समझौता: क्या हुआ राजीव और रिया के साथ

‘‘य ह क्या राजीव, तुम अभी तक कंप्यूटर में ही उलझे हुए हो?’’ रिया घर में घुसते ही तीखे स्वर में बोली थी.

‘‘कंप्यूटर में उलझा नहीं हूं, काम कर रहा हूं,’’ राजीव ने उतने ही तीखे स्वर में उत्तर दिया था.

‘‘ऐसा क्या कर रहे हो सुबह से?’’

‘‘हर बात तुम्हें बतानी आवश्यक नहीं है और कृपया मेरे काम में विघ्न मत डालो,’’ राजीव ने झिड़क दिया तो रिया चुप न रह सकी.

‘‘बताने को है भी क्या तुम्हारे पास? दिन भर बैठ कर कंप्यूटर पर गेम खेलते रहते हो. कामधंधा तो कुछ है नहीं. मुझे तो लगता है कि तुम काम करना ही नहीं चाहते. प्रयत्न करने पर तो टेढ़े कार्य भी बन जाते हैं पर काम ढूंढ़ने के लिए हाथपैर चलाने पड़ते हैं, लोगों से मिलनाजुलना पड़ता है.’’

‘‘तो अब तुम मुझे बताओगी कि काम ढूंढ़ने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?’’

‘‘ठीक कहा तुम ने. मैं होती कौन हूं तुम से कुछ कहने वाली. मैं तो केवल घर बाहर पिसने के लिए हूं. बाहर काम कर के लौटती हूं तो घर वैसे का वैसा पड़ा मिलता है.’’

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया था कि अब तुम ही तो घर की कमाऊ सदस्य हो. मुझे तो सुबह उठते ही तुम्हें साष्टांग प्रणाम करना चाहिए और हर समय तुम्हारी सेवा में तत्पर रहना चाहिए. मैं अपनी तरफ से भरसक प्रयत्न कर भी रहा हूं कि महारानीजी को कोई कष्ट न पहुंचे. फिर भी कोई कोरकसर रह जाए तो क्षमाप्रार्थी हूं,’’ राजीव का व्यंग्यपूर्ण स्वर सुन कर छटपटा गई थी रिया.

‘‘क्यों इस प्रकार शब्दबाणों के प्रयोग से मुझे छलनी करते हो राजीव? अब तो यह तनाव मेरी सहनशक्ति को चुनौती देने लगा है,’’ रिया रो पड़ी थी.

‘‘यह क्यों नहीं कहतीं कि बेकार बैठे निखट्टू पति को तुम सह नहीं पा रही हो. दिन पर दिन कटखनी होती जा रही हो.’’

क्रोधित स्वर में बोल राजीव घर से बाहर निकल गया था. रिया अकेली बिसूरती रह गई थी.

मातापिता को आपस में तूतू मैंमैं करते देख दोनों बच्चे किशोर और कोयल अपनी किताबें खोल कर बैठ गए थे और कनखियों से एकदूसरे को देख कर इशारों से बात कर रहे थे. शीघ्र ही इशारों का स्थान फुसफुसाहटों ने ले लिया था.

‘‘मम्मी बहुत गंदी हैं, घर में घुसते ही पापा पर बरस पड़ीं. पापा कितना भी काम करें मम्मी उन्हें चैन से रहने ही नहीं देतीं,’’ कोयल ने अपना मत व्यक्त किया था.

‘‘मम्मी नहीं पापा ही गंदे हैं, घर में काम करने से कुछ नहीं होता. बाहर जा कर काम करने से पैसा मिलता है और उसी से घर चलता है. मम्मी बाहर काम न करें तो हम सब भूखे मर जाएं.’’ किशोर ने प्रतिवाद किया तो कोयल उस पर झपट पड़ी थी और दोचार थप्पड़ जमा दिए थे. फिर तो ऐसा महाभारत मचा कि दोनों के रोनेबिलखने पर ही समाप्त हुआ था.

कोहराम सुन कर रिया दौड़ी आई थी. वह पहले से ही भरी बैठी थी. उस ने दोनों बच्चों की धुनाई कर दी और उन का कं्रदन धीरेधीरे सिसकियों में बदल गया था.

रिया बच्चों को मारपीट कर देर तक शून्य में ताकती रही थी, जबकि चारों ओर फैला अस्तव्यस्त सा उस का घर उसे मुंह चिढ़ा रहा था.

‘मेरे हंसतेखेलते घर को न जाने किस की नजर लग गई,’ उस ने सोचा और फफक उठी. कभी वह स्वयं को संसार की सब से भाग्यशाली स्त्री समझती थी.

आर्थिक मंदी के कारण 6 माह पूर्व राजीव की नौकरी क्या गई घर की सुखशांति को ग्रहण ही लग गया था. वहीं से प्रारंभ हुआ था उन की मुसीबतों का सिलसिला.

80 हजार प्रतिमाह कमाने वाले व्यक्ति के बेरोजगार हो जाने का क्या मतलब होता है. यह राजीव को कुछ ही दिनों में पता चल गया था.

जो नौकरी रिया ने शौकिया प्रारंभ की थी इस आड़े वक्त में वही जीवन संबल बन गई थी. न चाहते हुए भी उसे अनेक कठोर फैसले लेने पड़े थे.

उच्ववर्गीय पौश इलाके के 3 शयनकक्ष वाले फ्लैट को छोड़ कर वे साधारण सी कालोनी के दो कमरे वाले फ्लैट में चले आए थे. पहले खाना बनाने, कपड़े धोने तथा घर व फर्नीचर की सफाई, बरतन धोने वाली अलगअलग नौकरानियां थीं पर अब एक से ही काम चलाना पड़ रहा था. नई कालोनी में 2 कारों को खड़े करने की जगह भी नहीं थी. ऊपर से पैसे की आवश्यकता थी अत: एक कार बेचनी पड़ी थी.

सब से कठिन निर्णय था किशोर और कोयल को महंगे अंतर्राष्ट्रीय स्कूल से निकाल कर साधारण स्कूल में डालने का. रियाराजीव ने बच्चों को यही समझाया था कि पढ़ाई का स्तर ठीक न होने के कारण ही उन्हें दूसरे स्कूल में डाल रहे हैं पर जब एक दिन किशोर ने कहा कि वह मातापिता की परेशानी समझता है और अच्छी तरह जानता है कि वे उसे महंगे स्कूल में नहीं पढ़ा पाएंगे तो राजीव सन्न रह गया था. रिया के मुंह से चाह कर भी कोई बोल नहीं फूटा था.

इस तरह की परिस्थिति में संघर्ष करने वाला केवल उन का ही परिवार नहीं था, राजीव के कुछ अन्य मित्र भी वैसी ही कठिनाइयों से जूझ रहे थे. वे सभी मिलतेजुलते, एकदूसरे की कठिनाइयों को कम करने का प्रयत्न करते. इस तरह हंसतेबोलते बेरोजगारी का दंश कम करने का प्रयत्न करते थे.

अपनी ओर से रिया स्थिति को संभालने का जितना ही प्रयत्न करती उतनी ही निराशा के गर्त्त में गिरती जाती थी. पूरे परिवार को अजीब सी परेशानी ने घेर लिया था. बच्चे भी अब बच्चों जैसा व्यवहार कहां करते थे. पहले वाली नित नई मांगों का सिलसिला तो कब का समाप्त हो गया था. जब से उन्हें महंगे अंतर्राष्ट्रीय स्कूल से निकाल कर दूसरे मध्यवर्गीय स्कूल में डाला गया था, वे न मित्रों की बात करते थे और न ही स्कूल की छोटीमोटी घटनाओं का जिक्र ही करते थे.

रिया को स्वयं पर ही ग्लानि हो आई थी. बिना मतलब बच्चों को धुनने की क्या आवश्यकता थी. न जाने उन के कोमल मन पर क्या बीत रही होगी. भाईबहनों में तो ऐसे झगड़े होते ही रहते हैं. कम से कम उसे तो अपने होश नहीं खोने चाहिए थे पर नहीं, वह तो अपनी झल्लाहट बच्चों पर ही उतारना चाहती थी.

रिया किसी प्रकार उठ कर बच्चों के कमरे में पहुंची थी. किशोर और कोयल अब भी मुंह फुलाए बैठे थे.

रिया ने दोनों को मनायापुचकारा, ‘‘मम्मी को माफ नहीं करोगे तुम दोनों?’’ बच्चों का रुख देख कर रिया ने झटपट क्षमा भी मांग ली थी.

‘‘पर यह क्या?’’ डांट खा कर भी सदा चहकती रहने वाली कोयल फफक पड़ी थी.

‘‘अब हमारा क्या होगा मम्मी?’’ वह रोते हुए अस्पष्ट स्वर में बोली थी.

‘‘क्या होगा का क्या मतलब है? और ऐसी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’’

‘‘पापा की नौकरी चली गई मम्मी. अब आप उन्हें छोड़ दोगी न?’’ कोयल ने भोले स्वर में पूछा था.

‘‘क्या? किस ने कहा यह सब? न जाने क्या ऊलजलूल बातें सोचते रहते हो तुम दोनों,’’ रिया ने किशोर और कोयल को झिड़क दिया था पर दूसरे ही क्षण दोनों बच्चों को अपनी बाहों में समेट कर चूम लिया था.

‘‘हम सब का परिवार है यह. ऐसी बातों से कोई किसी से अलग नहीं होता. हमसब का बंधन अटूट है. पापा की नौकरी चली गई तो क्या हुआ? दूसरी मिल जाएगी. तब तक मेरी नौकरी में मजे से काम चल ही रहा है.’’

‘‘कहां काम चल रहा है मम्मी? मेरे सभी मित्र यही कहते हैं कि अब हम गरीब हो गए हैं. तभी तो प्रगति इंटरनेशनल को छोड़ कर हमें मौडर्न स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. ‘टाइगर हाइट्स’ छोड़ कर हमें जनता अपार्टमेंट के छोटे से फ्लैट में रहना पड़ रहा है.’’ किशोर उदास स्वर में बोला तो रिया सन्न रह गई थी.

‘‘ऐसा नहीं है बेटे. तुम्हारे पुराने स्कूल में ढंग से पढ़ाई नहीं होती थी इसीलिए उसे बदलना पड़ा,’’ रिया ने समझाना चाहा था. पर अपने स्वर पर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं हो रहा था. बच्चे छोटे अवश्य हैं पर उन्हें बातों में उलझाना बच्चों का खेल नहीं था.

कुछ ही देर में बच्चे अपना गृहकार्य समाप्त कर खापी कर सो गए थे पर रिया राजीव की प्रतीक्षा में बैठे हुए ऊंघने लगी थी.

रात के 11 बज गए तो उस ने मोबाइल उठा कर राजीव से संपर्क करने का प्रयत्न किया था. घर से रूठ कर गए हैं तो मनाना तो पड़ेगा ही.

पर नंबर मिलाते ही खाने की मेज पर रखा राजीव का फोन बजने लगा था.

‘‘तो महाशय फोन यहीं छोड़ गए हैं. इतना गैरजिम्मेदार तो राजीव कभी नहीं थे. क्या बेरोजगारी मनुष्य के व्यक्तित्व को इस तरह बदल देती है? कब तक आंखें पसारे बैठी रहे वह राजीव के लिए. कल आफिस भी जाना है.’’ इसी ऊहापोह में कब उस की आंख लग गई थी, पता ही नहीं चला था.

दीवार घड़ी में 12 घंटों का स्वर सुन कर वह चौंक कर उठ बैठी थी. घबरा कर उस ने राजीव के मित्रों से संपर्क साधा था.

‘‘कौन? रमोला?’’ रिया ने राजीव के मित्र संतोष के यहां फोन किया तो फोन उस की पत्नी रमोला ने उठाया था.

