Serial Story: अंत (भाग-3)

कभीकभी इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे सा रिसने लगता है. ऐसा ही एक दिन श्रीकांत के साथ भी हुआ था. सजीसंवरी, खुशबू से सराबोर हेमा घर से निकल कर कार की तरफ मुड़ रही थी कि श्री उस का मार्ग रोक कर खड़े हो गए थे.

‘कैसी मां हो तुम? किस कुसूर की सजा दे रही हो तुम अपनी बच्ची को? आखिर कब तक घरगृहस्थी और अपनी बेटी के प्रति दायित्वों से मुंह मोड़ कर दूर भागती फिरोगी?’

‘सजा कुसूरवार को दी जाती है श्रीकांत. तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं है. मैं तुम्हें सजा कैसे दे सकती हूं? मैं ने तो सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि महेश को भुलाने में मुझे समय लगेगा. तुम कहो तो मैं यहां रहूं, नहीं तो, जा भी सकती हूं. मेरी तरफ से तुम भी पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’

संवेदनशील श्रीकांत, पत्नी का चेहरा निहारते रह गए थे. ‘क्या अनैतिक संबंधों का पलड़ा, नैतिक संबंधों की मर्यादा से भी भारी हो सकता है?’ यही सोचसोच कर वे घुटते रहे थे.

बेटे का दुख अरुंधतीजी के शरीर को घुन की तरह खाता जा रहा था. हर समय खुद को श्रीकांत का दोषी समझतीं. कमलापतिजी ने तो अपने गर्व और अभिमान के वशीभूत हो कर सुलभा का रिश्ता ठुकरा दिया था किंतु वे तो मां थीं. विरोध कर सकती थीं पति की सोच का. ऐसे मानसम्मान और दहेज का क्या करें, जिस ने उन के बेटे का जीवन ही बरबाद कर दिया. कई बार मन में आता, दुर्गाप्रसादजी से बात करें, शायद वे ही बेटी को समझा सकें किंतु फिर मन में डर उपजता कि स्थिति कहीं और विस्फोटक न हो जाए. बेटे का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता था जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंच गया था. जबान तालू से चिपकती गई. और एक दिन देखते ही देखते उन के प्राण पखेरू उड़ गए.

श्रीकांत अकेले रह गए थे इस संसार में. वह कंधा, जिस पर सिर रख कर वे अपना मन हलका कर लेते थे, वह भी छिन गया था. 13 दिन रह कर श्री वापस लौट आए थे. मां की तरह देवयानी ताई भी उन्हें भरपूर स्नेह देती थीं. उन के साथ बैठ कर दुखसुख बांट लेते थे.

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हेमा ने तो 13 दिन श्वेत वस्त्र धारण कर के, आंसू के 2-4 कतरे बहाए और फिर लौट गई अपनी दिनचर्या में. बाहरी चकाचौंध के सामने उस की नजरों में पति का दुख काफी छोटा था.

एक दिन, एकाकी श्रीकांत छत पर अकेले बैठे चांदनी निहार रहे थे. मां को याद कर के कभी हंसते, कभी रो पड़ते. देवयानी ताई उन्हें ढूंढ़ते हुए छत पर पहुंच गई थीं. श्रीकांत के मौन को तोड़ने के उद्देश्य से उन्होंने पूछा, ‘हेमा कहां गई?’

‘मुझे नहीं मालूम.’

‘बता कर या पूछ कर भी नहीं जाती?’ उन्होंने साधिकार प्रश्न किया था.

‘नहीं,’ उन्होंने ताई का प्रश्न सुन कर छोटा सा उत्तर दिया था.

‘तू क्यों नहीं साथ जाता?’

‘मैं?’ श्रीकांत, फीकी हंसी हंस दिए थे, ‘मैं कैसे चला जाऊं? वह हर जगह अकेले ही जाना पसंद करती है.’

‘अकेले?’ देवयानी ताई ने चौंक कर कहा था, ‘गुड़गांव साइबर सिटी में मेरी बेटी शालिनी का औफिस है. दामाद भी वहीं बैठते हैं. दोनों ने हर दिन कार में एक पुरुष के साथ उसे आतेजाते देखा है.’

जेहन में चुभता सोच का टुकड़ा अंतर्मन के सागर में फेंक कर श्रीकांत निष्प्रयत्न बोले, ‘ताई, मुझे सब मालूम है. बड़ों की सामाजिक मर्यादा और अपनी इकलौती बेटी की खातिर ही सब बरदाश्त कर रहा हूं. लोगों को जरा सी भी भनक पड़ गई कि लड़की की मां बदचलन है तो उस की जिंदगी बरबाद हो सकती है.’

‘कौन है यह पुरुष?’

‘महेश, हेमा का पुराना प्रेमी.’

फिर तो प्याज के छिलकों की तरह श्रीकांत के अवसाद की एकएक तह खुलती गई. उन का दुख उस सड़क की भांति था जो कहीं नहीं पहुंचती. बस, भूलभुलैया की तरह उलझाए रखती है.

‘सब के सामने उसे अपना बड़ा भाई बताती है लेकिन परदे के पीछे कुछ और ही चलता है. बुटीक जाने का तो एक बहाना है. दरअसल, वह महेश की बिखरी गृहस्थी संभालने जाती है.’

‘लेकिन, महेश तो अमेरिका में था.’

देवयानी ताई श्रीकांत की जिंदगी से जुड़ी, किसी भी बात से अनभिज्ञ नहीं थीं. हेमा के रंगढंग भी तो ऐसे ही थे. इस परिवार की घनिष्ठ थीं वे, शुभचिंतक भी थीं.

‘महेश का अपनी पत्नी से तलाक हो गया है. दरअसल, उस की पत्नी को हेमा और महेश के प्रेमसंबंधों के बारे में पता चल गया था. महेश ने लाख झुठलाया, पत्नी को समझाया, लेकिन हेमा और महेश के बीच नियमित रूप से चल रहे फोन कौल और मैसेज इस बात का साक्ष्य थे कि दोनों के बीच अब भी कोई गहरा संबंध है.’

‘ये बातें तुम्हें किस ने बताईं?’

‘स्वयं हेमा ने. पत्नी से तलाक हो जाने के बाद महेश दिनरात शराब पीता है. लिवर में सूजन आ गई है. उसे ले कर हेमा अस्पतालों के चक्कर काटती रहती है. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर, एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल. यही दिनचर्या रह गई है उस की. कुछ कहता हूं तो कहती है, तुम्हारा कोई भाईबहन नहीं है, इसीलिए तुम मेरा दुख नहीं समझ पा रहे हो.’

‘श्रीकांत, वह तो ठीक है, मगर कुछ तो तुम्हें भी करना होगा. घुलने से अच्छा है उसे घुलाओ. महेश और हेमा के बीच दीवार खड़ी करो. अपने जायज हक के लिए लड़ो तो,’ ताई का सब्र जवाब देता जा रहा था.

‘मगर कैसे? हेमा से कहता हूं तो कहती है, तुम मुझे मरा हुआ क्यों नहीं समझते? दिल बेचैनियों से सराबोर हो जाता है. जायज हक पाने के लिए मुझे हेमा से दूर रहना पड़ेगा, जिस का असर मेरी बेटी पर पड़ेगा. बस, इसीलिए विवश हो कर सह रहा हूं. बेटी के ब्याह के बाद ही कुछ करूंगा. फिलहाल तो इस घुटनभरे माहौल में रह कर, खुद को मजबूत बनाना है.’

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वक्त का पहिया अपनी गति से चलता रहा. कशिश, डाक्टर बन गई. अपने कालेज जीवन में ही उस ने जीवनसाथी भी चुन लिया. डा. विक्रम कौल. दद्दा ने सुना तो अपना नादिरशाही फरमान जारी कर दिया था :

‘हम ब्राह्मण हैं, विक्रम कश्मीरी. न विचार मिलेंगे, न रीतिरिवाज.’

‘यह आप ने कैसे कह दिया? एक बार मिल तो लीजिए विक्रम से. मुझे पूरा विश्वास है वह आदर्श दामाद और अच्छा पति साबित होगा,’ कशिश ने दद्दा के स्वर से 1 डिगरी ऊंचे स्वर में बात की तो दद्दा चुप हो गए थे.

श्रीकांत हैरान रह गए थे बेटी के दृढ़ स्वर को सुन कर. सोच रहे थे, कितना अंतर आ गया है समय में. वर्ग, धनसंपदा, जांतिपांति जैसी बातों की उखाड़पछाड़ न कर के युवकयुवतियों का स्वयं जीवनसाथी पसंद करना, मातापिता के हृदय में आए उदार परिवर्तन, ये सब 25 साल पहले क्यों नहीं थे?

शादी की तैयारियां शुरू हो गई थीं. शौपिंग, कैटरिंग, फार्महाउस की बुकिंग, जेवरातों की खरीदफरोख्त. इन सब में कैसे समय बीत जाता, पता ही नहीं चलता था. शगुनों के समय औरतें सुहाग गा रही थीं. बंदनवार सजे हुए थे. पकवानों की खुशबू से पूरा आंगन महक रहा था. 7 बजे वर पक्ष के लोग पहुंचने वाले थे.

‘हेमा कहां है?’ देवयानी ताई ने श्रीकांत से पूछा था.

‘यहीं कहीं होगी.’

‘दिखाई तो नहीं दे रही?’ देवयानी ने बारबार अपना प्रश्न दोहराया तो श्रीकांत के आक्रोश का लावा राख में दबी चिंगारी की तरह धधक उठा था, ‘आप तो जानती हैं उस का होना न होना बराबर है. आज भी सुबह से ही महेश के घर पर है.’

‘आज भी?’

‘हूं, महेश की हालत गंभीर है. कैंसर आखिरी स्टेज पर है.’

‘शाम तक तो आ जाएगी?’ कहीं श्रीकांत की तपस्या अकारथ तो नहीं चली जाएगी, यही सोच कर बारबार वे श्रीकांत से पूछ रही थीं. पर श्रीकांत ने कोई उत्तर नहीं दिया था.

ठीक 7 बजे कश्मीरी सुहाग चिह्न ‘अटेरू’ धारण किए हुए कुछ महिलाएं हौल में प्रविष्ट हुईं. साथ में पुरुष भी थे. सिल्क के कुरतेपजामे के ऊपर गरम शौल और सिर पर टोपी. ऐसा लगा जैसे पूरा कश्मीर ही सिमट आया था उस बडे़ से हौल में. आमनेसामने सोफे पर बैठे दोनों समधियों ने फूलों का गुलदस्ता आपस में बदल कर, कशिश और विक्रम के संबंध को मान्य ठहराते हुए और भी मजबूत बना दिया था. फूलों से सजे झूले पर कशिश और विक्रम ने हीरों से दमकती अंगूठी एकदूसरे की उंगली में पहनाई तो श्रीकांत ने आशीर्वचनों से बेटीदामाद की झोली भर दी थी.  तभी नाभिदर्शना साड़ी, कटे हुए बाल, गहरे कटावदार गले का ब्लाउज पहने इधरउधर डोलती हेमा, न जाने कहां से प्रकट हुई. श्रीकांत ने एक उड़ती हुई सी निगाह उस पर डाली, फिर मेहमानों की आवभगत में जुट गए. हेमा जैसे ही शगुन के किसी सामान को हाथ लगाती, श्रीकांत के दांत भिंच जाते. फिर अभ्यागतों का ध्यान कर के उस सामान को आगे सरका देते.

रात 11 बजे तक गानाबजाना चलता रहा. कशिश और विक्रम की खूबसूरत जोड़ी देख सभी खुश थे. इस समय हेमा के व्यवहार में एक आदर्श पत्नी और गौरवशाली मां का बोध था. श्रीकांत सब के सामने तो हेमा के साथ सहजता से पेश आ रहे थे पर भीड़ छंटते ही उस से दूर छिटक जाते थे. जैसे दोनों के बीच कोई रिश्ता ही न हो. देखने वाले, चाहे उन की तटस्थता का मूल कारण समझ नहीं रहे थे, क्योंकि जिंदगी के उन कड़वे वर्षों के विषय में उन्हें जानकारी ही कहां थी जो उन्होंने हेमा के साथ बिताए थे. स्वयं श्रीकांत ने ही तो अपने मरुस्थलनुमा जीवन पर परदा डाला हुआ था.

कशिश और विक्रम परिणयसूत्र में बंध गए. कशिश की विदाई के बाद श्रीकांत को अकेलापन बुरी तरह कचोटने लगा था, जैसे कुछ भी नहीं रह गया था करने के लिए. स्थानीय ससुराल होने के कारण बेटीदामाद अकसर आते रहते थे. समधी भी सज्जन थे. उन का ध्यान रखते थे. पर दूसरों के आसरे तो जीवन नहीं कटता.

श्रीकांत की दिनचर्या अब गरीबों, दीनदुखियों और बेसहारा लोगों की सेवासुश्रूषा में बीतने लगी. शुरू से ही उन्हें गरीबों की सेवा करने का मन था, अब और भी लगने लगा. एक दिन उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी और फ्लैट बेच कर गे्रटर नोएडा में एक प्लौट खरीदा और एक आश्रम के निर्माणकार्य में जुट गए. हेमा भी अब उन का हाथ बंटाने के लिए हर समय तत्पर रहती थी. वह जितना उन से और बेटीदामाद से जुड़ने का प्रयत्न करती, सब उस से दूर छिटक जाते.

