Serial Story: डस्ट (भाग-3)

रमा को जब पूनम के साथ कृष्णकांत ज्यादा समय गुजारते दिखने लगा तो रमा ने उसे लंपट, आवारा, नीच कहा. कृष्णकांत ने पलट कर कहा, ‘‘तुम क्या हो? तुम ने अपनी दैहिक जरूरतों के लिए मुझे फंसा कर रखा. शर्म आनी चाहिए तुम्हें. तुम सैक्स की भूखी हो.’’

‘‘मैं तुम्हें कोर्ट में घसीटूंगी, दैहिक शोषण का आरोप लगा कर जेल भिजवाऊंगी.’’

‘‘और मैं छोड़ दूंगा तुम्हें. मैं भी तुम पर दैहिक शोषण का आरोप लगा सकता हूं. तुम्हारे घर वालों को, अपने घर वालों को बता दूंगा सबकुछ. लोग तुम पर हंसेंगे, न कि मुझ पर.’’

‘‘शादी हुई है हमारी.’’

‘‘सुबूत कहां हैं? कोर्ट मंदिर में की गई शादी नहीं मानता और उस समय मेरी उम्र 18 वर्ष भी नहीं हुई थी. अवयस्क उम्र के लड़के से विवाह करने के अपराध में तुम्हें सजा भी हो सकती है. सारा शहर तमाशा देखेगा. यदि शादी साबित कर भी देती हो तुम, तब भी मैं तलाक तो मांग ही सकता हूं. अब तुम पर है कि हंगामा खड़ा करना है या शांति से मसले को सुलझाना है.’’

रमा समझ चुकी थी कि तीर कमान से निकल चुका है. अब कुछ नहीं हो सकता. फिर बेमेल संबंधों को कब तक खींचा जा सकता है. अच्छा यह हुआ कि सावधानी रखने के कारण उन की कोई संतान नहीं थी.

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रमा के मातापिता भी अब कहने लगे थे, ‘बेटी, अपना फर्ज निभा लिया. भाईबहनों को पढ़ालिखा कर कामधंधे में लगा दिया. उन का विवाह कर दिया. अब कोई अपने हिसाब का लड़का तलाश और शादी कर ले.’

रमा वापस अपने शहर आ गई. उस ने कृष्णकांत से जुड़ी सारी यादें मिटा दीं. शादी के और उस के बाद के सारे फोटो नष्ट कर दिए. कृष्णकांत भी आजाद हो गया.

पूनम को देख कर कृष्णकांत सोचता, ‘इसे कहते हैं लड़की. पता नहीं क्यों मैं रमा के आकर्षण में बंध गया था? प्यार करने लायक तो पूनम है. सांचे में ढला हुआ दुबलापतला, आकर्षक शरीर. चेहरे पर चमक. जिस्म के पोरपोर में जवानी की महक. यही है उस के सपनों की रानी.’

आज पेड़ काटे जा रहे हैं. पौधे नष्ट किए जा रहे हैं. जंगल उजाड़े जा रहे हैं. सड़कों का डामरीकरण, चौड़ीकरण हो रहा है. देश का विकास अंधाधुंध तरीके से हो रहा है. विकास के लिए नएनए कलकारखाने और कारखानों से इन की गंदगी नदियों में बड़ीबड़ी पाइपलाइनों के जरिए जा रही है. नीचे पानी प्रदूषित हो रहा है व ऊपर आसमान और बीच में फंसा बेवकूफ मनुष्य, बस, बातें कर रहा है प्रदूषण के बारे में, जहरीली वायु के बारे में. जंगल नष्ट किए जा रहे हैं उद्योगों के लिए. शहर के हर कोने में बोर मशीनें चल रही हैं जमीन से पानी निकालने के लिए.

वातावरण में डस्ट बढ़ती जा रही है. गरमी बढ़ती ही जा रही है. सब अपनीअपनी सुखसुविधाओं में डूबे हैं. प्रकृति असंतुलित हो रही है.

यही हाल मानवीय मूल्यों और रिश्तों का भी है. रिश्ते प्रदूषित हो रहे हैं. रमा के पिता ने कहा, ‘‘बेटी, बहुत रिश्ते आएंगे. तुम आर्थिकरूप से निर्भर हो. अच्छा वेतन है तुम्हारा. सुरक्षित भविष्य है. कितनी बेरोजगारी फैली है. एक नहीं कईर् आदमी मिलेंगे शादी के लिए.

‘‘सुरक्षित भविष्य की चाह में कोई प्राइवेट जौब वाला, अस्थायी नौकरी वाला शादी के लिए तैयार हो जाएगा. प्रैक्टिकल बनो. मुझे तुम्हारे और कृष्णकांत के बारे में सब पता था लेकिन मैं ने तुम्हें कभी टोका नहीं. मैं जानता था अपनी जरूरतों के लिए तुम उस से जुड़ी हो. जो हुआ सो हुआ. लेकिन शादी अपनी जातिसमाज में ही करना उचित रहेगा.’’

कितना प्रदूषण है पिता की बातों में. रमा ने आश्चर्य से पिता की तरफ देखा. उसे पिता के चेहरे पर डस्ट जमी हुई दिखाई दी. फिर उस ने सोचा, ‘यह डस्ट तो सब के चेहरों पर है. बाजार में कितनी क्रीम, टोनर, साबुन, फेसवाश आ गए हैं डस्ट से बचने के लिए. इन फालतू की बातों में उलझ कर जीवन क्यों बरबाद करना. आगे बढ़ना ही जीवन है. उस ने डस्ट से भरा चेहरा साफ किया और नए जीवन की शुरुआत के लिए कोशिश शुरू कर दी.

कृष्णकांत के पिता रमाकांत क्लर्क थे. नौकरी के अंतिम बचे 2 वर्षों में अधिक से अधिक कमा लेना चाहते थे. लेकिन एक दिन रिश्वत लेते रंगेहाथों पकड़े गए. अधिकारी ने कहा, ‘‘मिलबांट कर खाना चाहिए. चोरी करने के लिए किस ने मना किया है? सरकारी नौकरी होती ही, कमाने के लिए है?

5 लाख रुपए का इंतजाम करो? इस मामले से तुम्हें निकालने की कोशिश करता हूं.’’

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रमाकांत ने बेटे को सारी बात बता कर कहा, ‘‘बेटा, 2 लाख रुपए की मदद करो. 3 लाख रुपए का इंतजाम है मेरे पास.’’

कृष्णकांत ने कहा, ‘‘पिताजी, आप ने रिश्वत ली.’’

रमाकांत ने गुस्से में कहा, ‘‘मदद मांगी है, उपदेश नहीं. वेतन से मात्र घर चलता है, वह भी 20 दिनों तक. बेटी की शादी, मकान, ऐशोआराम की जिंदगी बिना रिश्वत लिए नहीं चलती. रिश्वत मैं ने कोई पहली बार नहीं ली. हमेशा से लेता आया हूं. सब लेते हैं. बस, पकड़ा पहली बार गया हूं. मदद करो कहीं से भी.’’

‘‘मैं कहां से करूं?’’ कृष्णकांत ने असहाय भाव से कहा.

‘‘रमा से मांग लो,’’ पिता की यह बात सुन कर कृष्णकांत सन्नाटे में आ गया. मतलब पिता को, घर में सब को मालूम था.

‘‘रमा को मैं ने छोड़ दिया है,’’ कृष्णकांत ने कहा.

‘‘बेवकूफ, दुधारू गाय को कोई छोड़ता है, भला. मन भर गया था तो किसी दूसरे के पास चला जाता या दूसरी ढूंढ़ता, तो कमाई वाली ढूंढ़ता. नहीं कर सकता तो मेरे कहने से शादी कर. 5 लाख रुपए दहेज दे रहे हैं लड़की वाले. जल्दी आ जा. चट मंगनी पट ब्याह करा देते हैं.’’

‘‘मैं एक जगह बात कर के देखता हूं.’’

‘‘जो करना है जल्दी करना.’’

‘‘जी.’’

कृष्णकांत ने फोन काट दिया. क्या पिता है? सब मालूम था और ऐसे बने रहे कि जैसे कुछ मालूम न हो. रिश्तों में लालच की कितनी डस्ट जमी हुई है. चारों तरफ प्रदूषण फैला हुआ है. पैसा ही सबकुछ हो गया. इंसानी रिश्ते, भावनाएं सब में डस्ट जम गईर् है. पैसों और जरूरतों के आगे सब कचरे का ढेर हो गया है. कचरे के ढेर में आग लगाओ और जहरीला धुआं वातावरण में फैलने लगता है. कृष्णकांत ने खुद क्या किया? वही जो रमा ने किया. लेकिन कृष्णकांत को पिता की यह बात ठीक लगी कि दुधारू गाय है. क्यों छोड़ दी? लेकिन पिता को क्या बताए? दुधारू गाय का भी दूध ज्यादा निकालो तो वह भी सींग मारने लगती है. पैर झटकने लगती है.

कृष्णकांत ने पूनम से बात की. पूनम ने अपने पिता सेठ महेशचंद्र से मिलवाया. शादी की बात की. साथ में 2 लाख रुपए मदद की भी बात रख दी.

सेठ महेशचंद्र गुस्से में आ गए. उन्होंने कहा, ‘‘मैं दहेज के खिलाफ हूं. फिर तुम्हारी नौकरी कौन सी स्थायी है? न जाने कब छूट जाए?’’

फिर उन्होंने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा, ‘‘अपनी बराबरी वालों से रिश्ता करना चाहिए. दोस्ती तक ठीक है. शादी के पहले 2 लाख रुपए मांग रहा है. बाद में 50 लाख रुपए मांग सकता है. शादी के लिए तुम्हें यही लड़का मिला था. मैं अपनी अमीर बिरादरी में क्या मुंह दिखाऊंगा लोगों को.

‘‘लोग क्या कहेंगे कि सेठ महेशचंद्र ने अपनी बेटी की शादी एक अस्थायी नौकरी वाले लड़के से कर दी. मैं तो तुम्हें होशियार समझता था, बेटी, लेकिन तुम भी प्रेम के नाम पर बेवकूफ बन गई. शादी अपने बराबर वाले से भविष्य की सुरक्षा व सुखों को ध्यान में रख कर की जाती है.’’

