती हूं आप को किस ने सिखा कर भेजा है. वे भी सीनियर हैं, मैनेजर हैं न, वे क्या जानें किसी जूनियर का दर्द.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो, सोनू, वे तुम्हारे पापा हैं.’’

‘‘मुझे तो अब वे एक सीनियर मैनेजर ही लगते हैं. मैं जा रही हूं, बाय,’’ वह नाश्ता बीच में ही छोड़ कर खड़ी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘सोनू, नाश्ता तो खत्म करो.’’

‘‘मैनेजर साहब को खिला देना, उन्हें तो जाने की जल्दी भी नहीं होगी. मुझे जाना है वरना मेरी मैनेजर, उफ्फ, अब बाय,’’ कह कर सोनू चली गई.

मैं प्लेट में उस का छोड़ा हुआ नाश्ता रसोई में रखने चली गई. इतने में आलोक तैयार हो कर आए, डायनिंग टेबल पर बैठते हुए बोले, ‘‘तनु, सोनू कहां है, गई क्या?’’

‘‘हां, अभी निकली है.’’

‘‘अरे, आज उस ने मुझे बाय भी नहीं कहा.

मैं चुप, गंभीर रही तो आलोक फिर बोले, ‘‘क्या हुआ, फिर उस का मूड खराब था क्या?’’

‘‘हां.’’

‘‘वही सीनियर के लिए गुस्सा?’’

‘‘हां,’’ मैं जानती थी अब उन के कौन से डायलौग आने वाले हैं और वही हुआ.

‘‘तनु, उसे प्यार से समझाओ, सीनियर के साथ बदतमीजी अच्छी बात नहीं है. वे जूनियर्स की भलाई के लिए ही टोकते हैं, उन्हें गाइड करते हैं. सोनू जरूर औफिस में भी लापरवाही करती होगी. घर में भी तो कहां वह कोई काम करना चाहती है. वह लापरवाह तो है ही. इन जूनियर्स को झेलना आसान काम नहीं होता. मुझ से तो वह आजकल ठीक से बात ही नहीं करती है. उसे प्यार से समझाओ कि काम में मन लगाए. लड़कियां औफिस में गौसिप करती हैं,’’ बातें करतेकरते आलोक ने नाश्ता खत्म किया. मैं भी उन के साथ ही नाश्ता कर रही थी. चुपचाप उन की बातें सुन रही थी. आलोक ने अपना टिफिन, बैग और कार की चाबी उठाई और औफिस के लिए निकल गए. मैं ‘क्या करूं, इन बापबेटी का’ की स्थिति में अपना सिर पकड़े थोड़ी देर के लिए सोफे पर ही पसर गई.

आजकल कुछ समझ नहीं आता कि क्या करूं, लगता ही नहीं कि घर में एक पिता है, एक बेटी है. अब तो हर समय यही महसूस होता है कि घर में एक सीनियर है, एक जूनियर है और एक सैंडविच है, मतलब मैं. दोनों के बीच पिसती हूं आजकल. अपनी स्थिति पर कभी गुस्सा आता है, कभी हंसी आ जाती है. वैसे, दोनों की प्रतिक्रियाएं देखसुन कर हंसी ही ज्यादा आती है.