अपनी अवहेलना, हेमा बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. शुरू से ही अभिमान की भावना उस में कूटकूट कर भरी थी. एक दिन साहस बटोर कर श्रीकांत से बोली, ‘श्रीकांत, मुझे माफ कर दो, थोड़ा सा सहारा दे दो. तुम्हारे आश्रम में मेरा भी योगदान रहेगा,’ हेमा लगभग गिड़गिड़ा रही थी.

‘हेमा, मैं खुद असहाय हूं. फिर किसी का सहारा कैसे बन सकता हूं? सारी उम्र इसी आस में जीता रहा कि कभी तो तुम्हें अपने दायित्वों का बोध होगा. फिर कशिश की खातिर जीता रहा. तुम्हें तो उस की भी परवा नहीं थी. लेकिन मैं उसे राह दिखाता रहा. मैं ने 25 वर्ष का कारावास झेला है. अब अपने दायित्वों से मुक्त हो पाया हूं. इसीलिए बिना किसी व्यवधान के खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं,’ श्रीकांत ने दुखी स्वर में कहा.

‘श्रीकांत, मेरी आंखों के आगे गर्दोगुबार ही उड़ रहा है. इस बुढ़ापे के प्रभात में तुम्हें छोड़ कर मेरा कोई सहारा नहीं है,’ उस के स्वर में अनुनय का पुट था.

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हेमा के विषय में श्रीकांत को जानकारी मिलती रहती थी. महेश की मृत्यु हो गई थी. उस का जो कुछ रुपयापैसा था, उस के भाईभतीजे ले गए. हेमा के पास अब कुछ नहीं था. वह पाईपाई के लिए मुहताज हो गई थी.

‘श्रीकांत, तुम मेरे अंधेरे जीवन की चांदनी हो. एक ऐसी चांदनी जो सींखचों में कैद रही. अब तुम मेरे जीवन को अपनी चांदनी में नहला कर मेरे गुनाह माफ कर दो,’ हेमा अब भी श्रीकांत के चरण पकड़े हुए थी.

‘हेमा, संध्या के धूमिल प्रहर में कोई सवेरे का वरदान मांगे तो यह उस की भूल है. मुझे बहकाना बंद करो. आज भी तुम्हें तुम्हारी जरूरत ने मजबूर किया है वरना क्या 25 वर्षों के साथ ने तुम्हें मुझ से न जोड़ा होता? तुम मुझे समझ नहीं सकीं पर मैं तुम्हें समझ चुका हूं. अपने प्यार, विश्वास और रिश्ते के कारण तुम्हें बदलने का प्रयास करता रहा. पर अब नहीं.’

तभी कशिश और विक्रम, कमरे में आए थे. शाम का समय, मरीजों के लिए तय था. एक प्यारभरी दृष्टि कशिश पर उकेर कर हेमा ने कहा, ‘मैं खुशनसीब हूं कि मुझे इतनी प्यारी बेटी मिली.’

सैलाब के क्षणों में जैसे समूची धरती उलटपलट जाती है वैसे ही कशिश के अंतस में भयावह हाहाकार जाग उठा था, बिना एक क्षण गंवाए ही वह तपाक से बोली, ‘मैं जो कुछ भी हूं अपने पापा की बदौलत हूं. उन का त्याग मैं कभी नहीं भूल सकती.’

‘और मैं? मैं तुम्हारी मां हूं, कशिश. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है, बेटी.’

‘जन्म देने से ही मां का दायित्व संपूर्ण नहीं हो जाता,’ कशिश के चेहरे पर घृणा के भाव मुखरित हो उठे थे, ‘तुम तो सारी उम्र मामा के इर्दगिर्द ही चक्कर लगाती रहीं. मैं जानती हूं, वह तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा प्रेमी था, महेश. पापा ने चाहे मेरा इस सच से परिचय नहीं करवाया पर मैं उस से मिल चुकी हूं. वार्ड नंबर 6. कैंसर की बीमारी से ग्रस्त, ऐसे मरीज उस वार्ड में थे जिन के ऊपर, कीमोथेरैपी, रेडियोथेरैपी, दवाएं सभी हार जाती हैं. राउंड लेते समय मैं ने कर्मशिला अस्पताल में कई बार तुम्हें उस का माथा दबाते, उस की पेशानी पर उभर आए स्वेद बिंदुओं को नरम तौलिए से पोंछते देखा है. उस की बेचैनी के साथ तुम्हें बेचैन होते देखा है. उस की घबराहट देख तुम्हें घबराते देखा है. तुम मेरी मां कभी नहीं हो सकतीं.’

‘श्रीकांत?’ सूनी आंखों से, उस ने श्रीकांत को एक बार फिर से पुकारा.

श्रीकांत ने पहले कही बात फिर दोहरा दी थी.

अपने प्रति अपने परिवारजनों की बेरुखी देख कर हेमा कुंठाग्रस्त हो गई. बातबात पर चीखतीचिल्लाती, लड़तीझगड़ती. कोई समझाने के लिए आगे बढ़ता तो आक्रामक हो कर उसे नुकसान पहुंचाने के लिए उद्यत हो उठती. श्रीकांत ने उसे मनोचिकित्सक को दिखाया और उन के कहने पर उसे मैंटल हौस्पिटल में भरती करवा दिया.

जीवन में सुखदुख सब एकसाथ चलते हैं. कुछ लोग अपने दुख, क्रोध या उदासी को मिटाने का प्रयत्न कर के, विक्षिप्तावस्था से खुद को उबार लेते हैं. लेकिन यदि जीने की लालसा ही समाप्त हो जाए तो यही कुंठा और उदासी व्यक्ति के स्वास्थ्य को पूरी तरह तहसनहस कर डालती है और यही हेमा के साथ हुआ था.

श्रीकांत ने पूरे आश्रम की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी. व्यस्त दिनचर्या के बावजूद बेटीदामाद भी नियमित रूप से आश्रम आते थे. श्रीकांत का कद बढ़ता जा रहा था. लोग उन्हें मानसम्मान देते. श्रीकांत के आश्रम ‘आनंदधाम’ को कई पुरस्कार मिले. मीडिया में उन की प्रशंसा के कसीदे पढ़े गए. साक्षात्कार लिए गए. हेमा यह सब देखती, सुनती तो और उदास हो जाती. न खाती, न पीती. अपनी बांहों में सिर छिपा कर अंधेरे में गुमसुम सी बैठ जाती.

श्रीकांत को यह सब अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उन्होंने यह सब ख्याति प्राप्त करने के लिए नहीं, मन को शांति और संतुष्टि प्रदान करने के लिए किया था. लेकिन उन की प्रसिद्धि और ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही थी.

हेमा की दशा दिनपरदिन बिगड़ती जा रही थी. डाक्टरों ने उसे इलैक्ट्रिक शौक देना शुरू कर दिया. इलैक्ट्रिक शौक के समय जब श्रीकांत उस के बंधे हाथ देखते तो परेशान हो उठते.

एक दिन जब वे हेमा से मिलने गए तो वह कमरे के एक कोने में सिमटीसिकुड़ी बैठी थी. उसे अन्य मरीजों के साथ नहीं रखा जाता था क्योंकि वह कभी भी दूसरे मरीजों को आघात पहुंचा सकती थी. डाक्टर तो श्रीकांत को भी हेमा से मिलने के लिए मना करते थे लेकिन श्रीकांत नहीं मानते थे. वैसे भी हेमा उन पर जल्दी अपना आक्रामक व्यवहार प्रदर्शित नहीं करती थी.

उस दिन, जब वे उस के पास गए तो हेमा बांहों में अपना मुंह छिपा कर बैठी थी. उन्हें देख कर वह जोरजोर से रोने लगी, ‘मुझे मेरा घर चाहिए, मेरा घर चाहिए, मेरी बेटी चाहिए,’ फिर रोतेसिसकते धीमे स्वर में बोली, ‘मुझे माफ कर दो, श्रीकांत.’

कितना विचित्र है इंसान का स्वभाव. जो कुछ सरलता से प्राप्त हो जाता है, पाने वाले की नजरों में उस की कद्र नहीं होती. और जो कुछ नहीं मिलता वही उसे अनमोल लगता है. वह उसी की तलाश में हर समय भटकता है. अपने असंतोष और तृष्णा की वजह से जीवन के ऐसे मोड़ पर जा खड़ा होता है जहां वह खुद अपनी नजरों का सामना करने योग्य नहीं रह जाता.

श्रीकांत कुछ देर वहीं बैठे रहे. फिर उठ कर चले आए.

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आज 3 दिन बाद मैंटल हौस्पिटल से डा. सहाय द्वारा यह खबर आई कि हेमा को भयानक दौरा पड़ा और उसी में वह खिड़की से गिर गई. लोग चाहे कुछ भी कहें मगर श्रीकांत समझ गए थे, यह हादसा नहीं था. हेमा ने जानबूझ कर अपनी जान दी थी.

सुबह के 4 बज चुके थे. श्रीकांत नहाधो कर दैनिक क्रियाकलाप से फारिग हुए और गैराज से कार निकाली. पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. सोच रहे थे गणित नहीं है जिंदगी, जिस के हर सूत्र का एक स्पष्ट एवं सिद्ध उत्तर हो. जिंदगी के अपने उसूल होते हैं, अपने कायदे होते हैं. विवाहबंधन में बंधने के बाद हेमा ने अतीत से निकल कर वर्तमान को अपनाया होता तो शायद उस का ऐसा दयनीय अंत न हुआ होता. अतीत तो सब का होता है, अच्छा या बुरा. उन्होंने भी तो अपने अतीत को भुलाया था. हेमा क्यों नहीं भुला पाई? इन्हीं विचारों में उलझते हुए उन्होंने गाड़ी की गति तेज कर दी.

Serial Story: अंत (भाग-2)

सुलभा और श्रीकांत दोनों ही बालिग थे. जिंदगी की छोटीबड़ी बारीकियों से पूरी तरह परिचित. अपना भलाबुरा सोचने की पूरी कूवत थी दोनों में. चाहते तो अपने अधिकारों का प्रयोग कर के कोर्टमैरिज कर सकते थे. लेकिन पिता की रूढि़वादी विचारधारा का विरोध करना तो दूर, अपनी प्रेमिका से मिलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे. कदम ही नहीं बढ़े थे उस ओर. दद्दा ने बड़ी ही चालाकी से सुलभा और उस के परिवार के हर सदस्य को दृश्यपटल से ही ओझल कर दिया. सुलभा व उस के परिवार के सदस्य कहां हैं, इस की जरा भी भनक, न श्रीकांत को मिली न ही घर वालों को.

रिश्तों की कमी नहीं थी. पर दद्दा को हर रिश्ते में कोई न कोई खामी नजर आ ही जाती थी. आखिर बड़ी ही जद्दोजहद के बाद उन्हें दीवान दुर्गा प्रसाद की इकलौती सुपुत्री हेमा का रिश्ता श्रीकांत के लिए उपयुक्त लगा था. कुछ नहीं कह पाए थे श्रीकांत तब. दोनों पक्षों की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा की वेदी पर उन की हर खुशी कुरबान चढ़ गई. हेमा, सजातीय तो थी ही, लाखों का दहेज भी लाई थी. ऐसी धूमधाम की शादी हुई कि लोग देखते ही रह गए.

लेकिन हेमा के बारे में दद्दा का अनुभव गलत साबित हुआ. प्रथम साक्षात्कार के समय सुहागरात की बेला में ही, बिना कोई भूमिका बांधे, उस ने अपने मन की बात कह दी थी :

‘हमारे समाज में अधिकांश विवाह लड़की की सहमति के बिना ही होते हैं. मातापिता अपनी बेटी के लिए जीवनसाथी नहीं ढूंढ़ते. अपने परिवार की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए ऐसे इंसान को खोजते हैं जो जीवनभर उन की बेटी को सुखी रख सके.’

हेमा के शब्दों में ऐसा भाव था जिस ने श्रीकांत के मन को छू लिया था.

‘श्रीकांतजी, मैं किसी और से प्यार करती थी. मैं ने कई बार इस विवाह का विरोध किया पर मां और पापा नहीं माने. आप को बुरा तो लगेगा पर मैं सच कह रही हूं. मैं ने आप को एक नजर देखा भी नहीं था.’

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कल्पना का महल खंडित हो चुका था. श्रीकांत अपनी जगह से न हिले न डुले. यों ही बैठे रहे, जड़वत. उन्हें ऐसा लगा जैसे वे जमीन में धंसते चले जा रहे हैं. ऐसे समय में कोई नवविवाहित पुरुष कह भी क्या सकता था? बस, हेमा के अगले वाक्य की प्रतीक्षा करते रहे थे.

‘महेश को भुलाने की पूरी कोशिश करूंगी पर आप को इस के लिए मुझे कुछ समय देना होगा.’

‘महेश कहां है?’ टूटतेबिखरते स्वर को संयत कर के उन्होंने पूछा था.

‘अमेरिका में है. उस का विवाह हो चुका है.’

अगले दिन अरुंधतीजी थाल में नए वस्त्र और आभूषण ले कर कक्ष में आई थीं जिन्हें शरीर पर धारण कर के हेमा को आगंतुकों से शुभकामनाएं और आशीर्वाद ग्रहण करना था. मां का हाथ पकड़ कर सिसक उठे थे श्रीकांत. हेमा का कहा एकएक शब्द उन्होंने मां के सामने दोहरा दिया था.

वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बावजूद अरुंधतीजी न चौंकीं न परेशान ही हुईं. यह जानतेबूझते भी कि जो कुछ हुआ, गलत हुआ है. बेटे को ही समझाती रही थीं, ‘धीरज रखो श्री. समय हर घाव भर देता है. किसी विजातीय निर्धन परिवार की कन्या, हमारे घर की बहू कैसे बन सकती थी?’

‘चाहे उस के लिए अपने बेटे की संपूर्ण खुशियां ही दांव पर क्यों न लग जाएं?’ अत्यंत भावहीन कांपते स्वर में मां से प्रतिप्रश्न किया था उन्होंने.

‘कुछ लड़कियां चंचल प्रकृति की होती हैं. शुक्र कर बेटा, जो उस ने अपने संबंध का सही चित्रण किया है तेरे सामने. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू सामदामदंडभेद जैसा कोई भी अस्त्र प्रयोग कर के, अपनी पत्नी का मन कैसे जीतता है? अगर तू ऐसा नहीं कर पाया तो दोष तेरे ही अंदर होगा. कम से कम मैं तो ऐसा ही समझती हूं.’

मां द्वारा हेमा का पक्ष लिया जाना उन्हें बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की पुष्टि कर गया था कि जैसे भी हो, उन्हें हालात से समझौता करना ही है. फिर अरुंधतीजी ने बहू की ओर रुख किया था, ‘देखो हेमा, तुम इस घर की बहू हो. इस घर की मानमर्यादा तुम्हें ही बना कर रखनी है. समाज में हमारा मानसम्मान है, इज्जत है. ऐसा कोई भी कदम मत उठाना जिस से हमारे परिवार की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे.’

सुबह से शाम तक कीमती साडि़यों और आभूषणों से सजीधजी हेमा इधरउधर डोलती थी. हर सभासोसाइटी में, हर समारोह में पति की अर्धांगिनी बनने का फर्ज बखूबी निभाती. लेकिन दिन का उजास जब रात की काली चादर में सिमटने लगता तो करवटें बदलते हुए पूरी रात आंखों ही आंखों में काट देती. पति की अंकशायिनी बनने के बावजूद उस का पूरा शरीर बर्फ की मानिंद ठंडा पड़ा रहता. श्रीकांत कभी गहरी नींद में सो रहे होते तो हेमा के मोबाइल पर बजने वाली घंटियां और मैसेज की टनटनाहट इस बात का स्पष्ट संकेत दे जाती कि देह से हेमा उन के साथ रहती थी पर उस के दिल पर महेश का ही अधिकार था. श्रीकांत देख कर भी अनदेखा कर देते, सुन कर भी अनसुना कर देते. बस, इस आस और उम्मीद में जी रहे थे कि जिस तरह उन्होंने अपने जीवन की किताब से सुलभा के साथ बिताए हुए उन चंद सुनहरे पृष्ठों को फाड़ कर फेंक दिया है वैसे ही, हेमा भी अपने अतीत को भुला कर उन्हें और उन के परिवार को अपना लेगी. लेकिन श्रीकांत का हरसंभव प्रयत्न बेकार ही चला गया.

स्नेह के पात्र की तरह मनुष्य घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है लेकिन हेमा के दिल में पति के लिए न भावनाएं थीं न संवेदनाएं, न आदर न ही सम्मान. ऐशोआराम में पली नकचढ़ी हेमा, मानसम्मान, व्यवहार, शिष्टाचार की परिभाषा से पूरी तरह विमुख थी.

श्रीकांत सोचते थे. विवाह एक ऐसा बंधन है जहां पतिपत्नी एकदूसरे के सुखदुख के साथी होते हैं. लेकिन हेमा ने अपने स्वभाव से ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं कि उन का जीवन दूभर हो गया था. कितनी बार अपने परिजनों के बीच वे दया के पात्र बन चुके थे.

एक तरफ नौकरी की व्यस्तता और दूसरी तरफ हेमा के कारण उत्पन्न तनाव. मातापिता शांति से जीवन गुजार सकें, यही सोच कर श्रीकांत ने दिल्ली के लिए तबादले की अर्जी दे दी थी. यह सुनते ही अरुंधतीजी उदास हो गई थीं. इकलौता बेटा, उसे आंखों से ओझल कैसे होने देतीं? हेमा की कोख में 4 माह का गर्भ भी तो सांस ले रहा था. ऐसे समय में औरत को विशेष देखभाल की जरूरत होती है, यह सोचसोच कर वे परेशान हुई जा रही थीं. नया शहर, नए लोग. कैसे जाने देतीं अकेले? लेकिन श्रीकांत नहीं माने थे.

‘मुझे तो भुगतना ही है. कम से कम आप लोग तो हेमा के प्रहारों से छलनी होने से बच जाओगे.’

नोएडा में 3 कमरों का मकान किराए पर ले लिया था श्रीकांत ने. मकान मालकिन, मकान के अगले हिस्से में रहती थीं. अरुंधतीजी स्वयं आई थीं बेटे की गृहस्थी बसाने के लिए. साथ में हरि काका को भी लाई थीं. मकान मालकिन से पुरानी जानपहचान भी निकल आई थी. सभी उन्हें देवयानी ताई कह कर पुकारते थे. उन्हीं की मदद से उन्होंने बेटे की गृहस्थी की हर चीज मुहैया कर ली थी.

बहू के प्रसव तक वे यहीं रही थीं. अपनी संतान से बढ़ कर उन्होंने हेमा की देखभाल की थी. प्रसव के बाद नन्ही कशिश की मालिश अपने हाथों से करतीं, उसे नहलातींधुलातीं, लोरी दे कर सुलातीं. देवयानी ताई का साथ हमेशा मिला था उन्हें. हेमा उन से बातबात पर उलझती, उन का निरादर करती. मां के समर्पण के सामने श्रीकांत स्वयं को बौना महसूस करते थे. जितने दिन वे रहीं, एक पल भी सुख का नहीं काट सकी थीं. बुरा तो अरुंधतीजी को भी लगता था पर श्रीकांत का मन बनाए रखने के लिए उन्हें समझाया था उन्होंने.

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‘तू दिल छोटा मत कर. एक बार मातृत्व बोध होने पर हेमा खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी,’ पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. स्वच्छंद होते ही हेमा पर फैलाने लगी. कशिश के मातापिता श्रीकांत ही थे. उस की किलकारियां श्रीकांत ने सुनीं या देवयानी ताई ने. हेमा ने तो कभी उस की भूखप्यास की चिंता नहीं की थी. वैसे भी यह तो भावनाओं की बात है. जिसे सांसारिक रिश्ते निभाने ही न हों वह इन रिश्तों का मोल क्या जाने?

मौजमस्ती, गुलछर्रे उड़ाना ही हेमा के काम्य थे और यही प्राप्ति. एक दिन हेमा ने एक चौंका देने वाला प्रस्ताव श्रीकांत के सामने रखा, ‘मैं कुछ करना चाहती हूं.’

‘तो करो. घर में बहुत काम हैं करने के लिए,’ श्रीकांत खुश हो गए थे. देर से ही सही, हेमा के मन में कर्तव्यबोध की भावना तो जागी.

‘ये सब नहीं, श्रीकांत. ये काम तो घर में बाई और नौकर भी कर सकते हैं.’

‘तो फिर?’ श्रीकांत ने साश्चर्य पूछा था.

‘कोई बिजनैस.’

‘उस के लिए पैसा कहां से आएगा?’ कशिश की शिक्षा और विवाह के लिए भविष्य निधि योजना में रकम जमा करते समय उन के हाथ सहसा रुक गए थे.

‘उस की व्यवस्था हो जाएगी. मेरे कई मित्र हैं जो मेरी सहायता के लिए हर समय तैयार रहते हैं. यदि फिर भी कमी हुई तो अपने गहने गिरवी रख दूंगी.’

‘कौन सा मित्र और कहां का मित्र,’ श्रीकांत बखूबी समझ रहे थे. हेमा ने भी उन से सहमति या अनुमति नहीं मांगी थी, सिर्फ सूचना भर दी थी.

हेमा ने गुड़गांव में एक बुटीक खोल लिया था. श्रीकांत ने विरोध प्रकट किया था उस समय.

‘नोएडा इतना बड़ा क्षेत्र है, बुटीक खोलना ही था तो यहां शुरू करतीं. आनेजाने में समय भी बरबाद न होता. कशिश की देखभाल भी हो जाती.’

‘श्रीकांत, गुड़गांव में जितने सुंदर अवसर मिलेंगे उतने नोएडा में नहीं मिल सकते. अगर पैसा कमाना है तो दौड़भाग तो करनी ही पड़ेगी, मेहनत भी करनी होगी.’

श्रीकांत ने चुप्पी साध ली थी. कुछ कहने का मतलब था घर में तूफान को बुलावा देना. वे शुरू से ही शांतिप्रिय व्यक्ति थे. समझौते और सामंजस्य की भावना कूटकूट कर भरी थी उन में.

2 साल की कशिश वहीं आंगन में ठुमकती रहती. देवयानी ताई ने दोनों घरों के बीच का दरवाजा खोल दिया था. नन्ही सी बच्ची के मुंह में जब ताई निवाला डालतीं तो श्रीकांत क्षुब्ध हो उठते. बुखार में तपती कशिश के माथे पर जब हरि काका को पट्टियां बदलते देखते तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता. कशिश बोलना सीखी तो मां के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती जिन का श्रीकांत के पास कोई उत्तर न होता. क्या करती है. कहां जाती है. कितना कमाती है और कितना खर्चती है, इन सब बातों की, जरा भी जानकारी होती उन्हें, तब तो कुछ कहते भी. चतुर घाघ सी हेमा ने ऐसी संवेदनशील बातों से उन्हें हमेशा दूर ही रखा था.

क्रमश:

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Serial Story: अंत (भाग-1)

रात को 12 बजे फोन की घंटी बजी. श्रीकांत ने फोन उठाया. डा. सहाय थे. मैंटल हौस्पिटल से बोल रहे थे.

‘‘श्रीकांत, एक बुरी खबर है, हेमा नहीं रहीं.’’

‘‘क्या?’’ कुछ घुटती हुई आवाज उन के गले से निकली, फिर गले में ही दब कर रह गई थी.

‘‘हेमा को अचानक फिर से दौरा पड़ा. जब तक नर्स उन्हें संभाल पाती तब तक वे 5वीं मंजिल की खिड़की से छलांग लगा चुकी थीं.’’

हेमा की लाश को मौर्चरी में रखने के लिए कह कर श्रीकांत ने लंबी सांस भरी और शरीर की थकावट दूर करने के लिए बिस्तर पर लेट गए. उन के निवास से मैंटल हौस्पिटल की दूरी लगभग 50 किलोमीटर थी. कशिश और विक्रम आधा घंटा पहले ही अपने घर के लिए निकल गए थे. ड्राइवर भी वापस चला गया था. रात के समय उन्होंने किसी को सूचित कर के बुलाना ठीक नहीं समझा.

पिछले कई दिनों से वे आश्रम के वार्षिकोत्सव की तैयारी, आश्रमवासियों के साथ मिल कर, कर रहे थे. आज का

पूरा दिन थका देने वाला था. देशीविदेशी मेहमानों की आवभगत, गरीब, बेसहारा महिलाओं द्वारा हस्तनिर्मित कपड़ों की प्रदर्शनी और बिक्री का लेखाजोखा तय करतेकरते पूरा दिन कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

कमर सीधी करने के लिए बिस्तर पर लेटे थे लेकिन शरीर की अकड़न जस की तस बनी हुई थी. आज हेमा इस दुनिया को छोड़ कर चली गई. उस की मौत का जिम्मेदार किसे ठहराएं. श्रीकांत खुद को, मातापिता को या हेमा को, जिस ने महेश की पैबंद लगी गृहस्थी को सीतेसीते अपनी मुट्ठी में इस तरह कैद कर लिया कि वे असहाय हो कर सबकुछ देखते ही नहीं रह गए थे, बल्कि उस तरफ से आंखें ही मूंद ली थीं.

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बीती यादों को, चाहे कितना ही सहेज कर भीतर किसी कोने में दफना दिया जाए, वे बाहर निकल ही आती हैं, फिर चाहे वे मीठी हों या कड़वी या बेहद दुखदायी.

तपिश को कम करने के लिए शीतलता की जरूरत तो होती ही है, वरना भीतर के उद्वेग ही मनुष्य को जला डालते हैं. हर जगह गुलाब ही मिलें, ऐसा संभव नहीं है. और अगर मिल भी जाएं तो कांटे भी साथ आएंगे. पर वहां, इतना संतोष तो होता ही है कि गुलाब की पंखडि़यों का स्पर्श, कांटों की चुभन झेलने की शक्ति खुद ही देता है. लेकिन श्रीकांत को तो सिर्फ कांटे ही मिले. न खुशबू मिली न कोमल पंखडि़यां.

एक समय था जब सबकुछ उन की मुट्ठी में था. यह कहना कि उन्होंने अपने मन को कड़ा कर के निर्णय लिया, बहुत नाकाफी है उस मनोस्थिति को समझने के लिए जिस से वे गुजर रहे थे उस समय. ऐसा लगता था जैसे उन्होंने अपने मन को किसी जंजीर से बांध कर आदेश दिया था कि पड़े रहो चुपचाप, भावशून्य हो कर. विद्रोहस्वरूप वे जब भी हिले तो जख्मों पर जंजीर की रगड़ को ही महसूस किया था उन्होंने.

