पूर्व कथा
पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि जिस समाज से स्निग्धा विद्रोह करना चाहती थी उसी समाज के एक कुलीन ने उस का सतीत्व लूट लिया और मन भरने के बाद उसे छोड़ दिया. उधर, निशांत, जो उस से एकतरफा प्यार करता था, पांच साल बाद उस की जिंदगी में आया. आगे क्या हुआ.
पढि़ए शेष भाग.
वह सारा दिन उन दोनों ने साथसाथ व्यतीत किया. पालिका बाजार, सैंट्रल पार्क, कनाट प्लेस से ले कर पुराने किले से होते हुए वे इंडिया गेट तक गए और रात 8 बजे तक वहीं बैठ कर उन्होंने जीवन के हर पहलू के बारे में बात की. निशांत हवा के साथ उड़ रहा था तो स्निग्धा के मन में अपने विगत को ले कर एक अपराधबोध था. निशांत हर प्रकार की खुशबू अपने दामन में समेटने के लिए आतुर था तो स्निग्धा संकोच के साथ अपने पांव पीछे खींच रही थी.
निशांत के जीवन की खोई हुई खुशियां जैसे दोबारा लौट आई थीं. उस के जीवन में 5 साल बाद वसंत के फूल महके थे. स्निग्धा को उस के घर के बाहर तक छोड़ कर जब वह वापस लौट रहा था तब उस के कानों में स्निग्धा के मीठे स्वर गूंज रहे थे, ‘बाय निशू, गुड नाइट. एक अच्छे दिन के लिए बहुतबहुत धन्यवाद. आशा है, हम कल फिर मिलेंगे.’
‘हां, कल शाम को मैं तुम्हें फोन करूंगा, ओके.’
स्निग्धा के घर से उस के घर के बीच का रास्ता कितनी जल्दी खत्म हो गया, उसे पता ही न चला. अपने 2 कमरों के किराए के मकान में पहुंच कर उसे लगा, जैसे पूरा घर ताजे फूलों से सजा हुआ हो और उन की मादक सुगंध चारों तरफ फैल कर उस के दिमाग को मदहोश किए दे रही थी. वह एक लंबी सांस ले कर पलंग पर धम से गिर पड़ा.
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उसे स्निग्धा के साथ मिलने के संयोग पर विश्वास नहीं हो रहा था.
विश्वास तो स्निग्धा को भी नहीं हो रहा था. वह अपने कमरे की सीढि़यां चढ़ते हुए यही सोच रही थी कि निशांत से मिलने के बाद क्या उस के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला है. क्या यह परिवर्तन सुखद होगा? कमरे में पहुंची तो उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, जैसे वह फूल की तरह हलकी हो गई थी और उसे लग रहा था कि हवा का एक हलका झोंका भी आया तो वह आसमान में उड़ जाएगी. कोई उसे पकड़ नहीं पाएगा.
उस की रूममेट रश्मि ने जब उस का हंसता हुआ चेहरा देखा तो पहला प्रश्न यही किया, ‘लगता है, तुम्हारा खोया हुआ प्यार तुम्हें मिल गया है?’
उस ने पर्स को मेज पर पटका और रश्मि को गले से लगा कर भींच लिया. रश्मि कसमसा उठी और उसे परे करती हुई बोली, ‘इतना ज्यादा मत इतराओ. अभी एक प्यार की चोट पूरी तरह से भरी नहीं है और फिर से तुम प्यार करने लगी हो. कहां तो समाज की हर चीज से बगावत करने पर तुली हुई थीं, कहां अब एक आम लड़की की तरह बारबार प्यार में इस तरह गिर रही हो, जैसे गीले गुड़ में मक्खी…क्या यही है तुम्हारा आदर्श?’