फिर उन्होंने कृष्णकांत से कहा, ‘‘एक फोन पर तुम्हारी नौकरी चली जाएगी. मेरी बेटी से दूर रहना.’’

सेठ ने अब बेटी से कहा, ‘‘अमेरिका जाने की तैयारी करो आगे की पढ़ाई के लिए. प्रेम जैसे वाहियात शब्द से दूर रहो.’’ बाद में पूनम ने कहा, ‘‘कृष्णकांत, मैं अपने पिता की बात नहीं ठुकरा सकती.’’

कृष्णकांत उदास हो कर घर आ गया. उस ने कहा, ‘‘पिताजी, मैं आप के कहे अनुसार शादी करने को तैयार हूं. पिता ने 5 लाख रुपए सगाई में ले कर रिश्ता पक्का कर दिया. वे रिश्वत लेते पकड़े गए, रिश्वत दे कर छूट गए.

कितने प्रकार के प्रदूषण हैं इस देश में. हैं तो पूरी धरती पर, लेकिन देश में ज्यादा है. वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, रिश्तों में प्रदूषण. नित नए कड़वे होते रिश्ते. विकास और सुरक्षित भविष्य के लिए सब अनदेखा कर रहे हैं. घर में गाड़ी, टीवी के लिए सब एकदूसरे को चूस रहे हैं. सेठ महेशचंद्र चोरी का माल खरीदतेबेचते करोड़पति बन गए. लेकिन कैसे बने, इस बात की उन्हें रत्तीभर परवा नहीं थी. बने और सेठ कहलाए, इस गर्व से भरे हुए थे वे. पूनम ने प्रेम तो किया था लेकिन सुरक्षित भविष्य के डर से वह कृष्णकांत से दूर हो गई.

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रमा, कृष्णकांत, पूनम, रमाकांत, रमा के पिता, सेठ महेशचंद्र जैसे लोग भ्रष्ट व्यवस्था के हिस्से बने हुए हैं. उन के सारे शरीर पर भ्रष्टाचार की डस्ट जमी हुई है. चेहरा तो वे साफ कर लेते हैं, मन कैसे साफ करेंगे? यह शायद वे कभी सोचते भी नहीं होंगे. वाटर फिल्टर से पानी शुद्ध तो कर लेते हैं लेकिन उन नदियों का, जमीन के नीचे बोरिंग मशीन लगा कर निकाले गए पानी का क्या? उन की शुद्धता के बारे में लोग क्यों नहीं सोचते.

अब तो हवा शुद्ध करने के लिए एयर प्योरीफायर भी आ गया है. लेकिन जमीन, आसमान से ज्यादा दिमाग पर फैली हुई उस डस्ट का क्या, उस प्रदूषण का क्या? उसे साफ करने के लिए क्यों कुछ नहीं किया जाता? जब आदमी अंदर से बेईमान हो तो सारे प्रदूषण, सारे अधर्म, सारे पाप दूसरों के सिर पर मढ़ कर मुक्त हो जाता है. लेकिन इस दोषारोपण से क्या आप बच पाएंगे? आप की आने वाली नस्लों का क्या होगा? जिस दिन प्रकृति व रिश्ते हिसाब करेंगे, सिवा बरबादी के कुछ नहीं होगा.

Serial Story: डस्ट (भाग-2)

रमा ने अपना तबादला करवा लिया. घर में किसी को कुछ नहीं बताया. घर के लोग हंगामा खड़ा कर सकते थे. कृष्णकांत ने भी घर में झूठ बोला कि उस का ऐडमिशन कृषि महाविद्यालय में हो गया है. 12वीं तक की पढ़ाई उस ने कृषि विज्ञान से की थी. आगे की पढ़ाई के लिए पिता ने उसे अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला दे कर दूसरे शहर में पढ़ाने से इनकार कर दिया था, लेकिन जब कृष्णकांत ने कहा कि उस ने प्रवेश परीक्षा क्लियर कर ली है और पढ़ाई का खर्च वह छात्रवृत्ति से निकाल लेगा तो घर में किसी ने विरोध नहीं किया.

रमा ने भी घर में कह दिया कि जब तक उसे सरकारी क्वार्टर नहीं मिल जाता, वह घर में किसी सदस्य को नहीं ले जा सकती. पैसे मनीऔर्डर से हर माह भिजवा दिया करेगी. लेकिन मेरे अपने खर्च भी होंगे. इसलिए मैं आधी तनख्वाह ही भेज पाऊंगी.

दूसरे शहर में आ कर दोनों पतिपत्नी की तरह रहने लगे. कृष्णकांत का सारा खर्च रमा ही उठाती. उस के लिए नएनए कपड़े खरीदती. एक बाइक भी खरीदी जिस में कृष्णकांत रमा को ले कर कालेज जाता. कृष्णकांत बीए में ही पढ़ रहा था.

कालेज में कृष्णकांत से कोई लड़की बात करती और रमा देख लेती तो वह ढेरों प्रश्न पूछती. रमा भी किसी प्रोफैसर या पिं्रसिपल के साथ कहीं जाती या उन से हंसते हुए बात करती तो वह भी प्रश्नों की झड़ी लगा देता. 3-4 वर्षों के भरपूर वैवाहिक आनंद लूटने के बाद रमा शंकित रहने लगी कृष्णकांत की तरफ से और कृष्णकांत का रमा के प्रति आकर्षण धीरेधीरे कमजोर होने लगा.

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एमए में पहुंचने पर कृष्णकांत को अपने रोजगार की चिंता सताने लगी. शायद इसीलिए वह रमा की पूछताछ और संदेहभरे प्रश्नों को झेल जाता कि रमा नहीं होगी तो उस की आर्थिक जरूरतें कैसे पूरी होंगी. वह रमा से जुड़ा रहा. रमा ने उस पर लगाम लगाए रखी ताकि घोड़े को बिदकने का मौका न मिले.

एक समय वह भी आया जब उसी कालेज में अस्थायी रूप से कृष्णकांत को असिस्टैंट प्रोफैसर की नौकरी मिल गई. रमा ने दबाव बनाया कि वह अपने घर वालों को अपनी शादी के बारे में बता दे. कृष्णकांत ने कहा, ‘कोई स्वीकार नहीं करेगा इस शादी को. पता चल गया तो तलाक करवा कर मानेंगे. अच्छा है कि यह बात घर तक न पहुंचे.’

‘और तुम्हारे घर वालों ने तुम्हारी शादी कहीं और तय कर दी, तब क्या होगा?’

‘ऐसा तो वे करेंगे ही. उन्हें हमारी शादी के बारे में थोड़े पता है. लेकिन मैं करूंगा नहीं. तुम स्वयं को असुरक्षित महसूस करना बंद कर दो.’

‘मैं क्यों असुरक्षित महसूस करने लगी भला. पक्की सरकारी नौकरी है मेरे पास. मैं आर्थिकरूप से स्वतंत्र हूं. तुम कालेज की लड़कियों से बहुत घुलमिल कर बातें करते हो. मुझे पसंद नहीं.’

‘तुम भी तो करती हो.’

‘तो क्या मैं चरित्रहीन हो गई बात करने से?’

‘तो क्या मैं हो गया?’

‘तुम क्यों होने लगे. मर्द जो ठहरे. यह ठप्पा तो हम स्त्रियों पर ही लगता है.’

‘तुम बात का बतंगड़ बना रही हो.’

‘जो देख रही हूं, वही कह रही हूं.’

‘तुम चाहती क्या हो? मैं ने सब तुम्हारे हिसाब से किया.’

‘मैं ने भी सब तुम्हारे हिसाब से किया.’

‘फिर पहले जैसा प्यार क्यों नहीं करते? कहां गया वह जोश?’

‘शारीरिक संबंध बनाना ही प्यार नहीं है.’

‘पहले जैसी प्यारभरी बातें भी तो नहीं करते. खिंचेखिंचे से रहते हो.’

‘तुम्हें शक की बीमारी है.’

‘शक नहीं, यकीन है मुझे.’

‘हुआ करे. मैं क्या कर सकता हूं.’

‘हां, अब तो तुम जो भी करोगे, पूनम के लिए ही करोगे.’

‘खबरदार, जो पूनम का नाम बीच में लाई तो.’

‘क्यों, मिर्ची लगी क्या?’

‘पूनम अच्छी लड़की है.’

‘वह तुम्हारी स्टूडैंट है.’

‘लेकिन हमउम्र भी है.’

आएदिन दोनों में तकरार बढ़ती रहती. कृष्णकांत के पिता उस के रिश्ते की खबर कई बार पहुंचा चुके थे. आ जाओ, लड़की देख लो. कृष्णकांत हर बार टालता रहता था. रमा के साथ उस ने

12 वर्ष गुजार दिए थे. बाद के कुछ वर्षों में वह रमा से बचने लगा था. उस के आकर्षण का केंद्र थी पूनम.

रमा की तरफ से उस का आकर्षण पूरी तरह खत्म हो चुका था.वह समझ चुका था कि रमा से उसे जो प्यार था वह मात्र दैहिक आकर्षण था. प्यार तो उसे अब पूनम से था, जिस की उम्र 27 वर्ष के आसपास थी. जो एमए फाइनल की छात्रा थी. पूनम उसे और वह पूनम को छिपछिप कर देखते थे शुरू में. फिर नजरें बारबार मिलतीं और वे मुसकरा देते. यह अच्छा था कि रमा ने कालेज में स्वयं नहीं बताया था कि कृष्णकांत उस का पति है ताकि लोग उम्र के इस अंतर को मजाक न बनाएं.

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रमा समझ रही थी कि उस ने कृष्णकांत के साथ अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी कर ली हैं. वह यह भी जानती थी कि उम्र के इस अंतर को मिटाया नहीं जा सकता. वह 45 साल की मोटी, सांवली, अधेड़ औरत लगती है और कृष्णकांत 30 वर्ष का जवान. लेकिन फिर भी वह अपना शिकंजा कसने की भरपूर कोशिश करती, लेकिन वह जानती थी कि एक न एक दिन यह शिकंजा ढीला पड़ ही जाएगा.

