उत्तरदायित्व: बहू दिव्या के कारण क्यों कठघरे में खड़ी हुई सविता

‘‘भई, मैं ने तो अपनी शादी से पहले ही सोच लिया था कि अगर अपनी मां की टोकाटाकी ‘यह मत करो, यह मत पहनो, ऐसे चलो, वैसे मत बोलो’ वगैरहवगैरह सहन कर सकती हूं तो सास की छींटाकशी भी चुपचाप सहन कर लूंगी और मैं ने जो सोचा था वह किया भी,’’ सविता ने बड़े दर्प से कहा, ‘‘अब सास बनने से पहले भी मैं ने फैसला कर लिया है कि जब मैं अपनी अनपढ़ नौकरानियों के नखरे झेलती हूं, उन की बेअदबी की अनदेखी करती हूं तो अपनी पढ़ीलिखी बहू की छोटीमोटी गलतियों को भी अनदेखा किया करूंगी.’’ फिर थोड़ा रुक कर आगे कहा, ‘‘कोई भी 2 व्यक्ति कभी भी एकजैसा नहीं सोचते, कहीं न कहीं सामंजस्य बैठाते हैं, तो फिर भला सासबहू के रिश्ते में समझौते की गुंजाइश क्यों नहीं है?’’

‘‘सौरभ की शादी कर लो, इस सवाल का जवाब तुम्हें खुदबखुद मिल जाएगा,’’ उस की अभिन्न सहेली नीलिमा व्यंग्य से बोली.

‘‘हां सविता, सौरभ की शादी के बाद देखेंगे क्या कहती हो,’’ किट्टी पार्टी में आई अन्य महिलाएं चहकीं.

‘‘वही कहूंगी जो आज कह रही हूं,’’ सविता के स्वर में आत्मविश्वास था.

सौरभ और दिव्या की शादी धूमधाम से हो गई. शादी के 2 वर्षों बाद भी किसी को सविता या दिव्या से एकदूसरे की शिकायत सुनने को नहीं मिली. दोनों के संबंध वाकई में सब के लिए मिसाल बन गए.

‘‘चालाक औरतों के हाथी की तरह खाने के दांत और, दिखाने के और होते हैं,’’ नीलिमा ने एक दिन मुंह बिचका कर ऊषा से कहा, ‘‘बाहर तो बहू से बेटी या सहेली वाला व्यवहार और घर में जूतमपैजार. यही सबकुछ सविता भी करती होगी अपनी बहू के साथ.’’

‘‘मुझे भी यही शक था नीलिमा. सो एक रोज जब मेरी जमादारनी नहीं आई तो मैं ने सविता की जमादारनी को बुला लिया और फिर उसे फुसला कर कुरेदकुरेद कर सविता और दिव्या के ताल्लुकात के बारे में पूछा,’’ ऊषा ने बताया.

‘‘अच्छा, फिर क्या पता चला?’’ सभी महिलाओं ने एकसाथ पूछा.

‘‘वही सबकुछ जो हमें पहले से मालूम था, बल्कि उसे और भी पुख्ता कर दिया,’’ ऊषा ने उसांस ले कर कहा, ‘‘यह नहीं है कि सविता दिव्या को डांटती नहीं है या दिव्या पलट कर जवाब नहीं देती, दोनों में मतभेद और मानमनौअल भी होते हैं, मगर पल भर के लिए. दोनों उस का ‘इशू (मसला) नहीं बनातीं और तूल नहीं देतीं.’’

इसी तरह कई वर्र्ष बीत गए. दिव्या के 2 बच्चे भी हो गए, लेकिन सासबहू के संबंध वैसे ही मधुर बने रहे. अचानक दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन होने की खबर सुन कर सब चौंक पड़े.

सब से ज्यादा हैरान, परेशान सविता थी. दिव्या को क्या टैंशन हो सकती है भला? पैसे की कोई कमी नहीं है. बच्चों की परवरिश भी अपने ढंग से ठीक कर रही है. बच्चे भी सुशील और होनहार हैं. बच्चों की पूरी जिम्मेदारी सविता और उस के पति गौरव पर डाल कर दिव्या और सौरभ स्वच्छंद हो कर घूमतेफिरते हैं. सौरभ भी जान छिड़कता है दिव्या पर. सविता चौंक पड़ी.

‘‘पति का पत्नी पर अधिक आसक्त होना, जरूरत से ज्यादा कामेच्छा भी तो पत्नी के तनाव का कारण हो सकती है?’’

सब शर्मलिहाज छोड़ कर सविता ने सौरभ से जवाबतलब किया.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है, मां. हमारे यौन संबंध बिलकुल सामान्य हैं. मैं ने दिव्या के साथ कभी भी कोई जोरजबरदस्ती नहीं की, जिसे ले कर वह तनावग्रस्त हो,’’ सौरभ ने आश्वासन दिया.

‘‘तो फिर इस तनाव की वजह क्या है?’’ सविता ने जिरह की, ‘‘जिस की वजह से दिव्या का नर्वस ब्रेकडाउन हुआ है?’’

‘‘अप्रत्यक्ष या वर्तमान में तो कुछ भी नहीं है,’’ सौरभ हंसा, ‘‘लेकिन अगर किसी अप्रत्यक्ष डर या भविष्य को ले कर कोई तनाव पाल ले तो इसे तो उसी के दिमाग का दोष कहा जाएगा.’’

‘‘एकदम गलत,’’ सविता भड़क उठी, ‘‘दिव्या तुम से कहीं ज्यादा संतुलित है.’’

‘‘तो फिर आप खुद ही उस से उस के तनाव की वजह पूछ लो, मां. और अगर आप के पास उस का हल हो तो सुझा भी दो.’’

‘‘कोई समस्या ऐसी नहीं होती जिस का कोईर् हल न हो.’’

‘‘दिव्या की समस्या कुछ ऐसी ही है.’’

‘‘मानो तुझे समस्या मालूम है?’’

‘‘हां, समस्या की जड़ ही मैं हूं,’’ सौरभ ने हंसते हुए बात काटी, ‘‘मगर मैं अपने को उखाड़ कर फेंकने वाला नहीं हूं. फिर भी आप दिव्या से तो बात कर ही लो और बेहतर रहे कि आज ही. क्योंकि अभी तो इलाज चल ही रहा है, तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो डाक्टर तो आता ही है, वह संभाल लेगा.’’

सविता को बेटे की बातें अटपटी लगीं, लेकिन समस्या गंभीर थी. सो, उस ने दिव्या से पूछने का फैसला किया.

‘‘आजकल जो माहौल है, मां, उस में जब तक बच्चे स्कूल से न आ जाएं, घर के मर्द काम पर से न लौट आएं, तब तक सभी को घबराहट रहती है,’’ दिव्या ने कह कर टालना चाहा.

‘‘मगर सभी का तो इन और इन के अलावा रोजमर्रा की कई और चिंताओं को ले कर नर्वस ब्रेकडाउन नहीं होता,’’ सविता तुनक कर बोली, ‘‘देख दिव्या, अगर तू नहीं चाहती कि तेरे बारे में सोचसोच कर मैं भी तेरी तरह बीमार पड़ जाऊं और घर व बच्चे परेशान हो जाएं, तो तुझे मुझे अपनी टैंशन की वजह बतानी ही पड़ेगी.’’

पहले तो कुछ देर दिव्या चुप रही, फिर कुछ हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘आप जिद कर रही हैं, मांजी, इसलिए बताना पड़ रहा है. मेरी टैंशन की वजह आप हैं, मां.’’

सविता के सिर पर किसी ने जैसे बम विस्फोट कर दिया. ‘‘मेरी वजह से भी किसी को टैंशन हो सकती है, कभी सोचा नहीं था. खैर, मेरी वजह से कोई परेशान हो, यह तो मुझे कतई गवारा नहीं है. मैं अभी इन्हें फोन कर के नीतिबाग वाली कोठी खाली करवाने को कहती हूं. किराएदार के जाते ही हम दोनों वहां रहने चले जाएंगे,’’ सविता ने उठते हुए कहा.

‘‘रुकिए मां, मैं ने आप से कहीं जाने के लिए नहीं कहा है और न ही मैं आप को कभी कहीं जाने दूंगी. बात मेरी टैंशन की हो रही है और वह आप के कहीं भी रहने या न रहने से कम नहीं होगी,’’ दिव्या ने असहाय भाव से कहा.

‘‘क्यों नहीं होगी, जब उस की वजह ही हटा दी जाएगी तो.’’

‘‘उस की वजह नहीं हटाई जा सकती, मां,’’ दिव्या ने बात काटी, ‘‘मुझे उस के साथ ही जीना है.’’

‘‘बेहतर रहे दिव्या, तू यह सब छोड़ कर अपनी परेशानी की वजह मुझे साफसाफ बता दे,’’ सविता ने कड़े स्वर में कहा.

‘‘परेशानी की वजह है, पापा के रतिका शर्मा के साथ विवाहेतर संबंध. पर आप का चुप रहना या  यह कहिए, रतिका को स्वीकार कर लेना.’’

सविता को जैसे किसी ने करंट छुआ दिया.

‘‘यह भी खूब रही, जब इन के और रतिका के रिश्ते को ले कर कभी मुझे भरी जवानी में कोई तनाव नहीं हुआ तो तुझे क्यों हो रहा है?’’ सविता ने हाथ नचा कर पूछा.

‘‘महज इसीलिए मां कि आप कभी इस रिश्ते को ले कर परेशान ही नहीं हुईं. आप ने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं. आप ने अपने पति को चुपचाप एक अन्य स्त्री के साथ बांट लिया. माना कि आप झगड़ा कर के खानदान की इज्जत नहीं उछालना चाहती थीं या सौरभ को टूटे परिवार का बच्चा कहलवाना नहीं चाहती थीं और आप की इस समझदारी और त्याग ने आप को ससुराल में महान बना दिया, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ सविता ने आवेग में पूछा, ‘‘उस सब से तुझे क्या फर्क पड़ा? तू क्यों गड़े मुरदे उखाड़ रही है?’’

‘‘मुझे ही तो फर्क पड़ा है, मां. जिन्हें आप गड़े मुरदे समझ रही हैं उन के साए मेरी जिंदगी पर छाए हुए हैं और हमेशा छाए रहेंगे,’’ दिव्या ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘शादी से पहले ही सौरभ ने मुझे पापा और रतिका के संबंध के बारे में बता दिया था. आप की सहनशीलता और त्याग को सराहते हुए कहा था कि उस के जीवन में आदर्श महिला सिर्फ उस की मां हैं और उन्हीं के सभी गुण वह अपनी बीवी में भी देखना चाहेगा. उस समय तो प्यार के ज्वार में मैं ने भी हामी भर ली थी कि मैं भी आप ही के पदचिह्नों पर चलूंगी, मगर अब लग रहा है कि यह तो असंभव है.’’

‘‘क्या असंभव है?’’

‘‘आप जैसा बनना या आप के पदचिह्नों पर चलना.’’

‘‘अरी, छोड़ बेटी, तू मुझ से कहीं अच्छी गृहिणी, पत्नी और मां है,’’ सविता सराहना के स्वर में बोली.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ता, मां. सवाल है मेरे सहनशील होने का, जो मैं कभी हो ही नहीं सकती. और न आप की तरह अपने पति को किसी दूसरी औरत के साथ बांट सकती हूं.’’

सविता बुरी तरह चौंक पड़ी.

‘‘नहीं, सौरभ का किसी दूसरी औरत के साथ कोई चक्कर नहीं हो सकता. दूसरी औरत के साथ फंसे लोग खुलेआम शाम घर आ कर बच्चों के साथ नहीं खेला करते,’’ सविता कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘और सौरभ बिला नागा बच्चों के सोने से पहले घर आ जाता है. खैर, यह बता, यह दूसरी औरत वाली बात तेरे दिमाग में आई कहां से?’’

‘‘पिछले हफ्ते छोटी चाची के पोते के मुंडन पर यह सब चचेरेफुफेरे भाईबहनोई बैठे अपनी सफलता और कमाई की बातें कर रहे थे. सुनील भैया ने कहा कि वे और सौरभ तो अब इतना कमा रहे हैं कि चाहें तो एक गृहस्थी और भी बसा लें. इस पर सौरभ बोला, ‘और हमारे पास तो एक्स्ट्रा (फालतू) बीवी रखने का लाइसैंस भी है. बीवियों के एतराज करने की परंपरा तो हमारे खानदान में है ही नहीं.’ मानती हूं मां, ये सब मजाक में कही गई बातें थीं.

‘‘लेकिन मजाक को हकीकत में बदलते क्या देर लगती है? सौरभ सफल, आकर्षक और दिलचस्प व्यक्ति है, उस पर तो हर आयु में औरतें कुरबान होती रहेंगी. कितने मोहपाश में बांधूंगी मैं उसे? देशविदेश में घूमता है, कभी भी कहीं भी फिसल सकता है. परिवार के धिक्कार या ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर तो उसे है नहीं.

‘‘आप क्यों चुप रहीं, मां? क्यों नहीं खदेड़ा रतिका को अपनी जिंदगी से बाहर? क्यों नहीं अपना संपूर्ण हक जताया पति पर? क्यों बनीं त्याग की मूर्ति और क्यों की एक गलत परंपरा आदर्श के नाम पर स्थापित इस परिवार में? यह सवाल सिर्फ मेरा ही नहीं रिश्ते की मेरी सभी देवरानीजेठानियों का भी है, मां,’’ दिव्या फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘क्यों दिया आप ने हम सब को जीवनभर का यह दर्द? क्या हमारी पीढ़ी के प्रति आप का कोई उत्तरदायित्व नहीं था, मां?’’

सविता हतप्रभ सी देखती रही. उस के पास न तो दिव्या के सवालों के जवाब थे और न ही उस के तनाव का कोई इलाज.

विदाई: नीरज ने कविता के आखिरी दिनों में क्या किया

नीरज 3 महीने की टे्रनिंग के लिए दिल्ली से मुंबई गया था पर उसे 2 माह बाद ही वापस दिल्ली लौटना पड़ा था.

‘‘कविता की तबीयत बहुत खराब है. डा. विनिता कहती हैं कि उसे स्तन कैंसर है. तुम फौरन यहां आओ,’’ टेलीफोन पर अपने पिता से पिछली शाम हुए इस वार्त्तालाप पर नीरज को विश्वास नहीं हो रहा था.

कविता और उस की शादी हुए अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए थे. सिर्फ 25-26 साल की कम उम्र में कैंसर कैसे हो गया? इस सवाल से जूझते हुए नीरज का सिर दर्द से फटने लगा था.

एअरपोर्ट से घर न जा कर नीरज सीधे डा. विनिता से मिलने पहुंचा. इस समय उस का दिल भय और चिंता से बैठा जा रहा था.

डा. विनिता ने जो बताया उसे सुन कर नीरज की आंखों से आंसू झरने लगे.

‘‘तुम्हें तो पता ही है कि कविता गर्भवती थी. उसे जिस तरह का स्तन कैंसर हुआ है, उस का गर्भ धारण करने से गहरा रिश्ता है. इस तरह का कैंसर कविता की उम्र वाली स्त्रियों को हो जाता है,’’ डा. विनिता ने गंभीर लहजे में उसे जानकारी दी.

‘‘अब उस का क्या इलाज करेंगे आप लोग?’’ अपने आंसू पोंछ कर नीरज ने कांपते स्वर में पूछा.

बेचैनी से पहलू बदलने के बाद डा. विनिता ने जवाब दिया, ‘‘नीरज, कविता का कैंसर बहुत तेजी से फैलने वाला कैंसर है. वह मेरे पास पहुंची भी देर से थी. दवाइयों और रेडियोथेरैपी से मैं उस के कैंसर के और ज्यादा फैलने की गति को ही कम कर सकती हूं, पर उसे कैंसरमुक्त करना अब संभव नहीं है.’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं? मेरी कविता क्या बचेगी नहीं?’’ नीरज रोंआसा हो कर बोला.

‘‘वह कुछ हफ्तों या महीनों से ज्यादा हमारे साथ नहीं रहेगी. अपनी प्यार भरी देखभाल व सेवा से तुम्हें उस के बाकी बचे दिनों को ज्यादा से ज्यादा सुखद और आरामदायक बनाने की कोशिश करनी होगी. कविता को ले कर तुम्हारे घर वालों का आपस में झगड़ना उसे बहुत दुख देगा.’’

‘‘यह लोग आपस में किस बात पर झगड़े, डाक्टर?’’ नीरज चौंका और फिर ज्यादा दुखी नजर आने लगा.

‘‘कैंसर की काली छाया ने तुम्हारे परिवार में सभी को विचलित कर दिया है. कविता इस समय अपने मायके में है. वहां पहुंचते ही तुम्हें दोनों परिवारों के बीच टकराव के कारण समझ में आ जाएंगे. तुम्हें तो इस वक्त बेहद समझदारी से काम लेना है. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ नीरज की पीठ अपनेपन से थपथपा कर डा. विनिता ने उसे विदा किया.

ससुराल में कविता से मुलाकात करने से पहले नीरज को अपने सासससुर व साले के कड़वे, तीखे और अपमानित करने वाले शब्दों को सुनना पड़ा.

‘‘कैंसर की बीमारी से पीडि़त अपनी बेटी को मैं ने धोखे से तुम्हारे साथ बांध दिया, तुम्हारे मातापिता के इस घटिया आरोप ने मुझे बुरी तरह आहत किया है. नीरज, मैं तुम लोगों से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं,’’ गुस्से में उस के ससुर ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘इस कठिन समय में उन की मूर्खतापूर्ण बातों को आप दिल से मत लगाइए,’’ थकेहारे अंदाज में नीरज ने अपने ससुर से प्रार्थना की.

‘‘इस कठिन समय को गुजारने के लिए तुम सब हमें अकेले छोड़ने की कृपा करो. बस,’’ उस के साले ने नाटकीय अंदाज में अपने हाथ जोड़े.

‘‘तुम भूल रहे हो कि कविता मेरी पत्नी है.’’

‘‘आप जा कर अपने मातापिता से कह दें कि हमें उन से कैसी भी सहायता की जरूरत नहीं है. अपनी बहन का इलाज मैं अपना सबकुछ बेच कर भी कराऊंगा.’’

‘‘देखिए, आप लोगों ने आपस में एकदूसरे से झगड़ते हुए क्याक्या कहा, उस के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं. मेरी गृहस्थी उजड़ने की कगार पर आ खड़ी हुई है. कविता से मिलने को मेरा दिल तड़प रहा है…उसे मेरी…मेरे सहारे की जरूरत है. प्लीज, उसे यहां बुलाइए,’’ नीरज की आंखों से आंसू बहने लगे.

नीरज के दुख ने उन के गुस्से के उफान पर पानी के छींटे मारने का काम किया. उस की सास पास आ कर स्नेह से उस के सिर पर हाथ फेरने लगीं.

अब उन सभी की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘‘कविता की मौसी उसे अपने साथ ले कर गई हैं. वह रात तक लौटेंगी. तुम तब तक यहां आराम कर लो,’’ उस की सास ने बताया.

अपने हाथों से मुंह कई बार पोंछ कर नीरज ने मन के बोझिलपन को दूर करने की कोशिश की. फिर उठ कर बोला, ‘‘मैं अभी घर जाता हूं. रात को लौटूंगा. कविता से कहना कि मेरे साथ घर लौटने की तैयारी कर के रखे.’’

आटोरिकशा पकड़ कर नीरज घर पहुंचा. उस का मन बुझाबुझा सा था. अपने मातापिता के रूखे स्वभाव को वह अच्छी तरह जानता था इसलिए उन्हें समझाने की उस ने कोई कोशिश भी नहीं की.

कविता की जानलेवा बीमारी की चर्चा छिड़ते ही उस की मां ने गुस्से में अपने मन की बात कही, ‘‘तेरी ससुराल वालों ने हमें ठग कर अपनी सिरदर्दी हमारे सिर पर लाद दी है, नीरज. कविता के इलाज की भागदौड़ और उस की दिनरात की सेवा हम से नहीं होगी. अब उसे अपने मायके में ही रहने दे, बेटे.’’

‘‘तेरे सासससुर ने शादी में अच्छा दहेज देने का मुझे ताना दिया है. सुन, अपनी मां से कविता के सारे जेवर ले जा कर उन्हें दे देना,’’ नीरज के पिता भी तेज गुस्से का शिकार बने हुए थे.

नीरज की छोटी बहन वंदना ने जरूर उस के साथ कुछ देर बैठ कर अपनी आंखों से आंसू बहाए पर कविता को घर लाने की बात उस ने भी अपने मुंह से नहीं निकाली.

अपने कमरे में नीरज बिना कपड़े बदले औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ा. इस समय वह अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा था. अपने घर व ससुराल वालों के रूखे व झगड़ालू व्यवहार से उसे गहरी शिकायत थी.

उस के अपने घर वाले बीमार कविता को घर में रखना नहीं चाहते थे और ससुराल में रहने पर नीरज का अपना दिल नहीं लगता. वह कविता के साथ रह कर कैसे यह कठिन दिन गुजारे, इस समस्या का हल खोजने को उसे काफी माथापच्ची करनी पड़ी.

उस रात कविता से नीरज करीब 2 माह बाद मिला. उसे देख कर नीरज को मन ही मन जबरदस्त झटका लगा. उस की खूबसूरत पत्नी का रंगरूप मुरझा गया था.

नीरज कितनी लगन व प्रेम से कविता की देखभाल कर रहा है, यह किसी की नजरों से छिपा नहीं रहा. कविता के मातापिता व भाई हर किसी के सामने नीरज की प्रशंसा करते न थकते.

नीरज के अपने मातापिता को उस का व्यवहार समझ में नहीं आता. वे उस के फ्लैट से हमेशा चिंतित व परेशान से हो कर लौटते.

‘‘दुनिया छोड़ कर जल्दी जाने वाली कविता के साथ इतना मोह रखना ठीक नहीं है नीरज,’’ उस की मां, अकसर अकेले में उसे समझातीं, ‘‘तुम्हारी जिंदगी अभी आगे भी चलेगी, बेटे. कोई ऐसा तेज सदमा दिमाग में मत बैठा लेना कि अपने भविष्य के प्रति तुम्हारी कोई दिलचस्पी ही न रहे.’’

नीरज हमेशा हलकेफुलके अंदाज में उन्हें जवाब देता, ‘‘मां, कविता इतने कम समय के लिए हमारे साथ है कि हम उसे अपना मेहमान ही कहेंगे और मेहमान की विदाई तक उस की देखभाल, सेवा व आवभगत में कोई कमी न रहे, मेरी यही इच्छा है.’’

वक्त का पहिया अपनी धुरी पर निरंतर घूमता रहा. कविता की शारीरिक शक्ति घटती जा रही थी. नीरज ने अगर उस के होंठों पर मुसकान बनाए रखने को जी जान से ताकत न लगा रखी होती तो अपनी तेजी से करीब आ रही मौत का भय उस के वजूद को कब का तोड़ कर बिखेर देता.

एक दिन चाह कर भी वह घर से बाहर जाने की शक्ति अपने अंदर नहीं जुटा पाई. उस दिन उस की खामोशी में उदासी और निराशा का अंश बहुत ज्यादा बढ़ गया.

उस रात सोने से पहले कविता नीरज की छाती से लग कर सुबक उठी. नीरज उसे किसी भी प्रकार की तसल्ली देने में नाकाम रहा.

‘‘मुझे इस एक बात का सब से ज्यादा मलाल है कि हमारे प्रेम की निशानी के तौर पर मैं तुम्हें एक बेटा या बेटी नहीं दे पाई… मैं एक बहू की तरह से…एक पत्नी के रूप में असफल हो कर इस दुनिया से जा रही हूं…मेरी मौत क्या 2-3 साल बाद नहीं आ सकती थी?’’ कविता ने रोंआसी हो कर नीरज से सवाल पूछा.

‘‘कविता, फालतू की बातें सोच कर अपने मन को परेशान मत करो,’’ नीरज ने प्यार से उस की नाक पकड़ कर इधरउधर हिलाई, ‘‘मौत का सामना आगेपीछे हम सब को करना ही है. इस शरीर का खो जाना मौत का एक पहलू है. देखो, मौत की प्रक्रिया पूरी तब होती है जब दुनिया को छोड़ कर चले गए इनसान को याद करने वाला कोई न बचे. मैं इसी नजरिए से मौत को देखता हूं. और इसीलिए कहता हूं कि मेरी अंतिम सांस तक तुम्हारा अस्तित्व मेरे लिए कायम रहेगा…मेरे लिए तुम मेरी सांसों में रहोगी… मेरे साथ जिंदा रहोगी.’’

कविता ने उस की बातों को बड़े ध्यान से सुना था. अचानक वह सहज ढंग से मुसकराई और उस की आंखों में छाए उदासी के बादल छंट गए.

‘‘आप ने जो कहा है उसे मैं याद रखूंगी. मेरी कोशिश रहेगी कि बचे हुए हर पल को जी लूं… बची हुई जिंदगी का कोई पल मौत के बारे में सोचते हुए नष्ट न करूं. थैंक यू, सर,’’ नीरज के होंठों का चुंबन ले कर कविता ने बेहद संतुष्ट भाव से आंखें मूंद ली थीं.

आगामी दिनों में कविता का स्वास्थ्य तेजी से गिरा. उसे सांस लेने में कठिनाई होने लगी. शरीर सूख कर कांटा हो गया. खानापीना मुश्किल से पेट में जाता. शरीर में जगहजगह फैल चुके कैंसर की पीड़ा से कोई दवा जरा सी देर को भी मुक्ति नहीं दिला पाती.

अपनी जिंदगी के आखिरी 3 दिन उस ने अस्पताल के कैंसर वार्ड में गुजारे. नीरज की कोशिश रही कि वह वहां हर पल उस के साथ बना रहे.

‘‘मेरे जाने के बाद आप जल्दी ही शादी जरूर कर लेना,’’ अस्पताल पहुंचने के पहले दिन नीरज का हाथ अपने हाथों में ले कर कविता ने धीमी आवाज में उस से अपने दिल की बात कही.

‘‘मुझे मुसीबत में फंसाने वाली मांग मुझ से क्यों कर रही हो?’’ नीरज ने जानबूझ कर उसे छेड़ा.

‘‘तो क्या आप मुझे अपने लिए मुसीबत समझते रहे हो?’’ कविता ने नाराज होने का अभिनय किया.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ नीरज ने प्यार से उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘तुम तो सोने का दिल रखने वाली एक साहसी स्त्री हो. बहुत कुछ सीखा है मैं ने तुम से.’’

‘‘झूठी तारीफ करना तो कोई आप से सीखे,’’ इन शब्दों को मुंह से निकालते समय कविता की खुशी देखते ही बनती थी.

