पथरीली मुस्कान- भाग 2: क्या गौरी की जिंदगी में लौटी खुशी

आज सरवन की तेरवीं थी ,घर के लोग उसके घर भोज में गए हुए थे,पता नहीं ये बात संतोषी चाची के आदमी को कैसे पता चल गयी

“गौरी….ओ ..गौरी …अरे कहा है रे तू …

देख तो तेरे लिए दूसरा मिठ्ठू लाया हूँ

संतोषी के मरद की  आवाज़ सुनते ही सहम गयी थी गौरी ,आत्मा का दर्द एक बार फिर ताज़ा हो आया था ,पहले तो छत पर ही दुबक गयी ,आँखों और मुट्ठियों को किसके भीचें ,अपने शरीर को छोटा और छोटा करते हुए पर। मिठ्ठू वाली बात ने उसके बाल सुलभ मन को थोड़ा कमज़ोर किया था पर अपनी भावनाओं पर काबू पाना शायद स्त्री जाति में प्राकृतिक गुण ही तो है.

गिद्ध ,बाज़ और मक्खी की नाक और नज़र बड़ी पैनी होती है वे अपने शिकार को सूँघ ही लेते हैं.

संतोषी का मरद भी छत पर जा पहुंचा ,उसकी आहट जान सिहर उठी थी गौरी,उसकी सिहरन अभी खत्म भी न हो पायी थी कि एक पंजा उसकी पीठ को सहलाने लगा ,गौरी अभी बच्ची थी उसका डर भी स्वाभाविक था ,पर आज जैसे ही गिद्ध ने अपनी चोंच आगे बढ़ा कर शिकार करने चाहा ,गौरी ने प्रतिरोध किया पर उसका शक्ति प्रदर्शन एक पुरुष के सामने कहाँ चलने वाला था.

अपने आपको नर्क में गिरता देख गौरी ने चाचा की कलाई पर पूरी शक्ति से काटा , एक बारगी कराह तो उठा था चाचा,पकड़ ढीली हुयी तो गौरी बेतहाशा भागी और ऐसी भागी की नीचे की सीढ़ियों की जगह छत से सीधे नीचे ही आ गिरी .

कितनी चोट लगी थी ,कितनी नहीं ,गौरी को उसका गम नहीं था पर ज़मीन पर पड़े हुए जब उसकी नज़रें छत की और गयी तो उसने चाचा को अपनी और देखता हुआ पाया और गौरी के मन में एक संतोष सा उभर आया था कि आज उसने अपनी रक्षा कर ली है.

गांव में हल्ला हो गया कि गौरी छत से गिर गयी है ,और सबसे पहले चाचा ने ही गौरी को गोद में उठाया था उसके स्पर्श में भी एक गिजगिजाहट महसूस कर रही थी वो पर पीठ में आयी चोट के कारण प्रतिरोध करते न बनता था ,

चाचा अम्मा पापा को पता नहीं क्या मनगढ़ंत कहानी बता रहा था और वो भी चाचा की बात को सच ही मान रहे थे .

पैर में आयी चोट के कारण पैर में प्लास्टर करवाना पड़ा था पर उस दिन की घटना के बाद चाचा दुबारा गौरी को छूने  हिम्मत नहीं कर पाया था.

इस घटना ने गौरी को मर्दों के प्रति अनिच्छा सी भर दी थी ,वह जब भी कोई मर्द देखती तो गौरी को यही लगता कि उसकी नज़रें उसके अंगों को टटोल रही हैं और वो अंदर तक सिहर जाती और अपने दायरे में ही सिमट कर रह जाती.

गौरी का स्कूल जाना  पैर पर प्लास्टर होने के कारण फिलहाल बंद हो गया था,पर फिर भी गौरी ने घर से ही पढाई जारी रखी और जब इम्तेहान आये तो पापा आधी बोरी हल्दी की गांठे मास्साब के घर पहुंचा आये थे जिसका नतीजा ये हुआ कि अगले दिन  मास्साब खुद ही घर आकर कॉपी लिखवाकर ले गए, गौरी से.

गौरी ने कॉपी में जो भी लिखा था वह पास होने के लिए काफी था पर वो ज़ख्म जो चाचा ने गौरी के मन पर दे दिया था वो तो भरने का नाम ही नहीं ले रहा था.

पापा का मसाले और गल्ले का काम और बढ़ चला था ,उनके सामान को  बाज़ार तक ले जाने और फिर वहां से वापिस लाने के लिए उन्हें एक सहायक की ज़रूरत थी क्योंकि छोटा भाई अभी  छोटा था और इस लायक नहीं था कि उनके काम में सहायक हो सके.

इसलिए पापा ने एक लड़का काम के लिए रख लिया उसका नाम पारस था ,बाजार वाले दिन वो पापा के साथ ही आता जाता और थोड़ा बहुत घर के कामों में माँ को भी सहायता करता ,बेहद ही हँसमुख था वो,सबको हँसाता पर गौरी को कभी हँसी नहीं आती.

एक जीवन का पत्थर की मूर्ति में बदलना आरम्भ हो चुका था. पारस और गौरी दोनों हमउम्र थे ,इसलिए दोनों में बातचीत भी हो जाती थी ,गौरी के पैरों का प्लास्टर कटने से पहले ,एक  सुंदर फूल की आकृति उकेरी थी उसने गौरी के पैर पर चढ़े सफ़ेद प्लास्टर पर.

“अरे वाह तुम तो कलाकार भी हो”माँ ने कहा

माँ की इस बात पर बच्चों की तरह हँस दिया था पारस.

प्लास्टर काटा जा चुका था और गौरी पहले की तरह ही स्कूल आने जाने लगी थी,पर मुस्कान अब भी उसके होठों से अंजान रिश्ता ही कायम कर हुए थी.

पारस की मौजूदगी गौरी को अच्छी लगने लगी थी ,गौरी के मन में चाचा की गंदी हरकतों की वजह से पुरूष के प्रति जो नफरत भरी हुयी थी ,पारस के आने के बाद वह कम हो गयी थी.

अब किसी दिन अगर पारस काम पर नहीं आता तो गौरी को अच्छा नहीं लगता ,और उसके आने पर वो उसे पापा के साथ काम करते हुए कनखियों से देखती रहती.

जब कभी पापा को दुकान नहीं लगानी होती तो पारस घर में रहता ,एक दिन वह छत पर पतंग उडा रहा था ,और पतंग खूब हिचकोले लेकर मानो सूरज से ही बातें करना चाहती थी

“अरे ….कैसे इतनी ऊंची पतंग उडा लेते हो तुम” गौरी अपने छोटे भाई के साथ छत पर आते हुए बोली

“कोई भी उडा सकता है”

“कोई भी …..मतलब …मैं भी”

“हाँ..हाँ क्यों …नहीं ,देखो मैं तुम्हे सिखाता हूँ….देखो ..ये डोर ऐसे पकड़नी है …और जब पतंग आसमान की तरफ जाए तो थोड़ा डोर को ढीला करना …है और फिर थोड़ा डोर को खींचना है …..और बस” पारस ने गौरी को बताया

गौरी ने डोर उसके हाथ से ले ली और अपनी ही मस्ती में पतंग उड़ाने लगी ,पारस उसकी मदद कर रहा था जबकि गौरी के  छोटे भाई को नीचे रखा मांझा लेने भेज दिया था पारस ने

जैसे ही पारस ने अकेलापन पाया ,गौरी की पीठ से चिपक गया और फुसफुसा कर बोला “गौरी में तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ….और तुमसे शादी करना चाहता हूँ”

और पारस के हाथ गौरी के सीने पर जा पहुंचे गौरी के लिए पारस के मन में भी लगाव था पर अचानक से फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति ……..,गौरी के सामने मिठ्ठू और चाचा वाली घटना आँखों में उतर आई ,उसने  अपने को पारस की गिरफ्त से छुड़ाया तमतमाती हुयी नीचे चली आयी.

संतुलन- भाग 2: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को समझे. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’

‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के  कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही  हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का  ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी  उसे समझते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.

‘बोझ ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.

चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?

बच्चों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार प्रभा के मन में आग लगा जाता, पर जब पिता ही उन का दुश्मन बन बैठा हो तो वह बेचारी क्या करती. एक दिन दीपकजी किसी परिचित की बेटी का फौर्म कालेज में जमा  कर के लौट रहे थे कि दुर्घटना हो गई. उन के स्कूटर को पीछे से आती हुई कार की ठोकर लगी और वे स्कूटर से गिर पड़े. किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने के बाद घर पर प्रभा को सूचना दी.

सूचना पाते ही प्रभा के तो हाथपांव फूल गए. विकास को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था. विभा बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी. पड़ोसियों ने दोनों को संभाला, प्रभा को अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल का बरामदा उन के मित्रों, परिचितों से ठसाठस भरा हुआ था. ऐसा लगता था मानो कोई लोकप्रिय नेता भरती हो. प्रभा को ढाढ़स बंधाने वाले भी कई थे. कोई उसे नीबूपानी पिला रहा था तो कोई उस के घर खाना पहुंचा रहा था. किसी ने दीपकजी के पास रात को रुकने की योजना बनाई थी तो कोई घर पर बच्चों के पास सोने जा रहा था.

प्रभा ने देखा कि विकास और विभा का व्यवहार ऐसी कठिन परिस्थिति में भी धीरज और हिम्मतभरा नहीं था. मां को सहारा देना तो दूर, वे दोनों मानो अपने ही होशोहवास खो बैठे थे. किशोर से युवा हो चुके बच्चों के इस व्यवहार को प्रभा ने काफी नजदीक से महसूस किया.

दीपकजी के पैर की हड्डी टूटी थी. 15 दिन बेहद आपाधापी में गुजरे, लेकिन प्रभा को कोई परेशानी नहीं हुई. एक तरह से सभी ने उन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी थी. सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने तक, कोई न कोई सारा इंतजाम कर देता, वह भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक, एहसान जताते हुए नहीं. सब का इतना मानसम्मान, प्यारदुलार पा कर प्रभा सचमुच अभिभूत थी.

बड़ी मुश्किल से जब एकांत मिला तब दीपकजी के सामने उस ने अपनी भावना जताई तो दीपकजी गद्गद हो गए. उन्होंने खुशी में प्रभा का हाथ थाम लिया. बच्चे भी कहने लगे, ‘‘मां, देखा, तुम ने पिताजी की समाजसेवा की हमेशा निंदा की है, लेकिन आज वे ही लोग हमारे कितना काम आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ने मान तो लिया कि मैं गलत थी,’’ प्रभा तृप्तभाव से बोली. 15 दिनों बाद दीपकजी को अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर पर आनेजाने वालों का तांता लग गया, लेकिन अभी 2-3 महीनों तक प्लास्टर लगना था. जैसेजैसे दिन बीतते गए, भीड़ छंटती गई. सभी अपनेअपने कामों में व्यस्त हो गए थे तो वे भी अपनी जगह पर गलत नहीं थे. आखिर कोई किसी के परिवार का कब तक बीड़ा उठाता.

