किट्टी की किटकिट

अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है जब किट्टी पार्टियां केवल अमीर घरों की महिलाओं का शौक होती थीं. आजकल महानगरों में ही नहीं वरन छोटेछोटे शहरों में भी किट्टी पार्टियां आयोजित की जाती हैं और मध्यवर्गीय परिवारों की गृहिणियां भी पूरे जोशखरोश के साथ इन पार्टियों में शिरकत कर के गौरवान्वित महसूस करती हैं.

अमूमन इन पार्टियों का समय लगभग 11 से 1 बजे के बीच रखा जाता है जब पतिदेव औफिस और बालगोपाल स्कूल जा चुके होते हैं. उस समय घर पर गृहस्वामिनी का निर्विघ्न एवं एकछत्र राज होता है. हर छोटेबड़े शहर में चाहे कोई महल्ला हो, सोसायटी हो, मल्टी स्टोरी बिल्डिंग हो, इन पार्टियों का दौर किसी न किसी रूप में चलता रहा है.

इन पार्टियों की खासीयत यह होती है कि टाइमपास के साथसाथ ये मनोरंजन का भी अच्छा जरीया होती हैं जहां, गृहिणियां गप्पें लड़ाने के साथसाथ हंसीठिठोली भी करती हैं और एकदूसरे के कपड़ों व साजशृंगार का बेहद बारीकी से निरीक्षण भी करती हैं. किट्टी पार्टियों की मैंबरानों में सब से महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि सब से सुंदर एवं परफैक्ट दिखने की गलाकाट होड़ चलती रहती है, जिस का असर बेचारे मियांजी की जेब को सहना पड़ता है.

मैचिंग पर्स, मैचिंग ज्वैलरी और सैंडल की जरूरत तो हर किट्टी में लाजिम है. ऐतराज जताने की हिम्मत बेचारे पति में कहां होती है. यदि उस ने भूल से भी श्रीमतीजी से यह पूछने की गुस्ताखी कर दी कि क्यों हर महीने फालतू खर्चा करती हो, तो अनेक तर्क प्रस्तुत कर दिए जाते हैं जैसे मिसेज चोपड़ा तो हर किट्टी में अलगअलग डायमंड और प्लैटिनम के गहने पहन कर आती हैं. मैं तो किफायत में आर्टिफिशियल ज्वैलरी से ही काम चला लेती हूं. यदि मैं सुंदर दिखती हूं, अच्छा पहनती हूं तो सोसायटी में तुम्हारी ही इज्जत बढ़ती है. इन तर्कों के आगे बहस करने का जोखिम पतिदेव उठा नहीं पाते और बात को वहीं खत्म करने में बुद्धिमानी समझते हैं.

किट्टी पार्टियों में पैसों का लेनदेन भी जोर पकड़ता जा रहा है. पहले जहां किट्टी पार्टियां क्व500 से ले कर क्व1000 तक की होती थीं, वहीं आजकल इन में जमा होने वाली राशि क्व2 हजार से ले कर क्व10 हजार तक हो गई है.

श्रीमतीजी हर महीने पतिदेव से यह कह कर किट्टी के नाम पर पैसे वसूल लेती हैं कि तुम्हारे पैसे कहीं भागे थोड़े जा रहे हैं. जब मेरी किट्टी पड़ेगी तो सारे पैसे वापस घर ही तो आने हैं. मगर यह सच ही है कि कथनी एवं करनी में बड़ा अंतर होता है.

जब किट्टी के पैसे श्रीमतीजी के हाथ लगते हैं तो सालों से दबी तमन्नाएं अंगड़ाइयां लेने लगती हैं. उन के मनमस्तिष्क में अनेक इच्छाएं जाग्रत हो जाती हैं जैसे इस बार डायमंड या गोल्ड फेशियल कराऊंगी सालों से फू्रट फेशियल से ही काम चलाया है. बच्चों  की बोतल स्टील वाली ले लेती हूं. पानी देर तक ठंडा रहता है. अगली किट्टी में पहनने के लिए एक प्लाजो वाला सूट सिलवा लेती हूं. लेटैस्ट ट्रैंड है, पायलें पुरानी हो गई हैं कुछ पैसे डाल कर नई ले लेती हूं.

वे एक शातिर मैनेजर की तरह धीरेधीरे अपनी योजनाओं का क्रियान्वयन भी कर लेती हैं. अगर कभी नई बोतल देख पतिदेव ने पूछ लिया कि यह कब ली तो उस के जवाब में कड़ा तर्क कि बच्चों की सुविधाओं में मैं कंजूसी कभी नहीं करूंगी. अपना काम मैं चाहे जैसे भी चला लूं. इन ठोस तर्कों के आगे श्रीमानजी निरुत्तर हो जाते हैं.

आजकल किट्टी पार्टियां कई प्रकार की होने लगी हैं जैसे सुंदरकांड की किट्टी पार्टी जिस में मंडली इकट्ठा हो कर भजनकीर्तन के बाद ठोस प्रसाद ग्रहण करती है, हंसीठिठोली करती है और फिर एकदूसरे से बिदा लेती है.

अमीर तबके की महिलाएं तो थीम किट्टी करती हैं जैसे सावन में हरियाली जिस में हरे वस्त्र, आभूषण पहनने अनिवार्य हैं या जाड़ों में क्रिसमस थीम जहां लाल एवं श्वेत वस्त्रधारी मैंबरान का स्वागत सैंटाक्लाज करता है या फिर वैलेंटाइन थीम, ब्लैक ऐंड व्हाइट किट्टी या विवाह की थीम भी रखी जाती है जहां मैंबरानों के लिए अपनी शादी के दिनों में प्रयोग किए वस्त्र या आभूषण पहनने जरूरी होते हैं.

किट्टी की मैंबरान भी कई प्रकार की होती हैं जैसे अगर अर्ली कमिंग पर गिफ्ट है और किट्टी शुरू होने का निर्धारित समय 12 बजे है तो वे गिफ्ट के आकर्षण में बंधीं अपनेआप को समय की पाबंद दिखाते हुए तभी डोरबैल बजा देती हैं, जब 12 बजने में अभी 25 मिनट बाकी होते हैं. उधर बेचारी मेजबान अभी एक ही आंख में लाइनर लगा पाती है. वह मन ही मन कुढ़ती पर चेहरे पर झूठी मुसकान लिए आगंतुकों को बैठा कर अधूरा मेकअप पूरा करती है.

वहीं दूसरी प्रकार की किट्टी मेजबान ऐसी होती है कि वह अपनी पूरी ऊर्जा, समय और पैसा किट्टी से पहले इस बात में व्यय करती है कि उस की मेजबानी सर्वश्रेष्ठ हो. वह किट्टी से पहले परदे, कुशनकवर तो लगाती ही है, साथ ही बजट की परवाह किए बगैर 4-5 व्यंजन भी पार्टी में परोसती है ताकि हर मैंबरान मुक्त कंठ से उस की मेजबानी की प्रशंसा करे और वह खुशी के मारे फूलफूल कुप्पा होती रहे.

किट्टी पार्टी की कुछ सदस्य तो भाग्यशाली सिद्ध हो चुकी होती हैं कि चाहे जो भी हो तंबोला में वे खूब पैसे जीतती हैं. इस के विपरीत कुछ सदस्य तो जोशीली मुद्रा के साथ गेम्स जीतने के लिए जान की बाजी लगाने से गुरेज नहीं करती हैं. उन्हें हर हाल में गेम जीतना ही होता है. भले उन का मेकअप बिगड़ जाए, बाल खराब हो जाएं. अगर उस दिन भाग्य ने उन का साथ नहीं दिया तो झल्लाहट और खिसियाहट में किसी न किसी सहेली से उन का झगड़ा जरूर हो जाता है.

किट्टी में कुछ नजाकत एवं नफासत वाली मैंबरान भी होती हैं, जिन का उद्देश्य गेम जीतना कतई नहीं होता, वे संपूर्ण सजगता एवं सौम्यता से अपनी साड़ी का पल्लू, नैनों के काजल, मसकारा का खयाल रखते हुए गेम खेलने की औपचारिकता पूरी करती हैं.

एक अन्य प्रकार की मैंबरान ऐसी होती हैं जो गेम से पूर्व ही अपना रक्तचाप बढ़ा लेती हैं. उन का पेट बगैर कपालभाति के फूलनेपिचकने लगता है. वे स्वभावत: डरपोक किस्म की होती हैं जो अपनी पारी से पहले लघुशंका का निवारण करने जरूर जाती हैं. पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा लगता है कि कहां फंस गईं. खेलकूद उन के बस का नहीं है. वे हार कर भी राहत की सांस लेती हैं यह सोच कर कि चलो उन की पारी निकल गई. बला टली.

जहां कुछ मेजबान जबरदस्त दिलदार होती हैं वहीं कुछ परले दर्जे की कंजूस जो कम से कम बजट में किट्टी निबटा देती हैं. इस प्रकार की मैंबरान गिफ्ट भी सोचसमझ कर चुनती हैं ताकि रुपयों की ज्यादा से ज्यादा बचत हो सके.

किट्टी पार्टी के दौरान ज्यादातर कुछ प्रौढ़ एवं जागरूक महिलाएं विचार रखती हैं कि अगली बार से खाने और मौजमस्ती के साथसाथ कुछ रचानात्मक एवं सृजनात्मक कल्याणकारी योजनाएं भी रखी जाएं, पर ये बातें सब की सहमति के बावजूद अगली किट्टी में हवाहवाई हो जाती हैं.

किट्टी पार्टी कुछ बहुओं के लिए अपनी सासों को महिलामंडित करने का एक मौका भी होता है जो वे घर में नहीं कर पातीं. वहीं कुछ सासों के लिए बहुओं की मीनमेख निकालने का भी मौका होता है. कुछ तो इतनी समर्पित किट्टी मैंबरान होती हैं कि चाहे कोई भी बाधा आ जाए काम वाली छुट्टी कर जाए, बच्चों की तबीयत खराब हो वे उन्हें बुखार की दवा दे कर भी किट्टी में जरूर उपस्थित होती हैं.

किट्टी पार्टियों का एक दूसरा संजीदा पहलू यह भी है कि भारतीय गृहिणियां किट्टी के माध्यम से ही थोड़ी देर के लिए स्वयं से रूबरू होती हैं और उस के बाद वे नई ऊर्जा, नवउत्साह के साथ अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं.

भारतीय मध्यवर्गीय समाज की मानसिकता के अनुसार किट्टी पार्टियों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता. जो महिलाएं किट्टी पार्टियां करती हैं उन्हें ज्यादातर स्वच्छंद एवं उच्शृंखल महिलाओं की श्रेणी में रखा जाता है, क्योंकि चाहे वे परिवार के लिए कितनी भी समर्पित रहें, परंतु यदि वे स्वयं के मनोरंजन हेतु कहीं सम्मिलित होती हैं, तो समाज उन्हें कठघरे में खड़ा करता है, हेय दृष्टि से देखता है, मेरे विचार से यह गलत है.

भारतीय गृहिणियां ताउम्र सुबह से शाम तक साल के बारहों महीने सिर्फ अपने घरपरिवार और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठा से पूर्ण करती हैं. उन का इतना हक तो बनता ही है कि जीवन के कुछ पल स्वयं के लिए बिना किसी आत्मग्लानि के व्यतीत करें और समाज उन के नितांत पलों को प्रश्नवाचक दृष्टि से न देखे. अंत में मैं इन पंक्तियों के साथ किट्टी की किटकिट को विराम देती हूं-

व्यतीत करना चाहती हूं,

सिर्फ एक दिन खुद के लिए,

जिस में न जिम्मेदारियों का दायित्व हो,

न कर्तव्यों का परायण,

न कार्यक्षेत्र का अवलोकन हो,

न मजबूरियों का समायन,

बस मैं,

मेरे पल,

मेरी चाहतें और

मेरा संबल,

मन का खाऊं,

मन का पहनूं,

शाम पड़े सखियों से गपशप,

फिर से जीना चाहती हूं,

एकसाथ में बचपन यौवन,

काश, मिले वो लमहे मुझे,

एक दिन अगर जी पाती हूं.

ममा आई हेट यू : क्या आद्या की मां से नफरत खत्म हो पाई?

‘‘आद्या,तुम्हारी मम्मी का फोन है,’’ अपनी बेटी संगीता का फोन आने पर शोभा ने अपनी 10 साल की नातिन को आवाज देते हुए कहा. वह दूसरे कमरे में टैलीविजन देख रही थी. जब कोई उत्तर नहीं मिला तो वे उठ कर उस के पास गईं और अपनी बात दोहराई.

‘‘उफ, नानी मैं ने कितनी बार कहा है कि मुझे उन से कोई बात नहीं करनी. फिर आप क्यों मुझे बारबार कहती हो बात करने को?’’ आद्या ने लापरवाही से कहा.

शोभा उस के उत्तर को जानती थीं, लेकिन वे अपनी बेटी संगीता को खुद उत्तर न दे कर आद्या की आवाज स्पीकर पर सुनवा कर उस से ही दिलवाना चाहती थीं वरना संगीता उन पर इलजाम लगाती कि वही उस की बेटी से बात नहीं करवाना चाहती.

फोन बंद करने के बाद शोभा ने आद्या की मनोस्थिति पता करने के लिए उस से कहा, ‘‘बेटा, वह तुम्हारी मां है. तुम्हें उन से बात करनी चाहिए…’’

अभी उन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि आद्या चिल्ला कर बोली, ‘‘यदि उन्हें मेरी जरा भी चिंता होती तो इस तरह मुझे छोड़ कर दूसरे आदमी के साथ नहीं चली जातीं… मेरी फ्रैंड वान्या को देखो, उस की मां उस के साथ रहती हैं और उसे कितना प्यार करती हैं. जब से मैं ने मां को फेसबुक पर किसी दूसरे आदमी के साथ देखा है, मुझे उन से नफरत हो गई है, अमेरिका में ममा और पापा के साथ रहना मुझे कितना अच्छा लगता था, लेकिन ममा को पापा से झगड़ा कर के इंडिया आते समय एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया कि मेरा क्या होगा…मैं पापा के बिना रहना चाहती हूं या नहीं… पापा ने भी तो मुझे एक बार भी नहीं रोका… और फिर यहां आ कर उन्हें भी मुझ से अलग ही रहना था तो फिर मुझे पैदा करने की जरूरत ही क्या थी… मैं जब अपनी फ्रैड्स को अपने मम्मीपापा के साथ देखती हूं, तो कितना ऐंब्रैस फील करती हूं… आप को पता है? और वे सब मुझे इतनी सिंपैथी से देखती हैं. जैसे मैं ने ही कोई गलती की है… ऐसा क्यों नानी? मैं जानती हूं, ममा मुझ से फोन पर क्या कहना चाहती हैं… वे चाहती हैं कि मैं अपने अमेरिका में रहने वाले पापा से कौंटैक्ट करूं, ताकि वे मुझे अपने पास बुला लें और उन का मुझ से  हमेशा के लिए पीछा छूट जाए. उस के बाद वे मुझ से मिलने के बहाने अमेरिका आती रहें, क्योंकि आप को पता है न कि अमेरिका में रहने के लिए ही उन्होंने एनआरआई से लवमैरिज की थी. हमेशा तो फोन पर मुझ से यही पूछती हैं कि मैं ने उन से बात की या नहीं, लेकिन नानी मैं उन के पास नहीं जाना चाहती. मैं तो आप के पास ही रहना चाहती हूं. मैं ममा से कभी बात नहीं करूंगी, ममा आई हेट यू… आई हेट हर… नानी.

आद्या ने एक ही सांस में सारा आक्रोश उगल दिया और किसी अपने बिस्तर पर औंधी हो कर रोने लगी.

शोभा अवाक उस की बातें सुनती रह गईं कि इतनी छोटी उम्र में आद्या को हालात ने कितना परिपक्व बना दिया था.

आद्या के तर्क को सुनने के बाद शोभा गहरे सोच में डूब गईं. इतना समझाने के बाद भी कि अमेरिका में इतनी दूर रहने वाले लड़के के चरित्र के बारे में क्या गारंटी है, विवाह का निर्णय लेने के लिए सिर्फ फेसबुक की जानपहचान ही काफी नहीं है. लेकिन उन की बेटी संगीता ने एक नहीं सुनी और जिद कर के उस से विवाह किया था

विवाह के सालभर बाद ही आद्या पैदा हो गई. उस के पैदा होने के समय शोभा अमेरिका गई थी, लेकिन सुखसुविधा की कोई कमी न होते हुए भी घर में हर समय कलह का वातवरण ही रहता था, क्योंकि राहुल की आदतें बहुत बिगड़ी हुई थीं. उस के विवाह करने का एकमात्र उद्देश्य तो पत्नी के रूप में अनपेड मेड लाना था.