‘अरे, भाड़ में जाए समाज से विद्रोह. वह मेरी बेवकूफी थी कि मैं नैतिकता को बंधन समझती थी. दरअसल, यही सच्चा जीवनमूल्य है, जो हमें एक नैतिक और मर्यादित बंधन में रख कर समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में मदद करता है. निरंकुश आजादी मनुष्य को गैरजिम्मेदार और तानाशाह बना देती है, जबकि सामाजिक मूल्य हमें एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करते हैं.’
‘वाह, तुम तो एक दिन ही में सारे जीवनमूल्यों को पहचान गईं. किस ने ऐसा गुरुमंत्र दिया है जो अपनी बनाई हुई लीक को तोड़ने पर मजबूर हो गई हो? क्या पहले प्यार में धोखा खाने के बाद तुम्हें यह एहसास हुआ है या किसी ने तुम्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति का पाठ पढ़ाया है?’
वह पलंग पर बैठती हुई बोली, ‘नहीं रश्मि, बहुतकुछ हम अपने अनुभवों से सीखते हैं और बहुतकुछ हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से. इस से कुछ कटु अनुभव होते हैं और कुछ मृदु. यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि अपने द्वारा किए गए गलत कामों के कटु अनुभवों से हम क्या सीखते हैं और हम किस प्रकार अपने को बदल कर सही मार्ग पर आते हैं.
समाज में हर चीज गलत नहीं होती. हमें अपने विवेक से देखना पड़ता है कि क्या सही है, क्या गलत. सामाजिक कुरीतियां, अंधविश्वास, अति पूजापाठ और धर्मांधता अगर बुरे हैं तो शादीब्याह जैसी संस्थाएं बुरी नहीं हैं. यह परिवार और समाज को एक बंधन में बांध कर राष्ट्र को मजबूत बनाने में मदद करती हैं. मेरी गलती थी कि मैं समाज की हर चीज को बुरा समझने लगी थी. मनमाने ढंग से जीवन जीने का परिणाम क्या हुआ? एक व्यक्ति जिसे मैं अपना समझती थी कि वह जीवनभर मेरा साथ देगा, मेरे सुखदुख बांटेगा, वही मेरा उपभोग कर के एक किनारे हो गया.
‘यही काम अगर मैं शादी कर के करती तो समाज में गर्व से अपना सीना तान कर चल सकती थी. आज मैं अपने मांबाप, परिजनों और संबंधियों के सामने नहीं पड़ सकती, उन को अपना मुंह नहीं दिखा सकती. इतनी नैतिक शक्ति मेरे पास नहीं है,’ और उस के चेहरे पर फिर से पहले जैसी उदासी व्याप्त हो गई.
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रश्मि बहुत समझदार लड़की थी. वह उस के पास आ कर उस के सिर पर हाथ रख कर बोली, ‘तुम बहुत साहसी लड़की हो. कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारतीं. आज तुम कितना खुश थीं. मुझे अफसोस है कि मैं ने तुम्हारी दुखती रग पर हाथ रख कर तुम्हें ज्यादा दुखी कर दिया. चलो, भूल जाओ अपना अतीत और नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो. अब मैं तुम से पिछले जीवन के बारे में कोई बात नहीं करूंगी. बस, तुम खुश रहा करो.’
‘मैं खुश हूं, रश्मि,’ उस ने हंसने का खोखला प्रयास किया और बाथरूम की तरफ जाती हुई बोली, ‘तुम देखना, मैं हमेशा हंसतीमुसकराती रहूंगी.’
‘ये हुई न कोई बात.’
स्निग्धा ने अपने मन को इतना कठोर बना लिया था कि राघवेंद्र के साथ व्यतीत किए गए जीवन के कड़वे पलों को पूरी तरह भुला दिया था. अगर कभी यादें उसे हरा देतीं तो उस को उबकाई आने लगती.
आज वह एक सच्चे प्यार की तलाश में थी, तन की भूख की अब उस में कोई ललक नहीं थी.