प्रभा पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी. घर की व्यवस्था, बाहर का काम. इस के अलावा दीपकजी की परिचर्या. उस के पैरों में जैसे घिर्री लग गई.दीपकजी को अब एहसास होने लगा कि उन के बच्चे मां के काम में जरा भी हाथ नहीं बंटाते. दिनभर टीवी के सामने डटे रहेंगे या बाहर घूमते रहेंगे. दिनभर काम में लगी हुई प्रभा को देख कर उन के मन का रिक्त कोना भीगने लगा. पलंग पर पड़ेपड़े मूकदर्शक बने वे प्रभा की परेशानियों को जैसे नए सिरे से देखने लगे.

एक दिन जब प्रभा सब्जी लेने गई थी, दीपकजी ने बच्चों को आवाज दी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘बेटा, घड़ी दो घड़ी पिताजी के पास भी तो बैठा करो,’’ फिर विभा से बोले, ‘‘आज खाना तुम बना लो, तुम्हारी मां सब्जी लेने गई है.’’उन की बात सुन कर विभा की आंखें फैल गईं. ‘‘खाना…मैं बनाऊंगी?’’

‘‘इस में अचरज की क्या बात है. क्या तुम्हारी उम्र की और लड़कियां खाना नहीं बनातीं?’’ दीपकजी बोले.

‘‘लेकिन वे अपने पिता की लाड़ली थोड़े ही हैं,’’ विभा ने अपनी बांहें दीपकजी के गले में डाल कर लडि़याते हुए कहा, ‘‘मुझे कहां आता है खाना बनाना.’’

‘‘विकास, तुम सब्जी ले आया करो. बाहर के कामों में मां का हाथ बंटाया करो,’’ दीपकजी ने बेटे से कहा.

यह सुन कर विकास आश्चर्य से उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘पिताजी, अब तक तो ये सारे काम मां ही देखती आई हैं.’’

दीपकजी चुप हो गए. उन्हें महसूस हुआ कि कहीं कुछ गलत, बहुत गलत हो रहा है. बच्चों में घर के हालात समझ कर जिम्मेदारीपूर्वक कुछ करने की भावना ही नहीं है. लाड़प्यार और सिर्फ लाड़प्यार में पले ये बच्चे इस स्नेह का प्रतिदान करना ही नहीं जानते. वे तो सिर्फ एकतरफा पाना जानते हैं.

उन्हें याद आया कि 5 वर्ष की नन्ही सी उम्र में ही वे अपनी मां का दर्द समझते थे. उन का सिर दबाने की चेष्टा करते. उन का कोई काम कर के धन्यता का अनुभव करते, लेकिन मां उन्हें 7-8 बरस का छोड़ कर चल बसीं. उन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा. संयुक्त परिवार में ताईजी, चाचीजी का कृपाभाजन बनने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ती. उन के कई काम करने के बाद ही दो मीठे बोल नसीब होते. इस तरह छोटी सी उम्र में ही उन्हें दूसरों के काम करने से होने वाले लाभ का पता चला.

धीरेधीरे दायरा बढ़ा. दूसरों को उपकृत कर के अजीब सी संतुष्टि मिलती. बदले में अनेक तारीफें मिलतीं, ढेरों आशीर्वचन मिलते. मातृहीन मन को इस से बड़ा दिलासा मिलता. तब घर का काम करने में आनंद नहीं मिलता. घर वाले उन के कामों को कर्तव्य की श्रेणी में रखते थे. ‘कर्तव्य’ शब्द की शुष्कता और रसहीनता उन के गले नहीं उतरती थी. बाहर वालों के नर्ममुलायम, मीठे प्रशंसा आख्यानों की चाशनी में उन का मन डूब जाता.

उन की शादी हुई, तब भी यह आदत यथावत बनी रही. गृहस्वामी बन कर भी वे जनताजनार्दन के सेवक ही बने रहे.

टूटा गरूर- भाग 1: छोटी बहन ने कैसे की पल्लवी की मदद

पल्लवी ने कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा. सुबह के 9 बजे थे. ट्रेन आने में अभी 1 घंटा था. अगर वह 10 बजे भी स्टेशन के लिए निकली तब भी टे्रन के वक्त पर पहुंच जाएगी. स्टेशन 5-7 मिनट की दूरी पर ही तो था.

पल्लवी एक बार किचन गई. महाराज नाश्ते की लगभग सभी चीजें बना चुके थे. 10 बजे तक नाश्ता टेबल पर तैयार रखने का आदेश दे कर वह वापस ड्राइंगरूम में आ गई और सरसरी तौर पर सजावट की मुआयना करने लगी. ड्राइंगरूम की 1-1 चीज उस की धनाढ्यता का परिचय दे रही थी.

पारुल तो दंग रह जाएगी यह सब देख कर. पल्लवी की संपन्नता देख कर शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो. पश्चात्ताप हो.

पारुल पल्लवी की छोटी बहन थी. आज वह पल्लवी के यहां 4-5 दिनों के लिए आ रही है. ऐसा नहीं है कि पारुल ने पल्लवी का घर नहीं देखा है. लेकिन वह यहां 5 वर्ष पहले आई थी. पिछले 5 वर्षों में तो पल्लवी के पति प्रशांत ने व्यवसाय में कई गुना प्रगति कर ली है और उन की गिनती शहर के सब से धनी लोगों में होने लगी है. 5 साल पहले जब पारुल यहां आई थी तो पल्लवी 5 हजार वर्गफुट की जगह में बने बंगले में रहती थी. लेकिन आज वह शहर के सब से पौश इलाके में अति धनाढ्य लोगों की कालोनी में 25 हजार वर्गफुट में बने एक हाईफाई बंगले में रहती है. अपनी संपन्नता के बारे में सोच कर पल्लवी की गरदन गर्व से तन गई.

पल्लवी का मायका भी बहुत संपन्न है. पल्लवी से 6 साल छोटी है पारुल. पढ़ने में पल्लवी का कभी मन नहीं लगा. वह सारा दिन बस अपने उच्चवर्गीय शौक पूरे करने में बिता देती थी. इसीलिए 20 वर्ष की होने से पहले ही उस के पिता ने प्रशांत के साथ उस का विवाह कर दिया.

प्रशांत से विवाह कर के पल्लवी बहुत खुश थी. रुपयापैसा, ऐशोआराम, बस और क्या चाहिए जीवन में. हर काम के लिए नौकर. पल्लवी जैसी सुखसुविधाएं चाहती थी वैसी उसे मिली थीं.

पिताजी पारुल का भी विवाह जल्द ही कर देना चाहते थे, लेकिन वह तो सब से अलग सांचे में ढली हुई थी. जब देखो तब किताबों में घुसी रहती. पढ़ाई के अलावा भी न जाने और कौनकौन सी किताबें पढ़ती रहती. उसे एक अलग ही तरह के लोग और परिवेश पसंद था. स्कूलकालेज में भी वह बस पढ़ाई में तेज और बुद्धिमान लड़कियों से ही दोस्ती करती थी. उसे रुपए की चकाचौंध में जरा भी रुचि नहीं थी. तभी एक से एक धनी व्यवसायी घरानों के रिश्ते ठुकराते हुए 4 साल पहले उस ने अचानक कालेज के एक असिस्टैंट प्रोफैसर से विवाह कर के सब को सकते में डाल दिया.

घर वालों को यह सहन न हुआ. तभी से मातापिता ने पारुल से रिश्ता तोड़ लिया था. लेकिन एक ही शहर में होने के बाद मातापिता आखिर कब तक बेटी से नाराज रहते. इधर 6 महीने से उन लोगों ने पारुल और पति पीयूष को घर बुलाना और उन के यहां आनाजाना शुरू कर दिया. तब पल्लवी ने भी पारुल से फोन पर बात करना और उसे अपने घर आने का आग्रह करना शुरू कर दिया.

ऐसा नहीं है कि पल्लवी को पारुल से बहुत लगाव है और वह बस स्नेहवश उस से मिलने को आतुर है, बल्कि पल्लवी तो अपनी संपन्नता के प्रदर्शन से पारुल को चकाचौंध कर के उसे यह एहसास दिलाना चाह रही थी कि देखो तुम ने मामूली आदमी से ब्याह कर के क्या कुछ खो दिया है जिंदगी में.

पल्लवी और उस के परिवार ने जीवन में हमेशा पैसे को महत्त्व दिया था. चाहे उस के पिता हों या पति, दोनों ही पैसे से ही आदमी को छोटाबड़ा समझते थे.

पौने 10 बज गए तो पल्लवी ने अपने विचारों को समेटा और ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहा. चमचमाती कार में बैठ कर वह स्टेशन पहुंची. समय पर ट्रेन आ गई.

स्लीपर क्लास से उतरती पारुल पर नजर पड़ते ही पल्लवी का जी कसैला हो उठा कि अगर संपन्न घर में शादी करती तो इस समय प्लेन से उतरती.

‘‘ओ दीदी कैसी हो? कितने साल हो गए तुम्हें देखे हुए,’’ पारुल ने लपक कर पल्लवी को गले लगा लिया और जोर से बांहों में भींच लिया.

क्षण भर को पल्लवी के मन में भी बहन से मिलने की ललक पैदा हुई पर तभी अपनी प्योर सिल्क की साड़ी पर उस का ध्यान चला गया कि उफ, गंदे कपड़ों में ही छू लिया पारुल ने. पता नहीं ट्रेन में कैसेकैसे लोग होंगे. अब तो घर जा कर तुरंत इसे बदल कर ड्राईक्लीन के लिए देना होगा.

घर पहुंच कर पल्लवी ने पारुल को बैठने भी नहीं दिया, सीधे पहले नहाने भेज दिया. ट्रेन के सफर के कारण पारुल के शरीर से गंध सी आ रही थी. पल्लवी स्वयं भी कपड़े बदलने चली गई.

डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगवा कर पल्लवी ने पारुल को आवाज लगाई. मोबाइल पर बात करते हुए पारुल आ कर कुरसी पर बैठ गई. बात खत्म कर के उस ने मुसकरा कर पल्लवी को देखा.

‘‘बाप रे दीदी… यह इतना सारा क्याक्या बनवा दिया है तुम ने,’’ पारुल आश्चर्य से नाश्ते की ढेर सारी चीजों को देख कर बोली.

‘‘कुछ भी तो नहीं. जब तक यहां है अच्छी तरह खापी ले… वहां तो पता नहीं…’’ पल्लवी ने अपनेआप को एकदम से रोक लिया वरना वह कहना चाह रही थी कि एक मामूली सी तनख्वाह में वह दालरोटी से अधिक क्या खा पाती होगी भला. पर यह कहने से अपनेआप को रोक नहीं पाई कि यहां तो रोज ही यह बनता है… तेरे जीजाजी तो ड्राईफ्रूट हलवे के सिवा और कोई नाश्ता ही नहीं करते.

‘‘अरे हां, जीजाजी क्या औफिस चले गए?’’ पारुल ने उत्साह से पूछा.

‘‘नहीं, वे तो काम से मुंबई गए हैं. वही से फिर बैंगलुरु और फिर हैदराबाद जाएंगे. व्यवसाय बढ़ गया है. महीने में 20 दिन तो वे बाहर ही रहते हैं,’’ पल्लवी ने अपने स्वर में भरसक गर्व का पुट भरते हुए कहा.

‘‘और तुम ने भी दोनों बच्चों को क्यों होस्टल में डाल दिया? बच्चे घर में होते हैं, तो रौनक रहती है,’’ पारुल ने एक कौर मुंह में डालते हुए कहा.