कमलापति के इकलौते सुपुत्र थे श्रीकांत. देहरादून के धनीमानी प्रतिष्ठित लोगों में कमलापति की गिनती होती थी. तबीयत शौकीन और अंदाज रईसी. जिद्दी इतने कि बिना आगापीछा सोचे अपनी बात मनवा कर ही दम लेते. न किसी का हस्तक्षेप बरदाश्त करते न ही किसी की टीकाटिप्पणी, जो कह दिया सो कह दिया. पत्थर की लकीर होता था उन का निर्णय. अपने अभिमान और जिद्दी स्वभाव की वजह से उन्होंने श्रीकांत और सुलभा की प्रेम कहानी की एकएक ईंट गिरा दी थी और रह गया था एक खंडहर. 2 युवा प्रेमियों के अंदर पनप रहे प्रेमरूपी लहलहाते पौधे को समूल उखाड़ फेंकते समय उन्होंने यह भी नहीं सोचा था कि कितनी पीड़ा हुई होगी दोनों को. वे तो बस यही सोच कर खुश थे कि उन की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच नहीं आई.

आंखों के सामने कई बिंब बुलबुलों की तरह बनने और मिटने लगे. इंजीनियरिंग का पहला साल. खड़गपुर आईआईटी जैसे दूरस्थ स्थान का प्रथम इंस्टिट्यूट. वहां दाखिला मिलना साधारण बात नहीं थी. कालेज जीवन में श्रीकांत की भेंट सुलभा से हुई थी. वह देहरादून से इंजीनियरिंग करने आई थी. विद्यार्थी जीवन में दोनों ही पहले व दूसरे नंबर के प्रतियोगी जैसे रहे थे. सुलभा का हंसमुख चेहरा, अनुपम परिहास, रसिकता श्रीकांत को उस के सर्वथा अनूठे व्यक्तित्व की नित नई झांकियां दिखाते रहते थे. होली आती तो वह अबीरगुलाल से परिसर में रहने वाले सभी विद्यार्थियों को आकंठ डुबो देती और दीवाली पर किसी स्थानीय प्रोफैसर के घर जा कर ऐसे स्वादिष्ठ भोजन पकाती कि सभी अतिथि उंगलियां चाटते रह जाते थे. सुलभा का साहचर्य उन्हें भला लगता था. दोनों हर दिन मिलते.

धीरेधीरे दोनों करीब आने लगे. मानसिक रूप से, मित्र रूप से, अंत में प्रणयी रूप से. बरसात की वह खनकती, बरसती भीगीभीगी रातें, मूसलाधार वृष्टि, बिजली का कौंधना, बादलों की टंकार, सभीकुछ आनंददायक लगता था. दीघा बीच के किनारे बैठ कर दोनों प्रेमी कब कितने सपने देखते, कितने नाम रेत पर लिखतेमिटाते रहे, एकदूसरे का हाथ पकड़े. डूबते सूरज को साक्षी मान कर, भविष्य के तानेबाने बुनते रहे, कोई सीमा नहीं थी उन सुखद क्षणों की. श्रीकांत की छुअन मात्र से ही सुलभा सिहर उठती. फोटोग्राफी के शौकीन श्रीकांत न जाने कितने पोज में अपनी प्रेमिका को, कभी अकेले, कभी स्वयं अपनी बांहों में कैद कर के, चित्रों में उतार चुके थे. श्रीकांत को मात्र सूरज ही नहीं, ज्ञान और बुद्धि की पूर्ण अपेक्षा थी अपनी सहधर्मिणी से. सुलभा हर तरह से उन के सपनों की साकार रूप थी.

5 साल का समय कब पंख लगा कर उड़ गया, पता ही न चला.10 की मैरिट लिस्ट में, सुलभा का 7वां और श्रीकांत का 5वां स्थान रहा था. खड़गपुर को अंतिम प्रणाम कर के दोनों ने देहरादून में अपनीअपनी कंपनियों में मैनेजमैंट टे्रनी के पद संभाल लिए थे. सुलभा के परिवार में सबकुछ साधारण था, अति साधारण. मातापिता ने बिटिया का मन और श्रीकांत का अपनी बेटी के प्रति लगाव जान कर बडे़ विश्वास के साथ दद्दा के सामने अपना मन थोड़ीबहुत औपचारिकता के बाद खोल दिया था.

‘कमलापतिजी, आज आप से कुछ मांगने आया हूं. सुलभा और श्रीकांत का एकदूसरे के प्रति लगाव तो आप जानते ही होंगे. आज बड़ी हिम्मत और उम्मीद ले कर आप के पास आया हूं. बच्चों की लाइन एक है. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. मैं भले ही आप से हैसियत में कम हूं पर विश्वास कीजिए, शादी में रस्मोरिवाज और आप की खातिरदारी में मैं कोई कमी नहीं रखूंगा.

सुलभा के पिता के इस प्रस्ताव ने तूफान की स्थिति निर्मित कर दी थी. आमतौर पर तूफान की गति भले ही कितनी तीव्र हो लेकिन उस की अवधि बहुत थोड़ी होती है. अल्पावधि में ही तूफान अपने विनाशकारी निशान छोड़ते हुए गुजर जाता है. लेकिन सुलभा के पिता ने जो तूफान खड़ा किया था वह प्रकृतिजन्य तूफान से अलग किस्म का था. न तो इस तूफान के आने की किसी को पूर्व सूचना थी न ही उस की गति में अप्रत्याशित तेजी ही थी. उन के इस प्रस्ताव ने बवंडर मचा दिया था हवेली में.

‘मेरी समझ में यही नहीं आ रहा है सिंह साहब कि आप ने इतने ऊंचे सपने कैसे देख लिए. कम से कम हमारी मानमर्यादा और प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखा होता. कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली. एक से एक समृद्ध धनाढ्य परिवार मुझे श्रीकांत के लिए घेर रहे हैं. मैं ने अपने बेटे को यह अधिकार नहीं दिया है कि वह अपना जीवनसाथी स्वयं चुने. ताज्जुब है अपनी बेटी को समझाने के बजाय आप उस का प्रस्ताव ले कर यहां आ गए.’

फिर सुलभा के पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने श्रीकांत को भी आड़े हाथों ले लिया था, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, इतनी घटिया हरकत करने की? सोच लो, अगर तुम इस से विवाह करोगे तो एक तरफ हम सब होंगे, दूसरी तरफ तुम अकेले. मेरे लिए तुम उसी दिन मर जाओगे जिस दिन इस लड़की का हाथ थामोगे. हम तो यों भी मर गए तुम्हारे लिए, हमारे रहते तुम ने अपने लिए बीवी चुन ली.’

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अजीब सी मनोदशा हो गई थी श्रीकांत की. न किसी से बात करते, न लोगों के बीच उठतेबैठते. जरा सा शोर सुनते तो किसी अंधियारे कोने में जा दुबकते. न रात में नींद आती न दिन में चैन. हाथपांव पसीने से भीगे रहते.

बेटे की ऐसी दशा देख कर अरुंधतीजी घबरा गई थीं. पति को समझाया था, ‘दोनों पढ़ेलिखे हैं, मिल कर कमाएंगे तो दहेज की क्या कीमत रह जाएगी?’ लेकिन दद्दा टस से मस नहीं हुए. प्रेम में चोट खाए हृदय का दुख समय के साथसाथ खुद ही मिट जाएगा, इसी विश्वास के साथ उन्होंने ऊंचे, प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवारों में लड़की ढूंढ़नी शुरू कर दी थी.

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Serial Story: प्रेम गली अति सांकरी

Serial Story: प्रेम गली अति सांकरी (भाग-1)

एक सौतन के साथ अपने पति को शेयर करने में कितनी हिम्मत चाहिए, यह मैं अब जान पाई हूं. बचपन से ही मैं ने मां को तिलतिल मरते देखा है, पापा से हर दिन लड़ते देखा है और अपने हक के लिए दिनरात कुढ़ते देखा है. जब एक म्यान में दो तलवारें ठूंस दी जाएंगी तो वे एकदूसरे को काटेंगी ही. उसी तरह एक पत्नी के होते हुए दूसरी पत्नी लाई जाएगी तो उन के दिलों में हड़कंप मचना स्वाभाविक है.

पापा को सच में मां से प्यार या सहानुभूति होती तो वे मां की सौतन को घर लाने के बारे में सोचते ही न. जब सबकुछ बरसों तक अनैतिक चलता रहा, फिर माफी मांगने से मेरी मां भला उन्हें कैसे माफ करती. प्रेम में क्षमा न तो दी जा सकती है और न ही मांगने से मिलती है. प्रेम या तो होता है या नहीं होता. कभी खुशी कभी गम वाली बीच की स्थिति में हजारों लोग जीते हैं, उन में प्रेम नहीं बल्कि सैक्स एकदूसरे का काम चलाता है. सैक्स को प्रेम मान लेना शादी की असफलता की बहुत भारी भूल है.

औरतें स्वभाव से भावुक होती हैं. हरेक बात अपने आसपास के लोगों से शेयर कर लेती हैं. हम लोग अभी बच्चे ही थे कि मां और पापा में किसी तीसरी औरत को ले कर ठन गई थी. मां ने उसे कभी नाम से नहीं पुकारा. मां हमेशा उसे ‘वह’ कहती थीं. उसे हमेशा नफरत और हिकारत की नजरों से देखतीं. ‘वह’ पापा के औफिस में काम करती थी. पापा औफिस में सीनियर औफिसर थे. हर तरफ उन का दबदबा था.

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जब मैं 7 साल की थी तब पापा मुझे कभीकभार अपने साथ औफिस ले जाते थे. पापा मुझे अपने औफिस की अन्य महिला सहयोगियों से मिलवाते. वे मेरा खूब स्वागत करतीं. मुझ से प्यारभरी बातें करतीं.

‘वह’ उन सब में सब से अलग थी. मुझे उस के पास छोड़ कर पापा बहुत खुश होते. वह मुझे देखते ही खिल जाती थी. ‘वह’ मुझे गोद में उठा लेती. मेरा मुंह बारबार चूमती और मुझे चौकलेट ले कर देती या कैंटीन से कोल्ड डिं्रक मंगवाती. पूरे दफ्तर में मुझे ‘वह’ सब से ज्यादा प्यारी लगती थी.

एक दिन मैं उस की गोद में बैठी थी. ‘वह’ पापा के कैबिन में कुरसी पर बैठी थी. पापा भी पास ही खड़े थे. उस ने मुझ से पूछा, ‘क्या तुम भी मेरे साथ रहना पसंद करोगी, अगर तुम्हारे पापा मेरे साथ मेरे घर में रहने लगें तो?’ बहुत ही बेढंगा प्रस्ताव था उस का. मैं चक्कर में पड़ गई, हां कहूं या ना. मैं सकपका गई और घबरा कर उस की गोदी से नीचे उतर गई थी.

मां अकसर मेरी बड़ी बहन से ‘उस के’ बारे में बातें करती थीं. मैं तब समझती थी कि मां उस से जलती हैं. ‘वह’ सुंदर थी, उस के पास कीमती गहने थे, वह आकर्षक थी और हमेशा नए फैशन के कपड़े पहनती थी. मैं सोचती थी कि ‘वह’ मुझ से खास स्नेह रखती थी, इसलिए मां को चिंता थी कि कहीं ‘वह’ मुझे उस से छीन न ले.

असली बात मुझे तब पता चली जब मैं थोड़ी बड़ी हुई. मां और पापा के झगड़े भयानक तेवर लेने लगे थे. उन के बहस के केंद्र में हमेशा ‘वह’ होती. मां पापा को कोसतीं, गुस्से में कहतीं कि उन के दफ्तर की स्त्रियों से संबंध हैं. कई दिनों तक मां और पापा रूठे रहते जिस का असर हम दोनों बहनों पर पड़ता.

पापा की उस प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. हर वक्त घर में कोहराम मचा रहता था. पापा हमेशा कसमें खाते कि उन का ‘उस से’ कोई संबंध नहीं है. मां इधरउधर दफ्तर के लोगों से पूछताछ करतीं. वे लोग उन्हें सच क्यों बताने लगे.

कुछ दिन पापा मां के प्रति वफादार रहते मगर उस के बाद उन का असली रंग सामने आ जाता. मां जासूसी करतीं. वे पापा को पकड़ ही लेतीं. कभी पापा ‘उस के’ साथ कैफे में मिल जाते तो कभी किसी सिनेमाहाल के बाहर.

मामला घूमनेफिरने या फिल्म देखने तक ही सीमित नहीं रहा. पापा उस के साथ शुरूशुरू में रातभर कहीं रहने लगे तो मां ने आसमान सिर पर उठा लिया. घर में खाना न बनता. मां चीखतींचिल्लातीं, घर की कई चीजें तोड़ देतीं. हम बच्चों को बेवजह पीटने लगतीं.

पापा सिर झुकाए सब कुछ सहते, चुपचाप सिगरेट फूंकते रहते. बहुत देर तक टैनिस की बौल की तरह इधर से उधर टप्पे खाखा कर मां गला फाड़फाड़ कर अंत में थक जातीं मगर पापा को कोई फर्क न पड़ता.

अगले कुछ दिनों में मां को कीमती उपहार दे कर, आगे से सुधरने का वचन दे कर पापा मां को मना लेते. कुछ दिन मां खुश रहतीं मगर फिर कोई न कोई बात मां के कानों में पड़ ही जाती. फिर वही सबकुछ दोहराया जाता. मां की गालियां सुन कर भी पापा ने अपनी मिस्ट्रैस को छोड़ा नहीं.

