आखिर क्यों : अंधभक्ति के कारण बर्बाद हुई रोली की जिंदगी

रोली बहुत देर तक अपनी मम्मी की बात पर विचार करती रही. कुछ गलत तो नहीं कह रही थी उस की मम्मी. परंतु रोली को अच्छे से पता था कि शिखर और उस के मातापिता रोली की बात को पूरी तरह से नकार देंगे. तभी बाहर ड्राइंगरूम में शिखर ने न्यूज लगा दी. चारों तरफ कोरोना का कहर मचा हुआ था. हर तरफ मृत्यु और बेबसी का ही नजारा था, तभी पापाजी चिंतित से बाहर निकले और शिखर से बोले, ‘‘वरुण को कंपनी ने 2 महीने का नोटिस दे दिया है.‘‘

वरुण शिखर की बहन का पति था. शिखर बोला, ‘‘पापा, चिंता मत कीजिए, वरुण टैलेंटेड लड़का है. कुछ न कुछ हो जाएगा, मैं 1-2 जगह बात कर के देखता हूं.‘‘

रोली रसोई में चाय बनाते हुए सोच रही थी, ‘आज वरुण हैं तो कल शिखर भी हो सकता है,’ चाय बनातेबनाते रोली ने दृढ़ निश्चय ले लिया था.

जब सभी लोग चाय की चुसकियां ले रहे थे, तो रोली बोली, ‘‘अगले हफ्ते मेरठ वाले गुरुजी यहीं पर आ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि हम भी अपने घर पर यज्ञ करवाएं.

‘‘यज्ञ करवाने के पश्चात न केवल हमारा परिवार कोरोना के संकट से बचा रहेगा, बल्कि शिखर की नौकरी पर भी कोई आंच नहीं आएगी.‘‘

‘‘बस 50,000 रुपए का खर्च है, पर ये कोरोना पर होने वाले खर्च से तो बहुत सस्ता है शिखर.”

रोली की सास अपनी पढ़ीलिखी बहू के मुंह से ये बात सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और बोलीं, ‘‘रोली, ये तुम क्या कह रही हो? चारों तरफ कोरोना का कहर है और तुम ऐसे में घर में यज्ञ करवाना चाहती हो?‘‘

रोली तुनकते हुए बोली, ‘‘हां मम्मीजी, आप को तो मेरी सब चीजों से दिक्कत है.’‘

‘‘आप खुद जपतप करें सब ठीक, पर अगर मैं परिवार की भलाई के लिए कुछ करवाना चाहूं तो आप को उस में भी दिक्कत है.‘‘

रोली के ससुर बोले, ‘‘रोली बेटा, ऐसी बात नहीं है, पर ये संभव नहीं है.

‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि हम ऐसे भीड़ इकट्ठी नहीं कर सकते हैं.‘‘

शिखर उठते हुए बोला, ‘‘रोली, मेरे पास ऐसे यज्ञपूजन पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं और शायद हम अब कोरोना से बच भी जाएं, परंतु उस यज्ञ के कारण हमारा पूरा परिवार जरूर कोरोना के कारण स्वाहा हो जाएगा.‘‘

रोली गुस्से में पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई. रात के 8 बज गए, लेकिन रसोई में सन्नाटा था. शिखर कमरे में गया और प्यार से बोला, ‘‘रोली गुस्सा थूक दो, आज खाना नहीं खिलाओगी क्या?‘‘

रोली चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्यों नौकरानी हूं तुम्हारी और तुम्हारे मम्मीपापा की?‘‘

‘‘अपनी इच्छा से मैं घर में एक काम भी नहीं कर सकती, पर जब काम की बारी आती है तो बस वह ही याद आती है.’‘

शिखर रोली को प्यार से समझाता रहा, परंतु वह टस से मस नहीं हुई.

शिखर और उस के मम्मीपापा की सारी कोशिशें बेकार हो गई थीं. रोली की आंखों पर गुरुजी के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी.

रोली के मन में कोरोना का डर इस कदर हावी था कि वह किसी भी तरह कोरोना के पंजे से बचना चाहती थी.

रोली की मम्मी उसे रोज फोन पर बताती कि कैसे गुरुजी ने अपने तप से रोली के मायके में पूरे परिवार को कोरोना से पूरी तरह सुरक्षित कर रखा है.

रोली की मम्मी यह भी
बोलतीं, ‘‘अरे, हम लोग न तो मास्क लगाते हैं और न ही सेनेटाइजर का प्रयोग करते हैं. बस गुरुजी की भभूति लगा लेते हैं.‘‘

‘‘सारी कंपनियों में छंटनी और वेतन में कटौती हो रही है, पर तेरे छोटे भाई का तो गुरुजी के कारण ऐसे संकट काल में भी प्रमोशन हो गया है.‘‘

आज गुरुजी रोली के शहर देहरादून आ गए थे. रोली को पता था कि शिखर गुरुजी का यज्ञ घर पर कभी नहीं कराएगा और न ही कभी पैसे देगा.

रोली ने गुरुजी के मैनेजर से फोन पर बात की, तो उन्होंने कहा, ‘‘आप यहीं पर आ जाएं. तकरीबन 500 भक्त और भी हैं. गुरुजी के भक्तों ने ही गुरुद्वारा रोड पर एक हाल किराए पर ले लिया है…

‘‘आप बेझिझक यहां चली आएं,‘‘ गुरुजी के मैनेजर ने कहा.

रोली मन ही मन खुश थी, परंतु 50,000 रुपयों का इंतजाम कैसे करे? वह यही सोच रही थी, तभी रोली को ध्यान आया कि क्यों न वह अपने मायके से मिला हुआ सेट इस अच्छे काम के लिए दान कर दे.

सुबह काम करने के बाद रोली तैयार हो गई और शिखर और उस के मम्मीपापा से बोली, ‘‘मैं 2 दिन के लिए गुरुजी के शिविर में जा रही हूं.‘‘

‘‘मैं ने पैसों का बंदोबस्त कर लिया है. परिवार की खुशहाली के लिए यज्ञ कर के मैं परसों तक लौट आऊंगी.‘‘

शिखर की मम्मी बोलीं, ‘‘रोली, होश में तो हो ना…‘‘

‘‘हम तुम्हें कहीं नहीं जाने देंगे. तुम्हें मालूम है ना कि ये महामारी है और इस का वायरस बड़ी तेजी से फैलता है.‘‘

रोली गुस्से में बोली, ‘‘आप भी भूल रही हैं मम्मी कि मैं एक बालिग हूं. आप को शायद मालूम नहीं है कि जिस तरह का व्यवहार आप मेरे साथ कर रही हैं, वो घरेलू हिंसा के दायरे में आता है. यह एक तरह की मानसिक और भावनात्मक हिंसा है.‘‘

शिखर ने अपने मम्मीपापा से कहा, ‘‘जब रोली ने कुएं में छलांग लगाने का निर्णय ले ही लिया है, तो आप उसे रोकिए मत.‘‘

शिखर बिना कुछ बोले रोली को उस हाल के गेट तक छोड़ आया. हाल के गेट पर भीड़ देख शिखर ने रोली से कहा, ‘‘रोली, एक बार और सोच लो.‘‘

रोली मुसकराते हुए बोली, ‘‘मैं तो गुरुजी को घर पर बुलाना चाहती थी, पर तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की जिद के कारण मैं यहां पर हूं.‘‘

रोली जैसे ही हाल के अंदर पहुंची, बाहर गेट पर खड़े युवकों ने उस का मास्क उतरवा दिया और फिर गंगाजल से उस के हाथ धुलवाए.

अंदर धीमाधीमा संगीत चल रहा था. रोली ने देखा कि तकरीबन 300 लोग वहां थे. हर कोई गुरुजी के आगे सिर झुका कर श्रद्धा के साथ दान कर रहा था.

रोली भी गुरुजी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘गुरुजी, मेरे पास तो बस ये गहने हैं देने के लिए.‘‘

गुरुजी शांत स्वर में बोले, ‘‘बेटी, दान से अधिक भाव का महत्व है. तुम जो भी पूरी श्रद्धा से भेंट करोगी, वह हमें स्वीकार है.‘‘

सात्विक भोजन, सात्विक माहौल, न कोई महामारी का डर और न ही चिंता. रोली को इतना हलका तो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था. उस का गुस्सा भी काफूर हो गया था. अब तो रोली को अपने परिवार की बुद्धि पर तरस आ रहा था कि वो ऐसे अच्छे आनंदमय वातावरण से वंचित रह गए हैं.

पूरा दिन गुरुजी के प्रवचन और यज्ञ में बीत गया था. रात में जब रोली सोने के लिए कमरे में गई तो देखा कि उस छोटे से कमरे में 8 महिलाओं के बिस्तर लगे हुए थे.

रोली पहले तो हिचकिचाई, पर फिर उसे गुरुजी की कही हुई बात याद आई कि कैसे हम ने डरडर कर इस वायरस को अपने ऊपर हावी कर रखा है. ये वायरस मनुष्य को मनुष्य से दूर करना चाहता है. दरअसल, ऐसे पूजाहवन से ही इस महाकाल वायरस का सफाया हो जाएगा. ये ऊपर वाले का इशारा है हम मूर्ख मनुष्यों के लिए कि हम उन की शरण में जाएं. अगर विज्ञान कुछ करने में सक्षम होता, तो क्यों पूरे विश्व मे त्राहित्राहि मची रहती.

ये सब बातें याद आते ही रोली शांत मन से आंखें बंद कर के सो गई. सुबह 6 बजे रोली की आंखें खुलीं तो उसे लगा, जैसे वह रूई की तरह हलकी हो गई है.

गुरुजी को स्मरण कर के रोली ने सब से पहले अपनी मम्मी को फोन लगाया और फिर शिखर को फोन कर अपना हालचाल बताया.

अगला दिन भी भजन, प्रवचन और ध्यान में ऐसे बीत गया कि रोली को पता भी नहीं चला कि कब शाम हो गई. तकरीबन 500 लोग इस पूजा में सम्मलित थे, परंतु न तो कोई आपाधापी थी, न ही कोई घबराहट.

शाम के 7 बजे रोली ने गुरुजी को प्रणाम किया, तो गुरुजी ने उसे भभूति देते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये भभूति तुम्हारी हर तरह से रक्षा करेगी.‘‘

जब रोली बाहर निकली तो देखा कि शिखर कार में बैठा उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

रोली बिना कोई प्रतिक्रिया किए कार में बैठ गई. घर आ कर भी वह बेहद शांत और संभली हुई लग रही थी. रोली ने किसी से कुछ नहीं कहा और न ही उस के सासससुर ने उस से कुछ पूछा.

अगले रोज सुबहसुबह शिखर ने रोली को खुशखबरी सुनाई कि बहुत दिनों से जिस कंपनी में उस की बात अटकी हुई थी, वहां से बात फाइनल हो गई है. 1 अगस्त को उसे पूना में ज्वाइनिंग के लिए जाना है.

रोली नाचते हुए बोली, ‘‘ये सब गुरुजी की कृपा है.‘‘

शिखर बोला, ‘‘अरे वाह, मेहनत मैं करूं और क्रेडिट तुम्हारे गुरुजी ले जाएं.‘‘

जब से रोली गुरुजी के पास से आई थी, उस ने सावधानी बरतनी छोड़ दी थी. शिखर की नौकरी के कारण रोली का विश्वास और पक्का हो गया था.

और फिर एक हफ्ते बाद रोली को वह खुशखबरी भी मिल गई, जिस का पिछले 5 साल से इंतजार कर रही थी. वह मां बनने वाली थी. घर में ऐसा लग रहा था, चारों ओर खुशियों की बरसात हो रही है. रोली को पक्का विश्वास था कि देरसवेर ही सही, शिखर और उस का परिवार भी गुरुजी की भक्ति में आ जाएगा. पर, जब 5 दिन बाद रोली को बुखार हो गया, तो रोली के सासससुर और शिखर के होश उड़ गए थे. परंतु रोली ने कोई दवा नहीं ली, बल्कि गुरुजी के यहां से लाई भभूति चाट ली.

शिखर ने रोली को टेस्ट कराने के लिए भी कहा, परंतु रोली ने कहा, ‘‘मैं ने गुरुजी से फोन पर बात की थी. मुझे वायरल हुआ है. गुरुजी ने कहा है कि परसों तक सब ठीक हो जाएगा.‘‘

पर, उसी रात अचानक ही रोली को सांस लेने में दिक्कत होने लगी. रोली को महसूस हो रहा था, जैसे पूरे वातावरण में औक्सीजन की कमी हो गई हो.

शिखर रात में ही रोली को ले कर अस्पताल भागा. बहुत मुश्किलों से रोली को किसी तरह अस्पताल में दाखिला मिला. पुलिस ने पूछताछ की, तो एक के बाद एक लगभग 500 लोगों की एक लंबी कोरोना चेन बन गई.

गुरुजी का फोन स्विच औफ आ रहा था. यज्ञ में शामिल हुए परिवारों का जब कोरोना टेस्ट हुआ तो ऐसा लगा, कोरोना बम का विस्फोट हो गया है. जहां पहले शहर में बस गिनती के 50 मामले थे, वे अब सीधे 500 पार कर गए थे.

रोली शर्म के कारण आंख नहीं उठा पा रही थी. काश, उस ने शिखर और उस के परिवार की बात मान ली होती. रोली को अपने से ज्यादा पेट में पल रहे बच्चे की चिंता हो रही थी. उधर शिखर को रोली के साथसाथ अपने डायबिटिक मातापिता की भी चिंता हो रही थी. शिखर को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों रोली की इस अंधभक्ति का नतीजा रोली के साथसाथ पूरे परिवार को भुगतना पड़ेगा. आखिर कब तक हम पढ़ेलिखे लोग भी अपनेआप को इस तरह अंधविश्वास के कुएं में धकेलते रहेंगे? आखिर क्यों हम आज भी हर समस्या का शार्टकट ढूंढ़ते हैं? आखिर क्यों…?

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी

बेटा बेटीको बराबर मानने वाले सुकांत और निधि दंपती ने अपने तीनों बच्चों उन्नति, काव्या और सुरम्य में कभी कोई फर्क नहीं रखा. एकसमान परवरिश की. यही कारण था जब बड़ी बेटी उन्नति ने डैंटल कालेज में प्रवेश लेने की इच्छा जाहिर की तो…

‘‘पापा ऐश्वर्या डैंटल कोर्स करने के लिए चीन जा रही है. मैं भी जाना चाहती हूं. मुझे भी डैंटिस्ट ही बनना है.’’

‘‘तो बाहर जाने की क्या जरूरत है? डैंटल कोर्स भारत में भी तो होते हैं.’’

‘‘पापा, वहां डाइरैक्ट ऐडमिशन दे रहे हैं 12वीं कक्षा के मार्क्स पर… यहां कोचिंग लूं, फिर टैस्ट दूं. 1-2 साल यों ही चले जाएंगे,’’ उन्नति बोली.

‘‘पर बेटा…’’

‘‘परवर कुछ नहीं पापा. आप ऐश्वर्या के पापा से बात कर लीजिए. मैं उन का नंबर मिला देती हूं… उन्हें सब पता है… वे अपने काम के सिलसिले में अकसर वहां जाते रहते हैं.’’

सुकांत ने बात की. फीस बहुत ज्यादा थी. अत: वे सोच में पड़ गए.

‘‘ऐजुकेशन लोन भी मिलता है जी आजकल बच्चों को विदेश में पढ़ने के लिए… पढ़ने में भी ठीकठाक है… पढ़ लेगी तो दांतों की डाक्टर बन जाएगी,’’ निधि भी किचन से हाथ पोंछते हुए उन के पास आ गई थीं.

‘‘पर पहले पता करने दो ठीक से कि वह मान्यताप्राप्त है भी या नहीं.’’

‘‘है न मां. बस वापस आ कर यहां एक परीक्षा देनी पड़ती है एमसीआई की और प्रमाणपत्र मिल जाता है. पापा, अगर मेरी जगह सुरम्य होता तो आप जरूर भेज देते.’’

‘‘नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. तुम ने ऐसा क्यों सोचा? क्या तुम भाईबहनों में मैं ने कभी कोई फर्क किया?’’ सुकांत ने उस के गालों पर प्यार से थपकी दी.

बैंक में कैशियर ही तो थे सुकांत. निधि स्कूल में टीचर थीं. दोनों के वेतन से घर बस ठीकठाक चल रहा था. कुछ ज्यादा जमा नहीं कर सके थे दोनों. सुकांत की पैतृक संपत्ति भी झगड़े में फंसी थी. बरसों से मुकदमे में पैसा अलग लग रहा था. हां, निधि को मायके से जरूर कुछ संपत्ति का अपना हिस्सा मिला था, जिस से भविष्य में बच्चों की शादी और अपना मकान बनाने की सोच रहे थे.

‘‘मकान तो बनता रहेगा निधि, शादियां भी होती रहेंगी… पहले बच्चे लायक बन जाएं तो यह सब से बड़ी बात होगी… है न?’’ कह सुकांत ने सहमति चाही थी, फिर खुद ही बोले, ‘‘हो सकता है हम मुकदमा जीत जाएं… तब तो पैसों की कोई कमी नहीं रहेगी.’’

‘‘हां, ठीक तो कह रहे हैं. आजकल बहुएं भी लोग कामकाजी ही लाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. बढि़या प्रोफैशनल कोर्स कर लेगी तो घरवर भी बहुत अच्छा व आसानी से मिल जाएगा,’’ निधि ने अपनी सहमति जताई.

‘‘जमा राशि आड़े वक्त के लिए पड़ी रहेगी… कोई ऐजुकेशन लोन ही ले लेते हैं. वही ठीक रहेगा… पता करता हूं डिटेल… इस के जौब में आने के बाद ही किस्तें जानी शुरू होंगी.’’

सुकांत ने पता किया और फिर सारी प्रक्रिया शुरू हो गई. उन्नति पढ़ाई के लिए विदेश चली गई. दूसरी बेटी काव्या के अंदर भी विदेश में पढ़ाई करने की चाह पैदा हो गई. 12वीं कक्षा के बाद उस ने लंदन से बीबीए करने की जिद पकड़ ली.

‘‘पापा, दीदी को तो आप ने विदेश भेज दिया मुझे भी लंदन से पढ़ाई करनी है… पापा प्लीज पता कीजिए न.’’

सुकांत और निधि ने सारी तहकीकात कर काव्या को भी पढ़ाई के लिए लंदन भेज दिया.

अब रह गया था सब से छोटा बेटा सुरम्य. पढ़ने में वह भी अच्छा था. वह भी डाक्टर बनना चाहता था. मगर घर का खर्च देख कर उस का खयाल बदलने लगा कि मातापिता कहां तक करेंगे… साल 6 महीने बाद पीएमटी परीक्षा में सफल भी हुआ तो 4 साल एमबीबीएस की पढ़ाई. फिर इंटर्नशिप. उस के बाद एमडी या एमएस उस के बिना तो डाक्टरी का कोई मतलब ही नहीं. फिर अब मम्मीपापा रिटायर भी होने वाले हैं… कब कमा पाऊंगा, कब उन की मदद कर पाऊंगा… 2 लोन पहले ही उन के सिर पर हैं.