आलोक दवाओं की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नैशनल सेल्स मैनेजर हैं. उन्हें नौकरी करते 28 साल हो रहे हैं. हमारी इकलौती बेटी सोनिका एक बड़ी कंपनी में सीए की अपनी आर्टिकलशिप कर रही है. वह अपने औफिस में सब से जूनियर है. एक तो ठाणे से लोकल ट्रेन की भीड़ में दादर आनेजाने में उसे थकान होती है, ऊपर से पता नहीं क्यों वह अपनी टीम से नाराज सी रहती है. उस की शिकायतें कुछ इस तरह की होती हैं, ‘मेरी मैनेजर शिवानी को खुशामद पसंद है. मैं यह सब नहीं करूंगी. मुझ से कोई कितना भी काम सारा दिन करवा ले पर मैं झूठी तारीफें नहीं करूंगी किसी की. शिवानी अपने हिसाब से करती है हर काम. उस का घर तो 20 मिनट की दूरी पर है, कार से आतीजाती है. मुझे आनेजाने में सब से ज्यादा टाइम लगता है. यह भी नहीं सोचता कोई, रात 8 बजे तक बिठाए रखते हैं मुझे. खुद सब निकल जाते हैं साढ़े 5-6 बजे तक. सारा दिन नहीं बताएगा कोई पर शाम होते ही सारा काम याद आता है सब को.’

शुरूशुरू में सोनिका ने जब ये बातें बतानी शुरू कीं घर में, आलोक ने समझाना शुरू किया, ‘‘अगर मैनेजर अपनी तारीफ से खुश होती है तो क्या बुराई है इस में. सब को अपनी तारीफ अच्छी लगती है, खासतौर पर लेडीज को. अगर इस से वह खुश रहती है तो 1-2 शब्द तुम भी कह दिया करो, क्या फर्क पड़ता है और आनेजाने में तुम्हें जो परेशानी होती है उस से किसी सीनियर को क्या मतलब. काम तो करना ही है न, मुंबई में तो इस परेशानी की आदत पड़ ही जाती है धीरेधीरे. और हो सकता है शाम को ही कुछ अर्जेंट काम आता हो. तुम्हारी कंपनी के कई क्लाइंट विदेशों में भी तो हैं.’’

बस, यह कहना आलोक का, फिर सोनू की गर्जना, ‘‘पापा, इस बारे में अब मुझे आप से कोई बात ही नहीं करनी है, लगता है अपने पापा से नहीं किसी सीनियर से बात कर रही हूं.’’

मैं दोनों के बीच सैंडविच बनी कभी आलोक का, कभी सोनिका का मुंह ताकती रह जाती. कुछ महीनों पहले आलोक का औफिस पवई से यहीं ठाणे शिफ्ट हो गया है. अब उन्हें आराम हो गया है. कार से जाने में 10 मिनट ही लगते हैं. जबकि सोनू डेढ़ घंटे में औफिस पहुंचती है. आनेजाने में रोज उसे 3 घंटे लगते ही हैं. रात साढे़ 10 बजे तक आती है, बहुत ही थकी हुई, खराब मूड में. शनिवार, रविवार दोनों की छुट्टी रहती है. आजकल मैं हर समय किसी बड़ी बहस को रोकने की कोशिश में लगी रहती हूं. पति और बेटी दोनों अपनी जगह ठीक लगते हैं. दोनों का अपनाअपना नजरिया है हर बात को देखने का. पर दोनों ही चाहते हैं मैं उसी की हां में हां मिलाऊं.

एक दिन आलोक शनिवार को रात के 11 बजे तक लैपटौप पर काम कर रहे थे. सोनू कुछ हलकेफुलके मूड में थी. उस ने छेड़ा, ‘‘आज एक सीनियर रात तक काम कर रहा है? किसी जूनियर को बोल कर आराम करो न.’’

आलोक को उस के सीनियर पुराण पर हंसी आ गई, कहने लगे, ‘‘देख लो, कितनी मेहनत करनी पड़ती है मैनेजर को, सोमवार को एक मीटिंग है, उस की तैयारी कर रहा हूं बैठ कर.’’

‘‘हुंह,’’ कह कर सोनू ने सिर को एक झटका दिया. मुझे हंसी आ गई. सोनू खुद भी हंस पड़ी. शनिवार की रात थी, अगले दिन छुट्टी थी, इसलिए सोनू अच्छे मूड में थी वरना संडे की शाम से उस का मूड खराब होना शुरू हो जाता है. पता नहीं कहां क्या बात है जो वह अपने सीनियर्स से खुश नहीं है. उस के मन में सब के लिए बहुत गुस्सा भरा है.