कृष्णकांत ने एक दिन पूनम से कहा, ‘‘मैं तुम से अकेले में कुछ जरूरी बात करना चाहता हूं. अपने विषय में.’’ पूनम ने खुश हो कर तुरंत ‘हां’ कह दी. दोनों शाम को शहर के बाहर बने कौफीहाउस में मिले.

कृष्णकांत ने कहा, ‘‘पूनम, मुझे बचा लो रमा मैडम से. मैं 18 वर्ष का था जब रमा ने मुझे अपने दैहिक आकर्षण में फंसा लिया था. मुझे कोर्टकचहरी की धमकी दी. मैं मजबूर हो गया. घर में गरीब मांबाप हैं. रमा ने मुझ से जबरदस्ती शादी की.  वे

18 वर्ष की मेरी कच्ची उम्र से ही मेरा दैहिक शोषण कर रही हैं. मैं क्या करूं?’’

ये सब इतने भावुक और रोने वाले अंदाज में कहा कृष्णकांत ने कि पूनम की आंखे भर आईं. पूनम ने कहा, ‘‘शादी का कोई प्रूफ है?’’

‘‘रमा के पास हो सकता है.’’

‘‘तुब सब नष्ट कर दो और उस से अलग हो जाओ. अगर वह तुम्हें कोर्टकचहरी की धमकी दे, तो तुम भी दे सकते हो. मैं खड़ी हूं तुम्हारे साथ. कुछ न हो तो तलाक तो ले ही सकते हो.’’

‘‘तुम अपनाओगी न मुझे?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, मैं आप से प्यार करती हूं और किसी भी हद तक जाने को तैयार हूं.’’

कृष्णकांत आश्वस्त हुआ. गवाहों का तो अतापता नहीं था. बरसों पुरानी बात थी. शादी के सुबूत रमा की अलमारी में थे. जिन्हें तलाश कर कृष्णकांत ने नष्ट कर दिए.

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Serial Story: डस्ट (भाग-1)

वह शाम को घर वापस आया. चेहरे पर अजीब सी चिपचिपाहट का अनुभव हुआ. उस ने रूमाल से अपना चेहरा पोंछा और रूमाल की तरफ देखा. सफेद रूमाल एकदम काला हो गया था. इतना कालापन. मैं तो औफिस जा कर कुरसी पर बैठता हूं. न तो मैं फील्डवर्क करता हूं न ही किसी खदान में काम करता हूं. रास्ते में आतेजाते ट्रैफिक तो होता है, लेकिन मैं अपनी बाइक से जाता हूं और हैलमेट यूज करता हूं. फिर इतनी डस्ट कैसे?

उस ने टीवी पर समाचारों में देखा था कि महानगरों, खासकर दिल्ली में इतना ज्यादा प्रदूषण है कि लोगों को सांस लेने में तकलीफ होती है. दीवाली जैसे त्योहारों पर जब पटाखों का जहरीला धुआं वातावरण में फैलता है तो लोगों की आंखों में जलन होने लगती है और सांस लेने में दम घुटता है. ऐसे कई स्कूली बच्चों को मास्क लगा कर स्कूल जाते हुए देखा है.

महानगरों की तरह क्या यहां भी प्रदूषण अपनी पकड़ बना रहा है. घर से वह नहाधो कर तैयार हो कर निकलता है और जब वापस घर आता है तो नाककान रुई से साफ करने पर कालापन निकलता है.

यह डस्ट, चाहे वातावरण में हो या रिश्तों में, इस के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं. रिश्ते भी मर रहे हैं. प्रकृति भी नष्ट हो रही है. नीरस हो चुके हैं हम सब. हम सिर्फ एक ही भाषा सीख चुके हैं, फायदे की, मतलब की. ‘दुनिया जाए भाड़ में’ तो इस तरह कह देते हैं जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में रहते हैं.

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उसे पत्नी पर शक है और पत्नी को भी उस पर शक है. इस शक के चलते वे अकसर एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगाते रहते हैं. पत्नी का शक समझ में आता है. कृष्णकांत ने अपनी उम्र से 15 वर्ष बड़ी महिला से शादी की थी. वह 30 वर्ष का है और उस की पत्नी 45 वर्ष की. जब वह 18 वर्ष का था तब उस ने रमा से शादी की थी. शादी से पहले प्यार हुआ था. इसे कृष्णकांत प्यार कह सकता था उस समय क्योंकि उस की उम्र ही ऐसी थी.

रमा कालेज में प्रोफैसर थी. कृष्णकांत तब बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. रमा घर में अकेली कमाने वाली महिला थी. परिवार के लोग, जिन में मातापिता, छोटा भाई, छोटी बहन थी, कोई नहीं चाहता था कि रमा की शादी हो. अकसर सब उसे परिवार के प्रति उस के दायित्वों का एहसास कराते रहते थे. लेकिन रमा एक जीतीजागती महिला थी. उस के साथ उस के अपने शरीर की कुछ प्राकृतिक मांगें थीं, जिन्हें वह अकसर कुचलती रहती थी, लेकिन इच्छाएं अकसर अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए मुंहबाए उस के सामने खड़ी हो जातीं.

कृष्णकांत की उम्र में अकसर लड़कों को अपने से ज्यादा उम्र की महिलाओं से प्यार हो जाता है. पता नहीं क्यों? शायद उन की कल्पना में भरीपूरी मांसल देह वाली स्त्रियां ही आकर्षित करती हों. कृष्णकांत को तो करती थीं.

नई उम्र का नया खून ज्यादा जोश मारता है. शरीर का सुख ही संसार का सब से बड़ा सुख मालूम होता है और कोई जिम्मेदारी तो होती नहीं इस उम्र में. पढ़ने के लिए भी भरपूर समय होता है और नौकरी करने की तो अभी उम्र मात्र शुरू होती है. मिल जाएगी आराम से और रमा मैडम जैसी कोई नौकरीपेशा स्त्री मिल गई तो यह झंझट भी खत्म. हालांकि उसे रमा की तरफ उस का आकर्षक शरीर, शरीर के उतारचढ़ाव और खूबसूरत चेहरा, जो था तो साधारण लेकिन उस की दृष्टि में काफी सुंदर था, उसे खींच रहा था.

औरतें नजरों से ही समझ जाती हैं पुरुषों के दिल की बात. रमा ने भी ताड़ लिया था कि कृष्णकांत नाम का सुंदर, बांका जवान लड़का उसे ताकता रहता है. फिर उसे टाइप किए 3-4 पत्र भी मिले जिस में किसी का नाम नहीं लिखा था. बस, प्यारभरी बातें लिखी थीं. रमा समझ गई कि ये पत्र कृष्णकांत ने ही उसे लिखे हैं. रमा ने उस से कालेज के बाहर मिलने को कहा. रमा के बताए नियत स्थान व समय पर वह वहां पहुंचा.

अंदर से डरा और सहमा हुआ था कृष्णकांत. लेकिन रमा के शरीर में उस के पत्रों को पढ़ कर चिंगारिया फूट रही थीं. वह तो केवल कालेज में प्रोफैसर थी सब की नजरों में. घर में कमाऊ पूत. जो कुछ इश्कविश्क की बातें थीं वो उस ने फिल्मों में ही देखी थीं. उस का भी मन होता कि कोई उस से प्यारभरी बातें करे, लेकिन अफसोस कि ऐसा कभी हुआ नहीं और आज जब हुआ तो कालेज के छात्र से.

कोई दूर या पास से देख भी लेता तो यही सोचता कि छात्र और प्रोफैसर बात कर रहे हैं. रमा ने कृष्णकांत से कहा, ‘ये पत्र तुम ने लिखे हैं?’ कृष्णकांत चुप रहा, तो रमा ने आगे कहा, ‘मैं जानती हूं कि तुम ने ही लिखे हैं. डरो मत, स्पष्ट कहो और सच कहो. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’

‘जी, मैं ने ही लिखे हैं.’

‘क्यों, प्यार करते हो मुझ से?’

‘जी.’

‘उम्र देखी है अपनी और मेरी.’

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कृष्णकांत चुप रहा. तो रमा ने ही चुप्पी तोड़ी और कहा, ‘क्या चाहते हो मुझ से, शादी, प्यार या सैक्स.’

‘जी, प्यार.’

‘और उस के बाद?’

कृष्णकांत फिर चुप रहा.

‘शादी नहीं करोगे, बस मजे करने हैं,’ रमा की यह बात सुन कर कृष्णकांत भी खुल गया.

उस ने कहा, ‘‘शादी करना चाहता हूं. प्यार करता हूं आप से.’’

‘कौन तैयार होगा इस शादी के लिए? तुम्हारे घर वाले मानेंगे. मेरे तो नहीं मानेंगे.’

‘मैं इस के लिए सारी दुनिया से लड़ने को तैयार हूं,’ कृष्णकांत ने कहा.

‘सच कह रहे हो,’ रमा ने उसे तोलते हुए कहा.

‘जी.’

‘तो फिर मेरे हिसाब से चलो. इस छोटे शहर में तो हमारे प्रेम का मजाक उड़ाया जाएगा. हम दूसरे शहर चलते हैं. मैं अपना ट्रांसफर करवाए लेती हूं. छोड़ सकते हो घर अपना.’ कृष्णकांत को तो मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी.

एक पुरोहित को पैसे दिए. 2 गवाह साथ रखे और शादी के फोटोग्राफ लिए. मंदिर में शादी की और दोनों घर में झूठ बोल कर हनीमून के लिए निकल गए. कृष्णकांत ने जैसी स्त्री के सपने देखे थे, ठीक वैसा ही रमा में पाया और वर्षों पुरुष संसर्ग को तरसती रमा पर भरपूर प्यार की बरसात की कृष्णकांत ने. दोनों तृप्त थे.

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दोराहा: जब प्रतीक के बिछाए जाल में फंसी आयुषी

Serial Story: दोराहा (भाग-2)

इन हालात में प्यार का नशा बहुत देर तक नहीं रहता. आयुषी ने एक दिन कुछ तलखी से  कहा, ‘‘प्रतीक, मैं देख रही हूं, घर के सारे खर्च मैं वहन करती हूं. तुम अपने सारे पैसे बचा रहे हो, आखिर किस के लिए? इस घर की जिम्मेदारी मेरी अकेली की तो नहीं? तुम्हारा कोई फर्ज नहीं बनता है क्या?’’