कविता का सिर सहलाते हुए नीरज मन ही मन सोचता रहा, ‘मैं झूठ नहीं कह रहा हूं, कविता. तुम्हारी मौत को सामने खड़ी देख हमारी साथसाथ जीने की गुणवत्ता पूरी तरह बदल गई. हमारी जीवन ज्योति पूरी ताकत से जलने लगी… तुम्हारी ज्योति सदा के लिए बुझने से पहले अपनी पूरी गरिमा व शक्ति से जलना चाहती होगी…मेरी ज्योति तुम्हें खो देने से पहले तुम्हारे साथ बीतने वाले एकएक पल को पूरी तरह से रोशन करना चाहती है. जीने की सही कला…सही अंदाज सीखा है मैं ने तुम्हारे साथ पिछले कुछ हफ्तों में. तुम्हारे साथ की यादें मुझे आगे भी सही ढंग से जीने को सदा उत्साहित करती रहेंगी, यह मेरा वादा रहा तुम से…भविष्य में किसी अपने को विदाई देने के लिए नहीं, बल्कि हमसफर बन कर जिंदगी का भरपूर आनंद लेने के लिए मैं जिऊंगा क्योंकि जिंदगी के सफर का कोई भरोसा नहीं.’

जब 3 दिन बाद कविता ने आखिरी सांस ली तब नीरज का हाथ उस के हाथ में था. उस ने कठिनाई से आंखें खोल कर नीरज को प्रेम से निहारा. नीरज ने अपने हाथ पर उस का प्यार भरा दबाव साफ महसूस किया. नीरज ने झुक कर उस का माथा प्यार से चूम लिया.

कविता के होंठों पर छोटी सी प्यार भरी मुसकान उभरी. एक बार नीरज के हाथ को फिर प्यार से दबाने के बाद कविता ने बड़े संतोष व शांति भरे अंदाज में सदा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं.

नीरज ने देखा कि इस क्षण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं था. इस मेहमान को विदा कहने से पहले उस की सुखसुविधा व मन की शांति के लिए जो भी कर सकता था, उस ने खुशीखुशी व प्रेम से किया. तभी तो उस के मन में कोई टीस या कसक नहीं उठी.

विदाई के इन क्षणों में उस की आंखों से जो आंसुओं की धारा लगातार बह रही थी उस का उसे कतई एहसास नहीं था.

आखिर कितना घूरोगे : गांव से दिल्ली आई वैशाली के साथ क्या हुआ?

लेखिका- वंदना बाजपेयी

कालीकजरारी, बड़ीबड़ी मृगनयनी आंखें किस को खूबसूरत नहीं लगतीं. लेकिन उन से ज्यादा खूबसूरत होते हैं उन आंखों में बसे सपने, कुछ बनने के, कुछ करने के. सपने लड़कालड़की देख कर नहीं आते. छोटाबड़ा शहर देख कर नहीं आते.

फिर भी, अकसर छोटे शहर की लडकियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है ‘कल’. कारण, वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्ज़त हैं लड़कियां. जल्दी शादी कर उन्हें उन के घर भेजना है जहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं.

जो लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं. इस से पहले कि वे छिटके सपनों को बिन पाएं, बड़ी ही निर्ममता से वे कुचल दिए जाते हैं, उन लड़कियों के अपनों द्वारा, समाज द्वारा.

कुछ ही होती हैं जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढती हैं. उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक महसूस है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर टकराना होता है हर मुश्किल से. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘हां भैया, कैसे हो?’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे लगा देते हैं.

देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबु मिली हुई थी. बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा ली थीं. लेकिन देवास में अभी भी वह शैशव अवस्था में था. कहने का मतलब यह है कि शहर में आए बाजारवाद का असर वैशाली पर भी था. लिबरलिज्म यानी बाजारवाद की हवाओं ने ही तो बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती वैशाली को बेफिक्र बना दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती. पर बचपना है कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी, मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण वह बहुत लाड़प्यार में पली थी. जो इच्छा करती, झट से पूरी कर दी जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के आलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है. पर उस ने मेहनत और उम्मीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए, तो जल्दी से ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी का अपौइंटमैंट लैटर उस के हाथ आ गया.

वैशाली की ख़ुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की खुशबू की तरह महकने लगी. यह अपौइंटमैंट लैटर थोड़ी ही था, उस के पंखों को परवाज पर लगी नीली स्याही की मुहर थी. मातापिता भी उस की ख़ुशी में शामिल थे, पर अंदरअंदर डर था कि इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी. आसपास के लोगों ने डराया भी बहुत… ‘दिल्ली है, भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’ वे खुद भी तो आएदिन अख़बारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं, पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं, खबरों की भी राजधानी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे घबराया रहता है जैसे सारे अपराध दिल्ली में ही होते हों. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच समझाई. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था.

दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कांटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे. तसल्ली इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

मां ने डब्बाभर कर लड्डू व मठरी रख दिए साथ में. कुछ नहीं खा पाएगी, तो भी ये लड्डू, मठरी, सत्तू तो साथ देगा ही. दिल लाख आगेपीछे कर रहा हो, पर बेटी की इच्छा तो पूरी करनी ही थी. लिहाजा, कदम चल पड़े दिल्ली की ओर.

औफिस के श्याम ने ‘ओय’ होटल बुक कर दिया था. यह सस्ता होता है, दोचार दिन तो टिकना ही पड़ेगा, यही ठीक रहेगा. वैशाली के लिए गर्ल्स पीजी की ढूंढा जाने लगा. आखिरकार, लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया था. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस, बस, 2 मेट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता बेफिक्र हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वेस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी, मंजुलिका तेजतर्रार, हाईफाई. कई साल से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की ख़ास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे को जौइनिंग थी. मातापिता जा चुके थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना, पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही की. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला, तो खुलता ही चला गया. मंजुलिका रस लेले कर सुनती रही.

उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते… मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा, ‘पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी.’ वह हंस दी. वैसे, जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी वह. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर.

उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है, यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे. वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई. जैसे सैकड़ों चीटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया हो. उसे फ़ाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फ़ाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई यी संज्ञाशून्य सी. देवास में उस ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे, पर शायद हर समय मां या पिताजी साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ़, कैसे टिकेगी वह यहां? जब शीशे के पार केबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा था तो पिता की ही तरह लगे थे वे. 50 वर्ष के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है. लेकिन, क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए भी, बस, पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया.

आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. पर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता, उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे, बस, अपने सपनों पर ध्यान देना है. पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई, पर वह फीलिंग निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. काश, सारे मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफ़सोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर, रोजरोज उन काट खाने वाली नज़रों से वह खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिनों तक दुपट्टा पूरा खोल कर ओढ़ कर आती रही. 15वें दिन तक दुप्पट्टे में इधरउधर कई सेफ्टीपिन लगाने लगी. पर बौस की एक्सरे नज़रें हर दुपट्टे, हर सेफ्टीपिन के पार पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी? वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. एकएक दिन कर के एक महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह ख़ुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी. मंजुलिका ने टोका, “आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.” वैशाली खुद को रोक नहीं पाई, जितना दिल में भरा था, सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, “सा SSS… की मांबहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे, जितना घूरना है. और भी कुछ हरकत करता है क्या ?”

नहीं, बस, गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है कि… कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

“अब समझी, तू जींसटौप से सूट कर क्यों आई यी. अरे, तेरी गलती थोड़ी न है. देख, तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर ऐसे घुरुओं को. हम लोग कहां परवा करते हैं. जो मन आया, पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में एक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे. सो मनपसंद कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें, परवा न करें. वह कहावत सुनी है ना, ‘हाथी अपने रास्ते चलते हैं और कुत्ते भूंकते रहते हैं’. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख, कुछ दिनों बाद नया शिकार ढूंढ लेंगे,” मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उस को शांत करने की कोशिश करने लगी.

“मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं,” वैशाली ने धीरे से कहा. उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां भी से ही घूरने वाले मिलेंगे. बस, नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न, इग्नोर कर.”

“इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…” वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की ख़ुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. मां चहक कर बता रही थीं कि उन्होंने आसपड़ोस में मिठाई बांटी है. बाबूजी ने अपने औफिस में सब को समोसा, बर्फी की दावत दी. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है. आखिरकार, महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है.

“ओह मां, ओह पिताजी”, इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से. सारी रात वैशाली रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है, वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर. वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

पुरुष को जनने वाली स्त्री, जिस की कोख का सहारा सभी ढूंढते हैं, को अपने ही शरीर के प्रति क्यों अपराधबोध हो. सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, “हाथ पकडे तो तमाचा भी लगा दूं, पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा. समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी. ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर, इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज कर रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लग रहा था. ड्राइंग फ़ाइल निकाल कर स्केचिंग करने लगी. यही तो करती है वह हमेशा जब मन उदास होता है. बाहर बारिश हो रही थी और अंदर वह आग उगल रही थी. तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गाँव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उस का बहुत लाडला रहा है अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है, दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, “दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गाँव के लोग संडास का इस्तेमाल नहीं करते. बस, यहांवहां जहां भी जगह मिल्रती है, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम घंटी खरीद लाए. अब गाँव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता, तो हौ कह कर घंटी बजा देते हैं. सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कई बार कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. कई बार पिताजी से शिकायत भी होती है. अकेले मिलने पर डांट भी देते हैं. पर हम भी सुधरते नहीं हैं और उन की झेंप देखने लायक होती है. गलत काम का एहसास होता है. देखना, एक दिन ये लोग सब शौचालय इस्तेमाल करने लगेंगे.” बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही, फिर न जाने कब नींद ने उसे आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घडी में देखा, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धडकनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी टेबल पर बैठ फाइलें निबटाने लगी. तभी बौस ने उसे केबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

“एक मिनट सर,” वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, “एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं, फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर, बस एक बार… ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद जब अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी फिर आप बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी.

“जिस दिन से औफिस में आई हूं, यह सब झेल रही हूं. आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. मैं जानती हूं कि आप नहीं तो कोई और आप की मांबहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नी, बेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरनेवालों से घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

“जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,” वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य कलीग्स ने एकसाथ कहा. वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई थी. और उस के पीछे थी इस साहस पर ताली बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे.

और उस के बाद सन्मुख किसी महिला को घूरते हुए नहीं पाए गए.

अपनी मंजिल : अमिता पर मातापिता के अलगाव का कैसे पड़ा असर?

अमिता दौड़ती सी जब प्लेटफार्म पर पहुंची तो गाड़ी चलने को तैयार थी. बिना कुछ सोचे जो डब्बा सामने आया उसी में वह घुस गई. अमिता को अभी तक रेल यात्रा करने का कोई अनुभव नहीं था. डब्बे के अंदर की दुर्गंध से उसे मतली आ गई. भीड़ को देखते ही उस के होश उड़ गए.

‘‘आप को कहां जाना है?’’ एक काले कोट वाले व्यक्ति ने उस से पूछा.

चौंक उठी अमिता. काले कोट वाला व्यक्ति रेलवे का टीटीई था जो अमिता को घबराया देख कर उतरतेउतरते रुक गया था. अब वह बुरी तरह घबरा गई. रात का समय और उसे पता नहीं जाएगी कहां? उसे तो यह तक नहीं पता था कि यह गाड़ी जा कहां रही है? वह स्तब्ध सी खड़ी रही. उसे डर लगा कि बिना टिकट के अपराध में यह उसे पुलिस के हाथों न सौंप दे.

‘‘बेटी, यह जनरल बोगी है. इस में तुम क्यों चढ़ गईं?’’ टीटीई ने सहानुभूति से कहा.

‘‘समय नहीं था अंकल, जाना जरूरी था तो मैं बिना सोचेसमझे ही…यह डब्बा सामने था सो चढ़ गई.’’

‘‘समझा, इंटरव्यू देने के लिए जा रही हो?’’

‘‘इंटरव्यू?’’ अमिता को लगा कि यह शब्द इस समय उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा के समान है.

‘‘अंकल, जाना जरूरी था, गाड़ी न छूट जाए इसलिए…’’

‘‘गाड़ी छूटने में अभी 10 मिनट का समय है.’’

टीटीई के साथ नीचे उतर कर अमिता ने पहले जोरजोर से सांस ली.

‘‘रिजर्वेशन है?’’

‘रिजर्वेशन?’ मन ही मन अमिता घबराई. यह कैसे कराया जाता है, उसे यही नहीं मालूम तो क्या बताए. पहले कभी रेल का सफर किया ही नहीं. छुट्टी होते ही पापा गाड़ी ले कर आते और दिल्ली ले आते. छुट्टी के बाद अपनी गाड़ी से पापा उसे फिर देहरादून होस्टल पहुंचा आते. जब मम्मी थीं तब वह उन के साथ मसूरी भी जाती तो अपनी ही कार से और पापा 2-4 दिन में घूमघाम कर दिल्ली लौट जाते. मम्मी के बाद पापा अकेले ही कार से उसे लेने आते और छुट्टियां खत्म होने के बाद फिर छोड़ आते. रेल के चक्कर में कभी पड़ी ही नहीं.

12 साल हो गए, मम्मी का आना बंद हो गया, क्योंकि मम्मीपापा दोनों तलाक ले कर अलग हो गए हैं. कोर्ट ने आर्थिक सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए उस की कस्टडी पापा को सौंप दी. वैसे मां ने भी उस को साथ रखने का कोई आग्रह नहीं किया. मां के भेजे ग्रीटिंग कार्ड्स व पत्रों से ही उसे पता चला कि उन्होंने शादी कर ली है और अब कानपुर में हैं.

आज 12 साल से उस का जीवन एकदम होस्टल का है क्योंकि गरमी की लंबी छुट्टियों में स्कूल की ओर से कैंप की व्यवस्था की जाती है. वह वहीं चली जाती. उसे अच्छा भी लगता क्योंकि दोस्तों के साथ अमिता खूब मौजमस्ती करती. पापा तो 1-2 महीने में आ कर उस से मिल जाते पर मम्मी नहीं. मां के अलग होने के बाद घर का आकर्षण भी नहीं रहा तो कोई समस्या भी नहीं हुई. पर इस बार कुछ अलग सा हो गया.

‘‘क्या हुआ मैडम, रिजर्वेशन नहीं है क्या?’’ यह सुनते ही अमिता अपने खयालों से जागी.

‘‘जी, अंकल इतनी जल्दी थी कि…’’

‘‘क्या कोई इंटरव्यू है?’’

‘‘जी…जी अंकल.’’

‘‘मेरा भतीजा भी गया है,’’ वह टिकट चैकर बोला, ‘‘टाटा कंपनी में उसे इंटरव्यू देना है पर वह तो सुबह की गाड़ी से निकल गया था. तुम को भी उसी से जाना चाहिए था. नई जगह थोड़ा समय मिले तो अच्छा है, पर यह भी ठीक है. इंटरव्यू तो परसों है. जनरल बोगी में तुम नहीं जा पाओगी. सेकंड एसी में 2-3 बर्थ खाली हैं. चलो, वहां तुम को बर्थ दे देता हूं.’’

साफसुथरे ठंडे और भीड़रहित डब्बे में आ कर अमिता ने चैन की सांस ली. नीचे की एक बर्थ दिखा कर टिकट चैकर ने कहा, ‘‘यह 23 नंबर की बर्थ तुम्हारी है. मैं इस का टिकट बना रहा हूं.’’

पैसे ले कर उस ने टिकट बना दिया. 4 बर्थों के कूपे में अपनी बर्थ पर वह फैल कर बैठ गई. तब अमिता के मन को भारी सुकून मिला था.

अपनी बर्थ पर कंबल, चादर, तौलिया, तकिया रखा देख उस ने बिस्तर ठीक किया. भूख लगी तो कूपे के दरवाजे पर खड़ी हो कर वैंडर का इंतजार करने लगी. तभी हाथ में बालटी लिए एक वैंडर उधर से निकला तो उस ने एक पानी की बोतल और एक कोल्डडिं्रक खरीदी और बर्थ पर बैठ कर पीने लगी. वैंडर ने ही उसे बताया था कि यह ट्रेन टाटा नगर जा रही है.

आरामदेह बर्थ मिल गई तो अमिता सोचने लगी कि कौन कहता है संसार में निस्वार्थ सेवा, परोपकार, दया, सहानुभूति समाप्त हो गई है? भले ही कम हो गई हो पर इन अच्छी भावनाओं ने अभी दम नहीं तोड़ा है और इसलिए आज भी प्रकृति हरीभरी है, सुंदर है और मनुष्यों पर स्नेह बरसाती है. यदि सभी स्वार्थी, चालाक और गंदे सोच के लोग होते तो धरती पर यह खूबसूरत संसार समाप्त हो जाता.

अमिता कोल्डडिं्रक पी कर लेट गई और चादर ओढ़ कर आंखें बंद कर लीं. इस एक सप्ताह में उस के साथ जो घटित हुआ उस पर विचार करने लगी.

इस बार भी कैंप की पूरी व्यवस्था रांची के जंगलों में थी. कुछ समय ‘हुंडरू’ जलप्रपात के पास और शेष समय ‘सारांडा’ में रहना था. स्कूल की छुट्टियां होने से पहले ही पैसे जमा हो गए थे. उस ने भी अपना बैग लगा लिया था. गरमी की छुट्टियों का मजा लेने को कई छात्र तैयार थे कि अचानक कार्यक्रम निरस्त कर दिया गया, क्योंकि वहां माओवादियों का उपद्रव शुरू हो गया था और वे तमाम टे्रनों को अपना निशाना बना रहे थे. ऐसे में किसी भी पर्यटन पार्टी को सरकार ने जंगल में जाने की इजाजत नहीं दी. अब वह क्या करती. होस्टल बंद हो चुका था और ज्यादातर छात्र अपनेअपने घर जा चुके थे. जो छात्र कैंप में नहीं थे, वे तो पहले ही अपनेअपने घरों को जा चुके थे और अब कैंप वाले भी जा रहे थे.

अमिता ने सोचा दिल्ली पास में ही तो है. देहरादून से हर वक्त बस, टैक्सियां दिल्ली के लिए मिल जाती हैं. इसलिए वह अपनेआप घर जा कर पापा को सरप्राइज देगी. पापा भी यह देख कर खुश होंगे कि बेटी बड़ी व समझदार हो गई है. अब अकेले भी आजा सकती है और फिर पापा भी तो अकेले हैं. इस बार जा कर उन की खूब सेवा करेगी, अच्छीअच्छी चीजें बना कर खिलाएगी. उन को ले कर घूमने जाएगी. उन के लिए अपनी पसंद के अच्छेअच्छे कपड़े सिलवाएगी.

संयोग से सहारनपुर आ कर उस की बस खराब हो गई और ठीक होने में 2 घंटे लग गए. अमिता घर पहुंची तो रात के साढ़े 9 बजे थे. उस ने घंटी बजाई और पुलकित मन से सोच रही थी कि पापा उसे देख कर खुशी में उछल पड़ेंगे. परीक्षा का नतीजा आने में अभी 1 महीना पड़ा है. तब तक मस्ती ही मस्ती.

दरवाजा पापा ने ही खोला. उस ने सोचा था कि पापा उसे देखते ही खुश हो जाएंगे लेकिन उन्हें सहमा हुआ देख कर वह चिंतित हो गई.

‘तू…? तेरा कैंप?’ भौचक पापा ने पूछा.

बैग फेंक कर वह अपने पापा से लिपट गई. पर पापा की प्रतिक्रिया से उसे झटका लगा. चेहरा सफेद पड़ गया था.

‘तू इस तरह अचानक क्यों चली आई?’

अमिता को लगा मानो उस के पापा अंदर ही अंदर उस के आने से कांप रहे हों. उस ने चौंक कर अपना मुंह उठाया और पापा को देखा तो वे उसे कहीं से भी बीमार नहीं लगे. सिल्क के गाउन में वे जंच रहे थे, चेहरे पर स्वस्थ होने की आभा के साथ किसी बात की उलझन थी. अमिता ने बाहर से ही ड्राइंगरूम में नजर दौड़ाई तो वह सजाधजा था. तो क्या उस के घर आने से पापा नाराज हो गए? पर क्यों? वे तो उसे बहुत प्यार करते हैं.

‘पापा, होस्टल बंद हो गया. सारी लड़कियां अपनेअपने घरों को चली गईं. मैं अकेली वहां कैसे रहती? मैस भी बंद था. खाती क्या?’

‘वह तुम्हारा कैंप? पैसे तो जमा कर आया था.’

‘इस बार कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘शिल्पा के घर जा सकती थी. कई बार पहले भी गई हो.’

शिल्पा उस की क्लासमेट के साथ ही रूममेट भी है और गढ़वाल के एक जमींदार की बेटी है.

‘पापा, उस के चले जाने के बाद कैंप रद्द हुआ.’

उस के पापा ने अभी तक उसे अंदर आने को नहीं कहा था. बैग ले कर वह दरवाजे के बाहर ही खड़ी थी. वह खुद ही बैग घसीट कर अंदर चली आई. उसे आज पापा का व्यवहार बड़ा रहस्यमय लग रहा था.

‘बेटी, यहां आने से पहले मुझ से एक बार पूछ तो लेती.’

अमिता ने आश्चर्य के साथ पापा को देखा. क्या बात है? खुश होने की जगह पापा नाराज लग रहे हैं.

‘जब मुझे अपने ही घर आना था तो फोन कर के आप को क्या बताती? आप की बात मैं समझ नहीं पा रही. पापा, क्या मेरे आने से आप खुश नहीं हैं?’

पापा असहाय से बोल उठे, ‘ना…ना… खुश हूं…मैं अगर बाहर होता तो…? इसलिए फोन की बात कही थी.’

पापा दरवाजा बंद कर के अंदर आए. अमिता उन के गले से लग कर बोली, ‘पापा, अब मैं रोज अपने हाथों से खाना बना कर आप को खिलाऊंगी.’

‘क्यों जी, खाना खाने क्यों नहीं आ रहे? बंटी सो जाएगा,’ यह कहते हुए एक युवती परदा हटा कर अंदर पैर रखते ही चौंक कर खड़ी हो गई. लगभग 35 साल की सुंदर महिला, साजशृंगार से और भी सुंदर लग रही थी. भड़कीली मैक्सी पहने थी. पापा जल्दी से हट कर अलग खड़े हो गए.

‘दिव्या, यह…यह मेरी बेटी अमिता है.’

‘बेटी? और इतनी बड़ी? पर तुम ने तो कभी अपनी इस बेटी के बारे में मुझे नहीं बताया.’

पापा हकलाते हुए बोले, ‘बताता…पर मुझे मौका नहीं मिला. यह होस्टल में रहती है. इस साल बीए की परीक्षा दी है.’

‘तो क्या अब इसे अपने साथ रहने को बुला लिया?’

उस महिला के शब्दों से घृणा टपक रही थी. अमिता ने अपने पैरों के नीचे से धरती हिलती हुई अनुभव की.

‘नहीं…नहीं. यह यहां कैसे रहेगी?’

पापा के चेहरे पर भय, घबराहट देख अमिता को उन पर दया आई. अब तक वह अपने पापा को बहुत बहादुर पुरुष समझा करती थी. पर दिव्या नाम की इस औरत के सामने पापा को मिमियाते देख अमिता को अंदर से भारी कष्ट हो रहा था. उस ने अपना बैग उठाया और दिव्या की तरफ बढ़ कर बोली, ‘सुनिए, मैं इन की बेटी अमिता हूं. पापा ने मुझे साथ रहने के लिए नहीं बुलाया. छुट्टियां थीं तो मैं ही उन को बिना बताए चली आई. असल में मुझे पता नहीं था कि यहां आप मेरी मां के रूप में आ चुकी हैं. आप परेशान न हों, मैं अभी चली जाती हूं.’

पापा छटपटा उठे. मुझे ले कर उन के मन की पीड़ा चेहरे पर झलक आई. बोले, ‘इतनी रात में तू कहां जाएगी. चल, मैं किसी होटल में तुझे छोड़ कर आता हूं.’

‘पापा, आप जा कर खाना खाइए. मैं जाती हूं. गुडनाइट.’

गेट से बाहर निकलते ही खाली आटो मिल गया, जिसे पकड़ कर वह बस अड्डे आ गई जहां से उस ने कानपुर जाने की बस पकड़ ली.

कानपुर तक का टिकट बनवा कर कोच की आरामदायक बर्थ पर बैठी तो अमिता को सोचने का समय मिला कि आगे उसे करना क्या है? उचित क्या है?

अमिता को आज वह दिन याद आ रहा है जब उस ने पापा का हाथ पकड़ कर देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में कदम रखा था. फिर पापा जब होस्टल में उसे छोड़ लौटने लगे तो वह कितना रोई थी. उन के हर उठते कदम के साथ उसे आशा होती कि वह दौड़ कर लौट आएंगे और उसे गोद में उठा कर अपने साथ वापस ले जाएंगे. मम्मी भी आएंगी और उसे अपने सीने से लगा लेंगी. पर उन दोनों में से कोई नहीं आया और बढ़ते समय के साथ 6 साल की वह बालिका अब 20 साल की नवयौवना बन गई. मम्मी नहीं आईं पर अब वही उन के पास जा रही है. पता नहीं वहां उस के लिए कैसे हालात प्रतीक्षा कर रहे हैं.

मां साल में 2 बार कार्ड भेजती थीं. इसलिए अमिता को उन का पता पूरी तरह याद था. घर खोजने में उसे कठिनाई नहीं हुई. आटो वाले ने आवासविकास कालोनी के ठीक 52 नंबर घर के सामने ले जा कर आटो रोका. मां का एमआईजी घर ठीकठाक है. सामने छोटा सा लौन भी है. दरवाजे पर चमेली की बेल और पतली सी क्यारी में मौसमी फूल. गेट खोल अंदर पैर रखते ही अमिता के मन में पहला सवाल आया कि क्या मम्मी उसे पहचान पाएंगी? 6 साल की बेटी की कहीं कोई भी झलक क्या इस 20 वर्ष की युवती के शरीर में बची है. पापा तो 1-2 महीनों में मिल भी आते थे. उसे धीरेधीरे बढ़ते भी देखा है पर मम्मी ने तो इन 12 सालों में उसे देखा ही नहीं. अब उस की समझ में बात आई कि अपनी बेटी से मिलने के लिए पापा को औफिस के काम का बहाना क्यों बनाना पड़ता था.

उस दिन पापा का हाथ पकड़े एक नन्ही बच्ची फ्राक में सुबक रही थी और आज जींसटौप में वही बच्ची जवान हो कर खड़ी है. मां पहचानेंगी कैसे? वह गेट से बरामदे की सीढि़यों तक आई तभी दरवाजे का परदा हटा कर एक महिला बाहर आई. 12 वर्ष हो गए फिर भी अमिता को पहचानने में देर न लगी. अनजाने में ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘म…मम्मी…’’

मां, संसार का सब से निकटतम रिश्ता जिस के शरीर को निचोड़ कर ही उस का यह शरीर बना है.

उस का मन कर रहा था कि मां से लिपट जाए. सुनीता नहीं पहचान पाईं. सहम कर खड़ी हो गई.

‘‘आप?’’

आंसू रोक अमिता रुंधे गले से बोली, ‘‘मम्मा, मैं…मैं…बिट्टू हूं.’’

अपने सामने अपनी प्रतिमूर्ति को देख कर सुनीता सिहर उठीं. फिर दोनों बांहों में भर कर उसे चूमा, ‘‘बिट्टू…मेरी बच्ची… मेरी गुडि़या…मेरी अमिता.’’

अमिता के सामने एक पल में सारा संसार सुनहरा हो गया. मां कभी बच्चे से दूर नहीं जा सकती. पापा ने बहुत कुछ किया पर मां संसार में सर्वश्रेष्ठ आश्रय है.

