युवा प्रेम आसरा: क्या जया को हुआ गलती का एहसास

Family Story in Hindi

समस्या का अंत- भाग 2: अंबर का क्या था फैसला

दीदी की सास भी अपनी कर्कश आवाज को नरम कर के  ‘बेटा, बेटा’ करने लगी हैं. अंबर को खतरे की घंटी सुनाई दी. उस रात सब खाने बैठे. पनीर कोफ्ता मुंह में रखते ही जीजाजी चौंके.

‘‘वाह, यह तो तुम्हारे हाथ के कोफ्ते हैं. मां तुम रसोई में कैसे पहुंच गईं?’’

दीदी की सास ने मुंह बनाया और बोलीं, ‘‘चल हट, मैं तो कमर दर्द में पड़ी हूं. लाली ने बनाए हैं कोफ्ते.’’

‘‘अच्छा, लाली को पता है कि रसोई का दरवाजा किधर खुलता है.’’

लाली ने अदा के साथ कंधे झटके और बोली, ‘‘ओह, भइया…’’

‘‘तू क्या जानता है,’’ दीदी की सास बोलीं, ‘‘मुझ से अच्छा खाना मेरी बेटी बनाती है. इस ने तो मन लगा कर पकवान, मिठाई बनाना भी मुझ से सीखा है,’’ फिर अंबर की तरफ मुड़ कर बोलीं, ‘‘अंबर बेटा, मैं इतना काम करती थी कि सब देख कर हैरान होते थे. मेरी सास कहती थीं कि अरी, थोड़ा आराम कर ले, मरेगी क्या काम करतेकरते. अब तो कमर दर्द ने अपाहिज बना दिया है. और अपनी दीदी को देखो, इतनी सुस्त कि 10 मिनट के काम में 2 घंटे लगा देगी.’’

यह सुन कर अंबर की आत्मा जल उठी, स्वादिष्ठ कोफ्ता कड़वा हो गया.

2 दिन के लिए अंबर फिर घर गया, तो रूपाली का गुस्सा और भी बढ़ा हुआ पाया. भाभी से रूठते हुए बोला,  ‘‘भाभी, तुम कुछ नहीं कर रही हो. मां को समझाओ.’’

‘‘मांजी टेढ़ी खीर हैं भैया, फिरभी देखती हूं, बर्फ को थोड़ाथोड़ा कर के ही पिघलाना होगा. देखती हूं कब तक सफलता मिलती है.’’

अंबर खाली हाथ लौट आया था. इधर घर में दीदी की सासननदों की खातिरदारी का आतंक. वह आराम से अपने गेस्ट हाउस में रह सकता है पर मां की डांट, दीदी के आंसू, जीजाजी का आग्रह, जाए तो कैसे?

कभीकभी अंबर को लगता है कि वह यहां से भाग जाए. उस दिन ऐसे ही भारी मन से आफिस में बैठा काम कर रहा था कि मोबाइल बज उठा :

‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘इस समय और क्या करूंगा, काम कर रहा हूं.’’

‘‘लंच में निकल पाओगे?’’

‘‘निकल लूंगा पर जाऊंगा कहां?’’

‘‘तुम्हारे दफ्तर के सामने, रेस्तरां है, उस में आ जाओे. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’

‘‘रूपाली, तुम यहां… इंदौर में… कैसे?’’

‘‘मैं ने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया है जनाब, और पिछले 1 सप्ताह से मैं यहीं हूं.’’

‘‘और मुझे नहीं बताया.’’

‘‘बता तो दिया, बाकी बातें मिलने के बाद,’’ इतना कह कर रूपाली ने फोन रख दिया.

अंबर का समय मानो काटे नहीं कट रहा था. लंच के समय उस ने आधे दिन की छुट्टी ले ली और महक रेस्तरां पहुंच गया. रूपाली दरवाजे पर खड़ी थी. दोनों कोने की एक सीट पर जा बैठे. बैरा पानी रख गया तो रूपाली ने गिलास उठाया. पानी का घूंट गले के नीचे उतार कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल है जनाब का.’’

‘‘अभी तक तो बेहाल था पर अब तुम्हारे आने से हाल सुधर जाएगा.’’

‘‘अंबर, तुम ने मुझे क्या समझ रखा है? मैं तमाम उम्र कुंआरी रह कर तुम को इसी तरह रिझाती रहूंगी. अब मैं अपने घर वालों को ज्यादा दिन रोक नहीं पाऊंगी. तुम हमारी शादी को गंभीरता से लो और कुछ करो.’’

‘‘रूपाली, विश्वास करो मेरा, मैं जल्दी ही कुछ करूंगा.’’

‘‘मैं तुम पर पूरा विश्वास करती हूं लेकिन मुझे लगता है तुम पर विश्वास रख कर मुझे कुंआरी ही बूढ़ी होना पड़ेगा.’’

यह सुन कर अंबर का मुंह उतर गया.

‘‘छोड़ो इन बातों को, यह बताओ, बिन्नी दीदी, बच्चे व जीजाजी कैसे हैं?’’

‘‘दीदी पर तरस आता है. सासननद ने मिल कर उन के जीवन को नरक बना दिया है. जीजाजी दुखी तो होते हैं पर बोल कुछ नहीं पाते.’’

इतने में बैरा आया और चाय के साथ पकौड़ों का आर्डर ले गया.

‘‘कुछ दिनों से घर में बड़ी अजीब सी बात हो रही है. मैं परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘रूपाली, जब मैं यहां आया था तो दीदी के साथसाथ मुझे भी उस की सास के ताने मिलते थे पर अब, अचानक ही दीदी की सास मुझ पर जान छिड़कने लगी हैं.’’

‘‘समझ गई,’’ रूपाली बोली, ‘‘अरे, वह बुढि़या तुम को अपना दामाद बनाना चाहती है.’’

‘‘क्या वो भैंस…असंभव. रूपाली, मुझे तो लगता है कि मुसीबत के साथ मेरा गठबंधन हो गया है.’’

‘‘इतने परेशान क्यों हो रहे हो?’’

‘‘और क्या करूं. कितनी बार तुम को समझाया कि चलो, कोर्ट मैरिज कर लें पर तुम भी सब की आज्ञा, आशीर्वाद ले पारंपरिक विवाह कीजिद पर अड़ी हो. अभी भी मान जाओ तो मैं कल ही अर्जी लगा दूं.’’

‘‘नहीं, कागज की पत्नी बनना मुझे पसंद नहीं. पारंपरिक ढंग से विवाह, हंसीठिठोली, आशीर्वाद, इन सब का मेरे लिए बहुत मूल्य है. भले ही ऊपर से बहुत आधुनिक दिखती हूं.’’

‘‘तब मुझ से अब एक शब्द भी मत कहना. बैठी रहो मेरे इंतजार में या अपने घर वालों की पसंद से कहीं और शादी कर लो.’’

‘‘शांति…शांति…मैं ने तुम को इतना समय दिया, अब तुम भी मुझे थोड़ा समय दो.’’

अंबर घर लौटा तो उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है. आज जीजाजी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए वह घर में ही थे. दीदी की सास का कमरा भी उसे बंद दिखा. आज दीदी ही चायनाश्ता लाई थीं. आंखें सूजी देख कर अंबर को लगा कि वह खूब रोई हैं.

‘‘मुन्ना, चाय ले.’’

‘‘दीदी, कुछ हुआ है क्या?’’

दीदी के मुंह खोलने से पहले ही उन की सास आ गईं.

‘‘बहू, अपने भाई से बात की…’’

आज पहली बार देखा कि मां की बात को बीच में काटते हुए जीजाजी ने पत्नी की तरफ मुंह खोला था, ‘‘काम से थक कर लौटा है. दम तो लेने दो.’’

‘‘इसे कौन से पहाड़ ढोने पड़ते हैं. चाय पीतेपीते बात कर लो.’’

‘‘देखो मां, मैं पहले भी कह चुका हूं, फिर कह रहा हूं कि जिस घर से बेटी लाए हैं वहां अपनी बेटी नहीं देंगे.’’

‘‘वह सब परंपरा अब नहीं मानी जाती. फिर कौन सा यह सगा भाई है.’’

‘‘इस के घर में कोई तैयार न हुआ तो?’’

‘‘तेरी सास इस की सगी बूआ है, रिश्ते के लिए उन से दबाव डलवा.’’

जीजाजी भड़के, ‘‘बेटी के लिए मतलब? ब्याह नहीं हुआ तो क्या बिन्नी को मार डालोगी?’’

बिन्नी ने डरतेडरते कहा, ‘‘बूआ को ढेर सारा दहेज चाहिए.’’

‘‘हम से दहेज मांगा तो भतीजी मरी.’’

‘‘होश में तो हो? बिन्नी को कुछ भी हुआ तो मैं ही सब से पहले पुलिस बुलाऊंगा, उस का भाई भी यहां है.’’

मां पैर पटकती, धमकी देती अपने कमरे में चली गईं तो जीजाजी चिंतित से बोले, ‘‘अंबर, मान ही जाओ…दोनों मिल कर बिन्नी का जीवन नरक बना देंगी.’’

बिन्नी दीदी झल्ला कर बोलीं, ‘‘हरगिज नहीं, अगर लाली के साथ मेरे भाई का ब्याह हुआ तो उस का जीवन नरक बन जाएगा. मैं अपने भाई के जीवन को ऐसे बरबाद नहीं होने दूंगी. चाहे मैं मर ही क्यों न जाऊं. आप अपनी बहन को नहीं जानते हैं क्या?’’

सच्ची सीख: क्या नीरा की बेटे के लिए नारजगी दूर हुई

हमेशा की तरह आज भी जब किशोर देर से घर लौटा और दबेपांव अपने कमरे की ओर बढ़ा तो नीरा ने आवाज लगाई, ‘‘कहां गए थे?’’ ‘‘कहीं नहीं, मां. बस, दोस्तों के साथ खेलने गया था,’’ कहता हुआ किशोर अपने कमरे में चला गया. नीरा पीछेपीछे कमरे में पहुंच गई, बोली, ‘‘क्यों, यह कोई खेल कर घर आने का समय है? इतनी रात हो गई है, अब पढ़ाई कब करोगे? तुम्हें पता है न, तुम्हारी बोर्ड की परीक्षा है और तुम ने पढ़ाई बिलकुल भी नहीं की है. तुम्हारे क्लासटीचर भी बोल रहे थे कि तुम नियमित रूप से स्कूल भी नहीं जाते और पढ़ाई में बिलकुल भी मन नहीं लगाते. आखिर इरादा क्या है तुम्हारा?’’

‘‘जब देखो, आप मेरे पीछे पड़ी रहती हैं, चैन से जीने भी नहीं देतीं, जब देखो पढ़ोपढ़ो की रट लगाए रहती है. पढ़ कर आखिर करना भी क्या हैं, कौन सी नौकरी मिल जानी है. मेरे इतने दोस्तों के बड़े भाई पढ़ कर बेरोजगार ही तो बने बैठे हैं. इस से अच्छा है कि अभी तो मजे कर लो, बाद की बाद में देखेंगे,’’ कह कर उस ने अपने मोबाइल में म्यूजिक औन कर लिया और डांस करने लगा. नीरा बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में आ गई. नीरा किशोर की बिगड़ती आदतों से काफी परेशान रहने लगी थी. वह न तो पढ़ाई करता था और न ही घर का कोई काम. बस, दिनभर शैतानियां करता रहता था. दोस्तों के साथ मटरगश्ती करना और महल्ले वालों को परेशान करना, यही उस का काम था. जब भी नीरा उस से पढ़ने को कहती, वह किताब उठाता, थोड़ी देर पढ़ने का नाटक करता, फिर खाने या पानी पीने के बहाने से उठता और दोबारा पढ़ने को नहीं बैठता.

नीरा उस की आदतों से तंग आ चुकी थी. उसे किशोर को रास्ते पर लाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. किशोर के पिता एक सरकारी बैंक में अधिकारी थे. वे सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक बैंक के कार्यों में व्यस्त रहते थे. आमतौर पर वे रात को देर से लौटते थे. थकेहारे होने के कारण वे बच्चों से ज्यादा बात नहीं करते थे. किशोर जानता था कि पापा तो घर में रहते नहीं, इसलिए उसे कोई खतरा नहीं. किशोर की बहन साक्षी, उस से छोटी जरूर थी परंतु काफी समझदार थी और स्कूल का होमवर्क समय पर करती थी. वह हमेशा अपनी कक्षा में अव्वल आती थी. इस के अलावा वह अपनी मम्मी के काम में हाथ भी बंटाती थी. कई बार नीरा किशोर को समझाती और साक्षी का उदाहरण भी देती परंतु उस पर कोई असर नहीं होता था. किशोर स्कूल जाने के नाम पर घर से निकलता मगर स्कूल न जा कर वह सारा समय दोस्तों के साथ घूमनेफिरने और फिल्में देखने में बिता देता था. इस बात को ले कर एक दिन नीरा के डांटने पर वह उल्टा नीरा को ही चिल्ला कर बोला, ‘‘मुझे नहीं पढ़नावढ़ना. प्लीज, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. मुझे जो बनना होगा, बन जाऊंगा वरना बाद में अपना बिजनैस करूंगा. मेरे सारे दोस्तों के पापा बिजनैसमैन हैं और देखो, उन के पास कितना पैसा है और मेरे पापा सरकारी नौकरी में हैं पर हमारे पास कुछ भी नहीं है. क्या फायदा ऐसी नौकरी का. अब तो मैं और भी नहीं पढ़ूंगा, चाहे आप कुछ भी कर लो,’’ किशोर की इस बात से नीरा को गहरा सदमा लगा और उस ने किशोर को जोर से एक तमाचा जड़ दिया. किशोर जोरजोर से रोने लगा और रोतेरोते अपने कमरे में चला गया.

नीरा सोच में पड़ गई कि कैसे समझाए अपने लाड़ले को. यदि अभी से इस ने मेहनत करना नहीं सीखा तो इस का भविष्य बनने से पहले ही बिगड़ जाएगा. यह सोचती हुई वह किशोर के कमरे में पहुंची. किशोर का सिर गोद में रखा और बड़े प्यार से उस के बालों को सहलाती हुई बोली, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारी दुश्मन थोड़े ही हूं जो तुम्हें हमेशा पढ़ने के लिए बोलती रहती हूं. तुम पढ़ोगे तो तुम्हारा ही फायदा होगा और कल जब तुम बड़े आदमी बनोगे तो इस से तुम्हारी ही इज्जत बढ़ेगी, लोग तुम्हारे आगेपीछे घूमेंगे. जब तक हम हैं तब तक तुम्हें हर खुशी देने का प्रयास करेंगे लेकिन कल यदि हम नहीं रहे तो तुम्हारा क्या होगा? तुम्हारे पापा तुम्हें बिजनैस कराने के लिए इतने पैसे कहां से लाएंगे और बिजनैस में सफल होने के लिए भी तो पढ़नालिखना जरूरी है.’’ परंतु किशोर पर जैसे पागलपन सवार था, वह कुछ भी सुनना नहीं चाहता था. उस ने गुस्से में अपनी किताबेंकौपियां उठा कर फेंकते हुए चिल्ला कर कहा, ‘‘मां, मुझे नहीं पढ़नालिखना, आप जाओ यहां से.’’

किशोर के व्यवहार से नीरा की आंखों में आंसू आ गए. अपने पल्लू से आंसू पोंछते हुए वह कमरे से बाहर आ गई. वह अपनी व्यथा अपने पति समीर से भी नहीं कह सकती थी क्योंकि वे भी दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद रात को देर से लौटते थे और खाना खा कर सो जाते थे. कई बार तो रविवार को भी उन्हें बैंक जाना पड़ता था, इसलिए उसे अपने पति से कुछ ज्यादा उम्मीद नहीं थी. इसीलिए उस के सिर में तेज दर्द होने लगा था. वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. समीर लौटे तो उन्होंने नीरा को लेटे हुए देखा, प्यार से उस के बालों को सहलाते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, नीरा? आज कुछ ज्यादा ही परेशान लग रही हो? कोई बात है क्या?’’ ‘‘नहीं तो, ऐसी कोई बात नहीं. बस, ऐसे ही सिर में दर्द हो रहा था, इसलिए लेटी हुई थी,’’ नीरा ने कहा. वह किशोर के बारे में समीर को बता कर उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी.

समीर को लगा कि जरूर कुछ बात है वरना नीरा इतना परेशान कभी नहीं रहती. वे प्यार से बोले, ‘‘कोई बात नहीं, तुम आराम से लेटो, आज मैं तुम्हारे लिए गरमागरम चाय बना कर लाता हूं,’’ यह कह कर वे रसोई की ओर मुड़ गए. नीरा से रहा नहीं गया और वह भी पीछेपीछे रसोई में पहुंच गई. तब तक समीर चूल्हे पर चाय की पतीली चढ़ा चुके थे. नीरा बोली, ‘‘हटो जी, इतनी भी तबीयत खराब नहीं है कि आप के लिए चाय भी नहीं बना सकूं.’’ ‘‘और मैं भी इतना निष्ठुर नहीं कि बीवी की तबीयत ठीक नहीं और मैं उस के लिए एक कप चाय भी नहीं बना सकूं. कभी मुझे भी मौका दे दिया करो, श्रीमतीजी, मैं इतनी घटिया भी चाय नहीं बनाता कि तुम्हारे गले से नहीं उतर पाए,’’ समीर बोले. समीर की बातों से नीरा के होंठों पर हंसी आ गई और दोनों साथसाथ चाय बनाने लगे. थोड़ी ही देर में चाय तैयार हो गई. चाय की प्याली ले कर दोनों कमरे में आए. चाय की चुस्की लेते हुए समीर ने पूछा, ‘‘अब बताओ, क्यों इतना परेशान हो, मुझ से कुछ न छिपाओ, हो सकता है मेरे पास तुम्हारी समस्या का कोई समाधान हो, और जब तक तुम बताओगी नहीं तब तक मैं कैसे समझ पाऊंगा?’’ नीरा से रहा नहीं गया, उस की आंखों में आंसू आ गए और भरे गले से ही उस ने समीर को सारी बातें बता दीं.

समीर ने सारी बातें सुनने के बाद एक ठंडी सांस ली और नीरा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कल छुट्टी है. इस पर कल सोचते हैं कि किशोर को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए. अभी किशोर गुस्से में होगा, अभी बात करने पर बात बिगड़ भी सकती है.’’ सुबह दिनचर्या से निवृत्त हो कर समीर ने किशोर और साक्षी दोनों को अपने पास बुलाया और बोले, ‘‘आज मेरी छुट्टी है, कहीं घूमने चलना है क्या?’’

‘‘हां, पापा, कब चलना है?’’ दोनों खुशी से उछल कर बोले.

‘‘बस, जितनी जल्दी तुम लोग तैयार हो जाओ,’’ समीर ने जवाब दिया.