‘‘अरे, इन का स्कूल माना हुआ है, इन की इच्छा तो फौरेन भेजने की थी पर मैं ने कहा अभी बहुत छोटे हैं. हायर ऐजुकेशन के लिए भेज देना विदेश, अभी तो देहरादून ही ठीक है. यों भी जब पैसे की कोई कमी नहीं है तो बच्चों को क्यों न बैस्ट ऐजुकेशन दिलाई जाए. हां, जिन के पास पैसा न हो उन की मजबूरी है…’’ कहते हुए पल्लवी ने एक चुभती हुए गर्वीली दृष्टि पारुल पर डाली. लेकिन तब तक पारुल के मोबाइल पर बीप की आवाज आई और वह मैसेज पढ़ने में व्यस्त हो गई.

ब्लैंक चेक- भाग 1: क्या सुमित्रा के बेटे का मोह खत्म हुआ

72 वर्षीय श्रीकांत हाथ में लिफाफा लिए हुए घर में घुसे. पत्नी सुमित्रा लिफाफा देखते ही खुश हो गई थीं. वे बोलीं, ‘‘क्या अर्णव की चिट्ठी आई है? वह कब आ रहा है?’’ परंतु उन के उदास चेहरे पर निगाह पड़ते ही वे चिंतित हो उठी थीं. ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? आप का चेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है?’’

पत्नी के सारे प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए श्रीकांत सोफे पर निराशभाव से धंस कर बैठ गए थे. उन का चेहरा झुका हुआ था, दोनों हाथ उन के सिर पर थे.

पति का गमगीन चेहरा देख, बुरी खबर की आशंका से सुमित्रा एक गिलास में पानी ले कर आई. फिर पूछा, ‘‘कांत, क्या बात है? कुछ तो बोलिए?’’

श्रीकांत रोंआसे हो कर बोले, ‘‘बैंक से मकान की नीलामी का नोटिस आया है. तुम्हारा लाड़ला राजकुमार इस मकान के ऊपर बैंक से लोन ले कर अमेरिका गया है. लोन की एक भी किस्त नहीं भेजी है. नालायक कहीं का. तुम्हारे लाड़ले ने अपने बूढ़े बाप को हथकड़ी पहना कर जेल भेजने का पक्का प्रबंध कर दिया है.’’

‘‘बड़े घमंड और शान से ब्लैंक चैक कहा करती थीं न.’’‘‘देख लो, अपने ब्लैंक चैक को. मांबाप को मुसीबत में डाल दिया है.’’ ‘‘हमारा मकान नीलाम होगा…’’ सुमित्रा घबरा कर बोलीं, ‘‘किसी तरह कोशिश कर के इस नीलामी को रोकिए. इस बुढ़ापे में हम लोग कहां जाएंगे. जो कहना है, अपने राजदुलारे से कहो.’’

‘‘उस का तो कुछ अतापता ही नहीं है.’’ श्रीकांत बोले, ‘‘उस की राह देखतेदेखते तो आंखों की रोशनी भी चली गई. अब तो आंखों के आंसू भी सूख चुके हैं.’’

‘‘आप मुझे बताइए, मैं उस अफसर के पैर पकड़ लूंगी, भीख मांगूंगी कि मुझे मोहलत दे दो. इस बुढ़ापे में बताओ भला मैं कहां भटकूंगी.’’

‘‘चुप हो जाओ. सब तुम्हारा ही कियाधरा है. तुम्हारी बातों में आ कर आज यह दिन देखना पड़ रहा है.’’ श्रीकांत बोले. फिर वे मन ही मन बुदबुदाए थे, ‘‘झूठे राजेश के झांसे में पड़ कर सबकुछ बरबाद हो गया. वह पैसा खाता रहा, कहता था कि सर, आप निश्ंिचत रहिए, मैं ने आप की फाइल नीचे दबा दी है. अब किसी अफसर की निगाह ही उस पर नहीं पड़ सकती. मैं ने आप की जिंदगीभर का इंतजाम कर दिया है. झूठा, मक्कार एक लाख रुपया भी खा गया और न कुछ करा न धरा.’’

पत्नी को रोते देख वे खिसिया कर बोले, ‘‘सुमित्रा, शांत हो जाओ. अब सबकुछ औनलाइन हो गया है, इसलिए कोई कुछ कर भी नहीं सकता.’’ सुमित्रा चुपचाप बैठी रही थीं. उन्हें अपने चारों ओर अंधकार दिखाई पड़ रहा था. अंधेरे में तीर मारते हुए उन्होंने अपने दोचार परिचितों को फोन मिलाया परंतु किसी से अपनी समस्या कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं.

उन के जेहन में बारबार बेटीतुल्य ननद शची का चेहरा याद आ रहा था. अपने बेटे के मोह में वे अंधी हो गई थीं. बेटे के घमंड में वे शची को जाने क्याक्या कह बैठी थीं. कांत ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी तो वे उन से भी उलझ बैठी थीं.

शची की कही बात सौ प्रतिशत सही निकली. उस की कही हुई बात उन के दिल पर हथौड़े सी हमेशा चोट करती रहती है. ‘भाभी, अब समय बदल गया है. बेटेबेटी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है. ब्लैंक चैक की रातदिन आप माला जपती रहती हैं जबकि उस के लक्षण से तो लगता है कि वह ब्लैंक ही न रह जाए.’

एक दिन वह आई थी केवल उन्हें आगाह करने के लिए. ‘भाभी, आप का बेटा बिगड़ रहा है. अपनी आंखों के ऊपर से पट्टी खोलिए, जब उस की असलियत खुलेगी तब आप को मेरी कही बात याद आएगी.’

‘‘कांत, मैं शची से बात करूं. अब तो वही एक सहारा दिखाई पड़ रही है.’’ ‘‘किस मुंह से उस से मदद मांगोगी. तुम ने उसे कितना जलील किया था. मेरा तो राखी का रिश्ता भी तुड़वा दिया और आज जब तुम्हें जरूरत है, तो उस की याद आ रही है.’’

‘‘एक बात समझ लो, पैसा बड़ी बुरी चीज है. मदद मांगते ही अपने भी पराए हो जाते हैं. उसे तो तुम दुश्मन ही समझती थीं.’’ सुमित्रा अपने आंसू पोंछ कर बोलीं,  ‘‘कांत, हम लोग शची से अपना लोन चुकता करने को कहेंगे. फिर यह घर उसी के नाम कर देंगे और हम लोग किराएदार की तरह उसे हर महीने किराया दे दिया करेंगे.’’

‘‘तुम्हारा प्लान तो अच्छा है लेकिन उस ने मना कर दिया तो…’’‘‘नहीं, वह मना नहीं करेगी. इस समय उस के लिए 10 लाख रुपए कोई बड़ी रकम नहीं है. इस से हम लोगों की इज्जत सरेआम नीलाम होने से बच जाएगी और घर की चीज घर में ही रह जाएगी.’’‘‘मैं उस दिन उधर से निकल रही थी तो अंजू ने उस की कोठी दिखाई थी. आजकल शची के बंगले की चर्चा पूरे महल्ले में हो रही है.’’

‘‘सुमित्रा, प्लीज इस समय चुप हो जाओ.’’वे चुप हो कर मन ही मन सोचने को विवश हो गईं कि आज की स्थिति के लिए काफी हद तक क्या वे खुद जिम्मेदार नहीं हैं.

श्रीकांत चिंतित मुद्रा में शून्य में निहार रहे थे. उन के उदास और मुरझाए हुए चेहरे को देख सुमित्रा घबरा उठी थीं. यदि कांत इस सदमे को न झेल पाए और इन्हें कुछ हो गया, तो उन का क्या होगा?

वे चुपचाप वहां से उठ कर अंदर कमरे में चली गई थीं. काफी देर तक वहीं पर बैठेबैठे सोचती रहीं. जब किसी तरह कोई समाधान नहीं सूझा तो उन्होंने अपना मोबाइल उठाया और शची से माफी मांगते हुए अपनी सारी समस्या खुल कर कह डाली थी.

शची के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थीं. फिर पति का ध्यान आते ही वे गिलास में दूध ले कर आईं. कांत ने दूध की ओर निगाह उठा कर देखा भी नहीं. फिर भला वे क्या खातीपीतीं.

पतिपत्नी दोनों ही भविष्य के अंधकार की कालिमा की चिंता के कारण एकदूसरे की ओर पीठ कर के लेट गए. थके हुए कांत कुछ देर में खर्राटे भरने लगे थे. परंतु निराशा की गर्त में डूबी सुमित्रा अतीत के पन्नों को पलटने में उलझ गई थीं.

शची उन की छोटी और प्यारी सी ननद है जिस की शादी करने में श्रीकांत ने अपना सबकुछ लुटा दिया था. परंतु लालची पति के अत्याचार से परेशान हो कर शची 5 वर्ष की बेटी आन्या को ले कर उन के पास लौट कर आ गई थी. श्रीकांत अपनी बहन शची को पितातुल्य स्नेह देते थे. उन्होंने सब से पहले उसे अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी.

भाईबहन की मेहनत रंग लाई थी. शची ने पहली बार में ही बैंक की परीक्षा पास कर ली थी. शची की तनख्वाह और प्यारी सी आन्या के आ जाने से उन की खुशियों में चारचांद लग गए. ननदभाभी के बीच प्यारा सा रिश्ता था. नन्ही सी आन्या के ऊपर वे अपना प्यार लुटा कर बहुत खुश थीं. वह स्कूल से आती तो वह स्वयं उसे अपने हाथों से खाना खिलातीं, उस के साथ खेलतीं. सबकुछ सुचारु रूप से चलने लगा था. शची अपनी तनख्वाह सुमित्रा के हाथ में ही रखती थी.

संतुलन- भाग 3: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

इधर कुछ दिनों से वे महसूस कर रहे थे कि प्रभा ने उन की मदद के बगैर कैसे परिवार की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर उठा रखी थी. उन का बचपन अपने ही घर में आश्रित की तरह रह कर गुजरा. सो, अपने बच्चों को उन्होंने हद से बढ़ कर लाड़प्यार दिया. बच्चों के कारण पत्नी से भी कड़क व्यवहार किया. उस की उपेक्षा ही कर दी. उसे अधिकार ही नहीं दिया कि वह बच्चों में उचित संस्कार डाल पाए.

प्रभा सब्जी ले कर आ रही थी. आंचल से पसीना पोंछते हुए वह घर में दाखिल हुई. उसे देख कर उन के हृदय में बहुत ही दया आई.

‘‘आओ, घड़ी दो घड़ी सुस्ता लो,’’ वे स्नेह से बोले.

लेकिन प्रभा उन के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान थी.

‘‘फुरसत कहां है, अब खाना बनाने में जुटना पड़ेगा,’’ प्रभा बोली.

‘‘खाना विभा बना देगी,’’ दीपकजी ने कहा.

यह सुन कर प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?’’

‘‘नहीं आता तो सीख लेगी,’’ उन्होंने तरल स्वर में कहा, ‘‘प्रभा, दिनरात खटतेखटते तुम कितना थक जाती होगी, मु?ो महसूस हो रहा है कि बच्चों को मेरे अत्यधिक लाड़प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है. वे मांबाप का दुखदर्द जरा भी नहीं समझते.’’