‘इतने दिनों के बाद मेरी याद आई तुझे?’ उन्होंने फिर चूमा उसे.

‘चल…अंदर चल.’

‘बैठ, मैं चाय बनाती हूं.’

बैग को कंधे से उतार कर नीचे रखा और सोफे पर बैठी. घर में पता नहीं कौनकौन हैं? वे लोग उस का आना पता नहीं किसकिस रूप में लेंगे. मम्मी अपनी हैं पर बाकी से तो कोई रिश्ता नहीं, तभी अमिता चौंकी. अंदर कर्कश आवाज में कोई गरजा.

‘8 बज गए, चाय बनी कि नहीं.’

‘बनाती हूं, बिट्टू आई है न इसलिए देर हो गई.’

‘कौन है यह बिट्टू? सुबह किसी के घर आने का यह समय है क्या?’

‘धीरे बोलो, वह सुन लेगी. मेरी बेटी है अमिता,’ मां के स्वर में लाचारी और घबराहट थी.

‘तुम्हारी बेटी, वह होस्टल वाली न. मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा. जाने के लिए कह दो.’

‘अरे, मुझ से मिलने आई होगी. 2-4 दिन रहेगी फिर चली जाएगी पर तुम पहले से हल्ला मत करो.’

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मां के शब्दों में अजीब सी याचना और विनती थी. आंखों के सामने उजली सुबह स्याह हो गई. ये उस को नहीं रखेंगे तो अब क्या करेगी? पापा होटल में रख रहे थे वह फिर भी अच्छा था. किसी की दया का पात्र तो नहीं बनती.

परीक्षाफल आने में अभी पूरा एक महीना पड़ा है. उस के बाद ही तो वह कहीं नौकरी तलाश कर सकती है पर तब तक का समय? होस्टल खुला होता तो लौट जाती. वहीं कोई छोटामोटा काम देख लेती पर कानपुर तो नई और अनजान जगह है. कौन नौकरी देगा?

तभी सुनीता ट्रे में रख कर चाय ले आईं. पीछेपीछे एक गैंडे जैसा आदमी चाय पीता हुआ लुंगी और बनियान में आ गया. लाललाल आंखें, मोटे लटके होंठ, डीलडौल मजदूरों जैसा, भद्दा हावभाव. उस की आंखों के सामने सौम्य, भद्र व्यक्तित्व वाले उस के पापा आ गए. मम्मी की रुचि इतनी विकृत हो गई है. छि:.

‘चाय ले, ये सतीशजी हैं मेरे पति.’

मन ही मन अमिता ने सोचा यह आदमी तो पापा के चपरासी के समान भी नहीं है. उस ने बिना कुछ बोले चाय ले ली. गैंडे जैसे व्यक्ति ने स्वर को कोमल करते हुए कहा, ‘अरे, तुम मेरी बेटी जैसी हो. हमारे पास ही रहोगी.’

सुनीता का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘यही तो मैं कह रही थी. तेरे 2 छोटे भाई भी हैं. अच्छा लगेगा तुझे यहां.’

अमिता उस व्यक्ति की आंखों में लालच और भूख देख सिहर उठी. बिना सोचेसमझे वह कहां आ गई. मम्मी खुशी से फूली नहीं समा रहीं.

‘चाय समाप्त कर, चल तेरा कमरा दिखा दूं. साथ में ही बाथरूम है. नहाधो कर फ्रैश हो ले. मैं नाश्ता बनाती हूं. भूख लगी होगी.’

सुनीता बेटी को उस के कमरे में छोड़ आईं. मां के बाहर जाते ही उस ने अंदर से कुंडी लगा ली. उस की छठी इंद्री उसे सावधान कर रही थी कि वह यहां पर सुरक्षित नहीं है. उस का मन पापा का संरक्षण पाने के लिए रो उठा.

नहाधो कर अमिता बाहर आई तो 2 कालेकलूटे, मोटे से लड़के डाइनिंग टेबल पर स्कूल ड्रैस में बैठे थे. अमिता को दोनों एकदम जंगली लगे. सतीश नाश्ता कर रहा था. उसे फिर ललचाई नजरों से देख कर बेटों से बोला, ‘बच्चो, यह तुम्हारी दीदी है. अब हमारे साथ ही रहेगी और तुम लोग इस से पढ़ोगे,’ फिर पत्नी से बोला, ‘सुनो सुनीता, आज से ही टीचर की छुट्टी कर देना.’

‘टीचर की छुट्टी क्यों?’

‘अब इन बच्चों को यह पढ़ाएगी. 500 रुपए महीने के बचेंगे तो इस का कुछ तो खर्चा निकलेगा.’

अमिता ने सिर झुका लिया. सुनीता लज्जित हो गईं.

 

अमिता ने इस से पहले इतने भद्दे ढंग से बात करते किसी को नहीं देखा था और मम्मी यह सब झेल रही हैं. जबकि यही मम्मी पापा का जरा सा गरम मिजाज नहीं झेल सकीं और इस मूर्ख के आगे नाच रही हैं. उन की जरा सी जिद पर चिढ़ जाती थीं और अब इन दोनों जंगली बच्चों को झेल रही हैं और चेहरे पर शिकन तक नहीं है. यही मम्मी हैं कि आज सतीश को खुश करने में कैसे जीजान से लगी हैं जबकि पापा की नाक में दम कर रखा था.

एक खटारा सी मारुति में दोनों बेटों को ले कर सतीश चला गया. बच्चों को स्कूल छोड़ खुद काम पर चला जाएगा. लंच में आते समय ले आएगा. सुनीता ने फिर 2 कप चाय का पानी चढ़ा दिया.

अमिता को अब मां से बात करना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस समय वह अपने भविष्य को ले कर चिंतित थी.

‘तू तो लंबी छुट्टी में कैंप में जाती थी… इस बार क्या हुआ?’

‘कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘पापा के पास नहीं गई थी?’

अमिता को लगा कि हर समय सही बात कहना भी मूर्खता है. इसलिए वह बोली, ‘नहीं, अभी नहीं गई.’

‘तू ने कब से अपने पापा को नहीं देखा?’

‘क्या मतलब, हर दूसरेतीसरे महीने हम मिलते हैं.’

यह सब जान कर सुनीता बुझ सी गईं.

‘अच्छा, मैं सोच रही थी कि बहुत दिनों से…’

‘होस्टल का खर्चा भी कम नहीं. पापा ने कभी हाथ नहीं खींचा,’ बेटी को अपलक देखती हुई सुनीता कुछ पल को रुक कर बोलीं, ‘अब तो तू अपने पापा के साथ रह सकती है?’

अमिता ने सीधे मां की आंखों में देखा और पूछ बैठी, ‘क्यों?’

सुनीता की नजरें झुक गईं. उन्होंने मुंह नीचा कर मेज से धूल हटाते हुए कहा, ‘मेरा मतलब…अब पढ़ाई तो पूरी हो गई, तुम्हारे लिए रिश्ता देखना चाहिए.’

अमिता के मन में कई बातें कहने की इच्छा हुई कि तुम तो बच्ची को एक झटके में छोड़ कर चली आई थीं. 12 साल में पलट कर भी नहीं देखा. अब बेटी के रिश्ते की चिंता होने लगी? पर अपने को संभाला. इस समय उस के पैरों के नीचे जमीन नहीं है. आगे के लिए बैठ कर सोचने के लिए एक आश्रय तो चाहिए. अत: वह चुप ही रही. इस के बाद सुनीता ने बातचीत चालू रखने का प्रयास तो किया पर सफल नहीं हो पाईं. बेटी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

ठीक 2 बजे सतीश अपनी खटारा गाड़ी में दोनों बच्चों को ले कर वापस आया. अमिता को फिर अपने पापा की याद आई. वह सारा दोष पापा को नहीं देती है. ढलती उम्र में स्त्री अकेली रह लेती है पर आदमी के लिए रहना कठिन है. वह कुछ सीमा तक असहाय हो जाता है. पापा का दोष इतना भर है कि अपनी पत्नी से बेटी की बात छिपाई और बेटी से अपने विवाह की वरना पापा ने पैसों से कभी हाथ नहीं खींचा.

मैं ने 100 रुपए मांगे तो पापा ने 500 दिए. साल में कई बार मिलते रहे. मेरी पढ़ाई की व्यवस्था में कोई कमी नहीं होने दी. उन का व्यवहार अति शालीन है. उन के उठने, बैठने, बोलने में शिक्षा और कुलीनता साफ झलकती है. इस उम्र में भी वे अति सुदर्शन हैं. एक अच्छे परिवार की उन में छाप है और यह भौंडा सा व्यक्ति..छि:…छि:. मां की रुचि के प्रति अमिता को फिर से घृणा होने लगी.

उसे पूरा विश्वास है कि यह व्यक्ति व्यसनी, व्यभिचारी और असभ्य है. किसी अच्छे परिवार का भी नहीं है. उस व्यक्ति का सभ्यता, शालीनता से परिचय ही नहीं है. पहले मजदूर होगा, अब सुपरवाइजर बन गया है. इस आदमी के हावभाव देख कर तो यही लगता है कि यह आदमी मां की पिटाई भी करता होगा जबकि पापा ने कभी मां पर हाथ नहीं उठाया बल्कि मम्मी ही गुस्से में घर में तोड़फोड़ करती थीं. अब इस के सामने सहमीसिमटी रहती हैं. अब इस समय अमिता को मां की हालत पर रत्तीभर भी तरस नहीं आया. जो जैसा करेगा उस को वैसा झेलना पड़ेगा.

रात को सोने से पहले अमिता ने कमरे का दरवाजा अच्छी तरह चैक कर लिया. उसे मां के घर में बहुत ही असुरक्षा का एहसास हो रहा था. मां का व्यवहार भी अजीब सा लग रहा था.

उस ने रात खाने से पहले टैलीविजन खोलना चाहा तो मां ने सिहर कर उस का हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘सतीशजी को टैलीविजन का शोर एकदम पसंद नहीं. इसलिए जब तक वे घर में रहते हैं हम टैलीविजन नहीं चलाते. असल में फैक्टरी के शोर में दिनभर काम करतेकरते वे थक जाते हैं.’

अमिता तुरंत समझ गई कि टैलीविजन चलाने के लिए इस घर में सतीश की आज्ञा चाहिए. मन में विराग का सैलाब उमड़ रहा था. यहां आना उस के जीवन की सब से बड़ी भूल है. अब सहीसलामत यहां से निकल सके तो अपने जीवन को धन्य समझेगी, पर वह जाएगी कहां? उसे याद आया कि इसी मां के धारावाहिकों के चक्कर में पापा का मैच छूट जाता था पर मम्मी टैलीविजन के सामने जमी रहती थीं.

इंसान हालात को देख कर अपने को बदलता है, पर इतना? यह समझौता है या पिटाई का आतंक? पूरे दिन मां यही समझाने का प्रयास करती रहीं कि सतीश बहुत अच्छे इंसान हैं. ऊपर से जरा कड़क तो हैं पर अंदर से एकदम मक्खन हैं. उस को चाहिए कि उन से जरा खुल कर मिलेजुले तभी संपर्क बनेगा.

अमिता के मन में आया कि कहे मुझे न तो यहां रहना है और न ही अपने को इस परिवार से जोड़ना है. तो फिर क्यों इस के लिए खुशामद करूं.

रात को पता नहीं कैसे चूक हो गई कि खाना खा कर अपने कमरे में आ कर अमिता को कुंडी लगाने का ध्यान नहीं रहा. बाथरूम से निकल कर बिस्तर पर बैठ क्रीम का डब्बा अभी खोला भी नहीं था कि सतीश दरवाजा धकेल कर कमरे में आ गया. अमिता को अपनी गलती पर भारी पछतावा हुआ. इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई पर अब तो भूल हो ही गई थी. उस ने सख्ती से पूछा, ‘कुछ चाहिए था क्या?’

गंदे ढंग से वह हंसा और बोला, ‘बहुत कुछ,’ इतना कह कर वह सीधे बिस्तर पर आ कर बैठ गया, ‘अरे, भई, जब से तुम आई हो हमारा ठीक से परिचय ही नहीं हो पाया. अब समय मिला है तो सोचा जरा बातचीत ही कर लें.’

अमिता को खतरे की घंटी सुनाई दी. दोनों बेटे सोने गए हैं. मम्मी रसोई समेट रही हैं सो उन के इधर आने की संभावना नहीं है. उस के पैरों तले धरती हिल रही है. वह अमिता के नजदीक खिसक आया और उस के हाथ उसे दबोचने को उठे. अमिता की बुद्धि ने उस का साथ नहीं छोड़ा. उस ने यह जान लिया था कि इस घर में चीखना बेकार है. मम्मी दौड़ तो आएंगी पर साथ सतीश का ही देंगी. अमिता को जरा भी आश्चर्य नहीं होगा अगर मम्मी उस के सामने यह समझाने का प्रयास करेंगी कि यह तो प्यार है, उसे बुरा नहीं मानना चाहिए.

सतीश की बांहों का कसाव बढ़ रहा था. वैसे भी उस में मजदूर लोगों जैसी शक्ति है. पर शायद सतीश को यह पता नहीं था कि जिसे मुरगी समझ कर वह दबोचने की कोशिश में है, वह लड़की अभीअभी ब्लैकबैल्ट ले कर आई है. हर दिन कैंप से पहले 10 दिन की ट्रेनिंग खुद के बचाव के लिए होती थी.

अमिता का हाथ उठा और सतीश पल में दीवार से जा टकराया. अमिता उठी, सतीश के उठने से पहले ही उस के पैर  पूरे ताकत से सतीश के शरीर पर बरसने लगे. वह निशब्द थी पर सतीश जान बचाने को चीखने लगा. सुनीता दौड़ कर आईं. वह किसी प्रकार लड़खड़ाता खड़ा ही हुआ था कि अमिता के हाथ के एक भरपूर वार से वह फिर लुढ़क गया.

‘थैंक्यू पापा,’ अमिता के मुंह से अनायास निकला. पैसे की परवा न कर के आप ने मुझे एक अच्छे कालेज में शिक्षा दिलवाई नहीं तो मैं आज अपने को नहीं बचा पाती.’

सुनीता रोतेरोते हाथ जोड़ने लगीं, ‘बस कर बिट्टू. माफ कर दे. इन के मुंह से खून आ रहा है.’

‘मम्मी, ऐसे कुत्तों को जीना ही नहीं चाहिए,’ दांत पीस कर उस ने कहा.

‘बेटी, मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. माफ कर दे.’

मौका देख सतीश कमरे से भाग गया. सुनीता ने अमिता का हाथ पकड़ कर उसे समझाने का प्रयास किया तो अमिता गरजी, ‘रुको, मुझे छूने की कोशिश मत करना. मेरे पापा का जीना तुम ने मुश्किल कर दिया था. अच्छा हुआ तलाक हो गया क्योंकि तुम उस सुख भरी जगह में रहने के लायक ही नहीं थीं. नाली का कीड़ा नाली में ही रहना चाहता है. आज से मैं तुम्हारे साथ अपने जन्म का रिश्ता तोड़ती हूं.’

‘बिट्टू… मेरी बात तो सुन.’

‘मुझे अब आप की कोई बात नहीं सुननी. मुझे तो अपने शरीर से घिन आ रही है कि तुम्हारे शरीर से मेरा जन्म हुआ है. तुम वास्तव में एक गिरी औरत हो और तुम्हारी जगह यही है.’

दिमाग में ज्वालामुखी फट रहा था. उस ने जल्दीजल्दी सामान समेट बैग में डाला. जो छूट गया वह छूट गया. घर से निकल पड़ी और टैक्सी पकड़ कर सीधे स्टेशन पहुंची. वह इतनी जल्दी और हड़बड़ी में थी कि उस ने यह भी नहीं देखा कि कौन सी गाड़ी है. कहां जा रही है. वह तो भला हो कोच कंडक्टर का जो इस कोच में उसे जगह दे दी.

रात भर अमिता बड़ी चैन की नींद सोई. जब आंख खुली तब धूप निकल आई थी. ब्रश, तौलिया ले वह टायलेट गई. फ्रेश हो कर लौटी. बाल भी संवार लिए थे. ऊपर की दोनों सीट खाली थीं. सामने एक वयोवृद्ध जोड़ा बैठा था. पति समाचारपत्र पढ़ रहे हैं और पत्नी कोई धार्मिक पुस्तक.

अमिता ने बिस्तर समेट कर ऊपर डाल दिया फिर सीट उठा कर आराम से बैठी. खिड़की का परदा हटा कर बाहर देखा तो खेतखलिहान, बागबगीचे यहां तक कि मिट्टी का रंग तक बदला हुआ था. यह अमिता के लिए नई बात नहीं क्योंकि हर साल वह दूरदूर कैंप में जाती थी, आसाम से जैसलमेर तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का बदलता रंगढंग उस ने देखा है. राजस्थान  की मिट्टी से मेघालय की तुलना नहीं तो ‘गोआ’ से ‘चंडीगढ़’ की तुलना नहीं.

चाय वाले को बुला कर अमिता ने चाय ली और धीरेधीरे पीने लगी. आराम- दायक बिस्तर और ठंडक से अच्छी नींद आई थी तो शरीर की थकान काफी कम हो गई थी. सामने बैठे वृद्ध दंपती के संपूर्ण व्यक्तित्व से संपन्नता और आभिजात्यपन झलक रहा था. देखने से ही पता चला रहा था कि वे खानदानी अमीर परिवार से हैं. महिला 60 के आसपास होंगी तो पति 65 को छूते.

बुजुर्ग दंपती दोनों से ध्यान हटा तो अमिता के मन में अपनी चिंता ने घर कर लिया. ‘टाटानगर’, हां यहीं तक का टिकट है. उसे वहीं तक जाना पड़ेगा. पर रेलगाड़ी के डब्बे से स्टेशन पर लिखा नाम ही उस ने देखा है बाकी शहर से वह एकदम अनजान है. असल में इधर के जंगलों में 2 बार कैंप लगा था इसलिए वह स्टेशन का नाम जानती है. वहां के स्टेशन पर उतर कर वह कहां जाएगी, क्या करेगी, कुछ पता नहीं. अकेली लड़की हो कर होटल में रहे यह उचित नहीं और इतने पैसे भी नहीं कि महीना भर होटल में रह सके.

पापा से कहेगी तो वे तुरंत पैसे भेज देंगे और एक बार भी नहीं पूछेंगे कि इतने पैसों का क्या करेगी? इतना विश्वास तो पापा के ऊपर अब भी है. पर यह उस का भविष्य नहीं है और न ही समस्या का समाधान. उसे अपने बारे में कुछ तो ठोस सोचना ही पड़ेगा. जब तक पापा के विवाह की बात पता नहीं थी तब तक बात और थी. निसंकोच पैसे मांगती पर अब उन की असलियत को जान लेने के बाद वह भला किस मुंह से पैसे मांगे.

वहां टिस्को और टेल्को में लोग लिए जा रहे हैं पर क्या नौकरी है, कैसी नौकरी है? कुछ भी तो उसे पता नहीं फिर कितने दिन पहले आवेदन लिया गया है, यह भी तो वह नहीं जानती.

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इस शहर का नाम जमशेदपुर है. इस इलाके की धरती के नीचे खनिजों का अपार भंडार है. दूरदर्शी जमशेदजी टाटा ने यह देख कर ही यहां अपना प्लांट लगाया था. बस, इतनी ही जानकारी उसे इस जगह के बारे में है और कुछ नहीं. अब एक ही रास्ता हो सकता है कि उलटे पैर वह दिल्ली लौट जाए. वहां दिल्ली में जानपहचान के कई मित्र हैं, कोई कुछ तो जुगाड़ कर ही देगा. ज्यादा न हो सका तो एक छत और भरपेट खाने का हिसाब बन ही जाएगा. थोड़ा समय लगे तो कोई बात नहीं है. वहां पापा हैं, वे भी कुछ उपाय करेंगे ही. बेटी को सड़क पर तो नहीं छोड़ेंगे. उस ने मन बना लिया कि वह उलटे पैर दिल्ली लौट जाएगी.

दिल्ली लौट जाने का फैसला कर लिया तो उसे कुछ चैन पड़ा. मन भी शांत हो गया. चैन से फैल कर वह बैठ गई.

‘‘बेटी, कहां जाओगी?’’

वह चौंकी, मानो चेतना लौटी, ‘‘जी, टाटानगर.’’

उस के शांत, सौम्य उत्तर से वे दोनों बुजुर्ग पतिपत्नी बहुत प्रभावित हुए. अमिता को ऐसा ही लगा. उन्होंने बात आगे बढ़ानी चाही.

‘‘टाटानगर में कहां रहती हो?’’

अब अमिता को थोड़ा सतर्क हो कर बोलना पड़ा, ‘‘जी, पहले कभी नहीं आई. एक इंटरव्यू है कल.’’

इस बार सज्जन बोले, ‘‘हांहां, टाटा कंपनी में काफी लोग लिए जा रहे हैं. तुम नई हो, कहां रुकोगी?’’

‘‘यहां किसी अच्छे होटल या गैस्ट हाउस का पता है आप के पास?’’

बुजुर्ग सज्जन ने थोड़ा सोचा, फिर बोले, ‘‘बेटी, होटल तो इस शहर में बहुत हैं. अच्छे भी हैं पर तुम अकेली लड़की, सुंदर हो, कम उम्र है. तुम्हारा होटल में रहना ठीक होगा क्या? समय अच्छा नहीं है.’’

वृद्ध महिला ने समर्थन किया, ‘‘नहीं बेटे, एकदम अकेले होटल में रात बिताना…ठीक नहीं होगा.’’

‘‘पर मांजी, मेरी तो यहां कोई जानपहचान भी नहीं है, क्या करूं?’’

‘‘एक काम करो, तुम हमारे घर चलो.’’

‘‘आप के घर?’’

‘‘संकोच की कोई बात नहीं. घर में बस हम 2 बुजुर्ग ही रहते हैं और काम करने वाले. तुम को कोई परेशानी नहीं होगी. कल तुम को इंटरव्यू के लिए हमारा ड्राइवर ले जाएगा.’’

अमिता असमंजस में पड़ गई. देखने में तो पतिपत्नी दोनों ही बहुत सज्जन और अच्छे घर के लगते हैं. परिपक्व आयु के भी हैं. मुख पर निरीह सरलता भी है पर जो झटका खा कर यहां तक वह पहुंची है उस के बाद एकदम किसी पर भरोसा करना मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं. आजकल लड़कियों को फंसा कर बेचने का रैकेट भी सक्रिय है. ऐसे में…? पर उस का सिर तो पहले ही ओखली में फंस चुका है, मूसल की मार पड़े तो पड़ने दो.

अमिता ने निर्णय लिया कि वह इन के घर ही जाएगी. नौकरी तो करनी ही है. ये लोग हावभाव से यहां के खानदानी रईस लगते हैं. अगर इन लोगों का संपर्क प्रभावशाली लोगों से हुआ तो ये कह कर उस की नौकरी भी लगवा सकते हैं. टाटा कंपनी में नौकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी. सुना है टाटा की नौकरी शाही नौकरी है.

‘‘आप…लोगों…को…कष्ट…’’

बुजुर्ग महिला हंसी और बोली, ‘‘बेटी, पहले घर तो चलो फिर हमारे कष्ट के लिए सोचना. हां, तुम को संकोच न हो इसलिए बता दूं कि हमारे 3 बेटाबेटी हैं. तीनों का विवाह हो गया है. तीनों के बच्चे स्कूलकालेजों में पढ़ रहे हैं और तीनों पूरी तरह अमेरिका और आस्ट्रेलिया में स्थायी रूप से बसे हैं. यहां हम दोनों और पुराने नौकरचाकर ही हैं.’’

अमिता का मन यह सुन कर भर आया. अपनों ने भटकने के लिए आधी रात रास्ते पर छोड़ दिया. एक बार उस की सुरक्षा की बात तक नहीं सोची और ये? जीवन में पहली बार देखा, कोई रिश्ता नहीं फिर भी वे उस की सुरक्षा के लिए कितने चिंतित हैं.

‘‘ठीक है अम्मा, आप के साथ ही चलती हूं,’’ अम्मा शब्द का संबोधन सुन वे बुजुर्ग महिला गद्गद हो उठीं.

‘‘जीती रहो बेटी, मेरी बड़ी पोती तुम्हारे बराबर ही होगी. तुम मुझे अम्मा ही कहा करो. मातापिता ने बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं.’’

 

इस बार वास्तव में अमिता को हंसी आ गई. मातापिता, उन का अपना-अपना परिवार, उन के संस्कार लेने योग्य हैं या नहीं, वह नहीं जानती. कम से कम अमिता ने तो उन से कुछ नहीं लिया. यह जो अच्छाई है उस के अंदर, चाहे उसे संस्कार ही समझें, यह सबकुछ उस ने पाया है एक अच्छे परिवेश में, अच्छी संस्था की शिक्षा और अनुशासन से, और इस के लिए वह मन ही मन पिता के प्रति कृतज्ञ है.

उन्होंने दोबारा अपना घर बसा लिया है पर उस के प्रति उन का जो दायित्व और कर्तव्य है, उस से एक कदम भी पीछे नहीं हटे जबकि उस की सगी मां कूड़े की तरह उस को फेंक गईं. उस के बाद एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि वह मर गई या जीवित है.

उस का ध्यान भंग हुआ. वे महिला कह रही थीं, ‘‘आजकल देख रही हूं कि बच्चे कितने उद्दंड हैं. छोटेबड़े का लिहाज नहीं करते. शर्म नाम की कोई चीज उन में नहीं है पर करें क्या? झेलना पड़ता है. तुम तो बेटी बहुत ही सभ्य और शालीन हो.’’

‘‘मैं होस्टल में ही बड़ी हुई हूं. वहां बहुत ही अनुशासन था.’’

‘‘तभी, अच्छी शिक्षा पाई है, बेटी.’’

अमिता ने सोचा नहीं था कि इन बुजुर्ग दंपती का घर इतना बड़ा होगा. वह उन का भव्य मकान देख कर चकित रह गई. यह तो एकदम महल जैसा है. कई बीघों में फैला बागबगीचा, लौन और फौआरा, छोटा सा ताल और उस में घूमते बड़ेबड़े सफेद बतखों के जोड़े.

अम्मा हंसी और बोलीं, ‘‘3 साल पहले छोटा बेटा अमेरिका से आया था. 6 साल का पोता गांव का घर देखने गया था, वहां से बतखों का जोड़ा लाया था. देखो न बेटी, 3 साल में उन का परिवार कितना बड़ा हो गया है. सोच रही हूं कि 2 जोड़ों को रख कर बाकी गांव भेज दूंगी. वहां हमारी बहुत बड़ी झील है. उस में मछली पालन भी होता है.’’

‘‘यहां से आप का गांव कितनी दूर है?’’

‘‘बहुत दूर नहीं, यही कोई 40 किलोमीटर होगा. अब तो सड़क अच्छी बन गई है तो वहां जाने में समय कम लगता है.’’