रश्मि एक कौल सैंटर में काम करती थी. लखनऊ की रहने वाली थी. स्निग्धा से उस की मुलाकात इसी गैस्ट हाउस में हुई थी. रश्मि पहले से यहां रह रही थी. बाद में स्निग्धा आ गई तो उन्होंने एकसाथ एक कमरे में रहने का निर्णय लिया. इस से उन पर किराए का बोझ कम हो गया था.
स्निग्धा जब से आई थी, बहुत उदास और गुमसुम सी रहती थी. बहुत पूछने और साथ रहने के कारण स्निग्धा ने उस से अपने जीवन की बहुत सारी बातें बांट ली थीं. रश्मि ने भी उसे अपने बारे में बहुतकुछ बताया था. धीरेधीरे स्निग्धा खुश रहने लगी थी परंतु आज बाहर से आने के बाद वह जितना खुश थी उतना दिल्ली आने के बाद कभी नहीं रही.
स्निग्धा दिल की बुरी नहीं थी. अत्यधिक प्यारदुलार और अनुचित छूट से वह उद्दंड और उच्छृंखल हो गई थी. वह हर उस काम को करती थी जिसे करने के लिए उसे मना किया जाता था. इस से उसे मानसिक संतुष्टि मिलती. जब लोग उसे भलाबुरा कहते और उस की तरफ नफरतभरी नजर से देखते तो उसे लगता कि उस ने इस संसार को हरा दिया है, यहां के लोगों को पराजित कर दिया है. वह इन सब से अलग ही नहीं, इन सब से महान है. दूसरे लोगों के बारे में उस की सोच थी कि ये लोग परंपराओं और मर्यादाओं में बंधे हुए गुलामों की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं.
शादी को वह एक बंधन समझती थी. इसे स्त्री की पुरुष के प्रति गुलामी समझती थी. उस की सोच थी कि शादी करने के बाद पुरुष केवल स्त्री पर अत्याचार करता है. इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह शादी कभी नहीं करेगी.
परंतु बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रहना उसे अनुचित न लगा.
उसे इलाहाबाद के वे दिन याद आते हैं जब राघवेंद्र के साथ रहते हुए पीठ पीछे उसे लोग न जाने किनकिन विशेषणों से संबोधित करते थे, जैसे- ‘चालू लड़की’, ‘चंट’, ‘छिछोरी’, ‘रखैल’ आदिआदि. तब उसे इन संबोधनों से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह किसी की बात पर कान नहीं धरती थी. वह बेफिक्री का आलम था और राघवेंद्र जैसे राजनीतिक नेता से उस का संपर्क था. वह सातवें आसमान पर थी और जमीन पर चल रहे कीड़ेमकोड़ों से वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी. उन दिनों उसे अच्छी बात अच्छी नहीं लगती थी और बुरी बात को वह सुनने के लिए तैयार नहीं थी. लोग उस के बारे में क्या सोचते थे, इस से उस को कोई लेनादेना नहीं था.
स्निग्धा के जीवन के साथ खिलवाड़ करने के लिए केवल राघवेंद्र ही जिम्मेदार नहीं था, इस के लिए स्निग्धा स्वयं जिम्मेदार और दोषी थी. अपनी गलती से उस ने सबक लिया था कि परंपराओं का उल्लंघन हमेशा उचित नहीं होता. राघवेंद्र ने भी स्निग्धा के शरीर से खेलने के बाद उसे छोड़ कर अच्छा नहीं किया था. इस प्रकार के चरित्र से उस का राजनीतिक जीवन तहसनहस हो गया था. इलाहाबाद बहुत आधुनिक शहर नहीं था कि बिना ब्याह के स्त्रीपुरुषों के संबंधों को आसानी से स्वीकार कर लेता. अगले आम चुनाव में उसे पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया. उस ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, परंतु बुरी तरह हार गया.