मुझे कुछ जल्दी पढ़ाई कर के पैसा कमाना है. फिर उस ने अपना स्ट्रीम ही कौमर्स कर लिया. 12वीं कक्षा के बाद उस ने सीए की प्रवेश परीक्षा पास कर ली. स्टूडैंट लोन ले कर उस ने अपनी सीए की पढ़ाई शुरू कर दी. दिन में पढ़ाई करना और रात में काल सैंटर में जौब करने लगा. सुकांत और निधि थोड़े परेशान अवश्य थे, पर मन में कहीं यह संतोष था कि बच्चे काबिल बन कर अपने पैरों पर खड़े हो इज्जत और शान की जिंदगी जीएंगे, इस से बड़ी और क्या बात होगी उन के लिए.

सुकांत रिटायर हो कर किराए के मकान में आ गए थे.

‘‘और क्या जी हम नहीं बनवा सके घर तो क्या बच्चे तो अपना घर बना कर ठाठ से रहेंगे,’’ एक दिन निधि बोलीं.

उन्नति का बीडीएस पूरा हो गया. वापस आ कर उस ने भारत की मान्यता के लिए परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली. इंटर्नशिप के बाद उसे लाइसैंस मिल गया. मांबाप का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. उन्नति ने एक पीजी डैंटिस्ट रवि को जीवनसाथी के रूप में पसंद कर लिया. रवि को दहेज नहीं चाहिए था पर घर वालों को शादी धूमधाम से चाहिए थी.

‘‘ठीक ही तो है पापा शादी रोजरोज थोड़े ही होती है. अब ये लोग दहेज तो नहीं ले रहे न,’’ उन्नति मम्मीपापा, को दलील के साथ राजी करने की कोशिश में थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तू चिंता मत कर,’’ सुकांत ने उसे तसल्ली देते हुए कहा.

जैसेतैसे सुकांत और निधि ने बड़ी बेटी को फाइवस्टार होटल से विदा किया.

‘‘मम्मीपापा मुझे पढ़ने का शौक था सो पढ़ लिया… प्रैक्टिस वगैरह मेरे बस की नहीं… मुझे तो बस घूमनाफिरना और मस्ती करनी है. लोन का आप देख लेना… मेरे पास वहां बैंक का कोई लेटरवैटर नहीं आना चाहिए वरना बड़ा बुरा फील होगा ससुराल में… रवि को मैं ने लोन के बारे में कुछ नहीं बताया है,’’ उन्नति ने जातेजाते दोटूक अपना मंतव्य बता डाला.

‘‘रवि को मालूम है तू काम नहीं करेगी?’’ सुरम्य को जब मालूम हुआ तो उस ने हैरानगी से पूछा.

इस पर उन्नति बोली, ‘‘और क्या… कह रहे थे कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस रानी बन कर रहना… पलकों पर बैठा कर रखेंगे तू देखना,’’ और वह हंस दी थी.

‘‘दीदी तुम्हें मालूम है न कि मम्मीपापा अब रिटायर हो चुके हैं… हम लोगों के चक्कर में बेचारे मकान तक नहीं बनवा सके… बैंक से स्टूडैंट लोन तो है ही प्राइवेट लोन अलग से, विदेश की पढ़ाई उन्हें कितनी महंगी पड़ी पता है?’’

‘‘भाई, तू तो लड़का है. सीए बनते ही बढि़या कंपनी में लग जाना है. तू ठहरा तेज दिमाग… फिर धड़ाधड़ पैसे कमाएगा तू… थोड़ा ओवरटाइम भी कर लेना हमारे लिए… मुझे तो गृहस्थी संभालने दे… लाइफ ऐंजौय करनी है मुझे तो, वह अपने लंबे नाखूनों में लगी ताजा नेलपौलिश सुखाने लगी.’’

‘‘कमाल है दीदी पहले विदेश की महंगी प्रोफैशनल पढ़ाई पर खर्च करवाया, फिर फाइवस्टार में शादी की… दहेज न देने पर भी इतना खर्च हुआ जिस की गिनती नहीं. अब काम नहीं करेगी तो तुम्हारा लोन कैसे अदा होगा, सोचा है? माना काव्या दीदी का और मेरा लोन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं पर अपना लोन तो चुकता कर जो बैंक से तुम ने अपने नाम लिया है… काम क्यों नहीं करोगी? फिर प्रोफैशनल पढ़ाई क्यों की? इतना पैसा क्यों बरबाद करवाया जब तुम्हें केवल हाउसवाइफ ही बनना था?’’

‘‘तू तो करेगा न भाई काम?’’

‘‘तुम काम नहीं करोगी तो कुछ दिनों में ही प्यार हवा हो जाएगा रवि का.’’

‘‘तमीज से बात कर. रवि तेरे जीजू हैं.’’

‘‘तुम्हारी वजह से मैं ने डाक्टरी की पढ़ाई नहीं की जबकि मैं बचपन से ही डाक्टर बनना चाहता था. घर की स्थिति देख कर अपना इरादा ही बदल लिया. न… न… करतेकरते भी इतना खर्च करवा डाला… कर्ज में डूब गए हैं मम्मीपापा… शर्म नहीं आती तुम्हें? कब जीएंगे वे अपने लिए कभी सोचा है?’’

‘‘तू है न उन का बेटा… करना सेवा सारी उम्र लायक बेटा बन कर.’’

‘‘वाह, बाकी हर चीज में बराबरी पर जिम्मेदारी में नहीं. वह तो शुक्र है मकान नहीं बना वरना बिकवा कर उस में से भी अपना शेयर लेती… छोड़ उन्नति दीदी तुम क्या समझोगी… जाओ खुश रहो,’’ सुरम्य बाकी का सारा उफान पी गया.

उधर काव्या ने भी लंदन में कमाल कर दिया. वहीं अपने एक दोस्त प्रतीक से ब्याह रचा लिया. 1 महीने के गर्भ से थी. पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भारत लौट आई. ससुराल वालों ने उसे स्वीकारा नहीं.

वे कट्टर रीतिरिवाजों वाले दक्षिण भारतीय मूल के थे. बड़ी जद्दोजहद के बाद राजी हुए पर घर में फिर भी नहीं रखा. लिहाजा प्रतीक और वह घर से अलग रहने पर मजबूर हो गए. दोनों में से किसी के अभी जौब में न होने की वजह से सारा खर्च सुकांत और निधि के कंधों पर ही आ गया.

काव्या ने तो पढ़ाई छोड़ ही दी थी पर प्रतीक ने अपना एमबीए पूरा कर लिया. बाद में उसे जौब भी मिल गई.

उधर उन्नति की ससुराल की असलियत सामने आने  लगी. आए दिन सास तकाजा करतीं, ताने देतीं, ‘‘बहू, तुम्हारी हर महीने की इनकम कहां है. हम ने रवि को तुम से शादी की इजाजत इसलिए दी थी कि दोनों मिल कर घरपरिवार का स्तर बढ़ाने में मदद करोगे… वैसे ही लंबाचौड़ा परिवार है हमारा… बहू तुम से न घर का काम संभाला जाता है न बाहर का… देखती हूं रवि भी कितने दिन तुम्हारी आरती उतारता है,’’ भन्नाई हुई सास रेवती महीने बाद ही अपने असली रूप में आ गई थी.

रवि जब अपने दोस्तों की प्रोफैशनल वर्किंग पत्नियों को देखता तो उन्नति को ले कर अपमानित सा महसूस करता. रोजरोज दोस्तों की महंगी पार्टियों से उसे हाथ खींचना पड़ता. उन्नति को न ढंग का कुछ पकाना आता न कुछ सलीके से करनेसीखने में ही दिलचस्पी लेती. सजनेसंवरने में वक्त बरबाद करती.

फिर वही हुआ जो सुरम्य ने कहा था. खर्चे से रवि परेशान था, क्योंकि अपनी बहनों की ससुराल और रिश्तेदारी निभाने के लिए वही एक जरीया था. उस पर छोटे भाई आकाश की पढ़ाई भी उस के सिर थी.

बहनों की ससुराल वालों ने उस की पुश्तैनी प्रौपर्टी बिकवा कर उस में से हिस्सा लेने के बाद भी मुंह बंद नहीं किया. आए दिन फरमाइशें होती रहतीं, जिन से घर के सभी सदस्य चिड़ेचिड़े से रहते.

तब उन्नति को समझ आया कि बहनों की शादी के बाद प्रौपर्टी और पैसों में ही नहीं घर की जिम्मेदारियों में भी अपनी कुछ हिस्सेदारी समझनी चाहिए. उन्नति को मम्मीपापा और सुरम्य की बहुत याद आई.

आंखें सजल हो उठीं कि कितनी मुश्किल हुई होगी उन्हें. इतने कम पैसों में वे कैसे घर चलाते थे? हमारी जरूरतें, शौक पूरे करते रहे वे… अपना तो उन से सब कुछ करवा लिया हम ने पर उन की जरूरतों को कभी न समझा. सिर्फ नाम के लिए महंगी पढ़ाई कर ली. अपनी मस्ती और स्वार्थ के चलते न काम किया न अपना लोन ही चुकाया. वह आत्मग्लानि से भर उठी.

सप्ताह उपरांत उन्नति ने रवि की मदद से एक प्राइवेट डैंटल हौस्पिटल में काम करना शुरू कर दिया. रवि से उस ने साफ कह दिया, ‘‘जानती हूं कि और कुछ तो मम्मीपापा लेंगे नहीं पर कम से कम अपना ऐजुकेशन लोन जो मैं ने लिया था उसे अवश्य चुकाना चाहूंगी… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

रवि ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख मन ही मन सोचा कि काश उस की बहनें भी ऐसा सोच पातीं.

कुछ सालों बाद काव्या के ससुराल वालों ने उसे अपना लिया. उधर प्रतीक को बड़ी प्रमोशन मिली. उस ने यूएसए के क्लाइंट से अपनी कंपनी को बड़ा फायदा पहुंचाया था. वह एक झटके में ऊंचे ओहदे पर पहुंच गया.

काव्या को ऐशोआराम की सारी सुविधाएं मिलने लगीं तो उसे रहरह कर मम्मीपापा और घर की परिस्थितियों से जूझते भाई की तकलीफ ध्यान आने लगी कि उस ने कैसेकैसे उन का साथ दिया. हम बहनें तो निकम्मी निकलीं. उस का मन पश्चात्ताप से भर उठा. फिर उस ने उन्नति से मन की पीड़ा शेयर की तो उन्नति ने उस से.

इधर सुकांत के गांव की बरसों से मुकदमे में फंसी पैतृक संपत्ति का फैसला उन के पक्ष में हो गया. करीब 50 लाख उन की झोली में आ गए.

‘‘शुक्र है निधि जो फैसला हमारे पक्ष में हो गया. देर आए दुरुस्त आए. मैं ने सुरम्य को औफिस में ही फोन कर बता दिया. आता ही होगा. उन्नति और काव्या को भी खुशखबरी दे दो. उन्हें संडे को आने को कहना.’’

सुकांत के स्वरों में खुशी और उत्साह छलक रहा था. वे जल्द ही अपनी खुशी तीनों बच्चों में बांट लेना चाहते थे और रकम भी.

‘‘संडे को तो दोनों वैसे भी आने वाली हैं. रक्षाबंधन जो है. तभी सरप्राइज देंगे. अभी नहीं बताते,’’ निधि बोलीं.

पीछे का दरवाजा खुला था. उन्नति और काव्या दबे पांव हिसाब लगाते हुए कि पापा इस समय बाथरूम में होंगे और मां किचन में. मेड जा चुकी होगी. 9 बज रहे हैं तो सुरम्य सो ही रहा होगा. एकदूसरे को देख मुसकराते हुए वे सुकांत और निधि के बैडरूम में पहुंच गईं. सुकांत की दराज खोल उन्होंने चुपके से कुछ रखा. फिर सीधे सुरम्य के रूम में जा कर तकियों के वार से उसे जगा दिया.

‘‘आज भी देर तक सोएगा? संडे तो है पर रक्षाबंधन भी है. उठ जल्दी नहा कर आ. राखी नहीं बंधवानी?’’

‘‘अरे उठ भी तुझे राखी बांधने के बाद ही मां कुछ खाने को देंगी… बहुत जोर की भूख लग रही है,’’ कहते हुए काव्या ने एक तकिया उसे और जमा दिया.

‘‘क्या है,’’ सुरम्य आंखें मलते हुए उठ बैठा.

दोनों बहनें उसे बाथरूम की ओर धकेल हंसती हुई किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘मां सरप्राइज,’’ कह दोनों निधि से लिपट गईं.

‘‘अरे, कब घुसी तुम दोनों? मुझे तो पता ही नहीं चला,’’ कह निधि मुसकरा उठी.

राखियां बंधवाने के बाद जब सुरम्य ने दोनों को 6-6 लाख के चैक दिए तो दोनों बहनें उस का चेहरा देखने लगीं.

‘‘मजाक कर रहा है?’’

‘‘मजाक नहीं सच में बेटा… हम वह मुकदमा जीत गए… उसी के 4 हिस्से कर दिए. एक मेरा व निधि का बाकी तुम तीनों के.’’

‘‘अरे नहीं पापा ये हम नहीं ले सकतीं,’’ काव्या और उन्नति एकसाथ बोलीं. उन्होंने उन पैसों को लेने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘नहीं मम्मीपापा, इन पर केवल सुरम्य का ही हक है. उसी ने आप दोनों के साथ सारी जिम्मेदारियां उठाई हैं. पहले घर के छोटेछोटे कामों में फिर बड़े कामों में… लोन, बिल्स, औपरेशन, इलाज, रिश्तेदारी, गाड़ी और अब यह मकान. आप दोनों और घर से अलग अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा उस ने.

‘‘सच है मम्मीपापा हर बात में बराबरी करने वाली हम बेटियां पढ़लिख कर भी बेटियां ही रह गईं बेटा न बन सकीं. हम ने शान और मस्ती के अलावा कुछ सोचा ही नहीं… कभी समझना ही नहीं चाहा. दायित्व तो दूर की बात… मेरे और काव्या के लिए बहुत कुछ कर लिया आप ने… अब तो इस का ही हक बनता है हमारा नहीं.’’

‘‘हां पापा, अब तो बस झट से इस के लिए अच्छी सी लड़की पसंद कीजिए और इस की धूमधाम से शादी कर दीजिए, बहुत आनाकानी कर चुका है. हां, नेग हम बड़ाबड़ा लेंगी.’’

उन्नति और काव्या एक के बाद एक बोले जा रही थीं. फिर वे सुरम्य को छेड़ने लगीं, ‘‘वैसे एक बहुत सुंदर लड़की मेरे पड़ोस में है. बस थोड़ी तोतली है. उस से करेगा शादी?’’ उन्नति ने ठिठोली की तो काव्या भी पीछे नहीं रही, ‘‘अरे, मेरी ननद की देवरानी की छोटी बहन दूध जैसी गोरीचिट्टी है. बस थोड़ी भैंगी है. पर उस के बड़े फायदे रहेंगे एक नजर किचन में तो दूसरी से वह तुझे निहारेगी.’’

काव्या और उन्नति दोनों अगले ही दिन चली गईं. घर सूना हो गया.

‘‘निधि… ये मेरी दराज में लिफाफे कैसे रखे हैं?’’ कह उन्होंने एक खोला तो पत्र में लिखावट उन्नति की थी. लिफाफे में हजारहजार के नोट रखे थे. वे अचरज से पढ़ने लगे-

‘‘मम्मीपापा यह मेरी पहली कमाई का छोटा सा अंश है,  आप दोनों के चरणों में. आप इसे मना मत करिएगा. आप दोनों ने मुझे इस काबिल बनाया. मैं कमा कर कम से कम अपना लोन तो खुद उतार सकती थी पर मैं तो अपने में ही मस्त थी. मैं इतनी स्वार्थी कैसे बन गई.

‘‘न कभी आप लोगों के लिए सोचा न सुरम्य के लिए. छोटा था पर हर बात में उस से बराबरी करते हुए उस से घर के कामों में भी फायदा उठाया और अपने बाहर के काम भी उसी से करवाए कि वह लड़का है. सब कुछ उसी पर डाल कर हम बहनें मजे लेती रहीं. सौरी मम्मीपापा. मैं फिर जल्द आऊंगी. आप की डैंटिस्ट बेटी उन्नति.’’

दूसरा लिफाफा काव्या का था, लिखा था-

‘‘मां और पापा, आप ने हमेशा हम तीनों को बराबर का प्यार दिया, हक दिया. बराबर मानते हैं न तो सुरम्य की ही तरह मुझे भी अपना लोन चुकाने दीजिए. आप दोनों मना नहीं करेंगे, सामने से देती तो आप बिलकुल न लेते पर सोचिए तो पापा अगर बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं मानते तो आप को इसे लेना ही पड़ेगा. प्रतीक की भी यही इच्छा है.

‘‘पता नहीं बेटियों का बेटों की तरह मांबाप पर तो हक है पर मांबाप को बेटों की तरह बेटियों पर हक अभी भी समाज में क्यों मान्य नहीं हो पा रहा? प्रतीक ऐसा ही सोचता है. आप ने अपनी परेशानियों को एक ओर कर के हमारे सपने, हमारी जरूरतें पूरी की हैं. हमारा आप पर हक है ठीक है पर हमारा फर्ज भी तो है कुछ… जिसे मैं पहले कभी नहीं समझ पाई. आप दोनों की लाडली बेटी काव्या.’’

पत्र के पीछे लोन अमाउंट का चैक संलग्न था.

बेटियों की चिट्ठियां पढ़ रहे सुकांत और उन के पास खड़ी निधि की आंखें सजल हो उठी थी और सीना गर्व से भर उठा.

‘‘हमें इन्हें वापस करना होगा निधि, कितने समझदार बन गए हैं बच्चे. इन्होंने हमारे लिए इतना सोचा यही बहुत है… अब हमें वैसे भी पैसे की कोई जरूरत नहीं रही.’’

निधि ने आंचल से आंखों के कोरों को पोंछ मुसकराते हुए अपनी सहमति में सिर हिला दिया.

खिलौना : क्या हुआ पलक के साथ मां रीना के घर?

पलक बहुत ही खोईखोई सी घर के एक कोने में बैठी थी. न जाने क्यों उसे यह घर बहुत अजनबी सा लगता था.