‘‘या, याहू,’’ कह कर दोनों तैयार होने चले गए. थोड़ी ही देर में दोनों तैयार थे. तब तक नीरा ने नाश्ता लगा दिया. सभी ने साथ में नाश्ता किया. समीर ने गाड़ी निकाली और सभी गाड़ी में बैठ कर निकल पड़े. अभी गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ी ही थी कि रैडलाइट हो गई और गाड़ी रोकनी पड़ी. गाड़ी रुकते ही 2-3 भिखमंगे आ कर भीख मांगने के लिए हाथ जोड़जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगे. समीर ने सब को डांट कर भगा दिया. इस पर किशोर बोला, ‘‘दे दो न, 2 रुपए, पापा. क्या जाता है.’’ ‘‘मैं किसी को भीख नहीं देता और जो लोग मेहनत नहीं करते उन्हें तो भीख भी नहीं दी जाती. मैं अपनी मेहनत की कमाई भिखमंगों में नहीं बांट सकता.’’ किशोर उन भिखमंगों को देखता रहा. वे जिस गाड़ी के पास जाते, सभी उन्हें भगा देते. यहां तक कि पैसे देना तो दूर, लोग गाड़ी छूने पर ही उन्हें डांट देते. किशोर ने कड़ी धूप में कई और लोगों को वहां कुछ सामान भी बेचते देखा पर कोई भी उन से कुछ खरीद नहीं रहा था. सब हरी बत्ती होने का इंतजार कर रहे थे. थोड़ी देर में बत्ती हरी हो गई और समीर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

समीर ने थोड़ी ही देर बाद सड़क के किनारे गाड़ी रोकी और एक जूता पौलिश करने वाले को अपना जूता पौलिश करने को कहा. जूता पौलिश होने के बाद उन्होंने मोची को 2 रुपए का सिक्का पकड़ाया और चल दिए. किशोर ने पूछा, ‘‘इतनी मेहनत के बस 2 रुपए?’’

‘‘हां बेटा, जो लोग बचपन में पढ़नेलिखने में मेहनत नहीं करते, बाद में उन्हें मेहनत भी ज्यादा करनी पड़ती है और पैसे भी कम मिलते हैं.’’ किशोर सोच रहा था कि एक ओर हम लोग एसी कार में चल रहे हैं, दूसरी ओर इन्हें कड़ी धूप में 1-2 रुपए के लिए कितनी मेहनत एवं संघर्ष करना पड़ रहा है. अब वे लोग शहर में लगे एक मेले में पहुंचे. मेले में वे सभी खूब घूमेफिरे, खायापीया, मस्ती की. इस तरह से शाम हो गई और वे गाड़ी में बैठ कर वापस चल दिए. वापस लौटते हुए समीर ने अपनी गाड़ी एक बड़े से गेट पर रोक दी. गेट पर लिखा था, ‘मोहित कुमार’, आईएएस जिलाधिकारी. गेट पर 4 पुलिस वाले खड़े थे. पापा ने उन्हें अपना कार्ड दिखाया और बोले, ‘‘डीएम साहब ने बुलाया है.’’ उन की गाड़ी की अच्छी तरह से तलाशी ले कर पुलिस ने गाड़ी को अंदर जाने की इजाजत दी. बंगले में प्रवेश करते ही किशोर ने देखा कि कितना बड़ा और सुंदर बंगला था. चारों ओर बड़ेबड़े परदे लगे थे, झूलने के लिए झूला और खेलने के लिए गार्डन और न जाने क्याक्या. इस बंगले के सामने उस का फ्लैट बिलकुल छोटा लगने लगा था.

गाड़ी पार्क कर डीएम साहब के बंगले के अंदर जाने से पहले समीर ने दरबान से अपना कार्ड अंदर भिजवाया तो तुरंत उसे बैठक में ले जाया गया. किशोर ने देखा कि वह घर बाहर से जितना बड़ा था, अंदर से उतना ही शानदार एवं खूबसूरत था. घर में कालीन बिछा था और बड़ेबड़े एवं खूबसूरत सोफे लगे थे. पूरा कमरा तरीके से सजा था. तभी एक नौजवान युवक ने कमरे में प्रवेश किया और सब का अभिवादन किया. उस ने टेबल पर घंटी बजाई तो तुरंत भागता हुआ एक दफ्तरी अंदर आया और सामने सिर झुका कर खड़ा हो गया. उस युवक ने कहा, ‘‘जल्दी से चायनाश्ता ले कर आओ.’’ समीर ने उस युवक का परिचय सब से कराते हुए कहा, ‘‘इन का नाम मोहित है और ये हमारे पुराने मित्र के बेटे हैं और हाल ही में ये इस शहर के नए डीएम बन कर आए हैं. रात को मैं हमेशा देर से घर लौटता हूं. आज छुट्टी थी और इन्होंने बुलाया तो सोचा कि आज ही हम इन से भी मिल लेते हैं.’’

डीएम साहब का परिचय पा कर किशोर और साक्षी भैयाभैया कह कर उन के पास जा कर बैठ गए और उन से बातें करने लगे. किशोर ने उन से कहा, ‘‘भैया, आप के तो बड़े ठाट हैं. आप तो इस शहर के सब से बड़े अधिकारी हो. कैसे बने इतने बड़े अधिकारी, मुझे भी बताओ न भैया. मैं भी आप की तरह बनना चाहता हूं. क्या मैं आप की तरह बड़ा आदमी बन सकता हूं?’’ ‘‘क्यों नहीं, बस, अभी से मन लगा कर पढ़ोगे और अपना लक्ष्य बना कर आगे बढ़ोगे तो निश्चित तौर पर तुम भी मेरी तरह किसी शहर के डीएम बन कर या उस से भी बड़े आदमी बन कर आराम की जिंदगी जी सकते हो,’’ मोहित बोले. थोड़ी देर में मोहित भैया ने सब को खाने की टेबल पर आमंत्रित किया जहां अनेक प्रकार के व्यंजन लगे थे और उन्हें सलीके से सजाया गया था. स्वादिष्ठ खाना देख कर उन के मुंह में पानी आ गया और सब को भूख भी लग गई थी. सब ने खूब खाना खाया. खाना खाने के बाद मोहित भैया सब को गाड़ी तक छोड़ने आए. गाड़ी में बैठने के बाद सब ने मोहित भैया को बाय किया और वापस अपने घर की ओर चल दिए. लौटते समय सब आपस में बातचीत कर रहे थे पर किशोर चुपचाप अपनी सीट पर बैठा कुछ सोचने में मग्न था. लौटतेलौटते काफी रात हो गई थी. घर पहुंचने के बाद सब काफी थक गए थे, इसलिए सोने चले गए. थोड़ी देर बाद ही समीर ने नीरा से कहा कि जा कर देखो, दोनों बच्चे अच्छी तरह से सो गए हैं न. नीरा ने जा कर देखा तो साक्षी अपने कमरे में सो गई थी परंतु किशोर के कमरे की लाइट जल रही थी. कमरे से तेज गाने की आवाज आने के बजाय आज उस का कमरा बिलकुल शांत था परंतु कमरे की लाइट जल रही थी. नीरा ने सोचा कि आज वह थक कर सो गया होगा, कमरे की लाइट बुझा देती हूं. भावुकतावश उस ने दरवाजा खोला तो देखा कि किशोर अपनी स्टडी टेबल पर बैठा पढ़ रहा था. नीरा को आश्चर्य हुआ और वह बोली, ‘‘बहुत रात हो चुकी है, सो जाओ, बेटा. कल पढ़ाई कर लेना.’’

‘‘नहीं मां, मैं पहले ही बहुत समय खो चुका हूं, अब मैं तो बस मोहित भैया की तरह बड़ा आदमी बनना चाहता हूं. आप जाओ, सो जाओ, मुझे अभी बहुत पढ़ना है.’’ किशोर की बातें सुन कर नीरा की आंखों में आंसू आ गए पर आज उस की आंखों में आंसू खुशी के थे. वह तेज कदमों से अपने कमरे में आ गई जहां समीर उस का इंतजार कर रहे थे. वह समीर के कंधे पर अपना सिर रख कर बोली, ‘‘जो बात मैं ने किशोर को महीनों में नहीं समझा पाई, आप ने सिर्फ एक ही दिन में उसे समझा दी.’’ समीर ने नीरा से कुछ न कहा, बस नीरा की पीठ सहलाने लगे और आज न जाने नीरा को समीर का ऐसा सहलाना कुछ अजीब सा सुकून दे रहा था. एक ऐसा सुकून जो उसे थोड़ी ही देर में एक संतोषभरी नींद के आगोश में ले गया.

Festive Special: दस्तक- मीनाक्षी के साथ क्या हुआ था

‘‘जरा बाहर वाला दरवाजा बंद करते जाइएगा,’’ सरोजिनी ने रसोई से चिल्ला कर कहा, ‘‘मैं मसाला भून रही हूं.’’

‘‘ठीक है, डेढ़दो घंटे में वापस आ जाऊंगा,’’ कहते हुए श्रीनाथ दरवाजा बंद करते हुए गाड़ी की तरफ बढ़े. उन्होंने 3 बार हौर्न बजाते हुए गाड़ी को बगीचे के फाटक से बाहर निकाला और पास वाले बंगले के फाटक के सामने रोक दिया.

‘पड़ोस वाली बंदरिया भी साथ जा रही है,’ दांत पीस कर सरोजिनी फुसफुसाई, ‘बुढि़या इस उम्र में भी नखरों से बाज नहीं आती.’ गैस बंद कर के वह सीढि़यां चढ़ गई थी.

सरोजिनी ऊपर वाले शयनकक्ष की खिड़की के परदे के पीछे खड़ी थी. वहीं से सब देख रही थी. वैसे भी पति का गानेबजाने का शौक उसे अच्छा नहीं लगता था और श्रीनाथ थे कि कोई रसिया मिलते ही तनमन भूल कर या तो सितार छेड़ने लगते या उस रसिया कलाकार की दाद देने लगते पर जब से सरोजिनी के साथ इस विषय में झड़प होनी शुरू हो गई थी तब से मंडली घर में जमाने के बजाय बाहर जा कर अपनी गानेबजाने की प्यास बुझाने लगे थे. सरोजिनी कुढ़ती पर श्रीनाथ शांत रहते थे. पड़ोस के बगीचे का फाटक खोल कर मीनाक्षी बाहर आई. कलफ लगी सफेद साड़ी, जूड़े पर जूही के फूलों का छोटा सा गुच्छा और आंखों पर मोटा चश्मा, बरामदे में खड़े अपने पति राजशेखर को हाथ से विदा का इशारा करती वह गाड़ी का दरवाजा खोल कर श्रीनाथ के साथ थोड़ा फासला कर बैठ गई. फिर शीघ्र ही गाड़ी नजरों से ओझल हो गई.

पैर पटकती हुई सरोजिनी नीचे उतरी. कोफ्ते बनाने का उस का उत्साह ठंडा पड़ गया था. पिछले बरामदे में झूलती कुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर कुरसी की पीठ पर टिका दिया और आंखें मूंद लीं. आंखों से 2-4 आंसू अनायास ही टपक पड़े. कालेज में सरोजिनी मेधाविनी समझी जाती थी. मांबाप को गर्व था उस के रूप और गुणों पर, कालेज की वादविवाद स्पर्धा में उस ने कई इनाम जीते थे लेकिन बड़ों के सामने कभी शालीनता की मर्यादा को लांघ कर वह एक शब्द भी नहीं बोलती थी. श्रीनाथ के साथ रिश्ते की बात चली तब सरोजिनी ने चाहा कि एक बार उन से मिल ले और पूछ ले कि विवाह के बाद अपनी प्रतिभा पर क्या पूर्णविराम लगाना होगा? आखिर गानाबजाना या चित्रकारी, रंगोली अथवा सिलाई जैसी कलाओं का महिलाएं वर्षों तक सदुपयोग कर सकती हैं, वाहवाही भी लूट सकती हैं. पर बोलने की कला? आवाज के उतारचढ़ाव का जादू? एक सरोजिनी नायडू की तरह सभी की जिंदगी में तो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने का संतोष नहीं लिखा होता.मां-बाप के सामने तो वह कुछ कह नहीं पाई, पर मीनाक्षी तो उस की अंतरंग सहेली थी. सोचा, उस से क्या छिपाना.

मीनाक्षी हंस पड़ी थी उस की चिंता देख कर, ‘पगली, बोलने के लिए समय कहां रहेगा तेरे पास? पहले कुछ वर्ष मधुमास चलेगा, फिर घर में कौए और कोयलें वादविवाद करने लगेंगी.’

‘क्या मतलब?’

‘बच्चों की कांवकांव, तेरी लोरियां, पति की चिल्लाहट, तेरी मिन्नतें…’ मीनाक्षी हंसने लगी थी, ‘और जब 15-20 वर्षों के बाद तुझे अपना वादविवाद याद आएगा, तब तू एक संतुष्ट, थुलथुली, अपने परिवार में मगन प्रौढ़ा बन चुकी होगी. फिर कहां का भाषण और कैसा वादविवाद?’

‘तुझे पता है, संस्कृत में कहावत है कि वक्ता 10 हजार में एक ही होता है. सिलाईबुनाई, रसोई और रंगोली तो सभी जानती हैं, पर बोलने की कला? क्यों मैं अपने अमूल्य वरदान को भुला दूं?‘ठीक है, मत भुलाना. खैर, श्रीनाथ के साथ मैं तुम्हारी मुलाकात करवा दूंगी,’ कह कर वह चली गई थी.

शाम को डरा, सहमा सा उस का छोटा भाई आया था, ‘सरू दीदी, चलोगी मेरे साथ? दीदी को बुखार है. वह बारबार आप को याद कर रही हैं. शायद किसी प्रोफैसर का बताया हुआ कुछ काम कर तो रखा है…आप के हाथ से भेजना चाहती होंगी?’‘जा सरू, देख कर आ मीनाक्षी को,’ मां ने कहा था, ‘रहने दे, वह गुझिया भरने का काम…बाद में कर लेना.’मीनाक्षी के घर में श्रीनाथ से मुलाकात हुई थी. दोनों चुप थे. आखिर चाय के साथ मीनाक्षी आई तब कहीं शर्म की बर्फ पिघली.

‘पूछ लो अपने सवाल,’ मीनाक्षी ने हंस कर कहा था, ‘पूछने के लिए तो मुंह खुलता नहीं, भाषण कला को प्रोत्साहन मिलेगा कि नहीं, पूछने चली है.’

हंसतेबतियाते घंटाभर गुजर गया था. पता चला था कि श्रीनाथ खुद मितभाषी हैं पर जरूर सुनेंगे अपनी पत्नी का भाषण. अगर वह किसी महिलामंडली या सभा में भी बोलना चाहेगी तो उन को कोई आपत्ति नहीं होगी. शर्त यह होगी कि राजनीति के सुर न छेड़े जाएं और उन्हें उन के शौक के लिए समय दिया जाए. लेकिन वह कहां कुछ कर पाई. विवाह के 5-6 महीनों के बाद ही उस की तबीयत सुस्त रहने लगी. फिर हुआ सोनाली का जन्म. जिंदगी के 30 साल यों ही गुजर गए. 2 बेटियों और 1 बेटे की परवरिश, उन के लाड़प्यार, शिक्षादीक्षा और शादीब्याह तक वह अपनेआप को उलझाती गई परिवार की गुत्थियों में. कभी उस के उलझने की जरूरत थी तो कभी वह चाह कर खुद उलझी. पीछे से पछताई भी, जैसे रूपाली के विवाह के बारे में.

रूपाली स्वतंत्र विचारों की लड़की थी. शुरू से ही उस ने अपने निर्णय खुद लेने का रवैया अपनाया था. सोनाली गृहविज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दे कर अच्छे घर में विवाह कर के सुख से रह रही थी. उस का घर सचमुच देखने लायक था. सरोजिनी बहुत प्रसन्न होती थी बेटी की सुघड़ता देख कर, उस की प्रशंसा सुन कर. पर रूपाली? उस ने खेलकूद के पीछे पड़ कर, ज्योंत्यों दूसरे वर्ग में 12वीं की देहरी पार की. फिर स्नातक उपाधि के लिए विषय चुना, संगीत. उसे कितना समझाया था कि दौड़ में स्कूल चैंपियन बनने से या संगीत में 2-4 इनाम पाने से किसी की जिंदगी नहीं संवर सकती. अपने खानदान की योग्यता के अनुरूप घरवर नहीं मिल सकता.

‘सरू, यह कोई जरूरी नहीं कि सब बच्चे एकजैसे हों, या एक ही तरीके का जीवन अपनाएं. समझाना तुम्हारा काम था, सो तुम कर चुकीं. अब रूपा को अपनी मरजी से नई राह चुनने दो. खेलकूद कोई बुरी चीज तो नहीं. कबड्डी संघ में बोलबाला है रूपा का. गाती भी अच्छा है, दमखम वाली आवाज है…’ श्रीनाथ ने कई बार सरोजिनी को अकेले में समझाया था.

लेकिन शालीनता की प्रतिमा सी सरोजिनी बच्चों के मामले में बहुत ज्यादा हठी व शक्की थी. बच्चों के लिए उस ने चौखटें बना रखी थीं, उन्हें उन्हीं में फिट होना था. पर रूपाली को कहां रास आती ऐसी रोकटोक. संगीत में स्नातक होने से पहले ही उस ने अपनी संगीत कक्षा खोल ली थी. धीरेधीरे कमाने लगी थी. फिर स्नातक होते ही गुरुमूर्ति से ब्याह कर के मां के चरण स्पर्श करने आई थी.

गुरुमूर्ति माध्यमिक विद्यालय में एक शिक्षक था. क्या तबला या वायलिन बजाने से कोई अभिजात्य वर्ग का सदस्य बन सकता है? तिस पर वह ठहरा दक्षिण भारतीय. सरोजिनी का मुंह कड़वा हो गया था. श्रीनाथ घर पर न होते तो शायद वह उसे अपमानित कर के भगा भी देती. पर वह ठहरे संगीत रसिक. दामाद से प्यार से मिले और खिलायापिलाया. नया जीवन शुरू करने के लिए कुछ धन भी दिया और बेटी की शादी की खुशी में पार्टी भी दी.

‘सरू, जो हो गया सो हो गया,’ उन्होंने पार्टी के बाद कहा, ‘बच्चे जहां रहें, सुखी रहें. जरूरत पड़ने पर, जब तक हो सकेगा उन की सहायता करेंगे. तुम रोती क्यों हो? गुरुमूर्ति अच्छा लड़का है, सुखी रहेगी हमारी बेटी. तुम अब तक जो नहीं कर पाईं, अब करो. तुम्हारी भाषण कला का क्या होगा. इस तरह तो तुम कुम्हला जाओगी.’ बड़ा गुस्सा आया था सरोजिनी को. सोचा, उपदेश देना बहुत आसान है. शादी के बाद उस के पांवों में कई बेडि़यां पड़ी हैं…परिवार की जिम्मेदारियां, बच्चों का लालनपालन, सामाजिक संबंधों का रखरखाव और घर के अनगिनत काम. श्रीनाथ को क्या, तनख्वाह ला कर थमा दी और मस्तमौला बन कर घूमते रहे, सितार उठा कर. कभी यहां तो कभी वहां. उन की संगीत में प्रगति होती रही, पर सरोजिनी की ‘10 हजार में एक’ वाली कला दफन हो गई उस के विवाह रूपी पत्थर के नीचे.

यह तो अच्छा था कि बेटा आज्ञाकारी निकला. पढ़लिख कर अच्छीखासी नौकरी भी कर रहा था, वह भी इसी शहर में. उसी के सहारे तो अब जीना था. एक निश्वास के साथ वह कुरसी से उठी. कई काम पड़े थे. दीवाली पास आ रही थी. सोनाली पति के साथ घूमने गई थी, दिल्ली, नेपाल. परंतु दीवाली पर तो सब को आना था. तैयारियां करनी थीं. दीवाली के 2 दिन बाद बेटे के लिए कानपुर से रिश्ता ले कर लोग आ रहे थे.

‘पर श्रीनाथ को क्या,’ कौफी बनातेबनाते सरोजिनी बड़बड़ाने लगी, ‘वह तो सठिया गए हैं. अब सेवानिवृत्त होने के बाद उन के और पर निकल आए हैं. मीनाक्षी के साथ चले जाते हैं, किसी कार्यक्रम के अभ्यास के लिए.’