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स्निग्धा को आज एहसास हो रहा था कि अपने अति आत्मविश्वास के कारण मांबाप द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का उस ने नाजायज फायदा उठाया था और अपने पांवों को गंदे दलदल में फंसा दिया था. वह अपने परिवार, संबंधियों और परिचितों से दूर हो गई. दोस्त उस का साथ छोड़ गए और आज वह इतनी बड़ी दुनिया में अकेली है. कोई उसे अपना कहने वाला नहीं है. थोड़ी देर के लिए अगर कोई सुखदुख बांटने वाला है तो वह है रश्मि, जो सच्चे मन से उस की बात सुनती है और सलाह देती है.
दिल्ली आ कर वह अपने इलाहाबाद के दिनों की कड़वी यादों को भुलाने में काफी हद तक सफल हो गई थी. वहां रहती तो शहर के रास्तों, गलीकूचों और बागबगीचों से गुजरते हुए अपने कटु अनुभवों को भुला पाना उस के लिए आसान न था. अब निशांत से मिलने के बाद क्या वह अपना पिछला जीवन भूल सकेगी? उस के मन में कोई फांस तो नहीं रह जाएगी कि वह निशांत को धोखा दे रही है. परंतु वह ऐसा क्यों सोच रही है? क्या वह समझती है कि निशांत उसे अपना बना लेगा? उस के दिल में एक टीस सी उठी. अगर निशांत ने उसे ठुकरा दिया तो. इस तो के आगे उस के पास कोई जवाब नहीं था. हो भी नहीं सकता था, परंतु संसार में क्या अच्छे पुरुषों की कमी है? अगर वह चाहती है कि शादी कर के अपना घर बसा ले और एक आम गृहिणी की तरह जीवन व्यतीत करे तो उसे कौन रोक सकता था. निशांत न सही, कोई भी पुरुष उस का हाथ थामने के लिए तैयार हो जाएगा. उस में कमी क्या है?
सच तो यह है कि आज पहली बार उस का दिल सच्चे मन से किसी के लिए धड़का है और वह है निशांत.
स्निग्धा को बाराखंभा वाली जौब मिल गई, उस के जीवन में खुशियों के पलों में इजाफा हो गया, लेकिन जीवन में एक ठहराव सा था. पुरुष हो या स्त्री, एकाकी जीवन दोनों के लिए कष्टमय होता है. यह बात निशांत भी जानता था और स्निग्धा भी, परंतु अभी तक उन्होंने अपने मन की पर्तों को नहीं खोला था. ताश के खिलाडि़यों की तरह दोनों ही अपनेअपने पत्ते छिपा कर चालें चल रहे थे.
प्रतिदिन शाम को वे दोनों मिलते थे. मिलने की एक निश्चित अवधि थी और निश्चित स्थान. इंडिया गेट के लंबेचौड़े, खुले मैदान. कभी बैठ कर, कभी घास पर चलते हुए और कभी फूलों के पौधों के किनारे चलते हुए वे दुनियाजहान की बातें करते, वहां घूम रहे लोगों के बारे में बातें करते, चांदतारों की बातें करते और लैंपपोस्ट की हलकी रोशनी में एकदूसरे की आंखों में चांद ढूंढ़ने की कोशिश करते.
उन को मिलते हुए कई महीने बीत गए. चांद अभी भी उन की पकड़ से दूर था. स्निग्धा पहले जितनी वाचाल और चंचल थी, अब उतनी ही अंतर्मुखी हो गई थी या शायद निशांत के संसर्ग में आ कर उस के जैसी हो गई थी. यह उस के स्वभाव के विपरीत था, परंतु मानव मन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है. स्निग्धा उस के सामने अपने मन को बहुत ज्यादा नहीं खोल सकती थी, क्योंकि निशांत उस के बारे में सबकुछ जानता था. परंतु वह न तो उस के भूतकाल की कोई बात करता, न भविष्य के बारे में कोई बात. दोनों के बीच अनिश्चितता का एक लंबा ऊसर पसरा हुआ था. क्या इस ऊसर में प्यार का कोई अंकुर पनपेगा?