बिजनौर में सबकुछ कितना अपनाअपना सा था. सबकुछ जानापहचाना, कितने मस्त दिन थे वे…

पासपड़ोस में घंटों खेलती थी और बड़ी मम्मी कितने प्यार से पकवान बनाती थीं. स्कूल में हमेशा प्रथम
आती थी वह. वादविवाद प्रतियोगिता हो या गायन, पलक हमेशा ही अव्वल आती.

रविवार का दिन तो जैसे एक त्यौहार होता था। पासपड़ोस के अंकलआंटी आते थे और फिर घर की छत पर
मूंगफली और रेवड़ी की बैठक होती थी. बड़े पापा, मम्मी अपने बचपन के किस्से सुनाते थे. पलक घंटों अपनी
सहेलियों के साथ बैठ कर उन पलों में सारा बचपन जी लेती थी.

पूरा दिन 24 घंटों में ही बंटा हुआ था। यहां की तरह नही था कि कुछ पलों में ही खत्म हो जाता है।

तभी ऋषभ भैया अंदर आए और बोले,”पलक, तुम यहां क्यों एक कोने में बैठी रहती हो? क्या प्रौब्लम है।”

ऋषभ भैया अनवरत बोले जा रहे थे,”यह दिल्ली है, बिजनौर नहीं। यह क्या अजीब किस्म की जींस और ढीली कुरती पहन रखी हैं…पता है कल मेरे दोस्त तुम्हें देख कर कितना हंस रहे थे।”

पलक को समझ नहीं आ रहा था, जो कपड़े बिजनौर में मौडर्न कहलाते थे वे यहां पर बेकार कहलाते हैं. पलक
सोच रही थी कि बड़ी मम्मी, पापा ने तो उसे दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजा था पर यहां के स्कूल में तो लगता है पढ़ाई के अलावा सारे काम होते हैं. सब लोग धड़ाधड़ इंग्लिश बोलते हैं, कैसीकैसी गालियां देते हैं कि उस के कान लाल हो जाते हैं।

वैसे इंग्लिश तो पलक की भी अच्छी थी पर न जाने क्यों दिल्ली में उसे बहुत झिझक होती है.

आज ऋषभ भैया और मम्मीपापा पलक को मौल ले कर गए थे, शौपिंग कराने के लिए। इतना बड़ा मौल पलक ने इस से पहले कभी नहीं देखा था.

जब पलक छोटी थी तो बारबार उस के दिमाग मे यही बात आती थी कि वह नानानानी के साथ क्यों रहती है?

पेरैंटटीचर मीटिंग में वह अपने नानानानी को ले कर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि सब की मम्मी इतनी सुंदर, जवान और नएनए स्टाइल के कपड़े पहनती हैं और उस की नानी खिचड़ी बाल और उलटीसीधी साड़ी पहन कर जाती थी.

एक बार उस ने अपनी नानी से पूछ ही लिया,”मैं अपने मम्मीपापा के साथ क्यों नही रहती हूँ?”

नानी हंसते हुए बोली थीं,”क्योंकि कुदरत ने तुम्हें अपने नानानानी के जीवन मे रंग भरने भेजा है।”

पलक को कुछ समझ नहीं आता था पर यह दुविधा उस के बालमन में हमेशा रहती थी. बस इस के अलावा उस की जिंदगी में सब कुछ परफैक्ट था.

जब कभी कभी पलक की मम्मी रीना दिल्ली से अपने बेटे ऋषभ के साथ आती थी तो पलक को बहुत बुरा लगता था. उन दिनों पलक की नानी कितनी अजनबी हो जाती थीं. सारा दिन वह रीना के चारों तरफ घूमती थीं. ऋषभ भैया उसे कितनी हेयदृष्टि से देखते थे.

पलक जब 11 साल की हुई तो उस के जन्मदिन पर उस की मम्मी ने उसे पूरी कहानी बताई कि पलक की
बेहतर देखभाल के लिए ही वह नानानानी के पास रहती है और जल्द ही पलक को वे लोग दिल्ली ले जाएंगे.

कितनी खुश हुई थी पलक यह सुन कर कि जल्द ही वह अपने मम्मीपापा के साथ चली जाएगी.

उस बार जब छुट्टियों में रीना बिजनौर आई हुई थी तो पलक रीना को कर अपने स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में ले कर गई. दोस्तों को उस ने बहुत शान से अपनी मम्मी से मिलवाया था.

रीना बहुत खुश हो कर पलक के साथ उस के स्कूल गई थी, क्योंकि अब वह अपनी बेटी को उस के बेहतर भविष्य
के लिए दिल्ली ले कर जाना चाहती थी.

पलक का स्कूल देख कर रीना को धक्का लगा था, क्योंकि पलक का
स्कूल छोटा और पुरानी तकनीक पर आधारित था.

आते ही रीना अपनी मां से बोली,”मम्मी, अब पलक को दिल्ली ले कर जाना ही होगा। इस छोटे शहर में पलक का ठीक से विकास नहीं हो पाएगा। इस के स्कूल में कुछ भी ठीक नही है।”

पलक की नानी रुआंसी हो कर बोलीं,”रीना, तुम भी तो इसी स्कूल में पढ़ी थीं और बेटा तुम तो पलक को इस दुनिया मे लाना ही नहीं चाहती थी। वह तो जब मैं ने सारी जिम्मेदारी उठाने की बात की थी तब तुम उसे जन्म देने के लिए तैयार हुई थी।”

रीना बेहद महत्त्वाकांक्षी युवती थी. जब उस का बेटा ऋषभ 3 वर्ष का ही हुआ था तब पलक के आने की आहट रीना को मिली थी। ऋषभ की जिम्मेदारी, नौकरी और घर की भागदौड़ में रीना थक कर चूर हो जाती थी. ऐसे में एक नई
जिम्मेदारी के लिए वह तैयार नहीं थी. वैसे भी उन्हें बस एक ही बच्चा चाहिए था, ऐसे में पलक के लिए उन की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

दिल्ली में आसानी से गर्भपात नहीं हो सकता था इसलिए रीना बिजनौर गर्भपात कराने आयी थी. पर
रीना के मम्मीपापा अपने अकेलेपन से ऊब चुके थे. बेटा विदेश में बस गया था. रीना को भी घरपरिवार और
नौकरी के कारण यहां आने की फुरसत नहीं थी. इसलिए रीना के मम्मीपापा, जानकीजी और कृष्णकांतजी को ऐसा लगा जैसे यह कुदरत की इच्छा हो और यह बच्चा उन के पास आना चाह रहा हो…

कितनी मुश्किल से जानकी ने रीना को मनाया था। पूरे समय वे रीना के साथ बनी रही थीं ताकि उसे किसी बात की तकलीफ न हो।

पलक के जन्म के 2 माह बाद जानकी पलक को ले कर बिजनौर आ गई थी. रीना किसी
भी कीमत पर पलक की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, इसलिए उस ने पलक को अपना दूध भी नहीं पिलाया
था.

मां का दूध न मिलने के कारण पहले 2 साल तक पलक बेहद बीमार रही. जानकी और कृष्णकांतजी का एक पैर घर और दूसरा हौस्पिटल में रहता।

पासपड़ोस वाले कहते भी,”आराम के वक्त इस उम्र में यह क्या झंझाल मोल ले लिया है…”

पर जानकी की जिंदगी को एक मकसद मिल गया था। उन की दुनियाभर की बीमारियां एकाएक गायब हो गई थीं.

सारा दिन कैसे बीत जाता था जानकी को पता भी नहीं लगता था। पलक के साथ जानकी ने बहुत मेहनत की थी।

4 वर्ष की होतेहोते पलक एकदम जापानी गुड़िया सी लगने लगी थी.
अब जब भी छुट्टियों में रीना घर जाती तो पलक की बालसुलभ हरकतें और उस का भोलापन देख कर उस की सोई हुई ममता जाग उठती थी. पर रीना किस मुंह से अपनी मां से यह कहती, क्योंकि वह तो पलक को इस दुनिया में लाना ही नहीं चाहती थी और न उस की कोई जिम्मेदारी उठाना चाहती थी। इसलिए कितनेकितने दिनों तक वह अपने मम्मीपापा के पास बिजनौर फोन भी नहीं करती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया और ऋषभ भी अब किशोरवस्था
में पहुंच गया था. ऋषभ अब अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहता।.

जब रीना ने अपने पति पराग से इस बात का जिक्र किया तो उस ने भी रीना को झिड़क दिया,”तुम कितनी खुदगर्ज हो रीना, अब पलक बड़ी हो गई है और ऋषभ की तरफ से तुम फ्री हो तो तुम्हें पलक याद आने लगी है और तुम्हें यह एहसास होने लगा है कि तुम पलक की मम्मी हो?

“याद है तुम्हें जब वह 7 महीने की थी और बेहद बीमार थी, तुम्हारी मम्मी ने तुम से आने के लिए कहा था पर
तुम औफिस के काम का हवाला दे अमेरिका चली गई थी।

“हर वर्ष जब हम छुट्टियों में घूमने जाते थे तो मैं कितना कहता था कि पलक को भी साथ ले लेते हैं पर तुम हमेशा कतराती थीं क्योंकि तुम 2 बच्चों की जिम्मेदारी एकसाथ नहीं उठा सकती थीं…”

रीना चुपचाप बैठी रही और पलक को अपने घर लाने के लिए मंथन करती रही.

समय बीतता गया और रीना हर
संभव कोशिश करती रही अपनी मम्मी को यह जताने की कि उन का पालनपोषण करने का तरीका पुराना है।

वह यह जताना चाहती थी कि पलक की बेहतर परवरिश के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए.

आज रीना को पलक के स्कूल जाने से यह मौका मिल भी गया. पलक 12 वर्ष की हो चुकी थी। रीना अपनी बेटी को अपने जैसा ही स्मार्ट बनाना चाहती थी. जब रीना की मम्मी ने अपनी बेटी की बात को अनसुना कर दिया तो रीना ने अपने पापा से बात की कि पलक की आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए।

कृष्णकांतजी एक व्यवहारिक किस्म के इंसान थे। दिल से न चाहते हुए भी कृष्णकांतजी को पलक की
भविष्य की खातिर रीना की बात माननी पड़ी.

पलक को जब पता चला कि वह अपने मम्मीपापा के साथ दिल्ली जा रही है तो वह बेहद खुश थी. पर जब सारा सामान पैक हो गया तो पलक एकाएक रोने लगी कि वह किसी भी कीमत पर नानानानी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती…

उधर जानकीजी का घोंसला एक बार फिर से खाली हो गया था पर इस बार पंछी के उड़ने का दर्द अधिक
था. कृष्णकांतजी जितना जानकीजी को समझाते,”वह रीना की ही बेटी है और तुम्हे खुश होना चाहिए कि हमारी पलक बड़े और अच्छे स्कूल में पढ़ेगी पर जानकीजी को तो जैसे उस की दुनिया ही वीरान लगने लगी थी।

जानकीजी को पूरा विश्वास था कि पलक उन के बिना रह नहीं पाएगी. बेटी ने एक बार भी नहीं कहा था, इसलिए उन्हें खुद तो दिल्ली जाने की हिम्मत नही हुई थी पर पति कृष्णकांतजी की चिरौरी कर के घर के पुराने नौकर मातादीन को ढेर सारी मिठाईयों के साथ दिल्ली भेज दिया.

नई दुनिया, नए लोग और चमकदमक सभी को अच्छी लगती हैं और पलक तो फिर भी बच्ची ही थी. वह इस टीमटाम में अपने पुराने घर और साथियों को भूल गई थी. मातादीन को देख कर एक पल के लिए पलक की आंखों
में चमक तो आई पर नए रिश्तों के बीच फिर वह चमक भी धीमी पड़ गई थी.

मातादीन पलक को खुश देख कर उसे आशीष दे कर अगले दिन विदा हो गया था. मातादीन को विदा करते हुये रीना का स्वर कसैला हो उठा और
बोली,”काका, मम्मी को बोलिएगा, पलक की चिंता छोड़ दे, वह मेरी बेटी है, मैं अपनेआप संभाल लूँगी।”

दिल्ली आ कर मातादीन ने कहा,”बीबीजी, चिंता छोड़ दीजिए। पलक बिटिया नई दुनिया में रचबस गयी हैं।”

पर जानकीजी खुश होने के बजाए दुखी हो गई थीं और फिर से उन का शरीर बीमारियों का अड्डा बन गया था.

उधर 1 माह बीत गया था और पलक के ऊपर से चमकदमक की खुमारी उतर गई थी. अब पलक चाह कर भी अपनेआप को दिल्ली की भागतीदौड़ती जिंदगी में ठीक से ढाल नहीं पा रही थी.

स्कूल का माहौल उस के पुराने स्कूल से बिलकुल अलग था. घर आ कर पलक किस से अपने मन की बात कहे, उसे समझ ही नहीं आता था.

पलक बहुत कोशिश करती थी अपनेआप को ढालने की पर असफल ही रहती. नानानानी का जब भी बिजनौर से फोन आता तो पलक हर बार यही ही बोलती कि उसे दिल्ली में बहुत मजा आ रहा है. पलक
अपने नानानानी को परेशान नहीं करना चाहती थी.

पलक के मम्मीपापा सुबह निकल कर रात को ही आते थे. ऋषभ भैया अपने दोस्तों और दुनिया में व्यस्त रहते। पासपड़ोस न के बराबर था. यहां के बच्चे उसे बेहद अलग लगते थे।

जब पलक ने अपनी मम्मी से इस बारे में बात की तो 12 साल की बच्ची का अकेलपन दूर करने के लिए उस की मम्मी ने उसे समय देने के बजाए विभन्न प्रकार की हौबीज क्लासेज में डाल दिया।

पहले ही पलक स्कूल में ही ऐडजस्ट नहीं कर पा रही थी और अब गिटार क्लास, डांस क्लास, अबेकस क्लास
पलक को हौबी क्लासेज के बजाए स्ट्रैस क्लासेज लगती थी.

पलक की नन्हीं सी जान इतनी अधिक भागदौड़ और तनाव को झेल नहीं पाई थी. उस के हौंसले पस्त हो गए थे.

वार्षिक परीक्षाफल आ गया था और पलक 2 विषयो में फेल हो गई थी.

परीक्षाफल देखते ही रीना पलक पर
आगबबूला हो उठी,”बेवकूफ लड़की, कितना कुछ कर रही हूं मैं तुम्हारे लिए… दिल्ली के सलीके सिखाने के लिए कितनी हौबी क्लासेज पर पैसे खर्च हो गए पर तुम तो रहोगी वही छोटे शहर की सिलबिल।”

पराग रीना को समझाने की कोशिश भी करता कि पलक और ऋषभ को एक तराज़ू पर ना तौले. पलक को थोड़ा समय दे, वह जैसे रहना चाहती है उसे रहने दे.

इतने तनाव का यह असर हुआ कि पलक को बहुत तेज बुखार हो गया था. पराग रात भर पलक के माथे पर गीली पट्टियां बदलता रहा था. रीना यह कह कर जल्दी सो गई कि अगले दिन औफिस में उस की जरूरी मीटिंग है.

रात भर बुखार में पलक तड़पती रही. अपनी बेटी को तड़पता देख कर पराग ने निर्णय ले लिया था.
पराग ने जानकीजी को फोन कर दिया और वे जल्दी ही शाम पलक के पास पहुंच गईं.

पराग ने खुद यह महसूस किया कि जानकीजी के आते ही पलक का बुझा हुआ चेहरा चमक उठा था.
जब रात को रीना औफिस से लौटी तो जानकीजी को देख कर वह सकपका गई.

रात में खाने की मेज पर बहुत दिनों
बाद पलक ने मन से खाया और बोली,”नानी, यहां पर किसी को ढंग से खाना बनाना नहीं आता।”

रीना कट कर रह गई और बोली,”मम्मी, आप ने पलक की आदत खराब कर रखी है, हैल्थी फूड उसे पसंद ही नही हैं।”

जानकीजी कुछ न बोलीं बस पलक को दुलारती रहीं। 2 दिनों के अंदर ही पलक स्वस्थ हो कर चिड़िया की तरह
चहकने लगी.

एक हफ्ते बाद जब जानकीजी अपना सामान बांधने लगीं तो पलक भी अपना बैग पैक करने लगी.

जानकीजी बोलीं,”पलक, तुम कहां जा रही हो?”

पलक बोली,”नानी, मैं आप के बिना नहीं रह सकती हूं, मुझे यहां नहीं पढ़ना।”

रीना चिल्लाने लगी,”मम्मी इसलिए मैं नहीं चाहती थी आप यहां आओ…

“आप ने उसे बिगाड़ दिया है, बिलकुल भी प्रतिस्पर्धा नही है पलक में, बिलकुल छुईमुई खिलौना बना कर छोड़ दिया है। मेरी बेटी इस दुनिया में कभी कुछ कर भी पाएगी या नहीं…”

जानकीजी इस से पहले कुछ बोलतीं कि तभी पराग बोल उठा,”खिलौना पलक को मम्मीजी ने बनाया है या तुम ने?”

“जब तुम्हारा मन था तुम पलक को बिजनौर छोड़ देती हो और जब मन करता है तब तुम सब की अनदेखी कर के पलक को दिल्ली ले कर आ जाती हो, बिना यह जाने कि इस में पलक की मरजी है या नहीं…”

रीना ने हलका सा विरोध किया और बोली,”मां हूं मैं उस की…”

पराग बोला,”हां तुम उस की मां हो और वह तुम्हारी बेटी है मगर कोई चाबी वाला खिलौना नहीं।”

रीना पराग पर कटाक्ष करते हुए बोली,”लगता है तुम बेटी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो, इसलिये यह सब बोल रहे हो।”

पराग रीना की बात सुन कर तिलमिला उठा क्योंकि उस में लेशमात्र भी सचाई नहीं थी।

इस से पहले पराग कुछ
कहता, पलक ने धीरे से कहा,”मम्मी, मेरी खुशी मेरे अपने घर मे है, जो बिजनौर में है. यह भागदौड़, यह कंपीटिशन मेरे लिए नहीं हैं।”

इस से पहले कि रीना कुछ बोलती, जानकीजी बोलीं,”रीना, जो जहां का पौधा है वह वहीं पर पनपता है।”

रीना ने आगे कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे में चली गई. जाने से पहले पराग ने पलक को गले लगाते हुए कहा,”पलक जब भी तुम्हारा मन करे बिना एक पल सोचे चली आना और बेटा तुम्हारे 2 घर हैं एक बिजनौर में और दूसरा दिल्ली में।

“बेटा, कामयाबी कभी भी किसी जगह की मुहताज नहीं होती.”

पलक और जानकीजी को जाते हुए देख कर पराग सोच रहा था कि शायद खिलौने की चाबी अब खिलौने के पास ही है.

अब पराग अपनी बेटी की भविष्य को ले कर निश्चिंत हो गया था.