‘‘मांबाप का न सही, दूसरों का तो खूब समझते हैं, जानते हैं, विकास अपने पड़ोसियों के कितने काम आता है? विभा भी सहेलियों के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार रहती है.’’

सुन कर दीपक कुछ क्षण चुप रहे. वे प्रभा का व्यंग्य भलीभांति समझ रहे थे. फिर एकाएक दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘प्रभा, माना कि बच्चों को बड़ा करने में मुझ से बड़ी भूल हुई. उन के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता घर से हो कर ही बाहर की ओर जाता है, यह बात मैं खुद नहीं समझ पाया तो उन्हें क्या समझता, लेकिन अभी भी समय हाथ से नहीं निकला है. उन्हें सुधारने की कोशिश तो की ही जा सकती है न.’’

प्रभा को तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह, बस, उन्हें अपलक देखे जा रही थी. इतने सालों बाद पति द्वारा उस के काम की कद्र हुई थी, बच्चों के प्रति चिंता प्रकट की गई थी. यह सच था या सपना, लेकिन भावातिरेक में दीपकजी के होंठों से निकले पश्चात्ताप के शब्द झठे कैसे हो सकते हैं.

दीपकजी के कंधों पर अब नई जिम्मेदारी आ पड़ी. उन्होंने बच्चों को आवाज दे कर उन्हें उन के काम बांट दिए और खुद भी बिस्तर पर पड़ेपड़े उन से जो बनता, करते.

बच्चे उन के इस रुख से नाराज थे, लेकिन स्नेह से उन्होंने बच्चों को समझया. उन्होंने सच्चे हृदय से अपनी गलती भी स्वीकार की.

विकास को वे अपने एक मित्र के कारखाने में काम सीखने हेतु भेजने लगे. काम सीख लेने के बाद नौकरी देने का वादा भी मित्र ने उन से किया. विभा को पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त कर दिया. टीवी देखने का समय भी उन्होंने निश्चित कर दिया.

इस नए अनुशासित वातावरण के बच्चे बिलकुल अभ्यस्त नहीं थे. अनिच्छा से वे अपनेआप को इस नियमित दिनचर्या के अनुकूल ढाल रहे थे. इतनी बड़ी उम्र में ऐसे संस्कार डालना कठिन काम तो था ही परंतु गनीमत यही थी कि बच्चे उन की अवज्ञा नहीं करते थे.

रात को हंसीखेल में वे बच्चों को कितनी ही बातें समझया करते. प्रभा को तो जैसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर यह सच था. पारस्परिक संवाद कायम होने से पति के पत्नी से और बच्चों के अपने मातापिता से नए आत्मीय संबंध स्थापित हो रहे थे.

अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, प्रभा कभी बच्चों के भविष्य के बारे में चिंता प्रकट करती तो दीपकजी बिगड़ जाते, ‘खेलनेखाने की उम्र है बच्चों की. उन्हें टोका मत करो. कोल्हू का बैल बनने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है.’

‘जी हां, अपनीअपनी मरजी की बात है. चाहो तो इस उम्र में परिश्रम कर के उम्रभर चैन की बांसुरी बजाई जा सकती है, न चाहो तो अभी खेलकूद कर उम्रभर मेहनतमजदूरी कर लो,’ प्रभा कहती.

‘ठीक है, कर लेंगे मेहनतमजदूरी. तुम बेवक्त की बेसुरी तान तो बंद करो,’ दीपकजी कहते.

प्रभा को आश्चर्य होता. सेवानिवृत्ति के बाद भी दीपकजी में इतनी लापरवाही कैसे? न तो कोई जमीनजायदाद का आसरा है न कोई और जरिया. पैंशन और भविष्य निधि का रुपया पर्याप्त था और मकान अपना था, पर इतनी सी जमापूंजी पर बच्चों के भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेना क्या ठीक था?

इस उम्र में जिन हाथों को कमा कर लाना चाहिए उन्हें ताश फेंटते देख प्रभा को बेहद नागवार गुजरता, पर दीपकजी को सब मंजूर था.

इस दुर्घटना ने उन्हें अपने घर को गृहस्वामी के नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. बरसों यह घर, जिसे वे ताईजी के घर की तरह मुसाफिरखाना समझते रहे, आज अपनाअपना सा लगने लगा. कुछ दिनों के एकांतवास ने ही उन्हें गहन आत्मचिंतन दिया, एक नया दृष्टिकोण दिया और भूल सुधार करने की शक्ति भी दी.

दुर्घटना को हुए अब 4 माह से अधिक समय हो चुका था. दीपकजी अब पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे. विकास का काम में मन लग गया था और 6 माह बाद उसे पक्की नौकरी का आश्वासन मिल चुका था. विभा के पेपर अच्छे हुए थे और उसे द्वितीय श्रेणी पाने की पूरी उम्मीद थी. घर में सुखशांति का वातावरण था.

एक रात प्रभा अपना काम निबटा कर सोने के कमरे में आई और दीपकजी से बोली, ‘‘लोग दुर्घटना को अभिशाप मानते हैं, पर मेरे लिए तो यह दुर्घटना जैसे वरदान बन गई है.’’

प्रभाजी की आंखें अपार प्रेम बरसा रही थीं. चेहरे पर परमतृप्ति के भाव थे. दीपकजी को महसूस हुआ कि परिवार वालों की प्रशंसा उन के मनोभावों में छिपी होती है, उन के चेहरे पर लिखी होती है, उन की प्रगति में दिखाई देती है.

अभी वे लोग सोने ही जा रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी. कौन है? पूछने पर पड़ोस के सुशीलजी की घबराई सी आवाज आई,‘‘दीपकजी, जल्दी दरवाजा खोलिए.’’

दरवाजा खोलते ही वे जैसे एक सांस में बोल गए, ‘‘पिताजी की छाती में भयंकर दर्द है. कहीं हार्टअटैक न हो. इतनी रात को आप के सिवा किसे जगाता, उन्हें अकेले अस्पताल ले जाने में भी जी घबरा रहा है.’’

‘‘घबराएं नहीं, मैं हूं न,’’ दीपकजी ने फौरन कमीज चढ़ाई और पीछे देखे बगैर उन के साथ हो लिए.

पूरी रात प्रभा चिंतित रही. सुबह 7 बजे दीपकजी का फोन आया, ‘‘समय पर पहुंच जाने से बाबूजी बच गए हैं. चिंता मत करना. भाभीजी को भी यह समाचार दे देना. मैं एकाध घंटे बाद आऊंगा. विभा से कहना कि आ कर मैं उसी के हाथ का बना हुआ नाश्ता करूंगा. विकास चला गया न देवेशजी के यहां? आज उसे सुबह वाली शिफ्ट में जाना था.’’

‘‘हां, चला गया. सब ठीक है,’’ प्रभाजी ने रुंधे कंठ से कहा.

सचमुच, सबकुछ ठीक था. सहज और संतुलित. यदि घर और बाहर का यह संतुलन ठीक हो तो डगमगा कर गिरने की आशंका ही कहां रहती है.

संतुलन- भाग 1: क्यों कर्तव्य निभाने के लिए राजी हुए दीपकजी

‘‘दीपकजी एक महान हस्ती हैं. उन की प्रशंसा करना सूरज को दीया दिखाना है. ऐसे महान व्यक्ति दुनिया में विरले ही होते हैं. औफिस के हरेक कर्मचारी की उन्होंने किसी न किसी रूप में मदद की है. हम सब उन के ऋ णी हैं. हम उन की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हैं,’’ स्टाफ के सदस्य अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे थे. इस दौरान सदस्यों के बीच बैठी प्रभा की ओर दीपकजी ने कनखियों से देखा. ऐसे समय भी उस के चेहरे का भावहीन होना दीपकजी को बेहद खला, पर उन्होंने उसे नजर अंदाज कर दिया.

स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था, परंतु प्रभा के हृदय को कहीं से भी छू न सका.

‘‘क्यों, कैसा लगा?’’ लौटते समय दीपकजी ने आखिर प्रभा से पूछ ही लिया. ‘‘बुरा लगने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ प्रभा ने सपाट स्वर में उत्तर दिया. ‘‘सीधी तरह नहीं कह सकतीं कि अच्छा लगा. हुंह, घर की मुरगी दाल बराबर,’’ दीपकजी के यह कहने पर प्रभा मौन रही.

अपनी खीझ मिटाने के लिए घर आ कर दीपकजी फौरन बच्चों के कमरे में गए. चीखते हुए टीवी की आवाज पहले धीमी की, फिर बच्चों को सिलसिलेवार विदाई समारोह के बारे में बताने लगे, ‘‘अपनी मां से पूछो, कितना शानदार विदाई समारोह था. अपनी पूरी नौकरी में मैं ने इतना सम्मान किसी के लिए नहीं देखा.’’

‘‘पापाजी, आप महान हैं,’’ कहते हुए बेटे ने नाटकीय मुद्रा में झक कर पिता का अभिवादन किया. ‘‘दुनिया कहती है, ऐसा पिता सब को मिले, पर मैं कहती हूं ऐसा पिता किसी को न मिले. हां,  इस मामले में मैं पक्की स्वार्थी हूं,’’ बेटी ने पापा  के गले में बांहें डालते  हुए कहा.

तीनों सफलता के मद में ?म रहे थे. एक प्रभा ही थी, उदास, गुमसुम. उन तीनों के सामने आने वाले कल के लिए कोई प्रश्न नहीं था. प्रभा के पास अनगिनत सवाल थे. उन सवालों की ओर से दीपकजी का बेफिक्र होना उसे बेहद अखरता था. दीपकजी की अलमस्त तबीयत के कारण प्रभा की सहेलियां उन्हें साधुमहात्माओं की श्रेणी में रखती थीं, जबकि प्रभा उन्हें गैरजिम्मेदार मानती थी.

सच था, ऐसे व्यक्ति को साधु ही बने रहना था. परिवार बसाने का उन के लिए कोई मतलब ही नहीं था. अपने बच्चों के भविष्य से उन का दूरदूर तक कोई वास्ता न था.बच्चे देर से हुए, उस पर पढ़ाईलिखाई से जैसे उन्हें बैर था. विभा हाईस्कूल परीक्षा की 3 डंडियों का सगर्व बखान करती थी. विकास हायर सैकंडरी की सीढि़यां 2 बार लुढ़क कर बड़ी मुश्किल से तीसरी बार चढ़ पाया. महल्ले के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का इनाम पा कर उस की ख्वाहिशें पंख लगा कर उड़ने लगी थीं. एक तरह से जिद कर के ही प्रभा ने उसे आईटीआई करने हेतु भेजा कि पहले पढ़ लो, फिर जो जी चाहे करना.

पढ़ने के बाद भी उस के विचार नहीं बदले. वह दिनभर न जाने कौनकौन से नाटकों की रूपरेखा तैयार करता रहता. अपने बालों को वह नितनए प्रचलित हीरो की स्टाइल में कटवाता. बेढंगी, दुबलीपतली काया पर न फबने वाले कपड़े सिलवाता और दिनभर मटरगश्ती करता. उस में एक अच्छी बात जरूर थी कि घर की या पड़ोस की कोई भी चीज बिगड़ जाए, फौरन उसे ठीक कर के ही दम लेता. चाहे वह साइकिल हो या टीवी, शुरू से ही उसे बिगड़ी चीजें सुधारने में दिलचस्पी थी. उस की यही रुचि देख कर ही तो प्रभा ने उसे तकनीकी प्रशिक्षण दिलवाया था.