‘‘हां, रिया, कहो कैसी हो?’’

‘‘सौरी, रमोला, इतनी रात गए तुम्हें तकलीफ दी पर शाम 6 बजे के गए राजीव अभी तक घर नहीं लौटे हैं. तुम्हारे यहां आए थे क्या?’’

‘‘कैसी तकलीफ रिया, आज तो लगता है सारी रात आंखों में ही कटेगी. राजीव आए थे यहां. राजीव और संतोष ने साथ चाय पी. गपशप चल रही थी कि मनोज की पत्नी का फोन आ गया कि मनोज ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली है. दोनों साथ ही मनोज के यहां गए हैं. पर उन्हें तुम्हें फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘राजीव अपना मोबाइल घर ही भूल गए हैं. पर मनोज जैसा व्यक्ति ऐसा कदम भी उठा सकता है मैं तो सोच भी नहीं सकती थी. हुआ क्या था?’’

‘‘पता नहीं, संतोष का फोन आया था कि मनोज और उस की पत्नी में सब्जी लाने को ले कर तीखी झड़प हुई थी. उस के बाद वह तो पास के ही स्टोर में सब्जी लेने चली गई और मनोज ने यह कांड कर डाला,’’ रमोला ने बताया था.

‘‘हाय राम, इतनी सी बात पर जान दे दी.’’

‘‘बात इतनी सी कहां है रिया. ये लोग तो आकाश से सीधे जमीन पर गिरे हैं. छोटी सी बात भी इन्हें तीर की तरह लगती है.’’

‘‘पर इन्होंने एकदूसरे को सहारा देने के लिए संगठन बनाया हुआ है.’’

‘‘कैसा संगठन और कैसा सहारा? जब अपनी ही समस्या नहीं सुलझती तो दूसरों की क्या सुलझाएंगे.’’ रमोला लगभग रो ही पड़ी थी.

‘‘संतोष भैया फिर भी तकदीर वाले हैं कि शीघ्र ही दूसरी नौकरी मिल गई.’’ रिया के शब्द रमोला को तीर की तरह चुभे थे.

‘‘तुम से क्या छिपाना रिया, संतोष के चाचाजी की फैक्टरी है. पहले से एकतिहाई वेतन पर दिनरात जुटे रहते हैं.’’

‘‘ऐसा समय भी देखना पड़ेगा कभी सोचा न था,’’ रिया ने फोन रख दिया था.

रिया की चिंता की सीमा न थी. इतनी सी बात पर मनोज ने यह क्या कर डाला. अपनी पत्नी और बच्चे के बारे में भी नहीं सोचा. रिया पूरी रात सो नहीं सकी थी. उस के और राजीव के बीच भी तो आएदिन झगड़े होते रहते हैं. वह तो दिन भर आफिस में रहती है और राजीव अकेला घर में. उस से आगे तो वह सोच भी नहीं सकी और फफक कर रो पड़ी थी.

राजीव लगभग 10 बजे घर लौटे थे.

‘‘यह क्या है? कल छह बजे घर से निकल कर अब घर लौटे हो. एक फोन तक नहीं किया,’’ रिया ने देखते ही उलाहना दिया था.

‘‘क्या फर्क पड़ता है रिया. मैं रहूं या न रहूं. तुम तो अपने पावों पर खड़ी हो.’’

‘‘ऐसी बात मुंह से फिर कभी मत निकालना और किसी का तो पता नहीं पर मैं तो जीतेजी मर जाऊंगी,’’ रिया फफक उठी थी.

‘‘यह संसार ऐसे ही चलता रहता है रिया. देखो न, मनोज हमें छोड़ कर चला गया पर संसार अपनी ही गति से चल रहा है. न मनोज के जाने का दुख है और न ही उस के लिए किसी की आंखों में दो आंसू,’’ राजीव रो पड़ा था.

पहली बार रिया ने राजीव को इस तरह बेहाल देखा था. वह बच्चों के सामने ही फूटफूट कर रो रहा था.

रिया उसे अंदर लिवा ले गई थी. किशोर और कोयल आश्चर्यचकित से खड़े रह गए थे.

‘‘तुम दोनों यहीं बैठो. मैं चाय बना लाती हूं,’’ रिया हैरानपरेशान सी बच्चों को बालकनी में बिठा कर राजीव को सांत्वना देने लगी थी. वह नहीं चाहती थी कि राजीव की इस मनोस्थिति का प्रभाव बच्चों पर पड़े.

‘‘ऐसा क्या हो गया जो मनोज हद से गुजर गया. पिछले सप्ताह ही तो सपरिवार आया था हमारे यहां. इतना हंसमुख और मिलनसार व्यक्ति अंदर से इतना उदास और अकेला होगा यह भला कौन सोच सकता था,’’ रिया के स्वर में भय और अविश्वास साफ झलक रहा था.

उत्तर में राजीव एक शब्द भी नहीं बोला था. उस ने रिया पर एक गहरी दृष्टि डाली थी और चाय पीने लगा था.

‘‘मनोज की पत्नी और बच्चे का क्या होगा?’’ रिया ने पुन: प्रश्न किया था. वह अब भी स्वयं को समझा नहीं पाई थी.

‘‘उस के पिता आ गए हैं वह ही दोनों को साथ ले जाएंगे. पिता का अच्छा व्यवसाय है. मेवों के थोक व्यापारी हैं. वह तो मनोज को व्यापार संभालने के लिए बुला रहे थे पर यह जिद ठाने बैठा था कि पिता के साथ व्यापार नहीं करेगा.’’

रिया की विचार शृंखला थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. मनोज की पत्नी मंजुला अकसर अपनी पुरातनपंथी ससुराल का उपहास किया करती थी. पता नहीं उन लोगों के साथ कैसे रहेगी. उस के दिमाग में उथलपुथल मची थी. कहीं कुछ भी होता था तो उन के निजी जीवन से कुछ इस प्रकार जुड़ जाता था कि वह छटपटा कर रह जाती थी.

राजीव भी अपने मातापिता की इकलौती संतान है. वे लोग उसे बारबार अपने साथ रहने को बुला रहे हैं. उस के पिता बंगलौर के जानेमाने वकील हैं पर रिया का मन नहीं मानता. न जाने क्यों उसे लगता है कि वहां जाने से उस की स्वतंत्रता का हनन होगा. धीरेधीरे जीवन ढर्रे पर आने लगा था. केवल एक अंतर आ गया था. अब रिया ने पहले की तरह कटाक्ष करना छोड़ दिया था. वह अपनी ओर से भरसक प्रयास करती कि घर की शांति बनी रहे.

उस दिन आफिस से लौटी तो राजीव सदा की तरह कंप्यूटर के सामने बैठा था.

‘‘रिया इधर आओ,’’ उस ने बुलाया था. वह रिया को कुछ दिखाना चाहता था.

‘‘यह तो शुभ समाचार है. कब हुआ था यह साक्षात्कार? तुम ने तो कुछ बताया ही नहीं,’’ रिया कंप्यूटर स्क्रीन पर एक जानीमानी कंपनी द्वारा राजीव का नियुक्तिपत्र देख कर प्रसन्नता से उछल पड़ी थी.

‘‘इतना खुश होने जैसा कुछ नहीं है एक तो वह आधे से भी कम वेतन देंगे, दूसरे मुझे बंगलौर जा कर रहना पड़ेगा. यहां नोएडा में उन का छोटा सा आफिस है अवश्य, पर मुझे उन के मुख्यालय में रहना पड़ेगा.’’

‘‘यह तो और भी अच्छा है. वहां तो तुम्हारे मातापिता भी हैं. उन की तो सदा से यही इच्छा है कि हमसब साथ रहें.’’

‘‘मैं सोचता हूं कि पहले मैं जा कर नई नौकरी ज्वाइन कर लेता हूं. तुम कोयल और किशोर के साथ कुछ समय तक यहीं रह सकती हो.’’

‘‘नहीं, न मैं अकेले रह पाऊंगी न ही कोयल और किशोर. सच कहूं तो यहां दम घुटने लगा है मेरा. मेरे मामूली से वेतन में 6-7 महीने से काम चल रहा है. तुम्हें तो उस से दोगुना वेतन मिलेगा. हमसब साथ चलेंगे.’’

कोयल और किशोर सुनते ही प्रसन्नता से नाच उठे थे. उन्होंने दादादादी के घर में अपने कमरे भी चुन लिए थे.

राजीव के मातापिता तो फोन सुनते ही झूम उठे थे.

‘‘वर्षों बाद कोई शुभ समाचार सुनने को मिला है,’’ उस की मां भरे गले से बोली थीं और आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘पर तुम्हारी स्वतंत्रता का क्या होगा?’’ फोन रखते ही राजीव ने प्रश्न किया था.

‘‘इतनी स्वार्थी भी नहीं हूं मैं कि केवल अपने ही संबंध में सोचूं. तुम ने साथ दिया तो मैं भी सब के खिले चेहरे देख कर समझौता कर लूंगी.’’

‘‘समझौता? इतने बुरे भी नहीं है मेरे मातापिता, आधुनिक विचारों वाले पढ़ेलिखे लोग हैं और मुझ से अधिक मेरे परिवार पर जान छिड़कते हैं.’’

इतना कह कर राजीव ने ठहाका लगाया तो रिया को लगा कि इस खुशनुमा माहौल के लिए कुछ बलिदान भी करना पड़े तो वह तैयार है.

टूटा गरूर- भाग 2: छोटी बहन ने कैसे की पल्लवी की मदद

लिहाजा पल्लवी को चुप रह जाना पड़ा. फिर तो जब तक दोनों नाश्ता करती रहीं, पारुल मैसेज पढ़ती रही और जवाबी मैसेज भेजती रही. उस ने एक बार भी मुंह ऊपर नहीं उठाया. उलटे हाथ से लैटर टाइप करते हुए सीधे हाथ से एक कौर उठाती और मुंह में डाल लेती. क्या खा रही है, कैसा स्वाद है, मैसेज में मगन पारुल को कुछ पता नहीं चल रहा था.

पल्लवी मन ही मन खीज रही थी कि उस के इतने कीमती और ढेर सारे नाश्ते पर पारुल का ध्यान ही नहीं है.

पारुल के लगातार बेवजह हंसते रहने को पल्लवी उस की आंतरिक खुशी नहीं उस की दुख छिपाने की चेष्टा ही समझी. पल्लवी जैसी बुद्धिहीन और समझ ही क्या सकती थी. तभी तो यह सुन कर कि पारुल के यहां खाना बनाने को बाई या रसोइया नहीं, पल्लवी अवाक उसे देखती रही.

‘‘इस में इतना अचरज करने की क्या बात है दीदी? 2 ही तो लोग हैं. पीयूष को भी खाना बनाने का शौक है. हम दोनों मिल कर खाना बना लेते हैं और जरूरी बातचीत भी हो जाती है,’’ पारुल ने सहज रूप से उत्तर दिया.

अब तो पल्लवी के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. पुरुष और किचन में? यह तो जैसे दूसरी दुनिया की बात है. उस ने न तो अपने पिताजी को कभी किचन में जाते देखा न कभी प्रशांत ने ही कभी वहां पैर रखा. पुरुष तो छोडि़ए, पल्लवी ने तो अपने घर की औरतों यानी मां या दादी को भी सिवा रसोइए को क्या बनेगा के निर्देश देने के और किसी काम से किचन में पैर रखते नहीं देखा.

‘‘पर तूने खाना बनाना कहां से सीखा?’’ पल्लवी ने प्रश्न किया.

‘‘पीयूष से ही सीखा दीदी. वे बहुत अच्छा खाना बनाते हैं,’’ पारुल ने उत्तर दिया.

रसोईघर की गरमी में पारुल खाना बनाती है, रोटियां बेलती है सोच कर ही पल्लवी को पहली बार बहन से सचमुच सहानुभूति हो आई.