एक रात की उजास : क्या उस रात बदल गई उन की जिंदगी

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

दूरी: समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

फरीदाबाद बसअड्डे पर बस खाली हो रही थी. जब वह बस में बैठी थी तो नहीं सोचा था कहां जाना है. बाहर अंधेरा घिर चुका था. जब तक उजाला था, कोई चिंता न थी. दोपहर से सड़कें नापती, बसों में इधरउधर घूमती रही. दिल्ली छोड़ना चाहती थी. जाना कहां है, सोचा न था. चार्ल्स डिकेन्स के डेविड कौपरफील्ड की मानिंद बस चल पड़ी थी. भूल गई थी कि वह तो सिर्फ एक कहानी थी, और उस में कुछ सचाई हो भी तो उस समय का समाज और परिस्थितियां एकदम अलग थीं.

वह सुबह स्कूल के लिए सामान्यरूप से निकली थी. पूरा दिन स्कूल में उपस्थित भी रही. अनमनी थी, उदास थी पर यों निकल जाने का कोई इरादा न था. छुट्टी के समय न जाने क्या सूझा. बस्ता पेड़ पर टांग कर गई तो थी कैंटीन से एक चिप्स का पैकेट लेने, लेकिन कैंटीन के पास वाले छोटे गेट को खुला देख कर बाहर निकल आई. खाली हाथ स्कूल के पीछे के पहाड़ी रास्ते पर आ गई. कहां जा रही है, कुछ पता न था. कुछ सोचा भी नहीं था. बारबार, बस, मां के बोल मस्तिष्क में घूम रहे थे. अंधेरा घिरने पर जी घबराने लगा था. अब कदम वापस मोड़ भी नहीं सकती थी. मां का रौद्र रूप बारबार सामने आ जाता था. उस गुस्से से बचने के लिए ही वह निकली थी. निकली भी क्या, बस यों लगा था जैसे कुछ देर के लिए सबकुछ से बहुत दूर हो जाना चाहती है, कोई बोल न पड़े कान में…

पर अब कहां जाए? उसे किसी सराय का पता न था. जो पैसे थे, उन से उस ने बस की टिकट ली थी. अंधेरे में बस से उतरने की हिम्मत न हुई. चुपचाप बैठी रही. कुछ ऐसे नीचे सरक गई कि आगे, पीछे से खड़े हो कर देखने पर किसी को दिखाई न दे. सोचा था ड्राइवर बस खड़ी कर के चला जाएगा और वह रातभर बस में सुरक्षित रह सकेगी.

बाहर हवा में खुनक थी. अंदर पेट में कुलबुलाहट थी. प्यास से होंठ सूख रहे थे. पर वह चुपचाप बैठी रही. नानीमामी बहुत याद आ रही थीं. घर से कोई भी कहीं जाता, पूड़ीसब्जी बांध कर पानी के साथ देती थीं. पर वह कहां किसी से कह कर आई थी. न घर से आई थी, न कहीं जाने को आई थी. बस, चली आई थी. किसी के बस में चढ़ने की आहट आई. उस ने अपनी आंखें कस कर भींच लीं. पदचाप बहुत करीब आ गई और फिर रुक गई. उस की सांस भी लगभग रुक गई. न आंखें खोलते बन रहा था, न बंद रखी जा रही थीं. जीवविज्ञान में जहां हृदय का स्थान बताया था वहां बहुत भारी लग रहा था. गले में कुछ आ कर फंस गया था. वह एक पल था जैसे एक सदी. अनंत सा लगा था.

‘‘कौन हो तुम? आंख खोलो,’’ कंडक्टर सामने खड़ा था, ‘‘मैं तो यों ही देखने चढ़ गया था कि किसी का सामान वगैरा तो नहीं छूट गया. तुम उतरी क्यों नहीं? जानती नहीं, यह बस आगे नहीं जाएगी.’’ उस के चेहरे का असमंजस, भय वह एक ही पल में पढ़ गया था, ‘‘कहां जाओगी?’’

उस समय, उस के मुंह से अटकते हुए निकला, ‘‘जी…जी, मैं सुबह दूसरी बस से चली जाऊंगी, मुझे रात में यहीं बैठे रहने दीजिए.’’

‘‘जाना कहां है?’’

…यह तो उसे भी नहीं पता था कि जाना कहां है.

कुछ जवाब न पा कर कंडक्टर फिर बोला, ‘‘घर कहां है?’’

यह वह बताना नहीं चाहती थी, डर था वह घर फोन करेगा और उस के आगे की तो कल्पना से ही वह घबरा गई. बस, इतना ही बोली, ‘‘मैं सुबह चली जाऊंगी.’’

‘‘तुम यहां बस में नहीं रह सकती, मुझे बस बंद कर के घर जाना है.’’

‘‘मुझे अंदर ही बंद कर दें, प्लीज.’’

‘‘अजीब लड़की हो, मैं रातभर यहां खड़ा नहीं रह सकता,’’ वह झल्ला उठा था, ‘‘मेरे साथ चलो.’’

कोई दूसरा रास्ता न था उस के पास. इसलिए न कोई प्रश्न, न डर, पीछेपीछे चल पड़ी.

बसअड्डे तक पहुंचे तो कंडक्टर ने इशारा कर एक रिकशा रुकवाया और बोला, ‘‘बैठो.’’ रिकशा तेज चलने से ठंडी हवा लगने लगी थी. कुछ हवा, कुछ अंधेरा, वह कांप गई.

उस की सिहरन को सहयात्री ने महसूस करते हुए भी अनदेखा किया और फिर एक प्रश्न उस की ओर उछाल दिया, ‘‘घर क्यों छोड़ कर आई हो?’’

‘‘मैं वहां रहना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कोई मुझे प्यार नहीं करता, मैं वहां अनचाही हूं, अवांछित हूं.’’

‘‘सुबह कहां जाओगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कहां रहोगी?’’

‘‘पता नहीं.’’

‘‘कोई तो होगा जो तुम्हें खोजेगा.’’

‘‘वे सब खोजेंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘परेशान होंगे, और मैं यही चाहती हूं क्योंकि वे मुझे प्यार नहीं करते.’’

‘‘तुम सब से ज्यादा किसे प्यार करती हो?’’

‘‘अपनी नानी से, मैं 3 महीने की थी जब मेरी मां ने मुझे उन के पास छोड़ दिया.’’

‘‘वे कहां रहती हैं?’’

‘‘मथुरा में.’’

‘‘तो मथुरा ही चली जाओ?’’

‘‘मेरे पास टिकट के पैसे नहीं हैं.’’ अब वह लगभग रोंआसी हो उठी थी.

वह ‘हूंह’ कह कर चुप हो गया था.

हवा को चीरता मोड़ों पर घंटी टुनटुनाता रिकशा आगे बढ़ता रहा और जब एक संकरी गली में मुड़ा तो वह कसमसा गई थी. आंखें फाड़ कर देखना चाहा था घर. घुप्प अंधेरी रात में लंबी पतली गली के सिवा कुछ न दिखा था. कुछ फिल्मों के खौफनाक दृश्यों के नजारे उभर आए थे. देखी तो उस ने ‘उमराव जान’ भी थी. आवाज से उस की तंद्रा टूटी.

‘‘बस भइया, इधर ही रोकना,’’ उस ने कहा तो रिकशा रुक गया और उन के उतरते ही अपने पैसे ले कर रिकशेवाला अंधेरे को चीरता सा उसी में समा गया था. वह वहां से भाग जाना चाहती थी. कंडक्टर ने उस का हाथ पकड़ एक दरवाजे पर दस्तक दी थी. सांकल खटखटाने की आवाज सारी गली में गूंज गई थी.

भीतर से हलकी आवाज आई थी, ‘‘कौन?’’

‘‘दरवाजा खोलो, पूनम,’’ और दरवाजा खोलते ही अंदर का प्रकाश क्षीण हो सड़क पर फैल गया. उस पर नजर पड़ते ही दरवाजा खोलने वाली युवती अचकचा गई थी. एक ओर हट कर उन्हें अंदर तो आने दिया पर उस का सारा वजूद उसे बाहर धकेलरहा था. दरवाजा एक छोटे से कमरे में खुला था, ठीक सामने एक कार्निस पर 2 फूलदान सजे थे, बीच में कुछ मोहक तसवीरें. एक कोने में एक छोटा सा रैक था जिस पर कुछ डब्बे थे, कुछ कनस्तर, एक स्टोव और कुछ बरतन, सब करीने से लगे थे. एक ओर छोटा पलंग जिस पर साफ धुली चादर बिछी थी और 2 तकिए थे. चादर पर कोई सिलवट तक न थी.

कुल मिला कर कम आय में सुचारु रूप से चल रही सुघड़ गृहस्थी का आदर्श चित्र था. वह भी ऐसा ही चित्र बनाना चाहती थी. बस, अभी तक उस चित्र में वह अकेली थी. अकेली, हां यही तो वह कह रहा था. ‘‘पूनम, यह लड़की बसअड्डे पर अकेली थी. मैं साथ ले आया. सुबह बस पर बिठा दूंगा, अपनी नानी के घर मथुरा चली जाएगी.’ युवती की आंखों में शिकायत थी, गरदन की अकड़ नाराजगी दिखा रही थी. वह भी समझ रहा था और शायद स्थिति को सहज करने की गरज से बोला, ‘‘अरे, आज दोपहर से कुछ नहीं खाया, कुछ मिलेगा क्या?’’

युवती चुपचाप 2 थालियां परोस लाई और पलंग के आगे स्टूल पर रखते हुए बोली, ‘‘हाथमुंह धो कर खा लो, ज्यादा कुछ नहीं है. बस, तुम्हारे लिए ही रखा था.’’ दोपहर से तो उस ने भी कुछ नहीं खाया था किंतु इस अवांछिता से उस की भूख बिलकुल मर गई थी. घर का खाना याद हो आया, सब तो खापी कर सो गए होंगे, शायद. क्या कोई उस के लिए परेशान भी हो रहा होगा? जैसेतैसे एक रोटी निगल कर उस ने कमरे के कोने में बनी मोरी पर हाथ धो लिए और सिमट कर कमरे में पड़ी इकलौती प्लास्टिक की कुरसी पर बैठ गई.

पूनम नाम की उस युवती ने पलंग पर पड़ी चादर को झाड़ा और चादर के साथ शायद नाराजगी को भी. फिर जरा कोमल स्वर में बोली, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा, घर क्यों छोड़ आई?’’ ‘‘जी’’ कह कर वह अचकचा गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, कोई बात नहीं. सो जाओ, बहुत थकी होगी.’’ शायद वह उस की आंखों के भाव समझ गई थी. एक ही पलंग दुविधा उत्पन्न कर रहा था. तय हुआ महिलाएं पलंग पर सोएंगी और वह आदमी नीचे दरी बिछा कर. वे दोनों दिनभर के कामों से थके, लेटते ही सो गए थे. हलके खर्राटों की आवाजें कमरे में गूंजने लगीं. उस की आंख में तो नींद थी ही नहीं, प्रश्न ही प्रश्न थे. ऐसे प्रश्न जिन का वह उत्तर खोजती रही थी सदा.

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

बस चल पड़ी थी, वह दूर तक हाथ हिलाती रही. मन में एक कसक लिए, क्या वह फिर कभी इन परोपकारियों से मिल पाएगी? नाम, पता, कुछ भी तो न मालूम था. और न ही उन दोनों ने उस का नामपता जोर दे कर पूछा था. शायद जोर देने पर वह बता भी देती. बस, राह के दोकदम के साथी उस की यात्रा को सुरक्षित कर ओझल हो रहे थे.

बस खड़खड़ाती मंथर गति से चलती रही. वह 2 सीट वाली तरफ बैठी थी और उस के साथ एक वृद्धा बैठी थी. वह वृद्धा बस में बैठते ही ऊंघने लगी थी, बीचबीच में उस की गरदन एक ओर लुढ़क जाती. वह अधखुली आंखों से बस का जायजा ले, फिर ऊंघने लगती. और वह यह राहत पा कर सुकून से बैठी थी कि सहयात्री उस से कोई प्रश्न नहीं कर रहा. स्कूल के कपड़ों में उस का वहां होना ही किसी की उत्सुकता का कारण हो सकता था.

वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी. किनारे के पेड़ों की कतारें, उन के परे फैले खेत और खेतों के परे के पेड़ों को लगातार देखने पर आभास होता था जैसे कि उस पार और इस पार के पेड़ों का एक बड़ा घेरा हो जो बारबार घूम कर आगे आ रहा हो. उसे सदा से यह घेरा बहुत आकर्षक लगता था. मानो वही पेड़ फिर घूम कर सड़क किनारे आ जाते हैं.

खेतों के इस पार और उस पार पेड़ों की कतारें चलती बस से यों लगतीं मानो धरती पर वृक्षों का एक घेरा हो जो गोल घूमता जा रहा हो. उसे यह घेरा देखते रहना बहुत अच्छा लगता था. वह जब भी बस में बैठती, बस, शहर निकल जाने का बेसब्री से इंतजार करती ताकि उन गोल घूमते पेड़ों में खो सके. पेड़ों और खयालों में उलझे, अपने ही झंझावातों से थके मस्तिष्क को बस की मंथर गति ने जाने कब नींद की गोद में सरका दिया.

आंख खुली तो बस मथुरा पहुंच चुकी थी. बिना किसी घबराहट के उस ने अपनेआप को समेट कर बस से नीचे उतारा. एक पुलकभर आई थी मन में कि नानीमामी उसे अचानक आया देख क्या कहेंगी, नाराज होंगी या गले से लगा लेंगी, वह सोच ही न पा रही थी. रिकशेवाले को देने के पैसे नहीं थे उस के पास, पर नाना का नाम ही काफी था.

इस शहर में कदम रखने भर से एक यकीन था शंकर विहार, पानी की टंकी के नजदीक, नानी के पास पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा. नानीनाना ने बहुत लाड़ से पाला थाउसे. बचपन में इस शहर की गलियों में खूब रोब से घूमा करती थी वह. नानाजी कद्दावर, जानापहचाना व बहुत इज्जतदार नाम थे. शहरभर में नाम था उन का. तभी आज बरसों बाद भी उन का नाम लेते ही रिकशेवाले ने बड़े अदब से उसे उस के गंतव्य पर पहुंचा दिया था.

रिकशेवाले से बाद में पैसे ले जाने को कह कर वह गली के मोड़ पर ही उतर गई थी और चुपचाप चलती हमेशा की भांति खुले दरवाजे से अंदर आंगन में दाखिल हो गई थी. शाम के 4 बज रहे थे शायद, मामी आंगन में बंधी रस्सी पर से सूखे कपड़े उतार रही थीं. उसे देखते ही कपड़े वहीं पर छोड़ कर उस की ओर बढ़ीं और उसे अपनी बांहों में कस कर भींच लिया और रोतेरोते हिचकियों के बीच बोलीं, ‘‘शुक्र है, तू सहीसलामत है.’’ वे क्यों रो रही हैं, उस की समझ में न आया था.

वह बरामदे की ओर बढ़ी तो मामी उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले जाते हुए बोलीं, ‘‘जरा ठहर, वहां कुछ लोग बैठे हैं.’’ नानी को इशारे से बुलाया. उन्होंने भी उसे देखते ही गले लगा लिया, ‘‘तू ठीक तो है? रात कहां रही? स्कूल के कपड़ों में यों क्यों चली आई?’’ न जाने वो कितने सवाल पूछ रही थीं.

उसे बस सुनाई दे रहा था, समझ नहीं आ रहा था. शायद एकएक कर के पूछतीं तो वह कुछ कह भी पाती. आखिरकार मामा ने सब को शांत किया और उस से कपड़े बदलने को कहा. वह नहाधो कर ताजा महसूस कर रही थी. लेकिन एक अजीब सी घबराहट ने उसे घेर लिया था. घर में कुछ बदलाबदला था. कुछ था जो उसे संशय के घेरे में रखे था.

आज वह यहां एक अजनबी सा महसूस कर रही थी, मानो यह उस का घर नहीं था. ऐसा माहौल होगा, उस ने सोचा नहीं था. सब के सब कुछ घबरा भी रहे थे. वह नानी के कमरे में चली गई. पीछेपीछे मामी चाय और नाश्ता ले कर आ गईं. तीनों ने वहीं चाय पी. मामी और नानी शायद उस के कुछ कहने का इंतजार कर रहे थे और वह उन के कुछ पूछने का. कहा किसी ने कुछ भी नहीं.

मामी बरतन वापस रखने गईं तो वह नानी की गोद में सिर टिका कर लेट गई. सुकून और सुरक्षा के अनुभव से न जाने कब वह सो गई. आंख खुली तो बहुत सी आवाजें आ रही थीं. और उन के बीच से मां की आवाज, रुलाईभरी आवाज सुनाई दे रही थी. वह हड़बड़ा कर उठ बैठी, लगता था उस की सारी शक्ति किसी ने खींच ली हो. काश, वह यहां न आ कर किसी कब्रिस्तान में चली गई होती.

मां और मामा उस के व्यवहार और चले आने के कारणों का विश्लेषण कर रहे थे. उसे उठा देख मां जोरजोर से रोने लगी थी और उसे उठा कर भींच लिया था. तेल के लैंप की रोशनी के रहस्यमय वातावरण में सब उसे समझाने लगे थे, वापस जाने की मनुहार करने लगे थे. वह चीख कर कहना चाहती थी कि वापस नहीं जाएगी लेकिन उस के गले से आवाज नहीं निकल रही थी.

कस कर आंखें मींचे वह मन ही मन से मना रही थी कि काश, यह सपना हो. काश, तेल का लैंप बुझ जाए और वे सब घुप अंधेरे में विलीन हो जाएं. उस की आंख खुले तो कोई न हो. लेकिन वह जड़ हो गई थी और सब उसे समझा रहे थे. हां, सब उसे ही समझा रहे थे. वह तो वैसे भी अपनी बात समझा ही नहीं पाती थी किसी को. सब ने उस से कहा, उसे समझाया कि मां उस से बहुत प्यार करती है.

सब कहते रहे तो उस ने मान ही लिया. उस के पास विकल्प भी तो न था. वह मातापिता के साथ लौट आई. अब मां शब्दों में ज्यादा कुछ न कहती. बस, एक बार ही कहा था, हम तो डर गए हैं तुम से, तुम ने हमारा नाम खराब किया, सब कोई जान गए हैं. वह घर में कैद हो गई. कम से कम स्कूल में कोई नहीं जानता. प्रिंसिपल जानती थी, उसे एक दिन अपने कमरे में बुलाया था.

अपने को दोस्त समझने को कहा था. वह न समझ सकी. दिन गुजरते रहे. बरस बीतते रहे. जिंदगी चलती रही. पढ़ाई पूरी हुई. नौकरी लगी. विवाह हुआ. पदोन्नति हुई. और आज जब उस के दफ्तर में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने छुट्टी मांगते हुए बताया कि वह अपनी एक वर्ष की बिटिया को नानी के घर में छोड़ना चाहती है तो ये बरसों पुरानी बातें उस के मस्तिष्क को यों झिंझोड़ गईं जैसे कल की ही बातें हों.