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उस दिन तो ‘उस ने’ बड़ी हिम्मत दिखाई. ‘वह’ एक दिन हमारे घर के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. मैं ने दरवाजे के बाहर उसे अपनी तरफ मुसकराते देखा. घर में एक मैं ही थी जिस के मन में ‘उस के’ प्रति कोई प्रतिकार या नफरत की भावना नहीं थी.

उस के पेट के निचले हिस्से में आए उभार को देख कर मैं खुश हो उठी. मुझे मालूम था कि बच्चे मां के पेट में ही पलते व बढ़ते हैं. मां ने कुछ सप्ताह पहले ही मेरे छोटे भाई को जन्म दिया था.

मैं आश्वस्त थी कि पापा की मित्र भी जल्दी ही एक प्यारे से बच्चे को जन्म देगी. अब तक मैं ‘उसे’ पापा के औफिस की परिचित व मित्र मानती थी, जैसे हम बच्चों के स्कूल में लड़केलड़कियां मित्र होते हैं. यह तो काफी दिनों बाद मुझे बताया गया कि ‘उसे’ पापा ने ही गर्भवती बनाया था और एक विवाहित आदमी के लिए ऐसा काम अनैतिक व घृणित था. उस के बाद मैं ने ‘उसे’ नफरत की निगाहों से देखना शुरू कर दिया था.

उस दिन ‘वह’ पक्के इरादे के साथ हमारे घर आई थी. वह दरवाजे पर आश्वस्त हो कर खड़ी थी. उस ने मुझ से पापा के बारे में पूछा. उस के कसे हुए चुस्त कपड़े देख कर मैं उस की तरफ आकर्षित हुई. मैं हैरान थी कि ‘वह’ हमारे घर के अंदर क्यों नहीं आ रही थी.

मैं ने मां को बुलाया. ‘उसे’ घर के बाहर पा कर मां तो भड़क गईं. वे उस पर बुरी तरह चीखनेचिल्लाने लगीं. मां ने उसे धमकाया कि अगर ‘वह’ दोबारा इधर दिखी तो वे पुलिस को बुला लेंगी. ‘वह’ शांत बनी नीची नजर से धरती की तरफ देखती रही. उस की आंखें हमारे घर के अंदर कुछ ढूंढ़ रही थीं. उसे पता था कि मेरे पापा अंदर ही होंगे.

मां के इस प्रहार से एक मिनट के लिए तो वह घबरा गई. वह कुछ कहना चाहती थी मगर मां ने उसे मुंह खोलने का अवसर ही नहीं दिया. उस ने अपमान का कड़वा घूंट चुपचाप पी लिया.

वह चुपचाप वापस चली गई. पिछले एक सप्ताह से मां और पापा के बीच ‘उसे’ ले कर घमासान चल रहा था. पापा औफिस नहीं गए थे. मां उन्हें बाहर जाने नहीं दे रही थीं. सो, वह उन का पता करने आई थी. उस नादान उम्र में मैं साफ नहीं जान पाती थी कि बड़े लोग एकदूसरे के साथ कैसेकैसे खेल खेलते हैं. उन का व्यवहार हम बच्चों की समझ से बाहर था.

पापा की इस लंपट प्रवृत्ति के कारण हमारे घर में सदा शीतयुद्ध छिड़ा रहता था. पापा के अन्य स्त्रियों से भी अनैतिक संबंध थे और मां ने अपने विवाहित जीवन के पहले 10 वर्ष पापा की इन इश्कमिजाज पहेलियों को सुलझाने में ही होम कर दिए थे. रोमांस उन के जीवन से कोसों दूर था.

मां गोरीचिट्टी और जहीन दिमाग की भद्र महिला थीं. मगर पापा को तो तीखी व तुर्श स्त्रियां भाती थीं. पापा तो मां की सहेलियों से भी रोमांटिक संबंध बना लेते और फोन पर बतियाते रहते. मां किसकिस सौतन से उन का बचाव करतीं.

‘वह’ पापा के रोमांस की धुरी बन कर रह गई. पापा उस से बहुत ज्यादा हद तक ‘इन्वौल्व’ थे. ‘उस के’ लिए वे मां व हम बच्चों को छोड़ देने को तैयार थे. मां ने कई बार पापा को छोड़ देने की बात की, कोशिश भी की.

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पापा ने उन्हें उकसाया भी मगर 90 के दशक में एक मध्यवर्ग की औरत के लिए इतना आसान नहीं था कि वह एक आवारा भंवरेरूपी पति से छुटकारा पा सके और खासकर तब जब उस के 3 बच्चे हों.

पापा सच में शैतान का अवतार थे. उन्होंने एक ही समय में 2-2 औरतों को गर्भवती बना दिया था. मां के साथ तो चलो ठीक था, वे उन की कानूनी पत्नी थीं मगर ‘उसे’ अपनी हवस का शिकार बना कर कहीं का नहीं छोड़ा.

अपना बढ़ता हुआ पेट ले कर वह कहीं नहीं जा सकती थी. औफिस से उस ने छुट्टी ले रखी थी. आसपड़ोस में बदनामी हो रही थी. ‘उस के’ मांबाप ने उसे काफी साल पहले त्याग दिया था. वे उस की शादी अच्छी जगह करना चाहते थे मगर पापा से रोमांटिक तौर पर जुड़ने के चलते ‘उस ने’ आने वाले रिश्तों को ठुकरा दिया था.

‘उस में’ बला की हिम्मत थी और गजब का आत्मविश्वास. जब उस ने फैसला किया कि वह पापा के नाजायज बच्चे को जन्म देगी तो पापा ने उसे कितना समझाया होगा मगर वह बच्चा गिराने के पक्ष में नहीं थी. बेचारी को तब पता नहीं था कि उस का सामना कितने बड़े तूफान से होने वाला था. मगर उसे यों गुमनामी के अंधेरों में धकेला जाना अच्छा नहीं लगा. उस ने जम कर संघर्ष करना शुरू कर दिया था.

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Serial Story: प्रेम गली अति सांकरी (भाग-2)

वह 25 बरस की थी और पापा 40 पार कर चुके थे. ‘उस में’ इतनी समझ तो थी ही कि ‘वह’ एक बंद गली के पार नहीं जा पाएगी मगर अब जब उस ने पापा से प्यार कर ही लिया था तो पीछे किस तरफ लौटती.

पापा अभी हम लोगों को छोड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. एक कुंआरी लड़की का मां बनने का यह साहसभरा फैसला विवाहित लोगों के लिए चुनौती ही था क्योंकि सिंगल पेरैंट बनने की यह आधुनिक संकल्पना अभी काफी दूर थी.

पापा ने मां और हम से कड़ी बेरुखी दिखानी शुरू कर दी थी. वे अपनी मिस्ट्रैस को ज्यादा तवज्जुह देने लगे थे. जब मेरा छोटा भाई मां के पेट में था तब पापा कईकई दिन घर से बाहर रहते. जब बच्चा पैदा हुआ तब हमारे पड़ोस की आंटी मां के पास अस्पताल में थीं. मां को पता था कि पापा कहां हैं और किस के पास हैं.

बच्चा पैदा होने के 2 सप्ताह बाद पापा घर लौटे. मां ने पापा को बुलाना बंद कर दिया था. कोई वादप्रतिवाद नहीं हुआ. पापा को इस से कुछ ज्यादा ही शह मिली. अब उन्होंने अपना समय इस तरह बांट लिया था कि ज्यादा समय वे ‘उस के’ साथ बिताते.

अगर हमारे पास कुछ ज्यादा समय के लिए ठहर जाते तो उन की मिस्ट्रैस उन्हें ढूंढ़ते हुए हमारे घर पहुंच जाती. अगर पापा अपनी चहेती के घर ज्यादा दिनों तक टिके रहते तो मां कभी उन की छानबीन न करतीं. पापा घर में न होते तो घर में शांति बनी रहती.

पापा आते और सारी की सारी सैलरी मां को सौंप देते. ‘वह’ नौकरी करती थी, सो पापा का सारा खर्च वही उठाती थी. मां ने कभी पैसे की तंगी नहीं झेली. अच्छा मकान था और अच्छी आय, साथ में सारे बच्चे भी मां की तरफ ही थे.

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मां ने पापा को इधरउधर मुंह मारने के लिए लंबी रस्सी थमा रखी थी और मन ही मन उन्हें पता भी था कि थकहार कर एक दिन उन का पति पूरी तरह उन के पास लौट आएगा. मां ने अगर पापा के साथ सख्त रवैया अपनाया होता तो हो सकता था कि पापा इतनी देर तक लंपट नहीं रहते. मां के ढुलमुल रवैये के कारण पापा बेलगाम होते गए.

और तभी मां के सब्र का प्याला भर गया. मां और पापा में एक दिन खूब झगड़ा हुआ. मां ने बताया कि पापा उस से जबरदस्ती करना चाहते थे. मां भड़क गईं, ‘उसे’ भलाबुरा कहने लगीं. पापा ने हाथ चला दिया तो मां ने आसमान सिर पर उठा लिया.

मैं स्कूल से घर आई तो पाया कि मां घर पर नहीं हैं. पापा मेरे छोटे भाई की नैपी बदल रहे थे. उन की हालत काफी दयनीय थी. मैं ने दबी जबान में पूछा, ‘मां कहां हैं?’

पापा का सख्त व रूखा जवाब था, ‘चली गई है.’

मेरे पैरों तले जमीन डोल गई. कांपती आवाज में मैं ने फिर पूछा, ‘मां कहां चली गईं?’

पापा का गुस्से से भरा उत्तर था, ‘बस चली गई.’

पापा ने हम दोनों बहनों के लिए खाना बनाया जो हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगा. पिछले कितने महीनों से पापा हम से बेरुखी से बात करते थे.

घर का मालिक अपनी कमाई से परिवार के लिए सुविधाएं जुटाता है और इस के जरिए अपनी ताकत बढ़ाता है और इसी ताकत के आगे गिरवी पड़ी रहती है बच्चों की मां. हमारे लिए तो मां ही सबकुछ थीं. अब मां पता नहीं कहां होंगी. कहीं नानी के पास तो नहीं चली गईं. वहां तो जाने में ही 2 दिन लगते हैं और आने में भी समय लगता है. इतने दिनों तक हम कैसे रहेंगी? क्या पापा उन्हें मना कर लाएंगे?

अगले दिन भी मां नहीं लौटीं तो हम दोनों बहनों की चिंता बढ़ गई. पापा ने पिछले कई महीनों में हम से ढंग से बात नहीं की थी. हम तैयार हो कर स्कूल चली गईं. पापा ने घर की चाबियां पड़ोस में दीं व हमारे छोटे भाई को ले कर चले गए और रातभर नहीं लौटे.

पड़ोस की आंटी ने हमें खाना खिलाया. मां की हमें बुरी तरह याद आ रही थी. पता नहीं उन से मिलना हो पाएगा या नहीं.

अगले दिन स्कूल से आ कर देखा कि घर में पापा की मिस्ट्रैस आई हुई थी. साथ में, उस की छोटी सी गुडि़या और हमारा छोटा भाई. ‘उस ने’ घर का काम संभाल लिया.

‘वह’ उस बैडरूम में सोने लगी थी जहां मां सोती थीं. पापा भी उस के साथ ही सोते. पापा के हौसले बुलंद थे. घर में हुए इस बदलाव से हम दोनों बहनें बहुत त्रस्त थीं.

हमें मां की याद सता रही थी और हमें कुछ भी पता नहीं था कि मां कहां हैं. कहीं वे मर तो नहीं गईं. हम यह बात पड़ोसियों से भी पूछ नहीं सकते थे.

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पड़ोसियों की आंखों में कुछ दूसरे हैरानजदा सवाल थे कि हमारे घर में आ कर रहने वाली यह स्त्री कौन है और पापा की क्या लगती है. पापा ने उस के बारे में एकदो पड़ोसियों को यह बताया था कि ‘वह’ उन की चचेरी बहन है जिसे उस के पति ने छोड़ दिया है.

सप्ताह बाद मां लौटीं तो हमारी सांस में सांस आई. हमारा रुटीन सामान्य हो गया. सुबह स्कूल, दोपहर को होमवर्क और शाम को खेल. बड़े लोगों को घर में क्या परेशानियां हैं, हम उन्हें क्या समाधान दे सकते थे. पापा ने घर में क्या गड़बड़झाला रचा रखा है, हमारी समझ में कुछ नहीं आता था. अब घर में कई लोग थे : एक पति और उन की 2 पत्नियां व 4 बच्चे.

मां के लौट आने पर अब घर में पापा की मिस्ट्रैस का रुतबा घट गया था. ‘वह’ चुपचाप रहती, गेट के ठीक सामने बाहर वाले कमरे में अपनी गुडि़या को संभालने में ही मस्त और व्यस्त रहती. घर के किसी मामले में उस की कोई राय नहीं ली जाती थी. मां ने अपना पुराना बड़ा वाला बैडरूम संभाल लिया था.

घर में पापा का दरजा अब वह नहीं रह गया था. हर तीसरेचौथे दिन ये बड़े लोग घर में तूफान मचाते, गालियां देते और एकदूसरे को कोसते. पापा सोते तो मां के कमरे में ही मगर दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती थी.

पापा की जरूरतें पूरी करने के लिए दोदो औरतें थीं. घर में हर समय तनाव रहता. मां उन से बचने की कोशिश न करती या यों कहें कि वे जानबूझ कर पापा को और दुखी करतीं. पापा उन की ये बातें समझ न पाते या समझ कर अनजान बने रहते.