एक दिन ऐसा आया जब संगीता 4 साल की आद्या को ले कर भारत उन के पास लौट आई, लेकिन संगीता को अमेरिका के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की इतनी आदत पड़ गई थी कि उस का अपनी आईटी कंपनी की नौकरी से गुजारा ही नहीं होता था.

4 साल बीततेबीतते उस ने अपने मातापिता को बताए बिना किसी बड़े बिजनैसमैन से दूसरी शादी कर ली. वह उस से विवाह करने के लिए इसी शर्त पर राजी हुआ कि वह अपनी बेटी को साथ नहीं रखेगी.

धीरेधीरे उम्र के साथ आद्या को सारे हालात समझ में आने लगे और उस का अपनी मां के लिए आक्रोश भी बढ़ने लगा, जिस की प्रतिक्रिया औरौं पर भी दिखने लगी. वह कुंठित हो कर अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाने लगी. अपनी नानी से भी हर बात में तर्क करने लगी थी. स्कूल से आने के बाद वह घर में टिकती ही नहीं थी. उस की अपनी कालोनी में ही 2-3 लड़कियों से दोस्ती हो गई थी. उन के साथ ही सारा दिन रहती थी.

वहां रहने वाले परिवारों के लोग भी उस की बदसलूकी की उस की नानी से शिकायत करने लगे तो शोभा को बहुत चिंता हुई, लेकिन वह समझाने से भी कुछ समझना नहीं चाहती थी उस का व्यवहार जब सीमा पार करने लगा तो शोभा उसे एक काउंसलर के पास ले गईं. उस ने आद्या से बहुत सारे प्रश्न पूछे. उस का जीवन के प्रति नकारात्मक सोच देख कर उन्होंने शोभा को समझाया कि जोरजबरदस्ती उस से कोई कार्य न करवाया जाए और डांटने से स्थिति और बिगड़ जाएगी. जहां तक हो उसे प्यार से समझाने की कोशिश की जाए.

काउंसलर के कथन का भी आद्या पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. उस के बाद से वह शोभा को इमोशनली ब्लैकमेल करने लगी. जब भी शोभा उसे कुछ समझातीं तो वह तुरंत कहती, ‘‘आप को डाक्टर साहब ने क्या कहा था. कि मेरे मामलों में ज्यादा दखलंदाजी न करें. मेरी तबीयत ठीक नहीं है… आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ कि ममापापा ने मुझे अपने से अलग कर दिया है. आखिर मेरा कुसूर क्या है? इतना कह कर वह रोने लगती और फिर खाना छोड़ कर खुद को कमरे में बंद कर लेती.

अपरिपक्व उम्र की होने के कारण

उसे इस बात की समझ ही नहीं थी कि उस के इस तरह के व्यवहार से उस की नानी कितनी आहत होती हैं, वे कितनी असहाय हैं, उस की इस स्थिति की दोषी वे तो बिलकुल नहीं है.

शोभा ने उसे बहुत समझाया कि उस के तो नानानानी हैं उसे बहुत समझाया कि उस के तो नानानानी हैं उसे संभालने के लिए, बहुत सारे बच्चों को तो कोईर् देखने वाला भी नहीं होता और अनाथाश्रम में पलते हैं. इस के जवाब में आद्या बोलती कि अच्छा होता वह भी अनाथाश्रम में पलती, कम से कम उसे अपने मातापिता के बारे में तो पता नहीं होता कि वे स्वयं तो मौज की जिंदगी काट रहे हैं और उसे दूसरों के सहारे छोड़ दिया है.

शोभा आद्या का व्यवहार देख कर बहुत चिंतित रहती थीं, उन्हें अपनी बेटी संगीता पर बहुत गुस्सा आता कि विवाह करने से पहले एक बार तो उस ने अपनी बेटी के बारे में सोचा होता कि वह क्या चाहती है? आखिर वह उसे दुनिया में लाई है, तो उस के प्रति भी तो उस की कोई जिम्मेदारी बनती है. कोई मां इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती है. उस के गलत कदम उठाने की सजा उन्हें और आद्या को भुगतनी पड़ रही है. जवाब में वह कहती कि वह आद्या के लिए कुछ भी करेगी. बस अपने साथ ही तो नहीं रख सकती.

ज्यादा समस्या है तो उसे होस्टल में डाल देगी.

शोभा को उस की बातें इतनी हास्यास्पद लगतीं कि उस की बेटी की इतनी भी समझ नहीं है कि पहले के जमाने की उपेक्षा नए जमाने के बच्चे को पालना कितना जटिल है और वह भी ऐसे बच्चे को, जो सामान्य वातावरण में नहीं पल रहा.

किसी ने सच ही कहा है कि बच्चे की सही परवरिश उस के मातापिता ही कर सकते हैं और मांबाप में अलगाव की स्थिति में किसी एक के द्वारा उसे प्यार और उस की देखभाल के लिए उसे समय देना जरूरी है वरना बच्चा दिशाहीन हो कर भटक सकता है. केवल भौतिक सुख ही उस के सही पालनपोषण के लिए पर्याप्त नहीं होते.

जिन बच्चों के मातापिता उन्हें बचपन में ही किसी न किसी कारण अपने से अलग कर देते हैं, वे अधिकतर बड़े होने पर सामान्य व्यक्तित्व के न हो कर दब्बू, आत्मविश्वासहीन और अपराधिक प्रवृत्ति के बन जाते हैं, क्योंकि बच्चे जितना अपने मातापिता की परवरिश में अनुशासित बन सकते हैं उतना किसी के भी साथ रह कर नहीं बल्कि स्थितियों का लाभ उठा कर इमोशनली ब्लैकमेल करते हैं और दया का पात्र बन कर ही आत्मसंतुष्टि महसूस करते हैं. मातापिता की जिम्मेदारी है कि विशेष स्थितियों को छोड़ कर अपने किसी स्वार्थवश बच्चों को किसी के सहारे न छोड़े, नानीदादी के सहारे भी नहीं. बच्चा पैदा होने के बाद उन का प्राथमिक कर्तव्य बच्चों का पालनपोषण ही होना चाहिए, क्योंकि वे ही उन्हें प्यार दे सकते हैं.

रीवा की लीना : समाज की रोकटोक और बेड़ियों से रीवा और लीना आजाद हो पाई ?

डलास (टैक्सास) में लीना से रीवा की दोस्ती बड़ी अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. मार्च महीने के शुरुआती दिन थे. ठंड की वापसी हो रही थी. प्रकृति ने इंद्रधनुषी फूलों की चुनरी ओढ़ ली थी. घर से थोड़ी दूर पर झील के किनारे बने लोहे की बैंच पर बैठ कर धूप तापने के साथ चारों ओर प्रकृति की फैली हुई अनुपम सुंदरता को रीवा अपलक निहारा करती थी. उस दिन धूप खिली हुई थी और उस का आनंद लेने को झील के किनारे के लिए दोपहर में ही निकल गई.

सड़क किनारे ही एक दक्षिण अफ्रीकी जोड़े को खुलेआम कसे आलिंगन में बंधे प्रेमालाप करते देख कर वह शरमाती, सकुचाती चौराहे की ओर तेजी से आगे बढ़ कर सड़क पार करने लगी थी कि न जाने कहां से आ कर दो बांहों ने उसे पीछे की ओर खींच लिया था.

तेजी से एक गाड़ी उस के पास से निकल गई. तब जा कर उसे एहसास हुआ कि सड़क पार करने की जल्दबाजी में नियमानुसार वह चारों दिशाओं की ओर देखना ही भूल गई थी. डर से आंखें ही मुंद गई थीं. आंखें खोलीं तो उस ने स्वयं को परी सी सुंदर, गोरीचिट्टी, कोमल सी महिला की बांहों में पाया, जो बड़े प्यार से उस के कंधों को थपथपा रही थी. अगर समय पर उस महिला ने उसे पीछे नहीं खींचा होता तो रक्त में डूबा उस का शरीर सड़क पर क्षतविक्षत हो कर पड़ा होता.

सोच कर ही वह कांप उठी और भावावेश में आ कर अपनी ही हमउम्र उस महिला से चिपक गई. अपनी दुबलीपतली बांहों में ही रीवा को लिए सड़क के किनारे बने बैंच पर ले जा कर उसे बैठाते हुए उस की कलाइयों को सहलाती रही.

‘‘ओके?’’ रीवा से उस ने बड़ी बेसब्री से पूछा तो उस ने अपने आंचल में अपना चेहरा छिपा लिया और रो पड़ी. मन का सारा डर आंसुओं में बह गया तो रीवा इंग्लिश में न जाने कितनी देर तक धन्यवाद देती रही लेकिन प्रत्युत्तर में वह मुसकराती ही रही. अपनी ओर इशारा करते हुए उस ने अपना परिचय दिया. ‘लीना, मैक्सिको.’ फिर अपने सिर को हिलाते हुए राज को बताया, ‘इंग्लिश नो’, अपनी 2 उंगलियों को उठा कर उस ने रीवा को कुछ बताने की कोशिश की, जिस का मतलब रीवा ने यही निकाला कि शायद वह 2 साल पहले ही मैक्सिको से टैक्सास आई थी. जो भी हो, इतने छोटे पल में ही रीवा लीना की हो गई थी.

लीना भी शायद बहुत खुश थी. अपनी भाषा में इशारों के साथ लगातार कुछ न कुछ बोले जा रही थी. कभी उसे अपनी दुबलीपतली बांहों में बांधती, तो कभी उस के उड़ते बालों को ठीक करती. उस शब्दहीन लाड़दुलार में रीवा को बड़ा ही आनंद आ रहा था. भाषा के अलग होने के बावजूद उन के हृदय प्यार की अनजानी सी डोर से बंध रहे थे. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद रीवा के पैरों में चलने की शक्ति ही कहां थी, वह तो लीना के पैरों से ही चल रही थी.

कुछ दूर चलने के बाद लीना ने एक घर की ओर उंगली से इंगित करते हुए कहा, हाउस और रीवा का हाथ पकड़ कर उस घर की ओर बढ़ गई. फिर तो रीवा न कोई प्रतिरोध कर सकी और न कोई प्रतिवाद. उस के साथ चल पड़ी. अपने घर ले जा कर लीना ने स्नैक्स के साथ कौफी पिलाई और बड़ी देर तक खुश हो कर अपनी भाषा में कुछकुछ बताती रही.

मंत्रमुग्ध हुई रीवा भी उस की बातों को ऐसे सुन रही थी मानो वह कुछ समझ रही हो. बड़े प्यार से अपनी बेटियों, दामादों एवं

3 नातिनों की तसवीरें अश्रुपूरित नेत्रों से उसे दिखाती भी जा रही थी और धाराप्रवाह बोलती भी जा रही थी. बीचबीच में एकाध शब्द इंग्लिश के होते थे जो अनजान भाषा की अंधेरी गलियारों में बिजली की तरह चमक कर राज को धैर्य बंधा जाते थे.

बच्चों को याद कर लीना के तनमन से अपार खुशियों के सागर छलक रहे थे. कैसा अजीब इत्तफाक था कि एकदूसरे की भाषा से अनजान, कहीं 2 सुदूर देश की महिलाओं की एक सी कहानी थी, एकसमान दर्द थे तो ममता ए दास्तान भी एक सी थी. बस, अंतर इतना था कि वे अपनी बेटियों के देश में रहती थी और जब चाहा मिल लेती थी या बेटियां भी अपने परिवार के साथ हमेशा आतीजाती रहती थीं.

रीवा ने भी अमेरिका में रह रही अपनी तीनों बेटियों, दामादों एवं अपनी 2 नातिनों के बारे में इशारों से ही बताया तो वह खुशी के प्रवाह में बह कर उस के गले ही लग गई. लीना ने अपने पति से रीवा को मिलवाया. रीवा को ऐसा लगा कि लीना अपने पति से अब तक की सारी बातें कह चुकी थी. सुखदुख की सरिता में डूबतेउतरते कितना वक्त पलक झपकते ही बीत गया. इशारों में ही रीवा ने घर जाने की इच्छा जताई तो वह उसे साथ लिए निकल गई.

झील का चक्कर लगाते हुए लीना रीवा को उस के घर तक छोड़ आई. बेटी से इस घटना की चर्चा नहीं करने के लिए रास्ते में ही रीवा लीना को समझा चुकी थी. रीवा की बेटी स्मिता भी लीना से मिल कर बहुत खुश हुई. जहां पर हर उम्र को नाम से ही संबोधित किया जाता है वहीं पर लीना पलभर में स्मिता की आंटी बन गई. लीना भी इस नए रिश्ते से अभिभूत हो उठी.

समय के साथ रीवा और लीना की दोस्ती से झील ही नहीं, डलास का चप्पाचप्पा भर उठा. एकदूसरे का हाथ थामे इंग्लिश के एकआध शब्दों के सहारे वे दोनों दुनियाजहान की बातें घंटों किया करते थे.

घर में जो भी व्यंजन रीवा बनाती, लीना के लिए ले जाना नहीं भूलती. लीना भी उस के लिए ड्राईफू्रट लाना कभी नहीं भूली. दोनों हाथ में हाथ डाले झील की मछलियों एवं कछुओं को निहारा करती थीं. लीना उन्हें हमेशा ब्रैड के टुकड़े खिलाया करती थी. सफेद हंस और कबूतरों की तरह पंक्षियों के समूह का आनंद भी वे दोनों खूब उठाती थीं.

उसी झील के किनारे न जाने कितने भारतीय समुदाय के लोग आते थे जिन के पास हायहैलो कहने के सिवा कुछ नहीं रहता था.

किसीकिसी घर के बाहर केले और अमरूद से भरे पेड़ बड़े मनमोहक होते थे. हाथ बढ़ा कर रीवा उन्हें छूने की कोशिश करती तो हंस कर नोनो कहती हुई लीना उस की बांहों को थाम लेती थी.

लीना के साथ जा कर रीवा ग्रौसरी शौपिंग वगैरह कर लिया करती थी. फूड मार्ट में जा कर अपनी पसंद के फल और सब्जियां ले आती थी. लाइब्रेरी से भी किताबें लाने और लौटाने के लिए रीवा को अब सप्ताहांत की राह नहीं देखनी पड़ती थी. जब चाहा लीना के साथ निकल गई. हर रविवार को लीना रीवा को डलास के किसी न किसी दर्शनीय स्थल पर अवश्य ही ले जाती थी जहां पर वे दोनों खूब ही मस्ती किया करती थीं.

हाईलैंड पार्क में कभी वे दोनों मूर्तियों से सजे बड़ेबड़े महलों को निहारा करती थीं तो कभी दिन में ही बिजली की लडि़यों से सजे अरबपतियों के घरों को देख कर बच्चों की तरह किलकारियां भरती थीं. जीवंत मूर्तियों से लिपट कर न जाने उन्होंने एकदूसरे की कितनी तसवीरें ली होंगी.

पीले कमल से भरी हुई झील भी 10 साल की महिलाओं की बालसुलभ लीलाओं को देख कर बिहस रही होती थी. झील के किनारे बड़े से पार्क में जीवंत मूर्तियों पर रीवा मोहित हो उठी थी. लकड़ी का पुल पार कर के उस पार जाना, भूरे काले पत्थरों से बने छोटेबड़े भालुओं के साथ वे इस तरह खेलती थीं मानो दोनों का बचपन ही लौट आया हो.

स्विमिंग पूल एवं रंगबिरंगे फूलों से सजे कितने घरों के अंदर लीना रीवा को ले गई थी, जहां की सुघड़ सजावट देख कर रीवा मुग्ध हो गई थी. रीवा तो घर के लिए भी खाना पैक कर के ले जाती थी. इंडियन, अमेरिकन, मैक्सिकन, अफ्रीका आदि समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव के खाने का लुत्फ उठाते थे.

लीना के साथ रीवा ने ट्रेन में सैर कर के खूब आनंद उठाया था. भारी ट्रैफिक होने के बावजूद लीना रीवा को उस स्थान पर ले गई जहां अमेरिकन प्रैसिडैंट जौन कैनेडी की हत्या हुई थी. उस लाइब्रेरी में भी ले गई जहां पर उन की हत्या के षड्यंत्र रचे गए थे.

ऐेसे तो इन सारे स्थलों पर अनेक बार रीवा आ चुकी थी पर लीना के साथ आना उत्साह व उमंग से भर देता था. इंडियन स्टोर के पास ही लीना का मैक्सिकन रैस्तरां था. जहां खाने वालों की कतार शाम से पहले ही लग जाती थी. जब भी रीवा उधर आती, लीना चीपोटल पैक कर के देना नहीं भूलती थी.