आज एक बड़े ओहदे पर हो कर, बेहद संजीदा और संतुलित व्यवहार की छवि रखने वाली, वह अपना नियंत्रण खोती हुई उस पर बरस पड़ी थी, ‘‘तुम ऐसा नहीं कर सकती, सुवर्णा. यदि तुम्हारे पास बच्चे की देखभाल का समय नहीं था तो तुम्हें एक नन्हीं सी जान को इस दुनिया में लाने का अधिकार भी नहीं था. और जब तुम ने उसे जन्म दिया है तो तुम अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकती.

‘‘नानी, मामी, दादी, बूआ सब प्यार कर सकती हैं, बेइंतहा प्यार कर सकती हैं पर वे मां नहीं हो सकतीं. आज तुम उसे छोड़ कर आओगी, वह शायद न समझ पाए. वह धीरेधीरे अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लेगी. खुश भी रहेगी और सुखी भी. तुम भी आराम से रह सकोगी. लेकिन तुम दोनों के बीच जो दूरी होगी उस का न आज तुम अंदाजा लगा सकती हो और न कभी उसे कम कर सकोगी. ‘‘जिंदगी बहुत जटिल है, सुवर्णा, वह तुम्हें और तुम्हारी बच्ची को अपने पेंचों में बेइंतहा उलझा देगी. उसे अपने से अलग न करो.’’ वह बिना रुके बोलती जा रही थी और सुवर्णा हतप्रभ उसे देखती रह गई.+

काली स्याही : सुजाता के गुमान को कैसे किया बेटी ने चकनाचूर

क्लब में ताश खेलने में व्यस्त थी सु यानी सुजाता और उधर उस का मोबाइल लगातार बज रहा था.

‘‘सु, कितनी देर से तुम्हारा मोबाइल बज रहा है. हम डिस्टर्ब हो रहे हैं,’’ रे यानी रेवती ताश में नजरें गड़ाए ही बोली.

‘‘मैं इस नौनसैंस मोबाइल से तंग आ चुकी हूं,’’ सु गुस्से से बोली, ‘‘मैं जब भी बिजी होती हूं, यह तभी बजता है,’’ और फिर अपना मुलायम स्नैक लैदर वाला गुलाबी पर्स खोला, जो तरहतरह के सामान से भरा गोदाम बना था, उस में अपना मोबाइल ढूंढ़ने लगी.

थोड़ी मशक्कत के बाद उसे अपना मोबाइल मिल गया.

‘‘हैलो, कौन बोल रहा है,’’ सु ने मोबाइल पर बात करते हुए सिगरेट सुलगा ली.

‘‘जी, मैं आप की बेटी सोनाक्षी की क्लासटीचर बोल रही हूं. आजकल वह स्कूल बहुत बंक मार रही है.’’

‘‘व्हाट नौनसैंस, मेरी सो यानी सोनाक्षी ऐसी नहीं है,’’ सु अपनी सिगरेट की राख ऐशटे्र में डालते हुए बोली, ‘‘देखिए, आप तो जानती ही हैं कि आजकल बच्चों पर कितना बर्डन रहता है… वह तो स्कूल खत्म होने के बाद सीधे कोचिंग क्लास में चली जाती है… अगर कभी बच्चे स्कूल से बंक कर के थोड़ीबहुत मौजमस्ती कर लें, तो उस में क्या बुराई है?’’ और फिर सु ने फोन काट दिया और ताश खेलने में व्यस्त हो गई.

वह जब रात को घर पहुंची तब तक सो घर नहीं आई थी.

‘‘मारिया, सो कहां है?’’ सु सोफे पर ढहती हुई बोली.

‘‘मैम, बेबी तो अब तक नहीं आया है,’’ मारिया नीबूपानी से भरा गिलास सु को थमाते हुए बोली, ‘‘बेबी, बोला था कि रात को 8 बजे तक आ जाएगा, पर अब तो 10 बज रहे हैं.’’

‘‘आ जाएगी, तुम चिंता मत करो,’’ सु अपने केशों को संवारती हुई बोली, ‘‘विवेक तो बाहर से ही खा कर आएंगे और शायद सो भी. इसलिए तुम मेरे लिए कुछ लो फैट बना दो.’’

‘‘मैम, हम कुछ कहना चाहते थे, आप को. बेबी का व्यवहार और उन के फ्रैंड्स…’’

‘‘व्हाट, तुम जिस थाली में खाती हो, उसी में छेद करती हो. चली जाओ यहां से. अपने काम से काम रखा करो,’’ सु गुस्से में बोली.

‘सभी लोग मेरी फूल सी बच्ची के दुश्मन बन गए हैं. पता नहीं मेरी सो सभी की आंखों में क्यों खटकने लगी है, यह सोचते हुए उस ने कपड़े बदले. झीनी गुलाबी नाइटी में वह पलंग पर लेट गई.

‘‘क्या हुआ जान? बहुत थकी लग रही हो,’’ विवेक शराब का भरा गिलास लिए उस के पास बैठते हुए बोला.

‘‘हां, आज ताश खेलते हुए कुछ ज्यादा पी ली थी और फिर पता नहीं, रे ने किस नए ब्रैंड की सिगरेट थमा दी थी. कमबख्त ने मजा तो बहुत दिया पर शायद थोड़ी ज्यादा स्ट्रौंग थी,’’ सु करवट लेते हुए बोली, ‘‘पर तुम इस समय क्यों पी रहे हो?’’

‘‘अरे भई, माइंड रिलैक्स करने के लिए शराब से अच्छा कोई विकल्प नहीं और फिर सामने शबाब तैयार हो तो शराब की क्या बिसात?’’ कहते हुए विवेक ने अपना गिलास सु के होंठों से लगा दिया.

‘‘यू नौटी,’’ सु ने विवेक को गहरा किस किया और फिर कंधे से लगी शराब पीने लगी.

‘‘सोनाक्षी कहां है?’’ विवेक सु के केशों में उंगलियां फिराते हुए बोला.

‘‘होगी अपने दोस्तों के साथ. अब बच्चे इतने प्रैशर में रहते हैं तो थोड़ीबहुत मौजमस्ती तो जायज है,’’ और सु ने अपनी बांहें विवेक के गले में डाल दीं. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे में समाने लगे.

तभी सु का मोबाइल बज उठा, ‘‘व्हाट नौनसैंस, मैं जब भी अपनी जिंदगी के मजे लूटना शुरू करती हूं, यह तभी बज उठता है,’’

सु विवेक को अपने से अलग कर मोबाइल उठाते हुए बोली. फोन पर सो की सहेली प्रज्ञा का नाम हाईलाइट हो रहा था.

पहले तो सु का मन किया कि वह अपना मोबाइल ही बंद कर दे और फिर से अपनी कामक्रीडा में लिप्त हो जाए, पर फिर उस का मन नहीं माना और अपना फोन औन कर दिया.

‘‘आंटी, सो ठीक नहीं है. वह मेरे सामने बेहोश पड़ी है,’’ प्रज्ञा रोते हुए बोली.

‘‘तुम मुझे जगह बताओ, मैं अभी वहां पहुंचती हूं,’’ कह कर सु ने तुरंत अपने कपड़े बदले और गाड़ी ले कर वहां चल दी.

वैसे वह विवेक को भी अपने साथ ले जाना चाहती थी, लेकिन वह सो चुका था. उसे ज्यादा चढ़ गई थी.

जब सु प्रज्ञा के बताए पते पर पहुंची तो हैरान रह गई. सारा हौल शराब की बदबू और सिगरेट के धुएं से भरा था. सो सामने बैठी नीबूपानी पी रही थी.

‘‘क्या हुआ तुम्हें?’’ सु के स्वर में चिंता थी.

‘‘ममा, अब तो ठीक हूं, बस आज कुछ ज्यादा हो गई थी,’’ सो अपना सिर हिलाते हुए बोली.

‘‘तुम ने ड्रिंक ली है?’’ सु ने चौंककर पूछा.

‘‘तो क्या हुआ ममा?’’

‘‘तुम ऐसा कैसे कर सकती हो?’’ सु परेशान हो उठी.

‘‘मैं तो पिछले 6 महीनों से ड्रिंक कर रही हूं, इस में क्या बुरा है?’’ सो लापरवाही से एक अश्लील गाना गुनगुनाते हुए बोली.

‘‘पर तुम तो कोचिंग क्लास जाने की बात कहती थीं और कहती थीं कि माइंड रिलैक्स करने के लिए तुम थोड़ाबहुत हंसीमजाक और डांस वगैरह कर लेती हो, पर यह शराब…’’

‘‘व्हाट नौनसैंस, अगर आप से कहती कि मैं शराब पीती हूं तो क्या आप इजाजत दे देतीं?’’

सु ने तब एक जोरदार थप्पड़ सो के गाल पर दे मारा.

‘‘ममा, मुझे टोकने से पहले खुद को कंट्रोल कीजिए. आप तो खुद रोज ढेरों गिलास गटक जाती हैं. अगर मैं ने थोड़ी सी पी ली तो क्या बुरा किया?’’ सो सिगरेट सुलगाती हुई बोली, ‘‘माइंड रिलैक्स करने के लिए बहुत बढि़या चीज है यह.’’

सो को सिगरेट पीते देख सु को इतना गुस्सा आया कि उस का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा और तब गुस्से के अतिरेक में उठा उस का हाथ सो ने हवा में ही लपक लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘ममा, मुझे सुधारने से पहले खुद को सुधारो. खुद तो क्लब की शान बनी बैठी हो और मुझ से किताबी कीड़ा बनने की उम्मीद रखती हो. ममा, मांबाप तो बच्चों के लिए सब से बड़े आदर्श होते हैं और फिर मैं तो आप के द्वारा अपनाए गए रास्ते पर चल कर आप का ही नाम रोशन कर रही हूं,’’ कह कर सिगरेट की राख ऐशट्रे में डाली और अपने दोस्तों के साथ विदेशी गाने की धुन पर थिरकने लगी.

तभी बाहर से हवा का एक तेज झोंका आया और उस से ऐशट्रे में पड़ी राख उड़ कर सु के मुंह पर आ गिरी. तब सु का सारा मुंह ऐसा काला हुआ मानो किसी ने अचानक आधुनिकता की काली स्याही उस के मुख पर पोत दी हो.

दुनिया : जब पड़ोसिन ने असमा की दुखती रग पर रखा हाथ

लेखिका- गुलनाज

यह फ्लैट सिस्टम भी खूब होता है. कंपाउंड में सब्जी वाला आवाजें लगाता तो मैं पैसे डाल कर तीसरी मंजिल से टोकरी नीचे उतार देती, लेकिन मेरे लाख चीखनेचिल्लाने पर भी सब्जी वाला 2-4 टेढ़ीमेढ़ी दाग लगी सब्जियां व टमाटर चढ़ा ही देता. एक दिन मामूली सी गलती पर पोस्टमैन 1,800 रुपए का मनीऔर्डर ले कर मेरे सिर पर सवार हो गया और आज हौकर हमारा अखबार फ्लैट नंबर 111 में डाल गया.

मिसेज अनवर वही अखबार लौटाने आई थीं. मैं ने शुक्रिया कह कर उन से अखबार लिया और फौर्मैलिटी के तौर पर उन्हें अंदर आने के लिए कहा तो वे झट से अंदर आ गईं और फैल कर बैठ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं उन के लिए कौफी लेने किचन की तरफ बढ़ी तो वे भी मेरे पीछे ही चली आईं और लाउंज में मौजूद चेयर संभाल ली. मैं ने वहीं उन्हें कौफी का कप थमाया और लंच की तैयारी में जुट गई.

वे बोलीं, ‘‘कुछ देर पहले मैं ने तुम्हारे फ्लैट से एक साहब को निकलते देखा था. उन्हें लाख आवाजें दी मगर उन्होंने सुनी नहीं, इसलिए मुझे खुद ही आना पड़ा.’’

‘‘चलिए अच्छी बात है, इसी बहाने आप से मुलाकात तो हो गई,’’ कह कर मैं मुसकरा दी. फिर गोश्त कुकर में चढ़ाया, फ्रिज से

सब्जी निकाली और उन के सामने बैठ कर छीलने लगी.

‘‘सच कहती हूं, जब से तुम आई हो तब से ही तुम से मिलने को दिल करता था, मगर इस जोड़ों के दर्द ने कहीं आनेजाने के काबिल कहां छोड़ा है.’’

मैं खामोशी से लौकी के बीज निकालती रही. तब उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारे शौहर तो मुल्क से बाहर हैं न?’’

‘‘जी…?’’ मैं ने चौंक कर उन्हें देखा, ‘‘जिन साहब को आप ने सुबह देखा, वही तो…’’

‘‘हैं… वे तुम्हारे शौहर हैं?’’

मिसेज अनवर जैसे करंट खा कर उछलीं और मैं ने ऐसे सिर झुका लिया जैसे आफताब सय्यद मेरे शौहर नहीं, मेरा जुर्म हों. वैसे इस किस्म के जुमले मेरे लिए नए नहीं थे मगर हर बार जैसे मुझे जमीन में धंसा देते थे. मैं ने लाख बार उन्हें टोका है कि कम से कम बाल ही डाई कर लिया करें, मगर बनावट उन्हें पसंद ही नहीं है.

मिसेज अनवर ने यों तकलीफ भरी सांस ली जैसे मेरी सगी हों. फिर बोलीं, ‘‘कितनी प्यारी दिखती हो तुम, क्या तुम्हारे घर वालों को तुम्हें जहन्नुम में धकेलते वक्त जरा भी खयाल नहीं आया?’’

फिर वे लगातार व्यंग्य भरे वाक्य मुझ पर बरसाती रहीं और कौफी पीती रहीं. मेरी अम्मी को सारी जिंदगी ऐसे ही लोगों की जलीकटी बातें सताती रहीं. अब्बा बैंकर थे और बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गए थे. अम्मी पढ़ीलिखी थीं, इसलिए अब्बा की बैंकरी उन के हिस्से में आ गई. अम्मी की आधी जिंदगी 2-2 पैसे जमा करते गुजरी. उन्होंने अपने लहू से अपने पौधों की परवरिश की, मगर जब फल खाने का वक्त आया तो…

बड़ी आपा शक्ल की प्यारी मगर, मिजाज की ऊंची निकलीं. उन के लिए रिश्ते तो आते रहे मगर उन की उड़ान बहुत ऊंची थी. मास्टर डिगरी लेने के बाद उन्हें लैक्चररशिप मिल गई तो उन की गरदन में कुछ ज्यादा ही अकड़ आ गई और अम्मी के खाते में बेटी की कमाई खाने का इलजाम आ पड़ा.

‘‘बेटी की शादी कब कर रही हैं आप? अब कर ही डालिए. इतनी देर भी सही नहीं.’’ लोग ऐसे कहते जैसे अम्मी के कान और आंखें तो बंद हैं. वे मशवरे के इंतजार में बैठी हैं. अम्मी बेटी की बात मुंह पर कैसे लातीं. किसकिस को बड़ी आपा के मिजाज के बारे में बतातीं.

अम्मी पाईपाई पर जान देती थीं और सारा जमाजोड़ बेटियों के लिए बैंक में रखवा देती थीं. आपा हर रिश्ते पर नाक चढ़ा कर कह देतीं, ‘‘असमा या हुमा की कर दीजिए न, आखिर उन्हें भी तो आप को ब्याहना ही है.’’

और इस से पहले कि असमा या हुमा के लिए कुछ होता बड़े भैया उछलने लगे. मेरी शादी होगी तो जारा सरदरी से ही. अम्मी भौचक्की रह गईं. अभी तो पेड़ का पहला फल भी न खाया था. अभी दिन ही कितने हुए थे बड़े भाई को नौकरी करते हुए. जारा सरदारी भैया की कुलीग थी. अम्मी ने ताड़ लिया कि बेटा बगावत के लिए आमादा है. ऐसे में हथियार डाल देने के अलावा कोई चारा न था. फिर वही हुआ जो भाई ने चाहा था.

जारा सरदरी को अपनी कमाई पर बड़ा घमंड और शौहर पर पूरा कंट्रोल था. ससुराल वालों से उस का कोई मतलब न था. बहुत जल्दी उस ने अपने लिए अलग घर बनवा लिया.

अम्मी को बड़ी आपा की तरफ से बड़ी मायूसी हो रही थी लेकिन हुमा के लिए एक ऐसा रिश्ता आ गया, जो अम्मी को भला लगा. आखिरकार बड़ी आपा के नाम की सारी जमापूंजी खर्च कर उसे ब्याह दिया. हुमा का भरापूरा ससुराल था. ससुराल के लोगों के मिजाज अनूठे थे. इस पर शौहर निखट्टू.

उस की सारी उम्मीदें ससुराल वालों से थीं कि वे उसे घरजमाई रख लें, कारोबार करवा दें या घर दिलवा दें. यह कलई बाद में खुली. झूठ पर झूठ बोल कर अम्मी को दोनों हाथों से लूटा गया. मगर ससुराल वालों की हवस पूरी न हुई.

हुमा बहुत जल्दी घर लौट आई. उस का सारा दहेज ननदों के काम आया. फिर बहुत मुश्किल से तलाक मिलने पर उसे छुटकारा मिला. लेकिन इस पर खानदान के कई लोगों ने अम्मी को यों लताड़ा जैसे अम्मी को पहले से सब कुछ पता था.

हुमा का उजड़ना उन्हें मरीज बना गया. वे आहिस्ताआहिस्ता घुल रही थीं. एक रोज वे बिस्तर से जा लगीं, मगर सांसें जैसे हम दोनों बहनों में अटकी थीं.

कभी-कभी बड़े भैया बीवीबच्चे समेत घर आते तो अम्मी की परेशानियां जबान पर आ जातीं. लेकिन वे हर बात उड़ा जाते. ‘‘अम्मी, हो जाएगा सब कुछ. आप फिक्र न किया करें.’’

परेशानियों के इसी दौर में छोटे भैया से मायूस हो कर अम्मी ने उन्हें ब्याहा. छोटे भैया अपने पैरों पर खड़े थे. लेकिन घर की जिम्मेदारियों से दूर भागते थे. घर की गाड़ी अम्मी के बचाए पैसों पर ही चल रही थी. लेकिन घर चलाने के लिए एक जिम्मेदार औरत का होना जरूरी होता है, यह सोच कर ही अम्मी ने छोटे भैया को ब्याह दिया था.