कौफी का प्याला ले कर वह फिर बरामदे में चली गई. पिछला बरामदा, उस का साथी, उस के जीवन की तरह हमेशा ओट में रहने वाला. यहां उसे अच्छा लगता है. बंदरिया का घर भी यहां से दिखाई नहीं पड़ता. बंदरिया? अंतरंग सहेली का ‘बंदरिया’ में रूपांतर बहुत वर्षों पहले ही हो गया था, जब सोनाली के लिए वह अपने किसी भानजेवानजे का रिश्ता लाई थी. कहती थी कि सोनाली भी उसे पसंद करती है. साधारण मध्यवर्गीय परिवार, लड़का भी कोई खास नहीं था. यह तो अच्छा हुआ कि सोनाली का दिमाग जल्दी ही ठिकाने आ गया, और उस ने मां की बात मान ली.

मीनाक्षी सभी को अपने तराजू में तौलती थी. ‘अब खुद भी राजशेखर से विवाह कर के यहां मेरी छाती पर मूंग दलने आ बैठी है,’ सरोजिनी बड़बड़ाई, ‘क्या धरा था इस राजशेखर में? मेरी ननद की मृत्यु के बाद उस से शादी कर के मेरे पड़ोस में आ बैठी. भाई के साथ वाले बंगले में रहने का सपना था सुधा का, पर सालभर भी न रह पाई.’

उस दिन काम करतेकरते सरोजिनी की पुरानी यादों का सिलसिला साथसाथ ही चलता रहा. सरोजिनी की शादी के समय सुधा 2 छोटे बच्चों की मां बन चुकी थी. श्रीनाथ अपनी छोटी बहन को बहुत चाहते थे. हमेशा नजरों के सामने रखना चाहते थे. उस की शादी उन के मित्र से हुई थी. अच्छी जमी थी उन की मंडली. उन दिनों उस मंडली में सरोजिनी के छोटेछोटे भाषणों की भी धूम थी.

3-4 दिन के सिरदर्द ने सुधा को उठा लिया. अच्छे से अच्छे न्यूरोसर्जन भी कुछ न कर पाए. सालभर के बाद मीनाक्षी सुधा का घर संभालने आ पहुंची. ‘देखो बेटी, मीनाक्षी को सहेली और छोटी ननद, दोनों ही समझना,’ मीनाक्षी की मां ने सरोजिनी से कहा था, ‘हमें राजशेखर से अच्छा दामाद कहां मिलेगा? फिर श्रीनाथ यह रिश्ता लाए हैं. वे मीनाक्षी के बड़े भाई की जगह हैं…’

‘भाई की जगह…भाड़ में जाए,’ सरोजिनी ने गुस्से से कड़ाही पटक दी, ‘अच्छा है, भाईबहन के रिश्ते का बुरका… आएदिन साथसाथ घूमना और राजशेखर भी तो अंधा है. मीनाक्षी ने त्याग के नाम पर खरीद लिया है उस को…’ गाड़ी की आवाज आई तो उस ने चुपचाप दरवाजा खोला. सितार उठा कर गुनगुनाते हुए श्रीनाथ अंदर घुसे. ‘‘वाह, कुछ जायकेदार चीज बनी है,’’ उन्होंने सूंघते हुए कहा. फिर बोले, ‘‘क्यों खटती रहती हो चौके में? मेरे साथ हमारी रविवारीय सभा में चलो तो तुम्हें भी कुछ खुली हवा मिले. जानती हो, कमला नगर में एक ‘औरेटर्स और्चर्ड’ नाम की संस्था है, जहां भाषण देने वाले बकबक करने जाते हैं. इतवार के दिन वे भी मिलते हैं…’’‘‘भाड़ में गया तुम्हारा और्चर्ड,’’ थालियां परोसती हुई वह बड़बड़ाई.उस के बाद के सरोजिनी के कुछ दिन बड़ी धूमधाम में कटे. वह घर को सजाती रही, संवारती रही, पकवान बनाने की तैयारियां करती रही.

धनतेरस की शाम को दीए जलाने का समय हुआ तब भी श्रीनाथ का पता न था. धनतेरस को ही सरोजिनी का जन्मदिन था. उस दिन से ही श्रीनाथ दीवाली मनाने लगते थे. अकसर कहा करते थे, ‘भई, हमारी रोशनी का जन्म जिस दिन हुआ उसी दिन से दीवाली मनाई जाएगी.’ मिठाइयां लाते, फूल लाते, पर आज अभी तक उन का पता न था. मुनीअम्मा ने आंगन में सुंदर रंगोली बनाई थी. अगरबत्ती से घर महक रहा था. तभी अचानक 3-4 गाडि़यों के रुकने की आवाज आई. डर कर सरोजिनी ने किवाड़ खोला. सामने श्रीनाथ बड़ा गुलदस्ता लिए खड़े थे और पीछे, हंसतेमुसकराते लोगों की एक टोली थी.

‘‘हम अंदर आ सकते हैं, सरकार?’’ पीछे से मीनाक्षी ने पूछा. वही पुरानी मस्तीभरी आवाज थी.

सरोजिनी ने चाहा, दौड़ कर बंदरिया के गले लग जाए, पर फिर याद आईं ढेर सारी बातें और एक रूखा ‘आओ’ कहती हुई वह कमरे के अंदर हो गई. श्रीनाथ ने बड़े उत्साह से अपनी कलाकार मंडली का परिचय करवाया. मीनाक्षी रसोई में घुस कर चाय बनाने लगी और संगीत के सुरों से वातावरण भर गया. अंत में मीनाक्षी ने एक स्वरचित गाना गाया. उस की आवाज मधुर तो नहीं थी, पर शब्दों में भाव था, गीत सुरीला था इसलिए समां बंध गया.

गीत के बोल थे, ‘सहेली, सहेली… ओ मेरी सहेली, न बन तू पहेली, आ सुना दे, मुझे जो व्यथा तू ने झेली…’

सरेजिनी को पता भी नहीं था कि उस की आंखें बरस रही हैं. सामने बड़ा सा केक रखा था जिस पर उस का नाम लिखा हुआ था.

‘‘आज मैं अपनी पत्नी को सब से प्यारा तोहफा देना चाहता हूं,’’ श्रीनाथ अचानक खड़े हो कर बोलने लगे, ‘‘इस तोहफे के पीछे की कई दौड़धूप का श्रेय मीनाक्षी और राजशेखर को है. अपने ‘औरेटर्स आर्चर्ड’ के लोगों की ओर से आसपास के स्कूलों और कालेजों में भाषणकला को प्रोत्साहन देने के लिए जो गोष्ठीसभा होने वाली है, उस का शिक्षामंत्री उद्घाटन करेंगे. उस समारोह में भाषण देने का काम करेंगी सरोजिनी.’’

तालियों की ध्वनि से कमरा भर गया.

‘‘पता नहीं, मैं कर भी पाऊंगी या नहीं,’’ सरोजिनी के मन का मैल धुलने लगा था. भर्राई आवाज में आत्मविश्वास का अभाव तो नहीं था पर कार्यक्षमता पर कुछ संदेह अवश्य था.

‘‘अभी से अभ्यास शुरू कर दो,’’ मीनाक्षी ने कहा, ‘‘लो, अब उद्घाटन करो. केक काटो, चाय पीओ और शुरू हो जाओ.’’

उस दिन सरोजिनी को पता चला कि प्रतिभा कभी मरती नहीं. राख में दबी चिनगारी की तरह वह छिपी रहती है और समय आने पर निखरती है. आज तक उस ने खुद ईर्ष्या की, नासमझी की, अकारण ही संदेह की राख की परतों के नीचे अपनी कला को दबा कर रखा था. आज उसी के बनाए बंधनों को तोड़ कर उस के प्रियजनों ने उस खोए हुए झरने को पुनर्जीवन का मार्ग दिखाया था. छोटा सा, पर बहुत अच्छा भाषण दे कर सरोजिनी मीनाक्षी की बांहों में लिपट गई. अपना सिर ‘बंदरिया’ के कंधे पर रख कर उस ने अनुभव किया कि सारी गांठें अपनेआप खुल गई हैं. वह फूल सी हलकी हो गई है.

‘‘सभाओं में भाषण देती है पगली,’’ मीनाक्षी धीरेधीरे बोलती रही, ‘‘पर अपने खयालों को हमेशा अपनों से छिपाती रही. अब मुझ से खुल कर बात किया कर. आज जो किवाड़ खुल गया है उसे फिर बंद न होने देना. पता है, कितने वर्षों से दस्तक दे रहे थे हम लोग.’’

सरोजिनी ने आंखें पोंछीं और बचे हुए केक के टुकड़ों में से एक मीनाक्षी के मुंह में ठूंस कर मुसकरा दी. बारिश के बाद की निर्मल धूप जैसी उस हंसी का प्रतिबिंब सभी के मुखों पर थिरक गया.

राहत: श्यामा को क्यों चुबने लगी रूपा

रूपा का पत्र पढ़ कर मन चिंतित हो उठा. वह आ रही है और अभी वेतन प्राप्त होने में 10 दिन शेष हैं. खाली पड़े नाश्ते के डब्बे मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. नाश्ते में मक्खन का प्रयोग कब का बंद हो चुका है. बड़ी तो सब समझती है. वह डबलरोटी पर चटनी, जैम कुछ भी लगा कर काम चला लेती है पर छोटी वसुधा तो गृहस्थी की विवशताओं से अनजान है. वह नित्यप्रति मक्खन के लिए शोर मचाती है. ऐसे में रूपा आ रही है पहली बार नन्हे बच्चे के साथ. पिछली बार आई थी तो 200 रुपए की साड़ी देते कैसी लज्जा ने आ घेरा था. फिर इस बार तो पति व बच्चे के साथ आ रही है. कितना भी कम करूं हजार रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे. सामने रूपा का पत्र नहीं मानो अतीत का पन्ना फड़फड़ा रहा था. पिताजी ईमानदार, वेतनभोगी साधारण सरकारी कर्मचारी थे. जहां उन के सहयोगियों ने जोड़तोड़ लगा कर कार व कोठी खरीद ली वहीं वे अपनी साइकिल से ही संतुष्ट रहे. उन के कनिष्ठ जीहुजूरी व रिश्वत के बल पर पदोन्नति पाते गए जबकि वे हैडक्लर्क की कुरसी से ही जीवनभर चिपके रह गए.

मेरे जन्म के पश्चात जब 5 वर्ष तक घर में कोई और शिशु न जन्मा तो पुत्र लालसा में अंधी मां अंधविश्वासों में पड़ गईं, किंतु इस बार भी उन की गोद में कन्यारत्न ही आया. रूपा के जन्म पर मां किंचित खिन्न थीं. पिता के माथे पर भी चिंता की रेखाएं गहरी हो उठी थीं किंतु मेरी प्रसन्नता की सीमा न थी. मेरा श्यामवर्ण देख कर ही पिता ने मुझे श्यामा नाम दे रखा था. अपने ताम्रवर्णी मुख से कभीकभी मुझे स्वयं ही वितृष्णा हो उठती. मांपिताजी दोनों गोरे थे फिर प्रकृति ने मेरे साथ ही यह कृपणता क्यों की. किंतु रूपा शैशवावस्था से ही सौंदर्य का प्रतिरूप थी. विदेशी गुडि़या सी सुंदर बहन को पा कर मेरी आंखें जुड़ा गईं. उसे देख मेरा प्रकृति के प्रति क्रोध कुछ कम हो जाता, अपने कृष्णवर्ण का दुख मैं भूल जाती. मैं अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आती थी. परंतु बीए के पश्चात मुझे अपनी पढ़ाई से विदा लेनी पड़ी. पिताजी की विवश आंखों ने मुझे प्रतिवाद भी न करने दिया. रूपा अब बड़ी कक्षा में आ रही थी और पिताजी दोनों की शिक्षा का भार उठा सकने में असमर्थ थे. हम जिस मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां कन्या का एकमात्र भविष्य उस का विवाह ही है, इस में भी मेरा श्यामवर्ण आड़े आ रहा था. यहांवहां, भागदौड़ कर के आखिरकार पिताजी ने मेरे लिए एक वर जुटा लिया. प्रभात न केवल एक सरकारी अनुष्ठान में सुपरवाइजर थे वरन उन के पास अपना स्कूटर भी था. जिस का जीवन साइकिल के पहियों से ही घिसटता रहा हो उस के लिए स्कूटर वाला जामाता पा लेना वास्तव में बहुत बड़ी बात थी.

बिना दानदहेज के विवाह संपन्न हो गया. प्रभात सुलझे विचारों के थे. उन के साथ सामंजस्य मुझे कुछ कठिन न लगा. रूपा तो अपने स्कूटरधारी जीजा पर जीजान से कुरबान थी. कभी प्रभात उसे स्कूटर पर चाटपकौड़े खिला लाते तो वह हर्षातिरेक में उछल पड़ती. दिनभर उन्हीं का गुणगान करती. रूपा का आगमन मेरे हृदय में उल्लास का प्रकाश फैला देता. मेरी डेढ़दो सौ रुपए की साडि़यां ही उसे अमूल्य लगतीं. वह बारबार उन्हें छू कर पहनओढ़ कर भी तृप्त न हो पाती. कभी तीजत्योहार पर हम उसे रेशमी सूट सिलवा देते तो उस की निश्छल आंखों में कृतज्ञता के दीप जल उठते. पिता के घर में हम केवल सूती वस्त्र ही पहन पाते थे. पिताजी ने जीवनभर खादी ही पहनी थी. खादी उन का शौक नहीं, विवशता थी. गांधी जयंती पर खादी के वस्त्रों पर विशेष छूट मिलती, तभी पिताजी हमारे लिए सलवार, कुरतों के लिए छींट का कपड़ा लाते. उन्हीं दिनों वे सस्ती चादरें व परदे भी खरीद लिया करते थे. उन के अल्प वेतन में मां की साड़ी कभी न आ पाती. मामा अवश्य कभीकभी मां को बढि़या रेशमी साड़ी दिया करते थे. उन साडि़यों को मां सोने सा सहेज कर रखतीं और विशेष अवसरों पर ही पहनती थीं.

मेरे विवाह पर वर पक्ष ने खालिस सोने के झुमके और हार के साथ 11 साडि़यां दी थीं, जिन्हें देख कर सब प्रसन्न हो उठे. सब ने मां को बारबार बधाई दी और पिताजी से खुशी जाहिर की. मां तो बावरी सी हो उठी थीं. मुझे हृदय से लगा कर कहतीं, ‘कौन कहता है मेरी श्यामा काली है, वह तो हीरा है. तभी तो ऐसा घरवर मिला है,’ सभी मेरी खुशहाली की सराहना करते. प्रभात की निश्चित आय में मेरी गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चल रही थी. मध्यवर्गीय कन्या के स्वप्न भी तो सीमित ही होते हैं. मैं ने कोठी, बंगला, गाड़ी के स्वप्न कहां देखे थे. आशा से अधिक सुख मेरी झोली में आ गिरा था. रूपा को प्रकृति ने सौंदर्य खुले हाथों से बांटा था पर बुद्धि देने में कृपणता दिखा गई. 2 प्रयासों में भी वह बीए न पास कर सकी तो पिताजी हताश हो गए और उस के विवाह के लिए चिंतित रहने लगे. प्रथम प्रयास में ही रूपा का विवाह एक समृद्ध परिवार में तय हो गया. वर पक्ष उस के सौंदर्य पर ऐसा मुग्ध हुआ कि झटपट हीरे जडि़त 2 वलय, रूपा के हाथों में पहना कर मानो उसे आरक्षित कर लिया. वर पक्ष की इस शीघ्रता पर हम दिल खोल कर हंसे भी थे. रूप की कनी कहीं हाथों से न निकल जाए, इसलिए उन्होंने विवाह तुरंत करना चाहा.

अभी तक मैं संपन्न न सही किंतु सुखी अवश्य थी. किराए का ही सही, हमारे पास छोटा सा आरामदेह घर था, प्यार करने वाला पति, अच्छे अंकों से पास होने वाली 2 अनुपम सुंदर बच्चियां. सुखी होने के लिए हमें और क्या चाहिए. परंतु रूपा का विवाह होते ही अचानक मैं बेचारी हो उठी. मां अकसर रूपा के ससुरकुल के वैभव का बखान करतीं, ‘रूपा के पति का पैट्रोल पंप है. ससुर की बसें चलती हैं. उस के 4 मकान हैं,’ आदिआदि. रूपा सुखी है, संपन्न है. इस से अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए और क्या हो सकता है. मैं भी अपने प्रतिवेशियों को रूपा के ससुरकुल की संपन्नता का विवरण दे कर प्रभावित करने का प्रयत्न करती. मौसी का घर कितना बड़ा है. उन के घर कितने नौकर हैं, कितनी गाडि़यां हैं, यह चर्चा अकसर मेरी बेटियां भी करती रहतीं.

पर अब सबकुछ बदलाबदला सा नजर आने लगा था. कल तक प्रभात का स्कूटर ही मेरे पितृकुल के लिए गर्व का विषय था. आज रूपा की विदेशी गाड़ी के समक्ष वह खटारा साबित हो गया. मेरे सोने के झुमके और हार रूपा के हीरेमाणिक जड़े आभूषणों के समक्ष हेय हो उठे. मेरी सिल्क की साडि़यां उस के आयातित वस्त्रों के सामने धूमिल पड़ गईं. कोई भी चमत्कार प्रभात की आय में ऐसी वृद्धि न कर सकता था जिस से हम संपन्नता की चादर खरीद पाते. न हमें कोई खजाना मिलने की आशा थी. बौनेपन का एहसास तभी से मेरे मन में काई की तरह जमने लगा. बेटियां जब अपने घर की तुलना मौसी के बाथरूम के साथ करतीं तो मेरा मन खिन्न हो उठता. मातापिता व इकलौती छोटी बहन का परित्याग भी तो संभव न था कल तक मां गर्वपूर्वक कहती थीं, ‘श्यामा के घर से 11 साडि़यां आई थीं,’ पर अब कहती हैं, ‘बेचारी श्यामा के घर से तो मात्र 11 साडि़यां आई थीं और वे भी एकदम साधारण. रूपा की ससुराल का घर भी बड़ा है और दिल भी. तभी 51 साड़ी चढ़ावे में लाए थे, कोई भी हजार रुपए से कम की न थी.’

पिताजी सब समझते थे पर कुछ न कहते. बस, एक गंभीर मौन उन के चेहरे पर पसरा रहता. ऊंट बहुत ऊंचा होता है पर जब वह पहाड़ के सामने आता है तब उसे अपनी लघुता का ज्ञान होता है. मैं सुखी थी, संतुष्ट थी किंतु रूपा के वैभव की चकाचौंध से मेरी गृहस्थी में शांति न रही. मैं दिनरात आय बढ़ाने के उपाय सोचती रहती. कभी स्वयं नौकरी करने का विचार करती. मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी. प्रभात नाराज और बेटियां सहमी रहने लगीं. अपनी पदावनति से मैं व्यथित थी. जिस घर में मेरा राजकुमारी की तरह स्वागत होता था, मेरे पहुंचते ही हर्ष और उल्लास के फूल खिल उठते थे, वहां अब मेरा अवांछित अतिथि की भांति ठंडा स्वागत होता. तीजत्योहार पर मां मुझे सूती साड़ी ही दे पाती थीं. मैं उसी में प्रसन्न रहती थी. परंतु अब देखती हूं, मां रूपा को कीमती से कीमती साड़ी देने का प्रयत्न करतीं. उस के घर मेवामिष्ठान भेजतीं. फिर मेरी ओर बड़ी निरीहता से निहार कर कहतीं, ‘तू तो समझदार है, फिर तेरे यहां देखने वाला भी कौन है? रूपा तो संयुक्त परिवार में है. उस के घर तो अच्छा भेजना ही पड़ता है,’ मानो वे अपनी सफाई दे रही हों.