मैक्सिकन रैस्तरां में रीवा ने जितना चीपोटल नहीं खाया होगा उतने चाट, पकौड़े, समोसे, जलेबी लीना ने इंडियन रैस्तरां में खाए थे. ऐसा कोई स्टारबक्स नहीं होगा जहां उन दोनों ने कौफी का आनंद नहीं उठाया. डलास का शायद ही ऐसा कोई दर्शनीय स्थल होगा जहां के नजारों का आनंद उन दोनों ने नहीं लिया था.

मौल्स में वे जीभर कर चहलकदमी किया करती थीं. नए साल के आगमन के उपलक्ष्य में मौल के अंदर ही टैक्सास का सब से बड़ा क्रिसमस ट्री सजाया गया था. जिस के चारों और बिछे हुए स्नो पर सभी स्कीइंग कर रहे थे. रीवा और लीना बच्चों की तरह किलस कर यह सब देख रही थीं.

कैसी अनोखी दास्तान थी कि कुछ शब्दों के सहारे लीना और रीवा ने दोस्ती का एक लंबा समय जी लिया. जहां भी शब्दों पर अटकती थीं, इशारों से काम चला लेती थीं.

समय का पखेरू पंख लगा कर उड़ गया. हफ्ताभर बाद ही रीवा को इंडिया लौटना था. लीना के दुख का ठिकाना नहीं था. उस की नाजुक कलाइयों को थाम कर रीवा ने जीभर कर आंसू बहाए, उस में अपनी बेटियों से बिछुड़ने की असहनीय वेदना भी थी. लौटने के एक दिन पहले रीवा और लीना उसी झील के किनारे हाथों में हाथ दिए घंटाभर बैठी रहीं. दोनों के बीच पसरा हुआ मौन तब कितना मुखर हो उठा था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस की अनंत प्रतिध्वनियां उन दोनों से टकरा कर चारों ओर बिखर रही हों.

दोनों के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी. शब्द थे ही नहीं कि जिन्हें उच्चारित कर के दोस्ती के जलधार को बांध सकें. प्रेमप्रीत की शब्दहीन सरिता बहती रही. समय के इतने लंबे प्रवाह में उन्हें कभी भी एकदूसरे की भाषा नहीं जानने के कारण कोई असुविधा हुई हो, ऐसा कभी नहीं लगा. एकदूसरे की आंखों में झांक कर ही वे सबकुछ जान लिया करती थीं. दोस्ती की अजीब पर अतिसुंदर दास्तान थी. कभी रूठनेमनाने के अवसर ही नहीं आए. हंसी से खिले रहे.

एकदूसरे से विदा लेने का वक्त आ गया था. लीना ने अपने पर्स से सफेद धवल शौल निकाल कर रीवा को उठाते हुए गले में डाला, तो रीवा ने भी अपनी कलाइयों से रंगबिरंगी चूडि़यों को निकाल लीना की गोरी कलाइयों में पहना दिया जिसे पहन कर वह निहाल हो उठी थी. मूक मित्रता के बीच उपहारों के आदानप्रदान देख कर निश्चय ही डलास की वह मूक मगर चंचल झील रो पड़ी होगी.

भीगी पलकों एवं हृदय में एकदूसरे के लिए बेशुमार शुभकामनाओं को लिए हुए दोनों ने एकदूसरे से विदाई तो ली पर अलविदा नहीं कहा.

प्रेम का निजी स्वाद : महिमा की जिंदगी में क्यों थी प्यार की कमी

प्रेम… कहनेसुनने और देखनेपढ़ने में यह जितना आसान शब्द है, समझने में उतना ही कठिन. कठिन से भी एक कदम आगे कहूं तो यह कि यह समझ से परे की शै है. इसे तो केवल महसूस किया जा सकता है.

दुनिया का यह शायद पहला शब्द होगा जिस के एहसास से मूक पशुपक्षी और पेड़पौधे तक वाकिफ हैं. बावजूद इस के, इस की कोई तय परिभाषा नहीं है. अब ऐसे एहसास को अजूबा न कहें तो क्या कहें?

बड़ा ढीठ होता है यह प्रेम. न उम्र देखे न जाति. न सामाजिक स्तर न शक्लसूरत. न शिक्षा न पेशा. बस, हो गया तो हो गया. क्या कीजिएगा. तन पर तो वश चल सकता है, उस पर बंधन भी लगाया जा सकता है लेकिन मन को लगाम कैसे लगे? सात घोड़ों पर सवार हो कर दिलबर के चौबारे पहुंच जाए, तो फिर मलते रहिए अपनी हथेलियां.

महिमा भी आजकल इसी तरह बेबसी में अपनी हथेलियां मसलती रहती है. जबजब वतन उस के सामने आता है, वह तड़प उठती है. एक निगाह अपने पति कमल की तरफ डालती और दूसरी वतन पर जा कर टिक जाती है.

ऐसा नहीं है कि कमल से उसे कोई शिकायत रही थी. एक अच्छे पति होने के तमाम गुण कमल में मौजूद हैं. न होते तो क्या पापा अपने जिगर का टुकड़ा उसे सौंपते? लेकिन क्या भौतिक संपन्नता ही एक आधार होता है संतुष्टि का? मन की संतुष्टि कोई माने नहीं रखती? अवश्य रखती है, तभी तो बाहर से सातों सुखों की मालकिन दिखने वाली महिमा भीतर से कितनी याचक थी.

महिमा कभीकभी बहुत सोचती है प्रेम के विषय में. यदि वतन उस की जिंदगी में न आता तो वह कभी इस अलौकिक एहसास से परिचित ही न हो पाती. अधिकांश लोगों की तरह वह भी इस के सतही रूप को ही सार्थक मानती रहती. लेकिन वतन उस की जिंदगी में आया कहां था? वह तो लाया गया था. या कहिए कि धकेला गया था उस की तनहाइयों में.

कमल को जब लगने लगा कि अपनी व्यस्तता के चलते वह पत्नी को उस के मन की खुशी नहीं दे पा रहा है तो उस ने यह काम वतन के हवाले कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे अपराधबोध से ग्रस्त मातापिता समय की कमी पूरी करने के लिए बच्चे को खिलौनों की खेप थमा देते हैं.

हालांकि महिमा ने अकेलेपन की कभी कोई शिकायत नहीं की थी लेकिन कमल को दिनभर उस का घर में रह कर पति का इंतजार करना ग्लानि से भर रहा था. किट्टी पार्टी, शौपिंग और सैरसपाटा महिमा की फितरत नहीं थी. फिल्में और साहित्य भी उसे बांध नहीं पाता था. ऐसे में कमल ने उसे पुराने शौक जीवित करने का सुझाव दिया. प्रस्ताव महिमा को भी जंच गया और अगले ही रविवार तरुण सपनों में खुद को संगीत की भावी मल्लिका समझने वाली महिमा ने बालकनी के एक कोने को अपनी राजधानी बना लिया. संगीत से जुड़े कुछ चित्र दीवार की शोभा बढ़ाने लगे. गमलों में लगी लताएं रेलिंग पर झूलने लगीं. ताजा फूल गुलदस्ते में सजने लगे. कुल मिला कर बालकनी का वह कोना एक महफ़िल की तरह सज गया.

महिमा ने रियाज करना शुरू कर दिया. पहलेपहल यह मद्धिम स्वर में खुद को सुनाने भर जितना ही रहा. फिर जब कुछकुछ सुर नियंत्रण में आने लगे तो एक माइक और स्पीकर की व्यवस्था भी हो गई. कॅरिओके पर गाने के लिए कुछ धुनों को मोबाइल में सहेजा गया. महिमा का दोपहर के बाद वाला समय अब बालकनी में गुजरने लगा.

कला चाहे कोई भी हो, कभी भी किसी को संपूर्णरूप से प्राप्त नहीं होती. यह तो निरंतर अभ्यास का खेल है और अभ्यास बिना गुरु के मार्गदर्शन के संभव नहीं. तभी तो कहा गया है कि गुरु बिना ज्ञान नहीं. ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ. महिमा कुछ दिनों तो अपनेआप को बहलाती रही लेकिन फिर उसे महसूस होने लगा मानो मन के भाव रीतने लगे हैं. सुरों में एक ठंडापन सा आने लगा है. बहुत प्रयासों के बाद भी जब यह शिथिलता नहीं टूटी तो उस ने अपने रियाज को विश्राम दे दिया. जहां से चले थे, वापस वहीं पहुंच गए. महिमा फिर से ऊबने लगी.

और तब, उस की एकरसता तोड़ने के लिए कमल ने उसे वतन से मिलाया. संगीतगुरु वतन शहर में एक संगीत स्कूल चलाता है. समयसमय पर उस के विद्यार्थी स्टेज पर भी अपनी कला का प्रदर्शन करते रहते हैं. कंधे तक लंबे बालों को एक पोनी में बांधे वतन सिल्क के कुरते और सूती धोती में बेहद आकर्षक लग रहा था.

‘कौन पहनता है आजकल यह पहनावा.’ महिमा उसे देखते ही सम्मोहित सी हो गई और मन में उस के यह विचार आया. युवा जोश से भरपूर, संभावनाओं से लबरेज वतन स्वयं को संगीत का विद्यार्थी कहता था. नवाचार करना उस की फितरत, चुनौतियां लेना उस की आदत, नवीनता का झरना अनवरत उस के भीतर फूटता रहता. एक ही गीत पर अनेक कोणों से संगीत बनाने वाला वतन आते ही धूलभरे गुबार की तरह महिमा के सुरों को अपनी आगोश में लेता चला गया. महिमा तिनके की तरह उड़ने लगी.

वतन ने संगीत के 8वें सुर की तरह उस के जीवन में प्रवेश किया. महिमा की जिंदगी सुरीली हो गई. रंगों का एक वलय हर समय उसे घेरे रहता. वतन के साथ ने उस की सोच को भी नए आयाम दिए. उस ने महिमा को एहसास करवाया कि मात्र सुर-ताल के साथ गाना ही संगीत नहीं है. संगीत अपनेआप में संपूर्ण शास्त्र है.

कॅरिओके पर अभ्यास करने वाली महिमा जब वाद्ययंत्रों की सोहबत में गाने लगी तो उसे अपनी आवाज पर यकीन ही न हुआ. जब उस ने अपनी पहली रिकौर्डिंग सुनी तब उसे एहसास हुआ कि वह कितने मधुर कंठ की स्वामिनी है. पहली बार उसे अपनी आवाज से प्यार हुआ.

सुगम संगीत से ले कर शास्त्रीय संगीत तक और लोकगीतों से ले कर ग़ज़ल तक, सभीकुछ वतन इतने अच्छे से निभाता था कि महिमा के पांव हौलेहौले जमीन पर थपकी देने लगते और उस की आंखें खुद ही मुंदने लगतीं. महिमा आनंद के सागर में डूबनेउतरने लगती. उन पलों में वह ब्रह्मांड में सुदूर स्थित किसी आकाशगंगा में विचरण कर रही होती.

‘यदि संगीत को पूरी तरह से जीना है तो कम से कम किसी एक वाद्ययंत्र से दोस्ती करनी पड़ेगी. इस से सुरों पर आप की पकड़ बढती है,’ एक दिन वतन ने उस से यह कहा तो महिमा ने गिटार बजाना सीखने की मंशा जाहिर की. उस की बात सुन कर वतन मुसकरा दिया. वह खुद भी यही बजाता है.

कला की दुनिया बड़ी विचित्र होती है. यह तिलिस्म की तरह होती है. यह आप को अपने भीतर आने के लिए आमंत्रित करती है, उकसाती है, सम्मोहित करती है. यह कांटें से बांध कर खींच भी लेती है. जो इस में समा गया वह बाहर आने का रास्ता खोजना ही नहीं चाहता. महिमा भी वतन की कलाई थामे बस बहे चली जा रही थी.

गिटार पर नृत्य करती वतन की उंगलियां महिमा के दिल के तारों को भी झंकृत करने लगीं. कोई समझ ही न सका कि कब प्रेम के रेशमी धागों की गुच्छियां उलझने लगीं.

सीखना कभी भी आसान नहीं होता. चूंकि मन हमेशा आसान को अपनाने पर ही सहमत होता है, इसलिए वह सीखने की प्रक्रिया में अवरोह उत्पन्न करने लगता है और इस के कारण अकसर सीखने की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ देने का मन बनने लगता है.

महिमा को भी गिटार सीखना दिखने में जितना आसान लग रहा था, हकीकत में उस के तारों को अपने वश में करना उतना ही कठिन था. बारबार असफल होती महिमा ने भी प्रारंभिक अभ्यास के बाद गिटार सीखने के अपने इरादे से पांव पीछे खींच लिए. लेकिन वतन अपने कमजोर विद्यार्थियों का साथ आसानी से छोड़ने वालों में न था. जब भी महिमा ढीली पड़ती, वतन इतनी सुरीली धुन छेड़ देता कि महिमा दोगुने जोश से भर उठती और अपनी उंगलियों को वतन के हवाले कर देती.

वतन जब उसे किसी युगल गीत का अभ्यास करवाता तो महिमा को लगता मानो वही इस गीत की नायिका है और वतन उस के लिए ही यह गीत गा रहा है. स्टेज पर दोनों की प्रस्तुति इतनी जीवंत होती कि देखनेसुनने वाले किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते.

अब महिमा गिटार को साधने लगी थी. अभ्यास के लिए वतन उसे कोई नई धुन बनाने को कहता, तो महिमा सबकुछ भूल कर, बस, दिनरात उसी में खोई रहती. घर में हर समय स्वरलहरियां तैरने लगीं. कमल भी उसे खुश देख कर खुश था.

महिमा सुबह से ही दोपहर होने की प्रतीक्षा करने लगती. कमल को औफिस के लिए विदा करने के बाद वह गिटार ले कर अपने अभ्यास में जुट जाती. जैसे ही घड़ी 3 बजाती, महिमा अपना स्कूटर उठाती और वतन के संगीत स्कूल के लिए चल देती. वहां पहुंचने के बाद उसे वापसी का होश ही न रहता. घर आने के बाद कमल उसे फोन करता तब भी वह बेमन से ही लौटती.

‘काश, वतन और मैं एकदूसरे में खोए, बस, गाते ही रहें. वह गिटार बजाता रहे और मैं उस के लिए गाती रहूं.’ ऐसे खयाल कई बार उसे बेचैन कर देते थे. वह अपनी सीमाएं जानती थी. लेकिन मन कहां किसी सीमा को मानता है. वह तो, बस, प्रिय का साथ पा कर हवा हो जाता है.

‘कल एक सरप्राइज पार्टी है. एक खास मेहमान से आप सब को मिलवाना है.’ उस दिन वतन ने क्लास खत्म होने पर यह घोषणा की तो सब इस सरप्राइज का कयास लगाने लगे. महिमा हैरान थी कि इतना नजदीक होने के बाद भी वह वतन के सरप्राइज से अनजान कैसे है. घर पहुंचने के बाद भी उस का मन वहीं वतन के इर्दगिर्द ही भटक रहा था.

“क्या सरप्राइज हो सकता है?” महिमा ने कमल से पूछा.

“हो सकता है उस की शादी तय हो गई हो. अपनी मंगेतर से मिलवाना चाह रहा हो,” कमल ने हंसते हुए अपना मत जाहिर किया. सुनते ही महिमा तड़प उठी. दर्द की लहर कहीं भीतर तक चीर गई. अनायास एक अनजानीअनदेखी लड़की से उसे ईर्ष्या होने लगी. रात बहुत बेचैनी में कटी. उसे करवटें बदलते देख कर कमल भी परेशान हो गया. दूसरे दिन जब महिमा संगीत स्कूल से वापस लौटी तो बेहद खिन्न थी.

“क्या हुआ? कुछ परेशान हो? क्या सरप्राइज था?” जैसे कई सवाल कमल ने एकसाथ पूछे तो महिमा झल्ला गई.

“बहुत काली जबान है आप की. वतन अपनी मंगेतर को ही सब से मिलाने लाया था. अगले महीने उस की शादी है,” कहतेकहते उस की रुलाई लगभग फूट ही पड़ी थी. आंसू रोकने के प्रयास में उस का चेहरा टेढ़ामेढ़ा होने लगा तो वह बाथरूम में चली गई. कमल अकबकाया सा उसे देख रहा था. वह महिमा की रुलाई के कारण को कुछकुछ समझने का प्रयास कर रहा था लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे आखिर करना क्या चाहिए.