लेकिन अम्मी एक बार फिर मात खा गईं. छोटी भाभी बहुत होशियार और समझदार साबित हुईं, मगर मायके के लिए. उन के दिलोदिमाग पर मायके का कब्जा था. कोई न कोई बहाना बना कर मायके की तरफ दौड़ लगाना और कई दिन डेरा डाल कर वहां पड़ी रहना उन की फितरत थी. ससुराल में वे कभीकभी ही नजर आतीं. अचानक छोटे भैया को दुबई में नौकरी का चांस मिल गया और भाभी का पड़ाव हमेशा के लिए मायके में बन गया.

इस दौरान एक खुशी की बात यह हुई कि बड़ी आपा के लिए एक भला रिश्ता मिल गया. संजीदा, सोबर और जिम्मेदार एहसान अलवी. पढ़ेलिखे होने के साथसाथ अरसे से अमेरिका में रहते थे. आपा जितनी उस उम्र की थीं, उस से कम की ही नजर आती थीं और एहसान अलवी अपनी उम्र से 2-4 साल ज्यादा के दिखते थे.

अम्मी को फिर इनकार का अंदेशा था. उन्होंने आपा को समझाया, ‘‘ऐसा रिश्ता फिर मिलने वाला नहीं. समझो कि गोल्डन चांस है. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता.’’

पता नहीं क्या हुआ कि यह बात आपा की अक्ल में समा गई. फिर चट मंगनी, पट ब्याह. आपा अमेरिका चली गईं.

शादी के नाम पर हुमा रोने बैठ जातीऔर एक ही रट लगाती, ‘‘मुझे नहीं करनी शादीवादी.’’

मैं आईने के समाने खड़ी होती तो आठआठ आंसू रोती. हमारे खानदान के हर घर में रिश्ता मौजूद था, मगर लड़के 4 अक्षर पढ़ कर किसी काबिल हो जाते हैं, तो खानदान की फीकी सीधी लड़कियों पर हाथ नहीं रखते हैं. ऐसे में सारी रिश्तेदारी धरी की धरी रह जाती है. फिर अब उन्हें बदला भी लेना था. अम्मी ने भी तो खानदान की किसी लड़की पर हाथ नहीं रखा था. उन के दोनों बेटों की बीवियां तो पराए खानदान की थीं. इस धक्कमपेल में मेरी उम्र 30 पार कर गई.

फिर अचानक बड़ी आपा की ससुराल के किसी फंक्शन में आफताब सय्यद के रिश्तेदारों ने मुझे पसंद किया. आफताब की सारी फैमिली कनाडा में रहती थी और उन के सभी भाईबहन शादीशुदा थे. आफताब की पहली शादी नाकाम हो चुकी थी. बीवी ने नया घर बसा लिया था. उन के 2 बच्चे थे, जो आफताब के पास ही थे. अम्मी को मेरी नेक सीरत पर भरोसा था. और मुझे भी कहीं न कहीं तो समझौता करना ही था. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता, यह बात मैं ने गिरह में बांध ली थी.

आफताब बहुत खयाल रखने वाले शौहर साबित हुए. हमारी उम्र में फर्क बहुत ज्यादा न था. मगर दुनिया तो यही समझती थी कि वे मुझ से बहुत बड़े हैं और बच्चों समेत सारी गृहस्थी मेरी मुट्ठी में है. इस एहसास की झील में कोई न कोई कंकड़ डाल कर हलचल मचा ही देता था. तब मुझे लगता था कि इंसान अपनी जिंदगी से समझौता कर भी ले तो दुनिया उसे कहां छोड़ती है?

मुक्ति: जया ने आखिर अपनी जिंदगी में क्या भुगता

अचानक जया की नींद टूटी और वह हड़बड़ा कर उठी. घड़ी का अलार्म शायद बजबज कर थक चुका था. आज तो सोती रह गई वह. साढ़े 6 बज रहे थे. सुबह का आधा समय तो यों ही हाथ से निकल गया था.

वह उठी और तेजी से गेट की ओर चल पड़ी. दूध का पैकेट जाने कितनी देर से वैसे ही पड़ा था. अखबार भी अनाथों की तरह उसे अपने समीप बुला रहा था.

उस का दिल धक से रह गया. यानी आज भी गंगा नहीं आएगी. आ जाती तो अब तक एक प्याली गरम चाय की उसे नसीब हो गई होती और वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती. उसे अपनी काम वाली बाई गंगा पर बहुत जोर से खीज हो आई. अब तक वह कई बार गंगा को हिदायत दे चुकी थी कि छुट्टी करनी हो तो पहले बता दे. कम से कम इस तरह की हबड़तबड़ तो नहीं रहेगी.

वह झट से किचन में गई और चाय का पानी रख कर बच्चों को उठाने लगी. दिमाग में खयाल आया कि हर कोई थोड़ाथोड़ा अपना काम निबटाएगा तब जा कर सब को समय पर स्कूल व दफ्तर जाने को मिलेगा.

नल खोला तो पाया कि पानी लो प्रेशर में दम तोड़ रहा?था. उस ने मन ही मन हिसाब लगाया तो टंकी को पूरा भरे 7 दिन हो गए थे. अब इस जल्दी के समय में टैंकर को भी बुलाना होगा.  उस ने झंझोड़ते हुए पति गणेश को जगाया, ‘‘अब उठो भी, यह चाय पकड़ो और जरा मेरी मदद कर दो. आज गंगा नहीं आएगी. बच्चों को तैयार कर दो जल्दी से. उन की बस आती ही होगी.’’

पति गणेश उठे और उठते ही नित्य कर्मों से निबटने चले गए तो पीछे से जया ने आवाज दी, ‘‘और हां, टैंकर के लिए भी जरा फोन कर दो. इधर पानी खत्म हुआ जा रहा है.’’

‘‘तुम्हीं कर दो न. कितनी देर लगती है. आज मुझे आफिस जल्दी जाना है,’’ वह झुंझलाए.

‘‘जैसे मुझे तो कहीं जाना ही नहीं है,’’ उस का रोमरोम गुस्से से भर गया. पति के साथ पत्नी भले ही दफ्तर जाए तब भी सब घरेलू काम उसी की झोली में आ गिरेंगे. पुरुष तो बेचारा थकहार कर दफ्तर से लौटता है. औरतें तो आफिस में काम ही नहीं करतीं सिवा स्वेटर बुनने के. यही तो जब  तब उलाहना देते हैं गणेश.

कितनी बार जया मिन्नतें कर चुकी थी कि बच्चों के गृहकार्य में मदद कर दीजिए पर पति टस से मस नहीं होते थे, ऊपर से कहते, ‘‘जया यार, हम से यह सब नहीं होता. तुम मल्टी टास्किंग कर लेती हो, मैं नहीं,’’ और वह फिर बासी खबरों को पढ़ने में मशगूल हो जाते.

मनमसोस कर रह जाती जया. गणेश ने उस की शिकायतों को कुछ इस तरह लेना शुरू कर दिया?था जैसे कोई धार्मिक प्रवचन हों. ऊपर से उलटी पट्टी पढ़ाता था उन का पड़ोसी नाथन जो गणेश से भी दो कदम आगे था. दोनों की बातचीत सुन कर तो जया का खून ही खौल उठता था.

‘‘अरे, यार, जैसे दफ्तर में बौस की डांट नहीं सुनते हो, वैसे ही बीवी की भी सुन लिया करो. यह भी तो यार एक व्यावसायिक संकट ही है,’’ और दोनों के ठहाके से पूरा गलियारा गूंज उठा?था.

जया के तनबदन में आग लग आई थी. क्या बीवीबच्चों के साथ रहना भी महज कामकाज लगता?था इन मर्दों को. तब औरतों को तो न जाने दिन में कितनी बार ऐसा ही प्रतीत होना चाहिए. घर संभालो, बच्चों को देखो, पति की फरमाइशों को पूरा करो, खटो दिनरात अरे, आक्यूपेशन तो महिलाओं के लिए है. बेचारी शिकायत भी नहीं करतीं.

जैसेतैसे 4 दिन इसी तरह गुजर गए. गंगा अब तक नहीं लौटी थी. वह पूछताछ करने ही वाली थी कि रानी ने कालबेल बजाते हुए घर में प्रवेश किया.

‘‘बीबीजी, गंगा ने आप को खबर करने के लिए मुझ से कहा था,’’ रानी बोली, ‘‘वह कुछ दिन अभी और नहीं आ पाएगी. उस की तबीयत बहुत खराब है.’’

रानी से गंगा का हाल सुना तो जया उद्वेलित हो उठी.  यह कैसी जिंदगी थी बेचारी गंगा की. शराबी पति घर की जिम्मेदारियां संभालना तो दूर, निरंतर खटती गंगा को जानवरों की तरह पीटता रहता और मार खाखा कर वह अधमरी सी हो गई थी.

‘‘छोड़ क्यों नहीं देती गंगा उसे. यह भी कोई जिंदगी है?’’ जया बोली.

माथे पर ढेर सारी सलवटें ले कर हाथ का काम छोड़ कर रानी ने एकबारगी जया को देखा और कहने लगी, ‘‘छोड़ कर जाएगी कहां वह बीबीजी? कम से कम कहने के लिए तो एक पति है न उस के पास. उसे भी अलग कर दे तो कौन करेगा रखवाली उस की? आप नहीं जानतीं मेमसाहब, हम लोग टिन की चादरों से बनी छतों के नीचे झुग्गियों में रहते हैं. हमारे पति हैं तो हम बुरी नजर से बचे हुए हैं. गले में मंगलसूत्र पड़ा हो तो पराए मर्द ज्यादा ताकझांक नहीं करते.’’

अजीब विडंबना थी. क्या सचमुच गरीब औरतों के पति सिर्फ एक सुरक्षा कवच भर ?हैं. विवाह के क्या अब यही माने रह गए? शायद हां, अब तो औरतें भी इस बंधन को महज एक व्यवसाय जैसा ही महसूस करने लगी हैं.

गंगा की हालत ने जया को विचलित कर दिया था. कितनी समझदार व सीधी है गंगा. उसे चुपचाप काम करते हुए, कुशलतापूर्वक कार्यों को अंजाम देते हुए जया ने पाया था. यही वजह थी कि उस की लगातार छुट्टियों के बाद भी उसे छोड़ने का खयाल वह नहीं कर पाई.

रानी लगातार बोले जा रही थी. उस की बातों से साफ झलक रहा?था कि गंगा की यह गाथा उस के पासपड़ोस वालों के लिए चिरपरिचित थी. इसीलिए तो उन्हें बिलकुल अचरज नहीं हो रहा था गंगा की हालत पर.

जया के मन में अचानक यह विचार कौंध आया कि क्या वह स्वयं अपने पति को गंगा की परिस्थितियों में छोड़ पाती? कोई जवाब न सूझा.

‘‘यार, एक कप चाय तो दे दो,’’ पति ने आवाज दी तो उस का खून खौल उठा.

जनाब देख रहे हैं कि अकेली घर के कामों से जूझ रही हूं फिर भी फरमाइश पर फरमाइश करे जा रहे हैं. यह समझ में नहीं आता कि अपनी फरमाइश थोड़ी कम कर लें.

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

वह कहते हैं न कि जब आदमी का पेट भरा हो तो वह दूसरे की भूख के बारे में भी सोच सकता?है. तभी तो वह इतने चाव से गंगा को अलग करवाने की योजना बना रही थी.

पद्मा अपनी ही रौ में सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी. महिला क्लब की एक खास सदस्य होने के नाते वह ऐसे तमाम रास्ते जया को बताए जा रही थी जिस से गंगा का उद्धार हो सके.

जया अचंभित थी. मात्र 4 घंटों के अंतराल में उसे इस विषय पर दो अलगअलग प्रतिक्रियाएं मिली थीं. कहां तो पद्मा तलाक की बात कर रही?थी और उधर सुबह ही रानी के मुंह से उस ने सुना था कि गंगा अपने ‘सुरक्षाकवच’ की तिलांजलि देने को कतई तैयार नहीं होगी. स्वयं गंगा का इस बारे में क्या कहना होगा, इस के बारे में वह कोई फैसला नहीं कर पाई.

जब जया ने अपना शक जाहिर किया तो पद्मा बिफर उठी, ‘‘क्या तुम ऐसे दमघोंटू बंधन में रह पाओगी? छोड़ नहीं दोगी अपने पति को?’’

जया बस, सोचती रह गई. हां, इतना जरूर तय था कि पद्मा को एक ताजातरीन स्टोरी अवश्य मिल गई थी.

महिला क्लब के सभी सदस्यों को पद्मा का सुझाव कुछ ज्यादा ही भा गया सिवा एकदो को छोड़ कर, जिन्हें इस योजना में खामियां नजर आ रही थीं. जया ने ज्यादातर के चेहरों पर एक अजब उत्सुकता देखी. आखिर कोई भी क्यों ऐसा मौका गंवाएगा, जिस में जनता की वाहवाही लूटने का भरपूर मसाला हो.

प्रस्ताव शतप्रतिशत मतों से पारित हो गया. तय हुआ कि महिला क्लब की ओर से पद्मा व जया गंगा के घर जाएंगी व उसे समझाबुझा कर राजी करेंगी.

गंगा अब तक काम पर नहीं लौटी थी. रानी आ तो रही?थी, पर उस का आना महज भरपाई भर था. जया को घर का सारा काम स्वयं ही करना पड़ रहा था. आज तो उस की तबीयत ही नहीं कर रही थी कि वह घर का काम करे. उस ने निश्चय किया कि वह दफ्तर से छुट्टी लेगी. थोड़ा आराम करेगी व पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार पद्मा को साथ ले कर गंगा के घर जाएगी, उस का हालचाल पूछने. यह बात उस ने पति को नहीं बताई. इस डर से कि कहीं गणेश उसे 2-3 बाहर के काम भी न बता दें.

रानी से बातों ही बातों में उस ने गंगा के घर का पता पूछ लिया. जब से महिला मंडली की बैठक हुई थी, रानी तो मानो सभी मैडमों से नाराज थी, ‘‘आप पढ़ीलिखी औरतों का तो दिमाग चल गया है. अरे, क्या एक औरत अपने बसेबसाए घर व पति को छोड़ सकती है? और वैसे भी क्या आप लोग उस के आदमी को कोई सजा दे रहे हो? अरे, वह तो मजे से दूसरी ले आएगा और गंगा रह जाएगी बेघर और बेआसरा.’’

40 साल की रानी को हाईसोसाइटी की इन औरतों पर निहायत ही क्रोध आ रहा था.

टिन के उस जंगल में गंगा का घर खोजना तो सचमुच कुछ ऐसा ही था जैसे भूसे के ढेर में सूई ढूंढ़ना. बेतरतीब झोंपड़े, इधरउधर भागते बच्चों की टोलियां, उन्हें झिड़कती हुई माताओं को पार कर के उस के छोटे से एक कमरे वाले घर को तलाशने में ही पद्मा व जया की हालत खराब हो गई.

गंगा को उस ने अपनी खोली के एक अंधेरे कोने में दुबका हुआ पाया. चेहरे पर खरोंच यह बता रहे थे कि इस बार मरम्मत कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से हुई थी. जया उस की खस्ता हालत को देख कर अचंभित तो थी ही, उस के जर्जर शरीर को देख कर उसे गहरा दुख भी हुआ.

उन्हें देख कर गंगा जल्दी से उठने लगी तो जया ने उसे हाथ बढ़ा कर रोक दिया.

‘‘बैठी रहो, गंगा,’’ उस ने आत्मीयता से कहा, ‘‘वैसे ही तुम्हारी हालत काफी नाजुक लग रही है.’’

1 मिनट का असाधारण मौन छा गया और फिर गंगा उन के लिए चाय बनाने उठी. लाख मना करने पर भी मानी नहीं.

चाय की चुसकियां लेते हुए जया व पद्मा ने बाहर कुछ आहट सुनी. पदचाप बाहर की ओर से आ रही थी. गंगा फुरती से उठी और 1 मिनट बाद लौटी, ‘‘मेरे पति हैं,’’ उस ने धीमी आवाज में कहा.

पद्मा तो मानो इसी घड़ी की प्रतीक्षा में थी. वह तुरंत उठी व पल्लू खोंसते हुए तेजी से बाहर की ओर रुख करने लगी. गंगा ने हाथ बढ़ा कर उसे रोक लिया और दयनीय स्वर में बोली, ‘‘उसे कुछ मत कहना, बीबीजी.’’

जया ने महसूस किया कि गंगा का पति नशे की हालत में ऊलजुलूल बड़बड़ा रहा?था. 1 मिनट बाद चारपाई पर उस के ढेर होने की आवाज आई.

‘‘लगता है सो गया,’’ गंगा मुसकरा कर बोली, ‘‘अब 3-4 घंटे बेसुध पड़ा रहे तो मैं अपना बचाखुचा काम भी समेट लूं.’’

जया को उस बेचारी पर तरस आया कि इस हालत में भी वह घर संभालने में लगी हुई थी और उस का पति आराम से चारपाई तोड़ रहा था. जया को लगा कि वह और पद्मा गंगा के दैनिक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रही हैं. लौटने के उद्देश्य से उस ने गंगा की ओर देखा, ‘‘गंगा, अपना खयाल रखना, बता देना कब लौटोगी.’’

जया ने पद्मा की ओर कनखियों से इशारा किया.

पद्मा तो जैसे भरी बैठी थी, ‘‘रुक भी जाओ, भूल गईं, किसलिए आए?थे यहां,’’ दांत भींचते हुए उस ने जया के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया व गंगा की ओर मुखातिब हुई.

गंगा के चेहरे पर उस समय भाव कुछ ऐसे थे जैसे उसे अंदेशा हो गया था कि आगे क्या होगा. रानी ने शायद उसे पहले ही आगाह कर दिया था.

जया कहने लगी, ‘‘फिर कभी, आज नहीं.’’

दरअसल, वह यह नहीं समझ पा रही थी कि क्या यह सही वक्त था गंगा से तलाक के विषय में बात करने का. उस की कमजोर हालत जया को सोचने पर मजबूर कर रही थी.

‘‘नहीं, आज ही. मुझे क्यों रोक रही हो तुम,’’ पद्मा क्रोधित स्वर में जया से बोली, फिर वह गंगा से मुखातिब हुई, ‘‘देखो गंगा, अब और इस हालत से जूझते रहने का फायदा नहीं. क्या तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम एक फटेहाल जिंदगी जी रही हो? क्या मिल रहा?है तुम्हें अपने पति से सिवा मारपीट व गालीगलौज के? तुम ने कभी सोचा नहीं कि उस आदमी को छोड़ कर तुम ज्यादा सुखी रहोगी? अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचो कुछ.’’

पद्मा की उद्वेग के मारे सांस फूल रही थी और वह लगातार गंगा को प्रेरित करती रही कि ऐसा निरीह जीवन जीने की उसे कोई आवश्यकता नहीं थी.

गंगा शांति से उन की बात सुन रही थी. पद्मा का रोष थोड़ा ठंडा हुआ, ‘‘देखो गंगा, अगर तुम चाहो तो हम तुम्हारे जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ इंतजाम कर ही लेंगे. तुम्हारे लिए एक छोटी सी टेलरिंग यूनिट खोल देंगे. तुम निश्चय तो करो.’’