‘खबरदार, जो मेरे बच्चों पर कभी हाथ उठाया,’ उन्होंने कड़क कर कहा था.विभा उन की गोद में सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी थी. दोनों ने मिल कर प्रभा को ही अपराधी के कठघरे में खड़ा कर दिया.

प्रभा ने सिलाई में डिप्लोमा लिया था. सो सिलाई की क्लास घर पर चलाने लगी. पासपड़ोस की औरतें, लड़कियां सीखने आतीं. कितना चाहा कि विभा भी उस के पास बैठ कर सीखे परंतु उसे सिवा टीवी और सस्ते, घटिया किस्म के उपन्यासों के और कुछ नहीं सूझता था. पिता के अंधे प्यार ने बच्चों को सिवा दिशाहीनता के और कुछ नहीं दिया था.

ऐसे व्यक्ति को आज वक्ता लोग महामानव, महामना न जाने क्याक्या कह गए.प्रभा की बहनें और सहेलियां उसे देख कर प्रभा की सराहना करतीं. मातापिता तो ऐसा दामाद पा कर पूरी तरह संतुष्ट थे. प्रभा यदि कोई शिकायत करने लगती तो मां उसे फौरन टोक देतीं, ‘रहने दे, रहने दे, उन के तो मुंह में मानो जबान ही नहीं है, तब भी उन में नुक्स निकाल रही है. तेरे पिताजी, याद है, तुम लोगों के बचपन में क्या हुआ करते थे? उन के गुस्से से तुम बच्चे तो क्या, मैं तक थरथर कांपने लगती थी. घर में उन के आते ही सन्नाटा छा जाता. कोई भी मांग उन के तेवर देख कर ही उन के सामने से हट जाती. तू तो बहुत सुखी है. दामादजी ने तु?ो पूरी स्वतंत्रता दे रखी है. बाजार से सामान लाना, घर का हिसाबकिताब, सब तेरे जिम्मे है. बच्चों को तो वे कितना प्यार करते हैं, बच्चे पिता से दोस्त की तरह बातें करते हैं. और क्या चाहिए भला?’

प्रभा चुप हो जाती. कहना चाहती कि मैं पिताजी के गुस्से का थोड़ा सा हिस्सा उन के व्यक्तित्व में भी देखना चाहती हूं जिस से ये ताड़ सरीखे बड़े होते बच्चे अपनी जिम्मेदारी समझ पाएं, लेकिन यह सब मां की दृष्टि में व्यर्थ की बातें थीं.

पति के कोमल हृदय का परिचय वह तभी पा चुकी थी जब उन का पूर्ण परिचय होना अभी बाकी था. शादी हुए अभी 15 दिन ही हुए थे कि प्रभा को तेज बुखार हो गया. दीपकजी उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रख रहे थे, तभी उन की पड़ोसिन के पेट में दर्द उठने लगा. उस की सास दौड़ीदौड़ी आई.

यह जान कर कि पड़ोसी उस समय औफिस के काम से दौरे पर गए हुए हैं, दीपकजी एक क्षण भी गंवाए बिना फौरन सासबहू को अस्पताल ले गए. प्रभा की तरफ उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा. घर का दरवाजा भी बंद करने का उन्हें ध्यान न रहा. कराहती प्रभा ने उठ कर स्वयं ही दरवाजा बंद किया और समय देख कर दवा निगलती रही. ऐसी हालत में उस ने किस तरह अपनी तीमारदारी स्वयं ही की, उसे आज तक याद है.

उधर, दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे. घर आ कर जब हंसतेहंसते दीपकजी उसे यह प्रसंग सुना रहे थे, प्रभा की आंखों में स्वयं की अवहेलना के आंसू थे.

प्रभा के प्रथम प्रसव के समय जनाब नदारद थे, अपने बीमार दोस्त के सिरहाने बैठे उसे फलों का रस पिला रहे थे. दीपकजी पड़ोस की भाभियों में खासे लोकप्रिय थे, ‘भाईसाहब, आज घर में सब्जी नहीं आ पाई.’ ‘अरे, तो क्या हुआ, हमारे फ्रिज से मनचाही सब्जी ले जाइए. न हो तो प्रभा बना देगी. पकीपकाई ही ले जाइए.’

‘भाईसाहब, यह बिजली का बिल…’ कोई दूसरी कह देती. ‘बन्नू के स्कूल की फीस…’ ‘गैस खत्म हो गई है…’ ‘पिताजी की पैंशन का रुका हुआ काम…’ पचासों सवालों का एक ही जवाब था, ‘दीपकजी.’ ‘‘कितने फुर्तीले हैं दीपकजी, हमारे पति तो इतने आलसी हैं, दिनभर पलंग तोड़ते रहेंगे. कोई काम उन से नहीं होता. छुट्टी के दिन ताश की मंडली जमा लेंगे, लेकिन भाईसाहब की बात ही अलग है.’’

समाधान: क्या हुआ था मैथिली के साथ

भारत में औरतों का बांझ होना सब से बड़ा शाप है और बांझ औरत का पिता होना उस से भी बड़ा शाप है. ममता के पिता राकेश मोहन किसान मंडी में एक आढ़त पर मुनीम हैं. 10,000 रुपए महीना पगार है और हर महीने 4,000-5,000 रुपए यहांवहां से कमा लेते हैं. सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल और सरकारी राशन के भरोसे किसी तरह बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया.

राकेश मोहन ने अपनी पूरी जमापूंजी से किसी तरह से बड़ी बेटी ममता की शादी रेलवे के ड्राइवर से करा दी थी. सरकारी नौकरी वाले दामाद के लालच में इस शादी पर 5 लाख रुपए खर्च हो गए थे. अब कोई बचत नहीं थी, क्योंकि परिवार में दामाद के आने से दिखावे पर खर्च बढ़ गया था.

राकेश मोहन अपनी छोटी बेटी शिखा को बीएड कराने के बाद नौकरी मिलने का इंतजार कर रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि शिखा की सरकारी नौकरी लग जाएगी और उन्हें उस की शादी पर एक पाई भी नहीं खर्च करनी होगी.

फिलहाल तो उन के माली हालात डांवांडोल थे. शिखा की पढ़ाई और मोबाइल का खर्च भी दीदी और जीजाजी से मिलने वाले उपहार पर निर्भर था.

दामाद बड़ी बेटी का पूरा खयाल रखता था. उस तरफ से कोई चिंता नहीं थी. शिखा की शादी में दामादजी पैसे लगा देंगे, एक उम्मीद इस बात की भी थी.

असली मुसीबत या कहना चाहिए कि मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब शादी के 2 साल तक ममता मां नहीं बन सकी और इस मुसीबत ने पूरे परिवार को झकझोर दिया.

गनीमत थी कि ममता अपने पति के साथ शहर में रेलवे क्वार्टर में रहती थी. सास के ताने मोबाइल फोन पर उसे बराबर सुनने पड़ते थे. राकेश मोहन का ममता से भी बुरा हाल था. ममता की सास तलाक की धमकी दे कर उन का खून सुखा देती थी.

ममता की सास के ताने शादी में मनचाहा दहेज न मिलने से शुरू हो कर बच्चा न होने पर खत्म होते थे. ममता के पूरे मायके को अभागा, मनहूस कहा जाने लगा था.

ममता की छोटी बहन शिखा को भी इस झगड़े में लपेट लिया गया. ममता की सास शिखा से कहती थी कि जरूर ममता की परवरिश ठीक से नहीं की गई, बचपन की गलत आदतों के चलते वह बांझ हो गई है.

ममता की सास ने कानूनी सलाह भी ले ली थी. ममता की मां को एक दिन कह रही थीं कि कोर्ट में साबित हो जाएगा कि ममता उन के बेटे को शारीरिक सुख और संतान सुख नहीं दे सकती है. इस वजह से उसे आसानी से तलाक मिल जाएगा. उन्हें हर्जाखर्चा नहीं देना होगा.

ममता की मां इन बातों को सुन कर कई दिन तक कुछ भी नहीं खा सकीं. वे यह सोच कर मरी जा रही थीं कि दामादजी ने अगर ममता को छोड़ दिया तो उस का क्या होगा. ममता की दूसरी शादी करने के लिए पैसे तो बचे नहीं हैं और फिर दूसरा आदमी शादी करेगा क्यों?

ममता और उस के पति राजीव को डाक्टर ने बताया कि राजीव के वीर्य में शुक्राणुओं की कमी है और उन्हें डोनर शुक्राणुओं से ‘इन विट्रो फर्टिलाईजेशन’ या ‘इंट्रा यूटेराइन इंसेमिनेशन’ कराना चाहिए, पर दकियानूस राजीव तैयार नहीं हुआ. जब अपना खून या अपना वंश नहीं है तो संतान से क्या फायदा?

राजीव के शुक्राणुओं को बढ़ाने के लिए डाक्टर ने 2 महीने तक हर हफ्ते अमोनिया एन 13 इंजैक्शन लगाया, उस के बाद डाक्टर ने उन्हें वीटा कवर और विटामिन डी की गोली खाने को दी और परहेज में एंटीऔक्सिडैंट फूड लेने के लिए कहा.

पर जब इस उपाय का असर नहीं हुआ तो एक महीना आयुर्वेदिक ट्रीटमैंट चलाया. डाक्टर ने राजीव को अश्वगंधा और जिनसैंग की औषधि दी. पर जब किसी भी डाक्टरी इलाज से काम नहीं बना तो मां के बताए हुए उपाय देशी  नुसखे को अपनाया गया.

ममता ने मुलहठी, देवदारू और सिरस के बीज को बराबर मात्रा में ले कर काली गाय के दूध के साथ पीस लिया और इस मिश्रण को 5 दिन तक सेवन किया और 5 दिनों के बाद पति के साथ मिलन किया. मिलन के समय कूल्हे के नीचे तकिया लगा लिया, ताकि ज्यादा से ज्यादा शुक्राणु गर्भाशय तक पहुंच सकें. कामसूत्र से पढ़ कर कई तरह के आसन आजमाए, पर इन सारे उपाय से भी कोई फर्क नहीं पड़ा.

पति की पगार समय पर आए या न आए, ममता की माहवारी ठीक 28वें दिन आ जाती थी. पतिपत्नी एकदूसरे को बेहद प्यार करते थे और एकदूसरे की कमी बताते नहीं थे. असलियत यह थी कि ममता के पति राजीव की सैक्स में दिलचस्पी नहीं थी.

ममता पति को रिझाने की पूरी कोशिश करती थी. सहेलियों की सीख के मुताबिक ममता ने पति को बहुत मेहनत से कुकुर आसन में सैक्स करना सिखाया. सहेलियों ने बताया था कि इस आसन में वीर्य गर्भाशय के बेहद नजदीक पहुंच जाता है और शुक्राणुओं के अंडाणु से मिलने की उम्मीद बढ़ जाती है. राजीव को इस खेल में मजा तो आता था, पर वह ममता को मां नहीं बना सका.