‘‘आप लोग वहां नहीं जाते हैं?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘जाना तो पड़ता ही है जब फसल बिकती है, बागों का व झील का ठेका उठता है. 2-4 दिन रह कर हम फिर चले आते हैं. वहां तो इस से बड़ा दोमंजिला घर है,’’ गहरी सांस ली उन्होंने, ‘‘सब वक्त का खेल है. सोचा था कि बच्चे यहां शहर में रहेंगे और हम दोनों गांव में. बच्चे गांव आएंगे, हम भी यहां आतेजाते रहेंगे पर सोचा कहां पूरा होता है.’’

अमिता समझ गई कि अनजाने में उस ने अम्मा की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. जल्दी से उस ने बात पलटी, ‘‘आते तो हैं सब आप के पास?’’

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‘‘हां, आते हैं, साथ ले जाने की जिद भी करते हैं पर हम ने साफ कह दिया है, हम अपनी माटी को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. तुम्हारी इच्छा हो तो तुम आओ. वे आते हैं पर उन के पास समय बहुत कम है.’’

इस बुजुर्ग दंपती के घर नौकर- नौकरानियों की फौज है और सभी इन दोनों की सेवाटहल अपने सगों जैसा करते हैं. इतने लोगों की जरूरत है ही नहीं पर अम्मा ने ही कहा, ‘‘कहां जाएंगे ये बेचारे. यहां दो समय का खाना तो मिल जाता है. हमारा भी समय इन के साथ कट जाता है. बच्चे कभीकभार आते हैं तो ये उन को हाथोंहाथ रखते हैं. मुझे देखना भी नहीं पड़ता.’’

फिर कुछ सोच कर अम्मा बोलीं, ‘‘बेटी, अभी तक तुम ने अपना नाम नहीं बताया.’’

‘‘जी, मेरा नाम अमिता है.’’

‘‘सुंदर नाम है. पर घर का और कोई छोटा नाम?’’

अमिता के आंसू आ गए. आज तक इतने अपनेपन से किसी ने उस से बात नहीं की. असल में इंसान को किसी भी चीज का मूल्य तब पता चलता है जब वह उस से खो जाती है.

‘‘जी है… बिट्टू.’’

‘‘यही अच्छा है. मैं तुम्हें बिट्टू ही कहूंगी.’’

अमिता मन ही मन हंस पड़ी. ऐसा लग रहा है जैसे इन्होंने समझा है कि वह जीवन भर के लिए उन के पास रहने आई है. वह उठ कर कमरे में आ गई. उस का कमरा, बाथरूम और बरामदा इतना बड़ा है कि दिल्ली में एक कमरे का फ्लैट बन जाएगा.

अमिता को अब समय मिला कि वह अपने लिए कुछ सोचे पर कोई दिशा उस को नहीं मिल रही. उलझन में रहते हुए भी एक निर्णय तो उस ने लिया कि इन लोगों को वह अपनी पूरी सचाई बता देगी और पापा को फोन कर के अपने बारे में खबर देगी. कुछ भी हो उन का सहयोग नहीं होता तो अब तक उस का अस्तित्व ही मिट जाता, मां तो उसे कूड़े की तरह फेंक अपने सुख को खोजने चली गई थीं.

खाने की विशाल मेज पर बस 3 जने बैठ घर की बनी कचौरियों के साथसाथ चाय पी रहे थे. बाबूजी ने कहा, ‘‘मेरे पिता थोड़े एकांतप्रिय थे. हमारा खेत, शहर से कटा हुआ था तो उन्होंने यहां अपनी हवेली बनवा ली पर अब तो शहर फैलतेफैलते यहां तक चला आया है.’’

इसी तरह की छिटपुट बातों के बीच चाय समाप्त हुई.

दोपहर में खाना खाने के बाद अमिता अपने बिस्तर पर लेट कर सोचने लगी कि यहां इस सज्जन दंपती के संरक्षण में वह पूरी तरह सुरक्षित है. जीवन में इतनी स्नेहममता भी उस को कभी नहीं मिली पर यह ठौरठिकाना भी कितने दिन का, यह पता नहीं. अब तक तो उस ने होस्टल का जीवन काटा है. सामान्य जीवन में अभीअभी पैर रख जिन परिस्थितियों का सामना उसे करना पड़ा वह बहुत ही भयानक है.

एक घर में प्रवेश ही नहीं मिला. दूसरे घर में प्रवेश का इतना बड़ा मूल्य मांगा गया कि उस की आत्मा ही कांप उठी. मां संसार में सब से ज्यादा अपनी और अच्छी साथी होती है. यहां तो मां ने ही उसे ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया. पापा फिर भी उस के लिए सोचते हैं पर विवश हैं कुछ कर नहीं पाते. फिर भी पूरी आर्थिक सहायता उन्होंने ही दी है. उन से संबंध न तो तोड़ सकती है और न ही तोड़ेगी.

अमिता सोना चाहती थी पर नींद नहीं आई. एक तो दोपहर में उसे सोने की आदत नहीं थी दूसरी बात कि मन विक्षिप्त है, कुछ समझ नहीं पा रही थी कि अगला कदम कहां रखेगी. यह घर, ये लोग बहुत अच्छे लग रहे हैं, इंसानियत से जो विश्वास उठ गया था इन को देख वह विश्वास फिर से लौट रहा है पर यहां भी वह कब तक टिकेगी. उस की पूरी कहानी सुनने के बाद ये उस को आश्रय देंगे या नहीं यह नहीं समझ पा रही. वैसे तो इन के घर कई आश्रित हैं पर उन में और अमिता में जमीनआसमान का अंतर है.

फै्रश हो कर कमरे से बाहर आते ही देखा कि बरामदे में दोनों पतिपत्नी बैठे हैं. उसे देख हंस दीं अम्मा, ‘‘आओ बेटी, चाय आ रही है. मैं संतो को तुम्हारे पास भेज ही रही थी. बैठो.’’

बेंत की कुरसियां वहां पड़ी थीं. अमिता भी एक कुरसी खींच कर बैठ गई. चाय आ गई. इस बार भी अमिता ने चाय बना कर उन को दी. बाबूजी ने प्याला उठाया और बोले, ‘‘कल तुम्हारा इंटरव्यू है. कितने बजे है?’’

यह सुनते ही अमिता का प्याला छलक गया.

‘‘असल में टेल्को का दफ्तर यहां से दूर है. थोड़ा जल्दी निकलना. मैं ड्राइवर को बोल दूंगा, कल जल्दी आ कर गाड़ी तैयार रखे.’’

अब और नहीं, इन को सचाई बतानी ही पड़ेगी. इतनी चालाकी उस के अंदर नहीं है कि इतनी बड़ी बात छिपा ले. मन और मस्तिष्क पर अपराधबोध का दबाव बढ़ता जा रहा था.

‘‘बाबूजी,’’ अमिता बोली, ‘‘मुझे आप दोनों से कुछ कहना है.’’

‘‘हां…हां. कहो.’’

‘‘अम्मा, मैं ने आप से झूठ बोला है. मेरा यहां कोई इंटरव्यू नहीं है.’’

बुजुर्ग पतिपत्नी चौंके.

‘‘तो…फिर…? इतनी जल्दी क्या थी गाड़ी पकड़ने की.’’

‘‘मैं उस जीवन से भाग रही थी जहां मेरे सम्मान को भी दांव पर लगा दिया गया था.’’

‘‘किस ने लगाया?’’

‘‘मेरी सगी मां ने.’’

‘‘बेटी, हम कुछ समझ नहीं पा रहे हैं.’’

बचपन से ले कर आज तक की पूरी कहानी अमिता ने उन्हें सुनाई. वे दोनों स्तब्ध हो उस की आपबीती सुन रहे थे. अम्मा के आंसू बह रहे थे. उन्होंने उठ कर उसे अपनी गोद में खींचा.

‘‘इतनी सी उम्र में बेटी तू ने कितना सहा है. पर तू चिंता मत कर. शायद हमारा साथ तुम को मिलना था इसलिए नियति ने हमें उस गाड़ी और उसी डब्बे में भेज दिया. कितनी पढ़ी हो?’’

‘‘बीए फाइनल की परीक्षा दी है. अभी परीक्षाफल नहीं आया है. पास होने के बाद जहां भी नौकरी मिलेगी मैं चली जाऊंगी.’’

बाबूजी ने कहा, ‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी. काम की कमी नहीं है यहां. मैं ही तुम्हारी नौकरी का प्रबंध कर दूंगा. हर लड़की को स्वावलंबी बनना चाहिए. पर तुम रहोगी हमारे ही साथ. देखो बेटी, तुम्हारी उम्र बहुत कम है. ऐसे में बड़ों का संरक्षण बहुत जरूरी है. दूसरी बात, हम दोनों भी बहुत अकेले हैं. अपने बच्चे तो बहुत दूर चले गए हैं. मातापिता की खोजखबर भी नहीं लेते. ऐसे में जवान बच्चे का संरक्षण हम को भी चाहिए. यहां इतने काम करने वाले तो हैं पर अपना कोई रहे तो हम को बहुत बल मिलेगा. आराम से रहो तुम.’’

‘‘आप की आज्ञा सिरआंखों पर.’’

‘‘इतना कुछ है,’’ आंसू पोंछ कर अम्मा ने कहा, ‘‘मुझे नएनए व्यंजन बनाने का शौक है, पर खाएगा कौन? तुम रहोगी तो मेरा भी मन लगा रहेगा. चलो, 2-4 दिन में तुम को अपने गांव घुमा कर लाती हूं.’’

बाबूजी हंसे फिर बोले, ‘‘बेटी, तुम को जो भी चाहिए वह बेहिचक हो कर बता देना.’’

अमिता को संकोच तो हुआ फिर भी वह बोली, ‘‘सोच रही थी एक मोबाइल खरीद लूं क्योंकि मेरा जो मोबाइल था वह कानपुर में ही छूट गया.’’

‘‘अरे, आज ही मंगवा कर देती हूं,’’ अम्मा बोलीं, ‘‘कोई जरूरी फोन करना हो तो घर के फोन से कर लो.’’

दूसरे दिन नाश्ते के बाद खुले मन से अमिता अम्मा के साथ बात कर रही थी. बाबूजी के पास व्यापार के सिलसिले में कुछ लोग आए थे.

अम्मा ने कहा, ‘‘आज का समाज इतना स्वार्थी, विकृत, आधुनिक, उद्दंड और असहिष्णु हो गया है कि अपने सारे कर्तव्य, उचितअनुचित और कोमल भावनाओं तक को नजरअंदाज कर बैठा है. तभी तो देखो न, 3 बच्चों के मातापिता हम कितने अकेले पड़े हुए हैं.’’

अमिता ने अम्मा के मन की पीड़ा को समझा. वह अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए बोली, ‘‘क्या करें अम्मा, इस देश में काम की कितनी कमी है.’’

‘‘क्यों नहीं कमी होगी. तुम्हीं बताओ, यहां किसी को अपने आनेजाने की रोकटोक, कोई सख्ती कुछ नहीं. पड़ोसी देश इस धरती के सब से बड़े अभिशाप बने हुए हैं. जैसे ही वहां थोड़ी असुविधा हुई सीधे यहां चले आते हैं. फिर भी जिन की रोजीरोटी का प्रश्न है वे देश छोड़ कर चले जाएं तो देश का उपकार हो. कुछ परिवार संपन्नता का मुंह भी देखें पर जिन की यहां जरूरत है वे जब देश छोड़, गांव छोड़, असहाय मातापिता को छोड़ चले जाते हैं तो हमारे लिए दुख की बात तो है ही, देश के लिए भी हानिकारक है. सामर्थ्य रहते भी उन के वृद्ध मातापिता इतने दुखी और हतोत्साहित हो जाते हैं कि उन में कुछ अच्छा, कुछ कल्याणकारी करने की इच्छा ही खत्म हो जाती है.’’

अम्मा का हर शब्द अमिता के मन की गहराई में उतर रहा था. अम्मा की सोच कितनी उन्नत है, उन्होंने गांव का जीवन, गरीबी, लोगों का दुखदर्द अपनी आंखों से देखा, मन से अनुभव किया है, पर चाहते हुए भी अपना हाथ नहीं बढ़ा पातीं. साहस भी नहीं कर पा रहीं क्योंकि उन को भी मजबूत हाथों के सहारे की जरूरत है और पीछे से साधने वाला कोई नहीं. जब तक 2 मजबूत, जवान हाथों का सहारा न हो वे कैसे किसी कल्याणकारी योजना में अपना हाथ डालें. फिर समय ऐसा है कि सचाई भी चिराग ले कर खोजे नहीं मिलती है. अमिता सोचने लगी.

मोबाइल मिलने के बाद अमिता ने शिल्पा, जो उस की घनिष्ठ सहेली थी, को सारी बातें बता कर अनुरोध किया कि रिजल्ट आते ही वह तुरंत सूचना दे. शिल्पा उस के लिए चिंतित हो गई.

‘‘वह तो तू न भी कहती तब भी मैं खबर देती. पर यह बता, अब तू क्या करेगी? नौकरी तो करेगी ही, उस के लिए बेहतर होगा दिल्ली आ जा.’’

‘‘मन इतना विक्षिप्त है कि अभी उधर लौटने की इच्छा नहीं है. रिजल्ट आ जाए तब भविष्य के लिए कुछ सोचूंगी.’’

‘‘ठीक है पर अपने पापा से तू एक बार बात तो कर ले.’’

‘‘पापा से बात की थी. उन्होंने कहा कि मेरी जैसी इच्छा है मैं वही कर सकती हूं. 10 हजार रुपए भी भेज दिए हैं. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है.’’

‘‘चल, तू अच्छे लोगों के साथ सुरक्षित रह रही है, यह मेरे लिए बहुत बड़ी राहत की बात है. फोन करती रहना. मैं भी करूंगी.’’

एक दिन अम्मा, बाबूजी को गांव जाना पड़ा. ‘‘झील में पली मछलियों का ठेका उठने वाला है,’’ अम्मा ने बताया, ‘‘साथ में अगली बार जो मछली का बीज पड़ेगा उस की भी व्यवस्था अभी से करनी होगी.’’

40 किलोमीटर का रास्ता वे देखते ही देखते डेढ़ घंटे में पार कर आए. परिसर में आ कर गाड़ी रुकते ही अमिता की आंखें फटी की फटी रह गईं. इस में तो जमशेदपुर की 2 हवेली बन जाएंगी. अमिता ने मन ही मन सोचा.

कुछ घंटों में उस की समझ में आ गया कि ये लोग कितने संपन्न हैं. दुख हुआ इन के बच्चों की सोच पर कि वे यहां इतना कुछ छोड़ गए हैं और पराए देश में जा कर चाकरी बजा रहे हैं. अपनी शक्ति और बुद्धि दोनों को विदेशों में जा कर कौडि़यों के मोल बेच रहे हैं.

यहां अपने बुजुर्ग मातापिता के साथ रह कर देश की समृद्धि में हाथ बंटा सकते थे. कितने असहायों को जीने के रास्ते पर ला सकते थे, कितनों को गरीबी रेखा से खींच कर ऊपर उठा सकते थे. पर…

अचानक अमिता के मन में आया कि बाबूजी और अम्मा अभी शरीर से स्वस्थ हैं. बस, थोड़े अकेलापन और डिप्रैशन की लपेट में आ रहे हैं. उन का जीवन भी तो एक तरह से निरर्थक सा हो गया है. उसे जनकल्याण में समर्पित कर के सार्थक बनाया जा सकता है. अरे, नौकरी ही क्यों? करने के लिए कितना कुछ पड़ा है. उस ने फैसला कर लिया कि इन लोगों से बात करेगी.

अमिता का प्रस्ताव सुन दोनों बुजुर्ग सोचने लगे. अम्मा ने कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारी योजना बहुत सुंदर है. देश व समाज का उपकार भी होगा पर बेटी हम डरते हैं. तुम्हारी उम्र अभी कम है. आज न सही पर कल तुम शादी कर के अपने घर चली जाओगी, तब हम दोनों बुजुर्ग लोग क्या करेंगे? कैसे संभालेंगे इतना कुछ.’’

बाबूजी ने कहा, ‘‘हम एक काम करते हैं. तुम्हारी योजना में थोड़ा काटछांट करते हैं. यहां अनाथ और वृद्धों की सेवा हो. उस के साथ तुम ने यह जो महिला कल्याण और लघुउद्योग निशुल्क शिक्षा केंद्र की योजना बनाई है, उसे अभी रहने दो.’’

‘‘नहीं बाबूजी,’’ अमिता बोली, ‘‘हमारा असली काम तो यही है. कहीं मार खाती तो कहीं विदेशों में बिकती असहाय लड़कियों को बचा कर उन को स्वावलंबी बना कर उन्हें उन के पैरों पर खड़ा करना जिस से घर या बाहर कोई आंख उठा कर उन्हें देख न सके और गरीबी से जूझ कर कोई दम न तोड़ दे. अनाथ और वृद्धों की सेवा सहारा तो हो ही जाएगी.’’

अम्मा हंसी और बोलीं, ‘‘उस दिन ट्रेन में तुझे डरीसहमी एक लड़की के रूप में देखा था, आज तुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई?’’

बाबूजी ने मेरा सिर हिलाया और बोले, ‘‘उस दिन अग्नि परीक्षा में तप कर ही तो यह शुद्ध सोना बनी है. इस की सोच बदली, मनोबल बढ़ा और बुद्धि ने जीवन का नया दरवाजा खोला.’’

अमिता भी अब इन लोगों से सहज हो गई थी. पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी के मतभेद, सोच में अंतर के झगड़े तो मिटने वाले नहीं हैं. वे चलते रहेंगे. उस से किसी पीढ़ी के जीवन में कोई अंतर नहीं आना चाहिए. नया खून अपने को नहीं बदलेगा, पुराना खून बेवजह मानसिक, शारीरिक कष्ट सहतेसहते उन लोगों का रास्ता देखते हुए फोन का इंतजार न करते हुए उन के कुशल समाचार लेने की प्रतीक्षा न कर के अपने जीवन को अपने ढंग से जीए. सामर्थ्य के अनुसार उन लोगों की दुख- परेशानी को कम करे. देश समाज का भला हो और अपना मन भी खुशी, उत्साह में भराभरा रहे. एकएक पैसा जोड़ कर उन लोगों के लिए जमा करने की मानसिकता समाप्त हो, वह भी उन के लिए जिन्हें उन की, उन के प्यार व ममता की  और न ही उन के जमा किए पैसों की जरूरत है.

दोनों ही अमिता की बातों से मोहित हो गए.

‘‘तुम्हारी सोच कितनी अच्छी है, बेटी.’’

‘‘समय, हालात, मार बहुत कुछ सिखा देता है बाबूजी. अभी कुछ दिन पहले तक मैं कुछ सोचती ही नहीं थी. मैं आप लोगों से मिली, जानपहचान के बाद जा कर सोच ने जन्म लिया. अम्मा, आप डरो नहीं, मैं आप लोगों को छोड़ कर कहीं नहीं जा रही.’’

‘‘तेरी शादी तो मैं जरूर करूंगी.’’

‘‘करिए पर शर्त यही रहेगी कि मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है, उसे ही हम यहां रख लेंगे.’’

इस के साथ ही वातावरण में खुशी की लहर दौड़ गई.

विश्वास की जड़ें : जब टूटा रमन और राधा का वैवाहिक रिश्ता

सुबह से ही घर में मिलने वालों का तांता लगा था. फोन की घंटी लगातार बज रही थी. लैंड लाइन नंबर और मोबाइल अटैंड करने के लिए भी एक चपरासी को काम पर लगाया गया था. वही फोन पर सब को जवाब दे रहा था कि साहब अभी बिजी हैं. जैसे ही फ्री होते हैं उन से बात करा दी जाएगी. फिर वह सब के नाम व नंबर नोट करते जा रहा था. कोई बहुत जिद करता कि बात करनी ही है तो वह साहब की ओर देखता, जो इशारे से मना कर देते.

आखिर वे इतने लोगों से घिरे थे कि उन के लिए उन के बीच से आ कर बात करना बेहद मुश्किल था. लोग उन्हें इस तरह घेरे बैठे और खड़े थे मानो वे किसी जंग की तैयारी में जुटे हों. सांत्वना को संवदेनशीलता के वाक्यों में पिरो कर हर कोई इस तरह उन के सामने अपनी बात इस तरह रखने को उत्सुक था मानो वे ही उन के सब से बड़े हितैषी हों.

‘‘बहुत दुख हुआ सुन कर.’’

‘‘बहुत बुरा हुआ इन के साथ.’’

‘‘सर, आप को तो हम बरसों से जानते हैं, आप ऐसे हैं ही नहीं. आप जैसा ईमानदार और सज्जन पुरुष ऐसी नीच हरकत कर ही नहीं  सकता है. फंसाया है उस ने आप को.’’

‘‘और नहीं तो क्या, रमन उमेश सर को कौन नहीं जानता. ऐसे डिपार्टमैंट में होने के बावजूद जहां बिना रिश्वत लिए एक कागज तक आगे नहीं सरकता, इन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली. भ्रष्टाचार से कोसों दूर हैं और ऐसी गिरी हुई हरकत तो ये कर ही नहीं सकते.’’

‘‘सर, आप चिंता न करें हम आप पर कोई आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘एमसीडी इतना बड़ा महकमा है, कोई न कोई विवाद या आक्षेप तो यहां लगता ही रहता है.’’

आप इस बात को दिल पर न लीजिएगा सर. सीमा को कौन नहीं जानता कि वह किस टाइप की महिला है,’’ कुछ लोगों ने चुटकी ली.

भीड़ बढ़ने के साथसाथ लोगों की सहानुभूति धीरेधीरे फुसफुसाहटों में तबदील होने लगी थी. सहानुभूति व साथ देने का दावा करने वालों के चेहरों पर बिखरी अलग ही तरह की खुशी भी दिखाई दे रही थी.

कुटिलता उन की आंखों से साफ झलक रही थी मानो कह रही हो बहुत बोलता था हमें कि हम रिश्वत लेते हैं. तू तो उस से भी बड़े इलजाम में फंस गया. सस्पैंड होने के बाद क्या इज्जत रह जाती है, उस पर केस चलेगा वह अलग. फिर अगर दोष साबित हो गया तो बेचारा गया काम से. न घर का रहेगा न बाहर का.

रमनजी की पत्नी राधा सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थीं. जब से उन्हें अपने पति के सस्पैंड होने और उन पर लगे इलजाम के बारे में पता चला था, उन का रोरोकर बुरा हाल था. रमन ऐसा कर सकते हैं, उन्हें विश्वास तो नहीं हो रहा था, पर जो सच सब के सामने था, उसे नजरअंदाज करना भी उन के लिए मुश्किल था. एमसीडी में इतने बड़े अफसर उन के पति रमन ऐसी नीच हरकत कर सकते हैं, यह सोच कर ही वे कांप जातीं.

दोपहर तक घर पर आए लोग धीरेधीरे रमनजी से हाथ मिला कर खिसक लिए. संडे का दिन था, इसलिए सब घर पर मिलने चले आए थे. वरना बेकार ही लीव लेनी पड़ती या न आ पाने का बहाना बनाना पड़ता. बहुत से लोग मन ही मन इस बात से खुश थे. उन के विरोधी जो सदा उन की ईमानदारी से जलते थे, वे भी उन का साथ देने का वादा कर वहां से खिसक लिए. थके, परेशान और बेइज्जती के एहसास से घिरे रमन पर तो जैसे विपदा आ गई थी.

उन की बरसों की मेहनत इस तरह पानी में बह जाएगी, शर्म से उन का सिर झुका जा रहा था. बिना कोई गलती किए इतना अपमान सहना…फिर घरपरिवार, दोस्त नातेरिश्तेदारों के सवालों के जवाब देने…वे लड़खड़ाते कदमों से बैडरूम में गए.

उन्हें देखते ही राधा, जिन के मायके वाले उन्हें वहां मोरचा संभाले बैठाए थे,

कमरे से बाहर जाने लगीं तो रमन ने उन का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मैं राधा से अकेले में बात करना चाहता हूं. आप से विनती है आप थोड़े समय के लिए बाहर चले जाएं,’’ रमन ने बहुत ही नम्रता से अपने ससुराल वालों से कहा.

‘‘मुझे आप से कोई बात नहीं करनी है,’’ राधा ने उन का हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अब भी कुछ बाकी बचा है कहनेसुनने को? मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. अरे बच्चों का ही खयाल कर लेते. 45 साल की उम्र में 2 बच्चों के बाप हो कर ऐसी हरकत करते हुए आप को शर्म नहीं आई?’’ राधा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे.

‘‘देखो, तुम खुद इतनी पढ़ीलिखी हो, जौब करती हो और फिर भी दांवपेच को समझ नहीं पा रही हो…मुझे फंसाया गया है… औरतों के लिए बने कानूनों का फायदा उठा रही है वह औरत. औरत किस तरह से आज मर्दों को झूठे आरोपों में फंसा रही हैं, यह बात तुम अच्छी तरह से जानती हो. उन की बात न मानो तो इलजाम लगाने में पीछे नहीं रहतीं. फिर तुम तो मुझे अच्छी तरह से जानती हो. क्या मैं ऐसा कर सकता हूं? तुम से कितना प्यार करता हूं, यह बताने की क्या अब भी जरूरत है? तुम मुझे समझोगी कम से कम मैं तुम से तो यह उम्मीद करता था.’’

‘‘यह सब होने के बाद क्या और क्यों समझूं मैं. तुम ही बताओ…क्यों करेगी कोई औरत ऐसा? आखिर उस की बदनामी भी तो होगी. वह भी शादीशुदा है. तुम पर बेवजह इतना बड़ा इलजाम क्यों लगाएगी? अगर गलत साबित हुई तो उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है या वह सस्पैंड भी हो सकती है. यही नहीं उस का खुद का घर भी टूट सकता है. मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो. पता नहीं अब क्या होगा. पर तुम्हारे साथ रहने का तो अब सवाल ही नहीं है. मैं बच्चों को ले कर आज ही मायके चली जाऊंगी. मेरे बरसों के विश्वास को तुम ने कितनी आसानी से चकनाचूर कर दिया, रमन,’’ राधा गुस्से में फुफकारीं.

‘‘बच्चों जैसी बात मत करो. जो गलती मैं ने की ही नहीं है, उस की सजा मैं नहीं भुगतुंगा, इन्वैस्टीगेशन होगी तो सब सच सामने आ जाएगा. कब से तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि मेरी मातहत सीमा बहुत ही कामचोर किस्म की महिला हैं. इसीलिए उन की प्रोमोशन नहीं होती. मेरे नाम से लोगों से रिश्वत लेती हैं. तुम्हें पता ही है एमसीडी ऐसा विभाग है, जो सब से भ्रष्ट माना जाता है. एक से एक निकम्मे लोग भी पैसे वाले बन कर घूम रहे हैं.

‘‘मैं ने कभी रिश्वत नहीं ली या किसी के दबाव में आ कर किसी की फाइल पास नहीं की, इसलिए मेरे न जाने कितने विरोधी बन गए हैं. बहुत दिनों से सीमा मुझे तरहतरह से परेशान कर रही थीं. जब मैं ने उन से कहा कि जो काम आप के अंतर्गत आता है उसे पहले बखूबी संभालना सीख लें, फिर प्रमोशन की बात सोचेंगे तो उन्होंने मुझे धमकी दी कि मुझे देख लेंगी. गुरुवार की शाम को वे मेरे कैबिन में आईं और फिर प्रमोशन करने की बात की.’’