उन के लिए घर में रखैल रखना खांडे की धार पर चलने जैसा था. वे एक समय में दोदो नावों पर सवार होना चाहते थे. वे दोनों औरतों के बीच बुरी तरह फंस गए थे. एक को खुश करते तो दूसरी नाराज हो जाती.

हर रात हम खाने के टेबल पर डिनर के लिए बैठते. एक कष्टभरी खामोशी हमारे बीच तनी रहती. हम ऐसा बरताव करते, मानो एकदूसरे के लिए एलियंस हों. सुबह मां हमें तैयार कर के स्कूल भेजतीं. फिर किचन में पापा व उन की मिस्ट्रैस घुसते. मां की गालियों और तानों की बौछारों को सहन करते हुए ‘वह’ रह रही थी. उस का यह साहस वर्णन से बाहर था.

‘उस की’ बेटी से हम बात नहीं करते थे. हमारे लिए ‘उस से’ बोलना भी मना था. पापा के खिलाफ मां की उस जंग में हम बच्चे पूरी तरह मां के साथ थे. ‘उस ने’ मुझे अपनी तरफ झुकाने की बहुत कोशिश की.

उस ने मुझे ‘एलिस इन वंडरलैंड’ नामक किताब मेरे 12वें जन्मदिन पर उपहार में दी. मुझे वह पुस्तक बहुत अच्छी लगी. मैं जानती थी कि वह मेरे प्रति दयालु है मगर मैं अपनी मां के प्रति वफादार रहना चाहती थी. हां, मेरे मन का एक हिस्सा ‘उसे’ चाहता जरूर था. मुझे तब पता नहीं था कि मेरे पापा से प्यार कर के उस ने कितना बड़ा गुनाह किया है.

‘उस का’ इस तरह हमारे साथ रहने का यह अनोखा अरेंजमैंट ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया. पापा को तो कोई आपत्ति नहीं थी मगर जब भी मां मेरे छोटे भाई को ले कर बाहर निकलतीं, उन्हें खुद पर शर्म आती कि वे अपनी सौत के साथ रह रही हैं. हमें भी यही बताया गया था कि अगर पड़ोसी ‘उस के’ बारे में पूछताछ करें तो कहो कि वह हमारी किराएदार है.

मां ने सभी टोनेटोटके कर के देख लिए, नानी और मामा की राय ली, कई वकीलों से सलाह की मगर ‘उसे’ अपने घर से नहीं निकाल पाईं. ‘वह’ इतने अपमान और बेइज्जती के बावजूद हमारे घर में रह रही थी, उस की एक ही मुख्य वजह थी. वह वजह थी कि ‘वह’ पापा से बेइंतहा प्यार करती थी. जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उन के बारे में हासिल करते हैं भले ही वह उन की संचित संभावनाओं के बारे में न हो कर सिर्फ उन के भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो, वह तब तक अधूरा और उथला रहेगा जब तक कि स्त्रियां स्वयं वह सबकुछ नहीं बता देतीं.

कई महीनों बाद जब मां से यह सब सहन नहीं हुआ तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया और पापा पर दोष लगाते हुए ‘उसे’ घर से निकालने के लिए पुलिस कार्यवाही की मांग की. पापा के औफिस में भी लिख कर शिकायत दे दी कि ‘उस के’ हमारे घर में यों रहने से हम पर व हमारे बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है.

एक रात उस का सामान चला गया और साथ ही वह भी. पापा 2 परिवारों के मुखिया बन गए. पापा ने हमारे घर आना बिलकुल ही कम कर दिया. बस, हर महीने की पहली तारीख को आते और घर में अपनी तनख्वाह छोड़ जाते. किसी बच्चे के बारे में न पूछते.

मां ने तलाक की अर्जी लगा दी तो पापा हम से बिलकुल ही दूर हो गए. हम बच्चों की हालत बहुत खराब हो गई थी. मां हमेशा गुमसुम रहने लगी थीं. अपनी सेहत का खयाल न रखतीं. ढंग के कपड़े न पहनतीं. न कहीं जातीं और न ही हमें ले कर निकलतीं.

हमारी पढ़ाईलिखाई के खर्च बढ़ते जा रहे थे. पापा खर्च उठा रहे थे मगर मां बहुत बार हमें बिना कारण डांटतीं, हम पर पाबंदियां लगातीं.

मां अपने आत्मत्याग से हमें ब्लैकमेल करतीं. हमें वही पता होता जो वे हमें बतातीं. वे हमें हर वक्त बतातीं कि कैसे अपना पेट काटकाट कर उन्होंने हमें शिक्षा दी. कभीकभी वही बातें बारबार सुनसुन कर हमें चिढ़ आ जाती. हमें पैदा करने या महंगे स्कूलों में भेजने का आग्रह हम बच्चों ने तो नहीं किया था.

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हम नहीं जानते थे कि जो कुछ वे कर रही थीं या पति के साथ जैसे उन का समीकरण बिगड़ रहा था उस में हम लोगों की कोई भूमिका थी भी या नहीं. हां, इस का असर हम पर पड़ रहा था. वे हमारे लिए जो कर रही थीं उस के पीछे उन का अपना निजी उद्देश्य भी तो था. पापा ने तो आसानी से पैसे के दम पर हम से पल्ला झाड़ लिया था मगर मां कई बार गुस्से में बिफर कर कहतीं, ‘तुम न होते तो मैं फिर शादी कर लेती या फिर अपने मायके में जा कर शान से रहती. हमारी खातिर मां के आत्महत्या और बलि का बकरा बनने का विचार हमें उन के प्रति कृतज्ञता नहीं बल्कि भ्रम और अपराधबोध से भर देता था.

हम मां की आधीअधूरी रह गई आकांक्षाओं की पूर्ति के साधनमात्र रह गए थे. हम चाहते थे कि मां हर हालत में खुश रहें मगर वे उदास थीं, वंचिता थीं. और हमारे खयाल में यह सब हमारी गलती के कारण ही था.

क्रमश:

Serial Story: प्रेम गली अति सांकरी (भाग-3)

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे पापा की प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. सभी टोनेटोटकों के बावजूद मां उसे घर से बाहर नहीं निकाल पाईं. लेकिन मां द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर उसे घर छोड़ना पड़ा और इस तरह पापा दो परिवारों के मुखिया बन कर रह गए. लेकिन पापा ने हम से पल्ला झाड़ लिया. पढि़ए शेष भाग…

छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं.

पापा ने जो किया था वह एक सम्माननीय और संतुलित व्यक्ति का व्यवहार नहीं था. अपनी वासनात्मक लालसाएं पूरी करने के लिए पापा ने इस घर के 4 जनों को दिनरात घुलते चले जाने को विवश किया था. विवाहेतर संबंध तो ठीक थे मगर उस पर यह अतिरेक और कुचेष्टा कि उन की रखैल मिस्ट्रैस को इस घर में सम्मान मिले और वह हमारे साथ भी रहे. दैहिक जरूरतों के सामने घर जैसी पवित्र जगह को युद्ध की रणभूमि बना डाला था ऐसे में तो कुंठा और दमन ही हाथ आना था.

यह तो बहुत ही मार देने वाला काम था. मां की हिम्मत थी कि पिछले इतने सालों से वे किसी तरह घर को जोड़ कर के रखे हुए थीं. वे पस्त हो जातीं, टूट जातीं या भाग कर मायके चली जातीं तो हम बच्चों का भविष्य खराब हो जाता.

लगभग 1 साल बाद मां को मोटी रकम मिल गई और पापा को तलाक मिल गया. ‘उस ने’ अगले ही महीने पापा से शादी कर ली. मां ने पापा को माफ कर दिया यह समझ कर कि गलती तो उस युवती की है जो एक अधेड़ व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती.

तब मैं तय नहीं कर पाई कि सच में सारी गलती ‘उस की’ ही थी. क्या मां या पापा कुसूरवार नहीं थे? त्रिकोणीय संबंधों में अगर 1 को बलि का बकरा बनना पड़ता है तो बाकी के 2 लोग भी ज्यादा देर तक ऐसे अनैतिक संबंध को सहजता से नहीं जी पाते.

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जल्दी ही उस मायावी औरत से पापा का मोहभंग हो गया. जब तक उस से पापा की शादी नहीं हुई थी तब तक पापा में उसे सारा आकर्षण दिखता था. गलत पते की चिट्ठी की तरह पापा 1 साल बाद हमारे घर के चक्कर लगाने लगे. भरापूरा घर, जिसे वे एक जवान नई औरत के लिए लात मार कर चले गए थे, अब हम बच्चेबच्चियों को देखने के बहाने फिर आने लगे थे.

पापा हमारे जन्मदिन पर बढि़या तोहफे लाते, हमें कपड़े ले कर देते. हमारे कालेज के बारे में पूछते. मेरे छोटे भाई में उन्हें खास दिलचस्पी रहती. हमें यकीन नहीं होता कि ये हमारे वही पापा हैं जिन्होंने हम से बात तक करनी बंद कर दी थी क्योंकि हम हमेशा मां की तरफदारी करते थे.

मां के मन की स्थिति कोई खास निश्चित नहीं थी कि अब पापा को ले कर वे क्या सोचती थीं. ‘उस ने’ जब पापा को हासिल कर लिया तभी से उन के रिश्ते के अंत का काउंटडाउन शुरू हो गया.

हम दोनों बहनों ने अच्छे संस्थानों से डिगरी ले ली थी और हमें अच्छी जौब मिल गई थी. पापा हम दोनों को ले कर कुछ ज्यादा ही वात्सल्य दिखाने लगे थे. मां के प्रति उन के मन में सोया प्यार जागने लगा था. अपनी मिस्ट्रैस की परवा कम ही करते थे. मां तो कहती कि

अब इस बूढे़ का दिल लगता है, दफ्तर की किसी अन्य स्त्री पर आ गया है

और हमारी आड़ ले कर यह अपनी मिस्ट्रैस से जान छुड़ाना चाहता है.

हो सकता है मां की बातों में कुछ सचाई हो मगर हमें अब सारा मामला समझ में आने लगा था. पापा इतनी ऊंची पोस्ट पर थे, अच्छा कमाते थे, फिर मां की उन से एक दिन भी नहीं बनी. क्या मां का कोई दोष नहीं था? मेरी बड़ी बहन का मानना था कि मां के हर समय शक करते रहने से पापा ऐसे बन गए.

खैर, मां और पापा का कोई समझौता नहीं हो सका. पापा पेंडुलम की तरह इधर से उधर, उधर से इधर आतेजाते रहे. मां ने उन्हें कोई तबज्जुह न दी. मां अब धार्मिक व अंधविश्वासी हो गई थीं. मेरे छोटे भाई ने जब डिगरी हासिल कर ली तो मां का ध्यान पूरा ईश्वर में लग गया. वे हर दुखसुख से ऊपर उठ गई थीं.

घर के मामलों में उन्होंने रुचि लेनी बंद कर दी थी. हमारी शादी के बारे में भी उन्होंने कभी सीरियसली नहीं सोचा. उन्होंने सबकुछ पापा और वक्त पर छोड़ दिया था. कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता है, यह मां को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था.

मां को मालूम था कि पापा अब भी घर में रुचि लेते हैं. मां को एक निश्चित रकम हर महीने मिल जाती. हम बच्चे भी अच्छा कमा रहे थे, कारों में घूमते थे.

जब मेरी बहन ने अपने दोस्त के साथ रहने का फैसला किया तो उस ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं मां को सारी बातों के बारे में ब्रीफ करूं. उस में हिम्मत नहीं थी यह सब कहने की. पापा को तो हम इतनी अंतरंग बातें कभी न बता सकते थे.

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वे तो एक अवांछित मेहमान की तरह हफ्ते में 2-3 बार आते. खाने का समय होता तो खाना खा लेते. ज्यादातर वे संडे को आते या तब आते जब हम बच्चों में से कोई एक घर पर होता. मां से अकेले मिलने वे कभी नहीं आए. अब अजीब सा, नीरस सा रिश्ता बचा रह गया था दोनों के बीच में.

अब वे शराब बहुत पीने लगे थे. उन की मिस्ट्रैस की हमें कोई खबर नहीं थी, न ही कभी वे उस के बारे में बताते और न ही हमें कोई जिज्ञासा थी कुछ जानने की. हम उसे हमारा घर बरबाद करने में सौ फीसदी जिम्मेदार मानते थे. मां की असहनीय उदासी और तिलतिल कर जवानी को गलाने के पीछे पापा की मिस्ट्रैस का ही हाथ था.

बड़ी बहन के अफेयर और घर छोड़ कर जाने के फैसले के बारे में मैं ने मां से जिस दिन बात की उस दिन उन का मौन व्रत था. मां आजकल ध्यान शिविरों, योग कक्षाओं और धर्मगुरुओं के प्रवचनों में बहुत अधिक शिरकत करने लगी थीं.

मैं ने डरतेडरते बात शुरू की, ‘मां, शिखा के बारे में आप को बताना था.’

मां ने मुसकरा कर मुझे इशारे से सबकुछ कहने के लिए कहा. उन के होंठों पर बहुत दिनों बाद मैं ने हलकी मुसकराहट देखी. मैं थोड़ा कांप गई. लगता था कि शिखा की बात उन से छिपी हुई नहीं है.

मेरी बहन ने कहा था कि जो लोग धर्म में बहुत गहरी आस्था रखने लगते हैं और अत्यधिक पूजापाठ करने लगते हैं, उन्हें अपने प्रियजनों की बहुत सारी बातें पहले से ही पता चल जाती हैं. इसीलिए मेरी बहन ने मां से खुद कुछ पूछना या अपने होने वाले पति के बारे में बताना उचित नहीं समझा. उसे डर था कि कहीं मां उस के होने वाले पति के बारे में कोई अप्रिय भविष्यवाणी ही न कर दें तो फिर एक शक का बीज उस के मन में उगने लगेगा.

मां हम बच्चों की शादी से डरती क्यों थीं. शादी से उन का विश्वास उठ गया था जैसे. आखिरकार ‘शादी’ वह सामाजिक बंधन या करार है जो 2 लोग आपस में मिल कर करते हैं. उन्हें उम्मीद होती है कि उन की शादी हमेशा कायम रहेगी. अकसर ऐसा होता नहीं है. हालात बुरी तरह बिगड़ सकते हैं और बिगड़ते भी हैं. शादियां भ्रष्ट भी

हो जाती हैं. दूसरा आदमी या दूसरी औरत एक अच्छे जोड़े में दरार पैदा कर सकती है.

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फिर भी इतिहास गवाह है कि शादी वह नायाब और चिरायु सामाजिक करार है जो हर युग, हर कौम और हर संस्कृति में कारगर व सफल रहा है. विवाह हमारे जीवन को स्थायित्व देता है मगर साथ ही, हम में कुछ लोगों को यह स्थायित्व डराता भी है. अपने जीवनसाथी के सामने शर्तहीन समर्पण हमें डराता है, संशय से भर देता है. हम सोचते हैं कि अगर उस ने हमारी निजता का मान न रखा या हमारी कसौटी पर खरा न उतरा या वह हमारे लिए सुपात्र सिद्ध न हुआ तो फिर हम कहीं के न रहेंगे.

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Serial Story: प्रेम गली अति सांकरी (भाग-4)

विवाह स्मृतियों का एक पिटारा ही तो है जिस में अगर अच्छी और सुखद यादों के चित्र ज्यादा समेटे हुए हों तो उस विवाह को कामयाब कहा जा सकता है. विवाह पलों में सिमट सकता है, यह और बात है कि किन पलों को भुला दिया जाए और किन लमहों की यादों को करीने व खूबसूरती से संजोया जाए.

अब मैं जान गई हूं कि छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. एक कहावत है कि पत्थर अंतिम चोट से टूटता है मगर पहले की गई चोटें भी बेकार नहीं जातीं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं. इसीलिए भी शादी नहीं करनी चाहिए कि बच्चे चाहिए. बच्चे तो गोद भी लिए जा सकते हैं. किसी काल्पनिक सुरक्षा के लिए शादी करना बेकार है क्योंकि कोई ऐसी चीज है ही नहीं.

शादी में 2 अनजान लोग सारी उम्र साथ गुजारने का प्रण लेते हैं और एक धुंधले आकर्षण के साथ सारा जीवन साथ रहने को तैयार हो जाते हैं. कुछ डरपोक लोगों के लिए यह एक खतरनाक खेल है. कुछ अन्य के लिए यह एक मूर्खतापूर्ण कदम है. एक तर्कहीन यात्रा है. कुछ मान लेते हैं कि शादी एक पागलपन है, हताशा से उपजी विवशता है और अनिश्चितताओं से परिपूर्ण है.

मेरी बहन ने प्रेम कर के बिना किसी औपचारिक रस्म, कसम या शादी के अपने दोस्त के साथ रहने का मन बना लिया था. उसे विश्वास था कि टिकना हुआ तो यह बंधन भी खूब चलेगा वरना मांपापा की शादी में कितनी कसमें, रस्में और रिश्तेदार जुड़े थे, वह तो एक दिन भी ठीक से नहीं निभ पाई. बहन अपनी जगह ठीक थी.

मां बताती थीं कि पहले महीने के बाद से उन का पति उन का नहीं हो पाया. मगर अब समय बदल गया था. ऐसा आज समाज में व्यापक पैमाने पर हो रहा है. वर्जनाएं टूट रही हैं और हमारी नई पीढ़ी नए प्रयोग करने को तत्पर व आमादा है.

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पापा अपनी दुनिया में मस्त थे और मां अपने दुख में त्रस्त थीं. ऐसे में हम दोनों बहनें शादी की उम्र से काफी आगे निकल गई थीं. अपनी उम्र के तीसरे दशक में जा कर हर कुंआरी लड़की एक आखिरी जोर लगाती है कि कोई जीवनभर का साथी मिल जाए. उम्र के तीसरे दशक के अंत में और चौथे दशक के शुरू होने तक उस का सौंदर्य अपने उतार पर आने लगता है. बालों में चांदी उतरने लगती है. सोने सी काया निढाल और परेशान सी दिखने लगती है.

मेरी बहन मुझ से कहती, ‘क्या करूं, कितने सालों से हम अपने लिए कोई फैसला लेने से रुके हुए हैं. घर का माहौल तो ठीक होने से रहा. क्यों न अब अपनी जिंदगी किसी रास्ते पर लगाई जाए.’

उस का मानना था कि प्रेम की कोई हद नहीं. प्रेम के समक्ष विवाह का कोई मेल नहीं. जो लोग प्रेम नहीं समझते वे कूपमंडूक हैं. जिंदगी केवल भावनाओं व आवश्यकताओं से ही नहीं चलती. रिश्तों में संवेदना और संजीदगी होनी चाहिए और एकदूसरे के प्रति एक मुकम्मिल प्रतिबद्धता भी.

मां का मौन सबकुछ कह गया.

बिना किसी औपचारिक विदाई के मेरी बहन ने अपने होने वाले पति के साथ रहना शुरू कर दिया. मुझे अपने प्यार के बारे में मां को बताना ठीक नहीं लगा. मैं भी उस दिन की राह तकने लगी जब मैं भी पक्के मन से फैसला कर के अपने प्रेमी निकुंभ के साथ उस के फ्लैट में चली जाऊंगी.

प्रेम के मामले में मैं कच्ची थी, नवीना थी, नवस्फुटा थी. मेरे कोमल हृदय की सारी नवीन और उग्र वासनाएं पंख फैला कर उड़ना चाहती थीं मगर मुझे अभी रास्ता मालूम नहीं था.

वह कहता था कि मैं बला की खूबसूरत हूं. ऐसा मुझे कई नौजवान कह चुके थे. मैं सुंदर थी, अच्छी डीलडौल की थी. भरीपूरी छातियां असल में लड़की के गले में लटकता फांसी का फंदा होता है जो उसे उन लड़कों की नजर में चढ़ा देता है जो उसे अपनी रबड़ की गुडि़या बनाना चाहते हैं. लड़की के हुस्न की तारीफ तब तक है जब तक उस में मर्द को अपनी ओर खींचने की कोशिश होती है. एक बार उस की छातियां लटक जाएं या सूख जाएं तो फिर उस से वितृष्णा उपजती है.

कुतूहल और अनभिज्ञतावश जरा दो कदम आगे की ओर अग्रसर होती तो लाज, डर और मां के लिहाज के मारे वापस लौट आती. मैं अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए व्याकुल थी मगर मां को छोड़ कर जाती तो मां की देखभाल कौन करता. वे तो दिनरात मीरा की तरह अपने कथित भगवान की भक्ति में ही खोई रहतीं. बहुत कम बोलतीं. मेरा भाई बहुत पहले ही विदेश चला गया था.

मेरी जिंदगी सरपट भाग रही थी. अब मैं और किसी राजकुमार का इंतजार नहीं कर सकती थी, कोई बड़े खानदान का रईस या फिल्मी हीरो की तरह

बांका सजीला. एक बार जिस के साथ प्यार हो गया अब तो उसी के लिए जीनामरना था.

मेरा हीरो आज के जमाने का बिंदास आशिक था, वह शादी के खिलाफ था. मैं अपने कौमार्य को कब तक बचाती. मेरी उम्र मेरे हाथों से फिसलती जा रही थी. फिर एक दिन मैं उस की रौ में बह ही गई. अपने बैडरूम में ले जा कर उस ने धीरेधीरे अपने और मेरे कपड़े निकाले और बड़ी खूबसूरत व कलात्मक ढंग से मुझे प्यार किया. उस ने कोई घबराहट, हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दिखाई.

उस ने आहिस्ताआहिस्ता मेरे बदन को यों सहलाया जैसे मैं इस दुनिया की सब से नायाब और कीमती चीज हूं. वह मुझे दीवानगी और कामुकता के उच्च शिखर तक ले गया और फिर वापस लौट आया. मैं इस दुनिया में कहीं बहुत ऊपर तैर रही थी. वह बड़े सधे ढंग से इस खेल का निर्देशन कर रहा था. खुद पर उस का नियंत्रण लाजवाब था. ठीक वक्त पर वह रुका. हम दोनों एकसाथ अर्श पर पहुंचे.

पापा ने मेरी बहन को तो कभी कुछ नहीं कहा मगर जब मेरे लवर से संबंध बने और वह जब अकसर घर आने लगा तो पापा ने एक दिन मुझे आड़े हाथ लिया. बहस होने लगी. मैं विद्रोह की भाषा में बोल पड़ी. पापा की मिस्ट्रैस को ले कर मैं ने कुछ उलटासीधा कह दिया. पापा ने मेरी खूब धुनाई कर दी. प्यार करने वाले तो पहले ही इतने पिटे हुए होते हैं कि उन्हें तो एक हलका सा धक्का ही काफी होता है उन की अपनी नजर से नीचे गिराने के लिए. पापा ने जब मुझे पीटा तब भी मां कुछ नहीं बोलीं. अब वे पूरी तरह से गूंगी हो चुकी थीं. कई बार मैं ने सोचा कि उन्हें किसी बढि़या ओल्डऐज होम में भरती करवा दूं. मां को पैसे की किल्लत न थी.

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इस कशमकश में कब मेरे बालों में सफेदी उतर आई, पता ही नहीं चला. मां के गुजर जाने के बाद घर में मैं अकेली ही रह गई. सब लोगों ने अपनेअपने घोंसले बना लिए थे. सब लोग आबाद हो गए थे. एक मेरी और पापा की नियति में दुख लिखे थे.

पापा काफी वृद्ध हो गए थे. अपनी मिस्ट्रैस और उस से हुई बेटी से उन की कम ही बनती थी. पापा कभीकभार हमारे घर आते. अपने औफिस की एक अन्य बूढ़ी औरत के घर में रहते थे. मां के गुजर जाने के बाद पापा की वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गई थी. मां को जो खर्च देते थे वह भी बच जाता था.

फिर एक दिन पापा भी इस दुनिया से कूच कर गए. मेरी बहन विदेश चली गई थी. पापा की मौत के बारे में सुन कर 1 साल बाद आई. हम ने एकदूसरे को सांत्वना दी. भाई ने तो बरसों पहले ही हम लोगों से नाता तोड़ रखा था. वह बहुत पहले घर को बेचना चाहता था. मगर मैं यहां रहती थी. उस ने सोचा

था कि मैं इस मकान को अकेले ही हड़प लूंगी.

मैं भला मां को छोड़ कर कहां जाती. अपने मकान में मैं जैसी भी थी, सुख से रहती थी. मेरी नौकरी कोई खास बड़ी नहीं थी. दरअसल, अपने इश्क की खातिर मैं ने यह शहर नहीं छोड़ा था, इसलिए मेरी तरक्की के साधन सीमित थे यहां.

मैं अजीब विरोधाभास में थी. अपने आशिक के घर में जा कर नहीं रह सकती थी. मेरे जाने के बाद मां की हालत खराब हो जाती. वह पापा के कारण यहां आने से कतराता था. फिर भी हम ने कहीं दूसरी जगह मिलने का क्रम जारी रखा. हमारे प्यार की इन असंख्य पुनरावृत्तियों में हमेशा एक नवीनता बनी रही. हम ने एकदूसरे से शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. हमारे इश्क में शिद्दत बनी रही क्योंकि हमारे प्यार की अंतिम मंजिल प्यार ही थी.

उस के सामने मेरी कैफियत उस बच्चे के समान थी जो नंगे हाथों से अंगार उठा ले. उस ने मेरे विचारों, मेरी मान्यताओं और मेरी समझ को उलटपलट कर रख दिया था, जैसे बरसात के दौरान गलियों में बहते पानी का पहला रेला अपने साथ गली में बिखरे तमाम पत्ते, कागज वगैरह बहा ले जाता है.

मैं भी एक पहाड़ी नदी की तरह पागल थी, बावरी थी, आतुर थी. मुझे बह निकलने की जल्दी थी. मुझे कई मोड़, कई ढलान, कई रास्ते पार करने थे. मुझे क्या पता था कि तेजी से बहती हुई नदी जब मैदानों में उतरेगी तो समतल जमीन की विशालता उस की गति को स्थिर कर देगी, लील लेगी. उस के साथ रह कर मुझे लगा कि मैं फिर से जवान हो गई हूं. मेरी उम्र कम हो गई है. फिर उस की उम्र देख कर बोध होता कि मैं गलत कर रही हूं. प्यार तो समाज की धारा के विरुद्ध जा कर ही किया जा सकता है.

मैं डर गई थी समाज से, पापा से, अपनेआप से. कहीं फंस न जाऊं, हालांकि उस से जुदा होने को जी नहीं चाहता था मगर उस के साथ घनिष्ठ होने का मेरा इरादा न था या कहें कि हिम्मत नहीं थी.

मैं तो उसे दिल की गहराइयों से महसूस कर के देखना चाहती थी. मगर वह तो मेरे प्यार के खुमार में दीवानगी की हद तक पागल था. तभी तो मैं डर कर अजीब परस्पर विरोधी फैसले करती थी. कभी सोचती आगे चलूं, कभी पीछे हटने की ठान लेती. एक सुंदर मौका, जब मैं किसी को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करती थी, मैं ने जानबूझ कर गंवा दिया.

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मैं ने उसे अपमानित किया. उसे बुला कर उस से मिलने नहीं गई. वह आया तो मैं अधेड़ उम्र के सुरक्षित लोगों से घिरी बतियाने में मशगूल रही. उस की उपेक्षा की. आखिरकार, मैं ने अपनेआप को एक खोल में बंद कर लिया, जैसे अचार या मुरब्बे को एअरटाइट कंटेनरों में बंद किया जाता है. अब मुझे इस उम्र में जब मैं 58 से ऊपर जा रही हूं, उन क्षणों की याद आती है तो मैं बेहद मायूस हो जाती हूं. मैं सोचती हूं कि मैं ने प्यार नहीं किया और अपनी मूर्खता में एक प्यार भरा दिल तोड़ दिया.

सौ बरस और: बाबरा के सामने आया इंडिया का कड़वा सच

Serial Story: सौ बरस और (भाग-3)

मम्मी बाबरा को ले कर उन के घर पहुंचीं तो बाबरा ने मिसेज सिद्दीकी के सामने ही टीशर्ट उतार कर कुरता पहन लिया. मिसेज सिद्दीकी शर्म से गड़ गईं, ‘‘हाय रे, यह तो बड़ी बेशर्म और बेबाक है.’’ इतने दिनों में बाबरा हिंदुस्तानी हावभाव समझने लगी थी.

‘‘आप भी तो औरत हैं, आप से कैसी शर्म?’’ बाबरा हंस कर अंगरेजी में बोली.

‘‘फिर भी लाजशर्म तो औरत का गहना है, यों खुलेआम कपड़े उतारना, तोबातोबा. ऐसे खुलेपन पर ही तो हिंदुस्तानी मर्द मरमर जाते हैं.’’

मैं जानता था, मिसेज सिद्दीकी की दोनों बेटियां घर में सलवारकुरता पहन, हिजाब कर के बाहर निकलती थीं, लेकिन कालेज के बाथरूम में टाइट टीशर्ट और टाइट जींस पहन लेतीं और बौयफ्रैंड के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ घंटों किसी रेस्तरा में बतियातीं या पार्क में उन के कंधे पर सिर रख कर बैठी रहतीं.

बाबरा के हमारे घर आने की खबर जंगल की आग की तरह कालोनी में फैलने लगी. तभी नीलू भाई, जो एक करोड़पति बाप की बिगड़ी संतान हैं, का फोन मेरे मोबाइल पर आ गया. मैं बाबरा और अर्शी को ले कर आगरा जाने की तैयारी कर रहा था.

‘‘यार बड़े बेवफा हो, शिप से लौट आए हो, इतने दिन हो गए लेकिन कोई खबर तक नहीं की. अच्छा चलो, छोड़ो, शिकवाशिकायत. मैं अभी हाजिर होता हूं. खालाजान से कहना तुलसीअदरक वाली उन के हाथ की चाय पीने की ख्वाहिश हो रही है.’’ मैं लिहाजन चुप रह कर उन का इंतजार करने के लिए विवश था.

ड्राइंगरूम में घुसते ही उन की नजरें इधरउधर घूम कर कुछ तलाशने लगीं. सोफे पर धंसते ही उन का पहला जुमला सुनाई पड़ा, ‘‘सुना है अंगरेज लड़की साथ लाए…’’ सुनते ही मेरी कनपटी सुलगने लगी और मिलने के बहाने मेरे घर आने का मकसद भी साफ समझ में आ गया. गोश्त की महक को गिद्धों के नथुने तक पहुंचने में कितनी देर लगती है भला?

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‘‘जी, मेरे सीनियर की बेटी जरमन से आई है,’’ मैं बोला.

‘‘तो हमें मिलवाओ, यार,’’ सोफे के हत्थे पर जोर से हथेली पटकते हुए लपलपाती जीभ से वे बोले. आवाजें सुन कर बाबरा खुद ही कमरे से ड्राइंगरूम में आ गई और अजनबी को सामने बैठा देख कर दोनों हाथ जोड़ दिए.

दिन की शुरुआत चायकौफी की जगह शराब से शुरू करने वाले नीलू भाई की आंखों में बाबरा को देखते ही सुरूर के लाल डोरे उतर आए. अद्वितीय जरमन सुंदरता को प्रत्यक्ष देख कर नीलू भाई कुछ पलों के लिए पलकें झपकाना भूल गए.

‘‘बाबरा, आइए बैठिए,’’ मैं उन के कुतूहल का मोहभंग कर के बोला.

‘‘यू हैव कम फर्स्ट टाइम टू इंडिया?’’

‘‘आई केम टू एशिया, बट आई वाज नौट इंटर्ड इन इंडिया. आई वाज गोइंग टू सिंगापुर, दैट टाइम. आई क्रौस्ड इंडिया बाय शिप,’’ बाबरा बड़ी सहजता से बोली.

‘‘इट मींस यू हैव कैच्ड माई यंगर ब्रदर ऐट द शिप,’’ नीलू भाई चुटकी लेते हुए बोले.

‘‘नो, नोनो, आई नेवर मीट विद हिम बिफोर. ही इज माई फादर्स कलीग, लाइक माई ऐल्डर ब्रदर.’’ बाबरा इस भद्दे मजाक को बरदाश्त नहीं कर पाई. उत्तेजना से उस का चेहरा लाल हो गया था.

‘‘ब्रदर, मैं चाहता हूं कि तुम्हारे मेहमान को इंडियन फूड का जायका चखाया जाए,’’ मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए अधिकारपूर्वक वे बोले. मैं जानता था कि नीलू भाई औरतों को जूतियों की तरह बदलते हैं. उन की आंखों में उतर आई छद्मता को पढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा मुझे.

‘‘बाबरा का पेट कुछ गड़बड़ है.’’

‘‘कोई बात नहीं, हम इन की प्लेट में सिर्फ राइस और बनाना (केला) रख देंगे,’’ बाबरा का सान्निध्य पाने का हर संभव प्रयास करते हुए पासा फेंका उन्होंने. मैं ने प्रश्नवाचक निगाहों से बाबरा की तरफ देखा तो वह दोनों हाथ हिला कर बोली, ‘‘नोनो…नोनो, आई हैड माई लंच जस्ट नाऊ.’’

अपने औफर को बाबरा द्वारा नकारे जाने पर हताश नहीं हुए नीलू भाई क्योंकि शायद वे इस जवाब का पहले ही कयास लगा चुके थे. वे बाबरा का सान्निध्य ज्यादा से ज्यादा देर तक पाने के लिए अपना पारिवारिक इतिहास बताने लगे.

‘‘माई फादर वाज फ्रीडमफाइटर. ही वर्क्ड विद सुभाष चंद्र बोस. ही लाइक्ड हिटलर मैथोलौजी.’’

‘‘मगर हम उसे पसंद नहीं करते क्योंकि उस ने पूरी जरमनी को तबाह कर डाला था. उसी की वजह से हमारे चर्च नेस्तनाबूद हो गए. हमारी आर्थिक व्यवस्था क्षतविक्षत हो गई. उस पागल आदमी की वजह से हमारे देश के 2 टुकड़े हो गए. प्लीज आई डोंट वौंट टू लिसन ईवन हिज नेम,’’ बाबरा गुस्से से बोली.

बाबरा की तीखी आवाज ने नीलू भाई को निरुत्तर कर दिया. बाबरा सोचने लगी कि इन हिंदुस्तानियों के पास कितना फालतू वक्त होता है? 2 घंटे से बैठ कर फुजूल की बातों में वक्त जाया कर रहे हैं. टाइम की कोई कीमत ही नहीं है इन के पास. जरमनी में रोटी, कपड़ा और जीने की जद्दोजेहद में हमें सिर्फ रात में 6-7 घंटे ही बैठनेसोने के लिए वक्त मिल पाता है. इन्हीं जैसे लोगों के कारण इंडिया अभी तक विकासशील देशों की लाइन में ही खड़ा हुआ है.

अपना पत्ता साफ होते देख नीलू भाई उठ खड़े हुए, ‘‘सो, नाइस मीटिंग विद यू, यंग लेडी,’’ कह कर बाबरा की तरफ हाथ बढ़ा दिया. बाबरा ने भी छुटकारा पाने की दृष्टि से अपनी तहजीब के मुताबिक हाथ बढ़ा दिया. नीलू भाई ने उस की हथेलियों को धीरे से दबा दिया और देर तक उस का हाथ थामे हुए मुझ से मेरी अगली जौइनिंग के बारे में बेमकसद बातें करने लगे. बाबरा उन की धूर्तता को समझ गई और झटके से अपना हाथ खींच कर घर के अंदर चली गई.

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‘‘शरमा गई,’’ कह कर, खिसियानी हंसी हंसते हुए नीलू भाई बाहर चले गए. माहौल बहुत ही बोझिल हो गया था, इसलिए मैं भी चुपचाप अपने कमरे में जा कर लेट गया.

शाम को अर्शी ने बतलाया कि बाबरा ने इंटरनैट पर अपनी वापसी का टिकट बुक कर लिया. मैं ने झिझकते हुए इतनी जल्दी वापस जरमनी जाने की वजह पूछी तो वह बिफर पड़ी, ‘‘इट इज रियली स्ट्राइकिंग, आप के देश में गंगा जैसी पावन नदी है. एवरेस्ट जैसी दुनिया की सब से ऊंची चोटी है. दूर तक फैला रेगिस्तान है. आसमान छूने वाली इमारत कुतुबमीनार है. प्यार और कुर्बानी का प्रतीक ताजमहल है. गांधी, गौतम, विवेकानंद का बर्थप्लेस है यह. एशिया का सब से ज्यादा पापुलेटेड कंट्री है यह. लेकिन हकीकत में एशिया का सब से घटिया देश है.

‘‘यहां के आलसी और धूर्त लोग मुफ्त में मिली चीजों का भोग करने में ही खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. आजादी मिले आधी सदी से ज्यादा हो गए लेकिन आज भी दोतिहाई हिंदुस्तानियों को पेटभर रोटी, तनभर कपड़ा, सिर पर छत मयस्सर नहीं है. 21वीं सदी में पहुंच कर भी यहां के मर्द, औरत को बराबरी का दरजा नहीं दे सके हैं. उन की महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने के बजाय वे उसे सिर्फ भोग की वस्तु समझते हैं. ऐंड यू नो, स्टिल इंडियंस नीड हंड्रैड ईयर्स टू कम विद द लैवल औफ यूरोपियन पीपल.’’

‘‘बट औल आर नौट लाइक दैट, बाबरा.’’ मैं ने ठंडी सांस भर कर बेबुनियाद सफाई देते हुए उसे समझाने की कोशिश की तो वह और आगबबूला हो गई. वह बोली, ‘‘मिस्टर अनीस, माई फादर वाज टोटली डिस्एग्री टू सेंड मी इंडिया. नोइंग औल द फैक्ट्स बाय माई फ्रैंड्स, आई वौंट टू सी एवरीथिंग बाय माई ओन आइज.’’ यह कहते हुए उस की नीली आंखों में समंदर उतर आया और वह फफक कर रो पड़ी. भरे गले से जो कुछ उस ने बताया, सुन कर मेरी काटो तो खून नहीं जैसी हालत हो गई, शर्मिंदगी से कई फुट पैर जमीन में धंस गए.

‘‘20 साल पहले उस की इकलौती फूफी इंडिया घूमने आई थी. अल्हड़, बिंदास फूफी हिंदी न समझने और अंगरेजी न बोल सकने के कारण जरमन में ही बोलती थी.

‘‘आगरा में ताजमहल देखने जाते वक्त टैक्सी वाले ने गाड़ी गांव की तरफ मोड़ दी. अपने 2 साथियों के साथ मिल कर उस का कीमती कैमरा और पर्स छीन लिया. वह रिपोर्ट करने जब पुलिस स्टेशन पहुंची तो राहजन को पहचानने का बहाना बना कर पुलिस वालों ने उसे पुरानी कोठी में 3 दिनों तक रखा और लगभग 10 लोगों ने उस के साथ बलात्कार किया.

‘‘जरनम ऐंबैसी की मदद से वह किसी तरह विक्षिप्त हालत में हैम्बर्ग पहुंच तो गई लेकिन एड्स की घातक बीमारी ने उसे आखिरकार 5 सालों में निगल लिया. मेरे डैडी अभी तक इस सदमे से उबर नहीं पाए हैं,’’ बाबरा के मुंह से यह सुन कर मेरी जबान तालू से चिपक गई. हताश, निराश मैं तीसरे दिन बाबरा को एयरपोर्ट पहुंचाने के लिए गाड़ी निकाल रहा था कि मिस्टर जेम्स का फोन आ गया, ‘‘थैंक्यू फौर सेंडिंग माई डौटर सेफली, थैंक्यू वेरी मच.’’ यह वाकई शुक्रिया था या करारा चांटा, मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं.

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