वोट क्लब के छोटेछोटे कृत्रिम तालाबों के किनारे चलते हुए निशांत ने पूछा, ‘जीवनभर अकेले ही रहने का इरादा है या कुछ सोचा है?’
‘क्या मतलब…?’ उस ने आंखों को चौड़ा कर के पूछा.
निशांत गंभीर था.
‘मांबाप के पास जाने का इरादा है?’ निशांत ने घुमा कर पूछा.
स्निग्धा के हृदय में कुछ चटक गया. फिर भी अपने को संभाल कर कहा, ‘उस तरफ के सारे रास्ते मेरे लिए बंद हो चुके हैं. न मुझ में इतना साहस है, न कोई इच्छा. उन के पास जा कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे ही इस संसार सागर को पार करना है, अकेले या किसी के साथ?’ उस का स्वर भीगा हुआ था.
‘किस के साथ?’ निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.
स्निग्धा के शरीर में एक मीठी सिहरन दौड़ गई. वह सिमटते हुए बोली, ‘जो भी मेरे मन को समझ लेगा.’
‘तो कोई ऐसा मिला है?’ वह जैसे उस के मन को परखने का प्रयास कर रहा था. स्निग्धा मन ही मन हंसी, ‘तो मुझ से बनने की कोशिश की जा रही है.’
वह आसमान की तरफ देखती हुई बोली, ‘देख तो रही हूं, सूरज के रथ पर सवार हो कर कोई औरों से बिलकुल अलग एक पुरुष मेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है,’ आसमान में तारों का साम्राज्य था. चांद कहीं नहीं दिख रहा था, परंतु तारों की झिलमिलाहट आंखों को बहुत भली लग रही थी.’
‘परंतु आसमान में तो कहीं सूरज नहीं है, फिर उस का रथ कहां से आएगा?’ उस ने चुटकी ली.
‘अभी रात्रि है. रथ में जुते घोड़े थक गए हैं, वे विश्राम कर रहे हैं. कल फिर यात्रा मार्ग पर निकलेंगे,’ वह हंसी.
‘अच्छा, तो कल शाम तक यहां पहुंच जाएंगे?’
‘कह नहीं सकती. मार्ग लंबा है, समय लग सकता है,’ वह जमीन पर देखने लगी.
निशांत ने उस की कमर में हाथ डाल दिया. वह उस से सट गई.
‘जब सूरज का रथ तुम्हारे पास आ जाए तो उस पुरुष को ले कर मेरे पास आना, मेरे घर.’
‘अवश्य.’
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एक दिन स्निग्धा ने मिलते ही एटम बम फोड़ा.
‘मैं तुम्हारे घर आना चाहती हूं.’
‘क्या सूरज का रथ और वह पुरुष आ चुका है?’ उस ने मुसकराती आंखों से स्निग्धा को देखते हुए पूछा.
‘हां,’ उस ने शरमाते हुए कहा.
‘कहां है?’
‘तुम्हारे घर पर ही उस से मिलवाऊंगी.’
‘तो फिर मुझे 2 दिन का समय दो. आने वाले इतवार को मैं घर पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. ढूंढ़ लोगी न, भटक तो नहीं जाओगी?’
‘अब कभी नहीं,’ स्निग्धा ने आत्मविश्वास से कहा.
अगले इतवार को स्निग्धा उस के घर पर थी और कुछ ही महीनों बाद उस की बांहों में. कुछ साल में वह 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. यह तो बताने की जरूरत नहीं पर दोनों बच्चे मां से ज्यादा दादादादी से चिपटे रहते और दादादादी बहू के बिना न कहीं जाते न उस से पूछे बिना कुछ करते. निशांत कई बार कहता, ‘‘तुम भी अजीब हो, मैं ने तुम्हें पाया, बदले में मेरे मातापिता को छीन कर तुम ने अपनी तरफ कर लिया.’’