‘‘असिस्टैंट प्रोफैसर की तनख्वाह इतनी भी कम नहीं होती कि एक रसोइया न रखा जा सके. इतना कंजूस भी क्यों है पीयूष?’’ पल्लवी विषाद भरे स्वर में बोली.

‘‘वे कंजूस नहीं हैं दीदी, उन्होंने तो बहुत कहा था कि रसोइया रख लो, लेकिन जिद कर के मैं ने ही मना किया. हाथपैर चलते रहते हैं तो शरीर पर बेकार चरबी नहीं चढ़ती. वरना बैठेबैठे खाते रहो तो मोटे हो कर सौ परेशानियों को निमंत्रण दो.’’

पारुल तो सहज बात बोल गई लेकिन पल्लवी को लगा पारुल उस पर व्यंग्य कर रही है. सचमुच कम उम्र में एक के बाद एक 2 बच्चे और उस पर तर माल खा कर बस सारा दिन आराम करना. घूमने के नाम पर गाडि़यों में घूमना, पार्टियों में जाना और मौल में शौपिंग करना. और करती ही क्या है पल्लवी. तभी तो जगहजगह थुलपुल मांस की परतें झांकने लगी हैं. शरीर बड़ी मुश्किल से कपड़ों में समाता है.

पहली बार पारुल के छरहरे कसे शरीर को देख कर ईर्ष्या का अनुभव किया पल्लवी ने. वह पारुल से मात्र 6 वर्ष बड़ी है,  लेकिन मांस चढ़ जाने के कारण 20 वर्ष बड़ी लग रही है. जबकि पारुल के चेहरे और शरीर पर आज भी 20-22 की उम्र वाली कमनीयता बरकरार है.

पल्लवी भी कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गई. एक ही दिन हुआ है पारुल को आए. लेकिन सुबह से पीयूष के न जाने कितने फोन और मैसेज आ गए होंगे. अब भी शायद दोनों एकदूसरे को मैसेज ही कर रहे होंगे. 4 साल हो गए शादी को, लेकिन लग रहा है मानो महीना भर पहले ही ब्याह हुआ है. कितनी दीवानगी है एकदूसरे के लिए.

पहली बार पल्लवी के मन में एक गहरी टीस उठी. शादी के इतने बरसों में कभी याद नहीं किया काम के सिवा प्रशांत ने. उन के टूअर पर जाने पर यदि कभी अकेलेपन से ऊब कर पल्लवी ही बातचीत के उद्देश्य से फोन मिलाती तो प्रशांत झल्ला जाता कि मेरे पास गप्पें मारने के लिए फालतू समय नहीं है.

दिन में न सही, लेकिन रात में भी प्रशांत का कोई न कोई बहाना रहता कि पार्टी के साथ मीटिंग में हूं या डिनर पर काम की बातें हो रही हैं या फिर सो रहा हूं.

हार कर पल्लवी ने फोन करना बंद कर दिया. लेकिन आज पारुल और पीयूष को एकदूसरे के कौंटैक्ट में रहते देख कर पल्लवी के अंदर एक टीस सी उठी. इस बार तो 4 दिन हो गए प्रशांत को गए हुए. पहुंचने के फोन के बाद से कोई खबर नहीं है. देर तक छटपटाती रही पल्लवी. सुबह से पारुल के फोन को चैन नहीं है और पल्लवी… उस का फोन इतना खामोश है कि पता ही नहीं चलता कि फोन पास है या नहीं.

हाथ में पकड़े मोबाइल को देर तक घूरती रही पल्लवी और फिर प्रशांत को फोन लगाया. 1 2 3 … 10 बार लगातार फोन किया पल्लवी ने, लेकिन प्रशांत ने फोन नहीं उठाया. लगता है फोन साइलैंट मोड पर कर के सो गए हैं.

पारुल सो रही है या… सहज कुतूहल और ईर्ष्या के वशीभूत हो कर पल्लवी उठ कर पारुल के कमरे तक गई. दरवाजा बंद नहीं था. केवल परदे लगे थे. पल्लवी ने बहुत थोड़ा सा परदा सरका कर देखा. पलंग के सिरहाने वाले कोने पर एक मद्धिम रोशनी झिलमिला रही थी. उस रोशनी को देख कर पल्लवी के मन का अंधेरा घना हो गया.

आ कर चुपचाप पलंग पर लेट कर देर रात तक अपनेआप को तसल्ली देती रही. पल्लवी कि कल सुबह उठते ही उस की इतनी मिस कौल देख कर प्रशांत खुद ही फोन लगा लेंगे.

दूसरे दिन नाश्ता करते हुए पारुल ने टोक ही दिया, ‘‘कल से देख रही हूं, दीदी जीजाजी का एक बार भी फोन नहीं आया.’’

जले मन पर मानो नमक छिड़क दिया पारुल ने. तिलमिला कर कहने जा रही थी कि बहुत काम रहता है प्रशांत को… इतना बड़ा बिजनैस हैंडल करना आसान नहीं है. पीयूष की तरह फुरसतिया नहीं हैं कि चौबीसों घंटे मोबाइल पर बीवी से बातें या मैसेज करते रहें. लेकिन हड़बड़ा कर झूठ ही बोल गई, ‘‘सुबह ही तो तेरे आने से पहले बहुत देर तक बातें हुई थीं. फिर रात में भी बहुत देर तक बातें करते रहे. आखिर मैं ने ही कहा कि अब सो जाओ तब बड़ी मुश्किल से फोन काटा,’’ कहते हुए पल्लवी पारुल से आंखें नहीं मिला पाई. नाश्ता परोसने के बहाने आंखें यहांवहां घुमाती रही.

मोबाइल को हाथ में पकड़े पल्लवी घूर रही थी. सुबह के 10 बज गए हैं. क्या अब तक प्रशांत सो कर नहीं उठे होंगे? क्या उन्होंने मेरी मिस कौल नहीं देखी होंगी? क्या एक बार भी वे फोन नहीं लगा सकते? पता नहीं क्यों अचानक पल्लवी का मन तेजी से यह इच्छा करने लगा कि काश प्रशांत का फोन आ जाए. हमेशा से इस अकेलेपन को आजादी मानने वाली पल्लवी आज पारुल के सामने बैठ कर अचानक ही क्यों इस अकेलेपन से ऊब उठी है? क्यों किसी से कोने में जा कर बात करने को उस का मन लालायित हो उठा.

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दीनानाथ का वसीयतनामा- भाग 2: दीवानजी की वसीयत में क्या था

वे भी ऐसे ही तड़पें जैसे मैं तड़पता रहा हूं. तभी उन्हें कुछ अक्ल आएगी. मेरे मरने पर कुछ लंबाचौड़ा करने की आवश्यकता नहीं है. उसी मंदिर में मेरे सभी क्रियाक्रम किए जाएं,

जहां मैं हर मंगल और इतवार को जाता था.

आशा है लोकेश, तुम सब जानते हुए मेरी इच्छा पूरी करोगे और हां नूरां और राजपाल को उन

के अधिकार अवश्य दिलाना नहीं तो मुझे शांति नहीं मिलेगी.

रमन ने प्रश्नभरी निगाह से बख्शी की ओर देखा तो बख्शी ने कहा, ‘‘हाथ से लिखी हुई वसीयत को कोई कोर्ट भी नहीं नकार सकता, पर हैरानी की बात तो यह है कि दीनानाथ ने अपनी औलाद के लिए कुछ नहीं छोड़ा.’’

इंस्पैक्टर रमन ने कहा, ‘‘बच्चे इसे चैलेंज भी तो कर सकते हैं.’’

‘‘यह बड़ा लंबा प्रोसैस है. सालों लग सकते हैं और खर्चा अलग से,’’ बख्शी ने कहा.

‘‘आप तो दीवानजी के बड़े घनिष्ठ मित्र

थे, आप को तो सब पता होगा?’’

रमन ने पूछा.

‘‘हां, पता तो सब है. हम रोज शाम को मिलते थे. मंदिर में भी हर इतवार को इकट्ठे होते थे, पर 2 साल से दीनानाथ बहुत बीमार था और चुप लगा गया था. दिल की बात तो वह मेरे से भी कभीकभार ही करता था,’’ बख्शी ने कहा.

‘‘आप नूरां के बारे में क्या जानते हैं?’’ रमन ने पूछा.

दोनों टहलतेटहलते कमरे से बाहर निकल कर बरामदे में आ पहुंचे थे. लोगों का आनाजाना शुरू हो चुका था. दाहसंस्कार शाम तक हो जाना था, क्योंकि बच्चे बहुत दूर थे और यहां पर कोई सगासंबंधी भी न था. ‘‘नूरां करीब 10 सालों से दीनानाथ के यहां काम कर रही है. नूरां के बाप को, परिवार को दीनानाथ जानते थे… पहले तो नूरां सफाई कर के चली जाती थी, पर जब दीनानाथ बीमार हुआ तो उस ने सारे दिन की जिम्मेदारी ले ली. पिछले 2 सालों से तो लगभग सारा काम कर रही है. उस के परिवार की बुरी हालत है, पति शराब की भेंट चढ़ गया, बेटा घर से भाग गया पर बेटी अच्छी है. उस की  नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी हो चुकी है,’’ बख्शी ने कहा.

‘‘नूरां की बेटी कहां है?’’ रमन ने उत्सुकता से पूछा.

वह लुधियाना में जौब कर रही है. नूरां की बूढ़ी मां जो अपनी याददाश्त खो चुकी हैं उस के साथ रहती हैं.

दाहसंस्कार के बाद वसीयत की 2 कापियां बनाई गईं. एक रमन ने अपने पास रखी और औरिजनल बख्शी के पास रही. तय यह किया गया कि जब बच्चे आएंगे तो बख्शी जो उन के पारिवारिक वकील भी हैं वे उन्हें इस वसीयत से अवगत कराएंगे.

2 दिन बाद जब दीनानाथ दीवान का लड़का घर पहुंचा तो उस दिन दीनानाथ का उठाला था उसी मंदिर में जहां वे ट्रस्टी भी थे. उपासना और आनंद तो दाहसंस्कार वाले दिन ही रात को पहुंच गए थे. उन का प्लेन लेट था सो वे रात तक ही आ पाए.

उपासना को सचमुच रुलाई आ रही थी उमा (दूसरी पत्नी व उस की मां) ने उसे सदा अपने पिता से दूर रखा और उस के कान भरती रही पर पिता के देहांत ने उसे दुखी कर दिया था. आनंद 2 दिन में ही इस माहौल से उकता चुका था. उस का उद्देश्य तो केवल पैसा लेना था. उसे ‘ओल्ड मैन’ के मरने का कतई अफसोस न था.

अतुल दुखी तो था. उसे अपनी पिछली विजिट याद आ रही थी जब पहली बार उस के पिता दीनानाथ ने उस के बच्चों की शिक्षा के बारे में उस से पूछा था, पर बापबेटे में इतना भी तालमेल नहीं था कि वे घड़ीभर एकदूसरे के पास बैठ कर किसी विषय पर एक राय हो सकें. इतनी दूर कनाडा से आ कर भी वह केवल 1 हफ्ता रुक पाया. सोच रहा था चलो जिंदगी का एक अध्याय खत्म हुआ. अब जो पापा छोड़ गए हैं उस से वह अपना बिजनैस नए सिरे से जमाएगा.

दूसरी तरफ उपासना का पति आनंद भी अंदर से तो कर्ज उतार कर उपासना को छोड़ देने के सपने देख रहा था, पर ऊपर से अपनी पत्नी को गले लगा कर सांत्वना दे रहा था, ‘‘जान देखो तुम बीमार पड़ जाओगी, अपना खयाल रखो. मुझे और बच्चों को तुम्हारी बहुत जरूरत है.’’