हमारेतुम्हारे का भाव कहां से आ गया? मेरा पैसा बच रहा है, तो वह एक दिन हमारे ही काम आएगा,’’ कह वह मुंह चुरा कर दूसरी तरफ देखना लगा.

आयुषी को बुरा लगा. बोली, ‘‘मेरी तरफ देख कर बात करो. वह दिन कब आएगा, जब तुम्हारा पैसा काम आएगा? क्या उस दिन, जब तुम उसे ले कर भाग जाओगे?’’

यह बहुत कड़वी बात थी. आयुषी को भी अचंभा हुआ कि वह कैसे इतनी कड़वी बात कह गई, परंतु कभीकभी मनुष्य बेबसी में कड़वी सचाई बयान कर जाता है.

आयुषी की तलखी बरकरार रही, ‘‘इस में क्या शक है. मुझे तो ऐसे ही आसार दिखाई दे रहे हैं. साफ लग रहा है कि तुम मेरे साथ खेल खेल रहे हो. प्यार का नाटक कर के मेरे शरीर से खेल रहे हो और मेरे पैसे से मौज कर रहे हो. एक दिन जब तुम्हें लगेगा कि न मेरे हाथ में कुछ बचा है, न शरीर में, तुम बाज की तरह उड़ कर दूसरे पेड़ पर बैठ जाओगे और मैं सूखी हड्डियां लिए इधरउधर मारीमारी फिरती रहूंगी.’’

प्रतीक ऐसे चुप बैठा रहा जैसे किसी ने उस के गाल पर तेज तमाचा जड़ दिया हो. उस का पूरा चेहरा सुन्न हो गया था. उस की समझ में कुछ नहीं आया कि वह आयुषी से क्या कहे, कैसे उसे समझाए?

वह चुप बैठा रहा तो आयुषी को अपनी बेबसी पर रोना आ गया. आयुषी को लगने लगा था कि प्रतीक उस का फायदा उठा रहा है. जब उस का मन भर जाएगा, वह उसे त्याग देगा और वह डाल से टूटे पत्ते की तरह हवा में उड़ती हुई न जाने कहां गिरेगी. उसे लगता, वह अकेली हो गई है, परंतु इस अकेलेपन में भी वह अपने मन को दृढ़ करती. उसे किसी भी हालात में कमजोर नहीं होना है. उस ने अपने जीवन में जो यह कदम उठाया है, अपनी मरजी से उठाया है. इस के सहीगलत परिणाम की वही जिम्मेदार है. अत: हर हाल में उसे हारना नहीं है. प्रतीक अगर उसे छोड़ भी देता है, तो वह रोएगी नहीं…जीवन में हर किसी को जाना होता है.

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ऐसे में उसे अपनी मम्मी और पापा की बहुत याद आती. वह उन की इकलौती बेटी थी. उन्होंने अपनी बेटी से कितनी उम्मीदें लगा रखी थीं और उस ने अपने मम्मीपापा की हसरतों को मिट्टी में मिला दिया था.

छोटीछोटी तलखियां उन के बीच उभर कर सामने आने लगी थीं. आयुषी का मन टूटने लगा था, फिर भी वह अपनेआप को किसी तरह संभाले थी. उस ने जिस संबल को पकड़ा था, अभी भी उसे विश्वास था कि वह टूटेगा नहीं.

प्रतीक के व्यवहार में कोई सुधार नहीं आया. वह चाहता तो अपने व्यवहार में परिवर्तन ला कर संबंधों को बिखरने से बचा सकता था. आयुषी को बहुत दुख होता.

अंतत: आयुषी ने मन ही मन ठान लिया कि अब वह भी घर का कोई सामान नहीं लाएगी. नतीजा यह हुआ कि घर में रोज कोई न कोई चीज कम होने लगी. मसलन, बाथरूम में साबुन नहीं है, प्रतीक की शेविंग क्रीम खत्म हो गई, डियो नहीं है. आयुषी दुखी थी, मन मार कर रहती थी, तय करती थी कि घर के लिए कुछ नहीं करेगी, परंतु खानेपीने के सामान में कोई कमी नहीं रखती थी. बस, प्रतीक की इस्तेमाल वाली चीजों की तरफ उस ने ध्यान देना बंद कर दिया था.

जब प्रतीक को उस की चीजें नहीं मिलीं तो वह आयुषी पर भड़क उठा, ‘‘यह क्या बाथरूम में साबुन नहीं है, मेरी शेविंग क्रीम खत्म हो गई और तुम्हें खयाल ही नहीं.’’

आयुषी ने भी पलट कर जवाब दिया, ‘‘मैं क्यों खयाल करूं? यह सामान तुम इस्तेमाल करते हो, तुम खरीद कर लाओ. आखिर तुम भी कमाते हो.’’

‘‘यह क्या कह रही हो तुम?’’ प्रतीक के स्वर में नरमी आ गई.

‘‘वही कह रही हूं, जो सच है. तुम पुरुष हो, कमा रहे हो. अगर मेरे साथ शादी करते तो मेरे भरणपोषण की जिम्मेदारी तुम्हारी होती, परंतु यहां तो उलटा हो रहा है. तुम प्रेम के नाम पर मेरा शोषण कर रहे हो, मानसिक और आर्थिक दोनों स्तर पर. यह कहां का इंसाफ है कि साथ रहने के नाम पर तुम मेरा उपभोग करो और मेरे पैसे से सुख भी भोगो?’’

‘‘क्या हो गया है तुम्हें?’’ प्रतीक ने अविश्वास का भाव प्रदर्शित करते हुए कहा.

‘‘मैं ऐसी कभी नहीं थी, परंतु तुम ने मुझे ऐसा बना दिया है,’’ आयुषी ने कहा. उस का मन फिर अंदर ही अंदर रोने लगा, परंतु प्रतीक के लिए जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. वह दूसरे कमरे में जा कर लैपटौप पर कुछ करने लगा. करेगा क्या, फेसबुक पर फर्जी अनजान दोस्तों से चैटिंग कर रहा होगा.

आयुषी और प्रतीक को लगभग बराबर तनख्वाह मिलती थी. आयुषी की पूरी तनख्वाह खर्च हो जाती और प्रतीक अपनी सारी तनख्वाह बैंक में जमा कर के रखता था या क्या करता था, आयुषी ने कभी नहीं पूछा. वह इतनी भोली थी कि उस ने यह तक नहीं पूछा था कि वह कहां का रहने वाला है, उस के घरपरिवार में कौनकौन हैं, जबकि उस ने अपने बारे में पहली ही मुलाकात में सब कुछ बता दिया था.

उन के बीच जब मनमुटाव बढ़ने लगा, तो एक दिन आयुषी ने पूछा, ‘‘प्रतीक, तुम ने अपने घर के बारे में कभी कुछ नहीं बताया. तुम कहां के रहने वाले हो? तुम्हारे मम्मीपापा क्या करते हैं? घर में और कौनकौन है?’’

प्रतीक ने एक अजीब सी मुद्रा में उसे देखा, ‘‘क्यों, इस की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘अरे, कमाल करते हो, हम दोनों साथसाथ रहते हैं तो क्या एक दूसरे के बारे में नहीं जान सकते?’’ आयुषी ने सहज भाव से कहा.

‘‘यह, काम तो तुम्हें पहले ही करना चाहिए था. अब क्या मेरे घर वालों के पास कोई शिकायत भेजनी है या उन के खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखवानी है,’’ प्रतीक ने दिल को जलाने वाली बात कही.

आयुषी का मन तड़क गया. प्रतीक इस तरह की बातें क्यों कर रहा था? क्या उस के मन में पहले से ही खोट था. वह आयुषी को दिल से प्यार करता ही नहीं था. वह तो उस की सुंदरता का पान करना चाहता था और उस के पैसे से मौज करना चाहता था. आयुषी के मन में अब इस बात को ले कर कोई संदेह नहीं रह गया था.

‘‘इस के लिए केवल तुम्हीं काफी हो, तुम्हारे घर वालों को फंसाने की जरूरत नहीं है,’’ आयुषी ने कड़वाहट के साथ कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारी बातों से तुम्हारा असली चरित्र उजागर हो रहा है. काश, मैं तुम्हें पहले पहचान पाती.’’

‘‘पहचान भी जाती तो क्या कर लेती?’’ उस ने भी कड़वाहट के साथ कहा.

‘‘मैं अभी भी कुछ नहीं करना चाहती. लेकिन तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि तुम इस संबंध को आगे बढ़ाने के इच्छुक नहीं हो. जानबूझ कर बातों में तलखी लाने की कोशिश करते हो. अगर ऐसी बात है, तो बता दो, मैं तुम्हें आजाद कर दूंगी.’’

‘‘मुझे आजाद होने के लिए तुम्हारी अनुमति की जरूरत नहीं है. मैं जो चाहे कर सकता हूं.’’

‘‘सच, लिव इन रिलेशनशिप का यही तो फायदा है. कोई जिम्मेदारी, कोई बंधन नहीं. इस का सब से बड़ा फायदा तो तुम लड़कों को ही होता है. हम लड़कियां तो बेवकूफ होती हैं, जो तुम्हारी मीठीमीठी, चिकनीचुपड़ी बातों मे आ जाती हैं. तुम्हारे बनावटी प्यार को नहीं पहचान पातीं और उसी का खमियाजा हमें पूरी जिंदगी भुगतना पड़ता है,’’ आयुषी ने आहत स्वर में कहा.

इसी तरह की छोटीछोटी बातें उन के बीच बड़ी बातें बन जातीं. आयुषी बहुत उदास रहने लगी थी. औफिस में उस की एक घनिष्ठ सहेली थी, शिवांगी. उस ने आयुषी की उदासी भांप ली और एक दिन लंच के दौरान पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है, आयुषी, आजकल तुम्हारे चेहरे की चमक गायब होती जा रही है? तुम्हारे और प्रतीक के बीच कुछ गड़बड़ है क्या?’’