स्त्रीमन अभेद्य दुर्ग सरीखा होता है. युक्ति लगा कर उस में प्रवेश पाना लगभग नामुमकिन है. लेकिन हां, अगर द्वार पर लटके ताले की चाबी किसी तरह प्राप्त हो जाए तो फिर इस की भीतरी तह तक सुगमता से पहुंचा जा सकता है. कमल को शायद अभी तक यह चाबी नहीं मिली थी.

अगले कुछ दिनों तक महिमा की क्लासेज बंद रहने वाली थीं. वतन अपनी शादी के सिलसिले में छुट्टी ले कर गया था. उस के बाद वह हनीमून पर जाने वाला था. महिमा की चिड़चिड़ाहट चरम पर थी. न ठीक से खापी रही थी न ही कमल की तरफ उस का ध्यान था. कितनी ही बार कमल ने उस का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की लेकिन महिमा के होंठों पर मुसकान नहीं ला सका. एकदो बार तो गिटार के तार छेड़ने की कोशिश भी की लेकिन महिमा ने इतनी बेदर्दी से उस के हाथ से गिटार छीना कि वह सकते में आ गया.

बीमारी यदि शरीर की हो तो दिखाई देती है, मन के रोग तो अदृश्य होते हैं. ये घुन की तरह व्यक्ति को खोखला कर देते हैं. महिमा की बीमारी जानते हुए भी कमल इलाज करने में असमर्थ था. वतन का प्यार कोई वस्तु तो थी नहीं जिसे बाजार खरीदा जा सके. दोतरफा होता, तब भी कमल किसी तरह अपने दिल पर पत्थर रख लेता. लेकिन यहां तो वतन को खबर ही नहीं है कि कोई उस के प्यार में लुटा जा रहा है.

कमल महिमा की बढ़ती दीवानगी को ले कर बहुत चिंतित था. उस ने तय किया कि वह कुछ दिनों के लिए महिमा को उस की मां के पास छोड़ आएगा. शायद जगह बदलने से ही कुछ सकारात्मक असर पड़े. बेटीदामाद को एकसाथ देखते ही मां खिल गईं. कमल सास के पांवों में झुका तो मां के मुंह से सहस्रों आशीष बह निकले.

एक दिन ठहरने के बाद कमल वापस चला गया. जातेजाते उस का उदास चेहरा मां की आंखों में तसवीर सा बस गया था. मां ने अकेले में महिमा को बहुत कुरेदा लेकिन उन के हाथ कुछ भी नहीं लगा. महिमा का उड़ाउड़ा रंग उन्हें खतरे के प्रति आगाह कर रहा था. मां महिमा के आसपास बनी रहने लगीं.

दाइयों से भी कभी पेट छिपे हैं भला? दोचार दिनों में ही मां ताड़ गईं कि मामला प्रेम का है. ऐसा प्रेम जिसे न स्वीकार करते बन रहा है और न परित्याग. लेकिन भविष्य को अनिश्चित भी तो नहीं छोड़ा जा सकता न? एक दिन जब महिमा बालकनी के कोने में कोई उदास धुन गुनगुना रही थी, मां उस के पीछे आ कर खड़ी हो गईं.

“बहुत अपसैट लग रही हो. कोई परेशानी है, तो मुझे बताओ. मां हूं तुम्हारी, तुम्हारी बेहतरी ही सोचूंगी,” मां ने महिमा के कंधे पर हाथ रख कर कहा. उन के अचानक स्पर्श से महिमा चौंक गई.

“नहीं, कुछ भी तो नहीं. यों ही, बस, जरा दिल उदास है,” महिमा ने यह कह कर उन का हाथ परे हटा दिया. मां उस के सामने आ खड़ी हुईं. उन्होंने महिमा का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया और एकटक उस की आंखों में देखने लगीं. महिमा ने अपनी आंखें नीची कर लीं.

“कहते हैं कि गोद वाले बच्चे को छोड़ कर पेट वाले से आशा नहीं रखनी चाहिए. यानी, जो हासिल है उसे ही सहेज लेना चाहिए बजाय इस के कि जो हासिल नहीं, उस के पीछे भागा जाए,” मां ने धीरे से कहा. महिमा की आंखें डबडबा आईं. वह मां के सीने से लग गई. टपटप कर उन का आंचल भिगोने लगी. मां ने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया.

कुछ देर रो लेने के बाद जब महिमा ने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो बहुत शांत लग रही थी. शायद उस ने मन ही मन कोई निर्णय ले लिया था. मां ने उस का कंधा थपथपा दिया.

“कमल को फोन कर के आने को कह दे. अकेला परेशान हो रहा होगा,” मां ने उस के हाथ में मोबाइल थमाते हुए कहा. अगले ही दिन कमल आ गया. कमल को देखते ही महिमा लहक कर उस के सीने से लग गई. कमल फिर से हैरान था.

‘यह लड़की है या पहेली.’ कमल उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन असफल रहा.

इधर महिमा समझ गई थी कि कुछ यादों को यदि दिल में दफन कर लिया जाए तो वे धरोहर बन जाती हैं. वतन की मोहब्बत को पाने के लिए कमल के प्रेम का त्याग करना किसी भी स्तर पर समझदारी नहीं कही जा सकती वह भी तब, जब वतन को इस प्रेम का आभास तक न हो. और वैसे भी, प्रेम कहां यह कहता है कि पाना ही उस का पर्याय है. यह तो वह फूल है जो सूखने के बाद भी अपनी महक बिखेरता रहता है.

“हम कल ही अपने घर चलेंगे,” महिमा ने कहा. कमल ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

महिमा मन ही मन वतन की आभारी है. वह उस की जिंदगी में न आता तो प्रेम के वास्तविक स्वरूप से उस का परिचय कैसे होता? कैसे वह इस का स्वाद चख पाती. वह स्वाद, जिस का वर्णन तो सब करते हैं लेकिन बता कोई नहीं पाता. असल स्वाद तो वही महसूस कर पाता है जिस ने इसे चखा हो.

हरेक के लिए प्रेम का स्वाद नितांत निजी होता है और उस का स्वरूप भी.

बदलते रंग: क्या संजना जरमनी में अपने पति के पास लौट सकी?

‘‘जया…’’

आवाज सुनते ही वह चौंकी थी. यहां मौल के इस भीड़ भरे वातावरण में किस ने आवाज दी. पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अरे वीणा तू…’’

अपनी पुरानी सहेली वीणा को देख कर सुखद आश्चर्य भी हुआ था.

‘‘तू कब आई बेंगलुरु से और यहां…’’

‘‘अरे, मैं तो पिछले 6 महीनों से यही हूं. यहां बेटे के पास आई हूं. बीच में सुना कि तेरी बेटी संजना की शादी तय हो गई है, मुझे उषा ने बताया था, पर कुछ ऐसे काम आ गए कि मिलना हो नहीं पाया.

“उषा ने तो तेरा नंबर भी दिया था, पर वह भी कहीं खो गया. नहीं तो मैं फोन पर ही तुझे बधाई दे ही देती…’’

‘‘अरे, यह सब तो ठीक है, पर अब बैठ कर कहीं बातें करते हैं, मेरी तो शापिंग भी अब पूरी हो गई है और थक भी गई हूं,’’ कहते हुए जया उसे कौफी शौप की तरफ ले गई.

‘‘हां तो अब यहां बैठ कर इतमीनान से बातें कर सकते हैं.’’

‘‘वो तो मैं देख ही रही हूं. लगता है कि बेटी की शादी के बाद तू भी अब काफी रिलेक्स फील कर रही है,’’
वीणा के कहने पर जया को हंसी आ गई थी.

‘‘शायद तू ठीक ही कह रही है.’’

फिर कौफी की चुसकियों के साथ देर तक बातें चलती रही. कैसे दिल्ली में शादी का इंतजाम था, दोनों परिवार के लोग वहीं इकट्ठे हो गए थे. एक बड़ा रिसोर्ट बुक करा लिया गया था. अब संजना और सुकांत अपनी पसंद से शादी कर रहे थे तो जैसा उन्होंने चाहा, वैसा ही इंतजाम कर दिया था.

‘‘ठीक किया तू ने,’’ वीणा ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘जया, मैं सोचती हूं कि अगर लड़का, लड़की अपनी पसंद से शादी कर लें तो हम लोग कितनी परेशानियों से बच जाते हैं. अब हमारी पीढ़ी के बाद कितना अंतर भी तो आ गया है. हमारी पीढ़ी में जब मातापिता सब कुछ तय करते थे, तब हमें पता भी नहीं होता था कि कैसी ससुराल होगी, पति का स्वभाव कैसा होगा, कैसे हम एडजस्ट करेंगे.
कितनी तरफ की आशंकाएं थीं, हमें भी और हमारे मातापिता को भी, पर अब बच्चे जब एकदूसरे को अच्छी तरह समझ कर शादी का निर्णय लेते हैं तो बच्चों के साथ मातापिता भी सुकून का अनुभव करते हैं.’’

जया ने भी तब एक संतोष की सांस लेते हुए कहा था,
‘‘तू ठीक कह रही है वीणा, मैं बहुतकुछ ऐसा ही अनुभव कर रही हूं.’’

देर तक गपशप कर के जब जया घर लौटी, तो उस के दिमाग में वीणा की कही बातें ही गूंज रही थीं.

लाया हुआ सामान करीने से जमाया, खाना तो सुबह ही बना लिया था तो अब कोई जल्दी नहीं थी. कुछ फल काट कर प्लेट ले कर वह बालकनी में आ गई. नीचे लौन में कालोनी के बच्चे खेल रहे थे.

सांझ का अंधेरा अब गहराने लगा था, पर सबकुछ देखते हुए भी जया अपने ही खयालों में खोई हुई थी.
सचमुच एक सकून मिला है उसे संजना की शादी के बाद. इंजीनियरिंग कर के जब वह एमबीए करने दिल्ली गई, तभी उस की मुलाकात सुकांत से हुई थी.
फोन पर 2-4 बार उस ने जिक्र भी किया था, फिर दिल्ली में सुकांत से मिलवाया.

‘‘मां, हम लोग शादी करना चाहते हैं,’’ सुन कर वह और पति राकेश दोनों ही चौंक गए थे.

राकेश ने फिर कहा भी था,
‘‘बेटा, यहां तो तुझे पढ़ाई के लिए भेजा है. शादी के बारे में बाद में सोचना.’’

‘‘नहीं पापा, बहुत सोच कर ही मैं और सुकांत इस निर्णय पर पहुंचे हैं और अब हम लोग मैच्युर हैं, अपने निर्णय ले सकते हैं.’’

‘‘ठीक है. पहले पढ़ाई करो मन लगा कर, फिर अगर पढ़ाई पूरी करने के बाद भी तुम लोगों का यही निर्णय रहा तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी. पर शादीब्याह का निर्णय जल्दबाजी में लेना ठीक नहीं है.’’

जया ने यह कह कर बात समाप्त कर दी थी. वैसे, सुकांत उसे भी ठीक ही लगा था. परिवार भी भला था. अब बच्चों की यही मरजी है तो यही सही.
फिर भी पूरे साल उसे यही लगता रहा कि संजना दिल्ली में होस्टल में अकेली रहती है. कहीं बीच में कोई गलत कदम न उठा ले, जल्दी उस की पढ़ाई पूरी हो तो शादी कर के हम भी निश्चिंत हों. अच्छे नंबरों से एमबीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी संजना ने. वैसे पढ़ाई में वह शुरू से ही अव्वल रही थी. यहां तो बस एक भटकाव की आशंका थी जया को.

फिर दोनों परिवारों ने मिल कर सारी योजना बनाई. संजना को यहां भी जौब औफर हो गए थे, पर सुकांत को इसी बीच जरमनी से एक बड़ा औफर मिला था. तय यह हुआ कि शादी के बाद संजना भी जरमनी जाएगी.

सोचते हुए जया अपने खयालों में इतनी खो गई थी कि अब याद आया फलों की प्लेट तो तब से स्टूल पर वैसी ही पड़ी है.

प्लेट उठाते ही मन फिर कहीं दौड़ गया था. शादी के बाद संजना बेहद खुश थी. दोनों की जोड़ी लग भी बहुत सुंदर रही थी. सिंगापुर घूमने गए, तो वहां से भी संजना ने ढेरों फोटो भेजे थे और मोबाइल पर सारी जगहों का वर्णन करती रहती.

‘‘अरे, तुम लोग आराम से अपना टाइम साथ बिताओ, बातें तो बाद में भी हो जाएंगी.’’

जया ने फोन पर हंस कर कहा भी था.

फिर हनीमून से आते ही उन लोगों की जरमनी जाने की तैयारी शुरू हो गई थी.

फ्रेंकफर्ट में एक छोटा सुंदर सा फ्लैट मिल गया था. सुकांत को बड़े विस्तार से मां सुनैना मेल करती कि कैसे पतिपत्नी घर सजाने में लगे हुए हैं. सुकांत घर के कामों में बहुत मदद करते हैं.

‘‘मां, अब तुम और पापा भी इधर आने का प्रोग्राम बनाओ.’’

‘‘हां… हां आएंगे, पहले तुम लोग तो अच्छी तरह सैट हो लो.’’

बेटी का बचपना अब तक गया नहीं है. जरा सी बात पर खुश और कुछ मन लायक नहीं हुआ तो नाराज भी तुरंत.

जया को सोचते ही फिर हंसी आ गई.

अरे मोबाइल पर मैसेज आ रहा है. हां संजना का ही तो है, ‘‘मां, तुझे मेल किया था.’’

‘अरे, मेल खोला कुछ घर के फोटो थे, फिर लंबी दिनचर्या का वर्णन था.

‘मां, सुकांत ने अब औफिस जौइन कर लिया है, मैं ने भी कई इंटरव्यू दिए हैं. पर, अब तक कोई जवाब नहीं आया है.

‘क्या मेरी लाइफ अब चौकेचूल्हे में ही सिमट कर रह जाएगी.’

‘ओफ्फो… यह लड़की भी…’’ जया के मुंह से निकला था. जरा भी धैर्य नहीं है. अब इंटरव्यू दिए हैं तो कुछ समय तो लगेगा ही. सुकांत अच्छा जौब कर तो रहा है, पर नहीं, यह नई पीढ़ी भी बस…

सोचते हुए जया फिर घर के कामों में लग गई थी. थोड़ा समझा कर ईमेल का जवाब भी भेज दिया था. फिर कुछ दिनों बाद सुकांत का भी मेल था, ‘मां, जरमनी में यहां की भाषा सीखना भी जरूरी होता है. मैं ने संजना को भी भाषा की क्लास जौइन करवा दी है.’’

‘चलो ठीक है, व्यस्त रहेगी तो कम सोचेगी…’ जया के मुंह से निकला.

पर उस दिन उस का फोन आने पर वह चौंक गई,
‘‘मां, मैं अगले हफ्ते इंडिया आ रही हूं.”

‘‘अरे… इतनी जल्दी? एकाएक कैसे? सब ठीक तो है, सुकांत भी आ रहे हैं क्या…?”

जया तो एकदम हड़बड़ा ही गई थी.

‘‘नहीं मां, मैं अकेली ही आ रही हूं, और तुम इतना घबरा क्यों रही हो? मेरा आना अच्छा नहीं लग रहा है क्या?”

‘नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है, तू आएगी तो अच्छा क्यों नहीं लगेगा… पर… और तेरी जौब का क्या हुआ?’

‘‘अब जब आऊंगी तब और बातें करेंगे,” कह कर बेटी ने फोन भी रख दिया था.

जया फिर उलझनों में घिरने लगी. ये लड़की भी बस पहेलियां ही बुझाती रहेगी. अब जब आएगी तब पता चलेगा कि एकाएक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.

जया के लिए यह पूरा हफ्ता काटना मुश्किल हो रहा था. यह तो अच्छा था कि पति आजकल अपने कार्यभार के सिलसिले में लंबे टूर पर थे… नहीं तो और सवाल करते.

बेटी ने यह भी तो नहीं बताया कि कब कौन सी फ्लाइट से आ रही है. एयरपोर्ट पर किसी को भेजना तो नहीं है.

जया अपने ही प्रश्नजाल में उलझती जा रही थी.

उस दिन सुबहसुबह जब वह चाय बना रही थी, तब दरवाजे की घंटी बजी. दौड़ कर दरवाजा खोला…

‘मां,’ कहते हुए संजना उस से लिपट गई थी.

‘‘संजू कैसी है तू… अचानक इस तरह आ कर तो तू ने मुझे चौंका ही दिया.’’