‘‘जब मैं ने मना किया तो उन्होंने अपना ब्लाउज फाड़ डाला और चिल्लाने लगीं कि मैं ने उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की. मैं उन्हें मोलैस्ट कर रहा हूं. झूठे आंसू बहा कर उन्होंने लोगों को इकट्ठा कर लिया. तमाशा बना दिया मेरा. हमारा समाज ऐसा ही है कि पुरुष को ही हर गलती का जिम्मेदार माना जाता है. बस सच यही है. इन्वैस्टीगेशन होने दो, सब को पता चल जाएगा कि मैं निर्दोष हूं,’’ रमनजी बोलतेबोलते कांप रहे थे.

ऐसे वक्त में जब उन्हें अपनी पत्नी व परिवार की सब से ज्यादा जरूरत थी, वे ही उन्हें गलत समझ रहे थे. इस से ज्यादा परेशान व हताश करने वाली बात और क्या हो सकती थी. विश्वास की जड़ें अगर तेज हवाओं का सामना न कर पाएं और उखड़ जाएं तो रिश्ते कितने खोखले लगने लगते हैं. कहां कमी रह गई उन से… राधा और बच्चों के लिए हमेशा समर्पित रहे वे तो…

‘‘क्यों कहानी बना रहे हो. इतने बड़े अफसर हो कर एक औरत को ही बदनाम करने लगे. तुम्हें बदनाम कर के उसे क्या मिलेगा. उस की भी जगहंसाई होगी… मुझे विश्वास नहीं होता. इस से पहले क्या उस ने ऐसी हरकत किसी के साथ की है?’’ राधा तो रमन की बात सुनने को ही तैयार नहीं थीं.

‘‘बेशक न की हो, पर उन के चालचलन पर हर कोई उंगली उठाता है. कपड़े देखे हैं कैसे पहनती हैं. पल्लू हमेशा सरकता रहता है, लगता है जैसे मर्दों को लुभाने में लगी हुई है.’’

‘‘हद करते हो रमन… ऐसी सोच रखते हो एक औरत के बारे में छि:’’ राधा आगे कुछ कहतीं तभी कमरे में रमन के ससुराल वाले आ गए.

‘‘क्या सोच रही है राधा? अब भी इस आदमी के साथ रहना चाहती है. हर तरफ थूथू हो रही है. बच्चों पर इस बात का कितना बुरा असर पड़ेगा. स्कूल जाएंगे तो दूसरे बच्चे कितना मजाक उड़ाएंगे. चल हमारे साथ चल,’’ राधा के भाई ने गुस्से से कहा.

‘‘और क्या. तू चिंता मत कर. हम तेरे साथ हैं. फिर तू खुद कमाती है,’’ राधा की मां ने अपने दामाद की ओर घृणित नजरों से देखते हुए कहा, मानो उन का जुर्म जैसे साबित ही हो गया हो.

आज तक जो ससुराल वाले उन का गुणगान करते नहीं थकते थे, वे ही आज उन का तिरस्कार कर रहे थे. कौन कहता है औरत अबला है, समाज उसी का साथ देता है. उन्हें पुरुष की विडंबना पर अफसोस हुआ. बिना दोषी हुए भी पुरुष को कठघरे में खड़े होने को मजबूर होना पड़ता है.

‘‘पापाजी, आप ही समझाइए न इन्हें,’’ रमनजी ने बड़ी आशा भरी नजरों से अपने ससुर को देखते हुए कहा. वे जानते थे कि वे बहुत ही सुलझे हुए इनसान हैं और जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेते हैं.

‘‘हां बेटा, रमन की बात को समझो तो… इतने बरसों का साथ है… ऐसे अविश्वास करने से जिंदगी नहीं चलती. तुम्हें अपने पति पर भरोसा होना चाहिए.’’

‘‘अपनी बेटी का साथ देने के बजाय आप इस आदमी का साथ दे रहे हैं, जो दूसरी औरतों के साथ बदसलूकी करता है… उन की इज्जत पर हाथ डालता है… पता नहीं और क्याक्या करता हो और हमारी बेटी को न जाने कब से धोखा दे रहा हो. सादगी की आड़ में न जाने कितनी औरतों से संबंध बना चुका हो,’’ अपनी सास की बात सुन रमन हैरान रह गए.

‘‘मुझे आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी मां. मुसीबत के वक्त अपने ही साथ देते हैं और जब राधा मुझ पर विश्वास ही नहीं करना चाहती तो मैं क्या कह सकता हूं. इतने लंबे वैवाहिक जीवन में भी अगर पतिपत्नी के बीच विश्वास की दीवारें पुख्ता न हों तो फिर साथ रहना ही बेमानी है.

‘‘अब मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. तुम मेरी तरफ से आजाद हो, पर यह घर हमेशा से तुम्हारा था और तुम्हारा ही रहेगा.’’

रमन की बात सुन पल भर को राधा को लगा कि शायद वही गलत है. सच में रमन जैसे प्यारे पति और स्नेहमयी पिता में किसी दूसरे की बात सुन कर दोष देखना क्या उचित होगा?

18 साल की शादीशुदा जिंदगी में कभी रमन ने उस का दिल नहीं दुखाया था, कभी भी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, तो फिर क्यों आज उस का विश्वास डगमगा रहा है… वे कुछ कहना ही चाहती थीं कि मां ने उन का हाथ पकड़ा और घसीटते हुए बाहर ले गईं. बच्चे हैरान और सहमे से खड़े सब की बातें सुन रहे थे.

‘‘मां, पापा की बात तो सुनो…’’  उन की 18 वर्ष की बेटी साक्षी की बात पूरी होने से पहले ही काट दी गई.

‘‘तू इन सब बातों से दूर रह. अभी बच्ची है…’’

नानी की फटकार सुन वह चुप हो गई. मां का पापा पर विश्वास न करना उसे

अखर रहा था. उस ने अपने भाई को देखा जो बुरी तरह से घबराया हुआ था. साक्षी ने उसे सीने से लगा लिया और फिर दूसरे कमरे में ले गई. बड़े भी कितने अजीब होते हैं. अपनों से ज्यादा परायों की बात पर भरोसा करते हैं. हो सकता है… नहीं उसे पक्का यकीन है कि उस के पापा को फंसाया गया है.

राधा और बच्चों के जाने के बाद रमन को घर काटने लगा था. इन्वैस्टिगेशन के दौरान सीमा बिना झिझके कहती कि रमन ने पहले भी उन के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी. यहां तक कि उन के सामने सैक्स संबंध बनाने का प्रस्ताव भी रखा था.

बहसों, दलीलों और रमन की ईमानदारी भी इसलिए उन्हें सच्चा साबित नहीं कर पा रही थी, क्योंकि कानून औरत का साथ देता है. खासकर तब जब बात उस के साथ छेड़छाड़ करने की हो.

रमन टूट रहे थे. परिवार का भी साथ नहीं था, दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी किनारा कर लिया था.

उस दिन शाम को रमन अकेले निराश से घर में अंधेरे में गुम से बैठे थे. रोशनी उन की आंखों को अब चुभने लगी थी, इसलिए अंधेरे में ही बैठे रहते. खाली घर उन्हें डराने लगा था. प्यास सी महसूस हुई उन्हें पर उठने का मन नहीं किया. आदतन वे राधा को आवाज लगाने ही लगे थे कि रुक गए.

फिर अचानक अपने सामने राधा को खड़े देख चौंक गए. लाइट जलाते हुए वे बोलीं, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए रमन. आप पर विश्वास न कर के मैं ने खुद को धोखा दिया है. पर अब मुझे सच पता चल चुका है,’’ और फिर रमन से लिपट गईं. ग्लानि उन के चेहरे से साफ झलक रही थी. जिस पति पर वे आज तक अभिमान करती आई थीं, उस पर शक करने का दुख उन की आंखों से बह रहा था.

‘‘पर अभी तो इन्वैस्टिगेशन पूरी भी नहीं हुई है, फिर…’’ रमन हैरान थे, पर राधा को देख उन्हें लगा था मानो आसमान पर बादलों का जो झुंड इतने दिनों से मंडरा रहा था और हर ओर कालिमा बिखेर रहा था, वह यकायक हट गया है. रोशनी अब उन की आंखों को चुभ नहीं रही थी.

सीमा के पति मुझ से मिलने आए थे. उन्होंने ही मुझे बताया कि सीमा के खिलाफ वह सार्वजनिक रूप से या इन्वैस्टिगेशन अफसर को तो बयान नहीं दे सकते, क्योंकि इस से उन का घर टूट जाएगा और चूंकि वे बीमार रहते हैं, इसलिए पूरी तरह से पत्नी पर ही निर्भर हैं. लेकिन वे माफी मांग रहे थे कि उन की पत्नी की वजह से हमें एकदूसरे से अलग होना पड़ा और आप को इतनी बदनामी सहनी पड़ी.

वह बोले कि सीमा बहुत महत्त्वाकांक्षी है और जानती है कि मैं लाचार हूं, इसलिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. उसे पैसे की भूख है. वह बिना मेहनत के तरक्की की सीढि़यां चढ़ना चाहती है.

वह रमनजी से इसी बात से नाराज थी कि वे उस की प्रमोशन नहीं करते और साथ ही उस के रिश्वत लेने के खिलाफ रहते थे. रमन सर ने शायद उसे वार्निंग भी दी थी कि वे उस के खिलाफ ऐक्शन लेंगे, इसीलिए उस ने यह सब खेल खेला. मैं उस की तरफ से आप से माफी मांगता हूं और रिक्वैस्ट करता हूं कि आप रमन सर के पास लौट जाएं

‘‘मुझे भी माफ कर दीजिए रमन. हम साथ मिल कर इस मुसीबत से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ लेंगे. मैं यकीन दिलाती हूं कि अब कभी अपने बीच की विश्वास की जड़ों को उखड़ने नहीं दूंगी.’’

कितने दिल : अंधविश्वासी रमनजी को कैसे कराया रमा ने सच्चाई से रूबरू?

‘‘किसीने क्या खूब कहा है कि जो रिश्ते बनने होते हैं बन ही जाते हैं, कुदरत के छिपे हुए आशयों को कौन जान सका है? इस का शाहकार और कारोबार ऐसा है कि अनजानों को कैसे भी और कहीं भी मिला सकता है.’’

वे दोनों भी तकरीबन 1 महीने से एकदूसरे को जानने लगे थे. रोज शाम को अपनेअपने घर से टहलने निकलते और पार्क में बतियाते.

आज भी दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा कर अभिवादन किया.

‘‘तो सुबह से ही सब सही रहा आज,’’ रमा ने पूछ लिया, तो रमनजी ने हां में जवाब दिया.

और फिर दोनों में सिलसिलेवार मीठीमीठी गपशप भी शुरू हो गई.

रमा उन से 5 साल छोटी थी, मगर उन की बातें गौर से सुनती और अपना विचार व्यक्त करती.

रमनजी ने उस को बताया था कि वे

परिवार से बहुत ही नाखुश रहने लगे हैं, क्योंकि सब को अपनीअपनी ही सूझती है. सब की अपनी मनपसंद दुनिया और अपने मनपसंद अंदाज हैं.

रमनजी का स्वभाव ही ऐसा था कि जब

भी गपशप करते तो अचानक ही

पोंगा पंडित जैसी बातें करने लगते. वे कहते, ‘‘रमाजी पता है, तो वह तुरंत कहती ‘जी, नहीं… नहीं’ पता है तब भी वे बगैर हंसे अपनी रौ में बोलते रहते, ‘‘इस दुनिया में 2 ही पुण्य फल हैं- एक, तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए.’’

यह सुन कर रमाजी खूब हंसने लगतीं, तो रमनजी अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते, ‘‘प्रभु की शरण में सब समाधान मिल जाता है. परमात्मा में रमा हुआ मन और तीर्थ में दानपुण्य करने वाले को सभी तरह की शंका का समाधान मिल जाता है.’’

‘‘और हां रमाजी सुनिए, यह जो जीवन है वो भले ही कितना भी लंबा हो, नास्तिक बन कर और उस परमात्मा को भूल कर छोटा भी किया जा सकता है.’’

यह सब सुन कर रमाजी अपनी हंसी दबा कर कहतीं, ‘‘अच्छाजी, तो आप का आश्रम कहां है? जरा दीक्षा लेनी थी.’’

यह सुन कर रमनजी काफी गंभीर और उदास हो जाते, तो वे मन बदलने को कुछ लतीफे सुनाने लगतीं. वे उन से कहतीं, ‘‘गुरुजी, जो तुम को हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे…’’

उक्त गीत में नायक नायिका से क्या कहना चाहता है, संक्षेप में भावार्थ बताओ रमनजी…

रमनजी सवाल सुन कर बिलकुल सकपका ही जाते. वे बहुत सोचते, पर उन से तो उत्तर देते ही नहीं बनता था.

रमाजी कुछ पल बाद खुद ही कह देतीं, ‘‘रमनजी, इस गाने में नायक नायिका से कह

रहा है कि ठीक है, तुम से माथा फोड़ी कौन करे?’’

उस के बाद दोनों ही जोरदार ठहाके लगाते.

अकसर रमनजी उपदेशक हो जाते. वे कहते कि मेरे मन में ईश्वर प्रेम

भरा है और मैं तुम को भी यही सलाह इसलिए नहीं दे रहा कि मैं बहुत समझदार हूं, बल्कि मैं ने गलतियां तुम से ज्यादा की हैं. और इस राह में जा कर ही मुझे सुकून मिला है इसलिए.

तो रमाजी भी किसी वामपंथी की मनिंद बोल उठतीं, ‘‘रमनजी, 3 बातों पर निर्भर करता

है हमारा भरोसा. हमारा अपना सीमित विवेक, हम पर सामाजिक दबाव और आत्मनियंत्रण

का अभाव.’’

‘‘अब इस में मैं ने अपने भरोसे की चीज तो पा ली है और खुश हूं कि हां, वह कौन सी चीज ढूंढ़ी,’’ यह तो समझने वालों ने समझ ही लिया होगा, मगर रमनजी तब भी रमाजी के मन को नहीं समझ पाते थे.

रमनजी की भारीभरकम बातें सुन कर पहलेपहल रमा को ऐसा लगता था कि वे शायद बहुत बड़े कुनबे का बोझ ढो रहे होंगे. बहुत सहा होगा और इसीलिए अब उन को उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है.

फिर एक दिन रमा ने जरा खुल कर ही जानना चाहा कि आखिर ये माजरा क्या है. रमा उन से बोलीं कि मैं अब 60 पूरे कर रही हूं और मैं 65, ऐसा कह कर रमनजी हंस दिए.

‘‘मेरा मतलब यह है कि मेरे बेटेबहू

मुझे कहते हैं जवान बूढे़,’’ हंसते हुए रमाजी

ने कहा.

‘‘अच्छा… अच्छा,’’ रमनजी ने गरदन

हिला कर जवाब दिया. वे जराजरा सा मुसकरा

भी दिए.

‘‘मैं जानना चाहती हूं कि आप को कितने लोग मिल कर इतना दुखी कर रहे हैं कि आप परेशान ही नजर आते हो,’’ रमाजी ने गंभीरता

से पूछा?

रमाजी मेें बहुत ही आत्मीयता थी. वे रमनजी के साथ बहुत चाहत से बात करती थीं. यही कारण था कि रमनजी ने बिना किसी संकोच के सब बता दिया कि वे सेवानिवृत्ति बस कंडक्टर रहे हैं और इकलौते बेटे को 5 साल की उम्र से उन्होंने अपने दम पर ही पाला. कभी सिगरेट, शराब, सुपारी, पान, तंबाकू किसी को हाथ तक नहीं लगाने दिया.

पिछले साल ही बेटे का विवाह

हो गया है. आज स्थिति ऐसी है कि वह और उस की पत्नी बस अपने ही हाल में मगन हैं. बहू एक स्टोर चलाती है और बेटा जूतेचप्पल की दुकान. दोनों को अलगअलग अपना काम है और बहुत अच्छा चल

रहा है.

‘‘ओह, तो यह बात

है. आप को यह महसूस हो रहा है कि अब आप की कोई पूछ ही नहीं रही है न,’’ रमा ने कहा.

‘‘मगर, पूछ तो अब

आप की नजर में भी कम ही हो गई होगी. अब आप को यह पता लग गया कि मैं बस कंडक्टर था,’’ रमनजी फिर उदास हो गए.

उन की इस बात पर रमाजी हंस पड़ीं और बोलीं कि

कोई भी काम छोटा नहीं होता. दूसरा, आप हर बात पर उदासी को अपने पास मत बुलाया कीजिए. यह थकान की जननी है और थकान बिन बुलाए ही बीमारियों को आप के शरीर में प्रवेश करा देती है.

‘‘आप को पता नहीं कि मैं खुद भी ऐसी ही हूं, मगर मेरा यह अंदाज ऐसा है कि फिर भी मेरे बेटेबहू मुझ को बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि मैं मन की बिलकुल साफ हूं.’’

‘‘मैं ने 20 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया और 22 साल की उम्र में पति को उस की प्रेमिका के पास छोड़ कर अपने बेटे को साथ ले कर निकल पड़ी. उस के बाद पलट कर भी नहीं देखा कि उस बेवफा ने बाकी जिंदगी क्या किया और कितनी प्रेमिकाएं बनाई, कितनों का जीना दूभर किया.

‘‘मैं मातापिता के पास आ कर रहने लगी और 22 साल की उम्र से बेटे की परवरिश के साथ ही बचत पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया.

‘‘मेरा बेटा सरकारी स्कूल और कालेज में ही पढ़ा है. अब वह एक शिक्षक है और पूरी तरह से सुखी है.

‘‘हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे पीहर

में बगीचे हैं, जिन में 50 आम के पेड़ हैं,

50 कटहल और इतने ही जामुन और आंवले के. मैं ने इन की पहरेदारी का काम किया और पापा

ने मुझे बाकायदा पूरा वेतन दिया.

‘‘जब मेरा बेटा 10वीं में आया, तो मेरे पास पूरी 20 लाख रुपए की पूंजी थी. मेरे भाई और भाभी ने मुझे कहीं जाने नहीं दिया.

‘‘मेरी उन से कभी अनबन नहीं हुई. वे हमेशा मुझे चाहते रहे क्योंकि उन के बच्चों को मेरे बेटे के रूप में एक मार्गदर्शक मिल रहा था. और मेरी वो पूंजी बढ़ती गई.’’

‘‘मगर, बेटे की नौकरी पक्की हो गई

थी और उस ने विवाह का इरादा कर लिया

था, इसलिए हम लोग यहां इस कालोनी में

रहने लगे. पिछले साल ही मेरे बेटे का विवाह हुआ है.

‘‘अपनी बढि़या बचत से औैर जीवनशैली के बल पर ही मैं आज करोड़पति हूं, मगर सादगी से रहती हूं. अपना सब काम खुद करती हूं और कभी भी उदास नहीं रहती.

‘‘पर, आप तो हर बात पर गमगीन हो

जाते हैं. इतने दिनों से आप की व्यथा सुन कर मुझे तो यही लगता है कि आप पर बहुत ही अत्याचार किया जा रहा है. इस तरह आप लगातार दुख में भरे रहे तो दुनिया से जल्दी ही विदा हो जाओगे.

‘‘आप हर बात पर परेशान रहते हो. यह मुझ को बहुत विचलित कर देता है. सुनो… मेरे मन में एक आइडिया आया है…

‘‘आप एक काम करो… मैं कुछ दिन के लिए आप के घर चलती हूं. वहां का माहौल बदलने की कोशिश करूंगी. मैं तो हर जगह सामंजस्य बना लेती हूं. मैं 20 साल पीहर में रही हूं.’’

‘‘मगर आप को ऐसे कैसे…? कोई तो वजह होगी ना मेरे घर चलने की. वहां मैं क्या कहूंगा?’’ रमनजी बोले.

‘‘अरे, बहुत ही आसान है. मेरी बात गौर

से सुनो. आज आप एक गरम पट्टी बांध कर

घर वापस जाओ. कह देना कि यह कलाई अचानक ही सुन्न हो गई है. कोई सहारा देने

वाला तो चाहिए ना. जो हाथ पकड़ कर जरा संभाल ले.’’

‘‘फिर मैं आप के दोस्त की कोई रिश्तेदार हूं, आप कह देना कि बुढि़या है,

मगर ईमानदार है. मेरा पूरा ध्यान रख लेगी वगैरह. वे भी सोचेंगे कि चलो, सही है बैठेबैठे सहायिका भी मिल गई.’’

‘‘कोशिश कर के देखता हूं,’’ रमनजी ने कहा और पास के मैडिकल स्टोर से गरम पट्टी खरीद कर अपने घर की तरफ जाने वाली गली में चले गए.

रमनजी का तीर निशाने पर लगा. एक सप्ताह की तैयारी कर रमाजी उन के घर पहुंच

गई थीं.

रमाजी के आने से पहले रमनजी के बेटेबहू ने उन की एक अलग ही इमेज बना रखी थी और उन को एक अति साधारण महिला समझा था, मगर जब आमनासामना हुआ तो रमाजी का आकर्षक व्यक्तित्व देख कर उन्होंने रमाजी के पैर छू लिए.

यह देख रमाजी ने भी खूब दिल से आशीर्वाद दिया. रमाजी को तो पहली नजर में रमनजी के बेटेबहू बहुत ही अच्छे लगे.

खैर, सब की अपनीअपनी समझ होती है, यह सोच कर रमाजी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचीं और सब आने वाले समय पर छोड़ दिया.

अगले दिन सुबह से ही रमाजी ने मोरचा संभाल लिया था. रमनजी अपनी

कलाई वाले दर्द पर कायम थे और बहुत ही अच्छा अभिनय कर रहे थे.

रमाजी को सुबह जल्दी उठने की आदत

थी, इसलिए सब के जागने तक वे नहाधो कर चमक रही थीं, वे खुद चाय पी चुकी थीं,

रमनजी को भी 2 बार चाय मिल गई थीं. साथ ही, वे हलवा और पोहे का नाश्ता तैयार कर

चुकी थीं.

यह देख बेटेबहू भौंचक थे. इतना लजीज नाश्ता कर के वे दोनों गदगद थे. बेटाबहू दोनों अपनेअपने काम पर निकले तो रमनजी ने हाथ चलाया औैर रसोई में बरतन धोने लगे. रमाजी ने बहुत मना किया तो वे जिद कर के मदद करने लगे, क्योंकि वे जानते थे कि 3 दिन तक बाई छुट्टी पर रहेगी.

शाम को बेटेबहू रमाजी को कह कर गए थे कि आज वे बाहर से पावभाजी ले कर आएंगे, इसलिए रमाजी भी पूरी तरह निश्चिंत रहीं और आराम से बाकी काम करती रहीं. उन्होंने आलू के चिप्स बना दिए और साबूदाने के पापड़, गमलों की सफाई कर दी.

एक ही दिन में रमाजी की इतनी मेहनत देख कर रमनजी का परिवार हैरत में था. रात

को सब ने मिलजुल कर पावभाजी का आनंद लिया.

रमनजी और रमाजी रोज शाम को लंबी

सैर पर जा रहे थे. कुछ जानने वालों ने अजीब निगाहों से देखा, मगर दोनों ने इस की परवाह नहीं की.

इसी तरह पूरा एक सप्ताह निकल गया. कहां गुजर गया, कुछ पता ही न चला.

रमनजी और उन के बेटेबहू रमाजी के

दिल से प्रशंसक हो चुके थे. वे चाहते कि

रमाजी वहां कुछ दिन और रहें. ऐसा देख रमनजी का चेहरा निखर उठा था. उन की उदासी जाने कहां चली गई थी. बेटेबहू उन से बहुत प्रेम से बात करते थे. वातावरण बहुत ही खुशनुमा हो गया था.

रमाजी अपने मकसद में कामयाब रहीं.

उन को कुछ सिल्क की साडि़यां उपहार में

मिली, क्योंकि रमाजी ने रुपए लेने से मना कर दिया था.

रमाजी वहां से चली गईं और रमनजी को शाम की सैर पर आने को कह गईं. पर, शाम को रमाजी सैर पर नहीं आ सकीं.

रमनजी को उन्होंने संदेश भेजा कि वे सपरिवार 2 दिन के लिए कहीं बाहर जा रही हैं.

रमनजी ने अपना मन संभाल, मगर तकरीबन एक सप्ताह गुजर गया और रमाजी

नहीं आईं. न ही रमनजी के किसी संदेश का जवाब ही दिया.

रमनजी को फोन करते हुए कुछ संकोच होने लगा, तो वह मनमसोस कर रह गए.

पूरा महीना ऐसे ही निकल गया. लगता था, रमनजी और बूढ़े हो गए थे. मगर वे रमाजी

के बनाए आलू के चिप्स और पापड़ खाते तो लगता कि रमाजी यहीं पर हैं और उन से बातें कर रही हैं.

एक शाम उन का मन सैर पर जाने का हुआ ही नहीं. वो नहीं गए. अचानक देखते

क्या हैं कि रमाजी उन के घर के दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई हैं. वे एकदम हैरान रह गए. अरे, ये क्या हुआ. पीछेपीछे उन के बेटेबहू भी आ गए. अब तो रमनजी को सदमा लगा. वे अपनी जगह से खड़े हो गए.

बहू ने कहा कि रमाजी अब यहां एक महीना रहेंगी और हम उन के गुलाम बन कर रहेंगे.

रमनजी ने कारण जानना चाहा, तो बहू ने बताया कि उस की छोटी बहन अभी होमसाइंस पढ़ रही है. उस को कालेज के अंतिम प्रोजैक्ट में अनुभवी महिलाके साथ समय बिताना है, डायरी बनानी है इसलिए…’’

‘‘ओ हो अच्छा… बहत अच्छा,’’ बहू बहुत ही सही निर्णय,’’ कहते समय रमनजी के चेहरे पर लाली आ गई. मगर उन के परिवार वालों से बात कर ली.

वे अचानक पूछ बैठे, ‘‘परिवार मना कैसे करता. मेरी बहन और रमा आंटी तो फेसबुक दोस्त हैं और रमाजी का परिवार तो समाजसेवा का शौकीन है. है ना रमा आंटी.’’

रमनजी की बहू चहक उठी. रमाजी ने अपने व्यवहार की दौलत से अपने जीवन में कितने सारे दिल जीत लिए थे.

सुखद मरीचिका : आजीवन शादी न करने वाले डा. शांतनु की लाइफ में जब आई अंजलि

लेखिका- सिंधु मुरली

रोज की तरह आज भी डा. शांतनु बहुत खुश नजर आ रहे थे. जब से अंजलि मरीज बन कर उन के अस्पताल में आई थी, उन्होंने अपने अंदर एक बदलाव महसूस किया था. लेकिन बहुत सोचने पर भी इस बदलाव के कारण को वे समझ नहीं पा रहे थे. यह जानते हुए भी कि अंजलि के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है, वे खुद को उस की ओर खिंचने से रोक नहीं पा रहे थे. वर्षों पहले लिया गया उन का ब्रह्मचर्य का प्रण भी अब डगमगा रहा था.