नूरां ने अच्छी तरह से मेहमानों की देखभाल की. हवेली के सारे कमरे साफसुथरे कर के सभी के ठहरने का पूरा बंदोबस्त कर दिया था. ऊपर वाला भाग हमेशा बच्चों के ठहरने के लिए प्रयोग होता था.

शाम को उठाले पर छोटा सा कार्यक्रम हुआ, जिस में दीनानाथ को श्रद्धांजलि दी गई.

दूसरे दिन उपासना व अतुल में बैठक हुई और तय किया गया कि अब नूरां और

राजपाल की छुट्टी कर दी जाए, कोई नई कामवाली रखी जाए, एक कुक रख लिया जाए, राजपाल की जगह कोई नया स्मार्ट चुस्तदुरुस्त अकाउंटैंट रखा जाए जो दफ्तर का, जंगलों का कारोबार देख सके. अतुल ने कहा कि अब तो वह आताजाता रहेगा. उसे ढंग का खाना पसंद है, इसलिए सारी व्यवस्था बदलनी होगी.

अभी यह बातचीत चल ही रही थी कि इंस्पैक्टर रमन और बख्शी आ पहुंचे. हैलोहाय के बाद उन्हें बड़े आदर से बैठाया गया, क्योंकि अतुल और उपासना को पता था कि आज वसीयत पढ़ी जाएगी. नूरां को चाय लाने के लिए कह दिया गया.

नूरां जब चाय बना रही थी, अतुल ने बख्शी से कहा, ‘‘अंकल, मैं ने सोचा है घर की व्यवस्था मैं अपने हाथ में ले लूं, पापा के बाद मुझे ही तो सब देखना है. हम ने तय किया है कि नूरां और राजपाल को अब फ्री कर देना चाहिए. वैसे भी दोनों हम लोगों को पसंद नहीं. नूरां तो मालकिन की तरह सब तरफ घूमती फिरती है.’’

रमन और बख्शी ने एकदूसरे को देखा जैसे कह रहे हों इन बेचारों को क्या पता कि क्या होने वाला है?

‘‘क्यों अंकल आप कुछ बोलेंगे नहीं?’’ उपासना ने पूछा.

जवाब रमन ने दिया, ‘‘देखो, तुम से जो कहने जा रहे हैं उसे ध्यान से सुनो. तुम्हारे पापा का पत्र जो हमें उन के पास मिला था, वह तुम्हें पढ़ कर सुनाना है.’’

दोनों अंदर से खुश थे, पर ऊपर से उपासना और अतुल ने संयम कायम रखते हुए दुखी दिखने की कोशिश जारी रखी. रमन ने पत्र पढ़ कर ज्यों का त्यों सुना दिया.

युवा प्रेम आसरा- भाग 3: क्या जया को हुआ गलती का एहसास

बेटी के इस तरह गायब हो जाने से किशन का दुख और चिंता से बुरा हाल था. उधर आशा की स्थिति तो और भी दयनीय थी. उन्हें रहरह कर इस बात का पछतावा हो रहा था कि उन्होंने जया के घर से बाहर जाने वाले मामले की खोजबीन उतनी गहराई से नहीं की, जितनी उन्हें करनी चाहिए थी. इस की वजह यही थी कि उन्हें अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था.

किशन और आशा बेटी को ले कर एक तो वैसे ही परेशान थे, दूसरे जया के गायब होने की बात फैलने के साथ ही रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा प्रश्न दर प्रश्न की जाने वाली पूछताछ उन्हें मानसिक तौर पर व्यथित कर रही थी. मिलनेजुलने वाले की बातों और परामर्शों से परेशान हो कर किशन और आशा ने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया था.

उधर जया मातापिता पर गुजर रही कयामत से बेखबर नैनीताल की वादियों का आनंद उठा रही थी. करन के प्यार का नशा उस पर इस तरह से चढ़ा हुआ था कि उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का भी  होश नहीं था. उसे यह भी चिंता नहीं थी कि जब उस के घर से लाए पैसे खत्म हो जाएंगे, तब क्या होगा? और यह सब उस की उस नासमझ उम्र का तकाजा था जिस में भावनाएं, कल्पनाएं तथा आकर्षण तो होता है, लेकिन गंभीरता या परिपक्वता नहीं होती.

किशन की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने काररवाई शुरू की तो शीघ्र ही जया की गुमशुदगी का रहस्य खुल कर सामने आ गया. पुलिस द्वारा जया की फोटो दिखा कर की गई पूछताछ के दौरान पता चला कि वह लड़की नैनीताल जाने वाली बस में चढ़ते देखी गई थी. बताने वाले दुकानदार ने पुलिस को यह जानकारी भी दी कि उस के साथ एक लड़का भी था, इतना पता चलते ही पुलिस उसी दिन नैनीताल के लिए रवाना हो गई. नैनीताल पहुंचने के बाद पुलिस ने जया की खोज गेस्टहाउसों से ही शुरू की, क्योंकि दिनरात के अनुभवों के आधार पर पुलिस वालों का नजरिया था कि घर से भागे किशोरवय प्रेमीप्रेमिका पैसा कम होने की वजह से होटल के बजाय छोटेमोटे गेस्टहाउसों को ही अपना ठिकाना बनाते हैं. पुलिस का अनुमान ठीक निकला. एक गेस्टहाउस के केयरटेकर ने पुलिस वालों को बताया कि कम उम्र का एक प्रेमीयुगल 4 दिन पहले उस के यहां आ कर ठहरा था. पुलिस ने एंट्री रजिस्टर में उन का नाम और पता देखा, तो दोनों ही गलत दर्ज थे.

इस बीच पुलिस द्वारा गेस्टहाउस में की जाने वाली जांचपड़ताल का पता सब को चल चुका था. पुलिस का नाम सुनते ही करन के होश उड़ गए. उस ने बचे हुए पैसे अपनी जेब में डाले और जया से बोला, ‘‘तुम डरना नहीं जया. मैं 10-15 मिनट में लौट आऊंगा.’’

जया ने करन को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह एक झटके से कमरे के बाहर हो गया. पुलिस जब तक जया के कमरे पर पहुंची, तब तक करन उस की पहुंच से बाहर निकल चुका था. मजबूरी में पुलिस जया को ले कर लौट आई.

जया के बरामद होने की सूचना पुलिस ने उस के घर भेज दी थी. किशन को जब इस बात का पता चला कि जया किसी लड़के के साथ भागी थी तो अपनी बेटी की इस करतूत से उन का सिर हमेशा के लिए झुक गया था. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोगों का सामना कैसे कर पाएंगे. जया ने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा था. किशन में अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पुलिस थाने जा कर जया को ले आते. वह यह भी जानते थे कि जया के मिलने की खबर पाते ही रिश्तेदारों और परिचितों का जो तूफान उठेगा, वह उस का सामना नहीं कर पाएंगे.

जया की बरामदगी के बाद पुलिस द्वारा किशन को लगातार संदेश दिया जा रहा था कि वह अपनी बेटी को ले जाएं. जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो किशन आपा खो बैठे और थाने जा कर पुलिस वालों से दोटूक कह दिया कि वह बेटी से अपने सारे संबंध खत्म कर चुके हैं. अब उस से उन का कोई रिश्ता नहीं है. वह अपनी रिपोर्ट भी वापस लेने को तैयार हैं.

एक झटके में बेटी से सारे नाते तोड़ कर किशन वहां से चले गए. तब मजबूरी में पुलिस ने जया को हवालात से निकाल कर नारीनिकेतन भेज दिया. जब जया ने वहां लाने की वजह जाननी चाही, तो एक पुलिसकर्मी ने व्यंग्य करते हुए उसे बताया, ‘घर से भागी थी, अपने यार के साथ, अब नतीजा भुगत. तेरे घर वाले तुझे ले जाने को तैयार नहीं हैं. उन्होंने तुझ से रिश्ता खत्म कर लिया है. अब नारीनिकेतन तेरा ‘आसरा’ है.’

अतीत की लडि़यां बिखरीं तो जया यथार्थ में लौटी. अब उस की जिंदगी का सच यही था जो उस के सामने था. उस ने रोरो कर सूज चुकी आंखों से खिड़की के पार देखना चाहा तो उसे दूरदूर तक फैले अंधेरे के अलावा कुछ नजर नहीं आया. धूप का वह टुकड़ा भी न जाने कब, कहां विलीन हो गया था. जया के मन में, जीवन में और बाहर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा था. इस अंधेरे में अकेले भटकतेभटकते उस का मन घबराया तो उसे मां का आंचल याद आया. वह बचपन में अकसर अंधेरे से डर कर मां के आंचल में जा छिपती थी, लेकिन अब वहां न तो मां थी और न मां का आंचल ही था.

जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर जया को अपनों की अहमियत का पता चला. उसे इस बात का एहसास भी अब हुआ कि मांबाप बच्चों की भलाई और उन के सुरक्षित भविष्य के लिए ही उन पर पाबंदियां लगाते हैं. मातापिता के सख्ती बरतने के पीछे भी उन का प्यार और बच्चों के प्रति लगाव ही होता है. उसे इस बात का बेहद पछतावा था कि उस ने समय रहते मम्मी और पापा की भावनाओं की कद्र की होती तो उस का उज्ज्वल भविष्य नारीनिकेतन के उस गंदे से कमरे में दम न तोड़ रहा होता और जिस करन के प्यार के खुमार में उस ने अपनों को ठुकराया, वही करन उसे बीच मझधार में छोड़ कर भाग खड़ा हुआ. उस ने एक बार भी पलट कर यह देखने की कोशिश नहीं की कि जया पर क्या बीत रही होगी. करन की याद आते ही जया का मन वितृष्णा से भर उठा. उसे अपने आप पर ग्लानि भी हुई कि एक ऐसे कृतघ्न के चक्कर में पड़ कर उस ने अपनी जिंदगी तो बर्बाद की ही, अपने परिवार वालों का सम्मान भी धूल में मिला दिया.

अपनी भूल पर पछताती जया न जाने कब तक रोती रही. जब बैठेबैठे वह थक गई तो सीलन भरे नंगे फर्श पर ही लेट गई. आंखों से आंसू बहतेबहते कब नींद ने उसे अपने आगोश में समेट लिया, जया को पता ही न चला. अपनी बदरंग जिंदगी बिताने के लिए उसे आखिर एक ‘आसरा’ मिल ही गया था. नारीनिकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना, जहां जिंदगी से थकीहारी जया नंगे फर्श पर बेसुध सो रही थी.

युवा प्रेम आसरा- भाग 2: क्या जया को हुआ गलती का एहसास

करन के मन की बात उस के होंठों पर आई तो जया के दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं. उस ने नजर भर करन को देखा और फिर पलकें झुका लीं. उस की उस एक नजर में प्यार का इजहार भी था और स्वीकारोक्ति भी.

एक बार संकोच की सीमाएं टूटीं, तो जया और करन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. ज्योंज्यों दूरियां कम होती गईं, दोनों एकदूसरे के रंग में रंगते गए. फिर उन्होंने सब की नजरों से छिप कर मिलना शुरू कर दिया. जब भी मौका मिलता, दोनों प्रेमी किसी एकांत स्थल पर मिलते और अपने सपनों की दुनिया रचतेगढ़ते.

उस वक्त जया और करन को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि पागल मन की उड़ान का कोई वजूद नहीं होता. किशोरवय का प्यार एक पागलपन के सिवा और क्या है. बिलकुल उस बरसाती नदी की तरह जो वर्षाकाल में अपने पूरे आवेग पर होती है, लेकिन उस के प्रवाह में गंभीरता और गहराई नहीं रहती. इसीलिए वर्षा समाप्त होते ही उस का अस्तित्व भी मिट जाता है. अब जया की हर सोच करन से शुरू हो कर उसी पर खत्म होने लगी थी. अब उसे न कैरियर की चिंता रह गई थी और न मातापिता के सपनों को पूरा करने की उत्कंठा.