‘‘वही तो मां, मैं ऐसी ही तो हूं. हमेशा आप को चौंकाती रहती हूं.’’

संजना ने फिर मजाक किया था.

‘‘चल, अब अंदर चल, मैं चाय ही बना रही थी.’’

सूटकेस और बैग उठा कर संजना अंदर आ गई.

‘अरे, घर तो आप ने काफी व्यवस्थित कर रखा है,’
अलमारी में सजे अपने और सुकांत के फोटोग्राफ पर नजर डाल कर उस ने फिर मां की ओर देखा था.

‘‘और बताओ मां, क्या खिला रही हो, मुझे तो जोरों की भूख लग रही है, फ्लाइट में भी कुछ नहीं खाया.’’

‘‘अब जो कहेगी वही बना दूंगी, पहले चाय तो पी,’’ कह कर जया चाय के साथ कुछ हलका नाश्ता ले आई थी.

चाय के साथ भी संजना ने बस अपनी फ्लाइट की और जरमनी के सामान्य जीवन के बातें कही थीं.

जया जानने को उत्सुक थी कि आखिरकार यह अचानक यहां आने का प्रोग्राम क्यों बन गया.
ठीक है, शायद अपनेआप ही बताए फिर भी उस की चिंता कम नहीं हो पा रही थी.

खाना खा कर फिर संजना गहरी नींद में सो भी गई थी.

जया ने चुपचाप उस के बिखरे सामान को व्यवस्थित किया. पता नहीं क्या सोच कर आई है यह लड़की. अगर कुछ ही दिनों के लिए आना था, तो इतने बड़े 2 सूटकेस और बड़ा सा बैग लाने की क्या जरूरत थी.

फिर शाम को उस ने संजना को अपने पास बिठाते हुए पूछा, ‘‘हां, अब इतमीनान से बता, सब ठीक तो है न. अचानक इस तरह आने का प्रोग्राम कैसे बन गया. सुकांत तो आए नहीं,’’ सुनते ही संजना ने कुछ चिढ़ कर जवाब दिया, ‘‘मां, सुकांत क्यों आएंगे? उन का जौब है, ठाट से औफिस जा रहे हैं, बेकार तो मैं थी तो आ गई.’’

‘‘बेकार… तू क्यों बेकार होने लगी?’’

ज्यादा कुछ समझ नहीं पा रही थी वह.

‘‘क्यों…? मैं बेकार नहीं हो सकती, जब मुझे वहां जौब नहीं मिली तो बेकार तो हो ही जाऊंगी और बेकार वहां बैठ कर क्या करूंगी, इसलिए यहां आ गई. अब इंडिया में जौब देखूंगी.’’

यह सुन कर जया तो और चकरा गई.

‘‘यहां जौब… मतलब, तू यहां रहेगी और सुकांत जरमनी में.”

‘‘मां, अब अधिक सवाल मत करो. सुकांत को जहां रहना है, रहेंगे. बस मैं यहां रहूंगी. कल से कुछ कंपनियों से बात करती हूं. गलती की जो जल्दबाजी में चली गई. मुझे तो यहां इतने अच्छे औफर आ रहे थे.’’

‘‘बेटी, जौब ही तो सबकुछ नहीं है, तुम्हारी लाइफ, परिवार.’’

‘‘कैसा परिवार…?’’ संजना ने फिर टोक दिया था, ‘‘मां, मैं ने पहले ही सुकांत को बता दिया था कि मुझे कुकिंग और घर के कामों में कोई दिलचस्पी नहीं है, आखिर इतनी मेहनत से पढ़ाई की है तो कुछ काम तो करूंगी, तब सुकांत को भी सब ठीक लगा और अब… अब जरमनी जाते ही बदल गए.

“मैं सुबह, शाम खाना बनाऊं, घर व्यवस्थित करूं, सब काम करूं, क्यों… क्योंकि जौब तो मेरे पास है नहीं और सब करूं तब भी सुकांत की फटकार सुनूं, घर क्यों अस्तव्यस्त है, खाना बिलकुल बेस्वाद है, रोटियां कच्ची हैं, सब्जी जल गई है, यह ठीक नहीं, वो ठीक नहीं, आखिर यह सब सुनने के लिए तो मैं गई नहीं थी उन के साथ, न ही इसलिए शादी की.’’

संजना जैसे आवेश में थी. जया ने शांत करने का प्रयास किया. जया बोली, ‘‘बेटी, तुम दोनों ने सबकुछ देखसुन कर ही तो शादी का फैसला लिया था, तो अब इतनी जल्दी किसी निर्णय पर पहुंचना…’’

‘‘हां, फैसला लिया था. अपनी गलती को भी तो मैं ही सुधारूंगी. मैं ही ठीक करूंगी और कौन करेगा.’’

जया समझ नहीं पा रही थी कि क्या कह कर समझाए बेटी को. ठीक है, अभी आवेश में है, 2-4 दिन बाद बात करूंगी. सोच कर चुप रह गई थी.

2-4 दिन भी फिर ऐसे ही निकल गए थे, कंप्यूटर पर पता नहीं क्याक्या टटोलती रहती है यह लड़की, क्या जौब सर्च कर रही है, आजकल बात भी तो बहुत कम कर रही है.

‘‘सुकांत से बात की,’’
उस दिन जया ने पूछ ही लिया था.

‘‘क्यों…? मैं क्यों बात करूं…?’’ संजना का तीखा उत्तर.

‘‘अरे, अपने यहां पहुंचने की सूचना तो दे देती.’’

‘‘जब सामने वाले को जरूरत नहीं तो मैं क्या बात करूं…?’’

संजना का दोटूक उत्तर.

‘‘देख बेटा, उस दिन मैं ने तुझ से कुछ नहीं कहा था. पर अब सुन, शादीब्याह कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं है और इस प्रकार लड़नेझगड़ने से दूरियां बढ़ती हैं, हमें थोड़ाबहुत एडजस्ट भी करना होता है, नहीं तो शादी टिकेगी कैसे?’’

‘‘न टिके, मुझे कोई परवाह नहीं. मैं क्यों एडजस्ट करूं, सुकांत का क्या कोई फर्ज नहीं बनता है, क्यों की फिर मुझ से शादी, कर लेते किसी घरेलू लड़की से जो उन का चूल्हाचौका संभालती, और मां, मुझे अब इस बारे में कोई बात करनी भी नहीं है,’’ कहती हुई संजना तेजी से उठ कर अपने कमरे में चली गई.

जया जड़ हो कर रह गई, तो क्या यह पति से अलग होने का मन बना कर आई है, अभी तो मुश्किल से 6 महीने भी नहीं हुई होंगे शादी के.

क्या करे, आजकल तो राकेश भी यहां नहीं हैं, नहीं तो वे ही समझाते अपनी बेटी को. पर अभी तो यह कुछ समझना भी नहीं चाह रही है.

क्या करे, क्या सुकांत से बात की जाए, पर बात क्या करे, पहले यह खुल कर तो बताए कि चाहती क्या है, क्यों अचानक इस प्रकार यहां आ गई.

जया का जैसे दिमाग काम ही नहीं कर रहा था.

बेटी खुद समझदार है, अपने निर्णय लेना जानती है, कोई फैसला उस पर थोपा भी तो नहीं जा सकता.

उस रात ठीक से सो भी नहीं पाई थी. रातभर लगता रहा कि कहीं कोई गलती उस से हो गई है, ठीक है बेटी की पढ़ाई पर ध्यान दिया, पर शायद जिंदगी के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा वह नहीं दे पाई.

उसे अपने विवाह के शुरुआती दिन याद आ रहे थे. उस की शादी तो मातापिता की मरजी से हुई थी, ससुराल में ननदें, जो हर काम में नुक्स निकालती रहतीं, राकेश तो अपने काम के सिलसिले में अकसर बाहर ही रहते.

पर उसे अपनी मां की सीख याद थी, धीरेधीरे अपने व्यवहार से तुम सब का मन जीत लोगी.

और फिर हुआ भी यही था. सालभर के अंदर ही वह अपनी सास की चहेती बहू बन गई थी. ननदें भी अब लाड़ करने लगी थीं, पर यहां… यहां तो संजना और सुकांत पहले से ही आपस में अच्छी तरह परिचित थे. ससुराल का भी कोई दखल नहीं. फिर…

दूसरे दिन संजना ने ही फरमाइश की थी, ‘‘मां, कुछ अच्छा खाना बनाओ न, यह क्या रोज वही दालरोटी.’’

‘‘हां, आज कचौड़ी बना रही हूं, सुकांत को भी पसंद थी न…’’ जया के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘मां, मेरी भी तो कोई पसंद हो सकती है या नहीं…’’
संजना का आक्षेप भरा स्वर…

‘‘नहीं बेटे, मेरा यह मतलब नहीं था, अच्छे खाने का सभी को शौक होता है तो सीख लेना चाहिए. फिर वहां विदेश में…”

“कोई बात नहीं, मैं कहां विदेश जा रही हूं…’’

संजना ने कह तो दिया था, पर जया देख रही थी कि वह ध्यान से कचौड़ी बनते देख रही है.

‘‘खाना बनाना कोई बहुत कठिन काम तो है नहीं. और तुम जैसी लड़कियां तो चटपट सब सीख सकती हैं.’’

जया ने उसे और उत्साहित करना चाहा था, पर संजना ने कोई जवाब नहीं दिया.
पर हफ्तेभर बाद ही जया को लगने लगा कि बेटी अब कुछ खोईखोई सी रहने लगी है. मोबाइल पर भी पता नहीं क्या टटोलती रहती है.

‘‘तू जौब की ज्यादा चिंता मत कर. पापा आ जाएं तो उन से बात करना. कुछ कंपनियों में उन की पहचान भी है.”

जया ने टटोलना चाहा था, पर संजना चुप थी. चेहरा भी सपाट था.

‘‘बेटी, सुकांत से मैं बात करूं?’’ कुछ झिझक के बाद जया के मुंह से निकला था.

‘‘मां, तुम क्यों बात करोगी…? जिसे बात करनी है, वह करेगा.’’

जया को पहली बार लगा कि बेटी के स्वर में कुछ दर्द है. वह चुप रह गई.

फिर उस दिन मोबाइल की घंटी बजी. संजना का फोन जया के पास ही पड़ा था,
‘सुकांत…’

‘‘संजना, सुकांत का फोन है, बात करना. और हां, स्पीकर पर डाल, मुझे भी बात करनी है.’’

जया के आदेश भरे स्वर को संजना टाल नहीं पाई थी.
जया उठ कर अपने कमरे में आ गई थी. आवाज यहां भी आ रही थी.

‘‘संजू बेबी, कितनी बार फोन किया, उठाती क्यों नहीं हो? अच्छा बाबा, मैं अब माफी मांगता हूं तुम से, अब कभी तुम्हारे काम में कोई मीनमेख नहीं निकालूंगा. अब तो गुस्सा थूक दो.’’

संजना ने भी धीरे से कुछ कहा था. फिर सुकांत की ही आवाज गूंजी, “हां, अब कभी तुम्हारी किसी और से तुलना भी नहीं करूंगा, अब तो खुश. अब जल्दी से लौट आओ, नहीं तो फिर मैं ही पहुंच जाऊंगा.

“और हां, सारी बातों के बीच में मैं यह तो कहना ही भूल गया कि तुम्हारे दो इंटरव्यू काल आए हुए हैं, 5 दिन के अंदर ही आ जाओ, टिकट मैं भेज रहा हूं, सुनो बेबी…’’
कुछ फुसफुसे से स्वर, संजना ने शायद फिर स्पीकर औफ कर दिया था.
पर जया सबकुछ समझ गई थी. आज इतने दिनों बाद उसे गहरी नींद आई थी.
सुबह भी शायद देर तक सोती रही थी, संजना की आवाज से ही नींद टूटी थी,
‘‘मां उठो, मैं ने चाय बना दी है, फिर आप को सुबह की सैर के लिए भी जाना है, मेरे आते ही आप की दिनचर्या बिगड़ गई है.’’

वह फिर संजना के प्रफुल्लित चेहरे को देख रही थी.

‘‘मां, अब 2-4 दिन में मुझे जरमनी जाना है, पर सोच रही हूं कि आप मुझे कुछ अच्छी डिशेज बनाना सिखा दो. वैसे, फोन पर भी मैं आप से पूछती रहूंगी,’’ कह कर संजना मां के पास ही बैठ गई थी.

‘‘और… और…इतनी जल्दी तेरी वापसी का प्रोग्राम…’’
जया ने मजाक किया था.

‘‘तो मैं ने कब कहा था कि मैं वापस जरमनी नहीं जाऊंगी. आखिर मेरा घर तो वहीं है, आप भी मां पता नहीं क्याक्या सोच लेती हो,’’ कहते हुए वह मां से लिपट गई थी.

और जया सोच रही थी कि यह आधुनिक पीढ़ी भी बस… सच अब तक तो वह इसे समझ ही नहीं पाई है…
पर एक संतोष भरी मुसकान जया के चेहरे पर भी थी.

समाधान: क्या थी असीम की कहानी

‘‘मैं ने पहचाना नहीं आप को,’’ असीम के मुंह से निकला.

‘‘अजी जनाब, पहचानोगे भी कैसे…खैर मेरा नाम रूपेश है, रूपेश मनकड़. मैं इंडियन बैंक में प्रबंधक हूं,’’ आगुंतक ने अपना परिचय देते हुए कहा.

‘‘आप से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहिए, आप की क्या सेवा करूं?’’ दरवाजे पर खड़ेखड़े ही असीम बोला.

‘‘यदि आप अंदर आने की अनुमति दें तो विस्तार से सभी बातें हो जाएंगी.’’

‘‘हांहां आइए, क्यों नहीं,’’ झेंपते हुए असीम बोला, ‘‘इस अशिष्टता के लिए माफ करें.’’

ड्राइंगरूम में आ कर वे दोनों सोफे पर आमनेसामने बैठ गए.

‘‘कहिए, क्या लेंगे, चाय या फिर कोई ठंडा पेय?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ नहीं, बस आप का थोड़ा सा समय लूंगा.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘कुछ दिन पहले आप के बड़े भाई साहब मिले थे. हम दोनों ही ‘सिकंदराबाद क्लब’ के सदस्य थे और कभीकभी साथसाथ गोल्फ भी खेल लेते…’’

‘‘अच्छा…यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि आप से उन की मुलाकात हो जाती है वरना वह तो इतने व्यस्त रहते हैं कि हम से मिले महीनों हो जाते हैं,’’ असीम ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘डाक्टरों की जीवनशैली तो होती ही ऐसी है, पर सच मानिए उन्हें आप की बहुत चिंता रहती है. बातोंबातों में उन्होंने बताया कि 3 साल पहले आप की पत्नी का आकस्मिक निधन हो गया था. आप का 4 साल का एक बेटा भी है…’’

‘‘जी हां, वह दिन मुझे आज भी याद है. मेरी पत्नी आभा का जन्मदिन था. टैंक चौराहे के पास सड़क पार करते समय पुलिस की जीप उसे टक्कर मारती निकल गई थी. मेरा पुत्र अनुनय उस की गोद में था. उसे भी हलकी सी खरोंचें आई थीं, पर आभा तो ऐसी गिरी कि फिर उठी ही नहीं…’’

‘‘मुझे बहुत दुख है, आप की पत्नी के असमय निधन का, पर मैं यहां किसी और ही कारण से आया हूं.’’

‘‘हांहां, कहिए न,’’ असीम अतीत को बिसारते बोला.

‘‘जी, बात यह है कि मेरी ममेरी बहन मीता ऐसी ही हालत में विवाह के ठीक 2 माह बाद अपना पति खो बैठी थी. मैं ने सोचा यदि आप दोनों एकदूसरे का हाथ थाम लें तो जीवन में पहले जैसी खुशियां पुन: लौट सकती हैं,’’ कह कर रूपेश तो चुप हो गया, मगर असीम को किंकर्तव्यविमूढ़ कर गया.

‘‘देखिए रूपेश बाबू, मैं ने तो दूसरे विवाह के संबंध में कभी कुछ सोचा ही नहीं. पहले भी कई प्रस्ताव आए पर मैं ने अस्वीकार कर दिए. मैं नहीं चाहता कि मेरे पुत्र पर सौतेली मां का साया पड़े,’’ कहते हुए असीम ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया.