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वह उस की हर बात जानती थी. उस के संबंधों के बारे में जानती थी. उस ने ही एक बार उसे सलाह दी थी कि जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लो, परंतु वह प्रतीक के प्यार में ऐसी रंगी थी कि भावीं जीवन की तकलीफों का अनुमान ही नहीं लगा पाई थी. आज अगर अपने संबंधों में आई कड़वाहट का जिक्र वह शिवांगी से करती है, तो उस के सामने वह हंसी का पात्र बनेगी.

‘‘लगता है, कुछ गंभीर मसला है. अगर तुम मुझे सच्ची दोस्त मानती हो, तो अपने मन की बात कह सकती हो?’’ शिवांगी ने जोर दे कर कहा.

आयुषी टूट गई. भीगे स्वर में कहा, ‘‘लगता है, मैं गलत थी. मुझे तुम्हारी सलाह पहले ही मान लेनी चाहिए थी.’’

‘‘फिर भी हुआ क्या है? क्या तुम कुछ बता सकती हो?’’

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Serial Story: दोराहा (भाग-4)

मम्मीपापा के साथ बिताए गए सुखद पलों को अपने मन में समेट कर आयुषी वापस मुंबई आ गई. प्रतीक तब तक नहीं आया था. उस ने फोन किया तो फोन बंद मिला. आयुषी को थोड़ी चिंता हुई. 1 हफ्ते में उन दोनों के बीच फोन पर कोई बात नहीं हुई. 2 साल बाद मम्मीपापा का प्यार और स्नेह मिला तो वह प्रतीक को बिलकुल भूल गई.

प्रतीक दूसरे दिन सुबह तक भी नहीं पहुंचा था. घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. आयुषी का मन उदास हो गया. इस घर में वह उस के साथ

2 साल से रह रही थी. प्रतीक कैसा भी था, कपटी और कंजूस, परंतु आयुषी ने उसे प्यार किया था, उसे अपना तन सौंपा था. इसी भावना के तहत उसे अपनाया था और चाहती थी कि जीवन के अंतिम क्षण तक उस की ही हो कर रहे, परंतु शायद प्रतीक के मन में कुछ और था.

उदास और खाली मन से वह औफिस जाने के लिए तैयार होने लगी. प्रतीक का फोन अभी तक बंद था. औफिस में वह अपने कैबिन में जा कर बैठी ही थी कि शिवांगी आ गई. दोनों एकदूसरे के काफी निकट थीं और आपस में काफी अंतरंग बातें भी कर लेती थीं. उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आओ, शिवांगी कैसी हो?’’

शिवांगी ने अपने बारे में कुछ न बताते हुए उसी से पूछा, ‘‘तुम बताओ, तुम कैसी हो? प्रतीक नहीं आया तुम्हारे साथ?’’ उस का स्वर गंभीर था. वह आयुषी के चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास कर रही थी.

आयुषी के मन पर जैसे किसी ने एक बड़ा पत्थर रख दिया. वह एक पल सकते की सी हालत में बैठी रही. बोली, ‘‘पता नहीं, क्यों नहीं आया? उस का फोन भी बंद है.’’

शिवांगी के चेहरे पर हैरत के भाव तैर गए. आंखें फैला कर बोली, ‘‘तो तुम्हें नहीं मालूम?’’

‘‘क्या?’’ आयुषी ने धड़कते दिल से पूछा.

‘‘प्रतीक ने यह कंपनी छोड़ दी है,’’ शिवांगी ने बिना किसी हिचक के बता दिया.

‘‘क्या?’’ आयुषी को विश्वास नहीं हो रहा था.

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‘‘हां, पिछले हफ्ते ही उस का ईमेल से त्यागपत्र आया था. लिखा था कि पारिवारिक कारणों से वह यह नौकरी आगे नहीं कर सकता.’’

‘‘उफ,’’ आयुषी के मुंह से बस इतना ही निकला. इस बार दूसरा बड़ा पत्थर उस के सिर के ऊपर बम की तरह फटा था.

शिवांगी ने आगे कहा, ‘‘मैं जानती थी, एक दिन यही होना था. प्रतीक जैसे तेजतर्रार लड़के प्रेम संबंधों में अपना जीवन बरबाद नहीं करते. इन के लिए ये संबंध बस टाइमपास की तरह होते हैं. प्रेम इन के लिए बस क्षणिक जरूरत की तरह होता है, जिम्मेदारी की तरह नहीं. जरूरत पूरी हो गई तो चलते बनो.

शिवांगी जीवन की बहुत कड़वी सचाई बयान कर रही थी, परंतु आयुषी कुछ सुन रही थी, कुछ नहीं. उस के कान ही नहीं दिमाग भी सुन्न हो गया था. चेहरे पर तरहतरह के भाव आ रहे थे, परंतु वह कुछ सोचसमझ नहीं पा रही थी. शिवांगी उस की स्थिति समझ रही थी. अत: वह थोड़ी देर के लिए चुप हो गई. छुट्टी ली और फिर आयुषी को उस के कैबिन से ले कर बाहर आ गई.

उस ने कार की चाबी मांगी, तो आयुषी ने चुपचाप उसे दे दी. फिर शिवांगी उस की कार में आयुषी को बैठा कर उस के घर पहुंची. पूरे रास्ते आयुषी कुछ नहीं बोली थी.

शाम तक आयुषी पूरी तरह से सामान्य हो गई. शिवांगी ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘आयुषी, तुम समझदार हो. मनुष्य का जीवन बहुत सारी कटुताओं से भरा होता है, फिर भी हम जीवन के प्रति मोह नहीं छोड़ते. हर बाधा को पार करते हुए सुख की तलाश करते रहते हैं. यही जीवन है. तुम्हारे जीवन का यह अंत नहीं है. यह समझ लो, प्रतीक तुम्हारा नहीं था. आधुनिक जीवन में लिव इन रिलेशनशिन एक सचाई हो सकती है, परंतु यह अटल सचाई नहीं है. यह संबंध केवल शारीरिक जरूरतों पर आधारित होता है जैसे विवाहपूर्व या विवाहेतर संबंध और जो संबंध केवल जरूरत पर आधारित होते हैं, वे स्थाई नहीं होते. जरूरत पूरी होने पर अपनेआप टूट जाते हैं.’’

‘‘हां, मैं समझ रही हूं,’’ आयुषी के चेहरे पर पहली बार हलकी मुसकराहट आई थी, ‘‘इस बात को मैं बहुत पहले समझ गई थी. प्रतीक नौकरी छोड़ कर न जाता, तब भी इस संबंध को टूटना ही था. वह इस के प्रति गंभीर नहीं था.’’

‘‘अच्छा हुआ, तुम पहले ही इस बात को समझ गई थीं. अब तुम जल्दी ही संभल जाओगी. तुम्हारे जीवन में भी सब जल्दी ठीक हो जाएगा,’’ शिवांगी ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘मैं अब पूरी तरह से होश में आ गई हूं शिवांगी,’’ आयुषी ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मैं पहले भी कमजोर नहीं थी, अब भी कमजोर नहीं पडूंगी. अब शाम हो गई है, तुम अपने घर जा सकती हो.’’

‘‘क्या तुम अकेले रह लोगी? कोई दिक्कत हो तो रात में रुक जाती हूं?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने मुसकरा कर कहा.

शिवांगी के जाने के बाद उस ने अपने पूरे घर को घूमघूम कर देखा, 1-1 चीज को देखा, हाथ लगा कर देखा. यह उस का घर था, उस के सुखसपनों का घर. भले ही किराए का फ्लैट था, परंतु उस के अंदर ही हर चीज में उस की जान बसी हुई थी.

आज आयुषी का प्यार मर गया था. उसे उस का अंतिम संस्कार करना था. वह सोच रही थी कि रुपयापैसा तो वह फिर से जोड़ लेगी, परंतु क्या टूटा मन वह जोड़ पाएगी? हां, जोड़ लेगी. वही तो कहती है कि वह कमजोर नहीं है. पहले भी नहीं थी, अब भी नहीं है.

घर में बहुत सारी चीजें थीं. ये सारी चीजें आयुषी ने बड़े प्यार से अपने पैसों से  खरीदी थीं. अब वह प्रतीक से जुड़ी हुई कोई भी चीज अपने घर में नहीं रखना चाहती थी. जब उसे यकीन हो गया कि प्रतीक से जुड़ी हुई कोई चीज अब घर में नहीं बची है, सब को उस ने छांट कर अलग कर दिया है, तो उस ने छांटी हुई चीजों को एक कपड़े में बांधा. उस ने घड़ी पर नजर डाली. रात के 11 बज गए थे.

उस ने सामान को गाड़ी में रखा और शहर से दूर सड़क के किनारे एक तालाब के पास पहुंची. सन्नाटा देख कर आयुषी ने सामान की गठरी तालाब में धकेल दिया. हलकी सी आवाज हुई और फिर सब कुछ शांत. उस ने नीचे की तरफ देखा. बिजली की रोशनी में पानी हिलता हुआ दिखाई दे रहा था, परंतु गठरी कहीं नजर नहीं आ रही थी. शायद पानी में डूब गई हो. नहीं डूबी होगी, तो थोड़ी देर में डूब जाएगी.

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यह सब करने के बाद वह शांत भाव से खड़ी कुछ देर तक तालाब के पानी में बिजली की रोशनी की लहराती परछाईं को देखती रही तभी उस के फोन की घंटी बजी. इतनी रात में कौन हो सकता है? उस ने तुरंत फोन की स्क्रीन देखी. उस के दिल में धमाका सा हुआ… प्रतीक. उस ने फोन से उस का नंबर डिलीट ही नहीं किया था. लेकिन उस का फोन? अब किस लिए? सबकुछ खत्म हो गया. अपने मन को काबू में रखते हुए उस ने सब से पहले काल को रिजैक्ट किया, फिर फोन से उस का नंबर डिलीट कर फोन बंद कर दिया. अब उस के मन को पूर्ण शांति मिली थी.