ऐसा नहीं था कि उन के जीवन में कोई स्त्री आई ही नहीं थी या उन्होंने इस से पहले कोई रेप केस देखा ही नहीं था. लेकिन उन्होंने सभी से किनारा कर लिया था. उन स्त्रियों में से कुछ तो आज भी उन की अच्छी मित्र हैं.

लौस एंजिलिस जैसे आधुनिक शहर में रहते हुए भी उन्होंने योग और अध्यात्म से अपने शरीर और चरित्र को बाह्य सांसारिक सुखों से मुक्त कर लिया था, परंतु अपने बरसों से भटकते हुए मन पर अभी भी पूरी तरह नियंत्रण नहीं कर पाए थे.

मगर अंजलि से मिलने के बाद उन्होंने अपने मन पर पूर्णविराम अनुभव किया था. उन के चेहरे पर एक अद्भुत सी चमक आ गई थी. 42 की उम्र में यह परिवर्तन सिर्फ उन्होंने ही नहीं, उन की मां, मित्रों व अस्पताल के कर्मचारियों ने भी महसूस किया था.

जानीपहचानी हस्ती होने के बावजूद डा. शांतनु हर पल सब की मदद को तैयार रहने वाले एक शांत और दयालु इंसान थे. मगर अचानक ही उन के व्यक्तित्व में आए इस सुखद परिवर्तन का राज कोई नहीं जान पाया था. उन के हंसने और बात करने के अंदाज में एक नई ऊर्जा का समावेश हुआ था.

‘‘योर कौफी सर,’’ सिस्टर एंजिल के स्वर ने डा. शांतनु को अंजलि के खयालों से आजाद किया.

‘‘हाय शांतनु,’’ डा. रेवती ने उन के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा.

‘‘हाय. आओ बैठो,’’ शांतनु ने रेवती का अभिवादन किया और सिस्टर से एक कप कौफी और बनाने का निवेदन किया.

‘‘सो, हाउ इज योर पेशैंट नाउ?’’ उन्होंने जिज्ञासा भरी नजरों से रेवती से पूछा.

डा. रेवती ही अंजलि का केस हैंडल कर रही थीं. अंजलि के मानसिक तनाव की गंभीरता को भांप कर ही रेवती ने शांतनु से अंजलि की काउंसलिंग करने को कहा था.

‘‘शी इज रिकवरिंग नाउ. सब तुम्हारी मेहरबानी है, वरना पराए देश में कौन किस की इतनी मदद करता है. मगर तुम ठहरे शांतनु द ग्रेट,’’ रेवती ने हाथ जोड़ते हुए इस तरह कहा कि शांतनु मुसकराए बिना न रह सके.

‘‘और कितने दिन अंजलि को यहां रुकना होगा?’’ शांतनु ने पूछा.

‘‘एकडेढ़ हफ्ते बस,’’ कौफी का कप मेज पर रखते हुए रेवती बोली और, ‘‘ओके बौस, अब परसों मुलाकात होगी,’’ कहते हुए वह जाने को तैयार हो गई.

‘‘वीकेंड पर कहीं बाहर जा रही हो क्या?’’ शांतनु ने पूछा.

‘‘हां, बच्चों ने इस बार पिकनिक का प्रोग्राम बनाया है और निखिल भी तैयार हैं, तो जाना ही पड़ेगा,’’ सुस्त लहजे में रेवती बोली. फिर, ‘‘सब तुम्हारी कृपा है, वरना आज मैं भी चोट खाई लैला की तरह भटक रही होती. पर इस घरगृहस्थी के झंझट से तो आजाद होती,’’ रेवती ने नाटकीय अंदाज में कहा तो शांतनु खिलखिला कर हंस दिए.

‘‘पागल कहीं की,’’ रेवती को जाते देख शांतनु बुदबुदाए.

दरअसल रेवती भी उन लड़कियों की श्रेणी में आती है, जिन्होंने स्वयं ही शांतनु के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा था. परंतु लाख जतन कर के भी शांतनु के पत्थर दिल को पिघला नहीं पाई थी.

विवाह न करने के अडिग फैसले ने रेवती के दिल में निखिल के लिए जगह बना दी और इंटर्नशिप के बाद दोनों ने घर बसा लिया. शांतनु आज भी उन के हितैषी और मित्र बन कर उन के साथ थे.

‘‘सर, डाक्टर विल्सन इज कौलिंग यू,’’ एक जूनियर डाक्टर ने उन के कक्ष में झांकते हुए कहा तो वे अपनी खयाली दुनिया से बाहर आए.

‘‘सिस्टर, इन के खाने में नौनवेज कम कर दीजिए,’’ कुरसी खिसकाते हुए डा. शांतनु ने अंजलि की पल्स रेट चैक करते हुए सिस्टर जौन्स से मजाकिया लहजे में कहा तो अंजलि एक फीकी हंसी हंस दी.

सिस्टर जौन्स शांतनु को बहुत मानती थीं. उन के पति की मृत्यु के बाद शांतनु ने उन की हर तरह से मदद की थी, इसीलिए तो शांतनु के कहने पर उन्होंने अंजलि की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. शांतनु, डा. रेवती, सिस्टर जौन्स आदि के प्यार और देखभाल ने ही इतने बड़े हादसे के बाद भी अंजलि को जिंदा रखा था. कितना रोईचिल्लाई थी अंजलि जब उसे आधेअधूरे वस्त्रों में यहां लाया गया था. उस के  शरीर पर जगहजगह नाखूनों के निशान थे. चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था और नीचे से लगातार खून बह रहा था.

‘मुझे मर जाने दो प्लीज,’ यही रट लगाए थी वह. रेवती ने उसे नींद का इंजैक्शन लगा दिया था और शांतनु से एक बार अंजलि से मिलने को कहा था.

रेवती जानती थी कि अंजलि जैसे कुछ भी अनिष्ट करने को तैयार मरीजों के लिए डा. शांतनु ही संजीवनीबूटी हैं. उन की आंखों का स्नेह, बातों की मधुरता ऐसे रोगियों में अजब सा जादू करती थी. उन के शब्दों में बहुत ताकत थी. उन से बातें कर रोगी स्वयं को बहुत हलका महसूस करता था. उस अस्पताल में और भी जानेमाने साइकोलौजिस्ट थे, परंतु डा. शांतनु का कोई सानी नहीं था.

प्रायश्चित्त की आग में जलने वाले डा. शांतनु को उन के जीवन की एक घटना ने जब इंसानियत की तरफ मोड़ा तो वे इंसानियत के स्तर से भी ऊंचे उठ गए.

पिता की मृत्यु के बाद हमेशा के लिए भारत छोड़ वे अपनी मां के पास लौस ऐंजिलिस आ गए और अपनी शेष पढ़ाई पूरी की. फिर अपनी कड़ी मेहनत से आंतरिक शक्ति को एकाग्र कर मन की सारी परतें खोल दीं और थोड़े ही समय में इस शहर के सब से प्रसिद्ध साइकोलौजिस्ट बन गए.

उन्होंने तन, मन, धन से खुद को मानव सेवा में समर्पित कर दिया. लोगों का मानना था कि वे अपनी तरह के अकेले इंसान हैं. इस के बावजूद उन के मन में अभी भी एक बेचैनी थी.

जब पहली बार वे अंजलि से मिले तो उन्हें लगा जैसे किसी ने उन के मन की शांत नदी में एक बड़ा सा पत्थर फेंक दिया हो. फिर धीरेधीरे अंजलि उन के मन में गहरी उतरती चली गई. उस की हलकी भूरी आंखें जाने उन्हें क्या याद दिलाना चाह रही थीं.

बाद में अंजलि ने ही उन्हें बताया था कि वह फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने के लिए यहां आई थी. उस की पढ़ाई खत्म हो चुकी थी और अगले महीने उसे भारत लौटना था.

हादसे की रात मिस्टर जोसेफ को, जिन के घर वह पेइंग गैस्ट के तौर पर रह रही थी, अचानक ही सपरिवार किसी करीबी रिश्तेदार की मृत्यु पर सियाटल जाना पड़ा. उसी रात मौका देख उन के नौकर ने अपने 2 साथियों के साथ अंजलि पर धावा बोल दिया. उन्होंने बारीबारी से उस के साथ बलात्कार किया और सुबह होने से पहले ही भाग गए.

सुबह 7 बजे जब अंजलि को होश आया उस ने फोन पर अपनी प्रिय सहेली जेनिल को सारी बात बताई. जेनिल फौरन अपने मातापिता के साथ वहां पहुंची और उसे अस्पताल पहुंचाया.

शांतनु की पहुंच से पुलिस ने भी केस को ज्यादा नहीं बढ़ाया. मिस्टर जोसेफ ने अंजलि की पैसों से मदद करनी चाही मगर अंजलि ने साफ इनकार कर दिया. उस ने अपनी बूआजी से पांव में फ्रैक्चर का बहाना कर पैसे मंगा लिए थे. बूआजी मुंबई में रहती थीं. वे दोनों ही एकदूसरे का सहारा थीं.

‘‘सर, आप मेरी कितनी मदद कर रहे हैं,’’ एक दिन अंजलि ने शांतनु से कहा.

‘‘यह तो मेरी ड्यूटी है,’’ शांतनु ने मुसकरा कर कहा.

‘‘ड्यूटी तो तुम पहले भी अच्छी कर लेते थे, पर इस ड्यूटी की शायद कोई खास वजह है,’’ अंजलि के कमरे से बाहर निकलते हुए कुहनी मारते हुए रेवती ने शांतनु से कहा.

‘क्या मैं अंजलि को चाहने लगा हूं?’

‘नहीं.’

‘तो फिर ऐसा क्या है जो मुझे बारबार उस की ओर खींच रहा है?’

‘पता नहीं.’

‘मेरी और उस की उम्र में कितना फर्क है.’

‘उस से कोई फर्क नहीं पड़ता है.’

एक रात शांतनु अपने शयनकक्ष में लेटे खुद से ही सवालजवाब कर रहे थे, परंतु किसी परिणाम तक नहीं पहुंचे.

उन का इस तरह अपनेआप में खोए रहना मां की आंखों से भी छिपा न था, परंतु उन्होंने बेटे से कुछ भी न पूछा था. जानती थीं कि कोई उत्तर नहीं मिलेगा.

बचपन में ही मातापिता को अलग होते देखा था 9 वर्षीय शांतनु ने. कोर्ट की आज्ञानुसार उसे अपने पिता के पास रहना था. मां रोतीबिलखती अपने कलेजे के टुकड़े नन्हे शांतनु को वहीं छोड़ कर अपने परिवार के पास लौस ऐंजिलिस आ गईं. मांबेटे के बीच की ये दूरियां उन के दोबारा साथ रहने के बावजूद भी नहीं भरी थीं.

शांतनु के पिता जानेमाने वकील थे. उन की व्यस्त जिंदगी ने बेटे को आजाद पंछी बना दिया था. किशोरावस्था में ही दोस्तों का जमघट, पार्टियां, मौजमस्ती यहां तक कि शराब पीना भी शांतनु की आदत में शुमार हो गया था.

बचपन से ही उस की इच्छा थी कि वह डाक्टर बने, परंतु कुशाग्र बुद्धि का होने के बावजूद बिगड़ी सोहबत निरंतर उसे पढ़ाई में पीछे ले गई.

मैडिकल कालेज में पिता ने मोटी रकम दे कर बेटे का एडमिशन कराया. अब शांतनु अपने शहर अहमदाबाद को छोड़ कर विशाखापट्टनम आ गया.

यहां आ कर उस की आजादी को तो जैसे पंख ही लग गए. नए बिगड़ैल दोस्तों ने उसे अश्लील फिल्में देखने का आदी भी बना दिया. अब उस का मन स्त्री स्पर्श को व्याकुल रहता, मगर यह भावना उस ने कभी जाहिर नहीं होने दी.

‘‘बेटा, तबीयत ठीक नहीं लग रही तो आज छुट्टी ले लो,’’ एक दिन मां ने बुझे चेहरे को देख शांतनु से कहा.

‘‘नहीं मां, आज 2-3 वीआईपीज का अपौइंटमैंट है इसलिए जाना जरूरी है,’’ जूस का गिलास खाली करते हुए शांतनु बोले.

दरअसल, अंजलि से मिलने के बाद से जो आकर्षण वे उस की ओर महसूस कर रहे थे, वही अब पहेली बन उन की रातों की नींद उड़ा चुका था.

‘‘सिस्टर और कोई है बाहर?’’ शांतनु ने दीवार घड़ी देखते हुए पूछा.

‘‘नहीं सर, बाहर तो कोई नहीं है. हां, अंजलि मैडम आप से मिलना चाह रही थीं. उन्हें शाम का टाइम दे दूं?’’ उन की थकान देख सिस्टर ने पूछा.

‘‘नहीं, वैसे भी अब घर जाना है तो उस से मिलता हुआ जाऊंगा.’’ कह कर डा. शांतनु कुरसी से उठे. अंजलि से मिलने का कोई मौका वे गंवाना नहीं चाहते थे.

जब अंजलि के कमरे में उन्होंने प्रवेश किया तो जेनिल व उस के मातापिता को वहां पाया. उन के अभिवादन का जवाब दे कर वे अंजलि की ओर मुड़े.

‘‘कहो अंजलि, कैसे याद किया?’’ उन्होंने पास बैठते हुए पूछा.

‘‘सर, अब मैं यहां से जाना चाहती हूं,’’ उस ने गंभीरता से कहा.

‘‘हांहां जरूर, हम सब भी तो यही चाहते हैं ताकि जल्दी ही तुम अपनी पुरानी जिंदगी फिर से शुरू कर दो,’’ शांतनु ने उत्साह से भर कर कहा.

‘‘पुरानी जिंदगी तो शायद अब कभी नहीं…’’ कहतेकहते उस का स्वर भर्रा गया.

‘‘देखो अंजलि, हर प्रलय के बाद फिर से जीवन का आरंभ होता है. यही प्रकृति का नियम है. अगर तुम खुश रहना मन से चाहोगी, तभी खुश रह पाओगी. किसी और के कहने या चाहने से कुछ नहीं होगा,’’ शांतनु ने अंजलि की आंखों में झांक कर जिस आत्मविश्वास से यह बात कही, उस से अंजलि का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘कितनी गहराई है आप की बातों में. मैं खुशीखुशी जीने की पूरी कोशिश करूंगी,’’ अंजलि की आवाज में आज पहली बार आत्मविश्वास दिखा था.

‘‘हम अंजलि को अपने घर ले जाएंगे.’’ जेनिल के पिता बोले.

2 दिन बाद अंजलि जेनिल के साथ चली गई. भारत लौटने से पहले भी वह शांतनु के पास 2-3 बार काउंसलिंग के लिए आई.

‘‘सर, मुंबई से भी मैं आप के संपर्क में रहना चाहूंगी,’’ एयरपोर्ट पर भरी आंखों से अंजलि ने कहा तो शांतनु ने भी पलकें झपका कर जवाब दिया.

उस के जाने के बाद शांतनु को अपना मन संभालने में काफी वक्त लगा. फिर समय अपने वेग से चलने लगा.

शांतनु और अंजलि के बीच फोन पर संपर्क बना रहा. दोनों के स्वर में एकदूसरे के लिए अपार ऊर्जा थी. शांतनु के मन ने तो अब अंजलि से विवाह की बात भी सोचनी शुरू कर दी थी, परंतु जबान तक आतेआते मन ही उन्हें खामोश कर देता.

शांतनु यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि सिर्फ उन्हीं के हृदय में अंजलि के लिए ऐसी भावनाएं हैं. यह भी एक कारण था उन की झिझक का और शायद उन का मन अंजलि को विवाह जैसे गंभीर मामले पर बातचीत के लिए और समय देना चाहता था.

‘‘सर, अगले महीने 15 डाक्टरों का दल एक सेमिनार में भाग लेने के लिए दिल्ली

जा रहा है. 7 दिनों का प्रोग्राम है. चीफ पूछ रहे थे कि क्या आप भी जाना चाहेंगे?’’

एक सुबह जूनियर डाक्टर मनु ने शांतनु से पूछा, तो उन का हृदय तो कुछ और ही

सोचने लगा.

‘‘तुम जा रहे हो क्या?’’ उन्होंने डा.

मनु से पूछा.

‘‘औफकोर्स, अपने देश जाने का मौका भला कौन छोड़ना चाहेगा सर,’’ डा. मनु बहुत उत्साहित लग रहे थे.

‘‘तो ठीक है. चीफ से कहो मेरा भी नाम लिख लें,’’ शांतनु ने भी उसी उत्साह से कहा. वे शायद एक फैसला ले चुके थे.

उस दल में 10 विदेशी व 5 भारतीय डाक्टर थे. शांतनु ने अंजलि को अपने आने की सूचना दे दी. वैसे उन का भारत में कोई नहीं था. पिता की मृत्यु के साथ ही सारे रिश्ते भी समाप्त हो चुके थे.

शांतनु ने दिल्ली पहुंच कर जब अंजलि को फोन किया तो उस ने उन से पूछा, ‘‘आप भारत कब पहुंचे सर?’’ शांतनु ने उस के स्वर में पहले वाला दर्द और गंभीरता का थोड़ा अंश अभी भी महसूस किया.

‘‘बस आधा घंटा हुआ है.’’

‘‘मैं और बूआजी आप से मिलना चाहते हैं,’’ अंजलि ने इच्छा व्यक्त की.

‘‘अभी 5 दिन का सेमिनार है. फिर मैं ही मुंबई आ जाऊंगा तुम से मिलने. मेरी अमेरिका की फ्लाइट भी वहीं से है,’’ शांतनु ने उसे अपना कार्यक्रम बताया.

‘‘सर, यदि बुरा न मानें तो 2 दिन हमारे यहां ठहर जाइएगा,’’ अंजलि ने निवेदन किया तो शांतनु ने हंस कर स्वीकृति दे दी.

5 दिनों तक चलने वाला अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार किन्हीं कारणों से जब 4 दिन में ही समाप्त हो गया तो सभी की खुशी का ठिकाना न रहा. भारतीय मूल के सभी डाक्टर अपनेअपने शहरों की ओर गए तो शांतनु ने मुंबई का रास्ता पकड़ा.

आज सुबह ही अंजलि से उन्हें पता चला कि फैंसी ड्रैस कंपीटिशन में भाग लेने वह

2 दिनों से पूना में है. अंजलि के मुंबई पहुंचने से पहले ही वे स्वयं उस के घर पहुंच कर उसे आश्चर्यचकित करना चाहते थे.

शाम 7 बजे वे अंजलि द्वारा दिए गए पते के अनुसार उस के घर के सामने थे. बूआजी ने उन का स्वागत किया. एकदूसरे को फोटो द्वारा पहले से ही पहचानने के कारण दोनों खुले दिल से मिले.

अंजलि के कंपीटिशन में भाग लेने की बात से डा. शांतनु संतुष्ट थे कि अंजलि ने जीवन की ओर सकारात्मक रुख कर लिया है. इस बार वे अंजलि व बूआजी से अपने मन की बात साफसाफ कहने ही आए थे. जो अंजलि उन्हें अमेरिका में नहीं मिल

पाई वह शायद भारत में मिल जाए, यही सोच रहा था उन का मन. वे मन से अंजलि के जितने करीब जाते, अजंलि फिर उन्हें उतनी ही दूर लगती. शायद इस बार उन के हृदय की मरीचिका का अंत हो जाए, ऐसी उन्हें उम्मीद थी.

‘‘आप जैसे योग्य आदमी के हमारे यहां आने से हमारी तो इज्जत ही बढ़ गई.’’ चाय का कप शांतनु की ओर बढ़ाते हुए बूआजी बोलीं.

उत्तर में शांतनु बस मुसकरा दिए. चायनाश्ते के बाद फ्रैश हो शांतनु ऊपर छत पर टहलने चले गए. बूआजी रसोई में आया को रात के खाने का कार्यक्रम बताने चली गईं.

मुंबई उन्हें पसंद आ गई. उस पर हलकी हवा और चांदनी रात. शांतनु अपने वतन की खुशबू को अपने अंदर बसा कर ले जाना चाहते थे.

थोड़ी देर बाद बूआजी ऊपर आ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद बूआजी शांतनु के पास आईं और हाथ जोड़ते हुए बोलीं, ‘‘मुझे अंजलि ने अपने साथ हुई दुर्घटना के बारे में सब कुछ बता दिया और साथ ही यह भी बताया कि वहां किस तरह अपनों से भी बढ़ कर आप ने उसे संभाला. आज आप की वजह से ही मेरी बच्ची जिंदा है.’’

‘‘ओह, तो उस ने आप को बता दिया. चलिए, एक तरह से अच्छा ही हुआ. उस का भी मन हलका हो गया होगा,’’ शांतनु ने कहा.

‘‘आप ने उस की शादी के बारे में कुछ सोचा है?’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शांतनु ने पूछा.

‘‘अंजलि अभी भी इस सदमे से बाहर नहीं आई है. और जहां तक में उसे जानती हूं, वह शायद इस बात को राज रख कर किसी से भी शादी के लिए तैयार नहीं होगी. और सच जान कर कोई आगे आएगा भी नहीं,’’ बूआजी भरे गले से बोलीं.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरी नजर में एक लड़का है, जो अंजलि के बारे में सब कुछ जानते हुए भी उस से शादी करने का इच्छुक है. हां, उम्र थोड़ी ज्यादा है. मेरा जूनियर है वह, अंजलि को बहुत खुश रखेगा,’’ शांतनु न चाहते हुए भी झूठ बोल गए.

‘‘सच, क्या अमेरिका में है ऐसा कोई?’’ बूआजी की आंखों में चमक आ गई, ‘‘आप मुझे थोड़ा वक्त दीजिए. मैं अंजलि को समझाऊंगी.’’

‘‘बड़ी अभागन है मेरी अंजलि,’’ थोड़ी देर बाद बूआजी बोलीं.

‘‘आप ऐसा मत सोचिए,’’ शांतनु ने उन का धीरज बंधाया.

‘‘मेरी अंजलि भी एक बलात्कार की ही पैदाइश है.’’ बूआजी ने बिना रुके शून्य की ओर देखते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ शांतनु चौंके.

‘‘हां, पता नहीं क्यों मैं आप को यह बता रही हूं. आप मेरी बच्ची की जिंदगी बनाने की सोच रहे हैं, इसलिए आप से यह कहने की हिम्मत हुई,’’ बूआजी ने शांतनु से नजरें मिलाते हुए कहा.

‘‘अंजलि की मां और मैं पक्की सहेली थीं. हम दोनों एक ही अस्पताल में स्टाफ नर्स थीं. हमारी दोस्ती के 5 साल बाद वह मेरी भाभी बनी. कविता नाम था उस का. उस की शादी के कई साल गुजर गए लेकिन औलाद न होने का दुख पतिपत्नी दोनों को था. कमी मेरे ही भाई में थी, लेकिन यह बात हम ने उसे कभी पता नहीं चलने दी थी, इसलिए शादी के 17 वर्षों बाद भी मेरे भाई ने औलाद की आस नहीं छोड़ी,’’ बूआजी आज अतीत के सारे पन्ने उलटना चाहती थीं.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘एक रात ड्यूटी के समय, उसी के कमरे में किसी ने क्लोरोफार्म सुंघा कर उस के साथ कुकर्म किया था. उस ने यह बात सिर्फ मुझे बताई. शिकायत करती भी तो किस की. चेहरा तो अंधेरे में देखा ही नहीं था. उस समय मेरा भाई भी अपने व्यवसाय के सिलसिले मुंबई में था, इसलिए मैं ने कविता को अंदरूनी सफाई के लिए कहा, पर उस ने तो घर से निकलना ही बंद कर दिया था. मैं भी चुप हो गई. परंतु 1 महीने बाद उस के गर्भवती होने की खबर ने हम दोनों को चौंका दिया.

‘‘कविता गर्भपात कराना चाहती थी, मगर अपने भाई की आस और इस घर में नन्ही जान की उपस्थिति के आभास ने मुझे कठोर बना दिया. यह जानते हुए भी कि उस का इस उम्र में गर्भधारण खतरे से खाली नहीं, मैं ने उसे आखिरकार अपने भाई की खुशियों का वास्ता दे कर मना ही लिया.

‘‘9 महीने बाद अंजलि आई तो भाई की तो खुशी का ठिकाना न रहा. कविता को

पूरे समय परेशानी रही. फिर 4-5 सप्ताह बाद बच्चेदानी में सूजन के कारण उस की

मौत हो गई. यह जानते हुए भी कि अंजलि मेरे भाई का खून नहीं है, मैं ने उसे सीने से लगा लिया,’’ कह कर बूआजी फूटफूट कर रोने लगीं.

अब शांतनु का अस्तित्व हिलने लगा. खुद के आश्वासन के लिए उन्होंने पूछा, ‘‘यह घटना मुंबई की नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं, विशाखापट्टनम की है. कविता की मौत के बाद ही हम मुंबई आए थे,’’ बूआजी ने आंसू पोंछते हुए कहा. आज उन के मन का जैसे सारा बोझ उतर गया था.

विशाखापट्टनम का नाम सुनते ही डा. शांतनु के जीवन की सब से बड़ी परीक्षा का फल घोषित हो चुका था. वे हार गए थे. उन की वर्षों की सज्जनता भी आज उन के पुराने पाप के आगे सिर झुकाए खड़ी थी. उन का सिर घूमने लगा. मुश्किल से वे दीवार के सहारे खड़े रहे.

उन की हालत देख बूआजी चौंकी, ‘‘क्या हुआ आप को?’’

‘‘एक गिलास पानी…’’ यही कह पाए वे.

बूआजी पानी लाने नीचे दौड़ीं. पानी पिला कर बूआजी उन्हें सहारा दे कर नीचे कमरे में ले आईं.

शांतनु को बुरी तरह पसीना आ रहा था. बूआजी उन के पास ही बैठी रहीं. फिर थोड़ी देर बाद वे शांतनु से अंजलि को कुछ न बताने का वादा ले कर बाहर आ गईं.

शांतनु आंखें मूंदे लेटे रहे. उन्हें याद आती रही अपने जीवन की वह एकमात्र गलती, जिस ने उन की जिंदगी के माने ही बदल दिए थे. यही तो थी वह गलती.

अपने दोस्तों की जबान से रोज नएनए रंगीन किस्से सुनने वाले मैडिकल प्रथम वर्ष के छात्र शांतनु ने अपने से 10-11 वर्ष बड़ी स्टाफ नर्स कविता को ही तो क्लोरोफार्म सुंघा कर अपनी वासना का शिकार बनाया था.

अगले ही दिन मुंह छिपा कर वह पिता के पास लौट आया. कोई हल्ला नहीं, शोरशराबा नहीं. कालेज से कोई बुलावा नहीं. करीब 1 महीने तबीयत खराब होने का बहाना कर वह घर पर ही रहा.

फिर अपने ही शहर में रह कर पढ़ाई की. परंतु उस दिन के बाद से वह चैन की नींद नहीं सो पाया. फिर मन लगा कर पढ़ाई में जुट गया और साथ ही साथ अपने जीवन के कई पन्नों को भी पढ़ डाला. फिर 3 वर्ष बाद पिता के न रहने पर मां के पास आ गया.