इस के बाद राजीव के दोस्तों के सुझाव के मुताबिक मिशनरी आसन किया गया. इस में राजीव ने ममता को बिस्तर पर सीधा लिटाने के बाद ऊपर से अपने अंग को प्रवेश कराया. तर्क यह था कि इस से अंग को योनि में गहराई तक प्रवेश करा सकेंगे, पर यह कोशिश भी बेकार गई.

इस के बाद टोटके का सहारा लिया गया. मंगलवार के दिन पतिपत्नी ने कुम्हार के घर जा कर पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की और एक डोरी, जिस से वह मिट्टी के बरतन बनाता है, मांग लाए. घर आने के बाद एक गिलास में पानी भर कर वह डोरी उस में डाल दी. एक हफ्ते तक वह डोरी उस पानी में भिगो कर रखी. अगले मंगलवार को गिलास में से डोरी निकाल कर पतिपत्नी ने वह पानी पी लिया और इस के बाद वह डोरी हनुमान मंदिर जा कर हनुमान जी के चरणों में समर्पित कर दी.

उस रात उन्होंने बहुत देर तक सैक्स किया. ममता पसीने से लथपथ थी और राजीव किसी घोड़े की तरह हांफ रहा था. उस रात उन्हें जिंदगी में पहली बार इतना मजा आया था. ममता बहुत देर उसी तरह बिना कपड़ों के बिस्तर पर पड़ी रही, क्योंकि वह कोई जोखिम लेना नहीं चाहती थी. शुक्राणुओं और अंडाणुओं को मिलने में कोई परेशानी न हो, इस बात का पूरा खयाल रखा गया.

28वें दिन जब ममता को पीरियड नहीं आया तो राजीव दौड़ कर प्रैग्नैंसी टैस्ट किट ले आया. पर यह कोशिश भी नाकाम रही. 29वें दिन खाना बनाते समय ममता को पीरियड हो गया. उसे पैड लगाने का भी समय नहीं मिला और सूती साड़ी पर निशान आ गया.

राजीव की बहन ने एक टोटके को आजमाया. अपने बच्चे का पहला टूटा हुआ दूध का दांत एक काले कपड़े में बांध कर काले धागे की मदद से भाभी की कमर पर बांध दिया. जब तक वे गर्भधारण न कर लें, इस धागे को किसी भी कीमत पर न उतारने की कठोर हिदायत दी गई.

दूध के दांत को कमर पर बांधे हुए भी 3 महीने का समय हो चुका था. सैक्स के लिए चूहा आसन से हाथी आसन तक सैकड़ों आसनों को आजमाया जा चुका था और अभी भी ममता की कोख सूनी थी.

राजीव भी अब ममता को ही बच्चा न होने के लिए कुसूरवार मानने लगा था. ससुराल पक्ष की मौसी, नानी, बूआ, ताई सभी ममता को ताने देने लगे थे. ममता के पास खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. मरने की सोचना आसान है, पर मरना आसान नहीं.

कहते हैं कि मुसीबतें इनसान को बहुत ही शातिर और धोखेबाज बना देती हैं. ममता का देवर मैथली 2 साल इलाहाबाद में कोचिंग के बाद राजीव और ममता के साथ रहने आया था. शहर में उस के सरकारी नौकरियों के एग्जाम थे. इस हफ्ते दारोगा अगले महीने रेलवे, उस के बाद पीसीएस, फिर पीजीटी.

ममता को मैथली के आने से बहुत राहत हो गई. राजीव और उस की मां को अब ममता पर चिल्लाने का मौका नहीं मिलता था.

देवर और भाभी की खूब बनती थी. ऐसा लगता था जैसे दोनों जन्मजन्मांतर के दोस्त थे. मैथली के हर काम का समय तय था. 4 बजे जागना, योगासन, कसरत, बादाम का दूध, 4 किलोमीटर की दौड़ फिर दोपहर घंटों तक सोना और रात 12 बजे तक पढ़ाई. भाभी पीछे असिस्टैंट की तरह खड़ी रहती और देवर की हर फरमाइश को मुंह से निकलने से पहले पूरा कर देती.

भैया के घर आने के बाद उन की मोटरसाइकिल से दोनों खरीदारी के बहाने निकल जाते थे. ममता को शादी के 2 साल बाद पता चल रहा था कि वह किस गली और किस महल्ले में रह रही थी, शहर में कौनकौन सी घूमने की जगह थी. शहर में आइसक्रीम की दुकान कहां है और शहर में कितने पार्क हैं.

प्रेम को पनपने के लिए इतनी जगह बहुत है. दोपहर को मैथली के उठने का समय हो गया था. ममता उस के लिए चाय बना लाई, लेकिन उठाया नहीं बल्कि उस के हाथपैरों को सहलाने लगी उस के बालों में उंगलियां फिराने लगी.

मैथली ने एक झटके में ममता को खींच कर सीने से सटा लिया और फिर वे एकदूसरे में खो गए. अगले दिन भाभी और देवर नजर नहीं मिला पा रहे थे, पर उन के बरताव से साफ समझ आ रहा था कि दोनों बहुत खुश थे.

मैथली ने रसोईघर में जा कर भाभी की कमर में पीछे से हाथ डाला और कूल्हों को सहलाया तो ममता ने गुस्से में उस के पीठ पर हलके से चिमटे से मार दिया. उसे लिमिट में रहने की हिदायत दी और जब मैथली बुरा मान गया तो तुरंत ही ममता ने कान पकड़ कर माफी मांग ली.

ममता का खुराफाती दिमाग पूरी कुशलता से काम कर रहा था. उस रात ममता ने राजीव को बताया कि इन दिनों वह शिवलिंगी बीज एक भाग तथा पुत्रजीवक बीज 2 भाग को मिश्री के साथ खा रही है. ननद का दिया टोटका बंधा ही है तो आज अच्छी उम्मीद है. फिर रात में देर तक उस ने राजीव के साथ भी संबंध बनाया.

यह कई दिनों तक चलता रहा. दोपहर में मैथली और रात में राजीव के साथ प्यार. माहवारी आने के 5 दिन पहले उस ने दोनों से दूरी बना ली. इस बार उन की कोशिश रंग लाई. शाम को ममता ने राजीव की पसंदीदा कौफी और पकोड़े बनाए और उसे यह खुशखबरी सुनाते हुए उस की गोद में बैठ गई, तो राजीव ने उसे ढेर सारा प्यार किया.

ममता के सारे दुख दूर हो चुके थे. वह परिवार की लाड़ली बहू बन चुकी थी. ममता की सास को अब कोई शिकायत नहीं थी. ममता की हर फरमाइश को सब से पहले पूरा किया जाने लगा.

मैथली, जो अपने एग्जाम दे कर वापस इलाहाबाद चला गया था, ममता ने प्रैग्नैंसी के आखिरी दिनों में वापस बुला लिया. अब दिनभर बेरोकटोक मैथली अपनी प्यारी भाभी के साथ रह सकता था और एग्जाम की तैयारी भी कर सकता था.

ठीक ममता के डिलीवरी के दिन मैथली का पीसीएस का रिजल्ट आ गया. मैथली को सरकारी नौकरी मिल गई. ममता के बच्चे की आंखें ममता से मिलती थीं. कान, नाक, ठुड्डी ससुराल के किसी न किसी सदस्य से मिलते थे.

मैथली के लिए एक से एक अमीर घरों के रिश्ते आ रहे थे, बहुत सारा दहेज भी मिल रहा था, लेकिन मैथली ने लड़की देखने से साफ मना कर दिया. ममता ने मैथली को अपनी बहन शिखा से शादी के लिए मना लिया.

मैथली को भी इसी शहर में नौकरी मिल गई है. दोनों परिवार एकसाथ बहुत प्यार से रहते हैं. ममता दोबारा मां बनने वाली है और इस महीने शिखा की माहवारी भी नहीं हुई है.

दीनानाथ का वसीयतनामा- भाग 3: दीवानजी की वसीयत में क्या था

पत्र सुनते ही वे सन्न रह गए. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘ऐसे कैसे हो सकता है?’’ उपासना फट पड़ी, ‘‘हम अपने पापा के बच्चे हैं, ये दोनों

कौन हैं? कहां से आए? मुझे तो पहले ही शक था कि दाल में कुछ काला है… और नूरां की बच्ची चरित्रहीन औरत, पापा को फंसा कर सब हड़प लिया…’’

तभी उस का पति आनंद भी आ कर वार्त्तालाप में शामिल हो गया, ‘‘हमें तो पहले ही शक था… घर में मालकिन बनी घूमती थी जैसे सब उसी का हो.’’

अतुल को तो बहुत गुस्सा आ रहा था. पापा ने पिता होने का कर्तव्य केवल खर्चा दे कर ही निभाया, कभी उस के स्कूल नहीं आए, कभी उस के किसी भी खेल, क्रियाकलाप में हिस्सा नहीं लिया… ठीक है, मौम के साथ उन की नहीं पटी और मौम ने भी उन से अलग होने की बड़ी रकम वसूल की थी, पर इस में उस का क्या अपराध था? वह तो उन का बेटा था, खून था. उस की सारी योजनाओं पर पानी फिर चुका था. यह जो उस के साथ हो रहा था इस की उस ने कल्पना भी न की थी.

‘‘नूरां… नूरां…’’ उपासना ने लगभग चीखते हुए आवाज दी.

‘‘जी बेबीजी,’’ नूरां हाजिर थी.

‘‘यह मैं क्या सुन रही हूं… क्या तुझे पता था कि पापा ने इतनी सारी जायदाद तेरे नाम की है? हां पता तो होगा. तभी किसी रिश्ते के बगैर दिनरात यहां पड़ी रहती थी,’’ उपासना उबल

रही थी.

‘‘जी बिलकुल नहीं बेबीजी,’’ नूरां की आंखों में आंसू थे, ‘‘आप यह क्या कह रही हैं? मुझे तो आप के मुंह से पता चला है. अभीअभी… हमारी इतनी औकात कहां. हम तो सपने में भी नहीं सोच सकते ये सब.’’

‘‘नूरां तुम जाओ अपना काम करो,’’ ऐडवोकेट बख्शी ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे अंकल… हम इसे और राजपाल को नहीं छोड़ेंगे… इन के बाप की जायदाद नहीं है जो ये दोनों ले जाएंगे… अदालत है न… फैसला वह करेगी,’’ आनंद ने गुस्से से कहा और फिर प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा.

ऐडवोकेट बख्शी ने कहा, ‘‘हाथ की लिखी वसीयत को चैलेंज करना काफी जोखिम का काम है… सालों लग जाएंगे. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा… कोई भी जज हाथ की लिखाई की ही जांच करवाएगा और यह पक्का है कि ये दोनों पत्र दीनानाथ के हाथों द्वारा ही लिखे गए हैं.’’

‘‘पर ये लोग ही क्यों, हम क्यों नहीं?’’ अब अतुल बोला.

इंस्पैक्टर रमन बोला,

‘‘यह तो अपनीअपनी सोच है… जरा उस एकांत का सोचिए जो आप के फादर ने भोगा है, कैंसर जैसा रोग… वैसे भी लेदे के यही दोनों थे जो उन की हर जरूरत का ध्यान रखते थे.’’