बेटी में आए इस परिवर्तन को आशा की अनुभवी आंखों ने महसूस किया तो एक मां का दायित्व निभाते हुए उन्होंने जया से पूछा, ‘क्या बात है जया, इधर कुछ दिन से मैं महसूस कर रही हूं कि तू कुछ बदलीबदली सी लग रही है? आजकल तेरी सहेलियां भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. तू उन के घर जाती रहती है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बुलाती?’

मां द्वारा अचानक की गई पूछताछ से जया एकदम घबरा गई. जल्दी में उसे कुछ सुझाई नहीं दिया, तो उस ने बात खत्म करने के लिए कह दिया, ‘ठीक है मम्मी, आप मिलना चाहती हैं तो मैं उन्हें बुला लूंगी.’

कई दिन इंतजार करने के बाद भी जब जया की कोई सहेली नहीं आई और उस ने भी जाना बंद नहीं किया तो मजबूरी में आशा ने जया को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अब तू कहीं नहीं जाएगी. जिस से मिलना हो घर बुला कर मिल.’

घर से निकलने पर पाबंदी लगी तो जया करन से मिलने के लिए बेचैन रहने लगी. आशा ने भी उस की व्याकुलता को महसूस किया, लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. धीरेधीरे 4-5 दिन सरक गए तो एक दिन जया ने आशा को अच्छे मूड में देख कर उन से थोड़ी देर के लिए बाहर जाने की इजाजत चाही, जया की बात सुनते ही आशा का पारा चढ़ गया. उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में जया को जोर से डांटते हुए कहा, ‘इतनी बार मना किया, समझ में नहीं आया?’

‘‘इतनी बार मना कर चुका हूं, सुनाई नहीं देता क्या?’’ नारी निकेतन के केयरटेकर का कर्कश स्वर गूंजा तो जया की विचारधारा में व्यवधान पड़ा. उस ने चौंक कर इधरउधर देखा, लेकिन वहां पसरे सन्नाटे के अलावा उसे कुछ नहीं मिला. जया को मां की याद आई तो वह फूटफूट कर रो पड़ी.

जया अपनी नादानी पर पश्चाताप करती रही और बिलखबिलख कर रोती रही. इन आंसुओं का सौदा उस ने स्वयं ही तो किया था, तो यही उस के हिस्से में आने थे. इस मारक यंत्रणा के बीच वह अपने अतीत की यादों से ही चंद कतरे सुख पाना चाहती थी, तो वहां भी उस के जख्मों पर नमक छिड़कता करन आ खड़ा होता था.

उस दिन मां के डांटने के बाद जया समझ गई कि अब उस का घर से निकल पाना किसी कीमत पर संभव नहीं है. बस, यही एक गनीमत थी कि उसे स्कूल जाने से नहीं रोका गया था और स्कूल के रास्ते में उसे करन से मुलाकात के दोचार मिनट मिल जाते थे. आशा ने बेटी के गुमराह होते पैरों को रोकने का भरसक प्रयास किया, लेकिन जया ने उन की एक नहीं मानी.

एक दिन आशा को अचानक किसी रिश्तेदारी में जाना पड़ा. जाना भी बहुत जरूरी था, क्योंकि वहां किसी की मृत्यु हो गई थी. जल्दबाजी में आशा छोटे बेटे सोमू को साथ ले कर चली गई. जया पर प्यार का नशा ऐसा चढ़ा था कि ऐसे अवसर का लाभ उठाने से भी वह नहीं चूकी. उस ने छोटी बहन अनुपमा को चाकलेट का लालच दिया और करन से मिलने चली गई.

जया ने फोन कर के करन को बुलाया और उस के सामने अपनी मजबूरी जाहिर की. जब करन कोई रास्ता नहीं निकाल पाया तो जया ने बेबाक हो कर कहा, ‘अब मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती, करन. हमारे सामने मिलने का कोई रास्ता नहीं बचा है.’

जया की बात सुनने के बाद करन ने उस से पूछा, ‘मेरे साथ चल सकती हो जया?’

‘कहां?’ जया ने रोंआसी आवाज में कहा, तो करन बेताबी से बोला, ‘कहीं भी. इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं तो पनाह मिलेगी.’

…और उसी पल जया ने एक ऐसा निर्णय कर डाला जिस ने उस के जीवन की दिशा ही पलट कर रख दी.

इस के ठीक 5-6 दिन बाद जया ने सब अपनों को अलविदा कह कर एक अपरिचित राह पर कदम रख दिया. उस वक्त उस ने कुछ नहीं सोचा. अपने इस विद्रोही कदम पर वह खूब खुश थी क्योंकि करन उस के साथ था. करन जया को ले कर नैनीताल चला गया और वहां गेस्टहाउस में एक कमरा ले कर ठहर गया.

करन का दिनरात का संगसाथ पा कर जया इतनी खुश थी कि उस ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि उस के इस तरह बिना बताए घर से चले जाने पर उस के मातापिता पर क्या गुजर रही होगी. काश, उसे इस बात का तनिक भी आभास हो पाता.

जया दोपहर को उस वक्त घर से निकली थी जब आशा रसोई में काम कर रही थीं. काम कर के बाहर आने के बाद जब उन्हें जया दिखाई नहीं दी तो उन्होंने अनुपमा से उस के बारे में पूछा. उस ने बताया कि दीदी बाहर गई हैं. यह जान कर आशा को जया पर बहुत गुस्सा आया. वह बेताबी से उस के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं. जब शाम ढलने तक जया घर नहीं लौटी तो उन का गुस्सा चिंता और परेशानी में बदल गया.

8 बजतेबजते किशन भी घर आ गए थे, लेकिन जया का कुछ पता नहीं था. बात हद से गुजरती देख आशा ने किशन को जया के बारे में बताया तो वह भी घबरा गए. उन दोनों ने जया को लगभग 3-4 घंटे पागलों की तरह ढूंढ़ा और फिर थकहार कर बैठ गए. वह पूरी रात उन्होंने जागते और रोते ही गुजारी. सुबह होने तक भी जया घर नहीं लौटी तो मजबूरी में किशन ने थाने जा कर उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

युवा प्रेम आसरा- भाग 1: क्या जया को हुआ गलती का एहसास

धूप का एक उदास सा टुकड़ा खिड़की पर आ कर ठिठक गया था, मानो अपने दम तोड़ते अस्तित्व को बचाने के लिए आसरा तलाश रहा हो. खिड़की के पीछे घुटनों पर सिर टिकाए बैठी जया की निगाह धूप के उस टुकड़े पर पड़ी, तो उस के होंठों पर एक सर्द आह उभरी. बस, यही एक टुकड़ा भर धूप और सीलन भरे अंधेरे कमरे का एक कोना ही अब उस की नियति बन कर रह गया है.

अपनी इस दशा को जया ने खुद चुना था. इस के लिए वह किसे दोष दे? कसूर उस का अपना ही था, जो उस ने बिना सोचेसमझे एक झटके में जिंदगी का फैसला कर डाला. उस वक्त उस के दिलोदिमाग पर प्यार का नशा इस कदर हावी था कि वह भूल गई कि जिंदगी पानी की लहरों पर लिखी इबारत नहीं, जो हवा के एक झोंके से मिट भी सकती है और फिर मनचाही आकृति में ढाली भी जा सकती है.

जिंदगी तो पत्थर पर उकेरे उन अक्षरों की तरह होती है कि एक बार नक्श हो गए तो हो गए. उसे न तो बदला जा सकता है और न मिटाया जा सकता है. अपनी भूल का शिद्दत से एहसास हुआ तो जया की आंखें डबडबा आईं. घुटनों पर सिर टिकाए वह न जाने कब तक रोती रही और उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं में उस का अतीत भी टुकड़ेटुकड़े हो कर टूटताबिखरता रहा.

जया अपने छोटे से परिवार में  तब कितनी खुश थी. छोटी बहन अनुपमा और नटखट सोमू दीदीदीदी कहते उस के चारों ओर घूमा करते थे. बड़ी होने की वजह से जया उन दोनों का आदर्श भी थी, तो उन की छोटी से छोटी समस्या का समाधान भी. मां आशा और पिता किशन के लाड़दुलार और भाईबहन के संगसाथ में जया के दिन उन्मुक्त आकाश में उड़ते पंछी से चहकते गुजर रहे थे.

इंटर तक जया के आतेआते उस के भविष्य को ले कर मातापिता के मन में न जाने कितने अरमान जाग उठे थे. अपनी मेधावी बेटी को वह खूब पढ़ाना चाहते थे. आशा का सपना था कि चाहे जैसे भी हो वह जया को डाक्टर बनाएगी जबकि किशन की तमन्ना उसे अफसर बनाने की थी.

जया उन दोनों की चाहतों से वाकिफ थी और उन के प्रयासों से भी. वह अच्छी तरह जानती थी कि पिता की सीमित आय के बावजूद वह  दोनों उसे हर सुविधा उपलब्ध कराने से पीछे नहीं हटेंगे. जया चाहती थी कि अच्छी पढ़ाई कर वह अपने मांबाप के सपनों में हकीकत का रंग भरेगी. इस के लिए वह भरपूर प्रयास भी कर रही थी.

उस के सारे प्रयास और आशा तथा किशन के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए जब जया की आंखों  में करन के प्यार का नूर आ समाया. करन एक बहार के झोंके की तरह उस की जिंदगी में आया और देखतेदेखते उस के अस्तित्व पर छा गया.

वह दिन जया कैसे भूल सकती है जिस दिन उस की करन से पहली मुलाकात हुई थी, क्योंकि उसी दिन तो उस की जिंदगी एक ऐसी राह पर मुड़ चली थी जिस की मंजिल नारी निकेतन के सीलन भरे अंधेरे कमरे का वह कोना थी, जहां बैठी जया अपनी भूलों पर जारजार आंसू बहा रही थी. लेकिन उन आंसुओं को समेटने के लिए न तो वहां मां का ममतामयी आंचल था और न सिर पर प्यार भरा स्पर्श दे कर सांत्वना देने वाले पिता के हाथ. वहां थी तो केवल केयरटेकर की कर्कश आवाज या फिर पछतावे की आंच में सुलगती उस की अपनी तन्हाइयां, जो उस के वजूद को जला कर राख कर देने पर आमादा थीं. इन्हीं की तपन से घबरा कर जया ने अपनी आंखें बंद कर लीं. आंखों पर पलकों का आवरण पड़ते ही अतीत की लडि़यां फिर टूट-टूट कर बिखरने लगीं.

जया के घर से उस का स्कूल ज्यादा दूर नहीं था. मुश्किल से 10-12 मिनट का रास्ता रहा होगा. कभी कोई लड़की मिल जाती तो स्कूल तक का साथ हो जाता, वरना जया अकेले ही चली जाया करती थी. उस ने स्कूल जाते समय करन को कई बार अपना पीछा करते देखा था. शुरूशुरू में उसे डर भी लगा और उस ने अपने पापा को इस बारे में बताना भी चाहा, लेकिन जब करन ने उस से कभी कुछ नहीं कहा तो उस का डर दूर हो गया.

करन एक निश्चित मोड़ तक उस के पीछेपीछे आता था और फिर अपना रास्ता बदल लेता था. जब कई बार लगातार ऐसा हुआ तो जया ने इसे अपने मन का वहम समझ कर दिमाग से निकाल दिया और इस के ठीक दूसरे ही दिन करन ने जया के साथसाथ चलते हुए उस से कहा, ‘प्लीज, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’

जया ने चौंक कर उस की ओर देखा और रूखे स्वर में बोली, ‘कहिए.’