‘‘मैं अपनी बहन की तारीफ केवल इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं उस का भाई हूं बल्कि इसलिए कि उस का स्वभाव इतना मोहक है कि वह परायों को भी अपना बना ले. फिर भी मैं आप पर कोई जोर नहीं डालना चाहता. आप दोनों एकदूसरे से मिल लीजिए, जानसमझ लीजिए. यदि आप दोनों को लगे कि आप एकदूसरे का दुखसुख बांट सकते हैं, तभी हम बात आगे बढ़ाएंगे,’’ कहते हुए रूपेश ने अपनी जेब से एक कागज निकाल कर असीम को थमा दिया, जिस में मीता का जीवनपरिचय था. मीता नव विज्ञान विद्यालय में भौतिकी की व्याख्याता थी.

फिर रूपेश एक प्याला चाय पी कर असीम से विदा लेते हुए बोला, ‘‘आप जब चाहें मुझ से फोन पर संपर्क कर सकते हैं,’’ कह कर वह चला गया.

इस मामले में ज्यादा सोचविचार के लिए असीम के पास समय नहीं था. उसे तैयार हो कर कार्यालय पहुंचना था, इस जल्दी में वह रूपेश और उस की बहन मीता की बात पूरी तरह भूल गया.

कार्यालय पहुंचते ही ‘नीलिमा’ उस के सामने पड़ गई. हालांकि वह उस से बच कर निकल जाना चाहता था.

‘‘कहिए महाशय, कहां रहते हैं आजकल? आज सुबह पूरे आधे घंटे तक बस स्टाप पर लाइन में खड़ी आप का इंतजार करती रही,’’ नीलिमा ने शिकायती लहजे में कहा.

‘‘यानी मुझ में और बस में कोई अंतर ही नहीं है…’’ कहते हुए असीम मुसकराया.

‘‘है, बहुत बड़ा अंतर है. बस तो फिर भी ठीक समय पर आ गई थी पर श्रीमान असीम नहीं पधारे थे.’’

‘‘बहुत नाराज हो? चलो, आज सारी नाराजगी दूर कर दूंगा. आज अच्छी सी एक फिल्म देखेंगे और रात का खाना भी अच्छे से एक रेस्तरां में…’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, आज नहीं. इंदौर से मेरे मांपिताजी आए हुए हैं. 3 दिन तक यहीं रुकेंगे. उन के जाने के बाद ही मैं तुम्हारे साथ कहीं जा पाऊंगी.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो अपने पति और सासससुर तक की परवा नहीं करतीं फिर मांपिताजी…’’ असीम ने व्यंग्य में कहा.

‘‘मांपिताजी की परवा करनी पड़ती है. तुम तो जानते ही हो कि देर से जाने पर सवालों की झड़ी लगा देंगे. परिवार के सम्मान और समाज की दुहाई देंगे. फिर 3 दिन की ही तो बात है, क्यों खिटपिट मोल लेना. पति और सासससुर भी कहतेसुनते रहते हैं, पर सदा साथ ही रहना है, लिहाजा, मैं चिंता नहीं करती,’’ कहती हुई नीलिमा हंसी.

‘‘पता नहीं, तुम्हारे तर्क तो बहुत ही विचित्र होते हैं. पर नीलू आज शाम की चाय साथ पिएंगे, तुम से जरूरी बात करनी है,’’ असीम बोला.

‘‘नहीं, तुम्हारे साथ चाय पी तो मेरी बस निकल जाएगी. दोपहर का भोजन साथ लेंगे. आज तुम्हारे लिए विशेष पकवान लाई हूं.’’

‘‘ठीक है, आशा करता हूं उस समय कोई मीटिंग न चल रही हो.’’

‘‘देर हो भी गई तो मैं इंतजार करूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा अपने केबिन की ओर बढ़ गई.

कार्यालय की व्यस्तता में असीम भोजन की बात भूल ही गया था पर भोजनावकाश में दूसरों को जाते देख उसे नीलिमा की याद आई तो वह लपक कर कैंटीन में जा पहुंचा.

‘‘यह देखो, गुलाबजामुन और मलाईकोफ्ता…’’ नीलिमा अपना टिफिन खोलते हुए बोली.’’

‘‘मेरे मुंह में तो देख कर ही पानी आ रहा है. मैं तो आज केवल डबलरोटी और अचार लाया हूं. समय ही नहीं मिला,’’ असीम कोफ्ते के साथ रोटी खाते हुए बोला.

‘‘ऐसा क्या करते रहते हो जो अपने लिए कुछ बना कर भी नहीं ला सकते? सच कहूं, तुम्हें कैंटिन के भोजन की आदत पड़ गई है.’’

‘‘तुम जो ले आती हो रोजाना कुछ न कुछ…पर सुनो, आज बहुत ही अजीब बात हुई. एक अजनबी आ टपका. रूपेश नाम था उस का, उम्र में मुझ से 1-2 साल का अंतर होगा. कहने लगा, मेरे भाई डाक्टर उत्तम से उस का अच्छा परिचय है,’’ असीम ने बताया.

‘‘अरे, तो कह देते तुम्हें कार्यालय जाने को देर हो रही है.’’

‘‘बात इतनी ही नहीं थी नीलू, वह अपनी ममेरी बहन का विवाह प्रस्ताव लाया था. विवाह के कुछ माह बाद ही बेचारी के पति का निधन हो गया था.’’

‘‘तुम ने कहा नहीं कि दोबारा से ऐसा साहस न करें.’’

‘‘नहीं, मैं ने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि मैं ने तो कह दिया कि विवाह प्रस्ताव पर विचार करूंगा.’’

‘‘देखो असीम, फिर से वही प्रकरण दोहराने से क्या फायदा है. मैं ने कहा था न कि तुम ने दूसरे विवाह की बात भी की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी,’’ कहती हुई नीलिमा तैश में आ गई.

‘‘हां, याद है. पिछली बार तुम ने नींद की गोलियां भी खा ली थीं. मैं ने भी तुम से कहा था कि ऐसी हरकतें मुझे पसंद नहीं हैं. तुम्हारा पति है, बच्चे हैं भरापूरा परिवार है. हम मित्र हैं, इस का मतलब यह तो नहीं कि तुम इतनी स्वार्थी हो जाओ कि मेरा जीना ही मुश्किल कर दो…’’ कहते हुए असीम का स्वर इतना ऊंचा हो गया कि कैंटीन में मौजूद लोग उन्हीं को देखने लगे.

‘‘मैं सब के सामने तमाशा करना नहीं चाहती, पर तुम मेरे हो और मेरे ही रहोगे. यदि तुम ने किसी और से विवाह करने का साहस किया तो मुझ से बुरा कोई न होगा,’’ कहती हुई नीलिमा अपना टिफिन बंद कर के चली गई और असीम हक्काबक्का सा शून्य में ताकता बैठा रह गया.

‘‘क्या हुआ मित्र? आज तो नीलिमाजी बहुत गुस्से में थीं?’’ तभी कुछ दूर बैठा भोजन कर रहा उस का मित्र सोमेंद्र उस के सामने आ बैठा.

‘‘वही पुराना राग सोमेंद्र, मैं उस से अपना परिवार छोड़ कर विवाह करने को कहता हूं तो परिवार और समाज की दुहाई देने लगती है, पर मेरे विवाह की बात सुन कर बिफरी हुई शेरनी की तरह भड़क उठती है,’’ असीम दुखी स्वर में बोला.

‘‘बहुत ही विचित्र स्त्री है मित्र, पर तुम भी कम विचित्र नहीं हो,’’ सोमेंद्र गंभीर स्वर में बोला.

‘‘वह कैसे?’’ कहता हुआ असीम वहां से उठ कर अपने कक्ष की ओर जाने लगा.

‘‘उस के कारण तुम्हारी कितनी बदनामी हो रही है, क्या तुम नहीं जानते? अपने हर विवाह प्रस्ताव पर उस से चर्चा करना क्या जरूरी है? ऐसी दोस्ती जो जंजाल बन जाए, शत्रुता से भी ज्यादा घातक होती है…’’ सोमेंद्र ने समझाया.

‘‘शायद तुम ठीक कह रहे हो, तुम ने तो मुझे कई बार समझाया भी पर मैं ही अपनी कमजोरी पर नियंत्रण नहीं कर पाया,’’ कहता हुआ असीम मन ही मन कुछ निर्णय ले अपने कार्य में व्यस्त हो गया.

उस के बाद घटनाचक्र इतनी तेजी से घूमा कि स्वयं असीम भी हक्काबक्का रह गया.

रूपेश ने न केवल उसे मीता से मिलवाया बल्कि उसे समझाबुझा कर विवाह के लिए तैयार भी कर लिया.

विवाह समारोह के दिन शहनाई के स्वरों के बीच जब असीम मित्रों व संबंधियों की बधाइयां स्वीकार कर रहा था, उसे रूपेश और नीलिमा आते दिखाई दिए. एक क्षण को तो वह सिहर उठा कि न जाने नीलिमा क्या तमाशा खड़ा कर दे.

‘‘असीम बाबू, इन से मिलिए यह है मेरी पत्नी नीलिमा. आप के ही कार्यालय में कार्य करती है. आप तो इन से अच्छी तरह परिचित होंगे ही, अलबत्ता मैं रूपेश नहीं सर्वेश हूं. मैं ने आप से थोड़ा झूठ बोला अवश्य था, पर अपने परिवार की सुखशांति बचाने के लिए. आशा है आप माफ कर देंगे,’’ रूपेश बोला.

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. आप की सुखी गृहस्थी में मेरे कारण ही तो भूचाल आया था,’’ असीम धीरे से बोला.

‘‘आप व्यर्थ ही स्वयं को दोषी ठहरा रहे हैं, असीम बाबू. हमारे पारिवारिक जीवन में तो ऐसे अनगिनत भूचाल आते रहे हैं, पर अपनी संतान के भविष्य के लिए मैं ने हर भूचाल का डट कर सामना किया है. इस में आप का कोई दोष नहीं है. अपना ही सिक्का जब खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष?’’ कहते हुए सर्वेश ने बधाई दे कर अपना चेहरा घुमा लिया. असीम भी नहीं देख पाया था कि उस की आंखें डबडबा आई थीं. वह नीलिमा पर हकारत भरी नजर डाल कर अन्य मेहमानों के स्वागत में व्यस्त हो गया.

बेशरम: क्या टूट गया गिरधारीलाल शर्मा का परिवार

पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

देह : क्या औरत का मतलब देह है

चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.

देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था… बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है…

एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसीउलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.

तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.

बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी.

शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था. एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी. बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.

बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी… धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.

‘बापू…’ बस इतना ही निकल पाया था बुधिया की जबान से.

‘आ… हां… सुन… बुधिया…’ बापू जैसे आपे से बाहर हो कर बोले थे, ‘यह दारू की बोतल रख दे…’

‘जी अच्छा…’ किसी मशीन की तरह बुधिया ने सिर हिलाया था और दारू की बोतल अपने बापू के हाथ से ले कर कोने में रख आई थी. उस की आंखों में डर की रेखाएं खिंच आई थीं.

तभी बापू की आवाज किसी हथौड़े की तरह सीधे उसे आ कर लगी थी, ‘बुधिया… वहां खड़ीखड़ी क्या देख रही है… यहां आ कर बैठ… मेरे पास… आ… आ…’

बुधिया को तो जैसे काटो तो खून नहीं. उस की सांसें तेजतेज चलने लगी थीं, धौंकनी की तरह. उस का मन तो किया था कि दरवाजे से बाहर भाग जाए, लेकिन हिम्मत नहीं हुई थी. उसी पल बापू की गरजदार आवाज गूंजी थी, ‘बुधिया…’

न चाहते हुए भी बुधिया उस तरफ बढ़ चली थी, जहां उस का बाप खटिया पर पसरा हुआ था. उस ने झट से बुधिया का हाथ पकड़ा और अपनी ओर ऐसे खींच लिया था जैसे वह उस की जोरू हो.

‘बापू…’ बुधिया के गले से एक घुटीघुटी सी चीख निकली थी, ‘यह क्या कर रहे हो बापू…’

‘चुप…’ बुधिया का बापू जोर से गरजा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के दाएं गाल पर दे मारा था.

बुधिया छटपटा कर रह गई थी. उस में अब विरोध करने की जरा भी ताकत नहीं बची थी. फिर भी वह बहेलिए के जाल में फंसे परिंदे की तरह छूटने की नाकाम कोशिश करती रही थी. थकहार कर उस ने हथियार डाल दिए थे.

उस भूखे भेडि़ए के आगे वह चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर यह सिलसिला थमा नहीं, चलता रहा था लगातार…

बुधिया ने मां को इस बाबत कई बार बताना चाहा था, मगर बापू की सुलगती सिंदूरी आंखें उस के तनमन में झुरझुरी सी भर देती थीं और उस पर खौफ पसरता चला जाता था, वह भीतर ही भीतर घुटघुट कर जी रही थी.

फिर एक दिन बापू की मार से बेदम हो कर बुधिया की मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. महीनों बिस्तर पर पड़ी तड़़पती रही थी वह. और उस दिन जबरदस्त उस के पेट में तेज दर्द उठा. तब बुधिया दौड़ पड़ी थी मंगरू चाचा के घर. मंगरू चाचा को झाड़फूंक में महारत हासिल थी.

बुधिया से आने की वजह जान कर मंगरू ने पूछा था, ‘तेरे बापू कहां हैं?’

‘पता नहीं चाचा,’ इतना ही कह पाई थी बुधिया.

‘ठीक है, तुम चलो. मैं आ रहा हूं,’ मंगरू ने कहा तो बुधिया उलटे पैर अपने झोंपड़े में वापस चली आई थी.

थोड़ी ही देर में मंगरू भी आ गया था. उस ने आते ही झाड़फूंक का काम शुरू कर दिया था, लेकिन बुधिया की मां की तबीयत में कोई सुधार आने के बजाय दर्द बढ़ता गया था.

मंगरू अपना काम कर के चला गया और जातेजाते कह गया, ‘बुधिया, मंत्र का असर जैसे ही शुरू होगा, तुम्हारी मां का दर्द भी कम हो जाएगा… तू चिंता मत कर…’

बुधिया को लगा जैसे मंगरू चाचा ठीक ही कह रहा है. वह घंटों इंतजार करती रही लेकिन न तो मंत्र का असर शुरू हुआ और न ही उस की मां के दर्द में कमी आई. देखते ही देखते बुधिया की मां का सारा शरीर बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया.

आंखें पथराई सी बुधिया को ही देख रही थीं, मानो कुछ कहना चाह रही हों. तब बुधिया फूटफूट कर रोने लगी थी.

उस के बापू देर रात घर तो आए, लेकिन नशे में चूर. अगली सुबह किसी तरह कफनदफन का इंतजाम हुआ था.

बुधिया की यादों का तार टूट कर दोबारा आज से जुड़ गया. बापू की ज्यादतियों की वजह से बुधिया की जिंदगी तबाह हो गई. पता नहीं, वह कितनी बार मरती है, फिर जीती है… सैकड़ों बार मर चुकी है वह. फिर भी जिंदा है… महज एक लाश बन कर.

बापू के प्रति बुधिया का मन विद्रोह कर उठता है, लेकिन वह खुद को दबाती आ रही है.

मगर आज बुधिया ने मन ही मन एक फैसला कर लिया. यहां से दूर भाग जाएगी वह… बहुत दूर… जहां बापू की नजर उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगी.

अगले दिन बुधिया मास्टरनी के यहां गई कि वह अपने ऊपर हुई ज्यादतियों की सारी कहानी उन्हें बता देगी. मास्टरनी का नाम कलावती था, मगर सारा गांव उन्हें मास्टरनी के नाम से ही जानता है.

कलावती गांव के ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. बुधिया को भी उन्होंने ही पढ़ाया था. यह बात और है कि बुधिया 2 जमात से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थी.

‘‘क्या बात है बुधिया? कुछ बोलो तो सही… जब से तुम आई हो, तब से रोए जा रही हो. आखिर बात क्या हो गई?’’

मास्टरनी ने पूछा तो बुधिया का गला भर आया. उस के मुंह से निकला, ‘मास्टरनीजी.’’

‘‘हां… हां… बताओ बुधिया… मैं वादा करती हूं, तुम्हारी मदद करूंगी,’’ मास्टरनी ने कहा तो बुधिया ने बताया, ‘‘मास्टरनीजी… उस ने हम को खराब किया… हमारे साथ गंदा… काम…’’ सुन कर मास्टरनी की भौंहें तन गईं. वे बुधिया की बात बीच में ही काट कर बोलीं, ‘‘किस ने किया तुम्हारे साथ गलत काम?’’

‘‘बापू ने…’’ और बुधिया सबकुछ सिलसिलेवार बताती चली गई.