‘‘बूआजी, आज 10 बजे की फ्लाइट से डा. शांतनु आ रहे हैं याद है न? हम उन्हें लेने एयरपोर्ट चलेंगे,’’ सुबह 6 बजे मुंबई लौटी अंजलि ने गाड़ी से सामान उतारते हुए कहा.

‘‘क्या बताऊं बेटी, वे तो तुझे सरप्राइज देने कल ही यहां आ गए थे, परंतु तबीयत ज्यादा खराब हो जाने से आज सुबह की 4 बजे की इमरजैंसी फ्लाइट से ही वापस लौट गए.’’ बूआजी मायूसी से बोलीं.

‘‘ओह, ऐसा अचानक क्या हो गया उन्हें?’’ अंजलि चिंतित स्वर में बोली, ‘‘चलो, फोन कर के पता करूंगी.’’

‘मैं स्वयं को अध्यात्म ज्ञान में सर्वोपरि समझता था परंतु अपने ही खून को न पहचान पाया. जिस तरह रेगिस्तान में जल होने का एहसास मुसाफिर को थकने नहीं देता है, उसी तरह शायद मेरी मरीचिका मेरी बेटी अंजलि है. अब जो रूपरेखा मैं ने बूआजी के सामने बांधी थी, उस से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ना है अपनी अंजलि के लिए.’

विमान में सीट बैल्ट को कसते हुए शांतनु ने अपने मन को और ज्यादा कस लिया. इस नए उद्देश्य की पूर्ति के लिए.

तलाक के बाद : जब हुआ सुमिता को अपनी गलतियों का एहसास

3 दिनों की लंबी छुट्टियां सुमिता को 3 युगों के समान लग रही थीं. पहला दिन घर के कामकाज में निकल गया. दूसरा दिन आराम करने और घर के लिए जरूरी सामान खरीदने में बीत गया. लेकिन आज सुबह से ही सुमिता को बड़ा खालीपन लग रहा था. खालीपन तो वह कई महीनों से महसूस करती आ रही थी, लेकिन आज तो सुबह से ही वह खासी बोरियत महसूस कर रही थी.

बाई खाना बना कर जा चुकी थी. सुबह के 11 ही बजे थे. सुमिता का नहानाधोना, नाश्ता भी हो चुका था. झाड़ूपोंछा और कपड़े धोने वाली बाइयां भी अपनाअपना काम कर के जा चुकी थीं. यानी अब दिन भर न किसी का आना या जाना नहीं होना था.

टीवी से भी बोर हो कर सुमिता ने टीवी बंद कर दिया और फोन हाथ में ले कर उस ने थोड़ी देर बातें करने के इरादे से अपनी सहेली आनंदी को फोन लगाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से आनंदी का स्वर सुनाई दिया.

‘‘हैलो आनंदी, मैं सुमिता बोल रही हूं, कैसी है, क्या चल रहा है?’’ सुमिता ने बड़े उत्साह से कहा.

‘‘ओह,’’ आनंदी का स्वर जैसे तिक्त हो गया सुमिता की आवाज सुन कर, ‘‘ठीक हूं, बस घर के काम कर रही हूं. खाना, नाश्ता और बच्चे और क्या. तू बता.’’

‘‘कुछ नहीं यार, बोर हो रही थी तो सोचा तुझ से बात कर लूं. चल न, दोपहर में पिक्चर देखने चलते हैं,’’ सुमिता उत्साह से बोली.

‘‘नहीं यार, आज रिंकू की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं नहीं जा पाऊंगी. चल अच्छा, फोन रखती हूं. मैं घर में ढेर सारे काम हैं. पिक्चर देखने का मन तो मेरा भी कर रहा है पर क्या करूं, पति और बच्चों के ढेर सारे काम और फरमाइशें होती हैं,’’ कह कर आनंदी ने फोन रख दिया.

सुमिता से उस ने और कुछ नहीं कहा, लेकिन फोन डिस्कनैक्ट होने से पहले सुमिता ने आनंदी की वह बात स्पष्ट रूप से सुन ली थी, जो उस ने शायद अपने पति से बोली होगी. ‘इस सुमिता के पास घरगृहस्थी का कोई काम तो है नहीं, दूसरों को भी अपनी तरह फुरसतिया समझती है,’ बोलते समय स्वर की खीज साफ महसूस हो रही थी.

फिर शिल्पा का भी वही रवैया. उस के बाद रश्मि का भी.

यानी सुमिता से बात करने के लिए न तो किसी के भी पास फुरसत है और न ही दिलचस्पी.

सब की सब आजकल उस से कतराने लगी हैं. जबकि ये तीनों तो किसी जमाने में उस के सब से करीब हुआ करती थीं. एक गहरी सांस भर कर सुमिता ने फोन टेबल पर रख दिया. अब किसी और को फोन करने की उस की इच्छा ही नहीं रही. वह उठ कर गैलरी में आ गई. नीचे की लौन में बिल्डिंग के बच्चे खेल रहे थे. न जाने क्यों उस के मन में एक हूक सी उठी और आंखें भर आईं. किसी के शब्द कानों में गूंजने लगे थे.

‘तुम भी अपने मातापिता की इकलौती संतान हो सुमि और मैं भी. हम दोनों ही अकेलेपन का दर्द समझते हैं. इसलिए मैं ने तय किया है कि हम ढेर सारे बच्चे पैदा करेंगे, ताकि हमारे बच्चों को कभी अकेलापन महसूस न हो,’ समीर हंसते हुए अकसर सुमिता को छेड़ता रहता था.

बच्चों को अकेलापन का दर्द महसूस न हो की चिंता करने वाले समीर की खुद की ही जिंदगी को अकेला कर के सूनेपन की गर्त में धकेल आई थी सुमिता. लेकिन तब कहां सब सोच पाई थी वह कि एक दिन खुद इतनी अकेली हो कर रह जाएगी.

कितना गिड़गिड़ाया था समीर. आखिर तक कितनी विनती की थी उस ने, ‘प्लीज सुमि, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दो. मैं मानता हूं मुझ से गलतियां हो गईं, लेकिन मुझे एक मौका तो दे दो, एक आखिरी मौका. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें अब से शिकायत का कोई मौका न मिले.’

समीर बारबार अपनी गलतियों की माफी मांग रहा था. उन गलतियों की, जो वास्तव में गलतियां थीं ही नहीं. छोटीछोटी अपेक्षाएं, छोटीछोटी इच्छाएं थीं, जो एक पति सहज रूप से अपनी पत्नी से करता है. जैसे, उस की शर्ट का बटन लगा दिया जाए, बुखार से तपते और दुखते उस के माथे को पत्नी प्यार से सहला दे, कभी मन होने पर उस की पसंद की कोई चीज बना कर खिला दे वगैरह.

लेकिन समीर की इन छोटीछोटी अपेक्षाओं पर भी सुमिता बुरी तरह से भड़क जाती थी. उसे इन्हें पूरा करना गुलामी जैसा लगता था. नारी शक्ति, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता इन शब्दों ने तब उस का दिमाग खराब कर रखा था. स्वाभिमान, आत्मसम्मान, स्वावलंबी बन इन शब्दों के अर्थ भी तो कितने गलत रूप से ग्रहण किए थे उस के दिलोदिमाग ने.

मल्टीनैशनल कंपनी में अपनी बुद्धि के और कार्यकुशलता के बल पर सफलता हासिल की थी सुमिता ने. फिर एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ती सुमिता पैसे और पद की चकाचौंध में इतनी अंधी हो गई कि आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क करना ही भूल गई. आत्मसम्मान के नाम पर उस का अहंकार दिन पर दिन इतना बढ़ता गया कि वह बातबात में समीर की अवहेलना करने लगी. उस की छोटीछोटी इच्छाओं को अनदेखा कर के उस की भावनाओं को आहत करने लगी. उस की अपेक्षाओं की उपेक्षा करना सुमिता की आदत में शामिल हो गया.

समीर चुपचाप उस की सारी ज्यादतियां बरदाश्त करता रहा, लेकिन वह जितना ज्यादा बरदाश्त करता जा रहा था, उतना ही ज्यादा सुमिता का अहंकार और क्रोध बढ़ता जा रहा था. सुमिता को भड़काने में उस की सहेलियों का सब से बड़ा हाथ रहा. वे सुमिता की बातों या यों कहिए उस की तकलीफों को बड़े गौर से सुनतीं और समीर को भलाबुरा कह कर सुमिता से सहानुभूति दर्शातीं. इन्हीं सहेलियों ने उसे समीर से तलाक लेने के लिए उकसाया. तब यही सहेलियां सुमिता को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक लगी थीं. ये सब दौड़दौड़ कर सुमिता के दुखड़े सुनने चली आती थीं और उस के कान भरती थीं, ‘तू क्यों उस के काम करे, तू क्या उस की नौकरानी या खरीदी हुई गुलाम है? तू साफ मना कर दिया कर.’

एक दिन जब समीर ने बाजार से ताजा टिंडे ला कर अपने हाथ के मसाले वाले भरवां टिंडे बनाने का अनुरोध किया, तो सुमिता बुरी तरह बिफर गई कि वह अभी औफिस से थकीमांदी आई है और समीर उस से चूल्हे-चौके का काम करने को कह रहा है. उस दिन सुमिता ने न सिर्फ समीर को बहुत कुछ उलटासीधा कहा, बल्कि साफसाफ यह भी कह दिया कि वह अब और अधिक उस की गुलामी नहीं करेगी. आखिर वह भी इंसान है, कोई खरीदी हुई बांदी नहीं है कि जबतब सिर झुका कर उस का हुकुम बजाती रहे. उसे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए.

समीर सन्न सा खड़ा रह गया. एक छोटी सी बात इतना बड़ा मुद्दा बनेगी, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. इस के बाद वह बारबार माफी मांगता रहा, पर सुमिता न मानी तो आखिर में सुमिता की खुशी के लिए उस ने अपने आंसू पी कर तलाक के कागजों पर दस्तखत कर के उसे मुक्त कर दिया.

पर सुमिता क्या सचमुच मुक्त हो पाई?

समीर के साथ जिस बंधन में बंध कर वह रह रही थी, उस बंधन में ही वह सब से अधिक आजाद, स्वच्छंद और अपनी मरजी की मालिक थी. समीर के बंधन में जो सुरक्षा थी, उस सुरक्षा ने उसे समाज में सिर ऊंचा कर के चलने की एक गौरवमयी आजादी दे रखी थी. तब उस के चारों ओर समीर के नाम का एक अद्भुत सुरक्षा कवच था, जो लोगों की लोलुप और कुत्सित दृष्टि को उस के पास तक फटकने नहीं देता था. तब उस ने उस सुरक्षाकवच को पैरों की बेड़ी समझा था, उस की अवहेलना की थी लेकिन आज…

आज सुमिता को एहसास हो रहा है उसी बेड़ी ने उस के पैरों को स्वतंत्रता से चलना बल्कि दौड़ना सिखाया था. समीर से अलग होने की खबर फैलते ही लोगों की उस के प्रति दृष्टि ही बदल गई थी. औरतें उस से ऐसे बिदकने लगी थीं, जैसे वह कोई जंगली जानवर हो और पुरुष उस के आसपास मंडराने के बहाने ढूंढ़ते रहते. 2-4 लोगों ने तो वक्तबेवक्त उस के घर पर भी आने की कोशिश भी की. वह तो समय रहते ही सुमिता को उन का इरादा समझ में आ गया नहीं तो…

अब तो बाजार या कहीं भी आतेजाते सुमिता को एक अजीब सा डर असुरक्षा तथा संकोच हर समय घेरे रहता है. जबकि समीर के साथ रहते हुए उसे कभी, कहीं पर भी आनेजाने में किसी भी तरह का डर नहीं लगा था. वह पुरुषों से भी कितना खुल कर हंसीमजाक कर लेती थी, घंटों गप्पें मारती थीं. पर न तो कभी सुमिता को कोई झिझक हुई और न ही साथी पुरुषों को ही. पर अब किसी भी परिचित पुरुष से बातें करते हुए वह अंदर से घबराहट महसूस करती है. हंसीमजाक तो दूर, परिचित औरतें खुद भी अपने पतियों को सुमिता से दूर रखने का भरसक प्रयत्न करने लगी हैं.

भारती के पति विशाल से सुमिता पहले कितनी बातें, कितनी हंसीठिठोली करती थी. चारों जने अकसर साथ ही में फिल्म देखने, घूमनेफिरने और रेस्तरां में साथसाथ लंच या डिनर करने जाते थे. लेकिन सुमिता के तलाक के बाद एक दिन आरती ने अकेले में स्पष्ट शब्दों में कह दिया, ‘‘अच्छा होगा तुम मेरे पति विशाल से दूर ही रहो. अपना तो घर तोड़ ही चुकी हो अब मेरा घर तोड़ने की कोशिश मत करो.’’

सुमिता स्तब्ध रह गई. इस के पहले तो आरती ने कभी इस तरह से बात नहीं की थी. आज क्या एक अकेली औरत द्वारा अपने पति को फंसा लिए जाने का डर उस पर हावी हो गया? आरती ने तो पूरी तरह से उस से संबंध खत्म कर लिए. आनंदी, रश्मि, शिल्पी का रवैया भी दिन पर दिन रूखा होता जा रहा है. वे भी अब उस से कन्नी काटने लगी हैं. उन्होंने पहले की तरह अब अपनी शादी या बच्चों की सालगिरह पर सुमिता को बुलावा देना बंद कर दिया. कहां तो यही चारों जबतब सुमिता को घेरे रहती थीं.

सुमिता को पता ही नहीं चला कि कब से उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. 4 साल हो गए उसे तलाक लिए. शुरू के साल भर तो उसे लगा था कि जैसे वह कैद से आजाद हो गई. अब वह अपनी मर्जी से रहेगी. पर फिर डेढ़दो साल होतेहोते वह अकेली पड़ने लगी. न कोई हंसनेबोलने वाला, न साथ देने वाला. सारी सहेलियां अपने पति बच्चों में व्यस्त होती गईं और सुमिता अकेली पड़ती गई. आज उसे अपनी स्वतंत्रता स्वावलंबन, अपनी नौकरी, पैसा सब कुछ बेमानी सा लगता है. अकेले तनहा जिंदगी बिताना कितना भयावह और दुखद होता है.

लोगों के भरेपूरे परिवार वाला घर देख कर सुमिता का अकेलेपन का एहसास और भी अधिक बढ़ जाता और वह अवसादग्रस्त सी हो जाती. अपनी पढ़ाई का उपयोग उस ने कितनी गलत दिशा में किया. स्वभाव में नम्रता के बजाय उस ने अहंकार को बढ़ावा दिया और उसी गलती की कीमत वह अब चुका रही है.

सोचतेसोचते सुमिता सुबकने लगी. खानाखाने का भी मन नहीं हुआ उस का. दोपहर 2 बजे उस ने सोचा घर बैठने से अच्छा है अकेले ही फिल्म देख आए. फिर वह फिल्म देखने पहुंच ही गई.

फिल्म के इंटरवल में कुछ चिरपरिचित आवाजों ने सुमिता का ध्यान आकर्षित किया. देखा तो नीचे दाईं और आनंदी अपने पति और बच्चों के साथ बैठी थी. उस की बेटी रिंकू चहक रही थी. सुमिता को समझते देर नहीं लगी कि आनंदी का पहले से प्रोग्राम बना हुआ होगा, उस ने सुमिता को टालने के लिए ही रिंकू की तबीयत का बहाना बना दिया. आगे की फिल्म देखने का मन नहीं किया उस का, पर खिन्न मन लिए वह बैठी रही.

अगले कई दिन औफिस में भी वह गुमसुम सी रही. उस की और समीर की पुरानी दोस्त और सहकर्मी कोमल कई दिनों से देख रही थी कि सुमिता उदास और बुझीबुझी रहती है. कोमल समीर को बहुत अच्छी तरह जानती है. तलाक के पहले कोमल ने सुमिता को बहुत समझाया था कि वह गलत कर रही है, मगर तब सुमिता को कोमल अपनी दुश्मन और समीर की अंतरंग लगती थी, इसलिए उस ने कोमल की एक नहीं सुनी. समीर से तलाक के बाद फिर कोमल ने भी उस से बात करना लगभग बंद ही कर दिया था, लेकिन आज सुमिता की आंखों में बारबार आंसू आ रहे थे, तो कोमल अपनेआप को रोक नहीं पाई.

वह सुमिता के पास जा कर बैठी और बड़े प्यार से उस से पूछा, ‘‘क्या बात है सुमिता, बड़ी परेशान नजर आ रही हो.’’

उस के सहानुभूतिपूर्ण स्वर और स्पर्श से सुमिता के मन में जमा गुबार आंसुओं के रूप में बहने लगा. कोमल बिना उस से कुछ कहे ही समझ गई कि उसे अब समीर को छोड़ देने का दुख हो रहा है.

‘‘मैं ने तुम्हें पहले ही समझाया था सुमि कि समीर को छोड़ने की गलती मत कर, लेकिन तुम ने अपनी उन शुभचिंतकों की बातों में आ कर मेरी एक भी नहीं सुनी. तब मैं तुम्हें दुश्मन लगती थी. आज छोड़ गईं न तुम्हारी सारी सहेलियां तुम्हें अकेला?’’ कोमल ने कड़वे स्वर में कहा.

‘‘बस करो कोमल, अब मेरे दुखी मन पर और तीर न चलाओ,’’ सुमिता रोते हुए बोली.

‘‘मैं पहले से ही जानती थी कि वे सब बिना पैसे का तमाशा देखने वालों में से हैं. तुम उन्हें खूब पार्टियां देती थीं, घुमातीफिराती थीं, होटलों में लंच देती थीं, इसलिए सब तुम्हारी हां में हां मिलाती थीं. तब उन्हें तुम से दोस्ती रखने में अपना फायदा नजर आता था. लेकिन आज तुम जैसी अकेली औरत से रिश्ता बढ़ाने में उन्हें डर लगता है कि कहीं तुम मौका देख कर उन के पति को न फंसा लो. बस इसीलिए वे सतर्क हो गईं और तुम से दूर रहने में ही उन्हें समझदारी लगी,’’ कोमल का स्वर अब भी कड़वा था.

सुमिता अब भी चुपचाप बैठी आंसू बहा रही थी.

‘‘और तुम्हारे बारे में पुरुषों का नजरिया औरतों से बिलकुल अलग है. पुरुष हर समय तुम से झूठी सहानुभूति जता कर तुम पर डोरे डालने की फिराक में रहते हैं. अकेली औरत के लिए इस समाज में अपनी इज्जत बनाए रखना बहुत मुश्किल है. अब तो हर कोई अकेले में तुम्हारे घर आने का मंसूबा बनाता रहता है,’’ कोमल का स्वर सुमिता की हालत देख कर अब कुछ नम्र हुआ.

‘‘मैं सब समझ रही हूं कोमल. मैं खुद परेशान हो गई हूं औफिस के पुरुष सहकर्मियों और पड़ोसियों के व्यवहार से,’’ सुमिता आंसू पोंछ कर बोली.

‘‘तुम ने समीर से सामंजस्य बिठाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. थोड़ा सा भी धीरज नहीं रखा साथ चलने के लिए. अपने अहं पर अड़ी रहीं. समीर को समझाने का जरा सा भी प्रयास नहीं किया. तुम ने पतिपत्नी के रिश्ते को मजाक समझा,’’ कोमल ने कठोर स्वर में कहा.

फिर सुमिता के कंधे पर हाथ रख कर अपने नाम के अनुरूप कोमल स्वर में बोली, ‘‘समीर तुझ से सच्चा प्यार करता है, तभी

4 साल से अकेला है. उस ने दूसरा ब्याह नहीं किया. वह आज भी तेरा इंतजार कर रहा है. कल मैं और केशव उस के घर गए थे. देख कर मेरा तो दिल सच में भर आया सुमि. समीर ने डायनिंग टेबल पर अपने साथ एक थाली तेरे लिए भी लगाई थी.

‘‘वह आज भी अपने परिवार के रूप में बस तेरी ही कल्पना करता है और उसे आज भी तेरा इंतजार ही नहीं, बल्कि तेरे आने का विश्वास भी है. इस से पहले कि वह मजबूर हो कर दूसरी शादी कर ले उस से समझौता कर ले, वरना उम्र भर पछताती रहेगी.

‘‘उस के प्यार को देख छोटीमोटी बातों को नजरअंदाज कर दे. हम यही गलती करते हैं कि प्यार को नजरअंदाज कर के छोटीमोटी गलतियों को पकड़ कर बैठ जाते हैं और अपना रिश्ता, अपना घर तोड़ लेते हैं. पर ये नहीं सोचते कि घर के साथसाथ हम स्वयं भी टूट जाते हैं,’’ एक गहरी सांस ले कर कोमल चुप हो गई और सुमिता की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर मुझे माफ करेगा क्या?’’ सुमिता उस की प्रतिक्रिया जानने के लिए उस के चेहरे की ओर देखने लगी.

‘‘समीर के प्यार पर शक मत कर सुमि. तू सच बता, समीर के साथ गुजारे हुए 3 सालों में तू ज्यादा खुश थी या उस से अलग होने के बाद के 4 सालों में तू ज्यादा खुश रही है?’’ कोमल ने सुमिता से सवाल पूछा जिस का जवाब उस के चेहरे की मायूसी ने ही दे दिया.

‘‘लौट जा सुमि, लौट जा. इस से पहले कि जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो जाएं, अपने घर लौट जा. 4 साल के भयावह अकेलेपन की बहुत सजा भुगत चुके तुम दोनों. समीर के मन में तुझे ले कर कोई गिला नहीं है. तू भी अपने मन में कोई पूर्वाग्रह मत रख और आज ही उस के पास चली जा. उस के घर और मन के दरवाजे आज भी तेरे लिए खुले हैं,’’ कोमल ने कहा.

घर आ कर सुमिता कोमल की बातों पर गौर करती रही. सचमुच अपने अहं के कारण नारी शक्ति और स्वावलंबन के नाम पर इस अलगाव का दर्द भुगतने का कोई अर्थ नहीं है.

जीवन की सार्थकता रिश्तों को जोड़ने में है तोड़ने में नहीं, तलाक के बाद उसे यह भलीभांति समझ में आ गया है. स्त्री की इज्जत घर और पति की सुरक्षा देने वाली बांहों के घेरे में ही है. फिर अचानक ही सुमि समीर की बांहों में जाने के लिए मचल उठी.

समीर के घर का दरवाजा खुला हुआ था. समीर रात में अचानक ही उसे देख कर आश्चर्यचकित रह गया. सुमि बिना कुछ बोले उस के सीने से लग गई. समीर ने उसे कस कर अपने बाहुपाश में बांध लिया. दोनों देर तक आंसू बहाते रहे. मनों का मैल और 4 सालों की दूरियां आंसुओं से धुल गईं.

बहुत देर बाद समीर ने सुमि को अलग करते हुए कहा, ‘‘मेरी तो कल छुट्टी है. पर तुम्हें तो औफिस जाना है न. चलो, अब सो जाओ.’’

‘‘मैं ने नौकरी छोड़ दी है समीर,’’ सुमि ने कहा.

‘‘छोड़ दी है? पर क्यों?’’ समीर ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘तुम्हारे ढेर सारे बच्चों की परवरिश करने की खातिर,’’ सुमि ने शर्माते हुए कहा तो समीर हंस पड़ा. फिर दोनों एकदूसरे की बांहों में खोए हुए अपने कमरे की ओर चल पड़े.

ममता की मूरत : सास के प्रति कैसे बदली सीमा की धारणा?

रात का लगभग 8 बजे का समय था. मैं औफिस से आ कर खाना बना रही थी और राकेश अपने लैपटौप पर अभी भी औफिस के ही काम में उलझे हुए थे. तभी फोन की घंटी बजी. किस का फोन है, यह उत्सुकता मुझे किचन से खींच लाई. मैं ने देखा राकेश फोन पर बात करते हुए बहुत परेशान हो उठे हैं.

‘प्लीज, आप उन्हें अस्पताल पहुंचा दीजिए. मैं फौरन निकल रहा हूं, फिर भी मुझे पहुंचने में 2-3  घंटे तो लग ही जाएंगे,’ इतना कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती उन्होंने हड़बड़ी में मुझे पूरी बात बताते हुए अपने कुछ कपड़े और जरूरी सामान बैग में रखना शुरू कर दिया.

राकेश की चाचीजी, जो मथुरा में रहती हैं अचानक बहुत बीमार हो गई थीं. उन की हालत को देखते हुए किसी पड़ोसी ने हमें फोन किया था. चाचीजी का हमारे सिवा इस दुनिया में और है ही कौन? उन की अपनी औलाद तो है नहीं और चाचाजी का कुछ वर्ष हुए देहांत हो चुका है.

हमारी शादी में चाचीजी ने ही मेरी सास की सारी रस्में की थीं. राकेश के मातापिता तो बहुत पहले एक कार ऐक्सीडैंट में मारे गए थे. तब राकेश की दीदी गरिमा तो अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश कर रही थीं, लेकिन राकेश स्कूल में पढ़ रहे थे. अपनी दीदी से 8 साल छोटे जो हैं. तब चाचाचाची ने ही दीदी की शादी की थी और राकेश को स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए होस्टल भेज दिया था. चाचाचाची ने दीदी को और मुझे अपनी औलाद की तरह प्यार दिया है, यह बात इन 2 वर्षों में राकेश मुझे कई बार बता चुके हैं.

पहले पूरा परिवार साथ ही रहता था लेकिन राकेश जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तभी इन के चाचाजी का तबादला मथुरा हो गया था. इस के बाद तो उन के तबादला कई और शहरों में भी होता रहा लेकिन मथुरा में उन्होंने अपना घर बना लिया था, इसलिए उन के देहांत के बाद चाचीजी मथुरा आ गई थीं. और वे जाती भी कहां?

मेरा चाचीजी से ज्यादा परिचय नहीं था. हमारी शादी के वक्त वे सिर्फ 5-6 दिन हमारे साथ रही थीं. दरअसल, हम दोनों बैंकाक घूमने जाना चाहते, इसलिए वे मथुरा लौट गई थीं. मैं क्याक्या सोचने लग गई थी. राकेश की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. वे कह रहे थे कि देखो जल्दी में मैं कहीं कुछ रखना तो नहीं भूल गया.

बैग पैक हो गया तो राकेश अकेले चाचीजी को कैसे संभालेंगे यह सोच कर मैं ने भी साथ चलने की बात की तो वे बोले कि पहले जा कर स्थिति देख लूं, जरूरत हुई तो तुम्हें भी बुला लूंगा. फिर वे मथुरा के लिए रवाना हो गए.

शादी के बाद यह पहला अवसर था जब मैं रात के समय घर में अकेली थी. अजीब सा डर व बेचैनी मुझे सोने नहीं दे रही थी. रात 2 बजे के लगभग राकेश से मेरी बात हुई. पता लगा चाचीजी बेहोश हैं. कई तरह के टैस्ट हो रहे हैं, अभी कुछ ठीक से कहा नहीं जा सकता. राकेश काफी परेशान लग रहे थे.

अगली सुबह 11 बजे राकेश का फोन आया कि वे चाचीजी के इलाज तथा डाक्टरों के रवैये से संतुष्ट नहीं हैं. वे उन्हें ले कर दिल्ली आ रहे हैं. दिल्ली के एक अस्पताल से बातचीत चल रही है.