प्रभात के आते ही जो मां पहले उन की पसंद का हलवा बनाने बैठ जाती थीं अब अकसर उन्हें केवल चाय का कप थमा देतीं. किंतु रूपा के आते ही घर में तूफान आ जाता. उस की मोटर की ध्वनि सुनते ही मां द्वार की ओर लपकतीं. तब उन का गठिया का दर्द भी भाग जाता. रूपा के पति के आते ही प्रभात का व्यक्तित्व फीका पड़ जाता. कभीकभी तो उन्हें अपनी आधी चाय छोड़ कर ही बाजार नाश्ता लेने जाना पड़ता. स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है किंतु पति की अवमानना उसे स्वीकार नहीं होती. कल तक वे उस घर के ‘हीरो’ थे, आज चरित्र अभिनेता बन गए थे. प्रभात सरल हृदय के हैं. वे इन बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते. रूपा के पति को छोटे भाई सा ही स्नेह देते हैं. उस के लिए कुछ करने में संतुष्टि पाते हैं किंतु मांपिताजी के बदले हुए व्यवहार से मुझे मर्मांतक पीड़ा होती. आज उसी रूपा का पत्र मेरे हाथ में है. वह आ रही है. उस की विदेशी गाड़ी मेरे जीर्णशीर्ण घर के समक्ष कैसी लगेगी? उस के बच्चे को कम से कम 2 सूट तो देने ही पड़ेंगे. पति पहली बार आ रहा है, उसे भी कपड़े देने पड़ेंगे. रूपा को तो वही साड़ी दे दूंगी जो प्रभात मेरे लिए शादी की सालगिरह पर लाए थे. प्रभात से छिपा कर पिछले दिनों मैं ने 2 ट्यूशन किए थे. उस के रुपए अब तक बचा कर रखे हैं. सोचा था, बच्चियों के पढ़ने के लिए मेजकुरसी खरीद लूंगी. परदे बदलने का भी विचार था पर अब सब स्थगित करना पड़ेगा. रूपा का स्वागतसत्कार भली प्रकार हो जाए, वह प्रसन्न मन से वापस चली जाए, यही एक चिंता थी.

संध्या को प्रभात के आने पर रूपा का पत्र दिखाया तो वे प्रसन्न हो उठे. जब मैं ने लेनदेन का प्रश्न उठाया तो बोले, ‘‘क्या छोटीछोटी बातों पर परेशान होती हो. हमारी गृहस्थी में जो है, प्रेम से खिलापिला देना. आज नहीं है तो नहीं देंगे, कल होगा तो अवश्य देंगे, क्या वह दोबारा नहीं आएगी?’’ प्रभात संबंधों की जटिलता नहीं समझते. छोटी बहन को खाली हाथ विदा करने से बड़ी विवशता मेरे लिए अन्य क्या हो सकती है. वे तो बात समाप्त कर के सो गए पर मुझे रातभर चिंता से नींद न आई. 3-4 दिन बीत गए. किसी गाड़ी की ध्वनि सुनाई देती तो हृदय की धड़कन बढ़ जाती. 5वें दिन रूपा का पत्र आया कि वह नहीं आ रही है और मैं ने राहत की सांस ली.

Festive Special: अपने अपने जज्बात- क्या हुआ था खलील साहब के साथ

रात साढ़े 11 बजे मोबाइल बज उठा.

‘‘हैलो, कौन?’’

‘‘जी, मैं खलील, अस्सलाम अलैकुम.’’

‘‘वालेकुम अस्सलाम,’’ उतनी ही गर्मजोशी से मैं ने जवाब दिया, ‘‘जी फरमाइए.’’

‘‘आप बेटी की शादी कब तक करेंगी?’’

‘‘फिलहाल तो वह बीएससी फाइनल की परीक्षा दे रही है. फिर बीएड करेगी. उस के बाद सोचूंगी,’’ इस के बाद दूसरी बातें होती रहीं. जेहन के किसी कोने में बीती बातें याद हो उठीं…

6 सालों से मैं खलील साहब को जानती हूं. खलील साहब रिटायर्ड इंजीनियर थे. अकसर अपनी बीवी के साथ शाम को टहलते हुए मिल जाते. हम तीनों की दोस्ती, दोस्ती का मतलब समझने वाले के लिए जिंदा मिसाल थी और खुद हमारे लिए बायसे फक्र.

हमारी दोस्ती की शुरुआत बड़े ही दिलचस्प अंदाज से हुई थी. मैं खलील साहब की पोती शिबा की क्लासटीचर थी. एक हफ्ते की उस की गैरहाजिरी ने मुझे उस के घर फोन करने को मजबूर किया. दूसरे दिन बच्ची के दादादादी यानी खलील साहब और उन की बेगम क्लास के सामने खड़े थे. देख कर पलभर के लिए मुझे हंसी आ गई. याद आ गया जब मैं स्कूल जाने लगी तो मेरे दादाजान पूरे 5 घंटे कभी स्कूल के कैंपस के चक्कर लगाते, कभी पीपल के साए तले गजलों की किताब पढ़ते.

दादी शिबा को बैग थमा कर क्लास में बैठने के लिए कह रही थीं लेकिन वह दादा की पैंट की जेब से चौकलेट निकाल रही थी.

‘बुखार, सर्दी, खांसी हो गई थी. इस वजह से हम ने शिबा को स्कूल नहीं भेजा था,’ दादी का प्यार टपटप टपक रहा था.

‘आज शाम आप क्या कर रही हैं?’ खलील साहब ने मुसकरा कर पूछा.

‘जी, कुछ खास नहीं,’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘तो फिर हमारे गरीबखाने पर आने की जहमत कीजिए न. आप की स्टूडैंट का बर्थडे है,’ बेगम खलील की मीठी जबान ने आकर्षित किया.

इस मुलाकात के बाद पिछले 6 सालों में हमारे बीच स्नेह की ढेरों कडि़यां जोड़ती चली गई हर एक मुलाकात.

खलील साहब अपने तीनों बेटों के पास 4-4 महीने रह कर रिटायर्ड लाइफ का पूरा मजा लेते हुए उन के बच्चों के साथ खेल कर खुद को नौजवान महसूस करते थे. वे अपनी बेगम से सिर्फ नींद के वक्त ही अलग होते बाकी का वक्त बेगम के आसपास रह कर गुजारते. दो जिस्म एक जां. पूरे 34 साल का लंबा दुर्गम जिंदगी का सफर तय करते हुए दोनों एकदूसरे की रगरग में समा गए थे. शीरीफरहाद, लैलामजनू जैसे जाने कितने नामों से उन की मुहब्बत पुकारी जाती.

जब भी शिबा के घर आते, उन दोनों की हर शाम मेरे नाम होती. बहुआयामी शख्सीयत के मालिक खलील साहब शायरी, गणित, सियासत, इंसानी जज्बात की बारीकी, फिल्म, क्रिकेट और न जाने किनकिन विषयों पर बातें करते. शाम की चाय के बाद मिशन रोड से वर्कशौप तक की सैर हमें एकदूसरे को नजदीक से समझने के मौके देती. रास्ते के किनारे लगे अमलतास और गुलमोहर के फूल भी हवा के साथ झूमते हुए हमारे बेबाक ठहाकों में शामिल होते.

‘मैडम, आप की खामोशमिजाजी और सोचसोच कर धीमेधीमे बोलने का अंदाज मैं भी सीखना चाहती हूं,’ हर वक्त बोलने वाली बेगम खलील फरमातीं तो मैं सकुचा जाती.

‘आप क्यों मुझे शर्मिंदा कर रही हैं. मैं तो खुद आप की खुशमिजाजी और खलील साहब से आप की बेपनाह मुहब्बत, आप का समझौतावादी मिजाज देख कर आप की कायल हो गई हूं. किताबी इल्म डिगरियां देता है मगर दुनियाबी इल्म ही इंसानी सोच की महीन सी झीनीझीनी चादर बुनना सिखा सकता है.’

मेरी ये बातें सुन कर बेगम खलील मुझे गले लगा कर बोलीं, ‘सच शम्मी, खलील साहब के बाद तुम ने मुझे समझा. बहुत शुक्रगुजार हूं तुम्हारी.’

पूरे 4 साल इसी तरह मिलतेजुलते, मुहब्बतें लुटाते कब बीत गए, पता ही नहीं चला. वक्त ने खलील दंपती के साथ दोस्ती का तोहफा मेरी झोली में डाल दिया जिस की खुशबू से मैं हर वक्त खुशी से भरीभरी रहती.

उस दिन पौधों को पानी देने के लिए बगीचे में जा रही थी कि शिबा के अब्बू को बदहवासी से गेट खेलते पाया. उन का धुआंधुआं चेहरा देख कर किसी अनहोनी की आशंका होने लगी. मुझे देखते ही वे भरभरा कर ढह से गए. मुश्किल से उन के हलक से निकला, ‘मैडम, अम्माजान…’

यकीन नहीं आया, पिछले हफ्ते ही तो खलील साहब के साथ जबलपुर गई थीं, एकदम तंदुरुस्त, हट्टीकट्टी.

दर्द और आंसुओं के साए में पूरे 40 दिन बिता कर शिबा के अब्बू खलील साहब को अपने साथ ले आए थे. मुझ में हिम्मत नहीं थी कि मैं उन का सामना कर सकूं. दो हंस मोती चुगते हुए, अचानक एक हंस छटपटा कर दम तोड़ दे तो दूसरा…पत्थर, आंखें पत्थर. आंसू पत्थर, आहें पत्थर इस भूचाल को कैसे झेल पाएंगे खलील साहब? पिछले 35 साल एक लमहा जिस के बिना नहीं गुजरा, उस से हमेशा के लिए जुदाई कैसे सहेंगे वे?

खलील साहब से सामना हुआ, आंसू सूखे, शब्द गुम, आवाज बंद. पहाड़ से हट्टेकट्टे शख्स 40 दिनों में ही बरसों के बीमार लगने लगे. दाढ़ी और भौंहों के बाल झक सफेद हो गए थे. कमर से 45 डिगरी झुक गए थे. पपड़ाए होंठों पर फैला लंबी खामोशी का सन्नाटा. कुछ कहने और सुनने के लिए बाकी नहीं रहा था. काफी देर तक मैं खलील साहब को दर्द की भट्ठी में चुपचाप, बेबसी से जलता हुआ देखती रही.

स्कूल से लौटते हुए रोज खलील साहब की खैरियत जानने के लिए शिबा के घर जाना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया. सिनेमा, टीवी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले खलील साहब पाबंदी से इबादत करने लगे थे. मुझे देख कर बरामदे में आ कर बैठते, चुप, बिलकुल चुप.

महीनों बाद खलील साहब ने धीरेधीरे मरहूम बीवी की खूबसूरत यादों की किताब का एकएक सफा खोलना शुरू किया. गुजरे हसीन लमहों की यादें, उन की आंखों में समंदर उतार लातीं, कतराकतरा दाढ़ी भरे गालों से फिसल कर सफेद झक कुरते का दामन भिगोने लगते. शिबा की अम्मी कौफी का प्याला थमाते हुए याचनाभरी निगाहों से मुझे देखतीं, ‘आंटी, आप प्लीज रोज आया कीजिए. अब्बू अम्मी की जुदाई का गम बरदाश्त नहीं कर पाए तो…’

अब खलील साहब पोती को छोड़ने के लिए स्कूल आने लगे थे. दोपहर को बाजार भी हो आते और कभीकभी किचन के काम में हाथ बंटाने लगे थे बहू का. शिबा के अब्बू रोज शाम अपने अब्बू को टहलने के लिए साथ ले जाया करते.

उस दिन स्कूल बंद होने से शिबा की अम्मी का फोन आया, ‘मैडम, स्कूल छूटते ही घर आइएगा, प्लीज.’

‘मगर क्यों?’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘आज सुबह से अब्बू बिस्तर पर पड़ेपड़े रो रहे हैं.’

‘क्यों रो रहे हैं?’

‘आज पूरे 3 महीने हो गए अम्मी की मृत्यु को.’

‘ओह,’ आज का दिन खलील साहब के लिए काफी गमगीन साबित हो रहा होगा.

घर जा कर मैं ने धीरे से आवाज लगाई, ‘खलील साहब,’ मेरी आवाज सुन कर थोड़ा सा कसमसाए, फिर मेरा खयाल करते हुए उठ कर बैठने की कोशिश करने लगे. मैं ने उन्हें थाम कर फिर लिटा दिया और उन के पास बैठ गई. बिस्तर की सिलवटें खलील साहब की बेचैनी की दास्तान बयान कर रही थीं. सफेद झक तकिए पर आंसुओं के निशान वफादारी की गजल लिख गए थे. मुझे देखते ही बेसाख्ता रो पड़े खलील साहब. मैं ने धीरे से उन के पैरों पर हथेली रख कर कहा, ‘खलील साहब, आप मर्द हो कर बीवी की याद में इतना रो रहे हैं. मुझे देखिए, मैं औरत हो कर भी अपनी पलकें भिगोने की सोच भी नहीं सकी.’

‘तो क्या आप के शौहर…?’

‘जी, 5 साल हो गए.’

‘लेकिन आप ने पहले कभी बताया नहीं.’

‘जी, मैं आप के मुहब्बतभरे सुनहरे पलों को अपना गमगीन किस्सा सुना कर बरबाद नहीं करना चाहती थी. शौहर ने 2 बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ी है. उस को पूरा करने की जद्दोजहद में मैं अपने अकेले होने के दर्द को आंखों के रास्ते भी न बहा सकी. कितना मुश्किल होता है खलील साहब, खुद पर काबू रख कर बच्चों के आंसू पोंछना. घर की हर चीज में उन का साया नजर आता है, उन का वजूद हर वक्त मेरे आसपास रहता है. कैसे खुद को बहलाती हूं, यह मेरा दिल ही जानता है. अगर मैं भी आप की तरह रोती रहती तो क्या नौकरी, घर, और बच्चों की जिम्मेदारी उठा पाती? कितनी मुश्किल से उन के बगैर जीने का हौसला बनाया है मैं ने, खलील साहब,’ शौहर की जुदाई का दर्द मेरी आंखों में समा गया.

खलील साहब बिस्तर पर ही टिक कर बैठ गए और मुझे अपलक हैरतभरी निगाहों से देखते रहे.

धीरेधीरे हिम्मत कर के उठे, मेरे सिर पर हाथ रखा और बाथरूम की तरफ बढ़ गए. बाथरूम में से निकले तो बाहर जाने के लिए तैयार थे. मैं ने दिल ही दिल में       राहत की सांस ली और अपने घर की तरफ जाने वाली सड़क की तरफ मुड़ गई.

दूसरे का दर्द कम करने की इंसान पूरी कोशिश करता है, हमदर्दीभरे शब्द दूसरों से नजदीकियां बढ़ा देते हैं मगर वह खुद अपने से दूर चला जाता है. पिछले कई महीनों से मैं बिलकुल भूल गई थी कि शौहर की असामयिक मौत, 2 बच्चों की पूरी जिम्मेदारी, दूसरी जरूरतों की लंबी फेहरिस्त मेरी छोटी सी तनख्वाह कैसे पूरी कर पाएगी. मेरे आत्मविश्वास का पहाड़ धीरेधीरे पिघल रहा था मेरी मजबूरियों की आंच में. कैसे सामना कर सकूंगी अकेली जीवन के इस भीषण झंझावात का. पके फोड़े पर कोई सूई चुभा दे, सारा मवाद बाहर आ जाए. ऐसा कोई शख्स नहीं था मेरे आसपास जिस के सामने बैठ कर अपने अंदर उठते तूफान का जिक्र कर के राहत महसूस करती. मेरे साथ थी तो बस बेबसी, घुटन, छटपटाहट और समाज की नजरों में अपनी खुद्दारी व अहं को सब से ऊपर रखने के लिए जबरदस्ती होंठों से चिपकाई लंबी चुप्पी.

खलील साहब की स्थिति मुझ से बेहतर है. कम से कम अपनी शरीकेहयात की जुदाई का दर्द वे रिश्तेदारों, दोस्तों के सामने बयान कर के अपनी घुटन और चुभन को कम तो कर लेते हैं. मैं कहां जाती? बस, तिलतिल कर यों ही रात के वीराने में चुपचाप जलना मेरी मजबूरी है.

खलील साहब अब सामान्य होने लगे थे. पैंशन के सिलसिले में उन्हें जबलपुर वापस जाना पड़ा. अकसर फोन पर बातें होती रहतीं. अब उन की आवाज में उमड़ते बादलों का कंपन नहीं था, बल्कि हवाओं की ठंडक सा ठहराव था. जान कर सुकून मिला कि अब उन्होंने लिखनापढ़ना, दोस्तों से मिलनाजुलना भी शुरू कर दिया है.

कुछ दिनों के बाद शिबा के अब्बू का ट्रांसफर आगरा हो गया. मैं अपनी जिम्मेदारियों में उलझी बीमार रहने लगी थी. चैकअप के लिए आगरा गई तो स्टेशन पर शिबा के अब्बू से मुलाकात हो गई. इच्छा जाहिर कर के वे मुझे अपने घर ले गए. शिबा मुझ से लिपट गई और जल्दीजल्दी अपनी प्रोग्रैस रिपोर्ट और नई बनाई गई ड्राईंग, नई खरीदी गई जींस टौप, दिखाने लगी. सर्दी की शामों में सूरज बहुत जल्दी क्षितिज में समा जाता है. मैं वापसी की तैयारी कर रही थी कि कौलबैल बज उठी, दरवाजा खुला तो एक बेलौस ठहाका सर्द हवा के झोंके के साथ कमरे में घुस आया. खलील साहब कोटपैंट और मफलर में लदेफंदे आंखों पर फोटोक्रोमिक फ्रेम का चश्मा लगाए सूटकेस लिए दरवाजे के बीचोंबीच खड़े थे.

‘ओ हो, खलील साहब, आप तो बहुत स्मार्ट लग रहे हैं,’ मेरे मुंह से एकाएक निकल गया.

यह सुन कर शिबा की मम्मी होंठों ही होंठों में मुसकराईं.

‘आप की तबीयत खराब है और आप ने खबर तक नहीं दी. यह तो दोस्ताना रिश्तों की तौहीन है,’ खलील साहब ने अधिकारपूर्वक कहा.

‘खलील साहब, यह दर्द, यह बीमारी, बस यही तो मेरी अपनी है. इसे भी बांट दूंगी तो मेरे पास क्या रह जाएगा जीने के लिए,’ मैं कहते हुए हंस पड़ी लेकिन खलील साहब गंभीर हो गए.

स्टेशन तक छोड़ने के लिए खलील साहब भी आए. स्वभावतया बच्चों की पढ़ाई और दूसरे मसलों पर बात करने लगे. ट्रेन आने का एनाउंसमैंट होते ही कुछ बेचैन नजर आने लगे.

‘मैडम, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं, मगर न तो शब्द साथ दे रहे हैं, न जबान.’

‘65 साल के व्यक्ति को अपनी बात कहने में झिझक हो रही है,’ मैं हंस पड़ी.

ट्रेन आ गई, सामान रख कर मैं खिड़की से टिकी.

‘आप मुझ से शादी करेंगी?’

यह सुन कर क्षणभर को मैं अवाक् रह गई पर उन के मजाकिया स्वभाव से चिरपरिचित होने के कारण बेतहाशा हंस पड़ी. ट्रेन चल पड़ी और मुझे हंसता देख खलील साहब के चेहरे का रंग उड़ने लगा. ट्रेन ने प्लेटफौर्म छोड़ दिया मगर खलील साहब देर तक खड़े हाथ हिलाते रहे. खलील साहब के प्रपोजल को मैं ने मजाक में लिया.