मैं बहुत देर से ये सब बातें सोच रही थी. अचानक डोरबैल बजी. मेड आई तो मैं घर के कामों में व्यस्त हो गई. उस दिन रात को 11 बजे आई सोनू. मैं ने उसे पुचकारा, ‘‘आ गई बेटा, बहुत देर हो गई आज, मेरी बच्ची थक गई होगी.’’

उस ने इशारे से पूछा, ‘‘पापा कहां हैं?’’

‘‘सो गए हैं,’’ मैं ने धीरे से बताया.

वह बड़बड़ाई, ‘देखा, कैसे टाइम से सो पाते हैं सीनियर्स.’

मुझे हंसी आ गई. उस का बड़बड़ाना जारी था, ‘ऐसे ही घर जा कर शिवानी, मिस्टर गौतम, सब सो रहे होंगे.’

मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सुबह भी गुस्से में निकलती हो, शांत रहो, बेटा.’’

वह चिढ़ गई, ‘‘क्या शांत रहूं, आप को क्या पता औफिस में क्या पौलिटिक्स चलती है.’’

मैं चुप रही तो वह मुझ से चिपट गई, ‘‘मौम, आई हेट माई सीनियर्स.’’

‘‘अच्छा, चलो अब मुंहहाथ धो लो.’’

अगले दिन सुबह ही हंगामा मचा था घर में, आलोक और सोनू दोनों ही तैयार हो रहे थे जाने के लिए. मैं दोनों का टिफिन पैक कर नाश्ता डायनिंग टेबल पर रख रही थी. आलोक का मोबाइल बजा. आलोक की गुस्से से भरी आवाज पूरे घर में फैल गई, ‘‘काम तो करना पडे़गा. सेल्स की क्लोजिंग का टाइम है और तुम्हें छुट्टी चाहिए. इस समय कोई छुट्टी नहीं मिलेगी. इस बार टारगेट पूरा नहीं किया तो इस्तीफा ले कर आना मीटिंग में. इन्सैंटिव की बात करना याद रहता है, काम का क्या होगा. मैं करूंगा तुम्हारा काम?’’

अचानक सोनिका पर नजर पड़ी मेरी, वह अपनी कमर पर हाथ रखे आलोक को घूरती हुई तन कर खड़ी थी. मुझे मन ही मन हंसी आ गई. आलोक के फोन रखते ही सोनिका शुरू हो गई, ‘‘पापा, आप किस से बात कर रहे थे?’’

‘‘एक नया लड़का है. महीने का आखिर है, हमारी सेल्स क्लोजिंग का टाइम है और जनाब को छुट्टी चाहिए. पिछले महीने भी गायब हो गया था. पक्का कामचोर है.’’

‘‘पापा, आप ऐसे बात नहीं कर सकते किसी जूनियर से, कितना खराब तरीका था बात करने का.’’

‘‘तुम चुप रहो, सोनू. मेरा मूड बहुत खराब है,’’ आलोक ने थोड़ा सख्ती से कहा.

‘‘मैं जा रही हूं, मौम.’’

‘‘अरे, नाश्ता?’’

‘‘नो, आई एम गोइंग. आई हेट मैनेजर्स.’’

आलोक भी तन कर खड़े हो गए, ‘‘ये आजकल के बच्चे, बस मोटी तनख्वाह चाहिए, कोई काम न कहे इन से,’’ आलोक ने खड़ेखड़े जूस के कुछ घूंट पिए और औफिस के लिए निकल गए. एक सीनियर, एक जूनियर, दोनों जा चुके थे और अब, बस मैं थी दोनों के बीच बनी सैंडविच. दोनों के सोचने के ढंग का जायजा लेते हुए मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए अपना चाय का कप होंठों से लगा लिया.

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