‘‘अंत समय में तो वह बहुत गुस्सा करता था. कभी

खुश कभी उदास… उस का यह रूप मैं ने देखा है और देखा है नूरां का सहनशील स्वभाव… अपने काम से काम रखने वाली ईमानदार… कई दिनों से तो दीनानाथ इतनी कमजोरी महसूस कर रहा था कि उस के कपड़े बदलने, जूते पहनाने का काम भी नूरां ही करती थी,’’ ऐडवोकेट बख्शी

ने कहा.

इंस्पैक्टर रमन ने सोचा कि अब मेरा काम खत्म हुआ. आगे जो भी ये लोग सोचें… ऐडवोकेट बख्शी तो वहीं हैं उन से पता चल जाएगा. सो उस ने विदा ले ली.

उस के जाते ही बख्शी ने कहा, ‘‘तुम जानना चाहते हो कि ऐसा क्यों है तो मैं जानता हूं… यह बात तुम्हारे परिवार से संबंधित है, इसलिए मैं रमन के सामने नहीं करना चाहता था.’’

आनंद ने व्यंग्य मिश्रित मुसकान चेहरे पर लाते हुए कहा, ‘‘ऐसा क्या है, जो घर के लोगों को मालूम नहीं पर आप को पता है? कोई नई कहानी न सुनाइएगा अपनी नूरां की स्पोर्ट में.’’

‘‘तमीज से बात करो… तुम इस घर के दामाद हो, इसलिए मैं लिहाज कर रहा हूं… मेरे सिर के सफेद बालों का तो खयाल करो,’’ बख्शी ने कहा.

अतुल ने आंखें तरेर कर आनंद को देखा जैसे समझा रहा हो कि शायद बात बन जाए, कहीं से भी किसी भी तरह.

अतुल ने कहा, ‘‘बोलिए अंकल आप कुछ कह रहे थे.’’

बख्शी ने कहा, ‘‘तुम सब हैरान हो कि ऐसा क्यों है? 1946-47 की बात है, तुम्हारे दादा ने नयानया धंधा शुरू किया था. अपने कारोबार को फैलाने के लिए वे ‘कुद’ में काफी जमीन ले

चुके थे. जहां उन का छोटा सा घर था, वहां एक गुर्जर परिवार साथ में रहता था, उन के पास काफी जमीन थी. तुम्हारे दादा को अनपढ़

गुर्जर की जमीन देख कर लालच आ गया और उसे हड़पना चाहा.

‘‘जब किसी तरह बात नहीं बनी तो उसे

रात के अंधेरे में मरवा दिया गया और उस का चश्मदीद गवाह दीनानाथ था, जो उस समय केवल 7 साल का था. इतना छोटा था कि

दहशत में आ गया.  उस ने छिप कर ये सब देखा. उस गुर्जर की पत्नी बेघर हो कर अपनी छोटी बच्ची नूरां को ले कर जान बचा कर भाग जम्मू आ बसी.’’

‘‘पापा को इन का पता कैसे लगा?’’ उपासना ने पूछा.

‘‘मैं इतना जानता हूं कि तुम्हारे पापा ने इन दोनों मांबेटी को खूब खोजा… शायद किसी जानपहचान वाले व्यक्ति से पता लगवाया और जब नूरां यहां काम पर लगी तो दीनानाथ को तब तक उन का पता लग चुका था. हां, पर उस ने नूरां को कभी कुछ नहीं बताया, मन ही मन बहुत व्यथित था, शायद उसी अपराध ने उसे यह करने पर मजबूर किया.

‘‘तुम सब की आपस की दूरी, दीनानाथ की भयंकर पीड़ामयी बीमारी ने शायद उस का मन आम भावनाओं से खाली कर दिया… रिश्ते खून के नहीं प्यार के होते हैं… जब वह भयंकर पीड़ा में तड़पता था तब यही नूरां उस की देखभाल करती और उसे दवा देती थी,’’ कहतेकहते बख्शी की आवाज भर्रा गई.

‘‘फिर भी बच्चों की जगह कोई नहीं ले सकता,’’ आनंद ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, ‘‘चाहे बच्चे पास हों या दूर.’’

उपासना और अतुल ने एक स्वर में कहा, ‘‘हम तो इस के विरुद्ध अपील करेंगे.’’

बख्शी ने कहा, ‘‘अतुल तुम कनाडा से कबकब आओगे… उपासना तुम भी देख लो,

यह आसान नहीं है. इस में सालों लग जाएंगे,

पर हाथ की लिखी हुई वसीयत नकारी नहीं जा सकती.’’

ब्लैंक चेक- भाग 2: क्या सुमित्रा के बेटे का मोह खत्म हुआ

परंतु फिर भी अकसर मां न बन पाने की कसक सुमित्रा के मन में उठ जाया करती थी. उन की शादी के 12 वर्ष पूरे हो चुके थे, और अब तो वे मां बनने की उम्मीद भी छोड़ बैठी थीं.

मां बनने के लिए वे डाक्टरों के साथ मौलवी, पंडित, गंडातावीज, मंदिरमसजिद हर जगह चक्कर काटतेकाटते निराश हो चुकी थीं. वे आन्या को पा कर अपने गम को अब काफी हद तक भूल बैठी थीं.

परंतु कुछ दिनों से उन्हें चक्कर और मितली की शिकायत रहने लगी थी. एक दिन शची ही उन्हें जबरदस्ती डाक्टर के पास ले गई थी. वे मां बनने वाली हैं, यह जान कर वे खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थीं.शची ने भाभी की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. उन्हें बिस्तर से जमीन पर पैर भी नहीं रखने दिया था. वह घड़ी भी जल्द ही आ गई थी, जब सुमित्रा प्यारे से बेटे की मां बन गई थीं.

सुमित्रा की देखभाल के लिए उन की अम्मा आ गई थीं. ‘श्रीकांत, तुम्हें बहुत ही खुश होना चाहिए. बेटा तो ब्लैंक चैक की तरह ही होता है. इस की शादी में मनचाही रकम भर के चैक कैश कर लेना. अम्मा की बातें सुन सुमित्रा की आंखें चमक उठी थीं. वे बातबात पर बेटे को ब्लैंक चैक कह कर पुकारतीं और घमंड में रहने लगी थीं.

समय को तो पंख लगे ही होते हैं. अर्णव भी स्कूल जाने लगा था. आन्या 5वीं क्लास में आ गई थी. वह हर बार अपनी कक्षा में प्रथम आती. कभी स्पोर्ट्स में तो कभी डिबेट में मैडल ले कर आने लगी थी.

अर्णव भी पहली कक्षा में आ गया था. परंतु वह लाड़ में बिगड़ता जा रहा था. पति से लड़झगड़ कर सुमित्रा उसे ट्यूशन भेजने लगी थीं. यदि शची कभी अर्णव को डांट देती तो सुमित्रा की त्योरियां चढ़ जातीं और वे बिलकुल भी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं. उन के मन में मेरातेरा कब पनप उठा था, वे खुद नहीं जान पाई थीं.

जो शची कभी उन की प्यारी ननद थी और आन्या लाड़ली बेटी के समान थी, अब उन लोगों की शक्ल भी उन्हें नहीं सुहाती थी. वे आन्या की सफलता देख ईर्ष्या की आग में धधकती रहती थीं.

उन्हीं दिनों शची और अजय की नजदीकियों की खबर उन्हें सुनने को मिली थी. वे तो भड़ास निकालने का कोई मौका तलाश ही रही थीं. एकदम से बिफर कर बोली थीं, ‘वह गंजा अजय, जिस की बीवी 2 साल पहले कैंसर से मरी है, बड़ेबड़े 2 लड़के हैं उस के. बड़ा दिलफेंक निकला वह. क्यों अपनी बाकी की जिंदगी खराब करने पर तुली हुई हो? लगता है उस की बड़ीबड़ी गाडि़यों पर मरमिटी हो?’

‘भाभी, आप नाहक नाराज हो रही हैं. मैं गौरव और आरव, दोनों बच्चों से कई बार मिल चुकी हूं. दोनों मुझे बहुत पसंद करते हैं.’

‘तुम्हें जहां मरजी हो जाओ, परंतु आन्या को मेरे पास ही छोड़ना होगा. उस के बिना भला मैं कैसे रहूंगी? वे सुबकसुबक कर रोने लगी थीं. फिर धीरे से बोलीं, ‘शादी कब करने वाली हो?’

उत्तर कांत ने दिया था, ‘इसी 25 दिसंबर को.’ वे चिढ़ कर बोली थीं, ‘सारी खिचड़ी भाईबहन के बीच पक चुकी है. बस, मैं ही गैर थी, जिसे तुम लोगों ने एकदम अंधेरे में रखा था. अंजू न बताती तो मुझे शादी के बाद ही

पता लगता.’ ‘नहीं भाभी, मैं आज ही आप से बात करने वाली थी.’ शची आन्या को अपने साथ अपने नए घर में ले जाना चाहती थी. परंतु सुमित्रा ने आन्या को सौतेले पिता की उलटीसीधी बातें बता कर भड़का दिया था. वह अपनी मां के साथ दूसरे घर में जाने को तैयार नहीं हुई थी.

शची ने आन्या को हालांकि अजय, उन के पुत्रों गौरव व आरव से कई बार मिलवाया था परंतु सुमित्रा और स्कूल की सहेलियों की बातों को सुन कर आन्या मां की दूसरी शादी के विरोध में खड़ी हो गई थी.

लेकिन शची अपने निर्णय पर अडिग रही थी. वह अपने नए परिवार में रमने का प्रयास कर रही थी. अजय और बच्चों का सहयोग पा कर वह बहुत खुश थी. परंतु बेटी आन्या के बिना उसे सबकुछ अधूरा सा लग रहा था.

आन्या फोन पर भी मां से बात नहीं करती थी. सुमित्रा ने आन्या को इसलिए नहीं जाने दिया था कि शची बेटी की वजह से उन्हें अपनी तनख्वाह देती रहेगी. उस की तनख्वाह के कारण ही वे मालामाल बन चुकी थीं. हर बार की तरह इस बार भी पहली तारीख का बेसब्री से इंतजार करती रहीं परंतु न शची आई, न पैसे.

शची ने पैसे भाई के अकाउंट में ट्रांसफर किए, जिसे वे लेना उचित नहीं समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने सुमित्रा से इस की चर्चा करना जरूरी नहीं  समझा था.

अब सुमित्रा का मिजाज बदल गया था. उन की प्राथमिकताएं बदल गई थीं. आन्या उन की सहायिका बन कर रह गई थी. वे उसे घरेलू कार्यों में उलझा कर पढ़ने का समय भी नहीं देती थीं.

कांत उस के लिए दूध गरम करते तो कभी ठंडा दूध पी कर ही वह स्कूल चली जाती. उसे टिफिन में ताजे नाश्ते के स्थान पर बिस्कुट या ब्रैड मिलने लगी थी. स्कूल यूनिफौर्म अकसर प्रैस भी नहीं होती थी. जूते में पौलिश मुश्किल से वह कभीकभी कर पाती थी.

जब फरवरी में उस का फाइनल रिजल्ट आया तोे उस का बी ग्रेड देख कर सुमित्रा पति के सामने उस की शिकायतों का पुलिंदा खोल कर बैठ गई थीं. स्कूल से आन्या की शिकायत शची के पास पहुंची थी. उस का रिजल्ट देख वह रोंआसी हो उठी थी.