आगरा से लौट कर मैं व्यस्त हो गई और खलील साहब के प्रपोजल को लगभग भूल ही गई. इस बीच, बेटे की नौकरी लग गई और बेटी ग्रेजुएशन करने लगी.

आज खलील साहब के टैलीफोन ने ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंका. बीते वक्त की सब परतें खुल कर सामने आ गईं. उन की खनकती आवाज फिर मेरे कानों के रास्ते जेहन को खुरचने लगी.

‘‘ये तो बहुत लंबा वक्त हो जाएगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘दरअसल, आप ने कहा था कि मैं लिखनेपढ़ने में दिल लगाऊं. मैं ने मैथ्स का एक पेपर तैयार कर के अमेरिका भेजा था. वह सलैक्ट हो गया है. मुझे अमेरिका बुलाया गया है कौन्फ्रैंस में पेपर पढ़ने के लिए. मैं ने अपने साथ आप का नाम भी दे दिया है वीजा के लिए.’’

‘‘लेकिन मैं आप के साथ कैसे जा सकती हूं और आप ने अपने साथ मेरा नाम क्यों दिया?’’ मैं बौखलाई.

‘‘बाकायदा शादी कर के, लीगल तरीके से,’’ उन की आवाज में वही बर्फानी ठंडक थी.

मगर मेरे जेहन में अलाव दहकने लगे. उम्र के आखिरी पड़ाव में खलील साहब को शादी की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्या जिस्मानी जरूरत के लिए? या किसी महिला के साथ दुखसुख बांटने के लिए? या बच्चों के तल्ख रवैये से खुद को अलग कर सहारा तलाशने के लिए? या तनहाई की सुलगती भट्ठी की आंच से खुद को बचाने के लिए? किसलिए शादी करना चाहते हैं? हजारों सवाल एकदूसरे में गुत्थमगुत्था होने लगे.

‘‘माफ कीजिएगा खलील साहब, अभी मेरी जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुईं.’’

‘‘मैं यही तो चाहता हूं कि आप की तमाम जिम्मेदारियां, तमाम फर्ज हम दोनों साथ मिल कर निभाएं.’’

‘‘लेकिन खलील साहब, जिंदगी के 25 साल तनहा रह कर सारी मुसीबतें झेली हैं. इस उम्र में शादी का फैसला मुझे समाज में रहने लायक न छोड़ेगा.’’

‘‘आप जैसी बोल्ड लेडी समाज और बच्चों से डरती हैं. जिम्मेदारी की आड़ में अपनी जरूरतों, अपनी ख्वाहिशों का हर पल गला घोंटती हैं. क्यों कतरा रही हैं आप अपनेआप से?’’ खलील साहब की आवाज में चुनौती की तीखी चुभन थी, ‘‘मेरा फैसला गलत नहीं है, मैडम, आप ऐसा कह कर मेरे जज्बातों का मजाक उड़ा रही हैं,’’ उन की आवाज का खुरदरापन मुझे छीलने लगा.

‘‘खलील साहब, अगर आप इजाजत दें तो मैं किसी जरूरतमंद खातून की तलाश करूं जो हर लिहाज से आप के माकूल हो?’’

‘‘दूसरी खातून क्यों? आप क्यों नहीं?’’ मेरी बीवी की मौत से पहले और मौत के बाद आप ने मुझे जितना समझा उतना एक गैर औरत समझ पाएगी भला?’’

‘‘लेकिन आप मुझे नहीं समझ पाए, खलील साहब. मैं जानती हूं आप किसी से भी निकाह कर लें आप कभी भी उसे अपनी पहली बीवी का मकाम नहीं दे पाएंगे. उस की खासीयत में आप अपनी पहली बीवी की खूबियां ढूंढ़ेंगे. नहीं मिलने पर उस की खूबियां भी आप को कमियां लगेंगी. जरूरत की मजबूरी में किसी के साथ दिन गुजारना और सहज रूप से बगर्ज हो कर किसी के साथ जिंदगी बिताने में बड़ा फर्क होता है. और जिंदगी के उतारचढ़ाव, हालात के थपेड़ों ने मुझ में इतना ठहराव, हिम्मत और हौसला भर दिया है कि अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं, बल्कि मैं अपने चांदी होते बालों का तजरबा बांट कर टूटे हुए लोगों को संबल दे कर सुकून हासिल करना  चाहती हूं. मैं ने अपनी जरूरतों को खुद पर हावी नहीं होने दिया, मैं जिंदगी को अकेले ही खुशगवार बनाने के लिए सांस के आखिरी लमहे तक कोशिशमंद रहूंगी.’’

‘‘आप की यह सोच ही तो मेरे दिलोदिमाग के अंधेरे को मिटा कर मुझे रोशनी देगी. जिंदगी के कुछ बचे लमहों को किसी मकसद के लिए जीने की राह दिखाएगी. मैं अब अपने लिए नहीं आप के और आप के बच्चों के लिए जीना चाहता हूं, क्या अब भी आप का जवाब नहीं में होगा?’’

‘‘यकीनन, न में होगा, खलील साहब, मैं आप के खयालात की कद्र करती हूं, आप के जज्बातों का दिल से एहतराम करती हूं मगर दोस्त की हैसियत से. दुनिया के तमाम रिश्तों से अफजल दोस्ती का निस्वार्थ रिश्ता हमारी सांसों को खुशनुमा जिंदगी की महक से भर देगा और हमें टूटे, बिखरे, भटके लोगों को जिंदगी के करीब लाने की कोशिश करने का हौसला देगा.’’

दूसरी तरफ से खलील साहब की हिचकियों की मद्धम आवाज सीने में उतरती चली गई और मैं ने मोबाइल बंद कर के बोतलभर पानी गटगट कलेजे में उतार लिया.

क्या मर्द इतना निरीह, इतना कमजोर हो जाता है. पैदा होने से ले कर मरने तक मां, बहन, बीवी, बेटी के सहारे अपने दर्दोगम भुलाना चाहता है. क्यों नहीं जी सकता अपनी पूरी संपूर्णता के सहारे, अकेले.

6 महीने के बाद शिबा के पापा का फोन आया था, उन के शब्द थे कि अब्बू की दिनचर्चा ही बदल गई है. दिन के वक्त चैरिटी स्कूल में पढ़ाते हैं, शाम को मरीजों की खैरियत पूछने अस्पताल जाते हैं और दोपहर को एक वृद्धाश्रम की बिल्ंिडग बनवाने की कार्यवाही पूरी करने में गुजारते हैं.

Festive Special: रिटायर्ड आदमी- क्या था आलोक के जीवन का सच

‘‘सुनो, दीदी का फोन आया  था,’’ पति को चाय का प्याला पकड़ाते हुए प्रतिभा ने सूचना दी.

‘‘क्या कह रही थीं? कोई खास बात?’’ आलोक ने अपनी दृष्टि प्रतिभा के चेहरे पर गड़ा दी.

‘‘कुछ नहीं, यों ही परेशान थीं, बेचारी. अब देखो न, 5 वर्ष रह गए हैं जीजाजी को रिटायर होने में, अब तक न कोई मकान खरीदा है न ही प्लौट लिया है. अपनेआप को वैसे तो जीजाजी बुद्धिमान समझते हैं पर देखो तो, कितनी बड़ी बेवकूफी की है उन्होंने,’’ कहते हुए प्रतिभा ने ठंडी सांस भरी.

‘‘5 साल कहां होंगे उन की सेवानिवृत्ति में, 3 वर्ष बचे होंगे. वे तो मुझ से बड़े हैं. 4 वर्ष बाद तो मैं भी रिटायर हो जाऊंगा.’’

आलोक की बात सुन कर प्रतिभा हैरान रह गई. पति के कथन पर विश्वास नहीं हुआ था उसे. हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘सच कह रहे हो? 4 वर्ष बाद रिटायर हो जाओगे?’’

‘‘हां भई, ठीक 4 साल बाद,’’ आलोक निश्ंिचत हो कर चाय पीते रहे.

प्रतिभा को तो जैसे सांप सूंघ गया था. ऐसा कैसे हो सकता है? 4 वर्ष बाद आलोक घर में होंगे. आलोक जैसा चुस्त व्यक्ति निष्क्रिय घर पर कैसे बैठ सकता है? इतनी व्यस्त दिनचर्या के बाद एकाएक जब इंसान के पास कुछ भी करने को नहीं रह जाता तो वह कुंठाग्रस्त हो जाता है. कुंठा, तनाव को जन्म देगी और तनाव क्रोध को, फिर क्या होगा?

आलोक को वहीं छोड़ कर वह अनमनी सी रसोई की ओर चल दी. आया खाना पका रही थी. उस का पति रामदीन चटनी पीस रहा था. हमेशा प्रतिभा आया को बीचबीच में निर्देश देती रहती थी, पर अब वह चुपचाप उन्हें काम करते देखती रही. कुछ भी कहने को जी नहीं किया. सोचने लगी, ‘वैसे भी 4 साल बाद यह बंगला कहां होगा. जब बंगला नहीं होगा तो नौकरों के क्वार्टर और गैरेज भी नहीं होंगे. फिर ये नौकर, आया भी कहां. अब तो धीरेधीरे उसे हर नई परिस्थिति को झेलने के लिए अभ्यस्त होते जाना चाहिए.’

आलोक निदेशक के पद पर कार्यरत थे. खासी आय थी उन की. सरकार की तरफ से इंडिया गेट के पास ही उन्हें यह घर रहने के लिए मिला हुआ था. दोनों बेटे विशाल और कपिल इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहे थे.

इतने बड़े घर में अकेले बैठेबैठे प्रतिभा बोर हो जाती थी. काम करने के लिए आया और उस का पति था ही. यहां आसपास के सभी अफसर नौकरों के क्वार्टर किराए पर दे देते थे. वे लोग बड़ी ही तल्लीनता से साहब लोगों का काम कर देते थे और अफसरों की बीवियां क्लबों व किटी पार्टियों में अपना समय बिताती थीं. यही दिनचर्या प्रतिभा की भी थी. इतने बड़े बगीचे में उस ने सब्जियां और फूल भी लगवा दिए थे. कभीकभार सरकारी माली आ कर पौधों की देखभाल कर जाता. निगरानी के लिए तो रामदीन था ही. कुल मिला कर बड़ी खुशगवार जिंदगी थी.

रात का खाना मेज पर सजा हुआ था. आलोक टीवी पर अंगरेजी फिल्म देख रहे थे. थोड़ी देर के अंतराल के बाद वे हंस भी पड़ते थे, शायद कोई हास्य फिल्म थी.

प्रतिभा एकटक पति का चेहरा निहार रही थी. कैसा विचित्र स्वभाव पाया है इन्होंने? कोई और होता तो हर समय तनावग्रस्त रहता. 4 वर्ष तो ऐसे ही गुजर जाएंगे. दिन बीतते क्या पता चलता है. फिर क्या करेंगे ये? भविष्य के बारे में कोई योजना भी बनाई है या यों ही हाथ पर हाथ धर कर बैठने का इरादा है. वैसे जिस पद पर ये हैं और जो अनुभव इन के पास हैं उस से तो रिटायर होने के बाद काम मिल जाना चाहिए लेकिन एक पुछल्ले के समान ‘रिटायर’ शब्द तो जुड़ ही जाता है इंसान के साथ.

‘‘प्रतिभा, खाना ठंडा हो रहा है. आओ भई, बड़ी जोर की भूख लगी है.’’

आलोक ने पुकारा तो वह चौंक उठी.

लेकिन उसे भूख महसूस नहीं हो रही थी. पति को खाना परोस कर वह सोफे पर अधलेटी सी हो गई. एक बार फिर विचारों की दुनिया में उतर गई, ‘दीदी का तो मकान ही नहीं बना है न, कम से कम बच्चे तो व्यवस्थित हो चुके हैं. बिटिया नेहा का पिछले वर्ष ब्याह कर दिया था उन्होंने. बेटा डाक्टर बन गया है.

‘पिता सेवारत हों तो ब्याह का समारोह भी कितना भव्य होता है. जीजाजी उत्तर प्रदेश में सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता हैं. लाखों का दहेज दिया था बिटिया को. किसी ठेकेदार ने फर्नीचर उपहारस्वरूप भिजवा दिया था तो किसी ने पंडाल और हलवाई का खर्चा अपने जिम्मे ले लिया था. दीदी 5 तोले का नैकलेस पहने कैसी ऐंठी घूम रही थीं.

‘इसी वर्ष आलोक के सहयोगी निदेशक ने भी तो पांचसितारा होटल में बेटे का ब्याह किया था. उन के पद के अनुसार लोग भी आए थे. उपहारों के ढेर देख कर तो सब अचंभित ही रह गए थे. अब मकान नहीं है दीदी का तो क्या हुआ, पैसा तो है. कुछ समय तक किराए के मकान में रह कर अपना मकान खरीद लेंगे.

‘पर हमारे तो बच्चे ही अभी मंझधार में हैं. बड़ा बेटा अभी इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष में है और छोटा तो मात्र इसी वर्ष कालेज में पहुंचा है. कितने आराम से रह रहे हैं सब. जितना मांगा, जो मांगा, पिता बिना पूछे ही दे देते हैं. चलो, मान भी लें कि अगले वर्ष तक कपिल इंजीनियर बन जाएगा, लेकिन विशाल को तो 3 वर्ष और वहां रहना है. अवकाशप्राप्ति के बाद क्या वे पिता से अधिकार जता कर पैसे मांग सकेंगे? शायद नहीं.

‘मैं ने तो कल्पना के मोतियों को पिरो कर स्वप्निल संसार सजाया था. दोनों बेटों के पास अपनीअपनी गाडि़यां होंगी. पति दफ्तर की गाड़ी में चले जाएंगे तो भी उस की अपनी गाड़ी गैरेज में रहेगी. ससुर काम पर जाते हों तो सास का भी खासा रुतबा रहता है. एक बार बेटों ने कमाना शुरू कर दिया तो अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होती जाएगी. हम बच्चों पर निर्भर नहीं रहेंगे, बच्चे हम पर निर्भर नहीं रहेंगे. वैसे भी ससुर का घर पर रहना बहुओं को कहां भाता है.’

सहसा उसे लगा जैसे उस ने कोई रंगीन सपना देखा था. ताश के पत्तों से बना महल पति के एक कथन से ही धराशायी हो गया था.

आलोक न जाने कितनी देर से नींद के आगोश में कैद हो चुके थे पर प्रतिभा की आंखों में नींद कहां थी. सोचने लगी, ‘कैसी मीठी नींद सो रहे हैं. क्यों न सोएं, वे तो मानसिक रूप से तैयार ही होंगे इस स्थिति के लिए. दफ्तर में न जाने कितने लोगों को रिटायर होते देखते ही होंगे. कई बार विदाई समारोहों में भाग भी लिया होगा. इन के लिए विचलित होने जैसी कोई बात नहीं है. कितना बुरा समाचार सुनाया आज आलोक ने.’

दूसरे दिन सुबह पति के जागने से पहले ही वह उठ गई थी. वैसे जब तक आया उठती, वे दोनों सुबह की सैर से लौट चुके होते थे. प्रतिभा को चाय की ट्रे लाते हुए आलोक ने देखा तो वे चौंक उठे. पूछा, ‘‘आज आया नहीं आई? तुम क्यों चाय बना कर ले आईं?’’

‘‘यों ही, घर के काम की आदत पड़नी चाहिए.’’

‘‘तुम्हारी सुबह की सैर का क्या होगा?’’ उन्होंने शरारत से पूछा, पर वह बात को टाल गई.

लेकिन सोचने लगी कि अब सब काम करना ही पड़ेगा. धीरेधीरे ही तो आदत पड़ेगी. सोचने को सोच तो गई थी, पर उस की आंखों से आंसू टपक पड़े थे. निढाल सी कुरसी पर बैठ गई थी. न जाने आलोक कब तैयार हुए, कब नाश्ता खाया और कब दफ्तर के लिए चल पड़े, उसे पता ही नहीं चला. वह तो उन की आवाज सुन कर चौंकी थी. वे कह रहे थे, ‘‘प्रतिभा, तुम्हें कहीं जाना तो नहीं है? जाना हो तो गाड़ी भिजवा दूं?’’

गयादीन ड्राइवर सफेद वरदी पहने साहब का ब्रीफकेस हाथ में पकड़े हुए था. प्रतिभा ने सोचा, ‘आलोक अपना ब्रीफकेस खुद क्यों नहीं पकड़ लेते? और गाड़ी के लिए क्यों पूछ रहे हैं. उसे क्या पैदल चलना नहीं आता? वैसे बसें तो सड़कों पर रेंगती ही हैं,’ लगा, तनाव से उस के माथे की नसें फट जाएंगी. प्रत्यक्ष में उस ने दोटूक सा उत्तर दिया, ‘‘कहीं नहीं जाना है.’’

‘‘जाना चाहो तो फोन कर देना, गाड़ी भिजवा दूंगा.’’

उस ने गरदन हिला दी. आलोक चले गए तो लगा, कुछ काम निबटा दें. आलू छीलने बैठी तो रक्त की धारा बह निकली. कितने वर्षों से सब्जी काटी कहां थी. दर्द के मारे चीख निकल पड़ी.

मां की आवाज सुन कर बड़ा बेटा कपिल दौड़ा हुआ आया. वह छुट्टियों में घर आया हुआ था. चौंक कर बोला, ‘‘आप क्यों सब्जी काट रही थीं, मां? आया कहां है?’’

‘‘आया यहीं है. अब कुछ समय बाद सब काम करना ही पड़ेगा. सोचा, अभी से थोड़ीथोड़ी आदत डाल लेनी चाहिए,’’ वह बोली.

‘‘क्या मतलब?’’

4 वर्ष बाद तुम्हारे पिता रिटायर हो जाएंगे,’’ प्रतिभा को लगा, मन का बोझ बेटे के साथ बांट ले. बेटों की शिक्षा से ले कर नौकरी तक और उन के विवाह के जो भी सपने उस ने संजोए थे, बेटे को ज्यों के त्यों बता दिए. लगा, बेटा कुछ तो सहानुभूति दिखाएगा.

पर वहां तो प्रतिक्रिया ऐसी हुई कि बेटे को ही संभाल पाना मुश्किल हो गया था. रोंआसा सा कपिल मां पर झल्लाने लगा, ‘‘तुम्हें हमारे विवाह की चिंता हो रही है, पर यह तो सोचो कि हमारे भविष्य का क्या होगा? पिताजी तो इंटरव्यू बोर्ड में बैठने वाले किसी न किसी सदस्य को जानते ही होंगे. बिना सिफारिश के अच्छी नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है, मां.’’

कपिल घर के बाहर चला गया. बात सौ फीसदी सही थी. वह सोचने लगी, ‘आलोक मिलनसार व्यक्ति हैं. इस पद पर उन के संबंध भी काफी बने हुए हैं. न जाने कितने लोगों ने उन के माध्यम से अच्छे पदों को पाया होगा. आज अपने बच्चों का समय आया तो कौन पूछेगा? उसे रहरह कर खुद पर भी क्रोध आने लगा था. जीवन के इस कड़वे सच की ओर उस का ध्यान क्यों नहीं गया.’

शाम को दफ्तर से आलोक हंसते हुए आए, चाय पी और टैनिस खेलने चले गए. उस ने तो 2 दिन से ढंग से खाना भी नहीं खाया था. ऐसा लग रहा था जैसे गश खा कर गिर पड़ेगी.

पति बाहर गए. बेटा दोस्तों के पास चला गया तो पुराने अलबम निकाल कर देखने लगी. गोलमटोल, थुलथुल से प्यारे बच्चे अब जवान हो गए थे. पिछले वर्ष का एक फोटो उस के हाथ लग गया. नजर आलोक के चेहरे पर अटक कर रह गई. सुंदर, सजीले, चुस्तदुरुस्त, कहीं भी उम्र की परतों का प्रभाव नहीं था.