शाम होतेहोते वे चाचीजी को ले कर दिल्ली पहुंच गए. नीम बेहोशी की हालत में चाचीजी बहुत ही कमजोर लग रही थीं. रंग भी पीला पड़ा हुआ था. उन के अस्पताल पहुंचने से पहले ही मैं वहां पहुंच गई. डाक्टरों ने तत्परता से इलाज शुरू कर दिया.

5 दिनों बाद चाचीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन डाक्टरों ने दवा के साथसाथ परहेज और आराम करने की सख्त हिदायत दी थी. हम उन्हें घर ले आए. बीमारी कोई विशेष नहीं थी. बढ़ती उम्र, अकेलापन, चिंता, काम की थकान, उस पर ठीक से समय पर न खाना बीमारी के कारण थे.

हम दोनों के लिए अब और छुट्टियां लेना मुश्किल था. उन के लिए किसी नौकर या नर्स का प्रबंध नहीं हो पा रहा था, इसलिए हम ने घर पर काम करने वाली बाई को ही दिन भर में 2-3 चक्कर लगा कर उन्हें दूध, चाय, नाश्ता आदि देते रहने के लिए कहा और औफिस जाना शुरू कर दिया था. हां, दिन में कई बार हम फोन पर चाचीजी से बात कर लेते थे. उन का हालचाल जान लेते थे. कोई परेशानी तो नहीं? पूछते रहते थे.

राकेश की तो पता नहीं हां, मेरी परेशानियां कुछ बढ़ गई थीं. आज तक जो घर सिर्फ हमारा था वह एकाएक मुझे मेरी ससुराल लगने लगा था. अब उठनेबैठने, पहननेओढ़ने में मैं कुछ बंदिशें महसूस करने लगी थी. हालांकि चाचीजी ने इस बारे कभी कुछ कहा नहीं था, लेकिन उन का घर पर होना ही मेरे लिए काफी था.

लेकिन मैं पूरे उत्साह से यह सब कर रही थी, क्योंकि चाचीजी आशा से कहीं जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर रही थीं. 1 सप्ताह बाद ही उन्हें कामवाली की जरूरत नहीं रही. वे अपने छोटेछोटे काम स्वयं ही उठ कर करने लगी थीं. मैं खुश थी कि वे जल्दी ही ठीक हो कर मथुरा लौट जाएंगी. कुछ ही दिनों की तो बात है.

एक दिन राकेश बोले कि अब हम चाचीजी को वापस नहीं जाने देंगे. वे अब हमारे साथ ही रहेंगी. अब इस उम्र में उन का अकेले रहना मुश्किल है. फिर बीमार हो गईं तो? फिर हमारा भी तो उन के प्रति कोई कर्तव्य है. उन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया है. राकेश ने कुछ गलत तो नहीं कहा था लेकिन मेरा मन बेचैन हो उठा.

मुझे याद है जब मेरे लिए राकेश का रिश्ता आया तो मम्मीपापा ने मेरी राय पूछी थी. राकेश दिखने में कैसे हैं? पढ़ेलिखे कितना हैं? कमाते कितना हैं? यह सब जानने की मुझे जरूरत ही महसूस नहीं हुई थी क्योंकि लगा था कि मम्मीपापा और मामाजी ने देख लिया है तो सब ठीक ही होगा. मेरे लायक ही होगा. मैं तो लड़के के परिवार के बारे में जानना चाहती थी. पूछा तो पता लगा कि घर में सासससुर नहीं हैं. बस एक बड़ी बहन है, जो शादीशुदा है. मेरे लिए इतना ही जानना काफी था क्योंकि मेरे दिमाग में सास की छवि ऐसी थी जिस से बहू हमेशा डरीसहमी रहती है. मेरी सहेली जया, जिस की शादी कुछ ही महीने पहले हुई थी, उस से जब भी बात होती थी वह अपने पति के बारे में कम सास के बारे में बात ज्यादा करती थी. हमेशा परेशान रहती थी.

उस पर मेरी दीदी जबतब मायके आतीं तो कई दिनों तक लौटने का नाम नहीं लेती थीं. हमेशा मां ही उन्हें समझाबुझा कर वापस भेजती थीं. उन्हें भी पति या देवर से नहीं सास से ही ढेरों शिकायतें होती थीं.

लेकिन हमारे यहां तो राकेश की चाचीजी रहने वाली थीं. अपनी सास की तो चलो कोई 2 बात सुन भी ले, चचियासास की बातें, ताने, उलाहने भला कोई क्यों सुने? हालांकि ऐसा सोचना बड़ा ही गलत था, स्वार्थी सोच था, लेकिन मुझे बहुत परेशान करने लगा था.

एक शाम औफिस से घर पहुंची तो देखा चाचीजी ने मशीन लगा कर घर भर के मैले कपड़े इकट्ठा कर धो डाले थे. मैं तो इतवार को ही मशीन लगा कर सप्ताह भर के कपड़े धोती हूं. पिछले दिनों चाचीजी की बीमारी के चक्कर में यह काम रह ही गया था. इतने कपड़े एकसाथ धुले देख कर मैं हैरान रह गई, ‘‘यह क्या चाचीजी, आप ने यह सब क्यों किया? आप को तो अभी आराम करना चाहिए.’’

‘‘दिन भर आराम ही तो करती हूं सीमा, फिर आजकल मशीन में कपड़े धोना भी कोई काम है?’’ कहते हुए चाचीजी हंस दीं.

अब रात के खाने के वक्त गपशप का दौर चलने लगा था. चाचीजी राकेश के बचपन की आदतों, शरारतों के बारे में बतातीं. मुझे मेरी ससुराल के बारे में बहुत सी ऐसी बातें भी बतातीं, जिन्हें बताने वाला कोई नहीं था. राकेश की चिढ़, पसंदनापसंद के बारे में भी मुझे पता लग रहा था. अब मुझे उन्हें चिढ़ाने, छेड़ने में बड़ा मजा आ रहा था. ऐसे में चाचीजी भी हंसते हुए मेरा पूरा साथ देती थीं.

हम शाम को औफिस से लौटते तो चाचीजी बढि़या सा स्वादिष्ठ नाश्ता बना कर हमारा इंतजार कर रही होतीं. अब सुबहशाम मुझे सब्जी कटी हुई मिलती, सलाद तैयार और तरहतरह की चटनियां पिसी मिलतीं. वे अकसर आटा भी गूंध दिया करती थीं. यह सब देख कर यही लगता कि वे दिन भर पल भर को भी बैठती नहीं हैं.

अब घर में कोई हर चीज अपने ठिकाने पर करीने से रखी मिलती, जिन्हें पहले हम अकसर समय की कमी के कारण यहांवहां इस्तेमाल के बाद छोड़ दिया करते थे.

एक छुट्टी के दिन हम चाचीजी को मौल घुमाने ले जा रहे थे. उन्होंने रास्ते में एक जगह गाड़ी रोकने के लिए कहा तो हम हैरान रह गए. फिर भी राकेश ने तुरंत गाड़ी रोकी तो चाचीजी फौरन उतर कर पास के एटीएम की ओर बढ़ गईं. 2 ही मिनटों बाद वे नोट हाथ में ले कर लौटीं.

हमें हैरान देख कर वे बोलीं, ‘‘हैरान मत हो. अपनी हालत को देखते हुए यह कार्ड मैं ने अस्पताल के सामान के साथ रख लिया था. वहां अस्पताल में पैसों की जरूरत तो पड़नी ही थी न? पर मुझे क्या पता था मेरी हालत इतनी बिगड़ जाएगी कि पड़ोसी को फोन कर के तुम्हें बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘वह तो ठीक है  चाचीजी, लेकिन अब तो हम हैं. आप को पैसे निकलवाने की क्या जरूरत थी? वैसे क्षमा करना, आप को आए इतने दिन हो गए, खयाल ही नहीं आया मुझे. आप से पूछना चाहिए था आप की जरूरत के बारे में,’’ राकेश ने झेंपते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं बेटा मुझे भला पैसों का क्या करना है? लेकिन पहली बार अपने बेटेबहू के साथ बाजार जा रही हूं तो पैसे पास में होने ही चाहिए. चलोचलो देर हो रही है,’’ चाचीजी ने पूरे उत्साह से कहा.

मौल में पहुंचते ही चाचीजी रेडीमेड कपड़ों के शोरूम में चली गईं. हमें लगा वे बीमारी की हालत में इतनी जल्दी में अस्पताल आईं कि साथ में बहुत सी चीजें नहीं ला पाईं. उन्हें कपड़ों के लिए परेशानी होती होगी, इसलिए वहां गई हैं. लेकिन रेडीमेड शर्ट और जींस के काउंटर पर जा कर वे राकेश से कपड़े खरीदने के लिए कहने लगीं. राकेश ने बहुत मना किया लेकिन वे कब मानने वाली थीं.

राकेश जींस ट्राई कर रहे थे तब मुझ से बोलीं, ‘‘आजकल की सब लड़कियां जींस पहनती हैं. दफ्तर जाने वाली तो कहती हैं कि इस में उन्हें सुविधा रहती है. बहू, तुम नहीं पहनतीं?’’

उन की बात सुन कर मैं हैरान रह गई. पुरानी पीढ़ी की हो कर भी वे ऐसी बात कह रही हैं?

‘‘नहींनहीं चाचीजी मैं भी…’’ कहते हुए मैं रुक गई. लगा कहीं यों ही बातोंबातों में मुझ से कुछ उगलवाना तो नहीं चाह रहीं.

‘‘पहनती हो लेकिन मेरे कारण रोज साड़ी और सूट की बंदिशों में कैद हो गई हो. लेकिन मैं ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं,’’ चाचीजी बड़ी मासूमियत से बोलीं.

‘‘बहू, तुम भी अपने लिए एक जींस और एक बढि़या सी टौप खरीद लो. मैं भी तो देखूं मेरी बहू इन कपड़ों में कैसी लगती है,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे लिए कपड़े पसंद करने शुरू कर दिए. मैं हैरान सी खड़ी उन्हें देखती रह गई. अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं आ रहा था, लेकिन यह सब सच था सपना नहीं.

कपड़े खरीदते ही चाचीजी बोलीं, ‘‘भई, बहुत भूख लग रही है. वैसे भी मेरे ठीक होने की खुशी में एक बढि़या सी दावत होनी ही चाहिए.’’

रेस्टोरैंट में हमारे मना करने पर भी चाचीजी ने बहुत कुछ मंगवा लिया, उस पर आइसक्रीम भी. बाद में राकेश जब वहां पैसे देने लगे तो उन्होंने तुरंत नोट उन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, ‘‘ये लो तुम ही दे दो. क्या फर्क पड़ता है.’’ इस पर हम तो हंस ही रहे थे, बिल लाने वाला वेटर भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया.

घर आ कर राकेश ने कहा कि आप को इतने पैसे खर्च नहीं करने चाहिए थे तो वे बोलीं, ‘‘तुम्हारे चाचाजी के बाद अब मुझे पैंशन मिलती है. मैं अकेली जान अब इस उम्र में अपने पर कितना खर्च करूंगी?’’

वे जब से ठीक हुई हैं अकसर शाम को सैर करने चली जाती हैं. फल, सब्जियां, दूध और मिठाई न जाने क्याक्या ले कर ही लौटती हैं. खाली हाथ कभी नहीं आतीं.

सुबह हम औफिस के लिए तैयार हो रहे थे तो वे पास आ कर बोलीं, ‘‘बेटा राकेश, अब मैं बिलकुल ठीक हूं. अब मेरा वापसी का टिकट करवा दो.’’

सुनते ही हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘क्या हुआ चाचीजी, आप को यहां कोई परेशानी है क्या?’’ हम दोनों एकसाथ बोल उठे.

‘‘नहींनहीं बेटा, अपने घर में कैसी परेशानी. फिर भी लौटना तो होगा ही न.

2 महीने हो गए हैं, मैं कब तक तुम लोगों…’’

सुनते ही मैं परेशान हो उठी, ‘‘चाचीजी, आप से इतना तो मना करते हैं फिर भी आप अपनी मरजी से दिन भर काम में लगी रहती हैं.’’

‘‘नहींनहीं सीमा, मैं काम की बात नहीं कर रही. यह भी कोई काम है. बटन दबाया कपड़े धुल गए. बटन दबाया चटनी, मसाला पिस गया. घर की सफाई और बरतन का काम तो कामवाली कर जाती है. दिन भर में काम ही कितना होता है? लेकिन बेटा 2 महीने हो गए हैं, कब तक तुम लोगों पर बोझ बनी रहूंगी?’’

बोझ शब्द सुनते ही मेरी आंखें भर आईं. मैं उन से लिपट गई. ऐसी ममता की मूरत भला बोझ कैसे हो सकती है? कितनी गलत सोच थी मेरी सास के बारे में. मुझे चाचीजी से कोई शिकायत नहीं. कितनी परेशान हो गई थी मैं जब राकेश ने उन के यहीं रहने की बात की थी. लेकिन अब मैं उन के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर सकती थी. उन के प्यार, आशीर्वाद और उन की उपस्थिति के बिना हमारा जीवन, हमारा घरपरिवार कितना अधूरा रह जाएगा. कौन हर शाम घर पर हमारा इंतजार करेगा? कौन भूख न होने पर भी मनुहार कर के हमें खाना खिलाएगा? कौन बिना किसी स्वार्थ के हम पर इतना निश्छल स्नेह लुटाएगा?

हम दोनों ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया कि वे अब कहीं नहीं जाएंगी. अब इस उम्र में हमारे होते हुए वे अकेली नहीं रहेंगी. अब यह उन की मरजी है कि वे अपने मथुरा वाले घर पर ताला लगाना चाहती हैं या उसे किराए पर उठाना चाहती हैं. हमारी जिद और हमारे प्यार के आगे उन की एक नहीं चली.

चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘तुम इतना कहते हो तो तुम्हारे पास ही रह जाऊंगी, लेकिन मेरी एक शर्त है.’’

मैं समझ गई कि चाचीजी क्या कहना चाहती हैं. मैं झट से बोली, ‘‘आप एक बार मथुरा जा कर अपने कुछ कपड़े, कुछ जरूरी सामान लाना चाहती हैं न? इस में शर्त की क्या बात है, अगले ही वीक ऐंड पर हम दोनों आप को मथुरा ले चलेंगे.’’

‘‘वह तो मैं जाऊंगी ही पर मेरी शर्त तो कुछ और ही है.’’

चाचीजी के इतना कहते ही मैं कुछ परेशान हो गई. सोचा, पता नहीं वे क्या शर्त रखेंगी.

तभी राकेश बोल उठे, ‘‘चाचीजी, शर्त क्यों आप तो आदेश दीजिए क्या चाहिए?’’

हमारे परेशान चेहरे को देख कर चाचीजी की हंसी निकल गई. वे हंसते हुए बोलीं, ‘‘हांहां, शर्त नहीं मेरा आदेश ही है कि यदि मुझे यहां रोकना है तो मुझे जल्दी से एक पोता देना होगा. 2 साल हो गए हैं शादी को, कब तक यों ही डोलते रहोगे?’’

सुनते ही हम दोनों शरमा गए. जिस प्यार और अधिकार से चाचीजी ने कहा है तो हमारे सोचने के लिए कुछ बचा ही कहां है. चाचीजी ने हमारे जीवन को नए माने दे दिए हैं. पता नहीं ममता की यह मूरत वर्षों बिना औलाद के कैसे रही होगी? चलो बीमारी के बहाने ही सही, वे हमारे पास अपनी ममता लुटाने तो आ गई हैं.

कहीं किसी रोज : जब जोया से मिला विमल

स्विमिंग पूल के किनारे एक तरफ जा कर विमल ने हाथ में लिए होटल के गिलास से ही सूर्य को जल चढ़ाया, सुबह की हलकीहलकी खुशनुमा सी ताजगी हर तरफ फैली थी, जल चढ़ाते हुए उस ने कितने ही शब्द होठों में बुदबुदाते हुए कनखियों से पूल के किनारे चेयर पर बैठी महिला को देखा, आज फिर वह अपनी बुक में खोई थी.

कुछ पल वहीं खड़े हो कर वह उसे फिर ध्यान से देखने लगा, सुंदर, बहुत स्मार्ट, टीशर्ट, ट्रैक पैंट में, शोल्डर कट बाल, बहुत आकर्षक, सुगठित देहयष्टि.

विमल को लगा कि वह उस से उम्र में कुछ बड़ी ही होगी, करीब चालीस की तो होगी ही, वह उसे निहार ही रहा था कि उस स्त्री ने उस की तरफ देख कर कहा, ‘‘इतनी दूर से कब तक देखते रहेंगे, आप की पूजाअर्चना हो गई हो और अगर आप चाहें तो यहां आ कर बैठ सकते हैं.‘‘

विमल बहुत बुरी तरह झेंप गया. उसे कुछ सूझा ही नहीं कि चोरी पकडे जाने पर अब क्या कहे, चुपचाप चलता हुआ उस स्त्री से कुछ दूर रखी चेयर पर जा कर बैठ गया.

स्त्री ने ही बात शुरू की, ‘‘आप भी मेरी तरह लौकडाउन में इस होटल में फंस गए हैं न? आप को रोज देख रही हूं पूजापाठ करते. और आप भी मुझे देख ही रहे हैं, यह भी जानती हूं.‘‘

विमल झेंप रहा था, बोला, ‘‘हां, यहां देहरादून में औफिस के टूर पर आया था, अचानक लौकडाउन में फंस गया, मैं लखनऊ में रहता हूं और आप…?‘‘

‘‘मैं देहरादून घूमने आई थी. मैं बैंगलोर में रहती हूं, वहीं जौब भी करती हूं.‘‘

‘‘अकेले आई थीं घूमने?‘‘ विमल हैरान हुआ.

‘‘जी, मगर आप इतने हैरान क्यों हुए?‘‘

विमल चुप रहा, महिला उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं, मेरा एक्सरसाइज का टाइम हो गया. थोड़ी रीडिंग के बाद ही मेरा दिन शुरू होता है.‘‘

विमल ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आप का शुभ नाम?‘‘

‘‘जोया.‘‘

‘‘आगे?‘‘

‘‘आगे क्या?‘‘

‘‘मतलब, सरनेम?‘‘

‘‘मुझे बस अपना नाम अच्छा लगता है, मैं सरनेम लगा कर किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहती, सरनेम के बिना भी मेरा एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकता है. आप भी मुझे अपना नाम ही बताइए, मुझे किसी के सरनेम में कभी कोई दिलचस्पी नहीं होती.‘‘

विमल का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘यह औरत है, क्या है,’’ धीरे से बोला विमल.

‘‘ओके, बाय,‘‘ कह कर जोया चली गई. विमल जैसे एक जादू के असर में बैठा रह गया.

लौकडाउन के शुरू होने पर रूड़की के इस होटल में 8-10 लोग फंस गए थे, कुछ यंग जोड़े थे जो कभीकभी दिख जाते थे, कुछ ऐसे ही टूर पर आए लोग थे, दिनभर तो विमल लैपटौप पर औफिस के काम में बिजी रहता. वह बहुत ही धर्मभीरु, दब्बू किस्म का इनसान था, उस की पत्नी और दो बच्चे लखनऊ में रहते थे, जिन से वह लगातार टच में था, जोया को वह अकसर ऐसे ही स्विमिंग पूल के आसपास खूब देखता. अकसर वह इसी तरह बुक में ही खोई रहती.

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

नाश्ता करते हुए जोया की रोचक बातों में डूबा रहा विमल. जोया बता रही थी, ‘‘तुम्हें पता है, जब मैं यूरोप से अपनी आर्ट्स की पढ़ाई खत्म कर के  लौटी, और वहां के न्यूड स्कल्प्चर के बारे में स्टूटेंड्स को  बताती, उन्हें पढ़ाती, उन के चेहरे शर्म से लाल हो जाते. मुझे बड़ा मजा आता, मैं बहुत जगह घूमी, तुम्हें पता है डेनमार्क और स्वीडन में धार्मिक लोग सब से कम हैं और वहां सब से अच्छी शिक्षा है, अपराध न के बराबर हैं. ईमानदार लोग है,” जोया और विमल ने काफी अच्छे मूड में नाश्ता खत्म किया, जोया फिर उठ गई और बोली, ‘‘अब तुम औफिस के काम करो, मैं चलती हूं.”

विमल का मन ही नहीं कर रहा था कि जोया उस के पास से जाए, पर मजबूरी थी, एक मीटिंग थी, बोला, ‘‘तुम क्या करती हो पूरा दिन होटल में जोया?”

‘‘आराम, बुक्स, एक्सरसाइज, कुछ फोन पर बातें, फोन पर नेटफ्लिक्स भी देखती हूं.”

‘‘अच्छा? कौनकौन से शोज देखे हैं अब तक?”

‘‘सेक्रेड गेम्स देख रही हूं आजकल, वैसे और भी बहुत से देख लिए.”

विमल की आंखें कुछ चौड़ी हुईं, ‘‘सेक्रेड गेम्स?”

‘‘हां, फिर हैरान हुए तुम?”

विमल हंस पड़ा, जोया चली गई.

शाम को दोनों फिर बहुत देर तक स्विमिंग पूल के किनारे बैठे रहे, चाय भी साथ पी, जोया ने शरारती स्वर में कहा, ‘‘आज डिनर मेरे रूम में?”

विमल ने हां में सिर हिला दिया. विमल अब उस से अपनी फैमिली की बातें करता रहा, अपनी वाइफ और बच्चों के बारे में बताता रहा, जोया पूरी रुचि से सुनती रही, फिर बोली, ‘‘आप अपनी वाइफ को मेरे बारे में बताएंगे?”

‘‘नहीं,” कहता हुआ विमल मुसकरा दिया, तो जोया भी हंस पड़ी, कहा, ‘‘इसलिए मैं ने शादी नहीं की.” दोनों इस बात पर एकदूसरे को छेड़ते रहे, रात को डिनर के लिए जब विमल तैयार होने लगा, मन ही मन यही सोच रहा था कि वह अपनी वाइफ को धोखा दे रहा है, भगवान उसे कभी माफ नहीं करेंगे, यह पाप है वगैरह, पर जब जोया की हसीन कंपनी याद आती, सब नैतिकता धरी की धरी रह जाती.

जोया विमल के साथ समय बिताने के लिए उत्साहित थी, उसे विमल का स्वभाव सरल, सहज लगा था, वह उस से खूब मजाक करने लगी थी, उसे अपनी बातों पर विमल का झेंपना बहुत अच्छा लगता, रात को विमल उस के रूम में आया, दोनों ने काफी सहज हो कर बहुत देर बातें कीं, डिनर आर्डर किया, खूब हंसतेहंसाते खाना खाया, वेटर सब क्लीन कर  गया, तो जोया ने कहा, ‘‘विमल, मुझे तुम से मिल कर अच्छा लगा. यह और बात है कि हम एकदूसरे से बिलकुल अलग हैं.”

‘‘जोया, मैं ने बहुत सोचा कि तुम से दूरी न बढ़ाऊं, पर दिल है कि अब मानता  नहीं,” कहतेकहते विमल ने उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया. जोया भी उस के सीने से जा लगी, फिर जो होना था, वही हुआ. पूरी रात दोनों ने एक बेड पर ही बिताई. सुबह जोया ही उठ कर फ्रेश हुई पहले, विमल को झकझोर कर हिलाया, ‘‘उठो, आज क्या इरादा है?”

‘‘तुम्हारे साथ ही रातदिन बिताने का इरादा है, और क्या?”

‘‘तुम्हे पता है जौन अपड़ाईक ने कहा है, सैक्स बिलकुल पैसे की तरह होता है, जितना मिले, उतना कम.

‘‘और मुझे डीएच लौरेंस की बात भी सही लगती है कि सैक्स वास्तव में इनसान के लिए सब से करीबी स्पर्शों में से एक स्पर्श होता है, लेकिन इनसान इसी स्पर्श से डरता है.”

‘‘अब तो वही सही लगता है, जो तुम्हें सही लगता है, कभी भी नहीं सोचा था कि ऐसे किसी के करीब आऊंगा.”

जोया की संगत का ऐसा असर हुआ कि हर बात में धर्म और ईश्वर की बात आंख मूंद कर मानने वाले विमल को अब कुछ याद न आता, औफिस के पहले और बाद का सारा समय जोया के साथ होता, वेटर्स और बाकी स्टाफ से दोनों की नजदीकी छुपने वाली थी ही नहीं, पर दोनों को परवाह भी नहीं थी किसी की, विमल पूरे का पूरा बदल रहा था, न उसे सुबह जीवनभर का नियम सूरज पर जल चढ़ाना याद रहता, न कोई फास्ट, अब उसे जोया की तर्कपूर्ण बातें भातीं, दुनियाभर के दार्शनिकों की कोट्स जोया के मुंह से सुन कर उस का दिल खुश हो जाता कि आजकल वह कितनी इंटेलीजेंट महिला के साथ रातदिन बिता रहा है, अपनी फैमिली से बात करता हुआ भी वह अब परेशान न होता, बल्कि उसे फोन रखने की जल्दी होती, वह इस लौकडाउन को अब मन ही मन थैंक्स कहने लगा था. जोया, वह तो थी ही अपनी तरह की एक ही बंदी, विमल का दीवानापन देख वह हंस देती.

अचानक ट्रेनें और बाकी सेवाएं शुरू हुईं, जोया के एक स्टूडेंट ने रूड़की में अपने किसी रिश्तेदार को कह कर पास दिलवा कर जोया के टैक्सी से दिल्ली जाने का इंतजाम कर दिया, वहां से वह अपने भाई के पास रह कर फिर बैंगलोर चली जाती, उस ने यह खबर जब विमल को दी तो विमल को ऐसा झटका लगा कि उस का चेहरा देख जोया भी गंभीर हुई, ‘‘विमल, हमारे रास्ते, मंजिल तो अलग हैं ही, इस में तुम इतना उदास मत हो, मुझे दुख हो रहा है.”

विमल ने उस का हाथ पकड़ लिया. गमगीन से स्वर में वह बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था कि हमे बिछुड़ना भी होगा.”

जोया अपनी पैकिंग करने लगी.  होटल वालों को इस समय ध्यान रखने के लिए विशेष रूप से थैंक्स कहा, वेटर्स को बढ़िया टिप्स दी, विमल भी टूटे दिल से जाने के रास्ते खोजने लगा. चलते समय जोया विमल के गले लग गई, अपना कार्ड दिया, बोली, ‘‘जब मन करे, फोन कर लेना. वैसे, मैं जानती हूं कि कुछ ही दिन याद आएगी मेरी, फिर अपनी लाइफ में बिजी हो कर कभीकभी ही याद करोगे मुझे.”

‘‘और तुम…?”

जोया बस मुसकरा दी, कहा कुछ नहीं. टैक्सी आ गई, जोया बैठने लगी तो विमल ने बेकरारी से पूछा, ‘‘जोया, कब मिलेंगे?”

‘‘ऐसे ही, कभी भी, कहीं किसी रोज.”

टैक्सी चली गई. विमल का दिल जैसे बहुत उदास हुआ, मन ही मन कहा, ‘‘जोया सिद्दीकी, बहुत याद आओगी तुम.”

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