‘आप नाराज तो नहीं हो जाएंगी?’ करन ने पूछा, तो जया ने उपेक्षा से कहा, ‘मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है. जो कहना है, सीधे कहो.’

‘मैं करन हूं. आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’ करन ने कुछ झिझकते और डरते हुए कहा.

अपनी बात कहने के बाद करन जया की प्रतिक्रिया जानने के लिए पल भर भी नहीं रुका और वापस मुड़ कर तेजी से विपरीत दिशा की ओर चला गया. करन के कहे शब्द देर तक जया के कानों में गूंजते और मधुर रस घोलते रहे. उस की निगाह अब भी उधर ही जमी थी, जिधर करन गया था. अचानक सामने से आती बाइक का हार्न सुन कर उसे स्थिति का एहसास हुआ तो वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ गई.

अगले दिन स्कूल जाते समय जया की नजरें करन को ढूंढ़ती रहीं, लेकिन वह कहीं नजर नहीं आया. 3 दिन लगातार जब वह जया को दिखाई नहीं दिया तो उस का मन उदास हो गया. उसे लगा कि करन ने शायद ऐसे ही कह दिया होगा और वह उसे सच मान बैठी, लेकिन चौथे दिन जब करन नियत स्थान पर खड़ा मिला तो उसे देखते ही जया के मन की कली खिल उठी. उस दिन जया के पीछेपीछे चलते हुए करन ने आहिस्ता से पूछा, ‘आप मुझ से नाराज तो नहीं हैं?’

‘नहीं,’ जया ने धड़कते दिल से जवाब दिया, तब करन ने उत्साहित होते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’

‘जया,’ उस का छोटा सा उत्तर था.

‘आप बहुत अच्छी हैं, जयाजी.’

अपनी बात कहने के बाद करन थोड़ी दूर तक जया के साथ चला, फिर उसे ‘बाय’ कर के अपने रास्ते चला गया. उस दिन के बाद वह दोनों एक निश्चित जगह पर मिलते, वहां से करन थोड़ी दूर जया के साथ चलता, दो बातें करता और फिर दूसरे रास्ते पर मुड़ जाता.

इन पल दो पल की मुलाकातों और छोटीछोटी बातों का जया पर ऐसा असर हुआ कि वह हर समय करन के ही खयालों में डूबी रहने लगी. नादान उम्र की स्वप्निल भावनाओं को करन का आधार मिला तो चाहत के फूल खुद ब खुद खिल उठे. यही हाल करन का भी था. एक दिन हिम्मत कर के उस ने अपने मन की बात जया से कह ही दी, ‘आई लव यू जया,’ मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बगैर जिंदगी अधूरीअधूरी सी लगती है.

हाय मेरा बर्थडे- भाग 3: कंजूस पति की कहानी

मगर मु झे अच्छा नहीं लगा क्योंकि इस बार मैं अपना बर्थडे सब के साथ मनाना चाहती थी. पिछली बार कोरोना के कहर से मैं मरतेमरते बची थी, तो सोचा इस बार सारी कसर एकसाथ निकाल लूंगी.

औफिस जाते समय एक फिर अमित ने मु झे ‘बर्थडे विश करते हुए कहा, ‘‘आज हम दोनों रीजेंटा होटल में कैंडल लाइट डिनर करेंगे. बुक तैयार रखना. मैं औफिस से जल्दी आ जाऊंगा.’’

ठीक है न, वैसे भी हम पतिपत्नी को एकसाथ अकेले समय बिताने का मौका ही कहां मिल पाता है. तो इसी बहाने अमित के साथ गोल्डन टाइम स्पैंड करने का मौका मिल जाएगा मु झे, सोच कर मैं खुश हो गई. सच कहूं, तो हम औरतें एडजस्ट करना खूब जानती हैं. अब बचपन से यही तो सिखाया जाता है हमें.

तैयार हो कर आईने में मैं ने खुद को पता नहीं कितनी बार निहारा और मुसकराते हुए खुद में ही बोल पड़ी कि अनु, तुम्हें कोई हक नहीं बनता कि तुम इतनी सुंदर दिखो. वैसे मैं अपनी बढ़ाई नहीं करती, लेकिन कालेज में सब मु झे श्रीदेवी कह कर बुलाते थे, पता हैं क्यों? क्योंकि मैं देखने में बहुत कुछ उन के जैसा लगती थी.

तभी दरवाजे की घंटी बजी तो दौड़ कर मैं ने दरवाजा खोला यह सोच कर कि अमित आ गए शायद. लेकिन सामने धोबी को देख कर मेरा मूड ही औफ हो गया. मन तो किया कहूं, यही टाइम मिला तुम्हें यहां आने का?

धोबी ने ऊपर से नीचे तक मु झे निहारते हुए कहा, ‘‘अरे मैडमजी लगता है आप कहीं जा रही हैं तो मैं कपड़े बाद में लेने आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, अब आए हो तो लेते जाओ,’’ मैं ने कहा और कपड़े लाने अंदर चली गई.

शाम के 7 बजे चुके थे पर अभी तक अमित का कुछ अतापता नहीं था. मैं उन्हें फोन लगाने ही जा रही थी कि उन का फोन आ गया. बोलने ही जा रही थी कि मैं कब से तैयार बैठी हूं. कब आओगे? लेकिन तभी किसी और की आवाज सुन कर मैं चौंक पड़ी, ‘‘हैप्पी बर्थडे भाभीजी… पहचाना मु झे? अरे, मैं अनिल रस्तोगी.’’

‘‘अरे, हां, थैंकयू भाई साहब,’’ बोल कर मैं फोन रखने ही जा रही थी कि 1-1 कर अमित के औफिस के सारे दोस्त मु झे ‘हैप्पी बर्थडे की बधाई देने लगे. सच कहूं तो अब मु झे अपने ही बर्थ डे से चिढ़ होने लगी कि मैं पैदा ही क्यों हुई. सुबह से हैप्पी बर्थडे सुनसुन कर मेरे कान पक गए और थैंकयू बोलबोल कर मेरा मुंह दुखने लगा था.

अभी मैं अमित को कुछ बोलती कि वे कहने लगे, ‘‘अरे अनु, सुनो न… औफिस के सारे दोस्त तुम्हारे बर्थडे की पार्टी मांग रहे हैं. पता नहीं इन्हें कैसे पता चल गया कि आज तुम्हारा बर्थडे है. कह रहे हैं आज भाभीजी का बर्थडे है तो पार्टी तो बनती है. अब तुम ही बताओ क्या करें?’’

मैं क्या बोलती भला, लेकिन अब मेरा पारा चढ़ने लगा था क्योंकि मैं कब से तैयार हो कर बैठी थी.

‘‘वैसे अगर तुम कहो तो यहीं औफिस के पास ही एक बढि़या होटल है, उसी में इन्हें पार्टी दे ही देता हूं. चलो न, एक  झं झट ही खत्म. ये भी क्या याद रखेंगे कि मैं ने अपनी जान के बर्थडे पर इन्हें पार्टी दी. सही है न?’’

सवाल भी अमित ही कर रहे थे और जवाब भी वही दे रहे थे. मैं ने भी गुस्से में कह दिया कि जो तुम्हें ठीक लगे करो. सच कहती हूं अब मु झे चिढ़ होने लगी. सुबह से स्पैशल हैप्पी बर्थडे की मृगतृष्णा में खुश हुए जा रही थी और इन्हें देखो…

‘‘ठीक है, तो तुम अपना बर्थडे ऐंजौय करो, मैं आता हूं आराम से,’’ कह कर अमित फोन रख चुके थे और मैं आईने के सामने खड़ीखड़ी खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी कि अपना बर्थडे ऐंजौय करूं पर किस के साथ?

तभी दरवाजे पर टन की आवाज से मु झे लगा कि कहीं अमित तो नहीं आए. लेकिन

सामने कामिनी को देख कर ठिठक कर खड़ी

हो गई. उसे पता चल गया कि मैं ने सिर्फ डींगें हांकी हैं. आखिर पति भी तो उसी औफिस में काम करता है जहां अमित और उस के बच्चे मेरे बच्चों के दोस्त हैं. देखा मैं ने कामिनी के हाथ में कुछ था.

‘‘क्या हुआ, होटल रीजेंटा में जगह खाली नहीं थी,’’ बोल कर वह हंसी तो मेरा कलेजा जल उठा, ‘‘अपने स्पैशल बर्थ डे पर केक न सही पेस्ट्री ही काट लो,’’ बोल कर उस ने चाकू मेरी तरफ बढ़ाया तो मन तो किया उसी चाकू से उस का कत्ल कर दूं और फांसी पर चढ़ जाऊं क्योंकि ऐसी जिंदगी से मौत भली. लेकिन फिर लगा यह कम से कम मेरा बर्थडे विश तो करने आई.

बच्चे आते ही यह कह कर सोने चले गए कि आज तो मम्मा के बर्थडे पर उन्हें

बहुत मजा आया और अमित ने आते ही यह कह कर मु झे अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘अनु, पता है तुम्हें कितना बड़ा केक मंगवाया था मैं ने… अरे, फोटो लेना ही भूल गया वरना तुम देखती कि कितना शानदार बर्थडे मना तुम्हारा. खैर, छोड़ो पर खुश तो हो न कि हम ने तुम्हारा बर्थडे इतने शानदार तरीके से सैलिब्रेट किया.’’

अमित जोशीले अंदाज में बोले, तो लगा कहूं कि कहां सैलिब्रेट किया मेरा बर्थडे? न तो

मैं ने केक काटा न कोई पार्टी हुई फिर कौन सा बर्थडे? बरदाश्त की इंतहा हो रही थी पर मैं

चुप थी. कहने लगे कि रात बहुत हो गई,

इसलिए सारे ज्वैलर्स के दुकानें बंद हो चुकी थीं. इसलिए मेरे बर्थडे का गिफ्ट वे मु झे कल देंगे. नहीं चाहिए मु झे कोई गिफ्ट. मु झे अकेला छोड़

दो बस.

मन कर रहा था बहुत रोने का, पर मैं न

रोने की कोशिश कर रही थी. कहीं सुना था कि जब आप को रोना आए और किसी के सामने रोना न चाहें तो अपनी आंखें बड़ी कर लें तो

रोना नहीं आएगा. लेकिन नहीं आज तो मैं

रोऊंगी और इस बात के लिए मु झे कोई रोक नहीं सकता. अत: अपने कमरे में जा कर उलटे लेट कर मैं सिसक पड़ी और मेरे मुंह से निकला, ‘‘हाय मेरा बर्थ डे.’’

हाय मेरा बर्थडे- भाग 2: कंजूस पति की कहानी

‘‘ओह, नहींनहीं, ये खाना क्या बनाएंगे, उलटे मेरा काम और बढ़ा देंगे’ अपने मन में यह सोच  झट से मैं बोल पड़ी, ‘‘अरे नहीं, वक्त ही कितना लगता है खाना बनाने में. मैं बना लूंगी न. तुम लोग कोई दूसरा काम कर लो. जैसेकि घर ठीकठाक कर दो, मशीन में कपड़े धुलने के लिए डाल दो.’’

मगर इन निक्कमों से यह भी नहीं होगा पता था मु झे. ये लोग बस बड़ीबड़ी बातें करना जानते हैं और कुछ नहीं. लेकिन आज अपने बर्थडे पर मैं अपना मूड नहीं खराब करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप किचन में जाने ही लगी कि नियति कहने लगी कि आज मेरा बर्थडे है तो वह मेरे लिए यूट्यूब से देख कर कुछ स्पैशल बनाएगी. बनाएगी क्या, मेरा दिमाग खाएगी. पूरी किचन तहसनहस कर देगी सो अलग.