‘‘मैं ने सब सुना?है बीबीजी. रानी तो रोज आ कर आप लोगों की बातें बताती ही रहती है. पर नहीं. मुझे इन चीजों की जरूरत नहीं.

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ पद्मा ने आपत्ति उठाने के लिए मुंह बस खोला ही था कि बाहर से तेज अस्पष्ट आवाजें सुनाई देने लगीं.

इस से पहले कि जया और पद्मा कुछ समझतीं कि माजरा क्या है, गंगा बाहर भाग चुकी थी. उस के हाथ में 2 बड़ी बालटियां थीं. बाहर से लोगों की आवाजें दस्तक दे रही थीं, ‘‘टैंकर आ गया, टैंकर आ गया.’’

महानगर निगम के पानी का टैंकर पहुंच गया था. लोगों की अपार भीड़ एकत्र हो रही थी. जया व पद्मा बाहर आ कर नजारा देखने लगीं. यह समस्या तो इस शहर में कमज्यादा सभी तबकों की थी. आदमी सांस लेना भूल जाए पर टैंकर की आहट को नजरअंदाज कभी न कर पाए.

महिलाओं व पुरुषों की भीड़ गुत्थमगुत्था हो रही थी. टैंकर के सामने घड़ों, बरतनों, बालटियों की बेतरतीब कतारें लग गई थीं. जया की आंखें उस भीड़ में गंगा को ढूंढ़ने लगीं. उस ने पाया कि गंगा अपनी बीमारी को लगभग भूल कर लोगों से उलझ कर 2 बालटी पानी भर लाई?थी. घर के अहाते तक आतेआते उस का शरीर पसीने से भीग चुका था. माथे पर कुमकुम का निशान भीग कर अर्धकार हो गया था. जयाचंद्रा ने सहारा देने के उद्देश्य से उस से एक बालटी लेने की कोशिश की.

‘‘नहीं, नहीं, बीबीजी. मैं संभाल लूंगी,’’ उस ने जया का हाथ छुड़ाया और पति की ओर इंगित करने लगी, ‘‘यह निखट्टू भी तो है. अभी जगाती हूं इसे,’’ यह कहते हुए गंगा ने अपने दांत भींचे व अंदर की ओर भागी. लौटी तो उस के हाथों में 2 बालटियां और थीं. दोनों बालटियां उस ने आंगन के कोने में रखीं, कमर कस कर पति की चारपाई के करीब जा खड़ी हुई. जया डर रही थी कि जगाने पर वह निर्दयी गंगा के साथ न जाने कैसा सलूक करेगा. अलसाया सा, आधी नींद में वह बड़बड़ा रहा था.

और फिर वह अचंभा हुआ जिस की जया को कतई उम्मीद नहीं थी. गंगा ने चारपाई पर बेहोश पड़े पति को एक जोरदार लात मारी. मार के सदमे से वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. आंखें मींचता हुआ वह जायजा लेने लगा कि गाज कहां से गिरी.

‘‘उठ रे, शराबी,’’ गंगा ने दहाड़ मारी, ‘‘अभी नींद पूरी नहीं हुई या दूं मैं एक और लात.’’

वह आदमी धोती संभालता हुआ उठ खड़ा हुआ. 2 आगंतुक महिलाओं के सामने पिटने का एहसास जब हुआ तो बहुत देर हो चुकी थी. गंगा एक और लात जमाने के लिए तैयार खड़ी थी. लड़खड़ाए हुए पति के हाथ में उस ने बालटियां थमाईं और फरमान जारी किया, ‘‘जा, भर ला पानी, कमबख्त.’’

वह डगमगाता हुआ जब डोलने लगा तो गंगा ने 2 तमाचे और जड़ दिए, ‘‘अब जाता है कि…’’ और इसी के साथ दोचार मोटीमोटी गालियां भी पति के हिस्से में आ गईं.

जया व पद्मा अवाक् खड़ी थीं. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि अभी जिस महिषासुरमर्दिनी को उन्होंने देखा था यह वही छुईमुई सी गंगा थी, जिसे वे चुपचाप घर का काम निबटाते हुए देखा करती थीं. यह कैसा अनोखा रूप था उस का. मुंह खुला का खुला रह गया. होश आया तो पाया कि गंगा आसपास कहीं नहीं थी. वह फिर उसी रेले में शामिल हो गई थी. जीजान से अन्य महिलाओं से लड़ती हुई अपने हिस्से के जल को बालटियों में भरते हुए. महिलाएं एकदूसरे पर हावी हो रही थीं और उन की कर्कश आवाजों से वातावरण गूंज रहा था.

वे दोनों तब तक सन्न खड़ी रहीं जब तक गंगा घर में दोबारा आ नहीं गई. उन की फटी नजरों को भांपते हुए गंगा ने एक शर्मीली मुसकान बिखेरी.

‘‘गंगा, यह तुम थीं?’’ आवाज पद्मा के हलक से पहले निकली.

जया भी मुग्ध भाव से उसे देखे जा रही थी.

‘‘हां, बीबीजी, यह सब तो चलता रहता है. इसे मैं दोचार जमाऊंगी नहीं तो कैसे चलेगा. वह मुझ पर हाथ उठाता?है तो मैं भी उसे पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ती,’’ वह कुछ ऐसे बोल रही थी जैसे किसी शैतान बच्चे को राह पर लाने का नुस्खा समझा रही हो, ‘‘जब मैं चाहती हूं तब कमान अपने हाथ में ले लेती हूं,’’ झांसी की रानी जैसे भाव थे उस के चेहरे पर, ‘‘मैं जानती हूं बीबीजी, आप सब लोग हमारा?भला चाहती हैं. पर मुझे नहीं चाहिए यह तलाकवलाक. जरूरत नहीं है मुझे. मैं अपने तरीकों से इसे ‘लाइन’ पर ले आती हूं,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘कभीकभी कड़वी दवा पिला ही देती हूं मैं इसे. मिमियाता हुआ वापस आ जाता है बकरी की तरह. और किस के पास जाएगा. आना तो शाम को इसी घर में है न? जब होश आता है तो गलती का एहसास भी हो जाता है इसे. पता है इसे कि मेरे बगैर इस का गुजारा नहीं.’’

गंगा ने शायद अपने पति पर पूरा अनुसंधान कर रखा था. अब मानो वह उन्हें उस की रिपोर्ट पढ़ा रही हो. जया को लगा वाकई जीवन की बागडोर गंगा ने कुछ अपने तरीके से संभाली हुई थी. शायद उन से बेहतर प्रचारक थी वह नारी मुक्ति की. शायद प्रचार करने की आवश्यकता भी नहीं थी गंगा को. उस के तरीके बेहद सरल व प्रायोगिक थे. उस ने देखा गंगा एकदम सहज भाव से बतियाए जा रही थी. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि उस के इस रवैये पर अन्य लोगों की क्या प्रतिक्रिया रहेगी. इस बीच कब गंगा का पति शरमाता हुआ लौटा व एक सेट बरतन और ले गया पानी भर लाने के लिए, इस की उन्हें सुध न रही.

जया व पद्मा अचंभित हालत में अपने वाहन की ओर बढ़ रही थीं. एक अजब खामोशी छाई हुई थी दोनों के बीच में. जाहिर था, दोनों ही गंगा व उस के पति के बारे में सोच रही थीं. जया को लगा कि शायद उन का क्लब वाला प्रस्ताव बेहद बेतुका था. कनखियों से उस ने पद्मा की ओर देखा जो कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में लिप्त थी.

भारतीय परिवारों में एक अनोखा ही समीकरण था पतिपत्नी के बीच में. कभी किसी का पलड़ा भारी रहा तो कभी किसी का. क्या यही वजह नहीं थी पद्मा व उस के पति ने आपसी सामंजस्य से अपनी जिम्मेदारियों को आपस में बदल लिया था. सब लोग अपनी आपसी उलझनों का कुछ अपने तरीके से ही हल ढूंढ़ लेते हैं. गंगा ने भी शायद कुछ ऐसा ही कर लिया था.

गाड़ी में जब पद्मा निश्चल सी बैठी रह गई तो जया से रहा न गया. उस ने एकाएक पद्मा के हाथ से ‘डिक्टाफोन’ छीना, ‘‘देवियो और सज्जनो, क्या आप जानते हैं कि गंगा और हम में क्या अंतर है? वह अपने पति को लात मार सकती है पर हम नहीं.’’

और फिर दोनों महिलाओं के ठहाके गूंजने लगे.

ड्राइवर उन्हें कुछ ऐसे देखने लगा जैसे वे दोनों पागल हो गई हों.

दादी आप की तो मौज है

लेखिका- बिमला गुप्ता

एकदिन मिनी मेरे पास बैठ कर होमवर्क कर रही थी. अचानक कहने लगी, ‘‘दादी, आप को कितनी मौज है न?’’

‘‘क्यों किस बात की मौज है?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘आप को तो कोई काम नहीं करना पड़ता है न,’’ उस का उत्तर था.

‘‘क्यों? मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाती हूं, सूप बनाती हूं, हरी चटनी बनाती हूं, तुम्हारा फोन चार्ज करती हूं. कितने काम तो करती हूं?’’

तुम्हें कौन सा काम करना पड़ता है?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘क्या बताऊं दादी… मु  झे तो बस काम

ही काम हैं?’’ उस ने बड़े ही दुखी स्वर में

उत्तर दिया.

‘‘क्या काम है, पता तो चले?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्लास अटैंड करो, होमवर्क करो, कभी टैस्ट की तैयारी करो, कभी कोई प्रोजैक्ट तैयार करो… दादी आप को पता है, बच्चों को कितने काम होते हैं,’’ वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी, जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘उस पर ये औनलाइन क्लासें. बस

लैपटौप के सामने बैठे रहो बुत बन कर. जरा सा

इधरउधर देखो तो मैम चिल्लाने लगती हैं. चिल्लाती भी इतनी जोर से हैं कि घर पर भी सब को पता चल जाता है, सोनम तुम ने होमवर्क क्यों नहीं किया?

‘‘राहुल तुम्हारी राइटिंग बहुत गंदी है.

महक तुम्हारा ध्यान किधर है? बस डांटती ही जाती हैं, आज मिनी पूरी तरह विद्रोह पर उतर आई थी. मैं चुपचाप उस की बातें सुन रही थी. फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘क्या स्कूल में मैम

नहीं डांटती?’’ .

‘‘दादी, कैसी बात कर रही हो? वह भी डांटती हैं… मैडमों का तो काम ही डांटना है.’’

‘‘फिर?’’ मेरा प्रश्न था.

‘‘दादी, आप सम  झ नहीं रही हो?’’ उस ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया.

‘‘क्या नहीं सम  झ रही हूं? तू कुछ बताएगी तो पता चलेगा.’’

‘‘रुको, मैं आप को सम  झाती हूं. स्कूल में भी मैम डांटती हैं, पर हम लोगों को बुरा नहीं लगता है, ‘‘क्योंकि डांट तो सब को पड़ती है. इसलिए क्लास में सब बराबर होते हैं.

कभीकभी तो पनिशमैंट भी मिलता है, पर किसी को पता तो नहीं चलता? यहां तो अपने ही

फ्रैंड्स के पेरैंट्स तक को पता चल जाता है. सब के सामने इन्सल्ट हो जाती है न?’’ वह गंभीरतापूर्वक बोली.

‘‘हां बात तो तेरी ठीक है. हमें स्कूल में मैम से डांट पड़ी है… घर पर तो किसी को पता नहीं चलना चाहिए,’’ मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए उस की बात का समर्थन किया.

समर्थन पा कर वह बहुत खुश हुई. शायद बचपन से ही हमारे मन में यह भावना घर कर जाती है कि हमारी गलतियों का किसी को पता नहीं चलना चाहिए.

अब वह पूरी तरह अपनी

रौ में आ चुकी थी. मु  झे अपना राजदान बनाते हुए बोली,

‘‘दादी, मैं आप को एक बहुत

ही मजेदार बात बताऊं? आप किसी को बताएंगी तो नहीं?’’

उस ने पूछा. वह आश्वस्त होना चाहती थी.

‘‘नहीं, मैं किसी को नहीं बताऊंगी. तू बेफिक्र हो कर बता.’’

मेरा उत्तर सुन कर वह बोली,

‘‘जब किसी बच्चे पर मैम

नाराज होती हैं, तो सारे बच्चे नीचे मुंह

कर के या मुंह पर हाथ रख कर हंसने

लगते हैं.’’

‘‘मैम नाराज नहीं होती.’’

‘‘मैम को पता ही नहीं चलता है.’’

‘‘और वह बच्चा?’’

‘‘बच्चों को क्या फर्क पड़ता है. रोज किसी न किसी पर मैम गुस्सा होती ही हैं.’’

यह सुन कर मु  झे हंसी आ गई. सच ही है, ‘हमाम में सब नंगे.’

‘‘एक और मजेदार बात बताऊं दादी?’’ अब वह बहुत खुश लग रही थी.

‘‘हांहां जरूर.’’

‘‘जब मैम ब्लैकबोर्ड पर लिखती हैं न तो क्लास की तरफ उनकी पीठ होती है तब हम लोग बहुत मस्ती करते हैं. कुछ लड़के तो अपनी सीट छोड़ कर उधम मचाने लगते हैं और जैसे

ही मैम मुड़ती हैं सब अपनीअपनी सीट पर चुपचाप बैठ जाते हैं. मैम को कुछ पता ही नहीं चलता. हम लोग स्कूल में बहुत मजे करते हैं.

घर पर तो मैं बोर हो जाती हूं,’’ उस ने निराश हो कर कहा.

‘‘बस सारा दिन घर में बैठे रहो. इस कोरोना ने तो पागल कर दिया है.

‘‘उस पर सुबहसुबह जब अच्छी नींद आती है तो मम्मा जबरदस्ती उठा देती हैं. दोपहर को जब मु  झे नींद नहीं आती तो कहती हैं अब थोड़ी देर सो जाओ.’’

‘‘पहले भी तो ऐसा ही होता था,’’ मैं

ने कहा.

‘‘दादी आप सम  झ नहीं रही हो. पहले मैं स्कूल जाती थी, इसलिए थक जाती थी. अब दिन में सो जाती हूं तो रात को नींद नहीं आती है, पर सुबहसुबह उठना पड़ता है न? और ये पापा बारबार कहते हैं बुक रीडिंग कर लो… मु  झे परेशान कर के रख दिया है सब ने,’’ उस ने दुखी स्वर में कहा.

फिर कुछ देर कुछ सोचने के बाद मु  झ से पूछने लगी, ‘‘दादी, मैं कब बड़ी

होऊंगी?’’

मिनी का प्रश्न सुन कर मैं हैरत से उस की ओर देखने लगी. मन सोच में डूब गया. अकसर बचपन में हम जल्दी बड़े होना चाहते हैं, पर

बड़े होने पर दुनियादारी में फंस कर हमारी

बचपन की निश्चिंतता, निश्छलता, भोलापन सब पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं. उम्र बढ़ने के साथ ही जिम्मेदारियों के बो  झ तले दबते ही चले जाते हैं.

धीरेधीरे जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए हम स्वयं शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाते हैं. दूसरों का बो  झ उठातेउठाते हम स्वयं सब पर बो  झ बन जाते हैं. फिर याद आती हैं उस उम्र की बातें जो लौट कर कभी नहीं आती है.

मगर मिनी को क्या पता है कि उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है… वह तो बस जल्दी से जल्दी उस उम्र में पहुंचना चाहती है.

सोच: मिसेज सान्याल और मिसेज अविनाश दूर क्यों भागते थे अपने बेटेबहू से?

हर व्यक्ति के सोचने का तरीका अलग होता है. जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति जिस तरह सोचता हो, दूसरा भी उसी तरह सोचे. इसी तरह यह भी जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति की सोच को दूसरा पसंद करे. हां, सार्थक सोच से जीवन की धारा जरूर बदल जाती है जहां एक स्थिरता मिलती है, मन को सुकून मिलता है. यह बात मैं ने उस दिन अच्छी तरह से जानी जिस दिन मैं श्रीमती सान्याल के घर किटी पार्टी में गई थी. उस एक दिन के बाद मेरी सोच कब बदली यह खयाल कर मैं अतीत में खो सी गई.

दरवाजे पर उन की नई बहू मानसी ने हम सब का स्वागत किया. मिसेज सान्याल एकएक कर जैसेजैसे हम सभी सदस्याओं का परिचय, अपनी नई बहू से करवाती जा रही थीं वह चरण स्पर्श कर के सब से आशीर्वाद लेती जा रही थी. मानसी जैसे ही मेरे चरण छूने को आगे बढ़ी मैं ने प्यार से उसे यह कह कर रोक दिया, ‘बस कर बेटी, थक जाएगी.’

‘क्यों थक जाएगी?’ श्रीमती सान्याल बोलीं, ‘जितना झुकेगी उतनी ही इस की झोली आशीर्वाद के वजनों से भरती जाएगी.’

श्रीमती सान्याल तंबोला की टिकटें बांटने लगीं तो मानसी सब से पैसे जमा कर रही थी. खेल के बीच में मानसी रसोई में गई और थोड़ी देर में सब के लिए गरम सूप और आलू के चिप्स ले कर आई, फिर बारीबारी से सब को देने लगी.

तंबोला का खेल खत्म हुआ. खाने की मेज स्वादिष्ठ पकवानों से सजा दी गई. मानसी चौके में गरम पूरियां सेंक रही थी और श्रीमती सान्याल सब को परोसती जा रही थीं. दहीबड़े का स्वाद चखते समय औरतें कभी सास बनीं सान्याल की प्रशंसा करतीं तो कभी बहू मानसी की.

थोड़ी देर बाद हम सब महिलाओं ने श्रीमती सान्याल से विदा ली और अपनेअपने घर की ओर चल दीं.

घर लौट कर मेरे दिमाग पर काफी देर तक सान्याल परिवार का चित्र अंकित रहा. सासबहू के बीच न किसी प्रकार का तनाव था न मनमुटाव. प्यार, सम्मान और अपनत्व की डोर से दोनों बंधी थीं. हो सकता है यह सब दिखावा हो. मेरे मन से पुरजोर स्वर उभरा, ब्याह के अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं टकराहट और कड़वाहट तो बाद में ही पैदा होती हैं, और तभी अलगअलग रहने की बात सोची जाती है. इसीलिए क्यों न ब्याह होते ही बेटेबहू को अलग घर में रहने दिया जाए.