मास्टरनी कलावती की आंखें फटी की फटी रह गईं और चेहरे पर हैरानी की लकीरें गहराती गईं. फिर वे बोलीं, ‘‘तुम्हारा बाप इनसान है या जानवर… उसे तो चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. उस ने अपनी बेटी को खराब किया.

‘‘खैर, तू चिंता मत कर बुधिया. तू आज शाम की गाड़ी से मेरे साथ शहर चल. वहां मेरी बेटी और दामाद रहते हैं. तू वहीं रह कर उन के काम करना, बच्चे संभालना. तुम्हें भरपेट खाना और कपड़ा मिलता रहेगा. वहां तू पूरी तरह महफूज रहेगी.’’

बुधिया का सिर मास्टरनी के प्रति इज्जत से झुक गया. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही बुधिया को लगा जैसे वह किसी नई दुनिया में आ गई हो. सबकुछ अलग और शानदार था.

बुधिया बस में बैठ कर गगनचुंबी इमारतों को ऐसे देख रही थी मानो कोई अजूबा हो.

तभी मास्टरनीजी ने एक बड़ी इमारत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘देख बुधिया… यहां औरतमर्द सब एकसाथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं.’’

‘‘सच…’’ बुधिया को जैसे हैरानी हुई. उस का अल्हड़ व गंवई मन पता नहीं क्याक्या कयास लगाता रहा.

बस एक झटके से रुकी तो मास्टरनी के साथ वह वहीं उतर पड़ी. चंद कदमों का फासला तय करने के बाद वे दोनों एक बड़ी व खूबसूरत कोठी के सामने पहुंचीं. फिर एक बड़े से फाटक के अंदर बुधिया मास्टरनीजी के साथ ही दाखिल हो गई. बुधिया की आंखें अंदर की सजावट देख कर फटी की फटी रह गईं.

मास्टरनीजी ने एक मौडर्न औरत से बुधिया का परिचय कराया और कुछ जरूरी हिदायतें दे कर शाम की गाड़ी से ही वे गांव वापस लौट गईं.

शहर की आबोहवा में बुधिया खुद को महफूज समझने लगी. कोठी के चारों तरफ खड़ी कंक्रीट की मजबूत दीवारें और लोहे की सलाखें उसे अपनी हिफाजत के प्रति आश्वस्त करती थीं.

बेफिक्री के आलम से गुजरता बुधिया का भरम रेत के घरौंदे की तरह भरभरा कर तब टूटा जब उसे उस दिन कोठी के मालिक हरिशंकर बाबू ने मौका देख कर अपने कमरे में बुलाया और देखते ही देखते भेडि़या बन गया. बुधिया को अपना दारूबाज बाप याद हो आया.

नशे में चूर… सिंदूरी आंखें और उन में कुलबुलाते वासना के कीड़े. कहां बचा पाई बुधिया उस दिन भी खुद को हरिशंकर बाबू के आगोश से.

कंक्रीट की दीवारें और लोहे की मजबूत सलाखों को अपना सुरक्षा घेरा मान बैठी बुधिया को अब वह छलावे की तरह लगने लगा और फिर एक रात उस ने देखा कि नितिन और श्वेता अपने कमरे में अमरबेल की तरह एकदूसरे से लिपटे बेजा हरकतें कर रहे थे. टैलीविजन पर किसी गंदी फिल्म के बेहूदा सीन चल रहे थे.

‘‘ये दोनों सगे भाईबहन हैं या…’’ बुदबुदाते हुए बुधिया अपने कमरे में चली आई.

सुबह हरिशंकर बाबू की पत्नी अपनी बड़ी बेटी को समझा रही थीं, ‘‘देख… कालेज जाते वक्त सावधान रहा कर. दिल्ली में हर दिन लड़कियों के साथ छेड़छाड़ व बलात्कार की वारदातें बढ़ रही हैं. तू जबजब बाहर निकलती है तो मेरा मन घबराता रहता है. पता नहीं, क्या हो गया है इस शहर को.’’

बुधिया छोटी मालकिन की बातों पर मन ही मन हंस पड़ी. उसे सारे रिश्तेनाते बेमानी लगने लगे. वह जिस घर को, जिस शहर को अपने लिए महफूज समझ रही थी, वही उसे महफूज नहीं लग रहा था.

बुधिया के सामने एक अबूझ सवाल तलवार की तरह लटकता सा लगता था कि क्या औरत का मतलब देह है, सिर्फ देह?

काठ की हांडी : क्या हुआ जब पति की पुरानी प्रेमिका से मिली सीमा

कहानी- सरोज शर्मा

रितु ने दोपहर में फोन कर के मु झे शाम को अपने फ्लैट पर बुलाया था.

‘‘मेरा मन बहुत उचाट हो रहा है. औफिस से निकल कर सीधे मेरे यहां आ जाओ. कुछ देर. दोनों गपशप करेंगे,’’ फोन पर रितु की आवाज में मु झे हलकी सी बेचैनी के भाव महसूस हुए.

‘‘तुम वैभव को क्यों नहीं बुला लेती हो गपशप के लिए? तुम्हारा यह नया आशिक तो सिर के बल भागा चला आएगा,’’ मैं ने जानबू झ कर वैभव को बुलाने की बात उठाई.

‘‘इस वक्त मु झे किसी नए नहीं, बल्कि पुराने आशिक के साथ की जरूरत महसूस हो रही है,’’ उस ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘सीमा भी तुम से मिलने आने की बात कह रही थी. उसे साथ लेता आऊं?’’ मैं ने उस के मजाक को नजरअंदाज करते हुए पूछा.

‘‘क्या तुम्हें अकेले आने में कोई परेशानी है?’’ वह खीज उठी.

‘‘मु झे कोई परेशानी होनी चाहिए क्या?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘अब ज्यादा भाव मत खाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’ और उस ने  झटके से फोन काट दिया.

रितु अपने फ्लैट में अकेली रहती है. शाम को उस से मिलने जाने की बात मेरे मन को बेचैन कर रही थी. अपना काम रोक कर मैं कुछ देर के लिए पिछले महीनेभर की घटनाओं के बारे में सोचने लगा…

मेरी शादी होने के करीब 8 साल बाद रितु अचानक महीनाभर पहले मेरे घर मु झ से मिलने आई तो मैं हैरान होने के साथसाथ बहुत खुश भी हुआ था.

‘‘अभी भी किसी मौडल की तरह आकर्षक नजर आ रही रितु और मैं ने एमबीए साथसाथ किया था. सीमा, हमारी शादी होने से पहले ही यह मुंबई चली गई थी वरना बहुत पहले ही तुम से इस की मुलाकात हो जाती,’’ सहज अंदाज में अपनी पत्नी का रितु से परिचय कराते हुए मैं ने अपने मन की उथलपुथल को बड़ी कुशलता से छिपा लिया.

मेरे 5 साल के बेटे रोहित के लिए रितु ढेर सारी चौकलेट और रिमोट से चलने वाली कार लाई थी. सीमा और मेरे साथ बातें करते हुए वह लगातार रोहित के साथ खेल भी रही थी. बहुत कम समय में उस ने मेरे बेटे और उस की मम्मी का दिल जीत लिया.

‘‘क्या चल रहा है तुम्हारी जिंदगी में? मयंक के क्या हालचाल हैं?’’ मेरे इन सवालों को सुन कर उस ने अचानक जोरदार ठहाका लगाया तो सीमा और मैं हैरानी से उस का मुंह ताकने लगे.

हंसी थम जाने के बाद उस ने रहस्यमयी मुसकान होंठों पर सजा कर हमें बताया, ‘‘मेरी जिंदगी में सब बढि़या चल रहा है, अरुण. बहुराष्ट्रीय बैंक में जौब कर रही हूं. मयंक मजे में है. वह 2 प्यारी बेटियों का पापा बन गया है.’’

‘‘अरे वाह, वैसे तुम्हें देख कर यह कोई नहीं कह सकता है कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो,’’ मेरे शब्दों में उस की तारीफ साफ नजर आ रही थी.

रितु पर एक बार फिर हंसने का दौरा सा पड़ा. सीमा और मैं बेचैनीभरे अंदाज में मुसकराते हुए उस के यों बेबात हंसने का कारण जानने की प्रतीक्षा करने लगे.

‘‘माई डियर अरुण, मु झे पता था कि तुम ऐसा गलत अंदाजा जरूर लगाओगे. यार, वह 2 बेटियों का पिता है पर मैं उस की पत्नी नहीं हूं.’’

‘‘क्या तुम दोनों ने शादी नहीं की है?’’

‘‘उस ने तो की पर मैं अभी तक शुद्ध अविवाहिता हूं, तलाकशुदा या विधवा नहीं. तुम्हारी नजर में मेरे लायक कोई सही रिश्ता हो तो जरूर बताना,’’ अपने इस मजाक पर उस ने फिर से जोरदार ठहाका लगाया.

‘‘मजाक की बात नहीं है यह, रितु बताओ न कि तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’ मैं ने गंभीर लहजे में पूछा.

‘‘जब सही मौका सामने था किसी अच्छे इंसान के साथ जिंदगीभर को जुड़ने का तो मैं ने नासम झी दिखाई और वह मौका हाथ से निकल गया. लेकिन यह किस्सा फिर कभी सुनाऊंगी. अब तो मैं अपनी मस्ती में मस्त बहती धारा बनी रहना चाहती हूं… सच कहूं तो मु झे शादी का बंधन अब अरुचिकर प्रतीत होता है,’’ 33 साल की उम्र तक अविवाहित रह जाने का उसे कोई गम है, यह उस की आवाज से बिलकुल जाहिर नहीं हो रहा था.

मगर सीमा ने शादी न करने के मामले में अपनी राय उसे

उसी वक्त बता दी, ‘‘शादी नहीं करोगी तो बढ़ती उम्र के साथ अकेलेपन का एहसास लगातार बढ़ता जाएगा. अभी ज्यादा देर नहीं हुई है. मेरी सम झ से तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए, रितु.’’

‘‘तुम ढूंढ़ना न मेरे लिए कोई सही जीवनसाथी, सीमा,’’ रितु बड़े अपनेपन से सीमा का हाथ पकड़ कर दोस्ताना लहजे में मुसकराई तो मेरी पत्नी ने उसी पल से उसे अपनी अच्छी सहेली मान लिया.

उन दोनों को गपशप में लगा देख मैं उस दिन भी अतीत की यादों में खो गया…

एक समय था जब साथसाथ एमबीए करते हुए हम दोनों ने जीवनसाथी बनने के रंगीन सपने देखे थे. हमारा प्रेम करीब 2 साल चला और फिर उस का  झुकाव अचानक मयंक की तरफ होता चला गया.

वैसे मयंक रितु की एक सहेली निशा का बौयफ्रैंड था. इस इत्तफाक ने बड़ा गुल खिलाया कि मयंक रितु की कालोनी में ही रहता था. इस कारण निशा द्वारा परिचय करा दिए जाने के बाद मयंक और रितु की अकसर मुलाकातें होने लगीं.

ये मुलाकातें निशा और मेरे लिए बड़ी दुखदाई साबित हुईं. अचानक एक दिन रितु ने मु झ से और मयंक ने निशा से प्रेम संबंध समाप्त कर लिए.

‘‘रितु प्लीज, तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी. मेरा साथ मत छोड़ो,’’ मैं ने उस के सामने आंसू भी बहाए पर उस ने मु झ से दूर होने का अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘आई एम सौरी अरुण… मैं मयंक के साथ कहीं ज्यादा खुश हूं. तुम्हें मु झ से बेहतर लड़की मिलेगी, फिक्र न करो,’’ हमारी आखिरी मुलाकात के समय उस ने मेरा गाल प्यार से थपथपाया और मेरी जिंदगी से निकल गई.

मु झ से कहीं ज्यादा तेज  झटका उस की सहेली निशा को लगा था. उस ने तो नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश भी करी थी.

एमबीए करने के बाद वह मुंबई चली गई. मैं सोचता था कि उस ने मयंक से शादी कर ली होगी पर मेरा अंदाजा गलत निकला.

मैं ने अपने मन को टटोला तो पाया कि रितु से जुड़ी यादों की पीड़ा को वह लगभग पूरी तरह भूल चुका है. मैं सीमा और रोहित के साथ बहुत खुश था. उस दिन रितु को सामने देख कर मु झे वैसी खुशी महसूस हुई थी जैसी किसी पुराने करीबी दोस्त के अचानक आ मिलने से होती है.

उस दिन सीमा ने अपनी नई सहेली रितु को खाना खिला कर भेजा. कुछ घंटों में ही उन दोनों के बीच दोस्ती के मजबूत संबंध की नींव पड़ गई.

रितु अकसर हमारे यहां शाम को आ जाती थी. उस की मु झ से कम और सीमा से ज्यादा बातें होतीं. रोहित भी उस के साथ खेल कर बहुत खुश होता.

रोहित के जन्मदिन की पार्टी में सीमा ने उस का परिचय अपनी सहेली वंदना के बड़े भाई वैभव से कराया. दोनों सहेलियों की मिलीभगत से यह मुलाकात संभव हो पाई थी.

वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था.

किसी को उम्मीद नहीं थी पर रितु के साथ हुई पहली मुलाकात में ही वैभव भाई उस के प्रशंसक बन गए थे. रितु भी उस दिन फ्लर्ट करने के पूरे मूड में थी. उन दोनों के बीच आपसी पसंद को लगातार बढ़ते देख सीमा बहुत खुश हुई थी.

रितु और वैभव ने 2 दिन बाद बड़े महंगे होटल में साथ डिनर किया है, वंदना से मिली इस खबर ने सीमा को खुश कर दिया.

‘‘वैसे यह बंदा तो ठीक है सीमा, पर मेरे सपनों के राजकुमार से बहुत ज्यादा नहीं मिलता है, लेकिन तुम्हारी मेहनत सफल करने के लिए

मैं दिल से कोशिश कर रही हूं कि हमारा तालमेल बैठ जाए,’’ अगले दिन शाम को रितु ने अपने मन की बात सीमा को और मु झे साफसाफ बता दी.

‘‘अपने सपनों के राजकुमार के गुणों से हमें भी परिचित कराओ, रितु,’’ सीमा की इस जिज्ञासा का रितु क्या जवाब देगी, उसे सुनने को मैं भी उत्सुक हो उठता था.

रितु ने सीमा की पकड़ में आए बिना पहले मेरी तरफ मुड़ कर शरारती अंदाज में मु झे आंख मारी और फिर उसे बताने लगी, ‘‘मेरे सपनों का राजकुमार उतना ही अच्छा होना चाहिए जितना अच्छा तुम्हारा जीवनसाथी, सीमा. मेरी खुशियों… मेरे सुखदुख का हमेशा ध्यान रखने वाला सीधासादा हंसमुख इंसान है मेरे सपनों का राजकुमार.’’

‘‘ऐसे सीधेसादे इंसान से तुम जैसी स्मार्ट, फैशनेबल, आधुनिक स्त्री की निभ जाएगी?’’ सीमा ने माथे में बल डाल कर सवाल किया.

‘‘सीमा, 2 इंसानों के बीच आपसी सम झ और तालमेल गहरे प्रेम का मजबूत आधार बनता है या नहीं?’’

‘‘बिलकुल बनता है. वैभव तुम्हें अगर नहीं भी जंचा तो फिक्र नहीं. तुम्हारी शादी मु झे करानी ही है और तुम्हारे सपनों के राजकुमार से मिलताजुलता आदमी मैं ढूंढ़ ही लाऊंगी,’’ जोश से भरी सीमा भावुक भी हो उठी थी.

‘‘जो सामने मौजूद है उसे ढूंढ़ने की बात कह रही थी मेरी सहेली,’’ कुछ देर बाद जब सीमा रसोई में थी तब रितु ने मजाकिया लहजे में इन शब्दों को मुंह से निकाला तो मेरे दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं.

मन में मच रही हलचल के चलते मु झ से कोई जवाब देते नहीं बना था. रितु ने हाथ बढ़ा कर अचानक मेरे बालों को शरारती अंदाज में खराब सा किया और फिर मुसकराती हुई रसोई में सीमा के पास चली गई.

उस दिन रितु की आंखों में मैं ने अपने लिए चाहत के भावों को साफ पहचाना था.

आगामी दिनों में उसे जब भी अकेले में मेरे साथ होने का मौका मिलता तो वह जरूर कुछ न कुछ ऐसा कहती या करती जो उस की मेरे प्रति चाहत को रेखांकित कर जाता. मैं ने अपनी तरफ से उसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया था पर मु झ से छेड़छाड़ करने का उस का हौसला बढ़ता ही जा रहा था.