‘‘अच्छाअच्छा ठीक है, बना लेना बाद में,’’ बोल कर मैं किचन में जा कर सब को चाय देने के बाद नाश्ते की तैयारी में जुट गई. सुनाई दे रहा था दोनों बच्चे अपने कमरे में बातें कर रहे थे कि आज मेरे ‘बर्थडे’ पर क्या स्पैशल करना है और अमित तो सुबह से बस अपने फोन से ही चिपके हुए थे. पता नहीं क्या देखते रहते हैं पूरा दिन. इन मर्दों की बस बातें ही बड़ीबड़ी होती हैं. लेकिन जब करने की बारी आती है तो बहाने हजार बना लेते हैं कि अरे, अरजेंट मीटिंग आ गई थी… फलानाफलाना…

गुस्सा भी आ रहा था कि इन तीनों को कोई कामधाम नहीं है, सुबह से सिर्फ बकवास ही किए जा रहे हैं. लेकिन किचन में आ कर जब बच्चे ‘हैप्पी बर्थडे मौम’ बोल कर ‘मौम मैं यह कर दूं? लाओ मैं वह कर देती हूं’ कहते तो मैं खुशी से  झूम उठती कि आज मेरे बर्थडे, पर बच्चे मु झे कितना भाव दे रहे हैं. लेकिन अमित जब कहते कि आज मेरी जान का ‘हैप्पी बर्थडे’ है तो इसी खुशी में एक कप चाय और हो जाए’ तो अंदर से मैं खीज उठती कि यह क्या है. बर्थडे, बर्थडे बोल कर ये तो बस अपनी ही चला रहे हैं. अरे, मैं तो भूल ही गई कि मु झे कामिनी को अपने स्पैशल बर्थडे के बारे में भी बताना था. लेकिन क्या कहूंगी उस से? हां, कहूंगी, गलती से उसे फोन लग गया.

‘‘हैलो,’’ उधर से कामिनी बोली.

‘‘अरे, कामिनी, तु झे फोन लग गया? सौरी यार, मैं तो… वह होटल रीजेंटा में फोन लगा रही थी… वो आज मेरा बर्थडे है तो अमित उसी होटल में पार्टी दे रहे हैं. मैं ने कितना मना भी किया, लेकिन कहते हैं कि आज अपनी जान का बर्थडे, होटल रीजेंटा में ही मनाएंगे,’’ बोल कर मैं हंसी.

उस के सीने में आग लग गई, ‘‘अच्छाअच्छा, तू आराम कर,’’ लेकिन पता है अब उसे आराम कहां? क्योंकि मैं ने उस की नींद हराम जो कर दी. सोचती होगी बेचारी, हाय, यह कैसे हो गया. अनु अपनी बर्थडे पार्टी इतने बड़े होटल में मनाने जा रही है और मु झे नहीं बुलाया. हां, नहीं बुलाऊंगी, तुम ने बुलाया था मु झे अपनी बर्थडे पार्टी पर? जब देखो अपने महंगेमहंगे कपड़े गहने दिखा कर मु झे जलाती रहती है. लेकिन आज मैं उसे जलाऊंगी देखना. अपने बर्थडे के सभी फोटो फेसबुक पर अपलोड कर उसे जलाजला कर खाक कर दूंगी. सोचसोच कर मैं मुसकरा ही रही थी कि पीछे से आ कर अमित ने मु झे अपनी बांहों में भर लिया और कान में फुसफुसाते हुए बोले, ‘‘मेरो जान, बोलो. आज तुम्हें गिफ्ट में क्या चाहिए?’’

गुस्सा भी आया कि गिफ्ट क्या पूछ कर दिया जाता है? लेकिन मैं ने भी उसी

रोमांटिक अंदाज में कहा, ‘‘प्यार से तुम जो भी दोगे मु झे अच्छा लगेगा,’’ वैसे मैं तो चाहती थी अमित मु झे डायमंड रिंग दें ताकि मैं उस कामिनी को दिखा सकूं पर गिफ्ट मांगना भी ठीक नहीं लगता न. हम प्रेमालाप में डूबने ही जा रहे थे कि नियति फोन ले कर पहुंच गई कि उस की दोस्त मुझे ‘बर्थडे’ विश करना चाहती है.

‘‘थैंक यू बेटा,’’ बोल कर मैं हंसी और फिर फोन नियति को पकड़ा दिया. सुबह से नियति का बस यही काम है कि वह अपने सारे दोस्तों से मु झे ‘बर्थडे’ विश करवाए जा रही है और ‘थैंकयू बेटा’ कहकह कर अब मेरा मुंह दुखने लगा है.

अंकुर भी हर 2 मिनट पर, ‘‘मम्मा, देखो तो आप को इस डिजाइन का केक पसंद है या फिर इस डिजाइन का.’’

‘‘अरे भई केक काट कर खाना ही तो है. फिर क्या फर्क पड़ता है कि उस का डिजाइन कैसा है,’’ अमित बोले.

मगर मु झे कामिनी को दिखाना था इसलिए मैं ने सब से बढि़या डिजाइनर केक पर अपनी उंगली रख दी और कहा कि इसे और्डर कर लो.

सच कहूं तो अब इन की बातों से मु झे सिरदर्द होने लगा था. सुबह से बस बातें ही हो रही थीं, कोई काम नहीं हो रहा था. घर वैसे ही अस्तव्यस्त पड़ा था. बच्चे अभी भी मोबाइल से चपके हुए थे. अमित भी जाने किस से बातों में लगे थे. बहुत गुस्सा आ रहा था मु झे. लेकिन मैं ने अपने मन को सम झाया कि शांत रहो. आज तुम्हारा बर्थडे है न.

‘‘मम्मा,’’ नियति फिर चिल्लाते हुए आई

तो मेरा कान  झन झना उठा कि यह लड़की भी न बहुत चिल्लाती है. कितनी बार कहा धीरे बोलो, लेकिन नहीं.

‘‘यह लो अदिति आप को बर्थडे विश करना चाहती है,’’ बोल कर उस ने फोन मेरे कान से सटा दिया तो मु झे ‘थैंकयू बेटा’ बोलना पड़ा. अपने दोस्तों से लंबी बातचीत के बाद नियति बोली कि उस के सारे दोस्त मेरे बर्थडे की पार्टी मांग रहे हैं. क्या करूं दे दूं पार्टी? नियति पूछ नहीं रही थी जैसे बता रही थी कि वह अपने दोस्तों को पार्टी देना चाहती है.

‘‘अरे, बिलकुल…’’ जोशीले अंदाज में अमित बोले, ‘‘आज तुम्हारी मम्मा का बर्थडे है भई, तो पार्टी तो बनती है. दे दो, दे दो.’’

‘‘सच में पापा, दे दूं पार्टी?’’ नियति की तो आंखें चमक उठीं. तुरंत उस ने अपने सारे दोस्तों को फोन कर के बता दिया कि आज ‘शिकागो पिज्जा हाउस’ में ‘अनलिमिटेड पिज्जा पार्टी है.’

अब अंकुर कहां पीछे रहने वाला था. कहने लगा, ‘‘फिर मैं भी अपने सभी दोस्तों

को ‘पिज्जा हट में पार्टी दूंगा.’’

‘‘हांहां, तो तुम्हें किस ने मना किया. तुम भी अपने दोस्तों को पिज्जा पार्टी दे दो’’ बोल कर अमित ठहाके मार कर हंस पड़े.

हाय मेरा बर्थडे- भाग 1: कंजूस पति की कहानी

‘‘हैप्पी बर्थडे माई जान,’’ मेरे माथे को चूमते हुए मेरे पतिदेव अमित ने बड़े प्यार से मुझे जगाया, तो मैं अंगड़ाई लेते हुए उसे ‘थैंकयू’ बोल कर उठ बैठी.

तभी मेरे दोनों बच्चे ‘हैप्पी बर्थडे मौम… हैप्पी बर्थडे मौम…’ कहते हुए मेरे गले से  झूल गए तो मैं धन्यधान्य हो गई कि हाय, मैं कितनी भाग्यवान हूं जो मेरे पति और बच्चों को मेरा बर्थडे याद रहा.

‘‘मम्मा… इस बर्थडे, आप 40 की हो जाएंगी न?’’ मेरी 18 साल की बेटी नियति बोली, तो अमित हंस पड़े और बोले, ‘‘हां, बर्थडे के बाद हमारी उम्र 1 साल आगे भाग जाती है पर तुम्हारी मौम की पीछे भाग रही है.’’

अमित की बातों पर बच्चों ने जोर का ठहाका लगाया. मैं ने अमित को घूर कर देखा, तो वे सकपकाते हुए बोले कि उन के कहने का मतलब है कि मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता.

‘‘इस बार मम्मा के ‘बर्थडे’ पर हम ग्रेट सैलिब्रेशन करेंगे, हैं न पापा?’’ मेरे 16 साल के बेटे अंकुर ने पूछा, ‘‘बर्थडे पर हम किसकिस को बुलाएंगे?’’

‘उस कामिनी को तो बिलकुल भी नहीं’ मैं मन ही मन बड़बड़ाई. ‘लेकिन बताना तो पड़ेगा उसे कि मैं अपना बर्थडे, होटल रीजेंटा में मनाने वाली हूं. देखना कैसे वह जलभुन कर खाक हो जाएगी. बहुत दिखाती रहती है न कि अपना बर्थडे वह हमेशा बड़ेबड़े होटलों में मानती है. तो इस बार मैं भी उसे दिखा ही दूंगी कि देख, मैं भी तु झ से कोई कम नहीं हूं,’’ मुंह ऐंठते हुए बोली.

सोचा पहले फोन कर के उसे अपने बर्थडे के बारे में बता ही देती हूं, तभी मेरे दिल को चैन पड़ेगा. लेकिन तभी मेरी सोच पर डंक मारते हुए अमित बोल पड़े, ‘‘क्यों न पार्टी अपने घर पर ही रखी जाए?’’

‘‘नहीं पापा, घर पर नहीं, पार्टी होटल में रखो,’’ अंकुर बोला.

मेरा भी यही मन था. अब घर में किस को क्या पता चलेगा. होटल में पार्टी करेंगे तो 10 लोग जानेंगे और फिर फेसबुक पर मु झे अपने बर्थडे के फोटो भी तो अपलोड करने हैं. अत: तय हुआ कि अमित औफिस जाते समय पहले होटल जा कर बात कर लेंगे और नियति केक और्डर कर लेगी. लेकिन आज 31 दिसंबर को होटल रीजेंटा में शायद ही ऐंट्री मिले.

सोच लिया था कि आज अपने बर्थडे, पर मैं क्या पहनूंगी. वही, रैड कलर की वनपीस ड्रैस, जो मैं ने औनलाइन और्डर कर के मंगवाई थी अपने लिए. अरे, अमित की पसंद कहां इतनी अच्छी है, तभी तो अपनी शौपिंग मैं खुद ही करती हूं. मेरे पिछले बर्थडे, पर वे इतने फीके रंग की ड्रैस उठा लाए थे कि क्या कहें. इसलिए तो इस बार मैं ने खुद ही अपने लिए औनलाइन ड्रैस मंगवा रखी थी. साथ में मैचिंग इयररिंग्स और ब्रेसलेट भी था. चप्पलें भी मैं मार्केट जा कर खुद ले आई थी.

‘‘आज मम्मा के बर्थडे पर चौकलेट ट्रफल केक आएगा. आप को पसंद है न मम्मा?’’ मुंह से लार टपकाते हुए अंकुर बोला.

‘‘नहीं, चौकलेट नहीं, ब्लू बैरी चीज केक आएगा क्योंकि मम्मा को वही पसंद है.’’

नियति की बात पर अंकुर भड़कते हुए बोला, ‘‘नहीं, मम्मा को यानी मु झे चौकलेट ट्रफल केक ही पसंद है, तो आज वही केक आएगा बस.’’