श्रीमती सान्याल मेरी बहुत नजदीकी दोस्त हैं. पढ़ीलिखी शिष्ट महिला हैं. मिस्टर सान्याल मेरे पति अविनाश के ही दफ्तर में काम करते हैं. उन का बेटा विभू और मेरा राहुल, हमउम्र हैं. दोनों ने एक साथ ही एम.बी.ए. किया था. अब दोनों अलगअलग बहु- राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.

श्रीमती सान्याल शुरू से ही संयुक्त परिवार की पक्षधर थीं. विभू के विवाह से पहले ही वह जब तब बेटेबहू को अपने साथ रखने की बात कहती रही थीं. लेकिन मेरी सोच उन से अलग थी. पास- पड़ोस, मित्र, परिजनों के अनुभव सुन कर यही सोचती कि कौन पड़े इन झमेलों में.

मैं ने एक बार श्रीमती सान्याल से कहा था, हर घर तो कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ है. सौहार्द, प्रेम, घनिष्ठता, अपनापन दिखाई ही नहीं देता. परिवारों में, सास बहू की बुराई करती है, बहू सास के दुखड़े रोती है.

इस पर वह बोली थीं, ‘घर में रौनक भी तो रहती है.’ तब मैं ने अपना पक्ष रखा था, ‘समझौता बच्चों से ही नहीं, उन के विचारों से करना पड़ता है.’

‘शुरू में सासबहू का रिश्ता तल्खी भरा होता है किंतु एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी न बन कर एकदूसरे के अस्तित्व को प्यार से स्वीकारा जाए और यह समझा जाए कि रहना तो साथसाथ ही है, तो सब ठीक रहता है.’’

ब्याह से पहले ही मैं ने राहुल को 3 कमरे का एक फ्लैट खरीदने की सलाह दी पर अविनाश चाहते थे कि बेटेबहू हमारे साथ ही रहें. उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा भी था कि राधिका नौकरी करती है. दोनों सुबह जाएंगे, रात को लौटेंगे. कितनी देर मिलेंगे जो विचारों में टकराहट होगी.

‘विचारों के टकराव के लिए थोड़ा सा समय ही काफी होता है,’ मैं अड़ जाती, ‘समझौता और समर्पण मुझे ही तो करना पड़ेगा. बहूबेटा, प्रेम के हिंडोले में झूमते हुए दफ्तर जाएं और मैं उन के नाजनखरे उठाऊं?’

अविनाश चुप हो जाते थे.

फ्लैट के लिए कुछ पैसा अविनाश ने दिया बाकी बैंक से फाइनेंस करवा लिया गया. राधिका के दहेज में मिले फर्नीचर से उन का घर सज गया. बाकी सामान खरीद कर हम ने उन्हें उपहार में दे दिया. कुल मिला कर राहुल की गृहस्थी सज गई. सप्ताहांत पर वे हमारे पास आ जाते या हम उन के पास चले जाते थे.

मैं इस बात से बेहद खुश थी कि मेरी आजादी में किसी प्रकार का खलल नहीं पड़ा था. अविनाश सुबह दफ्तर जाते, शाम को लौटते. थोड़ा आराम करते, फिर हम दोनों पतिपत्नी क्लब चले जाते थे. वह बैडमिंटन खेलते या टेनिस और मैं अकसर महिलाओं के साथ गप्पगोष्ठी में व्यस्त रहती या फिर ताश खेलती. इस सब के बाद जो भी समय मेरे पास बचता उस में मैं बागबानी करती.

पिछले कुछ दिनों से श्रीमती सान्याल दिखाई नहीं दी थीं. क्लब में भी मिस्टर सान्याल अकेले ही आते थे. एक दिन पूछ बैठी तो हंस कर बोले, ‘आजकल घर में ही रौनक रहती है. आप क्यों नहीं मिल आतीं?’

अच्छा लगा था मिस्टर सान्याल का प्रस्ताव. एक दिन बिना पूर्व सूचना के मैं उन के घर चली गई. वह बेहद अपनेपन से मिलीं. उन के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव तिर आए. कुछ समय शिकवेशिकायतों में बीत गया. फिर मैं ने उलाहना सा दिया, ‘काफी दिनों से दिखाई नहीं दीं, इसीलिए चली आई. कहां रहती हो आजकल?’

मैं सोच रही थी कि इतना सुनते ही श्रीमती सान्याल पानी से भरे पात्र सी छलक उठेंगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. वह सहज भाव में बोलीं, ‘विभू के विवाह से पहले मैं घर में बहुत बोर होती थी इसीलिए घर से बाहर निकल जाती थी या फिर किसी को बुला लेती थी. अब दिन का समय घर के छोटेबड़े काम निबटाने में ही निकल जाता है. शाम का समय तो बेटे और बहू के साथ कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता.’

संतुष्ट, संतप्त, मिसेज सान्याल मेरे हाथ में एक पत्रिका थमा कर खुद रसोई में चाय बनाने के लिए चली गईं.

चाय की चुस्की लेते हुए मैं ने फिर कुरेदा, ‘काफी दुबली हो गई हो. लगता है, काम का बोझ बढ़ गया है.’

‘आजकल मानसी मुझे अपने साथ जिम ले जाती है’, और ठठा कर वह हंस दीं, ‘उसे स्मार्ट सास चाहिए,’ फिर थोड़े गंभीर स्वर में बोलीं, ‘इस उम्र में वजन कम रहे तो इनसान कई बीमारियों से बच जाता है. देखो, कैसी स्वस्थ, चुस्तदुरुस्त लग रही हूं?’

कुछ देर तक गपशप का सिलसिला चलता रहा फिर मैं ने उन से विदा ली और घर लौट आई.

लगभग एक हफ्ते बाद फोन की घंटी बजी. श्रीमती सान्याल थीं दूसरी तरफ. हैरानपरेशान सी वह बोलीं, ‘मानसी का उलटियां कर के बुरा हाल हो रहा है. समझ में नहीं आता क्या करूं?’

‘क्या फूड पायजनिंग हो गई है?’

‘अरे नहीं, खुशखबरी है. मैं दादी बनने वाली हूं. मैं ने तो यह पूछने के लिए तुम्हें फोन किया था कि तुम ने ऐसे समय में अपनी बहू की देखभाल कैसे की थी, वह सब बता और जो भूल गई हो उसे याद करने की कोशिश कर. तब तक मैं अपनी कुछ और सहेलियों को फोन कर लेती हूं.’

अति उत्साहित, अति उत्तेजित श्रीमती सान्याल की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. ब्याह के एक बरस बाद राधिका गर्भवती हुई थी. शुरू के 2-3 महीने उस की तबीयत काफी खराब रही थी. उलटियां, चक्कर फिर वजन भी घटने लगा था. लेडी डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम करने की सलाह दी थी.

राधिका और राहुल मुझे बारबार बुलाते रहे. एक दिन तो राहुल दरवाजे पर ही आ कर खड़ा हो गया और अपनी कार में मेरा बैग भी ले जा कर रख लिया. अविनाश की भी इच्छा थी कि मैं राहुल के साथ चली जाऊं. पर मेरी इच्छा वहां जाने की नहीं थी. उन्होंने मुझे समझाते हुए यह भी कहा कि अगर तुम राहुल के घर नहीं जाना चाहती हो तो उन्हें यहीं बुला लो.

सभी ने इतना जोर दिया तो मैं ने भी मन बना लिया था. सोचा, कुछ दिन तो रह कर देखें. शायद अच्छा लगे.

अगली सुबह अखबार में एक खबर पढ़ी, ‘कृष्णा नगर में एक बहू ने आत्म- हत्या कर ली. बहू को प्रताडि़त करने के अपराध में सास गिरफ्तार.’

‘तौबातौबा’ मैं ने अपने दोनों कानों को हाथ लगाया. मुंह से स्वत: ही निकल गया कि आज के जमाने में जितना हो सके बहूबेटे से दूरी बना कर रखनी चाहिए.

मां के प्राण, बेटे में अटकते जरूर हैं, मोह- ममता में मन फंसता भी है. आखिर हमारे ही रक्तमांस का तो अंश होता है हमारा बेटा. लेकिन वह भी तो बहू के आंचल से बंधा होता है. मां और पत्नी के बीच बेचारा घुन की तरह पिसता चला जाता है. मां तो अपनी ममता की छांव तले बहूबेटे के गुणदोष ढक भी लेगी लेकिन बहू तो सरेआम परिवार की इज्जत नीलाम करने में देर नहीं करती. किसी ने सही कहा है, ‘मां से बड़ा रक्षक नहीं, पत्नी से बड़ा तक्षक नहीं.’

मैं गर्वोन्नत हो अपनी समझदारी पर इतरा उठी. यही सही है, न हम बच्चों की जिंदगी में हस्तक्षेप करें न वह हमारी जिंदगी में दखल दें. राधिका बेड रेस्ट पर थी. उस ने अपनी मां को बुला लिया तो मैं ने चैन की सांस ली थी. ऐसा लगा, जैसे मैं कटघरे में जाने से बच गई हूं.

प्रसव के समय भी मजबूरन जाना पड़ा था, क्योंकि राधिका के पीहर में कोई महिला नहीं थी, सिर्फ मां थी, उन्हें भी अपनी बहू की डिलीवरी पर अमेरिका जाना पड़ रहा था.

3 माह का समय मैं ने कैसे काटा, यह मैं ही जानती हूं. नवजात शिशु और घर के छोटेबड़े दायित्व निभातेनिभाते मेरे पसीने छूटने लगे. इतने काम की आदत भी तो नहीं थी. राधिका की आया से जैसा बन पड़ता सब को पका कर खिला देती. रात में भी शुभम रोता तो आया ही चुप कराती थी.

3 माह का प्रसूति अवकाश समाप्त हुआ. राधिका को काम पर जाना था. बेटेबहू दोनों ने हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी.

अविनाश भी 3 माह के शिशु को आया की निगरानी में छोड़ कर जाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मेरी नकारात्मक सोच फिर से आड़े आ गई. मन अडि़यल घोड़े की तरह एक बार फिर पिछले पैरों पर खड़ा हो गया था. मन को यही लगता था कि बहू के आते ही इस घर की कमान मेरे हाथ से सरक कर उस के हाथ में चली जाएगी.

राधिका ने शुभम को अपने ही दफ्तर में स्थित क्रेच में छोड़ कर अपना कार्यभार संभाल लिया. लंच में या बीचबीच में जब भी उसे समय मिलता वह क्रेच में जा कर शुभम की देखभाल कर आती थी. शाम को दोनों पतिपत्नी उसे साथ ले कर ही वापस लौटते थे. दुख, तकलीफ या बीमारी की अवस्था में राधिका और राहुल बारीबारी से अवकाश ले लिया करते थे. मुश्किलें काफी थीं लेकिन विदेशों में भी तो बच्चे ऐसे ही पलते हैं, यही सोच कर मैं मस्त हो जाती थी.

मिसेज सान्याल अकसर मुझे अपने घर बुला लेती थीं. मैं जब भी उन के घर जाती, कभी वह मशीन पर सिलाई कर रही होतीं या फिर सोंठहरीरे का सामान तैयार कर रही होतीं. मानसी का चेहरा खुशी से भरा होता था.

एक दिन उन्होंने, कई छोटेछोटे रंगबिरंगे फ्राक दिखाए और बोलीं, ‘बेटी होगी तो यह रंग फबेगा उस पर, बेटा होगा तो यह रंग अच्छा लगेगा.’

मैं उन के चेहरे पर उभरते भावों को पढ़ने का प्रयास करती. न कोई डर, न भय, न ही दुश्ंिचता, न बेचैनी. उम्मीद की डोर से बंधी मिसेज सान्याल के मन में कुछ करने की तमन्ना थी, प्रतिपल.

एक दिन सुबह ही मिस्टर सान्याल का फोन आया. बोले, ‘‘मानसी को लेबर पेन शुरू हो गया है और उसे अस्पताल ले कर जा रहे हैं. मिसेज सान्याल थोड़ा अकेलापन महसूस कर रही हैं, अगर आप अस्पताल चल सकें तो…’’

मैं तुरंत तैयार हो कर उन के साथ चल दी. मानसी दर्द से छटपटा रही थी और मिसेज सान्याल उसे धीरज बंधाती जा रही थीं. कभी उस की टांगें दबातीं तो कभी माथे पर छलक आए पसीने को पोंछतीं, उस का हौसला बढ़ातीं.

कुछ ही देर में मानसी को लेबररूम में भेज दिया गया तो मिसेज सान्याल की निगाहें दरवाजे पर ही अटकी थीं. वह लेबररूम में आनेजाने वाले हर डाक्टर, हर नर्स से मानसी के बारे में पूछतीं. मिसेज सान्याल मुझे बेहद असहाय दिख रही थीं.

मानसी ने बेटी को जन्म दिया. सब कुछ ठीकठाक रहा तो मैं घर चली आई पर पहली बार कुछ चुभन सी महसूस हुई. खालीपन का अहसास हुआ था. अविनाश दफ्तर चले गए थे. रिटायरमेंट के बाद उन्हें दोबारा एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई थी. मेरा मन कहीं भी नहीं लगता था. घर बैठती तो कमरे के भीतर भांयभांय करती दीवारें, बाहर का पसरा हुआ सन्नाटा चैन कहां लेने देता था. तबीयत गिरीगिरी सी रहने लगी. स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया. मन में हूक सी उठती कि मिसेज सान्याल की तरह मुझे भी तो यही सुख मिला था. संस्कारी बेटा, आज्ञाकारी बहू. मैं ने ही अपने हाथों से सबकुछ गंवा दिया.

डाक्टर ने मुझे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी. राहुल और राधिका मुझे कई डाक्टरों के पास ले गए. कई तरह के टेस्ट हुए पर जब तक रोग का पता नहीं चलता तो इलाज कैसे संभव होता? बच्चों के घर आ जाने से अविनाश भी निश्ंिचत हो गए थे.

राधिका ने दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. चौके की पूरी बागडोर अब बहू के हाथ में थी. सप्ताह भर का मेन्यू उस ने तैयार कर लिया था. केवल अपनी स्वीकृति की मुहर मुझे लगानी पड़ती थी. मैं यह देख कर हैरान थी कि शादी के बाद राधिका कभी भी मेरे साथ नहीं रही फिर भी उसे इस घर के हर सदस्य की पसंद, नापसंद का ध्यान रहता था.

राहुल दफ्तर जाता जरूर था लेकिन जल्दी ही वापस लौट आता था.

शुभम अपनी तोतली आवाज से मेरा मन लगाए रखता था. घर में हर तरफ रौनक थी. रस्सियों पर छोटेछोटे, रंगबिरंगे कपड़े सूखते थे. रसोई से मसाले की सुगंध आती थी. अविनाश और मैं उन पकवानों का स्वाद चखते थे जिन्हें बरसों पहले मैं खाना तो क्या पकाना तक भूल चुकी थी.

कुछ समय बाद मैं पूरी तरह से स्वस्थ हो गई. मिसेज सान्याल हर शाम मुझ से मिलने आती थीं. कई बार तो बहू के साथ ही आ जाती थीं. अब उन पर, नन्ही लक्ष्मी को भी पालने का अतिरिक्त कार्यभार आ गया था. वह पहले से काफी दुबली हो गई थीं, लेकिन शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ दिखती थीं.

एक शाम श्रीमती सान्याल अकेली ही आईं तो मैं ने कुरेदा, ‘अब तक घर- गृहस्थी संभालती थीं, अब बच्ची की परवरिश भी करोगी?’

‘संबंधों का माधुर्य दैनिक दिनचर्या की बातों में ही निहित होता है. घरपरिवार को सुचारु रूप से चलाने में ही तो एक औरत के जीवन की सार्थकता है,’ उन्होंने स्वाभाविक सरलता से कहा फिर शुभम के साथ खेलने लगीं.

राधिका पलंगों की चादरें बदल रही थी. सुबह बाई की मदद से उस ने पालक, मेथी काट कर, मटर छील कर, छोटेछोटे पौली बैग में भर दिए थे. प्याज, टमाटर का मसाला भून कर फ्रिज में रख दिया था. अगली सुबह वे दोनों वापस अपने घर लौट रहे थे.

इस एक माह के अंदर मैं ने खुद में आश्चर्यजनक बदलाव महसूस किया था. अपनेआप में एक प्रकार की अतिरिक्त ऊर्जा महसूस होती थी. तनावमुक्ति, संतोष, विश्राम और घरपरिवार के प्रति निष्ठावान बहू की सेवा ने मेरे अंदर क्रांतिकारी बदलाव ला दिया था.

‘मिसेज सान्याल मुझे समझा रही थीं, ‘देखो, हर तरफ शोर, उल्लास, नोकझोंक, गिलेशिकवे, प्यारसम्मान से दिनरात की अवधि छोटी हो जाती है. 4 बरतन जहां होते हैं, खटकते ही हैं पर इन सब से रौनक भी तो रहती है. अवसाद पास नहीं फटकता, मन रमा रहता है.’

पहली बार मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी सोच बदल गई है और अब श्रीमती सान्याल की सोच से मिल रही है. सच तो यह था कि मुझे अपने बच्चों से न कोई गिला था न शिकवा, न बैर न दुराव. बस, एक दूरी थी जिसे मैं ने खुद स्थापित किया था.

आज बहू के प्रति मेरे चेहरे पर कृतज्ञता और आदर के भाव उभर आए हैं. हम दोनों के बीच स्थित दूरी कहीं एक खाई का रूप न ले ले. इस विचार से मैं अतीत के उभर आए विचारों को झटक उठ कर खड़ी हो गई. कुछ पाने के लिए अहम का त्याग करना पड़ता है. अधिकार और जिम्मेदारियां एक साथ ही चलती हैं, यह पहली बार जान पाई थी मैं.

राहुल और राधिका कार में सामान रख रहे थे. शुभम का स्वर, अनुगूंज, अंतस में और शोर मचाने लगा. राहुल, पत्नी के साथ मुझ से विदा लेने आया तो मेरा स्वर भीग गया. कदम लड़खड़ाने लगे. राधिका ने पकड़ कर मुझे सहारा दिया और पलंग पर लिटा दिया फिर मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मां?’’

‘‘मैं तुम लोगों को कहीं जाने नहीं दूंगी,’’ और बेटे का हाथ पकड़ कर मैं रो पड़ी.

‘‘पर मां…’’

‘‘कुछ कहने की जरूरत नहीं है. हम सब अब साथ ही रहेंगे.’’

मेरे बेटे और बहू को जैसे जीवन की अमूल्य निधि मिल गई और अविनाश को जीवन का सब से बड़ा सुख. मैं ने अपने हृदय के इर्दगिर्द उगे खरपतवार को समूल उखाड़ कर फेंक दिया था. शक, भय आशंका के बादल छंट चुके थे. बच्चों को अपने प्रति मेरे मनोभाव का पता चल गया था. सच, कुछ स्थानों पर जब अंतर्मन के भावों का मूक संप्रेषण मुखर हो उठता है तो शब्द मूल्यहीन हो जाते हैं.

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