इन सब बातों को सोचते हुए मैं ने शाम तक का समय गुजारा. रितु के फ्लैट की तरफ अपनी कार से जाते हुए मैं खुद को काफी तनावग्रस्त महसूस कर रहा था, इस बात को मैं स्वीकार करता हूं.

अपने ड्राइंगरूम में रितु मेरी बगल में बैठते हुए शिकायती अंदाज में बोली, ‘‘तुम ने बहुत इंतजार कराया, अरुण.’’

‘‘नहीं तो… अभी 6 ही बजे हैं. औफिस खत्म होने के आधे घंटे बाद ही मैं हाजिर हो गया हूं. कहो, कैसे याद किया है?’’ अपने स्वर को हलकाफुलका रखते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘आज तुम से बहुत सारी बातें कहनेसुनने का दिल कर रहा है,’’ कहते हुए उस ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया.

‘‘तुम बेहिचक बोलना शुरू करो. मैं तुम्हारे मुंह से निकले हर शब्द को पूरे ध्यान से सुनूंगा.’’

मेरी आंखों में गहराई से  झांकते हुए उस ने भावुक लहजे में कहा, ‘‘अरुण, तुम्हारे प्यार को मैं कुछ दिनों से बहुत मिस कर रही हूं.’’

‘‘अरे, अब मेरे नहीं वैभव के प्यार को अपने दिल में जगह दो, रितु,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘मेरी जिंदगी में बहुत पुरुष आए हैं और आते रहेंगे, पर मेरे दिल में तुम्हारी जगह किसी को नहीं मिल सकेगी. तुम से दूर जा कर मैं ने अपने जीवन की सब से बड़ी भूल की है.’’

‘‘पुरानी बातों को याद कर के बेकार में अपना मन क्यों दुखी कर रही हो?’’

‘‘मेरी जिंदगी में खुशियों की बौछार तुम ही कर सकते हो, अरुण. अपने प्यार के लिए मु झे अब और तरसने मत दो, प्लीज,’’ और उस ने मेरे हाथ को कई बार चूम लिया.

‘‘मैं एक शादीशुदा इंसान हूं, रितु. मु झ से ऐसी चीज मत मांगो जिसे देना गलत होगा,’’ मैं ने उसे कोमल स्वर में सम झाया.

‘‘मैं सीमा का हक छीनने की कोशिश नहीं कर रही हूं. हम उसे कुछ पता नहीं लगने देंगे,’’ मेरे हाथ को अपने वक्षस्थल से चिपका कर उस ने विनती सी करी.

कुछ पलों तक उस के चेहरे को ध्यान से निहारने के बाद मैं ने ठहरे अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारे बदलते हावभावों को देख कर मु झे पिछले कुछ दिनों से ऐसा कुछ घटने का अंदेशा हो गया था, रितु. अब प्लीज तुम मेरी बातों को ध्यान से सुनो.

‘‘हमारा प्रेम संबंध उसी दिन समाप्त हो गया था जिस दिन तुम ने मु झे छोड़ कर मयंक के साथ जुड़ने का निर्णय लिया था. अब हमारे पास उस अतीत की यादें हैं, लेकिन उन यादों के बल पर दोबारा प्रेम का रिश्ता कायम करने की इच्छा रखना तुम्हारी नासम झी ही है.

‘‘ऐसे प्रेम संबंध को छिपा कर रखना संभव नहीं होता है, रितु. मु झे आज भी मयंक की प्रेमिका निशा याद है. तुम ने मयंक को उस से छीना तो उस ने खुदकुशी करने की कोशिश करी थी. तुम्हें मनाने के लिए मैं किसी छोटे बच्चे की तरह रोया था, शायद तुम्हें याद होगा. किसी बिलकुल अपने विश्वासपात्र के हाथों धोखा खाने की गहन पीड़ा कल को सीमा भोगे, ऐसा मैं बिलकुल नहीं चाहूंगा.

‘‘पिछली बार तुम ने निशा और मेरी खुशियों के संसार को अपनी खुशियों की खातिर तहसनहस कर दिया था. आज तुम सीमा, रोहित और मेरी खुशियोें और सुखशांति को अपने स्वार्थ की खातिर दांव पर लगाने को तैयार हो पर काठ की हांडी फिर से चूल्हे पर नहीं चढ़ती है.

‘‘देखो, आज तुम सीमा की बहुत अच्छी सहेली बनी हुई हो. हम तुम्हें अपने घर की सदस्य मानते हैं. मैं तुम्हारा बहुत अच्छा दोस्त और शुभचिंतक हूं. तुम नासम झी का शिकार बन कर हमारे साथ ऐसे सुखद रिश्ते को तोड़ने व बदनाम करने की मूर्खता क्यों करना चाहती हो?’’

‘‘तुम इतना ज्यादा क्यों डर रहे हो, स्वीटहार्ट?’’ मेरे सम झाने का उस पर खास असर नहीं हुआ और वह अपनी आंखों में मुझे प्रलोभित करने वाले नशीले भाव भर कर मेरी तरफ बढ़ी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई तो वह नाराजगीभरे अंदाज में मुड़ कर दरवाजा

खोलने चल पड़ी.

‘‘यह सीमा होगी,’’ मेरे मुंह से निकले इन शब्दों को सुन वह  झटके से मुड़ी और मु झे गुस्से से घूरने लगी.

‘‘तुम ने बुलाया है उसे यहां?’’ उस ने दांत पीसते हुए पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैं अकेले यहां नहीं आना चाहता था.’’

‘‘अब उसे क्या बताओगे?’’

‘‘कह दूंगा कि तुम उस की सौत बनने की…’’

‘‘शटअप, अरुण. अगर तुम ने हमारे बीच हुई बात का उस से कभी जिक्र भी किया तो मैं तुम्हारा मर्डर कर दूंगी.’’ वह अब घबराई सी नजर आ रही थी.

‘‘क्या तुम्हें इस वक्त डर लग रहा है?’’ मैं ने उस के नजदीक जा कर कोमल स्वर में पूछा.

‘‘म… मु झे… मैं सीमा की नजरों में अपनी छवि खराब नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘बिलकुल यही इच्छा मेरे भी है, माई गुड फ्रैंड.’’

‘‘अब उस से क्या कहोगे?’’ दोबारा बजाई गई घंटी की आवाज सुन कर उस की हालत और पतली हो गई.

‘‘तुम्हें वैभव कैसा लगता है?’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘इस ठीक को हम सब मिल कर बहुत अच्छा बना लेंगे, रितु. तुम बहुत भटक चुकी हो. मेरी सलाह मान अब अपनी घरगृहस्थी बसाने का निर्णय ले डालो.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि सीमा को हम यह बताएंगे कि हम ने उसे यहां महत्त्वपूर्ण सलाहमश्वरे के लिए बुलाया है, क्योंकि तुम आज वैभव को अपना जीवनसाथी बनाने के लिए किसी पक्के फैसले तक पहुंचना चाहती हो.’’

‘‘गुड आइडिया,’’ रितु की आंखों में राहत के भाव उभरे.

‘‘तब सुखद विवाहित जीवन के लिए मेरी अग्रिम शुभकामनाएं स्वीकार करो, रितु,’’ मैं ने उस से फटाफट हाथ मिलाया और फिर जल्दी से दरवाजा खोलने के लिए मजाकिया ढंग से धकेल सा दिया.

‘‘थैंक यू, अरुण.’’ उस ने कृतज्ञ भाव से मेरी आंखों में  झांका और फिर खुशी से भरी दरवाजा खोलने चली गई.

‘‘वैभव तलाकशुदा इंसान था. उस की पत्नी ने तलाक देने से पहले उसे इतना दुखी कर दिया था कि अब वह शादी के नाम से ही बिदकता था…’’

निर्णय : पुरवा ने ताऊजी के घर रहने के बाद कैसा निर्णय लिया?

लेखक- रईस अख्तर

जब से अफरोज ने वक्तव्य दिया था, पूरे मोहल्ले और बिरादरी में बस, उसी की चर्चा थी. एक ऐसा तूफान था, जो मजहब और शरीअत को बहा ले जाने वाला था. वह जाकिर मियां की चौथे नंबर की संतान थी. 2 लड़के और उस से बड़ी राबिया अपनेअपने घरपरिवार को संभाले हुए थे. हर जिम्मेदारी को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया था और अब अफरोज की विदाई के बारे में सोच रहे थे. लेकिन अचानक उन की पुरसुकून सत्ता का तख्ता हिल उठा था और उस के पहले संबंधी की जमीन पर उन्होंने अपनी नेकनीयती और अक्लमंदी का सुबूत देते हुए वह बीज बोया था, जो अब पेड़ बन कर वक्त की आंधी के थपेड़े झेल रहा था.

उन के बड़े भाई एहसान मियां उसी शहर में रहते थे. हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनने के वक्त हुए दंगों में उन का इंतकाल हो गया था. वह अपने पीछे अपनी बेवा और 1 लड़के को छोड़ गए थे. उस वक्त हारून 8 साल का था. तभी पति के गम ने एहसान मियां की बेवा को चारपाई पकड़ा दी थी. उन की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी. उस हालत में भी उन्हें अपनी चिंता नहीं थी. चिंता थी तो हारून की, जो उन के बाद अनाथ हो जाने वाला था.

कितनी तमन्नाएं थीं हारून को ले कर उन के दिल में. सब दम तोड़ रही थीं. उन की बीमारी की खबर पा कर जाकिर मियां खानदान के साथ पहुंच गए थे. उन्हें अपने भाई की असमय मृत्यु का बहुत दुख था. उस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि अब भाभीजान भी साथ छोड़ती नजर आ रही थीं. उन के पलंग के निकट बैठे वह यही सोच रहे थे. तभी उन्हें लगा जैसे भाभीजान कुछ कहना चाह रही हैं. भाभीजान देर तक उन का चेहरा देखती रहीं. वह अपने शरीर की डूबती शक्ति को एकत्र कर के बोलीं, ‘वक्त से पहले सबकुछ खत्म हो गया,’

इतना कहतेकहते वह हांफने लगी थीं. कुछ पल अपनी सांसों पर नियंत्रण करती रहीं, ‘मैं ने कितने सुनहरे सपने देखे थे हारून के भविष्य के, खूब धूमधाम से शादी करूंगी…बच्चे…लेकिन…’

‘आप दिल छोटा क्यों करती हैं. यह सब आप अपने ही हाथों से करेंगी,’ जाकिर मियां ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश की थी. ‘नहीं, अब शायद आखिरी वक्त आ गया है…’ भाभीजान चुप हो कर शून्य में देखती रहीं. फिर वहां मौजूद लोगों में से हर एक के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं. ‘सायरा,’ वह जाकिर मियां की बीवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली थीं,

‘तुम लोग चाहो तो मेरे दिल का बोझ हलका कर सकते हो…’ ‘कैसे भाभीजान?’ सायरा ने जल्दी से पूछा था. ‘मेरे हारून का निकाह मेरे सामने अपनी अफरोज से कर सको तो…’ भाभीजान ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था और आशाभरी नजरों से सायरा को देखने लगी थीं. सायरा ने जाकिर मियां की तरफ देखा. जैसे पूछ रही हों, तुम्हारी क्या राय है?

आखिर आप का भी तो कोई फर्ज है. वैसे भी अफरोज की शादी तो आप को ही करनी होगी. अच्छा है, आसानी से यह काम निबट रहा है. लड़का देखो, खानदान देखो, इन सब झंझटों से नजात भी मिल रही है. ‘इस में सोचने की क्या बात है? हमें तो खुशी है कि आप ने यह रिश्ता मांगा है,’

जाकिर मियां ने सायरा की तरफ देखा, ‘मैं आज ही निकाह की तैयारी करता हूं,’ यह कहते हुए जाकिर मियां उठ खड़े हुए. वक्त की कमी और भाभीजान की नाजुक हालत देखते हुए अगले दिन ही अफरोज का निकाह हारून से कर दिया गया था. उसी के साथ वक्त ने तेजी से करवट ली थी और भाभीजान धीरेधीरे स्वस्थ होने लगी थीं. वह घटना भी अपने-आप में अनहोनी ही थी.

तब की 6 साल की अफरोज अब समझदार हो चुकी थी. उस ने बी.ए. तक शिक्षा भी पा ली थी. इसी बीच जब उस ने यह जाना था कि बचपन में उस का निकाह अपने ही चचाजाद भाई हारून से कर दिया गया था तो वह उसे सहजता से नहीं ले पाई थी. ‘‘यह भी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल हुआ कि चाहे जैसे और जिस के साथ ब्याह रचा दिया. दोचार दिन की बात नहीं, आखिर पूरी जिंदगी का साथ होता है पतिपत्नी का. मैं जानबूझ कर खुदकुशी नहीं करूंगी. बालिग हूं, मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ अरमान हैं,’’

अफरोज ने बारबार सोचा था और विद्रोह कर दिया था. जब अफरोज के उस विद्रोह की बात उस के अम्मीअब्बा ने जानी थी तो बहुत क्रोधित हुए थे. ‘‘हम से जनमी बेटी हमें ही भलाबुरा समझाने चली है,’’ सायरा ने मां के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा था, ‘‘तुझे ससुराल जाना ही होगा. तू वह निकाह नहीं तोड़ सकती.’’

‘‘क्यों नहीं तोड़ सकती? जब आप लोगों ने मेरा निकाह किया था, तब मैं दूध पीती बच्ची थी. फिर यह निकाह कैसे हुआ?’’ अफरोज ने तत्परता से बोलते हुए अपना पक्ष रखा था. ‘‘शायद तेरी बात सही हो लेकिन तुझे पता होना चाहिए कि शरीअत के मुताबिक औरत निकाह नहीं तोड़ सकती. हम ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया-लिखाया कि तू अपने फैसले खुद करने लगे. आखिर मांबाप किस लिए हैं?’’ सायरा किसी तरह भी हथियार डालने वाली नहीं थी.

‘‘मैं किसी शरीअतवरीअत को नहीं मानती. आप को आज के माहौल में सोचना चाहिए. कैसी मां हैं आप? जानबूझ कर मुझे अंधे कुएं में धकेल रही हैं. लेकिन मैं हरगिज खुदकुशी नहीं करूंगी. चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े. यह मेरा आखिरी फैसला है,’’ अफरोज पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई थी. अफरोज के खुले विद्रोह के आगे मांबाप की एक नहीं चली थी. आखिर उन्हें इस बात पर समझौता करना पड़ा था कि शहर काजी या मुफ्ती से उस निकाह पर फतवा ले लिया जाए. शाम को उन के घर बिरादरी भर के लोग जमा हो गए थे. हर शख्स मुफ्ती साहब का इंतजार बेचैनी से कर रहा था. उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

कुछ ही देर बाद मुफ्ती साहब के आने की खबर जनानखाने में जा पहुंची थी. इशारे में जाकिर मियां ने कुछ कहा और अफरोज को परदे के पास बैठा दिया गया. दूसरी ओर मरदों के साथ मुफ्ती साहब बैठे थे. मुफ्ती साहब ने खंखारते हुए गला साफ किया. फिर बोले, ‘‘अफरोज वल्द जाकिर हुसैन, यह सही है कि हर लड़की को निकाह कुबूल करने और न करने का हक है, लेकिन उस के लिए कोई पुख्ता वजह होनी चाहिए. तुम बेखौफ हो कर बताओ कि तुम यह निकाह क्यों तोड़ना चाहती हो?’’ वह चुप हो कर अफरोज के जवाब का इंतजार करने लगे.

‘‘मुफ्ती साहब, मुझे यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं महसूस हो रही है कि मेरी अपनी मालूमात और इला के मुताबिक हारून एक काबिल शौहर बनने लायक आदमी नहीं है. ‘‘उस की कारगुजारियां गलत हैं और बदनामी का बाइस है,’’ वह कुछ पल रुकी फिर बोली,

‘‘बचपन में हुआ यह निकाह मेरे अम्मीअब्बा की नासमझी है. इसे मान कर मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोल सकती. बस, मुझे इतना ही कहना है.’’ दोनों तरफ खामोशी छा गई. तभी मुफ्ती साहब बुलंद आवाज में बोले, ‘‘अफरोज के इनकार की वजह काबिलेगौर है. मांबाप की मरजी से किया गया निकाह इस पर जबरन नहीं थोपा जा सकता. निकाह वही जायज है जो पूरे होशहवास में कुबूल किया गया हो. इसलिए यह अपने निकाह को नहीं मानने की हकदार है और अपनी मरजी से दूसरी जगह निकाह करने को आजाद है.’’

मुफ्ती साहब के फतवा देते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था. अपने हक में निर्णय सुन कर, जाने क्यों, अफरोज की आंखों में आंसू आ गए थे.

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