इसी बात पर दोनों  झगड़ने लगे. एकदूसरे पर तकिया फेंकाफेंकी शुरू हो गई. एक चौकलेट ट्रफल केक की जिद पर अड़ा था तो दूसरी ब्लू बैरी चीज केक पर. लेकिन सच कहें तो मु झे इन दोनों केक में से कोई भी पसंद नहीं था. मु झे तो हमेशा से वैनिला केक ही पसंद आता है. लेकिन इन दोनों को पागलों की तरह  झगड़ते देख मेरा मन खीज उठा. मन तो किया कहूं कि बेशर्मो… बर्थ डे मेरा है या तुम लोगों का, जो अपनी ही चला रहे हो तुम सब.

‘‘अच्छाअच्छा, अब  झगड़ना बंद करो,’’ दोनों को शांत कराते हुए अमित बोले, ‘‘एक काम करते हैं, दोनों केक मंगवा लेते हैं. आखिर आज मेरी प्यारी बीवी का बर्थडे जो है,’’ मेरी ठुड्डी को हिलाते हुए अमित ने आंख मारी तो मैं शरमा कर लाल हो गई और अपना दुपट्टा संभालते हुए उठ कर चाय बनाने जाने ही लगी कि अमित ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बड़े ही रोमांटिक अंदाज में गुनगुनाने लगे कि हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिए… खुलेआम आंचल न लहरा के चलिए…’’

‘‘अरे, पापा को तो देखो कितने रोमांटिक हो रहे हैं,’’ अपनी गोलगोल आंखें घुमाते हुए अंकुर बोला, तो नियति भी खीखी कर कहने लगी कि हां, देखो न मम्मी भी कैसे पुरानी हीरोइन की तरह शरमा रही हैं.

बच्चों की बातें सुन  झट से मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया और डपटते हुए बोली,

‘‘जा कर पढ़ाई करो दोनों. सुबह से बस बर्थडे, बर्थडे किए जा रहे हो. कोई कामधाम नहीं है क्या तुम लोगों को?’’

मगर जिद्दी अंकुर तो अपने पापा के पीछे ही पड़ गया, ‘‘बोलो न पापा, आज मम्मा को आप क्या गिफ्ट दोगे?’’

अंकुर की बात पर अमित आंख मारते हुए बोले, ‘‘आज रात मम्मा को एक स्पैशल गिफ्ट दे कर खुश कर देंगे.’’

पापा की बात पर दोनों बच्चे ‘हाईफाई कर जोर से हंस पड़े. गुस्से से मैं ने अमित की तरफ देखा कि क्या जरूरत थी बच्चों के सामने इतने रोमांटिक बनने की. आदत है अमित की, बच्चों के सामने ही शुरू हो जाते हैं. लेकिन सम झते नहीं कि आज के बच्चे, बच्चे नहीं रहे, बड़ों के कान काट रहे हैं. उन्हें क्या नहीं पता यह तो पूछो? और गूगल बाबा तो हैं ही ज्ञान बांटने के लिए, फिर किसी से कुछ पूछनेजानने की क्या जरूरत. लेकिन अमित हैं कि अपने इमोशन पर कंट्रोल ही नहीं रख पाते. सच कहती हूं, बच्चों के सामने मैं शर्मिंदा हो जाती हूं और अमित बच निकलते हैं.

खैर, मैं चाय बनाने जाने ही लगी कि नियति ने फिर यह कह कर मु झे रोक दिया कि आज मैं ‘बर्थडे गर्ल’ हूं तो मु झे कोई काम नहीं करना है.

‘‘बिलकुल, आज मेरी बीवी ‘बर्थडे गर्ल है इसलिए आज तुम स्पैशल फील करो. खाना, हम बापबेटी मिल कर बना लेंगे, ओके…,’’ बड़ा सा मुंह खोल कर जमहाई लेते हुए अमित बोले.

दीनानाथ का वसीयतनामा- भाग 1: दीवानजी की वसीयत में क्या था

सुबह-सुबह राजपाल के फोन की घंटी बजी. फोन उठाया तो पता चला मालिक का था. उस के मालिक बड़ी हवेली वाले दीवान साहब. आज शनिवार को सुबहसुबह कैसे फोन आ गया. वह सोच में पड़ गया कि आज तो उस की छुट्टी रहती है. आज के दिन उसे दीवान साहब के जंगलों की तरफ जाना होता है. जंगलों की देखभाल का सारा काम उस के जिम्मे था. दीवान साहब बिलकुल अकेले रहते थे. 2 बार शादी हुई. दोनों बार नहीं चली. पहली पत्नी के साथ उन का एकलौता बेटा रहता था विदेश में. उन के 2 ही बच्चे थे. एक लड़का और एक लड़की. दूसरी पत्नी भी अलग रहती थी. उस ने दीवानजी से करोड़ों रुपए ऐंठे थे. दीवानजी का बहुत बड़ा कारोबार था.

‘‘हैलो,’’ राजपाल ने कहा.

उधर से दीवानजी की आवाज आई, ‘‘तुम इतवार को ठीक 11 बजे घर पहुंच जाना.’’

राजपाल को हैरानी हुई कि उन्हें पता है

कि वह 2 दिन जंगलों की तरफ जाता है और सोमवार को ही लौटता है पर दीवान दीनानाथ क्या बोल दें, कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता था. दीवानजी की तबीयत भी ढीली थी. वैसे भी वे अकेले ही रहते. अपनी देखभाल के लिए एक गुर्जर औरत नूरां रखी हुई थी, जो उन की पूरी देखभाल करती थी.

पहले तो वह हवेली के केवल ऊपर के हिस्से का काम करती थी पर नूरां के सही ढंग से काम करने से खुश हो कर दीनानाथ ने पूरे घर की देखभाल उसे सौंप दी थी. घर की साफसफाई में उस की मदद बबलू करता था, जो रात को भी दीवानजी के पास रहता था.

दीनानाथ की बेटी मुंबई में रहती थी. उस के 2 बच्चे थे एक लड़का, एक लड़की और पति कारोबार करता था. उस का कारखाना था जूतों का जो बंद होने के कगार पर था. बेटी व उस के पति की निभती नहीं थी. बेटी उपासना हर समय पीए रहती थी. पति आनंद इस आशा पर बरदाश्त कर रहा था कि एक दिन ससुर की आधी जायदाद उस की पत्नी को मिलेगी और फिर वह उस से हथिया लेगा.

कहने को उन की लव मैरिज थी पर आनंद के सिर पर करोड़ों का कर्ज था. दीनानाथ का बेटा अतुल निकम्मा था और आज तक वह कोई भी काम ढंग से नहीं कर सका. अतुल का भी एक बेटा था. वे दोनों विदेश में रहते थे. अतुल मां के पैसे पर ऐश कर रहा था. यह उस की मां को फूटी आंख भी न भाता था सो आए दिन मांबेटे में पैसे को ले कर झिकझिक होती रहती थी.

अतुल भी बहन उपासना की तरह पियक्कड़ था. दोनों बहनभाई की पिता से कभी नहीं पटी. आपस में भी कभीकभार ही मिलते थे. उपासना ने तो अपने पापा को अपनी मां उमा को तलाक देने के लिए आज तक नहीं बख्शा, जबकि वह निहायत ही लड़ाका औरत थी. अपनी कुंठाओं

में जी रहे दोनों भाईबहन अपने पिता से मिलने

2-3 साल में एकाध बार ही आ पाते. वह भी कुछ पैसा वसूल करने.

दीनानाथजी को तो यह भी पता नहीं था कि उन के कितने नातीपोते हैं और न ही उन्होंने उन की शक्लें देखी थीं. यह था दीनानाथ का पारिवारिक चित्र जो अजीब सा था पर आज के परिवेश में कुछ भी अजीब नहीं है.

राजपाल ठीक 11 बजे पहुंचा. दूर से ही जब उस ने हवेली के बाहर

भीड़ देखी तो घबरा गया. जल्दी से अपनी कार पार्क कर के वह अंदर लपका. अंदर पुलिस के लोग थे. दीवानजी का मृत शरीर नीचे जमीन पर लिटा दिया गया था. नूरां के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. उस का चेहरा व आंखें रोरो कर लाल थीं.

राजपाल के पहुंचते ही इंस्पैक्टर रमन ने उस से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें पता था कि दीवानजी की मृत्यु हो चुकी है?’’

राजपाल ने संयत स्वर में उत्तर दिया, ‘‘जी नहीं, मेरे लिए यह बहुत बड़ा शौक है, मुझे तो सर ने खुद फोन कर बुलाया था कि 11 बजे तक आ जाना,’’ अंदर से वह हिल गया था.

काफी देर नूरां और राजपाल से पूछताछ के बाद रमन को यह यकीन हो चला था कि शायद यह आत्महत्या का मामला है. दीनानाथ फेफड़ों के कैंसर से ग्रस्त थे जो केवल नूरां और राजपाल ही जानते थे. बेटाबेटी को हाल ही में पता चला था कि उन के पिता बीमार हैं, पर दोनों शायद अपने में इतने उलझे थे कि पिता के पास आने का समय ही नहीं था.

इंस्पैक्टर ने एक सफेद लिफाफा अपनी जेब से निकालते हुए कहा, ‘‘यह लिफाफा ऐडवोकेट लोकेश बख्शी के नाम है. क्या तुम जानते हो उन्हें?’’

‘‘जी वे दीवानजी के परममित्र हैं. पास ही 2-4 घर छोड़ कर रहते हैं,’’ राजपाल ने कहा.

‘‘क्या तुम ने उन के रिश्तेदारों और बेटाबेटी को इस की सूचना दी है?’’ रमन ने पूछा.

इंस्पैक्टर रमन अभी पूछ ही रहे थे कि तभी ऐडवोकेट बख्शी बदहवास हालत में अंदर दाखिल हुए. आते ही वे समझ गए कि उन के मित्र ने योजना को अंजाम दे दिया है. जैसा लिफाफा इंस्पैक्टर के हाथ में था, वैसा ही लिफाफा ऐडवोकेट लोकेश बख्शी के हाथ में भी था. वह खुला था. ऐडवोकेट और इंस्पैक्टर एकदूसरे को जानते थे. 60 वर्षीय बख्शी अभी भी वकालत करते थे, सो अदालत में अकसर मिलना होता था. दीवान दीनानाथ, बख्शी व रमन सभी जम्मू के पुराने निवासी थे.

वकील ने पत्र पढ़ लिया था. पढ़ा हुआ पत्र उन्होंने रमन को थमा दिया. दोनों पत्रों की लिखावट एक ही व्यक्ति की थी और एकजैसी बात ही लिखी हुई थी. पत्र बख्शी के नाम था और उस में साफसाफ लिखा था कि मैं दीनानाथ पूरे होश में अपनी जान ले रहा हूं. कैंसर से लड़ते मुझे 4-5 साल हो गए हैं… अब मेरे पास शायद कुछ ही समय बचा है. मैं और अधिक तकलीफ नहीं सह सकता और अपने वफादार नौकरों को भी और कष्ट नहीं देना चाहता. इसलिए मैं ने ऐसा करने की सोची.

मेरे जाने के बाद मेरी संपत्ति का तीनचौथाई भाग यानी यह घर, मेरे गांव वाले आम के बगीचे व नकद धनराशि का आधा भाग नूरां को दिया जाए और मेरी कुद वाली जमीन भी नूरां को दी जाए.

राजपाल जो 20 साल से मेरे साथ है, उसे कुद वाला घर व मेरे बचे पैसों का 20% दिया जाए, बाकी धनराशि मेरे घर के पास वाले मंदिर की ट्रस्ट को दी जाए. उन लोगों के लिए मैं कुछ नहीं छोड़ कर जा रहा हूं, जिन्होंने अपने स्वार्थ में मुझे कभी याद नहीं किया.

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