अचानक उस की कल्पना में जर्जर, कमजोर से आलोक दिखाई दिए. उन पर क्रोध सा आ गया. क्या जरूरत थी, इतनी देर में ब्याह करने की? ब्याह देर से किया तो बच्चे भी देर से हुए. अब भुगतें खुद भी और हमें भी दुखी करें. कितना बुद्धिमान समझते हैं खुद को, हर काम योजनाबद्ध तरीके से करने का बखान करते हैं और अपना जीवन ही ढंग से जी नहीं पाए. अपनी ममेरी, फुफेरी, चचेरी बहनें एकएक कर याद आ गई थीं. वे सब दादी, नानी बन चुकी हैं और उन के पति अभी तक कार्यरत हैं. और एक वह है जो…

खाने की मेज पर प्रतिभा गुमसुम बैठी थी. अचानक आलोक का ध्यान उस के चेहरे की तरफ चला गया. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो, प्रतिभा?’’

‘‘कुछ नहीं. सोच रही हूं 4 साल बाद क्या होगा?’’ वह मायूस थी.

‘‘क्या होगा?’’ तभी आलोक का ध्यान 3 दिन पहले कही बात की तरफ चला गया. सोचने लगा, ‘तो क्या प्रतिभा इसीलिए गंभीर है?’ उस की उदास आंखें दिल का हाल कह रही थीं.

आलोक ने उस का हाथ अपने हाथ

में ले लिया और बोले, ‘‘प्रतिभा, तुम पढ़ीलिखी हो, समझदार हो. मेरी जन्मतिथि कैसे भूल गईं? तुम यह भी जानती हो कि सेवानिवृत्ति की उम्र क्या है?’’

‘‘हां, उस हिसाब से तो तुम्हारी सेवानिवृत्ति में अभी 7 वर्ष बाकी हैं. फिर तुम ने…’’

‘‘मैं ने मजाक किया था,’’ प्रतिभा की बात काटते हुए आलोक बोले.

‘‘प्रतिभा, एक बात कहूं, जीवन में कुछ सच इतने कड़वे होते हैं कि उन पर विचार नहीं किया जा सकता. पर वे सनातन सत्य होते हैं. जैसे, सूरज का उदय और अस्त होना. जवानी के साथसाथ बुढ़ापा, जन्म के बाद मृत्यु. सेवानिवृत्ति

तो एक छोटी सी बात है. कल को मैं दुर्घटनाग्रस्त हो जाऊं या दिल का दौरा पड़ जाए तो क्या जीओगे नहीं तुम सब? सपने हमेशा यथार्थ के धरातल पर सजाने चाहिए, नहीं तो वे पानी के बुलबुले के समान मिट जाते हैं. सही इंसान वही है जो अपनी योग्यता से आगे बढ़े और जीवन की परिस्थितियों में खुद को ढाल ले.’’

वातावरण शांत हो गया था. सब जीवन के सच को जान चुके थे. तभी आलोक हंस दिए, ‘‘10-12 वर्ष बाद की चिंता में अभी से भोजन करना क्यों छोड़ रहे हो? भई, मुझे तो बड़ी जोर की भूख लगी है.’’

घर का बोझिल वातावरण खुशनुमा हो गया था. सभी खिलखिला रहे थे. प्रतिभा भी अब शांत थी.

दीदी, मुझे माफ कर दो: क्यों माफी मांग रही थी नेहा

सुबह से यह चौथा फोन था. फोन उठाने का बिलकुल मन नहीं था. पर मां सम झने को तैयार ही नहीं थी. फोन की घंटियां उस के मनमस्तिष्क पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं. आखिरकार, नेहा ने फोन उठा ही लिया.

‘‘हैलो, हां मां, बोलो.’’

‘‘बोलना क्या है, घर में सभी तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे हैं. तुम किसी की बात का जवाब क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘मां, इतना आसान नहीं है यह सब. मुझे सोचने का मौका तो दो,’’ नेहा ने बु झे स्वर में कहा.

‘‘सोचना क्या है इस में. तुम्हारी बहन की अंतिम इच्छा थी. क्या बिलकुल भी दया नहीं आती तुम्हें. उन बच्चों के मासूम चेहरों को तो देखो.’’

‘‘मां, मैं सम झती हूं पर…’’

‘‘पर क्या? वह सिर्फ तुम्हारी बहन नहीं थी. मां की तरह पाला था उस ने तुम्हें. आज जब उस के बच्चों को मां की जरूरत है तो तुम्हें सोचने का समय चाहिए?’’

‘‘मां, इतनी जल्दबाजी में इस तरह के फैसले नहीं लिए जाते.’’

‘‘हम ने भी दुनिया देखी है. ठीक है, अगर तुम्हें उन बच्चों की छीछालेदर होना मंजूर है तो फिर क्या कहा जा सकता है.’’

‘‘यह क्या बात हुई. तुम इस तरह की बातें क्यों कर रही हो?’’ नेहा बोली थी.

मां का गला भर आया, ‘‘तुम अभी मां नहीं बनी हो न. जब मां बनोगी तब औलाद का दर्द सम झोगी. फूल से बच्चे मां के बिना कलप रहे हैं और तुम हो कि सब दरवाजे बंद कर के बैठी हो.’’

नेहा का मन खराब हो चुका था. क्या इतना आसान था यह सब. 4 भाईबहनों में सब से छोटी थी वह. सब से छोटी. सब से लाड़ली. पर जिंदगी उसे इतने कड़वे और कठिन मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी, उस ने सोचा न था. दीदी की शादी के वक्त महज 17 साल की नाजुक उम्र थी उस की. पहली बार साड़ी पहनी थी. कितना उत्साह था. जीजाजी का जूता चुराऊंगी. 10,000 से एक रुपए कम न लूंगी. उन्हें खूब तंग करूंगी.

जीजाजी उस की हर शरारत पर मुसकरा कर रह जाते. वे सिर्फ उस की बहन के पति ही नहीं, नेहा की हर बात के हमराज, सम झदार और सुल झे हुए व्यक्ति थे. नेहा बहुत सारी ऐसी बातें, जो दीदी को नहीं बताती थी, जीजाजी से डिस्कस करती थी. जीजाजी के प्रोत्साहित करने पर ही उस ने सिविल सर्विसेज की तैयारी करनी शुरू की थी. नहीं तो मां के आगे तो वह भी दीदी की तरह मजबूर हो जाती और आज वह भी दीदी की तरह किसी की घरगृहस्थी देख रही होती. दीदी पढ़ने में बहुत अच्छी थी. पर बाबा की अंतिम इच्छा का मान रखने के लिए दीदी बलि का बकरा बन कर रह गई और अचारमुरब्बे व नएनए पकवानों के अलावा आगे कुछ भी न सोच सकी.

याद है उसे आज भी वह दिन, जब दीदी की कैंसर की रिपोर्ट आई थी. कैंसर थर्ड स्टेज पर था. घर में कुहराम मच गया था. मां का रोरो कर बुरा हाल था और दीदी दीवार का कोना पकड़े बुत बनी पड़ी थी. नेहा को सम झ में नहीं आ रहा था किसकिस को संभाले और क्या सम झाए. सम झते सभी थे, पर  झूठी दिलासा एकदूसरे को देते रहे.

प्रवीण जीजाजी का सुदर्शन चेहरा अचानक से बूढ़ा लगने लगा था. अपनी जीवनसंगिनी की दुर्दशा उन से बरदाश्त नहीं हो रही थी. कितने सुखी थे वे. न जाने किस की नजर लग गई थी उस खुशहाल परिवार पर. जीजाजी ने दीदी को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की. मुंबई, मद्रास कहांकहां नहीं दौड़े. किसकिस के आगे हाथ नहीं जोड़े. पर सब बेकार गया. जीजाजी की आलीशान कोठी, रुपयापैसा सब धरा रह गया और दीदी हमें रोताबिलखता छोड़ कर चली गई. इन दिनों में उस ने क्याक्या देखा और महसूस किया, वही जानती थी.

घर मेहमानों और रिश्तेदारों से भरा हुआ था. नन्ही परी मां के लिए बिलखतेबिलखते नेहा की गोदी में ही सो गई थी. दीदी की चचिया सास कनखियों से नेहा को बारबार घूर  रही थीं.

‘‘बेटा, तुम कौन हो? बहुत देखादेखा चेहरा लग रहा है.’’

नेहा ने परी की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘मैं इस की मौसी हूं.’’

चाचीजी के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुसकान आ गई. उन्होंने सोती हुई परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से कहा, ‘‘हां भई, परी के लिए तुम मा-सी हो. अब तो तुम ही इस की…’’

नेहा गुस्से से तिलमिला गई. चाची के शब्द गले मे अटक कर रह गए. वह परी को ले कर कमरे में चली गई. यह पहली बार नहीं था. इन 13 दिनों में हर आनेजाने वालों की निगाहों में उस ने यही सवाल तैरते देखा था. कितना रोई थी वह उस दिन.

‘‘मां, दीदी को गए चार दिन नहीं हुए और लोग जीजाजी की दूसरी शादी के बारे में भी सोचने लगे,’’ यह कह कर वह मां की गोद में सिर कर रख कर सिसकने लगी.

‘‘यह दुनिया ऐसी ही है. जानती हो आज एक महिला आई थी, शायद तुम्हारे जीजाजी के जानने वालों में थी. मु झ से ही तुम्हारे जीजाजी के लिए अपनी तलाकशुदा बेटी के रिश्ते की बात कर रही थी.’’

नेहा आश्चर्य से मां को देखती रह गई.

मां कहती रहीं, ‘‘नेहा, दुनिया ऐसी ही है. एक अच्छा जीवन जीने के लिए आलीशान मकान, नौकरचाकर और रुपयापैसा किस को नहीं चाहिए.’’

नेहा का मन खिन्न हो गया. दीदी के सपनों का महल यों आहिस्ताआहिस्ता ढह रहा था.

धीरेधीरे सारे मेहमान चले गए. नेहा सामान पैक कर रही थी. तभी परी और गोलू ने आ कर चौंका दिया.

‘‘मौसी, आप जा रही हैं?’’

दीदी के जाने के बाद दोनों बहुत अकेले पड़ गए थे.

‘‘हां बेटा, मेरी छुट्टियां खत्म हो गई हैं. औफिस भी जाना है न. तुम उदास क्यों हो. हम रोज वीडियो कौल से बात करेंगे. अपना होमवर्क रोज करना. परी कल से तुम अपनी कत्थक की क्लास जौइन करोगी और गोलू, तुम भी अपनी कराटे की क्लास जाना शुरू करोगे.’’

बच्चे चुपचाप सुनते रहे. दीदी के बच्चे बहुत सम झदार और आत्मनिर्भर थे. पर फिर भी, बच्चे ही थे. बच्चे नेहा को छोड़ कर चले गए. तभी मां कमरे में आ गईं.

‘‘नेहा, सामान पैक हो गया?’’

‘‘हां मां, औफिस से बारबार फोन आ रहा है. आप लोग कब निकल रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा और भैया कल सुबह निकलेंगे. मैं…मैं अभी कुछ दिन यहीं रहूंगी. बच्चे एकदम अकेले पड़ गए हैं.’’

‘‘हां…’’ नेहा सिर  झुकाए मां की बात सुनती रही.

‘‘नेहा, तु झ से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हां, बोलो मां, सुन रही हूं.’’

‘‘यहां मेरे पास बैठो.’’

‘‘क्या हुआ मां, ऐसी भी क्या बात है?’’

मां ने नेहा का हाथ अपने हाथों में ले लिया, ‘‘नेहा, तुम से कुछ भी नहीं छिपा. तुम्हारी दीदी के जाने के बाद हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. तुम्हारी दीदी ने मरने से पहले मु झ से एक वादा लिया था. वह चाहती थी कि उस के मरने के बाद तुम उस के बच्चों की जिम्मेदारी संभालो. तुम… तुम प्रवीणजी से शादी कर लो.’’

नेहा छटपटा कर रह गई, ‘‘मां, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो. जीजाजी के साथ मेरी… छी… मां तुम भी न,’’ गुस्से और वितृष्णा से नेहा का चेहरा लाल हो गया.

‘‘नेहा, सम झने की कोशिश करो. आखिर तुम्हारी भी शादी करनी ही है. देखाभाला परिवार है. बच्चों को मां मिल जाएगी. वैसे भी एक लड़की को क्या चाहिए. आलीशान घर, नौकरचाकर, रुपयापैसा. तुम्हारे पापा की भी यही इच्छा है.’’

नेहा आश्चर्य से मां को देखती रह गई, ‘‘तुम ने जीजाजी से भी एक बार पूछा है?’’

‘‘पूछना क्या है उन के मातापिता तो हैं नहीं. चाचाचाची से बात हो गई है. उन्हें भी यह रिश्ता मंजूर है.’’

‘‘रिश्ता..?’’ नेहा को सारा घटनाक्रम सम झ में आ गया.

‘‘मां, मैं तुम से इस बात की उम्मीद नहीं कर रही थी. तुम भी छि… दीदी की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई और तुम?’’

मां का चेहरा गंभीर हो गया, ‘‘हो सकता है आज तुम्हें मेरी बातें अच्छी न लगें पर तुम्हारी दीदी के जाने के बाद प्रवीणजी और उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी मु झ पर है. तुम सोचविचार कर जल्द मु झे जवाब दे दो. कहते हैं मरने वाले की अंतिम इच्छा न पूरी की जाए तो उसे कभी शांति नहीं मिलती.’’

अंतिम वाक्य कहते वक्त मां ने नेहा को अजीब सी निगाहों से देखा. पता नहीं उन निगाहों में ऐसा क्या था. वह उन आंखों में तैर रहे हजारों सवाल के तीर  झेल नहीं पाई और मुंह घुमा लिया.

एक हफ्ते में मां ने पचासों बार फोन कर दिया था. हर बार एक ही सवाल और नेहा एक ही जवाब देती, ‘मां, मु झे सोचने का वक्त दो.’ नेहा हर बार एक ही बात पर आ कर अटक जाती. सब को मरी हुई दीदी की अंतिम इच्छा की पड़ी है. पर किसी ने एक बार, हां सिर्फ एक बार, उस से पूछा कि उस की इच्छा क्या है. मरने वाला तो मर कर चला गया. पर लोग उसे जिंदा लाश बनाने पर क्यों तुले हैं.

शनिवार की रात थी. इन दिनों वह बहुत व्यस्त रही. शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी. सप्ताहभर की दौड़भाग से शरीर थक कर चूर हो गया था. हाथ में कौफी का मग लिए वह छत पर आ गई. कितने दिनों बाद वह छत पर सुकून के चंद पलों की तलाश में आ कर बैठी थी. आसमान में चांद, बादलों से लुकाछिपी कर रहा था. वह सोचने लगी, बादलों और तारों के बीच रह कर भी चांद कितना अकेला है. वह भी तो आज कितनी अकेली थी. कोई उसे सम झने को तैयार नहीं. किसी ने एक बार भी उस के बारे में नहीं सोचा. सब अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं और वह…? वह आखिर क्या चाहती है. नेहा सोचती रही. उस की आंखों के सामने जीजाजी का थका हुआ चेहरा, परी और गोलू का मासूम चेहरा, तो कभी मां का गंभीर चेहरा उभर कर आ जाता. नेहा ने आंखें मूंद लीं.

आखिर एक लड़की को क्या चाहिए अपनी जिंदगी से. एक खुशहाल परिवार, रुपयापैसा, घर बस. बस, क्या यही चाहिए था उसे. आज अगर वह मां की बात मान कर शादी कर ले तो इस रिश्ते में उसे क्या मिलेगा. दीदी की परछाईं होने का दर्जा? दूसरी पत्नी, दूसरी मां? नेहा मन ही मन मुसकराने लगी. दूसरी मां नहीं, सौतेली मां. लोगों के ताने, समाज का हर कदम पर तुलनात्मक अध्ययन. बड़ी बहन ज्यादा सुंदर थी. दूसरी तो ऐसी ही आएगी. बच्चे पैदा करने की क्या जरूरत है, पहली से 2 पहले हैं ही. जिंदगी गुजर जाएगी एक अच्छी मां बनने और सिद्ध करने में. उस के बाद भी इस की गारंटी नहीं कि वह यह सिद्ध कर भी पाएगी या नहीं. शायद समाज की नजर में स्वयं का मातृत्व सुख उठाना भी अपराध ही होगा.

प्रवीण की निगाहें हर चीज, हर रंग, हर त्योहार, हर खुशबू, हर स्वाद में दीदी को ही ढूढेंगीं. तिनकातिनका जोड़ कर अरमानों से सजाया हुए दीदी के उस घर में एक फूलदान सजाने में भी मेरे हाथ कांपेंगे. हर पार्टी, हर उत्सव में लोगों की सवालिया निगाहें मु झे तारतार करेंगी, ‘देखने में तो ठीक लगती है, फिर ऐसी क्या गरज पड़ी थी 2 बच्चों के बाप से शादी करने की. अकेली आई है या बच्चे भी.’

घूमने से पहले पचास बार सोचना होगा कि न जाने लोग क्या कहें, ‘घरगृहस्थी संभालनी चाहिए. पर यह तो हनीमून के मूड में है. शादी में इतनी धूम और रिश्तेदारों की क्या जरूरत. चुपचाप कोर्ट मैरिज से कर लेती. शर्म नहीं आती. इतने बड़ेबड़े बच्चों के सामने इतना तैयार हो कर खड़ी हो जाती है.’ नेहा ने घबरा कर आंखें खोल दीं और आसमान में तारों के बीच दीदी को ढूंढ़ने लगी, ‘दीदी, मु झे माफ कर देना, शायद आज मैं तुम्हें और सब को स्वार्थी लगूं, पर मैं इतनी मजबूत नहीं कि जीवनभर लोगों के सवालों का जवाब दे सकूं.

‘पर मैं आज तुम से यह वादा करती हूं कि एक मौसी के तौर पर हमेशा तुम्हारे बच्चों के साथ खड़ी हूं.’ हफ्तों से घुमड़ते सवालों का मानो उसे जवाब मिल गया था. नेहा अपनी मां को फोन करने के लिए छत से नीचे उतर गई.

Festive Special: दांव पर भविष्य

‘‘यह कौन सा समय है घर आने का?’’ शशांक को रात लगभग 11 बजे घर लौटे देख कर विभा ने जवाब तलब किया था.

‘‘आप तो यों ही घर सिर पर उठा लेती हैं. अभी तो केवल 11 बजे हैं,’’ शशांक साक्षात प्रश्नचिह्न बनी अपनी मां के प्रश्न का लापरवाही से उत्तर दे कर आगे बढ़ गया था.

‘‘शशांक, मैं तुम्हीं से बात कर रही हूं और तुम हो कि मेरी उपेक्षा कर के निकले जा रहे हो,’’ विभा चीखी थीं.

‘‘निकल न जाऊं तो क्या करूं. आप के कठोर अनुशासन ने तो घर को जेल बना दिया है. कभीकभी तो मन होता है कि इस घर को छोड़ कर भाग जाऊं,’’ शशांक अब बदतमीजी पर उतर आया था.

‘‘कहना बहुत सरल है, बेटे. घर छोड़ना इतना सरल होता तो सभी छोड़ कर भाग जाते. मातापिता ही हैं जो बच्चों की ऊलजलूल हरकतों को सह कर भी उन की हर सुखसुविधा का खयाल रखते हैं. इस समय तो मैं तुम्हें केवल यह याद दिलाना चाहती हूं कि हम ने सर्वसम्मति से यह नियम बनाया है कि बिना किसी आवश्यक कार्य के घर का कोई सदस्य 7 बजे के बाद घर से बाहर नहीं रहेगा. इस समय 11 बज चुके हैं. तुम कहां थे अब तक?’’