कार में बैठ उस ने गाड़ी स्टार्ट की. उस की आंखों के सामने सब कुछ साफसाफ दिख रहा था. दोराहे की धुंध छंट चुकी थी. उस ने गाड़ी घर की तरफ दौड़ा दी.

Serial Story: दोराहा (भाग-1)

आयुषी ने उदास मन से अपने बैडरूम की 1-1 चीज को देखा. पलंग, अलमारी, ड्रैसिंगटेबल, इधरउधर बिखरे पड़े कपड़े… सब कुछ उदासी में डूबा नजर आ रहा था. हर चीज जैसे किसी गहरी वेदना से गुजर रही हो. कमरे में सन्नाटा पसरा था. यह सन्नाटा आयुषी को डरा नहीं रहा था, परंतु उस के मन में अवसाद पैदा कर रहा था. जितना वह सोचती, उतना ही उस का मन और ज्यादा गहरे अवसाद से भर जाता.

बैडरूम की ही नहीं, फ्लैट की हर चीज को उस ने पूरी चाहत से सजाया था, अपने लिए, अपने प्रियतम के लिए. कितने सुंदर सपने तब उस की आंखों में तैरा करते थे. उन सपनों को साकार करने के लिए उस ने इतना बड़ा कदम उठाया था कि बिना शादी के वह प्रतीक के साथ पत्नी की तरह रहने को तैयार हो गई थी.

परंतु आज उस का सारा उत्साह खत्म हो गया था. वह समझ नहीं पा रही थी ऐसा क्यों और कैसे हुआ? उस ने तो पूरी निष्ठा से प्रतीक से प्यार किया था, अपना तनमन सौंपा था, परंतु उस के मन में आयुषी के लिए कोई प्यार था ही नहीं. उस का प्यार मात्र दिखावा था. वह बस उस की देह को भोगना चाहता था. उस ने उसे अपने फंदे में फंसा कर न केवल उस के शरीर का उपभोग किया, बल्कि उस की कमाई पर भी ऐश की. आज वह उस की चालबाजियों को समझ रही थी, परंतु अब समझने से फायदा भी क्या?

दोनों ने साथसाथ एमबीए की पढ़ाई की थी. इसी दौरान दोनों की आपस में नजदीकियां बढ़ी थीं. प्रतीक उसे चाहत भरी निगाहों से देखता रहता था और वह उसे देख कर मुसकराती थी. फिर दोनों एकदूसरे के नजदीक आए. हायहैलो से बातचीत शुरू हुई और फिर बहुत जल्द ही एक दिन प्रतीक ने कहा, ‘‘आयुषी, क्या तुम मेरे साथ बाहर चलना पसंद करोगी?’’

‘‘कहां?’’ उस ने अपने होंठों को शरारत से दबाते हुए पूछा.

प्रतीक ने कहा, ‘‘जहां तुम कहो.’’

‘‘तुम्हारी कोई इच्छा नहीं?’’

‘‘है तो, परंतु तुम्हारी सहमति के बिना कुछ नहीं हो सकता.’’

‘‘तो चलो,’’ उस ने इठलाते हुए कहा.

इस के बाद दोनों का प्यार बहुत तेजी से परवान चढ़ा. धीरेधीरे प्रतीक ने अपनी लच्छेदार बातों से उसे मोहित कर लिया था. वह उस के लिए कुछ भी करने को तैयार थी.

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प्रतीक और आयुषी के बीच एकदूसरे को पाने की चाहत इतनी तीव्र थी कि उन्होंने तय कर लिया कि नौकरी मिलते ही एकसाथ रहना शुरू कर देंगे. इसलिए प्रयत्न कर के दोनों ने एक ही कंपनी में नौकरी कर ली और फिर बिना आगापीछा देखे साथ रहने लगे. घरपरिवार से दूर, अपना अलग संसार बसा कर उन दोनों ने जैसे जीवन की सारी खुशियां प्राप्त कर ली थीं.

जिस दिन दोनों ने एकसाथ रहना तय किया, उसी दिन प्रतीक ने कहा, ‘‘देखो, आयुषी हम दोनों साथसाथ रहने तो जा रहे हैं, परंतु ध्यान रखना बाद में कोई परेशानी न हो.’’

‘‘कैसी परेशानी?’’ आयुषी ने शंकित हो कर पूछा.

‘‘देखो तुम समझदार हो, अगर हम लोग एक ऐफिडैविट बनवा लें तो हम दोनों के लिए अच्छा रहेगा.’’

‘‘कैसा ऐफिडैविट?’’ आयुषी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

‘‘यही कि तुम कभी मेरे ऊपर शादी करने का दबाव नहीं बनाओगी और कभी बच्चा नहीं चाहोगी.’’

आयुषी चिंता में पड़ गई. शादी की मांग करना तो बेवकूफी होगी, परंतु बच्चा क्यों नहीं चाहेंगे? जब स्त्रीपुरुष शारीरिक संबंध बनाएंगे तो क्या बच्चा पैदा होने की संभावना नहीं होगी? क्या जीवन भर देहसुख के सहारे कोई व्यक्ति जिंदा रह सकता है? उसे बच्चा नहीं चाहिए? पुरुष भले ही बिना बच्चों के रह ले, परंतु कोई स्त्री कैसे रह सकती है?

‘‘प्रतीक, यह कैसे हो सकता है? बिना शादी के तो हम साथसाथ रह सकते हैं, पर बिना बच्चे के कैसे जीवन गुजरेगा?’’

प्रतीक ने उसे मनाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘देखो, हम दोनों अभी बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते और ऐफिडैविट बनवाने में हम दोनों की सुरक्षा है वरना तुम ने देखा ही है, कुछ दिन साथसाथ रहने के बाद लड़कियां शादी के लिए जोर देने लगती हैं. लड़का नहीं मानता है, तो परिवार और रिश्तेदारों के दबाव में आ कर लड़के के ऊपर बलात्कार का मुकदमा दायर कर देती हैं.’’

आयुषी के मन में शीशे की तरह छन्न से कुछ टूट गया. प्रतीक इतनी सावधानी क्यों बरत रहा है?

उस ने कठोर शब्दों में कहा, ‘‘प्रतीक, प्रेम सदा विश्वास की नींव पर टिका होता है. अगर हम दोनों को एकदूसरे पर विश्वास नहीं है, तो इस का मतलब है हम एकदूसरे को प्यार ही नहीं करते. ऐफिडैविट हमारे बीच प्यार पैदा नहीं कर सकता. इस से कटुता ही बढ़ेगी. इसलिए मैं इस से सहमत नहीं हूं. अगर तुम चाहो तो इस संबंध को यही खत्म कर देते हैं.’’

‘‘नहींनहीं,’’ उस ने तुरंत आयुषी को बांहों में भर लिया. उसे लगा अगर उस ने ज्यादा दबाव बनाया तो आयुषी उस के चंगुल से निकल जाएगी. उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चलो कोई बात नहीं, तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास है तो मैं भी तुम्हारे ऊपर विश्वास करता हूं. लेकिन ध्यान रखना, बाद में कोई गड़बड़ी न हो.’’

आयुषी के मन में एक गांठ सी पड़ गई, परंतु उन दोनों का प्यार नयानया था, इसलिए उस ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

किराए का फ्लैट लेते समय सिक्युरिटी डिपौजिट और अग्रिम किराया आयुषी ने भरा था. प्रतीक बोला था, ‘‘आयुषी, अभी तुम सिक्युरिटी डिपौजिट और किराया भर दो. मुझे हर महीने घर पैसे भेजने पड़ते हैं. मेरे पास हैं नहीं. बाद में लौटा दूंगा.’’

आयुषी को एक बार कुछ अजीब सा तो लगा था कि प्रतीक उस का फायदा तो नहीं उठा रहा, परंतु उस के अंदर प्यार का ज्वार इतना तीव्र था कि विवेक की सारी लकीरें एक ही लहर में मिट गई. बाद में आयुषी भूल ही गई कि प्रतीक ने पैसे लौटाने की बात कही थी.

आयुषी ने घर में खाना बनाने के सारे साधन जुटा लिए थे. प्रतीक ने मना किया था, परंतु वह नहीं मानी. स्वयं ही जा कर बरतन लाई, गैस का प्रबंध किया. झाड़ूपोंछा और खाना बनाने के लिए एक कामवाली रख ली. परंतु घर में खाना कम ही बनता था. प्रतीक के कहने पर लगभग रोज ही किसी न किसी रेस्तरां से खाना आता था. दोनों आउटिंग भी करते थे और इस सब का खर्चा आयुषी को उठाना पड़ता था.

कुछ दिन सतरंगी सपनों में डूबतेउतराते बीत गए. चारों तरफ प्यार ही प्यार बिखरा  था. दुनिया इतनी खूबसूरत होती है, यह आयुषी ने प्रतीक को प्यार कर के ही जाना. लेकिन आयुषी के प्यार का रंग तब फीका पड़ने लगा जब उस ने देखा कि घर को सजानेसंवारने में प्रतीक हमेशा अपना हाथ खींच लेता. जब भी उसे कुछ खरीदना होता, वह आयुषी से कहता, ‘‘डार्लिंग, आज कुछ खरीदारी कर लें?’’

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‘‘मुझ से क्यों कह रहे, तुम खुद खरीद लो.’’

‘‘लेकिन तुम तो जानती हो, मेरे पास पैसे नहीं हैं. घर भेज दिए,’’ और फिर वह उसे अपनी बांहों में भर लेता. उस की गरम सांसें आयुषी के बदन में मधुर तरंगें भरने लगतीं. वह मदहोश हो कर पिघल जाती. उस के सीने पर हलके से मुक्का मारती हुई बोलती, ‘‘ठीक है, चलो.’’

इसी तरह वह उस से अपने उपयोग की सारी चीजें खरीदवाता रहता. जब पैसे की बात आती तो कहता कि उस ने इस महीने घर भेज दिए, कभी कहता कि बैंक में जमा कर रहा है, बाद में काम आएंगे.

