लेखक- भावना सक्सेना
फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं.
वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे. अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…
पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.
बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी. किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.
‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’
उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’
‘‘जाना कहां है?’’
…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.
कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’
यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’
‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’
‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’
‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’
कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी.
बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.
उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’
‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’
‘‘सुबह कहां जाओगी?’’
‘‘पता नहीं.’’
‘‘कहां रहोगी?’’
‘‘पता नहीं.’’
‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’
‘‘वे सब खोजेंगे.’’
‘‘फिर?’’
‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’
‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’
‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’
‘‘वे कहां रहती हैं?’’
‘‘मथुरा में.’’
‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’
‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.
वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.
हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी. आवाज से उस की तंद्रा टूटी.
‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी. कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.
भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’
‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेलरहा था. दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.
कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’ युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’
युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’ दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.
पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’ ‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई.
‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर. वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा.
वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.
सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.
शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’
‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’
‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.
वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.
स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.
स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.
वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.
13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.
पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.
वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.
वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.
ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’
…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.
जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’
‘‘आप के पैसे?’’
‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’
बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.
बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.
वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.
खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.
आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.
इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.
रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.
वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.
उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.
आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.
मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.
मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.
कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.
सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.
अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.
आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.
‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.+