‘‘आप और आप के नियम…मैं ने निर्णय लिया है कि मैं अपना शेष जीवन इन बंधनों में जकड़ कर नहीं बिताने वाला. मेरे मित्र मेरा उपहास करते हैं. मुझे ‘ममाज बौय’ कह कर बुलाते हैं.’’

‘‘तो इस में बुरा क्या है, शशांक? सभी अपनी मां के ही बेटे होते हैं,’’ विभा गर्व से मुसकराईं.

‘‘बेटा होने और मां के पल्लू से बंधे होने में बहुत अंतर होता है,’’ शशांक ने अपना हाथ हवा में लहराते हुए  प्रतिवाद किया.

‘‘यह तेरे हाथ में काला सा क्या हो गया है?’’ बेटे का हाथ देख कर विभा चौंक गई.

‘‘यह? टैटू कहते हैं इसे. आज की पार्टी में शहर का प्रसिद्ध टैटू आर्टिस्ट आया था. मेरे सभी मित्रों ने टैटू बनवाया तो भला मैं क्यों पीछे रहता? अच्छा लग रहा है न?’’ शशांक मुसकराया.

‘‘अच्छा? सड़कछाप लग रहे हो तुम. हाथ से ले कर गरदन तक टैटू बनवाने के पैसे थे तुम्हारे पास?’’ विभा क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मेरे पास पैसे कहां से आएंगे, मौम? बैंक में बड़ी अफसर आप हैं, आप. पापा भी बड़ी मल्टीनैशनल कंपनी में बड़े पद पर हैं पर अपने इकलौते पुत्र को मात्र 1 हजार रुपए जेबखर्च देते हैं आप दोनों. लेकिन मेरे मित्र आप की तरह टटपूंजिए नहीं हैं. मेरे मित्र अशीम ने ही यह शानदार पार्टी दी थी और टैटू आदि का प्रबंध भी उसी की ओर से था. पार्टी तो सारी रात चलेगी. मैं तो आप के डर से जल्दी चला आया,’’ शशांक ने बड़ी ठसक से कहा.

‘‘यह नया मित्र कहां से पैदा हो गया? अशीम नाम का तो तुम्हारा कोई मित्र नहीं था. उस ने पार्टी दी किस खुशी में थी? जन्मदिन था क्या?’’

‘‘एक बार में एक ही प्रश्न कीजिए न, मौम. तभी तो मैं ठीक से उत्तर दे पाऊंगा. आप जानना चाहती हैं कि यह मित्र आया कहां से? तो सुनिए, यह मेरा नया मित्र है. पार्टी उस ने जन्मदिन की खुशी में नहीं दी थी. वह तो इस पार्टी में अपनी महिलामित्र का सब से परिचय कराना चाहता था. पर मैं तो उस से पहले ही घर चला आया. अशीम को कितना बुरा लग रहा होगा. पर मैं समझा लूंगा उसे. मेरा जीवन उस के जैसा सीधासरल नहीं है. कल स्कूल भी जाना है,’’ शशांक ने बेमतलब ही जोर से ठहाका लगाया.

‘‘यह क्या? तुम पी कर आए हो क्या?’’ विभा ने कुछ सूंघने की कोशिश की.

‘‘इसे पीना नहीं कहते, मेरी प्यारी मां. इसे सामाजिक शिष्टाचार कहा जाता है,’’ विभा कुछ और पूछ पातीं उस से पहले शशांक नींद की गोद में समा गया था.

विभा शशांक को कंबल ओढ़ा कर बाहर निकलीं तो रात्रि का अंधकार और भी डरावना लग रहा था. पति के अपनी कंपनी के काम से शहर से बाहर जाने के कारण घर का सूनापन उन्हें खाने को दौड़ रहा था.

शशांक उन की एकमात्र संतान था. पतिपत्नी दोनों अच्छा कमाते थे. इसलिए शशांक के पालनपोषण में उन्होंने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी. पर पिछले कुछ दिनों से वह अजनबियों जैसा व्यवहार करने लगा था.

अपने स्कूल, ट्यूशन और मित्रों की हर बात उन्हें बताने वाला शशांक मानो अपने बनाए चक्रव्यूह में कैद हो कर रह गया था जिसे भेद पाना उन के लिए संभव ही नहीं हो रहा था.

‘आज क्या हुआ मालूम?’ विभा के घर पहुंचते ही वह इस वाक्य से अपना वार्त्तालाप प्रारंभ करता तो उस का कहीं ओरछोर ही नहीं मिलता था. शशांक अपने सहपाठियों के किस्से इतने रसपूर्ण ढंग से सुनाता कि वे हंसतेहंसते लोटपोट हो जातीं.

पर अब उन का लाड़ला शशांक कहीं खो सा गया था. कुछ पूछतीं भी तो हां, हूं में उत्तर देता. अब रात को देर से लौटता और अपने मित्रों व परिचितों के संबंध में बात तक नहीं करता था.

शशांक तो शायद खापी कर आया था पर उस की हरकत देख कर विभा की भूखप्यास खत्म हो गई थी. विभा ने काफी देर तक सोने का असफल प्रयत्न किया पर नींद तो उन से कोसों दूर थी. मन हलका करने के लिए उन्होंने पति संदीप को फोन मिलाया.

‘‘हैलो विभा, क्या हुआ? सोईं नहीं क्या अभी तक? सब कुशल तो है?’’ संदीप का स्वर उभरा.

विभा मन ही मन जलभुन गईं. वह भी समय था जब जनाब सारी रात दूरभाष वार्त्ता में गुजार देते थे. अब 11 बजे ही पूछ रहे हैं कि सोईं नहीं क्या? पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं बोलीं.

‘‘जिस का शशांक जैसा बेटा हो उसे भला नींद कैसे आएगी,’’ विभा कुछ सोच कर बोलीं.

‘‘ऐसा क्या कर दिया हमारे लाड़ले ने जो तुम इतनी बेहाल लग रही हो?’’ संदीप हंस कर बोले.

‘‘अपने मित्रों के साथ किसी पार्टी में गया था. कुछ ही देर पहले खापी कर लौटा है. पी कर अर्थात सचमुच पी कर. मन तो हो रहा है कि डंडे से उस की खूब पिटाई करूं पर क्या करूं, अकेली पड़ गई हूं,’’ विभा ने पूरी कहानी कह सुनाई.

‘‘तुम क्यों दिल छोटा करती हो, विभा. हम 3-4 दिन में घर पहुंच रहे हैं न. सब ठीक कर देंगे,’’ संदीप अपने अंदाज में बोले.

‘‘आप घर पहुंचेंगे अवश्य पर टिकेंगे कितने दिन? माह में सप्ताह भर भी घर पर रहने का औसत नहीं है आप का,’’ विभा ने शिकायत की.

‘‘तुम क्यों चिंता करती हो. तुम तो स्वयं मातापिता दोनों की भूमिका खूबी से निभा रही हो. तुम चिंता न किया करो. शशांक की आयु ही ऐसी है. किशोरावस्था में थोड़ीबहुत उद्दंडता हर बच्चा दिखाता ही है. तुम थोड़ा उदार हो जाओ, फिर देखो,’’ संदीप ने समझाना चाहा.

‘‘चाहते क्या हैं, आप? रातभर घर से बाहर आवारागर्दी करने दूं उसे? पता भी है कि आज पहली बार आप का लाड़ला किशोर पी कर घर आया है?’’ विभा सुबकने लगी थीं.

‘‘होता है, ऐसा भी होता है. इस आयु के बच्चे हर चीज को चख कर देखना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे छोटा बच्चा अनजाने में आग में हाथ डाल देता है,’’ संदीप ने और समझाना चाहा.

‘‘हां, और झुलस भी जाता है. तो शशांक को आग में हाथ डालने दूं? भले ही वह जल जाए,’’ विभा का सारा क्रोध संदीप पर उतर रहा था.

‘‘विभा, रोना बंद करो और मेरी बात ध्यान से सुनो. कभीकभी तरुणाई में अपनी संतान को थोड़ी छूट देनी पड़ती है जिस से उस में अपना भलाबुरा समझने की अक्ल आ सके, शत्रु और मित्र में अंतर करना सीख सके,’’ संदीप ने विभा को शांत करने का एक और प्रयत्न किया.

‘‘वही तो मैं जानना चाहती हूं कि ये अशीम जैसे उस के मित्र अचानक कहां से प्रकट हो गए. पहले तो शशांक ने कभी उन के संबंध में नहीं बताया.’’

‘‘सच कहूं तो मैं शशांक के किसी मित्र को नहीं जानता. कभी उस से बैठ कर बात करने का समय ही नहीं मिला.’’

‘‘तो समय निकालो, संदीप. 2 माह बाद ही शशांक की बोर्ड की परीक्षा है और उस के बाद ढेरों प्रतियोगिता परीक्षाएं.’’

‘‘ठीक है, मुझे घर तो लौटने दो. फिर दोनों मिल कर देखेंगे कि शशांक को सही राह पर कैसे लाया जाए. तब तक खुद को शांत रखो क्योंकि रोनापीटना किसी समस्या का हल नहीं हो सकता,’’ संदीप ने वार्त्तालाप को विराम देते हुए कहा था पर विभा को चैन नहीं था. किसी प्रकार निद्रा और चेतनावस्था के बीच उस ने रात काटी.

अगले दिन शशांक ऐसा व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. वह तैयार हो कर स्कूल चला गया तो विभा ने भी उस के स्कूल का रुख किया. बैंक से उस ने छुट्टी ले ली थी. वह शशांक की मित्रमंडली के संबंध में सबकुछ पता करना चाहती थी.

पर स्कूल पहुंचते ही शशांक के अध्यापकों ने उन्हें घेर लिया.

‘‘हम तो कब से आप से संपर्क करने का प्रयत्न कर रहे हैं. पर आजकल के मातापिता के पास पैसा तो बहुत है पर अपनी संतान के लिए समय नहीं है,’’ शशांक के कक्षाध्यापक विराज बाबू ने शिकायत की.

‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं तो अपने सब काम छोड़ कर पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आती हूं पर अब तो आप ने पेरैंट्सटीचर मीटिंग के लिए बुलाना भी बंद कर दिया,’’ विभा ने शिकायत की.

‘‘हम तो नियम से अभिभावकों को आमंत्रित करते हैं जिस से उन के बच्चों की प्रगति का लेखाजोखा उन के सम्मुख प्रस्तुत कर सकें. शशांक ने पढ़ाई में ध्यान देना ही बंद कर दिया है. हम नियम से परीक्षाफल घर भेजते हैं पर शशांक ने कभी उस पर अभिभावक के हस्ताक्षर नहीं करवाए,’’ बारीबारी से उस के सभी अध्यापकों  ने शिकायतों का पुलिंदा विभा को थमा दिया.

‘‘आप की बात पूरी हो गई हो तो मैं भी कुछ बोलूं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘जी हां, कहिए,’’ प्रधानाचार्य अरविंद कुमार बोले.

‘‘हम ने तो अपने बेटे का भविष्य आप के हाथों में सौंपा था. आप के स्कूल की प्रशंसा सुन कर ही हम शशांक को यहां लाए थे. और जब आप के द्वारा भेजी सूचनाएं हम तक नहीं पहुंच रही थीं तो हम से व्यक्तिगत संपर्क करना क्या आप का कर्तव्य नहीं था?’’ विभा आक्रामक स्वर में बोली.

‘‘आप सारा दोष हमारे सिर मढ़ कर अपनी जान छुड़ा लेना चाहती हैं पर जरा अपने सुपुत्र के हुलिए पर एक नजर तो डालिए. प्रतिदिन नए भेष में नजर आता है. स्कूल में यूनिफौर्म है पर लंबे बाल, हाथों से ले कर गरदन तक टैटू. मैं ने तो प्रधानाचार्य महोदय से शशांक को स्कूल से निकालने की सिफारिश कर दी है,’’ विराज बाबू बोले. सामने खड़े शशांक ने मां को देख कर नजरें झुका लीं.

‘‘अपनी कमी छिपाने का इस से अच्छा तरीका और हो ही क्या सकता है. पहले अपने उन विद्यार्थियों को बुलाइए जिन्होंने शशांक को बिगाड़ा है. वे रोज किसी न किसी बहाने से बड़ीबड़ी पार्टियां देते हैं. शशांक उन्हीं के चक्कर में देर से घर लौटता है,’’ विभा बोली.

‘‘कौन हैं वे?’’ विराज बाबू ने  प्रश्न किया.

‘‘कोई अशीम है, अन्य छात्रों के नाम तो शशांक ही बताएगा. आजकल वह मुझे अपनी बातें पहले की तरह नहीं बताता है.’’

‘‘अशीम? पर इस नाम का कोई छात्र हमारे स्कूल में है ही नहीं. वैसे भी, इंटर के छात्र इस समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त हैं, पार्टी आदि का समय कहां है उन के पास?’’ प्रधानाचार्य हैरान हो उठे.

‘‘शशांक, कौन है यह अशीम? कुछ बोलते क्यों नहीं?’’ विभा ने प्रश्न किया.

‘‘यह मेरा फेसबुक मित्र है. नीरज, सोमेश, दीपक और भी कई छात्र उन्हें जानते हैं,’’ शशांक ने बहुत पूछने पर भेद खोला.

‘‘मैं ने तो तुम्हारा फेसबुक अकाउंट बंद करा दिया था,’’ विभा हैरान हो उठीं.

‘‘पर हम सब का अकाउंट स्कूल में है. प्रोजैक्ट करने के बहाने हम इन से संपर्क करते थे,’’ शशांक ने बताया.

राज खुलना प्रारंभ हुआ तो परत दर परत खुलने लगा. अशीम और उस के मित्रों की पार्टियों के लिए धन शशांक और उस के मित्र ही जुटाते थे और यह सारा पैसा मातापिता को बताए बिना घर से चोरी कर के लाया जाता था.

विभा ने सुना तो सिर थाम लिया. बैंक का कामकाज संभालती है वह पर अपना घर नहीं संभाल सकी.

‘‘मैडम, आप धीरज रखिए और हमें थोड़ा समय दीजिए. भूल हम से अवश्य हुई है पर भूल आप से भी हुई है. काश, आप ने यह सूचना हमें पहले दी होती. हम इस समस्या की जड़ तक जा कर ही रहेंगे. यह हमारे छात्रों के भविष्य का प्रश्न तो है ही, हमारी संस्था के सम्मान का भी प्रश्न है,’’ प्रधानाचार्यजी ने आश्वासन दिया.

3-4 दिन बाद फिर आने का आश्वासन दे कर विभा घर लौट आईं. शशांक भी उन के साथ ही था.

अब तक खुद पर नियंत्रण किए बैठी विभा घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘मां, क्षमा कर दो मुझे. भविष्य में मैं आप को कभी शिकायत का अवसर नहीं दूंगा,’’ शशांक उन्हें सांत्वना देता रहा.

‘‘मुझ से कहां भूल हो गई, शशांक? मैं ने तो तुम्हें सदा कांच के सामान की तरह संभाल कर रखा. फिर यह सब क्यों?’’

अगले दिन संदीप भी लौट आए थे और सारा विवरण जान कर सन्न रह गए थे.

शीघ्र ही उन्हें पता लग गया था कि अशीम और उस के मित्र युवाओं को अपने जाल में फंसा कर नशीली दवाओं तक का आदी बनाने का काम करते थे. संदीप और विभा सिहर उठे थे. शशांक बरबादी के कितने करीब पहुंच चुका था, इस की कल्पना भी उन्होंने नहीं की थी.

‘‘मेरे बेटे के भविष्य से बढ़ कर तो कुछ भी नहीं है. मैं तो शशांक के लिए लंबी छुट्टी लूंगी. आवश्यकता पड़ी तो सदा के लिए,’’ विभा बोलीं.

‘‘मां, आज मैं कितना खुश हूं कि मुझे आप जैसे भविष्य संवारने वाले मातापिता मिले,’’ कहते हुए शशांक भावुक हो उठा.

‘‘अरे बुद्धू, मातापिता तो धनी हों या निर्धन, शिक्षित हों या अशिक्षित, सदैव संतान की भलाई की ही सोचते हैं. पर ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है. तुम यों समझ लो कि अब तुम्हें हमारी आज्ञा का पूरी तरह पालन करना पड़ेगा. तभी तुम्हारा भविष्य सुरक्षित रहेगा. नहीं तो…?’’ विभा बोल ही रही थी कि संदीप वाक्य पूरा कर बोले, ‘‘नहीं तो तुम अपनी मां को तो जानते ही हो. वह अपना भविष्य दांव पर लगा सकती है पर तुम्हारा नहीं,’’ और तीनों के समवेत ठहाकों से सारा घर गूंज उठा.

विश्वास का मोल: क्या चिन्मयानंद को गलती समझ आई

जैसे ही बड़े भैया का फोन आया कि फौरन दिल्ली जाना है, आशीष, मेरे भांजे, को किसी ने जहर खिला दिया है और उस की हालत गंभीर है, मेरे तो हाथपैर ठंडे हो गए. बारबार बस यही खयाल आया कि हो न हो चिन्मयानंद ने ही यह कांड किया होगा, नहीं तो सीधेसादे आशीष के पीछे कोई क्यों पड़ेगा? क्यों कोई उसे जहर खिलाएगा?

जब से चिन्मयानंद ने मेरी भांजी  झरना से शादी कर मेरी बहन के घर अपना अड्डा जमाया तभी से मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त था और आखिरकार मेरी आशंका सच साबित हुई.

हम सभी  झरना की शादी इस पाखंडी चिन्मयानंद से होने के खिलाफ थे.  झरना की मां यानी मेरी बड़ी बहन हमारे परिवार तथा परिचितों में ‘दिल्ली वाली’ के नाम से जानी जाती हैं. यह सब उन्हीं की करनी थी. उन्हें शुरू से साधुसंतों पर अटूट विश्वास था. आएदिन उन के घर न जाने कहांकहां के साधुसंतों का जमावड़ा रहता. जब से उन के यहां बद्रीनाथ के बाबा के आशीर्वाद से आशीष और  झरना का जन्म हुआ तब से वे साधुसंन्यासियों पर आंखें मूंद कर विश्वास करने लगी थीं. जब भी उन के घर जाओ, उन के मुंह से किसी न किसी आदर्श साधुसंत के गुणगान सुनने को मिलते.

मु झे उन की इस आदत से बहुत दुख होता और मैं उन्हें इस के लिए खरीखोटी सुनाती. लेकिन मेरा सारा कहनासुनना वे एक तरल मुसकराहट से पी जातीं और बहुत ही धैर्य व तसल्ली से सम झातीं, ‘देख लल्ली, तू ठहरी आजकल की पढ़ीलिखी छोरी. तु झे इन साधुसंतों के चमत्कारों का क्या ज्ञान. तू तो सदा खुशहाल रही है. मेरे जैसे दुखों की तो तु झ पर परछाईं भी नहीं पड़ी है. सो, तु झे इन साधुसंतों की शरण में जाने की क्या जरूरत? देख लल्ली, मैं कभी न चाहूंगी कि जिंदगी में कभी किसी दुख या निराशा की बदली तेरे आंगन में छाए, लेकिन फिर भी मैं तु झ से कहे देती हूं कि कभी किसी तरह के दुख या विपरीत परिस्थितियों से तेरा सामना हो तो सीधे मेरे पास चली आना. इतने गुणी और चमत्कारी साधुमहात्माओं से मेरी पहचान है कि सारे कष्टों की बदली को वे अपने एक इशारे से हटा सकते हैं.