प्रतीक प्रेम भरी बातों से उसे इस तरह लुभाता कि आयुषी की सोच के सारे दरवाजे बंद हो जाते. वह यह न समझ पाती कि प्रतीक अपना पैसा क्यों खर्च नहीं करना चाहता. वह उस के पैसे से भी मौज कर रहा था और उस की देह से भी. साथसाथ रहने की यह कैसी मजबूरी थी कि रहने, खाने, पहनने, ओढ़ने का सारा खर्च केवल आयुषी उठाए? क्या प्रतीक की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

पूरे घर को आयुषी ने सजायासंवारा था. प्रतीक ने अपनी कमाई का एक पैसा घर में तो दूर आयुषी के ऊपर भी खर्च नहीं किया था.

आयुषी उसे ले कर बाजार जाती. कोई चीज उसे पसंद आती तो वह प्रतीक का मुंह देखती कि वह उसे खरीदने के लिए कहेगा, परंतु प्रतीक बिलकुल निरपेक्ष भाव से दूसरी तरफ देखने लगता जैसे आयुषी उस के साथ ही नहीं है. वह मन मार कर कहती, ‘‘प्रतीक, यह जींस कितनी अच्छी है. ले लूं?’’

‘‘हां हां, अच्छी है. ले लो. पैसे लाई हो न?’’ कह हाथ झाड़ लेता.

धीरेधीरे आयुषी ने महसूस किया कि उस के बैंक खाते में महीने के अंत में 1 रुपया भी नहीं बचता. जो उसे मिलता था, घर खर्च में ही खत्म हो जाता था. ऐसे तो अपने जीवन में वह कुछ जोड़ ही नहीं पाएगी. प्रतीक के कहने पर उस ने एक कार भी खरीद ली थी. उस की किस्त उसे ही भरनी पड़ती थी, जबकि गाड़ी का इस्तेमाल ज्यादातर प्रतीक ही करता था. गाड़ी वह इस्तेमाल करता था और पैट्रोल आयुषी को भरवाना पड़ता था.

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Serial Story: दोराहा (भाग-3)

आयुषी ने धीरेधीरे सब कुछ बताया कुछ भी नहीं छिपाया. सुन कर शिवांगी एक पल के लिए सन्न रह गई. फिर बोली, ‘‘मैं ने तो तुम्हें पहले ही सलाह दी थी. खैर, यह तो एक दिन होना ही था. अब से तुम संभल जाओ. प्रतीक यह कंपनी छोड़ने के चक्कर में है. वैसे तो वह किसी को अपनी बातें नहीं बताता है, परंतु उस के एक खास मित्र ने यह खुलासा कर दिया है. वह बैंगलुरु की किसी कंपनी में जौब के लिए कोशिश कर रहा है.’’

‘‘मुझे भी यही शक था. उस के व्यवहार से लग रहा था कि अब इस संबंध से उस का मन उचट गया है और छूट भागने की कोशिश कर रहा है.’’

‘‘फिर क्या करोगी तुम?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

शिवांगी को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या मतलब? तुम उस के खिलाफ कुछ नहीं करोगी? उस ने तुम्हारा शोषण किया है.’’

‘‘नहीं शिवांगी, उस ने मेरा कोई शोषण नहीं किया है. हम दोनों ने जो कुछ किया, उस में मेरी सहमति थी. अब मेरी गलतियों का परिणाम जो भी हो, मैं उसे भुगतने के लिए तैयार हूं.’’

शिवांगी आश्चर्य से उसे देख रही थी, ‘‘क्या तुम अपने को संभाल लोगी?’’

‘‘हां, मैं अपनेआप को संभाल लूंगी,’’ आयुषी ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘तुम्हें कभी मेरी जरूरत पड़े, बताना. मैं तुम्हारा भला चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, शिवांगी. मुझे ये बातें बताने के लिए धन्यवाद. मैं अपना खयाल रखूंगी.’’

आयुषी के पापा सरकारी अधिकारी थे. बहुत ज्यादा जिम्मेदारियां नहीं थीं. आयुषी को पढ़ानेलिखाने में जो खर्च हुआ, वह उन की तनख्वाह और बचत से पूरा हो गया. लेकिन उन के पास बहुत ज्यादा धनदौलत नहीं थी. उस की उन्हें आवश्यकता भी नहीं थी. बेटी स्वयं कमा रही थी, उन्हें कोई चिंता नहीं थी.

इसी बीच आयुषी की मम्मी का फोन आया कि उन को गालब्लैडर में पथरी हो गई है, औपरेशन करवाना पड़ेगा. उन्होंने पैसे की मांग नहीं की थी, बस आने के लिए कहा था, परंतु आयुषी ने सोचा ऐसे मौके पर अगर कुछ पैसे भेज सकी, तो पापा को कुछ राहत मिल सकेगी. उस के खाते में पैसे नहीं थे. तनख्वाह मिलने में समय था.

आयुषी ने प्रतीक से कहा, ‘‘मुझे कुछ पैसों की जरूरत है.’’

प्रतीक का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया, ‘‘तुम और पैसे? क्या तुम्हारे पास नहीं हैं?’’

‘‘नहीं हैं, तभी तो मांग रही हूं,’’ उस ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मम्मी का औपरेशन होना है, उन्हें देने हैं.’’

‘‘क्या तुम घर जा रही हो?’’

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‘‘सोच रही हूं, इसी बहाने घर हो आऊंगी. 1 साल से ऊपर हो गया घर नहीं गई.’’

‘‘मेरे पास तो नहीं हैं,’’ प्रतीक ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘कल ही घर भिजवा दिए हैं.’’

आयुषी समझ गई, प्रतीक साफ झूठ बोल रहा है. पूछा, ‘‘आखिर ऐसे बड़ेबड़े झूठ तुम कैसे बोल लेते हो. कभी कहते हो पैसे बचा रहे हो, कभी कहते हो घर भेज दिए. आखिर सारे पैसे तो तुम नहीं भेजते होगे. इस घर में एक कौड़ी भी तुम खर्च नहीं करते. तुम्हारे व्यक्तिगत खर्च से ले कर खानेपीने तक का खर्चा मैं उठा रही हूं. तुम्हें इस बात की शर्म नहीं आती कि मेरे टुकड़ों पर मौज कर रहे हो?’’

‘‘यह तुम्हारी जरूरत है, जो मेरे साथ रह रही हो,’’ उस ने ऐंठ से कहा जैसे हर लड़की की यह मजबूरी होती है कि वह लड़के के साथ रहते हुए उस का सारा खर्च वहन करे.

आयुषी कुछ और कहने की सोच ही रही थी कि प्रतीक ने उस के सामने ही कार की चाबी उठाई और उसे बिना कुछ बताए बाहर चला गया. उन के बीच जब भी कोई इस तरह की बात होती तो वह या तो लैपटौप ले कर बैठ जाता या फिर कार ले कर कहीं चला जाता.

प्रतीक बाहर चला गया तो वह काफी देर तक गुमसुम बैठी रही. वह घर की  1-1 चीज को देख रही थी, उसे अपने जीवन की पिछली बातें याद आ रही थीं. प्रतीक के व्यवहार में आए परिवर्तन को वह समझ नहीं पा रही थी. इतना तो वह देख ही रही थी कि अब वह उस के साथ नहीं रहना चाहता था. इसीलिए वह बातबात में कटुता घोलने का प्रयत्न करता था. वह जानबूझ कर संबंध खराब करने पर तुला था ताकि उसे अलग होने का बहाना मिल जाए. संभवतया वह किसी दूसरी लड़की के चक्कर में था या उस के घर वालों ने उस की कहीं शादी तय कर दी थी.

अगर ऐसी कोई बात थी, तो वह उस से साफसाफ कह सकता था. आयुषी इतनी दुष्ट नहीं थी कि वह बदले की भावना के चलते उस के खिलाफ कोई काररवाई करती. काररवाई करने से भी क्या फायदा? उसे सजा हो जाएगी, जेल चला जाएगा, परंतु वह आयुषी का तो तब भी नहीं हो सकता था.

पैसे जुटाने के लिए वह क्या करे? घर का कोई सामान बेच दे, परंतु उस से कितने पैसे जुटेंगे. उस ने काफी विचार किया. वह अगर अपने घर जाती है, तो आनेजाने में 10-20 हजार खर्च हो जाएंगे. इसलिए वह खुद तो नहीं गई, परंतु औफिस की एक मित्र से पैसे ले कर पापा के खाते में 50 हजार डलवा दिए.

आयुषी और प्रतीक के बीच के मधुर संबंध कटुता की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे. इस का जिम्मेदार कौन था, यह उन दोनों की समझ में नहीं आ रहा था.

प्रतीक का अपने घर वालों से पूरा संपर्क था. वह सालछह महीने में अपने घर हो आता था, परंतु आयुषी इन 2 सालों में केवल 1 बार घर गई थी. फोन पर बात होती थी, परंतु घर जाने के नाम पर बहाना बना देती थी कि अभी नई नौकरी है, काम ज्यादा है, छुट्टी नहीं मिल पाएगी. उस ने घर में यह भी बता रखा था कि शायद कंपनी की तरफ से उसे अमेरिका भेज दिया जाए. मां बहुत इच्छुक थीं कि आयुषी की शादी हो जाए, परंतु उस ने बहाना बना दिया था कि अमेरिका से लौटने के बाद ही शादी के बारे में कुछ सोचेगी. वास्तविकता तो यह थी कि वह शादी की सोच से बहुत आगे निकल चुकी थी.

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इसी खटपट के दौरान प्रतीक  1 सप्ताह की छुट्टी ले कर अपने घर चला गया. तब

आयुषी ने भी चुपके से छुट्टी ली और मम्मीपापा के पास चली गई. इतने दिनों बाद मां की गोद में सिर रख कर लेटने में उसे जो सुख की अनुभूति हुई, वह उसे प्रतीक की गोद में लेट कर भी कभी नहीं हुई थी. पापा के साथ बैठ कर पुरानी यादों को ताजा कर के वह फिर से अपने बचपन में पहुंच गई.

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जिंदगी बदगुमां नहीं: भंवर में फंस गया था पदम

Serial Story: जिंदगी बदगुमां नहीं (भाग-3)

‘दूसरा सच यह भी है कि तू एक हिजड़े का बाप कहलाने से बचना चाहता है. ‘पिछले 10 बरसों में कितनी ही बार पता लगा कि फलां जगह लोगों ने पदम को देखा था पर तू चुप बैठ गया. तेरी इस शीत प्रतिक्रिया ने भाभी को बहुत ज्यादा दुखी किया है.

‘अरे, तू क्या जाने मां का दिल कैसा फटता है. लानत है ऐसे पत्थर दिल बाप पर.’ मुन्ना ने जो कहा वह सब सच था.

शिशिर उस दिन मुंह छिपा कर चला गया था. डरता था कि कहीं मुन्ना की बात से उस का निश्चय डगमगा न जाए.

लेकिन उस के निश्चय से राम को अमेरिका भेजने का सपना पूरा हो ही गया. यद्यपि उस के जीवन की सारी जमा पूंजी दावं पर लग गई थी, फिर भी वह खुश था. राम को अमेरिका गए पूरे 5 साल हो गए हैं. इस बीच राम का असली चेहरा सब के सामने आ गया था.

शिशिर ने सोचा था राम उस की गरीबी दूर करेगा, पैसे कमा कर अमेरिका से भेजेगा, बुढ़ापे की लाठी बनेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे, उसे फोन पर बेटे से धमकियां मिलतीं, ‘पापा, इस मकान को बेच दो. मैं तुम्हें नई कालोनी में बढि़या प्लैट खरीद दूंगा. मेरा हिस्सा मुझे दे दो वरना…’ ‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं.’

मुन्ना ने समझाया, ‘यह बेवकूफी हरगिज न करना. तेरे सिर पर से छत भी जाएगी और तू सड़क पर

आ जाएगा.’ राम के इस व्यवहार से सब का मन दुखी होता, पर आखिर विकल्प क्या था?

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ऐसे दुख की घड़ी में शिशिर को पदम की बड़ी याद आती. काश, वह यहां होता. कितना स्वार्थी था शिशिर जो शिखंडी बेटे के जाने के बाद उस की सुध भी न ली. आज आत्मग्लानि से वह बेटे का सामना नहीं कर पा रहा है. क्या हुआ इन 20-22 बरसों में जानने की उत्कंठा तो थी परंतु जबान जैसे तालू से चिपक गई थी उस की. आज बेटा सामने है तो खुशी तो है पर कहेपूछे किस मुंह से?

जब से पदम ने घर में कदम रखा है, मुन्ना और रेवा बच्चों की तरह खुश हैं जैसे किसी खोए खिलौने को पा लिया है, पर शिशिर अपनी सोच और व्यवहार से नजरें चुरा रहा है. आज सब ने सुबहसुबह दूधजलेबी खाई थी. नाश्ते के बीच पदम ने पूछा, ‘‘मां, राम भैया कहां हैं?’’

‘‘अमेरिका में,’’ मां ने जवाब दिया था. ‘‘वहां क्या करते हैं?’’

‘‘पता नहीं, बेटा. फोन आता रहता है. आज इतवार है, देखना फोन जरूर आएगा.’’ ‘‘चलो, यह भी अच्छा हुआ जो पढ़लिख कर वे नौकरी कर रहे हैं,’’ पदम ने ठंडी प्रतिक्रिया दी.

‘‘छोड़, यह बता तू ने क्या पढ़ाई की है?’’ ‘‘मैं ने एनीमेशन इंजीनियरिंग की है यानी सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’

‘‘वाह, क्या बात है. तू तो बड़ा लायक निकला, सब ने खुशी व्यक्त की थी.’’ ‘‘हां, यहां नोएडा में एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई है. कल से जाना है.’’

‘‘बहुत खूब,’’ मुन्ना बाबू ने उस की पीठ थपथपाई. ‘‘भैया का फोन आएगा तब मैं भी बात करूंगा.’’

सब ने सुनी थी उस की बात पर ‘राम प्रकरण’ को छेड़ना इस वक्त किसी को भला नहीं लग रहा था. तभी फोन की घंटी बजी.

शिशिर बाबू ने फोन उठाया, जानते थे उसी का होगा. पदम दूसरे कमरे में रखे पैरलेल लाइन पर बापबेटे की बातें सुन रहा था. ‘‘पापा, वह मकान का क्या हुआ? कोई कस्टमर मिला?’’

‘‘तुझ से मैं ने पहले भी कहा है, मैं यह मकान नहीं बेचूंगा.’’ बापबेटे में बहस छिड़ गई. बीच में पदम बोला, ‘‘भैया, मकान की बात क्यों करते हो?’’

राम चौंका, ‘‘भई, बीच में तू कौन?’’ ‘‘मैं आप का छोटा भाई पदम हूं. आज ही आया हूं.’’

‘‘मेरा कोई भाई नहीं है. पता नहीं पापा किसकिस को घर में घुसा लेते हैं. बुढ़ापे में पापा का दिमाग सठिया गया है. भाई, तू जो भी हो, मुझे परायों से बात नहीं करनी.’’ ‘‘बूढ़ा होगा तू, मैं अब तेरी परवा नहीं करता. जैसे तू मेरा बेटा

है वैसे पदम भी है. बोल, क्या कहना है?’’ शिशिर बाबू तेज आवाज में बोले.

‘‘मैं अगले महीने इंडिया आ रहा हूं. मकान तो मैं बेचूंगा जरूर,’’ राम ने फिर धमकी दी. गुस्से में शिशिर ने फोन पटक दिया. सब उन की हिम्मत देख हैरान थे.

मुन्ना उन्हें देख मुसकराया, ‘‘आज

दूसरा कंधा मिल गया है तो शिशिर में ताकत आ गई है. अच्छा जवाब दिया राम को.’’

‘‘अरे, बाजार से सामान ले आओ, मैं ने लिस्ट बना ली है,’’ रेवा ने माहौल बदलने की गरज से बात बदली. ‘‘हां, लाओ लिस्ट,’’ वे भी इस वक्त बात को छोड़ना चाहते थे.

‘‘पापा, मैं भी साथ आता हूं,’’ पदम साथ हो लिया. दरअसल, शिशिर बाबू बेटे से अकेले में बातें करना चाहते थे. शायद पदम भी यही चाहता था.

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‘‘भैया के साथ क्या प्रौब्लम है?’’ पदम ने पूछा. उन्होंने सारी कहानी बेटे को सुना दी. ‘‘बेटा, मैं तो यहां तेरी कहानी सुनने आया हूं. वैसे यह बता इन 22 बरसों में क्या बीता, मेरा मन सब जानने को उत्सुक है.’’

‘‘पापा, मैं बता दूं कि भाई की सोच मुझ से छिपी नहीं है. मैं सारा हैंडिल कर लूंगा, भाई को तो चुटकी में मनाऊंगा. बस, मैं चाहता हूं कि हम सब मिल कर प्यार से रहें. मैं यहां आप लोगों के लिए आया हूं, रिश्ते जोड़ने आया हूं, तोड़ने नहीं. भैया या किसी और से भी.’’ पिता ने बेटे की परिपक्वता और सकारात्मक सोच को मन से सराहा.

‘‘पापा, मैं अपने बारे में क्या बताऊं, शुरू के 6 वर्षों में जो भोगा दुखदर्द उफ, उस का विवरण आप सुन न पाएंगे. सो, उसे छोड़ो. ‘‘जब मैं 12 वर्ष का हुआ तो एक दिन मैं ने देखा कि एक सरदारजी मुझ से बारबार मेरे बारे में पूछते हैं. मैं जान गया कि यह व्यक्ति मेरी कमजोरी और साहसिक सोच से प्रभावित है.

‘‘बस, एक रोज उस की गाड़ी में बैठ कर उस की कोठी पर चला गया. लगा, सुख की दुनिया में आ गया हूं.’’ ‘‘सरदारजी ने मुझ से सब से पहले कहा, ‘यहां तुम पूर्ण सुरक्षित हो, तुम्हें तुम्हारा टोला छू भी नहीं सकता.

‘‘वे एक व्यापारी थे. पर रहते अकेले थे. घर में नौकरचाकर थे और वो, बस.’’ ‘‘वहां मैं ने पाया न कोई मुझे हिज्जू कहता है, न ही मेरे चेहरेमोहरे को ले कर कोई ताना कसा जाता है.

‘‘मेरा स्कूल में ऐडमिशन हो गया. मैं पढ़ता गया जब 12वीं की तो उन के एक डाक्टर मित्र ने मुझ से पूछा, ‘बेटा, आप ठीक हो सकते हो किंतु आप को कुछ महीने मुंबई में गुजारने होंगे. क्या तुम तैयार हो?’ ‘‘डाक्टर साहब मुझे अपने साथ मुंबई ले गए. जहां सालभर मैं उन की देखरेख में रहा. सालभर में मैं ने महसूस किया कि मेरे चेहरे के पीछे एक पुरुष चेहरा छिपा है, मन में आत्मविश्वास आ गया था.

‘‘मैं काफी बदल गया था. लोग मुझ से बात करना पसंद करते थे. मैं ने महसूस किया जिंदगी बदगुमां नहीं है. कई बार मुझे लगता कि मैं वापस अपने घर दिल्ली आ जाऊं पर मैं ने सरदारजी से वादा किया था, ‘मैं मम्मीपापा के पास कुछ बन कर ही जाऊंगा.’

‘‘उस गौडफादर को मैं कभी नहीं भूलूंगा. मैं ने एनीमेशन इंजीनियरिंग की और कंप्यूटर पर कार्टून बनाने का काम करने लगा. ‘‘आज भी याद है सरदारजी की बात, ‘बेटा, जीवन एक युद्ध है. इसे हमें जीतना ही है. और जो जीतता है वही सिकंदर है.’

‘‘उन का वह बातबात पर प्यार से समझाना आज तक याद है. पापा, जन्म तो आप ने मुझे दिया पर इस जीवन को तराशा सरदारजी ने. वे न मिलते तो मैं मिट्टी के ढेले सा मिट्टी में समा जाता.’’ सब सुन कर पिता की आंखें छलछला गईं. उन्होंने आसमान की तरफ देखा. ढेरों सितारें भी बेटे की कहानी सुन रहे थे और वहीं से शायद कह रहे थे, वैल डन पदम, सैल्यूट है तेरे जज्बे को.

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