वह पति अजय के साथ बेटी से मिलने आई तो उस दिन सुमित्रा ने उन लोगों का अपमान किया और आन्या की बुराइयों का पिटारा खोल कर बैठ गई थीं. भाई श्रीकांत ने अकेले में बहन से बेटी को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया था.

पैसा न मिलने की तिलमिलाहट थी ही और अब आन्या के जाने की सुगबुगाहट से सुमित्रा के हाथों के तोते उड़ गए थे. उन्हें आन्या के रूप में एक मुफ्त की नौकरानी मिली हुई थी.

शची अपनी अबोध बेटी के उलझे बाल, गंदे एवं टूटे बटन वाली फ्रौक, अनाथ सी अवस्था व उतरा हुआ चेहरा देख कर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

वह सोचने को मजबूर हो गई थी कि बेटी की इस अवस्था के लिए क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है? वह तो इतनी बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूम रही है और उन की बेटी की ऐसी दयनीय दशा.

उस दिन काफी कहासुनी व हंगामे के बाद शची बेटी को जबरदस्ती अपने साथ ले कर जाने लगी तो सुमित्रा ने सारे रिश्ते तोड़ने की बात कह दी थी.

गिद्ध- भाग 1: क्यों परिवार के होते हुए भी अकेली पड़ गई भगवती

घर की बुजुर्ग महिला भगवती की मृत्यु हुए 20 घंटे से ज्यादा बीत चुके थे. बिरादरी के सभी लोगों के इकट्ठा होने का इंतजार करने में पहले ही एक दिन निकल चुका था. जब भी कोई नया आता, नए सिरे से रोनाधोना शुरू हो जाता. फिर खुसुरफुसर शुरू हो जाती. एक तरफ महल्ले वालों का जमावड़ा लगा था, दूसरी तरफ गांवबिरादरी के लोग जमा थे. केवल घर के सदस्य ही अलगअलग छितरे पड़े थे. वे एकदूसरे से आंख चुराना चाहते थे.

‘‘मृत्यु तो सुबह 8 बजे ही हो गई थी, पर महल्ले में 12 बजे खबर फैली,’’ पड़ोसिन रुक्मणि बोली.

‘‘भगवती अपने बहूबेटों से अलग रहती थीं. जब कभी दूसरों से मिलतीं तो अकसर कहतीं, ‘जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा. अपने कामों को खुद भुगतेंगे, मुझे क्या मेरा गुजारा हो रहा है. मन आया तो पकाया, नहीं तो दूधफल खा कर पड़े रहे,’’’ दूसरी पड़ोसिन लीला बोली.

‘‘बेचारी बहुत दुखी महिला थीं, चलो मुक्ति पा गईं,’’ रुक्मणि ने कहा तो लीला बोली, ‘‘हां, मुझ से भी कहती थीं कि पूरी जिंदगी एकएक पैसा जोड़ने में अपनी हड्डियां गला दीं. आज इसी धन को ले कर बेटी, बेटे सभी का आपस में झगड़ा है. सभी को दूसरों की थाली में घी ज्यादा दिखता है. सोच रही हूं, किसी वृद्धाश्रम में एक कमरा ले कर पड़ी रहूं.’’

सब लोग मृतदेह को बाहर ले आए. कपड़े में लपेटते समय बड़ी बेटी उठ कर आगे आई तो पड़ोसिन रुक्मणि ने उसे रोक दिया, ‘‘न, केवल बहुएं ही इस कार्य को करेंगी, बेटियां नहीं. जाओ, कैंची और एक चादर ले कर आओ.’’

चादर की ओट ले कर बहुएं कपड़े काट कर उतारने लगीं तो चादर का एक छोर पकड़े दूसरी पड़ोसिन लीला से रहा न गया. उस ने कहा, ‘‘पहले इन के जेवर तो निकाल लो.’’

चादर का दूसरा छोर पकड़े रुक्मणि बोली, ‘‘जेवर तो लगता है पहले ही उतार लिए, क्यों बड़ी बहू?’’

‘‘हम क्या जानें? यहां तो बड़की जिज्जी की मरजी चलती है. मां के मरते ही पहले गहनों पर ही झपटीं,’’ बड़ी बहू दोटूक बात करती हैं, न किसी बड़े का लिहाज, न समय का.

लीला ने रुक्मणि को इशारों से चुप रहने को कहा. उन दोनों को इस घर के सारे राज पता थे. जरा सी तीली दिखाई नहीं कि बम फट पड़ेगा. आरोपप्रत्यारोप लगने शुरू होंगे और अर्थी ले जाने का काम एक तरफ धरा रह जाएगा, कोर्टकचहरी भी यहीं हो जाएगी.

अर्थी विदा हो गई, आंगन से सभी पुरुष सदस्य जा चुके थे. घर की बहुएं साफसफाई में लग गईं. लीला और रुक्मणि आंगन के एक कोने में पड़ी कुरसियों पर बैठ गईं. लीला अपने आसुंओं को पोंछ कर बोली, ‘‘भगवती मुझ से हमेशा कहती थीं, ‘क्यों किराए के घर में रहती है, अपना घर बना ले. मैं ने भी तो किसी तरह एक कमरे का मकान जोड़ा था. फिर धीरेधीरे कमरे जुड़ते गए और इतना बड़ा घर बन गया.’’’

‘‘हां, मुझे भी समझाती रहती थीं कि तेरे पास घर तो है मगर कुछ पैसे जमा कर और गहने बनवा ले. वक्तबेवक्त यही धन काम आता है,’’ रुक्मणि बोली.

‘‘लगता है यही सब अपने बच्चों के दिमाग में भी भरती रहीं. तभी तो एकएक पैसे के पीछे इन के घर में उठापटक होती रहती है,’’ लीला बोली.

‘‘हां, सही कह रही हो तुम. याद है पिछले महीने जब पानी की टंकी का पंप खराब हो गया था तो इन के बड़े बेटे ने पानी का टैंकर मंगवाया. जब इन्होंने अपनी कामवाली को उस टैंकर का पानी लेने भेजा तो बहू ने साफ मना कर दिया. अपनी दोनों टंकी फुल करवा लीं और उसे टका सा जवाब दे दिया कि ‘हम ने अपने पैसों से पानी मंगाया है, कोई खैरात नहीं है.’ उस दिन यह सब बताते हुए भगवती रो पड़ी थीं,’’ रुक्मणि बोली.

लीला तुरंत बोल पड़ी, ‘‘मैं ने भी कहा था कि चलो जैसे भी हैं, तुम्हारे बच्चे हैं. क्यों इस बुढ़ापे में अकेले खटती हो, साथ में रहो.’’ इस पर भगवती ने बताया, ‘जब बेटों के साथ में रहती थी, तब भी दूध, फल, सब्जी, दालें अपनी तरफ से मंगा कर रखती थी. फिर भी किसी मेहमान को अपने मन से भोजन करने को नहीं कह सकती थी. एक दिन सिलबट्टे पर मसाला पीस रही थी तो मझली ने टोक दिया. मैं ने जरा सा डपटा तो बट्टा उठा कर मुझ पे तान दिया. उस दिन से मैं ने अपनी रसोई ही अलग कर ली. जब अपने रुपयों का ही खाना है तो क्यों न चैन से खाऊं.’’’

लीला ने आगे कहा, ‘‘मैं ने तो यह सब सुन कर एक दिन कह दिया, ‘भगवती, देख मैं ने भले ही घर नहीं बनाया मगर अपनी जवानी में मनपसंद खाया भी और पहना भी. बच्चों के लिए जायदाद नहीं जोड़ी बल्कि बच्चों को उच्चशिक्षा दी है. अब वे शहरों में अपना कमाखा रहे हैं. आपस में दोनों भाइयों के प्रेमसंबंध बने हुए हैं. हमें तो पैंशन मिलती ही है. जब तक हाथपैर चलते हैं, यहीं रहेंगे. जब परेशानी होगी, उन के पास चले जाएंगे. तुम्हारे घर में तो यही जोड़ी हुई संपत्ति बच्चों के बीच झगड़े की जड़ बन गई है.’’’

‘‘यह सुन कर भगवती बोल पड़ी थी, ‘तुम ठीक कहती हो लीला बहन, लगता है मेरी परवरिश में ही कुछ कमी रह गई है जो इन्हें विरासत में संपत्ति तो मिली, पर संस्कार नहीं मिले.’’’

‘‘आंटी चाय,’’ यह सुन कर दोनों की बातों को विराम लग गया. सामने भगवती की भतीजी चाय का जग और गिलास थामे खड़ी थी.

दोनों हड़बड़ा कर उठ गईं. वे चाय पीने से इनकार कर अपने घरों को चल पड़ीं.

दोनों पड़ोसिनों के जाते ही घरवाले सक्रिय हो गए.

‘‘जरा इधर आइए,’’ उषा, दीनानाथ की पत्नी, ने उन्हें अंदर के कमरे में चलने को कहा.

उन्होंने एक नजर पुराण श्रोताओं पर डाली, फिर उठ कर अंदर अपनी मां के कमरे में आ गए. अंदर बक्सा, अलमारी व दूसरी चीजें उलटीसीधी बिखरी हुई थीं.

‘‘यह क्या है?’’ वे गुस्से से तमतमाए.

‘‘बड़की जिज्जी संग ये दोनों मिल कर अलमारी खोल कर साड़ी, रुपया खोजती रहीं. फिर अपना मनपसंद सामान उठा कर ले गईं.’’

‘‘दीदी, अम्मा के पास एक जोड़ी कंगन, एक जोड़ी कान के टौप्स, हार और चांदी की करधनी थी, जिन में से करधनी तो कल हमें मिल गई. बाकी जेवर बड़की जिज्जी उठा ले गई हैं,’’ यह संध्या थी, उषा की देवरानी.

‘‘तुम ने करधनी कैसे ले ली? जब सास बीमार थीं तब तो झांकने भी न आईं,’’ उषा उलझ पड़ी.

‘‘उस से क्या होता है? अम्मा के सामान पर सब का हक है,’’ संध्या गुर्राई.

‘‘सेवा के समय हक नहीं था, मेवा के समय सब को अपना हक याद आ रहा है,’’ उषा चिल्ला पड़ी.

‘‘क्या पता? तुम क्याक्या पहले ही ले चुकी हो?’’ संध्या क्रोधित हो उठी.

दोनों को झगड़ता देख दीनानाथ बीचबचाव करते हुए बोले, ‘‘बाहरी कमरे में बिरादरी जमा है. अंदर तुम लोगों को झगड़ते शर्म नहीं आती. मैं इस कमरे में ताला

जड़ देता हूं. तेरहवीं निबट जाने दो, फिर खोलेंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं? सैयां भए कोतवाल अब डर काहे का, चाबी जब अपनी अंटी में ही खोंस लोगे तो रातबिरात कुछ भी हड़प लोगे,’’ संध्या जब भी मुंह खोलती है, जहर ही उगलती है.

‘‘तुम दोनों को जो करना है करो, मुझे बीच में मत घसीटो,’’ यह कह कर दीनानाथ उलटेपांव बैठकी में लौट गए.

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