‘दिल्ली वाली कभी बड़े बोल नहीं बोलती लेकिन तू ही बता, साधुसंतों की बदौलत आज मु झे किस बात की कमी है? धनदौलत और औलद, सब से तो मेरा घरआंगन लबालब है.’

दीदी की यह गर्वोक्ति सुन कर मैं ने मन ही मन प्रकृति से यही मांगा कि मेरी बहन की खुशहाली को कभी किसी की नजर न लगे. हमेशा उन के घरचौबारे में खुशहाली रहे.

औलाद के अलावा उन को किसी चीज की कमी नहीं रही थी जिंदगी में. शादी से पहले से दीदी डीलडौल में कुछ ज्यादा ही इक्कीस थीं लेकिन भीमकाय काया के बावजूद अपने अच्छे कर्मों की बदौलत उन की शादी अच्छे मालदार घराने में बहुत ही छरहरे, सुदर्शन युवक से हुई.

जीजाजी दिल के इतने अच्छे कि दीदी के मुंह से कोईर् बात निकलती नहीं कि जीजाजी  झट उसे पूरा कर देते. जिंदगी में उन्हें बस एक कमी थी कि शादी के 15 वर्षों बाद तक उन के आंगन में कोई किलकारी नहीं गूंजी थी. जीजाजी को बच्चे न होने का कोई गम न था.

वे तो हमेशा दीदी से कहते, ‘अरे, अपना कोई बच्चा नहीं है तो अच्छा है न, तू मु झे कितना लाड़ लड़ाती है. अपने बीच बच्चे होते तो वह लाड़ बंट न जाता भला.’ लेकिन दीदी बच्चे के बिना जिंदगी कलपकलप कर गुजारतीं. वे तमाम मंदिरों, गुरुद्वारों, मजारों आदि पर बच्चा होने की मनौतियां मांग आई थीं. दिनभर साधुमहात्माओं के ठिकानों पर पड़ी रहतीं और उन के बताए व्रत, उपवास आदि पूरी निष्ठा से करतीं.

उसी दौरान दिल्ली में बद्रीबाबा नाम के एक साधु की बहुत धूम मची थी. दीदी उन के भक्तिभाव तथा चुंबकीय व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थीं. उन्होंने दीदी को एक अनुष्ठान करने के लिए कहा था. उन के कहे अनुसार लगातार 51 सोमवारों को यज्ञ करते ही दीदी गर्भवती हो गई थीं और नियत वक्त पर उन के यहां चांद सा सुंदर बेटा हुआ. बेटे के जन्म के बाद एक बेटी पाने को दीदी ने स्वामीजी द्वारा बताया अनुष्ठान दोबारा किया और फिर गर्भधारण करने पर नियत वक्त पर उन्होंने बहुत सुंदर कन्या को जन्म दिया. जैसेजैसे समय बीतता गया, साधुमहात्माओं में ‘दिल्ली वाली’ की निष्ठा बढ़ती ही गई.

अब तो पिछले कुछ सालों से उन के घर में बाकायदा चिन्मयानंद नाम के एक स्वामी ने घुसपैठ कर ली थी. वह स्वामी खुद को दिल्ली वाली का पिछले जन्म का बेटा बताता था. दीदी के घर में उसे दीदी और जीजाजी का अत्यधिक लाड़ मिलता. घर में उसे वे सारे अधिकार मिले थे जो उन के बेटे आशीष को थे. आशीष तो यहां तक कहने लगा था कि मां, उस से ज्यादा स्वामी चिन्मयानंद को चाहने लगी हैं. कभीकभी तो चिन्मयानंद को ले कर वह मां से  झगड़ बैठता और मां से चिन्मयानंद का पक्ष लेने की बाबत उन से हफ्तों रूठा रहता.

सरल स्वभाव के जीजाजी वही करते जो दीदी कहतीं. उन्होंने जिंदगी में कभी दीदी का सही या गलत किसी बात का विरोध नहीं किया. दीदी की खुशी में ही उन की खुशी थी. सो, उन्होंने चिन्मयानंद को बेटे की तरह रखा.

चिन्मयानंद भी पूरे अधिकारभाव से परिवार में रहता. उस ने सारे परिवार को अपने सम्मोहक व्यक्तित्व के वश में कर रखा था.

चिन्मयानंद ने घर वालों को बताया था कि उस के असली मांबाप तो काशी में रहते हैं. उस के कई भाईबहन हुए, लेकिन सब बचपन में ही चल बसे. एक वही कुछ ज्यादा दिनों तक जिंदा रहा. सो

10-11 वर्ष का होते ही मातापिता ने उसे उसी साधु के सुपुर्द कर दिया जिस के आशीर्वाद से उस का जन्म हुआ था. वह साधु उसे अपने अन्य शागिर्दों की टोली के साथ हिमालय की तराइयों में ले गया था.

उस का बचपन स्वामीजी के साथ हिमालय की तराइयों में ही बीता. थोड़ा बड़ा होने पर उस ने स्वामीजी से दीक्षा ली थी.

चिन्मयानंद का स्वर बहुत ही मधुर था. स्वामीजी के ठिकाने पर कीर्तन का दायित्व उसी के कंधों पर था. जब भी वह अपने मधुर स्वरों में कोई भजन छेड़ता, कीर्तन में श्रद्धालुओं की संख्या दोगुनी हो जाती.

एक दिन किसी प्रसिद्ध संगीत कंपनी के मालिक ने जब चिन्मयानंद का एक भजन सुना तो उस ने उस की गायन क्षमता से प्रभावित हो कर उस के भजनों के 2-3 कैसेट निकलवा दिए.

इधर यहां आने के कुछ ही दिनों बाद चिन्मयानंद ने इस घर से रिश्ता जोड़ने का पुख्ता इंतजाम कर लिया था. दीदी की एकलौती बेटी  झरना उस पर री झ कर उस के प्रेमपाश में जकड़ गई थी और उस की मंशा उस से विवाह करने की थी.

रूपलावण्य में अति सुंदर  झरना हिंदी साहित्य से एमए पास, खासी मेधावी लड़की थी. लेकिन जहां चिन्मयानंद की बात आती, हमें लगता कि उस के दिमाग के सारे कपाट बंद हो गए हों. मैं जब भी उस से मिलती, उसे सम झाती कि वह क्यों एक अनपढ़जाहिल युवक से शादी कर जिंदगी बरबाद करने पर तुली है. भजनों के 2-3 कैसेटों के अलावा जिंदगी में उस की कोई उपलब्धि नहीं थी. शिक्षा के नाम पर वह कोरा था. उस के कहे अनुसार स्वाध्याय से कुछ धार्मिक पुस्तकों का ज्ञान उस ने जरूर प्राप्त किया था पर उच्चशिक्षा प्राप्त  झरना कैसे एक अनपढ़ के साथ जिंदगी बिताएगी, यह मेरी सम झ के बाहर था.

मैं ने और मेरे भाइयों ने  झरना को हर संभव दलीलें दे कर सम झाने की कोशिशें की थीं कि चिन्मयानंद के साथ शादी कर वह सारी जिंदगी पछताएगी. लेकिन हमारी दलीलों का उस पर कोई असर नहीं होता. वह यही कहती कि चिन्मयानंद मृदुभाषी, सम झदार, सरल स्वभाव का कलाकार युवक है और अगर उस ने उस से शादी नहीं की तो वह किसी और युवक से शादी कर कभी खुश नहीं रह पाएगी.

दीदी अपनी बेटी के इस फैसले से बहुत खुश थीं. वे हम से यही कहतीं कि इतनी पढ़ीलिखी मेरी बेटी आदमी की सही कद्र जानती है. किताबी पढ़ाई से कुछ नहीं होता, बस, आदमी अच्छा होना चाहिए. मेरी  झरना ने न जाने कौन से ऐसे अच्छे कर्म किए होंगे जो उसे इतना गुणी, धर्म में आस्था रखने वाला पति मिला है.

जब हम उन से पूछते कि  झरना से शादी कर चिन्मयानंद बिना किसी नियमित आय के अपनी गृहस्थी कैसे चलाएगा तो उन का जवाब होता कि, ‘उसे कमाने की जरूरत ही क्या है? हमारी इतनी जमीनजायदाद और संपत्ति आशीष और  झरना की ही तो है. हमारा किराया ही इतना आता है कि बच्चों को कमाने की जरूरत ही नहीं. चिन्मयानंद और  झरना तो बस भजन में लगे रहें, उन का घर तो हम चलाते रहेंगे.’

जब मैं ने दीदी से चिन्मयानंद के उन के घर में आ कर रहने की कैफियत जाननी चाही तो उन्होंने बताया था, ‘देख, लल्ली, मैं कितनी खुशहाल हूं कि इस जन्म में तो एक बेटाबेटी पा कर मैं धन्य हुई ही हूं. न जाने किन अच्छे कर्मों से मु झे मेरे पिछले जन्म का बेटा भी मिल गया है.

‘कोई विश्वास नहीं करेगा लल्ली, लेकिन चिन्मयानंद जब पहली बार मेरे दरवाजे पर आया तो उसे देख कर मेरी आंखों से आंसुओं की  झड़ी इस कदर लगी कि क्या बताऊं. खुद उस की आंखों से भी खूब आंसू बहे. न जाने किन अच्छे कर्मों के प्रताप से वर्षों से बिछड़े हम मांबेटे दोबारा मिले. अब तू ही बता, अगर हम दोनों के बीच कोईर् रिश्ता नहीं होता तो क्यों हम दोनों की आंखें यों  झर झर बरसतीं?

‘मु झे देखते ही चिन्मयानंद के मुंह से शब्द निकले थे, ‘मां, तू मेरी पिछले जन्म की मां है. कितने दरवाजों पर ठोकरें खाने के बाद मु झे तुम से मिलने का मौका मिला है. अब इस जन्म में मु झे खुद से कभी दूर मत करना.’ इस लड़के को देखते ही मेरे मन में अथाह लाड़ का सागर हिलोरें मारने लगता है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि इस लड़के से मेरा जन्मजन्मांतर का रिश्ता है और इस जन्म में तो कोई मेरा व उस का रिश्ता नहीं तोड़ सकता.’

हम तीनों भाईबहन व हमारे मातापिता दीदी के घर चिन्मयानंद के अड्डा जमाने से बहुत ज्यादा परेशान हो गए थे और हमें डर लगता कि कहीं यह युवक कोई अपराधी न हो जो कभी भी घर के सदस्यों को कोई नुकसान पहुंचा कर फरार हो जाए. हम ने दीदी और जीजाजी को लाख सम झाने की कोशिशें की थीं कि यों किसी अनजान व्यक्ति को घर में आश्रय देना मुनासिब नहीं और वह कभी भी उन्हें किसी तरह का भारी नुकसान पहुंचा सकता है. हो सकता है चिन्मयानंद ने सम्मोहन विद्या का प्रयोग दीदी पर किया हो जिस से वे उस के मोहपाश में जकड़ गईं.

1-2 बार हम अपनी जानपहचान के एक बड़े पुलिस अधिकारी को भी दीदी के घर ले गए जिन्होंने चिन्मयानंद से बातें कीं. लेकिन वे भी उस से पीछा छुड़ाने में हमारी कोई मदद न कर सके. एक दिन हमारे सब से बड़े भाईर्साहब दादा किस्म के कुछ युवकों को ले कर दीदी के घर पहुंचे और उन्होंने चिन्मयानंद को घर से धक्के दे कर बाहर निकाल दिया था. लेकिन यह सब देख कर दीदी ने अपना सिर दीवार से मारमार कर बुरी तरह रोना शुरू कर दिया था, जिसे देख कर मजबूरन बड़े भाईसाहब को उन युवकों के साथ वापस लौटना पड़ा था.

दीदी के इस रवैए की वजह से चिन्मयानंद को उन के घर से किसी भी तरह निकाला नहीं जा सकता था और हम भाईबहन चिंतित होने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे. तभी चिन्मयानंद ने एक और गुल खिलाया. हमें सूचना मिली थी कि चिन्मयानंद और  झरना की शादी हो गई है.

दीदी के लगभग सभी रिश्तेदार चिन्मयानंद के खिलाफ थे. इसलिए इस शादी में दीदी ने अपने या जीजाजी के किसी भी संबंधी को यह दलील देते हुए नहीं बुलाया कि चिन्मयानंद को भीड़भाड़ बिलकुल पसंद नहीं है और वह सीधीसादी शादी चाहता है.

हमें तो विवाह की सूचना ही शादी के 2 दिनों बाद मिली. शादी की खबर मिलने पर हम भाईबहन सिर पीट कर रह गए थे. इस युवक का जो मुख्य उद्देश्य था, इस धर्मभीरु परिवार में पुख्ता घुसपैठ करना, सो वह पूरा कर चुका था. अब हम भी चुप बैठ गए थे. पर हम भाईबहन निरंतर इस आशंका से जू झते रहते कि न जाने कब वह घर उस अजनबी युवक के किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाए और आखिरकार हमारी आशंका निर्मूल नहीं निकली. उस की वजह से ही आज आशीष की जान खतरे में थी.

हम दिल्ली के लिए घर से निकलने ही वाले थे कि वहां से खबर आई कि आशीष अब नहीं रहा.

आशीष के मरने के बाद अब  झरना अपनी मां की अपार संपत्ति की अकेली वारिस होगी, जरूर चिन्मयानंद ने यही सोच कर आशीष की हत्या का मंसूबा बनाया होगा. हम घर वालों की इच्छा तो यही थी कि दिल्ली पहुंचते ही चिन्मयानंद को आशीष की हत्या के इलजाम में पुलिस के सुपुर्द कर दिया जाए लेकिन हम सोच रहे थे कि क्या  झरना और दिल्ली वाली इस के लिए राजी भी होंगी?

लेकिन दिल्ली पहुंचने पर हमें कुछ दूसरा ही नजारा देखने को मिला. हमारे पहुंचने से पहले ही  झरना ने चिन्मयानंद को आशीष की हत्या के इलजाम में पुलिस के सुपुर्द कर दिया था और वह खुद आगे बढ़ कर पुलिस को बयान दे रही थी. हमें देखते ही वह कहने लगी, ‘‘मौसी, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मैं चिन्मयानंद के प्रेमाकर्षण में अंधी हो गई थी.

‘‘मु झे इस बात का तनिक भी एहसास नहीं था कि पिताजी की दौलत के लालच में चिन्मयानंद इतना अंधा हो जाएगा कि आशीष को रास्ते से हटा देगा. मैं तो उसे बहुत ही धार्मिक, सरल हृदय युवक सम झती थी. अब पाखंडी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइए जिस से मेरे भाई की मौत का बदला लिया जा सके.’’

दूसरी ओर एकलौते बेटे की मौत के गम में दीदी तो रोरो कर बेहाल हो गई थीं.

एक दिन मैं दीदी के साथ सो रही थी कि आधी रात को अचानक वे उठ कर बैठ गईं. उन्होंने मु झे  झक झोर कर जगाया और अपना सीना बेचैनी से मलते हुए कहने लगीं, ‘‘लल्ली… लल्ली, मेरे दिल पर बहुत बड़े पाप का बो झ है जिस के चलते मैं कलपकलप कर दिन बिता रही हूं. मेरे दिल का चैन छिन गया है. तेरी दिल्ली वाली वह नहीं जो बाहर से दिखती है. वह गिरी हुई एक औरत है. मैं ने एक गैरमर्द के साथ संबंध बनाए हैं. तेरे जीजाजी नामर्द हैं, सो, मैं बद्रीबाबा की मर्दानगी पर री झ गई थी. जिंदगी में पहली बार मैं किसी पूरे मर्द के संपर्क में आई थी और न जाने क्या हुआ, मैं उस पर अपना सबकुछ लुटा बैठी.

‘‘तेरे जीजाजी की नामर्दी के चलते मैं ने बहुत दिन अपनी देह की आंच में सुलग कर बिताए हैं. बद्रीबाबा की मर्दानगी पर मैं अपना तनमन, सबकुछ लुटा बैठी थी.  झरना और आशीष उसी बद्रीबाबा की संतानें हैं. मैं ने इतने बुरे कर्म किए हैं जिन की सजा विधाता ने मेरे आशीष को मु झ से छीन कर दी है. सच लल्ली, तेरे जीजाजी तो महान पुरुष हैं, सबकुछ जानसम झ कर भी उन्होंने कभी मु झ से एक शब्द तक नहीं कहा. उन्होंने आशीष और  झरना को सगे बाप सा प्यार दिया.

‘‘उसी बद्रीबाबा ने ही चिन्मयानंद की घुसपैठ मेरे घर में कराई और उस ने तेरे जीजाजी को नशे की लत लगा दी है जिस में डूब कर वे व्यापार से अपना ध्यान हटा बैठे हैं. तेरे जीजाजी का सारा व्यापार चिन्मयानंद ने अपने कब्जे में कर लिया था और मैं चिन्मयानंद को अपना मानती रही. उफ, यह मैं ने अपने ही घर में कैसी बरबादी कर डाली,’’ कह कर दीदी फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

‘‘दिल्ली वाली, जो होना था सो तो हो चुका. तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारे साथ हैं. चिंता मत करो. अब बद्रीबाबा और चिन्मयानंद का खेल खत्म हो चुका. वे अब तुम्हारा और अनिष्ट नहीं कर पाएंगे,’’ मैं ने दीदी को सांत्वना दे कर नींद की 2 गोलियां दी थीं जिस से वे नींद की आगोश में समा गई थीं.

इधर, पुलिस ने बद्रीबाबा के ठिकाने पर छापा मारा था जहां से उस ने नशीले पदार्थों का अपार भंडार जब्त किया था. बद्रीबाबा नशीले पदार्थों का व्यापार करता था. उस के ठिकाने पर करीब 25 साधुओं का गिरोह था. सारे साधु भ्रष्ट थे और उन्हें नशीले पदार्थों की लत थी. निसंतान और अन्य समस्याओं से जकड़ी औरतों व उन के परिवारजनों को अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से अपने चंगुल में फंसाना उन का पेशा था. वे अकसर बेऔलाद औरतों को अपनी वासना का शिकार बनाते थे. पुलिस ने बद्रीबाबा समेत सभी 25 साधुओं को गिरफ्तार कर लिया था.

आशीष के क्रियाकर्म के बाद एक दिन  झरना ने मु झे से कहा था, ‘मौसी, मु झे अपने अस्तित्व से घृणा हो गई है. अभी थोड़े दिनों पहले जब से मां ने मु झे बताया था कि मैं ब्रदीबाबा की संतान हूं, मैं इन साधुओं के प्रति अजीब सा अपनापन महसूस करने लगी थी.

‘‘मैं खुद को उन में से एक मानने लगी थी और जब चिन्मयानंद मेरे संपर्क में आया तो मैं उस की ओर बुरी तरह आकर्षित हो गई थी. लेकिन अब मेरा भ्रमजाल पूरी तरह टूट चुका है. ये साधुसंत निरे अपराधी होते हैं. अब तो मु झे मम्मीपापा को संभालना है. पापा को ठीक करना है. उन की नशे की लत छुड़ानी है जिस से वे एक बार फिर से सामान्य, खुशहाल जिंदगी जी सकें.’’

दीदी के घर पर सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मी लगवा कर और उन्हें भलीभांति यह सम झा कर कि वे दोबारा बद्रीबाबा या चिन्मयानंद के किसी चेले या संगीसाथी से बात तक न करें, हम वापस लौट आए थे. लौटते वक्त बस एक ही विचार मन में बारबार आ रहा था कि धर्मभीरुता और सरल स्वभाव का कितना बड़ा खमियाजा चुकाना पड़ा था दिल्ली वाली को.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें